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इतिहास
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६. दिगम्बर जैनाभासौ संघ
वाला कोई भी जैन संघ नहीं है। सम्भवत साबध का अर्थ भी (यहाँ) कुछ और ही हो। ४३॥ ४-तात्पर्य यह है कि यह संघ मुल दिगम्बर सघसे विपरीत नहीं है। जैनाभास करना तो दूर यह आचार्योंको अत्यन्त प्रमाणिक रूपसे सम्मत है।
३ गच्छ तथा शाखाये इस सबके अनेको गच्छ है, यथा-१ नन्दि अन्वय, २ उरुकुल गण, ३ एरेगित्तर गण. ४ मूलितल गच्छ इत्यादि । (द सा /प्र ४२प्रेमीजी)।
४ काल निर्णय द. सा. मू.२८-१चसए छब्बीसे विकमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिण
महुरादो द्राविड संघो महामोहो ।२८। विक्रमराजकी मृत्यु के ५२६ वर्ष बोतनेपर दक्षिण मथुरा नगर में (पूज्यपाद देवनन्दिके शिष्य श्री बज्रनन्दिके द्वारा) यह र घ उत्पन्न हुआ।
५ गुर्वावली इस सबके नन्दिगण उरुङ्गलान्वय शाखाकी एक छोटी सी गुर्वावली
उपलब्ध है । जिसमे अनन्तवीर्य, देवकीर्ति पण्डित तथा वादिराजका काल विद्वद सम्मत है । शेषके काल इन्हींके आधार पर कल्पित किये गए है। (सि वि/प्र.७५५ महेन्द्र), (ती, ३/४०-४१,८८-१२) ।
सिद्धान्तसेन (ई. ६४०-१०००)
गोणसेन पण्डित (ई.६६०-१०००)
श्रीपाल (ई १७५-१०२५) अनन्तवीर्य
(जैन नैयायिक)
३ द्राविड़ संघ दे. सा / २४ २७ सि रिपुज्जपादसीसो दावि डसंघस्स कारगो दुट्ठो। णामेण बज्जण दी पाहुडवेदी महासत्तो।२४। अप्पासुयचणयाणं भवरखणदो बज्जिदो सुणि देहि । परिरइय विवरीत विसेसयं बग्गणं चोज्ज १२५ बीएसु ण त्थि जोवो उन्भसण णत्थि फासुगणस्थि । सबज्जण हुमण्णइ ण गणई गिहकप्पिय अठ।२६।कच्छ खेत्त वसहि वाणिज्ज कारिऊण जीवतो । ण्हतो सचिलणीरे पाव पउर स संजे दि १२७) - श्री पुज्यपाद या देवनन्दि आचार्यका शिष्य वज्रनन्दि द्रविडसंघको उत्पन्न करने वाला हुआ। यह समयसार आदि प्राभृत ग्रन्थोंका ज्ञाता और महान पराक्रमौ था। मुनिाराजोने उसे अप्रामुक या सचित्त चने खानेसे रोका, परन्तु वह न माना और बिगड कर प्रायश्चित्तादि विषयक शास्त्रोकी विपरीत रचनाकर डाली ।२४-२५॥ उसके विचारानुसार बीजोमे जीव नही हाते,जगतमकोई भी वस्तु अप्रासुक नही है । वह नतो मुनियों के लिये खडे खडे भोजनकी विधिको अपनाता है, न कुछ सावध मानता है और न ही गृहकल्पित अर्थको कुछ गिनता है ।२६। कच्छार खेत वसतिका और वाणिज्य आदि कराके जीवन निर्वाह करते हुए उसने प्रचुर पापका सग्रह किया। अर्थात् उसने ऐसा उपदेश दिया कि मुनिजन यदि खेती करावे, वतिका निर्माण करावे, वाणिज्य करावे और अप्रामुक जलमे स्नान करें तो कोई दोष
नहीं है। द, सा./टो ११ द्राविडा' ... सावद्य' प्रासुक च न मन्यते, उदभोजन निराकुर्वन्ति । द्रविड स धके मुनिजन सावद्य तथा प्रासुकको नही
मानते और मुनियोको खडे होकर भोजन करनेका निषेध करते है। द, सा./प्र ५४ प्रेमी जी-"द्रविड सघके विषयमें दर्शनसारकी वनि
काके कर्ता एक जगह जिन संहिताका प्रमाण देकर कहते है कि 'सभूषणं सबस्त्रस्यात् बिम्ब द्राविडसघजम्' अर्थात द्राविड सघकी प्रतिमाये वस्त्र और आभूषण सहित होती है। न मालम यह जिनसंहिता किसकी लिखी हुई और कहाँ तक प्रामाणिक है । अभी तक हमे इस विषयमे बहुत सदेह है कि द्राविड संघ सग्रन्थ प्रतिमाओका पूजक होगा।
२ प्रमाणिकता यद्यपि देवसेनाचार्यने दर्शनसार की उपर्युक्त गाथाओं में इसके प्रवर्तक
वज्रनन्दिके प्रति दुष्ट आदि अपशब्दोका प्रयोग किया है, परन्तु भोजन विषयक मान्यताओक अतिरिक्त मूलसबके साथ इसका इतना पार्थक्य नहीं है कि जेनाभासी कहकर इसको इस प्रकार निन्दा की जाये। (दे. सा./प्र.४५ प्रेमोजो) इस बात की पुष्टि निम्न उद्धरणपर से होती हैह. पु. १ ३२ वज्रसूरेविचारण्य' सहेत्वोर्वन्धमोक्षयो । प्रमाण धर्मशास्त्राणा प्रवक्तृणामिवोक्तय ।३२। =जो हेतु सहित विचार करतो है, वज्रनन्दिको उक्तियों धर्मशास्त्रोका व्याख्यान करने वाले गणधरोकी
उक्तियोके समान प्रमाण है। द,सा/प्र. पृष्ठ संख्या (प्रेमी जी)-इसपर से यह अनुमान किया जा
सकता है कि हरिवश पुराणके कर्ता श्री जिनसेनाचार्य स्वयं द्राविड सघी हो, परन्तु वे अपने सधके आचार्य बताते है । यह भी सम्भव है कि द्राविड संघका हो अपर नाम पुन्नाट सघ हो क्यो कि 'नाट' शब्द कर्णाटक देशके लिये प्रयुक्त हाता है जो कि द्राविड देश माना गया है। द्रमिल सघ भी इसोका अपर नाम है।४२। २ (कुछ भी हो, इसकी महिमासे इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योकि) विद्यविश्वेश्वर, श्रोपालदेव, वैयाकरण दयापाल, मतिसागर, स्यावाद विद्यापति श्री वर्गदराज सूरि जैसे बडे-बडे विद्वान इस सघमे हुए है। ॥४२॥ ३-तीसरी बात यह भी है कि आ देवसेनने जितनी बातें इस संघके लिये कही है, उनमें से बीजोको प्रासुकमाननेके अतिरिक्त अन्य बातोका अर्थ स्पष्ट नही है, क्योकि सावध अर्थात् पापको न मानने
देवकीर्ति पण्डित (ई ६६०-१०४०) गुणकीर्ति
(सिद्धान्त भट्टारक) वादिराज २
(ई १०१०-१०६५) ४ काष्ठा संघ जैनाभासी सघोमे यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसका कुछ एक अन्तिम
अवशेष अब भी गोपुच्छकी पीछीके रूपने किन्ही एक भट्टारको में पाया जाता है। गोपुच्छको पीछीको अपना लेने के कारण इस सघ का नाम गोपुच्छ संघ भी सुनने में आता है। इसकी उत्पत्ति के विषय मे दो धारणाये है। पहलीके अनुसार इसके प्रवर्तक नन्दिसध बलात्कार गणमें कथित उमास्वामीके शिष्य श्री लोहाचार्य तृ. हुए, और दूसरीके अनुसार पचस्तूप संधमें प्राप्त कुमार सेन हुए। सल्लेखना वतका त्याग करके चरित्रसे भ्रष्ट हो जानेको कथा दोनों के विषय में प्रसिद्ध है, तथापि विद्वानोको कुमार सेनवाली द्वितीय मान्यता ही अधिक सम्मत है।
प्रयम दृष्टि नन्दिसघ बलात्कार गणको पट्टावली । श्ल, ६७-(ती. ४/३६३) पर
उद्धृत)-" लोहाचार्यस्ततो जातो जात रूपधरोऽमरै । तत पट्टद्वयी जाता प्राच्युदीच्युपलक्षणात ६-७) = नन्दिसंघमें कुन्दकुन्द उमास्वामी (गृद्धपिच्छ) के पश्चात् लोहाचार्य तृतीय हुए। इनके कालसे संघमें दा भेद उत्पन्न हो गए। पूर्व शाखा (नन्दिसघकी रही)
और उत्तर शाखा (काष्ठा सघकी ओर चली गई। ती. ४/३५१ दिल्लीकी भट्टारक गद्दियोसे प्राप्त लेखो के अनुसार इस सघको स्थापनाका सक्षिप्त इतिहास इस प्रकार है - दक्षिण देशस्थ भहलपुर में विराजमान श्री लोहाचार्य तृ. को असाध्य रोगसे आक्रान्त हो जानेके कारण, श्रावकोने मूच्छविस्थामें याबुज्जीवन संन्यास मरण की प्रतिज्ञा दिला दी। परन्तु पीछे रोग शान्त हो गया। तब
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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