Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 506
________________ परिशिष्ट नन्दिसंघ विवार कुछ निद्वात् तत्त्वार्थ सूत्रका क्र्ता कुन्दकुन्दको मानते है, परन्तु विस्तृत समीक्षा कर के पं0 जुगल किशोर जी मुख्तारने इस मतका निराकरण किया है। (दे. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश / पृ. 102-105), (ती. 2 / 147) 3. अन्य परिचय प्रेमी जी आपको यापनीय सघका कम्पित करते है (घ 17.56HL. Jain), परन्तु प. कैलाश चन्द जी को यह मत मान्य नहीं है। (जे. 20234). आप कुन्दकुन्दके शिष्यथे और इनके शिष्य बलाक पिच्छ थे। (दे. इतिहास 711.5), (उपर्युक्त शिलालेख सं. 105) / इसलिये तत्त्वार्थसूत्रमें आपने कुन्दकुन्द के चास्तिकाय नियमसार आदि ग्रन्थोंका अनुसरण किया है (जै 2/263-264), (ती. 2/156) / आपकी आयु 84 वर्ष और आचार्यकाल 40 वर्ष 8 मास है / (ती.२ इनके अतिरिक्त श्रवणबेलगोल से प्राप्त शिलालेख सं.४०,४२,४३,४७.५०. 105.106 में उमास्वामीका अपर नाम गृद्वपिच्छ पाया जाता है और एक अभिलेखमें इस उपाधिके सार्थक्य की भी चर्चाकी गई है। (दे. शिलालेख संग्रह | भाग 1) शिलालेख सं 108/1210-211 अभूतुमास्वातिमुनि, पवित्र बंशे तदीये सकलार्यवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थ जातं मुनिपुङ्गवेन / स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृध्रपक्षान् / तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृपिच्छम् / शिलालेख सं.४३/प्र.४३ अभूदुमास्वातिमुनिश्वरोऽसावाचार्य शब्दोत्तरगृ पिच्छ ।तन्वये तत्सद्वशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थ वेदीआचार्य कुन्दकुन्द के पवित्र वशमे सकलार्थ के ज्ञाता उमास्वाति मुनीश्वर हुए, जिन्होंने जिनप्रणीत द्वादशाङ्गवाणीको सूत्रोंमें निबद्ध किया। इन आचार्यने प्राणिरक्षाके हेतु गृहपिच्छोको धारण किया। इसी कारण वे गृधपिच्छाचार्य के नामसे प्रसिद्ध हुए। शिलालेख सं. 105/5. 118 श्रीमानुमास्वातिरय यतीशस्तत्त्वार्थसूर्य प्रकटीचकार ।यन्मुक्तिमार्गाचरणोधताना पाथेयमाध्यं भवति प्रजाना॥ तस्यैव शिष्योऽजनि गृद्धपिच्छ-द्वितीयसंज्ञस्य बलाकपिच्छ / यरसूक्तिरत्नानि भवन्ति लोके मुक्तयङ्गनामोहनमण्डनानि ।-तियोंके अधिपति श्रीमान् उमास्वातिने तत्त्वार्थ सूत्रको प्रगट किया, जो माक्षमार्गके आचरण में उद्यत मुमुक्षुजनों के लिये उत्कृष्ट पाथेय है। उन्हींका गृद्धपिच्छ दूसरा नाम है। इनके एक शिष्य बलाकपिच्छ थे। जिनके सूक्तिरत्न मुक्ति अंगनाके मोहन करनेके लिये आभूषणोंका काम देते है। 2. तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता उक्त प्रकार दिगम्बर साहित्य तथा अभिलेखीका अध्ययन करनेसे यह ज्ञात होता है कि तत्वार्थ सूत्रके रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य, अपर नाम उमास्वामी या उमास्वाति है। इस परसे श्वेताम्बर विद्वान पं. सुखलाल जी अपनी तत्वार्थसूत्र (विवेचन) की प्रस्तावनामें तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृवपिच्छ उमास्वामी को न मानकर वाचक उमास्वातिको मानते है। परन्तु उनका यह कहना घटित नहीं होता क्योंकि वाचक उमास्वातिके द्वारा रचित श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थाधिगम नामक शास्त्र वास्तवमे तवर्थिसूत्र न होकर उसका भाष्य है। इसलिये वे इन उमास्वातिसे भिन्न है / (ती. 2/148,151), (जै 2/228,244) 4. समय नन्दि संघकी पट्टावली में इनका समय विक्रम राज्याभिषेक को बीर निर्वाण 488 में मानकर उसके 101 वर्ष पश्चात प्रारम्भ किया है। जिसके अनुसार वह वी. नि. 581-630 प्राप्त होता है / परन्तु विद्वज्जनबोधकके निम्न पदपरसे वह निश्चित रूपसे वी.नि. 770 (वि. 300) बताया गया है। विद्वज्जनांधक-वर्षसप्तशते चैव सप्तत्या च विस्मृती। उमास्वामिमुनि जर्जात कुन्दकुन्दस्तथैव च / - वीर निर्वाण संवत 770 (वि. 300) में उमास्वामी मुनि हुए और उसी समय (इससे कुछ पूर्व) कुन्दकुन्दाचार्य भी हुए / (स. सि /--.78 // 1. फूलचन्द) (ती. 2/152), (जै. 21280) (तत्त्वार्थाधिगम /प्र 5/ प्रेमी जी)। डा उपाध्येयने कुन्दकुन्दका काल ई.श 1 सिद्ध किया है / उमास्वामीको इससे कुछ पश्चात होना चाहिये / इसलिये इन्हे हम ई श. 1 के अन्तिम चरण और ई श 2 के प्रथम चरण में प्रतिष्टित कर सकते है। ती 2/153) / प, कैलाशचन्द जी ने विद्वज्जनबोध के अनुसार इनकी उत्तरावधि बी.नि. 770 और पूर्वावधि वी.नि. 706 (कुन्दकुन्द की पूर्वावधि) मानकर इन्हे वी.नि 706 770 अथवा वि. श 3 के अन्त (ई. श 12 में स्थापित किया है / ) (जै.२/२७२) / तत्त्वार्थसुत्रके रचना कालपरसे भी इसकी पुष्टि होती है। (दे. तत्त्वार्थ सूत्र) समाप्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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