Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 475
________________ एकान्त २. एवकारको प्रयोग विधि मात्रापधारणेनान्याशेषधर्मनिराकरणप्रवणः।- सम्यगेकांत तो प्रमाण सिद्ध अनेक धर्मस्वरूप जो वस्तु है, उस वस्तुमे जो रहने वाला धर्म है, उस धर्मको अन्य धर्मोंका निषेध न करके विषय करनेवाला है। और पदार्थों के एक ही धर्मका निश्चय करके अन्य सम्पूर्ण धर्मों का निषेध करनेमें जो तत्पर है वह मिथ्या-एकान्त है। (विशेष दे विकलादेश)। ३. एकान्त' शब्दका सम्यक् प्रयोग प्र.सा./मू.५६ जादं सय समत्त जाणमगंतत्थवित्थडं विमल । रहिय तु ओग्गहादिहि सुहं ति एगतिय भणियं ॥५६॥ = स्व जात, सर्वांगसे जानता हुआ तथा अनन्त प्रदेशो में विस्तृत, विमल और अवग्रह आदिसे रहित ज्ञान एकान्तिक सुख है, ऐसा कहा है। प्र.सा /मू.६६ एगतेण हि देहो सुह ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा। बिसयबसेण दु सोक्रव दुक्व वा हवदि सयमादा ॥६६॥ -एकान्तसे अर्थात् नियमसे स्वर्ग में भी आत्माको शरीर सुख नही देता, परन्तु विषयोक वशसे सुख अथवा दुख रूप स्वय आत्मा होता है । स श ७१ "मुक्तेरेकान्तिको तस्य चित्ते यस्याचला धृतिः। तस्य नै कान्तिको मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृति ॥ -जिस पुरुषके चित्तमें आत्मस्वरूपकी निश्चल धारणा है, उसकी एकान्तसे अर्थात अवश्य मुक्ति होती है। तथा जिस पुरुषकी आत्मस्वरूपमें निश्चल धारणा नही है उसको एकान्तमे मुक्ति नहीं होती है। ध.१/१,१,१४१/३६२/७ सव्ययस्यानन्तस्य न क्षयोऽस्तीत्येकान्तोऽस्ति । -- व्यय होते हुए भी अनन्तका क्षय नही होता है, यह एकान्त नियम है। स सा /आ. १४ सयुक्तत्वं भूतार्थ मप्येकान्ततः स्वयबोधवीजस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् । = यद्यपि मोह सयुक्तता भूतार्थ है तो भी एकान्त रूपसे स्वयं बोध बोजस्वरूप चैतन्य स्वभावको लेकर अनुभव करनेसे वह अभूतार्थ है। स.सा /आ.२७२ प्रतिषिध्य एव चार्य, आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात् पराश्रितव्यबहारनयस्यै कान्तेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रियमाण त्वाच्च ।" = और इस प्रकार यह व्यवहार-नय निषेध करने योग्य ही है। क्योंकि, आत्माश्रित निश्चयनयका आश्रय करने वाले ही मुक्त होते है और पराश्रित व्यवहार नयका आश्रय तो एकान्तत मुक्त नहीं होनेवाला अभव्य ही करता है। प्र.सा./त प्र.२१६ तस्य सर्वथा तदविनाभावित्वप्रसिद्धचदै कान्तिकाशुद्धोपयोगसद्भावस्यैकान्तिकबन्धत्वेन छेदत्वमेकान्तिकमेव । - ऐसा जो परिग्रहका सर्वथा अशुद्धोपयोगके साथ अविनाभावित्व है उससे प्रसिदध होनेवाले एकान्तिक अशुद्धोपयोगके सद्भावके कारण परिग्रह तो एकान्तिक बन्धरूप है। ४. सर्वथा शब्दका सम्यक् प्रयोग मो.पा./मू ३२ इदि जाणि ऊण जोई ववहार चयइ सव्वहा सव्व । झायइ परमप्पाणं जह भणिय जिण वरिदेण ॥३२॥ -ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जानकरि योगी ध्यानी मुनि है सो सर्व व्यवहारको सर्वथा छोडे है और परमात्मको ध्यावै है। कैसे ध्यावै है-जैसे जिनवरेन्द्र तीर्थकर सर्वज्ञ देवने कह्या है, तैसे ध्यावै है। इ उ. २७ एकोऽह निर्मम' शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचर'। बाह्या संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥२७॥ - मै एक हूँ, निर्मम हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ. योगीन्द्रोके गोचर हूँ। इनके सिवाय जितने भी रागद्वेषादि संयोगी भाव है वे सब सर्वथा मुझसे भिन्न है। स, सा/आ. ३१ स्पर्शादीन्द्रियार्थांश्च सर्वथा स्वत' पृथक्करणेन विजित्योपरतसमस्तज्ञेयज्ञायकसंकरदोषत्वेन परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मान संचेतयते स खलु जितेन्द्रियो जिन इत्येका निश्च यस्तुति.। = इस प्रकार जो मुनि स्पर्शादि द्रव्येन्द्रियों व भावेन्द्रियो तथा इन्द्रियोंके । विषयभूत पदार्थोंको सर्वथा पृथक करनेके द्वारा जीतकर ज्ञयज्ञायक स करदोषके दूर होने से सर्व अन्यद्रव्योसे परमार्थत भिन्न ऐसे अपने आत्माका अनुभव करते है वे निश्चयसे जितेन्द्रिय जिन है। इस प्रकार एक निश्चय स्तुति हुई। स सा /आ २६६/क १८४ एकश्चितश्चिन्मय एव भागे, भावा परे ये किल ते परेषाम् । ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो, भावा परे सर्वत् एव हेया ॥१८४॥ = चेतन्य तो एक चिन्मय ही भाव है, और जो अन्य भाव है वे वास्तवमें दूसरोके भाव है। इसलिए चिन्मय भाव ही ग्रहण करने योग्य है, अन्य भाव सर्वथा त्याज्य है। प्र सा /त प्र १६२ ममानेकपरमाणुद्रव्यै कपिण्डपर्यायपरिणामस्या रनेक परमाणुदव्यै कपिण्डपर्यायपरिणामात्मक्शरीरकर्तृत्वस्य सर्वथा विरोधात्। मैं अनेक परमाणु-द्रव्योके एक पिण्डरूप परिणामका अकर्ता हू, (इसलिए) मेरे अनेक परमाणु द्रव्योके एकपिण्ड पर्यायरूप परिणामात्मक शरीरका कर्ता होनेमे सर्वथा विरोध है। प्रसा/त प २१६ तस्य सर्वथा तदविनाभावित्वप्रसिदि धि । म पग्ग्रिह___ का सर्वथा अशुद्धोपयोगके साथ अविनाभावित्व है। यो सा /अ ६/३५ न ज्ञानज्ञानिनोर्भेदो विद्यते सर्वथा यतः । ज्ञाने ज्ञाते ततौ ज्ञानी ज्ञातो भवति तत्त्वतः ॥३५॥ - ज्ञान और ज्ञानीका परस्पर में सर्वथा भेद नहीं है, इसलिए जिस समय निश्चय नयसे ज्ञान जान लिया जाता है उस समय ज्ञानी आत्माका भी ज्ञान हो जाता है। २. एवकारकी प्रयोग विधि १. एवकारका सम्यक् प्रयोग पप्रम १/६७ अप्पा अप्पु जि पर जि परु अप्पा परु जिण होइ। परु जि कयाइ वि अप्प णविणियमे पमणहि जोइनिज सस्तु आत्मा ही है, देहादि पदार्थ पर हो है। आत्मा तो परद्रव्य नहीं होता और परद्रव्य भी कभी आत्मा नहीं होता। ऐसा निश्चय कर योगीश्वर कहते है। रा वा १/७/१४/38/१६ अधिकरण म आत्मन्येवासौ तत्र तत्फलदर्शनात, कर्मणि कर्म कृते च कायादावुपचारत । - (आस्रव का) अधिकरण आत्मा ही होता है, क्योकि कर्म-विपाक उसमें ही दिखाई देता है। कर्म निमित्तक शरीरादि उपचारसे ही आधार है। स सा./आ १०६ पुद्गल कर्मण किल पुद्गलद्रव्य मेवैकं कतृ । अर्थते पुद्गलकर्मविपाकविकल्पादत्यन्तमचेतना सन्तस्त्रयोदशकार केवला एव यदि व्याप्यव्यापकभावेन किचनापि पुद्गलकर्म कुर्युस्तदा कुर्यु रेव, कि जीवस्यात्रापतितम् । वास्तव में पुद्गलकमका, पुद्गलद्रव्य ही एक कर्ता है, . अब, जो पुद्गल कर्म के विपाकके प्रकार होनेसे अत्यन्त अचेतन है ऐसे ये तेरह (गुणस्थान) कर्ता ही, मात्र व्याप्यव्यापक भावमे यदि कुछ भी पुद्गल का कर्म करे तो भले कर्म करे, इसमें जीवका क्या आया। स सा./आ २६५ अध्यवसानमेव बन्धहेतुने तु बाह्यवस्तु, तस्य बन्धहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थत्वात् । अध्यवसान ही बन्धका कारण है बाह्य वस्तु नही, क्योकि बन्धका कारण जो अध्यवसान है. उसके ही हेतुपना चरितार्थ होता है । (स सा./आ.१५६/क. १०६ १०७) । (स सा/आ २७१/क १७३)। स सा /आ ७१ ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोध सियत । - ज्ञानमात्र से ही बन्धका निरोध सिद्ध होता है। स सा /आ २६७ यो हि नियतस्वलक्षणावलम्बिन्या प्रज्ञया प्रविभक्तश्चेतयिता सोऽयमहं, ये त्वमी अवशिष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवह्रियमाणा भावा', ते सर्वऽपि चेतयितृत्वस्य व्यापकस्य व्याप्यत्वमनायान्तोऽत्यन्तं मत्तो भिन्ना । ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृह्णामि । = नियत स्वलक्षणका अवलम्बन करनेवाली प्रज्ञाके द्वारा भिन्न किया गया जो यह चेतक है, सो यह मै हूँ, और अन्य स्वलक्षणोसे लक्ष्य जो यह शेष व्यवहाररूपभाव है, वे सभी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506