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परिशिष्ट
और देवदत्ता नामक वेश्याके नगर में वर्षायोग धारण करनेवाले के संघका नाम देवसंघ पडा । (दे परिशिष्ट २/८)
२. नविसंघ बलात्कार गण
उस
नन्दिवृक्ष के नीचे वर्षायोग धारण करनेवाले ये तपस्वी हमारे प्रसिद्ध मानन्दि आचार्य के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है, जिनकी चर्चा पहले की जा चुकी है (दे. परिशिष्ट २/१) । इनके नामके साथ लगी हुई नदि उपाधिके कारण ही उनके इस सघका नाम नन्दिसंघ पड गया है। इस सबकी एक पट्टावली प्रसिद्ध है जिसमें आचार्यों का पृथकपृथक् काल निर्देश किया गया है और इसलिये वह इतिहासज्ञों के लिये बड़े महत्व की वस्तु है । यद्यपि इस पट्टावली के कर्ता भी वही इन्द्रनन्दि है जिन्होने कि मूलसघकी पट्टावलीका संकलन किया है। और इन दोनो पट्टावलियोको अपने श्रुतावतार में एक साथ निबद्ध किया है। परन्तु गौतम गणधर लेकर हृतमसि तक्के ६८३ वर्षोंकी गणना जिस प्रकार उन्होने वीर निर्वाणकी अपेक्षासे की है, प्रकार इस पट्टावली में नहीं की है। 'बीरात् ४६२ विक्रमजन्मान्तर वर्ष २२, राज्यान्तर वर्ष ४' अर्थात् वीर निर्वाणके ४६२ वर्ष पश्चात् अथवा विक्रम जन्मके २२ वर्ष पश्चात् अथवा उसके राज्याभिषेक से ४ वर्ष पश्चात श्री भद्रबाहु स्वामी (द्वितीय) हुये । इतना कहकर उनका काल २२ वर्ष, गुप्तिगुप्तका १० वर्ष माघनन्दिका ४ वर्ष इत्यादि - इस प्रकार आचार्योंका काल निर्देश कर दिया गया इस परसे यह स्पष्ट है इन्द्रनन्दिने आचार्योंके काल गणना, यहाँ विक्रमके राज्याभिषेककी वी नि ४८८ में घटित मानकर उसकी अपेक्षा को है। इसलिये एक आचार्य के द्वारा रचित होते हुये भी दोनो पालियों दिये गये काल परस्पर में मेल खाते तो नहीं होते। इस संगतिको बैठानेके लिए यहाँ दोनो पट्टावलियोका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है ।
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१ पट्टावली में आचार्योंका जो काल दिया गया है। उसकी गणना विक्रम राज्यको वोनि ४८८ में मानकर की गई है, जबकि विद्वानों ने इस मान्यताको भान्ति पूर्ण सिद्ध किया (वे परिशिष्ट १) । २ इसमें भद्रबाहु द्वितीय तथा दलित) के नाम सम्मिलित कर दिये गये है, जबकि संघ के साथ परम्परा गुरुके अतिरिक्त इनका अन्य कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हे नमस्कार करके पट्टावली वास्तव में मानन्दि से प्रारम्भ की गई है । ३. इन दोनो के मध्य लोहाचार्यका नाम छोड़ दिया है जिनका काल की पारी में ५० वर्ष दिया गया है । इसका कारण सम्भवत यह रहा हो कि आगे-पीछे बालेको नमस्कार हो जाने पर मध्यवर्तीको वह स्वय प्राप्त हो जाती है । ४. अर्हलि (गुप्तिगुप्त) का काल यहाँ वी नि ५६५ से ५७५ तक केवल १० वर्ष दिया गया है जबकि उक्त पट्टावली में वह ५६५ से ५६३ तक २८ वर्ष दिया गया है। इसका हेतु यह हो सकता है कि यहाँ उनका आचार्यत्व काल दिया गया है और वहाँ जीवन काल । वी नि. ५७५ में मूल संघका विघटन होनेके साथ आपका आचार्यश्व समाप्त हो जाता है परन्तु जीवन समाप्त नहीं होता है। वह वी नि. ४१३ तक चलता रहा है । ५ माघनन्दिका काल यहाँ वी नि ५७५ से ५७६ तक केवल चार वर्ष दिया गया है, जबकि वहाँ ५६३ से ६१४ तक २१ वर्ष दिया गया है। इसका कारण सम्भवत यह रहा हो कि इनके जीवनकी एक प्रसिद्ध घटनाके अनुसार पट्ट-प्राप्ति के कुछ काल पश्चात् ये चारित्र से भ्रष्ट हो गये थे और कुछ दिनोके या १-२ महीने के पश्चात् दीक्षित होकर अपनी ज्ञान गरिमाके कारण पुन आचार्य पदपर प्रतिष्ठित हो गए थे (दे परिशिष्ट २/१) यहाँ केवल भ्रष्ट होनेसे पहले वाला काल दिया गया है, पुन प्राप्त आचार्यत्व का द्वितीय काल नहीं दूसरी ओर इनकी पूर्ण नहीं है। मह वास्तव में बीनि ५७५ में नन्दि संघकी स्थापनासे प्रारम्भ होती है । सारणी में दो गई यह पूर्वावधि वास्तव में इनके पूर्ववर्ती लिकी उत्तरावधि है जो इन्हे पूवधिके रूप में प्राप्त हो गई है। (निरोष है
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नन्दिसंघ विचार
परिशिष्ट २/१) । ६ इन सब बातोंको ध्यान में रखकर यदि इन तीनके कालका निर्णय किया जाये तो विक्रम राज्यको वी. नि ४८८ में माननेवाली आ इन्द्रनन्दिकी उक्तिके अनुसार भी इनका काल मूलसंघकेसाथ सर्वथा मिल जाता है । १ वर्षका अन्तर रहता है जिसे दूर करनेके लिये भद्रबाहूके काल में १ वर्षकी वृद्धि की जाती है।
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इस प्रकार तीन आचार्योंके कालकी संगति बैठ जानेपर भी कुन्दकुन्द तथा उमास्वामीके कालके साथ इसकी संगति नहीं बैठती है इस आपत्तिको दूर करनेके लिये बन्दी यहाँ निर्दिष्ट कालको विक्रमके राज्याभिषेकसे न मानकर शक संवत् माननेका सुझाव देते है (स.सि / प्र ७८ ) । ऐसा करनेसें यद्यपि कुन्दकुन्द तथा उमास्वामी के साथ दो संगति बैठ जाती है. परन्तु प्रथम सीनका काल गडबडा जाता है जिसके समाधानमे परिद गए इस श्लोक की याद दिलाते है- "गुणधरधरसेनान्वय मुर्वीः पूर्वा परक्रमोऽस्माभि न ज्ञायते ।१३१। इसके अनुसार मूलसघकी पट्टावली (दे, इतिहास ४/४ ) में आप यशोबाहु तथा भद्रबाहु द्वि के मध्य ३-४ नाम और जोड देनेका सुझाव देते है, परन्तु ऐसा करने से आ घरसेन आदिका काल गडबडा जाता है, इसलिये इसका कोई अन्य ही उपाय सोचना चाहिये । पट्टावली में कुन्दकुन्दका काल वि. राज्य संवत् ४६ १०१ दिया गया है जो वीनि ४८८ बाली उक्त मान्यता के अनुसार वो. नि. ५३७५६ आता है जबकि शक संवत्की अपेक्षा वह वी नि ६५४७०६ प्राप्त होता है। दोनोमें ११० वर्षका अन्तर है। इसमें से लोहाचार्य बाले ५० वर्ष घटा देनेपर ६७ वर्ष रहते है। माषनन्दिका ५०६ से ६१४ तकका ३५ वर्ष प्रमाण द्वितीय आचार्यत्व काल जोड लिया जाये तो यह अन्तर संकुचित होकर केवल ३१ वर्ष रह जाता है। इसे यदि जिनचन्द्र के १ वर्ष प्रमाण काल में जोड़कर उनका आचार्यत्व काल ४० वर्ष बना दें तो यह अन्तर पट जाता है और इन्द्रनन्दिकी मान्यता शक संवत् वाली मान्यताके तुल्य हो जाती है । नीचेवाली सारणी में इन दोनो दृष्टियोका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है ।
संकेत - प्र. दृष्टि - विक्रम राज्यको शक संवत् मानकर । द्वि दृष्टिविक्रम राज्यको वीनि ४८८ में मानकर १ वर्षकी यथोक्त वृद्धिके साथ भद्रा कालकी गति बैठा सेनेके उपरान्त उसमें क्रमशः अगले अगलेका आचार्यत्व काल जोडते जाना और साथ साथ उस आचार्यत्व काल में यथोक्त वृद्धि भी करते जाना ।
प्र दृष्टि द्वि दृष्टि विरा. बी.नि. काल बी.नि. ४-२६६०६-६३१ २२ ४२-५१४
विशेषता
१ २९४-५१६ के समान २०२१-२६५ २६-२६६३१-६४१ १० २६५-५७५ १८ २७५-५१३
नाम
भद्रबाहु २
लोहाचार्य
( मायनन्दिप्र. आचार्यत्व ३६ ४० ६४१-६४५ ४ ५७५-५७६ द्वि. २५ २०१६९४ ४०४ ६४५-६५४ १६९४-८२३ ३९ २३-६४४ काल वृद्धि
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पद्म नन्दि
कुकुन्द४६ १०१ ६४४-००६ उमास्वामी १०१-१४२००६-०४०
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नन्दिसंपत्ति तक यति सम्मेशन तक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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भ्रष्ट होने से पहले न दीक्षाके माद
५२ २६४-७०६ ४९ ७०६-४०
२३ ७४७ - ७७० | जैन इतिहासानुसार
लोहाचार्य १९४२-१५२७४०५८ आगे हि दृष्टिका प्रयोजन समा
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