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परिशिष्ट
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मूलसंघ विचार
कर दिया गया जबकि मलस की पट्टावली में आपकी सत्ता वी नि ६१४ तक पायी जाती है। यद्यपि इसका उत्तर खोजने की आवश्यकता विद्वानोंको आजतक प्रतीत नही हुई है तदपि इस विषयमें अपनी
ओरसे में एक क्लिष्ट कल्पना प्रस्तुत करता हूँ। इस शकाका निवारण करने के लिये मुझे इन के विषयमे प्रसिद्ध वह कथा याद आती है जिसके अनुसार एक कुम्हार को कन्यापर आसक्त होकर आप चरित्रभ्रष्ट हो गए थे। हो सकता है कि यह घटना आचार्य पद प्राप्ति से ४ वर्ष पश्चात वी नि ५७६ में घटित हुई हो और उसके कारण
आपका आचार्यत्व अकस्मात समाप्त हो गया हो। यहाँ पुन यह शंका होतो है कि ऐसा होनेपर जब इनका साधुपद
ही समाप्त हो गया तो नन्दिसघको पट्टावलीके कर्ता आ इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमे वी नि. ६१४ तक आपका स्मरण कैसे क्यिा। इसके उत्तरमें मैं आपका ध्यान उक्त कथानकके द्वितीय भागकी ओर ले जाता है, जिसके अनुसार कुछ ही दिनोके पश्चात् किसी एक सैद्धान्तिक शक का समाधान पानेके लिये सकल संघका अनुमतिसे एक साधु स्वय इनसे मिलनेके लिये कुम्हारके घरपर गए थे और उन्हें इस प्रकार अपने पास आया देखकर आपके हृदयमे आत्म लानि जागृत हो गई थी। प्रतीत होता है कि यह घटना उनकी पदच्युतिके कुछ ही दिनोके पश्चात् घटित हुई थी, अन्यथा सघके हृदयमे उनके प्रति इतना बहुमान शेष न रह गया होता । प्रायश्चित पूर्वक पुन दीक्षा धारण कर लेने पर जब आपने अपना स्थितिकरण कर लिया तो बहुत सम्भव है कि आपको ज्ञान गरिमाके कारण सक्न सधने पुन आपको अपना आचार्य स्वीकार कर लिया हो, और उसके पश्चात समाधि मरण हाने तक आप सघके आग्रहसे उसो पदपर आसीन रहे हो। ऐसा मान ले नेपर नन्दिसघ के पदपर आप का पूरा काल ४ वर्ष की बजाय ३६ वर्ष हो जाता है । इसमेसे बी नि ५७५ से ७६ तक्के ४ वर्ष तो भ्रष्ट होने से पहले के है और १७४ से ६१४ तकके ३५ वर्ष पुन दीक्षा लेने के पश्चात के है। नन्दिसंघको पट्टावलोमे इनके पूर्ववर्ती ४ वर्गोका ही उल्लेख किया गया जबकि मूलसवको पट्टावलो मे इनका पूरा जीवनकाल दिया गया है। यदि नन्दि सघवाली पट्टावलीमे उनका ३५ वर्ष प्रमाण यह दूसरा काल भी जोड़ लिया जाय तो इनके तथा इनके पश्चाद्वर्ती जिनचन्द्र के मध्य जो ६७ वर्ष का अन्तर है वह घटकर केवल ३१ वर्ष रह जाता है । (दे आगे परिशिष्ट ४ मे नन्दिसंघकी पट्टावली)।
१०. धरसेन मुलसंघको पट्टावली (दे पृ ३१६) में आपकी स्थापना अगाशधारियो
अथवा पूर्वाविदाको आम्नायने को गयो है । विद्याभ्यासी होनेके कारण सौराष्ट्र देश के गिरनार गिरोकी चन्द्रगुफामें अकेले रहते थे। भगवान महावीरसे आगत 'महा कर्मप्रकृति' का ज्ञान आपको आचार्य परम्परासे प्राप्त था। उसका अबच्छेद न हो जाये इस आशंकासे आपने दो युवा तथा योग्य साधु भेजने के लिए दक्षिणपथ के आचायो के उस महायति सम्मेलनका पत्र भेजा था, जो कि उस समय आ अहं बलिने महिमानगर (जिला सतारा) मे पञ्चवर्षीय युगप्रतिक्रमण के अवसर पर एकत्रित किया था। आ अर्हलि द्वारा वहाँसे भेजे गए पुष्पदन्त तथा भूतबलि नाममे प्रसिद्ध दो नव दोक्षित साधुश्रो को उस विषयका अध्ययन करने के पश्चात् अपनी मृत्यु निकट जान आषाढ शु.११ को आपने उन्हे अपने पाससे विदा कर दिया। कुछ समय पश्चात् ही बहा आपकी इङ्गिनीमरण समाधि हो गई। (ध / ४.१,४४/१३३), (ब, नेमिदत्त कृत आराधना कथाकोषमें आ. धरसेनकी कथा), (ध. १/१८/H L. Jain), (सिद्धान्तसारादि संग्रह) श्रुतावतार/ग्रन्थांक २१/५ ३१६), उन दोनो साधुओने इनके पाससे विदा होकर अङ्कलेश्वरमें चातुर्मास किया और पीछे षट्खण्डागम नामक ग्रन्थ में गुरुदत्त ज्ञानको निबद्ध कर दिया (दे.आगे पुष्पदन्त,भूतबलि)।
मूलसंघकी पट्टावलीके अनुसार लोहाचार्य तक अगधारियोकी परम्परा चलती रही। उनके पश्चात विनयदत्त आदि चार अगाशधारी हुए और उनके पश्चात् क्रमश अर्हवलि, माघनन्दि तथा धरमेनका नामोल्लेख किया गया। ये तीनों आचार्य अगाँशमें से भी छुट पुट क्सिी एक आध प्राभृतका जाननेवाले थे। इनकी परम्परामे क्योकि धरमेनका नाम माघनन्दिके पश्चात आया है इसलिए यह सन्देह हो जाना स्वाभाविक है कि माघनन्दि धरसेनके गुरु थे, परन्तु ऐसा कोई निश्चित साक्ष्य उपलब्ध नही है उक्त क्रमका तात्पर्य यह हो सकता है कि ये तोना समकालीन ये, अन्यथा अर्ह बलि द्वारा आयोजित यति सम्मेलनका धरमेनके द्वारा पत्र देना सम्भव न होता। दूसरी बात यह भी है कि उस समय वे अति वृद्ध हो चुके थे और इमोलिए स्वय यति सम्मेलन में सम्मिलित नही हुए। यही कारण है कि नन्दो सङ्घमा नायकत्व माघनन्दिको सौपा गया। दूसरी ओर पटवण्डागमकी रचनाके निमित्तमे प्राप्त पुष्पदन्त तथा भूतबलिके द्वारा एक स्वतन्त्र परम्पराकी स्थापना हुई जिसका उल्लेव उन सङ्घोकी सूची में नहीं हो सका जिनकी स्थापना अर्ह बलिने को थी। माघनन्दिके पश्चात् नन्दिमङ्घका नायकत्व उनके शिष्य जिनचद्रके हाथ में गया। यही कारण है कि नन्दिमधकी पट्टावली में माधनन्दिकी बजाय जिनचन्द्रमा नाम आता है। (ध १/प्र.१५-१६/H L_jain), (ती २/11-४४), (जै १/१३-४।। इन्द्र नन्दि कृत श्रुतावतार में (दे प. ३१७) इनका काल बी नि ६१४-६३३ बताया गया है। इसपरसे इनकी पूर्वावधि श्री नि ६१५ जाननेमे आती है। परन्तु वास्तवमे ऐसा नहीं है। पट्टावनीमे दिये गए क्रम के अनुसार माघनन्दिकी उत्तराबधि ही इन्हे पूर्वावधिके रूपमे प्राप्त हो गई है। जा अहहन्नीके समकालीन होने के कारण पी नि ५६५ हानी चाहिए थी। दूसरी बात यह है कि घर में नाचार्यका महानिमित्तज्ञानी माना गया है। इसी बातका नस्य करके उनके शिष्य भूतबलि ने षटखण्डागममे 'प्रज्ञाश्रमणो'को नमस्कार किया है (प स्व ४/१/१८) । इस प्रज्ञाश्रमणके द्वारा रचित मन्त्र तन्त्र विषयक 'जाणिपाहण' नामक एक ग्रन्थ उपलब है जिसका काल बी नि ६०० के आसपास निर्धारित किया गया है। मुख्तार साहब इस सर्व क्थनको ज्यो का त्यो मानकर भी इनका काल वी नि ६१५-६३ निर्धारित करते है (जै १४४४) । परन्तु क्योकि यह काल मानने पर उनके द्वारा 'जोणिपाहण' की रचना सम्भव नहीं हो सकेगी। इसलिए इनकी पूर्वावधिको ६१४ से उठ कर अर्ह लोके समकक्ष ६५ पर जाना चाहिए । अर्थात इनका काल वो नि ५६५-६३३ (ई ३८-१०६) हाना चाहिए । प्राय सभी विद्वान् इम विषयमें एक्मत है। (ध १/प्र. २६/ H L Jain), (तो २/४५), (जै २/४३-४४)। स्वयं इनके निवासस्थन्न गिरनारगिरि की चन्द्रगुफामे प्राप्त शक स. ७२ (ई १५०) के एक शिलालेखके आधार पर डा ज्योति प्रमादने इन्हे ई श १ मे स्थापित किया है, जिसपरसे उपर्युक्त मान्यताको समर्थन प्राप्त होता है। (ती. २/४७)।
११. पुष्पदन्त भूतबलीविबुध श्रीधरके श्र तावतारमे भविष्यवाणी के रूपमे जो कथा दी
गई है उसमे इन दोनों के जीवन पर प्रकाश पड़ता है। तदनुसार बसुन्धरा नगरीके राजा नरवाहन सुबुद्धि नामक सेठके साथ दीक्षा धारण करेंगे। उस समय वहाँ एक लेखवाहक आयेगा । वे मुनि उससे लेख लेकर बाँचगे कि गिरनारके समीप गुफावासी धरसेन मुनीश्वर कुछ दिनोमे मरवाहन और सुबुद्धि नामक मुनियोंको पठन श्रवण
और चिन्तन कराकर आषाढ शु. ११ को शास्त्र समाप्त करेंगे। भूतजन रात्रिको उनमें से एककी बलि विधि (पूजा) करेंगे और दूसरेके चार दान्तीको सुन्दर बना देगे। अतएव भूत-बलिके प्रभावोसे नरवाहन मुनिका नाम भूतबलि और चार दान्त समान हो जानेसे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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