________________
अरतिपरिषह
अर्थ
अरति परिषह--स सि /8/8/४२२/७ संयतस्येन्द्रियेष्टविषय- अरिणा-१ नरक की पाँचवी पृथ्वी-दे. धूमप्रभा (नरक/५/१)। सम्बन्ध प्रति निरुत्सुकस्य गीतनृत्यवादित्रादिविरहितेषु शून्यागार- २ पूर्व विदेहस्थ कच्छ देशकी मुख्यनगरी-दे लोका/२। देवकुल तरु कोटर शिलागुहादिषु स्वाध्यायध्यानभावनारतिमास्कन्दतो अरुण-१. सौधर्म स्वर्गका छठा पटल व इन्द्रक-दै. स्वर्ग/५/३, दृष्ट श्रुतानुभूतर तिस्मरणतत्कथाश्रवणकामशरप्रवेश निर्विवरहृदयस्य प्रा
२. लौकान्तिक देवोका एक भेद-दे. लौकातिक, ३. दक्षिण अरुणवर णिषु सद। सदयस्यारतिपरिषजयोऽवसेय । =जो सयत इन्द्रियो
द्वीपका रक्षक देव-दे, भवन/४, ४. दक्षिण अरुणवर समुद्रका रक्षक के इष्ट विषय सम्बन्धके प्रति निरुत्सुक है, जो गीत, नृत्य और वादित्र
देव-दे. भवन/४। आदिमे रहित शून्यघर, देवकुल, तरकोटर, और शिलागुफा आदिमे स्वाध्याय, ध्यान और भावनामे लीन है, पहिले देखे हुए सुने हुए
अरुणप्रभ-१. उत्तर अरुणवर द्वीपका रक्षक देव-दे. भवन/४ और अनुभव क्येि हुए विषय भोगके स्मरण, विषय भोग सम्बन्धी
२. उत्तर अरुणवर समुद्र का रक्षक देव-दे. भवन/४ कथाके श्रवण और कामशर प्रवेशके लिए जिसका हृदय निश्छिद्र है
अरुणमणि-आप एक कवि थे। आपने 'अजित पुराण' ग्रन्थ रचा। और जा प्राणियोके ऊपर सदाकाल सदय है, उसके अरति परिषहजय समय-वि. १७१६ (ई. १६५६) में उपरोक्त ग्रन्थ पूर्ण किया था। (म. जानना चाहिए। (रा वा/8/8/११/६०६/३६ ) चा. सा /११५/३) पु/प्र २०/पं. पन्नालाल) (ती/४/८३)। २ अरति व अन्य परिषहोमें अन्तर ।
अरुणवर-मध्यलोकका नवम द्वीप व सागर-दे. लोक/५ ।
अरुणा-पूर्व आर्य खण्डस्थ एक नदी-दे. मनुष्य/४ । रा वा /8/8/१२/६१०/३ स्यादेतत-श्रुधादीना सर्वेषामरतिहेतुत्वाद पृथगरतिग्रहणमनर्थ कमिति । तन्न, कि कारणम्। क्षुधाद्यभावेऽपि
अरुणी-विजयाईकी उत्तर श्रेणीका एकनगर- दे. विद्याधर । माहादयात्तत्प्रवृत्त । मोहोदयाकुलितचेतसा हि क्षुधादिवेदनाभावेऽपि अरुणीवर-मध्यलोकका नवम द्वीप व सागर-दे. लोक/४१। सयमेऽरतिरुपजायते । - प्रश्न-क्षुधा आदिक सर्व हो परिषह अरतिके हेतु हानेके कारण अरति परिषहका पृथक् ग्रहण अनर्थ क है । उत्तर--
अरूपत्व-दे मूर्त। नही, क्योकि, क्षुधादिके न होने पर भी मोह कर्मके उदयसे होनेवाली अरूपी-दे. मूर्त। सयमको अरति का संग्रह करनेके लिए 'अरति' का पृथक् ग्रहण अर्ककोति--(म. पु./सर्ग/श्लो न.)-भरत चक्रवर्तीका पुत्र था। किया है।
४७/१८६-१८७ । सुलोचना कन्याके अर्थ सेनापति जयसेन-द्वारा युद्धमें अरति प्रकृति-स सि /८/६/३८५/१३ यदुदयाद्देशादिप्वौत्सुक्य
परास्त किया गया /४४/७१,७२,३४४-४५। गृहपति अकम्पन-द्वारा सा रति । अरतिस्तद्विपरीता। जिसके उदयसे देश आदिमें
समझाया जानेपर 'अक्षमाला' कन्याको प्राप्तकर सन्तुष्ट हुआ/४५/१०. उत्सुकता होती है, वह रति है। अरति इससे विपरीत है। (रा. ३० । इसीसे सूर्यवशकी उत्पत्ति हुई । (प. पु.(५/४), (प. पु./५/२६०वा/८/६/४/५७४/१७ ) (ध १२/४,२,८,१०/२८५४६ )
२६१) ह पु./३/१-७)। अरतिवाक-दे वचन
मल-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर । अरनाथ-१. (म. पु/६५/श्लो नं)-पूर्वके तीसरे भवमें कच्छदेश- अर्चट-आप एक बौद्ध नैयायिक थे। अपर नाम धर्माकरदत्त था। को लेमपुरी नगरीके राजा 'धनपति' थे। २ पूर्व के भवमें जयन्त
आप धर्मोत्तरके गुरु थे। कृतियॉ-१. हेतु बिन्दु टीका. २ क्षणभङ्गविमानमें अहमिन्द्र हुए। ८-१। वतमानभवमें १८वे तीर्थकर हए। सिद्धि, ३. प्रमाणद्वय सिद्धि । समय-ई श ७-८/. (सि वि प्र (विशेष दे तीर्थकर/५) (युगपत सर्व भव दे म पु/६५/५०)
३२/५, महेन्द्रकुमार )। २. भावी बारहवे तोथंकरका भी यही नाम है। अपर नाम पूर्व- अर्चन--(दे पूजा/४/१ मे ध.८)। बुद्धि है । ( विशेष दे तीर्थकर/५)
अर्जन-(पा पु /सर्ग/श्लो न ) पूर्व के तीसरे भवमें सोममूति आरजय--१. विजयाध को उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे विद्याधर, ब्राह्मणका पुत्र था /२३/८२ । पूर्व के दूसरे भव में अच्युत स्वर्ग में देव) २. विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे विद्याधर ।
२३/१०६ । वर्तमान भवमे राजा पाण्डुका कुन्ती रानोसे पुत्र उत्पन्न अरि-ध. १/१,१,१/४२/६ नरकतिर्यक्कुमानुष्यप्रेतावासगताशेषदु ख- हुआ/८/१७०-७३ । अपर नाम धन जय व धृष्टद्य म्न भी था/११/२१२ । प्रातिनिमित्तत्वादरिर्मोह । नरक, तिर्यच, कुमानुष और प्रेत इन
द्रोणाचार्यसे शब्दवेधनी धनुविद्या पायी/८/२०८-२१६ । तथा स्वयवरपर्यायोमे निवास करनेसे होनेवाले समस्त दु.खोकी प्राप्तिका निमित्त
में गाण्डीव धनुष चढाकर द्रौपदीको वरा/१५/१०५ । युद्धमें दुर्योधन कारण होनेसे मोहको 'अरि' अर्थात् शत्रु कहते है। (विशेष दे.
आदिक कौरवोको परास्त किया/१६/११ । अन्तमें दीक्षा धारणकर
ली। र्योधनके भानजेकृत उपसर्ग को जीत मोक्ष प्राप्त किया/२५/१२मोहनीय/१/५)
१७.५१-१३३ । अरिकेसरी-आप चालुक्यवशी राजा थे। इनका पुत्र 'व'ग' था
अर्जन (भारतीय इतिहास १/१८६)-आप एक कवि थे, अपर नाम जो कृष्णराज तृतीयके आधीन था। तदनुसार इनका समय वि.
अश्वमेध दत्त था-समय ई. पू १५०० । ६१८ (ई. ६४६-६७४) आता है। इनके समयमें कन्नड जैन कवि
अर्जन वर्मा-(द सा./प्र. ३६-३७/नाथूरामजी प्रेमी) आप सुभट'पम्प' ने 'विक्रमार्जन विजय' नामका ग्रन्थ लिखकर पूरा किया था। ( यशस्तिलक चम्पू/प्र. २०/-प. सुन्दरलाल )
वर्माके पुत्र और देवपाल के पिता थे। मालवा (मगध) के राजा थे । अरिष-१. लौकान्तिक देवोका एक भेद-दे. लोकांतिक, २ ब्रह्म
धारा व उज्जैनी नगरी राजधानी थी। समय-ई०१२०७-१२१८ ।
-बिजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे विद्याधर । स्वर्गका प्रथम पटल - दे. स्वर्ग/५/३। ३. रुचक पर्वतस्थ एक कूटदे. लोक/५
अर्थअरिष्पर-पूर्व विदेहस्थ कच्छक देशको मुख्य नगरी-दे. लोक/२
१. अर्थ = जो जाना जाये
___ स.सि./१२/८ अर्यत इत्यर्थो निश्चीयत इति यावत् । - जो निमय अरिष्टसंभवा-आकाशोपपन्न देवोका एक भेद-दे, देव II/21
किया जाता है उसे अर्थ कहते है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org