Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 505
________________ परिशिष्ट ३. जिनचन्द्र मन्दिसंपकी पट्टानहीमें उल्लिखित आचायोंमें से भगा द्वि तथा माघनन्दि विषयक विचार परिशिष्ट २ में कर लिया गया। माघनन्दिके पश्चात कुन्दकुन्दके गुरु आ, जिनचन्द्रका नाम आता है । विद्वद्वसमाज में भी आप कुन्दकुन्दके गुरु स्वीकार किये गए हैं । (दे. कुन्दकुन्द) पट्टावली के अनुसार आपका काल वी. नि. ६१४-६२३ आता है परन्तु कुन्दकुन्दके कालके साथ संगति बैठानेके लिये पट्टकालमै ३१ वर्ष जोडकर इनकी उत्तरावधि ६२३ की बजाय ६५४ कल्पित कर ली गई है। इसलिये भले ही इनको उस राधिके विषय में हमें सन्देह वर्तता हो नि इनकी पूर्वावधि मी. नि. ६१४ विषयमें हमें अम अधिक सन्देह नहीं रह गया है। यहाँ एक विप्रतिपत्ति उत्पन्न होती है। श्वेताम्बर संपर्क आदि प्रवर्तकका नाम भी जिनचन्द्र कहा गया है और उनका काल भी लगभग यही बताया गया है, क्योंकि उनके द्वारा श्वेताम्बर सघकी यह स्थापना वि. सं. १३६ (बी नि ६०६) में बताई गई है। इनके दादा गुरु भद्रबाहु गणो बढाये जाते हैं और गुरुशान्यथाचार्य जिनकी या करके कि ये श्वेताम्बर पी बने थे (दे श्वेताम्बर दूसरी ओर कुन्दकुन्दके गुरु जनयन्द्रका उल्लेख यहाँ किया जा रहा है उनके भी दादा गुरु नहीं तो पडदादा गुरु अवश्य भद्रबाहु ही थे। इस परसे यह सन्देह होता है कि ये दोनों एक ही व्यक्ति थे। परन्तु कृ कुन्द जैसे महान आचार्यके गुरु ऐसे पोर कर्मी हों मे बाद गले नहीं उतरती। दोनोंके गुरु भी हैं। इस विषय निश्चित रूपसे कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि कुन्दकुन्दके विषय में यह मात प्रसिद्ध है कि इनका श्वेताम्बरोके साथ बहुत बडा शास्त्रार्थ हुआ था। जिसमें उन्होंने सरस्वती की मूर्ति से यह बात कहला दी थी कि दिसम्बर मत प्राचीन है (दे.) इससे यह अनुमान होता है कि अवश्य ही इनके गुरुने इनसे श्वेताम्बर सधके जन्म तथा शैथिक पर्चा की होगी और उस संघकी ओरसे इनके गुरुके प्रति कुछ दुर्व्यवहार हुआ होगा । यद्यपि इस विषय में विद्वानोंने चर्चा करना आवश्यक नहीं समझा है तदपि इस स्थल पर उसकी चर्चा करना मुझे आवश्यक प्रतीत होता है। इस विषय में यहाँ विचारकोंके समक्ष एक क्लिट कल्पना प्रस्तुत करता हूँ जिसको युक्तता अथवा अनुयुक्तता के विषय में मुझे कुछ भी आग्रह नहीं है। बहुत सम्भव है कि ये दोनों एक ही व्यक्ति हो । भद्रबाहु के काचा जो भाग दक्षिणको ओर न जाकर उज्जैनीमें रुक गया था उसने परिस्थिति से बाध्य होकर अर्धफालक संघका रूप धारण कर लिया था जो वि. सं. १३६ तक उसी रूपमें विचरण करता रहा (दे. श्वेताम्बर) हो सकता है। किवि. सं १२६ मे इस आचार्य शान्त्याचार्य हो और उनके शिष्य जिनचन्द्र हो । शान्त्याचार्य ने जब संघसे प्रायश्चित पूर्वक अपना स्थितिकरण करने की बात कही तो इन्होने कुछ षड्यन्त्र करके उन्हें मरवा दिया और बेधडक होकर अपना शैथिव्य पोषण करनेके लिये सांगोपांग श्वेताम्बर संघकी नींव डाल दी । यद्यपि उस समय नासनासे प्रेरित होकर इन्होंने यह पोर अनर्थ कर डाला तदपि ब्रह्महत्याका यह महापातक इनके अन्तष्करणको भीतर ही भीतर जलाने लगा। बहुत प्रयत्न करने पर भी जब वह शान्त नहीं हुआ तो ये दिगम्बर संघकी शरण में आये क्योंकि अपनी ज्ञान गरिमा तथा तपश्चरण के कारण उस समय आ. माघनन्दिका तेज दिशाओं विदाशाओं में व्याप्त हो रहा था। गुरुके चरणोंमें लोटकर आत्मग्लानिसे प्रेरित हो आपने अपने दुष्कृत्यको घोर ना की और खुले हृदयसे आलोचना करके उनसे प्रायश्चित देनेके लिये प्रार्थना की। मित्र शत्रुमें समचित्त परमोपकारी गुरु ने उनके हृदयको शुद्ध हुआ देखकर उन्हें समुचित प्रायश्चित दिया और उन्हें पुन दीक्षा देकर अपने Jain Education International नन्दिसंघ विचार संघ सम्मिलित कर लिया। ५-६ वर्ष पर्यन्त उग्र तपश्चरण करके जिनचन्दने अपनी समस्त कालिमायें धो डाली और जिनेन्द्र के समीचीन शासन में चन्द्रकी भाँति उद्योत फैलाने लगे । सक्ल संघ के साथ अपने गुरुके भी वे विश्वासपात्र बन गए बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि ब्राह्मण इन्द्रभूति भगवान् महावीरके। गुरु प्रवर भाषनन्दिने स्वयं अपने ही नि१४ में उन्हें संपर्क पट्टपर आसीन कर दिया और उनकी छत्रछायामें सकल संघ ज्ञान तथा चारित्रमें उन्नत होने लगा । इस घटनाके ८-६ वर्ष पश्चात् बी. नि. ६२३ में कुन्दकुन्दने उनसे दोहा धारण की। दिगम्बर संघके आचार्य बन जानेके कारण अवश्य ही इनके ऊपर श्वेताम्बर संघकी ओरसे कुछ आपत्तियें आई होंगी जिन्हें इन्होंने समता सहन किया। परन्तु शिष्य होनेके नाते कुन्दकुन्द उसे सहन न कर सके और आचार्य पदपर प्रतिष्ठित होते ही श्वेताम्बर सके इस अनीति पूर्ण दुव्यवहारको रोकने तथा अपने संपकी रक्षा करनेके लिये उन्होंने उसके साथ मुंहदर मुंह होकर शास्त्रार्थ किया । कुन्दकुन्द के तप तथा तेजके समक्ष वह संघ टिक न सका और लज्जा तथा भय वश उसे अपनी प्रवृत्तियें रोक लेनी पडी। ૪૦ ४. उमास्वामी (गृढपिच्छ) पट्टावली में जिनचन्द्र पाचाद] कुन्दकुन्दका और उनके पश्चात् पिच्का नाम आता है। कुन्दकुन्दके विषय में विस्तृत चर्चा द्वितीय खण्ड में यथास्थान निबद्ध है, पुन. उसका उल्लेख यहां करना न्यायविरुद्ध है। इनके शिष्य के विषयमें कुछ मनकारी देना अवश्य यहाँ प्रयोजनीय है। इनका नामोल्लेख नन्दिसंघ के बलात्कारगण तथा देशीयगण दोनों ही गणोंमें प्राप्त होता है । मलाकार वाली पूर्वोक्त पट्टावली में इनके शिष्य लोहाचार्य तु मताये गए हैं और देशीयगण में बलाकपिच्छ । इससे यह जाना जाता है कि आपके दो शिष्य थे । उनमेंसे लोहाचार्य तृ बलात्कार गणके आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए और माकपा अध्यक्षता में इस संघका देशीयगण उत्पन्न हुआ जो आगे जानेपर पुन दो शाखाओं में विभा जित हो गया-गुणनन्द शाला और गोताचार्य शाखा । (दे. इतिहास ७ / ९.५) १ नाम निम्न उद्धरणोंसे पता चलता है कि आपका असली नाम उम्रास्वामी था और किसी एक विशेष घटनाके कारण गृद्धपिकी उपाधि आपको प्राप्त हो गई थी। आप ही दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों आम्नायोंमान्य तत्त्वार्थ सूत्र कर्ता हैं । घ. ४/१५.२/३१६ तह गहिरियप्पासिदचत्यमुत्ते विनापरिणाम क्रियाः परत्वापरे च कालस्य दिव्यालोपरुविदो गूढ पिच्छाचार्य के द्वारा प्रकाशित तत्त्वार्थसूत्रमें वर्तमापरिणाम किया परत्वापरत्वे च कालस्य' कह कर द्रव्यकालकी प्ररूपणा की गई है। श्ल.वा./मू./पृ. ६ एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता । - इसपरसे गृद्धपिच्छाचार्य पर्यन्त मुनिसूत्र के द्वारा व्यभि चार निरस्त कर दिया गया। तत्वार्थ सूत्रकी अनेक प्रतियोमे उपलब्ध अन्तिम पद्य-तरवार्थ करार गृच्छक्षित वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमायामीमुनीधरम् ।गौतम गणधरकी परम्परामै प्राप्त तत्वार्थ सूत्रके कर्ता उमास्वामीको मै प्रणाम करता जो गृद्धपिच्छके नाम से उपलक्षित किये जाते हैं । पार्श्वनाथ चरित (वादिराज कृत) १/१६ अतुच्छ गुणसम्पातं गृद्धपिच्छ तोऽस्मि तम् । पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः ॥ आकाशमै उडनेकी इच्छावाले पक्षी जिस प्रकार अपने का सहारा देते हैं, उसीप्रकार मोक्षरूपी नगर को जानेके लिए भव्यलोग जिस मुनीश्वरका सहारा लेते है उस महामना अगणित गुणोंके भण्डारस्वरूप पिच्छ नामक मुनिराज के लिये मेरा सविनय नमस्कार है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only 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