Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 502
________________ परिशिष्ट ४८७ गुणधर आम्नाय आचार्य गुणधर द्वारा कथित १८० गाथा प्रमाण 'पेज्जदोस पाहुड' की भाषा बरसेन द्वारा कथित घट ग्वण्डागमको अपेक्षा प्राचीन प्रतीत होती है, और षट् वण्डागम में पिज्जदोसपाहुड' का तथा उसकी मान्यताओका उल्लेख स्थल-स्थल पर पाया जाता है। इनके इस परिवतित्वकी अवधि को और अधिक स्पष्ट करने के लिये हम आ अहंद्बलि के द्वारा महिमा नगरमें आयोजित उस यति सम्मेलन की ओर अपना लक्ष्य ले जा सकते है, जिसमें कि उन्होने मूल सघको अनेक सघोमें विभाजित किया था। इन सधो की सूची में 'गुणधर संघ' का नाम आता है (दे इतिहास ४/६)। इस प्रकार से यह प्रतीत होता है कि अर्ह इलि के समय में मूल सबसे पृथक आ गुणधरका भी एक स्वतत्र सघ अवश्य विद्यमान था, जो कि उस समय तक अपनी ज्ञान गरिमाके कारण इतनी ख्याति प्राप्त कर चुका था कि आ अहवलिका उनके व्यक्तिगत नाममे एक मघको सत्ता स्वीकार करनी पड़ी। इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतारमें अथवा मूलमंघकी पट्टावलीमें उनके नामका उल्लेख न होने का भी कारण सम्भवत यही हो कि आचार्य अहंदमलीकी भाति आ गुणधर भी उस समय एक स्वतन्त्र संघके अधिपति थे । इम हेतुमे इन्हे अर्ह बनीमे भी कम से कम एक पीढी पूर्व अर्थात् लोहाचार्य के समकालीन अवश्य होना चाहिए। मूलसंध की पट्टावलीके अनुसार लोहाचार्यका काल क्योकि बी नि ५१५४६५ है, इसलिए आपको भी हम की नि. शताब्धि के पूर्वार्ध में अर्थात् वि पू प्रथम शताब्धिमें प्रतिष्ठित कर सकते है । लगभग यही समय डा नेमिचन्द्र ने भी निर्धारित किया है (ती २/३०) । इनकी गुरुपरम्पग विषयक ज्ञान क्योकि विग्मृतिके गर्भ में लीन हो चुका है, इमनिये हरके कान का निर्धारण करने में इससे अधिक खोज की जानी सम्भव नहीं है। गुणधरधरमेनान्वयगुळ पूपिरकमाऽस्माभि । न ज्ञायते तदन्वय कथकागममुनिजनाभावात् ॥११॥" (इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार १५१, ती २/३० पर उद्धृत)। .. आर्यमा और नागहस्ती इन दोनों महाश्रमणोका नाम दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनो आम्नायोमे अति सम्मानसे लिया जाता है। दिगम्बर आम्नायमे इनका स्थान प्रा पुष्पदन्त तथा भूतबलिके समकक्ष पूर्वाशविदो की उस अन्तिम परम्परामे है जो कि भगवान मे आगत उत्तरोत्तर होयमान श्रुतको लिपिबद्ध करने अथवा करानेमे अग्रगण्य रही है । इनके कान का निर्गय करनेके लिए विद्वानोने दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दानो हो आम्नायोसे साक्ष्य ग्रहण क्रिये है।। (१) दिगम्बर आम्नायके अनुसार इन दोनोको आ गुणधर कथित 'पेज दोसपाहूड' को १८० गाथाये आचार्य परम्परासे प्राप्त हुई थी। 'पुणो ताओं सुत्तगाहाओ आइरिय पर पराए आगच्छमाणाओ मंग्णागहत्थीर्ण पत्ताओ।' (ज /ध ११ ८८)। आ. गुणधरके मुखकमलसे विनिर्गत इन गाथाओके अर्थको इन दोनों आचार्योंके पादमूलमे सुनकर आ. यति वृषभने (ई १५०-९८०) मे ६००० चूर्ण सूत्रोंकी रचना की थी। 'पुणो तेसि दोन्हं पिपादमूले असी दिसदगाहाणं गुणहरमुहकमल किणिग्गयाण मत्थं सम्म सोऊण जयिवसह भडारएण पबयणवच्छलेण चुण्णिसुत्तं कय।' (ज ध १/६८/८८)। ये यति वृषभाचार्य आर्य मंझुके शिष्य और नागहस्तिके अन्तेवासी थे। 'जो अज्जमखुसीसो अतेवासी वि णागहत्थिस्स । वित्तिमुत्तकत्ता जइबसहो मे वरं देऊ। ८ । (ज ध १०/पृ ४)। इन साक्ष्योपरसे यद्यपि इनके कालका सुनिश्चित ग्रहण नहीं होता है तदपि इतना अनुमान अवश्य हो जाता है कि ये दोनों आचार्य गुणघर देवकी चौथी पीढ़ीमें कहीं हुए हैं। आर्यमा नागहस्तिके ज्येष्ठ गुरुभ्राता है । यति वृषभाचार्यको दीक्षा देनेके कुछ ही काल पश्चात इनकी समाधि हो गई। तदुपरान्त २०-२५ वर्ष तक नागहस्तिकी सेवामें उपस्थित रहते हुए यतिवृषभाचार्यने कषायपाहुडको लिपिबद्ध किया। अत आर्यमंचको पुष्पदन्त (वो नि ६३३-६६३) का और नागहस्तिको भूतबली (वी.नि. ६३६८३) का समकालीन होना चहिए। (२) श्वेताम्बर आम्नायोमे आ धर्मघोष (वि स १३२७) कृत सिरिदुसमकाल समण सघ थय ' नामक एक पट्टावली प्रसिद्ध है । तदनुसार राजा पुष्यमित्रका स्वर्गवास वी. नि ४१८ में हुआ। उनके पश्चात इस म घमे पाँच आचार्य हुए। इन पाँचोमे 'वायरसेन का काल तीन बर्ष, नागहस्तीका ६६ वर्ष,रेवतीमित्रका वर्ष, बभदेवसूरिका ७८ वर्ष और नागार्जुनका ७८ वर्ष माना गया है। इसपर से नागहरितका काल बी नि ६२०-६१ निश्चित हो जाता है । (ती, २/11)। दूसरी बार नन्दि सूत्रकी मलयगिरि टोकामे आर्यमंक्षुको आर्यनन्दिनका और नन्दिलका नागहस्तिका गुरु बतलाया गया है। साथ ही आर्यमशुको श्रुतसागरक पारगामी और नागहस्तिको 'कर्मप्रकृति' ज्ञान प्रधान कहा गया है । इसपर से यह कहा जा सकता है कि ये नागहरित सम्भवत वही है जिनकी चर्चा कि यहाँ की जा रही है। (जे १/१२)। यदि यह ठीक है और पूर्वोक्त समणसध वाले नागहस्ति भी वही है तो निर्धारण करनेमे कुछ भी कठिनाई नहीं रह जाती कि नागहस्तिका काल वी नि ६२०-६८६ है और आर्यमक्षुका लगभग वी नि ६००-६५०। ऐसा माननेसे दिगम्बर आम्नायकी उपयुक्त धारणाओके साथ भी विरोध नही आता है। विपरीत इसके उसकी परिपुष्टि होती है। यद्यपि आ. वज्रयशके नामवाली एक तीसरी पट्ठावली के अनुसार आर्यमंक्षुका काल वी.नि.. ४६७ आता है । (दे. आगे शीर्षक ४)। परन्तु उपर्युक्त साक्ष्योंके साथ मेल न बैठनेके कारण इस मान्यताका ग्रहण शक्य नहीं है। हो सकता हे कि प्रकृत आर्य मधुसे पूर्ववर्ती ये कोई अन्य ही आर्य मंच हों, और पट्टावन्नी न होने के कारण प्रकृत आर्यमचका उस पट्टावलीमे उल्लेख न किया गया हो। यहाँ यह बात विशेष रूपसे विचारणीय है कि जयधवलाकार वीरमेन स्वामीने यतिवृषभको आर्यभक्षुका शिष्य बतलाया है न कि नागहस्तिका। तथापि यतिवृषभने अपने किसी भी ग्रन्थमें उनका स्मरण नहीं किया है । इसके समाधानार्थ हम अपना लक्ष्य श्वेताम्बर आम्नायमे प्रसिद्ध उस कथाकी ओर ले जाते है जिसके अनुसार चारित्रसे भ्रष्ट हो जानेके कारण आर्यमंच मरकर यक्ष हो गए थे। (जै १/१५) गुरु होते हुए भी चारित्र भष्ट हो जानेके कारण वे स्मरण किये जाने योग्य नहीं रह गये हों, ऐसा होना सम्भव है। इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि सम्भवत वे श्वेताम्बर हो। श्वेताम्बर पट्टावलियोमे उनका नामोल्लेख होना और दिगम्बर पट्टावलीमें न हाना इस सन्देहका समर्थक है। इसलिए बहुत सम्भव है कि वै आ यतिवृषभक केवल शिक्षा गुरु हों, दीक्षा गुरु नहीं। परन्तु निश्चित रूपसे इस विषयमे कुछ नहीं कहा जा सकता है, क्योकि इसका दूसरा हेतु यह भी हो सकता है कि गणघर स्वामीकी आम्नायमे होनेके कारण दिगम्बर होते हुए भी ये मूलसंघसे बाहर हो। (दे. इससे पहला शीर्षक) । ४ वज्रयश जैसा कि इससे पहले आर्य मनु वाले प्रकरण में सकेत किया है श्वेताम्बर आम्नायमें बज्रयशको एक पट्टावली प्राप्त है, जिसके अनुसार आर्यमंझुका काल वी नि. ४६७ आता है, परन्तु अन्य साक्ष्यों के आधारपर उनका काल वो.नि ६००-६५० निर्धारित किया गया है। इसलिये इन बज्रयशके विषय में भी एक संक्षिप्त सी जानकारी प्राप्त कर लेनी उचित है। तिल्लोयपण्णतिमें इन्हें अन्तिम प्रज्ञाश्रमण कहा गया है। 'पण्णसमणेस चरिमो बइरजसो णाम ओहिणाणीमु' (ति प. ४/१५८०)। श्वेताम्बराचार्य श्रीधर्मघोष (वि.सं. १३२७) द्वारा स गृहीत जिस 'सिरिदुसमकाल-समणसंध-ययं' नामक पट्टावलीका इससे पहले आर्यमधुकी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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