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मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला संस्कृत ग्रन्थांक - ३८
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भाग १
( अ - औ)
क्षु. जिनेन्द्र वर्णी
G
भारतीय ज्ञानपीठ
आठवाँ संस्करण : 2008
मल्य : 180 रुपये
M
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ISBN 81-263-0923-7 (Set)
81-263-0924-5(Part-1)
भारतीय ज्ञानपीठ (स्थापना : फाल्गुन कृष्ण 9; वीर नि. सं. 2470; विक्रम सं. 2000; 18 फरवरी 1944)
पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की स्मृति में साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित
एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमा जैन द्वारा सम्पोषित
मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन
भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनका मूल और
यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की ग्रन्थसूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन-साहित्य ग्रन्थ भी
इस ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं।
ग्रन्थमाला सम्पादक (प्रथम सस्करण) डॉ. हीरालाल जैन एवं डॉ. आ. ने. उपाध्ये
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110 003
मुद्रक : विकास कम्प्यूटर एण्ड प्रिंटर्स, दिल्ली-110032 © भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित
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MOORTIDEVI JAINA GRANTHAMĀLA : Sanskrit Grantha No.38
JAINENDRA SIDHĀNTA KOSA
VOL. I
(31
317)
Kshu. JINENDRA VARNĪ
GOS STO Sa OLOG
BHARATIYA JNANPITH
Eighth Edition : 2003 a
Price : Rs. 180
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ISBN 81-263-0923-7 (Set)
81-263-0924-5 (Part-1)
BHARATIYA JNANPITH
(Founded on Phalguna Krishna 9, Vira N Sam 2470, Vikrama Sam 2000, 18th Feb
1944)
MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA
FOUNDED BY
Sahu Shanti Prasad Jain
In memory of his illustrious mother Smt Moortidevi
and
promoted by his benevolent wife Smt. Rama Jain
In this Granthamala critically edited jain agamic, philosophical, puranic, literary, historical and other original texts in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsha, Hindi, Kannada, Tamil etc
are being published in original form with their translations in modern languages
Also being published are catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies on art and architecture by competent scholars and also popular
Jain literature
General Ediotrs (First Edition) Dr Hiralal Jain & Dr AN Upadhye
Published by
Bharatiya Jnan vith
18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110 003
Printed at Vikas Computer & Printers, Delhi-110 032
© All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith
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प्रकाशकोय प्रस्तुति
'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' के प्रथम भागका यह दूसरा संस्करण प्रकाशित हो रहा है । पहला संस्करण लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था, अप्रैल १९७० में । जैन साहित्यका यह ऐसा गौरव ग्रन्थ है जो अपनी परिकल्पना में, कोश- निर्माण कलाकी वैज्ञानिक पद्धतिमें, परिभाषित शब्दोंकी प्रस्तुति और उनके पूर्वापर आयामोंके संयोजन में अनेक प्रकारसे अद्भुत और अद्वितीय है । इसके रचयिता और प्रायोजक पूज्य क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णीजी आज हमारे बीच नहीं हैं । उनके जीवनकी उपलब्धियोंका चरमोत्कर्ष था उनका समाधिमरण जो ईसरीमें तीर्थराज सम्मेद शिखरके पादमूलमें आचार्य विद्यासागर जी महाराज से दीक्षा एवं सल्लेखना व्रत ग्रहण करके श्री १०५ क्षुल्लक सिद्धान्तसागरके रूपमें २४ मई १९८३ को सम्पन्न हुआ । वह एक ज्योति पंजका तिरोहण था जिसने आजके युगको आलोकित करनेके लिए जैन जीवन और जिनवाणीकी प्रकाशपरम्पराको अक्षत रखा । उनके प्रति बारम्बार नमन हमारी भावनाओंका परिष्करण है ।
भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक दम्पती स्व. श्री साहू शान्तिप्रसाद जैन और उनकी धर्मपत्नी स्वर्गीया श्रीमती रमा जैनने जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशके प्रकाशनको अपना और ज्ञानपीठका सौभाग्य माना था । कोशका कृतित्व पूज्य वर्णीजी की बीस वर्षकी साधनाका सुफल था । मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके सम्पादक-द्वय स्व. डा. हीरालाल जैन और डा. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्येने अपने प्रधान सम्पादकीय में लिखा है—
"जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रस्तुत किया जा रहा है जो ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला संस्कृत सीरीजका ३८वां ग्रन्थ है | यह क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी द्वारा संकलित व सम्पादित है । यद्यपि वे क्षीणकाय तथा अस्वस्थ हैं फिर भी वर्णीजीको गम्भीर अध्ययनसे अत्यन्त अनुराग है । इस प्रकाशनसे ज्ञानके क्षेत्रमें ग्रन्थमालाका गौरव और भी बढ़ गया है । ग्रन्थमालाके प्रधान सम्पादक, क्षु. जिनेन्द्र वर्णीके अत्यन्त आभारी हैं जो उन्होंने अपना यह विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ इस ग्रन्थमालाको प्रकाशनार्थ उपहारमें दिया ।"
उक्त 'प्रधान सम्पादकीय' को और पूज्य क्षु. जिनेन्द्र वर्णीके 'प्रास्ताविक' को हम ज्योंका त्यों इस दूसरे संस्करण में भी प्रकाशित कर रहे हैं। अपने 'प्रास्ताविक' में वर्णीजीने कोशकी रचना प्रक्रिया और विषयनियोजन तथा विवेचनकी पद्धति पर प्रकाश डाला है । ये दोनों लेख महत्त्वपूर्ण हैं और पठनीय हैं ।
यह कोश पिछले अनेक वर्षोंसे अनुपलब्ध था । यह नया संस्करण पूज्य वर्णीजीने स्वयं अक्षर-अक्षर देखकर संशोधित और व्यवस्थित किया है । इस संशोधन कार्य में पूज्य वर्णीजीके कई वर्ष लग गये क्योंकि अनेक नये शब्द उन्होंने जोड़े हैं, कई स्थानोंपर तथ्यात्मक संशोधन, परिवर्तन, परिवर्द्धन किये हैं । 'इतिहास' तथा 'परिशिष्ट' के अन्तर्गत दिगम्बर मूल संघ, दिगम्बर जैनाभासी संघ, पट्टावली तथा गुर्वावलियाँ, संवत्, गुणधर आम्नाय, नन्दिसंघ, आदि शीर्षकोंसे महत्वपूर्ण सामग्री जोड़ी है। इसी प्रकार आचार्योंके नामोंकी सूची में पहले मात्र ३६० नाम थे जो अब बढ़कर ६१८ हो गये हैं । आगम ग्रन्थ सूची में पहले ५०४ ग्रन्थोंके नाम थे, अब यह संख्या ६५१ हो गयी हैं । आचार्य सूची और आगम सूचीका पर्याप्त परिवर्द्धन किया है । पूज्य
जीने यह सब किया, चारों भागोंका संशोधन किया और सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह कि कोशका पांचवां भाग तैयार कर दिया जो चारों भागोंको अनुक्रमणिका है ।
इस कारण यह कोश सर्वांगीण हो गया है । इसकी उपयोगिता और तात्कालिक सन्दर्भ सुविधा कई गुना बढ़ गयी है । इस प्रथम भागकी भाँति शेष तीन भागों का भी दूसरा संशोधित संस्करण शीघ्र ही ज्ञानपीठ
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प्रकाशित कर रही है । इसी क्रम में नया पांचवां भाग भी प्रकाशित होगा। कोशका प्रकाशन इतना अधिक व्यय साध्य हो गया है कि सीमित संख्या में ही प्रतियाँ छापी जा रही है । पाँचो भागों की संस्करण - प्रतियोंकी संख्या समान होगी । अतः संस्थाओं और पाठकोंके लिए यह लाभदायक और आश्वासनकारी होगा कि वह पाँचो भागों के लिए संयुक्त आदेश भेज दें। पांचों भागों के संयुक्त मूल्यके लिये नियमोंकी जानकारी कृपया ज्ञानपीठ - कार्यालय से मालूम कर लें ।
ज्ञानपीठके अध्यक्ष श्री साहू श्रेयांसप्रसाद जी और मैनेजिंग ट्रस्टी श्री साहू अशोक कुमार जैनका प्रयत्न है कि यह बहुमूल्य ग्रन्थ संस्थाओंको विशेष सुविधा नियमों के अन्तर्गत उपलब्ध कराया जाये ।
कोषके इस संस्करणके सम्पादन - प्रकाशन में 'टाइम्स रिसर्च फाउण्डेशन', बम्बई ने जो सहयोग दिया है उसके लिए भारतीय ज्ञानपीठ उनका आभारी है।
प्रथम भाग के इस संस्करणके मुद्रणमें डा. गुलाबचन्द्र जैनने दिल्ली कार्यालय में और टाइम्स आफ इण्डिया, नयी दिल्लीके भूतपूर्व जाब प्रेस मैनेजर श्री यतीशचन्द्र जैनने वाराणसी में बैठकर इसके मुद्रणमें जिस दायित्वका निर्वाह किया है, वह प्रशंसनीय है ।
मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके सम्पादक द्वय - सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्रजी, वाराणसी और विद्यावारिधि डॉ ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊका मार्गदर्शन ज्ञानपीठको सदा उपलब्ध है । हम उनके कृतज्ञ हैं ।
पूज्य दर्शजीने यद्यपि कोश के इस पहले भाग में इस प्रकारका कोई उल्लेख नहीं किया था, किन्तु दूसरे भाग के 'प्रास्ताविक' में ब्रह्मचारिणी कुमारी कौशलजी के सम्बन्धमे जो हा दक उद्गार व्यक्त किये उनके वह आशीष-वचन हम इस संस्करण में भी विशेष रूप से सम्मिलित कर रहे हैं ।
महावीर जयन्ती ३ अप्रैल, १९८५
For Private Personal Use Only
कृते भारतीय ज्ञानपीठ लक्ष्मीचन्द्र जैन
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प्रास्ताविक
[द्वितीय भाग के प्रथम संस्करण से ]
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशके स्वर भाग (अ से औ तक) का प्रकाशन भाग १ के रूपमें ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके अन्तर्गत संस्कृत ग्रन्थांक ३८ के रूपमें पिछले वर्ष १९७० मे हुआ था। उसके बाद एक वर्षके भीतर ही दूसरा भाग क से न तकका छपकर तैयार हो गया और उसी ग्रंथमालाके चालीसवे ग्रयके रूपमे प्रकाशित हो रहा है। सामग्रीके संचयन, सम्पादनसे लेकर मुद्रण प्रकाशन तकका सम्पूर्ण कार्य अत्यन्त श्रमसाध्य रहा है। इसमें जिस-जिसका भी योगायोग रहा है उन सबके प्रति मगल कामना करता हूँ।
इस सन्दर्भमे पानीपत निवासिनी कुमारी कौशलका नाम विशेष उल्लेखनीय है, जिसने इस ग्रथको पाण्डुलिपि तैयार करनेमे सहायता ही नहीं दी, बल्कि गुरु-भक्ति वश अपनी सुध-बुध भूलकर इस कार्यको तत्परताके रूपमे कठिन तपस्या की । प्रभु प्रदत्त इस अनुग्रहको प्राप्त करके मै अपनेको धन्य समझता हूँ। और एकनिष्ठ गुरुभक्ता तपस्विनी व सत्यसाधिकाके लिए प्रभुसे प्रार्थना करता हूँ कि जगत्सम्राज्ञी माया रानीके विविध प्रपंचोसे उसकी रक्षा करते हुए वे उसे निरन्तर सत्य पथ पर ही अग्रसर करते रहे, जिससे कि वह किसी दिन उसोमे इस प्रकार लीन हो जाये कि इस मायाका दर्शन करने के लिए उसे लौटकर आना न पड़े ।
-जिनेन्द्र वर्णी
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GENERAL EDITORIAL
( First Edition)
Jaina Teachers and Authors have richly contributed to the various branches of Indian literature, in different languages. In their exposition of Jaina philosophy and logic, Jaina ontology and mythology and Jaina dogmatics and ethics--in fine, in their treatises primarily devoted to Jainism, they have used a large number of words and expressions with technical and specialised meaning, not ordinarily traced in Sanskrit and Prakrit lexicons. Terms like dharmadravya, pudgala, a stikaya,kşapakaśreņi have, therefore, needed independent definitions and precise explanations. As long as Jaina works were studied in the traditional way and in sectarian schools, the understanding of such terms was more or less a hereditary equipment.
Lately, Jainism is being studied by students of comparative religion; Jaina literature is being viewed as a part of Indian literature; and Jaina contributions to humanistic ideas are being valued on a universal plane, with no special reference to time and place. Secondly, the methods of study are fast undergoing change, and the horizon of learning is also expanding day by day. Hence the need for Bibliographies, Source-books and reference works etc, is being felt by Teachers and Students at every stage in the pursuit of their studies.
When highly technical works like the Gornmațasara were taken up for study and teaching in the Pachasalás, the need of reference manuals was urgently felt; and, as far as we know, the late Pt. GOPAL DASJI BARAIYA composed his Jaina Siddhanta Pravesika as carly as 1909. The Abhidhana-Rajendra-kośa of VIJAYARAJENDRASURI was published from Ratlan,
ven Volumes. It is rather too all-pervasive in its expanse; still it is helpful in locating references and interpretations of a large number of Jaina technical terms. With the inauguration of the Sacred Books of the Jainas, eminent scholars like S. C. GHOSHAL, A. CHAKRAVARTI, T. L. JAINI and others prepared English Translations of some important Taina works: and they were faced with the difficulty of rendering the Jaina technical terms in a proper manner. 'It struck them forcibly' that different translations might employ different English equivalents for the same Jaina word. This destroys uniformity and causes confusion in the mind of a non- Jaina reader of the works. Therefore it was thought best to put together the most important Jaina technical terms and to try to attempt to give fixity to the meaning in which Jaina philosophy employs them. Of course it is idle to claim finality in an undertaking of this kind,' This is what J. L. JAINI said in his Introduction to the Taina Gem Dictionary (Arrah 1918). It is a modest attempt to put together alphabetically Jaina technical terms and to give their meaning in English. It is interesting to note that the basis for this Dictionary is the Jaina Siddhanta Praveśika of GOPAL DAS BARAIYA, noted above. An Illustrated Ardhamagadhi Dictionary (Ajmer-Bombay 1923-32) by RATNACHANDRAJI Satavadhani, in Five (?) Volumes, is helpful in getting explanation of a limited number of technical terms. The Brhat Jaina Sabdarnava,in Two Parts,started by Master BIHARILAL JAIN and completed by SHITAL PRASADJI (in Hindi), Barabanki-Surat, 1924-34, is quite a helpful source book and really an achievement for an individual. There is also the Alpa-paricitasaiddhantika-sabda-kośa, Part I (Surat 1954) of ANANADASAGARASURI which aims at giving
meanings in Hindi of some rare technical words of Jaina Siddhanta.
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Tha Taüge ví jaina literature and the specialised topics covered therein are pretty vast. Naturally a need is felt for topical source books, the excellent specimens of which we have in the Lesya-kośa (Calcutta 1966) and Kriya-kośa (Calcutta 1969) by Shri MOHANLAL BANTHIA and Shri SHRICHAND CHORADIA. They are exhaustive monographs with the topics arranged in a definite pattern.
A Dictionry of Prakrit Proper Names is in the press compiled at the L. D. Institute of Indology, Ahmedabad,
It is in the same line of the publications, noted above, that the Jainendra Siddhanta Kośa Part I, is presented here as No. 38 of the Sanskrit Series of the Jñanpith Mārtidevi Jaina Granthamala It is compiled by Kshu. JiNENDRA VARNI. Though trail in body and indifferent in health VARNIJI is a prodigy of learning; and his dedication to svadhyaya highly exemplary. The Kośa has grown out of his studies of important Jaina works like the Dhavala etc., extending over the last twenty years. It is a source book of topics (alphabetically arranged) drawn fiom a large number of Jain a texts dealing with drauya-, karanacarana,, and prathama-anuyoga. The range of works consulted can be seen from the Samketa sūCI. Extracts from the ba-ic sources are given, so also their Hindi translations, with nece ssary references. There are added many important tables and charts which give the required détails at a glance. For VARNIJI all this is a labour of love and devotion to study; and he has given + scholars a valuable source book of Jaina studies. The academic dignity of the Granthamala is really heightened by this publication. The General Editors are highly obliged to Kshu. JINENDRA VARNIJI for kindly placing this scholorly work at their disposal for publi. cation in the Granthamala.
The Kosas, listed above, are part attempts, and they do not cover the whole range of Jainological studies. Some of them may be having their linitations, if not defects. This is inevitable in all such individual efforts and that too at the early stages of Jainological studies which are still in their infancy. It is these and such other attempts, I am sure, will one day contribute their share to the institutionalised compilation of the Encyclopaedia of Jainism, something on the lines of the Encyclopaedia of Buddhism published by the Government of Ceylon.
Words are inadequate to express our sense of gratefulness to Shriman SAHU SHANTI PRASADAJI and his enlightened wife Smt, RAMA JAIN. Their generosity in the cause of the neglected branches of Indian learning is unbounded; but for their patronage such works could never have seen the light of day. The scholars will ever remain obliged to them for their academic idealism in financing such learned works which have hardly any sale.
It was very kind of Kshu. VARANIJI that he fully cooperated with the General Editors in fixing up the format and typography of the Kosa. Our special thanks are due to Shri L.C. Jain who took personal interest in this work by securing special types etc. Dr. GOKUL CHANDRA JAIN helped us in various ways by being on the spot where this work was printed. The Sanmati Mudranalaya has really earned a feather in its cap by carefully printing this complicated work,
-H. L. Jain
-A. N. Upadhye Mahavira Jayanti April 19, 1970
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प्रधान सम्पादकीय
जैन आचार्यों और साहित्याकारोंने विभिन्न भाषाओंमें भारतीय साहित्यकी विविध विधाओंको अत्यधिक समृद्ध किया है । उन्होंने अपने जैन दर्शन और तर्क शास्त्र, जैन सत्त्वविद्या और पौराणिक कथा, जैन सिद्धान्त व नीतिशास्त्र तथा अन्य प्रबन्धों-कृतियों में मूल रूपसे जैनधर्मका सुन्दर प्रतिपादन किया है। जैन सिद्धान्तोंकी इस प्रस्तुतिमें उन्होंने बहुसंख्यामे ऐसे पारिभाषिक और विशेषार्थ गभित शब्दोंका प्रयोग किया है जिन्हें प्रायः संस्कृत और प्राकृत शब्दकोशोंमें नहीं देखा-खोजा जा सकता । अताव इस स्थितिमें धर्मद्रव्य, पुद्गल, अस्तिकाय, क्षपकवेणि आदि जैसे पारिभाषिक शब्दोंकी पृथक् परिभाषाएं और यथार्थ व्याख्याएं उपस्थित करना आवश्यक हो गया है। जब तक जैन साहित्यका अध्ययन परम्परानुसार और साम्प्रदायिक विद्यालयोंमें कराया गया, ऐसे पारिभाषिक शब्दोंकी समझ होनाधिक रूपमें एक पैतृक सम्पत्तिकी प्राप्ति जैसो थी।
___ आज अध्येताओं द्वारा जैनधर्मका अध्ययन तुलनात्मक रूपसे किया जा रहा है, जन साहित्यको भारतीय साहित्यका एक अभिन्न अंग माना जा रहा है, तथा समय और स्थानके विशेष दायरेसे निकलकर मानवीय आदर्शोंके क्षेत्रमें विश्व आयाम पर जैनधर्मके योगदानोंको मापा जा रहा है । इसके अतिरिक्त अध्ययनको रीतियाँ शोघ्रतासे बदल रही हैं और ज्ञानका क्षेत्र भी अहर्निश विस्तृत होता जा रहा है। परिणाम स्वरूप प्राध्यापकों और विद्यार्थियों द्वारा अध्ययनकी दिशामें पग-पग पर ग्रन्थ सूचियों, मूल स्रोत ग्रन्थों तथा सन्दर्भ ग्रन्थोंकी कमीका अनुभव किया जा रहा है।
जब पाठशालाओंमें अध्ययन-अध्यापन के लिए गोम्मटसार जैसे पारिभाषिक लाक्षणिक ग्रन्थोंको चुना जाता था, तब इस प्रकारके शब्दकोशोंकी आवश्यकताका अनुभव अधिक होता था। और जहाँ तक हमें ध्यान है, स्वर्गीय पं० गोपालदास जी बरैयाने इसी अभावकी पूर्तिके लिए सन् १९०९ में जैन सिद्धान्त प्रवेशिकाकी रचना की थी। सन् १९१४ में रतलामसे विजयराजेन्द्रसूरिका अभिधान राजेन्द्र कोश सात भागों में प्रकाशित हुआ था। यद्यपि उसका विस्तार अत्यधिक है, फिर भी वह बहुतसे जैन पारिभाषिक शब्दोंके उद्धरण तथा व्याख्याओंको खोजनेमें उपयोगी सिद्ध हुआ है। एस. सी. घोषाल, ए. चक्रवर्ती, जे. एल. जैनी प्रभुति प्रमुख विद्वानोंने सेकेड बुक्स ऑफ द जैनाज़ की स्थापना की और उसके अतर्गत कुछ महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थोंका आंग्लभाषा (अँगरेज़ी, में अनुवाद तैयार किया। उन्हें जैन पारिभाषिक शब्दोंके सही अनुवादमें अनेक कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा । जे. एल. जेनीने जैन जेम डिक्शनरी (आरा, १९१८) की प्रस्तावना में स्वयं इस बातको स्त्रोकारा है। उन्होंने कहा है-"यह उन्हें अनुभव हुआ कि एक ही जैन शब्दके विभिन्न अनुवादोंमें विभिन्न अंगरेजी पर्याय प्रयुक्त हो सकते है। इससे एकरूपता समाप्त हो जाती है और ग्रन्थोंके जैनेतर पाठकोंके मनमें दुविधाका कारण बन जाता है। इसलिए सबसे अच्छा उपाय सोचा गया कि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जैन पारिभाषिक शब्दोंको साथ रखा जाय और जैन दर्शनके भालोकमें सही अर्थ प्रस्तुत करनेका प्रयल किया जाय । निश्चय ही इस तरहके कार्यको अन्तिम कहना उपयुक्त न होगा। यह उत्तम प्रयास है कि जैन पारिभाषिक शब्दोंको वर्ण-क्रमानुसार नियोजित किया जाय और उनका अनुवाद अंगरेजीमें दिया जाय ।" यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत शब्दकोशका अाधार स्व. पं० गोपालदास जी बरैया द्वारा रचित उपर्युक्त जैन सिद्धान्त प्रवेशिका है । अजमेर-बम्बईसे सन् १९२३-३२ में प्रकाशित रत्नचन्द्रजी शतावधानीकी एन इलस्ट्रेटेड अर्धमागधी डिक्शनरीके पांच (?) भाग सीमित संख्यामें जैन पारिभाषिक शब्दोंकी व्याख्या पानेमें सहायक होते हैं। सन् १९२४-३४ में दो भागोंमें बाराबंकी व सूरतसे प्रकाशित बृहज्जैन शब्दार्णव (हिन्दी) जिसे प्रारम्भ किया था मास्टर बिहारी लाल जैनने और समाप्त किया था ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी ने । यह भी काफी उपयोगी है और वस्तुतः एक व्यक्तिके लिए महत्त्वपूर्ण कार्य है। आनन्दसागरसूरिका 'अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोश' भाग १ (सूरत १९५४) भी उपलब्ध है जिसका उद्देश्य कुछ जैन सैद्धान्तिक शब्दोंका अर्थ हिन्दी भाषा में प्रस्तुत करना रहा है।
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जैन साहित्य और उसमें आगत विशेष विषयोंका क्षेत्र बहुत विस्तृत है। स्वभावतः विषय विशेष पर आधार-ग्रन्थोंकी आवश्यकताका अनुभव किया जाता है । इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं लेश्या कोश (कलकत्ता, १९६६ ) और क्रिया कोश (कलकत्ता १९६९ ) जिनका संकलन व सम्पादन सर्व श्री मोहनलाल बांठिया तथा श्रीचन्द चौरडियाने किया है । ये एक निश्चित रीतिसे विषयवार व्यवस्थित ग्रन्थ हैं।
लालभाई दलपतभाई भारतीय विद्या मन्दिर, अहमदाबाद द्वारा प डिक्शनरी ऑफ प्राकृत प्रापर नेम्स्' कोश तैयार कराया गया है जो मुद्रणमें है।
उपर्युक्त प्रकाशनोंकी तरह ही यहाँ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १ प्रस्तुत किया जा रहा है, जो ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला संस्कृत सीरिजका ३८वाँ ग्रन्थ है। यह क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णों द्वारा संकलित व सम्पादित है । यद्यपि वे क्षीण काय तथा अस्वस्थ हैं फिर भी वर्णोजीको गम्भीर अध्ययनसे अत्यन्त अनुराग है। स्वध्यायके प्रति उनका यह समर्पण उदाहरणीय है । लगभग बीस वर्षके उनके सतत अध्ययनका यह परिणाम है कि धवला आदि जैसे महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थोंपर आधारित यह कोश तैयार किया गया है । यह कोश द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा प्रथमानुयोगके विषयोंका वर्ण-क्रमानुसार विवेचन करनेवाला ग्रन्थ है । सन्दर्भ ग्रन्थोंको सकेत सूचीसे देखा जा सकता है। मूल ग्रन्थोंके उद्धरण दिये गये हैं, उनके साथ हिन्दी अनुवाद भी हैं और उद्धृत ग्रन्थोंके संकेत भी। इसमें अनेक महत्वपूर्ण सारणियाँ और रेखाचित्र भी जोड दिये गये है जिनके माध्यमसे विस्तृत विषयको एक ही दृष्टिमें देखा जा सकता है । वर्णीजीका यह सब कार्य अध्ययनके प्रति स्नेह और भक्तिका प्रतीक है । इस प्रकाशनसे ज्ञानके क्षेत्रमें ग्रन्थमालाका गौरव और भी बढ़ गया है । ग्रन्थमालाके प्रधान सम्पादक क्षु. जिनेन्द्र वर्णीजीके अत्यन्त आभारी हैं जो उन्होंने अपना यह विद्वता. पूर्ण ग्रन्थ इस ग्रन्थमालाको प्रकाशनार्थ उपहारमें दिया। आशा है कि आगेके भाग भी शीघ्र तैयार होंगे ।
उपर्युक्त सभी कोश आंशिक प्रयत्न हैं और उनमें जैनधर्मसे सम्बन्धित सभी विषय नहीं आ पाये । इनमेंसे कई एककी अपनी सीमाएं रही हैं यदि कमियाँ नहीं तो। इस प्रकारके व्यक्तिगत प्रयत्नोंमें यह सब सम्भव है और वह भी उस अवस्थामें जब जैनधर्मका अध्ययन प्रारम्भिक स्थितिमें था, जो आज भी शैशवावस्थामें है । ये और इस प्रकारके अन्य प्रयत्न, विश्वास है कि एक दिन श्री लंका सरकार द्वारा प्रकाशित इन्साइक्लोपिडिया ऑफ बुद्धिज्मकी तरह इनसाइक्लोपीडिया ऑफ जैनिज्मके निर्माणमें अपना योगदान देंगे।
श्रीमान् साहू शान्तिप्रसाद जी व उनकी विदुषी पत्नी श्रीमती रमा जैनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए शब्द अपर्याप्त है। भारतीय विद्याकी उपेक्षित शाखाओंके उद्धारके प्रति उनकी उदारता असोमित है। अन्यथा इस प्रकारके साहित्यिक कार्योंका प्रकाशन सम्भव नहीं होता। विद्वन्मण्डल उनके इस पुनीत विद्यानुरागके प्रति चिर ऋणी रहेगा कि उन्होंने कठिनाईसे बिकने वाली इस पुस्तककी अर्थ व्यवस्था कर इसे प्रकाशित किया है।
क्षु. वर्णीजीकी बड़ी कृपा रही कि उन्होंने ग्रन्थमाला सम्पादकोंको कोशके प्रकाशनमें पूर्ण सहयोग दिया। श्री लक्ष्मीचन्द्रजी जैन, हमारे विशेष धन्यवादके पात्र हैं जिन्होंने प्रस्तुत कार्यमें व्यक्तिगत रुचि लेकर विशेष टाइप आदि की व्यवस्था की है । डॉ. गोकुलचन्द्रजी जैनने मुद्रण स्थान पर उपस्थित रहकर हमें विविध प्रकार से सहयोग दिया है। सन्मति मुद्रणालयने इस पेचीदे कार्यको सावधानतापूर्वक मुद्रित कर विशेष कीर्ति अजित की है। महावीर जयन्ती
-हीरालाल जैन १९ अप्रैल, १९७०
-आ. ने. उपाध्ये
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प्रास्ताविक [प्रथम संस्करण से]
लगभग सत्रह वर्षोंसे शास्त्र स्वाध्यायके समय विशिष्ट स्थलोंको निजी स्मृतिके लिए सहज लिख कर रख लेता था। धीरे-धीरे यह संग्रह इतना बढ़ गया, कि विद्वानोंको इसकी सार्वजनीन व महती उपयोगिता प्रतीत होने लगी। उनकी प्रेरणासे तीन वर्षके सतत परिश्रमसे इसे एक व्यवस्थित कोशका रूप दे दिया गया।
शब्दकोश या विश्वकोशकी तुलनामें इसकी प्रकृति कुछ भिन्न होनेके कारण, इसे 'सिद्धान्त कोश' नाम दिया गया है। इसमें जैन तत्त्वज्ञान, आचारशास्त्र, कर्मसिद्धान्त, भूगोल, ऐतिहासिक तथा पौराणिक व्यक्ति, राजे तथा राजवंश, आगम, शास्त्र व शास्त्रकार, धार्मिक तथा दार्शनिक सम्प्रदाय आदिसे सम्बन्धित लगभग ६००० शब्दों तथा २१००० विषयोंका सांगोपांग विवेचन किया गया है । सम्पूर्ण सामग्री संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंशमें लिखित प्राचीन जैन साहित्यके सौसे अधिक महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रन्थोंसे मूल सन्दर्भो, उद्धरणों तथा हिन्दी अनुवादके साथ संकलित की गयी है। शब्द संकलन तथा विषय विवेचन
शब्द संकलन कोश ग्रन्थोंकी शैलीपर अकारादिसे किया गया है तथा मूल शब्दके अन्तर्गत उससे सम्बन्धित विभिन्न विषयोंका विवेचन किया गया है। ऐतिहासिक क्रमसे मूल ग्रन्थोंके सन्दर्भ संकेत देकर विषयको इस रूपमें प्रस्तुत किया गया है कि विभिन्न ग्रन्थोंमें उपलब्ध उस विषयकी सम्पूर्ण सामग्री एक साथ उपलब्ध हो जाये और अनुसन्धाता विद्वानों, स्वाध्याय प्रेमी, मनीषियों, साधारण पाठकों तथा शंका समाधानोंके लिए एक विशिष्ट आकर ग्रन्थका काम दे।
ज्ञब्द संकलनमें पंचम वर्ण (ङ्, ञ्, ण, न्, म्) की जगह अनुस्वार ही रखा गया है और उसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है । जैसे 'अंक' शब्द 'अकंपन' से पहले रखा गया ।
विवेचनमें इस बातका ध्यान रखा गया है कि शब्द और विषयकी प्रकृतिके अनुसार, उसके अर्थ, लक्षण, भेद-प्रभेद, विषय विस्तार, शंका-समाधान व समन्वय आदिमें जो जो जितना जितना अपेक्षित हो, वह सब दिया जाये ।
जिन विपयोंका विस्तार बहुत अधिक है उनके पूर्व एक विषय सूची दे दी गयी है जिससे विषय सहज ही दृष्टिमें आ जाता है।
संकलनमें निम्नलिखित कुछ और भी बातोंका ध्यान रखा गया है
१. दो विरोधी विपयोंको प्रायः उनमें से एक प्रमुख विषयके अन्तर्गत संकलित किया गया है। जैसे हिंसाको अहिंसाके अन्तर्गत और अब्रह्मको ब्रह्मचर्यके अन्तर्गत ।
२. समानधर्मा विभिन्न शब्दों और विपयोंका प्रधान नामवाले विषयके अन्तर्गत विवेचन किया गया है जैसे शीलका ब्रह्मचर्यके अन्तर्गत; वानप्रस्थ आश्रम व व्रती गृहस्थका श्रावकके अन्तर्गत ।
३. सिद्धान्तकी २० प्ररूपणाओं अर्थात् गुणस्थान, पर्याप्ति, प्राण, जीवसमास, संज्ञा, उपयोग व १४ मार्गणाओंको पृथक्-पृथक् स्व स्व नामोंके अनुसार स्वतन्त्र स्थान दिया गया है। और उन सम्बन्धी सर्व विभिन्न विषयोंमें 'देखो वह वह विषय' ऐसा नोट देकर छोड़ दिया है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिए।
४. उपर्युक्त नम्बर ३ की भाँति ही सप्त तत्त्व, नव पदार्थ, षद्रव्य, बन्ध, उदय, सत्त्वादि १० करण, सत् सख्यादि ८ अनुयोगद्वार आदिके साथ भी समझना चाहिए, अर्थात् पृथक् पृथक् तत्त्वों व द्रव्यों आदिको पृथक् पृथक् स्वतंत्र विषय ग्रहण करके संकलित किया गया है।
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५. १४ मार्गणाओंका सत्, संख्यादि ८ प्ररूपणाओंकी अपेक्षा जो विस्तृत परिचय देनेमें आया है उसका ग्रहण उन उन मार्गणाओंमें न करके सत् सख्यादि आठ अनुयोग द्वारोंके नामोंके अन्तर्गत किया गया है।
६. किसी भी विषयके अपने भेद-प्रभेदोंको भी उसी मूल विषयके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है। जैसे उपशमादि सम्यकदर्शनके भेदोंको 'सम्यग्दर्शनके अन्तर्गत'।
७. कौन मार्गणा व गुणस्थानसे मरकर कौन मार्गणामें उत्पन्न होवे तथा कौन-कौन गुण धारण करनेकी योग्यता रहे, इस नियम व अपवाद सम्बन्धी विषयको 'जन्म' नामके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है।
८. जीव समासों, गुणस्थानों, मार्गणा स्थानों, प्राण तथा उपयोगादि २० प्ररूपणाओंके, स्वामित्वको ओघ व आदेशके अनुसार सम्भावना व असम्भावना 'सत्' शीर्षकके अन्तर्गत ग्रहण की गयी है।
९. अन्य अनेकों विषय प्रयोग उस उस स्थानपर दिये गये नोटके द्वारा जाने जा सकते हैं। सारणियाँ एवं चित्र
विषयके भेद-प्रभेदों, करणानुयोगके विभिन्न विषयों तथा भूगोलसे सम्बन्धित विषयोंको रेखाचित्रों, सारणियों तथा सादे एवं रंगीन चित्रों द्वारा सरलतम रूपमें इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि विशालकाय ग्रन्थोंकी बहुमूल्य सामग्री सीमित स्थानमें चित्रांकितकी तरह एक ही दृष्टिमें सामने आ जाती है। मार्गणा स्थान, गुणस्थान, जीवसमास, कर्मप्रकृतियाँ, ओघ और आदेश प्ररूपणाएँ, जीवोंकी अवगाहना, आयु आदिका विवरण, त्रेसठ शलाका पुरुषोंकी जीवनियोंका ब्यौरेवार विवरण, उत्कर्षण, अपकर्षण, अधःकरण, अपूर्वकरण आदिका सूक्ष्म एवं गूढ़ विवेचन, जैन मान्यतानुसार तीन लोकोंका आकार, स्वर्ग और नरकके पटल, मध्यलोकके द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदियाँ आदिको लगभग तीन सौ सारणियों एवं चित्रों द्वारा अत्यन्त सरल एवं सुरुचिपूर्ण ढंगसे प्रस्तुत किया गया है। मुद्रण प्रस्तुति
___ अबतक प्रकाशित कोशों या विश्वकोशोंकी अपेक्षा इस कोशकी मुद्रण प्रस्तुति भी किंचित् विशिष्ट है । सब छह प्रकारके टाइपोंका उपयोग इस तरह किया गया है कि मूल शब्द, विषयशीर्षक, उपशीर्षक, अन्तरशीर्षक, अन्तरान्तरशीर्षक तथा सन्दर्भ संकेत, उद्धरण और हिन्दी अर्थ एक ही दृष्टिमें स्वतंत्र रूपमें स्पष्ट ज्ञात हो जाते हैं। सामग्रीका समायोजन भी वर्गीकृत रूपमें इस प्रकार प्रस्तुत है कि टाइपोंका इतना वैभिन्न्य होते हुए भी मुद्रणका सौन्दर्य निखरा है। कृतज्ञता ज्ञापन
प्रस्तुत कोशकी रचनाका श्रेय वास्तवमें तो उन ऋषियों, आचार्योंको है, जिनके वाक्यांश इसमें संगृहीत हैं। मेरी तो इससे अज्ञता ही प्रकट होती है कि मैं इन्हें स्मृतिमें न सँजो सका इसलिए लिपिबद्ध करके रखा।
शास्त्रोंके अथाह सागरका पूरा दोहन कौन कर सकता है ? जो कुछ भी गुरुकृपासे निकल पाया, वह सब स्व-पर उपकारार्थ साहित्य प्रेमियोंके समक्ष प्रस्तुत है। इसमें जो कुछ अच्छा है वह उन्हीं आचार्योंका है। जो त्रुटियाँ हैं, वे मेरी अल्पज्ञताके कारण हैं । 'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे।' आशा है विज्ञ जन उन्हें सुधारनेका कष्ट करेंगे।
अत्यधिक धनराशि तथा प्रतिभापूर्ण असाधारण श्रमसापेक्ष इस महान् कृतिका प्रकाशन कोई सरल कार्य न था। प्रसन्नता व उत्साहपूर्वक 'भारतीय ज्ञानपीठ' ने इस भारको सँभालनेकी उदारता दर्शाकर, जैन संस्कृति व साहित्यिक जगत्की जो सेवा की है उसके लिए मानव समाज युग-युग तक इसका ऋणी रहेगा।
-जिनेन्द्र वर्णी
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संकेत-सूची
अ.ग.श्रा..../.. अन.ध..../.../... आ.अनु.... आप..../.../... आप्त.प ..../.../... आप्त.मी... इ.उ./मू..../... क.पा.--1S.../.../... का.अ./मू.... कुरल....1... क्रि.क.../.../... क्रि.को.... क्ष.सा./मू..../... गुण.श्रा.... गो.क./मू..../... गो.क./जी.प्र........... गो.जी./मू..../... गो.जी./जो.प्र..../.../... ज्ञा..../.../... शा.सा... चा.पा./मू .../... चा.सा .../... ज.प..../... जै.सा..../... जै.पी ... त.अनु.... त.वृ..../.../.../... त.सा..../.../... त.सू..../... ति.प..../... ती.... त्रि.सा.... द.पा./मू..../... द.सा....
अमितगति श्रावकाचार अधिकार सं./श्लोक सं., पं. वंशीधर शोलापुर, प्र.सं., वि.सं. १९७६ अनगारधर्मामृत अधिकार सं./ श्लोक सं./पृष्ठ सं..६. खूबचन्द शोलापुर. प्र. सं., ई. १.६.१९२७ आत्मानुशासन श्लोक सं. आलापपद्धति अधिकार सं/सुत्र सं./पृष्ठ सं, चौरासी मथुरा, प्र.सं., वी. नि. २४५६ आप्तपरीक्षा श्लोक सं./प्रकरण सं./पृष्ठ सं , वीरसेवा मन्दिर सरसावा, प्र. सं., वि.सं. २००६ आप्तमीमांसा श्लोक सं. इष्टोपदेश/मूल याटोका श्लो.सं /पृष्ठ सं.(समाधिशतक के पीछे पं.आशाधरजीकृत टीका, वीरसेवा मन्दिर दिल्ली कषायपाहुड़ पुस्तक सं. भाग सं./$प्रकरणसं /पृष्ठसं./पंक्ति सं., दिगम्बर जैनसंघ, मथुरा,प्र.सं.,वि.सं.२००० कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल या टोका गाथा सं., राजचन्द्र ग्रन्थमाला, प्र.सं.ई.१९६० कुरल काव्य परिच्छेद सं./श्लोक सं.,पं.गोविन्दराज जैन शास्त्री, प्र.सं..वी.नि.सं. २४८० क्रियाकलाप मुख्याधिकार सं.-प्रकरण सं.श्लोक सं./पृष्ठ सं., पन्नालाल सोनी शास्त्री आगरा,वि.सं.१९१३ क्रियाकोश श्लोक सं,पं.दौलतराम क्षपणसार/मूल या टीका गाथा सं./पृष्ठ सं., जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता गुणभद्र श्रावकाचार श्लोक सं. गोम्मटसार कर्मकाण्ड/मुल गाथा सं./पृष्ठ सं, जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता गोम्मटसार कर्मकाण्ड/जीव तत्त्व प्रदोपिका टोका गाथा सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं.,जैन सिद्धान्त प्रका. संस्था गोमट्टसार जोक्कापड/मूल गाथा सं./पृष्ठ स., जनसिद्वान्त प्रकाशिनो संस्था, कलकत्ता गोमट्टसार जीवकाण्ड/जीव तत्त्वप्रदीपिका टीका गाथा सं./पृष्ठ सं./क्ति सं..जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था ज्ञानार्णव अधिकार सं./दोहक सं./पृष्ठ सं. राजचन्द्र ग्रन्थमाला, प्र.सं. ई. १९०७ ज्ञानसार श्लोक सं. चारित्त पाहुड़/मूल या टोका गाथा सं /पृष्ठ सं., माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र.सं., वि.सं. १९७७ चारित्रसार पृष्ठ सं./पंक्ति सं., महावीर जी, प्र.सं.. वी.नि. २४८८ जंबूदोवपण्णत्तिसंगहो अधिकार स./गाथा सं., जैन संस्कृति संरक्षण संघ, शोलापुर, वि.सं.२०१४ जैन साहित्य इतिहास खण्ड सं./पृष्ठ सं., गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, वी.नि. २४८१ जैन साहित्य इतिहास/पूर्व पीठिका पृष्ठ सं. गणेशपसाद वर्णी ग्रन्थमाला, वा.नि. २४८१ त्वानुशासन श्लोक सं., नागसेन सरिकृत, वीर सेवा मन्दिर देहली. प्र.सं., ई. १६६३ तत्त्वार्थवृत्ति अध्याय सं./सूत्र सं./पृष्ठ सं /पंक्ति सं., भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र.सं. ई. १६४६ तत्त्वार्थसार अधिकार सं./श्लोक सं./पृष्ठ सं.,जैनसिद्धान्त प्रकाशिनो संस्था कलकत्ता, प्र.सं.ई.स.१६३६ तत्त्वार्थसूत्र अध्याय सं./सूत्र सं. तिलोयपण्णत्ति अधिकार सं./गाथा स., जोवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र.सं. वि.सं. १६६४ तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृष्ठ स. दि. जैन विद्वपरिषद्, सागर, ई. १६७४ त्रिलोकसार गाथा सं., जैन साहित्य बम्बई, प्र. सं., १६१८ दर्शनपाहुड़/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र.स., वि.सं. १९७७ दर्शनसार गाथा सं.. नाथूराम प्रेमी, बम्बई, प्र.सं., वि. १६७४ द्रव्यसंग्रह मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ स., देहली, प्र.सं ई. १६५३ धर्म परीक्षा श्लोक सं. धवला पुस्तक सं / खण्ड सं, भाग, सूत्र/पृष्ठ सं./पंक्ति या गाथा सं., अमरावती, प्र. सं. नयचक्र बृहद् गाथा सं. श्रीदे सेवनाचार्यकृत, माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला, अम्बई प्र. सं., वि. सं. १९७७ नयचक्र/श्रुत भवन दीपक अधिकार सं/पृष्ठ सं.,सिद्ध सागर, शोलापुर नियमसार मूल या टीका गाथा सं. नियमसार/तात्पर्य वृत्ति गाथा सं./कलश सं. न्यायदीपिका अधिकार म./प्रकरण सं/पृष्ठ सं./पंक्ति में वीरसेवा मन्दिर देहली. प्र.सं. वि.सं २००२ न्यायबिन्दु/मूल या टीका श्लोक सं., चौखम्बा संस्कृत सीरीज, बनारस न्यायविनिश्चय/मूल या टीका अधिकार सं./श्लोक ./पृष्ठ सं./पंक्ति सं., ज्ञानपीठ बनारस न्यायदर्शन सूत्र/मूल या टीका अध्याय सं./आह्निक/सूत्र सं./पृष्ठ सं. मुजफ्फरनगर, द्वि.सं..ई.१९३४ पंचास्तिकाय/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं., परमश्रत प्रभाव क मण्डल, बम्बई. प्र.सं..वि. १९७२ पंचाध्यायी/पूर्वार्ध श्लोक सं. पं.देवकोनन्दन. प्र. सं., ई. १९३२ पंचाध्यायी/उत्तरार्ध श्लोक सं.,६.देवकीनन्दन, प्र.सं. ई १९३२ पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार सं/श्लोक सं. जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र.सं..ई १९३२ पंचसंग्रह/प्राकृत अधिकार सं /गाथा सं.. ज्ञानपीठ , बनारस प्र. सं. ई. १९६० पंचसंग्रह/संस्कृत अधिकार सं./श्लोक सं , पं. सं./प्रा. की टिप्पणी, प्र. सं., ई. १६६०
ध.प... ध..../11/.../... न च.बृ.... न.च./श्रुत..../... नि.सा./मू.... नि.सा/ता.वृ..../क... न्या.दी..../.../.../... न्या.बि./मू.... न्या.वि./मू..../.../.../... न्या.सू./मू..../.../.... पं का./मू..../... पं.ध./पू. .. पं.ध./उ.... पं.वि..../... पं.सं./प्रा..../...
पं.सं./सं..../...
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प.मु..../.../... प.प्र./मु..../.../... पा.पु....... पु.सि .. प्रसा ./मू....... प्रति.सा..../... बा.अ.... बो.पा./म्..../... बृ.जे. श... भ आ./मू.... ... भा.पा./मू..../... म.पु..../... म.बं..../.../... मूला.... मो.पं.... मो.पा/मू..../... मो.मा.प्र..../.../... यु.अनु.... यो.सा.अ..../... यो.सा.यो.... र.क.श्रा.... र.सा.... रा.वा..../.../.../... रा.वा.हि..../.../...
पद्मपुराण सर्ग/श्लोक सं., भारतीय ज्ञानपीठ बनारस, प्र.सं., वि.सं. २०१६ परीक्षामुख परिच्छेद सं./सूत्र सं./पृष्ठ सं., स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी,प्र. सं. परमात्मप्रकाश/मूल या टोका अधिकार सं./गाथा सं./पृष्ठ सं., राजचन्द्र ग्रन्धमाला, द्वि.सं., वि.सं. २०१७ पाण्डव पुराण सर्ग सं./श्लोक सं.. जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र.सं., ई. १९६२ पुरुषाथ सिध्युपाय श्लोक सं. प्रवचनसार/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं. प्रतिष्ठासारोद्धार अध्याय सं./श्लोक सं. बारस अणुवेक्वा गाथा सं. बोधपाहुड़/मूल या टीका गाया स./पृष्ठ सं. माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र. सं., वि. सं. १९७७ बृहत जैन शब्दाणव/द्वितीय खंड/पृष्ठ सं., मूलचंद किशनदास कापड़िया, सूरत, प्र.सं..वी.नि. २४६० भगवती आराधना/मूल या टीका गाथा सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं., सखाराम दोशी, सोलापुर, प्र.सं., ई. १९३५ भाव पाहुड़/मूल या टीका गाथा सं./पृष्ठ सं., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, सम्बई, प्र.सं., विसं. १९७७ महापुराण सर्ग सं./श्लोक सं., भारतीय ज्ञानपीठ, मनारस, प्र. सं., ई. १९५१ महाबन्ध पुस्तक सं./ प्रकरण सं./पृष्ठ सं., भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र.सं.,ई. १९५१ मुलाचार गाथा सं..अनन्तकोति ग्रन्थमाला, प्र. सं., वि. सं. १९७६ मोक्ष पंचाशिका श्लोक सं. मोक्ष पाहुड़/मूल या टीका गाया सं./पृष्ठ सं., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र. सं..वि. सं. १९७७ मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं., सस्ती ग्रन्थमाला, देहली, द्वि.सं., वि.सं. २०१० युक्त्यनुशासन श्लोक सं., वीरसेवा मन्दिर, सरसावा. प्र. सं, ई. १९५१ योगसार अमितगति अधिकार संश्लिोक सं., जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता, ई.सं. १९९८ योगसार योगेन्दुदेव गाथा सं., परमात्मप्रकाशके पीछे छपा रस्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक सं. रयणसार गाथा सं. राजबार्तिक अध्याय सं./सूत्र स पृष्ठ सं./पंक्ति सं., भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र.स., वि.स. २००५ राजवार्तिक हिन्दी अध्याय सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं. लब्धिसार/मूल या टीका गाथा सं./पृष्ठ सं., जैन सिद्वान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता, प्र.सं. लाटी संहिता अधिकार सं /श्लोक सं./पृष्ठ सं. लिंग पाहड़/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, प्र.सं., वि.सं. १९७७ वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा सं, भारतीय ज्ञानपीठ ,बनारस, प्र. सं.. वि.सं. २००७ वैशेषिक दर्शन/अध्याय स./आह्निक/सूत्र सं./पृष्ठ सं.. देहली पुस्तक भण्डार देहली, प्रसं.. वि.सं. २०१७ शील पाहुड/मूल या टीका गाथा सं./पंक्ति सं., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई, प्र. सं., वि.सं. १९७७ श्लोकवार्तिक पुस्तक सं./अध्याय सं./सूत्र सं./वातिक सं./पृष्ठ सं., कुन्थुसागर ग्रन्थमाला शोलापुर, प्र.सं.,
ई. १९४१-१६५६ षटखण्डागम पुस्तक सं./खण्ड सं., भाग, सूत्र/पृष्ठ सं. सप्तभङ्गीतरङ्गिनी पृष्ठ सं./पंक्ति सं., परम श्रुत प्रभावक मण्डल, द्वि.सं., वि.सं. १९७२ स्याद्वादमञ्जरी श्लोक सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं.. परम श्रुत प्रभावक मण्डल, प्र.सं. १६११ समाधिशतक/मूल या टीका श्लोक सं./पृष्ठ सं., इष्टोपदेश युक्त, वीर सेवा मन्दिर, देहली, प्र.सं., २०२१ समयसार/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं., अहिंसा मन्दिर प्रकाशन, देहली,प्र.सं.३१.१२.१६१८ समयसार/आत्मख्याति गाथा सं./कलश स. सर्वार्थसिद्धि अध्याय सं./सूत्र सं./पृष्ठ स., भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र.सं. ई. १९५६ स्वयम्भू स्तोत्र श्लोक सं , वीरसेवा मन्दिर सरसावा, प्र. सं., ई. १९५१ सागार धर्मामृत अधिकार सं./श्लोक सं. सामायिक पाठ अमितगति श्लोक सं. सिद्वान्तसार संग्रह अध्याय सं./रलोक सं., जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र. सं. ई. १९९७ सिजिविनिश्चय/मूल या टोका प्रस्ताव सं./श्लोक सं./पृष्ठ सं./पंक्ति संभारतीय ज्ञानपीठ, प्र.सं.ई.१६१ सभाषित रत्न सदोह श्लोक सं. (अमितगति), जेन प्रकाशिनी संस्था. कलकत्ता, प्र.सं..ई. १९१७ सूत्र पाहुड/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं..माणकचन्द्र ग्रन्थमाला बन्बई,प्र.सं.वि.सं.१९७७ हरिवंश पुराण सर्ग/श्लोक/सं, भारतीय ज्ञानरठ, बनारस, प्र.सं.
ला.सं..../.../... लि.पा./मू..../... वसु.श्रा.... वै.द..../.../.../... शी.पा./मू .../... श्लो .वा..../.../.../.../...
ष.वं..../10/... सभात..../... स.म..../.../... स.श./मू........ स.सा.मू..../.../... स.सा./आ..../क स.सि..../.../... स. स्तो... सा.ध..../... सा.पा..... सि.सा.सं..../... सि.वि./मू..../.../.../... सु.र.सं.... सू.पा./.......
नोट : भिन्न-भिन्न कोष्ठकों व रेखा चित्रों में प्रयुक्त संकेतोंके अर्थ मसे उस उस स्थल पर ही दिये गये हैं।
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
( क्षु० जिनेन्द्र वर्णो )
व्यापिनीं सर्वलोकेषु सर्वतत्त्वप्रकाशिनीम् । अनेकान्तनयोपेतां पक्षपातविनाशिनीम् ॥ १ ॥ अज्ञानतमसंहर्त्री मोह-शोकनिवारिणीम् । देह्यद्वैतप्रभां मह्यं विमलाभां सरस्वति ! ॥ २ ॥
[ अं ]
अंक १. (घ.५/प्र.२७) Number | २. सौधर्म स्वर्ग का १७ पटल इन्द्रक - दे, स्वर्ग ५/३ । ३, रुचक पर्व तस्थ एक कूट- दे. लोक ५/१३ । ४. मानुषोत्तर व कुण्डल पर्वतस्थ कूट- दे. लोक ५ / १०,१२ । अंकगणना (ध. ५/प्र./२७ ) Numeration j अंकगणित - (ध. ५/प्र./२७) Arithematic | अंकप्रभ— कुण्डलपर्व तस्थ कूट -- दे. लोक ५/१२ । अंकमय हृदस्थ एक कूट---दे, लोक ५/७ । अंकमुख - (ति. प. ४/२५३३ ) कम चौड़ा ।
अंकलेश्वर - (घ. १/प्र.३२ / H, L.) गुजरात देशस्थ भड़ौच जिलेका एक वर्तमान नगर |
अंकावतो पूर्व विदेहस्थ रम्या क्षेत्रकी मुख्य नगरी-दे, लोक ५/२ । अंकुशित — कायोत्सर्गका एक अतिचार – दे, व्युष्सर्ग १ । अंग - १. (म. पु. प्र. ४६ / पं. पन्नालाल ) मगध देशका पूर्व भाग ।
प्रधान नगर चम्पा ( भागलपुर ) है । २. भरत क्षेत्र आर्य खण्डका एक देश - दे. मनुष्य / ४ । ३. ( प. पु. /१०/१२ ) सुग्रीवका बड़ा पुत्र । ४. (ध. ५/प्र.२७) Element | ५. प. घ. /उ. / ४७८ लक्षणं च गुणश्चाङ्ग शब्दाश्चैकार्थवाचकाः । - लक्षण, गुण और अंग ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं।
★ अनुमानके पाँच अंग दे, अनुमान / ३१
* जल्प के चार अंग दे. जम्प १
★ सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रके अंग- दे. वह वह नाम । ★ शरीरके अंग — दे. अंगोपांग |
अंगज्ञान -- १. श्रुतज्ञानका एक विकल्प दे श्रुतज्ञान III । २. अष्टांग निमित्तज्ञान - दे. निमित्त / २ । अंगद - ( प. पु. १०/१२ ) सुग्रीवका द्वितीय पुत्र । अंगपण्णत्ति भट्टारक शुभचन्द्र (ई. १५१६- ९५५६ ) द्वारा रचित एक ग्रन्थ- दे. शुभचन्द्र नं. ५
अंगार - १. आहार सम्बन्धी एक दोष- दे. आहार II / ४/४ । २. वसति सम्बन्धी एक दोष- दे. वसति । अंगारक - भरत क्षेत्रका एक देश - दे. मनुष्य ४ ।
अंगारिणी – एक विद्या- दे. विद्या ।
अंगावर्त - विजयार्ध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर । अंगुल — क्षेत्र प्रमाणका एक भेद - दे. गणित 1/१/३ | अंगुलीचालन — कायोत्सर्गका एक अतिचार - दे. व्युत्सर्ग / १ । अंगोपांग स. सि. ८/११/३८६ यदुदपादङ्गोपाङ्ग विवेकस्तदङ्गोपाङ्गनाम । -जिसके उदयसे अंगोपांगका भेद होता है वह अंगोपांग नाम कर्म है ।
घ. ६/१.६-१,२८/५४/२ जस्स कम्मरखंधस्मृदरण सरीरस्सं गोवंगणिफत्ती हो तस्स कम्मad धस्स सरीरअंगोवंगणाम । जिस कर्म स्कन्धके उदयसे शरीर के अंग और उपांगोंकी निष्पत्ति होती है, उस कर्म स्कन्धका शरीरांगोपांग यह नाम है । ( ध १३ / ५.५,१०१/३६४/४ ) ( गो जी./जी./प्र. ३३ / २६/५ )
२. अंगोपांग नामकर्मके भेद
ष. खं. ६/१,६-१/ सू. ३५/७२ जं सरीर अंगोवंगणामकम्मं तं तिविहं ओरालियर अंगोवं गणामं वेउव्वियसरीर अंगोवंगणाम, आहारसरीर अंगोवं गणामं चेदि ॥ ३५ ॥ - अंगोपांग नामकर्म तीन प्रकारका है - औदारिकशरीर अंगोपांग नामकर्म, वैक्रियक शरीर अंगोपांग नामकर्म और आहारकशरीर अंगोपांग नामकर्म । (ष. ख. १३/५०५/ सू. १०६ / ३६६ ) (पं.सं. प्रा. २/४/४७ ) ( स. सि. ८ / ११ / ३८६ ) ( रा. वा. ८ / ११ / ४ / ५७६ / १६ ) ( गो . क./जी. प्र. २७/२२ ); ( गो . क./जी. प्र. ३३ / २६ )
* अंगोपांग प्रकृतिकी बन्ध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी नियमादि दे. वह वह नाम ३. शरीर के अंगोपांगोंके नाम निर्देश
पं. सं. / प्रा./१/१६ जलयात्राहू य तहा णियंगपुट्ठी उरो य सीसं च । अव दु अंगाई देहण्णाई उबंगाई ॥ १० ॥ - शरीरमें दो हाथ, दो वैर, नितम्ब ( कमर के पीछेका भाग), पीठ, हृदय, और मस्तक ये आठ अंग होते हैं। इनके सिवाय अन्य ( नाक, कान, आँख
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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अंगोपांग
अंतर
आदि ) उपांग होते हैं। (ध, ६।१,६-१,२८/गा. १०/५४ ) (गो.
जी.मू. २८) ध,४१,९-१.२८/५४/शिरसि तावदुपाङ्गानि मूर्द्ध-करोटि-मस्तक-ललाटशल-भ्र कर्ण-नासिका-नयनाक्षिकूट-हनु-कपोल-उत्तराधरोष्ठ-सूक्त्रणीतालु-जिहादीनि । -शिरमें मूर्धा, कपाल, मस्तक, ललाट, शंख, भौंह, कान, नाक, आँख, अक्षिकूट, हनु (ठुड्डो ), कपोल, ऊपर और नीचेके ओष्ठ, मृक्वणी (चाप), तालु और जीभ आदि उपांग होते हैं। * एकेन्द्रियोंमें अंगोपांग नहीं होते व तत्सम्बन्धी शंका-दे, उदय । * हीनाधिक अंगोपांगवाला व्यक्ति प्रवज्याके अयोग्य
है-दे. प्रवज्या। अंजन-१. सानत्कुमार स्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक-दे. स्वर्ग १/३। २. पूर्व विदेहस्थ एक वक्षार, उसका कूट व रक्षक देव-दे. लोक ५/३ । ३. पूर्व विदेहस्थ वैश्रवण वक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव-दे. लोक ५/४। ४. रुवक पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/
११३ । ५. मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक ॥१०॥ अंजनगिरि- नन्दीश्वर द्वोपकी पूर्वाहि दिशाओं में ढोलके
आकारके ( Cylindrical ) चार पर्वत हैं। इनपर चार चैत्यालय हैं । काले रंगके होने के कारण इनका नाम अंजनगिरि है-दे. लोक ४/५।२. रुचक पर्वतस्थ वर्तमान कूटका रक्षक एक दिग्गजेन्द्रदेव
दे. लोक १३ । अंजनमूल-मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक ५/१० । अंजनमूलक-रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक ५/१३ । अंजनवर-पध्यलोकके अन्तसे १वौं सागर व द्वीप-दे.
लोक ॥१। अंजनशैल-विदेह क्षेत्रस्य भद्रशाल वनमें एक दिग्गजेन्द्र पर्वत
दे. लोक ॥३॥ अंजना-१. (प. पु. १५/१६,६१,३०७ ) महेन्द्रपुरके राजा महेन्द्रको पुत्री पवनायसे विवाही तथा हनुमान्को जन्ममाता। २. नरककी चौथी पृथिवी, पंकप्रभाका अपर नाम है। -दे. पंकप्रभा।
नरक अंजसा-न्या.वि.टी. १/२/८७/१ तत्त्वत इत्यर्थः। तत्त्व रूपसे। अंड-स.सि. २/३३/१८६. यन्नखरवक्सदृशमुपात्तकाठिन्यं शुक्रशोणितपरिवरण परिमण्डलं तदण्डम् । = जो नखको स्वाके समान कठिन है, गोल है, और जिसका आवरण शुक्र और शोणितसे बना है उसे अण्ड कहते हैं। (रा. वा. २/३३/२/१४३/३२) (गो. जो./जी.
प्र.८४/२०७) अंडज जन्म-दे. गर्भ। अंडर-ध.१४/५.६.६३१८६/५ "तेसिं खंधाण ववरसहरो तेसि भवाणमवयवा वलंजुअच्छउडपुवावरभागसमाणा अंडर णाम।" जो उन स्कन्धों (मूली, थूअर आदि ) के अवयव हैं और जो वलंजुअकच्छउड़के पूर्वापर भागके समान हैं उन्हें अण्डर कहते हैं। (विशेष दे. वनस्पति ३/७)। ध.१४/५,६.६४/११२/५ ण च रस-रुहिर-मोससरुवंडराणं खंधावयवाणं तत्तो पुधभावेण अबढाणमयि । -स्कन्धों के अवयव स्वरूप रस, रुधिर तथा मांस रूप अण्डरोका उससे पृथक् रूप (स्कन्धसे पृथक रूप) अवस्थान नहीं पाया जाता।
अतःकरण-द. मन । अंतःकोटाकोटी-ध.६/१,६-६,३३/१७४/६ अंतोकोड़ाकोड़ीए त्ति उत्ते सागरोवमकोडाको डिसंखेज कोडीहि खंडिदएगखंड होदि त्ति घेत्तव्वं । - अन्तःकोड़ाकोड़ी ऐसा कहनेपर एक कोड़ाकोड़ी सागरोपमको संख्यात कोटियोंसे खंडित करनेपर जो एक खण्ड होता है, वह अन्तःकोड़ाकोड़ीका अर्थ ग्रहण करना चाहिये। गो. जी. भाषा ५६०/१००३/९ कोडिके ऊपरि अर कोड़ाकोलिके नीचे
जो होइ ताकौ अंतःकोटाकोटी कहिए। अंत-रा. वा. २/२२/१/१३४/२६ अयमन्तशब्दोऽनेकार्थः। क्वचिदवयवे, यथा वखान्तः बसनान्तः । क्वचित्सामीप्ये, यथोदकान्तं गतः उदकसमीपे गत इति। क्वचिदवसाने वर्तते, यथा संसारान्तं गत' संसारावसानं गत इति । अन्त शब्दके अनेक अर्थ हैं । १. कहीं तो अवयवके अर्थ में प्रयोग होता है-जैसे वस्त्र के अन्त अर्थात् वस्त्र के अबयव । २ कहीं समीपताके अर्थ में प्रयोग होता है-जैसे 'उदकान्तंगतः' अर्थाव जलके समीप पहुंचा हुआ। ३. कहीं समाप्तिके अर्थ में प्रयोग होता है-जैसे 'संसारान्तगत' अर्थात् संसारकी समाप्तिको प्राप्त । म्या. दी. ३/७६/११७. अनेके अन्ता धर्माः सामान्यविशेषपर्यायगुणा यस्येति सिद्धोऽनेकान्तः। १. अनेक अन्त अर्थात धर्म (इस प्रकार अन्त शब्द धर्मवाचक भी है ) । २. गणितके अर्थ में भूमि अर्थात Last term or the last digit in numerical series
दे, गणित II//३। अंतकृत-ध. ६/१,६-६,२१६/४१०/१ अष्टकर्मणामन्त विनाशं कुर्वन्तीति अन्तकृतः । अन्तकृतो भूत्वा सिझति सिद्धयन्ति निस्तिष्ठन्ति निष्पद्यन्तै स्वरूपेणेत्यर्थः। बुज्झति त्रिकालगोचरानन्तार्थव्यञ्जनपरिणामारमकाशेषवस्तुतत्त्वं बुद्धयन्ति अवगच्छन्तीत्यर्थः। -- जो आठ कोका अन्त अर्थात विनाश करते हैं वे अन्तकृत कहलाते हैं। अन्तकृत होकर सिद्ध होते हैं, निष्ठित होते हैं व अपने स्वरूपसे निष्पन्न होते हैं, ऐसा अर्थ जानना चाहिए । 'जानते हैं, अर्थात् त्रिकालगोचर अनन्त अर्थ और व्यञ्जन पर्यायात्मक अशेष वस्तु तश्वको जानते व समझते हैं। अंतकृत केवली-ध १/१,१,२/१०२/२ संसारस्यान्तः कृतो येस्तेऽन्तकृतः (केवलिनः)।जिम्होंने संसारका अन्त कर दिया है उन्हें अन्तकृत केवली कहते हैं।
२. महावीरके तीर्थके दस अन्तकृत केवलियोंका निर्देश ध. १/१, १, २/१०३/२ नमि-मतङ्ग सोमिल-रामपुत्र-सुदर्शन-यमलीकवलीक-किष्किविल-पालम्बाष्टपुत्रा इति एते दश वर्द्धमानतीर्थकरती...दारुणानुपसर्गानिर्जित्य कृत्स्नकर्मक्षयादन्तकृतो... वर्धमान तीर्थकरके तीर्थ में न मि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, ममलीक, वलीक, किष्किविल, पालम्ब, अष्टपुत्र ये दश...दारुण उपसाँको जीतकर सम्पूर्ण कमों के क्षयसे अन्तकृत केवलो हुए। अंतकृददशांग-द्रव्य तज्ञानका आठवाँ अंग-. श्रुतज्ञान IIHI अंतडी-१. औदारिक शरीरमें अन्तड़ियोंका प्रमाण-दे. औदा
रिक १/७ । २. इनमें षट्काल कृत हानि वृद्धि--दे. काल/४ । अंतरंग-* अंतरंग परिग्रह आदि-दे, वह वह विषय । अंतर-कोई एक कार्य विशेष हो चुकनेपर जितने काल पश्चाद उसका
पुनः होना सम्भव हो उसे अन्तर काल कहते हैं । जीवोंकी गुणस्थान प्राप्ति अथवा किन्हीं स्थान विशेषों में उसका जन्म-मरण अथवा कर्मों के बन्ध उदय आदि सर्व प्रकरणोंमें इस अन्तर कालका विचार करना ज्ञानकी विशदताके लिए आवश्यक है। इसी विषयका कथन इस अधिकार में किया गया है।
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अंतर
१. अंतर निवेश
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द्विशेष-"बाजिवारणलोहान काष्ठपाषाणवाससाम् । नारीपुरुषतीयामामन्तरं महदन्तरम् ॥"[गरुडपु. ११०/१५ इति महान विशेष इत्यर्थः। कचिद् बहियोगे 'ग्रामस्यान्तरे कूपाः' इति । क्वचिदुपसंव्याने-अन्तरे शाटका इति । क्वचिद्विरहे अनभिप्रेतश्रोतृजनान्तरे मन्त्रं मन्त्रयते, तद्विरहे मन्त्रयत इत्यर्थः । -अन्तर शब्द के अनेक अर्थ हैं। १. यथा 'सान्तर काष्ठं में छिद्र अर्थ है। २. कहीं पर अन्य अर्थ के रूपमें वर्तता है। ३. 'हिमवत्सागरान्तरे में अन्तर शब्द का अर्थ मध्य है। ४. 'शुक्लरक्ताधन्तरस्थस्य स्फटिकस्य-सफेद और लाल रंगके समीप रखा हुआ स्फटिक । यहाँ अन्तरका समीप अर्थ है । ५. कहींपर विशेषता अर्थ में भी प्रयुक्त होता है जैसे-घोड़ा, हाथी और लोहेमें, लकड़ी, पत्थर और कपड़े में, स्त्री, पुरुष और जल में अन्तर ही नहीं, महान् अन्तर है। यहाँ अन्तर शब्द वैशिष्टयवाचक है। ६. ग्रामस्यान्तर कूपाः'मैं माह्यार्थक अन्तर शब्द है अर्थात गाँव के बाहर कुओं है। ७. कहीं उपसंव्यान अर्थात अन्तर्वस्त्र के अर्थ में अन्तर शब्दका प्रयोग होता है यथा 'अन्तरे शाटकाः'। ८. कहीं विरह अर्थ में जैसे 'अनभिप्रेतश्रोतृजनान्तरे मन्त्रयते'-अनिष्ट व्यक्तियोंके विरहमें मण्त्रणा करता है। रा.वा. १८1८/४२/१४ अनुपहतवीर्यस्य द्रव्यस्य निमित्तवशाव कस्यचिद पर्यायस्य न्यग्भावे सति पुननिमित्तान्तरात तस्यैवाविर्भावदर्शनात तदन्तरमित्युच्यते । -किसी समर्थ द्रव्यको किसी निमित्तसे अमुक पर्यायका अभाव होनेपर निमित्तान्तरसे जब तक वह पर्याय पुनः प्रकट नहीं होती, तबतकके कालको अन्तर कहते हैं। गो. जी./जी. प्र. १४३/३५७ लोके नानाजीवापेक्षया विवक्षितगुणस्थानं मागंणास्थानं वा त्यक्त्वा गुणान्तरे मार्गणास्थानान्तरे वा गत्वा पुनर्यावत्तद्विवक्षितगुणस्थानं मार्गणास्थानं वा नायाति तावात् काल अन्तरं नाम । =नाना जीवनिको अपेक्षा विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणास्थान नै छोडि अन्य कोई गुणस्थान वा मार्गणास्थानमें प्राप्त होई बहुरि उस ही विवक्षित स्थान वा मार्गणास्थान को यावत काल प्राप्त न होई तिस कालका नाम अन्तर है। २. अन्तरके भेद-. ५/१,६,१/पृ/प.
अन्तर
१. अन्तर निर्देश
१. अन्तर प्ररूपणा सामान्यका लक्षण २. अन्तरके भेद ३. निक्षेप रूप अन्तरके लक्षण
४. स्थानान्तरका लक्षण २. अन्तर प्ररूपणासम्बन्धी कुछ नियम
१. अन्तरप्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम २. योग मार्गणामें अन्तर सम्बन्धी नियम ३. द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अन्तर सम्बन्धी नियम ४. सासादन सम्यक्त्वमें अन्तर सम्बन्धी नियम ५. सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें अन्तर सम्बन्धी नियम
६. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनमें अन्तर सम्बन्धी नियम ४ ३. सारणीमें दिया गया अन्तर काल निकालना
१. गणस्थान परिवर्तन-द्वारा-अन्तर निकालना २. गति परिवतन-द्वारा अन्तर निकालना ३. निरन्तर काल निकालना ४.२४६६ सागर अन्तर निकालना ५. एक समय अन्तर निकालना ६. पल्य असं. अन्तर निकालना * काल व अन्तरमे अन्तर
दे. काल/६ ७. अनन्तकाल अन्तर निकालना ४. अन्तर विषयक प्ररूपणाएँ-- १. नरक व देवगतिमें उपपाद विषयक अन्तर प्ररूपणा ६ २. सारणीमें प्रयुक्त संकेतोंको सूची ३. अन्तर विषयक ओघ प्ररूपणा ४. आदेश प्ररूपणा ५. कर्मोके बन्ध, उदय, सत्त्व विषयक अन्तर प्ररूपणा २३ ६. अन्य विषयों सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणाएँ २५
* काल व अन्तरानुयोगद्वारमें अन्तर दे.काल/५ १. अन्तर निर्देश
१. अन्तर प्ररूपणा सामान्यका लक्षणस.सि./१८/२६ अन्तरं विरहकालः । -विरह कालको अन्तर कहते हैं। ( अर्थात जितने काल तक अवस्था विशेषसे जुदा होकर पुनः उसकी प्राप्ति नहीं होती उस कालको अन्तर कहते हैं ।) (ध. १/१,१,८/१०३/१५६ ) ( गो. जी./जो.प्र./५५३/६८२) रा. वा. १/८/७/४२/५ अन्तरशब्दस्यानेकार्थवृत्तः छिद्रमध्यविरहेष्वन्यतमग्रहणम् । ७ । [अन्तरशब्दः ] बहुवर्थेषु दृष्टप्रयोगः। क्वचिच्छिद्रे वर्तते सान्तर काष्ठम्, सच्छिद्रम् इति । क्वचिदन्यत्वे 'द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते' [वैशे. सू. १/१/१०] इति। क्वचिन्मध्ये हिमवत्सागरान्तर इति। क्वचित्सामीप्ये 'स्फटिकस्य शुक्लरक्ताद्यन्तरस्थस्य तद्वता' इति 'शुक्लरक्तसमीपस्थस्य' इति गम्यते । क्वचि
ur
(नाम स्थापना
द्रव्य
काल
भाव)
सद्भाव
असद्भाव । २/३
आगम
मो आगम
आगम
नो आगम
ज्ञायक
भव्य
तद्वयतिरिक्त
भव्य वर्तमान समुत्त्यक्त सचित्त अचित्त मिश्र
३. निक्षेप रूप अन्तरके लक्षण-दे. निक्षेप। ध.५/१.६.१/१ ३/४ खेत्तकालंतराणि दव्वंतरे पविट्ठाणि, छदव्यवदिरित्तखेत्तकालाणमभावा:-क्षेत्रान्तर और कालान्तर, ये दोनों ही द्रव्यान्तरमें प्रविष्ट हो जाते हैं. क्योंकि छः द्रव्योंसे व्यतिरिक्त क्षेत्र और कालका अभाव है। ४. स्थानान्तरका लक्षण घ. १२/४ २,७,२०१/११४/ हेट्ठिमट्ठाणमुवरिमट्ठाणम्हि सोहियरूबूणे कदे जं लद्धतं ठाणं तरं णाम। - उपरिम स्थानोंमें अधस्तन स्थानको घटाकर एक कम करनेपर जो प्राप्त हो वह स्थानोंकाअन्तर कहा जाता है।
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अंतर
२. अन्तर प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम
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१. अन्तर प्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम ध.५/१.६.१०४/६/२ जोए मनाए बाणामि मग्गणछंडिय अण्णगुणेहि अंतराविह अंतरपरूवणा कादव्त्रा । जोए पुण्णमग्गणाए एक्कं चेत्र गुगट्ठाण तत्थ अण्णमग्गणाए अंतराविय अंतररूपणा काढल्या इदि एसो सुत्ताभिय्याओ। जिस मार्गणा महूत स्थान होते हैं. उस मार्ग को नहीं छोड़कर अन्य गुणस्थानोंसे अन्तर कराकर अन्तर प्ररूपणा करनी चाहिए। परन्तु जिस मार्गमानें एक ही गुणस्थान होता है, वहाँपर अन्य मार्गमा अन्तर करा करके अन्तर प्ररूपणा करनी चाहिए। इस प्रकार यहाँपर यह सूत्रका अभिप्राय है।
२. योग मार्गणा में अन्तर सम्बन्धी नियम
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घ. २/१.६.९३३/२०१६ मेगजीनमाज अतराभावो ण ताय ओगं तरगमणेनंतरं सभवदि, मग्गणाए विणासापत्तोदो | ण च अण्णगुणगमणेण अंतर सभवदि, गुणंतरं गदस्स जीवस्स जोगंतरगमणेण विणा पुणो आगमणाभावादो । = प्रश्न एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव कैसे कहा ? उत्तर- सूत्रोक्त गुणस्थानों में न तो अन्य योग में गमन द्वारा अन्तर सम्भव है, क्योंकि, ऐसा माननेपर विवक्षित मार्गणा विनाशको आपत्ति आती है और न अन्य गुणस्थानमें जाने से भी अन्तर सम्भव है, क्योंकि दूसरे गुणस्थानको गये हुए जीव अन्य योगको प्राप्त हुए बिना पुनः आगमनका अभाव है । ३. द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अन्तर सम्बन्धी नियम ध.५/१,६३७५ / २७० / २ हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिवज्जिय पुत्रसमसम्मत्तेसमढी समारूहणे संभवाभावादो । -उपशम श्रेणोसे नोचे उतरे हुए जीवके वेदसम्मको प्राप्त हुए बिना पहले वाले उपशम सम्यक्त्वके द्वारा पुनः उपशम श्रेणीपर समारोहणकी सम्भावनाका अभाव है।
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४. सासादन सम्यक्त्वमें अन्तर सम्बन्धी नियम
घ. ७/२.३.१२९ / २३३/११ उपसमसेडोदो ओदिग्ण उवसमसम्माहडी दोभारमेको ग सास पनिरिति उपशम श्रेणी से उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि एक जीव दोबार सासादन गुणस्थानको प्राप्त नहीं होता ।
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५. सम्यग्मिध्यादृष्टिमें अन्तर सम्बन्धी नियम ध,५/१,६,३६/३१/२ जो जीवो सम्मादिट्ठी होदूण आउअं बंधिय सम्मामिष्यतं परिज्जदि सो सम्मत्तेपे फिफिददि अह मिच्छादिट्ठी होवूण बाधिय जो सम्मामिविदि सो मिचमेव पिफिददि को जीन सम्यन्दष्टि होकर और आयुको बाँधकर सम्यग्मिको प्राप्त होता है, वह सम्वरण के साथ ही उस गति से निकलता है । अथवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आएको बाँधकर सभ्य मिध्यात्वको प्राप्त होता है, वह मिध्याल के साथ ही निकलता है ।
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६. प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनमें अन्तर सम्बन्धी नियम ब. ख ७ / २.३ / सू. १३९ / २३३. जहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो । ध.७/२.१.१३६/२३३/३ कुरो पडमसम्मत पेतून अंतीमुतमच्चिय
सासणगुणं गंतूनहि करिय मिच्छत्तं गंतॄणं तरिय सव्वजहणेण पलिदो मस्स असंखेनविभाग मे बेल का सम्मत्त सम्मामिता पटमसम्म सामसागरोब म पृधत्तमेतट्ठिदिसंसकम्मे ठाय तिणि विकरणाणि काऊण पुणो पढमसम्मतं घेत्तूण छावलियावसेसा उवसम सम्मत्तद्धाए सासणं गदस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागमे संतरुन भावो एव समसेडीयो बीयरिय सासम गंतु अंतोमुहुत्ते पुणो वि उत्रसमसेडिं पडिय ओदरिण शासण
२. अन्तर प्ररूपणा सम्बन्धी नियम
गदरस सोहन्तमेतमंतर उवलम्भ एवमेव किरण परुनिद [च] [उनसमसेडीवो ओदिवसमसम्माहरिणो साराणं (म) गतिति नियम अस्थि, 'आसा पिज्ज' इदि कसायपाहुडे नित्तणाो एर परिहारो उच्च समी ओदिग्ण उबसमसम्माही दोषारमेणो ण शासण पहियदि ि सहि भने सास पडिवज्जिय उवसम सेडिमारुति की दि विण सासणं पडिवज्जदि प्ति अहिप्पओ एदस्स सुन्तरस । तेणतोमुहुत्तमेत्तं जहण्णं तर गोवलब्भदे ।
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घ. ५/९.६०/१०/२ उपसमसम्म पि अंतोते व पडि वज्जदे । ण उवसमसम्मादिट्ठी मिच्छतं गंतूर्ण सम्मत्त सम्माभिच्चाणि उब्बेतमा सिमेसोकोडाकोडी मेहदि पादिय सागरोवमादो सागरोत्तामा जाव हेटठा ण करेदि ताव उवसमसम्मत्तगणसं भवता दी तो पाय सागरोवमादी सागरोवमपुधत्तादो वा हेट्ठा किष्ण करेदि । ण पलिदोअसंखेज्जदिभाषायामे अंतीमुत्तक्कीरणका हि उवेलखंड एहि घादिज्जमाणाए सम्मत्त सम्मामिच्छत्तट्ठिदीए पतिदोवस्त असंखेज्म विभाग मेचका लेण विणा सागरोवमस्स वा सागरो मधत्तस्स वा हेट्ठा पदणाणुववत्तदो ।
वमस्स
घ. १०/४,२,४.६५/२८८/९ एम वेदगसम्मत चैव एसो पडिवज्जदि उबसमसम्मका पोरस असंखेज्जदि भागस्स एस्थाणुलं भादो । - सासादन सम्यग्दृष्टियों का अन्तर जघन्य से पत्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है ॥ १३६ ॥ | क्योंकि, प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण कर और अन्तर्मुहूर्त रहकर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो, आदि करके पुनः मिथ्यात्व में जाकर अन्तरको प्राप्त हो सर्व जघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र उद्वेलना कालसे सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के प्रथम सम्यक्त्वके योग्य सागरोपम पृथक्त्वमात्र स्थिति सत्वको स्थापित कर तीनों ही करणोंकी करके पुनः प्रथम सम्यक्त्व - को ग्रहण कर उपशम सम्यक्त्व काल में छः आवलियों के शेष रहनेपर सासादनको प्राप्त हुए जीवके पत्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अन्तर प्राप्त होता है । (ध. ५/१,६,५-७/७-११) (ध. ५/१,६, ३७६ / १७०/१) प्रश्न-उपशम श्रेणीसे उतरकर सासादनको प्राप्त हो अन्तर्मुहूर्त से फिर भी उपशम श्रेणीपर चढ़कर व उतरकर सासादनको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर प्राप्त होता है; उसका यहाँ निरूपण क्यों नहीं किया उत्तर- उपशमश्रेणी से उतरा हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादनको प्राप्त नहीं होता । क. पा. की अपेक्षा ऐसा सम्भव होने पर भी वहाँ एक ही जीव दो बार सासादन गुणस्थानको प्राप्त नहीं करता। प्रश्न- वही जीव उपाम सम्यको भी अन्तर्मुहूर्त कासके पश्चात ही क्यों नहीं प्राप्त होता है ! उत्तर नहीं, क्योंकि, उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व-प्रकृतिकी उहेलना करता हुआ उनको अन्ताफोड़ाको ही प्रमाण स्थितिको घात करके सागरोपमसे अथवा सागरोपम पृथक नीचे नहीं करता तबतक उपशम सम्यक्त्वका ग्रहण करना सम्भव ही नहीं है । प्रश्न- सम्यक्पकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिको स्थितियोको अन्तर्मुहूर्त काल में घात करके सागरोपमसे, अथवा सागरोपम पृथक्त्व कालसे नीचे क्यों नहीं करता ? उत्तर- नहीं, क्योंकि पत्योपमके असंख्यात भागमात्र आयाम द्वारा अन्तर्मुहुर्त उनकीरण कासवा उसमा काण्डकों से पास की जानेवाली सम्यक और सम्यमिध्यास्म प्रकृतिको स्थितिका, पोषके असंख्यातवें भाग मात्र कालके बिना सागरोपमये अथवा सागरोपमपृथक्त्वके नीचे पतन नहीं हो सकता है। (और भी है. सम्यग्दर्शन IV / २ / ६) यहाँ यह पूर्व कोटि तक सम्यक्त्व सहित संयम पालन करके अन्त समय मिथ्यात्वको प्राप्त होकर मरने तथा हीन देवाने उत्पन्न होनेवाला जीव अन्तर्मुहूर्त पश्चाद यदि सम्यक्त्वको प्राप्त करता भी हैं तो )
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३. सारणीमें दिया गया अन्तरकाल निकालना
अंतर
वेदकसम्यक्रवको ही प्राप्त करता है, क्योंकि उपशमसम्यग्दर्शनका अन्तरकाल जो पक्यका असंख्यातवाँ भाग है, वह यहाँ
नहीं पाया जाता। गो.जी./जी.प्र.७०४/११४१/१५ ते [प्रशमोपशमसम्यग्दृष्टयः) अप्रमत्तसंयतं विना त्रय एव तत्सम्यक्त्वकालान्तर्मुहूर्त जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन च षडावलिमात्रेऽवशिष्टे अनन्तानुबन्ध्यभ्यतमोदये सासादना भवन्ति । अथवा ते चत्वारोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्वविराधका न स्युः तदा तत्काले संपूर्ण जाते सम्यक् कृत्युदये वेदकसम्यग्दृष्टयो वा मिश्रप्रकृत्युदये सम्यगमिध्यादृष्टयो वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टयो भवन्ति । अप्रमत्त संयतके बिना वे तीनों (४.५. ६ठे गुणस्थानवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टि जव) उस सम्यक्त्वके अन्तमहत कालमें जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह आवलिमात्र शेष रह जाने पर अनन्तानुबन्धीकी कोई एक प्रकृतिके उदयमें सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो जाते हैं अथवा वे (४-७ तक) चारों हो यदि भन्यता गुण विशेषके द्वारा सम्यक्त्वकी विराधना न करें तो उतना काल पूर्ण हो जानेपर या तो सम्यकप्रकृतिके उदयसे वेदक सम्यगदृष्टि हो जाते हैं, या मिश्र प्रकृतिके उदयसे सम्यग मिथ्यावृष्टि हो जाते हैं, या मिथ्याबके उदयसे मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं नोट :--
यद्यपि द्वितीयोपशम सम्यक्त्वका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त है, क्योकि उपशम श्रेणीपर चढ़कर उतरनेके अन्तर्भूहूर्त पश्चात् पुनः द्वितीयोपशम उत्पन्न करके श्रेणीपर आरूढ़ होना सम्भव है परन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्व तो मिथ्याष्टिको ही प्राप्त होता है, और वह भी उस समय जन कि उसको सम्यक्त्व व सम्यग्मिध्याप्रकृतिकी स्थिति सागरोपमपृथक्त्वसे कम हो जाये । अतः इसका जघन्य अन्तरे पत्योपमके असंख्यातवें भागमात्र जानना।] ३. सारणीमें दिया गया अन्तरकाल निकालना
१. गुणस्थान परिवतन-द्वारा अन्तर निकालना ध.५४९.६.३/५/५ एक्को मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छत्त-सम्मत्त-संजमासंजम
संजमेसु महुसो परियट्टिदो, परिणामपच्चण्णसम्मत्तं गदो, सब्बलहमंतोमुहुतं त सम्मत्तण अच्छिय मिच्छत्तं गदो, लद्धमतोमुहुत्तं सवजहण्ण मिच्छतंतर । एक मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्त्व, संयमासंयम और संयममें बहुत बार परिवर्तित होता हुआ परिणामों के निमित्तसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, और वहाँपर सर्व लघु अन्तर्मुहुर्त काल तक सम्यक्त्वके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे सर्व जघन्य अन्तर्मुहुर्त प्रमाण मिथ्यात्व गुणस्थानका अन्तर प्राप्त हो गया। घ.४१.६.4/8/२ नाना जीवको अपेक्षा भी उपरोक्तवव ही कथन है। अन्तर केवल इतना है कि यहाँ एक जीवकी बजाय युगपत सात, आठ या अधिक जीवोंका ग्रहण करना चाहिए।
२ गति परिर्तन-द्वारा अन्तर निकालना ध./१,६४५/४०/३ एको मणुसो णेइरयो देवो वा एगसमयावसेसाए
सासणद्वाएपचिदियतिरिक्खेसु उबवण्णो।तथ पंचाणउदिपुवकोडिअभहिय तिषिण पलिदोयमाणि गमिय अवसाणे ( उषसमसम्मतं घेत्तूण) एगसमयावसेसे आउए आसाणं गदो कालं करिय देवो जादो। एवं दुसमऊणसगहिदी सासणुकस्संतर होदि । कोई एक मनुष्य, नारको अथवा देव सासादन गुणस्थानके काल में एक समय अवशेष रह जानेपर पंचेन्द्रिय तिर्यचों में उत्पन्न हुआ। उनमें पंचानवेपूर्व कोटिकालसे अधिक तीन पल्योपम बिताकर अन्तमें (उपशम सम्यक्त्व ग्रहण करके) आयुके एक समय अवशेष रह जानेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ और मरण करके देव उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दो समय कम अपनी स्थिति सासादन गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर होता है।
३. निरन्तरकाल निकालना घ.४१,६,२/४/८ णत्थि अंतर मिच्छत्तपज्जयपरिणदजीवाणं तिस वि
कालेसु बोच्छेदो विरहो अभावो पस्थिति उत्तं होदि । - अन्तर नहीं है। अर्थात् मिथ्यात्व पर्यायसे परिणत जीवोंका तीनों ही कालों में व्युच्छेद, विरह या अभाव नहीं होता है। (अन्य विक्षिप्त स्थानों के सम्बन्धमें भी निरन्तरका अर्थ माना जीवापेक्षया ऐसा ही जानना।) घ.४१,६,१८/२१/७ रगजीवं पड्डच्च णस्थि अंतरं, णिरंतर ॥१८॥ कुदो। खबगाणं पदणाभावा ।-एक जीवकी अपेक्षा उक्त चारों क्षपकोंका और अयोगिकेवलीका अन्तर नहीं होता है, निरन्तर है ॥१८॥ क्योंकि, क्षपक श्रेणोवाले जीवों के पतनका अभाव है। ध.१/१,६,२०/२२/१ सजोगिणमजोगिभावेण परिणदाणं पुणो सजोगिभावेण परिणमणाभावा ।-अयोगि केवली रूपसे परिणत हुए सयोगि केवलियोंका पुनः सयोगिकेवली रूपसे परिणमन नहीं होता है । [अर्थात उनका अपने स्थानसे पतन नहीं होता है। इसी प्रकार एक जीवकी अपेक्षा सर्वत्र ही निरन्तर काल निकालनेमें पतनाभाव कारण जानना। ४.२४६६ सागर अन्तर निकालनाएक जीवापेक्षयाध./१,६,४/६/६ उकसेण वे छावहिसागरोवमाणि देसूणाणि ॥४॥ एदस्स णिदरिसणं-एको तिरिक्खो मणुस्सो वा तयकाविट्ठकप्पबासियदेवेमु चोहससागरोवमाउट्टिदिएम उप्पण्णो। एक्कं सागरोधर्म गमिय विदियसागरोवमादिसमएसम्मत्तंपडिवण्णो। तेरससागरोवमाणि तस्थ अच्छिय सम्मत्तेण सह चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजम संजमासंजमं वा अणुपालिय मणुसाउएणूणव वीससागरोवमाउढिदिएम आरणच्चुददेवेसु उबवण्णो । तत्तो चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजममणुपालिय उवरिमगेबज्जे देवेसु मणुसाउएणूणएछत्तीससागरोवमादिएसु उबवण्णो। अंतोमुहुत्तू णछावट्ठिसागरोवमचरिमसमए परिणामपच्चएण सम्मामिच्छत्तं गदो। तत्थ अंतोमुत्तमच्छिय पुणो सम्म पडिवज्जिय विस्समिय चुदो मणुसो जादो । तत्थ संजमं संजमासजम वा अणुपालिय मणुस्साउएणूणवीससागरोवमाउटिदिएसुवज्जिय पूणो जहाकमेण मणुसाउवेणूणवावीस-चउवीससागरोवमट्टिदिएम देवेमुवज्जिय अंतोमुहुत्तूणवेछाव हिसागरोवमचरिमसमये मिच्छत्तं गदो। लद्धमंतर अंतोमुहुर्ण वेछापट् टिसागरोचमाणि । एसो उत्पत्तिकमो अउप्पण्णउपायण?' उत्तो। परमस्थदो पूण जेण केण वि पयारेण छावट्ठी पूरेदव्या। = मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरोपम काल है।४। कोई एक तियंच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम आयु स्थिति वाले लान्तब कापिष्ट देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ एक सागरोपम काल मिताकर दूसरे सागरोपमके आदि समयमें सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। तेरह सागरोपम काल वहाँ रहकर सम्यक्त्वके साथ ही च्युत हुआ और मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भवमें संयमको अथवा संयमासंयमको अनुपालन कर इस मनुष्य भवसम्बन्धी आयुसे कम बाईस सागरोपम आयुको स्थिति वाले आरणाच्युत कल्पके देवों में उत्पस हुआ। वहाँसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ। इस मनुष्य भवमै संयमको अनुपालन कर उपरिम प्रैवेयकमें मनुष्य आयुसे कम इकतीस सागरोपम आयुको स्थितिवाले अहमिन्द्र देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँपर अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागरोपम काल के घरम समयमें परिणामोंके निमित्तसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। उस सम्यग्मिथ्यात्वमें अन्तमुहूर्त काल रहकर पुन: सम्यक्त्व को प्राप्त होकर, विश्राम ले, च्युत हो, मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भवमें संयमको अथवा संयमासंयमको परिपालन कर, इस मनुष्य भव
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
अंतर
सम्बन्धी आयुसे कम बोस सागरोपम आयुको स्थिति वाले आनतप्राणत कल्पोंके देवों में उत्पन्न होकर पुनः यथाक्रमसे मनुष्यायुसे कम माईस और चोबोस सागरोपमको स्थितिवाले देवों में उत्पन्न होकर, अन्तर्मुहूत कम दो छयासठ सागरोपम कालके अन्तिम समयमें गिध्यावको प्राप्त हुआ। (१४-१+२२+३१+२०+२२+२४-२४६६ सागरोपम) यह ऊपर बताया गया उत्पत्तिका क्रम अव्युत्पन्न जनोंके समझानेके लिए कहा है। परमार्थ से तो जिस किसी भी प्रकारसे छयासठ सागरोपम काल पूरा किया जा सकता है। ५. एक समय अन्तर निकालना नानाजीवापेक्षया[दो जीवोंको आदि करके पत्यके असंख्यातवें भाग मात्र विकल्पसे उपशम सम्यग्दृष्टि जीव, जितना काल अवशेष रहनेपर सम्यक्त्व छोड़ा था उतने काल प्रमाण सासादन गुणस्थानमें रहकर सम मिथ्यास्वको प्राप्त हुए और तीनों लोकों में एक समयके लिए सासादन सम्यग्दष्टियोका अभाव हो गया। पुनः द्वितीय समयमें कुछ उपशम सम्यग्दृष्टि जोव सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए। इस प्रकार सासादन गुणस्थानका (नानाजोवापेक्षया) एक समय रूप जघन्य अन्तर प्राप्त हुआ। बहुत-से सम्यगमिथ्यावृष्टि जीव अपने कालके क्षयसे सम्यक्त्वको अथवा मिथ्यात्वको प्राप्त हुए और तीनों ही लोकों में सम्यग् मिध्यादृष्टि जीवोंका एक समयके लिए अभाव हो गया। पुनः बन भतर समयमै हो मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि कुछ जीव सम्यगमिथ्यात्वको प्राप्त हुए। इस प्रकारसे सम्यगमिथ्यात्वका एक समय रूप जघन्य अन्तर प्राप्त हो गया] (विशेष दे.-.५/१,६,४/७/६)। ६. पल्य/ असं. अन्तर निकालना नानाजीवापेक्षया[इसकी प्ररूपणा भी जघन्य अन्तर एक समयवव ही जानना। विशेष केवल इतना है कि यहाँपर एक समयके स्थानपर उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ भाग मात्र कहा है ] (विशेष दे. ध.१/१,1,4/01८)। ७. अनन्त काल अन्तर निकालना
एक जीवापेक्षयाध.६/४.१,६६/३०५/२ होदु एदमंतरं पंचिंदियतिरिक्खाणं, ण तिरि
खाणं, सेसतिगदीट्टिदोए आणं तियाभावादो। ण, अप्पिदपदजीव सेसतिगदीम हिंडाविय अणप्पिदपदेण तिरिक्वेस पवेसिय तत्थ अणंतकालमच्छिय णिप्पिदिदूण पुणो अप्पिदपवेण तिरिक्खेसुवक्कंतस्स अणतंतरुवल भादो। प्रश्न-यह अन्तर पंचेन्द्रिय तिर्योंका भले ही हो, किन्तु वह सामान्य तिर्यचोंका नहीं हो सकता, क्योंकि, शेष तीन गतियोंका काल अनन्त नहीं है ? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि विवक्षित पद (कृति सचित आदि ) वाले जीवको शेष सोन गतियों में घुमाकर तथा अविवक्षित पदसे तिर्यचोंमें प्रवेश कराकर वहाँ अनन्तकाल तक रहने के बाद निकलकर अर्पित पदसे तिपंचों में उत्पन्न होनेपर अनन्तकाल अन्तर पाया जाता है। ४. अन्तर विषयक प्ररूपणाएं १.नरक व देवगतिमें उपपाद विषयक अन्तर प्ररूपणा
१. नरक गति-- पं.सं.प्रा.१/२०६ पणयालीसमुहुत्ता पक्खो मासो य विणि उमासा। छम्मास वरिसमेयं च अंतर होइ पृढवीणं ॥ २०६।-रत्नप्रभादि सातों पृथिवियोंमें नारकियोंकी उत्पत्तिका अन्तरकाल क्रमशः मुहर्त, एक पक्ष, एक मास, दो मास चार मास, छह मास और एक पर्ष होता है। ह.प्र.४/३७०-३०१ चत्वारिंशत्सहाष्टाभिटिकाः प्रथमक्षितौ अन्तर।
४. अन्तर विषयक प्ररूपणाएँ नरकोत्पत्तेरन्तरः स्फुटीकृतम् ॥३७०॥ सप्ताहश्चैव पक्षः स्यान्मासो मासौ यथाक्रमम् । चत्वारोऽपि च षण्मासा विरह षट्षु भूमिषु ॥३७१॥ -अन्तरके जाननेवाले आचार्योंने प्रथम पृथिवीमें नारकियोकी उत्पत्तिका अन्तर ४८ घड़ी बतलाया है । ७०॥ और नीचेकी६ भूमियों में क्रमसे १ सप्ताह, १ पक्ष, १ मास, २ मास,४ मास और ६ मासका विरह अर्थात अन्तरकाल कहा है ॥ ३७१ ॥ नोट-(यह कथन नानाजीवापेक्षया जानना। दोनों मान्यताओंमें कुछ अन्तर है जो ऊपरसे विदित होता है। २. देवगतित्रि.सा./५२१-५३० दुसुदुसु तिचउक्केसु य सेसे जणणं तरं तु चवणे य । सत्तदिणपक्रवमासं दुगचदुछम्मासगं होदि ॥ ५२६॥ वरविरह छम्मासं इंदमहादेविलीयवालाणं । चउतेत्तीससुराण तणुरक्खसमाण परिसाणं ।।५३०॥ दोय दोय तीन चतुष्क शेष इन विर्षे जननान्तर अर च्यवनै कहिये मरण विषै अन्तर सो सात दिन, पक्ष, मास, दो, चार, छह मास प्रमाण हैं । (अर्थात सामान्य देवोंके जन्म व मरणका अन्तर उत्कृष्टपने सौधर्मादिक विमानवासी देवों में क्रमसे दो स्वर्गों में सात दिन, आगेके दो स्वर्गों में एक पक्ष, आगे चार स्वर्गों में एक मास, आगे चार स्वर्गों में दो मास, आगे चार स्वर्गों में चार मास, अवशेष वेयकादि विष छ मास जानना)। ५२६ । उत्कृष्टपने मरण भए पीछे सिसकी जगह अन्य जीव आय यावत न अवतरै तिस कालका प्रमाण सो सर्व हो इन्द्र और इन्द्रको महादेवी, अर लोकपाल, इनका तो विरह छ मास जानना। बहुरि त्रायस्त्रिंश देव अर अगरक्षक अर सामानिक अर पारिषद इनका च्यार मास विरह काल जानना ॥३०॥
२. सारणीमें प्रयुक्त संकेतोंके अर्थ संकेत अर्थ
संकेत अन्तर्मू. अन्तर्मुहूर्त (जधन्य
बा. बादर कोष्ठकमें जघन्य व
भुजगार भुजगार अल्पतर उत्कृष्ट कोठकमें उत्कृष्ट
अवस्थित अवक्तव्य अन्तर्मुहूर्त)।
बन्ध उदय आदि। अपर्याप्त
मा. मास असं. असंख्यात
मिथ्या. मिथ्यात्व आ. आवली
मनु. मनुष्य उपशम
ल. अप. लब्धि अपर्याप्त एके.या ए. एकेंद्रिय
वन, वनस्पति औ. औदारिक
विकले. विकलेन्द्र २८/ज, २८प्रकृतियों की सत्ता
वैक्रियक वाला मिथ्याष्टि
वृद्धि बन्ध उदयादिमें षट्जीव।
स्थान पतित वृद्धि ज-उ. उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य
हानि। व अजघन्य बन्ध वृद्धिआ.पद जघन्य उत्कृष्ट वृद्धि उदयादि।
हानिव अवस्थान पद। ति. तियंच
सम्य.
सम्यक्त्व दि. दिन
संख्यात नसक
सा.
सागर व सामान्य नि. निगोद
सूक्ष्म पर्याप्त
सासादनवत पंचेन्द्रिय
सा. क्व पु. परि. पुद्गल परिवर्तन स्थान जैसे २४ प्रकृति बन्ध परि. परिवर्तन
स्थान, २८ प्रकृति पू. को, पूर्वकोटी
अन्धका स्थान आदि। पं. पृथक्त्व
क्षपक
अर्थ
उप.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
गुणस्थान
१
२
३
४
५
७
उपशम
६-११
१०
११
३. अन्तर विषयक ओघ प्ररूपणाः
नाना जीवापेक्षया
प्रमाण
सू
१३
१४
५
ε
६
८ १२
ह
&
१२
१२
१२
क्षपक
८-१२ १६
१६
९६
जघन्य
"
निरन्तर
१ समय दे अन्तर ३ / ५ ६
अपेक्षा
D
निरन्तर
3
सू
13
१ समय ७-८ जन ऊपर १३
चढें तब १समय
के लिए अन्तर
पड़े
13
ह
ह
ह
१३
१३
७-८ या १०८ जन ऊपर चढने पर
अन्तर होता है। निरन्तर
१६
१ समय ८-१२ तक की १७
भाँति
१७
उत्कृष्ट
23
निरन्तर
पश्य / | दे अन्तर ३/६ ७
असं
"
33
ष ख ५/१-६/ सूत्र स टीका सहित
ध ५ /पृ. १-२१
६ मास
अपेक्षा
::
»
निरन्तर
"
"
כ
वर्ष पृ. ७-८ जनें ऊपर १४ चढें तम
39
प्रमाण
35
निरन्तर
३
७
१०
१०
१०
१०
१४
१४
१४
१८
२०
१८
जघन्य
अन्तर्मुहूर्त
पन्य/अस.
अन्तर्मुहूर्त
33
り
...
अपेक्षा
दे अन्तर ३/१
दे अन्तर २/६/१
४६ या में जा पुन
६ठे से बाँ पुन ६ठा । नीचे उतर कर जघन्य अंतर प्राप्त नहीं होता । ७ वें से उपशम श्रेणी पुन ७वाँ । नीचे उतर कर जघन्य अन्तर नहीं होता।
एक जीवापेक्षया
प्रमाण
गुणस्थान परिवर्तन
८
४५ के बोल गुणस्थान परिवर्तन ११
यथाक्रम ८, ६, १०, १९ में चढ कर नीचे गिरा
"
13.
यथाक्रम ११ से १०६.८, ७-६,
८, ६, १०, ११
रूप से गिरकर
ऊपर चढना
पतनका अभाव
"
22
सू
४
८
१९.
११
१५
१५
१५
१५
१८
२०
१८
उत्कृष्ट
२x६६ सागर अन्तर्मुहूर्त अर्ध. पु. परि १४ अन्तर्मुहूर्त
+ १ समय
"
अर्थ, पु. परि - ११ अन्तर्मु.
परि
अर्ध १० अन्तर्मुहूर्त
3"
अपेक्षा
.:
दे अन्तर ३ / ४
सासादन
प्रथमोपमसे मिध्याय पुन जैसे ही वेदक, क्षायिक व मोक्ष
"
२८
अर्ध पु. परि. | अनादि मिध्यादृष्टि यथाक्रम ११वें जाकर वें को प्राप्त करता हुआ नीचे गिरा । पुन ८,६.१०.११.१०. १.८,७-६,८,९,१०,१२,१३,१४ म
-२६ अन्तर्मु यथायोग्यरूपेश उपरोक्त
,,-२४
२२
सासादनवत्
मिध्यात्व प्रथमोपशम अन्तर्मुहूर्त तक २रे ३रे आदिमें रहकर मियाल १० अन्तर्मुहूर्त संसार शेष रहने पर पुन सम्यक्त्व प्रथमोपशम के साथ वॉ। आगे उपरोक्तवत्
पहले ही प्रथमोपशम के साथ प्रमत्त । आगे उपरोक्तवत्
उपरोक्तवत् ( ६ठे के स्थान पर ७)
पूर्व क फिर
पतनका अभाव
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________________
है
आदेश प्ररूपणा:-.
-
.प. ख. ५/१, ५/सूत्र सं. टीका सहित, .प.ख.७/२, ३/सूत्र सं. टीका सहित, ध.पु./पृ.२१-१७६
घ.७/प्र.१८७-२३६ नानाजीवापेक्षया
प्रमाण उत्कृष्ट
जधन्य
अपेक्षा
..ख. ७/२. ६/सूत्र सं. टोका सहित,
घ. प.४७८-४६४ एक जीवापेक्षया प्रमाण
मार्गणा
मार्गणा
गुण स्थान
प्रमाण
अपेक्षा
प्रमाण
न्या
। प्रमाण जवन्य | अोश । प्रमाण | उत्तर प्रमाण अधन्यः । अपेक्षा
मा
उत्कृष्ट ।
अपेक्षा
अपेक्षा
१. गति मार्गणा१. नरकगति
नरक सामान्य १-७ पृथिवी नरक सामान्य
निरन्तर
गति परिवर्तन | ३ | असं. पृ. परि. गति परिवर्तन गुणस्थान परिवर्तन |२३ | ३३ सा.- अन्तर्मु६ २८/ज. ७वीं पृथिवीमें ६ पर्याप्तियाँ पूर्ण
कर वेदकसम्य, हो भवके अन्त में मिथ्यात्व सहित चयकर तिथंच हुआ। २८/ज, ध्वी पृ. १लेसे ४था वेदक, पुनः
१ला । आयुके अन्तमें उपशम सम्यक्त्व । ओघवत
१ समय
ओघवत
२५
पश्य/असं..
पक्ष्य/बसं.
१-७ पृथिवी
निरन्तर
कमेण देशोन १,३, ७.१०,१७,२२,३३सा.
ओघवत्
|३२|
पाय/असं. अन्तर्मुहूर्त
२. तिथंच गति
तिथंच सामान्य
निरन्तर
क्षुद्र भव
ति. से मनु. हो कदली। धात कर पुनः ति.
७|१०० सा. पृ.
शेष अविवक्षित गतियों में भ्रमण
अस पु. परि.
३
दचे.सा,प.,अप... योनिमति ल.अप, तिथंच सामान्य
:
पर्याय विच्छेद
ओघवत्
अन्तर्मुहुर्त
३ पल्य-२ मास +मुहत पृ.
२८/ज. वेदक हो आयुके अन्तमें मिथ्या. पुनः सम्यक्त्व हो देवों में उत्पत्ति
ओघवत
ओघवत्
|३८
।
ओघवत्
पंचे. सा. प. व योनिमति
निरन्तर
ओघवत अन्तमहत
२४२/१समय
ओघवत्
४३)
पल्य/असं ४४] ।
पण्य/असं.
३ पल्य-२ मास +२ अन्तर्मुहूर्त ३ पत्य-६५ पू.को. | दे. अन्तर ३/२ योनिमतिमें ६५ के स्थानपर १५५.को.
" (सासा. के स्थल पर मिश्र)
३
४२]
।
अन्तर्मुहूर्त
18
निरन्तर
४६
Page #24
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________________
मार्गणा
मार्गणा
पंचें सा.प. योनिमति पंच, तिल, अप
३. मनुष्य गति :
"मनु. सा. प. व मनुष्यणी
मनुष्य ल. अप.
मनु. सा. प. व मनुव्यणी
मनुष्य सामान्य
मनुष्य पर्याप्त मनुष्यती
उपशमक:
मनुष्य पर्याप्त मनुष्यी
क्षपक:
मनुष्य पर्या
मनुष्यती
गुण
स्थान
मनुष्य ल, अप.
५
५
१
१
२.
m 20
३
४
५-७
प्रमाण जघन्य १३
सू | सू
८-११
४६ |
४६ |
५२
८-१२
८-१२
मनुष्य व मनुष्यणी १३
१४
५-७६७
७८ ६१ समय ५७
६०
६४
६० १ समय
५-७ ६७
६७:
७०
་ ७०
Me
७४
७४ |
७७
७४
:
८३
::
:
::
१ समय
3
11
१ समय
नाना जीवापेक्षा
अपेक्षा
निरन्तर
E ::
निरन्तर
...
निरन्तर
ओपनव
:
11
अवबद
प्रमाण
१/३
सू सू
શ
निरन्तर $૪/
६७
99
उपशमकवत ओयवध
८-१२ वत् निरन्तर
४६
४६ ५२
६१
x
६७
{૭|
७१
७१
७६ १० पश्य / असं ८०६
५१
प/असं ६२
S P
७५
७५)
६
७७ ७५
उत्कृष्ट
....
::
⠀
444
पृ.
99
६ मास
वर्ष पृ.
...
ई मास
प्रमाण
१/२
सू / सू
पृ.
५० |
이
५६/
ल
V
६८
७२
७२
७६
७६
७७
७६
६
८३
जघन्य
अन्तर्मुहूर्त
क्षुद्र भव
अन्तर्मुहूर्त
पक्ष्य / असं.
अन्तर्मुहूर्त
"
55
एक जीवापेक्षा
अपेक्षा
ओषमय
निरन्तर
गति परिवर्तन
(मनु से ति.)
11
ओपनय
:
...
::
::
2:
निरन्तर
प्रमाण १/२
५१
५१
८१ १०
५६
६३ |
६३
m_m_
७३/
७३.
७७
उत्कृष्ट
३. पक्य + ६६पू. को. + १६५. को.
१० असं. पु. परि
३पल्य-हमास + ४६
दिन + २ अन्तर्मु ३+४० को
उपरोक्त
३ पल्य - ८ वर्ष +
४. को. ,,,,+२४५.को. + पू. को.
+२४ पू. को. """+q. #7.
ABIB :
...
अपेक्षा
सासादनवत्
31
निरन्तर
अविवक्षित गतियों में भ्रमण
भोगमों में भ्रमण
मनु. गति में भ्रमण तथा गुण स्थान परिवर्तन
""
"
ओघवत्
निरन्तर
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
नापासला......
मार्गणा मार्गणा
नाना जीवापेक्षया अपेक्षा
प्रमाण
गुण प्रमाण
जघन्य स्थान
१३
एक जीवापेक्षया प्रमाण
उत्कृष्ट
उत्कृष्ट
प्रमाण १२
जघन्य
अपेक्षा
अपेक्षा
४. देवगतिःदेवसामान्य
निरन्तर
असं.पु. परि.
तियंचों में भ्रमण
देवसे गर्भज मनु. या ति. पुनः देव
भवनत्रिक सौधर्म ईशान सानत्कुमार माहेन्द्र
ब्रह्म-कापिष्ठ शुक्र-सहस्रार आनत-अच्युत नव बेयक नव अनुदिश
मुहूर्त पृथक्त्व इस स्वर्ग में मनु.या ति.
की आयु इससे कम
नहीं बन्धती दिवस पृथक्त्व २२ पक्ष पृथक्त्व २५ मास पृथक्त्व २८ वर्ष पृथक्त्व
३२२+ सा.+२पू. को.] वहाँसे चय पूर्व कोटि वाला मनु. हो,
वहाँसे सौधर्म ईशानमें जा; २ सा, | पश्चात पुनः पूर्व कोटिवाला मनु. हो संयम धार मरे और विवक्षित देव होय
.
सर्वार्थसिद्धि
१४॥
वहाँसे आकर नियमसे
मोक्ष ओघवत्
देव सामान्य
अन्तर्मुहूर्त
८६
___
_A A L___..
|१समय
ओघवत
| पल्य/अस'
पत्य/असं. अन्तर्मुहूर्त
३४
वहाँ से आकर नियम से मोक्ष | ३१ सा.-४ अंतर्मू. द्रव्य लिंगी उपशम नैवेयकमें जा सभ्य,
ग्रहणकर भवके अन्तमें मिथ्यात्व " -५ अंतर्मु. .. -३ समय
, परन्तु सासादन सहित उत्पत्ति " -६ अंतर्मु. उपरोक्त जीव नव अवेयकमें नवीन
| सम्य. को प्राप्त हुआ स्व आयु-४ अंतमु. मि, सहित उत्पत्ति, सभ्य, प्राप्ति,
| अन्तमें च्युति , -५ अंतर्मु. देव सा. बत् नोटः-३१ सागरके स्थानपर स्व
आयु लिखना।
भवनत्रिक व सौधर्म-सहस्रार
निरन्तर
देव सावत
६४
देव सा.बत्६४
देव सा. वत्
देव सा.बत
देव सा. वत
आनत-उप. अवेयक
हव
Sl
अनुदिश-सर्वार्थसिद्धि
.
निरन्तर
वहाँसे आकर नियमसे मोक्ष
|६६
६६]
वहाँसे आकर नियम
से मोक्ष
Page #26
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________________
...मार्गणा
एक जीवापेक्षया
नाना जीवापेक्षया अपेक्षा
प्रमाण ।
गुण
मार्गणा
प्रमाण
प्रमाण
जघन्य
प्रमाण
जघन्य
जघन्य
अपेक्षा
उत्कृष्ट
अपेक्षा
स्थान। १३
सा
-
-
२. इन्द्रिय मार्गणाएकेन्द्रिय सा.
...
१०११६ |
निरन्तर १०११६
|१०२/३६ ।
क्षुद्रभव
मा. सा.. प., अप.
"
१०४१६ ॥
१०५ ३६
म. सा.
१०६/४२
१००
१११/
१०६/ (११२/४५
क्षुद्रभव
सू. प., अप. विकले. व पञ्च. सा. १११/१६ पंचें. ल. अप.
११२६ एकेन्द्रिय सा.
१ १०१ मा. सा,
१०४ मा.प.अप.
१ १०७ सू. सा., प., अप. ।११०८ बिकले.सा, प., अप.] १९१९ पंचें. सा., प.
MER
मूल ओघवव
२-३
क
अन्य पर्याय में जाकर १०३/३७ | २००० सा,+पू.को. सकायिकमें भ्रमण पुनः एकेन्द्रिय १०६४० असं. लोक सूक्ष्म एके. में भ्रमण (तीनों में कुछ-कुछ
अन्तर है) ११०४३ असंख्यातासंख्यात बा. एके. में भ्रमण
उत्सर्पिणी अवसर्पिणी ४३ | ऊपरसे कुछ अधिक अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण
४६ असं.पु. परि. एकेन्द्रियों में भ्रमण गति परिवर्तन १२० असं पु परि, विकलेन्द्रियमें भ्रमण निरन्तर १२६/
...
निरन्तर अन्य प. में जाकर पुनः ए. १०३ | २००० सा.+पू.को. त्रसकायमें भ्रमण
असं. लोक सूक्ष्म एके, में भ्रमण १०७
सू. सा.वत् का. एकमें भ्रमण
असं. पु. परि. | अविवक्षित पर्यायोंमें भ्रमण मूल ओघवत्
ओघवत् भवनत्रिक की एकेन्द्रिय जीव असंज्ञी पंचें, हो भवनउत्कृष्ट स्थिति-आ. त्रिकमें उत्पन्न हुआ। उपशम पूर्वक /असं.-क्रमेण हया | सासादन फिर मिथ्यादृष्टि । भवके | १२ अन्तर्मुहूर्त अंत में पुन. सासादन भवनत्रिकको उत्कृष्ट असंज्ञो पंचें भवको प्राप्त एके भवनत्रिकस्थिति १० अंतर्म. में उत्पन्न हो उपशम पा गिरा। भवके |
| अंतमें पुनः उपशम। स्व उ. स्थिति- संज्ञी भव प्राप्त एक उपशम सहित वाँ ३ पक्ष ३ दिन १२ पा गिरा। भवके अंतमें पुन: उपशम | अंत.+६ मुहूर्त सहित संयमासंयम पाप्त किया। स्व उ. स्थित- मनुष्य भव प्राप्त एके. गर्भादिके काल (वर्ष + १० अंतर्म. पश्चात् संयम पा गिरा । मनु.व देवादि +६ अंतर्म.) । में भ्रमण । अन्तमें मनुष्य हो, भरके |
अन्त में संयम १२४
नोटः-१० अन्तर्म के स्थानपर क्रमशः ३०, २८, २६. २४ करें।
मुलोधवत
५ ११६ । -
"
उपशमक
८-११ १२२/
१२२
सपक
५-१४|१२५
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
मार्गणा
मार्गणा
३. काय मार्गणा :
चार स्थावर बा. सू. प. अप.
वनस्पति साधारण निगो. बन नि बा. सु.प. अप वन प्रत्येक मा प त्रस, सा. प. अप. त्रस ल, अप. चार स्थावर बा. सू. प. अप.
बन, नि. सा. बा. सु.
प. अप.
वन. प्रत्येक सा. प. अप.
प्रस सा. प.
उपशमक
क्षपक त्रस ल. अप.
४. योग मार्गणा
पाँचों मन व वचन योग
काययोग सा.
-
गुण
स्थान
...
...
१
१
१
१
२
प्रमाण
१३०
१३३ |
१३६)
१३६
१४०
३ १४०
१४३
४ ५
१४३
१६
१६
१६
१६
१६
६-७ १४३ ८-११ १४६ ८-१४ १४६ |
१
१५१ |
२२
२२
जघन्य
::::::
: ।।
1 | I
1 :
:
नाना जीवापेक्षया
प्रमाण
अपेक्षा | उत्कृष्ट
१
सू सू
निरन्तर
::::::
:
::
| १३६
मूल ओधवत् १३६)
१४०
:::
::
१३० |
१३३
99
१४० १४३
१४३
१४३
१४६
१४६
१५१
१६
१६
१६
१६
१६
निरन्तर २२
२२
:
11:
!!! !! 18
:
प्रमाण
१२
१३१
[१३४
४८
५४
५७
१३७.
१३६
१४१
१४१ |
१४४ |
[ १४४ ]
१४४ ।
१४७
५१
५१
१४६
१५१ |
जघन्य
क्षुद्रभव
::::::
।।।
1}
अन्तर्मुहूर्त
१ समय
अपेक्षा
अविवक्षित पर्याय में जाकर लौटे
19
19
11
"
11
""
11
मूल ओघवत्
:::
10
निरन्तर
एक समय अन्तर
सम्भव नहीं
मरण पश्चात् भी पुनः काय योग होता ही है।
एक जीवापेक्षया
प्रमाण
१
सू सू
१३२
१३८ ।
१३६ |
१४२
१३५ ।
१४२
१४५
१४५
१४५
१४८
५५
५०
१४६
१५१/
४६ बस पू. परि
५२ असं लोक
उत्कृष्ट
"1
२३. परि
असं पु. परि
39
"7
31
अर्थ, लोक
Req. ft.
२०००सा+पू. का. पू. -आ / असं अंतर्मु
.. १-२ अंतम् ।
- १० अंतम्, ४दिन १२ अंत
वर्ष १० अं
६९ असं पु. परि
६४ अन्तर्मुहूर्त
अपेक्षा
जति पर्यायोंमें भ्रमण
पृथिवी आदिमें भ्रमण
"1
निगोदादिमें भ्रमण
वनस्पति आदि स्थावरोंमें भ्रमण
अविवक्षित वनस्पतिमें भ्रमण
चार स्थावरों में भ्रमण
निगोदादिने भ्रमण मूल ओ
असंज्ञी पंच भव प्राप्त एक भवनत्रिक में उत्पन्न हो सासादन वाला हुआ। च्युत हो सोंमें भ्रमण कर अन्तमें सासादन फिर स्थावर |
17
ही प्राप्त एक श्यों पर गिरे। भ्रमण फिर संज्ञाकरे उपरोक्त पर एक से मनु भन नोटः-१० अंतर्मु, के स्थानपर क्रमशः
३०.२८, २६, २४
मूल ओघवत् निरन्तर
काययोगियों में भ्रमण
योग परिवर्तन
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाना जीवापेक्षया
एक जीवापेक्षया
मार्गणा मार्गणा
प्रमाण
प्रमाण
प्रमाण जघन्य
गुण प्रमाण
जघन्य स्थान|१३
अपेक्षा
प्रमाण, उत्कृष्ट
जघन्य
अपेक्षा
उत्कृष्ट
अपेक्षा
औदारिक
(२२
...
निरन्तर
६६/१समय
-
मरकर जन्मते ही काय योग होता ही है
३३ सा +ह अंत- मुं.+२ समय
औ.से चारों मनोयोग फिर चारों वचन योग फिर सर्वार्थ सिद्धि देव, फिर मनुष्यमें अन्तर्मु. तक औ. मिश्र, फिर औदारिक
औदारिक मित्र
६७३३ सा. + पू. को.
+ अन्तमुं.
वैक्रियिक वैक्रियिक मिश्र
औ. काययोगियों में भ्रमण
विग्रह गतिमें १ समय कामण फिर औ. मिश्र
व्याघातकी अपेक्षा | साधिक १०००० नारकीब देवों में जा
वहाँसे आ पुनः वहाँ। ही जानेवाले मनु.व ति.
० असं. पु. परि.
(१समय
२६ वर्ष पृ.
आहारक आहारक मिश्र कामण
|२६४
::
निरन्तर
शुद्र भव-३समय
७६ अर्ध. पु.परि.८अन्त. ७६] ..-७ अन्तर्मु. ७६ असं.४ अस. उत. | बिना मोड़ेकी गतिसे भ्रमण अवसर्पिणी
निरन्तर गुणस्थान परिवर्तन करनेसे । योग भी बदल जाता है।
|
... 'निरन्तर
:
निरन्तर (उत्कृष्टवत)
(मनो वचन सा.व १ (चारों प्रकार के विशेष (तथा काय सा.व औ. |४-७
:
मूलोघवत
उपशमक
| |
१५८
क्षपक
१५६
१५६
औ. मिश्र
मूल ओघवत् निरन्तर
निरन्तर मूलोघवत्
मुल ओघवत
निरन्तर मिश्र योगमें अन्य योग रूप परि, भी नहीं तथा गुणस्थान परि. भी नहीं
|
१६६ १७१)
१समय देखें टिप्पण १६४ वर्ष पृ.
निरन्तर ( उत्कृष्टवत) १३१६६ क्रियिक
मनोयोगवत -
मनोयोगवत वै. मिश्र
१समय | १२ मुहूर्त १७२/
निरन्तर (उत्कृष्टवर) २-४ १७३/ - औ. मिश्रवद
औ. मिश्रवद आहारक व मिश्र ६ १७४ | १समय ...
वर्ष पृ. १७६
निरन्तर ( उत्कृष्टवत् । कार्मण
__ १.२,४,१३१७७| - औ. मिश्रवत् १७७ । pes! १ समय अन्तर असं यत सम्यग्दृष्टि देव नरक व मनु. का मनु. में उत्पत्तिके बिना और असं. मनुष्योंका तिर्यचों में उत्पत्तिके बिना वर्ष पृ. अन्तर असंयत सम्यग्दृष्टियोंका इतने काल तक तिर्यच मनुष्यों में उत्पाद नहीं होता
मनोयोगवत् औ. मिश्रके सासादनवव औ, मिश्रवत औ. मिश्रके सासादनवव
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मागंणा
नाना जीवापेक्षया गुण | प्रमाण
प्रमाण । जघन्य | अपेक्षा स्थान |१३|
एक जीवापेक्षया प्रमाण
मार्गणा
प्रमाण
प्रमाण ।
उत्कृष्ट
____ अपेक्षा
जघन्य
अपेक्षा
५. वेद मार्गणा :स्रोवेद सा. पुरुषवेद सा.
निरन्तर
:
क्षुद्र भव |८४] १ समय
२ असं. पु. परि.
न. वेदो एकेन्द्रियों में भ्रमण
उपशम श्रेणी से उतरते
:
नपुंसकयेद सा. अपगतवेद उप.
अन्तर्मुहूर्त
१०० सा . कुछ कम अर्ध
। अविवक्षित वेदोमे भ्रमण
क्षुद्रभव में भी न है। उपशमसे उतरकर पुन' आरोहण
पतनका अभाव गुणस्थान परिवर्तन
क्षपक १. स्त्रोवेद
६२
न्तर्मुहर्त
भूलोधवत्
पल्या असं.
मुख ओघवत
।
अन्तर्मुहूर्त
१८३)
... ! पतन का अभाव न्तर्मु. २९/ज.मु. बेदी मनु. देवियों में जा गुग
स्थान परिवर्तन कर पुन' मनुष्य पत्यशत पृ.-२ समय सासादनकी १समय स्थिति रहनेपर
अन्य वेदी स्त्री वेद सा,में उपजा। च्युत हो स्त्रीवेदियों में भ्रमण । भवान्त में
सासादन हो देवों में जन्म । अंतर्मु. ।, (परन्तु देवियों में जन्म ) - अन्तर्मु. . -(२ मास+दिवस .. (स्त्रीवेदी सामान्य में उत्पन्न करामा) पृ.+२ अंतर्मु) |
वर्ष +३३ अंत... (स्त्रीवेदी मनुभ्यों में उत्पन्न कराना) (८वर्ष + १३ खंत.) -८ वर्ष+१२ बंत) . ..
पतनका अभाव
निरन्तर
१४ १८४]
।
१६
उपशमक
८
।
"
क्षपक
८-
पतनका अभाव
।
- | मूल ओघवत् १८७ १८७
१७ ११०१समय अप्रशस्त वेदमें ११ ।
अधिक नहीं होते। | -- मूलोषवत् ३] समय ,
पक्म/सं.
२. पुरुषवेद
मूलोषपद
१६॥
पत्य/असं. अन्तर्मुहर्त
निरन्तर
२००
१६८
| मूलोघवत् पण्यशत पृ.-२समय | स्त्रीवेदीवत् ( परन्तु देवियों में जन्म) 1-1-4 अन्तर्मु.
-५ .-२मा.दि १९अंत
(वर्ष१०.+६) - वर्ष २१ अंत.) ---(८ वर्ष २७ अंत)
पतनका अभाव
REET उपशमक ८ २०१
मुलोधवत् २०१ ६ २०१॥
२०१ क्षपक (दृष्टि८-६ २०४१ समय खी व नपंसक २०५|
२०३ २०३ (२०६ २०६
पतनका अभाव
साधिक १ २०६ वर्ष मास
....
खी व नपं. नहीं। २०५
-
२०६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
एक जीवापेक्षया
नानाजीवापेक्षया
मागणा
।
प्रमाण
। प्रमाण
प्रमाण
गुण स्थान
मार्गणा
जघन्य
उत्कृष्ट
अपेक्षा
जघन्य
जघन्य ।
अपेक्षा
प्रमाण
उत्कृष्ट ।
अपेक्षा
३. नपुंसक वेद
१
२०७
निरन्तर
२००
। अन्तर्मुहूर्त
मूलोधवत
२०६
३३ सा.-६ अन्तम. | २८/ज, ७ वीं पृथिवीमें उपज सम्यक्त्व
पा भवके अन्तमें पुनः मिथ्यादृष्टि
मूलोधवत
२९०
||
२१० २१०
"
२-७ २१० उपशमक ८-
६२१० क्षपक ४. अपगत वेद उप. 18-१० २१४
१९ २१८ "क्षपक १-१४ २२१ ६. कषाय मार्गणा
मूलोषवद
२१० १ समय खीवेदीवव २१२)
, मूलोघवव २१५ |, ऊपर चढ़कर गिरे २१६/
- मूलोधवत २२१/
अन्तर्मुहूर्त
::
पतनका अभाव
मूलोधवत | वेदका उदय नहीं
मूलोधवद
पतनका अभाव गिरनेपर अपगत वेदी नहीं रहता इस स्थान में वेदका उदय नहीं
मूलोघवत्
२२१
क्रोध
निरन्तर
किसीभी कषायकी स्थितिइससे अधिक नहीं
:
मान माया लोभ उपशान्त कषाय
:::।
कषाय परि. कर मरे, नरकमें जन्म मनु. जन्म व्याघात नहीं ति, जन्म व्याघात नहीं देवजन्म व्याघात नहीं उपशम श्रेणी से उतर पुनः आरोहण
पतनका अभाव मनोयोगीवत् २२३
मूलोघवत
कुछ कम अर्ध. पु. परि.
पतनका अभाव मनोयोगीवन
मनोयोगीवद २२३
क्षीण कषाय चारों कषाय
उपशमक क्षपक अकषाय
।।।।
२२३
16-१०/२२३
८-१०/२२३ | ११ २२४
। । ।
(२२३
२२३
"
नीचे उतरनेपर अकषाय नहीं रहता
१ समय उपशम श्रेणीके २२५
कारण | - मूलोधवत् २२७/
२२३| नीचे उतरनेपर अकषाय २२६ नहीं रहता
मूलोधवत
१२-१४२२७
।
रण
मूलोघवत
७. ज्ञान मार्गणामति, श्रुत अज्ञान
निरन्तर
1
३७
।
गुणस्थान परिवर्तन ६६ १३२ सा. सम्यक्त्व के साथ ६६ सा. रह सभ्यग्मि.मैं|
जा पुनः सम्यक्त्वके साथ ६६ सा.। ।
फिर मिथ्या. १०२ असं. पु. परि. । अविवक्षित पर्यायों में भ्रमण
१०५ कुछकम अर्ध.पु.परिः सम्यक्त्वसे च्युत हो भ्रमण, पुनः सम्य. पतनका अभाव
पतनका अभाव निरन्तर | २२६
निरन्तर १२३१
तर इमगुण स्थान में अज्ञान ही, होता ज्ञान नहीं।
विभंग मति, श्रुत,अवधिज्ञान || मनःपर्यय केवल कुमति, कुश्रुत व विभंग १
पतनका अभाव
निरन्तर मूलोधवत्
: : ।
२३०
२३०/
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मागणा
माना जीवापेक्षया
प्रमाण अपेक्षा
एक जीवापेक्षया प्रमाण
उत्कृष्ट
मार्गणा
ण | प्रमाण
जघन्य
प्रमाण
जघन्य
अपेक्षा
अपेक्षा
।१२।
मति-श्रुतज्ञान
४
२३२
।
निरन्तर
(२३०
... २३३
२३५
२४०
११/२४१
१ समय
मुलोधवत्
२४२
उपशमक क्षपक
अन्तर्मुहूर्त । गुणस्थान परिवर्तन |२३४ पू.को.-४ अन्तर्मु. २८/ज सम्मूच्छिम पर्याप्तकों में उपज ४थे
५वें में रहकर मरे देव होय ६६ सा.-३ पू.को. २८/ज. मनुष्य हो वाँ ६ठा धार उत्कृष्ट -८ वर्ष ११ अन्तर्मु | स्थिति पश्चात् देव हुआ। वहाँसे चय
मनुष्य हो छठा धार पुनः देव हुआ। वहाँ से चय मनुष्य हो श्वाँ फिर ६ठा धार
मुक्त हुआ |३३ सा. + पू. को. | ६ठेसे ऊपर जा मरा, देव हो, मन हुआ।।
-३१३५१ अन्तर्मु. भवके अन्तमें पुनः ठा।
२४४६६सा +३ पू. को. | श्रेणी परि.कर नीचे आ असंयत हो मनुष्य | मूल ओघवत् -स्वर्ष २६ अन्तर्मू. | अनुत्तर देवोंमें उपजा । वहाँसे मनु.संयत, ।
पुनः अनुत्तर देव । फिर मनु. उप. । पीछे
नीचे आ क्षपक हो मुक्त हुआ गुणस्थान परिवर्तन २३४ १५.को.-५ अन्तर्मु. मतिज्ञानवद(सम्य.के साथ अवधिभो हुआ)
२३७ ६६ सा. + ३पू.को.
|-वर्ष १२ अन्तर्मु. मति-श्रुतवत् २३६
मतिश्रुतवत् पतनका अभाव
पतनका अभाव मूलोधवत्
मूलोघवद अन्तर्मुहूर्त - गुणस्थान परिवर्तन
अन्तर्महूर्त ठेसे ७वा और वेसे ठा २५२। पू. को -८ वर्ष उप.श्रेणीप्राप्त मनुष्य गुणस्थान परि कर
-क्रमशः १२, १०, भवके अन्त में पुनः श्रेणी चढ़ मरे, देव हो
६.८ अन्तर्मु. पतनका अभाव २५५||
पतनका अभाव मूलोषक्त २५६
मूलोषवद
अवधिज्ञान
निरन्तर
२३२]
"
२३
६-७ २३८॥ ८-११ २४५ ८-१२ २४५
२४५/
उपशमक
क्षपक मनापर्यय
उपशमक
मति-श्रुतवत १ समय ऐसेजीवकमहोतेहै, २४५
मूलोधवत २४५ निरन्तर २४६ मूलोधवत् २५०
२४५
२४६
८-११ २४६
८-१२ २५३
२५४
क्षपक केवलज्ञान ८. संयम मार्गणाः'सयम सामान्य सामायिक छेदो परिहारविशुद्धि
निरन्तर
अन्तर्मुहूर्त / असंयत हो पुनः संयत
सूक्ष्म साम्प हो पुनः सामासामा. छेदो. हो पुनः परिहार विशुद्धि उपशान्तकषाय हो पुनः सूक्ष्मसाम्पराय पतनका अभाव
११० कुछ कमअर्ध.पु.परि. ११० , . अन्तर्मु. . उप. सम्य. व संयमका युगपत ग्रहण ११० " -३०वर्ष-अन्तर्मु. सम्य.के ३० वर्ष पश्चात परिहार विशुद्धि
का ग्रहण ११३, अर्ध पु.परि.-अंत उप. सभ्य. व संयमका युगपत ग्रहण ।
तुरत श्रेणी। गिरकर भ्रमण । पुनः श्रेणी।।
पतनका अभाव
सुक्ष्मसाम्पराय उप.
४४ ६ मास
ट
"
क्षप.
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मार्गणा
एक जीवापेक्षया
प्रमाण
प्रमाण
नाना जीवापेक्षया
| प्रमाण अपेक्षा
प्रमाण
गुण स्थान
मागणा
जघन्य
नानाजीवापक्षमा प्रमाण । उत्कृष्ट
जघन्य
अपेक्षा
जघन्य | अपेक्षामा
उत्कृष्ट
अपेक्षा
सास
यथारख्यात उप.
निरन्तर
४०
अंतर्मुहूर्त
क्षप. संयतासंयस
अंतर्मुहूर्त
: :: : । ।
सूक्ष्मसाम्पराय हो पुनः ११३/ अर्ध. पु. परि.- मिथ्यादृष्टियों में भ्रमण यथा,
अंतर्मुहूर्त पतनका अभाव
पतनका अभाव असंयत हो पुनः
कुछ कम मिथ्यावृष्टियों में भ्रमण संयतासंयत
अर्ध. पु. परि. संयतासंयत हो पुनः | ११७/१पू. को. अंतर्मु. | संयतासंयत हो देवगतिमें उत्पत्ति
असंयत मनापर्ययज्ञानीवत् २५८
| मनःपर्ययज्ञानीवत्
असंयत
सामान्य व उप.
८-१३
२१६
मनःपर्यय-ज्ञानोवत् मूलोधवत निरन्तर मूलोधवत
क्षप. सामायिक छेदो.
उपशमक
२५६
२६१
८-६ २६४
समय
२६
૨૯૮
मूलोधवत निरन्तर मूलोधवत
अंता
क्षपक
८-६२६८ । परिहार विशुद्धि सूक्ष्मसाम्पराय उप.
। १० २७२ ___- क्षप. | १० २७५ यथाख्यात उप. क्षप. [११-१४,२७६ संसतासंयत असंयत
मूलोधवत् तर्मुहूर्त | परस्पर गुणस्थान परि. २६३
श्रेणीसे उतरकर पुनः २६७
चढ़नेवाले
मूलोधवत् २६८ परस्पर गुणस्थान परि. २७१ । अन्य गुण, सम्भव नहीं |२७४
मूलोधवत्
अकषायबत् २७६ अन्य गुण. सम्भव नहीं २७७ १ले व ४थेमें गुण. परि. २८०
मूलोघवत अंतर्मुहुर्त परस्पर गुणस्थान परिवर्तन
पू. को.-८ वर्ष | श्रेणी चढ़ फिर प्रमत्त अप्रमत्त हो भवके |-११अतर्मु वहअतर्मु. अन्तमें पुनः श्रेणी चढ़ मरे देव हो
मूलोघवत् अंतर्मुहूर्त | परस्पर गुणस्थान परिवर्तन
अन्य गुणस्थानमें सम्भव नहीं मूलोघवव अकषायवद
अन्य गुणस्थान सम्भव नहीं ३३ सा.-६ अंतर्मु. ७वीं पृ.को प्राप्त मिथ्यात्वो सम्यक्त्व धार
भवके अन्तमें पुनः मिथ्यात्व ४ये में ११ की शेष मूलोघवत् बजाये १५ अंतर्मु.
।
२७६
अकषायवत निरन्तर
२७७/
। ।
मूलोधवत्
२८॥
मूलोधवत्
२८१
-
९ दर्शन मार्गणा:-1 चक्षुदर्शन सा. अचक्षुदर्शन सा.
निरन्तर
क्षुद्रभव
१२० असं. पु. परि.
::
१२२/
अविवक्षित पर्यायोंमें भ्रमण संसारो जोवको सदा रहता है।
:: :
संसारी जीवको सदा ।
रहता है अवधिज्ञानवत
अवधिदर्शन
:
अंतर्मुहूर्त
।
१२४
केवलदर्शन चक्षुदर्शन
।।:
केवलज्ञानबत् मूलोधवत
मूलोघवत्
२८२/
२८२||
कुछ कम अवधि ज्ञानवत अर्ध. पु. परि.
केवलज्ञानबत्
मूलोधवत् २००० सा:-/ अचक्षुसे असंज्ञी पंचे. सासादन हो गिरा। असं.-१अंतम. चक्षु दर्शनियों में भ्रमण । अंतिम भवमें
पुनः सासादन
|२८३/
।।
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________________
सागंणा
नाना जीवापेक्षया
प्रमाण अपेक्षा
एक जीवापेक्षया प्रमाण ।
प्रमाण
गुण प्रमाण स्थान १३
मार्गणा
अपेक्षा
जघन्य
माए। जवन्य | अपेक्षा
उत्कृष्ट
अपेक्षा
जघरमा
सू।
चक्षुदर्शन
मूलोघवत
मूलोधवत्
२८५
२८३
निरन्तर
अतमुहूत
गुणस्थान परिवर्तन
२८८ २८८
२००० सा.-१२ उपरोक्त जीव भवनत्रिकमें जा उप. सम्य. ___ अंतर्मु. पूर्वक मिश्र हो गिरे। स्वस्थिति प्रमाण
भ्रमण । अंतिम भव के अंत में पुनः मिश्रा २०००सा.-१०अंतम. उपरोक्त मिश्रवत , -४८ दिन अचक्षुदर्शनी गर्भज संज्ञीमें उपज उप. -१२ अंतर्मु. सम्य. पूर्वक वा धार गिरा । स्वस्थिति
प्रमाण भ्रमण । अन्तिम भवके अन्त में
वेदक सहित संयमासंयम। 11-८ वर्ष-१०अंतर्मु. " (परन्तु प्रथम व अन्तिम भवमें मनुष्य)| | , क्रमशः २६, , २७,२५,२३, अंतर्मु,
मूलोधवत
-
२८
२८८
६-७२८६ |८-११ २८६
उपशमक
मूलोधवत् २८६/
२६२
मूलोधवत
क्षपक
८-१२२९२) अचक्षुदर्शन १-१२ २६३ अवधिदर्शन ४-१२२६४ केवलदर्शन
१३-१४ २६५ १० लेश्यामार्गणाः
२६४
अवधिज्ञानवव २६४ केवलज्ञानवन् २६॥
अवधिज्ञानबत् केवलज्ञानवत
अवधिज्ञानवत केवलज्ञानवत
२६५
कृष्ण
निरन्तर
नील में जा पुनः कृष्ण
कापोत हो पुनः नील तेज हो पुनः कापोत
कापोत
१२७३३सा.+१पू.को.
मा +१ प.को.८ वर्ष में ६ अंतर्मु. शेष रहनेपर कृष्ण हो |-८ वर्ष + १०अंतर्मू | अन्य पाँचों लेश्याओं में भ्रमणकर, संयम
सहित १ पू. को. रह देव हुआ। वहाँसे
आ पुनः कृष्ण ।१२७/"+"-"+अंतमू, ११२७"+"-"+ ६अंतर्मु.
१३० असं. पु. परि. गो. सा. आ/असं. पु. परि. सं. सहस्रवर्ष + ६ अंतर्मु.
१३० असं. पु. परि. गो. सा. आ/असं. पु. परि+सं.सहस्रवर्ष + पत्य/असं +२सा.+५अंत.
१३० असं. पु. परि, गो. सा. पद्मवत् परन्तु अंतर्मु. की जगह ७ अंतर्म. २६८ | ३३ सा.-६ अंतर्मु. ७वीं पृ.में उपज सम्य.। भवान्तमें मिथ्या. , -५ अंतर्मु..., ( परन्तु सभ्य, से मिथ्या. कराकर
भवके अन्त में सम्य कराना) ,, -६ अंतर्मु. . . . २६८ | , -८ अंतर्मू. ७वा पृ. में उपज सम्य. धार मिथ्या.
हुआ। भवके अन्तमें पुनः सम्यः ।
शुक्ल
४६]
कृष्ण
२६
निरन्तर मूलोघवत्
२६६ २६
गुणस्थान परिवर्तन
मूलोधवत
... २६७ पन्य/असं ३००
-
१ समय
पत्य/असं.
।
| अंतर्मुहूर्त
निरन्तर
गुणस्थान परिवर्तन
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--------------------------------------------------------------------------
________________
नील
कापीरा
तेज
पद्म
मार्गणा
मार्गणा
तेज व पद्म
शुक्ल
गुण प्रमाण स्थान
१
२
३
४
१
२
३
४
१
२
or 20 an
३
४
१
~ 22
३
१
2x9
२
३
खू सू
२६६
२१६
२६६
(२६६ ।
| २६६,
२६६
२६६
२६६
| ३०२ |
५०७ ३०८
३०५
३०५
३०२
७
३०२
३०५
३०५ |
३०२
३०६ |
३१२|
३१२
४ ३०६
५-६ ३१५
| ३१८ |
उपशमक ८ १० ३१६ ११ ३२३
क्षपक ८-१३ | ३२६
जघन्य अपेक्षा
निरन्तर
१ समय लोपमद
....
19
"
१ समय लोध
"
P
१ समय लो
नाना जीवापेक्षया
11
:::
99
निरन्तर
""
...
,,
निरन्तर
१ समय
१- समय मूलोघवस्
„
11
निरन्तर
:
15
१ समय लोघवत्
निरन्तर
19
19
निरन्तर
:
=
मूलोघवत्
प्रमाण
२६६
२६६
२६६
२६६
REE
२६६
२६६ ]
सू सू
| २६६
| ३०२
३०५
३०५ |
३०२
३०२
३०५
(३०५
३०२
३०८
३०६
३१२ | |३१२ |
३०६
३१५
३१६
३२०
३२४
३
३२६|
1
उरकृष्ट
:::.
पत्य / असं. ३०० |
३००
२१७,
२६७
पश्य / असं ३००
११
:::
::::
प्रमाण
पक्य/बर्स. ३०६
३०६
:::
सू सू २१७
99
३००
२१७
३०३
पत्य / असं. १३०६)
(३०६
३०३
३०८
वर्ष पृ.
३०३
३०३।
पश्य/असं ३१३
(३१३
३१०
१३१०
३१५
३१७ |
३२१ ३२५
३२६|
जघन्य
अन्तर्मुहूर्त
पक्ष्य / असं.
अन्तर्मुहूर्त
99
पव्य / अस
अन्तर्मुहूर्त
::
पल्य / असं.
अन्तर्मुहूर्त
11
पत्य / असं.
अन्तर्मुहूर्त
अन्तर्मुहूर्त
पत्य / असं.
अन्तर्मुहूर्त
F:
अन्तर्मुहूर्त
35
अपेक्षा
गुणस्थान परिवर्तन
मूलोघवद
परिवर्तन
91
मूलोघवद
33
गुणस्थान परिवर्तन
लोषमय
१९
गुणस्थान परिवर्तन
मूलोघवत्
गुणस्थान परिवर्तन लेश्याकाल से
का काल अधिक है।
देवोंमें पुणस्थान परि
प्रमाण
२६८
३०१
३०१
२१८]
| २६८
३०१
३०१
२१८
३०४
(३०७)
३०७ ]
३०४
३०४ |
३०७
३०७
| ३०४)
गुणस्थान- ३०८
३१११
सोद
देवो गुणस्थान परि. लेश्याका काल गुणस्थान ३१५) से कम है
३१४]
३१४
१९९
पूर्व उपराम श्रेणी ३१८ पर चढ़कर उतरे
लघु कालसे पड़कर उतरे १२५ गुणस्थानका काल गया- ३२५ से अधिक है मरि नीचे
उतरे तो स्या नह महोब
एक जीवापेक्षया
उत्कृष्ट
120
खू
१० सा.-४बंध.
"-8"
७ सा.-४
ܕܕ ܚܢ
201
4.
साधिक २ सा.
- ४ अंतर्मु
,,-२ समय
-अनु.
बंद
साधिका
४] अं.
,, समय
अंध
बैठ
अंतर्मु
11- "1
"-4"
***
अन्तर्मुहूर्त
::
अपेक्षा
कृष्णमपर जोकी अपेक्षा म पृ.
"
"
कृष्णमपर की अपेक्षा १ली. पृ.
""
331
पद
91
२ सागर आयुवाले देवों में उत्पन्न मिया सभ्य चारे भवान् पुनः मिष्या
११ वा.४ अंतर्मुग्रम्म लिंगी उपरम प्रेमें जा सम्य धार भवके अन्त में पुनः मिथ्या.
"
परन्तु मिथ्या प्राप्तो भवान्तमें सम्य तेजवदपर ७ की बजाये १८ सा. आयु वाले देवोंमें उत्पत्ति
19
"
श्या कालसे गुणस्थानका का अधिक है।
• (यथायोग्य)
"9
.. परन्तु सभ्य. से भिय्या. भवान् सम्य.) श्याका काल गुणस्थानसे कम है
उप श्रेणी उतरकर प्रमत्त हो पुनः पढ़े
दीर्घ काल कर पड़े पुनस्थानका काल तेरवासे अधिक है। यदि मोने उतरे तो या न जाये
१९
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________________
मार्गणा
नाना जीवापेक्षया
-
एक जीवोपेक्षया प्रमाण | १/२
प्रमाण
प्रमाण
मार्गणा
अपेक्षा
गुग । प्रमाण स्थान
जघन्य
अपेक्षा
जघन्य
अपेक्षा
उत्कृष्ट
१।
२
-
निरन्तर मूलोधवत निरन्तर
अन्योन्य परिवर्तनाभाव मूलोघवद
३२८ | परिवर्तनका अभाव
अन्योन्य परिवर्तनका अभाव मूलोषक्त परिवर्तनका अभाव
३२६]
११ भव्यत्व मार्गणाः भव्याभव्य सा, भव्य
|१-१४ । अभव्य १२ सम्यक्त्व मार्गणा सम्यक्त्व सा. क्षायिक सा. प्रथमोपशम द्वितोयोपशम
निरन्तर
१३५ कुछ कम अर्ध पु.परि. भ्रमण
पतनका अभाव कुछ कम अर्ध पु.परि. परिभ्रमण ।
समय | सासादनवत
-
पन्य/असं. ५६) ७ रात दिन
पल्य/असं. १३४ अन्तर्मुहूर्त
मिथ्यात्व हो पुनः सम्य. पतनका अभाव (दे. अंतर २/६) उप.श्रेणी से उतर वेदक हो पुनः उप. श्रेणी मिथ्यात्व हो पुन' सम्य | मूलोधवत मिथ्यात्व हो पुनः ३रा मति अज्ञानवत मूलोधवत
निरन्तर ६११ समय मूलोधवत
१४०
६२ पत्य/असं.
वेदक सासादन सम्यग्मिथ्यात्व निध्यादशन सम्यक्त्व सा.
निरन्तर
१३६' पत्य/असं.
अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त
मिथ्यात्वमें ले जाकर चढ़ाना १४१' १३२ सागर मति अज्ञानवत् . प.को पृ.-४ अंतर्मु. | २८/ज सज्ञी सम्मूच्छिम हो वेदक सम्य..
पा वा धार भरा देव हुआ। मिथ्या दर्शनमें ले जानेसे मार्गणा नष्ट होती है अवधिज्ञानवद
अवधिज्ञानवत् ३३४
अवधिज्ञानवत
उपशमक
क्षपक ८-१४ क्षायिक सम्यक्त्व | ४ .
मूलोधवत निरन्तर
मूलोषवत् गूणस्थान परिवर्तन
अन्तर्मुहूर्त
३४०
३४२
३४२
उपशमक
८-११ ३४३||
१ समय | मुलोधवव
वर्ष पृ..
.
मूलोधवत् पू.को.-८ वर्ष-२ अंत. २८/ज मनुष्य असंयत हो ऊपर चढ़े
३३सा.+२ पू.को..,, पर अनुत्तर देव हो। चयकर मनु. हो । |-८ वर्ष-१४ अंतर्मु. भवान्तमें ५वा व ६ठा धार सुक्त। | ३३ सा.+१पू.को... (परन्तु प्रथम मनुष्यभवके अंतमें भी |-८ वर्ष-१ अंतर्मु. | संयत बनाना)
(१ अंतर्मु की जगह क्रमशः २७, २५, | २३, २१ अंतर्मु.)
मूलोधवत्
सिम्यक्त्व सामान्यवत् 1६६ सा.-३ अंतर्म. | वेदक वा मनु, भवके आदिमें संयम
पा मरे; अनुत्तर देव हो, फिर मनु., संयत, देव, पुनः मनु, । वेदक कालकी समाप्तिके निकट संयतासंयत हो क्षायिक, संयत बन मोक्ष।
३४७
क्षपक ८-१४ ३४७
४ ३४६
ऊपर नीचे दोनों ओर ३४६ परिवर्तन मूलोधवत सम्यक्त्व सामान्यवर गुणस्थान परिवर्तन
- मूलोधवत्
सम्यक्त्व सा. बद ३४४ ... निरन्तर
वेदक सम्यक्त्व
अन्तर्मुहूर्त
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________________
मार्गणा
नाना जीवापेक्षया अपेक्षा
प्रमाण
एक जीवापेक्षया प्रमाण उस्कृष्ट
प्रमाण
गुण
मार्गणा
प्रमाण
जघन्य
उत्कष्ट | प्रमाण | जघन्य
अपेक्षा
अपेक्षा
स्थान
सस
वेदक सभ्य.
| ६-७ ३५३/ | ... | निरन्तर
३५३
| ...
३५४
। अन्तर्मुहूर्त
गुणस्थान परिवर्तन
३१६३३सा,+पू. को संयतासंयतवत पर१बार भ्रमण
-क्रमशः७ व ८ अंत. (ठे में ७ अंत. और वें में ८ अंत.) अर्ध पु. परि. सासादन मूलोघवत् अंतर्मुहूर्त
श्रेणी से उतर ४,५,७,६ में जा पुनः ४ था
प्रथमोपशम* (दे, नीचे) सामान्य उपशमसामान्य
|
१समय | सासादनवत १समय निरन्तरनहीं होते ३५७
पत्य/असं.-- दिन रात ३५८/
पल्य/असं अन्तर्मुहूर्त
सासादन मुलोधवत श्रेणीसे उत्तर ४ थे व वें में परिवर्तन
१६
4ry Your
" ,
६-७ में गुणस्थान परि. ३६७
,५,७,६,४ में , वा।।
६,५.४,५,७ और फिर ठा
३६५
उपशमक
मूलोधवत् ३६६
३७४
चढकर प्रथम बार उतरना श्रेणी से उतर पुनः उसी सम्यक्त्वसे ऊपर नहीं चढ़ता
सासादन
२
३७५
1
पत्य/असं. ३७७
चढ़कर द्वि.मार उतरना ३७१ श्रेणीसे उतरकर पुनः २०४ उसी सम्यक्त्वसे ऊपर नहीं चढ़ता गुणस्थान परिवर्तनसे ३७७ मार्गणा नष्ट हो जाती है |
३७७ अन्य गुणस्थानमें संक्र- ३७८ मण नहीं होता
गुणस्थान परिवर्तन से मार्गणा नष्ट हो जाती है
सम्यग्मिथ्यात्व मिध्यादर्शन
(३७६
विच्छेदाभाव |३७८
। अन्य गुणस्थानमें क्रमण नहीं होता
...
-
१३. संज्ञो मार्गणा संज्ञी सामान्य असंझी ,
निरन्तर
क्षुद्रभव
१४४| असं. पु. परि. १४७ १०० सा.प.
| असंज्ञियोंमें भ्रमण संज्ञियोंमें भ्रमण मूलोघवत् पुरुषवेदवत
(३७६
मूलोघवद पुरुषवेदवद
मूलोघवत् पुरुषवेदवत
२-७
DEO
उपशमक
क्षपक असंज्ञी
|८-१२
मूलोघवत् निरन्तर
मूलोधवत गुणस्थान परिवर्तनाभाव ३८३
मूलोघवद गुणस्थान परिवर्तनका अभाव
१४.बाहारक मार्गण आहारक सा. अनाहारक सर.
.
१४६
१४६५ समय विग्रह गतिमें
क्षुद्रभव-३ समय कार्मण काय-योगीवन
विग्रह गतिमें बिना मोड़ेकी गतिसे भ्रमण
१५० ३ समय १५१/ असंख्याता सं.
| उद, अवसर्पिणी ३८४
आहारक
१३८४||
मूलोधवत्
३८४
| मूलोधवत
मूलोधवत
* नोट-म.रवं./२/६ में द्वितीयोपशमका कथन किया है, क्योंकि प्रथमोपशमसे मिथ्यात्व की ओर ले जानेसे मार्गणा विनष्ट हो जाती है। इसके कथनके लिए देखो अंतर २६ ।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मार्गणा
एक जीवापेक्षया प्रमाण
___ नाना जीवापेक्षया जघन्य अपेक्षा
प्रमाण
मार्गणा
गुण 1 प्रमाण स्थान
१ । ३
उत्कृष्ट
प्रमाण
जघन्य
अपेक्षा
अपेक्षा
।
आहारक
२३८५१समय | मूलोधवत
३८५
। पत्य/असं. ३८६
।
पत्य/असं.
मूलोधवत
-
३८७ | आहारक काल | २ समय स्थिति वाला सासादन मरकर -२ समय या
एक विग्रह से उत्पन्न होकर असंख्यातासं. | द्वितीय समय आहारक हो तृतीय उत. वसर्पिणी | समय मिथ्यात्व में गया । परिभ्रमण कर
आहारक काल के अंतमें उप सम्य को प्राप्त हो आहारक कालका एक समय शेष रहनेपर पुनः सासादन ।
३
३८५
समय मूलोधवत् ३८५
पत्य/असं. ३८६ । अन्तर्मुहूर्त ।
मूलोधवव
३७
निरन्तर
गुणस्थान परिवर्तन
३१०
आहारक काल- | २८/ज देवोंमें उत्पन्न हो सम्यग्मिथ्या, ६ अंतर्मू. या को प्राप्तकर मिथ्यादृष्टि हो आहारक असं उत् अवसर्पिणी काल प्रमाण भ्रमण कर, उपशम पूर्वक
सम्यग्मिथ्यात्व धार सम्य. या मिथ्या.
होकर विग्रह गतिमें गया। ___ ५ अंतर्मु. " " |, किन्तु संज्ञी सम्मूच्छिम तियं, में |
| उत्पन्न कराके प्रथम संयमासंमय ग्रहण
कराना। फिर भ्रमण । 1-८ वर्ष-३ अंतर्मू , परन्तु मनुष्योंमें उत्पन्न कराके
संयत बनाना । फिर भ्रमण |-८ वर्ष-क्रमशः प्रमत्ताप्रमत्तवव १२,१०,६,८ अंतर्मु, (वें में १२.हवें में १०, १०वें में है
११वे में ८) मूलोधवत्
कार्मण काययोगवन - मूलोधवव
३६०/
उपशमक
मूलोघवत्
३६१
अन्तर्मुहूर्त
मृतोधवत
क्षपक
अनाहारक
कामण योगवत् ३६६
कार्मण काययोगवत्
मूलोघवत्
३६७
मूलोधवत्
३६५
३६७
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
सं.
(१)
१
(२)
१
२
(३)
ঐনএ১র ঐ এ০ ঊmano n हेww ঐwww
(६)
(<)
(९)
१
२
३
(१०)
१
२
२३
५. कर्मों के बन्ध उदय सत्व विषयक प्ररूपणा :
नोट- उसे उस विषयकी प्ररूपणाके लिए देखो संकेतित प्रमाण अर्थात् शास्त्रमें वह वह स्थल 1
मूल प्रकृतिकी ओघ आदेश प्ररूपणा नानाजीवा
अष्ट कर्म प्रकृति बन्धमें
ज. उ.
भुजगार. वृद्धि.
ज. उ.
अष्ट कर्म स्थिति बन्धमें
विषय
अन्तर :--
अष्ट कर्म अनुभाग बन्धमें
अन्तर :
ज. उ. भुजगार,
वृद्धि.
अष्ट कर्म प्रदेश बन्धमें
अन्तर :
ज.उ.
भुजगार,
वृद्धि.
अष्ट कर्म प्रकृति उदयमें
अन्तर :
ज.उ. भुजगार,
वृद्धि,
सामान्य
अष्ट कर्म स्थिति उदयमें
अन्तर :
अन्तर :
ज. उ. भुजगार. वृद्धि.
अष्ट कर्म अनुभाग उदय
में अन्तर :
ज. उ.
भुजगार• वृद्धि,
अष्ट कर्म प्रदेश उदयमें
ज. उ.
भुजगार. वृद्धि
अष्ट कर्म प्रकृति उदीरणा
में अन्तर :
अन्तर :
ज. उ. भुजगार.
वृद्धि.
अष्ट कर्म स्थिति उदीरणा
में अन्तर :
(म.म. पु. / सू./पु.)
१/३६५-३६०/२५० - २५८१/८४-१२२/६६-६४
(म. म.पू././१.)
२/२०४-२२०/११८-१२५ २/१७-१२३/५१-०७
(म.न.पु.सू./पृ.) ४/२४-२५८/९९६ १२० ४/२००-३०१ / १२८ 2/226/264
२/५४४-१४/२६६-२६०२/२१७-२६१/२४-४२१
२/३२६-३३६/९६१-१०२२/२८१-२१४/१५१-१४७३/०६६-८०६/३८०-३८५ ३/०१३-०६३/३३६-३६१ २/४०३-४०४/२०२-२०३ २/३००-३८२/९८८-११४ ताड़पत्र नह हो गये
३/८२-१९३/४९८-४
(म.म. पु. / खू./१.) ६६४-६६/५०-५१ ६/९४०-१४१/०६-७०
(ध. पु. / पृ.) १५/२८५
(प.पू./पृ.)
१५/२६१
१५/२६४
(ध. पु. / पृ.)
१५/२१६
एक जीवापेक्षा
(ध.पू./पृ.) १५/२६६
( घ० पु० / पृ.) १५-४६-५० १५/५१-५२
(ध. पु. / पृ.) १५/१४१ १५/१६९-१६२
४/११८- १०१ / ४४ ४/२७३-२८४/१२७-१३१ ४/६५६/१६१
4/20 83/84-85 ६/१०७ - १२४/५७-६५
१५/२८५
२५/२०१
१५/२६४
१५/२१६
29
१५/२१६
"
१५/४६-५० १५/५१-५२
१५/१३०-१३० १५/१६१-१४२
उत्तर प्रकृतिकी ओघ आदेश प्ररूपणा
नाना जीवापेक्षा
एक जीवापेक्षया
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१२/२
१५/२६५
"
ॐ
१५/२६६
13
"3
१५/३०६
१५/६०-६०
१५/६७
84/eve
१५/१६९-१२२
६/१४८-२६८/९५४
१३/२८८
१७/२१४
१५/२६६
१५/३०६ १३/३२१
१६/६८-६७
१५/६७
१५/१३०-११६ १५/१६१-१३२
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय
मूल प्रकृतिकी ओघ आदेश प्ररूपणा
उत्तर प्रकृतिको ओघ आदेश प्ररूपणा नाना जीवापेक्षया एक जीवापेक्षया / नाना जीवापेक्षया । एक जीवापेक्षया
-
(१३)
| अष्ट कर्म अनुभाग उदी
रणामें अन्तर :- (ध. पु./पृ.) ज. उ.
१५/२०८-२१०
१५/१६६-२०३ भुजगार.
१५/२३६
१५/२३३/२३४ वृद्धि . | अष्ट कर्म प्रदेश उदोरणामें अन्तर :- (ध. पु./पृ.)
१५/२६१
१५/२६१ भुजगार.
१५/२७४
१५/२७४ वृद्धि. अष्टकर्म अप्रशस्त उप
शमनामें अन्तर :- (ध. पु./पृ.) प्रकृतिके तीनों विकल्प
१५/२७७ २५/२७७ १५/२७८-२८०
१५/२७८-२८० स्थितिके ,
१५/२८१ २५/२८१ १५/२८१
१५/२८१ अनुभाग .. .
१५/२८२ १५/२८२ १५/२८२
१५/२८२ प्रदेश , " (१४) अष्टकर्म संक्रमणमे
अन्तर:प्रकृतिके तीनों विकल्प
१५/२८३-२८४ १५/२८३-२८४ १५/२८३-२८४ १५/२८३-२८४ स्थितिके ,, अनुभाग ,
प्रदेश , (१५) माहनीय प्रकृति सत्त्वमें
अन्तर:- (क. पा. पु./पैराप.) राग व द्वेष
१/६३६९/४०६-४०७ १/६३७५ सामान्य
२/६४/४४
२/६१८४-१८५११७३-१७५] २/६१३५-१४१/१२३-१३० सत्त्व स्थान,
२/६३७८-३८१/३४४-३५२ २/७३०८-३२५/१८१-२६२ भुजगार.
२/६४६४-४६७/४१६-४२२ २/४३८-४४२/३६७-४०४ वृद्धि .
२/७५२६-५३१/४७५/४७८ २/४६८-५०४/४४६-४५५ माहनीय स्थिति सत्त्वमे ।
अन्तर:- (क. पा. पु./पैरा/पृ.) । ज. उ. स्थिति
१९२१८-२२२/१२३-१२५ / ३/१८८-१९४/१०८-११० / ३/६१५५-१६३/८८-६३ ३/९८३-६२/४७-५४ वृद्धि. आदि पद.
३/६३२८-३४१/१८०-१८५/ ३/३२७३-२८६/१४६-१६०० ज. उ. स्थिति स्वामित्व
३/६७३-७०६/४०६-४२४ ३/S५३८-५७२/३१६-३४५ भुजगार.
४/१४३-१६१/७४-८२४/७१-११/४२.५० वृद्धि.
४/ -४५८/२६०-२७४४/३१५-३५७/१६१-२२१ (१७) मोहनाय अनुभाग सत्वमें
अन्तर :-](क.पा, पु./पैरा/पृ.) ज. उ.
1५६१३१-१३७/८५-६० /६०-८१/४३-५२ ५/९२६१-३१८/२४१-२४६ ५/६३०३-३२४/२०१-२१३ भुजगार.
१/७१५६/१०६ |५/१४७-१५०/१७-६६ ५/६५०५-५०८/२६५-२६० /६४८१-४८६/२८०-२८६ वृद्धि .
५४६१८३/१२३.१२४ ५/६१७४-१७६/११६/११८ वृद्धि आदि पद
५/५६२-५६५/३२६-३२८/५/५४०-५४४/३१२-३१६
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तरकरण
६. अन्य विषयों सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणाएँ :-- ध. १ / ४,१,७१ / ३७०-४२८ पाँचों शरोरोंके योग्य पुद्गल स्कन्धों की उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य संघातन परिशातन व तदुभय कृति सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा ।
६. १२/४.२,७,२०९/११४-१२७/१४ जोसमासों में अनुभाग बन्ध स्थानोंके अन्तरका अल्प- बहुत्व ।
ध. १३/५,४,३१/१३२-१७२ प्रयोग कर्म, समवधानकर्म, अधःकर्म, तपःकर्म, ईर्याfपथ कर्म, और किया फर्ममे १४ मार्गणाओंकी अपेक्षा
प्ररूपणा ।
ध. १४/५.६,११६/१५० १६९/१ प्रकार वर्गणाओंका जघन्य उत्कृष्ट
अन्तर ।
घ. १४/५.६,९६०/२८४-२०१६ पाँचों शरीरोंके स्वामियोंके ( २,३,४ ) भंगका ओघ आदेश से जघन्य उत्कृष्ट अन्तर । अंतरकरण—पार्जित कर्म यथा काल उदयने आकर जीवके गुणों का पराभव करने में कारण पड़ते रहते हैं। और इस प्रकार जीव उसके प्रभाव से कभी भी मुक्त नहीं हो पाता। परन्तु आध्यात्मिक साधनाओंके द्वारा उनमें कदाचित् अन्तर पड़ना सम्भव है । कुछ काल सम्बन्धी कर्म निषेक अपना स्थान छोड़कर आगे-पीछे हो जाते हैं । उस कालसे पूर्व भी कर्मों का उदय रहता है और उस कालके पीछे भो । परन्तु उतने काल तक कर्म उदयमें नहीं आता । कर्मके इस प्रकार अन्तर उत्पन्न करनेको ही अन्तरकरण कहते हैं। इसी विषयका कथन इस अधिकार के अन्तर्गत किया गया है।
१. अन्तरकरण विधान
१. अन्तरकरणका लक्षण
.सा./ भाषा, ८४/११० विवक्षित कोई निषेकनिका सर्व द्रव्य की अन्य निषेकनिविषै निक्षेपण करि तिनि निषेकनिका जो अभाव करना सो अन्तरकरण कहिये ।
२. प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरण-विधान ध. ६/१,६-८,६/२३१/१४/ विशेषाथ-अन्तरकरण प्रारम्भ करनेके समय से पूर्व उदयमें आनेवाले मिया कर्म की अन्तर्मुहुर्त प्रतिस्थितिको उल्लंघन कर उससे ऊपरको अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थिति के निषेकका उत्कीरण कर कुछ कर्म प्रदेशोंको प्रथम स्थिति में क्षेपण करता है और कुछको द्वितीय स्थिति में । अन्तरकरण से नीचेकी अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थितिको प्रथम स्थिति कहते हैं, और अन्तरकरण से ऊपरकी स्थितिको द्वितीयस्थिति कहते हैं । इस प्रकार प्रतिसमय अन्तरायाम सम्बन्धो कर्म प्रदेशों को ऊपर नीचेकी स्थितियों में तबतक देता रहता है जबतक कि अन्तरायाम सम्बन्धी समस्त निषेकोंका अभाव नहीं हो जाता है । यह क्रिया एक अन्तर्मुहूर्त कालतक जारी रहती है । जब अन्तरायाम के समस्त निषेक ऊपर या नीचेकी स्थितिमें दे दिये जाते हैं और अन्तरकाल मिथ्यात्व स्थितिके कर्म निषेकोंसे सर्वथा शून्य हो जाता है तब अन्तर कर दिया गया ऐसा समझना चाहिए। वि. वे. (०६/१.६-८,६/२३९/१३ ) स.सा./८४-८६ / १११-१२१)
३. प्रथमोपशम सम्यक्त्वको अपेक्षा अन्तरकरणकी संदृष्टि व यन्त्र
उदयागत निषेक-०
सत्तास्थित निषेक - ०
उत्कीरित निषेक - X निक्षिप्त निषेक
उपरितन
स्थिति
गुणश्रेणी
आयाम
द्वितीय
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
गुणश्रेणी शीर्ष x सं
गुणश्रेणी शीर्ष
प्रथम स्थिति
उदयावली
सत्ता
१. अन्तरकरण विधान
मिथ्यात्व का नवक समय प्रबद
- वर्तमान उदय
आबाधा
४. द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरण विधान
६. ६/१.१०८.१४ / २६० / ३ तो तो तूण दंसणमोहणीयस्स अंतर करेदि जधा सम्मत्तस्स पटवितोमुहुत्तमे मोसून अंतरं करेदि, मत-सम्मानयत्ताणमुदयावलियं मोसून अंतरं करेदि अंतरहि उनको रिजमाणपदेसम्म विदिद्विदिहि
विधाभावाद सम्मान सम्मत पढमदिहि णिनिबदि । सम्मत्तपदे सग्गमप्पणी पढमट्ठिदिम्हि चेव संहृदि । मिच्छत्तसम्मामिच्छत सम्माणं विदियट्ठिदिपदेशक सम्मत पढमदीए देदि, अणुक्कीरिज्जमाणासु हिंदी च देदि । सम्मत्तपढमट्ठिदिसमाणासु द्विदो द्विद-मिच्छत्त सम्मामिच्छत्तपदेस सम्मपदि संकामेदि जाव अंतरदुरिमफाली पददि ताब इमो कमो होदि पुणो चरिमफालीए पदमाना मिच्यत सम्मामिच्छत्ताण मंतरर्राट्ठदिपदेसग्गं सर्व्व सम्मत्तपढर्माट्ठदीए संग्रहदि एवं सम्मत अंतरदिपदे पि अप्पो पदमट्टिदीए चेव देदि नियिदिपदेसग्गं पिसाब पढमट्ठिदिमेदि जाय आवलिय-पडिआवलियाओ पढमट्टिदीए सेसाओ त्ति। इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल जाकर दर्शनमोहनीयका अन्तर करता है। वह इस प्रकार है-सम्यक्प्रकृतिको अन्तर्मुहूर्त मात्र प्रथमस्थितिको छोड़कर अन्तर करता है। तथा मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंको उदयावलीको छोड़कर अन्तर करता है। इस अन्तरकरण में उत्कीरण किये जानेवाले प्रदेशाको द्वितीय स्थितिमें नहीं स्थापित करता है, किन्तु बन्धका अभाव होनेसे सबको लाकर सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रथमस्थितिमें स्थापति करता है। सम्यक्त्वप्रकृति के प्रदेशापको अपनी प्रथम स्थितिमें ही स्थापित करता है । नियाल, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यप्रकृतिके द्वितीय स्थिति सम्बन्धी प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रथम स्थिति देता है और अनुकीर्यमाण (द्वितीय स्थितिकी) विवियाने भी देता है। सम्यक्प्रकृतिको प्रथम स्थिति के अमान स्थितियोंमें स्थित मिध्यात्व और सम्यग् मिध्यात प्रकृतियों के प्रदेशको सम्पतिकी प्रथम स्थितियोंमें क मन कराता है। जबतक अन्तरकरणकालकी द्विचरम काही प्राप्त होती है तबतक यही कम रहता है। पुनः अन्तिम कासके प्राप्त होनेपर मिध्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के सम अतरस्थितिसम्बन्धी प्रदेशाप्रको, सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें स्थापित करता है। इस प्रकार सम्यक्त्वप्रकृति के अन्तरस्थिति सम्बन्धी प्रदेशको भी अपनी प्रथम स्थिति में ही देता है। द्वितीय स्थिति सम्बन्धी प्रदेशा भी तबतक प्रथमस्थितिको प्राप्त होता है चमतक कि प्रथम स्थितिमें आमली और प्रत्यायती रहती है।
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अन्तरकरण
२. अन्तरकरण सम्बन्धी नियम
५. द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरणको संदृष्टि व यन
उदय रूप अनुदयरूप अनुदयरूप सम्यक प्रकृति सम्यक मिथ्यात्व मिथ्यात्व
ठ
.
.
.
.
द्वितीयस्थिति
.
-
अन्तण्याम प्रथमस्थिति
००००००००००/xxxxxxx/0000०००००
xxxxxxxxx.04 xxxxxxxxxp+1 xxxxxxxxxi-
EL
1060000000poaxxxxxxxxxxxxxxxx
680pooxxxxxxxxxxxxxxxxxi
अन्तरायाम
अन्तरायाम 4
+इतनाकाला प्रत्यावला
शेषरहने ।
चलतारहता है। उदधावली
६.चारित्रमोहके उपशमकी अपेक्षा अन्तरकरण विधान द्वितीयोपशमको भाँति यहाँ भी दो प्रकारकी प्रकृतियाँ उपलब्ध है-उदयरूप, अनुदय रूप । इसके अतिरिक्त यहाँ एक विशेषता यह है कि यहाँ साथ-साथ चारित्र मोहकी किन्हीं प्रकृतियोंका नवीन बन्ध भी हो रहा है और किन्हीं का नहीं भी हो रहा है।
इस देशघातो करणसे ऊपर संख्यात हजार स्थितिवन्धके पश्चात मोहनीयकी २१ प्रकृतियोंका अन्तरकरण करता है। संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभमें कोई एकके, तथा तोनों वेदोंमें किसी एकके उदय सहित श्रेणी चढ़ता है । इन उदय रूप दो प्रकृतियों की तो प्रथम स्थिति अन्तर्मुहर्त स्थाप है और अनुदय रूप १६ प्रकृतियों की प्रथम स्थिति आवली मात्र (उदयावली) स्थाप है। इन प्रथम स्थिति प्रमाण निषेकोंको नीचे छोड़ ऊपरके निषेकौंका अन्तरकरण करता है. ऐसा अर्थ जानना ।क्रम बिलकुल द्वितीयोपशमके समान ही है।
अन्तरके अर्थ उत्कीर्ण किये द्रव्यको अन्तरायाममें नहीं देता है। फिर किसमें देता है उसे कहते हैं। जिनका उदय नहीं होता केवल बन्ध ही होता है उन प्रकुतियों के द्रव्य को उत्कर्षण करके तत्काल बंधनेवाली अपनी प्रकृतिकी आबाधाको छोड़कर, द्वितीय स्थितिके प्रथम समयसे लगाकर यथायोग्य अन्तपर्यन्त निक्षेपण करता है, और अपकर्षण करके उदय रूप जो अन्य कषाय उसकी प्रथम स्थितिमें निक्षेपण करता है।
जिन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता केवल उदय ही होता है, उनके द्रव्यका अपकर्षण करके अपनी प्रथम स्थिति देता है । और उत्कर्षण करके, जहाँ अन्य कषाय बंधती हैं उनकी द्वितीय स्थितिमें देता है, तथा अपकर्षण द्वारा उदय रूप अन्य क्रोधादि कषायकी प्रथम स्थितिमें संक्रमण कराके उदय प्रकृति रूप भी परिणमाता है।
जिन प्रकृतियोंका मन्ध भी है और उदय भी है, उनके 'अन्तर' सम्बन्धी द्रव्यको अपकषण करके उदय रूप प्रथम स्थिति देता है तथा अन्य प्रकृति परिणमने रूप संक्रमण भी होता है। और उत्कर्षण करके जहाँ अन्य प्रकृति मंधती है उनकी वित्तीय स्थितिमें देता है।
बन्ध और उदय रहित प्रकृतियोंके अन्तर सम्बन्धी द्रव्यको अपकर्षण करके उदय रूप प्रकृतिको प्रथम स्थितिमें संक्रमण कराता है वा तद्वप परिणमाता है। और उत्कर्षण करके अन्य मंधनेवाली प्रकतियोकी द्वितीय स्थिति रूप संक्रमण कराता है।
इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल तक अन्तर करने रूप क्रियाको समाप्ति होती है । जब उदयावली का एक समय व्यतीत होता है, तब गुणश्रेणीका एक समय उदयावली में प्रवेश करता है, और तब ही अन्तरायामका एक-एक समय गुणश्रेणी में मिलता है, और द्वितीय स्थितिका एक समय अन्तरायाममें मिलकर द्वितीय स्थिति घटती है। प्रथम स्थिति और अन्तरायाम उतनाका उतना ही रहता है। (विशेष दे.--ल. सा /म.व.जी प्र. २४१-२४७ / २६७-३०४)
७. चारित्रमोह क्षपणकी अपेक्षा अन्तरकरण विधान चारित्रमोह उपशम विधानवत् देशघाती करण त परै ख्यात हजार स्थिति काण्डकोंके पश्चात् चार संज्वलन और नव नोकपायका अन्तर करता है । अन्तरकरण कालके प्रथम समयमें पूर्व से अन्य प्रमाण लिये स्थितिकाण्डक, अनुभाग काण्डक व स्थिति बन्ध होता है। प्रथम समय में उन निषेकोंके द्रव्यको अन्य निषेकों में निक्षेपण करता है।
सज्वलन चतुष्कमें-मे कोई एक, तीनों वेदों में से कोई एक ऐसे दो प्रकृतिकी तो अन्तर्मुहुर्त मात्र स्थिति स्थापै है। इनके अतिरिक्त जिनका उदय नहीं ऐसी११ प्रकृतियों की आवली मात्र स्थिति स्था है। वर्तमान सम्बन्धी निपेकसे लगाकर प्रथम स्थिति प्रमाण निषेकोंको नीचे छोड़ इनके ऊपरके निषेकोंका अन्तर करता है।
असंख्यातगुणा क्रम लिये अन्तमहतमात्र फालियो के द्वारा सर्व द्रव्य अन्य निषेकों में निक्षेपण करता है। अन्तर रूप निषेकों में क्षेपण नहीं करता। कहाँ निक्षेपण करता है उसे कहते हैं ।
बन्ध उदय रहित वा केवल बन्ध सहित उदय रहित प्रकृतियों के द्रव्यको अपकर्षण करके उदयरूप अन्य प्रकृतियों की प्रथम स्थितिमें संक्रमण रूप निक्षेपण करता है । बन्ध उदय रहित प्रकृतियों के द्रव्यको द्वितीय श्रेणी में निक्षेपण नहीं करता है क्योंकि बन्ध बिना उत्कषण होना सम्भव नहीं है । केबल बन्ध सहित प्रकृतियोंके द्रव्यको उत्कर्षण करके अपनी द्वितीय स्थितिमे देता है, वा बँधनेवाली अन्य प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थितिमें संक्रमण रूपसे देता है।
केवल उदय सहित प्रकृतियोंके द्रव्यको अपकर्षण करके प्रथम स्थितिमें देता है और अन्य प्रकृतियोंके द्रव्यको भी इनकी प्रथम स्थितिमें संक्रमण रूप निक्षेपण करता है। इनका द्रव्य है सो उत्कषण करके बन्धनेवाली अन्य प्रकृतियों की द्वितीय स्थितिमें निक्षेपण करता है। केवल उदयमान प्रकृतियोंका द्रव्य अपनी द्वितीय स्थितिमें निक्षेपण नहीं करता है।
बन्ध उदय सहित प्रकृतियोंके द्रव्यको प्रथम स्थितिमें चा बन्धती द्वितीय स्थितिमें निक्षेपण करता है। विशेष दे.-क्ष, सा. भाषा ५३३-५३५/५१३) २. अन्तरकरण सम्बन्धी नियम १. अन्तरकरणको निष्पत्ति अनिवत्तिकरणके कालमें
होती है ६।१,६-८,4/२३१/३ कम्हि अन्तरं करेदि। अणियट्टीअद्धाए संखेज्जे भागे गतूण । -शंका-किसमें अर्थात कहाँपर या किस करण के कालमें अन्तर करता है। उत्तर अनिवृत्ति करणके काल में संख्यात भाग जाकर अन्तर करता है । (ल.सा.मू. ८४/११८)
२. अन्तरकरणका काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ल. सा. मु. ८५/११६ एयहिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरस्स णिप्पत्ती।
अंतोमुहत्तमेत अंतरकरणस्स अदाणं ॥८॥-एक स्थिति खण्डोरकीरण काल विषै अन्तरकी निष्पत्ति हो है। एक स्थिति काण्डोरकीरणका जितना काल तितने काल करि अन्तर करे है। याको अन्तरकरण काल कहिए है, सो यह अन्तर्मुहूर्त मात्र है।
३. अन्तरायाम भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही होता है ल. सा./जी./प्र. २४३/२६६ एवं विधान्तरायामप्रमाणं च ताभ्यां वाभ्या
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अन्तरकृष्टि
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१. अन्तराय कर्म
मन्तर्मुहूर्तावलिमात्रीभ्यो प्रथस्थिती ताभ्यां संख्यातगुणितमेव भवति । बहुरि अन्तर्मुहूर्त वा आवलीमात्र जो उदय अनुदय प्रकृतिनिकी प्रथम स्थिति ताते संख्यातगुणा ऐसा अन्तर्मुहूर्त मात्र अतरायाम है।
४. अन्तर पूरण करण ल. सा. मू. १०३ / १३६ उवसमसम्मत्तु वरि दंसणमोहं तुरंत पूरेदि । उदयिल्लस्सुदयादो सेसाणं उदयबाहिरदो ॥१०॥- उपशम सम्यक्त्वके ऊपरि ताका अन्त समयके अनन्त रि दर्शन मोहकी अन्तरायामके उपरिवर्ती जो द्वितीय स्थिति ताके निषेकनिका द्रव्य की अपकर्षण करि अंतर को पूरै है। अंतरकृष्टि-दे, 'कृष्टि' । अंतरद-एक ग्रह-दे. 'ग्रह' । अंतरात्मा–बाह्य विषयोंसे जीवकी दृष्टि हटकर जब अन्तरकी ओर झुक जाती है तब अन्तरात्मा कहलाता है। १. अन्तरात्मा सामान्यका लक्षण मो. पा. मू.५ अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हूँ अप्पसंकप्पो ।इन्द्रियनिकू' बाह्य आत्मा कहिए। उसमें आत्मत्वका संकल्प करे सो बहिरात्मा है । बहुरि अन्तरात्मा है सो अन्तरंग विषै आत्माका प्रगट
अनुभवगोचर संकल्प है। (द्र. सं. टी.१४/४६/८) नि. सा. मू. १४६-१५०/३०० आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतर गप्पा ॥१४॥ =जप्पेसु जो ण वट्टइ सो उच्चइ अंतर गप्पा।१५०॥ आवश्यक सहित श्रमण वह अन्तरात्मा है ॥१४६॥ जो जल्पों में नहीं वर्तता, वह अन्तरात्मा कहलाता है ॥१५॥ र. सा. मू. १४१ सिविणे विण भुंजइ विसयाई देहाइभिण्णभावमई। भुजइणियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो॥१४१॥-देहादिकसे अपनेको भिन्न समझनेवाला जो व्यक्ति स्वप्न में भी विषयोंको नहीं भोगता, परन्तु निजात्माको ही भोगता है, तणा शिव सुख में रत रहता है वह अन्तरात्मा है। प.प्र.मू.१४/२१/१३ देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ ।
परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ १४५ - जो पुरुष परमात्माको शरीरसे जुदा केवलज्ञान कर पूर्ण जानता है, वही परम
समाधिमें निष्ठता हुआ अन्तरात्मा अर्थात् विवेकी है। ध. १/१,१,२/१२०/५ अट्ठ-कम्मभंतरो त्ति अंतरप्पा। आठ कोंक
भीतर रहता है इसलिए अन्तरात्मा है । (म.पू. २४/१०३,१०७) शा. सा. ३१ धर्मध्यान ध्यायति दर्शनज्ञानयोः परिणतः नित्यम् । सः भण्यते अन्तरात्मा लक्ष्यते ज्ञानवद्भिः ॥३१॥ =जो धर्मध्यानको ध्याता है, नित्य दर्शन व विज्ञानसे परिणत रहता है, उसको अन्तरात्मा कहते हैं। का. अ. मू. १६४ जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणं ति जीवदेहाणं । णिज्जिय-दुट्ठ-मया अंतरअप्पा य ते तिविहा ॥१६४॥ जो जिनबचनों में कुशल हैं, जीव और देह के भेदको जानते हैं, तथा जिन्होंने आठ दुष्ट मदोंको जीत लिया है वे अन्तरात्मा है।
२. अन्तरात्माके भेद द्र.सं. टी. १४/४६ अविरतगुणस्थाने तद्योग्याशुभलेश्यापरिणतो जघन्यान्तरात्मा, क्षोणकषायगुणस्थाने पुनरुत्कृष्टः, अविरतक्षीणकषाययोमध्ये मध्यमः। -अविरत गुणस्थानमें उसके योग्य अशुभ लेश्यासे परिणत जघन्य अन्तरात्मा है, और क्षीणकषाय गुणस्थानमें उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। अविरत और क्षीणकषाय गुणस्थानोंके बीच में जो सात गुणस्थान है सो उनमें मध्यम अन्तरात्मा है। (नि. सा, ता. वृ. १४हमें 'मार्ग प्रकाश से उधृत) स. श. भा.४ अन्तरात्माके तीन भेद हैं-उत्तम अन्तरात्मा, मध्यम
अन्तरारमा, और जघन्य अन्तरात्मा। अन्तरंग-बहिरंग-परिग्रहका
त्याग करनेवाले, विषय कषायोंको जीतनेवाले और शुद्धोपयोगमें लोन होनेवाले तत्त्वज्ञानी योगीश्वर 'उत्तम अन्तरात्मा' कहलाते हैं, देशव्रतका पालन करनेवाले गृहस्थ तथा छठे गुणस्थानवर्ती मुनि 'मध्यम अन्तरात्मा' कहे जाते हैं और तत्त्व श्रद्धाके साथ व्रतोंको न रखनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य अन्तरात्मा' रूपसे निर्दिष्ट हैं।
३. अन्तरात्माके भेदोंके लक्षण का.अ.मू. १९५-१६७ पंच-महब्वय-जुत्ता धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्च । णिज्जिय-सयल-पमाया, उक्किठा अंतरा होंति ॥ सावयगुणेहि जुत्ता पमत्त-विरदाय मज्झिमा होति। जिणहवणे अणुरत्ता उबसमसीला महासत्ता ॥१६६। अविरय-सम्मादिछी होति जहण्णा जिणिदपयभत्ता। अप्पाणं णिदंता गुणगहणे सुटु अणुरत्ता ॥११॥ जो जीव पाँचों महावतोंसे युक्त होते हैं, धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यानमें सदा स्थित रहते हैं, तथा जो समस्त प्रमादोंको जीत लेते हैं वे उस्कृष्ट अन्तरात्मा हैं ॥१६॥ श्रावकके व्रतोंको पालनेवाले गृहस्थ और प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि 'मध्यम अन्तरात्मा' होते हैं। ये जिनवचनमें अनुरक्त रहते हैं. उपशमस्वभावी होते हैं और महापराक्रमी होते हैं ॥१६६। जो जीव अविरत सम्यग्दृष्टि हैं वे जघन्य अन्तरात्मा हैं। वे जिन भगवान के चरणों के भक्त होते हैं, अपनी निन्दा करते रहते हैं
और गुणोंको ग्रहण करने में बड़े अनुरागी होते हैं ॥१६॥ नि. सा. टी. एह 'मैं माग प्रकाश से उधृत-जघन्यमध्यम त्कृष्ट
भेदाद विरतः सुदृक् । प्रथमः क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः।अन्तरात्माके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे (तीन) भेद हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य) अन्तरात्मा है। क्षीणमोह अन्तिम अर्थात उत्कृष्ट अन्तरात्मा है और उन दोके मध्यमें स्थित मध्यम
अन्तरात्मा है। द्र. सं.टी. १४/४/२-दे. ऊपरवाला शीर्षक सं.२॥
* जीवको अन्तरात्मा कहनेकी विवक्षा-दे. जीव १/३ । अंतराय-अन्तराय नाम विघ्नका है। जो कर्म जीवके गुणों में माधा डालता है, उसको अन्तराय कम कहते हैं। साधुओंकी आहारचर्या में भी कदाचित् बाल या चीटी आदि पड़ जानेके कारण जो बाधा आती है उसे अन्तराय कहते हैं। दोनों ही प्रकारके अन्तरायों के भेद-प्रभेदोंका कथन इस अधिकारमें किया गया है। १. अन्तराय कर्म
१. अन्तराय कर्मका लक्षण त.सू.६/२७ विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥२७१ -विघ्न करना अन्तराय
का कार्य है । (स. सि, ६/१०/३२७) (रा. वा. ६/१०/४/५१७/१७) (ध. १३/५४५,१३७/३६०/४) (गो. क./जी. प्र. ८००/१७६/८) स. सि.८/१३/३६४ दानादिपरिणामव्याघातहेतुस्वात्तस्यपदेशः।दानादि परिणामके व्याघातका कारण होनेसे यह अर्थात अन्तराय संज्ञा मिली है। घ.१३/५.५,१३७/३८६/१२ अन्तरमेति गच्छतीत्यन्तरायः।-जो अन्तर अर्थात मध्य में आता है वह अन्तराय कर्म है।
२. अन्तराय कर्मके भेद त.सु.८/१३ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम्। -दान, लाभ, भोग.
उपभोग और वीर्य इनके पाँच अन्तराय है। (मू. आ १२३४) (पं.सं.प्रा. २/४) (ष. ख.६१,६-१/.४६/७८); (ष.ख.१२/२.४,१४ २२/४८५) (ध. १३/०,१३७/३८६/९) (पं.सं. २/३३४); (गो. क./जी. प्र.३३/२७/२)
३. दानादि अन्तराय कर्मोके लक्षण स.सि.८/३६४/६ यदुदयाददातुकामोऽपि न प्रयच्छवि, वधुकामोऽपि न लमते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुलते, उपभोक्तुमभिवा
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अन्तराय
२. आहार सम्बन्धी अन्तराय
छन्नपि नोपभुङ्क्ते, उत्सहितुकामोऽपि नीत्सहते। जिसके उदयसे देनेकी इच्छा करता हुआ भी नहीं देता है, प्राप्त करनेकी इच्छा करता हुआ भी नहीं कर पाता है, भोगनेकी इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग सकता है, और उत्साहित होनेको इच्छा रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है। (रा. वा.८/१३/२/५८०/३२) (गो. क./ जी : ३३/३०११८)
४. अन्तराय कर्मका कार्य मो मा प्र५५६ अन्तराय कर्मके उदयसे जीव चाहै सो न होय । . बहुरि तिसहोका क्षयोपशमतें किंचित मात्र चाहा भी होय ।
५. अन्तराय कर्मके बन्ध योग्य परिणाम त सू. ६/२७ विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २७ ॥ दानादिमें विघ्न डालना
अन्तराय कमका आस्रव है। रा.वा ६/२७/१/५३१/३० तद्विस्तरस्तु विवियते -ज्ञानप्रतिषेधसत्कारोपघात-दाननाभभोगोपभोगवोर्यस्नानानुलेपनगन्धमाक्याच्छादनविभूषणशयनासनभक्ष्यभोज्यपेयलेह्यपरिभोगविघ्नकरण - विभवसमृद्धि - विस्मय-द्रव्यापरित्याग-द्रव्यासप्रयोगसमर्थनाप्रमावर्णवाद - देवतानिवेद्यानिवेद्यग्रहण-निरवद्योपकरणपरित्याग-परवीर्यापहरण-धर्मव्यवच्छेदनकरण-कुशलाचरणतपस्त्रिगुरुचेत्यपूजाव्याघात - प्रवजितकृपणदोनानाथवखपात्रप्रतिश्रयप्रतिषेधक्रियापरनिरोधबन्धनगुह्याङ्गछेदन - कर्ण-नासिकौष्ठकर्तन-प्राणिवधादि.। -उसका विस्तार इस प्रकार है-ज्ञानप्रतिषेध, सत्कारोपघात, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, स्नान, अनुलेपन,गन्ध, माक्य,आच्छादन, भूषण, शयन,आसन, भक्ष्प, भोज्य, पेय, लेह्य और परिभोग आदिमें विघ्न करना, विभवसमृद्धिमें विस्मय करना, द्रव्यका त्याग न करना, द्रव्यके उपयोगके समर्थनमें प्रमाद करना, अवर्णवाद करना, देवताके लिए निवेदित या अनिवेदित दव्यका ग्रहण करना, निर्दोष उपकरणोंका त्याग, दूसरेको शक्ति का अपहरण, धर्म व्यवच्छेद करना, कुशल चारित्रवाले तपसत्रो, गुरु तथा चत्यकी पूजामें व्याघात करना, दीक्षित, कृपण, दोन, अनाथको दिये जानेवाले बख, पात्र, आश्रय आदिमें विघ्न करना. पर निरोध, बन्धन, गुह्य संगच्छेद, नाक, ओठ आदिका काट देना, प्राणिवध आदि अन्तराय कर्मके आस्तबके कारण हैं। (त.सा ४/५५-५८ ) ( गो क ।जो. मू.८१०/६८५) २ आहार सम्बन्धी अन्तराय १. श्रावक सम्बन्धी पंचेन्द्रियगत अन्तराय
१ सामान्य ६ भेद ला सं./२४० दर्शनास्पर्शनाच्चैव मनसि स्मरणादपि। श्रवणादगन्धनाच्चापि रसनादन्तरायका २४० -श्रावकोके लिए भोजनके अन्तराय कई प्रकारके है। कितने ही अन्तराय देखनेसे होते हैं, कितने ही छुनेसे वा स्पर्श करनेसे होते हैं, कितने ही मनमें स्मरण कर लेने मात्रसे होते है, कितने ही सुननेसे होते है, कितने ही संघनेसे होते है और कितने ही अन्तराय चखने वा स्वाद लेनेसे अथवा खाने मात्रसे होते है।
२ स्पर्शन सम्बन्धी अन्तराय सा. ध. ४/३१ .....स्पृष्ट्वा रजस्वलाशुष्कचर्मास्थिशुनकादिकम् ॥३१॥रजस्वला खी, सूखा चमडा, सुखी हड्डो, कुत्ता, बिल्ली और चाण्डाल
आदिका स्पर्श हो जानेपर आहार छोड देना चाहिए। ला सं १/२४२,२४७ शुष्कचर्मास्थिलोमादिस्पर्शनान्नैव भोजयेत् । मूषकादिपशुस्पत्त्यिजेदाहारमअसा १२४२० -सूखा चमडा, सूखी हड्डी, बालादिका स्पर्श हो जानेपर भोजन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार चूहा, कुत्ता, बिल्ली आदि घातक पशुओका स्पर्श हो जानेपर
शीघ ही भोजनका त्याग कर देना चाहिए ॥ २४२ ॥ नोट-और भी देखो आहारके १४ मल दोष-दे आहार 1/४ |
३. रसना सम्बन्धी अन्तराय सा.घ./४/३२,३३...भुक्त्वा नियमितं वस्तु भोज्यैऽशक्यविवेचनैः ॥३२॥
संसृष्टे सति जीवद्भिर्जीव महुभिमृतः ॥३३॥-जिस वस्तुका त्याग कर दिया है, उसके भोजन कर लेनेपर, तथा जिन्हें भोजनसे अलग नही कर सकते ऐसे जोवित दो इन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौइन्द्रिय जीवोके संसर्ग हो जानेपर (मिल जानेपर) अथवा तीन चार आदि मरे हुए जीवोंके मिल जानेपर उस समयका भोजन छोड देना चाहिए। ला. सं.५/२४४-२४७ प्राक्परिसंख्यया त्यक्तं वस्तुजातं रसादिकम् ।
भ्रान्त्या विस्मृतमादाय त्यजेद्भोज्यमसंशयम् ॥ २४४ । आमगोरससपृक्तं द्विदलान्न परित्यजेत् । लालाया' स्पशमात्रेण त्वरित बहुमूछनात ॥२४॥ भोज्यमध्यादशेषांश्च दृष्ट्वा उसकलेवरान् । यद्वा समूलतो रोम दृष्ट्वा सद्यो न भोजयेत् ॥२४६॥ चमतोयादिसम्मिश्रासदोषमनशनादिकम् । परिज्ञायेङ्गितै. सूक्ष्मः कुर्यादाहारवर्जनम् ॥२४॥-भोगोपभोग पदार्थोंका परिमाण करते समय जिन पदार्थाका त्याग कर दिया है अथवा जिन रसोंका त्याग कर दिया है उनको भूल जानेके कारण अथवा किसी समय अन्य पदार्थका भ्रम हो जानेके कारण ग्रहण कर ले तथा फिर उसी समय स्मरण आ जाय अथवा किसी भी तरह मालूम हो जाय तो बिना किसी सन्देहके उस समय भोजन छोड देना चाहिए ॥२४४॥ कच्चे दूध, दही आदि गोरसमें मिले हुए चना, उडद मूंग, रमास (बोडा) आदि जिनके बराबर दो भाग हो जाते है (जिनकी दाल बन जाती है। ऐसे अन्नका त्याग कर देना चाहिए, क्योकि कच्चे गोरसमें मिले चना, उड़द, मूंगादि अन्नोंके खानेसे मुंहकी लारका स्पर्श होते ही उसमें उसी समय अनेक सम्मुच्र्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं । २४ । यदि बने हुए भोजनमें किसी भी प्रकारके त्रस जीवोंका कलेवर दिखाई पड़े तो उसे देखते ही भोजन छोड देना चाहिए, इसी प्रकार यदि भोजनमें जड सहित बाल दिखाई दे तो भी भोजन छोड देना चाहिए ॥२४॥ "यह भोजन चमडेके पानीसे बना है वा इसमें चमडेके बर्तन में रखे हुए घी, दूध, तेल, पानी आदि पदार्थ मिले हुए है और इसलिए यह भोजन अशुद्ध व सदोष हो गया है" ऐसा किसी भी सूक्ष्म इशारेसे व किसी भी सूक्ष्म चेष्टासे मालूम हो जाये तो उसी समय आहार छोड देना चाहिए।
४. गन्ध सम्बन्धी अन्तराय ला. स. ५/२४३ गन्धनान्मद्यगन्धेव पूतिगन्धेव तत्समे । आगते घाणमार्ग च नान्नं भुञ्जोत दोषवित ॥ २४३ ॥ भोजनके अन्तराय और दोषोंको जाननेवाले श्रावकोंको मद्यकी दुर्गन्ध आनेपर वा मद्यकी दुर्गन्धके समान गन्ध आनेपर अथवा और भी अनेकों प्रकारकी दुर्गन्ध आनेपर भोजनका त्याग कर देना चाहिए।
५. दृष्टि या दर्शन सम्बन्धी अन्तराय साध,४/३१ दृष्ट्वाई चर्मास्थिमरामांसासृपयपूर्वकम् ॥३॥- गीला
चमड़ा, गीली हड्डो, मदिरा, मांस, लोह तथा पोबादि पदार्थोंको देखकर उसी समय भोजन छोड़ देना चाहिए। या पहले दीख जानेपर उसी समय भोजन न करके कुछ काल प छ करना चाहिए (ला. सं.५/२४१)। चा, पाटी. २९/ ४३ / १५ अस्थिसुरामासरक्तपूयमलमूत्रमृताङ्गिदर्शनतः प्रत्याख्यातान्नसेवनाचा डालादिदर्शनात्तच्छन्दश्रवण च भोजनं त्यजेत् । - हड्डी, मद्य, चमड़ा, रक्त, पीम, मल, मूत्र, मृतक मनुष्य इन पदार्थोंके दीख पड़नेपर तथा त्याग किये हुए अन्नादिका सेवन हो जानेपर अथवा चाण्डाल आदिके दिखाई दे जानेपर या उसका शब्द कानमें पड़ जानेपर भोजन त्याग देना चाहिए। क्योंकि ये सम दर्शनप्रतिमाके अतिचार है।
६. श्रोत्र सम्बन्धी अन्तराय सा.ध.४/३२ युवा वर्कशाक्रन्दविड्वरप्रायनिस्स्वनं. ॥३१॥ -
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अन्तराय
अन्तपण्ड्यि
'इसका मस्तक काटो इत्यादि रूप कठोर शब्दोंको, 'हा हा इत्यादि जाना पतन है। बैठ जाना उपवेशन है। कुत्तादिका काटना सर्दश रूप आर्त स्वर वाले शब्दोंको और परचक्रके आगमनादि विषयक
है। हाथसे भूमिको छूना भूमिस्पर्श है। कफ आदि मलका फेंकना विड्वरप्राय शब्दोको सुन करके भोजन त्याग देना चाहिए ।
निष्ठीवन है। पेटसे कृमि अर्थात कीडोका निकलना उदरकृमिनिर्गमन चा, पा.टो. २१/ ४३/१६ चाण्डालादिदशनात्तच्छब्दश्रवणाच भोजनं
है । बिना दिया किचित् ग्रहण करना अदत्तग्रहण है। अपने व अन्यके त्यजेत् । -चाण्डालादिके दिखाई दे जानेपर, या उसका शब्द कानमें
तलवार आदिसे प्रहार हो तो प्रहार है। ग्राम जले तो ग्रामदाह है। पड जानेपर आहार छोड देना चाहिए।
पॉव-द्वारा भूमिसे कुछ उठा लेना वह पादेन किचित् ग्रहण है। हाथला. स. ५/२४८-२४६ श्रवणाद्धिसक शब्दं मारयामीति शब्दवत् । दग्धो मृत" स इत्यादि श्रुत्वा भोज्यं परित्यजेत् ॥ २४८॥ शोकाश्रितं वच.
द्वारा भूमिसे कुछ उठाना वह करेण किंचित ग्रहण है। ये काकादि ३२ श्रुत्वा मोहाद्वा परिदेवनम् । दोनं भयानक श्रुत्वा भोजन त्वरित अन्तराय तथा दूसरे भी चाण्डाल स्पर्शादि, कलह, इष्टमरणादि बहुतत्यजेत् ॥२४॥ - 'मै इसको मारता हूँ' इस प्रकारके हिसक शब्दोको से भोजन रयागके कारण जानना। तथा राजादिका भय होनेसे, सुनकर भोजनका परित्याग कर देना चाहिए। अथवा शोकसे उत्पन्न लोकनिन्दा होनेसे, संयमके लिए, वैराग्यके लिए, आहारका त्याग होनेवाले वचनोंको सुनकर वा किसोके मोहसे अत्यन्त रोनेके शब्द करना चाहिए ॥४६५-५००। ( अन. ध ५/४२-६०/५५०) सुनकर अथवा अत्यन्त दोनताके वचन सुनकर वा अत्यन्त भयंकर ३. भोजन त्याग योग्य अवसर शब्द सुनकर शीघ्र ही भोजन छोड देना चाहिए।
मू. आ. ४८० आट के उबसग्गे तिरवणे संभचेरगुत्तीओ। पाणिदया७. मन सम्बन्धी अन्तराय
तबहेऊ सरीरपरिहारवेच्छेदो ।-व्याधिके अकस्मात् हो जानेपर, सा, घ.४/३३ । इद मांसमिति दृढसंकरपे चाशनं त्यजेत् । ३३ ॥- देव-मनुष्यादि कृत उपसर्ग हो जानेपर, उत्तम क्षमा धारण करनेके यह पदार्थ ( जैसे तरबूज ) मासके समान है अर्थात वैसी ही आकृति- समय, मह्मचर्य रक्षण करनेके निमित्त, प्राणियोकी दया पालनेके का है इस प्रकार भक्ष्य पदार्थ में भी मनके द्वारा सकल्प हो जानेपर निमित्त, अनशन तपके निमित्त, शरीरसे ममता छोड़नेके निमित्त निस्सन्देह भोजन छोड़ दे।
इन छ कारणोंके होनेपर भोजनका त्याग कर देना चाहिए। ला स.५/२५० उपमानोपमेयाभ्यां तदिदं पिशितादिवत । मनः- अन, ध /६/५५८ आतङ्क उपसर्गे ब्रह्मचर्यस्य गुप्तये । कायस्मरणमात्रत्वात्कृत्स्नमन्नादिक त्यजेत १२५० = 'यह भोजन मासके कार्यतप प्राणिदयाद्यर्थ चानाहरेत् । ६४।-किसी भी आकस्मिक समान है वा रुधिरके समान है। इस प्रकार किसी भी उपमेय वा
व्याधि-मारणान्तिक पीड़ाके उठ खड़े होनेपर, देवादिकके द्वारा किये उपमानके द्वारा मनमें स्मरण हो जावे तो भी उसी समय समस्त
उत्पातादिक्के उपस्थित होनेपर, अथवा ब्रह्मचर्यको निर्मल बनाये जलपानादिका त्याग कर देना चाहिए ॥२५॥
रखने के लिए यद्वा शरीरकी कृशता, तपश्चरण और प्राणिरक्षा आदि
धर्मोकी सिद्धिके लिए भी साधुओको भोजनका त्याग कर देना २. साधु सम्बन्धी अन्तराय
चाहिए। मू. आ.मू. ४६५-५०० कागामेका छद्दी रोहण रुहिर' च अस्सुबाई च। जण्हहिहामरिसं जहुवरि वदिक्कमो चेव ॥४६॥ णाभि अधो
४.एक स्थानसे उठकर अन्यत्र चले जाने योग्य अवसर णिग्गमणं पच्चक्खियसेवणाय जंतुवहो । कागादिपिडहरणं पाणीदो धन. ध. ६/६४/६२५ प्रक्षाल्य क्रौ मीनेनान्यत्रादि बजेद्यदेवाद्यात् । पिंडपडणं च ॥४६६॥ पाणीए जतुबहो मासादीदंसणे य उबसग्गो। चतुरमुलान्तरसमक्रम सहायजजिपुटस्तदैव भवेत ॥ १४॥ भोजनके पादं तरम्मि जीवो संपादो भोयणाणं च ॥४६७) उच्चारं पस्सवणं स्थानपर यदि कीडी आदि तुच्छ जीव-जन्तु चलते-फिरते अधिक अभोजगिहपवसण तहा पडणं । उबवेसणं सदंसं भूमीसंफास- नजर पडे, या ऐसा ही कोई दूसरा निमित्त उपस्थित हो जाये तो णिठवणं ॥४८॥ उदरक्किमिणिग्गमणं अदत्तगहणं पहारगामडाहो। सयमियोको हाथ धोकर वहाँसे दूसरी जगहके लिए आहारार्थ मौन पादेण किचि गहणं करेण वा जं च भूमिए ॥४६एदे अण्णे बहूगा पूर्वक चले जाना चाहिए। इसके सिवाय जिस समय वे अनगार ऋषि कारणभूदा अभोयणसेह। बोहणलोगगंछणस जमणिम्वेदणद' च
भोजन करे उसी समय उनको अपने दोनों पैरोके बीच चार अंगुलका ५००॥ साधुके चलते समय बा खडे रहते समय ऊपर जो कौआ आदि अन्तर रखकर, समरूपमें स्थापित करने चाहिए तथा उसी समय बोट करे तो वह काक नामा भोजनका अन्तराय है। अशुचि वस्तुसे दोनों हाथों की अंजलि भी बनानी चाहिए। चरण लिप्त हो जामा वह अमेध्य अन्तराय है । वमन होना छदि है। *अयोग्य वस्तु खाये जानेका प्रायश्चित-दे भक्ष्याभक्ष्य ।। भोजनका निषेध करना रोध है, अपने या दूसरेके लोहू निकलता देखना
अंतराल--Interval-दे ज. प. प्र. १०५ । रुधिर है। दुःखसे आँसू निकलते देखना अश्रुपात है। पैरके नीचे
अंतरिक्ष निमित्त ज्ञान-दे. निमित्त २॥ हाथसे स्पर्श करना जान्वध परामर्श है। तथा घुटने प्रमाण काठके ऊपर उलंघ जाना वह जानूपरि व्यतिक्रम अन्तराय है। नाभिसे नीचा
अंतरिक्ष लोक-दे ज्योतिषी २। मस्तक कर निकलना बह नाभ्यधोनिर्गमन है। त्याग की गयी अंतरोपनिधा-दे णी। बस्तुका भक्षण करना प्रत्याख्यातसेवना है। जीव बध होना जन्तुबंध
अंचित्प्रकाश-दे.दर्शन। कौआ प्रास ले जाये बह काकादिपिण्डहरण है। पाणिपात्रसे पिण्ड- __ अंतर्जातीय विवाह-दे विवाह । का गिर जाना पाणित' पिण्डपतन है। पाणिपात्रमें क्सिी जन्तुका
अंतर्धान ऋद्धि-दे. ऋद्धि ३ । मर जाना पाणित जन्तुवध है। मांस आदिका दीखना मासादि दर्शन
अंतीप-१. सागरोंमें स्थित छोटे-छोटे भूखण्ड, दे. लोक ४१। है। देवादिकृत उपसर्गका होना उपसर्ग है। दोनों पैरोंके बीच में कोई जीव गिर जाये वह जीवसंपात है। भोजन देनेवालेके हाथ से भोजन
२. लवण समुद्रमें १८ अन्तर्दीप है, जिनमें कुभोग-भूमिज मनुष्य रहते
है। (वे म्लेच्छ ) ये द्वीप अन्य सागरों में नहीं हैं। दे. लोक ४/१। गिर जाना बह भोजनसंपात है। अपने उदरसे मल निकल जाये वह उधार है। मूवादि निकलना प्रस्रवण है। चाण्डालादि अभोज्यके
अंतीपजम्लेच्छ दे० म्लेच्छ । घरमें प्रवेश हो जाना अभोज्यगृह प्रवेश है। मूच्छादिसे आप गिर अंतण्ड्य -आर्यखण्डस्थ एक देश । दे० मनुष्य/४॥
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अकटंक त्रैविध देव
अंतर्मुहूर्त अंतर्मुहूर्त
१ अन्तर्मुहर्तका लक्षण (मुहूतस कम व आवलोसे अधिक) ध ३/१,२.६/६७/६ तत्थ एगमावलियं घेत्तूण असंखेज्जेहि ममयेहि एगावलिया होदि त्ति असखेज्जा समया कायव्या। तत्थ एगसमए । अवणिदे सेसकालपमाण भिण्णमुत्तो उच्चदि । पुणो वि अवरेगे समए अवणिदे सेसकालपमाणमंतोमुहुत्त होदि । एव पुणो पुणो समया अवणेयम्बा जाब उस्सासो णिविदो त्ति। तो वि सेसकालपमाणमतोमुहूत्तं चैव होइ। एक सेसुस्सासे वि अवयवा जावेगावलिया सेसा त्ति । सा आवलिया वि अतोमुत्तमिदि भण्णदि I = एक आवलीको ग्रहण करके असख्यात समयोसे एक आवली होती है, इसलिए उस आवलीके असंख्यात समय कर लेने चाहिए। यहाँ मुहूर्त में से एक समय निकाल लेने पर शेष कालके प्रमाणको भिन्न मुहूर्त कहते है। उस भिन्न मुहूर्त में से एक समय और निकाल लेनेपर शेष कालका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक समय कम करते हुए उच्छवासके उत्पन्न होने तक एक-एक समय निकालते जाना चाहिए। वह सब एक-एक समय कम किया हुआ काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। इसी प्रकार जबतक आवली उत्पन्न नहीं होती तबतक शेष रहे एक उच्छ्वासमें-मे भी एक-एक समय कम करते जाना चाहिए, ऐसा करते हुए जो आवली उत्पन्न होती है उसे भी अन्तर्मुहूर्त कहते है। (चा, पा टी. १७/४/५)।
२ महूर्त के समीप या लगभग ध. ३/१,२,६/६६५ उसमसम्माइट्ठीणमवहारकालो पुण असंखेजाबलि मेत्तो, खडयसम्माइट्ठी हितो तेसिं असंखेजगुणहीणतण्णहाणुवबत्तीदो। सासणसम्माट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीणं पि अवहारकालोअसंखेज्जावलियमैत्तो. उबसमसम्माइट्ठीहितो तेसिमसंखेज गुणहीणतण्णहाणुववत्तीदो। 'एदेहि पलिदोवममबहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेण' इति सुत्तेण सह विरोहो वि ण होदि । सामीप्याथै वर्तमानान्त शब्दग्रहणात् । मुहर्तस्यान्त अन्तर्महूर्त' । उपशम सम्यग्दृष्टि जीवौंका अवहार काल तो असंख्यात आवली प्रमाण है, अन्यथा उपशम सम्यग्दृष्टि जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टियोसे असख्यातगुणे हीन बन नहीं सकते है । उसी प्रकार सासादन सभ्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोका भी अवहारकाल असंख्यात आवली प्रमाण है. अन्यथा उपशम सम्यग्दृष्टियोसे उक्त दोनो गुणस्थान बाले जीव असंख्यातगुणा हीन बन नहीं सकते है । 'इन गुणस्थानों में से प्रत्येक गुणस्थानकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त प्रमाणकाल गल्योपम अपहृत होता है। इस पूर्वोक्त सत्र के साथ उक्त कथन का विरोध भी नही आता है, क्योकि अन्तर्मुहूर्त में जो अन्तर शब्द आया है उसका सामीप्य अर्थ में ग्रहण किया गया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो मुहूर्त के समीप हो उसे अन्तर्मुहूर्त कहते है। इस अन्तर्मुहूर्त का अभिप्राय मुहूर्त से अधिक
भी हो सकता है। अंतविचारिणी-एक ओषधि विद्या। दे. 'विद्या'। अंतस्थिति देखो स्थिति। अंध-पाँचवे नरकका चौथा परल । दे. नरक १/११ । अंधश्रद्धान-दे श्रद्धान २। अंध्रकरूढि-वानरवशीय राजा प्रतिचन्द्रकापुत्र । दे,इतिहास १०/१३ अंध्रकष्णि -(ह. पु. १८ श्लोक) पूर्वभव नं ५-ब्राह्मणपुत्र रुद्रदत्त (१७-१०२), पूर्वभव नं.४-सातवे नरकका नारकी (१०९), पूर्वभव न ३-गौतम ब्राह्मणका पुत्र (१०२-१८), पूर्वभव नं.२-स्वर्ग में देव (१०६), वर्तमान भव-शौरपुरके राजा शूरका पुत्र (१०), समुद्रविजयादि १० पुत्र तथा कुन्ती-मदी दो पुत्रियोका पिता एवं भगवान
नेमिनाथका बाबा था ( १२-१३), अन्तमें पुत्रोको राज्य दे दीक्षा धारण कर ली। (१७७-१७८) अंध्रनगरी-(म. पु प्र१०/पन्नालाल) हैदराबाद प्रान्तमें वर्तमान
वेगीनगर। अंबर-प प्र. टी. २/१६३/२७५ अम्बरशब्देन शुद्राकाशं न ग्राह्य' किन्तु विषयकपायविकल्पशून्यपरमसमाधिग्राह्य । -अम्बर शब्द आकाशका वाचक नही समझना, किन्तु समस्त विषय कषायरूप विकल्प जालोसे शून्य परम ममाधि लेना। अंबरतिलक-बिजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर ।-दे विद्याधर। अंबरीष-असुरकुमार भवनवामी देवोका एक भेद ।-दे असुर । अंब -भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी।-दे. मनुष्य ४ । अंश-प.ध.पू ६० अपि चाश पर्यायो भागो हारो विधा प्रकारश्च ।
भेदश्छेदो भङ्ग ठाब्दाश्चैकार्थवाचका एते॥६॥-अश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार तथा भेद, छेद और भग ये सब शब्द एक
ही अर्थ के वाचक है। अर्थात इनका दूसरा अर्थ नही है। पधपू २७६ तत्र निर शो विधिरिति स यथा स्वय सदेवेति । तदिह विभज्य विभाग प्रतिपेधश्वाशकस्पन तस्य । २७६ ॥ उन विधि
और प्रतिपेध में अठा कल्पनाका न होना विधि यह है तथा वह विधि इस प्रकार है कि जेसे स्वय सब सतही है और यहॉपर विभागोके द्वारा उस सत का विभाग करके उमके अशों की कल्पना प्रतिषेध है। * निरंश द्रव्यमें अंशकल्पना--दे. 'द्रव्य' । *उत्पादादि तीनो वस्तके अंश है।--दे उत्पादव्ययधौव्य । * गुणोमें अंशकल्पना--दे गुण २। * गणित सम्बन्धी अर्थ-x/y में x अश कहलाता है -
दे-गणित II/१/१०। अकंपन-(म.पु सग/श्लोक) काशी देशका राजा (४३/१२७ ) स्वय वर मार्गका सचानक था तथा भरत चक्रवर्तीका गृहपति था (४५१-५४ ) भरतके पुत्र अर्क कीर्ति तथा सेनापति जयकुमारमें सुलोचना नामक कन्याके निमित्त सघर्ष होनेपर (४५/३४४-३४५) अपनी बुद्धिमत्तासे अक्षमाला नामक कन्या अर्ककीर्ति के लिए दे सहज निपटारा किया {४५/१०-३०) अन्तमें दीक्षा धार अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त किया।(४५/८७,२०४-२०६) अकपनाचार्य-(ह पु २०/श्लोक ) मुनिसंघके नायक थे (५) हस्तिनापुर में ससंघ इनपर बलि आदि चार मन्त्रियोंने घोर उगसर्ग किया ( ३३-३४) जिसका निवारण विष्णुकुमार मुनिने किया (६२) । अकबर-१. (स. सा./ कलश टी /प्र.क्र. शीतल )-दिल्लीका
सम्राट् । समय-वि. १६०३-१६६२ ( ई.१५५६-१६०५) २. हि जै.सा. इ६७ कामता-दिल्लीका सम्राट् । समय ई श,१६ । अकर्तृत्वनय-दे. नय I/५। अकर्तत्व शक्ति-म. सा./आ./परि/शक्ति नं. २१ सकलकर्मकृतज्ञातृत्वमात्रा तरिक्तपरिणामकरणोपरमारिमका अकतृ स्वशक्ति ।सब कर्मों से किये गये ज्ञातापनेमात्रसे भिन्न परिणाम उनके करनेका अभावस्वरूप इक्कीसवीं अकर्तृत्व शक्ति है। अकलंक विद्य देव-(घ २/प्र. ४/H. L. Jain नन्दिसंघके देशिय गणकी गुर्वावलीके अनुसार यह गण्डविमुक्तदेवके शिष्य थे।
विद्यदेव आपकी उपाधि थी। समय-वि. १२२५-१२३६ (ई, १९५८-१९८२) आता है। विशेष-दे० इतिहास ७/५ ।
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अकलंक भट्ट
अक्रियावाद
हेतु कुछ इसलिए शब्दम शब्द है। यहा
अकलंक भद्र--१. (सि. वि. प्र.५/पं. महेन्द्रकुमार)-लघुहव्व
नृपतिके ज्येष्ठ पुत्र प्रसिद्ध आचार्य। आपने राजा हिम-शीवलकी सभामें एक बौद्ध साधुको परास्त किया था, जिसकी ओर से तारा देवी शास्त्रार्थ किया करती थी। अकलंक देव आपका नाम था और भट्ट आपका पद था । आपके शिष्यका नाम महीदेव भट्टारक था। आपने निम्नग्रन्थ रचे हैं.-१. तत्त्वार्थ राजवातिक सभाष्य, २. अष्टशती, ३. लघीयत्रय सविवृत्ति, ४ न्यायविनिश्चय सविवृत्ति, ५.सिद्धिविनिश्चय,६ प्रमाणसंग्रह, ७.स्वरूप सबोधन, ८.बृहत्त्रयम. ६.न्याय चूलिका, १०. अकलंक स्तोत्र। आपके कालके सम्बन्धमें चार धारणाएँ है'-१ अकल क चारित्रमें "विकमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि । कालेऽकलङ्कयतिनो बौद्ध दो महानभूव" ॥-विक्रम संवत् ७०० (ई.६४३) में बौद्धोंके साथ श्री अकल क भट्टका महान शास्त्रार्थ हुआ। २ वि. श.६ ( सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम/प्र. २/टिप्पणी में श्री नाथूराम प्रेमी) । ३. ई. ६२०-६८० ( नरसिहाचार्य, प्रो. एस. श्रीकण्ठ शास्त्री, प. जुगल किशोर, डॉ ए. एन. उपाध्ये, पं कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, ज्योतिप्रसादजी)। ४.ई.स.७२०-७८० (डॉ. के. बी. पाठक, डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण, डॉ आर. जी. भण्डारकर, पिटर्सन, लुइस राइस, डॉ विन्टरनिट्ज, डॉ. एफ. डब्ल्यू थामस, डॉ ए. बी. कोथ, डॉ. ए. एस आत्तेकर, श्री नाथूराम प्रेमी, प, सुखलाल, डॉ बी.एन. सालेतोर, महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज, पं. महेन्द्रकुमार) उपरोक्त चार धारणाओं मेंसेनं १ वाली घारणा अधिक प्रामाणिक होनेके कारण आपका समय ई.६२०-६८० के लगभग आता है। ४ शब्दानुशासनके कर्ता (दे भट्टाकलंक)।
* जैन साधु संघमें आपका स्थान (दे. इतिहास ७/१) । अकलंक स्तोत्र-आ अकलंक भट्ट ( ई ६२०-६८०) द्वारा सस्कृत
छन्दोमें रचित जिन-स्तोत्र । इसमें कुल १६२ श्लोक है। इस पर प.सदासुखदास (ई १७६५-१८६६) ने भाषामें टीका लिखी है। अकषाय-दे. कषाय १। अकषाय वेदनीय-दे. मोहनीय १ । अकाम निर्जरा-दे 'निर्जरा'। अकाय-दे. 'काय'। अकार्यकारण शक्ति-स. मा./आ./परि शक्ति १४ अन्याक्रिय माणान्याकारकैकद्रव्यात्मिका अकार्यकारणशक्तिः । = अन्यसे न करने योग्य और अन्यका कारण नहीं ऐसा एक द्रव्य, उस स्वरूप
अकार्यकारण चौदहवीं शक्ति है । अकालनय-१. दे. नय 1/५। २. काल व अकाल नयका समन्वय
दे.नियति । अकाल मृत्यु-दे मरण ४ । अकालवर्ष-मान्यखेटके राजा अमोघवर्ष के पुत्र थे। कृष्ण द्वितीय इनकी उपाधि थी जो कृष्ण प्रथमके पुत्र ध्र वराजके राज्यपर आसीन होनेके कारण इन्हे प्राप्त थी। ये भी राष्ट्रकूटके राजा थे। राजा लोकादित्यके समकालीन थे। इनका समय ई ८७८ से ११२ है। (विशेष दे इतिहास ३/५) । (ह. पु ६६/५२-५३), (उत्तरपुराणकी प्रशस्ति); (जीवन्धर चम्पू / प्र.८/ A. N. Upadhye); (आ. अनु प्र.७०/H L. Jain,), (म पु प्र. ४२/पं. पन्नालाल बाकलीवाल)। अकालाध्ययन-सम्यग्ज्ञानका एक दोष-दे. 'काल'। अकिंचित्कर हेत्वाभास-प मु ३/३५-३६ सिद्ध प्रत्यक्षादि
बाधिते च साध्ये हेतुकिंचित्कर । जो साध्य स्वयं सिद्ध हो अथवा प्रत्यक्षादिसे बाधित हो उस साध्यकी सिद्धिके लिए यदि हेतुका प्रयोग किया जाता है तो वह हेतु अकिंचित्कर कहा जाता है। न्या. दी ३/६३।१०२ अप्रयोजको हेतुरकिंचित्कर'। -जो हेतु साध्यकी सिद्धि करनेमे अप्रयोजक अर्थात असमर्थ है उसे अकिंचित्कर हेत्वाभास कहते है।
२. अकिंचित्कर हेत्वाभासके भेद न्या. दी. ३/६६३/१०२ स द्विविध-सिद्धसाधनो बाधितविषयश्चेति ।-अकिचित्कर हेत्वाभास दो प्रकारका है-सिद्धसाधन और बाधितविषय।
३. सिद्धसाधन अकिंचित्कर हेत्वाभासका लक्षण प. मु ३/३६-३७ सिद्ध श्रावण शब्द शब्दत्वात् । किचिदकरणाद।
शब्द कानसे सुना जाता है क्योंकि वह शब्द है। यहाँपर शब्दमें श्रावणत्व स्वयं सिद्ध है इसलिए शब्दमें श्रावणत्वकी सिद्धिके लिए प्रयुक्त शब्दत्व हेतु कुछ नहीं करता (अत' सिद्धसाधन हेत्वाभास है)। स.म | श्रुत प्रभावक मण्डल १२७/१६ पूर्वसे ही सिद्ध है ( ऐसी)
सिद्धिको माधनेसे सिद्ध साधन दोष उपस्थित होता है। न्या दी ३/६६३/१०२ यथा शब्द श्रावणो भवितुमर्हति शब्दत्वादिति। अत्र श्रावणत्वस्य साध्यस्य शब्द निष्ठत्वेन सिद्धत्वाद्धतरकिचित्कर । शब्द श्रोत्रेन्द्रियका विषय होना चाहिए, क्योंकि वह शब्द है । यहाँ श्रोत्रंन्द्रियकी विषयता रुप साध्य शब्दमें श्रावण प्रत्यक्षसे ही सिद्ध है। अत उसको सिद्ध करनेके लिए प्रयुक्त किया
गया 'शब्दपना' हेतु सिद्धसाधन नामका अकिचित्र हेत्वाभास है। ____ * प्रत्यक्षवाधित आदि हेत्वाभास-दे. 'बाधित' ।
* कालत्ययापदिष्ट हेत्वाभास--दे, 'कालात्ययापदिष्ट । अकृत-अभ्यागम दोष या हेत्वाभास । दे. 'कृतनाश'। अकृतिधारा-दे गणित II/५/२ । अकृतिमातृकधारा-दे गणित II/५/२ । अक्रियावाद
१ मिथ्या एकान्तकी अपेक्षाध.६/४,१,४५ / २०७/४ सूत्रे अष्टाशीतिशतसहस्रपदै १८००००० पूर्वोक्तसर्वदृष्टयो निरूप्यन्ते. अबन्धक' अलेपक. अभोक्ता अकर्ता निर्गुण सर्वगत अद्वैत नास्ति जीव. समुदयजनित सर्व नास्ति बाह्यार्थों नास्ति सर्व निरात्मक, सर्व थणिक अक्षणिकमद्वै तमित्यादयो दर्शनभेदाश्च निरूप्यन्ते। -सूत्र अधिकारमें अठासी लाख ८८००००० पदों द्वारा पूर्वोक्त सब मतोका निरूपण किया जाता है। इसके अतिरिक्त जीव अबन्धक है, अलेपक है, अभोक्ता है, अकर्ता है, निर्गुण है, व्यापक है, अद्वैत है जीव नही है, जीव (पृथिवी आदि चार भूतोके ) समुदायसे उत्पन्न हुआ है सब नही है अर्थात शून्य है. बाह्य पदार्थ नहीं है, सब निरात्मक है. सब क्षणिक है, सब अक्षणिक अर्थात नित्य है, अद्वैत है. इत्यादि दर्शन भेदों का भी इसमें निरूपण किया जाता है । (ध. १/१,१२/११०/८) गो क /भाषा /८८४/१०६८ अक्रियावादी वस्तु को नास्ति रूप मानि
क्रियाका स्थापन नाहि करें है। भा. पा./भाषा/१३७ पं. जयचन्द-बहरि केई अक्रियावादी हैं तिनि नै
जीवादिक पदार्थ नि विर्षे क्रियाका अभाव मानि परस्पर विवाद करें हैं। केई कहै है जीव जानैं नाहीं है, केई कहै है कछ कर नाहीं है, केई कहैं है भोगवै नाही है. केई कहै है उपजै नाहीं है, केई कहै है
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अक्रियवान
अक्षर
समय १० वर्ष तक । विधि-प्रतिवर्ष श्रावण शु १० को उपवास ।
मन्य-"ओ ह्रीं वृषभजिनाय नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । अक्षर-ध ६/१,६-१,१४/२१/११ स्वरणभावा अक्रवर केवलणाण
क्षरण अर्थात विनाशका अभाव होनेसे केवलज्ञान अक्षर कहलाता है । गो जी जी प्र ३३३/७२८/८ न क्षरतीत्यक्षर द्रव्यरूपतया विनाशाभावात् । द्रव्य रूपसे जिसका विनाश नही होता वह अक्षर है।
२. अक्षरके भेद घ. १३/५,५,४८/२६४/१० लद्धिअनवरं णिव्वत्तिअवखरं सठाणक्रवरं
चेदि तिविहमक्खर । अक्षरके तीन भेद है-लब्ध्यक्षर, निवृत्त्यक्षर, व संस्थानाक्षर । (गोजी/जी प्र. ३३३/७२८/७)
३. लब्ध्यक्षरका लक्षण ध १३/५०५,४८/२६४/११ सुहमणिगोदअपज्जत्तप्पहुडि जाव सुदकेवलि त्ति ताव जे ख ओवसमा तेर्सि लशिअक्रवर मिदि सण्णा.. .. सपहि लद्धिअक्रवर जहण्ण सुहमणिगोदल द्धिअपज्जत्तस्स होदि, उक्तस्स चोद्दसपुब्बिस्स । = सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकसे लेकर श्रुतकेवली तक जोवोके जितने क्षयोपशम होते है उन सबको लब्ध्यक्षर सज्ञा है । जघन्य लब्ध्यक्षर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके होता है
और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधारीके होता है। गो. जी./जी. प्र ३२२ / ६८२/४ लब्धि मश्रुतज्ञानावरणक्षयोगशम.
अर्थग्रहणशक्तिर्वा, लब्ध्या अक्षरं अविनश्वरं लब्ध्यक्षर तावत क्षयोपशमस्य सदा विद्यमानत्वात् । लब्धि कहिये श्रृतज्ञानावरणका क्षयोपशम वा जानन शक्ति ताकरि अक्षर कहिए अविनाशी सो ऐसा पर्याय ज्ञान ही है, जातै इतना क्षयोपशम सदा काल विद्यमान
विनसें नाहीं है, केई कहै हैं गमन नाहीं करै है, केई कहै हैं तिष्ठ नाहीं है। इत्यादिक क्रियाके अभाव पक्षपात करि सर्वथा एकान्ती होय है तिनिके सक्षेप करि चौरासी भेद किये हैं।
२. सम्यक् एकान्तको अपेक्षाका. अ मू/४१२ पुण्णासाए ण पुण्ण ज़दी णिरीहस्स पुण्ण-स पत्ती। इय जाणिऊण जइणो पुण्णं वि म आयर कुणह। ४१२॥ पुण्यकी इच्छा करनेसे पुण्यबन्ध नहीं होता, बल्कि निरीह (इच्छा रहित) व्यक्तिको हो पुण्यकी प्राप्ति होती है। अत: ऐसा जानकर हे यतीश्वरो,
पुण्यमें भी आदर भाव मत रक्खो। प्र. सा/त प्र./परि । नय नं ३६ अकत नयेन स्वकर्मप्रवृत्तरअकाध्यक्षवत्केवलमेव साक्षि ॥ ३१ ॥ आत्म द्रव्य अकतृत्व नयसे केवल साक्षी ही है ( कर्ता नहीं ), अपने कार्य में प्रवृत्त रगरेजको देखनेवाले पुरुष
(प्रेक्षक ) की भॉति। पप्रमू. १/५५.६५ अह वि कम्मई बहुविहई णव णव दोस वि जेण ।
सुद्धह एक्कु वि अस्थि णवि सुण्णु वि बुच्चइ तेण ॥५५॥बन्ध वि मोवखु वि सयल्लु जिय जीवह कम्म जणेइ । अप्पा किंपि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउ भणेइ ॥६॥-जिस कारण आठो ही अनेक भेद वाले कर्म अठारह ही दोष इनमें से एक भी शुद्धात्माके नहीं है, इसलिए शून्य भी कहा जाता है॥५५॥ हे जीव, बन्धको और मोक्षको सबको जीवोंका कर्म ही करता है, आत्मा कुछ भी नहीं करता, निश्चय नय ऐसा कहता है ।
३. अक्रियावादके ८४ भेद ध. ११,१,२/१०७/८ मरीचिकपिलोलुक-गार्ग्य-व्याघ्रभूतिवाद्वलिमाठर
मोद्गत्यायनादीनामक्रियावाददृष्टोना चतुरशीति । - मरीचि, -कपिल. उलूक, गार्य, व्याघभूति, वाइवलि. माठर और मोद्गल्यायन आदि अक्रियावादियोके ८४ मतोंका वर्णन और निराकरण किया गया है। (रा. वा, १/२०/१२/७४/४:८/१/१०/५६२/४ ) (ध.६/४,१, ४५/२०३/४ ), (गो.जी./जी प्र. ३६०/७७०/१२) गो क मू.८८४-८८५/१०६७ णत्थि सदो परदो वि य सत्तपयत्था
य पुण्ण पाऊणा । कालादियादि भंगा सत्तरि चदुपति सजादा 1८८४१ पत्थि य सत्त पदत्था णियदीदो कालदो तिपतिभवा। चोइस इदि पत्थित्ते अक्कि रियाण' च चुलसीदी॥८॥-आगे अक्रियावादीनिके भग कहै है-(नारित) (स्वत परत )x( जीव, अजीव, आस्रव, सबर, निर्जरा, अन्ध, मोक्ष)x(काल, ईश्वर, आत्मा, नियति, स्वभाव)
=१४२xx५ =७० तथा (नास्ति) (जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष) x (नियति, काल )= १४७४२-१४, मिलकर
अक्रियावादके (७०+१४-८४) चौरासी भेद हुए । (ह पु १०/५२-५३) अक्रियवान-क्रियवान अक्रियवानकी अपेक्षा द्रव्योका विभाग।
-दे. द्रव्य ३। अक्ष-१ स सि /१/१२/१०३ अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष
आत्मा । पहिचानता है, वा बोध करता है, व्याप्त होता है, जानता है, ऐसा 'अक्ष' आत्मा है । (रा वा १/१२/२/५३/११) (प्र सा./ता वृ./ १/२२) ( गो जी |जी प्र ३६६/७६५) २. पासा आदि दे निक्षेप ४ । ३ भेद ब भग-दे गणित II/३/१,२ । अक्षम्रक्षण वत्ति-भिक्षावृत्तिका एक भेद-दे, भिक्षा १/७।। अक्षयनिधिवत-वतविधान सग्रह / ८३ गणना-कुल समय
१० वर्ष , कुल उपवास २०, एकाशना २८०।। किशन सिंह क्रियाकोश। विधि-१० वर्ष तक प्रतिवर्षकी श्रावण
शुक्ला दशमी म भाद्रपद कृष्ण १० को उपवास। इनके बीच २८ दिनमे एकाशन । मन्त्र-नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप । अक्षयफल दशमी व्रत-वत विधान स.। ८६ गणना-कुल
गो जी जी प्र ३३३/७२८/८ पर्यायज्ञानावरणप्रभृतिश्रुतकेवल ज्ञानावरणपर्यन्तक्षयोगशमादुद्भूतात्मनोऽर्थ ग्रहण शमिर्लविध भावेन्द्रिय, तद्रूपमक्षर लैब्ध्यर अक्षरज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वात ।-तहाँ पर्यायज्ञानावरण आदि श्रुतकेवल ज्ञानावरण पर्यन्त के क्षयोपशमतें उत्पन्न भई जो पदार्थ जाननेकी शक्ति सो लब्धि रूप भावेन्द्रिय तोहि स्वरूप जो अक्षर कहिये अविनाश सो लब्धि अक्षर कहिये जाते अक्षर ज्ञान उपजने को कारण है।
४.नित्यक्षर सामान्य विशेषका लक्षण घ. १३/५,५,४८/२६५/१ जीवाणं मुहादो णिगमस्स सहस्स णिवत्ति
अवरवरमिदि सण्णा । त च णिव्व त्ति अवखरं वत्तमव्वत्तं चेदि दुविह। तत्थ वत्त सण्णिपंचिदिय पज्जत्तरसु होदि। अन्वतं बेईदियपहुडि जाव सण्णिपंचिदियपज्जत्तएसु होदि। णिव्व त्ति अक्वरं जहण्णय बेइदियपज्जत्तादिसु, उक्कस्सय चोहसव्विस्स । - जीवोके मुख से निक्ले हुए शब्दकी निवृ त्यक्षर सज्ञा है । उस नियक्षरके व्यक्त
और अव्यक्त ऐसे दो भेद है। उनमें से व्यक्त निवृत्त्यक्षर सज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके होता है, और अव्यक्त निवृत्यक्षर द्विइन्द्रियसे लेकर सज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्तक तक जीवो के होता है। जघन्य नित्यक्षर द्वीन्द्रिय पर्याप्तक आदिक जीवोके होता है और उत्कृष्ट
चौदह पूर्वधारीके होता है। गो.जी /जो प्र ३३३ / ७२८/8 कण्ठोष्ठतात्वादिरथानस्पृष्टतादिकरणप्रयत्ननिर्वर्यमानस्वरूपं अकारादिककारादिम्बरव्यञ्जनरूप मूलवर्णतत्सयोगादिसंस्थान निवृत्त्यक्षरम् । = बहुरि कट, ओठ, तालु आदि अक्षर बुलावने के स्थान अर होठनिका परस्पर मिलना सो स्पृष्टता ताको आदि देकरि प्रयत्न तोहि करि उत्पन्न भया शब्द रूप अकारादि स्वर अर ककारादि व्यञ्जन अर सयोगी अक्षर सो निवृत्यक्षर कहिए।
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अक्षर
५. स्थापना या संस्थानाक्षरका लक्षण ध, १३/५.k,४८/R4/४ जंतं संठाणक्खरं णाम त ठवणक्वरमिदि घेत्तव्य । काट्ठवणा णाम । एदमिदमक्खर मिदि अभेदेण बुद्धीए जा दुबिया लीहादव वा तं ट्ठवणक्वरणाम।-संस्थानाक्षरका दूसरा नाम स्थापना अक्षर है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । प्रश्नस्थापना क्या है 1 उत्तर-'यह वह अक्षर है। इस प्रकार अभेद रूपसे बुद्धिमें जो स्थापना होती है या जो लिखा जाता है वह स्थापना
अक्षर है।
गोजी /जी./३३३/७२८/१ पुस्तकेषु तद्देशानुरूपतया लिखितसंस्थान स्थापनाक्षरम् ।-पुस्तकादि विर्षे निजदेशको प्रवृत्तिके अनुसार अकारादिकनिका आकारकरि लिखिए सो स्थापना अक्षर कहिए ।
५. बीजाक्षरका लक्षण ध.१/४.१,४४/१२७/१ सखित्तसद्दरयणमणं तत्थावगमहेदुभूदाणेगलिंगसगयं बोजपदं णाम । -संक्षिप्त शब्द रचनासे सहित व अनन्त अोंके ज्ञानके हेतुभूत अनेक चिह्नोंसे संयुक्त बोजपद कहलाता है।
६. ह्रस्व, दीर्घ व प्लुत अक्षरका लक्षण घ १३/५५,४६२४८/३ एकमात्रो ह्रस्व', विमात्रो दीर्व', त्रिमात्रः प्लुत , मात्राद्धं व्यब्जनम् । -एक मात्रावाला वर्ण ह्रस्व होता है. दो मात्रावाला वर्ण दीर्घ होता है, तोन मात्रावाला वर्ण प्लुत होता है और अर्ध मात्रावाला वर्ण व्यञ्जन होता है।
७. व्यंजन स्वरादिकी अपेक्षा भेद व इनके संयोगी भंग ध १३/५.५.४५/२४७/८ वग्गक्रवरा पंचवीस, अंतत्था पत्तारि, चत्तारि उम्हाक्रवरा. एव तेत्तीसा होंति बंजणाणि ३३ । अ इ उ ऋ ल ए ऐ ओ औ एवमेदे णव सरा हरस्स-दीह-पुदभेदेण पुध पुध भिण्णा सत्ताबीस होति । एचा ह्रस्वा न सन्तीति चेव-न, प्राकृते तत्र तत्सत्त्वाविरोधात। अजोगवाहा अ अ-क-प इति चत्तारि चेत्र होति ।
एवं सबखराणि चउसठ्ठी। ध. १३/५,५,४६/२४६/६ एदेसिमक्रवराण सखं रासि दुवे विरलिय दुगुणिदमण्णोण्णेण संगुणे अण्णोण्णसमब्भासो एत्तिओ होदि१८४४६७४४०७३७०१५५१६१६ । एदम्मि सखाणे रूवूणे कदे सजोगखराणं गणिदं होदि त्ति णि दिसे। वर्णाक्षर पच्चीस, अत्तस्थ चार और ऊष्माघर चार इस प्रकार तेतीस व्य जन होते है। अ. इ, उ, ऋ,ल. ए, ऐ, ओ, औ इस प्रकार ये नौ स्वर अलग-अलग ह्रस्व. दीर्घ और प्लुतके भेदसे सत्ताईस होते है । शंका-एच् अर्थात् ए, ऐ, ओ, औ इनके ह्रस्व भेद नहीं होते । उत्तर-नहीं, क्योंकि प्राकृतमें उनमें इनका सद्भाव माननेमें कोई विरोध नहीं आता। अयोगवाह अ अ-क और प ये चार ही होते है। इस प्रकार सब अक्षर ६४ होते है। इन अक्षरोंकी सरख्याकी राशि प्रमाण २ का विरलन करके परस्पर गुणा करनेसे प्राप्त हुई राशि इतनो होती है-१८४४६७४४८७३७०६५५१६१६ । इस संख्यामें मे एक कम करनेपर सयोगाक्षरोका प्रमाण होता है, ऐसा निर्देश करना चाहिए। (विस्तारके लिए दे ध. १३/५,५,४६/२४१-२६०) (गो जी./जी.प्र /३५२-३५४/७४६-७५६)। घ. १३/५.५,४७/२६०/१ जदि वि एगसजोगवरमणेगेसु अत्येसु अक्वरबच्चासाबच्चासबलेण वट्टदे तो वि अक्रवरमेक्क चेव, अण्णोण्णमवेक्विय पाणकज्जजणयाण भेदाणुववत्तोदो । यद्यपि एक सयोगाक्षर अनेक अर्थों में अक्षरों के उलट-फेरके बलमे रहता है तो भो अक्षर एक ही है, क्योंकि एक दूसरेको देखते हुए ज्ञान रूप कार्यको उत्पन्न करनेकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं पाया जाता। ६. अन्य सम्बन्धित विषय * अक्षरात्मक शब्द-दे, भाषा। * अक्षरगता असत्यमृषा भाषा-दे. भाषा।
अगारी * आगमके अपुनरुक्त अक्षर-दै. आगम १। * अक्षर संयोग तथा संयोगी अक्षरोंकी एकता-अनेकता
सम्बन्धी शंकाएँ-दे. घ. १३/५.५,४६/२४६-२५०॥ अक्षर ज्ञान-द्रव्य श्रुतका एक भेद-दे. श्रुतज्ञान II । अक्षर म्लेच्छ-वे, म्लेच्छ। अक्षर समास-द्रव्य श्रुतज्ञानका एक भेद-दे. श्रतज्ञान II । अक्ष संचार-गणित सम्बन्धी एक प्रक्रिया-दे. गणित 11/३ । अक्षांश-(ज.प./प्र. १०५) Latitude. अक्षिप्र-मतिज्ञानका एक भेद-वे. मतिज्ञान ४। अक्षीण महानस ऋद्धि-दे. ऋद्धि। अक्षीणमहालय ऋद्धि-दे. अधि अक्षीय परिभ्रमण (घ.५/प्र.२७) Axial Revolution. अक्षोभ-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर । अक्षौहिणी-सेनाका एक अंग-दे. सेना। अखंड-१. द्रव्यमें खण्डत्व अखण्डत्व निर्देश-दे. द्रव्य ४ । २. गुण
में खण्डत्व अखण्डत्व निर्देश-दे. गुण २। ३. चौथे नरकका सप्तम ___पटल-दे. नरक ५ । ४. ( ज प./प्र. १०५) Continuous.
अगर्त-भरत क्षेत्रमें पश्चिम आर्य खण्डका एक देश-दे. मनुष्य ।। अगाढ़-सम्यग्दर्शनका एक दोष । अन ध./२/५७-१८ वृद्धयष्टिरिवात्यक्तस्थाना करतले स्थिता। स्थान एव स्थिते कम्प्रमगाद वेदकं यथा ॥७स्वकारितेऽच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते। अन्यस्यासाविति भ्राभ्यन्मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते ॥५८॥ अन. ध /२/६९ की टीकामें उद्धृत-यच्चलं मलिनं चास्मादगाढमनवस्थितम् । नित्यं चान्तर्मुहूर्तादिषट्पष्टयन्ध्यन्तवति यत् ॥
जिस प्रकार वृद्ध पुरुषको लकड़ी तो हाथमें ही बनी रहती है, परन्तु अपने स्थानको न छोडती हुई भी कुछ काँपती रहती है उसी प्रकार क्षयोपशम सम्यग्दर्शन देव गुरु व तत्त्वादिककी श्रद्धामें स्थित रहते हुए भी सकम्प होता है। उसको अगाढ वेदक सम्यग्दर्शन कहते है ।५७ वह भ्रम व सशयको प्राप्त होकर अपने बनाये हुए चैत्यादिमें 'यह मेरा देव है' और अन्यके बनाये हुए चेत्यादि में 'यह अन्यका देव है' ऐसा व्यवहार करने लगता है ॥५८॥ (गो जी /जी प्र/२५/५१/१५) इस प्रकार जो क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन चल मलिन अगाढ व अनवस्थित है वही नित्य भी है। अन्तर्मुहूर्तसे लेकर ६६ सागर पर्यन्त
अवस्थित रहता है। अगारी–त सू /७/२०अणुवतोऽगारी॥२०॥ या अणुवती श्रावकअगारी है। स सि /9/१६/३५७ प्रतिश्रयार्थिभिः अङ्गयते इति अगार बेश्म, तद्वानगारी.. ननु चात्र विपर्ययोऽपि प्राप्नोति शून्यागारदेव कुलाद्यावासस्य मुनेरगारित्वम् अनिवृत्त विषयतृष्णस्य कुतश्चित्कारणाइ गृह विमुच्य वने वसतोऽनगारत्व च प्राप्नोति इति । नैष दोष भावागारस्य विवक्षित्वात् । चारित्रमोहोदये सत्यगारसम्बन्ध प्रत्यानिवृत्त परिणामो भावागारमित्युच्यते। स यस्यास्यसाबगारी बने वसन्नपि । गृहे वसन्नपि तदभावादनगार इति च भवति ।-आश्रय चाहनेवाले जिसे अंगीकार करते है वह अगार है। अगारका अर्थ वेश्म अर्थात घर है, जिसके घर है वह अगारी है । शंका-उपरोक्त लक्ष्णसे विपरीत अर्थ भी प्राप्त होता है, क्योंकि शून्य घर व देव मन्दिर आदिमें वास करनेवाले मुनिके अगारपना प्राप्त हो जायेगा। और जिसकी विषय-तृष्णा अभी निवृत्त नहीं हुई है ऐसे किसी व्यक्तिको किसी कारणवश घर छोडकर वनमें बसनेसे अनगारपना प्राप्त हो जायेगा।
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अगासदेव
अगुरुलघु
उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योकि यहॉपर भावागार विवक्षित है। चारित्र मोहनीयका उदय होनेपर जो परिणाम घरसे निवृत्त नहीं है वह भावागार कहा जाता है। वह जिसके है वह वनमें निवास करते हुए भी अगारी है और जिसके इस प्रकारका परिणाम नहीं है वह घरमे बसते हुए भी अनगार है । ( रा वा /७/१६,१/५४६/२४) ( त सा /४/७६ ) (विषय विस्तार दे श्रावक)। अगासदेव--(म पु / २०/प पन्नालाल) आप एक कवि थे। कृति
चन्द्रप्रभपुराण। अगुणी-दे. गुणी। अगुप्ति भय-दे भय। अग्ररुलघ-जड या चेतन प्रत्येक द्रव्यमे अगुरुलघु नामका एक सूक्ष्म गुण स्वीकार किया गया है जिसके कारण वह प्रतिक्षण सूक्ष्म परिणमन करते हुए भी ज्योंका त्यो बना रहता है। सयोगी अवस्था में वह परिणमन स्थूल रूपसे दृष्टिगत होता है। शरीरधारी जीव भी हलकेभारीपनेकी कल्पनामे युक्त हो जाता है। इस कल्पनाका कारण अगुरुलधु नामका एक कर्म स्वीकार किया गया है। इन दोनोका ही परिचय इस अधिकार में दिया गया है। १. अगुरुलघु गुणका लक्षण (षट् गुण हानि वृद्धि) आ प/६ अगुरुनघोर्भावोऽगुरुल घुत्वम् । सूक्ष्मावागगोचर प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणा । अगुरुलघु भाव अगुरुलघुपन है। अर्थात जिस गुणके निमित्तसे द्रव्यका द्रव्यपना सदा बना रहे अर्थात् द्रव्यका काई गुण न तो अन्य गुण रूप हो सके और न कोई द्रव्य अन्य द्रव्य रूप हो सके, अथवा न द्रव्य के गुण बिखरकर पृथक्-पृथक् हो सकें और जिसके निमित्तसे प्रत्येक द्रव्यमें तथा उसके गुणो में समय समय प्रति षट् गुण हानि वृद्धि होती रहे उसे अगुरुलघु गुण कहते है। अगुरुलधु गुणका यह सूक्ष्म परिणमन वचनके अगोचर है, केवल आगम प्रमाण गम्य है। स.मा /आ. परि /शक्ति न १७ षट् स्थानपतितवृद्धिहानिपरिणतस्वरूपप्रतिष्ठत्व कारण विशिष्टगुणात्मिका अगुरुलघुत्व शक्ति 1-षट्स्थान पतित वृद्धि-हानिरूप परिणत हुआ जो बस्तुके निज स्वभावकी प्रतिष्ठाका कारण विशेष अगुरुलघुत्व नामा गुण-स्वरूप अगुरुलघुत्व नामा सत्रहवीं शक है। प्र.सा /ता वृ./८०/१०१ अगुरुलघुकगुणषड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षण
प्रवर्तमाना अर्थपर्याया' । - अगुरुलघु गुणकी षड्गुणहानि वृद्धि रूपसे प्रतिक्षण प्रवर्तमान अर्थ पर्याय होती है।
२. सिद्धोंके अगुरुलघु गुणका लक्षण द्र स टी /१४/४३ यदि सर्वथा गुरुत्व भवति तदा लोहपिण्वदधःपतन, यदि च सर्वथा लघुत्व भवति तदा वाताहतार्कतूलवत्सब देव भ्रमणमेव स्यान्न च तथा तेस्मादगुरुलधुत्वगुणोऽभिधीयते । यदि उनका स्वरूप सर्वथा गुरु हो तो लोहेके गोलेके समान वह नीचे पडा रहेगा और यदि वह सर्वथा लघु हो तो वायुसे प्रेरित आककी रूईको तरह वह सदा इधर-उधर घूमता रहेगा, किन्तु सिद्धोका स्वरूप ऐसा
नहीं है इस कारण उनके 'अगुरुलघु' गुण कहा जाता है। प.प्र.टी./१/६१/६२ सिद्धावस्थायोग्यं विशिष्टागुरुलघुत्व नामकर्मोदयेन प्रच्छादितम् । गुरुत्वशब्देनोच्चगोत्रजनित महत्त्व भण्यते.लघुत्वशब्देन नीचगोत्रजनितं तुच्छत्वमिति, तदुभयकारणभूतेन गोत्रकर्मोदयेन विशिष्टागुरुलघुत्व प्रच्छाद्यत इति । - सिद्धावस्थाके योग्य विशेष अगुरुलघुगुण, नामकमके उदयसे अथवा गोत्रकर्मके उदयसे ढंक 'गया है। क्योंकि गोत्र कर्म के उदयमे जब नीच गोत्र पाया, तब तुच्छ ग्रा लघु कहलाया और उच्च गोत्रमें बडा अर्थात गुरु कहलाया।
३. अगुरुलघु नामकर्मका लक्षण स सि /८/११/३११ यस्योदयादय पिण्डबद्ध गुरुत्वान्नाध पतति न चाकंतुलबललघुत्वादूवं गच्छति तद गुरुलघु नाम । जिसके उदयसे लोहे के पिण्डके समान गुरु होनेसे न तो नीचे गिरता है और न अर्कतूल के समान लघु ह नेसे ऊपर जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म है। (रा. वा./८/११/१२/५७७/३१) (गो क/जी.प्र/३३/२६/१२)। ध.६/१,६-१.२८/५८/१ अण ताण तेहि पोग्गले हि आऊरियस्स जीवस्स जेहि कम्मरत्न धेहितो अगुरुअल हुअत्त होदि, तेसिमअगुरुअलहुई त्ति सण्णा, कारणे कज्जुबयारादो। जदि अगुरुअलहुवकम्म जीवस्स ण होज्ज, तो जीवो लोहगोल ओ त्र गरुअआ अक्तूलं व हलुओ बा होज्ज । ण च एवं अणुबलभादो।- अनन्तानन्त पुद्गलोंसे भरपूर जीवके जिन कमस्कन्धोके द्वारा अगुरुलघुपना होता है, उन पुद्गल स्कन्धोकी 'अगुरुलघु' यह सज्ञा कारणमें कार्य के उपचारसे की गयी है। यदि जीवके अगुरुलघु कर्म न हो, तो या तो जीव लोहेके गोलेके समान भारी हो जायेगा, अथवा आकके तूलके समान हलका हो जायेगा। किन्तु ऐसा है नही, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता है। (घ १३/५५.१०१/३६४/१०)। ध ६/१,६-२,७६/११४/३ अण्णहा गरुअसरीरेण दुद्धो जीवो उठेदु'पि
ण सक्के उज । ण च एव, सरीरस्स-अगुरु-अलहु अत्ताण मणुवलंभा ।यदि ऐसा (इस कर्मको पुद्गल विपाकी) न माना जाये, तो गुरु भार बाले शरीरसे संयुक्त यह जीव उठनेके लिए भी न समर्थ होगा। किन्तु ऐसा है नही, क्योकि शरीरके केवल हलकापन और केवल भारीपन नही पाया जाता है। * अगुरुलघु नामकर्मकी बन्ध उदय सत्व प्ररूपणाएँ व
तत्सम्बन्धी नियम आदि-दे. वह वह नाम । ४. अगुरुलघु गुण अनिर्वचनीय है। आ./ सूक्ष्मावाग्गोचरा आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुरू घुगुणा ।
- अगुरुनघु गुणका यह सूक्ष्म परिणमन वचनके अगोचर है। आगम
प्रमाणके ही गम्य है। (न, च //५७)। पंध पू/१६२ कित्व स्ति च कोऽपि गुणोऽनिर्वचनीय स्वत सिद्ध ।
नाम्ना चागुरुलघुरिति गुरुलक्ष्य' स्वानुभूतिलक्ष्यो वा । किन्तु स्वत सिद्ध और प्रत्यक्षदर्शियों के लक्ष्य में आने योग्य अर्थात केवलज्ञानगम्य अथवा स्वानुभूतिके द्वारा जाननेके योग्य तथा नामसे अगुरुल्धु ऐसा कोई वचनोके अगोचर गुण है। ५. जीवके अगुरुलघु गुण व अगुरुलघु नाम कर्मोदयकृत
अगुरुलधुमें अन्तर ध ६/१६-२,७८/२१३/११ अगुरुअन अत णाम सधजीवाणं पारिणामियम त्यि, सिद्धसु वीणासेसकम्मेसु वि तमुरलंभा। तदो अगुरुअनहू अक्म्मम्स फल भावा तस्साभावो इदि। एत्थ परिहारो उच्चदे-होज्ज एसो दोसो जदि अगुरुअनहअ जीव विबाई होदि । कितु ए६ पोग्गल विवाई अगताण तपोग्गले हि गरुवपासेहि आरद्धस्स अगुरुअल हुअत्तुप्यायणादो। अण्णहा गरुअसर रेण दृद्धा जीवो उठेदु पि ण सज्ज । ण च एव, सरीरस्स अगुरु-अलहु अत्ताणमणुवल भा। शका-अगुरुलघु नाम का गुग सर्व जोबो में पारिणामिक है. क्योकि अशेष कर्मो से रहित सिद्धोमे भी उसका सद्भाव पाया जाता है। इसलिए अगुरुनधु नामक्रम का कोई फल न होनेसे उसका अभाव मानना चाहिए । उत्तर--यहॉपर उक्त शकाका परिहार करते है। यह उपर्युक्त दोष प्राप्त होता, यदि अगुरुलघु नाम-धर्म जीव विपाकी होता। किन्तु यह कर्म पुद्गल विपाकी है, क्योंकि गुरुस्पर्शबाले अनन्तानन्त पुदगल वर्गणाअ.के द्वारा आरब्ध शरीरके अगुरुलधुताकी उत्पत्ति होती है। यदि ऐसा न माना जाये, तो गुरु भारवाले शरीरसे सयुक्त यह जीव उठनेके लिए भी न समर्थ होगा। किन्तु ऐसा है नही,
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गृहीत afar
क्योंकि शरीरके केवल हल्कापन और केवल भारीपन नहीं पाया जाता ।
घ. ६/९.३-९२८/५८४ अरु णाम जीवस्स साहावियमस्थि ण, ससारावस्थाए कम्मपरतंतंम्मि तस्साभावा । ण च सहाव विणा से जीवस्स विणासो, लक्खणविणासे लक्खविणासस्स णाइयत्तादो। ण श्व णाण-दसणे मुच्चा जीवस्स अगुरुलहुअत्त लक्खणं, तस्स आयासादीसु वि उत्रलंभा। किं च ण एत्थ जीवस्स अगुरुल हुअत्त कम्मेण कीरह, किंतु जीवहि भरिओ जो पोग्गलक्खंधो, सो जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स गरुओ हलुवो वा त्ति जावडइ तमगुरुवल हुअं । तेण ण एत्थ जीव विसय अगुरुलहुवत्तस्स गहण । = - प्रश्न अगुरुलघु तो जीवका स्वाभाविक गुम है (फिर उसे यहाँ कर्म प्रकृतियों में क्यों गिनाया)। उत्तर- नहीं, क्योंकि ससार अवस्थामें कर्म परतत्र जीवमें उस स्वाभाविक अगुरुलघु गुणका अभाव है । यदि ऐसा कहा जाये कि स्वभावका विनाश माननेपर जीवका विनाश प्राप्त होता है, क्योंकि लक्षण के विनाश होनेपर लक्ष्यका विनाश होता है ऐसा न्याय है, सो भी यहाँ बात नहीं है, अर्थात् अगुरुलघु नामकर्मके विनाश होनेपर भी जीवका विनाश नहीं होता है, क्योंकि ज्ञान और दर्शनको छोडकर अगुरुलघुख जीवका लक्षण नहीं है, चॅकि वह आकाश आदि अन्य द्रव्योंमें भी पाया जाता है। दूसरी बात यह है कि यहाँ जीवका अगुरुलघुत्व कर्मके द्वारा नहीं किया जाता है किन्तु जीवमें भरा हुआ जो पुद्गल स्कन्ध है, वह जिस कर्मके उदयसे जीव के भारी या हलका नहीं होता है, वह अगुरुलघु यहाँ विवक्षित है। अतएव यहाँपर जीव विषय अगुरुलघुत्वका ग्रहण नहीं करना चाहिए ।
६. अजीव द्रव्योंमें अगुरुलघु गुण कैसे घटित होता है रा.वा./८/११,१२/५७७/३२ धर्मादीनामजीवानां कथमगुरुलघुत्वमिति प्रश्न- धर्म
चेत । अनादिपरिणामिका गुरुलघुत्व गुणयोगात् । अधर्मादि जीवयों में अगुरुलपुपना कैसे घटित होता है उत्तरअनादि पारिणामिक अगुरुलघुरन गुनके सम्बन्ध उनमें उसकी सिद्धि हो जाती है।
७. मुक्त जीवोंमें अगुरुलघु गुण कैसे घटित होता है रावा /८/११,१२/५७७/३३ मुक्तजीवाना कथमिति चेत् अनादिकर्मनोकमन्धानां कृतमगुरुसत्यम् तदत्यन्तविनो
तु स्वाभाविकमाविर्भवति । - - प्रश्न- मुक्त जीवोमें ( अगुरुलघु ) कैसे घटित होता है, क्योंकि वहाँ तो नामकर्मका अभाव है ? उत्तर - अनादि कर्म नोर्मके बन्धन से बद्ध जीवोमें कर्मोदय कृत अगुरुलघु गुण होता है। उसके अत्यन्ताभाव हो जाने पर मुक्त जीवों के स्वाभाविक अगुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है । अगृहीत चेटिका स्त्री - दे. अगृहीत मिथ्यात्व मिथ्यादर्शन अग्नि- ज्ञा सा. ४७ अग्नि त्रिकोण रक्त [अग्नि त्रिकोण व लाल होती है।
३ ॥
१. अग्निके अंगारादि भेद
मूला / २२१ इगालजालअच्ची मुम्मुरसुद्धागणी य अगणी य । ते जाण तेजीवा जाणित्ता परिहरेदब्बा। धुआँ रहित अगार, ज्वाला, दीपककी लौ, कडाको आग और वज्राग्नि, बिजली आदिसे उत्पन्न शुद्ध अग्नि सामान्य अग्नि- ये तेजस्कायिक जीव है. इनको जानकर इनकी हिंसा का ध्यान करना चाहिए (आचाराग निर्मुक्ति १६६) (पं. स.प्र./२/७३) (१/१.१.४२/२०३/१४२) ( आ./ /६०८/२०५) ( त सा./२/६४) ।
२. गार्हपत्य आदि तीन अग्नियोंका निर्देश व उपयोग म.पू. /४०/८२-३० योग्य प्रणेया स्यु कर्मारम्भे जिसमे रत्नत्रय कल्पादग्नीन्द्रमुकुटवा. १८२॥ तीर्थ
३५
महोत्सवे पूजाग समासाद्य पि
कुण्डत्रये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नय । गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निप्रसिद्ध ॥८४॥ अस्मिन्ननिये पूजन कुच द्विमोसम आहिताग्निरिति हेवी निरवेया यस्मानि ॥८३॥ हविष्याके
धूप दीनोबोधनसविधौ महीना विनियोग स्थादमीष नित्यपुजने ॥८६॥ प्रयत्नेनाभिरय स्वादिदमग्न गृहे मेय दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये ये स्युरसस्कृता ॥ ८७॥ न स्वतोऽग्ने' पवित्रत्त्र देवतारूपमेव किम्बाई दिव्यमूर्ती ज्यास बन्धाय पाथमोऽनल
तत पूजाङ्गतामस्य मत्वार्चन्ति द्विजोत्तमा । निर्वाणक्षेत्रजात्पूजातो न दुष्यति ॥१॥ व्यवहारनयापेक्षा सस्पेश पूज्यता द्विजै। जैनैरध्यवहार्योऽय नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मन ॥१०॥ - क्रियाओके प्रारभमें उत्तम द्विजोको रत्नत्रयका संकल्प कर अग्निकुमार देवोंके इन्द्रके मुकुटसे उत्पन्न हुई तीन प्रकारकी अग्नियाँ प्राप्त करनी चाहिए ॥ ८२ ॥ ये तीनो ही अग्नियाँ तीर्थकर, गणधर और सामान्य केवली के अन्तिम अर्थात् निर्वाणोत्सव में पूजाका अग होकर अत्यन्त पत्रको प्राप्त हुई मानी जाती है ॥ ८३ ॥ गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि नाम से प्रसिद्ध इन तीनो महाग्नियोको तीन कुण्डो में स्थापित करना चाहिए ॥ ८४॥ इन तीनो प्रकारको अग्नियो में मन्त्री के द्वारा पूजा करनेवाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता है। और जिसके घर इस प्रकारकी पूजा नित्य होती रहती है वह आहिताग्नि व अग्निहोत्री कहलाता है ॥८५॥ नित्य पूजन करते समय इन तीनो प्रकारकी अग्नियोका विनियोग नैवेद्य पकाने में, धूप नेमें और दीपक जलाने में होता है अर्थात् गार्हपत्य अग्निसे नैवेद्य पकाया जाता है आहवनीय अग्निमें धूप सेई जाती है और दक्षिणाग्निदीप जलाया जाता है ॥ ८६॥ घरमें बड़े प्रयत्नसे इन तीनो अग्नियोंकी रक्षा करनी चाहिए और जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ है ऐसे अन्य लोगों को कभी नही देनी चाहिए ॥८७॥ अग्निमें स्वयं पवित्रता नहीं है और न वह देवता रूप ही है किन्तु अन्त देवकी दिव्य मूर्तिकी पूजाके सम्बन्धसे वह अग्नि पवित्र हो जाती है ॥८८॥ इसलिए ही द्विजोत्तम लोग इसे पूजाका अंग मानकर इसकी पूजा करते है अत निर्वाण क्षेत्रकी पूजा के समान अग्निकी पूजा करनेमें कोई दोष नहीं है ॥ ॥ ब्राह्मणोंको व्यवहार नयकी अपेक्षा ही अग्निकी पूज्यता इष्ट है इसलिए जैन ब्राह्मणोंको भी आज यह व्यवहार नय उपयोग में लाना चाहिए ॥१०॥ (और भी देखो यज्ञ में आई (भ जा./वि./८/१८४६)
(५१)
अग्नि
* अर्हत पूजासे ही अग्नि पवित्र है स्वयं नहीं अग्नि २ । ३. क्रोधादि तीन अग्नियोंका निर्देश
-
म पु/०७/२०२-२०३ प्रयोजन समुदाको काम एराग्नयः । तेषु क्षमाविरागमान्नाहुतिभिर्मने ॥२०२३ स्वारणा परमद्विजा' । इत्यात्मयज्ञमिष्टार्थमष्टमीमवनी ययु ॥ २०३॥ - क्रोधानि कामाग्नि और उपराग्नि मे तीन अग्नियों बतलायी गयी है। इनमें क्षमा, वैराग्य और अनइनकी आहुतियाँ देनेवाले जो ऋषि, यति, मुनि और अनगार रूपी श्रेष्ठ द्विज में निवास करते हैं वे आत्मयज्ञ कर इष्ट अर्थ की देनेवाली अष्टम पृथिवी मोक्ष- स्थानकी प्राप्त होते है ।
४. पंचाग्निका अर्थ पंचाचार
पंचमहागुरु भक्तिपंचाचार-पंचसिाहया सुरिमोदितुम गयासंगया। जो पचाचार रूप पंचाग्निके साधक हैं वे आचार्य परमेष्ठी हमें उत्कृष्ट मोक्ष लक्ष्मी देवें। (विशेष दे पचाचार) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
५. प्राणायाम सम्बन्धी अग्निमण्डल ज्ञा./२१/२२,२७/२८८ स्फुलिङ्गपिङ्गल भीममूर्ध्व ज्वालाशता चितम् । त्रिकोणं स्वस्तिकोपेतं तमीज वह्निमण्डलम् ॥ २२ ॥ बालार्कसंनि
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अग्निगति
भश्योध्यं सत्यश्चतुरहुल। अत्युष्णो ज्वलनाभिख्यपवन कीर्तितो बुधैः ॥२७॥ अग्निके स्फुलिंग समान पिंगल वर्ण भीम रौद्र रूप ऊर्ध्वगमन स्वरूप सैकडों ज्वालाओं सहित त्रिकोणाकार स्वस्तिक (साथिये) सहित निज मण्डित ऐसा वह्निमण्डल है ॥२२॥ जो उगते हुए सूर्य के समान रक्त वर्ण हो तथा ऊँचा पलता हो. आयत (चक्रों) सहित फिरता हुआ चले चार अंगुल बाहर आवे और अति ऊष्ण हो ऐसा अग्निमण्डलका पवन पण्डितोंने कहा है।
३६
६. आग्नेयी धारणाका लक्षण ज्ञा./२०/१०-११/३८२ सोऽसी मिचलाभ्यासात्कमलं नाभिमण्डले। स्मरस्यतिमनोहारि २९.६ प्रतिपत्रसमासीनस्वरमालाविराजितम् । कर्णिकाया महामन्त्र विस्फुरन्तं विचिन्तयेत् १११ रेफ साबिन्दुलायितं शुन्यमक्षरस्सदिन्दुष्ट कोटिकाव्याहरिमुख॥९२॥ तस्य रेफाद्विनिर्माती शनैर्धूमशियां स्मरेव स्फुलिङ्गसंतति पश्चाज्ज्यानास तदनन्तरम् ॥१३३ तेन ज्यालाकलापेन वर्धमानेन संततम्। दहत्यविरतं धीर पुण्डरीड हृदिस्थितम् ॥११॥ तदष्टकर्मनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम् । दहत्येव महामन्त्रध्यानोरथ प्रचनोऽनल ॥१५॥ ततो वहि शरीरस्य त्रिकोण बह्निमण्डलम् भ्मरेज्ज्वालाक्लापेन वसन्त मित्रा महिमाकान्त पर्यन्ते स्वस्तिका वायुपुरोभूत निर्धूमाभ 1१०० अन्तर्दहति मन्त्राहि पुर ॥१७॥ पुरम् । धमद्वगितिविस्फूर्जज्ज्वालाप्रचयभासुरम् ॥ १८ ॥ भस्मभावमसौ नीरखा शरीर तच्च पङ्कजम्। दाह्याभावात्स्वय शान्ति याति वह्नि दाने शनै ॥१६॥ सुरश्चाद (पार्थिवी धारणाके) योगी (पानी) निश्चल अभ्यास से अपने नाभिमण्डल में सोलह ऊँचे-ऊँचे पत्रों के एक मनोहर कमलका ध्यान करे ॥१०॥ तत्पश्चात् उस कमलकी कर्णिका में महामन्त्रका ( जो आगे कहा जाता है उसका ) चिन्तवन करे और उस कमल के सोलह पत्रो पर 'अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ऌ ऌ ए ऐ ओ औ अं अः इन १६ अक्षरोंका ध्यान करे ॥ ११॥ रेफ से रुद्ध कहिए आवृत और क्ला तथा बिन्दुसे चिह्नित और शून्य कहिए हकार ऐसा असर सख्त कहिए देदीप्यमान होते हुए बिन्दुकी घटाकोटिकी कान्तिसे व्याप्त किया है दिशाका मुख जिसने ऐसा महामन्त्र "हैं" उस कमलकी कर्णिकामें स्थापन कर, चिन्तवन करें ||१२|| तत्पश्चात् उस महामन्त्रके रेफसे मन्द मन्द निकलती हुई धूम (एँ) की शिखाका चितवन करे तत्पश्चात् उसमे अनुप्रमाह रूप निकलते हुए स्फुलिंगों की पक्तिका चिन्तन करे और पश्चात उसमें से निकलती हुई ज्वालाकी लपटोका विचारै ॥१३॥ तत्पश्चात् योगी मुनि क्रम बढते हुए उस ज्वाला समुहसे अपने हृदयस्थ कमलको निरन्तर जलाता हुआ चिन्तवन करे || १४ || वह हृदयस्थ कमल अधोमुख आठ पत्रका है। इन आठ पत्रोपर आठ कर्म स्थित हो । ऐमे नाभिस्थ कमलकी कर्णिकामें स्थित "हे" महामन्त्रके ध्यान से उठी हुई प्रबल अग्नि निरन्तर दहती है, इस प्रकार चिन्तन करै तत्र अब कर्म जल जाते है यह चेतन्य परिणामो की सामर्थ्य है ॥ १५ ॥ उस कमलके दग्ध हुए पश्चात् शरीर के बाह्य त्रिकोण चिन्तन करें, सो ज्वाला के समूह से जलते हुए बडवानलके समान ध्यान करे ॥१६॥ तथा अग्नि बीजाक्षर 'र' से व्याप्त और अन्तमें साथिया चिह्नसे चिह्नित हो ज मामण्डलसेर धूम रहित काचनको सो प्रभावाला चिन्तवन करे ||१७|| इस प्रकार वह धगधगायमान फैलती हुई लपटोके समूहों से दैदीप्यमान बाहरका अग्निपुर (अग्निमण्डल ) अन्तरगकी मन्त्राग्निको दग्ध करता ||१८|| तत्पश्चात् यह अग्निमण्डल उस नाभिस्थ कमल और शरोरका भस्मीभूत करके दाहाका अभाव होनेसे धीरे-धीरे अपने आप शान्त हो जाता है ॥ १६ ॥ (त. अनु १८४) अग्नि गति
एक विद्या-दे विद्या ।
अग्नि जीव* अग्नि जीव सम्बन्धी, गुणस्थान, जोब समास, आदि २० प्ररूपणाएँ - दे सत् ।
मार्गणा स्थान
* 'सव, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणा - दे. वह वह नाम ।
* तैजस कायिकों में वै क्रियक योगकी सम्भावना - दे. वैक्रियक । * मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणाको इष्टता तथा वहाँ आयके अनुसार व्यय होनेका नियम- दे. मार्गणा ।
* अनिकायिकों में कर्मोंके बन्ध उदय सत्त्व दे वह वह नाम । * अझिमें पुदगल के सर्व गुणोका अस्तित्पदे पुल १० * अग्नि जीबी कर्म- दे. सावध ५ ।
* अग्निमें कथचित सपना - दे. स्थावर ६ ।
* अनिके कायिकादि चार भेद - दे, पृथिवी ।
* तैजसकायिक में आतप व उद्योतका अभाव -- दे. उदय ४ ।
अज्ञान
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'सूक्ष्म अनिकायिक जीव सर्वत्र पाये जाते है-दे क्षेत्र ४ ।
• मदरसे जसकादिक भवनवासी विमानो व आठो पृथिवियोंगे
*
रहते है, परन्तु इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है। दे काय २ / ५ । अग्निज्वाल- - विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर । अग्निदेव
* भूतकालीन ११वे तीर्थंकर
तीर्थंकर ५
* लोकपालोके भेद रूप अग्नि । -दे लोकपाल ।
* अनलकायिक आकाशोपपन्न देव - दे देव II / १ । सौकान्तिक
*
जास * अग्निज्वाल नामा ग्रह दे ग्रह
* अग्निकुमार भवनवासी देव - दे भवन १ ।
* अनिरुद्धनामा असुरकुमार देव - दे. असुर ।
*
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भौतिक अग्नि देवता रूप नहीं है । - दे अग्नि २ ।
अग्निप्रभदेव (३१/७२ ) इस ज्योतिष देवनेश
कुलभूषण मुनियोंपर घोर उपसर्ग किया। जो वनवासी राम व लक्ष्मण के आनेपर शान्त हुआ ।
अग्निभूति - /४३/ १००.१३६- १४६) मगधदेश शालिग्राम निवासी सोमदेव ब्राह्मणका पुत्र था। मुनियों से पूर्वभवका श्रवण कर लज्जा एव द्वेषपूर्वक मुनि हत्याका उद्यम करनेपर यक्ष-द्वारा कील दिया गया। सुनी दमासे छूटने पर अन ग्रहण कर अन् सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ।
अग्निमित्र - १ ( म पु / ७४ /७६) एक ब्राह्मण पुत्र था । यह वर्धमान
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भगवान्का दूरवर्ती पूर्वका भव है --दे वर्धमान । २ मगध देशको राजवंशावली अनुसार यह एक शक जातिका सरदार था जिसने मौर्य काल में ही मगध देशके किसी एक भागपर अपना अधिकार जमा रखा था। इसका अपर नाम भानु भी था। यह वसुमित्र के समकालीन था । समय- वी नि २८५-३४५ ई पू. २४२-१८२ । दे - इतिहास ३ ।
अग्निसह (म/०४/०४) एक महान पुत्र था। यह वर्धमान भगवान्का दूरवर्ती पूर्वभव है- वर्धमान अज्ञात
16/६/२२२ मारमादाद्वावप्रवृत्तिरात
= मद या प्रमादके कारण बिना जाने प्रवृत्ति करना अज्ञात भाव है। (रा.वा./६/६/४/२९२/४) । अज्ञातसिद्ध
एक हेखाभास - दे, अभिद्ध ।
अज्ञान - जैनागमनें अज्ञान शब्दका प्रयोग दो अर्थों में होता है-एक
तो ज्ञानका अभाव यामीके अर्थने और दूसरा मिथ्याज्ञानके अर्थमें । पहले वाले को औदयिक अज्ञान और दूसरेवालेको क्षायोपशमिक
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अज्ञान
अज्ञान
अज्ञान कहते है। मोक्षमार्गको प्रमुखता होनेके कारण आगममें अज्ञान शब्दसे प्राय' मिथ्याज्ञान कहना हो इष्ट होता है।
१. औदयिक अज्ञानका लक्षण स सि/२/६/१५६ ज्ञानावरणकर्मण रदयारपदाथानवबोधौ भवति तद
ज्ञानमौद यिकम् । पदार्थोके नही जाननेको अज्ञान कहते है चूकि वह ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होता है इसलिए औदयिक है।
रा वा /२/६/५/१०६/८1 पघ, उ./१०२२ अस्ति यत्पुनरज्ञाननादौदयिक स्मृतम् । तदस्ति
शुन्यतारूप यथा निश्चेतन वपुः ॥१०२२ = और जो यथार्थ में ओदयिक अज्ञान है वह मृत देहेकी तरह शूभ्य रूप है। २.क्षयोपशमिक अज्ञानका लक्षण
१ मिथ्याज्ञानकी अपेक्षा रा.वा/8/9/११/६०४/८ मिथ्यादर्शनोदयापादितकालष्यमज्ञानं त्रिविधम् ।-मिथ्यादर्शनके उदयसे उत्पन्न होनेवाला अज्ञान तीन प्रकार
का है । (द्र सं./टी/५/१५) (त. सा./१/३५) । ध १/१.१.१३५३/७ मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्याकरणादज्ञानव्यपदेशात । मिथ्यात्वसहित ज्ञानको ही ज्ञानका कार्य महीं करनेसे
अज्ञान कहा है। (ध१/१,७,४/२२४/३)। स सा | आ| २४७ सोऽज्ञानत्वान्मिथ्यादृष्टि ।- (परके कतख रूप
अध्यवसायके कारण) अज्ञानी होनेसे मिथ्यादृष्टि है। स सा /ता वृ/८८/१४४ शुद्धारमादितत्त्वभावविषये विपरीतपरिच्छित्ति विकारपरिणामो जीवस्याज्ञानम्। - शुद्धात्मादि भाव तत्त्वोके विषयमें विपरीत ग्रहण रूप विकारी परिणामोंको जीवका अज्ञान कहते है। वध / उ./१०२१ त्रिषु ज्ञानेषु चैतेषु यरस्यादज्ञानमर्थता । क्षायोप
शमिकं तत्स्यान्न स्यादौदयिक कचित। इन तीन ज्ञानोमे जो बास्तबमें अज्ञान है अर्थात ज्ञान में विशेषता होते हुए भी यदि वह सम्यग्दर्शन सहित नहीं तो उसे वास्तव में अज्ञान कहते है। वह अज्ञान क्षायोपशमिक भाव है। कहीं भी औदयिक नहीं कहा जा
सकता। स.सा/प. जयचन्द/१६५ मिथ्यात्व सहित ज्ञान ही अज्ञान कहलाता है।। स. सा/प जयचन्द/७४,१७७)।
२ दूषित ज्ञानकी अपेक्षा ध.१/१,१,१२०/३६४/६ यथायथमप्रतिभासितार्थ प्रत्ययानुविद्वावगमोडज्ञानम्। -न्यूनता आदि दोषोंसे युक्त यथास्थित अप्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्तसे उत्प हुए तत्सम्बन्धी बोधको अज्ञान
साधन हो सकता है, धर्मका नहीं। ( इनकी यह मान्यता ही
अज्ञान है।) ध.८/३,६/२०/४ विचारिज्जमाणे जीवाजीवादिषयस्था ण संति णिचाणिञ्च वियप्पे हिं, तदो सव्वमण्णाणमेव । णाणं स्थिति अहिणिवेसो अण्णाणमिच्छत्त । -नित्यानित्य विकल्पोसे विचार करनेपर जीवाजीवादि पदार्थ नहीं है, अतएव सब अज्ञान ही है, ज्ञान नहीं है, ऐसे
अभिनिवेशको अज्ञान मिथ्यात्व कहते है। त.सा./२/७/२७८ हिताहितविवेकस्य यत्रात्यन्तमदर्शनम् । यथा पशुबधी धर्मस्तंदज्ञानिकमुच्यते। -जिस मतमें हित और अहितका बिलकुल हो विवेचन नहीं है। पYवध धर्म है' इस प्रकार अहितमें प्रवृत्ति कराने का उपदेश है वह अज्ञानिक मिथ्यात्व है। नोट-और भी देखो आगे अज्ञानवाद।।
३. मति आदि ज्ञानोंको अज्ञान कैसे कहते हैं ध ७/२,१,४८६-८८/७ कधं मदिअण्णाणिस्स खओवसमिया ली। मदिअण्णाणावरणस्स देशघादिफहयाणमुदएण मदिअण्णाणित्तुबलभादो। जदि देसघादिफहसाणमुदएण अण्णाणित्तं होदि तो तस्स
ओदइयत्तं पसज्जये। ण सबघादिफहयाणमुदयाभावा। कथं पुण खओवसमियत्त । आवरणे मते वि आवरणिज्जास पाणस्स एगदेसो जम्हि उदए उबलभदे तस्स भावस्स ग्वओबसमवषएसादो खओवसमियत्तमण्णाणस्स ण विरुज्झदे। अधवा माणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उबसमो एमदेसक्खओ, तस्स खोवसमसण्णा ।' .. सपहि दोण्हं (सव्वधादिफद्दयाणमुदयख एण तेसिं चेव संतोवसमेण) पडिसेहं कादूण देसघादिफयाणमुदयणेव खोवसमिय भावो होदि त्ति परुवेंतस्स स्वयणविरोहो किण्ण जाय। ण, जदि सत्रधादिफचयाणमुदयक एण सजुत्तदेसघादिफबयाणमुदएणेव खोवमिय भावो इच्छिज्जदि तो फासिदिय-कायजोगो-मदि-सुदणाणाणं खोवसमिओ भावोर पावने फासिदियावरण वीरियंतराश्यमदि-मुदणाणावरणाण सम्वधादिफयाण सव्वकालमुदयाभावा । ण च सबबयणविरोहो वि, हदियजोगमगणाम अण्णे सिमाहरियाणं सक्खाणकमजाणावण ठें तत्थ तधापरूवणादो। ज दो णियमेण उप्पज्जदि तं तस्स कज्जमियर च कारण ! ण च देसघादिफक्ष्याणमुदओ च सम्बघादिफद्दयाणमुदयक्रवओ णियमेण अप्पप्पणो णाणजणओ, खोण कसायचरिमसमर ओहिमणपज्जवणाणावरणसम्यघादिफद्दयाण ख एण समुप्पज्जमाणओहिमणपज्जवणाणाणमुबलभाभावादो। -प्रश्न-मति अज्ञानो जोवके क्षयोपशम ल ब्धि कैसे मानी जा सकती है। उत्तर -क्योंकि, उस जोक्के मत्यज्ञानावरण कर्मके देशघाती स्पर्धकोके उदयसे अज्ञानित्व पाया जाता है। प्रश्न-यदि देशघाती स्पर्ध कोके उदयसे अज्ञानित्व होता है तो अज्ञानित्वको औदयिक भाव माननेका प्रसग आता है । उत्तर-नही आता, क्योंकि वहाँ सर्वघाती स्पर्ध कोंके उदयका अभाव है । प्रश्न-तो फिर अज्ञानिस्व में क्षायोपशमिकत्व क्या है। उत्तर-आवरण के होते हुए भी आवरणीय ज्ञान का एक देश जहॉपर उदय में पाया जाता है उसी भावको क्षायोपशमिक नाम दिया जाता है । इसमे अज्ञानको क्षायोपशमिक भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता। अथवा ज्ञानके विनाशका नाम क्षय है उस क्षयका उपशम हुआ एकदेश क्षय। इस प्रकार ज्ञानके एक देशीय क्षयकी क्षयोपशम सज्ञा मानी जा सकती है...। प्रश्न-यहाँ (मति अज्ञान आदिकोमें ) सर्वघातो स्पर्धको के उदय, क्षय और उनके सत्त्वोपशम इन दोनोका प्रतिषेध करके केवल देशपाती स्पर्धकों के उदयसे क्षायोपमिक भाव होता है ऐसा प्ररूपण करनेवालेके स्ववचन-विरोध दोष क्यों नहीं होता! उत्तर-नहीं होता, क्योंकि यदि संबंघाती स्पर्धकोके उदयक्षयसे संयुक्त देशघाती स्पर्ध कोंके उदयसे ही क्षामोपशमिक भाव मानना इष्ट है तो स्पर्शनेन्द्रिय, काययोग और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इनके क्षायोपशमिक भाव प्राप्त नहीं होगा। क्योकि स्पर्शेन्द्रियावरण,
कहते है।
न. बृ./३०६ सम्यविमोहविम्भमजुत्त ज त खु होइ अण्णाणं । अह्वा कुसच्छाझेयं पावपः हवदितं जाणं ॥३०६॥ - सशय, विमोह, विभ्रमसे युक्त ज्ञान अज्ञान कहलाता है अथवा कुशास्त्रोका अध्ययन पापका कारण होनेसे वह भी अज्ञान कहलाता है। (ध. १/१,१,४/१४३/३ )।
३ अज्ञान मिथ्यात्वकी अपेक्षा स. सि./८/२/३५ हिताहितपरीक्षाविरहोऽज्ञानिकत्वम् । - हिताहित
की परीक्षासे रहित होना अज्ञानिक मिथ्यादर्शन है। (रा वा ८/ १/२८/५६४/२२)। ग. वा/८/१/१२/१६२/१३ अत्र चोद्यते-बादरायणवसुजैमिनिप्रभृतीनां श्रुतिविहितक्रियानुष्ठायिनो कथमज्ञानिकत्वमिति । उच्यते-प्राणिवधधर्मसाधनाभिप्रायात् । न हि प्राणिवध पापहेतुधर्मसाधनस्वमापत्तु महति। -प्रश्न-बादरायण, वसु, जैमिनी आदि तो बेद विहित क्रियाओं का अनुष्ठान करते है, वे अज्ञानी कैसे हो सकते है । उत्तर--- इनने प्राणी वधको धर्म माना है (परन्तु) प्राणी वध तो पापका ही
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अज्ञान निग्रहस्थान
३८
अग्र
वोर्यान्तराय और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इनके आवरणों के सर्वघाती स्पर्धकोके उदयका सब कालमें अभाव है। प्रश्न-[फिर आगममें "सर्वघातो स्पर्धकोका उदयाभावी क्षय, उन्हीका सदवस्था रूप उपशम व देशघातीका उदय' ऐसा क्षयोपशमका लक्षण क्यों किया गया।] उत्तर-अन्य आचार्यों के व्याख्यान क्रमका ज्ञान करानेके लिए वहाँ पैसा प्ररूपण किया गया है। इसलिए स्ववचनविरोधमही आता। जो जिससे नियमत उत्पन्न होता है वह उसका कार्य होता है और वह दूसरा उसको उत्पन्न करनेवाला उसका कारण होता है। किन्तु देशपाती स्पर्धकोके उदयके समान सर्वघातो स्पर्धको के उदय-क्षय नियमसे अपनेअपने ज्ञानके उत्पादक नही हाते क्योकि,क्षीणकषायके अन्तिम समयमें अबधि और मन पर्यय ज्ञानावरणोके सर्वघाती स्पर्धकोके क्षयसे अवधिज्ञान और मन पयंय ज्ञान उत्पन्न होते हुए नही पाये जाते। दे. ज्ञान IIII मिथ्यात्वके कारण ही उसे मिथ्याज्ञान कहा जाता है। वास्तवमें ज्ञान मिथ्या नही होता।
४. अज्ञान नामक अतिचारका लक्षण भ. आ./मू. आ/६१३/८१३ अज्ञाना आचरणदर्शनात्तथाचरणं, अज्ञानिना उपनीतस्य उद्गमादिदोषदुष्टस्य उपकरणादे सेवनं वा ॥१३॥ -अज्ञ जोवोका आचरण दखकर स्वय भी बसा आचरण करना, उसमें क्या दोष है इसका ज्ञान न होना अथवा अज्ञानीके लाये, उद्गमादि दोषोंसे सहित ऐसे उपकरणादिको का सेवन करना ऐसे अज्ञानसे अतिचार उत्पन्न होते है। ५. अन्य सम्बन्धित विषय * अज्ञान सम्बन्धी शका समाधान-दे ज्ञान III/३ । * सासादन गुणस्थानमे अज्ञानके सद्भाव सम्बन्धी शका
दे. सासादन ३ । * मिश्र गुणस्थानमे अज्ञानके अभाव सम्बन्धो शका
दे मिश्र २। * ज्ञान व अज्ञान (मत्यज्ञान) मे अन्तर-दे, ज्ञान III/२/८1
* अज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है - दे. मतिज्ञान २/४ । अज्ञान निग्रहस्थान-न सू /५/२/१७/३१६ अविज्ञात चाज्ञानम्॥
-वादोके - कथनका परिषद्ग-द्वारा विज्ञान किये जा चुकनेपर यदि प्रतिवादीको विज्ञान नही हुआ है तो प्रतिवादीका 'अज्ञान' इस नामका निग्रहस्थान हागा । (श्लो. वा ४/न्या. २४१/४१३/१३)। अज्ञान परिषह-स सि./६/६/४२७ अज्ञोऽय न वेत्ति पशुसम
इत्येवमाद्यधिक्षेपवचन सहमानस्य परमदुश्चरतपोऽनुष्ठायिनो नित्यमप्रमत्तचेतसो मेडद्यापि ज्ञानातिशयो नोत्पद्यत इति अनभिसदधत ज्ञानपरिषहजयाऽवगन्तव्य । -"यह सर्व है। कई नहीं जानता, पशुके समान है" इत्यादि तिरस्कारके वचनोको मैं सहन करता हूँ. मैने परम दुश्चर-तपका अनुष्ठान किया है, मेरा चित्त निरन्तर अप्रमत्त रहता है, तो भी मेरे अभी तक भी ज्ञानका अतिशय नहीं उत्पन्न हुआ है, इस प्रकार विचार नहीं करनेवालेके अज्ञान परिषहजय जानना चाहिए (रा. वा/8/8/२७,६१२/१३), (चा. सा-/१२२/१)।
* प्रज्ञा व अज्ञान परिषहमे भेदाभेद---दे. प्रज्ञा परिषहए। अज्ञानवाद
१. अज्ञानवादका इतिहास द.सा. २० सिरिवीरणाहतित्थे बहुस्सुदो पाससधगणिसीसो । मकडि
पूरणसाह अण्णाणं भास्र लोए । २०। -महावीर भगवान के तीर्थ में पार्श्वनाथ तीर्थकरके सघके किसी गणीका शिष्य मस्करी पूरन नाम-
का साधु था। उसने लोकमें अज्ञान मिथ्यात्वका उपदेश दिया। (गो. जी/जी प्र/१६)।
२. अज्ञानवादका स्वरूप स. सि./पं जगरूप सहाय/८/९/१५ की टिप्पणी- "कुत्सितज्ञानमज्ञानं
तद्यषामस्ति ते अज्ञानिका । ते च वादिमश्च इति अज्ञानिकवादिन । ते च अज्ञानमेव श्रेय' असच्चिन्त्यकृतकर्मबन्धवै फल्याव, तथा न ज्ञान कस्यापि कचिदपि वस्तुन्यस्ति प्रमाणमसर्ण वस्तुविषयत्वादित्याद्यभ्युपगन्तव्यः। -कुत्सित या खोटे ज्ञानको अज्ञान कहते है । वह जिनमें पाया जाये सो अज्ञानिक है। उन अज्ञानियोंका जो वाद या मत सो अज्ञानवाद है। उसे माननेवाले अज्ञानवादी है । उनकी मान्यता ऐसी है कि अज्ञान ही प्रेय है, क्योकि असत की चिन्ता करके किया गया कर्मोका बन्ध विफल है, तथा किसीको भी, कभी भी, किसी भी वस्तु में ज्ञान नही होता, क्योंकि प्रमाणके द्वारा असम्पूर्ण ही वस्तुको विषय करनेमें आता है । इस प्रकार जानना चाहिए। (स्थानाग सूत्र/अभयदेव टी/४/४/३४५) (सूत्रकृताग/शोलाक टी/१/१२) (नन्दिसूत्र/हरिभद्र टीका सू. ४६) (षड्दर्शनसमुच्चय/बृहद्वृत्ति/श्लो १)। गो.क./.८८६-८८७/१०६६ को जाणइ णव भावे सत्तमसत्तं दयं अव
चमिदि । अवयणजुदसत्ततय इदि भगा होति तेसट्ठी ॥८८६॥ - को जाणइ सत्तचऊ भाव सुद्धं खु दोणिपतिभवा। चत्तारि होति एवं अण्णाणीणं तु सत्तट्ठी ।।८८७॥ -जीवादिक नवपदार्थ नि विर्षे एक एकको सप्तभग अपेक्षा जानना। जीव अस्ति ऐसा कौन जाने है। जोव नास्ति ऐसा कौन जानै है । जोव अस्ति नास्ति ऐसा कौन जाने है। जीव अवक्तव्य ऐसा कौन जाने है। जीव अस्ति अवक्तव्य ऐसा कौन जाने है । जोव नास्ति अवक्तव्य ऐसा कौन जाने है। जीव अस्ति नास्ति अवक्तव्य ऐसा कौन जाने है। ऐसे हो जीवकी जाया अजोबादिक कहै तरेसठि भेद हो है।८८६॥ प्रथम शुद्ध पदार्थ ऐसा लिखिए ताकै उपरि अस्ति आदि च्यारि लिखिए । इन दोऊ पंक्तिनिकरि उपजे च्यारि भंग हो है। शुद्ध पदार्थ अस्ति ऐसा कौन जानै है। शुद्ध पदार्थ नास्ति ऐसा कौन जानै है। शुद्ध पदार्थ अस्ति नास्ति ऐसा कौन जान है । शुद्ध पदार्थ अवक्तव्य ऐसा कौन जान है। ऐसे च्यारि तो ए अर पूर्वोक्त तरेसठि मिलि करि अज्ञानवाद सडसठि हो है । भावार्थ-अज्ञानवाद वाले वस्तुका न जानना ही मान है। (भा पा./ जयचन्द/१३७ ।। भा पा /मू. व टी/१३५ “सत्तट्ठी अण्णाणी · ॥१३५॥ सप्तषष्टि- ज्ञानेन
मोक्ष मन्वाना मस्करपूरणमतानुसारिणा भवति। - सडसठ प्रकारके अज्ञान-द्वारा मोक्ष माननेवाले मस्करपूरण मतानुसारीको अज्ञान मिथ्यात्व होता है । (वि. दे.-मस्करी पूरन )
३. अज्ञानवादके ६७ भेद ध १/१.१,२/१०८/२ शाकल्य-वल्कल-कुथुमि-सात्यमुनि-नारायण-कण्वमाध्यदिन-मोद-पम्पलाद-बादरायण-स्वेष्टकृदै तिकायन-वसु-जे मिन्यादोनामज्ञानिकदृष्टीमा सप्तषष्टि ।-दृष्टिवाद अगमें-शाकल्य, वसल, कुथुमि, सात्यमुनि, नारायण, कण्व, माध्यदिन, मोद, पैप्पलाद, बादरायण, स्वेष्टकृत, ऐतिकायन, वसु और जैमिनि आदि अज्ञानवादियोके सडसठ मतो का वर्णन और निराकरण किया गया है। (ध. ११४,१,४५/२०३/५) (रा. वा./१/२०/१२/७४/५) (रा वा./ ८/१/११/१६२/७) (गो. जो /जी.प्र./३६०/७८०/१३) । गो. क /मू / ८८६-८८७/१०६६ नव पदार्थ सप्तभग-६३+ (शुद्धपदार्थ)x (आस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति, अव्यक्त -४ मिलिकरि अज्ञानवाद
सडसठ हो है । (मूलके लिए दे. शीर्षक स. २) अज्ञानी-दे मिथ्यादृष्टि । अग्र
१ विभिन्न अर्थों मेंध. १३/५,५,५०/२८८/६ चारित्राच्छु त प्रधानमिति अग्र्यम् । कथ ततः
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अंग्रनिर्वृत्तिक्रिया
अचेलकत्व
श्रुतस्य प्रधानता। श्रुतज्ञानमन्तरेण चारित्रानुत्पत्तेः अथवा, अश्य मोक्षः तत्साहचर्याच्छ्र तमप्यामम् । -चारित्रसे श्रुतकी प्रधानता है इसलिए उसकी अग्र संज्ञा है। प्रश्न-चारित्रसे श्रुतकी प्रधानता किस कारणसे है ? उत्तर-क्योंकि श्रुतज्ञानके बिना चारित्रकी उत्पत्ति नहीं होतो, इसलिए चारित्रको अपेक्षा श्रुतकी प्रधानता है। अथवा अग्य शब्दका अर्थ मोक्ष है, इसके साहचर्यसे श्रुत भी अध्य कहलाता है। घ.१४/५,६,३२३/३६७/४ जहण्णणिवत्तिए चरिमणिसओ अग्गं णाम ।
-जघन्य निर्वृत्तिके अन्तिम निषेक की अग्र संज्ञा है। स सि./६/२७/४४४ अग्र मुखम् । = अग्र है सो मुख है। (अर्थात अग्रका मुख, सहारा, अवल बन, आश्रय, प्रधान वा सम्मुख अर्थ है।) २. आत्माके अर्थमें रा. वा /8/२७,३/६२५/२३ अडग्यते तदङ्गमिति तस्मिन्निति वानं मुखम् ॥३॥ रा,वा/१/२७,७/६२५/३२ अर्थपर्यायवाची वा अप्रशन्द ॥७॥ अथवा
अड्ग्यते इत्यग्र अर्थ इत्यर्थः । रा. वा./६/२७,२१/६२७/३ अङ्गतीत्यग्रमात्मेति वा ॥२१॥ जिसके द्वारा जाना जाता है या जिसमें जाना जाता है ऐसा अग्र मुख है । ३ । अब शब्द अर्थका पर्यायवाची है, जिसके द्वारा गमन किया जाये या जाना जाये सो अग्र या अर्थ है ऐसा अर्थ समझना 11
जो गमन करता है या जानता है सो अग्र आत्मा है । २१ । त, अनु /६२ अथवाङ्गति जानातीत्यग्रमात्मा निरुक्तितः। तत्त्वेषु चानगण्यत्वादसावग्रमिति स्मृन । ६२ -जो गमन करता है या जानता है सो अन आत्मा है ऐसी निरुक्ति है या तत्त्वों में अग्रणी होनेके कारण यह अात्मा अग्र है ऐसा जाना जाता है। अग्रनिर्वृत्ति क्रिया-दे. सस्कार २ । अग्रवया-(म प्र/प्र ५०/प. पन्नालाल ) वर्तमान नगर आगरा। अग्रस्थिति--दे. स्थिति १। अग्रहण वर्गणा-दे. वर्गणा १ । अग्रायणी-ध. १/२,१,२/११५/१ अग्गेणियं णाम पुव्व • अंगाणगं वणे - अब अर्थात द्वादशांगों में प्रधानभूत वस्तुके अयन अर्थात ज्ञानको अग्रायण कहते है, और उसका कथन करना जिसका प्रयोजन
हो उसे अग्रायणी पूर्व कहते है। ध.६/१,१,२/१२३/६ अंगाणमग्गपद बण्णेदि त्ति अग्गेणिय गुणणाम ।
-अगों के अग्र अर्थात् प्रधानभूत पदार्थों का वर्णन करनेवाला होनेके कारण 'अग्रायणीय यह गौण नाम है। ध.१/४,१.४५/२२६/७ अगानामग्रमेति गच्छति प्रतिपादयतीति गोण्णणाममग्गेणिय । - अगों के अग्र अर्थात प्रधान पदार्थ को वह प्राप्त होता है अर्थात् प्रतिपादन करता है अत अग्रायणीय यह गौण नाम है।
* श्रुतज्ञानका द्वितोय पूर्व-दे. श्रुतज्ञान III/१॥ अग्राह्य वर्गणा-दे. वर्गणा १॥ अघ-एक ग्रह -दे. ग्रह । अधन धारा-दे, गणितII/१/२ । अघन मातृक धारा-दे. गणित/५/२। अघाती प्रकृतियाँ-दे, अनुभाग ३ । अचक्षुदर्शन-दे. दर्शन ५। अचक्षुदर्शनावरण-दे, दर्शनावरण ।
अचल-१. जीवके अचल प्रदेश ( दे. जीव ४) २. द्वितीय बलदेव ।
अपरनाम अचलस्तोक ( दे. अचलस्तोक), ३. षष्ठ रुद्र । अपरनाम बल (दे. शलाका पुरुष ७)। ४. भरत क्षेत्रका एक ग्राम ( दे. मनुष्य ४)।५. पश्चिम धातकी खण्डका मेरु (दे. लोक ४/२) । अचलप्र-कालका प्रमाण विशेष। अपरनाम अचलारम चचिका
(दे० गणित १/४) अचलमात्रा-(ज. प./प्र. १०५) Invariant mass. अचलस्तोक-(म. पु./५८/श्लोक ) पूर्व भव नं. ३ में भरत क्षेत्र
महापुर नगरका राजा वायुरथ । ८०।, पूर्व भव नं.२ में प्राणतेन्द्र १८२) वर्तमान भव-यह द्वितीय बलदेव हैं। अपर नाम अचल
-दे, शलाका पुरुष ३ । अचलात्म-कालका प्रमाण विशेष-दे. गणित १/४ । अचलावली-कालका प्रमाण विशेष-दे आवलि । अचित्त-भक्ष्य पदार्थोंका सचित्ताचित्त विचार-दे, सचित्त । अचित्त गुणयोग-दे योग ।। अचित्त योनि-स सि २/१२/१८८ तेषां हि योनिरुपपाददेश पुद्गलपचयोऽचित्तः। - उनके उपपाद देशके पुद्गल प्रचयरूप योनि
अचित्त है। (रा.वा./२/१२/१८/४३/१)। अचेतन-आ. १/१९ अचेतनस्य भावोऽचेतनत्वमचैतन्यमननु__ भवनम् । जिस गुण के निमित्तसे द्रव्य जाना जाये, पर जान न सके
वह अचेतनत्व गुण है। अर्थात जवादि पदार्थोंको स्वयं न जान सके
सो अचेतनत्व है। अचेलकत्व-भ आ /मू /११२६ ११२४/११३० देसमासियमुत्तं आचे. लक्कति तं खु ठिदिकप्पे लुत्तोत्थ आदिसहो जह तालपल नमुत्तम्मि ११२३। णय होदि संजदो बमित्तचागेण सेससंगेहि। तह्मा आचेलक्क चाओ सन्वेसि होइ संगाणं ।११२४१ = चेल शब्द परिग्रहका उपलक्षण है अत चेल शब्दका अर्थ वस्र ही न समझकर उसके साथ अन्य परिग्रहोंका भी ग्रहण करना चाहिए। इसके लिए आचार्यने तालपलम्बका उदाहरण दिया है। तालपलम्ब इस सामासिक शब्दमें जो ताल शब्द है उसका अर्थ ताड़का वृक्ष इतना ही नहीं अपितु बनस्पतियोंका उपलक्षण रूप समझकर उससे सम्पूर्ण वनस्पतियोंका ग्रहण करते है । ११२३। वस्त्र मात्रेका त्याग करनेपर भो यदि अन्य परिग्रहों से मनुष्य युक्त है तो इसको संयत मुनि नहीं कहना चाहिए। अत वनके साथ सम्पूर्ण परिग्रह त्याग जिसने किया है वही अचेलक माना जाता है । (म् आ ३०)। ___ * पाँच प्रकारके वस्त्र वस्त्र
१. नाग्य परिषहका लक्षणस.सि./E/E/४२२ जातरूपवनिष्व लङ्कजातरूपधारणमशक्यप्रार्थनीयं याचनारक्षणहिंसनादिदोषविनिमुक्त निष्परिग्रहत्वानिर्वाणप्राप्ति प्रत्येक साधनमनन्यबाधनं नाग्न्यं विभ्रतो मनोविक्रियाविप्लुतिबिरहाव खीरूपाण्यत्यन्ताशुचिकुण रूपेण भनयतो रात्रिन्दिवं ब्रह्मचर्यमखण्डमातिष्ठमानत्याचेलवतधारणमनवद्यमवगन्तव्यम् । -मालकके स्वरूपके समान जो निष्क्ल क जातरूपको धारण करने रूप है, जिसका याचना करनेसे प्राप्त होना अशक्य है, जो याचना, रक्षा करना और हिसा आदि दोषो से रहित है, जो निष्परिग्रह रूप होनेमे निर्वाण प्राप्तिका अनन्य साधन है, जो अन्य बाधाकर नहीं है. ऐसे नाग्यको जो धारण करता है, जो मनके विक्रिया रूप उपद्रवसे रहित होनेके कारण स्त्रियों के रूपको अत्यन्त अपवित्र बदबूदार अनुभव करता है, जो रात-दिन अखण्ड ब्रह्मचर्यको धारण करता है,
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अचेलकत्व
अचेलकत्व
रहता है। जितने तीर्थकर हो चुके और होनेवाले हैं वे सब वस्त्ररहित होकर ही तप करते हैं । जिनप्रतिमाएँ और तीर्थ करों के अनुयायी गणधर भी निर्वस्त्र ही हैं। उनके सर्व शिष्य भी वस्त्र रहित ही होते हैं ।...नग्नतामें अपना बल और वीर्य प्रगट करना वह गुण है।... नग्नतामें दोष तो है ही नहीं परन्तु गुणमात्र अपरिमित हैं।
* कदाचित स्त्रीको नग्न रखनेकी आज्ञा दे. लिंग १/४ ।
उसके निर्दोष अचेलवत होता है । (रा. वा./8/8/१०/०६/२६) (चा. सा./१११/५ । * द्रव्यलिंगकी प्रधानता व भावलिंगके साथ समन्वय
दे. लिंग ४। * सवस्त्र मुक्तिका निषेध-दे. वेद ७ । २. अचेलकत्वके कारण व प्रयोजन भ. आ./वि./४२१४६१०-६१९/४ अचेलो यतिस्त्यागारव्ये धर्म प्रवृत्ती भवति। आकिंचन्याख्ये अपि धर्मे समुद्यतो, भवति...असत्यारम्भे कुतोऽसयमः । न निमित्तमस्त्यनृताभिधानस्य । 'लाधवं च अचेलस्य भवति । अदत्तविरतिरपि सपूर्णा भवति ।.. रागादिके त्यक्ते भावविशुद्धिमयं ब्रह्मचर्यमपि विशुद्धतमं भवति ।...चोत्तमाक्षमा व्यवतिष्ठते ।...मार्दवमपि तत्र सन्निहितं ।...आर्जवता भवति... सोढाश्चोपसर्गाः निश्चेलतामभ्युपगच्छता। तपोऽपि घोरमनुष्ठित भवति । एवमचेलवोपदेशेन दशविधधर्माख्यानं कृतं भवति संक्षेपेण । अन्यथा प्रकम्यते अचेलताप्रशंसा। संयमशुद्धिरेको गुण ।...इन्द्रियविजयो द्वितीयः ।...कषायाभावश्च गुणोऽचेलतायाः। ध्यानस्वाध्याययोरविघ्नता च ।...ग्रन्थत्यागश्च गुणः ।...शरीर आदरस्त्यक्त.... स्ववशता च गुणः । चेतोविशुद्धिप्रकटनं च गुणोऽचेलतायो...। निर्भयता च गुणः...1 अप्रतिलेखनता च गुणः । चतुर्दशविधं उपधि, गृह्णता बहुप्रतिलेखनता न तथाचेलस्य । परिकर्मवजनं च गुणः ।... रब्जनं इत्यादि कमनेक परिकर्म सचेलस्य। स्वस्य वस्त्रप्रावरणादेः स्वयं प्रक्षालन सीवनं वा कुत्सितं कर्म, विभूषा, मूर्छा च । लाघवं गुणः । अचेलोऽल्पोपधिः स्थानासनगमनादिकाम क्रियासु वायुक्दप्रतिबद्धो लघुर्भवति नेतरः । तीर्थकराचरितत्वं च गुणः जिनाः सर्व एवाचेलाभूता भविष्यन्तश्च । 'प्रतिमास्तीथंकरमार्गानुयायिनश्च गणधरा इति तेऽप्यचेलास्तच्छिष्याश्च तथै बेति सिद्धमचेल त्वम् ।... अतिगूढबलवीर्यता च गुणः । इत्थं चेले दोषा अचेलताया अपरि. मिता गुणा इति ।- वस्त्र रहित यति सर्व परिग्रहका त्याग होनेसे त्याग नामक धर्ममें प्रवृत्त होता है। आकिचन्य धर्म में प्रवृत्त होता है। आरम्भका अभाव होनेसे असंयम भी नष्ट हो चुका है। असत्य भाषण का कारण ही नष्ट हो गया है। आचेलक्यसे लाघवगुण प्राप्त होता है । अचौर्य महाबतको पूर्णावस्था प्राप्त होती है।...रागादिकका त्याग होनेसे परिणामों में निर्मलता आती है, जिससे ब्रह्मचर्यका निर्दोष रक्षण होता है।.. और उत्तमक्षमा गुण प्रगट होता है ।...मार्दव गुण प्राप्त होता है । आर्जव गुणकी लब्धि होती है। 'उपसर्ग व परिषह सहन करने की सामर्थ्य आत्मामें प्रगट होती है।...घोर तपका पालन भी होता है। अचेलता की प्रशंसा अब दूसरे प्रकारसे आचार्य कहते हैं --संयम शुद्धि होती है...इन्दियविजय नामक गुण प्रगट होता है।...लोभादिक कषायोंका अभाव होता है ।...ध्यान स्वाध्याय निर्विघ्न होते है।...परिग्रहत्याग नामका गुण प्रगट होता है। इससे धारमा निर्मल होता है । 'शरीरपर अनादर करना यह गुण है ।... स्ववशता गुण प्रगट होता है । "मन की विशुद्धि प्रगट हातो है।... निर्भयता गुण प्रगट होता है। अप्रातिलेखना नामक गुण भी निष्परिग्रहताते प्राप्त होता है । चौदह प्रकारकी उपाधियों को ग्रहण करनेवाले श्वेताम्मर मुनियों को बहुत संशोधन करना पड़ता है, परन्तु दिगम्बर मुनियों को उसकी आवश्यकता नहीं। परिकमबखन नामका गुण है।..रंगाना इत्यादिक कार्य वन सहित मुनिका करने पड़ते हैं।... स्वतः के पास वख प्रावरणादिक हो तो उसको धोना पड़ेगा, फटनेपर सोना पड़ेगा, ऐसे कुत्सित कार्य करने पड़ेंगे तथा वस्ख समोप होनेसे अपनेको अलंकृत करनेकी इच्छा होती है। और इसमें मोह उत्पन्न होता है। अचेलतामें लाघब नामक गुण है। निवस्त्र मुनि खड़े रहना, बैठना, गमन करना इत्यादिक कार्योमे वायु के समान अप्रतिमन रहते हैं। तीर्थ कराचारत नामका गुण भी अचेलतामें
३. कदाचित परिस्थितिवश वस्त्र ग्रहणकी आज्ञा भ, आ./वि./४२१/११/१८ अथैवं मन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम् । तथा ह्याचारप्रणिधौ भणितम्- “प्रतिलि खेत्पात्रकम्बलंधवमिति । असत्सु पात्रादिपु कथं प्रतिलेखना ध्रव क्रियते ।"..'वस्त्रपात्रे यदि न ग्राह्ये कथमेतानि सूत्राणि नीयन्ते। निषेधेऽप्युक्त-"कसिणाई वत्थ कंबलाइं जो भिक्रनु पडिग्गहिदि पज्जदि मासिग लहुगं" इति । एवं सुत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कथं इत्यत्रोच्यते-आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्ख' कारणापेक्षया। भिक्षूणां ह्रीमानयोग्यशरीरावयवी दुश्चर्माभिलम्बमानबीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति ।... हिमसमये शीतबाधासहः परिगृह्य चेलं तस्मिन्निष्क्रान्ते ग्रीष्मे समायाते प्रतिष्ठापयेदिति । कारणापेक्ष्यं ग्रहणमाख्यातम् । परिजीर्णविशेषोपादानादृढानामपरित्याग इति चेत् अचेलतावचनेन विरोधः। प्रक्षालनादिकसंस्कारविरहात्परिजीर्णता वस्त्रस्य कथिता '...अचेलता नाम परिग्रहत्यागः पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्यागः सिद्ध एवेति। तस्मात्कारणापेक्षं वस्त्रपात्रग्रहणम्। यदुपकरणं गृह्यते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहणविधिः गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यमेव । तस्माद्वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारापेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् । = प्रश्न- पूर्वागमों में वस पात्रादिकके ग्रहण करनेका विधान मिलता है। आचारप्रणिधि नामक ग्रन्थमें लिखा है-"पात्र और कम्बलको अवश्य शोधना चाहिए। अर्थात उनका प्रतिलेखन आवश्यक है"। यदि वस्त्र पात्रादिकका विधान न होता तो प्रतिलेखना निश्चयसे करनेका विधान क्यों लिखा होता! ( आचारोग आदि सूत्रों में भी इसी प्रकारके अनेकों उद्धरण उपलब्ध होते हैं) वख पात्र यदि 'ग्राह्य नहीं है' ऐसा आगममें लिखा होता तो इन सूत्रों का उल्लेख के से होता। वख पात्रके सम्बन्धमे ऐसा प्रेमाण है 'सर्व प्रकारके वस्त्र कम्बलोको ग्रहण करनेसे मुनिको लघुमासिक नामक प्रायश्चित्त विधि करनी पड़ती है। इस प्रकार सूत्रों में ग्रहण का विधान है. इसलिए अचेलता या नग्नताका आपका विवेचन कैसे योग्य माना जायेगा ! उत्तर-आगममे आर्यिकाओंको वस्त्र ग्रहण करनेकी आज्ञा है। और कारणकी अपेक्षासे भिक्षुओं को वस्त्र धारण की आज्ञा है। जो साधु लज्जालु हैं, जिसके शरीरके अवयव अयोग्य हैं अर्थात् जिसके पुरुष लिंग पर चर्म नहीं हैं, जिसका लिग अति दीर्घ है। (भ. आ./वि.७७ ) जिसके अण्डकोश दोध हैं, अथवा जो परिषह सहन करने में असमर्थ है वह वस्त्र ग्रहण करता है। जाड़ेके दिनों में जिससे सी सहन होती नहीं है ऐसे मुनिको वख ग्रहण करके जाड़ेके दिन समाप्त होने पर जीर्ण वस्त्र ( पुराने वस्त्र) छोड़ देना चाहिए। कारणकी अपेक्षासे वस्त्र ग्रहण करनेका विधान है (निरर्ग लतावश नहीं)। प्रश्न-जीणं वस्त्रका त्याग करनेका विधान आगममें है इसलिए दृढ़ (मजबूत) या जो अभी फटा नहीं है, वस्त्रका त्याग नहीं करना चाहिए, ऐसा आगमसे सिद्ध होता है। उत्तर-ऐसा कहना अयोग्य है क्योंकि इससे आचार्यके मूल वचन ( मूल गाथामें कथित) अचेलताके साथ विरोध आता है। प्रक्षालन आदि संस्कार न होनेसे वस्त्र जीर्णता आती ही है। इसी अपेक्षासे जीर्णताका कथन किया है। अचेलता शब्दका अर्थ सर्व परिग्रह त्याग है । पात्र भी परिग्रह है, इसलिए उसका भी त्याग करना अवश्य सिद्ध होता है। अतः कारणको अपेक्षासे वस्त्र पात्रका ग्रहण करना सिद्ध होता
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अन्य
है। जो उपकरण कारणकी अपेक्षासे ग्रहण किया जाता है उसका त्याग भी अवश्य करना चाहिए। इसलिए वस्त्र और पात्रका अर्थाधिकारकी अपेक्षासे सूत्रो में महुत स्थानों में विधान आया है, वह सम कारणकी अपेक्षा से ही है, ऐसा समझना चाहिए ।
नोट - [ इस बादमें सभी उद्धरण श्वेताम्बर साहित्य में से लिये गये है अत ऐसा प्रतीत होता है कि विजयोदया टीकाकार आचार्यको श्वेताम्बरों को प्रेमपूर्वक समझाना इष्ट था। वास्तव में दिगम्बर आम्नाय में परिषहादिके कारण भी वस्त्रादिके ग्रहण की आज्ञा नहीं है । यदि ऐसा करना ही पड़े तो मुनिपद छोडकर नीचे आ जाना पडत है । ] ( और भी दे. प्रत्रज्या १/४ ) । अचैतन्य - दे, अचेतन ।
अचौर्य -
अच्छेज्ज
अस्तेय |
वसतिका दोष दे वसति ।
-
१ कल्पवासी देवोका एक भेद तथा उनका अवस्थान- दे. अच्युतस्वर्ग ५, २. कल्प स्वर्गो में १६वाँ स्वर्ग दे स्वर्ग : ३. आरण अच्युत स्वर्गका तृतीय पटल व इन्द्रक - दे. स्वर्ग ५, ४ (म.पु / सर्ग / श्लोक ) -- पूर्व भवनं ८ में महानन्द राजाका पुत्र हरिवाहन था ( ८ / २३७ ) पूर्व भव न. ७ में सूकर बना (८ / २२६) पूर्व भव नं ६ में उत्तरकुरुमें मनुष्य पर्याय प्राप्त की (६/१०) पूर्व भवन ५ में ऐशान स्वर्ग में मणिकुण्डल नामक देव हुआ (६/१८७) पूर्व भवन, ४ में नन्दिषेण राजाका पुत्र बरसेन हुआ ( १०/१५०) पूर्वभव न ३ में विजय नामक राजपुत्र हुआ (११/१० ) पूर्वभव न. २ में सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ ( ११ / १६० ) वर्तमान भव में ऋषभनाथ भगवान्का पुत्र तथा भरतका छोटा भाई (१६/४) भरत द्वारा राज्य माँगा जानेपर विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली ( ३४ / १२६ ) भरतके मुक्ति जानेके बाद मुक्तिको प्राप्त किया (४७ / ३६६ ) इनका अपर नाम श्रीषेण था (४७ / ३७२-३७३) । अच्युता— एक विद्यादे विद्या बच्छेद्यदोष
।
वसति
अज - भारतीय इतिहासको पुस्तक १/५०१-५०६ मगधका राजा था शिशुनागवंशका था समय-ई. पू. ६ अजयवर्मासा /म. २६-३७ / भोजवी राजा था। भोजन की
वंशावलीके अनुसार ( दे, इतिहास ) आप राजा यशोवर्मा के पुत्र और विन्ध्यर्मा ( विजयवर्मा ) के पिता थे। मालवा ( मगध ) में आपका राज्य था। धारा व उज्जैनी आपकी राजधानी थी। समय ई. १९५३ - १११२ । ( विशेष दे इतिहास ३ / १ ) । अजातशत्रु मगधका एक राजा था तथा शिशुनागवंशी था । अजितंजय-8.9/०/४१२, त्रि. सा ८५२-८३६ आगम में इस राजा
को धर्मका संस्थापक माना गया है। जबकि कल्किके अत्याचारोंसे धर्म व साधुसंघ प्राय नष्ट हो चुका था तब कल्किका पुत्र अजित जय मगध देशका राजा हुआ था जिसने अत्याचारोंसे सन्तप्त प्रजाको सान्त्वना देकर पुन सघ व धर्मकी वृद्धि की थी। समय बी. नि. १०४० ई. ५१४ । अजितंधर- अष्टम रुद्र थे । (विशेष दे. शलाकापुरुष ७ ) । अजित - १. भ. चन्द्रप्रभका शासक यक्ष-दे तीर्थंकर ५/३; २. एक मह्मचारी थाति हनुमच्चरित्र ( अ./५२१)। अजितनाथ म. ५/४८/लोक) पूर्वभवन में विदेह क्षेत्रके
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सीमा नगरका विमलवाहन नामक राजा था (२-४); पूर्व भव नं. २ में अनुमान हुआ (११) वर्तमान भ ५ अजितनाभि- नवम रुद्र थे। अपर नाम जितनाभि था । ( विशेष
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दे शलाकापुरुष ७ ) ।
अजितपुराण- १. विजयसिंह (ई. १४४८) कृ
रचना: २, अरुणमणि (ई. १६५६ ) कृत भाषा काव्य । अजितसेन १. (म. पु. / ५४ / श्लोक) पूर्व घातकी खण्डमें राजा अजितजयका पुत्र था (८६, ८७, ६२) पिताकी दीक्षाके पश्चात् क्रमसे चक्रवर्ती पद प्राप्त किया (६६,६७ ) एक माहके उपवासी मुनिको आहार देकर उनसे अपने पूर्व हुने तथा दीक्षा धारण कर ली. मरकर अच्युरीन्द्र पद प्राप्त किया (१२०-१२६) यह चन्द्रप्रभु भगवास्का पूर्वका पाँचव भव है ( २७६), २ राजा मार सिंह, इनके उत्तराधिकारी राजा राजमल्ल, इनके मन्त्री चामुण्डराय और इनके पुत्र जिनदेव ये सम समकालीन होते हुए मुनि अजितसेनके शिष्य थे। समय ई. १० का उत्तरार्ध, जैन साहित्यका इतिहास २६७ / प्रेमीजी, गो, क. नू. २६६, बाहुबलि चरित्र श्लो. ११, २८. जे / १/३६०: ३ सेनगण में पार्श्वसेन के प्रशिष्य, कृति अलकार चिन्तामणि, समय ई. १२५० । अजीब/१/२/१४ पिलोजीः- जीव विपरीत लक्षणवाला अजीब है ।
अजीब विजय
सि./५/२/२६६ तेषां धर्मादीना 'अजीब' इति सामान्यसंज्ञा जोवलक्षणाभावमुखेन प्रवृत्ता धर्मादिक द्रव्योंमें जीमका लक्षण नही पाया जाता है इसलिए उनकी अजीव यह सामान्य संज्ञा है । प्र. सा. १२७ यत्र पुनरुपयोगसहचरिताया यथोदितलक्षणायाश्चेत नाया अभावा बहिरन्तश्चा चेतनत्वमवतीर्णं प्रतिभाति सोऽजीमः । - जिसमें उपयोग साथ रहनेवाली यो लक्षणवाली चेतनाका अभाव होनेसे बाहर तथा भीतर अचेतनत्व अवतरित प्रतिभासित होता है, वह अजीब है । द्र.सं./टी./१५/५० इत्युक्तलक्षणोपयोगश्चेतना च यत्र नास्ति स भवत्यजीव इति विशेष इस प्रकारकी उक्त लक्षणवादी चेतना जहाँ नहीं है वह अजीब होता है ऐसा जानना चाहिए। १. अजीवके दो आध्यात्मिक मेव
पप्र./टी./१/३० / ३३ तच्च द्विविधम् । जीवसंबन्धमजीवसंबन्ध च । = और वह दो प्रकारका है- जीव सम्बन्ध और अजीब सम्बन्ध । २. अजीवके उपर्युक्त मेदोंके लक्षण
प. प्र /टी./१/३० / ३३ देहरागादिरूपं जीवसंबन्ध, पुढगलादिपञ्चद्रव्यरूपमजीव संबन्धमजीवलक्षणम्। देहादिमें राग रूप तो जीव सम्बन्ध अजीवका लक्षण है और पुद्गलादि पश्चद्रव्य रूप अजीव सम्बन्ध अजीव का लक्षण है।
३. पाँच अजीव द्रव्यों का नाम निर्देश
त. सू. /५/१,३६ अजीव काया धर्माधर्माकाशपुद्गला' १ कालश्च ॥ ३६.
- धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य, पुद्गल द्रव्य और काल द्रव्य ये पाँच अजीव काय है । ( प्र सा / त. प्र / १२७) (द्र सं . / मू/ १५/५०) | ४. अन्य सम्बन्धित विषय
* धर्मादि द्रव्य वह वह नाम _दे.
।
* जीवको कथंचित् अजीव कहना. जीन १/३ । * अजीव विषय धर्मध्यानका लक्षण ध्यान षट् द्रव्योंमे जीव अजीव विभाग — दे. द्रव्य. ३ । अजीव आत्रय दे. आसव |
*
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अजीव कर्म- दे. क
अजीव निर्जरा दे. निर्जरा।
अजीव बन्ध - दे. बंध । अजीव मोक्ष-वे. मोक्ष | अजीव विजय
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धर्मध्यान १ ।
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अजीव संवर
अतिचार
अजीव संवर-दे सवर । अटट-काल प्रमाणका एक विकल्प-दे. गणित १/21 अटटांग-काल प्रमाणका एक विकल्प-दे. गणित 1/१/४॥ अढाई द्वीप- जम्बू द्वीप धातकी खण्ड और पुष्कर द्वीपका अन्दरवाला अर्ध भाग, ये मिलकर अढाई द्वीप कहलाता है। मनुष्यका निवास व गमनागमन इसके भीतर ही भीतर है बाहर नहीं, इसलिए इसे मनुष्य लोक भी कहते हैं । दे. लोक ४/२ पर मानचित्र । अणिमा ऋद्धि-दे. ऋद्धि ३. अण-रा.वा. ५/२५.१/४६१/११ प्रदेशमात्रभाविमिः स्पर्शादिभि. गुण. स्सततं परिणमन्त' इत्येव अण्यन्ते शब्यन्ते ये ते अणवः । सौम्यादात्मादय आत्ममध्या आत्मान्ताश्च । -प्रदेश मात्र-भावि स्पर्शादि गुणोंसे जो परिणमन करते हैं और इसी रूपसे शब्दके विषय होते हैं
वे अणु है । वे अत्यन्त सूक्ष्म हैं, इनका आदि मध्य अन्त एक ही है। प. का /ता. वृ./४/१२ अणुशब्देनात्र प्रदेशा गृह्यन्ते। अणु शब्दसे यहाँ
प्रदेश ग्रहण किये जाते है। द्र स /टी./२६/७३/११ अणुशब्देन व्यवहारेण पुद्गला उच्यन्ते...वस्तु
दृश्या पुनरणुशब्द सूक्ष्मवाचक1 -अणु इस शब्द-द्वारा व्यवहार नयसे पुदगल कहे जाते हैं । वास्तव में अणु शब्द सूक्ष्मका वाचक है। अणुवयरयणपईव-अपर नाम अणुव्रतरत्नप्रदीप है। कवि
लक्रवण (वि. १३१३) कृत श्रावकाचार विषयक अपभ्रंश ग्रन्थ । (ती./४/१७६)। अणविभंजन (ज.प./प्र १०५) Atomic Splitation. अणुव्रत-दे. व्रत। अतत-१.प.ध. पू /३१२ तदतद्भावविचारे परिणामो विसदशोऽथसदृशो वा ॥३१२॥ तत् व अतव भावके विचारमें परिणामोंकी सदृशता विसदृशताका भेद होता है; २. द्रव्य में तव-अतव धर्म
-दे. अनेकांत ४। अतत्त्वशक्ति-स. सा./परि । शक्ति नं.३० अतद्रूपाऽभवनरूपा
अतत्त्वशक्तिः । - तत्स्वरूप न होने रूप तीसवीं अतत्त्वशक्ति है। अतद्धाव-दे अभाव। अतिकाय-महोरग नामा व्यन्तर जातीय देवोंका एक भेद-दे,
महोरग। (व्यन्तर २/१) । अतिक्रम-रा. वा./७/२३, ३/५५२/१६ अतिचार' अतिक्रम इत्यनर्था
न्तरम् । =अतिक्रम भी अतिचारका ही दूसरा नाम है। रा, वा./७/२७, ३/५५४/११ उचितान्न्याय्याद अन्येन प्रकारेण दानग्रहणमतिक्रम इत्युच्यते । - उचित न्याय्य भागसे अधिक भाग दूसरे उपायोंसे ग्रहण करना अतिक्रम है । ( यह लक्षण अस्तेयके अतिचारोंके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है)। रा. वा./७/३०,१/५५९/१६ परिमितस्य दिगवधेरतिलड्धनमतिक्रम इत्युच्यते। -दिशाओंकी परिमित मर्यादाका उल्लंघन करना (दिग्वतका) अतिक्रम है। रा.वा./७/३१,4/१६/१२ स्वयमनतिक्रमन अन्येनातिकामयति ततोऽतिक्रम इति व्यपदिश्यते। -स्वय मर्यादाका उल्लंघन न करके दूसरेसे करवाता है । अत' उनको ( आनयन आदिको देशव्रतका ) अतिक्रम' ऐसा कहते हैं। रा.वा./७/३६५५८/२८ अकाले भोजनं कालातिक्रमः ।। अनगाराणाम
अयोग्यकाले भोजनं कालातिक्रम इति कथ्यते। साधुओंको भिक्षा कालको टालकर अयोग्य कालमें भोजन देनेका भाव करना अतिथि
संविभाग व्रतमें कालका अतिक्रम कहलाता है। पु. सि./३० में उद्धृत "अतिक्रमो मानसशुद्धिहानि. व्यतिक्रमो
यो विषयाभिलाष। तथातिचार करणालसत्व भड्गो ह्यना चारमिह बतानाम् ।" =मनकी शुद्धिमें हानि होना सो अतिक्रम है, विषयोंकी अभिलाषा सो व्यतिक्रम है, इन्द्रियोंकी असावधानी अर्थात बतों में शिथिलता सो अतिचार है और व्रतका सर्वथा भग हो जाना सो अनाचार है। (सा.पा 8) अतिक्रांत-(ज. प./प्र. १०५ ) 1 xtra अतिगोल-(ज प./प्र. १०५) Right circulhr cylinder अतिचार-रा.वा /७/२३, ३/५५२/१६ दर्शनमोहोदयादतिचरणमतिचारः।३। दर्शनमोहोदयात्तत्त्वार्थ श्रद्धानादतिचरणमतिचार अतिक्रम इत्यनन्तरम् । = दर्शन मोहके उदयसे तत्त्वार्थ श्रद्धानसे विचलित होना ( सम्यग्दर्शनका ) अतिचार है। अतिक्रम भी इसीका नाम है। ध.८/३,४१८२/६ सुरावाण-मांसभक्खण-कोह-माण-माया-लोह-हरसरह-सोग-भय-दुछित्थि-पुरिस-ण र वेयापरिच्चागो अदिचारो, एदेसि विणासो णिरदिचारी सपुण्णदा. तस्स भावो णिरदिचारदा। -मुरापान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एव नपुसक वेद इनके त्याग न करनेका नाम अतिचार है और इनके विनाशका नाम निरतिचार या सम्पूर्णता है। इसके भावको निरतिचारता कहते है। चा,सा./१३७/२ कर्तव्यस्याकरणे वर्जनीयस्यावर्जने यत्पापं सोऽतिचार ।
-किसी करने योग्य कार्यके न करनेपर और त्याग करने योग्य पदार्थ के त्याग न करनेपर जो पाप होता है उसे अतिचार कहते है। सा, पा./ ..प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनम् । =विषयों में वर्तन
करनेका नाम अतिचार है। सा.ध.४/१८ सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोऽशभजनम् । मन्त्रतन्त्रप्रयोगाद्याः परेऽप्यूह्यास्तथात्यया.। = "भै ग्रहण किये हुए अहिंसा वतका भंग नहीं करू गा" ऐसी प्रतिज्ञा करनेवाले श्रावकके बतका एक अश भग होना अर्थात चाहे अन्तरंग व्रतका खण्डन होना अथवा बहिरग व्रतका खण्डन होना उस बतमें अतिचार कहलाता है। दे. अतिक्रम/पु. सि. इन्द्रियोंकी असावधानी अर्थात बतोमें शिथिलता सो अतिचार है।
१. अतिचार सामान्यके भेद भ. आ./मू व वि. /१८७/७०६ दसणणाणादिचारे बदादिचारे तवाविचारे य । देसच्चाए विविधे सम्बच्चाए य आवण्णो ॥४८७. सर्यो द्विप्रकार इत्याचष्टे देशच्चाए विविधे देशातिचारं नानाप्रकार मनोवाक कायभेदात्कृतकारितानुमतविकल्पाच्च । सव्वच्चागे य सर्वातिचारे च आवण्णो आपन्न । =सम्यग्दर्शन और ज्ञानमे अतिचार उत्पन्न हुए हों, देशरूप अतिचार उत्पन्न हुए हो अथवा सर्व प्रकारोसे अतिचार उत्पन्न हुए हों ये सर्व अतिचार क्षपक आचार्य के पास विश्वास युक्त होकर कहे ॥४८७॥ "अतिचारके देशत्याग और सर्वत्याग ऐसे दो भेद है। मन, वचन, शरीर, कृत, कारित और अनुमोदन ऐसे नौ भेदों में से किसी एकके द्वारा सम्यग्दर्शनादिको में दोष उत्पन्न होना ये देशातिचार है और सर्व प्रकारसे अतिचार उत्पन्न होना सर्वत्यागातिचार है। भ. आ./वि./६१२/८१२/६ [इस प्रकरणमें अतिचारोंके लक्षण दिये हैं। परन्तु यहाँ पर केवल भाषामें अतिचारोके नाम मात्र देते है। १ अज्ञानातिचार, २ अनाभोगकृत अतिचार, ३ आपात अतिचारः ४ आर्तातिचार; ५ उपधि अतिचार; ६ उपचारातिचार; ७ गौरव अतिचार, ८ तित्तिणदा अतिचार; देशातिचारः १० परवशातिचार; ११ पालिकुंचन अतिचार, १२ प्रदोषातिचारः १३ प्रमादातिचार: १४ भयातिचार, १५ परीक्षा मीमांसा अतिचार, १६ वचनातिचारः १७ वसति अतिचार, १८ विनयातिचारः १६ शंकितातिचार, २० सर्वातिचार; २१ सहसातिचार; २२ स्नेहातिचार; २३ स्वप्नातिचार; २४ स्वयं शोधक अतिचार तथा इसी प्रकार अन्य भी अनेकों अतिचार हो सकते हैं।
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अतिचार
* आखेट व सूतके अतिचार पे यह यह नाम * ईयसमितिके अतिचार दे. समिति १।
* कायोत्सर्गके अतिचार —दे व्युत्सर्ग १ | * जलगालनके अतिचार जगातन २० * तपोके अतिचार — वह वह नाम
* निरतिचार शोलव्रत — दे शील ।
* परस्त्री व वेश्याके अतिचार * मद्य, मास, मधुके अतिचार - दे. वह * मन, वचन, कायगृतिके अविचार * व्रतोंके अतिचार दे वह वह नाम ।
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* सम्यग्ज्ञानके अतिचार — दे. आगम १ । * सम्यग्दर्शनके अतिचारवे. सम्यग्दर्शन 1 / 2
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पर्व २ ।
वह नाम । गुझि २०
२. अतिचारके भेदोके लक्षण
रसासक्तता
म. आ // ६१२/८१२ / ६ उपयुक्तोऽपि सम्यगतिचार न ि सोऽनाभीगकृत व्याक्षिष्टचेतसा वा कृत नदीपूर अग्न्युत्थापन महावाताणतः, वर्षाभिघात, परचक्ररोध इत्यादिका आपाता' । रोगार्थ शोका, बेदना इत्यादात्रिविधा । मुखरता चेति द्विप्रकारता तित्तिणदाशब्दवाच्या सचित्तं किमवित्तमिति शङ्कते द्रव्ये भञ्जनभेदनभक्षणाभिराहारस्योपकरणस्य, बसतेर्वा उद्गमादिदोष। पतिरस्ति न वेति शंकायामप्युपादानम् । अशुभस्य मनसो वाचोमा कटिति प्रवृत्ति सहरीत्युच्यते एकान्तायां बसठी व्याक्षमृगव्यामादयस्तेना वा प्रविशन्ति इति येनारस्थगने जातोऽतिचारस्तीषायपरिणाम प्रदोष दत्युपले उदराज्यादिसमानतया प्रत्येक चतुर्विकल्पाश्चत्वार' कषायाः । आत्मनश्चापरस्य वाताववादिपरीक्षा मीमांसा तत्र जातोऽतिचार प्रसारितकराकुचितम् आकृतिकरसारण धनुषाधारोपण उपला प माधन, वृतिकण्ठका धनं पशुसर्पादीनां मपरीक्षणार्थं धारणं परोक्षणार्थ जनस्य चूर्णस्य वा प्रयोग' द्रव्यसंयोजनया त्रसानामेकेन्द्रियाणां च समूर्च्छना परीक्षा । अज्ञानामाचरणं दृष्ट्वा स्वयमपि तथा चरति तत्र दोषानभिइ । अथनाज्ञानिनोपनो मादिदोषोपहतं उपकरणादिक सेवते इति अज्ञानात्प्रवृत्तोऽतीचार । शरीरे, उपकरणे, वसतौ, कुले, ग्रामे, नगरे, देशे, बन्धुषु, पार्श्वस्थेषु वा ममेद भाव स्नेहस्तेन प्रवर्तित आचार । मम शरीरमिदं शीतो बातों बाधयति कटादिभिरन्तर्धान, अग्निसेवा, ग्रीष्मापनदिनार्थ प्राणग्रहणं वा न वा उपकरण विनस्यतीति तेन स्वा करण यथा पिच्छ विनाशभयादमार्जन इत्यादिकम् चक्षण, तैलादिना कमण्डल्वादोर्ना प्रक्षालनं वा, वसतितृणादिभक्षणस्य भव्जनादेव ममतया निवारणं, बहूनां यतोनां प्रवेशनं मदीयं कुलं न सहते, ति भाषण, वेदो कोचा, महून न दातव्यमिति निषेधन, कुलस्यैव वैयावृत्यकरणम् निमित्ताय पदेशश्च रात्र ममतया ग्रामे नगरे देशे वा अवस्थानानिषेधनम्। यतीना समधिमा शुखेन सुखमारमन दुःखेन दुःखमित्यादितिचा पारस्थान बन्दना उपकरणादिदानं का दुनासमर्थता गुरुता, शुद्धिप्यागासहता, गौरव परिवारे कृतादरः । परकीयमात्मसात्करोति प्रियवचनेन उपकरणदानेन । अभिमत रसात्यानोऽनाभिमठानादरस्य नितरां रसगौरव निकामभोजने, निकामशयनादौ वा आसक्तिः सातगौरवम् । अनात्मवशतया प्रवर्तितातिचार' । उन्मादेन, पित्तेन पिशाचदेशेन वा परवशता ।
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अतिचार
अथवा ज्ञातिभिः परिगृहीतस्य बलात्कारेण गन्धमात्यादिसेवा प्रत्यास्पातभोजनं, मुखमासताम्बूलादिभक्षणं वा स्वोभिर्नपुंसके बाद मकरणम्। पतुर्षु स्वाध्यायेषु आवश्यकेषु वा आलस्यम् उमधिशदेन मायोच्यते प्रमना चारे वृत्तिः ज्ञारा दातृ पूर्वमन्ये म्य प्रवेश कार्यापदेशेन यथा परे न जानन्ति तथा वा । भद्रक भुक्त्वा विरसमशनं भुक्तमिति कथनम् ग्लानस्याचार्यादेव वैयावृत्त्यं करिष्यामि इति किचिदुगृहोत्वा स्वयं तस्य सेवनम् । स्वप्ने वायोग्यसेवा सुमिणमित्युच्यते । द्रव्यक्षेत्र कालभावाश्रयेण प्रवृत्तस्यातिचारस्याग्यथा कथन पालिशब्देनोच्यते कथं, सचिव कृत्वा अचित्तं सेवितमिति । अचित्त सेवित्वा सचित्त सेवितमिति वदति तथा कृतमिति सुभिक्षे कृत दुर्भिक्षे कृतमिति, दिवसे कृतं रात्रौ कृतमिति, अकषायतया सपादित तीनकोधायिना संपादितमिति । यथावतातोपनो यतिरिः प्रायश्वित्तं प्रयच्छति सामरस्वयमेवेद मम प्रायश्चित्तम् इति स्वयं गृह्णाति स स्वय शोधक एवं मया स्वशुद्धिरमुष्टिति निवेदनम् (ज्यो का खो दे दिया है, पर सुविधार्थ भाषार्थ वर्णानुक्रमसे दिया है) १ अज्ञानातिचार- दे. अज्ञान ४ । २. अनाभोग कृत - उपयोग देकर भी जिसे अतिचारोंका सम्यग्ज्ञान नहीं होता, उसको अनाभोगकृत अतिचार कहते हैं। अथवा मन दूसरी तरफ लगने पर जो अतिचार होता है वह भी अनाभोग कृत है। ३. आपात - नदीपूर, अग्नि लगना, महावायु बहना, वृष्टि होना, शत्रुके सैन्य से घिर जाना, इत्यादिक कारणो से होने वाले अतिचारीको आपात अतिचार कहते है ४ आर्त रोग, शोक, या वेदनासे व्यथित होना ऐसे आर्तताके तीन प्रकार है। इससे होने वाले अतिचारोको आर्तातिचार कहते है । ५. उपाधिउवधि शब्दका अर्थ माया होता है । गुप्त रीतिसे मायाचार में प्रवृत्ति करना, दाता के घरका शोध करके अन्य मुनि जानेके पूर्व में वहाँ आहारा प्रवेश करना, अथवा किसो कार्यके निमित्तसे दूसरे नहीं जान सकें इस प्रकारसे प्रवेश करना, मिष्ठ पदार्थ खानेको मिलनेपर 'मुझे निरस अन्न खानेको मिला ऐसा कहना, रोगी भूमि आचार्यकी वैयावृत्त्य के लिए श्रावकोंसे कुछ चीज माँगकर उसका स्वयं उपयोग करना । ऐसे दोषोकी आलोचना करनी चाहिए। ६. उपचार - यह ठंड हवा मेरे शरीरको पीडा देती है ऐसा विचार कर चटाईसे उसको ढकना, अग्निका सेवन करना, ग्रीष्म ऋतुका ताप मिटानेके लिए वस्त्र ग्रहण करना, उबटन लगाना, साफ करना, तैलादिकोंसे कमडलू वगैरह साफ करना, धोना, उपकरण नष्ट होगा इस भय से उसको अपने उपयोग में न लाना, जैसे- पिच्छिका झड जायेगी इस भय से उससे जमीन, शरीर व पुस्तकादि साफ न करना, ऐसे अतिचारोकी उपचाराविचार यह सज्ञा है (और भी थे.स. १०] १०७ गौरव करनेमें असमर्थ होना, ऋद्धिमें गौरव समझना, परिवार में आदर करना, प्रिय भाषण करके और उपकरण देकर परकीय वस्तु अपने वश करना, इसको वृद्धि गौरव कहते है । इष्ट रसका त्याग न करना, अनिष्ट रसमें अनादर रखना, इसको रस गौरव कहते है भोजन करना, अतिशय सोना इसको सात गौरव कहते है। इन दोषोंको आलोचना करनी चाहिए।
विशिषदारसमें आसक्त होना और वाया होगा इसको तितिपदा अतिचार कहते है . देशाविचार(मन, वचन, काम तथा कृत, कारित, अनुमोदनाके विकल्पोसे देशातिचार नाना प्रकारका है ) । १० परवश - परवश होनेसे जो अतिचार होते हैं उनका विवेचन इस प्रकार है - उन्माद, पित्त, पिशाच इत्यादि कारणोंसे परवश होनेसे अतिचार होते है । अथवा जातिके लोगों से पकड़ने पर बलात्कारमै इत्र, पुष्प, वगैरहका सेवन किया जाना, त्यागे हुए पदार्थीका भक्षण करना, रात्रि भोजन करना, मुखको सुगन्धित करनेवाला पदार्थ साम्बूल वगैरह भक्षण करना, स्त्री अथवा नपुंसकों
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अतिचार
द्वारा बलात्कारसे ब्रह्मचर्य का विनाश होना, ऐसे कार्य परवशतासे होनेसे अतिचार लगते हैं। इनकी आलोचना करना क्षपकका कर्तव्य
१९. पालिकुंचनस्य क्षेत्र काल और भामके आश्रम जो अतिचार हुए हों उनका अन्यथा कथन करना उसको पालिकंचन कहते हैं जैसे सचित पदार्थका सेवन करके अचिसका सेवन किया ऐसा कहना या अचित्तका सेवन करके सचित्तका सेवन किया ऐसा कहना (द्रव्य), वसतिमें कोई कृत्य किया हो तो मैंने यह कार्य रास्ते में किया ऐसा कहना (क्षेत्र), सुभिक्षमें किया हुआ कृत्य दुर्भिक्षमें किया था ऐसा कहना, तथा दिनमें कोई कृत्य करनेपर भी मैंने रात में अमुक कार्य किया था ऐसा बोलना (काल), अकषाय भावसे किये हुए कृत्यको तीव्र परिणामसे किया था ऐसा भोलना (भाव), इन दोषोंकी आलोचना करनी चाहिए । १२ प्रदोषसंज्वलन कषायका तीव्र परिणमन होना अर्थात उनका तीव्र उदय होना । जल, धूलि, पृथिवी, व पाषाण रेखा तुल्य क्रोध, मान, माया, व सोमके प्रत्येक चार-चार भेद है। इन सोलह कपायोंसे होनेवाले अतिचारको प्रदोषा तिचार कहते हैं । १३. प्रमाद--- वाचना पृच्छना आदि चार प्रकार स्वाध्याय तथा सामायिक वन्दनादि आवश्यक क्रियाओं में अनादर आलस्य करना प्रमाद नामका अतिचार है । १४. भय - एकान्त स्थानमें वसति होनेमे सर्प, दुष्ट पशु बाघ इत्यादिक प्राणि प्रवेश करेंगे इस भयसे वसतिके द्वार बन्द करना भयातिचार है । १५ मीमांसा परीक्षा-अपना बल और दूसरेका बल, इसमें कम और ज्यादा किसका है इसकी परीक्षा करना, इससे होनेवाले अतिचारको मीमांसाठिचार कहते हैं-जेसे से हुए हाथको समेट लेना, संकुचित हाथको फैला लेना, धनुषको डोरी लगाकर सज्ज करना, पत्थर फेंकना, माटोका ढेला फेकना, बाधा देना, मर्यादाबाको उल्लघना, कंटकादिको लौंधकर गमन करना, पशु सर्प वगैरह प्राणियाँको मन्त्रको परीक्षा करनेके लिए पकड़ना और सामर्थ्य की परीक्षा करनेके लिए अंजन और चूर्ण का प्रयोग करना, द्रव्यों का संयोग करनेसे त्रस और एकेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति होती है या नहीं इसकी परीक्षा करना, इन कृत्योको परीक्षा कहते हैं । ऐसे कृत्य करने से व्रतों में दोष उत्पन्न होते हैं । १६. वचन दे. सं. ११ पाचन अतिचार १७ वसति वसतिका तृण कोई पशु खाता हो तो उसका निवारण करना, वसति भग्न होती हो तो उसका निवारण करना, बहुतसे व्यक्ति मेरो वसति में नहीं ठहर सकते ऐसा भाषण करना, बहुत मुनि प्रवेश करने लगें तो उनपर क्रुद्ध होना, बहुत यतियोंको वसति मत दो ऐसा कहना, वसतिकी सेवा करना, अथवा अपने कुलके मुनियोंसे सेवा कराना, निमित्तादिकोंका उपदेश देना, ममत्व से ग्राम नगर में अथवा देशमें रहनेका निषेध न करना, अपने सम्बन्धो यतियोंके सुखसे अपनेको ली और उनके दुःखसे अपनेको दुखी समझना ( इस प्रकार के अतिचारोंका अन्तर्भाव उपचाराति चारमें होता है) १८. विनयातिवार पार्श्वस्थादि मुनियोंकी वन्दना करना, उनको उपकरणादि देना, उनका उल्लंघन करनेकी सामर्थ्य न रखना, इत्यादि कृश्यों से जो दोष होते हैं, उनकी आलोचना करनी चाहिए ( इसका अन्तर्भाव संख्या ६ वाले उपचाराविचारमें करना चाहिए) ११. शंका पिच्छिका वगेरह उपयोगी
यों में ये सचित्त हैं या अचित्त हैं ऐसी शंका उत्पन्न होनेपर भी उन्हें मोड़ना, फोड़ना, भक्षण करना । आहार, उपकरण और वसति ये पदार्थ उद्गमादि दोष रहित है, अथवा नहीं है ऐसी शंका जानेपर भी उनको स्वीकार करना यह शंकिता तिचार है । २० सर्वातिचार - ( व्रतका बिलकुल भंग हो जाना सर्वातिचार है) ११. सहसाविचार अनुभवचन और अशुभ विचारोंमें वचनकी और मनकी तरकात अविचारपूर्वक प्रवृति होना इसको सहसातिचार कहना चाहिए २२, स्नेहा विचार शरीर, उपकरण, वसति, कुल, गाँव, नगर, श, बन्धु और पार्श्वस्थ मुनि इनमें 'ये मेरे हैं' ऐसा भाव उत्पन्न होना इसको स्नेह कहते हैं।
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अतिथि
इससे उत्पन्न दोषोंको स्नेहातिचार रहते हैं । २१ स्वप्नातिचारस्वममें अयोग्य पदार्थ का सेवन होना उसको मिग (स्व) कहते हैं । २४, स्वयं शोधक- आचार्यके पास आलोचना करनेपर आचार्यके प्रायश्चित्त देनेसे पूर्व ही स्वयं यह प्रायश्चित्त मैने लिया है, ऐसा विचार कर स्वयं प्रायश्चित्त लेता है, उसको स्वयं शोधक कहते हैं। स्वयं मैंने ऐसी शुद्धि की है ऐसा कथन जानना ।
* बडे-बड़े दोष भी अतिचार हो सकते है वे अतिचार सामान्य के मैद
३. अतिचार व अनाचार में अन्तर स.सि./७/२/144 दण्डका बेवादिभिरभिवा प्राणिनां धन प्राणव्यपरोपणम् तत प्रागेवास्य विनिवृत्तण्डा चाबुक और बेंत आदिसे प्राणियोंको मारना वध है । यहाँ बधका अर्थ प्राणोंका वियोग करना नहीं लिया है, क्योकि अतिचारके पहले ही हिंसाका त्याग कर दिया जाता है। ( भावार्थ - प्राण-व्यपरोपण अतिचार नहीं है, उससे तो व्रतका नाश होता है } । सा. पामिनःसिक व्यतिक्रमं। प्रभोतिचार विषयेषु वर्तन वदन्त्यनाच र मिहातिसक्तताम् -मनकी शुद्धि क्षति होना अतिक्रम है तथा मठोंकी मर्यादाका उल्लघन करना व्यतिक्रम है, विषयोंमें वर्तन करना अतिचार है, और विषयोंमें अत्यन्त आसक्तिका होना अनाचार है । (पू.सि./३० में उत
४. अतिचार लगने के कारण
स. सि /०/२३/२०९ कथं पुनरस्य सचितादिषु प्रवृत्ति
प्रमादसमो हाभ्याम्। प्रश्न- यह गृहस्थ सचित्तादिकमें प्रवृत्ति किस कारण से करता है। उत्तर- प्रभाद और समोहके कारण । क्रमश रा. वा. हिं/७/३५/५८० प्रमाद ते तथा अति भूख तै तथा तीव्र राग ते होय है ।
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* अतिचार लगने की सम्भावना दे. सम्यग्दर्शन २ / ६ । * व्रतोंमे अतिचार लगाने का निषेध २ अतिथि- स. सि. / ७ / २२ / ३६२ संयममविनाशयन्नततीव्यतिथिः । अथवा नास्य तिथिरस्तीव्यतिथि अनियतकालागमन इत्यर्थ । - सयमका विनाश न हो, इस विधिसे जो आता है. वह अतिथि है या जिसके आनेकी कोई तिथि नहीं उसे अतिथि कहते है। तात्पर्य यह है कि जिसके जानेका कोई काल निश्चित नहीं है, उसे अतिथि कहते हैं।
साध /५/४२ में उद्धृत “तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे श्यक्ता येन महात्मना । प्रतिथित विजानीयाद्वेषमभ्यागत विदु" जिस महात्माने तिथि पर्व उत्सव आदि सबका त्याग कर दिया है अर्थात् अमुक पर्व या तिथिमें भोजन नहीं करना ऐसे नियमका त्याग कर दिया है उसको अतिथि कहते हैं। शेष व्यक्तियोंको अभ्यागत कहते हैं ।
चा. पा./टी./२५/४५ न विद्यते तिथिः प्रतिपदादिका यस्य सोऽतिथि. । अथवा संयमलाभार्थमति गच्छति उदण्ड कर तिथियेतिः । - जिसको प्रतिपदा आदिक तिथि न हों वह अतिथि है । अथवा संयम पालनार्थ जो बिहार करता है, जाता है. उडण्डपर्या करता है ऐसा यति अतिथि है ।
१. अतियिसंविभाग व्रत
स.सि /०/२९/१६२ अतिषये संविभागोऽतिथिसंविभागः स चतुर्विधः भिक्षोपकरणोषप्रतिश्रयभेदाय मोक्षार्थमयुताय तिथये संयमपरायणाय शुद्धाय तसा निरवद्या भिक्षा देवा धर्मोपकरणानि सम्यग्दर्शनाथ पवृहमानि दातव्यानि औषधमपि योग्ययो जन प्रतिश्रयच परमधर्मश्रद्धया प्रतिपादयितव्यकृति ' मागगृहस्थधर्मसमुचयार्थ अतिथिके लिए विभाग
शब्दो
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प्रतिपुरुष
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करना अतिथिस विभाग है । वह चार प्रकारका है - भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय अर्थात् रहनेका स्थान । जो मोक्षके लिए बद्धकक्ष है, संयम के पालन करनेमें तत्पर है और शुद्ध है, उस अतिथिके लिए शुद्ध मनसे निर्दोष भिक्षा देनी चाहिए। सम्यग्दर्शन आदिके बढानेवाले धर्मोपकरण देने चाहिए। योग्य औषधको योजना करनी चाहिए तथा परम धर्मका श्रद्धापूर्वक निवास स्थान भी देना चाहिए । सूत्रमें 'च' शब्द है वह आगे कहे जानेवाले गृहस्थ धर्मके संग्रह करनेके लिए दिया गया है । ( रा. वा./७/२१, १२/५४८/१८ ) ( रा. वा / ७ / २११८/४४०/९०)।
का. अ. मू / ३६०-३६१ तिविहे पत्त िसया सद्वाइ-गुणेहि संजुदो गाणी | दाण जो देवि सय णव दाण-विहोहि सजुत्तो ॥ ३६० ॥ सिक्खावय च तिदिय तस्स हवे सव्त्रसिद्धि- सोक्खयर । दाण चउविहं पिय सब्वे दाणाण सारयरं ॥ ३६१॥ - श्रद्धा आदि गुणोंसे युक्त जो ज्ञानी श्रावक सदा तोन प्रकारके पात्रोंको दानकी नौ विधियोके साथ स्वय दान देता है उसके तीसरा शिक्षा व्रत होता है। यह चार प्रकारका दान सब दानों में श्रेष्ठ है और सब सुखोंका व सत्र सिद्धियोंका करनेवाला है ।
साध /५/४१ व्रतमतिथिसंविभाग, पात्र विशेषाय विधिविशेषेण । द्रव्यविशेषवितरण, दातृविशेषस्य फल विशेषाय ॥४१॥ -जो विशेष दाताका विशेष फलके लिए विशेष विधिके द्वारा, विशेष पात्रके लिए, विशेष द्रव्यका दान करना है वह अतिथिसंविभाग व्रत कहलाता है ।
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२. अतिथिसंविभाग व्रतके पाँच अतिचार
. 10/14 सचित निक्षेपापिधानपर व्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमा
१ सचित्त कमल पत्रादिमें आहार रखना, २ सचित्त से ढक देना. ३ स्वय न देकर दूसरेको दान देनेको कहकर चले जाना, ४ दान देते समय आदर भाव न रहना, ५ साधुओके भिक्षा कालको टालकर द्वारापेक्षण करना, ये पाँच अतिथि सविभाग व्रतके अतिचार हैं । ( र क. श्रा / १२१ ) ।
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दान व दान योग्य पात्र अपात्र —दे वह वह विषय । अतिपुरुष- - किंपुरुष नामा व्यन्तर जाति देवोंका एक भेद - दे. किंपुरुष अतिप्रसंग - पं ध.पू / २८१ ननु चान्यतरेण कृतं किमथ प्राय: प्रयास
भारेण । अपि गौरवप्रसगादनुपदेयाच्च वाग्विलासत्वात् । (शकाकार का कहना है कि ) जब अस्ति नास्ति दोनों में से किसी एकसे ही काम चल जायेगा तो फिर दोनोंको मानकर होनेवाले प्राय प्रयास भारसे क्या प्रयोजन है तथा दोनोको माननेसे गौरव प्रसग आता है अर्थात एक प्रकारका अतिप्रसग दोष आता है और वचनका विलास मात्र होनेसे दोनों का मानना उपादेय नही है । अतिबलपूर्वक दसवें अपनें (मपु
५/२००) महाबलका पिता था ( म पु / ४ / १३३ / अन्तमें दोक्षा धारण करसी म४/१५१-११२) । अतिवीर भगवान महावीरका अपरनाम दे महावीर अतिवीर्य (१५ / ६ / ३७ / श्लोक) राम लक्ष्मणके बनवास होनेपर (१)
उसने भरतपर चढाई कर दो ( २५-२६) नर्तकियोंके बेषमें गुप्त रहकर (६५-६६) उन वनवासियोने इसे वहाँ जाकर बाँध लिया (१२७-१२८ ) परन्तु दया पूर्व खीठाने इसे छुडा दिवा (१५६) अन्तमें दीक्षा से सी (१६९)। अतिवेलंब मानुषोर पर्वतस्य सर्वरत्न कूटका स्वामी भवनवासी वरुणकुमार देव - दे. लोक ५ । अतिव्याप्त लक्षण ।
अतिशय- - भगवान् के ३४ अतिशय - दे. अहंत १ ।
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अतिशायन हेतु — दे. हेतु । अतिस्थापना, अप अतिस्थापनावलि दे, आवलि । अत्यंताभाव — दे अभाव अत्यंतायोगव्यवच्छेद १. ए
अत्यय-रावा. /२/८.१८/१२२/२२ वाचां गोचरताऽत्ययात् । शब्दके गोचर हो नहीं हो सकता ।
अत्राणभय- दे. भय ।
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अथाप्रवृत्तसंयत संयत १ करण ४ दे. व । अथाप्रवृतसंयतासंयत समतासयत १ करण ४ । अथालंद- आवि/१५५/३५२/४ परिषहोपसर्गजसम, अनिहितबलवीर्या, आत्मानं मनसा तुल्यन्ति । परिहारस्यासमर्था. अथालन्दविधिमुपगन्तुकामास्त्रयः पञ्च सप्त नव वा ज्ञानदर्शनसंपन्नास्तीत्रसंगमापासनियासिन अवतारमसामर्थ्याविदितायु स्थितय' स्थविरं विज्ञापयन्ति । आचारो निरूप्यते अथालन्दसताना लिगम् औत्सर्गिक, देहस्योपकारार्थम् आहारं वा वसति च गृह्णन्ति, शेष सकलं त्यजन्ति । तृणपीठकटफलकादिकम् उपधि च न गृह्णन्ति । अप्रतिलेखना एव व्युत्सृष्टशरीरसंस्कारा' परीषहान् सहन्ते नो वा धृतिबलहीना ।... त्रयः पञ्च वा सह प्रवर्तन्ते । . वेदनया' प्रतिक्रिययावर्ज्या यदा तपसातिश्रान्तस्तदा सहायहस्तावलम्भनं कुर्वन्ति वाचनादिकं च न कति यामाकेऽप्यनिद्रा एक पिताध्याने ते लेखन कामयेऽपि कुर्वन्ति.. श्मशानमध्येऽपि तेषां ध्यानमप्रति विश्वेषु च प्रयम् उपकरणप्रति लेखनाकामयेपि कुर्वन्ति मिया मे कृतमिति निवर्तते। दशविध समाचार प्रदानं ग्रह अनुपालनं विनय सह जपनं च नास्ति सधेन तेषाम् । कारणमपेक्ष्य केषांचिदेक एव संलाप कार्य' । यत्र क्षेत्रे सधर्मा तत्र क्षेत्रे न प्रविशन्ति । मौनावग्रहनिरता पन्थानं पृच्छन्ति शङ्कितव्यं वा द्रव्यं शय्याधरगृहं वा एवं तिस एव भाषा' । गृहे प्रज्वलिते न चलन्ति चलन्ति वा ।...व्याघ्रादिव्यालमृगाया यद्यापतन्ति ततोऽपसर्पन्ति न वा । पादे कण्टकालग्ने चक्षुषि रज प्रवेशे वा, अपनयन्ति न वा । धर्मोपदेशं कुर्वन्त तत्प्रवयमि इच्छामि भगव पादमूले इत्युक्का अपि न मनसापि बाच्छन्ति । क्षेत्रत सप्ततिधर्मक्षेत्रेषु भर्वात । कालत' सर्वदा । चारित्रत सामाकिछेदोपस्थापनयो । तीर्थत सर्वतीर्थकृत तीर्थेषु जन्मनि त्रिशा ग्रामण्येन एकोनविंशतिवर्षा श्रुतेन नवदश पूर्वघरा वेदतो नपुंसकाथ लेश्यमा पद्मशुक्लेश्या ध्यानेन धर्मध्याना संस्थान वितरसंस्थाना देशस्वादि यावर पाटोत्सेधा कालो भिन्नमुहूर्ता] पूर्वकोटि
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कालस्थितय विक्रियाधारणता क्षीरसाविश्वादय रोष जायन्ते । बिरागतया न सेवन्ते । गच्छवि निर्गतालं दविधिरेष व्याख्यात' । गच्छतिमद्वादकविधिरुच्यते निर्गन्ती हि सकोशयोजने विहरन्ति । सपराक्रमो गगधरी ददाति क्षेत्राइ महित्वार्थपदम्। तेष्वपि समर्थ आगत्य शिक्षां गृह्णन्ति । एको द्वो यो वा परिज्ञानधारणा गुणसमग्रा गुरुशकाशमायान्ति प्रतिप्रश्नकार्याः स्मक्षेत्रे भिक्षा कुर्वन्ति यदि क्षेत्रान्तरं गण अथासं विका अपि गुर्वनुज्ञया यान्ति क्षेत्रम् । ...व्याख्यातोऽयमथादविधिः । - ( सल्लेखना धारण विधिके अन्तर्गत भक्तप्रत्याख्यान आदि अनेकों विधियोंका निरूपण है। वहाँ एक अधानंद विधि भी है। वह दो प्रकारकी है-गव्यविनित और प्रतिवद्ध इन दोनों पह गच्छविनिर्गतका स्वरूप कहते है . परौपट्ट व उपसर्गको
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अथालंद
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अदंतधोवन
अद्धा असंक्षेप
जोतने में समर्थ तापक्त बल बोयं परन्तु परिहार विधिको धारण करने में असमर्थ साधु इस विधिको धारण करते हैं। ज्ञान दर्शन सम्पन्न तथा तीव्र संसारभीरु तीन, पाँच, सात अथवा नौ साधु मिलकर धारण करते है। धर्माचार्यको शरणमें रहते है। उनका आचार बताते है-औत्सर्गिक (नग्न) लिग धारण करते हैं। वेहोपकारार्थ माहार, वसति, कमंडलु और पिच्छिकाका आश्रय लेते है। तृण, चटाई, फलक आदि अन्य परिग्रह व उपधिका त्याग करते है। बैठते उठते आदि समय पिच्छिकासे शरीरस्पर्श रूप प्रतिलेखन नहीं करते। शरीरसंस्कारका त्याग करते हैं. परीषह सहते है. तीन वा पाँच आदि मिलकर वृत्ति करते हैं, वेदनाका इलाज नहीं करते, तपसे अतिशय थक जानेपर सहायकों के हस्तादिका आश्रय लेते हैं, बाचना, पृच्छना आदिका त्याग करते हैं, दिन में व रातको कभी नहीं सोते, परन्तु न सोनेकी प्रतिज्ञा भी नहीं करते, ध्यानमें प्रयत रहते है.श्मशानमें भी ध्यान करनेका उन्हें निषेध नहीं है, षडावश्यक क्रियाओंमें सदा प्रयत्नशील रहते हैं, सार्य व प्रातः पिच्छिका कमंडलुका संशोधन करते हैं। 'मिथ्या मे दुकृतम्' इतना बोलकर ही दोषों का निराकरण कर लेते हैं, दस प्रकार के समाचारोंमें प्रवृत्ति करते है। संघके साथ दान, ग्रहण, विनय आदिका व्यवहार नहीं करते। कार्यवश उनमें से केवल एक साधु ही बोलता है, जिस क्षेत्र में सधर्माजन हों वहाँ प्रवेश नहीं करते, मौनका नियम होते हुए भी तीन विषयों में बोलते हैं-मागं पूछना, शास्त्र विषयक प्रश्न पूछना, घरका पता पूछना । बसतिमें आग आदि लग जानेपर उसे त्याग देते है अथवा नहीं भी त्यागते, व्याघ्रादि दुष्ट प्राणियोंके आ जानेपर मार्ग छोड़ देते है अथवा नहीं भी छोड़ते, कण्टक आदि लगने या आँख में रजकण पड़नेपर उसे निकालते हैं अथवा नहीं भी निकालते। धर्मोपदेश करते हैं. परन्तु दीक्षार्थीको दीक्षा देनेका मनमें विचार भी नहीं करते। क्षेत्रको अपेक्षा ये साधु सर्व कर्मभूमियोंमें होते है, कालकी अपेक्षा सदा होते हैं, चारित्रकी अपेक्षा सामायिक व छेदोपस्थापना ये दो चारित्र होते हैं, तीर्थकी अपेक्षा सब तीर्थंकरोंके तोों में होते हैं. ३० वर्ष पर्यन्त भोग भोगकर १६ वर्ष तक मुनि अवस्थामें रहनेके पथावही अथालंद विधिधारणके योग्य होते हैं, ज्ञानकी अपेक्षा नौ या दस पूर्वोके ज्ञाता होते हैं, वेदकी अपेक्षा पुरुष या नपुंसकवेदी होते है। लेश्याकी अपेक्षा पद्य च शुक्ल लेश्यावाले होते हैं, ध्यानकी अपेक्षा धर्मध्यानी होते हैं। संस्थानकी अपेक्षा छहों में से किसी भी एक संस्थानवाले होते हैं, अवगाहनाकी अपेक्षा सात हाथसे १०० धनुषतकके होते हैं, कालकी अपेक्षा विधिको धारण करनेसे पूर्व बीती आयुसे हीन पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबाले होते हैं। (मध्यम जघन्य भी यथायोग्य जानना)। विक्रिया, चारण व क्षीरसावी आदि ऋद्धियोंके धारक होते हैं, परन्तु वैराग्यके कारण उनका सेवन नहीं करते। गच्छविनिर्गत अर्थात् गच्छसे निकलकर उससे पृथक रहते हुए अथा लद विधि करनेवाले मुनियों का यह स्वरूप है। २. अब गच्छप्रतिबद्ध अधालंद विधिका विवेचन करते हैं। -गच्छसे निकलकर बाहर एक योजन और एक कोश ( ५ कोश ) पर ये मुनि विहार व निवास करते हैं। शक्तिमान् आचार्य स्वयं अपने क्षेत्रसे बाहर जाकर उनको अर्थपदका अध्ययन कराते हैं । अथवा समथ होनेपर अधालंद विधिबाले साधु स्वयं भी आचार्यके पास जाकर अध्ययन करते हैं। परिज्ञान व धारणा आदि गुण सम्पन्न एक, दो या तीन मुनि गुरुके पास आते है और उनसे प्रश्नादि करके अपने स्थानपर लौट जाते हैं। यदि गच्छ क्षेत्रान्तरको विहार करता है, तो वे भी गुरुकी आज्ञा लेकर बिहार करते हैं। (क्षेष विधि पूर्ववत जानना)-इस प्रकार अयाजद विधिके दोनों भेदोंका कथन किया गया। अक्तपोवन-मूला. ३३ अंगुलिणहावलेहणिकलीहिं पासाणवलियादीहि। तमलासोहणयं संजमगुली अदंतमणं ।-अंगुली, नख, बातीन, तृणविशेष, पैनीकंकणी, वृक्षकी छाल (बकल ), आदि कर
दाँतके मलको नहीं शुद्ध करना वह इन्द्रिय संयमकी रक्षा करनेवाला
अदंतधोवन मूल गुण है। अदत्तावान-दे. अस्तेय । अवर्शन परिषह-स सि /६/६/४२७/१० परमवैराग्यभावनाशुखहृदयस्य विदितसकलपदार्थ तत्त्वस्याहदायतनसाधुधर्मपूजकस्यचिरन्त नप्रबजितस्याद्या पि मे ज्ञानातिशयो नोस्पद्यते। महोपवासाचनुष्ठायिना प्रातिहार्यविशेषाः प्रा भवन्निति प्रलापमात्रमर्थिक प्रवज्या। विफलं व्रतपरिपालनमित्येवमसमादधानस्य दर्शमविशुद्धियोगाददर्शनपरिषहसहनमवसातव्यम्।-परम वैराग्यकी भावनासे मेरा हृदय शुद्ध है, मैंने समस्त पदार्थोके रहस्यको जान लिया है, मैं अरहन्त, आयतन, साधु और धर्मका उपासक है, चिरकालसे मैं प्रबजित हूँ तो भी मेरे अभी भी ज्ञानातिशय नहीं उत्पन्न हुआ है। महोपवास आदिका अनुष्ठान करनेवालेके प्रातिहार्य विशेष उत्पन्न हुए, यह प्रलापमात्र है। यह प्रवज्या अनर्थक है, बतौका पालन करना निरर्थक है इत्यादि बातोका दर्शन विशुद्धिके योगसे मनमें नहीं विचार करनेवालेके अदर्शनपरिषह सहन जानना चाहिए। (रा. वा./६/१.२८/६१२/१७). (चा. सा./१२८/४) । १. प्रज्ञा व अदर्शन परिषहमें अन्तर-वे. प्रज्ञा परीषह ।
२. अवर्शनकाअर्थ अभवान क्यों अवलोकनाभाव क्यों नहीं रा.बा./६/६,२६-३०/६१२/२३ श्रद्धानालोचनग्रहणम विशेषादिति चेत; न
अन्यभिचारदर्शनार्थत्वात ।२६। स्यादेतत् श्रद्धानमालोचनमिति द्विविध दर्शनम, तस्याविशेषेण ग्रहण मिह प्राप्नोति, कुतः, अविशेषाद । न हि किंचिद्विशेषलिङ्गमिहाश्रितमस्तीति, तन्न. किं कारणम् । अव्यभिचारी दर्शनार्थत्वात् । मत्यादिज्ञानपञ्चकाव्यभिचारिश्रद्धानं दर्शनम् । आलोचनं तु न, श्रुतमनःपर्यययोरप्रवृत्तरतोऽस्याव्यभिचारिणः श्रद्धानस्य ग्रहणमिहोपपद्यते। मनोरथपरिकल्पनामात्रमिति चेत् न वक्ष्यमाणकारणसामर्थ्यात्।३०।...दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ । त. सू./९/१४ इति । - यद्यपि दर्शनके श्रद्धान और आलोचन ये दो अर्थ होते हैं, पर यहाँ मति आदि पाँच ज्ञानोंके अव्यभिचारी श्रद्धान रूप दर्शनका ग्रहण है, आलोचन रूपदर्शन श्रुत और मनःपर्यय ज्ञानों में नहीं होता अतः उसका ग्रहण नहीं है। जागे स.सं. १४ में दर्शनमोहके उदयसे ही अदर्शन परिषह बतायी जायेगी। अतः वर्शनका अर्थ श्रद्धान है केवल कल्पनामात्र नहीं है। अदिति-(ह. पु./२२/५१-५३ ) तप भ्रष्ट नमि बिनामि द्वारा ध्यानस्थ
ऋषभनाथ भगवानसे राज्यकी याचना करनेपर, अपने पति धरणेन्द्रकी आज्ञासे इस देवीने उन दोनों को विद्याओंका कोप दिया था। अदीक्षा ब्रह्मचारी-दे. ब्रह्मचारी। अवष्ट-कायोत्सर्गका एक अतिचार दे. व्युत्सर्ग ।। अदृष्टांत वचनोदाहरणाभास-वे. दृष्टान्स । अखा-स. सि./३/३८ अद्धा कालस्थितिरित्यर्थः।-अखा और काल
की स्थिति ये एकार्थवाची है। (ध.४/१,५.१/३१८/१) (ध. १३/५.६, ५०/२८४/२) (भ. आ. वि/२५/८६/४)। रा. वा./५/१,१६/४३३/२२ अदाशब्दो निपातः कालवाची।-अबा
शब्द एक निपात है, वह कालबाची है। क. पा.४/३.२२/१२६/११/८ का अद्धा णाम। द्विदिबंधकालो ।-अदा
किसे कहते हैं। स्थिति बन्धके कालको अद्धा कहते है। अद्धाअसंक्षेप-घ.६/१.६-६,२३/१६७/१ असंखेपदा ति एमावाधावियम्पेस देव-णेरझ्याणं आउअस्स उक्कस्सणिसेयहिदी संभवति त्ति उत्तं होदि।-असंक्षेपाचा अर्थात जिससे छोटा (संक्षिम) कोई काल न हो. ऐसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक जितने
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अद्धाच्छेद
आभाषा के विकल्प होते हैं उनमें देव और नारकियोंके, आयुकी उत्कृष्ट निषेक स्थिति सम्भव है ।
घ. १४/५.६.६४५/२०३/१२ जण आठ अबंधकालो जहम्ण विरसमण कालपुरस्सरी असंखेद्धा णाम । सो जनमज्झचरिमसमयहुड ताब होदि जाव जहण्णाउअबंधकालच रिमसनओ ति । एसा कि असंखेपद्धा तदियति भागम्मि चेत्र होदि । - * जघन्य विश्रमण काल पूर्वक जघन्य आयुबन्ध काल असंक्षेपाद्धा कहा जाता है। वह यव मध्यके अन्तिम समय से लेकर जघन्य आयु बन्धके अन्तिम समय तक होता है। यह असंक्षेपाया तृतीय त्रिभागमें ही होता है।
गो.जी. जी. २.२१८६११
राज्यमानायुषाय भागः तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अन्तर्मुहूर्त मात्र समयप्रबद्धान् परभवायुनियमेन बद्ध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्यः । 'असंक्षेपाना' जो आवलीका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण काल भुज्यमान आयुका अवशेष रहै ताकै पहिले अन्तर्मुहूर्त काल मात्र समय प्रबद्धनिकरि परभव आयु stafa पूर्ण करे है ऐसा नियम जानना ।
गो.क. मू./२१७/१९०२ आउस्स व आबाहा ण ट्ठिदिपडिभागमाउस्स = बहुरि नहीं पाइयें है आयुकी आबाधाका संक्षेप, घाटि पना जाते ऐसा जो अद्धा काल सो असंक्षेपाद्धा कहिये है । अद्धाच्छेद
पा. १/३. २२/१२०/१२/२ परिमणियस्य काही उक्कस्स अद्धाच्छेदो णाम । (बद्ध कर्मके) अन्तिम निषेकके कालको उत्कृष्ट अद्धाच्छेद कहते हैं ।
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क. पा. ३/३,२२/९५१३/२६२/५ सयल णिसेयगयकाल पहाणी अद्धाच्छेदो सयलणिसेगपहाणा द्विदित्ति । सर्व निषेकगत काल-प्रधान अद्धाच्छेद होता है और सर्व निषेधान स्थिति होती है। अद्धानशन — दे. अनशन ।
अद्धापल्यगणित 1/4
३. आयु १ ।
अद्धायुदे, । अद्धासागर कालका प्रमाण- गणित 1/१/२ अद्वैत दर्शन - १. एकान्त अद्वैतका निरास दे द्रव्य ४ २. अद्वैत दर्शनका विकासक्रम- दे. दर्शन ३ विशेष दे. वेदान्त
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अद्वैत नय - प्र. सा./त.प्र./परि/मय सं. ४५ निश्चयमयेन केवलमध्य माननुच्यमानबन्धमोक्षोचित स्निग्धत्वगुणपरिणत परमानन् मोक्षयोर द्वैतानुवर्ति ॥ ४५ ॥ - - आत्मद्रव्य निश्चयनयसे बन्ध और मोक्षमें अद्वैतका अनुसरण करनेवाला है. अकेले मध्यमान और मुच्यमान ऐसे बंधमोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्वगुणरूप परिणत परमापकी भाँति ।
१. ज्ञान-लेय द्वैताद्वैत नय
प्र. सा./त.प्र./ परि. / नय सं. २४-२५ ज्ञानज्ञे याद्वैतनयेन महदिन्धनभारपरिणतधूमकेतुमदेक १४ हातनयेन परप्रतिविम्बसंयुक्त दर्पणवदनेकम् ॥ २५ ॥ = आत्म द्रव्य ज्ञान ज्ञेय अद्य तनय मे ( ज्ञान और ज्ञेयके अद्वैतरूप नयसे ) महान् ईंधनसमूह रूप परिणत अग्निकी भाँति एक है । २४ । अम द्रव्य ज्ञान - ज्ञेय द्वैतरूपनयसे, परके प्रतिबिम्बों से सम्पृक्त दर्पणकी भाँति अनेक है । २५ । अद्वैतवाद
१. पुरुषाद्वैतवाद
गो. क. मू./८८९ / २०६५ एक्को चैत्र महप्पा पुरिसो देवो य सब्बवावी य । सव्वंगणिगूढोविय सचेयणो णिग्गुणो परमो ॥ ८८१ ॥ - एक ही महात्मा है । सोई पुरुष है। देव है । सर्व विषै व्यापक है। सपन निगूढ कहिए अगम्य है । चेतनासहित है। निर्गुण है। परम उत्कृष्ट है। ऐसे एक आत्मा ही करि सत्रकौं मानना सो आत्मवादका अर्थ है । ( स. सि./८/१/५ को टिप्पणी जगरूपसहाय कृत ) ( और भी दे. बेदान्त २ ) ।
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अद्वैतवाद
स.म./११/१५१८
नेह नामारित किंचन। आरामं
तस्य पश्यन्ति न तत्पश्यति कश्चन" । इति समयात् । "अयं तु प्रपश्चो मिथ्यारूपः प्रतीयमानत्वात् ।" हमारे मतमें एक ब्रह्म ही सद है । कहा भी है 'यह सब ब्रह्मका ही स्वरूप है, इसमें नानारूप नहीं हैं, ब्रह्मके प्रपश्ञ्चको सब लोग देखते हैं. परन्तु ब्रह्मको कोई नहीं देखता' तथा 'यह प्रपञ्च मिथ्या है, क्योंकि मिथ्या प्रतीत होता है।' (और भी दे. वेदान्त )
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अभियान राजेन्द्र कोवा पुरुष एकः सकललो स्थितिसर्गप्रलयहेतुः नातिशयातिरिति तथा चोक्तम् ऊर्जनाम इवशूनां चन्द्रकान्त इवाम्भसाम् । प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मनाम इति । तथा 'पुरुषं सर्वं यह भूतं यच भाव्यम् । . वे. १०/१० । इत्यादि मन्वानां वादः पुरुषवादः । - एक पुरुष ही सम्पूर्ण लोककी स्थिति, सर्ग और प्रलयका कारण है। प्रलय में भी उसकी अतिशय ज्ञानशक्ति अलुप्त रहती है। कहा भी है-जिस प्रकार ऊर्णनाभ रश्मियोंका. चन्द्रकान्त जलका और बटबोज प्ररोहका कारण है उसी प्रकार वह पुरुष सम्पूर्ण प्राणियोंका कारण है। जो हो चुका तथा जो होगा, उस सबका पुरुष ही हेतु है। इस प्रकारकी मान्यता पुरुषबाद है । २. विज्ञानाईतवाद
न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ११६ प्रतिभासमानस्याशेषस्य वस्तुनो ज्ञानस्वरूपान्तः प्रविष्टत्व प्रसिद्धेः संवेदनमेव पारमार्थिकं तत्त्वम् । तथाहि यदवभासते तज्ज्ञानमेव यथा सुखादि, अवभासन्ते च भावा इति ।... तथा यद्वेद्यते तद्धि ज्ञानादभिन्नम् यथा विज्ञानस्वरूपम्, वेद्यन्ते च नौसादयइत्यतोऽपि विज्ञानाद्वैतसिद्धिरिति प्रतिभासमान अशेष ही वस्तुओंका ज्ञानस्वरूपसे अन्तजविष्टपन प्रसिद्ध होनेके कारण संवेदन ही पारमार्थिक तत्व है। वह इस प्रकार कि जो-जो भी अवभासित होता है वह ज्ञान ही है, जैसे सुखादि भाव ही अवभासित होते हैं।...इसी प्रकार जो-जो भी वेदन करनेमें आता है वह ज्ञान अभित है, जैसे विज्ञानस्वरूप नीलादिक पदार्थ वेदन किये जाते हैं। इसीलिए यहाँ भी विज्ञानाद्वैतवादकी सिद्धि होती है । (यु. अनु. / ११ /२४) । अभिधान राजेन्द्र कोदा "बाह्मार्थनिरपेक्ष ज्ञानामेव मेमोयविशेषा मन्वते ते विज्ञानवादिनः । तेषां राद्धान्तो विज्ञानवादः । - बाहर के निरपेक्ष ज्ञानाईतको ही जो कोई बौद्ध विशेष मानते हैं वे विज्ञानवादी हैं. उनका सिद्धान्त विज्ञानवाद है ।
२. शब्दावाद
न्यायकुमुदचन्द्र पृ. १३६ - १४० योंगजमयोगजं वा प्रत्यक्षं शब्द ब्रह्मोल्लेख्येबावभासते वाह्याध्यात्मिकार्थे षूत्पद्यमानस्यास्य शब्दानुविद्धत्वे. - वोत्पत्तेः, तत्संस्पर्श वैकल्ये प्रत्ययानां प्रकाशमानतया दुर्घटत्वाद वापत हि शाश्वतो प्रत्यवमर्शिनी च तदभावे तेषां नापरं रूपमवशिष्यते । = समस्त योगज अथवा अ ोगज प्रत्यक्ष शब्दब्रह्मका उल्लेख करनेवाले ही अवभासित होते हैं। क्योंकि बाह्य या आध्यात्मिक अर्थों में उत्पन्न होनेवाला यह प्रत्यक्ष शब्दसे अनुविद्ध ही उत्पन्न होता है। शब्द के संस्पर्शके अभाव में ज्ञानोंकी प्रकाशमानता दुर्घट है, बन नहीं सकती । वाग्रूपता नित्य और प्रत्यवमर्शिनी है, उसके अभाव में ज्ञानोंका कोई रूप शेष नहीं रहता ।
* सभी अद्वैत दर्शन संग्रह नयाभासी हैं दे. अनेकान्त २/१ ॥ ४. सम्यगेकान्नकी अपेक्षा
न्या, दो /३/१८४/१२८/३ एवमेव परमद्रव्याथिकनयाभिप्रायविषयः परमद्रव्यं सत्य, तदपेक्षया 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म नेह नानास्ति किचन' सद्रूपेण चेतनानामचेतनानां च भेदाभावात् भेवे दुसलक्षणत्वेन तेषामसत्वप्रसङ्गात् । - इसी प्रकार परम द्रव्यार्थिक नयके अभिप्रायका विषय परम सत्ता, महा सामान्य है । उसकी अपेक्षासे 'एक ही अद्वितीय ब्रह्म है यहाँ नाना अनेक कुछ भी नहीं है' इस
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अधःकर्म
अधस्तन द्वीप
प्रकारका प्रतिपादन किया जाता है। क्योंकि सद्रूपसे चेतन और अचतन पदाथमि भेद नहीं है। यदि भेद माना जाये तो सतसे भिन्न होनेके कारण वे सम असत हो जायेंगे। * द्वैत व अद्वैतका विधि निषेध- दे. द्रव्य ।
*परम अद्वैतके अपर नाम-दे. मोक्षमार्ग २४५। अधःकर्म-जिन कार्यों के करनेसे जीबहिंसा होती है उन्हें अध'कर्म कहते है। अधःकर्म युक्त किसी भी पदार्थकी मन, वचन, कायसे साधुजन अनुमोदना नहीं करते और न ही ऐसा आहार व वसति आदिका ग्रहण करते हैं। इस विषयका परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।
१. आहार सम्बन्धी अधःकर्म मूला. म्/४२३ छज्जोवणिकायाणां विराहणोद्दावणादिणिपण्णं । आधाकम्भ णेयं सम रकदमादसपण्ण । ४२३ । -पृथ्वीकाय आदि छह कायके जीवोंको दु.ख देना, मारना इससे उत्पन्न जो आहारादि वस्तु बह अध'कर्म है। वह पाप क्रिया आप कर को गयी, दूसरे कर की गयी तथा आप कर अनुमोदना की गयी जानना। ध. १३/५,४.२९/४६/८ तं ओदावण-विहावण-परिदावण-आरभकदणिपफन्णं त सव्व आधाकम्मं णाम ॥ २२ ॥...जीवस्य उपद्रवणम् ओहावणं णाम । अगच्छेदनादिव्यापारः विदावण णाम। संतापजनन परिदावणं णाम । प्राणिप्राण-वियोजन आर भो णाम । -जो उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ रूप कार्यसे निष्पन्न होता है, वह सब अध कर्म है ॥ २२ ॥ ..जीवका उपद्रव करना ओरावण कहलाता है। अंग छेदन आदि व्यापार करना बिहावण कहलाता है। सन्ताप उत्पन्न करना परिदावण कहलाता है और प्राणियों के प्राणों
का वियोग करना आरम्भ कहलाता है। चा. सा/६८/१ षडजोब निकायस्योगद्रवणम् उपद्रवणम्, अंगच्छेदनादिव्यापारो विद्रावणम्, संतापजननं परितापन, प्राणिप्राणव्यपरोपणमारम्भः एवमुपद्रवण विद्रावण परितापनारम्भक्रियया निष्पन्नमन्न स्वेन कृतं परेण कारितं वानुमनितं वाधकर्म (जनित ) तत्सेविनोऽनशनादितपासि...प्ररक्षन्ति ।-षट्कायके जीव समूहोंके लिए उपद्रव होना उपद्रवण है । जीवोंके अंग छेद आदि व्यापारको विद्रावण कहते है। जोवोंको सन्ताप ( मानसिक वा अन्तरग पीड़ा) उत्पन्न होनेको परितापन कहते है । प्राणियोंके प्राण नाश होनेको आरम्भ कहते है। इस प्रकार उपद्रवण, विद्रावण, परितापन, आरम्भ क्रियाओंके द्वारा जो आहार तैयार किया गया हो, जो अपने हाथसे किया हो अथवा दूसरेसे कराया हो, अथवा करते हुए की अनुमोदना की हो, अथवा जो नीच कर्मोंस बनाया गया हो, ऐसे आहारको ग्रहण करनेवाले मुनियों के उपवासादि तपश्चरण नष्ट होते हैं।
२. वसति सम्बन्धी अधःकर्म भ.आ.वि २३०/४४७ तत्रोद्गगमो दोषो निरूप्यते। वृक्षच्छेदस्तदानयन, इष्टकापाक., भूमिखनन, पाषाणसिक्तादिभिः पूरण, धराया' कुट्टन, कर्दमकरणं, कीलानां करण, अग्निनायस्तापनं कृत्वा प्राताड्य क्रकचै. काठपाटन, वासी भिस्तक्षणं, परशुभिश्च्छेदनं इत्येवमादिव्यापारण षण्णा जीवनिकायानां बाधां कृत्वा स्वेन वा उत्पादिता, अन्येन वा कारिता वसतिरधम्कर्मशब्देनोच्यते।- वृक्ष काटकर उनको लाना, इंटोंका समुदाय पकाना, जमीन खोदना, पाषाण, बालु इत्यादिकोंसे खाड़ा भरना, जमोनको कूटना, कीचड करना, खम्भे तैयार करना. अग्निसे लोह तपवाना, करौतसे लकडी चीर शसीसे छीलना, कुल्हाड़ोसे छेदन करना इत्यादि क्रियाओंसे षट्काय जीवोंको बाधा देकर स्वयं वसति बनायी हो अथवा दूसरोंसे बनवायी हो, यह बसति अध कर्मके दोषसे युक्त है।
३. अपकर्म शरीर ध.१३/५,४,२४/४७/५ जम्हि शरीरे ठिदाणं केसि चि जीवाणं कम्हि विकाले ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणे हि मरणं सभवदितं सरीराधाकम्म णाम ।-जिस शरीरमें स्थित किन्हीं जोवोंके किसी भी कालमै उपद्रावण, विद्रावण और परितापनसे मरना सभव है, वह शरीर अध कर्म है।
४. नारकियोंमें अधःकर्म नहीं होता ध. १३/५,४,३१/११/ आधाकम्म-इरियावधकम्म-तवोकम्माणि णस्थि; णेरइएस ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहन्वयाभवादो। एवं सत्तम पुढवीसु।-अध'कर्म ईर्यापथ कर्म, और तप.कर्म नहीं होते. क्योंकि नारकियोंके औदारिक शरीरका उदय और पंचमहावत नहीं होते। इसी प्रकार सातों पृथिवियोमें जानना चाहिए ।
५. नारकियोंका शरीर अधःकर्म नहीं ध. १३/५,४,२४/४७/३ ओढावणादिद सणादो रइयसरीरमाधाकम्म त्ति किण्ण भण्णदे। [ण] तत्व ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहितो आर भाभावादो।जम्हि सरीरे ठिदाणं केसि वि जीवाणं कम्हि वि काले ओदावण-विहावण-परिदावणेहि मरणं सभवदि त सरीरमाधाकम्म णाम ण च एद विसेसण णेरड्यसरोरे अत्थि, तत्तो तेसिमवमिरचुवज्जियाण मरणाभावाद।। अधवा चउण्णं समूहो जेणेग विसेसणं,ण तेण पुन्बुत्तदोसो। प्रश्न - नारकियोके शरीरमें भी उपद्रावण आदि कार्य देखे जाते है, इसलिए उसे अध कर्म क्यों नहीं कहते उत्तर-- नहीं, क्योकि वहाँपर उपद्रावण -विद्रावण और परितापनसे आरम्भ (प्राणि प्राण वियोग) नहीं पाया जाता। जिस शरोरमें स्थित किन्हीं जोवोंके किसी भी कालमें उपद्रावण, विद्रावण और परितापनसे मरना सभव है वह शरीर अध कर्म है। परन्तु यह विशेषण नारकियोंके शरीरमें नहीं पाया जाता, क्योंकि इनसे उनकी अपमृत्यु नहीं होती, इसलिए उनका मरण नहीं होता। अथवा चूकि उपद्रावण आदि चारोंका समुदायरूप एक विशेषण है,इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं आता।
६. भोगभूमिजका शरीर अधःकर्म कैसे । ध. १३/५,४.२४/४७/१ एव घेप्पमाणे भोगभूमिगयमणुस्सतिरिक्खाणं सरीरमाधाकम्म ण होज्ज, तत्थ ओद्दावणादीणमभावादो। ण ओरालियसरीरजादिदुवारेण सवाह सरीरेण सह एयत्तमावण्णस्स आधाकम्मत्तासिद्धीदो। प्रश्न-जिस शरीरमें स्थित जीवोंके उपद्रावण आदि अन्यके निमित्तसे होते हैं, वह शरीर अध कर्म है। इस तरहसे स्वीकार करनेपर भोगभूमिके मनुष्य और तियंचोंका शरीर अधर्म नहीं हो सकेगा, क्योंकि वहाँ उपद्रावण आदि कार्य नहीं पाये जाते + उत्तर-नहीं, क्योंकि औदारिक शरीररूप जातिकी अपेक्षा यह बाधा सहित शरीर और भोगभूमिजोंका शरीर एक है, अत उसमें अध कमपनेकी सिद्धि हो जाती है। * अध कर्म विषयक सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल,
अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ
दै. वह वह नाम। अघःप्रवृत्तसंयत-दे, सयत १३ करण ४ । अधःप्रवृत्तसंयतासंयत-दे. संयतासंयत १ व करण ४। अधःप्रवृत्तिकरण-दे. करण ४ ।
मण-दे. सक्रमण है। अधर्म द्रव्य-दे. धर्माधर्म। अधस्तन कृष्टि-दे. कृष्टि। अधस्तन द्रव्य-दे. कृष्टि । अधस्तन द्वीप-(ज प./प्र.१०५ ) Inner Island.
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अधस्तन शीर्ष
अधस्तन शीर्ष कृष्टि
अधिक या सू./५/२/१२/२१२ हेतुदाहरणाधिकमधिहेतु और उदाहरणचे अधिक होनेसे अधिक नामक निग्रह स्थान है। (लो. मा.४/२२२/४००/१५)।
अधिकरण - जिस धर्मो में जो धर्म रहता है उस धर्मीको उस धर्मका (न्याय विषयक) अधिकरण कहते है जैसे-पव धर्मका अधिकरण घट है । प्र.सा./त.प्र./२६/११ सुद्धा किज्ञानविपरिणमनस्वभावस्याधारभूतस्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्माण - शुद्ध अनन्त शक्तियुक्त ज्ञान रूप परिणमित होनेके स्वभावका स्वयं ही आधार होनेसे अधिकरणताको आत्मसात् करता हुआ ( इस प्रकार ) स्वयमेव (अधिकरण कारक) रूप होता है।
सा.../९६/२२ निश्चयचैतन्यादिस्वभावात्मनः स्वयमेवाधारत्वादधिकरणं भवति । - यह आत्मा निश्चयसे शुद्ध चैतन्यादि गुणा स्वयमेव आधार होनेसे अधिकरण कारकको स्वीकार करता है। स. सा./आ.परि./शक्ति नं. ४६ भाव्यमानभावाधारत्वमयी अधिकरणशक्तिः । - भावनेमें आता जो भाव इसके आधारपनमयी छयालीसर्वो अधिकरण शक्ति है ।
१. अधिकरणके मेव
ससू /६/०-११ अधिकरण जीवाजीबा 194 बाय संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषाय विधेरै खिखिखितुरचे कश ॥८॥ निर्व नापि योगनिसर्गातु भेदा पर-अधिकरण जीव और अजीब रूप हैं ॥७॥ पहला जीवाधिकरण संरंभ, समारंभ, आरम्भके भेदसे तीन प्रकारका, कृत, कारित और अनुमतके भेदसे तीन प्रकारका तथा कषायके भेदसे चार प्रकारका होता हुआ परस्पर मिलानेसे १०८ प्रकारका है ॥ ८ ॥ पर अर्थात् अजीवाधिकरण क्रमसे दो, चार दो और तीन भेटवाले निर्वर्तना, निशेष संयोग और निसर्गरूप है। (भ. खा./.८११/१५४)।
१
रा. बा./१/१.१२-१३/२११/२८ अजीवाधिकरण निर्वर्तनलक्षणं द्वेषा व्य अतिष्ठते। कुत। मुसोत्तरमेदाद मूलगुण निर्वर्तनाधिकरण उत्तरगुण निर्वर्तनाधिकरणं चेति तत्र सूर्य पचविधानि शरीराणि बाह मन प्राणापानाश्च । उत्तर काष्ठपुस्तकचित्रकर्मादि |.. निक्षेपश्चतुर्धा भिद्यते कृत अपश्यदुष्यमार्णनसहसानामो गभेदाद अमध्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणं, सहसा निक्षेपाधिकरण, अनाभागनिक्षेपाधिकरणं चेति । संयोगो द्विधा विभज्यते । कुत' । मापानोपकरण मेदात, भक्तपानसंयोगाधिकरणम्. उपकरणसयोगावरणं चेति.. निसर्ग स्त्रिया कम्प्यते कुतकायादिभेदात् । काय निसर्गाधिकरणं वा निसर्गाधिकरणं मनो निसर्गाधिकरणं चेति । रा.वा./६/०२/१३/२१ तद्भयमधिकरणं दशमकार विषवणहारकटुकाम्लस्नेहाग्नि- दुष्प्रयुक्त कायवाङ्मनोयोगभेदाद-खजीवाधिकरणोंमें निर्वर्तनालक्षण अधिकरण दो प्रकारका है। कैसे सगुण निर्वर्तनाधिकरण और उसरगुणनिर्वर्तनाधिकरण उसमें भी सगुण निर्वर्तनाधिकरण ८ प्रकारका ई पाँच प्रकारके शरीर मन, वचन और प्राणापान । उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण काठ, पुस्तक व चित्रादि रूपसे अनेक प्रकारका है ॥ १२॥ निक्षेपाधिकरण चार प्रकारका है कैसे अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण, दुष्प्रमृष्टनिलेपा पिकरण, सहसानिक्षेपाधिकरण और बनाभोगनिपाधिकरण ॥१ संयोगनिक्षेपाधिकरण दो प्रकारका है। कैसे भक्तपानसंयोगाधिकरण और उपकरणसंयोगाधिकरण ॥१४॥ निसर्गाधिकरण तीन प्रकारका है कैसे काय निसर्गाविवरण वचननिसर्गाधिकरण और मनोनिसर्गाधिकरण १९५० तदुभयाधिकरण दश प्रकारका है-विष लवण, क्षार, कटुक. आम्ल, स्निग्ध, अग्नि और दुष्प्रयुक्त मन, वचन, काय (स सि./६/१/२२७), (म. आ /- ८१२/१५७) ।
।
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1
-
४९
जीवाधिकरण
"
निर्वर्तना
मूलगुग निर्वर्तन.
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अधिकरण
|
निक्षेप
दुःप्रमृष्ट
सहसा
अनाभोग
सयोग
1
I
1 1 शरीर वचन मन प्राण अपान
I
1 काष्ठ
अधिकरण
1
I
भक्त उपकरण मन वचन काय
पान
कर्म
जीवाधिकरण
निसर्ग
T
उत्तरगुण निर्वर्तना
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कान
1 औदारिक वै क्रियक आहारक तेजस संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ x मन बचन काय x ४ कषाय x कृत कारित, अनुमोदना - १०८
२. निर्वर्तनधिकरण सामान्य- विशेष
1
स.सि./६/६/३२६ निर्वत्यंत इति निर्वर्तना निष्पादना । निक्षिप्यत इति निक्षेपःस्थापना । संयुज्यत इति संयोगो मिश्रीकृतम् । निसृज्यत इति निसर्ग निर्वर्तमाका अर्थ निष्पादना या रचना है। निक्षेपका अर्थ स्थापना अर्थात रखना है। संयोगका अर्थ मिश्रित करना अर्थात मिलाना है और निसर्गका अर्थ प्रसंग है। (रा.वा./ ६/६,२/५१६ / १ ) । भ.आ./वि./८९४/१७. निक्षिप्यत इति निक्षेष उपकरणं पुस्तकादि. शरीरं शरीरमतानि वा सहसा शीघ्र निक्षिप्यमाणानि भवात । कुतश्चित्कार्यान्तरकरणप्रयुक्तेन वा स्वरितेन षड्जीवनिकायाधाधिकरणं प्रतिपद्यन्ते । असत्यामपि त्वरायां जीवा' सन्ति न सन्तीति निरूपणामन्तरेण निक्षिप्यमाणं तदेवोपकरणादिक अनाभोगनिक्षेपाधिकरणमुच्यते। प्रमृहयुपकरणादिनिक्षिप्यमाणं प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण स्थाप्यमानाधिकरणमा दुष्प्रमृष्टनिपाधिकरण प्रमार्जनसरका जीवाः सन्ति न सन्तीति अप्रत्यवेक्षितं यन्निक्षिप्यते तदप्रत्यवेक्षितं निपाधिकरण निर्मसंनामेदमाचष्टे देहो तो प्रमु शरीरं हिंसोपकरणानि इति निर्वर्तनाधिकरणं भवति। उपकरणानि च सच्छिद्राणि यानि जीवनाधानिमित्तानि निर्व तान्यपि निर्तनाधिकरणं यस्मिन्सौमीरादिभाजने प्रानियते ॥१४॥ संजोजनमुत्रकरणाणं उपकरणानां पिच्छादोनां अन्योन्येन संयोजना शीतस्पस्य पुस्तकस्य महादेय आतपरिप प्रमार्जनं इत्यादिकम् । तहा तथा । पाणभोजणाण च पानभोजनयीश्च पानेन पानं, भोजनं भोजनेन, भोजन पानेनेत्येव मादिकं संयोजन | यस्य संमूर्छन संभवति सा हिसाधिकरणत्वेनानोपान्तान सर्वा । दुणिसिट्ठा मणबचिकाया दुष्टुप्रवृत्ता मनोवाक्कायप्रभेदा निसर्गशब्देनोच्यन्ते । निक्षेप किया जाये उसे निक्षेप कहते है । पिच्छी कमण्डलु आदि उपकरण, पुस्तकादि शरीर और शरीरका मल इनको भय से सहसा जल्दी फेंक देना, रखना। किसी कार्य में तत्पर रहने से अथवा वरासे पिच्छी कमण्डल्वादिक पदार्थ जब जमीन पर रखे जाते हैं तब षट्काय जीवों को बाधा देनेमें आधाररूप होते है अर्थात इन पदार्थों से जीवोंको बाधा पहुँचती है। त्वरा नहीं होनेपर भा जोव है। अथवा नहीं है इसका विचार न करके, देख भाल किये बिना ही उपकरणादि जमीनपर रखना, फेंकना उसको अनाभोगक्षेपाधिकरण कहते हैं। उपकरणादिक वस्तु बिना साफ किये ही जमीनपर
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बरू चित्र
कर्म कर्म
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अधिकरण सिद्धान्त
अधिगम
प्रत्यय करनेपर अधिगम अर्थात् पदार्थका ज्ञान करना सो अधि
गम है। ध. ३/१,२,५/३६/१ अधिगमो णाणपमाण मिदि एगो । अधिगम
और ज्ञान प्रमाण ये दोनों एकार्थवाचो है। रावा हि /१/६/४३ प्रमाण नय करि भया जो अपने स्वरूपका आकार ताक अधिगम कहिये।
२. अधिगम सामान्यके भेद त.सु./१/६ प्रमाणनयैरधिगम । जीवादि पदाथोंका ज्ञान प्रमाण और
नयों द्वारा होता है। स.सि /१/६/३ जीवादीना तत्त्वं प्रमाणाभ्या नयैश्चाधिगम्यते । तत्र प्रमाणं द्विविध स्वार्थ परार्थ च । जीवादि पदार्थों का स्वरूप प्रमाण
और नयोंके द्वारा जाना जाता है । प्रमाणके दो भेद है-स्वार्थ और परार्थ । (रा.वा./२/६,४/३३/११)। सभ.त.१४९ तत्राधिगमो द्विविधः स्वार्थ परार्थश्चेति । स च द्विविध प्रमाणात्मको नयात्मकश्चेति ।-अधिगम दो प्रकारका है-स्वार्थ और परार्थ । और वह अधिगम प्रमाण-रूप तथा नय-रूप इन दो भागों में विभक्त है।
अधिगम
स्वार्थाधिगम (ज्ञानात्मक)
पराधिगम (शब्दात्मक)
रख देना अथवा जिसपर उपकरणादिक रखे जाते हैं उसको अर्थात चौकी जमीन वगैरहको अच्छी तरह साफ न करना, इसको दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण कहते है। साफ करनेपर जीव है अथवा नहीं हैं, यह देखे बिना उपकरणादिक रखना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण है। शरीरको असावधानता पूर्वक प्रवृत्ति करना दुःप्रयुक्त कहा जाता है, ऐसा दुःप्रयुक्त शरीर हिंसाका उपकरण बन जाता है। इसलिए इसको देहनिवर्तनाधिकरण कहते हैं। जीव-बाधाको कारण ऐसे छिद्र सहित उपकरण बनाना, इसको भी निर्वर्तनाधिकरण कहते हैं। जैसे-काजी वगैरह रखे हुए पात्र में जन्तु प्रवेश कर मर जाते हैं। पिच्छी-कमण्डलु आदि उपकरणोंका संयोग करना, जैसे ठण्डे स्पर्शवाले पुस्तकका धूपसे संतप्त कमण्डलु और पिच्छीके साथ संयोग करना अथवा धूपसे तपी हुई पिच्छीसे कमण्डलु, पुस्तकको स्वच्छ करना आदिको उपकरण संयोजना कहते हैं । जिनसे सम्मूर्छन जीवोंकी उत्पत्ति होगी ऐसे पेयपदार्थ दूसरे पेयपदार्थ के साथ संयुक्त करना, अथवा भोज्य पदार्थके साथ पेय पदार्थको संयुक्त करना। जिनसे जीवोंकी हिंसा होती है ऐसा ही पेय और भोज्य पदार्थोंका संयोग निषिद्ध है, इससे अन्य सयोग निषिद्ध नहीं हैं। ऐसा भक्तपानसंयोजना है। मन, वचन और शरीरके द्वारा दुष्ट प्रवृत्ति करना उसको निसर्गाधिकरण कहते हैं।
३. असमीक्ष्याधिकरण स. सि /9/३२/३७ असमीक्ष्यप्रयोजनमाधिक्येन करणमसमीक्ष्याधिकरणम्।-प्रयोजनका विचार किये बिना मर्यादाके बाहर अधिक काम करना असमोक्ष्याधिकरण है। रा.वा./७/३२,४-१/४५६/२२ असमीक्ष्य प्रयोजनमाधिक्येन करणमधिकरणम् ॥४॥ अधिरुपरिभावे वर्तते, करोति चापूर्वप्रादुर्भाव प्रयोजनमसमोक्ष्य आधिक्येन प्रवर्तनमधिकरणम् । तत्त्रेधा कायवाइमनोविषयभेदात ३॥ तदधिकरण त्रेधा व्यवतिष्ठते । कुत' कायवाड्मनोविषयभेदात । तत्र मानसं परानर्थककाव्यादिचिन्तनम, बाग्गत निष्प्रयोजनकथाख्यानं परपोडाप्रधान यत्किचनवक्तृत्वम्, कायिक च प्रयोजनमन्तरेण गच्छ स्तिष्ठन्नासीनो वा सचित्तेतरपत्रपुष्पफलच्छेदनभेदनकुट्टनक्षेपणादोनि कुर्यात। अग्निविषक्षारादिप्रदान चारभेत इत्येवमादि, तत्सर्वमसमोक्ष्याधिकरणम् । = प्रयोजनके बिना ही आधिक्य रूपसे प्रवर्तन अधिकरण कहलाता है। मन, वचन और कायके भेदसे वह तीन प्रकारका है। निरर्थक काव्य आदिका चिन्तन मानस अधिकरण है। निष्प्रयोजन परपीडादायक कुछ भी बकवास वाचनिक अधिकरण है । बिना प्रयोजन बैठे या चलते हुए सचित्त या अचित्त पत्र, पुष्प, फलोंका छेदन, भेदन, मदन, कुट्टन या क्षेपण आदि करना तथा अग्नि, विष, क्षार आदि देना कायिक असमीक्ष्याधिकरण है। (चा.सा /१८/४)। अधिकरण सिद्धान्त-दे सिद्धान्त । अधिकारिणी क्रिया-दे क्रिया /३/२ । अधिगत-दै चारित्र /१ । अधिगम-मौखिक उपदेशों को सुनकर या लिखित उपदेशों को पढकर जीव जो भी गुण दोष उत्पन्न करता है वे अधिगमज कहलाते है, क्योंकि वे अधिगम पूर्वक हुए है। वे ही गुण या दोष यदि किन्हीं जीवों में स्वाभाविक होते हैं, तो उन्हें निसर्गज कहते हैं । सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान तो दो प्रकारका होता है पर चारित्र केबल अधिगमज हो होता है क्योंकि उसमें अवश्य ही किसीके उपदेशकी या अनुसरणकी आवश्यकता पड़ती है।
१.अधिगम सामान्य स.सि.१२/१२ धिगमोऽर्थावबोधः।-अधिगमका अर्थ पदार्थका
ज्ञान है। स.बा.१३,२२/१४ अधिपूर्वाद गर्भावसाधनोऽच अधिगमनमधिगमः । 'अधि' उपसर्ग पूर्वक 'गम्' धातुमें भाव साधन अच
प्रमाण नय
प्रमाण
नय ३. स्वार्थाधिगम स सि /१/६/३ ज्ञानात्मक स्वार्थम् । -स्वार्थ अधिगम झान स्वरूप है। रा.वा. १/4,४/३३/१२ स्वाधिगमहेतुञ्जनात्मक प्रमाणनयविकल्पः।
स्वाधिगम हेतु ज्ञानात्मक है जो प्रमाण और नय भेदों वाला है। स.भ त/१/२ स्वार्थाधिगमो ज्ञानारमको मतिश्त्यादिरूप । -स्वार्थाधिगम ज्ञानात्मक है जो मति श्रुत आदि ज्ञान रूप है।
४. परार्थाधिगम स.सि /१/६/३ बचनात्मक परार्थम् । -परार्थ अधिगम बचन रूप है। रा.वा./२/६,४/३३/१२ पराधिगमहेतुर्वचनात्सकः । तेन श्रुतारण्येन प्रमाणेन स्यावादनयसस्कृतेन प्रतिपर्यायं सप्तभङ्गीमन्तो जोवादय' पदार्था अधिगमयितब्या। -वचन पराधिगम हेतु हैं। वचनारमक स्याद्वाद भूतके द्वारा जोवादिककी प्रत्येक पर्याय सप्तभगी रूपसे
जानी जाती है। स भ 11९/७ परार्थाधिगम शब्दरूप । स च द्विविध -प्रमाणात्मको नयात्मकश्चेति ।..... अयं द्विविधोऽपि भेद' सप्तधा प्रवर्तते, विधिप्रतिषेधप्राधान्यात् । इयमेव प्रमाणसप्तभङ्गी नयसप्तभङ्गी च कथ्यते। -शब्दात्मक अर्थात वचन रूप अधिगमको परार्थाधिगम कहते हैं। वह अधिगम प्रमाण और नय रूप है । पुन' विधि प्रतिषेधको प्रधानतासे ये दोनो भेद सप्त भगमें विभक्त है। इसीको प्रमाणसप्तभङ्गी तथा नयसप्तभङ्गी कहते हैं।
५. निसर्गज सम्यग्दर्शन स सि./९/३/१२ यद्बाह्योपदेशाइते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम् । -जो बाह्य उपदेशके बिना होता है, वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है। (रा.
बा./१/३,५/१३/२३)। श्लो. वा १२/१/३/१३/८५/२८ तत्र प्रत्यासन्ननिष्ठस्य भव्यस्य दर्शनोहोपशमादो सत्यन्तरने हेतौ बहिरङ्गादपरोपदेशात्तत्त्वार्थज्ञानाव..... प्रजायमान तत्त्वार्थ श्रद्धानं निसर्ग जम् । प्रत्येतव्यम्। -निकट सिद्भिवाले भव्य जीवके दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम आदिक अन्त
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अधिगम
अधिगम
६.सर्व सम्यग्दर्शन साक्षात या परम्परासे अधिगमज ही
रंग हेतुओंके विद्यमान रहनेपर और परोपदेशको छोड़कर शेष, ऋद्धि दर्शन, जिनबिम्ब दर्शन वेदना आदि महिरंग कारणोंसे पैदा हुए तत्वार्थ-ज्ञानसे उत्पन्न हुआ तत्त्वार्थ श्रद्धान निसर्गज समझना चाहिए।
६. अधिगमज सम्यग्दर्शन स.सि /१/३/१२ यत्परोपदेशपूर्वकं जोवायधिगम निमित्तं तदुत्तरम्।
जो माह्य उपदेश पूर्वक जीवादि पदार्थोके ज्ञानके निमित्तसे होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है। (रा. वा./९/३.४१४/२३) । घ. १/१,१,१४४/गा. २१२/३६५ छप्पंच-णव-विहाणं अत्थाणं जिणवरोब. इठ्ठाणं । आणाए अहिगमेण व सहहणं होइ सम्मत! -जिनेन्द्र देवके द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नव पदार्थोंका आशा अथवा अधिगमसे श्रद्धान करनेको सम्यक्त्व कहते हैं। (गो. जो./म. ५६१/१००६)। गो. जी जी प्र. १५६९/१३ तच्छ्रवान..... अधिगमैन प्रमाणनयनिक्षेपनिरुक्त्यनुयोगद्वारै विशेषनिर्णयलक्षणेन भवति। -वह श्रद्धान प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण अर द्रव्यार्षिक पर्यायर्थिक नय अर नाम स्था पना द्रव्य भाव निक्षेप अर व्याकरणादिकरि साधित निरुक्ति अर निर्देश स्वामित्व आदि अनृयोग इत्यादि करि विशेष निर्णय रूप है
लक्षण जाका ऐसा जो अधिमगज श्रद्धान हो है। प्र. सा./ता. वृ./३/१९८/२८ परमार्थ विनिश्चयाधिगमशम्वेन सम्यक्त्वं कथं भण्यत इति चेत । परमोऽर्थः परमार्थः शुद्धबुद्ध कस्वभावः परमात्मा, परमार्थस्य विशेषणेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः परमार्थ निश्चयरूपोऽधिगमः। -परमार्थ विनिश्चय अधिगमका अर्थ सम्यक्त्व है। सो कैसे 1-परम अर्थ अर्थात परमार्थ अर्थात शुद्ध बुद्ध एकस्वभावी परमात्मा। परमार्थ के विशेषण द्वारा संशयादि रहित निश्चयको परमार्थ निश्चयरूप अधिगम कहा गया है।
७. निसर्गज व अधिगमज सम्यग्दर्शनमें अन्तर गो.क जो प्र/१५०/७४२/२३ निसर्गजेऽर्थावबोध स्यान्न बा। यदि स्यात्तदा तदप्यधिगमजमेव । यदि न स्यात्तदानवगततत्त्व. श्रद्दधीतेति । तन्न । उभयत्रान्तरणकारणे दर्शनमोहस्योपशमे क्षये क्षयोपशमे वा समाने च सत्याचार्यादयुपदेशेन जातमधिगमजं तद्विना जातं नैसर्गिकमिति भेदस्य सद्भावात् । -प्रश्न-जो निसर्ग विर्षे पदार्थनिका अवबोध है कि नाहिं, जौ है तो वह भी अधिगमज ही भया अर नाहीं है तो तत्त्वज्ञान बिना सम्यक्त्व कैसे नाम पाया -उत्तर-दोउनिविर्षे अन्तरंग कारण दर्शन मोहका उपशम, क्षय, क्षयोपशमकी समानता है। ताकी होतं तहाँ आचार्या दिकका उपदेश करि तत्त्वज्ञान होय सो अधिगम है। तीहि विना होइ सो निसर्गज है। यह दोनोंमें
अन्तर है। अन.ध./२/४६/१७६ पर उदधृत "यथा शूद्रस्य वेदार्थे शास्त्रान्तरसमीक्षणाव । स्वयमुत्पद्यते ज्ञानं तत्वार्थ कस्यचित्तथा।"-जिस प्रकार शूद्र वेदके अर्थका साक्षात् ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु ग्रन्थान्तरोंको पढकर उसके ज्ञानको प्राप्त कर सकता है। किसी-किसी जीवके तत्त्वार्थका ज्ञान भी इसी तरहसे होता है। ऐसे जीवोंके गुरूपदेशादिके द्वारा साक्षात तत्त्वबोध नहीं होता किन्तु उनके ग्रन्थोंके अध्ययन आदिके द्वारा स्वयं तत्त्वबोध और तत्त्वरुचि उत्पन्न हो जाती है। जन. घ./२/४६/१७६ केनापि हेतुना मोहवैधुर्यात्कोऽपि रोचते। तत्वं हि चर्शनायस्त कोऽपि च क्षोदयन्निधी । -जिनका मोह बेदमा अभिभवादिकों में से किसी भी निमित्तको पाकर दूर हो गया है, सम्यग्दर्शनको घातनेवाली सात प्रकृतियोंका बाह्य निमित्त वश जिनके उपशम क्षय या क्षयोपशम हो चुका है उनमेंसे कोई जीव तो ऐसे होते हैं कि जिनको बिना किसी चर्चाके विशेष प्रयास के ही तत्व में रुचि उत्पन्न हो जाती है और कोई ऐसे होते हैं कि जो कुछ अधिक प्रयास करनेपर हो माह्य निमित्तके अनुसार मोहके दूर हो जानेपर तत्त्वरुचिको प्राप्त होते हैं । अल्प और अधिक प्रयासका ही निसर्ग और अधिगमज सम्यादर्शनमें अन्तर है।
रखो.वा./२/१/३/४/६७/२६ न हि निसर्ग. स्वभावी येन ततः सम्यग्दर्शनमुत्पाद्यमानुपलब्धतत्त्वार्थगोचरतया रसायनबन्नोपपद्यत । निसर्गका अर्थ स्वभाव नहीं है जिससे कि उस स्वभावसे ही उत्पन्न हो रहा सत्ता सम्यग्दर्शन नहीं जाने हुए तत्त्वार्थोंको विषय करनेकी अपेक्षासे रसायनके समान सम्यग्दर्शन ही न बन सके, अर्थात रसायनके तत्त्वोंको न समझ करके क्रिया करनेवाले पुरुषके जैसे रसायनकी सिद्धि नहीं हो पाती है। श्लो.वा./२/१/३/२/६३/१३ स्वयंबुद्धश्रुतज्ञानमपरोपदेशमिति चेन्न, तस्य जन्मान्तरोपवेशपूर्वकत्वात् तज्जन्मापेक्षया स्वयबुद्धत्वस्याविरोधात ।प्रश्न-जो मुनिमहाराज स्वयंबुद्ध हैं अर्थात अपने आप ही पूर्ण श्रुतज्ञानको पैदा कर लिया है उन मुनियोंका श्रुतज्ञान तो परोपदेशकी अपेक्षा नहीं रहता, अत: उसको निसर्गसे जन्य सम्यग्ज्ञान कह देना चाहिए। (रा. वा.हि /१/३/२८)। उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उन प्रत्येक बुद्ध (स्वयंबुद्ध ) मुनियोंके भी इस जन्मके पूर्वके दूसरे जन्मोंमें जाने हुए आप्त उपदेशको कारण मानकर ही इस जन्ममें पूर्ण श्रुतज्ञान हो सका है । इस जन्मकी अपेक्षासे उनको स्वयंबुद्ध होने में
कोई विरोध नहीं है। घ.५/१६-१,३४/४३१/१ जाइस्सरण-जिणमिदंसणेहि विणा उप्पज्जमाण
गइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो। -जातिस्मरण और जिनबिम्ब दर्शनके मिना उत्पन्न होनेवाला नैसर्गिक प्रथम सम्यक्रम
असंभव है। ल. सा /जी. प्र/६/४ चिरातीतकाले उपदेशितपदार्थधारणलाभो बास देशनालग्धिर्भवति । तुशब्देनोपदेशकररहितेषु नारकादिभवेषु पूर्वभवश्रुतधारिततत्त्वार्थस्य संस्कारबलात सम्यग्दर्शनप्राप्तिर्भवति, इति सूच्यते। -अथवा लम्बे समय पहले तत्वों की प्राप्ति देशना लब्धि है।तु शब्द करि नारकादि विष तहाँ उपदेश देने वाला नाही तहाँ पूर्व भव विर्षे धारया हुवा तत्त्वार्थ के संस्कार बल ते सम्यग्दर्शनकी
प्राप्ति जाननी । (मो.मा.प्र//३८३१८)। प्रसा/ता. वृ/३/११६ परमार्थतोऽर्थावबोधो यस्मात्सम्यवस्वात्तव पर
मार्थ विनिश्चयाधिगमम् ।-क्योंकि परमार्थ से सम्यक्त्वसे ही अर्थावबोध होता है. इसलिए वह सम्यक्त्व हो परमार्थ विनिश्चयाधिगम है। रा. बा. हि.१/३/२८-२६ सम्यग्दर्शनके उपजावने योग्य बाह्य परोपदेश पहले होय है, तिस ते सम्यग्दर्शन उपजै है। पीछे सम्यग्दर्शन होय तब सम्यग्ज्ञान नाम पावै । * सर्वथा नैसर्गिक सम्यक्त्व असम्भव है-दे. सम्यग्दर्शन
III/२/१ ६.क्षायिक सम्यक्त्व साक्षात रूपसे अधिगमज व निसर्गज
दोनों होते हैं रलो वा /२/१/३/२/२०/६४ भाषा “किन्हीं कर्मभूमिया द्रव्य-मनुष्योंको केवली श्रुतकेक्लीके निक्ट उपदेशसे और उपदेशके बिना भी क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाता है। १०. पांचों ज्ञानोंमें निसर्गज व अधिगमजपना रा वा. हि/१/३/२८ केवलज्ञान श्रुतज्ञान-पूर्वक होता है तातै निसर्गपना नाहीं। श्रुतज्ञान परोपदेश-पूर्वक ही होता है। स्वयंबुद्धके श्रुतज्ञान हो है सो जन्मान्तर के उपदेश-पूर्वक है। (तात निसर्गज नाही) मति, अवधि, मन पर्ययज्ञान निसर्गज ही हैं।
११. चारित्र तो अधिगमज ही होता है श्लो वा./२१/३/२/२८/६४ चारित्रं पुनरधिगमजमेव तस्य श्रुतपूर्व करवात्तद्विशेषस्यापि निसर्गजत्वाभावाव द्विविधहेतुकत्वं न सभवति । -चारित्र तो अधिगमसे ही जन्य है। निसर्ग (परोपदेशके बिना
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अधिराज
अध्यवसाम
अन्य कारण समूह) से उत्पन्न नहीं होता है। क्योंकि प्रथम ही श्रुतज्ञानसे जीव आदि तत्वोंका निर्णय कर चारित्रका पालन किया जाता है, अत श्रुतज्ञान-पूर्वक ही चारित्र है। इसके विशेष अर्थात् सामायिक, परिहारविशुद्धि आदि भी निसर्गसे उत्पन्न नहीं होते । अत' चारित्र-निसर्ग व अधिगम दोनों प्रकारसे नहीं होता [अपितु अधिगमसे ही होता है। रा. वा. हिं/९/३/२८ चारित्र है सो अधिगम ही है तातें भूतज्ञानपूर्वक
अधिराज-दे. राजा। अधोऽधिगम-द्रव्य निक्षेपका एक भेद-वे निक्षेप सह । अधोमुख-नवम नारद । अपर नाम उम्मुख-दे. शलाकापुरुष । अधोलोक-१. चित्र-दे. लोक २/८ । २. व्याख्या-दे. नरक ५ । अध्यधि-१. आहारका एक दोष-दे. आहार 11/४। २. वसतिका
एक दोष-दे, वसति। अध्ययन-दे. स्वाध्याय । अध्ययन कुशल साधु-अ.आ./वि./४०३/५६२/६ स्वाध्यायं कृत्वा गव्यूतिद्वयं गत्वा गोचरक्षेत्रवर्सति गत्वा तिष्ठति । यत्र विप्रकृष्टोमार्गस्तत्र सूत्रपौरुष्यामर्थपौरुष्यावा मगल कृत्वा याति एवं स्वाध्यायकुशलता। -जो मुनि स्वाध्याय कर दो कोस गमन करता है और जहाँ आहार मिलेगा ऐसे क्षेत्रकी वसतिमें जाकर ठहरता है। यदि मार्ग दूर होय तो सुत्रपौरुषी अथवा अर्थ पौरुषीके समय मंगल करके आगे गमन करता है। वह स्वाध्याय कुशल मुनि है। अध्यवधि-१. आहारका दोष।-दे. आहार II/४/४।२. वसतिका
एक दोष । दे. वसति । अध्यवसान-सूसा /व आ /२७१/३५० बुद्धी ववसाओ वि य
अज्झवसाणं मईबविण्णाण । एक्कट ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो ॥ २७१ ॥ स्वरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितमात्रमध्यवसानम् । तदेव च बोधमात्रत्वादबुद्धि । व्यवसानमात्रत्वाद व्यवसाया। मननमात्रत्वान्मतिः । विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानम् । चैतनमानत्वाच्चित्तम् । चित्तो भवनमात्रत्वाद् भाव । चित्त परिण मनमात्ररवाद परिणाम। --बुद्धि, व्यवसाय, अध्यवसान, मति, विज्ञान, चित्त, भाव और परिणाम ये सब एकार्थ ही है। ॥ २७१ । स्व और परका ज्ञान न होनेसे जो जीवको निश्चिति होना यह अध्यवसान है। वही बोधन मात्रपनसे बुद्धि है, निश्चयमात्रपनसे व्यवसाय है, जानन मात्रपनसे मति है, विज्ञप्तिमात्रपनसे विज्ञान है, चेतन मात्रपनसे चित्त है, चेतनके भवन मात्रपनसे भाव है और परिणमन मात्रपनसे परिणाम है । अतसब शब्द एकाथवाची हैं। स. सा./ता वृ/१५/१५२ विल्पः यदा शेयतत्त्वविचारकाले करोति जीवः तदा शुद्वात्मस्वरूप विस्मरति तस्मिन्विकरपे कृते सति धर्मोs
हमिति विकल्प उपचारेण घटत इति भावार्थ ।। स. साता वृ/२७०/३४८ भेद विज्ञानं यदा न भवति तदाहं जीवात हिनस्मीत्यादि हिंसाध्यवसान नारकोऽहमित्यादि कर्मोदय अध्यबसान, धर्मास्तिकायोऽहमित्यादि ज्ञेयपदार्थाध्यवसानं च निर्विकल्प शुद्धात्मान सकाशाद्भिन्न न जानातीति ।। -ज्ञेय पदार्थ का विचार करते समय जब जीव विकल्प करता है तम शुद्धात्म स्वरूपको भूल जाता है। उस विकल्पके होनेपर मैं धर्मास्तिकाय द्रव्य हूँ' ऐसा विकल्प उपचारसे घटता है-यह भावार्थ है। भेद विज्ञान जब नहीं होता तम •मैं जीवोंको मारता हूँ' इस प्रकारका हिंसाध्यवसान होता है । 'मै नारको हूँ' इस प्रकारका कर्मोदय अध्यवसान होता है । 'मैं धर्मास्तिकाय हूँ'' इस प्रकारका ज्ञेयपदार्थ अध्यवसान होता है।
स्व. स्तो/टी./७/२६ अहमस्य सर्वस्य स्त्र्यादिविषयस्य स्वामीति क्रिया 'अहं क्रिया'। ताभिः प्रसक्त संलग्नः प्रवृत्तो वा मिथ्या. असत्यो, अध्यवसायो, अभिनिवेशः। -'मैं इन स्त्री आदि सर्व विषयोंका स्वामी हूँ' ऐसी क्रिया 'अह क्रिया है। इसके द्वारा प्रसक्त, संलग्न या प्रवृत्त मिथ्या है, असत्य है, अध्यवसाय है, अभिनिवेश है।
१. अध्यवसानके भेद स. सा./आ./२१७/२१८ इह खत्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसारविषया' कतरेऽपि शरीरविषया । तत्र यतरे संसारविषया ततरे अन्धनिमित्ता। यतरे शरीरविषयास्ततरे तूपभोगनिमित्ता । यतरे बन्धनिमित्तास्ततरे रागद्वेषमोहाद्या यतरे उपभोगनिमित्तास्ततरे मुखदु खाद्या । स, सा./आ/२७०/३४८ एतानि किल यानि त्रिविधा (अज्ञानादर्शमा
चारित्रसंज्ञकानि ) अध्यवसानानि समस्तान्यपि तानि शुभाशुभकर्मअन्धनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात् । -इस लोकमें निश्चयसे अध्यवसानके उदय कितने ही तो ससारके विषय हैं और कितने ही शरीरके विषय है। उनमें से जितने संसारके विषय है उतने तो बन्धके निमित्त हैं और जितने शरीरके विषय है उतने उपभोगके निमित्त है। वहाँ जितने बन्धके निमित्त है उतने तो राग द्वेष मोहादिक है और जितने उपभोगके निमित्त है उतने सुखदुःखादिक है। ये पूर्वोक्त अध्यवसान तीन प्रकारके है-अज्ञान, अदर्शन और अचारित्र । ये सभी शुभ अशुभ कर्म बन्धके निमित्त है क्योकि ये स्वयं अज्ञानादि रूप है।
२. अध्यवसान विशेषके लक्षण स.सा/आ./२७०/३४८ एतानि किल यानि त्रिविधाभ्यध्यबसानामि समस्तान्यपि तानि शुभाशुभकर्मबन्धनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात् । तथाहि, यदिद हिनस्मीत्याद्यध्यवसान तदज्ञानमयत्वेन आरमन' सदहेतुकज्ञप्त्येक क्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीन हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति ताबदज्ञान विवितात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शन, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् । यत्पुनरेष धर्मो ज्ञायत इत्याद्यध्यवसान तदपि ज्ञानमयस्वेनात्मन सदहेतुकज्ञान करूपस्य ज्ञेयमथाना धर्मादिरूपाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानास्ति ताबदज्ञान विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं विविक्तारमानाचरणादस्ति चाचारित्रम् । ततो बन्धनिमित्तान्येवैतानि समस्तान्यध्वसानानि ।-ये पूर्वोक्त अध्यवसान तीन प्रकारके हैं-अज्ञान. अदर्शन और अचारित्र। यह सभी शुभअशुभ कर्म बन्धके निमित्त हैं, क्योंकि ये स्वयं अज्ञानादि रूप हैं। किस तरह हैं सो कहते हैं- जो यह 'मैं जोवको मारता हूँ' इत्यादि अध्यवसान है, वह अज्ञानादि रूप है, क्योकि यात्मा तो ज्ञायक है, इस ज्ञायकपनसे ज्ञप्ति क्रिया मात्र ही (होने योग्य) है (हनन क्रिया नहीं) इसलिए सद्रूप द्रव्य दृष्टिसे किसीसे उत्पन्न नहीं, ऐसा नित्य रूप जानने मात्र ही क्रियावाला है। हनना घातना आदि क्रियाएँ है वे रागद्वेषके उदयसे है। इस प्रकार आत्मा और घातने
आदि क्रियाके भेदको न जाननेसे आत्माको भिन्न नहीं जाना, इसलिए 'मै पर जीवका घात करता हूँ' ऐसा अध्यवसान मिथ्याज्ञान है। इसी प्रकार भिन्नात्माका श्रद्धान न होनेसे मिथ्यादर्शन है। इसी प्रकार भिन्नात्माके अनाचरणसे मिथ्याचारित्र है । 'यह धम द्रव्य मुझसे जाना जाता है ऐसा अध्यवसान भी अज्ञानादि रूप ही है। आत्मा तो ज्ञानमय होनेसे ज्ञानमात्र ही है, क्योंकि सट्टप द्रव्य दृष्टिसे अहेतुक ज्ञानमात्र ही एक रूप वाला है। धर्मादिक तो झंयमय है। ऐसा ज्ञान ज्ञेयका विशेष न जाननेसे भिन्नात्माके अज्ञानसे मै धर्म द्रव्यको जानता हूँ' ऐसा भी अज्ञान रूप अध्यवसान है। भिवात्माके न देखनेसे श्रद्धान न होनेसे यह अध्यवसान मिथ्यादर्शन है और भिन्नात्माके अनाचरणसे यह अध्यवसान अचारित्र है। इसलिए ये सभी अध्यवसान बन्धक निमित्त हैं।
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अध्यवसाय
अध्यवसाय
स, सा /ता वृ/२७०/३४८ शुद्धात्मसम्यश्रद्वानज्ञानानुचरणरूपं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं भेदविज्ञान यदा न भवति तदाह जीवान् हिनस्मीत्यादि हिसाध्यवसान नारकोऽहमित्यादि कर्मोदयाध्यवसान, धर्मास्तिकायोऽयमित्यादि ज्ञेयपदार्था यवसान च निर्विकल्पशुद्वात्मन' सकाशाद्भिन्न न जानातीति । - शुद्वात्माका सम्यक् श्रद्वान, ज्ञान व अनुचरणरूप निश्चयरत्नत्रय लसणवाला भेदज्ञान जब नहीं होता तब भै जोयोका हनन करता हूँ इत्यादि हिसा आदि रूप अध्यबसान होता है। 'मै नारकी हूँ' इत्यादि कर्मोदयरूप अध्यरसान होता है। यह धर्मास्तिकाय है' इत्यादि ज्ञेय पदार्थ अध्ययसान होता है । निर्विकल्प शुद्भात्मको इन सबसे भिन्न नही जानता है।
३. अध्यवसान भावोकी अनर्थ कार्यकारिता स सा /म् /२६६/३४३ दुविखदमुहिदे जीवे करेमि बधेमि तह विमो
चेमि । जा एसा मूढमई णिरत्यया साहू दे मिच्छा ॥२६६॥ स.सा/आ./२६६/३४३ यदेतदध्यबसान तत्सर्वमपि परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थ क्रियाकारित्वाभावाद खकुसुम लुनामीत्यध्यवसानवम्मिथ्यारूपं केवलमात्मनोऽनरिव ।। स सा./ता.वृ/२६६/३४३ सुरिखतदु खितान् जोवान् करोमि, बन्धयामि, तथा विमोचयामि या एषा तब मति सा निरथिका निष्प्रयोजना स्फुटम् । अहो तत' कारणात् मिथ्या वितथा व्यलीका भवति। -भाई। तेरी जो ऐसी मूढबुद्धि है कि मै जोकोको दुखी-सुरखी करता हूँ, बंधाता हूँ और छडाता हूँ, वह मोहस्वरूप बुद्धि निरर्थक है सत्यार्थ नहीं है, इसलिए निश्चयसे 'मिथ्या है। जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योकि परभावका परमें व्यापार न होनेसे स्वार्थ-क्रियाकारीपन नहीं है। परभाव परमें प्रवेश नही करता । जैसे कोई ऐसा अध्यवसान करे कि 'मै आकाश-पुष्पको तोडता हूँ' इसी प्रकारके अध्यवसानवत् (वे सब उपर्युक्त भाव भी) मिथ्यारूप है, मात्र अपने अनर्थ के लिए ही है, परका कुछ भी करनेवाले नहीं है। मै जीवोको सुखी व दुखो करता हूँ, बॅधाता व छडाता हूँ, ऐसी जो रो बुद्धि है वह स्पष्टरूपसे निरर्थक व निष्प्रयोजन है। क्योकि अन्यको दुखी-सुग्वी करनेका अन्यका कार्य नहीं है । इसी कारण यह अध्यवसान मिथ्या है, वितथ है, व्यलीक है। अध्यवसाय-म सा /आ /२५०/३३१ परजीवानहं जीवयामि परजोवैर्जीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध वमज्ञानम् - मै परजीवोको जिलाता हूँ और परजीव मुझे जिलाते है, ऐसा आशय निश्चयसे अज्ञान है। (और भी दे अध्यवसान)।
१. स्थितिबन्ध अध्यवसायस्थान ध ११/४.२,६,१६५/३१०/६ सयमूलपयडीणं सग-उदयादो समुप्पण्णपरिणामाण सग-सगढिदिबंबकारणत्तेण ट्ठिदिबंधज्झवसाणाणाणंसब मूल प्रकृतियोके अपने-अपने उदयसे जो परिणाम उत्पन्न होते है उनकी हो अपनी-अपनी स्थिति के बन्धमें कारण होनेसे स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सज्ञा है। गो. जो/भाषा/३१०/१२ ज्ञानावरणादिक कर्मनि का ज्ञानको आवरना इत्यादिक स्वभाव करि संयुक्त रहनेको जो काल ताकी स्थिति कहिये, तिसके सम्बन्ध को कारणभूत जे परिणामनिके स्थान तिनिका नाम स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान है। २. कषाय व स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानमें अन्तर ध.११/१,२,६,१६५/३१०/३ (जदि पुण कसायउदयट्ठाणाणि चेव द्विदिबंध
झवसाणट्ठाणाणि) होति तो णेदमप्पाबहूगं घडदे, कसायोदयट्ठाणेण विणा मूलपयडिबंधाभावेण सवपयडिठिदिबंधज्झरसाणट्ठाणार्ण समाणत्तप्पसंगादो। तम्हा सध्यमूलपयडीण सग-सग-उदयादो समुप्पण्णपरिणामाण सग-सगहिदिबंधकारणतण हिदिबंधझवसाणठाणाणं । - यदि कषायोदय स्थान हो स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हो तो यह अल्पबहत्व घटित नहीं हो सकता है क्योंकि
क्षायोदय स्थानके बिना मूल प्रकृतियो का बन्ध न हो सब से सभी मूल प्रकृतियो के स्थितिबन्धाध्यवसाय सानोकी समानताका प्रसंग आता है । अतएव सब मूल प्रकृतियोके अपने अपने उदयसे जो परिणाम उत्पन्न होते है उनकी अपनी-अपनी स्थितिके बन्धमें कारण होनेसे स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान संज्ञा है।
३. अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानोमें हानि वृद्धि रचना ध ६/१६-७,४३/२००/३ मटि ठदिबधाणा एक्के कठिदि बंधट्ठाणाण एक्के कििदवधज्झवसाण ठाणस्स हेट्ठा छवार टकमेण असखेजलोगमेत्ताणि अणुभाग: धज्झवसाण हाणाणि होति । ताणि च जण कसाउदयअणुभागबधज्झवसाणाणप्पहुडि उवरि जाव जहण ट्ठिदि-उकस्सकस उदयद्वाण अणुभगबधझवसाण वाणाणि त्ति विसेसाहियाणि । बिसेसे पुण अखेज्जा लोगा।- सर्व स्थिति-बन्धों सम्बन्धी एक-एक स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानके नीचे उर्युक्त षड्वृद्धिके क्रमसे असख्यात लोकमात्र अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान होते है। वे अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान जधन्य कषायोदय सम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानसे लेकर ऊपर जधन्य स्थितिके उत्कृष्ट कषायोदयस्थानसम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसायस्थाम तक विशेषविशेष अधिक है। यहां पर विशेषका प्रमाण असख्यात लोक है। ४. अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानोमें गुणहानि शलाका
सम्बन्धी दृष्टिभेद गो क /जी प्र/६६४/११६१/१ अनुभागबन्धाध्यवसायानां नानागुणहानिशलाका सन्ति न सन्तोत्युपदेशद्वयमस्ति । अनुभाग बन्धाध्यक्षसायनि के नाना गुण हानि शलाका है वा नाही है ऐसा आचार्यनिके मतिकरि दोऊ उपदेश है।
५. स्थितिबन्ध अध्यवसायस्थानोमे हानि-वृद्धि रचना ध ६/१.६-७,४३/१६६/४ एक्के करस ट्ठिदिवघाण स्स अस खेज्जा लोगा दिदिबंधझवसाण ठाणाणि जहाकमेण विसेसाहियाणि । विसेसो पुण अस खेज्जा लोगा। ताणि च द्विदिवझवसाण ठाणाणि जहण्णाद्वाणादो जाबप्पप्पणो उक्कस्सहा, ताव अण तभागवड ढी असरखेज्जभागवड्डी, सखेजभागवड्ढी, सखेज्जगुणवढी, असंखेजगुणवड्ढी. अण तगुणवड्ढी त्ति छविधाए बड्ढीए टिठदाणि । अण तभागवडिढकेंडयं गतूण, एगा अस खेजभागबहढी होदि। अस खेजभागरिढकडयं गतूण एगा सखेज्जभागवड्ढी होदि। सखेज्ज भागड्किडय गतूण एगा सखेज्जगुण वडढो हादि । स खेज्जगुणवहि ढक ड्य ग तूण एगा असखेजगुणवड्ढी होदि । असखेज्जगुणवढिकडयं गंतूण एगा अण तगुणवद्धि होदि । एदमेगं छठाण । एरिसाणि असखेज्जलोगमेत्ताणि छट्ठाणाणि होति । = एक-एक स्थिति बन्धस्थानके अस ख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसाप स्थान हाते है। जो कि यथाक्रमसे विशेष - विशेष अधिक है। इस विशेषका प्रमाण असख्यात लक है। वे स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान जघन्य स्थानसे लेकर अपनेअपने उत्कृष्ट स्थान तक अनन्तभागवृद्धि, असरख्यात भागवृद्धि, सख्यातभागवृद्धि, सख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि, इस ६ प्रकारकी वृद्धिसे अवस्थित है। अनन्तभाग वृद्धिकाण्डक जाकर अर्थाद सुच्य गुलके असरूपातवें भाग मात्र बार अनन्तभागवृद्धि हो जानेपर एक बार असख्यातभागवृद्धि होती है । असंख्यातभागवद्धि काण्डक जाकर एक बार सख्यात भागवृद्धि होती है। सख्यातभागवृद्धि चाण्डक जाकर एक बार सरण्यातगुणवृद्धि होती है। सख्यातगुणवृद्धिकाण्डक जाकर एक बार असख्यात गुणवृद्धि होती है। असंख्पानगुणवृद्धि काण्डक जाकर एक बार अनन्तगुण वृद्धि होती है । ( यहाँ सर्वत्र काण्डकसे अभिप्राय सूच्यं गुलके असंख्यातवें भाग मात्र बारोसे है) यह एक षड्वृद्धि रूप स्थान है। इस प्रकारके असंख्यात लोकमात्र षड्वृद्धिरूप स्थान उन स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानों के होते है।
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अध्यात्म
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६. पहले-पहले वाले स्थितिबन्ध अध्यवसायस्थान अगलेअगले स्थानोंमें नही पाये जाते
भ. १९/४.२,८,१००/३६४/५ जागि बिदियार दिए विधाय खाणामागताणि तदिवाए विीए ट्ठिदिन] धन्यवाणट्ठाणेसु होति त्तिण घेत्तव्य, पढमख उज्झरसाणठाणाण तदिर्याट्ठदि अज्फरसाण ठाणेसु अणुवलं भादो । • जो स्थिति बन्ध अध्यवसाय स्थान (कर्मकी) द्वितीय स्थिति (बन्ध ) मे है, वे तृतीय स्थितिके अध्यवसायस्थानों में (भी) हाते है, ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए. क्योकि द्वितीय स्थितिके प्रथम खण्ड सम्बन्धी अध्यवसायस्थान तृतीय स्थितिके अध्यवसायस्थानोमे नही पाये जाते है । ७. स्थिति व अनुभाग बन्ध अध्यवसायस्थानोंमें परस्पर
सम्बन्ध
[६] ८/९.१-७,४३/२००/३ सम्म टिदिन घट्ठाणान एक्केक्ट्ठदिग्धसहेामेण अससेज्जलगमेतानि अणुभागधज्यसागर ठाणाणि होति सर्व स्थिति बन्धो सम्बन्धी एक-एक स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानके नीचे उपवृद्धि क्रमसे असंख्यात लोकमात्र अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान होते है । ८. अनुभाग अध्यवसायस्थानोंमें परस्पर सम्बन्ध
१. मूल प्रकृति - देखो म ४ / ३७१-३८६ / ९६८ । २. उत्तर प्रकृतिदेखो म७/६२६-६५८/२०२
अध्यात्म साता // ५२५ शुद्धात्मनि विशुद्धा धारभूतेऽनुष्ठानमध्यात्म अपने शुद्धात्मामें विशुद्धताका आधारभूत अनुष्ठान या आचरण अध्यात्म है । पं.का./ता.वृ./ २५५/१० अर्थ पदानामभेद रत्नत्रयतिपादकानामनुकूलं यत्र व्याख्यान क्रियते तदध्यात्मशास्त्रं भण्यते । - - अभेद रूप रत्नत्रय के प्रतिपादक अर्थ और पदोके अनुकूल जहाँ व्याख्यान किया जाता है उसे अध्यात्म शास्त्र कहते है ।
इ.स /टो २०/२३८ मिभ्यागादिसमस्त विकल्पजातरूपपरिहारेणस्यशुद्धात्मन्यनुष्ठानं तदध्यात्ममिति मिध्यावरागादि समस्त विकल्प समूह के त्याग द्वारा निज शुद्धात्मामें जो अनुष्ठान प्रवृत्ति करना, उसको अध्यात्म कहते है ।
सूपा / ६ / प जयचन्द "जहाँ एक आत्माके आश्रयनिरूपण करिये सो अध्यात्म है ।"
अध्यात्मक मलमार्तण्ड
राजमनी (वि. १६३२-१६५०) द्वारा रचित संस्कृत छन्द बद्ध आध्यात्मिक ग्रन्थ ( ती ४ / ८१ ) । अध्यात्मनयनय 1/1 अध्यात्मपदटीका - भट्टारक शुभचन्द्र (ई. १५९६ - ९५५६ ) द्वारा रचित एक आध्यात्मिक ग्रन्थ । ( दे शुभचन्द्र ) । अध्यात्मपद्धति
अध्यात्मरहस्य - आहार द्वारा नियमन तथा भावमनका स्वरूप दर्शानेवाला योग विषयक संस्कृत पद्यबद्ध ७२ श्लोक प्रमाण ग्रन्थ । अपर नाम योगोद्दीपन । समय ई १९४३ - १२४३ । ( ती. ४/४५ ) ।
अध्यात्मसंदोह — आचार्य योगेन्दुदेव ( ई. श ६ उत्तरार्ध ) द्वारा विरचित अपभ्रंश दोहा बद्ध आध्यात्मिक ग्रन्थ । ( दे, योगेन्दुदेव ) । अध्यात्म स्थान स. सा / आ. / ५२ / ६४ / ६ - यानि स्वपर करवाध्यासे सति विशुद्धचित्परिणामातिरिक्तलक्षणान्यध्यात्मस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य । स्वपरके एकत्वका अध्यास होनेपर विशुद्ध चैतन्य परिणामसे भिन्न लक्षणवाने अध्यात्म स्थान भी जीवके लक्षण नहीं है ।
मर
अनत
अध्यारोप - १. एक बातको भूलसे दूसरी जगह लगाना; २. मिथ्या
या निराधार कल्पना ।
अध्यास- सा./आ / ५२/६४/६ यानि स्वाति =स्व परके एकत्वका अभ्यास होनेपर ।
अध्रुव- १. मतिज्ञानका एक भेद- दे. मतिज्ञान ४२ मधी प्रकृति २
प्रकृतियों
अध्वर - १.५ / २७/११३ यागो यज्ञ कंतु पूजा रुपये ज्याभ्रो म मह इत्यपि पर्याय वचनान्यर्थनाविधे याग, यह ऋतु पूजा, सपर्या ज्या अभ्यर मस्त्र और मह ये सब पूजाविधि पर्यायवाचक शब्द है ।
..
अध्वान - ८ / ३, ५ /गा २ / ८ / २३ अध्वान अर्थात् बन्धसीमा । [ किस गुणस्थान तक बन्ध होता है । ] अनंगक्रीडा - रा.वा./७/२८.२/५८४/३९ व प्रजननं योनिश्च ततोऽन्यत्र क्रीडा अनङ्गक्रीडा अनेकविध प्रजननविकारेण जघनादन्यत्र चाड्गे रतिरित्यर्थ । लिग तथा भग या योनि अंग है। इससे दूसरे स्थान में क्रीडान फेलिसो अयोग्य अंगसे क्रीडा है अर्था काम सेवन के योग्य अगोको छोडकर अन्य अंगोंमें वा अन्य रीतिसे क्रीडा करना सो अनंगक्रीडा है ।
अनंत- द्रव्यो, पदार्थों व भावो तककी संख्याओं का विचित्र प्रकार से निरूपण करनेका ढग सर्वज्ञ मतसे अन्यन्त्र उपलब्ध नहीं होता। ये संख्याएँ गणनाको अतिक्रान्त करके वर्तनेके कारण असंख्यात ब अनत द्वारा प्ररूपित की जाती है। यद्यपि अनन्त संख्याको जानना अपक्ष के लिए सम्भव नहीं है फिर भी उसमें एक दूसरेको अपेक्षा तरतमता दर्शाकर बडी योग्यताके साथ उसका अनुमान कराया जाता है।
१. अनंतके भेद व लक्षण
१. अनंत सामान्यका लक्षण
स सि / ५ / ६ / २७५ अविद्यमानोऽन्तो येषा ते अनन्ता । - जिनका अन्त नहीं है, वे अनन्त कहलाते हैं ।
स. सि / ८ /६/३८६
अनन्तस] सारकारणस्याविध्यदर्शनममन्तम् - अनन्त ससारका कारण होनेसे मिथ्यादर्शन अनन्त कहलाता है । ध १ / १.१.१४०/३२ / ६ न हि सान्तस्यानन्त्यं विरोधात । सव्ययस्य निरायस्य राशे. कथमानन्त्यमिति चेन्न, अन्यथै कस्याप्यानन्त्यप्रसङ्गः । शव्ययस्यानन्तस्य न क्षयोऽस्तीत्येकान्तोऽस्ति = सान्तको अनन्त माननेमें विरोध आता है। प्रश्न- जिस राशिका निरन्तर व्यय चालू है, परन्तु उसमें आय नहीं है, तो उसको अनन्तपन कैसे बन सकता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, यदि सव्यय और निराय राशिको भी अनन्त न माना जावे तो एकको भी अनन्तपनेका प्रसंग आ जायेगा । व्यय होते हुए भी अनन्तका क्षय नहीं होता है यह एकान्त नियम है।
३ / १२.५१/२६०/६ जो रासी एमेन अमिणिट्ठादि सो असखेज्जो । जो पुण ण समप्पइ सो रासी अणंतो । एक-एक संख्या के घटते जानेपर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनन्त है। (ध. ३/१,२,२/१५/८ ) ( ध १४/५.६.१२८/२३/६)। २. अनंतके भेद-प्रभेव
[घ] ३/१.१.२/गा. ८/११/० नाम इमानियां सरसद पदेसियम | एगो उभयादसो वित्थारो सव्वभावो य । -नामानन्त, स्थापनानन्त, द्रव्यानन्त, शाश्वतानन्त, गणनानन्त, अप्रदेशिकानन्त, एकानन्सउभयानन्त, विस्तारानन्त, सर्वानन्त और भावानन्त इस प्रकार के ग्यारह भेद है ।
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अनत
अनत
ध ३/१,२,२/414 त दव्याणं त तं दुविह आगमदो णोआगमदो य। १२/३.-त जोआगमदो दवाण त त तिविह, जाणुगसरीरदब्वाण तं भवियदबाण त तब्बतिरिक्तदवाण त चेदि । १३/३, - तं दव्यादिरिक्तदवाण त तं दुविह, कम्माणं त णोकम्माणतमिदि। १५/१,त भावाणंत त दुविहं आगमदो णोआगमदो य । १५/६.तं गणणाणत त पि तिविह, परिक्ताणत जुत्ताणतं अण ताणतमिदि । १८/३,-तं अण ताणत त पि तिविह, जहण्णमुक्कसं मज्झिममिदि । १६/२ । द्रव्यानन्त आगम व नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है। नोआगम द्रव्यानन्त तीन प्रकारका है-ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्यानन्त, भव्य नोआगम द्रव्यानन्त, तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यानन्त। तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यानन्त दो प्रकारका है-बर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यानन्त और नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोबागम द्रव्यानन्त । आगम और नोआगमकी अपेक्षा भावानन्त दो प्रकारका है। गणनानन्त तीन प्रकारका है-परीतानन्त, युक्तानन्त, और अनन्तानन्त । और उपलक्षणसे परीतानन्त व युक्तानन्त भी तीन प्रकारका है -जधन्य अनन्तानन्त, उत्कृष्ट अनन्तानन्त और मध्यम अनन्तानन्त । (ति प /४/३११) (रा.बा./३/३८/ १२/२०६-२०७),
अनन्त
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२ स्थापना
१ नाम
८ उभयादेश - ७ एका ६. विस्तार
४ शाश्वत
३ द्रव्य
१० सर्व
६. अप्रदेशिक - -युक्तानन्त -- ५ गणना -अनन्तानन्त-
नोआगम-११ भाव
-
-परीतानन्त--
अपदेसियाण तं तं परमाणू।. एकप्रदेशे परमाणौ तद्व्यतिरिक्तापरो द्वितीय प्रदेशोऽन्तव्यपदेशभाक नास्तीति परमाणुरप्रदेशानन्त । जंतं एयाण तं लोगमज्झादो एगसेढि पेपरवमाणे अंताभावादो एयाणतं.. जहा अपारो सागरो, अथाह जल मिदि । जं तं उभयापंतं तं तधा चेव उभय दिसाए पेक्खमाणे अंताभावादो उभयादेसणत । जंतं वित्धाराणततं पदरागारेण आगास पेक्खमाणे अंताभावादो भवदि । जंत सव्वाणतत घणागारेण आगास पेवखमाणे अंताभावादो सवाणं तं भवदि । आगमदो भावाणत अणंतपाहुडजाणगो उबजुत्तो। जं तं णोआगमदो भावाण'त त तिकालजाई अणं तपज्जयपरिणदजीवादिदव्यं । -१. नामानन्त-कारणके बिना ही जीव अजीब और मिश्र द्रव्यकी 'अनन्त' ऐसी संज्ञा करना नाम अनन्त है (१९४३) । २. स्थापनानन्त-काष्ठ कर्म, चित्रकर्म, पुस्त ( वस्त्र ) कर्म, लेप्यकर्म, लेनकम, शैलम, भित्तिर्म, गृहकर्म, भेडकर्म अथवा दन्तकर्म में अथवा अक्ष ( पासा ) हो या कौडी हो, अथवा कोई दूसरी वस्तु हो उसमें 'यह अनन्त है' इस प्रकार की स्थापना करना स्थापनानन्त है ( ११/१) । ३. द्रव्यानन्तद्रव्यानन्त आगम नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है। आगम, ग्रन्थ, अतज्ञान, सिद्धान्त और प्रवचन ये एकार्थवाची शब्द है (१२/३)। १. आगम द्रव्यानन्त-अनन्त विषयक शास्त्रको जाननेवाले परन्तु वर्तमान में उसके उपयोगसे रहित जीवको आगमद्रव्यानन्त कहते है। (१२/११) । २ नोआगम द्रव्यानन्त-[बह नोआगम द्रव्यानन्त तीन प्रकारका है- ज्ञायक शरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्त ] उनमें से अनन्त विषयक शास्त्रको जाननेवाले (जीव ) के तीनों कालों में होनेवाले शरीरको ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्यानन्त कहते है (१३/३) । जो जीव भविष्यकाल में अनन्त विषयक शास्त्रको जानेगा उसे भाबि नो आगम द्रव्यानन्त कहते है। तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यानन्त दो प्रकारका है- कर्म तद्वयतिरिक्त और नोर्म तद्वयतिरिक्त । ज्ञानाबरणादिक आठ मौके प्रदेशोको कर्म तवचतिरिक्त नोआगमद्रव्यानन्त कहते है। कटक (ककण) रुचक ( ताबीज ) द्वीप और समुद्रादिक अथवा एकप्रदेशादिक पुद्गल द्रव्य ये सब नोर्म तद्वर्यातरिक्त नोआगमद्रव्यानन्त है (१४/१)। ४. शाश्वतासन्त-शाश्वतानन्त धर्मादि द्रव्योमें रहता है, क्योकि धर्मादि द्रव्य शाश्वतिक होनेसे उनका कभी भी विनाश नहीं होता। __ अन्त विनाशको कहते है । जिसका अन्त अर्थात् विनाश नहीं होता उसको अनन्त कहते है (१५/४) । ५. गणनानन्त-गणनानन्त बहुवर्णनीय है तथा सुगम है ( दे आगे पृथक् लक्षण) 1६. अप्रदेशानन्त-एक परमाणुको अप्रदेशानन्त कहते है। क्योकि, एकप्रदेशी परमाणु में उस एक प्रदेशको छोडकर 'अन्त इस सज्ञाको प्राप्त होनेवाला दूसरा प्रदेश नही पाया जाता है, इसलिए परमाणु अप्रदेशानन्त है ( १)। ७. एकानन्त-लोकके मध्यसे आकाशके प्रदेशाकी एक श्रेणीको ( एक दिशामें ) देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता, इसलिए उसका एकानन्त कहते है-जसे अथाह समुद्र, अथाह जलादि। Lnidinectional infinite (ज.प/9.१०१)। ८. उभयानन्त-लोक्के मध्यसे आकाश प्रदेश पक्तिको दो दिशाओमें देखनेपर उनका अन्त नहीं पाया जाता है, इसलिए उसे उभयानन्त कहते हैं। विस्तारानन्त--आकाशको प्रतर रूपसे देखनेपर उसका अन्त नहीं पाया जाता इसलिए उसे विस्तारानन्त कहते हैं (१६/७ ) । १० सर्वानन्त -- आकाशको घन रूपसे देखनेपर उसका अन्त नहीं पाया जाता इसलिए उसे सनिन्त कहते हैं (१)। ११. भावानन्त-आगम और नोआगमकी अपेक्षा भावानन्त दो प्रकारका है। १ आगम भावानन्त - अनन्त विषयक शास्त्रको जानने वाले और वर्तमानमें उसके उपयोगसे उपयुक्त जीवको आगम भावामन्त कहते है। २.नोआगम भावानन्त-त्रिकाल जात अनन्त पर्यायोसे परिणत जीवादि द्रव्यको नोआगम भावानन्त कहते है।
आगम
उत्तम मध्यम जघन्य
आगम
नोआंगम
ज्ञायक शरीर
भव्य तद्व्यतिरिक्त
कर्म
• नोकर्म ३. गामादि ११ भेदोंके लक्षण ध, ३/१,२,२/११-१६/४ णामार्ण तं जीवाजीव मिस्सद व्वस्स कारणणिरवेस्खा सण्णा अणता इदि । जं तंवणाणतं णाम कक्म्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्सकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेनु वा भित्तिकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा दप्तकम्मेसु वा अवरवो वा वराडयो वाजेच अण्णे वणाए विदा अण तमिदि तं सब ठवणाणतं णाम । . आगमो गंथो सुदणाणं सिद्ध'तो पबयणमिदि एगट्ठो तत्थ आगमदो दव्वाणं तं अर्ण तपाहुड जाणओ अणुवजुत्तो । आगमादण्णो णोआगमो। तत्थ जाणुगसरीरदब्याण त अणंतपाहुडजाणुगसरोरं तिकालजादं ।...भवियाण तं अणं तप्पाइडजाणुगभावी जोवो. तं कम्माणं तं तं कम्मस्स पदेसा। तं णोकम्माणं तं तं कंडय-रूजगदीव समुदादि एयपदेसादि पोग्गलदब
बात सस्सदातं तं धम्मादिदव्वगयं । कुदो। सासयत्तेण दव्याणं विणासाभावादो। जं तं गणणाणत त बहुवण्णणीयं सुगम च। जंत
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अनंत
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तो जघन्य पगेतानन्त == न.पज -
४. जघन्यादि परीतानन्तके लक्षण रा. वा. ३/३८/५/२०७/७ यज्जघन्या संख्येयासंख्येय तद्विरलीकृत्य पूर्वविधिनात्रोन्वारान् वगितसंवर्गित उत्कृष्टासंख्येयास ख्येय प्राप्नोति । तता धर्माधर्मकजीवलोकाकाशप्रदेशप्रत्येकशरीरजोबबादरनिगोतशरीराणि धडप्येतान्यसरव्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि योगविभागपरिच्छेदरूपाणि चाख्येयलोकप्रदेशपरिमाणान्युत्सपिण्यवसर्पिणीसमयांश्च प्रक्षिप्य पूर्वोक्तराशौ त्रोन्वारान् वर्गितसंगित कृत्वा उत्कृष्टासख्येयासख्येयमतीत्य जघन्यपरोतानन्त गत्वा पतितम् ।...यज्जघन्यपरीतानन्त तत्वपूर्ववगितसवगितमुत्कृष्टपरीतानन्तमतीत्य जघन्ययुक्तानन्तं गत्वा पतितम् । तत् एकरूपेऽपनोतेउत्कृष्ट परोतानन्तं तद्भवति। मध्यममजघन्योत्कृष्ट परीतानन्तम् । - जघन्य संख्येयासंख्येय (देखो अस ख्यात) को विरलन कर पूर्वोक्त विधिसे (दे. नीचे) तीन बार वगित संगित करनेपर भी उत्कृष्ट संख्येयासंख्येय नहीं होता। इसमें धर्म, अधर्म, एक जीव व लोकाकाशके प्रदेश, प्रत्येक शरीर, बादर निगोद शरीर ये छहो असंख्येय, स्थिति बन्धाध्यवसाय स्थान, अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थान, योगके अविभाग प्रतिच्छेद, उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालके समयोको जोडकर तीन बार वगित संवगित करनेपर उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयका उल्लघकर जघन्यपरीतानन्तमे जाकर स्थित होता है। यह जो जघन्य परीतानन्त उसको पूर्ववत् वगितसंवर्गित करनेपर उत्कृष्ट परीतानन्तको उल्लंघकर जघन्य युक्तानन्तमे जाकर गिरता है। उसमे से एक कम करनेपर उत्कृष्ट परीतानन्त हो जाता है। मध्यम परीतानन्त इन दोनो सीमाओके बीचमे अजघन्य व अनुत्कृष्ट रूपवाला है । (ति.प.४/३१०/१८१) (त्रि. सा ४५-४६) ।
यह
५. वगित संगित करनेकी प्रतिक्रिया ध ५/प्र. २३ (ध. ३/१,२,२/२०)
अ अज-जघन्य असंख्यातासख्यात
[ यही राशि]
मध्यम परीतानन्त - न.प.म. =>न प ज, किन्तु <न प उ. अर्थात न प ज. से बड़ा और न.प.उ. से छोटा। उत्कष्ट परीतानन्त= न.प.उ -न.प ज.-१ ६. जघन्यादि युक्तानन्तके लक्षण रा.बा /३/३८,६/२०७/१४ यज्जघन्यपरीतानन्त तत्पूर्ववगितस वर्गितमुत्कृष्टपरोतानन्तमतीत्य जघन्ययुक्तानन्त गत्वा पतितम् • यजघन्ययुक्तानन्त तद्विरलीकृत्यात्रैकैकरूपे जधन्ययुक्तानन्त दत्वा सकृद्वगितमुत्कृष्टयुक्तानन्तमतीत्य जघन्यमनन्तानन्त गत्वा पतितम् । तत् एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टयुक्तानन्त भवति । मध्यममजघन्योत्कृष्टयुक्तानन्तम् । =जघन्य परीतानन्त पूर्ववत् वर्गित, संवर्गित उत्कृष्ट परीतानन्तको उक्ल घ कर जघन्य युक्तानन्तमे जाकर स्थित होता है। इस जघन्य युक्तानन्तको विरलन कर प्रत्येकपर जघन्ययुक्तानन्तको रख उन्हे परस्पर वर्ग करने पर उत्कृष्ट युक्तानन्तको उल्लंघकर जघन्य परीतानन्त
(जघन्य युक्तानन्त) को प्राप्त होता है अर्थात (जघन्य युक्तानन्त) राशि जघन्य अनन्तानन्तके बराबर है । इसमें से एक कम करनेपर उत्कृष्ट युक्तानन्त होता है । मध्यम युक्तानन्त इन दोनोकी सीमाओं के बीचमें अजघन्य व अनुत्कृष्ट रूप है। (ति प/४/३११) (त्रि.सा/ ४६-४७)।
७. जघन्यादि अनन्तानन्तके लक्षण रा.वा./३/३८,५/२०७/१६ यज्जघन्ययुक्तानन्त तद्विरलीकृत्यात्रैकैकरूपे जघन्ययुक्तानन्त दत्वा सकृद्वगितमुत्कृष्टयुक्तानन्तमतत्य जघन्यानन्तानन्त गत्वा पतितम् ।. यजघन्यानन्तानन्तं तद्विरलीकृत्य पूर्ववत्रीन्वारान् वगितसंगितमुत्कृष्टानन्तानन्त न प्राप्नोति, तत सिद्धनिगोत जीववनस्पतिकायातीतानागतकालसमय सर्व पुद्गलसर्वाकाशप्रदेशधर्माधर्मास्तिकायागुरुल घुगुणानन्तान् प्रक्षिप्य प्रक्षिप्य तीन बारात् वगितस बगिते कृते उत्कृष्टानन्तानन्तन प्राप्नोति ततोऽनन्ते केवलज्ञाने दर्शने च प्रक्षिप्ते उत्कृष्टानन्तानन्त भवति। तत एकरूपेऽपनीतेऽजघन्योत्कृष्टानन्तानन्त भवति। - जघन्य युक्तानन्तको विरलन कर प्रत्येकपर जघन्य युक्तानन्तको रख उन्हे परस्पर वर्ग
(जघन्य युक्तानन्त) । करनेपर अर्थात (जघन्य युक्तानन्त)
उरष्ट युक्तामन्तसे आगे जघन्य अनन्तानन्तमें जाकर प्राप्त होता है. इस जघन्य अनन्तानन्तको पूर्ववत् विरलीकृत कर तीन बार वर्गित सवगित करनेपर उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्राप्त नहीं होता है। उसमें सिद्ध जीव, निगोद जीव, बनस्पति काय वाले जीव, अतीत व अनागत कालके समय, सर्व पुद्गल, सर्व आकाश प्रदेश, धर्म व अधर्मास्तिकाय द्रव्योके अगुरुलघु गुणोके अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद जोडें। फिर तीन बार बगित सवगित करे। तब भी उरकृष्ट अनन्तानन्त नहीं होता है। अत उसमें केवल ज्ञान व केवलदर्शनको (अर्थात इनके सर्व अविभागी प्रतिच्छेदोको) जोडें, तब उत्कृष्ट अनन्तानन्त होता है। उसमे-से एक कम करनेपर अजघन्योत्कृष्ट या मध्यम अनन्तानन्त होता है । (ति.प/४/३११) (ध. ३/१,२,२/१८/५) (त्रि सा./४७-५१)
(अ अ ज)) (अ अज)
यदि
(अ अज)
(अअज)
'ख' = क + (धर्म व अधर्म द्रव्य तथा एक जीव व लोकाकाशके प्रदेश +प्रत्येक शरीर जीव+बादर निगोद शरीर ये छह )
+४ निम्नराशि
'ग'
४ राशि-स्थिति बन्धाध्यवसाय स्थान + अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थान+योगके अविभाग प्रतिच्छेद + उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालोंके कुल समय।
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अनंत
(ध. ५ / २४) जघन्य अनन्तानन्त न. न. ज. ।
(न न ज )
'ज्ञ'
(न नज)
{(7)
+ ६ राशि
I
त्र)
(न.न ज )
त्रि
|{ Collima ) }
B
छः राशि - सिद्ध + साधारण वनस्पति निगोद वनस्पति काय + अतीत व अनागत कालके समय या व्यवहार काल + पुद्गल + अलो
काकाश ।
न...)
{
(क्ष)
(अ.स)
(क्ष)
(न न ज )
(न. न ज )
यदि 'क्ष'
दो राशि धर्म व अधर्म द्रव्य के अगुरुलघु गुणोंके अविभाग प्रतिच्छेद ।
{*
(k)
(क्षक्ष)
97
+ दो राशि
५७
अनत
तब केवल ज्ञान राशि > ज्ञ
उत्कृष्ट अनन्तानन्तन न उ, ज्ञ+ केवलज्ञान व केवलदर्शन के अविभाग प्रतिय
२. अनन्त निर्देश
१. अनन्त वह है जिसका कभी अन्त न हो।
ध १/१ १,१४१ / ३६२ / ६ न हि सान्तस्यानन्त्य विरोधात् । सव्ययनिरायस्य राशे कथमानन्त्यमिति चेन्न, अन्यथैकस्याप्यानन्त्यप्रसङ्ग । सव्ययस्यानन्तस्य न क्षयोऽस्तीत्येकान्तोऽस्ति स्वसंख्येयासख्येय भागव्ययस्य राशेरनन्तस्यापेक्षया तद्विव्यादिसख्येयराशिव्ययतो न क्षयोऽपोत्यभ्युपगमात् । अर्ध पुद्गल परिवर्तन कालस्यानन्तस्यापि क्षय दशनादमेकान्तिक आनरयहेतुरिति चेस उभयोभिनिबन्ध प्रा नन्तयो' साम्याभावतोऽर्द्ध पुद्गल परिवर्तनस्य वास्तवानन्त्याभावात् । तथा अपरिवर्तनास सक्षयोऽप्यनन्नुप पर्यन्तत्वात् । केवलमनन्तस्तद्विषयत्वाद्वा । जीवरा शिस्तु पुन' सख्येयराशिक्षयोऽपि निर्मूलप्रलयाभावादनन्त इति । कि च सम्ययस्य निरवशेषम्युपगम्यमाने कालस्यापि निरवशेषक्षयो जायेत सध्य
I अस्तु चेन्न, सक्लपर्यायी वस्तु स्वलक्षणस्याभावाय जो राशि सान्त होती है उसमें अनन्तपन नही बन सकता है, क्योकि सान्तको अनन्त माननेमें विराध आता है। प्रश्न- जिस राशिका निरन्तर व्यय चालू है,' परन्तु इसमें आय नही होती है तो उसको अनन्तपन कैसे बन सकता है " उत्तर- नहीं, क्योकि यदि सव्यय और निराय राशिको भी अनन्त न माना जावे तो एकको भी अनन्त माननेका प्रसग आ जायेगा । व्यय होते हुए भी अनन्तका क्षय नही होता. यह एकान्त नियम है, इसलिए जिसके संख्यातवे और अस ख्यातवे भागका व्यय हो रहा है ऐसी राशिका, अनन्तकी अपेक्षा उसकी दो तीन आदि सख्यात राशिके व्यय होनेसे भी क्षय नहीं होता है, ऐसा स्वीकार किया है। प्रश्न- अर्ध पुदगल परिवर्तन रूप काल अनन्त होते हुए भी उसका क्षय देखा जाता है। इसलिए भव्य राशिके क्षय न होनेमें जो अनन्त रूप हेतु दिया है वह व्यभिचरित हो जाता है ' उत्तर- नहीं, क्योंकि भिन्न-भिन्न कारणो से अनन्तपनको प्राप्त भव्य राशि और अर्धपुद्गल परिवर्तन काल वास्तव में अनन्त रूप नहीं है। आगे इसीका स्पष्टीकरण करते हैं। परिवर्तनका क्षय सहित होते हुए भी इस लिए अनन्त है कि छद्मस्थ जीवोके द्वारा उसका अन्त नहीं पाया जाता है। किन्तु केवलज्ञान वास्तवमें अनन्त है । अथवा अनन्तको विषय करनेवाला होनेसे वह अनन्त है। जोव राशि तो उसका सरख्यातने भाग रूप राशिके क्षय हो जानेपर भी निर्मूल नाश नहीं होनेसे, अनन्त है । अथवा ऊपर जो भव्य राशिके क्षय होनेमें अनन्त रूप हेतु दे आये है, उसमें छद्मस्थ जीवोके द्वारा अनन्तकी उपलब्धि नहीं होती है, इस अपेक्षा के बिना ही, यह विशेषण लगा देने से अने कान्तिक दोष नही आता है। दूसरे व्यय सहित अनन्तके सर्वथा क्षय मान लेनेपर कालका भी सर्वथा क्षय हो जायेगा, क्योंकि व्यय सहित होनेके प्रति दोनों समान है। प्रश्न- यदि ऐसा ही मान लिया जाये तो क्या हानि है । उत्तर-नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर कालकी समस्त पर्यायोके क्षय हो जानेसे दूसरे द्रव्योंकी स्वलक्षण रूप पर्यायोंका भी अभाव हो जायेगा। और इसलिए समस्त वस्तुओं के अभाव की आपति आ जायेगी (६.४ / १.५-४/३३८/४) । स.म./२६/रतो, २ में उधृत २२२/५ अध्यन्नातिरिक्त युज्यते परिमाणयद वस्तुयपरिमेये तु नून तेषामसंभव ॥२॥ अपरिमित वस्तुका न कभी अन्त होता है, न कभी घटती है और न समाप्त होती है। द्र. सं /टी./३७/१५७ यथा भावितकाले समयानां क्रमेण गच्छतां यद्यपि भाविकालसमयराशेः स्तोकस्वं भवति तथाप्यवसानं नामित तथा मुक्ति गच्छतां जीवानां यद्यपि जीवराशे' स्तोक्त्व भवति
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अनंत
अनंत
तथाप्यवसान नास्ति ।-क्रमसे जाते हुए जो भविष्यवकालके समय, उनसे यद्यपि भविष्यत्कालके समयोकी राशिमें कमी होती है, फिर भी उस समय-राशिका कभी अन्त न होगा, इसी प्रकार मुक्तिमें जाते हुए जीवोंसे यद्यपि जगत में जीवराशिको न्यूनता होती है तो भी उस राशिका अन्त नहीं होता। २. अनन्तको सिद्धि रा.वा /५/६,३-५/४५२/३४ न च तेन परिच्छिन्नमित्यतः सान्तम् । अनन्तेनानन्तमिति ज्ञातस्वात। मात्र सर्वे प्रवादिनो विप्रतिपद्यन्तै केचित्तावदाहु' - 'अनन्ता लोकधातवः' इति । अपरे मन्यन्ते-दिक्कालात्माकाशाना सर्वगतत्वाद अनन्तत्वमिति । इतरे ब्र वते-प्रकृतिपुरुषयोरनन्तत्व सर्वगतत्वादिति। न चैतेषामनन्तत्वादपरिज्ञानम्, नापि परिज्ञानत्वमात्रादेव तेषामन्तवत्त्वम्।. यस्य अर्थानामानन्त्यमपरिज्ञातकारणं तस्य सर्वज्ञाभाव प्रसजति। अथान्तवत्त्वं स्यात् ससारो मोक्षश्च नोपपद्यते । कथमिति चेत्, उच्यते जीवाश्चेत्सान्ता , सर्वेषां हि मोक्षप्राप्तौ संसारोच्छेद' प्राप्नोति। तद्भयात मुक्ताना पुनरावृत्त्यभ्युपगमे स मोक्ष एव न स्यात अनास्यन्तिकत्वात् । एकै कस्मिन्नपि जीवे कर्मादिभावेन व्यवस्थिता पुदगला अनन्ताः, तेषामन्तवत्त्वे सति कर्मनोकर्मविषयविकल्पाभावात् ससाराभावः तदभावान्मोक्षश्च न स्यात् । तथा अतीतानागतकालयोरन्तवत्त्वे प्राक् पश्चाच्च कालव्यवहाराभाव स्यात्। न चासौ युक्त असत प्रादुर्भावाभावाव सतश्चात्यन्त विनाशानुपपत्तरिति। तथा आकाशस्यान्तवरवाभ्युगगमे ततो बहिर्घनत्वप्रसङ्ग । नास्ति चेदघनत्वम् आकाशेनापि भवितव्यमित्यन्तवत्स्वाभाव प्रश्न-अनन्तको केवलज्ञानके द्वारा जान लेनेसे अनन्तता नहीं रहेगी। उत्तर-१. उसके द्वारा अनन्तका अनन्तके रूपमें ही ज्ञान हो जाता है। अत: मात्र सर्वज्ञके द्वारा ज्ञानसे उसमें सान्तत्व नहीं आता। २. प्राय' सभी वादी अनन्त भी मानते हैं और सर्वज्ञ भी। बौद्ध लोग धातुओंको अनन्त कहते है। वैशेषिक दिशा, काल, आकाश और आत्माको सर्वगत होनेसे अनन्त कहते हैं। सौख्य पुरुष और प्रकृतिको सर्वगत होनेसे अनन्त कहते है। इन सबका परिज्ञान होने मात्रसे सान्तता हो नहीं सकती। अतः अनन्त होनेसे अपरिज्ञानका दूषण ठीक नहीं है। ३. यदि अनन्त होनेसे पदार्थको अज्ञेय कहा जायेगा तो सर्वज्ञका अभाव हो जायेगा। ४. यदि पदार्थोंको सान्त माना जायेगा तो संसार और मोक्ष दोनोंका लोप हो जायेगा। सो कैसे, वह बताते हैं(१) यदि जीवोंको सान्त माना जाता है तो सब जीव मोक्ष चले जायेंगे तब संसारका उच्छेद हो जायेगा। यदि ससारोच्छेदके भयसे मुक्त जीवोंका ससारमें पुन' आगमन माना जाये तो अनात्यन्तिक होनेसे मोक्षका भी उच्छेद हो जायेगा। (२) एक जीवमें कर्म और नोकर्म पुदगल अनन्त है। यदि उन्हें सान्त माना जाये तो भी संसारका अभाव हो जायेगा और उसके अभावसे मोक्षका भी अभाव हो जायेगा। (३) इसी तरह अतीत और अनागत कालको सान्त माना जाये तो पहले और बादमें काल व्यवहारका अभाव ही हो जायेगा, पर यह युक्तिसंगत नहीं है। क्योकि असतकी उत्पत्ति और सदका सर्वथा नाश दोनो ही अयुक्तिक है। (४) इसी तरह आकाशको सान्त माननेपर उससे आगे कोई ठोस पदार्थ मानना होगा। यदि नहीं तो आकाश ही आकाश माननेपर सान्तता नहीं रहेगी। ज, प./प्र.१.२/(प्रो. लक्ष्मीचन्द्र ) पायथागोरियन युगमें 'जीनो के तोंने इसकी सिद्धि की थी। केटरके कन्टीनम् ( continuum) १,२,३...के अल्पबहुत्वसे अनन्तके अल्पबहत्वकी सिद्धि होती है।.. जार्ज केन्टरने 'Abstractset Theory' की रचना करके अनन्तको स्वीकार किया है।
३. अर्थपुद्गल परिवर्तनको अनन्त कैसे कहते हैं घ.१/१,१,१४१/३६३/२ अर्धपुदगलपरिर्तनकाल. सक्षयोऽप्यनन्त छद्मस्थैरनुपलब्धपर्यन्तत्वात् । केवलमनन्तस्तद्विषयत्वाद्वा ।-अर्द्ध पुद्गल
परिवर्तनकाल क्षय सहित होते हुए भी इसीलिए अनन्त है कि छद्मस्थ जीवोंके द्वारा उसका अन्त नहीं पाया जाता है। वास्तवमें केवलज्ञान अनन्त हैं अथवा अनन्तको विषय करनेवाला होने से वह
अनन्त है। ध.३/१,२,५३/२६७/७ कधं पुणो तस्स अद्धपोग्गलपरिमट्टस्स अण तयवएसो। इदि चे ण, तस्स उबयारणिबधणत्तादो। तं जहा अण तरस केवलणाणस्स अद्धपोग्गल परियट्टकालो वि अण तो होदि। प्रश्न-अखपुद्गल परिवर्तनकालको अनन्त सज्ञा कसे दी गयी है। उत्तर-नहीं, क्योंकि अर्धपुदगल परिवर्तनकालको जो अनन्त सज्ञा दी गयी है, वह उपचार-निमित्क है। आगे उसीका स्पष्टीकरण करते है-अनन्त रूप केवलज्ञानका विषय होनेमे अर्द्ध पुदगल परिवर्तनकाल भी अनन्त है ऐसा कहा जाता है। (ध.३/१.२.२/२५-२६/३), (घ४/१,२,२३/२६६) (ध. १४/५,६,१२८/२३५/८) ।
४. अनन्त, संख्यात व असंख्यातमें अन्तर घ.३/१,२.५८/२६७/५ किमस खेज्ज णाम । जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमाणे णिट्टादि सो असस्वेज्जो। जो पुण ण समप्पइ सो रासी अणं तो। जदि एवं तो वयसहिदसवय अद्धपोग्गलपरियट्टकालो यि अस खेज्जो जायदे । होदु णाम । कध पुणो तस्स अद्धपोग्गलपरियट्टरस अर्ण तबबएसो। इदि चे ण, तस्स उबयारनिबधणादो। तं जहा-अणं तस्स केवलणाणस्स विसयत्तादो अद्धपोग्गल परियट्टकालो वि अण तो होदि । केबलणाणविसयत्त पडि विसेसाभावा सव्वस खाणमा तरुण जायदे। चे ण, ओहिणाणबिसयवदिरित्तस खाणे अण्णबिसयम तदुवयारपवुत्तादो। अहवा जं सखाण पंचिदियविसओ त स खेज्ज णाम । तदो उबरि जमोहिणाणविसओ तमस खेज्ज णाम । प्रश्नअसंख्यात क्सेि कहते है, अर्थात अनन्तसे असख्यातमें क्या भेद है ! उत्तर-एक-एक संख्या घटाते जानेपर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनन्त है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो व्यय सहित होनेसे नाशको प्राप्त होनेवाला अर्धपुदगल परिवर्तन काल भी असंख्यात. रूप हो जायेगा। उत्तर-हो जाये। प्रश्न--तो फिर उस अर्ध पुदगलपरिवर्तनकालको अनन्त संज्ञा कैसे दी गयी है। उत्तर--नहीं, क्योंकि अर्ध पुद्गल परिवर्तनकालको जो अनन्त सज्ञा दी गयी है वह उपचार निमित्तक है। आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैअनन्तरूप केवलज्ञानका विषय होनेसे अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल भी अनन्त है, ऐसा कहा जाता है। प्रश्न - केवल ज्ञान के विषयत्वके प्रति कोई विशेषता न होनेसे सभी संख्याओको अनन्तत्व प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि, जो सख्याएँ अवधिज्ञानका विषय हो सकती है उनसे अतिरिक्त ऊपरकी संख्याएँ केवलज्ञानको छोडकर दूसरे और किसी ज्ञानका विषय नही हो सकतीं, अतएव ऐसी संख्याओमें अनन्तत्वके उपचारकी प्रवृत्ति हो जाती है। अथवा, जो संख्या पाँचों इन्द्रियोका विषय है वह संख्यात है, उसके ऊपर जो संख्या अवधिज्ञानका विषय है वह अस ख्यात है, उसके ऊपर जो सख्या केवलज्ञानके विषय-भावको ही प्राप्त होती है वह अनन्त है। त्रि. सा./५२ जावदिय पच्चक्रव जुग मुदओहिकेवलाण हवे। तावदियं सखेज्जमसखमणत' कमा जाणे ॥५२॥-यावन्मात्र विषय युगपत प्रत्यक्ष श्रुत, अवधि, केवलज्ञानके होंहि तावन्मात्र सख्यात असंरण्यात अनन्त क्रमतें जानऊ। ५. सर्वज्ञत्वके साथ अनन्तत्वका समन्वय रा,वा.५/६,३-४/४५२/२४ अनन्तत्वादपरिज्ञान मिति चैत, न, अतिशयज्ञानदृष्टत्वात् ॥३॥ स्यादेतत्-सर्व शेनानन्द परिच्छिन्न बा, अपरिच्छिन्न वा। यदि परिच्छिन्नम् उपलब्धावसानस्वाद अनन्तत्वमस्य हीयते। अथापरिच्छिन्नमः तत्स्वरूपानवबोधाद् असर्वज्ञत्वं स्मादिति । तन्न किं कारणम् । अतिशयज्ञानदृष्टत्वात । यत्तत्केव लिनी ज्ञानं क्षायिकम् अतिशयबद् अनन्तानन्तपरिमाण तेन तदनन्तमय
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अनंतकथा
अनंतविजय
ध. ३१.३॥ अनादि
बुध्यते साक्षात् । तदुपदेशादितरैरनुमानेनेति न सर्वज्ञत्वहानिः । न च तेन परिच्छिन्नमित्यत सन्तम् अनन्तेनानन्तमिति ज्ञातत्वात् । कि च सर्वेषामविप्रतिपत्ते ॥४॥=प्रश्न--अनन्त होनेके कारण वह ज्ञानमे नही आना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि अतिशय रूप केवलज्ञानके द्वारा उसे भी जान लिया जाता है। प्रश्न-सर्वज्ञके द्वारा अनन्त जाना जाता है अथवा नही जाना जाता । यदि अनन्तको सर्वज्ञने जाना है तो अनन्तका ज्ञानके द्वारा अन्त जान लेनेसे अनन्तता नही रहेगी, और यदि नहीं जाना है तो उसके स्वरूपका ज्ञान न होने के कारण असर्वज्ञताका प्रसग आयेगा। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि अतिशय ज्ञानके द्वारा बह जाना जाता है। यह जो केवलज्ञानियोका क्षायिज्ञान है सो अतिशयवान् तथा अनन्तामन्त परिमाण वाला है। उसके द्वारा अनन्त साक्षात् जाना जाता है । अन्य लोक सर्वज्ञके उपदेशमे तथा अनुमानसे अनन्तताका ज्ञान कर लेते है। प्रश्न-यदि कहोगे कि उसके द्वारा जाना गया है, अत. बह अनन्त भी सान्न है। उत्तर-तो ऐसा भी नही है, क्योकि सर्वज्ञने अनन्तको अनन्त रूपसे हो जाना है और सभी वादी प्रायः इस विषयमें विरोध भी नहीं रखते है। (वि. दे, अनन्त २/२) । ध. ३/१,२,३/३०/६ ण च अणादि त्ति जाणिदे सादित्त पावेदि, विरोह।। -अनादित्वका ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्वकी प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योकि ऐसा मानने में विरोध आता है।
६. निर्व्यय भी अभव्यराशिमें अनन्तत्व कैसे सिद्ध होता है घ. ७/२,५.१६०/२६/१० कधं एदस्स अब्बए संते अनाच्छिज्जमाणस्स
अणं तववएसो ण, अणं तस्स केवलणाणस्स चेव विसए अहिदाणं सखाणमुक्यारेण अणं तत्तविरोहाभावादो। प्रश्न-व्ययके न होनेसे व्युच्छित्तिको प्राप्त न होनेवाली अभव्य राशिके 'अनन्त' यह सज्ञा कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं, क्योकि, अनन्त रूप केवलज्ञानके ही विषयमें अवस्थित संख्याओके उपचारसे अनन्तपन मानने में विरोध नहीं आता।
७. अनन्त चतुष्टयमें अनन्तत्व कैसे सिद्ध है क्ष. सा./मू./६१०/७२५ खोणे घादिचउक्के णं तचउक्कस्स होदि उत्पत्ती। सादी अपज्जब सिदा उक्कस्साण तपरिस खा ॥६१०॥ प्रश्न-(घातिया कर्मनिके चतुष्टयका नाश होते अनन्तचतुष्टयकी उत्पत्ति हो है। अनन्तपन कैसे सम्भव है १) - उत्तर-सादि कहिये उपजने काल विर्ष आदि सहित है तथापि अपर्यवसिता कहिए अवसान या अन्त ताकरि रहित है तातै अनन्त कहिये । अथवा अविभाग प्रतिच्छेद निकी अपेक्षा इनको उत्कृष्ट अनन्तानन्त मात्र सख्या है तातै भी अनन्त कहिये ।
८. अनन्त भी कथंचित् सीमित है 7. ३/१,२,३/३०१ तन कारणेण मिच्छाइटिठरासीण अब हिरिज्जदि, सव्वे समया अवहिरिजंति। अण्णहा तस्साभावपसंगादो। ण च अणादि त्ति जाणिदं सादित्तं पावेदि, विरोहा।-मिध्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण समाप्त नहीं होता, परन्तु अतीत कालके सम्पूर्ण समय समाप्त हो जाते है।...यदि उसका प्रमाण नहीं माना जाये तो उसके अभावका प्रसंग आ जायेगा। परन्तु उसके अनादित्वका ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्वकी प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात
नहीं है, क्योकि ऐसा मानने में विरोध आता है। श्लो.वा/२/१/७/१६/५६६/६ भाषाकार "जैन सिद्धान्त अनुसार अलोकाकाशके अनन्तानन्त प्रदेश भी संख्या परिमित है, क्योंकि अक्षय अनन्त जीवराशिसे अनन्तगुणी पुद्गल राशिसे भी अनन्त गुणे हैं। * आगममें अनन्तको यथास्थान प्रयोग विधि-दे.
गणित 1/१/१६॥ अनंतकथा-आचार्य पद्मनन्दि (ई. १२८०-१३३०) की संस्कृत छन्दबद्ध रचना।
अनंतकायिक-दे. वनस्पति । अनंतकोति-१ प्रामाण्यभंगके कर्ता। समय-ई श ८। (ती./ ३/१६६ ) । २ बृहत् तथा लघु सर्वज्ञसिद्धिके कर्ता। प्रभाचन्द्र (ई.६५०-१०२०) ने अपने प्रमेयकमलमार्तण्डमें इनका अनुसरण किया। समय-ई. श ६ का उत्तरार्ध । (ती./३/६१४) । ३. यश.की तिके दादा गुरु, ललितकीतिके गुरु । समय-वि. १२४६ (ई.१९८४) । (भद्रबाहुचरित/प्र ७/कामताप्रसाद)। अनंतगणनांक-सिद्धान्त - (ध. /प्र २७) Theory of
infinite cardinals, अनंतचतुर्दशी व्रत-वत विधान सग्रह/पृ. ८७ गणना- कुल
समग्र - १४ वर्ष तक, उपवास -१४।। किशन सिह क्रिया कोश विधि-१४ वर्ष तक प्रत्येक वर्ष अनन्त
चतुर्दशी (भाद्रपद शु. १४) को उपवास । अनन्तनाथ भगवानकी पूजा। मन्त्र--"ओं नमो अहंते भगवते अनन्ते अनन्तकेवलीय अनन्तणाणे अण तकेवलदसणे अणुपूजवासणे अनन्ते अनन्तागमकेव लिने स्वाहा" अथवा-यदि लम्बा पड़े तो "ओं ह्रीं अहं ह स' अनन्तकेवलिने नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । अनंतचतुष्टय-दे चतुष्टय । अनंतदेव-स.भं त./अन्तिम प्रशस्ति--"आप दिगम्बराचार्य थे।"
शिष्य विमलदास नामा एक गृहस्थ था। समय-प्लवङ्ग सवत्सर (1)। अनंतधर्मत्वशक्ति-स.सा /आ. परि./शक्ति नं.२७ विलक्षणानन्तस्वभावभावितै कभावलक्षणानन्तधर्मस्वशक्तिः।-परस्पर भिन्न लक्षणस्वरूप जो अनन्तस्वभाव उनसे मिला हुआ जो एक भाव जिसका लक्षण है ऐसी सत्ताईसवी अनन्तधर्मत्व शक्ति है। अनंतनाथ-म, पु/६०/श्लोक "पूर्व के तीसरे भव में धातकी खण्डमें पूर्व मेरुसे उत्तर की ओर अरिष्ट नगरका छद्मस्थ नामक राजा था (२-३) आगे पूर्वके दूसरे भवमें पुष्पोत्तर विमानमें इन्द्रपद प्राप्त किया (१२) वर्तमान भवमें चौदहवें तीर्थकर हुए हैं। (विशेष दे. तीर्थकर ५) अनंतनाथपुराण-श्रीजन्नाचार्य (सं. १२०९) को रघना है । अनंतबल मुनि-प. पु /१४/३७०-३७१ मेरुकी वन्दना करके लौटते __समय मार्गमें आपसे रावणने परखी त्याग व्रत ग्रहण किया था। अनंतात-भगवान धर्मनाथका शासन देव-दे. यक्ष । अनंतर-दे अध/१। अनंतरथ-प. पु/२२/१६०-१६६ राजा अनरण्यका पुत्र तथा दशरथ
का बड़ा भाई था। पिताके साथ-साथ दीक्षा धारण कर अनन्त परीषहको जीतनेके कारण अनन्तवीर्य नामको प्राप्त हुए। अणंतरोपनिधा-ध.११/४,२,६,३५२/३५२/१२ जत्थ णिरतरं थोवबहुत्तपरिक्खा कीरदे सा अणं तरोवणिधा।-जहाँपर निरन्तर अल्प बहुत्वकी परीक्षा की जाती है, वह अनन्तरोपनिधा कही जाती है। अनंतवर्मन-गंगवंशी राजा था। उड़ीसामें राज्य करता था।
समय-ई. १०४०। अनंतविजय-म पु./सर्ग/श्लोक "पूर्व के नवमें भव में पूर्व विदेहमें वत्सका देशके राजा प्रीतिवर्धनका पुरोहित था (८/१२) फिर आठवें भवमें उत्तरकुरुमें मनुष्य हुआ (८/२१२) आगे पूर्व के सातवें भवमै प्रभंजन नामक देव हुआ (८/२१२-२१३) फिर छठे भवमें धनमित्र नामक सेठ हुआ (८/२१८) फिर पाँचवें भवमें अधोबेयकमें अ)मन्द्र हुआ (E/०-६२) फिर चौथे भवमें वज्रसेन राजाका महापीठ नामक राजपुत्र हुआ (११/१३) फिर पूर्वके तीसरे भव में सर्वार्थ सिद्धिमें
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अनंतबीय
(विशेष परिचय - (विशेष परि
अहमिन्द्र हुआ (१२/१६०) (सर्व ४०/२६०३६१) वर्त मान भवमें भगवान् ऋषभदेव के पुत्र तथा भरतचक्रवर्तीके छोटे भाई थे (१६/२) भरतने उन्हें नमस्कार करने को कहा। स्वाभिमानी उन्होने नमस्कार करनेकी बजाय भगवान् के समीप दीक्षा धारण कर ली (३४ / १२६) अन्त में मुक्ति प्राप्त की ( ४७ / ३६६ ) । अनंतवीर्य तकालीन पौषोसये तीर्थकर दे तीर्थंकर ५) २ भाविकालीन चौबीसवे तीर्थंकर चय दे तोर्थंकर / ५) । ३ म पु / सर्ग / श्लो " आप पूर्वके नवमें भव में सागरदत्त के उग्रसेन नामक पुत्र थे" (८/२२३-२२४) फिर व्याघ्र हुए (८/२२६) फिर सातवे भवमे उत्तरकुरुमे मनुष्य हुए ( ८/१० ) वहाँसे फिर छठे भाव में ऐशान स्वर्गमे चित्रांगद नामक देव हुए (६/१८७) फिर पॉचवं भव में विभीषण राजाके पुत्र वरदत्त हुए (१०/१४१) फिर चौथे भव में अच्युत स्वर्ग मे देव हुए (१०/१७२) फिर तोसरे भयमे जय नामक राजकुमार हुए (११/१०) फिर पूर्व के दूसरे भनमे स्वर्गमे अहमिन्द्र हुए (१९/९६०) वर्तमान मे ऋषभनाथ भगवान् के पुत्र तथा भरतके छोटे भाई हुए (१६/३) भरतने इन्हे नमस्कार करने को कहा | स्वाभिमानी इन्होने नमस्कार करनेकी बजाय भगवान् के समीप दीक्षा धारण कर ली तथा सर्वप्रथम मोक्ष प्राप्त किया (२४/१८१) अपर नाम महासेन था । (युगपत् सर्वभव ४७ / ३७९) ४ ( म पु ६२ / श्लोक) वत्सकावती देश प्रभाकरी नगरीके राजा स्तमितसागरका पुत्र था (४१) राज्य पाकर नृत्य देखने में आसक्त होनेसे नारदकी विनय करना भूल गया (४२२-४३०) क्रुद्ध नारदने शत्रु दमितारिको मुद्धार्थ प्रस्तुत किया (४४३ ) इसने नर्तकीका बेश बना उसकी लडकीका हरण कर लिया (४६१-४०३) उसके हो चक्र उसकी मार दिया (४८३-४८४) आगे क्रमसे अर्धचक्री पद प्राप्त किया (५१२) तथा नारायण होनेसे नरकमें गया ( ६३ / २५ ) यह शान्तिनाथ भगवान्के चक्रायुध नामक प्रथम गणधरका पूर्वका नवम भव है - दे, चक्रायुध । ५. अपरनाम अनन्तरथ- दे. अनतरथ । अनन्तवीर्य — द्रविडसंघ नन्दिगण उरुङ्गलान्वय गुणकीर्ति सिद्धान्त
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1
भट्टारक तथा देवकीर्ति पण्डितके गुरु, वादिराज के दादागुरु, श्रीपाल के सधर्मा, गोणसेन पण्डित के शिष्य श्रवणबेलगोलवासी, न्यायके उद्भट विद्वान् कृतियाँ कृतग्रन्थोके भाध्य सिद्धिविनिश्वयसि प्रमाणसग्रहालंकार । समय-ई ६७५-१०२५ ( ती ३/४०-४१ ) । (दे. इतिहास ६)। अनंतानंत
अनत।
_जीवोकी कषायोको विचित्रता सामान्य बुद्धिका अनंतानुबंधीविषय नहीं है । आगम में वे कषाय अनन्तानुबन्धी आदि चार प्रकारकी बतायी गयी है। इन चारो के निमित्त मृत कर्म भी इन्ही नामवाले है । यह वासना रूप होती है व्यक्त रूप नहीं । तहाँ पर - पदार्थों के प्रति मेरे तेरेपनेकी, या इष्ट-अनिष्टपनेकी जो वासना जीवमें देखी जाती है, वह अनन्तानुबन्धी कषाय है, क्योकि वह जीवका अनन्त ससारसे बन्ध कराती है। यह अनन्तानुबन्धी प्रकृतिके उदयसे होती है । अभिप्रायकी विपरीतताके कारण इसे सम्यक्त्वघाती तथा परपदार्थों में राग-द्वेष उत्पन्न करानेके कारण चारित्रघाती स्वीकार किया है।
१. अनरसानुबन्धीका लक्षण
। -
स. सि./८/६/३८६ अनन्तसंसारकारणत्वान्मिथ्यादर्शनमनन्तम् । तदनुबन्धिनोऽमन्तानुधन क्रोधमानमायलोमा अनन्त संसारका कारण होनेसे मिथ्यादर्शन अनन्त कहलाता है तथा जो कषाय उसके अनुबन्ध हैं, वे अनन्तानुमन्धी कोष, मान, माया, लोभ है। (रा. वा /८/१२/५०२/१३) |
ध. ६ / १,६ - १,२३/४९/५ अनन्तान् भवाननुबद्ध' शीलं येषां ते अनन्तानुबन्धनको मान माया लोहे हि असहि सह
अनंतानुबंधी
ण
जोवो असे भने हिदि सि कोह-माणमाया लोहा सबंधी सण्णा ति उत्त होदि । एदेहि जीवम्हि जणिदसरुकारस्स अणं तेसु भवे अवद्वावगमादो। अधवा अणं तो अणुबंधी तेसि कोह- माणमाया लोहा ते समधी कोह-मान-माया लोहा हो सारो अर्थ भने अनुबंध विधि सारो । सो जेसि ते अणताणुबधिणो कोह- माण- माया लोहा । =१ अनन्त भवोको बाँधना ही जिनका स्वभाव है, वे अनन्तानुबन्धो कहनाते है । अनन्तानुबन्धी जो क्रोध, मान, माया, लोभ होते है, वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाते है। जिन अविनष्ट स्वरूपवाले अर्थात् अनादि परम्परागत क्रोध, मान, माया और लोभ के साथ जीव अनन्तभवो में परिभ्रमण करता है उन क्रोध, मान, माया व लोभ कषायोकी ‘अनन्तानुबन्धी' सज्ञा है, यह अर्थ कहा गया है । २. इन कषायो के द्वारा जीव में उत्पन्न हुए सस्कारका अनन्त भवो में अवस्थान माना गया है । अथवा जिन क्रोध, मान, माया. लोभोका अनुबन्ध (विपाक या सम्बन्ध) अनन्त होता है वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोभ कहलाते है । ३, इनके द्वारा वृद्धिगत संसार अनन्त भयो अनुमन्यको नहीं होता है इसलिए 'अनन्तानुबन्ध' यह नाम संसारका है। वह संसारात्मक अनन्तानुबन्ध जिनके होता है वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ है। भ.आ./वि./२६/५५/५ न विद्यते अन्त अवसानं यस्य तदनन्तं मिथ्या
तीन होता अनन्तानुबन्धिनोपमानमामा
लोभा. । -नही पाइये है अन्त जाका ऐसा अनन्त कहिये मिथ्यात्व ताहि अनुबन्धति कहिये आश्रय करि प्रबर्से ऐसे अनन्तानुबन्धीको मान. माया, लोभ है।
गो जी / जी प्र. / २८१/६०८/१० अनन्त संसारकारणादनमा
६०
अनन्तमसंस्कारकाल वा अनुबध्नन्ति संघटयन्तीत्यनन्तानु बन्धिन इति निरुक्तिसामर्थ्यात् । अनन्त संसारका कारण मिध्यात्व वा अनन्त संसार अवस्था रूप काल ताहि अनुबध्नन्ति कहिए सम्बन्ध रूप करें तिनिको अनन्तानुबन्धी कहिए। ऐसा निरुक्तिसे अर्थ है । दपा / २ / पं जयचन्द "जो सर्वथा एकान्त तत्त्वार्थ के कहनेवाले जे अन्यमत, जिनका श्रद्धान तथा बाह्य वेष, ता विषै सत्यार्थपनेका अभिमान करना, तथा पर्यायनि विषै एकान्त ते आत्मबुद्धि करि अभिमान तथा प्रीति करनी, यह अनन्तानुबन्धीका कार्य है । (स.सा./२०/क. १३७/६ जयचन्द ) |
२. अनन्तानुबन्धीका स्वभाव सम्यक्त्वको घातना हैपं. सं. प्रा / २ / ११५ पढमो दंसणघाई विदिओ तह घाइ देसविरह ति । तइओ सजमघाई चउत्थो जहखायघाईया | =प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शनका घात करती है, द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशविरतिकी घातक है। तृतीय प्रत्याख्यानावरण कषाय सकलसयमकी घातक है और चतुर्थ संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्रकी घातक है। ( पं. स.प्रा./१/११०) (गो.जी./मू./ २८३/६०८ ) ( गो . क./मू ४५ ) ( प सं . सं. ९ / २०४ २०५ ) - दे. सासादन २ / ६ ।
३. वास्तव में यह सम्यक्त्व व चारित्र दोनोको घातती हैध. १/१.१,१०/१६५/१ अनन्तानुबन्धिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपादनफलस्वात् यस्माच विपरीताभिनिवेशो माधो न रह र्शनमोहनीय तस्य चारित्रावरणत्वात् । तस्योभयप्रतिबन्धकत्वादुभयव्यपदेशो न्याय्य इति चेन्न इष्टत्वात् । - अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोकी द्विस्वभावताका कथन सिद्ध हो जाता है तथा जिस अनन्तानुबन्धीके उदयसे दूसरे गुणस्थान में विनिवेश होता है. यह अनानुवन्धी दर्शन मोहनीयका भेद न होकर पाना जान
करनेवाला होने चारित्र मोहनीयका भेद है। प्रश्न- अनन्ता बन्धी सम्यक् और चारित्र इन दोनोंका प्रतिबन्धक होनेसे उसे उभयरूप सज्ञा देना न्याय संगत है ? उत्तर-- यह आरोप ठीक
·
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अनंतानुबंधी
अनंतानुबंधी नहीं है, क्योकि यह तो हमें इष्ट हो है, अर्थात् अनन्तानुबन्धीको सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनोका प्रतिबन्धक माना ही है। (ध.६/१,६-१,२३/४२/३)। गी,क/जी.प्र./५४६/७६/१२ मिथ्यात्वेन सह उदीयमाना कषाय' सम्यक्त्वं नन्ति । अनन्तानुबन्धिना च सम्बत्वसंयमौ । मिथ्यात्वके साथ उदय होनेवाली कषाय सम्यक्त्वको घातती है और अनन्तानुबन्धीके साथ सम्यक्त्व व चारित्र दोनोको घातती है। ४. एक ही प्रकृतिमें दो गुणोंको घातनेकी शक्ति कैसे
सम्भव है ध.६/१,६-१,२३/४२/४ का एत्थ जुत्ती। उच्चदे-ण ताब एदे सणमोहणिज्जा, सम्मत्त-मिच्छत्त-सम्मामिच्छतेहि चेव आवरियस्स सम्मत्तस्स आवरणे फलाभावादो। ण चारित्तमोहणिज्जा वि, अपञ्चक्रवाणावरणादीहि आवरिदचारित्तस्स आवरणे फलाभावा । तदो एदोसिमभावो चेय। ण च अभावो मुत्तम्हि एसेसिमस्थित्तपदुप्पायणादो। तम्हा एदेसिमुदएण सासण गुणुप्पत्तीए अण्ण हाणुववत्तीदो सिद्ध दंसणमोहणीयत्त चारित्तमोहणीयत च । -प्रश्न- अनन्तानुबन्धी कषायोंक शक्ति दो प्रकारकी है, इस विषयमें क्या युक्ति है। उत्तर-ये चतुष्क दर्शन माहनीय स्वरूप नही माने जा सकते है, क्योकि सम्यक्त्व प्रकृति, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के द्वारा ही आवरण किये जानेवाले दर्शन मोहनीयकै फल का अभाव है। और न इन्हे चारित्र मोहनीय स्वरूप ही माना जा सकता है, क्योकि अप्रत्याख्यानावरणादि कषायोंके द्वारा आवरण किये गये चारित्रके आवरण करनेमे फल का अभाव है । इसलिए उपर्युक्त अनन्तानुबन्धी कषायोंका अभाव ही सिद्ध होता है। किन्तु उनका अभाव नहीं है, क्योकि सूत्रमें इनका अस्तित्व पाया जाता है। इसलिए इन अनन्तानुबन्धी कषायों के उदयसे सासादन भावकी उत्पत्ति अन्यथा हो नहीं सकती है। इस हो अन्यथानुपत्तिसे इनके दर्शनमोहनीयता और चारित्रमोहनीयता अर्थात सम्यक्त्व और चारित्रको घात करने की शक्तिका होना, सिद्ध होता है। ५. चारित्र मोहकी प्रकृति सम्यक्त्व घातक कैसे ? प.ध उ/११४० सत्य तत्राविनाभाविनो बन्धसत्त्वोदय प्रति। द्वयोरन्यतरस्यातो विवक्षायां न दूषणम् ॥११४०॥ -मिथ्यात्वके बन्ध, उदय, सत्त्वके साथ अनन्तानुबन्धी कषायका अविनाभाव है । इस लिए दोमेंसे एककी विवक्षा करनेसे दूसरेकी विवक्षा आ जाती है। अत
कोई दोष नहीं। गो.क./जी./५४६/७१/१२ मिथ्यात्वेन सहोदोयमाना षाया सम्यक्त्व घ्नन्ति । अनन्तानुबन्धिन। च सम्यक्त्वसंयमौ। -मिथ्यात्वके साथ उदय होनेवालो कषाय सम्यक्त्वको घाततो है और अनन्तानबन्धीके द्वारा सम्यक्त्व और स यम धाता जाता है। ६. अनन्तानुबन्धीका जघन्य व उत्कृष्ट सत्त्व काल
१ ओघकी अपेक्षा क.पा.२/६११८/EE/५ अणंताणु० चउक्क विहत्ती केवचिरं का० । अणादि० अपज्जवसिदा अणादि० सपज्जवसिदा सादि० सपज्जव सिदा वा। जा सा सपज्जवसिदा तिस्से इमो णिद्द सो-जह अतोमुहूर्त, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूण । = अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले' जीवोंका कितना काल है । अनादि-अनन्त, अनादि सान्त और सादि सान्त काल है। सादि सान्त अनन्तानुबन्धी चतुष्कविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूत और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्धपुद्गल परवर्तन प्रमाण है। क.पा २/६१२१/१,०८/५ अथवा सव्वत्थ उप्पज्जमाणसासणस्स एगसमओ बत्तव्यो। पचिंदियअपज्जत्तरसु सम्मत्त सम्मामि० विहत्ति० जह० एगसमओ। -अथवा जिन आचार्योंके मतसे सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियादि सभी पर्यायों में उत्पन्न होता है उनके मतसे
६ चेन्द्रिय और पचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोके अनन्तानबन्धी चतुकका एक समय जघन्य काल कहना चाहिए।
२ आदेशकी अपेक्षा क पा २/११६/१०१११ आदेसेण णिरयगदीए रयिएमु मिच्छत्त-बारसकसाय-णवनोकसाय० विहत्ती केव०। जह० दस वाससहस्साणि, उक० तेत्तीस सागरोधमाणि । पढमादि जाव सत्तमा त्ति एव चेव वत्तव्यं । · वरि सत्तमाए पुढवीए अण ताणु० चउक्कस्स जह. अतोमुहुत्त । मन आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोमे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषाय विभक्तिका कितना काल है। उत्तरजघन्य काल दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी प्रकार सम्यक्त्व-प्रकृति, सम्यकमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका काल भी समझना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनका जघन्यकाल एक समय है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवी पृथिवी तक इसी प्रकार समझना चाहिए। परन्तु सातवीं पृथिवीमें अनन्तानुबन्धीका जघन्यकाल अन्तर्महूर्त है। क.पा २/६१२०/१०२/१ तिरिक्खगईए तिरिवखेसु • अण ताणु० चउकस्स
जह० एगसमओ, उक्क० दोण्ह पि अणंतकालो।- तिर्यञ्च गतिमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जधन्य काल एक समय है तथा पूर्वोक्त बाईस
और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन दोनोका उत्कृष्ट अनन्तकाल है । क.पा २/१२०/१०/२७ एवं मणुसतियस्स वत्तव्यं । क.पा २/१२२/१०४/२ देवाणं णारगभगो।
___ मनुष्य-त्रिक अर्थात् सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनीके भी उक्त अट्ठाईस प्रकृतियों का काल समझना चाहिए। देवगति में सामान्य देवोके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिका सत्त्व काल सामान्य नारकियोके समान कहना चाहिए।
७. जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर काल क.पा.२/६१३५/१२३/७ अण ताणुब धिचउक्क० वित्ति० जह० अतोमुहत्त, उक० बेछावट्ठिसागरोबमाणि देसूणाणि। = अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य अनन्तरकाल अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक सौ बत्तीस सागर है। ८. अन्तर्मुहर्त मात्र उदयवाली भी इस कषायमें अनन्ता
नुबन्धीपना कैसे ? घ.६/१,६-१,२३/११/१ एदेसिमुदयकालो अतोमुहूत्तमेत्तो चेय... तदो एददेसिमणं तभवाणुबंधित ण जुज्जदि ति। ण एस दोसो, एदेहि जीवम्हि जणिदससकारस्स अण तेसु भवेसु अवठाणभुवगमादो। =-प्रश्न-उन अनन्तानुबन्धी क्रोधादिकषायोका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है अतएव इन कषायोमें अनन्तानुबन्धिता घटित नहीं होती । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि इन क्षायोके द्वारा जोवमे उत्पन्न हुए संस्कारका अवस्थान अनन्तभवो में माना गया है । ( विशेष दे अनन्तानुबन्धी १)।
६. अनन्तानुबन्धीका वासना काल गो,क /जी/४६.४७ अतोमुहूत्तपवरख छम्मासं सखासखण तभव । सजलणमादियाणं वासणकालो दुणिय मेण॥४६॥ उदयाभावेऽपि तत्सस्कारकालो वासनांकाल स च सज्वलनानामन्तमुहर्त । प्रत्याख्यानावरणानामेकपक्ष अप्रत्याख्यानावरणाना षण्मासा अनन्तानुबन्धिनां सख्यातभवा असख्यातभवा, अनन्तभवा वा भवन्ति नियमेन । -उदयका अभाव होते सतै भी जो कषायनिका सस्कार जितने काल रहै ताका नाम वासनाकाल है। सो सज्वलन कषायनिका वासनाकाल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। प्रत्याख्यानकषायनिका एक पक्ष है। अप्रत्यारण्यान पायनिका छ महीना है। अनन्तानबन्धी कषायनिका सख्यात भव, असख्यात भव, अनन्त भव पर्यन्त वासना काल है। जैसे-काहू पुरुषने क्रोध किया पीछे क्रोध मिदि और कार्य विषै लग्या,
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अनंतावधि ज्ञान
तहाँ क्रोधका उदय तो नाही परन्तु वासना काल रहै, तेतैं जोहस्यो क्रोध किया था तोहस्यों क्षमा रूप भी न प्रवर्ते सो असें वासना का पूर्वोक्त प्रमाण सब कषायनिका नियम करके जानना । (चा.सा./१०/१) | १०. अन्य सम्बन्धित विषय
अनन्तानुबन्धी प्रकृतिका बंध उदय सत्व व तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान दे वह वह नाम | 'अनन्तानुबन्धीमे दशों करणोंकी सम्भावना दे करण २ । 'अनन्तानुबन्धीकी उद्वेलना है. कम
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* कपायों की तीव्रता मन्दतामे अनन्तानुबन्धी नही, लेश्या कारण है - दे. कषाय ३ ।
* अनन्तानुबन्धीका सर्वातियापन अनुभाग ४ * अनन्तानुबन्धो की विसंयोजना—दे नियोजना
* यदि अनन्तानुबन्धी द्विस्वभावी है तो इसे दर्शनचारित्र मोहनीय क्यों नही कहते ? दे, अनन्तानुबन्धी ३ । * अनन्तानुबन्धी व मिध्यात्वजन्य विपरीताभिनिवेशमे अन्तरदे, सासादन १/२/
अतावधि ज्ञान अधि -पे. अनऋद्धि प्राप्त आर्य - दे. आर्य । अनक्षरगता भाषा — दे. भाषा ।
अनक्षरात्मक ज्ञान
लहान 1 / १ । अनक्षरात्मक शब्द दे. शब्द । अनगार आ / ८८६ समनोति संजोति रिसिजाति वादवरागोति । णामाणि सुविहिदाणं अणगार भद त द तोति ॥ ८८६ ॥ = उत्तम चारित्रवाले मुनियोके ये नाम है-— श्रमण, सयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदत, दंत व यति । चापा/मू / २० दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे निरायार । सायारं सरगं परिग्गहा रहिय खलु निरायारं ॥२०॥ सयम चारित्र है सो दो प्रकारका होता है - सागर तथा निरागार या अनगार तहाँ सागार तो परिग्रह सहित श्रावक होता है और निरागार परिग्रह रहित साधुके होता है।
दे अगारी चारित्र मोहनीयका उदय होनेपर जो परिणाम घरसे निवृत्त नहीं है वह भावागार कहा जाता है। वह जिसके है वह वन में निवास करते हुए भी अगारी है और जिसके इस प्रकारका परिणाम नहीं है वह घरमें वास करते हुए भी अनगार है ।
त सा / ४/७६ अनगारस्तथागारी स द्विधा परिकथ्यते । महाव्रतोऽनगार' स्यादगारी स्यादणुवत ॥७६॥ वे व्रती अनगार तथा अगारी ऐसे दो प्रकार हैं। महाव्रतधारियों को अनगार कहते है । प्रसा./ता.वृ / २४६ अनगारा सामान्यसाधव । कस्मात् । सर्वेषां सुखदुखादिविषये समता परिणामोऽस्ति । अनगार सामान्य साधुओको कहते है, क्योंकि, सर्व ही सुख व दुख रूप विषयो में उनके समता परिणाम रहता है । ( चा सा / ४७/४ ) १. अनागारका विषय विस्तार अनगारधर्म - र. सा./मू / ११
साधु
भाणायण मुक्ख जइधम्म ण तं विणा तहा सोवि ॥११॥ - ध्यान और अध्ययन करना मुनीश्वरोका मुख्य धर्म है। जो मुनिराज इन दोनोको अपना मुख्य कर्तव्य समझकर अहर्निश पालन करता है. वही मुनीश्वर है मोक्षमार्गलग्न है। अन्यथा वह मुनीश्वर नहीं है ।
1
६२
अनर्थदंड
१. वि १/३८ आधारो दशधर्म मयमतपोमूलोतराख्या गुणा मध्यामोहमदोनं शमदमध्यामप्रमादस्थिति मेराग्यं समयोप गुणा रत्नत्रयं निर्मलं पर्यन्ते च समाधिरक्षयपदानन्दाय धर्मो यते ॥ ३८ ॥ -ज्ञानाचारादि स्वरूप पाँच प्रकारका आधार उत्तम क्षमादि रूप दश प्रकारका धर्म, संयम, तप तथा मूलगुण और उत्तरगुण, मिथ्याश्व, मोह एव मदका त्याग, कषायोका शमन, इन्द्रियोका दमन, ध्यान, प्रमाद रहित अवस्थान, संसार, शरीर एवं इन्द्रिय विषयोंसे विरक्ति, धर्मको बढानेवाले अनेको गुण, निर्मल रत्नत्रय तथा अन्तमें समाधिमरण यह सब मुनियोंका धर्म है जो अविनश्वर मोक्षपदके आनन्दका कारण है।
अनगारधर्मामृत - १. आशाधरनो (ई ११०३-१२४३) द्वारा रचित संस्कृत श्लोकबद्ध यत्याचार विषयक एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । इसमें ६ अध्याय तथा ६५४ श्लोक है । ( तो ४/४६ ), (जै. १/४२६ ) अनधिगत चारित्र - दे. चारित्र ९ अनध्यवसाय या दी /१/१६/८ किमित्यालोचनमात्रम मध्यवसाय । यथा पथि गच्छतस्तृणस्पर्शादि ज्ञानम् -' - 'यह क्या है' इस प्रकारका जो ज्ञान होता है, उसको अनध्यवसाय कहते है । जैसेरास्ता चलनेवालेको तृण या कॉटे आदिके स्पर्श मात्रसे यह कुछ पदार्थ है, ऐसा ज्ञान होता है, उसको अनध्यवसाय कहते है । ध. १ / १.१.४ / १४८/५ प्रतिभास प्रमाणञ्चाप्रमाणञ्च विसंवादाविसवादोभयरूपस्य तत्रोपलम्भात् । - अनध्यवसाय रूप प्रतिभास प्रमाण भी है और अप्रमाण भी है, क्योकि, उसमें विसवाद अर्थात् 'यह क्या है' ऐसा अनिश्चय तथा अविसवाद अर्थात् 'कुछ है अवश्य ' ऐसा निश्चय दोनो पाये जाते है ।
रा. वा. हि /१/३२ / १६२ काहै ने निर्णय कीजिये । हेतुवाद तर्क शास्त्र हैते तो कही ठहरे नाहीं । बहुरि आगम है वे जुदे जुदे है । कोई
कहे कोई कहे तिनि का ठिकाना नाहीं । बहुरि सर्वका ज्ञाता मुनि कोई प्रत्यक्ष नाही, जाके वचन प्रमाण कीजिये । बहुरि धर्म का स्वरूप यथार्थ सूक्ष्म है, सो कैसे निर्णय होय । तातें जो बडा मार्ग चला आवे ते से चलना, प्रवर्तना । निर्णय होता नाहीं, ऐसे अनध्यवसाय है ।
* अनव्यवसाय, संशय व विपर्ययमे अन्तर दे संशय ४ । अननुगामी- ---अवधिज्ञानका एक भेद = दे. अवधिज्ञान १ । अननुभाषण - या सू./५/२/१६/२९६ मितस्य परिरभि हितस्याप्यप्रत्युच्चारणमननुभाषणम् ॥ १६ ॥ सभा अर्थात् सभासदने जिस अर्थ को जान लिया और वादीने जिसको तीन बार कह दिया ऐसे जाने और तीन बार कहे हुएको सुनकर भी जो प्रतिवादी कुछ न कहे तो उसको 'ना' नामक निग्रहस्थान कहते है। ( श्लो वा ४ / न्या २३१ / ४०६ / १० ) ।
अनपायी - नवि /वृ./१/८६/३६५ अनपायी अव्यभिचारी यत् इति ।
=
- अनपायी अव्यभिचारीको कहते है ।
।
अनभिव्यक्ति-व्यक्ति
अनय- एक ग्रह - दे. ग्रह । अनयाभास, नय 11/2
II ।
1
अनर्थदंड - र. क. श्रा / ७४ आभ्यन्तर दिगवधेर पार्थिकेम्य सपापयोगेभ्य विरमणमनर्थदण्ड विदुतधराग्रम्य विद्याओकी मर्यादाके भीतर-भीतर प्रयोजन रहित पावोंके कारणोसे विरक्त होनेको व्रतधारियो में अग्रगण्य पुरुष अनर्थदण्ड व्रत कहते है । ससि / ०/२१/३५६ असत्युपकारे पापादान हेतुरनर्थदण्ड उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पापका कारण है. वह अनर्थ दण्ड है । ( रा. मा./०/२१४/५४०/२८) ।
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अनर्थदंड
अनर्थदंड
चा.सा./१६/४ प्रयोजन विना पापादानहेत्वनर्थदण्डः।-बिना ही प्रयो
जनके जितने पाप लगते हों उन्हे अनर्थदण्ड कहते है। का अ//३४३ कज्जं कि पि ण साहदि णिच्च पाव करेदि जो अत्थो।
सो खलु हव दि अणत्यो पंच-पयारो वि सो विविहो । -जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सधता नहीं केवल पाप बन्धता है उसे अनर्थ कहते है। वसु श्रा./२१६ अय-दण्ड-पास-विक्कय-कूड-तुलामाण-कूरसत्ताण । ज
सगहो ण कीरइ त जाण गुणव्ययं तदियं । -लोहेके शस्त्र तलवार कुदाली वगैरहके तथा दण्ड और पाश (जाल ) आदिके बेचनेका त्याग करना, झूठी तराजू तथा कूट मान आदिके बाँटोका कम नही रखना तथा बिक्ली. कुत्ता आदि क्रूर प्राणियोका सग्रह नही करना सो यह तीसरा अनर्थदण्ड त्यागं नामका गुणव्रत जानना चाहिए १२१६॥ (गुण, श्रा.१४२)। सा.ध/114 पीडा पापोपदेशा हाद्यर्थाद्विनाङ्गिनाम् । अनर्थदण्डस्तत्त्यागोऽनर्थदण्डवत मतम् । = अपने तथा अपने कुटुम्बी जनोंके शरीर, वचन तथा मन सम्बन्धो प्रयोजनके बिना, पापोपदेशादिकके द्वारा प्राणियोंको पीडा नहीं देना, अनर्थदण्डका त्याग अनर्थदण्डवत माना गया है।
१. अनर्थदण्डके भेद र क. श्रा./७५ पापोपदेशहिंसाादानापध्यानदु श्रुती पञ्च ।प्राहु प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः। = दण्डको नही धरनेवाले गणधरादिक आचार्य-पापोपदेश हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या इन पाँचोंको अनर्थदण्ड कहते है। (स सि /७/२१/३६०) (रा
वा./७/२१,२१/५४६/५) ( चा. सा./१६/४ ) । पुसि /१४१-१४६ अपध्यान ।१४११, पापोपदेश ।१४२०, प्रमादाचरित
१४३, हिंसादान ।१४४, दुभूति ।१४५, व तक्रीडा १४६॥ चा. सा /१८/५ पापोपदेशश्चतुर्विध.-क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, बधकोपदेश , आरम्भकोपदेशश्च । - पापोपदेश चार प्रकारका हैक्लेशत्रणिज्या, तिर्यग्बणिज्या, वधकोपदेश, आरम्भकोपदेश । (दु श्रुति चार प्रकारकी है-स्त्रीकथा, भोगकथा, चोरकथा व राजकथा-दे. कथा]। २. अपध्यानादि विशेष अनर्थदण्डोंके लक्षण
१. अपध्यान अनर्थदण्ड-दे. अपध्यान ।
२ पापोपदेश अनर्थदण्ड र क. श्रा./७६ तिकिग्लेशवाणिज्याहिसारम्भप्रलम्भनादीनाम् । कथा
प्रसङ्गप्रसव- स्मर्तव्य पाप उपदेशः ॥७६-तिर्यग्वणिज्या, क्लेशवणिज्या, हिंसा, आर भ. ठगाई आदिकी कथाओं के प्रसग उठानेको पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड जानना चाहिए। (स सि /७/२१/६०) रा, वा /9/२१/५४६/७ क्लेशतियग्न णिज्यावधकारम्भादिषु पापसयुतं वचन पापोपटेश । तद्यथा अस्मिन् देशे दासा दास्यश्च सुलभास्तानम देश नीत्वा विक्रये कृते महानर्थ लाभो भवतीति क्लेशवणिज्या। गोमहिष्यादीच अमुत्र गृहीत्वा अन्यत्र देशे व्यवहारे कृते भूरिवित्तलाभ इति तिर्यग्वणिज्या । वागुरिकसौकरिकशाकुनिकादिभ्यो मृगवराहशकुन्तप्रभृतयोऽमुष्मिन् देशे सन्तीति वचनं वधकोपदेश',। आरम्भकेभ्य' कृषीवलादिभ्य क्षित्युदकज्वलनपचनबनस्पत्यारम्भोsनेनोपायैन कर्तव्य' इत्याख्यानमारम्भकोपदेश । इत्येवं प्रकार पापसंयुतं वचन पापोपदेश । -क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधक तथा आरम्भादिकमें पाप सयुक्त वचन पापोपदेश कहलाता है । वह इस प्रकार कि-१ इस देश में दास-दासी बहुत सुलभ है। उनको अमुक देशमें ले जाकर बेचनेसे महान अर्थ लाभ होता है। इसे क्लेशवाणिज्या कहते हैं । २ गाय, भैस आदि पशु अमुक स्थानसे ले जाकर अन्यत्र देश में व्यवहार करनेसे महान अर्थ लाभ होता
है, इसे तिर्यग्वणिज्या कहते है । ३. वधक व शिकारी लोगोंको यह बताना कि हिरण, सूअर व पक्षी आदि अमुक देशमें अधिक होते है, ऐसा वचन वधकोपदेश है। ४. खेती आदि करनेवालोंसे यह कहना कि पृथ्वीका अथवा जल, अग्नि, पवन, वनस्पति आदिका आरम्भ इस उपायसे करना चाहिए। ऐसा कथन आरम्भकोपदेश है। इस प्रकारके पाप सयुक्त वचन पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड है। (चा सा/१८/५)। पु. सि /१४२ विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम् । पापोपदेशदान कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ॥१४२५-मिना प्रयोजन किसी पुरुषको आजीविकाके कारण, विद्या, वाणिज्य, लेखनक्ला, खेती, नौकरी और शिल्प आदिक नाना प्रकारके काम तथा हुनर करनेका उपदेश देना, पापोपदेश अनर्थ दण्ड कहलाता है। पापोपदेश
अनर्थदण्डके त्यागका नाम ही अनर्थदण्डवत कहलाता है। का अ./मू./३४५ जो उवएसोदिज्जदि किसि-पसु-पालण-वणिज्जपमुहेस। पुरसित्थी-सजाए अणत्थ-दडोहवे विदिओ। -कृषि, पशुपालन, व्यापार वगैरहका तथा स्त्री-पुरुषके समागमका जो उपदेश दिया जाता है वह दूसरा अनर्थदण्ड है। सा घ/11७ पापापदेश यद्ववाक्य, हिंसाकृत्यादिसश्रयम् । तज्जीविभ्यो न त दद्यान्नापि गोष्ठ्या प्रसज्जयेत् ॥७॥ -हिसा, खेती और व्यापार आदिका विषय करनेवाला जो वचन होता है वह पापोपदेश कहलाता है इसलिए अनर्थ दण्डवतका इच्छुक श्रावक हिसा, खेती और व्यापार आदिसे आजीविका करनेवाले, व्याध, ठग वगैरहके लिए उस पापोपदेशको नही देवें और कथा-वार्तालाप वगैरहमें उस पापोपदेशको प्रसंगमें नही लावे ।
३ प्रमादाचरित अनर्थदण्ड र क श्रा /मू./८० क्षितिमलिलदहनपवनारम्भं विफल वनस्पतिच्छेदम् ।
सरणं सारणमपि च प्रमादाचा प्रभाषन्ते ॥८०॥ बिना प्रयोजन पृथिवी, जल, अग्नि, और पवन के आरम्भ करनेको, वनस्पति छेदनेको, पर्यटन करनेको और दूसरों को पर्यटन करानेको भी प्रमादचर्या नामा अनर्थदण्ड कहते है । ( का.अ/म् /३४६)। स. सि /७/२१/३६० प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदनभूमिकुट्टनलिलसेचनाद्यवद्यकर्म प्रमादाचरितम् । -बिना प्रयोजनके वृक्षादिका छेदना, भूमिका कूटना, पानीका सोचना आदि पाप कार्य प्रमादाचरित नाम
का अनर्थ दण्ड हे । (रा.वा./७/२१,२१/५४६/१४) (चा.सा./१७/२)। पु.सि /१४३ भूखननवृक्षमोहनशाड्वलदलनाम्बुसेवनादीनि । निष्कारण न कुर्याइलफलकुसुमोच्चयानपि च ।-बिना प्रयोजन जमीनका खोदना, वृक्षादिको उखाडना, दूब आदिक हरी घासको रौदना या खोदना, पानी स्त्रींचना, फल, फूल, पत्रादिका तोड़ना इत्यादिक पाप क्रियाओका काना प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है । सा.ध /५/१० प्रमादचयाँ विफलक्ष्मानिलाग्न्यम्बुभूरुहाम् । खातव्याषातविध्यापासेक्च्छेदादि नाचरेत् ॥१०॥ - अनर्थदण्डका त्यागी श्रावक पृथिवीके खोदनेरूप किवाड वगैरहके द्वारा वायुके प्रतिबन्ध करने रूप, जलादिसे अग्निको बुझाने रूप, भूमि वगैरहमें जल के फेंकने तथा वनस्पतिके छेदने आदि रूप प्रमादचर्या को नही करे
४. हिंसादान अनर्थदण्ड र क श्रा/७७ परशुकृपाणखनित्रज्वलनायुधशृङ्गशृङ्खलादीनाम् । वधहेतूनां दानं हिसादानं च वन्ति बुधाः ॥७७॥= फरसा, तलवार, खनित्र, अग्नि, आयुध, सीगी, शकिल आदि हिंसाके कारणों के माँग देनेको पण्डित जन हिंसादान नामा अनर्थदण्ड कहते हैं। स. सि /७/२१/३६० विषकण्टकशस्त्राग्निरज्जुकशादण्डादिहिसोपकरणप्रदान हिसाप्रदानम् । = विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक,
और लकडी आदि हिंसाके उपकरणोंका प्रदान करना हिंसाप्रदान नामा अनर्थदण्ड है (रा. वा./७/२१.२१/१४६/१६) (चा. सा./१७/३)।
पचन भादिकमै पाप शन दास-दासी बहुत होता है ।
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अनर्थदंड
अनवस्थाप्य
पु. सि. ११४४ असिधेनुविषहुताशनलागलकरवालकार्मुकादीनाम् । वितरणमुपकरणानां हिंसाया परिहरेद्यत्नात। - असि, धेनु, जहर, अग्नि, हल, करवाल, धनुष आदि अनेक हिंसाके उपकरणोंको दूसरोंको माँगा देनेका त्याग करना, हिंसाप्रदान अनर्थदण्ड है। का अ./मू./३४७ मज्जार-पहुदि-धरण आउह-लोहादि-विकण ज च । लक्खा-खलादि-गहणं अणत्थ-दण्डो हवे तुरिओ ॥३४७।- बिलावादि हिंसक जन्तुओंका पालना, लोहे तथा अस्त्र-शस्त्रोका देना-लेना और
लाख, विष वगैरहका लेना-देना चौथा अनर्थदण्ड है। सा, ध/५/८ हिंसादानविषास्त्रादि-हिंसाङ्गस्पर्शन त्यजेत। पाकाद्यर्थ च नाग्न्यादिदाक्षिण्याविषयेऽर्प येव । -विष या हथियार आदि हिंसाके कारणभूत पदार्थोंका देना हिसादान नामक अनर्थदण्ड व्रत कहलाता है । उस हिंसादान अनर्थदण्डको छोड देना चाहिए। जिससे अपना व्यवहार है ऐसे पुरुषोंसे भिन्न पुरुषोंके विषयमें पाकादिके लिए अग्नि नही देवे।
५ दु श्रुति अनर्थदण्ड र क.श्रा/७१ आरम्भसंगसाहसमिथ्यावद्वेषरागमदमदनै । चेत: कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुश्रुतिर्भवति ॥ ७९ ॥ -आरम्भ, परिग्रह, दुसाहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, गर्व, कामवासना आदिसे चित्तको क्लेषित करनेवाले शास्त्रोंका सुनना-बाँचना सो दु श्रुति नामा अनर्थदण्ड है। स सि./७/२१/३६० हिंसारागादिप्रबनदुष्टकथाश्रवणशिक्षणव्यापृतिर
शुभश्रुति। -हिंसा और राग आदिको बढानेवाली दुष्ट कथाओका सुनना और उनकी शिक्षा देना अशुभश्रुति नामका अनर्थदण्ड है। (रा. वा./७/२१,२१/५४६/१७) (चा. सा /१७/४ )। पु.सि । १४५ रागादिवर्द्धनानौ दुष्टकथानामबोधबहुलानाम् । न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि ॥१५॥ रागद्वेष आदिक विभाव भावोंके बढानेवाली, अज्ञान भावसे भरी हुई दुष्ट कथाओंको सुनना, बनाना, एकत्रित करना, या सीखना आदिका त्याग करनेका नाम दु'श्रुति अनर्थदण्ड व्रत है। का.अ/मू./३४८ ज सवर्ण सत्थाण भंडण-वासियरण-काम-सस्थाणं। परदोसाणं ज तहा अणत्थ-दण्डो हवे चरिमो। ३४८। -जिन शाखों या पुस्तकोंमें गन्दे मजाक, वशीकरण, कामभोग बगैरहका वर्णन हो उनका सुनना और परके दोषों की चर्चा वार्ता सुनना पाँचवाँ अनर्थदण्ड है। सा.ध.// चित्तकालुष्यकृरकाम-हिंसाद्यर्थश्रुतश्रुतिम् । न दुःश्रुतिमपध्यानं, नार्तरौद्रारम चान्वियात् ।। =अनर्थदण्डवतका इच्छुक श्रावक चित्त में कालुष्यता करनेवाला जो काम तथा हिसा आदिक हैं तात्पर्य जिनके ऐसे शास्त्रोके रूप दुःश्रुति नामक अनर्थदण्डको नहीं करे और आर्त तथा रौद्र ध्यान स्वरूप अपध्यान नामक अनर्थदण्डको नहीं करे।
३. अनर्थदण्डवतके अतिचार त.सू /७/३२ कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमोक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थ क्यानि ।-१ हास्ययुक्त अशिष्ट बचनका प्रयोग, २. कायकी कुचेष्टा सहित ऐसे बचनका प्रयोग, ३. बेकार बोलते रहना, ४. प्रयोजनके बिना कोई न कोई तोड-फोड करते रहना या काव्यादिका चिन्तबन करते रहना, ५. प्रयोजन न होनेपर भो भोग-परिभोगकी सामग्री एकत्रित करना या रखना, ये पाँच अनर्थदण्ड बतके अतिचार है। (र. क. श्रा./८१)। ४. भोगपभोग परिमालवत व भोगोपभोग आनर्थक्य
नामक अतिचारमें अन्तर रा.बा.//३२.६-७/५५६/२६ यावताऽर्थन उपभोगपरिभोगौ प्रकल्प्येतेतस्य ताबानर्थ इत्युच्यते, ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थ क्यम् ।।...स्यादेतत्--- उपभोगपरिभोगवतेऽन्तर्भवतीति पौनरुक्त्यमासज्यत इति; तन्न कि
कारणम् । तदर्थानवधारणा। इच्छावशात् उपभोगपरिभोगपरिमाणावग्रह सावधप्रत्याख्यान चेति तदुक्तम, इह पुन' कल्प्यस्यैव आधिक्य मित्यतिक्रम इत्युच्यते । नन्वेवमपि तद्भवतातिचारान्तर्भावात् इद वचनमनर्थकम् । नानर्थ कम, सचित्ताद्यतिक्रमवचनात ।-जिसके जितने उपभोग और परिभोगके पदार्थोसे काम चल जाये वह उसके लिए अर्थ है, उससे अधिक पदार्थ रखना उपभोगपरिभोगानर्थवय है। प्रश्न-इसका तो उपभोग परिभोगपरिमाणवतमें अन्तर्भाव हो जाता है अत इससे पुनरुक्तता प्राप्त होती है। उत्तर--नहीं होती, क्योंकि इसका अर्थ अन्य है। उपभोग परिभोगपरिमाणवतमें तो इच्छानुसार प्रमाण किया जाता है और सावद्यका परिहार किया जाता है, पर यहाँ आवश्यकताका विचार है। जो संकल्पित भी है पर यदि आवश्यकतासे अधिक है तो अतिचार है। प्रश्न-तम इसका अन्तर्भाव भोगपरिभोग-परिमाणवतके अतिचारमें हो जानेसे यह कथन निरर्थक है । उत्तर-निरर्थक नहीं है क्योकि वहाँ सचित्त सम्बन्ध आदि रूपसे मर्यादातिकम विवक्षित है, अत इसका वहाँ कथन नहीं किया।
५. अनर्थदण्डवतका प्रयोजन रा वा/७/२१,२२/५४६/१६ दिग्देशयोरुत्तरयोश्चोपभोगपरिभोगयोरवधृतपरिमाणयोरनर्थक चड्क्रमणादिविषयोपसेवनं च निष्प्रयोजन न कर्तव्यमितिरेकनिवृत्तिज्ञापनार्थ मध्येऽनर्थदण्डवचन क्रियते । -पहले कहे गये दिग्वत तथा देशव्रत तथा आगे कहे जाने वाले उपभोग-परिभोग परिमाणवतमें स्वीकृत मर्यादामें भी निरर्थक गमन आदि तथा विषय सेवन आदि नहीं करना चाहिए, इस अतिरेकनिवृत्तिको सूचनाके लिए बीचमें अनर्थदण्डविरतिका ग्रहण किया है।
६. अनर्थदण्डवतका महत्त्व पु. सि |१४७ एवं विधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदण्ड य । तस्यानिशमनवद्य' विजयमाहिंसाबत लभते ॥१४॥-जो पुरुष इस प्रकार अन्य भी अनर्थदण्डौको जानकर उनका त्याग करता है, यह निरन्तर निर्दोष अहिंसावतका पालन करता है। अपित-स. सि 1५/३२/३०३ त द्विपरीतमनर्पितम् । प्रयोजनाभावाव
सतोऽप्यविवक्षा भवतीत्युपसर्जनीभूतमनर्पितमित्युच्यते।-अर्पितसे विपरीत अनर्पित है। अर्थात प्रयोजनके अभाव में जिसकी प्रधानता नहीं रहती वह अनर्पित कहलाता है। तात्पर्य यह है कि किसी वस्तु या धर्मके रहते हुए भी उसकी विवक्षा नहीं होती इसलिए जो गौण हो जाता है वह अनर्पित कहलाता है । (रा. वा./५/३२,२/४६७/१५) । अनल-दे अग्नि । अनलकायिक-आकाशोपपन्न देव- दे, देव 11/१/३ । अनवधृत अनशन-दे अनशन । अनवस्था-श्लो वा./४/न्या /४५६/५५१/१६ उत्तरोत्तरधर्मापेक्षया विश्रामाभावानवस्था। -उत्तर-उत्तर धर्मोमें अनेकान्तकी कल्पना
बढती चली जानेसे उसको अनवस्था दोष कहते है। स. भ त/८२/४ अप्रामाणिकपदार्थ परम्परापरिकल्पनाविश्रान्त्यभावश्चानवस्थेत्युच्यते । अप्रामाणिक पदार्थोंकी परम्परासे जो कल्पना है, उस कल्पनाके विश्रामके अभावको ही अनवस्था कहते है। प.ध.पू /३८२ अपि कोऽपि परायत्त सोऽपि पर सर्वथा परायत्तात् ।
सोऽपि परायत्त स्थादित्यनवस्थाप्रसङ्गदोषश्च ॥३८२॥ -यदि कदाचित् कहो कि (कोई एक धर्म) उनमें से परके आश्रय है, तो जिस परके आश्रय है वह पर भी सब तरहसे अपनेसे परके आश्रय होनेसे, अन्य परके आश्रयकी अपेक्षा करेगा और वह भी पर अन्यके आश्रयकी अपेक्षा रखता है इस प्रकार उत्तरोत्तर अन्य-अन्य आश्रयों की कल्पनाकी सम्भावनासे अनवस्था प्रसंग रूप दोष भी आवेगा। अनवस्थाप्य-परिहार प्रायश्चित्तका एक भेद-दे. परिहार।
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अनवस्थित
अनवस्थित—अवधिज्ञानका एक भेद-दे अवधिज्ञान १ । अनशन - यद्यपि भूखा मरना कोई धर्म नही, पर शरोरसे उपेक्षा हो जानेके कारण, अथवा अपनी चेतन वृत्तियोको भोजन आदिके बन्धनयुक्त करनेके लिए, अथवा सुधा आदिने भो साम्परसमे च्युत न होने रूप आत्मिक बल की वृद्धिके लिए किया गया अशनका त्याग मोक्षमार्गीको अवश्य श्रेयस्कर है। ऐसे ही त्यागका नाम अनशन तप है. अन्यथा तो कोरा लघन है, जिससे कुछ भी सिद्धि नही ।
१. अनशन सामान्यका निश्चय लक्षण काम-दिन-भय-पर-तोय- सोमव रिक्खा। अप्पाणे विय णिवसई सज्झाय-परायणो होदि ॥ ४४० कम्माम जर आहार परिहरेह लोलाए एम-दिनादि-प्रमाणं तस्स तव अणसण हादि। जो मन और इन्द्रियोको जीतता है, इस भव और परभवके विषय सुखकी अपेक्षा नहीं करता, अपने आत्मसुखमें ही निवास करता है और स्वाध्याय में तत्पर रहता है ॥४४०|| उक्त प्रकारका जो पुरुष क्र्मोकी निर्जराके लिए एक दिन वगैरहका परिमाण करके लीला मात्र से आहारका त्याग करता है, उसके अनशन नामक तप होता है ॥४४१ ॥
प्र सा / त प्र / २२७/२७५ यस्य सकलकालमेव सकलपुद्गलाहरणशून्यमात्मानमत्रबुद्वयमानस्त्र सक्लाशनतृष्णा शून्यत्वात्स्वग्रमनशन एव स्वभाव । तदेव तस्यानान नाम तपाऽन्तरङ्गम्य बलीयस्त्वात् ।
- सदा ही समस्त पुद्गलाहारसे शून्य आत्माको जानता हुआ समस्त अनशन तृष्णा रहित हानेमें जिसका स्वयं अनशन ही स्वभाव है, वही उसके अनशन नामक तप है, क्योकि अन्तर गकी विशेष बलवत्ता है ।
२. अनशन सामान्यका व्यवहार लक्षण रावा / ६ /१६.१/६२८/१० चिन्न मन्त्रसाधनाद्यनुदिश्य क्रियमाणमुपमनमनमािधनादिष्ट फको अपेक्षा
के बिना किया गया उपवास अनशन कहलाता है। (चा सा./१३४/१) । भ. आ / वि / ६ / ३२/१४ = अनशनं नाम अशनत्याग । स च त्रिप्रकार मनसा भुजे, भाजयामि, भाजने व्यापृतस्यानुमति करोमि । भुजे भु, पचन कृति वचसा तथा चतुर्विधस्याहारस्याभिसंधि पूर्वकं कायेनादान हस्तमज्ञाया प्रवर्तन अनुमतिचनं कायेन । एतेषा मनावाक्कायक्रियाणा कर्मोपादानकारणानां त्यागोऽनशन चारित्रमेव । चार प्रकारके आहारोका त्याग करना इसको अनशन कहते है । यह अनशन तोन प्रकारका है। मै भोजन करू, भोजन कराऊँ, भोजन करनेवालेको अनुमति देऊ, इस तरह मनमें संकल्प करना नै आहार लेता हूँ तू भोजन कर, तुम भोजन पकाओ ऐसा बचनसे कहना, चार प्रकारके आहारको सकल्प पूर्वक शरीरसे ग्रहण करना, हाथ से इशारा करके दूसरेको ग्रहण करने में प्रवृत्त करना, आहार ग्रहण करनेके कार्य में शरोरसे सम्मति देना ऐसी जो मन, वचन, कायको कर्म ग्रहण करने में निमित्त होने वाली क्रियाएँ उनका त्याग करना उसको अनशन कहते है ।
ध १३ / ५.४२६/५७ / १ तत्थ चउत्थ छट्ठम- दसम दुवाल स पक्ख - मास उडु अयण सवच्छ रेसु एसणपरिचाओ अणेसणं णाम तवो। =चौथे, छठे, आठवे, दसवे और बारहवे एषणका ग्रहण करना तथा एक पक्ष. एक मास. एक ऋतु एक अयन अथवा एक वर्ष तक एषणका त्याग करना अनेषण नामका तप है।
बन. ७/९९/६६४ चतुर्याचवर्षात उपवासोऽथवामृते। भुक्तिश्च मुक्त तपाऽनशनमिष्यते ॥११॥ कर्मोंका उद्देश्य से भोजनका त्याग करनेको अनशन तप कहते है। २. अनशन रूपके भे
भ. आ / / २०६ अद्धाणसण सव्वाणसण दुविहं तु अणसणं भणियं । - अर्धानशन और सर्वानशन ऐसे अनशन तपके दो भेद है।
५
सकृद्र करने के
६५
यू. ला / १४० इतिरियं जायजा दुविह पूर्ण असणं मुणे - अनशन तपके दो भेद है- इतिरिय तथा यावज्जीव । रा. वा / १/२६.२/६१८/१८ तह विविधतानव कालभेदात अनशन अनवधृत और अवधृतकालके भेदसे दो प्रकारका होता है । (चासा / १३४/२) | अन घ. /७/९९/८६५
अनशन
॥१४०॥
वह
-
R
यह दो प्रकार होता है - सदतिया प्रोष तथा दूसरा उपवास । उपवास दो प्रकारका माना है- अवधृत काल और अनवधृतकाल ।
४. अनशनके भेदोके लक्षण
अवधृत काल अनशनका लक्षण सूला / २४०-२४८ इतिरियमानाम् ॥ ४७॥ मदसमवादसहि मासमासखमणाणि । कणगेगावलि आदी नबोविहाणाणि णाहारे |॥ ३४८ ॥ कालकी मर्यादासे इतिरिय होता है ॥ ३४७॥ अर्थात् एक दिनमें दो भोजन बेला कही है। चार भोजन वेलाका त्याग उसे चतुर्थ उपवास कहते है । छ भोजन वेलाका त्याग वह दो उपवास कहे जाते है । इसीको षष्ठम तप कहते है । षष्टम, अष्टम दशम, द्वादश, पद्रह दिन, एक मास त्याग, कनकावली. एकावली, मुरज, मद्य विमानपंक्ति, सिहनी क्रीडित इत्यादि जो भेट जहाँ है वह सब साकांक्ष अनशन तुप है ॥ ३४८ ॥ इसीको अवधृत काल अनशन तप कहते हैं । (चासा / १३४ / २) |
रावा / २ /१६.२/६१८/२०
समृद्ध
वटा चतुर्थभादि । - एक बार भोजन या एक दिन पश्चात भोजन नियतकालीन अनशन है।
भजन (२०६/४२४/१३ कदा तदुभयमिeas कालाव रन्तस्य ग्रहणप्रतिसेवनकालयोर्वर्तमानस्य अद्वानशनं । = = ग्रहण और प्रतिसेवना काल में अद्वानशन तप मुनि करते है । दीक्षा ग्रहण कर जब तक सन्यास ग्रहण किया नहीं तब तक ग्रहण काल माना जाता है। तथा व्रतादिको में अतिचार लगनेपर जो प्रायश्चित्त से शुद्धि करनेके लिए कुछ दिन अर्थात् षष्ठम, अष्टम आदि अनशन करना पडता है, उसको प्रतिसेवनाकाल कहते है ।
अनघ / ७ /११ / ६६५ वह अनशन दो प्रकारका होता है - सकृद्धभुक्ति अर्थात् प्रोषध तथा दूसरा उपवास दिनमें एक बार भोजन करनेको प्रोषध और सर्वथा भोजनके परिहारको उपवास कहते हैं। उसमें अवधृतकाल उपवासके चतुर्थ से लेकर षाण्मासिक तक अनेक भेद होते है ।
२. अनवधूत काल या सर्वानशनका लक्षण
मूला. / ३४६ भत्तण्हण्णा इंगिणि पाउबगमणाणि जाणि मरणाणि । अण्णेवि एवमादी बोधव्वा णिरवकखाणि ॥ ३४६ ॥ भक्तप्रत्याख्यान, इगिनीमरण. प्रायोपगमनमरण अथवा अन्य भी अनेकों प्रकारके मरणों में जो मरण पर्यन्त आहारका त्याग करना है वह निराकांक्ष कहलाता है।
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रामा / २ / ११.२/१८/२० अनवधूतकाल मादेहो परमात्। शरीर छूटने तक उपवास धारण करना अनियमित काल अनशन कहलाता है । (पासा / ११४/३) (बन /७/१९/६४) (भ. खा / वि. / २०१/४२)। ५. सर्वानशन तप कब धारण किया जाता है
भ आ./वि/२०६/४२५/१४ परित्यागोत्तर कालो जीवितस्य य सर्वकाल' तस्मिन्ननशनं अशनत्याग' सर्वानशनम् ।.. चरिमते परिणामकालस्यान्ते । मरण समयमें अर्थात् संन्यास कालमे मुनि सर्वानशन तप करते हैं।
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६. अनशनके अतिचार
भ आ / वि. / ४८७७०७ / १ तपसोऽनशनादेरतिचार' । स्वयं न भुटते अन्यं भोजयति, परस्य भोजनमनुजानाति मनसा वचसा कामेन च । स्वयं क्षुधापीडित आहारमभिलषति । मनसा पारणां मम कः प्रयच्छति क मा उपस्यामीति चिन्ता अनशनातिचार-स्वयं
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अनस्तमी व्रत
अनिद्रिय
भोजन नहीं करता है, परन्तु दूसरोको भोजन कराता है, कोई भोजन कर रहा हो तो उसकी अनुमति देता है, यह अतिचार मनसे, वचनसे और शरीरसे करना। भूग्वसे पीडित होनेपर स्वय मन में आहारकी अभिलाषा करना, मेरेको कौन पारणा देगा, किस घर में मेरा पारणा होगा, ऐसो चिन्ता करना, ये अनशन तपके अतिचार है।
७. अनशन शक्तिके अनुसार करना चाहिए अन-ध//६ द्रव्य क्षेत्र बल कालं भावं वीर्य समीक्ष्य च । स्वास्थ्याय वर्ततां सर्व विद्धशुद्धाशनै सुधौ ॥६५॥ विचार पूर्वक आचरण करनेवाले साधुओको आरोग्य और आत्मस्वरूपमे अवस्थान रखनेके लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, बल और वीर्य इन छह बातोका अच्छी तरह पर्यालोचन करके सर्वाशन, विद्धाशन और शुद्धाशनके द्वारा आहारमें प्रवृत्ति करना चाहिए।
८. अनशनके कारण व प्रयोजन स सि /8/१६/४३८ दृष्टफलानपेक्ष सयमसिद्धिरागोच्छेदकर्मविनाशध्यानागमायाप्त्यर्थमनशनम् । = दृष्ट फल मन्त्रसाधना आदिकी अपेक्षा किये बिना सयमक' सिद्धि, रागका उच्छेद, काँका विनाश ध्यान
और आगमकी प्राप्तिके लिए अनशन तप किया जाता है । (रा वा/8/ १६.१/६१८/१६) (चा सा/१३४/४) घ.१३/५,४,२६/५५/३ किमट्ठमेसो कीरदे। पाणिदियसजमट्ठ , भुत्तीए
उहयासजम अविणाभावद सणादो-प्रश्न-यह अनेषण किस लिए किया जाता है। उत्तर-यह प्राणिस यम और इन्द्रिय सयमकी सिद्धिके लिए किया जाता है, क्योकि भोजनके साथ दोनो प्रकारके असयमका अविनाभाव देखा जाता है।
६. अनशनमें ऐहलौकिक फलको इच्छा नही होनी चाहिए रा.वा /९/१६,१/६१८/१६ यत्किचिद् दृष्टफल मन्त्रसाधनाद्यनुद्दिश्य क्रियमाणमुपवसनमनसनमित्युच्यते । मन्त्र साधनादि कुछ भी दृष्ट फलकी अपेक्षाके बिना किया गया उपवास अनशन कहलाता है। (चा.सा./१३४/४)। रा.वा/९/१६,१६१६१६/२४ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति (8/2) इत्यत सम्यक ग्रहणमनुवर्तते, तेन दृष्टफननिवृत्ति कृता भवति सर्बत्रा ='सभ्यग्योगनिग्रहो गुप्ति ' इस सूत्रमें-से सम्यक् शब्दको अनुवृत्ति होती है। इसी 'सम्यक' पदकी अनुवृत्ति आनेसे समंत्र (अनशन तपमें भी) दृष्टफल निरपेक्षताका होना तपोमें अनिवार्य है। इसलिए सभी तपों. में ऐहलौकिक फलकी कामना नहीं होनी चाहिए। * अधिक से अधिक उपवास करनेकी सीमा-दे. प्रोष
धोपवास। अनस्तमी व्रत-तविधान संग्रह १ १६ कुल समय-जीवन पर्यन्त । ___किशनसिंह क्रिया कोष' विधि-प्रतिदिन सूर्यके दो घडी पश्चात तथा सूर्योदयसे दो घड़ी पहले भोजन करे। बोचके शेष समयों में चारो प्रकारके अपहारका त्याग । मन्त्र-नमस्कारमन्त्रकी त्रिकाल जाप। अनाकांक्ष क्रिया-दे क्रिया ३/२ । अनाकार-दे. आकार। अनाचार- अतिचार/पु सि उ "व्रत का सर्वथा भग होना
अतिचार है।" दे अतिचार/सामायिक पाठ "विषयों में अत्यन्त आसक्ति सो अनाचार
अनादि-१. ज्ञानमे आ जानेके कारण अनादि सादि नही हो जाता
-दे अनत २,२ भूत भविष्यत कालका प्रमाण निश्चित कर देनेपर अनादि भी सादि बन जायेगा।-दे काल ३ । अनादिनय-सादि अनादि पर्यायार्थिक नय--दे नय IV/४ । अनादि बंध-सादि अनादि बन्धी-प्रकृतियॉ-दे प्रकृति बध २ । अनादत कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे व्युत्सर्ग १। अनादेय-दे. आदेय। अनाभोगकृतातिचार-दे. अतिचार । अनाभोग क्रिया-दे क्रिया ३/२ । अनाभोगनिक्षेपाधिकरण-दे. अधिकरण । अनायतन-दे आयतन। अनारम्भ- सा /त प्र/२३६ नि क्रियनिजशुद्वात्मद्रव्ये स्थित्वा मनोवचनकायव्यापार निवृत्तिरनारम्भ । -निष्क्रिय जो निज शुद्धात्म द्रव्य, उसमें स्थित होनेके कारण मन वचन कायके व्यापारसे निवृत्त हो जाना अनारम्भ है। अनालब्ध-कायोत्सर्गका एक अतिचार दे व्युत्सर्ग। अनालोच्य वचन-दे असत्य । अनावर्त-१ एक यक्ष-दे. यक्ष; २. उत्तर जम्बूद्वीपका रक्षक व्यन्तर
देव-दे व्यन्तर ४। अनाहारक-ष ख १/१/१/सू. १७७/४१०/१ अणाहारा चदुसु हाणेसु बिग्गहगइसमावण्णाणं केवलोण वा समुग्धाद-गदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ॥१७७ = विग्रहगतिको प्राप्त जीवोके, मिथ्यात्व, सासादन
और अविरत सम्यग्दृष्टि तथा समुद्घातगत केवली, इन चार गुणस्थानोंमें रहनेवाले जीव और अयोगिकेवली तथा सिद्ध अनाहारक होते है ॥१७७॥ (ध १/१,१५/१५३/२, (गो जी.//६६६/११११) ।। स सि /२/२६/१८६ उपपादक्षेत्र प्रति अज्या गती आहारक । इतरेषु त्रिषु समयेषु अनाहारक = जब यह जीव उपपाट क्षेत्र के प्रति ऋजुगतिमे रहता है तब आहारक होता है। बाकी के तीन समयोंमें अनाहारक होता है। रा.वा/७/११/६०४'१६ उपभोगशरीरप्रायोग्य पुद्गल ग्रहणमाहार,तद्विपरीतोऽनाहार । तत्राहार शरीरनामोदयात विग्रहगतिनामोदयाभावाच्च भवति । अनाहार' शरीरनामत्रयोदयाभावात् विग्रहगतिनामोदयाच्च भवति । - उपभोग्य शरीरके योग्य पुद्गलोका ग्रहण आहार है, उससे विपरीत अनाहार है। शरीर नामकर्म के उदय और विग्रहगति नामके उदयाभावसे आहार होता है। तीनो शरीर नामकर्मो के उदयाभाव तथा निग्रहगति नामके उदय मे अनाहार होता है। अनिःसत-मतिज्ञान का एक भेद - दे. मतिज्ञान ४ । अनिःसरणात्मक तैजस शरीर-दे तैजस १ । अनिदित-किन्नर नामा व्यन्तर जाति का एक भेद-दे किन्नर । अनिदिता-म पु /६२/ श्लोक 'मगध देशके राजा श्रीषेण की पत्नी
थी (४०) । आहार दानकी अनुमोदना करनेसे भोग भूमिका बन्ध किया (३४८ ३५०) अन्तमे पुत्रोके पारस्परिक कलहमे दुखी हो विष पुष्प सूंघकर मर गयी (३५६)। यह शान्तिनाथ भगवान् के चक्रायुध नामा प्रथम गणधरका पूर्वका चौदहवाँ भव है।-दे चक्रायुध । अनिद्रिय-१. अनिन्द्रियक लक्षण मनके अर्थमें-दे मन ।
२. अनिन्द्रियक लक्षण इन्द्रिय रहितके अर्थमे : ध १/१,१,३३/२४८/८ न सन्तीन्द्रियाणि येषा तेऽनिन्द्रिया । के ते । अशरीरा सिद्धा । उक्त च
१. अनाचार व अतिचार में अन्तर–दे अतिचार । अनात्मभूत कारण-दे कारण 1/१। अनात्मभूत लक्षण-दे लक्षण । बनादर-जम्बूद्वीपका अधिपति व्यन्तर देव-दे. व्यन्तर ४।
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अनित्थं
अनिवृत्तिकरण
ध. १/१,१,३३/गा १४०/२४८ ण वि इदिय-करणजुदा अवग्गहादीहि गाया अत्थे। णेब य इ दिय-सोक्वा अणिदियाण तणाण-सुहा ॥१४०॥
जिनके इन्द्रियाँ नही पायी जाती उन्हे अनीन्द्रिय जीव कहते है। प्ररन-वे कौन है । उत्तर-शरीररहित सिद्ध अनि न्द्रिय है। कहा भी है-वे सिद्ध जीव इन्द्रियोके व्यापारसे युक्त नहीं है और अवग्रहादिक क्षायोपशमिक ज्ञानके द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते है। उनके इन्द्रिय सुरख भी नहीं है, क्योकि उनका अनन्त ज्ञान व अनन्त सुख अनिन्द्रिय है । (गो जो /मू /१७४) । अनित्थं—दे सस्थान। अनित्य-दे नित्य । अनित्य अनुप्रेक्षा-दे अनुप्रेक्षा । अनित्य नय-दे नय I/४, सद्भावानित्यपर्यायाथिक नय-दे नय __ IV/४) अनित्यसमा जाति-दे नित्यसमा। अनित्य स्वभाव निर्देश-दे स्वभाव १ । अनिबद्ध मंगल-दे मगल । अनियति नय-दे नियति । अनिरुद्ध-(म पु /५५/१८) कृष्ण का पोता तथा प्रद्युम्नका पुत्र था। अनिवर्तक-भाविकालीन बोसवें तीर्थकर । अपरनाम कदर्प ।
(विशेष-दे तीर्थकर १) अनिद्रव-दे निह्नव । अनिवत्तिकरण-जोबोकी परिणाम विशुद्धिमे तरतमताका नाम गुणस्थान है। बहते-बहते जब साधक निर्विकल्प समाधिमें प्रवेश करनेके अभिमुख होता है तो उसकी सज्ञा अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है । इस अवस्थाको प्राप्त सभी जीवोके परिणाम तरतमता रहित सदृश होते है। अनिवृत्तिकरण रूप परिगामोका सामान्य परिचय 'करण' में दिया गया है। यहाँ केवल अनिवृत्तिकरण गुणस्थानका प्रकरण है।
१. अनिवृत्तिकरण गुणस्थानका लक्षण ५ स./प्रा१/२० २१ एक्कामिन कालसमये सठाणादोहि जह णिवट्टति।
ण णि बट्टति तह च्चिय परिणामे हिं मिहो जम्हा ॥२०॥ होति अणियट्टिणो ते पडिसमय जेसिमेक्कपरिणामा। विमलयरझाणहुयवहसिहाहि णिद्दड्ढकमवणा ॥२१॥ -इस गुणस्थानके अन्तमहूत प्रमित कानमें से विवक्षित किसी एक समयमै अवस्थित जोव सत संस्थान (शरीरका आकार) आदि की अपेक्षा जिस प्रकार निवृत्ति या भेदको प्राप्त होते है, उस प्रकार परिणामोको अपेक्षा परस्पर निवृत्ति को प्राप्त नहीं होते है, अतएव वे अनिवृत्ति करण कहलाते है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती जीवोंके प्रतिसमय एक ही परिणाम होता है। ऐसे ये जीव अपने अतिविमल ध्यानरूप अग्निको शिलाओसे कर्मरूप वनको सर्वथा जला डालते है। (ध १/१,१.१७/१८६/गा ११६-१२०) (गो जो /मू । ५६-५७/१४६) (प स सं/११३८,४०)। रा वा /8/१,२०५६०/१४ अनिवृत्तिपरिणामवशात स्थूल भावेनोपशमक क्षपकश्चानिवृत्तिबादरमाम्परायौ ॥२०॥ तत्र उपशमनीया क्षपणीयाश्च प्रकृतय उत्तरत्र वस्यन्ते। =अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोकी विशुद्विसे कर्म प्रकृतियोको रथल रूपसे उपशम या क्षय करनेवाला
उपशामक क्षपक अनिवृत्तिकरण होता है। ध १/१.१.१७/१८३/११ समानसमयावथितजीवपरिणामाना निर्भदेन वृत्ति निवृत्ति । अथवा निवृत्तिावृत्ति , न विद्यते निवृत्तिर्येषा तेऽनिवृत्तप । साम्पराया कषाया, बादरा स्थूला , बादराश्च ते साम्परायाश्च बादरसाम्पराया । अनिवृत्तयश्च ते बादरसाम्पगयाश्च अनिवृत्तिबादरसाम्पराया । तेषु प्रविष्टा शुद्धिर्मेषा स यताना
तेऽनिवृत्तियादरसाम्परायचित्रशुद्वर यता । तेषु सन्ति उपशमका क्षपकाश्च । ते सर्वे एको गुणोऽनिवृत्तिरिति । - समान समयवर्ती जीवों के परिणामोको भेदरहित वृत्तिको निवृत्ति कहते है। अथवा निवृत्ति शब्द का अर्थ व्यावृत्ति भी है। अतएव जिन परिणामों की निवृत्ति अर्थात व्यावृत्ति नहीं होती है उन्हे अनिवृत्ति कहते है। साम्पराय शब्द का अर्थ क्षाय है और बादर स्थूल को कहते है। इसलिए स्थूल कषायोको बादरसाम्पराय कहते है और अनिवृत्तिरूप बादरसाम्परायको अनिवृत्तिबादरसाम्पराय कहते है। उन अनिवृत्तिबादरसाम्परायरूप परिणामो मे जिन स यतोकी विशुद्धि प्रविष्ट हो गयी है, उन्हे अनिवृत्तिबादरसाम्परायप्रविष्टशुद्धि सयत कहते है। ऐसे स यतों में उपशामक व क्षपक दोनों प्रकारके जीव होते है और उन सब सयतोका मिल कर एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान होता है। गो, जी /जी प्र/५७/१५०/३ न विद्यते निवृत्ति विशुद्धिपरिणामभेदो येषां ते अनिवृत्तय इति निरुक्तयाश्रयणात । ते सर्वेऽपि अनिवृत्तिकरणा जीवा तत्कालप्रथमसमयादि कृत्वा प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धिवृद्धया वर्धमानेन होनाधिकभावरहितेन विशुद्धिपरिणामेन प्रवर्तमाना' सन्ति यत' तत प्रथमसमयवतिजीव विशुद्धिपरिणामेभ्यो द्वितीयसमयवर्तिजीवविशुद्धिपरिणामा अनन्तगुणा भवन्ति । एवं पूर्व पूर्वसमयवर्तिजीवविशुद्धिपरिणामेभ्यो जोवानामुत्तरोत्तरस्मयवतिजीवऋद्धिपरिणामा अनन्तानन्तगुणितक्रमेण वर्धमाना भूस्वा गच्छन्ति । = जात नाही विद्यमान है निवृत्ति कहिये बिशुद्धि, परिणामनि विषे भेद जिनके ते अनिवृत्तिकरण है ऐसी निरुक्ति जानना। जिन जीवनिको अनिवृत्ति करण माडे पहला दूसरा आदि समान समय भये हो हि, तिनि त्रिकालवर्ती अनेक जीवनि के परिणाम समान होहि । जैसे-अध करण अपूर्व वरण ब्धैि समान ह ते थे तैसें हहॉ नाहीं। बहुरि अनिवृत्तिकरण कालका प्रथम समयको आदि देकर समयसमय प्रति वर्तमान जे सर्व जीवते हीन अधिक पनाते रहित समान विशुद्ध परिणाम धरै है। तहाँ समय समय प्रति जे विशुद्ध परिणाम अनन्तगुण अनन्तगुणै उपज है, तहाँ प्रथम समय विबै जे विशुद्ध परिणाम है तिनितै द्वितीय समय 'विष बिशुद्ध परिणाम अनन्तगुण हो है। ऐसे पूर्व-पूर्व समयवर्ती विशुद्ध परिणामनितै जीवनिवे उत्तरोत्तर समयवर्ती विशुद्ध परिणाम अविभाग प्रतिच्छेदनिकी
अपेक्षा अनन्तगुणा अनन्तगुणा अनुक्रमक र ब ता हुआ प्रवर्ते है। द्रसं/टी /१३/३५ दृष्टश्रुतानुभ्रतभोगाकाड यादिरूपसमस्त संकल्पविक्लपरहित निजनिश्चल परमात्मत्वै काग्रध्यानयरिण मेन कृत्वा येषां जीवानामेकसमये ये परस्पर पृथक्कतु नायान्ति ते वर्ण सम्थानादिभेदेऽप्यनिवृत्तिकरणौपशमिक्लपक्सज्ञा द्वितीयक्पायाय कविशतिभेदभिन्नचारित्रमोहप्रकृतीनामुपशमक्षपण समर्था नब मगुणस्थान वतिनो भवन्ति। - देखे, सुने और अनुभव किये हुए भोगोकी बाछादि रूप सम्पूर्ण सकरूप तथा विकल्प रहित अपने निश्चल परमात्मस्वरूपके एकाग्र ध्यानके परिणामसे जिन जीवोके एक समयमे परस्पर अन्तर नहीं होता वे वर्ण तथा स स्थान के भेद होने पर भी अनिवृत्तिकरण उपशामक व धपक सज्ञा के बारक, अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय क्षाय आदि इक्कोस प्रकारकी चारित्र मोहनीय कमकी प्रकृतियों के उपशमन और क्षपण मे समर्थ नवम गुणस्थानवी जीव है। २. सम्यक्त्व व चारित्र दोनोकी अपेक्षा औपशमिक व
क्षायिक दोनो भायोको सम्भावना ध १/१,१.१७/१८५/८ काश्चित्प्रकृतीरुपामयति, काश्चिदुपरिष्टा दुपशमयिष्यतोति औपशमिकोऽय गुण । काश्चित् प्रकृती क्षपर्यात काश्चिदुपरि ष्टात आपयिष्यतीति थायिकश्च । सम्यक्त्वापेक्षया चारित्रमोहलपकस्य थायिक एवं गुणस्तत्रान्यस्यास भवात् । उपशमकस्यौपशमिक शायिकश्चोभयोरपि तत्राविरोधात । = इस गुणस्थानमे जीव मोहको क्तिनी ही प्रकृतियोका उपशमन करता है और कितनी ही प्रकृतियोका आगे उपशमन करेगा इस अपेक्षा यह
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अनिष्ट
गुणस्थान औपशमिक है। और कितनी ही प्रकृतियोका क्षय करता है तथा कितनी ही प्रकृतियोंका आगे क्षय करेगा. इस दृष्टि से क्षायिक भी है । सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा चारित्रमोहका क्षय करनेवालेके यह गुणस्थान क्षायिक भावरूप ही है, क्योकि क्षपक श्रेणी में दूसरा भाव सम्भव ही नहीं है। तथा चारित्रमोहनीयका उपशम करनेवाले के यह गुणस्थान औपशमिक और क्षायिक दोनो भावरूप है, क्यो कि उपशम श्रेणीकी अपेक्षा वहॉपर दोनो भाव सम्भव है।
३. इस गुणस्थानमें औपशमिक व क्षायिक ही भाव क्यों घ/१.७,८/२०४/४ होदु णाम उवसतकसायस्स ओवसमिओ भावो उबसमिदासेसकसायत्तादो । ण सेसाण, तत्थ असेसमोहस्सुवसमाभावा। ण अणियट्टिबादरसापराय-सुहमसापराइयाण उपसमिदथोक्कसायजणिदुवसमपरिणामाण औवसमियभावस्स अस्थित्ताविरोहा । ध ५/१,७,६/२०५/१० बादर-सुहमसापराइयाण पि ख वियमोहेयदेसाण कम्मख यजणिदभात्रोक्लंभा ।
प्रश्न- समस्त कषायो और नोक्षायो के उपशमन करनेसे उपशान्त कषाय छद्मस्थ जोबके औपशामिक भाव भले रहा आवे, किन्तु अपूर्वकरणादि शेष गुणस्थानवी जीवो के औपशमिक भाव नही माना जा सकता है, क्योकि, इन गुणस्थानोंमे समस्त मोहनोय कर्म के उपशमनका अभाव है। उत्तर- नही, क्योकि कुछ कषायोके उपशमन करनेसे उत्पन्न हुआ है उपशम परिणाम जिनके, ऐसे अनिवृत्तिकरण बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय स यतके उपशम भावका अस्तित्व मानने मे काई विरोध नही है। मोहनीय कर्म के एक देश के क्षपण करनेवाले बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय क्षपको के भी कमक्षय जनित भाव पाया जाता है। (ध.७/२,१,४६/ १३/१) ४. अन्य सम्बन्धित विषय * इस गणस्थानके स्वामित्व सम्बन्धी जीवसमास,
मार्गणास्थानादि २० प्ररूपणाएँ-दे सत् । * इस गुणस्थान सम्बन्धी सर, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएं
-दे बह वह नाम । * इस गुणस्थानमे कर्म प्रकृतियोका बन्ध, उदय व सत्त्व
- दे वह वह नाम । * इस गुणस्थानमे कषाय, योग व सज्ञाके सद्भाव व
तत्सम्बन्धी शका समाधान -दे वह वह नाम । * अनिवृत्तिकरणके परिणास, आवश्यक व अपूर्वकरणसे
अन्तर, अनिवृत्तिकरण लब्धि-दे. करण ६। * अनिवृत्तिकरणमे योग व प्रदेश बन्धकी समानताका
नियम नहीं । दे करण ६ । * पुन पुन यह गुणस्थान प्राप्त करनेकी सीमा
-दे सयम २। * उपशम व क्षपक श्रेणी-दे श्रेणी २.३।। * बादर कृष्टि करण–दे कृष्टि । * सभी गुणस्थानोमे आयके अनुसार व्यय होनेका नियम
-दे. मार्गणा। अनिष्ट-पदार्थ की इष्टता-अनिष्टता रागके कारणसे है। वास्तवमें
कोई भी पदार्थ इष्टानिष्ट नही।-दे राग २ । अनिष्ट पक्षाभास-दे पक्ष !
अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान-दे आत ध्यान। अनिसृष्ट-वसतिका दोष-दे. बसति । आहारका दोष
-दे आहार II/४/४। अनीक-स सि/४/४/२३६ पदात्यादीनि सप्त अनीकानि दण्डस्थानीयानी । = सेनाको तरह सात प्रकार के पदाति आदि अनीक
कहलाते है। (रा. वा/४/४,७/२१३/६) । ति प/३/६७ सेपोवमा यणिया।६७ = अनीदेव सेनाके सुल्य होते है। त्रि सा/२२४ भाषा जे से राजाके हस्ति आदि सेना है वैसे देवोमें अनीक जातिके देव ही हस्ति आदि आकार अपने नियोग त होइ है।"
१. अनीक देवोके भेद ति प/३/७७ सत्ताणीयं होति हु पत्तेक्क सत्त सत्त कक्रब जुदा । पार्म ससमाणसमा तद्गुणा चरमकवत ॥७७॥ सात अनीकोमें से प्रत्येक अनीक सात-सात कक्षाओसे युक्त होती है। उनमें-में प्रथम कक्षाका प्रमाण अपने-अपने सामानिक देवोके बराबर तथा इसके आगे अन्तिम कक्षा तक उत्तरोत्तर प्रथम कक्षासे दूना-दूना प्रमाण होता चला गया है [७७ ज ५/४/१५८-१४६ सत्ताणिया पववरवामि । सोहम्मकप्पवासीइदस्स महाणुभाव स्स ॥१५८॥ बसभरहतुर यमयगलणच्चणगधब्बभिच्चवरगाण । सत्ताणीया दिट्ठा सत्तहि कच्छाहि स जुत्ता ॥१४६॥ = महा प्रभावसे युक्त सौधर्म इन्द्र की सात अनीकोका वर्णन करते है ॥१४८॥ बृषभ, रथ, तुरग, मदगल (हाथी), नतंक, गन्धर्व और भृत्यवर्ग इनकी सात कक्षाओसे सयुक्त सात सेनाए कही गयी है। त्रि सा /२८०.२३० कजरतुर यपदादोरहगधवा य ण चवसहात्ति । सत्तेवय
अणीया पत्तेय सत्त सत्त क्वखजुदा २८०॥ । पढम ससमाणसम तदुगुण चरिमकवरवोत्ति ॥२३०॥ हाथी, घोड़ा, पयादा, स्थ, गन्धर्व, नृत्य को और वृषभ ऐसे सात प्रकार अनीक एक-एक है । बहूरि एक-एक अनोक सात-सात कथ कहिये फौज तिन करि सयुक्त है।२८०॥ तहाँ प्रथम अनीकका क्ष विप प्रमाण अपने-अपने सामानिक देव निके समान है । तातें दूमा दूणा प्रमाण अन्तका कक्ष विषै पर्यन्त जानना। तहाँ चमरेन्द्र के भंसानिकी प्रथम फोनि वि चौसठ हजार भै से है। तात दूगे दूसरी फौज विर्ष भैसे है। ऐसे सत्ताईस फौज पर्यन्त दुणेदूर्ण जानने । बहुरि ऐसे ही तथा इतने ही घाटक आदि जानने । याही प्रकार आरनिका यथ' सम्भव जान लेना ॥२३०॥ * इन्द्रो आदिके परिवारमे अनीकोका निर्देश-दे भवन
वासो आदि भेद। २. कल्पवासी अनीकोकी देवियोका प्रमाण ति. प14/:२८ सत्ताणीय पहूण पुह पुह देवीओ छस्मया हाति । दोष्णि सया पत्तेक देवोओ आणीय देवाण ॥३२८॥-मात अन। कोके प्रभुओ
के पृथक् पृथक् छ सौ और प्रत्येक अनोक के दा सौ देवियाँ होती है। अनीकदत्त-ह पु /३४/ श्लोक "पूर्व के चतुर्थ भव में भानू सेठके थर नामक राजपुत्र हुआ (१७-१८)। फिर पूर्व के तीसरे भव में चित्रचून विदाधरका पुत्र 'गरुडध्वज' हुआ (१३२-१३३) । फिर दूसरे भवमें गगदेव राजाका पुत्र 'गगरक्षित' हुआ (१४२-१४) । वर्तमान भवमें वसुदेव का पूत्र तथा कृष्ण का भाई था (३४/७) । कसके भयमे गुप्तरूपमे सुदृष्टि' नामक से ठ के घर पालन-पोषण हुआ था (३४/७) । धर्म श्रवण कर दीक्षा धारण कर लो (५६/११५-१२०) । अन्तमे गिरनार पर्वतसे मोक्ष प्राप्त किया (६५/१६-१७)।" अनीकपाल-'अनोकदत्त' यत् हो है। नामोमें शूरके स्थानपर _ 'सुरदेव' और गगरक्षितके स्थानपर 'नन्द' पढना। अनीश्वरनय-दे नय I/५ । अन-स. सि./२/२६/१८३ अनुशब्दस्यानुपूर्येण वृत्ति । 'अनु'शब्दका अर्थ 'यथाक्रम करि' ऐमा है । (रा या /२/२६,२/१३७/२८) ।
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अनुकंपा
दुहि
अनुकंपा का // ११०/२०१ तिसिद्धं भूरिख दमणोपकिनला तमेशा हारि अणुकपा ॥ तृषातुर, क्षुधातुर अथवा दुखीको देखकर जो जीव मनमें दुख पाता हुआ उसके प्रति करुणामे वर्तता है, उसका वह भाव अनुकम्पा है।
ससि (९ / १२ / ०२० अनुग्रहाकृतचेतम परपीड
कम्पनमनुकम्पा अनुग्रहमे दमाई बिनाले दूसरेको पीडाको अपनी ही माननेका जो भाव होता है, उसे अनुकम्पा कहते है। (रा वा / ६ / १२,३ / ५२२/१६) । रावा / २ / २.३० / २२/१
मेत्री अनुसा
मा अनुकम्पा है। प्रसा/ता वृ / २६८ तृषित वा वुभुक्षित वा दु खितं वा दृष्ट्वा कमपि प्राणियो ह्रिस्फुट दु खितमना मन् प्रतिपद्यते स्वाकराति दयापरिणामेन तस्य पुरुषस्येपा प्रत्यवीभूता शुभाषयागरूपानुकम्पा दया भवतीति । =प्यासेको या भूखेको या दुवित किसी भी प्राणीको देखकर जो स्पष्टत दुखित मन होकर दया परिणामके द्वारा (उनकी सेवा आदि) स्वीकार करता है, उस पुरुषके प्रत्यक्षीभूत शुभोपयोग रूप यह दया या अनुकम्पा होती है ।
४६५०अनुकम्पा कृपा ज्ञेया सर्वमेवनुग्रह मेत्रीभावोऽथ माध्यस्थ ने शल्य बेरवर्जनात् ॥ ४४६ ॥ समता सर्वभूतेषु यानुकम्पा परत्र सा । अर्थत स्वानुकम्पा स्याच्छत्यवच्छयवर्जनात् || १५० || अनुकम्पा शन्दका अर्थ कृपा समझना चाहिए अथवा वर के त्यागपूर्वक सर्व प्राणियों पर अनुग्रह, मंत्रीभाव, माध्यस्थभाव और अन्य रहित वृत्ति अनुकम्पा कहलाती है ॥ ४६ ॥ जा सब प्राणियो में समता या माध्यस्थभाव और दूसरे प्राणियोके प्रति दयाका भाव है वह सब वास्तव में शल्यके समान राज्यके त्याग होनेके कारण स्त्रानुकम्पा ही है ॥ १५० ॥
द पा./२/१ जयचन्द "सर्व प्राणीनि विषे उपकारकी बुद्धि तथा मैत्री भात्र सो अनुकम्पा है, सो आप ही विषे अनुकम्पा है"।
१. अनुकम्पाके नेव
भ आ / वि / १८३४ / २६४३/३ अनुकम्पा त्रिप्रकारा धर्मानुकम्पा, मिश्रानुकम्पा, सर्वानुकम्पा चेति । अनुकम्पा या दया इसक तोन भेद है-धर्मामधानुकरण और सर्वानुकम्प
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२. अनुकम्पाके भेदोके लक्षण
भानि १८०४ / १६४१/२ त धर्मानुकम्पा नाम परिश्यासयमेषु मानवमातामाता समानान्ते यान्त करणेषु मातर्गमव मुक्तिमाश्रितेषु परिहृतोप्रकषायविषयेषु दिव्येषु भोगेषु दोषान्विचिन्त्य विरागतामुपगतेषु मसारमहासमुद्रामेन निशास्त्रेषु, अगीकृतनिस गत् समादियाविध धर्मपरिणयनुकम्पया धर्मानुकम्पा यया युक्तो जनो विवेकी तद्योग्यान्नपानावसथेषणादिक सयमसाधनं यतिभ्य प्रयच्छति । स्वामिनि शक्ति उपसोपानपसारयति म करोति भ्रष्टमा पन्थानमुपदर्शयति से प्रयोगमवाप्य अहो पुण्यात हृष्यति समास तेषाम् गुणान् की पतिस्मा गुरु मिव पश्यति तेषा गुणानामभीक्ष्णं स्मरात महात्मभिकामम समागमति से संयोग समीप्सति तदीयान् गुणादपरेर भिवयंमानान्निशम्य तुष्यति । इत्थमनुकम्पापर साधुर्गुणानुमननानुकारी भवति । त्रिधा च सन्तो बन्धमुपदिशन्ति स्वयं कृते करणाया, पर कृतस्यानुमतेश्च एतो महागुजरातिर्षा महाद] पुण्यास मिश्रानुकम्पोच्यते पृथुपापकर्म मूलेभ्यो हिसादिभ्यो व्यावृता' सतोषवैराग्यपरमनिरता दिविरति देशविरति अनर्थदण्डविरति घोषगतास्तदोषात् भोगोपभोगान्निवृत्य शेषे च भोगे कृतप्रमाणा' पापापरिमोचिता विशिष्ट काले जिससमा पस्या
च
अनुकंपा
रम्भयोग सकलं विसृज्य उपवास ये कुर्वन्ति तेषु संयतासंयतेषु
माजी कृत्याकृरस्नाम बुध्यमाना जिनावाह्या येऽम्यपारमहरताना कष्टानि सन्ति यमाणायासपि कर्म चिनोति देशप्रवृतिगृहिणाममा विस्वदोषोपहतोऽन्यधर्म इरमेषु मिश्रा भवति धर्मो मिश्रानुकम्पामत्रगच्छेज्जन्तु । सदृष्टयो वापि कुश्या स्वभावतो मार्दवसप्रयुक्ता । या कुर्वते सर्वकारी र बर्गे सर्वानुमायमानश् मममा निरेनमा वा परि मृगान्गा सरीसृपालु पशु मामादि निमित्त प्रहन्यमानात् परलोके परस्परं वातान् हिंसतो दृष्ट्वा सूक्ष्मात् कृत्यु पिपीलिकाप्रभृतिप्राणभृतो मनु कम्भयग्रभ रितुरगादिभिः समृयमानानभिवीक्ष्य असाध्यरोगोपरिमाना मृतोऽस्मि नही रोगानु धूयमानान्वादिभिराकालि (1) सहसा विज् स्वानश्नतम शोक्न उपाय मानान् प्रनष्टबन्धू पर्यशिल्पविद्याहीनात्यात्प्रज्ञाप्रशाशकान् निरीक्ष्य दु खमात्मस्थमिव विचिन्त्य स्वास्थ्यमुपशमनमनुकम्पा । १. धर्मानुकम्पा - जिन्होने असंयमका त्याग किया है। मान अपमान, सुख, दु ग्व, लाभ, अलाभ तृण, स्वर्ण इत्यादिकोंमें जिनका बुद्धि रागद्वेष रहित हो गयी है, इन्द्रिय और मन जिन्होंने अपने किये है, माता की भाँति युक्तिका जिन्होने आश्रय लिया है, उग्र पाय विषयका जिन्होने छोड़ दिया है, दिव्य भोगोंको दापयुक्त देखकर जो वैराग्य युक्त हो गये है, ससार समुद्रकी भीति से रात में भी अल्प निद्रा लेनेवाले है। जिन्होने सम्पूर्ण परिग्रहको छोड़करनि सगता धारण की है, जो क्षमादि दस प्रकारके धर्मों में इतने तत्पर रहते है कि मानो स्वयं क्षमादि दशधर्म स्वरूप ही भने हों, ऐसयमी मुनियों के ऊपर दया करना, उसको धर्मानुरूपा कहते है । यह अन्तकरण में जब उत्पन्न होती है तब विवेकी गृहस्थ प्रतियोंको योग्य अन्नजल, निवास, औषधादिक पदार्थ देता है। अपनी दाक्तिको छिपाकर वह मुनिके उपसर्गको दूर करता है। हे प्रभो आज्ञा दीजिए, ऐसी प्रार्थना कर सेवा करता है। यदि कोई मुनि नागभ्रष्ट होवर दि हो गये हों तो उनको मार्ग दिखाता है। मुनियोका संयोग प्राप्त होनेसे 'हम धन्य है' ऐसा समझकर मनमें आनन्दित होता है, सभामें उनके गुणोंका कीर्तन करता है । मनमें मुनियोको धर्मपिता व गुरु समझता है। उनके गुणोंका चिन्तन सदा मनमें करता है, ऐसे महात्माओका फिर कम सयोग होगा ऐसा विचार करता है, उनका सहवास सदा ही होनेकी इच्छा करता है, दूसरो के द्वारा उनके गुणोका वर्णन सुनकर सन्तुष्ट होता है। इस प्रकार धर्मानुकम्पा करनेवाला जीव माधुके गुणोंको अनुमोदन देने बाला और उनके गुणोका अनुारण करनेवाला होता है। जाचार्य बन्धके तीन प्रकार कहते है-अच्छे कार्य स्वय वरना, कराना और करनेवालोको अनुमति देना, इससे महान् पुण्यामव होता है, क्योंकि महागुणों मे प्रेम धारण कर जो कृत कारित और अनुमोदन प्रवृत्ति हासी है वह महाराष्यको उत्पन्न २. मिश्रा महा पाठकों के मूल कारण रूप हिंसादिको रिक्त होकर अर्थादि अनुमती वनकर सन्तोष और वैराग्यमें तत्पर रहकर जो दिग्विरति देशविरति और अनर्थ दण्डत्याग इन अणुव्रतोंको धारण करते हैं, जिनके सेवन से महादोष उत्पन्न होते है ऐसे भोगोपभोगोंका त्यागकर बाको भोगोपभोगकी वस्तुओका जिन्होने प्रमाण किया है. जिनका मन पाप से भय युक्त हुआ है, पापसे डरकर विशिष्ट देश और कालकी मर्यादा कार जिन्होने सर्व पापोका त्याग किया है अर्थात जो सामायिक करते है, पोंके दिनमें सम्पूर्ण आरम्भका त्याग कर जो उपवास करते है, ऐसे सयतासयत अर्थात् गृहस्थोंपर जो दया की जाती है उसको धानुकम्पा कहते है जो जीर दया करते है, परन्तु दयाका पूर्ण स्वरूप जो नही जानते हैं, जो जिन
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अनुकृति
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सूत्रसे बाह्य है, जो अन्य पाखण्डी गुरुकी उपासना करते है, नम्र और कष्टदायक कायक्लेश करते है, इनके ऊपर कृपा करना यह भी मिश्रानुकम्पा है, क्योंकि गृहस्थोकी एकदेशरूपतासे धर्ममे प्रवृत्ति है, वै सम्पूर्ण चारित्र रूप धर्म का पालन नहीं कर सकते। अन्य जनोका धर्म मिथ्यात्वसे युक्त है। इस वास्ते गृहस्थ धर्म और अन्य धर्म दोनोंके ऊपर दया करनेसे मिश्रानुकम्पा कहते है । ३ सर्वानुकम्पासुदृष्टि अर्थात् सम्यग्दृष्टि जन, कुदृष्टि अर्थात् मिथ्यादृष्टि जन यह दोनों भी स्वभावत मार्द वसे युक्त होकर मम्पूर्ण प्राणियोके ऊपर दया करते है, इस दयाका नाम समानुकम्पा है। जिनके अवयव टूट गये, जिनको जख्म हुई है, जो बॉधे गये है, जो स्पष्ट रूपसे लूटे जा रहे हैं. ऐसे मनुष्योंको देखकर, अपराधी अथवा निरपराधी मनुष्योको देखकर मानो अपनेको ही दुख हो रहा हो, ऐसा मानकर उनके ऊपर दया करना यह सर्वानुकम्पा है। हिरण, पक्षी, पेटसे रेगनेवाले प्राणी, पशु इनको मासादिक के लिए लोग मारते है ऐसा देखकर, अथवा आपसमें उपर्युक्त प्राणी लडते है और भक्षण करते है ऐसा देखकर जो दया उत्पन्न होती है, उसको सर्वानुकम्पा कहते है। सूक्ष्म कुथु, चीटी वगैरह प्राणी, मनुष्य, ऊँट, गधा, शरभ, हाथी, धोडा इत्यादिकोके द्वारा मर्दित किये जा रहे है, ऐसा देखकर दया करनो चाहिए। असाध्य रोग रूपी सर्पसे काटे जानेसे जो दुखी हुए है, 'मैं मर रहा हूँ' 'मेरा नाश हुआ''हे जन दौडो' ऐसा जो दु,खसे शब्द कर रहे है, रागोका जो अनुभव करता है उनके ऊपर दया करनी चाहिए। पुत्र, कलत्र, पत्नी वगैरहसे जिनका वियोग हुआ है, जो रोग पीडासे शोक कर रहे है, अपना मस्तक वगैरह जो वेदनासे पीटते है, कमाया हुआ धन नष्ट होनेसे जिनको शोक हुआ है, जिनके मान्धव छोडकर चले गये हैं, धैर्य, शिल्प, विद्या, व्यवसाय इत्यादिको से रहित है, उनको देखकर अपनेको इनका दुख हो रहा है ऐसा मानकर उन प्राणियोको स्वस्थ करना, उनकी पीडाका उपशम करना, यह सर्वानुकम्पा है। अनकृति-ध ११/४,२.६,२४६/३४ /१२ अणुकट्ठी णाम द्विदि ज्झव
सॅणिट्ठणाण समाणत्तमसमाणत्त च परूवेदि । -अणुकृति अनुयोगद्वार प्रत्येक स्थिति के स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोको समानता ब असमानताको बतलाता है। अनुकृष्टि-ल सा./४३/७७/५ अनुकृष्टय वा एकसमयपरिणाममाना
खण्डस ख्येत्यर्थ । - अनुकृष्टिका गच्छ, एक एक समय सम्बन्धी परिणानि विषै एते एते खण्ड हो है ऐसा अर्थ है। (विशेष दे. गणित 1/६/२)। अनुकृष्टि गच्छ आदि-दे गणित 11/६/२ । अनुकृष्टि चय-दे. गणित II/६/२, अनुक्त-मतिज्ञानका एक भेद - दे. मतिज्ञान ४ । अनुगम-4 ३/१,२,१/८/६ यथावस्त्वबोध अनुगम- केवलिश्रुतकेवलि भिरनुगतानुरूपेणावगमो वा। = वस्तु के अनुरूप ज्ञानको अनुगम कहते है । अथवा केवली और श्रुतकेवलियोके द्वारा परम्परासे
आये हुए अनुरूप ज्ञानको अनुगम कहते है। ध.१/४१,४५/१४१/६ जम्हि जेण वा वत्तव्व परुधिज्जदि सो अणुगमो। अहियारसपिणदाणमणिओगद्दाराण जे अहियारा तेसिमणुगमो त्ति सण्णा, जहा वेयणाए पदमीमांसादि । अथवा अनुगम्यन्ते जीवादय: पदार्थाः अनेनेत्यनुगम प्रमाणम् ।-१ जहाँ या जिसके द्वारा वक्तव्यकी प्ररूपणा की जाती है, वह अनुगम कहलाता है। २. अधिकार संज्ञा युक्त अनुयोगद्वारो के जो अधिकार होते है उनका 'अनुगम' यह नाम है, जैसे-वेदनानुयोगद्वारके पदमीमांसा आदि अनुगम । ३. अथवा जिसके द्वारा जीवादि पदार्थ जाने जाते है वह अनुगम अर्थात प्रमाण कहलाता है। घ.१/४,१,४६/१६२/४ अथवा अनुगम्यन्ते परिच्छिद्यन्त इति अनुगमाः षड्नम्याणि त्रिकोटिपरिणामात्मकपाषण्ड्य विषयविभ्राइभावरूपाणि
अनुत्सेक प्राप्तजात्यन्तराणि प्रमाणविषयतया अपसारित ट्रन यानि सविश्वरूपानन्तपर्यायसप्रतिपक्षविविधनियतभडगारमसत्तास्वरूपाणीति प्रतिपत्तव्यम् । एवमणुगमपरूवणा कदा। -अथवा जो जाने जाते है' इस निरुक्तिके अनुसार त्रिकोटि स्वरूप (द्रव्य, गुण, पर्याय स्वरूप) पाषण्डियोके अविषय भूत अविभ्राङ्भाव सम्बन्ध अर्थात कथ चित तादात्म्य सहित. जात्यन्तर स्वरूपको प्राप्त, प्रमाणके विषय होनेसे दुर्न योको दूर करनेवाले, अपनी नानारूप अनन्त पर्यायोकी प्रतिपक्ष भूत असत्तासे सहित और उत्पाद, व्यय, धौव्य स्वरूपसे सयुक्त, ऐसे छह द्रव्य अनुगम है, ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार अनुगमकी प्ररूपणा की है। अनुगामी-अवधिज्ञानका एक भेद-दे अवधिज्ञान १। अनुग्रह–स सि./७/३८/३७२ स्वपरोपकारोऽनुग्रह । स्वोपकार' पुण्यसचय , परोपकार' सम्यग्ज्ञानादिवृद्धि । -अपना तथा दूसरेका उपकार सो अनुग्रह है । (दान विषै) अपना उपकार तो पुण्य सचय है और परका उपकार सम्यग्ज्ञानादिकी वृद्धि है। (रा वा / ७/३८,१/५५६/१५)। रा. वा. ४/२०,२/२३५/१३ अनुग्रह इष्टप्रतिपादनम् । - इष्ट प्रतिपादन
करना अनुग्रह है। रा. वा/५/१७,३/४६०/२५ द्रव्याणा शक्त्यन्तराविर्भाव कारणभावोऽनुग्रह
उपग्रह इत्याख्यायते। =द्रव्यकी अन्य शक्तियोके प्रगट होने में कारण भावको अनुग्रह या उपग्रह कहते है । अनुग्रहतंत्र नय-दे. नय 1/५। अनुजीवी गुण-दे. गुण १ । अनुत्तर- १३/५.५.५०/२८३/३ उत्तर प्रतिवचनम्, न विद्यते
उत्तर यस्य श्रुतस्य तदनुत्तर श्रुतम्। अथवा अधिकमुत्तरम्, न विद्यते उत्तरोऽभ्यसिद्धान्त अस्मादित्यनुत्तर श्रुतम् ।-१ उत्तर प्रतिवचन का दूसरा नाम है, जिस श्रुतका उत्तर नही है वह श्रुत अनुत्तर कहलाता है । अथवा उत्तर शब्दका अर्थ अधिक है, इससे अधिक च कि अन्य कोई भी सिद्धान्त नही पाया जाता, इसलिए इस श्रुत
का नाम अनुत्तर है । २ कल्पातीत स्वर्गीका एक भेद-दे स्वर्ग ५/२। अनुत्तरोपपादक-ध. १/१,१,२/१०४/१ अनुत्तरेष्वोपपादिका अनुत्तरोपपादिका 1 -जो अनुत्तरोमें उपपाद जन्मसे पैदा होते हैं, उन्हे अनुत्तरोपपादिक कहते है।
१. भगवान् वीरके तीर्थ में दश अनुत्तरोपपादकोका निर्देश ध.१,१,२/१४०/२ ऋषिदास-धन्य-सुनक्षत्र-कात्तिकेयानन्द-नन्दन-शालिभद्राभय वारिषेण-चिलातपुत्रा इत्येते दश बर्द्धमानतीर्थकरतीर्थ । - ऋषिदास. धन्य, सुनक्षत्र, कात्तिकेय, आनन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, बारिषेण और चिलातपुत्र ये दश अनुत्तरौपपादिक वर्धमान तीर्थकरके तीर्थ मे हुए है। अनुत्तरोपपादकदशांग-दव्यश्रुतज्ञानका नशें अग =दे श्रुत
ज्ञान । अनुत्पत्तिसमाजाति-न्या सू./५/१/१२/२९२ प्रागुत्पत्ते कारणाभावादनुत्पत्तिसम ॥१२॥ उत्पत्ति के पहले कारणके न रहनेसे 'अन - त्पत्तिसम' होता है। शब्द अनित्य है, प्रयत्नकी कोई आवश्यकता नहीं होनेसे घट की नाई है, ऐसा कहनेपर दूसरा कहता है कि उत्पत्तिके पहले अनुत्पन्न शब्दमें प्रयत्नावश्यक्ता जो अनित्यत्वकी हेतु है, वह नहीं है । उसके अभावमें नित्यका होना प्रास हुआ और नित्य की उत्पत्ति है नहीं, अनुत्पत्तिसे प्रत्यवस्थान होनेसे अनुत्पत्तिसम हुआ। (श्लो वा ४/न्या. ३७३/५१/४) । अनुत्पादनोच्छेद-दे. व्युच्छित्ति । अनत्सेक-स सि/६/२६/३४० विज्ञानादिभिरुत्कृष्टस्यापि सतस्त
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अनुप्रेक्षा
अनुदिश स्कृतमद विरहोऽनहङ्कारतानुत्सेक 1-ज्ञानादिकी अपेक्षा श्रेष्ठ होते हुए
भी उसका मद न करना अर्थात् अहंकार रहित होना अनुत्सेक है । अनुदिश-रा वा /४/१६.५/२२५/१ किमनुदिशमिति । प्रतिदिशमित्यर्थः। -प्रश्न- अनुदिशसे क्या तात्पर्य है । उत्तर-अनुदिश अर्थात् प्रत्येक दिशामें वर्तमान विमान। अर्थात् जो प्रत्येक आठ दिशाओमें पाये जाये, वे अनुदिश हैं। क्योकि अनुदिश विमान एक मध्यमें है तथा दिशाओ व विदिशाओमें आठ है । अत इन विमानों को अनुदिश कहते है। २. करपातीत स्वर्गोंका एक भेद --
दे. स्वर्ग ५/२। अनुपक्रम-दे. काल १। अनुपचरित नय-दे नय V/s 1 अनुपमा-वरांग च./सर्ग/श्लोक "समृद्ध पुरके राजा धृतिसेनकी पुत्री
थी (२/११) । वरागकुमारसे विवाही गयी (२/८७)। अन्तमें दीक्षा धारण कर ली (२६/१४) तथा घार तपश्चरण कर स्वर्ग में देव हूई (३१/११४)। अनुपलब्धि -दे उपलब्धि । अनुपसंहारी हेत्वाभास-श्लो वा ४/न्या २७३/४२५/२२ तथैबानुपसहारी केवलान्वयिपक्षक। व्यतिरेक नही पाया जाकर जिसका केवल अन्वय ही वर्तता है उसको पक्ष या साध्य बनाकर जिस अनुमानमे हेतु दिये जाते है, वे हेतु अनुपस हारी हेत्वाभास है। अनुपस्थापनापरिहार प्रायश्चित-दे. परिहार। अनुपात-रा. वा./१/११.६/१२/२४ अनुपात्त प्रकाशोपदेशादिपर।
- अनुपात उपदेशादि 'पर' है। रावा./8/७.१/६००८ अनुपात्तानि परमाण्बादीनि। कर्मनोकर्मभावेन
आरमनागृहीतानि । अनुपात द्रव्य वे परमाणु आदि है जो आत्माके द्वारा कर्म व नोकर्म रूपसे ग्रहण किये जाने योग्य नहीं है। ध. १२/४,२,७/२२०/१६६/६ कोऽनुपात । त्रैराशिकम् । प्रश्न-अनुपात किसे कहते है । उत्तर-त्रैराशिकको अनुपात कहते हैं ।
२. (ज. प /प्र. १२७) Proportion. अनुपालनाशुद्धप्रत्याख्यान-दे. प्रत्याख्यान १। अनप्रेक्षा-किसी बातको पुन -पुन चिन्तवन करते रहना अनुप्रेक्षा है । मोक्षमार्गमें वैराग्यको वृद्धिके अर्थ बारह प्रकारकी अनुप्रेक्षाओंका कथन जैनागममें प्रसिद्ध है। इन्हे बारह वैराग्य भावनाएँ भी कहते है। इनके भानेसे व्यक्ति शरीर व भोगोंसे निविण्ण होकर साम्य भावमें स्थिति पा सकता है।
११. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) १२. लोकानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) १३ संवरानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
१४ ससारानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) २. अनुप्रेक्षा निर्देश १. सर्व अनुप्रेक्षाओका चिन्तवन सब अवसरोंपर
आवश्यक नही २ एकत्व व अन्यत्व अनुप्रेक्षामे अन्तर * धर्म ध्यान व अनप्रेक्षामे अन्तर-दे. धर्मध्यान ३॥ ३. आस्रव, संवर, निर्जरा-इन भावनाओंकी सार्थकता ४. वैराग्य स्थिरीकरणार्थ कुछ अन्य भावनाएँ
* ध्यानमे भाने योग्य कुछ भावनाएँ-दे. ध्येय । ३ निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार
१ अनुप्रेक्षाके साथ सम्यक्त्वका महत्त्व २ अनुप्रेक्षा वास्तवमे शुभभाव है।
३. अन्तरंग सापेक्ष अनुप्रेक्षा संवरका कारण है। ४. अनुप्रेक्षाका कारण व प्रयोजन
१ अनुप्रेक्षाका माहात्म्य व फल २ अनुप्रेक्षा सामान्यका प्रयोजन ३ अनित्यानुप्रेक्षाका प्रयोजन ४. अन्यत्वानुप्रेक्षाका प्रयोजन ५ अशरणानुप्रेक्षाका प्रयोजन ६ अशुचि अनुप्रेक्षाका प्रयोजन ७ आस्रवानुप्रेक्षाका प्रयोजन ८ एकत्वानुप्रेक्षाका प्रयोजन ९. धर्मानप्रेक्षाका प्रयोजन १. निर्जरानुप्रेक्षाका प्रयोजन ११. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका प्रयोजन १२ लोकानुप्रेक्षाका प्रयोजन १३. संवरानुप्रेक्षाका प्रयोजन १४ संसारानुप्रेक्षाका प्रयोजन
१भेद व लक्षण
१ अनुप्रेक्षा सामान्यका लक्षण २. अनुप्रेक्षाके भेद ३. अनित्यानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) ४ अन्यत्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) ५. अशरणानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) ६. अशुचित्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) ७. आस्रवानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) ८. एकत्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) ९. धर्मानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) १० निर्जरानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार)
१. भेद व लक्षण
१. अनुप्रेक्षा सामान्यका लक्षण त सू./8/9 स्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। बारह प्रकारसे कहे गये
तत्त्वका पुन पुन: चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। स. सि /8/२/४०६ शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। -शरीरादिकके स्वभावका पुन पुन चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। (रावा./
६/२,४/५६१/३४) स, सि /8/२५/४४३ अधिगतार्थस्य मनसाध्यासोऽनुप्रेक्षा। -जाने हुए
अर्थका मनमें अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। (रा वा./६/२५,३/६२४) (त.सा./0/२०) (चा सा/१५३/३) (अनघ/७/८६/७१५) ।
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अनुप्रेक्षा
अनुप्रेक्षा
घ ६/४,१,५५/२६३/१ कम्मणिज्जरण?मट्ठि-मजाणुमयस्स सुदणाणस्स परिमलणमणुपेक्रवणा णाम। = कर्मो की निर्जराके लिए अस्थि मज्जानुगत अर्थात पूर्ण रूपसे हृदयगम हुए श्रुतज्ञानके परिशीलन करनेका नाम अनुप्रेक्षा है। घ. १४/५,६,१४/६/५ सुदत्थस्स सुदाणुसारेण चिन्तणमणुपेहण णाम ।
सुने हुए अर्थ का श्रुतके अनुसार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । २. अनुप्रेक्षाके भेद त.सू./६/७ अनित्याशरणससारे कत्वान्यत्वाशुच्यासवसवरनिर्जरालोकबाधिदुलंभ मंस्वाव्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा ७॥ -अनित्य, अशरण, ससार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आसव, सवर, निर्जरा,लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मम्बाख्यातत्वका बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षाएँ है। (बा अ/२) (म आ/६६२) (रा वा /१,७/१४/४०/१४) (प वि./६/४३-४४) (द्र स.टी/३५/१०१)। भ. आ /मू /१७१५/१५४७ अधुवमसरणमेगत्तमण्णत्तस सारलोयमसुइत्त ।
आसवसवरणिज्जरधम्म बोधि च चितिज्ज |-अध व, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्त्रव, सवर, निर्जरा, धर्म और बोधि ऐसे बारह अनुप्रेक्षाआका भी चिन्तन करना चाहिए। रा. वा./8/७४/६०१/२६ अन्यत्व चतुर्धा व्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालम्बनेन । =अन्यत्व नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके आश्रयसे चार प्रकारका है।
३. अनित्यानुप्रेक्षा-१ निश्चय मा. अ/७ परम?ण दु आदा देवासुरमणुवरायविविहेहि । वदिरित्तो सो
अप्पा सस्सदभिदि चितये णिच्च ॥७॥ -शुद्ध निश्चयनयसे आत्माका स्वरूप सदैव इस तरह चिन्तवन करना चाहिए कि यह देव, असुर, मनुष्य और राजा आदिके विकल्पोसे रहित है। अर्थात इसमें देवादिक भेद नहीं है-ज्ञानस्वरूप मात्र है और सदा स्थिर रहनेवाला है। रा. वा./8/७,१/६००/७ उपात्तानुपात्तद्रव्यसयोगव्यभिचारस्वाभावोsनित्यलम् । - उपात्त और अनुपात्त द्रव्य सयोगोका व्यभिचारीस्वभाव अनित्य है। द्र. स./टो/३५/१०२ तत्सर्व मध व मिति भावयितव्यम् । तद्भावनासहित
पुरुषस्य तेषा वियोगेऽपि सत्युच्छिष्टेष्विव ममत्व न भवति तत्र ममत्वाभावादविनश्वरनिजपरमात्मानमेव भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भावयति.यादशमविनश्वरमात्मान भावयति तादृशमेवाक्षयानन्तसुखस्वभाव मुक्तात्मान प्राप्नोति। इत्या कानप्रेक्षा मता। -(धन खी आदि) सो सब अनित्य है. इस प्रकारे 'चन्तवन करना चाहिए। उस भावना सहित पुरुष के उन स्त्री आदिके वियोग होने पर भी जूठे भोजनोके समान ममत्व नहीं होता। उनमें ममत्वका अभाव होनेस अविनाशी निज परमात्माका हो भेद, अभेद रत्नत्रयकी भावना द्वारा भाता है। जैसी अत्रि नश्वर आत्माको भाता है, वैसी हो अक्षय, अनन्त सुख स्वभाववाली मुक्त आत्माको प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार अधु व भावना है।
२. व्यवहार मा. अ./६ जीवणिबद्ध देह खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्ध । भोगोप
भोगकारणदव्व णिच कह होदि ॥६॥ = जब क्षीरनीरवत् जीवके साथ निबद्ध यह शरीर ही शोघ नष्ट हो जाता है, तो भोगापभोगके कारण यह दूसरे पदार्थ किस तरह नित्य हो सक्ते है। (भूधरकृत १२ भावनाएं) (श्रीमद्कृत १२ भावनाए। स.सि./8/9/४१३ इमानि शरीरेन्द्रियविषयोपभोगद्रव्याणि जल बुदबुद्धबदनवस्थितस्वभावानि गर्भादिष्ववस्थाविशेषेषु सदोपलभ्यमानसयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते। न किचितस सारे समुदित
बमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिन्तनमनुप्रेक्षा। -ये समुदाय रूप शरीर, इन्द्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य, जल बुदबुदके समान अनव स्थित स्वभाववाले होते हैं तथा गर्भादि अवस्था विशेषों में सदा प्राप्त होनेवाले सयोगोसे विपरीत
स्वभाववाले होते है। मोहवश अज्ञ प्राणी इनमे नित्यताका अनुभव करता है, पर वस्तुत आत्माके ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके सिवा इस ससारमें कोई भी पदार्थ ध व नहीं है, इस प्रकार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है। (भ आ/मू./१७१६-१७२८/१५४३) (म.आ/६६३६६४) (रा वा /8/७,१/६००/8) (प 14 /३ सम्पूर्ण) (प वि /६/४५) (चा सा./१७८/१) (अन ध/६/५८-५९/६०६)।
४. अन्यत्वानुप्रेक्षा–१ निश्चय बा.अ/१३ अण्ण इम सरीरादिग पिज होइ बाहिर दव । णाण दंसणमादा एव चितेहि अण्णत्त ॥२३॥ - शरीरादि जो बाहिरी द्रव्य है, सो भी सब अपनेसे जुदा है और मेरा आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है, इस प्रकार अन्यल भावनाका चिन्तवन करना चाहिए । (स सा./मू./२७,३८) (स सा/क./)। स, सि./8/७/४१५ शरीरादन्यत्व चिन्तनमन्यत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बन्ध प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादन्योऽहमैन्द्रियकं शरीरमतीन्द्रियोऽहमज्ञ शरीर ज्ञोऽहम नित्यं शरीर नित्योऽहमाद्यन्तच्छरीरमनाद्यन्तोऽहम् । बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि ससारे परिभ्रमत । स एवाहमन्यस्तेभ्य इत्येव शरीरादप्यन्यत्व मे किमग, पुनर्वाह्येभ्य' परिग्रहेभ्य । इत्येव ह्यस्य मन समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोरपद्यते। - शरीरसे अन्यत्वका चिन्तन करना अन्यत्वानप्रेक्षा है । यथा बन्धकी अपेक्षा अभेद होनेपर भी लक्षण के भेदसे 'मै अन्य है', शरीर ऐन्द्रियक है, मै अतीन्द्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मै ज्ञाता है। शरीर अनित्य है, मै नित्य हूँ। शरीर आदि अन्तवाला है और मै अनाद्यनन्त हूँ। ससारमें परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखो शरीर अतीत हो गये है। उनसे भिन्न वह ही मै हूँ। इस प्रकार शरीरसे भी जब मै अन्य हूँ तम हे वत्स । मै बाह्य पदार्थोंसे भिन्न होऊँ.ता इसमें क्या आश्चर्य है । इस प्रकार मनको समाधान युक्त करनेवाले इसके शरीरादिमे स्पृहा उत्पन्न नही होती। (भ आ /मू./१७५४) मू आ /७००-७०२) (रा.बा /8/७.५/ ६०१/३१) (चा सा/१७०/४) (प वि /६/४६/२१०) (अन ध/६/६६६७/६/8). रा.वा /8/9.५/६०१/२६ अन्यत्व चतुर्धा व्यवतिष्ठते--नामस्थापनाद्रव्यभावालम्बनेन । आत्मा जीव इति नामभेद . काष्ठप्रतिमेति स्थापनाभेद , जीवद्रव्यमजीवद्रव्य मिति द्रव्यभेद , एकस्मिन्नपि द्रव्ये आलो युवा मनुष्यो देव इति भावभेद । तत्र बन्ध प्रत्येक्त्वे सत्याप लक्षणभेदादन्यत्वम्। = नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके अवलम्बन भेदसे अन्यत्र चार प्रकारका है। आत्मा जीव इत्यादि तो नाम भेद या नामोमे अन्यत्व है, काष्ठ आदिकी प्रतिमाओमें भेद सो स्थापना अन्यत्व है, जीब-अजीव आदि सो द्रव्योमें अन्यत्व है और एक ही द्रव्यमें बाल और युवा, मनुष्य या देव आदिक भेद सो भावों से अन्यत्व है । बन्ध रूपसे एक होते हुए भी लक्षण रूपसे इन सबमे भेद होना सो अन्यत्व है।
२. व्यवहार बा.अ./२१ मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबधुसदोहो। जीवस्स ण संबधो णियकज्जवसेण वति ॥२१॥ =माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि बन्धुजनोका समूह अपने कार्यके वश सम्बन्ध रखता है, परन्तु यथार्थ मे जीवका इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थात ये सब जीवसे
जुदे है। धम्मपद/५/३ पुत्ता मत्थि धन मत्थि इदि बालो विहङजति । अत्ता हि
अत्तनो नत्थि कतो पुत्तो कतो धन ॥ -मेरे पुत्र है, मेरा धन है ऐसा अज्ञानीजन कहते है। इस ससारमें जब शरीर ही अपना नहीं तब
पुत्र धनादि कैसे अपने हो सकते है। द्र.स /टी./३५/१०८ देहबन्धुजनसुवद्यिर्थन्द्रियसुखादीनि मधिीनत्वे विनश्वराणि- निजपरमात्मपदार्थानिश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि । तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति। इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा• ॥ -देह, बन्धुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रिय सुख आदि कर्मोके आधीन
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अनुप्रेक्षा होनेसे विनश्वर है। निश्चय नेयसे निज परमात्म पदार्थ से अन्य है भिन्न है और उनसे आत्मा अन्य है भिन्न है। इस प्रकार अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। (भ.आ./मू./१७५५-१७६७/१५४७) (भूधरकृत भावना स. ४) (श्रीमदकृत १२ भावनाएं)।
५. अशरणानुप्रेक्षा-१ निश्चय मा. अ/११ जाइजरामरणरोगभयदो रक्वेदि अप्पणो अप्पा। जम्हा बादा सरणं अधोदयसत्तकम्मवदि रित्तो ॥११॥ =जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदिसे आत्मा ही अपनी रक्षा करता है, इसलिए वास्तवमें जो कर्मोंकी बन्ध, उदय और सत्ता अवस्थासे जुदा है, वह आत्मा हो इस ससारमे शरण है। अर्थात् संसारमे अपने आत्माके सिवाय अपना और कोई रक्षा करनेवाला नहीं है। यह स्वय ही कर्मों को खिपाकर जन्म जरा मरणादिके कष्टोसे बच सकता है।
(का.अ./३१) (स.सा/मू/७४) का.अ./मू /३० दसणणाण-चरितं सरण सेवेह परम-सद्धाए। अण्णं कि पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥३०॥ =हे भव्य । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र शरण है। परम श्रद्धाके साथ उन्हींका सेवन कर। संसारमें भ्रमण करते हुए जीवोंको उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नही है । (भ.आ./मू /१७४६) । द्र.सं./टी./३५/१०२-१०३ अथाशरणानुप्रेक्षा कथ्यते-निश्चयरत्नत्रयपरिणत स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद् बहिरङ्गसहकारिकारणभूत पञ्चपरमेष्ठयाराधनं च शरणम् तस्माद्बहिर्भूता ये देवेन्द्र चक्रत्रतिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना गिरिदुर्गभूविवरमणिमन्त्राज्ञाप्रासादौषधादय पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरगकालादौ महाटव्या व्याघ्रगृहीतमृगबालस्येव, महासमुद्रे पोतच्युतपक्षिण इव शरण न भवन्तीति विज्ञेयम् । तद्विशाय भागाकांक्षारूपनिदानअन्वादिनिरालम्बने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसावलम्बने स्वशुद्धात्मन्येवालम्बन कृत्वा भावनां करोति । यादशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्व काल शरणभूत शरणगतवज्रपञ्जरसदृश निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति । इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता। निश्चय रत्नत्रयसे परिणत जो शुद्वात्म द्रव्य और उसको बहिरंग सहकारो कारणभूत पंचपरमेष्ठियोंकी आराधना, यह दोनों शरण है। उनसे भिन्न जो देव. इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्रादि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भहरा, मणि, मन्त्र-तन्त्र, आज्ञा, महल और औषध आदि अचेतन पदार्थ तथा चेतन-अचेतन मिश्रित पदार्थ ये कोई भी मरणादिके समय शरणभूत नहीं हाते जैसे महावनमें व्याघ-द्वारा पकड़े हुए हिरणके बच्चेको अथ्वा समुद्र में जहाजसे छूटे पक्षीको कोई शरण नहीं है। अन्य पदार्थोंको अपना शरण न जानकर आगामी भोगोंकी आकांक्षा रूप निदान बन्ध आदिका अवलम्बन न लेकर तथा स्वानुभवसे उत्पन्न सुख रूप अमृतका धारक निज शुद्धात्माका ही अवलम्बन करके, उस शुद्धारमाकी भावना करता है। जैसो आत्माको यह शरणभूत भाता है वैसे ही सदा शरणभूत, शरणमें आये हुएके लिए वज्रके पिंजरेके समान. निज शुद्धारमाको प्राप्त होता है । इस प्रकार अशरण अनुप्रेक्षाका व्याख्यान हुआ।
२. व्यवहार भ. आ./मू./१७२६ णास दि मदि उदिण्णे कम्मेण य तस्स दीसदि उवाओ । अमदपि विस सच्छ तण पिणोयं वि हूँति अरो। -कर्मका उदय आनेपर विचारयुक्त बुद्धि नष्ट होतो है, अवग्रह इत्यादि रूप मतिज्ञान और आप्तके उपदेशसे प्राप्त हुआ श्रुतज्ञान इन दोनौसे मनुष्य प्राणो हित और अहितका स्वरूप जान लेता है। अन्य उपायसे हिताहित नहीं जाना जाता है। असाता वेदनीय कर्म के उदयसे अमृत भी विष होता है और तृण भी छुरीका काम देता है, बन्धु भी शत्रु हो जाते हैं। (विस्तार दे. भ आ./मू./१७२६-१७४५) मा अ1८ मणिमतोसहरक्खा हयगयरहओ य सयल विजाओ। जीवाणं
ण हि सरणं तिमु लोए मरणसमयम्हि ।। -मरते समय प्राणियोंको तोनों लोकों में.मणि, मन्त्र, औषध, रक्षक, घोडा, हाथो, रथ और
जितनी विद्याएँ, वे कोई भी शरण नहीं है अर्थात् ये सब उन्हे मरनेमे नहीं बचा सकते। स, सि-18/७/४१४ यथा-मृगशाबस्यैकान्ते बलवता क्षुधितेनामिषैषिणा व्याघ्रणाभिभूतस्य न किचिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जन्तो शरण न विद्यते। परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते । यत्नेन सचिता अर्था अपि न भवान्तरमनुगच्छन्ति । संविभक्तसुखदु खा सुहृदोऽपि न मरणकाले परित्रायन्ते। बान्धवा समुदिताश्च रुजा परीन परिपालयन्ति । अस्ति चेत्सुचरितो धर्मो व्यसनमहार्णवे तरणोपायो भवति । मृत्युना नीयमानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम् । तस्माद भवव्यसनसकटे धर्म एव शरण सुहृदर्थोऽप्यनपायी, नान्यकिचिच्छरणमिति भावना अशरणानुप्रेक्षा । - जैसे हिरणके बच्चेको अकेले में भूखे मासके अभिलाषी व बलवान् व्याघ-द्वारा पक्डे हुएका कुछ भी शरण नहीं है, तैसे जन्म, बुढापा, मरण, पीडा इत्यादि विपत्तिके बोचमें भ्रमते हुए जीवका कोई रक्षक नहीं है। बराबर पोषा हुआ शरीर भी भोजन करते ताई सहाय करनेवाला होता है न कि कष्ट आनेपर। जतन करि इकट्ठा किया हुआ धन भी परलोकको नहीं जाता है । सुख-दुख में भागी मित्र भी मरण समयमे रक्षा नही करते है। इकट्ठहुए कुटुम्बो रोगग्रसितका प्रतिपालन नहीं कर सकते है। यदि भले प्रकार आचरण किया हुआ धर्म है तो विपत्तिरूपी बडे समुद्र में तरणका उपाय होता है। काल करि ग्रहण किये हुएका इन्द्रादिक भी शरण नही होते है। इसलिए भवरूपी विपत्तिमें वा कष्ट में धर्म ही शरण है, मित्र है, धन है, अविनाशी भो है । अन्य कुछ भी शरण नहीं है। इस प्रकार बार-बार चिन्तवन करना सो अशरण अनुप्रेक्षा है। (मू-आ./६६५-६६७) (रा.व./8/७,२/६००/१५) (चा सा./१७८/४) (५.वि./६/४६) (अन.ध/६/६०-६१/६९२) (द्र स /टी./३५/१०३) ।
६. अशुचित्वानुप्रेक्षा-१. निश्चय मा.अ./४६ देहादो बदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतमहणिलयो। चोक्खो हवेह अप्पा इदि णिच्च भावण कुज्जा ॥४६॥ वास्तवमें आत्मा देह से जुदा है, कर्मोंसे रहित है, अनन्त सुखोका घर है, इस लिए शुद्ध है, इस प्रकार निरन्तर भावना करते रहना चाहिए। (मो पा./मू-१८) (श्रीमद कृत १२ भावनाएँ)। द्र सं./टी./३५/१०६ सप्तधातुमयत्वेन तथा नासिका दिनबरन्धद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाचाशुचिरय देह न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचि' स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः । निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः । 'ब्रह्मचारो सदा शुचि' इति वचनात्तथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं च कामक्रोधादिरताना जलस्नानादिशौचेऽपि । विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगङ्गादितीर्थे स्नानादिकम् । । इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता । - अपवित्र होनेसे, सात धातुमय होनेसे, नाकादि नौ छिद्र द्वार होनेसे, स्वरूपसे भी अशुचि होनेके कारण तथा मूत्र विष्टा आदि अशुचि मलोंकी उत्पत्तिका स्थान होनेसे हो यह देह अशुचि नहीं है, किन्तु यह शरीर स्वरूपसे भी अशुचि है और अशुचि मल आदिका उत्पादक होने से अशुचि है निश्चयसे अपने आप पवित्र होनेसे यह परमात्मा (आत्मा) ही शुचि या पवित्र है ।...'ब्रह्मचारी सदा शुचि' इस वचनसे पूर्वोक्त प्रकारके ब्रह्मचारियों (आत्मा ही में चर्या करनेवाले मुनि)के हो पवित्रता है। जो काम क्रोधादिमें लीन जीव हैं उनके जल स्नान आदि करनेपर भी पवित्रता नहीं है।... आत्मारूपी शुद्ध नदो में स्नान करना हो परम पवित्रताका कारण है, लौकिक गंगादि तीर्थ में स्नान करना नहीं।...इस प्रकार अशुचिख अनुप्रेक्षाका कथन हुआ।
२. व्यवहार भ.आ./मू /१८१३-१८१५ असुहा अत्था कामा य हूँति देहो य सव्वमणुयाण । एओ चेव सुभो णवरि सव्वसोक्वायरो धम्मो ॥१८५३॥
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अनुप्रेक्षा
अनुप्रेक्षा
इहलोगिय परलोगियोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्च । अत्थो अणत्थमुलं महाभय सुत्तिपडिप थो ॥१८१४॥ कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा। उबधो लोए दुवखावहा य ण य हुति ते सुलहा ॥१८१५॥ अर्थ व काम पुरुषार्थ तथा सर्व मनुष्यो का देह अशुभ है। एक धर्म ही शुभ है और सर्व सौख्योका दाता है ॥१८१३॥ इस लोक और परलोकके दोष अर्थ पुरुषार्थ से मनुष्यका भोगने पड़ते है। अर्थ पुरुषार्थ के वश होकर पुरुष अन्याय करता है, चोरी करता है और राजासे दण्डित होता है और परलोक में नरक मे नाना दु खोका अनुभव लेता है, इसलिए अर्थ अर्थात धन अनथ का कारण है। महाभयका कारण है, मोक्ष प्राप्तिके लिए यह अर्गलाके समान प्रतिबन्ध करता है ॥१८१४॥ यह काम पुरुषार्थ अपवित्र गरीरमे उत्पन्न होता है, इससे आरमा हल्की होतो है, इसकी सेवासे आत्मा दुर्गतिमें दुख पाती है, यह पुरुषार्थ अल्पकाल में ही उत्पन्न ह कर नष्ट हो जाता है।
और प्राप्त होनेमें कठिन है। ब'.अ/४४ दुग्गंध वीभत्वं कलिमलभरि अचेयणा सुत्त । मडण पडणसहाव देह इदि चितये णिच्च ॥४॥ - यह देह दुर्गन्धमय है, डरावनी है, मलसूत्रसे भरी हुई है, जड है, मुर्तीक है और क्षीण होनेवाली है तथा विनाशीक स्वभाववाली है। इस तरह निरन्तर इसका विचार करते रहना चाहिए। स सि /8/७/१६ शगेरमिदमत्यन्ताशुचियोनिशुक्रशोणित शुचिसधितमवस्करबद शुचिभाजन त्वड्मात्रप्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्य न्दिलोतोबिलमगारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयात । स्नानानुलेपनधूपप्रघर्षबासमाल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहर्तमस्य । सम्यगदर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिी शुद्धिमाविषयतीति तत्त्वतोभावनमशुचित्वानुप्रेक्षा। - यह शरीर अत्यन्त अशुचि पदार्थों की योनि है । शुक्र और शाणित रूप अशुचि पदार्थोसे बृद्धिको प्राप्त हुआ है, शौचगृहके समान अशुचि पदार्थोका भाजन है। त्वचा मात्रसे आच्छादित ह । अति दुर्गन्धित रसको बहानेवाला झरना है। अगार के समान अपने आश्रयमे आये हुए पदार्थीको भी शीघ्र ही नष्ट कर देता है। स्नान, अनुलेपन धूपका मालिश और सुगन्धित माला आदिके द्वारा भी इसकी अशुचिताको दूर कर सकना शक्य नहीं है, किन्तु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यगदर्शन आदिके जीव की आत्यन्तिक शुद्धिको प्रगट करते है। इस प्रकार वास्तविक रूषसे चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है। (भ आ / मू /१८१६-१८२०) (भा.पा /म् /३७-४२) (म आ /७२०-७२३) (रा वा । ६/६/६०२) (चा सा/१०/६) (वि/६/५०) अन ध/६/६८-६९) स सा नाटक ४ (भूधरकृत भावना स ६) (श्रीमद्कृत् १२ भावनाएँ) (और भी देखो अशुचिके भेद)।
७. आस्नबानुप्रेक्षा-१ निश्चय मा.अ/६० पुव्वत्तासवभेयो णिच्छयण ग्रएण णस्थि जीवस्स । उदयासबणिम्मुबक अप्पाण चितए णिच्च ॥६०॥ = पूर्वोक्त आसब मिथ्यात्व आदि भेद निश्चय नयसे जीवके नही होते है। इसलिए निरन्तर हो आत्माके द्रव्य और भावरूप दोनो प्रकार के आसवोसे रहित चिन्तवन करना चाहिए । (स सामू ५१) (म सा /आ १७८/क १२०) ।
२ व्यवहार बा.अ/५६ पार पज्जएण दु आसव किरियाए णस्थि णिबाण । ससारगमणकारणमिदि णिद आसत्रों जाण ॥५६॥-कर्माका आस्रव करनेवाली क्रियासे परम्परासे भो निर्माण नही हा सक्ता है। इसलिए संसारमे भटकनेवाले आखकको बुरा समझना चाहिए । मृ.आ./७३० धिद्धी माहस्स सदा जेण हिदत्येण माहिदो संतो। णवि बुज्झदि जिगवयण हिदसित्रमुहकारण मग ॥७३०॥ - मोहको सदा काल धिक्कार हो, धिक्कार हो, क्योकि हृदय में रहनेवाले जिस मोहसे मोहित हुआ यह जीव हितकारी मोक्ष सुखका कारण ऐसे जिन बचनको नही पह वानता।
स सि./8/७/४१६ आसवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषायावतादय तत्रेन्द्रियाणि तावत्स्पर्शादीनि वनगजवायसपन्नागपतङ्गहरिणादीत् व्यसनार्णवमवगायन्ति तथा क्षायोदयोऽपीह बधबधापयश परिक्लेशादीन जनयन्ति । अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदु खप्रज्वलितासु परिभ्रमयन्तीत्येवमासवदोषानुचिन्तनमासबानुप्रेक्षा- आस्रव इस लोक और परलोकमे दुखदायी है। महानदीके प्रवाहके वैगके समान तो है तथा इन्द्रिय, कषाय और अवत रूप है। उनमेसे स्पर्शादिक' इन्द्रियाँ बनगज, कौआ, स, पतन और हरिण आदिको दुखरूप समुद्र में अवगाहन कराती है। कषाय आदि भी इस लोकमें, वध, बन्ध, अपयश और क्लेशादिक दुखोको उत्पन्न करते है। तथा परलोकमें नाना प्रकार के दुखोसे प्रज्वलित नाना गतियो मे रिभ्रमण कराते है। इस प्रकार आस्रवके दोषोको चिन्तवन करना आसत्रानुप्रेक्षा है। (भ आ/मू०/१८२१-१८३५) (स सा /मू । १६४-१६५) (रा वा/६/७,६/६०२/२२) (चा सा/११/२) (प.वि /६/५१) (अन.ध/६/७०-७१) (भूधरकृत भावना सं.)। द्र. स /टी /५/१६० इन्द्रियाणि • कषाया पञ्चावतानि । पञ्चविशतिक्रिया रूपास्त्रवाणाद्वारै मजल प्रवेशे सति ससारसमुद्रे पातो भवति । न च • मुक्तिवेलापत्तन प्राप्नोतीति । एवमात्रबगतदोषानुचिन्तनमासवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति । पाँच इन्द्रिय, चार कषाय, पाँच अवत और पचास क्रिया रूप आत्रबोके द्वारोसे कर्मजल के प्रवेश हो जानेपर ससारसमुद्र में पतन होता है और मुक्तिरूपी वेलापत्तनकी प्राप्ति नही होतो। इस प्रकार आस्रवके दोषोका पुन.-पुन चिन्तवन सो आस्रवानुप्रेक्षा जानना चाहिए।
८. एकत्वानुप्रेक्षा-१ निश्चय भ. आ /मू /१७५२-१७५३ जो पुण धम्मो जीवेण कदो सम्मत्तचरणसुदमइयो। सा परलोए जीवस्स होइ गुणकारक्स हाओ । ७५२॥ बद्धस्स बधणे व ण रागो देहम्मि होइ जाणिस्स । पिससरिसेसुण रागो अस्थेसु महाभयेमु तहा ॥१७५३॥=सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यग्ज्ञान रूप अर्थात रत्नत्रय रूप धर्म जा इस जीवने धारण किया था वही लोकमे इसका कल्याण करनेवाला सहायक होता है ॥१७५२॥ रज्जू आदिसे बन्धा हुआ पुरुष जिस प्रकार उन रज्जू आदि बन्धनोमे राग नही करता है, वैसे ही ज्ञानी जनो के शरीर में स्नेह नहीं होता है। तथा इसी प्रकार विषके समान दुखद व महाभय प्रदायी अर्थ में अर्थात् धनमे भी राग नहीं होता है ॥१७५६ ॥ गअ/२० एक्कोह णिम्ममा सुद्धोणाणदसणलवणो। सुद यत्तमुपादेयमेव चितेड सम्बदा ॥२०॥ - मै अकेला हूँ, ममता रहित हूँ. शुद्ध हूँ,
और ज्ञान दर्शन स्वरूप हूँ, इसलिए शुद्र एकपना ही उपादेय है, ऐसा निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए । (स सा /मू /७३) (सामायिक
पाठ अमितगति २७) (स सा ना /३३) । द्र स टी/४/१०७ निश्चयेन केवल ज्ञानमेबैक सहजशरीरम् । " न
च सप्तधातुमयौदारिक्शरीरम् । निजात्मतत्त्वमेवैक सदा शाश्वत परमहितकारी न च पुत्र कल त्रादि। स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमाऽर्थ न च सुवर्णाद्या स्वभावात्मसुखमेवैक सुरवं न चाकुलत्वोत्पादेन्द्रियसुख मिति । स्वशुद्धात्मैकसहायो भवति। एव एकत्वभावनाफल ज्ञात्वा निरन्तर निजशुद्धात्मैकत्वभावना कर्तव्या । इत्येव त्वानुप्रेक्षा गता। निश्चय से केवलज्ञान ही एक सहज या स्वाभाविक शरीर है, सप्तधातुमग्री यह औदारिक शरीर नही । निजात्म तत्त्व ही एक सदा शाश्वत व परम हितकारी है, पुत्र कलत्रादि नहीं। स्वशुद्धात्म पदार्थ ही एक अविनश्वर व परम हितकारी परम धन है, सुवर्णादि रूप धन नहीं । स्वभावात्म सुख ही एक सुख है, आकुलता उत्पादक इन्द्रिय सुख नही। स्वशुद्धारमा ही एक सहायी है। इस प्रकार एकरच भावनाका फल जानकर निरन्तर शुद्धात्मामें एकत्र भावना करनी चाहिए । इस प्रकार एकरव भावना कही गयी।
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२. व्यवहार
मा. अ. / १४ एको करेदि कम्मं एक्को हिदि य दोहसंसारे । एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भंजदे एक्को ॥१४॥ यह आत्मा अकेला हो शुभाशुभ कर्म बान्धता है, अकेला ही अनादि ससारमें भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने कर्मों का फल भोगता है, अर्थाद इसका कोई साथी नहीं है। ( मू. आ / ६६६) ।
स सि. / ६ / ७ / ४१५ जन्मजरामरणावृत्तिमहादु खानुभवनं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्व परो वा विद्यते। एक एव जायेऽहम् । एक एव म्रिये । न मे कश्चित् स्वजन परजनो वा व्याधिजरामरणादोनि दुःखान्यपहरति । बन्धु मित्राणि श्मशान नातिवर्तन्ते धर्म एव मे सहाय' सदा अनपायीति चिन्तनमेकस्वानुप्रेक्षा-जन्म जरा मरणकी आवृत्ति रूप महादु खवा अनुभव करनेके लिए अकेला ही मै हूँ, न कोई मेरा स्व है और न कोई पर है, अकेला हो मै जन्मता अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन, व्याषि जरा और मरण आदिके दु खाँको दूर नहीं करता। बन्धु और मित्र श्मशानसे आगे नहीं जाते। धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़नेवाला सदाकाल सहायक है । इस प्रकार चिन्तवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। (भ आ / १७४७१७५१) ( मू आ./६६८) (रा.वा./६/७,४/६०१ ) ( चा. सा / १८७ / २) तथा सम्पूर्ण अधिकार स ४, श्लोक से २१) न घ ६ / ६४-६५ ) ( भूधरकृत भावना स ३) (श्रीमद्रकृत १२ भावनाएँ) । ६. धर्मानुप्रेक्षा - १. निश्चय
बा. अ / ८२ णिच्छयणएण जोवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो । मज्झस्थभावणार सुद्धपं चितये णिच्च ॥८२॥ जीव निश्चय नयसे सागार और अनगार अर्थात् श्रावक और सुनि धर्मसे बिलकुल जुदा है, इसलिए राग-द्वेष रहित परिणामोसे शुद्ध स्वरूप आत्मा ही सदा ध्यान करना चाहिए। रा.वा./१/७,१०/६०३/२३ उक्तानि जोवस्थानानि गुगस्थानानि च तेषां गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु स्वतस्यविचारणालक्षणो धर्म जिनशासने स्वाख्यात ॥ पूर्वोक्त जोवस्थानी व गुणस्थानोंका उन गति आदि मार्गणास्थानों में अन्वेषण करते हुए स्वतत्रत्वको विचारणालक्षणवाता धर्म जिनशासन में भली प्रकार कहा गया है।
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७५
२. व्यवहार
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मा. अ /६८,८१ एयरसदसभेय धम्मं सम्मत्तपुब्बयं भणियं । सागारणगाराणं प्रतमहरा पशुहि ॥६८॥ सावयधम्मं चत्ता जम्मे जो वट्टए जोवो । सो ण य वज्जदि मोक्ख धम्म इदि चितये णिच्च. ॥८९॥ - उत्तम सुखमें लीन जिनदेवने कहा है कि श्रावको और मुनियोंका धर्म जो कि सम्यक्त्व सहित होता है, क्रमसे ग्यारह प्रकारका और दस प्रकारका है ॥ ६८ ॥ जो जोव श्रावक धर्मको छोड़कर मुनियोंके धर्मका आचरण करता है, वह मोक्षको नही छोड़ता है, इस प्रकार धर्म भावनाका नित्य ही चिन्तन करते रहना चाहिए । स. सि. / ६ / ७ / ४१६ अय जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षणः सत्याधिष्ठितो विनयसूत क्षमामलो मह्मचर्य उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रड्तालम्बन' अस्थालाभादनादिससारे जीवा' परिभ्रमन्ति दुष्कर्म विपाक दुखमनुभवन्त अस्य पुनः प्रतिलम् विविधा भ्युदयप्रतिपूर्विका निश्रेयसोपलब्धिर्नियतेति चिन्तनं धर्मस्वाख्यातवानुप्रेक्षा । - जिनेन्द्रदेवने जो अहिंसालक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है । विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशमकी उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलम्बन है। इसकी प्राप्ति नहीं होनेसे कर्म विपाक जायमान दुखको अनुभव करते हुए ये जीन अनादि संसारमें परिभ्रमण करते है । परन्तु इसका लाभ होनेपर नाना प्रकार के अभ्युदयोंकी प्राप्ति पूर्वक मोक्षकी प्राप्ति होना निश्चित है, ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातस्यानुपेक्षा है (भ.आ.//
। -
अनुप्रेक्षा
१८४७-१८४५) ( आ / ७२६-१४४) (रा. ना //११/२००/२) (चा. सा./ २०१/२) (वि. ६/५१) (अन. प./६/८०/६१३) (भूधरकृत भावना सं. १२) ।
इ. सं./टी./१२/१४५ चतुरशीटियोक्षेषु मध्ये दु खानि सहमान सम्भ्रमितोऽम जोनो यदा पुनरेव गुणविशिष्टस्य धर्मस्य नाभो भवति तदा "विविधाभ्युदयसुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रयभावनाबलेनाक्षयानन्तसुखादिगुणास्पदमर्हत्पदं सिद्धपद च लभते तेन कारणेन धर्म एव परमरसरसायनं निधिनिधान कल्पवृक्ष कामधेनुश्चिन्तामणिरिति । इति सक्षेर्पेण धर्मानुप्रेक्षा गता । =चौरासी लाख योनियो में दुखोंको सहते हुए भ्रमण करते इस जोबको जब इस प्रकार के पूर्वो धर्मकी प्राप्ति होती है तब यह विविध प्रकारके अम्युदय सुखोंको पाकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रयकी भावनाके बलसे अक्षयानन्त सुखादि गुणोका स्थानभूत अर्हन्तपद और सिंद्ध पदको प्राप्त होता है। इस कारण धर्म ही परम रसका रसायन है, धर्म ही निधियोंका भण्डार है. धर्म ही कल्पवृक्ष है, कामधेनु है, धर्म हो चिन्तामणि है...इस प्रकार संक्षेपसे धर्मानुप्रेक्षा समाझ हुई श्रीमत १२ भावनाएँ)
१०. निर्जरानुप्रेक्षा - १. निश्चय
म. सा / मू/ १६८ उदय विवागो विविहो कम्माणं वण्णिओ जिणवरेहिं । दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमिको ॥१६८॥ कम उदयका रस जिनेश्वर देवने अनेक प्रकारका कहा है। वे कर्म विपाकसे
भाव मेरा स्वभाव नही है। मै तो एक ज्ञायक भाव स्वरूप हूँ । इ.सं./टी./१२/११२ निजपरमात्मानुभूतिमसेन निर्जरा
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भोगाकांक्षादिविभाग राज्यपरिणामवर्त्तत इति । .. इति निर्जरानुप्रेक्षा गता । निजपरमात्मानुभूतिके
बस निर्जरा करनेके लिए ट व अनुभूत मोगोकी आदि रूप विभाव परिणामके त्याग रूप सवेग तथा वैराग्य रूप परिणामोंके साथ रहता है । इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई। (स. सा. /आ./ १९३ उत्थानिका रूप कलश. १३३)
२
व्यवहार
बा. अ / ६७ सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा । चादुगदीण पढमा वयजुत्ताण हवे बिदिया ॥ ६७॥ उपरोक्त निर्जरा दो प्रकारकी है - स्वकाल पक्व और तप द्वारा की गयी। इनमें से पहली तो चारो गतिवाले जीवोके होती है और दूसरी केवल व्रतधारी श्रावक वा मुनियोके होती है। (भूधरकृत भावना स १० ) । ससि /६/७/४१७ निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम् । सा द्वेधा-अबुद्धिपूर्वा कुशसा चेति तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाका अपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा परिवहनये कृते कुसला सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति । इत्येवं निर्जरामा गुणदोषभावन निरानुपेक्षा वेदनाविकका नाम निर्जरा है. यह पहले कह आये हैं। वह दो प्रकारकी है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला । नरकादि गतियों में कर्मफलके विपाकसे जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है. वह अजानुबन्धा है तथा परिपके जीतनेपर जो निर्जरा होती है. वह निर्जरा है वह माना और निरनुबन्धा होती है। इस प्रकार निर्जराके गुणदोषोंका चिन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। (भ.आ./मू. १८४५-१८५६) (सू.आ./७४४७४१) (रा बा./६/०६/०१/११) (प./२/५३) (अनभ/६/०४-०५/ ६२०) |
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
११. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा-१ निश्चय
मा. अ / ८३-८४ उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवारण तस्सुवायस्स । चिता हवेह बोही अच्चतं दुल्लहं होदि ॥८३॥ कम्मुदयजपज्जाया हेयं लाओसमयमाण खु सगदम्बादेयं हि होदिसणा ॥८४॥ जिस उपाय से सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति हो, उस उपायकी चिन्ता करनेको अत्यन्त दुर्बोध भावना कहते हैं, खोकिमो
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अनुप्रेक्षा
अनुप्रेक्षा
अर्थात् सम्यग्ज्ञानका पाना अत्यन्त कठिन है ॥८३॥ अशुद्ध निश्चय नयसे क्षा पोपशमिक ज्ञान को के उदयसे, जो कि परद्रव्य है, उत्पन्न होता है, इसलिए हेय अर्थात त्यागने योग्य है और सम्यग्ज्ञान (बोधि) स्वद्रव्य है, अर्थात् आत्माका निज स्वभाव है, इसलिए उपादेय है ॥८४॥
२ व्यवहार स, सिह/७/४१८ एकस्मिन्निगोतशरीरे जोवा सिद्धानामनन्तगुणा ।
एवं सर्वलोको निरन्तर निचित स्थावरैरतस्तत्र प्रसता वालुकासमुन्द्रे पतिता वज्रसिकताकणिकेव दुर्लभा। तत्र च विकलेन्द्रियाणा भूयिष्ठत्वात्पञ्चेन्द्रियता गुणेषु कृतज्ञमेव कृच्छ्रलभ्या। तत्र च तिर्यक्षु पशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु बहुषु मनुष्यभावश्चतुष्पथे रत्नराशिरिव दुरामद । तत्प्रच्यवे च पुनस्तदुपपत्तिर्द ग्धतरुपुद्गलतद्भावोपपत्तिवद् दुर्लभा। तल्लाभे च देशकुलेन्द्रियसंपन्नारोगत्वान्युत्तरोत्तरतोऽतिदुर्लभानि । सर्वेष्वपि तेषु लब्धेषु सद्धर्मप्रतिलम्भो यदि न स्याद् व्यर्थ जन्म वदनमिव दृष्टिविकलम्। तमेव कृच्छलभ्य धर्ममवाप्य विषयसुखे रब्जन भस्मार्थ चन्दनदहनमिव विफलम्। विरक्तविषयसुखस्य तु तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षण समाधिरवाप । तस्मिन् सति बोधिलाभ' फलवान् भवतीति चिन्तनं बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा। एक निगोद शरीरमें सिद्धोंसे अनन्त गुणे जीव है। इस प्रकारके स्थावर जीवोंसे सर्व लोक निरन्तर भरा हुआ है। अत इस लोकमें प्रस पर्यायका प्राप्त होना इतना दुर्लभ है, जितना कि बालुकाके समुद्र में पडी हुई वज्रसिक्ताकी कणिकाका प्राप्त होना दुर्लभ होता है। इसमें भी विकलेन्द्रिय जीवोंकी बहुलता होनेके कारण गुणोमें जिस प्रकार कृतज्ञता गुणका प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पचेन्द्रिय पर्यायका प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यचौकी बहुलता होती है। इसीलिए जिस प्रकार चौराहेपर रत्नराशिका प्राप्त होना अति कठिन है, उसी प्रकार मनुष्य पर्यायका प्राप्त होना अति कठिन है। और मनुष्य पर्यायके मिलनेके माद उसके च्युत हो जानेपर पुन उसकी प्राप्ति होना इतना कठिन है जितनी कि जले हुए पुगनोका पुन' उस वृक्ष पर्याय रूपसे उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचिद पुन इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कुल, इन्द्रिय, सम्पत और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जानेपर भी यदि समीचीन धर्मकी प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टिके बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्मका प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अति कठिनतासे प्राप्त होने योग्य उस धर्मको प्राप्त कर विषय सुख में रममाण होना भस्मके लिए चन्दनको जलानेके समान निष्फल है। कदाचित विषय सुखसे विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तपको भावना, धर्मकी प्रभावना और सुखपूर्वक मरण रूप समाधिका प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। इसके होनेपर ही बोधिलाभ सफल है, ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। (भ आ (म् /१८६६-१८७३) (मू आ./७५५७६२) (रा.वा./8/७,६/६०३) (चा सा /१६८/४) (प.वि./६/५५) (अन,ध./41
७८-७६/६३१) (भूधरकृत भावना सं. ११)। द्र.स./टी/३५/१४४ कथंचित् काकतालीयन्यायेन (एते मनुष्यगति
आर्यत्वतत्वश्रवणादि सर्वे) लब्धेष्वपि तल्लब्धिरूपबोधे फलभूतस्वशुद्धात्मस वित्त्यात्मकनिर्मलधर्मध्यान शुक्लध्यानरूप परमसमाधिदुर्लभ' । तस्मात्स एव निरन्तर भावनीय' । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं समाधिरिति। एव सक्षेपेण दुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता। -यदि काकतालीयन्यायसे इन मनुष्य गति. आर्यत्व, तत्त्वश्रवणादि सबकी लब्धि हो जाये तो भी इनको प्राप्ति रूप जो ज्ञान है, उसमें फलभूत जो शुद्धारमाके ज्ञान स्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान रूप परमसमाधि है, वह दुर्लभ है 1 - "इसलिए उसको हो निरन्तर भावना करनी चाहिए। पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और
सम्यकचारित्रका प्राप्त होना तो बोधि कहलाता है और उन्हीं सम्यग्दर्शनादिकोको निर्विधन अन्य भव में साथ ले जाना सो समाधि है । ऐसा संक्षेपसे बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ।
१२. लोकानुप्रेक्षा-१ निश्चय बा.अ /४२ असुहेण णिरय तिरिय सुहउपजोगेग दिविजणरसोवरन । सुद्धेण लहइ सिद्धि एवं लोय विचितिज्जो ॥४॥ - यह जीव अशुभविचारोसे नरक तथा तियन गति पाता है, शुभ विचारोसे देवो तथा मनुष्योके सुख भोगता है और शुद्ध विचारोसे मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावनाका चिन्तन करना चाहिए। (भा पा./मू./७६, ७७,८८) (श्रीमदकृत १२ भावनाएँ)। भ आ /वि./१७१८/१६१४/१८ यद्यप्यनेक प्रकारो लोकस्तथापीह लोक
शब्देन जीवद्रव्यं लोक एवोच्यते। सूत्रेण जीवधर्मप्रवृत्तिक्रमनिरू: णात् । यद्यपि (नाम, स्थापनादि विकल्पोसे) लोकके अनेक भेद हैं तथापि यहाँ लोक शब्दसे जीव द्रव्य लोक ही ग्राह्य है क्योंकि जीवके
धर्म प्रवृत्तिका यहाँ क्रम कहा गया है। द्र सं/टो /३५/१४३ आदिमध्यान्तमुक्ते शुद्धबुट्टै स्वभावे परमात्मनि
सकल विमलकेवलज्ञानलोचनादर्श बिम्बानीव शुद्धात्मादिपदार्था लोक्यन्ते दृश्यन्ते ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते यतस्तेन कारणेन स एव निश्चयलोकस्तस्मिन्निश्चयलोकाख्ये स्वकीयशुद्धपरमात्मनि अवलोकन वा स निश्चयलोक । ...इति निजशुद्वात्मभावनोत्पन्नपरमाहादै कसुखामृतस्वादानुभवनेन च या भावना सैव निश्चयलोकानुप्रेक्षा।
आदि. मध्य तथा अन्त रहित शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव तथा परमात्ममें पूर्ण विमल केवलज्ञानमयी नेत्र है, उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बोंका भान होता है उसी प्रकारसे शुद्धात्मादि पदार्थ देखे जाते है, जाने जाते है। इस कारण वह शुद्धात्मा ही निश्चय लोक है अथवा उस निश्चय लोकवाले निज शुद्धपरमात्मामें जो अवलोकन है वह निश्चय लोक है। इस प्रकार निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न परमाह्वाद सुखरूपी अमृतके आस्वादके अनुभवसे जो भावना होती है वही निश्चयसे लोकानुप्रेक्षा है।
२. व्यवहार मू.आ/७१५-७११ तत्थणुवहति जीवा सकम्मणिव्वत्तियं मह दुवखें । जम्मणमरणपुणभवमण तभवसायरे भीमे। ॥७१५॥ आदा य होदि धूदा धूदा मादुत्तणं पुण उवेदि। पुरिसोवि तत्थ इत्थी पुमं च अपुमं च होइ जगे ॥७१६॥ होऊण तेयसत्ताधिओ दु बलविरियरूवसंपण्णो । जादो बच्चवरे किमिधिगत्थु संसारवासस्स ७१७॥ विभक्दु लोगधम्म देवाविय सूरवदीय महधीया। भोत्तूण य सुहमतुलं पुणवि दुक्खाबहा होति ॥७१८॥ णाऊण लोगसार णिस्सार दीहगमणससार । लोगग्गसिहरवास झाहि पयत्तेण सुहवासं ॥७१६॥ - इस लोकमें ये जीव अपने कर्मोसे उपार्जन किये सुख-दुखको भागते है और भयकर इस भवसागरमें जन्म-मरणको बारम्बार अनुभव करते है ॥७१५॥ इस संसारमें माता है, वह पुत्री हो जाती है, पुत्री माता हो जाती है। पुरुष स्त्री हो जाता है और स्त्री पुरुष और नपुंसक हो जाती है ॥७१६॥ प्रताप सुन्दरतासे अधिक बल वीर्ययुक्त इनसे परिपूर्ण राजा भी कर्मवश अशुचि (मैले) स्थानमें लट होता है। इसलिए ऐसे संसारमें रहनेको धिक्कार हो ॥७१७॥ लोकके स्वभावको धिक्कार हो जिससे कि देव और महान ऋद्धिवाले इन्द्र अनुपम सुखको भोग कर पश्चाव दुख भोगनेवाले होते है ॥७१८॥ इस प्रकार लोकको निस्सार (तुच्छ) जानकर तथा उस संसारको अनन्त जानकर अनन्त सुखका स्थान ऐसे मोक्षका
यत्नसे ध्यान कर ॥७१६॥ भ आ /मू./१७६८, १८१२ आहिंडय पुरिसस्स व इमस्स णीया तहिं होति । सव्वे वि इमो पत्तो सबंधे सव्वजीवेहि ॥१७६८॥ विज्जू वि चचल फेणदुव्वलं बाधिमयिमच्चुहद । णाणी किह पेच्छतो रमेज्ज दुक्खुधुदं लोग ॥१८१२५ - एक देशसे दूसरे देशको जानेवाले पुरुषके समान इस जीवको सर्व जगमें बन्धु लाभ होता है, अमुक जीवके साथ
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इसका पिता पुत्र वगैरह रूपसे सम्बन्ध नहीं हुआ ऐसा काल ही नहीं था, अत: सर्व जीव इसके सम्बन्धी है | १७६८॥ यह जगत् बिजलीके समान चंचल है, समुद्र के फेनके समान बलहीन है, व्याधि और मृत्युसे पीडित हुआ है। ज्ञानी पुरुष इसे दु खोसे भरा हुआ देखकर उसमें कैसी प्रोति करते है अर्थात् ज्ञानी इस लोकसे प्रेम नहीं करते । इसके ऊपर माध्यस्थभाव रखते है ।
ससि / ६ / ७ / ४१८ लोकसस्थानादिविधिर्व्याख्यात । समन्तादनन्तस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोक्स्य संस्थानादिविधिख्यात । तत्स्वभावानुचिन्तन लोकानुरक्षा लोकवा आकार व प्रकृति आदिकी विधि वर्णन कर दी गयी है। अर्थात् चारो ओरसे अनन्त अलोकाकाशके बहुमध्य देशमें स्थित लोकके आकारादिक्की विधि कह दी गयी। उसके स्वभावका अनुचिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है (सूखा / ०११-०१४) (रा. वा /६/०८/२०१) (चासा / ११६/४) (पं.वि. / ६ / ५४ ) ( अन ध. ६/७६-७७) (भूधरकृत भावना स ५) । १३ संवरानुप्रेक्षा - १
निश्चय
बा अ / ६५ जीवस्स ण सवरण परमट्टणएण सुद्धभावादो। संवरभावविमुक्क अप्पाण चितये णिच्च ॥ ६५ ॥ शूद्ध निश्चय नयसे जीवके सबर हो नहीं है इसलिए संवरके विकल्पसे रहित आत्माका निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए (ससा / १८१/क १२७)
खस / टी / ३५ / १११ अथ सवरानुप्रेक्षा कथ्यने-यथा तदेव जलपात्र छिद्रस्य कम्पने सति जलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन वेलापत्तनं प्राप्नोति । तथा जलपात्र निजशुद्धात्मवित्तिमतेन इन्द्रियायास द्राणी झम्पने पति जलाभावे निर्विघ्नेन केवलज्ञानानन्तगुणरत्नपूर्ण मुक्तिबेला पतन प्राप्नोति एवं संगतगुणानुचिन्तन संवरानुप्रेक्षा ज्ञातव्या । अब संवर अनुप्रेक्षा कहते है। वही समुद्रका जहाज अपने छेदोके बन्द हो जानेमे जलके न घुसनेमे निर्विघ्न वेलापत्तनको प्राप्त हो जाता है । उसी प्रकार जीवरूपी जहाज अपने शुद्ध आत्म ज्ञानके बल से इन्द्रिय आदि आसर्वाछिद्रोके मुँह बन्द हो जानेपर कर्मरूपी जल न घुसनेसे केवलज्ञानादि अनन्त गुण रत्नोसे पूर्ण मुक्तिरूपी वेलापत्तनको निर्विघ्न प्राप्त हो जाता है। ऐसे सबरके गुणोके चिन्तन रूप सवर अनुप्रेक्षा जाननी चाहिए ।
२ व्यवहार मा १४ होगे पविती संवरण कुणदि असहयोगस्म मुह जागस्स गिरा व सभो धम्म सुक्कच होदि जोवस्स । तम्हा संव रहेदू झाणो ति विचितये शिव ॥६४॥ मन, वचन, कायको शुभ प्रवृत्तियो अशुभपयोगका सबर होता है और केवल आरा के ध्यान रूप शुशुभयोग का संवर होता है ॥ ६३॥ इसके पश्चात शुद्धोपयोगसे जावके धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते है । इसलिए सवरका कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिए ॥ ६४॥
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स.सि / ६ / ७ / ४१७ यथा महार्णवे नावो विवरपिधानेऽसति क्रमात् तजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणा विनाशोऽवश्यभात्री, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषितदेशान्तरप्रापणं, तथा कर्मागमद्वारसवरणे सति नास्ति देव प्रतिबन्ध इति गुणानुचिन्तनं सवरानुमेया जिस प्रकार महानवमें नाव छिद्रके नहीं रुके रहनेपर क्रमसे झिरे हुए जलसे उसके व्याप्त होनेपर उसके आश्रयपर बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यम्भावी है और छिद्र के रुके रहनेपर निरुपद्रव रूपसे अभिलषित देशान्तरका प्राप्त होना अवश्यम्भावी है। उसी प्रकार कर्मागमद्वारके रुके होनेपर कल्याणका प्रतिबन्ध नहीं होता। इस प्रकार सवरंके गुणोंका चिन्तवन करना सवरानुप्रेक्षा है। (भ आ./मू./१८३६-१८४४) (मु.आ./ ७३८-७४३) (रा. बा. / ६ / ७, ६/६०२ / ३२) ( चा सा / १६६/२) (पं. मि. /६/२) (अन. /६/०२-०३) (धरकृत १२ भावनाएँ) । १४ संसारानुप्रेक्षा-१. निश्चय
अ / १७ कम्मणिमित्तं जोवो हिंडदि ससारघोरकांतारे जीवस्स ण
1
अनुप्रेक्षा
ससारो णिश्चयणयकम्मणिम्मुको ॥१७॥ यद्यपि यह जीव कर्मके निमित्तसे संसार रूपी बड़े भारी वनमे भटकता रहता है, परन्तु निश्चय नयसे यह कर्म से रहित है और इसीलिए इसका भ्रमण रूप सारसे कोई सम्बन्ध नहीं है ।
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इ. स. / टो. / ३५ / १०५ एव पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्यक्षेत्रकाल भवभावरूप पञ्चप्रकार सारं भावयतोऽस्य जीवस्य ससारातीतस्यशुद्धात्म विभि विनाशमेषु ससारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिमादाय परिणामो न जायते किन्तु खसारातीतसुखास्वादे रतो त्या स्वशुद्धात्मस वित्तिवशेन ससारविनाशक निज निरञ्जनपरमात्मनि एव भावना करोति । ततश्च यादृशमेव परमात्मन भावयति तादृशमेव लब्ध्वा ससार विलक्षणे मोक्षेऽनन्तकालं तिष्ठतीति । इति ससारानुप्रेक्षा गता । इस प्रकारसे द्रव्य क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार के ससारको चिन्तवन करते हुए इस जीवके, ससार रहित निज शुद्धात्म ज्ञानका नाश करनेवाले तथा ससारकी वृद्धिके कारणभूत जो मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग है उनमें परिणाम नहीं जाता, किन्तु वह संसारातीत सुखके अनुभवमें लीन होकर निज शुद्धात्मज्ञानके बल से ससारको नष्ट करनेवाले निज निरजन परमात्मामें भावना करता है। तदनन्तर जिस प्रकारके परमात्माको भाता है उसी प्रकार के परमात्माको प्राप्त होकर ससारसे विलक्षण मोक्षमें अनन्त काल तक रहता है । इस प्रकार ससारानुप्रेक्षा समाप्त हुई ।
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२. व्यवहार
बा अ / २४ पंचविहे ससारे जाइजरामरणरोगभयपउरे । जिणमश्गमपेछ तो जीवी परिभ्रमदि चिरकाल ॥२४॥ - यह जोव जिनमार्ग की ओर ध्यान नहीं देता है, इसलिए जन्म, बुढापा, मरण, रोग और भयसे भरे हुए पाँच प्रकारके ससारमे अनादि कालसे भटक रहा है। ससि / ६ / ७ / ४१५ कर्मविपाक्वशादात्मनो भवान्तरावाप्ति स्सार । स पुरस्तात्पञ्चविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्या तस्मिन्नने+योनिल कोटिक संसारे परिभ्रम जीव पिता भूत्वा भ्राता पुत्र पौत्रश्च भवति । माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति । स्वामी भूत्वा दासो भवति । दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति नट इव रङ्ग । अथवा कि बहुना, स्वयमात्मन पुत्रो भरतोत्वादि ससारस्यभावचिन्तनमनुप्रेक्षा कर्म विपाय वशसे आत्माको भवान्तर की प्राप्ति होना सो संसार है। उसका पहले पाँच प्रकारके परिवर्तन रूपमे व्याख्यान कर आये है । अनेक योनि और कुल कोटिलाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयन्त्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या और पुत्री होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार र गस्थल मे नट नाना रूप धारण करता है उसी प्रकार यह होता है । अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है । इत्यादि रूप से संसारके स्वभावका चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है। (भ.आ / मू / १७६८- १७६७ ) ( मू आ / ७०३-७१० ) ( रा वा / १/७,३/६००-६०१) (चासा / १८६/५) पवि /६/४७) (अन ध / ६ / ६२-६५) ।
4
रा बा ६/०२/२००/२८ चतुविधारावस्था ससार असंसार नोसंसार तत्रितयव्यपायश्चेति । तत्र संसारश्वतमृषु गतिषु नानायो निविकल्पासु परिभ्रमणम् अनागतिरससार । शिवपदपरमामृतसुखप्रतिष्ठा । नोस सार सयोगकेवलिन चतुर्गतिभ्रमणाभावात् अससारप्राप्त्याभावाच्च ईषत्ससारो नोसंसार इति । अयोगकेवलन तत्रितयव्यपाय | अभव्यत्वसामान्यापेक्षया ससारोऽनाद्यनन्त भव्य विशेषापेक्षया अनादिपर्यवसान । (नोस सारो जघन्येनान्तर्मुहूर्त उत्कृष्टेन देश | पूर्वकोटि साथि समान ससा जघन्येना उत्कृष्टे वागनकाल सच संसारो इयक्षेत्राभावभेदात् पञ्चविधो ॥ (चा सा ) । = आत्माकी चार अवस्थाएँ होती हैससार, अससार, नोसंसार और तीनोसे विलक्षण । अनेक योनि
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नुपेक्षा
वाली चार गतियों में भ्रमण करता ससार है। शिवपदके परमामृत सुख भतिठा असंसार है। चतुति प्रमण न होनेसे और मोक्षकी प्राप्ति न होनेसे सयोगकेवलीको जीवन मुक्ति अवस्था ईषद संसार या नोसंसार है। अयोगकेवली इन तीनोसे विलक्षण है । अभव्य तथा भव्य सामान्यकी दृष्टिसे ससार अनादि-अनन्त है। भव्य विशेषकी अपेक्षा अनादि और उच्छेदवाला है। नोससार सादि और सान्त है । असमार साथि अनन्त है। प्रियान् है। मोससारका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट देशोन एक लाख क्रोड पूर्व है । सादि सान्त ससारका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल है । ऐसा वह संसार, द्रव्य, क्षेत्र काल, भव व भावके भेदसे पाँच प्रकारका है । श्रीमद्रराजचन्द्र - बहु पुण्य केरा पुञ्ज पी शुभ देह मानव नो मन्यो । तोये अरे भव चक्र तो आटो नही एके टलो । रे आत्म तारो । आत्म तारो ॥ शोध एने ओणखो। सर्वात्म मा समदृष्टि द्यो आ वचनने हृदय लखो। बहुत पुण्यके उदयसे यह मानवकी उत्तम देह मिली, परन्तु फिर भी भवचक्र में विचित्र हानि न कर सका । अरे । अब शीघ्र अपनी आत्माको पहिचानकर सर्व आत्माओको समदृष्टि से देख, इस बचनको हृदयमे रख । (विशेष दे - ससार ३ में पच परिवर्तन) २ अनुप्रेक्षा निर्देश
१. सर्व अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन सब अवसरों पर आवश्यक नही
अन ध /६/८२/६३४ इत्येतेषु द्विषेषु प्रवचनदृगनुप्रेक्षमाणोऽवादिष्वद्धा यत्किचिदन्त. करणकरण जिद्वेत्ति य स्व स्वयं स्वे । उच्चैरुच्चे यदाशाभविराम्भोधिपारा राजपूतकोटिप्रपति परेस्क्यू परमागम ही है नेत्र जिसके ऐसा जो मुमुक्षु अध वादि बारह अनुप्रेक्षाओ में से यथा रुचि एक अनेक अथवा सभीका तत्त्वत. हृदय में ध्यान करता है वह मन और इन्द्रिय दोनोपर बिजय प्राप्त करके आत्मा ही में स्वयं अनुभव करने लगता है । तथा जहाँ पर चक्रवर्ती तीर्थ करादि उन्नत पदोको प्राप्त करनेको अभि लाषा लगी हुई है ऐसे ससारके दु ख समुद्र से पार पहुँच कर कृतकृत्यताको प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार वह मुमुक्षु पवित्र यश और वचनोको धारण करके जोवन्मुक्त बनकर अन्तमें अपने सम्यग्दर्शनादि उत्कृष्ट गुणों द्वारा तीन लोक्के ऊपर प्रदीप्त होता है ।
२. एक व अन्यस्व अनुप्रेक्षामें अन्तर
द्र. स / ८ / ३५ / १०८ एकत्वानुप्रेक्षायामै कोऽहमित्यादिविधिरूपेण व्यास्थान अन्यत्वानुसाया तु देहादयो मत्सकाशादन्ये मदीया न भवन्तीति निषेधरूपेक्षा विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तात्पर्यं तदेव । - एकत्व अनुप्रेक्षा में तो 'मै अकेला हूँ' इत्यादि प्रकारसे विधिरूप व्याख्यान है और अन्यत्व अनुप्रेमामें 'देह आदि पदार्थ मुझसे भिन्न है, ये मेरे नहीं है' इत्यादि निषेध रूप से वर्णन है। इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनो अनुप्रेक्षाओंमें विधि - निषेध रूपका हो अन्तर है। तात्पर्य दोनोका एक ही है। २. आखव, संवर, निर्जरा इन भावनाओकी सार्थकता राया ६०००/६०२ समरनिर्जराणमादिति चेत् नतद्गुणदोषान्वेषणपरत्वात् ॥७॥ - प्रश्न- आस्रव संवर और निर्जराका कथन पहले प्रकरणो मे हो चुका है अत: यहाँ अनुप्रेक्षा प्रकरण में इनका ग्रहण करना निरर्थक है। उत्तर-नही, उनके दोष विचारनेके लिए यहाँ उनका ग्रहण किया है।
४. दग्य स्थिरीकरणार्थं कुछ अन्य भावनाएं
तसू / ७/१२ जगत्कायस्वभावौ वा सवेगवैराग्यार्थम् ||१२|| - सवेग और वैराग्य के लिए जगत्के स्वभाव और शरीरके स्वभावकी भावता करनी चाहिए। (ज्ञा / २७ / ४) ।
अनुप्रेक्षा
म.पु. / २१/६६ विषयेष्वनभिष्वङ्ग कायतश्वानुचिन्तनम् । जगत्स्वभावचिन्त्येति वैराग्यस्थैर्यभावना ॥१६॥ = विषयो में आसक्त न होना, शरीर के स्वरूपका बार-बार चिन्तवन करना और जगत के स्वभावका चिन्तवन करना ये वैराग्यको स्थिर रखनेवाली भावनाएँ है ।
३. निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार
१. अनुप्रेक्षाके साथ सम्यक्त्वका महत्त्व स.सि /६/०/४१६ ततस्तस्वज्ञानभावनापूर्व के नियन्ति कस्य मोक्षस्यासित इससे (अर्थात शरीर व आत्माके भिन्न रूप समाधान से ) तत्त्वज्ञानकी भावना पूर्वक आत्यन्तिक मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है।
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B
२ अनुप्रेक्षा वास्तव में शुभ भाव है।
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र. सा / ६४-६५ दव्वत्थ कायछपणतच्च पयत्थेसु सत्तणवसु । बधणमुबखे तक्कारणरूपे बारसणुवेवखे ॥ ४६ ॥ रयणत्तयस्स रूवे अज्जाकम्मो दयाहसद्धम्मे । चचैव माइगो जो बहस होइ सुभान पचास्ति काय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नवपदार्थ, बधमोक्षके कारण बारह भावना, रत्नत्रय, आर्जवभाव, क्षमाभाव और सामायिकादि चारित्रमय जिन भव्य जीवोके भाव है वे शुभ भाव है।
बा अ / ६३ सुहजोगेसु पवित्ती सवरण कुणदि असुहजोगस्स । सुहज गस्स गिरोहो सुबजोगेण सभवदि ॥ ६३॥ - मन, वचन कायकी शुभ प्रवृत्तियो से अशुभ योगका सवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोगसे शुभय गका संवर होता है। इस टी १४१ एम मतसमितिमंद्रादशानुक्षारोपयचारिणां भावसवरकारणभूताना यद्व्याख्यान वृत्त, तत्र निश्वयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रय रूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापासत्र संवरणानि ज्ञातव्यानि । यानि तु व्यवहाररत्नत्रय साध्यस्य शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयस्य प्रतिपादकानि तानि पुण्यपापद्वयसंवरकारणानि भवन्तीति ज्ञातव्यम् । = इस प्रकार भाग के कारणभूत मत समिति गुछि धर्म द्वादशानुप्रेक्षा परीषहजय और चारित्र, इन सबका जो व्याख्यान किया, उसमें निश्चय रत्नत्रयका साधक व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोगके वर्णन करनेवाले जो वाक्य है वे पापासव के सबरमें कारण जानने चाहिए। जो व्यवहार रत्नत्रय के साध्य शुद्धोपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय के प्रतिपादक बाक्य है, वे पुण्य पाप इन दोनो आस्रवोके सवर के कारण होते है, ऐसा समझना चाहिए ।
३. अन्तरंग सापेक्ष अनुप्रेक्षा संवरका कारण है तसा /६/४३/३५१ एव भावयत साधोभवेद्धर्ममहोद्यम । ततो हि निष्प्र मादस्य महान् भवति सवर ॥ ४३ ॥ - इस प्रकार ( अन्तरग सापेक्ष) बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करने से साधुके धर्मका महान् उद्योत होता है। उससे वह निष्प्रमाद होता है, जिससे कि महान् सवर होता है।
४. अनुप्रेक्षाका कारण व प्रयोजन
१. अनुप्रेक्षाका माहात्म्य व फल
या अ./८६.६० मोगा पुरिसा अगाइकाले बार असुख परिभविऊण सम्म पणमामि पुणो पुणो तेसि ॥८६॥ कि पल बियेण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले । सेति य जे (भ) विया तज्जाणह तस्स माहप्पं ॥ ६०॥ जो पुरुष इन बारह भावनाओका चिन्तन करके अनादि काल से आज तक मोक्षको गये है उनको मै मन, वचन, काय पूर्वक बारम्बार नमस्कार करता हूँ |॥८६॥ इस विषय मे अधिक कहनेकी जरूरत नही है इतना ही बहुत है कि भूतकाल में जितने श्रेष्ठ सिद्ध हुए और जो आगे होगे वे सब इन्ही भावनाओका चिन्तन करके हो हुए है । इसे भावनाओका ही महत्त्व समझना चाहिए ।
पुरुष
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अनुप्रेक्षा
अनुप्रेक्षा
ज्ञा/१३/२/६ विध्याति कषायाग्निगिलति रागो बिलीयते ध्वान्तम् ।
उन्मिपति बोधदीपो हृदि पुंसा भावनाभ्यासात । इन द्वादश भावनाओके निरन्तर अभ्यास करनेसे पुरुषोके हृदयमें कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है तथा पर द्रव्योके प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूपी अन्धकारका विलय होकर ज्ञानरूप दीपका प्रकाश होता है। प./वि 14/४२ द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभि । तद्भावना भवत्येव कर्मण. क्षयकारणम् ॥४२॥ - महात्मा पुरुषोको निरन्तर बारहो अनुप्रेक्षाओका चिन्तवन करना चाहिए। कारण यह है कि उनकी भावना (चिन्तन) कमके क्षयका कारण होती है।
२. अनुप्रेक्षा सामान्यका प्रयोजन भ आ/मू /१८७४/१६७६ इय आनंबणमणुपेहाओ धमस्स होति ज्झाणस्स । ज्झायताणविणस्सदि ज्झाणे आल बणेहि मुणी ॥१८७४।-धर्मध्यानमें जो प्रवृत्ति करता है उसको ये द्वादशानुप्रेक्षा आधार रूप है, अनुप्रेक्षाके बलपर माता धर्मध्यानमें स्थिर रहता है, जो जिस वस्तु स्वरूपमें एकाग्रचित्त होता है वह विस्मरण होनेपर उससे चिगता है, परन्तु बार-बार उसको एकाग्रताके लिए आलंबन मिल जावेगा तो वह नहीं चिगेगा। स सि /8/६/४१३ कस्मारक्षमादीनयममलम्बते नान्यथा प्रवर्तत इत्युच्यते
यस्मात्तप्ताय पिण्डवक्षमादिपरिणतेनात्महितैषिणा कर्तव्या ।। स /सि /8/७/४१६ मध्ये अनुप्रेक्षावधनमुभयार्थम् । अनुप्रेक्षा हि भाव
यन्नुत्तमक्षमादीश्च प्रतिपालयति परीषहाश्च जेतुमुत्सहते। तपाये हुए लोहेके गोलेके समान क्षमादि रूपसे परिणत हुए आत्महितको इच्छा करने वालोको ये निम्न द्वादश अनुप्रेक्षा भानी चाहिए। बोच में अनुप्रेक्षाओ का कथन दोनो अर्थ के लिए है। क्योकि अनुप्रेक्षाओका चिन्तवन करता हुआ यह जीव उत्तम क्षमादिका ठीक तरहसे पालन करता है और परिषहोको जीतनेके लिए उत्साहित होता है।
३. अनित्यानुप्रेक्षाका प्रयोजन स.सि./8/७/४१४ एव ह्यम्य भव्यस्य चिन्तयतस्तेष्वभिष्वनाभावाद् भुक्तोज्झितगन्धमाल्यादिष्विव वियोगकालेऽपि विनिपाते नोपपद्यते । - इस प्रकार विचार करनेवाले इस भव्यके उन शरीरादिमे आसक्तिका अभाव होनेसे भोग कर छोडे हुए गन्ध और माला आदके समान वियोग काल में भी सन्ताप नही होता है। (रा वा /६/७ ६/६००/१२) । का अ./मू./२२ चइऊण महामोह विसए मुणिऊण भगुरे सव्वे । णिबिसय कुणह मणं जेण सुह उत्तम लहइ ॥२२॥ - हे भव्य जीवो। समस्त विषयोंको क्षणभ गुर जानकर महामोहको त्यागो और मनका विषयो के सुखसे रहित करो, जिससे उत्तम सुखकी प्राप्ति हो । (चा सा./१७८/२)।
४. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन स सि./8/9/४१६ इत्येव ह्यस्य मन समादधानस्य शरोरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्व कवैराग्यप्रकर्ष सति आत्यन्तिकस्य मोक्षमुविस्थावाप्तिर्भवति । - इस प्रकार मन को समाधान युक्त करनेवाले इसके शरीरादिमें स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञानको भावनापूर्वक वैराग्य की वृद्धि होनेपर आस्यन्तिक मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है। (रा वा /8/७.५/६०२/३) (चा सा /१६०/४) । का अ/मू/८२ जो जाणिऊण देह जोर-सरूवाद दु, तच्च दोभिण्ण ।
अप्पाण पि य सेवदि कज्जरं तस्स अण्णत्तं । जो आत्मस्वरूपको यथार्थ में शर रमे भिन्न जानकर अपनी आत्माका ही ध्यान करता है उसके अन्यत्वानुप्रेक्षा कार्यकारी है। (चा सा १८/२) ।
५. अशरणानुप्रेक्षा का प्रयोजन स सि /8/9/२१४एव ह्यस्याध्यावसतो नित्यमशरणोऽस्मीति भृशमुद्विग्नस्य
सामारिकेषु भावेषु ममत्व विगमो भवति । भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीत एव' मार्ग प्रयत्नो भवति । इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीवके
'मै सदा अशरण है' इस तरह अतिशय उद्विग्न होनेके कारण संसार के कारण भूत पदार्थोमे ममता नही रहती और वह भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग ही प्रयत्नशील होता है। (रा वा/8/७१/६००/२५ का अहम् (३१ अप्पाण पि य सरणं खमादि-भावेहि परिणदो होदि । तिव्व कसायाविट्ठो अप्पाण हद अप्पेण ॥३१॥ आत्माको उत्तम समादि भावोसे युक्त करना भी शरण है। जिसकी तीव्र क्षाय होती है वह स्वयं अपना घात करता है । (चा सा /१८०/२) ।
६ अशुचि अनुप्रेक्षाका प्रयोजन स सि /8/७/४१६ एव ह्यस्य सस्मरत शरीरनिर्वेदो भवति । निविण्णाश्च जन्मोदधितरणाय चित्त समाधत्ते । -इस प्रकार चिन्तवन करनेसे शरोरसे निर्वेद होता है और निविण्ण होकर जन्मोदधिको तरनेके लिए चित्तको लगाता है । (रा वा./8/७.६/६०२/१७) (चा सा /१६२/६)। का अ/मू /८७ जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुराय। अप्प सरूव-सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स । -जो दूसरो के शरीरसे विरक्त है और अपने शरीरसे अनुराग नहीं करता है तथा आत्मध्यानमें लीन रहता है उसके अशुचि भावना सफल है।
७ आत्रवानप्रेक्षाका प्रयोजन स.सि./8/७/४१७ एवं ह्यस्य चिन्तयत क्षमादिषु श्रेयस्त्व बुद्धिर्न प्रच्यवते। सर्व एते आस्रवदोषा कूर्मवत्स वृतात्मनो न भवन्ति । इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीवके क्षमादिकमें कल्याण रूप बुद्धिका त्याग नही होता तथा क्छुएके समान जिसने अपनो आत्माको सवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते है। (रा.वा./8/05/ ६०२/३०) चा.सा /१६५/५)। का.अ./18 एदे मोहय भावा जो परिवजजेड उधसमे लीणो हेय ति मण्णमाणो आसब अणुवेहण तस्स ॥६४।। - जो मुनि साम्यभावमें लीन होता हुआ, मोहकर्म के उदयसे होनेवाले इन पूर्वोक्त भावो का त्यागनेके योग्य जानकर, उन्हे छोड़ देता है, उसीके आखवानुप्रेक्षा है।
८ एकत्वानुप्रेक्षाका प्रयोजन स सि /8/9/४१५ एव ह्यस्य भावयत स्वजनेषु प्रीत्यनुबन्धो न भवति । परजनेषु च द्वषानुबन्धो नोपजायते । तता नि सङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते।= इस प्रकार चिन्तवन करते हुए इस जीवके स्वजनों में प्रीतिका अनुबन्ध नहीं होता और परजनो में द्वषका अनुबन्ध नहीं होता इसलिए नि सङ्गताका प्राप्त होकर मोक्षके लिए ही प्रयत्न करता है । (रा बा १/७,४४६०१/२७) (चा सा /१८८/३)। का अ/म /७६ सव्वायरेण जाणह एक्क जीव सरीरदा भिन्न । जमिहद मुणिदे जीवे होदि असेसंखणे हेयं ७६ पूरे प्रयत्नसे शरीरसे भिन्न एक जीवको जानो। उस जोबके जान लेनेपर क्षण भरमें ही शरीर, मित्र, स्त्री, धन, धान्य वगैरह सभी वस्तुएँ हेय हो जाती है।
९ धर्मानुप्रेक्षाका प्रयोजन स मि JE/७/४१६ एव ह्यस्य चिन्तयतो धर्मानुरागात्सदा प्रतियत्नो भवति । - इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीवके धर्मानुरागवश उसकी प्राप्तिके लिए सदा यत्न होता है। (रा वा /६/७,११/६०७/४) (चा.सा/२०१३)। का अ//४३७ इय पच्चवरव पेच्छह धम्माधम्माण विविहमाहप्प । धम्म
आयरह सया पाव दूरे परिहरह ॥४३७॥-हे प्राणियो, इस धर्म और अधर्मका अनेक प्रकार माहात्म्य देखकर सदा धर्मका आचरण करो और पापसे दूर ह रहा। १०. निर्जरानुप्रेक्षाका प्रयोजन स सि /8/9/४१७ एव ह्यस्यानुस्मरत कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति ! = इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इसकी कर्म निर्जराके लिए प्रवृत्ति होती है। रा वा/8/७,७/६०३/३) (चा सा /१६७/२)। का अ/म्/११४ जो समसोवरख णिलीणो बार बार सरेइ अप्पाण। इदिय-वसाय विजई तास हवे णिज्जरा परमा ।११४।। जो मुनि
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अनुभव
समता-रसमें लीन हुआ, बार-बार आत्माका स्मरण करता है, इन्द्रिय और कषाय जोतनेवाले उसीके उत्कृष्ट निर्जरा होती है ।
११. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका प्रयोजन
ससि / ६/७ / ४१६ एव ह्यस्य भावयतो बोधि प्राप्य प्रमादो न भवति । • इस प्रकार विचार करनेवाले इस जोवके बोधिको प्राप्त कर कभी प्रमाद नही होता ( रा वा / १ / ७.१/६०३/२२) (चा. सा / २०१/३) । का अ / मू / ३०९ इय सब-दुलह दुलह दसण णाण तहा चरित्त च । मुणिऊणय संसारे महायर कुणह ति०ह पि ॥ ३०९ ॥ - इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्रको ससारकी समस्त दुर्लभ वस्तुओ में भोर्लभ जानकर इन तोनोका अत्यन्त आदर करो ।
१२ लोकानुप्रेक्षाका प्रयोजन
1=
ससि / ६ / ७/४१८ एवं ह्यस्याध्यवस्यतस्तत्त्वज्ञान विशुद्धिर्भवति । - इस प्रकार लोकस्वरूप विचारनेवाले के तत्त्वज्ञानकी विशुद्धि होती है । ( रा वा /६/७.८/६०३/६) (चा सा / ११८/३) ।
का अ / मू/ २८३ एव लोयसहा जो झायदि उवसमेक्क सम्भावो । सो खरिय कम्म पज तिल्लोय सिहामणी होदि ॥ २८३ ॥ -जो पुरुष उपशम परिणामस्वरूप परिणत होकर इस प्रकार लोकके स्वरूपका ध्यान करता है वह कर्मपुजको नष्ट करके उसी लोकका शिखामणि होता है।
१३ संवरानुप्रेक्षाका प्रयोजन
ससि / ६ / ७ / ४१७ एव हाम्य चिन्तयत संवरे नित्योद्यक्तता भवति । ततश्च निश्रेयसपदप्राप्तिरिति । इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इस जोव के सश्मे निरन्तर उच्च उता होती है और इससे मोक्ष परकी प्राप्ति होती है ।
१४ संसारानुप्रेक्षाका प्रयोजन
बा अ / ३८ संसारम दिक्क तो जीवोवादेयमिदि विचितिज्जो संसारतो जोगी सो मिति॥१८॥ जो जीव संसारसे पार हो गया है, वह तो उपादेय अर्थात ध्यान करने योग्य है ऐसा विचार करना चाहिए और जो ससाररूपी दुखोसे घिरा हुआ है वह हेय है ऐसा चिन्तवन करना चाहिए।
- इस प्रकार
ससि / ६ / ७ / ४१४ एव ह्यस्य भावयत ससारदु खभयादुद्विग्नस्य ततो निर्वेदो भवति । निर्विण्णश्च ससारप्रहाणाय प्रयतते । = चिन्तन करते हुए मसारके दुखके भय से उद्विग्न हुए इसके ससारसे निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर ससारका नाश करनेके लिए प्रयत्न करता है ( रा वा /६/७,३/६०१/१७)
का अ / मू/७३ इय ससार जाणिय मोह सव्वायरेण चउऊण । त भायह स सरूव ससरणं जेण णासेह ॥ ७३ ॥ इस प्रकार ससारको जानकर और सम्यक् व्रत, ध्यान आदि समस्त उपायो से मोहको त्याग कर अपने उस शुद्ध ज्ञानमय स्वरूपका ध्यान करो, जिससे पाँच प्रकारके ससार - परिभ्रमणका नाश होता है। - लौकिक अथवा पारमार्थिक सुख-दुखके वेदनको अनुभव अनुभवकहते है । पारमार्थिक आनन्दका अनुभव ही शुद्धात्माका अनुभव है, जो कि मोक्ष मार्ग में सर्वप्रधान है। साधककी जघन्य स्थिति से लेकर उसकी उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्त यह अनुभव बराबर तारतम्य भावसे बढ़ता जाता है और एक दिन उसे कृतकृत्य कर देता है। इसी विषयका कथन इस अधिकारमें किया गया है ।
-
१. भेव व लक्षण
१. अनुभवका अर्थ अनुभाग २. अनुभवका अर्थ उपभोग ३ अनुभवका अर्थ प्रत्यक्षवेदन
८०
४. अनुभूतिका अर्थ प्रत्यक्षवेदन
५ स्वसंवेदन ज्ञानका अर्थ अन्त सुखका वेदन
६ संवित्तिका अर्थ सुखसंवेदन अनुभव निर्देश
१ स्वसंवेदन मानस अचक्षुदर्शनका विषय है । २ आत्माका अनुभव स्वसंवेदन द्वारा ही संभव है। ३ अन्य ज्ञेयोसे शून्य होता हुआ भी सर्वथा शून्य नही है ।
४. आत्मानुभव करनेको विधि |
*
आत्मानुभव व शुध्यानकी एकार्थता पद्धति।
*
सुख
*
आत्मानुभवजन्य सुख ।। परमुखानुभव।
राग
३. मोक्षमार्ग में आत्मानुभवका स्थान
१ आत्माको जाननेमे अनुभव ही प्रधान है।
अनुभव
२ पदार्थकी सिद्धि आगमयुक्ति व अनुभवसे होती है । ३ तत्त्वार्थश्रद्धानमे आत्मानुभव ही प्रधान है ।
४ आत्मानुभव के बिना सम्यग्दर्शन नही होता ।
*
शुद्धात्मानुभवका महत्य व फल उपयोगII/२ * जो एकको जानता है वही सर्वको जान सकता है । २६ ।
- दे. ।
।
४. स्वसवेदनज्ञान की प्रत्यक्षता
१ स्वसवेदन द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष होता है ।
२ स्वसंवेदन मे केवलज्ञानवत् आत्मप्रत्यक्ष होता है । ३. सम्यग्दृष्टिको स्वात्मदर्शनके विषयमे किसीसे पूछनेकी आवश्यकता नही ।
४ मतियुतज्ञानकी प्रत्यक्षता व परोक्षताका समन्वय । ५ मति श्रुतज्ञानकी प्रत्यक्षताका प्रयोजन । * स्वसंवेदन ज्ञानमे विकल्पका कथंचित् सद्भाव व
असद्भाव।।
* मति श्रुतज्ञानकी पारमार्थिक परोक्षता । दे, परोक्ष * स्वसंवेदन ज्ञानके अनेको नाम है।
- दे मोक्षमार्ग २/५ ५ अल्प भूमिकाओंमें आत्मानुभव विषयक चर्चा १ सम्यग्दृष्टिको स्वानुभूत्यावरण कर्मका क्षयोपशम अवश्य होता है ।
२ सम्यग्दृष्टिको कथचित् आत्मानुभव अवश्य होता है * लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टिको ज्ञानचेतना रहती है । - दे. सम्यग्दृष्टि २ ।
* सम्यग्दृष्टिको ज्ञान चेतना अवश्य होती है।
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- दे. चेतना २ ।
३. धर्मध्यानमे कथचित् आत्मानुभव अवश्य होता है।
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अनुभव
अनुभव
४. धर्मध्यान अल्पभूमिकाओंमे भी यथायोग्य होता है। * पंचमकालमे शुद्धानुभव संभव है।-दे धर्मध्यान ५। ५. निश्चय धर्मध्यान मनिको होता है, गहस्थको नही। ६. गृहस्थको निश्चय ध्यान कहना अज्ञान है। ७. साधु व गृहस्थके निश्चय ध्यानमे अन्तर * शुभोपयोग मुनिको गौण होता है और गृहस्थको
मुख्य ।-दे. धर्म है। * १-३ गुणस्थान तक अशुभ और ४-६ गुणस्थान
तक शुभ उपयोग प्रधान है। -दे उपयोग II/४ | ८. अल्पभूमिकामे आत्मानुभवके सद्भाव असद्भावका
समन्वय । * शुद्धात्मानुभूतिके अनेको नाम ।-दे. मोक्षमार्ग २/५ । शुद्धात्माके अनुभव विषयक शंका समाधान १. अशुद्ध ज्ञानसे शुद्धात्माका अनुभव कैसे करे । २. अशुद्धताके सद्भावमे भी उसकी उपेक्षा कैसे करें। ३. देहसहित भी उसका देहरहित अनुभव कैसे करें। ४ परोक्ष आत्माका प्रत्यक्ष कैसे करे । * मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि के अनुभवमे अन्तर ।
-दे, मिथ्यादृष्टि ४ ।
१.भेद व लक्षण
१. अनुभवका अर्थ अनुभाग त. सू /८/२१ विपाकाऽनुभव । विपाक अर्थात विविध प्रकारके फल
देने की शक्तिका (कर्मोमें) पड़ना ही अनुभव है। देग्वो विपाक-द्रव्य, क्षेत्र, काल आदिके निमित्तसे उत्पन्न पाक ही अनुभव है। २. अनुभवका अर्थ उपभोग रा वा./३/२७३,१६१ अनुभव उपभोगपरिभोगसम्पत । -अनुभव उप- भोग परिभोग रूप होता है । (स सि /३/२७/२२२) ।
३. अनुभवका अर्थ प्रत्यक्षवेदन इ.स./टो /१२/१८४ स्वसवेदनगम्य आत्म सुखका वेदन ही स्वानुभव है
-दे आगे स्वस वेदन। न्या. दो/३/८/५६ इदन्तोल्ले विज्ञानमनुभव । 'यह है ऐसे उल्लेखसे चिह्नित ज्ञान अनुभव है।
४ अनुभूतिका अर्थ प्रत्यक्षवेदन स सा /आ/१४/क १३ आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किले ति बद्ध्वा । आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकम्पमेकोऽस्ति नित्यमयबाघन समन्तात् ॥१३॥ = शुद्वनयस्वरूप आत्माको अनुभूति हो ज्ञानकी अनुभूति है । अत आश्मामें आत्माको निश्चल स्थापित करके सदा सर्व ओर एक ज्ञानधन आत्मा है इस
प्रकार देखो। प का /ता प्र/३६/७६चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात् । चेतना,
अनुभव, उपलब्धि और वेदना ये एकार्थक है। पंध पु/६५१-६५२ स्वारमाध्यानाविष्टस्तथेह कश्चिन्नरोऽपिक्लि यावत् ।
अयमहमारमा स्वयमिति म्यामनुभविताहमस्य नयपक्ष ॥५१॥ चिरमचिर वा दैवात् स एव यदि निर्विकल्पकश्च स्यात् । स्वयमात्मेत्यन
भवनात् स्यादियमात्मानुभूतिरिह तावत ५२॥ -स्वारमध्यानसे युक्त कोई मनुष्य भी जहाँ तक "मै ही यह आत्मा हूँ और मैं स्वयं ही उसका अनुभव करनेवाला हूँ" इस प्रकार के विकल्पसे युक्त रहता है, तब तक वह नयपक्ष वाला कहा जाता है ॥६५१॥ किन्तु यदि वही दैववशसे अधिक या थोडे कालमें निर्विकल्प हो जाता है, तो 'मै स्वय आत्मा हूँ' इस प्रकारका अनुभव करनेसे यहाँ पर उसी समय आत्मानभूति कही जाती है। ५. स्वसंवेदनज्ञानका अर्थ अन्तःसुखका वेदन त.अनु १६१ वेद्यत्वं वेदकत्वं च यत् स्वस्य स्वेन योगिनः । तत्स्वसंवेदन प्राहुरात्मनोऽनु भव दृशम् ॥१६१॥ -- 'स्वस वेदन' आत्माके उस साक्षाद दर्शनरूप अनुभवका नाम है जिसमें योगी आत्मा स्वयं ही शेय तथा ज्ञायक भावको प्राप्त होता है। प.प्र/टी/१२ अन्तरात्मलक्षणवीतरागनिर्विकल्पस्वस वेदनज्ञानेन...ये
परमात्मस्वभावम् ज्ञात' । अन्तरात्म लक्षण बीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानके द्वारा जो यह परमात्मस्वभाव जाना गया है। द्र.सं टी/४१/१७६ रागादिविकल्पोपाधिरहितपरमस्वास्थ्यस वित्तिसंजातसदानन्दकलक्षणसुखामृतरसास्वाद- । -रागादि विकल्पोंकी उपाधिसे रहित परम स्वास्थ्य लक्षण संवित्ति या स्वसंवेदनसे उत्पन्न सदानन्द रूप एक लक्षण अमृतरसका प्रास्वाद- (द्र. स.टी./४०/ १६३:४२/१८४)। द्र, स /टी/११/१७७ शुद्धोपयोगलक्षणस्वस वेदनज्ञानेन। - शुखोपयोग
लक्षण स्वस वेदन ज्ञानके द्वारा । द्र स /टी /२/२१ तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वस वेदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्य पृथपरिच्छेदन सम्यग्ज्ञानम् । -उसी शुद्वात्माके उपाधिरहित स्वसवेदरूप भेदज्ञान-द्वारा मिथ्यात्व रागादि परभावोसे भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है । ६. संवित्तिका अर्थ सुखसंवेदन न च //३५० लक्षणदो णियलक्खे अग्रहवयाणस्स ज हवे सोपवं । सासं वित्तीभणिया सयल वियप्पाण णिहहणा ॥३०॥ -निजात्माके लक्ष्यसे सकल विकल्पोको दग्ध करने पर जो सौख्य होता है उसे संवित्ति कहते है। २. अनुभव निर्देश
१. स्वसंवेदन मानस अचक्षुदर्शनका विषय है प प्र/टी./२/३४/१५५ अत्र चतुष्टयमध्ये मानसमचक्षुर्दर्शनमारमग्राहक
भवति। - चारों दर्शनों में-से, मानस अचक्षुदर्शन आरमग्राहक है। पंध पू/७११-७१२ तदभिज्ञानं हि यथा शुद्धस्वात्मानुभूतिसमयेऽस्मिन् । स्पर्शनरसनमाणं चक्षु' श्रोतं च नोपयोगि मतम् ॥७११॥ केवलमुपयोगि मनस्तत्र च भवतीह तन्मनी द्वेधा। द्रव्यमनो भावमनो नोइंद्रियनाम किल स्वार्थात् ॥७१२ - शुद्ध स्वात्मानुभूतिके समयमें स्पर्शन, रसना, प्राण, चनु और श्रोत्र इन्द्रियाँ उपयोगी नहीं मानी जाती ॥७११॥ तहाँ केवल एक मन ही उपयोगी है और बह मन दो प्रकारका है-द्रव्यमन व भावमन ।
२. आत्माका अनुभव स्वसंवेदन द्वारा ही संभव है त अनु/१६६-१६७ मोहीन्द्रियाधिया दृश्यं रूपादिरहितरवतः । वितर्कास्तत्र पक्ष्यन्ति ते ह्यविस्पष्टतर्कणा ॥१६६॥ उभयस्मिन्निरुद्ध तु स्याद्विस्पष्ट मतीन्द्रियम् । स्वमवेद्य' हि तद्रूप स्वसं वित्यैव दृश्यताम ॥१६७॥ -रूपादिसे रहित होनेके कारण वह आत्मरूप इन्द्रियज्ञानसे दिखाई देनेवाला नहीं है। तर्क करनेवाले उसे देख नहीं पाते। वे अपनी तर्कणामें भी विशेष रूपसे स्पष्ट नहीं हो पाते॥१६॥ इन्द्रिय और मन दोनों के निरुद्ध होनेपर अतीन्द्रिय ज्ञान विशेष रूपसे स्पष्ट होता है। अपना वह जो स्वसंवेदनके गोचर है, उसे स्वसंवेदनके द्वारा ही देखना चाहिए । ॥१६॥
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अनुभव
अनुभव
३. अन्य ज्ञेयोंसे शून्य होता हुआ भी सर्वथा शून्य नहीं है त. अनु/१६०,१७२ चिन्ताभावो न जैनाना तुच्छो मिध्यादृशामिव । एग्बोधसाम्यरूपस्य स्वस्य सवेदन हि स १६०॥ तदा च परमैकाप्रधादबहिरर्थषु सत्स्वपि। अन्यत्र किचनाभाति स्वमेवारमनि पश्यत' १७श-चिन्ताका अभाव जैनियोंके मतमें अन्य मिथ्याप्टियोंके समान तुच्छाभाव नहीं है क्योंकि वह वस्तुत' दर्शन, ज्ञान और समतारूप आत्माके सवेदन रूप है॥१६०॥ उस समाधिकालमें स्वाश्मामें देखनेवाले योगीकी परम एकाग्रताके कारण बाह्य पदार्थोके विद्यमान होते हुए भी आत्माके (सामान्य प्रतिभासके) अतिरिक्त और कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता ॥१७२॥ दे. ध्यान ४/६ (आलेख्याकारवत् अन्य ज्ञेय प्रतिभासित होते है)-इन दोनोंका समन्वय दे दर्शन २ ।
४. आत्मानुभव करनेकी विधि स. सा./आ/१४४ यत प्रथमत श्रुतज्ञानावष्टम्भेन ज्ञानस्वभावात्मान निश्चित्य ततः खम्बात्मख्यातये परख्यातिहेतृनखिला एवेन्द्रियानिन्द्रियबुद्धीरवधार्य आत्माभिमुखी कृतमतिज्ञानतत्त्वत , तथा नानाविधनयपक्षालम्बनेनाने कविकल्पैराफुयन्ती श्रुतज्ञानबुद्धिरप्यवधार्य श्रुतज्ञानतत्त्वमप्यात्माभिमुखीकुर्वन्नत्यन्तम विकल्पो भूत्वा झगित्येव स्वरसत एव व्यक्तीभवन्तमादिमध्यान्तविमुक्तमनाकुल मेक केवलमखिलस्यापि विश्वस्योप र तरन्तमिमारवण्डप्रतिभासमयमनन्तं विज्ञान धनं परमात्मानं समयसार विन्दन्नैवात्मा सम्यग्दृश्यते ज्ञायते च । -प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बनसे ज्ञानस्वभाव अ.त्माका निश्चय करके, और फिर आत्माको प्रसिद्धिके लिए. पर पदार्थ की प्रसिद्धि के कारणभूत इन्द्रियों और मनके द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियोको मर्यादामें लेकर जिसने मतिज्ञान तत्त्वको आत्मसम्मुख किया है, तथा जो नाना प्रकारके नयपक्षोके आलम्बनसे होनेवाले अनेक विकल्पोंके द्वारा आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञानकी बुद्धियोको भी मर्यादामें साकर श्रतज्ञान तत्त्वको भी आरमसम्मुख करता हुआ, अत्यन्त विकल्प रहित होकर, तत्काल निजरससे हो प्रकट होता हुआ, आदि, माय और अन्तसे रहित, अनाकुल, केवल, एक, सम्पूर्ण ही विश्व पर मानो तैरता हो ऐसे अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त, विज्ञानधन, परमात्मारूप समयसारका जब आत्मा अनुभव करता है, तब उसी समय आरमा सम्यक्तया दिखाई देता है. और ज्ञात होता है। से सा./आ./३८१/क२२३ रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृश', पूर्वागामिसमस्तकर्मबिकला भिन्नास्तदात्वोदयात्। दूरारूढचरित्रवैभवमलावञ्चिदचिर्मयों, विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवना ज्ञानस्य संचेतनाम् ॥२२॥ = जिनका तेज राजद्वेषरूपी विभावसे रहित है, जो सदा स्वभावको स्पर्श करनेवाले है, जो भूतकालके तथा भविष्यस्कालके समस्त कर्मोसे रहित है, और जा वर्तमानकालके कर्मोदयसे भिन्न हैं, वे ज्ञानी अतिप्रबल चारित्रके वैभवके बलसे ज्ञानकी सचेतनाका अनुभव करते है -जो ज्ञान चेतना चमकती हुई चैतन्य ज्योतिमय है और जिसने अपने रससे समस्त लोकको सींचा है। ३. मोक्षमार्गमे आत्मानुभवका स्थान
१ आत्माको जानने में अनुभव ही प्रधान है म. सा./५ त एयत्तविहत्त दाएह अप्पणो सविहवेण । जदि दाएज्ज पमाणं चुधिज्ज छल घेतव्व ॥५॥ - उस एकत्व विभक्त आत्माको में निजात्माके वैभवसे दिखाता हूँ। यदि मै दिखाऊँ तो प्रमाण करना और यदि कहीं चूक जाऊं तो छल ग्रहण न करना । (स. सा/ मू./३), (वि./१/११०), (पंध. उ/९६३) (पं.ध. पू/७१)। स.सा./आ। यदि दर्शय तदा स्वयमेव स्वानुभवप्रत्यक्षेण परीक्ष्य प्रमाणीकर्सम्यम् । -मै जो यह दिखाऊँ उसे स्वयमेव अपने अनुभव प्रत्यक्षसे परीक्षा करके प्रमाण करना।
प्र. सा./त.प्र/परिशिष्ट/प्रारम्भ-नन कोऽयमात्मा क्थे चाबाप्यत इति
चेव । आत्मा हि तावच्चैतन्यसामान्यव्याप्तानन्तधर्माधिष्ठात्रक द्रव्यमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयव्याप्येकश्तधानलक्षणपूर्वकस्वानुभव प्रमीयमाणत्वात। -प्रश्न -यह आत्मा कौन है और कैसे प्राप्त किया जाता है 1 उत्तर-आत्मा वास्तवमें चैतन्यसामान्यसे व्याप्त अनन्त धोका अधिष्ठाता एक द्रव्य है, क्योंकि अनन्त धमोमें व्याप्त होनेवाला जो एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण है, उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभवसे प्रमेय होता है। पं का./ता वृ/२०/४४ तदित्यभूतमात्मागमानुमानस्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानात
शुद्धो भवति । - वह इस प्रकारका यह आत्मा आगम, अनुमान और स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे शुद्ध होता है ।
२. पदार्थकी सिद्धि आगम, युक्ति व अनुभवसे होती है सा, सा /आ/१४ न खनवागमयुक्तिस्वानुभवैर्वाधितपक्षत्वात् तदारमपादिन परमार्थबादिन । -जो इन अध्यवसानादिकको जीव कहते है, वे वास्तव में परमार्थवादी नही है, क्योंकि आगम, युक्ति और स्वानुभवसे उनका पक्ष बाधित है। (और भी दे. पक्षाभास व अकिचित्करहेत्वाभास)।
३. तत्त्वार्थश्रद्धानमें आत्मानुभव ही प्रधान है स सा आ./१७-१८ परै समर्मकत्वाध्यवसायेन विमूढस्यायमहमनु
भूतिरित्यात्मज्ञान नोप्लबते तदभावादज्ञातवरशृङगश्रद्धानसमानत्वाच्छूद्धानमपि नोत्प्लबते। = परके साथ एकरव के निश्चयसे मूढ अज्ञानी जनको 'जो यह अनुभूति है वही मै हूँ' ऐसा आत्मज्ञान उदित नही होता और उसके अभावसे, अज्ञातकाश्चद्धान गधेके सौंगके समान
है, इसलिए श्रद्धान भी उदित नहीं होता। पंध/उ/११५-२० स्वानुभूतिसनाथश्चेत सन्ति श्रद्धादयो गुणा । स्वानुभूति विनाभासा नाच्छ्रद्धादयो गुणा ४१॥ नैव यत' समव्याप्ति श्रद्धा स्वानुभवद्वयो । नून नानुपलब्धेय श्रद्धा खरविषाणबद ॥४२०॥ - यदि श्रद्धा आदि स्वानुभव सहित हो तो वे सम्यग्दृष्टिके गुण लक्षण कहलाते है और वास्तबमें स्वानुभवके बिना उक्त श्रद्धा आदि सम्यग्दर्शनके लक्षण नहीं कहलाते किन्तु लक्षणाभास कहलाते है ॥४१॥ श्रद्धा और स्वानुभव इन दोनोमें समध्याप्ति है, कारण कि निश्चयसे सम्यग्ज्ञानके द्वारा अगृहीत पदार्थ में सम्यक्त्रमा खरविषाणके समान हो ही नही सकती ॥४२०॥ (ला सं/३/६०,६६)।
४. आत्मानुभवके बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता र सा /30 णियतच्चुवलद्धि विणा सम्मत्त वद्धि गस्थि णियमेण । सम्मत्तक्लद्धि विणा णिव्वाण णस्थि जिणुदृढ १०॥-निज तत्वोपलब्धि के बिना सम्यक्त्व की उपलब्धि नहीं होती और सम्यवस्वकी उपलब्धिके बिना निर्वाण नही होता ॥१०॥ स सा/आ /१२/कई एकत्वे नियतस्य शुद्ध नयतो व्याप्सुर्यदस्यात्मनः पूर्ण ज्ञानघनस्य दर्शन मिह द्रव्यान्तरेभ्य' पृथक् । सम्यग्दर्शनमेत देव नियतमात्मा चतावानय,तन्मुक्त्वानवतत्त्वस ततिमिमात्माय मे कोऽस्तु न'६ -इस आत्माको अन्य द्रव्योसे पृथक् देखना ही नियमसे सम्यग्दर्शन है। यह आत्मा अपने गुण पर्यायोमें व्याप्त रहनेवाला है और शुद्ध नयसे एक तस्वमें निश्चित किया गया है तथा पूर्ण ज्ञानघम है। एवं जितना सभ्यग्दर्शन है उतना ही आत्मा है, इसलिए इस नव तत्त्वकी सन्ततिको छोडकर यह आरमा एक ही हमें प्राप्त हो। ४. स्वसवेदनज्ञानकी प्रत्यक्षता
१. स्वसंवेदन द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष होता है न. च. वृ/२६६ पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ॥२६६॥ आराधनाकाल में युक्ति
आदिका आलम्बन करना योग्य नहीं, क्योंकि अनुभव प्रत्यक्ष होता है। त अनु/१६८ बपृषोऽप्रतिभासेऽपि स्वातन्त्र्येण च कासती। चेतना ज्ञानरूपेयं स्वय दृश्यत एव हि ॥१६८)-स्वतन्त्रतासे चमकती हुई यह
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अनुभव
ज्ञानरूपी चेतना शरीर रूपसे प्रतिभासित न होनेपर भी स्वयं ही दिखाई पड़ती है। पं. का /ता वृ./१२७/१६० यद्यप्यनुमानेन लक्षणेन परोक्षज्ञानेन व्यवहारनयेन धूमादग्निवदशुद्धात्मा ज्ञायते तथापि स्वसवेदनज्ञानसमुत्पन्न सुखामृतजलेन. भरितावस्थानां परमयोगिनां यथा शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति तथेतराणा न भवति । - यद्यपि अनुमान लक्षण परोक्षज्ञानके द्वारा व्यवहारनयसे धुमसे अग्निकी भॉति अशुद्धारमा जानी जाती है, परन्तु स्वसंवेदन ज्ञानसे उत्पन्न सुखामृत जलसे परिपूर्ण परमयोगियोको जैसा शुद्धारमा प्रत्यक्ष होता है, वैसा अन्यको नहीं होता। (प्र. सा./ता. वृ)।
२. स्वसंवेदनमें केवलज्ञानवत् आत्मप्रत्यक्ष होता है स. सा /ता वृ/१६० प्रक्षेपक गाथा-को विदिदच्छो साहू संपडिकाले भणिज्जरूवमिणं । पच्चवरखमेव दिट्ठ परोक्रवणाणे पटतं । वर्तमानमें ही परोक्ष ज्ञानमे प्रवर्तमान स्वरूप भी साधुको प्रत्यक्ष होता है। क पा/१/१/६३१/४४ केवलणाणस्स ससंवेयणपच्छवखेण णिव्बाहेणुवलं
भादो। -स्वसवेदन प्रत्यक्षके द्वारा केवलज्ञानके अशरूप ज्ञानकी निर्वाधरूपसे उपलब्धि होती है। स, सा./आ /१४३ यथा खलु भगवान्केवली विश्वसाक्षितया केवल स्वरूपमेव जानाति, न तु नयपक्ष परिगृह्णाति, तथा किल य . श्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्भगमनेऽपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौरसुक्यतया स्वरूपमेव केवलं जानाति, न तु स्वयमेव विज्ञानघनभूतस्वात.. नयपक्ष परिगृह्णाति, स खलु निखिल विकल्पेभ्य परतर' परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्र समयसार । -जैसे केवली भगवान् विश्वके साक्षीपनेके कारण, स्वरूपको ही मात्र जानते है, परन्तु किसी भी नयप को ग्रहण नहीं करते: इसी प्रकार श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उत्पन्न होनेपर भी परका ग्रहण करनेके प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होनेसे स्वरूपको ही केवल जानते है परन्तु स्वयं ही विज्ञानधन होनेसे नय पक्षको ग्रहण नहीं करता, वह वास्तवमे समस्त विकल्पो सेपर परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योति, आत्म
ख्याति रूप अनुभूतिमात्र समयसार है । (और भी दे, नय 1/३/५-६)। स. सा./आ [१४/१२ भूत भान्तमभूतमेव रभसान्निभिद्य बन्ध सुधार्यद्यन्त किल कोऽप्यहो क्लयति व्याहत्य मोहं हठात् । आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते धब, नित्यं कर्मकलकपडूकविकलो देव स्वयं शाश्वतः ॥१२॥ = यदि कोई सुबुद्धि जीव भूत, वर्तमान व भविष्यत कमौके बन्धको अपने आत्मासे तत्काल भिन्न करके तथा उस कर्मोदयके बलसे होने वाले मिथ्यात्वको अपने मलसे रोककर अन्तरंगमें अभ्यास करे, तो यह आत्मा अपने अनुभव से ही जानने योग्य जिमको प्रगट महिमा है, ऐसा व्यक्त, निश्चल, शाश्वत, नित्य कर्मकल कसे रहित स्वय स्तुति करने योग्य देव विराजमान है। (स सा/आ./२०३/क २४०)। ज्ञा./३२/४४ सुसवृत्तेन्द्रियग्रामे प्रसन्ने चान्तरात्मनि । क्षणं स्फुरति यत्तत्व तद्रूपं परमेष्ठिन ॥४४॥ = इन्द्रियों का सवर करके अन्तर गमें अन्तरात्माके प्रसन्न होनेपर जो उस समय तत्व स्फुरण होता है, वही परमेष्ठीका रूप है । (स श./मू./३०)। स.सा/ता ७ /११० इदमात्मस्वरूपं प्रत्यक्षमेव मया दृष्टं चतुर्थ काले केवलज्ञानिकद । - यह आत्म-स्वरूप मेरे द्वारा चतुर्थ काल में केवल
शानियोंकी भाँति प्रत्यक्ष देखा गया । प्र सा./ता वृ./३३ यथा कोऽपि देवदत्त आदित्योदयेन दिवसे पश्यति
रात्रौ किमपि प्रदोपेनेति। तथादित्योदयस्थानीयेन केवल ज्ञानेन दिवसस्थानीयमाक्षपर्याये भगवानात्मानं पश्यति। संसारी विवेकिजन पुनतिशास्थानीयसंसारपर्याये प्रदीपस्थानीयेन रागादिविकलपरहिवपरमसमाधिना निजात्मान पश्यतीति । - जैसे कोई देवदत्त सूर्योदयके द्वारा दिनमें देखता है और दीपकके द्वारा रात्रिको कुछ
देखता है। उसी प्रकार मोक्ष पर्यायमें भगवान आत्माको मेवलज्ञानके द्वारा देखते है। संसारी विवेकी जन संसारी पर्यायमें रागादि विकल्प रहित समाधिके द्वारा निजात्माको देखते है। नि.सा./ता वृ/१४६/क,२५३ सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशखास्य योगिनः । न कामपि भिदा क्वापि ता विद्मो हा जडा' बयम् ॥२५३॥ -- सर्वज्ञ वीतरागमें और इस स्वबश योगीमें कहीं कुछ भी भेद नहीं है; तथापि अरे । हम जड है कि उनमें भेद मानते हैं ।२५३॥ नि सा./ता वृ/१७८/क २६७ भावा पञ्च भवन्ति येषु सततं भाव पर' पञ्चम । स्थायी संसृतिनाशकारणमय सम्यग्दृशा गोचर ॥२६७१ -भाव पाँच हैं, जिनमें यह परम पंचम भाव (पारिणामिक भाव) निरन्तर स्थायी है । स सारके नाशका कारण है और सम्यग्दृष्टियोंके गोचर है। पंध /उ (२१०,४८६ नातिव्याप्तिरभिज्ञाने ज्ञाने वा सर्व वेदिन । तयो.
स वेदनाभावात् केवल ज्ञानमात्रत ॥२१०॥ अस्ति चात्मपरिच्छेदिज्ञानं सम्यग्दृगात्मन । स्वस वेदनप्रत्यक्ष शुद्ध सिद्धास्पदोपमम् ॥४८॥ -स्वानुभूति रूप मति-श्रुतज्ञानमें अथवा सर्वज्ञके ज्ञानमें अशुद्धोपलब्धिकी व्याप्ति नहीं है, क्योकि उन दोनों ज्ञानों में सुख दुखका संवेदन नहीं होता है। वे मात्र ज्ञान रूप होते है ॥२१०॥ सम्यग्दृष्टि जीवका अपनी आत्माको जाननेवाला स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञान शुद्ध और मिद्धोके समान होता है ॥४८॥ स.सा /१४३ ५ जयचन्द "जब नयपक्षको छोड वस्तुस्वरूपको केवल जानता ही हो, तब उस काल मे श्रुतज्ञानी भी केवलीकी तरह बीतरागके समान ही होता है। ३. सम्यग्दृष्टिकोस्वात्मदर्शनके विषयमें किसीसे पूछनेकी
आवश्यकता नहीं स.सा /आ/२०६ आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्य भविष्यति । तत्त तत्क्षण एवं त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि मा अन्यान् प्राक्षी । - आत्मसे तृप्त ऐसे तुझको वचन अगोचर सुख प्राप्त होगा और उस सुखको उसी क्षण तू ही स्वय देखेगा, दूसरोसे मत पूछ ।
४. मति-श्रुतज्ञानको प्रत्यक्षता व परोक्षताका समन्वय स सा /ता. /१६० यद्यपि केवलज्ञानापेक्षया रागादिविक्स्परहितस्वसवेदनरूप भाव श्रुतज्ञानं शुद्धनिश्चयनयेन परोक्ष भण्यते. तथापि इन्द्रियमनोजनितस विकल्पज्ञानापेक्षया प्रत्यक्षम् । तेन कारणेन आत्मा स्वसवेदन ज्ञानापेक्षया प्रत्यक्षोऽपि भवति, केवल ज्ञानापेक्षया पुन' परोक्षोऽपि भवति । सर्वथा परोक्ष एवेति वक्तुं नायाति। कित चतुर्थ कालेऽपि केवलिन किमात्मान हस्ते गृहीत्वा दर्शयन्ति । तेऽपि दिव्यध्वनिना भणित्वा गच्छन्ति । तथापि श्रवणकाले श्रोतृणां परोक्ष एव पश्चात्परमसमाधिकाले प्रत्यक्षो भवति। तथा इदानी कालेऽपीति भावार्थ:। -यद्यपि केवलज्ञानकी अपेक्षा रागादि विकल्परहित स्वसवेदनरूप भाव श्रुतज्ञान शुद्ध निश्चयसे परोक्ष कहा जाता है. तथापि इन्द्रिय मनोजनित सविकल्प ज्ञानकी अपेक्षा प्रत्यक्ष है। इस प्रकार आत्मा स्वसंवेदनज्ञानकी अपेक्षा प्रत्यक्ष होता हुआ भी केवलज्ञानकी अपेक्षा परोक्ष भी है। 'सर्वथा परोक्ष ही है' ऐसा कहना नहीं बनता। चतुर्थकालमें क्या केवली भगवान् आत्माको हाथमें लेकर दिखाते हैं। वे भी तो दिव्यध्वनिके द्वारा कहकर चले ही जाते है। फिर भी सुननेके समय जो श्रोताके लिए परोक्ष है, वही पीछे परम समाधिकाल में प्रत्यक्ष होता है। इसी प्रकार वर्तमान काल में भी समझना। पं.का /ता.वृ/08/१५६ स्वसवेदनज्ञानरूपेण यदात्मग्राहकं भावश्रुत तत्प्रत्यक्षं यत्पुनादशाङ्गचतुर्दशपूर्वरूपपरमागमसज्ञ तच्च मूर्ताभोभयपरिच्छित्तिविषये व्याप्तिज्ञानरूपेण परोक्षमपि केवलज्ञानसदृशमित्यभिप्राय'।=स्वसवेदन ज्ञानरूपसे आत्मग्राहक भाव तज्ञान है वह प्रत्यक्ष है और जो बारह अग चौदह पूर्व रूप परमागम नामवाला ज्ञान है, वह मूर्त, अमूर्त व उभय रूप अर्थोके जाननेके विषयमें अनुमान ज्ञानके रूपमे परोक्ष होता हुआ भी केवलज्ञानसहश है।
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द्र.स /टी./५/१६/१ शब्दात्मक श्रुतज्ञानं परोक्षमेव तावत्, स्वर्गापवर्गादिबहिर्विषयपरिच्छित्तिपरिज्ञान विकल्परूप तदपि परोक्षम् यत्पुनरभ्यन्तरे सुखदुख विकल्परूपोऽहमनन्तज्ञानादिरूपोऽहमिति वा तदीषरपरोक्षम् । यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञानं तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखस वित्तिस्वरूप स्वस वित्याकारेण सविकल्पमपीन्द्रियमनोजनितरागादिविकल्पजालरहितत्वेन निर्विकल्पम् । अभेदनयेन तदेवात्मशब्दवाच्य वीतरागसम्यकचारित्राविनाभूत केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमपि ससारिणा क्षायिज्ञानाभावात क्षायोपशमिकमपि प्रत्यक्षमभिधीयते। अत्राह शिष्य ---- आद्य परोक्षमिति तत्त्वार्थ सूत्रे मतिश्रुतद्वयं परोक्ष भणित तिष्ठति, कथ प्रत्यक्ष भवतीति परिहारमाह - तदुत्सर्गव्याख्यानम्, इद पुनरपवाद व्याख्यानम्, यदि तदुत्सर्गव्याख्यान न भवति तहि मतिज्ञानं कथ तत्वार्थे परोक्ष भणित तिष्ठति। तर्कशास्त्रेसाव्यव हारिक प्रत्यक्ष कथ जातम् । यथा अपवादव्याख्यानेन मतिज्ञानं परोक्षमपि प्रश्यक्षज्ञान तथा स्वात्माभिमुख भाव तज्ञानमपि परोक्ष सत्प्रत्यक्ष भण्यते। यदि पुनरेवान्तेन परोक्ष भवति तहि सुखदुःखादिसवेदनमपि परोक्ष प्राप्नोति, न च तथा। -श्रुतज्ञानके भेदो में शब्दात्मश्रुतज्ञान तो परोक्ष हो है और स्वर्ग मोक्ष आदि बाह्य विषयोकी परिच्छित्ति रूप विकल्पात्मक ज्ञान भी परोक्ष ही है। यह जो अभ्यन्तरमें सुख दुखके विकल्प रूप या अनन्त ज्ञानादि रूप मै हूँ ऐसा ज्ञान होता है वह ईषत्परोक्ष है। परन्तु जो निश्चय भाव श्रुतज्ञान है, वह शुद्धारमाभिमुख स्वसं वित्ति स्वरूप है। यह यद्यपि स वित्तिके आकार रूपसे सविकल्प है, परन्तु इन्द्रिय मनोजनित रागादि विकल्प जालसे रहित होने के कारण निर्विकल्प है। अभेद नयसे वही ज्ञान आत्मा शब्दसे कहा जाता है तथा वह वीतराग सम्यक्चारित्र के बिना नहीं होता। वह ज्ञान यद्यपि केवलज्ञानकी अपेक्षा परोक्ष है तथापि ससारियो को क्षायिक ज्ञानकी प्राप्ति न होनेसे क्षायोपशमिक होने पर भी 'प्रत्यक्ष' कहलाता है। प्रश्न-'आद्य परोक्षम्' इस तत्त्वार्थ सूत्रमें मंति और श्रुत इन दोनो ज्ञानोको परोक्ष कहा है, फिर श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है। उत्तर - तत्त्वार्थसूत्र में उत्सर्ग व्याख्यानकी अपेक्षा कहा है और यहाँ अपवाद व्याख्यानकी अपेक्षा है । यवि तत्त्वार्थ सूत्र में उत्सर्गका कथन न होता तो तत्त्वार्थ सूत्र में मतिज्ञान परोक्ष कैसे कहा गया है। और यदि सूत्रके अनुसार बह सर्वथा परोक्ष ही होता तो तर्कशास्त्रमें साव्यवहारिक प्रत्यक्ष कैसे हुआ । इसलिए जैसे अपवाद व्याख्यानसे परोक्षरूप भी मतिज्ञानको साब्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है वैसे ही स्वात्मसन्मुख ज्ञानको भी प्रत्यक्ष कहा जाता है। यदि एका तसे मति, श्रुत दोनो परोक्ष ही हो तो सुख दुख आदि का जो सवेदन होता है वह भी परोक्ष हो'होगा। किन्तु वह स्वसवेदन परोक्ष नही है। पं. ध //७०६-७०७ अपि निचाभिनिबोधिबोधद्वैत तदादिम यावत् । स्वात्मानुभूतिसमये प्रत्यथ तत्समक्षमिव नान्यत ॥७०६॥ तदिह द्वैतमिदं चित्स्पर्शादीन्द्रियविषयपरिग्रहणे। व्योमाद्यवगमकाले भवति परोष न समक्षमिह नियमात् ॥७०७॥ = स्वात्मानुभूति के समयमें मति व भूत ज्ञान प्रत्यक्षकी भॉति होनेके कारण प्रत्यक्ष है, परोक्ष नहीं ॥७०६॥ स्पादि इन्द्रिय के विषयोको ग्रहण करते समय और आकाशादि पदार्थों को विषय करते समय ये दोनो ही परोक्ष है प्रत्यक्ष नहीं। ( ध/उ/४६०-४६२) ।
रहस्यपूर्ण चिठ्ठीप टोडरमल-"अनुभवमें आरमा तो परोक्ष ही है। परन्तु स्वरूपमे परिणाम मग्न होते जो स्वानुभव हुआ वह स्वानुभवप्रत्यक्ष है स्वय ही इस अनुभवका रसास्वाद वेदे है।
५. मति-श्रुतज्ञानकी प्रत्यक्ष ताका प्रयोजन पं का./ता वृ/४३/८६ निर्विकारशुद्वात्मानुभूत्यभिमुख यन्म तिज्ञान तदेवोपादेयभूतानन्तसुखसाधकरवान्निश्चयेनोपादेयं तत्साधक बहिरङ्ग पुनर्व्यवहारेणे ति तात्पर्यम्। अभेदरत्नत्रयात्मक यद्भाव श्रुत तदेवोपादेयभूत परमात्मतत्त्वसाधकत्वान्निश्चयेनोपादेय, तत्साधक बहिरङ्ग तु
व्यवहारेणेति तात्पर्यम् । =निर्विकार शुद्धात्मानुभूतिके अभिमुख जो मतिज्ञान है वही उपादेयभूत अनन्त सुख का साधक होनेसे निश्चयसे उपादेय है और उसका साधक बहिरग मतिज्ञान व्यवहारसे उपादेय है। इसी प्रकार अभेद रत्नत्र्यात्मक जो भाव तज्ञान है वही उपादेयभूत परमात्मतत्त्वका साधक होनेसे निश्चयसे उपादेय है और उसका साधक बहिर ग श्रुतज्ञान व्यवहारसे उपादेय है, ऐसा तात्पर्य है। ५ अल्प भूमिकाओमे आत्मानुभव विषयक चर्चा १. सम्यग्दृष्टिको स्वानुभूत्यावरण कर्मका क्षयोपशम
अवश्य होता है। धप/उ /४०७,८५६ हेतुस्तत्रापि सम्यक्त्वोत्पत्तिकालेऽस्त्यवश्यतः । तज्ज्ञानावरणस्योच्चैरस्त्यवस्थान्तर स्वत' ॥४०७॥ अवश्य सति सम्यक्त्वे तल्लब्ध्यावरणक्षति ॥५६॥ -सम्यक्त्वके होने पर नियमपूर्वक लब्धि रूप स्वानुभूतिके रहने में कारण यह है कि सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय अवश्य ही स्वय स्वानुभूत्यावरण कर्मका भी यथायोग्य क्षयोपशम होता है ॥४०७१ सम्यक्त्व होते ही स्वानुभूत्यावरण कर्मका नाश अवश्य होता है ॥८५६॥
२. सम्यग्दृष्टिको कथंचित् आत्मानुभव अवश्य होता है स सा /मू /१४ जो पस्सदि अप्पाण अबद्धपुट्ट' अणण्णय णि यद । अविसेसमस जुत्त त सुद्धणय बियाणीहि ॥१४॥ -जो नय आत्मा बन्ध रहित, परके स्पर्श रहित, अन्यत्व रहित, चला चलता रहित, विशेष रहित, अन्य संयोगमे रहित ऐसे पाँच भाव रूपसे देखता है उसे हे शिष्य । तू शुद्ध नय जान ॥१४॥ इस नयके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है ॥११॥ (पध./उ/२३३) । ध.१/१,१.१/३८/४ सम्यग्दृष्टीनामवगताप्तस्वरूपाणा ज्ञानदर्शनानामाबरणविविक्तानन्तज्ञानदर्शनशक्तिख चितात्मस्मतृणा वा पापक्षयकारित्वतस्तयोस्तदुपपत्ते । -आप्तके स्वरूपको जाननेवाले और आवरणरहित अनन्तज्ञान और अनन्तदर्श नरूप शक्तिमे युक्त आत्माका स्मरण करनेवाले सम्यग्दृष्टियोके ज्ञान में पापका क्षयकारीपना पाया जाता है। स.सा /आ /१४/५ १३ आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिकाया, ज्ञानानुभूतिरियमेष क्लेिति बुद्ध वा ॥१३॥ = जो पूर्व कथित शुद्धनग्न स्वरूप आत्माको अनुभूति है, वही वास्तवमें ज्ञानकी अनुभूति है (स.सा ।
आ/१७-१८)। प का /त प्र /१६६/२३६ अहंदादिभक्तिस पन्न कथ चिच्छुद्र सप्रयोगोऽपि
सन् जीवा जीवद्रागलबत्वाच्छभोपयोगतामजहत बहुश पुण्य बनाति, न खलु मकलकर्मक्षयमारभते । अर्हन्तादिके प्रति भक्ति सम्पन्न जीव कथति शुद्व सप्रयोगवाला होनेपर भी राग लब जो वित होनेसे शुभोपयोगको न छोडता हुआ बहुत पुण्य बॉधता है, परन्तु वास्तव मे सक्ल कर्मोका भय नही करता। ज्ञा./१२/४३ स्याद्यद्यत्पीयेऽज्ञस्य तत्तदेवापदास्पदम् । विभेत्यय पुनर्यस्मिस्तदेवानन्दमन्दिरम् ॥४३॥ अज्ञानी पुरुष जिस-जिस विषयमें प्रीति करता है, वे सब ज्ञानी के लिए आपदाके स्थान है तथा अज्ञानी जिस-जिस तपश्चरणादिसे भय करता है वही ज्ञानी के आनन्दका
निवास है। प्रसा/ता वृ /२४८ श्रावकाणामपि सामायिकादिकाले शुद्धभावना दृश्यते ।
- श्रावकोके भी सामायिकादि कालमे शुद्ध भावना दिखाई देती है। पं का /ता वृ /१४० चतुर्थ गुणस्थान योग्यमात्मभावनामपरिर जत् सन् देवलोके काल गमयति, ततोऽपि स्वर्गादागत्य मनुष्यभवे चक्रवादिविभूति लब्ध्वापि पूर्वभवभावितशुद्धात्मभावनाबलेन मोह न करोति । - चतुर्थ गुणस्थानके योग्य जात्मभावनाको नहीं छोडता हुआ वह देवलोकमे काल गॅवाता है। पीछे स्वर्गसे आकर मनुष्य भवमें चक्रवर्ती आदिकी विभूतिको प्राप्त करके भी, पूर्वभवमें भावित शुद्धात्मभावनाके बल से मोह नही करता है।
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अनुभव
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पध / पू / ७१० इह सम्यग्दृष्टे किल मिथ्यात्वोदय विनाशजा शक्ति । कानीयात्यमेतदस्ति यथाष्टजनके निश्चय हो मिध्यात्वकर्म के अभाव कोई अनिर्वचनीय शक्ति होती है जिससे यह आत्मप्रत्यक्ष होता है। मोमा/०/३०६/६ मोची दशाविप केई जीवनि शुभोगयोग और शुद्रोयोगातपना पाये है। सा.स/भाषा/४/२६६/११२ चौथे गुणस्थान में सम्पदर्शनके साथ ही स्वरूपाचरण चारित्र भो आत्मामें प्रगट हो जाता है । यु अ. / ५१ प जुगल किशोर "स्वाभाविकत्वाच्च मम
मनस्ते ॥ ५१ ॥
• असयत सम्यग्दृष्टिके भी स्त्रानुरूप मन साम्यकी अपेक्षा मनका सम होना बनता है, क्योंकि उसके सयमका सर्वथा अभाव नहीं है । ३. धर्मध्यान में किंचित् आत्मानुभव अवश्य होता है इस /टो /४०/२६ नियममार्ग तथेव व्यवहारमोक्षमार्ग च विधमपि निर्विकारस्य विश्यात्मकपर मध्यानेन मुनि प्राप्नोति । - निश्चय मोक्षमार्ग तथा व्यवहार मोक्षमार्ग इन दोनोको मुनि निर्विकार स्वसवेदनरूप परमध्यानके द्वारा प्राप्त करता है । इस टी ३६/२२५ तस्मिन्ध्याने स्थितानां महीतराग परमानन्द सुर्ख प्रतिभाति तदेव निश्वयममार्गस्वरूप तच पर्यायनामान्तरेण कि किं भण्यते तदभिधीयते । तदेव शुद्धात्मस्वरूप, तदेव परमात्मस्वरूप तदेवैकदेशव्यक्तिरूप परमहंसस्वरूपम् । तदेव शुद्रपारि स एव शुद्वापयोग पडावश्यक स्वरूप. सामायिक चतुविधाराधना, धर्मध्यान, शुक्रुध्यान. शून्यध्यान, परमसाम्यं,
भेदज्ञान, परमसमाधि, परमस्वाध्याय इत्यादि ६६ बोल । उस ध्यान में स्थित जोवोका जो वीतराग परमानन्द सुख प्रतिभासता है, वह निश्चय मोक्षमार्गका स्वरूप है। वही पर्यायान्तरसे क्या-क्या कहा जाता है, सो कहते है । वही शुद्धात्मस्वरूप है, वही परमात्मस्वरूप तथा एकदेश परमहसस्वरूप है। वही शुद्धचारित्र, शुद्धोपयोग, षडावश्यकस्वरूपसामायिक, चतुविधाराधना, धर्मध्यान, शुक्रध्यान, शून्यध्यान, परमसाम्य, भेदज्ञान, परम समाधि, परमस्वाध्याय आदि हैं। ४. धर्मध्यान अल्प भूमिकाओ में भी यथायोग्य होता है प्रसा/ता वृ / ११ ध्यायति य कर्ता । कम् । निजात्मानम् । कि कृत्वा । स्वमवेदनज्ञानेन ज्ञात्वा कथभूतः । यति गृहस्थ । य एव गुणविशिष्ट अपयति स मोहदुग्रन्थिम् । =जो यति या गृहस्थ स्वसवेदनज्ञानसे जानकर निजात्माका ध्याता है उसकी माहग्रन्थि नष्ट हो जाती है ।
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इस ट ४८/२०१-२० (२०१) तारतम्यवृद्धिकमेणासयतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तस यताप्रमत्ताभिधान चतुर्गुणस्थानवर्त्ति जावसंभव मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धकारणमपि परम्परया मुक्तिकारणं चेति धर्मध्यान वध्यते ॥ २०२ ॥ अध्यात्मभाषया पुन सहजशुद्धपरमदयासिनि निरानन्दमालिनी भगवति निजात्मन्युपादेयबुद्धि कृत्वा पश्चानन्तज्ञानोऽहमनन्सुलाऽहमित्यादिभावनारूपमभ्यन्तर धर्मध्यानमुच्यते। पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादि तदनुकूलशुभानुष्ठानं पुनर्म हिर धर्मध्यानंभ वति (२०४) । -आगम भाषा के अनुसार तारतम्य रूपसे असंयत सम्पति वैशसयत प्रमत्तसयत और अनन्तसंयत इन चार गुणावर्ती जीवोमें सम्भव, मुख्यरूपसे पुण्यन्धका कारण होते हुए भी परम्परासे मुक्तिका कारण धर्मध्यान कहा गया है। अध्यात्म भाषा के अनुसार सहज शुद्ध परम चैतन्य शालिनी निर्भराभन्द मालिनी भगवती निजात्मामें उपादेय बुद्धि करके पीछे मै अनन्त ज्ञानरूप हूँ, मै अनन्त सुख रूप हूँ' ऐसी भावना रूप अभ्यन्तर धर्मध्यान कहा जाता है । पञ्चपरमेष्ठीकी भक्ति आदि तथा तदनुकूल शुभानुष्ठान बहिरंग धर्मध्यान होता है ।
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पंध./उ /६८८,६१५ दृड्मोहेऽस्त गते पुंस शुद्धस्यानुभवो भवेत् । न भवेनिकर कविचारित्रावरणोदय ॥ ६८८॥ प्रमत्तानां विकल्पत्वान्न स्यामा शुद्धतना अस्तोति वासनोन्मेषः केचित्सन सहि १९६०
अनुभव
आरमा दर्शनमोहकर्मका अभाव होनेपर शुद्धात्माका अनुभव होता है। उसमे किसी भी चारित्रावरणकर्मका उदय बाधक नहीं होता ॥ ६८८॥ *प्रमत्तगुणस्थान तक विकल्पका सद्भाव होनेसे वहाँ शुद्ध चेतना सम्भव नहीं' ऐसा जो किन्होंके वासनाका उदय है, सो ठीक नहीं है ॥१५॥
५. निश्चय धर्मध्यान मुनिको होता है गृहस्थको नहीं
ज्ञा ४/१७ खपुष्पमथवा शृङ्गं खरस्यापि प्रतीयते । न पुनर्देशकालेऽपि ध्यान सिद्धिगृ हाथमे ॥|१७|| आकाशपुष्प अथवा खरविषाणका होना कदाचित् सम्भव है, परन्तु किसी भी देशकालमें गृहस्थाश्रममें ध्यानकी सिद्धि होनी सम्भव नही ॥१७॥
त अनु/२७ मुख्योपचारभेदेन धर्मध्यानमिह द्विधा जमतेषु तम्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम् ॥४७॥ - धर्मध्यान मुख्य और उपचारके भेद से दो प्रकारका है । अत्रमत्त गुणस्थानो में मुख्य तथा अन्य प्रमत्तगुणस्थानों में औपचारिक धर्मध्यान होता है।
ससा / ता वृ / १६ ननु वीतरागस्वसवेदनज्ञानविचारकाले वीतरागविशेषण किमिति क्रियते प्रचुरेण भवद्भि कि सरागमपि स्वसवेदनज्ञानंमस्तीति अनुभवानन्दरूपं स्वसवेदनानं सर्वजन सरागमप्यस्ति शुरू स्वेदज्ञानं वीतरागमिति । इद व्याख्यानं स्वसंवेदनव्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यमिति भावार्थ । प्रश्न- वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानका विश्चार करते हुए आप सर्वत्र 'बीतराग' विशेषण क्सिलिए लगाते है । क्या सरागको भी स्वमवेदनज्ञान हता है ? उत्तर- विषय सुखानुभव के आनन्द रूपसवेदनज्ञान सर्वजन प्रसिद्ध है । वह सरागको भी होता है । परन्तु शुद्धात्म सुखानुभूति रूप स्वस्बेदनज्ञान वीतरागको ही होता है । स्वसवेदनज्ञान के प्रकरण में सर्वत्र यह व्याख्यान जानना चाहिए। साता २०४/३४७ विषयनिमितो पन्नेमा रौद्रयानन परिणताना गृहस्थानामात्माश्रितनिश्चयधर्मस्याको नास्तिविषय कषायके निमित्तसे उत्पन्न आर्त रौद्र ध्यानो में परिणत गृहस्थजनको आरमाथित धर्मका अवकाश नहीं है।
द्र स / टी / ३४/६६ असयतसम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्त संयतेषु पारम्पर्येण वृद्धोयोगसाधक तारतम्येन शुभपयोगो वर्तते तदनन्तरममसादिक्षीणकषायपर्यन्तं जघन्यमध्यमेश नयरूप शुद्धोपयोगो वर्तते । असयत सम्यग्दृष्टिसेप्रमत्तसंयत तक के तीन गुणस्थानों में परम्परा रूपपयोगका साधक तथा ऊपरऊपर अधिक अधिक विशुद्ध भोपयोगकर्ता है और उसके अनन्तर अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यन्तके गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदको लिये विवक्षित एकदेश नमरूप शुद्धता है। मो पाटो /२/२०६/६ मुनीनामेव परमात्मध्यानं घटते लोहगोलसमानगृहिणी परमात्मध्यानं न संगच्छते । मुनियों के ही परमात्मध्यान घटित होता है। तप्तलोहके गोलेके समान गृहस्थों को परमात्मध्यान प्राप्त नहीं होता (देवन सूरिकृत भाद्र ३०१-३१०, ६०५) भा पा./टी./८१/२३२/२४ होभः परीषोपसर्गनिपाते चित्तस्य चहन ताभ्यां विहीनो रहित मोहक्षोभविहीन । एवं गुणविशिष्ट आत्मनः शुद्धबुद्ध स्वभावस्य चिचमत्कारानन्दरूप परिणामो धर्म इत्युच्यते स परिणामो गृहस्थानां न भवति पञ्चसुनासहितत्वाद। = परिषह व उपसर्गके आनेपर चित्तका चलना क्षोभ है। उससे रहित मोह-क्षोभ विहीन है। ऐसे गुणोंसे विशिष्ट शुद्धबुद्ध एकस्वभावी आत्मा का चिचमत्कार लक्षण चिदानन्द परिणाम धर्म कहलाता है। पंचसून दोष सहित होनेके कारण वह परिणाम गृहस्थीको नहीं होता । ६. गृहस्थको निश्चयध्यान कहना अज्ञान है। मो.पा/टी./२/३०५ ये गृहस्था अपि सन्ती मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रवते ते जिनधर्मविराधका मिध्यादृष्टयो ज्ञातव्याः । = जो गृहस्थ होते हुए भी मना आत्मभावनाको प्राप्त करके 'हम
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ध्यानी है। ऐसा कहते हैं, वे जिनधर्म विराधक मिथ्यादृष्टि जानने
चाहिए। भावसंग्रह/३८५ (गृहस्थोंको निरालम्ब ध्यान माननेवाला मूर्ख है)।
७. साधु व गृहस्थके निश्चय ध्यानमें अन्तर मो.पा.//८३-८६ णिच्छयणयस्स एवं अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदिसुचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वार्ण ॥८३॥ एव जिणहि कहि सवणाण सावयाण पुण सुणम् । ससारविणासयर सिद्धियर कारणं परमं ८५ गहिऊण य सम्मत्तं मुणिम्मल मुरगिरीव णिक्कं । त जाणे ज्झाइज्जइ सात्रय । दुक्खक्खयट्ठाए ॥८६॥ - निश्चय नयका ऐसा अभिप्राय है कि जो आत्मा ही विर्षे आपहीके अर्थि भले प्रकार रस होय सो योगी ध्यानी मुनि सम्यग्चारित्रवान् भया संता निर्वाणक पावै है ॥८३॥ इस प्रकारका उपदेश श्रमणोके लिए किया गया है। महुरि अब श्रावकनिक कहिये है, सो सुनो। कैसा कहिये है-ससारका तो विनाश करनेवाला और सिद्धि जो मोक्ष ताका करनेवाला उत्कृष्ट कारण है ॥८॥ प्रथम तौ श्रावकके भलै प्रकार निर्मल और मेरुबव अचल अर चल, मलिन, अगाढ दूषण रहित अत्यन्त निश्चल ऐसा सभ्यक्कू ग्रहणकरि, तिसळू ध्यानविर्षे ध्याबना, कौन अर्थिदुःखका क्षयके अर्थि ध्यावना ॥८६॥ जो जोव सम्यक्त्वक ध्याव है, सो जीव सभ्यग्दृष्टि है, बहुरि सम्यक्त्वरूप परिणया सता दुष्ट जे आठ कर्म तिनिका क्षय करै है ॥८७५ ८. अल्पमूमिकामें आत्मानुभवके सद्भाव-असद्भावका
समन्वय स.सा./ता../१० यो भावश्रुतरूपेण स्वसंवेदनज्ञानबलेन शुद्धात्मान जानातिस निश्चयश्रुतकेवलीभवति । यस्तु स्वशुद्धात्मानं न सवेदयति न भावयति, बाहिर्विषयं द्रव्यश्रुतार्थं जानाति स व्यवहारश्रुतकेवली भवतीति । ननु तर्हि-स्वस वेदनज्ञानबलेनास्मिन् कालेऽपि श्रुतकेवली भवति । तत्र यादृशं पूर्वपुरुषाणां शुक्लध्यानरूप स्वस बेदनज्ञान तादृशमिदानों नास्ति किंतु धर्मध्यानयोग्यमस्तीत्यर्थ । जो भावश्रुतरूप स्वसंवेदनज्ञानके बलसे शुद्धात्माको जानता है, वह निश्चय श्रुतकेवली होता है । जो शुद्धात्माका सवेदन तो नहीं करता परन्तु महिविषयरूप द्रव्य श्रुतको जानता है वह व्यवहारश्रुतकेवली होता है। प्रश्न-तब तो स्वसंवेदन ज्ञानके बलसे इस काल में श्रुतकेवली हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि जिस प्रकारका शुक्लध्यानरूप स्वसवेदनज्ञान पूर्व पुरुषों को होता था वैसा इस काल में नहीं है, किन्तु धर्मध्यानके योग्य है। प्र.सा/ता../२४८ ननु शुभोपयोगिनामपि कापि काले शुद्धोपयोगभावना हरयते, शुद्धोपयोगिनामपि कापि काले शुभोपयोगभावना दृश्यते। श्रावकाणामपि सामायिकादिकाले शुद्धभावना दृश्यते, तेषां कथं विशेषो भेदो ज्ञायत इति। परिहारमाह -युक्तमुक्त भवता परं किंतु ये प्रचुरेण शुभोपयोगेन वर्तन्ते, यद्यपि कापि काले शुद्धोपयोगभावना कुर्वन्ति तथापि शुभोपयोगिन एव भण्यन्ते। येऽपि शुद्धोपयोगिनस्ते यद्यपि कापि काले शुभोपयोगेन वर्तन्ते तथापि शुद्धोपयोगिन एव। कस्मात् । बहुपदस्य प्रधानत्वादावननिम्बवनवदिति - प्रश्नशुभोपयोगियोंके भी किसी काल शुद्धोपयोगकी भावना देखी जाती है और शुद्धोपयोगियोंके भो किसी काल शुभोपयोगकी भावना देखी जाती है। श्रावकोंक भी सामायिकादि काल में शुद्धभावना दिखाई देती है। इनमें किस प्रकार विशेष या भेद जाना जाये। उत्तर-जो प्रचुर रूपसे शुभोपयोगमें वर्तते है वे यद्यपि किसी काल शुद्धोपयोगकी भावना भी करते है तथापि शुभोपयोगी ही कहलाते है और इसी प्रकार शुद्धोपयोगी भी यद्यपि किसी काल शुभोपयोग रूपसे पर्तते है तथापि शुद्धोपयोगी ही कहे जाते है। कारण कि आघवन व निम्बवनकी भाँति महुपदकी प्रधानता होती है। ब.स./टो./३४/१०/१तत्राशुद्धनिश्चये शुद्धोपयोगो कथं घटते इति चेत्तत्रोतरम्-शुद्धोपयोगे शुद्धबुद्ध कस्वभावो निजारमाध्येयस्तिष्ठति तेन
कारणेन शुद्धध्येयत्वाच्नद्धावलम्बनस्वारद्धात्मस्वरूपसाधत्वाच शुद्धोपयोगी घटते । स च संवरशब्दवाच्य शुद्धोपयोग ससारकारणभूतमिथ्यात्वरागाद्यशुद्धपर्यायवदशुद्धो न भवति फलभूत केवलज्ञानपर्यायत्रत शुद्धोऽपि न भवति किंतु ताभ्यामशुद्धशुद्धपर्यायाभ्या विलक्षणं एकदेशनिरावरण च तृतीयमवस्थान्तर भण्यते। -प्रश्नअशुद्ध निश्चय में शुद्धोपयोग कैसे घटित होता है। उत्तर-- शुद्धोपयोगमें शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव आत्मा ध्येयरूपसे रहती है। इस कारणसे शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्ध अवलम्बन होनेसे और शुद्धात्मस्वरूपका साधक होनेसे शुद्धोपयोग घरित होता है। सवर शब्दका वाच्य वह शुद्धोपयोग न तो मिथ्यात्वरागादि अशुद्ध पर्यायवत अशुद्ध होता है और न ही केवलज्ञानपर्यायवत शुद्ध ही होता है। किन्तु अशुद्ध व शुद्ध दोनों पर्यायोसे विलक्षण एकदेश निरावरण तृतीय अवस्थान्तर कही जाती है । (प्र सा./ता ७ /१८१/२४५/११) । ६. शुद्धात्माके अनुभव विषयक शका-समाधान
१. अशुद्ध ज्ञानसे शुद्धात्माका अनुभव कैसे करें स.सा/ता /४१४/५०८/२३ केवलज्ञान शुद्ध छद्यस्थ ज्ञान पुनरशुद्ध
शुद्धस्य केवलेज्ञानस्य कारण न भवति। नैवं छद्मस्थ ज्ञानस्य कथं - चिच्छुद्धाशुद्धत्वम् । तद्यथा-यद्यपि केवलज्ञानापेक्षया शुद्ध न भवति तथापि मिथ्यात्वरागादिरहितत्वेन वीतरागसम्यक्चारित्रसहितत्वेन च शुद्धम् । अभेदनयेन छद्मस्थानां समन्धिभेदत्रानमात्मस्वरूपमेव तत कारणात्तेनैकदेशव्यक्तिरूपेणापि सक्लव्यक्तिरूप केवलज्ञान जायते नास्ति दोष 1.. क्षायोपशमिमपि भावतज्ञान मोक्षकारण भवति । शुद्धपारिणामिक भाव एकदेशव्यक्तिलक्षणाया कथंचिदभेदाभेदरूपस्यद्रव्यपर्यायात्मकस्य जीवपदार्थस्य शुद्धभावनावस्थायां ध्येयभूतद्रव्यरूपेण तिष्ठति न च ध्यानमर्यायरूपेण । प्रश्न-केवलज्ञान शुद्ध होता है और छद्मस्थका ज्ञान अशुद्ध। वह शुद्ध केवलज्ञानका कारण नही हो सकता-उत्तर-ऐसा नही है, क्योकि छद्मस्थज्ञानमें भी कथ चिव शुद्धाशुद्धत्व होता है। वह ऐसे कि यद्यपि केवलज्ञानको अपेक्षा तो वह शुद्ध नहीं होता, तथापि मिथ्यात्व रागादिसे रहित होनेके कारण तथा वीतराग सम्यक्पारिबसे सहित होनेके कारण वह शुद्ध भी है। अभेद नयसे छद्मस्थो सम्बन्धी भेदज्ञान भी आत्मस्वरूप ही है। इस कारण एक देश व्यक्तिरूप उस ज्ञानसे सकल व्यक्तिरूप केवलज्ञान हो जाता है, इसमें कोई दोष नही है। क्षायोपशमिक भावभुतज्ञान भी (भले सावरण हो पर) मोक्षका कारण हो सकता है। शुद्ध पारिणामिकभाव एकदेश व्यक्तिलक्षणरूपसे कथचित भेदाभेद द्रव्यपर्यात्मक जीवपदार्थकी शुद्धभावनाकी अवस्थामें ध्येयभूत द्रव्यरूपसे रहता है, ध्यानकी पर्यायरूपसे नहीं। (और भी देखो पीछे 'अनुभव/५/७')।
२. अशुद्धताके सद्भावमें भी उसकी उपेक्षा कैसे करें पध./उ./१५६.१६२ न चाशङ्कयं सतस्तस्यस्यादुपेक्षा कथ जवात ॥१५॥
यदा तद्वर्णमालायां दृश्यते हेम केवलम् । न दृश्यते परोपाधिः स्वेष्ट दृष्टेन हेम तव ॥१६२॥ - उस सत्स्वरूपपर संयुक्त द्रव्यकी सहसा उपेक्षा कैसे हो जायेगी-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए ॥१५६॥ क्योकि जिस समय अशुद्ध स्वर्ण के रूपो में केवल शुद्ध स्वर्ण दृष्टिगोचर किया जाता है, उस समय परद्रव्यकी उपाधि दृष्टिगोचर नहीं होती, किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाणसे अपना अभीष्ट वह केवल शुद्धस्वर्ण ही दृष्टिगोचर होता है।
३. देह सहित भी उसका देह रहित अनुभव कैसे करें ज्ञा /३२/१-११ कथं तर्हि पृथक् कृत्वा देहाद्यर्थकदम्बकार । आरमानमभ्य सेयोगी निर्विकल्पमतीन्द्रियम् ॥६अपास्य बहिरारमान स्थिरेणान्तरात्मना। ध्यायेद्विशुद्धमत्यन्तं परमात्मानमव्ययम् ॥१०॥ संयोजयति देहेम चिदात्मानं बिमूढधी। बहिरात्मा ततो ज्ञानी पृथक् पश्यति देहिनाम् ॥११॥ प्रश्न-यदि आत्मा ऐसा हे तो इसे देहादि पदार्थोंके समूहसे पृथक करके निर्विकल्प व अतीन्द्रिय, ऐसा कैसे ध्यान
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अनुभव प्रकाश
अनुभाग
करें उत्तर -योगो नहिरात्माको छोडकर भले प्रकार स्थिर अन्तरात्मा होकर अत्यन्त विशुद्ध अविनाशी परमात्माका ध्यान करै ॥१०॥ जो बहिरात्मा है, सो चैतन्यरूप आत्माकी देहके साथ सयोजम करता है और ज्ञानी देहको देहीसे पृथक् हो देखता है ॥११॥ ४ परोक्ष आत्माका प्रत्यक्ष कैसे करें ज्ञा/३३/४ अलक्ष्य लक्ष्यसबन्धात स्थूलात्सूक्ष्म विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्ब तत्त्ववित्तत्त्वमञ्जसा ॥४॥ तत्त्वज्ञानी इस प्रकार तत्वको प्रगटतया चिन्तवन करे कि लक्ष्य के सम्बन्धसे तो अलक्ष्यको और स्थूलसे सूक्ष्मको और सालम्ब ध्यानसे निरालम्ब वस्तु स्वरूपको चिन्तवन करता हुआ उससे तन्मय हो जाये । स.सा/ता वृ /११० परोक्षस्यात्मन कथ ध्यान भवतीति । उपदेशेन परोक्षरूप यथा द्रष्टा जानाति भण्यते तथैव ध्रियते जीयो दृष्टश्च ज्ञातश्च ॥१॥ आत्मा स्वसंवेदनापेक्षया प्रत्यक्षो भवति केवलज्ञानापेक्षया परोक्षोऽपि भवति। सर्वथा परोक्षमिति वक्तु नायाति ।
प्रश्न-परोक्ष आत्माका ध्यान कैसे होता है । उत्तर- उपदेशके द्वारा परोक्षरूपसे भी जैसे द्रष्टा जानता है, उसे उसी प्रकार कहता है और धारण करता है। अत: जीव द्रष्टा भी है और ज्ञाता भी है ॥१॥ आत्मा स्वस वेदनकी अपेक्षा प्रत्यक्ष होता है और केवलज्ञानकी अपेक्षा परोक्ष भी होता है सर्वथा परोक्ष कहना नहीं बनता। स सा./ता.बृ/२६६ कथ स गृह्यते आत्मा 'दृष्टिविषयो न भवत्यमूर्तत्वात' इति प्रश्न' । प्रज्ञाभेदज्ञानेन गृह्यते इत्युत्तरम् । प्रश्न-वह आत्मा कैसे ग्रहण की जाती है, क्योंकि अमूर्त होने के कारण वह दृष्टिका विषय नही है। उत्तर-प्रज्ञारूप भेदज्ञानके द्वारा ग्रहण किया जाता है। अनुभव प्रकाश-पं दीपचन्दजी शाह (ई १७२२) द्वारा रचित हिन्दी भाषाका एक आध्यात्मिक ग्रन्थ । अनुभाग-अनुभाग नाम द्रव्यको शक्तिका है। जीवके रागादि भावोको तरतमताके अनुसार, उसके साथ बन्धनेवाले कर्मोंकी फलदान शक्तिमें भी तरतमता होनी स्वाभाविक है। मोक्षके प्रकरणमें कोकी यह शक्ति ही अनुभाग रूपसे इष्ट है। जिस प्रकार एक द भी पकता हुआ तेल शरीरकी दमानेमें समर्थ है और मन भर भी कम गर्म तेल शरीरको जलाने में समर्थ नहीं है, उसी प्रकार अधिक अनुभाग युक्त थोडे भो कर्म प्रदेश जोवके गुणो का घात करनेमें समर्थ है, परन्तु अल्प अनुभाग युक्त अधिक भी कर्मप्रदेश उसका पराभव करने में समर्थ नहीं है। अत कर्मबन्धके प्रकरणमें कर्म प्रदेशोंकी गणना प्रधान नही है, मलिक अनुभाग हो प्रधान है । हीन शक्तिवाला अनुभाग केवल एकदेश रूपसे गुणका घात करनेके कारण देशधातो और अधिक शक्तिवाला अनुभाग पूर्ण रूपेण गुणका घातक होनेके कारण सर्वघाती कहलाता है। इस विषयका ही कथन इस अधिकार में किया गया है।
* अनुभाग अध्यवसायस्थान । -दे. अध्यवसाय ।
* अनुभागकाण्डकघात । -दे, अपकर्षण ४ । २. अनुभागबन्ध निर्देश
१. अनुभाग बन्ध सामान्यका कारण । २ शुभाशुभ प्रकृतियोके जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग
बन्धके कारण। ३. शुभाशुभ प्रकृतियोंके चतु'स्थानीय अनुभाग निर्देश । * कषायोकी अनुभाग शक्तियाँ। -दे कषाय २ । * स्थिति व अनुभाग बन्धोकी प्रधानता।-दे. स्थिति ३ । * प्रकृति व अनुभागमे अन्तर । -दे प्रकृतिबंध ४। ४. प्रदेशोके बिना अनुभाग बन्ध सम्भव नही । ५. परन्तु प्रदेशोकी हीनाधिकतासे अनुभागको हीना
धिकता नहीं होती। ३. घाती अघाती अनुभाग निर्देश
१ घाती व अघाती प्रकृतिके लक्षण । २. घाती अघातीकी अपेक्षा प्रकृतियोका विभाग । ३. जीवविपाकी प्रकृतियोको घातिया न कहनेका कारण । ४. वेदनीय भी कथंचित् घातिया है।
५. अन्तराय भी कथचित् अघातिया है। ४. सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश
१. सर्वधाती व देशघाती अनुभाग निर्देश । २. सर्वघाती व देशघातीके लक्षण । ३. सर्वघाती व देशघाती प्रकृतियोंका निर्देश । ४. सर्व व देशघाती प्रकृतियोंमे चतु स्थानीय अनुभाग । ५. कर्मप्रकृतियोमे यथायोग्य चतु स्थानीय अनुभाग ।
१ ज्ञानावरणादि सर्वप्रकृतियोकी सामान्य प्ररूपणा।
२ मोहनीय प्रकृतिकी विशेष प्ररूपणा। ६ कर्मप्रकृतियोमे सर्व व देशघाती अनुभाग विषयक
शका समाधान । १ मति आदि ज्ञानावरण देशघाती कैसे हैं ? २ केवलज्ञानावरण सर्वधाती है या देशघाती? ३ सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती कैसे है ? ४ सम्यगमिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है ? ५ मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती वैसे है ? ६. 'प्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वघाती कैसे है? ७. मिथ्यात्वका अनुभाग चतु'स्थानीय कैसे हो सकता है ? ८. मानकषायकी शक्तियोंके दृष्टान्त मिथ्यात्वादि प्रकृतियोंके अन
भागोंमे कैसे लागू हो सकते है ? ___ * सर्वघातीमे देशघाती है, पर देशघातीमे सर्वघाती
नही। -दे. उदय ४/२।
१.भेद व लक्षण
१. अनुभाग सामान्यका लक्षण व भेद । २ जीवादि द्रव्यानुभागोके लक्षण । ३. अनुभागबन्ध सामान्यका लक्षण । ४. अनुभाग बन्धके १४ भेदोंका निर्देश । ५. सादि अनादि ध्रुव-अध्रुव आदि अनुभागोंके लक्षण । ६. अनुभाग स्थान सामान्यका लक्षण । ७. अनुभाग स्थानके भेद। ८. अनुभाग स्थानके भेदोंके लक्षण ।
१. अनुभाग सत्कर्म; २. अनुभागबन्धस्थान; ३. बन्धसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थान; ४. हतसमुत्पत्तिक अनुभागसत्कर्मस्थान;५.हतहतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थान
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अनुभाग
५. अनुभाग बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम व प्ररूपणाएँ १. प्रकृतियोंके अनुभागकी तरतमतासम्बन्धी सामान्य नियम |
२. प्रकृति विशेषोमे अनुभागकी तरतमताका निर्देश १ ज्ञानावरण और दर्शनावरणके अनुभाग परस्पर समान होते है । २. केवलज्ञानदर्शनावरण, असाता व अन्तरायके अनुभाग परस्पर समान हैं । ३. तिचा से मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा है । ३. जघन्य व उत्कृष्ट अनुभागके बन्धको सम्बन्धी नियम
उत्कृष्ट अनुभागका बन्धक ही उत्कृष्ट स्थितिको बान्धता है । - दे स्थिति ४ ।
*
*
उत्कृष्ट अनुभागके साथ ही उत्कृष्ट स्थिति बन्धका कारण । दे स्थिति ५ ।
१. अघातिया कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभाग सम्यग्दृष्टिको ही बँधता है, मिथ्यादृष्टिको नही । २. गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध तेज व बातकायिकोंमे ही सम्भव है ।
४. प्रकृतियोके जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बंधकोंकी
प्ररूपणा ।
५. अनुभाग विषयक अन्य प्ररुणाओंका सूचीपत्र । अनुभाग सत्त्व
'
* प्रकृतियोके चतुःस्थानीय अनुभाग बन्धके काल, अंतर क्षेत्र, स्पर्शन, भाव अल्पबहुत्व व संख्या सम्बन्धी प्ररूपणाएँ । - वह वह नाम
*
१. भेद व लक्षण
१. अनुभाग सामान्यका लक्षण व भेद
घ. १३/५०५,८२/३४९/५ छदव्वाण सत्ती अणुभागो णाम । सो च अणुभागो हल्लिहोजीमा पग्गाभागो धम्मथिय भागो अम्मत्थिय अणुभागो आगासस्थिम अणुभाग कालदवाणुभागो चैदि । छह द्रव्योकी शक्तिका नाम अनुभाग है। वह अनुभाग छ' प्रकारका है - जीवानुभाग, पुद्गलानुभाग, धर्मास्तिकायानुभाग, अधर्मास्तिकायानुभाग, आकाशास्तिकायानुभाग और कालद्रव्यानु
=
भाग ।
२. जीवादि द्रव्यानुभागोंके लक्षण
घ./११/५२,८२/३४६/७ रारथ असेसइयागमो जीवाणुभागो जरकृट्ठलयादिवासनं तदुपाय चोलागी जोगपाहुडे भगद मततीयो पोग्गलाणुभागो थ्यो। जोयगोग्गलाय गमणागमणहेतुत्त धम्मत्थियाणुभागी । तेसिमबट्ठाणहेदुत्त अधम्मस्थियाणुभागो जीवादिदमागमाहारसमागास स्वियाभागो मेसि
व्वाण' कमाकमेहि परिणमणहेदुत्त कालदव्बाणुभागो । एवं दुसजोगादिणा अणुभागपरूवणा कायव्त्रा । जहा [मट्टिआ ] पिंड दड-चक्कचीवर-जल-कुंभारादीण पप्पाषाणुभाग समस्त इब्योंका जानना जीवानुभाग है। ज्वर, कुष्ट और क्षय आदिका विनाश करना
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अनुभाग
और उनका उत्पन्न करना, इसका नाम पुद्गलानुभाग है । योनिप्रभू कहे गये मन्त्र तन्त्र शक्तियो का नाम पुगानुभाग है. ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। जीव और गलोके गमन और आगमन में हेतु होना, धर्मास्तिकायानुभाग है। उन्होंकि अवस्थानमे हेतु होना, अधर्मास्तिकायानुभाग है । जीवादि द्रव्योंका आधार होना, आकाशास्तिकायानुभाग है । अन्य द्रव्योंके क्रम और अक्रमसे परि
मनमें हेतु होना, कालद्रव्यानुभाग है । इसी प्रकार द्विसयोगादि रूपसे अनुभागका कथन करना चाहिए। जैसे- मृत्तिकापिण्ड, दण्ड, चक्र, चीवर, जल और कुम्भार आदिका घटोत्पादन रूप अनुभाग |
३. अनुभाग बन्ध सामान्यका लक्षण
स. सु./८/२१.२२ विपाकोऽनुभव. १९९६ यथानाम १२२- विविध प्रकारके पाक अर्थात् फल देनेकी शक्तिका पडना ही अनुभव है ॥२१॥ वह जिस कर्मका जैसा नाम है उसके अनुरूप होता है ॥२२॥ मु.आ./ १२४० कम्मा जो रसो अभवसायिह अहो बा बधो सो अणुभागो पदेसबधो हमो होइ ॥ १२४० ॥ ज्ञानावरणादि कमका जो कषायादि परिणामजनित शुभ अथवा अशुभ रस है वह अनुभागबन्ध है ।
। -
स.सि./८/२/२०६ सविशेषोऽनुभव यथा अजगो महिष्यादि क्षीराणां तीव्रमन्दादिभावेन रसविशेष तथा कर्मप्रगलाना स्वगतसामर्थ्यविशेषोऽभवः। उस (कर्म) के रस को अनुभव हैं । जिस प्रकार बकरी, गाय और भैस आदिके दूधका अलग अलग तीम] मन्द आदि रस विशेष होता है, उसी प्रकार कर्म-गोंका अलग-अलग स्वगत सामर्थ्य विशेष अनुभव है । ( प स / प्रा./४/५१४) (रा. बा /८/३.२/५६७) (पं.सं./सं./४/३६८) (व. /टी./२३/१२) घ. १२/४.२,७,१११/१९/८ अण्णं वि कम्माणं जीवाणु गमहेदुपरिणामो - अनुभाग किसे कहते है आठ कर्मों और प्रदेशोंके परस्पर में अन्वय (एकरूपता) के कारणभूत परिणामको अनुभाग कहते हैं।
1
क. पा ५/४-२३/११/२/३ को अणुभागो । कम्माणं सगकज्जकरण सती अणुभागो णामा । कर्मोंके अपना कार्य करने ( फल देने) की शक्तिको अनुभाग कहते हैं।
निसा /ता वृ / ४० शुभाशुभकर्मणा निर्जरासमये सुखदुखफलदानशक्तियुक्तो ह्यनुभागबन्ध | शुभाशुभकर्मकी निर्जराके समय सुखदुखरूप फल देनेकी शक्तिवाला अनुभागमन्ध है।
४. अनुभाग बन्धके १४ मेवोंका निर्देश
प्रा. / ४/४४१ सादि अनादिय अट्ठ य पसत्थिदरपरूवणा तहा सण्णा । परचय विवाय ऐसा सामिषेणाह अनुभागो १४४१३- अनुभागके चौदह भेद है। वे इस प्रकार हैं-१ साथि अनादि २४.अ ५. जघन्य ६ अजघन्य ७ उत्कृष्ट, ८. अनुत्कृष्ट, ६. प्रशस्त. १०. अप्रशस्त, १९. देशघाति व सर्वधाति, १२ प्रत्यय, १३. विपाक, ये तेरह प्रकार तो अनुभाग बन्ध और १४ व स्वामित्व । इन चौदह भेदोंकी अपेक्षा अनुभाग बन्धका वर्णन किया जाता है ।
५. सादि अनादि ध्रुव अध्रुव आदि अनुभागोंके लक्षण
जी./११/०५ येषां कर्म कृतेामेव कर्मणा उत्कृष्ट स्थित्यनुभागप्रदेश साचादिभेदाचतुविधो भत अजघन्येऽपि एवमेव चतुर्विध। तेषां लक्षणं. अत्रोदाहरणमात्र किचित्प्रदर्श्यते । तद्यथा-उपशमश्रेण्यारोहक सूक्ष्मसाम्पराय सूक्ष्मसाम्पराय उभा उत्कृष्ट बद्ध्वा उपशान्तकषायो जात । पुनरवरोहणे सूक्ष्मसाम्परायो भूत्वा तदनुभागमनुत्कृष्टं भासितस्य सादियम्। तत्सूक्ष्मसाम्पराय परमादधोऽनादित्वम् अनुकृष्टं उत्कृष्ट नाति तदा अभवत्वमिति । अजघन्येऽप्येवमेव चतुर्विध । तद्यथासमपृथिव्या प्रथमोपशमसम्ययश्वाभिमुखो मिध्यादृष्टिरमसमये
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ननुभाग जन्य महया सम्यग्दृष्टिया तदनुभागमजघन्य नाति तदास्य सदस्य द्वितोवादिसमयेषु अनादिस्वमिति चतुविध यथासम्भव द्रष्टव्यम् । - अनुभाग व प्रदेश बन्ध सादि, अनादि, धव. अब भेदतें चार प्रकार हो हे । बहुरि अजघन्य भी ऐसे ही अनुत्कृष्टवद च्यार प्रकार हो है । इनके लक्षण यहाँ उदाहरण मात्र किचित् कहिये है - उपशम श्रेणी चढनेवाला जीव सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानवर्ती भया तहाँ उत्कृष्ट उच्चगोत्रका अनुभागबन्ध करि पीछे उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती भया । बहुरि इहाँ ते उतर करि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती भया । तहाँ अनुत्कृष्ट उच्चगोत्रका अनुभागबन्ध किया। तहाँ इस अनुत्कृष्ट उच्चगत्रि के अनुभागको सादि कहिये। जाते अनुत्कृष्ट उम्रो अनुभागका अभाव हो महरि सद्भाव भया तातं सादि कहिये बहुरि सूक्ष्मसम्यगुणस्थान नीचे गुणस्थानवर्ती जीव है तिनके सो बन्ध अनादि है। बहुरि अभव्य जीव विषै सो बन्ध ध व है । बहुरि उपशम श्रेणीवालेके जहाँ अनुत्कृष्टको उत्कृष्ट बन्ध हो है तहाँ सो बन्ध अध्र ुव है ऐसे अनुत्कृष्ट उच्चगो के अनुभाग मयविधै सादि अनादि व अभयार ध प्रकार कहै। ऐसे ही जघन्य भी च्यारि प्रकार है, सो कहिये है। सप्तम नरक पृथिवीविर्षे प्रथमोपशम सम्यक्त्वका सन्मुख भया मिध्यादृष्टि जीव तहाँ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका अन्तसमय विषै जघन्य नीचगोत्रके अनुभागको बान्धे है बहुरि सो जो सम्पन्दष्टि हो पीछे मिथ्यात्व के उदयकरि मिथ्यादृष्टि भया तहाँ अजघन्य नोचगोत्र के अनुभागको बान्धे है । तहाँ इस अजघन्य नीचगोत्र के अनुभागको सादि कहिये। बहूर तिस मिध्यादृटिके तिस असमय पहिले सो बन्ध अनादि है । अभव्य जीवके सो बन्ध ध्रुव है । जहा अजघन्यको छोड जघन्य को प्राप्त भया तहाँ सो बन्ध अध्रुव हैं । ऐसे अजघन्य नोवगोत्र के अनुभागविषे सादि अनादि ध व अध ुव च्यारि प्रकार कहे । ऐसे ही यथा सम्भव और भी बन्ध विषै सादि अनादि अध च्यारि प्रकार जानने । प्रकृति बन्ध विषै उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य अजघन्य ऐसे भेद नाहीं है। स्थिति, अनुभाग, प्रदेशबन्ध नि विषै वे भेद यथा योग्य जानने ।
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६. अनुभाग स्थान सामान्यका लक्षण
म. १२/४,२०,२००/११९/१२ एन्जीवसि एकहि समये जो दोसदि कम्माभागो से ठाम नाम एक जीव एक समय जो कर्मानुभाग दिखता है उसे स्थान कहते हैं। 1
क. पा /५/४-२२/६/०२/२३८/१ अनुभाग शाम चरिमफड्यचरिमबग्नगाए एपरमाणुहि दिअणुभागहाण विभाग विच्छेद कायो । सो उक्कडणार वट्टदि । अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणु स्थित अनुभाग अबिभाग प्रतियेोके समूहको अनुभाग स्थान कहते है । प्रश्न- ऐसा माननेपर 'एक अनुभाग स्थान में अनन्त स्पर्धक होते है' इस सूत्र के साथ विरोध आता है ? उत्तरनहीं, क्योकि जघन्य अनुभाग स्थानके जघन्य स्पर्धकसे लेकर ऊपर के सर्व स्पर्धक उसमें पाये जाते है । प्रश्न- तो एक अनुभाग स्थान में जघन्य वर्गणा से लेकर उत्कृष्ट स्थानकी उत्कृष्ट वर्गणा पर्यन्त क्रमसे बढते हुए प्रदेश के रहने का जो कथन किया जाता है उसका अभाव प्राप्त होता है 1 उत्तर- ऐसा कहना ठोक नहीं, क्योकि जहाँ यह उत्कृष्ट अनुभागवाला परमाणु है, वहां क्या यह एक ही परमाणु है या अन्य भी परमाणु है । ऐसा पूछा जानेपर कहा जायेगा कि वहाँ वह एक ही परमाणु नहीं है. किन्तु वहाँ अनन्त कर्मस्कन्ध होने चाहिए और उन कर्म स्कन्धों के अवस्थानका यह क्रम है, यह बतलानेके लिए अनुभाग स्थानकी उक्त प्रकारसे प्ररूपणा की है। प्रश्न- जैसे योगस्थानमें जीवके सब प्रदेशो की सब योगोके अविभाग प्रतिच्छेदोंको लेकर स्थान प्ररूपणा की है वैसा कथन यहाँ क्यों नहीं करते । उत्तर-नहीं, क्योकि वैसा कथन करनेपर अध स्थित गलनाके द्वारा और अन्य प्रकृति रूप सक्रमणके द्वारा अनुभाग काण्डकको अन्तिम फाली
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को छोड़कर डिचरम आदि फासियोंमें अनुभागस्थानके यातका प्रसंग आता है । किन्तु ऐसा है नही, क्योंकि काण्डकघातको छोडकर अन्यत्र उसका घात नहीं होता ।
स. सा / आ. ५२ यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणानि अनुभागस्थानानि 1 भिन्न-भिन्न प्रकृतियो के रसके परिणाम जिनका लक्षण' है, ऐसे जो अनुभाग स्थान ।
७. अनुभाग स्थानके भेद ६. १२/४.०२.२००/१९१२/१३
विभागद्वा
भागसंत ठाणं चेदि । वह स्थान दो प्रकारका है - अनुभाग बन्ध स्थान व अनुभाग सवस्थान ।
क. पा /५/४-२२/ठाणप्ररूपणा सूत्र / १३३० / १४ सम्मट्टापाणि तिथिहामि बंधमुपतिवादिताण दहमुपत्तियाणि । - सत्कर्मस्थान (अनुभाग) तीन प्रकार के है- मन्यसमुत्पत्ति, इतरा मुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक । (कपा / ५ / ४-२२/११८६/१२५/८) । ८. अनुभागस्थानके मेदों के लक्षण
१. अनुभाग सत्कर्मका लक्षण घ./१२/४,२.४.२००/११२ / १ जमपुभागट्टा घादिमा धानुभागट्ठाण सरिसण होदि. बधअट्ठ क उव्व काणं विश्वाले हेट्ठिम उव्व कोदो अपसगुणं उबरिम अट्ठारो अनतगुणही होण दि म भागसंतकम्मट्ठाण - - घाता जानेवाला जो अनुभागस्थान बन्धानुभाग सदृश नही होता है, किन्तु बन्ध सदृश अष्टाक और उवंकके मध्य में अधस्तन उर्व कसे अनन्तगुणा और उपरिम अष्टाकसे अनन्तगुणा होन होकर स्थित रहता है, वह अनुभाग सत्कर्मस्थान है।
२ अनुभागबन्धस्थानका लक्षण
ध. / १२ / ४,२७,२०० /१३ तत्थ ज बधेण निष्कण्णं तं बंधद्वाण णाम । भाभागे वादियमाणे महाभागेन गरिसं होण पददि पि बधट्ठाण चैव तत्स रिसअणुभागव ध्रुवल भादो । -जो बन्धसे उत्पन्न होता है वह बन्धस्थान कहा जाता है। पूर्व बद्ध अनुभागका घात किये जानेपर जो बन्ध अनुभागके सदृश होकर पडता है वह भी बन्धस्थान ही है, क्योंकि, उसके सदृश अनुभाग बन्ध पाया जाता है।
३ बन्ध समुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थानका लक्षण क./५/४-२२/१५००/३२१/१ बन्धात्समुत्पतिर्येषा तानिबन्धसमुत्पति कानि। जिन सरफर्म स्थानो की उत्पति मन्यसे होती है, उन्हें न्यसमुत्पत्तिक कहते है ।
क. पा./५/४-२२/१९८६/ १२४/१ दसमुचयाविनोदजहणानुभाग राद्वाणसमागमद्वापमादि का जायचयपज्जतसव्वुक्कस्साणु भागव धट्टाणे ति ताव एदाणि असखे० लोगमेत्तछट्टाणाणि बधसमुत्पत्तियद्वाणाणि ति भण्ण ति. बधेण वण समुयणतादो। अणुभागसतट्ठाणघादेण जमुप्पण्णमणुभागस तट्ठाणं त पि एमाणमिदपेतम्य माणसामाणसात समुत्पत्ति सत्कर्म को करके स्थित हुए सूक्ष्म निगोदिया जीव जघन्य अनुभाग सत्त्वस्थानके समान बन्धस्थान से लेकर सज्ञी पंचेंद्रिय पर्याके सर्वोत्कृष्ट अनुभागमन्धस्थान पर्यन्त जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान है उन्हे बन्ध समुत्पत्तिकस्थान कहते है. क्योंकि वे स्थान बन्धसे उत्पन्न होते है । २ अनुभाग सस्थानके घात से जो अनुभाग सत्वस्थान उत्पन्न होते है उन्हे भी यहाँ बन्धस्थान ही मानना चाहिए, क्योकि वे बन्धस्थानके समान है (सारांश यह है कि अपने स्थानोको ही बन्यसमुत्पत्तिरस्थान नहीं कहते, किन्तु पूर्ववद अनुभागस्थानोंमें भी रसधात होनेसे परिवर्तन होकर समानता रहती है तो वे स्थान भी धस्थान ही कहे जाते है ।
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४ हतसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थानका लक्षण ध. १२/४,२,७,३५/२६/५ 'हदसमुपत्तियकम्मेण ' इति बुत्ते चिल्लमभागसतकम्म सव्व घादिय अणतगुणहीणं काढूण 'टिरुदेण' इति बुत होदितसमुत्पत्तिक कर्मवाले ऐसा कहनेपर पूर्व के समस्त अनुभाग सवका घात करके और उसे अनन्त गुणा होन करके स्थित हुए जीवके द्वारा, यह अभिप्राय समझना चाहिए । कपा /५/४-२२/२००/३३१/२ ते
तानि हतसमुत्पत्तिकानि । घात किये जानेपर जिन सत्कर्मस्थानोकी उत्पत्ति होती है, उन्हें हतसमुत्पत्तिक कहते है।
क पा./५/४-२२/१९८६/ १२५ / २४ पुणो एदेसिमस खे० लोगमेत्तछुट्ठाणाण मज्जनगुड अगुणिकुकाणा
सखे लोगणाणि हृदय मणि भणति । बघटठाणघादेण बधट्ठाणाण विच्चालेसु जच्च तरभावेण उप्पणतादो। इन असंख्यात लोकप्रमाण पट्स्थानोके मध्य में अष्टांक और उर्वक रूप जा अण तगुग वृद्वियों और अणत गुणहानियों है उनके मध्यमें जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान है, उन्हे हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान कहते है | क्योंकि बधस्थानका घात होनेसे बन्धस्थानोके बोच मे जात्यन्तर रूपसे उत्पन्न हुए है ।
५ हतहत समुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थानका लक्षण कपा /५/४-२२/९७० / ३३१/२ हतस्य हति हतहति तत समुत्पत्तिर्येषा सानि ततसमुत्पत्तिकानि पाते हुएका पुन धाये जानेपर जिन सत्कर्मस्थानोकी उत्पत्ति होता है, उन्हे हतहतसमुत्पत्तिक कहते है।
क. पा./२/४-२२/११८८/०६/२ पुणो एमिमम० लोकमेतानं हदसमुपतियस त कम्मानपतगुणहाणि अवकाश विद्यालेसु असंखे० लोगमेतद्वाणाणि हृदहदसमुप्पत्तियस तकम्म द्वाणाणि, चति अमागड्डाणाणि यदाणु भागद्वाहितो विसरि साणि धारयधसमुपययभागाविसरिसभावेण उप्पाइदत्तादो । इन असख्यात लाकप्रमाण हतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थाना के जो कि अष्टाक और उबक्रूप अनन्तगुण वृद्धि - हानिरूप है, बीच में जा अम ख्यात लोक प्रमाण षट्स्थान है, उन्हे हतहतसमुत्पत्ति सत्कर्मस्थान कहते है बधस्थानो से विलक्षण जो अनुभागस्थान रसघात से उत्पन्न हुए है, उनका घात करके उत्पन्न हुए ये स्थान अन्यसमुत्पतिक और हतसमुत्पतिक अनुभागस्थानों से विलक्षणरूपसे ही वे उत्पन्न किये जाते है ।
२. अनुभागबन्ध निर्देश
१. अनुभाग बन्धसामान्यका कारण १२/४-२८१२/२८८
वि अनुभागवेया १३० कषाय प्रत्यय से स्थिति व अनुभाग वेदना होती है। (स सि./८/३/ ३७६) (रावा./८/३,१०/५६७ (१२/४-२-८-१३/गा २/४८६) (न.च. बृ १५५), (गो, क. २५०/२६४) (२३) २. शुभाशुभ प्रकृतियोंके जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बन्धके
कारण
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पं. सं. / ४/४५१-४५२ सुहपयडीण विसोही तिब्बं असुहाण संकिलेसेण । विवरीए जहणो अभाव ॥४५१ मायातं पिपस्था सोहि तिव्वाओ बाय अन्यथा मिकि हिस्स १४४२॥ शुभ प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध विशुद्ध परिणामोंसे [ती] अर्थाद उत्कृष्ट होता है। अशुभ प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध संक्लेश परिणामों से उत्कृष्ट होता है। इससे विपरीत अर्थात शुभ प्रकृतियोंका सक्लेश और अशुभ प्रकृतियोंका विशुद्धिसे जघन्य अनुभाग बन्ध होता है ॥४५१ ॥ जो ब्यालीस प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, उनका उत्कृष्ट अन भागबन्ध विशुद्धिगुणकी उत्कटता वाले जीव के
अनुभाग
होता है तथा ब्यासी जो अप्रशस्त प्रकृतियाँ है उनका उत्कृष्ट अन भागबन्ध उत्कृष्ट सक्लेशवाले मिथ्यादृष्टि जीव होता है ॥४५२ ॥ ( स स /८/२१ / ३६८) (रा. वा /८/२१.१/५८ / १४ ) ( गो क. मू/ १६३१६४ / १६१) ( स. १२/२०१२७४।
३. शुभाशुभ प्रकृतियो के चतुःस्थानीय अनुभाग निवश पंस / प्रा . / ४/४८७ सुहपयडीण भावा गुडडसियामयाण खलु सरिसा । इस दु शिरसिहालाहले अहमाई शुभ प्रकृतियों के अनुभाग गुड खाँड शक्कर और अमृतके तुल्य उत्तरोत्तर मिष्ट होते है पाप प्रतियोका अनुभाग निम, कांजीर, विहाकाल के समान निश्चय से उत्तरातर कटुक जानना । (पं.सं / ४ / ३१६ ) (गो क / मू/ १८४ / २१६) (द्र स /टी./३६/ :१) । ४. प्रदेशीके बिना अनुभागबन्ध सम्भव नहीं
ध. ६/१,६,७,४३/२०१/५ अणुभागबधादी पदेसबंधी तक्कारण जोगाणा सिद्धाणपणा अनुभागो = अनुभाग बन्धसे प्रदेश बन्ध और उसके कारणभूत योगस्थान सिद्ध होते हैं, क्योंकि प्रदेशो के बिना अनुभाग बन्ध नहीं हो सकता। ५. परन्तु प्रदेशोंकी होनाधिकमासे अनुभागकी हीनाधिकता नहीं होती
कपा /५/४-२२/१५५०/३३०/११ उदीए इ पसलमा अनुमपादो णत्थि त्ति जाणावणट्ठ । प्रदेशो के गलनेसे जैसे स्थिति घात होता है, वैसे प्रदेशो के गलने से अन ुभागका त नहीं होता
क. पा/५/४-२२/१५७२/३३६/१ उक्कट्ठदे अणुभागट्ठाणाविभागपडि छेदा वढी अभावादो। ...ण सो उक्कणाएं बढद, बघेणे वि दुखणाणुसीदो उत्कृषण के होनेपर अनुभाग स्थानके अि भाग दोकी वृद्धि नहीं होती है। अनुभाग के अविभाग प्रतिच्छेदोका समूहरूप वह अनुभाग स्थान उत्कर्षणसे नहीं बढ़ता, क्योकि बन्धके बिना उनका उत्कर्षण नहीं बन सकता ।
ध. १२/४,२,७,२०१/११५/५ जोगबढीदो अणुभागमडीए अभावादो - योग वृद्धिसे अनुभाग वृद्धि सम्भव नहीं ।
३. घाती अघाती अनुभाग निर्देश
१. घाती व अघाती प्रकृतिके लक्षण
७/२.१.१६/६२/६३ केरला-स-सम्मत पारितयरियाणमनेयभेभिनाष जीवगुणाविरोहित सेसि पाविवदेसादी - केवलदर्शन, सम्ययस्य पारित्र और वीर्य रूप जो अनेक भेदभिन जीवगुण हैं, उनके उक्त कर्मविरोधी अर्थात घातक हो से है और इसलिए वे घातियाकर्म कहलाते हैं । (गो क / जी प्र / १०१८) (घ११८)।
=
घ ७/२.१.१४/१२/० से सम्मान पादियय देसो किया होदि न सि जीवगुणविणास सतीष अभावा शेप कर्मोंको पाहिया नहीं कहते क्योंकि उनमें जीवके गुणोंका विनाश करनेकी शक्ति नहीं पायी जाती। ( पंध /उ. / १६६) ।
२. पाती अघातीकी अपेक्षा प्रकृतियोंका विभाग रावा./८/२३.७/५८४/१८ ता पुनः कर्मप्रकृतयो द्विविधापालिका अमारिकाश्येति रात्र ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायाख्या पाटिका। इतरा अधातिका कर्म प्रकृतियों दो प्रकारकी है- धारिया व अघातिया । तहाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह व अन्तराय मे तो घातिया है और दोष चार वेदनीय, आयु नाम गोत्र) अघातिया । (ध.७/२.१.१५/६२). (गो../मू./०६/७)
२. जीवविपाकी प्रकृतियोंको घातिया न कहनेका कारण घ.७/२.१.१२/१३/१ जीव विवाइणामकम्मयेयणियाण पादिवम्ययमको कि होदिजीवस्स अध्यवसुभगभगादिसमुपाय
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अनुभाग
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वावदाण जोव-गुणविणासयत्तविरहादो। जोवस्स मुंहविणासिय दुक्खप्पायय असादावेदणीय घादिववएस किण्ण लहदे। ण तस्स घादिकम्मसहायस्स घादिकम्मे हि विणा सकलकरणे असमस्थस्स सदो तत्थ पउत्ती णस्थि त्ति जाणाधण तब्बबएसाकरणादो।-प्रश्नजोवविपाकी नामम एवं वेदनीय कोंको धातिया कर्म क्यों नही माना । उत्तर-नही माना, क्यो कि, उनका काम अनात्मभूत सुभग दुर्भग आदि जोव की पर्याये उत्पन्न करना है, जिससे उन्हे जोवगुण विनाशक मारने में विरोध उत्पन्न होता है। प्रश्न- जोवके सुखको नष्ट करके दुख उत्पन्न करनेवाले असातावेदनीयको वातिया कर्मनाम क्यो नही दिया। उत्तर-नहीं दिया, क्योकि, वह घातियाकर्मोंका सहायक मात्र है और घातिया कर्मों के बिना अपना कार्य करने में असमर्थ तथा उसमें प्रवृत्ति रहित है। इसी बातको बतलानेके लिए असाता वेदनीयको घातिया कर्म नहीं कहा। ४. वेदनीय भी कथंचित घातिया है गो क / P९/१२ घादिव वेयणीयं मोहस्स बलेण धाददे जीवं। इदि घादीर्ण मज्झे मोहस्सादि म्हि पढिदं तु ॥१९॥ - वेदनीयकर्म घातिया कमवत मोहनीयकर्मका भेद जो रति अति तिनिके उदयकाल करि ही जीवको घाते है। इसी कारण इसको घाती कर्मोंके बीच में मोहनोयसे पहिले गिना गया है। ५. अन्तराय भी कथंचित अघातिया है गो क /मू /१७/११ घादीवि अघादि वा णिस्सेसं घादणे असक्कादो। णामतियणि मित्तादो विग्ध पडिदं अघादि चरिमम्हि ॥१७१ -अन्तरायकर्म घातिया है तथापि अघातिया कर्मवत है। समस्त जीवके गुण घातनेको समर्थ नाहीं है । नाम, गोत्र, वेदनीय इन तीन मनिके निमित्तते ही इसका व्यापार है। इसी कारण अघातियानिके पीछे
अन्त विर्ष अन्तराय कर्म कहा है। ध. १/१.१,१/४४/४ रहस्यमन्तराय', तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टवोजवन्नि शक्तीकृताधातिकर्मणो हननादरिहन्ता। -रहस्य अन्तरायकर्मको कहते है। अन्तराय कर्मका नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाशका अविनाभावी है और अन्तरायकर्मके नाश होनेपर अघातिया कर्म भ्रष्ट बोजके समान निशक्त हो जाते है। ४. सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश
१. सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश रा.वा /८/२३,७/५८४/२६ धातिकाश्चापि द्विविधा' सर्वघातिका देशघातिकाश्चेति । घातिया प्रकृतियाँ भी दो प्रकार है-सर्वघाती व देशघाती। (ध.७/२,१,१५/६३/६) (गो क /जी प्र/३८६४८/२) ।
२. सर्वघाती व देशघातीके लक्षण क पा. ५/६३/३/११ सबघादि त्ति कि। सगपडिबद्ध जीवगुण सव्वंगिरवसेस घाइउ विणासि सील जस्स अणुभागस्स सो अणुभागो सब्ब घादो। -सर्वघाती इस पदका क्या अर्थ है, अपनेसे प्रतिबद्ध जीवके गुणको पूरी तरह से घातनेका जिस अनुभागका स्वभाव है उस
अनुभागको सर्वघाती कहते है। द्र. सं /टी /३४/६९ सर्वप्रकारेणात्मगुणप्रच्छादिका कर्मशक्तय सर्वघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते, विवक्षितैकदेशेमारमगुणप्रच्छादिकाः शक्तयो देशघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते। -सर्वप्रकारसे आत्मगुणप्रच्छादक कोंको शक्तियाँ सर्वघाती स्पर्धक कहे जाते है और विवक्षित, एकदेश रूपसे आत्मगुणप्रच्छादक शक्तियाँ देशघाती स्पर्द्धक कहे जाते हैं। ३. सर्वघाती व वेशघाती प्रकृतियोंका निर्देश प.स.प्रा/४८३-४८४ केवलणाणावरण दसणछक्कं च मोहवारसयं । ता सम्बधाइसण्णा मिस्स मिच्छत्तमेयवीसदिम ॥४८३॥ णाणावरणचउक्क दसतिगमंतराइगे पंच। ता होंति देशपाई सम्मं संजलण
णोकसाया य ४८४॥ -- केवलज्ञानावरण, दर्शनावरणषट्क अर्थाव पाँच निद्रायें व केवलदर्शनावरण, मोहनीयकी बारह अर्थात् अनन्तान मन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान चतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन २१ प्रकृतियोकी सर्वघाती संज्ञा है ॥४८॥ ज्ञानावरणके शेष चार, दर्शनावरणकी शेष तीन, अन्तरायकी पाँच. सम्यक्त्वप्रकृति, सज्वलनचतुष्क और नौ नोकषाय-ये .छब्बीस देशघाती प्रकृतियाँ है ॥१८॥ (रा वा /८/२३,७/५८४/३०) (गो क./ मू /३६-४०/४३) (प. स स./४/३१०-३१३)।। गो क /जी.प्र/५४६/७०८/१४ द्वादश कषायाण स्पर्धकानि सर्वधातीन्येव न देशघातीनि । बारह कषाय अर्थात अनन्तानबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्यारख्यान चतुष्कके स्पर्धक सर्वघाती ही है, देशघाती नहीं।
४. सर्व व देशघाती प्रकृतियों में चतुःस्थानीय अनुभाग ध.७/२,१,१५४६३/गा१४ सव्वावरणीय पूण उक्कस्सं होदि दारुगसमाणे। हेछा देसावरणं सव्वावरण च उवरिलं ॥१४॥ घातिया कर्मोंकी जो अनुभाग शक्ति लता, दारु, अस्थि और शैल समान कही गयी है, उसमें दारु तुल्यसे ऊपर अस्थि और शैल तुल्य भागोमें तो उत्कृष्ट सर्वावरणीय या सर्वघाती शक्ति पायी जाती है, किन्तु दारु सम भागके निचले अनन्तिम भागमें ( व उससे नीचे सब लता तृष्य भागमें ) देशावरण या देशघाती शक्ति है, तथा ऊपरके अनम्तमा भागोंमें (मध्यम ) सर्वावरण शक्ति है। गो क./मू १८०/२११ सत्ती य लदादारू अट्ठोसेलोवमाहु धादीणं दारु
अणं तिमभागोत्ति देसघादी तदो सव्यं । -घातिया प्रकृतियों में सवा दारु अस्थि व शैल ऐसी चार शक्तियाँ है। उनमें दारुका अनन्तिम भाग (तथा लता) तो देशघाती है और शेष सर्वधाती है। (.से.. टी./३३/६३)। क्ष सा./भाषा टी./४६/५४०/११ तहाँ जघन्य स्पर्धकर्मी लगाय अनन्त स्पर्धक लता भाग रूप है। तिनके ऊपर अनन्त स्पर्धक दारु भाग रूप हैं। तिनिके ऊपर अनन्त स्पर्धक अस्थि भाग रूप है । तिनिके ऊपर उत्कृष्ट स्पध क पर्यन्त अनन्त स्पर्धक शैल भाग रूप है। तहाँ प्रथम स्पर्धक देशघातीका जघन्य-स्पर्धक है तहाँ त लगाय लता भागके सर्व स्पर्धक अर दारु भागके अनन्तवाँ भाग मात्र (निचले) स्पर्धक देशघाती है। तहां अन्त विर्षे देशघाती उत्कृष्ट स्पर्धक भया । बहुरि ताके ऊपरि सर्वघातीका जघन्य स्पर्धक है। तातें लगाय उपरिके सब स्पर्धक सर्वघाती है । तहाँ अन्त स्पर्धक उत्कृष्ट सर्वघाती जानना। ५. कर्म प्रकृतियोमें यथायोग्य चतुःस्थानीय अनुभाग
१. ज्ञानावरणादि सर्व प्रकृतियोंकी सामान्य प्ररूपणा प.स प्रा./४/४८६ आवरणदेसघायंतरायसजलणपुरिससत्तरस । चउबिहभावपरिण या तिभावसेसा सयं तु सत्तहियं । “मतिज्ञानावरणादि चार, चक्षुदर्शनावरणादि तीन, अन्तरायकी पाँच, संज्वलन चतुष्क और पुरुषवेद, ये सत्तरह प्रकृतियाँ लता, दारु, अस्थि और शैल रूप चार प्रकारके भावोसे परिणत है। अर्थात इनका अनुभाग बन्ध एकस्थानोय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चेतु स्थानीय होता है। शेष १०७ प्रकृतियाँ दारु, अस्थि और शैलरूप तीन प्रकारके भावोंसे पारणत होती है । उ का एक स्थानीय-( केवल लता रूप) अनुभाग बन्ध नहीं होता ॥४८ क्ष. सा./भाषा टीका/४६५/५४०/१७ केवलके विना ध्यारि ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, अर सम्यक्त्व मोहनीय, संज्वलन चतुष्क, नोकवाय नव, अन्तराय पाँच इन छब्बोस प्रकृतिनिकी लता समान स्पर्धककी प्रथम वर्गणा सो एक-एक वर्गके अविभाग प्रतिच्छेदकी अपेक्षा समान है। भहुरि मिथ्यात्व मिना केवलज्ञानवरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा पाँच, मिश्रमोहनीय, संज्वलन भिना १२ काय इन सर्वधावी २०
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अनुभाग
प्रकृतिनिके देशधाता स्पर्धक है नाहीं । तात सर्वघाती जघन्य । स्पर्धक वर्गणा तेसे ही परस्पर समान जाननो । तहाँ पूर्वोक्त देशघाती छब्बीस प्रकृतिनिकी अनुभाग रचना देशवाती जघन्य स्पर्धक ते लगाय उत्कृष्ट देशघाती स्पर्धक पर्यन्त होइ । तहाँ सम्यक्त्वमोहनीयका तौ इहाँ हो उत्कृष्ट अनुभाग होइ निवरया। अवशेष २५ प्रकृतिनिको रचना तहाँ तै ऊपर सर्वघाती उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त जाननी। बहुरि सर्वघाती बीस प्रकृतिनिकी रचना सर्वघातोका जघन्य स्पर्धकतै लगाय उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त है। यहाँ विशेष इतना-सर्वघाती दारु भागके स्पर्धकनिका अनन्तवा भागमात्र स्पर्धक पर्यन्त मिश्र मोहनीयके स्पर्धक जानने । उपरि नहीं है। बहुरि इहाँ पर्यन्त मिथ्यात्वके स्पर्धक नाही है। इहॉतै उपरि उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त मिथ्यात्वके स्पर्धक है।
२ मोहनीय प्रकृतिकी विशेष प्ररूपणा क. पा.५/४-२२/चूर्ण सूत्र/६१८६-२१३/१२६-१५१ उत्तरपय डिअणुभागविहत्ति वत्तइस्सामो ।१८। पुठ्वं गणिज्जा इमा परूवणा । ११०। सम्मत्तस्स पढम देसघादिफद्दयमादि कादूण जाव चरिम घादिफद्दगं त्ति एदाणि फद्दयाणि ॥६१११॥ मम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतक्म्म सव्वधादिआदिफद्दयमादि कादूण दारुबसमाणस्स अणतभागे दिं 1६१४२० मिच्छत्तस्स अणुभागसंत कम्मं जम्मि सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं णिहिद तदो अणं तरफद्दयमाढत्ता उवरि अप्पडिसिद्ध १९३। बारसक्सायाणमणुभागसंतक म्म सव्वघादीण दुट्ठाणियमादिफद्दयमादि कादूण उवरिमप्पडिसिद्ध ६१६४। चदुसजलणणवणाकसायाण मणुभागसंतकम्म देसवादीणमादिफद्दयमादि कादूण उवरि सधघादि त्ति अप्पडिसिद्ध १६५। तत्थ दुविधा सण्णा घादि सण्णा छ णसण्णा च । १६६। ताओ दो वि एक्कदो णिज्जति । १९७१ मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जहण्णय मन्त्र धादि दुट्ठाणिय । ६१६८। उक्कस्सयमणुभागसंतकम्मं सव्वधादिचदुठाणियं ।६२००1 एव बारसकसायछण्णोकसायण । ६२०१। सम्मत्तस्स अणुभागसंतकम्म देसघादि एगठाणियं वा दुठाणिय वा । २०२१ सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सवघादि दुट्ठाणिय । ६२०३। एक्कं चेव ठाण सम्मामिच्छताणुभागस्स । २०४। चदुसंजलणामणुभागसतकर्म सधघाती वा देसधादी वा एगट्ठाणियं वा दुट्ठाणिय वा तिठाणियं वा चउट्ठाणियं वा ।२०५। इत्थि वेदस्स अणुभागसंतकम्म सयघादौ दुठाणिय वा तिहाणिय वा चउद्राणिय वा । २०६। मोत्तूण खवगच रिमसमयइस्थिवेदय उदयणिसेगं । २०७। तस्स देसघादा एगट्ठाणियं । ६२०८ पुरिसघेदस्स अणुभागस तकम्मं जहण्णयं देसघादी एगहाणिय । २०६। उक्कस्साणुभागसतकम्म सम्बधादी चदुठ्ठाणियं ।६२१०॥ णवंसयवेदयस्स अणुभागस तक्म्म जहण्णयं सम्मघादी दुढाणिय ।६२११। उक्कस्सयमणुभागसतकम्म सबघादी चउट्ठाणिय १२१२॥ णवरि खवगस्स चरिमसमयण सयवेदयस्स अणुभागसंतकम्म देसघादी एगट्ठाणियं 18२१४। अब उत्तर प्रकृति अनु भाग विभक्तिको कहते है ॥१८॥ पहिले इस प्ररूपणाको जानना चाहिए ॥१०॥ सम्यक्त्व प्रकृतिके प्रथम देशघाती स्पर्धकसे लेकर अन्तिम देशघाती स्पर्धक पर्यन्त ये स्पर्धक होते है ।१६१॥ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अनुभागसरकर्म प्रथम सर्वघाती स्पर्धकसे लेकर दारुके अनन्तवे भाग तक होता है ॥१६२॥ जिस स्थान में सम्यग्मिथ्यात्व का अन भागसत्कर्म समाप्त हुआ उसके अनन्तरवर्ती स्पर्ध कसे लेकर आगे बिना प्रतिषेधके मिथ्यात्व सत्कर्म होता है ॥११॥ बारह कषायोका अनुभागसत्कर्म सर्वघातियोंके द्विस्थानिक प्रथम स्पर्धकसे लेकर आगे बिना प्रतिषेधके होते हैं। ( अर्थात दारुके जिस भागसे सर्वघाती स्पर्धक प्रारम्भ होते है उस भागसे लेकर शेल पर्यन्त उनके स्पर्धक होते है ) ॥१६४॥ चार संज्वलन और नव नोकषायोका अन भागसत्कर्म देशधातियोके प्रथम स्पर्धकसे लेकर आगे बिना प्रतिषेधके सर्वघाती पर्यन्त है । (तो भी उन सभके अन्तिम स्पर्धक समान नहीं है ) ॥१६॥ उनमें से सज्ञा
अनुभाग दो प्रकारकी है-घाति सज्ञा और स्थान संज्ञा ॥१६॥ आगे उन दोनों संज्ञाओको एक साथ कहते है ॥१६॥ मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग सत्कर्म सर्वधाती और विस्थानिक (लता दारु रूप ) है ॥१८॥ मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती और चतु स्थानिक ( लता, दारु. अस्थि, शैल ) रूप है ॥२००॥ इसी प्रकार बारह साय
और छ नोक्षायो ( त्रिवेद रहित ) का अनुभाग सर्म है ।२०१॥ सम्यक्त्वका अनुभाग सत्कम देशघाती है और एक्स्थानिक तथा द्विस्थानिक है (लता रूप तथा लता दारु रूप) ॥२०२॥ सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभागसत्कम सर्वघाती और द्विस्थानिक ( लता दारु रूप) है ॥२०॥ सम्यग्मिथ्यात्व के अनुभागका एक (द्विस्थानिक ) ही स्थान होता है ॥२०॥ चार संज्वलन कषायोका अनुभागमत्कम सर्वघाती और देशघाती तथा एक स्थानिक (लता) द्विस्थानिक ( लता दारु), त्रिस्थानिक (लता, दारु, अस्थि ) और चतु स्थानिक (लता दारु, अस्थि व शेल) हाता है ॥२०॥ स्खी वेद का अनुभाग सत्कर्म सर्वघातों तथा द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु स्थानिक होता है ( केवल लतारूप नहीं होता ) ॥२८६॥ मात्र अन्तिम समयवर्ती क्षपक स्त्रीवेदीके उदयगत निषेकका छोडकर शेष अनुभाग सर्वघाती तथा द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु स्थनिक होता है ॥२०७॥ किन्तु उस (पूर्वोक्त क्षपक ) का अनुभाग सत्कर्म देशघाती और एक स्थानिक हाता है ॥२०८॥ पुरुष्वेदका जघन्य अनुभाग सत्कर्म देशघाती और एक स्थानिक है ॥२०६॥ तथा उत्कृष्ट अनुभाग मरकम सब घाती और चतु स्थानिक होता है ॥२१०॥ नए सक्वेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वधाती और विस्थानिक होता है ॥२१॥ तथा ( उसीका) उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतु स्थानिक होता है ॥२१२॥ इतना विशेष है कि अन्तिम समयवर्ती नासमवेदी क्षपक्का अनुभागसत्कर्म देशघाती और एक स्थानिक होता है ।। ६. कर्मप्रकृतियोंमे सर्व व देशघाती अनुभाग विषयक
शंका-समाधान
१ मति आदि ज्ञानावरण देशघाती कैसे है ज्ञानबिन्दु-प्रश्न-मति आदि ज्ञानाबरण देशाबाती कैसे है। उत्तरमति, श्रुत, अवधि, मन पर्यय चार ज्ञानावरण ज्ञानाशको घात करनेके कारण देशघातो है, जबकि केवलज्ञानाबरण ज्ञानके प्रचुर अशोको घातने के कारण सर्वघाती है। (अवधि व मन पर्प य ज्ञानावरण मे देशघाती मघाती दोनो स्पर्धक है । दे --उदय ४।२) ।
२ केवलज्ञानावरण सर्वघाती है या देशघाती घ १३/५.५.२१/२१४/१० केवलणाणावरणीय कि सव्वघादी आहो देसघादो। ण ताव सवबादी, केवलणाणस्स णिस्सेणाभावे सते जीवाभावप्पसंगादो आवर णिज्जाभावेण सेसावरणाणमभावप्पस गादो वा। ण च देसघादो, 'केवलणाण-केवलदसणावरणीयपनडीओ सव्वधादियाओ'त्ति सुत्तेण सह विराहादा एस्थ परिहारो-ण ताव केवलणाणावरणीय देसघादो, कितु सवधादी चेत्र, पिस्सेसमावरिदकेवलणाणत्तादो। ण च जीवाभावो, केवलणाणे आवरिदे विच दण्णणाणाणं स तुबलं भादो। जीवम्मि एक्क केवलणाण', तंच पिसे समाव रिद । कत्तो पुण चदुण्ण णाणाणं सभवो। ण, छारच्छण्णगीदाबाफुप्पत्तीए इव सब धादिणा आवरणेण आवरिदकेवलणाणादो चदुण्ण णाणाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो । एदाणि चत्तारि विणाणाणि केवलणाणस्स अवयवा ण होति ।-प्रश्न - केवलज्ञानावरणीयर्म क्या सर्व घाती है या देशघाती । (क) सर्वघाती तो हो नही सक्ता, क्योकि केवलज्ञानका नि शेष अभाव मान लेनेपर जीवके अभावका प्रसंग आता है। अथवा आवरणीय ज्ञानोका अभाव होनेपर शेष आवरणोके अभावका प्रसग प्राप्त होता है । (ख) केवलज्ञानावरणीय कर्म देशघाती भी नहीं हो सकता, क्योकि ऐसा माननेपर केवलज्ञानावरणीय और केवल
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अनुभाग
दर्शनावरणीय कर्म सर्वघाती है। इस सूत्रके साथ विरोध आता है । उत्तर--केवल ज्ञानावरणीय देशघाती तो नहीं है, किन्तु सर्वघाती ही है, क्योकि वह केवलज्ञानका नि शेष आवरण करता है, फिर भी जीवका अभाव नही होता, क्योकि केवलज्ञानके आवृत होनेपर भी चार ज्ञानोका अस्तित्त्र उपलब्ध होता है। प्रश्न-जीवमें एक केवलज्ञान है। उसे जब पूर्ण तया आवृत कहते हो, तब फिर चार ज्ञानोका सद्भाव कैसे हो सकता है। उत्तर-नही, क्योकि जिस प्रकार राखसे ढकी हुई अग्निसे वाष्पकी उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार सर्वधाती आवरण के द्वारा केवल ज्ञानके आवृत होनेपर भी उमसे चार ज्ञानोकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता। प्रश्न-चारो ज्ञान केवलज्ञानके अवयव है या स्वतन्त्र । उत्तर-दे ज्ञान I/४|
३ सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती कैसे है क पा १/४-२२/8१६१/१३०/१ लदासमाण जहण्णफहयमादि कादूण जाव देसघादिदारू असमाणुवस्स फद्दय ति टिदसम्मत्ताणुभागस्स कुदो देसघादित । ण, सम्मत्तस्स एगदेस वादे ताण तदविरोहो । को भागो सम्मत्तस्स तेण घाइज्जदि । थिरत्त णिक्कवरवन । प्रश्न-लता रूप जघन्य स्पर्धक्मे लेकर देशघाती दारुरूप उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त स्थित सम्यक्त्वका अनुभाग देशघातो कैसे है। उत्तर-नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकतिका अनुभाग मम्यग्दर्शनके एकदेशको धातता है। अत उसके देशघाती हानेमें कोई विरोध नहीं है। प्रश्न- सम्यक्त्वके कौन-से भागका सम्यक्त्व प्रकृति द्वारा घात होता है। उत्तर-उसकी स्थिरता और निष्काक्षिताका घात हता है। अर्थात् उसके द्वारा घाते जाने मे सम्यग्दर्शनका मूलमे विनाश तो नहीं होता किन्तु उसमें चल, मल आदि दोष आ जाते है।
४ मम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है क पा ॥४-२२/६१६२/१:०/१० सम्मामिच्छत्तफहयाण कुदो सव्व घादित्त । णिस्सेमसम्मत्त घायणादा। ण च सम्मामिच्छ से सम्मत्तस्स गंधो बि अस्थि, मिच्छत्तसम्मनेहितो जाच तरभावेणुप्पण्णे सम्मामिछत्ते सम्मत्त-मिच्छत्त णमत्यित्तविराहादो।- प्रश्न-सम्यग्मिथ्यात्वके स्पर्धक सर्वघाती कैमे है। उत्तर क्योकि वे सम्पूर्ण सभ्यकत्वका घात करते है। सम्यग्मिध्यात्व उदयमें सम्यक्त्वकी गन्ध भी नही रहती, क्योकि मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी अपेथा जात्यन्तररूपसे उत्पन्न हुए सम्याग्मियविमें सम्यक और मिथ्यात्वके अस्तित्वका विरोध है। अर्थात् उस समय न सम्यक्त्व ही रहता है और न मिथ्य त्व ही रहता है, किन्तु मिला हुआ दही-गुडके समान एक विचित्र ही मिश्रभाव रहता है। ध/१,७४/१८/ह सम्मामिच्छत्त खओवस मियमिदि चे एवं विहविवकरवाए सम्मामिछत्त खओबसमिय मा होदु, कितु अवयव्यवयवनिराकरणानिराकरण पच्च ख ओवसमियं सम्मामिच्छत्तदव्वकम्म पिसव्वघादी चेव होदू, जस्चतरस्स सम्मामिच्छत्तस्स सम्मत्ताभावादो। क्तुि सद्दहणभागो ण होदि, सहहणासहहणाण मेयत्तविरोहा । सम्यग्मिथ्यात्वका उदय रहते हुए अवयवी रूप सम्यक्त्व गुणका तो निराकरण रहता है किन्तु सम्यवत्व गुण का अवयव रूप अश प्रगट रहता है, इस प्रकार भायोपशमिक भी वह सम्यग्मिथ्याव द्रव्यकर्म सर्वघाती ही होवे, क्योंकि जात्यन्तर सम्यग्मिथ्यात्व कमके सम्यक्त्वताका अभाव है। किन्तु श्रद्वान भाग अश्रद्धान भाग नहीं हो जाता है, क्योकि श्रद्वान और अश्रद्धानके एक्ताका विरोध है। ध १/१,१,११/१६८/५ सम्यग्दृष्टेनिरन्बय विनाशाका रिण सम्यग्मिथ्यास्वस्य क्थ सर्वधातित्वमिति चेन्न, सम्यग्दृष्टे साक्ष्यप्रतिबन्धितामपेक्ष्य तस्य तथोपदेशात प्रश्न-सम्यग्मिथ्यात्वका उदय सम्यग्दर्शनका निरन्वय विनाश तो करता नही है फिर उसे सर्वघाती क्यों कहा १ उत्तर-ऐसी शका ठीक नहीं है, क्योंकि वह सम्यग्दर्शनकी पूर्णताका प्रतिबन्ध करता है, इस अपेक्षासे सम्यग्मिध्यात्वको सर्वघाती कहा है।
ध ७/२,१,७६/११०/८ होदुणाम सम्मत्तं पड्डच्च सम्मामिच्छतफयाण सव्वघादित्त, कितु असुद्धणए विवक्रिखए ण सम्मामिच्छत्तफह्याण सव्वधादित्तमत्थि, तेसिमुदए सते वि मिच्छत्तसलिदसम्मत्तकणस्सुवल भादो ।- सम्यक्त्वकी अपेक्षा भले ही सम्यग्मिथ्यात्व स्पर्धकोंमें सर्वघातीपन हो, किन्तु अशुद्धनयकी विवक्षासे सम्यग्मिध्यात्व प्रकृतिके स्पर्धकों में सर्वघातीपन नहीं होता, क्योकि उनका उदय रहनेपर भी मिथ्यात्वमिश्रित सम्यक्त्वका कण पाया जाता है। (ध.१४/५.६.१६/२१/६)।
५. मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है क. पा १/४-२२/१२००/१३६/७ कुदो सव्वधादित्त। सम्मत्तासेसावयवविणासणेण । प्रश्न-यह सर्वघाती क्यों है। उत्तर-क्योकि यह सम्यक्त्वके सव अवयवोका विनाश करता है, अत सर्वघाती है।
६ प्रत्याख्यानावरणकषाय सर्वघाती कैसे है ध११,७७/२०२/५ ए सते पच्चक्खाणावरणस्स सव्वघादिस फिट्टदि
त्ति उत्ते ण फिट्टदि, पच्चवखाणं सव्व घादयदि त्ति त सव्व घादी उच्चदि। सब्बमपच्चक्रवाणं ण घादेदि, तस्स तत्थ बावाराभावा ।प्रश्न- यदि ऐसा माना जाये (कि प्रत्याख्यानावरण चतुष्कके उदयके सर्व प्रकार के चारित्र विनाश करनेकी शक्तिका अभाव है। तो प्रत्याख्यानावरण कषायका सर्वघातीपन नष्ट हो जाता है। उत्तर-नहीं होता, क्योकि प्रत्यारण्यानावरण कषाय अपने प्रतिपक्षी भर्व प्रत्या. रख्यान (सयम) गुणको घातता है, इसलिए वह सवघाती कहा जाता है। किन्तु सर्व अप्रत्याख्यानको नहीं घातता है, क्योंकि इसका इस विषयमें व्यापार नहीं है।
७ मिथ्यात्वका अनुभाग चत स्थानीय कैसे हो सकता है क पा/१/४-२२/१९८-२००/१३७-१४०/१२ मिच्छत्ताणुभागस्स दारुअट्ठि-सेलसमाणाणि त्ति तिष्णि चेव ठाणाणि लतासमाणफद्दयाणि उल्ल धिय दारुसमाणम्मि अवठिदसम्मामिच्छत्तु कस्सफद्दयादो अण त. गुणभावेश मिच्छत्तजहण्णफद्दयस्स अवठाणादो। तदो मिच्छत्तस्स जहण्णास भागसनक्म्म दुट्ठाणियमिदि वुत्ते दारु-अट्ठि-समाणफहयाण गहण कायव्य, अण्णहा तस्स दुठाणियत्ताणुववत्तीदो ...लतादारुस्थानाभ्यां केनचिद शान्तरेण समानतया एकत्वमापन्नस्य दारुसमानस्थानस्य तद्वयपदेशोपपते । समुदाये प्रवृत्तस्य शब्दस्य तदवयवेऽपि प्रवृत्युपलम्भाद्वा ॥ १३७ १३८॥ लदासमाणफद्दएहि विणा कध मिच्छत्ताणुभागस्स चदुठ्ठाणियत्त । मिच्छत्तकस्सफहयम्मि लदादारु-ठि-सेलसमाणट्ठाणाणि चत्तारि वि अस्थि, तेसि फट्याविभागपलिच्छेदाणसंभवो,"मिच्छत्तकस्साणुभागसंतकम्मं चदुट्ठाणियमिदि वुत्ते मिच्छत्तेगुक्कस्सफद्दयस्सेत्र कध गहणं । ण, मिच्छ सु. कस्सफदयचरियवग्गणाए एगपरमाणुणा धरिदअण ताविभागपलिच्छेदणिपण्ण अण त फयाणमुक्कस्साणुभागसतक्म्मवव एसादो। -प्रश्नमिथ्यात्वके अनुभागके दारुके समान, अस्थिके समान और शैलके समान, इस प्रकार तीन ही स्थान है। क्योंकि लता समान स्पर्धकोंको उल्लंघन कर के दारुसमान अनुभागमें स्थित सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धकसे मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कम द्विस्थानिक है ऐसा कहनेपर दारुसमान और अस्थिसमान स्पर्धकोंका ग्रहण करना चाहिए. अन्यथा वह द्विस्थानिक नहीं बन सकता ! उत्तर-क्सिी अंशान्तरकी अपेक्षा समान होनेके कारण लता समान और दारु समान स्थानोसे दारुस्थान अभिन्न है, अत उसमें द्विस्थानिक व्यपदेश हो सकता है। अथवा जो शब्द समुदायमें प्रवृत्त होता है, उसके अवयवमें भी उसकी प्रवृत्ति देखी जाती है, अतः केवल दारुसमान स्थानोंको भी द्विस्थानिक कहा जाता है। प्रश्न-जन मिथ्यात्वके स्पर्धक लता समान नहीं होते तो उसका अनुभाग चतु स्थानिक कैसे है। उत्तर-मिथ्यात्यके उत्कृष्ट स्पर्धकमें लता समान, दारु-समान, अस्थिसमान और शैलसमान चारों ही स्थान हैं क्योंकि उनके
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હનુમા"
अनुभाग
स्पर्धकोंके अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या यहाँ पायी जाती है। और बहुत अविभाग प्रतिच्छेदोंमें स्तोक अविभाग प्रतिच्छेदोका होना असभव नहीं है, क्योंकि एक आदि सख्याके बिना अविभाग प्रतिच्हेदों की संख्या बहुत नहीं हो सकती। प्रश्न-मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतु'स्थानिक है. ऐसा कहनेपर मिथ्यात्वके एक उत्कृष्ट स्पर्धकका ही ग्रहण कैसे होता है । उत्तर-नहीं, क्योकि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धककी अन्तिम वर्गणामें एक परमाणुके द्वारा धारण किये गये अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न अनन्त स्पर्धकोंकी उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म संज्ञा है। ८. मानकषायकी शक्तियोके दृष्टान्त मिथ्यात्वादि
प्रकृतियोके अनुभागोंमे कैसे लागू हो सकते है क. पा./५/४-२२/११६६/१३६/१ लदा दारु अठ्ठि-सेलसण्णाओ माणाणुभागफद्दयाण लयाओ कधं मिच्छत्तम्मि पयटटंति । ण, माणम्मि अवट्ठिदचदुहं सपाणमणुभागाविभागपलिच्छेदेहि समाणत्त पेविखटूण पय डिविरुदमिच्छत्तादिफद्दएसु बिपबुत्तीए वि रोहाभावादो। प्रश्न-लता, दारु, अस्थि और शैल संज्ञाएं मान कषायके अनुभाग स्पर्धकों में की गयी है। (दे. कषाय ३), ऐसी दशामें के संज्ञाएँ मिथ्यात्व में कैसे प्रवृत्त हो सकती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि. मानकषाय और मिथ्यात्वके अनुभागके अविभागी पतिच्छेदोके परस्पर में समानता देखकर मानकषायमे होनेवाली चारो संज्ञाओ की मानकषायसे विरुद्ध प्रकृतिवाले मिथ्यात्वादि (सर्व कर्मों के अनुभाग) स्पर्धकोमें
भी प्रवृत्ति होने में कोई विरोध नही है । ५. अनुभाग बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम व प्ररूपणाएँ १ प्रकृतियोंके अनुभागकी तरतमता सम्बन्धी सामान्य
नियम घ. १२/४.२,७,६५/५५/४ - महाबिसयस्स अणुभागो महल्लो होदि, थोवविसयस्स अणुभागो थोवो होदि। खवगसेडीए देसधादिबंधकरणे जस्स पुख्यमेव अणुभागबधो देसघादी जादो तस्साणुभागो थोवो। जस्स पच्छा जादो तस्स बहुओ । महान् विषयवाली प्रकृतिका अनुभाग महान होता है और अल्प विषयवाली प्रकृतिका अनुभाग अल्प होता है। यथा-क्षपक श्रेणी में देशघाती बन्धकरण के समय जिसका अनुभाग बन्ध पहले ही देशघाती हो गया है उसका अनुभाग स्तोक होता है और जिसका अनुभागबन्ध पीछे देशघाती होता है उसका अनुभाग बहुत होता है । (ध १२/४,२,७,१२४/६६/१५)। . प्रकृति विशेषोंमें अनुभागकी तरतमताका निर्देश
१ ज्ञानावरण व दर्शनावरणके अनुभाग परस्पर समान
होते है प.ख./१२/४,२,७/४३/३३/२ णाणावरणीय-दसणावरणीयवेग्रणाभावदो
जहणियाओ दो वि तुल्लाओ अणं तगुणाओ-भावकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीयकी जघन्य बेदनाएँ दोनो ही परस्पर तुल्य होकर अनन्तगुणी है। २. केवलज्ञान, दर्शनावरण, असाता व अन्तरायके
अनुभाग परस्पर समान है पख/१२/४,२,७/सू ७६/४६/६ केवलणाणावरणीयं केवलदसणावरणीय
असाद वेदणीय वी रियतराइयं च चत्तारि वि तुल्लाणि अण तगुणहीणाणि ७६॥ केवल ज्ञानावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, असातावेदनीय और वीर्यान्तराय ये चारों हो प्रकृतियाँ तुल्य होकर उससे अनंतगुणी हैं ॥७६॥
३. तिर्यंचायुसे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा है प.१२/४,२,१३,१६२/४३१/१२ सहावदो चेव तिरिक्रबाउआणुभागादो मणुसाउअभावस्स अण तगुणत्ता स्वभाव से ही तिथंचायुके अनुभागसे मनुष्यायुका भाव अनन्त गुणा है।
३. जघन्य व उत्कृष्ट अनुभागके बन्धकों सम्बन्धी नियम १. अघातिया कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभाग सम्यग्दृष्टिको ही
बन्धता है, मिथ्यादृष्टिको नही ध. १२/४,२,१३/२५०/४५६/४ ण च मिच्छाइट्ठीसु अधादिकम्माणमुक्कस्सभावो अत्थि सम्माइट्ठोस णियमिदउक्कस्साणुभागस्स मिच्छइठीसु सभव विरोहादो। -मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अधातिकमोंका उत्कृष्ट भाव स भव नहीं है, क्योकि सम्यग्दृष्टि जीवोमें नियमसे पाये जानेवाले अघाति कर्मोके उत्कृष्ट अनुभागके मिथ्यादृष्टि जीवोंमें होनेका विरोध है। ध १२/४,२,१३,२५६/४५६/२ असंजदसम्मादिठ्ठिणा मिच्छादिछिणा बा बद्धस्स देवाउअ पेखिदूण अप्पसत्थस्स उकस्सत्तविरोहादो। तेण अणंतगुणहीणा ।- सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके द्वारा बान्धी गयी मनुष्यायु ~ कि देवायुकी अपेक्षा अप्रशस्त है, अतएव उसके उत्कृष्ट होनेका विरोध है। इसी कारण वह अनन्तगुणी हीन है।
२. गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध तेज व वातकायिकों___ मे ही सम्भव है ध. १२/४,२,१३,२०४/४४१/८ बादरतेउक्काइयपज्जत्तएस जादजहण्णाणुभागेण सह अण्णत्थ उप्पत्तीए अभावादो। जदि अण्णत्य उप्परदि तो णियमा अण तगुणवढीए वडिढद। चेव उपज्जदि ण अण्णहा। - बादरतेजकायिक व वायुकायिक पर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न जघन्य अनुभागके साथ अन्य जीवोमें उत्पन्न होना सम्भव नही। यदि वह अन्य जीवामें उत्पन्न होता है तो नियमसे वह अनन्तगुण वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होकर ही उत्पन्न होता है, अन्य प्रकारसे नहीं। ४. प्रकृतियोंके जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बन्धकोंकी
प्ररूपणा प्रमाण-१. (पं.स.प्रा/४/४६०-४८२) (दे स्थिति ६), (क.पा/४-२२/
६२२६-२७६/१५१-१८५/केवल मोहनीय कर्म विषयक)। सकेत-अनि०८-अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें उस प्रकृतिकी मन्धव्युच्छित्ति
से पहला समय; अपू० = अपूर्वकरण गुणस्थानमें उस प्रकृतिकी बन्धव्युच्छित्तिसे पहला समय; अप्र० - अप्रमत्तसं यत, अवि० - अविरतसम्यग्दृष्टि, क्षपक०-क्षपकश्रेणी, चतु०-चतुर्गतिके जीव; ति०= तिर्यच, तीघ्र० -- तीन सक्लेश या कषाययुक्त जीव, देशदेशस यत, ना० नारकी, प्र०-प्रमत्तसयत, मध्य० मध्य परिणामों युक्त जीव, मनु०-मनुष्य, मि०-मिथ्यादृष्टि, विशु०- अत्यन्त विशुद्ध परिणामयुक्त जीव; सम्य०-सम्यग्दृष्टि; सा० मि०-सातिशय मिथ्याष्टिः सू० सा०-सूक्ष्मसाम्परायका चरम समय।
नाम प्रकृति | उस्कृष्ट अनुभाग | जघन्य अनुभाग ज्ञानावरणीय तीब० चतु० मि० | सू० सा० दर्शनावरणीय ४ निद्रा, प्रचला
अपू० निद्रा निद्रा,प्रचला प्रचला
सा०मि०/चरम स्त्यानगृद्धि अन्तराय
सू० सा० मिथ्यात्व
सा०मि०/चरम अनन्तान बन्धी चतु० अप्रत्याख्यान चतु०
प्र०सन्मुख अवि० प्रत्याख्यान चतु०
प्र० सन्मुख देश० संज्वलन चतु०
অলি हास्य, रति अरति, शोक
अप्र० सन्मुख प्र० भय, जुगुप्सा
| अपू०
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अनुभाषण
नाम प्रकृति
स्त्री नपुंसक वेद पुरुष वेद
साता
असाता
नरकायु तिचायु
मनुष्यासु देवायु नरक द्वि०
तिर्यक् द्वि० मनुष्या डिο देव द्वि०
एकेन्द्रिय जाति
२-४ इन्द्रिय जाति
पंचेन्द्रिय जाति
औदारिक दिव वैकिक डिο आहारक द्वि०
तेजस शरीर
कार्मण शरीर निर्माण
प्रशस्त वर्णादि ४ अप्रशस्त वर्णादि ४
समचतुरस्रसस्था शेष पाँच संस्थान वज्र ऋषभ नाराच वज्र नाराच आदि ४
असप्राप्त सृपाटिका
अगुरुलघु
उपघात
परघात
नाम प्रकृति
उत्कुष्ट अनुभाग
तीव्र० चतु० मि०
क्षपक०
तीव्र० चतु०मि० मि० मनु० ति०
अप्र०
मि० मनु० ति०
मि० देव० ना० सम्य० देव० ना०
क्षपक०
मि० देव
13
मि० मनु० ति०
क्षपक०
सभ्य० देव ना०
क्षपक०
क्षपक०
तीव्र० चतु० मि० क्षपक
तोत्र चतु० मि०
सम्य० देव ना० तीम० चतु० मि० मि० देव ना०
क्षपक०
तीच० चतु० मि० क्षपक
२. उत्तरप्रकृति संनिकर्ष
भगविचय
विषय
जघन्य अनुभाग
तीव्र० चतु० मि० अनि०
मध्य० मि० सम्य०
मि० मनु० ति०
सप्तम पू० ना० मध्य० मि०
अध्यवसाय स्थान सम्बन्धी सर्व प्ररूपणाएँ -
मि० मनु० ति० मध्य० मि०
देव० मनु० ति०
मि० मनु० ति०
तीव्र० चतु० मि०
मि० देव० ना०
मि०
१० मनु० ति०
५. अनुभाग विषयक अन्य प्ररूपणाओंका सूचीपत्र
|
प्र० सन्मुख अप्र० तोव० ० चतु० मि०
"
11
अपू० मध्य० मि० मध्य० मि०
11
तीव्र० चतु० मि०
अपू०
तीव्र० चतु० मि०
१. प्रकृतिसनिकर्ष
भंगविचय
अन भाग अध्यवसाय स्थान
सम्बन्धी सर्व प्ररूपणाएँ - ४ / ३०१-३८६ / १६८-१७६ ४/३७१-३८६/१६८-१७६ ५/१-२०८/१-१२६
९५
ज. उ. पद
म ब. पु. / ... पृ.
४/१०२-१८१/०४२००६ ४/१८२-१८५/७६-८१
अनुभाषण - शुद्ध प्रत्याख्यान - दे. प्रत्याख्यान १ । अनुभूति — अनुभव अनुमत— अनुमति।
दे
अनुमति स्वय तो कोई कार्य न करना, पर अन्यको करनेकी राय
देना, अथवा उसके द्वारा स्वय किया जानेपर प्रसन्न होना, अनुमति कहलाता है ।
५/६२६ ६५८/३७२-३६८
नाम प्रकृति
आतप
उद्योत
उच्छ्वास
प्रशस्त विहायो०
अप्रश० विहायो०
प्रत्येक
साधारण
त्रस
स्थावर
सुभग
दुर्भग
सुस्वर
दुस्स्वर
शुभ
अशुभ
सूक्ष्म
बादर
पर्याप्त
पर्या
स्थिर
अस्थिर
आदेय
अनादेव
यश-कीर्ति
अपकीर्ति
तीर्थंकर
उच्च गोत्र
नीच गोत्र
अन्तराय ५
भुजगारादि पद म.न.पू./ पृ
५/३०१-३१२/१२६-१२१ २/४१२४१०५०२७८
४/२८४/१३११२२
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
उत्कृष्ट अनुभाग
मि० देव
सृ० सा०
क्षपक०
तीव्र० चतु० मि०
क्षपक
मि० मनु० ति०
क्षपक०
मि० देव
क्षपक०
तीव्र० चतु० मि०
क्षपक०
तीव्र० चतु० मि०
क्षपक०
तीव्र० चतु० मि०
मि० मनु० ति०
क्षपक
मि० मनु० ति० क्षपक०
तीव्र० चतु०
मि
मि०
क्षपक०
तोत्र० चतु० मि० क्षपक०
तीव्र० चतु० मि०
क्षपक०
अनुमति
जघन्य अनुभाग तीव्र०मि० भवनत्रिकसे ईशान० मि० देव ना० तीव्र० चतु० मि०
मध्य० मि०
वृद्धि
ज. उ. म ब. पु. / 8 पृ
टीज० चतु०मि० मि० मनु० ति०
तीव० चतु० मि० मध्य० मि० देव
मनु० ति०
मध्य० मि०
1+
१५
15
मध्य० मि० सम्य०
19
मि० मनु० ति० तीव्र० चतु० मि०
मि० मनु० ति०
मध्य० मि० सम्य०
मध्य० मि.
"
मध्य० मि० सम्य०
ना० सन्मुख अवि० मध्य० मि० सप्तम पृ० ना०मि०
क्षेपक०
ਰੀਕ ਬਰੁ ਸਿ
- दे० दर्शनावरणीय के पश्चात्
षड गुण वृद्धि म. ब. पु / 8. पृ.
8/340-348/347-18 ५/६१७/३६२
१. अनुमति सामान्यका लक्षण
राजा /८/८.३/५१४/११ अनुमतवान्द प्रयोजकस्य मानसपरिणाम प्रदर्श नार्थ ॥१॥ यथा मौनमरिचक्षुष्मान् क्रियमाणस्य कार्यस्थाप्रतिषेधात् अभ्युपगमात् अनुमन्ता तथा कारयिता प्रयोक्तृत्वात् तत्समर्थाचरणावहितमन परिणाम अनुमन्तेकरनेवालेके मानस परिणामों की स्वीकृति अनुगत है जैसे कोई मौनी व्यकि किये जानेवाले कार्यका यदि निषेध नहीं करता तो वह उसका
I
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अनुमान
अनुमोदक माना जाता है, उसी तरह करानेवाला प्रयोक्ता होनेसे और उन परिणामोका समर्थक होनेसे अनुमोदक है। (स.सि (९/८/२२५) (चासा./८८/६) ।
२. अनुमतिके मेद
सू. आ /४९४ पनि पडिवास व अगदी तिमिहा-प्रतिसेवा प्रविण समास मे तीन भेद अनुमति है।
३. प्रतिसेवा अनुमति
मू आ. / ४१४ उद्दिष्ट यदि भुक्ते भोगयति च भवति प्रतिसेवा । - उद्दिष्ट बाहारका भोजन करनेवाले सामुळे प्रतिसेया अनुमति नामका दोष होता है।
४. प्रतिश्रवण अनुमति
सूजा /४९५ उदि जदि विश्वरदि पूर्व पच्छा व होदि पणिं । - "यह आहार आपके निमित्त बनाया गया है' आहारसे पहिले या पीछे इस प्रकारके वचन दाताके मुखसे सुन लेनेपर आहार कर लेना या सन्तुष्ट तिष्ठना साधुके लिए प्रविण अनुमति है।
५. संवास अनुमति
३. आ / ४१५ सावज्ज सकिलिट्ठो ममत्तिभावो दु संवासो ॥१४१५॥ - यदि साधु आहारादिके निमित्त ऐसा ममत्वभाव करे कि ये गृहस्थलोक हमारे है, वह उसके लिए सवास नामकी अनुमति है ।
६. अनुमति स्थान प्रतिमा
रथा १४६ अनुमतिरम्ये या परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा नास्ति खलु यस्य समधोरनुमतिविरत समन्तव्य ॥ १४६ ॥ - जिसको आरम्भमें अथवा परिग्रहमे या इस लोक सम्बन्धी कार्योंमें अनुमति नहीं है, वह समद्धिला निश्चय करके अनुमति त्याग प्रतिमाका धारी मानने योग्य है । (का अ/मू./३८८) (बसु श्रा / ३००) (गुणभद्र श्रा./१८२) । साथ ७/३२-३४ देवालयस्थ स्वाध्याय कुर्यान्मध्यावन्दनात् । ऊर्ध्व मामन्त्रित सोऽद्याद् गृहे स्वस्य परस्य वा ॥३१॥ यथाप्राप्तमदन्
सिद्धयर्थं भोजन देहश्च धर्म समुपेक्ष्यते ॥३२॥ सामे कस्याद्दिष्ट सावधानिमन कहि भेक्षामृत भोक्ष्ये इति चेज्जतेन्द्रिय ॥३३॥ यायारकियो को निष्क्रमिष्यनसी गृहाय आवृष्येत गुरूदनम् पुत्रादोश्च यथोचितम् ॥३४१ - इस अनुमतिविरति श्रावकको जिनालय में रहकर ही शास्त्रोका स्वाध्याय करना चाहिए तथा मध्याह्न वन्दना आदि कर लेनेके पश्चात् किसीके बुलाने पर पुत्रादिके घर अथवा किसी अन्यके घर भोजन करे ॥३१॥ भोजनके सम्बन्ध में इसे ऐसी भावना रखनी चाहिए कि मुमुक्षुमन शरीरकी स्थिति के अर्थ हो भोजनको अपेक्षा रखते हैं और शरीरकी स्थिति भी धर्मसिद्धिके अर्थ करते है | परन्तु उद्दिष्ट आहार करनेवाले को उस धर्मकी सिद्धि कैसे हो सकती है. क्योंकि यह तो सावद्ययोग तथा जघन्य क्रियाओके द्वारा उत्पन्न किया गया है। वह समय कब आयेगा जब कि मै भिक्षा रूपी अमृतका भोजन करूंगा ॥३३॥ पचाचार पालन करनेवाले तथा गृहत्याग की इच्छा रखनेवाले उसको माता-पितासे, बन्धुवर्गसे तथा पुत्रादिकों से यथोचित रूपसे पूछना चाहिए ॥३४॥
यह परोक्ष प्रमाणका एक भेद है, जो जैन व जैनेतर सर्व
अनुमानदर्शनकारों को समान रूपसे मान्य है। यह दो प्रकारका होता हैस्वार्थ व परार्थ । लिग परसे लिंगोका ज्ञान हो जाना स्वार्थ अनुमान है जैसे धुएँ को देखकर अग्निका ज्ञान स्वत हो जाता है और हेतु तर्क आदि द्वारा पदार्थका जो ज्ञान होता है वह परार्थानुमान है। इसमें पाँच अवयव होते है-पक्ष, हेतु, उदाहरण, उपनय व निगमन । इनका उचित रोतिसे प्रयोग करना 'न्याय' माना गया है। इसी विषयका कथन इस अधिकार में किया गया है।
९५
१. भेद व लक्षण
२ अनुमान सामान्य निर्देश
१. अनुमान सामान्यका लक्षण ।
२. अनुमान सामान्यके दो भेद (स्वार्थ व परार्ध) ।
३. स्वार्थानुमानके तीन भेद ( पूर्ववत् शेषवत् आदि) । ४. स्वार्थानुमानका लक्षण ।
५ परार्थानुमानका लक्षण ।
६. अन्वय व व्यतिरेक व्याप्तिलिंगज अनुमानोंके लक्षण । ७. पूर्ववत् अनुमानका लक्षण ।
८. शेषवत् अनुमानका लक्षण ।
९. सामान्यतोदृष्ट अनुमानका लक्षण ।
*
अनुमान वाचितका लक्षण | दे. बाधित
१ अनुमानज्ञान श्रुतज्ञान है ।
२. अनुमानशान कोई प्रमाण नही ।
*
अनुमानशान परोक्ष प्रमाण है। परोक्ष * स्मृति आदि प्रमाणके नाम निर्देश दे परोक्ष * स्मृति आदिकी एकार्थता तथा इनका परस्परमे 'कार्य-कारण सम्बन्ध
अनुमान
३. अनुमानज्ञान भ्रान्ति या व्यवहार मात्र नही है बल्कि प्रमाण है ।
४. कार्यपररी कारणका अनुमान किया जाता है । ५ स्थूलपरसे सूक्ष्मका अनुमान किया जाता है। ६. परन्तु जीव अनुमानगम्य नही है ।
* अनुमान अपूर्वाग्राही होता है। ये प्रमाण २ अनुमान स्वपक्ष साधक परपक्ष दूषक होना चाहिए। हेतु २
*
३. अनुमानके अवयव
१. अनुमानके पाँच अवयवोंका नाम निर्देश । २ पाँचों अवयवोकी प्रयोग विधि ।
३. स्वार्थानुमानमे दो ही अवयव होते है । ४. परार्थानुमानमे भी शेष तीन अवयव वीतराग कथामें ही उपयोगी है, बादमे नही ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१. भेद व लक्षण
१. अनुमान सामान्यका लक्षण
1
न्या. वि./मू./२.१/१ साधनात्साध्यज्ञानमनुमानम् । साधन से साध्यका ज्ञान होना अनुमान है (प.मु. ३/१४) (का.अ./५/२६०) न्या. दी./३/११७) (म्या, वि/११/९/१६) (कपा/पू. २/१-१५/६३०१/ ३४१/३) ।
२. अनुमान सामान्यके भेद (स्वार्थ व परार्थ) प./२/५२-५३नुमानं द्वेषा ॥२॥ स्वार्थ परार्थमेव ॥ ३॥ स्वार्थ व पराय के भेदसे वह अनुमान दो प्रकारका है (सम. / २८/३२२/९) (म्या. दी./३/२३)।
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अनुमान
अनुमान
३. स्वार्थानुमानके तीन भेद (पूर्ववत् आदि) न्या. मू./मू./१-१/५ अथ तत्पूर्वक विविधमनुमान पूर्ववच्छेषवरसामान्यतोदृष्टं च ॥५॥ प्रत्यक्ष पूर्वक अनुमान तीन प्रकारका है-पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट । (रा वा/१/२०,१५/७८/११)।
४. स्वार्थानुमानका लक्षण प. मु /३/१४,१४ स्वार्थ मुक्तलक्षणम् ॥५४॥ साधनात्साध्यविज्ञामनुमानम् ॥१४॥ -स्वार्थका लक्षण पहिले कह दिया गया है ॥५४॥ कि साधनसे साध्यका विज्ञान होना अनुमान है ॥१४॥ स.म./२८/३२२/२ तत्रान्यथानुपपत्त्येकलक्षणहेतुग्रहणसबन्धस्मरणकारणक साध्यविज्ञानं स्वार्थम् । अन्यथानुपपत्ति रूप एक लक्षणबाले हेतुको ग्रहण करनेके सम्बन्धके स्मरणपूर्वक साध्यके ज्ञानको स्वार्थानुमान कहते है। (स. म /२०/२५६/१३)। न्या. दी./३/१२८/७५ में उद्धृत "परोपदेशाभावेऽपि साधनात्साध्यबोधनम् । यद्गद्रष्टुर्जायते स्वार्थ मनुमान तदुच्यते॥-परोपदेशके अभावमें भी केवल साधनसे साध्यको जान जो ज्ञान देखनेवालेको उत्पन्न हो जाता है उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। न्या. दो./३/१२३/७१ परोपदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव निश्चितात्प्राक्तानुभूतव्याप्तिस्मरणसहकृताधूमादे. साधनादुत्पन्नपर्वतादी धर्मिण्यग्न्यादे, साध्यस्य ज्ञान स्त्रार्थानुमानमित्यर्थः।-परोपदेशकी अपेक्षा न रखकर स्वयं ही निश्चित तथा तर्क प्रमाणसे जिसका फल पहिले ही अनुभव हो चुकता है ऐसी व्याप्तिके स्मरणसे युक्त, ऐसे धूम आदि हेतुसे पर्वतादि धर्मी में उत्पन्न होनेशले जो अग्नि आदिक साध्यका ज्ञान, उसको स्वार्थानुमान कहते है। (न्या. दी./३/६१७)। और भी दे. प्रमाण १, (स्वार्थ प्रमाण ज्ञानात्मक होता है)। ५. परार्थानुमानका लक्षण प. मु /३/५५-५६ पराथं तु तदर्थ परामशिवचनाज्जातम् ॥५५॥ तद्वचनमपि तद्धेतुस्वात ॥५६॥ = स्वार्थानुमान के विषयभूत हेतु और साध्यको अवलम्बन करनेवाले वचनोसे उत्पन्न हुए ज्ञानको परार्थानुमान कहते हैं ॥५५॥ परार्थानुमानके प्रतिपादक वचन भी उस ज्ञानका कारण होनेसे
उपचारसे परार्थानुमान हैं, मुख्यरूपसे नहीं ॥५६॥ (स.म /२८/३२२/३)। न्या. दी./३/१२६ परोपदेशमपेक्ष्य साधनात्साध्यविज्ञानं परार्थानुमानम् । प्रतिज्ञाहेतुरूपपरोपदेशवशाच्छ्रोतुरुत्पन्नं साधनारसाध्यविज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः। यतः पर्वतोऽयमग्निमान भवितुमर्हति धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति वाक्ये केनचित्प्रयुक्ते तद्वाक्याथ पर्यालोचयत स्मृतव्याप्तिकस्य श्रोतुरनमानमुपजायते। -- परोपदेशसे जो साधनसे साध्यका ज्ञान होता है वह परार्थानुमान है। अर्थात प्रतिज्ञा और हेतुरूप दूसरेका उपदेश सुननेवालेको जो साधनसे साध्यका ज्ञान हता है उसे परार्थानुमान कहते हैं। जैसे कि इस पर्वतमें अग्नि होनी चाहिए, क्योंकि यदि यहॉपर अग्नि न होती तो धूम नहीं हो सकता था। इस प्रकार किसीके कहनेपर सुननेवालेको उक्त वाक्यके अर्थका विचार करते हुए और व्याप्तिका स्मरण होनेसे जो अनुमान होता है वह परार्थानुमान है। और भी दे प्रमाण १/३ (परार्थ प्रमाण वचनात्मक होता है)। ६. अन्वय व व्यतिरेक व्याप्तिलिंगज अनुमानोंके लक्षण स.म/१६/२१६/६ यद्यन सह नियमेनोपलभ्यते तत ततो न भिद्यते, यथा सञ्चन्द्रादसञ्चन्द्रः। नियमेनोपलभ्यते च ज्ञानेन सहाथ इति व्यापकानुपलब्धि - जो जिसके साथ नियमसे उपलब्ध होता है, वह उससे भिन्न नहीं होता। जैसे यथार्थ चन्द्रमा भ्रान्त चन्द्रमाके साथ उपलब्ध होता है, अतएव भ्रान्त चन्द्रमा यथार्थ चन्द्रमासे भिन्न नही है। इसी प्रकार ज्ञान और पदार्थ एक साथ पाये जाते है, अतएव ज्ञान पदार्थ से भिन्न नहीं है । इस ब्यापकानुपलब्धि अनुमानसे ज्ञान और पदार्थ का अभेद सिद्ध होता है।
वैशेषिक सूत्रोपस्कार (चौखम्बा काशी)/२,१/१ व्यतिरेकव्याप्तिकालि
गाद् यदनुमानं क्रियते तद्वयतिरेकिलिङ्गानुमानमुच्यते । साध्याभावे साधनाभावप्रदर्शनं व्यतिरेक्व्याप्ति । तथा च प्रकृते अनुमाने सर्वरूपसाध्याभावे निर्दोषत्वरूपसाधनाभाव' प्रदर्शित व्यतिरेकव्याप्तिवाले लिंगसे जो अनुमान किया जाता है उसे व्यतिरेक लिंगानुमान कहते है। साध्यके अभाव में साधनका भी अभाव दिखलाना व्यतिरेकव्याप्ति है। प्रकृतमें सर्वज्ञरूप साध्य के अभाबमें निदोषत्व रूप साधनाका भी अभाव दर्शाया गया है। अर्थात यदि सर्वज्ञ नहीं है तो निर्दोषपना भी नहीं हो सकता। ऐसा अनुमान व्यतिरेकव्याप्ति अनुमान है।
७. पूर्ववत् अनुमानका लक्षण रा वा /१/२०,१५/७८/१२ तत्र येनाग्नेनि सरन् पूर्व धूमो दृष्ट. स प्रसिद्वाग्निघूमसबन्धाहितसंस्कारः पश्चाइधूमदर्शनाइ 'अस्त्यत्राग्नि इति पूर्ववदग्नि गृह्णातीति पूर्वदनुमानम् । -जिसने अग्निसे निकलते हुए धूमको पहिले देखा है, वह व्यक्ति अग्नि और धूमके प्रसिद्ध सम्बन्ध विशेषको जाननेके संस्कारसे सहित है। यह व्यक्ति पीछे कभी धूमके दर्शन मात्रसे 'यहाँ अग्नि है। इस प्रकार पहिलेकी भाँति अग्निको ग्रहण कर लेता है। ऐसा पूर्ववत् अनुमान है। (न्या. सू । भा /१-१/५/१३/१)। न्या. सू 1१-१/५/१२/२४ पूर्ववदिति यत्र कारणेन कार्यमनुमीयते यथा मेघोन्नत्या भविष्यति वृष्टिरिति । - जहाँ कारणसे कार्यका अनुमान होता है उसे पूर्ववत अनुमान कहते हैं, जैसे बादलोंके देखनेसे आगामी वृष्टिका अनुमान करना। ८ शेषवत् अनुमानका लक्षण रा वा /१/२०,१५/०८/१४ येन पूर्व विषाणविषाणिनो' संबन्ध उपलब्ध तस्य विषागरूपदर्शनाद्विषाणिन्यनुमानं शेषवत् । =जिस व्यक्तिने पहिले कभी सौंग व सीगवाले के सम्बन्धका ज्ञान कर लिया है, उस व्यक्तिको पीछे कभी भी सीग मात्रका दर्शन हो जानेपर सींगवालेका ज्ञान हो जाता है । अथवा उस पशुके एक अवयवको देखनेपर भी शेष अनेक अवयवों सहित सम्पूर्ण पशुका ज्ञान हो जाता है, इसलिए वह शेषवत अनुमान है। न्या स /भा /१-१/१२/२५ शेषवदिति यत्र कार्येण कारणमनुमीयते । पूर्वोदकविपरीतमुदकं नद्या पूर्ण त्वं शीघ्रत्व च दृष्ट्वा स्रोतसोऽन मीयते भूता वृष्टिरिति । = कार्यसे कारणका अन मान करना शेषवत् अनुमान कहलाता है। असे नदीकी बाढको देखकर उससे पहिले हई वर्षाका अन मान होता है. क्योंकि मदीका चढना वर्षाका कार्य है। ९. सामान्यतोदृष्ट अनुमानका लक्षण रा वा./१/२०,१५/७८/१५ देवदत्तस्य देशान्तरप्राप्ति गतिपूर्विको दृष्ट्वा संबन्ध्यन्तरे सवितरि देशान्तरप्राप्तिदर्शनाद गतेरत्यन्तपरोक्षाया अनुमान सामान्यतोदृष्टम् । - देवदत्तका देशान्तरमें पहुँचना गतिपूर्वक होता है, यह देखकर सूर्यकी देशान्तर प्राप्तिपरसे अत्यन्त परोक्ष उसकी गतिका अनुमान कर लेना सामान्यतोदृष्ट है। (न्या. सू./ भा /१-१/५/१२/२६।। २. अनुमान सामान्य निर्देश
१. अनुमान ज्ञान श्रुतज्ञान है रा. वा/१/२०.१५/०८/१६ तदेतस्त्रितयमपि स्वप्रतिपत्तिकाले अनक्षरश्रुत परप्रतिपत्तिकाले अक्षरश्रुतम् । तीनों (पूर्वन्त शेषत व सामान्यतोदृष्ट) अनु मान स्वप्रतिपत्ति कालमें अनक्षरशूत हैं और पर प्रतिपत्तिकालमें अक्षरश्रुत है। क. पा /पू./१/१-१५/३४१/३ धूमादिअत्यलिंग पुण अणुमाणं णाम ।
धूमादि पदार्थरूप लिगसे जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थलिगज श्रुतज्ञान है। इसका दूसरा नाम अनुमान भी है ।
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અનુમાનો
अनुमान
२. अनुमान ज्ञान कोई प्रमाण नहीं घ.६/१,१,६.६/१५१/१ पवयणे अणुमाणस्स पमाणस्स पमाणत्ताभावत्तादो।
प्रवचन (परमागम) में अन मान प्रमाणके प्रमाणता नही मानी गयी है। ३ अनुमान ज्ञान परीक्ष प्रमाण है
सि. वि //६/११-१२/३८६ यथास्व न चेद्बुद्रे स्वस विदन्यथा पुन । स्वाकार विभ्रमात सिध्येद् भ्रान्तिरप्यनुमानधी ॥११॥ स्वव्यक्तस वृतात्मानौ व्याप्नोत्येक स्वलक्षणम् । यदि हेतुफलापमानौ व्याप्नात्येक स्वलक्षणम् न बुद्धे ग्राहकाकारी भ्रान्ताव स्वयमेकान्तहाने ॥१२॥ -यदि ज्ञान यथायोग्य अपने स्वरूपको नही जानता तो अपने स्वरूपमे भी विभ्रम होनेसे स्वलक्षण बुद्धि भी भ्रान्तिरूप सिद्ध होगी। यदि कहोगे कि अनुमानसे जानेगे तो अनुमान बुद्धि भी तो भ्रान्त है ॥११॥ यदि एक स्त्रलथण (बुद्धिवस्तु), सुव्यक्त (बोधस्वभाव प्रत्यक्ष)और सवृत (उससे विपरीत रूपो मे व्याप्त होता है, अर्थात् एक साथ व्यक्त और अव्यक्त स्वभाव रूप होता है तो उस स्वलक्षणके अपने कारण और कार्य में व्याप्त होने में क्या रुकावट हो सकती है। बुद्धिके ग्राह्य और ग्राहक आकार सर्वथा भ्रान्त नहीं है ऐसा माननेसे स्वयं बौद्धके एकान्तकी हानि होती है ॥१२॥ सि वि././६/8/३८७/२१ प्रमाणत सिद्धा, किमुच्यते व्यवहारिणेति । प्रमाण सिद्धत्योभयोरपि अभ्युपगमाईत्वात अन्यथा त्परत प्रामाणिकत्वाद्वो येन (परस्यापि न प्रामाणिकत्वम)। व्यवहार्यभ्युपगमात चेव, अतएव प्रतिबन्धान्तरमस्तु । न च अप्रमाणा-युपगसिद्ध द्ववैस स (. अर्धवैशस्य) न्यायो भ्यायानुसारिणा युक्त । यदि पूर्व और उत्तर क्षणमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध प्रमाणसे सिद्ध है तो उसे व्यवहार सिद्ध क्यों कहते हो ! जो प्रमाण सिद्ध है वह तो वादी और प्रतिवादी दोनोंके ही स्वीकार करने योग्य है। अन्यथा यदि वह प्रमाणसिद्ध नहीं है तो दूसरेको भी प्रामाणिकपना नहीं है। यदि व्यवहारीके द्वारा स्वीकृत होनेसे उसे स्वीकार करते है तो इसीसे उन दोनोके नीचमें अन्य प्रतिबन्ध मानना चाहिए । अप्रमाण भी हो और अम्युगम (स्वीकृति) सिद्ध भी हो यह अर्ध वैशसन्याय न्यायानुसारियोंके योग्य नहीं है। ४. कार्यपर-से कारणका अनुमान किया जाता है आम. मी./मू ६८/६६ कार्यलिङ्ग' हि कारणम् । = कार्यलिंगत ही कारण
का अनुमान करिये है। पं. ध./उ./३१२ अस्ति कार्यानुमानाद्वै कारणानुमिति. कचित् । दर्शनानदपूरस्य देवो वृष्टो यथोपरि ॥३१२॥-निश्चयसे कार्यके अमुमानसे कारणका अनुमान होता है । जैसे नदोमें पूर आया देखनेसे यह अनुमान हो जाता है कि ऊपर कहीं वर्षा हुई है । (अनुमान १/८)
५. स्थूलपर-से सूक्ष्मका अनुमान किया जाता है झा./३३/४ अलक्ष्य लक्ष्यसबन्धात् स्थूलात्सूक्ष्म विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्ब तत्त्व वित्तत्त्वमञ्जसा 18 तत्त्वज्ञानी इस प्रकार तत्त्वको प्रगटतया चिन्तवन करे कि-लक्ष्यके सम्बन्धसे तो अलक्ष्यको और स्थूलसे सूक्ष्म पदार्थको चिन्तवन करै। इसी प्रकार किसी पदार्थ विशेषका अवलम्बन लेकर निरालम्ब स्वरूपसे तन्मय हो।
६. परन्तु जीव अनुमानगम्य नहीं है प्र सा /त. प्र/९७२ आत्मनो हि . अलिङ्गग्राह्यत्वम् • न लिङ्गादिन्द्रियगम्याद धूमादग्नेरिव ग्रहणं यस्येतीन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वकानुमानाविषयस्वस्य। आत्माके अलिंगग्राह्यत्व है। क्योकि जैसे धुऍसे अग्निका ग्रहण होता है, उसी प्रकार इन्द्रिय प्रत्यक्षपूर्वक अनुमानका विषय नहीं है।
३. अनुमानके अवयव
१. अनुमानके पॉच अवयवोका नाम निर्देश न्या सू / /१-१/३२ प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवा ॥३२॥
- प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन, ये अनुमान वाक्यके पाँच अवयव है।
२ पॉचो अवयवोकी प्रयोगविधि प मु/३/६५ परिणामी शब्द कृतकत्वात् । य एवं स एव दृष्टा यथा धट । कृतन श्वाय तस्मात्परिणामी। गस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्ट! यया बन्ध्यास्तनधय । कृतकाय तस्मात्परिणामी ॥६५॥ - शब्द परिणामस्वभावी है (प्रतिज्ञा), क्योकि वह कृतक है (हेतु)। जो-जो पदार्थ कृतक होता है वह-वह परिणामा देखा गया है, जैसे घट (अन्य उदाहरण), जो परिणामी नही होता, वह कृतक भी नहीं हाता जैसे बन्ध्यापुत्र (व्यतिरेकी उदाहरण)। यह शब्द कृतक है (उपनयो इसलिए परिणामी है (निगमन)। द्र.स/टी/५०/२१३ अन्तरिता सूक्ष्मपदार्या, धमिण कस्यापि पुरुष विशेषस्य प्रत्यक्षा भवन्तीति साध्या धर्म इति धमिधर्मसमुदायेन पक्षवचनम् । कस्मादिति चेत्, अनुमान विषयत्वादिति हेतुवचनम् । किंवत् । यद्यदनुमानविषय तत्तत् कस्यापि प्रत्यक्ष भवति, यथाग्न्यादि. इत्यन्वयदृष्टान्तवचनम् । अनुमानेन विषयाश्चेति इत्युपनयवचनम् । तस्मात कस्यापि प्रत्यक्षा भवन्तीति निगम नवचनम्। इदानी व्यतिरेकदृष्टान्त क्थ्यते - यन्त्र कस्यापि प्रत्यक्ष तदनुमानविषयमपि न भवति यथा रखपुष्पा'द, इति व्य तिरे दृष्टान्तवचनम् । अनुमानविषयाश्चेति पुनरप्युपनयवचनम् । तस्मात् प्रत्यक्षा भवन्तीति पुनरपि निगमनवचमिति । - अन्तरित व सक्ष्म पदार्थ रूप धर्मी क्सिी भी पुरुष विशेष के प्रत्यक्ष होते है। इस प्रकार साध्य धर्मी और धर्म के समुदायसे पक्षवचन अथवा प्रतिज्ञा है। क्योकि वे अनुमान के विषय है, यह हेतु वचन है। क्सिकी भॉति । जो-जो अनुमानका विषय है वह-वह किसाके प्रत्यक्ष होता है, जैसे अग्नि आदि, यह अन्वय दृष्टान्तका वचन है। और ये पदार्थ भी अनुमानके विषय है, यह उपनयका वचन है। इसलिए किसी के प्रत्यक्ष होते है. यह निगमन वाक्य है।
__ अब व्यतिरेक दृष्टान्त कहते है-जो किसी के भी प्रत्यक्ष नहीं होते वे अनुमानके विषय भी नही होते, जसे कि आकाशके पुष्प आदि, यह व्य तिरेकी दृष्टान्त वचन है। और ये अनुमानके विषय है, यह पुन उपनयका वचन है। इसीलिए किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते है, यह पुन निगमन वाक्य है।
३. स्वार्थानुमानमें दो ही अवयव होते है न्या दी /३/६२४-२५/७२ अस्य स्वार्थानुमानस्य त्रीण्यङ्गानि-धर्मी,
साध्य, साधनं च ॥२४॥ पक्षो हेतुरित्यद्वयं स्वार्थानुमानस्य, साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिणः पक्षत्वात। तथा च स्वार्थानुमानस्य धर्मीसाध्यसाधनभेदात्रीण्यङ्गानि पक्षसाधनभेदादद्वय चेति सिद्ध , विवक्षाया वैचित्र्यात ॥२५॥ - इस स्वार्थानुमानके तीन अंग हैधर्म, साध्य व साधन ॥२४॥ अथवा पक्ष व हेतु इस प्रकार दो अग भी स्वार्थानुमान के है, क्यो कि, साध्य धर्मसे विशिष्ट होनेके कारण साध्य व धर्मी दोनोक। पक्षमें अन्तर्भाव हो जाता है और साधन व हेतु एकार्थवाचक है। (यहाँ प्रतिज्ञा नामका कोई अग नहीं होता, उसके स्थानपर पक्ष होता है)। इस प्रकार स्वार्थानुमानके धर्मी, माध्य व साधनके भेदसे तीन अंग भी होते है और पक्ष व हेतुके भेदसे दो अग भी होते है । ऐसा सिद्ध है। यहाँ केवल विवक्षाका ही भेद है ॥२५॥ ४.परार्थानुमानमें भी शेष तीन अवयव वीतराग कथा
में ही उपयोगी हैं, वादमें नहीं प मु./३/३७,४४,४६ एतद्द्वयमेवानुमानाड्ग नोदाहरणम् ॥३७॥ न च तदङ् ॥४४॥ • बालव्युत्पत्त्य तत्त्रयोपगमे शाख एवासौ नवा दे,अनुप
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अनुमानित
अनुयोग
४ पदमीमासा आदि अनुयोगद्वार निर्देश । * विभिन्न अनुयोगद्वारोके लक्षण ।-दे. वह वह 'नाम'। ३ अनुयोगद्वार निर्देश
१ सत, संख्या आदि अनुयोगद्वारोके क्रमका कारण । २ अनुयोगद्वारोमे परस्पर अन्तर। * उपक्रम व प्रक्रममे अन्तर । -दे उपक्रम । ३. अनुयोगद्वारोंका परस्पर अन्तर्भाव । ४. ओघ और आदेश प्ररूपणाओका विषय ।
५. प्ररूपणाओ या अनुयोगोका प्रयोजन । * अनुयोग व अनुयोग समास ज्ञान -दे श्रुतज्ञान II
योगात॥४६॥ == पाल और हेतु ये दोनों ही अनुमानके अग है, उदाहरण नहीं ॥३७॥ न ही उपनय व निगमन अग है ॥४४॥ क्योकि बाल व्युत्पत्तिके निमित्त इन तीनोका उपयोग शास्त्रमें होता है,वाद में नहीं, क्योंकि वहाँ वे अनुपयोगी है ॥४६॥ न्या दी /३/३१,३४,६६/७६,८१,८२ परार्थानुमानप्रयोजकस्य च बाक्य
स्य द्वाववयवौ, प्रतिज्ञा हेतुश्च ॥३१॥ प्रतिज्ञाहेतुप्रयोगमात्रै वोदाहरणादिप्रतिणास्यार्थस्य गम्यमानस्य व्युत्पन्नेन तु शक्यत्वात । गम्यमानस्याप्यभिधाने पौनरुक्तप्रसङ्गात् ॥३४॥ वीतरागकथायर्या तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वाववयवौ, प्ररिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रय , प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वार प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पञ्चेति यथायोग्य प्रयोगपरिपाती। तदेव प्रतिज्ञादिरूपाल्परोपदेशादुत्पन्नं परार्थानुमानम् ॥३६॥ - परार्थानुमान प्रयोजक वाक्यके दो अवयव होते है - प्रतिज्ञा व हेतु ॥३१॥ प्रतिज्ञा व हेतु इन दो मात्रके प्रयोगसे ही व्युत्पन्न जनो को उदाहरणादिके द्वारा प्रतिपाद्य व जाना जाने योग्य अर्थका भो ज्ञान हो जाता है। जान लिये गयेके प्रति भी इनको कहनेमे पुनरुक्तिका प्रसग आता है ॥३४॥ परन्तु वीतराग कथामें प्रतिपाद्य अभिप्रायके अनुरोधसे प्रतिज्ञा व हेतु ये दो अवयव भी है, प्रतिज्ञा, हेतु व उदाहरण इस प्रकार तीन अवयव भी है. प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण और उपनय इस प्रकार चार भी है तथा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन इस प्रकार पाँच भी है। यथायोग्य परिपाटीके अनुसार ये सब ही विक्रूपरित हो जाते है। इस प्रकार प्रतिज्ञादि रूप परोपदेशमे उत्पन्न होने के कारण वह परार्थानुमान है ॥३६॥ अनमानित-आलोचनाका एक दोष-दे आलोचमा २ । अनुमोदना-दे अनुमति । अनयोग-जेनागम चार भागोमे विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते है-प्रथमानुयाग, करण नृयोग, चरणानुयाग और द्रव्यानुयोग । इन चारोमें क्रमसे कथए व पुराण, म मिद्धान्त व लोक विभाग, जीवका आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्योका स्वरूप व तत्त्वोका निर्देश है। इसके अतिरिक्त वस्तुका क्थन करने में जिन अधिकारों की आवश्यक्ता होती है उन्हे अनुयोगद्वार कहते है। इन दोनो हो प्रकारके अनुयोगोका कथन इस अधिकार में किया गया है।
१. आगमगत चार अनुयोग
१ आगमका चार अनुयोगोमे विभाजन । २. आगमगत चार अनुयोगोके लक्षण । ३. चारों अनुयोगोकी कथन पद्धतिमे अन्तर । ४. चारो अनुयोगोका प्रयोजन । ५. चारो अनुयोगोकी कथंचित् मुख्यता गौणता । ६ चारो अनुयोगोका मोक्षमार्गके साथ समन्वय । * चारो अनुयोगोके स्वाध्यायका क्रम ।
-दे स्वाध्याय १ २. अनुयोगद्वारोके भेद व लक्षण १. अनुयागद्वार सामान्यका लक्षण । २. अनुयोगद्वारोके भेद-प्रभेदोके नाम निर्देश । १. उपक्रम आदि चार अनुयोगद्वार । २ निर्देश, स्वामित्व आदि छ अनुयोगद्वार। ३ सतु, संख्यादि आठ अनुयोगद्वार तथा उनके भेद ।
१. आगमगत चार अनुयोग
आराम १. आगमका चार अनुयोगोंमें विभाजन कियाकलापमें समाधिभक्ति--"प्रथमं करण चरणं द्रव्य नम । प्रथमा
नुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगको नमस्कार है। द्र स/टी./४२/१८२ प्रथमान योगो चरणान योगो. करणान योगो.. द्रव्यान योगो इत्युक्तलक्षणान योगचतुष्टरूपेण चतुर्विध भूतज्ञानं ज्ञातव्यम् । = प्रथमानु योग, चरणान योग, करणान योग और द्रव्यान योग ऐसे उक्त ल* गोवाले चार अन योगोंरूपसे चार प्रकारका श्रुतज्ञान जानना चाहिए । (प का /ता. /१७३/२५४/१५) । २. आगमगत चार अनुयोगोके लक्षण
१ प्रथमानुयोगका लक्षण र.क.श्रा /४३ प्रथमान योगमाख्यान चरित पुराणमपि पुण्यम् । बोधि
समाधिनिधान बोधातिबोध समीचीन ॥४३॥ - सम्यग्ज्ञान है सो परमार्थ विषयका अथवा धर्म, अर्थ, वाम मोक्षका अथवा एक पुरुषके आश्रय क्थाका अथवा प्रेसठ पुरुषोके चरित्रका अथवा पुण्यका अथवा रत्नत्रय और ध्यानका है कथन जिसमें सो प्रथमान योग रूप शास्त्र
जानना चाहिए । (अन ध/३/8/२५८)। ह पु/१०/७१ पदै पञ्चसहस्र स्तु प्रयुक्त प्रथमे पुन' । अनु योगे पुराणार्थविषष्टिरुपवर्ण्यते ॥७९॥ स दृष्टिवादके तीसरे भेद अन योगमें पाँच हजार पद हैं तथा इसके अवान्तर भेव प्रथमान योग, त्रेसठ शलाका पुरुषोंके पुराणका वर्णन है ॥७१॥ (क.पा/१/६१०३/१३८) (गो क / जी प्र/३६१-३६२/७७३/३) (द्र स./टी./४२/१८२/८) (पं का./ता../ १७३/२५४/१५)। ध, २/१,१,२/१.१.२/४ पढमाणियोगो पंचसहस्सपदेहि पुराणं वण्णेदि । प्रथमान योग अर्थाधिकार पाँच हजार पदोके द्वारा पुराणों का वर्णन करता है।
२ चरणानुयोगका लक्षण र क श्रा/४५ गृहमेध्यनगाराणा चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम्। 'चरणान
योगसमय सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥४५॥ - सम्यग्ज्ञान ही गृहस्थ और मुनियोंके चारित्रकी उत्पत्ति, वृद्धि, रक्षाके अंगभूत चरणानु योग
शास्त्रको विशेष प्रकारसे जानता है । (अन ध/३/११/२५१)। द्र सं./टो /१२/१८२/६ उपासकाध्ययनादौ श्रावकधर्मम्, आचाराराधनो यतिधर्म च यत्र मुख्यत्वेन कथयति स चरणानु योगो भण्यते । उपासकाध्ययन आदिमें श्रावकका धर्म और मूलाचार, भगवती आराधना आदिमें यतिका धर्म जहाँ मुख्यतासे कहा गया है, वह दूसरा चरणान योग कहा जाता है । (पं का/ता वृ./१७३/२५४/१६) ।
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अनुयोग
अनुयोग
३. करणानुयोगका लक्षण र.क श्रा./४४ लोकालोकविभक्तर्यगपरिवृत्तश्चतुर्गतीना च । आदर्श मिव तथामतिरवै ति करणानयोगं च ॥४१॥ == लोक अलोकके विभागको, युगोके परिवर्तनको तथा चारों गतियोको दर्पणके समान प्रगट करनेवाले करणान योगको सम्यग्ज्ञान जानता है। (अन ध /३/१०/२६०) । द्रस /टो /१२/१८२/१० त्रिलोक्सारे जिनान्तरलाविभागादिग्रन्थव्या
ख्यानं करणान योगो विज्ञेय । - त्रिलोक्सारमे तीर्थकरोका अन्तराल और लोकविभाग आदि व्याख्यान है। ऐसे ग्रन्थरूप करणान् - योग जानना चाहिए । (प का /ता वृ/१७३/१५४/१७) ।
४ द्रव्यानुयोगका लक्षण र क श्रा./४६ जीवाजीवसुतत्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमाक्षौ च । द्रव्यानुयोगदीप श्रुत विद्यालाकमातनु ते ॥४६॥ =द्रव्यानु योगरूपी दीपक जीव-अजीव रूप सुतत्त्वो को, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्षको तथा भावश्रुतरूप। प्रकाश का विस्तारता है । (अन ध/२/१२/२६१) । ध १/११.७/१८/४ राताणियोगम्हि जमत्थित्त उत्त तरस पमाण परूवेदि दवाणिगे। सत्प्ररूपणामे जा पदार्थो । अस्तित्व कहा गया है उनके प्रमाणका बण न द्रव्यानुयाग करता है। यह लक्षण
अन योगद्वार।के अन्तर्गत द्रव्यान योगका है। द्र,स/टी/४२/१८२११ प्राभृततत्त्वार्थ सिद्धान्तादौर शुद्धाशुद्धजीवादिषड् द्रव्यादीना मुख्यवृत्त्या व्याख्यान क्रियते स द्रव्यान योगो भण्यते। जसम पसार आदि प्राभृत और तत्त्वार्थ सूत्र तथा सिद्धान्त आदि शास्त्र में मुख्यतासे शुद्ध-अशुद्ध जोब आदि छ द्रव्य आदिका जो वर्णन किया गया है वह द्रव्यान योग कहलाता है। (पं का /ता बृ /१७३/२५४/१८) । ३. चारों अनुयोगोको कथन पद्धनिमें अन्तर
१. द्रव्यानुय ग व करणानुयोगमे द्र स /टी /१३/४०/५ एव पुढ विजलतेउबाऊ इत्यादिगाथाद्वयेन तृतीयगाथापादत्रयेण च धवलज यधवलमहाधव लप्रबन्धाभिधान सिद्वान्तत्रयबोजपद मुचितम् । 'सनेसुद्धा हु मुद्रणया इति शुद्धात्मतत्त्वप्रकाशक तृतीयगाथाचतुर्थ पादेन पञ्चास्तिकायप्रवचनसारममयसारा भिधानप्राभृतत्र यस्यापि बोज पद सूचितम् । सच्चाध्यात्मग्रन्थस्य बीजपदभूत शुद्वात्मस्वरूपमुक्त तत्पुनरुपादेयमेव । इस रीतिसे चौदह मार्गणाओके कथन के अन्तर्गत 'पुढ बिजलतेउवाऊ' इत्यादि दो गाथाओ
और तोसरी गाथाके तीन पदोसे धवल, जयधवल और महाधवल प्रबन्ध नामक जो तीन (करुणानुयोगके) सिद्वान्त ग्रन्थ है, उनके बीजपद की सूचना ग्रन्थकारने की है। सव्वे सुद्धा ह सुद्धणया' इस तृतीय गाथाके चौथे पादसे शुद्धात्मतत्त्व के प्रकाशक पचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार इन तीनो प्राभृतोका बीजपद सूचित किया है । तहाँ जो अध्यात्मग्रन्थका बीज पदभूत शुद्धात्माका स्वरूप कहा है वह तो उपादेय ही है। नोट-(धवल आदि वरणानुयोगके शास्त्रोके अनुसार जीव तत्त्वका व्याख्यान पृथिवी जल आदि असद्भूत व्यवहार गत पर्यायोके आधारपर किया जाता है, और पंचास्तिकाय आदि द्रव्यानुयोगके शास्त्रोके अनुसार उमो जीव तत्त्वका पारुपान उसकी शुद्धाशुद्व निश्चय नयाश्रित पर्यायोके आधारपर किया जाता है। इस प्रकार करणानुयोगमे व्यवहार नयकी मुख्यतासे और द्रव्यानुयोगमे निश्चयनयकी मुख्यतासे कथन किया जाता है। मो.मा ५/८/७/४०४/४ करणानुयागवि व्यवहारनय की प्रधानता लिये
व्याख्यान जानना। मो.मा.प्र/८1८/४०७/२ करणानुयोगविर्ष भी कही उपदेशको मुख्यता
लिये व्याख्यान हो है ताकौ सर्वथा तैसे हो न मानना। मो.मा प्र./414/४०६ १४ करणानुयोग विर्षे तौ यथार्थ पदार्थ जलावनेका मुख्य प्रयोजन है । आचरण करावनेकी मुख्यता नाही।
रहस्यपूर्ण चिट्ठी प० टोडरमल-समयसार आदि ग्रन्थ अध्यात्म है और आगमको चर्चा गोमट्टसार (करणानुयोग) मे है।
२ द्रव्यानुयोग व चरणानुयोगमे मो मा प्र/८/१४/४२६/७ (द्रव्यानुयोगके अनुसार) रागादि भाव घटे वाह्य ऐसै अनुक्रमते श्रावक मुनि धर्म होय । अथवा ऐसे श्रावक मुनि धर्म अगीकार क्येि पचम षष्ठम आदि गुणस्थान नि विष रागादि घटावनेरूप परिणाम निकी प्राप्ति हो है। ऐसा निरूपण चरणानुयोगवि किया।
३. करणानुयोग व चरणानुयोग मे मो मा प्र /८/७/४०६/१४ करणानुयोग विर्षे तो यथार्थ पदार्थ जनावनेका मुख्य प्रयोजन है । आचरण करावनेको मुख्यता नाही। तातै यहु तौ चरणानुयोगादिकके अनुसार प्रवः. तिसतै जो कार्य होना है सो स्वयमेव हो होय है। जैसे आप कर्मनिका उपशमादि किया चाहे तो
कैसे होय। ___४. चारो अनुयोगोका प्रयोजन
१ प्रथमानुयोगका प्रयोजन गो जी |जी प्र/३६१-३६२/७७३/३ प्रथमानुयाग प्रथम मिथ्याष्टिमविरतिकमव्युत्पन्न वा प्रतिपाद्यमानित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोऽधिकार प्रथमानुयोग । प्रथम क ये मिथ्यादृष्टि अवती, विशेष ज्ञानरहित, ताको उपदेश देने निमित्त जा प्रवृत्त भषा अधिकार अनुयोग कहिए सो प्रथमानुयोग कहिए। मो मा प्र /८/२/३६४/११ जे जीव तुच्छ बुद्धि होय ते भी तिस करि धर्म सन्मुख होये है। जाते वे जीव सूक्ष्म निरूपणको पहिचान नाही, लौकिक वार्तानिक जानै । तहाँ तिनिका उपयोग लागै। बहुरि प्रथमानुयोगविषै लौकिक प्रवृत्तिरूप निरूपण होय, ताकी ते नीकै समझ जाय।
२ करुणानयोगका प्रयोजन मो मा प्र/८/3/३६५/२० जे जीव धर्म विषै उपयोग लगाय चाहै ऐसे विचारविषै (अर्थात् करणान योग विषय उनका) उपयोग रमि जाय, तब पाप प्रवृत्ति छूट स्वयमेव तत्काल धर्म उ जै है। तिस अभ्यासकरि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति शीघ्र हो है। बहुरि ऐसा सूक्ष्म कथन जिनमत विर्षे ही है, अन्यत्र नाही, ऐसे महिमा जान जिनमतका श्रद्धानी हो है । बहुरि जे जीव तत्त्वज्ञानी हाय इस करणानुयोगको अभ्यासै है, तिनको यहु तिस का (तत्त्वनिका) विशेषरूप भास है।
३ चरणानुयोगका प्रयोजन मो.मा प्र/८/४/३६७/७ जे जीव हित-अहितको जानै नाही, हिंसादि पाप कार्यान विपै तत्पर होय रहे है, तिनिको जैसे वे पाप कार्यको छोड धर्मकार्यनिविषै लागै, तैसे उपदेश दिया। ताकौ जानि धर्म आचरण करने को सम्मुख भये। ऐसै साधनतें कषाय मन्द हो है। ताका फलतै इतना तो हो है, जो कुगति विषे दुख न पावै, अर मुगतिविधै सुरख पावै। बहुरि (जो) जीवतत्त्वके ज्ञानी होय करि चरणान योगको अभ्यास है, तिनको ए सर्व आचरण अपने वीतरागभावके अनु सारी भासै है । एकदेश वा सर्व देश वीतरागता भये ऐसी श्रावक्दशा और मुनिदशा हो है।
४ द्रव्यानुयोगका प्रयोजन मोमा प्र/12/३६८/४ जे जावादि द्रव्यानिको का तत्त्वनिको पहिचान नाही, आपापरको भिन्न जाने नाही तिनिको हेतु दृष्टान्त युक्तिकरि वा प्रमाणनयादि करि तिनिका स्वरूप ऐसे दिखाया जैसे याके प्रतीति होय जाय। उनके भावोको पहिचाननेका अभ्यास राखै तो शीघ हो तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होय जाय। बहुरि जिनिकै तत्त्वज्ञान भया होय, ते जोवद्रव्यानुयोग को अभ्यासै । तिनिको अपने श्रद्धानके अनुसारि सो सर्व कथन भतिभास है।
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अनुयोग
५. चारों अनुयोगोकी कथचित् मुख्यता गौणता १ प्रथमानुयोगको योणता
मो. मा प्र / ८ /६/४०१ / ६ ग्रहाँ (प्रथमान् योगमें) उपचाररूप व्यवहार वर्णन किया है, ऐसे याको प्रमाण कोजिये है । याकौ तारतम्य न मानि लेना । तारतम्य करणान योग विषै निरूपण किया है सो जानना । महुरि प्रथमानुयोग उपचाररूप कोई धर्मका जग भने सम्पूर्ण धर्म भया कहिए है। - ( जैसे ) निश्चय सम्यक्त्वका तौ व्यवहार विषै उपचार किया, बहुरि व्यवहार सम्यक्त्वके कोई एक अग सम्पूर्ण व्यवहार सम्यक्त्वका उपचार किया, ऐसे उपचार करि सम्यक्त्व भया कहिए है।
२. करणानुयोगकी गौणता
मोमा / ८ /७/४०४/१५ करणान योग विषै व्यवहार नयकी प्रधानता लिये व्याख्यान जानना, जातै व्यवहार बिना विशेष जान सके नाहीं । बहुरि कही निश्चय वर्णन भो पाइये है । मो.मा.पcio/zoor करणानुयोगविये भी कहीं उपदेशकी मुख्यता लिए व्याख्यान हो है, ताकौ सर्वथा ते से ही न मानना । मोम ca/०६/२४ करणानुयोग वियें तो यथार्थ पदार्थ जनावनेका मुख्य प्रयोजन है, आचरण करावने की मुख्यता नाहीं ।
३ चरणानुयोगकी गौणता
मोमा /८/८/४०७/१६ चरणानुयोगविषै जैसे जीवनिकै अपनी बुद्धिगोचर धर्मका आचरण होय सो उपदेश दिया है। तहाँ धर्म तौ निश्चयरूप मोक्षमार्ग है, सोई है ताके साधनादिक उपचार धर्म है, सो व्यवहारनयकी प्रधानताकरि नाना प्रकार उपचार धर्म के भेदादिकका या विषे निरूपण करिए है ।
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४ द्रव्यानुयोगकी प्रधानता मोमा १८/१५/२०/२ मोहमार्गका मूल उपदेश तो यहाँ (दयानुयोग विधे) ही है।
६. चारों अनुयोगोंका मोक्षमार्ग के साथ समन्वय १. प्रथमानुयोगका समन्वय
मी मा /८/६/४००/१६ प्रश्न - (प्रथमानुयोग में) ऐसा झूठा फल दिखावना तो योग्य नाहीं, ऐसे कथनको प्रमाण कैसे कीजिए 1 उत्तर - जे अज्ञानी जीव बहुत फल दिखाए बिना धर्म विषै न लागें,
पाप तैं न डरें, तिनिका भला करनेके अर्थि ऐसे वर्णन करिए है । मो मा प्र./८/१२/४२४/१५ प्रश्न (प्रथमानुयोग ) रामादिका निमित्त होय, सो क्थन हो न करना था। उत्तर सरागी जीवनिका मन केवल वैराग्य कथम विषैला नाहीं, ताते जेसे को बतासा आश्रय ओपच दीजिये, तेसे सरागी भोगादि कथन के आश्रय धर्मवि रुचि कराई है।
२ करणानुयोगका समन्वय
मो मा प्र./८/१३ / ४२७/१३ प्रश्न -द्वीप समुद्रादिकके योजनादि निरूपे जिनमें कहा सिद्धि है ? उत्तर- तिनको जाने कि तिनिविष इष्ट अनि बुद्धि न होय तें पूर्वोक्त सिद्धि हो है प्रश्न तो जिसतें किन प्रयोजन नाहीं, ऐसा पाषाणादिकको भी जाने यहाँ इट अनिष्टपनों न मानिए है, सो भी कार्यकारी भया' उत्तर सरागी जीव रागादि प्रयोजन बिना काइको जाननेका उद्यम न करें जो स्वयमेव उनका जानना होय तो तहाँते उपयोगको छुडाया ही चाहे है। यहाँ उद्यमकरि द्वीप समुद्रादिकको जाने है, तहाँ उपयोग लगाने है। सो रागादि घटे ऐसा कार्य हो है बहुरि पाषाणादिवि लोकका कोई प्रयोजन भास जाय तौ रागादिक होय आवै । अर
पाकि इस लोक सम्बन्धी कार्य का नाहीं, सातें रागादिका कारण नाहीं ।... बहुरि यथावत् रचना जानने करि भ्रम मिटे उपयोगकी निर्मलता होयातें यह बन्यासकारी है।
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अनुयोग
३ चरणानुयोगका समन्वय प्र.सा.रा.प्र./२००/ १२-१३ पानुसारि चरणं चरणानुसारि मियो इयमिदं ननु सम्यपेस् तस्मान्मुमुक्षुरधिरोहतु मोक्षमार्ग. द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ॥१२॥ द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धि द्रव्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धी बुध्येति कर्माविरता' परेऽपि चरणं चरन्तु ॥१३॥ चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है. इस प्रकार वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं, इसलिए या तो द्रव्यका आश्रय लेकर मुमुक्षु मोक्षमार्ग में आरोहण करो ॥ १२ ॥ द्रव्यकी सिद्धिमें चरणकी सिद्धि है और चरणकी सिद्धिमें द्रव्यकी सिद्धि है, यह जानकर कर्मोसे (शुभाशुभ भाव) से अविरत दूसरे भी, द्रव्यसे अविरुद्ध चरण (चारित्र) का आचरण करो ॥१३॥ मोमा.प्र /८/१४/४२८/२० प्रश्न चरणानुयोगविषै बाह्यतादि साधनका उपदेश है, सो इनते कि सिद्धि नाहीं अपने परिणाम निमंत चाहिए. बाह्य चाहो जैमे प्रवत्तौं। उत्तर - आत्म परिणामनिके और बाह्यवृत्तिनिमित-मित्तिक सम्बन्ध हैं। जातें समस्थ क्रिया पाणामपूर्वक हो है । अथवा बाह्य पदार्थनिका आश्रय पाय परिनाम हो है परिणाम मेटनेके अर्थ माहा मस्तुका निषेध करना समयसारादिभिदे (स सा./ए. २८५) का है। महुरि जो बाह्यस्य कि सिद्धि न होय की समर्थसिद्धिके वासी देव सम्यदृष्टि बहुत ज्ञानी तिनिकै तो चौथा गुणस्थान होय अर गृहस्थ श्रावक मनुष्य के पंचम गुणस्थान होय. सो कारण कहा। बहुरि तीर्थंकरादि गृहस्थ पद छोडि काहेको संयम है।
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४ द्रव्यानुयोगका समन्वय
मोम /८/१५/४२६/११ प्रश्न- द्रव्यानुयोगवि व्रत-सयमादि व्यव हारधर्मका होनपना प्रगट किया है । इत्यादि कथन सुन जीव है। सो स्वच्छन्द होय पुष्प छोड़ पापवि प्रवरोंगे सायें इनका ना सुनना युक्त नाहीं। उत्तर- जैसे गर्दभ मिश्री खाए मरे तो मनुष्य तौ मिश्री खाना न छाडे । तेसै विपरीतबुद्धि अध्यात्म ग्रन्थ सुनि स्वच्छन्द होय तौ विवेकी तौ अध्यात्मग्रन्थनिका अभ्यास न छोड़ें। इतना करे जाकी स्वच्छन्द होता जाने, ताकी जैसे वह स्वच्छन्द न होय, तैसे उपदेश दे । बहुरि अध्यात्म ग्रन्थनिविषै भी जहाँ तहाँ स्वच्छन्द होनेका निषेध कीजिये है। बहुरि जो झूठा दोषकी कल्पनाकरि अध्यात्म शास्त्रका बाँचना-सुनना निषेधिये तो मोक्षमार्गका मूल उपदेश तो तहाँ ही है । ताका निषेध किये मोक्षमार्ग का निषेध होय ।
२. अनुयोगद्वारोंके भेद व लक्षण
५. अनुयोगद्वार सामान्यका लक्षण
कपा ३/३-२२/१७/३ किमणि गद्दार णाम । अहियारो भण्णमाणस्थस्स अनगोवाओ। अनुयोगद्वार किसे कहते है कहे जानेवाले अर्थ के के उपायभूत अधिकारको अनुयोगद्वार कहते है ।
ध १/१,१,५/१००-१०१ / १४३/८ अनियोगो नियोगो भाषा विभाषा वात्तिकेत्यर्थ । उक्त च - अणियोगो य नियोगो भासा विभासा य मडिया चेय एवं असिनामा एआ॥१००॥ सू मुद्दा पहि संभवदल बहिया चेय अभियोगनिरुतीए दिता होति पचे ॥१०१॥ अनुयोग नियोग, भाषा, विभाषा और वार्त्तिक ये पाँचो पर्यायवाची नाम है। कहा भी है- अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्तिक में पाँच अनुयोग के एकार्थबाची नाम जानने चाहिए |२००१ अनुयोगी निरुति में सूची, मुद्रा, प्रतिघ, सभवदल और वार्त्तिका ये पाँच दृष्टान्त होते हैं ॥ १०१ ॥ विशेषार्थ लकडीसे किसी वस्तुको तैयार करनेके लिए पहिले लकड़ी के निरुपयोगी भागको निकालनेके लिए उसके ऊपर एक रेखामें जो डोरा डाला जाता है, वह सूचीकर्म है। अनन्तर उस डारासे लकड़ी के ऊपर जो चिह्न कर दिया जाता है वह मुद्रा कर्म
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अनुयोग
है। इसके बाद उसके निरुपयोगी भागको छाँटकर निकाल दिया जाता है। इसे ही प्रतिघ या प्रतिघात कर्म कहते है । फिर इस लकडोके आवश्यकतानुसार जो भाग कर लिये जाने है वह सम्भवदलकर्म है और अन्त में वस्तु तैयार करके उसपर पालिश आदि कर दी जाती है. वही वार्त्तिका कर्म है। इस तरह इन पाँच कर्मोंसे जैसे विवक्षित वस्तु तैयार हो जाती है उसी प्रकार अनुयोग शब्दसे भी आगमानुङ्गल सम्पूर्ण अर्थका ग्रहण होता है। नियोग, भाषा, विभाषा और वार्तिक ये चारों अनुयोग शब्दके द्वारा प्रगट होनेवाले अर्थ को ही उत्तरोत्तर विशद करते है, अतएव वे अनुयोगके ही पर्यायाचो नाम है (. ४.१.२४/१२२-१२३/२६०) । .सं./टी./४२/१८३/२ अनुयोगोऽधिकार परिच्छेद प्रकरणमिश्याents | अनुयोग, अधिकार, परिच्छेद, प्रकरण, इत्यादिक सब शब्द एकार्थवाची हैं ।
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२. अनुयोगद्वारोंके मेव प्रभेदोंके नाम निर्देश
१. उपक्रम आदि चार अनुयोगद्वार
स. म. / २८/३०६/२२ चश्वारि हि प्रवचनानुयोगमहानगरस्य द्वाराणि उपक्रमः निक्षैप' अनुगम' नयश्चेति । प्रवचन अनुयोगरूपी महानगरके चार द्वार हैं- उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय । (इनके प्रभेद व लक्षण - दे, वह वह नाम )
२. निर्देश, स्वामित्व आदि छः अनुयोगद्वार रा.सू./१/० निर्देशस्वामित्व साधनाधिकरण स्थितिविधान निर्देश स्वामित्व साधना (कारण) अधिकरण (आधार), स्थिति (काल) तथा विधान (प्रकार) - ऐसे छः प्रकारसे सात तत्त्वोंको जाना जाता है व पू. १५)।
घ. १/१.१.२/१८/१४ कि कस्म के करम व केवचिरं करिविधो य भावो ति। छह अणगारेहि सम्बभावापुरतच्या ३९८३ पदार्थ क्या है (निर्देश) किसका है (स्वामित्व ), किसके द्वारा होता है ( साधन ), कहाँ पर होता है (अधिकरण), कितने समय तक रहता है (स्थिति), कितने प्रकारका है (विधान ), इस प्रकार इन छह अनुयोगद्वारोंसे सम्पूर्ण पदार्थोंका ज्ञान करना चाहिए ।
३. सत् संख्यादि ८ अनुयोगद्वार तथा उनके भेद - प्रभेद अनुयोगद्वार
स सू /१/८.
सत
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घ. ख. १/१. १.८/१५६
1 1 ओघ आदेश संख्या भागाभाग घ. ख, १३/५.३/ सूत्र २ / पृ २
।।
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१/१२/७/९५५ / | 1. 1 I II द्रव्यप्रमाण क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्पबहुत्व 1
ष. ख ७/२, १/ सू. १,२/२५
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एक जीव नानाजी
की अपेक्षा की अपेक्षा
१. स्पर्श निक्षेप
२. स्पर्शनामविभीषणता
३. स्पर्शनाम विधान ४. स्पशद्रव्यविधान ५. स्पर्श क्षेत्र विधान
4. स्पशंकाल विधान ७. स्पर्शभाव विधान
घ. १०/४,२,४,२८/६९/२
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प्ररूपणा
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प्रमाण
८. स्पर्शप्रत्ययविधान
१. स्पर्शस्वामित्वविधान
१०. स्पर्शस्पर्श विधान
११. स्पर्शगतिविधान
१२. स्पर्श अन्तर विधान
१३. स्पर्शसन्निकर्ष विधान १४. स्पर्शपरिमाणविधान
१५. स्पर्शभागाभागविधान -
१६. स्पर्श अल्पबहुत्व
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१०२
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श्रेणी
। च. वं. १९/४,२,६/सु. २५२/३५२
1 अवहार
भागहार
T अल्पबहुत्व
अनन्तरोपनिधा
। ध. १०/४२,४,२८/६६/६
।।
अवस्थित भागाहार
२. रूपाधिक भागाहार
१.
३. रूपोन भागाहार
४. छेद भागाहार
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प्ररूपणा
अनुयोग
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परम्परोपनिधा
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| ध १०/४.२,४,२८/७४/३
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प्रमाण अल्पबहुत्व
४. पक्ष्मीमासादि अनुयोगद्वार निर्देश
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५. नं. १०/४.१.४/१/१८ यादव्यवहारमा सिणि अभियोगद्वाराणि नादव्वाणि भवति पदमीमांसा सामिसमप्पा महुए त्ति ॥१॥ - अब वेदना द्रव्य विधानका प्रकरण है। उसमें पदमीमांसा, स्वामित्व और त्व, ये टीम अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है ॥१॥ घ. १०/४.१.४.९/१८/५ तत्पदं दुनियापदं भेदपदमिदि ध. १०/४, २, ४, १/११/२ एत्थभेदपदेन उक्कस्सादिसरूवेण अहियारो । उच्चस्साकस्स-जणाजण सादि-अनादि-धुप-अ व ओज-जुम्म ओम विसिद्ध-मोमणोवि सिमेन एत्थतेरस पदानि ।
घ. १०/४.२.४.१/गा. २/११ पदमीमांसा सखा गुणयारी च सामन्त खोज अध्यान ठाणानि य जीवसमुहारो
- पद दो प्रकारका है-व्यवस्थापद और भेदपद। यहाँ उत्कृष्टादि भेदपदका अधिकार है । उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि ध व अधव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोओम
विशिष्ट पदके भेद से यहाँ तेरह पद है । पदमीमासा, संख्या, गुणकार, चौथा स्वामित्व, ओज, अल्पबहुत्व, स्थान और जीव समुदाहार मे बार अनुयोगद्वार है।
३. अनुयोगद्वार निर्देश
१. सत्, संख्यावि अनुयोगद्वारोंके क्रमका कारण
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घ. ९/९.९.०/१५६-१५८/० साथियोगी साणियोगद्वारा जेन जोशीदो तेन पढमं संतानियोगो चेन भण्णदे निय-संखा-गुणिदोगान खेत उच्चदे दि एव चेन अदीद-फुसणेण सह फोसण उच्चदे । तदो दो वि अहियारा सखा जोणिणो णाणेग-जीये अस्सिऊण उच्चमाण-कालं तर परूवणा वि संखा-जोणी । इद थोवमिदं च बहुवमिदि भण्णमाण - अप्पाबहुग पि संखा-जोणी । तेण एदानमाहि दव्यमाणागमो भव-जोग्गो 1. भावो तस्स बहुवण्णादो |... अवगय-बट्टमाण फासो सुहेण दो वि पच्छा जाणदुत्ति फोसणपरूवणादी होदु णाम पुव्वं खेत्तस्स परूवणा, अणवगयखेत्तफोसणस्स तक्काल तर जाणणुवायाभावादो । तहा भावप्पाबहुगाण पाखेत फोसणानुगममंतरेण णतविषमा होति विमेन खेत्त-फोसण-परूवणा कायव्वा । ण ताव अंतरपरूषणा एत्थ भणणजग्गा कालजोणितादी । ण भावो वि तस्स तदो हेट्ठिम अहियारजोनिता अप्पामहूगं पि तस्स वि वेसानियोग-जोणितादो परिसेसादी कालो चेत्र तत्थ परूवणा- जोगी त्ति । भावप्पा बहुगाणं' जोगिसादो व्यमेवं तर उता उपजोनितादो मेन भावपरूवणा उच्च दे। सत्प्ररूपणारूप अनुयोगद्वार जिस कारण से शेष अनुयोगद्वारोंका योनित है, उसी कारण सबसे पहले सत्प्ररूपणाका ही निरूपण किया है . १५५॥ अपनी-अपनी संख्या गुणित अवगाहनारूप क्षेत्रको ही क्षेत्रानुगम कहते हैं। इसी प्रकार अतीतकालीम स्पर्श के साथ स्पर्शमागम कहा जाता है। इसलिए हम दोनों
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अनुयोग
अनुयोगसमास
हो अधिकारोका सख्याधिकार योनिभूत है। उसी प्रकार नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा वर्णन को जाने वाली काल प्ररूपणा और अन्तर प्ररूपणाका भी संख्याधिकार योनिभूत है। तथा यह अल्प है और यह बहुत है इस प्रकार कहे जानेवाले अक्पबहुत्वानु योगद्वारका भी सख्याधिकार योनिभूत है। इसलिए इन सबके आदिमें द्रव्यप्रमाणानुगम या संख्यानुयोगद्वारका ही कथन करना चाहिए । बहुत विषयवाला होनेके कारण भाव प्ररूपणाका वर्णन यहाँ नहीं किया गया है ।पृ. १५६॥ जिसने वर्तमानकालीन स्पर्शको जान लिया है, वह अनन्तर सरलतापूर्वक अतीत व वर्तमानकालीन स्पर्शको जान लेवे, इसलिए स्पर्शनप्ररूपणासे पहिले क्षेत्रप्ररूपणाका कथन रहा आवे। जिसने क्षेत्र और स्पर्शनको नही जाना है, उसे तत्सम्बन्धी काल और अन्तरको जानने का कोई भी उपाय नहीं हो सकता। उसी प्रकार भाव और अल्पन्न हुत्वकी प्ररूपणा क्षेत्र और स्पर्शनानुगमके बिना क्षेत्र और स्पर्शनको विषय करनेवाली नहीं हो सकती। इसलिए इन सबके पहिले ही क्षेत्र और स्पर्शनानुगमका कथन करना चाहिए ॥ १५७। यहाँपर अन्तरप्ररूपणाका क्थन तो किया नहीं जा सकता है, क्योकि अन्तरप्ररूपणाकी योनिभूत कालप्ररूपणा है। स्पर्शनप्ररूपणाके बाद भावप्ररूपणाका भी वर्णन नही कर सकते है, क्योकि कालप्रपणामे नीचेका अधिकार भावप्ररूपणाका योनिभूत है। उसी प्रकार स्पर्शनप्ररूपणाके बाद अल्पबहूखका भी कथन नहीं किया जा सकता, क्यो कि शेषानुयोग (भावानुयोग) अल्पबहुत्व प्ररूपणाका योनिभृत है। तब परिशेषन्यायसे वहाँपर काल हो प्ररूपणाके योग्य है यह बात सिद्ध हो जाती है ।पृ १५७॥ भाव प्ररूपणा और अल्पबहुम्व प्ररूपणाकी गोनिभूत होनेसे इन दोनाके पहिले ही अन्तर प्ररूपणाका उल्लेख किया गया है तथा अल्पबहुत्व की योनि होनेगे इसके पीछे ही भावप्ररूपणाका कथन किया है ॥पृ १५८॥ (रा वा /१/८,२-६/११) । २. अनुयोगद्वारोंमें परस्पर अन्तर
१. काल अन्तर व भंग विचयमे अन्तर ध ७/२.१,२/२७/१० णाणाजीवेहि काल-भंगविचयाणं को विसेसो। ण, जाणाजीवेहि भगविचयस्स मग्गणाण विच्छेदाविच्छेदस्थित्तपरूवयस्स मग्गणकाल तरेहि सह एयत्त विरोहादो। प्रश्न-नाना जीवोकी अपेक्षा काल और नाना जीवोका अपेक्षा भग विचय इन दोनो में क्या भेद है 1 उत्तर--नहीं, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय नामक अनयोगद्वार मार्गणाओके बिच्छेद और विच्छेदके अस्तित्वका प्ररूपक है। अत' उसका मार्गणाओके काल और अन्तर बतलानेवाले अनुयोगद्वारोके साथ एकत्व मानने में विरोध आता है।
२ उत्कृष्ट विभक्ति सर्वस्थिति अद्धाच्छेदमे अन्तर क.पा.३/३-२२/१२०/११/१२ मब ट्ठिदीए अद्धाछेद म्मि भणिद उक्कस्सदिदीए च को भेदो । बुच्चदे-चरिमणिसेयस्स जो कालो सो उक्कस्सअद्वाछेदम्मि भणि द उक्कस्सटि ठदी णाम। तत्थतणसम्वणिसेयाण समूहो सम्वठ्ठिदी णाम । तेण दोण्हमत्थि भेदो। उक्कस्सविहत्तीए उक्कस्सअद्धाछेदस्स च को भेदो। बुच्चदे-चरिमणि सेयस्स कालो उक्कस्सअद्धाच्छेदो णाम। उक्कस्सदिौविहत्ती पुण सव्वणियाणं सव्वणि सेयपदेसाणं वा कालो। तेण एदेसि पि अस्थि भेदो।-प्रश्नसर्व स्थिति और अद्भाच्छेदमें कही गयी उत्कृष्ट स्थिति में क्या भेद है। उत्तर-अन्तिम निषेकका जो काल है वह उत्कृष्ट अद्धाच्छेद में कही गयी उत्कृष्ट स्थिति है तथा वहाँपर रहनेवाले सम्पूर्ण निषेकोंका जो समूह है वह सर्व स्थिति है, इसलिए इन दोनों में भेद है। प्रश्न-उत्कृष्ट विभक्ति व उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें क्या भेद है । उत्तरअन्तिम निषेक के कालको उत्कृष्ट अद्धाच्छेद कहते है और समस्त निषेकोंके या समस्त निषेकोंके प्रदेशोंके कालको उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति कहते हैं, इसलिए इन दोनोंमें भेद है।
३ उत्कृष्ट विभक्ति व सर्वस्थितिमे अन्तर क.पा.३/३-२२/१२०/१५/५ एव संते सब्बुक्कस्सविहत्तीणं णस्थि भेदो त्ति णास कणिज्जं । ताणं पिणयविसेसवसेण कथंचि भेवलं भादो। तं जहा-ससुदायपहाणा उकास्स विहत्ती। अवयवपहाणा सव्व बिहत्ति त्ति । =ऐसा (उपरोक्त शकाका समाधान) होते हुए सर्व विभक्ति और उत्कृष्ट विभक्ति इन दोनोमें भेद नही है, ऐसी आशका नहीं करनी चाहिए, क्योकि, नय विशेष की अपेक्षा उन दोनोमें भी कथंचित भेद पाया जाता है। वह इस प्रकार है-उत्कृष्ट विभक्ति समुदायप्रधाम होती है और सर्व विभक्ति अवयवप्रधान होती है।
३. अनुयोगद्वारोका परस्पर अन्तर्भाव क पा २/२-२२/SEE/८१/५ कमणियोगद्दार कम्मिसंगहियं । वुच्चदे, समुकित्तणा ताव पुध ण वत्तव्या सामित्तादिअणियोगहारेहि चेव एगेगपयडीण मस्थित्तसिद्धीदो अवगयत्यपरूवणाए फलाभावादो। सव्वविहत्तीणोमव्यविहत्ती उकस्सविहत्ती अणुक्कस्सविहत्ती जहण्णविहत्ती अजहण्ण बहत्तीओ च ण बत्तव्बाओ, सामित्त-सण्णियासादिअणिओगद्दारेसु भण्णमाणेसु अवगयपयडिसंखस्स सिस्सस्स उकास्साणुकस्सजहण्णाजहष्णपयडिसरवाबिसयपडिवोहुप्पत्तीदो। सादि-अणादिधुव-अद्ध व अहियारा वि ण बत्तव्या कालं तरेसु परूविजमाणेसु तदवगमुप्पत्तीदा। भागाभागी ण बत्तवो अवगयअप्पाबहूग (स्स) सख विसयपडिवाहुपत्तीदा। भावो वि ण बत्तब्वो; उवदेसेण विणा वि माहोदएण मोहपयाडिविहत्तीए संभवो होदि त्ति अवगसुप्पत्तीदो। एव सपहियसेसतेरस अत्याहियारत्तादो एकारसअणि ओगहारषरूवणा चउबीसअणियोगहारपरूवणाए मह विरुज्झदे। - अब किस अनुयोगद्वारका किस अनुयोगद्वारमें स ग्रह क्यिा है इसका कथन करते है। यद्यपि समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार में प्रकृतियोका अस्तित्व बतलाया जाता है तो भी उसे अलग नही कहना चाहिए, क्योकि स्वामित्यादि अनुयागो के क्थनके द्वारा प्रत्येक प्रकृतिका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है अत जाने हुए अर्थका कथन करनेमे कोई फल नही है । तथा सर्व विभक्ति, नौसर्व विभक्ति, उत्कृष्ट विभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्य विभक्ति और अजघन्य विभक्तिका भी अलगसे कथन नही करना चाहिए, क्योंकि स्वामित्व, सन्निकर्ष आदि अनुयोगद्वारोंके कथनसे जिस शिष्यने प्रकृतियोकी सख्याका ज्ञान कर लिया है उसे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट तथा जघन्य और अजघन्य प्रकृतियोकी संख्याका ज्ञान हो ही जाता है तथा सादि, अनादि, ध्रुव और अध व अधिकारोंका पृथक् कथन नहीं करना चाहिए, क्योकि काल और अन्तर अनुयोग द्वारोके कथन करनेपर उनका ज्ञान हो जाता है। तथा भागाभाग अनुयोगद्वारका भी पृथक् कथन नहीं करना चाहिए, क्योकि जिसे असपमहत्वका ज्ञान हो गया है उसे भागाभागका ज्ञान हो ही जाता है। उसी प्रकार भाव अनुयोगद्वारका भी पृथक कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि मोहके उदयसे मोहप्रकृतिविभक्ति होती है, ये बात उपदेशके बिना भी ज्ञात हो जाती है। इस प्रकार शेष तेरह अनुयोगद्वार ग्यारह अनुयोगद्वारोंमें ही संग्रहीत हो जाते हैं। अत' ग्यारह अनुयोगद्वारोका कथन चौबीस अनुयोगद्वारोंके कथनके साथ विरोधको नहीं प्राप्त होता। ४. ओघ और आवेश प्ररूपणाओंका विषय रा.वा.हि./१/८/६८ सामान्य करि तो गुणस्थान विर्षे कहिये और विशेष करि मार्गणा विर्षे कहिए।
५. प्ररूपणाओं या अनुयोगोंका प्रयोजन घ२/१,१/४१५/२ प्ररूपणार्या किं प्रयोजनमिति चेदुच्यते, सूत्रेण
सचिताना स्पष्टीकरणार्थ विंशतिविधानेन प्ररूपणोच्यते।-प्रश्नप्ररूपणा करने में क्या प्रयोजन है । उत्तर-सूत्रके द्वारा साचित पदार्थोके स्पष्टीकरण करनेके लिए बोस प्रकारसे प्ररूपणा कही जाती है। अनुयोगसमास-श्रुतज्ञानका एक भेद-दे. श्रुतज्ञान III
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अनुयोगी
अनेकान्त
आ.प/६ गुणपर्यायाधिकार 'एकस्याप्यनेकस्वभावोपलम्भादनेकस्वभाव ।
एक द्रव्यके अनेक स्वभावकी उपलब्धि होनेके कारण वह अनेक स्वभाववाला है। स, सा/आ/परि शक्ति नं.३२ एकद्रव्यव्याप्यानेकपर्यायमयत्वरूपा अनेकत्व शक्ति 1 एक द्रव्यसे व्याप्य (व्यापने योग्य) अनेक पर्यायमयपनारूप अनेकत्व शक्ति है । अनेकान्त-वस्तुमें एक ही समय अनेकों क्रमवी व अक्रमवर्ती विरोधी धर्मों गुणों, स्वभावों व पर्यायोंके रूपमें- भली प्रकार प्रतीति के विषय बन रहे है। जो वस्तु किसी एक दृष्टिसे नित्य प्रतीत होती है वही किसी अन्य दृष्टिसे अनित्य प्रतीत होती है, जैसे व्यक्ति वहका वह रहते हुए भी बालकसे बूढा और गँवारसे साहब बन जाता है। यद्यपि विरोधी धर्मोका एक ही आकारमें रहना साधारण जनोंको स्वीकार नही हो सकता पर विशेष विचारकजन दृष्टिभेदकी अपेक्षाओ को मुख्य गौण करके विरोधमें भी अविरोधका विचित्र दर्शन कर सकते है। इसी विषयका इस अधिकारमें कथन किया गया है।
अनयोगी--(यह शब्द नैयायिक व वैशेषिक दर्शनकार आधार व
आश्रयके अर्थ में प्रयुक्त करते है। द्रव्य अपने गुणोका अनुयोगी है, परन्तु गुण अपने द्रव्यका नहीं, क्योंकि द्रव्य ही गुणका आश्रय है, गुण द्रव्यका नहीं)। अनुराग-दे राग। अनुराधा-एक नक्षत्र-दे. नक्षत्र । अनुलोम-(५ ध/पू./२८८/भाषाकार) सामान्यकी मुख्यता तथा विशेषकी गौणता करनेसे जो अस्तिनास्तिरूप वस्तु प्रतिपादित होती है, उसको अनुलोमक्रम कहते है। अनवाद-ध १/१,१.२४/२०१/४ गतिरुक्तलक्षणा, तस्याः वदनं वाद । प्रसिद्धस्याचार्य परम्परागतस्यार्थस्य अनु पश्चात वादोऽनुवाद । -गतिका लक्षण पहिले कह आये है। उसके कथन करनेको वाद कहते हैं। आचार्य परम्परासे आये हुए प्रसिद्ध अर्थका सदनुसार कथन
करना अनुवाद है। ध.१/१,१.१११/३४६/३ तथोपदिष्टमेवानुववनमनुवाद. प्रसिद्धस्य कथनमनुवाद । -जिस प्रकार उपदेश दिया है, उसी प्रकार कथन करनेको अनुवाद कहते है। · अथवा प्रसिद्ध अर्थ के अनुकूल कथन करमेको अन वाद कहते है। अनुवीचिभाषण-रा.वा./७/५,१/५३६/१२ अनुवी चिभाषण अनु. लामभाषणमित्यर्थ । -- अनुवीचिभाषण अर्थाद विचारपूर्वक बोलना (चा स./६३/३)। चा.प./टी/४६/११ वीची बाग्लहरी तामनुकृत्य या भाषा वर्तते सोऽनुवीचिभाषा, जिनसूत्रानुसारिणी भाषा अनु वीचिभाषा पूर्वाचार्यसूत्रपरिपाटीमन बल ध्य भाषणीयमित्यर्थ । -बीची वाग्लहरीको कहते है उसका अन सरण करके जो भाषा बोली जाती है सो अन वीचिभाषण है। जिनसूत्रकी अनु सारिणीभाषा अम वीची भाषा है। पूर्वाचार्यकृत सूत्रकी परिपाटीको उक्ल घन न करके बोलना, ऐसा अर्थ है। अनवत्ति-स.सि.१//३३१४०/६ द्रव्य सामान्यमुत्सर्ग अनुवृत्ति
रित्यर्थ । - द्रव्यका अर्थ सामान्य उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। स्या म./४/१६/२ एकाकारप्रतीतिरेकशब्दवाच्यता चान वृत्ति। -एक नामसे जाननेवाली प्रतीतिको अनुवृत्ति अथवा सामान्य कहते है। किसी धर्मको विधिरूपसे वृत्ति या अनुस्यूतिको अनवृत्ति कहते है।
जैसे घटमें घटत्वको अनु वृत्ति है । (न्या दी/३/६७६)। अनशिष्ट-भ.आ./वि./६८/१६६/४ अणुसिट्टि सूत्रानुसारेण शासनम् ।
- अशिष्ट अर्थात आगमके अविरुद्ध उपदेश करना । अनश्रेणी-ज.प./प्र १०५ Along a world line अर्थात एक
प्रदेश, पंक्ति। अनुश्रेणींगति-दे. विग्रह गति। अनुसमयापवर्तना-१. काण्डकघात व अन समयापवर्तनामें अन्तर
-दे. अपकर्षण/४। अनुस्मरण-रा.वा /१/१२,११/५५/१६ पूर्वानुभूतानुसारेण विकल्पनमनुस्मरणम् - पूर्व की अनुभूतियोंके अनुसार विकल्प करना अनुस्मरण है।
१ भेद व लक्षण १. अनेकान्तसामान्यका लक्षण । २. अनेकान्तके दो भेद (सम्यक् व मिथ्या)। ३ सम्यक् व मिथ्या अनेकान्तके लक्षण । ४. क्रमे व अक्रम अनेकान्तके लक्षण । २. अनेकान्त निर्देश १. अनेकान्त छल नही है। २ अनेकान्त संशयवाद नही है । * अनेकान्त प्रमाणस्वरूप है। -दे. नय I/२ । ३. अनेकान्तके बिना वस्तुकी सिद्धि नहीं होती। ४. किसी न किसी रूपमे सब अनेकान्त मानते हैं। ५. अनेकान्त भी अनेकान्तात्मक है। ६. अनेकान्तमे सर्व एकान्त रहते है पर एकान्तमे अने
कान्त नहीं रहता। ७. निरपेक्ष नयोका समूह अनेकान्त नही है। ८. अनेकान्त व एकान्त का समन्वय । * सर्व दर्शन मिलकर एक जैनदर्शन बन जाता है।
-दे. अनेकान्त २६ । * एवकारका प्रयोग व कारण आदि । -दे. एकान्त २। * स्यात्कारका प्रयोग व कारण आदि। -दे. स्याद्वाद ९. सर्व एकान्तवादियोके मत किसी न किसी नयमे
गर्भित है। ३.अनेकान्तका कारण व प्रयोजन
१. अनेकान्तके उपदेशका कारण । * शब्द अल्प है और अर्थ अनन्त । २. अनेकान्तके उपदेशका प्रयोजन । ३. अनेकान्तवादियोंको कुछ भी कहना अनिष्ट नही । ४. अनेकान्तकी प्रधानता व महत्ता।
अनृत-दे. सत्य ।
अनेक-१.द्रव्यमें एक अनेक धर्म (दे. अनेकाम्त ४)। २.षद्रव्यों में
एक अनेक विभाग (दे. द्रव्य ३) । अनेकत्व-न. च. वृ./६२/६५ अणेकरूवा हु विविहभावस्था॥६॥...
अणेक्क...पज्जपदो १६५३ - अनेक रूप अर्थात विविध भावों या पर्यायों में स्थित श द्रव्य पर्यायकी अपेक्षा अनेक है ॥६॥
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अनेकान्त
४. वस्तुमें विरोधी धर्मोका निर्देश
१. वस्तु अनेको विरोधी धर्मोसे गुम्फित है । २ वस्तु भेदाभेदात्मक है।
३ सत् सदा अपने प्रतिपक्षीकी अपेक्षा रखता है । ४. स्व सदा परकी अपेक्षा रखता है ।
५. विधि सदा निषेधकी अपेक्षा रखती है ।
६ वस्तुमे कुछ विरोधी धर्मोका निर्देश ।
७ वस्तुमे कचित् स्वपर भाव निर्देश ।
५. विरोधमें अविरोध
* वस्तुके विरोधी धर्मो मे कथंचित् विधि निषेध व भेदाभेद । - दे सप्तभगी ५।
* अनेकान्तके स्वरूपमे कथंचित् विधिनिषेध |
- दे सप्तभ्रंगी ३ ।
१. विरोधी धर्म रहनेपर भी वस्तुमे कोई विरोध नही पडता ।
२ सभी धर्मो मे नही बल्कि यथायोग्य धर्मो मे ही अविरोध है ।
३. अपेक्षाभेदसे विरोध सिद्ध है।
४. वस्तु एक अपेक्षासे एकरूप है और अन्य अपेक्षासे
अन्यरूप ।
५. नयोंको एकत्र मिलानेपर भी उनका विरोध कैसे दूर होता है ।
६. विरोधी धर्मो में अपेक्षा लगाने की विधि ।
७ विरोधी धर्म बतानेका प्रयोजन ।
* अपेक्षा व विवक्षा प्रयोग विधि । - दे. स्याद्वाद ।
* नित्यानित्य पक्षमे विधि निषेध व समन्वय । -दे उत्पाद, व्यय धौव्य २ । * व अद्वैत अथवा भेद व अभेद अथवा एकत्व व पृथक्त्व पक्षमे विधि निषेध व समन्वय ।
- दे द्रव्य ४ ।
१. भेद व लक्षण
१. अनेकान्त सामान्यका लक्षण
ध. १५/२५ / १ को अयंतो णाम । जच्चतरतं । अनेकान्त किसको कहते हैं। जाय्यन्तरभावको अनेकान्त कहते हैं (अर्थाद अनेक धर्मो या स्वादोंके एकरसात्मक मिश्रणसे जो जात्यन्तरपना या स्वाद उत्पन्न होता है, वही अनेकान्त शब्दका वाच्य है) ।
"
B. सा./आ./परि यदेन तत्तदेवाय देवैकं देवाने यदेव त देवासव, देव नित्यं तदेवानिष्यमित्येकवस्तुनि स्तुत्वनिष्पादक पर स्परविरुद्वतियप्रकाशनमनेकान्त जो तद है वही अतय है. जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत है, जो नित्य है वही अनित्य है, इस प्रकार एक वस्तुमें वस्तुत्वकी उपजानेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियोंका प्रकाशित होना अनेकान्त है (और भी देखो आगे सम्यगनेकान्तका म
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अनेकान्त
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न्या. दी /३/९७६ अनेके अन्ता धर्मा सामान्यविशेषपर्याया गुणा यस्येति सिद्धोऽनेकान्त' । - जिसके सामान्य विशेष पर्याय व गुणरूप अनेक अन्त या धर्म है, वह अनेकान्त रूप सिद्ध होता है । ( स.भ. /३० / २) २. अनेकान्तके दो भेद - सम्यक् व मिथ्या
रा. वा / १/६,७/३५/२३ अनेकान्तोऽपि विविध सम्यगमेकान्तो मिथ्याऽनेकान्त इति । अनेकान्त भी दो प्रकारका है- सम्यगनेकान्त व मिथ्या अनेकान्त । ( स भ त / ७३ / १०) ।
३. सम्यक् व मिथ्या अनेकान्त के लक्षण
सम्यगनेकान्तका लक्षण
रा. वा / १/६ ०/३५/२६ एकत्र सप्रतिपक्षानेकधर्मस्वरूपनिरूपण युवा गमाभ्यामविरुद्ध सम्यगनेकान्स युक्ति व आगमसे अविरुद्ध एक ही स्थानपर प्रतिपक्षी अनेक धर्मोके स्वरूपका निरूपण करना सम्यगनेकान्त है । (स. भ त / ७४ /२) ।
२. मिथ्या अनेकान्तका लक्षण
रा. वा./१/६,७/३५/२७ तदतत्स्वभाववस्तुशून्य परिकल्पितानेकात्मकं केवल वाग्विज्ञानं मिथ्यानेकान्त' । तत् व अतव स्वभाववस्तुसे शून्य केवल वचन विलास रूप परिकल्पित अनेक धर्मात्मक मिथ्या अनेकान्त है। ( स भ त / ७४ /३) ।
४. क्रम व अक्रम अनेकान्तके लक्षण साता/६४९/२००/ चिया तिर्यक्सामान्यमिति विस्तारसामान्यमिति अक्रमनेका
सामान्य मित्यायतसामान्यमिति कमानेकान्त इति च भव्यते। - तिर्यक्प्रचय, तिर्यक सामान्य विस्तार सामान्य और अकमानेकान्त यह सब शब्द तिर्यक् प्रचयके नाम हैं और इसी प्रकार ऊर्ध्व प्रचय, ऊर्ध्व सामान्य, आयतसामान्य तथा क्रमानेकान्त ये सब शब्द ऊर्ध्व प्रचयके वाचक है। ( अर्थात् वस्तुका गुणसमूह अक्रमानेकान्त है, क्योंकि गुणोको वस्तुमें युगपत् वृत्ति है और पर्यायका समूह कमानेकान्त है, क्योंकि पर्यायोंकी वस्तुमें क्रम वृद्धि है। २. अनेकान्त निर्देश
१. अनेकान्त छल नहीं है
..
=
रावा./१/६.८/३६/१ स्याम्मत तवास्ति तदेव नास्ति तदेव नियं तदेवानित्यम्' इति चानेकान्तप्ररूपणं छलमात्रमिति, तन्नः कुत' । छललक्षणाभावात । छलस्य हि लक्षणमुक्तम्- "वचनाविघातोऽर्थविपश्यत यथा नयकम्बलोऽयम् इत्यविशेषाभिहितेऽर्थे वक्तुरभिप्रायादर्थान्तरकल्पनम् नवास्य कम्बला न चत्वार इति नवो वास्य कम्बलो न पुराण" इति नवकम्बल । न तथानेकान्तवाद । यक्ष उभयवधानभावापादितापितानतिव्यवहारसिद्धिविशेषलाभप्रायुक्तिपुष्कलार्थ अनेकान्तवाद' प्रश्न यही वस्तु है और वही वस्तु नहीं है, वही वस्तु नित्य है और वही वस्तु अनित्य है. इस प्रकार अनेकान्तका प्ररूपण छल मात्र है ? उत्तर- अनेकान्त छल रूप नहीं है, क्योकि, जहाँ रक्ताके अभिप्रायसे भिन्न अर्थकी कल्पना करके बचन विधात किया जाता है, वहाँ छल होता है । जैसे 'नवकम्बलों देवदत्त" यहाँ 'नव' शब्द के दो अर्थ होते है । एक ६ संख्या और दूसरा नया तो 'नूतन' विवक्षा कहे गये 'नव' शब्दका सख्या रूप अर्थ विकल्प करके बाके अभिप्रायसे भिन्न अर्थ - की कल्पना छल कही जाती है । किन्तु सुनिश्चित मुख्य गौण
क्षा सम्म अनेक धर्मोका निर्णीत रूपसे प्रतिपादन करनेवाला अनेकान्तवाद घल नहीं हो सकता, क्योकि इसमें बचनविघात नहीं किया गया है, अपितु यथावस्थित वस्तुतत्त्वका निरूपण किया गया है । ( स भ त / ७१ / १०) ।
२. अनेकान्त संशयवाद नहीं है
रा. वा / १/६, ६-१२/३६/८ स्यान्मतम् - सशय हेतुरनेकान्तवाद । कथम् । एकत्राधारे विरोधिनोऽनेकस्यासम्भवात । तच्च नः कस्मात्। विशेष
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अनेकान्त
लक्षणोपलब्धे । इह सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च सशय । न च वनेकान्तमा विशेषालय यत स्वरूपाद्यादेशशीकृता विशेषा उक्तावण्या प्रत्यक्षमुपलभ्यन्ते ततो विशेष सशयहेतु ॥ ॥ विरोधाभावात् संशयाभाव ॥१०॥ उक्तादभेदाह एकाविरोधेनावशेषो धर्माणां पितापुत्रादिबन्ध ॥११ सपक्षास पक्षापेक्षपतिसत्त्वासत्त्वादिभेदापचिधर्मा | १२ ॥ - प्रश्नं अनेकान्तसंशयका हेतु है, क्योंकि एक आधार में अनेक विरोधी धर्मोका रहना असम्भव है उत्तर नहीं क्योंकि यहाँ विशेष लक्षणकी उपलब्धि होती है ।... सामान्य धर्मका प्रत्यक्ष होनेसे विशेष धर्मो प्रत्यक्ष न होनेपर किन्तु उभय विशेषोका स्मरण होनेपर संशय होता है। जैसे धुंधली रात्रिमें स्थायु और पुरुषगत ऊँचाई afe सामान्य धर्म की प्रत्यक्षता होनेपर, स्थाणुगत पक्षी निवास व कोटर तथा पुरुषगत सिर खुजाना, कपडा हिलना आदि विशेष धर्मोके न दिखने पर किन्तु उन विशेषोंका स्मरण रहनेपर ज्ञान दो कोटिमें दोलित हो जाता है, कि यह स्थाणु है या पुरुष । इसे संशय कहते है । किन्तु इस भाँति बनेकान्तवादमें विशेषोकी अनुपा नहीं है। क्योंकि स्वरूपादिकी अपेक्षा करके कहे गये और कहे जाने योग्य सर्व विशेषोंकी प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है। इसलिए अनेकान्त संशयका हेतु नहीं है | इन धर्मों में परस्पर विरोध नहीं हैं, इसलिए भी संशयका अभाव है ॥१०॥ पिता-पुत्रादि सम्बन्ध मुख्यगीण विकासे अविरोध सिद्ध है (देखो आगे अनेकान्त ५) ॥ ११॥ तथा जिस प्रकार वादी या प्रतिवादी के द्वारा प्रयुक्त प्रत्येक हेतु स्वपक्षकी अपेक्षा साधक और परपक्षकी अपेक्षा दूषक होता है, उसी प्रकार एक ही वस्तुमें विविध अपेक्षाओंसे सत्त्व असत्त्वादि विविध धर्म रह सकते है, इसलिए भी विरोध नहीं है ॥ १२ ॥ ( स भ त / ८१-१३ । आठ दोषोका निराकरण) । ३ अनेकान्तके बिना वस्तुकी सिद्धि नहीं होती ब. स्तो./२२, २४, २५ अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं भेदान्वयज्ञानमिद हि सत्य । मृषोपचारोऽन्यतरस्य सोपे, तच्छेषनोपोऽपि ततोऽनुपास्यम् ॥२२॥ न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति न च क्रियाकारकमंत्र युक्तम् । | नेवासतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति ॥ २४॥ विधिनिषेधश्च कचिदिविवक्षया मुख्यगुणव्यवस्था मुक्ति नीत वस्तुतत्त्व भेद - अभेद ज्ञानका विषय है और अनेक तथा एक रूप है भेद ज्ञानसे अनेक और अभेद ज्ञानसे एक है। ऐसा भेदाभेद ग्राहक ज्ञान ही सत्य है । जो लोग इनमें से एकको ही सत्य मानकर दूसरे में उपचारका व्यवहार करते है वह मिथ्या है, क्योंकि दोनों धर्मोम-से एकका अभाव माननेपर दूसरेका भी अभाव हो जाता है। दोनोंका अभाव हो जानेपर वस्तुतत्त्व अनुपाख्य अर्थात् नि स्वभाव हो जाता है ॥२२॥ यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उदय अस्तको प्राप्त नहीं हो सकती और न उसमें क्रियाकारककी ही योजना बन सकती है। जो सर्वथा असन है उसका कभी जन्म नहीं होता और जो सत् है उसका कभी नाश नहीं होता । दीपक भी बुझनेपर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता किन्तु अन्धकार रूप पर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है |॥ २४॥ वास्तवमें विधि और निषेध दोनो कथ चित् इष्ट हैं। विवक्षावश उनमें मुख्यगौणकी व्यवस्था होती है ॥२५॥ (स्व. सो./४२-४४ ६२-६३), (पं.पू. ४९८-४३३) ।
म. २/१.१.१९/१०/२ नात्मनोऽनेकान्तत्वमसिद्धमनेकान्तमन्तरेण तस्यार्थ कारित्वानुपपतेः । आत्माका अनेकान्तरमा असिद्ध नहीं है, क्योंकि अनेकान्त के बिना उसके अर्थ क्रियाकारीपना नहीं बन सकता । (रतो. मा. २/९.९.१२०/५६०)
४. किसी न किसी रूपमें सब अनेकान्त मानते हैं रा.मा./१/६, १४ / ३७ नात्र प्रतिवादिनो विसंवदन्ते एकमनेकात्मकमिति । के चित्तावदाहु-सत्वरजस्तमसा साम्यावस्था प्रधान' इति तेषां प्रसादलाघव शोषतापावरणसादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मना मिथेश्च न विरोध अथ मन्येथान प्रधान नामक गुणेभ्योऽथन्तिर
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भूतमस्ति, किन्तु त एव गुणा साम्यापन्ना प्रधानाख्य लभन्ते' इति । यद्यदेवं भूमा प्रधानस्य स्यात् । स्यादेतत्-तेषां समुदय प्रधानमेकमितिः अतएवाविरोध' सिद्ध गुणानामवयवानां समुदायस्य च । अपरे मन्यन्ते - 'अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण सामान्यविशेष" इति । तेषां च सामान्यमेव विशेष सामान्यविशेष इत्येकस्यात्मन उभयात्मक न विरुध्यते । अपरे आहु - 'वर्णादिपरमाणुसमुदयो रूपपरमाणु इति तेषां कस्रादिनिपा रमना मिथश्च न विरोध । अथ मतम् 'न परमाणुर्नामैकोऽस्ति बाह्य', किन्तु विज्ञानमेव तदाकारपरिणतं परमाणुव्यपदेशार्ह इत्युच्यते अत्रापि ग्राहक विषयाभास से विशिकाराधिकरस्यैकरणभ्युपगमा विरोध किं सर्वेषामेव तेषां पूर्वोरभावावस्थाविशेषा र्पणाभेदादेवरूप कार्यकारणसमययो न विशेषस्यास्पदमिरयविरोधसिद्धि । 'एक वस्तु अनेक धर्मात्मक है' इसमें किसी वादीको विवाद भी नहीं है । यथा साख्य लोग सत्व रज और तम इन भिन्नस्वभाववाले धर्मोका आधार एक प्रधान मानते है। उनके मत में प्रसाद, लाघव, शोषण, अपवरण, सादन आदि भिन्न-भिन्न गुणों का प्रधानसे अथवा परस्पर में विरोध नहीं है । वह प्रधान नामक वस्तु उन गुणो से पृथक ही कुछ हो सो भी नहीं है, किन्तु वे ही गुण साम्यावस्थाको प्राप्त करके 'प्रधान' संज्ञाको प्राप्त होते है और यदि ऐसे हों तो प्रधान भूमा (व्यागक) सिद्ध होता है। यदि यहाँ यह कहो कि उनका समुदाय प्रधान एक है तो स्वयं ही गुणरूप अवयवो के समुदाय में अवरोध सिद्ध हो जाता है। वैशेषिक पृथिवोत्व आदि सामान्य विशेष स्वीकार करते है। एक ही पृथिवी स्वव्यक्तियो मे अनुगत होने से सामान्यात्मक होकर भी जलादिसे व्यावृत्ति करानेके कारण विशेष कहा जाता है। उनके यहाँ 'सामान्य ही विशेष है' इस प्रकार पृथिवीव आदिको सामान्यविशेष माना गया है। अत: उनके यहाँ भी एक आत्मा के उभयात्मकपन विरोधको प्राप्त नहीं होता । बौद्ध जन कर्कश आदि विभिन्न लक्षणाने परमाणुओके समुदायको एकरूप] स्वलक्षण मानते है इनके मतने भो विभिन्न परमाणुओं में रूपकी दृष्टिसे कोई विरोध नहीं है। विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार बौद्ध एक ही विज्ञानको ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और सवेदनाकार इस प्रकार प्रयाकार स्वीकार करते ही है । सभी वादी पूर्वावस्थाको कारण और उत्तरावस्थाको कार्य मानते है अत एकही पदार्थ में अपनी पूर्व और उत्तर पर्यायोंकी दृष्टिसे कारण कार्य व्यवहार निर्विरोध रूपसे होता है । उसी तरह सभी जीवादि पदार्थ विभिन्न अपेक्षाओसे अनेक धर्मो के आधार सिद्ध होते है (गीता/१३/१४-१५) (ईशोपनिष८)।
५ अनेकान्त भी अनेकान्तात्मक है
स्वस्तो / १०३ ननुभवन्मते येन रूपेण जीवादि वस्तु नित्यादिस्वभावं तेन किं कथ चित्तथा सर्वथा वा । यदि सर्वथा तदेकान्तप्रसङ्गादनेकान्तक्षति अथ कथचिदानवस्थेच्या माह- अनेकान्तोऽष्यनेकान्तः प्रमाणनयसाघन अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितात्रयात् । = प्रश्न- भगवान्के मत में जीवादि वस्तुका जिस रूप से नित्यादि स्वभाव बताया है, वह कथ चित् रूपसे है या सर्वथा रूपसे । यदि सर्वथा रूपसे है तब तो एकान्तका प्रसग आनेके कारण अनेकान्तकी क्षति होती है और यदि कथचित् रूपसे हैं तो अनवस्था दोष आता है। इसी आशकाके उत्तर में आचार्य देव कहते हैं। उत्तर- आपके मत में अनेकान्त भी प्रमाण और नय साधनोको लिये अनेकान्तहुए स्वरूप है। प्रमाण की दृष्टिसे अनेकान्तरूप सिद्ध होता है और विवक्षित नकी अपेक्षा अनेकान्त में एकान्तरूप सिद्ध होता है । रा.वा./१०६/०/२५/२८ नथार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रमणात; प्रमाणामारनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वाद - एक अंगका निश्चय करानेवाला होनेके कारण नयकी मुख्यतासे एकान्त होता है और अनेक अंगोका निश्चय करानेवाला होनेके कारण प्रमाणकी विवक्षा से अनेकान्त होता है।
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अनेकान्त
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श्लो, बा /२/१.६,५६/४७४ न चैवमेकान्तोपगमे कश्चिद्दोष सुनयापितस्यै
कान्तस्य समीचीनतया स्थिश्चात् प्रमाणापितस्यास्तित्वानेकान्तस्य प्रसिद्धे । येनात्मनानेकान्तस्तेनात्मनानेकान्त एवेत्येकान्तानुषड्गोऽपि नानिष्टः। प्रमाणसाधनस्यैवानेकान्तत्वसिद्ध. नयसाधनस्यैकान्तव्यवस्थितेरनेकान्तोऽप्यनेकान्त इति प्रतिज्ञानात । तदुक्तम्- "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः- (देखो ऊपर नं०१)।" इस प्रकार एकान्तको स्वीकार करनेपर भी हमारे यहाँ कोई दोष नहीं है, क्योकि श्रेष्ठ नयसे विवक्षित किये गये एकान्तकी समीचीन रूपसे सिद्धि हो चुकी है
और प्रमाणसे विवक्षित किये गये अस्तित्व के अनेकान्तकी प्रसिद्धि हो रही है। जिस विवक्षित प्रमाणस्वरूपसे अनेकान्त है, उस स्वरूपसे अमेकान्त ही है', ऐसा एकान्त होनेका प्रसंग भी अनिष्ट नहीं है, क्योंकि, प्रमाण करके साधे गये विषयको ही अनेकान्तपना सिद्ध है, और नयके द्वारा साधन किये गये विषयको एकान्तपना व्यवस्थित हो रहा है । हम तो सबको अनेकान्त होनेकी प्रतिज्ञा करते है. इसलिए अनेकान्त भी अनेक धर्मवाला होकर अनेकान्त है। श्री १०८ समन्तभद्राचार्यने कहा भी है, कि अनेकान्त भी अनेकान्तस्वरूप है.. इत्यादि (देखो ऊपर नं.१ स्व स्त /१०३) । म च.वृ/१८१ एयंतो एयणयो होइ अणेयंतमस्स सम्मूहो। -एकान्त
एक नयरूप होता है और अनेकान्त नयों का समूह होता है। का. अ./मू./२६१ ज बत्थू अणेयत एयंत तं पि होदि सविपेक्ख । सुयणाणेण णएहि य णिरवेक्रख दीसदे णेव ।२६११-जो वस्तु अनेकान्तरूप है वही सापेक्ष दृष्टिसे एकान्तरूप भी है । श्रुतज्ञानको अपेक्षा अनेकान्त रूप है और नयोंकी अपेक्षा एकान्त रूप है ॥२६१॥ ६. अनेकान्तमें सर्व एकान्त रहते है पर एकान्तमें
अनेकान्त नहीं रहता न. च. ४/५७में उद्धृत "नित्यैकान्तमतं यस्य तस्यानेकान्तता कथम् । अनेकारतमतं यस्य तस्यैकान्तमतं स्फुटम् । -- जिसका मत नित्य एकान्तस्वरूप है उसके अनेकान्तता कैसे हो सकती है। जिसका मत
अनेकान्त स्वरूप है उसके स्पष्ट रूपसे एकान्तता होती है। नच.वृ/१७६ जह सद्धाणमाई सम्मत्तं जह तबाइगुणणिलए । धाओ वा
एयरसो तह णयमूलं अणेयतो ॥१७६१-जिस प्रकार तप ध्यान आदि गुणोंमें, श्रद्धान, सम्यक्त्व, ध्येय आदि एक रसरूपसे रहते है, उसी प्रकार नयमूलक अनेकान्त होता है । अर्थात अनेकान्तमें सर्व नय एक रसरूपसे रहते हैं। स्मा.में 1201३३६/११ सर्वनयात्मकरवाटनेकान्तबाढस्य। यथा विशकलिताना मुक्तामणीनामेकसूत्रानुस्यूताना हारव्यपदेश', एव पृथगभिसबन्धिना नयनां स्याद्वादलक्षण कसूत्रप्रीतानां श्रुताख्यप्रमाणव्यपदेश इति ।-अनेकान्तवाद सर्वनयात्मक है । जिस प्रकार बिखरे हए मोतियोंको एक सूत्र में पिरो देनेसे मोतियोंका सुन्दर हार बन जाता है उसी प्रकार भिन्न-भिन्न नयों को स्याद्वादरूपी सतमें पिरो देनेसे सम्पूर्ण नय 'श्रुत प्रमाण' कहे जाते है। स्या.म./३०/३३६/२६ न च पाच्य तहि भगवत्समयस्तेषु कथं नोपलभ्यते इति। समुद्रस्य सर्वसरिन्मयत्वेऽपि विभक्तासु तासु अनुपलम्भात् । तथा च वक्तृवचनयोरक्यमध्यवस्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादा (ई. ५५०) उदधाविव सर्व सिन्धव' समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टय'। न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरिरिस्वबोदधि'। -प्रश्न-यदि भगवानका शासन सर्वदर्शन स्वरूप है, तो यह शासन सर्वदर्शनों में, क्यों नहीं पाया जाता। उत्तर-जिस प्रकार समुद्र के अनेक नदी रूप होनेपर भी भिन्न-भिन्न नदियीमें समुद्र नहीं पाया जाता उसी प्रकार भिन्न-भिन्न दर्शनो में जैनदर्शन नहीं पाया जाता। वक्ता और उसके वचनोंसे अभेद मानकर श्री सिद्धसेन दिवाकर (ई. ५५०) ने कहा है, 'हे नाथ' जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में जाकर मिलती है वैसे ही सम्पूर्ण दृष्टियोका आपमे समावेश होता है । जिस प्रकार भिन्न-भिन्न नदियोंमें सागर नही रहता उसी प्रकार भिन्न-भिन्न दर्शनोमें आप नहीं रहते।
७. निरपेक्ष नयोका समूह अनेकान्त नहीं है। आप्त मी /१०८ मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यकान्ततास्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोऽर्थ कृत ॥१०८॥ -- मिथ्या नयोंका समूह भी मिथ्या ही है, परन्तु हमारे यहाँ नयोका समूह मिथ्या मही है, क्योकि, परस्पर निरपेक्ष नय मिथ्या है, परन्तु जो अपेक्षा
सहित नय है वे वस्तुस्वरूप है। प सु/६६१-६२ विषयाभासं सामान्य विशेषो द्वय वा स्वतन्त्रम् ॥६१॥
तथा प्रतिभासनात् कार्याकरणाञ्च ॥६२॥ वस्तुके सामान्य व विशेष दोनों अशोंको स्वतन्त्र विषय मानना विषयाभास है ॥६॥ क्योंकि न तो ऐसे पृथक सामान्य या विशेषोकी प्रतीति है और न ही पृथक्पृथक् इन दोनोसे कोई अर्थ क्रिया सम्भव है। न्या दी /3/६८६ ननु प्रतिनियताभिप्रायगोचरतया पृथगात्मना परस्परसाहचर्यानपेक्षाया मिथ्याभूतानामेकत्वाटीनां धर्माणा साहचर्यलक्षणसमुदायोऽपि मिथ्यैवेति चेत्तदनीकुर्महे, परस्परोपकार्योपकारभाव विना स्वतन्त्रतया नै रपेक्ष्यापेक्षायां परस्वभावविमुक्तस्य तन्तु समूहस्य शीतनिवारणाद्यर्थ क्रियावदेव त्याने त्यानामथ क्रियायो सामर्थ्याभावात्कथ चिन्मिथ्यात्वस्यापि स भवात् ।-प्रश्न-एक-एक अभिप्रायके विषयरूपसे भिन्न-भिन्न सिद्ध होनेवाले और परस्परमें साहचर्यकी अपेक्षा न रखनेपर मिथ्याभूत हुए एकत्व अनेकत्व आदि धर्मोका साहचर्य रूप समूह भी जो कि अनेकान्त माना जाता है, मिथ्या ही है । तात्पर्य यह कि परस्पर निरपेक्ष एकत्वादि एकान्त जब मिथ्या है तो उनका समुहरूप अनेकान्त भी मिथ्या ही कहलायेगा उत्तरवह हमे दृष्ट है । जिस प्रकार परस्परके उपकार्य-उपकारक भाव के बिना स्वतन्त्र होनेसे एक दूसरे की अपेक्षान करनेपर वस्त्ररूपअवस्थासे रहित तन्तुओका समूह शीत निवारण आदि कार्य नही कर सकता है, उसी प्रकार एक दूसरे की अपेक्षा न करनेपर एकत्वादिक धर्म भी यथार्थ ज्ञान कराने आदि अर्थ क्रियामें समर्थ नहीं है। इसलिए उन परस्पर निरपेक्ष धर्मो में क्थचित मिथ्यापन भी सम्भव है। ८. अनेकान्त व एकान्तका समन्वय रा,वा /१/६,७/३५/२६ यद्यनेकान्तोऽनेकान्त एव स्यान्नै कान्तो भवेत, एकान्ताभावात् तत्समूहात्मकस्य तस्याप्यभाव स्यावाशाखाद्यभावे वृक्षादाभाववत् । यदि चैकान्त एक स्यात, तदविनाभाविशेषनिराकरणादात्मलोपे सर्वलाप स्यात् । एवम् उत्तरे च भड़ा योजयितव्या । -यदि अनेकान्तको अनेकान्त ही माना जाये और एकान्तका सर्वथा लोप किया जाये तो सम्यगेकान्तके अभावमें, शाखादिके अभावमें वृक्षक अभावकी तरह तत्समुदायरूप अनेकान्तका भी अभाव हो जायेगा। यदि एकान्त ही माना जाये तो अविनाभावी इतर धोका लोप होनेपर प्रकृत शेषका भी लोप होनेसे सर्व लोपका प्रसंग प्राप्त होता है। इसी प्रकार (अस्ति नास्ति भंगवत ) अनेकान्त व एकान्तमें शेष भंग भी लागू कर लेने चाहिए । (स भ.त /७५/४) । ९. सर्व एकान्तवादियोके मत किसी न किसी नयमें
गभित है स्या. मं /२८/३१६/७ एत एव च परामर्शा अभिप्रेतधविधारणात्मकतया शेषधर्मतिरस्कारेण प्रवर्तमाना दुर्न यस ज्ञामश्नुवते। तबलप्रभावितसत्ताका हि खत्वेते परप्रवादा । तथाहि-गमनयदर्शनानुसारिणी नैयायिक-वैशेषिको । संग्रहाभिप्रायप्रवृत्ता सर्वेऽज्यद्वैतवादा सारख्यदर्शन च। व्यवहारनयानुपातिप्रायश्चार्वाकदर्शनम् । जुसूत्राकृतप्रवृत्तबुद्धयस्तथागताः।शब्दादिनयावलम्बिनो वैयाकरणादयः। जिस समय ये नय अन्य धर्मों का निषेध करके केवल अपने एक अभीष्ट धर्मका ही प्रतिपादन करते है, उस समय दुर्नय कहे जाते हैं। एकान्तवादी लोग वस्तुके एक धर्मको सत्य मानकर अन्य धोका निषेध करते है, इसलिए वे लोग दुर्न यवादी कहे जाते है। वह ऐसे किन्याय-वैशेषिक लोग नैगमनयका अनुसरण करते है, वेदान्ती अथवा
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सभी अद्वैतवादो तथा सारूप दर्शन सग्रहनयको मानते हैं। चार्वाक लोग व्यवहारनयवादी है, बौद्ध लोग केवल ऋजुसूत्रनयको मानते है तथा वैयाकरण शब्दादि तीनो नयका अनुकरण करते है। नोट - [इन नयाभासोंके लक्षण (दे. नयIII)] । ३. अनेकान्तका कारण व प्रयोजन
१. अनेकान्तके उपदेशका कारण स सा./परि "ननु यदि ज्ञानमावत्वेऽपि आत्मवस्तुन स्वयमेवानेकान्त' प्रकाशते तर्हि किमर्थमर्ह द्भिस्तत्साधनत्वेनानुशास्यतेऽनेकान्त । अज्ञानिनां ज्ञानमात्रारमवस्तुप्रसिद्व्यर्थ मिति ब्रम । न स्वत्वनेकान्तमन्तरेण ज्ञानमात्रमात्मवस्त्वेव प्रसिध्यति । तथा हि-इह स्वभावत एव बहुभावनिर्भरविश्वे सवभावानां स्वभावेनाद्वैतेऽपि द्वैतस्य निषेद्ध मशक्यत्वात समस्तमेव वस्तु स्वपररूपप्रवृत्तिव्यावृत्तिभ्यामुभयभावाध्यासितमेव । = प्रश्न -यदि आत्मवस्तुको ज्ञानमात्रता होनेपर भी, स्वयमेव अनेकान्त प्रकाशता है, तब फिर अहन्त भगवान उसके साधन के रूपमें अनेकान्तका उपदेश क्यो देते है ? उत्तर-अज्ञानियोंके ज्ञानमात्र आत्मवस्तुका प्रसिद्धि करनेके लिए उपदेश देते है, ऐसा हम कहते है। वास्तव में अनेकान्तके बिना ज्ञानमात्र आरम वस्व ही प्रमिद नही हो सकती। इमोको इस प्रकार समझाते है। स्वभावसे ही बहुत-से भावोसे भरे हुए इस विश्व में सर्व भावीका स्वभावमे अद्वैत हानेपर भी, द्वेतका निषेध करना अशक्य होने से समस्त वस्तु स्वरूपमें प्रवृत्ति और पररूपमे व्यावृत्तिके द्वारा दानो भात्रोसे अध्यासित है। (अर्थात समस्त वस्तु स्वरूप में प्रवतमान होनेसे और पर रूपसे भिन्न रहनेमे प्रत्येक वस्तुमें दानों भाव रह रहे है)। पकात.प्र /१० अविशेषाद्रव्यस्य सत्स्वरूपमेव लक्षणम्, न चाने.
कस्य द्रव्यस्य सन्मात्रमेव स्वरूपम् । सत्तासे द्रव्य अभिन्न हानेके कारण सत् स्वरूप ही द्रव्य का लक्षण है, परन्तु अनेकान्तात्मक द्रव्यका सन्मात्र हो स्वरूप नहीं है। और भी दे नय I/२/५-(अनेक धर्मोंको युगपत् जाननेवाला ज्ञान ही प्रमाण हं।) और भी दे नय I/२/८ (वस्तुमें सर्व धर्म युगपत पाये जाते है।)
२ अनेकान्त के उपदेशका प्रयोजन न च वृ/२६०-२६१ तच्च पि हेयमियर हेयं खलु भणिय ताण परदब्ध । णिय दब पि य जाणसु हेयाहेयं च णयजोगे ॥२६०॥ मिच्छासरागभूयो हेयो आदा हवेई णियमेण । तबिवरीआ भेआ णायव्वा सिद्धिकामेंन ॥२६१॥-तत्त्व भी हेय और उपादेय रूपसे दो प्रकारका है। तहाँ परद्रव्यरूप तत्त्व तो हेय है और निजद्रव्यरूप तत्त्व उपादेय है। ऐसा नय योगमे जाना जाता है ॥२६॥ नियममे मिथ्यात्व व राग सहित
आत्मा हेय है और उसमे विपरीत ध्येय है ॥२६१॥ का.अ./मू /३११-३१२ जो तच्चमणेयत णियमा सहदि सत्तभगेहि । लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तण च ॥३११॥ जो यायरेण मण्णदि जीवाजीवादि णव विह अत्थ । सुदणाणेण णएहि य सो सहिट्ठी हवे सुद्धो ॥३१२॥ - जो लोगों के प्रश्नोके वशसे तथा व्यवहार चलाने के लिए सप्तभगोके द्वारा नियमसे अनेकान्त तत्त्वका श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि होता है ॥३११॥ जो श्रुतज्ञान तथा नयों के द्वारा जीवअजीव आदि नव प्रकारके पदार्थोंको आदर पूर्वक मानता है, वह शुद्ध सम्यकदृष्टि है ॥३१२॥ ३. अनेकान्तवादियोंको कुछ भी कहना अनिष्ट नहीं लो,वा.२/५.२-१४/१८० व्यक्तिरपि तथा नित्या स्यादिति चेत् न किचिदनिष्टं, पर्यायार्थादेशादेव विशेषपर्यायस्य सामान्यपर्यायस्यवानित्यत्वोपगमाव । प्रश्न -यदि कोई कहे कि इस प्रकार तो द्रव्यकी व्यक्तियें अर्थात घट पट आदि पर्यायें भी नित्य हो जायेंगी ! उत्तरहो जाने दो। हम स्याद्वादियोंको कुछ भी अनिष्ट नहीं है । हमने पर्यायार्थिक नयसे ही सामान्य व विशेष पर्यामोंको अनित्य स्वीकार किया है, द्रव्याधिक नमसे तो सम्पूर्ण पदार्थ नित्य हैं ही।
४. अनेकान्तकी प्रधानता व महत्ता स्व स्तो./६८ अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शुन्यो विपर्ययः । तत. सर्व मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वधातत ॥१८-आपकी अनेकान्त दृष्टि सच्ची है । विपरीत इसके जो एकान्त मत है वह वन्यरूप असत है, अत'
जो कथन अनेकान्त दृष्टिसे रहित है, वह सम मिथ्या है। ध.१/१,१,२७/२२२/२ उत्सुत्तं लिहता आइरिया कथं बज्जभीरुणो । इदि चे ण एस दोसो, दोण्ह मज्झे एकस्सेव संगहे कीरमाणे बज्जभीरुत्तं णिवट्टति। दोण्हं पिसगह करताणमाइरियाणं वज्जभीरुत्ताविणासादो। प्रश्न-उत्सुत्र लिखनेवाले आचार्य पापभीर कैसे माने जा सकते है 1 उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों प्रकारके वचनोंसे किसी एक ही वचनके संग्रह करनेपर पापभीरुता निकल जाती है अर्थात उच्छ खलता आ जाती है। अतएव दोनों प्रकारके वचनोंका संग्रह करने वाले आचार्यों के पापभीरुता नष्ट नहीं होती है। गो क /मू /८/१०७४ एकान्तवादियोंका सर्व कथन मिथ्या और अने____ कान्तवादियोका सर्व कथन सम्यक है। (दे. स्याद्वाद५ । प्रमा/त.प्र /२७ अनेकान्तोऽत्र बलवान् । यहाँ अनेकान्त बलवान् है । प का /त प्र/२१ स खल्वयं प्रसादोऽनेकान्तवादस्य यदीदृशोऽपि विरोधी
न विरुध्यते । - यह प्रसाद वास्तवमें अनेकान्तवादका है कि ऐसा विरोव भो विरोध नहीं है । पध/पू/२२७ तत्र यतोऽनेकान्तो बलवानिह खलुन सर्वथे कान्तः । सर्व
स्यादविरुद्र तत्पूर्व तद्विना विरुद्ध स्यात् ॥२२७॥ =जेन सिद्धान्तमें निश्चयमे अनेकान्त बलवान है, सर्वथा एकान्त अलवान नही है । इसलिए अनेकान्त पूर्वक सब ही कथन अविरुद्ध फ्लता है और अनेकान्तके बिना सर्व हो कथन विरुद्ध हो जाता है। ४. वस्तुमे विरोधी धर्मोका निर्देश
१. वस्तु अनेकों विरोधी धर्मोंसे गुम्फित है स सा / /परि. "अत्र यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैक तदेवानेक, यदेव सत्तदेवासत्, यदेव नित्य तदेवानित्यमित्येकवस्तु वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्यप्रकाशनमनेकान्त अनेकान्त । १/१ (स सा/आ/परि)। न्या.दी/३/१५७ सर्वस्मिन्नपि जीवादिवस्तुनि भावाभावरूपत्वमेकानेकरूपत्वं नित्यानित्यरूपत्व मित्येवमादिकमनेकान्तात्मकत्वम् । -सर्व ही जीवादि वस्तुओं मे भावपना-अभावपना, एकरूपपना-अनेकरूपपना. नित्यपना-अनित्यपना, इस प्रकार अनेकान्तात्मकपना है। प.ध/पू /२६२-२५३ स्यादस्ति च नास्तीति च नित्यमनित्यं त्वनेकमेक
च। तदतच्चेति चतुष्टययुग्मैरिव गुम्फित वस्तु ॥२६२॥ अथ तद्यथा यदस्ति हि तदेव नास्तीति तच्चतुष्कं च। द्रव्येण क्षेत्रेण च कालेन तथाथवापि भावेन ।२६३॥ - कथ चित है और नही है यह तथा नित्यअनित्य और एक-अनेक, तत-अतत इस प्रकार इन चारयुगलों के द्वारा वस्तु गंथी हुई की तरह है ॥२६२॥ इसका खुलासा इस प्रकार है कि निश्चयसे स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव इन चारोके द्वारा जो सत् है वही पर द्रव्यादिमे असत है। इस प्रकारसे द्रव्यादि रूपसे अस्तिनास्तिका चतुष्टय हो जाता है ॥२६३॥
२. वस्तु भेदाभेदात्मक है। यु.अनु./७ अभेदभेदात्मकमर्थ तत्त्वं, तव स्वतन्त्रान्यतरत्व पुष्पम् ॥ - हे प्रभु । आपका अर्थ तत्त्व अभेदभेदात्मक है। अभेदात्मक और भेदात्मक दोनोंको स्वतन्त्र स्वीकार करनेपर प्रत्येक आकाश पुष्पके समान हो जाता है।
३. सत् सदा अपने प्रतिपक्षीको अपेक्षा रखता है पं.का / ८ सत्ता सब पयत्था सव्विस्सरूवा अणतपज्जाया। भंगुष्पाद
धुवत्ता सप्पडिवक्खा व दि एक्का ॥८॥ सत्ता उत्पाद-व्यय-धौव्यास्मक, एक, सर्व पदार्थस्थित, सविश्वरूप, अनन्तपर्यायमय और सप्रतिपक्ष (क पा१/१-१/६/५३) (ध १४/५-६-१२८ १८/२३४)।
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अनेकान्त
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पं.का /त प्र/८ एवभूतापि सा न खलु निरङ्कुशा कितु सप्रतिपक्षा । प्रतिपक्षी ह्य सत्ता सत्ताया', अत्रिलक्षणत्व विलक्षणाया अनेकत्वमेकस्या , एकपदार्थ स्थितत्व सर्व पदार्थ स्थिताया, एकरूपत्व सविश्वरूपाया , एकपर्यायत्वमनन्तपर्याया इति ।-ऐसी होनेपर भी वह (सत्ता) बास्तबमें निर कुश नहीं है, किन्तु सप्रतिपक्ष है। १. सत्ताको असत्ता प्रतिपक्ष है, २ विलक्षणको अविलक्षणपना प्रतिपक्ष है, ३ एकको अनेकपना प्रतिपक्ष है, ४ सवपदार्थ स्थितको एकपदार्थ स्थितपना प्रतिपक्ष है: ५ सविश्वरूपको एकरूपपना प्रतिपक्ष है, ६ अनन्तपर्यायमयको एकपर्यायमयपना प्रतिपक्ष है । (प ध./पू /१५) (न.च श्रु/५३)। नि.सा/ता वृ./३४ अस्तित्व नाम सत्ता। सा किविशिष्टा । सप्रतिपक्षा,
अवान्तरसत्ता महासत्तेति = अस्तित्व नाम सत्ताका है। वह कैसी है। महासत्ता और अवान्तरसत्ता-ऐसी सतिपक्ष है। स भत/५१/३ सत्ता सप्रतिपक्षे का इति वचनात् ।-सम्पूर्ण द्रव्य, क्षेत्र,
कालादि रूप जो एक महासत्ता है वही विकल द्रव्य, क्षेत्र आदिसे प्रतिपक्ष सहित है। ऐसा अन्यत्र आचार्यका वचन है।
४ स्व सदा परको अपेक्षा रखता है स्या मं /१६/२१८/११ कथ पन्यथा स्त्रशब्दस्य प्रयोग । प्रतियोगीशब्दो
ह्यय परमपेक्षमाण एव प्रवतं ते।='स्व' शब्द का प्रयोग अन्यथा क्यो किया है । स्व-शब्द प्रतियोगी शब्द है । अतएव स्वशब्दसे पर शब्दका भी ज्ञान होता है।
५ विधि सदा निषेधकी अपेक्षा रखती है। न च वृ./२५७,३०४ एक्कणिरुद्ध इयरो पहिवक्खो अणवरेइ सम्भावो । सम्वेसिं च सहावे कायव्वा होइ तह भगी २५७॥ अस्थित्त णो णत्थिसहावस्स जो हु सावेक्ख । णत्थी विय तह दवे मूढो मूढो दु सम्वत्थ ॥३०४॥ - एक स्वभावका निषेध होनेपर दूसरा प्रतिपक्षी स्वभाव अनुवृत्ति करता है, इस प्रकार सभी स्वभावों में सप्तभंगी करनी चाहिए ॥२५७॥ जो अस्तित्वकोनास्तित्व सापेक्ष और नास्तित्वको अस्तित्व सापेक्ष नही मानता है, वह द्रव्यमें मूढ और इसलिए सर्वत्र मृढ है। रावा./१/६.१३/३७/६ यो हेतुरुपदिश्यते स साधको दूषकश्च स्वपक्ष साधयति परपक्ष दूषयति । जो हेतु कहा जाता है वह साधक भी होता है और दूषक भी, क्योकि स्वपक्षको सिद्ध करता है पर पक्षमे दोष निकालता है (स भ त./80/३) । पं.ध/पू./६६५ विधिपूर्व प्रतिषेध प्रतिषेधपुरस्सरो विधिस्त्वनयो.। मैत्री प्रमाण मिति वा स्वपराकारावगाहिं यज्ज्ञानम् । विधिपूर्वक प्रतिषेध और प्रतिषेध पूर्वक विधि होती है, परन्तु इन दोनोकी मैत्री स्वपराकारग्राही ज्ञान रूप है । वही प्रमाण है।
६. वस्तुमें कुछ विरोधी धर्मोंका निर्देश दे अनेकान्त/शीर्षक "सख्या सव-असत, एक-अनेक; नित्य-अनित्य, तव-अतत् । (४/१),भेद अभेद (४/२) । सत्ता-असत्ता, विलक्षणत्वअत्रिलक्षणत्व; एकत्व-अनेकत्व, सर्व पदार्थ स्थित-एक पदार्थ स्थित, सविश्वरूप-एकरूप, अनन्तपर्यायमयत्व-एकपर्यायमयत्व, महासत्ता
अवान्तरसत्ता; स्व-पर, (४/३)।" न च वृ/७०/ टीका "सद्रूप-असद्रूप, नित्य अनित्य, एक अनेक, भेद
अभेद; भव्य-अभव्य, स्वभाव-विभाव, चैतन्य-अचैतन्य, मूर्तअमूर्त, एकप्रदेशत्व-अनेकप्रदेशत्व, शुद्ध-अशुद्ध, उपचरित-अनुपचरितः एकान्त-अनेकान्त इत्यादि स्वभाव है। स्या म /मू/२५ अनित्य-नित्य, सदृश-विसदृश, वाच्य-अवाच्य, सत
असत् । ध/पू श्लो न. "देश-देशाश ॥७४५, स्व द्रव्य - महासत्ता-अवान्तर सत्ता ॥२६४॥, स्वक्षेत्र-सामान्य-विशेष; अर्थात् अखण्ड द्रव्य तथा उसके प्रदेश, स्व काल सामान्य-विशेष अर्थात् अखण्ड द्रव्यकी एक पर्याय तथा पृथक्-पृथक् गुणोको पर्याय; स्वभाव सामान्य व विशेष अर्थात द्रव्य तथा गुण व पर्याय ॥२७०-२८०॥ (और भी दे. जीव ३/४)
७. वस्तुमें कथंचित स्वपर भान निर्देश रा वा /१/६.५/३४/३६ चैतन्यशक्तेवाकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च.. तत्रज्ञ याकार स्वात्मा तन्मूलत्वाद घटव्यवहारस्य । ज्ञानाकार परात्मा सर्वसाधारणत्वात् । चैतन्य शक्तिमे दो आकार रहते है-ज्ञानाकार व ज्ञेयाकार । तहाँ ज्ञानाकार तो घटव्यवहारका मूल होनेके कारण स्वात्मा है तथा सर्वसाधारण होनेके कारण ज्ञयाकार परमात्मा है। रावा /९/६,५/३३/३६,४०,४१,४३ घटत्व नामक धर्म 'घट'का स्वरूप है
और पटत्वादि पररूप है। नाम, स्थापना, द्रव्य, भावादिको में जो विवक्षित है, वह स्वरूप है और जो अविवन्ति है, वह पररूप है । घट विशेषके अपने स्थौल्यादि धर्मोसे विशिष्ट घटत्व तो उसका स्वरूप है और अन्य घटाका घटता उसका पररूप है। और उस ही घट विशेषमें पूर्वोत्तरकालवर्ती पिण्ड कुशूलादि उसका पररूप है और उन पिण्ड कुशूलादिमें अनुस्यूत एक घटत्व उसका स्वरूप है। जुसूत्र नयकी अपेक्षा वर्तमान घटपर्याय स्वरूप है और पूर्वोत्तर कालवर्ती घटपर्याय पररूप है। उस क्षण में भी तत्क्षणवर्ती रूपादि समुदायात्मक घटमें रहनेवाले पृथुबुध्नोदरादि आकार तो उसके स्वरूप है और इसके अतिरिक्त अन्य आकार उसके पररूप है। तरक्षणवर्ती रूपादिकोंमें भी रूप उसका स्वरूप है और अन्य जो रसादि वे उसके पर रूप है, क्योकि चक्षु इन्द्रिय द्वारा रूण्मुखेन ही घटका ग्रहण होता है। समभिरूढ नयसे घटनक्रिया विषयक कतृत्व ही घटका स्वरूप है और अन्य कौटिल्यादि धर्म उसके पररूप है। मृत द्रव्य उसका स्व-द्रव्य है और अन्य स्वर्गादि द्रव्य उसके परद्रव्य है। घटका स्वक्षेत्र भूतल आदि है और परक्षेत्र भीत आदि है। घटका स्वकाल वर्तमानकाल है और परकाल अतीतादि है। (स भ त / ३६-४५)। स भ.त./४६.५१ प्रमेयका प्रमेयत्व उसका स्वरूप है घटत्वादिक ज्ञेय उसका पररूप है । अथवा प्रमेयका स्वरूप तो प्रमेयत्व है और पररूप अप्रमेयत्व है ॥४-५०॥ छहो द्रव्योका शुद्र अस्तित्व तो उनका स्वरूप है और उनका प्रतिपक्षी अशुद्ध अस्तित्व उनका पररूप है। शुद्ध द्रव्य में भी उसका सकल द्रव्य क्षेत्र काल भावकी उपेक्षा सत्व है और विकल द्रव्य क्षेत्रादिकी अपेक्षा असत्त्व है ॥५१॥ प.ध./3/३६८ ज्ञानात्मक आत्माका एक ज्ञान गुण स्वार्थ है और शेष
सुख आदि गुण परार्थ है। रा.वा /१/६.४ ३५/११ एवमिय सप्तभङ्गी जीवादिषु सम्यग्दर्शनादिषु च द्रव्याथिकपर्यायार्थिकन यार्पणाभेदायोजयितव्या । इस प्रकार यह सप्तभ गी जीवादिक व सम्यग्दर्शनादिक सर्व विषयों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा भेद करके लागू कर लेनी चाहिए। ५ विरोधमे अविरोध १ विरोधी धर्म रहनेपर भी वस्तमें कोई विरोध नहीं
पड़ता ध१/१,१,११/१६६/६ अक्रमेण सम्यग्गिथ्यारुच्यात्मको जीव सम्यग्मिध्यादृष्टिरिति प्रतिजानीमहे। न बिरोधोऽप्यनेकान्ते आत्मनि भूयसा धर्माणां सहानवस्थालक्षण विरोधासिद्ध ।युगपत् समीचीन और असमीचीन श्रद्धावाला जीव सम्यग्मिध्यादृष्टि है, ऐसा मानते है और ऐसा मानने में विरोध भी नहीं आता, क्योंकि आत्मा अनेकधर्मात्मक है, इसलिए उसमे अनेक धर्मोंका सहानवस्थालक्षण विरोध
असिद्ध है। पं.वि.८/१३/१५१ यत्सूक्ष्मं च महच्च शून्यमपि यन्नो शून्यमुत्पद्यन्ते,
नश्यत्येव च नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव च। एकं यद्यदनेकमेव तदपि प्राप्ते प्रतीति दृढा, सिद्धज्योतिरभूति चिरमुखमय केनापि __ तल्लक्ष्यते ॥१॥ प.वि /१०/१४/१७२ निर्विनाशमपि नाशमाश्रित शून्यमत्यतिशयेन सभृतम् । एकमेव गतमप्यनेकता तत्त्वमीहगपि नो विरुध्यते ॥१४॥
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भनेकान्त
জনার
- जो सिद्धज्योति सुक्ष्म भी है और स्थूल भी है, शून्य भी है और परिपूर्ण भी है, उत्पाद-विनाशशाली भी है और नित्य भी है, सद्भावरूप भी है और अभावरूप भी है तथा एक भी है और अनेक भी है, ऐसा बह दृढ प्रतीतिको प्राप्त हुई अमतिक चेतन एव सुखस्वरूप सिद्ध ज्योति किसी बिरले ही योगी पुरुषके द्वारा देखी जाती है ॥१३॥ वह आत्मतत्त्व विनाशमे रहित होकर भी नाशको प्राप्त है, शून्य होकर भी अतिशयसे परिपूर्ण है तथा एक होकर भी अनेकताको प्राप्त है। इस प्रकार नय विवसे ऐसा मानने में कुछ भी विरोध नहीं आता है (गीता/१३/१४-१६) (ईशोपनिषद/८) (और भी दे, अनेकान्त/२/५) । २. सभी धर्मों में नही बल्कि यथायोग्य धर्मों में ही
अविरोध है ध १/१.१.११/१६७/३ अस्त्वेकस्मिन्नात्मनि भूयसा सहावस्थाना प्रत्यविरुद्धाना सभवो नाशेषाणामिति चेत्क एवमाह समस्तानाप्यवस्थितिरिति चैतन्याचैतन्यभव्याभव्यादिधर्माणामप्यक्रमणे कात्मन्यवस्थितिप्रसङ्गात् । किन्तु येषा धर्माणा नात्यन्ताभावो यस्मिन्नात्मनि तत्र कदाचित्क्वचिदक्रमेण तेषामस्तित्व प्रतिजानीमहे। = प्रश्न-जिन धोका एक आत्मामें एक साथ रहने में विरोध नहीं है, वे रहे, परन्तु सम्पूर्ण धर्म तो एक साथ एक आत्मामें रह नहीं सक्ते है । उत्तरकौन ऐसा कहता है कि परस्पर विरोधी और अविरोधी समस्त धर्मों का एक साथ आत्मामें रहना सम्भव है। यदि सम्पूर्ण धर्मोका एक साथ रहना मान लिया जाये तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभब्यत्व आदि धर्मो का एक साथ एक आत्मामें रहनेका प्रसग आ जायेगा । इसलिए 'सम्पूर्ण परस्पर विरोधी धर्म एक आत्मामें रहते है,' अनेकान्तका यह अर्थ नहीं समझना चाहिए। किन्तु जिन धर्मोंका जिस आत्मामें अत्यन्त अभाव नहीं (यहाँ सम्यग्मिध्याव भावका प्रकरण है) वे धर्म उस आत्मामें पिसी काल और किसी क्षेत्रकी अपेक्षा युगपत् भी पाये जा सकते है, ऐसा हम मानते है ।
३. अपेक्षा भेदसे अविरोध सिद्ध है स. सि 11/१२/३०३ ताभ्या सिद्ध सर्पितानपितासिद्धनास्ति विरोध । तद्यथा--एकस्य देवदत्तस्य पिता पुत्रो भ्राता भगिनेय इत्येवमादय सबन्धा जनकत्वजन्यत्वादिनिमित्तान विरुध्यन्ते, अर्पणाभेदात् ॥ पुत्रापेक्षया पिता, पित्रपेक्षया पुत्र इत्येवमादि । तथा द्रव्यमपि सामान्या"णया नित्यम, विशेषाण यानित्यमिति नास्ति विरोध । - इन दोनोकी अपेक्षा एक वस्तु में परस्पर विरोधी बो धमों की सिद्धि होती है, इसलिए कोई विरोध नही है। जैसे देवदत्तके पिता पुत्र, भाई और भानजे, इसी प्रकार और भी जनकत्व और जन्यत्वादिके निमित्तसे होनेवाले सम्बन्ध विरोधको प्राप्त नहीं होते। जब जिस धर्मकी प्रधानता होती है उस समय उसमे वही धर्म माना जाता है। उदाहरणार्थ-पुत्रकी अपेक्षा वह पिता है और पिताको अपेक्षा वह पुत्र है आदि। उसी प्रकार द्रव्य भी सामान्यकी अपेक्षा नित्य है और विशेषकी अपेक्षा अनित्य है, इसलिए कोई विरोध नही है। (रा.वा १/८.१९/३६/२२)। रा.वा./२/३१२/४६७/४ वियदेव न व्येति, उत्पद्यमान एव नोत्पद्यते इति विरोध, ततो न युक्तमिति: तन्न कि कारणम् । धर्मान्तराश्रयणात । यदि येन रूपेण व्ययोदयकल्पना तेनैव रूपेण नित्यता प्रतिज्ञायेत स्याद्विरोध जनकत्वापेक्षयैव पितापुत्रव्यपदेशवत्, नन्तु धर्मान्तरसंश्रयणात् । -प्रश्न - 'जो नष्ट होता है वही नष्ट नहीं होता और जो उत्पन्न होता है वही उत्पन्न नहीं होता,'यह बात परस्पर विरोधी मालूम होती है। उत्तर-वस्तुत विरोध नहीं है, क्योकि जिस दृष्टि से नित्य कहते है यदि उसी दृष्टिसे अनित्य कहते तो विरोध होता जैसे कि एक जनकत्वको ही अपेक्षा किसीको पिता और पुत्र कहने में। पर यहाँ द्रव्य दृष्टिसे नित्य और पर्याय दृष्टिसे अनित्य कहा जाता है, अत. विरोध नही है । दोनो नयोकी दृष्टि से दोनो धर्म बन जाते है ।
न.च /श्रु/६५ यथा स्वस्वरूपेणास्तित्व तथा पररूपेणाप्यस्तित्व माभूदिति स्याच्छब्द। यथा द्रव्यरूपेण नित्यत्व तथा पर्यायरूपेण (अपि) नित्यत्व माभूदिति स्याच्छब्द | = जिस प्रकार वस्तुका स्वरूपसे अस्तित्व है, उसी प्रकार पररूपसे भी अस्तित्व न हो जाये, इसलिए स्यात शब्द या अपेक्षाका प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार द्रव्यरूपसे बस्तु नित्य है, उसी प्रकार पर्यायरूपसे भी वह नित्य न हो जाये इसलिए स्यात् शब्दका प्रयोग किया जाता है । (स्या में २३/२७६/७)। प का/ता वृ/१८/३८ ननु या पादविनाशौ तर्हि तस्यैव पदार्थस्य
नित्यत्व कथम् । नित्यं तर्हि तस्यैवोत्पादव्ययद्वय च कथम् । परस्परविरुद्धमिद शीतोष्णवदिति पूर्व पक्षे परिहारमाहु । येषो मते सर्वथै - कान्तेन नित्यं वस्तु क्षणिकं वा तेषां दूषण मिदम् । कथमिति चेत् । येनैव रूपेण नित्यत्व तेनैवानित्यत्व न घटते, येन च रूपेणानित्यत्व तेनैव न नित्यत्व घटते। कस्मात् । एकस्वभावत्वाद्वस्तुनस्तन्मते । जैनमते पुनर नेकस्वभाव बस्तु तेन कारणेन द्रव्याथिक नयेन द्रव्य रूपेण नित्यत्व घटते पर्यायाथिकनयेन पर्याय रूपेणानित्यत्वं च घटते। तौ च द्रव्यपर्यायौ परस्पर सापेक्षौ-तेन कारणेन.. एकदेवदत्तस्य जन्यजनकादिभाववत् एकस्यापि द्रव्यस्य नित्यानित्यत्वं घटते नास्ति विरोध । == प्रश्न- यदि उत्पाद और विनाश है तो उसी पदार्थ में नित्यत्व कैसे हो सकता है। और यदि नित्य है तो उत्पाद-व्यय कैसे हो सकते है । शोत व उष्ण की भाँति ये परस्पर विरुद्ध है। उत्तरजिनके मतमें वस्तु सर्वथा एकान्त नित्य या क्षणिक है उनको यह दूषण दिया जा सकता है। कैसे । वह ऐसे कि जिस रूपसे नित्यत्व है, उसी रूपसे अनित्यत्व घटित नहीं होता और जिस रूपमे अनित्यत्व है, उसी रूपसे नित्यत्व घटित नहीं होता। क्योंकि उनके मतमें वस्तु एक स्वभावी है। जैन मत में वस्तु अनेकस्वभावी है इसलिए द्रव्याथिक् नयसे नित्यत्व और पर्यायाथिकनयसे अनित्यत्व घटित हो जाता है और क्योकि ये द्रव्य व पर्याय परस्पर सापेक्ष है, इसलिए एक देवदत्तके जन्य-जन क्त्वादि भाववत् एक ही द्रव्य के नित्यामित्यत्व घटित होने में कोई विरोध नही है। स्या म/२४/२६०८ तदा हि विरोध स्यान्य द्यकोपाधिकं सत्व मसच्च
च स्यात् । न चैवम् । यतो न हि येनैवाशेन सच तेनैवासत्त्वमपि । किरन न्योपाधिक सन्चम, अन्योपाधिकः पुनरसन्यम् । स्वरूण्ण सत्य पररूपेण चासत्त्वम् । = सत्त्व असत्त्व धर्मों में तब तो विरोध हुआ होता जब दोनों को एक ही अपेक्षासे माना गया होता। परन्तु ऐसा तो है नहीं, क्योकि, जिस अशसे सरव है उसी अशसे असत्त्व नहीं है। किन्तु अन्य अपेक्षासे सत्त्व है और किसी अन्य ही अपेक्षासे असत्त्व है। स्वरूपमे सत्त्व है और पररूपसे असत्त्व है। १. वस्तु एक अपेक्षासे एकरूप है और अन्य अपेक्षासे
अन्यरूप रा,वा /१/६/१२/३७/१ सपथासपक्षापेक्षयोपल क्षिताना सत्त्वासत्त्वादीनां भेदानामाधारेण पक्षधर्मेणे केन तुलनं सर्वद्रव्यम् । -जैसे एक ही हेतु सपक्ष में सत और विपक्ष में असत होता है उसी तरह विभिन्न अपेक्षाओसे अस्तित्व आदि धर्मों के रहने में भी कोई विरोध नही है। (तथा इसी प्रकार अन्य अपेक्षाओं से भी कथन किया है)। न.च वृ/५८ भावा णेयसहावा पमाणगणेण होति णिवत्ता। एकसहावा वि पूणो ते चिय णनभेयगहणेण ॥५८ प्रमाणकी अपेक्षा करनेपर भाव अनेकस्वभावोसे निष्पन्न भी है और नय भेदकी अपेक्षा करनेपर
वे एक स्वभावी भी है। स सा /आ /परि. "अत्र स्वात्मवस्तुज्ञानमात्रतया अनुशास्यमानेऽपि न तत्परिकोप, ज्ञानमात्रस्यात्मवस्तुन स्वमेवानेकान्तत्वात् ।.. अन्तश्चकचकायमानज्ञानस्वरूपेण तत्त्वाइ बहिरुन्मिषदनन्तशेयतापन्नस्वरूपातिरिक्तपररूपेणातत्त्वात् । सहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशसमुदयरूपा. विभागद्रव्येण क्त्वात. अविभागैक्द्रव्यप्राप्तसहक्रमप्रवृत्तानन्त चिदशरूपपर्यायैरनेकत्वात, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावभवनशसिस्वभाववत्वेन
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अनेकान्त
अन्यत्व
सत्त्वाव. परद्रव्यक्षेत्रकालभावाभवनशक्तिस्वभाववत्वेनासत्त्वाव, अनादिनिधनाविभाग कवृत्तिपरिणतत्वेन नित्यत्वात, क्रमप्रवृत्तै कसमयावच्छिन्नानेकवृत्त्यशपरिणतत्वेनानित्यत्वात्तदत्त्वमेक्कानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्व च प्रकाशत एव । इसलिए आत्मवस्तुको ज्ञानमात्रता होने पर भी, तत्त्व-अतत्त्व, एकत्व-अनेकत्व, सत्त्व-असत्त्व और नित्यत्व पना प्रकाशता ही है, क्योकि उसके अन्तर गमें चकचकित ज्ञानस्वरूपके द्वारा तत्पना है; और बाहर प्रगट होते, अनन्त ज्ञेयत्वको प्राप्त, स्वरूपसे भिन्न ऐसे पररूपके द्वारा अतत् पना है। सहभूत प्रवर्तमान और क्रमश प्रवर्तमान अनन्त चैतन्य अशोके समुदायरूप अविभाग द्रव्यके द्वारा एकत्व है और अविभाग एक द्रव्यमें व्याप्त, सहभूत प्रवर्तमान तथा क्रमश प्रवर्तमान अनन्त चैतन्य अशरूप पर्यायोके द्वारा अनेकत्व है। अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूपमे हानेको शक्तिरूप जो स्वभाव है उस रवभाववानपनेके द्वारा सत्त्व है और परके द्रव्य, क्षेत्र, काल भावरूप न हानेकी शक्तिरूप जा स्वभाव है, उस स्वभाववानपनेके द्वारा असत्व है, अनादि निधन अविभाग एक वृत्तिरूपसे परिणतपनेके द्वारा नित्यत्व है, और क्रमशः प्रवर्तमान एक समयकी मर्यादावाले अनेक वृत्ति अशीरूपस परिणतपनेके द्वारा अनित्यत्व है।-दे नयX/8/21 ५. नयोको एकत्र मिलानेपर भी उनका विरोध कैसे दूर
होता है स्व, स्तो/६१ य एव नित्यक्षणिकादया नया मिथाऽनपेक्षा स्वपरप्रणाशिन । त एव तत्य विमलस्य ते मुने, परस्परेक्षा स्वपरोपकारि। --जो हो ये नित्य क्षणिकादि नय परस्परमें अनपेल होनेसे स्व-पर प्रणाशी है, वे ही नय हे प्रत्यक्षज्ञानो विमन जिन । आपके मतमें परस्पर सापेक्ष होनेसे स्व-पर उपकारी है। स्या म १२०/३३६/१३ ननु प्रत्येक नयानां विरुद्धत्व कथ समुदितानां निविधिता । उच्यते । यथा हि समीचीन मध्यस्थ न्यायनिर्णतारमासाद्य परस्पर विबदमाना अपि वादिनो दिवादाद विरमन्ति, एव नया अन्योऽन्य रायमाणा अपि सर्वज्ञशासनमुपेत्य स्याच्छन्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तय. सन्त परस्परमत्यन्तं सुहृभूयावतिचन्ते। प्रश्न-यदि प्रत्येक नय परस्पर विरुद्ध हैं तो उन नयों के एकत्र मिलानेसे उनका विरोध किस प्रकार नष्ट होता है। उत्तर - परस्पर बाद करते हुए बादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायीके द्वारा न्याय किये जानेपर विवाद करना बन्द करके आपसमें मिल जाते है, वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवानके शासनकी शरण लेकर 'स्याद' शब्दसे विरोधके शान्त हो जानेपर मैत्री भावसे एकत्र रहने लगते है। (स्याद्वाद/५ में देखो स्याव पद प्रयोगका महत्त्व)। ६. विरोधी धर्मो में अपेक्षा लगानेकी विधि
.. सत् असत् धर्मोकी योजना विधि-(दे. सप्तभगी ४)।
२. एक अनेक धर्मोकी योजना विधिपं.ध./पू./श्लोक स / केवल भावार्थ --"द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके द्वारा वह सत् अखण्ड या एक कैसे सिद्ध होता है, इसका निरूपण करते है।४३७॥ १ द्रव्यको अपेक्षा-गुणपर्यायवान् द्रव्य कहनेसे यह अर्थ ग्रहण नही करना चाहिए कि उस सबके कुछ अंश गुण रूप है और कुछ अश पर्याय रूप है, बलिक उन गुणपर्यायौंका शरीर वह एक सत है ॥४३८॥ तथा वही सत् द्रव्यादि चतुष्टयके द्वारा अखण्डित होते हुए भी अनेक है, क्योकि व्यतिरेकके बिना अन्वय भी अपने पक्षकी रक्षा नहीं कर सकता है ॥४१४॥ द्रव्य, गुण वपर्याय इन तीनोंमें संज्ञा लक्षण प्रयोजनकी अपेक्षा भेद सिद्ध होने पर वह सव अनेक स्वप क्यो न होगा ॥४१५॥ २ क्षेत्रकी अपेक्षा-क्षेत्रके द्वारा भी अखण्डित होने के कारण सत् एक है ०४५४॥ अखण्ड भी उस द्रव्य के प्रदेशोंको देखनेपर-जो सत् एक प्रदेशमें है वह उसी में है उससे भिन्न दूसरे प्रदेश में नहीं। अर्थात् प्रत्येक प्रदेशकी सत्ता जुदा-जुदा
दिखाई देती है। इसलिए कौन क्षेत्रसे भी सवको अनेक नहीं मानेगा ॥४६॥ ३ कालकी अपेक्षा-वह सव बार-बार परिणमन करता हुआ भी अपने प्रमाणके बराबर रहनेसे अथवा खण्डित नहीं होनेसे कालकी अपेक्षासे भी एक है ॥४७८॥ क्योंकि सतकी पर्यायमालाको स्थापित करके देखें तो एक समयकी पर्यायमें रहनेवाला जो जितना व जिस प्रकारका सत है, वही उतना तथा उसी प्रकारका सम्पूर्ण सव समुदित सब समयों में भी है। कहीं कालकी वृद्धि-हानि हानेसे शरीरको भाँति उसमें वृद्धि-हानि नही हो जाती ॥४७२-४७४॥ पृथक-पृथक पर्यायोको देखने पर जो सत एक कालमें है, वह सत अर्थात् विवक्षित पर्याय विशिष्ट द्रव्य उससे भिन्न कालमें नहीं है। इसलिए कालसे वह सत् अनेक है ॥४७॥ ४ भावकी अपेक्षा-(यदि सम्पूर्ण सत्का गुणोकी पक्तिरूपसे स्थापित करके केवल भावमुखेन देखो तो इन गुणों में सब सच ही है और यहाँपर कुछ भी नहीं है। इसलिए वह सव एक है॥४८॥ जिस-जिस भावमुखसे जिस-जिस समय सत्को विवक्षा की जायेगी, उस-उस समय वह सब उस-उस भावभय ही कहा जायेगा या प्रतीतिमें आयेगा अन्य भाव रूप नहीं। इस प्रकार भावको अपेक्षा वह सद अनेक भी है ॥४६८॥
३. अनित्य व नित्य धर्मोकी योजना विधि पध/पू. श्लोक स. "जिस समय केवल वस्तु दृष्टिगत होती है और परिणाम दृष्टिगत नहीं होता उस समय द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा सर्व वस्तु नित्य है ॥३३४ा जिस समय यहाँ केवल परिणाम दृष्टिगत होता है और वस्तु दृष्टिगत नहीं होती, उस समय पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे, नवीन पर्याय रूपसे उत्पन्न और पूर्व पर्यायरूपसे विनष्ट हानेसे सब वस्तु अनित्य है।
४ तत् व अतत् धर्मोकी योजना विधि प.ध./पू./श्लो. स. "परिणमन करते हुए भी अपने सम्पूर्ण परिणमनों में तज्जातीयपना उल्लघन न करनेके कारण वह सब तव रूप है ॥३५२३ परन्तु सत असतकी तरह पर्यायाथिक नयकी अपेक्षा देखने पर प्रत्येक पर्यायमें वह सत् अन्य अन्य दिखनेके कारण अतव रूप भी है ॥३३३॥
७ विरोधी धर्म बतानेका प्रयोजन पं.ध./पू /३३२,४४२ अयमर्थ सदसद्वत्तदतदपि च विधिनिषेधरूपं स्यात् ।
न पुननिरपेक्षतया तदद्वयमपि तत्त्वमुभयतया ॥३२॥ स्यादेकत्वं प्रति प्रयोजक स्यादरखण्डवस्तुत्वम् । प्रकृत यथासदेक द्रव्येणारखण्डि मतं तावत।-सत-असल्की तरह तव-अतव भी विधिनिषेध रूप होते है, किन्तु निरपेक्षपने नहीं क्योंकि परस्पर सापेक्षपनेसे वे दोनों ततअतत भी तत्त्व है।३३२॥ कथंचित एकत्व बवाना वस्तुकी अखण्डता
का प्रयोजक है। न.च./श्रु./पृ. ६५-६७/ भावार्थ "स्याव नित्यका फल चिरकाल तक स्थायीपना है। स्यादनित्यका फल निज हेतुओं के द्वारा अनित्य स्वभावी कर्मके ग्रहण व परित्यागादि होते हैं।" अनैकान्तिक हेत्वाभास-दे व्यभिचार । अनोजीविका-दे. सावद्य।।। अन्न-१. अन्नं मुगादि (ला.स /२/१६) मूग, मोठ, चना, गेहूँ आदि अन्न कहलाता है। २. बीधा व संदिग्ध अन्न अभक्ष्य है-वे. भक्ष्याभक्ष्य २। अन्नप्राशनक्रिया-दे. संस्कार २। अन्यत्व-रा.वा./२/७,१३/११२/१ अभ्यत्वमपि साधारणं सर्वद्रव्याणा परस्परतोऽन्यवाद । कर्मोदयाद्यपेक्षाभावाद तदपि पारिणामिकस् । - एक द्रव्य दूसरेसे भिन्न होता है, अतः अन्यस्व भी सर्वसाधारण है। कर्मोदय आदिकी अपेक्षाका अभाव होनेके कारण, यह पारिणामिक भाव है, अर्थात् स्वभावसे ही सममें पाया जाता है।
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अन्यत्वानुप्रेक्षा
१९२
अपकर्षण
स.सा./आ./३५५/क २१३ वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुन', येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत् । निश्चयोऽयमपरोऽपरस्य का, किं करोति हि बहिलुठन्नपि ॥२१३॥ इस लोकमें एक वस्तु अन्य वस्तुकी नहीं है, इसलिए वास्तवमें वस्तु वस्तु हो है । ऐसा होनेसे कोई अन्य वस्तु अन्य वस्तु
के बाहर लोटती हुई भी उसका क्या कर सकती है। प्रसा/तप्र./१०६ अतद्भावो ह्यन्यत्वस्य लक्षण तत्तु सत्ताद्रव्ययो विद्यत एच गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावात् शुक्लोत्तरीयवदेव । अतद्भाव अन्यत्वका लक्षण है, वह तो सत्ता और द्रव्य के है ही, क्योंकि गुण
और गुणीके तद्भावका अभाव होता है-शुक्ल व वस्त्रकी भाँति । * दो पदार्थोके मध्य अन्यत्वका विशेष रूप-दे. कारक, कारण । अन्यत्वानुप्रेक्षा-दे अनुप्रेक्षा। अन्यथानुपपत्ति-दे. हेतु । अन्यथायुक्ति खण्डन-(ज.प्र /प्र १०५) Reductio-ad-abour
dum. अन्यदृष्टिप्रशंसा–स सि /9/२२/३६४ प्रशसासस्तवयो को विशेष । मनसा मिथ्यादृष्टेनिचारित्रगुणोद्भावनं प्रशसा, भूताभूतगुणोद्भावबच्चन सस्तव इत्ययमनयोर्भेद । प्रश्न - प्रशसा और सस्तव में क्या अन्तर है। उत्तर-मिथ्यादृष्टिके ज्ञान और चारित्र गुणोंको मनसे उद्भावन करना प्रशंसा है, और मिथ्यादृष्टिमें जो गुण है या जो गुण नहीं है इन दोनोंका सद्भाव बतलाते हुए कथन करना संस्तव है, इस प्रकार इन दोनों में अन्तर है ।(रा वा /७/२३,१/५५२) (चा सा /७/२)। अन्ययोगव्यवच्छेद १. अन्ययोगव्यवच्छेदात्मक एवकार-दे एव । २. अन्ययोगव्यवच्छेद नामका ग्रन्थ-श्वेताम्बराचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि (ई १०८८-११७३) द्वारा रचा गया एक न्यायविषयक ग्रन्थ है। इसपर श्री मल्लिषेण सूरि (ई १२६२) ने स्याद्वादमंजरी नामकी टीका लिखी है । अन्योन्यगुणकारशलाका-'ज प्र/प्र.१०५) Mutual mult
iple log. अन्योन्याभाव-रे अभाव । अन्योन्याम्यस्तराशि-गो क / /६३७/११३७ इट्टसलायपमाणे दुगसंबग्गे कदेदु इट्टस्स। पयडिस्स य अण्णोण्णाभत्थपमाण हवे णियमा। -अपनी-अपनी इष्ट शलाका जो नाना गुणहानि शलाका तीहिं प्रमाण दोयके अक माडि परस्पर गुणे अपनी इष्ट प्रकृतिका अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण हो है । (गो क /भाषा/६२२/१.०६/३) (मो.जी /भाषा/१६/१५६/६/) (विशेष दे गणित/II/६/२)। २. प्रत्येक कर्मकी अन्योन्याभ्यस्त राशि- दे
गणित II/६/४। अन्योन्याश्रय हेत्वाभास-श्लो.बा /४/न्या. ४५६/५५५/६/भाषाकार "परस्परमें धारावाही रूपसे एक-दूसरेकी अपेक्षा लागू रहना अन्योन्याश्रय है" (जिसे खटकेके तालेको चाबी तो आलमारीमें रह गयी और माहरसे ताला बन्द हो गया। तब चाबी निकले तो ताला खुले और ताला खुले तो चाबी निकले, ऐसी परस्परकी अपेक्षा लागू होती है)। अन्वय-रा.वा./५/२,४३६/२१ स्वजात्यपरित्यागेनावस्थितिरन्वयः । -अपनी जातिको न छोडते हुए उसी रूपसे "अवस्थित रहना
है। उत्तर-अनुगताकार (यह वही है ऐसी) बुद्धि और अनुगताकार शब्द प्रयोगके द्वारा अनुमान किये जानेवाले तथा नित्य रिथत स्वात्मभूत अस्तित्वादि गुण अन्वय कहलाते है। स सा./ता.वृ/२२३ अन्वयव्यतिरेकशब्देन सर्वत्र विधिनिषेधौ ज्ञातव्यौ। __-अन्वय और व्यतिरेक शब्दसे सर्वत्र विधि-निषेध जानना चाहिए। पं.ध./पू /"४३ सत्ता सत्त्वं सद्वा सामान्यं द्रव्यमन्वयो वस्तु । अर्थो विधिर विशेषादेकार्थवाचका अमी शब्दा॥१४॥ सत्ता. सत्त्व, सदा सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये सब शब्द अविशेषरूपसे एकार्थवाचक है। २. अन्वय व्यतिरेकको परस्पर सापेक्षता-दे.'सप्तभगी ४।
३. अन्वय द्रव्याथि नय-दे. नय IV/२। अन्वयी-स.सि.१५/३८/३०६ अन्वयिनो गुणाः। = गुण अन्वयी होते
है। (रा वा /४/४२,११/२५२/१४) प्र.सा./त.प्र./८०) (पं ध/पू /१४४)। पं.ध/पू/१३८ तद्वाक्यान्तरमेतद्यथा गुणा' सहभुवोऽपि चान्वयिनः । अर्थाच्चैकार्थत्वादर्थादेकार्थवाचका' सर्वे ॥१३८॥-- गुण, सहभू और अन्वयी तथा अर्थ ये सब शब्द अर्थको दृष्टिसे एकार्थक होनेके कारण एकार्थवाचक है। अन्वर्थ-प.का./ता.व./१/७/६ अन्वर्थनाम कि यादृश नाम तादृ
शोऽर्थः यथा तपतीति तपन आदित्य इत्यर्थः । = जैसा नाम हो वैसा ही पदार्थ हो उसे अन्वर्थ नाम कहते है-जैसे जो तपता है सो
तपन अर्थात सूर्य है। अप-दे. जल। अपकर्ष-गो जी/जी.प्र./५१८/६१३/१७ भुज्यमानायुरपकृष्यापकृष्य परभवायुबध्यते इत्यपकर्ष ।। -भुज्यमान आयुको घटा-घटाकर आगामी परभवकी आयुको बॉधै सो अपर्ष कहिये (अर्थात् भुज्यमान आयुका २/३ भाग बीत जानेपर आयुबन्धके योग्य प्रथम अवसर आता है। यदि वहाँ न बंधे तो शेष १/३ आयुका पुन २/३ भाग बीत जानेपर दूसरा अवसर आता है। इस प्रकार आयुके अन्तपर्यन्त आठ
अवसर आते है। इन्हे आठ अपकर्ष कहते हैं । (विशेष दे, आयु ४) । अपकर्षण-अपकर्षणका अर्थ घटना है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रके
कारण स्वत अथवा तपश्चरण आदिके द्वारासाधक पूर्वोपार्जित कर्मोकी स्थिति व अनुभाग बराबर घटाता हुआ अथवा घातता हुआ आगे बढता है। इसीका नाम मोक्षमार्गमें अपकर्षण इष्ट है । ससारी जीवोंके भीप्रतिपल शुभ या अशुभ परिणामोंके कारण पुण्य या पाप प्रकृतियोका अपकर्षण हुआ करता है। वह अपकर्षण दो प्रकारसे होता हैसाधारण व गुणाकार रूपसे। इनमें पहिलेको अपकर्षण व अपसरण तथा दूसरेको काण्डकघात कहते है, क्योंकि इसमें कर्मोंके गढ़ के गढे एक-एक आरमें तोड दिये जाते है। यह काण्डकघात ही मोक्षका साक्षात् कारण है और केवल ऊँचे दर्जे के ध्यानियोको होता है। इसी विषयका परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।
१ भेद व लक्षण
१. अपकर्षण सामान्यका लक्षण । २ अपकर्षणके भेद (अव्याघात व व्याघात)। ३. अव्याघात अपकर्षणका लक्षण । ४ व्याघात अपकर्षणका लक्षण । ५ अतिस्थापना व निक्षेपके लक्षण । * जघन्य उत्कृष्ट निक्षेप व अतिस्थापना ।
-दे अपकर्षण २/१:४/२।
रा.ता./४/४२.११/२५२/१४ के पुनरन्वया । बुद्धयभिधानानुवृत्तिलिङ्गन अनुमीयमानाबिच्छेदा' स्वात्मभूतास्तित्वादय' । प्रश्न-अन्वय क्या
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अपकर्षण
२. अपकर्षण सामान्य निर्देश
१. अव्याघात अपकर्षण विधान ।
२. अपकर्षण योग्य स्थान व प्रकृतियाँ |
२. अपकृष्ट द्रव्यमे भी पुन परिवर्तन होना सम्भव है । ४. उदयाबलिसे बाहर स्थित निषेकका ही अपकर्षण होता है भीतरवालो का नही ।
२. अपसरण निर्देश
१. चौतीस स्थितिबन्धापसरण निर्देश । (पृथक्-पृथक् चारों गतियोंके जीवोंकी अपेक्षा)
२. स्थिति सत्वापसरण निर्देश ।
३. ३४ बन्धापसरणोंकी अभव्योमे सम्भावना व असम्भावना सम्बन्धी दो मत।
* स्थिति बन्धापसरण कालका लक्षण -- दे. अपकर्षण ४ /४ ४. व्याघात या काण्डकघात निर्देश
१. स्थितिकाण्डकघात विधान
* चारित्रमोहोपशम विधानमे स्थितिकाण्डकपात ।
११३
- दे. ल सा /७७७८/११२ * चारित्रमोहक्षपणा विधानमे स्थितिकाण्डकघात । - दे. क्ष. सा / ४०५-४०७/४६१ २. काण्डकघात के बिना स्थितिघात सम्भव नही । ३. आयुका स्थितिकाण्डकपात नही होता ।
४. स्थितिकाण्डकघात व स्थितिबन्धापसरण मे अन्तर । ५. अनुभागकाण्डक विधान ।
६. अनुभाग काण्डकघात व अपवर्तनाचातमे अन्तर । ★ अनुभाग काण्डकघातमे अन्तरंगकी प्रधानता । दे. कारण II/ २
७. शुभ प्रकृतियोंका अनुभागपात नही होता । ८. प्रदेशचातसे स्थिति घटती है, अनुभाग नहीं। ९. स्थिति व अनुभावचातमे परस्पर सम्बन्ध । * आयुकर्मके स्थिति व अनुभागधात सम्बन्धी
।
-- दे. आयु /५
१. भेद व लक्षण
१ अपकर्षण सामान्यका लक्षण
१०/४५२.४.२१/५१/२ पदेसाणं हिदीपमोमणा बोबा ग्राम
कर्मप्रदेशकी स्थितियोंके घटने का नाम अपकर्ष है। गो.जी.प्र./४३८/३११ स्थित्यनुभाग योनिरपकर्ष काम स्थिति और अनुभागकी हानि अर्थात पहिले बान्धी थी उससे कम करना, अपकर्षण है ।
ल. सा / भाषा / ५५/८७ स्थिति घटाय ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य नीचले निषेकनि विषै जहाँ दीजिये तहाँ अपकर्षण कहिये । ( पीछे उदय आने योग्य द्रव्यको ऊपरका और पहिले उदयमें आने योग्यको मीका जानना चाहिए। गो जी, /भाषा/२५८/५६६/१६) ।
२. अपकर्षणके भेद
(अपकर्षण दो प्रकारका कहा गया है-अव्याघात अपकर्षण और व्याघात अपकर्षण । व्याघात अपकर्षणका ही दूसरा नाम काण्डकघात भी है, जैसा कि इस संज्ञासे ही विदित है) ।
३. अव्याघात अपकर्षणका लक्षण
लसा / भाषा/ ५६/८८/१ जहाँ स्थितिकाण्डकघात न पाइए सो अव्याघात कहिये ।
४. व्याघात अपकर्षणका लक्षण
तसा भाषा/१/१२/१ जहाँ स्थितिकाण्डपाठ होइ सोव्यापात कहिये । ५. अतिस्थापना व निक्षेपके लक्षण
साजी ५६/८०/१२ अपकृष्टद्रव्यस्य निक्षेपस्थान निक्षेप, निक्षिप्यतेऽस्मिन्निति निर्वचनात् । तेनातिक्रम्यमाणं स्थानमतिस्थापन, अति अतिक्रम्यतेऽस्मिन्निति अतिस्थापनम् अपकर्षण
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किये गये द्रव्यका निक्षेपणस्थान, अर्थात् जिन निषेकोंमे उन्हें मिलाते है वे निषेक निक्षेप कहलाते है, क्योंकि, जिसमें क्षेपण किया जाये सो निक्षेप है. ऐसा वचन है, उसके द्वारा अतिक्रमण या उल्लंघन किया जानेवाला स्थान, अर्थात् जिन निषेकों में नहीं मिलाते वे सच, अतिस्थापना हैं, क्योंकि, 'जिसमें अतिस्थापन या अतिक्रमण किया जाता है, सो अतिस्थापना है' ऐसा इसका अर्थ है । (ल सा / भाषा / २५/८०/२) सा/भाषा/८९/११६/१८)।
२. अपकर्षण सामान्य निर्देश
२ अपकर्षण सामान्य निर्देश
१. अव्याघात अपकर्षण विधान स.सा.व टीका ५६-५८/८८-१० केवल भावार्थ नोट-साथ आगे दिया गया यन्त्र देखिए। द्वितीयावली के प्रथम निषेकका अपकर्षण करि नीचे (प्रथमावली में ) निक्षेपण करिये सहाँ भी कुछ निषेको हो निक्षेपण करते हैं, और कुछ निषेक अतिस्थापना रूप रहते हैं। उनका विशेष प्रमाण बताते हैं ।] प्रथमावली के निषेकनि विषै समयघाट आवलीका त्रिभागसे एक समय अधिक प्रमाण निषेक तो निक्षेप रूप
हैं (अर्थात् यदि आवली १६ समय प्रमाण तो १६- १+१= ६ निषेक निक्षेप रूप है ।) इस विषै सोई द्रव्य दीजिये है । बहुरि अवशेष (नं. ९ तकडे १०) निषेक प्रतिस्थापना रूप है दे, यंत्र नं. २) ।
०
निवेक
* =
अतिस्थापना
* = अपकृष्टनिषेक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
(नं.१)
-->
11
एक समयप्रबद्ध के सर्व निषेक कर्म की कुल स्थिति = ५० वर्ष' =१५७६८०००००
उदय योग्य निषेक
आबाधा
(नं.
प्रथम स्थिति के १६ निषेक
२)
द्वितीय स्थिति के निषेक
इस द्रव्य को नीचे से ऊपर की तरफ क्रमपूर्वक उठा उठाकर नीचे निक्षेप भाग
मे निक्षेपण करिये अति स्थापना भाग मे नकरिये।
जघन्य अति-, स्थापना के १० निषेक
अद्यन्यनिक्षेपके ६ निषेक
0000000000000XXXXXXXXXXXX00
यातै ऊपर द्वितीयावली के द्वितीय निषेक्का अपकर्षण किया । तहाँ एक समय अधिक जावली मात्र (१६+१-१७) याके बोच निषेक हैं । तिनि विषै निक्षेप तो वही पहले वाला अर्थात ) निषेक घाट
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१६
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अपकर्षण
1
आवलीका त्रिभागसे एक समय अधिक ही है अति स्थापना पूर्व एक समय अधिक है क्योंकि द्वितीयावलीका प्रथम समय जिसके व्यको पहिले अपकर्षणकर दिया गया है, न खाड़ी होकर अतिस्थापना के समय में सम्मिलित हो गया है ।) ऐसे क्रमतें द्वितीयावली के तृतीयादिनिषेकनिका अपकर्षण होते निशेष तो पूर्णे प्रमाण ही और अतिस्थापना एक एक समय अधिक क्रमतें जानना । (इसी प्रकार बढ़ते-बढते ) अतिस्थापना आवली मात्र ( अर्थात १६ निषेक प्रमाण) हा है, सो उत्कृष्ट अतिस्थापना है यहाँ से आगे ऊपर निषे निका द्रव्य (अर्थात् द्वितीय स्थितिके नं ७ आदि निषेक) अपकर्षण किये सर्वत्र अतिस्थापना तो आवली मात्र ही जानना अर निक्षेप एक-एक समय क्रमतें बंधता जाये।
1
(मं. ३०)
द्वितीय स्थिति
इसे द्रव्यको क्रम पूर्वक निक्षेप में डालते जाइये।
क्रम पूर्वक एक एक समय मिलते रहने पर यहां आकर १६ निषेक या आवली प्रमाण । उत्कृष्ट अति10 स्थापना हो
जघन्य निक्षेप के ६ निषेक आबाधा
0000000000000
(नं.४) अन्तिम निषेक
(आवली)
उत्कृष्ट निक्षेप कुल स्थिति - (आबाधा + अति स्थापना + अन्तिम निषेक)
आबाधा (आयसी)
xxxxx
00
00
तहाँ स्थितिका अन्त निषेकका द्रव्यको अपकर्षण करि नीचले निषेकनि निरतेतिस अन् निषेकके नीचे आयती मात्र निषेक तौ अतिस्थापना रूप है, और समय अधिक दाय आवली करि हीन उत्कृष्ट स्थिति मात्र निक्षेप हैं । सो यह उत्कृष्ट निक्षेप जानना । (कुल स्थितिमेंसे एक आवली तो आबाधा काल और एक आवली अतिस्थापना काल तथा एक समय अन्तिम निषेकका कम करनेपर यह उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होता है। दे, यन्त्र नं ४) ।
२. अपकर्षण योग्य स्थान व प्रकृतियाँ गो.४४४४८/५१२-१८
चरिमोन्ति । खोण मुहुमंताणं खयदेमं सावलीयसमयोनि ॥ ४४५ ॥ उवसंतोत्ति सुराऊ मिच्छत्तिय खवगसोलस ण च । खयमेमोनि य खबगे अकसायादिवसा ॥ ४४६ ॥ मिच्छत सनसाण उनसममेदमि सहमति दीप्ति हवे ||४४७॥ पढमकसायाणं च विसजोजक वोत्ति अग्रददेमात्ति । रितिरिवाजानमुदीरणसतोट्या सिद्धा ॥४४८४ योगि सत्त्वरूप वही पिच्यासी प्रकृति ( पाँच शरीर, पाँच बन्धन,
५
५
पच संघात, छ संस्थान, तीन अगोपाग, छ सहनन, पाँच वर्ण, ६
५
६
३
५
दो गध, पाँच रस, आठ स्पर्श, स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर
२ ५
८
२
२
२
दुस्वर, देवगति व आनुपूर्वी, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग,
२
२
१
निर्माण, अयश कीर्ति, अनादेय अपने अरु उपा १ १ १ १ १ परघात, उच्छ्वास, अनुदयरूप अन्यतम वेदनीय, नोच गोत्र- ये
१
१
१
१
१
प्रकृतिको योगके द्वि चरम समय सतहोत है बहुरि जिनका उदय अयोगि विषै पाइये ऐसे उदयरूप अन्यतम
१
२ पण सामान्य निर्देश
वेदनीय, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय, सुभग, शंस, बादर, पर्याप्त आय १ १ १ १ १
१
१
यश कीर्ति, तीर्थंकरख, मनुष्यायु म आनुपूर्वी, उच्च गत्रि इन
१
१
१९४
१
२
तेरह प्रकृतियोंकी अयोगिके अन्त समय
होती है।
४
२
•
सर्व मिलि ८५ भई । ) तिनिकै ( ८५ प्रकृतिनि के ) सयोगिका अन्त समय पर्यन्त अपकर्षण जानना । महुरि क्षीणकषाय विषय सत्त्व से व्युच्छित्ति भई सोलह और सूक्ष्म साम्परायविषै सत्त्वतै व्युच्छित्ति भया सूक्ष्म लोभ इन तेरह प्रकृतिनिके देश पर्यन्त अपकर्षणकरण जानना । ( पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, निद्रा५ ५ प्रचला ये सोलह तथा सूक्ष्म लोभ । सर्व मिलि ७ भई । ) तहाँ क्षयदेश कहा सो कहिये है - जे प्रकृति अन्य प्रकृतिरूप उदय देय विनसे है. ऐसा परमुखोदयी है. निकेत फालि क्षयदेश बहुरि अपने हो रूप फस देह विमसे है ऐसी स्वमुखोदय प्रकृति, तिनक एक एक समय अधिक आवली प्रमाण क्षयदेश है. ताते तिनि सतरह प्रकृतिनिकै एक समय आवली काल पर्यंत अपकर्षण पाइये ॥ ४४ ॥ उपशान्तकषाय पर्यन्त देवायुके अपकर्षणकरण है। महुरि मिध्यात्व सम्यग्मिध्यास्थ सम्यवाद प्रकृति सीम और 'विश्व दिग्वखा' इत्यादि सूत्रोक्त अनिवृतिकरण विधेय भ सोलह प्रकृति ( नरक गति व आनुपूर्वी, तियंचगति व आनुपूर्वी,
२
२
वित्र स्त्यानगृद्धत्रिक उद्योत आप एकेन्द्रिय स धारण
३
३
१
१
१
१
सूक्ष्म, स्थावर, इन सोलह प्रकृतिनिकी अनिवृत्तिकरण के पहिले भाग
१
१
)
सबसे है इनके देश पर्यन्त उपकरण है - अन्तकाण्डकका अन्तका फालि पर्यन्त है ऐसा जानना । बहुरि आउने आदि देकर रवि क्षय भई ऐसी मोस प्रकृति ( अप्रत्याख्यान कषाय, प्रत्याख्यान कषाय, नपुंसक वेद, स्त्री वेद १ १
४
४
छह नोकषाय, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध मान व माया । सर्व मिलि
१
६
३
२० भई तिमि अपने अपने देश पर्यन्त अपकर्षणकरण है। जिस स्थानक भय भया साक्ष्य देश कहिये ॥४४६ ॥
उष्टाम श्रेणी विषै मिथ्यात्व मिश्र, सम्यक्त्व प्रकृति ये तीन अरनरक 'इकादिक सालह (अभिवृत्ति युकि १६ ) इनक उपशान्तम्पाय पर्यन्त अवर्षण है । बहुरि अष्ट वषायादिक अनिवृत्तिकरण प्राप्त पूर्वोक्त २०) तिनके अपनेअपने उपशमनेके टिकाने पर्यन्त अपकर्षणकरण है ॥४४७॥ अनन्तानुबन्धी चतुष्कक देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्तनि विषै यथा सम्भव जहाँ विसयाजना हाई तहा पर्यन्त अपकर्षणकरण है ॥ ४४८ ॥
३. अपकृष्ट द्रव्यमे भी पुनः परिवर्तन होना सम्भव है
च ६ / ११-८, १६/२२ / ३४७ ओकडुदि जे असेसे काले ते च होति भजि. दव्वा ! बड्डीए अत्रठ्ठाणे हाणीए सकमे उदए ॥२२॥ - जिन कम शोंक अपकर्षण करता है वे अनन्तर काल में स्थित्यादिकी वृद्धि, अवस्थान, हानि, सक्रमण, और उनसे भी है. अर्थात अपकर्षण किये जाने के अनन्तर समय में ही उनमें वृद्धि आदिक उक्त क्रियाओंका होना सम्भव है ॥२२॥
४ उदयावलिसे बाहर स्थित निषेकोंका हो अपकर्षण होता है भीतरवालोंका नहीं
कपर पूर्ण सूत्र / ४२३-४२४/२३१ ओकादो की दियं ग्राम कि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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अपकर्षण
३ अपसरण निर्देश
॥४२३॥ जं कम्ममुदयावलियम्भतरे ट्ठियं तमोक्कडणादो झीणहिदिये। जमुदयावलिबाहिरै ठ्ठिद तमोक्कड्डणादो अज्झीणछिदियं ॥४२४॥ -प्रश्न-वे कौनसे कर्मपरमाणु है जो अपकर्षणसे झीन (रहित) स्थितिवाले है ॥४२३॥ उत्तर-जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले है और जा कर्मपरमाणु उदयावलिके बाहर स्थित हैं वे अपकर्षणसे अझीन स्थितिवाले है। अर्थात उदयावलिके भीतर स्थित कर्म परमाणुओका अपकर्षण नहीं होता, किन्तु उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण
हो सकता है। ३. अपसरण निर्देश १.चौंतीस स्थिति बन्धापसरण निर्देश
१ मनुष्य व तिर्यंचोंकी अपेक्षा ल.सा./मू. व जो प्र८18-१६/४७-५३ केवल भाषार्थ "प्रथमोपशम सम्यक्वको सन्मुख भया मिथ्यादृष्टि जीव सो विशुद्धताकी वृद्धिकरि वर्द्धभान होता सता प्रायोग्यलन्धिका प्रथम समयतें लगाय पूर्व स्थिति बन्धकै (1) संख्यातवें भागमात्र अन्त'कोटाकोटी सागर प्रमाण आयु विना सात कर्मनिका स्थितिबन्ध करै है तिस अन्त'कोटाकोटी सागर स्थितिबन्ध ते पत्यका संख्यातवां भागमात्र घटता स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त समानता लिये करै । बहुरि तातें पत्यका संख्यातवा भागमात्र घटता स्थितिबन्ध अन्तर्मुहर्त पर्यन्त रै है। ऐसे क्रम संख्यात स्थितिबन्धापसरणनि करि पृथक्त्वसौ (८०० या ६००) सागर घटै पहिला स्थिति बन्धापसरण स्थान होइ । २ बहुरि तिस हो क्रमते तिस ते भी पृथक्त्वसौ घटै दूसरा स्थितिबन्धापसरण स्थान हो है। ऐसे इस हो क्रमतें इतना-इतना स्थिति मन्ध घट एक-एक स्थान होइ । ऐसे स्थिति बन्धापसरणके चौतीस स्थान होइ । चौतीस स्थाननिविर्षे कैसी प्रकृतिका (बन्ध ) व्युच्छेद हो है सो कहिए ॥१०॥ १. पहिला नरकायुका व्युच्छित्ति स्थान है। इहां तै लगाय उपशम सम्यक्त्व पर्यन्त नरकायुका बन्धन होइ, ऐसे ही आगे जानना। २. दूसरा तिर्यंचायुका है। (इसी क्रमसे) ३ मनुष्यायः ४. देवायु: ५. नरकगति व आन पूर्वी; ६ संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण (संयोग रूप अर्थात तीनोंका युगपत बन्ध);७. संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येक; ८. सयोगरूप बादर अपर्याप्त साधारण: संयोगरूप बादर अपर्याप्त प्रत्येक; १०. संयोगरूप वेइन्द्रिय अपर्याप्त ११. संयोगरूप तेइन्द्रिय अपर्याप्त; १२ संयोगरूप चौइन्द्रिय अपर्याप्त; १३. संयोगरूप असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तः १४ संयोगरूप संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त ॥११॥ १५ सयोगरूप सूक्ष्म पर्याप्त साधारण; १६. संयोगरूप सूक्ष्म पर्याप्त प्रत्येक; १७. संयोगरूप बादर पर्याप्त साधारण; १८. स योगरूप वादर पर्याप्त प्रत्येक एकेन्द्रिय आतप स्थावरः १६. संयोगरूप वेइन्द्रिय पर्याप्त: २०. संयोगरूप तेइन्द्रिय पर्याप्तः २१. चौइन्द्रिय पर्याप्त, २२, असंज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त ॥१२॥ २३ संयोगरूप तिथंच व आन पूर्वी तथा उद्योत; २४ नीच गोत्र; २५. संयोगरूप अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग-दुःस्वरअनादेय, २६. हुंडकसंस्थान, सृपाटिका सहनन, २७. नपुंसकवेद; २८. वामन संस्थान, कीलित संहनन; ॥१३॥ २६. कुब्जक संस्थान, अर्धनाराच संहननः ३० स्त्रीवेद: ३१ स्वाति संस्थान, नारोच सहनन. ३२. न्यग्रोध संस्थान. वज्रनाराच संहनन; ३३. संयोगरूप मनुष्यगति व आनुपूर्वी-औदारिक शरीर व अगोपांग-बज्र-वृषभनाराच संहननः ३४. संयोगरूप अस्थिर-अशुभ-अयश- ॥१४॥ अरति-शोक असाता-। ऐसे ये चौतीस स्थान भव्य और अभव्यके समान हो है ॥१५॥ मनुष्य तियानक तो सामान्योक्त चौतीस स्थान पाइये है तिनके ११७ बन्ध योग्यमें-से ४६ की व्युच्छित्ति भई, अवशेष ७१ बान्धिये है ॥१६॥ (ध.६/१,६-२, २/१३५/५) (ल.सा./२२२-२२३/२६७) (क.पा.स./१०-१४/४०/५. ६१७६१६) (म.न./पु,२/११५-११६) ।
२. भवनत्रिक व सौधर्म युगलको अपेक्षा ल.सा /मू.व.टी./१६/५३ केवल भाषार्थ “भवनत्रिक व सौधर्म युगलविरें दूसरा, तीसरा अठारहवाँ और तेईसवाँ आदि दस (२३-३२) और अन्तका चौतीसवाँ ये चौदह स्थान ही सभव है। तहाँ ३१ प्रकृतिनि की व्युच्छित्ति हो है और बन्ध योग्य १०३ विर्षे ७२ प्रकृतिनिका बन्ध अवशेष रहे है ॥१६॥ ३. प्रथम छह नरकों तथा सनत्कुमारादि १० स्वर्गोको
अपेक्षा ल, सा /म. व टी /१७/५४ केवल भाषार्थ- "रत्नप्रभा आदि छह नरक पृथिवी निविष और सनत्कुमार आदि दश स्वर्गनिविर्षे पूर्वोक्त ( भवनत्रिकके ) १४ स्थान अठारहवे बिना पाइये है। तिनि तेरह स्थाननिकरि अठाईस प्रकृति व्युच्छित्ति हो है। तहाँ बंधयोग्य १०० प्रकृतिनिविर्षे ७२का बन्ध अवशेष रहे है ॥१७॥
४. आनतसे उपरिम वेयक तककी अपेक्षा ल.सा/मू व टी./१८/५५ केवल भाषार्थ-"आनत स्वर्गादि उपरिम घेवे
यक पर्यन्त विषै (उपरोक्त) १३ स्थान दूसराव तेईसवाँ मिना पाइये। तहाँ तिनि ग्यारह स्थाननिकरि चौबीस घटाइ मन्धयोग्य ६६ प्रकृतिनिविषै ७२ बाँधिये है ॥१८॥
५. सातवी पृथिवीकी अपेक्षा ल.सा./म.व.टी/१६/५५ केवल भाषार्थ-"सातवीं नरक पृथिवी विषै जे (उपरोक्त) ११ स्थान तीसरा करि हीन और दूसरा करि सहित तथा चौबीसवाँ करि हीन पाइये। तहाँ तिनि १० स्थाननि करि तेईसवाँ उद्योत सहित ये चौबीस घटाइ मन्ध योग्य ६६ प्रकृतिनिविर्षे ७३ वा ७२ बाँधिये है, जानै उद्योतको बन्ध वा अबन्ध दोनों संभवे है ॥१६॥
२.स्थिति सत्वापसरण निर्देश क्ष.सा /मू व.टी./४२७-४२८/५०६ केवल भाषार्थ - "मोहादिकका क्रम लिए जो क्रमकरण ( दे क्रमकरण ) रूप बन्ध भया, तातै पर इस ही क्रम लिये तितने ही संख्यात हजार स्थिति बन्ध भये असंही पंचेन्द्रिय समान (सागरोपमलक्षपृथक्त्व ) स्थिति सत्व है। बहुरि तात परै जैसे-जैसे मोहनीयादिकका क्रमकरण पर्यन्त स्थिति बन्धका व्याख्यान किया तैसे ही स्थिति सत्त्वका होना अनुक्रम तें जानना । तहाँ एक पाय स्थिति पर्यन्त पत्यका संख्यातवाँ भागमात्र तातें दूरापकृष्टि पर्यन्त पन्यका संख्यातवा भागमात्र, तारौं संख्यात हजार वर्ष स्थिति पर्यन्त पक्ष्यका असंख्याता बहुभागमात्र आयाम लिये जो स्थिति बन्धापसरण तिनिकरि स्थिति बन्धका घटना कहा था, तैसे ही इहाँ तितने आयाम लिये स्थिति काण्डकनिकरि स्थितिसत्त्वका घटना हो है। बहुरि तहाँ संख्यात हजार स्थिति बन्धका व्यतीत होना कहा तैसे इहाँ भी कहिए है, वा तहाँ तितने स्थिति काण्डनिका व्यतीत होना कहिए । जातें स्थिति मन्धापसरण
और स्थितिकाण्डोत्करणका काल समान है। बहुरि तहाँ स्थिति बन्ध जहाँ कह्या था यहाँ स्थिति सत्व तहाँ कहना। बहरि अक्प बहुत्व त्रैराशिक आदि विशेष मन्धापसरणबत ही जानना। सो स्थिति सत्त्वका क्रम कहिए-प्रत्येक संख्यात हजार काण्डक गये क्रमते असंज्ञी पंचेन्द्रिय,चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, वे इन्द्रिय, एकेन्द्रियनिकै स्थिति बन्ध के समान कर्मनिकी स्थिति सत्त्व हजार, सौ, पचास पच्चीस, एक सागर प्रमाण हो है। बहुरि संख्यात स्थिति काण्डक भये बोसयनि (नाम गोत्र )का एक पल्य : तीसियनि (ज्ञानाबरण, दर्शनावरण. वेदनीय, अन्तराय) का ज्योढ पग, मोहका दोय पण्य स्थिति सत्त्व हो है। १. तातै पर पूर्व सत्वका संख्यात महभागमात्र एक काण्डक भये बीसयनिका पक्ष्य के संख्यात भागमात्र स्थिति सत्त्व भया तिस कालविर्षे मीसयनिकेत तीसयनिका संख्यात
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अपकर्षण
४ नगामात गा काण्डकघात निर्देश
गुणा मोहका विशेष अधिक स्थिति सत्त्व भया। २ बहुरि इस क्रमतै संरण्यात हजार स्थिति काण्ड भये तीसयनिका (एक ) पल्यमात्र, मोहका विभाग अधिक पल्य (१७) मात्र स्थिति सत्त्व भया। ताके पर एक काण्डक भ ये तीसयनिका भी पत्यके संरख्यात भागमात्र स्थिति सत्व हो है । तिस समय बीमयनिका म्तोक ताते तीसयनिका संख्यातगुणा तातें मोह का संख्यातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। ३ बहुरि इस क्रम लिये सख्यात स्थितिकाण्डक भरी महका पल्यमात्र स्थिति सत्त्व हो है। बहुरि एक कडक भये माहका भो पल्यके सरख्यातवे भागमात्र स्थिति सत्य हो है। ती हि समय सातो कर्मनिका स्थिति सत्व पत्यके सख्यातवे भागमात्र भा। तहाँ वीसयनिका स्तोक, तीमगनिका सरव्यातगुणा तातै मोहका सरूपातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। ४ तातै पर इस क्रम लिये सख्यात हजार स्थिति काण्डक भये बोसयनिका स्थितिसत्त्व दूरापकृष्टिको उसलं घि पत्यके असंख्यातवे भागमात्र भया। तिस समय बासयनिका स्तोक ताते तोसयनिका अस ख्यातगुणा ताते माहकासंख्यातगुणा स्थिति सत्व हो है। ५ ताते पर इस क्रम लिये सख्यात हजार स्थितिकाण्डक भये तीसयनिका स्थितिसत्त्व दूरापकृष्टिको उनलंघि पत्य के असख्यात भागमात्र भया। तब सर्व ही
मनिका स्थितिसत्त्व पत्यके अमरख्यातवे भागमात्र भया। तहाँ बोसयनिका स्तोक तातै तीसयनिका असख्यातगुणा तातै माहका असख्यातगुणा स्ििथत सत्व हो है। ६ बहुरि इस क्रमकरि सख्यात हजार स्थितिकाण्डक भये नाम-गोत्रका स्तक तात मोहका असंख्यात गुणा तातै तोसयनिका असरूपातगुणा स्थितिसत्त्व हो है । ७. बहुरि इस क्रम लिये सरण्यात हजार स्थितिकान्डक भये मोहका स्तोक तातै बोस नका अस ख्यातगुणा तातै तोसयनिका अस ख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। ८. बहुरि इस क्रम लिये सख्यात हजार स्थिति काण्डक भये मोह का स्तोक तातै बीसयनिका अस ख्यातगुणा ताते तीन घातियानिका असरख्यातगुणा तातै वेदनीयका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। ६. बहुरि इस क्रम लिये सख्यात हजार स्थितिकाण्डक भये मोहका स्तोक तातै तीन घातियानिका असख्यातगुणा सात नाम-गोत्रका असरण्यातगुणा तातै बेदनीयका विशेष अधिक स्थितिसत्त्व हो है। १० ऐसे अंतविषै नामगोत्रत वेदनीयका स्थितिसत्त्व साधिक भया तब मोहादिकै क्रम लिये स्थिति सत्त्वका क्रमकरण भगा ॥ ४२७॥ बहुरि इस क्रमरणत परै सरख्यात हजार स्थितिबन्ध व्यतीत भये जो पल्य का अस ख्याता भागमात्र स्थितिहोइ ताकौ होते सतै तहाँ असख्यात समय प्रवदनिकी उदरणा हो है। इहाँ ते पहिले अपकर्षण क्यिा द्रव्यको उदयालो विर्षे देनेके अर्थि असरख्यात लोकप्रमाण भागहार सभः था। तहाँ समयप्रबद्धके अस ख्यातवा भाग मात्र उदीरणाद्रव्य था। अब तहाँ पत्यका अस. ख्यातवॉ भागप्रमाण भागहार होनेत असण्यात समयप्रबदमात्र उदोरणाद्रध्य भया ॥४२८॥ ३ ३४ बन्धापसरणोको अभव्योंमें संभावना व असंभा
वना संबन्धी दो मत
१. अभव्यको भी सभव है ल सा /मू /१५/४७ बंधापसरण स्थानानि भव्याभव्येषु सामान्यानि ।चौतीस बन्धापसरणस्थान भध्य वा अभव्य के समान हो है।
२ अभव्यका सभव नही म.ब.३/११/११ पचिदियाण सपणीण मिच्छादिट्ठीण अभवसिद्धिया. पाओग्ग अतोकोडाकोडिपुधत्तं बंधमाणस णरिथ हिदिवधवाच्छेदो। -पंचेन्द्रिय संज्ञी मिपादृष्टि जीवोमे अभन्यो के योग्य अन्त कोडाको डीपृथक्त्वप्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव के स्थितिकी बन्ध व्युच्छित्ति नहीं होती है।
४. व्याघात या काण्डकघात निर्देश
१. स्थितिकाण्डक घात विधान ल सा /म-६०/१२ केबल भाषार्थ “जहा स्थिति काण्डक्यात ह इ सो व्याघान कहिए । तहाँ कहिए है-कोई जीव उत्कृष्ट स्थिति बान्धि पीछे क्षयोपशमन ब्धिकरि विशुद्ध भया तब बन्धी थी जा स्थिति तीही विषै बाधरूप बन्धाचलीको व्यतीत भये पीछे एक अन्तमहत कालकार स्थिति काण्डका घात किया। तहाँ जो उत्कृष्ट स्थितिबाधा थी, तिस विर्षे अन्त काटाकोटी सागर प्रमाण स्थिति अवशेष रारिख अन्य सर्व स्थितिका घात तिस काण्डक करिहा है। तहाँ काण्डकवि जेती स्थिति घटाई ताके सर्व निषेकनिका परमाणूनिको समय समय प्रति अस् ख्यातगुणा क्रम लिये, अवशेष गस्वी स्थितिविध अन्तर्महुर्त पर्यन्त निक्षेपण करिए है। सो समय-समय प्रति जो द्रव्य निक्षेपण किया सोई फालि है। तहाँ अन्तको फालिविषै, स्थितिके अन्त निषेक्का जो द्रव्य ताकौ प्रहि अवशेष राखी स्थितिवि दिया। तहाँ अन्त कोटाकोटी सागर करि हीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना हो है, जाते इस विष मो द्रव्य न दिया। इहाँ उत्कृष्ट स्थितिविष अन्त कोटाकोटी सागरमात्र स्थिति अवशेष रही तिसविधे द्रव्य दिया, सो यहू निक्षेप रूप भया। तातै यह घटाया अर एक अन्त निषेकका द्रव्य ग्रह्या ही है तातै एक समय घटाया है अक सदृष्टिकरि जैसे हजार समयनिकी रितिविषै काण्ड पार कर सौ समयकी स्थिति राखी। (तहाँ सौ समय उत्कृष्ट निधेष रूप रहे अर्थात्, हजारवॉ समय सम्बन्धी निषेक्का द्रव्यको आदिके सौ समयसम्बन्धी निषेकनिवि दिया)। तहाँ शेष बचे ८६६ मात्र समय उत्कृष्ट अतिस्थापना हो है ॥५६-६०॥ सत्तास्थितनिषेक-० . उत्की रित निषेक-x
अन्तिम निषेक नोट - [अव्याधात विधानमे अतिस्था- कुल स्थिति-(आबाधाx पना केवल आवन्नी + निक्षेपकाल+१अन्तिम x मात्रथी और निक्षेप : निषेकका समय) एक एक समय बढ़
इतनी स्थिति प्रण ता हुआ लगभग पूर्ण स्थिति प्रमाण ही
र नष्ट हो गई। रहता था, इसलिए तहाँ स्मितिका घात होना गभव न था। शितिघटाकरशेष डॉ प्रदेशोका अप
रारवी स्थिति कर्षण ता हुआ पर स्थितिका नही।
अन्त हर्ल जमाण ००० यहाँ स्थित 'वाण्डकघात काल" ००० काण्डक घात विष आबाधा आवली निक्षेप अत्यन्त अल्प है और शेष सर्व स्थिति अतिस्थापना रूप रहती है, अर्थात अपकृय द्रव्य केवल अल्प मात्र निषेको में ही मिलाया जाता है शेष सर्व स्थितिमे नही। उस स्थानका द्रव्य हटा कर निक्षेषमे मिला दिया और तहाँ दिया कुछ न गया । इसलिए वह सर्वस्थान निषेकोसे शून्य हो गया। यही स्थितिका घटना है। ( दे अपर्षण/२/१)। से अव्याघात विधान में आवली प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना प्राप्त होने के पश्चात्, ऊपरका जो निषेक उठाया जाता था उसका समय तो अतिस्थापनाके आवली प्रमाण समयो में से नीचेका एक समय निक्षेप रूप बन जाता था। क्योकि निक्षेप रूप अन्य निषेको के साथ-साथ उसमें भी अपकृष्ट द्रव्य मिलाया जाता था। इस प्रकार अतिस्थापनामें तो एक-एक समयकी वृद्धि व हानि बराबर अनी रहने के कारण वह ता
टअतिस्थापना
xxxxxxxxxxxxx100000000
०००००००० ००००००००
उत्कर
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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अपकर्षण
११७
४. व्याधात या काण्डकघात निदेश
अन्त तक आवली प्रमाण ही रहती थी, और निक्षेपमें बराबर एकएक समय की वृद्धि होने के कारण वह कुल स्थितिसे केवल अतिस्थापनावनी करि हीन रहता था। यहाँ व्याधात विधान विषे उलटा क्रम है। यहाँ निक्षेपमें वृद्धि होने की बजाये अतिस्थापनामें वृद्धि होती है। अपकर्षण-द्वारा जितनी स्थिति शेष रखी गयी उतना ही यहाँ उत्कृष्ट निक्षेप है। जघन्य निक्षेपका यहाँ विकल्प नहीं है। तथा उससे पूर्व स्थितिके अन्तिम समय तक सर्वकाल अतिस्थापना रूप है। यहाँ ऊपरवाले निषेकोका द्रव्य पहिले उठाया जाता है और नीचे वालोका क्रम पूर्वक उसके पीछे । अव्याघात विधानमें प्रति समय एक ही निषेक उठाया जाता था पर यहाँ प्रति समय असंख्यात निषेकोका द्रव्य इकट्ठा उठाया जाता है । एक समय में उठाये गये सर्व द्रव्यको एक फालि कहते है। व्याघात विधानका कुल काल केवल एक अन्तर्मुहूर्त है, जिसमें कि उपरोक्त मर्व स्थितिका घात करना इष्ट है । अन्तर्मुहूर्त के असख्यातों खण्ड हैं । प्रत्येक खण्डमें भी प्रति समय एक एक फालिके क्रमसे जितना द्रव्य समय उठाया गया उसे एक काण्डक कहते हैं। इस प्रकार एक एक अन्तर्मुहूर्त में एक एक काण्डकका निक्षेपण करते हुए कुल व्याघातके काल में असंख्यात काण्डक उठा लिये जाते है, और निक्षेप रूप निषेकोंके अतिरिक्त ऊपर के अन्य सर्व निषेकों के समय कार्माण द्रव्यसे शुन्य कर दिये जाते है । इसीलिए स्थितिका धात हुआ कहा जाता है। क्योंकि इस विधानमें काण्डक रूपसे द्रव्यका निक्षेपण होता है. इसलिए इसे काण्डक वात कहते है, और स्थितिका घात होनेके कारण व्याघात कहते हैं ।)
२. कान्डकघातके बिना स्थितिघात सम्भव नहीं घ १२/४.२.१४.३०/४८६/८ खडयधादेण विणा कम्पट्टिदीए घादाभावादो।
- काण्डकघातके बिना कर्मस्थितिका घात सम्भव नहीं है। ३. आयुका स्थितिकाण्डकघात नहीं होता घ ६/१,६-८०/२२४/३ अपुवकरणस्स आयुगवज्जाणे सव्वकम्माण ट्ठिदिखंडओ होदि । -- (अपूर्वकरणके प्रकरण में ) यह स्थितिखण्ड आयु कर्मको छोडकर शेष समस्त कर्मोंका होता है। (अन्यत्र भी सर्वत्र यह नियम लागू होता है।
४.स्थितिकाण्डकघात व स्थिति बन्धापसरणमें अन्तर क्ष, सा./मू. ४१८/४६ बधोसरणा बधो ठिदिखंई संतमोसरदि ॥४१८॥
-स्थितिबन्धापसरण करि स्थितिबन्ध घट है और स्थिति काण्डकनिकरि स्थितिसत्त्व घटै है। नोट-(स्थिति बन्धापसरणमें विशेष हानिकमसे बन्ध घटता है और स्थितिकाण्डकघातमें गुणहानिक्रमसे
सत्त्व घटता है।) ल. सा जी प्र./७४/११४ एकैकस्थितिखण्डनिपतनकाल , एककस्थितिबन्धापसरणकालश्च समानावन्तर्मुहूर्तमात्रौ। - जाकरि एक बार स्थिति सत्त्व घटाइये ऐसा कान्डकोत्करणकाल और जाकरि एक बार स्थितिबन्ध घटाइये सो स्थिति बन्धापसरणकाल ए दोऊ समान है, अन्तर्मुहूर्त मात्र है। ५. अनुभागकाण्डकघात विधान ल.सा/मू व टोका ८०-८१/११४-११६केवल भाषार्थ ' अप्रशस्त जे असाता प्रकृति तिनिका अनुभाग काण्डकायाम अनन्तबहुभागमात्र है। अपूर्वकरणका प्रथम समय विर्षे (चारित्रमोहोपशमका प्रकरण है ) जो पाइए अनुभाग सत्त्व ताकौ अनन्तका भाग दीए तहाँ एक काण्डक करि बहुभाग घटावै। एब भाग अवशेष राखे है। यह प्रथम खण्ड भया। याको अनन्तका भाग दीए दूसरे काण्डक करि बहुभाग घटाइ एक भाग अवशेष राखे है। ऐसे एक एक अन्तर्मुहूर्त करि एक एक अनुभाग काण्डकघात हो है। तहाँ एक अनुभाग काण्डकोत्करण काल विर्षे समय-समय प्रति एक-एक फालिका घटावना हो है 1200 अनुभागको प्राप्त ऐसे कर्म परमाणु सम्बन्धी एक गुणहानिविर्षे
स्पर्धकनिका प्रमाण सो स्तोक है। हासे अनन्त गुणे अतिस्थापनारूप स्पर्धक हैं। तातें अनन्तगुणे निक्षेप स्पर्धक है। तात अनम्तगुणा अनुभाग काण्डकायाम है। इहाँ ऐसा जामना कि कर्मनिके अनुभाग विर्षे अनुभाग रचना है। तहाँ प्रथमादि स्पर्धक स्तोक अनुभाग युक्त है। ऊपरिके स्पर्धक बहु अनुभाग युक्त हैं। ऐसे तहाँ तिनि सर्व स्पर्ध कनिकौ अनन्तका भाग दिये महुभागमात्र जे ऊपरिके स्पर्धक, तिनिके परमाणूनिको एक भागमात्र जे निचले स्पर्धक तिनि विर्षे, केतेइक ऊपरिके स्पर्धक छोडि अवशेष निचले स्पर्धकनिरूप परिणमावै है। तहाँ केतेइक परमाणु पहिले समय परिणमावै है, केतेइक दूसरे समय परिणमावै हैं। ऐसे अन्तर्महुर्त कालकरि सर्व परमाणू परिणमाइ तिनि उपरिके स्पर्ध कनिका अभावकर है।तिनिका द्रव्यको जे काण्डकघात भये पीछे अवशेष स्पर्धक रहै तिनिविष तिनि प्रथमादि स्पर्धकनिविर्षे मिलाया, ते तो निक्षेप रूप है. अर मिनि ऊपरिके स्पर्धकनि विर्षे न मिलाया ते अत्तिस्थापना रूप है। (क्ष.सा/म.व टी/४०८४०६/४६३)
६. अनुभाग काण्डकषात व अयवर्तनधातमें अन्तर ध. १२/१,२.७,४१/३२/१ एसो अणुभागख डयघादो त्ति किण्ण बुञ्चदे । ण, पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहत्तेण कालेण जो धादो णिप्पज्वदि सो अणूभागव वादो जाम, जो पुण उक्कोरणकालेण विणा एगसमरणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा । अण्णं च, अणुसमोबट्टणाए णियमेण अणता भागा हम्मंति, अणुभागवंडयघादे पुण णत्थि ऐसो णियमो, छबिहहाणीएखडयघादुवलभादो।प्रश्न-इसे (अनसमयापवर्तनाघातको) अनुभागकाण्डकघात क्यों नहीं कहते ' उत्तर-नहीं, क्योंकि, प्रारम्भ किये गये प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा जो घात निष्पन्न होता है, वह अनुभागकाण्डकघात है। परन्तु उरकीरण कालके बिना एक समय द्वारा हो जो घात होता है, वह अनसमयापवर्तना है। दूसरे अनुसमयापवतं नामें नियमसे अनन्त बहभाग नष्ट होता है परन्तु अनुभाग काण्डक्यातमें यह नियम नहीं है, क्योंकि छह प्रकारको हानि द्वारा काण्डकघात की उपलब्धि होती है। विशेषार्थ- काण्डक पोरको कहते है। कुल अनुभागके हिस्से करके, एक एक हिस्सैका फालि क्रमसे अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अभाव करना अनुभाग काण्डक घात कहलाता है । और प्रति समय अनन्त बहुभाग अनुभागका अभाव करना अनुसमयापवर्तना कहलाती है। मुख्य रूपसे यही इम दोनों अन्तर है।
७. शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नही होता ध १२/४.२,७.१४/१८/१ सुहाण पयडीणं विसोहिदो केवलिसमुग्धादेण
जे गणिरोहण वा अणुभागघादो णस्थि त्ति जाणवेदि । वीणकसायसजोगीसु द्विदिअणुभागधादेसु संतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो त्ति सिद्ध द्विदि अणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुकस्साणुभागो होदि णत्थि त्ति अत्थावत्तिसिद्ध-शुभ प्रकृतियों के अनुभागका घात विशुद्धि, केवल मुद्द्यात अथवा योगनिरोधसे नहीं होता। क्षीण कषाय और सयोगी गुणस्थानो में स्थितिघात व अनुभागघातके होनेपर भी शुभ प्रकृतियों के अनुभाग घात वहाँ नहीं होता, यह सिद्ध होनेपर 'स्थिति व अनुभागसे रहित अयोगी गुणस्थानमें शुभ प्रकृतियोका उत्कृष्ट
अनुभाग होता है, 'यह अर्थापत्तिसे सिद्ध है। ल.सा /मू./८०/११४ सुहपयडीणं णियमा णस्थि त्ति रसस्स बंडाणि ।
- शुभ प्रकृतियोंका अनुभागकाण्डकघात नियमसे नहीं होता है।
८. प्रदेशघातसे स्थिति घटती है, अनुभाग नहीं क.पा.१४-२२१६५७२/३३७/११ हिदीए इव पदेसगलणाए अणुभागधादो
णस्थि त्ति । प्रदेशोंके गलनेसे जैसे स्थितिघात होता है, वैसे प्रदेशोंके गलनेसे अनुभागका घात नहीं होता।
९. स्थिति व अनुभाग घातमें परस्पर सम्बन्ध ध.१/१,१,२७/२१६/१० अंतोमुहुत्तेण एक्केवक द्विदिकंडयं घादेतो
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अपकर्षण
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अप्पणी कालम्भतरे सजहस्सानि द्विपादेदि । चियाणि चेन द्विदिबंधोसरणाणि विकारेदि तेहितो ससेजसहस्वगुणे अणुभागकडबा करेदि 'एकभाग कड-उरणकाला एक दिदिति सुताहो। - एक-एक अन्तर्मुहूर्त में एक-एक स्थितिकाण्डकका घात करता हुआ अपने कालके भीतर सख्यात हजार स्थितिकाण्डको का घात करता है । और उसने ही स्थितिबन्धापसरण करता है तथा उनसे संख्यात हजार गुणे अनुभागकाण्डकोका घात करता है, क्योंकि, एक अनुभागकान्डकके उत्कीरणकालसे एक स्थितिकाण्डकका उत्कीरणकाल संख्यात गुणा है (सा./ /७१/११४)
घ. १२/४.२.१२,४०/३२३ / ९२ डिग्गन्मसमय जामो कालो ण गदो ताव अणुभागखंडवादाभावादो ।
घ. १२/४,२,१३,६४/४१३/७ अतोमुहुत्तचरिमसमयस्स क्धसुक्कस्साणुभागसभवो ण, तस्स अणुभागखं डयवादाभावादो ।
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- प्रतिभग्न होनेके प्रथम समयसे लेकर जब तक अन्तर्मुहूर्तकाल नहीं बीत जाता तब तक अनुभागकाण्डकघात सम्भव नही । • प्रश्नअन्तर्मुहूर्त के अन्तिम समय में उत्कृष्ट अनुभागकी सभावना कैसे है उत्तर- नहीं, क्योंकि, उसके अनुभागकाण्डक घातका अभाव है। घ. १२/४.२,१३,४१/१-२/३६४ ट्ठिदिघादे हमते अणुभागा आऊआण ससि अनुभागे विभावि हुआवजाग हिदिपादो ॥१॥ अशुभ मंदिपादो आउ सम्मा विहु आउववज्जाणमणुभागो ॥२॥ = स्थितिघात होनेपर (ही) सब
युके अनुभागका नाश होता है (परन्तु आयुको छोडकर शेष कमका अनुभागके बिना भी स्थितिघात होता है ॥१॥ (इसी प्रकार ) अनुभागका पात होनेपर ही सम आयुओंका स्थितिघात होता है ( परन्तु ) आयुको छोड़कर शेष कर्मोंका स्थितिघात के बिना भी अनुभागपात होता है इस
घ. १२/४.२.१६.१६५/४३२/१३ उस्स लभगढी पस्स गुणसेडि जिराभावो व दिदि-अणुभागात पादाभावादपश्रेणीमें आयुकर्मके प्रदेशोंकी गुणश्रेणी निर्जरके अभाव के समान स्थिति और अनुभाग घातका अभाव है इसीलिए यहाँ घाटको प्राप्त हुआ अनुभाग अनन्तगुणा हो जाता है ) । अपकर्षसमा
- न्या. सु. /५/१/४/२८८ साध्यदृष्टान्तयोर्धर्म विकल्पादुभयसाध्यत्वाचोरकर्षापकर्ष वयम विकल्प साध्यसमा 11 न्या. मा./५/१/२/२८८ साये धर्माभावे दृष्टान्ताय प्रतोऽपकर्षसम । खल कियायाविरहः काममात्मापि क्रियामान विभुरस्तु विपर्यये वा विशेषो वक्तव्य इति । साध्य में दृष्टान्तसे धर्माभाव के प्रसगको अपकर्षसम कहते है जैसे कि 'लोष्ठ निचय क्रियावाला अविभु देखा गया है अत ( इस दृष्टान्त द्वारा साध्य ) आत्मा भी कियाबाद व अवि होना चाहिए जो ऐसा नहीं है तो विशेषता दिखानी चाहिए ।
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जो मा४/म्या २४४/४००/४ विद्यमानधर्मापनयोऽपकर्ष ।
श्लो. वा. ४ /न्या ३४१/४७६ तत्रैव क्रियावज्जीवसाधने प्रयुक्ते सति साध्यधर्मिणि धर्मस्याभावं दृष्टान्तात् समासजयत् यों वक्ति सोऽपकर्षसमाजाति वदति । यथा लोष्ठ क्रियाश्रयोऽसर्वगतो दृष्टस्तद्वदात्मा सदाप्यसर्वोऽस्तु विपर्यये वा विशेष इति विद्यमान हो रहे धर्मका पक्ष से अलग कर देना अपकर्ष है कियाबाद जीवके साधनेका प्रयोग प्राप्त होनेपर जो प्रतिवादी साध्यधर्मी में धर्मके अभावको दृष्टान्तसे भले प्रकार प्रसंग कराता हुआ कह रहा हो कि यह अपकर्षसमा जाति है। जैसे कि जो हो रहा अध्यापक देखा गया है. उसीके समान आत्मा भी सर्वदा असर्वगत हो जाओ अपना विपरीत माननेपर कोई विशेषताको करनेवाला कारण बतलाना चाहिए, जिससे कि ढलेका एक धर्म (त्रियावान्पना )
अपराजित
दे उपकार |
तो आत्मामें मिलता रहे और दूसरा धर्म ( असर्वगतपना ) आत्मामें न ठहर सके । अपकारअपकृष्ट सा / भाषा /५८८/००६ गुणश्रेणी आधिके अधि जो सर्व स्थितिको आकर्षण करि महिने सो अपकृष्टि (अपकृष्ट) द्रव्य कहिए है।
अपक्षय-रावा. / ४/४२/४/२५० / १६ क्रमेण पूर्व भावैकदेशनिवृत्तिरपक्षय क्रमपूर्वक पूर्वभावकी एकदेश निवृत्ति होना अपक्षय है । अपदर्शनी पस्थ कूट व उसका स्वामी देव देतो अपदेशसा / 1 /१५ अपदिश्यतेऽर्थो येन सत्यपदेश शब्द द्रव्यमिति। जिसके द्वारा अर्थ निर्देशित किये जाये सो अपदेश है। वह शब्द अर्थात् द्रव्यश्रुत है। अपध्यान कथा //७८ मधमन्चच्छोदा पागा परकलत्रादे | आध्यानमध्यानं शासति जिनशासने विशद ॥७८॥ जिनशासनमे चतुर पुरुष, रागसे अथवा द्वेषसे अन्यकी स्त्री आदि के नाश होने, कैद होने, कट जाने आदिके चिन्तन करनेको आध्यान या अपध्याननामा अनर्थदण्ड कहते है ।
1
स.सि / ७ / २१ / ३६० परेषा जयपराजयवधबन्धनाङ्गच्छेद परस्वहरणादि कथ स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम् = दूसरोका जय पराजय, मारना, बाँधना, अगोका छेदना, और धनका अपहरण आदि कैसे किया जाये इस प्रकार मनसे विचार करना अपध्यान है। ( रा वा / ७ / २१/२९/५/४६/७) चा सा./१६/५) (पु. सि.उ. / १४१) चा.सा / १७१/३ उभयमप्येतदपध्यानम् । ये दोनो आर्त व रौद्रध्यान अपध्यान है । (साध /५/६)
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का अ./मू ३४४ परदोसाण वि गहणं परलच्छीणं समीहणं जं च । परइत्थी अबलोओ परकल हालोयण पढम ॥ ३४४॥ परके दोषोका ग्रहण करना, परकी लक्ष्मीको चाहना, परायी स्त्रीको ताक्ना तथा परायी कलहको देखना प्रथम (अवध्यान) अनर्थदण्ड है ।
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द्र. स / टी / २२/६६/१ स्वय विषयानुभवरहितोऽप्ययं जीव परकीय विषयानुभव दृष्ट श्रुत च मनसि स्मृत्वा यद्विषयाभिलाष करोति तदपध्यान भण्यते । = स्वय विषयो के अनुभव से रहित भी यह जीव अन्य के देखे हुए तथा सुने हुए विषय के अनुभवको मनमें स्मरण करके विषयोको इच्छा करता है, उसको अपध्यान कहते है ( प्र सा / ता वृ / १५८ / २१६) | अपर विदेह १. सुमेरु पर्वत के पश्चिम स्थित गम्यमानी आदि
१६ क्षेत्र अपर या पश्चिम विदेह कहलाते हैं - दे लोक /५ । २. नोल पवतस्थ एक कूट व उसके रक्षक देवका नाम भी अपरविदेह है - दे. लोक /५ ।
अपरव्यवहार — आगमकी ७ नयोमें व्यवहारनयका एक भेददे, नय V/४ |
अपरसंग्रह — आगमकी नयोमे संग्रहनयका एक भेद
नय
111/8 अपराजित -१ एक यक्ष-दे, यक्ष, २ एक ग्रह- दे. ग्रह; ३. पा तीत देवोका एक भेददे स्वर्ग / २/१ ४. अपराजित स्वर्ग दे स्वर्ग/५/४, ५ जम्मूदीपकी वेदिकाका उत्तर द्वार०. शर
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६. अपर विदेहस्थ व प्रवान क्षेत्रकी मुख्य नगरी-दे लोक / ५ / २: ७ रुचकर पर्वतका छूट दे लोक/५/१२ विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक मग दे विद्याधर विजयार्धको उत्तर श्रेणीका एक ६. नगर के विद्याधर १० म.पू./५२/रलो. ७) घातकी खण्डमें मुसीमा देशका राजा था (२-३) प्रवज्या ग्रहणकर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया और ऊर्ध्व वैयकमें अहमिन्द्र हो गये (१२-१४) यह पद्मप्रभ
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अपराजित संघ
अपवाद भगवानका पूर्वका तीसरा भव है। ११ (म.पु/६२/श्लो) वत्सकावती नपूछनेपर भी जो उन्हे अन्यपर प्रगट न करे, वह अपरिखावी गुणका देशकी प्रभाकरी नगरीके राजा स्तमितसागरका पुत्र था (४९२-४१३) धारक है। राज्य पाकर नृत्य देखने में आसक्त हो गया और नारदका सत्कार
अपर्याप्त-दे पर्याप्त । करना भूल गया (४३०-४३१) कुद्र नारद ने शत्रु दमितारिको युद्धार्थ
अपवर्ग-न्या सू./म् १-१/२२ तदत्यन्त विमोक्षोऽपवर्ग 1- उस दुखप्रस्तुत किया (४४३) इन्होने नर्तकीका वेश बना उसकी लडकीका हरण कर लिया और युद्धमे उसको हरा दिया (४६१-४८४) तथा बलभद्र
दायी जन्मसे अत्यन्त विमुक्तिका नाम अपवर्ग है। पद पाया (५१०)। अन्तमें दीक्षा ले समाधि-मरण कर अच्युतेन्द्र पद अपवर्तनपाया (२६-२७) यह शान्तिनाथ भगवान का पूर्वका ७वाँ भव है।
१. अपवर्तनाघात सामान्यका लक्षण १२ (म पु/६२/श्लो.) सुगन्धिला देशके सिंहपुर नगर के राजा अहं दास
स सि /२/५३/२०१ बाह्यस्योपघात निमित्तस्य विषशस्वादे सति संनिधाने का पुत्र था (३-१०) पहिले अणुव्रत धारण किये (१६) फिर एक माहका
ह्रस्व भवतीत्यपवर्यम् । उपघातके निमित्त विष शस्त्रादिक बाह्य उत्कृष्ट सन्यास धारण कर अच्युतेन्द्र हुआ (४५-५०) यह भगवान्
निमित्तोके मिलनेपर जो आयु घट जाती है वह अपवर्त्य आय नेमिनाथ का पूर्वका पाँचवाँ भव है। १३ (ह पु/३६/श्लो.)
कहलाती है। जरासन्धका भाई था, कसको मृत्यु के पश्चात् कृष्णके साथ युद्ध में मारा क.पा ११,१८/६३१५/३४७/५ किमोबट्टणं णाम । सयवेए खपिदे सेसणीगया (७२-७३) । १४ श्रुतावतारके अनुसार आप भगवान् वीरके पश्चात कसायखवणमोबट्टणं णाम । -प्रश्न-अपवर्तना किसे कहते है। तृतीय श्रुतकेवलो हुए थे। समय-वी नि १२-११४, ई पू ४३४-४१२ । उत्तर- नपुंसकवेदका क्षपण हो जानेपर शेष नोकषायोंके क्षपण होनेको दे इतिहास । ४/४ । १५. (सि वि./प्र. ३४/पं. महेन्द्रकुमार) आप यहाँ अपवर्तना कहा है। सुमति आचार्य के शिष्य थे । समय-वि ४६४ (ई.४३७) ।१६ (भ आ |
गो /क /जी.प्र./६४४८२७११६ आयुबन्ध कुर्वतां जीवानां परिणामवशेन प्र/प नाथूराम प्रेमी) आप चन्द्रनन्दिके प्रशिष्य और बलदेवसूरिके
बध्यमानस्यायुपोऽपवर्तनमपि भवति तदेवापवर्तनधात इत्युच्यते, शिष्य थे। आपका अपर नाम विजयाचार्य था । आपने भगवती
उदोयमानायुरपवर्तनस्यैव दलीधाताभिधानात। -आयुके पन्धको
करते जीव तिनिकै परिणाम निके बशत बध्यमान आयुका अपवर्तन आराधनार विस्तृत सस्कृत टोका लिखी है। समय - शक ६५८
भी होता है। अपवर्तन नाम घटनेका है, सो याको अपवर्तनपात (वि ७६३) मे टोका पूरी की।
कहिए, जानें उदय आई (भुज्यमान) आयुकै अपवर्तनका नाम अपराजित संघ-आचार्य अर्हदलि-द्वारा स्थापित दिगम्बर साधु
कदलीधात है। (अर्थात भुज्यमान आयुके घटनेका नाम कदलीघात भवोमे-से एक था। दे इतिहास/४/६ ।
और बपमान आयुके घटनेका नाम अपवर्तनघात है।) अपराजिता-१. भगवान मुनिसुव्रतनाथ को शामिका यक्षिणी
२. अनुसमयापपर्तनाका लक्षण दे तोर्थ कर/५/३, २.पूर्व विदेहस्थ महावत्सा देशकी मुख्य नगरी-दे. क पा५/४ २२/६६२५/३६६/१३ का अणुसमओवट्टणा । उदय-उदयावलिलाक/२,३ नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम में स्थित एक वापी, दे. यासु पविस्समा गहिदीणमणुभागस्स उदयावलिमाहिरट्ठिीणमणुलोक/५/११.४ रुचकपर्वत निवासिनी दिक्कुमारी-दे. लोक/५/१३ । भागस्स य समय पडि अांतगुणहीणक्मेण घादो। -प्रश्न-प्रति अपराध-स. सा /मू /३०४ स सिद्धिराद्धसिद्ध साधियमाराधिय च समय अपवर्तना किसे कहते हैं। उत्तर-उदय और उदयावलिमें
प्रवेश करनेवाली स्थितियोके अनुभागका तथा उदयावलीसे माहरकी एयदु । अवगयराधो जो खलु चेया सो होइ अवराधो ॥३०४॥ स सिद्धि,
स्थितियोके अनुभागका जो प्रति समय अनन्तगुणहीन क्रमसे घात राध, सिद्र, साधित और आराधित. ये एकार्थवाची शब्द हैं। जो
होता है उसे प्रतिसमय अपवर्तना कहते है। आरमा अपगतराध अर्थात् राधसे रहित है वह मारमा अपराध है।
ध १२/१,२,७,४१/१२/१२/२ उकीरणकालेण विणा एगसमरणेव पददि सा (नि सा./ता वृ/८४)।
अणुसमेओवट्टणा। अण्ण च, अणुसमओवट्टणाए णियमेण अणंताभागा मा सा /आ /१००/क१८६ परद्रव्यग्रह कुर्वन बध्येतैवापराधवान् । बभ्यता
हम्मति । उत्कीरणकालके बिना एक समय द्वारा जो घात होता नपराधो म स्वद्रव्ये संवृतो यति ॥१८६॥ =जो परद्रव्यको ग्रहण करता
है वह अनुसमयापवर्तना है। अथवा अनुसमयापवर्तनामें नियमसे है वह अपराधी है, इस लिए बन्ध में पड़ता है। और जो स्व द्रव्यमें ही
अनन्त बहुभाग नष्ट होता है। (अर्थात् एक समयमें ही अनन्तों सवृत है. ऐसा पति निरपराधी है, इसलिए बन्धता नहीं है
काण्डकोका युगपत् घात करना अनुसमयापवर्तना है।) (स सा./आ /३०१)। अपराल-दिनका तीसरा पहर।
* अनुसमगापवर्तना व काण्डकघातमे अन्तरअपरिगहोता-ससि /७/२८/३६८ या गणिकात्वेन पुंश्चलीत्वेन वा
दे अपकर्षण
* आयके अपवर्तन सम्बन्धी-दे. आयु ५ । परपुरुषगमनशीला अस्वामिका सा अपरिगृहीता। -जो वेश्या या व्यभिचारिणी होनेसे दूसरे पुरुषोके पास आती-जाती रहती है, और * अकाल मृत्यु वश आयुका अपवर्तन-दे मरण ४ । जिसका कोई पुरुष स्वामी नहीं है, वह अपरिगृहीता कहलाती है।
* अपवर्तनोद्वर्तन-दे. अश्वकर्ण करण । अपरिणत-आहारका एक दोष-दे. आहार II/४/४।
३. गणितके सम्बन्धमें अपवर्तन अपरिणामी-दे. परिणमन ।
समान मूल्यों में बदलना जैसे १८/७२-१/४-2. गणित II/१/१० । अपरिस्राविता-भ.आ./मू /४८६,४६५ लोहेण पदीमुदयं व जस्स: अपधाद-यद्यपि मोक्षमार्ग केवल साम्यता की साधना का नाम है,
आलोचिदा अदीचारा । ण परिस्सबंति अण्णत्तो सो अपरिस्सबो होदि परन्तु शरीरस्थिति के कारण आहार-विहार आदिमे प्रवृत्ति भी करनी ॥४८६॥ इच्चेवमादिदोसा ण होति गुरुणो रहस्सधारिस्स। पुठेव पडती है। यदि इससे सर्वथा उपेक्षित हो जाये तो भी साधना होनी अपुट्ठे बा अपरिस्साइस्स धारिस्स ॥४१॥ - जैसे तपा हुआ लोहेका सम्भव नहीं और यदि केवल इसहीकी चर्या में निरर्गल प्रवृत्ति करने गोला चारों तरफसे पानीका शोषण कर लेता है, वैसे ही जो आचार्य लगे तो भी साधना सम्भव नहीं। अत साधकको दोनों ही मातोंक्षपकके दोषोंको सुनकर अपने अन्दर ही शोषण कर पूछनेपर अथवा का सन्तुलन करके चलना आवश्यक है। तहां साम्यताकी वास्तविक
जैनेन्द्र सिद्धान्न कोर,
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अपवाद
साधनाको उत्सर्ग और शरीर चर्याको अपवाद कहते है। इन दोनो
के सम्मेल सम्बन्धी विषय ही इस अधिकार मे प्ररूपित है।
१. भेद व लक्षण
१. अपवाद सामान्यका लक्षण |
२ अपवादमार्गका लक्षण |
३ उत्सर्गमार्गका लक्षण
* उत्सर्ग व अपवाद लिंगके लक्षण
२. अपवादमार्ग निर्देश
१ मोक्षमार्ग मे क्षेत्र काल आदिका विचार आवश्यक है। २. अपनी शक्तिका विचार आवश्यक है।
३. आत्मोपयोगमे विघ्न न पढे ऐसा ही त्याग योग्य है। ४. आत्मोपयोग विप्न पडता जाने तो अपवाद मार्गका आश्रय ले ।
प्रथम व अन्तिम तीर्थमे छेदोपस्थापना चारित्र प्रधान होते है । - दे० छेदोपस्थापना |
* उत्सर्ग व अपवाद व्याख्यानमे अन्तर ।
३. परिस्थितिवश साधुवृत्तिमें कुछ अपवाद
१ कदाचित् ९ कोटि शुद्धकी अपेक्षा ५ कोटि शुद्ध आहारका ग्रहण |
२. उपदेशार्थं शास्त्रोका और वैयावृत्त्यर्थ औषध आदिका संग्रह |
आचार्यकी वैयावृत्त्य के लिए आहार व उपकरणादिक माँगकर लाना ।
३ क्षपकके लिए आहार माँगकर लाना । ४. क्षपकको कुरले व तेलमर्दन आदिकी आज्ञा । ५. क्षपकके लिए शीतोपचार व अनीमा आदि । ६. क्षपकके मृतशरीरके अगोपागोका छेदन |
*
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कालानुसार चारित्रमे हीनाधिकता सम्भव है । - दे० निर्यापकमें/भ, आ मू ६७९ । * कदाचित लौकिक ससगंकी आज्ञा दे० गत * कदाचित् मन्त्र प्रयोगकी आज्ञा । - दे० मन्त्र । ७. पुरोपकारार्थ विद्या व शस्त्रादिका प्रदान । * कदाचित् अकालमे स्वाध्याय । ८. कदाचित रात्रिकी भी बातचीत |
-दे० स्वाध्याय २/२ ।
* कदाचित् रात्रिको करवट लेना-देना
* कदाचित् नौकाका ग्रहण व जलमे प्रवेश ।
*
दे लिंग १ |
१२०
-
- दे. विहार । दे भिक्षा
* शूद्रसे छू जानेपर स्नान ।
* मार्गमे कोई पदार्थ मिलनेपर उठाकर आचार्यको
- दे. अस्तेय ।
दे दे ।
* एकान्तमे आर्यका संगतिका विधि-निषेध |
*
*
*
कदाचित् स्त्रीको नग्न रहनेकी आज्ञा ।
अपवाद
४. उत्सर्ग व अपवादमार्गका समन्वय
१ वास्तवमे उत्सर्ग ही मार्ग है अपवाद नही ।
२ कारणवश हो अपवादका ग्रहण निर्दिष्ट है सर्वतः
नही ।
३ अपवादमार्गमे योग्य ही उपधि आदिके ग्रहणकी आज्ञा है अयोग्यकी नही ।
साधुके योग्य उपधि ।
दे सगति ।
-दे लिग १/४ ।
स्वच्छन्दाचारपूर्वक आहार ग्रहणका निषेध | ----दे, आहार 11/२/७ ।
५ अपवादका ग्रहण भी त्यागके अर्थ होता है | ६. अपवाद उत्सर्गका साधक होना चाहिए । ७. उत्सर्ग व अपवादमें परस्पर सापेक्षता ही श्रेय है। ८ निरपेक्ष उत्सर्ग या अपवाद श्रेय नही
-दे परिग्रह ।
१
१. भेद व लक्षण
१. अपवाद सामान्यका लक्षण
/९/२/९४९ पर्याय विशेषोऽदो व्यावृत्तिरित्यर्थ पर्यायका अर्थ विशेष अपवाद और व्यावृत्ति है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
दपा / टी / २४/२१/२० विशेषोक्तो विधिरपवाद इति परिभाषणात 1 - विशेष रूप से कही गयी विधिको अपवाद कहते है । २. अपवादमार्गका लक्षण
प्रमा/सप्र / २३० शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूतसयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा बालवृद्वभान्तग्लानस्य स्वस्य योग्य मृद्वेनाचरणमाचरणीयमित्यपवाद । =बाल, वृद्ध, श्रान्त व ग्लान मुनियोका शुद्धात्म तत्त्व के साधनभूत सयमका साधन होनेके कारण जा मूलभूत है, उसका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरण ही आचरना, इस प्रकार अपवाद है। साता २३० असमर्थ पुरुष शुद्धात्मभावनासहकारित किमपि
काहारानीपराधिक गृहातोत्पादो व्यवहार एकदेशपरित्यागस्तथा चातसयम सरागधारित शुभपयोग इति यावदेकार्य - असमर्थ जन शुद्धात्मभावना सहकारीत जो कुछ भी प्राक आहार ज्ञान व उपकरण आदिका ग्रहण करते है, उसीको अपवाद, व्यवहारनय, एकदेशत्याग, अपहृत सयम, सराग चारित्र, शुभोपयोग इन नामोसे कहा जाता है। ३. उत्सर्ग मार्गका लक्षण
प्रसा/२२२ आत्मद्रव्यस्य द्वितीयभामास एवोपि प्रतिषिद्धरसर्ग मार्ग यह है जिसमें कि सर्व परिग्रहका त्याग किया जाये, क्योंकि, आत्माके एक अपने भावके सिवाय परद्रव्यरूप] दूसरा पुद्गलभाव नही है। इस कारण उत्सर्ग मार्ग परिग्रह रहित है।
प्रस / २३० मालामा संयमस्य शुद्धात्मसाधनत्येन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा सयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमाचरणीयमित्युत्सर्गः । बाल, वृद्ध, अमित या ग्लान (रोगी श्रमण ) को
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अपवाद
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भी संयमका जो कि शुद्धात्मतत्त्वका साधन होनेसे मूलभूत है, उसका छेद जेसे न हो उस प्रकार सयतको अपने योग्य अतिकर्कश आचरण ही आचरना, इस प्रकार उत्सर्ग है।
प्र. सा./ता वृ / २३० / ३१५/५ शुद्धात्मनः सकाशादन्यद्वाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरूप सर्व स्याज्यमिरर 'निश्चयनय सर्वपरिस्यान परमोपेक्षासयमा वीतरागचारित्र शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थ । शुद्धात्मा के सिवाय अन्य जो कुछ भी बाह्य अवभ्यन्तर परिग्रह रूप है, उस सर्व का त्याग ही उत्सर्ग है। निश्चयनय कहो या सर्व परित्याग कहो या परमोपेक्षा संयम कहो, या वीतरागचारित्र कहो या शुद्धोपयोग कहो, ये सम एकार्थवाची है।
२. अपवादमार्ग निर्देश
१. मोक्षमार्ग में क्षेत्र कालादिका विचार आवश्यक है
अन ध./५/६५/५५८ द्रव्य क्षेत्रं बल भावं काल वीय समीक्ष्य च । स्वा स्थाय या सर्व विशुद्धाशन सूची ॥३॥विचारपूर्वक आपरण करनेवाले साधुओंको आरोग्य और आत्मस्वरूप में अवस्थान रखनेके लिए द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव, बल और वीर्य इन छ' बातो का अच्छी तरह पर्यालोचन करके सर्वाशन, विद्वाशन और शुद्धाशन के द्वारा आहारमें प्रवृत्ति करना चाहिए। (अन ध. /७/१६-१७) । २. अपनी शक्तिका विचार आवश्यक है।
.
घ १३/५.४,२८/५/१२ पित्तप्यको उपवास अक्खयेहि बज्राहारग उवासादो अहियपरिस्समेहि" । जो पित्तके प्रकोपवश उपवास करनेमें असमर्थ है जिन्हे आधे आहारकी अपेक्षा उपवास करने अधिक थकान होती है उन्हे यह अनोदर्य तप करना चाहिए। अन २/५/२६-१०- पलेवाला. २/१ । म.सा./ता.वृ./२३० (असमर्थ पुरुषको अपवादमार्गका आश्रय लेना चाहिए दे. पहले सं. १/२) ।
३. आत्मोपयोग में विघ्न न पड़े ऐसा ही त्याग योग्य है। प्र. स./त.प्र./ २१५ तथाविधशरोरवृत्य विरोधेन शुद्धात्मद्रव्यनीरङ्ग निस्तरानुसारेण प्रवर्तमाने क्षपणे तथाविध शरीरकी वृत्तिके साथ विरोधरहित शुद्धात्म ध्यमें नोरंग और निस्तरंग विधान्तिकी रचनानुसार प्रवर्तमान अनदान में-
४. आत्मोपयोग में विघ्न पड़ता जाने तो अपवादमार्गका आश्रय करे
स्पा में / १२/१३८ पर उद्धृत 'सम्बर संजम संजमाओ बप्पाणमेव रविखज्जा । मुञ्चह अहवायाओ पुणो विसोही नयाविरई । मुनिको सर्व प्रकार से अपने सयमकी रक्षा करनी चाहिए। यदि सयमका पालन करने में अपना मरण होता हो तो सयमको छोडकर अपनी आत्माकी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि इस तरह मुनि दोषों से रहित होता है। वह फिरसे शुद्ध हो सकता है, और उसके व्रत भगका दोष नहीं लगता ।
३. परिस्थितिवश साधुवृत्तिमे कुछ अपवाद
१९ कोटिको अपेक्षा ५ कोटि शुद्ध आहारका ग्रहण स्वा.मं. ११/१२८/६ यथा जेनानां सयमपरिपालनार्थ ममकोटिविशुद्धा हारग्रहणमुत्सर्ग। तथाविधद्रव्य क्षेत्र कालभावापत्सु च निपतितस्य मत्यन्तराभावे पञ्चकादियतया अनेषणीयमिवादः सोऽपि च संयमपरिपालनार्थमेव जैन मुनियों के वास्ते सामान्यरूपसे संयमकी रक्षा के लिए नम कोटिसे विशुद्ध आहार ग्रहण करने की विधि बतायी गयी है । परन्तु यदि किसी कारणसे कोई द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावजन्य आपदाओंसे ग्रस्त हो जाये और उसे कोई मार्ग 'सूफ न पड़े, तो ऐसी दशा में वह पाँच कोटिसे शुद्ध आहारका ग्रहण कर
३ परिस्थितिवश साधुवृत्तिमे कुछ अपवाद
सकता है। यह अपवाद नियम है । परन्तु जैसे सामान्य विधि सयमको रक्षा के लिए है, वैसे ही अपवाद विधि भी रामकी राके लिए है।
२. उपदेशार्थ शास्त्र तथा वैयावृत्यर्थ औषध संग्रह भाग १००/२१३ किचित्कारणमुदिश्य ग्रहण परेषामापदेशम् आचार्या दिवैयावृत्त्यादिकं वा परिभुक्तं व्यवहृतम् । उवधि परिग्रहमौषधं अतिरिकज्ञानोपानि या अपुपधि ईषत्प रिग्रहम् ..बसतिरुच्यते । वर्जयित्वा आचरति । शास्त्र पढना, दूसरोको खोपदेश देना, आचार्योंकी वैयावृत्य करना इत्यादि कारणोंके उद्देश्यसे जो परिग्रह संगृहीत किया था, अथवा औषध व राद्वयतिरिष्ठ ज्ञानोपकरण और सयमोपकरण संग्रहीत किया था. उसका (इस सल्लेखनाके अन्तिम अवसरपर ) व्यागकर विहार करे । तथा परपरिग्रह अर्थात् सतिका भी त्याग करे।
३. क्षपकके लिए आहार आदि मांगकर लाना
भ आ/मू./१६२-६३८ पचारिजात अगिताए पाखोग्गं । छ दियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा ॥ ६६२॥ चन्तारि जणा पाणयमुत्रकप्पंति अडिलाए पाओग्गं । छ दियमवगददोसं अमाइण । लद्धि संपणा॥६६॥ चचारि जना रक्त दवियमुपयं यं तेहि। अगिलाए अप्पमत्ता खवयस्स समाधिमिच्छति ॥ ६६४ ॥ काइयमादी सव्वं चत्तारि पदिट्ठवति खवयस्स । पडिलेहंति य उवधोकाले सेज्जुवधिसारं ॥ ६६५ ॥ ख़वगस्स घरदुबार सारवख तिजणा चत्तारि । चारि समोरवा रति णाए ॥६६६चार साम्र तो पक के लिए उद्गमादिदोषरहित आहार के पदार्थ (श्रावक के घर से माँगकर ) - लाते है। चार साधु पीनेके पदार्थ लाते है। कितने दिन तक लाना पड़ेगा, इतना विचार भी नही करते है । माया भाव रहित वे सुनि वात, पित्त, कफ सम्बन्धी दोषोको शान्त करनेवाले ही पदार्थ साते है। भिक्षा से सम्पन्न बर्बाद जिन्हें भिक्षा वासानी से मिल जाती है, ऐसे मुनि ही इस काम के लिए नियुक्त किये जाते हैं ॥६६२-६६३॥ उपर्युक्त मुनियों द्वारा लाये गये आहार पानकी चार मुनि प्रमाद छोडकर रक्षा करते है, ताकि उन पदार्थों में त्रस जीवोंका प्रवेश न होने पावे । क्योकि जिस प्रकार भी क्षपकका मन रत्नत्रयमें स्थिर हो वैसा ही वे प्रयत्न करते है ॥ ६६४॥ चार मुनि क्षपकका मलमूत्र निकालने का कार्य करते है तथा सूर्यके उदयकाल और अस्तकासके समय में वे वसतिका, उपकरण और सस्तर इनको शुद्ध करते हैं, स्वच्छ करते है ॥६६॥ चार परिचारक मुनि क्षपकको वसतिकाके दरवाजेका प्रयत्न से रक्षण करते है, अर्थात् असंयत और शिक्षकों को वे अन्दर आनेको मना करते है और चार मुनि समोसरणके द्वारका प्रयत्नसे रक्षण करते है, धर्मोपदेश देनेके मडपके द्वारपर चार सुनि रक्षण के लिए बैठते है ॥६६६० (भ.आ./मू./१९६३) । भ.आ./घू./१६७८/१७४२ नवस्यपदावणं उपसगहिदं सुतस्य उम करणं सामारिय च दुविहं पडिहारियमपडिहार मा ८३ = क्षपककी शुश्रूषा करनेके लिए जिन उपकरणोका सग्रह किया जाता था उनका वर्णन इस गाथामें किया गया है ! कुछ उपकरण गृहस्थोंसे लाये जाते थे जैसे औषध, जलपात्र, थाली वगैरह। कुछ उपकरण त्यागने योग्य रहते है. और कुछ उपकरण त्यागने योग्य नहीं होते । जोत्याज्य नहीं हैं वे गृहस्थोंको वापिस दिये जाते हैं। कुछ कपड़ा वगैरह उपकरण त्याज्य रहता है।
दे. लेखना / २ /१२ (गिनी मरण धारक क्षपक अपने सस्तरके लिए स्वयं गाँव से तृण माँगकर लाता है ।)
४. क्षपकको कुरले व तेलमदन आदि भ.आ./ /६८८ लक्सावादीहि य बहुसो गनुख्या दु चेतव्या जिभाकण्णाण मल होहि दि तुंडं च से विसदं ॥ ६८८॥ - तेल और कायले के को बहुत मार करने करने चाहिये। फुरसे करने से
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अपवाद
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४. उत्सर्ग व अपवाद मागका समन्वय
जीभ और कानोमें सामर्थ्य प्राप्त होती है । कर्ण में तेल डालनेसे श्रवण शक्ति बढ़ती है ॥६॥ ५. क्षपकके लिए शीतोपचार आदि में आ /मू /११६६ बसली हि अपवणतावणेहि आले वसीदकिरियाहि । अभगणपरिमद्दण आदी हि तिगिछदे खवय ॥१४६६॥ -- वस्ति कर्म (अनीमा करना), अग्निसे सैकना, शरीर में उष्णता उत्पन्न करना, औषधिका लेप करना, शोतपना उत्पन्न करना, सर्व अग मर्द न करना, इत्यादिके द्वारा क्षपकको वेदनाका उपशमन करना चाहिए। मू आ /टो/३७५ प्रतिरूपकाल क्रिया -उष्णकाले शीत क्रया, शीतकाले उष्णक्रिया, वर्षाकाले तद्योग्य क्रया। = उणकाल में शीतक्रिया और शीतकाल में उष्णक्रिया वर्षाकाल में तद्योग्य क्रिया करना प्रतिरूपकाल क्रिया है (जिसके करनेका मूल गाथामें निर्देश किया है)। त वृ./8/४७/३१६/१२ केचिदसमर्था महर्षय शीतकालादौ कम्बलशब्दबाच्यं कौशेयादिक गृहन्ति । • केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषाग्लज्जित्वाव तथा कुर्वन्तीति । व्याख्यानमाराधनाभगवतीप्रोक्ताभिप्रायेणापवादरूपं ज्ञातव्यम् । -कोई-कोई असमर्थ महर्षि शोत अदि कालमे कम्बल शब्दका वाच्य कुश घास या परानी आदिक ग्रहण कर लेते है । कोई शरीरमें उत्पन्न हुए दोष वश लज्जा के कारण ऐसा करते है। यह व्याख्यान भगवती आराधन मे कहे हुए अभिप्रायसे अपवाद रूप है। (भ आ/वि/४२१/६११/१८)। बो,पा./टो /१७/८५ तस्य आचार्यस्य-वात्सल्य भोजन पान पादमर्दन शुदतैलादिनाङ्गा पञ्जन तत्प्रक्षालन चेत्यादिकं कर्म सर्व तीर्थकरनाम कर्मोपार्जनहेतुभूत वैयावृत्त्य कुरुत यूयम् । - उन आचार्य (उपाध्याय व साधु) परमेष्ठी की वात्सल्य, भाजन, पान, पादमर्दन, शुद्धतेल आदिके द्वारा अगमर्दन, शरीर प्रक्षालन आदिक द्वारा वैयावृत्ति करना, ये सब कर्म तीर्थंकर नाम कर्मोपार्जनके हेतुभूत है।
६.क्षपकके मृत शरीरके अंगोपांगों का छेदन भ आ/मू /१९७६-१९७७ गीदत्था कदकज्जा महाबलपरकमा महासत्ता। बंधति य छिदंति य करचरण गुठ्ठयपदेसे ॥१९७६ ॥ जदि वा एस ण कीरेज्ज विधी तो तत्थ देवदा कोई । आदाय त कलेवरमुट्ठिज्ज रमिज्ज बाधेज्ज ॥१६७७॥ महात् पराक्रम ओर धैर्य युक्त मुनि क्षपक के हाथ और पॉव तथा अगूठा इनका कुछ भाग बान्धते है अथवा छेदते है ॥११७६॥ यदि यह विधि न की जायेगी तो उस मृतशरीरमे कीडा करनेका स्वभाववाला कोई भूत अथवा पिशाच प्रवेश करेगा, जिसके उपकरण वह शरीर उठना, बैठना, भागना आदि भीषण क्रियायें करेगा ॥१६७७॥
७. परोपकारार्थ विद्या व शस्त्रादिका प्रदान म.पू/६५/१८ कामधेन्वभिधा विद्यामोप्सितार्थप्रदायिनीम्। तस्यै विश्राणयाचक्रे समन्त्रं परशुं च स ॥१८॥ = उन्होने (मुनिराजने रेणुकाको, उसके सम्यक्त्व व व्रत ग्रहणसे सन्तुष्ट होकर) मनवांछित पदार्थ देनेवाली कामधेनु नामकी विद्या और मन्त्र सहित एक फरसा भी उसके लिए पदान किया ॥१८॥
८. कदाचित् रात्रिको भी बोलते है। प.पु/१८/३८ स्मरेषुहतचित्तोऽसो तामुद्दिश्य बजनिशि। मुनिनावधियुक्तेन मैवमित्यभ्यभाषत ।३८॥ -(दरिद्रोकी बस्ती में किसी सुन्दरीको देखकर काम बाणोसे उसका (यक्षदत्तका) हृदय हरा गया। सो वह रात्रिके समय उसके उद्देश्यसे जा रहा था, कि अवधिज्ञानसे युक्त
सुनिराजने 'मा अर्थात नहीं' इस प्रकार (शब्द) उच्चारण किया। ४. उत्सर्ग व अपवाद मार्गका समन्वय
१. वास्तवमें उत्सर्ग ही मार्ग है, अपवाद नहीं घ.सा./त.प्र./२२४ ततोऽवधार्यते उत्सर्ग एव वस्तुधर्मो न पुनरपवाद। इदमत्र तात्पर्य वस्तुधर्मत्वात्परमनन्थ्यमेवावलम्व्यम्। -इससे
निश्चय होता है कि उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है अपवाद नही। तात्पर्य यह है कि वस्तु धर्म होने से परम निर्ग्रन्थत्व ही अबलम्बन योग्य है।
२. कारणवश ही अपवादका ग्रहण निर्दिष्ट है, सर्वतः नहीं भ आ /वि /४२११६१२/१३ तस्माद्वस्त्रं पात्र चार्थाधिकारमषेक्ष्य सूत्रेषु
बहुषु यदुक्त तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् । - इसलिए अर्थाधिकार की अपेक्षासे बहुत-से सूत्रोमे जो बस्त्र और पात्रका ग्रहण कहा
गया है, वह कारणको अपेक्षासे निर्दिष्ट है, ऐसा समझना चाहिए। म.पु/७४/३१४ चतुर्थ ज्ञाननेत्रस्य निसर्गबल शालिन । तस्याद्यमेव चारित्रं द्वितीय तु प्रमादिनाम् ॥३१४१ - मन पर्ययज्ञानरूपी मैत्रको धारण करनेवाले और स्वाभाबक बलसे सुशोभित उन भगवान्के पहिला सामायिक चारित्र ही था, क्योकि दूसरा छेदोपस्थापना चारित्र प्रमादी जीवोके ही होता है । (गो के जी.प्र /५४७/७१४/५) । प्रसा/त प्र '२२२ अय तु विशिष्ट काल क्षेत्रवशारकश्चिदप्रतिषिद्ध इत्यपवाद । यदा हि श्रमण' सर्वोपधिप्रतिषेधमास्थाय परमुपेक्षासयम प्रतिपत्तुकामोऽपि विशिष्टकालक्षेत्रवशादवस नशक्तिर्न प्रतिपक्षमते तदापकृष्य संयम प्रतिपद्यमानस्तबहर इसाधनमात्रमुपधिमातिष्ठते । = विशिष्ट काल, क्षेत्रके वश कोई उपधि अनिषिद्ध है। ऐसा अपवाद है। जब श्रमण सर्व उपधि के निषेधका आश्रय लेकर परमोपेक्षा सयमको प्राप्त करनेका इच्छुक होनेपर भी विशिष्ट काल, क्षेत्रके वश हीन शक्तिवाला होनेसे उसे प्राप्त करने में असमर्थ होता है, तब उसमे अपकर्षण करके (अनुत्कृष्ट) सयम प्राप्त करता हुआ उसकी बाह्य साधनमात्र उपधिका आश्रय लेता है। ३ अपवाद मार्गमें भी योग्य ही उपधि आदिके ग्रहणकी
आज्ञा है अयोग्यको नहीं प्र.सा /मू /२२३ अप्पष्टिकुट उवधि अपत्याणिज्ज असंजयजगे हि । मुच्छादिजणणरहिद गेहदु समणो 'जदि बि अप्प ॥२२३॥ भले ही अल्प हो तथापि जो अनिन्दित हो, असं यत जनोसे अप्रार्थनीय हो और मूर्खादि उत्पन्न करनेवाली न हो. ऐसी ही उपधिको श्रमण ग्रहण करो। भ आ/वि /१६२/३७५/१६ उपविनाम पिच्छान्तर कमण्डत्वन्तरं वा तदानी संयमसिद्धौ न करण मिति सयमसाधनं न भवति । अथवा ज्ञानापकरण अवशिष्टापधिरुच्यते । == एक ही पिच्छिका और एक ही कमण्डल रखता है, क्योकि उससे ही मका सयम साधन होता है। दूसरा कमण्डल व दूसरो पिच्छिका उसको सयम साधनमे कारण नहीं है। अवशिष्ट ज्ञानोपकरण (शाख) भी उस (सल्लेखनाके) समय परिग्रह माना गया है। प्रसा/त प्र/२२२ की उत्थानिका "कस्यचित्कदाचित्कथ चित्कश्चिदप
धिरप्रतिषिद्धोऽध्यस्तीत्यपवादमुपदिशति। -किसीके कहीं कभी किसी प्रकार कोई उपधि अनिषिद्ध भो है, ऐसा अपवाद कहते है। प्रसा./ता वृ /२२३ गृह्णातु श्रमणो यमप्यसप तथापि पूर्वोक्ताचितलक्षणमेव ग्राह्य न च तद्विपरातमधिक वेत्यभिप्राय । -श्रमण जो कुछ भी अल्पमात्र उपधि ग्रहण करता है वह पूर्वोक्त उचित लक्षणवाली ही ग्रहण करता है, उससे विपरीत या अधिक नहीं, ऐसा अभिप्राय है।
४. अपावदका अर्थ स्वच्छन्द वृत्ति नहीं है म आ /६३१ जो ज? जहा लवधं गेण्हदि आहारमुवधियादीय। समणगुणमुक्कजागी ससारपबढओ होदि ॥६३१॥ जो साधु जिस शुद्धअशुद्ध देश में जैसा कैसा शुद्ध-अशुद्ध मिला आहार व उपकरण प्रहण करता है. वह श्रमण गुणसे रहित योगी संसारको बढानेवाला ही होता है। प.प्र./मू /२/६१ जे जिण लिगु धरेवि मुणि इट्ठ परिग्गह लेति। यहि करविणु ते जि जिय सा पुणु छिद्दि गिलंति ॥११॥ -जो मुनि दिन
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अपवाद
१२३
अपादान कारक
लिंगको धारण कर फिर भी इच्छित परिग्रहका ग्रहण करते हैं. हे
जीव । वे ही वमन करके फिर उस बमनको पीछे निगलते है। प्र.सा/ता.व./२५० योऽसौ स्वशरीरपोषणार्थ शिष्यादिमोहेन वा सावध नेच्छति तस्येदं (अपवादमार्ग) व्याख्यानं शोभते। यदि पुनरन्यत्र सावद्यमिच्छति वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति
सदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्तीति। प्रसा/ता वृ /२५२ अत्रेदं तात्पर्यम् स्वभावनाविघातकरोगादिप्रस्तावे वैयावृत्त्यं करोति शेषकाले स्वकीयानुष्ठानं करोतीति । -जो स्व शरीरका पोषण करने के लिए अथवा शिष्य आदिके मोहके कारण सावद्यकी इच्छा नहीं करता है. उसको ही यह अपवाद मार्गका व्याख्यान शोभा देता है। यदि अन्यत्र तो सावद्यकी इच्छा करे और वैयावृत्ति आदि स्वकीय अवस्थाके योग्य धर्मकार्यमें इच्छा न करे, तब तो उसके सम्यक्त्व ही नही है ।२५०॥ यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि स्वभाव विघातक रोगादि आ जानेपर तो बैयावृत्ति करता है, परन्तु शेष काल में स्वकीय अनुष्ठान (ध्यान आदि) ही करता है ॥२५२॥
५. अपवादका ग्रहण भी त्यागके अर्थ होता है प्र.सा./त प्र./२२२ अयं तु ..आहारनिहारादिग्रहण विसर्जनविषयच्छेदप्रतिषेधार्थ सुपादीयमान' सर्वथा शुद्धोपयोगाविनाभूतत्वाच्छेदप्रतिषेध एक स्यात् । -यह आहारनीहारादिका ग्रहण-विसर्जन सम्बन्धी बात छेदके निषेधार्थ ग्रहण करने में आयी है, क्योकि सर्वत्र शुद्धोपयोग सहित है। इसलिए वह छेद के निषेध रूप ही है।
६ अपवाद उत्सर्गका साधक होना चाहिए स्या में/१२/१३८/६ अन्यार्थ मुत्सृष्टम् .. अन्यस्मै कार्याय प्रयुक्तम्-उत्सर्गवाक्यम्. अन्यार्थ प्रयुक्तेन वाक्येन नापोद्यते-नापवादगोचरीक्रियते। यमेवार्थमाश्रित्य शास्त्रेषूत्सर्ग प्रवर्तते, तमेवाश्रित्यापवादोऽपि प्रवर्तते, तयोनिम्नोन्ननादिव्यवहारवत परस्परसापेक्षत्वेनैकार्थ साधनविषयत्वात् । सोऽपि च संयमपरिपालनार्थ मेव। -सामान्य (उत्सर्ग) और अपवाद दोनों वाक्य शास्त्रोके एक ही अर्थ को लेकर प्रयुक्त होते है। जैसे ऊँच-नीच आदिका व्यवहार सापेक्ष होनेसे एक हो अर्थका साधक है. वैसे ही सामान्य और अपवाद दोनो परस्पर सापेक्ष होनेसे एक ही प्रयोजनको सिद्ध करते है।-(उदाहरणार्थ नव कोटि शुद्ध की मजाये परिस्थितिका साधु जो पंचकोटि भी शुद्ध आहारका ग्रहण कर लेता है। जैसे सामान्य विधि संयमकी रक्षाके लिए है. तैसे ही वह अपवाद भी संयमकी रक्षा के लिए ही है। ७. उत्सर्ग व अपवादमें परस्पर सापेक्षता ही श्रेय है प्रसा./म/२३० बालो वा बुड ढो वा ममभिदो वा पुणो गिलाणो वा। चरियं चरउ सजोग्ग मूलच्छेदं जधा ण हवदि ॥२३०॥ बाल, वृद्ध, श्रान्त अथवा ग्लान श्रमण, मूलका छेद जिस प्रकारसे न होय उस प्रकार अपने योग्य आचरण आचरो। प्र.सा./त प्र/२३० बालवृद्धश्रान्तग्लानेनापि संयमस्य शुद्धात्मतत्त्व
साधनरवेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यातिकर्कशमेवाचरणमाचरणीयमित्युत्सर्ग । शरीरस्य छेदो न यथा स्यात्तथा.. स्वस्य योग्य मृद्वेवाचरणमाचरणीय मित्यपवाद । संयमस्य - छेदोन यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमाचरणमाचरता शरीरस्य...छेदो यथा न स्यात्तथा स्वस्य योग्य मृतप्याचरणमाचरणीयमित्ययमपवादसापेक्ष उत्सर्गः। शरीरस्य छेदो न यथा स्यात्तथा स्वस्य योग्यं मृद्वाचरणमाचरता संयमस्य छेदो न यथा स्यात्तथा सयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमप्याचरणमाचरणीयमित्युत्सर्गसापेक्षोऽपवाद । अतः सर्वथोत्सर्गापवादमैत्र्या सौस्थितस्यमाचरणस्य विधेयम् । बाल, वृद्ध, श्रान्त अथवा ग्लान श्रमणको भी संयमका, कि जो शुद्धात्म तत्त्वका साधन होनेसे मूलभूत है, उसका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार संयतका ऐसा अपने योग्य अतिकर्कश आचरण ही आचरना उत्सर्ग है।.. संयमके साधनभूत
शरीरका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृद आचरण ही आचरना अपवाद है। संयमका वेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य अतिकर्कश आचरण आचरते हुए भी शरीरका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृद् आचरणका आचरना अपवादसापेक्ष उत्सर्ग है। शरीरका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरणको आचारते हुए भी संयमका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य अतिकर्कश आचरणको भी आचरना उत्सर्गसापेष्ट अपवाद है। इससे सर्वथा उत्सर्ग अपवादकी मैत्री के द्वारा आचरणको स्थिर करना चाहिए। ८. निरपेक्ष उत्सर्ग या अपवाद श्रेय नहीं प्र.सा / त.प्र.,२३१ अथ देशकालज्ञस्यापि...मृद्वाचरणप्रवृत्तत्वादरूपी लेपी भवत्येव तद्वरमुत्सर्ग । मृद्वाचरण प्रवृत्तत्वादरूप एव लेपो भवति तद्वरमपवाद' । अल्पलेपभयेनाप्रवर्तमानस्यातिकर्कशाचरणीभूयाक्रमेण शरीर पातयित्वा मुरलोकं प्राप्योद्वान्तसमस्तसंयमामृतभारस्य तपसोऽनवकाशतयाऽशक्यप्रतिकारा महान लेपो भवति । तन्न श्रेयानपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग. । देशकालज्ञस्यापि आहारविहारयोररूपलेपत्व विगणय्य यथेष्ट प्रवत्तं मानस्य मृद्वाचरणीभूय सयम विराध्या सयतजनसमानीभूतस्य तदात्वे तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान लेपो भवति, तत्र श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवाद' । अत...परस्परसापेक्षोत्सर्गापवादविज भितवृत्तिः स्याद्वादः । -देशकालज्ञको भी मृदु आचरण में प्रवृत्त हानेसे अल्प लेप होता ही है, इसलिए उत्सर्ग अच्छा है। और मृदु आचरण में प्रवृत्त होनेसे अल्प (मात्र) ही लेप होता है, इसलिए अपवाद अच्छा है। अस्पलेपके भयसे उसमें प्रवृत्ति न करे तो अतिकर्कश आचरण रूप होकर अक्रमसे ही शरीरपात करके देवलोक प्राप्त करता है। तहाँ जिसने समस्त सयमामृतका समूह बमन कर डाला है, उसे तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतिकार अशक्य है, ऐसा महान् लेप होता है। इसलिए अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं। देशकालज्ञको भी, आहार-विहार आदिसे होनेवाले अम्पलेपको न गिनकर यदि वह उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करे तो, मृदु आचरणरूप होकर सयमविरोधी असंयतजनके समान हए उसको उस समय तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतिकार अशक्य है ऐसा महान लेप होता है। इसलिए उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है। इसलिए परस्पर सापेक्ष उत्सर्ग और अपवादसे जिसकी वृत्ति प्रगट होती है ऐसा स्याद्वाद सदा अनुगम्य है। अपशब्द हाडन-आ.शुभचन्द्र (ई०१५१६-१४६) द्वारा रचित
न्याय विषयक एक ग्रन्थ । अपसरण-दे, अपकर्षण/३ । अपसिद्धान्त-न्या. सु /मू १२/२३ सिद्धान्तमभ्युपेश्यानियमात कथाप्रसङ्गोऽसिद्धान्त। (श्लो. वा.४/न्या.२६८/४२२/११) -किसी अर्थ के सिद्धान्तको मानकर नियम-विरुद्ध 'कथाप्रसंग' करना 'अपसिद्धान्त' नामक निग्रहस्थान होता है। अर्थात स्वीकृत आगमके
विरुद्ध अर्थका साधन करने लग जाना अपसिद्धान्त है। पंध/पू./५६८ जैसे शरीरको जीव बताना अपसिद्धान्त रूप विरुद्ध
वचन है। अपहृत-संयम-दे. संयम/१। अपाच्य-पश्चिम दिशा। अपात्र-१. दान योग्य अपात्र-दे. पात्र । २. ज्ञान योग्य अपात्र
-दे. श्रोता। अपादान कारक-प्रसा/त.प्र./१६ शुद्धानन्तशक्तिज्ञान विपरिणम
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अपादान कारण
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अपूर्वकरणे नस्वभावसमय पूर्वप्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्व
* इस गुणस्थानमे मृत्युका विधि-निषेध ।-दे. मरण ३। भावेन वत्वालम्बनादपादानत्वमुपाददान । =शुद्धानन्त शक्तिमय ज्ञानरूपसे परिणमित होने के समय पूर्वमे प्रवर्तमान विकल ज्ञानस्वभाव
* सभी गुणस्थानोमे आयके अनुसार व्यय होनेका का नाश होने पर भी सहज ज्ञानस्वभावसे स्वय ही ध्र बताका अव
नियम। -दे. मार्गणा। लम्बन करनेसे (आत्मा) अपादानताको धारण करता है।
१ अपूर्वकरण गुणस्थानका लक्षण अपादान कारण-दे उपादान।
पं.सं /प्रा./१/१७-१६ भिण्णसमयट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सव्वहा अपादान शक्ति-स. सा/आ/परि शक्ति न ४५ उत्पादव्यया
सरिसो। करणे हि एसमय ट्ठिएहि सरिसो विसरिओ वा ॥१७॥
एयम्मि गुण ठाणो विसरिसमट्ठिए हि जीवेहि । पुव्बमपत्ता जम्हा लिङ्गितभावापायनिरपायध वत्वमयी अपादानशक्ति । - उत्पाद व्यय
होति अपुवा हु परिणामा ॥१॥ तारिसपरिणामट्टियजीवा हु से आलिगित भावका अपाय (हानि या नाश) होनेसे हानिको प्राप्त
जिणे हि गलियतिमिरेहि। मोहस्सऽपुब्बकरणारखवणुवसमणुज्जया न होनेवालो ५ वत्वमयी अपादान शक्ति है।
भणिया ॥१६॥ - इस गुणस्थानमें, भिन्न समयवर्ती जीवोमें करण अपान-स.सि. १६/२८८ आत्मना बाह्यो वायुरभ्यन्तरी क्रियमाणो अर्थात परिणामोकी अपेक्षा कभी भी सादृश्य नही पाया जाता। निःश्वासलक्षणोऽपान इत्याख्यायते । आत्मा जिस बाहरी वायुको किन्तु एक समयवर्ती जीरों में सादृश्य और वैसादृश्य दोनो ही पाये भीतर करता है नि श्वास लक्षण उस वायुको अपान कहते है। जाते है ॥१४॥ इस गुणस्थानमे यत विभिन्न समयस्थित जीवोंके पूर्व(रा.वा./५/१६/३६/४७३) (गो.जो /जी.प्र./०६/१०६२/१२ ।
में अप्राप्त अपूर्व परिणाम होते है, अत उन्हे अपूर्वकरण कहते है ॥१८॥ अपाप-भावी तेरहवें तीर्थकर/अपर नाम 'निष्पाप', व 'पुण्यमूर्ति'
इस प्रकारके अपूर्वकरण परिणामाँमें स्थित जीव मोहकर्म के क्षपण या व 'निष्कषाय विशेष दे तीर्थकर।।
उपशमन करनेमें उद्यत होते हैं, ऐसा अज्ञान तिमिर वीतरागी
जिनोने कहा है ॥१७-१६॥ (ध.१/१,१,१७/११६-११८/१८३), (गो.जी। अपाय-स.सि.//8/३४७ अभ्युदयनि श्रेयसार्थानां क्रियाणां विनाशक. प्रयोगोऽपाय।-स्वर्ग और मोक्षकी क्रियाओं का विनाश करने
मू./५१५२,५४/१४०), (प.स./स. १/३५-३७) ।।
घ १/१.१.१६/१८०/१ करणा परिणामाः, न पूर्वा अपूर्वा । नानाजीवावाली प्रवृत्ति अपाय है।
पेक्षया प्रतिसमयमादितः क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य गुणरा.वा/७/६/१/५३७ अभ्युदयनि श्रेयसार्थानां क्रियासाधनानां नाशको.
स्थान्तर्विवक्षितसमयवर्तिप्राणिनो व्यतिरिच्यान्यसमयवतिप्राणिभिरउनथे. अपाय इत्युच्यते। अथवा ऐहलौकिकादिसप्तविध भयमपाय
प्राप्या अपूर्वा अत्रतनपरिणामैरसमाना इति यावत । अपूर्वाश्च ते इति कथ्यते । - अभ्युदय और नि श्रेयसके साधनों का अनर्थ अपाय
करणाश्चापूर्व करणा' । - करण शब्द का अर्थ परिणाम है, और जो है। अथवा इहलोकमय परलोकभय आदि सात प्रकारके भय अपाय है।
पूर्व अर्थात पहिले नहीं हुए उन्हे अपूर्व कहते है। इसका तात्पर्य यह अपाय विचय-धर्मध्यानका एक भेद व लक्षण । दे. धर्मध्यान/१ ।
है कि नाना जीवोकी अपेक्षा आदिसे लेकर प्रत्येक समयमें क्रमसे अपार्थक-न्या.सू /५/२/१० पोर्वापर्यायोगादप्रतिसंबन्धार्थमपार्थम् । मढते हुए अस ख्यातलोक प्रमाण परिणामवाले इस गुणस्थानके --जहाँ अनेक पद या वाक्योंका पूर्व-पर क्रमसे अन्वय न हो अतएव
अन्तर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवोको छोडकर अन्य समयवर्ती एक दूसरेसे मेल न खाता हुआ असम्बन्धार्थत्व जाना जाता है, वह
जीवोंके द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं। अर्थात विवक्षित समुदाय अर्थ के अपाय (हानि) से 'अपार्थक' नामक निग्रहस्थान
समयवर्ती जोवोके परिणामोसे भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम कहलाता है। उदाहरण जैसे दश अनार, छ पूये, कुण्ड, चर्म, अजा,
असमान अर्थात् विलक्षण होते है । इस तरह प्रत्येक समयमें होनेवाले कहना आदि । वाक्यका दृष्टान्त जैसे यह कुमारीका गैरुक (मृगचर्म)
अपूर्व परिणामोंको अपूर्वकरण कहते हैं। शरया है उसका पिता सोया नहीं है। ऐसा कहना अपार्थक है।
अभिधान राजेन्द्रकोश/अपुवकरण "अपूर्वमपूर्वा क्रियां गच्छतीत्यपूर्व(श्लो.मा-४/न्या २०६/२८७ ११)
करणम् । तत्र च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमाः
अन्यश्च स्थितिबन्ध' इत्येते पश्चाप्यधिकारा योगपद्यन पूर्वमप्रवृत्ता' अपर्वकरण-जीवोंके परिणामों में क्रमपूर्वक विशुद्धिकी वृद्धियोंके
प्रवर्तन्ते इत्यपूर्वकरणम् । = अपूर्व-अपूर्व क्रियाको प्राप्त करता होनेसे स्थानोंको गुणस्थान कहते हैं। मोक्षमार्गमें १४ गुणस्थानोंका निर्देश अपूर्वकरण है। तहाँ प्रथम समयसे ही-स्थितिकाण्डकधात, अनुभागकिया गया है। तहाँ अपूर्वकरण नामका आठवाँ गुणस्थान है। काण्डकघात, गुणश्रेणीनिर्जरा, गुणसंक्रमण और स्थितिबन्धापसरण * इस गुणस्थानके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान, जीव
ये पाँच अधिकार युगपत् प्रवर्तते है। क्योकि ये इससे पहिले नहीं
प्रवर्तते इसलिए इसे अपूर्वकरण कहते है। समास, मार्गणा स्थानादि २० प्ररूपणाएं।
व सं./टी/१३/३४ स एवातीतसंज्वलनकषायमन्दोदये सत्यपूर्व परमा
-दे. सद। लादै कमुखानुभूतिलक्षणापूर्ववरणोपशमक्षपकसज्ञोऽध्मगुणस्थानवी * इस गुणस्थानकी सत् (अस्तित्व), संख्या, क्षेत्र, भवति-वही (सप्तगुणस्थानवर्ती साधु) अतीत संज्वलन कषायका स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ
मन्द उदय होनेपर अपूर्व, परम आह्वाद सुखके अनुभवरूप अपूर्व
करणमें उपशमक या क्षपक नामक अष्टम गुणस्थानवर्ती होता है। प्ररूपणाएँ। -दे. वह वह नाम ।
* अपूर्वकरणके चार आवश्यक, परिणाम तथा अनि* इस गुणस्थानमें कर्म प्रकृतियोंका बन्ध, उदय व
बुत्तिकरणके साथ इसका भेद । -ये. करण ५॥ सत्त्व। -. वह वह नाम।
* अपूर्वकरण लब्धि । दे करण । * इस गुणस्थानमे कषाय, योग व संज्ञाओंका सद्भाव
१. इस गुणस्थानमें क्षायिक व औपशमिक वो ही भाव तथा सत्सम्बन्धी शंकाएँ। -के. वह वह माम।
सम्भव हैं * इस गुणस्थानको पुनः पुनः प्राप्तिकी सीमा।
ध.१/१.१.१६/१८२/४ पञ्चसु गुणेषु कोऽत्रनगुणश्चेत्क्षपकस्य क्षायिकः -दे. संयम २। उपशमकस्यौपशमिक ...सम्यक्त्वापेक्ष्या तुक्ष्पकस्य क्षायिको भाव:
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अपूर्वकरण
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अप्रतिकर्म
दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय क्षपक श्रेण्यारोहणानुपत्ते ।। उपशमकस्यौपशमिक क्षायिको वा भाव., दर्शनमोहोपशमक्षयाभ्या विनोपशमश्रेण्यारोहणानुपलम्भात् । प्रश्न-पाँच प्रकारके भावो में-से इस गुणस्थानमे कौन-सा भाव पाया जाता है। उत्तर-(चारित्रकी अपेक्षा) क्षपकके क्षायिक और उपशमके औपशमिक भाव पाया जाता है। सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा तो क्षपकके क्षायिक भाव होता है, क्योकि, जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं दिया है, वह क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ सकता है। और उपशमके औपशमिक या क्षयिकभाव होता है, क्योकि, जिसने दर्शनमोहनीयका उपशम अथवा क्षय नही किया है, वह उपशमश्रेणी पर नहीं चढ़ सकता है। ३. इस गुणस्थानमें एक भी कर्मका उपशम या क्षय
नहीं होता रा वा /8/१/१४/५६०/११ तत्र कर्मप्रकृतीनां नोपशमो नापि क्षयः।
-तहाँ अपूर्वकरण गुणस्थानमें, कर्म प्रकृतियोका न उपशम है और न क्षय। ध १/१.१,२७/२११/३ अपुख्य करणे ण एक्कं पि कम्ममुवसमदि। किंतु अपुब्धकरणो पडिसमयमणं तगुण-विसोहीए वढढंतो अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कंटिदिख डय घादेतो सखेजसहस्साणि ट्ठिदिख डयाणि घादेदि, तत्तियमेत्ताणि ट्ठिदिबधोसरणाणि क्रेदि । - अपूर्व वरण गुणस्थानमें एक भी कर्मका उपशम नही होता है। किन्तु अपूर्वकरण गुणस्थानवाला जीव प्रत्येक समयमे अनन्तगुणी विशुद्धिसे बढ़ता हुआ एक-एक अन्तर्मुहूर्त में एक एक स्थितिखण्डोका घात करता हुआ संख्यात हजार स्थितिखण्डोका घात करता है। उतने ही स्थिति बन्धा
पसरणों को करता है। ध.१/१.१,२७/२१६/६ सो ण एक्क वि कम्म वखवेदि, कितु समयं पडि
अस खेजगुणसरूवेण पदेस णिज्जर करेदि । अतोमुहुत्तेण एक्केवक ठिदिकडय घादेतो अप्पणो कालभतरे सखेज्जसहस्साणि दिदिखडयाणि घादेदि । तत्तियाणि चेव ठ्ठिदिबधोसरणाणि विक्रेदि । तेहितो सखेग्जसहस्सगुणे अणुभागकडयवादे करदि। - वह एक भी कर्गका क्षय नहीं करता है, किंतु प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणित रूपसे कर्मप्रदेशोको निर्जरा करता है। एक-एक अन्तर्महत में एक स्थिति काण्डकका बात करता हुआ अपने काल के भीतर संख्यात हजार स्थिति काण्डकोका घात करता है। और उतने ही स्थिति बन्धापसरण करता है । तथा उनसे सख्यात हजारगुणे अनुभागकाण्डकोंका घात करता है। ४. उपशम व क्षय किये बिना भी इसमें वे भाव कैसे
सम्भव हैं रा वा //१/१६/५६०/१२ पूर्वत्रोत्तरत्र च उपशम क्षयं वापेक्ष्य उपशमकः क्षपक इति च घृतघटबदुपचर्यते।आगे होनेवाले उपशम या क्षयकी दृष्टिसे इस गुणस्थानमें भी उपशमक और क्षपक व्यवहार पीके घडेकी
तरह हो जाता है। घ.१/१,११६/१८१/४ अक्षपकानुपशमकाना कथं तद्वयपदेशश्चेन, भाविनि भूतबदुपचारतस्तत्सिद्ध । सत्येवमतिप्रसङ्ग स्यादिति चेन्न, असति प्रतिबन्धरि मरणे नियमेन चारित्रमोहक्षपणोपशमकारिणा तदुन्मुखानामुपचारभाजामुपलम्भात । प्रश्न-आठये गुणस्थानमें न तो कोका क्षय ही होता है, और न उपशम ही फिर इस गुणस्थानवर्ती जीवोंको क्षपक और उपशमक कैसे कहा जा सकता है। उत्तर-नहीं, क्योकि, भावी अर्थमे भूतकालोन अर्थ के समान उपचार कर लेनेसे आठवे गुणस्थानमें क्षपक और उपशमक व्यवहारकी सिद्धि हो जाती है। प्रश्न-इस प्रकार माननेपर तो अतिप्रसग दोष प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नही, क्योकि प्रतिबन्धक मरणके अभावमें नियमसे चारित्रमोहका उपशम करनेवाले तथा चरित्रमोहका क्षय करने वाले, अतएव
उपशमन व क्षपणके सन्मुख हुए और उपचारसे क्षपक या उपशमक सज्ञाको प्राप्त होनेवाले जीवोंके आठवे गुणस्थानमें भी क्षपक या
उपशमक सज्ञा बन जाती है (ध,४१,७,६/२०४४) ध/१,७,६/२०१/२ उवसमसमणसत्तिसमण्णिदअपुव्यकरणस्य तदस्थित्ताविरोहा।- उपशमन शक्तिसे समन्वित अपूर्वकरणसयतके औपशमिक भावके अस्तित्वको मानने में कोई विरोध नहीं है। ध५/१,७,६/२०६/१ अपुवकरणस्स अविणठकम्मस्स क्ध खइयो भावो ।
ण तस्स वि कम्मक्खय णिमित्तपरिणामुवल भादो। उवयारेण वा अपुव्वकरणस्स खइओ भावो। उवयारे आसयिजमाणे अइप्पसंगो किण्ण होदीदि चे ण, पच्चासत्तीदो अपसगपडिसेहादो ।-प्रश्न किसी भी कमके नष्ट नही करनेवाले अपूर्वकरण स यतके क्षायिकभाव कैसे माना जा सकता है। उत्तर - नहीं, क्योकि, उसके भी कर्म क्षयके निमित्तभूत परिणाम पाये जाते है। अथवा उपचारसे अपूर्ववरणसयतके क्षायिकभाव मानना चाहिए। प्रश्न-इस प्रकार सर्वत्र उपचारका आश्रय करनेपर अतिप्रसग दोष क्यो न आयेगा। उत्तरनही, क्योकि प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अर्थ के प्रसंगसे अतिप्रसंग दोषका प्रतिबध हो जाता है। ध७/२,१,४६/६३/५ खबगुवसामगअपुव्वकरणपढमसमयप्पर डि थोव
थोवक्खवणुवसामणकज्जणिप्पत्तिदसणादो। पडिसमय कज्जणिप्पत्तीए विणा चरिमसमए चेव णिप्पज्जमाणकज्जाणुवलभादो च । -क्षपक व उपशामक अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लगाकर थोड़े-थोड़े क्षपण व उपशामन रूप कार्यकी निष्पत्ति देखी जाती है। यदि प्रत्येक समय कार्यकी निष्पत्ति न हो तो अन्तिम समयमें भी कार्य पूरा होता नही पाया जा सकता। दे सम्यग्दर्शन/IV/२/१० दर्शनमोहका उपशम करने वाला जीव उपद्रव
आने पर भी उसका उपशम किये बिना नहीं रहता। अपूर्व कृष्टि-दे, कृष्टि। अपूर्वस्पर्धक-दे स्पर्धक।
र्थ-(प मु /१/४-५)-अनिश्चितोऽपूर्वार्थ ॥४॥ दृष्टोऽपि समारोपात्ताहक ॥५॥-जो पदार्थ पूर्व में किसी भी प्रमाण द्वारा निश्चित न हुआ हो उसे अपूर्वार्थ कहते है ॥४॥ तथा यदि किसी प्रमाणसे निर्णीत होनेके पश्चात पुन उसमें सशय, विपर्यय अथवा अनध्यव
साय हो जाये तो उसे भी अपूर्वार्थ समझना ॥५॥ अपेक्षा-दे स्याद्वाद/21 अपोह- ख /१३/५,५,३८/सू३८/२४२ ईहा ऊहा अपोहा मग्गणागवेसणा मीमांसा ॥३८॥ - ईहा, उहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा, और मीमासा ये ईहाके पर्याय नाम है। ध/१३/५,५,३८/२४२/8 अपोह्यते संशय निबन्धनविकल्प अनया इति
अपोहा। जिसके द्वारा संशयके कारणभूत विकल्पका निराकरण किया जाता है वह अपोह है। अपोहरूपता-एक पदार्थ के अभावसे दूसरे पदार्थ के सद्भावको दर्शाना-जैसे घटका अभाव ही पट है, या द्रव्यका अभाव ही गुण है इत्यादि । (प्र सा /त.प्र/१०८) । अपोही-न वि वृ/२/२५/५० अपोहिनाम् विजातीयविशेषवां
खण्डादीनाम् । -विजातीयविशेषवानके खण्डादि । अपौरुषय-आगमका पौरुषेय व अपौरुषेयपना। -दे. आगम/६ अप्रणीतवाक-दे वचन । अप्रतिकर्म-प्रसा/ता बृ./२०५ परमोपेक्षासंयमबलेन देहप्रतिकाररहितत्वादप्रतिकर्म भवति ।- परमोपेक्षा सयम के बलसे देहके प्रतिकार रहित होनेसे अप्रतिकर्म होता है।
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अप्रतिक्रमण १२६
अबंध अप्रतिक्रमण-दे. प्रतिक्रमण ।
प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ है। (रा.वा./८/8// अप्रतिघातऋद्धि-दे. ऋद्धि/३ ।
५७५/१) (ध ६/१-६,१,२३/४,४/४ (ध १३/५,५,६५/३६०/१० (गो.क /
जो प्र/४५/४६/१२) (गो.जी/जी/जी/१३/२८/४) गो जी./जी प्र./ अप्रतिघाती-पक्ष्म पदार्थों का अप्रतिघातोपना।-दे सूक्ष्म/१।
२८३/६०८/१४) अप्रतिचक्रेश्वरी- पद्मप्रभुको शासक यथिणी। -दे तीर्थकर १५/३। * अप्रत्याख्यानावरण प्रकृतिकी बंध उदय सत्त्व प्ररूअप्रतिपक्षी प्रकृतियॉ-३ प्रकृति अन्ध/२ ।
पणाएँ व तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान अप्रतिपत्ति-लो वा /४/न्या ४५६/५५१/२० अनुपलम्भोऽप्रति
दे वह वह नाम। पत्ति ।-अनुपलब्धिको अपतिपत्ति कहते है। जिसकी अप्रतिपत्ति
* अप्रत्याख्यानावरणका सर्वघातीपना-दे अनुभाग ४ । है उसका अभाव मान लिया जाता है।
* अप्रत्याख्यानावरणमे दशो करणोकी संभावना अप्रतिपाती-१ अप्रतिपातो अधिज्ञान -दे, अबधिज्ञान/६ ।
-दे करण २१ २ अप्रतिपाती मन पर्यय ज्ञान-दे मन पर्ययज्ञान/२।
२. अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशव्रतको घातती है अप्रतिबद्ध-स सा /म्/१६ कम्मे णोकम्हि य अहमिदि अहक च
पं.स /प्रा/१/११५ पढमो दसणघाई बिदिओ तह घाइ देसविरइ त्ति । कम्म णोकम्म । जा एसा खलु बुद्धी अपडिबुद्धो हवदि ताव ॥१६॥ प्रथम अनन्तानुबन्धी तो सम्यग्दर्शनका घात करती है, और in जब तक इस आत्माकी ज्ञानाचरणादि द्रव्यकर्म भाव कर्म और द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशविरतिकी घातक है । (गो.क/ शरीरादि नामकर्ममें 'यह मै हुँ' और 'मुझमें यह कर्म नोकर्म है' ऐसो मू/४५/४६) (गो जी /मू /२८३/६०८) (८.स /स /१/२०१५) बुद्धि है, तब तक यह आत्मा अप्रतिबुद्ध है।।
३. अप्रत्याख्यानावरण कषायका वासना काल अप्रतिभा-न्या./सू./ /५२/२/१८ उत्तरस्याप्रतिपत्तिप्रतिभा ॥१८॥
गो.क /मू व टी/४६/४७ अन्तर्मुहूत पक्ष' षण्मासा सरव्यास ख्यया-परपक्षका खण्डन करना उत्तर है। सो यदि किसी कारणसे वादी
नन्तभवा । संज्वलनाद्याना वासनाकाल त नियमेन । अप्रत्याख्यानासमयपर उत्तर नही देता तो यह उसका अप्रतिभा नामक निग्रह- वरणाना षण्मासा । - सज्वलनादि कषायोका वासनाकाल नियमसे स्थान है। (श्लो बा४/न्या २४५/४१४/१४)
अन्तर्मुहूर्त, एक पक्ष छ मास तथा संख्यात असंख्यात व अनन्त भव अप्रतियोगी-जिस धर्म में जिस किसी धर्मका अभाव नहीं होता है । अप्रत्याख्यानावरणका छ मास है। है, वह धर्म उस अभावका अप्रतियोगी है। जैसे घट में घटत्व ।
* कषायोकी तीव्रता मन्दतामे अप्रत्याख्यानावरण नही अप्रतिष्ठान-सप्तम नरकका इन्द्रक बिल-दे. नरक/५ ।
बत्कि लेश्या कारण है।
-दे कषाय/३। अप्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित प्रत्येक बनस्पति-दे, बनस्पति । अप्रदेशासंख्यात-दे. असख्यात । अप्रत्यवेक्षित-निक्षेपाधिकरण-दे अधिकरण ।
अप्रदेशी--स.सि /५/१/२६६ यथाणो प्रदेशमात्रत्वाद् द्वितीयादयोऽस्य अप्रत्यवेक्षितोत्सर्ग-दे उत्सर्ग।
प्रदेशा न सन्तीत्यप्रदेशोऽणु तथाकालपरमाणुरप्येक प्रदेशत्वादप्रदेश
इति ।-जिस प्रकार अणु एक प्रदेशरूप होनेके कारण उसके द्वितीयादि अप्रत्याख्यान
प्रदेश नही होते, इसलिए अणुको सप्र देशी कहते है उसी प्रकार काल १. संयमासंयमके अर्थमे
परमाणु भी एक अदेशरूप होने के कारण अप्रदेशी है। ध.६/१,६-१,२३/४३/३ प्रत्याख्यान संयम', न प्रत्यारण्यानमप्रत्याख्या
अप्रमत्तसंयत-दे. संयत । नमिति देशसंयम' = प्रत्यारख्यान सयमको कहते है। जो प्रत्या- अप्रमाजितोत्सर्गदे उत्सर्ग । ख्यान रूप नही है वह अप्रत्य ज्यान है। इस प्रकार 'अपत्यख्यान'
अप्रशस्त-स सि /७/१४/१५२/७ प्राणिपाडावर यत्तदप्रशस्तम् । यह शब्द देशमयमका वाचक है । (ध ६/१६-१,२३/४४/३)
--जिससे प्राणियोको पीड़ा होती है, उसे (ऐसे कार्य को) अप्रशस्त ध १३/५,५,६५/३६०/१० ईषत्प्रत्याख्यानमत्यारण्यानमिति व्युत्पत्ते अणुवतानामप्रत्यारण्यानसज्ञा ='ईषद प्रत्याख्यान अप्रत्यारव्यान है।
कहते है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार अणुवतीको अप्रत्याख्यान सज्ञा है । (गो जी./
स सि /8/२८/४४५ अप्रशस्तमपुण्यायवकारणत्वात् । जो पापासबका जी प्र | २८३/६०८/१४)
___ कारण है, वह (ध्यान) अप्रशस्त है। २ विषयाकाक्षाके अर्थमे
अप्रशस्तोपशम-दे उपशम/१ । स.सा/ता वृ/२८३ रागादि विषयाकाङ्क्षारूपमप्रत्याख्यानमपि तथैव
अप्राप्तकाल-न्या सू /मू 11/२/११ अवयव विपर्यासवचनमप्राप्तद्विविध विज्ञेय द्रव्यभावरूपेण । रागादि विषयोको आकाक्षारूप कालम् ॥११॥= प्रतिना आदि अवयवोका जैसा लक्षण कहा गया है. अप्रत्याख्यान भी दो प्रकारका जानना चाहिए-द्रव्य अप्रत्याख्यान उससे विपरीत आगे पीछे कहना। अर्थात जिस अवयवके पहिले या व भाव अप्रत्याख्यान ।
पीछे जिस अवयवके कहनेका समय है, उस प्रकारसे न कहनेको अप्राप्त अप्रत्याख्यान क्रिया-३, क्रिया/१/२ 1
काल नामक निग्रहस्थान कहते है। क्योकि क्रमसे विपरीत अवयवोके
कहने से साध्यकी सिद्धि नहीं होती। (श्लो बा/पु ४/न्या २११/१६१/१) अप्रत्याख्यानावरण
अप्राप्तिसमा-दे प्राप्तिसमा। १. अप्रत्याख्यानावरण कर्मका लक्षण
अप्राप्यकारी-अप्राप्यकारी इन्द्रिय-दे. इन्द्रिय/२। स.सि 10/8/३८६/७ यदुदयाङ्श विरति सयमास यमारण्यामपामपि कतुं न शक्नोति ते देशप्रत्याख्यानमावरणवन्तोऽप्रत्याख्यानाधरणा
अप्रियवाक-दे. वचन । क्रोधमानमायालोभा.।-जिनके उदयसे स यमासयम नामवाले देश- अबंध-१ अमन्धका लक्षण-दे. बध/१। २ अबन्ध प्रकृतियाँ-दे. बिरतिको यह जीव स्वल्प भी करने में समर्थ नही होता है वे देश प्रकृतिबंध/२ ।
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अभाव
अबत-पं.ध./3/84 मोहकर्मावृतो बद्ध' स्यादबद्धस्तदत्ययाव। --मोहकर्मसे युक्त ज्ञानको बद्ध तथा मोह कर्म के अभावसे ज्ञानको
अबद्ध कहते है। अबुद्धि-दे बुद्धि । अब्बहल-ति प./२/१६ अब्बहुलो वि भाग सलिलसरूवस्सवो होदि ॥१६॥ अबहुल भाग (अधोलोकमें प्रथम पृथिवी) जलस्वरूपके आश्रयसे है।
* लोकमे इसका अवस्थान-दे. रत्नप्रभा। अब्भोब्भव-१. आहारका एक दोष-दे आहार/11/४ । २. वसति
का एक दोष-दे. वसति। अब्रह्म-त सू./७/१६ मैथुनमब्रह्म । = मैथुन करना अब्रह्म है।
(त सा/४/७७)। अब्रह्मनिषेध आदि-दे. ब्रह्मचर्य/३,४। अभक्ष्य-दे भक्ष्याभक्ष्य । अभयंकर-एक ग्रह-दे ग्रह । अभय-१ भगवान वीरके तीर्थ में हुए अनुत्तरोपपादकोमें-से एक-दे। अनुत्तरोपपादक । २ श्रुतावतारके अनुसार आप एक आचार्य थे जिनका
अपर नाम यशोभद्र व भद्र था-दे 'यशोभद्र'। अभयकुमार-(म पु./७४/श्लो. स.) पूर्व भव सं ३ में ब्राह्मणका पुत्र तथा महामिथ्यात्वी था। एक श्रावकके उपदेशसे मूढताओका त्याग करके फिर पूर्व के दूसरे भवमें सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। वर्तमान
भवमें राजा श्रेणिककी ब्राह्मणी रानीसे पुत्र उत्पन्न हुआ ॥४२६॥ अभयचन्द्र-१. ( सि वि /प्र/४३ प महेन्द्रकुमार ) आप ई. श १३ के आचार्य है। आपने लघीयस्त्रय' पर स्याद्वादभूषण नामकी तात्पर्यवृत्ति लिखी है। २. बालचन्द तथा श्रुतमुनि (ई १६११) के गुरु, गोमट्टसारकी मन्द प्रबोधिनी टीकाके रचयिता । समय ई श. १४ का पूर्वार्ध । ए एन उपाध्येके अनुसार ई १९७६ में मृत्यु । प. कैलाश
चन्दको मान्य नही । ४६६/ (जै/६/४७०); (ती/३/३१६) अभयदत्ति-दे दान । अभयदान दे दान। अभयदेव-१ वाद महार्णव तथा सन्मतितर्क टीकाके रचयिता श्वेताम्बराचार्य । समय-श. १० (सि. वि/प्र ४०/५ महेन्द्र)। २ नवागवृत्तिके रचयिता श्वेताम्बराचार्य । समय-ई. १०३१ १०७८ । (जै/१/३६६) अभयनंदि-नन्दिसंघ देशीयगण (दे. इति/७/५) के अनुसार आप इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ( ई. श १०-११) के समवयस्क दीक्षागुरु और वीर नन्दिके शिक्षागुरु थे। आपको क्योकि सिद्धान्तचक्रवर्तीकी उपाधि प्राप्त थी इसलिए इन तीनों शिष्योंको भी वह सहज मिल गई। इन तीनोमें आचार्य वीरनन्दि पहिले आ. मेघचन्द्र के शिष्य थे, पीछे विशेष ज्ञान प्राप्तिके अर्थ आपकी शरणमें चले गये थे। कृतिये-१. बिना संदृष्टिकी गोमट्टसार टीका; २ कर्मप्रकृति रहस्य, ३. तत्त्वार्थ सूत्रको तात्पर्य वृत्ति टीका, ४ श्रेयो विधा:
पूजाकल्प, ६ प. कैलाशचन्दजी के अनुसार सम्भवतः जैनेन्द्र व्याकरणको महावृत्ति टोका भी। समय-व्याकरण महावृत्तिके अनुसार वि श ११ का प्रथम चरण आता है। देशीयगणकी गुविल में वह ई. ६३०-६५० दर्शाया गया है । (जै..१/३८७); (ती/२/४१४); (इतिहास ४)। जैन साहित्य इतिहास /२७०/ नाथूरामजी प्रेमी)।
अभयसेन-पुन्नाट संघकी गुर्वावली के अनुसार आप अा. सिद्धसेनके भारत_पत्राट संघकी गर्वानी: शिष्य तथा आ. भीमसेनके गुरु थे । दे, इतिहास ७/८ । अभव्य--दे भव्य। अभाव-यह वैशेषिकों द्वारा मान्य एक पदार्थ है । जैन न्याय शास्त्र. __ में भी इसे स्वीकार किया है, परन्तु वैशेषिकोवत सर्वथा निषेधकारी ___ रूपसे नहीं, बल्कि एक कथ चित् रूपसे । १. भेद व लक्षण
१. अभाव सामान्यका लक्षण न्या सू /भा/२-२/१०/११०यत्र भूत्वा किचिन्न भवति तत्र तस्याभाव उपपद्यते । म जहाँ पहिले होकर फिर पीछे न हो वहाँ उसका अभाव कहा जाता है। जैसे किसी स्थानमें पहिले घट रक्खा था और फिर वहाँसे वह हटा लिया गया तो वहाँके घडेका अभाव हो गया। श्ली.वा. ४/न्या. ४५६/५५१/२० सद्भावे दोषप्रसक्त' सिद्धिविरहान्नास्तित्वापादनमभाव । - सद्भावमें दोषका प्रसंग आ जानेपर, सिद्धिन होनेके कारण जिसकी नास्ति या अप्रतिपत्ति है उसका अभावमान
लिया जाता है। प्रसा/ता वृ/१०० भावान्तरस्वभावरूपी भवत्यभाव इति वचनाव।
भावान्तर स्वभाव रूप ही अभाव होता है, न कि सर्वथा अभाव रूप जैसे कि मिथ्यात्व पर्यायके भंगका सम्यक्त्वपर्याय रूपसे प्रतिभास होता है। न्याय भाषामें प्रयोग-जिस धर्मी में जो धर्म नही रहता उस धर्मी में उस
धर्मका अभाव है। २. अभावके भेद न्या.सू /२-२/१२ प्रागुपपत्तेरभावोपपत्तश्च । -अभाव दो प्रकारकाएक जो उत्पत्ति होनेके पहिले (प्रागभाव); और दूसरा जब कोई वस्तु नष्ट हो जाती है (प्रध्व साभाव)। जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/१८१ अभाव चार है- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव व अत्यन्ताभाव ।
३. अभावके भेद ध. ७/२.६,४/४७६/२४ विशेषार्थ-अभाव दो प्रकारका होता है--पर्युदास
और प्रसज्या ४. प्रागभाव 4.द/१/१/१ क्रियागुणव्यपदेशाभावात् प्रागसत । =क्रिया व गुणके व्यपदेशका अभाव हानेके कारण प्रागसत् होता है। अर्थात् कार्य अपनी उत्पत्तिसे पहिले नहीं होता। आप्त मी /प.जयचन्द/१० प्रागभाव कहिए कार्य के पहिले न होना। जैन सिद्धान्तप्रवेशिका/१८२ वर्तमान पर्यायका पूर्व पर्यायमें जो अभाव
है उसे प्रागभाव कहते है। क.पा ११,१३-१४/६२०५/गा.१०४/२५० विशेषार्थ-कार्य के स्वरूपलाभ करनेके पहिले उसका जो अभाव रहता है वह प्रागभाव है।
५. प्रध्वंसाभाव वै.द /8-१/२ सदसत् ॥२॥ = कार्य की उत्पत्तिके नाश होनेके पश्चातके
अभावका नाम प्रध्वंसाभाव है। आप्त. मी./१ जयचन्द/१० प्रध्वंस कहिए कार्य का विघटननामा धर्म। फोन सिद्धान्त प्रवेशिका/१८३ अगामी पर्यायमें वर्तमान पर्यायके
अभावको प्रध्वंसाभाव कहिए। क.पा/१/१,१३-१४/६२०५/गा १०४/२५० भाषार्थ-कार्यका स्वरूपलाभके पश्चात जो अभाव होता है वह प्रध्व साभाव है।
६. अन्योन्याभाव वै.द./E-१/४ सच्चासत ॥४॥ जहा घड़ेकी उपस्थितिमें उसका वर्णन
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अभाव
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२ अभावोमे परस्पर अन्तर व फल
किया जाता है कि गौ ऊट नही और ऊट गौ नही। उनमें तादारम्याभाव अर्थात् उसमें उसका अभाव और उसमें उसका अभाव है। उसका नाम अन्योन्याभाव है। आप्त मी/प जयचन्द्र/११ अन्य स्वभाव रूप घस्तुते अपने स्वभावका
भिन्नपना याकू इतरेतराभाव कहिये। जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/१८४ पुद्गल की एक बर्तमान पर्यायमें दूसरे
पुद्गलकी वर्तमान पर्यायके अभावको अन्योन्याभाव कहते है। क पा /१/१,१३-१४/६२०५/गा.१०५/२५१ विशेषार्थ-एक द्रव्यकी एक पर्यायका उसकी दूसरी पर्यायमें जो अभाव है उसे अन्यापोह या इतरेतराभाव कहते है। (जैसे घटका पटमें अभाव )।
७. अत्यन्ताभाव वै.द /8-१/५ यच्चान्यदसदतस्तदसत् ॥५॥ उन तीनो प्रकारके अभावोके
अतिरिक्त जो अभाव है वह अत्यन्ताभाव है। आप्त मी /पं जयचन्द/११ अत्यन्ताभाव है सो द्रव्याथिकनयका प्रधान
पनाकरि है । अन्य द्रव्यका अन्यद्रव्यविषे अत्यन्ताभाव है। जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/१८५ एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्य के अभावको अत्यन्ता
भाव कहते है। क.पा.१/१,१३-१४/६२०४/गा १०५/२५१/भाषार्थ-रूगादिककास्वसमवायी पुद्गलादिकसे भिन्न जीवादिकमें समवेत होना अन्यत्रसमवाय कहलाता है । यदि इसे स्वीकार किया जाता है. अर्थात अत्यन्ताभाव का अभाव माना जाता है तो पदार्थका किसी भी असाधारणरूपमें कथन नहीं किया जा सकता है।
८. पर्युदास अभाव ध,७/२.६,४/४७६/२४ विशेषार्थ-पर्युदासके द्वारा एक बस्तुके अभाव में
दूसरी वस्तुका सद्भाव ग्रहण किया जाता है। रा वा/२/८/१८/१२२/८ प्रत्यक्षादन्योऽप्रत्यक्ष इति पर्युदास । प्रत्यक्षसे अन्य सो अप्रत्यक्ष-ऐसा पर्युदास हुआ। ९ प्रसज्य अभाव रा.वा /२/८/१८/१२२/८ प्रत्यक्षो न भवतीत्यप्रत्यक्ष इति प्रसज्यप्रतिषेधो
जो प्रत्यक्ष न हो सो अप्रत्यक्ष ऐसा प्रसज्य अभाव है। घ.७/२,६,४/४७६/२४ विशेषार्थ-प्रसज्यके द्वारा केवल अभावमात्र समझा
जाता है। क पा.१/१३-१४/६११०/२२७/१ कारकप्रतिषेधव्यापृतात् । = क्रियाके साथ निषेधवाचक 'न' का सम्बन्ध ।
१०. स्वरूपाभाव या अतद्भाव प्रसा./मू /१०६.१०८ पविभत्तपदेसत्त पुधुत्तमिदि सासणं हि वीरस्स ।
अण्णत्तमतभाषी ण तब्भय होदि कधमेग। जं दव्वं तण्ण गणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो ॥१०६॥ एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णि विट्ठो ॥१०८॥ -विभक्त प्रदेशत्व पृथक्त्व है-ऐसा वीरका उपदेश है । अतद्भाव अन्यत्व है। जो उस रूप न हो वह एक कैसे हो सकता है ॥१०६॥ स्वरूपपेशासे जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वह द्रव्य नहीं है। यह अतद्भाव है। सर्वथा अभाव अतद्भाव नहीं। ऐसा निर्दिष्ट किया गया है। प्र.सा/त.प्र./१०६-१०७ अतद्भावा ह्यन्यत्वस्य लक्षण, तत्तु सत्ता द्रव्य
योर्विद्यत एव गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावाद शुक्लोत्तरीयवदेव ॥१०६॥ यथा-एकस्मिन्मुक्ताफलखग्दाम्नि य शुक्लो गुण- स न हारो न सूत्र न मुक्ताफलं, यश्च हार सूत्र मुक्ताफल वा स न शुक्लो गुण इतीतरेतरस्याभावः स तदभावलक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्व निबन्धनभूत । तथै कस्मिन् द्रव्ये य: सत्तागुणस्तन्न द्रव्य नान्यो गुणोन पर्यायो यच्च द्रव्यमन्यो गुण पर्यायो वास न सत्तागुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभाव स तदभावलक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्व निबन्धनभूत ॥१०७॥ =अतद्भाव अन्यत्वका लक्षण है, वह तो सत्तागुण और द्रव्यके है ही. क्यो कि गुण और गुणीके
तद्भावका अभाव होता है- शुक्लत्व और वस्त्र (या हार ) की भॉति ॥१०६॥ जैले एक मोतियोकी मालामें जो शुक्ल गुण है, वह हार नही है धागा नहीं है, या मोती नहीं है. और जो हार,धागा या मोती है वह शुक्लत्व गुण नहीं है- इस प्रकार एक-दूसरेमे जो उसका अभाव' अर्थात् तद्रूप होनेका अभाव है' सो वह 'तदभाव' लक्षणवाला अतद्भाव' है,जो कि अन्यत्वका कारण है । इसी प्रकार एक द्रव्यमें जो सत्तागुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है या पर्याय नहीं है, और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है, वह सत्तागुण नहीं है। इस प्रकार एकदूसरेमें जो 'उसका अभाव' अदि तप होनेका अभाव है वह 'तदभाष' लक्षण 'अतद्भाव' है, जो कि अन्यत्वका कारण है। प्र.सा /ता वृ./१०७/१४६/२ परस्परं प्रदेशामेषेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेद
स तस्य पूर्वोक्तलक्षणप्तद्भामस्वाभावस्तदभावो भण्यते ।। अतझाव हवाशक्षणप्रयोजनादिमेद ति। - परस्पर प्रदेशोमें अभेद हानेपर भी बो यह सज्ञादिका भेद है वही उस पूर्वोक्त लक्षण रूप तबाबका अभाव या तदभाव कहा जाता है। उसको अतद्भाव भी कहते हैसज्ञा लक्षण प्रयोजन बारिसे भेद होना, ऐसा अर्थ है। ११. अभाववारका लक्षण म. अनु /२५ अभावमात्रं परमार्थवृत्ते, सा सवृति सर्व-विशेष-म्या। तस्या विशेषौ किन मन्धमोक्षी हेत्वात्मनेति त्वदनाथवाक्यम् ॥२६॥ -परमार्थ वृत्तिसे तत्त्व अभावमात्र है, और वह परमार्थ वृत्ति संवृतिरूप है । और मवृति मर्म विशेषोसे शुन्य है। उक्त अविद्यारिमका एवं सकल तात्विक विषयमा सवृति भी जो बन्ध और मोक्ष विशेष है वे हेत्वाभास हैं। "इस प्रकार यह उन (सं वित्ताद्वैतवादी बौद्धों ) का वाक्य है। (जैन दर्शन द्रव्याधिक नयसे अभावको स्वीकार नहीं करता पर पर्यायाथिकनयसे करता है।-दे उत्पाद व्ययधौव्य २/७)। २. अभावोंमे परस्पर अन्तर व फल
१. पर्यदास व प्रसज्यमें अन्तर भ्या.वि वृ/२/१२३/१५३ नयबुद्धिवशादभावौदासीन्येन भावस्य,तदौदासीन्येन चाभावस्य प्राधान्यसमर्पणे पर्युदासप्रसज्ययोविशेषस्य विकरूपनात् । -नय विवक्षाके वशसे भावकी उदासीनतासे भाव का और अभावकी उदासीनतासे अभावका प्राधान्य समर्पण होने पर पर्युदास व प्रसज्य इन दोनोमे विशेषताका विकल्प हो जाता है। अर्थात्-किसी एक वस्तुके अभाव-द्वारा दूसरी वस्तुका सद्भाव दर्शाना तो पर्यंदास है, जैसे प्रकाश का अभाव ही अन्धकार है। और वस्तुका अभाव मात्र दर्शाना प्रसज्य है, जैसे इस भूतलपर घटका अभाव है।
२. प्राक, प्रध्वंस व अन्योन्याभावोंमें अन्तर वै.द /भा./६-१/४/२७२ यह (अन्योन्याभाव) अभाव दो प्रकार के अभावसे पृथक् तीसरे प्रकारका अभाव है। वस्तुकी उत्पत्ति से प्रथम नही और और न उसके नाशके पश्चात उसका नाम अन्योन्याभाव है । यह अभाव हमेशा रहनेवाला है, क्योंकि, घडेका कपडा और कपडेका घडा होना हर प्रकार असम्भव है । वे सर्वदा पृथक्-पृथक् ही रहेगे। इस वास्ते जिस प्रकार पहिली व दूसरी तरहका अभाव । प्रागभाष और प्रध्वं साभाव) अनित्य है, यह अभाव उसके विरुद्ध नित्य है । आप्त मी/पं. जयचन्द (अष्टसहस्री के आधारपर )/११। प्रश्न-प्रागभाव, प्रध्व साभाव, इतरेतराभावमे विशेष कहा है। उत्तर-जो कार्यद्रव्य घटादिक, ताकै पहिलै ( पिड आदिक ) अवस्था थी. सो, सो तो प्रागभाव है (अर्थात घटादिकका पिण्डादिकमें प्रागभाव है) बहरि कार्यद्रव्यके पीछे जो अवस्था होय सो प्रध्व साभाव है (अर्थात घटमें पिण्ड आदिकका अभाव प्रध्व साभाव है ) । बहुरि इतरेतराभाव है. सो ऐसा नहीं है। जो दोय भावरूप वस्तु न्यारे-न्यारे युगपत दीसे
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नभाव
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अभिनिबोध
तोनिके परस्पर स्वभाव भेदकरि वाका निषेध वामैं और वाका निषेध वामैं इतरेतराभाव है। (जैसे घटका पटमें और पटका घटमें अभाव अन्योन्याभाव है।
३. अन्योन्याभाव व अत्यन्ताभावमें अन्तर वै.द./भा 18-१५/२७३ उन तीनों प्रकारके अभावोंके अतिरिक्त जो
अभाव है, वह अत्यन्ताभाव है, क्योंकि प्रागभावके पश्चात् नाश हो जाता है, अर्थात वस्तुकी उत्पत्ति होनेपर उस (प्रागभावका ) अभाव नहीं रहता। और विध्वंसाभावका नाश होनेसे प्रथम अभाव है। अर्थात जब तक किसी वस्तुका नाश नहीं हुथा तब तक उसका विध्वंसाभाव उपस्थित ही नहीं। और अन्योन्याभाव विपक्षीमें रहता है और अपनी सत्तामें नहीं रहता। परन्तु अत्यन्ताभाव इन तीनोंका विपक्षी अभाव है। अष्टसहस्री ११/पृ. १०६ तत सूक्तमन्यापोहलक्षणं स्वभावान्तरात्स्वभावब्यावृत्तिरन्यापोह इति। तस्य कालत्रयापेक्षेऽत्यन्ताभावेऽप्यभावाइतिव्याप्त्ययोगात । न हि घटपटयो रितरेतराभाष कालत्रयापेक्षः कदाचिपटस्यापि घटत्वपरिणामसंभवाद, तथा परिणामकारणसाकण्ये तदविरोधात, पुदगलपरिणामानियमदर्शनात् । न चैवं चेतनाचेतनयोः कदाचित्तादात्म्यपरिणाम', तत्त्वविरोधात् । अष्टसहस्री ११/पृ. १४४ न च किंचिस्पात्मन्येव परात्मनाप्युपलभ्यते ततः किचिस्वेष्ट तत्त्वं क्वचिदनिष्टेऽथ सत्यारमनानृपलभ्यमान' कालप्रयेऽपि तत्तत्र तथा नास्तीति प्रतिपद्यते एवेति सिद्धोऽत्यन्ताभावः। -इस प्रकार स्वभावान्तरसे स्वभावको व्यावृत्तिको अन्यापोह कहते हैं, यह लक्षण ठीक हो कहा है. यह लक्षण कालत्रय सापेक्ष अत्यन्ताभावमें भी रहता है । अतः इसमें अतिव्याप्ति दोष नहीं आता। घट और पटका इतरेतराभाव कालत्रयापेक्षी नहीं है। कभी पटका भी घट परिणाम सम्भव है, उस प्रकार के परिणमनमें कारण समुदायके मिलनेपर, इसका अविरोध है। पुद्गलोंमें परिणामका नियम नहीं देखा जाता है, किन्तु इस तरह चेतन-अचेतनका कभी भी तादात्म्य परिणाम नहीं हो सकता, क्योंकि वे दोनों भिन्न तत्व है-उनका परस्परमें विरोध है। बाप्त, मी /प. जयचन्द (अष्टसहस्रोके आधारपर) ११ इतरेतराभाव है
सो जो दोय भावरूप वस्तु न्यारे-न्यारे युगपद दीसै तिनिकै परस्पर स्वभाव भेदकरि वाका निषेध वामैं और वाका निषेध वामैं इतरेतराभाव है। यह विशेष है कि यह तो पर्यायार्थिक नयका विशेषपणा प्रधानकरि पर्यायनिके परस्पर अभाव जानना । बहुरि अत्यन्ताभाव है सो द्रव्याथिकनयका प्रधानपणाकरि है। अन्य द्रव्पका अन्य द्रव्य विर्षे अत्यन्ताभाव है। ज्ञानादिक तौ काहू काल विर्षे पुदगल में होय नाहीं। बहुरि रूपादिक जोव द्रव्यमै काहु काल विर्षे होइ नाहीं। ऐसे इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव ये दोऊ (है)। * अन्योन्याभाव केवल पुदगल मे ही होता है
-दे० अभाव २/३ ४. चारों अभावोंको न मानने में दोष आप्त मो. म् १०,११ कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य निह्नवे । प्रध्वसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्तता बजेद ॥१०॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे। अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ॥११॥ -प्रागभावका अपलाप करनेपर कार्यद्रव्य घट पटादि अनादि हो जाते है। प्रध्वंसाभावका अपलाप करनेपर घट पटादि कार्य अनन्त अर्थात् अन्तरहित अविनाशी हो जाते हैं ॥१०॥ इतरेतराभावका अपलाप करने पर प्रतिनियत व्यकी सभी पर्याये सर्वात्मक हो जाती हैं। रूगदिकका स्वसमवायी पुद्गलादिकसे भिन्न जीवादिकमें समवेत होना अन्यत्रसमवाय कहलाता है । यदि इसे स्वीकार किया जाता है, अर्थात यदि अत्यन्ताभावका अभाव माना जाता है तो पदार्थका
किसी भी असाधारण रूपसे कथन नहीं किया जा सकता ॥११॥ (आशय यह है कि इतरेतराभावको नहीं माननेपर एक द्रव्यको विभिन्न पर्यायों में कोई भेद नहीं रहता-सब पर्याये सबरूप हो जाती है। तथा अत्यन्ताभावको नहीं माननेपर सभी वादियोके द्वारा माने गये अपने-अपने मूल तत्त्वोमें कोई भेद नहीं रहता-एक तत्त्व दूसरे तत्त्वरूप हो जाता है। ऐसी हालतमें जीवद्रव्य चैतन्यगुणकी अपेक्षा चेतन ही है और पुदगल द्रव्य अचेतन हो है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।) (क. पा. १/७२०५/गा. १०४.१०५/२५०)। ५. एकान्त अभाववादमें दोष आप्त. मी.मू./१२ अभावैकान्तपक्षेऽपि भावापह्नववादिनाम् । बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधग-दूषणम् ॥१०६ -जो वादी भावरूप वस्तुको सर्वथा स्वीकार नहीं करते है, उनके अभावैकान्त पक्षमें भी बोध अर्थात् स्वार्थानुमान और वाक्य अर्थात परार्थानुमान प्रमाण नहीं मनते हैं। ऐसी अवस्थामें वे स्वमतका साधन किस प्रमाणसे करेंगे,
और परमतमें दूषण किस प्रमाणसे देंगे। अभाव शक्ति-दे, भाव । अभिघट-१. आहारका एक दोष-दे. आहार II/४/४ । २. वसति
का एक दोष-दे. वसति । अभिचन्द्र-(म पु./३/१२६) दश कुलकर (विशेष दे. शलाका
पुरुषा)। अभिजित एक नक्षत्र । दे. नक्षत्र। अभिधान- सं टी./१// यदेव व्याख्येयसूत्रमुक्तं तदेवाभिधानं वाचकं प्रतिपादक भण्यते । -जो व्याख्यान किये जाने योग्य सूत्र कहे गये हैं, वही अभिधान अर्थात् वाचक या प्रतिपादक कहलाते हैं। अभिधानचिन्तामणि कोश-दे. शब्दकोश। अभिधाननिबंधननाम-ध. १५/२/५ जो णामसद्दो पवुत्तो संतो
अप्पाणं चेक जाणावेदि तमभिहाणणिबंधणं णाम । -जो सज्ञा शब्द प्रवृत्त होकर अपने आपको जतलाता है, वह अभिधान निवन्धन (नाम) कहा जाता है। अभिधानमल-दे. मल। अभिधेय-द्र.सं टी/१/७/६ अनन्तज्ञानाद्यनन्तगुणाधारपरमात्मादिस्वभावोऽभिधेयो वाच्यः प्रतिपाद्यः।-अनन्तज्ञानादि अनन्तगुणों का आधार जो परमात्मा आदिका स्वभाव है, वह अभिषेय है, अर्थात् वाच्य या प्रतिपाद्य अथवा कथन करने योग्य विषय है। अभिनंदन-द्र स.टी/१३ अभिनन्दनमभिवृद्धिः। -अभिनन्दन ___ अर्थात अभिवृद्धि । अभिनन्दन (म.पु १५० श्लो.स.) पूर्वके तीसरे भवमें मंगलावती देश का राजा महाबल था ।२-३॥ दूसरे भवमें विजय नामक विमानमें अहमिन्द्र हुए ॥१३॥ और वर्तमान भवमें चौथे तीर्थकर हुए। आप अयोध्या नगरीके राजा स्वयंवरके पुत्र थे ॥१६-१६॥ एक हजार राजाओंके सग दीक्षा धारण कर ली। उसी समय मन.पर्यायज्ञानकी प्राप्ति हो गयी १४६-५३॥ अन्त में मोक्ष प्राप्त किया ६५६६॥ (विशेष दे तीर्थकर ५)। अभिनिबोध-स सि./१/१३/१०६ अभिनिमोधनमभिनिमोधः।
-साधनके साध्यका ज्ञान अभिनिबोध ज्ञान है। ध.६/१,६-१,१४/१५ अहिमुह-णियमिय अस्थावबोहो अभिणियोहो। थूल-बढमाण-अर्ण तरिद अस्था अहिमुहा। चविखदिए रूवं णियमिदं, सोदिदिए सद्दो, पाणिदिए गधो, जिभिदिए रसो, फासिदिए फासो,
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अभिनिवेश
कोईदिए दिसुदादत्था नियमिदा अहिमुह-नियमि जो मोदी सोनोधो अहिगिनोध एव जाहिनियो धियणा । • अभिमुख और नियमित अर्थके अत्रबोधको अभिनिबोध कहते हैं। स्थूल वर्तमान और अनन्तरित अर्थात व्यवधान रहित अर्थोंको अभिमुख कहते हैं। रिडियमें रूप नियमित है. श्रोत्रेन्द्रिय सम्म मान्द्रियगन्ध, जिये द्रियमें रस, स्पर्शनेन्द्रियमें स्पर्श और
इन्द्रिय अर्थात् मनमें दृष्ट, श्रुत और अनुभूत पदार्थ नियमित हैं। इस प्रकार अभिमुख और नियमित पदार्थोंमें जो मोम होता है, वह अभिनिबोध है। अभिनिबोध हो आभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है । ( और भी दे. मतिज्ञान १/१/२) ।
* स्मृति आदि ज्ञानोंकी कचित् एकार्थताकी सिद्धिदे मतिज्ञान ३। अभिनिवेशी/१७ में उधृत ममेदमित्यभिनिवेश । दास्पदनात्मीयेषु स्वमुखेषु कर्मजनितेषु आत्मोयाभिनिवेशो ममकारो मया यथा देह । 'यह मेरा है' इस भावको अभिनिवेश कहते है 'शाश्वत रूप से अनात्मीय तथा कर्मजनित स्वशरीर आदि द्रव्यो में आत्मीयपनेका भाव अभिनिवेश कहलाता है - जैसे 'यह शरीर मेरा है' ऐसा कहना ।
सस्तो / टी / १२/२६ अहमस्य सर्वस्य स्त्र्यादिविषयस्य स्वामीति क्रिया अह क्रिया । ताभि प्रसक्त' संलग्न प्रवृत्तो वा मिथ्या असत्यो, अध्यवसायो, अभिनिवेश । सैव दोषो । मैं इन सर्व स्त्री आदि विषयोंका स्वामी हूँ, ऐसी क्रियाको अहं क्रिया कहते है । इनसे प्रसक्त या सलग्न प्रवृत्ति मिथ्या है, असत्य है, अध्यवसाय है, अभिनिवेश है। वह ही महान् दोष है । अभिन्न — एक ग्रह । - दे.
ग्रह ।
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अभिन्नकारकी व्यवस्था क दे. १ । अभिन्नपूर्वी अभि दश पूर्वी व अभिन्न चतुर्दश पूर्वी दे.
केली ।
-
अभिमन्यु पापु // श्लो नं०- शुभद्रा रामोसे अर्जुनका पुत्र
था । १६/१०१|| कृष्ण जरासन्ध युद्ध में अनेकोको मारा । १६/१७८ ॥ अन्तमें कौरवो के मध्य घिर जानेपर सन्यास मरण कर देवत्व प्राप्त किया । २० / २६-३६ ॥ अभिमान-ससि./४/२१/२३२ मानषायादुत्पन्नोऽहं कारोऽभि
मानः । =मान कषायके उदयसे उत्पन्न अहंकारको अभिमान कहते हैं । ( रा वा /४/२१/४/२३६) ।
अभियोग (देव) - रा. वा. /४/४/६/२१३/१० यथेह दासा वाहनादि - व्यापारं कुर्वन्ति तथा तः योग्या वाहनादिभावेनोपकुर्वन्ति । - जिस प्रकार यहाँ दास जन वाहनादि व्यापार करते है, उसी प्रकार वहाँ (देवो में) अभियोग्य नामा देव वाहनादि रूपसे उपकार करते है (.स २/४/१४२) (३/६८) (म.पु. २२/२३) त्रिभाषा / २२४) |
रावा /४/१३/६/२२०/१० कर्म हि पिते ततस्तेषा पतिपरिणति कर्ममा विचित्रता सेकता है। इसलिए गतिपरिणतिमुखेन ही उनके कर्मका फल जानना चाहिए।
* देवके परिवारोमे इन देवोंका निर्देशादि
-- दे. भवनवासी आदि भेद २. इन देवका गमनागमन अच्युत स्वर्ग पर्यन्त ही है आ./१९३३माभिजगा देवीओ चावि रणोति और अभियोग्य जातिके देवर-अत स्वर्ग
कद
है।
अभीज्ञानपयोग
अभियोगी भावना – (भ.आ./ /.५) मताभियोगको दुगदीयम्मं पउ जदे जो हु । इडिटरससादहेदु अभिओग भावणं कुणइ ॥१८२॥ = मन्त्र प्रयोग करना, कौतुककारक अकाल वृष्टि आदि करना तथा वृद्धि, रस व सात गौरवयुक्त अन्य इसी प्रकारके कार्य करना मुनिके लिए अभियोगी भावना कहलाती है । अभिलापन न वि /वृ/१/१३५ /२ अभिलपनमभिधेयप्रतिपादन म् अभिलाप । - अभिलपन अर्थात अभिधेयका प्रतिपादन करना अभिलाप है ।
अभिलाषा मध / ००५-७०० न्यायादक्षार्थ कोशाया हा नान्यत्र जाति ॥२०५॥ नैव हेतुरतिव्याप्तेरारादाक्षीणमोहिषु । वयस्यनिरतापतेर्भवेन्मुक्तेरसम्भव 1000] न्यायानुसार इन्द्रियों के विषयोकी अभिलाषा के सिवाय कभी भी ( अन्य कोई इच्छा ) अभिलाषा नहीं कहलाती ॥७०५ ॥ इच्छाके बिना क्रियाके न मानने से सोमकपाथ और उसके समीप के (११ १२.१३) गुणस्थानों में अनिच्छापूर्वक क्रियाके पाये जानेके कारण उक्त लक्षण (क्रिया करना मात्र अभिलाषा है) में अतिव्याप्ति नामका दोष आता है। क्योकि यदि उक्त गुणस्थानो में क्रियाके सद्भावसे इच्छाका सद्भाव माना जायेगा तो बन्धके नियका प्रसंग आनेसे मुक्तिका होना भी असम्भव हो जायेगा ||७०७ ॥ तात्पर्य है इन्द्रिय भोगोकी इच्छा ही अभिलाषा है । मन, वचन, कायकी क्रिया परसे उस इच्छा का सद्भाव या असद्भाव सिद्ध नहीं होता।
* अभिलाषा या इच्छाका निषेध, राम अभिव्यक्ति दे. व्यक्ति ।
अभिषव- स सि / ७/३५ / ३७१ द्रवो वृष्यो वाभिषव । द्रव, वृष्य और अभियन इनका एक अर्थ है (रा.बा./७/२५/५/६६८) दे ।
अभिहत
पूजा
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अभिषेक - वसति विषयक एक दोष-दे वसति । अभीक्ष्णज्ञानोपयोग - स. सि / ६ / २४ / ३३८ जीवादिपदार्थ स्वतत्त्व
=
विषये सम्यग्ज्ञाने नित्यं युक्तता अभीक्ष्णज्ञानोपयोग | = जीवादि पदार्थरूप स्वस्वविषयक सम्यग्ज्ञानमें निरन्तर लगे रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है (सा.भटो / ७७/२२१/६१
राना / ६ / २४/४/५२१ मध्यादिविज्ञान जीवादिपदार्थ स्वतश्वविषय प्रत्यक्ष परोक्षलक्षणम् अज्ञाननिवृत्त्यव्यवहितफल हिताहितानुभयप्राप्तिपरिहार पेक्षाव्यवहितफल यत्, तस्य भावनायां नित्ययुक्तता ज्ञानोपयोग | =जीवादि पदार्थोंको प्रत्यक्ष और परोक्षरूपसे जाननेवाले मति आदि पाँच ज्ञान है। अज्ञाननिवृत्ति इनका साक्षात् फल है तथा हितप्राप्ति अहितपरिहार और उपेक्षा व्यवहित या परम्परा फल है । इस ज्ञानकी भारनामे सदा तत्पर रहना अभीज्ञानोपयोग है। (1/21/3)
घ. ८/३,४१/११/४ अभिक्वणमभिक्खण णाम बहुबारमिदि भणिद होदि । जोगति भावसुखदे I तित्थयरणामकम्म बज्झइ । अभीक्ष्णका अर्थ बहुत बार है । ज्ञानोपयोगसे भावश्रुत अथवा द्रव्यश्रुतकी अपेक्षा है। उन (द्रव्य व भावश्रुत) में बारबार उद्यत रहनेसे तीर्थंकर नाम कर्म बन्धता है ।
२. अभीक्ष्णज्ञानोपयोगकी १५ भावनाओके साथ व्याप्ति सनिदादीहि विणा एदिस्से अवन्तीदो
४१११
दर्शन विशुद्धता अदिक (अन्य १५ भावनाओ के बिना यह अभी ज्ञानोपयुता मन नहीं की।
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* एक अभीक्ष्णज्ञानोपयोगसे ही तोर्थकरत्वका बन्ध सम्भव है --~~~दे, भावना/२ ।
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अभूतार्थ
अभ्युत्थान अभूतार्थ—स.सा., जयचन्द/११ जिसका विषय विद्यमान न हो,
स च स्मतिहेतु समान इति। -एक विषय में मार मार ज्ञान होनेसे या असत्यार्थ हो उसे अभूतार्थ कहते है। (गधेके सोग विद्यमान न
जो संस्कार उत्पन्न होता है, उसीको अभ्यास कहते है। यह भी होने के कारण अभूतार्थ है और घट पट आदि सयोगो पदार्थ असत्यार्थ स्मरणका कारण है। होनेके कारण अभूतार्थ हैं)।
२. मोक्षमार्गमें अभ्यासका महत्त्व अभूतोद्भावन-दे. असत्य ।
स.श/मू./३७ अविद्याभ्याससंस्काररवशक्षिप्यते मनः। तदेवज्ञानसस्कार अभेद-न वि व /२/३६/६६ अभेद तिर्यक्सामान्यम् । -तिर्यक
स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ॥३७॥ - शरीरादिकको शुचि स्थिर और आत्मीय
मानने रूप जो अविद्या या अज्ञान है उसके पुन' पुन, प्रवृत्तिरूप सामान्य अर्थात् द्रव्यों व गुणोकी युगपत् वृत्ति ही अभेद है।
अभ्याससे उत्पन्न हुए सस्कारो द्वारा मन स्ववश न रहकर विक्षिप्त * अन्य विषय-दे भेद ।
हो जाता है। वही मन आत्म देहके भेद विज्ञानरूप सस्कारों के द्वारा अभेद वत्ति-रा वा /४/४२/१४/२५३/१ द्रव्यार्थत्वेनाश्रयेण तदव्य- स्वय ही आत्मस्वरूपमें स्थिर हो जाता है। तिरेकादभेदवृत्ति । -द्रव्याथिक नयके आश्रयसे द्रव्य गुण आदिका
मो.पा.टी /६३/३५१ शनै शनै आहरोऽल्प वियते । शनैः शनैरासन व्यतिरेक न होनेके कारण अभेद वृत्ति है । (स भ त १६/१३) ।
पद्मासनं उद्भासन चाभ्यस्यते। शनैः शन. निद्रापि स्तोका स्तोका
क्रियते एकस्मिन्नेव पावें पार्श्व परिवर्तनं न क्रियते। एव सति अभेद स्वभाव-आ.५/६ गुणगुण्याद्य कस्वभावरवादभेदस्वभाव ।
सर्वोऽप्याहारस्त्यक्तु शक्यते । आसनं च कदाचिदपि त्यक्त(न) शक्यते। -गुण व गुणी आदि कमें एकपना होनेके कारण अभेद स्वभाव है।
निद्रापि कदाचिदप्यकत्त शक्यते। अभ्यासात कि न भवति । तस्मा(न.च वृ/६२)।
देव कारणास्केवलिभिः कदाचिदपि न भुज्यते। पद्मासन एव वर्षाणां अभेदोपचार-रावा./४/४२/१४/२५३/१ पर्यायार्थ त्वेनाश्रयेण परस्पर सहस्ररपि स्थीयते, निद्राजयेनाप्रमत्तै यते, स्वप्नो न दृश्यते। - व्यतिरेकेऽपि एकत्वाध्यारोप ततश्चाभेदोपचार' । = पर्याथिक
धीरे धीरे आहार अल्प किया जाता है, धीरे धीरे पद्मासन या खगानयके आश्रयसे विभिन्न पर्यायोंमें परस्पर व्यतिरेक होते हुए भी उनमें
सन का अभ्यास क्यिा जाता है। धीरे धीरे ही निद्राको कम किया जाता एकत्वका अध्यारोप करना अभेदोपचार है। (स.भ त./११/१३)।
है। करवट बदले बिना एक ही करवटपर सोनेका अभ्यास किया अभेद्य-ज.प/प्र १०५ -Indivisiblet
जाता है । इस प्रकार करते करते एक दिन सर्व ही आहारका त्याग
करने में समर्थ हो जाता है, आसन भी ऐसा स्थिर हो जाता है, कि अभोक्तृत्व नय-दे. नय 1/५ ।
कभी भी न छूटे। निद्रा भी कभी न आये ऐसा हो जाता है। अम्यास अभोक्तत्व शक्ति-स.सा /आ./परि /शक्ति. नं २२ सकलकर्म
से क्या क्या नहीं हो जाता है। इसीलिए तो केवली भगवान कभी कृतज्ञातृमात्रातिरिक्तपरिणामानुभवोपरमात्मिका अभोक्तत्वशक्ति।
भी भोजन नहीं करते, तथा हजारो वषो तक पद्मासनसे ही स्थित रह का समस्त कर्मों से किये गये, ज्ञातृत्वमात्रसे भिन्न परिणामों के अनुभवका
जाते है। निद्राजयके द्वारा अप्रमत्त होकर रह सकते है, कभी स्वप्न (भक्तृित्वका) उपरमस्वरूप अभोक्तृत्व शक्ति है।
नहीं देखते । अर्थात यह सब उनके पूर्व अभ्यासका फल है। अभ्यंतर-मसि /8/२०/४३६ कथमस्याभ्यन्तरत्वम् । मनोनियम- ३. ध्यान सामायिकमें अभ्यासका महत्त्व नार्थत्वात् । - प्रश्न-इस तपके अभ्यन्तरपना कैसे है। उत्तर
ध. १३/५४,२६/गा २३-२४/६७-६८ एगवारेणेव बुद्धीए थिरत्ताणुववत्तीदो मनका नियमन करनेवाला होनेसे इसे आभ्यन्तर तप कहते है ।
एत्थ गाहा-पुवकयम्भासो भावणाहिज्माणस्स जोग्गदमुवेदि । ताओ
य णागद सणचरित्त-वेराग्गजणियाओ ॥२३॥ णाणे चिन्भासो कुणाह अभ्यंतर इंद्रिय-दे इन्द्रिय/१॥
मणोबाइण विसुद्धि च । णाणगुणमणियसारो तो जमायइ णिश्चलमअभ्यंतर कारण-दे. कारण II |
ईओ ॥२४॥ = केवल एक बारमे ही बुद्धिमें स्थिरता नहीं आती। इस अभ्यस्त-गणितकी गुणकार विधिमें-गुण्यको गुणकार-द्वारा विषयमें गाथा है-जिसने पहिले उत्तम प्रकारसे अभ्यास किया है वह
पुरुष ही भावनाओं द्वारा ध्यानकी योग्यताको प्राप्त होता है और वे अभ्यस्त किया गया कहते है । दे गणित 11/१/५।।
भावनाएँ ज्ञान दर्शन चारित्र और वैराग्यसे उत्पन्न होती है ॥२३॥ अभ्याख्यान-रावा./१/२०/१२/७५/१२ हिसादे कर्मण कर्तृविर
जिसने ज्ञानका निरन्तर अभ्यास किया है वह पुरुष ही मनोनिग्रह तस्य विरताविरतस्य वायमस्य कर्तेत्यभिधानम् अभ्याख्यानम् । और विशुद्धिको प्राप्त होता है क्योकि जिसने ज्ञानगुणके बलसे सार-हिसादि कार्य करके हिंसासे विरक्त मुनि या श्रावकको दोष लगाते भूत वस्तुको जान लिया है निश्चल मति हो ध्यान करता है ॥२४॥ हुए 'यह इसका कार्य है, अर्थात् यह कार्य इसने किया है' ऐसा कहना सा.ध./५/३२ सामायिक सुदु साध्य प्याभ्यासेन साध्यते। निम्नीकरोति अभ्याख्यान है। (ध /१/१,२/११६/१२) (ध६/४,१,४५/२१७/३) वाबिन्दु. कि नाश्मानं मुह पतन् । ३२॥ - अत्यन्त दु साध्य भी सामा(गो.जी /जी.प्र./३६६/७७८/१६)।
यिक व्रत अभ्यासके द्वारा सिद्ध हो जाता है, क्यो कि, जैसे कि बार ध, १२/४,२,८,१०/२८५/४ क्रोधमानमायालोभादिभि परेष्वविद्यमान- बार गिरने वाली जलकी बन्द क्या पत्थरमें गड्ढा नहीं कर दोषोद्भावनमभ्याख्यानम्। -क्रोध मान माया और लोभ आदिके
देती ॥३२॥ कारण दूसरोमें अविद्यमान दोषोंको प्रगट करना अभ्याख्यान कहा
अन.ध /८/०७/८०५ नित्येनेत्थमथेतरेण दुरितं निर्मूलयन् कर्मणा, योsजाता है।
भ्यालेन विपाचयत्यमलयन् ज्ञानं त्रिगुप्तिश्रित । स प्रोद्बुद्धनिसर्गअभ्यागत-मा ध /टो /५/४२ में उद्धृत तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे
शुद्ध परमानन्दानुविद्धस्फुरद्विश्वाकारसमग्रबोधशुभगं कैवल्यमास्तित्यक्ता येन महात्मना। अतिथि त विजानीया छेषमभ्यागत विदुः । ध्नुते ॥७७॥ नित्य और नैमित्तिक क्रियाओं के द्वारा पापकर्मों का -तिथि पर्व तथा उत्सव आदि दिनोका जिस महात्माने त्याग किया निर्मूलन करते हुए और मन वचन कायके व्यापारों को भले प्रकार है, अर्थात सब तिथियाँ जिनके समान है, उसे अतिथि कहते है, निग्रह करके तीनो गुप्तियोके आश्रयसे ज्ञानको निर्मल बनाता है, वह और शेष व्यक्तियोंको अभ्यागत कहते है।
उस कैवल्य निर्वाणको प्राप्त कर लेता है। अभ्यास-न्या सू./भा /३-२/४३ अभ्यासस्तु समाने विषये ज्ञाना
अभ्युत्थान-प्र.सा/ता वृ/२६२ अभिमुखगमनमभ्युत्थानम् । - नामभ्यावृत्तिरभ्यासजनित. संस्कार आत्मगुणोभ्यासशब्देनोच्यते विनयपूर्वक मुनिके सम्मुख जाना अभ्युत्थान है । (विशेष दे.विनय)।
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अभ्युदय
१३२
અમૂહ अभ्यदय-२ क श्रा./पू /१३५ पूजार्थाज्ञैश्वर्यंबलपरिजनकामभोग- अमिततेज-म पु./६२/श्लो.नं.-अर्ककीर्तिका पुत्र था ॥१५२॥ भूयिष्ठ । अतिशयितभुवनमद्भुतमभ्युदय फलति सद्धर्म. ॥१३५॥ अशनिघोष द्वारा बहन सुतारा चुराये जानेपर महाज्वाला विद्या - सल्लेखनादिसे उपार्जन किया हुआ समीचीन धर्मप्रतिष्ठा धन सिद्ध कर अशनिघोषको हराया ॥२६८-८०॥ अनेको विद्याएँ सिद्ध की आज्ञा और ऐश्वर्यसे तथा सेना नौकर-चाकर और काम भोगोकी और भोगोके निदान सहित दीक्षा ले तेरहवें स्वर्ग में देव हुआ बहुलतासे लोकातिशयी अद्भुत अभ्युदयको फलता है । (लौकिक सुख) ॥३८७-४११॥ यह शान्तिनाथ भगवान्का पूर्व का नवमां भव है। ध.१/१.१.१/५६॥ तत्राभ्युदयसुख नाम सातादिप्रशस्तकम-तीवानभागो अमितसेन-पुन्नाटसंघकी गुर्वावलीके अनुसार आप आचार्य जयदयजनितेन्द्रप्रतीन्द्र-सामानिकत्रायस्त्रिशदादिदेव-चक्रवर्तिमलदेवना
सेन के शिष्य तथा कीर्तिषेण के गुरु थे। समय-वि. ८००-८५० (ई. रायणार्ध मण्डलीक-मण्डलीक-महामण्डलीक - राजाधिराज-महाराजा
७४३-७६३)-दे. इतिहास/७/८ । धिराज-परमेश्वरादि-दिव्यमानुषसुखम् । -साता वेदनीय प्रशस्त कर्म प्रकृतियोंके तीब अनुभागके उदयसे उत्पन्न हुआ जो-इन्द्र, प्रतीन्द्र,
अमुख मंगल-दे. मगल । सामानिक, त्रायस्त्रिंश आदि देव सम्बन्धी दिव्य सुख; और चक्र- अमूढदृष्टिवर्ती, बलदेव, नारायण, अर्धमण्डलीक, मण्डलीक, महामण्डलीक, राजाधिराज, महाराजाधिराज, परमेश्वर (तीर्थंकर) आदि सम्बन्धी
. अमूढदृष्टिका निश्चय लक्षणमानुष सुखको अभ्युदय सुख कहते है । (ध १/१,१,१/गा.४५/५८) ।
स.सा /मू /२३२-जो हवइ अम्मूढो चेदा सद्दिठि सवभावेषु । सा खलु अभ्युपगमसिद्धान्त-दे सिद्वान्त ।।
अमूढदिठ्ठी सम्मादिठी सुणेयव्यो ॥२३२॥ जो चेतयिता समस्त अभ्र-सौधर्म स्वर्गका २१वॉ पटल व इन्द्रक। -दे. स्वर्ग//३ ।
भावोमें अमूढ है। यथार्थ दृष्टिवाला है, उसको निश्चयसे अमूढष्टि
सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । (स सा /आ.२३२)। अमम-काल-विषयक एक प्रमाण --दे गणित /१/४।
रा.वा /६/२४/१/५२६/१२ "बहुविधेषु दु यदर्शनवर्मसु तत्त्ववदाभासअममांग-काल विषयक एक प्रमाण - दे गणित 1/१/४ ।
मानेषु युक्तयभावं परीक्षाचक्षुषा व्यवसाय्य विरहितमोहता अमूढ
दृष्टिता-बहुत प्रकारके मिथ्यावादियोके एकान्त दर्शनो में तत्त्व बुद्धि अमरप्रभ-यह वानर वंश का संस्थापक वानरवंशी राजा था।
और युक्तियुक्तता छोडकर परीक्षारूपी चक्षुद्वारा सत्य असत्यका दे इतिहास/१०/१३।
निर्णय करता हुआ मोह रहित होना अमूढदृष्टिता है। अमर्यादित -१ अमर्यादित भोजन-दे. भक्ष्याभक्ष्य/२/४ । २ भक्ष्य
द्र सं वृ /टी/११/१७३/६ निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारमूढष्टिगुणस्य पदार्थों की मर्यादाएँ-दे, भक्ष्याभक्ष्य ११७।।
प्रसादेनान्तस्तत्त्वबहिस्तत्त्वनिश्चये जाते सति समस्तमिथ्यात्वअमलप्रभ-भूतकालीन नवम तीर्थंकर-दे, तीर्थकर ।
रागादिशुभाशुभसंकल्प-विकल्पेष्टात्मबुद्धिमुपादेयबुद्धि हितबुद्धि अमात्य---त्रि.सा /टो./६८३ अमात्य कहिए देशका अधिकारी।
ममत्वाभाव त्यक्त्वा निगुप्तिरूपेण विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजात्मनि
यन्निश्चलावस्थान तदेवामूढदृष्टित्वमिति ।" निश्चयनयसे अमावस्या-ति.प./७/२११-२१२ ससिविबस्स दिणं पडि एक्केक्क
व्यवहार अमूढदृष्टिगुणके प्रसादसे जब अन्तरंग और बहिर ग तत्त्वपहम्मिभागमेक्केक्कं । पच्छादेदि हु राहू पण्णरसकलाओ परि- का निश्चय हो जाता है, तब सम्पूर्ण मिथ्यात्व रागादि शुभाशुभ यत ॥२१॥ इय एक्केक्कलाए आवरिदाए खु राहूबिबेणं । चदेवककला सकल्प विकल्पोमें इष्ट बुद्धिको छोडकर त्रिगुप्तिरूपसे विशुद्ध ज्ञानमग्गे जरिस दिस्सैदि सो य अमवासो ॥२१२॥ -राहु प्रतिदिन दर्शनस्वभावी निजात्मामे निश्चल अवस्थान करता है, वही अमूढ़(चन्द्रमाके ) एक एक पथमें पन्द्रह कला पर्यन्त चन्द्रबिम्बके एक एक दृष्टिगुण है। भागको आच्छादित करता है ॥२११। इस प्रकार राहूबिम्बके द्वारा
२. अमूढदृष्टिका व्यवहार लक्षण एक एक कलाओंके आच्छादित हो जानेपर जिस मार्गमे चन्द्रमा की एक ही कला दिखती है वह अमावस्या दिवस होता है ॥२१२॥
मू. आ/२५६ लोइयवेदियसामाइएमु तह अण्णदेवमूढत्तं । च्चा विशेष दे. ज्योतिषी/२८।
दसणधादी ण य कायव्वं ससत्तीए ॥२५६॥ = मूढताके चारभेद हैअमितगति-१. माथुर संघकी गुर्वावलीके अनुसार (दे. इतिहास लौकिक मूढता, वैदिक मूढता, सामायिक मूढता, अन्यदेवतामूढता
इन चारोको दर्शनघातक जानकर अपनी शक्तिकर नहीं करना ७/११) आप देवसेनके शिष्य तथा नेमिषेण के गुरु थे। कति
चाहिए। (पु.सि उ/p/१४) । योगसार. समय-वि.६८०-१०२० (ई ११३-६६३)। (सुभाषित
र.क.श्रा/१४ कापये पथि दुखानां कापथस्थेऽत्यसम्मति । असपृक्तिरनु रत्नसंदोहकी प्रशस्ति), (पप्र./प्र.१२१ में A.N. Up.) (ती /२/
रकी तिरमूढा दृष्टिरुच्यते ॥१४- कुमार्ग व कुमार्गियोमें मनसे सम्मत २८४ )। २ (सुभाषित रत्न संदोहको प्रशस्ति )-माथुर संघकी
न होना, कायसे सराहना नही करना, वचनसे प्रशंसा नहीं करनी गुर्वावली के अनुसार आप अमितगति प्रथम के शिष्य माधवसेनके शिष्य
सो अमूढदृष्टिनामा अग कहा जाता है। थे। आप मुञ्जराजाके राज्यकाल में हुए थे। कतियॉ-१. पंच सग्रह
द्र सं/टी/४१/१७३/५ दृष्टिभिर्यप्रणीतं-- अज्ञानिजनवित्तचमत्कारो संस्कृत (वि. १०७३), २. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ३. चन्द्रप्रज्ञप्ति, ४ सार्द्ध
त्पादकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च योऽसौ मूढभावेन धर्मबुद्ध्या तत्र रुचि भक्ति द्वय द्वोपप्रज्ञप्ति, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति; ६ धर्म परीक्षा, ७ सामायिक
न कुरुते स एव व्यवहारोऽमूढदृष्टिरुच्यते। कुदृष्टियो के द्वारा बनाये पाठ;८ सुभाषित रत्नसंदोह, भगवती आराधनाके संस्कृत श्लोक
हुए, अज्ञानियोके चित्तमें विस्मयको उत्पन्न करनेवाले रसायनादिक १०. अमितगति श्रावकाचार । समय वि १०४०-१०८० (ई. १८३
शास्त्रोको देखकर या सुनकर जो कोई मूढभावसे धर्मबुद्धि करके १०२३) । का अ/प्र.३५/A.N.Up ); (सुभाषित रत्न सन्दोह/प्र.
उनमें प्रीति तथा भक्ति नहीं करता है उसको व्यवहारसे अमूढपं. पन्नालाल ); (यो.सा/अ/प्र २ प. गजाधरलाल), (अ.ग श्रा/प्र.
दृष्टि कहते है। पं. गजाधरलाल), (जै/१/३८०-३८१), (ती./२/३८४); (दे
प.ध /उ /५८६-५६५,५६६,७७५अतत्त्वेतत्त्वश्रद्धान मूढदृष्टि स्वलक्षणात् । इतिहास/७/११)।
नास्ति सा यस्य जीवस्य विख्यात. सोऽस्त्यमूढदृक् ३५८३॥ अदेवे अमितगति श्रावकाचार - आ. अमितगति (ई ६८३-१०२३)
देवबुद्धि स्यादधर्मे धर्मधी रिह। अगुरौ गुरुबुद्धिर्याख्याता देवादिद्वारा संस्कृत छन्दोमें रचित ग्रन्थ है। इसमें १५ परिच्छेद है और मूढता ॥५६॥ कुदेवाराधन कुर्यादै हिकश्रेयसे कुधी । मृषालोकोपचाकुल १३५२ पद्य है। (दे अमितगति)
रत्वादश्रेया लोकमूढता ॥६६॥ देवे गुरौ तथा धर्मे दृष्टिस्तत्त्वार्थ
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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अमूर्त
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अरति
दशिनी। ख्याताऽप्यमूढदृष्टिः स्यादन्यथा मूढदृष्टिता ॥७७५-मूढ दृष्टि लक्षणकी अपेक्षासे अतत्त्वोंमें तत्त्वपनेके श्रद्धानको मूढदृष्टि कहते है। वह मूढदृष्टि जिस जीवको नही है सो अमूढदृष्टिवाला प्रगट सम्यग्दृष्टि है ॥५८६॥ इस लोकमें जो कुदेव है, उनमें देवबुद्धि, अधर्ममें धर्मबुद्धि, तथा कुगुरुमें गुरुबुद्धि होती है वह देवादिमूढ़ता कहने में आती है ॥५६॥ इस लोक सम्बन्धी श्रेयके लिए जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादेवों की आराधना करता है, वह मात्र मिथ्यालोकोपचारवत् करानेमें आयी होनेसे अकल्याणकारी लोकमूढता है ॥५६॥ देवमें, गुरुमें और धर्ममें समीचीन श्रद्धा करनेवाली जो दृष्टि है वह अमूढदृष्टि कहलाती है और असमीचीन श्रद्धा करनेवाली जो दृष्टि है वह मुढदृष्टि है ॥७७५॥ ( स. सा/२३६/ पं. जयचन्द ) ( द. पा/पं. जयचन्द/२) ३. कुगुरु आदिके निषेधका कारण अन, ध/२/८५/२११ सम्यकत्वगन्धकलभ' प्रबलप्रतिपक्षकरीटसघट्टम। कुर्वन्नेव निवार्य: स्वपक्ष कल्याणमभिलषता ॥८॥-जिस प्रकार अपने यूथको कुशल चाहनेवाला सेनापति अपने यूथके मदोन्मत हाथीके बच्चेको प्रतिपक्षियोके प्रबल हाथीसे रक्षा करता है, क्योंकि वह बच्चा है। बडा होने पर उस प्रबल हाथोका घात करने योग्य हो जायेगा तब स्वयं उसका घात कर देगा। ऐसे ही पहिली भूमिकामें अन्यदृष्टिके साथ भिडनेसे अपनेको बचाये।
* कुगुरु आदिकी विनयका निषेध-दे. विनय/४ ।
* देवगुरु धर्म मूढ़ता-दे. मूढता। अमूर्त- गणित सम्बन्धी अर्थ (ज. प/प्र. १०५) Abstract २. अमूर्तत्व सामान्य व अमूर्तत्व शक्ति-दे. मूर्त' ३ जीवका अमूर्तत्व निर्देश-दे. जीव/३: ४. द्रव्योंमें मूर्तामूर्त की अपेक्षा विभाजन-दे द्रव्य/३ ५. अमूर्त जीवसे मूर्तकर्म कैसे बन्धेदे.बंध/२, ६. अमूर्त द्रव्योंके साथ मूर्त द्रव्योंका स्पर्श कैसे सम्भव है-दे. स्पर्श/२ अमृतचन्द्र-आप एक प्रसिद्ध आचार्य हुए है। कोई इन्हे काष्ठासंघी कहते है। कृतियाँ-१. समयसार पर आत्मख्याति टीका, २. प्रवचनसारपर तत्त्वदीपिका टीका,३ पचास्तिकाय पर तत्त्वप्रदीपिका टीका, ४. परमाध्यात्म तरंगिनी, ५. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, ६. तत्त्वार्थसार; ७. लघु तत्व स्फोट । समय-पट्टावलीमें इनका पट्टारोहण काल वि. १६२ दिया गया है। पं.कैलाशचन्दके अनुसार वि. श. १०। अतः
ई.१०५-६५५ । ( जै./२/१७३, १८६, ३३६ ): (ती./२/४०५)। अमतधार-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर। दे, विद्याधर । अमृतरसायन-ह. पु./३३ श्लो.-गिरिनगरके मांसभक्षी राजा चित्ररथका रगोइया था ॥१५॥ मुनियोंके उपदेशसे राजाने दीक्षा तथा राजपुत्रने अणुवत धारण कर लिये ॥१५२-१५३॥ इससे कुपित हो इसने मुनियौंको कडवी तुम्बीका आहार दे दिया, जिसके फलसे त सरे नरक गया ॥१५४-१५६॥ यह कृष्णजीका पूर्व पंचम भव है। अमृतस्रावी ऋद्धि-दे. ऋद्धि । अमृताशीति-आचार्य योगेन्दुदेव (ई श. ६) द्वारा रचित उपदेशमूलक विभिन्न छन्दबद्ध अपभ्रश भाषाके ८२ पद्य है। प्रेमीजीके अनुसार ये छन्द इन्हों द्वारा विरचित अध्यात्म सन्दोहके है। (प.प्र/प्र ११६ H L. Jain) अमेचक-म. सा/आ/१६/क. १८ परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषै. ककः । सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचक • ६१८- शुद्ध निश्चयनयसे देखा जाये तो प्रगट ज्ञायकत्व ज्योतिमात्रसे आत्मा एक स्वरूप है । क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे सर्व अन्य द्रव्यके स्वभाव तथा
अन्यके निमित्तसे होनेवाले विभावों को दूर करनेरूप उसका स्वभाव है। इसलिए वह अमेचक है-शुद्ध एकाकार है। अमोघ-१. नवग्रं वेयक स्वर्ग का द्वितीय पटल-दे. स्वर्ग/१/३ । २. मानुषोत्तर पर्वतत्थ अंककूटका स्वामी भवनवासी सुपर्णकुमार
देव-दे. लोक/११०। ३ रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/५/१३ । अमोघवर्ष-. अमोघवर्ष प्रथम-मान्यखेट के राजा अगत्तु (गोविन्द तृ ) के पुत्र थे। पिताके पश्चात राज्यारूढ हुए । बडे पराक्रमी थे। इन्होंने अपने चाचा इन्द्रराजके पुत्र कर्कराजकी सहायतासे श. सं.७५७ में लाट देशके राजा ध्र व राजाको जीतकर उसका देश भी अपने राज्य में मिला लिया था। इनका राज्य समस्त राष्ट्रकूट में फैला हुआ था। आप जिनधर्मवत्सल थे। आचार्य भगवजिनसेनाचार्य ( महापुराणके कर्ता ) के शिष्य थे । इसीलिए पिछली अवस्थामें राज्य छोडकर उन्होंने वैराग्य ले लिया था। इनका बचपनका नाम 'बाछणराय' था तथा उपाधि 'नृपतुंग' थी। 'गोविन्दचतुर्थ भी इन्हे ही कहते है। अकालवर्ष (कृष्ण द्वि.) इनका पुत्र था। इन्होंने एक 'प्रश्नोत्तर माला' नामक ग्रन्थ भी लिखा है। समय-निषितरूपसे आपका समय श सं ७३६-८००; बि.८७३-६३५, ई.८१४-८७८ है। विशेष देखो-इतिहास/३५ (आ. अनुप्र/A. N. Upa.) (ष. ख१/प्र/A.N. Upa.) ष. व१/३६/H. L. Jain). (क. पा १/७३/प. महेन्द्रकुमार ), (ज्ञा/प्र७/प. पन्नालाल बाकलीवाल); (म पु/प्र ४१प. पन्नालाल बाकलीवाल)२ अमोघवर्ष द्वितीयअमोघवर्ष प्र. के पुत्र अकालवर्ष ( कृष्णराज द्वितीय ) का नाम ही अमोघवर्ष द्वि. था-दे. इतिहास/३/५, ३. अमोघवर्ष तृतीयअकाल वर्ष के पुत्र कृष्णराज तृतीयका नाम ही अमोघवर्ष तृतीय था।
दे कृष्णराज तृतीय-इतिहास/३/५ । अयन-१, कालका एक प्रमाण - दे. गणित 1/९/४। २ (ज. प्र/प्र
१०५) solstice | अयश कीर्ति-दे, यश कीर्ति । अयुतसिद्ध-दे. युत। अयोग-दे. योग। अयोग केवली-दे. केवली/१। अयोगव्यवच्छेद-१. अयोगव्यवच्छेदात्मक एवकार-दे एव। २. अयोगव्यवच्छेद नामक एक न्याय विषयक ग्रन्थ, जिसे श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र सूरि (ई १०८८-१९७३) ने केवल ३२ श्लोकों में रचा था, और इसी कारणसे जिसको द्वात्रिशितिका भी कहते है। मल्लिषेणसूरिने ई १२६२ में इसपर स्याद्वादमजरी नामकी टीका रची। अयोध्या-१. अपर विदेहस्थ गन्धमालिनी क्षेत्रको मुख्य नगरीदे० लोक/५/२, २. अयोध्या, साकेत, सुकौशला और विनीता ये सब एक ही नगरके नाम है (म. पु. मू/१२/६३ )। अरक्षा भय-दे. भय। अरजस्का -विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर। अरजा-१ अपर विदेहस्थ शंख क्षेत्रकी प्रधान नगरी-दे. लोक/१/२
२. नन्दीश्वर द्वीपको दक्षिण दिशामें स्थित वापी-दे. लोक/५/११ । अरण्य-नि. साता. वृ./५८ मनुष्यसचारशून्यं वनस्पतिजातवल्ली___ गुल्मप्रभृतिभिः परिपूर्ण मरण्यं । = मनुष्यस चारसे शून्य वनस्पति,
बेलों व वृक्षादिसे परिपूर्ण अरण्य कहलाता है। अरति-अरति कषाय द्वेष है-दे. कषाय/४।
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अरतिपरिषह
अर्थ
अरति परिषह--स सि /8/8/४२२/७ संयतस्येन्द्रियेष्टविषय- अरिणा-१ नरक की पाँचवी पृथ्वी-दे. धूमप्रभा (नरक/५/१)। सम्बन्ध प्रति निरुत्सुकस्य गीतनृत्यवादित्रादिविरहितेषु शून्यागार- २ पूर्व विदेहस्थ कच्छ देशकी मुख्यनगरी-दे लोका/२। देवकुल तरु कोटर शिलागुहादिषु स्वाध्यायध्यानभावनारतिमास्कन्दतो अरुण-१. सौधर्म स्वर्गका छठा पटल व इन्द्रक-दै. स्वर्ग/५/३, दृष्ट श्रुतानुभूतर तिस्मरणतत्कथाश्रवणकामशरप्रवेश निर्विवरहृदयस्य प्रा
२. लौकान्तिक देवोका एक भेद-दे. लौकातिक, ३. दक्षिण अरुणवर णिषु सद। सदयस्यारतिपरिषजयोऽवसेय । =जो सयत इन्द्रियो
द्वीपका रक्षक देव-दे, भवन/४, ४. दक्षिण अरुणवर समुद्रका रक्षक के इष्ट विषय सम्बन्धके प्रति निरुत्सुक है, जो गीत, नृत्य और वादित्र
देव-दे. भवन/४। आदिमे रहित शून्यघर, देवकुल, तरकोटर, और शिलागुफा आदिमे स्वाध्याय, ध्यान और भावनामे लीन है, पहिले देखे हुए सुने हुए
अरुणप्रभ-१. उत्तर अरुणवर द्वीपका रक्षक देव-दे. भवन/४ और अनुभव क्येि हुए विषय भोगके स्मरण, विषय भोग सम्बन्धी
२. उत्तर अरुणवर समुद्र का रक्षक देव-दे. भवन/४ कथाके श्रवण और कामशर प्रवेशके लिए जिसका हृदय निश्छिद्र है
अरुणमणि-आप एक कवि थे। आपने 'अजित पुराण' ग्रन्थ रचा। और जा प्राणियोके ऊपर सदाकाल सदय है, उसके अरति परिषहजय समय-वि. १७१६ (ई. १६५६) में उपरोक्त ग्रन्थ पूर्ण किया था। (म. जानना चाहिए। (रा वा/8/8/११/६०६/३६ ) चा. सा /११५/३) पु/प्र २०/पं. पन्नालाल) (ती/४/८३)। २ अरति व अन्य परिषहोमें अन्तर ।
अरुणवर-मध्यलोकका नवम द्वीप व सागर-दे. लोक/५ ।
अरुणा-पूर्व आर्य खण्डस्थ एक नदी-दे. मनुष्य/४ । रा वा /8/8/१२/६१०/३ स्यादेतत-श्रुधादीना सर्वेषामरतिहेतुत्वाद पृथगरतिग्रहणमनर्थ कमिति । तन्न, कि कारणम्। क्षुधाद्यभावेऽपि
अरुणी-विजयाईकी उत्तर श्रेणीका एकनगर- दे. विद्याधर । माहादयात्तत्प्रवृत्त । मोहोदयाकुलितचेतसा हि क्षुधादिवेदनाभावेऽपि अरुणीवर-मध्यलोकका नवम द्वीप व सागर-दे. लोक/४१। सयमेऽरतिरुपजायते । - प्रश्न-क्षुधा आदिक सर्व हो परिषह अरतिके हेतु हानेके कारण अरति परिषहका पृथक् ग्रहण अनर्थ क है । उत्तर--
अरूपत्व-दे मूर्त। नही, क्योकि, क्षुधादिके न होने पर भी मोह कर्मके उदयसे होनेवाली अरूपी-दे. मूर्त। सयमको अरति का संग्रह करनेके लिए 'अरति' का पृथक् ग्रहण अर्ककोति--(म. पु./सर्ग/श्लो न.)-भरत चक्रवर्तीका पुत्र था। किया है।
४७/१८६-१८७ । सुलोचना कन्याके अर्थ सेनापति जयसेन-द्वारा युद्धमें अरति प्रकृति-स सि /८/६/३८५/१३ यदुदयाद्देशादिप्वौत्सुक्य
परास्त किया गया /४४/७१,७२,३४४-४५। गृहपति अकम्पन-द्वारा सा रति । अरतिस्तद्विपरीता। जिसके उदयसे देश आदिमें
समझाया जानेपर 'अक्षमाला' कन्याको प्राप्तकर सन्तुष्ट हुआ/४५/१०. उत्सुकता होती है, वह रति है। अरति इससे विपरीत है। (रा. ३० । इसीसे सूर्यवशकी उत्पत्ति हुई । (प. पु.(५/४), (प. पु./५/२६०वा/८/६/४/५७४/१७ ) (ध १२/४,२,८,१०/२८५४६ )
२६१) ह पु./३/१-७)। अरतिवाक-दे वचन
मल-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर । अरनाथ-१. (म. पु/६५/श्लो नं)-पूर्वके तीसरे भवमें कच्छदेश- अर्चट-आप एक बौद्ध नैयायिक थे। अपर नाम धर्माकरदत्त था। को लेमपुरी नगरीके राजा 'धनपति' थे। २ पूर्व के भवमें जयन्त
आप धर्मोत्तरके गुरु थे। कृतियॉ-१. हेतु बिन्दु टीका. २ क्षणभङ्गविमानमें अहमिन्द्र हुए। ८-१। वतमानभवमें १८वे तीर्थकर हए। सिद्धि, ३. प्रमाणद्वय सिद्धि । समय-ई श ७-८/. (सि वि प्र (विशेष दे तीर्थकर/५) (युगपत सर्व भव दे म पु/६५/५०)
३२/५, महेन्द्रकुमार )। २. भावी बारहवे तोथंकरका भी यही नाम है। अपर नाम पूर्व- अर्चन--(दे पूजा/४/१ मे ध.८)। बुद्धि है । ( विशेष दे तीर्थकर/५)
अर्जन-(पा पु /सर्ग/श्लो न ) पूर्व के तीसरे भवमें सोममूति आरजय--१. विजयाध को उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे विद्याधर, ब्राह्मणका पुत्र था /२३/८२ । पूर्व के दूसरे भव में अच्युत स्वर्ग में देव) २. विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे विद्याधर ।
२३/१०६ । वर्तमान भवमे राजा पाण्डुका कुन्ती रानोसे पुत्र उत्पन्न अरि-ध. १/१,१,१/४२/६ नरकतिर्यक्कुमानुष्यप्रेतावासगताशेषदु ख- हुआ/८/१७०-७३ । अपर नाम धन जय व धृष्टद्य म्न भी था/११/२१२ । प्रातिनिमित्तत्वादरिर्मोह । नरक, तिर्यच, कुमानुष और प्रेत इन
द्रोणाचार्यसे शब्दवेधनी धनुविद्या पायी/८/२०८-२१६ । तथा स्वयवरपर्यायोमे निवास करनेसे होनेवाले समस्त दु.खोकी प्राप्तिका निमित्त
में गाण्डीव धनुष चढाकर द्रौपदीको वरा/१५/१०५ । युद्धमें दुर्योधन कारण होनेसे मोहको 'अरि' अर्थात् शत्रु कहते है। (विशेष दे.
आदिक कौरवोको परास्त किया/१६/११ । अन्तमें दीक्षा धारणकर
ली। र्योधनके भानजेकृत उपसर्ग को जीत मोक्ष प्राप्त किया/२५/१२मोहनीय/१/५)
१७.५१-१३३ । अरिकेसरी-आप चालुक्यवशी राजा थे। इनका पुत्र 'व'ग' था
अर्जन (भारतीय इतिहास १/१८६)-आप एक कवि थे, अपर नाम जो कृष्णराज तृतीयके आधीन था। तदनुसार इनका समय वि.
अश्वमेध दत्त था-समय ई. पू १५०० । ६१८ (ई. ६४६-६७४) आता है। इनके समयमें कन्नड जैन कवि
अर्जन वर्मा-(द सा./प्र. ३६-३७/नाथूरामजी प्रेमी) आप सुभट'पम्प' ने 'विक्रमार्जन विजय' नामका ग्रन्थ लिखकर पूरा किया था। ( यशस्तिलक चम्पू/प्र. २०/-प. सुन्दरलाल )
वर्माके पुत्र और देवपाल के पिता थे। मालवा (मगध) के राजा थे । अरिष-१. लौकान्तिक देवोका एक भेद-दे. लोकांतिक, २ ब्रह्म
धारा व उज्जैनी नगरी राजधानी थी। समय-ई०१२०७-१२१८ ।
-बिजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे विद्याधर । स्वर्गका प्रथम पटल - दे. स्वर्ग/५/३। ३. रुचक पर्वतस्थ एक कूटदे. लोक/५
अर्थअरिष्पर-पूर्व विदेहस्थ कच्छक देशको मुख्य नगरी-दे. लोक/२
१. अर्थ = जो जाना जाये
___ स.सि./१२/८ अर्यत इत्यर्थो निश्चीयत इति यावत् । - जो निमय अरिष्टसंभवा-आकाशोपपन्न देवोका एक भेद-दे, देव II/21
किया जाता है उसे अर्थ कहते है ।
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अर्थ
रा.मा./१/२/५/११/२१ अगम्यते ज्ञायते इत्यर्थ। ओ जाना जाये या निश्चय किया जाये उसे अर्थ कहते हैं। (रा.वा./१/३३/१/१५/४), (घ१२/४.२.१४,२/४७८/०). (४.१३/५.६.२०/२८१ / १२) (म्या वि / बृ/१/१/१६५ / २३) (स.म. २८/३००/१५) (१ / १० / ९५८) । २. अर्थ - द्रव्य गुण पर्याय
=
स.सि./१/१०/११६/२ इति पर्यायस्तऽयंत हत्यर्थी द्रव्यं... = जो पर्यायोंको प्राप्त होता है, या जो पर्यायोंके द्वारा प्राप्त किया जाता है. यह अर्थ सम्दको पति है। इसके अनुसार अर्थ द्रव्य ठहरता है । (रावा / १/१७/६५/३०) । स.सि /६/४४/४५५ अर्थं ध्येयो द्रव्य पर्यायो वा । = अर्थ ध्येयको कहते हैं। इससे द्रव्य और पर्याय लिये जाते है । रावा/२/१३/९/१२/४ अर्धगम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थ कार्य
जो
जाना जाता है, प्राप्त किया जाता है, या निष्पादन किया जाता है। वह 'अर्थ' कार्य या पर्याय है । [प्र.१३/५.५.२०१२८१/१२ अर्थते गम्यते परिचित इति अर्थों नव पदार्था' । =जाना जाता है वह अर्थ है । यहाँ अर्थ पदसे नौ पदार्थ लिये गये है ।
प.मु /४/१ सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषय । सामान्य और विशेष स्त्ररूप अर्थात द्रव्य और पर्याय स्वरूप पदार्थ प्रमाण (ज्ञान) का विषय होता है।
|=
प्रसा /त.प्र /८७ गुणपर्यायानियति गुणपर्यायैर्यन्त इति वा अर्था इम्याणि द्रव्यान्याश्रयत्वेनेति द्रव्यन्त इति मा अर्था गुणा द्रव्याणि कमपरिणामेनार्यन्त इति वा अर्थ पर्याय जो गुणों और पर्यायोंको प्राप्त करते है, अथवा जो गुणों और पर्यायों के द्वारा प्राप्त किये जाते है ऐसे 'अर्थ' द्रव्य है। जो द्रव्यों को आश्रयके रूपमें प्राप्त करते है अथवा जो आश्रयभूत द्रव्यों के द्वारा प्राप्त किये जाते है ऐसे 'अर्थ' गुण है । जो द्रव्योंको क्रम परिणामसे प्राप्त करते है, अथवा जो द्रव्योके द्वारा क्रम परिणामसे प्राप्त किये जाते हैं, ऐसे 'अर्थ' पर्याय है ।
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न दो / ३ / ७६ कोऽयमर्थो नाम उच्यते । अर्थोऽनेकान्तः । - अर्थ किसे कहते है - अनेकान्तको अर्थ कहते हैं।
३. अर्थ = शेयरूप विश्व
प्रसा./त प्र / १२४ तत्र क खन्वर्थ, स्वपरविभागेनावस्थितं विश्व | -अर्थ है हम परके विभागपूर्वक अवस्थित विश्व ही अर्थ है। (३/४१) (१.ध. / १३१) दे नय / समस्त विश्व शब्द, अर्थ व ज्ञान इन तीन में विभक्त है ।
४. अर्थ = श्रुतज्ञान
ध.१४/५,६,१२/८/८ अत्यो गणहरदेवो, आगमसुत्तेण विणा सयलसुदणाणपज्जाएण परिणदत्तादो। तेण समं सुदणाणं अत्थसम अथवा अत्थो बीजपद, तत्तो उप्पणं सयलसुदणाणमत्यसम ।' • 'अर्थ' गणधरदेवका नाम है, क्योकि वे आगम सूत्रके बिना सफल श्रुतज्ञानरूप पर्यायसे परिणत रहते है । इनके समान जा श्रुतज्ञान होता है वह अर्थसम श्रुतज्ञान है ? अथवा अर्थ बोज पदको कहते है, इससे जो समस्त ज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थ सम लहान है। ५. अर्थ = प्रयोजन
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स.सि./१/६/२१ द्रव्यमर्थ प्रयोजनमस्येत्यसी प्रार्थिक द्रश्य ही अर्थ या प्रयोजन जिसका सो प्रत्याधिक नय है (रा.वा./१/१३/१६५/८) (च. १/१.१.२/८३/११) (६.६/४.१.४५/१००/१) (आ. १. १) रा. वा / ४/४२ / १५ अर्थाकरणसम्भव अभिप्रायादिशब्दः न्यायात्कल्पितो अर्थादिगम्य' । अर्थ, अकरण, सम्भव, अभिप्राय आदि शब्द न्यायसेक किये हुए अर्थाधिगम्य लाते हैं, जैसे रोटी खाते हुए 'सेन्धव लाओ' कहने से नमक ही लाना, घोड़ा नहीं ऐसा स्पष्ट अभिप्राय न्याय से सिद्ध है ।
दृष्टि
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यादी./३/३०३ अर्थ स्वासापर्यत इति यावद अर्थ एव तात्पर्यमेव वचसीत्यभियुक्तवचनात् अर्थ पद तात्पर्य में रूड़ है, अर्थात् प्रयो जनार्थक है, खाँकि 'अर्थ हो या तात्पर्य ही वचनों में है ऐसा अर्थ वचन है ।
६ 'अर्थ' पदके अनेकों अर्थ
रा.वा./१/२/११/२०/३१ अर्थ शब्दोऽर्थ मनेकार्थ - कचिह्न द्रव्यगुणकर्मसु वर्तते 'अर्थ इति द्रव्यगुणकर्मसु (बै सू./७/२/३ ) इति वचनात् । कचिद प्रयोजने वर्तते किमर्थमिहागमन कि प्रयोजनंमिति कचिद्धने वर्तते अर्थवान देवदत्त धनवानिति कचि भिधेये वर्तते शब्दार्थ सम्बन्ध इति । 'अर्थ' शब्दके अनेक अर्थ है -१ वैशेषिक शास्त्रमें द्रव्य गुण कर्म इन तीन पदार्थों अर्था है । २. 'आप यहाँ किस अर्थ आये हैं' यहाँ अर्थ शब्दका अर्थ प्रयोजन है। 3. 'देवदत अर्थमान है' यहाँ अर्थ शब्द धन अर्थ ग्रहण किया गया है -- अर्थवान अर्थात् धनवान । ४० 'शब्दार्थसम्बन्ध' इस पदमें अर्थ शब्द का अर्थ अभिधेय या वाच्य है । प्रा.वि. / /९/७/१४०/१५ अर्थोऽभिद्येव । - अर्थ अर्थात अभिषेय (भ आ / वि. / ११३/२६९/१२) ।
प.ध / पू / १४३ सत्ता सत्त्वं सद्वा सामान्यं द्रव्यमन्वयो वस्तु | अर्थो विधि रविशेषादेकार्थवाचका अमी शब्दा ॥१४३॥ सन्त्ता, सत्त्व अथवा सत्, सामान्य, द्रव्य. अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये नौ शब्द सामान्य रूप से एक द्रव्य रूप अर्थ के हो वाचक हैं।
* वर्तमान पर्यायको ही अर्थ कहने सम्बन्धी शंका - ये केवलज्ञान/३/२
★ शब्द अर्थ सम्बन्ध - दे आगम / ४ ।
★ अर्थकी अपेक्षा वस्तुमें भेदाभेद - दे. 'सप्तभंगी/५/८ अर्थनय — दे. नय I/४
अर्थ पद- दे. पद ।
अर्थ पर्याय – पर्याय / ३ ।
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अर्थ पुनरुक्त, पुनरुत अर्थ पुरुषार्थ दे. पुरुषार्थ अर्थ मलमल |
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शुद्ध सावधानी से
अर्थ वाद - अर्थवाद रूप वाक्य- दे. वाक्य । अर्थ शुद्धि - / /२८५ विजय सुतं अत्यि तदुभयविसुद्ध पदेन च जन्तो नाम विद्धो व एसो ॥२८५॥ = जो सूत्रको अक्षरशुद्ध अर्थ शुद्ध अथवा दोनों कर 'पढता पढाता है, उसीके शुद्ध ज्ञान होता है । भ.आ / वि / ११३/२६१/१२ अथ अर्थ शब्देन किमुच्यते । दश शब्दाभिधेये वर्तते तेन सुत्रार्थी तस्य का शुद्ध विपरीतरूपेण सुत्रार्थ निरूपणार्या रूपणाया अवैपरीत्यस्य अर्थशुद्धिरित्युच्यते
'अर्थ'
क्या समझे ? अर्थ शब्द व्यञ्जन शब्द के समीप होने से शब्दों का उच्चारण होनेपर मनमें जो अभिप्राय उत्पन्न होता है वह अर्थ शब्दका भाव है। अर्थाद गणधर आदि रचित सूत्रोंके अर्थ को यहाँ अर्थ समझना चाहिए। 'सुद्धि'का अर्थ इस प्रकार जानना विपरीत रूपसे सूत्रार्थकी निरूपणा अर्थ ही आधारभूत है। अतः ऐसी निरूपणा अर्थशुद्धि नहीं हैं। संशय, विपर्यय, अनध्यवसायादि दोषोंसे रहित सूत्रार्थ निरूपणको अर्थ शुद्धि कहते हैं।
अर्थ दृष्टि
नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (१० ६६३-०११) कृत गोमसार सन्धिसार व पसार इन तीनों ग्रन्थोंमें प्रयुक्त
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
व्यञ्जन शब्दस्य इति गृह्यते । धाराशब्दसे हम
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अर्थसम
अर्हन्त
गणितके आधारपर प० टोडरमलने तीनो सम्बन्धी तीन अर्थ संदृष्टियाँ रची है । समय-लगभग वि० १८१४ ई० १७५७ (ती ।
४/८८६)। अर्थसम-अर्थसभ द्रव्य निक्षेप । दे. निक्षेप/1/८ । अर्थसमय-दे, समय। अर्थ सम्यक्त्व-दे, सम्यग्दर्शन । अर्थांतर-(न्या सू./म् ।५-२/७) प्रकृतार्थादप्रतिसम्बन्धार्थ मन्तिरम् । - प्रकृत अर्थसे सम्बन्ध न रखनेवाले अर्थको अर्थान्तर निग्रहस्थान कहते है, उदाहरण जैसे कोई कहे कि शब्द नित्य है, अस्पर्शत्व होनेसे । हेतु किसे कहते है। 'हि' धातुसे 'तुनि' प्रत्यय करनेसे हेतु यह कृदन्त पद हुआ और नाम, आरण्यात, उपसर्ग और निपात ये पद है। यह प्रकृत अर्थ से कुछ सम्बन्ध नहीं रखता । (श्लो वा ४/ न्या १६१/३८०/७) अर्थाधिगम-दे. अधिगम । अर्थापत्ति-रा.वा/६/६/६/५१६/यथा हि असति हि मेघे वृष्टि
स्तिीत्युक्ते अर्थादापन्नं सति मेघे वृष्टिस्तीति । =जैसे 'मेधके अभावमें वृष्टि नहीं होतो' ऐसा कहने पर अर्थापत्तिसे ही जाना जाता है कि मेधके होनेपर वृष्टि होती है।
२ अर्थापत्तिमें अनेकान्तिक दोषका निरास रा.वा /4/8/६/५१६/१० सत्यपि मेघे कदाचिद्भवृष्टिनास्तीत्यर्थापत्तिरनैकान्तिकीति. तन्न किं कारणम् । प्रयासमात्रत्वात् । प्रयासमात्रमेतत अर्थापत्तिरनैकान्तिकीति । 'अहिंसा धर्म' इत्युक्ते अर्थापत्त्या 'हिसा अधर्म" इति न सिध्यति। सिध्यत्येव । असति मेधे न वृष्टिरित्युक्ते सति मेघे वृष्टिरित्यत्रापि सत्येव मेघे इति नास्तिदोष । -- प्रश्न-मेघोके होनेपर भी कदाचित वृष्टि नही होती है, इसलिए अर्थापत्ति अनैकान्तिकी है उत्तर नहीं, क्योकि, इस प्रकार अर्थापत्तिको अनैकान्तिकी सिद्ध करने का यह आपका प्रयास मात्र है। 'अहिंसा धर्म है 'ऐसो कहनेपर अर्थापत्ति से ही क्या यह सिद्ध नही हो जाता कि "हिसा अधर्म है" होता ही है। कभी मेघके होनेपर ही वृष्टिके न देखे जानेसे इतना ही कह सकते है, कि वृष्टि मेधके होनेपर ही होगी' अभावमें नही। ३. अर्थापत्तिका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव रा.वा /१/२०/१५/७८/२३ एतेषामप्यर्थापत्त्यादीनाम् अनुक्तानामनुमानसमानमिति पूवत् श्रुतान्तर्भाव । - न कहे गये जो अर्थापत्ति आदि प्रमाण है उन सबका, अनुमान समान होनेके कारण श्रुतज्ञानमें
अन्तर्भाव हो जाता है। अर्थापत्ति समा जाति-न्या.सू /मू./५/१/२१ अर्थापत्तित. प्रतिपक्षसिद्धैरर्थापत्तिसमः । - अर्थापत्तिसे प्रतिपक्षके साधन करनेवाले हेतुको अर्थापत्तिसमा कहते है । जैसे वादी-द्वारा शब्दके अनित्यत्वमें प्रयत्नानन्तरीयकस्वरूप हेतु के 'दिये जानेपर, प्रतिवादी कहता है, कि यदि प्रयत्नान्तरीयकत्व रूप अनित्य धर्मके साधय॑के कारण शब्द अनिरय है तो अस्पर्शवत्वरूप नित्य धर्मके साधर्म्यसे वह नित्य भी
हो जाओ। (श्लो वा.४/न्या,४०२/५१६/२७) । अर्थापदत्व-ध /१,१,७/१५७/२ ण च संतमत्थमागमो ण परूवेई तस्स अस्थावयत्तप्पसंगादो । = आगम, जिस प्रकारसे वस्तु व्यवस्था है उसी प्रकारसे प्ररूपण न करे, ऐसा नहीं हो सकता। यदि ऐसा माना जावे तो उस आगमको अर्थापदत्व अर्थात् अनर्थ कपदत्वका प्रसंग
प्राप्त हो जायगा। अर्थावग्रह-वे. अवग्रह।
आर्ट कथानक-वि. १६६८, ई०१६४१ मेप बनारसीदास द्वारा
रचित अपनी आत्मकथा/(तो/४/२५५) । अर्द्धक्रम-(ध.१५/प्र.२७)Operation of mediation अर्द्ध गोलक-(ज.प /प्र.१०५) Hemisphere. अर्द्धच्छेद-(ध ५/प्र.२७) १ The number of times a num
ber is halved Mediation/Logarithm २. (ज प./प्र १०५) log to the base 2 (विशेष दे गणित II/२/१)। अर्द्ध नाराच-दे. सहनन ।
इगल परावर्तन-दे अन त । अर्द्ध फालक-श्वेताम्बर सम्प्रदायका आदिम रूप-दे.श्वेताम्बर । अर्द्ध मंडलीक-दे राजा । अर्द्धन्द्रा-पाँचवे नरकका चौथा पटल-दे. नरक/५ । अपित-स.सि./५/३२/३०३ अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापित प्राधान्यमर्पितमुपनीतमिति यावत । तद्विपरोतमनपितम् । = वस्तु अनेकान्तात्मक है । प्रयोजनके अनुसार उसके किसी एक धर्मको विवक्षासे जब प्रधानता प्राप्त होती है तो वह अर्पित या उपनीत कहलाता है। और प्रयोजनके अभावमें जिसकी प्रधानता नहीं रहती वह अनर्पित कहलाता है। नोट-इस शब्दका न्यायविषयक अर्थ योजित है। अर्हन्त-जैन दर्शनके अनुसार व्यक्ति अपने कर्मोंका विनाश करके स्वय परमात्मा बन जाता है। उस परमात्माकी दो अवस्थाएँ हैएक शरीर सहित जीवन्मुक्त अवस्था, और दूसरी शरीर रहित देह मुक्त अवस्था। पहली अवस्थाको यहाँ अर्हन्त और दूसरी अवस्थाको सिद्ध कहा जाता है। अर्हन्त भी दो प्रकारके होते है-तीर्थकर व सामान्य । विशेष पुण्य सहित अईन्त जिनके कि कल्याणक महोत्सव मनाये जाते है तीर्थ कर कहलाते है, और शेष सर्व सामान्य अर्हन्त कहलाते है। केवलज्ञान अर्थात् सर्वज्ञत्व युक्त होनेके कारण इन्हे केवली भी कहते है। १. अर्हन्तका लक्षण
१. पूजाके महत्त्वसे अर्हन्त व्यपदेश मू आ /मू./५०५,५६२ अरिहं ति णमोक्कार अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए। ॥५०॥ अरिह ति वदणणमसणाणि अरिह ति पूयसक्कार । अरिहं ति सिद्धिगमणं अरहता तेण उच्च ति ॥५६२=जो नमस्कार करने योग्य हैं, पूजाके योग्य है और देवो में उत्तम है, वे अर्हन्त हैं ॥५०॥ बन्दना और नमस्कारके योग्य है. पूजा और सत्कारके योग्य हैं,मोक्ष जाने के योग्य है इस कारणसे अर्हन्त कहे जाते हैं ॥५६२॥ ध.१/१,१,१/४४/६ अतिशयपूजाहं त्वाद्वाईन्त । - अतिशय पूजाके योग्य होनेसे अर्हन्त सज्ञा प्राप्त होती है। (म पू./३३/१८६) (न.च.वृ /२७२) (चा पा/टी./९/३१/५)। द्र.स/टी/५०/२११/१ पञ्चमहाकल्याण रूपा पूजामह ति योग्यो भवति तेन
कारणेन अईन भण्यते ।-पच महाक्ल्याणक रूप पूजाके योग्य होता है, इस कारण अहंन कहलाता है।
२. कर्मो आदिके हनन करनेसे अर्हन्त है बो. पा/मू/३० जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणे च पुण्ण पाच । हतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो ॥३०॥ =जरा और व्याधि अर जन्ममरण, चार गति विषै गमन, पुण्य और पाप इन दोषनिके उपजानेवाले कर्म है। तिनिका नाश करि अर केवलज्ञान मई हुआ होय सो अरहत है।
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अर्हन्त
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अर्हन्त
मू. आ//५०५,५६१ रजहंता अरिहं ति य अरहता तेण उसचदे ॥५०॥ जिदकोहमाणमाया जिदलोहा तेण ते जिणा होंति। ता अरिंच जम्म अरहता तेण बुच्चति ॥५६१४-अरि अर्थात मोह कर्म, रज अर्थात् ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म और अनन्तराय कम इन चारके हनन करनेवाले है। इसलिए 'अरि' का प्रथमाक्षर 'अ', 'रज' का प्रथमाक्षर 'र' लेकर उसके आगे हननका वाचक 'हन्त शब्द जोड देनेपर अर्हन्त बनता है ॥५०॥ क्रोध,मान, माया, लोभ इन क्षायोंको जीत लेनेके कारण 'जिन' है और कर्म शत्रुओं व संसारके नाशक होने के कारण अहंत कहलाते है ॥५६१० ध. १४१,१,१/४२/8 अरिहननादरिहन्ता। अशेषदु खप्राप्तिनिमित्तत्वा दरिर्मोहः। • रजोहननाद्वा अरिहंता । ज्ञानहगावरणानि रजांसीव... वस्तुविषयबोधानुभवप्रतिबन्धकत्वाद्रजांसि ।.. रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता। रहस्यमन्तराय तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टवोजनिशक्तोकृताघातिकर्मणो हननादरिहन्ता। - 'अरि' अर्थात शत्रुओंका नाश करनेसे अरिहंत यह सज्ञा प्राप्त होती है। समस्त दुखाँको प्राप्तिका निमित्त कारण होनेसे मोहको अरि कहते है। अथवा रज अर्थात आवरण कोका नाश करनेसे 'अरिहन्त' यह संज्ञा प्राप्त होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण रजकी भाँति वस्तु विषयक बोध और अनुभवके प्रतिवन्धक होनेसे रज कहलाते है।.. अथवा रहस्यके अभावसे भी अरिहत सज्ञा प्राप्त होती है। रहस्य अन्तराय कर्मको कहते है। अन्तराय कर्मका नाश शेष तीन उपरोक्त कर्मों के नाशका अविनाभावो है, और अन्तरायकर्म के नाश होने पर शेष चार अघातिया र्म भी भ्रष्ट बीजके समान निशक्त हो जाते हैं। (म च वृ /२७२), (भ आ/वि/४६/१५३/१२) (म.पु./३३/
१८६), (द्र. स./टी/१०/२१०/8) (चा. पा/टी/१/३१) । ध.८/३,४१/८६/२, "ख विदघादिकम्मा केवलणाणेण दिट्ठसव्वट्ठा अरहता णाम। अधवा, णिविदट्ठकम्माण घाइदघादिकम्माणं च अरहंतेत्ति सण्णा, अरिहणणं पदिदोह भेदाभावादो।"=जिन्होंने धातिया कर्मोंको नष्ट कर केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंको देख लिया है वे अरहन्त है। अथवा आठों कौंको दूर कर देनेवाले और घातिया कर्मों को नष्ट करदेनेवालोंका नाम अरहन्त है। क्योंकि कर्म शत्रुके विनाशके प्रति दोनों में कोई भेद नहीं है। (अर्थात् अहंत व सिद्ध जिन दोनों ही अरहन्त है)।
६. चौतीस अतिशयोंके नाम निर्देश ति. प/४/८६६-६१४/ केवल भाषार्थ-१. जन्मके १० अतिशय १. स्वेदरहितता, २. निर्मल शरीरता, ३. दूधके समान धवल रुधिरः ४, वज्रऋषभनाराच सहनन, ५ समचतुरस्र शरीर स्स्थान, ६ अनुपमरूप, ७ नृपचम्पकके समान उत्तम गन्धको धारण करना, ८ १००८ उत्तम लक्षणोंका धारण, ६. अनन्त बल, १०.हित मित एव मधुर भाषण, ये स्वाभाविक अतिशयके १० भेद है जा तीर्थकरोके जन्म ग्रहणसे ही उत्पन्न हो जाते है । ८६६-८६८ । २ केवलज्ञानके १९ अतिशय - १ अपने पाससे चारो दिशाआमें एक सौ योजन तक सुभिक्षता, २ आकाशगमन, ३ हिसाका अभाव, ४. भोजनका अभाव, ५. उपसर्गका अभाव, ६.सबकी ओर मुख करके स्थित होना, ७. छाया रहितता,८ निनिमेष दृष्टि, ६. विद्याओकी ईशता, १०. सजीव होते हुए भी नख और रोमोका समान रहना, ११ अठारह महा भाषा तथा सात सो क्षुद्रभाषा युक्त दिव्यध्वनि । इस प्रकार धातिया कोके क्षयसे उत्पन्न हुए ये महान आश्चर्यजनक ११ अतिशय तीर्थकरोंके केवल ज्ञानके उत्पन्न हानेपर प्रगट हाते है । ८६६-६०६ ॥ ३. देवकृत १३ अतिशय-१ तीर्थंकरोंके महात्म्यसे सख्यात योजनों तक बन असमयमें ही पत्रफूल और फलोको वृद्धिसे सयुक्त हो जाता है। २ कटक और रेती आदिको दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती है, ३, जोव पूर्व वैरको छोड़कर मैत्रीभावसे रहने लगते हैं; ४ उतनी भूमि दर्पणतलके सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है; १. सौधर्म इन्द्रकी आज्ञासे मेषकुमारदेव सुगन्धित जलकी वर्षा करते है,६. देव बिक्रियासे फलोंके भारसे नम्रोभूत शालि और जौ आदि सस्यको रचते हैं, ७. सब जीवोंको नित्य आनन्द उत्पन्न होता है। ८. वायुकुमारदेव विक्रियासे शीतल पवन चलाता है; ६. कूप और तालाब आदिक निर्मल जलसे पूर्ण हो जाते हैं; १०. आकाश धुआँ
और उल्कापातादिसे रहित होकर निर्मल हो जाता है; ९१. सम्पूर्ण जीवोंको रोग आदिकी बाधायें नहीं होती है; १२, यक्षेन्द्रों के मस्तकोंपर स्थित और किरणोंसे उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्म चक्रोंको देखकर जनोंको आश्चर्य होता है; १३. तीर्थंकरों के चारों दिशाओंमें (व विदिशाओं में) छप्पन सुवर्ण कमल, एक पादपीठ,
और दिव्य एवं विविध प्रकारके पूजन द्रव्य होते हैं/१०७-११४ । चौतीस अतिशयोंका वर्णन समाप्त हुआ/(ज. प./१२/१३-११४) (द.पा./टी./३५/२८)
७. इतने ही नहीं और भी अनन्तों अतिशय होते हैं स.म./१/८/४ यथा निशीथचूणौँ भगवतां श्रीमदर्हतामष्टोत्तरसहस्रसंख्यामाह्यलक्षणसंख्याया उपलक्षणत्वेनान्तरणलक्षणानां सत्त्वादीनामानन्त्यमुक्तम्। एवमतिशयानामधिकृतपरिगणनायोगेऽप्यपरितत्वमविरुद्धम् । - जिस प्रकार निशीथ चूर्णि' नाम ग्रन्थमें श्री अर्हन्त भगवान्के १००८ बाह्य लक्षणोंको उपलक्षण मानकर सत्त्वादि अन्त रंग लक्षणोंको अनन्त कहा गया है, उसी प्रकार उपलक्षणसे अतिशयोंको परिमित मान करके भी उन्हे अनन्त कहा जा सकता है। इसमें कोई शास्त्र विरोध नहीं है।
८. भगवानके ८ प्रातिहार्य ति.प./४/१५-६२७/भावार्थ-१. अशोक वृक्ष; २. तीन छत्र; ३. रत्न
खचित सिंहासन, ४, भक्ति युक्त गणों द्वारा वेष्टित रहना १. दुन्दुभि नादः ६. पुष्पवृष्टिः ७. प्रभामण्डल; ८. चौसठ चमरयुक्तता (ज. प./१३/१२२-१३०।। * अष्टमंगल द्रव्योंके नाम-वे. चैत्य/१/१९ । * अर्हन्तको जटाओंका सद्भाव व असद्भाव-वे.केशलोच/४ * अर्हन्तोंका पीतराग शरीर-दे चैत्य/१/१२ ।
२. अर्हन्तके भेद सत्तास्वरूप/३८ सात प्रकारके अहंत होते हैं। गाँच, तीन व दो कण्याणकयुक्त (देखो तीर्थकर/१). सातिशय केवली अर्थात गन्धकुटी युक्त केवली, सामान्य केवली अर्थात मूक केवली, उत्सर्ग केवली, और अन्तकृत केवली । और भी दे. केवली/१।
३. भगवान में १८ दोषोंके अभावका निर्देश नि. सा/मू/4 "नहताहभीरुरोसो रागो मोहो चिंताजरारुजामिच्चू ।
स्वेद खेद मदो रह विम्पिणिहाजणुव्वेगो ६-१. क्षुधा, २. तृषा, ३. भय, ४, रोष (क्रोध), . राग, ६. मोह, ७.चिन्ता, ८. जरा. १.रो १०. मृत्यु, ११. स्वेद, १२.खेद, १३, मद, १४.रति, १५. विस्मय, १६. निद्रा, १७. जन्म और १८. उद्वेग (अरति-ये अठारह दोष हैं) (ज. प./१३/८५-८७) द्र, स/टी/१०/२१०)।
४. भगवानुके ४६ गुण चार अनन्त चतुष्टय, ३४ अतिशय और आठ प्रतिहार्य, ये भगवान्के ४६ गुण हैं।
५. भगवान्के अनन्त चतुष्टय (अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त मुख और अनन्त वीर्य-ये चार
अनन्त चतुश्य कहलाते हैं-विशेष दे. चतुष्टय ।
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अर्हन्त
१३८
अलका
* अर्हन्तोंके मृत शरीर सम्बन्धी कुछ धारणाएँ-दे __मोक्षा। * अर्हन्तोका विहार व दिव्य ध्वनि-दे वह वह नाम । * भगवान्के १००८ नाम-दे म. पु /२५/१००-२१७ ।
९. भगवान्के १००८ लक्षण म पु/१५/३७-४४/केवल भाषार्थ-श्रीवृक्ष, शख, कमल, स्वस्तिक,
अकुश, तोरण, चमर, सफेद छत्र, सिहासन, पताका, दो मीन, दो कुम्भ, कच्छप, चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान. भवन, हाथी, मनुष्य, स्त्रियाँ, सिंह, बाण, धनुष, मेरु, इन्द्र, देवगंगा. पुर, गोपुर, चन्द्रमा, सूर्य, उत्तम घोडा, ताल वृन्त (परखा), बाँसुरी, वीणा, मृदंग, मालाएँ, रेशमी वस्त्र, दुकान, कुण्डल आदि लेकर चमकते हुए चित्र विचित्र आभूषण, फल सहित उपवन, पके हुए वृक्षोसे सुशोभित खेत, रत्नद्वीप, वज्र, पृथिवी, लक्ष्मी, सरस्वती, कामधेनु, वृषभ, चूडामणि, महानिधियों, कल्पलता. सुवर्ण, जम्बूद्वीप, गरुड, नक्षत्र, तारे, राजमहल, सूर्यादि ग्रह, सिद्धार्थ वृक्ष, आठ प्रातिहार्य, और आठ मगल द्रव्य आदि, इन्हे लेकर एकसौ आठ लक्षण और मसूरिका आदि नौ सौ व्यजन भगवान के शरीरमें विद्यमान थे। (इस प्रकार १०८ लक्षण + १०० व्यजन-१००८) (द पा टो/३/२७) * अर्हन्तके चारित्रमें कथश्चित् मलका सद्धाव (दे.केवली।
२/सयोगी व अयोगीमें अन्तर)। * सयोग केवली--दे. केवली ।
१०. सयोग केवली व अयोगकेवली दोनों अहंन्त है ध./८/३,४१/८/२ ख विदधादिकम्मा केवलणाणेण दिवसबहा अरहता णाम |-जिन्होने घातिया कर्मोको नष्ट कर केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोको देख लिया है वे अरहन्त है। (अर्थात सयोग व अयोग केवलो दोनो हो अर्हन्त सज्ञाको प्राप्त है।) * सयोग व अयोग केवलीमें अन्तर--दे केवली/२ ।
११. अर्हन्तोंको महिमा व विभूति नि, सा /मू ७१ घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया ।
चोत्तिसअदिसयजुत्ता अरिहता एरिसा होति ।-घनघातिकर्म रहित केवलज्ञानादि परमगुणो सहित, और चौतीस अतिशय युक्त ऐसे
अर्हन्त होते है । (क्रि क./३-१/१) नि. सा/ता वृ/७ में उद्धृत कुन्दकुदाचार्यको गाथा-"तेजो दिट्टी णाण इड्ढो सोकव तहेव ईसरिय। तिहुबणपहाणदइय माहप्प जस्स सो अरिहो । तेज (भामण्डल), केपलदर्शन, केवल ज्ञान, ऋद्धि (समवसरणादि) अनन्त सौरव्य, ऐश्वर्य, और त्रिभुवनप्रधानवल्लभपना
-ऐसा जिनका माहात्म्य है, वे अर्हन्त है। बो. पा./मू /२६ दसण अण तणाणे मोक्खो णडटकम्मबंधेण। 'णिरुपमगुणमारूढो अरहतो एरिसो होइ ॥२६॥ जाके दर्शन और ज्ञान ये तौ अनन्त है, बहुरि नष्ट भया जो अष्ट कर्मनिका बन्ध ताकरि जाके मोक्ष है, निरुपम गुणोपर जो आरूढ है ऐसे अर्हन्त होते हैं । ( सं /
मू./५०) (पंध/उ./६०७) ध.१/१.१.१/२३-२५/४५/केवल भावार्थ-मोह, अज्ञान व विघ्न समूहको नष्ट कर दिया है ॥२३॥ कामदेव विजेता, त्रिनेत्र द्वारा सकलार्थ व त्रिकालके ज्ञाता, मोह, राग, द्वेष रूप त्रिपुर दाहक तथा मुनि पति हैं ॥ २४ ॥ रत्नत्रयरूपा त्रिशूल द्वारा मोहरूपी अन्धासुरके विजेता, आत्मस्वरूप निष्ठ, तथा दुनयका अन्त करने वाले ॥२५॥ ऐसे
अर्हन्त होते है। त. अनु. / १२३-१२८ केवल भावार्थ-देवाधिदेव, घातिकम विनाशक अनन्त चतुष्टय प्राप्त ॥१२३॥ आकाश तलमें अन्तरिक्ष विराजमान, परमौदारिक देहधारो॥१२४॥ ३४ अतिशय व अष्ट प्रातिहार्य युक्त तथा
मनुष्य तिर्यंच व देवो द्वारा सेवित/१२५ ॥ पचमहाकल्याणकयुक्त, केवलज्ञान द्वारा सकल तत्त्व दर्शक/१२६ ॥ समस्त लक्षणोंयुक्त उज्ज्वल शरीरधारी,अद्वितीय तेजवन्त, परमात्मावस्थाको प्राप्त/१२७१२८ ॥ ऐसे अर्हन्त होते है। अर्ह (सत्र)-भ आ /वि /६७/१६४/१ अरिहे अर्ह. योग्य । सविचारभक्तप्रत्याख्यानस्याय योग्यो नेति प्रथमोऽधिकार । अरिह
-अर्ह अर्थात योग्य। सविचारभक्त प्रत्याख्यान सल्लेखनाके लिए कौन व्यक्ति योग्य होता है और कौन नही, इसका वर्णन 'अहं' सूत्रसे किया जाता है। यह प्रथमाधिकार है। ( विस्तारके लिए दे. भ आ /मू./७१-७६) अर्हत-दे अर्हन्त । अर्हत्पासा केवली-कवि वृन्दावन (ई १७६१-१८५८) द्वारा हिन्दी भाषामें रचित, भाग्य निर्णय विषयक छोटा-सा एक ग्रन्थ है। इसमें एक लकडीका पासा फैककर उसपर दिए गए चिह्नोके आधारपर भाग्य सम्बन्धी बाते जानी जाती है। अर्हत्सेन-सेन लघकी गुर्वावलोके अनुसार आप दिवाकरसेनके शिष्य तथा लक्षमणसेन के गुरु थे।-समय-वि ६८०-७२० (ई. ६२३६६३) विशेष दे इतिहास/9६।१ (प पु/मू /१२३/१६७), २. (प पु/ प्र. १६/प पन्नालाल) अईदत्त-मूलसंघ की पट्टावली के अनुसार भगवान महावीरकी मूल परम्परामें लोहाचार्य के पश्चादवाले चार आचार्योमे आपका नाम है। समय-वी. नि ५६५-५८५, ई ३८-५८ । विशेष दे इतिहास/४/४। ईदत्त सेठ--(प पु/सर्ग/श्लो न.) वर्षायोगमें आहारार्थ पधारे गगन विहारी मुनियोको ढोगी जानकर उन्हे आहार न दिया। पीछे आचार्य के द्वारा भूल सुझाई जानेपर बहुत पश्चात्ताप किया/१२/ २०-३१) । फिर मथुरा जाकर उक्त मुनियोको आहार देकर सन्तुष्ट हुआ। (६२/४२)। अर्हदबलि-(ष ख १/प्र. १४,२८/H. I Jan) पूर्व देशस्थ पुण्ड्रवर्धन देशके निवासी आप बडे भारी सघनायक थे। पंचवर्षीय युग-प्रतिक्रमणके समय आपने दक्षिण देशस्थ महिमा नगर (जिला सतारा) मे एक बडा भारी यति सम्मेलन किया था। यतियोमें कुछ पक्षपातकी गन्ध देखकर उसी समय आपने मूल संघको पृथक पृथक अनेक सघामें विभक्त कर दिया था ॥१४॥ आ धर सेनका पत्र पाकर इस सम्मेलनमेसे हो आपने पुष्पदन्त और भूतबला नामक दो नवदीक्षित साधुओको उनको सेवामे भेजा था। एकदेशागधारी होते हुए भी सध भेद निर्माता होनेके कारण आपका नाम श्रुतधरोकी परम्परामे नहीं रखा गया है। समय-वी. नि, ५६५५६३ (ई ३८-६६) । (विशेष दे परिशिष्ट/२/७) अहंद्भक्ति-दे भक्ति/१। अलंकारोदय-(प.पु/४/श्लो न.)-पृथिवीके भीतर अत्यन्त गुप्त एक सुन्दर नगरी थी/१६२-१६४। इसको रावणके पूर्वज मेघवाहनके लिए राक्षसाके इन्द्र भोम सुभोमने रक्षार्थ प्रदान की थी। अलंभषा-रुचक पर्वत निवासिनी एक दिककुमारी देवी-दे,
लोक ५/१३ । अलक-एक ग्रह-दे ग्रह। अलका-१ विजयाध की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दै विद्याधर, २. पूर्वके दूसरे भवमे 'रेवती' नामकी धाय थी। इसने कृष्ण के पूर्व भवमें अर्थात् नि मिकको पर्यायमे उसका पालन किया था/१४४१४५ । वर्तमान भव मे भद्रिला नगरमें सुदृष्टि नामा सेठकी स्त्री हुई।
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अलाभ
१३९
अल्पबहुत्व
१६७। इसने कृष्ण के छ भाइयों को अपने छ मृत पुत्रोके बदले में पाला था। ३५-३६।
अलाभ-दे लाभ।
अलाभ परिषह-स. सि./६/६/४२५ वायुवदसंगादनेकदेशचारिणोऽभ्युपगतेककालसभोजनस्य वाच यमस्य तत्ससमितस्य वा सकृत्स्वतनुदशनमात्रतन्त्रस्य पाणिपुटमात्रपात्रस्य बहुषु दिवसेषु बहुषु च गृहेषुभिक्षामनवाप्याप्यस क्लिष्टचेतसो दातृविशेषपरीक्षानिरुत्सुकस्यलाभादप्यलाभो मे परम तप इति सतुष्टस्यालाभविजयोऽवसेय ।
वायुके समान नि सग होनेसे जो अनेक देशो में विचरण करता है, जिमने दिनमे एक बारके भोजनको स्वीकार किया है, जो मौन रहता है या भाषा समितिका पालन करता है, एक बार अपने शरीरको दिखलाना मात्र जिसका सिद्धान्त है, पाणिपुट ही जिसका पात्र है, बहुत दिनो तक या बहुत घरोमे भिक्षा न प्राप्त हानेपर जिसका चित्त सक्लेशसे रहित है, दाताविशेषकी परीक्षा करने में जो निरुत्सुक है, तथा लाभसे भी अलाभ मेरे लिए परम तप है, इस प्रकार जो सन्तुष्ट है, उसके अलाभ परिषहजय जानना चाहिए। (रा वा/8/8/२०/६११/१८) (चा सा/१२३/४)। अलेवड-भ आ/वि /७००/८८२/७ अलेवड अलेपसहित, यन्न हस्ततल विलिम्पति। -अलेवड-हाथको न चिपक्नेवाला माड ताक वगैरह। अलोक-अलोकाकाश-दे आकाश १,२ । अलौकिक-दे. लोकोत्तर । अलौकिक गणना प्रमाण-दे प्रमाण ५ । अलौकिक शुचि-दे शुचि । अल्पतर बंध-दे. प्रकृति बध१॥ अल्पबहत्व-पदार्थाका निर्णय अनेक प्रकारसे किया जाता हैउनका अस्तित्व व लक्षण आदि जानकर, उनकी सरव्या या प्रमाण जानकर तथा उनका अवस्थान आदि जानकर। तहाँ पदार्थोकी गणना क्योकि सख्याको उल्लघन कर जाती है और असख्यात व अनन्त कहकर उनका निर्देश किया जाता है, इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि किसी भी प्रकार उस अनन्ता असख्यमें तरतमता या विशेषता दर्शायी जाय ताकि विभिन्न पदार्थाकी विभिन्न गणनाओ का ठीक-ठीक अनुमान हो सके। यह अल्पबहूत्व नामका अधिकार जैसा कि इसके नामसे हा विदित है इसो प्रयाजनकी सिद्धि करता है।
२. षट् द्रव्योका षोडशपदिक अल्प बहुत्व । ३ जीव द्रव्यप्रमाणमे ओघ प्ररूपणा। १ प्रवेशको अपेक्षा। २. सचयकी अपेक्षा। ३ सम्यक्त्वमें संचयकी अपेक्षा । ४. गतिमार्गणा १-२. पाँच गति ब आठ गतिकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा। ३-६, चारो गतियोकी पृथक्-पृथक् सामान्य, ओघ व आदेश प्ररूपणाएँ। ५ इन्द्रिय मार्गणा १. इन्द्रियोकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा । २ इन्द्रियोमे पर्याप्तापर्याप्तकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा। ३ ओघ व आदेश प्ररूपणा। ६. काय मार्गणा १ त्रस स्थावरकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा । २ पर्याप्तापर्याप्त सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा । ३. बादर सूक्ष्म सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा। ४ बादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्तको अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा । ५ ओध व आदेश प्ररूपणा । ७. गति इन्द्रिय व कायको सयोगी परस्थान प्ररूपणा । ८ योग मार्गणा १ सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररुपणा। २ विशेषकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा। ३ ओध व आदेश प्ररूपणा । ९ वेद मार्गणा १ सामान्यको अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा । २. विशेषको अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
३ तीनो वेदोकी पृथक-पृथक ओघ व आदेश प्ररूपणा । १० कषाय मार्गणा
१ कषाय चतुष्ककी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा ।
२ कषाय चतुष्ककी अपेक्षा ओघ व आदेश प्ररूपणा। ११. ज्ञान मार्गणा
१. सामान्य प्ररूपणा।
२. ओघ व आदेश प्ररूपणा। १२ संयम मार्गणा
१ सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा । २ विशेषकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
३. ओघ व आदेश प्ररूपणा । १३. दर्शन मार्गणा
१. सामान्य व २. ओघ व आदेश प्ररूपणा । १४. लेश्या मार्गणा
१ सामान्य व २. ओध व आदेश प्ररूपणा । १५. भव्य मार्गणा
१ सामान्य व २. ओघ व आदेश प्ररूपणा। १६ सम्यक्त्व मार्गणा
१ सामान्य व २. ओघ व आदेश प्ररूपणा। १७. संज्ञी मार्गणा १ सामान्य व २. ओघ व आदेश प्ररूपणा।
१. अल्पबहत्व सामान्य निर्देश व शकाएँ १ अल्पबहुत्व सामान्यका लक्षण । २ अल्पबहत्व प्ररूपणाके भेद । ३. संयतकी अपेक्षा असयतकी निर्जरा अधिक कैसे । ४. सिद्धोके अल्पबहुत्व सम्बन्धी शका। ५ वर्गणाओके अल्पबहुत्व सम्बन्धी दृष्टिभेद । ६. पचशरोर विस्र सोपचय वर्गणाके अल्पबहुत्व दृष्टिभेद ।
७. मोह प्रकृतिके प्रदेशाग्रो सम्बन्धी दष्टिभेद । २. ओघ आदेश प्ररूपणाएँ * प्ररूपणाओ विषयक नियम तथा काल व क्षेत्र के
आधार-पर गणना करनेकी विधि । दे सख्या/२ । १. सारणीमे प्रयुक्त संकेतोके अर्थ ।
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अल्पबहुत्व
सूचीपत्र
१८. आहारक मार्गणा १ सामान्य व २. ओघ व आदेश प्ररूपणा ।
३ अनाहारककी ओघ व आदेश प्ररूपणा । ३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ १. सिद्धोकी अनेक अपेक्षाओसे अल्पबहत्व प्ररूपणा १ सहरण सिद्ध व जन्म सिद्धकी अपेक्षा। २. क्षेत्रको अपेक्षा (केवल सहरण सिद्धो में)। ३ कालको अपेक्षा। ४. अन्तरकी अपेक्षा। ५ गतिको अपेक्षा । ६. वेदनानुयोगको अपेक्षा। ७. तीथंकर ब सामान्य केवलीकी अपेक्षा । ८. चारित्रको अपेक्षा। १ प्रत्येकबुद्ध व बोधितबुद्धकी अपेक्षा। १० ज्ञानको अपेक्षा ११ अवगाहनाकी अपेक्षा । १२ युगपद प्रन सिद्धोंकी सख्या की अपेक्षा। २. १-१, २-२ आदि करके सचय होनेवाले जीवोकी
अल्प बहुत्वप्ररूपणा १. गति आदि १४ मार्गणाकी अपेक्षा । ३. २३ वर्गणाओ सम्बन्धी प्ररूपणाएँ १. एक श्रेणी वर्गणाके द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा। २ नाना श्रेणी वर्गणाके द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा। ३. नाना श्रेणी प्रदेश प्रमाणकी अपेक्षा । ४. उपरोक्त तीनोंकी स्व व परस्थान प्ररूपणा ४. पंच शरीर बद्ध वर्गणाओकी प्ररूपणा १ पच वर्गणाओके द्रव्य प्रमाणकी अपेक्षा । २ पंच वर्गणाओकी अवगाहनाकी अपेक्षा। ३ पंच शरीरबद्ध विनसोपचयोकी अपेक्षा। ४. प्रत्येक वर्गणामें समय प्रबद्ध प्रदेशोकी अपेक्षा। ५ शरीर बद्र विस्रसोपचयोको स्व व परस्थानकी अपेक्षा। ६. पच शरीरबद्ध प्रदेशोकी अपेक्षा। ७. औदारिक शरीरबद्ध प्रदेशोकी अपेक्षा । ८. इन्द्रिय बद्ध प्रदेशोकी अपेक्षा । * पाँचो शरीरोमें प्रथम समय प्रबद्धसे लेकर अन्तिम समय प्रबद्ध तक बन्धे प्रदेशप्रमाणकी अपेक्षा । दे (प.ख.१४/५,६/
सू २६३-२८६/३३६-३५२) । * पॉचो शरीरोकी ज. व उ. स्थिति या निषेकोंके प्रमाणकी
अपेक्षा ।-दे (ध ख १४/५.६/सू ३२०-३३६/३६६-३६४) । पाँचो शरीरोके ज उ व उभय स्थितिगत निषेकों में प्रदेश प्रमाणकी अपेक्षा । -दे. (ष.ख.१४/५,६/सू.३४०-३८६/३७२-३८७)। उपरोक्त प्रदेशागों में एक व नाना गुणहानि स्थानान्तरों की
अपेक्षा।-दे (ष ख १४/५.६/सू ३६०-४०६।३८७-३६२) । * उपरोक्त निषेको के ज. उ. व उभय प्रदेशाग्र प्रमाणकी अपेक्षा ।
-दे. (ष.ख.१४/५.६/सू.४०७-४१५/३६२-३६५)। पाँचो शरीरोंमें बन्धे प्रदेशाग्रों के अविभाग प्रतिच्छेदोंकी
अपेक्षा ।-दे. (ष ख.१४/५.६/सू.५१५-५१६/४३७ ३८ । * पच शरीरोंके पुद्गलस्कन्धोंको संघातन, परिशातन, उभय
व अनुभयादि कृतियोंकी अपेक्षा |-दे. (ध.६/४,१,७१/२४६-३५४)।
५. पंच शरीरोंकी अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ १ सूक्ष्मता व स्थूलताकी अपेक्षा। २. औदारिक शरीर विशेषकी अवगाहनाकी अपेक्षा। * पंच शरीरोंके पुदगलस्कन्धोंकी संघातन परिशातन आदि
कृतियों में गृहीत परमाणुओंके प्रमाणकी अपेक्षा ।-दे. (ध//
४.१,७१/३४६-३५४)। * ज उ अवगाहना क्षेत्रोकी अपेक्षा ।-दे (ध.१९/पृ.२८)।
३ पंचेन्द्रियोंकी अवगाहनाको अपेक्षा। ६. पाँचो शरीरोके स्वामियोकी ओघ व आदेश प्ररूपणा ७ जीवभावोंके अनुभाग व स्थिति विषयक प्ररूपणा १ संयम विशुद्धि या लन्धि स्थानोंकी अपेक्षा। २ १४ जोव समासों में संक्लेश व विशुद्धि स्थानोंकी अपेक्षा । ३. दर्शन ज्ञान चारित्र विषयक भाव सामान्यके अवस्थानों की
अपेक्षा स्व व परस्थान प्ररूपणा। ४. उपशमन व क्षपण कालकी अपेक्षा। ५. कषाय काल की अपेक्षा। ६. नोकषाय बन्धकालकी अपेक्षा । ७ मिथ्यात्वकाल विशेषकी अपेक्षा। (अर्थात् भिन्न-भिन्न जीवोंके
मिथ्यात्वकालका अल्पबहुत्व)। * अध प्रवृत्ति करणकी विशुद्धियोंमें तरतमताकी अपेक्षा ।
-दे. (ध.६/११-८,१६/१७५-३७८)। * संयमासंयम लब्धिस्थानो में तरतमताको अपेक्षा।-दे.ध.५/
१,६-८,१४/२७६/७)। ८. जीवोके योग स्थानोकी अपेक्षा अल्पबहत्व प्ररूपणाएं १. योग सामान्यके यवमध्य कालकी अपेक्षा । २ योगस्थानों के स्वामित्व सामान्यकी अपेक्षा। ३ योग स्थान सामान्य में परस्पर अल्पबहत्व। ४. जीव समासों में जघन्योत्कृष्ट योगस्थानोंको अपेक्षा १. प्रत्येक योगके अविभाग प्रतिच्छेदोकी अपेक्षा । ९. कर्मोके सत्त्व व बन्धस्थानोकी अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ १. जीवोंके स्थिति बन्धस्थानोकी अपेक्षा। २. स्थिति बन्धमें जघन्य व उत्कृष्ट स्थानों की अपेक्षा। ३. स्थितिबन्धके निषेकोंकी अपेक्षा।
अनिवृत्ति गुणस्थानमें स्थितिबन्धको अपेक्षा ।-दे (ध. १६-८,१४/२६७/४)। उपशान्तकषायसे उतरे अनिवृत्तिकरण में स्थितिबन्धकी अपेक्षा ।-दे. (ध.६/१,६,८,१४/३२४/३) । चारित्रमोह क्षपक अनिवृत्तिकरणके स्थितिबन्धकी अपेक्षा । -दे. (ध ६/१,६-८,१४/३५०/२) (विशेष दे. आगे अल्पबहुत्व/२/११।
मोहनीय कर्म के स्थितिसस्वस्थानोंकी अपेक्षा। १. बन्धसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्त्वके जघन्य स्थानोंकी अपेक्षा । ६ हत्समुत्पत्तिक अनुभागसत्त्वके जघन्य स्थानोकी अपेक्षा।
अष्टकर्मप्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागकी६४ स्थानीय स्वस्थान ओघ व आदेश प्ररूपण। अष्टकर्म प्रकृतियों के जघन्य अनुभागकी६४स्थानीय स्वस्थान ओघ ब आदेश प्ररूपणा। अष्टकर्म प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागकी६४स्थानीय परस्थान ओघ प्ररूपणा। उपरोक्त विषयक आदेश प्ररूपणाएँ।--वे. (म../१४३६ ४४२/२३१-२३३)। अष्टकर्म प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागकी ६४ स्थानीय परस्थान ओध प्ररूपणा।
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अल्पबहुत्व
१ अल्प बहुत्व सामान्य निर्देश व शंकाएँ
* उपरोक्त विषयक आदेश प्ररूपणा--दे (म ५/६४४४
४५०/२३५-२३६)। एक समयप्रबद्र प्रदेशाग्रमे सर्व व देशपाती अनुभागके विभागकी अपेया। एक समयप्रबद्ध प्रदेशाग्रोमें निपेक सामान्यके विभागकी अपेक्षा।एक समयप्रबद्ध में अष्ट कर्म प्रकृतियोके प्रदेशाग्र विभागको
अपेक्षा। १४ जोव समासो में विभिन्न प्रदेशबन्धो की अपे। १५ आठ अपकर्षों की अपेक्षा आयुबन्धक जीवो की प्ररूपणा १६ आठ अपकर्षों मे आयुबन्धके कालकी अपेक्षा। १० अष्टकर्म सक्रमण व निर्जराकी अपेक्षा अल्पबहत्व प्ररूपणा
भिन्न गुणधारी जीवोमै गुणश्रेणी रूप प्रदेश निर्जराकी ११ स्थानीय सामान्य प्ररूपणा । भिन्न गुगवारो जोकोमे गुगवेगो प्रदेश निज राके काल की ११ स्थानीय प्ररूपणा। पॉच प्रकारके सक्रमणो द्वारा हत कर्मप्रदेशोके परिमाण में अल्पबहूत्व। प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्ति विधान मे अपूर्वकरणके काण्डक घातकी अपेक्षा ।--दे (ध ६/१,६,८,५/२२८/१) । द्वितीयोपशम प्राप्ति विधान में उपरोक्त विकल्प।--दे.(ध 6/ १,६.८.१५/२८६.१०)। अश्वकर्ण प्रस्थापक चारित्रमोह क्षपकके अनुभागसत्त्वकी अपेथा।-दे (ध ६/१,६,८,१२।२६३/६) । अपूर्वस्पर्धककरणमे अनुभाग काण्डकघातकी अपेक्षा । -दे (ध ६/१,६,८,१६/३६६/११) । चारित्रमोह पक्के अपूर्वकरण में स्थिति काण्डकघातकी अपेक्षा ।---दे (ध १,६,८,१६/३४४/८)। त्रिकरण विधानको अवस्था विशेषों के उत्कीरण कालो तथा स्थिति बन्ध व मत्य आदि विकल्पोकी अपेक्षा प्ररूपणाए। प्रथमापशम सम्यक्त्व का अपेक्षा ।--दे. (ध ६/१६-८,७/ २३६/८)। प्रथमोपशम ब वेदक सम्यक्त्व तथा सयमासयमको युगपत् ग्रहण करने की अपेक्षा ।--दे (ध ६/१६-८/११/२४७/१)। पुरुषवेद सहित काधके उदयसे आरोहण व अवरोहण करनेवाले नारित्रमोहोपशामक अपूर्वकरण के भिन्न-भिन्न प्रकृतियो के आश्रय सर्व विकल्परूप उत्कीरण कालोको अपेक्षा -दे (ध ६/१,६-८,१४/३३५/११) । दषनमोह क्षपककी अपेक्षा ।-दे. (ध ६/१,६-८.१२/ २६०/६)। अनवृत्तिकरण गुणस्थानमें चारित्रमोहकी यथायोग्य प्रकृतियोके उपशमनको अपेक्षा । -(ध.६/१,६-८,१४/
३०३/६)। ५१. अष्टकर्म बन्ध उदय सत्त्वादि १० करणोकी अपेक्षा
भजगारादि पदोमे अल्पबहत्वकी ओघ व आदेश
प्ररूपणाएं १. उदीरणाकी अपेक्षा अष्टकर्म प्ररूपणा २ उदय . . .
उपशमना ४ सक्रमण .
. बन्ध ६ मोहनीयकर्म विशेषके सत्त्व की अपेक्षा।
७ अष्टकर्मबन्ध वेदनामें स्थिति, अनुभाग, प्रदेश व प्रकृति
अन्धोकी अपेक्षा ओघ व आदेश स्व-पर स्थान अपबहुत्व
प्ररूपणाएँ। * प्रयोग व समनदान आदि षट्कर्मोकी अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणा
१४ मार्गणा आमें जीवो की तथा उनमे स्थित कर्मोंकी उपरोक्त षट् कर्मों की अपेक्षा प्ररूपणा । - दे. (ध.१३/५,
४.३१/१७५-१६५) । * निगाद जीवोकी उत्पत्ति आदि विषयक अल्पबहत्व
प्ररूपणा साधारण शरीरमें निगोद जीवोंका उत्पत्तिक्रम। निरन्तर व सान्तर कालोकी अपेक्षा ।-(प.ख.१/१४/५/. ५८७-६२८/-७४)। उपरोक्त कालों से उत्पन्न होनेवाले जीवों के प्रमाणकी अपेक्षा
-दे (ष, ख १४/५.६/सू ५८७-६२८/४७४) । १ अल्पबहत्व सामान्य निर्देश व शंकाए
१ अल्पबहुत्व सामान्यका लक्षण स सि /१०/६/४७३ क्षेत्रादिभेदभिन्नानां परस्परत. संख्या विशेषोऽस्पबहुत्वम् । -क्षेत्रादि भेदोकी अपेक्षा भेद को प्राप्त हुए जीवौकी परस्पर सख्याका विशेष प्राप्त करना अल्पबहुत्व है। (रा वा /१०/६/१४) ६४७/२७) रा वा /१/८/१०/४२/१६ मख्यातादिष्वन्यतमेन परिमाणेन निश्चितानामन्योन्य विशेषप्रतिपयर्थ मल्पमहत्ववचन क्रियते-हमे एभ्योऽत्पा इमे बहव इति । -मरण्यात आदि पदार्थो में अन्यतम क्सिी एक्के परिमाणका निश्चय हो जानेपर उनकी परस्पर विशेष प्रतिपत्तिके लिए अल्पबहूत्व करने में आता है। जैसे यह इनकी अपेक्षा अल्प है, यह अधिक है इत्यादि । (स सि./१/८/२६)। ध/१,८,१/२४२/७ किमप्पाबहुअं। संखाधम्मो एदम्हादो एवं तिगुणं चदुगुण मि दि बुद्धिगेझो। -प्रश्न-अल्पबहुत्व क्या है । उत्तरयह उससे तिगुणा है, अथवा चतुर्गुणा है इस प्रकार बुद्धिके द्वारा ग्रहण करने योग्य सख्यारे धर्मको अल्पबहुत्व कहते है।
२. अल्पबहुत्व प्ररूयणाके भेद ध १/१,८,१/२४१/१० (द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदि निक्षेपोंकी अपेक्षा अल्पनहुन अनेक भेद रूप है। (विशेष दे निक्षेप)
३. संयतको अपेक्षा असंयतकी निर्जरा अधिक कैसे ध १२/४,२,७,१७८/६ सजमपरिणामेहितो अण ताणुबंधि विसंजोए तस्स असंजदसम्मादिट्ठस्स परिणामो अण तगुणहीणो, कध स्त्तो असंखेउजगुणपदेसणिज्जरा। ण एस दोसो स जमपरिणामे हितो अणताणुबधीणं विसजोजणाए कारणभूदाणं सम्मत्तपरिणामाणमण सगुणत्तबलभादो। जदि सम्मत्तपरिणामे हि अण ताणुबधीर्ण विसंजोजणा कोरदे तो सव्वसम्माइट्ठोसु तब्भावो पसज्जदि त्ति बुत्ते ण, विसि
ठेहि चेत्र सम्मत्त परिणामे हि तविसजोयणभुवगमादि ति। प्रश्न--सयमरूप परिणामोकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करनेवाले अमतसम्यग्दृष्टिका परिणाम अनन्तगुणहीन होता है। ऐसी अवस्थामें उसमे असंख्य तगुणी प्रदेश निर्जरा कैसे हो सकती है । उत्तर--यह कोई दोष नही है--क्योकि स यमरूप परिणामोंकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी क्षायोकी विसंयोजनामें कारणभूत सम्यक्त्वरूप परिणाम अनन्तगुणे उपलब्ध होते है। प्रश्न-यदि सम्यक्त्वरूप परिणामोके द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायों की विसयोजना की जाती है तो सभो सम्यग्दृष्टि जीवोमें उसकी विसयोजनाका प्रसंग आता है। उत्तर--सब सम्यग्दृष्टियोमें उसकी विसं योजनाका प्रसंग
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अल्पबहुत्व
१४२
२. ओष आदेश प्ररूपणाएँ
अंगुल
अंत.
अप
नहीं आ सकता, क्योकि विशिष्ट सम्यक्त्वरूप परिणामोके द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायोको विसं योजना स्वीकारकी गयी है।
४. सिद्धोके अल्पबहत्व सम्बन्धी शंका घ/४,१,६६/३१८/७ एदमप्पाबहुग सोलसव दियअप्पाबहुएण सह विरुज्झदे, सिद्धकालादो सिद्धाण संखेज्जगुणत्तं फिट्टिदूण विसेसाहियत्तप्पसगादो । तेणेत्थ उवएसं लटि एगदरणिण्णओ कायवो । = यह अल्पबहुत्व (सिद्धोमें कृति सचय सबसे स्तोक है, अव्यक्त सचित असख्यातगुणे है, इत्यादि) षोडशपदादिक अल्पबहत्त्व (अल्पबहुत्व २/२) के साथ विरोधको प्राप्त होता है, क्योकि सिद्धकालकी अपेक्षा सिद्धोंके संरख्यातगुणत्व नष्ट होकर विशेषाधिकपनेका प्रसग आता है। इस कारण यहाँ उपदेश प्राप्त कर दो-में-से किसी एकका निर्णय करना चाहिए ।
५. वर्गणाओंके अल्पबहुत्व सम्बन्धी दृष्टिभेद ध १४/५.६,६३/१११/४ जहण्णादो पुण उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणा असंखेज्जगुणा । को गुणकारो। जगसेडीए असंखेज्जदिभागो। के वि आइरिया गुणगारो पुण आवलियाए अस खेज्जदिभागो होदि त्ति भणति. तण्ण घडदे । कुदो। बादरणिगोदवग्गणाए उक्कसियाएसेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तो णिगोदाण त्ति एदेण चूलियासुत्तेण स विरोहादो। अपनी जघन्यसे उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा असख्यातगुणी है। गुणकार क्या है । जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। कितने ही आचार्य गुणकार आवलिके असण्यातवे भाग प्रमाण होता है, ऐसा कहते है, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, 'उत्कृष्ट वादरनिगोदवर्गणामें निगोद जीवोंका प्रमाण जगश्रेणिके
असंख्यातवें भागमात्र है', इस चूलिकासूत्र के साथ विरोध आता है। ध. १४/५,६,११६/१६६/७ एत्थ के वि आइरिया उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणादो उवरिमधुबसुण्णएगसेडी असखेज्जगुणा । गुणगारो विघणाबलियाए असंखेज्जदिभागो त्ति भणं ति तण्ण घडदे । कुदो। सखेज्जेहि असंखेज्जेहि वा जोवेहि जहष्णवादरणिगोदवग्गणाणुप्पत्तीदो।..तम्हा अणंतलोगा गुणगारो ति एद चेवघेत्तव्यं । - यहाँपर कितनेही आचार्य उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणामे उपरिमध व शून्य एक श्रेणि असंख्यातगुणीहै,और गुणकार भी घनाव लिके असंख्यातवे भागप्रमाण है, 'ऐसा कहते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योकि सख्यात या असंख्यात जोवोंसे जघन्य बादरनिगोदवर्गणाकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए 'अनन्त लोक गुणकार है' यह वचन ही ग्रहण
करना चाहिए। ध.१४/५.६.११६/२१६/१३ कम्मइयवग्गणादो हेठिमाहारवग्गणादो उपरिमअगहणवग्गणमदाणगुणगारेहितो आहारादिवग्गणाणं अताणप्पायणहूं ठविदभागहारो अणंतगुणो त्ति के विआइरिया इच्छति, तेसिमहिप्पारण पुचिल्लमपाबहूगं परूविदं । भागाहारेहितो गुणगारा अणतगुणा त्तिके विआइरिया भणं ति। तेसिमहिप्पाणं एदमप्पाबहगं परूविज्जदे, तेणेसो ण दोसो। कार्माणवर्गणासे अधस्तन आहार वर्गणासे उपरिम अग्रहणवर्गणाके अध्वानके गुणकारसे आहारादि वर्गणाओं के अध्वानको उत्पन्न करने के लिए स्थापित भागाहार अनन्तगुणा है । ऐसा कितने ही आचार्य कहते है, इसलिए उनके अभिप्रायानुसार पहिलेका अल्पबहुत्व कहा है। तथा भागहारोंसे गुणकार अनन्तगुणे है ऐसा आचार्य कहते हैं इसलिए उनके अभिप्रायानुसार यह अल्पबहुत्व कहा जा रहा है। इसलिए यह कोई दोष नहीं है। ६.पंचशरीर विस्रसोपचय वर्गणाके अल्पबहुत्व-दृष्टिभेद ध. १४/५,६,५१२/४५/४५७/६ सव्वथ गुणगारो सव्वजोवेहि अणंतगुणो। एदमप्पाबहुग बाहिरवग्णाए पुधभूद त्ति काऊण के वि आइरिया जीवसंबद्धपचण्णं सरीराणं विस्सस्सुवचयस्सुवरि परूवेति तण्ण घडदे, जहण्णपत्तेयसरीरवगणादो उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए अणंतगुणप्पसगादो। - सर्वत्र गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा है। यह अल्पबहुत्व बाह्य वर्गणासे पृथग्भूत है, ऐसा मानकर कितने ही
आचार्य जीव सम्बद्ध पाँच शरीरोके विससोपचयके ऊपर कथन करते है, परन्तु वह घटित नही होता, क्योकि ऐसा मानने पर जघन्य प्रत्येक शरीरवर्गणासे उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणाके अनन्तगणे होनेका प्रसंग प्राप्त होता है।
७ मोह प्रकृतिके प्रदेशागों सम्बन्धी दृष्टिभेद क. पा. ४/३-२२/६३३६/३३४/११ सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्त
चरिमफाली असख्ये. गुणहोणा त्ति एगो उवएसो। अबरेगो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली तत्तो विसेसाहिया त्ति । एत्थ एदेसि दोण्ड पि उवएसाणं णिच्छय काउमसमत्येण जइबसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदा अवरेगो हिदिसंकम्मे। तेणेदे वे वि उबदेसा थप्प कादूण वत्तव्वा त्ति । - सम्यक्त्वको अन्तिम फालिसे सम्यग्मिथ्यात्वको अन्तिम फालि असख्यातगुणी हीन है, यह पहिला उपदेश है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालि उससे विशेष अधिक है यह दूसरा उपदेश है । यहाँ इन दोनो ही उपदेशोंका निश्चय करनेमें असमर्थ यतिवृषभ आचार्य ने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थिति सक्रमणमें लिखा, अत इन दोनो ही उपदेशोंको स्थगित करके कथन करना चाहिए । २. ओघ आदेश प्ररूपणाएँ
१. सारणीमें प्रयुक्त संकेतोंके अर्थ संकेत अर्थ | संकेत अर्थ अगु
ज.प्र जगप्रतर अतर्मुहूर्त
ज श्रे. जगश्रेणी अपर्याप्त
ते तेजस शरीर अप्र. अप्रतिष्ठित नि. अप. निवृत्यपर्याप्त असरख्यात
नि. प. निवृत्ति पर्याप्त आवली, आहारक पचे. पंचेन्द्रिय शरीर
पर्याप्त उत्कृष्ट
परि. परिणाम योग स्थान उपशम सम्यक्त्व या
पृथिवी उपशमश्रेणी उपपाद प्रति.
प्रतिष्ठित योग स्थान
बादर एकान्तानुवृद्धि ल,अप लब्धयपर्याप्त योगस्थान
वनस्पति औदारिक शरीर
वेदक सम्यक्त्व कार्मण शरीर
वै क्रियिक शरीर क्षपक श्रेणी
सख्यात क्षायिक सम्यक्त्व
सम्मूर्छन गुणकार या गुणस्थान
सामान्य जघन्य
सूक्ष्म २. षट् द्रव्योंका षोडशपदिक अल्पबहत्व ध.३/१,२,३/३०/७ द्रव्य
अल्पबहुत्व गुमकार वर्तमान काल
स्तोक अभव्यय राशि
अनन्त गुणी ज युक्तानन्त सिद्ध काल सिद्ध जीव
अस गुणे शत पुथक्त्व असिद्ध काल
स. आवली अतीत काल
विशेषाधिक सिद्ध काल भव्य मिथ्याष्टि अनन्त गुणे भव्य सामान्य
विशेषाधिक सम्यग्दृष्टि मिथ्या दृष्टि
अभव्य ससारी जीव
भव्य
आ,
बा.
वन
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अल्पबहुत्व
२ ओघ व आदेश प्ररूपणाएँ
गुण
सार्ण जी २.० विशेषाधिक सिद्ध पुद्गल द्रव्य अनन्त गुणे
सूत्र | मार्गणा गुण अल्पबहुत्व कारण व विशेष अनागत काल
| स्थान । अनन्त गुणा पुद्गल अनन्त सम्पूर्ण काल विशेषाधिक सर्व योग
३ । स गुणे १ सासादनसे सं.गुणा अलोकाकाश अनन्त गुणा कालxअनन्त
। सचय काल सम्पूर्ण आकाश विशेषाधिक लोक
। २ सासादनके उपरान्त
उपशम सम्यक्त्व ही ३.जीव द्रव्यप्रमाण में ओघ प्ररूपणा
प्राप्त होता है पर (ष.खं ५/१,८/सू १-२६)
इसके उपरान्त उपनोट-प्रमाणवाले कोष्ठकमें सर्वत्र सत्र न.लिखे है। वहाँ यया स्थान
| शम व वैदक सभ्यउस उस सूत्रकी टीका भी सम्मिलित जानना ।
कत्व तथा मिथ्यात्व
। तीनो प्राप्त होते है। सूत्र मार्गणा | गुण अल्पबहुत्व । कारण व विशेष अत्पबहत्व
३ उपशमसे वेदक स्थान
। सम्यग्दृष्टि स गुणे है। १. प्रवेशकी अपेक्षा
४ आ /अस गुणे। सम्य, मिथ्यात्वका उपशमक
। सचय काल अन्तर्मुहूर्त अधिकसे अधिक ५४
है व इसका २ सागर है। ६ ऊपर तुल्या जीवोका प्रवेश हो | १४
१ सिद्धो से । सम्भव है
अनन्त गुण वालाअनन्त
से गुणित क्षपक
१०८ तक जोबोका ३. सम्यकत्वमे संचयकी अपेक्षा ऊपर तुल्य प्रवेश सम्भव है
असयत । उप स्तोक क्षा आ /अस गुणे अधिक सचय काल
सुलभता स्तोक
तियचोमें अभाव तथा सयतासयत
दुर्लभ
क्षा, पन्य/अस.गु- तियंचोमें उत्पत्ति २ सचयकी अपेक्षा
आ/असं तियंचोमें उत्पत्ति तथा उपशमक
गुणे
सुलभ ८ स्तोक प्रवेशके अनुरूप ही | २१ ६ठा ७वॉ गुणस्थान
___ स्तोक
अल्प सचय काल तथा ६ ऊपर तुल्य सचय होता है। कुल
संयमकी दुलभता २६४ जीव संचित होने
अधिक सचय काल | सम्भव है
सुलभता २५ | ८-१०वाँ गुणस्थान उप स्तोक अल्प सचय काल तथा
श्रेणीकी दुर्लभता क्षपक दुगुने कुल ५६८ जीव सचित २६ /
क्षा, स. गुणे अधिक संचय काल चारित्र
उप स्तोक अल्प संचय काल ऊपर तुल्य
Jक्षा
| स. गुणे ! अधिक सचय काल ४. गति मार्गणा १ पाँच गतिकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा
(प.र्ख ७/२,१९/सू २-६) (मू.आ १२०७-१२०८) सं. गुणे ८८५०२ जीवोका संचय अक्षपक व अनुपशमक
| स्तोक नारकी
असं गुणे गुणकार-सूच्यगु./अस स गुणे २६६६६१०३ जीवोका ,.
अस गुणे ५६३४६२०६ जीबोका , सिद्ध
अनन्त गुणे गुणकार = भव्य/अनन्त पत्य/असं. मध्य लोकमे स्वम्भू
६ | तिर्यञ्च गुणे रमण पर्वतके परभागमें |
२.८ गतिकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणाअवस्थान २ | आ/अस एक समयमे प्राप्त सयता
(ए.ख ७/२,११/सू८-१३) गुणे संयतसे एक समय गत
मनुष्यणी
| स्तोक सासादन राशि अस | ६ मनुष्य
अस. गुणे गुणकारज.श्रे./असं. | गुणी है।
१० नारकी | ११| देव
सं.गणे
सं गुणा
| मनुष्य
देव
| दुगुने
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
अत्पबहुद
२ ओघ व आदेश प्ररूपणाएँ
मागणा
गुण अपमहत्त्व स्थान |"
कारण व विशेष
मार्गणा
स्थान
| अस्पम हुत्व
गुण ।
कारण व विशेष
विको
| स्तोक
स्तोक
१२/ देवी ३२ गुणी
५. मनुष्य गतिसिद्ध अनन्त गुणे ||
१. मनुष्य गतिकी सामान्य प्ररूपणा१५ तिर्यच
(ति १.४/२६३१-३३) (मू.आ.१२१२-१२१५) (ध ३/१,२.१४/६/२) ३. नरक गति१. नरकगतिकी सामान्य प्ररूपणा
अन्तीपज प
स्तोक (मू आ १२०६)
उत्तम भोगभूमिप स गुणे देवकुरु व उत्तरकुरु सप्तम पृ स्तोक | असख्यात बहुभाग क्रम मध्य भोगभूमि प
हरिव रम्यक ठी , असं. गुणे से पहिलोसे सप्त पृथिवी जधन्यभोगभूमि प.
हैमत्रत हैरण्यवत तक हानि समझना अनकस्थितकर्मभूप
भरत ऐरावत (ध ३/पृ २०७) अवस्थित ,, प
विदेह क्षेत्र लमध्यपर्याप्त
अस गुणे |
सर्व मनुष्य सामान्य । विशेषाधिक पर्याप्त+अपर्याप्त श्ली ,
२. मनुष्य गतिकी ओघ व आदेश प्ररूपणा२. नरकगतिकी ओघ व आदेश प्ररूपणा
(ष खं ५/१,८/सू ५३-८०) (प.व.४१.८/सू २७-४०)
मनुष्य सामान्य, मनुष्य प, मनुष्यणी नारकी सामान्य । २
उपशमक -१० स्तोक । प्रवेश व सचय दोनो स गुणे अधिक उपक्रमण काल
१९ । ऊपर तुल्य तीनोपरस्परतुल्य(५४जो) | असं गुणे | गुणकार आ /असं.
क्षपक
दुगुने | (१०८ जीव) असं. गुणे | ., म अगुल/असं,-ज प्र.१६
१२ | ऊपर तुल्य सम्यक्त्व अमं गुणे । गुणकार-पत्य/असं
प्रवेशापेक्षया अधिक संचय काल
| सं गुणे संचयापेक्षया गुणकार-आ/असं अक्षपक व अनुपश
मूलोधवत् नारकी सामान्यवत प्रथम पृ
दुगुने स्तोक
सं गुणे २-७
पृथक् पथक सं गुणे अस गुणे । गुगकार-आ/असं
..-अगु/असं.+जप्र क्रमेण २ ३, ४, ५, ६, ७
मनुष्य प व मनुष्यणी में
अमं गुणे | मनुष्य मा व अप असंयतोमे
___ स्तोक स्तोक
सम्यक्त्व
क्षा. | स गुणे सम्यक्त्व वे. असं, गुणे गुणकार-पल्य/अस... आ/असं संयतासंयतोंमें- क्षा, स्तोक
| क्षायिक्सम्यक्त्वी प्राय क्षा, | ... क्षायिकका अभाव
सम्यक्त्व
सयमास यम नही धरते ४ तिर्यच गति
या असंयमी रहते है या १. तिथंच गतिकी सामान्य प्ररूपणा
सयम ही धरते है। (ष रख ४१०८ सू ४१-५०) नोट-दे इन्द्रिय व काय मार्गणा
उप - स.गुणे
बह उपलब्धि २.तियं च गतिकी ओष व आदेश प्ररूपणा
अधिक आय (ष त्र.५/१,८/सू.४१-५०)
गुण स्थान ६.७ में
स्तोक मूलोधवत् तियं च सा , पंचे ति सा,पंचे प, योनिमति
सम्यक्त्व
स गुणे सामान्य
१ स्तोक | दुर्लभता २ असं. गुणे गुणकार- आ./असं | उपशमको में
स्तोक सं. गुणे
सम्यक्त्व
| स गुणे असं • गुणे | गुणकार-आ./असं. चारित्र
उप स्तोक अनन्तगुणे
क्षप / सं गुणे । असंयतोमेंस्तोक
३. केवल मनुष्यणीकी विशेषतासम्यक्त्व अस. गुणे गुणकार-आ./असं.
(ष खं ५/१८/सू.७५-७८)
भोगभूमि मे संचय गुण स्थान ४-७ मे । क्षा | स्तोक अप्रशस्त वेदमें क्षायिक संयतासयतो मेंस्तोक सम्यक्त्व
सम्यक्त्व दुर्लभ है। सम्यक्त्व अस गुणे गुणकार-आ/असं. |७६
| उप स गुणे क्षा.
अभाव
७७/
मूलोधवत
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष
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________________
सूत्र
७८
अल्पबहुत्व
८२
८३
८४
닷
८६
14
19
"
: : : ū & * * *
६१
२
६४
६५
मार्गमा
उपशमकोमें
सम्यक्त्व
६. देवगति
१. देवगतिकी सामान्य प्ररूपणा(सु.वा. १९९६)
कल्पवासी देवदेवी
भवनवासी"
८७
८८ भवनत्रिक देवदेवी
सौधर्म देवी सा
६६
६७
देव सामान्य
सम्यक्त्व
सौधर्म सहकार ६० आनत से उग्रैवेयक
सामान्य
95
व्यन्तर
ज्योतिषी
२. देवगतिकी ओघ व आदेश प्ररूपणा
उपरोक्त में सम्यक्त्व
६६ १००
१०१ सर्वार्थ सिद्धि में
१०२
37
(ष खं ५ / १,८ / सू८१-१०२ )
२
३
उपगेन में सम्यक्त्व
"
अनुदिशसे अपरा
जिसमें सम्यक्त्व
२६ पंचेद्रिय
१७ चतुरिन्द्रिय
सम्यक्त्व
५. इन्द्रिय मार्गणा
१८ त्रीन्द्रिय
डोडिय
१६
२० अनिन्द्रिय (सिड)
२१ एकेन्द्रिय
१०
गुण स्थान
क्षा,
उप
१
उप
क्षा
वे
२
उप
to
क्षा
१-४
२
३
१
उप
क्षा
अन्वडूख
स्तोक
स गुणे
वे
उप
क्षा
वे
उप
स्तोक
अस. गुणे
क्षा
"
स्तोक
सं गुणे
अस गुणे
स्तोक अस गुणे
17
स्तोक स गुणे अस गुणे
स्तोक
असं गुणे
स्तोक
संगुणे
१. इन्द्रियोंका अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा
(ष. ख ७ / २,११/ सू. १६-२१)
अस गुणे
सं गुणे
स्तोक
अस, गुणे
सगुणे स्तोक
असं गुणे
सगुणे स्तोक
सं गुणे सं गुणे
"
|
अनन्तगुणे
कारण व विशेष
उपरोक्तवत्
अधिक उपक्रमण काल
गुणकार = आ / असं
.. Xआ.- अस / ज प्र
अल्पस चय काल
गुणकार - आ / अस
सप्तम नरकवच
17
•गुणकार आ / अस गुणकार आ - अस / ज प्र
सप्तम पृथिवोवत् गुणकार = आ / अस
अभाव
देव सामान्यवत्
न
गुणकार आ / अस अधिक उपपाद
१४५
स्तोक
विशेषाधिक (पचे + पचे / आ / असं )
X ( ज प्र . / अस) अधिक
उपरोस + बहवा असं
गुणकार = आ / असं संचयकाल = सं. सागर
अन्य गुणस्थानोका अभाव = पल्य / अस गुणकार अधिक उपपाद अल्प संचय काल अधिक संचय काल अधिक उपपाद
मार्गणा सूत्र
२२
२३
२४
२५
y w u
२६
२७
२८
२६
३० ३१
३२
३३
३४
३५
३६
३७
३८
३६
४०
४१
४२
४३ ४४
४५
४६
४७
४८
४६
५०
पचेन्द्रिय प
द्रिय प
अल्पबहुत्व
कारण व विशेष
२. इन्द्रियों पर्यापर्यासकी अपेक्षा सामान्य रूप
(ति १४/३९४) (७/२.११/२२-३०) चतुरिन्द्रियप स्टोक ज. प्र./ प्रतरागुल - असं. विशेषा उपरोक्त + वह / आ. अस
श्रीन्द्रिय प
पचेन्द्रिय अप
चतुरद्रय अन त्रीन्द्रिय अप द्वीन्द्रिय अप
अनिन्द्रिय (सिद्ध)
एकेन्द्रिय बा.प.
अप
सा,
14
35 " प,
सा
सू अप
11 11
एकेन्द्र सा
३ ओघ व आदेश प्ररूपणा
(ष ख ५ / १.८ / सू १०३) एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक
पचे, सा. पंचे प
पंचे प
".
६. काय मार्गणा
त्रस सा. तेज सा.
त्रस प
पृथिवी सा
व
तेजप
गुण स्थान
वायु अप
अप.
11
तेज अप
पृथिवी अप.
अप् अप
५१
३२ पृथिवोप
५३ | अप्प
२. ओम व आदेश प्ररूपणार्थ
२-१४
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
93
अस गुणे गुणकार आ. / असं विशेषा, उपरोक्त + वह / आ अस
35
१. सस्थावर की अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा
अनन्तगुणे
असे मुझे विशेषा अस.
स गुणे
विशेषा
(पख ७/२,११३८४४) (२४/५/४६८-५०४/४६५)
( स.म २६ / ३३१ / ७)
गुणे
उपरोक्त
सामान्य
प्ररूपणावत्
मूलोघवद
१ अस समय से, असं गुणे
अप, सा
वायु सा.
अकाधिक (सिद्ध)
वनस्पति सा
२. पर्याप्तापर्याप्त सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा
०२.१९/४५-५३)
स्तोक असगुणे विशेषा
पर्याप्त + अपर्या
पर्या
पर्या
बा सा + सु सा.
अनन्त गुणे
अनन्तगुणे
एक मिथ्यात्व गुणस्थान
ही सम्भव है ।
स्तोक अस गुणे
विशेषा
13
विशेषाधिक उपरोक्त + वह लोक / अस
ज. प्र. / अस [असो] गुणकार उपरोक्त बहू-लोक/असं
ज. प्र. + प्रतरागुल / असं
उपरो+व+अस लोक
""
म गुणे
विशेषा. उपरोक्त + वह / अस. लोक
"
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________________
मल्पबहुत्व
२. ओघ व आदेश प्ररूपणाएँ
अल्पबहुख
कारण
स्थान
सूत्र मार्गणा
कारण व विशेष सूत्र मार्गणा स्थान
कारण व विशेष ५४ वायु प. विशेषा, उपरोक्त+बह/अस.लोक ८२
असं. गुणे | गुणकार-आ./असं १५ अकायिक (सिद्ध) अनन्त गुणे
८३ वायु बा.प.
गुणकार-प्रतरांगुल/असं. १६ वनस्पति अप.
८४ तेज बा, अप
| गुणकार- असं. लोक सं. गुणे
८वन.अप्रति प्रत्ये अप. ५८ सा. विशेषा पर्याप्त + अपर्याप्त ८६ , प्रति... अप.
ति प.४/३१४ मेंतेजकाय ५६ निगोद सा
बा,अप, को वन अप्रति ३ बादर सूक्ष्म सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणाएँ
प्रत्येक अप, से असं. गुण
बताया है। (ष खं ७/२,१९/सू ६०-७५)
८७ पृथिवी बा. अप्र.
गुणकार- असं, लोक १० त्रस सा. । स्तोक ज.प्र/असं,
८८ अप बा. . ६१ तेज बा, सा, अस. गुणे । गुणकार-असं. लोक
८६/ वायु बा. , ६२वन, प्रत्येक मासा
६० तेज सू. , ६३ बा. निगोद सा या
६१ पृथिवी सू. , विशेषाधिक| उपरोक्त+वह/असं. प्रतिष्ठित प्रत्येकमें
६२ अपकाय सू., उपलब्ध निगोद
६३/ वायु सू. , ६४ पृथिवी बा. सा.
६४ तेज सू.प.
सं.गुणे ६५ अप् बा. सा.
६५ पृथिवी सू.प.
विशेषाधिक उपरोक्त+वह/असं. ६६ मायु बा.सा.
६ अप् काय सू.प. ६ तेज सू.सा.
१७ बायु सू.प. 44 पृथिवी सू. सा. विशेषा. उपरोक्त+ वह/असं.लोक
१८ अकायिक (सद्ध)
अनन्त गुणे १६ अप. सू. सा.
वन साधारण बा.प. ७० वायु सू.सा
|" ,, , अप. असं गुणे 1 गुणकार-असं. लोक ७१ अकायिक (सिद्ध) अनन्त गुणे
" " , सा.
विशेषा, पर्याप्त + अपर्याप्त ७२/ वन मा.सा.
, , सू अप. असं. गुणे | गुणकार -- असं. लोक ७३/ " सू सा. असं. गुणे | गुणकार-असं. लोक १०३ , , , प
सं.गुणे ७४ वन. सा, विशेषा मा.+सू.
१०४ वन, साधा.सू. सा. विशेषाधिक | अपर्याप्त + पर्याप्त ७५ निगोद
१०४ बन सीधारध सा,
बादर+सूक्ष्म ४. बा.स. पपर्याप्तापर्याप्तकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा-१०६ निगोद
बादर प्रत्येक+मा.नि. (ष. खं ७/२,११/सू.७६-१०६) (ति.प.४/३१४)
प्रति. । स्तोक ७६ तेज बा.१.
५. ओघ व आदेश प्ररूपणा
| असं. प्रतरावली ७७ स. प. असं. गुणा | गुणकार-ज प्र./असं.
(ष.ख.१/१,८/सूत्र १०४) , अप.
-आ/असं, । त्रस काय सा.व.प. २-१४ [ मूलोधवत् ।
२ असंय. सम्य उस विशेष :
(मथ्य.)। से असं .गुणे (ति.प. ४/३१४)
। ७. गति इन्द्रिय व कायकी संयोगी पर-स्थान प्ररूपणा | पंचेन्द्रिय संज्ञो अप. तेजकाय वा. | विशेषके लिए देखो
(ष, ख ७/२, १९/सूत्र १-७६) प.से असं. इन्द्रिय मार्गणा नं.(२)
२। मनुष्य गर्भज प. । | स्तोक मनुष्य सा./४
३ मनुष्यणी,, , सं. गुणे
| सर्वार्थ सिद्धि देव
४या शुणे चतुरिन्द्रिय प०
तेज काय बा. प. | असं गुणे | गुण कार-असंप्रतरावली पचे असंज्ञी प. विशेषाधिक
विजयादि चार द्वीन्द्रिय प.
अनुत्तर विमान
गुणकार-पत्य/असं. त्रीन्द्रिय प
७ नव अनुदिश
गुणकार-सं. समय पंचे, असंज्ञी अप. आअंगुणे
हवा. उपरिम ग्रैवे. चतु अप. विशेषा.
हावाँ , त्री. अप
१० वा. द्वी. अप
११ ठा. मध्य... ७६ वन प्रत्येक प. असं गुणे गुणकार- पत्य/असं.
| १२ श्वाँ. . " ८० वन. प्रति, प्रत्ये.प..
१३ / ४था, " " ८१ पृथिवी बा. प
गुणकार-बा./असं । १४ ३रा. "
गुणा
तिगुनी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
१४७
मल्पबहुत्व
२. ओघ व आदेश प्ररूपणाएं
सत्र
मार्गणा
२५ २रा अधो प्रैवेयक १६ १ला. . १७| आरण अच्युत १८ आनत प्राणत १६/७वीं पृथिवी नरक
६ठी . .
शतार-सहसार २२ शुक्र महाशुक्र २३. ५वीं पृथिवी नरक २४ लातव कापिष्ठ २६ ४थी पृथिवी नरक २६ ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर २७ ३री पृथिवी नरक समाहेन्द्र स्वर्ग २९| सनत्कुमार , ३० २री पृथिवी नरक ३१ मनुष्य अप.
ssior wrior upt aar
३२ ईशान देव ३३ ईशान देवियाँ ३४ सौधर्म देव ३५ देवियाँ ३६ १ली पृथिवी नरक ३७ भवनवासी देव ३८ , देवियाँ ३६ चे तिर्य योनिमति
गुण
अल्पबहुत्व कारण व विशेष सूत्र मार्गणा स्पान | अन्पमहुत्व कारण व विशेष स्थान गुणकार-सं, समय १६ वायु काय वा प. असं गुणे -प्रतरागुल/असं. तेज , , अप.
" , असं. लोक ५८ वन, अप्रति. प्रत्येक
बा. अप.
५६ वन, प्रति, प्रत्येक असं गुणे गुणकार - (ज. श्रे.)३
बा अप. या निगोद श्रे) ३ | ६० पृथिवी काय आ.अप , - (ज श्रे) ४ ६१अप् काय वा, अप,
असं, गुणे | गुणकार- अस, लोक ६२ वायु १० . .
तेज काय सू. .. पृथिवी,, ,,
विशेषाधिक उपरोक्त+वह/अस.लोक अप .. , ६६/ वायु , , तेज ,
सं गुणा पृथिवी,, ,
विशेषाधिक उपरोक्त+अस.लोक ६६ अप काय ,, ७०/ वायु , , ..
७१ अकायिक (सिद्ध) अनन्तगुणे ,, -अस समय
७२/वन साधारण वा पा ,,, ,, अप
असं गुणा | गुणकार-असं. लोक .. " , सा.
विशेषाधिक | पर्याप्त+अपर्याप्त ... -(ज श्रे)
असं. गुणे गुणकार - अस, लोक २- अस.
सं.गुणे " -सूच्यंगुल/अस. ७७ , , , सा विशेषाधिक | पर्याप्त + अपर्याप्त ३२ गुणी ७० वन साधारण सा.
सूक्ष्म सा+बादर सा. सं. गुणे ७६ निगोद
विशेष-वन, प्रति.३२ गुणी
प्रत्येक बा.सा, असं गुणे - गुणकार-(घनौगुल)३] ८.योग मार्गणा
" | (घनागुल)३ -स | १ सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा३२ गुणी
(ष.व.७/२,११/सू.१०७-११०) असं. गुणे |, - (अस ज श्रे) १०७ मनोयोगी सा.
स्तोक देव सा./असं, (३-स) १०८ वचन ।
सं. गुणे स.गुणे
अयोगी (सिद्ध)
अनन्त गुणे ३२ गुणी
११० काय योगी सं. गुणे
२ विशेषकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा३२ गुणी
(ष. खं/७/२, ११/सू.१११-१२६) सं. गुणे
१११/ आहारक मिश्र योग स्तोक विशेषाधिक उपरोक्त+बह-आ./अस. १९२ आहारक काय योग दुगुने
| बै क्रियक मिश्र,
असं. गुणे ११४ सत्य मनो योग
सं. गुणे अर्स गुणे | गुणकार- आ./असं..
११५ मृषा मनो योग |विशेषाधिक उपरोक्त+ह+आ./अस ११६ उभय ..
११७ अनुभय, ११८ मनोयोगी सा
विशेषाधिक चारों मनोयोगी ५१६ सत्य वचन योग
सं गुणे असं.गुणे गुणकार = पत्य/अस,
१२० मृषा , ,
१२१] उभय .. . " -आ./अस. १२२/ बैंक्रियक काय योग
(१२३ अनुभय वचन योग १२४/ वचन योगो सा. | विशेषाधिक | चारों वचन योगी
(१०६/
४० व्यतर देव ४१ , देवियाँ ४२ ज्योतिषी देव ४३ देवियाँ ४४ चतुरिन्द्रिय प. ४५ पंचेन्द्रिय प. ४६) द्वीन्द्रिय प. ४७त्रीन्द्रिय प. ४८ पंचेन्द्रिय अप ४ चतुरिन्द्रिय अप. ५० त्रीन्द्रिय अप
द्वीन्द्रिय अप. ५२ वन. अप्रति, प्रत्येक
बा, प. ५३ वन, प्रति प्रत्येक
| बा.प.या निगोद ५४ पृथिवी बा प. ५० अप, काय बा.प. ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #163
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________________
अल्पबहुत्व
१४८
२. ओघ व मादेश प्ररूपणाएँ
अवपमहत्व
१२६/
१०६
दुगुणे
१००
9 - Norrn.
सूत्र मार्गणा गुण अल्पबहुत्व कारण व विशेष
मार्गणा
कारण व विशेष स्थान
| स्थान | १२५ अयोगी (सिद्ध) अनन्त गुणे
५. आहारक मिश्र काय योगकार्माण काय योग
(ष.ख,४१,८/सू.१३५-१३६) १२० औदारिक मिश्र, असं गुणे गुणकार-अन्तमुहुत १३६ सम्यक्त्व
क्षा. | स्तोक उपशम सम्यक्त्वमें १२८ औदारिक काय ,, सं गुणे ।
आहारक योग नहीं १२६/ काय योगी सा. । । विशेषाधिक चारों काय योगी
होता ३. ओघ व आदेश प्ररूपणा
९३६
वे. | संगुणे १ पाँचौ मनोयोगी, पाँचों वचन योगी, काय योगी सा,
६. कार्मण काय योगऔदारिक काययोगी इस प्रकार १२ योग वाले -
(ष.ख.५/१,८/सू.१३७--१४३) (ष ख.५/१,८/सू.१०५-१२१
१३ | स्तोक
२ | अस गुणे | गुणकार-पत्य/असं, १०० उपशमक ..८-१० स्तोक परस्पर तुत्य संचय
" -आ./असं. ऊपरतुल्य प्रवेश दोनो अपेक्षा
१ | अनन्त गुणे १०७९क्षपक
१४१ सम्यक्त्व
उप, स्तोक वैक्रियक मिश्रवत् असं. ऊपर तुज्य
१४२
क्षा सं. गुणे क्षायिक सम्यग्दृष्टियोका १०६ सयोग केवली प्रवेश अपेक्षा
मरण नहीं होता। क्योंकि सं.गुणे । संचय अपेक्षा
यदि देवोंसे मरण करे तो १११|| अनुपशमक
मनुष्यों में असक्षा सम्य अक्षपक सामान्य
का प्रसंग आ जायेगा। १२३ असं. गुणे | गुणकार-पत्य असं
परन्तु तिर्य व मनुष्यों " = आ /असं.
में असं क्षा. सम्य होते सं गुणे मनुष्य गतिवद
नहीं । नरकसे मरकर असं.गुणे गुणकार-आ/असं
देवोंमें जाते नहीं। अस गुणे मन-वचन योगकी अपेक्षा.
वे. । असं गुणे । गुणकार-पन्य/असं. अनन्तगुणे काय व औ. काययोग
8. वेद मार्गणा१९८ सम्यक्त्व ४-७ | मूलोधवत् की अपेक्षा
१. सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा१२० चारित्र | उप स्तोक
(ष ख.५/७/२,११/सूत्र १३०-१३३) १२१) |क्षप, । सं. गुणे
स्तोक १३०| पुरुष १३१) स्त्री
सं.गुणे २. औदारिक मिश्र योग
१३२ अपगत
अनन्त गुणे (ष.ख.४१,८/सू.१२२-१२७)
१३३ नपुंसक १२२ सयोग केवली । १३ । स्तोक
२. विशेषकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा१२३ असंयत सामान्य ४ | सं. गुणे
(ष.ख.७/२,१९/सूत्र १३४-१४४) १२४ ॥
असं 'गुणे | गुणकार- पत्य/अस १३४ नपुसंक संज्ञो गर्भज। | स्तोक १२५ १ | अनन्त गुणे
१३५ पुरुष , सं. गुणे १२६/ सम्यक्त्व
क्षा, स्तोक दुर्लभता १२७/ वे. सं. गुणे ।
१३९, नपुंसक , सम्पू.प. ३. वैक्रियिक काय योग
१३८ , ,, अप. असं गुणे गुणकार-आ./अर्स. (प.ख.५/१,८/सू. १२८)
१३६ स्त्री, गर्भज भोग. १२८ सर्व भंग १-४ | देवगति- ।
- पुरुष , , भोग. ऊपर तुल्य
९४० नपुंसक असंज्ञी गर्भज सा. वद
सं. गुणे
१४१ पुरुष , ४. वैक्रियिक मिश्र योग
१४२ स्त्री
. (प.ख.५/१,८/सू.१२६--१३४)
१४३, नपुंसक ,, सम्मू.प १२६/ सामान्य २ । स्तोक
१४४' " " "अप, ' अस गुणे । गुणकार- आ./असं. असं गुणे | गुणकार-आ./असं | ३. तीनों वेदोकी पृथक पृथक ओघ व आदेश प्ररूपणागुणकार-अगु/असं+जप्र
१. स्त्री वेद१३२/ सम्यक्त्व
उप. स्तोक उपशम श्रेणी में मृत्यु
(ष ख.४१-८/सूत्र १४४-१६१) बहुत कम होती है १४४ उपशमक
८-६ स्तोक
परस्पर तुल्य क्षा. सं.गुणे वे.
केवल १० जीव अस गुणे | गुणकार= पन्य/असं. १४५क्षपक
- दुगुने , २० जीव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
अल्पबहुत्व
२. ओघ व आदेश प्ररूपणाएँ
गुण
मुलभ
१४६
गुणस्थान ६-७ में १५७(सम्यक्त्व
उप.
१६०
8-१०
१२
मार्गणा
अल्पबहुत्व कारण व विशेष सूत्र स्थान
मार्गणागुण | अल्पबहुत्व | कारण व विशेष १४६ अक्षपक व अनुशमक ७ | स. गुणे मूलोघवत
१८४ असयतोमें सम्य. उप स्तोक १४७ ६ | दुगुने
क्षा. आ./असं.गुणे प्रथम पृथ्वी नरक में भी १४८
अस.गुणे
गुणकार-पत्य/असं. तियंच भी सम्मिलित (संयतासंयतों में क्षा.
| स्तोक पर्याप्त मनुष्य ही होते सुलभता सम्यक्त्व
है तियंच नहीं १५० ३. सं. गुणे - अन्य स्थानोसे आय
प./अ'गुणे ४ असं.गुणे | गुणकार-आ./अस
आ./असं.गुणे पृथक् पृथक् परस्पर १२ अन्य स्थानोंसे आय १८५ गुणस्थान ६-७ में
स्तोक अप्रशस्त वेदमें क्षायिक १५
गुणकार= घनांगुल सम्यक्त्व
की दुर्लभता अस/ज.प्र.
सं.गुणे १५३ गुणस्थान ४-५ में क्षा. स्तोक अन्प आय
१८७ १५४ सम्यक्त्व
सं.गुणे गुणकारा पाय/अस १८८ उपशमको में सम्य, | क्षा, स्तोक . . -आ./अस.
स. गुणे
१८६ चारित्र क्षा. १६
स्तोक
|क्षा स गुणे १५८
४. अपगत वेद-(प.ख ५/१,८/स.१९१-१९६) १५४ उपशमकोंमें सम्य। क्षा. | स्तोक
१६१) उपशमक
ह-१०/ स्तोक । पृथक् पृथक तुल्य (कुल उप. सं. गुणे
५४ जीव) १६० चारित्र स्तोक
११ । ऊपर तुल्य प्रवेशकी अपेक्षा १६१) क्षप. ' दुगुने
संचय भी प्रवेशाधीन है २. पुरुष वेद-प.ख.४१.८/सू.१६२-१७४)
१६३) क्षपक
दुगुने __.. कुल १०८ जीव
१६४ १६२ उपशमक
। ऊपर तुल्य ८-६ | स्तोक परस्पर तुल्य कुल५४जीव
१६५ अयोगी १६३क्षपक ८-६ दुगुणे
, १०८, , सयोगी
| प्रवेशकी अपेक्षा १६४ अक्षपक व अनुशमक ७ सं गुणे । मूल ओघवत्
संगुणे । सचयकी अपेक्षा ६ दुगुने
१०-कषाय मार्गणा ५ अस. गुणे गुणकार - पल्य/असं (तिर्यच भी)
१. कषाय चतुष्ककी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा| गुणकार= आ./असं.
(ष.ख.७/२,२९/सू.१४५-१४६) ३ | स. गुणे
१४५ अकषायी
(१४६ मान कषायी ४ असं. गुणे
अनन्त गुणे
क्रोध कषायी | = अंगु./असं.-ज.प्र.
विशेषाधिक उपरोक्त+वह/आ.+असं
१४८ माया कषायी गुणस्थान ४.७ में उप स्तोक । ओघवत (सम्यक्त्व क्षा. | अस. गुणे | गुणकार - पल्य/असं.
१४६ लोभ कषायी
२. कषाय चतुष्ककी अपेक्षा ओघ व आदेश प्ररूपणा» आ./अस.
चारों कषाय-(ष.ख.५/१,८/सू.१६७-२११) १७२) उपशमकोंमें सम्य स्तोक
१६७ उपशमक
८-६ | स्तोक | परस्पर तुल्य प्रवेशकी
अपेक्षा संचय भी १७३/चारित्र
प्रवेशाधीन है क्षप. सं.गुणे
१६७ लपक
८-१ | सं. गुणे ३. नपुंसक वेद-(प.ख.४१,८/सू.१७५-१६०)
१६६ उपशमक
१० विशेषाधिक १७५ उपशमक 4-8 | स्तोक । परस्पर तुल्य ५ जीव
२०० क्षपक
१० सं. गुणे १७६ क्षपक 1 दुगुणे .., कुल १०जीव २०१अक्षपक व अनुपशमक ७ ।
गु. क्रोध,मान,माया.लो. १७७ अधपक व अनुशमक ७ सं गुणे मूलोधवत् १७८
६ | दुगुने असं. गुणे गुणकार-पत्य/असं |
५ | अस, गुणे | गुणकारपल्य/असं. तियंच भी सम्मिलित
" -आ./असं. गुणकार-आ./असं.
सं.गुणे
=स समय ३ | सं.गुणे
-सं. समय २०६
४ असं. गुणे , -आ/असं. ४ | असं. गुणे
२०७
१ अनन्त गुणे १ | अनन्त गुणे| सर्व जीव राशि का २०८ उपरोक्त में सम्यक्त्व
मूलोधवत अनन्त प्रथम वर्गमूल
| क्षा. असं./सं.गुणे | गुणकार है।
स्तोक
१४०
स. गुणे | स्तोक
दुगुने
१७६
२०३
२०४
२०५
" -आ./असं
। उप. | स्तोक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अल्पबहुत्व
सूत्र
२०६
२१०
२११
२१२
२१३
२१४
२१५
१५३
१५४
१५
मार्गणा
उपशमकों में
सम्यक्व
चारित्र
१५०
मन पर्यय ज्ञानी
१५१
अवधि
१५२ मतिश्रुत
מ
क्षप.
अकषायी - (ष. ख. ५/१.८ / सू. २१२ - २१५ ) अायी
११
स्तोक
59
22
२२८
२२६
२१८
२१६
२२० क्षपक
२३०
२३१
२३२
२३३
११. ज्ञान मार्गणा
१. अधान २१६ । मतिश्रुत अज्ञान
२१७
२१५
विभंग ज्ञान
२१७
१. सामान्य प्ररूपणा
२२१
२२२ अक्षपक व अनुपशमक
२२३
२२४
क्षपक
"
ע
२२५
२२६ उपरोक्तमें सम्यक्त्व
गुण
स्थान
"
उप
क्षा
उप
21
(ब.ख.७/२.११/ सू.१५०-९५५)
स्तोक
निर्भय हानी केवलज्ञानी
मतिभुत अज्ञानी
२. ओघ व आदेश प्ररूपणा
१२
१४
१३
अल्पबहुत्व
स्तोक
सगुणे
स्तोक
सं. गुणे
R
दुगुने
ऊपर तुल्य
सं. गुणे
१५/१०/२१६-२१७) स्तोक अनन्तगुणे
२ सर्वत स्तोक
5-20
११
८-१०
१२
७
६
५
४
उप
M
असं गुणे विशेषाधिक
२. मतिभुत अनभिज्ञान (१७/१८/सू.२१०-२२१)
उपशमक
क्षप.
८ - १० ११
९-१०
१२
असं गुणे अनन्तगुणे
स्तोक
ऊपर तुल्य
दुपुणे
उप.
क्षा, अर्थ व संगु
वे.
उप
क्षा.
ऊपर तुल्य
सं. गुणे
दुगुने
प / असं गुणे
+
आ. / अस. / गु स्तीक
कारण व विशेष
मूलोघवत
91
स्तोक
कुल ५४ जीव ( प्रवेश
२२७ उपशमकों में सम्य.
गुणे स्तोक
•
चारित्र
सं. गुणे
२. मनपर्यव ज्ञानख५/१०/२३०-२४१)
उपशमक
स्तोक ऊपर तुल्य
गुणे
ऊपर तुक्य
99
१०८
प्रवेश की अपेक्षा
संचय की अपेक्षा
संख्यात मात्र
गुणकार पल्य / असं. उपरोक्त + वह / अस परस्पर तुल्य गुणकार = ज प्र . / असं
==
गुणकार-पव्य/ असं.
१६०
11
= सर्व जीव / असं. पल्य / असं
१६१
असं गुणे गुण - अगु/अस + ज प्र १६२
मूलोधवत्
तिथंच भी, देव भी
लोषमय
व संचय) २३६ उपशमको में सभ्य,
चारित्र
19
१५०
"
11
सूत्र
२३४ अक्षपक व अनुपशमक
१२३५
२३६ उपरोक्त में सम्य,
२३७
२३८
२४०
२४१
39
प्रवेश अपेक्षा / तुल्य १६४ संचय भी प्रवेशाधीन १६५
१६६
11
२४२
२४३
१९५६
मार्गमा
१६७
| १५६ संयत सामान्य १५७सयतासंयत १९५८ न संयत न असंयत
(सिद्ध)
२४४ २४५
२४६
२४७
91
तुल्य प्रवेश व संचय २५१
|
सूक्ष्म साम्पराय परिहार विशुद्धि
यथाख्यात
१६३सामायिक
छेदोपस्थापना संयत सामान्य सयतासंयत
न संयत न असंयत
(सिद्ध)
स्तोक सं. गुणे
स्तोक
सं गुणे
४. केवल न. ५/१८/२४२-२४३)
स्तोक
अयोगी योगी
ऊपर तुल्य
सं. गुणे
क्षपक
२४८ अयोगी
सयोगी
गुण स्थान अल्पव हुत्व
७
६
१२. संयम मार्गणा
२४६ २५० अक्षपक व अनुपशमक
उप
"
क्षा.
बे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
उप. क्षा,
उप.
क्षप,
१४
१३
१३
१. सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा --
.०२.१९/१५६-९५६)
२. ओष आदेश प्ररूपणाएँ
असंयत
अनन्तगुणे
२. विशेषकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा --
(0.5,0/2,82/41.860-180)
८-१० ११
८-१०
१२
१४
सं गुणे
डुगुने
स्तोक
से. गुणे
१३
१३
७
२५२ उपरोक्त में सम्यक्त्व उप. २५३ सा वे.
| २५४
स्तोक असं गुणे अनन्तगुणे
असंयते
अनन्त गुणे ३. ओम व आदेश प्ररूपणा --
१. संयम सामान्य - (ष ख ५/१/सू. २४४-२५७)
उपशमक
स्तोक सं. गुणे
कारण व विशेष
क्षायिक सम्यक्त्वके साथ अधिक मन पर्मज्ञानी
होते है।
स्लोक
ऊपर तुल्य
दुगुने
ऊपर तुल्य
मूलोघवत
99
सं. गुणे
दुगुने
स्तोक
सगुणे
सं. गुणे
प्रवेश व संचय प्रवेशापेक्षया संचयापेक्षया
93
ऊपर तुल्य
विशेषाधिक उपरोक्त सर्वका योग अस गुणे गुणकार - पल्य / असं. अनन्तगुणे
सख्यात मात्र गुणकार=पत्य / असं.
प्रवेश व संचय दोनों कुल ५४ जीव
कुरा १०० जीव
प्रवेशापेक्षया सचयापेक्षया
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________________
अल्पबहुत्व
सूत्र
मार्गणा
२५५ उपशमकों में सम्यक्त्व उप
क्षा.
उप.
क्षप.
लेक :
२५६ चारित्र
२५७
२५८
२५६
२६० अक्षपक व अनुपशमक
२६१
२६२ उपरोक्त में सम्यक्त्व
२६३
२६६ २६७
२७०
२७१
२७२
२७३
२७४
२७५ २७६
२७७
२७८
२६८ | अक्षपक व अनुपशमक ७
२६६
२७६
२८०
२८१
२८२
सं गुणे
स्तोक
सं. गुणे
२. सामायिक छेदोपस्थापना संयम (पख ५/१.८/सू. २५८-२६७) उपशमक
5-ε
क्षपक
२६४
२६५ उपशमकों में सम्य.
चारित्र
सं गुणे
३. परिहार विशुद्धि संयम ६.३/१८/ २६ - २०१ )
स्तोक
दुगुने
२८३
२८४
२८५
गुण
स्थान
सामान्य
सम्यक्व
उपरोक्तमें सम्यक्त्व उप.
क्षा.
वे,
७. असंयत
सामान्य
ཝཱ སྠ ལྦ སྠཽ མལྦ བྷྲ ༡ ༦
सम्यक्त्व
क्षा.
क्षप
१७५। अवधि
१७६
१७७
१७८
चक्षु
केवल
अचक्षु
१२
१४
१३
अल्पबहुत्व
स्टोक
स.
४ सूक्ष्म साम्पराय संयम - षख ५/१०८ / सू २७२-२७३ )
उपशमक
स्तोक
१० १०
T
क्षपक
दुगु
५. यथाख्यात संयम - ( ष ख ५ / १, ८ / सू २७४ ) ११ स्तीक
•
दुगुने
ऊपर तुल्य
सगुणे जसजद (पं. ४/१८/२७५ - २०८)
१३. वर्शन मार्गणा
स्तोक
दुगुने
१. सामान्य प्ररूपणा
सं. गुणे
दुगुने
स्तोक
सं. गुणे
उप
क्षा.
वे.
स्तोक
सं. गुणे स्लोक
स्टोक
गुणे
५ क्षा. स्तोक उप, असं गुणे वे. (१.५/१८/२०१२८५)
.
२
३
४
असं गुणे
·
१ अनन्तगुणे
स्टोक
असं गुणे
( षख ७ / २,११ / सू १७५-१७८).
स्तोक
संगुणे
कारण व विशेष
स्तोक
| परस्पर य/वैशकी २८ अपेक्षा कुल ५४ जीव सचय भी प्रवेशाधीन
२८८
गुणा
अनन्तगुणा
11
अभाव
१५१
३८६
२८७
प्रवेश व संचय
प्रवेश की अपेक्षा
संचय की अपेक्षा
महत्व नहीं है तियंचों में अभाव गुणकार = पल्य / असं,
आ / असं.
R=ε
१७६
१८०
१८१
१८२
१८३
११८४
१८५
पन्य / असं.
गुणकार
- ज. प्र. / असं. सिद्धों को अपेक्षा
२६५
२६६
२६७
२६८
REE
| ३०० ३०१
३०२
३०३
३०४
३०५
३०६
| ३०७
गुणकार आ / असं गुणकार - सिद्ध x अनन्त
गुणकार - आ./ असं.
अचक्षु
चक्षु
मार्गणा
२. ओष व आदेश प्ररूपणा
५/१८/२८६-२८६
२-१२
१
शुक्ल
पद्म
तेज
अवधि
केवल
१३-१४
१४. वेश्या मार्गण --
१. सामान्य प्ररूपणा
अश्या
कापोत
नील
२६०
२६१
२१२
२६३
२१४ कृष्णनील में सम्य
गुण स्थान अपन
..०२.१२/१०१-१८५) (गो जी जी./५४४ / १८५/२)
पण्य असे.
स्तोक असं गुणे
गुणकार = ज. प्र. / असं.
सं. गुणे अनन्तगुणे
अनन्तगुणे
विशेषाधिक उपरोक्त+मह/ असं.
कापोत में सम्य.
२-१२
४-१२
कृष्ण
२ ओघ व आवेश प्ररूपणा
२. मोच व आदेश प्ररूपणाएँ
३०८ उपशमक
१. कृष्ण नील कापोत - ( . ख ५ / १-८ / सू २१०-२६१)
सामान्य
२
स्टोक
३०६
३१० क्षपक
३११
|३१२
३१३
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
३
४
१
क्षा.
उप.
बे,
उप.
क्षा.
४थेसे असं गुणकार - ज. प्र. / असं गुणे
अवधि
ज्ञानवत्
७
६
५
२
सगुणे
असं गुणे
अनन्तगुणे
स्टोक
असं गुणे
अस गुणे
स्तोक
अस गुणे
वे.
असं गुणे
२. तेज, झ, लेश्या (प..५/९/८/३००-३०७ )
सामान्य
कारण व विशेष
स्तोक
दुगुणे
असं गुणे
+
19
सगुणे असं गुणे
३
४
१
४-७ मूलोघवत
गुणकार - स, समय
११ ऊपर तुल्य ८-१० दुगुणे
१२
ऊपर तुल्य
१३
स. गुणे
गुणकार पण्य/असं.
- आ./असं.
13
अल्प संचय काल
प्रथम नरक की अपेक्षा
गुणकार - आ./असं.
सम्यक्त्व
२. शुक् लेश्या (४/१८/सु. ३००-३२७) ८-१० स्तोक
- आ. / असं,
संख्यात प्रमाण मनुष्य
गुणकार = पश्य / असं.
- आ./असं.
,
गुणकार - आ. / असं. ज. प्र. / असं
प्रवेशापेक्षा / परस्पर तुल्य संचय भी प्रवेशाधीन
(१०८ जीब)
11
11
प्रवेशापेक्षा
संचयापेक्षया
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--------------------------------------------------------------------------
________________
भरपत्रकुल
सूत्र
मार्गणा
३१४ | अक्षपक व अनुपशमक
३१५
३१६
३१७
३१८
३१६
३२०
३२१ | गुणस्थान ४में सम्य.
३२२
३२३
३२४ गुणस्थान में सम्य उपशमको में
३२५
सम्यक्त्व
३२६ चारित्र
३२७/
१८६ | अभव्य
१८७ न भव्य न अभव्य १०] भव्य
३२८ भव्य
३२६ अभव्य
३३१|
३३२ |
गुण स्थान
१०४ सम्यग्मध्या ११० सम्यि १६१ सिद्ध
१६२ मिथ्यादृष्टि
60
५
२
३
१६३॥ सासादन १६४ स्तोक
१
४
उप
१५. भव्य मार्गणा
११४ सम्ममा
१६८
१६७
१६८
१६६ सिद्ध
२०० मिध्यादृष्टि
क्षा.
थे.
१. सामान्य प्ररूपणा
ཝཱ སྠཽ སྠ
३३० सम्यकरव सा.
उप
क्षा
उप.
क्षा.
(प.व. ७/२.११/ १०६-१००)
२. ओघ व आदेश प्ररूपणा
अल्पबहुत्व
(ष ख ५ / १,८ / सू. ३२८-३२१)
| १२-१४ |
१६. सम्यकत्व मार्गणा
१ सामान्य प्ररूपणा
दुगुने असं गुणे
•
मूलोघवत् स्तोक
उप
क्षा.
वे.
सा.
दुगुने
स्तोक
स गुणे
(०/२१९/१०१-११२)
स गुणे
असं गुणे गुणकार आ./ अस संगुणे
स्तोक
असं गुणे
सं. गुणे
उपशमकों क्षाधिक ८-१०
स्तोक अनन्तगुणे
19
११
१- १४ | मूलोघवत्
नहीं है
सासादन
अन्य प्रकार - ( षख ७/२,११ / सू ११३ - २०० )
स्तोक सं गुणे असं गुणे
13
२. ओघ व आदेश प्ररूपणा
(५/१८/२२०-२५४)
गुणकार
गुणकार - पल्य / अस आ / अस.
४- १२ अवधिज्ञा. वय १३-१४ सुलोषवत् स्तोक
कारण व विशेष
:- सं समय
गुणकार आ./असं. अनुदिशादिवेदक कम होते है
मूलोघवत्
स्तोक
असं गुणे गुणकार आ. / असं. अनन्तगुणे
91
जघन्य युक्तानन्त मात्र
R
"
सम्यग्दरि अन्तर्भाव
11
33
गुणकारसं, समय - जा/बर्स,
17
विशेषाधिक सबका योग अनन्तगुणे
-
५
परस्पर तुल्य / प्रवेश व संचय दोनों ऊपर तुल्य प्रवेश व संचय दोनों
सूत्र
मार्गणा
२२२ क्षपको क्षायिक ३३४
| ३३५
३३६
३३७ अक्षपक व अनुप
३३८ शमको में क्षायिक
३३६|
३४०
३४२ वेदक सम्यक्त्व
३४३
३४४
३४७ उपशम सम्यक्त्व
३४८
३४६
३५० |
३५१|
२५१/
३५४ सासादन
99
सी
२५ lakt
39
२२७ असंज्ञी
२६२
३६३
गुण स्थान
२०३ अनाहारक अबन्धक
८-१०
१२
१४
१३
२०४ अनाहारक बन्धक २०५। आहारक
७
५
मिथ्यादर्शन
१७. संत्री मागंणा
३५८ उपशमक
३५६
३६० क्षपक -३६१
४
७
१. सामान्य प्ररूपणा
५
४
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
८-१०
११
७
看
२
१७/२,११.२०१ - २०३ )
२०१ संज्ञो स्तोक २०२ न संज्ञी न असंज्ञी सिद्ध अनन्तगुणे २०३ | असज्ञी
२. ओ व आदेश प्ररूपणाएं
२. ओघ व आदेश प्ररूपणा(4/1/2-14)
अयमहुल
१४
स. गुणे
ऊपर तुष्य
सं. गुणे
असं गुणे
दु
सं. गुणे
ចំដែនដ
असं पुणे
.
स्तोक
गुणे
असं गुणे
१८. आहारक मार्गणा
१. सामान्य प्ररूपणा(प. . ०२.११.२०३-२०५)
१२
१३
39
स्तोक
ऊपर तुग्य
सं गुणा
दुगुने
अस.
नहीं है
२- १४ | मूलोघवत्
१
१
गुणे
२. ओम व आदेश प्ररूपणा
(ष ख. ५ / १,८ / सू ३५८-३७४)
स्तोक अनन्तगुणे
असं गुणे
.
८-१० स्तोक ११
८-१० दुगुने
ऊपर तुग्य
ऊपर तुल्य
कारण व विशेष
"
सं. गुमे
प्रवेशापेक्षया
संचयापेक्षा
मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जातियो में अभाव गुणकार पय/ असं
-
असंयत् से ज. प्र. / असं गुणे
नहीं है
गुणकार पश्य / असं - - आ. असं,
19
परस्पर तुल्य / प्रवेश व संचय दोनों अपेक्षा
गुणकार = परय / असं
११
=
प/असं मात्र
विग्रह गतिमें | गुणकार - अन्तर्मुहूर्त
परस्पर तुल्य । प्रवेश व समय दोनो (मीन) प्रवेश व संचय १०८जीव
प्रवेशापेक्षा संचयापेक्ष्या
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________________
अल्पबहुत्व
१५३
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएं
सूत्र
मार्गणा
गुण स्थान
अल्पबहुत्व | कारण व विशेष
__ मार्गणा
अल्पबहुत्व
३६४। अक्षपक अनुपशमक |
७ । सं. गुणे ।सं. मनुष्यमात्र
दुगुने असं गुणे | गुणकार-पत्य/असं.
तिर्यंचोंकी अपेक्षा
ww
स.गणे
गुणकार-आ/असं
३
३ कालकी अपेक्षा उत्सर्पिणी सिद्ध
। स्तोक अवसर्पिणी,
विशेषाधिक अनुत्सपिण्यनवसर्पिणी (विदेहक्षेत्र) । स. गुणे प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया
एक समय में सिद्धि होती है।
। अत अल्पबहुत्वका अभाव है। ४. अन्तरकी अपेक्षा
निरन्तर होनेवालों की अपेक्षाआठ शमय अन्तर से
|स्तोक सात " " "
३६६
गुणकार-आ/असं.
अस गुणे अनन्तगुणे
३७०
३७१ उपरोक्तमे सम्यकत्व
मूलोघवत्
..
चार तीन
.
"
। स्तोक
३७२ उपशमकोमें
स्तोक सम्यक्त्व
सं. गुणे ३७३| चारित्र
उप. स्तोककुल जीव ५४ ३७४
क्षप | दुगुणे । १०८ ३ अनाहारककी ओघ व आदेश प्ररूपणा
(ष ख ५/१८/सू ३७५-३८२) ३७५ सयोगी । १३ । स्तोक । समुद्धात गत केवली
(६० जीव) ३७६, अयोगी
१४ | सं गुणे | संचय (५६८ जीव) ३७७ विग्रह गतिवाले २ प/अस/गुणे तिथंचोकी अपेक्षा
४ आ./असं गुणे विग्रह गति प्राप्त ३७६
अनन्तगुणे विग्रह गति प्राप्त ३८० अस यतो में सम्यक्त्व उप । स्तोक द्वितीयोपशम वाले ही
अनाहारक होते है ३८१
क्षा सं गुणे गुणकार-सं, समय ३८२ | वे. अस गुणे
- पल्य/असं ३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ १ सिद्धोंकी अनेक अपेक्षाओं से अल्पबहुत्व प्ररूपणा
(रा.वा १०/३/१४/६४७/२७)
३७८
मागणा
अल्पबहुत्व
सान्तर होने वालोंकी अपेक्षाछ मास अन्तर से एक समय ,
सं गुणे यव मध्य , अधस्तन यव मध्य अन्तर से उपरिम , ,, | विशेषाधिक
५. गतिकी अपेक्षा प्रत्युत्पन्न नयापेक्षा
सिद्ध गति में ही सिद्धि है अत:
अल्पबहुत्व नहीं है अनन्तर गति अपेक्षा
केवल मनुष्य गतिसे ही सिद्धि है
अत' अल्पबहुत्व नहीं है एकान्तर गति अपेक्षातिर्यग्गति से
स्तोक मनुष्य गति से
सं. गुणा नरक " " देव , ,
६. वेदानुयोगकी अपेक्षा प्रत्युत्पन्न नयापेक्षा
अवेद भावमें ही सिद्धि है अत.
अल्पबहुत्व नहीं है भूत नयापेक्षयानपुसक वेद से
स्तोक खी वेद से
स. गुणे पुरुष वेद से
७. तीर्थकर व सामान्य केवलीकी अपेक्षा तीर्थकर सिद्ध
| स्तोक सामान्य सिद्ध
| सं.गुणे ८ चारित्रकी अपेक्षा प्रत्युत्पन्न नयापेक्षया
निर्विकल्प चारित्रसे सिद्धि होने
से अल्पबहुत्व नहीं है अनन्तर चारित्रापेक्षा
यथारख्यातसे ही होनेसे अम्प
बहुख नही है एकान्तर चारित्रापेक्षापंच चारित्र सिद्ध
स्तोक चार ,
स गुणे (परिहार विशुद्धि रहित)
स्तोक
१.संहरण सिद्ध व जन्मसिद्धकी अपेक्षा सहरण सिद्ध
| स्तोक जन्म सिद्ध
| स गुणे २. क्षेत्रकी अपेक्षा-(केवल संहरण सिद्धोमे) ऊर्ध्व लोक सिद्ध अधोलीक सिद्ध
स गुणे तिर्यग्लोक सा.
तिर्यग्लोक विशेष :समुद्र सा सिद्ध द्वीप सा सिद्ध
स. गुणे लवण समुद्र सिद्ध कालोद,,,
सं गुणे जम्बूद्वीप धातकी पुष्करार्ध
स्तौक
स्तोक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
अल्पबहुत्व
१५४
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएं
मार्ग
अल्पबहुख
पृष्ठ
मार्गणा
संकेत ।
अपमहत्व
नरक सामान्य | नरक गतिवत
कृ
अव.
|स्तोक सं. गुणे
नो.कृ.
स्तोक
स्तोक विशेषाधिक स.गुणे स्तोक सं. गुणे
अब, | नो. कृ
| नो.कृ. (स्तोक अव. विशेषाधिक नो. कृ. सं. गुणे
विशेषाधिक असं, गुणे
६ ठी
"
९. प्रत्येक बुद्ध व बोधित बुद्धकी अपेक्षा
३१८९७-१ पृथिवी प्रत्येक बुद्ध
स्तोक
J, देवमति सामान्य व विशेष बोधित बुद्ध |सं.गुणे
तिर्यश्च गति सा, विशेष १०. ज्ञानकी अपेक्षा
३१६ मनुष्य गति सा, ,
| सिद्धों में विशेषताप्रत्युत्पन्न नयापेक्षा
| केवल ज्ञानस ही होनस अप-३१८ सिद्ध सामान्य
बहुत्व नहीं अनन्तर ज्ञानापेक्षादो ज्ञान सिद्ध
मनुष्य प. से प्राप्त सिद्ध चतुःज्ञान सिद्ध
सं. गुणे त्रिज्ञान सिद्ध विशेषापेक्षया
मनुष्यणी प. से प्राप्त सिद्ध मति श्रुत मनःपर्यय
स्तोक मति श्रुत से
सं. गुणे मति श्रुत अवधि मन पर्यय ज्ञानसे
(२) परस्थान की अपेक्षामति श्रुत अवधिसे
३१६७ वीं पृथिवी ११. अवगाहनाकी अपेक्षा जघन्य अवगाहनासे
स्तोक
154-१ ली पृथिवी तक सबमें पृथक् उत्कृष्ट
सं गुणे
।। पृथक् अपने उपरकी अपेक्षा यवमध्य . .
| ७ वीं पृथिवी अधस्तन यवमध्य उपरि यवमध्य | विशेषाधिक
५वीं . १२. युगपत् प्रास सिद्धोंकी संख्याकी अपेक्षा
| ४ थी , [१०८ सिद्ध | स्तोक
३२० ३ री , १०५-५० तक के
अनन्त गुणे ४४-२५ ॥
असं, गुणे
|-१ ली , २४-१ . सं. गुणे
(३) स्व परस्थान की अपेक्षामनुष्य पर्याय से-(घध/पृ.३१८)
३२० मनुष्यणी १-१ की संख्यासे होनेवाले |स्तोक २-२ की संख्यासे होनेवाले विशेषाधिक २ से अधिक संख्यासे होनेवाले सं. गुणे
मनुष्य मनुष्यणी पर्याय से-(१६/पृ. ३१८) २ से अधिक संख्यासे होनेवाले स्तिोक
तिर्यच योनिमति २-२ की संख्यासे सं. गुणे
नारकी २.१-१, २-२ आदि करके संचय होने वाले जीवोंकी अल्पबहुत्व प्ररूपणा
देवियाँ (ध.६/४,१,६६/३१८-३२१) संकेत-नो. कृ. (नोकृति संचित)-१-१ करके संचित होने वाले,
मनुष्य अव (अबक्तव्य संचित) -२-२ करके संचित होने वाले,
नारकी कृ (कृति संचित) -३ आदि करके संचित होने वाले,
तिर्यच योनिमति मार्गणा संकेत अल्पबहुत्व
देवियाँ
तिर्सच सामान्य १.गति मार्गणा
(१) स्वस्थान की अपेक्षा३१० नरक गति सामान्य
नो. कृ, स्तोक
विशेषाधिक ज.प्र./असं.गुणे। ।
|स्तोक सं.गुणी
अव. नो. कृ.
असं, गुणी विशेषाधिक
असे, गुणा
अब. नो. कृ. अव. नो. कृ. अव. नो.कृ. अब. मो.कृ.
विशेषाधिक असं गुणी विशेषाधिक असं.गुणी विशेषाधिक अस. गुणी विशेषाधिक असं गुणी
BE
:
देव
:
कृ.
सिद्ध
। अनन्त गुणी विशेषाधिक असं.गुणी अनन्त गुणी स. गुणी ।
अव.
नो.कृ.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #170
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________________
अल्पबहुत्व
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
मार्गणा
सकेत
अपमहत्व
अल्पमहत्व
गुणकार
अनन्त गुणी
अभव्यxअनन्त
नो कृ.
सर्व जीव राशि अनन्त
१६
असं. गुणी
पल्य/असं अनन्तगुणी
अनन्तलोक असं. गुणी
ज.श्रे./असं. अंगु/असं. पत्य/असं. ज.प्र./असं.
पत्य/असं, २. नाना श्रेणी वर्गणाके द्रव्य प्रमाणको अपेक्षा
(ध.१४/१.१६६-१७६ तथा २०८-२१२) स्तोक
एक संख्या प्रमाण असं. गुणे
आ./असं,- अस, लोक
२३।
२. इन्द्रिय मार्गणा
स्वब परस्थानकी अपेक्षा३२१/ चतुरिन्द्रिय
| नो. कृ. । स्तोक
अव, विशेषाधिक त्रीन्द्रिय
अब. बोन्द्रिय
नो. कृ.
अब. पंचेन्द्रिय
मो. कृ. असं. गुणे अव. विशेषाधिक
असं. गुणे चतुरिन्द्रिय
विशेषाधिक त्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय एकेन्द्रिम
नो. कृ. | अनन्त गुणे अव. विशेषाधिक
___ असं गुणे नोट- इससे आगेके सर्व स्थान यथायोग्य एकेन्द्रिवत् जानना। ३. अन्य मार्गणाएँ
स्व व परस्थानोंकी अपेक्षा३१४ मनः पर्यय ज्ञान
| नरक गतिवव क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयत सामान्य विशेष अनुत्तरादि विमानोंसे मनुष्य
होनेवाले देव तथा अन्य संख्यात राशियाँ ३. तेईस वर्गणाओं सम्बन्धी प्ररूपणाएँ
२३ वर्गणाओं के नाम-(प.खं.१४/५,६/सू.७६-६७/५४-१९८) १. एक प्रदेशप्रमाणु वर्गणाः २. संख्याताणु वर्गणा; ३. असख्याताणु वर्गणाः ४. अनन्ताणु वर्गणा; ५. आहारक वर्गणा; ६. अग्राह्य वर्गणा, ७.तेजस शरीर वर्गणा; ८. अग्राह्य वर्गणा; ६.भाषा वर्गणा; १०. अग्राह्य वर्गणाः ११ मनो वर्गणा, १२. अग्राह्य वर्गणाः १३. कार्मण वर्गणाः १४. ध व स्कन्ध वर्गणाः १. सान्तरनिरन्तर वर्गणा; १६.५ व शून्य वर्गणा; १७. प्रत्येक शरीर वर्गणा; १८. ध्रुव शून्य वर्गणा; १६. मादर निगोद वर्गणाः २०. ध व शुन्य वर्गणाः २१. सूक्ष्म निगोद वर्गणा; २२.५ व शुन्य वर्गणा: २३. महा स्कन्ध वर्गणा
अनन्त गुणे
" -असं.लीक सर्व जीव राशि अनन्त
अभव्य अनन्त
स्व गुणहानि शलाकाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि
अनन्त गुणे
स्वगुणहानि शलाकाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि
वर्ग.सं
अल्पबहुत्व
गुणकार
१. एक श्रेणी वर्गणाके द्रव्य प्रमाणकी अपेक्षा
(ध.१४/पृ.१६३-१६६) स्तोक
एक संख्या प्रमाण सं. गुणी
एक कम उत्कृष्ट संख्या असं. गुणी
स्व राशि/असं. अनन्त गुणी
स्व राशि/असं.
अनन्त उपरोक्त श्रेणी/स्व राशि
जघन्य परीतानन्त सं. गुणे
२ कम उत्कृष्ट संख्यात असं. गुणी
ध व शून्य वर्गणाओंका कथन नहीं किया क्योंकि
वह पुदगल रूप नहीं है
| आकाश रूप है ३. नाना श्रेणी प्रदेश प्रमाणकी अपेक्षा--
(ध.१४/पृ.२१३-२१॥ स्तोक अनन्त गुणे
अनन्त लोक अस. गुणे
असं.लोक
२१
अनन्त गुणे
सर्व जीवxअनन्त
। स्वअन्योन्याम्यस्तराशि
अभव्य अनन्त
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
अल्पबहुत्व
१५६
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
अल्पबहुत्व
गुणकार
'म नाना श्रेणी F_ कुलद्रव्य कुलप्रदेश |
अल्पबहुत्व
गुणकार
अनन्तगुणे
स्वअन्योन्याभ्यस्तराशि
असं. गुणे
अनन्त गुणे । सर्व जीवxअनन्त
१
असं. गुणे असं गुणे
ध्रु व शून्य वर्गणाका कथन नही किया क्योकि वह पुद्गल रूप नहीं है
आक्रोश रूप है। ४. एक श्रेणी द्रव्य, नाना श्रेणी द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा स्व व
परस्थान प्ररूपणा-- (ध १४/पृ २१५-२२३)
अभव्य अनन्त निचला स्थान-स्व अन्योन्याभ्यस्त राशि अभव्य अनन्त पीछे नं.१३ वद एक अधिक अधस्तनअध्वार पीछे नं. १३ वत
१२
xxxxxxxxxxxxxxxxx
एक श्रेणी या नाना श्रेणी अल्पबहुत्व
गुणकार
स्तोक
एक संख्या ही है
१) एक श्रेणी द्रव्य , २३ नाना ,
२) एक , १६ नाना , "
स गुणो असं गुणी
एक कम उत्कृष्ट संख्या अस लोक
द्रव्य
१२
.
अभव्य अनन्त
ऊपर समान सं. गुणा
एक कम उत्कृष्ट संख्या संख्यात असं.लोक
अस गुणे
नाना श्रेणी में इनका कथन नही होता क्यों कि ये आकाश रूप है,पुद्गल रूप नहीं।
सर्व जीवxअनन्त
असं.गुणी
४.पंच शरीर बद्ध वर्गणाओंकी प्ररूपणा
१.पंच वर्गणाओं के द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा(ध ६/४,१,२/३७)
अनन्त गुणी असं. गुणे
पत्य/असं. असं. लोक अनन्त लोक पल्य/असं. अंगु/अस. आ./असं. ज प्र./असं. पत्य/असं.
वर्गणा का नाम
अल्पबहुत्व
गुणकार
स्तोक अनन्त गुणे
नाना श्रेणियो में कुल द्रव्य कुल प्रदेश
आहारक वर्गणा तै जस भाषा वर्गणा मनो , कार्माण ,
२३॥
x
विशेषाधिक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
अल्पबहुत्व
औ. योग्य आहारक वर्गणा
आ.
तै.
"
भाष योग्य भाषा
मन मनो कर्म कार्मण
आ.
वर्गाका नाम
२. पंच वर्गणाओं की अवगाहना की अपेक्षा
( ष. ख. १४/५.६ / सु ७६०-७६६/५६२)
का,
11
उ
(ध. १४/५, ६/३२४)
औ योग्य आहारकका ज विस्र
उ.
17
उ.
11
उ
"
आ.
तै
तेजस
भाष
भाषा
मन
मनो
ஈர் कार्मण
99
11
11
"
तैजस
३. पंच शरीर विवसोपचयों की अपेक्षा
31
औ, योग्य आहारक वर्गणा
जे.
11
11
"
जस
::
बोल
(ष. ख. १४/५,६ / ७८५-७८६/४६०)
"
ज औ का ज
31
3.
ज
19 99
अ
उ
उ.
वैक्रियिक के चारों स्थान
आहारक तेजस
कार्मण
उ.
ज
24
अनन्त " अस.
उ.
11
४. प्रत्येक वर्गणा में समय प्रवद्ध प्रदेशों की अपेक्षा
उ.
ज.
उ.
ज
"
उ.
11
31
उ
ज
19
33
"
15
13
31
11
11
"
"
"
14
"
स्वस्थान अपेक्षा - (ष, वं. १४ / ५, ६ / सू. ५४४-५४८/४५३ ) लोक ज औ. का ज पदमें ज विस्र
11
33
"
५. शरीर बद्ध विसोपचयों की स्व न परस्थान अपेक्षा
11
ज
उ.
ज.
11
प
स्टोक
असं गुणे
31
39
39
अनन्तगुणे
"
11
११
स्तोक
जग मे
अनन्त,
अस.
अनन्त "
अस. अनन्त असं
स्टोक
अस.
अनन्त "
:::
"
19
परस्थान अपेक्षा—(ष.वं. १४/५,६/सु ५४४-५५२/४५५)
पदमें ज विस्र.
उ.
33
11
गुणे
17
17
""
31
33
"
स्तोक अनन्तगुणे
गुणकार
19
"
17
सिद्ध/अनन्त
"
अनन्त गुणे जीवxअनन्त
X
पश्य अस सर्व जीवx अनन्त
पत्य / अस. सर्व जीव अनन्त
उपरोक्तवत्
99
पश्य/अर्स, सर्व जीवx अनन्त पय/अर्स सर्व जीव अनन्त पय अस
X
ज श्र / अस
55
सिद्ध / अनन्त
11
37
स
"
१५७
"
"1
55
19
11
15 M
ज आ. ज
31
उ.
"
15
ज
http
"
उ.
ज
उ.
जीव अनन्त सूत्र
वर्गाका नाम
और वै क्रियिक
app
का.
आहारक
तेजस
कार्मण
वस
अग्नि
पृथिवी
अप
चक्षु
श्रोत्र
घ्राण
जिह्वा
स्पर्शन
वायु वनस्पति
उ.
ज
उ.
उ.
ज
उ
73
ज.
11
31
91
31
शरीर प्रदेश
79
3.
94
आहारक
तेजस कार्मण
19
19
11
11
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
11
औदारिक शरीर वैलिएक
"
६. पंच शरीर बद्ध प्रदेशों की अपेक्षा --
१४/५-६/४७-५०१/४२१)
"
ज
उ
ज
"
12
उ.
ज
35
उ
ज.
उ
ज.
उ.
नाम शरीर या मार्गा
23
11
( स. सि. २ / ३८-३१/१०२-१०३) (रा.वा २/३८-३६/४/१४८) गोजी. जो. प्र. २४६/५१०/२)
७. औदारिक शरीर वह प्रदेशों की अपेक्षा
(घ. ख. १४/५,६ / सू. ५७५-५८०/४६६)
कायिक
के
प्रदेश
"
11
११
33
11
.1
"
21
11
93
अपबहुत्व
अनन्तगुणे
"
८. इन्दिय प्रदेशों की अपेक्षा-(1,1/18/4/88)
11
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएं
"
11
स्तोक
अस.
अनन्त
५. पंच शरीरोंकी अल्पवत्व प्ररूपणाएँ
१. सूक्ष्मता व स्थूलता की अपेक्षा
(स.सि २ / ३७/१००)
19
स्तोक
अस, गुणे विशेषाधिक
"
अनन्त गुणे
सर्वत स्लोक स. गुणे विशेषाधिक असं गुणे अनन्तगुणे
•
अमर
सर्वत स्थूल तत सूक्ष्म
37
99
गुणकार
जीवxअनन्त
"
:::::::
"
99
ज../अ.
सिद्ध/अनन्त
गुणकार
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________________
अल्पबहुत्व
२५८
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
८५
४२/
नाम शरीर या मार्गणा अल्पबहुत्व । गुणकार सूत्र नाय शरीर या मार्गणा अनपबहुत्व । गुणकार २. औदारिक शरीर विशेष की अवगाहनाकी अपेक्षा
| ७३/ पृथ्वी बा. प.की (ष.स.११/४,२,५/सू.३९-६६/५६-७०) (ध.१/१,३ ४/२५१/७)
1७४/मन, साधारण या निगोद या. प.. घ.४/१,३,२३/६४/७ (ध.६/४,१,२/१७/४)
की ज.
असं. गुणी | पल्य/असं. लब्ध्य पर्याप्तकके स्थान
उपरोक्त बा. अप, की उ. | विशेषाधिक | अंगु./असं. ३१ निगोद या बन. साधारण सू.
, प.की .. अप. की ज, अवगाहना
बन प्रतिष्ठित प्रत्येक या भिगोद
स्तोक अगु./पक्य-अस वायु
प.की ज.
असं गुणी पत्य/अस. सू. अप, की ज. अस गुणी | आ./असं,
७८ उपरोक्त अप. की उ. विशेषाधिक अंगु./असं. ३३ तेज ,
प.की ,
वन, अप्रतिष्ठित प्रत्येक प. की ज. पृथिवी .
असं. गुणी पत्य/अस.
द्वीन्द्रिय प. को ज, वायु मा.
पल्य/असं त्रीन्द्रिय
सं. गुणी सं. समय ३७ तेज ,
चतुरिन्द्रिय , पृथिवी ,
पंचेन्द्रिय
" निगोद या बन. साधारण बा.अप
त्रीन्द्रिय अप. की की ज.
८६ चतुरिन्द्रिय
द्वीन्द्रिय ४१ निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक अप की ज|
" अप्रतिष्ठित प्रत्येक बन अप. की ज.
८८, बन, अप्रतिष्ठित प्रत्येक ४३ द्वीन्द्रिय अप की ज.
अप की उ.
पंचेन्द्रिय अप की ४४| त्रीन्द्रिय " "
त्रीन्द्रिय प.की ४५/ चतुरिन्द्रिय , "
चतुरिन्द्रिय ४६ पंचेन्द्रिय
द्वीन्द्रिय निवृत्ति पर्याप्तक व निवृत्यपर्याप्तक के स्थान
"
१३ वन, अप्रतिष्ठित प्रत्येक प. की उ.. ४७ बन. साधारण या निगोद ऊपर से
६४ पंचेन्द्रिय प.की उ. सू.प.की ज.
असं, गुणी आ./असं. उपरोक्त अप, की उ.
विशेषाधिक अगु./अस.
१५ एक सूक्ष्म से अन्य सूक्ष्म = आ./असं. गुणी
६ सूक्ष्म से बादर = असा , प. की ,
- आ/असं., ५० वायु
| १७ बादर सेक्ष्म म. प. की ज.
अस. गुणी आ. असं. उ.
बादर से बादर - पल्य/असं... ५१| "
विशेषाधिक अप. की
अंगु /असं.
६' बादर से दूसरा बादर = सं. समय , ५२ "
प. की । तेज .
असं.गुणी आ./असं. ३ पंचेन्द्रियों की अवगाहनाकी अपेक्षा__ अप. की उ. विशेषाधिक | अगु./असं.
(ध.१/१,१,५/२३५/४) प की असं गुणी आ./अस. चक्षु इन्द्रिय अवगाहना
स्तोक अप, की विशेषाधिक अंगु, असं,
श्रोत्र
सं.धुणी माण
विशेषाधिक अस गुणी । आ./अर्स. जिह्वा
असं. गुणी अप. की विशेषाधिक अगु./असं. स्पर्शन
सं. गुणी प. की .
६.पाँचों शरीरोंके स्वामियोंको ओघ व आदेश प्ररूपणाप.की ज. असं. गुणी पक्य असं अप. की विशेषाधिक | अंगु./असं.
(ष.ख.१४/५,६/सू.१६६-२३४/३०१-३१८)
4
उन
का
.4:4
E : PF :: :: :: :: :
.4
मार्गणा
शरीर ।
अल्पबहुत्व
असं.गुणी विशेषाधिक
गुणकार
पत्य/असं. अंगु./अर्स.
14.4
असं. गुणी विशेषाधिक |
पल्य/असं. अगु/असं.
१६६/
१. ओघ प्ररूपणाजीव सामान्य अशरीरी (सिद्ध) जीव सामान्य
प
की
1990
४ । स्तोक अनन्त गुणे | सिद्ध/असं.
सर्वजीव/अनंत असं. गुणे । अन्तर्मुहूर्त
पृथ्वी
, ,
ज. असं. गुणी पल्य/अस. १७१ उ. | विशेषाधिक । अगु/असं. १७२०
rar
अप, की
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #174
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________________
अल्पबहुत्व
१५९
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
अल्पबहुरय
गुणकार
सूत्र
शरीर
स्वामित्व
अल्पबहुत्व । गुणकार
अल्पबहत्व
गुण कार
|
सूत्र मार्गणा
मार्गणा २. आदेश प्ररूपणा१. गति मार्गणा
नरक गति१७३| नारकी सा. १७४
१-७ पृथिवी
११०
गुण कार
मार्गणा ४. योग मार्गणा| पाँच मन व पाँच वचन
योगी स्तोकनार/आ.-असं. १६६ असं. गुणे - आ/असं. २०० काय योग सामान्य स्तोक
२०१
औदारिक काययोगी असं. गुणे । आ./असं २०२
س
م م
س
तिथंच गति१७६ तिथंच सामान्य
EFF_
ه م
४ स्तोक
अस. गुणे | ज श्रे/असं, ति. या ओघवत् स्तोक असं. गुणे
सर्वजीव राशि के अनंत प्रथम वर्गमूल प्रमाण अल्पबहूत्व नहीं है
एकही पद है स्तोक अनन्त गुणे जीवोंके अनंत
प्रथम वर्गमूल पंचेन्द्रियसा.वत ति.या ओघवत
एक ही पद है
x
مه
१७७
»
१७८
पंचेन्द्रिय सा, प.,
व योनिमति
१७६
२०५
१८०
पचेन्द्रिय ति अप.
मनुष्य गतिमनुष्य सामान्य
१८१
به
به
سه به
१८२ मनुष्यप व मनुष्यणी
२०७
ति.या ओघवत्
x
س
२०८८
एक ही पद है
१८४
سه
स्तोक अनन्त गुणे
२०३ औदारिक मिश्र, अस. गुणे सं आव.
बैंक्रियक व मिश्र स्तोक
आहारक व मिश्र असं. गुणे ज.श्रे/असं. २०४
कार्मण काय योग
आ./असं. । २,३ नारकी सा. वत
५ वेद मार्गणा
२०६ स्त्री व पुरुष वेदी स्तोक
संख्य, मात्र २०७ नपुंसक वेदी अस गुणे
२०८ अपगत वेदी आ./असं. ६. कषाय मार्गणास्तोक
चारों कषाय सं. गुणे
अकषायी
x नारकोसा. वत् |
७. शान मार्गणा
मतिश्रुत अज्ञानी
२१० स्तोक
विभग ज्ञानी
२११ असं.गुणे | आ./असं
मतिश्रुत अवधि ज्ञानी २.३ देव सा. वत् पर गुणाकार- पत्य/असं.
मन पर्यय ज्ञानी
२१४ स्तोक
केवल ज्ञानी सं.गुणे सं.समय
८. संयम मार्गणा
२१६/ संयत सा. तियंच सा.बत् |
सामायिक व छेदो.
R१७ परिहार विशुद्धि २.३ या ओघवत्
सूक्ष्म साम्पराय व २ स्तोक
यथाख्यात संयतासयत
मनुष्य अप.
देव गतिदेव सामान्य
} } FREEEEE
२०६
ज श्रे/असं.
श्र
२१२
| ति. या ओघवत् ४ | स्तोक ३ असं. गुणे
पंचे, पर्याप्तव स्तोक संगुणे
।
भवनवासीखे अपराजित तक
२१३
सं समय एक ही पद है
२१५
सर्वार्थ सिद्धि
स्तोक सं. गुणे
स समय एक ही पद है
१६१
२. इन्द्रिय मार्गणाएके. सा. बा. एके. |
सा., बा. एके.प । बा. एके अप.स एके. सा.,प,अप. विकलत्रय -सा व प, अप. पंचेन्द्रिय अप
or xxmxm.
१६२
pe
आ./असं.
स्तोक असं गुणे ति.याओघवत
E
असं.गुणे | मनुष्य सा बत
सं. आ,
१६४
पंचेन्द्रिय प.वत् ति.याओघवत्
स्तोक
असंयत ९. दर्शन मार्गणाचच व अवधि द० अचक्षु दर्शनी १०.लेश्या मार्गणा --
कृष्ण नील, कापोत २२१ पीत पद्म लेश्या
शुक्ल लेश्या
पंचेन्द्रिय सा व प.
३. काय मार्गणापृ., जल व बन. के. बा सू प. अप सर्व विकल्प अग्नि व वायु के बा. अप. तथा सू. के प, अप. सर्व विकल्प त्रस के केवल अप.
२२०/
EE
ति.याओघवत् । पंचेन्द्रिय ,बव स्तोक असं गुणे । पत्य/असं.
आ/असं.
P
असं. गुणे 'चेन्द्रिय प. वत
me »
आ./असं.
१६७
तेज व वायु के सा. व
बा. केवल प.स सा.व.प
१२२५
११. भव्यत्व मार्गणा२२०/ भव्य व अभव्य
। ति या ओघवत
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #175
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________________
अल्पबहुत्व
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएं
सूत्र
मार्गणार
अल्पबहुत्व
गुणकार
गाथा.
विषय
अल्पबहुव । विशेष
२२७
سر به سه
स्तोक
२२६
به
سه
२३३/
२३५
३४२
। १२. सम्यक्त्व मार्गणा-1
३. दर्शन ज्ञान चारित्र विषयक भाव सामान्यके अव२२६ सम्यग्दृष्टि सा,
पिंचेन्द्रिय प बत वेदक व सासादन
स्थानोंकी अपेक्षा स्व व परस्थान प्ररूपणा-- क्षायिक व उशम
सं. मात्र २२८
(क.पा. १/१, १५-२०/पृ.३३०-३६२) पन्य/असं. अस गुणे आ/अस, १५ दर्शनोपयोग सा.
स्तोक | अस.आ.मात्र २३० सम्यग्मिथ्यादृष्टि स्तोक
चक्षु इन्द्रियावग्रह
विशेषाधिक अस. गुणे - आ /असं.
श्रोत्र , मिथ्या दृष्टि ति या ओघवत
घाण १३. संशी मार्गपा
जिहा" संज्ञी २३२ पचेन्द्रिय पवत
मनोयोग सा, असज्ञी ति या ओघवत
वचन योग सा. १४.आहारक मार्गणा
काय योग सा औदारिक स्तोक
स्पर्शन इन्द्रियावग्रह आहारक २३४
अनन्त गुणे काय योगवन
अन्यतम अवाय अनाहारक
स्तोक कार्मण काय अनन्त गुणे योगवत
श्रुत ज्ञान
श्वासोच्छवास ७ जीवभावोंके अनुभाग व स्थिति विषयक प्ररूपणा- ।
सशरीरकेवलीकाकेवल ज्ञान १. संयम विशुद्धि या लब्धि स्थानोकी अपेक्षा--
उपरोक्तका दर्शन
ऊपर तुल्य ___ (ष.रव ७/२,१९/सू १६८-१७४/५६४-५६७) (ध ६/१,६-८१४/२८६)
शुक्ल लेश्या सा. सूत्र विषय अल्पबहुत्व विशेष या गुण कार
एकत्व वितर्क-अविचार ध्यान
विशेषाधिक १६८। सामायिकव छेदो की जधन्य । सर्वत स्तोका मिध्यात्व के
पृथक्त्व वितर्क विचार चारित्र लब्धि
अभिमुख
श्रेणीसे पतित सूक्ष्म परिहार विशुद्धि की जघन्य अनन्तगुणी | सामायिकके
साम्पराय चारित्र लब्धि
अभिमुख
श्रेणीपर अवरोहक सूक्ष्म परिहार विशुद्धि की उत्कृष्ट । अनतगुणी।
साम्पराय चारित्र लब्धि
क्षपक श्रेणी गत सूक्ष्म सामायिक छेदो. को उत्कृष्ट
अनिवृत्तिकरण का साम्पराय चारित्र लब्धि
अन्त समय
1१७ मान कषाय सा. सूक्ष्म साम्पराय की जघन्य
श्रेणी से उतरते
क्रोध " " चारित्र लब्धि
माया ,, , सूक्ष्म साम्पराय की उत्कृष्ट
स्वस्थानका अन्त
लोभ , चारित्र लब्धि
समय
क्षुद्र भव ग्रहण यथारख्यात की अजघन्य अनु- ।
जघन्य व उत्कृष्ट
कृष्टि करण स्कृष्ट चारित्र लब्धि
पनेका अभाव है।
सक्रामण २. १४ जीव समासोमे संक्लेश व विशुद्धि स्थानोकी अपेक्षा
अपवर्तन (ष खं ११/४,२,६/सू.५१-६४/२०४-२२४) (म.ब.२/२,३/३)
उपशान्त कषाय एकेन्द्रिय सू. अप स्तोक
क्षीण मोह असगुणे | पत्य/असं.
उपशमक पल्य/असं.
क्षपक बा,
चक्षुदशन
विशेषाधिक ऊपरवाले की द्वीन्द्रिय
चक्षु इन्द्रियावग्रह
दुगुना
अपेक्षा
विशेषाधिक त्रीन्द्रिय
घाण
जिहा चतुरिन्द्रिय
मनोयोग सा.
वचन योग सा. पंचेन्द्रिय असज्ञी
काय योग सा. ६.३ , संज्ञो अप.
स्पर्शन इन्द्रियावग्रह अन्यतम अवाय
नोट-यदि व्याघात या मरण न हो तब ही यह अपबहुत्व लागू होता है। मरण हो जानेपर तो किसी
भी स्थान का जघन्य काल एक समय तक बन जाता है । (क.पा.१/१,१६/३४८)
१७४
श्रोत्र
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
मत्पबहुल
१६१
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
दुगुना
दूना
विषय अल्पबहत्व विशेष
विषय
अरु"बहुत्व । विशेष अन्यतम ईहा
विशेषाधिक
६ नोकपाय ब ध काल की अपेक्षाधृतज्ञान
(क पा ३/३,२२/६३८६-३८७/पृ २१३) - श्वासोच्छ्वास
विशेषाधिक
उच्चारणाचार्य की अपेक्षा चारों गतियोंमें अन्य आचार्यों सशरीर केवली का केवल ज्ञान
सोपसर्ग उपरोक्त का दर्शन
ऊपर तुल्य
की अपेक्षा मनुष्य व तियेंच में
केवली शुक्ल लेश्या सा.
पुरुष वेद
__स्ताक (संदृष्टि) एकत्व वितक अविचार ध्यान
विशेषाधिक अपेक्षा स्त्री वेद
। स गुणा पृथक्त्व वितर्क विचार ध्यान
दुगुना
हास्य रति अवरोहक सू सम्पराय
विशेषाधिक
अरति शोक आरोहक ,
ना सक वेद
} विशेषाधिक ४२ ,
अन्य आचार्यों की अपेक्षा शेष नरक व देव मे क्षपक मान कषय सस
पुरुष वेद
सा | स्तोक (सदृष्टि) क्रोध . .
विशेषाधिक स्त्री वेद
सं. गुणा
। माया ,
हास्य रति
विशेषाधिक ११ .. लोभ ,
नपुमक वेद
सं गुणा २२ ॥ क्षुद्र भव
अरति शोक
विशेषाधिक २३ ॥ कृष्टि करण
७ मिथ्याव काल विशेष की अपेक्षासंक्रामक
(ध १०/४,२,४,६२/२८४) अपवर्तना
देवगति में जन्म धारनेवाले के
स्तोक उपशान्त कषाय
मनुष्य गति में उत्पत्ति योग्य
स गुणा क्षीण मोह
विशेषाधिक
तिर्यच संज्ञी पचेन्द्रियमें उत्पत्ति योग्य उपशमक
दुगना
तियंच अमंज्ञी ५ चेन्द्रियमें उत्पत्ति क्षपक
विशेषाधिक
योग्य ४. उपशमन व क्षपण काल की अपेक्षा
चतुरिन्द्रियमें उत्पत्ति योग्य
त्रोन्द्रियमे उत्पत्ति योग्य (कपा ४/३,२२/६६१६-६२६/३२६-३२८)
द्वीन्द्रियमें उत्पत्ति योग्य चारित्र मोह :
एकेन्द्रिय बा में उत्पत्ति योग्य क्षपक अनिवृत्ति करण
स्तोक
एकेन्द्रिय मू मे उत्पत्ति योग्य अपूव .
सं गुणा उपशामक अनिवृत्ति करण
८. जीवोके योग स्थानोकी अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणाएं ., अपूर्व करण
लक्षण-उपाद याग-जा उत्पन्न होनेके प्रथम समय में एक समय मात्र दर्शन मोह :
के लिए हो। क्षपक अनिवृत्ति करण
एकान्तानुवृद्धि योग - जो उत्पन्न होने के द्वितीय समयसे लेकर ... अपूर्व ..
शरीर पर्याप्तिसे अपर्याप्त रहनेके अन्तिम समय तक निवृत्त्यअनन्तानुबन्ध विसयोजक का
पर्याप्तकोमे रहता है । लब्ध्यपर्याप्तको के आयु बन्धके योग्य अनिवृत्ति करण
काल में अपने जीवितके त्रिभागमें परिणाम योग होता है । उपरोक्त अपूर्व करण
उससे नीचे एकान्तानुवृद्धि योग होता है। इसका जघन्य उपशामक अनिवृत्ति करण
व उत्कृष्ट काल एक समय है।
परिणाम योग- पर्याप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर आगे जीवन, अपूर्व
पर्यन्त सब जगह परिणाम योग ही होता है। निवृत्यपर्याप्तके ५ कषाय काल की अपेक्षा
परिणामयोग नहीं होता। (गो. जी./जी. प्र./२६६/६४०)
(ध १०/४२,१७३/४२८-४२१), (दे. अल्पबहुत्व/३/११/७/३) नरक गति:
नोट-गुण कार सर्वत्र पत्य/असं.जानना (ध १०/पृ.४२०) लोभ
सा० स्तोक अन्तर्म. माया सं. गुणा
स्वामी
| अल्पबहुत्व मान कोध
१ योग सामान्यके यव मध्य कालको अपेक्षादेवगति :
(ष खं.१०/४,२,४/सु २०६-२१२/५०३-५०४) क्रोध स्तोक अन्तर्मु २०६६ मध्य स्थान ८ समय योग्य
सर्वत स्तोक मान
स.गुणा २०७ दोनो पार्श्वभागों में
परस्पर तुल्य माया
७ समय योग्य
असं. गुणे लोभ
१२०८६ समय योग्य
योग
११
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #177
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________________
अल्पबहुत्वं
स्वामी
२०१
५ समय योग्य
२१०
४
""
२११ उपरिम भाग
३ समय योग्य
२
सूत्र
२१२/
१४८
१४६
१५०
१५१
१५२
१५३
१५४
१५५
₹4
१५७
१५८
सात ल अप एकेन्द्रिय तोन विकलत्रय
सू. बा.
पचेन्द्रिय सज्ञी असज्ञी
२. योग स्वानोके स्वामित्व सामान्यकी अपेक्षा
(घ. १०/२.१.४.१०३ /२०३)
यही सात नि अप
यही सात नि प
१४५ | एकेन्द्रिय सू. ल. १४६
बा.
11
१४७ द्वीन्द्रिय ल. अप.
श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय
*
पंचेन्द्रिय असो ल. अप.
संशो
सातो नि.
सातो नि. प.
पररपर तुल्य
परस्पर तुल्य असं गुणे
अस गुणे
३. योग स्थान सामान्य मे परस्पर अल्पबहुत्व
( ध १० / ४,२, ४, १७३ / ४०४) सातो ल. अप (दे. ऊपर)
अप.
"
94
द्वन्द्रिय
श्रीन्द्रिय
(च.नं.१०/४,२,४/सू.१४५-१०२/२६६-४०१ )
ज. उप.
१५६
१६० चतुरिन्द्रिय
१६१
१४२
"1 99
एकेन्द्रिय सू.
बा.
११
"
सू. नि. अप.
बा.
सृ
बा.
नोट - यह स्व-स्थान प्ररूपणा जानना ।
४. १४ जीव समासोमे जघन्योत्कृष्ट योग स्थानोंकी
अपेक्षा
नि
11
11
19
अप.
19
"
11
"
योग
14
३ व २ समग्र
योग्य स्थान ऊपर ही होते 'है नीचे नहीं
प.
11
अप.
पंचेन्द्रिय असंज्ञी नि. अप
संज्ञी
३ स्थान
ऊप
एकी.
परि
२ स्थान
ऊप एका
१ स्थान
प.रे.
པཽ ཝཱ ཡཱ ླ ལྤ ཡཱ
परि.
"
उ. परि
11
ज. परि
उ. परि
उ. एकां
11
अल्पबहुत्य सूत्र
असं गुणे १६+
इन्द्रिय
१६४
त्रीन्द्रिय
१६५ चतुरिन्द्रिय
JEE
स्तोक
परस्पर तुल्य स्तोक
"
स्लोक
असं गुणे
स्तोक असं गुणे एक ही पद मे अल्पबहुत्व
नहीं
स्तोक
असं गुणे
::::::::::::
11
१६२
"
१६७
९६८
१६६ /
| १७० १७१ १७२ ।
१४०४
४०५
पचेन्द्रिय असंज्ञी
सही
१४०६
द्वीन्द्रिय
त्रीन्द्रिय
स्वामी
१४०५ एकेन्द्रिय सू.
नि. प.
एकेन्द्रिय बा विकलत्रय
17
.
11
एकेन्द्रिय बा. ल. अप तीनो विकलत्रय ल. अप. पचे, सज्ञी असज्ञी एकेन्द्रिय नि. अप. भू
91 39
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
एकेन्द्रिय बा नि अप विक्लत्रय
नि.
39
99
पंचे ज्ञ असंज्ञ इति षट् निवृत्ति अपर्याप्त
"
(१०/४.२.४.१०२ / ४०४-४२०) नोट- गुगकार सर्वत्र पश्य / असं जानना
स्वस्थान अल्पबहुत्वएकेन्द्रिय सु. ल. अप.
19
चतुरिन्द्रिय पचेन्द्रिय अशी
संत्री
19
29
५. प्रत्येक योगके अविभाग प्रतिच्छेदोकी अपेक्षा
प.
नि.
ल.
नि
नि.
11
पं सज्ञी असंज्ञी
इति पर निवृत्ति पर्या परस्थान अल्पबहुत्व - मन. साधारण या निगोदएकेन्द्रिय सू. ल. अप. उपरोक्त नि.
अप. ल. अप.
नि.
नि. प.
"
12
19
"
19
11
39
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
योग
ज. परि.
19
उ
11
परि
ज. उप.
उ. उप.
ज. एकी.
उ. एकी. ज परि
परि.
3.
ज. उप
3.
ज
उ
उपरोक्त चारो
स्थान
ज. परि
उ. परि. उपरोक्त दोनों स्थान
उपरोक्त ग्रहो उपरोसत्
स्थान
एकी.
ज उप.
*
उ. 25
उ.
to
= = = = = =
11
ज एकां
97
ज. परि.
ज
उ.
अन्यमहुल
अस. गुणे
19
19
19
19
स्तोक
असं गुणे
:::
स्तोक
असं गुणे
.
11
उपरोक्तवत
स्तोक
असं गुणे उपरोक्तवत्
स्तोक असं गुणे
::::::::::
"
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________________
अत्पबहत्व
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएं
स्वामी
योग
अल्पबहुत्व सूत्र
स्वामी
योग
अन्पबहुत्व
४०७,
असं. गुणे
एकेन्द्रिय बा. के उपरोक्त सर्व विकल्प द्वीन्द्रिय ल अप.
नि. .
४०७/
ज. उप.
उ.उप.
उपरोक्तवत् ४१० त्रीन्द्रिय .
ज. परि. । चतुरिन्द्रिय स्तोक ४१ पंचे, अस ज्ञी असं. गुणे , सज्ञी
(२) उत्कृष्ट स्थानों की अपेक्षा सर्व परस्थानालाप ११/ एकेन्द्रिय सु. ल. अप।
, नि. " बा.
, नि, द्वीन्द्रिय ल.
| स्तोक अस. गुणा
ज. एका,
त्रीन्द्रिय
.494
चतुरिन्द्रिय
उपरोक्तवत
पचे. असंज्ञो
त्रीन्द्रियसे सज्ञी पंचें. तकके
उपरोक्त सर्व विकल्प
सर्व परस्थान अल्पबहुत्व(९) जत्रन्य स्थानाको अपेक्षा सर्व परस्थानालाप ४०८ एकेन्द्रिय सू ल. अप. । ज, उप.
| " संज्ञो असं. गुणा १२
स्तोक
एकेन्द्रिय
को
h
=
.
बा.
ल.
.
" नि.
बा. ,
ल. नि.
द्वीन्द्रिय
,
नि.
"
उ, परि
. . . . . . . . . . . . . . . : :
प्रीन्द्रिय
=
४०६
चतुरिन्द्रिय
उ. एका.
नई. असंही
= = = =
., संझी
=
द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचे असंज्ञो ।
र संज्ञी , द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचे. असंज्ञी ,
एकेन्द्रिय
सू.
ल.
ज,एका.
= = = =
बा.
ल.
4
द्वीन्द्रिय श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचें असंज्ञी
द्वीन्द्रिय ४१० त्रीन्द्रिय
चतुरिन्द्रिय पंचे. असंज्ञी ., संज्ञी द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचें असंही
, संज्ञी द्वोन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचें. असंज्ञी
र संज्ञी द्वीन्द्रिय
3: :: :: :::
द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय ,
पंचे. असंही , ४१४ , संज्ञी , । (३) जघन्योत्कृष्टकी अपेक्षा ८४ स्थानीय सर्व परस्थानालाप४१४, एकेन्द्रिय सू. ल अप. । ज. उप.
नि | " ल.
उ. उप, | बा ल. , । ज..
: :::
नि
प.)
ज. परि.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #179
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________________
अल्पबहुत्व
१६४
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएं
स्वामी
योग स्थान
अपबहुत्व सूत्र
स्वामी
योग स्थान अरुपमहत्व अप, । ज. परि. | पत्य/अस गुणे
नि. अप. ल.
४१४| एकेन्द्रिय सू.
. वा. द्वीन्द्रिय ए केन्द्रिय बा. द्वोन्द्रिय
: :
श्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय
: :: :
एका.
चतुरिन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय
: :: :
पल्य/असं.गु८ चतुरिन्द्रिय ल.
पचे असंही
संज्ञी द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पचे असज्ञी
, सज्ञी द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पचे. असज्ञी
, संज्ञी द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय ८चे० असज्ञी
., संज्ञी द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पचे. असंज्ञी
. संज्ञी द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचें. असंज्ञो ,
पंचे असंज्ञी चतुरिन्द्रिय पचे असज्ञी नि
ब:::. : ... .4444बबबबबबबब
: :: :
:
संज्ञी .. असज्ञी . सज्ञी एकेन्द्रिय सू पचे संज्ञी एकेन्द्रिय सू. ___. बा.
" ,
ब: :: :
:
ल. नि.
.
.
बा.
ल
,
६. कोके सत्त्व व बन्ध स्थानोंकी अल्पबहत्व प्ररूपणारं
नोट-- इस प्ररूपणाके विस्तार के लिए दे. अल्पमहुल ३/११/७
(४) श्रेणी/अस.मात्र योग स्थानोंका अन्तर एकेन्द्रिय सू. ल. अप.
बा. " "
मार्गणा व समास
अल्पबहुत्व
" ,
बा. सू,
. प.
४१७
नि
१. जीवोके स्थिति बन्ध स्थानोकी अपेक्षा
(ष.ख. ११/४,२.६/सू. ३७-५०/१४२-१४७) ३७ एकेन्द्रिय सू अप. स्तोक (पल्य/असं.)
स. गुणे ३६ . सू. प.
मा, द्वीन्द्रिय
अप.
त्रीन्द्रिय
चतुरिन्द्रिय
द्वीन्द्रिय श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पचे. असज्ञी
., संज्ञी द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचें. असज्ञी
, सज्ञो द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय
अप
४५ पचेन्द्रिय असंज्ञी ४८ , ४६
सज्ञी
अप.
।
नोट-इसीके स्व स्थान, पर स्थान व सर्व परस्थान सम्बन्धी
विस्तृत प्ररूपणाएँ दे (ध. ११४४,२,६,५०/१४७-२०१)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #180
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________________
अल्पबहुत्व
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएं
सूत्र
मार्गणा व समास | स्थान |
अल्पबहुत्व
मार्गणा व समास
अपमहत्व
३. स्थिति बन्धके निषेकोंकी अपेक्षा
२. स्थिति बन्धमे जघन्योत्कृष्ट स्थानोंकी अपेक्षा
(ष खं. ११/४,२६/सू, ६५-१००/२२५-२३७)
६५ सुक्ष्म साम्पराय संयतके
अन्तिम समयवर्ती ६६ एकेन्द्रिय बा. प.]
(ष ख. ११/४,२-६/सू.१०२-१११/२३८-२५३) १०२| सर्व जीव समास मिध्यादृष्टि :
से | आठों कर्मों की अपेक्षा १११ प्रथम समयमें निक्षिप्त
अधिक
विशेष हीन ततीय " " पंचें. सज्ञी प. सम्यग्दृष्टि-- आयु कर्म को अपेक्षा
उपरोक्तवत नोट-विशेष देखो (नं. १४/८/१०,१२) ।
सर्वत: स्तोक अस. गुणा गुणकार-पत्य/असं. विशेषाधिक विशेष = पत्य/अस
द्वितीय .
.
P
४. मोहनीय कर्मक स्थिति सत्त्व स्थानोंकी अपेक्षा
(क.पा. ४/३,२२/६२८-६३६/३२९)
द्वय
१२८
२५ गुणा विशेषाधिक विशेष = पन्य असं.
सर्वत. स्तोक विशेषाधिक ऊपर तुल्य
विशेषाधिक
जीन्द्रिय
प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यान क्रोध,मान, ।
माया, लोभके सत्कर्म स्थान २२६
स्त्री वेद के सत्कर्म स्थान नपु. , , हास्यादि ६ नोकषायों के स्थिति
सत्कर्म स्थान पुरुष वेद के सत्कर्म स्थान ६३२ सज्वलन क्रोध ,, , . ६३३ , मान . .. " र माया ,
" .. लोभ . . " अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चतुष्क के स्थिति
सत्कर्म स्थान मिथ्यात्व के सत्कर्म स्थान
सम्यक्त्व प्रकृतिके . . ६३६ सम्यग्मिध्यारव , " "
८२ चतुरिन्द्रिय
et पञ्चन्द्रिय असंज्ञी
विशेषाधिक विशेष-पत्य/असं,
an
१० संयत सामान्य
सं. गुणा गुणकार-सं. समय
५. बन्ध समुत्पत्तिक अनुभाग सत्त्व के जघन्य स्थानों की
अपेक्षा
संयतासयत
६३ अस यत सम्यग्दृष्टि ६४ .
अर्थ-बन्ध समुत्पत्तिक स्थान-कर्मका जितना अनुभाग
माँघा गया (क. पा.५/४,२२/१५७२/३३८)
अप.
स्वामी
अल्पमहत्व
१७ पञ्चेन्द्रिय संज्ञी
मिथ्यादृष्टि हम उपरोक्त
सयमाभिमुख चरम समयवर्ती मिथ्याष्टि । स्तोक सर्व विशुद्ध पंचे संज्ञी प का ज. अनु.स्थाम सर्व विशुद्ध पंचे. असंज्ञी अ.ज. अनु. स्थान अनन्तगुणा
१००१
॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #181
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________________
अल्पबहुत्व
३. प्रकोणक प्ररूपणाएँ
स्वामी
अल्पबहुत्व
कौन कर्म का अनुभाग
अल्पबहुत्व
अनन्तगुणा
अनन्तानुबन्धी
विशेष हीन
सर्वविशुद्ध तेइन्द्रिय असज्ञो प का ज. अनु स्थान, द्वीन्द्रिय
" " . एकेन्द्रिय बा,
"
सज्वलन
माया क्रोध मान लोभ माया क्रोध मान
अनन्तगुणा हीन विशेष हीन
कौन कर्मका अनुभाग
अल्पबहुत्व
प्रत्याख्यान
लोभ
अनन्तगुणा हीन विशेष होन
अप्रत्याख्यान
माया क्रोध मान लोभ माया क्रोध मान
अनन्तगुणा हीन विशेष हीन
अनन्तगुणा हीन
६ हत्समुत्पत्तिक अनुभाग सत्त्वके जघन्य स्थानोकी अपेक्षा अर्थ-हत समुत्पत्तिक स्थान = अपवर्तन द्वारा अनुभाग का घात करके
जितमा अनुभाग शेष रखा गया (क. पा ५/४,२२/१५७२/३३८-३३९) सर्वाविशुद्ध एकेन्द्रिय सू. अप द्वारा। । उपरोक्त बन्ध स्थानसे
अनुभाग घातसे उत्पन्न किया ज स्थान अनन्तगुणा . एकेन्द्रिय बा के द्वारा घात से उत्पन्न
द्वीन्द्रिय .. तेइन्द्रिय
" .. चतुरेन्द्रिय , , ., पंचे असंज्ञी ., संयमाभिमुख पंचे.सज्ञी द्वारा,,
७. अष्टकर्म प्रकृतियोके उत्कृष्ट अनुभागकी ६४ स्थानीय
स्वस्थान ओघ व आदेश प्ररूपणा (म. ब(५/६४१७-४२५/२२०-२२४)
१.शानावरण-ओष प्ररूपणा केवल ज्ञानावरणी का
सर्वत तीव आभिनिबोधिक ज्ञानावरण का
अनन्तगुणा हीन श्रुत अवधि मन पर्यय २. दर्शनावरणदर्शनावरण का
सर्वात तीव्र चच
अनन्त गुणा हीन अचा अवधि स्त्यानगृद्धि निद्रा निद्रा प्रचला प्रचला
नपुसक वेद अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्री वेद पुरुष वेद रति हास्य
५. आयुदेवायु नरकायु मनुष्यायु तियंचायु
अनन्त गुणा हीन
सर्वत तीव अनन्त गुणा हीन
सनतः तीव अनन्त गुणा हीन
केवल
६. नामकर्म
(गति):देवगति मनुष्यगति नरकगति तियंच गति
(जाति):पंचेन्द्रिय एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय
(शरीर) - कार्माण तेजस आहारक वैक्रियक औदारिक
सर्गततीन अनन्तगुणा हीन
निद्रा
प्रचला
३. वेदनीयसाता
वेदनीय का असाता
४. मोहनीयमिध्यात्व अनन्तानुबन्धी लोभ का
सर्वतः तीत्र अनन्तगुणा होन
सर्वत. तीच अनन्तगुणा हीन
:
सर्गत तीव अनन्तगुणा हीन
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #182
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________________
अल्पबहुत्व
१६७
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएं
कौन कर्म का अनुभाग
अल्पबहुत्व
कौन कर्म का अनुभाग
अल्पबहुत्व
सर्वात तीव्र अनन्तगुणा होन
ओघवत
सर्वत' तीव अनन्तगुणा हीन
तीत्र अनन्तगुणा हीन
तीन
अनन्तगुणा हीन
सर्वात' तीव्र अनन्तगुणा हीन
ओघवत उपरोक्त बव नरक बत
सर्वात तीव अनन्तगुणा हीन
तिथंच बत ओघवत
(संस्थान) :समचतुरस्र
संस्थान हुण्डक न्यग्रोध परिमण्डल स्वाति संस्थान कुब्जक वामन
(अंगोपांग):आहारक
अंगोपांग क्रियक औदारिक
(संहनन) - वज्र ऋषभ नाराच संहनन असम्प्राप्त सृपाटिका वज्रनाराच नाराच अर्ध नाराच कीलित
(वर्ण) - प्रशस्त वर्ण चतुष्क अप्रशस्त
, , (आनूपूर्वी) - देवगति
आनुपूर्वी मनुष्य गति नरक तिथंच ,
(अगुरुलघु आदि) - अगुरुलधु उच्छवास परघात उपधात
(प्रशस्ताप्रशस्त युगल).सर्वां प्रशस्त प्रकृति .. अप्रशस्त
७ गोत्रकर्म:उच्च गोत्र नीच गोत्र
८. अन्तराय कर्म :वीर्यान्तराय उपभोग
अन्तराय भोग लाभ दान
आदेश प्ररूपणा - १ गति मार्गणा :
नरक गति में :नरक गति सामान्य में १-७ पृथिवी में
तियं च गति में - नरकायु देवायु मनुध्यायु तिथंचायु देव गति नरक गति तिर्सच गति मनुष्य गति शेष कर्म तिरुचो के अन्य विकल्पों में पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त
मनुष्य गति में - मनुष्य प व मनुष्यणीमे चारों गतियोंक, शेष कर्मों
का देवगति में,सर्व विकल्पों में
२. इन्द्रिय मार्गणा :सब एकेन्द्रिय तथा सब विकलेन्द्रियमें पंचेन्द्रिय प व अप, में
३. काय मार्गणा.पाँचौं स्थावर काय में प्रसप अप में
४. योग मार्गणा .पाँचो मनोय गी में पाँची वचन योगो में काय योगी सा. में औदारिक काय योगी में
मिश्र वै क्रियक व वै क्रियक मिश्रमें आहारक आहारक मिश्रमे कामण योग में
५ वेद मार्गणा:तीनो वेद व अपगत वेद में
६. कपाय मागणाचारो कषाय में
ओघवत
सर्वतः तीव्र अनन्तगुणा हीन
पंचे. तिथंच अप. बत ओघवत्
सनत तीव्र अनन्तागुणा हीन
पंचे. तिथंच अप. वत ओघवत
ओघवत
सर्वात तीव्र अनन्तगुणा हीन
सर्वात तीव अनन्तगुणा होन
मनुष्यणीवत तिर्यच सा बद देवगति वत् सर्वाथ मिद्धिवव औदारिक मिश्रवद
सर्जत तीव, अनन्तगुणा हीन
मूलोधवत्
.
.
ओघवद
.
जैनेन्द्र सिद्धान्त केश
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________________
अल्पबहुत्व
१६८
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएं
कौन कर्मका अनुभाग
अल्पबहुत्व
कौन कर्मका अनुभाग
अल्पबहुत्व
७. शान मार्गणा :मति श्रुत अवधि व मन पर्ययमें केवलज्ञान में मति श्रुत अज्ञान व विभंग में
ओघवत
(८) अष्ट कर्म प्रकृतियोके जघन्य अनुभाग की ६४
स्थानीय स्वस्थान ओघ व आदेश प्ररूपणा
(म.ब ५/६४२६-४३२/२२४-२२६) १.शानावरणमनापर्यय ज्ञानावरणका अनुभाग
सवत स्लोक अवधि
अनन्तगुणा
तिर्यच वत
श्रुत
८. संयम मार्गणा :संयम सा. सामायिक व छेदा, में परिहार विशुद्धि में सूक्ष्म साम्पराय में यथारख्यात में संयतासंयत में असंयत में
ओघवत सर्वार्थ सिद्धि व ओघवत
सर्वार्थसिद्धिव
ओघवत्
स्तोक अनन्तगुणा
९. दर्शन मार्गणा :चक्षु अचच दर्शनों में अवधि दर्शनों में
ओघवत्
तियंचोंब
१०. लेश्या मार्गणा :कृष्ण में
नील कापोत में :देवगतिका अनुभाग मनुष्य , , तिर्यच . . नरक , चारों आनुपूर्वीका शेष प्रकृतियो का पीत लेश्या व पद्म लेश्या में शुक्ल लेश्यामें
तीव अनन्तगुणा हीन
आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका अनुभाग केवल ज्ञानावरणका
२. दर्शनावरणअवधि दर्शनावरणका अनुभाग अचक्षु चक्षु
" केवल प्रचला
. निद्रा
" प्रचला प्रचला, निद्रा निद्रा , स्त्यानगृद्धि,
३. वेदनीयअसाता का साता
४. मोहनीयसंज्वलन लोभ का
" माया , " मान ,
. क्रोध पुरुष वेद हास्य रति जुगुप्सा भय शोक
स्तोक अनन्तगुणा
उपरोक्तवत् कृष्ण लेश्यावद देवगति व ओघवत्
स्तोक अनन्तगुणा
ओघवत्
११. सम्यक्त्व मार्गणा :सम्यग्दर्शन सा, में उपशम व क्षायिक सम्य में वेदक सम्यग्दृष्टि में मिध्यादृष्टि में सासादन में सम्यग्मिथ्यादृष्टि में
सर्वार्थसिद्धिवद तिथंच वत् नरकवत वेदक सम्य वत
अरति
१२. भव्यत्व मार्गणा :भव्य में अभव्य में
बोधवत
विशेषाधिक
१३. सशित्व मार्गणा - संज्ञि में असंज्ञि में
स्वी वेद नएसक वेद प्रत्याख्यान मान ,
, क्रोध , , माया, , लोभ, अप्रत्याख्यान मान,
क्रोध
माया, __ लोभ , अनन्तानुबन्धी मान,
क्रोध माया ,
ओघवत तिर्यच वत
अनन्तगुणा विशेषाधिक
१४. आहारक मार्गणाआहारक में अनाहारक में
अनन्तगुणा विशेषाधिक
ओघवत
x
लोभ,
जैनेन्द सिद्धान्त कोश
Page #184
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________________
अल्पबहुत्व
१६९
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएं
कौन र्मका अनुभाग
अल्पबहुत्त्व
कौन कर्मका अनुभाग
अल्पबहुत्व
स्तोक अनन्तगुणा
स्तोक
अनन्तगुणा
५. आयुतियंचायु मनुष्यायु नरकायु देव आयु
६. नामकर्म (गति)तिर्यंच गति नरक , मनुष्य , देव (जाति):चतुरिन्द्रिय त्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय (शरीर)
औदारिक वैक्रियक तेजस कामंण आहारक (संस्थान):न्यग्रोध परिमण्डल स्वाति कुब्ज वामन
(उपधातादि)
स्तोक उपघात परधात
अनन्तगुणा उच्छ्वास अगुरुलघु
७. गोत्र कर्मनीच गोत्र
स्तोक ऊच गोत्र
अनन्तगुणा ८. अन्तरायदान अन्तराये
स्तोक लाभ
अनन्तगुणा भोग उपभोग वीर्य (९) अष्ट कर्म प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभाग की ६४
स्थानीय परस्थान ओघ प्ररूपणा
(म ब. १/६४३६-४३६/२२-२२९) साता वेदनीय
सबसे तीव यश कीति
अनन्तगुणाहीन उच्च गोत्र
ऊपर तुल्य देव गति
अनन्तगुणा हीन कार्मण शरीर
स्तोक अनन्त गुणा
स्तोक अनन्तगुणा
तेजस
॥
स्तोक अनन्तगुणा
हुण्डक
स्तोक अनन्तगुणा
ऊपर तुल्य अनन्तगुणा हीन
विशेष हीन
स्तोक अनन्तगुणा
आहारक, वैक्रियक , मनुष्य गति औदारिक शरीर मिथ्यात्व केवल ज्ञानावरण केवल दर्शनावरण असाता वेदनीय वीर्यान्तराय अनन्तानुबन्धी लोभ
माया क्रोध मान लोभ माया क्रोध
मान प्रत्याख्यान लोभ
माया क्रोघ
मान अप्रत्यारुमान लोभ
माया कोध
मान मति ज्ञानावरण
संज्वलन
समचतुरस (अगोपांग):औदारिक वैक्रियक आहारक (संहनन):वज्र नाराच नाराच अर्ध नाराच कोलित असम्प्राप्त सृपाटिका वज्र ऋषभ नाराच (वर्ण) - अप्रशस्त वर्ण चतुष्क , प्रशस्त , , .
अंगोपांग):तिर्यच गत्यानपूर्वी नरक मनुष्य
" देव
अनन्तगुणा हीन विशेष हीन
अनन्तगुणा हीन विशेष हीन
स्तोक अनन्तगुणा
स्तोक अनन्तगुणा
अनन्तगुणा हीन विशेष हीन
अनन्तगुणा हीन
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
अल्पबहुत्व
१७०
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
कौन कर्म का अनुभाग
अल्पबहुरव
कौन कर्म का अनुभाग
अल्पबहुंत्व
ऊपर तुल्य अनन्तगुण हीन
অনলা
ऊपर तुल्य
ऊपर तुल्य अनन्तगुणा
अनन्तगुण हीन ऊपर तुल्य
उपभोगान्तराय चक्षुर्दर्शनावरण अचक्षुदशनावरण श्रत ज्ञानावरण भोगान्तराय अवधि ज्ञानावरण अवधि दर्शनावरण लाभान्तरीय मन पर्यय ज्ञानावरण स्त्यानगृद्धि दानान्तराय नपुंसक वेद अरति शोक भय जुगुप्सा निद्रा निद्रा प्रचला प्रचला
अनन्तगुण होन ऊपर तुल्य
चक्षु दर्शनावरण मतिज्ञानावरण उपभोगान्तराय वीर्यान्तराय पुरुष वेद हास्य रति जुगुप्सा भय शोक अरति स्त्री वेद नपुंसक वेद केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरण प्रचला निद्रा प्रत्याख्यानावरण
अनन्तगुण होन
ऊपर तुल्य अनन्तगुणा
निद्रा
विशेषाधिक
मान क्रोध माया लोभ मान क्रोध माया लोभ
अप्रत्याख्यान
अनन्तगुणा विशेषाधिक
अनन्तगुणा
प्रचला प्रचला निद्रा निद्रा स्त्यानगृद्धि अनन्तानुबन्धी
मान क्रोध माया
अनन्तगुणा विशेषाधिक
लोभ
अनन्त गुणा
शरीर
प्रचला अयश कीर्ति नीच गोत्र
ऊपर तुल्य नरक गति
अनन्तगुण हीन तिथंच गति स्त्री वेद पुरुष वेद रति हास्य देवायु नरकायु मनुष्यायु तियचायु नोट – इसकी आदेश प्ररूपणाके लिए देखो (म ब./पु. ५/६४३६-४४२/
पृ. २३१-२३३)। (१०) अष्ट कर्म प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागकी ६४ |
स्थानीय परस्थान ओघ प्ररूपणा
(म ब./पु 1/$४४३/ २३३-२३४) संज्वलन लोभ का
सर्वत' स्तोक माया
अनन्तगुणा मान "
क्रोध मन पर्यय ज्ञानावरण दानान्तराय
ऊपर तुल्य अवधि ज्ञानावरण
अनन्तगुणा , दर्शनावरण
ऊपर तुल्य लाभान्तराय श्रुत ज्ञानावरण
अनन्तगुणा अचक्षु दर्शनावरण
ऊपर तुल्य भोगान्तराय
मिथ्यात्व औदारिक वैक्रियक तिर्यञ्चायु मनुष्यायु तेजस कार्मण तियञ्च नरक मनुष्य
शरीर
देव
नीच गोत्र अयश कीर्ति असाता वेदनीय यश कीति उच्च गोत्र साता वेदनीय नरकायु
ऊपर तुल्य अनन्त गुणा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #186
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________________
अल्पबहुत्व
१७१
{३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
कौन कर्म का अनुभाग
अल्पबहुत्व
कौन कर्म का अनुभाग
अल्पबहुत्वे
का
विशेष हीन
अन्यतमका ही द्रव्य आता है अत' अल्प बहुत्व नहीं होता
अधिक विशेष होन
अनन्तगुणा
निद्रा देवायु
दर्शनावरण का भाग आहारक शरीर
निद्रानिद्रा ... " नोट-इस सम्बन्धी आदेश प्ररूपणा के लिए देखो म ब./पु. ५/६४४५
प्रचलाप्रचला , " .. ४५०/पृ. २३५-२३६)
स्त्यानगृद्धि
" ११ एक समय प्रबद्ध प्रदेशाग्र मे सर्व व देशघाती
३. वेदनीय के द्रव्य मेंअनुभागके विभाग की अपेक्षा
साता का भाग (गो.क./म् १६७/पृ. २५६)
असाता सर्न घाती भाग
। सन द्रव्य/अनन्त देश घाती .,
| शेष बहु भाग
४. मोहनीय के द्रव्य में
अनन्तानुबन्धी चतुष्क का भाग १२. एक समय प्रबद्ध प्रदेशाग्न मे निषेक सामान्य के |
अपत्याख्यान विभाग की अपेक्षा
प्रत्याख्यान
संज्वलन (ध /पु १२/४,२,७,६३/३६-४०)
हास्य चरम स्थिति में
स्तोक
रति प्रथम " "
असं गुणे
अरति अप्रथम व अचरम स्थितियों में
शोक अप्रथम में
विशेषाधिक भय अचरम में
जुगुप्सा सब स्थितियो में
स्खी वेद
पुरुष वेद १३. एक समय प्रबद्ध मे अष्ट कर्म प्रकृतियों के प्रदेशाग्र | नपुसक वेद विभाग की अपेक्षा
.. आयु के द्रव्य मैं - १. स्वस्थानप्ररूपणा
चारों आयु में से मुल प्रकृति विभाग-वि.स./प्रा.४/४४६-४६७) (ध. १५/३५); (गो.क/ मू १९२२६६/२२५)
६. नाम के द्रव्य मेंआयु कर्म का भाग
गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, नाम
विशेषाधिक
निर्माण, बन्धन, संघात, सस्थान, गोत्र
ऊपर तुल्य
संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, ज्ञानावरण
विशेषाधिक
आनुपूर्वी, अगुरुलधु, उपघात, दर्शनावरण
ऊपर तुल्य
परघात, आतप, उद्योत, अन्तराय , " "
उच्छवास, विहायोगति, प्रत्येक मोहनीय
विशेषाधिक
शरीर, त्रस, सुभग, सुस्वर, शुभ, वेदनीय
बादर, पर्याप्ति, स्थिर, आदेय, उत्तर प्रकृति विभाग स्वस्थान अपेक्षा.
यश कीर्ति, तीर्थकर १. ज्ञानावरण के द्रव्य मेंमति ज्ञानावरण
७. गोत्र के द्रव्य मेंअधिक विशेष हीन
ऊँच गोत्र का भाग अबधि ,
नीच , मनापर्यय केवल
८. अन्तराय के द्रव्य में२. दर्शनावरण के प्रव्य में
दानान्तराय का भाग चक्षु दर्शनावरण का
अधिक
उलाभ . अक्षच
विशेष हीन
भोग , अवधि
उपभोग. केवल . , .
अन्यतमका ही द्रव्य आता है अत: अक्पबहुत्व नहीं
स्तोक
इसी क्रम से प्रत्येक में अपने-अपने से पूर्व की अपेक्षा विशेषहीन भाग जानना शुभाशुभ युगलों में अपबहुत्व नहीं है क्योंकि अन्यतम का द्रव्य आता है।
का
भाग
अन्यतमका ही द्रव्य आता है अत अल्पबहुत्व नहीं
स्तोक विशेषाधिक
वीर्य
,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
अल्पबहुत्व
१७२
३. प्रकोणक प्ररूपणाएं
कर्म का नाम
अल्पबहुत्व
कमा
क्रम
कर्म का नाम
अल्पबहुत्व
दर्शनावरण में प्रदेश ।
विशेषाधिक
५०
सर्वत. स्तोक विशेषाधिक
५३
४६ चक्षु
पुरुष वेद सज्वलन अन्यतर नीच
सज्वलन ५५ असाता
उच्च ५७ यश कीर्ति
साता वेदनीय
माया आयु गोत्र लोभ वेदनीय
गोत्र
ऊपर तुल्य विशेषाधिक
में
उत्कृष्ट व अनन्त गुणे विशेषाधिक
२. परस्थान प्ररूपणा-उत्कृष्ट प्रकृति प्रक्रम) (ध १५/३६-३७) अप्रत्याख्यान मान मे
प्रदेश क्रोध .. " माया . "
लोभ प्रत्याख्यान मान
क्रोध माया
लोभ अनन्तानुबन्धी मान
क्रोध माया
लोभ मिथ्यात्व केवल दर्शनावरण प्रचला निद्रा प्रचला प्रचला निद्रा निद्रा स्त्यानगृद्धि केवल ज्ञानावरण आहारक शरीर नामकर्म वैक्रियक औदारिक तैजस कार्मण देवगति नरक गति मनुष्यगति तियग्गति अशय कीर्ति जुगुप्सा
कषाय ३२/ भय
हास्य-शोक रति-अरति खो-नपुंसक वेद
सं० गुणे विशेषाधिक
ऊपर तुल्य विशेषाधिक
स० गुणा विशेषाधिक (दोनो तुल्य
अनन्त गुणे विशेषाधिक
जघन्य प्रकृति प्रक्रम
न०१ से २० तक औदारिक शरीर नामकर्म तैजस कार्मण तिर्यग्गति यश,कीर्ति अयशकीर्ति मनुष्य गति जुगुप्सा
नोकषाय भय हास्य-शोक रति-अरति अन्यत संज्वलन
मान क्रोध माया
लोभ दानान्तराय लाभान्तराय भोगान्तराय
उपभोगान्तराय ४१ वीर्यान्तराय ४२ मन पर्यय
ज्ञानावरण ४३ अवधि
द
स० गुणे
"
विशेषाधिक ..दोनो तुल्य)
३६ दानान्तराय
सं० गुणे विशेषाधिक
दर्शनास
लाभान्तराय भोगान्तराय परिभोगान्तराय नीर्यान्तराय संज्वलन क्रोध मन.पर्यय अवधि
मति अवधि
अचक्षु ४८, चक्षु
उच्च नीच गोत्र साता-असाता वेदनीय बैंक्रियक शरीर देव गति मनुष्य गति तिर्यग्गति नरक गति
देव व नरक आयु ५८ आहारक शरीर
नामकर्म
ज्ञानावरण
म० गुणे (दोनों तुल्य) विशेषाधिक अस० गुणे सं० गुणे अस० गुणे ऊपर तुल्य असं० गुणे
मति संज्वलन
अवधि ४८ अचच
গান दर्शनावरण
४७
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
अल्पबहुत्व
(१४) जीव समासों में विभिन्न प्रदेश बन्धोकी अपेक्षा (ष ख १०/४, २, ४ / सु १७४ / ४३१)
पदेस अति जहा जोगजन्याहू जी तथा दमं वरि पदेसा अप्पाए त्ति भणिदव्वं ॥ १७४॥ - जिस प्रकार योग अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है (देखो न ८ प्ररूपणा) उसी प्रकार प्रदेश अस्पबहुत्व की प्ररूपणा करना चाहिए। विशेष इतना है कि योग के स्थानोमें यहाँ प्रदेश ऐसा कहना चाहिए।
नोट- योगके एक अविभाग प्रतिच्छेद में भी अनन्त कर्म प्रदेशोंके अपकर्षण शक्ति है ।
(१५) आठ आकर्षोकी अपेक्षा आयुबन्धके जीवोंकी प्ररूपणा ( गो जी / जो. प्र. ५१८ / ११५/२)
आठ अपकर्षो द्वारा करनेवाले
19
६
"
आयु बन्ध काल
८ वाले का का काल
विषय
{་
11
(१६) आठों अपकर्षो में आयु बन्धके कालकी अपेक्षा (गो, जी./जी. ४.५१८/१९५८)
संकेत :- ८ वाले का-८ अपकर्षो द्वारा आयु बन्ध करनेवाले जीवका ८वें का आठवें अपकर्ष का बन्ध काल
सं.संख्यात
वि. अ. विशेषाधिक
19 59 19 11
11
11
91
८ वाले का ६ वें का काल
99
99
६ "
८ वाले का ५ वें का काल
14
41
31
19
"
to
ST
उ.
ज.
उ.
उ.
ज.
अल्पमतुरख
उ.
ज.
उ.
उ.
ज
उ.
उ.
ज.
उ.
स्तोक
संख्यात गुणे
39
अल्पबहुत्व
स्तोक
वि अ.
सं. गुणा
वि. अ.
सं. गुणा
वि अ
सं गुणा
वि. अ.
स. गुणा
वि. अ
सं. गुणा
वि.
अ.
स. गुणा
वि अ
सं. गुणा
वि अ.
सं.
गुणा
वि. अ
१७३
आयु बन्ध काल
५ वाले का ५ वे का काल
८ वाले का ४थे का काल
७
६
५
४
८ वाले का ३ रे का काल
60
६
* "*
४
३
७
६
८ वाले का २
史
४
११
३
97
"3
४
3
11
11
६..
* "1
17
२ ..
८ बाले का १ ले का काल
11
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
57
रे का काल,
"
71
19
" "
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
ज. व उ.
काल
ज
उ.
ज.
उ.
ज.
उ.
ज.
उ.
ज
उ.
ज.
उ.
ज
उ.
ज.
उ.
3.
उ.
ज.
उ.
ज.
उ
ज.
उ.
ज.
उ.
ज.
उ
ज.
उ.
ज
उ.
ज.
उ
ज
उ.
ज.
उ.
ज.
उ.
ज.
उ.
ज
उ
ज
उ.
अवयव
सगुणा
वि. अ
सं. गुणा
वि. अ.
सं. गुणा
वि. अ.
सं. गुणा
fa. 3.
1. गुणा
वि. अ.
सं.
गुणा
वि. अ. सं. गुणा
वि अ
स गुणा
वि अ.
सं. गुणा
वि. अ.
सं.
गुणा
वि.
अ
सं. गुणा
वि अ.
स. गुणा
वि अ
सं. गुणा
वि अ
सं गुणा
बि.अ.
सं. गुणा
बि. अ.
सं. गुणा
वि. अ.
सं. गुला fa..
सं गुणा
बि.
अ
सं. गुणा
वि. अ.
सं. गुणा
वि. अ.
भंगु
वि. अ.
सं. गुणा
वि अ.
सं गुणा
वि अ.
सं गुणा
वि. अ.
सं. गुणा वि. अ.
Page #189
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________________
अल्पचदुख
आयु बन्ध काल
२ वाले का १ ले का काल
१७६
१७७
१
१८६
१८१ १८२
१८७
දීපස
१८६
१८३
१८४
१८५
15
१०८
१७६ दर्शन मोह क्षपक की 850
39
सूत्र
१७५ | दर्शन मोह उपशमक सम्मुख (या सातिशय मिध्यादृशि की
सूक्ष्म साम्पराय का अनिवृत्तिकरण का अपूर्व करण का
१०. अष्टकर्म संक्रमण व निर्जराकी अपेक्षा अल्पबहुत्व २६२ दर्शन मोह पक का
१६३
अनन्तानुबन्धी विसयोजक का
१६४
स्व स्थान अघ प्रवृत्त प्रमत्ताप्रमत्त संयत का संयतासंयत का दर्शन मोह उपशमक का (सातिशय मिध्यादृष्टि का )
Q51 ज. व उ.
संयतासंयत की
अध प्रवृत्त स्वस्थान संयत अर्थात् अप्रमत्त व प्रमत्त संयत की अनन्तानुबन्धी विसयोजक की
चारित्र मोह उपशमकअपूर्व करण की
अनिवृत्ति करण की
सूक्ष्म साम्पराय की
उपशान्त कषाय वीतराग (११) की
चारित्र मोह क्षपक की अपूर्व करण की अनिवृत्तिकरण की सूक्ष्म साम्पराय की
क्षीण कषाय वीतराग (१२) की
स्व स्थान अधःप्रवृत्त सयोग केबलीको
समुद्रात केवली की
(गो.जी./जी. प्र / ६७ / १६८/२)
योग निरोध केवली की
ज
उ.
प्ररूपणा
१. भिन्न गुणधारी जीवोमे गुण श्रेणी रूप प्रदेश निर्जरा की ११ स्थानीय सामान्य प्ररूपणा
ज
15
सूक्ष्म साम्पराय का अनिवृत्तिकरण का अपूर्व करण का
उ.
१६५
(च.स्व १२/४,२.७/ १७५-१८४/८०-०६) (क.पा.१/११/गा. ३० ९९६ २६/१०६) (स. सु./१/४५) (स सि./१/४२ / १५१-१५४) (ध.१०/ ४२.४.७४ / २६१२१६) गोजी/६६-६७१६०)
स्वामी
स्व स्थान अध प्रवृत्त सयोग केवली का
क्षीण कषाय वीतराग का चारित्र मोह क्षपक
स गुणा
वि. अ
स गुणा
बि. अ.
अल्पव
सर्व स्टोक बर्स, गुणी
"
90
33
२ भिन्न गुणधारी जीवों मे गुण श्रेणी प्रदेश निर्जरा के काल को ११ स्थानीय प्ररूपणा
( . १२/४,२.७/१०६-११६/८५-८६)
योग निरोध केवली का
समुद्रात केवली का
(प्ररूपणा नं. १ के आधार पर)
כג
"
13
सर्व स्तोक गुणा
असं.
"
१७४
सूत्र
९६०
१६१
क्रम
१
२
३
४
५
उपशान्त कषाय वीतराग का चारित्र मोह उपशामक
स्वामी
उत्तरोत्तर भागहारों के नाम
सर्व संक्रमण का भागहार
गुण
כ
३. पाँच प्रकार के सक्रमणों द्वारा हत, कर्म प्रदेशो के परिमाण मे अल्पबहुत्य
(गो.क/सू./४३०-४३५/२००)
उत्कर्ष भाहार अपकर्षण
"
अध प्रवृत्त सक्रमण द्वारा हत
ज सं. उ. योगों का गुणकार कर्म स्थितिकी नाना गुणहानि शलाका
के अच्छे का प्रथम वर्गमूल
कर्म स्थितिको एक गुणहानिके समय का परिमाण
कर्म स्थितिकी अन्योन्याभ्यस्त राशि
पल्य
कर्म की उत्कृष्ट स्थिति
विध्यात संक्रमण का भागहार
उद्वेलना का भागहार
कर्मों के अनुभाग की नाना गुण हानि
शलाका
कर्मानुभाग की एक गुण हानि का
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
आयाम
कर्मानुभाग को च गुण हानि का
आयाम
कर्मानुभाग की २ गुण हानि
कर्मानुभाग की अन्योन्याभ्यस्त राशि
२. प्रकीर्णक रूगणारी
अल्पबहुत्व
अस. गुणा
23
अल्पबहुत्व
सर्व स्तोक असं.
गुणा गुणकार - पत्य / असं.
ऊपर तुल्य पत्य / असं. गुणे
पव्य के अर्द्धच्छेद
•
रूप असं गुणा विशेषाधिक असं गुणा
wxxxshp क्रोड क्रोड़ गुणा असं गुजा गुणकार-सूर्य / असं.
15
अनन्त गुणी
19
डेढ़ गुणी एक गुणहानि से दुगुनी अनन्त गुणी
Page #190
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________________
अल्पबहुत्व
१७५
प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
११. अष्टकर्मबन्ध उदय सत्यादि १० करणोंकी अपेक्षा भुजगारावि पदोमें अल्पबहुत्वकी ओघ व आदेश प्ररूपणा नोट - इस सारणी में केवल शास्त्र के पृष्ठादि ही दर्शाये गये है । अत उस उस प्ररूपणा को देखने के लिए शास्त्र का वह वह स्थान देखिये ।
विषय
३ भुजगारादि पदों की अपेक्षा
४. ज उ वृद्धि हानि की अपेक्षा
१. उदीरणा सम्बन्धी अल्पबहुत्व की ओघ व आदेश प्ररूपणा (प. १५/३.)
४७
८०-८१
१४७-१५७
१. स्वामित्व सामान्य २८० आदि प्रकृतियों की उदीरणा
रूप भंगों के स्वामित्वकी अपेक्षा
३. भुजगारादि पोंके बच
•
४. ज उ वृद्धि हानिके बन्धक
२. उदय सम्बन्धी अल्पबहुत्व की ओघ व आदेश प्ररूपणा (४. १५/१)
१. स्वामित्व सामान्य अपेक्षा
२८५
२८८-२८६
२. भुजगारादि के स्वामित्वकी अपेक्षा
३. पद निक्षेप सामान्य की अपेक्षा
४. पद निलेपाके स्वामिको अपेक्षा ५. वृद्धि हानि की अपेक्षा
६.
.. के स्वामित्वको अपेक्षा
५. षट्स्थान
६. बन्ध अध्यवसाय स्थान
39
17
उप स्वामि की अपेक्षा
•
"1
11
३. उपशमना सम्बन्धी अल्पबहुत्व की ओघ व आदेश प्ररूपणा (प. १५/१ )
१. स्वामित्व सामान्य अपेक्षा
२७७
२७६
२. भुजगारादि की अपेक्षा
३. अन्य सर्व विकल्पों की अपेक्षा
१५
२८०
२८१
२८१
४. संक्रमण सम्बन्धी अल्पबहुत्वकी ओघ व आदेश प्ररूपणा - ( घ. १५/१ )
१. सर्व विकल्पों की अपेक्षा
| २८३ | २८३ ।
२८३ । २८३ (मव/१०/
५. बन्धसम्बन्धी अल्पबहुत्वकी ओष व आदेश प्ररूपणा
१. बन्धक अबन्धक जीव सा. की अपेक्षा
१/४१४-५३६ ।
२. ज उ पदों के बन्धकों
१. ज. उ. पदों के बन्धक
२. भुजगारादि पदके बन्धक
३. ज. उ. बृद्धि हानि रूप पदों के
७. २८-२४ आदि सत्त्व स्थानों के काल की अपेक्षा
प्रकृतिविषयक मूल प्र उत्तर प्रकृति
बन्धक
४. स्थान वृद्धि हानि रूप पदों के बन्धक
५. बन्धक सामान्यकाप्रमाण
६. प्रकृति सत्त्व असत्त्व का स्वामित्व
31
६. सत्समुत्पत्तिकादि पदके स्वामी
१०. ज. उ. वृद्धि हानि पदोंकी अपेक्षा
५०
५३
19
२८०
स्थिति विषयक मूल प्र उत्तर प्रकृति
닥
६७
२/४८२-२८४
२/५३३-५३६
१ / ३६३-३६४ २/१८७-२०६
२६४
२ / ३८४ - ३१० २/३६९-४९८
37
14
99
१६२१६४
१६४-१७०
२६५
"0
२/२-१८
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
२/३४३-२५४४/४to-tot
_२/२२३-२७०३/५६७-६११ ४/२६०-२६६ ४/४१७-४५० ६ / ६६-१०० २/३३८-३४२ १/८०८-८३१४/२०३३०८/४-२६/९४१-१४६ २/ २५०-१५८ ४/१४२-३२ ३६०-६९० ६/१५३ २/४०६-४१४ ३/६५७-६७८ ४/३६८-३७० ५/६२५- ६/१५७-१६४ |२ |७/२८-६४४
६. मं. हनीय कर्म सत्य सम्बन्धी अल्पबहुत्वकी स्वव पर स्थानीय ओष व आदेश प्ररूपणा (म.म /पु.पु.)
8/426-480
I
अनुभाग विषयक मूल प्र.
उत्तर प्र.
२६६
19
२८२
|
२८४ |
४/९८५
५/१८
२१६-२३१
२३६-२३०
२४-२५२
२६६
| ३/२६४-१६८ ३/००१-६१६५/१३१-१४०५/४२६-४००/ ३/२२४-२२५४/१७७ - १६५ २/९६९ ५/५९०-४१३
३/२४१-२४५ ४/२०४-०११
12/28-118
מ
39
२८२
२८४ |
प्रदेश विषयक
लभ
५/१६०-१६८५/२२६-५३०
| | |
२६६
99
99
उत्तर प्र
२६१-२६४५ २७४ -२७५
२८१-२६४
२७१-२७३
३०१-३२४ ३२६
३३५
।।।
२८२ २८२
२८४ | २८४
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अल्पसावद्य
१७६
अवक्तव्य
७. अष्टकर्म बन्ध वेदनामे स्थिति, अनुभाग, प्रदेश व प्रकृति बन्धोंकी अपेक्षा ओघ व आदेश स्व पर स्थान अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ: प्रमाण
विषय १.स्थिति बन्धवेदना.१ष. खं. ११४४,२,६/सू२५-३५४१३७-१३६ अष्टकर्मकी जघन्य उत्कुष्ट स्थिति सम्बन्धी स्थिति वेदनाकी परस्थान प्ररूपणा २ ष,ख. ११/४,२,६/सू१२३-१६४/२०७-२७६ ___..
आबाधा व काण्डको सम्बन्धी स्व पर स्थान प्ररूपणा सामान्य ३ ध. ११/४,२,६/१६४/२८०-३०८ .
विशेष ४ष खं. ११/४,२.६/सू१८२-२०३/३२१-३३२ साता असाता के द्वितीय, वित्तीय, चतुर्थ आदि स्थानों के अनुभाग बन्धक जीव विशेषों में
__अष्टकर्मकी जघन्य उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी पदोका परस्थान अल्पब हुत्व ५ष खं ११/४,२,६/सु२०६-२३८/३३४-३४४ उपरोक्त जीवोमें अष्टकर्मों के स्थिति बन्ध स्थानोंका परस्थान अल्पबहुत्व ६ष.ख ११/४,२,६/१२४१-२४५/३४६-३४६ अष्टकर्म स्थिति बन्धके सामान्य अध्यवसाय स्थानों सम्बन्धी परस्थान प्ररूपणा ७ष. खं. ११/४,२,६/सू२५२-२६६/३५२-३६२
___. . जघन्य उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थानो सम्बन्धी ८ष ख. ११/४,२.६/सू.२७२-२७६/३६६-३६८ ... . .. स्थानों के योग्य तीव्र मन्द परिणामों सम्बन्धी प्ररूपणा हम ब २/सू२/२
चौदह जीव समासों में मूल प्रकृति स्थिति बन्ध स्थानों सम्बन्धी प्ररूपणा १० म.ब.२/१५-१६/६-१२
.
में प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तकके निषेको सन्बन्धी प्ररूपणा ११ म.ब. २/सू १८-२२/१३-१६
चौदहजीव समासोंमें मूल प्रकृतिके ज उ स्थिति बन्धस्थानों, आबाधा स्थानों व काण्डकों संबंधी १२ म.ब.२/सू १६-२१/२२८-२२६
नं. १० वत् ही परन्तु उत्तर प्रकृतिको अपेक्षा १३ म.ब. २/सू २३-२४/२३०
नं.१२ बत् ही . "
" २. अनुभाग बन्ध वेदना.१ष.वं.१२/४,२, सू४०-६४/अ.सू.१-३/३१-४४ अष्टकर्म मूलोत्तर प्रकृति के ज. उ. अनुभागोदय सम्बन्धी स्व व पर स्थान प्ररूपणा २ प. वं. १२/४,२,७/६४-११७/४४-५६ अष्टकर्म उत्तर प्रकृति उत्कृष्ट अनुभाग बन्धकी परस्थान प्ररूपणा ३ ध. १२/४,२,७,११७/६०६२
, , , , . , स्वस्थान . ४ष खं १२/४,२,७/सू११८-१७४/६५-७५
" . जघन्य ,
परस्थान घ. १२/४,२,७,१७४/७५-७८
.. . .
स्वस्थान , ६ ध,१२/४,२,७,२०१/११४-१२७
१४ जीव समासोमें ज.उ, अनुभाग बन्ध स्थानोंके अन्तर सम्बन्धो प्ररूपणा ७ध १२/४,२,७,२०२/१२८
. , ज. अनु. बन्ध व ज, अनु सत्व सम्बन्धी परस्थान प्ररूपणा ८ ष खं.१२/४,२.७/सु२३६-२४०/२०५-२०७ यव मध्य रचना क्रममें अनुभाग बन्ध अध्यवसाय स्थानो सम्बन्धी प्ररूपणा
पखं १२/४,२,७/सू२६० २६२/२६६-२६७ हष ख १२/४,२,७/सू२७६-२८४/२४७-२६५ ज उ बन्ध अध्यवसायके सामान्य स्थानों में जीवोके प्रमाण सम्बन्धी प्ररूपणा
ष ख १२/४,२,७/१३०४-३१४/२७२-२७४ १०ष ख १२/४ २,७/१२६३-३०३/२६७-२७२ | अनुभाग बन्ध अध्यवसाय स्थानों में जीवोके स्पशन काल सम्बन्धी प्ररूपणा ३ प्रदेश बन्ध वेदना - १ध. १०/११७-१२१
अष्टकर्म प्रकृतियो के ज उ प्रदेशों के सत्त्व सम्बन्धी प्ररूपणा २ष ख १०/४,२.४/सु १२४-१४३/३८५-३६४
. .. ... पदों सम्बन्धी प्ररूपणा ३ ष.ख. १०/४,२,४/सु१७४/४३१
प्रदेश बन्ध का अल्पबहुस्त्र योग स्थानों के अस्पबहुत्व वत् ही है ४ ध.१०/४,२,४,१८१/४४८/१६
प्रथमादि योग वर्गणाओमें जीव प्रदेशों सम्बन्धी प्ररूपणा ५ध १०/४,२,४,१८६/४७६
योग वर्गणाओंके अविभाग प्रतिच्छेदो सम्बन्धी प्ररूपणा ६ घ, ११/४,२,४,२०५/५०२
योगों में गुण हानि वृद्धि सम्बन्धी प्ररूपणा ७ध, १०/४,२,४,२८/१५-१६
ज उ योग स्थानोमें स्थित जीवोके प्रमाण सन्बन्धी प्ररूपणा ८ध. ११/४/२,५,१७/३३/१
उत्कृष्ट क्षेत्रो में स्थित जीवो सम्बन्धी प्ररूपणा ६१.१२/४,२,७,१६६/१०२ १०४,११०
ज उ बर्गणाओंमें दिये गये कर्म प्रदेशो सम्बन्धी परस्थान प्ररूपणा ४, प्रकृति बन्ध वेदना - १ष खं १२/४,२,१६/सू १-२६/५०६-५१२ अष्ट कर्म मूनोत्तर प्रकृतियोके असंख्याते भेदो सम्बन्धी परस्थान प्ररूपणा
२ ष. खं.१३/५.५/सु१२४-१३२/३८४-३८७ । चारो गति सम्बन्धी आनुपूर्वी नाम कम प्रकृतिके भेदोको परस्थान प्ररूपणा अल्प सावद्य-दे सावध ।
अवंति वर्मा-कश्मीर नरेश-समय = ई ८८४ (ज्ञा, प्र ६/4. पन्ना अवंति-मालवा नरेश थे। प्रद्योत आपका अपर नाम था। अवन्ती लाल बाकलीवाल)
या उज्जैनी राजधानी थी। आप प्रसिद्ध राजा पालकके पिता थे अवंती-१ भरत क्षेत्र आय खण्डका एक देश-दे मनुष्य/४. २.वर्त जो वीर निर्वाणके समय राज्य करते थे। तदनुसार आपका समय- मान उज्जैनका पार्श्ववर्ती देश। उज्जैनी इसकी राजधानी है। वी. नि पू. ३३-०ई पू५६०-६७०) आता है-दे इतिहास ३/४ (ह. पहिले यह नगर वर्तमान मालवा प्रान्तमें ही सम्मिलित था। (म पु./ पु.६०/४८८); (क पा १/प्र.५१/५ महेन्द्रकुमार)
प्र ४८/पं. पन्नालाल)। अवंति कामा-भरत क्षेत्रमें आर्य खण्डकी एक नदी ।-दे
अवक्तव्य-ध. १/४.१,६६/२७४/२४ दोरूवेसु बग्गिदेसु वढिदंस मनुष्य ४।
णादो दोण्णं णणो कदिस । तत्तो मूलमवणिय वग्गिदे ण बड्ददि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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अवक्तव्य नय
१७७
अवगाहना
पुबिल्लारासी चेव होदि,तेण दोण्णं ण कदित्तं पि अस्थि । एवं मणेण अवहारिय दुवे अवत्तवमिदि बुत्तं । ऐसा विदियगणणजाई। -दो स्वपोका वर्ग करने पर चूँ कि वृद्धि देखी जाती है, अतः दो को नोकृति नहीं कहा जा सकता। और चूँकि उसके वर्गमेंसे मूलको कम करके वर्णित करनेपर वह वृद्धिको प्राप्त नहीं होती, किन्तु पूर्वोक्त राशि ही रहती है, अत. 'दो' कृति भी नहीं हो सकता। इस बातको मनसे निश्चित कर 'दो संख्या वक्तव्य है' ऐसा सूत्रमें निर्दिष्ट किया है।
* वस्तुकी कथचित् वक्तव्यता अवक्तव्यता-दे.सप्तभगी/६ । अवक्तव्य नय-१७ नयों में से एक-दे नय I/५ अवक्तव्य बंध-दे. प्रकृति बन्ध१। अवक्तव्य भंग-दे. सप्तभगी। अवक्तव्यवाद
१. मिथ्या एकान्तकी अपेक्षा :यु. अनु २८ उपेयतत्वाऽनभिलाप्यता बद्न उपायतत्त्वाऽनभिलाप्यता स्यात् । अशेषतत्त्वाऽनभिलाप्यताया, द्विषो भवद्य त्यभिलाप्यताया। - हे भगवन् । आपकी युक्तिको अभिलाप्यताके जो दोषी है, उन द्वेषियोंको इस मान्यतापर कि सम्पूर्ण तत्त्व अनभिलाप्य है, उपेयतत्त्वकी अवाच्यताके सामान्य उपायतत्त्व भी सर्वथा अवाच्य हो जाता है। स्व. स्तो/१०० ये ते स्वघातिनं दोषं शमीकर्तुमनीश्वराः । स्वदद्विष. स्वहनो बालास्तत्त्वावक्तव्यतां श्रिता ॥१००६-वे एकान्तवादी जन जो उस स्वघाती दोषको दूर करनेके लिए असमर्थ है, आपसे द्वेष रखते हैं. आरमधाती हैं,और बालक है। उन्होंने तत्त्वकी अवक्तव्यता को आश्रित किया है।
२. सम्यगेकान्त की अपेक्षा :पं.ध. पू./७४७ तत्त्वमनिर्वचनीयं शुद्धद्रव्याधिकस्य भवति मसम् । गुणपर्ययवद्रव्यं पर्यायाथिकनयस्य पक्षोऽयम् ७४७१ - 'तस्व अनि
चनीय है' यह शुद्ध द्रव्यार्थिकनयका पक्ष है; तथा 'गुणपर्यायवाला सत्व है'यह पर्यायार्थिक नयका पक्ष है। (और भी दे ,अवक्तव्य नय)।
३. वक्तव्य अवक्तव्यका समन्वय-दे. सप्तभंगी। अवकांत-प्रथम नरकका १२वा पटल-दे.नरक १/११ व रत्नप्रभा। अवगाढ रुचि-दे. सम्यग्दर्शन I/१।। अवगाढ सम्यग्दर्शन-दे. सम्यग्दर्शन I/१। अवगाह-Depth (गहराई)। स सि. १/१८/२८४ जीवपुदगलादीनाममगाहिनामवकाशदानमवगाह बाकाशस्योपकारो बेदितव्य। -अवगाह करनेवाले जीव और पुदगलोंको अवकाश देना आकाशका उपकार जानना चाहिए। (गो. जी./जी.प्र.६०५/१०६०/३) अवगाह क्षेत्र-दे. क्षेत्र । अवगाहन
१. मर्व द्रव्योंमे अवगाहन गुण : का अ.प./२१४-२१५ सयाण दवाणं अबगाहणससि अस्थि परमत्थ । जहभसमपाणियाण जीव परसाण महुयाणं ॥२१४॥ जदि ण हवदि सा सत्ती सहावभूदा हि सम्बदव्वाणं । एक्केक्कासपएसे कह ता सव्वाणि वट्ट'ति ।२१५॥ - वास्तव में सभी द्रव्यों में अवकाश देनेकी शक्ति है। जेसे भस्ममें और जल में अवगाहन शक्ति है, वैसे ही जीवके असख्यात प्रदेशों में जानो ॥२१४॥ यदि सब द्रव्यों में स्वभावभूत अवगाहन शक्ति न होती तो एक आकाशके प्रदेशोंमें सब द्रव्य कैसे रहते ॥२१॥
पं.ध.पू./१६, १८१ यत्तत्तविसशस्वं जातैरनतिक्रमात क्रमादेव ।
अवगाहनगुणयोगाह शाशाना सतामेव ॥१८६० अंशानामवगाहे दृष्टान्त स्वाशसं स्थित ज्ञानम् । अतिरिक्तं न्यून वा शेयाकृति तन्मयान तु स्वाशै ॥१८॥ -जो उन परिणामोंमें विसरशता होती रहती है, वह केवल सत्के अंशोंके सदवस्थ रहते हुए भी, अपनी-अपनी जातिको उल्लंघन न करके, उस देशके अंशों में ही क्रम पूर्वक आकारसे आकारान्तर होमेसे होती है. जो कि अवगाहन गुणके निमित्तसे होती है ॥१८६॥ जैसे कि ज्ञान अपने अंशोसे होन अधिक न होते हुए भी, ज्ञेयाकार होनेके कारण हीन अधिक होता है ॥१८॥
२. सिद्धोंका अवगाहन गुण : प.प्र.टी./६९/१३ एकजीवावगाहप्रदेशे अनन्तजीवावगाहदानसांमध्यमवगाहनत्व भण्यते । -एक जीव के अवगाह क्षेत्र में अनन्ते जीव समा
जाये, ऐसी अवकाश देनेकी सामर्थ्य अवगाहन गुण है। द्र.सं. टी १४/४३/१ एकदीपप्रकाशे नानादीपप्रकाशवदेकसिमक्षेत्रे सकरव्यतिकरदोषपरिहारेणानन्तसिद्धावकाशदानसामध्यमवगाहनगुणो भण्यते। -एक दीपके प्रकाश में जैसे अनेक दीपोंका प्रकाश समा जाता है उसी तरह एक सिद्धके क्षेत्र में संकर तथा व्यतिकर दोषसे रहित जो अनन्त सिद्धौंको अवकाश देनेकी सामर्थ्य है वह अवगाहन गुण है। * अवगाहन गुणकी सिद्धि व लोकाकाशमे इसका महत्त्व
-२.आकाश ३ अवगाहना-जीवोंके शरीर की ऊंचाई लम्बाई आदिको अवगाहना
कहते है । इस अधिकारमें जधन्य व उत्कृष्ट अवगाहनावाले जीवोंका विचार किया गया है। १. अवगाहना निर्देश
१. अवगाहनाका लक्षण २ उत्कृष्ट अवगाहनावाले जीव अन्तिम द्वीप सागरमें
ही पाये जाते है। ३. विग्रह गतिमे जीवोंकी अवगाहना। ४ जघन्य अवगाहना तृतीय समयवर्ती निगोदमें ही
सम्भव है। * सूक्ष्म व स्थूल पदार्थोकी अवगाहना विषयक।
--३. सूक्ष्म । २. अवगाहना सम्बन्धी प्ररूपणाएँ १. नरक गति सम्बन्धी प्ररूपणा २. तिथंच गति सम्बन्धी प्ररूपणा
१-२. एकेन्द्रियादि तिर्यचोंकी जघन्य व उत्कृष्ट अषगाहमा ३. पृथिवी कायिकादिकी जघन्य म उस्कृष्ट अवगाहमा ४. सम्मुर्छन व गर्भज जलचर थलचर आदिकी अवगाहना * महामत्स्यकी अवगाहना की विशेषताएँ-वे संमूर्छन १. जलचर जीवोंकी उत्कृष्ट अवगाहना
६. चौदहजीवसमासोकीअपेक्षा अवगाहनायन्त्रवमत्स्यरचना ३ मनुष्य गति सम्बन्धी प्ररूपणा १-२, भरतादि क्षेत्रों, कर्म भोगभूमियों व सुषमादि कालोंकी
अपेक्षा अवगाहना * तीर्थंकरोंकी अवगाहना-दे. तीर्थकर * शलाका पुरुषोंकी अवगाहना-दे. शलाका पुरुष
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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त्यवगाहना
१७८
१. अवगाहना सम्बन्धी प्ररूपणाएँ
४. देव गति सम्बन्धी प्ररूपणा
पूर्वी नाम कर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले और संस्थान नाम कर्मके १-३. भवनवासी, व्यन्तर व ज्योतिषी देवों को अवगाहना
उदयसे उत्पन्न होनेवाले सस्थानोके एकत्वका विरोध है। (विग्रह ४. कल्पवासी देवोंकी अवगाहना
गतिमें जीवोका आकार आनुपूर्वी नाम वर्मके उदयसे पूर्व भववाला * अवगाहना विषयक संख्या व अल्पबहत्व प्ररूपणाएँ
ही रहता है। वहाँ सस्थान नाम कर्मका उदय नही है। भव धारण
कर लेनेपर सस्थान भामकर्मका उदय हो जाता है, जिसके कारण -दे, वह वह नाम
नवीन आकार बन जाता है-दे. उदय ४/६/२)। १. अवगाहना निर्देश
४. जघन्य अवगाहना तृतीय समयवर्ती निगोदमें ही १. अवगाहनाका लक्षण
सम्भव है स सि १०/१/४७२/११ आरमप्रदेशव्यापित्वमवगाहनम् । तद्विविधम्- ध. ११/४,२,५.२०/३४/८ पढमसमय आहारयस्स पढमसमयत भवस्थस्स उत्कृष्टज पन्यभेदात् । आत्मप्रदेशमें व्याप्त करके रहना, उसका नाम जहण्ण रखेत्तसामित्त किण्ण दिज्जदे । ण, तत्थ आयरचउरस्सपखेत्तागाअवगाहना है । वह दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट ।
रेण द्विदम्मि अगाहणाए स्थोवत्ताणुववत्तीदो। विदियसमयआहा२. उत्कृष्ट अवगाहना वाले जीव अन्तिम द्वीप सागरमें रयविदि यसमयतम्भवत्थस्स जहण्णसामित्त किण्ण दिजदे । ण तरथ ही पाये जाते हैं।
समच उरससरूवेण जीवपदेसाणमबढणादो। विदियसमए विक्वंभ
समो आयामो जीवपदेसाणं हीदि त्ति कुदो णव्वदे। परमगुरूव देध,४/१,३,२/३३/४ सयपहपब्बयपरभागढियजीवाणमोगाहणा महल्लेत्ति
सादो। तदीयसमयआहारयस्स तदियसमयतब्भवत्थस्स चेव जहाणजाणावणमुत्तमेतत् । सयंपहणगिदपबदस्स परदो जहण्णोगाणा वि
खेत्तसामित्त किमट्ट' दिजदे। ण एस दोसो, चउर सखेत्तस्स चत्तारि जोवा अस्थि त्ति चे ण मूनग्गसयास काऊण अद्ध कदे धि सखेज्ज
वि कोणे सको डिव बट्टुलागारेण जीवपदेसाणं तत्थावट्ठाणदं सणादो। घण गुलदसणादो। स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें स्थित जीवो की
-प्रश्न-प्रथम समयवर्ती आहारक (अर्थात ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेअवगाहना सबसे बडी हातो है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह गाथा सूत्र है। प्रश्न-स्वयप्रभनगेन्द्र पर्वतके उस
वाला) और प्रथमसमयवर्ती तद्भवस्थ हुए निगोद जीवके जघन्य ओर जघन्य
क्षेत्रका स्वामीपना क्यो नही देते। उत्तर-नही, क्योकि, उस समय अवगाहनावाले भी जीव पाये जाते है। उत्तर-नही,क्योकि, जघन्य
आयत चतुरस्र क्षेत्रके आकारसे स्थित उक्त जीवमें अवगाहनाका अवगाहनारूपमूल अर्थात आदि और उत्कृष्ट अवगाहनारूप अन्त,
स्तोकपना बन नहीं सकता। प्रश्न-द्वितीय समयवर्ती आहारक इन दोनोको जोडकर आधा करनेपर भी संख्यात घनागुल देखे
और द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ होनेवाले जीवके जघन्य (क्षेत्रका) जाते है।
स्वामीपना क्यो नहीं देते। उत्तर--नहीं क्योकि उस समय भी ३. विग्रह गतिमें जीवोंको अवगाहना
जीवप्रदेश समचतुरस्र स्वरूपसे अवस्थित रहते है। प्रश्न-द्वितीय ध.४/१,३,२/३०/२ विग्गहगदीए उप्पण्णाण उजुगदीए उप्पणपढमसमय- समय में जीवके प्रदेशोका आयाम उसके विष्कम्भके समान होता है,
ओगाहणाए समाणा चेव ओगाहणा भवदि । वरि दोण्हमोगाहणाणं यह कैसे कहते हो । उत्तर-परमगुरूके उपदेशसे कहते है। प्रश्न-- सठाणे समाणत्तणियमो णत्थि । कुदो। आणुपुठिवस ठाणणामकम्मे हि तृतीय समवर्ती आहारक और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ निगोद जणिदसठाणाणमेगत्त वरोधा ।-विग्रहगतिसे उत्पन्न हुए जीवो के जीवके ही जघन्य क्षेत्रका स्वामीपना क्सि लिए देते हो ? उत्तर-यह
जुगतिसे उत्पन्न जीवोके प्रथम समयमें होनेवाली अवगाहनाके कोई दोष नहीं है, क्योकि, उस समयमे चतुरस्र क्षेत्रके चारो ही समान ही अवगाहना होती है। विशेषता केवल इतनी है कि दोनो कोनोको स कुचित करके जीव प्रदेशोका वर्तुलाकारसे (गोल आकारसे)
अवगाहनाओके आकारमें समानताका नियम नहीं है, क्योकि आनु- अवस्थान देखा जाता है। १. अवगाहना सम्बन्धी प्ररूपणाएँ १. नरक गति सम्बन्धी प्ररूपणा संकेत-ध.-धनुष; हा.-हाथ, अंगु.- अंगुल । गणना-१धनुष -४ हाथः १ हाथ-२४ अगुल ।
प्रमाण- (मू.आ. १०५५-१०६१), (स. सि ३/३/२०७). (ति प.२/२१५-२७०); (रा.बा.३/३/४/१६४/१५), (ह पु.४/२६५-३४०);
(ध ४/१,३,५४५८-६२), (त सा २/१३६), (त्रि सा.२०१), (म.पु.१०/६४), (द्र स.टो.३५/११६१८)-ध ४ के आधार परप्रथम पृथिवी । द्वितीय पृथिवी । तृतीय पृथिवी | चतुर्थ पृथिवो । पंचम पृथिवी | षष्ठ पृथिवी सप्तम पृथिवो ध. हा. अगु. ध ,हा. अगु. ध. हा अगुध हा अंगु...
घ. हा अगु. ८२ २-२/११
२०-४/७ | २२- ४/११ १-१/३ १७-१/७ १७-० | 8 | ३ |१८-६/११ २०
१३-५/७ २१-१/२ १४-८/११ २२
१|१०-१०/११ १८-१/२ ७- १/११ २६
३ ३- ३/११ २७ २-२/३ ११-१/२ १.२३-१/११ २६ २०-० -१६-७/११३१
१४ ३ १५-६/११
१६-०
ابر ا ه ا
१०-२/७
६-६/७
ww252221
ه ا به
" Immm
--
२१-१/२
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
अवगाहुना
१७९
१. अवगाहना सम्बन्धी प्ररूपणाएँ
स.बा.
क्रम
- ३ | वायु
___गर्भज
| थलचर
"
- इन्द्रिय ।
२. तिथंचगति सम्बन्धी प्ररूपणा
३. पृथ्वी कायिकों आदिकी जघन्य व उत्कृष्ट अवगाहना १. एकेन्द्रियादि तियंचोंकी जघन्य अवगाहना
संकेत-सू-सूक्ष्म बा.बादर; अस.- असख्यात । संकेत-असं - असंख्यात; सं.-संख्यात ।
(मू आ १०८७)। (मू आ./१०६६) (ति प/५/३१८/विस्तार) (ध ४/१,३,२४-३३)
काय समास
जघन्य (त सा./२/१४५) (गो जी /मूह४/२१५)-ति प.के आधारपर
उस्कृष्ट जघन्य अवगाहना मार्गमा
पृथिवी
घनांगुल/असं. । द्रव्यांगुल/असं, अवगाहना
अपेक्षा
२ | अप तेज | एकेन्द्रिय धनांगुल/असं जन्मके तृतीयसमयवर्ती
सूक्ष्म लब्ध्याप्त निगोद
४ सम्मूर्च्छन्न व गर्भज जलचर, थलचर आदिकी उत्कृष्ट द्विन्द्रिय | घनागुन/स अनुन्धरी त्रीन्द्रिीय घनागुल/स. कुन्थु
अवगाहना उपरोक्तxस
(मु.आ.१०८४-१०८६) (हपु श६३०)। ४/चतुरिन्द्रिय | उपरोक्तरसं काणमक्षिका ५। पंचेन्द्रिय ।
सम्मूर्छन तन्दुलमच्छ
क्रम मार्गणा २. एकेन्द्रियादि तिर्यचोकी उत्कृष्ट अवगाहना
अपर्याप्त पर्याप्त अपर्याप्त । पर्याप्त सकेत-यो-योजन (४ कोश), को -कोश ।
१ जलचर १ बालिश्त
४-८ धनुष (मू आ /१०७०-१०७१) (ति प/५/३१५-३१८) (ध ४/१,३,२/- २ महा
योजना
योजन ३३-४५) (त सा./२/१४२-१४४) (गो.जी /मु /६५-६६/२१६- मत्स्य
१०००४५००x२५०
१५००x२५०४१२५ २२१)-ति प.के आधार पर
४-८ धनुष
3 कोश अवगाहना
नभचर
४-८ धनुष अपेक्षा विशेष लम्बाई | चौडाई | मोटाई
नोट-गर्भजोंकी अवगाहना सर्वत्र सम्मूर्छनोसे आधी जानना १०००यो १ यो. १यो | कमल | स्वयम्भूरमण द्वीपके मध्यवर्ती ५. जलचर जीवोंकी उत्कृष्ट अवगाहना
भागमें उत्पन्न २.१२ यो । ४ यो. १३यो. शंख , , , समुद्र , ,
(ह पु१/६३०-६३१)।
, | ३ को ३/८को ३/१६को. कुम्भी . , द्वोपके अपरभागमें
तौर पर
मध्य में स्थान | या
उत्पन्न
लम्बाई चौडाई मोटाई | लम्बाई चौडाई | मोटाई सहस्र पद
लवण समुद्र
यो. (४६) (२३) १८यो. (E) (81) १यो, ३/४यो | १/श्यो. भवरा " . . . . ११०००यो ५००यो | २५०यो. महा-.., समुद्रके मध्यवर्ती कालोद समुद्र १८ यो. (१) | (४३) ३६यो. (१८) | ()
मत्स्य
भागमें उत्पन्न स्वयंभू रमण ५००यो । (२५०) । (१२५) । १००० १ ५०० । २५० ६. चौदह जीव समासो की अपेक्षा अवगाहना यंत्र सकेत'-सू-सूक्ष्म; बा. बादर; प. पर्याप्त, अप -अपर्याप्त: आ./असं.-आवलीका अस ख्यातवाँ भाग, पल्य/अस.-पल्य+ असंख्यात
पूर्व स्थान
पूर्व स्थान पृ.- पृथ्वी, ज= जघन्य, x= पूर्व स्थान+9- - *-पूर्व स्थान+
आ./अस
पल्य/असं. प्रमाण -(मू आ १०८७); (ति प ५१३१८ विस्तार)(गो.जी./जी R./१७-१०१/२२३-२४३)
|स्थान -५ |स्यानम् । स्थान-५ स्थान-५ स्थान%६ ।स्थान-५ स्थानम्५ । स्थान-५ । (स् अप.ज.) (वा.अपज.) । (अप.ज.) | (स्प जो (बा.प.ज.) . (प.ज) । (अप3.) | (प )
सूक्ष्म निगोद बादरवात-६ अप्र.प्रत्येक १२ सदम निगोद१७ बादर वात ३२ अप्रे प्रत्येक ५० तेन्द्रिय:५५ तेन्द्रिय ६० कूल स्थान%६४॥वात तेज-७ बेइंद्री-१३ ॥वात:२०] ॥ तेज ३५ बेन्द्रिय ५१ चौन्द्रिय:५६ चौन्द्रिय ६१
तेज ॥ अमुक तेइन्द्रि-१४ ॥ तेज २३ | ॥ अप-३८ तेन्द्रिय ५२ बन्द्रिय:५७ बोन्द्रय-६२ । ॥ अप४ |" पृथ्वी0 चतुरेन्द्रिः१५ ॥ अप:२६ ॥ पृथ्वी-४१] घौन्द्रिय-५३ अप्रतिष्ठित-५८ अप्र.प्रत्येक-६३) ॥ पृथ्वी५ । निगोद-१० पचेन्द्रिय-१६ पृथ्वी-२०॥ निगोद -४४ पझेन्द्रिय-५४) पञ्चेन्द्रिय-श्न पञ्चेन्द्रिय ६४) प्रतिस्थानवृद्धि | प्र.प्रत्येक प्रतिस्थानवृद्धि प्रतिस्थानवृद्धि प्र.प्रत्येक ४७ प्रतिस्थानवृद्धि प्रतिस्थानवृद्धि प्रतिस्थान वृद्धि क्रमश:/अस. प्रतिस्थानवृद्धि क्रमशःपल्याअस क्रमशःX प्रतिस्थान वृद्धि क्रमश पल्यास क्रमशःपल्यास- क्रमशःपल्यासक्रमश.पल्यास
क्रमश । स्थान%D५ । स्थान-६ स्थान५ स्थान -६ (स.अप.3.) (वा अप् 3.) (सूप उ.) | (बा-प) निगोद-१८ | वात- ३३ निगोद-१0 वात:३४ वाल-२१ तेज-३६ वात-२२।
तेज-३७ तेज-२४ | अप्% ३० तेज-२५ अप-४० अप:२७ पृथ्वी -४२ अपृ%२८ पृथ्वी-४३ मृथ्वी -३० निगोद्-४५ प्रतिस्थान वृद्धि प्र.प्रत्येक-
पृथ्वी-३१ निगोद-४६ प्रर्तिस्थानबृद्धि प्र प्रत्येक-80
el प्रतिस्थानवृद्धि क्रमशx क्रमश
प्रतिस्थानवाद
क्रमश: X| क्रमश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
५ (१००००
-
-
-
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अवगाहना
१८०
१. अवगाहना सम्ब.पी प्ररूपणाएं
-
स
६. चौदह जीव समासो की अपेक्षा अवगाहना की मत्स्य रचनाका यंत्र नोट व संकेत '१. रचनाका क्रम (देखो पहले पृष्टपर)
जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट स्थान व अवक्तव्य वृद्धि २. एक स्थानको दो मिन्दी-उस स्थान में
४. दो बिन्दी के बीच का अन्तरालप्रति जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त अवगाहनाके सर्वभेद
अवगाहना स्थान अवक्तव्य वृद्धि । ३. *दो दो स्थानों में बिन्दीप्रति अवगाहना
५. दो बिन्दियो के बीच के स्थान मध्यमस्थान (ति प../३१८ विस्तार), (गो जी./जी प्र/११२/२७४) ।
२४ .101011८३ २४ २५ २४३०२४०३८108 0५० २५४२८५७०.. .३५ ७ ३१५. 10 सश२५७२४१३५७५४११०४० १५१५ ० ० ६ ६
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. KANXX yoxxxxxxxxxxxxxx xxxxxx Xxxxxxx XXXSAXYKANYAAKKAIAMAKARMOM२६ नि व्यत ते. अप प. बात ते अपु. पृ नि अप्रत्येकxxxxxxxxxxxxxxxxxx २२3.
प.अन प्रत्येकाxxxoxxxxxxxxx १६ . बाप.ज
प.द्विज.
XXM0X30x3xxxxxax १६3. प.वि.अ. -- 1xxnxoxoMMAXMAMIK २० -3. प.च.ज. प.पं.ज.
सू.प.ज.
.
.
| १०
| 18
.
.
३. मनुष्य गति सम्बन्धी प्ररूपणा
४ देवगति सम्बन्धी प्ररूपणा १. भरतादि क्षेत्रों व कर्मभोग भूमिकी अपेक्षा अवगाहना १ भवनवासी देवोकी अवगाहना गणना-२००० धनुषका १ कोश
(म आ १०६२) (ति प ३।१७६) (ह पु ४/६८) (ध ४/१,३,२/गा.१८/७ प्रमाण-१. (मू आ १०६३,१०८७), २ (स सि.३/२६-३१),३ (ति. (ज प ११/१३१) (त्रि सा २४६) प४/ गा न ), ४ (रा वा.३/२६-३१/१६२), ५. (ध.४/
क्रम नाम अवगाहना क्रम नाम | अवगाहना १,३,२/४५)६ (ज प.११/५४), ७ (त सा २/१३७)
असुरकुमार 1२५ धनुष ६ | उदधिकुमार । १० धनुष्य प्रमाण अधिकरण अवगाहना विद्य तकुमार
द्वीपकुमार १० . ति.प.| अन्य क्षेत्र निर्देश भूमि निर्देश
सुपर्ण कुमार
दिककुमार जघन्य उत्कृष्ट गा | प्रमाण
अग्निकुमार १० .
स्तनित कुमार | १० , वातकुमार
१० । नागकुमार १०, २९,५,७ भरत-ऐरावत कर्म भूमि ३३ हाथ ५२५ धनु
२ व्यन्तर देवोकी अवगाहना ४०४ १,२ हैमवत हैरण्य जघन्य भोग ५२५,५०० धनु २००० धनु
१ (मू आ १०६२', २ (ति.प ४/७६,१६५२,१६७२), । बत ३१६ १.२ हरि-रम्यक मध्यम भोग २००० धनु
३ (ति प६/८), ४. (ह.पु.४/६८). ५. (ध.४/१३,२/गा.१८/७६),
४००० धनु २२५६ / २,५ विदेह उ कर्मभूमि ५०० धनु
६ (ध ७/२,६,१७ 'गा १/३१६), (ज प ११/१३६) ५०० धनु
प्रमाण स.-१,३-६ (किन्नर आदि आठ प्रकार व्यन्तरों की ३३५ / १.२ । देव व उत्तर उत्तम भोग ४००० धनु ६००० धनु
अवगाहना १० धनुष है।) २५१३ | ६ । अन्तर्वीप कुभोग ५०० धनु
प्रमाण स.२-(मध्य लोकके कूटो व कमलो आदिके स्वामी देव २००० धनु
देवियोकी अवगाहना भी १० धनुष बतायी गयी है)। २ सुषमा आदि छ कालोकी अपेक्षा अवगाहना .
है ज्योतिषी देवोको अवगाहना
(मू आ १०६२) (ति प ७/६१८) (ह पु. ४/६८) (ध ४/१,३, अवसर्पिणी
उत्सर्पिणो
२(गा १८/७६) (ज.प ११/१३६) (त्रि.सा.२४१) (सर्व ज्योतिष काल जघन्य । उत्कृष्ट | जघन्य । उत्कृष्ट
देवोकी अवगाहना ७ घनुष है) निर्देश ति.प/४ अवगाह | अवगाहना 'तिप/अब ति
४ कल्पवासो देवोंकी अवगाहना अव
१. मू आ १०६४-१०६८), २. (स.सि.४/२१/२५२); ३. (ति प.८/६४०); गा.
४. (रा.बा.४/२१/८/२३६/२६), ५ (ह.पु ४/६६); ६ (ध.७/२,६,१७/ सुषमासुषमा ३३५/४००० धनु ६००० धनु | १६०२ ,
२-६/३१६ ३२०), ७.(ज.प.११/३४६-३५२); ८(ज.प.११/२५३). सुषमा ३६६ २००० ४००० ।।
(त्रि सा ५४३), १०. (त.सा.२/१३६-१४१) सुषमादुषमा
४०४ | १२५ २००० , दुषमासुषमा १२७७ ७हाथ १२५
प्रमाण स.
नाम अवगाह विशेषता १४७५ ३ या ३१ ७हाथ
स.३ के बिना सर्व सौधर्म-ईशान ७हाथ | दुषमादुषमा १५३६ | १
, ३१८के बिनासर्व सनत्कुमार-माहेन्द्र
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर ५ ।
प्रमाण
गा.
..
.
अवसर्पिणी वत्
21.
अवसपिणीवत
दुषमा
-
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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अवग्रह
१८१
१ भेद व लक्षण
विषयविषयित भवति। तदानबाले प्रथम
प्रमाण सं,
नामअवगाह
विशेषता
.
.
केवल स३
लौकान्तिक हाथ सं,३वकेबिना सर्व
लान्तव कापिष्ठ शुक्र-महाशुक्र शतार-सहस्रार । प्रमाण न के अनुसार
१/२ हाथ कम आनत-प्ररणत आरण-अच्युत अधोग्रेवेयक मध्य प्रैवेयक
उपरिम |वेयक केवल सं १ नव अदिश ३" | प्रमाण न.के अनुसार
१/२ हाथ कम ३ व ८के बिना सर्व पंच अनुत्तर ।१ "
* अवगाहना प्रकरण में प्रयुक्त मानोका अर्थ दे गणित 11९/६ अवग्रह-इभिनय ज्ञानको उत्पत्तिके क्रममें सर्व प्रथम इन्द्रिय और पदार्थ का सन्निकर्ष होते ही जो एक झलक मात्र सी प्रतीत होती है, उसे अत्रग्रह कहते है। तत्पश्चात उपयोगकी स्थिरताके कारण ईहा व अवायके द्वारा उसका निश्चय होता है। ज्ञानके ये तीनो अग बडे वेगसे बीत जाने के कारण पाय प्रताति गोमर नहीं होते।
MR.
१. भेद व लक्षण
१ अवग्रह सामान्यका लक्षण । २ अवग्रहके भेद ।
१ विशद व अविशद-२ अर्थ व व्यंजन । ३ विशद व अविशद अवग्रहके लक्षण ।
४ अर्थ व व्यजन अवग्रहके लक्षण । २. अवग्रह निर्देश
* अवग्रह ईहा आदिका उत्पत्ति क्रम-दे० मतिज्ञान ३ १ अवग्रह ओर सशयमे अन्तर । २ अवग्रह अप्रमाण नही । ३ अर्थावग्रह व व्यजनावग्रहमे अन्तर । ४ अर्थावग्रह व व्यंजनावग्रहका स्वामित्व ।
अप्राप्यकारी तीन इन्द्रियोमे अवग्रह सिद्धि ।
प्राप्यकारी व अप्राप्यकारी इद्रियाँ।-दे० इन्द्रिय २ * अवग्रह और दर्शनमे अन्तर ।-दे० दर्शन २/8 * अवग्रह व ईहामे अन्तर ।-दे० अवग्रह २११/२ ६ अवग्रह व अवाय मे अन्तर।
स सि १/११/१११ विषयविषयिसं निपातसमनन्तरमाद्य' ग्रहणमवग्रह विषयविषयिस निपाते सति दर्शन भवति । तदनन्तरमर्थ ग्रहणमयग्रह । == विषय और विषयोके सम्बन्धके बाद होनेवाले प्रथम ग्रहणको अवग्रह कहते है । विषय और विषयोका सन्निपात होनेपर दर्शन होता है। उसके पश्चात जो पदार्थ का ग्रहण होता है वह अवग्रह कहलाता है। (रावा १/१५/१/६०/२), (ध १/१,११५/३५४/२), (ध ६/१,६-१, १४/१६/५), (ध.६/४,१,४५/१४४/५), क पा १११-१५/६३०२/३३२/३); (ज प १३/५७); (गो जी/मू ३०८/६६३) । ध १३/५,२,३७५२४२/२ अवगृह्यते अनेन घटाद्यर्था इत्यवग्रह' ।-जिसके
द्वारा घटादि पदार्थ जाने जाते है वह अवग्रह है। ध १३/५.५,२३/२१६/१३ विषयविषयिसपातसमनन्तरमाद्य ग्रहणमवग्रह। रसादयोऽर्था विषय , षडपीन्द्रियाणि विषयिण, ज्ञानोत्पत्त पूर्वाबस्था विषयविषयिसपात ज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषस तत्युत्पत्युपलथित अन्तर्मुहूर्त काल दर्शनव्यपदेशभाक् । तदनन्तर माद्य वस्तुग्रहणमवग्रह , यथा चक्षुषा घटोऽय घटाऽयमिति । यत्र घटादिना विना रूपदिशाकारादिविशिष्ट वस्तुमात्र परिच्छिद्यते ज्ञानेन अनध्यवसायरूपेण तत्राप्यवग्रह एव, अनवगृहीतेऽर्थे ईहायनुत्पत्ते । विषय व विषयोका सम्पात होनेके अनन्तर जो प्रथम ग्रहण हाता है, वह अवग्रह है। रम आदिक अर्थ विषय है, छहो इन्द्रियाँ विषयी है, ज्ञानोत्पत्ति की पूर्वावस्था विषय व विषयीका सम्पात है, जो दर्शन नाम से कहा जाता है। यह दर्शन ज्ञानोत्पत्तिके कारणभूत परिणाम विशेषकी सन्ततिकी उत्पत्तिसे उपलक्षित होकर अन्तर्मुहूत कालस्थायी है। इसके बाद जो वस्तुका प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। यथा--चक्षुके द्वारा 'यह घट है, यह बट है' ऐसा ज्ञान होना अवग्रह है। जहाँ घटादिके बिना रूम, दिशा, और आकार आदि निशिष्ट वस्तुमात्र ज्ञानके द्वारा अनध्यवसाय रूपसे जानी जाती है, वहाँ भी अपग्रह हो है, क्योकि, अनवगृहीत अर्थ मे ईहादि ज्ञानोकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। ज प १३४६१ सोदूण देवदेत्ति य मामण्णेण विचाररहिदेण । जस्सुप्पज्जइ
बुद्धी अवगह तस्स णिहिट्ठ॥६१॥ - 'देवता' इस प्रकार सुनकर जिसके विचार रहित सामान्य से बुद्धि उत्पन्न होती है, उसके अवग्रह निर्दिष्ट किया गया है। न्या दी.२/३११/३१ तत्रेन्द्रियार्थ समवधानसमनन्तरसमुत्थसत्तालोचनान्तरभावो सत्तावान्तरजातिविशिष्टवस्तुमाही ज्ञान विशेषोऽवग्रह । गथाऽग्र पुरुष इति । = इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध होने के बाद उत्पन्न हुए सामान्य अवभास (दर्शन), के अनन्तर होने वाले और अवान्तर सत्ताजाति से युक्त वस्तु को ग्रहण करनेवाले ज्ञान विशेषको अवग्रह कहते है, जैसे - 'यह पुरुष है'। २. अवग्रहके भेद
१ विशद अवग्रह व अचिराद अवग्रह ध.६/४,१४५/१४५/३ द्विविधोऽवग्रहो विशदाविशदावग्रहभेदेन । विशदाच ग्रह और अविशदावग्रह के भेद से अवग्रह दो प्रकारका है।
२. अर्थ व व्यजन अवग्रह ध १/१.१.११३/०५४/७ अवग्रहो द्विविधोऽर्थावग्रहो दयजनावग्रहश्चेप्ति ।
= अवग्रह दो प्रकार होता है अविग्रह और व्यजनावग्रह । (ध ६/१६-१.१४/१६/७), (ज प/११/६५) गो जी/जो प्र/३०७/६६०/७ मतिज्ञान विषयो द्विविध व्यंजनं अर्थश्चेति। व्यञ्जनरूपे विषये स्पर्शनरसनघाणश्रोत्र चतुभिरिन्द्रियै अवग्रह एक एवोत्राद्यते नेहादय । ईहादीना ज्ञानानां देशसर्वाभिव्यक्तौ मत्यामेव उत्पत्तिसंभवाद। इति व्यञ्जनावग्रहश्चत्वार एव ।
मति ज्ञानका विषय दा भेद रूप है-व्यंजन व अर्थ । तहाँ व्यंजन जो अव्यक्त शब्दादि तिनि विषय स्पर्शन, रसन, प्राण व श्रोत्र इन्द्रियनिकरि केवल अवग्रह हो है, ईहादिक न हो है, जात
१. भेद व लक्षण
". अवग्रह सामान्यका लक्षण पख. १३/५/सू ३७/२४२ ओग्गहे योदाणे साणे अवलंबणा मेहा॥३७॥
अव ग्रह, अवधान, सान, अवलम्बना और मेधा ये अवग्रह के पर्यायवाची नाम हैं । ( इन शब्दो के अर्थ-दे० वह वह नाम)
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२. अवग्रह निर्देश
अवग्रह
ईहादिक तो एक देश वा सर्वदेश व्यक्त भए ही हो है। तातै च्यार इन्द्रियनिक रिव्यजनाव ग्रहके च्यार भेद है।
३. विशद व अविशद अवग्रहके लक्षण ध.१/४१,४५/१४५/३ तत्र विशदो निर्णयरूप अनियमेनेहावायधारणा। प्रत्ययोत्पत्तितिबन्धन । अविशदावग्रहो नाम अगृहोतभाषावयोरूपादिविशेष' गृहोतव्यवहारनिबन्धनपुरुषमात्रसत्त्वादिविशेष अनियमेनेहाद्युत्पत्तिहेतुः।-विश द अवाह निर्णयरूप होता हुआ अनियमसे ईहा अवाय और धारणा ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है। • भाषा, आयु व रूपादि विशेषोको ग्रहण न कर के व्यवहारके कारणभूत पुरुषमात्रके सत्त्वादि विशेषको ग्रहण करनेवाला तथा अनियमसे जो ईहा आदिकी उत्पत्तिमें कारण है वह अविशदावग्रह है। ४. व्यंजनावग्रह व अर्थावग्रहका लक्षण स सि १/६८/११७/६ व्यक्तग्रहणात् प्राग्व्यञ्जनावग्रह' व्यक्तग्रहणमर्थावग्रहः।-व्यक्त ग्रहण से पहिले पहिले व्यजनावग्रह होता है और व्यक्त ग्रहणका नाम अर्थावग्रह है। (रा. वा १/१८/२/१७/५) ध.१/१.१,११५/ पृ०/१० अप्राप्तार्थ ग्रहणमविग्रह' ३५४/७. प्राप्तार्थ ग्रहणं व्यजनावग्रह । ३५५-१। योग्यदेशाव स्थितेरेव प्राप्तेरभिधानात् । ३५७-२ । - अप्राप्त अर्थ के ग्रहण करनेको अर्थाव ग्रह कहते है। (और) प्राप्त अर्थ के ग्रहण करने को व्यंजनावग्रह कहते है । इन्द्रियोके ग्रहण करने के योग्य देशमें पदार्थों की अवस्थितिको प्राप्ति कहते है। (ध.६/१-६-१.१४/१६/७ ) (ध.६/४ १,४५/१५६/८) ज.प १३/६६-६७ दुरेण य ज गहण दियणोइदिएहिं अस्थिक्क । अस्थावग्गहणाणं णायब्वं तं समासेण ।६६। फासित्ता जं गहण रसफरसणसद्दगंधविसएहि । वंजणव ग्गहणाणं णिट्टि त वियाणाहि।६७।दूरसे ही जो चक्षुरादि इन्द्रियो तथा मनके द्वारा विषयोंका ग्रहण होता है उसे सक्षेपसे अर्थावग्रहज्ञान जानना चाहिए। ६६ । कर जो रस, स्पर्श, शब्द और गन्ध विषयका ग्रहण होता है, उसे व्यंजनावग्रह निर्दिष्ट किया गया है । ६७। गो.जो /जी.प्र ३/३०७/६६०/८ इन्द्रियै . प्राप्तार्थ विशेषग्रहण व्यंजनावग्रह । तैरप्राप्तार्थविशेषग्रहण अर्था ग्रह इत्यर्थः । व्यंजन अव्यक्तंशब्दादिजात इति तत्त्वार्थ विवरणेषु प्रोक्त कथमनेन व्याख्यानेन सह सगतिमिति चेदुच्यते विगत-अञ्जन-अभिव्यक्तिर्यस्य तव्यञ्जन । व्यज्यते प्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यजन अब्जु गतिव्यक्तिम्रक्षणेष्विति व्यक्तियक्षणार्थ योग्रहणात् शब्दाद्यर्थ श्रोत्रादोन्द्रियेण प्राप्ताऽपियावन्नाभिव्यक्तस्तावद् व्यञ्जनमित्युच्यते ..पुनरभिव्यक्तौ सत्या स एवार्थो भवति ।
जो विषय इन्द्रियनिकरि प्राप्त होइ स्पर्शित होइ सो व्यंजन कहिए । जो प्राप्त न होइ सो अर्थ कहिए। प्रश्न--तत्त्वार्थ सूत्रकी टीका विषै तो अर्थ ऐसा कोया है. जो व्यजन नाम अव्यक्त शब्दादिकका है। इहाँ प्राप्त अर्थको व्यंजन कह्या सो कैसे है । उत्तरव्यजन शब्दके दोऊ अर्थ हो है। 'विगत अञ्जन व्यजनं' दूरभयाहै अंजन कहिए व्यक्तभाव जाकै सो व्यंजन कहिए। सो तत्त्वार्थ सूत्रकी टीका विषै तो इस अर्थका मुख्य ग्रहण किया है। अर 'व्यज्यते प्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यंजनं ' जो प्राप्त होइ ताको व्यजन कहिए सो इहाँ यह अर्थ मुख्य ग्रहण कीया है। जातै 'अजु' धातु गति, व्यक्ति, म्रक्षण अर्थ विषे प्रवत है। तातै व्यक्ति अथका अर म्रक्षण अर्थका ग्रहण करनेत करणादिक इन्द्रियनिकरि शब्दादिक अर्थ प्राप्त हवै भी यावत् व्यक्त न होइ, तावत् व्यजनावग्रह है व्यक्त भए अर्थावग्रह हो है। (विशेष देखो आगे अर्थ व व्यंजनावग्रहमे अन्तर)। २. अवग्रह निर्देश
१. अवग्रह और संशयमें अन्तर रा. वा. १/१४/७-१०/६०/२१ अवग्रहे ईहाद्यपेयत्वात् सशयानतिवृत्ते । उच्यते-लक्षणभेदादन्यत्वमग्निजलवता, ... • कोऽसौ लक्षणभेद. ।
उच्यते।८। स्थाणुपुरुषाद्यनेकार्थालम्बनसनिधानादनेकार्थात्मक' साय, एकपुरुषाद्यान्यतमात्मकोऽवग्रहः। स्थाणुपुरुषानेकधर्मानिश्चितात्मक स शय', यतो न स्थाणुधर्मान पुरुषधर्माश्च निश्चिनोति, अवग्रहस्तु पुरुषाद्यन्यतमकधम निश्चयात्मक । स्थाणुपुरुषानेकधर्मापदासात्मक सशयः यतो न प्रति नियतावस्थाणुपुरुषधर्मात् पदस्यति संशय, अवग्रह पुन' पर्युदासात्मकः, स ह्यन्याच ध्र वादीन् पर्यायान् पर्युदस्य 'पुरुष ' इत्येकपर्यायालम्बन' ।। स्यादेतत्-सशयतुल्यऽवग्रह कुत । अपर्युदासा । तन्न, कि कारणम् । निर्णयविरोधात् सशयस्य । सशयो हि निर्णयविरोधी न रबवग्रह निर्णयदर्शनात् ।१०।-प्रश्न-अत्रग्रहमें ईहाकी अपेक्षा होनेसे करीबकरीम संशयरूपता ही है। उत्तर-अवग्रह और संशयके लक्षण जल
और अग्निकी तरह अत्यन्त भिन्न है, अत दोनो जुदे जुदे है। इनके लक्षणों में क्या भेद है, वही बताते है-संशय स्थाणु पुरुष आदि अनेक पदार्थों में दोलित रहता है, अनिश्चयात्मक होता है और स्थाणु पुरुषादि-से किसीका निराकरण नहीं करता जब कि अबग्रह एक ही अर्थको विषय करता है. निश्चयात्मक है और स्व विषयमें भिन्न पदार्थोंका निराकरण करता है। सारांश यह सशय निर्णयका विरोधी होता है, अवग्रह नहीं। (ध १/४,१,४५/१४५/१) (न्याय,
दी २/६११/३१)। ध, १३/५,६,२३,२१७/८ सशयप्रत्यय' क्वान्त पतितः । ईहायाम । कुतः।
ईहाहेतुत्वात। तदपि कुतः । कारणे कार्योपचारात । वस्तुत. पुनरवग्रह एव । का ईहा नाम । संशयादूर्ध्वमवायादधस्तात् मध्यावस्थायां वर्तमान बिमर्शात्मक. प्रत्यय हेत्ववष्टम्भवलेन समुत्पद्यमान' हेति भण्यते ।-प्रश्न-सशय प्रत्ययक अन्तर्भाव किस ज्ञान में होता है। उत्तर -ईहामें, क्योकि वह इहाका कारण है। प्रश्न-यह भी क्यों। उत्तर--क्योकि कारणमें कार्यका उपचार किया जाता है। वस्तुत. वह संशय प्रत्यय अवग्रह ही है। प्रश्न-ईहाका क्या स्वरूप है। उत्तर-संशयके बाद और अवाय पहले बीचकी अवस्थामें विद्यमान तथा हेतुके अवलम्बनसे उत्पन्न हुए विमर्शरूप प्रत्ययको ईहा कहते है।
२ अवग्रह अप्रमाण नहीं रा, वा १/१५/६/६०/१३ यथा चक्षुषि न निर्णय. सत्येव तस्मिन् 'किमयं स्थाणुपुराहोस्विव पुरुष' इति सशयदर्शनात तथा अवग्रहेऽपि सति न निर्णय ईहादर्शनात. ईहाया च न निर्णय , यतो निर्णयार्थमीहा न त्वी हैव निर्णय । यश्च निर्णयो न भवति स स शयजातीय इत्यप्रामाण्यमनयोरिति ॥ ६ ॥ स्यादेतत न अवग्रह-संशयः । कुतः । अवग्रहवचनात् । यत उक्त पुरुष 'पुरुषोऽयम्' इत्यवग्रह., तस्य भाषावयोरूपादीविशेषाकाक्षणमीहा' इति । -प्रश्नजैसे 'चक्षु होते हुए सशय होता है अत उसे निर्णय नहीं कह सकते उसी तरह अवग्रहके होते हुए ईहा देखी जाती है । ईहा निर्णय रूप नहीं है, क्योकि निर्णयके लिए ईहा है न कि स्वयं निर्णय रूप, और जो स्वय निर्णय रूप नही है वह स्वय की ही कोटि में होता है, अत अवग्रह और ईहाको प्रमाण नहीं कह मक्ते । उत्तर-अवग्रह सशय नही हे. क्योकि 'अवग्रह' अर्थात निश्चय ऐसा कहा गया है । जो कि उक्त पुरुषमें 'यह पुरुष है' ऐसा ग्रहण तो अवग्रह है और उसकी भाषा, आयु व रूपादि विशेषोंको
जानने की इच्छाका नाम ईहा है। (विशेष दे अवग्रह २/१) ध ६/४१,४५/१४५/२ न प्रमाणमवग्रह , तस्य स शयविपर्ययानध्यवसाये
वन्तर्भावादिति। न अवग्रहस्य द्वैविध्यात 1...विशदाविशदावग्रहभेदेन । तत्र विशदो निर्णयरूपः ।.. तत्राविशदावग्रहो नाम अगृहीतभाषाक्योरूपादिविशेष' गृहीतव्यवहारनिबन्धनपुरुषमात्रसत्त्वादि विशेष। अप्रामाण्यमविशदाव ग्रह अनध्यवसायरूपत्वादिति चेन्न अध्यव सितकतिपयविशेषत्वात। न विपर्ययरूपत्वादप्रमाणमा तत्र वैपरीत्यानुपलम्भात। न विपर्ययज्ञानोत्पादकत्वादप्रमाणम्, तस्मातदुत्पत्तेनियमाभावात् । न संशयहेतुत्वादप्रमाणम्, कारणानुगुणकार्यनियमानुपलम्भाव, सशयादप्रमाणात्प्रमाणीभूतनिर्णयप्रत्ययोत्पत्तितो
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अवग्रह
Sनेकान्ताच्च । ततो गृहीतवस्त्वं शं प्रति अविशदावग्रहस्य प्रामाण्यमभ्युपगम्य्य व्यवहार योग्यात महारायोग्योऽपि सदावग्रहाऽस्ति कथ तस्य प्रामाण्यम् । न किचिन्मया दृष्टमिति व्यवहारस्य तत्राप्युपलम्भात्। वास्तवव्यवहारायोग्यत्व प्रति पुनरप्रमाणम्। प्रश्न - ( अनिर्णय स्वरूप होनेके कारण ) अवग्रह प्रमाण नही हो सकता, क्योकि ऐसा होनेपर उसका सशय, विपर्यय व अनध्यवसाय में अन्तर्भाव होगा उत्तर नहीं, क्योंकि, अवग्रह दो प्रकारका है -- विशदावग्रह और अविशदावग्रह। उनमें विशदावग्रह निर्णयरूप होता है और भाषा, आयु व रूपादि विशेषोको ग्रहण न करके व्यवहार के कारण पुरुषमात्र के सस्यादि विशेषको करनेवाला अविशदावग्रह होता है। प्रश्न- अविशदावग्रह अप्रमाण है, क्योंकि वह अनध्यवसाय रूप है। उत्तर--१ ऐसा नही है क्योंकि वह कुछ विशेष के अध्यवसाय से सहित है ।--२ उक्त ज्ञान विपर्यक स्वरूप होनेसे भी अप्रमाण नही कहा जा सकता, क्योंकि उसमें विपरीतता नहीं पायी जाती । यदि कहा जाय कि वह चूँकि विपर्यय ज्ञानका उत्पादक है, अत: अप्रमाण है, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योकि, उससे विपर्ययज्ञानके उत्पन्न होनेका कोई नियम नहीं है।-३. संशयका हेतु होने से भी वह अप्रमाण नही है, क्योंकि, कारणानुसार कार्य के होनेका नियम नही पाया जाता. तथा अप्रमाणभूत संशय से प्रमाणभूत निर्णय प्रत्ययकी उत्पत्ति होनेसे उक्त हेतु व्यभिचारी भी है । - ४. संशयरूप होनेसे भी वह अप्रमाण नही है - ( दे अवग्रह २ / १ ) - इस कारण ग्रहण किये गये वस्त्वशके प्रति अविशदावग्रहको प्रमाण स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि वह व्यवहार के योग्य है। प्रश्न- व्यवहारके अयोग्य भी तो अविशदावग्रह है, उसके प्रमाणता कैसे सम्भव है ? उत्तर- नहीं, क्योकि, 'मैंने कुछ देखा है' इस प्रकारका व्यवहार वहाँ भी पाया जाता है। किन्तु वस्तुत' व्यवहारकी अयोग्यताके प्रति वह अप्रमाण है ।
३. अर्थावग्रह व व्यंजनावग्रहमें अन्तर
स. सि. १/१८/११७ ननु अवग्रहग्रहण मुभयत्र तुत्य तत्र कि कृतोऽय विशेष । अर्थावग्रहपावविशेष
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कथम् । अभिनवशरावार्द्रीकरणवत् । यथा जलकण द्वित्रासिक्त सरावोsभिनवो नाभवति स एव पुन पुन सिच्यमान शन स्तिम्यति एवं श्रोत्रादित्रिन्द्रियेषु शब्दादिपरिणता पुद्गला द्वित्रादिसमयेषु गृह्यमाणा न व्यक्तोभवन्ति, पुनः पुनरवग्रहे सति व्यक्तीभवन्ति । अतो व्यक्तग्रहणात्प्राग्व्यञ्जनावग्रह व्यक्तग्रहणमर्थावग्रह । ततोऽव्यक्तावग्रह्णादीह्रादयो न भवन्ति । प्रश्न- जब कि अवग्रहका ग्रहण दोनो जगह समान है तब फिर इनमें अन्तर किनिमित्तक है । उत्तर- इनमे व्यक्त व अव्यक्त ग्रहणकी अपेक्षा अन्तर है। प्रश्न-कैमे 'उत्तर- जैसे माटोका नया सकोरा जलके दो तीन कणो से सौंचने पर गीला नहीं होता और पुन -पुन सीचनेपर वह धरे-धीरे गीला हो जाता है। इसी प्रकार श्रोत्रादि इन्द्रियो के द्वारा ग्रहण किये गये शब्दादिरूप पुद्गल स्कन्ध दो तीन समय में व्यक्त नही होते है, किन्तु पुन पुन ग्रहण होनेपर वे व्यक्त हो जाते है । इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्त ग्रहणसे पहिले-पहिले ब्यजनावग्रह होता है और व्यक्त ग्रहण का नाम (या व्यक ग्रहण हो जाने पर ) अर्थावग्रह है । अव्यक्त अवग्रहसे ईहा आदि नही होते है । (गो.जी./जो प्र / २०७/६६०/१०) ध. ६ / २.१.४५ / १४५ / ३ तत्र विशदो निर्णयरूप, अनियमेनेहावायधारणाप्रत्ययोत्पत्ति निबन्धन ...तत्रअविशदावग्रहो नाम अगृहीतभाषायोरूपादिविशेष गृहीत व्यवहार निबन्धन पुरुषमासादिविशेष अनियमेने हाथ पत्तिहेतुविशद ग्रह निर्णय रूप होता हुआ अनियमसे इहा, अवाय और धारणा ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है ।... उनमें भाषा, आयु व रूपादि विशेषोको ग्रहण न करके व्यवहारके कारणभूत पुरुषमात्रके सत्त्वादि विशेषको ग्रहण करनेवाला तथा अनियमसे जो ईहा आदिको उत्पत्ति में कारण है वह अविशदावग्रह है ।
२. अवग्रह निर्देश
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६/४.१.४७/१६/८ प्रमाणमवग्रह
ग्रह न स्पष्टास्पष्टग्रहगे अर्थ पव्शनावग्राही तयोर्मनसोरपि सत्त्वतस्तत्र व्यञ्जनावग्रहस्य सत्त्वप्रसगात् । न शनैर्ग्रहणं व्यञ्जनावग्रह चक्षुर्मनसोरपि तदस्तिरतस्तयीयस्य
"
नच हम सिद्धमप्रभङ्गाभावे अष्टचत्वारिंसुर्मतिज्ञानभेदस्यास स्वप्रसङ्गात्। प्रात पदार्थ के ग्रहणको अग्रह और प्राप्त पदार्थ के ग्रहणको व्यजनावग्रह कहते है । स्पष्ट ग्रहणको अर्थावग्रह और अस्पष्टग्रहणको व्यंजनावग्रह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, स्पष्टग्रहण और अस्पष्टग्रहण तो चक्षु और मनके भी रहता है, अतः ऐसा माननेपर उन दोनोके भी व्यजनावग्रहके अस्तित्वका प्रसंग आवेगा । (परन्तु इसका सूत्र द्वारा निषेध किया गया है ) यदि कहो कि धीरे-धीरे जो ग्रहण होता है वह व्यजनावग्रह है, सो भी ठीक नहीं है, क्योकि इस प्रकार के ग्रहणका अस्तित्व चक्षु और मनके भी है, अत उनके भी व्यंजनावग्रहके रहनेका प्रसग आवेगा । और उन दोनो में शनैर्ग्रहण असिद्ध नहीं है, क्योकि, ऐसा माननेसे अक्षिप्र भंगका अभाव होनेपर चक्षुनिमित्तक अडतानिस मतिज्ञानवे भेदों के अभावका प्रसंग आयेगा। (१३/५२.२४/२२० / १)
४. अर्थावग्रह व व्यंजनावरका स्वामित्व तसू १/११ न चक्षुरनि॥१६॥ ससि. १/११/१९८षा अनिन्द्रियेण च व्यब्जनाहो न भवति । -चक्षु और मनमे व्यंजनावग्रह नहीं होता ॥
1
घ १/१,१.१५/३५५ / ९ चक्षुर्मनसोरथविग्रह एव, सयो प्राप्तार्थग्रहणानुपलम्भात् । शेषाणामिन्द्रियाणां द्वावप्यग्रहो भवत । चक्षु और मनसे अर्थावग्रह हो होता है क्योकि इन दोनो मे प्राप्त अर्थका ग्रहण नहीं पाया जाता है। शेष चारों ही इन्द्रियोके अर्थावग्रह और पजगाम ग्रह ये दोनों भी पाये जारी है (सु.१/१७-१६) (प. १ / ४,१.४५/१६०/२) (४.१३/५.५.२१/२२५) (ज. १. १३/६८-६६) ५. अप्राप्यकारी ३ इन्द्रियोंमें अवग्रह सिद्धि घ. १/१.१.१९६/०६६/९ तत्र च मोरवय एव प्रार्थग्रहण लम्भात् । शेषाणामिन्द्रियाणा द्वावप्यवग्रहो भवत' । शेषेन्द्रियेष्वप्रार्थनोपलभ्यत इति पेन एकेन्द्रियेषु योग्यदेशस्थितनिधिषु निधिस्थितप्रदेश एवं प्रारोहयुक्त्यग्यथानुपपत्तिद्रियाणाप्राप्तार्थग्रहणं नोपलभ्यत इति... यद्य पलभ्यस्त्रिका लगोचरम शेषं पर्यच्छेत्स्यनुपलभ्धस्याभावोऽभविष्यत् । न कात्स्नार्थस्थानियम वा मम मतस्तदग्रहादिनिदानमिन्द्रियाणामध्यकारित्वमिति । कि यदि परनिन्द्रियाभ्यामनिःसुतामुक्तावपादितयोरपि प्राप्यकारिसङ्गादिति चेन योग्यदेशावस्थितेरेव प्राप्तेरभिधानात् । रूपस्याचक्षुषाभिमुखतया न तत्परिदिना चक्षुषा प्राप्यकारित्वमनिग्रहादिसिद्ध ेच और मनसे अधविग्रह ही होता है, क्योंकि, इन दोनोंमें अर्थका ग्रहण नही पाया जाता है। शेष चारी ही इन्द्रियो के अर्थावग्रह और व्यजनावग्रह ये दोनो भी पाये जाते है। प्रश्न- शेष इन्द्रियो में अप्राप्त अर्थका ग्रहण नहीं पाया जाता है इसलिए उनसे अविग्रह नहीं होना चाहिए ? उत्तर- नहीं, क्योकि, एकेन्द्रियो में उनका योग्य देशस्थित निधिले प्रदेशो में हो अकुशला अन्यथा बन नही सकता है। प्रश्न- स्पर्शन इन्द्रिय के अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना बन जाता है तो बन जाओ। फिर भी शेष इन्द्रियो के अप्राप्त अर्थ का ग्रहण करना नहीं पाया जाता है। उत्तर- नहीं क्योंकि, यदि हमारा ज्ञान त्रिकाल गोचर समस्त पदार्थोंको जाननेवाला होता तो अनुपलब्धका अभाव सिद्ध हो जाता। दूसरे पदार्थ के पूरी तरह से अपनेको और अनेको हम अप्राप्त नहीं कहते है, जिससे उनके अवग्रहादिका कारण इन्द्रियोंका हवा होये । प्रश्न- तो फिर अप्राप्यकारीपनेसे क्या प्रयोजन है और यदि पूरी तरहसे अस्तित्व और अनुक्रमको अप्राप्त नहीं रहते हो तो
शाह
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अवग्रह
अवधिज्ञान
चक्षु और मनसे अनि सृत और अनुक्तके अवग्रहादि (जिनका कि सूत्र में निर्देश किया गया है । कैसे हो सकेगे। यदि चक्षु और मनसे भी पूर्वोक्त अनि मृत और अनुक्तके अवग्रहादि माने जावेगे तो उन्हे भी प्राप्यकारित्वका प्रसग आवेगा 1 उत्तर-नहीं, क्योकि इन्द्रियोके ग्रहण करने के योग्य देशमें पदार्थों की अवस्थितिको ही प्राप्ति कहते है। (जैसा कि) रूपका चक्षुके साथ अभिमुखरूपसे अपने देशमें अवस्थित रहना स्पष्ट है, क्योकि, रूपको ग्रहण करने वाले चक्षु के साथ रूपका प्राप्यकारीपना नही बनता है। इस प्रकार अनि'मृत
और अनुक्त पदार्थोंके अत्रग्रहादिक सिद्ध हो जाते है। ध ६/४१.४५/१५७/३ न श्रोत्रादीन्द्रियचतुष्टये अर्थावग्रह , तत्र प्राप्तस्यैवार्थस्य ग्रहणोपलम्भादिति चेन्न, वनस्पतिष्वप्राप्तार्थ ग्रहणस्योलम्भात । तदपि कुतोऽवगम्यते । दूरस्थनिधिमुद्दिश्य प्रारोहमुक्त्यन्यथानुपपत्ते । ध.६,४.१ ४५/१५६/४ यदि प्राप्तार्थना हिण्येवेन्द्रियाणि नवयोजनान्तरस्थिताग्नि-विषाभ्यांतीवस्पर्श-रसक्षयोपशमाना दाह-मरणे स्याताम्, प्राप्ताथग्रहणात । तावन्मात्राध्वानस्थिताश चिभक्षणतद्गन्धजनितदुखे च तव एवं स्याताम् ।-'पुट्ठ सुणेइ सद्द अप्पुट्ठ' चेय पस्सदे रूवं । गध रस च फाम बद्ध पुट्ठ च जाणादि ॥५८' इत्यस्मात्सूत्राप्राप्तार्थ ग्राहित्वमिन्द्रियाणामवगम्यत इति चेन्न, अर्थावग्रहस्य लक्षणाभावत खरविषाणस्येवाभावसगात् । कथ पुनरस्या गाथाया अर्थो व्या व्यायते। उच्यते रूपमस्पृष्टमेव चचगृणाति। चशब्दान्मनश्च । गन्ध रस स्पर्श च बद्ध स्वकस्वकेन्द्रियेषु नियमितं पुट्ट स्पृष्टं प शब्दादस्पष्ट च शेषेन्द्रियाणि गृह्णन्ति। पुट्ट सुणेइ सद्द इत्यत्रापि बद्ध च-शब्दो योज्यौ, अन्यथा दुव्याख्यानतापत्ते । -प्रश्न- श्रात्रादिक घारइन्द्रियो अर्थावग्रहनही है,क्योकि,उनमें प्राप्त हो पदार्थका ग्रहण पाया जाता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि, वनस्पतियो में अप्राप्त अर्थका प्रहण पाया जाता है । प्रश्न-वह भी कहाँसे जाना जाता है। उत्तर-क्योकि, दूरस्थ निधि (खाद्य आदि) को लक्ष्य कर प्रारोह ( शाखा) का छोडना अन्यथा बन नही सकता। दूसरे यदि इन्द्रियाँ प्राप्त पदार्थको ग्रहण करनेवाली ही होती तो • नौ योजनके अन्तरमें स्थित अग्नि और विषसे स्पर्श और रसके तीब क्षयोपशमसे युक्त जीवों के क्रमश दाह और मरण होना चाहिए ... और इसी कारण उतने मात्र अध्वान में स्थित अशुचि पदार्थ के भक्षण और उसके गन्धसे उत्पन्न दुख भी होना चाहिए। (ध. १३/५,५, २४/२२०१(ध, १३/५,६,२७/२२६) प्रश्न-'श्रोत्रसे स्पष्ट शब्दको सुनता है। परन्तु चक्षुसे रूपको अस्पष्टही देखता है। शेष इन्द्रियोसे गन्ध रस और स्पर्शको बद्ध व स्पष्ट जानता है ॥५४॥' इस ( गाथा) सूत्रसे इन्द्रियोके प्राप्त पदार्थ का ग्रहण करना जाना जाता है । उत्तरऐसा नही है, क्योकि, वैसा होनेपर अर्थावग्रहके लक्षणका अभाव होनेसे गधेके सौंगके समान उसके अभावका प्रसग आवेगा' प्रश्न तो फिर इस गाथाके अर्थका व्याख्यान कैसे किया जाता है ? उत्तरचक्षु रूपको अस्पृष्ट ही ग्रहण करती है, च शब्दसे मन भी अस्पष्ट ही वस्तुको ग्रहण करता है। शेष इन्द्रियाँ गन्ध रस और स्पर्शको बद्ध व स्पष्ट ग्रहण करती है, च शब्दसे अस्पष्ट भो ग्रहण करती है । 'स्पृष्ठ शब्दको सुनता है' यहाँ भी बद्ध और च शब्दोको जोडना चाहिए, क्योकि ऐसा न करनेसे दूषित व्याख्यानकी आपत्ति आती है।
६. अवग्रह व अवायमें अन्तर ध ६/१,६-१,१४/१८/३ अवग्गहावायाण णिण्ण यत्तंपडिभेदाभावा एयत्तं किण्ण होदि इदि चे होदु तेण एयत्त, कितु अवग्गहो णाम विसय विपइसण्णिवायाण तरभावी पढ़मो बोधविसेसो, अवाओ पुण ईहाण तरकालभावी उप्पण्ण सदेहाभावरूवो. तेण ण दोण्हमेयत्त । - प्रश्न -अवग्रह और अवाय, इन दोनो ज्ञानी के निर्णयत्व के सम्बन्धमें कोई भेद न होनेसे एकता क्यो नहीं है ? उत्तर-निर्णयत्व के सम्बन्ध
में कोई भेद न होनेसे एकता भलेही रही आवे किन्तु विषय और विषयोके सन्निपातके अनन्तर उत्पन्न होनेवाला प्रथम ज्ञान विशेष अवग्रह है, और ईहाके अनन्तर कालमें उत्पन्न होनेवाले सन्देहके अभावरूप अबायज्ञान होता है, इसलिए अवग्रह और अवाय, इन दोनों ज्ञानोमें एकता नहीं है। (ध.६/४.१.४५/१४४/८) अवच्छिन्न-अन्य धर्मों में व्यावृत्तिपूर्वक निज स्वरूपका निश्चय करानेवाले धर्मविशेषकी सयुक्तताको अवच्छिन्न कहते है। जैसेघट 'घटत्व' धर्मसे अवच्छिन्न है, क्योकि, यह धर्म, पटत्व धर्मसे व्यावृत्तिपूर्वक घटके स्वरूपका निश्चय कराता है। इतना विशेष है कि 'स्व' प्रत्यय युक्त सामान्य धर्मको सयुक्तता ही यहाँ इष्ट है, लाल नोले आदि विशेष धर्मोंकी नहीं। अवच्छेदक-अन्य धर्मा की व्यावृत्तिपूर्वक धर्मीके स्वरूपका बोध करानेवाला धर्म विशेष उस धर्मीका अवच्छेदक कहलाता है, जैसे घटका व्यवच्छेदक 'घटत्व' धर्म है। 'स्व' प्रत्यययुक्त सामान्य धर्म ही यहाँ इष्ट है। अवतस-भद्रशाल वनमें स्थित 'रुचक' दिग्गजेन्द्र पर्वतका स्वामी
देव-दे. लोक ५/३ अवतारक-ल.सा/भाषा/३१३/३६७ उपशमश्रेणीत उतरनेवालेका
नाम अवरोहक कहिए अथवा अवतारक कहिए। अवदान-ध १३/५.५,३७/२४२/३ अवदीयते खण्ड्यते परिच्छिद्यते
अन्येभ्य' अर्थ अनेनेति अवदानम् । -जिसके द्वारा 'अवदीयते खण्डयते' अर्थात् अन्य पदार्थोसे अलग करके विवक्षित अर्थ जाना जाता है, वह अवग्रहका अन्य नाम अवदान है। अवद्य-रा. वा ७/६/२/५३७/२/५-गहमवद्यम्' -अवद्य अर्थात
गर्दा निन्द्य। अवधा-(ज.प्र/प्र.१०५) Segment. अवधारणा-वाक्यमें एवकार-द्वारा निश्चित अर्थका द्योतक।
-(विशेष दे. एव) अवधि-घ/४,१,२/१२/६ तथा १३/१ ओहिसदो अप्पाणम्मि वट्टदे, करग वि मज्जाए बट्टदे कत्थ वि णाणे बट्टदे...। अथवा अवाग्धानादवधिरिति व्युत्पत्तज्ञानस्य अवधित्व घटते । -१ अवधि शब्द आत्माके अर्थ मे होता है, २ कहीपर मर्यादाके अर्थ मे भी इस शब्दका प्रयोग होता है... ३ कहीपर ज्ञान अर्थ में भी यह शब्द आता है। ४. अथवा 'अवाग्धानात अवधि' अर्थात जो अधोगत पुइगलको अधिक्तासे ग्रहण करे वह अवधि है, इस व्युत्पत्तिसे ज्ञानकी अवधिपना घरित होता है। अवधिज्ञान-सम्यग्दर्शन या चारित्रकी विशुद्धताके प्रभावसे क्दाचित किन्ही साधकोको एक विशेष प्रकारका ज्ञान उत्पन्न हो जाता है जिसे अवधिज्ञान कहते है। यद्यपि यह मूर्तीक अथवा सयोगी पदार्थों को जान सकता है, परन्तु इन्द्रियो आदिको सहायताके बिना ही जाननेके कारण प्रत्यक्ष है। सकन्न पदार्थों को न जाननेके कारण देश प्रत्यक्ष है। भावोकी वृद्धि हानिके साथ इसमें वृद्धि हानि होनी स्वाभाविक है, अत यह कई प्रकारका हो जाता है । इसके जाननेकी शक्तियॉ जघन्यमे उत्कृष्ट पर्यन्त अनेक प्रकारकी होती है। परिणामोमे संक्लेश उत्पन्न हो जानेपर यह छूट भी जाता है। देवनारकियो में यह अहेतुक होता है, इसलिए भवप्रत्यय कहलाता है, और मनुष्य तिर्यचोमे गुण प्रत्यय । यद्यपि लौकिक दृष्टि से यह चमत्कारिक है, परन्तु मोक्षमार्ग में इसका कोई मूल्य नही। इसकी उत्पत्ति शरीरमें स्थित शख चक्र आदि किन्ही विशेष चिह्नासे बतायी जाती है।
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अवग्रह
१८५
२. अवग्रह निर्देश
१ भेद व लक्षण
६ सम्यक्त्व व मिथ्यात्व कृत चिह्नभेद सम्बन्धी मतभेद ।
७ सर्वाग क्षयोपशमके सद्भावमे करण-चिह्नोकी क्या १ अवधिज्ञान सामान्यका लक्षण
आवश्यकता? २ अवधिज्ञानके भेद प्रभेद (सम्यक व मिथ्या, गुण
८ सर्वांगकी बजाय एकदेशमे ही क्षयोपशम मान ले तो ? प्रत्यय, देशावधि-परमावधि आदि)
* करण चिह्नोके अधीन होनेके कारण अवधिज्ञान परोक्ष ३ सम्यक् मिथ्या अवधिका लक्षण
क्यो न हो जायेगा? -दे ऊपर क्रम ८ ४ गुण प्रत्यय व भवप्रत्ययका लक्षण
९ करणचिह्नोमे भी ज्ञानोत्पत्तिका कारण क्षयोपशम ही है ५ देशावधि आदि भेदोके लक्षण
६ अवधिज्ञानके भेदों सम्बन्धी विचार ६ वद्धमान हीयमान आदि भेदोके लक्षण
१ भव प्रत्यय व गुण प्रत्ययमे अन्तर २ अवधिज्ञान निर्देश
२ क्या भव प्रत्ययमे ज्ञानावरणका क्षयोपशम नही है ? १ अवधिज्ञानमे अवधि पदका सार्थक्य
३ भव प्रत्यय है तो भवके प्रथम समय ही उत्पन्न क्यों २ प्रत्येक समय नया ज्ञान उत्पन्न होता है
नही होता? ३ अवधि व मति श्रुतज्ञानमे अन्तर
४ देव नारकी सम्यग्दृष्टियोके अवधिज्ञानको भवप्रत्यय कहें ४ अवधि व मन पर्यय ज्ञानमे अन्तर
या गुणप्रत्यय? ५ अवधिकी अपेक्षा मनःपर्यय विशुद्ध कैसे है ? ५ सभी सम्यग्दृष्टि आदिकोंको गुणप्रत्यय ज्ञान उत्पन्न क्यों मोक्षमार्गमे अवधि व मन पर्ययका कोई मूल्य नही
नही होता? ७ पचमकालमे अवधि व मन पर्यय सम्भव नही
६ भव व गुण प्रत्ययमे देशावधि आदि विकल्प ८ पचमकालमे भी कदाचित् अवधि सम्भव है
७ परमावधिमे कथचित देशावधिपना ९ मिथ्यादृष्टिका अवधिज्ञान विभंग कहलाता है
८ देशावधि आदि भेदोमे वर्तमान आदि अथवा प्रतिपाती * अवधिज्ञान निसर्गज होता है -दे अधिगम
आदि विकल्प * अवधिज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है --दे मतिज्ञान २/
४ ९ देशावधि आदि भेदोंमे चारित्रादि सम्बन्धी विशेषताएँ ३ अवधि व मनःपर्ययकी कथंचित् प्रत्यक्षता परोक्षता ,
७ अवधिज्ञानका स्वामित्व * अवधि व मन पर्ययकी देश प्रत्यक्षता -दे प्रत्यक्ष १/३
. १ सामान्यरूपसे अवधिज्ञान चारो गतियोमे सम्भव है १ अवधि व मन.पर्यय कर्म प्रकृतियोको प्रत्यक्ष जानते हैं २ भव प्रत्यय केवल देव नारकियों व तीर्थंकरोंको होता है २ दोनो कर्मबद्ध जीवको प्रत्यक्ष जानते है
३ गुणप्रत्यय केवल मनुष्य और तिर्यचोमे ही होता है ३ अवधि मन पर्ययकी कथंचित् परोक्षता
४ भवप्रत्यय ज्ञान सम्यग्दष्टि व मिथ्यादष्टि दोनोको होता है ४ दोनोंकी प्रत्यक्षता परोक्षताका समन्वय
५ गुणप्रत्यय अवधिज्ञान केवल सम्यग्दृष्टियोको ही होता है ५ अवधि व मतिज्ञानकी प्रत्यक्षतामे अन्तर
६ उत्कृष्ट देशावधि मनुष्योमे तथा जघन्य मनुष्य व तिर्यंच ४ अवधिज्ञानमें इन्द्रियों व मनके निमित्तका सद्धाव व दोनोमे सम्भव है पर देव व नारकियोमे नही असद्भाव
७ उत्कृष्ट देशावधि उत्कृष्ट सयतोको ही होता है पर जघन्य १ अवधि ज्ञानमे कथंचित् मनका सद्भाव
ज्ञान असंयत सम्यग्दृष्टि आदिकोको भी सम्भव है २ अवधिज्ञानमे मनके निमित्तका अभाव
८ मिथ्यादृष्टियोंमे भी अवधिज्ञानकी सम्भावना * बिना इन्द्रियोके प्रत्यक्षज्ञान कैसे हो ?--दे, प्रत्यक्ष २/४ ९ परमावधि व सर्वावधि चरमशरीरी सयतोमे ही होता है ५ अवधि ज्ञानके उत्पत्ति-स्थान व करण चिह्न विचार १० अपर्याप्तावस्थामे अवधिज्ञान सम्भव है पर विभंग नही १ देशावधि गण प्रत्यय ज्ञानकरण चिह्नोसे उत्पन्न होता ११ संज्ञी संमूर्छनोमे अवधिज्ञानकी सम्भावना व असम्भावना है और शेष सब सर्वांग से
१२ अपर्याप्तावस्थामे अवधिज्ञानके सद्भाव और विभंगके २ करण चिह्नोके आकार
अभाव सम्बन्धी शंका ३ चिह्नोके आकार नियत नही है
८ अवधिज्ञानकी विषय सीमा ४ शरीरमे शुभ व अशुभ चिह्नोका प्रमाण व अवस्थान १ द्रव्यकी अपेक्षा रूपीको ही जानता है ५ सम्यक्त्व व मिथ्यात्वके कारणकरण-चिह्नोंमे परिवर्तन २ द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा अनन्तको नही जानता।
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अभूतार्थ
३ क्षेत्रप्ररूपणाका स्पष्टीकरण
४ देवोके ज्ञानको क्षेत्रप्ररूपणा परिमाण नियामक नहीं स्थान- नियामक है
५ कालकी अपेक्षा अवधिज्ञान सावधि त्रिकालग्राही है ६ भावकी अपेक्षा पुदंगल व संयोगी जीवकी पर्यायको जानता है
* मूर्त ग्राहक अवधि ज्ञान अमूर्त जोवके भावोकी कैसे जानता है ?. - दे. मन:पर्यय ६
७ अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्रादिकोंमे वृद्धि हानिका क्रम २ अ विज्ञान विषयक प्ररूपणाएं
१ द्रव्य व भाव सम्बन्धी सामान्य नियम
२ नरकगतिमे देशावधिका विषय
३ भवनत्रिक देवोमे देशावधिका विषय
४ कल्पवासी देवोमे देशावधिका विषय
५ तिर्यच व मनुष्योमे देशावधिका विषय ६ परमावधि व सर्वावधिका विषय
७ देशावधिकी क्रमिक वृद्धिके १९ काण्डक
१० अन्य सम्बन्धित विषय
* अवधिज्ञानके स्वामित्व सम्बन्धी गुण-स्थान, जीवसमास मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ दे द
* अवधिज्ञान विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ
- दे. वह वह नाम
* अवधिज्ञानियोमे कमोंका बन्ध उदय सत्त्व आदि
-दे वह वह नाम
* सभी मार्गणाओमे आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम - दे. मार्गणा
★ प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थमे अवधिज्ञानियोका प्रमाण
- दे. तीर्थकर
* विभग ज्ञानके दर्शन पूर्वक होनेका विधि निषेध
१. भेद व लक्षण
१. अवधिज्ञान सामान्यका लक्षण १. उत्पत्ति
-- दे दर्शन ६/२
प्र.१/१२३ अनहोयदिति ओही सीमाणामेति व समए । -जो द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा अवधि अर्थाद सीमासे युक्त अपने विषयभूत पदार्थको जाने, उसे अनविज्ञान पढ़ते है। सीमासे युक्त जाननेके कारण परमागम में इसे सीमा ज्ञान कहा गया है। (ध.१/९.१.१९३/१८४/३५६) (गो.जी./मू./२००/०१७) । स.शि. १/६/१४/३ वाग्यानादविषयाड़ा अवधि अधिकतर नीचे विषयको जाननेवाला होनेसे या परिमित विश्वनाला होनेसे अवधि कहलाता है।
रा. ना. १/२/३/४४/१४ अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमाय भयहेतुस निधाने सति अवाग्धीयते अवाग्दधाति अवग्धानमात्र वावधिः । अव
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अभ्युत्थान
शब्दोऽथ पर्याय 'यथा अथ अनक्षेपणम्' इति। खोगव्यविषयावधि अथवा अवधिर्मर्यादा अवधिमा प्रतिबद्ध ज्ञानमवधिज्ञानम् । तथाहि - 'रूपिष्ववधे: (त.सू/१/२७)* इति'अन्' पूर्वक 'घा' धातुसे कर्म आदि साधनोंमें अधि शब्द बनता है। तहाँ नं १ 'अबू' शब्द अध-वाची है वैसे अध क्षेपणको अवक्षेपण कहते है, अवधिज्ञान भी नीचे की ओर बहुत पदार्थोंको विषय करता है। (ध. १३/५.५/२१/२१०/१२) अधोगौरवधर्मवात पुगल अवाड नाम त दधाति परिच्छिनत्तीति अवधिःनीचे गौरव धर्मवाला होनेसे लकी या संज्ञा है. उसे जो धारण करता है अर्थात् जानता है वह अवधि है - २ अथवा अवधि शब्द मर्यादार्थ है अर्थात् द्रव्य क्षेत्रकालादिको मर्यादा सीमित ज्ञान अवधिज्ञान है । ( रा बा.१/२०/२५/०८/२७) (६/९.६-१० १४/२५/८) (ध. १/४,१.२/१३/१/४) (ध. १३/५,५,२०/२१०/(२) (क पा १/१-६१२/१६/२)
२ मूर्तीक पदार्थका प्रत्यक्ष सीमित ज्ञान ति४/अतिमताई परमानुष्यहुदिमु दाई प जागर तमोहिणाणं ति णायव्वं ॥ १७२॥ जो प्रत्यक्षज्ञान अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त परमाणु आदिक मूर्त द्रव्योंको जानता है उसको अविज्ञान जानना चाहिए (पा./१३/५६) (न. दो /२/११३/१४) क. पा. १/१/६२८/४३ परमायुतासेसपोलयन मसलो तखेसकालभावाणं कम्मस बंधव सेण पोग्गलभाव मुवगयजाव... [जीवदवा]ण च पञ्चत्रण (परिच्छित्ति कुणइ ओहिणाणं ] -महास्कन्धसे लेकर परमाणु पर्यन्त समस्त पुद्गल द्रव्योंको, असंख्यात लोकमान क्षेत्र, काल और आमोंको तथा कर्मके सम्बन्ध गल भावको प्राप्त हुए जीवको जो प्रत्यक्षरूपसे जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
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ध. १/१.१,२/६३/७ ओहिणाणं णाम दवखे त्तकालभाववियप्पियं पोग्गलदव्वं पञ्चक्ख जाणदि । द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के विकल्पसे अनेक प्रकार के पुद्गल द्रव्यको जो प्रत्यक्ष जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते घ. १/१.१.११५/१६८/२) इ.स /टी./५/१७/९ अनविज्ञानावरणीय क्षयोपशमान्मूर्त वस्तु यदेकदेशलेन सवि जानाति धिज्ञान अबधिज्ञानावरण के क्षयोपशम मूर्तीक पदार्थको जो एकदेश प्रत्यक्ष द्वारा सम्प जानता है वह अवधिज्ञान है ।
सभ त ४०/१२स्यापि वितस्यावधि मनः पर्ययलक्षणस्या निन्द्रियापेक्षत्वे सति स्पष्टतया स्वार्थ व्यवसायात्मकं स्वरूपम् । - इन्द्रिय और अनिन्द्रिय अर्थात् मनकी कुछ भी अपेक्षा न रखकर केवल आरमामात्रको अपेमासे निर्मलता पूर्वक स्पष्ट रीतिसे अपने विषयभूत पदार्थों का निश्चय करना यह विकल प्रत्यक्षरूप अवधि तथा मन पर्यय ज्ञानका स्वरूप है ।
अनिके भेद प्रभेद
१. सम्यक् व मिथ्या अवधिको अपेक्षा
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त सु. १/३९ मतिश्रुतानधयो विपर्ययश्च मतित और अनधि ये तीन (ज्ञान) विपर्यक भी होते है। स.सि. १/३१/१२८/४ अवधिज्ञानेन सम्यग्दष्टिरूपयोग तथा मिध्यादृष्टिमभंगानेनेति सम्यग्दृष्ट अभिज्ञानके द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है और मिथ्यादृष्टि विभगज्ञानके द्वारा। रावा. १/३१/१२/१२ सम्यग्दर्शनमिध्यादर्शनोदय विजयाम द्विधावतिर्भवति अवधिज्ञान विभङ्गज्ञानमिति । सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन के उदयसे उन तीनों (मति भुत व अवधि के दो-दो प्रकार बन जाते हैं । (तहाँ अवधिज्ञान के दो प्रकार हैं) - अवधिज्ञान और विभाग ज्ञान (मिध्यावधिज्ञान ) ।
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अवधिज्ञान
१. भेद व लक्षण
२ गुणप्रत्यय व भवप्रत्ययकी अपेक्षा प.ख, १३/१.५३/सू.५३/२१० त च अोहिणाण दुविहं भवपच्चइयं गुण पञ्चश्यं चैव ॥५३॥ भवप्रत्यय व गुणप्रत्ययके भेद से अवधिज्ञान
दो प्रकार है । (रा.बा.१/२०/१५/०८/२६) (गो. जी /मु./३७०/७६६) स, सि,१/२०/१२५/३ द्विधोऽवधिभवप्रत्यय क्षयोपशमनिमित्तश्चेति। -अवधिज्ञान दो प्रकार है-भवप्रत्यय और क्षयोपशम निमित्तक ।
३. अवधिज्ञानके अनेक भेदोका निर्देश । ष. ख. १३/५. सूत्र ५६/२६२ त च अणेयविह देसोही परमोही सव्वोही होयमाणयं बड्ढमाणयं अदि अणव ट्ठिद अणुगामी अणणुगामी सपाडियादोअप्पडिवादो एयवस्खेतमणेयवखेत ॥५६॥ - वह (अवधिज्ञान ) अनेक प्रकार है-देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हीयमान, वर्द्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती,
अप्रतिणतो, एक क्षेत्रावधि और अनेक शेत्रावधि। रा वा १/२२४८१/२७ अनुगाम्यननुगामिवर्धमानहीयमानावस्थितानवस्थितभेदात षड्विध ॥ ४॥ पुनरपरेऽवधेस्त्रयो भेदा-देशावधि परमावधि सविधिश्चेति । तत्र देशावधिस्त्रेधा जघन्य उत्कृष्ट अजघन्योत्कृष्टश्चेति । तथा परमावधिरपि त्रिधा । सर्वावधिरविकल्पस्वादेक एव। बर्द्धमानो, होयमान अवस्थित अनवस्थित अनुगामी अननुगामी अप्रतिपातो प्रतिपाती इत्येतेऽष्टौ भेदा देशावधेभवन्ति। हीयमानप्रतिपातिभेदवर्जा इतरे षड्भेदा भवन्ति परमावधे । अवस्थितोऽनुगाम्यननुगाम्यप्रतिपाती इत्येते चत्वारो भेदा' सर्वावधे । - अवधिज्ञानके अनुगामी, अननुगामी, बर्द्धमान, होयमान, अवस्थित और अनवस्थित, ये छह भेद है। देशावधि, परमावधि और सर्वावधिके भेदसे भो अवधिज्ञान तीन प्रकारका है। देशावधि और परमावधिके जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट ये तीन प्रकार है। सर्वावधि एक ही प्रकारका है। वर्षमान, हीयमान. अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, अप्रतिपाती और प्रतिपाती ये आठ भेद देशावधिमें होते है। हीयमान प्रतिपाती, इन दोको छोड़कर शेष छ भेद परमावधिमें होते है। अवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अप्रतिपाती ये चार भेद सर्वावधिमें होते हैं। (प, का./ता वृ/४३/उद्भुत प्रक्षेपक गाथा स. ३-देशावधि आदि तीन भेद ) (प स प्रा /१/१२४-वर्तमान आदि छ भेद), (श्लो, वा ४/१/२२/१०-१७/१६-२१ रा वा. वाले सर्व विकल्प); (ह. पु.१०/१५२-देशावधि आदि तीन भेद ), क पा.१12/623/ १७/१-देशावधि आदि तीन भेद) (ध ६/१६-१,१४/२५/देशावधि आदि तीन भेद) (ध.६/४,१,२/१४/१५-देशावधि आदि तीन तथा देशावधिके जघन्य उत्कृष्टादि तीन भेद) (ध १/४,१.४) ४८/५ सविधिका एक ही विकल्प तथा परमावधिके जघन्य उत्कृष्टादि तीन विकल्प) गो जी | मू ३७२/७६६-वर्द्धमान आदि छ तथा देशावधि आदि तीन भेद ), (ज. प. १३/११-देशावधि आदि तीन भेद ), (पं. स. सं. १/२२२ - वर्द्धमान आदि छः भेद) घ/पु. १३/५,१५4/२६४/५ तच्च तिविह खेत्ताणुमामो भवाणुगामी खेत्तभवाणुगामो चेदि ।-वह (अनुगामी) तीन प्रकारका है-क्षेत्रानुगामी भवानुगामो और क्षेत्रभवानुगामी । (गो.जी./जो.प्र ३७२/७६६/८) ३. सम्यक मिथ्या अवधिके लक्षण
१. सम्यगवधिका लक्षण दे अवधिज्ञान सामान्य
२. मिथ्यावधिका लक्षण पं. सं/प्रा. १/१२० विवरीओहिणाणं खओवसमियं च कम्बीजं च । बेभगो त्ति व बुच्चा समत्तणाणी हि समयम्हि । -जो क्षयोपशम अवधिज्ञान मिथ्याखसे सयुक्त होनेके कारण विपरीत स्वरूप है, और नवीन कर्मका मीज है उसे आगममें कुअवधि या विभंग ज्ञान कहा गया है । (घ• १/१,१,११५/१८१/३५१) (गो.जी/म् ३०५/६५७) (पं.सं./ म.१/२३२) (पं.का./त.प्र.४१/८२) ।
४. गुणप्रत्यय व भवप्रत्ययका लक्षण स सि. १/२१/१२५/६ भवः प्रत्योऽस्य भवप्रत्ययोऽवधिवनारकाणां
वेदितव्य । स. सि १/२२/१२७/३ तो निमित्तमस्येति क्षयोपशमनिमित्तः। -जिस
अवधिज्ञानके होने में भव निमित्त है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। बह देव और नारकियोंके जानना चाहिए। इन दोनों अथति सर्वघाती स्पर्ध कोके उदयाभावी क्षय और उन्हीं के सदवस्थारूप उपशमके निमित्तसे जो होता है वह क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान है। (रा, वा, १/२१/२/७४/११ व ८१/३) ध १३/५१५,५३/२६०/५ भव उत्पत्ति. प्रादुर्भाव स प्रत्यय' कारण यस्य
अवधिज्ञानस्य तद् भवप्रत्ययम् । ध. १३/५४५५३/२६१/१० अणुवतमहाव्रतीनि सम्यवश्वाधिष्ठानानि गुणः कारणं यस्यावधिज्ञानस्य तद्गुणप्रत्ययकम्। -भव , उत्पत्ति और प्रादुर्भाव ये पर्याय नाम है। जिस अवधिज्ञानका निमित्त भव (नरक व देव भव ) है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है।-सम्यक्त्वसे अधिष्ठित अणुव्रत और महाबत गुण जिस अवधिज्ञानके कारण है वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है । (गो. जी./जी. प्र. ३७०/७१७/४ )
५. देशावधि आदि भेदोंके लक्षण ध १३/५,५,५६/३२३/३ परमा ओही मज्याया जस्स णाणस्स तं परमोहिणाण। कि परमं। असंखेज्जलोगसेत्तसंजमवियप्पा ।......देस सम्मत, संजमस्स अवयवभावादो, तमोही मज्जाया जस्स णाणस्सतं देसोहिणाण । सब केवलणाण, तस्स विसओ जो जो अस्थो सो विसव्वं उबयारादो। सव्वमोही मज्जाया जस्स णाणस्स तं समो. हिणाणं ।-परम अर्थात असंख्यात लोकमात्र संयमभेद ही जिस ज्ञानकी अवधि अर्थात मर्यादा है वह "परमावधि ज्ञान" कहा जाता है। देशका अर्थ सम्यक्त्व है, क्योकि वह संयम का अवयव है। वह जिस ज्ञानकी अवघि अर्थात मर्यादा है वह "देशावधिज्ञान" है ।...... सर्वका अर्थ केवलज्ञान है, उसका विषय जो जो अर्थ होता है, वह भी उपचार से सर्व कहलाता है। सर्व अवधि अर्थात् मर्यादा जिस ज्ञानकी होती है वह "सर्वावधिज्ञान" है। ध.१/४,१,३/४१४६ परमो ज्येष्ठः, परमश्चासौ अवधिश्च परमावधि। ध.६/४.१,४/४७/६ सर्व विश्वं कृत्स्नमवधिर्मर्यादा यस्य स योध' सर्वावधिः । एत्य सबसहो सयलदव्ववाचओ ण घेत्तव्यो, परदो अविजमाणदव्वस्स ओहित्ताणुववत्तीदो। कित सबसहो सठवेगदेसम्हि रूबयदे बट्टमाणो घेत्तव्यो । तेण सब्बरूवयद ओही जिस्से त्ति संबंधो कायव्यो । अयवा सरति गच्छति आकुठचनविसर्पणादीनीति पुदगलद्रव्यं सव्वं, तमोही जिस्से सा सब्बोही। ध.६/४.१.५४५२/६ अन्तश्च अवधिश्च अन्तावधी, न विद्यते तो यस्य स अनन्तावधि ।- परम शब्दका अर्थ ज्येष्ठ है। परम ऐसा जो अवधि वह परमावधि है।-विश्व और कृत्स्न ये 'सर्व' शब्दके समानार्थक शब्द हैं। सर्व है मर्यादा जिस ज्ञानकी, वह सविधि है। यहाँ सर्व शब्द समस्त द्रव्यका वाचक नही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि जिसके परे अन्य द्रव्य न हो उसके अवधिपना नहीं बनता। किंतु 'सर्व' शब्द सर्वके एकदेशरूप रूपी द्रव्यमें वर्तमान ग्रहण करना चाहिए । अथवा जो आकुंचन और विसर्पणादिको को प्राप्त हो वह पुदगल द्रव्य सर्व है, वही जिसकी मर्यादा है वह "सर्वावधि" है। ...अन्त और अवधि जिसके नही है वह "अनन्तावधि" है । (विशेष दे० अवधिज्ञान ६) ६. वर्द्धमान होयमान आदि मेदों के लक्षण
१. वर्द्धमान आदि छ: भेदो के लक्षण स.सि.१/२२/१२७/६ कश्चिदधिर्भास्करप्रकाशवद्गच्छन्तमनुगच्छति। कश्चिन्नानुगच्छति तत्रैवानिपतति उन्मुखप्रश्नादेषिपुरुषवचनबत। अपरोऽवधि अरणिनिर्मथनोत्पन्नशुष्कपर्णोपचीयमानेन्धननिचय
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अवधिज्ञान
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२. अवधिज्ञान निर्देश
समिद्वपावकवत्सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धपरिणामस निधानाद्यत्परिमाण । उत्पन्नस्ततो बद्ध ते आ असंख्येयलोकेभ्यः। अपरोऽवधिपरिच्छिन्नोपादानसन्तत्यग्निशिखावत्सम्यग्दर्शनादिगुणहानिसंक्लेशपरिणामवृद्वियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो हीयते आ अङ्गुलस्यास ख्येयभागात । इतरोऽवधि' सम्यग्दर्शनादिगुणावस्थानाद्यपरिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवावतिष्ठते. न हीयते नापि वर्धते लिङ्गवत्त आ भवक्षयादाकेवलंज्ञानोत्पत्तेर्वा । अन्योऽवधि सम्यग्दर्शनादिगणवृद्धिहानियोगाद्यपरिमाण उत्पन्नस्ततो बर्द्धते यादनेन वर्धितव्यं हीयते च यावदनेनहातव्य वायुवेगप्रेरितजलोमिवत। एव षड्विधोऽवधिर्भवति । -१ कोई अवधिज्ञान, जैसे सूर्यका प्रकाश उसके साथ जाता है, वैसे अपने स्वामीका अनुसरण करता है। उसे "अनुगामी" कहते हैं। (विशेष देखी नीचे) २ कोई अवधिज्ञान अनुसरण नहीं करता, किन्तु जैसे विमुख हुए पुरुष के प्रश्नके उत्तर स्वरूप दूसरा पुरुष जो वचन कहता है वह वहीं छूट जाता है, विमुख पुरुष उसे ग्रहण नहीं करता है, वैसे ही यह अवधिज्ञान भी वहीं पर छूट जाता है। (उसे अनुगामी कहते है। विशेष देखो आगे)। ३ कोई अबधि ज्ञान जंगल के निर्मन्थन से उत्पन्न हुई और सूखे पत्तोसे उपचीयमान ईधनके समुदायसे वृद्धिको प्राप्त हुई अग्निके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी विशुद्धिरूप परिणामोके सन्निधान वश जितने परिणाममें उत्पन्न होता है. उससे (आगे) असख्यातलोक जाननेकी योग्यता होने तक बढता जाता है। (वह "वर्द्धमान" है)। ४ कोई अवधिज्ञान परिमित उपादान सततिबाली अग्निशिखाके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी हानिसे हुए सक्लेश परिणामोंके बढनेसे जितने परिमाण में उत्पन्न होता है उससे (लेकर) मात्र अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जाननेकी योग्यता होने तक घटता चला जाता है । (उसे "हीयमान' कहते है)। ५ कोई अवधिज्ञानसम्यग्दर्शनादि गुणोंके समानरूपसे स्थिर रहने के कारण जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उतना ही बना रहता है। पर्यायके नाश होने तक या केवलज्ञानके उत्पन्न होने तक शरीर में स्थित मस्सा आदि चिन्होंवत न घटता है न बढता है उसे "अवस्थित"कहते है । ६ कोई अवधिज्ञान वायुके बैगसे प्रेरित जलकी तर गोंके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोकी कभी वृद्धि और कभी हानि होनेसे जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है. उससे बढता है जहाँ तक उसे बढना चाहिये, और घटता है जहाँ तक उसे घटना चाहिये उसे 'अनवस्थित' कहते हैं । इस प्रकार अवधिज्ञान छः प्रकारका है। (रा.वा.१/२२/४/८१/१७ १ (ध १३/५,५.५६/२६३/४ ) (गो. जी./ जी. प्र. ३७३/७४६७)
२. अनुगामी अननुगामी की विशेषताएं प.१३/५,५०५६/२६४/४ जमोहिणाणमुप्पण्ण संतं जीवेण सह गच्छादि तमणुगामी णाम तं च तिविह खेताणुगामी भवाणुगामी खेत्तभवाणूगामी चेदि । तत्थ जमोहिणाणं एयम्मि खेत्ते उप्पणं संतं सगपरपयोगेहि सगपरखेत्तेसु हिडतस्स जीवस्स ण विणस्सदि त खेत्ताणुगामी णाम । जमोहिणाणमुप्पण्णं सत तेण जीवेण सह अण्णभवं गच्छदि तं भवाणुगामी णाम। जं भरहेरावद-विदेहादिखेत्ताणि देव-णेरइय-माणुसतिरिक्वभव पि गच्छदि त खेत्तभवाणुगामि त्ति भणिदं होदि । जं तमणणुगामी णाम ओहिणाणं त तिविहं खेत्ताणगुगामी भवाणणुगामी खेत्तभवाणणुगामी चेदि । [जं] खेत्तंतरं ण गच्छदि, भवंतरं चैव गच्छ दि (तं ] खेत्ताणणुगामी त्ति भण्णादि । जं भवंतरं ण गच्छदि खेत्तंतर चेव गच्छदि तं भवाणणुगामी णाम । जं खेत्तंतरभवांतराणि ण गच्छदि एक्कम्हि चेव खेत्ते भवे च पडिबद्धत खेत्तभवाणणुगामी त्ति भण्णदि।-१. जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीवके साथ जाता है वह अनुगामी अवधिज्ञान है। वह तीन प्रकारका है -क्षेत्रानुगामी. भवनानुगामी और क्षेत्रभवानुगामी। उनमें से जो अवधिज्ञान एक क्षेत्रमें उत्पन्न होकर म्बत' या परप्रयोगसे जीवके स्वक्षेत्र या परक्षेत्रमें विहार करनेपर विनष्ट नहीं
होता है, वह क्षेत्रानुगामो अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर उस जीवके साथ अन्य भव में जाता है वह भवानुगामी है । जो भरत ऐरावत और विदेह आदि क्षेत्रोंमें तथा देव नारक मन प्य और तिर्यंच भवमें भी.साथ जाता है वह क्षेत्रभवानुगामी अवधिज्ञान है। २. जो अननुगामी अब धिज्ञान है वह तीन प्रकारको है-क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी और क्षेत्रभवामनुगामी। जो क्षेत्रा. न्तरमे साथ नहीं जाता, भवान्तरमे हो साथ जाता है वह क्षेत्राननुगामी अबधिज्ञान कहलाता है। जो भवान्तर में साथ नहीं जाता, क्षेत्रान्तरमें ही साथ जाता है वह भवाननुगामी अवधिज्ञान है। जो क्षेत्रान्तर और भवान्तर दोनों में साथ नही जाता, किन्तु एक ही क्षेत्र और भवके साथ सम्बन्ध रखता है वह क्षेत्रभवाननुगामी अवधिज्ञाने कहलाता है। (गो. जो./जी. प्र ३७२/७६६/८)
३ प्रतिपाती व अप्रतिपाती के लक्षण ध. १३/५.६.५६/२६५/१ जमोहिणाणमुप्पण्ण संत णिम्मूलदो विणस्सदि तं सप्पडिवादी णाम ।...जमोहिणाण संतं केवलणाणेण समुप्पण्णे चेव विणस्सदि, अण्णहाण विणस्सदि, तमप्पडिवादी णाम ।-जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल विनाशको प्राप्त होता है वह सप्रतिपाती अवधिज्ञान है । जी अवधिज्ञान उत्पन्न होकर केवलज्ञानके उत्पन्न होने पर ही विनष्ट होता है अन्यथा विनष्ट नहीं होता वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान है।
४ एकक्षेत्र व अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान के लक्षण ध १३/५.५.५६/२६५/६ जस्स ओहिणाणस्स जीवसरीरस्स एगदेसो करण होदि तमोहिणाणमेगखेत्त णाम । जमोहिणाण पडिणियदखेत्त वज्जिय सरीरसवात्र यवेसु बट्टदि तमणेयक्खेत्त णाम । जिस अवधिज्ञानका करण जीव शरीरका एक देश होता है वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है जो अबधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्रके बिना शरीरके सब अवयवो में रहता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान है। (विणेष दे.
अवधिज्ञान ५) अवधिज्ञान निर्देश
१. अवधिज्ञानमें अवधि पदका सार्थक्य क. पा. १/१/१२/१७/१ किमट्ट तत्थ ओहिसदो परूविदो। णा, एदम्हादो हेट्ठिमसवणाणाणि सावहियाणि उवरिमाण णिरवािमदि जाणावण? । ण मगपज्जवणाणेण वियहिचारो, तस्य वि अर्वाहणाणादो अप्पविसयतण हेट्टिमत्तम्भुगमादो। पआगरस पुण ठाणविवज्जासो सजमसहगयत्तेण कयविसेस पदुप्पायण फलात्तिण कोच्छि (च्चि)दोसो। प्रश्न - अवधिज्ञान में अवधि शब्दका प्रयोग किसलिए किया गया है । उत्तर-इससे नोचेके सभी ज्ञान सावधि है, और ऊपरका केवलज्ञान निरवधि है। इस बातका ज्ञान करानेके लिए अवधिज्ञानमें 'अवधि' शब्दका प्रयोग किया है। यदि कहा जाय कि इस प्रकारका कथन करनेपर मन पर्यय ज्ञानसे व्यभिचार दोष आता है, सो भी बात नहीं है, क्योकि मन पर्ययज्ञान भी अवधिज्ञानसे अल्पविषयवाला है, इसलिए विषयकी अपेक्षा उसे अवधिज्ञानसे नीचेका स्वीकार किया है। फिर भी सयमके साथ रहनेके कारण मन पर्ययज्ञानमें जो विशेषता आती है उस विशेषताको दिखलानेके लिए मन पर्ययको अवधिज्ञानसे नीचे न रखकर ऊपर रखा है, इसलिए कोई दोष नहीं है । (ध ६/४,१/२/१३/४)
२ प्रत्येक समय नया ज्ञान उत्पन्न होता है । घ १३/१,५.५६/२६६/१३ सो कस्स वि ओहणिणास्स अवट्ठाणकालो होदि।
कुदो । उप्पण्ण बिदियसमए चेव विणटुस्स ओहिणाणस्सएगसमयकालुवलंभादो । जीवट्ठाणादिसु ओहिणाणस्स जहण्णकालो अतोमुत्तमिदि पढिदो। तेण सह कधमेद सुत्त न विरुज्झदे। ण एस दोसो, ओहिणाणसामथ्ण-विसेसावलबणादा । जीवट्ठाणे जेण सामण्णोहिणाणस्स कालो
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अनविज्ञान
परुविदो तेण तथ अंतोमुहुतो होदि । एत्थ पुण ओहिणाण विसेसेण अहिया, रोग एक्कम्हि ओहिणाणविसेसे एगसमयमस्मि निदिय समए बड्ढीए हाणीए वा णाणतरमुवगयस्स एगसमओ लब्भदे । एवं दोतिणि समए आदि| काढूण जाव समऊणावलिया प्ति तात्र एवं चैव परणा कायवा । कुदो दो तिणिआदिसमए अच्छिदूण वि ओहिणाणस्स वड्ढिहाणीहि णानंतरगमणं संभरदि । वह (एक समय ) किसी भी अवधिज्ञानका अवस्थानकाल होता है, क्योंकि, उत्पन्न होनेके दूसरे समय में ही विन हुए अवधिज्ञानका एक समय काल उपलब्ध होता है। प्रश्न- जीवस्थान आदि (काल प्ररूपणा) में अवधिज्ञानका जघन्यकाल अन्तर्मुहुर्त कहा है। उसके साथ यह सूत्र कैसे विरोधको प्राप्त नहीं होता 'उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, अवधिज्ञान सामान्य और अवधिज्ञान विशेषका अवलम्बन लिया गया है । यत जोवस्थानमें सामान्य अवधिज्ञानका काल कहा गया है, अत वहाँ अन्तर्मुहुर्त मात्र काल होता है किन्तु यहाँ पर अवधिज्ञान विशेषका अधिकार है. इसलिए एक अवधिज्ञानविशेषका एक समय काल तक रहकर दूसरे समय में वृद्धि या हानिके द्वारा ज्ञानान्तरको प्राप्त हो जानेपर एक समय काल उपलब्ध होता है। इसी प्रकार दो या तीन आदि समयसे लेकर एक समय कम आवली काल तक इसी प्रकार कथन करना चाहिए, क्योंकि, दो या तोन आदि समय तक रहकर भी अवधिज्ञानकी वृद्धि और हानिके द्वारा ज्ञानान्तर रूप से प्राप्ति सम्भव है ।
३ अवधि, मति व भुतज्ञानमें अन्तर
ध. ६/९.६ - १,१४/२६ / १ मदिसुदणाणेहिंतो एदस्स साबहियतेण भेदाभाना पुपवर्ण निरत्यम यिदि च ण एस दोसो मदिदणाणाणि पाहणं व तेण सहितो तस्स भेमलभा मदिणाण पि पञ्चक्ख निस्सदीदि चे ण, मदिणाणेण पश्ञ्चक्खं वत्थुस्स अणुलभा । = प्रश्न - अवधि अर्थात् मर्यादा सहित होनेकी अपेक्षा अनविज्ञानका मतिज्ञान और ज्ञान इन दोनोंसे कोई भेद नहीं है, इसलिए इसका पृथक् निरूपण करना निरर्थक है ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मतिज्ञान और सहान परोक्षज्ञान है। किन्तु अवधिज्ञान तो प्रत्यक्षज्ञान है । इसलिए उक्त दोनों ज्ञानोंसे अवधिज्ञानके भेद पाया जाता है। प्रश्न- मतिज्ञान भी तो प्रत्यक्ष दिखलाई देता है उत्तर-नहीं, क्योंकि, मतिज्ञानसे वस्तुका प्रत्यक्ष उपलम्भ नहीं होता । (विशेष दे, आगे अवधिज्ञान ३)
४. अवधि व मन:पर्यय ज्ञानमें अन्तर
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त. सु. १/२२ विवामिविषयेभ्योऽवधियन पर्यययो विशुद्धि क्षेत्र स्वामी और विषयकी अपेक्षा अवधिज्ञान और मन पर्ययज्ञानमें भेद है । (त सा. १/२६/२६)
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रामा ६/१०/११ / ५१६ / ३ मन पर्ययज्ञानं स्वविषये अवधिज्ञानमस् न स्वमुखेन वर्तते तर्हि परकीयमन प्रणालिकया। ततो । कथं । यथा मनोऽतीतानागतानर्थाश्चिन्तयति न तु पश्यति । तथा मन.. पर्ययज्ञान्यपि भूतभविष्यन्तौ वेत्ति न पश्यति । वर्तमानमपि मनोविषयविशेषाकारेव प्रतिपद्यते मन पर्मज्ञान अवधिज्ञानकी तरह स्वमुखसे विषयोंको नहीं जानता, किन्तु परकीय मन प्रणाली से जानता है । अत मन जैसे अतीत और अनागत अर्थोंका विचार चिन्तन तो करता है. देखता नहीं है, उसी तरह मन पर्ययहानी भी भूत और भविष्यको जानता है, देखता नहीं वह वर्त मान भी मनको विषयविशेषाकारमे जानता है ।
घ. ६/१.६-१.९४ / २६/१ बाहमणवाणा को निउ— मणपज्जनणार्थ बिजिमचर्य, ओहिमा पूरा भवश्चय गुणचयं मवि ओहिणाम पुण ओहि दंसणपुत्र । एसो तेसि विसेसो । प्रश्न- अवधिज्ञान और मन. - पर्यज्ञान इन दोनो का भेद है उत्तर-नम पर्ययज्ञान विशिष्ट
२. अवधिज्ञान निर्देश
संयमके निमित्तसे उत्पन्न होता है, किन्तु अवधिज्ञान भषके निमित्तसे और गुण अर्थात् क्षयोपशमके निमित्तसे उत्पन्न होता है । मन:पर्ययज्ञान तो मतिपूर्वक ही होता है कि अवधज्ञान अि दर्शनपूर्वक होता है यह उन दोनोंमें भेद है।
५. अवधि ज्ञानसे मनःपथ विशुद्ध क्यों
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१/२४/१/०६/१६म्मतम् अवधिज्ञानान्मन पर्योऽनिशुद्धरः । कुछ उपद्रव्यविषयत्वादयः सर्वानभिगो मन:पर्ययमिति न कि कारण नात्या [कॉ] [] महूनि शास्त्राणि व्याचष्ट एकदेशेन न साकश्येन गतमर्थ शक्नोति हूं, अपररत्येकं शाख साकम्येन व्यायामस्त स्यार्थास्तान् सर्वान् शक्नोति वक्तुम अयं पूर्वस्माद्विशुद्धतर विज्ञानो अर्थात तथा अधिज्ञानविषयानन्तभागमनतर यतस्तमनन्तभागं रूपादिभिर्बहुभि पर्यायैः प्ररूपयति । प्रश्न- अवधिज्ञानकी अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान अविशुद्धतर है, क्योंकि उसका द्रव्य विषय अल्प है। जैसे कि कहा भी है कि सर्वावधिके पीव्यका अनन्त भाग मनपर्ययका विषय है। उत्तर-नहीं, क्योंकि यह उस अपने विषयभूत द्रव्यको बहुत पर्यायोंको जानता है। जेसे कोई महुत-से शाखाको एक देशरूपसे जानता है परन्तु साम्यरूपसे उसको कहने में समर्थ नहीं है और दूसरा कोई केवल एक ही शास्त्रको जानता है परन्तु साकल्यरूपसे जितना कुछ भी उसके द्वारा प्रतिपादित अर्थ है उस सर्वको महमें समर्थ है। तुम यह पहलेकी अपेक्षा विद्युतर विज्ञान समझा जाता है। इसी प्रकार ज्ञानविषयका अनन्त भाग भी मन पर्ययज्ञान वितर हे क्योंकि उस अनन्तमे भाग को बहुत अधिक पर्यायको प्ररूपित करता है
६. मोक्षमार्ग अवधि व मन:पर्यय का कोई मूल्य नहीं रा.वा. २/१/२/२/५२] केवलस्य पूर्वोपदेशाद केवलज्ञानकी उत्पत्ति पूर्ववर्ती पूर्ण द्वादशांग श्रज्ञानरूप कारणसे होती हुई मानी है (भाषाकार केवलज्ञानमें अयुपयोगी ज्ञान है. अवधि मन पर्याय नही है।)
पं.पू. ९१ अपि चात्मस सिद्धार्थ नियतं हेतु मतिज्ञाने प्रात्य
बिना स्वान्मोक्षो न स्याते मति २०१६-रमाकी सिद्धिके लिए मतिश्रुतज्ञान निश्चित कारण हैं क्योंकि अन्तके दो ( अवधि में मनापर्यय)] ज्ञानोंके बिना मोक्ष हो सकता है. किन्तु मति भूतानके बिना मोक्ष नहीं हो सकता रहस्यपूर्ण चिट्ठी "इस अनुभव मतिज्ञान व ज्ञान ही है, अन्य कोई ज्ञान नहीं ।" ७. पंचम कालमें अवधि व मनःपर्यय सम्भव नहीं म.पू. ४९/०६ परिवेयोपरतस्य यतमानो निशामनाथ गोस् तपोभृत्सु समन पर्योऽवधि ॥७६॥ - ( भरतके स्वप्नोंका फल बठाते हुए भगवाद कहते है। परिमण्डलसे घिरे हुए चन्द्रमाको देखने से यह जान पड़ता है कि पंचमास मुनियोंमें अवधिज्ञान व मन:पर्ययज्ञान नहीं होगा ।
८. पंचम कालमें भी कदाचित् अवधिज्ञान सम्भव है वि.प. ४/१५१०-१५१० दा पिठामं समा कालो म अठरा पि गत महिना उप्पल एनकम्मि ४१६१२४] व्ही पहि एक दुस्समसारस ओहिया पि संधायचा योगा का ११०० आचारधरो पद २७५ वर्ष व्यतीत होनेपर बक्की नरपतिको पट बाँधा गया का ११५१०६ वह काफी मुनियोंके आहारमें से भी अग्रपिंडको शुल्क (के रूपमें) माँमले लगा ॥ १५१९ ॥ तब श्रमण अग्रपिंडको देकर और 'यह अन्तरायोंका काल है' ऐसा समझकर [निराहार] चले जाते हैं। उस समय उनमेंसे किसी एकको अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है | १५१२ | इस प्रकार
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লনন্দিন
३. अदपि गापर्ययकी प्रत्यक्षता परोक्षता
एक हजार वर्षोंके पश्चात पृथक्-पृथक् एक-एक कलको तथा पाँच सौ वर्षों पश्चात एक-एक उपकसकी होता है ।१५१६॥ प्रत्येक कतकीके प्रति एक-एक दुषमाकालबर्ती साधुको अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उसके समयमें चातुर्वर्ण्य संघ भी अल्प हो जाते हैं ॥१५॥
९. मिथ्यावृष्टि का अवधिज्ञान विभंग कहलाता है पं.सं./प्रा १/१२० वेभंगो त्ति व बुच्चई सम्मत्तणाणोहि समयहि ।
-उसे (मिथ्यात्व सयुक्त अवधिज्ञानको) आगममें विभंगझान कहा गया है। (ध. १/१,१,११५४१८१/३५१) (गो.जी./मू.३०५/६५७) (पं.सं.सं. १/२३२)। घ. १३/१९.५३/२६०/८ ण च मिच्छाइट्ठीसु ओहिणाणं णस्थि त्ति वोत्तं जुतं, मिव्रतमहचरिदओहिणाणस्सेव विहगणाणवबएसादो। - मिथ्याष्टियोंके अवधिज्ञान नहीं होता, ऐसा कहना मुक्त नहीं है, क्योंकि, मिथ्यात्व सहचरित अवधिज्ञानको ही विभंगज्ञान सज्ञा है। ३. अवधि व मनःपर्ययकी कथंचित् प्रत्यक्षता परोक्षता
१. अवषि-मनःपर्य कर्मप्रकृतियोंको प्रत्यक्ष जानते हैं ध.१/१.१.१४५६।३ कर्मणामसंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा केषां प्रत्यक्षेति चेन्न,
अबधिमन पर्ययज्ञानिना सूत्रमधोयानानां तत्प्रत्यक्षतायाः समुपलम्भात् ।-प्रश्न-कर्मोकी असंख्यात गुण श्रेणी रूपसे निर्जरा होती है, यह किनके प्रत्यक्ष है । उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सूत्रका अध्ययन करनेवालोंकी असंख्यात गुणित श्रेणीरूपसे प्रति समय कर्मनिर्जरा होत है, यह भात अवधिज्ञानी और मन'पर्यय शानियोंको प्रत्यक्षरूपसे उपलब्ध होती है।
२. दोनों कर्मबद्ध जीवको प्रत्यक्ष मानते हैं स सि ८/२६/४०६/३ एवं व्याख्यातो सप्रपञ्च बन्धपदार्थ.। अवधिमन.पर्ययकेवलज्ञानप्रत्यक्षप्रमाणगम्यस्तदुपविष्टागमानुमैयः -- इस प्रकार (१४८ प्रकृतियों के निरूपण द्वारा) बन्ध-पदार्थ का विस्तारके साथ व्याख्यान किया। यह अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान रूप प्रत्यक्ष प्रमाणगम्य है और इन ज्ञानवाले जीवों द्वारा उपदिष्ट
आगमसे अनुमेय है। ध. १३/५,५,६३/३३३/४ दिष्टसुदाणुभूदट्ठविसयणाणविसे सिदजीवो सदी
णाम । तं पि पच्चक्रवं पेच्छ दि । अमुत्तो जोबो कधं मणपज्जवणाणण मुत्तदुपरिच्छेदियोहिणाणादो हेट्ठिमण परिच्छिज्जदे। णमुत्तट्टकम्मेहि अणादिबंधनबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तोदो । स्मृतिरमूर्ताचेत्-न जीवादोपुधभूदसदीए अणुवलंभा। अणागयत्यविसयमदिणाणेण विसेसिदजीवो मदी णाम । तं पि पच्चक्रवं जाणदि। बट्टमाणस्थ विसयमदिणाणण विसेमिदजीवो चिंता णाम तंपि पच्चक्रवं वैच्छदि । - दृष्ट श्रुत और अनुभूत अर्थको विषय करनेवाले ज्ञानसे विशेषित जीवका नाम स्मृति है, इसे भी वह (मन'पर्पयज्ञानी) प्रत्यक्षसे देखता है। प्रश्न-यत जीव अमूर्त है अत: वह मूर्त अर्थको जाननेवाले अत्रधिज्ञानसे नीचेके मन पर्ययज्ञानके द्वारा कैसे जाना जाता है। उत्तर-नही, क्योंकि, ससारी जीव मूर्त आठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन बन्धनसे बद्ध है इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता । प्रश्न-स्मृति तो अमूर्त है ! उत्तर--नहीं, क्योंकि, स्मृति जीबसे पृथक् नहीं उपलब्ध होती है। अनागत अर्थका विषय करनेवाले मतिज्ञानसे विशेषित जीवको मति संज्ञा है. इसे भी वह प्रत्यक्ष जानता है। वर्तमान अर्थको विषय करने वाले मतिज्ञानसे विशेषित जीवकी चिन्ता संज्ञा है-इसे भी वह प्रत्यक्ष देखता है। ३. अवधि मनःपर्ययकी कथंचित परोक्षता ../पू.७०१ छद्मस्थायामावरणेन्द्रियसहायसापक्षम् । यावज्ज्ञानचतुष्टयमर्थात सर्व परोक्षमिव वाच्यम् ॥७०१-छद्मस्थ अवस्थामें बावरण
और इन्द्रियों को सहायताको अपेक्षा रखनेवाले। है सब परमार्थ रीतिसे परोक्षवद कहने चाहिए। मो.मा.प्र.३५९४ सो यहु (अवधि शाम) भी शरीरादिक पनि बाधीन है।...अवधि दर्शन है सो मत्तिज्ञान वा अवधिज्ञानवव पराधीन जानना।
४. अवधि मनःपर्ययकी प्रत्यक्षता परोक्षताका समन्वय पं.ध/पू.७०२-७०५ अवधिमम पर्य यवद्द्वैत प्रत्यक्ष मेक देशत्वात् । केवलमिदमुपचारादथ च विवक्षावशान्न चाम्बाद।७०२॥ तत्रोपचारहेतुर्यथा भतिज्ञानमक्षजं नियमाद । अथ तत्पूर्व श्रतमपि न तथावधि-चित्तपर्यये ज्ञानम् ॥७०३॥ यस्मादवग्रहहावायानतिधारणापरायत्तम् । आद्य ज्ञानं वयमिह यथा नैव चान्तिम द्वैतम् ॥७०४॥ दूरस्थानानिह समवक्ष मिव वेत्तिहेलया यस्मात् । केवलमेव मनसादवधिमन पर्ययद्वयं ज्ञानम् ॥७०५॥ -अवधि और मन पर्यय ये दोनों ज्ञान एकदेशपनेसे प्रत्यक्ष है, यह क्थन केवल उपचारसे अथवा विवक्षा वश समझना चाहिए, किन्तु अन्वर्थ से नहीं ॥७०२। उपचारका कारण यह है कि जैसे नियमसे मतिज्ञान इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है और श्रुतज्ञान भी मतिपूर्वक होता है, वैसे अवधिमन.पर्यय ज्ञान इन्द्रियादिक्से उत्पन्न नहीं होते हैं ।७०३॥ क्योंकि जैसे यहाँ पर आदिके दोनों ज्ञान अवग्रह ईहा अवाय और धारणाको उल्लघन नहीं करनेसे पराधीन है। वैसे अन्तके दोनों ज्ञान नहीं हैं ।७०४॥ क्योंकि यहाँपर अवधि और मनपर्यय ये दोनों ज्ञान केवल मनसे ही दूरवर्ती पदार्थीको लीलामात्रसे प्रत्यक्षकी तरह जानते हैं ॥७०५॥
५. अवधि व मतिज्ञान की प्रत्यक्षतामें अन्तर ध.६/१,६१,१४/२६/२ मतिमुदणाणाणि परोक्वाणि, ओहिणाणे पुण पच्चक्रवं; तेण तेहितो तस्स भेदुवलंभा। मदिणाणं वि पञ्चक्वं दिस्सदोदि चे ण, मदिणाणेण पञ्चवं वत्थुस्स अणुवलं भा। जो पच्चरखमुवलन्भइ, सो बरथुस्स एगदेसो ति वस्थू ण होदि । जो घि वस्थू, सो वि ण पञ्चवखेण उपलब्भदि, तस्स पञ्चवरखापञ्चक्रवपरोक्वमइणाणविसयत्तादो। तदो मदिणाण पञ्चवखेण ण बत्त्यु परिच्छेदयं । अदि एवं, तो ओहिणाणस्स वि पञ्चक्रव-परोक्वत्तं पसजदे, तिकालगोयराण तपज्जाएहि उबचियं वत्थू, ओहिणाणस्स पच्चक्खेण तारिसवत्थुपरिच्छेदणसत्तीए अभावादो इति चे ण, ओहिणाणम्मि पच्चवखेण बट्टमाणासेसपज्जायविसिट्ठवत्थुपरिच्छित्तीए उवल भा, तीदाणागदअसंखेजपज्जायविसिटुवत्थुदंसणादो च । एवं पि तदो वत्युपरिच्छेदो णथि त्ति ओहिणास्स पच्चवरख-परोक्रवत्तं पसजदे । ण, उभयणयसमूहवत्थुम्मि-ववहारजोगम्मि ओहिणाणस्स पच्चक्रवत्तु बलं भा। ण चाणं तवंजणपज्जाए णमेप्पदि त्ति ओहिणाणं वत्थुस्स एगसपरिच्छेदय,वबहारणयवंजणपज्जाएहि एत्य वत्थुस्तम्भुव गमादो। मदिणाणरस मि एसो कमो.तस्स वट्टमाणासपज्जायविसिट्ट-वत्थु परिच्छेयणसत्तीए अभावादो।-निर्देश- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष है, किन्तु अवधिज्ञान तो प्रत्यक्षज्ञान है, इसलिए उक्त दोनों ज्ञानोंसे अवधिज्ञानके भेद पाया जाता है। प्रश्न-मतिज्ञान भी तो प्रत्यक्ष दिखलाई देता है। उत्तर-नहीं क्योंकि मतिज्ञानसे बस्तुका प्रत्यक्ष उपलम्भ नहीं होता है। मतिज्ञानसे जो प्रत्यक्ष जाना जाता है वह वस्तुका एकदेश है: और वस्तुका एकदेश सम्पूर्ण वस्तुरूप नहीं हो सकता है। जो भी वस्तु है वह मतिज्ञानके द्वारा प्रत्यक्षरूपसे नहीं जानी जाती है, क्योंकि. वह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षरूप परोक्ष मतिज्ञानका विषय है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि मतिज्ञान प्रत्यक्षरूपसे वस्तुका जाननेवाला नहीं है। (जितने अशको स्पष्ट जाना वह प्रत्यक्ष है शेष अंश अप्रत्यक्ष है। और इन्द्रियावलम्बी होनेसे परोक्ष है इसलिए यहाँ मतिज्ञानको 'प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष' परोक्ष कहा गया है) प्रश्न- यदि ऐसा है तो अवधिज्ञानके भी प्रत्यक्षपरोक्षात्मकता प्राप्त होती है, क्योंकि, वस्तु त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे उपचित है, किन्तु
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अदधिज्ञान
१९.
४. अवधिज्ञानमे इन्द्रिय द मनके निमित्त
अवधिज्ञान के प्रत्यक्ष द्वारा उस प्रकारको वस्तु के जाननेको शक्तिका अभाव है। उत्तर-नहीं, क्योंकि अवधिज्ञानमें प्रत्यक्षरूपसे वर्तमान समस्त पर्याय विशिष्ट वस्तुका ज्ञान पाया जाता है, तथा भूत और भावी असंख्यात पर्याय विशिष्ट वस्तुका ज्ञान देखा जाता है। प्रश्न-इस प्रकार माननेपर भी अवधिज्ञानसे पूर्ण वस्तुका ज्ञान नहीं होता है, इसलिए, अवधिज्ञानके प्रत्यक्षपरोक्षात्मक्ता प्राप्त होती है। उत्तर - नहीं क्योंकि, व्यवहारके योग्य, एवं द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दोनों नामों के समूहरूप वस्तुमें अवधिज्ञामके प्रत्यक्षता पायी जाती है। प्रश्न-अवधिज्ञान अनन्त व्यंजन पर्यायौंको नहीं ग्रहण करता है. इसलिए वस्तुके एकदेशका जाननेवाला है। उत्तरऐसा भी नहीं जानना चाहिए, क्योंकि, व्यवहार नयके योग्य व्यजनपर्यायों की अपेक्षा यहाँगर वस्तुल्य माना गया है। यदि कहा जाय कि मतिज्ञानका भी यही क्रम मान लेंगे, सो नहीं माना जा सकता, क्योंकि मतिज्ञानके वर्तमान अशेष पर्याय विशिष्ट वस्तुके जाननेकी शक्तिका अभाव है. तथा मतिज्ञान के प्रत्यक्षरूपसे अर्थ ग्रहण करनेके नियमका अभाव है। ध.१३/५.६,२१/२११/३ अवध्याभिनिवोधिज्ञानयोरेकत्वम,ज्ञानत्वं प्रत्यविशेषादिति चेत-न प्रत्यक्षाप्रत्यक्षयोरनिन्द्रियजेन्द्रियजयोरेक्त्वबिरोधात । ईहादिमतिज्ञानस्याप्यनिन्द्रियजत्वमुपलभ्यत इति चेव-न, द्रज्यार्थिक नये अवलम्ब्यमाने ईहाद्यभावतस्तेषामनिन्द्रियजत्वाभावाद नै गगनये अवलम्ब्यमानेऽपि पारम्पर्येणेन्द्रियअत्वोपलम्भाच्च । प्रत्यक्षमाभिनिबोधिकज्ञानम्, तत्र वैशद्योपलभादवधिज्ञानवदिति चेत-न, ईहादिषु मानसेषु च वैशद्याभावात् । न चेदं प्रत्यक्षलक्षणम, पञ्चन्द्रियविषयावग्रहस्थापि विशदस्यावधिज्ञानस्येव प्रत्यक्षतापत्ते । अवग्रहे वस्त्वेकदेशी विशद चेत-न, अवधिज्ञानेऽपि तदविशेषात् । ततः पराणीन्द्रियाणि आलोकादिश्च, परेषामायत्तज्ञान परोक्षम् । तदन्यवप्रत्यक्षमित्यङगीकर्तव्यम् ।-प्रश्न-अबधिज्ञान और आभि निमोधिक (मति) ज्ञान ये दोनों एक हैं, क्योंकि, ज्ञान समान्यकी अपेक्षा इनमें कोई भेद नहीं। उत्तर-नहीं, क्योकि अवधिज्ञान प्रत्यक्ष है और अभिनिबोधिक ज्ञान परोक्ष है,तथा अवधिज्ञान इन्द्रिय जन्य नहीं है और अभिनिबोधिक ज्ञान इन्द्रियजन्य है, इसलिए इन्हें एक मानने में विरोध आता है। प्रश्न-ईहादि मतिज्ञान भी अनिन्द्रियज उपलब्ध होते है । उत्तर-नहीं, क्योंकि द्रव्याथिक नयका अवलम्बन लेनेवर ईहादि स्वतन्त्र ज्ञान नहीं है इसलिए वे अनिन्द्रियज नहीं ठहरते। तथा नैगम नयका अवलम्बन लेनेपर भी वे परम्परासे इन्द्रियजन्य ही उपलब्ध होते है। प्रश्न-आभिनिबोधिक ज्ञान प्रत्यक्ष है, क्योकि उसमें अवधिज्ञानके समान विशदता उपलब्ध होती है । उत्तर-नहीं. क्योंकि, इहादिकों में और मानसिक्ज्ञानोमें विशदताका अभाव है। दूसरे यह विशदता प्रत्यक्ष का लक्षण नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर पंचेन्ट्रिय विषयक अवग्रह भी विशद होता है. इसलिए उसे भी अवधिज्ञानकी तरह प्रत्यक्षता प्राप्त हो जायगी। प्रश्न-अवग्रहमें वस्तुका एकदेश विशद होता है। उत्तर -नहीं, क्योंकि, अवधिज्ञान में भी उक्त विशदतासे कोई विशेषता नहीं है, अर्थात इसमें भी वस्तुकी एक्देश विशदता पायी जाती है। इसलिए 'पर' का अर्थ इन्द्रियाँ और आलोक आदि है,और पर अर्थात इनके अधीन जो ज्ञान होता है वह परोक्ष ज्ञान है। तथा इससे अन्य ज्ञान प्रत्यक्ष है, ऐसा यहाँ स्वीकार करना चाहिए । ४. अवधिज्ञानमें इन्द्रियों व मनके निमित्तका सद्भाव
व असद्भाव ।
१. अवधिज्ञान में कथंचित मनका सद्भाव पं.ध/HARE देशप्रत्यक्ष मिहाप्यवधिमन पर्यये च यज्ज्ञानम् । देश नोहन्द्रियमन उत्थात् प्रत्यक्षमितरनिरपेक्षात् ॥६॥ -अवधिमनापर्ययरूप जो ज्ञान है वह देशप्रत्यक्ष है क्योंकि वह केवल अनि
न्द्रियरूप मनसे उत्पन्न होनेके कारण देश तथा अन्य बाह्य पदार्थों की अपेक्षा न रखने से प्रत्यक्ष कहलाता है। १. अवधिज्ञानमें मनके निमित्तका अभाव अष्टशती/का./निर्णयसागर मम्बई--"आरमनमैवापेक्ष्येतानि श्रीणि ज्ञानानि उत्पद्यन्ते । न इन्द्रियानिन्द्रियापेक्षा तत्रास्ति । उक्तंचअतएवाक्षानपेक्षाठजनादिसंस्कृतचक्षुषो यथालोकानपेक्षा।"- अबधि, मन पर्यय व केवल ये तीनों ज्ञान औरमाकी अपेक्षा करके ही उत्पन्न होते है। तहाँ इन्द्रिय या अनिन्द्रियकी अपेक्षा नहीं होती। कहा भी है- "जिस प्रकार अंजन आदिसे संस्कृत आँख आलोकादिसे निरपेक्ष ही देखती है, सी प्रकार में तीनों ज्ञान भी इन्द्रियोंसे निरपेक्ष ही जानते हैं। अष्टसहस्री/पृ.५०/निर्णयसागर सम्बई-"म हि सर्वार्थव सकृद सम्बन्धः सम्भवति साक्षात्परम्परया वा। ननु, चावधिमन' पर्वयज्ञानिनोर्देशतो विरतव्यामोहयोः असर्वदर्शन' क्थमक्षानपेक्षा संलक्षणीया। तदावरण क्षयोपशमातिशयवशास्वविषमेपरिस्फुरत्वाव इति नमः।" -इन ज्ञानों में साक्षात या परम्परा रूपसे किसी भी प्रकार इन्द्रियोंका सम्बन्ध सम्भव नहीं है । प्रश्न-अवधि व मन पर्ययज्ञानियोंको जो कि केवल एकदेश रूपसे मोहसे छूटे है तथा असर्वदर्शी है. इन्द्रियोंसे निरपेक्षपना कैसे कहा जा सकता है। उत्तर-क्योंकि अपने आवरण कर्मके क्षयोपशमके कारण ही वे अपने-अपने विषयमें परिस्फुरित होते हैं । इसलिए एसा कहा है। गो.जी//४४६/८६३ "ईदियणोइंदियजोगादि पेविसतु उजमदी होदि । णिरवेक्विय बिउलमदी ओहि वा होदि णियमैण ४४" -ऋजुमति ज्ञान तो स्व व परके इन्द्रिय, मन व योगोंकी सापेक्षतासे उत्पन्न होता है, परन्तु विपुलमति व अवधिज्ञान नियमसे इनकी
अपेक्षा रहित है। ५. अवधिज्ञानके उत्पत्ति स्थान व कर १. देशावधि गुणप्रत्ययज्ञान फरण चिह्नोंसे उत्पन्न होता
है और शेष सब सर्वांगसे होते हैं ध १३/५.५,५६/२४/२६५ णेरड्य-देव-तित्थयरोहियखेत्तस्सबाहिर एवे। जाणं ति सव्वदो खलु सेसा देसेण जाणंति । सेसा देसेण जाणं तिति एस्थ णियमो ण कायव्बो, परमोहिसव्वो हिणाणगण हराणं सगसव्वावयवेहि सगविसईभदस्यस्स गहणुवलंभादो । तेण सैसा देसेण सम्बदो च जाण ति त्ति घेत्तव्यं । नारकी, देव और तीर्थकर इनवा जो अवधिक्षेत्र है उसके भीतर ये सर्वागसे जानते हैं और शेष जीव शरीरके एकदेशसे जानते हैं ॥२४॥
शेष जीव शरीरके एक देशसे जानते हैं, इस प्रकारका यहाँ नियम नहीं करना चाहिए, क्योंकि परमाव धिज्ञानी और सविधिज्ञानी गणधरादिक अपने शरीरके सब अवयवोंसे अपने विषयभूत अर्थको ग्रहण करते हुए देखे जाते हैं। इसलिए शेष जीक शरीरके एकदेशसे और सर्वांगसे जानते हैं. ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। पं.स./स /१/१५८ तीर्थ कृच्छ्वाभ्रदेवानां सर्वागोस्थोऽवधिर्भवेद ।
नृतिरश्ा तु शाखाब्जस्वस्तिकाद्यङ्गचिहजम् ॥१५८० -तीर्थकर, नारकी व देवोंको अवधिज्ञान सर्वांगसे उत्त्पन्न होता है। तथा मनुष्यों व तिर्यचोंको शरीरवर्ती शंख कमल व स्वस्तिक आदि करण चिहॉस उत्पन्न होता है । (गो.जी./मू./३७१/७६८)
२. करण चिह्नोंके आकार प.ख.१३/५४/सू.५७-५८/२९६ खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंविदा सिरिवच्छ-कलस-सख सोस्थिय-दावत्तादीणि संठाणाणि णादव्याणि भवति ॥५८॥-क्षेत्रकी अपेक्षा शरीरप्रवेश अनेक संस्थान संस्थित होते हैं ॥२७॥ श्रीवत्स, कलश, शंख, साथिया, और नम्दावर्त आदि आकार जानने योग्य है ।५८॥ (आदि शब्द से अन्य संस्थानोका ग्रहण होता है) (रा.वा./१/२२/४/८३/२५)
पर
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भवधिज्ञान
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५ अवधिज्ञानके करण चिह्न
पं.सं./सं./१/१५८ अत्र शख़ाजस्वस्तिकश्रीवत्सध्वजकलशनन्द्या- वर्तहलादोन्यवधेरुत्पत्तिक्षेत्रसस्थानानि । -शंख, कमल, स्वस्तिक, श्रीवत्स, ध्वज, क्लश, नन्द्यावर्त, हल आदिक अवधिज्ञानकी उत्पत्तिके क्षेत्र संस्थान होते हैं । (गो जो/जी.प्र./३७१/७६८/4) ..चिह्नोंके आकार नियत नहीं हैं ध.१३/५.५,५७/२९६/१० जहा कायाणमिदिया च पडिणियद सठाणे तहा ओहिणाणस्स ण होदि, किंतु ओहिणाणावरणीयखओवसमगदजीवपदेसाण करणीभूदसरीरपदेसा अणेयसठाणसं ठिदा होति। -जिस प्रकार शरीरका और इन्द्रियोंका प्रतिनियत आकार होता है उस प्रकार अवधिज्ञान का नहीं होता है। किन्तु अवधि ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमको प्राप्त हुए जीवप्रदेशो के करणरूप शरीर प्रदेश अनेक संस्थानोंसे संस्थित होते है।
४. शरीरमें शुभ व अशुभ चिह्नोंका प्रमाण व अवस्थान ध.१३/ ८/२६७/१० ण च एकस्स जीवस्स एकम्हि चैव पदेसे ओहि
जाणकरण होदि त्ति णि ममो अस्थि, एग दो-तिण्णि-चत्तारि-पचछआदिखेत्ताणमेगजीवम्हि सरवादिसुहसंठाणाण कम्हि वि सभवादो। एदाणि संठाणाणि तिरिक्वमणुस्साणं णाहीए उवरिमभागे होति. णो हेट्ठा; मुहस ठाणाणमधोभागेण सह विरोहादो। तिरिक्व मणुस्सविहंगणाणीणं णाहीर हेहा सरडादि अमुहसं ठाणाणि होति त्ति गुरूबदेसो, ण मुत्तमरिय। =एक जीवके एक ही स्थानमें अवधिज्ञानका करण होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, किसी भी जीवके एक, दो. तीन, चार, पाँच और छह आदि क्षेत्र रूप शखादि शुभ संस्थान सम्भव है। ये संस्थान तिथंच और मनुष्योंके नाभिके उपरिस भागमें होते है, नीचेके भागमें नहीं होते, क्योंकि, शुभ संस्थानोंका अधोभागके साथ विरोध है। तथा तियंच और मनुष्य विभगज्ञानियों के नाभिसे नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते है। ऐसा गुरुका उपदेश है, इस विषयमें कोई सूत्र वचन नहीं है। (पं.सं./सं./१/१५८ व्याख्या ) (गो,जी./जी.प्र./३७१/७६८/६)
५. सम्यक्त्व व मिथ्यात्वके कारण करणचिन्होंमें परिवर्तन घ. १३/५,५,५८/२६८/२ विहंगणाणीण ओहिणाणे सम्मत्तादिफलेण
दिफलण समुप्पण्णे सरडादिअसुहसंठाणाणि फिट्टिदूण णाहोए उवरि संखादिसहसंठाणाणि होति त्ति घेत्तव्य । एवमोहिणाणपच्छायद विहंगणाणीर्ण पि सुहसंठाणाणि फिट्टिदूण असुइसंठाणाणि होति त्ति घेतव्वं । -विभंगज्ञानियों के सम्यकत्व आदिके फल स्वरूपसे अवधिज्ञानके उत्पन्न होनेपर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिटकर नाभिके ऊपर शंख अादि शुभ आकार हो जाते है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार अवधिज्ञानसे लौटकर प्राप्त हुए विभगज्ञानियों के भी शुभ स्थान मिटकर अशुभ संस्थान हो जाते हैं. ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। ६. सम्यक्त्व व मिथ्यात्व कृत चिह्नमेव संबंधी मतभेद ध. १३/५.१.२८/२६८/५ के वि आइरिया ओहिणाण-विभंगणाणे खेत्तसंठाणभेदो णाभोए हेटोवरि णियमो च णस्थि त्ति भणं ति, दोण्णं पि ओहिणाणत्तं पडिभेदाभावादो। ण च-सम्मत्समिच्छत्तसहचारण कदणामभेदादो भेदो अस्थि,अइप्यसं दो। एदमेत्य पहाणे कायव्वं । -कितने ही आचार्य अवधिज्ञानऔ-विभंगज्ञानका क्षेत्रसंस्थानभेद तथा नाभिके नीचे ऊपरका नियम नहीं है, ऐसा कहते हैं, क्योंकि अवधिज्ञानसामान्यकी अपेक्षा दोनों में कोई भेद नहीं है । सम्यकत्व और मिथ्यात्वकी संगतिसे किये गये नामभेदके होनेपर भी अवधिज्ञानकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा माननेपर अतिप्रसंग दोष आता है। इसी अर्थको यहाँ प्रधान करना चाहिए।
७. सर्वाग क्षयोपशमके सजावमें करण चिन्हींकी क्या
आवश्यकता घ.१३/५,५५५६/२६६/२ ओहिणाणं अणेयखेत्त चेव, सव्वजीवपदेसेसु अझमेण खओवसमं गदेसु सरीरेगदेसेणेव बझट्ठावगमाणुबवत्तीदो। ण,अण्णत्थ करणाभावेण करणसरूवेण परिणदसरी रेगदेसेण तदवगमरस विरहाभावादो। ण च सकरणो खओवसमो तेण विणा जाणदि, विप्पडिसेहादो । प्रश्न अवधिज्ञान अनेक्क्षेत्र ही होता है, क्योंकि सब जीव प्रवेशोंके युगपद क्षयोपशमको प्राप्त होनेपर शरीरके एकदेशसे ह बाह्य अर्थका ज्ञान नहीं बन सकता । उत्तर-नहीं क्योंकि अन्य देशों में करण स्वरूपता नहीं है,अतएव करणस्वरूपसे परिणत हुएशरीर के एकदेशसे बाह्य अर्थका ज्ञान मानने में कोई विरोध नहीं आता। प्रश्न-सकरण क्षयोपशम उसके बिना जानता है . उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि इस मान्यताका विरोध है।
८. सर्वांगकी बजाय एक देशमें ही क्षयोपशम मान लें तो ध.१३/५ ५,५६/२६६/५ जीवपदेसाणमेगदेसे चैव ओहिणणावरणखोबसमे संते एयक्खेत्तं जुजदि ति ण पच्चवठेयं, उदयगदगोषुच्छाए सबजीवपदेसविसयाए देसाइणीए सतीए जीवेगदेसे चेव खखोवसमस्स बुत्तिविरोहादो। ण चोहिणाणस्स पच्चवरवत्तं पि फिट्टदि अणेयक्वेते अपरायत्ते पञ्चक्रखलबवणुवलंभादो। प्रश्न-जीवप्रदेशोंके एकदेशमें ही अवधिज्ञानानावरणका क्षयोपशम होनेपर एक क्षेत्र अवधिज्ञान बन जाता है ? उत्तर-ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उदयको प्राप्त हुई गोपुच्छा सब जीवप्रदेशोंको विषय करती है, इसलिए उसका देशस्थायिनी होकर जीवके एकदेशमें ही क्षयोपशम मानने में विरोध आता है। प्रश्न-इससे अवधिज्ञानकी प्रत्यक्षता विनष्ट हो जाती है। उत्तर-यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वह अनेक क्षेत्र में उसके पराधीन न होनेपर उसमें प्रत्यक्षका लक्षण पाया जाता है नोट-जीव प्रदेशोके भ्रमण करनेपर ज्ञानके अभावका प्रसंग आ जायेगा-दे० इन्द्रिय/१ ९. करण चिह्नोंमें भी ज्ञानोत्पत्तिका कारण तो क्षयोप
शम ही है गीजी/जी प्र./२७१/७४८/ कल शादिशुभचिखलक्ष्तिात्मप्रदेस्थावधि। ज्ञानावरणवीर्यान्तरायमद्वयक्षयोपशमोत्पन्न मित्रर्थ । क्लश इत्यादिक आकाररूप जहाँ शरीरवि भले लक्षण होइ सह संबंधी जे आत्माके प्ररेश तिनिविषै तिष्टता जो अवधिज्ञानावर कर्म पर वीर्यान्तरायम तिनिकै क्षयोपशमतें उत्पन्न ही है। ६. अवधिज्ञानके भेदों सम्बन्धी विचार
१. भवप्रत्यय व गुणप्रत्ययमें अन्तर गो जी /जीप्र ३७१(७६८/४ तत्र भवप्रत्ययावधिज्ञानं मुराणा नारका
चरमभवतीर्थकराणां च संभवति । तच्च तेषां सङ्गिगोत्थ भवति ।... गुणप्रत्ययं अवधिज्ञानं नराणां तिरवा च संभवति। तच्च तेषां शकादिचिह्नभयं भवति ।...भवप्रत्यये अवधिज्ञाने दर्शन विशुद्भयादिगुण सदभावेऽपि तदनपेक्ष्यैव भवप्रत्ययत्व ज्ञातव्यं । गुणप्रत्ययेऽवधिज्ञाने तिर्यग्मनुष्यसद्भावेऽपि तदनपेक्षयैव गृणप्रत्ययत्वं ज्ञातव्यं । -भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवनिव, नारकी निकै, अर चरमशरीरी तीर्थकर देवनिकै पाइये है। सो यह उन के सर्वांगसे उत्पन्न हो है। बहुरि गुणप्रत्यथ अवधिज्ञान है सो मनुष्य और तियंचके संभव है। सो यह उनके दरखादि चिह्नोंसे उत्पन्न हो है। भवप्रत्यय अवधिज्ञान विर्षे भी सन्यग्दर्शनादि गुणका सद्भाव तथापि उन गुणों की अपेक्षा नाहीं करनेतें भवप्रत्यय क्ह्या। अर गुणप्रत्यय विष मनुष्य तियच (भव) का सद्भाव है, तथापि उन पर्यायनिकी अपेक्षा नाही करने तै गुण प्रत्यय कहा है।
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६. अवधिज्ञानके भेदोंसम्बन्धी विचार
अवधिज्ञान
२. क्या भवप्रत्ययमें ज्ञानावरणका क्षयोपशम नहीं है स सि १/२१/१२५/७ भव' प्रत्ययोऽस्य भवप्रत्यय । -यद्यब तत्र
क्षयोपशमनिमित्तत्वं न प्राप्नोति। नैष दोष', तदाश्रयात्तत्सिद्ध । भव प्रतीत्य क्षयोपशम सजायत इति कृत्वा भव प्रधानकारणमित्युपदिश्यते । यथा पतत्रिणो गमनमाकाशे भवनिमित्तम् । न शिक्षागुणविशेष', तथा देवनारकाणां व्रतनियमाद्यभावेऽपि जायत इति भवप्रत्यय ' इत्युच्यते। इतरथा हि भव' साधारण इति कृत्वा सर्वेषामविशेष' स्यात् । इष्यते च तत्रावधे प्रकर्षाप्रकर्षवृत्ति । -जिस अवधिज्ञानके होनेमें भव निमित्त है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है । प्रश्न-यदि ऐसा है तो अवधिज्ञानके होने में क्षयोपशमकी निमित्तता नहीं बनती! उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योकि, भव के आश्रयसे क्षयोपशमकी सिद्धि हो जाती है। भवका आलम्बन लेकर क्षयोपशम हो जाता है ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है ऐसा उपदेश दिया जाता है। जैसे पक्षियोंका आकाशमें गमन करना भवनिमित्तक होता है, शिक्षा गुणकी अपेक्षासे नहीं होता वैसे ही देव और नारकियोंके व्रत नियमादिकके अभावमें भी अवधिज्ञान होता है, इसलिए उसे भव निमित्तक कहते है। यदि ऐसा न माना जाय तो भव तो सबके साधारण रूप पाया जाता है, अत सबके एक-सा अवधिज्ञान प्राप्त होगा। परन्तु वहाँपर अवधिज्ञान न्यूनाधिक कहा ही जाता है। इससे जाना जाता है कि वहॉपर अवधिज्ञान होता तो क्षयोपशमसे ही है, पर वह क्षयोपशम भवके निमित्तसे प्राप्त होता है, अत उसे 'भवप्रत्यय' कहते है। (रा वा१/२१/३-४/७४/१२) ३. भव प्रत्यय है तो भवके प्रथम समय ही उत्पन्न
क्यों नहीं होता ध.१३/५,५,५२/२६०/६ जदि भवमेत्तमोहिणाणस्स कारणं होज्ज तो देवेसु णेरइएसु वा उप्पणपढमसमए ओहिणाण किण्ण उपज्जदे । ण एस दोसो, ओहिणाणुप्पत्तीए छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदभवग्गहणादो। = प्रश्न-यदि भवमात्र ही अवधिज्ञानका कारण है, तो देवो
और नारकियोमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही अवधिज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता1 उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त भवको ही यहाँ अवधिज्ञानको उत्पत्तिका कारण माना गया है। ४. देव नारको सम्यग्दृष्टियोंके ज्ञानको भवप्रत्यय कहे
कि गुणप्रत्यय घ १३/५,५.५३/२६०/६ देवणेरइयसम्माइट्ठोसु समुप्पण्णोहिणाणं ण भवपच्चइयं, सम्मत्तेण विणा भवादो चेव ओहिणाणस्साविब्भावाणुवल भादो। ण एस दोसो, सम्मतेण विणा वि मिच्छाइट्ठोसु पज्जत्तयदेसु ओहिणाणुप्पत्तिद सणादो। तम्हा तत्थतणमोहिणाण भवपच्च इयं चेव । प्रश्न-देव और नारको सम्यग्दृष्टियों में उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान भवप्रत्यय नहीं, क्योंकि, उनके सम्यक्त्वके बिना एकमात्र भवके निमित्तसे ही अवधिज्ञानकी उपलब्धि नहीं होती। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, सम्यक्त्व के बिना भी पर्याप्त मिथ्याष्टियोके अवधिज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए वहाँ उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय ही है। ५. सभी सम्यग्दृष्टि आदिकोको गुणप्रत्यय ज्ञान उत्पन्न ___ क्यों नहीं होता घ १३/५,५४५३/२४२/१ जदि सम्मत्त-अणुव्वदमहव्वदेहित्तो ओहिणाणमुप्पज्जदि तो सब्वेसु असजदसम्माइट्ठिसजदासजद-सजदेसु
आहिणाण किण उपलब्भदे। ण एस दोसो, असखेज्जलोगमेत्त सम्म त-सजमासजमसजमपरिणामेमु ओहिणाणावरणक्व आवसम
णिमित्ताण परिणामाणमइथोवत्तादो। णचते सव्वेसुस भवति,तप्पडिववखपरिणाम बहुत्तेण तदुबलद्धीए थोवत्तादो। प्रश्न-यदि सम्यक्त्व, अणुवत और महावतके निमित्तसे अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो सम असयतसम्यग्दृष्टि, सयतासयत और सयतोंके अवधिज्ञान क्यो नहीं पाया जाता ! उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्यो कि, सम्यक्त्व सयमास यम और सयमरूप परिणाम असख्यात लोक प्रमाण है। उनमे-मे अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमके निमित्तभूत परिणाम अतिशय स्तोक है । वे सबके सम्भव नही है, क्या कि, उनके प्रतिपक्षभूत परिणाम बहुत है, इसलिए उनकी उपलब्धि क्वचिद ही होती है।
६. भव व गुणप्रत्ययमें देशावधि आदि विकल्प प का/मू/४३की प्रक्षेपक गा ३/८६ ओहि तहेब घेप्पदु देस परम च ओहिसब च । तिणि वि गुणेण णियमा भवेण देस तहा णिय ॥ ३ ॥ अवधिज्ञान तीन प्रकारका जानना चाहिए-देशावधि, परमावधि व सर्वाधि। ये तीनो हो नियमसे गुणप्रत्यय है तथा भवप्रत्यय निश्चितरूप से देशावधि ही है । गो जी/मू/३७३/८०१ भवपच्चइगो ओही देसोही होदि परमसम्योही। गुणपञ्चइगो णियमा देसोहो वि य गुणे होदि ॥ ३७३ ॥ - भवप्रत्यय अवधिज्ञान तो देशावधि ही होता है। परमावधि व सविधि गुण. प्रत्यय ही होते है तथा देशावधि गुणप्रत्यय भी होता है।
७. परमावधिमें कथंचित देशावधिपना रा, वा/१/२०/१५/७४/१ सर्व शब्दस्य निरवशेषवाचित्त्वाद् सविधिमपेक्ष्य परमावधेर्देशावधित्वमेवेति वक्ष्याम । = 'सर्व' शब्द क्योकि निरवशेषवाची है इसलिए सर्वाधिकी अपेक्षा परमावधिको भी देशावधिपना कहा जाता है। (रा वा /१/२२/४/८३/१६) घ. देशावधि आदि भेदोंमें वर्द्धमान आदि अथवा प्रति
पाती आदि विकल्प रावा /१/२२/४/८१/२७ देशावधिस्त्रेधा-जघन्य-उत्कृष्ट अजघन्योत्कृष्ट
श्चेति । तथा परमावधिरपि त्रेधा । सवधिविकल्पत्वादेक एव । रा.वा/१/२२/४/८२/१ वर्द्धमानो हीयमान अवस्थित अनव स्थित'
अनुगामी अननुगामी अप्रतिपाती प्रतिपाती इत्येतेऽष्टौ भेदा देशावधर्भवन्ति । होयमानप्रतिपातिभेदवर्जा इतरे षट् भेदा भवन्ति परमाबधे । 'अबस्थितोऽनुगाम्यननुगाम्यप्रतिपाती' इत्येते चत्वारो भेदा' सर्वावधे । रा वा/११२२/४/८३/११ एष त्रिविधोऽपि परमावधि वर्द्धमानो भवति न हीयमान । अप्रतिपातीन प्रतिपाती। अवस्थितो भवति अनवस्थितश्च वृद्धि प्रति न हानिम् । ऐहलौकिकदेशान्तरगमनादनुगामी पारलौकिकदेशान्तरगमनाभावादननुगामी ।- सर्वाव धिरुच्यते.. स एष वर्धमाना न हीयमानो नानवस्थितो न प्रतिपाती, प्राक्सयतभवक्षयात् अवस्थितोऽप्रतिपाती, भवान्तरं प्रत्यननुगामी देशान्तर प्रत्यनुगामी।- देशावधि तीन प्रकार का है-जघन्य,मध्यम,उत्कृष्ट । इसी प्रकार परमावधि भी तीन प्रकारका है। सर्वावधि निर्विकल्प होनेसे एक ही प्रकारका है। देशावधि मे आठ भेद है-वर्धमान, हीयमान, अबस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, अप्रतिपाती और प्रतिपाती। होयमान और प्रतिपातीको छोड़कर शेष छह भेद परमावधि में है। अवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अप्रतिपाती ये चार भेद सर्वावधि मे है। जघन्य आदि तीनो प्रकारका परमावधि वर्धमान ही होता है हीयमान नही। अप्रतिपाती ही होता है प्रतिपाती नही। अवस्थित होता है अथवा वृद्धिके प्रति अनवस्थित भी होता है परन्तु हानिके प्रति नहीं। इस लोकमें देशान्तर गमनके कारण अनुगामी है, परन्तु परलोकरूप देशान्तर गमनका अभाव होने के कारण अननुगामी है। अब सर्वाय धि को कहते है । वह वर्धमान ही होता है हीयमान नही। अनव स्थित व प्रतिपाती भी नही होता। वर्तमानके स यत भक्के क्षय से पहिले तक अवस्थित और
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अवधिज्ञान
७. अवधिज्ञानका स्वामित्व
अप्रतिपाती है। भवान्तरके प्रति अननुगामी है और देशान्तरके प्रति अनुगामी है । (गो. जी/म.वटी/३७५/३०८) घ. १३/५,५५६/३१०/५ परमोहि पुण दव-खेत्त-कालभावाणमक्कमेण
खुड्ढी होदि बत्तन्वं घ १३४५,५,६/३२३/६. तस्य परमोहिणाणीणं पडिवादाभावेण उप्पादाभा
बादो।-परमावधि ज्ञानमें तो द्रव्य क्षेत्र काल और भव की युगपत् वृद्धि होती है, ऐसा यहाँ व्याख्यान करना चाहिए। परमाव धि ज्ञानियों का प्रतिपात नहीं होनेसे वहाँ (स्वर्गमें) उनका उत्पाद सम्भव नहीं।
१.देशावधि आदि मेवोंमें चारित्रादि सम्बन्धी विशेषताएँ ध१४,१३/४१।६ कधमेदस्स ओहिणाणस्स जेहुदा । देसोहिं पेक्विदूण
महाविसय तादो, मणपज्जवणाणं वसंजदेसु चेव समुप्पत्तीदो, सगुप्पण्णभवे चेव केवलणाणुप्पत्तिकारणत्तादो, अप्पडिवादित्तादो वा जेट्ठदा। -प्रश्न ---इस (परमाव धि) अवधिज्ञानके ज्येष्ठपना कैसे है। उत्तर-चूकि यह परमावधि ज्ञान देशाबधिको अपेक्षा महा विषय वाला है, मनःपर्य यज्ञानके समान संयत मनुष्यों में ही उत्पन्न होता है, अपने उत्पन्न होनेके भव में ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है
और अप्रतिपाती है । इसलिए उसके ज्येष्ठपना सम्भव है। ध१३/५/५.६६/३२३/८ तं मिच्छत्तं पि गच्छेज्ज असंजमं पि गच्छेज्ज
अविरोहादो-उस (देशावधि) के होनेपर जीव मिध्यारव को भी प्राप्त होता है, और असंयमको भी प्राप्त होता है, क्योंकि ऐसा होने में कोई विरोध नहीं है। गो.जी./मूव टो/३७५/८०३ पडिवादी देसोही अप्पडिवादी हवं ति सेसा
ओ। मिच्छत्तं अविरमणं ण य य पडिवजदि चरिमदुगे/३७५ । सम्यक्त्व चारित्राभ्यां प्रच्युत्य मिथ्यात्वासंयमयोः प्राप्तिः प्रतिपातः, तद्युतः प्रतिपाती, स तु देशावधिरेव भवति । ... परमावधिसर्वावधिविके जीवाः नियमेन मिथ्यात्वं अविरमण च न प्रतिपद्यन्ते ततः कारणात् तौ द्वावपि प्रतिपातिनौ । देशावधिज्ञान प्रतिपाति अप्रतिपाति च इति निश्चितं। -प्रतिपाती कहिए सम्यक्त्व व चारिप्रसौं भ्रष्ट होइ मिथ्यात्व व असंयमकौं प्राप्त होना. तीहि संयुक्त जो होइ सो प्रतिपाती कहिए। देशावधिवाला तो कदाचित् सम्यक्त्व चारित्रसौं भ्रष्ट होइ मिथ्यात्व असंयमको प्राप्त हो है । अर परमावधि सर्वावधि दोय ज्ञानविषै वर्तमान जीव सो निश्चयसौ मिथ्यात्व अर अविरतिकौं प्राप्त न हो है जाते देशावधि तौ प्रतिपाती भी है,
और अप्रतिपातो भो है. परमावधि सर्वावधि अप्रतिपातो ही हैं। ७. अवधिज्ञानका स्वामित्व
१. सामान्य रूपसे अवधि चारों गतियोंमें सम्भव है स. सि/१/२५/१३२/६ अवधिः पुनश्चातुर्गतिके विति ।-अबधिज्ञान चारों गतियोंके जोवोंको होता है । (रा वा १/२५/८७/९) २. भवप्रत्यय केवल देव नारकियों व तीथंकरोंके
होता है त. सू/१/२१ भवप्ररययोऽवधिदेवनारकाणां ।२९। -भव प्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है। (प.ख/५,६/सू. ५४/२६३) (स.सा/
१/२७/२६)। ध.१३/५.६.५३/२६१/२ सामण्ण णि हे से संते सम्माइटि-मिच्छाइट्ठीणमो,
हिणाणं पज्ज तभवपच्चइयं चेवे त्ति कुदो णबदे। अपज्जत्तेव गेरइएम विहंगणाणपडिसेहण्णहाणुववत्तीदो। -प्रश्न-देवों और नारकियों का अवधिज्ञान भवप्रत्यय होता है, ऐसा सामान्य निर्देश होनेपर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टियोंका अब धिज्ञान पर्याप्त भव के निमित्तसे ही होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ! उत्तर-क्योंकि अपर्याप्त देवों और नारकियोंके विभंग ज्ञानका जो प्रतिषेध किया है वह अन्यथा बन नहीं सकता।
गो.जी./मू/३७१/७१८ भवपञ्च इगो सुरणिरयाणं तित्थेवि सब्व अंगुत्थो। गो.जी./जो.प्र/३७१/७६६/४ तत्र भवप्रत्ययावधिज्ञानं मुराण नारकाणी
चरमभवतीर्थकराणां च संभवति । - भवप्रत्यय अवपिज्ञान देवनिक नारकी निकै अर चरमशरीरी तीर्थंकर देवनिकै पाइये है।
३. गुणप्रत्यय केवल मनुष्य व नियंचोंमें ही होता है प.व १३/५/सू.५५/२६३ जे तं गुणपञ्चइयं तं तिरिक्ख-मणुस्साणं ॥
-जो गुण प्रत्यय अवधिज्ञान है वह तिर्यचों और मनुष्यों के होता है। (गो.जो./मू./३७१/985) (त.सा.१/२७/२६) । त.मू.१/२२ क्षयोपशम निमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥२२॥ -क्षयोप
शमनिमित्तक अवधिज्ञान छ: प्रकार है, जो शेष अर्थात तियंचों और मनुष्योंके होता है। ४. भवप्रत्यय ज्ञान सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि दोनोंको
होता है घ १३/५.५.५३/२६०/१० सम्मत्तेण वि मिच्छाइट्ठीमु पज्जत्तपदेसु ओहिणाणुप्पत्तिदंसणादो । तम्हा तमोहिणाणं भव पञ्चश्यं चेव । -सम्यवरबसे भी पर्याप्त मिथ्याष्टियों के अवधिज्ञान की उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए वहाँ उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय ही है। ५. गुणप्रत्यय अवधिज्ञान केवल सम्यग्दष्टियोंको ही
होता है ष.ख.१/१.१/सू.१२०/३६४ आभिणि बोहियणाणं सुदणाणं ओहिणामसंजदसम्माइटिप्पडि जाव खीणक सायवीदरागछ दुमत्था ति ॥१२॥ - आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान असं यत सम्यग्दृधियोंसे लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मथ गुणम्थान तक होते हैं ।१२०॥ (गो.जो/जी.प्र./७२४/११६०/७) स.सि.१/२२/१२७/६ यथोक्तसम्यग्दर्शनादिनिमित्त संनिधाने सति
शान्तक्षीणकर्मणां तस्योपलब्धिर्भवति। = यथोक्त सम्यग्दर्शनादि निमित्तोंके मिलनेपर जिनके अवधिज्ञानावरण कर्म शान्त और क्षीण हो गया है ( अर्थात् क्षयोपशम प्राप्त हो गया है ) उनके रह उपलब्धि या सामर्थ्य होती है (रा.वा./२/२२/२/८१/१०) । घ.१३/५.५,५३/२६१/१० अणुव्रत-महावतानि सम्यक्त्वाधिष्ठानानि गुण:
कारणं यस्यावधिज्ञानस्य तद गुण पत्ययकम् । - सम्यक्त्वमे अधिष्ठित अणुवत और महाव्रत गुण जिस अवघिज्ञानके कारण है वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है। पं.का /ता.बृ.४/प्रक्षेपक गा.३/८६ योऽप्यधयो विशिष्टसम्यक्त्यादिगुणेन निश्चयेन भवन्ति । -देशावधि, परमावधि व सर्वावधि ये तीनों ही गुणप्रत्यय अवधिज्ञान निश्चयसे विशिष्ट सम्यवस्वादि गुणोंके द्वारा होते हैं । (गो.जो./जी प्र./३७४/८०१/१३) । ६. उत्कृष्ट देशावधि मनुष्योंमें तथा जघन्य मनुष्य व
तियंच दोनोंके सम्भव है-देव नारकोमें नहीं प.स्व.१३/५,५.५६/ सूत्र गाथा १७३२७ उक्कास माणुसेसु त माणुस तेरिच्छए
जहण्णोही। ध.१३/५,५.५६/१२७/५ उमस्सओहिणाणं तिरिवखेसु देवेस गेरइएसुबा
ण होदि किंतु मणुस्से चेव होदि । जहण्णमोहिणणं देवणेरइएस ण होदि किंतु मणुस्सतिरिक्खसम्माट्टीम चेव होदि । - उत्कृत अवधिज्ञान मनुष्यों के तथा जघन्य अवधिज्ञान मनुष्य और तियंच दोनों के होता है । उत्कृष्ट अवधिज्ञान तिय च देव और नारकियों के नहीं होता किन्तु ममुध्योंके ही होता है। जघन्य अवधिज्ञान देव और नारकियोंके नहीं होता, किन्तु सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिचौके ही होता है। (गो.जी./जी,प्र./३७४/८०८/८) (रा.वा./१/२२/४/८२.३४
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अवधिज्ञान
७. अवधिज्ञानका स्वामित्व
७. उत्कृष्ट देशावधि उत्कृष्ट संयतोंको ही होता है पर
जघन्य असंयत सम्यग्दृष्टि आदिको भी सम्भव है रा.बा./१/२२/४/८३/३ एषो देशावधिरुस्कृष्टो मनुष्याणां संयतानी
भवति । -यह उत्कृष्ट देशावधि संयत मनुष्योंको ही होता है । घ.१३/५,९.५६/३२७/६ उकस्समोहिणार्ण महारिसोणं चेन होदि (... जहष्णमोहिणाणं-मणुस्सतिरिक्वसम्माइट्ठीसु चेब होदि । - उत्कृष्ट अवधिज्ञान महर्षियोंके हो होता है। जघन्य अवधिज्ञान सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यचोंके ही होता है। गो.जी./जी.प्र.३७४/८०२/८ देशावधेनिस्य जघन्यं नरतिरपचोरेव
संयतासंयतयोः भवति.न देवनारकयोः। देशावधेः सर्वोत्कृष्टं तु नियमेन मनुष्यगतिसकलसं यते एव भवति नेतरगतित्रये तत्र महावता भवात् । -देशावधिका जघन्य भेद संयमी व असंयमी (सम्यग्दृष्टि) मनुष्य तियच विष हो हो है. देव नारकी विषै न हो है । बहुरि देशावधिका उत्कृष्ट भेद संयमी महावती मनुष्य विष ही हो है जाते
और तीन गतिवि महाबत संभव नाहीं।। गो.जो./जी.प्र.३७३/८०१/१३ देशावधिरपि गणे दर्शनविशुद्धयादिलक्षणे
सति भवति । -देशावधि भी दर्शन विशुद्धि आदि लक्षणबाले सम्यग्दर्शनादि गुण होते संतै हो है।
८. मिच्यादृष्टियों में भी अवधिज्ञानको सम्भावना ध.१३/१०५.५३/२६०/८ मिच्छाइद्विसु ओहिणाणं णत्थि त्ति वोत्तण जुत्त, मिच्छक्तसहचरिदओहिणाणस्सेत्र विहंगणाणववएसादो। -मिथ्याष्टियोंके अवधिज्ञान नहीं होता. ऐसा कहना युक्त नहीं क्योंकि, मिथ्यात्व सहचरितं अवधिज्ञानकी ही विभंग ज्ञान संज्ञा है। गो.जी./जो.प्र.३०५/६५७५ मिथ्यादर्शनकलङ्कितस्य जीवस्य अवधि
ज्ञानावरणीयवोर्यान्तरायक्षयोपशमजनितं...विपरीतग्राहकं तियंगमनुष्यगत्योः तीनकायक्लेशद्रव्यसंयमरूपगुणप्रत्ययं, चशब्दाद्दिवनारकगत्योर्भवप्रत्ययं च...अवधिज्ञान विभंग इति ।-मिध्यादृष्टि जोकनिकै अबधिज्ञानाबरण वीर्यान्तरायके क्षयोपशमतै उत्पन्न भया ऐसा वि कहिए विशिष्ट जो अवधिज्ञान ताका भंग कहिए विपरीत भाव सो विभंग कहिए। सो तिथंच मनुष्य गतिविर्ष तो तीव कायक्लेशरूप द्रव्य संयमादिककरि उपजै है सो गुण प्रत्यय हो है। और 'च' शब्द से देव नारक गतियों में भव प्रश्यय हो है। ९. परमावधि व सर्वावषि घरमशरीरी संयनों में ही
होता है रा.बा.१/२२/४/८३/१९ स एष त्रिविधोऽपि परमावधिः उत्कृष्टचारित्रयुक्त स्यैव भवति नान्यस्य ।...- यह तीनों प्रकारका (जघन्य, मध्यव व
उत्कृष्ट) परमावधि ज्ञान उत्कृष्ट चारित्र युक्तके ही होता है अन्य के नहीं। ध १३/५,५,५६/३२३/४ परमोहिणाणं संजदेसु चेव उपज्जदि उप्पण्णे हि परमोहिणाणे सो जीवो मिच्छतण कयावि गच्छदि, असंजम बि णो गच्छदि त्ति भणिदं होदि ।...सबमोहिणाणं । एदं पिणियाणं चैत्र होदि। ...परमावधि ज्ञानको उत्पत्ति संयतोंके हो होती है। परमावधिज्ञानके उत्पन्न होनेपर वह जीव न कभी मिथ्यात्वको प्राप्त होता है और न कभी असंयमको भी प्राप्त होता है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है।...यह सविधिज्ञान भी निर्ग्रन्थों के ही होता है। (घ./8/४.१.३/४१/७) । पं.का./ता..४३ को प्रक्षेपक गा.३ को टोका ८६/२४ परमावधि-सर्वा
वधिद्वयं...चरमदेहतपोधनानो भवति । तथा चोक्तं । "परमोहि सम्बोहि चरमसरीरस्स बिरदस्स" - परमावधि और सर्वावधि ये दोनों ज्ञान चरमशरोरी तपोधनोंके ही होते हैं। जैसे कि कहा भी है-"परमावधि व सर्वावधि चरम शरीरी विरत अर्थात् संयतके होते है"।
गो.जी./जी.प्र./३७३/८०१ देवनारकयोगृहस्थतीर्थ करस्य च परमावधिसर्वावध्योरसंभवात । =देव, नारकी अर गृहस्थ तीर्थ कर इनके परमावधि व सविधि होइ नाही। १०. अपर्याप्तावस्थामें अवषिज्ञान सम्भव है पर विभंग
नहीं प.ख-१/१.१/सू.११८/३६३ पज्जत्ताणं अस्थि, अपज्जत्ताणं ण स्थि। -विभंग
ज्ञान पर्याप्तकोंके ही होता है. अपर्याप्तकोंके नहीं होता।११८॥ स.सि./९/२२/१२७/५ न ह्यसंज्ञिनामपप्तिकानां च तत्सामर्थ्यमस्ति ।
- असंज्ञी और अपर्याप्तकके यह सामर्थ्य नहीं है (क्षयोपशम निमित्तक अबधिज्ञान असंज्ञो व अपर्याप्तकों में उत्पन्न नहीं होता है।) ध.१३/११.५३/२६१/७ तिरिक्वमणुस्सेसु समत्तगुणेणुप्पण्णस्स तस्थाबट्ठाणुवलंभादो। -तियंच और मनुष्यों में सम्यक्त्व गुणके निमित्तसे उत्पन्न हुआ अबधिज्ञान देवों और नारकियों के अपर्याप्त अवस्थामें भी पाया जाता है । (विशेष दे. सत् प्ररूपणा) । ११. संज्ञी संमार्छनोंमें अवधिज्ञानको सम्भावना
असम्भावना ध.५/१,६.२३४/११६/११एको अट्ठावीससंतकम्मिो समूच्छिमपज्जतएस
उबवण्णो । छहि पज्जत्तोहि पज्जत्तयदो; विस्संतो, बिसुदो, वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो तदो अंतोमुहतेण ओहिणाणो जादो। -मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतिको सत्तावाला कोई एक जीव संज्ञो सम्मूर्छिम पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो. विश्राम ले. विशुद्ध हो, वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पश्चात् अन्तर्मुहूर्तसे
अवधिज्ञानी हो गया। ध.५/१..२३७/१९८/११ सण्णिसम्सुच्छिमपज्जत्तएम संजमासं जमस्सेव
ओहिणाणुवसमसम्मत्ताणं संभवाभावादो ।...ओहिणाणाभावो कुदो णव्वदे। सम्मुतिय मेसु ओहिणाणमुप्पाइय अंतरपरूवय आइरियाणमणु वलं भादो ।...गम्भोवयकतिएमु गमिदअतालीस (-पुयकोडि-) वस्से सु ओहिणाणमुप्पादिय किण्ण अंतराविदो। ण, तस्य वि ओहिणाणसंभव' परूवयं तमरखाणाइरिमाणमभावादो। -प्रश्न-संज्ञी सम्मृच्छिम पर्याप्तकों में संयमासयमके समान अवधिज्ञान और उपशम सम्यक्त्वकी संभव ताका अभाव है। प्रश्न-संज्ञो सम्मूच्छिक जीवों में अवधिज्ञानका अभाव कैसे जाना जाता है ! उत्तरक्योंकि, अब धिज्ञानको उत्पन्न कराके अन्तरके प्ररूपण करनेवाले आचार्योका अभाव है। अर्थात किसी भी आचार्य ने इस प्रकार अन्तरकी प्ररूपणा नहीं की। प्रश्न-गोत्पन्न जीवों में व्यतीतकी गयी अड़तालीस पूर्व कोटी वर्षों में अवधिज्ञान उत्पन्न करके अन्तरको प्राप्त क्यों नहीं कराया ! उत्तर-नहीं, क्योंकि, उन में भी अवधिज्ञानकी सम्भवताको प्ररूपण करनेवाले व्यारण्यामाचार्योका अभाव है। १२. अपर्याप्तावस्थामें अवषिज्ञानके सद्भाव और
विभंगके अभाव सम्बन्धी शंका ध.१.१,११८/३६२/६ अथ स्यायदि देवनारकाणी विभाहानं भवनिबन्धनं भवेदपर्याप्तकालेऽपि तेन भवितव्यं तदधेतोभयस्य सत्त्वादिति न.'सामान्यबोधनाश्च विशेषेष्यवतियन्ते' इति न्यायातमापर्याप्तिविशिष्ट देव नारकत्वं विभङ्गानिबन्धनमपि तु पर्याप्तिबिशिष्टमिति । ततो नापर्याप्तकाले तदस्तीति सिखमा-प्रश्न-यदि देव और नारकियों के विभेगज्ञान भव-प्रत्यय होता है तो अपर्याप्तकाल में भी वह हो सकता है, क्योंकि, अपर्याप्तकाल में भी विभंगज्ञानके कारणरूप भवकी सत्ता पायी जाती है। उत्तर-नहीं. क्योंकि, 'सामान्य विषयका बोध करानेवाले बाक्य विशेषों में रहा करते है इस ग्यायके अनुसार अपर्याप्त अवस्थासे युक्त वेब और नारक पर्याय विभंगहानका कारण नहीं है। किन्तु पर्याप्त अवस्थासे युक्त ही देव और मारक
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अवधिज्ञान
८. अवधिज्ञानकी विषय सीमा
पर्याय विभंगज्ञानका कारण है. इसलिए अपर्याप्तकाल में विभंग ज्ञान
नहीं होता है, यह बात सिद्ध हो जाती है। ध.१३/k.kk३/२६१/३ विहंगणाणस्सेब अपज्जत्तकाले ओहिणाणस्स पडिसेहो किष्ण कीरये। ण उप्पत्ति पडि तस्स वि तत्थ विहंगणाणस्सेव पडि सेहदं सगादो ।...| च तस्य ओहिणाणस्स'चंताभावो, तिरिक्वमणुस्सेसु सम्मत्तगुणेणुप्पण्णस्स तस्थावट्ठाणुवलंभा दो। ण विहंगणाणस्स एस कमो, तकारणाणु कंपादोणं तत्थाभावेण तदवट्ठाणाभावादो। -प्रश्न-विभंगज्ञानके समान अपर्याप्तकालमें अवधिज्ञानकानिषेध क्यों नहीं करते। उत्तर-नहीं क्योंकि, उत्पत्तिकी अपेक्षा उसका भी वहाँ विभंगज्ञानके समान ही निषेध देखा जाता ।...पर इसका यह अर्थ नहीं कि देवों और नारकियोंके अपर्याप्त अवस्थामें अवधिज्ञानका अत्यन्त अभाव है, क्योंकि तिर्यचों और मनुष्यों में सम्यक्त्व गुण के निमित्तसे उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान देवों और नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में भी पाया जाता है प्रश्न-विभंगज्ञानमें भो यह क्रम लागू हो जायेगा। उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अवधिज्ञानके कारणभूत अनुकम्पा आदिका अभाव होनेसे अपर्याप्तावस्थामें वहाँ उसका अबस्थान नहीं रहता। ८. अवधिज्ञानकी विषय सीमा
१. द्रव्यको अपेक्षा रूपोको ही जानता है त.सू./१/२७ रूपिध्ववधेः ॥२७॥ -अवधिज्ञान की प्रवृत्ति रूपी पदार्थों में
होती है। स. सि./१/२०/१३४/१० रूपिष्वेवावधेविषय निबन्धनो नारूपिष्विति नियमः क्रियते ।- 'रूपी' पदार्थों में ही अवधिज्ञानका विषय सम्बन्ध है अरूपी पदार्थों में नहीं, यह नियम किया गया है। (ध.१३१५,५,
२१/२११/२) ध.६/४,१,३/१४/६ एसो त्रयदसदो मज्झदीवओ त्ति हेट्ठोवरिमोहीणाणेसु सव्वस्थ जोजेयधो ? एदेण दव्व परूवणा कदा। - यह रूपगत शब्द चं कि मध्य दीपक है, अतएव इसे अधस्तन . और उपरिम अवधिज्ञानों में ( अर्थात देशावधि, परमावधि व सविधि तीनोंमें ) जोड़ लेना चाहिए। इस व्यारम्यान द्वारा द्रव्य प्ररूपणा की गयी। नोट :---यहाँ रूपीका अर्थ पुद्गल ही न समझना बलिक कम शरोरसे बद्ध जोव द्रव्य व उसके संयोगी भाव भी समझना (दे, आगे। अवधिज्ञान/८/६)
२. द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा अनन्तको नहीं जानता भ./४,१.२/२७/८ ण च ओहिणाणमुक्कास पि अणं तसंखावगमक्वं
आगमे तहावदेसाभावादो। दबढियाण तपज्जाए पञ्चक्वेण अपरिच्छि दंतो ओही कधं पच्चक्वेण दव्वं परिछिदेज्ज । ण, तस्स, पज्जायावयवगयापंतसंखं मोत्तूग असंखेज्जपज्जायावयव विसिट्ठदव्वपरिच्छेदयत्तादो। - उत्कृष्ट भी अवधिज्ञान अनन्त संख्याके जाननेमें समर्थ नहीं है. क्यों कि, आगममें वैसे उपदेशका अभाव है। प्रश्न-द्रव्यमें स्थित अनन्त पर्यायाको प्रत्यक्षसे न जानता हुआ अवधिज्ञान प्रत्यक्षद्रव्यको कैसे जानेगा। उत्तर-नहीं. क्योंकि. अबधिज्ञान पर्यायोंके अवयवों में रहनेवाली अनन्त संरण्याको छोड़कर असंख्यात पर्यायावयवोंसे विशिष्ट द्रव्यका ग्राहक है।
३. क्षेत्रप्ररूपणाका स्पष्टीकरण ध. १/४,१,२/२३/१ जहणोहिणाणी एगोलिए चेच जागदि तेण ॥ सुत्तविरोहो त्ति के विभगति । णेदं पि घडदे. चविय दिपणाणादो वि तस्स जहण्णत्तप्पसंगादो । कुदो। चक्विदियणाणेण संखेजसूचिअंगुल विस्थारुस्सेहायामखेतम्भतरद्विदवत्युपरिच्छेददं सणादो, एदस्स जहणोहिखेत्तायामस्स असंखे जजोयणत्तवलं भादो च 1..ण च सो कुलसेल-मेरुमहीयर-भत्रणबिमाण दुपुढवी-देव-विज्जाहर-सरड-सरिस बावोणि विपेच्छइ, एदे सिमेगागासे अबढाणाभावादो। ण च तेसिमवयव पि जाणादि, अविण्णादे अवयविम्हि एदस्स एसो अवयवो
त्ति णादुमसत्तीदो। जदि अकमेण सव्वं घणलोग जाणदि तो सिद्धो जो परतो, णिप्पडिवक्रवत्तादो । सहमणिगोदोगाहणाए धणपदरागारेण ठइदाए आगासविस्थाराणेगोलि चेव जाणदि ति के वि भणं ति । णेदं पिघडदे, जद्द मुहमणिगोदजहण्ण गाहणा तहे हे जहण्णोहि खेत्तमिदि भणं तेण गाहासुत्तेण सह विरोहादो। ण चाणेगोलीपरिच्छेदो छदुमत्थाणं विरुद्धो, चविखदियणाणेगोलिठियपोग्गल करवंदपरिच्छेदुबलं भादो-दृष्टि १. जघन्य अवधिज्ञानो एक श्रेणी को ही जानता है, अतएव सुत्र विरोध नहीं होगा, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं परन्तु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर चक्षु इन्द्रियजन्य ज्ञानकी अपेक्षा भी उसके जघन्यताका प्रसंग आवेगा। कारण कि चक्ष इन्द्रियजन्य ज्ञानसे संख्यात सुच्यं गुल विस्तार, उत्सेध और आयामरूप क्षेत्रके भीतर स्थित बस्तुका ग्रहण देखा जाता है। तथा बसा माननेपर इस जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्रका आयाम असंख्यात योजन प्रमाण प्राप्त होगा।
इसके अतिरिक्त वह कुलाचल, मेरुपर्वत, भवनविमान, पाठ पृथिवियों, देव, विद्याधर, गिरगिट और सरीसृपादिकों को भी नहीं जान सकेगा, क्योंकि इनका एक आकाश (श्रेणी) में अवस्थान नहीं है। और वह उनके अवयवको भी नहीं जानेगा, क्योंकि, अवयवीके अज्ञात होनेपर 'यह इसका अवयव है' इस प्रकार जाननेको शक्ति नहीं हो सकती। यदि वह युगपद सब घनलोकको जानता है, तो हमारा पक्ष सिद्ध है. क्योंकि वह प्रतिपक्ष से राहत है। दृष्टि २. सूक्ष्म निगोद जीवको अवगाहनाको घनप्रतराकारसे स्थापित करनेपर एक आकाश विस्ताररूप अनेक श्रेणीको ही जानता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परन्तु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा होनेपर जितनी सूक्ष्म निगोदकी जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिका क्षेत्र है, ऐसा कहनेवाले गाथासूत्रके साथ विरोध होगा। और छद्मस्थों के अनेक श्रेणियों का ग्रहण विरुद्ध नहीं है, क्योंकि चक्षु इन्द्रियजन्यज्ञानसे अनेक श्रेणियों में स्थित पुदगलस्कन्धोंका ग्रहण पाया जाता है। ध.१३/५.६.५६/३०२-३०२/६ ण च एगोली जहण्योगाहणा होदि, समुदाए वकपरिसमत्तिमस्सिदूण तत्थतणसव्वागासपदेसाणं गहणादो।... एवं जहष्णोगाहणवखेत्तं एगागासपदेसोलीए रचेण तदंते हिद जहष्णदव्वं जाणदि त्ति किण्ण घेप्पदे। ण, जहण्णोगाहणादो असं खेञ्जगुणजहण्णोहिखेत्तप्पसंगादो। जं जहण्णोहिणाणेण अवरुद्धखेतं त' जहण्णोहिखेत्तं णाम ।... जत्तिया जहण्णोगाहणा तत्तियं चेब जहण्णो हिखेत्तमिदि मुत्तेण सह विरोहादो।...ण च ओहिणाणी एगागासगुचीए जाणदि त्ति बोत्तुं जुत्तं, जहण्णमदिणाणादो वि तस्स जहण्णत्तप्पसंगादो जहण्णव्य अवगमोबायाभावादो च। तम्हा अहण्णोहिणाणेण अबरुद्धखेत्तं सव्वमुचिणि दूण घणपदरागारेण दृइदे मुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणप्पमाण होदि त्ति घेतब्बं । जहण्णोहिणिबंधणस्स खेत्तस्स को विवरवं भो को उस्सेहो को या आयामो त्ति भणिदे णरिय एस्थ उबवेसो, किंतु ओहिणिमयखेत्तस्स पदरघणागारेण टुइदस्स पमाणमुस्सेहधणं गुलस्स असंखेज्जदिभागो ति उबएसो ।-एक आकाश पंक्ति जघन्य अवगाहना होती है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, समुदाय रूपमें वाक्यकी परिसमाप्ति इश है । इसलिए सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव की अवगाहनामें स्थित सम आकाश प्रदेशों का ग्रहण किया है।...प्रश्न--- इस जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रको एक आकाशप्रदेशपंक्तिरूपसे स्थापित करके उसके भीतर स्थित जघन्य द्रव्यको जानता है, ऐसा यहाँ क्यों नहीं ग्रहण करते ? उत्तर-नहीं. क्योंकि ऐसा ग्रहण करनेपर जघन्य अवगाहनासे असंख्यातगुणे जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्रका प्रसंग प्राप्त होता है। जो जघन्य अवधिज्ञानसे अबरुद्ध क्षेत्र है वह जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र कहलाता है। किन्तु यहाँ पर वह जघन्य अवगाहनासे असंख्यात
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अवधिज्ञान
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८. अवधिज्ञानको विषय सीमा
गुणा दिखाई देता है।..."जितनी जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र है"ऐसा प्रतिपादन करने वाले सूत्र के साथ उक्त कथनका विरोध होता है। अबधिज्ञानी एक आकाशप्रदेशसूचीरूपसे जानता है, यह कहना भो युक्त नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर बह जघन्य मतिज्ञानसे भी जघन्य प्राप्त होता है और जघन्य द्रव्यके जाननेका अन्य उपाय भी नहीं रहता। इसलिए जघन्य अवधिज्ञानके द्वारा अवरुद्ध हुए सब क्षेत्रको उठाकर धनप्रतरके आकाररूपसे स्थापित करनेपर सूक्ष्म निगोद लब्धपर्याप्तक जीवकी जघन्य अवगाहना प्रमाण होता है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न-जघन्य अवधिज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाले क्षेत्रका क्या विष्कम्भ है, क्या उत्सेध है, और क्या आयाम है ? उत्तर - इस सम्बन्ध में कोई उपदेश उपलब्ध नहीं होता। किन्तु घनप्रतराकाररूपसे स्थापित अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्रका प्रमाण उत्सेध धनांगुलके असंख्यात. भाग है, यह उपदेश अवश्य ही उपलब्ध होता है। ध.६/४,१,२/२२/८ सहमणिगोदजहण्णोगाहणमेत्तमेदं सम्वं हि जहणोहिक्वेत्तमो हिणाणिजीवस्स तेण परिछिज्जमाणदब्बस्स य अंतरमिदि के वि आइरिया भगं ति । णे घडदे, मुहमणिगोद जहणोगाहणादो जहण्णोहिखेतस्स असंखेज्जगुणत्तप्पसं गादो। कधमसंखेज्जगुणतं । जहण्णोहिणाणविसयवित्थारूस्सेहे हि आयामे गुणिज्जमाणे तस्तो असंखेज्जगुणत्तसिद्धीदो। ण चासंखेज्जगुणतं संभवदि, जद्द हि मुहमणिगोदस्स जहणोगाहणा तद्द हि चेव जहण्णे हिखेत्तमिदि भणं तेण गाहामुत्तेण सह विरोहादो। - सूक्ष्म निगाद जोवकी जघन्य अवगाहना मात्र यह सब हो जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र, अबधिज्ञानी जोध और उसके द्वारा ग्रहण किये जानेवाले द्रव्य का अन्तर है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करनेसे सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहनासे जघन्य अबधिज्ञानके क्षेत्रके असंख्यातगुणे होनेका प्रसंग आवेगा । प्रश्नअसंख्यातगुणा कैसे होगा ? उत्तर - क्योंकि जघन्य अवधिज्ञानके विषयभूत क्षेत्र के विस्तार और उत्सेधसे आयामको गुणा करनेपर उससे असंख्यात गुणत्व सिद्ध होता है। और असंख्यात गुणव सम्भव है नहीं, क्योंकि, जितनी सूक्ष्म निगोदकी अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिका क्षेत्र है।' ऐसा कहनेवाले गाथा सूत्रके साथ विरोध
आता है। ध.६/४.१,४/४८/७ परमोहिउहस्सखेत्तं तप्पाओगअसंखेजरूवेहि गुणिदे सम्वोहए उकस्सखेत्तं होदि । सम्बोहिउक्कस्सखेत्तुप्पायण? परमोहिउक्स्स खेतं तिस्से चेव चरिम अणबहिदगुणगारेण आवलियार असंखेज्जदिभागपप्पण्णेण गुणिज्जदि त्ति के नि भणति। तण्णघडदे. परियम्मे वुत्तओहिणि बद्धखेत्ताणुप्पत्तीदो।= परमावधि के उत्कृष्टक्षेत्रको उसके योग्य असंख्यातलोकोंसे गुणित करनेपर सर्वाधिका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। सर्वावधिके उत्कृष्टक्षेत्रको उत्पन्न कराने के लिए परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको आवलोके असंख्यातवें भागसे उत्पन्न उसके ही अन्तिम अनवस्थित गुण कारसे गुणा किया जाता है, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं, किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा माननेपर परिकम में कहे हुए अवधिसे निबद्ध क्षेत्र नहीं बनते। ४. देवोंके ज्ञानको क्षेत्रप्ररूपणा परिमाण-नियामक नहीं
स्थान नियामक है गो. जो. जी.प्र. ४३२/८५३/७ इदं क्षेत्रपरिमाणनियामक न किंतु तत्रतनस्थाननियामकं भवति । कुतः । अच्युतान्ताना विहारमार्गेण अन्यत्रगतानां तत्रैव क्षेत्रं तदबध्युत्पत्यम्युगमाव ।- ऐसा इहाँ क्षेत्रका परिमाण कीया है, सो स्थानका नियमरूप जानना । क्षेत्रका परिमाण लीये नियमरूप न जानना । जाते अच्युत स्वग पर्यन्तके वासी विहारकरि अन्य क्षेत्रको जाँइ अर तहाँ अवधि होइ तो पूर्वोक्त स्थानक पर्यन्त हो होइ । ऐसा नाहीं जो प्रथम स्वर्गवाला पहिले मारक
जाइ और तहाँ सेती डेढ राजू नीचें और जाने । सौधर्मतिकके प्रथम नरक पर्यन्त अवधिक्षेत्र है सो तहाँ भी तिष्ठता तहाँ पर्यन्त क्षेत्रको ही जानै वैसे सर्वत्र जानना।
५. कालकी अपेक्षा अवधि त्रिकालग्राही ध.६/१,६-१,१४/२७/३ ओहिणाणम्मि पक्कक्रनेण वट्टमाणासेसपज्जायविसिट्ठवत्युपरिच्छित्तीए उपलं भा. तीदाणाद-असं खेज्जपज्जायविसिट्ठवत्यु दंसणादो च । = अवधिज्ञानमें प्रत्यक्षरूपसे वर्तमान समस्त पर्यायविशिष्ट वस्तुका ज्ञान पाया जाता है, तथा भूत और भावी असंख्यातपर्याय-विशिष्ट वस्तु का ज्ञान देखा जाता है। (ध. १/४.१,४४/१२७/८), (ध. १३/५.५,५६/३०५/३; ३०८/8; ३१०/११) (ध. १५/८/२) ६. भावको अपेक्षा पुदगल व संयोगी जीवको पर्यायों
को जानता है स सि. १/१०/१३४/१० रूपिष्वपि भवन सर्व पर्यायेषु, स्वयोग्ये ज्वे वेत्यबधारणार्थमसर्व पर्यायेष्वित्यभिसम्बन्ध्यते । = रूपी पदार्थों में होता हुआ भी उनकी सब पर्यायों में नहीं होता किन्तु स्वयोग्य सीमित पर्यायों में ही होता है इस प्रकारका निश्चय करनेके लिए 'असर्व. पर्यायेषु' पदका सम्बन्ध होता है। रा, वा. १/२७/४/८/१६ 'असर्व पर्यायेषु' इत्येताहणमनुवर्तते ।...ततो रूपिषु पुदगलेषु प्रागुक्तद्रव्यादिपरमाणुषु, जीवपर्यायेषु औदायिकोपशमिकक्षायोपशमिकेयूत्पद्यतेऽवधिज्ञानम् रूपिद्रव्यसम्बन्धात न क्षायिक पारिणामिकेषु नापि धर्मास्तिकायादिषु तत्सम्मन्धाभावात । -- इस सूत्र में असर्व पर्याय की अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए । अर्थात पहले कहे गये रूपी द्रव्योंकी कुछ पर्यायोंको (देखो आगे विषय प्ररूपक चार्ट) और जीवके औदयिक, औपशामक और क्षायोपशमिक भावों को अवधिज्ञान विषय करता है, क्योंकि इनमें रूपी कर्मका सन्बन्ध है । उसका सम्बन्ध न होनेके कारण वह क्षायिक व पारिणामिक भाव तथा धर्म अधर्म आदि अरूपी द्रव्यों (व उनकी पर्यायों) को नहीं जानता। घ.६/१.१.२/२७/५ जमपणो जाणिदद व्वं तस्स अणं ते वट्टमाणपज्जाएम
तत्य आबलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपरजाया जहण्णोहिणणेण विसईकया जहण्णभावो । के वि आइरिया जहण्ण दस्बम्सुवरिट्टिदरूत्ररस-गंध-फासादिसम्बपज्जाए जाणदि त्ति भणति तृण्ण घडदे. तेसिमाण तयादो।"तीदाणागयपज्जायाण किण्ण भावववएसो। ण तेसि कालत्तब्भुबगमादो। एवं जहाभाव परूवणा कदा। अपना जो जाना हुआ द्रव्य है उसकी अनन्त वर्तमान पर्यायों में-से जघन्य अवधिज्ञानके द्वारा विषयी कृत आवलीके असंख्यात भागमात्र पर्याय जघन्य भाव है। कितने ही आचार्य जघन्य द्रव्य के ऊपर स्थित रूप रस, गन्ध एवं स्पर्श आदि रूप सब पर्यायों को उक्त अवधिज्ञान जानता है, ऐसा कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, वे अनन्त हैं। और उत्कृष्ट भो अवधिज्ञान अनन्त संख्याके जानने में समर्थ नहीं है। प्रश्न-अतीत व अनागत पर्यायौं की 'भाव' संज्ञा क्यों नहीं है ! उत्तर-नहीं है, क्योंकि, उन्हें काल स्वीकार किया गया है । इस प्रकार जघन्य भावकी प्ररूपणा की गयी। घ. १४८/३ भावदो असंखेज्जलोगमे त्तदव्व पज्जाए तीदाणागदवट्टमाणकालविसए जाणदि। तेण ओहिणाणं सव्वदब्वपज्जय बिसयं ण होदि । भाव की अपेक्षा बह अतीत. अनागत एवं वर्तमान कालको विषय करनेवाली असंख्यात लोक मात्र द्रव्यपर्यायौंको जानता है। इसलिए अवधिज्ञान द्रव्यों की समस्त पर्यायोको विषय करनेवाला नहीं है।
७.अवधिज्ञानके विषयभूत क्षेत्रादिकोंमें वृद्धि-हानिकाक्रम प.व. १३/५.५.५६/गाथा सूत्र ८/३०६ कालो चण्ण बुड्ढी । कालो भजिदवो खेसवुड ढीए। वुड्ढीए दब-पज्जए भजिदम्बो खेसकाला। (म.म./पु.१/गा. सू.७/२२)
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अवधिज्ञान
९ अवधिज्ञान विषयक प्ररूपणाएँ
सर्वत्र असुरकुमारके कालका असंख्या भाग
(विशेष देखो सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य द्रव्यभाव
ध १३/५,५,५६/३१०/४ एसो गाहत्यो देसोहीए जोजेयव्वा, ण परमोहीए। ३. भवनत्रिक देवोंमें देशावधिका विषय परमोहीर पुण द-ब-खेत्त-काल-भावाणमकमेण वुड्ढी होदि त्ति
(ध. १३/५,५१५६/सू. १०-११/३१४) (म ब. १/गा.६-१०/२२) ध.१/४.१, वत्तव्वा ।-काल चारों ही (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) वृद्धियोंके।
२/८/२५) (ति.प ३/१७७-१८१) (रा.वा, १/२१/७/८०/५) (ज.प.११/ लिए होता है । क्षेत्रको वृद्धि होने पर कालको वृद्धि हाती भी है और
१४०-१४१) (गो.जी /मू.४२६-४२६/८५०) । नहीं भी होती। तथा द्रव्य और पर्यायकी वृद्धि होनेपर क्षेत्र और कालको वृद्धि होती भी है और नही भी होती ॥८॥ (रा वा १/२२/४/
__ उत्कृष्ट क्षेत्र नाम |ज क्षेत्र
काल ८३/२१) (गो जी.जी.प्र. ४१२/८३६/११) । नोट- इस गाथाके अर्थ की
__ ऊपर | तिर्यक् नीचे देशावधिज्ञानमें योजना करनी चाहिए, परमावधिमें नहीं।. परमा- असुरकुमार २५ यो ऋजुधिमान असं. कोडा- स्वकीय असं वर्ष वधिज्ञानमें तो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी युगपत् वृद्धि
का शिखर कोडी योजन अवस्थान होती है।
नागकुमारा- मेरुशिखर | असं.सहस्र | स्वकीय दि
योजन | अवस्थान ९. अवधिज्ञान विषयक प्ररूपणाएँ
८ प्रकार
स्वभवन- अस.को को. अस सहस्र | १. द्रव्य व भाव सम्बन्धी सामान्य नियम
व्यन्तर । शिखर । योजन | योजन १ पल्य आयु
१ लाख योजन (ति.प ६/६६) ध. १३/५,५,५६/गा. सूत्र ३/३०१ ओगाहणा जहण्णा णियमा दु मुहमणि
वाले व्यन्तर गोदजीवस्स । जहही तद्द ही जहणिया खेत्तदोओहो ।३।-सूक्ष्म १००० वर्षा-५ कोष सर्वत्र ५० कोश (ति प. 4/80) निगोदलब्ध्यपर्याप्तक जीवकी जितनी जघन्य अवगाहना होती है
युष्कव्यंतर उतना अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र है।
ज्योतिषी २५xसं. स्वविमान असं को को असं.सहस्र रा वा १/२१/७/८०/२२ कालद्रव्यभावेषु कोऽवधिरिति। अत्रोच्यते
योजन | शिखर | योजन | योजन । यस्य याववक्षत्रावधिस्तस्य तावदाकाशप्रदेशपरिच्छिन्ने काल-द्रव्ये भवत.। तावत्सु समयेष्वतीतेष्वनागतेषु च ज्ञानं वर्तते, तावत्सख्यात
४. कल्पवासी देवोमें देशावधिका विषय भेदेषु अनन्तप्रदेशेषु पुद्गलस्कन्धेषु जीबेषु च सकर्मेषु । भावत स्व- (म ब १/गा सू/१११३/२२) (ध. १३/५५५५६/गा सू १२-१४/३१६विषयपुद्गलस्कन्धाना रूपादिविकल्पेषु जोवपरिणामेषु चौयिकौप- ३२२) (ध /गा १०-१२/२५) (ति प.८/६८५-६६०) (रा वा १/२१॥ शमिकक्षायोपशमिकेषु वर्तते। = प्रश्न-काल द्रव्य व भावो में क्या ७/८०/१३) (ह पु.६/११३-११७) (त्रि सा. ५२७) (गो जी /मू. ४३०अवधि होती है । उत्तर-जिस अवधिज्ञानका जितना क्षेत्र है उतने ४३६/८५२-८५६)। आकाश प्रदेशप्रमाण काल और द्रव्य होते है। अर्थात उतने समय
उत्कृष्ट क्षेत्र
उत्कृष्ट प्रमाण अतीत और अनागतका ज्ञान होता है और उतने भेदवाले
जघन्य क्षेत्र
| तिर्यक् नीचे । काल अनन्तप्रदेशी पुद्गलस्कन्धोके रूपादिगुणो में और (उत्तने ही कर्म स्कन्ध युक्त) जीवके औदयिक औपशमिक व क्षायिक भावोमे
नाम स्वर्ग
कथित स्थान अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। नोट-- (सर्व ही प्ररूपणाओ में यह
कथित प्रमाण के अन्त तक अनागत सामान्य नियम द्रव्य व भाव व काल के सम्बन्धमें विशेषता जाननेके लिए लागू करते रहना)।
सौधर्म ईशान ज्योतिषदेव- . राजू रत्न प्रभा अस को.
का उत्कृष्ट २. नरक गतिमें देशावधिका विषय
सनत्कुमार
| ४ राजू
शर्कराप्रभा | पस्या (म. ब. १/गा, १४/२३) (ति. प २/१७२); (रा.वा. १/२१/७/८०/२७)
माहेन्द्र
असं ब्रह्म ब्रह्मोत्तर शर्करा प्र.
५. राजू बालुका (ह,पु.४/३४०-३४१) (ध.१३/५,५,५६/३२५-३२६) (गो.जी.मू.४२४/८४८)
लान्तव कापिष्ठ | बालुका राजू (त्रि.सा. २०२)
पकप्रभा | जघन्य उत्कृष्ट क्षेत्र
शुक्र महाशुक्र
८ राजू काल द्रव्यभाव शतार सहस्रार | क्षेत्र | ऊपर तिर्यक नीचे
आमत प्राणत कप्रभा
धूम्रप्रभा रत्नप्रभा
आरण अच्युत
| १० राजू शर्कराप्रभा
नव ग्रे वेयक धूम्रप्रभा
११ राजू तमप्रभा बालुकाप्रभा
नवअनुदिश | महातम प्र. कुछ अधिक | वातवलय 'कप्रभा
(ह पु ६११६) | १३ राजू रहित
लोकनाडी धूसप्रभा
पंच अनुत्तर | वातवलय
वातवलय तम.प्रभा
रहित कुछ कम सहित महातम.प्रभा ।
लोक नाडी १४ राजू | लोकनाडी
जस नालीमे कथितस्थान- अतीत व
द्रव्य व भाव
वर्ष
रत्नप्रभा
किाच
राजू
नाम
सर्वत्र अपने-अपने विमानके शिखर तक
सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
सर्वत्र अपने बिलके शिखर तक
सर्वत्र अस कोडाकोणी योजन
स्व स्व अन्तर्मुहूर्त (विशेष दे सामान्य नियम)
सामान्म नियमके अनुसार
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अवधिज्ञान
१९९
९.अवधिज्ञान विषयक प्ररूपणाएँ
५. तिर्यंच व मनुष्योमें देशावधिका विषय (म.ब १/गा सू १४-१५/२३) (रा.वा १/२२/४/८२/५) (ध.२/१,१,२/६३) (गो. जी./मू. ४२५/२४६)।
७. देशावधिकी क्रमिक वृद्धिके १९ काण्डक (म.ब. १/गा सु. २-६/२१) (ध. १३/५,५,५६/गा सू ३-६/३०१-३२८) (ध.१/४,१,२/गा.५-७/२४-२६) (रा.वा १/२२/४/८२/८) (गो.जी./मू व टी. ४०४-४१३/८३०-८३६)
नाम ज
द्रव्य
क्षेत्र
काल
ध./१३
द्रव्य
क्षेत्र
काल
भाव
तिथंच उ तेजस शरीर प्रमाण असं द्वीप- अस वर्ष
समुद्र । (१ समय
कम पल्य) मनुष्य ज | एक जीवका औदारिक | उत्सेधागुल/अस आवलीशरीर-लोक प्रदेश (लब्ध्य पर्याप्त
असं. (स्वक्षेत्रके प्रदेशोके असं निगोदियाकी |भागप्रमाण विस्रसोपचय अवगाहनाप्रमाण
सहित रव शरीर) का अस.भाग) उ | एक परमाणु या कार्माण समस्त लोक अस. लोक न शरीर प्रमाण (अस. लोक) प्रमाण
सामान्य नियमके अनुसार स्वस्व योग्य | भाव
arenan|कांडक स.
१ घन कोस
समय
घनागुल - अ. | | आवली-अस. घनागुल-सं. आवली । स | घनागुल किंचिदून आवली घनागुल पृथक्त्व | आवली १घन हाथ आवली पृथक्त्व
अन्तर्मुहूर्त १घन योजन
१भिन्न मुहूर्त
(मुहूर्त-१समय) २५ धन योजन
किचिदूनदिव भरत क्षेत्र प्रमाण अर्द्ध मास (५२६६-ध. योजन) जम्बूद्वीप प्रमाण साधिक १मास १००,०००घ योजन मनुष्यनोक प्रमाण १ वर्ष ४५००,०००५ योजन रुचकवर द्वीप तक वर्ष पृथक्त्व असख्य द्वीप सागर
सख्यात वर्ष तेजस शरीर पिड
असख्यात वर्ष कार्माण .,., ३११ | वि नसोपचय रहित
एक तै जसवर्गणा
प्रथम काण्डकमे विनसोपचय सहित निज औदारिक शरीर -- घनलोक प्रमाण असं. द्रव्य है। तत्पश्चात् द्वितीयादिमे सर्वत्र पूर्व पूर्व द्रव्य+(पूर्व द्रव्य+मनोवर्गणा/अनन्त)
प्रथम काण्डकमें स्त्र विषय गत द्रव्यकी आव/असं. मात्र वर्तमान पर्याये । तत्पश्चात् द्वितीयादिमें सर्वत्र पूर्व पूर्व x अस.
६. परमावधि व सर्वावधिका विषय (म ब. १/गा सू ८/२२) (घ, १३/५,४,५६/गा.सू १५/३२३) (ध १/४,१,३/१६/४२-५०) (रा.वा. १/२२/४/८३/५) (गो जी /मू /४१४-४२१/८३७) ।
म
द्रव्य
क्षेत्र
काल
भाव
பூமம்
"
पूर्व पूर्वसे असरव्यात
पूर्व से अस ख्यात गुणा
१७ ।
३१२ / एक भाषा वर्गणा ३१३ एक मनोवर्गणा
। एक कार्मण वर्गणा |
| क्रमेण अस
१६
(१) परमावधि-(६.६/पृ) ज. देशावधिका उत्कृष्ट | देशावधिका | देशावधि का देशावधिका सं. (४५) उत्कृष्ट अस, उत्कृष्ट x अस उत्कृष्ट असं. ४५) । (४५),
(४५) उ | परमावधिका जघन्य अस लोक अस लोक अन्तिम विकल्प
+ (देशावधिकाउत्कृष्ट (४२)| प्रदेश प्रमाण तक xअग्नि कायद्वारापरि
समय च्छिन्न अनन्तपरमाणु) (सामान्य नियम) गुणित (४७) नोट-परमावधिके जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त विषयवृद्धि के विकल्प
देखो (ध ६/४,१,३/४४) (0) सर्वावधि--(ध:/)
नोट-- यहाँ जघन्य उत्कृष्टका विकल्प नहीं है| परमावविका उत्कृष्ट परमावधिका| परमावधिका | परमावधिका +बह अस. (४८) उत्कुष्ट अस, उत्कृष्टxअस. उत्कृष्ट असं
लोक (४)
(४८)
ध.६/४,१,२/२६-३० का सारार्थ- इसी प्रकार द्रव्य व भाव में करते जाये । क्षेत्र व काल अवस्थित रखें। द्रव्य व भावकी वृद्धिमें अगुल । अस प्रमाण विकल्प हो चुकने पर क्षेत्रमें एक प्रदेशको वृद्धि करें। काल अवस्थित रखे । उपरोक्त क्रमसे पुन -पुन द्रव्य व भाव में वृद्धि करे। इसप्रकार कालको अव स्थित रखते है और क्षेत्र में एक-एक प्रदेश की वृद्धि करते हुए अगुल/अस . प्रमाण प्रदेश वृद्धि हो जाने पर एक समय बढावे । इसी प्रकार पुन पुन. कालको वृद्धि करते कान में भी आवली/अस, विकल्प उत्पन्न करे ।
आगे जाकर क्षेत्र की वृद्धि प्रतिकात वृद्धिस्थान में यथायोग्य धनागुलके असख्यात भाग, सख्यात भाग, १भाग तथा वर्गादिरूप होने लगती है । यहाँ तक कि देशावधिका उत्कष्टकाल तो एक समय कम
पल्य और क्षेत्र समस्त लोक हो जाता है। अवधि ज्ञानावरण-दे. ज्ञानावरण । अवधि जिन-दे. जिन । अवधि दर्शन-दे. दर्शन ५ ॥ अवधि दर्शनावरण-दे. दर्शनावरण । अवधि मरण-दे. मरण १ अवधिस्थान-सप्त नरकका इन्द्रक-दे. नरक ५/३ ।
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अवधृत
२००
अवर्णवाद
अवधुत-अवधृत काल अनशन-दे अनशन । अवनिपाल-जैन हितपो/प नाथू राम-मगधका राजा। अवनीत-गगव शीय राजा था। इनका पुत्र दुविनीत आ. पूज्य पादका शिष्य था। तदनुसार इनका समय वि ५००-५३५ (ई ४४३४७८) आता है । (द.पा/प्र ३८/प्रेमी जो), (समाधितत्र/प्र १० ५.
जुगल किशोर), (म सि प्र१५/५ फूल चन्द)। अवपोड़क-भ,आ /मू. ४७४-४७८ आलोचणागुणदोसे कोई सम्म पि पण विज्जतो। तिब्वे हि गारवादिहि सम्म णालोचए खवए।४७४॥ णि महुर हिदयगम च पल्हादणिज्जमेगते । कोई तु पण्ण विज्जतओ वि णालोचए सम्म ॥४७६॥ तो उम्पीलेदव्या खवयस्सोप्पीलए दोसा से वोमेइ मसमुदरमिक गद सीहो जह सियाल ॥४७७॥ उज्जसी तेजस्सी बच्चस्सी पहिदकित्तियायरिओ। पज्जेइ घद माया तस्सेव हिद विचित ती ॥४७॥ - आलोचना करनेसे गुण और न करनेसे दोष की प्राप्ति होती है, यह बात अच्छी तरहसे समझानेपर भी कोई क्षपक तीव अभिमान या लज्जा आदिके कारण अपने दोष कहने में उद्य क्त नही होता है ॥४७४॥ स्निग्ध, कर्णमधुर व हृदयमें प्रवेश करनेवाला ऐसा भाषण बोलनेपरभो कोई क्षपक अपने दोषोकी आलोचना नहीं करता ॥४७६॥ तब अवपीडक गुणधारक आचार्य क्षपकके दोषो को जबरोसे बाहर निकालते है, जैसे सिह सियालके पेट में भी चला गया मास बमन करवाता है ॥४७७॥ उत्पीलक या अवपीडक गुण धारक आचाय ओजस्वी,बलवान् और तेजस्वी प्रतापवान होते है, तथा सबमुनियोपर अपनारौब जमानेवाले होते है।वेवर्चस्वी अर्थात प्रश्नका उत्तर देनेमें कुशल होते है, उनकी कीर्ति चारो दिशाओं मे रहती है। वे सिह समान अक्षोभ्य रहते है । वे किसीसे नही डरते। अवमान-दे प्रमाण/५ अवमौदर्य
१. अवमोदर्य तपका लक्षणमू आ मू ३५० बत्तोसा किरकब ला पुरिसस्स तु होदि पयदि आहारो। एगकवलादिहि ततो ऊणियगण उमोदरिय ॥३५॥ -पुरुषका स्वाभाविक आहार ३२ ग्रास है उसमें से एक ग्रास आदि कम करके लेना अवमौदर्य तप है। (रा.वा १/१६/३/६१८/२१) (त सा ७/६) (अन ध ७/२२/६७२) (भा पा/टी, ७८/२२२/३)। घ. १३/५,४,२६/५६/१ अद्धाहारणियमो अवमोदरियतवो। जो जस्स पयडिआहारी तत्तो ऊणाहारविसयअभिग्गहो अबमोदरियमिदि भणिदं होदि । -आधे आहारका नियम करना अवमौदर्य तप है। जो जिसका प्राकृतिक आहार है उससे न्यून आहार विषयक अभिग्रह (प्रतिज्ञा) करना अवमौदर्य तप है। भ आ/वि ६/३२/१७योगत्रयेण तृप्तिकारिण्या भुजिक्रियायो दर्पवाहिन्यां निराकृति अवमौदर्यम् । तृप्ति करनेवाला, दर्प उत्पन्न करनेवाला ऐसा जो आहार उसका मन वचन काय रूप तीनों योगोसे त्याग करना अवमौदर्य है। २. अवमौदर्य तपके अतिचार भ.आ /वि ४८७/७०७/५ रसबदाहारमतरेण परिश्रमो मम नापै ति इति वा । षड्जीव निकायबाधाया अन्यतमेन योगेन वृत्ति । प्रचुरनिद्रतया सक्लेश कमनर्थमिदमनुष्ठित मया, स तापकारीद नाचरिष्यामि इति सकरूप अवमौदर्यातिचार । मनसा बहुभोजनादर । परं बहुभोजयामोति चिन्ता। भुक्ष्व यावद्भवतस्तृप्तिरिति वचन, भुक्त मया बहिरयुक्त सम्यककृतमिति वा वचन, हस्तसज्ञया प्रदर्शनं कण्ठदेशमुपस्पृश्य । -रस युक्त आहारके बिना यह मेरा परिश्रम दूर न होगा, ऐसी चिन्ता करना, षट् काय जोवोको मन वचन काममें से किसी भी एक योगसे बाधा देनेमे प्रवृत्त होना । 'मेरे को बहुत निद्रा आती है,
और यह अनमौदर्य नामक तप मैने व्यर्थ धारण किया है, यह स क्लेशदायक है, स ताप उत्पन्न करनेवाला है, ऐसा यह तप तो मै फिर कभी भी न करूगा' ऐसा स कल्प करना-ये अवमौदर्य तपके अतिचार है। अथवा बहुत भोजन करने की मनमें इच्छा रखना, 'दूसरों को बहुत भोजन करनेमे प्रवृत्त करूंगा', ऐसा विचार रखना, 'तुम तृप्ति हाने तक भोजन करो' ऐसा कहना, यदि वह 'मैने बहुत भोजन किया है' ऐसा कहे तो 'तुमने अच्छा किया ऐसा बोलना, अपने गलेको हाथसे स्पर्शकर 'यहाँ तक तुमने भोजन किया है ना?' ऐसा हस्त चिह्नसे अपना अभिप्राय प्रगट करना-ये सब अवमौदर्य तपके अतिचार है।
३. अवमौदर्य तप किसके करने योग्य है ध.१३/५,४,२६/५६/१२ एसो वि तवो केहि दायव्यो। पित्तप्पकोवेण उपवास अक्रवमेहि अद्धाहारेण उववासादो अहियपरिस्समेहि सगतवो. माहप्पेण भठवजीबुवसमणवावदेहि वा सगकुविखकि मिउम्पत्तिणिरोहकरखुएहि वा अदिमत्ताहारभोयणेण वाहिवेयणाणमित्तेण सज्झायभगभीरुएहि वा। प्रश्न-यह तप किन्हे करना चाहिए । उत्तरजो पित्तके प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ है, उन्हे आधे आहारकी अपेक्षा उपवास करनेमे अधिक थकान आती है, जो अपने तपके माहात्म्यसे भव्य जीवोको उपशान्त करने में लगे है, जो अपने उदरमें कृमि की उत्पत्तिका निरोध करना चाहते है, और जो व्याधिजन्य वेदनाके निमित्तभूत अतिमात्रामें भोजन कर लेनेसे स्वाध्यायके भग होनेका भय करते है, उन्हे यह अवमौदर्य तप करना चाहिए।
४. अवमौदर्य तपका प्रयोजन मुआ ३५१ धम्मावासयजोगे णाणादीये उवग्गडं कुणदि । ण य इन्दियपदोसयरी उमोदरितबोवृत्ती १३५१॥-क्षमादि धोंमें, सामायिकादि आवश्यकोमें, वृक्षमूलादि योगों मेंतथा स्वाध्याय आदिमें यह अवमौदर्य तपकी वृत्ति उपकार करती है और इन्द्रियोंको स्वेच्छाचारी नहीं होने देती। स.सि १/१६/४३८/७ सजमप्रजागरदोषप्रशमसंतोषस्वाध्यायादिमुखसि
द्वयर्थमबमौदर्यम् । -सयमको जागृत रखने, दोषों के प्रशम करने, सन्तोष और स्वाध्यायादिको सुखपूर्वक सिद्धिके लिए अवमौदर्य तप किया जाता है। अवयवरावा./१६/६/१० अवयूयन्ते इत्यवयवाः। जो वस्तुके हिस्से कर देते है वे अवयव है। * अनुमानके पाँच अवयव-दे अनुमान * जल्पके चार अवयव-दे, जल्प * परमाणुका सावयव निरवयवपना-दे परमाणु * शरीरके अवयव-दे अगोपाग अवरोहक-दे अवतारक । । अवर्णवाद-स.सि/६/१३/३३१/१३ गुणवत्सु महत्सु असभूतदोषोद्भावनमवर्णवाद । - गुणवाले बडे पुरुषों में जो दोष नही है उनका उनमें उद्भावन करना अवर्ण वाद है यथारा.वा/६/१३/८-१२/५२४/१२ पिण्डाभ्यवहारजीविन' कम्बलदशानिहरणा' अलापात्रपरिग्रहा कालभेदवृत्तज्ञानदर्शना केवलिन इत्यादिवचनं केबलिष्ववर्णवाद । माममत्स्यभक्षणं मधुसुरापान वेदार्दितमैथुनोपमैवा रात्रिभोजन मित्येवमाद्यन वद्यमित्यनुज्ञानं श्रुतेऽवर्णवाद ॥६॥ एते श्रमणा शुद्रा अस्नानमल दिग्धाङ्गा अशुचयो दिगम्बरा निर पत्रपा इवेति दु ख मनुभवन्ति परलोकश्च मुषित इत्यादि वचन सोऽवर्गवाद ॥१०॥ जिनोपदिष्टो दशविकल्पो धर्मो निर्गण तदुपसे विनो ये चे तेऽसुरा भवन्ति इत्येवमाद्यभिधान धर्मावर्ण वादः ॥११॥ सुरा मांस चोपसेवन्ते देवा आहत्यादिषुचासक्तचेतस' इत्या
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अवर्ण्यसमा
२०१
अवस्था
द्याघोषणं देवावर्ण बाद ॥१२॥ - 'केवली भोजन करते है, कम्बल आदि धारण करते है, तु बडीका पात्र रखते है उनके ज्ञान और दर्शन क्रमश होते है इत्यादि केवलो का अवर्णवाद है ॥८॥ मासमछलौका भक्षण, मधु और सुगका पीना, कामातुरको रतिदान तथा रात्रि भोजन आदिमे कोई दोष नहीं है, यह सत्र श्रुतका अवर्णवाद है । ये श्रमण शू है,स्नान न करनेसे मलिन शरीरवाले है, अशुचि है, दिगम्बर है, निर्लज्ज है इसी ल कमे ये दुखी है, परलोक भी इनको कष्ट है, इत्यादि सबका अवणवाद है ॥१०॥ जिनोपदिष्ट धर्म निर्गुण है, इसके धारण करनेवाले मर कर असुर होते है इत्यादि धर्मका अवर्णबाद है ॥११॥ देव मद्य मामका सेवन करते है. आहल्या
आदिमे आसक्त हुए थे, इत्यादि देवोका अवर्णवाद है। भ. आवि/२७/१६१/२३ मर्वज्ञतावीतरागते नाई ति विद्य ते रागादिभिरविद्यया च अनुगता समस्ता एक प्राणभृत इत्यादिरहतामवर्णवाद । स्त्रोवस्त्रगन्धमाल्यालकारादिविरहिताना सिद्वाना मरख न किचिदतीन्द्रियाणाम् । तेषा समधिगतौ न निबन्धनमस्ति किचिदिति सिद्धावर्णवाद ।...न प्रतिबिबादिस्था अर्हदादय तदगुणवेकल्यान प्रतिबिवानामह दादिमिति चेत्यावर्णवाद । अज्ञात चापदिशतो बच कथ सत्य । तदुद्गत च ज्ञान कथ समार्च निमिति श्रुतावणबाद । सुन्वदायी चे द्वर्म स्वनिष्पत्त्यनन्तर मुखमात्मन कि न करोति इति धर्मावर्णवाद । केशान्लु चनादिभि पीडयता च कथ नात्मवध । अष्टमात्मविषय, धम, पाप, तत्फलं च गदता 14 सत्यवतम् । इति साध्ववर्णवाद । एवमितरयारपि । वीतरागता व सर्व ज्ञपना अर्हन्तमे नही है, क्योकि जगतमे सम्पूर्ण प्राणो ही रागदप
और अज्ञानमे घिरे हुए देखे जाते है, ऐसा कहना यह अर्हन्तका अवर्ण वाद है। खो, बख, इतर वगैरह मुगधी पदार्थ, पुष्पमाला ओर वस्खाल कार ये ही सुखके कारण है। इन पदार्थोका अभाव होनेसे सिद्धों का सुख नहीं है। मुख इन्द्रियोसे प्राप्त होता है परन्तु वे सिद्धोको नही है, अत वे सुरखी नही है ऐसा कहना सिद्धावर्ण वाद है। मूर्तिमे अर्हन्त सिद्ध आदि पूज्य पुरुष वास नही करते है, क्योंकि उनके गुण मूतिमें दीखते नही है, ऐसा कहना चैत्यावण बाद है। अज्ञात वस्तुका यदि वह उपदेश करेगा तो उसके उपदेश में प्रमाणता कैसे आवेगी। उसके उपदेशमे लोगो को जो ज्ञान उत्पन्न होगा वह भी प्रमाण कैसे माना जायेगा। अत आगमज्ञान प्रमाण नहीं है। ऐसा कहना श्रुतावर्णवाद है। यदि धर्म सुखदायक है ता वह उत्पन्न हानेक अनन्तर हो सुख क्यो उत्पन्न नही करता है। ऐसा कहना यह बर्मावणं बाद है। ये साधु केशलोच उपवासादिके द्वारा अपने आरमाको दुख देते है, इसलिए इनका आत्मवधका दोष क्यो न लगेगा। पाप और पुण्य दृष्टिगाचर हाते नही है, तो भी ये मुनि उनका और उनके नरक स्वर्गादि फलोका वर्णन करते है। उनका यह विवेचन झूठा होनेमे उन्हे सत्यवत कैसे हो सकता है। इत्यादि कहना यह साधु अवर्ण वाद है। ऐसे ही अन्यमे भी जानना। अवर्ण्यसमा-न्यायविषयक एक जाति-दे, वर्ण्यसमा। अवलब-अर्थात् कारण-दे कारण I/१।। अवलबना-ध १३/७५,३७/२४२/४ अवलम्बते इन्द्रियादीनि स्वोस्पत्ये इत्यवग्रह अवलम्बना ।-जो अपनी उत्पत्ति के लिए इन्द्रियादिकका अवलम्बन लेता है, वह अवलम्बना अबग्रहका चौथा नाम है । अवलंबनाकरण-ध १०/१,२४.११२/३३०/११ किमवलंबणाकरण णाम । परभवआिउअवरिमट्ठिदिदव्वस्स ओकडूढणाए हेट्ठा णिवदणमवल बणाकरणं णाम। एदस्स अकणसण्णा किण्ण कदा। ण उदयाभावेण उदयावलियबाहिरे अणिबदमाणस्स ओक्छणा ववएसविराहाद।।-प्रश्न- अवल बनाकरण किसे कहते है ? उत्तर-परभव सम्बन्धी आयुकी उपरिम स्थितिमे द्रव्यका अपकर्षण द्वारा नीचे पतन करना अवलंबनाकरण कहा जाता है । प्रश्न-इसकी अप
कर्षण सज्ञा क्यो नही की १ उत्तर-नहीं, क्योकि, परभविक आयुका उदय नहीं होनेमे इसका उदयावलि के बाहर पतन नही होता, इसलिए इसकी अपकर्पण सज्ञा करने का विरोध आता है। [आशय यह है कि परभव सम्बन्धी आयुका अपकर्षण होनेपर भी उसका पतन आबाधा कालके भीतर न होकर आबाधासे ऊपर स्थित स्थितिनिपेको में होता है। इसोसे इसे अपकर्षण से जुदा बताया गया है। अवलंब ब्रह्मचारी-दे. ब्रह्मचारी। अवश-नि. सामू/१४२ ण वसा अबसो-जो अन्यके वश नहीं है
वह अवश है। नि सा/ता वृ/१४२ यो हि योगी स्वात्मपरिग्रहादन्येषा पदार्थाना वशं न गत । अतश्व अवश इत्युक्त ।-जा योगी निजात्माके परिग्रहके अतिरिक्त अन्य पदार्थोक वश नही होता है, और इसीलिए जिसे अवश कहा जाता है। म श/टो/३७/२३६ अवश विषयेन्द्रियाधानमनारमायत्तमित्यर्थ ।विषय व इन्द्रियोके आवान अनात्म पदार्थोंका निमित्तपना अवश है अर्थात अपने वश मे नही है। अवसन्न-भ आ/मू १२६४-१२६/१२७२ आसण्णसेवणाओ पडिसेवंतो अमजद। हाई। मिद्विपहपक्किदाओ ओहीणा साधुसस्थाढो । १२६४। इ दियकमायगुरुगत्तणेण सुहमालभाविदासमणो । करणालसो भवित्ता मेदि आमण्णमेवाओ।१२६५-जा साधु चारित्रसे भ्रष्ट होकर सिद्धमार्ग की अनुयायी क्रियाएं करता है तथा अस यत जनोकी सेवा करता है, वह अबसन्न साधु है। ताब कषाय युक्त होकर वे इन्द्रियोके विषयोमे आसक्त हो जाते है, जिसके कारण सुखशील होकर आचरणमे प्रवृत्ति करते है। भा/वि २५/०८/१४ पर उदत गाथा "पासरथो सच्छदो कुसील ससत्त होति ओसण्णा। ज सिद्धि पच्छिदादो ओहीणा साधु मस्थादो।"पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील, ससक्त और अवसन्न ये पॉच प्रकार के मुनि रत्नत्रय मार्ग मे विहार करनेवाले मुनियोका त्याग करते है अर्थात् स्वच्छन्दसे चलते है। भ आ वि १६५०/१७२१/२१ यथा कर्दमे क्षुण्ण मार्गाद्धीनोऽवसन्न इत्यु
च्यते स द्रव्यताऽवसन्न । भावावसन्न अशुद्वचारित्र ।-जैसे कीचडमें फॅमे हुए और मार्गभ्रष्ट पथिकको अबसन्न कहते है, उसको द्रव्यावसन्न भी कहते है, वैसे ही जिसका चारित्र अशुद्ध बन गया है ऐसे मुनिको भावावसन्न कहते हैं। (विशेष विस्तार दे० साधु ५) चा सा.१४४/१ जिनवचनानभिज्ञो मुक्तचारित्रभारो ज्ञानाचारणभ्रष्टः करणालसोऽवसन्न । जो जिनवचनोको जानते तक नहीं, जिन्होंने चारित्रका भार सब छोड दिया है, जो ज्ञान और चारित्र दोनोसे भ्रष्ट है और चारित्रके पालन करनेमें आलस करते है, उन्हे अवसन्न कहते है । (भा.पा/टी १४/१३७/२१) ★ अवसन्न साधुका निराकरण आदि-दे० साधु अवसन्नासन्न क्षेत्र प्रमाणका एक भेद । अपर नाम उत्संज्ञासंज्ञ
दे गणित I/१/३। अवपिणी-ध.१३/५,५,५६/३१/३०१ कोटिकोटयोदशैतेषां पत्याना सागरोपमम् । सागरोपमकोटीना दश कोट्योऽवसर्पिणी ॥३॥ -दस कोडाकोडी पत्योका एक सागरोपम होता है और दस कोडाकोडी सागरोपमोका एक अवसर्पिणी काल होता है। विशेष दे.
काल/४। अवसाय-न.वि. वृ.१/७/१४०/१६ अवसायोऽधिगमः- पदार्थके
ज्ञान या निश्चयका नाम अवसाय है। अवस्था-प. पू. ११७ अपि नित्या प्रतिसमयं विनापि यत्न हि परिणमन्ति गुणा । स च परिणामोऽवस्था तेषामेव ॥११७॥-गुण
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अवस्थान
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अविनेय
(या द्रव्य) नित्य है त। मो वे स्वभाव से ही प्रतिसमय परिण मन करते रहते है । वह परिणमन हो उन गुणों (या द्रव्यों) को अवस्था
अवस्थान-स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत् स्वस्थान उपपाद, आदि
जोवोंके विभिन्न अवस्थान ।-दे. क्षेत्र । अवस्थित-स.सि. १/४/१७१४९धर्मादीनि षडपि द्रव्याणि कदाचिदपि षडिति इयत्त्वं नातिवतन्ते । ततोऽवस्थितानीत्युच्यते । धर्माविक छहाँ द्रव्य कभी भी छह, इस संख्याका उल्लंघन नहीं करते, इसलिए वे अवस्थित कहे जाते हैं। अवस्थित अवधिज्ञान-दे. अवधिज्ञान। अवस्थित गुणश्रेणी-दे. संक्रमण/८ । अवस्थित बंध-दे. प्रकृति बंध/१ । अवांतर सत्ता-दे, अस्तित्व । अवाक्-दक्षिण दिशा। अवाय
१. अवायका लक्षण ष, ख. १३/५/सू. ३६/२४३ अवायो ववसायो बुद्धी विण्णाणि आउडी पञ्चाउडी ॥३६॥ - अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुण्डा और प्रत्यामुण्डा ये पर्याय नाम हैं। स.सि.१/१४/११/६ विशेषनि नाद्याथात्म्यावगमनमवायः । उपतननिपतनपक्षविक्षेपादिभिर्वलाकैवेयं न पताके ति। -विशेषके निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे अवाय कहते हैं। जैसे उत्पतन, निपतन, पक्ष-विक्षेप आदिके द्वारा 'यह बक पंक्ति ही है, वजा नहीं' ऐसा निश्चय होना अवाय है । (ध. १३/५.५,२३/२१८/६) रा.बा./१/११/३/40/4 भाषादि विशेष निर्ज्ञानात्तस्य याथात्म्येनावगमनमवायः। 'दाक्षिणात्योऽयम्, युवा, गौरः' इति वा -भाषा आदि विशेषों के द्वारा उस ( ईहा द्वारा गृहोत पुरुष) की उस विशेषताका यथार्थ ज्ञान कर लेना अवाय है, जैसे यह दक्षिणी है. युबा है या गौर
है इत्यादि । (न्या, दी./२/११/३२/६) ध. १३/५४५,३६/२४३/३ अवेयते निश्चीयते मीमांसितोऽर्थोऽनेनेत्यवायः ।
-जिसके द्वारा मीमांसित अर्थ 'अवेयते' अर्थात् निश्चित किया जाता है वह अवाय है। ध.4/१६-१.१४/१७/७ ई हितस्पार्थस्य संदेहापोहनमवायः।-ईहा ज्ञानसे जाने गये पदार्थ विषयक सन्देहका दूर हो जाना (या निश्चय हो जाना) अपाय है । (ध. १/१,१,११५/३५४/३) (घ.६/४,१,४/१४४/७) ज, प. १३/५६,६३ ईहिदत्यस्स पुणो थाणु पुरिसो त्ति बहुवियप्पस्स ।
जो णिच्छियावबोधो सो दु अवाओ बियाणाहि ॥५६॥ जो कम्मकलुसरहिओ सो देवो त्थि एत्थ संदेहो। जस्स दु एवं बुद्धी अबायगाणं हवे तस्स ॥६३॥ यह स्थाणु है या पुरुष, इस प्रकार बहुत विकल्परूप ईहित पदार्थ के विषयमें जो निश्चित ज्ञान होता है उसे अवाय जानना चाहिए ॥५६॥ जो कर्म मलसे रहित होता है वह देव है, इसमें कोई सन्देह नहीं है, इस प्रकार जिसके निश्चयरूप बुद्धि होती है उसके अवायज्ञान होता है ॥६॥
२. इस ज्ञानको अवाय कहें या अपाय रा.बा. १/१५/१३/११/१ आह-किमयम् अपाय उत अवाय इति । उभयथा न दोषः । अन्यतरवचनेऽन्यतरस्यार्थ गृहीतरवाव। यथा 'न दाक्षिणात्योऽयम्' इत्य पायं त्यागं करोति तदा 'औदीच्यः' इत्यबायोऽधिगमोऽर्थगृहीतः । यदा च 'औदीच्या; इत्यवायं करोति तदा 'न दाक्षिणात्योऽयम्' इत्यपायोऽर्थ गृहीतः -प्रश्न-अवाय नामठीक है या अपाय ! उत्तर-दोनों हो ठोक हैं, क्योंकि एकके वचनमें दूसरे
का ग्रहण स्वतः हो जाता है। जैसे अब 'यह दक्षिणी नहीं है ऐसा अपाय त्याग करता है तब 'उत्तरी है। यह अवाय-निश्चय हो ही जाता है। इसी तरह उतरी है' इस प्रकार अवाय या निश्चय होनेपर दक्षिणी नहीं है यह अराय या त्याग हो ही जाता है। ३. अन्य सम्बन्धित विपर। १. अवायज्ञानको 'मति' व्यपदेश कैसे ! -दे. मतिज्ञान ३ २. अब ग्रहसे अवाय पर्यन्त मतिज्ञानको उत्पत्तिका क्रम
-दे. मतिज्ञान ३. अवग्रह व अवायमें अन्तर --दे. अवग्रह २ ४. आय व तज्ञान में अन्तर -दे. श्रुतज्ञान ।
५. अवायवधारणामें अन्तर -दे. धारणा २ अविकल्प · दे. विकल्प। अविकृतिकरण-आलोचनाका एक दोष-दे. आलोचना २। अविज्ञातार्थ-न्या. म. म.-२/8 परिपत्ततिकादिभ्यां त्रिरभि.
हितमप्य विज्ञातम विज्ञातार्थ म ४॥ न्या. सू./भा.५-२६ यदाक्यं परिषदा प्रतिवादिना च त्रिरभिहितमपि न विज्ञायन्ते श्लिष्टशब्दमप्रतीत प्रयोगमतिद्रुतःचरितमित्येवमादिना कारणेन तद विज्ञातमविज्ञाताथमसामर्थ्यसंवरणाय प्रयुक्तमिति निग्रहस्थानमिति।। -जिस अर्थ को वादी ऐसे शब्दोंसे कहे जो प्रसिद्ध न हों, इस कारण से, या अति शीघ उच्चारण के कारण से, या उच्चारित शब्द के बर्थवाचक ह नेग अथवा प्रयोग प्रतीत न हानेसे, तीन बार कहनेपर भी वादोका बाका किसो सभासद्, विद्वान और प्रतिवादी न समझा जाये ती ऐसे कहनेसे वा 'अभिज्ञातार्य नामानिया स्थानमें आकर हार जाता है। (श्लो. बा./न्या ०१/३८४/६) अविचार-दे, विचार । अवितथ-दे. विदथ। अविद्धकर्ण-१. एक प्रसिद्ध नैयायिक-समय ई० ७६२ (सि.वि./ प्र.४/१० महेन्द्रकुमार): २. एक प्रसिद्ध चार्वाक आचार्य-समय ई.श. ८ (स.वि./प्र.७४/पं. महेन्द्रकुमार) अविनाभाव-प.मु. ३/१६ सहकमभावनियमोऽविनाभावः ॥१६॥
= सहभाव नियम तथा क्रमभाव नियमको अधिनाभाव कहते हैं । (न्या. दी. ३/४६/६३/५) पं.ध.५/४६१ अवि नाभावोऽपि यथा येन बिना जायते न तसिदि।
-जिसके बिना जिसकी सिद्धि न होय उसको अविनाभावी सम्बन्ध कहते हैं।
२. अविनाभावके भेद प.मु. ३/१६ सहकमभावनियमोऽविनाभाव: । - अविनाभाव सम्बन्ध दो प्रकारका है - एक सहभाव, दूसरा क्रमभाव ।
३. सहभाव व क्रमभाव : विनानाभावके लक्षण प.मु. ३/१७-१८ सहचारिणोाप्यव्यापकभाव योश्च सहभावः ॥१५॥ पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारण योश्च क्रमभावः ॥१८॥ =साथ रहनेवाले में तथा व्याप्य और व्यापक पदार्थों में सहभाव नियम नामका अविनाभाव होता है, जैसे द्रव्य व गुणमें ॥१॥ पूर्व चर व उत्तरचरों में तथा कार्यकारणों में क्रमभाती नियम होता है। जैसे-मेघ व बर्षामें ।
४. विनाभावका निर्णय तर्क द्वारा होता है प.मु. ३/१६ तत्तिनिर्णयः ॥१६॥ - तर्कसे इसका निर्णय होता है। अविनेय-(स सि, ७/११/३४६/१०) तत्त्वार्थ श्रवण ग्रहणाभ्यामसंपादितगुणा अविनेयाः । -जिनमें जीवादि पदार्थोंको सुनने व ग्रहण करनेका गुण नहीं है वे अविनेय कहलाते हैं । (रा. वा. ७/१९४८ ५३८/२६)
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अविपाक
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अशुद्ध
अविपाक-दे० विपाक । अविभाग प्रतिच्छेद-शक्ति अंशको अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं । वह जड़ व चेतन सभी पदार्थोंके गुणों में देखे जाते हैं। यथा
१. द्रव्य व गगों सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद थ. १२/४,२,७,१६६/४/१० सव्वमंदाणुभागपरमाण घेतण वण्णगंधरसे
मोत्तूण पासं चेव बुद्धी ए घेतूण तस्स पग्णाच्छेदो कायवो जाव विभागवज्जिदपरिच्छेदो त्ति । तस्स अंतिमस्स खंडस्स अछज्जस्स अविभागपडिच्छेद इदि सण्णा । = सर्व मन्द अनुभागसे युक्त परमाणु - को ग्रहण करके, वर्ण गन्ध रसको छोड़कर, केवल स्पर्शका (एक गुणका) ही बुद्धिसे ग्रहण कर उसका विभाग रहित छेद होने तक प्रज्ञाके द्वारा छेद करना चाहिए। उस नहीं छेदने योग्य अन्तिम खण्डकी अविभाग प्रतिच्छेद संज्ञा है। (रा. वा. २/५/४/१०७/६) (गो.जी./भाषा ५६/१५४/१८) ध. १४/५/६/५०४/४०१/४एगपरमाणुम्हि आ जहणिया बड्ढो सो अविभागपडिच्छेदो णाम । = एक परमाणु में जो जघन्य वृद्धि होती है। उसे अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं।
२. अनुभाग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद ध. १२/४,२,७,१९६/१२/३ तत्थ एक्काम्हि परमाणु म्हि जो जहण्णेण वडिदो अणु भागो तस्स अविभागपडिच्छेदो त्ति सण्णा। -एक परमाणुमें जो जघन्यरूपसे अबस्थित अनुभाग है उसकी अविभाग प्रतिसाद संज्ञा है।
३. योग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद ध. १०/१,२,४.१७८/४४०/५ जोगाविभागपहिच्छेदो णाम किं । एक्के म्हि
जीवपदेसेजोगस्स जाजहणिया वड्ढो सो जोगाविभागपडिच्छेदो।.... एकजीवपदेसद्वियजहणजागे असंखेज्जलागे हि खंडिदे तत्य एगरखण्डम विभागपडिच्छेदो णाम । - प्रश्न--योगाविभागप्रतिच्छेद किसे कहते हैं ! उत्तर-एक जीवप्रदेशसे योगकी जो जघन्य वृद्धि है, उसे योगाविभागप्रतिच्छेद कहते हैं ।...एक जीवप्रदेश में स्थित जघन्य योगको असंख्यात लोकोसे खण्डित करनेपर उनमें से एक खण्ड अविभागप्रतिच्छेद कहलाता है। * गुणोंमें अविभागप्रतिच्छे दों रूप अंशकल्पना
-दे. गुण २। अविरत सम्यग्दृष्टि-दे० सम्यग्दृष्टि ५ । अविरत-द्र.संटो. ३०८८/३ अभ्यन्यरे निजपरमात्मस्वरूपभावनोत्पन्नपरमसुखामृतरतिविलक्षणा बहिविषये पुनरवतरूपा चेत्यविरतिः। -अन्तरं गमें निज एरमात्मस्वरूपको भावनासे उत्पन्न परमसखामत में जो प्रीति, उससे विलक्षण तथा बाह्य विषयमें व्रत आदिको धारण न करना सो अविरति है। स. सा./ता. वृ.८८ निर्विकारस्वसंवित्तिविपरीतावतपरिणामविकारो
ऽविरतिः। -निर्विकार स्वसंवेदनसे विपरीत अत रूप विकारी . परिणामका नाम अविरति है।
२. अविरतिके भेद बा. अणु. ४८ अविरमण हिंसादी पंचविही सो हवइ णियमेण । अविरति नियमसे हिंसा आदि पाँच प्रकारकी है-अर्थात् हिंसा, झूठ,
चोरी, कुशील व परिग्रह रूप है । (न.च.तृ.३०७); (द्र.सं/मू./30/८८) स.सि.८/१/३७५/१२ अविरतिवदिश विधाः षट् कायषट् करण विषयभेदात् ।
-छह कायके जीवों की दया न करनेसे और छह इन्द्रियों के विषयभेदसे अविरति बारह प्रकारकी होती है । रा. वा. ८/१/२६/५६४/ २४); (द. सं./टी.३०/८६/३) नोट:- और भी दे. असंयम* कर्मबन्धके प्रत्ययके रूपमें अविरति-दे. अंध ३ । * अविरति व कषायमें अन्तर-दे. प्रत्यय ।
अविरुद्ध-न. च. वृ २४८ सामण्ण अह विसेसं दवे गाणं हवेइ अविरोहो। साहइ तं सम्मत्तं णहू पुण तं तस्स विवरीयं ॥२४८॥ - द्रव्यमें सामान्य तथा विशेषका ज्ञान होना ही अविरुद्ध है वह ही सम्यक्त्व को साधता है, क्योंकि वह उससे विपरीत नहीं है। अविरुद्धोपलब्धि हेत-टोना अविशद-दे. विशद। विशेषसमा-न्या.स./न. व. भा. १-१/२३ एकधर्मोपपत्तेरविशेषे सर्वाविशेष प्रसंगात्सद्भावोपपत्तेर विशेषसमः ॥२३॥ एको धर्मः प्रयत्नानन्तरीयकरवं शब्दघटयोरुपपद्यत इत्यविशेषे उभयोर नित्यत्वे सर्वस्थाविशेषः प्रसज्यते। -विवक्षित पक्ष और दृष्टान्तव्यक्तियों में एक धर्म की उपपत्ति हो जानेसे अविशेष हो जानेपर पुनः सद्भावकी उपपत्ति होनेसे सम्पूर्ण बस्तुओंके अविशेषका प्रसंग देनेसे प्रतिवादी द्वारा अविशेषसम प्रतिषेध उठाया जाता है ॥२३॥ जैसे कि प्रयत्नान्तरोयकत्वरूप एक धर्म शब्द व घट दोनोंमें घटित हो जानेसे दोनोंका विशेषरहितपना स्वीकार कर चुकनेपर, पुनः प्रतिवादी द्वारा सम्पूर्ण वस्तुओं के समान हो रहे 'सत्त्वं' को घटनासे सबको अन्तरहित या नित्यपनेका प्रसंग देना अविशेषसमा जाति है। (श्लो. वा. ४/न्या. ४०७/५१८/४) अविष्वग्भाव-स. म. १६/२१७/२४ अविष्व ग्भावेनावयविनोऽवयवेषु वृत्तः स्वीकाराद। =प्रत्येक अवयवा अनेक अवयवोंमें अवि
वाभाव रूपसे अर्थात् अभेद रूपसे स्वीकार किया गया है। अव्यक्त-आलोचनाका एक दोष। -दे. आलोचना २। अव्यवस्था-दे. व्यवस्था । अव्याघात ल.सा./भाषा.५4/04/१ जहाँ स्थिति काण्डकधात न
पाइए सो अव्याघात (अपकर्षण) है।- विशेष दे. अपकर्षण । अव्याप्त-लक्षणका एक दोष।-दे. लक्षण। अव्यावाध-लोकान्तिक देवों का एक भेद ।-दे, लौकान्तिक । अव्याबाध सुख-दे. सुख । अशन-मू. आ./मू. ६४४ असणं खुहप्पसमण । - जिससे भूख मिट
आय वह अशन है। अन.ध.७/१३/६६७ ओरनाद्यशनं 1-भात दाल आदि भोज्य सामग्रीको
अशन कहते हैं। . आहार 11४/१-आहारका दोष । अशनिघोष-१ मानषोत्तर पर्वतस्थ अअनकूट का स्वामी भवनवासी सुपर्ण कुमार देव । दे. लोक ५/१०/२. (स.पु.५६/२१२-२१८)पूर्व पापके कारण हाथी हुआ, मुनिद्वारा सम्बोधे जानेपर अणु बत धारण कर लिया। पूर्व बैरी सर्प के डस लेनेसे मरकर स्वर्ग में श्रीधर देव हुआ। यह संजयन्त मुनिका पूर्वका सातवाँ भव है। अशनिजव-महोरग जातिके व्यन्तरदेवका एक भेद-2.महोरग। अशय्याराधिनी-यह एक मन्त्र विद्या है -दे. विद्या । अशरण-अशरणानुप्रेक्षा-दे. अनुप्रेक्षा।
-पिशाचजातीय व्यन्तरदेव - दे. पिशाच अशुत्वानुप्रेक्षा-दे. अनुप्रेक्षा अशुद्ध-आ. प. ६ शुद्ध' केवलभावमशुद्ध तस्यापि विपरीतम् ।
- केवल अर्थात असंयोगी भावको शुद्ध कहते हैं और अशुद्ध उससे विपरीत है।
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अशुद्ध चेतना
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अष्टपाहुड
स. सा./ता. वृ. १०२ औपाधिकमुपादानमशुद्ध, तप्तायःपिण्डवत् ।
-औपाधिक पदार्थको अशुद्ध कहते हैं जैसे अग्निसे तपाया हुआ लोहेका गोला। पं.का./ता. वृ. १६/३६/३ परद्रव्यसम्बन्धेनाशुद्धपर्यायः । पर द्रव्य के
सम्बन्धसे अशुद्ध पर्याय होती है। पं.ध./उ. २२१ शुद्ध सामान्यमात्रत्वादशुद्ध तद्विशेषतः । वस्तु सामान्यरूपेण स्वदते स्वादु सद्विदाम् ॥२२१॥ वस्तु सम्यग्ज्ञानियों को सामान्यरूपसे अनुभव में आती है इसलिए वह वस्तु केवल सामान्य रूपसे शुद्ध कहलाती है और विशेष भेदोंकी अपेक्षा अशुद्ध कहलाती है। (विशेष-दे. नय IV/२/४) अशुद्ध चेतना-दे. चेतना। अशुद्धता-पं. ध/उ. १३० तस्या सत्यामशुद्धत्वं तद्द्वयोः स्वगुण
च्युतिः ॥१३०॥ --उस बन्धनरूप परगुणाकार कियाके होनेपर जो उन दोनों जीव कर्मो का अपने-अपने गुणोंसे च्युत होना है वह
अशुद्धता कहलाती है। अशुद्ध द्रव्याथिक नय-दे. नय IV/२ अशुद्ध निश्चय नय-दे. नय V/१ अशुद्धोपयोग-दे. उपयोग II/2/५ अशुभ नाम कर्म-दे, शुभ । अशुभ योग-दे. योग/२। अशुभोपयोग-दे, उपयोग II/४ । अशून्य नय-दे. नय 1॥५ अशोक-१. एक ग्रह-दे. ग्रह; २. विजयाधको उत्तर श्रेणी का एक नगर-दे. विद्याधरः ३. वर्तमान भारतीय इतिहासका एक प्रसिद्ध राजा। यह चन्द्रगुप्त मौर्य का पोता और बिम्बसारका पुत्र था । मगध देश के राज्यको बढ़ाकर इसने समस्त भारत में एक छत्र राज्यकी स्थापना की थी। यह बड़ा धर्मात्मा था। पहले जैन था परन्तु पीछेसे बौद्ध हो गया था। ई०पू०२६१ में इसने कलिंग देशपर विजय प्राप्त को और वहाँके महारक्तप्रवाहको देखकर इसका चित्त संसारसे विरक्त हो गया। समय-जैन मान्यतानुसार ई०पू० २७७-२३६ है, और इतिहासकारोंके अनुसार ई० पू० २७३-२३२ है (विशेष दे. इतिहास/३/४) अशोक रोहिणो व्रत-दे. रोहिणी व्रत । अशोक वृक्ष-दे. वृक्ष/२। अशोक संस्थान-एक ग्रह-दे, ग्रह । अशोका-१. अपर विदेहके कुमुदक्षेत्र की प्रधान नगरी-दे. लोक ५/२ ... नन्दीश्वर द्वोपको दक्षिण दिशामें स्थित एक वापी-दे. लोक ४/५ । अश्मक-भरत क्षेत्रके दक्षिणी आर्य खण्डका एक देश-दे, मनुष्य ४ । अश्व-१. चक्रवर्तीके १४ रत्नों में से एक -दे. शलाकापुरुष २:२. एक नक्षत्र-दे, नक्षत्र: ३. लौकान्तिक देवोंका एकभेद-दे.लौकान्तिक;
४. इस लौकान्तिकदेवक। लोकमें अरस्थान - दे. लोक/। अश्वकर्ण करण-क्ष. सा./भाषा ४६२ चारित्रमोहकी क्षपणा विधिमें, संज्वलन चतुष्कका अनुभाग, प्रथम काण्डकका धात भए पीछे, क्रोधसे लोभ पर्यन्त क्रमसे उसी प्रकार घटता हो है, जिस प्रकार कि घोड़ेका कान मध्य प्रदेशतै आदि प्रदेश पर्यन्त घटता हो है। इसलिए क्षपककी इस स्थितिको अश्वकर्ण कहते हैं। ऐसी स्थितिमें लाने की जो विधि विशेष उसे अश्वकर्णकरण कहते हैं। इसीका अपर नाम अपवर्तनोद्वर्तन व आन्दोलनकरणभी है (ध.६/१,६-८,१६/३६४/६)
२. अश्वकर्णकरण विधान क्ष. सा.गा,४६३-४६५/भावार्थ संज्वलन चतुष्कका अनुभागवन्ध वसत्व क्रम, प्रथम काण्डका घात होने से पहले निम्न प्रकार थामानका स्वाक (५११), क्रोधका विशेष अधिक (५१५), मायाका विशेष अधिक (५१८) नोभका विशेष अधिक (१२१) । यहाँ तक जो काण्डकघात होता था उसमें ग्रहण किये गये स्पधकोंका भी यही कम रहता था, परन्तु अब इस कममें परिवर्तन हो जाता है। प्रथम समय के अनुभाग काण्डका क्रम इस प्रकार हो गया-क्रोध स्पर्धक स्तोक ( ३८७); मानके विशेष अधिक (HEO); मायाके विशेष अधिक (५१०); लोभ के विशेष अधिक (५१६)। इस प्रकार काण्डकका घात भए पीछे शेष स्पधकों का प्रमाण-कोधमें १२८, मान में ३२, मायामें ८ और लोभमें २ मात्र रहे। इसी प्रकार इनके स्थिति-बम्ध व स्थिति-सवका भी यही क्रम हो गपा। यह अश्वकर्ण करण यहाँही समाप्त नहीं हो जाता. बल्कि आगे अपूर्व स्पर्धक करण' तथा 'कृष्टिकरण' में भो बराबर चलता रहता है। दे. स्पर्धक तथा कृष्टि । (क्रमशः) नोट-ऊपर जो गणनाओं का निर्देश किया है उन्हें सहमानीसमझना। क्ष.सा. ४८७-४८१ भावार्थ क मशः अश्व कणकरणका कुल काल अन्तमुहूर्त प्रमाण है। इस काल में हज़ारों अनुभागकाण्डक और हजारों स्थिति काण्डकघात होते हैं। जिससे कि अनुभागमें अनन्तगुणी हीनशक्तियुक्त अपूर्व स्पर्धकों की रचना हो जाता है। उसके अन्त समय तक स्थिति घटकर संचलनकी तो ८ वर्ष मात्र और शेष घातिया कर्मों को संस्थात वर्ष प्रमाण रह जाती है। अधातिमा कमों की स्थिति असंख्यात वर्ष मात्र रहती है । (क्रमशः) क्ष. सा. ५१० भावार्थ 1 (क्रमशः) अश्वकर्ण काल में क्षपक पूर्व व अपर्च स्पर्धकों का यथायोग्य वेदन भी करता है, अर्थात उन नवीन रचे गये स्पर्ध कों का उदय भी उसी काल में प्राप्त होता रहता है। अश्वग्रीव-म.प्र. १७/श्लो० नं. दूरवर्ती पूर्व भव में राजगृही के राजा विश्वभूतिके छोटे भाई विशारत्रभूतिका पुत्र विशास्वनन्दी था ॥७३॥ चिरकाल पर्यन्त अनेक योनियों में भ्रमण करनेके पश्चात पुण्यके प्रतापसे उत्तर विजयाध के राजा मयुरपौत के यहाँ अश्वयोव नामका पुत्र हुआ १८७-८८॥ यह वर्तमान युगका प्रथम प्रतिनारायण
था-दे० शलाका पुरुष ५। अश्वत्थ-पीपल का वृक्ष । अश्वत्थामा-पा.पु. सर्ग/श्लो० गुरु द्रोणाचार्यका पुत्र था (१०/ १५०-५२)। कौरवों को ओरसे पाण्डवों के साथ लड़ा (१६/५३) । अन्तमें अर्जुन द्वारा युद्ध में मारा गया (२०११८४) । अश्वपति-कैकेय देशका राजा-ई०पू० १४५० ।
1-अपर विदेहस्थ पद्मक्षेत्र की प्रधान नगरी-दे. लोक ५/२॥ अश्वमेघ दत्त-अर्जुन का दूसरा नाम-दे. अर्जुन । अश्विनी-एक नक्षत्र- दे. नक्षत्र । अश्विनी व्रत-वसु. श्रा. ३६६-३६७/भावार्थ- कुल समय१ वर्ष ; कुल उपवास-२८. विधि अश्विनी नक्षत्रमें व्रतविधिको प्रारम्भ करके आगे २७ नक्षत्रों में प्रत्येक अश्विनी नक्षत्रपर एक उपवास करे। अष्ट आयतन-दे. आयतन । अष्टदिगवलोकन-कायोत्सर्ग का एक अतिचार ।-दे. व्युत्सर्ग/। अष्ट द्रव्य पूजा-दे, पूजा। अष्ट पाहुड-दे. पाहुड़।
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अष्टपुत्र
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असंख्यात
अष्ट पुत्र भगवान् वीरके तीर्थ में हुए एक अन्तकृत केवली-दे.
अन्तकृत केवलो। अष्ट प्रवचन माता-दे. प्रवचन । अष्ट मंगल द्रव्य-दे. चैत्य चैत्यालय १/११ । अष्ट मध्यप्रदेश-१. जोवके आठ मध्यप्रदेश । दे.-जीव/४
२. लोलके पाठ मध्य प्रदेश-दे. लोक/२ । अष्टम पृथिवी-दे. मोक्ष/१ । | अष्टम भक्त-तीन उपवास-दे. प्रोषधोपवास/१ । अष्टमो व्रत-वत-विधान संग्रह/पृ. १२३---कुल समय ८ वष : कुल उपवास-१६६ विधि प्रतिमासकी प्रत्येक अष्टमीको उपवास करे । इस प्रकार आठ वर्ष को १६२ अष्टमी तथा दो अधिक मासों की ४ अष्टमी । कुल १६६ अष्टमियों के १६६ उपवास करे। जाप्यमन्त्रओं ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये नमः। इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। २. गन्ध अष्टमी व्रत; निःशल्य अष्टमी व्रत; मनचिन्तोअष्टमी व्रतदे० वह वह नाम। अष्ट मूलगुण-दे, श्रावक/४ । अष्टशतो-आचार्य समन्तभद्र (ई. श. २) कृत आप्तमीमांसा या देवागमस्तोत्रपर ८०० श्लोक प्रमाण आ. अकलंक भट्ट (ई. श.७) द्वारा रचित न्यायपूर्ण व्याख्या । (ती. २/३१७) । अष्टशुद्धि-दे, शुद्धि अष्टसहस्री-आ. समन्तभद्र (ई. श. २) द्वारा रचित आप्तमीमांसा अपरनाम देवागमस्तोत्रको एक वृत्ति अष्टशती नामको आ. अकलंक भट्टने रची थी। उसपर ही आ, विद्यानन्दने (ई०७७५-८४०) ८००० श्लोक प्रमाण वृत्ति रचो! यह कृति इतनो गम्भोर व कठिन है कि बड़े-बड़े विद्वान् भो इसे अष्ट सहस्रोको बजाय कष्टसहस्रो कहते हैं । (ती. २/३६४)। अष्टांक-क.पा५७२/३३३/८ कि अढ'के णाम । अणंतगुणवड्ढो । कथमे दिस्से अळंक तण्णा। अहमकाणमणतगुणवड्ढो त्तिदुवणादो । -- प्रश्न-अष्टांक किसे कहते हैं ! उत्तर-अनन्तगुणवृद्धिको । शंका-अनन्तगुण वृद्धिको अष्टांक संज्ञा कैसे है ? उत्तर--नहीं, क्योंकि आठके अंकको अनन्तगुणवृद्धिरूपसे स्थापना की गयी है । (अर्थात आठका अंक अनन्तगुणवृद्धिकी सहनानी है।) (ध.१२/ ४,२,७,२१४/१७०/७) (ल.सा./जो.प्र./४६/७६) गो. क. भाषा/५४६/२)
गो.जी./जी.प्र. ३२५/६८४) । ध, १२/४.२,७,२०२/१३१/६ कि अदु'कं णाम । हेठिमुबक सबजीव-
रासिगा गुणिदे ज ल द्ध तेत्तिपमेतेण हे ट्ठिमुखं कादो जमहियं ठाणं • तमटकं णाम । हेट्ठिमुन्व करूवा यिसव्वजीवरासिणा गुणि दे अळंकमुप्पज्ज दि त्ति भणि होदि। प्रश्न-अष्टांक किसे कहते हैं ! उत्तर-अघस्तन उर्वकको सब जोवराशिसे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतने मात्रसे, जो अधस्तन उर्व कसे अधिक स्थान है उसे अष्टांक कहते हैं। अधस्तन उबंकको एक अधिक सब जोवराशिसे गुणित करने पर अष्टांक उत्पन्न होता है, यह उसका अभिप्राय है। अष्टांग निमित्तज्ञान-दे. निमित्त/२ 1 इस ज्ञानके पृथक-पृथ
अंग-दे. वह वह नाम। अष्टांग हृदयोद्योत- आशाधर जो। (ई ११७३-१२५३) द्वारा
विरचित एक संस्कृत काव्य ग्रन्थ । अष्टाह्निक पूजा-दे० पूजा/१ ।
अष्टाह्निक व्रत-बत विधान संग्रह/पृ० ३६ व क्रियाकोश) । गणना-इस वतकी पाँच मर्यादाएँ हैं-५१,२४,१५,६,३ अष्टाझिकाएँ अर्थात १७ वर्ष, ८ वर्ष, ५ वर्ष, ३ वर्ष व १ वर्ष पर्यन्त किया जाता है। प्रतिवर्ष आषाढ़, कार्तिक व फाल्गुन मासके शुक्ल पक्षमें ८-१५ तक ८ दिन अष्टालिका पर्वके हैं। विधि-भी तीन प्रकार हैउत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य । उत्कृष्ट-सप्तमीके पूर्वार्ध भागमें एकाशन; ८.१५ तक ८ दिन उपवास; पड़वाकी दोपहर पश्चाव पारणा । मध्यम-सप्तमीको एकाशन; ८ को उपवास; ६ को पारणा; १० को भात व जल; ११ को एक बार अल्प आहार; १२ को पूरा भोजन; १३ को जलसहित नीरस एक अन्नका भोजन; १४ को भातं व मिर्च व जल: १५ को उपवास और पडिमाको पारणा। जघन्य-सप्तमीको दापहर पश्चात्से पडिमाको दोपहर तक पूर्ण शोलका पालन, धर्मध्यान सहित मन्दिर में निवास और मौन सहित प्रतिदिन अन्तराय टालकर भोजन । जाप्यमन्त्र- प्रत्येक दिन अपने-अपने दिन वाले मन्त्रको त्रिकाल जाप्य करनी। ८मीको-“ओं ह्रीं नन्दीश्वरसंजाय नमः ।"मो को-“ओं ह्रीं अष्टमहाविभूतिसंज्ञाय नमः।" १०मी को-"ओं ह्रीं त्रिलोक सारस ज्ञाय नमः।" ११ दशी को-"ओं ह्रीं चतुर्मखसंज्ञाय नमः ।" १२ दशोको-“ओं ह्रीं महालक्षणसंज्ञाय नमः ।" १३ दशोको-“ओं ह्रौं स्वर्ग सोपानसंज्ञाय नमः ।" १४ दशोको-“ओं ह्रौं सर्वसम्पत्तिसंज्ञाय नमः ।" पूर्णिमाको-“ओं ह्रीं इन्द्रध्वजसंज्ञाय नमः।" अष्टापद-म.पू. २७/७० शरभः खं सभुत्पत्य पतन्नुत्तापितोऽपि सन। नैव दुःखासिका वेद चरण पृष्ठप्रतिभिः ।७। = यह अशापद आकाशमें उछलकर यद्यपि पीठ के बल गिरता है. तथापि पीठपर रहनेवाले पैरोंसे यह दुःखका अनुभव नहीं करता। भावार्थ- अष्टापद एक जंगली जानवर होता है। उसकी पीठ पर चार पाँव होते हैं। जब कभी वह आकाश में छलांग मारनेके पश्चात् पीठ के बल गिरता है तो अपने पीठपर-के पैरोंसे सँभल कर खड़ा हो जाता है। असंकुचित विकासत्व शक्ति-स.सा /आ./परि शक्ति सं. क्षेत्र कालानबच्छिन्नचिद्विलासात्मिका असंकुचितविकासत्वशक्तिः॥१३॥ का क्षेत्र और कालसे अमर्यादित ऐसी चिद्विलास असंकुचितविकासत्वशक्ति ॥१३॥ असंक्षेपाद्धा-दे, अद्धा । असंख्यात-स.सि.२/३८/१६२/६ संख्यातीतोऽसंख्येयः । - संख्यातोतको असंख्येय कहते हैं । (रा.वा. २/३८/२/१४७/३१) *संख्यात असंख्यात व अनन्तमें अन्तर दे. अनन्त/२ ।
२. असंख्यातके भेद ध.३/१,२,१५/१२३-१२६ संक्षेपार्थ ।" नाम, स्थापना, द्रव्य, शाश्वत, गणना, अप्रादेशिक, एक, उभय, विस्तार, सर्व और भाव इस प्रकार असंख्यात ग्यारह प्रकार का है। (नाम स्थापना द्रव्य व भाव असं ख्यातों के उत्तर भेद निपों बत जानना) गणना संरख्यात तीन प्रकार है परीतासंख्यात, युक्तासंरख्यात और संख्यातासंख्यात। ये तीनों भी प्रत्येक उत्कृष्ट मध्यम और जघन्यके भेदसे तोन तीन प्रकारके हैं। (ति.प. ४/३१० को व्यारण्या) (रा.वा. ३/३८/५/२०६/३०) * नाम स्थापना द्रव्य व भाव-दे. निक्षेप ।
३. शाश्वतासंख्यात ध.३/१,२,१५/१२४ धम्मस्थियं अधम्मत्थियं दव्यपदे सगणण' पड्डुच्च एगसरूवेण अवट्ठिद मिदि कट्टु सस्सदासंखेज्ज । -धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यरूप प्रदेशोंकी गणनाके प्रति सर्वदा एक रूपसे अवस्थित हैं, इसलिए वे दोनों द्रव्य शाश्वतासंख्यात है।
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असंख्यात
४ अप्रदेशासंख्यात
५.३/९.२.१७/१२/१ ज त अपने साज जोगापोर्ट - एगो जोवपदेसो । अथवा सुण्णेय भगो, असखेज्जपज्जायाणमाहारभूद - अपएस एगदव्याभावादो। योग विभाग में जो अविभास प्रतिच्छेद बराला है. उनकी अपेक्षा जीवका एक प्रदेश प्रदेशासा है अपना असख्यातमें उसका यह भेद शून्य रूप है, क्योंकि, असंख्यात पर्यायोके आधारभूत अप्रदेशी एक द्रव्यका अभाव है । कुछ आत्माका एक प्रदेश द्रव्य तो हो नहीं सकता, क्योंकि, एक प्रदेश जीव द्रव्यका अवयव है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर जीवका एक प्रदेश भी द्रव्य है, क्योकि, अवयवोसे भिन्न समुदाय नहीं पाया जाता है । ५ एका संख्यात
घ. ३/१,२,१५/१२५/३ ज त एयासखेज्जयं त लोयायासस्स एक दिसा । दो । सेढिगारेण लोयस्स एगदिस पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच संखाभावादो। लोकाकाशको एक दिशा अर्थात् एक दिशास्थित प्रदेशपंक्ति एका सख्यात है, क्योंकि, आकाश प्रदेशोंकी श्रेणी रूपसे लोकाकाकी एक दिशा देखनेपर प्रदेशोंकी गणनाको अपेक्षा उसकी गणना नहीं हो सकती ।
६ उभयासंख्यात
ध. ३/१,२,१५/१२५/४ ज तं उभयासंखेज्जयं तं लोयायासस्स उभयदिसाओ, ताओ, पेमाणे पदेसगणण पहुच संखाभावादी लोका काशकी उभय विद्याओं अनय दो दिशाओोमें स्थित प्रदेश पक्ति उभयसंख्यात है, क्योंकि, लोकाकाशके दो ओर देखनेपर प्रदेशोकी की अपेक्षा वे सख्यातीत है ।
७ विस्तारासंस्थात घ. ३/१२.१३/१२/७ विचारासंखेणं त होगागासपदर, लोगपदरागारपदेसगणण पडुच्च संखाभावादी । प्रतर रूप लोकाकाश विस्तारासख्यात है, क्योंकि, प्रतररूप लोकाकाशके प्रदेशोकी गणना की अपेक्षा संख्यातीत है।
८ सर्वासंख्यात
भ. ३/१.२.१५/१२५६ पणागारे लोग पैवमोष पदेसगगध पच संखाभावादो । ज त सव्वासखेज्जयं त घणलोगो । घनलोक सर्वासख्यात है, क्योंकि, घनरूपसे लोकके देखनेपर प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा ने संख्यातीत है।
९ गणनासंख्यात
१ जघन्य परीतासंख्यात
रा. बा. २/३८/५/२०६/१७ रूयमाणामार्थ जम्बूद्दीपतुल्यायामविष्कम्भ' योजनासहस्रावगाह' बुद्धया कुशूलाश्चत्वार कर्तव्याशलाका प्रतिशलाका - महाशला काव्यास्त्रयोऽवस्थिता' चतुर्थोऽनवस्थितः अत्र हौ सर्प पो निमन्यमेतत्संख्येयमाणम् समनवस्थितं सर्प पूर्ण गृहीत्वा कश्चिद्रदेव एकैकपकेक स्मिन् द्वीपे समुद्र प्रक्षिपेतेन विधिना सरिक्त रिसइति शलाका एक प्रक्षिपेत्यत्र अन्य निक्षितस्तमधिकृत्वा अनवस्थित कुशूलं परिकल्प्य सर्षपै पूर्णं कृत्वा ततः परेषु द्वीपसमुद्रेष्वेकैक सर्षपप्रदानेन स रिक्त कर्त्तव्यः । रिक्त इति शलाकाकुशले पुनरेक प्रक्षिपेत् । अनेन विधिना अनवस्थितकुशूलपरिवर्धनेन शलाकाकुशूले परिपूर्णे पूर्ण इति प्रतिशलाकाकुले एकः सर्पयो प्रय एवं तावत्कथ्यो यामतिशला परिपूर्णो भवति परिपूर्णे इति महाले एक सर्प यः सोऽपि तथैव परिपूर्ण । एवमेतत् चतुर्ष्वपि पूर्णेषु उत्कृष्टसख्येयमतोत्य जघन्यपरीता - संख्येये गयेक रूपं पतितम् संख्ये प्रमाणके ज्ञानके लिए जम्बू
•
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असंख्यात
द्वीप के समान १ लाख योजन लम्बे-चौड़े और एक योजन गहरे शलाका प्रतिशलाका महाशलाका और अनवस्थित नामके चार कुण्ड बुद्धिसेव करने चाहिए। अनवस्थित कुण्डमें दो सरसो डालने चाहिए। यह जघन्य संख्याका प्रमाण है। उस अनवस्थित कुण्डको सरसो से भर देना चाहिए। फिर कोई देव उससे एक-एक सरसोको क्रमश एक-एक द्वीप सागर में डालता जाय। जब वह कुण्ड खाली हो जाय तब शलाका कुण्डमें एक दाना डाला जाय। जहाँ अनवस्थित कुण्डका अन्तिम सरसो गिरा था उतना वडा अनवस्थित कुण्ड कल्पना किया जाय। उसे सरमोसे भरकर फिर उससे आगे के द्वीपो में एक-एक सरसो डालकर उसे खाली किया जाय। जब खाली हो जाय तब शलाका कुण्डमें दूसरा सरसो डाले। इस प्रकार अनवस्थित कुण्डको तब तक बढाता जाय जब तक शलाका कुण्ड सरसोंसे न भर जाय । जब शलाकाकुण्ड भर जाय तब एक सरसो प्रतिशलाका कुण्ड में डाले इस तरह उसे भी भरे। जब प्रतिशलाका कुण्ड भर जाय तब एक सरसों महाशलाका कुण्डमें डाले । उक्त विधिसे जब वह भी परिपूर्ण हो जाय तब जो प्रमाण आता है, वह उत्कृष्ट संख्यातसे एक अधिक जघन्य परीतासं ख्यात है ।
=
रा. वा. हि / फुट नोट-कुल सरसोका प्रमाण आठ सरसों - १ यव: आठ यव - १ अंगुल, २४ अंगुल १ हाथ ४ हाथ - १ धनुष, २००० धनुष - १ कोस; ४ कोस = १ व्यवहार योजन ५०० व्यवहार योजन = १ बडा योजन | अब १००,००० योजन विष्कम्भ के १००० योजन गहरे कुण्डका घन प्रमाण = (५०,०००) २ x २२/७×१००० = ७५x१०१३ यो० । १ घन योजनमें सरसोका प्रमाण = (८x८४२४४४४२०००x४४५००) ३ ७५१० १ - १६०६१२०६२६६१६८१० ११ कुण्डके ऊपर शिखायें सरसों - १७६६२००८४४५५१६३६ – ३६ ३६ ३६ ३३ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३१ प्रथम कुण्डमे कुल सरसो १६६७१९२६३८४ ५१३१६-३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३११ (४५ अक्षर) अन्तिम कुण्ड में सरसोका प्रमाण ४५ अक्षर असंख्यात् । २ उत्कृष्ट परीतासख्यात
१३
|
रा वा ३/३८/५/२०७/२ जघन्ययुक्तासंख्येय गत्वा पतितम् । अत एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टपरीतास ख्येय भवति । = - जघन्य युक्तसख्यात होता है । (दे. आगे स ४ ) उसमें एक कम करने पर उत्कृष्ट परोतासंख्यात होता है।
३ मध्यम परीतासंख्यात
बीच के
रा. बा ३/१८/५/२००/३ मध्यमजघन्योत्कृष्टपरीतासंख्येयम्। वि अजयकृष्ट परीता सस्येय है (तीनों भेदोका कथन [वि. प ४ / ३०६ / प १७६ व्याख्या) (त्रि. सा. १४-३६)
४ जघन्य युक्तासख्यात
राका २/१८/५/२०६/१३ यजपन्वपरीतास स्येव तद्विरलीकृत्य मुक्ताबलीकृता अत्रैकैकस्यां मुक्ताया जधन्यपरीतासंख्येय देयम् । एव
गितम् प्राथमिक मुक्तावलीमपनीय यान्येकस्यां मुक्तायां अक्षम्य परोतासंख्येयानि दत्तानि तानि पिण्डव मुक्तावली कार्या ततो यो जधन्यपरीतास स्पेयर्स पिण्डाझिम शशि स देय एकैकस्य मुक्तायाम् एवमेतरसवर्गितम् उत्कृष्टपता येतीय जघन्ययुक्तासंख्येयं गत्वा पतितम् । जघन्य परीतासंख्येयको फैलाकर मोती के समान जुदे-जुदे रखना चाहिए। प्रत्येकपर एक एक जघन्य परीतासंख्येयको फैलाना चाहिए। इनका परस्पर वर्ग करे । जो जघन्यपरीतासख्येय मुक्तावलीपर दिये गये थे उनका गुणाकार रूप एक राशि बनावे। उसे विरलनकर उसपर उस वर्गित राशि को दे । उसका परस्पर वर्ग कर जो राशि आती है वह उकृत्ष्ट परीतासख्येयसे एक अधिक जघन्य युक्तासख्यात होती है । (यदि क= | - (ज. ज. परी असं
परो. असं.)
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क =
तो क (ज. यु. अस) ।
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असंख्येय
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असत
५ उत्कृष्टयुक्तासंख्यात रा बा ३/३८/५/२०७/६ तत एकरूपेऽपनीते उत्कृष्ट युक्तासंख्येयं भवति)
-उस (जघन्य असंख्येयासख्येय) मे से एक कम कर लेनेपर उत्कृष्ट युक्तासख्येय होती है।
६ मध्यमयुक्तासरख्यात रावा ३/३८/५/२०७/६ मध्यमजघन्योत्कृष्टयुक्तासख्येय भवति । बीच
के विकल्प मध्यम युक्तासख्येय होते है। (तीनो भेदोका कथन ति. प४/३१०/ १८० व्याख्या) (त्रि. सा ३६-३७)।
७ जघन्य असख्येयास ख्यात रा वा ३/३८/१/२०७/४ यज्जघन्ययुक्तासख्येय तद्विरलीकृत्य मुक्तावली रचिता। तत्रैकयुक्ताया जघन्ययुक्तासख्येयानि देयानि । एवमेतत् सकृदर्गितमुत्कृष्टयुक्तासंख्येयमतीत्य जघन्यासख्येयासख्येय गत्वा पतितम् । जघन्ययुक्तासख्येयको विरलनकर प्रत्येकपर जघन्ययुक्तासख्येयको स्थापित करे । उनका वर्ग करने पर जो राशि आती है वह जघन्य असल्यास ख्य है। (ज य अस)ज यु असं ।
८ उत्कृष्ट असंख्येयासख्यात रा वा ३/३८/५/२०७/७ यज्जवन्यासख्येयासख्येय तद्विरलीकृत्य पूर्वविधिना त्रान्वारान् वर्गितमवर्गित उत्कृष्टासख्येयासख्येय न प्राप्नाति। ततो धर्माधर्म कजोबलोकाफाशरत्येकशरीरजीवबादरनिगोतशरोराणि पडप्येतान्यसख्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानापनुभ गन्धाश्थ्यवसायस्थानानि योगाविभागपरिच्छेदरूपाणि चासरूपेपनाकप्रदेशप्रमाणान्युत्सपिण्यवसर्पिणीसमयाश्च कृत्वा उत्कृष्टसब्स सख्ये प्रमतात्य जघन्यपरीतान्त गत्वा पतितम् । तत् एकरूपनोते उत्कृष्टासख्येयासख्येय तद्भाति । - जघन्य असंख्येयासख्प्रेयका पिर ननकर पूर्वोक्त विविसे तन बार वर्गित करनेपर भी उत्कृष्ट असख्येयासख्येय नही होता यदि(क-ज.अस अ )ज अस अस तो ख' = क * और गख ख मा उत्कृष्ट असंख्येयासख्येय से कुछ कम । इसमें धर्म, अधर्म, एक जीव, लोकाकाश, प्रत्येक शरोर जीव बादरनिगोत शर।र ये छहो असख्येय स्थिति-- बन्धाध्यवसाय स्थान, योगके अविभागप्रतिच्छेद, उत्सर्पिणी व अव नर्पिगा कनके सनय, इस सबोको जाने पर फिर तीन बार वर्गित सवर्गित करने पर उत्कृष्ट सरव्येयासख्येयसे एक अधिक जघन्य परीतानन्त होता है। इसमे से एक कम करनेपर उत्कृष्ट असख्येयासख्येय होता है। अर्थात- (ग+राशि+४राशि (ग+६ राशि+४ राशि) == 'प' फ=पपन-फफ ..ज, पर'. अन./ (दे अनन्त) उत्कृष्ट असम्येयासख्येय-ब-१।
९ मध्यम असख्येयासंख्यात रा बा ३/3८/५/२०७/१२ मध्यममजघन्योत्कृष्टा सख्येयासंख्येय भवति ।
-मब्यके विकल्प अजघन्योत्कृष्ट असख्येयासंख्येय हैं। (तीनो भेदोके लक्षण ति प ४/३१०/१८१-१८२); (त्रि सा ३७-४५) । * आगममे 'असंख्यात' की यथास्थान प्रयोग विधि
___ दे. गणित I/१/६ असंख्येय-दे अस ख्यात ह असंख्यासंख्येय-दे. अस ख्यात १/७ असंज्ञी-दे संज्ञी असंचार-दे सचार असंदिग्धरा बा ५/५/५६४/१८ स्फुटार्थ व्यक्ताक्षर चासदिग्धम् ।-जामें अर्थ स्पष्ट होय और अधर व्यक्त होय सो अस दिग्ध कहिये । (चा सा ६७/१)। असंप्राप्तसृपाटिका-दे सहनन
असंबद्ध प्रलाप-दे वचन आज असंभव- लक्षणका एक दोष-दे लक्षण, २. आकाशपुष्प आदि
अस भव वस्तुएँ-दे असत् । असंभ्रांत-प्रथम नरकका सातवाँ पटल-दे, नरक। ५/११ व
रत्नप्रभा। असमार-यो सा/अ८/८२,८६) बुद्धिमक्षाश्रिया तत्र ज्ञानमार्गम पूर्वक । तदेव सदनुष्ठानमसंमोह विदो विदु ॥४२॥ सन्त्यसंमोहहेतूनि कर्माण्यत्यन्तशुद्धित । निर्वाणशर्मदायीनि भवातीताध्वगामिनाम् ॥८६॥ - इन्द्रियाधीन बुद्धिको जो ज्ञान आगमपूर्वक व सदनुष्ठान (आचरण) पूर्वक होता है, वह ज्ञान ही असंमोह है ।।२। असंमोहके हेतु अत्यन्त शुद्व वे कर्म है जो कि भवसे अतीत निर्वाण सुखको देनेवाले है। असंयतसम्यग्दृष्टि-दे. सम्यग्दृष्टिा५ । असंयम- सं प्रा. १११३७ जोवा चउदसभेया इदियविसया य अट्ठबीस तु । जे तेसु णेय विरया असजया ते मुणेयव्या॥१३७1-जीव चौदह भेद रूप हैं और इन्द्रियोके विषय अट्ठाईस है। जीवघातसे और इन्द्रिय विषयोंसे विरत नहीं होनेको असयम कहते हैं । जो इनसे विरत नही हैं उन्हे असंयत जानना चाहिए। (ध. १/१,१, १२३/१६४/३७३) (गो. जी./मू. ४७८) (प सं./सं. २४७-२४८) । रा वा २/६/६/१०६ चारित्रमोहस्य सर्बधातिस्पर्धकस्योदयाव प्राण्युपद्यातेन्द्रियविषये द्वेषाभिलाष निवृत्तिपरिणामरहितोऽसंयन औदयिक 1 चारित्रमोहके उदयसे होनेवाली हिंसादि और इन्द्रियविषयोमें प्रवृत्ति असयम है । (स. सि. २/५/१५६/८)। प्रसा/त.प्र/२२१ शुद्धात्मरूपहिंसनपरिणामलक्षणस्यासंयमस्य । - शुद्धा___त्मस्वरूपकी हिंसारूप परिणाम जिसका लक्षण है, ऐसा असंयम...। पं. ध उ/११३५ वताभावात्मको भावो जीवस्यासयमो यत । -बतके अभावरूप जो भाव है वह असयम माना गया है।
२. इन्द्रिय व प्राण असयम ध८/३.६/२१/२ असजमपच्चओ दुविहो इदियासंजमपाणासजमभेएण ।
तत्य इदियास जमो छविहो परिस-रस-रूब-गंध-सद्द णोइ दियासजमभेएण। पाणास जमो वि छवि हो पृढवि-आउ-तेउ-बाउवणप्फदितसासजमभेएण। -असयम प्रत्यय इन्द्रियासंयम और प्राणासंयमके भेदसे दो प्रकारका है। इन्द्रियासंयम स्पर्श रस रूप गन्ध शब्द और नोइन्द्रिय जनित असयम के भेदसे छह प्रकारका है। प्राण असयम भी पृथिवी. अप् तेज, वायु, वनस्पति और त्रस जीवोंकी विराधना से उत्पन्न असयमके भेदसे छह प्रकारका है। असंसार-दे. संसार। असग-(भ, आ./प्रा २ प्रेमीजी)। शक सं०६१० (ई०६८८) के एक ___ महाकवि । आप नागनन्दि आचार्यके शिष्य थे। आपने वर्द्धमान
चारित्र व शान्तिनाथ पुराण लिखे है। (ती/४/११) । असत्-स. सि. १/३२/१२८/७ असदाविद्यमानमित्यर्थः ।-असतका
अर्थ अविद्यमान है। न वि./वृ १/४/१२१/७न सदिति विजातीयविशेषव्यापकत्वेन न गच्छतीत्यसत । जो विशेष व्यापक रूपसे प्राप्त होता हो सो असत है।
२ आकाशपुष्पादि असंभव वस्तुओंका कथंचित् सत्त्व रा, वा २/८/१८/१२१/२२ कर्मावेशवशात नानाजातिसंबन्धमापन्नवतो जीवतो जीवस्य मण्डूकभावावाप्तौ ततव्यपदेशभाज पुनर्युवतिजन्मन्यवाप्ते य शिखण्डक' स एवायम्' इत्येक्जीवसमन्धित्वात मण्डूकशिखण्ड इत्यस्ति । एवं बन्ध्यापुत्र-शश विषाणादिष्वपि योज्यम् ।
आकाशकुसुमे क्थम् । तत्रापि यथा वनस्पतिनामकर्मोदयापादित विशेषस्य वृक्षस्य जीव पद्धगलसमुदायस्य पुष्पमिति व्यपदिश्यते, अन्यदपि पुद्गलद्रव्य पुष्पभावेन परिणतं तेन व्याप्नत्वात् । एबमाका
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असत्य
शेनातिव्याप्तत्व समान मिति तत्तस्यापीति व्यपदेशो युक्त । अथ तत्कृतोपकारापेक्षया तस्येत्युच्यते, आकाशकृतावगाहनोपकारापेक्षया कथ तस्य न स्यात् । वृथात् प्रच्युतमप्याकाशान्न प्रच्यवते इति नित्य तत्सम्बन्धि । अथ अर्थान्तरभावात्तस्य न स्यादिति मतम्, वृक्षस्यापि न स्यात् । -वह सत् भी सिद्ध हो जाता है। यथा--कोई जीव मेंढक था और वहा जाय जब युवतीको पर्यायको धारण करता है तो भूतपूर्वनयकी अपेक्षा उस युवतीको भी हम मेंढक कह ही सकते है।
और उसके युवतोपर्यायापन्न मण्डूककी शिखा होनेसे मण्डूकशिखण्ड व्यवहार हो सकता है। इसी प्रकार वन्ध्यापुत्र व शशविषाणादिमें भी लागू करना चाहिए। प्रश्न-आकाशपुष्पमें कैसे लागू होता है । उत्तर-वनस्पति नामकर्मका जिस जीवके उदय है। वह जोव और पुदगल का समुदाय पुष्प कहा जाता है। जिस प्रकार वृक्षके द्वारा व्याप्त होनेसे वह पुष्प पुदगल वृक्षका कहा जाता है, उसी तरह आकाशके द्वारा व्याप्त होने के कारण आकाशका क्यों न कहा जाय। वृक्षके द्वारा उपकृत होनेके कारण यदि वह वृक्षका कहा जाता है तो आकाशकृत अवगाहनरूप उपकारको अपेक्षा उसे आकाशका भी कहना चाहिए। वृक्षसे टूटकर फून गिर भो जाय पर आकाशसे तो कभो भो दूर नहीं हो सकता, सदा आकाशमें हो रहता है। अथवा मण्डूकशिखण्डविषयक ज्ञानका विषय होनेसे भी (ज्ञान नयकी अपेक्षा) मण्डूक शिखण्डका सद्भाव सिद्ध मानना चाहिए। रा बा.४१८/१०/४६७/३२ खरो मृत गौर्जात स एव जोब इत्येकजीवविवक्षायां खरव्यपदेशभाजो जीवस्य गोजातिसक्रमे विषाणोपलब्धे. अर्थवरविषाणस्यापि जात्यस्तित्वसद्भावात उभयधर्मासिद्धता। - कोई जीव जो पहिले वर था, मरकर गौ उत्पन्न हुआ और उसके सीग निकल आये। ऐसी दशामें एक जीवकी अपेक्षा अर्थरूपसे भी 'खरविषाण' प्रयोग हो ही जाता है । (स० भ० त..५४/१)
* असत्का उत्पाद असम्भव है-दे० सत् असती पोष कर्म-दे सावद्य ।। असत्य
१ प्राणिपीडाकारी वचन भ आमू ८३२-८३३ परुस कडुय वयण वेर कलह च भय कुणइ। उत्तासणं च हीलणमपियवयण समासेण ॥८३२॥ हासभयलोहकोहप्पदोसादोहिं तु मे पयत्तेण । एव असतवयणं परिहरिदव्व विसेसेण ॥८३३॥ - मर्मच्छेदी परुष वचन, उद्वेगकारी कटु बचन, वैरोत्पादक, कलहकारी, भयोत्पादक, तथा अवज्ञाकारी बचन इस प्रकारके अप्रिय वचन है। तथा हास्य भीति लोभ क्रोध द्वष इत्यादि कारणोसे बोले जानेवाले वचन, सब असत्य भाषण है। हे क्षपक । उसका तू प्रयत्नसे विशेष त्याग कर। स सि ७/१४/३५२/६ न सदप्रशस्तमिति यावत । मृतं सत्य, न ऋतमनृतम् । किं पुनरप्रशस्तम्। प्राणिपीडाकर यत्तदप्रशस्तं विद्यमानार्थविषय वा अविद्यमानार्थ विषय वा । उक्त च प्रागेवाहिंसावतपरिपालनार्थमितरबतम् इति। तस्माद्धिसाकर वचोऽनृतमिति निश्चेयम् । m सत शब्द प्रशंसावाची है। जो सत नही वह असत् है। असत्का अर्थ अप्रशस्त है। ऋतका अर्थ सत्य और जो ऋत नहीं है वह अनृत है। प्रश्न-अप्रशस्त किसे कहते है। उत्तर - जिससे प्राणियोंको पीडा होती है उसे अप्रशस्त कहते हैं । भले ही वह चाहे विद्यमान पदार्थको विषय करता हो या चाहे अविद्यमान पदार्थको विषय करता हो । यह पहिले ही कहा है कि दोष बत अहिंसा व्रतकी रक्षाके लिए है। इसलिए जिससे हिसा हो वह वचन अनृत है ऐसा निश्चय करना चाहिए। (रा बा ७/१४/३-४।५४२/१) चा सा. ६२/२) रावा.७/१४/५/५४२/११ असदिति पुनरुध्यमाने अप्रशस्तार्थ यत् तत्सर्व मनृतमुक्त' भवति । तेन विपरीतार्थस्यप्राणिपीडा करस्य चानृतत्व
मुपपन्न भवति- 'असत' कहनेसे जितने अप्रशस्त अर्थवाची शब्द हैं, वे सब अनृत कहे जायेगे। इससे जो विपरीतार्थ वचन प्राणिपीडाकारी हैं वे भी अनृत है । (पु सि उ ६५)। श्लो.वा /मू ७/१४ स्वपरसंतापकरणं यद्वचोऽसिना। यथा दृशार्थमप्यत्र
तदसत्य विभाव्यते। -जो वचन अपनेको तथा दूसरेको कष्ट पहुँचानेवाला हो वह वचन 'जैसा देखा तैसा बतानेवाला' होनेपर
भी असत्य है। ध १२/४,२,८,३/२७६/४ किमसतवयणं। मिच्छत्तासजमकसाय-पमादुट्ठावियो वयणकलापो।-प्रश्न-असत वचन किसे कहते है। उत्तरमिथ्यात्व, असयम, कषाय और प्रमादसे उत्पन्न वचन समूहको असत वचन कहते है।
२ असत्यका अर्थ अलीक वचन त.सू.७/१४ असदभिधानमनृतम् । असत वचनको अनृत कहते है। स सि ७/१४/३५२.२ असतोऽर्थस्याभिधानमसदभिधानमनृतम् । जो
पदार्थ नहीं है उसका कथन करना अनृत असत्य कहलाता है। रावा,७/१४/१/५४२/४ भूतनिह्नवेऽभूतोद्भावने च यदभिधानं तदेवानृत स्यात्, भूतनिहवे नास्त्यात्मा नास्ति परलोक इति । अभूतोद्भावने च श्यामाकतन्दुलमात्रमात्मा अङ्ग ठपर्वमात्र सर्वगतो निष्क्रिय इति च। -विद्यमानका लोप तथा अविद्यमानके उद्भावन करनेवाले 'आरमा नहीं है', 'परलोक नहीं है'. 'श्यामतदुलके बराबर आत्मा है' 'अगूठेके पोर बराबर आत्मा है', 'आत्मा सर्वगत है', 'आरमानिष्क्रिय है' इत्यादि वचन मिथ्या होनेसे असत्य है । (चा,सा १२/१) सा ध ४/३६ कन्यागोक्ष्मालीककूटसाक्ष्यन्यासादपलापवत ।- कन्या अलीक, गौ अलीक, कूटसाक्षी, न्यासापलाप करना असत्य है।
३. असत्यके भेद भ. आ/मू ८२३ परिहर असतवयण सव्वं पि चेदुविधं पयत्तेण ।
- असत्य वचनके चार भेद है, जिनका त्याग है क्षपक । तु प्रयत्न पूर्वक कर । ध.१/१,१,२/११७/६ द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रयमनेकप्रकारमनृतम् । -द्रव्य
क्षेत्र काल तथा भावकी अपेक्षा असत्य अनेक प्रकारका है। पु.सि उ हर तदनृतमपि विज्ञेय तदभेदा चत्वार ॥११॥ - उस अनृतके चार भेद है।
१. सत्प्रतिषेध रूप असत्य भ.आ/मू ८२४ पढम असतवयण सभूदत्थस्स हीदि पडिसेहो । णस्थि णरस्स अकाले मुञ्चत्ति जधेवमादीयं ॥८२४॥-अस्तित्त्वरूप पदार्थका निषेध करना, यह प्रथम असत्य वचनका भेद है-जैसे 'मनुष्योंको
अकालमें मृत्यु नहीं है' ऐसा कहना। पुसि उ १२ स्वक्षेत्रकालभावै सदपि हि यस्मिन्निषिद्धयते वस्तु । तत्प्रथममसत्य स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र १२॥ -जिस वचनमें अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, करके विद्यमान भी वस्तु निषेधित की जाती है, वह प्रथम असत्य होता है, जैसे यहाँ देवदत्त नहीं है।
२. अभूतोद्भावन रूप असत्य भ आ/मू ८२६ जं असभूदुब्भावणमेद विदियं असंतवयण तु। अस्थि सुराणमकाले मुञ्चत्ति जहेवमादीयं ॥८२६॥ जो नही है उसका है कहना यह असत्य वचनका दूसरा भेद है. जैसे देवोकी अकाल मृत्यु नहीं
है, फिर भी देवोकी अकाल मृत्यु बताना इत्यादि । पु.सि उ १३ असदपि हि वस्तुरूप यत्र परक्षेत्रकालभविस्तै उदभाव्यते द्वितीय तद नृतमरिमन् यथास्ति घट । --जिस वचनविष पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों करके अविद्यमान भी वस्तुका स्वरूप प्रगट किया जाता है, वह दूसरा असत्य होता है। जैसे-यहाँ पर घडा है।
३. अनालोच्य रूप असत्य भ.आ./मू.८२८ तदियं असंतवयर्ण सत जं कुण दि अण्णजादीग ।
अविचारित्ता गोणं अस्सोत्ति जहेवमादीयं ।-एक जातिके सत्पदार्थ
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असत्यवचनयोग
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असिद्ध हेत्वाभास
को अन्य जातिका सत्पदार्थ कहना यह अपत्यका तीसरा भेद है।
असाधारण-दे. साधारण । जैसे-बैल है उसका विचार न कर यहाँ घोड़ा है ऐसा कहना। यह कहना विपरीत सत पदार्थका प्रतिपादन करनेसे असत्य है।
असाम्यता-घ/प्र २७) गणित inequality | पुसि.उ ६४ वस्तु सदपि स्वरूपात पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् ।।
असावद्य कर्म-दे सावद्य/४। अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति प्रथा श्व ॥ = स्व द्रव्यादि
असिकर्म-दे सावद्य/३ । चतुण्यसे वस्तु सत होने पर भी परचतुष्टय रूप अताना तीसरा अनृत है। जैसे बैल को 'घोडा है ऐसा कहना।
असिक्थ-भ आ/वि ७००1८८२/७ असिस्थग सिक्थरहितं ।
___भातके सिक्थ जिसमें नहीं है ऐसा माड असिस्थग है। ४. असूनृत रूप असत्य
असितपर्वत-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे भ आ /सू ८२६ जं वा गरहिदवयणं ज वा सावज्जस जुद वयण । ज वा अप्पियवयण असत्सवयणं च उत्थं च । - जो निंद्य वचन बोलना, जो
विजयाई । अप्रियवचन बोलना, और जो पाप युक्त वचन बोलना बह सत्र चौथे असिद्धत्व-दे पक्ष । प्रकारका असत्य वचन है।
रा बा २/६/७/१०६/१८ अनादिकर्म बन्धसतानपरतत्रस्यात्मनः कर्मोपुसि.उ ६५गर्हितमत्रासयुतम प्रियमपि भवति वचन रूपं यत् । सामान्येन दयसामान्ये सति असिद्धत्वपर्यायो भवतीत्यौदयिक स। पुनर्मिथ्यात्रेधा मनगिदमनृतं तुरोय तु । - यह चौथा झूठका भेद तीन प्रकारका दृष्टयादिषु सूक्ष्मसाम्परायिकान्तेषु कर्माष्टकोदयापेक्ष, शान्तक्षीणहै-गर्हित अर्थात् निंद्य,सावध अर्थात हिसा युक्त, और अप्रिय । कषाययो सप्तकर्मोदयापेक्ष , सयोगिकेवल्ययोगिकेवलिनोरघाति* गहित ट अप्रिय आदि वचन--दे वचन
कर्मोदयापेक्ष | अनादि मबद्ध आत्माके सामान्यत सभी वर्गों के
उदयसे असिद्ध पर्याय होती है । दसवें गुणस्थान तक आठों कर्मोंके * असत्यका हिसामे अन्तर्भाव-दे अहिमा ३
ज्दयसे ग्यारहवे और बारहवे गुण स्थानमे मोहनीयके सिवाय सात असत्यवचनयोग-दे वचन
कर्मों के उदयसे, और सयोगी और अयोगीमे चार अघातिया कर्मोके असत्योपचार-दे उपचार
उदयसे असिद्धत्व भाव होता है। (स. सि. २/६/१५६/६) (ध /पु.
५/१७१/१८६/६), असद्भाव स्थापना-दे. निक्षेप ४
प ध /उ ११४३ नेद सिद्धत्वमत्रेति स्यादसिद्धत्वमर्थत । संसार असद्भूत नय-दे नय V५
अवस्थामें उक्त सिद्ध भाव (अष्ट कर्मरहित अष्टगुण सहित) नही होता, असमवायी-दे समवाय
इस कारणसे यह असिद्धत्व कहलाता है। असमीक्ष्याधिकरण-दे, अधिकरण
२ असिद्धत्व भावको औदयिक कहनेका कारण असम्यक् ववनोदाहरण-दे उदाहरण
ध १४/५,८,१६/१३/१० अघाइकम्मच उक्कोदयजणिदमसिद्धसं णाम ।-चार
अघाति कर्मोके उदयसे हुआ असिद्धत्व भाव है। असर्वगतत्व-दे. सर्व गतत्व
प.ध./उ./११४१ असिद्धत्वं भवेद्भावो नूनमौदयिको मत' । व्यस्ताद्वा असहा-भ. आ/वि १५०/३४५/११ जिनायतनं यतिनिवास वा
स्यात्समस्ताद्वा जात कर्माष्टकोदयात् ॥ ११४१॥ असिद्धत्वभाव प्रविशन् प्रदक्षिणीकुर्यान्निसी धिकाशब्द प्रयोग च । निर्गतुकाम
निश्चय करके औदयिकभाव होता है क्योकि असमस्तरूपसे अथवा आमोपिकेति । आदिशब्देन परिगृहीतस्थानभोजन शयनगमनादि
समस्तरूपसे आठो कर्मोके उदयसे होता है। क्रिया । - जिनमन्दिर अथवा यतिका निवास अर्थात मठमें प्रवेश कर असिद्ध पक्षाभास-दे. पक्ष । प्रदक्षिणा रे । उस समय निसिधिका शब्दका उच्चारण कर, और
असिद्ध हेत्वाभास- मु६/२२ असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्ध.॥२२॥ बहासे लौटते समय आसाधिका शब्दका उच्चारण करें। इसी तरह
- जिसकी सत्ताका पक्षमें अभाव हो और निश्चय न हो उसे असिद्ध स्थान, भोजन, शयन, गमनादि क्रिया करते समय भी मुनियोको
कहते है। प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए। अन,ध ८/१३२-१३३ वसत्यादौ विशेत् तत्स्थ भूतादि निसहोगीरा ।
न्या /वि/वृ. २/१९७/२२६/ तथा साध्ये सत्यसति च यस्यासिद्धिरसौ आपृच्छच तस्मानिर्गच्छेत्तचापृच्छयासही गिरा ॥ ३२॥ आत्मन्या
असिद्धो नाम । तया साध्यके होनेपर अथवा न होनेपर जिसकी सिद्धि स्मासितो येन त्यक्ता वाशास्य भावत । नीसह्यसह्यौ स्तोऽन्यस्य
नही होती, वह हेतु असिद्ध कहलाता है । तदुच्चारणमात्रकम् । ॥१३३॥ साधुओको जम मठ चैत्यालय या न्या दी. ३/६४०/८६ 'अनिश्चितपक्षवृत्तिरसिद्ध , यथा अनित्य शब्दवसति आदिमें प्रवेश करना हो तब उन मठादिकोमे रहनेवाले भूत श्चाक्षुषन्वात अत्र हि चाक्षुषत्व हेतु पथ कृते शब्दे न वर्तते श्रावणयक्ष नाग आदिकोसे निसही' इस शब्दका बोलकर पूछकर प्रवेश
स्वाच्छन्दस्य । तथा च पक्षधर्म विरहाद सिद्धत्व चाक्षुषत्वस्य ।- पक्षमें करना चाहिए। इसी तरह जब वहाँ से निकलना हो तब असही'
जिसका रहना अनिश्चित हो वह असिद्ध हेत्वाभास है। जैसे - 'शब्द इसी शब्द के द्वारा उनसे पूछकर निकलना चाहिए ॥१३२॥ निसही
अनित्य है, क्योकि इन्द्रियसे जाना जाता है। यहाँ 'चक्षु इन्द्रियसे और असही शब्द का निश्चयनयकी अपेक्षा अर्थ बताते है। जिस जाना जाता है। यह हेतु पक्षभूत शब्द में नही रहता है। कारण, शब्द साधुने अपनी आत्माको अपनी आत्मामे ही स्थापित कर रखा है
श्रोतेन्द्रियसे जाना जाता है। इसलिए पक्षधर्मत्वके न होनेसे 'चक्षु उसके निश्चयनयसे 'निसही' समझना चाहिए। और जिसने इस इन्द्रियसे जाना जाना' हेतु असिद्ध हेत्वाभास है । (न्या दी. ३/६६०/ लोक परलोक आदि सम्पूर्ण विषयोकी आशाका परित्याग कर दिया १००/२) है उसके निश्चय नयसे असही' समझना चाहिए। किन्तु उनके
२ असिद्ध हेत्वाभासके भेद प्रतिकून जो बहिरात्मा है अथवा आशावान है उनके ये निसही और
पमु ६/२४,२६ स्वरूपेणासत्त्वात् ॥२४॥ सदेहाव ॥२६॥ - असिद्ध हेवाअसही केवल शब्दोच्चारणमात्र ही समझना चाहिए ।
भास दो प्रकारका होता है स्वरूपासिद्ध और सदिग्धासिद्ध । (न्या, असातावेदनीय-दे वेदनीय ।
दी ३६६०/१००)
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असिद्ध हेत्वाभास
न्या. नि./२/१६७/२२८/५ स तु अनेकदा चाय-अज्ञात सदिग्ध प्रतिपाद वह असिद्ध हेलाभ. स अनेक प्रकारका है - अज्ञात, सन्दिग्ध स्वरूप, आश्रय, प्रतिज्ञार्थ, एकदेश असिद्ध ।
३. स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास
मु. ६/२३-२४ अविद्यमानसत्ताक परिणामी शब्दश्चाक्षुषखात् ॥२३॥ स्वरूपेणासत्वात् ॥२२॥ शब्द परिणामी है, क्योकि यह आँखसे देखा जाता है।" यह अविद्यमानसत्ता अर्थात् स्वरूपायाभास है। न्या. दी ३/६४०/८६ (म्यादी, ३/३५० / १००)
/२/११०/२२६/११ स्वरूपासिद्धो यथा "सोनियादमेदो नीतद्वियो" इत्यत्र यदि युगपदुपलम्भनियमो हेर्थ सोऽसिद्ध एव दर्शनेऽपि सन्तानान्तरगतस्य तज्ज्ञानस्य कुतश्चित्तप्रतिपत्तावद्विषयविशेषस्य अनवगते । स्वरूपासिद्ध इस प्रकार हैनीस और नीला अभेद है. सहोपसम्भ नियम होनेसे ॥' यहाँ यदि युगको हेतु माना जाये तो यह असिद्ध हो है। विषयदर्शन होनेपर भी सन्तानान्तरगत उस ज्ञानकी कहीं प्राप्ति होनेपर भी उस विषय विशेषकी जानकारी नहीं होती ।
४. सदिग्धासिद्ध हेत्वाभास
मु ६ / २५-२६ अविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुधिं प्रति अग्निरत्र धूमात् |२५|| तस्य वाष्यादिभावेन भूतसघाते सदेहात ॥२६॥ अनुमानके स्वरूपसे सर्वथा अनभिज्ञ किसी मूर्ख मनुष्य के सामने कहना कि 'यहाँ अग्नि है क्योंकि धुआँ है यह अविद्यमान निश्चय अर्थात् संदिग्धसिद्ध है, क्योकि मूर्ख मनुष्य किसी समय पृथिवी जल आदि धूतपात (बटलोई आदि) में भाप आदिको देखकर यहाँ अग्नि है या नहीं ऐसा सन्देह कर बैठता है। (वा दो. २/६६०/१००)
वि/२/१६७/२२६/० सदिग्धासिद्धो यह निकुजे मयूर केलावितादिति तत्र हि वा स्वरूप एवं खदेह किमय मयूरस्येव स्वर आहोस्वित् मनुष्यस्येति तदाश्रये वा किमस्माज्ञिकृष्णाव
कामितापात आहोस्विदन्यत इति सन्दिग्धासिद्ध ऐसा है जैसे कि इस निकजमे मोर फूकता है ऐसा कहना क्योंकि वहाँ ऐसा सन्देह है कि क्या यह स्वर मोरका है अथरा मनुष्यता है इसी प्रकार आश्रय में भी क्या इस कुंजसे बोलता है अथवा किसी अन्यसे ऐसा सन्देह है। इसलिए इसके सन्दिग्धासिद्धपना है ही। ५. आश्रयासिद्ध हेत्वाभास
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न्या. वि. / वृ. २/१६७/२२८/३ आभ्यासिद्धा यथा भावमात्रानुषङ्गी विनाशो भावना निर्हेतुकत्वादिति निरन्वयो ह्यत्र भावमध्यसो धर्मी निर्दिष्ट स चासिद्ध एवं अन्यथा किमनेन हेतुना तस्येवान Sपि साधनात! आश्रयासिद्व इस प्रकार हे भावोका विनाश भाव होता है, हेतु रहित होनेसे यहाँ निरम्य भागप्रध्वंसको धर्मी कहा गया है, वह असिद्ध ही है । अन्यथा इस हेतुकी क्या आवश्यकता थी, इसी हेतुसे उसकी भो सिद्धि हो जाती ।
-
६. अज्ञात हेत्वाभास
ज्ञातत्वात् ॥२८॥
-
प.मु. ६/२७-२८ सख्यिं प्रति परिणामी शब्द कृतकत्वात् ॥ २७॥ तेना- 'शब्द परिणामी है क्योकि यह किया हुआ है' यहाँ सांख्यके प्रति कृतकत्व हेतु अज्ञात है। क्योकि सांख्य मतमें पदार्थोंका आविर्भाव तिरोभाव माना गया है, उत्पाद और व्यय नहीं। इसलिए वे कृतकताको नहीं जानते ।
७. व्याप्यासिद्ध या एकदेशासिय हेत्वाभास
रा.मा. १/११/२/२०/२१ केचिदाहुः प्राकारच आवृत अस्फटिकासति अपापकत्वादसिद्धा हेतु वनस्पतिचैतभ्ये स्वापवत् । चक्षु प्राप्यकारी है, क्योंकि, वह ढंके हुए पदार्थ को नहीं देखती, जैसे कि स्पर्श
"
२१०
असूत्र
नेन्द्रिय' यह पक्ष ठीक नहीं है, क्योकि चक्षु, काँच, अभ्रक, स्फटिक आदिसे आवृत पदार्थोंको बराबर देखता है, अत' पक्षमें ही अव्यापक होनेसे उक्त हेतु असिद्ध है, जैसे कि वनस्पतिमें चैतन्य सिद्ध करनेके लिए दिया जाने वाला 'स्वाप (सोना)' हेतु । क्योंकि किन्ही वनस्पतियों में संकोच आदि चिहोसे चैतन्य स्पष्ट जाना जाता है, किन्हीं में नहीं । असिपत्र - १ असुरकुमार जातीय भवनवासी देवोका एक भेद । - दे. असुर । २ नरक में पाये जानेवाले वृक्ष विशेष - दे. नरक २ । (परस्पर के दु ख ) ।
असुरवनीपाल - बाबुल या ईरान देशका राजा । समय - ( ई - पृ/ 448-494)।
असुर - १३/५.५,१४०/३६१/७ अहिंसाद्यनुष्ठानरतय' सुरा नाम । तद्विपरीता असुरा - जिनकी अहिंसादिके अनुष्ठानोंने रति है वे सुर है। इनसे विपरीत असुर होते हैं।
२ असुरकुमार देवोके भेद
ति प २ / ३४८-३४६ सिकदाणणासिपत्ता महबलकाला य सामसबला हि । रुद्द बरसा विलसिदणामो महरुद्दखरणामा ॥ ३४८ ॥ कालग्गिरुद्दणामा कुभो वेतरणिपहुदिअसुरसुरा । गंतूण बालुकत णारइयाण पकोपति ॥ ३४६ ॥ सिकतानन, असिपत्र, महाबल, महाकाल, श्याम और शबल, रुद्र अबरोष, विलसित, महारुद्र, महावर, काल तथा अग्निरुद्र, कुम्भ और वैतरणि आदिक असुरकुमार जातिके देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी तक जाकर नारकियोको क्रोधित करते है ।
३. असुर देव नरकोमे जाकर नारकियोको दुख देते है परन्तु सब नही
ससि १/४ / २०१ / २ पूर्वजन्मनि भावितेनातितीय
परिणामेन दुराजित पापकर्म तस्योदयात्मततं क्लिश मक्लिष्टा - इति विशेषन्न सर्वे असुरानारकाणा दु खमुत्पादयन्ति । किं तर्हि | अम्बाम्बरीषादय एव केचनेति । पूर्व जन्ममें किये गये अतितीव्र सक्लेशरूप परिणामोसे इन्होंने जो पाप कर्म उपार्जित किया उसके उनसे से निरन्तर क्लिट रहते है, इसलिए सक्लिए असुर कहलाते है। सूत्र यद्यपि असुरोको सक्लिष्ट विशेषण दिया है, पर इसका यह अर्थ नही कि सब असुर नारकियोको दु ख उत्पन्न कराते है । किन्तु अम्बरीष आदि कुछ असुर ही दुख उत्पन्न कराते है । देऊरा
"
(सिक्तानन आदि अनेक प्रकार के असुरदेव त सरो पृथिवी तक जाकर नारकियोको क्रोध उत्पन्न कराते है ।)
·
४ सुरोके साथ युद्ध करनेके कारण असुर कहना मिथ्या है। रा.मा. ४/१०/४/२२६/७ स्परम युद्ध देवे सहास्यन्ति प्रहरणादीनसुरा इति तन्न, कि कारणम्। अवर्णवादात् । अवर्णवाद एष देवानामुपरि मिध्याज्ञाननिमित्तं कुतते हि सौधर्मादयो देवा महाप्रभाव न देषामुपरि इतरेषा निकृश्वलानां मनागपि प्रातिलोम्येन वृतिरस्ति अपि च वैरकारणाभावाद ॥ ततो नासुरा सुरेरुध्यन्ते । = 'देवोके साथ असुरका युद्ध होता है, अत ये असुर कहलाते है' यह देवोका अवर्णवाद मिथ्यात्वके कारण किया जाता है, क्योंकि, सौधर्मादिक स्वगोंके देव महाप्रभावशाली है। शुभानुष्ठानों रहनेवाले उनके साथ वैरकी कोई सम्भावना नहीं है । निकृष्ट बलवाले असुर उनका किंचित् भी बिगाड नही कर सकते। इसलिए अभावले असुरोसे युद्धको ना ही व्यर्थ है। * असुरकुमार देवोके इन्द्रादि व उनका अवस्थान - दे, भवन / २, ४
असूत्र - दे. सूत्र ।
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असूनृत
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अस्तिकाय
असूनृत-दे असत्य । अस्तिकाय जैनागममें पंचास्तिकाय बहुत प्रसिद्ध है। जोब, पुदगल, धर्म अधर्म, आकाश और काल, ये छ द्रव्य स्वीकार किये गये हैं। इनमें काल द्रव्य तो परमाणु मात्र प्रमाणवाला होनेसे कायवान् नहीं है। शेष पाँच दव्य अधिक प्रमाणवाले होनेके कारण कायवान है । वे पाँच ही अस्तिकाय कहे जाते है।
१. अस्तिकायका लक्षण पं का./मू. ५ जेसिं अत्थि सहाओ गुणेहिं सह पजएहि विविहे हिं । ते
होति अस्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तइलुक्कं ॥५॥ ते चेत्र अस्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा। गच्छति दवियभाव परियट्टण लिंगसंजुत्ता ॥६॥-जिन्हे विविध गुणों और पर्यायो के साथ अपनत्व है, वे अस्तित्व काय है, कि जिनसे तीन लोक निष्पन्न है ॥५॥ जो तीनो कालके भावोरूप परिणमित होते है तथा नित्य है ऐसे वे ही अस्तिकाय परिवर्तन लिंग सहित द्रव्यत्वको प्राप्त होते है ॥६॥ नि.सा./मू. ३४ एदे छद्दव्याणि य कालं मोत्तूण अस्थि कायत्ति । णि विडा जिणसमये काया हु बहुपदेसत्तं ॥३४॥ काल छोडकर इन छह द्रव्योको जिन समय में 'अस्ति काय' कहा गया है। क्योकि उनमें जो बहूप्रदेशीपना है वही कायस्व है । (द्र सं./मू २३) पंका/त.
प्रतम कालाणुभ्योऽन्यसर्वेषा कायत्वाख्यं सावयवत्वमवसेयम् । कालाणुओं के अतिरिक्त अन्य सर्व द्रव्योमें कायस्वनामा सावयत्रपना निश्चित करना चाहिए। नि सा/ता.वृ. ३४ बहुप्रदेशप्रचयत्वात् काय' । काया इव काया'। पञ्चास्तिकाया' । अस्तित्वं नाम सत्ता । अस्तित्वेन सनाथा पञ्चास्तिकाया । = बहुप्रदेशोके समूह वाला हो वह काय है । 'काय' काय (शरीर) जैसे होते है। अस्तित्व सत्ताको कहते है। अस्तिकाय पाँच है । अस्तित्व और कायत्व सहित पाँच अस्तिकाय हैं।
२ पंचास्तिकायोंके नाम निर्देश प.का /मू ४.१०२ जोवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेब आगासं ।
अस्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहता ॥४॥ एदे कालागासा धम्माधम्मा य पुग्गला जीवा । लभंति दव्वसणं कालस्स दुणस्थि कायत्त ॥१०२॥ - जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म तथा आकाश अस्तित्वमें नियत, अनन्यमय और बहुप्रदेशो है ॥४॥ ये काल, आकाश, धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीव द्रव्य संज्ञाको प्राप्त करते हैं परन्तु कालको कायपना नहीं है ।१०२॥ (पं.का./भू २२) (नि सा./ मू. २२), (नि सा /मू ३४). (प्रसा/ता वृ १३५ में प्रक्षेपक गाथा १), (द्र सं./म् २३). (गो.जी /मू ६२०/१०७४), (नि.सा,/ता वृ. ३४), (पं.का./ता. २२/४७/१६)।
३. पांचोंकी अस्तिकाय संज्ञाकी अन्वर्थकता इ.स /मू २५ होति असंखा जीवे धम्माधम्म अर्णतआयासे । मुत्ते तिविह पदेसा कालस्सैगो ण तेण सो काओ ॥२४॥-जीव धर्म तथा अधर्म द्रव्य असरण्यात प्रदेशी है और आकाशमें अनन्त प्रदेश है। पुद्गल में सख्यात असंख्यात व अनन्त प्रदेश हैं और कालके एक ही प्रदेश है. इसलिए काल काय नहीं है। (प.प्र./मू २/२४); (गो.जी./ मू६२०/१०७४)। पं का /ता वृ. ४/१२/१५ जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानीति पश्चास्तिका
यानां विशेषसंज्ञा अन्वर्था ज्ञातव्या । अस्तित्वे सामान्य विशेषसत्तायां नियता स्थिता । 'अणुभि प्रदेशमहान्त द्वषणुकस्कन्धापेक्षया द्वाभ्यामणुभ्यो महान्तोऽणुमहान्त' इति कायत्वमुक्तं ...इति पञ्चास्तिकायानां विशेषसंज्ञा अस्तित्वं कायत्वं चोक्तम् ।-जीव पुदगल धर्म अधर्म और आकाश इन पंचास्तिकायोंकी विशेष संज्ञा अन्वर्थक जाननी चाहिए। सामान्य विशेष सत्तामें नियत या स्थित होने के कारण तो ये अस्तित्व में स्थित है। अणु या प्रदेशोंसे महान
है अर्थात् द्वि अणुक स्कन्धकी अपेक्षा दो अणुओसे बडे हैं इसलिए अणु महान है । इस प्रकार इनका कायत्व कहा गया। इस प्रकार इन पंचास्तिकायोको अस्तित्व व कायस्व संज्ञा प्राप्त है। (और भी दे, काय १/१)
४ पुद्गलको अस्तिकाय कहनेका कारण स सि ५/३६/३१२/१० अणोरप्येक प्रदेशस्य पूर्वोत्तरभावप्रज्ञापननयापेक्षयोपचारकलपनया प्रदेशप्रचय उक्त । एक प्रदेशवाले अणुका भी पूर्वोत्तरभाव-प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा उपचार कल्पनासे प्रदेश प्रचय
कहा है । (पं का /तप्र.४/१३) प्र.सा/त प्र १३७ पुद्गलस्य तु द्रव्येणै कप्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वे यथोदिते सत्यपि द्विपदेशाद्य द्भवहेतुभूततथाविधस्निग्धरूक्षगुणपरिणामशक्तिस्वभावात्प्रदेशोद्भवत्वमस्ति । ततः पर्यायेणानेकप्रदेशत्वस्यापि सभवाव द्वयादिसंख्येयास ख्येयानन्तप्रदेशत्वमपि भ्याय्य पुहगलस्य ॥१३७॥ - पुद्गल तो द्रव्यत' एकप्रदेशमात्र होनेसे यथोक्त प्रकारसे अपदे शी है. तथापि दो प्रदेशादिके उद्भवके हेतुभ्रत तथाविध स्निग्धरूप-गुणरूप परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभावके कारण उसके प्रदेशों का उद्भव है। इसलिए पर्यायतः अनेकप्रदेशित्व भी सम्भव होनेसे पुद्गल को द्विपदे शिस्वसे लेकर सख्यात असख्यात और अनन्त प्रदेशित्व भी न्याय युक्त है। (पं.का / ता.वृ ४/१२/१३)
५ कालद्रव्य अस्ति है पर अस्तिकाय नही पं का./मू १०२ एदे कालागासा धम्माधम्मा य पुग्गला जीवा । लब्भति दब्बसण्ण कालस्स दुणस्थि कायत्तं ॥१०२ - काल और आकाशद्रव्य और धर्म व अधर्मद्रव्य तथा पुद्गलद्रव्य व जीवद्रव्य ये छहों 'द्रव्य' नामको पाते है। परन्तु कालद्रव्यमें कायस्व नहीं है।
(द्र.सं / मु. २५) स.सि ५/३६/३१२/६ ननु किमर्थमयं काल' पृथगुच्यते। यत्रैव धर्मादय उक्तास्तत्रैवायमपि बक्तव्य' 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशकाल पुद्गलाः' इति । नैवं शडक्यमः तत्रोह शे सति कायत्वमस्य स्यात् । नेष्यते च मुख्योपचार प्रदेशप्रचयकलपनाभावात् । प्रश्न-काल द्रव्यको अलग से क्यों कहा । जहाँ धर्मादि द्रव्योका कथन किया है, वहीं पर इसका कथन करना था, जिससे कि प्रथम मूत्रका रूप ऐसा हो जाता 'अजीव काया धर्माधर्माकाशकाल पृद्धगला ।' उत्तर-इस प्रकार शंका करना ठीक नहीं है, क्योकि वहाँपर यदि इसका कथन करते तो इसे काय पना प्राप्त होता। परन्तु कालद्रव्यको कायवान नहीं कहा है, क्योंकि इसमें मुख्य और उपचार दोनों प्रकारसे प्रदेशप्रचयकी कल्पनाका अभाव है । (रा वा. ५/२२/२४/४८२/४) (प प्र./टी २/२४) (गो.जी/ जी.प्र ६२०) (नि.सा /ता मृ. ३४) (4 का /ता.वृ. १०२/१६३/१०) ध.१/४,१.४५/१६८/४ कोऽनस्तिकायः। काल-तस्य,प्रदेशप्रचयाभागव । कुतस्तस्यास्तित्वम् । प्रचयस्य सप्रतिपक्षत्वान्यथानुपपत्तेः।-प्रश्नअनस्तिकाय कौन है। उत्तर-काल अनस्तिकाय है, क्योंकि, उसके प्रवेशप्रचय नहीं है । प्रश्न-तो फिर कालका अस्तित्व कैसे है। उत्तर-चू कि अस्तित्व के बिना प्रचयके सप्रतिपक्षता बन नहीं सकती अत: उसका अस्तित्व सिद्ध है। द, स./टी २६/७३/७ अथ मतं-यथा पुद्गलपरमाणोद्रव्यरूपेण कस्यापि द्वयणुकादिस्कन्धपर्यायरूपेण बहुप्रदेशरूप कायत्वं जातं तथा-कालागोरपि द्रव्येण कस्यापि पर्यायेण कायत्वं भवतीति। तत्र परिहार'स्निग्धरूक्षहेतुकस्य बन्धस्याभावान्न भवति कायः । तदपि कस्मात् । स्निग्ध रूक्षत्वं पुद्गलस्यैव धर्मो यत. कारणादिति । प.का/ता. वृ. ४/१३/१२ स्निग्धरूयत्वशक्तेरभावादुपचारेणापि कायत्वं
नास्ति कालाणूनां । प्रश्न - जैसे द्रव्यरूपसे एक भी पुद्गल परमाणुद्विअणुक आदि स्कन्ध पर्याय द्वारा बहुदेशरूप कायस्व (उपचारसे) सिद्ध हुआ है, ऐसे ही द्रव्यरूपसे एक होनेपर भी कालाणुके समय घडी आदि पर्यायों द्वारा कायत्व सिद्ध होता है 1 उत्तर-इसका परि
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अस्तिकाय
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अस्तित्व
हार करते है कि स्निग्धरूक्ष गुण के कारण होनेवाले बन्धका काल द्रव्यमे अभार है, इसलिए वह काय नही हो सकता। प्रश्न-ऐसा भी क्यो है । उत्तर-स्यो कि स्निग्ध तथा रुक्षपना पुद्गल का हो धर्म है, कालमे स्निग्ध रूक्ष नही है। स्निग्धरुषत्व ठाक्तिका अभाव होने के कार । उपचारसे भो कालाणु ओके कायल नहीं है। ३ काल द्रव्यको एकप्रदेशी या अकाय मानने की क्या
आवश्यकता प्र सात १/१२४ सप्रदेशत्वे हि कालस्य कुत ए-द्रव्यनिवन्धन लोकाकाश तुल्याम रब्येयरदेशत्व नाभ्युपगम्यते। पर्यायसमयावमिह । प्रदेशमात्र हि द्रव्यसमयमतिकामत परमाणो पर्यायसमय प्रसिद्ध ध्यति। लोकाकाशतुल्यास ख्येयप्रदेशेक द्रव्यत्वऽपि तस्यैक प्रदेशमतिकामत परमाणोस्तत्सिद्धिरिति चेन्नै । एक्देशवृत्तं सर्ववृत्तित्वविरोधात । सर्वस्यापि हि कालपदार्थस्य यसक्ष्मो वृत्त्यश स समयो न त तदेकदेशस्य । तिर्यक् प्रच यस्योर्ध्व प्रच्यत्वप्रमनाच्च । तथाहि - प्रथममे केन प्रदेशेन वर्तते ततोऽन्येन ततोऽप्यन्तरेणेति तिर्यपचयोऽप्यूर्यप्रचयीभूय प्रदेशमात्र द्रव्यमवस्थापयति । ततम्तिी प्रचस्योर्ध्वप्रचयत्यमनिच्छता प्रथममेव प्रदेशमात्र कालद्रव्य व्यवस्थापयितव्यम् । = प्रश्न-जब कि इस प्रकार काल (थंचित्) सपदेश है तो उसके एकद्रव्यके कारणभूत लोकाकाशनस्य असख्येयप्रदेश क्यो न मानने चाहिए । उतर - ऐसा हो तो पर्याय समय मिद नही होता। इसलिए अस ख्यप्रदेश मानना योग्य नहीं है। परमाणुके द्वारा प्रदेशमात्र द्रव्यसमयका उपल धन पग्नेपर पर्यायसमय प्रसिद्ध होता है। यदि दध्म समग्र लोक काश ताप असख्य प्रदेशी ह' तो पर्याय ममगकी सिद्धि कहाँसे होगी। प्रश्न-यदि कालदप लोकाकाश जितने अस रुग प्रदेशबाला हो तो भी परमाणु के द्वारा उसका एकप्रदेश उल्ल धित होने पर पर्यायसमयकी सिद्धि हो जायेगी ? उत्तर - यह भी ठीक नहीं है, क्योकि १ एप्रदेशकी वृत्तिको सम्पूर्ण द्रध्यको वृत्ति मानने मे विरोध है। सम्पूर्ण काल पदार्थ का जो सूक्ष्म वृत्त्यश है वह समय है, परन्तु उसके एक्देशका बृत्यश समय नही। २ (दूसरे) तिर्यपचयको ऊर्ध्व प्रचयत्व का प्रसग आता है। वह इस प्रकार है- प्रथम, कान्नद्रव्य एक प्रदेशसे वर्ते, फिर दूसरे प्रदेशसे वर्ते, और फिर अन्य प्रदेशसे वर्ते। इस प्रकार तिर्यक्प्रचय ऊर्ध्व प्रवय बनकर द्रव्यको एक प्रदेशमात्र स्थापित करता है (अर्थात् तिर्यकप्रचय ही ऊर्व प्रचय है, ऐसा मानने का प्रसग आता है, इसलिए द्रव्य प्रदेशमात्र ही सिद्ध होता है ।) इसलिए तिर्यक् प्रचयको ऊर्ध्वप्रचय न माननेवालेको प्रथम ही कालव्यको प्रदेशमात्र निश्चय करना चाहिए।
७. पंचास्तिकायको जानने का प्रयोजन द्र स /टो ५६/२२०/६ पच्चास्तिकाय •मध्ये स्त्रशुद्धजोवास्तिकाय एवोपादेय शेष न हेय । पाँचो अस्तियोमे स्त्रशुद्धजीवास्तिकाय
ही उपादेय है, अन्य सब हेय है । (प का /ता वृ४/१३/१४) पं का /ता. वृ/१६/१५ तत्र शुद्धजीवास्तिकायस्य यानन्तज्ञानादिगुण
सत्ता मिद पर्यायमत्ता च शुद्रासख्यातप्रदेशरूप कायस्य मुपादेयमिति भावार्थ - । -तहाँ शुद्ध जीवास्तिकायकी जो अनन्तज्ञानादिरूप गुगसत्ता, सिद्वपर्या यरूप द्रव्यसत्ता और शुद्ध असख्यातप्रदेश रूप कायस्व उपादेय है, ऐसा भावार्थ है। (प्र सा /ता वृ १३६/१६२/१०) प. का./ता बृ १०३/१६३-१६५/१५ अथ पञ्चास्तिकाय प्रयनस्य मुख्यवृत्त्या तदन्तर्गतशुद्धजीवास्तिकायपरिज्ञानस्य वा फल दर्शयति । द्वादशाङ्गरूपेण विस्तीर्ण स्थापि प्रवचनस्य सारभूत एष विज्ञाय ..
य कर्ता मुख्चति रागद्वेषौ द्वौ स प्राप्नोति परिमोक्षम् । -इस पंचास्तिकाय नाम ग्रन्थ के अध्ययनका तथा मुख्यवृत्तिसे उसके अन्तर्गत बताये गये शुद्र जीवास्तिकायके परिज्ञानका फल दर्शाता हूँ। द्वादशागरूपसे अति विस्तीर्ण भी इम प्रवचनके सारभूतको जानकर -गे राग व द्वेष दोनोंको छोडता है वह मोक्ष प्राप्त करता है।
अस्तित्व-१. 'अस्तित्व' शब्दके अनेक अर्थ
१. सामान्य सत्ताके अर्थमे अस्तित्व रावा २/७/१३/१११/३२ अस्तित्व तावत् साधारण षड्द्रव्यविषयत्वात् । तत कर्मादयक्षमायोपशमोपशमानपेक्षत्वाव पारिणामिकम् ।-अस्तित्व छहो द्रव्योमें पाया जाता है अत साधारण है । कर्मोदय क्षय क्षयोपशम व उपशमसे निरपेक्ष होने के कारण यह पारिणामिक है। न च वृ६१ अस्थिसहावे सत्ता । अस्तित्व स्वभावको हो सत्ता
कहते है। आ प/६ अस्तीत्येतस्य भावोऽस्तित्व सह पत्वम् । - अस्ति अर्थात् 'है पने के भावको अस्तित्व कहते है । अस्तित्व अर्थात सद्रूपत्व । (द्र स/मू २४) (नि सा /ता वृ/३४) स भ त ४५/ अस्धात्वर्थोऽस्तित्व सत्त्वपर्यवसन्नम् । = 'अस' धातुका _अर्थ अस्तित्व है और उसका सत्तारूप अर्थ से तात्पर्य है।
२.अवस्थान अर्थमे अस्तित्व रा बा ४/४२/२/२५०/१७ आयुरादिनिमित्तवशादवस्थानमस्तित्वम् ।
= आयु आदि निमित्तोके अनुसार उस पर्यायमें बने रहना सद्भाव या स्थिति है।
३ उत्पाद व्यय ध्रौव्यस्वभाव अर्धमे अस्तित्व (सू ५/३० उत्पादव्ययधौव्ययुक्त सत्॥३०॥ = जो उत्पाद व्यय और धौव्य इन तीनोसे युक्त अर्थात इन तीनो रूप है वह सत् है। प्रसा/मू /६६ सम्भावो हि सहावो गुणे हि सगपज्जा हि चित्तेहि । दबस्स सम्बकाल उप्पादठ्ययधुबत्तेहि ॥६६॥-सर्वकाल में गुणो तथा अनेक प्रकार की अपनी पर्यायोमे और उत्पादव्यम्धीव्यसे द्रव्य का जो
अस्तित्व है वह वास्तबमे स्वभाव है। प का./त प ५/१४ एकेण पर्यायेण प्रलीयमानस्थान्येनोपजायमानस्यान्वयिना गुणेन धौव्य बिभ्राणस्यै कस्यापि वस्तुन समुच्छेदोत्पादधौव्यलक्षणमस्तित्वमुपपद्यत एव । - जिसमे एक पर्यायका विनाश होता है, अन्य पर्यायकी उत्पत्ति होती है तथा उसी समय अन्यमी गुण के द्वारा जो ध्र व है ऐसी एक बस्तुका उत्पाद-व्यय-धीव्य रूप लक्षण ही अस्तित्व है। २. अस्तित्वके भेद प्र सा/त प्र/१५ अस्तित्व हि वक्ष्यति द्विविध-स्वरूपास्तित्वं साहश्यास्तित्व चेति । अस्तित्व दो प्रकारका कहेगे-स्वरूपास्तित्व
ओर सादृश्यास्तित्व । नि सा/ता वृ/३४ अस्तित्वं नाम सत्ता। सा किविशिष्टा । सप्रतिपथा
अवान्तरसत्ता महासत्तेति । अस्तित्व अर्थात सत्ता। वह कैसी है ! महासत्ता और अवान्तर सत्ता । ३ स्वरूपास्तित्व या अवान्तर सत्ता प्र सा /मू /१६ इद स्वरूपास्तित्वाभिधानम् (प्र सा /त प्र उत्थानिका) सब्भावो हि सहावो गुणेहि सगपज्जएहि । चत्तेहि । दबस्स सब्बकालं उप्पादव्ययधुबत्तेहि ॥ १६ ॥-सर्वकाल मे गुण तथा अनेक प्रकार की अपनी पर्यायोगे और उत्पादव्ययधौव्यसे द्रव्यका जो अस्तित्व है वह बास्तबमे स्वभाव है। प्र सात प्र./६७ प्रतिद्रव्य सीमानमासूत्रयता विशेषलक्षणभृतेन च स्वरूपास्तित्वेन लक्ष्यमाणानामपि-प्रत्येक द्रव्यको सीमाको बॉधते हुए ऐगे विशेषलक्षणभूत स्वरूास्तित्व से लक्षित होते है । का /त प्र ८ प्रति नियतवस्तुवतिनी स्वरूपास्तित्वसूचिकाऽवान्तरसत्ता । प्रतिनियतवस्तुवर्ती तथा स्वरूपस्तित्वको सूचना देनेवाली (अर्थात पृथक्-पृथक पदार्थ का पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र अस्तित्व बतानेवाली) अवान्तरसत्ता है। नि सा/ता बृ /३४ प्रतिनियतवस्तुव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता प्रतिनियतै करू पत्र्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता,.. प्रतिनियतकपर्यायव्यापिनी
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अस्तित्व नय
२ अस्तेय निर्देश
हरता है, न दूसरोको देता है, सो स्थूलचोरीसे विरक्त होना अर्थात अचौर्याणवत है। (वसु श्रा. २११) (गुणभद्र श्रा. १३५) स सि ७/२०/१५८/ अन्यपीडाकर पार्थिवभयादिवसादवश्य परित्यक्तमपि यददत्त तत प्रतिनिवृत्तादर श्रावक इति तृतीयमणुक्तम् ।
श्रावक राजाके भय आदिके कारण दूसरेको पीडाकारी जानकर बिना दी हुई वस्तुको लेना यद्यपि छोड देता है तो भी बिना दी हुई वस्तुके लेनेसे उसकी प्रीति घट जाती है इसलिए उसके तीसरा अचौर्याणवत होता है । (रा. वा ७/२०/३/५४७/१०) का. अ ३३५-३३६ जो बहुमुल्ल बत्थु अपयमुल्ले ण णेब गिण्हेदि । बीसरिय पिण गिण्हदि लाहे थोवे वि तुसेदि ॥३३५॥ जो परदव्वं ण हरदि मायालोहेण कोहमाणेण । दिढचित्तो सुद्धमई अणुबई सो हवे तिदिओ ॥ ३३६ ॥ --जो बहुमूल्य वस्तुको अल्पमूल्यमें नहीं लेता, दूसरेकी भूली हुई वस्तुको भी नहीं उठाता, थोडे लाभसे ही सन्तुष्ट रहता है ॥३३॥ तथा कपट लोभ माया व क्रोधसे पराये द्रव्यका हरण नही करता वह शुद्धमति दृढनिश्चयी श्रावक अचौर्याणुवती
ह्यवान्तरसत्ता। प्रतिनियत वस्तु (द्रव्य) मे व्यापनेवाली या प्रतिनियत एक रूप (गुण) में व्यापनेवालो या प्रतिनियत एक पर्यायमे व्यापनेवाली अवान्तर सत्ता है। प्रसा/ता वृ १६/१२६/१७ मुक्तात्मद्रव्यस्य स्वकीयगुण पर्यायोत्पादव्ययधौव्य सहस्वरूपास्तित्वाभिधानमवान्तरास्तित्वभिन्न व्यवस्थापित । -सुक्तात्मद्रव्यके स्वकीय गुणपर्यायोका उत्पादव्ययधौव्यताके जो स्वरूपास्तित्वका अभिधान या निर्देश है वही अभिन्न
रूपमे अवान्तर सत्ता स्थापित की गयी है। पंध.१/२६६ अपि चावान्तरसत्ता सदनद्रव्यं सद्गुणश्च पर्याय । सच्चोत्पादध्वसौ सदिति धौव्यं किले ति विस्तार ॥२६६॥ -- तथा सत् द्रव्य है, सत् गुण है और सत पर्याय है। तथा सत ही उत्पाद व्यय है, सत ही धोव्य है, इस प्रकारके विस्तारका नाम ही निश्चयसे अवान्तर सत्ता है।
४ सादृश्य अस्तित्व या महासत्ता प्रसामु १७ इदं तु सादृश्यास्तित्वाभिधानमस्तै ति कथयति-(उत्थानिका) । इह विविहलक्खणाण लक्खण मगं सदिति सब्बगय । उवदिसदा खलु धम्म जिणवरवसहेण पण्णत्त । -यह सादृश्यास्तित्वका कथन है -- धर्मका बास्तवमें उपदेश करते हुए जिनवरवृषभने इस विश्व मे विविध लक्षणवाले (भिन्न-भिन्न स्वरूपास्तित्ववाले) सर्व द्रव्यो
का 'सत्' ऐसा सर्वगत एक लक्षण कहा है। प्र. सा/त प्र/६७ स्वरूपास्तित्वेन लक्ष्यमाणानामपि सर्व द्रव्याणामस्तमितचे चित्र्यप्रपञ्च प्रवृत्त्य वृत प्रतिव्यमासूत्रित सीमान भन्दत्स दिति सर्वगत सामान्यलक्षणभूत सादृश्यास्तित्वमेक वस्त्रवबोधव्यम् । (यद्यपि सर्व द्रव्य) स्वरूपास्तित्वसे लक्षित होते है, फिर भी सर्बद्रव्योका विचित्रताके विस्तारको अस्त करता हुआ, सर्व द्रव्यो में प्रवृत्त होकर रहनेवाला, और प्रत्येक द्रव्यको बन्धी हुई सीमाकी अवगणना करता हुआ 'सत्' ऐसा जो सपंगत सामान्य लक्षण
भूा सादृश्य अस्तित्व है वह वास्तवमे एक ही जानना चाहिए। d का /त प्र./८ सर्व पदार्थसार्थव्यापिनी सादृश्यास्तित्व सुचिका महा
सत्ता प्रौक्तेव । - सर्व पदार्थ समूहमें व्याप्त होनेवाली सादृश्य अस्तित्वको सूचित करनेवाली महासत्ता ही जा चुकी है। नि सा/ता वृ/३४ समस्तवस्तुविस्तारव्यापिनी महासत्ता, समस्तव्यापकरूपव्यापिनी महासत्ता, अनन्तपर्यायव्यव्यापिनी महासत्ता। - समस्तवस्तु विस्तारमें व्यापनेवाली, अर्थात् छहो द्रव्यो व उनके समस्त भेद प्रभेदोमे व्यापनेवाली तथा समस्त व्यापक रूपों (गुणो) में व्यापनेवाली तथा अनन्त पर्यायोमे व्यापनेवाली महासत्ता है। (प्र सा/ता वृ. १७/१३०/१४) अस्तित्व नय-दे नय 1/५ । अस्ति नास्ति भग-दे सप्तभगो/४ । अस्ति नास्ति प्रवाद-दे श्रुतज्ञान III अस्तेय-१. भेद व लक्षण
१. अस्तेय का लक्षण त सू ७/१२/३५२/१२ अदतादानं स्तेयम् ॥१५॥ स सि ७/१५३५३/६ यत्र सक्लेशपरिणामेन प्रवृत्तिस्तत्र स्तेयं भवति वाह्यावस्तुनो ग्रहणे चाग्रहणे च । बिना दो हुई वस्तुका लेना स्तेय है ॥१५॥ इस कथन का यह अभिप्राय है कि वाह्य वस्तु ली जाय या न ली जाय किन्तु जहाँ सक्लेशरूप परिणाम के साथ प्रवृत्ति होती है, वहाँ स्तेय है।
२. अस्तेय अणुव्रत का लक्षण र. क. श्रा ५७ निहितं वा पतित वा सुविस्मृत वा परस्वमविसृष्ट।
न हरति यन्न च दत्ते तदकृशचौर्यादुपारमण । जो रखे हुए तथा गिरे हुए अथवा भूले हुए अथवा धरोहर रखे हुए परद्रव्यको नही
सा ध४/४६ चौरव्यपदेशक रस्थूलस्तेयव्रतो मृतस्वधनात् । परमुदकादेश्चारिखनभोग्यान्न हरेद्दददाति न परस्थ ॥४६॥ - 'चोरी' ऐसे नामको करनेवाली स्थूल चोरीका है वत जिसके ऐसा पुरुष या श्रावक मृत्युको प्राप्त हो चुके पुत्रादिक्से रहित अपने कुटुम्बी भाई बगैरहके धनसे तथा सम्पूर्ण लोगों के द्वारा भोगने योग्य जल, घास आदि पदार्थोसे भिन्न अर्थात् इनके अतिरिक्त दूसरेके धनको न तो स्वय ग्रहण करे
और न दूसरेके लिए देवे। ३. अस्तेय महावत का लक्षण नि सा /म ५८ गामे वा णयरे वा रणे वा पेच्छिऊण परमत्थ। जो मु चदि गहण भाव तिदियबद होदि तस्सेव ॥५८ग्राममें, नगरमें या वनमें परायी वस्तुको देखकर जो उसे ग्रहण करनेके भावको छोडता है उसको तीसरा (अचौर्य) महावत है। भू आ ७,२६१ गामादिसु पडिदाई अप्पप्पहूदि परेण संगहिदं । णादाणं
परदव्व अदत्तपरिवज्जण त तु॥७॥ गामे णगरे रणे थूल सचित्त बहसपडिनरव । तिविहेण वज्जिदव्य अदिपणगहणं च तण्णिचं ॥२६॥ = ग्राम आदिकमें पड़ा हुआ, भूला हुआ, रखा हुआ इत्यादि रूपसे अल्प भी स्थूल सूक्ष्म वस्तुका दूसरेकर इकट्ठा किया हुआ ऐसे परद्रव्यको ग्रहण नहीं करना वह अदत्तत्याग अर्थात अचौर्य महावत है ॥७॥ ग्राम नगर वन आदिमें स्थूल अथवा मूक्ष्म, सचित्त अथवा अचित्त, बहुत अथवा थोडा, भी स्वर्णादि, धन धान्य, द्विपद चतुष्पद आदि परिग्रह बिना दिया मिल जाये तो उसे मन वचन कायसे सदा त्याग करना चाहिए । वह अचौर्य व्रत है ॥२६॥ २. अस्तेय निर्देश
१. अस्तेय अणुव्रतके पॉच अतिचार त सू ७/२७ स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिक्मानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारा ॥२७॥ -१.चोरी करनेके उपाय बतलाना, २. चोरी का माल लेना, ३ राज्य नियमोके विरुद्ध ब्लैक मार्केट करना या टैक्स चुङ्गी बचाना, ४ मापने व तोलनेके गज बाट कमती बढ़नी रखना, ५ अधिक मूल्यकी वस्तुमे कम मूल्यकी वस्तु मिलाना--ये पाँच अस्तेयके अतिचार है। र क श्रा१८) (अन्य
भी श्रावकाचार) साध ४/५० में उद्धृत = यशस्तिल कचम्पू-मानवन्न्यनताधिक्ये स्तेन
कर्म ततो ग्रह । विग्रहे सग्रहोऽर्थ स्यास्तेनस्यैते निवर्तका। जो वस्तु तोलने या मापने योग्य है, उसे देते समय कम तौलकर, लेते समय अधिक तौलवर या अधिक मापकर लेना, चोरी कराना, पोरी के माल लेना, और युद्ध के समय पदार्थोंका संग्रह करना--ये पाँच अचौर्याणुवतके अतिचार है।
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अस्तेय
२ महाव्रतीके लिए अस्तेय की भावनाएं
भ आम १२०८ - १२०६ अणणुण्णादग्गहण असगबुद्धी अणुण्णवित्तावि । मध उम्माहापुस २० माि पवेसस्स गोयरादीसु । उग्गहजायणमणुत्रोचिए तहा भावणा तइए ॥ १२० ॥ - १. उपकरणोको उसके स्वामीकी परवानगी के बिना ग्रहण न करना, २ उनकी अनुज्ञासे भी यदि ग्रहण करे तो उनमें आसक्तिन करना, ३ अपने प्रयोजनको बताते हुए कोई वस्तु (माँगना. ४ या अपनी मर्जी से भी यदि दातार देगा तो वह सबकी सब ग्रहण कर लूगा ऐसी भावना न करना, ५. ज्ञान व चारित्रमे उपयोगी ही वस्तु या उपकरण ग्रहण करना, अन्य नहीं, तथा अनुपयोगी वस्तुकी याचना न करना | १२०८ ॥ ६ घरके स्वामी द्वारा घरमे प्रवेश की मनाई होनेपर उसके घर मे प्रवेश न करना, ७ आगमसे अविरुद्ध ही सयमोपकरणकी याचना करना ऐसी ये अचौर्य व्रतकी भावनाएँ है || १२०॥ ( आ ३३१) (अन ध ४/५७/३४५)।
त सू ७ / ६ शून्यागार विमा चितावास परोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादा पञ्च ॥ ॥ शून्यागारावास, विमोचित या व्यक्तावास परोपरोधाकरण अति दूसरेके आनेमें रुकावट न डालना, भैक्षशुद्धि अर्थात् भिक्षु चर्याको शुद्धि, सर्माविवाद अवधि सामजम से वाद विवाद न करना ये अचौर्यव्रतकी पाँच भावनाएँ है ।
२१४
( चा पा. मू. ३३) अन ध ४/५७ में आचार आदि शास्त्रों से उद्धृत पृ ३४६ उपादान मतस्वमतेचासक्त बुद्धिता । गार्ह्यस्यार्थ कृतो लानमितरस्य तु वर्जनम् । अप्रवेश मतेऽगारे गृहिभिर्गोचरादिषु । तृतीये भावना योग्ययाञ्चा सूत्रानुसारत ॥ देहण भात्रण चावि उग्गह च परिग्गहे । सतुट्ठी भत्तपाणे तदिय वदमिस्सदो ॥ =यहाँ दो प्रकारसे पाँच पाँच भावनाएँ बतायी है एक आचार शाखके अनुसार और दूसरी प्रतिक्रमणशास्त्र के अनुसार । -१ तहाँ आचार शास्त्र के अनुसार तो१ स्वामीके द्वारा अनुज्ञात तथा योग्य ही वस्तुका ग्रहण करना, २ और अनुमत वस्तुमें भी आसक्त बुद्धि न रखना, ३ तथा जितने से अपना प्रयोजन सिद्ध हो जाता हो उतना ही उसको ग्रहण करना बाकीको छोड देना, ४ गोचरादिक करते समय जिस गृहमें प्रवेश करनेकी उसके स्वामीकी अनुमति नही है, उसमें प्रवेश न करना, ५ और सूत्र के अनुसार योग्य विषयकी ही याचना करना। २. प्रतिक्रमण शास्त्र के अनुसार- १. शरीरकी अशुचिता या अनित्यतादिका विचार करना, २ आत्मा और शरीरको भिन्न-भिन्न समझना,
परिग्रह निग्रह अर्थात् 'जितने भी चेतन या अचेतन परपदार्थ है उनके सम्पर्क से आत्मा अपने हिस्से हो जाता हैऐसा विचार करना, ४ भक्त सन्तोष अर्थात् विधि पूर्वक जैसा भी भोजन प्राप्त हो जाये उसमें ही सन्तोष धारण करना; ५ पान सन्तोष अर्थात् यथा लब्ध पेय वस्तुके लाभालाभमे सन्तोष रखना, उन दोनो की प्राप्तिके लिए गृद्ध न होना ।
म पू. २०/१६३ मितोचिताभ्यनुज्ञाणापग्रहोऽन्नधा संतोषो भाने व तृतीयभावमा ।।१६।१ परिमित आहारा २. धरण योग्य आहार लेना के प्रार्थना करने पर आहार लेना; ४. योग्य विधिके विरुद्ध आहार न लेना, ५ तथा प्राप्त हुए भोजन में सन्तोष रखना पॉच तृतीय बचतको भावनाएँ है ॥ १६३ ॥
३. अणुव्रतीके लिए अस्तेय की भावनाएं
ससि ७/२/२४० वास्तेन परद्रव्यहरणास सर्वयोजनीयो भवति । चाय हस्तपाद कर्ज नासोत्तरीच्छेदमभेदनहरणादीन् प्रतिभाशुभा मति गर्हितरच भक्तोति स्याह परति श्रेयसी एवं हिसादिष्वायाद्यदर्शनं भावनीयम - पर द्रव्यका अपहरण करनेवाले चोरका सब तिरस्कार करते है ।
२ अस्तेय निदेश
इस लोक मे वह ताडना मारना, बाँधना तथा हाथ, पैर, नाक, कान, ऊपर के ओठका घेदना, भेदना और सर्वस्वहरण आदि दु खोको और परलोकमे अशुभ गतिको प्राप्त होता है, और गर्हित भी होता है. इसलिए चोरीका त्याग श्रेयस्कर है। इस प्रकार हिसा आदि दोषोमें अपाय और अवद्यके दर्शनकी भावना करनी चाहिए । ★ व्रतोकी भावानाओ सम्बन्धी विशेष विचार--दे, व्रत २ । ४. अन्याय पूर्वक ग्रहण करनेका निषेध
कुरल १२/३,६ अन्यायप्रभवं वित्तं मा गृहाण कदाचन वरमस्तु तदादाने लाभं वास्तु दूषणम् ॥३॥ नीति मन परित्यज्य कुमार्ग यदि धावते । सर्वनाश विजानीहि तदा निक्टस स्थितम् ॥६॥ = अन्याय से उत्पन्न धनको कभी भी ग्रहण न करो। भलेही उससे लाभके अतिरिक्त अन्य वस्तुकी सम्भावना न हो अर्थात् उससे केवल लाभ होना निश्चित हो ॥ ३ ॥ जब तुम्हारा मन नीतिको त्याग कुमार्ग में प्रवृत्ति करने लगता है तो समझ लो कि तुम्हारा सर्वनाश निकट ही है ॥६॥ ५. चोरीको निन्दा
भ आमू = ६५ / ६८४ पदव्वहरणमेदं आसवदार खु वेति पावस्स । सोग रियवाहपदारवेहि चोरोहु पापदरो । परद्रव्य हरण करना पाप आनेका द्वार है। सूअरका घात करने वाला, मृगादिकोंको पकड़नेवाला और परस्त्रीगमन करनेवाला, इनसे भी चोर अधिक पापी गिना जाता है ।
६ अस्तेयका माहात्म्य
भ आम् ८७५-८७६ एदे सव्वे दोसा ण होति परदव्वहरण- विरदस्स । विवरीदा य गुणा होति सदा दत्तभोइस्स ॥ ८७५॥ देविदराय गहवइदेवदसाहन तुम्हा उमाहविडीया दिग्ण सामन्य साहृण्यं ॥ ८७६ ॥ = उपर्युक्त चोरीका दोष जिसने त्याग किया है, ऐसे महापुरुषमे दोष नही रहते है, परन्तु गुण ही उत्पन्न होते है। दिये हुए पदार्थका उपभोग लेनेवाले उस महापुरुष में अच्छे-अच्छे गुण प्रगट होते है ८० देवेन्द्र राजा गृहस्थ, राजाधिकारी देवता और साथमिक साहसे योग्य विधिसे दिया हुआ
सिद्धि करनेवाला, जिससे ज्ञानकी सिद्धि व सयमकी वृद्धि होगी, ऐसा पदार्थ हे क्षपक 'तू ग्रहण कर ॥ ८७६ ॥
७ चोरीके निषेधका कारण
२/१६८१०० ततोऽयह पाप स्यात्परहरणे नृणाम्। याद मरणे दुखं साहश णि क्षितौ ॥१६८॥ एवमेतत्परिज्ञाय दर्शनाकोत्तमै । कर्त्तव्या न मति क्वापि परदारधनादिषु ॥ १६६ ॥ आस्ता परस्व स्वीकार नारकादिषु यदजैन भनेक दु व क्षमो नरः ॥ १७० ॥ - चोरी करनेवाले पुरुषको अवश्य महापाप उत्पन्न होता है, क्योंकि जिसका धन हरण किया जाता है उसको जैसा मरने दुख होता है वैसा ही दु ख धनके नाश हो जानेपर होता है ॥ १६८ ॥ उपरोक्त प्रकार चोरीके महादोषोको समझकर दर्शनप्रतिमा धारण करनेवाले उत्तम श्रवकको दूसरेकी स्त्री वा दूसरेका धन हरण करने के लिए कभी भी अपनी बुद्धि नही करनी चाहिए ॥ १६६ ॥ दूसरेका धन हरण करनेसे वा चोरी करनेसे जो नरक आदि दुर्गतियो में महादुख होता है वह तो होता ही है किन्तु ऐसे लोगोको इस जन्म में ही जो दुख होते है उनको भी कोई मनुष्य कह नहीं सकता ।। १७० ।।
* चोरीका हिसामे अन्तर्भाव अहिंसा है। ८. मागंमें पड़ी वस्तु मिलनेपर कर्तब्ध
मू आ १५७ ज तेण तद्धं सच्चित्ताचित्त मित्सय दव्वं । तस्स य सो आरओ अरिहदि एवंगुण सोनि १५० -ते समय मार्ग शिष्यादि चेतन पुस्तकादि अचेतन और पुस्तकसहित शिष्यादि मिश्र ये पदार्थ मिल जॉस तो आगे जानेवाले गुणवान् आचार्य ही
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अस्थि
उन पदार्थों के योग्य है अर्थात उनको उठाकर आचार्य के समीप
ले जावे। कुरल १२/१ इदं हि न्यायनिष्ठत्व यन्निष्पक्षतया सदा। न्याय्यो भागो हृदादेयो मित्र य रिपवेऽथवा ॥१॥ न्यायनिष्ठाका सार केवल इसमे है कि मनुष्य निष्पक्ष होकर धर्मशीलताके साथ दूसरेके देय अशको दे देवे, फिर चाहे लेनेवाला शत्रु हो या मित्र । ३. शंका समाधान
१. कर्मादि पुद्गलोंके ग्रहण में भी दोष लगेगा स सि ७/१५/३५२/१२ यद्य व कमनोकर्मग्रहणमपि स्तेय प्राप्नोति,
अन्येनादत्तत्वात् । नैषदोष , दानादाने यत्र सम्भवतस्तत्रैव स्तेयव्यवहार । कुत , अदत्तग्रहणसामर्थ्यावा- प्रश्न-यदि स्तेयका पूर्वोक्त (अदत्तादान) अर्थ किया जाता है तो कर्म और नोकर्मका ग्रहण करना भी स्तेय ठहरता है, क्योकि, ये किसीके द्वारा दिये नही जाते ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, जहाँ देना और लेना सम्भव है वहीं स्तेय का व्यवहार होता है । प्रश्न यह अर्थ किम शब्दसे फलित होता है। उत्तर-मृत्रमें दिये गये 'अदत्त' शब्द से।
(रा वा ७१५/१-३/५४२/१५) २ पुण्योपार्जन प्रशस्त चोरी कहलायेगा रा.वा.७/१५/८/५४३/१ स्यान्मतम् वन्दनाक्रियासबन्धेन धर्मोपचये सति प्रशस्त स्तेय प्राप्नोति, तन्न, कि कारणम् । उक्तत्वात् । उक्तमेतत्दानादानसभत्रो यत्र तत्र स्तेयप्रसंग इति । प्रश्न --बन्दना सामायिक आदि क्रियाओके द्वारा पुण्यका संचय साधु बिना दिया हुआ ही ग्रहण करता है, अत उसको प्रशस्त चोर कहना चाहिये ? उत्तरयह आशका निर्मूल है, क्योकि, यह पहले ही कह दिया गया है कि जहाँ लेन देन का व्यवहार होता है वही चोरी है ।
३. शब्द ग्रहण व नगरद्वार प्रवेशसे साधुको दोष लगेगा रावा. ७/१४/७५४३ स्यादेतत्-शब्दादि विषयरध्याद्वारादीन्यदत्तानि
आददानस्य भिक्षी स्तेय प्राप्नोतीति । तन्न , कि कारणम् । अप्रमत्तयात। दत्तमे वा तत्मर्वम् । तथा हि अय पिहितद्वारादीन न प्रविशति । प्रश्न - इन्द्रियोके द्वारा शब्दादि विषयोको ग्रहण करने मे तथा नगरके दरवाजे आदिको बिना दिये हुए प्राप्त करनेसे साधुको चोरीका दोष लगना चाहिए। उत्तर-यत्नवान अप्रमत्त और ज्ञानी माधुको शास्त्र दृष्टिसे आचरण करनेपर शब्दादि सुननेमें चोराका दोष नहीं है, क्योकि, वे मत्र वस्तुए तो सबके लिए दी ही गयो है, अदत्त नही है। इसीलिए उन दरवाजो में प्रवेश नहीं करता जा सार्वजनिक नही है या बन्द है । (स.सि ७/१२/३५३/२) अस्थि-१, औदारिक शरीरों में अस्थियोका प्रमाण-दे औदारिक
१/७, २ इनमें षट् काल कृत वृद्धि ह्रास-दे. काल ४ ॥ अस्थिर-दे स्थिर। अस्नान-साधुका एक मूलगुण -दे स्नान । अहंकार-त अनु १५ये कर्मकृताभावा परमार्थनयेन चारमनोभिन्ना । तत्रात्माभिनिवेशाऽहकारोऽह यथा नृपतिः ॥१५॥ कर्मोके द्वारा निर्मित जा पर्याये है और निश्चयनयसे आत्मासे भिन्न है, उसमे आत्माका जो मिथ्या आरोप है, उसका नाम अह कार है जैसे
मै राजा हूँ। प्रसा ता वृ ६४/१४ मनुष्पादिपर्यायरूपोऽहमित्यह कारो भण्यते।
- मनुष्यादि पर्यायरूप ही मै हूँ' ऐसा कहना अहंकार है। द्र स.टी. ४१/१६६/१ कर्मजनितदेहपुत्रकलत्रादौ ममेदमिति ममकारस्त त्रैवाभेदेन गौरस्थूलादिदेहोऽहं राजाऽहमित्यह कारलक्षण मिति । - कर्मोंसे उत्पन्न जो देह, पुत्र, स्त्री आदिमें 'यह मेरा शरीर है, यह मेरा पुत्र है', इस प्रकारकी जो बुद्धि है वह ममकार है, और उन
अहिंसा शरीरादिमे अपनी आत्मासे अभेद मानकर जो 'मै गौर वर्ण का हूँ, माटे शरीर वाला हूँ, राजा हूँ,' इस प्रकार मानना सो अहंकारका लक्षण है। अहंक्रिया-म स्तो टी १२/२६ अहमस्य सर्वस्य स्यादिविषयस्य ___ स्वामिति क्रिया अह क्रिया। - 'मैं इस स्त्री आदि समस्त विषयोका
स्वामी हूँ' इस प्रकारकी क्रिया को अह क्रिया कहते है। अहमिन्द्र-दे इन्द्र। अहिंसा-जेन धर्म अहिंसा प्रधान है, पर अहिसाका क्षेत्र इतना सकुचित नहीं है जितना कि लोक्में समझा जाता है इसका व्यापार बाहर व भीतर दोनो ओर हता है। बाहर में तो क्सिी भी छोटे या बडे जीवको अपने मनसे या वचनसे या कायसे, क्सिी प्रकार की भी हीन या अधिक पीडा न पहुँचाना तथा उसका दिल न दुग्वाना अहिसा है. और अन्तर गमें राग द्वेष परिणामोसे निवृत्त ह कर माम्यभाव में स्थित होना अहिसा है। बाह्य अहिंसाको व्यवहार और अन्तर गका निश्चय कहते है। वास्तव में अन्तर गमें आशिक सभ्यता आये बिना अहिमा सम्भव नही, और इस प्रकार इसके अतिव्यापक रूप में सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य आदि सभी सदगुण समा जाते है। इसीलिए अहिसा का परम धर्म व हा जाता है। जल थल आदिमे सर्वत्र ही क्षुद्र जीवो का सद्भाव होनेके वारण यद्यपि बाह्य में पूर्ण अहिसा पलनी असम्भव है पर यदि अन्तर गमें साम्यता
और बाहर में पूरा-पूरा यत्नाचार रखने में प्रमाद न किया जाय तो बाह्य जीवोके मरने पर भी साधक अहिसक ही रहता है। १. अहिंसा निर्देश * निश्चय अहिंमाका लक्षण-दे अहिसा २/१।
१. अहिंसा अणुव्रतका लक्षण र क श्रा५३ स कल्पात कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्वान् । न हिनस्ति यत्तदाहु स्थूल वधाद्विरमण निपुण ॥५३॥ - मन,वचन, कायके स कल्पसे और कृत, कारित, अनुमोद नामे त्रस जीवोको जो नहीं हनता, उस क्रियाको गणधरादिक निपुण पुरुष स्थूल हिसासे विरक्त हाना अर्थात् अहिसाणुवत कहते है। (स सि ७/२०/३५८/७), (रा.वा.
७/२०११/५४७/६), (साध १/७) । वसु.श्रा २०६ जे तसकाया जीवा पुवुद्दिवाण हिसियव्या ते । एई दिया विणिकरणेण पढम वयं थूलं ॥२०६-जो त्रस जीत्र पहिले बताये गये है, उन्हे नही मारना चाहिए और निष्कारण अर्थात बिना प्रयोजन एकेन्द्रिय जीवोको भी नही मारना चाहिए। यह पहिला स्थूल अहिसा व्रत है । (सा ध.४/१०) काअ/मू ३३१-३३२ जो वावरेइ सदओ अप्पाणसमं पर पि मण्णं तो। णिदण गरहण-जुतो परिहरमाण महार भे॥३३॥ तसघाद जो ण करदि मणवयकाए हि णेव कारयदि। कुब्बत पि ण इच्छादि पढमवयं, जायदे तस्स ॥३३२॥-जो श्रावक दयापूर्ण व्यापार करता है, अपने ही समान दूसरोको मानता है, अपनी निन्दा और गर्दा करता हुआ महा आरम्भको नही करता ॥३३१॥ तथा जो मन, वचन व कायसे त्रस जीबोका घात न स्वय करता है, न दूसरोसे कराता है और न दूसरा करता हो उसे अच्छा मानता है, उस श्रावकके प्रथम अहिसाणुवत होता है। २. अहिंसा महाव्रतका लक्षण मू आ, ५,२८६ कार्य दियगुणमग्गण कुलाउजोणीसु सव्वजीवाण । णाऊण
य ठाणादिसु हिसादिविवज्जणमहिसा ॥५॥ एइ दियादिपाणा पंचविधाबज्जभीरुणा सम्म । ते खलु ण हि सितव्या मणवचिकायेण सव्वस्थ ॥२८॥- काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मागंणास्थान, कुल, आयु, योनि-इनमें सब जीवो को जानकर कायोत्सर्गादि क्रियाओं में हिंसा आदिका त्याग करना अहिसा महावत है ॥५॥ सम देश और सब
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अहिंसा
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३. प्रतकी कथंचित प्रधानता
कालमें मन वचन कायसे एके द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय प्राणियोके प्राण पाँच प्रकारके पापोसे डरनेवालेको नही घातने चाहिए, अति जोवोको रक्षा करना अहिसावत है ॥२८॥ (नि.सा /मू. ५६)
३. अहिसाणुव्रतके पॉच अतिवार ता.सू.७/२५ बन्धबधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधा' । बन्ध, वध,
छेद, अतिभारारोपण, अन्नपानका निरोध, ये अहिसाणुवतके पाँच
अतिचार है। साध ४/१६मत्रादिनापि बंधादिः कृतो रज्ज्यादिवन्मल । तत्तथा यत्नीय स्यान्न यथा मलिन बत ११३५ मन्त्रादिके द्वारा भी किया गया बन्धनादिक रस्सी वगैरहसे किये गये बन्धकी तरह अतिचार होता है। इसलिए उस प्रकारसे यत्न पूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए, जिस प्रकारसे कि व्रत मलिन न होवे।
४. अहिंसा महाव्रतकी भावनाएं त. सू ७/४ वाड्मनोगुप्तोर्यादाननिक्षेपणसमित्याला कितपानभोजनानि
पञ्च ॥४॥=वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकित पान भोजन (अर्थात् देख शोधकर भोजन पान ग्रहण करना) ये अहिसावतकी पाँच भावनाएँ है। (मू आ. ३३७), (चा.पा/मू. ३१)
५. अहिंसा अणुव्रतकी भावनाएं स.सि. ७/६ ३४७/३ हिसाया तावत, हिंस्रो हि नित्याद्वेजनीय सततानुबद्भवैरश्च इह च वधबन्धपरिक्लेशादीन् प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभा गति गहितश्च भवतीति हिसाया व्युपरम श्रेयात् । एवं हिसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनोयम् । = हिसामें यथा-हिसक निरन्तर उद्वेजनीय है' वह सदा वैरको बाँधे रहता है, इस लाकमें वध, बन्ध और क्लेश आदिको प्राप्त होता है, तथा परलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है, और गर्हित भी होता है, इसलिए हिंसाका त्याग श्रेयस्कर है। • इस प्रकार हिसादि दोषोमे अपाय और अवद्यके दर्शनकी भावना करनी चाहिए। * व्रतोंकी भावना व अतिचार-दे व्रत २। * साधजन पशु पक्षियोका मार्ग छोडकर गमन करते है
-दे. समिति १/३ २. निश्चय अहिंसाकी कथंचित् प्रधानता
१. प्रमाद व रागादिका अभाव ही अहिंसा है भ,आ /म.८०३,८०६ अत्ता चेत्र अहिंसा अत्ता हिंसत्ति णिचाओ समये।
जो होदि अप्पमत्तो अहिसगो हिसगो इदरो।८०६॥ जदि सुद्धस्स य बधो होहिदि बाहिर गवत्थुजोगेण । णस्थि दु अहिसगो णाम होदि वायवादिबधहेदु ॥८०६॥-आत्मा ही हिंसा है और वह ही अहिसा है, ऐसा जिनागममें निश्चय किया है। अप्रमत्तको अहिंसक और प्रमत्तको हिंसक कहते है ॥८०३॥ यदि रागद्वेष रहित आत्माको भी बाह्य वस्तुमात्रके सम्बन्धसे बन्च होगा, तो 'जगत में कोई भी अहिसक नहीं है', ऐसा मानना पड़ेगा, क्योंकि, मुनि जन भा वायुकायिकादि जीवोके वधके हेतु है ।८०६॥ स सि.७/२२/३६३/१० पर उद्धृत-रागादोणमणुप्पा अहिसगत्तं त्ति देसिदं समये । तेसिं चे उप्पत्तो हिंसेत्ति जिणेहि णिहिट्ठा । शास्त्रमें यह उपदेश है कि रागादिकका नही उत्पन्न होना अहिसा है। तथा जिनदेवने उनकी उत्पत्तिको हिंसा कहा है। (क.पा /पू. १/१/ ४२/१०२) (घु सि.उ ४४) (अन.घ. ४/२६) घ./पु १४/५.६१३/९/१० स्वय ह्यहिसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत् । प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिसक प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसक ५॥ = अहिंसा स्वयं होती है और हिसा भी स्वय हो होती
है । यहाँ ये दोनो पराधीन नही है। जो प्रमाद रहित है वह अहिसक है और जो प्रमाद युक्त है वह सदा हिसक है। प्र. सात प्र २१७-२१८ अशुद्धोपयोगसद्भावस्य सुनिश्चितहिसाभावप्रसिद्ध स्तथा तद्विनाभाबिना प्रयताचरेण प्रसिद्भयदशुद्धोपयोगासद्भावपरस्य परप्राणव्यपरोपसद्भावेऽपि बन्धाप्रसिद्धया सुनिश्चितहिसाऽभावप्रसिद्धश्चान्तरङ्ग एव छेदो बलीयान् न पुनर्बहिरङ्ग' ॥२१७॥ यदशुद्धोपयोगासदभाव निरुपले पत्वप्रसिद्ध रहिसक एव स्यात् ॥२१८॥ - अशुद्धोपयोगका सद्भाव जिसके पाया जाता है उसके हिसाके सद्भावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है, और इस प्रकार जो अशुद्धोपयोगके बिना होता है ऐसे प्रयत आचार से प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोगका असद्भाव जिसके पाया जाता है उसके परप्राणोके व्यपरोपके सद्भाव में भी बन्धकी अप्रसिद्धि होनेसे हिसाके अभावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है अत अन्तरंग छेद हो विशेष बलवान है बहिरग नही ॥२१७॥ अशुद्धोपयोगका असद्भाव अहिसक ही है, क्योकि उसे निर्ले
परवकी प्रसिद्धि है ।२१८॥ (नि सा /ता वृ.५६) (अन ध ४/२३) पु सि उ ५१ अविधायापि हि हिसा हिसाफलभाजन भवत्येक' । कृत्वाप्यपरो हिसा हिसाफलभाजन न स्यात् । - निश्चय कर कोई जीव हिसाको न करके भी हिसा फलके भोगनेका पात्र होता है और दूसरा हिसा करके भी हिसाके फलको भोगनेका पात्र नही होता है, अर्थात फलप्राप्ति परिणामोके आधीन है, बाह्य हिसाके आधीन नहीं।
२. निश्चय अहिंसाके बिना अहिंसा सम्भव नहीं नि सा./ता वृ ५६ तेषा मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणाममन्तरेण ___ सावद्यपरिहारो न भवति। - उन (बाह्य प्राणियो) का मरण हो या
न हो, प्रयत्नरूप परिणामके बिना सावद्यपरिहार नहीं होता। पप्र./टी २/६८ अहिसालक्षणो धर्मः, सोऽपि जीवशुद्धभाव बिना न स भवति । = धर्म अहिसा लक्षणवाला है, और वह अहिसा जीव के शुद्ध भावोके बिना सम्भव नहीं। ३. परकी रक्षा आदि करनेका अहंकार अज्ञान है स सा /मू २५३ जो अप्पणा दु मण्ण दि दुखि दसु हिदे करेमि सत्तेति । सो मूढो अण्णाणी गाणी एतो दु विवरीदो। - जो यह मानता है कि अपने द्वारा मै (पर) जीवोको दुखी सुखी करता हूँ, वह मूढ (मोही) है, अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है वह ज्ञानी है। (यो सा./अ. ४/१२)
४. अहिंसा सिद्धान्त स्वरक्षार्थ है न कि पररक्षार्थ १ ध./उ ७५६ आत्मेतराङ्गिणामगरक्षण यन्मत स्मृतौ । तत्पर स्वात्मरक्षाया' कृतेनात परत्र तत् ॥१५६॥ - इसलिए जो आगममें स्व और अन्य प्राणियोकी अहिसाका सिद्धान्त माना गया है, वह केवल स्वात्म रक्षाके लिए ही है, परके लिए नही।
सा व्रतकी कचित् प्रधानता १. अहिंसा व्रतका माहात्म्य भ.आ./मू ८२२ पाणो वि पाडिहेर पत्तो छूडो वि ससुमारहदे । एगेण एकदिवसकदेण हिसावदगुणेण । - स्वल्प काल तक पाला जानेपर भी यह अहिसा वत प्राणीपर महान् उपकार करता है। जैसे कि शिशुमार ह्रदमें फेके चाण्डालने अल्पकाल तक ही अहिंसावत पालन किया था। वह इस व्रतके माहात्म्यसे देवोके द्वारा पूजा गया। ज्ञा, ८/३२ अहिसैव जगन्माताऽहिसैवानन्दपद्धति' । अहिसैव गति' साध्वी श्रीरहिसैव शाश्वती ॥३२॥ = अहिसा ही तो जगतकी माता है क्योकि समस्त जोवोका परिपालन करनेवाली है; अहिसा ही आनन्दकी सन्तति है, अहिसा ही उत्तम गति और शाश्वती लक्ष्मी है। जगत में जितने उत्तमोत्तम गुण है वे सब इस अहिसा ही में है। अ.ग.श्रा ११/५ चामीकरमयीमुझे ददानः पर्वत · सह । एकजीवाभयं नून ददानस्य समः कुत' ॥५॥ - पर्वतोसहित स्वर्ण मयी पृथिवीका
वायएसा जिनागम, १०॥ यदि राम जगत में कोई
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अहिंसा
२१७
अहित
दान करनेवाला भी पुरुष, एक जीवकी रक्षा करनेवाले पुरुषके समान कहाँसे हो सकता है। भा पा./टी १३४/२८३ पर उद्धृत "एका जीवदये कत्र परत्र सकला क्रिया'। परं फलं तु सर्वत्र कृषेश्चिन्तामणेरिव ॥१॥ आयुष्मान सुभग' श्रीमान सुरूप कीर्तिमान्नर' । अहिसावतमाहात्म्यादेकस्मादेव जायते ॥२॥ - एक जोवदयाके द्वाराहो चिन्तामणिकी भॉति अन्य सकल धार्मिक क्रियाओके फल की प्राप्ति हो जाती है ॥१॥ आयुष्मान् होना, सुभगपना, धनवानपना, सुन्दर रूप, कीर्ति आदि ये सब कुछ मनुष्यको एक अहिसा बतके माहात्म्य से ही प्राप्त हो जाते है ॥२॥
२. सर्व व्रतोमें अहिंसावन ही प्रधान है। भ.आ/मू ७८४-७४० णस्थि अणूदो अप्पं आयासादो अणूणय णस्थि ।
जह तह जाण महल्लं ण वयमहिसासम अस्थि ॥७८४॥ सव्वेसिमासमाणं हिदय गम्भो व सव्वसत्थाण । लम्वेसि बदगुणाण पिडो सारो अहिंसा हु ॥७६०॥ इस जगत् में असे छोटी दुसरी बस्तु नही है
और आकाशसे भी बडी कोई चीज नहीं है । इसी प्रकार अहिसा व्रतसे दूसरा कोई बड़ा बत नही है ॥७८४॥ यह अहिंसा सर्व आश्रमोंका हृदय हे, सर्व शास्त्रोका गर्भ है और सर्व वतोका निचोडा हुआ सार है ॥७॥ कुरल ३३/३ अहिसा प्रथमो धर्म सर्वेषामिति सन्मति । ऋषिभिबहुधा गीत सुनृत तदनन्तरम् ॥३॥ =अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ है । ऋषियोने प्राय उसको महिमाके गीत गाये है। सच्चाईकी श्रेणी उसके पश्चात्
आती है। स सि,७/१/२४३/४ तत्र अहिसा व्रतमादौ क्रियते प्रधानत्वात् । सत्यादोनि हि तत्परिपालनार्थादीनि सस्थस्य वृत्तिपरिक्षेपवत । - इन पाँचों बतोमे अहिसा व्रतको (सुत्रकारने) प्रारम्भमे रखा है, क्योकि वह सबमें मुख्य है। धान्यके खेतके लिए जैसे उसके चारों ओर कॉटोका घेरा होता है उसी प्रकार सत्यादिक सभ' व्रत उसकी रक्षा
के लिए है। (रा वा. ७/१/६/५३४/१) . पुसि.उ ४२ आत्मपरिणाम हिसनं हेतुत्वात्सर्व मेव हिसैतत् । अनृतवच
नादि केवल मुदाहृत शिष्यबोधाय ॥४२॥ - आत्म परिणामोका हनन करनेमे असत्यादि सब हिंसा ही है। असत्य वचन आदि ग्रहण तो केवल शिष्य जनोको उस हिसाका बोध कराने मात्रके लिए है । ज्ञा ८/७,३०,३१,४२ सत्याद्य सरनि औषयमजातनिबन्धनम्। शीलैश्च
यद्यधिष्ठानम हिसाख्य महावतम् १७॥ एतत्समयसर्वस्वमेतत्सिद्धान्तजोवितम् । यज्जन्तुजातरक्षार्थ भावशुद्धया दृढ बतम् ॥३०॥ श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेषु समयेषु च। अहिसालक्षणो धर्म. तहिपक्षश्च पातकम् ॥३९॥ तप श्रुतमयज्ञानध्यानदानादिकमणा। सत्यशीलवतादोनाम हिसा जननी मता ॥४२॥ - अहिंसा महावत सत्यादिक अगले ४ महाबतोका तो कारण है, क्योकि वे बिना अहि साके नहीं हो सकते। और शीलादि उत्तर गुणोकी चर्याका स्थान भी अहिसा ही है । वही तो समय अर्थात् उपदेशका सर्वस्व है, और वही सिद्धान्तका रहस्य है, जो जीवोके समूहको रक्षाके लिए हो। एव वही भाव शुद्धिपूर्णक दृढबत है ॥३०॥ समस्त मतोके शास्त्रोमें यही सुना जाता है, कि अहिंसा लक्षण तो धर्म हे और इसका प्रतिपक्षी हिसा करना हो पाप है ॥३१॥ तप, श्रुत, यम, ज्ञान, ध्यान और दान करना तथा सत्य, शील व्रतादिक जितने भी उत्तम कार्य है उन सबकी माता एक अहिसा हो है ॥४२॥ (ज्ञा /२)
३. व्रतके बिना अहिंसक भी हिंसक है पु मि. उ. ४८ हिसायामविरमणं हिसापरिणमनमपि भवति हिंसा। तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥४८॥ -हिसामें विरक्त न होना हिंसा है और हिसारूप परिणमना भी हिंसा होती है। इसलिए प्रमादके योगमें निरन्तर प्राण घातका सद्भाव है।
प्र.सा/त.प्र. २१७ प्राणव्यपरोपसद्भावे तदसद्भावे वा तदविनाभाविनाप्रयताचारेण प्रसिद्भयदशुद्धोपयोगसद्भावस्य सुनिश्चितहिसाभावप्रसिद्ध । -प्राणके व्यपरोपका सद्भाव हो या असद्भाव, जो अशुद्धोपयोगके बिना नही होता ऐसे अप्रयत आचारसे प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोग जिसके पाया जाता है उसके हिसाके सद्भावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है। ४. निश्चय व्यवहार अहिसा समन्वय
१. सर्वत्र जीवोंके सद्धावमे अहिंसा कैसे पले भ.आमू १०१२-१०१३ कध चरे कध चिट्ठे धमासे कध सये। कध भुजेज्ज भासिज्ज कध पाव ण वज्झदि ॥१०१२॥ जद चरे जद चिट्ठ जदमासे जदं सये। जद भुजेज्ज भासेज्ज एव पाव ण बज्झई ॥१०१३॥ प्रश्न -इस प्रकार कहे गये क्रमकर जीवोसे भरे इस जगत् में साधु किस तरह गमन करे, कैसे तिष्ठ, कैसे बैठे, कैसे सोये, कैसे भोजन करे, केसे बाले, कैसे पापसे न बन्धे। उत्तर-यत्नाचारसे गमन करे, यत्नसे तिष्ठे, पीछीसे शाधकर यत्नसे बैठे, शोधकर रात्रिमे यत्नसे सावे, यत्नसे दोष रहित आहार करे, भाषा समितिपूर्वक यत्नसे बोले । इस प्रकार पापसे नहीं बन्ध सकता। रा.वा. ७/१३/१२/५४१/५ मे उद्धृत-जले जन्तु: स्थले जन्तुराकाशे जन्तुरेव च । जन्तुमालाकुले लोके कथ भश्चरहिसक । सोऽत्रावकाशे न लभते। भिक्षानिध्यानपरायणस्य प्रमत्तयोगाभायात। किच सूक्ष्मस्थूलजोवाम्युपगमात् । सूक्ष्मा न प्रतिपोड्यन्ते प्राणिन स्थूलमूर्तय । ये शक्यास्ते विवज्यन्ते का हिसा स यतारमन । प्रश्नजल में, स्थल में और आकाशमे सब जगह जन्तु ही जन्तु है। इस जन्तुमय जगतमे भिक्षु अहिसक कसे रह सकता है" उत्तर---इस शकाको यहाँ अवकाश नहीं है, क्योकि, ज्ञानध्यानपरायण अप्रमत्त भिक्षुको मात्र प्राणवियोगसे हिसा नहीं होती। दूसरी बात यह है कि जीव भी सूक्ष्म व स्थूल दो प्रकार के है। उनमे जो सूक्ष्म है ये तो न किसीसे रुकते है, और न किसोको रोक्ते है, अत उनकी तो हिसा होती नही है। जो स्थूल जीव है उनकी यथा शक्ति रक्षा की जाती है। जिनको हिसाका रोकना शक्य है उसे प्रयत्न पूर्वक रोकनेवाले सयतके हिसा कैसे हो सकती है। साध ४/२२-२३ कषाय विकथानिद्राप्रणयाक्ष विनिग्रहात । नित्योदयां दया कुत्पिापध्वान्तर विप्रभा ॥२२॥ विष्वगजीवचिते लाके कचरन कोऽप्यभोक्ष्यत। भाव कसाधनौ बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यता ॥२३॥ - अहिसाणुवतको निर्मल करने की इच्छा रखनेवाला श्रावक कषाय, विकथा, निद्रा, माह, और इन्द्रियोके विधिपूर्वक निग्रह करनेसे पापरूपी अन्धकारको नष्ट करने के लिए सूर्य की प्रभाके समान, तथा नित्य है उदय जिसका, ऐसी दयाको करो ॥२२॥ यदि परिणाम ही है एक प्रधान कारण जिनका ऐसे बन्ध और मोक्ष न हाते, अर्थात् यदि बन्ध और मोक्षके प्रधान कारण परिणाम या भाव न होते तो चारो तरफसे जीवोके द्वारा भरे हुए ससारमें कहीपर भी चेष्टा करनेवाला कोई भी मुमुक्षु पुरुष मोक्षका प्राप्त न कर सकता।
२. निश्चय अहिंसाको अहिंसा कहनेका कारण प.प्र/टी २/१२५ रागाद्यभावो निश्चयेनाहिसा भण्यते। कस्मात् । निश्चयशुद्धचैतन्यप्राणस्य रक्षाकारणात् । -रागादिके अभावको निश्चयसे अहिंसा कहते है, क्योकि, यह निश्चय शुद्ध चेतन्यप्राणकी रक्षाका कारण है। * अन्तरग व बाह्य हिसाका समन्वय -दे, हिसा अहित-अहित सम्भाषणकी इष्टता अनिष्टता। -दे, सत्य/२
दि-मध्य लोकमें द्विचरम सागर व द्वीप। -दे, लोक ५११
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अहेतुमत
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आकार
अहेतुमत्-पा./पं जयचन्द/६ जो सर्व की आज्ञा ही करि केवल
प्रमाणता मानिए सो अहेतुमत है। अहंतु समास्या सू./मूब भा.५०१/१८ त्रै काल्यासिद्ध हतोरहेतुसम ॥१८॥ हेतु साधन तत्साध्यात् पश्चात्सह वा भवेत् । यदि पूर्व साधनमस्ति असति साध्ये कस्य साधनम् । अथ पश्चाव, असति साधने कस्येद साध्यम् । अब युगपत्साध्यसाधने। द्वयोविद्यमानयोः कि कस्य साधनं किं कस्य साध्यमिति हेतुरहेतुना न विशिष्यते। अहेतुना साधात प्रत्यवस्थानमहेतुसम' - तीनो कालमें वृत्तिताके असिद्ध हो जानेसे अहेतुसमा जाति होती है। अर्थात साध्यस्वरूप अर्थ के साधन करने में हेतुका तीनो कालो में वर्तना नहीं बननेसे प्रत्यवस्थान देनेपर अहेतुसमा जाति होती है। जैसे-हेतु क्या साध्य से पूर्वकालमें वर्तता है, अथवा क्या साध्यसे पश्चात उत्तरकालमें वर्तता है अथवा क्या दोनो साथ-साथ वर्तते है। प्रथम पक्षके अनुसार साधनपना नहीं बनता क्योकि साध्य अर्थ के बिना यह किसका साधन करेगा। द्वितीय पक्षमे साध्यपना नहीं बनता, क्यो कि साधन अभावमें वह किसका साध्य कहलायेगा। तृतीय पक्षमे किसी एक विवक्षितमें ही साधन या साध्यपना युक्त नही होता, क्योंकि, ऐसी अवस्थामे किसको किमका साधन कहे और किसको किसका साध्य ।
___ (श्लो.वा ४/न्या ३६५/५१४/१६) अहोरात्रि-काल प्रमाणका एक भेद । -दे. गणित I/१/४ ।
[ आ ]
आकस्मिक भय-दे, भय । आकांक्षा-१ इच्छाके अर्थ में आकाक्षा-दे, अभिलाषा, २. साकक्ष व निराकाक्ष अनशन-दे अनशन, ३ नि काक्षित अंग-दे निकांक्षित। आकार-इस शब्दका स धारण अर्थ यद्यपि वस्तुओका सस्थान होता है, परन्तु यहाँ ज्ञान प्रकरण में इसका अर्थ चेतन प्रकाशमे प्रतिभासित होनेवाले पदार्थो की विशेष आकृतिमें लिया गया है और अध्यात्म प्रकरणमे देशकालावच्छिन्न सभी पदार्थ साकार कहे जाते है। १. भेद व लक्षण
१. आकारका लक्षण--(ज्ञानज्ञेय विकल्प व भेद) रा वा १/१२/१/५३/६ आक रो विकल्प । = आकार' अर्थात् विकल्प
(ज्ञानमें भेद रूप प्रतिभास)। क.पा १/१,१५/६३०१, ३३१/१ पमाणदो पुधभूदं कम्ममायारो। -प्रमाणसे पृथग्भूत कर्मको आकार कहते है। अर्थात प्रमाणमे (या ज्ञानमे) अपने से भिन्न बहिभूत जो विषय प्रतिभासमान होता है उसे आकार कहते है। क पा १/१,१५/६३०७/३३८/३ आयारो कम्मकारयं सयलत्थसत्थादो पुध काऊण बुद्धिगायरमुवणीयं । सकल पदार्थोके समुदायसे अलग होकर बुद्धि के विषय भावको प्राप्त हुआ कर्मकारण आकार कहलाता है।
(ध. १३/५,५,१६/२०७/७) म प्र. २४/१०२ भेदग्रहणमाकार प्रतिवमव्यवस्थाः ॥१०२॥ = घट पट
आदिकी व्यवस्था लिये हुए किसी वस्तुके भेद ग्रहण करनेको आकार कहते है। द्र सं/टी, ४३/१८६/६ आकारं विकल्पं, केन रूपेण । शुक्लोऽय, कृष्णोऽय, दीर्घोऽयं, ह्रस्वोऽयं, घटोऽयं, पटोऽयमित्यादि । विकल्प को आकार कहते है। वह भी क्सि रूपसे १ 'यह शुक्ल है, यह कृष्ण है, यह बड़ा है, यह छाया है, यह घट है, यह पट है' इत्यादि । --दे आकार २/१,२,३ (ज्ञेयरूपेण ग्राह्य)।
२. उपयोगके साकार अनाकार दो भेद त.सू २/४ स द्विविधोऽष्ट चतुर्भेद ॥६॥ = वह उपयोक क्रमसे दो प्रकार,
आठ प्रकार व चार प्रकार है। स सि. २/१/१६३/७ स उपयोगो द्विविध -ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति । ज्ञानोपयोगोऽष्टभेद दर्शनोपयोगश्चतुर्भेद । -वह उपयोग दो प्रकारका है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है और दर्शनोपयोग चार प्रकारका है । (नि सा /मू. १०), (प.का /मू ४०), (न.च वृ.११६), (त सा. २/४६), (द्र संमू.४)। पं में प्रा १/१७८ । उबओगो सो दुविहो सागारो चेव अणागारो।
- उपयोग दो प्रकारका है - साकार और अनाकार । (स सि २/8/१६३/१०), (रावा . २/४/१/१२३/३०), (ध २/१,१/४२०/१), (ध १३/५, ५.१६/२०७/४), (गो.जी /मू. ६७२), (व सं/सं १/३३२) ।
३. साकारोपयोगका लक्षण पं.सं./प्रा १/१७६ मइसुइजी हिमणेहि य ज सय विसय बिसेसविण्णाण । अतोमुत्तकालो उवओगो सो हु सागारो ॥१७६॥ - मति, श्रुत, अवधि
और मन पर्ययज्ञानके द्वारा जो अपने अपने विषयका विशेष विज्ञान होता है, उसे साकार उपयोग कहते है। यह अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है ॥१७॥ क पा १/१,१५/३३०७/३३८/४ तेण आयारेण सह बट्टम ण सायार1
उस आकारके साथ जो पाया जाता है वह साकार उपयोग कहलाता है। (घ. १२/५.५,१६/२०७/७)
आंत-दे अंतडी। आंतराच्या .वि./ १/१३/२०१/२६ अन्तश्चेतसि भवा आन्तरा'।
-अन्तर गमें होवे सो आन्तरा है। आंदोलन करण-दे अश्त्र कर्णकरण । आंध्र-१ मध्य आर्यखण्डका एक देश ।-दे मनुष्य ४, २ (म पु./प्र. ५०/प पन्नालाल)-गोदावरी व कृष्णा नदीके बीचका क्षेत्र। इसकी राजधानी अन्ध नगर (वेगो) थी। इसका अधिकांश भाग भाग्यपुर (हैदराबाद) में अन्तर्भूत है। इसीको त्रैलिग (तेल गा) देश भी कहते है। ३ (ध १/५ ३२/H.L.Jain) सितारा जिलेका वह भाग भी आन्ध देशमें ही था जिसमें आज वेण्या नदी बहती है, तथा जिसमें महिमानगढ नामका ग्राम है। आंध्र वंश-(ध.१/प्र.३२/HL.Jain) इस वशका राज्यकाल ई. पू २३२-२२५ (वी नि २६४-३०१) अनुमान किया जाता है। आवली-व्रत विधान सग्रह । पृ. २६ रसोके बिना नीरस केवल एक अन्न जल के साथ लेना आवली' आहार है। आंसिक-भरत क्षेत्रके दक्षिण आर्यखण्डका एक देश।--दे मनुष्य ४। आ-स.सि.१६/२७२/२) 'आइ' अयमभिविध्यर्थ ।-'ड' यह अभिविधि अर्थ में आया है। (अर्थात् 'आ' पद तक' अर्थ में सीमाका प्रयोजक है।) आकपित-आलोचनाका एक दोष। -दे. आलोचना २। आकर-म पु भाषाकार १६/१७६ जहॉपर सोने चाँदी आदिकी खान हुआ करती है उस स्थानको 'आकर' कहते है।
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अहिंसा
४. अनाकार उपयोगका लक्षण
पंसं पा १/१८० इन्दियमणोहिणा वा बर अनिरोणि के गहन अतोहुकाल उनओगी सी अणगारो ॥ १८०॥ इन्द्र, मन और अधिके द्वारा पदार्थोंकी विशेषताको ग्रहण न करके जो सामान्य अंशका ग्रहण होता है, उसे अनाकार उपयोग कहते है । यह भी अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है ॥१८०॥ कपा १/१.१५/६३०७ / ४ तत्रिवरीयं अणायार । उस साकारसे विपरीत अनाकार है । अर्थात् जो आकारके साथ नहीं वर्तता वह अनाकार । ( ध १३ / ५.५१६ / २०७/६) ।
PR
पंध / उ ३६४ यत्सामान्यमनाकार साकारं तद्विशेषभाक् । =जो सामान्य धर्मसे युक्त होता है वह अनाकार हैं और जा विशेष धर्म से युक्त होता है वह साकार है ।
५ ज्ञान साकारोपयोगी है।
स.सि २/६/१६३/१० साकारं ज्ञानम् । ज्ञान साकार है । (रा.बा. २/ ६/१/१२३/३९), ( १०/५-२२६/२००/५), (म. २४/२०१)
घ. १/१,१.९९५/३५३/१० जानातीति ज्ञानं साकारापयोग । जो जानता है उसको ज्ञान कहते है, अर्थात् साकारोपयोगको ज्ञान कहते है ।
स.सा./ आ. परि/ शक्ति नं० ४ साकारोपयोगमयी ज्ञानशक्ति । साकार उपयोगमयी ज्ञान शक्ति ।
६. दर्शन अनाकारोपयोगी है
पंस / प्रा१/१३८ जं सामण्णं गहणं भावाण णेव कट्टु आयार | अविसेसिऊण अरथे द सणमिदिभण्णदे समए ॥ १३८ ॥ सामान्य विशेषात्मक पदार्थों के आकार विशेषका ग्रहण न करके जो केवल निर्विकल्प रूपसे अशका या स्वरूपमात्रका सामान्य ग्रहण होता है, उसे परमागम दर्शन कहा गया है / ४३) (गो.जी./घू. ४८२/८८८) प.सं / सं १/२४६) ( ध १ / १.१.४ / ६३/१४६) स.सि. २/१/१६०/१० अनाकार दर्शनमिति - अनाकार दर्शनोपयोग है (रा.वा २/६/०/२०/३९) (१३/२-२०११/२००१६) (म.प्र. २४/१०१)
२. शका समाधान
२१९
१. ज्ञानको साकार कहनेका कारण
त सा. २ / ११ कृत्वा विशेषं गृह्णाति वस्तुजातं यतस्ततः । साकारमिष्यते ज्ञानं ज्ञानयाथात्म्य वेदिभिः ॥ ११॥ ज्ञानपदार्थोंको विशेष करके जानता है, इसलिए उसे साकार कहते है । यथार्थ रूप से ज्ञानका स्वरूप जाननेवालोंने ऐसा कहा है।
२. दर्शनको निराकार कहनेका कारण सा२/१२ द्विशेषमकृत्गृहमा प्रोक्तं दर्शनं विश्वदर्शिभिः ॥१२॥ पदार्थोंकी जो केवल सामान्यका अथवा सत्ता-स्वभावका ग्रहण करता है, दर्शन कहते है उसे निराकार कहने का भी यही प्रयोजन है कि वह ज्ञेय वस्तुओको आकृति विशेषको ग्रहण नहीं कर पाता । गोजी. / जी / प्र. ४८२ / ८८८/१२ भावाना सामान्यविशेषात्मकबाह्यपदाआकार - भेदग्रहणं अकृत्वा यत्सामान्यग्रहण - स्वरूपमात्रावभासनं तव दर्शनमिति परमागमे भण्यते । भाव जे सामान्य विशेपानक मापदार्थ तिनका आकार कहिये भेदग्रहण ताहि न करके जो सत्तामात्र स्वरूपका प्रतिभासना सोई दर्शन परमागम विषै कहा है I पं.भ./३१२-२६५ नाकार स्यादाकारो वस्तुतो निर्विकल्पता । शेषानन्तगुणानां सम् ज्ञानमन्तरा ॥ १२॥ ज्ञानादिना गुणाः सर्वे प्रोक्ता सल्लक्षणाङ्किता । सामान्याद्वा विशेषाद्वा सत्यं नाकारमात्रकाः ॥ ३६५॥ = जो आकार न हो सो अनाकार है, इसलिए
=
निराकार त समर उसे
वास्तव ज्ञानके बिना शेष अनन्तों गुणों में निकिता होती है। अत ज्ञानके बिना शेष सत्र गुणोका लक्षण अनाकार होता है ॥ ३२ ॥ ज्ञानके बिना शेष सब गुण केवल सत रूप लक्षणसे ही लक्षित होते है इसलिए सामान्य अथवा विशेष दोनो ही अपेक्षाओंसे वास्तव में वे अनाकाररूप ही होते है ॥ ३६५॥
३. निराकार उपयोग क्या वस्तु है
[] १२/५.२.१६/२०७/८ सियाभावाद अगारुपजोगी गरि सि सदिय मार्ग सायारो अभियमागारो को सि ज्जदे, ससय-विवज्जय- अणज्भवसायणमणायारत्तप्पसंगादो । एदं पि त्थि, केवलिहि दसणाभावप्पसगादो। ण एस दातो अंतरं गविस यस्स उनजोगस्स आगायारत्तन्भुगमादो अतरंग उबजोगो वि सायारो, कत्ताराक्षो दव्वादो पुह कम्माणुवल भादो | ण च दोष्णं चिउपजोगाणमेत बहिर गतरं गरथ सियागमेत विहादी ग च एदम्हि अत्थे अवलं बिज्जमाणे सायार अणाया र उवजोगाणमसमाणतं, अण्णोणभेदेहि पुहाणमसमाणत्तविरोहादो । प्रश्न- साकार उपयोग द्वारा कर लिये जाते है, दर्शनोपयोग लिए कोई विषय दोष नहीं रह जाता), अत विषयका अभाव होनेके कारण अनाकार उपयोग नहीं बनता, इसलिए निश्चय सहित ज्ञानका नाम साकार और निश्चयरहित ज्ञानका नाम अनाकार उपयोग है । यदि ऐसा कोई कहे तो कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर सशय विपर्यय और अनवध्यवसायकी अनाकारता प्राप्त होती है। यदि कोई कहे कि ऐसा हो ही जाओ, सी भी बात नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर केवली जिनके दर्शनका अभाव प्राप्त होता है 1 (क. पा १/१.१५/०६/२३०/४): ( क. पा. १ / १-२२/६३२७/३५८/३) उत्तर - यह कोई दोष नही है, क्योंकि, अन्तरङ्गको विषय करनेवाले उपयोगको अनाकार उपयोगरूपसे स्वीकार किया है। अन्तरग उपयोग विषयाकार होता है यह बात भी नहीं है, क्योंकि, इसमें कर्ता द्रव्यसे पृथग्भूत कर्म नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि दोनों उपयोग एक है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि एक (ज्ञान) बहिरंग अर्थको विषय करता है और दूसरा (दर्शन) अन्तरंग अर्थको विषय करता है, इसलिए, इन दोनोको एक माननेमें विरोध आता है । यदि कहा जाय कि इस अर्थ के स्वीकार करनेपर साकार और अनाकार उपयोगमें समानता न रहेगी, सो भी ब त नहीं है, क्योंकि परस्पर के भेद से ये अलग है इसलिए इनमें असमानता माननेमें विरोध आता है (क.पा. १/१-२०/६१२०/३४*/७)
★ देशकालावच्छिन्न सभी पदार्थ या भाव साकार हैं
१ भेद व लक्षण
आकाश
"
आकाश
सर्व व्यापक अखण्ड अमूर्त द्रव्य स्वीकार किया गया है। जो अ अन्दर सर्व द्रव्योंको समानेकी शक्ति रखता है यद्यपि यह अखण्ड है पर इसका अनुमान करानेके लिए इसमें प्रदेशो रूप खण्डों की कल्पना कर ली जाती हैं। यह स्वयं तो अनन्त है परन्तु इसके मध्यवर्ती कुछ मात्र भागमें ही अन्य द्रव्य अवस्थित है। उसके इस भागका नाम लोक है और उससे बाहर दोष सर्व आकाशका नाम अलोक है । अवगाहना शक्तिको विचित्रताके कारण छोटे-से लोक में अथवा इसके एक प्रदेशपर अनन्तानन्त द्रव्य स्थित है ।
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मूर्तीक
जगह (Space) को आकाश कहते है। इसे एक
१ आकाश सामान्यका लक्षण २ आकाश द्रव्योंके भेद
३ लोकाकाश व आलोकाकाशके लक्षण ४ प्राणायाम सम्बन्धी आकाश मण्डल
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आकाश
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१. भेद व लक्षण
२ आकाश निर्देश १ आकाशका आकार २ आकाशके प्रदेश ३ आकाश द्रव्यके विशेष गुण ४ आकाशके १६ सामान्य विशेष स्वभाव ५ आकाशका आधार ६ अखण्ड आकाशमे खण्ड कल्पना
७ लोकाकाश व आलोकाकाशकी सिद्धि ३ अवगाहना सम्बन्धी विषय १ सर्वावगाहना गुण आकाशमे ही है अन्य द्रव्यमे नही
तथा हेतु २ लोकाकाशमे अवगाहना गुणका माहात्मय ३ लोक/अस० प्रदेशोपर एकानेक जीवोकी अवस्थान विधि ४ अवगाहना गुणोकी सिद्धि ५ असं० प्रदेशी लोकमे अनन्त द्रव्योके अवगाहकी सिद्धि
६ एक प्रदेश पर अनन्त द्रव्योके अवगाहकी सिद्धि ४ अन्य सम्बन्धित विषय * अन्य द्रव्योमे भी अवगाहन गुण -दे. 'अवगाहन' * अमूर्त आकाशके साथ मूर्त द्रव्योके स्पर्श सम्बन्धी
-दे. स्पर्श/२ * अलोकाकाशमे वर्तनाका निमित्त -द.काल/२ * अवगाहन गुण उदासीन कारण है -दे. कारणIII/२ * आकाशका अक्रियावत्त्व
-दे द्रव्य/३ * आकाशमें प्रदेश कल्पना तथा युक्ति * आकाश द्रव्य अस्तिकाय है
-दे, अस्तिकाय * आकाश द्रव्यकी संख्या
-दे. संख्या /३ * लोकाकाशके विभागका कारण धर्मास्तिकाय-दे.धर्माधर्म/१ * लोकाकाशमे उत्पादादिकी सिद्धि -दे. उत्पाद व्ययधौव्य/३ * शब्द आकाशका गुण नही
-दे शब्द/२ * द्रव्योंको आकाश प्रतिष्ठित कहना व्यवहार है-दे द्रव्य/५
पुद्गलोंको अवकाश देना आकाशका उपकार जानना चाहिए । (गो /
जी प्र./६०५/१०६०/४) रा.वा./५/१/२१-२२/४३४ आकाशन्तेऽस्मिन द्रव्याणि स्वय चाकाशत इत्याकाशम् ॥ २१ ॥ अवकाशदानाद्वा ॥२२॥ - जिसमें जीवादि द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायोके साथ प्रकाशमान हो तथा जो स्वयं अपने को प्रकाशित भी करे वह आकाश है ॥२१॥ अथवा जो अन्य सर्व द्रव्योको
अवकाश दे वह आकाश हे । ध४/१,३,०/४/७ आगास सपदेस तु उड्ढाधो तिरिओविय । खेत्तलोगं वियाणाहि अण तजिग-देसिद ॥४॥ = आकाश सप्रदेशी है और वह ऊपर, नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है । उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए । उसे जिन भगवान्ने अनन्त कहा है। न च, वृहद चेयणर हि यममुरा अवगाहणलक्खण च सव्यगय । त णहदव्वं जिणुद्धि ॥१८॥ जो चेतन रहितअमूर्त,सर्व द्रव्योको अवगाह देनेवाला सर्व व्यापी है उसको जिनेन्द्र भगवान्ने आकाश द्रव्य कहा है। द्र.स /मू १६/५७ अवगासदाणजोग्ग जीवादीण वियाण आयासम् ॥१६॥
जो जोवादि द्रव्यो को अब काश देनेवाला है उसको जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो । (नि.सा/ता वृह/२४)
२ आकाश द्रव्योंके भेद स सि५/१२/२७८ आकाश, द्विधाविभक्त लोकाकाशमल'काकाश चेति । - आकाश द्रव्य दो प्रकारका है-लोकाकाश और अलो कश रा वा ५/१२/१८/४५६/१०) (न च वृ१८ (द्र सं /मू १६)
३ लोकाकाश व आलोकाकाशके लक्षण पका /मू११ जोवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोपण्ण । तत्तो
अणण्णमण्ण यास अतव दि रित्त ॥६१ = जीव पृद गलकाय, धर्म, अधर्म (तथा काल) लोकके अनन्य है । अन्तरहित ऐसा आकाश उससे (लोकसे) अनन्य तथा अन्य है। बा अ३६ जीवादि पयट्ठाण समवाओ सो णिरुच्चये लोगो। तिविहो हवेई लोगो अहमज्झिमउढ्भेयेण ॥३६॥ जीवादि छ पदार्थों का जो समूह है उसे लोक कहते है। और वह अधोलोक,ऊर्ध्व लोक व मध्यलोकके भेद
से तीन प्रकारका है। (क अ./मू ११६) मू आ ५४० लोयदि आलोयदि पल्लोयदिसल्लोयदिति एगत्थो तह्माजि
णे हि कसिण तेणेसो बुच्चदे लाओ ॥४०॥ जिस कारण से जिनेन्द्र भगवान का मतिश्रुतज्ञानकी अपेक्षा साधारण रूप देखा गया है, मन'पर्यय ज्ञानको अपेक्षा कुछ उससे भी विशेष और केवलज्ञानकी अपेक्षा
सम्पूर्ण रूपसे देखा गया है इसलिए वह लोक कहा जाता है। स.सि 1५/१२/२७८ धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोक इति । ... स यत्र तल्लोकाकाशम् । ततो बहिः सर्वतोऽनन्तालोकाकाशम् । -जहाँ धर्मादि द्रव्य बिलोके जाते है उसे लोक कहते है। उससे बाहर सर्वत्र अनन्त अलोकाकाश है। (सि.प ४/५६४-१३५), (रा.वा ५/१२/१८/४५६/७), (ध ४/१,३,६/१) (प.का /त प्र८७/१२८), (प्रसा/ त.प्र. १२८/१८०), (न.च.वृ. १६), (द्र स. मू. २०), (पं.का ता.वृ. २२ 1४८), (प. उ. २२) (त्रि.सा ५) ध १३/१,२,५०/२८८/३ को लोक । लोक्यन्त उपलभ्यन्ते यस्मिन्
जीवादय पदार्था स लोक | प्रश्न-लोक किसे कहते है । उत्तरजिसमे जीवादि पदार्थ देखे जाते है अर्थात उपलब्ध होते है उसे लोक कहते है । (म.प्र.४/१३), (न.च बृ. १४२-१४३)
४. प्राणायाम सम्बन्धी आकाश मण्डल ज्ञा सा.५७ अग्नि, त्रिकोण रक्त कृष्णश्च प्रभञ्जन तथावृत्त । चतुष्कोणं पीतं पृथ्वी स्वेतं जलं शुद्धचन्द्राभम् ॥५७|| - अग्नि त्रिकोण लाल रंग, पवन गोलाकार श्याम वर्ण, पृथ्वी चौकोण पीत वर्ण, तथा जल अर्ध चन्द्राकार शोतल चन्द्र समान होता है।
१. भेद व लक्षण
१ आकाश सामान्य का लक्षण त.सू./४.६,७,१८ नित्याबस्थितान्यरूपाणि ॥४।। आ आकाशादेकद्व्याणि ।।६।। निष्क्रयाणि च ।।७।। अकाशस्यावगाह ।।१८॥ आकाश द्रव्य नित्य अवस्थित और अरुपी है ॥५॥ तथा एक अखण्ड द्रव्य है ॥६॥ व निष्क्रिय है ॥७॥ औरअवगाह देना इसका उपकार है ॥१८॥ प.का./मु.१०सवे सि जोबाण सेसाण तह य पुग्गलाणं च ज देदि विवरमखिलं त लोगे हवदि आगासं ॥३०॥ कलोहमें जीवोको और पुद्गलोको वैसे ही शेष समस्त द्रव्योका जो सम्पूर्ण अवकाश देता है वह
आकाश द्रव्य है। स.सि ११८/२८४ जीवपुद्गलादीनामवगाहिनामवकाशदानमवगाह
आकाशस्योपकारो वेदितव्यः । =अवगाहन करनेवाले जीव और
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आकाश
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२ आकाश निर्देश
२. आकाश निर्देश
१. आकाशका आकार आचारसार ३/२४ व्योमामूर्त स्थितं नित्यं चतुरस्र सम धनम् । अवगाहनाहेतवश्चानन्तानन्त प्रदेशकम् ॥२४।। = आकाश द्रव्य अमूर्त है, नित्य अवस्थित है, घनाकार चौकोर है, अवगाहनाका हेतु है,
अनन्तानन्त प्रदेशी है। २ आकाशके प्रदेश तसूह आकाशस्यानन्ता. 18| = आकाश द्रव्यके अनन्त प्रदेश है
(द्र सं.मू. २५) (नि सा. मू. ३६) (गो जी.मू.५८७/१०२५) प्रसा/त प्र १३५/१६१ सर्व व्याप्यनन्तप्रदेशप्रस्ताररूपस्वादाकाशस्य च प्रदेशवत्वम् । = सर्वव्यापी अनन्तप्रदेशोके विस्ताररूप होनेसे आकाश प्रदेशवान है।
३ आकाश द्रव्यके विशेष गुण त.स १८ आकाशस्थावगाह ॥१८॥ = अवगाहन देना आकाशद्रव्यका
उपकार है। ध १५/३३/७ ओगाहणलक्रवणमायासदव्यं । आकाश द्रव्यका असाधा
रण लक्षण अवगाहन देना है। आ प २/१/११४ आकाशद्रव्ये अवगाहनाहेतुरू मद्तरमचेतनत्वमिति ।
- आकाश द्रव्यके अवगाहना हेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्व में (विशेष) गुण हैं। प्रसा/त प्र १३३ विशेषगुणो हि युगपरसर्व द्रव्याणां साधारणावगाहहेतुस्वामाकाशस्य । युगपत् सर्व द्रव्योके साधारण अवगाहका हेतुत्व आकाशका विशेष गुण है।
४. आकाशके १६ सामान्य विशेष स्वभाव न.च वृ ७० इगवीस तु सहावा दोण्हं (१) तिण्ह (२) तु सोडसा भणिया। पंचदसा पुण काले दव्वसहावा (३) य णयव्वा ॥५०॥
जीव व पुद्गल के २१ स्वभाव, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य के १६ स्वभाव, तथा काल द्रव्यके १५ स्वभाव कहे गये है। (आप/
अधि४) न च वृ./टी ७० (सद्रूप. असद्रूप, नित्य, अनित्य, एक, अनेक, भेद, अभेद, भव्य, अभव्य स्वभाव, विभाव, चैतन्य, अचैतन्य, मूर्त, अमूर्त, एक प्रदेशी, अनेक प्रदेशी, शुद्ध, अशुद्ध उपचरित, अनुपचरित, एकान्त, अनेकान्त । इन चौबीसमे-से अनेक, भव्य, अभव्य, विभाव, चैतन्य, मूर्त, एक प्रदेशत्व, अशुद्ध। इन आठ रहित १६ सामान्य विशेष स्वभाव आकाश द्रव्यमें है) (आ. प./अधि ४)
५. आकाशका आधार स. सि. ३/१/२०४ आकाशमात्मप्रतिष्ठम् ।-आकाश द्रव्य स्वय अपने
आधारसे स्थिति है। (स.सि.१२/२७७) (रा वा ३/१/८/१६०/१६) रा. बा.५/१२/२-४/४५४ आकाशस्यापि अन्याधारकतपनेति चेत्, न, स्वप्रतिष्ठत्वात् ॥२॥ ततोऽधिकप्रमाणद्रव्यान्तराधाराभावात ॥३॥ तथा चानवस्थानिवृत्तिः ॥ ४॥प्रश्न-आकाशका भी कोई अन्य आधार होना चाहिए । उत्तर-नहीं, वह स्वयं अपने आधारपर ठहरा हुआ है ॥ २ ॥ उससे अधिक प्रमाणवाले दूसरे द्रव्यका अभाव होनेके कारण भी उसका आधारभूत कोई दूसरा द्रव्य नही हो सकता। ३॥ यदि किसी दूसरे आधारकी कल्पना की जाये तो उससे अनवस्था दोषका प्रसंग आयेगा, परन्तु स्वयं अपना आधारभूत होनेसे वह नही आ सकता है।
६. अखण्ड आकाशमें खण्ड कल्पना रावा.५/८/५-६/४५०/३ एकद्रव्यस्य प्रदेशकलगना उपचारत' स्यात् । उप
चारश्च मिथ्योक्तिर्न तत्त्वपरीक्षायामधिक्रियते प्रयोजनाभावात । न हि मृगतृष्णिकया मृषार्थात्मिकया जलकृत्यं क्रियते इति; तन्न, कि
कारणम् । मुख्यक्षेत्राविभागात । मुख्य एवं क्षेत्र विभाग , अन्यो हि घटावगाह्य आकाशप्रदेशः इतरावगाह्यशन्य इति। यदि अन्यत्व न स्यात् व्याप्तित्वं व्याहन्यते ॥ ५ ॥ निरव यवत्त्वानुपपत्तिरिति चेतन, द्रव्यविभागाभावाच ॥६॥ एक द्रव्य यद्यपि अविभागी है वह घटकी तरह सयुक्त व्य नही है। फिर भी उसमे प्रदेश वास्तविक है उपचारसे नही। घर के द्वारा जा आकाशका क्षेत्र अवगाहित किया जाता है वह पटादिके द्वारा नहीं । दोनो जुदे-जुदे है। यदि प्रदेश भिन्नता न होती तो वह सर्वव्यापी नही हो सकता था। अत द्रव्य अविभागी होकर भी प्रदेशशून्य नही है। अनेक प्रदेशी होते हुए भी द्रव्यरूपसे उन प्रदेशोके विभाग न होनेके कारण निरवयव और अखण्ड द्रव्य मानने में कोई बाधा नहीं है। प्र सा /त प्र १४०/१६८ अस्ति चाविभाग कद्रव्यत्वेऽप्यशकल्पनमाका
शस्य, सर्वेषामणुनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्ते। यदि पुनराकाशस्यांशा न स्युरिति मतिस्तदाङ्कलीयुगल नभसि प्रसार्य निरूप्यता विमेकं क्षेत्र कि मनेकम् ॥-आकाश अविभाग (अखण्ड) एक द्रव्य है । फिर भी उसमें (प्रदेश रूप) खण्ड कल्पना हो सकती है, क्योकि यदि, ऐसा न हो तो सब परमाणुओको अवकाश देना नहीं बनेगा। ऐसा होनेपर भी, यदि आकाशके अश नही होते (अर्थात् अंश कल्पना नही की जाती) ऐसी मान्यता हो तो आकाशमे दो अंगुलिया फैलाकर बताइये कि दो अंगुलियोका एक क्षेत्र है या अनेक १ (अर्थात् यह दो अगुल अ काश है यह व्यवहार तभी बनेगा जबकि अखण्ड द्रव्यमे खण्ड कल्पना स्वीकार की जाये।) द्र स /टो.२०/७५ निर्विभागद्रव्यस्यापि विभागकल्पनमायात घटाकाश. पटाकाशमित्यादिवदिति । - घटाकाश व पटाकाशकी तरह विभाग रहित आकाश व्यकी भी विभाग कल्पना सिद्ध हुई । (पं. का./त.प्र ५/१५)
७. लोकाकाश व अलोकाकाशकी सिद्धि रा. वा १/१८/१०-१३/४६७/२४ अजाप्तत्वादभाव इति चेत न, असिद्ध ॥१०॥ द्रव्यार्थिकगुणभावे पर्यायाथिकप्राधान्यात् स्वप्रत्ययागुरुलधुगुणवृद्धिहानिविकल्पापेक्षया अवगाहकजीवपुद्गलपरप्रत्ययावगाहभेदविवक्षया च आकाशस्य जातत्वोपपत्ते' हेतोरसिद्धि । अथवा, व्ययोस्पादौ आकाशस्य दृश्यते । यथा चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य सर्वज्ञत्वेनोत्पादस्तथो पलब्धे असर्वज्ञत्वेन व्य यस्तथानुपलब्धे , एव चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य साक्षादनुपलभ्यमाकाशं सर्वज्ञरवोपपत्तौ उपलभ्यत इति उपलभ्यत्वेनोत्पन्नमनुपलभ्यत्वेन च विनष्टम् । अनावृत्तिराकाश मिति चेत, न, नामवत् तत्सिइधे ॥१६॥...यथा नाम वेदनादि अमूर्तत्वात अनावृत्यपि सदस्तीत्यभ्युपगम्यते, तथा आकाशमपि वस्तुभूतमित्यवसेयम् । शब्द लिङ्गखादिति चेत्' न पौद्गलिकत्वात ॥१२॥ प्रधान विकार आकाशमिति चेत्, न तत्परिणामाभावात आत्मवत् ॥१३॥ - प्रश्न - आकाश उत्पन्न नही हूआ इसलिए उसका अभाव है। उत्तर-आकाशको अनुत्पन्न कहना असिद्ध है। क्योकि द्रव्यार्थिककी गौणता और पर्यायाथिक्की मुख्यता होनेपर अगुरुलधु गुणोकी वृद्धि और हानि के निमित्तने स्वप्रत्यय उत्पाद व्यय और अवगाहक जीव पुद्गलोके परिणमनके अनुसार परप्रत्यय उत्पाद व्यय आकाशमें होते ही रहते है । जेसे-कि अन्तिम समयमे असर्वज्ञताका विनाश होकर किसी मनुष्यको सर्वज्ञता उत्पन्न हुई हो तो आकाश पहले अनुपलभ्य था वही पीछे सर्वज्ञको उपलभ्य हो गया। अत आकाश भी अनुपलभ्यत्वेन विनष् होकर उपलभ्यत्वेन उत्पन्न हुआ ॥१०॥-प्रश्नआकाश आवरणाभाव मात्र है 1 उत्तर नहीं किन्तु बस्तुभूत है। जैसे कि नाम और वेदनादि अमूर्त होनेसे अनावरण रूप होकर भी सत है, उसी तरह आकाश भी॥११॥ प्रश्न-अवकाश देना यह आकाशका लक्षण नहीं है । क्योकि उसका लक्षण शब्द है । उत्तर-ऐसा नहीं है क्योकि शब्द पौद्गलिक है और आकाश अमूर्तिक । प्रश्न
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आकाश
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३. अवगाहना सम्बन्धी विषय
आकाश तो प्रधानका विकार है। उत्तर-नहीं क्योंकि निश्य तथा निष्क्रिय व अनन्त रूप प्रधानके आत्माकी भान्ति विकार ही नहीं हो सकता। (विशेष दे त सा.१/परि..पृ १६६/शोलापुर वाले प० बंशीधर)। पंध/उ २३ सोऽप्यनोको न शून्योऽस्ति षभिर्द्रव्यैरशेषतः । व्योम
मात्रावशेषत्वाद् व्योमात्मा केवलं भवेत् ॥२३॥ -वह अलोक भी सम्पूर्ण छहो द्रव्योसे शून्य नहीं है किन्तु आकाश मात्र शेष रहनेसे वह अन्य पाँच द्रव्यो से रहित केवल आकाशमय है। ३. अवगाहना सम्बन्धी विषय १. सर्वावगाहना गुण आकाशमें ही है अन्य द्रव्यमें नहीं
तथा हेतु प्र. सा./त. प्र /१३३ विशेषगुणो हि युगपत्सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुस्वमाकाशस्य एवममूर्तानां विशेषगुणसक्षेपाधिगमे लिङ्गम् । तत्रैककालमेव सकलद्रव्यसाधारणावगाहसंपादनमसर्व गत्वादेव शेषदव्याणामसम्भवदाकाशमधिगमयति । -युगपत् सर्वद्रव्योके साधारण अबगाहका हेतुत्व आकाशका विशेषगुण है। इस प्रकार अमूर्त द्रव्यों के विशेष गुणों का ज्ञान होनेपर अमूर्त द्रव्योंको जाननेके लिए लिंग प्राप्त होते है। (अर्थात विशेष गुणो के द्वारा अमूर्त द्रव्यों का ज्ञान होता है) • वहाँ एक ही काल में समस्त द्रव्योके साधारण अवगाहका संणदन (अवगाह हेतुत्व रूप निंग प्राकाशको बतलाता है, क्योकि शेष द्रव्योके सर्वगत न होनेसे उनक यह सम्भव नहीं है।
२. लोकाकाशमें अवगाहना गुणका माहात्म्य घ ४/१.३.२०/२४/२ तम्हा ओगहणलक्रवणेण सिद्धलोगागासस्स अोगाहणमाहप्पमाइरियपर परागदोबदेसेण भणिस्सामो। तं जहा-उस्सेहधणंगुलस्स असखेज्जदिभागमेत खेत्ते मुहमणिगोदजीवस्स जहष्णोगाहणा भवदि । तम्हि द्विदघणलोगमेत्तजोवपदेसेसु पडिपदेसमभवसिद्विएहि अणतगुणा सिद्धाणभणं तभागमेत्ता होदूण विदओरालियसरीरपरमाणूणं तं चैव खेत्तभोगास जादि । पुणो ओरालियसरीरपरमाणू हितो अगंतगुणाणं तेजइयसरीरपरमाणूण पि तम्हि चेत्र खेत्ते ओगाहणा भवदि। तेजइयपरमाणूहितो अण तगुणा कम्मइयपरमाणू तेणेव जीवेण मिच्छत्तादिकारणे हिं संचिदापडिपदेसमभवसिद्धिएहि अण तगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तत्थ भवंति, तेसि पि तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि । पुणो ओरालिय-तेजा-कम्मइय-विस्ससोवचयाणं पदिक्कं सबजीवेहि अणंतगुणाणं पडिपरमाणुम्हि तत्तियभेत्ताणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। एवमेगजीवेणच्छिदअंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्ते जहण्णखेतम्हि समाजोगाणा होण विदिओ जीवो तत्थेब अच्छदि । एवमणताणताणं समाणोगाहणाणं जीवाणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि । तदो अवरो जीवो तम्हि चैत्र मज्झिमपदेसमतिमं काऊण उबवणो। एदस्स वि ओगाहणाए अर्णताणंत जीवा समाणोगाहणा अच्छति त्ति पुठवं व परवेदब्वं । एवमेगेपदेसा सव्व दिसासु वड्ढावेदव्या जाव लोगो आबुण्णो त्ति । mअब हम अवगाहण लक्षणसे प्रसिद्ध लोकाकाशके अवगाहन माहात्म्यको आचार्य परम्परागत उपदेशके अनुसार कहते हैं। वह इस प्रकार है-उत्सेधांगुलके अअंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रमें सूक्ष्म निगोदिया जीव की जघन्य अवगाहना है। उस क्षेत्रमें स्थित घनलोक मात्र जीवके प्रदेशमें-से प्रत्येक प्रदेशपर अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र होकरके स्थित औदारिक शरीरके परमाणुओंका वही क्षेत्र अवकाशपनेको प्राप्त होता है। पुन. औदारिक शरीरके परमाणुओंसे अनन्तगुणे तेजस्कशरीरके परमाणुओंकी भी उसी क्षेत्रमें अवगाहना होती है । तैजस परमाणुओंसे अनन्तगुणे उस ही जीवके द्वारा मिथ्यात्व अविरति आदि कारणोंसे संचित और प्रत्येक प्रदेशपर अभव्य सिद्रोंसे अनन्तगुणे तथा सिद्धोंके
अनन्तवें भाग मात्र कर्म परमाणु उस क्षेत्रमें रहते हैं। इसलिए उन कर्म परमाणुओंकी भी उस ही क्षेत्रमें अवगाहना होती है। पुन' औदारिक शरीर तैजस शरीर और कार्माण शरीरके विखसोपचौंका जो कि प्रत्येक सर्व जीवोंसे अनन्तगुणे हैं और प्रत्येक परमाणुपर उतने ही प्रमाण है। उनकी भी उसी ही क्षेत्र में अवगाहना होती है। इस प्रकार एक जीवसे व्याप्त अंगुलके असंख्यातवे भागमात्र उसी जघन्य क्षेत्रमे समान अवगाहना वाला होकरके दूसरा जीव भी रहता है। इसी प्रकार समान अवगाहना वाले अनन्तानन्त जीवों की उसी ही क्षेत्रमें अवगाहना होती है। तत्पश्चात दूसरा कोई जीव उसी क्षेत्रमे उसके मध्यवर्ती प्रदेशको अपनी अवगाहनाका अन्तिम प्रदेश करके उत्पन्न हुआ। इस जीवकी भी अवगाहनामे समान अवगाहनावाले अनन्तानन्त जीव रहते है। इस प्रकार यहाँ भी पूर्व के समान प्ररूपणा करनी चाहिए। इस प्रकार लोक्के परिपूर्ण होने तक सभी दिशाओं में लोकका एक एक प्रदेश बढाते जाना चाहिए।
३. लोक असं.प्रदेशोंपर एकानेक जीवोंकीअवस्थान विधि त सू.५/१५ (लोका काशस्य) असंख्येयभागादिषु जीवानाम् (अवगाहा)। जीवोका अवगाह लोकाकाशके असख्यातवे भागको आदि लेकर सर्वलोक पर्यन्त होता है। रा वा. ५/१५/३-४/४५७/३१ लोकस्य प्रदेशा' असख्येया भागाः कृता', तत्रै कस्मिन्नसंख्ययभागे एको जीवोऽवतिष्ठते। तथाद्वित्रिचतुरादिष्वपि असंख्येयभागेषु आ सर्वलोकादवगाह' प्रत्येतव्यः । नानाजीवानाम् तु सर्व लोक एव। असख्येयस्याऽसंख्येयविकतपत्वात् । अजघन्योस्कृष्टासख्येयस्या हि असंख्येय विकल्पा अतोऽवगाह विकल्पो जीवानां सिद्ध'। रा बा.५५८०४/१४६/३३ जीवः तावत्प्रदेशोऽपि संहरण विसर्पणस्वभावस्वात कर्म निर्वतितं शरीरमणु महद्वा अधितिष्ठस्तावदवगाह्य वर्तते। यदा तु लोक्पूरणं भवति तदा मन्दरस्याधश्चित्रवज्रपटलयोर्मध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा. व्यवतिष्ठन्ते, इतरे प्रदेशाः ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते । -लोकके असंख्यात प्रदेश हैं, उनके असंख्यात भाग किये जायें। एक असंख्येय भागमे भी जीव रहता है तथा दो तीन चार आदि असंख्येय भागोंमें और सम्पूर्ण लोकमे जीवोंका अवगाह समझना चाहिए । नाना जीवोंकी अवगाह तो सर्व लोक है। असंख्यातके भी असंख्यात विकल्प है। और अजघन्योत्कृष्ट असंख्येयके असंख्येय विकल्प हैं अतः जीवोंके अवगाहमें भेद भी हो जाता है। तथा जोवके असंख्यातप्रदेशी होनेपर भी संकोचविस्तार शोल होनेसे कर्मके अनुसार प्राप्त छोटे या बड़े शरीरमें तत्प्रमाण होकर रहता है जब इसकी समुदघात कालमे लोकपूरण अवस्था होती है तब इसके मध्यवर्ती आठ प्रदेश मुमेरु पर्वतके नीचे चित्र और वज्रपटलके मध्य के आठ प्रदेशोंपर स्थित हो जाते है, बाकी प्रदेश ऊपर नीचे चारों ओर फैल जाते है।
४. अवगाहना गुणों को सिद्धि स.सि ५/१८/२८४ यद्यवकाशदानमस्य स्वभावो बज्रादिभिर्लोष्टदीना भित्त्यादिभिर्गवादीनां च व्याघातो न प्राप्नोति । दृश्यते च व्याघातः। तस्मादस्यावकाशदान हीयते इति। नैष दोषः, बजलोष्टादीना स्थूलानापरस्पर व्याघात इति नास्यावकाशदानसामध्ये हीयते तत्राबगाहिनामेवव्याघातात् । वज्रादयः पुन: स्थूलत्वात्परस्परं प्रत्यवकाशदानं न कुर्वन्तीति नासावाकाशदोषः ये खलु पुदगला सूक्ष्मास्ते परस्पर प्रत्यवकाशदानं कुर्वन्ति। यद्य नेदमाकाशस्यासाधारणं लक्षणम्, इतरेषामपि तत्सदभावादिति । तन्न; सर्व पदार्थाना साधारणावगाहनहेतुत्वमस्यासाधारण लक्षणमिति नास्ति दोषः। अलोकाकाशे सदभावादभाव इति चेदा न; स्वाभावापरित्यागाव प्रश्नयदि अवकाश देना अवकाशका स्वभाव है तो बघ्रादिकसे लोढा आदिका और भीत आदिसे गायका व्याघात नहीं प्राप्त होता, किन्तु
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आकाश
व्याघात तो देखा जाता है इससे मालूम होता है कि अवकाश देना अवकाश का स्वभाव नहीं ठहरता है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि वज्र और लोढा आदिक स्थूल पदार्थ है इसलिए इनका आपस में व्याघात है, अत आकाशकी अवगाह देने रूप सामर्थ्य नहीं नष्ट होती। यहाँ जो व्याघात दिखाई देता है वह अवगाहन करनेबाले पदार्थों का ही है। तात्पर्य यह है कि बाकि स्थूल पार्थ है. इसलिए वे परस्पर में अवकाश नहीं देते है यह कुछ आकाशका दोष नहीं है। हॉ जो पुद्गल सूक्ष्म होते है वे परस्पर अवकाश देते है । प्रश्न- यदि ऐसा है तो यह आकाशका असाधारण लक्षण नही रहता, क्योकि दूसरे पदार्थोंमें भी इसका सद्भाव पाया जाता है ' उत्तरनहीं, क्योकि आकाश द्रव्य सत्र पदार्थोंको अवकाश देनेमें साधारण कारण है यही इसका असाधारण लक्षण है, इसलिए कोई दोष नहीं है। प्रश्न- अलोकाकाशमें अवकाश देने रूप स्वभाव नहीं पाया जाता, इससे ज्ञात होता है कि यह आकाशका स्वभाव नही है 1 उनर-नहीं, क्योकि कोई भी द्रव्य अपने स्वभावका त्याग नहीं करता । रा. वा ५ / १ २३/४३४/६ अलोकाकाशस्यावकाशदानाभावात्तदभाव इति चेद, न तत्सामर्थ्याविरहाद २२ कियानिमिचवेऽपिडि विशेषबल लाभात् गोशब्दवत् तदभावेऽपि प्रवर्तते प्रश्न - अलोकाकामें द्रव्यों का अवगाहन न होनेसे यह उसका स्वभाव घटित नहीं होता ? उत्तर - शक्तिकी दृष्टिसे उसमें भी आकाशका व्यवहार होता हैपाका निमित्तपना होनेपर भी रूदि विशेष बल से भी असोकाकाशको आकाश संज्ञा प्राप्त हो जाती है, जिस प्रकार बैठी हुई गऊ चलन क्रियाका अभाव होनेपर भी चलन शक्ति के कारण गौ शको प्रवृत्ति देखी जाती है।
गोजो जो ६०५/२०६०/२ ननु कियाोगाजीवामकाशदानं युक्त धर्मादीनां तु निष्क्रियाणां नित्य
कथ इति तन्न उपचारेण तत्सिद्धे । यथा गमनाभावेऽपि सर्वगतामाकाशमित्युच्यते सर्वत्र सात तथा धर्मादीनां अस्थाहनक्रियाया अभावेऽनि सर्वत्र दर्शनात अत्रगाह इत्युपचर्यते । प्रश्न जो अवगाह क्रियावान तो जीव पुद्गल है तिनको अवकाश देना युक्त कहा। महूर धर्मादिक द्रव तो निष्क्रिय हैं, नित्य सम्बन्धको घरै है नवीन नाहीं आये जितको अवकाश देनासम्भवे असे इहाँ कैसे कहिये सो कही 1 उत्तर-जी उपचार करि कहिये है जैसे गमनका अभाव होते सत भी सर्वत्र सद्धभावकी अपेक्षा आकाशको सर्वत कहिये ते धर्मादि व्यनिके अवगाह कियाका अभाव होते संभी लोकि सद्भावकी अपेक्षा अवगाहनका उपचार कीजिये है । (स. सि. ५/१८/ २८४/३) रा. वा /५/१८/२/४६६/१८) ।
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५. असं. प्रदेशी लोकमें अनन्त द्रव्योंके अवगाहकी सिद्धि स.सि ५/१०/२०५ स्यावेतवरूपातप्रदेशी लोका अनन्तप्रदेशस्यान्तानन्तप्रदेशस्य च स्कन्धस्याधिकरणमिति विरोधः......नैष दोष ; सूक्ष्मपरिणामाबगाहशक्तियोगात् । परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिगता एके कस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ता अवतिष्ठन्ते अवगाहनशतश्चैवाव्याहतास्ति । तस्मादेकस्मिन्नपि प्रदेशे अनन्तानन्तानामवस्थान न विरुध्यते । ( नायमेकान्त - अल्पेऽधिकरणे महद्रव्यं नावतिष्ठते इप्रिय विशेषाविशेष समर्पितचम्पकादिगन्धादिवत् ६ / रा, वा ) प्रश्न- लोक असंख्यात प्रदेशवाला है इसलिए वह अनन्तानन्त प्रदेशवाले स्कन्धका आधार है इस बात के माननेमें विरोध आता है। उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, ' क्योंकि सूक्ष्म परिणमन होनेसे और अवगाहन शक्तिके निमित्तसे अनन्त या अनन्तानन्त प्रदेशवाले पुद्गल स्कन्धोका आकाश आधार हो जाता है। सूक्ष्म रूपसे परिणत हुए परमाणु आकाशके एक-एक प्रदेश में अनन्तानन्त ठहर जाते है। इनकी यह अवगाहन शक्ति व्याघात रहित है। इसलिए आकाश एक प्रदेशमें भी अनन्तानन्तगतका अवस्थान विरोधको प्राप्त नहीं होता। फिर यह कोई एकान्तिक नियम
.
३ अवगाहना सम्बन्धी विषय
नहीं है कि छोटे आधारमें बड़ा द्रव्य ठहर ही नहीं सकता हो । पुद्गलों में विशेष प्रकार सघन सघात होनेसे अल्प क्षेत्र में बहुतोका अवस्थान हो जाता है जैसे कि छोटी-सी चम्पाकी कली में सूक्ष्म रूपसे बहुत से गन्धावयव रहते है, पर वे ही जब फैलते है तो समम्त दिशाओं को व्याप्त कर लेते है। (रा. वा ३/१०/३-६/४३३/१४ )
स. सि /५/१४/२७६ अवगाहनस्वभावत्वात्सूक्ष्म परिणामाच्च मूर्तिमतामध्यगाहो न विरुध्यते एकावर अनेकदीपप्रकाशावस्थान आगमप्रामाण्याच्च तथाऽध्यवसेयम् । - ( पुद्गलोका) अवगाहन स्वभाव है और सूक्ष्म रूपसे परिणमन हो जाता है इसलिए एक मकान में जिस प्रकार अनेक दीपकोंका प्रकाश रह जाता है उसी प्रकार - मूर्तमान पुद्गलोंका - एक जगह अवगाह विरोधको प्राप्त नहीं होता तथा आगम प्रमाणसे यह बात जानी जाती है । ( रा वा ५/१३ । ४-६/४२७ ) रा. मा. /५/१५/५/४५८/० प्रमाण विरोधादवगाहासुरिति चेत .. सन्नः कि कारणम् जीवद्वै विध्यात् । द्विविधा जोमा; बावरा सूक्ष्मश्चेति तत्र भादरा सप्रतिघातशरीरा सूक्ष्मा जीवाः सूक्ष्मपरिणामादेव सशरीरत्वेऽपि परस्परेण बादरेश्य न प्रतिहन्यन्त त्यतिपातशरी 1 तठो सूक्ष्म नियोजीवस्तिष्ठति तत्र नन्तानन्ता' साधारणशरीरा वसन्ति । बादराणां च मनुष्यादीना शरीरेषु सस्वेदजस मूर्च्छ मजादीना जोवानां प्रतिशरीरं बहूनामवस्थानमिति नास्तयवगाहविरोध। यदि बादरा एव जोबा अभविष्यअतिहि गावशेषोऽनिष्यत कब सारीरस्यात्मनोऽतिपातत्व मिति चेत् दृष्टत्वात् दृश्यते हि बालाग्रकोटिमात्र छिद्ररहिते धनबहलायस भित्तितले वज्रमयकपाटे बहि समन्तात् वज्रले पलिप्ते अपवरके देवदत्तस्य मृतस्य मूर्तिमज्ज्ञानावरणादिकर्म ते जसकामणशरीरसन्धियेऽपि गृहमभिश्चैव निर्गमन तथा सूक्ष्म निगोतानामप्यप्रति घातित्व वेदितव्यम् । प्रश्न- द्रव्य प्रमाणसे जीवराशि अनन्तानन्त है तो वह असख्यात प्रदेश प्रमाण लोकाकाश में कैसे रह सकती है । उत्तर - जीव बादर और सूक्ष्मके भेदसे दो प्रकार के है। बादर जीव सप्रतिघात शरीरी होते है पर सूक्ष्म जीवोंका सूक्ष्म परिणमन होनेके कारण सशरीरी होनेपर भी न तो बाइसे प्रतिपात होता है और न परस्पर ही । वे अप्रतिघातशरीरी होते है इसलिए जहाँ एक सूक्ष्म निगोद जीव रहता है वहीं अनन्तान्त साधारण सूक्ष्म शरीरी रहते है। बादर मनुष्यादिके शरीरोमें भी संस्वेदज आदि अनेक सम्मूर्च्छन जीव रहते हैं। यदि सभी जीव बादर ही होते तो अवगाह में गडबड पड सकती थी। सशरीरी आत्मा भी अप्रतिघाति है यह बात तो अनुभव सिद्ध है। निश्छिद्र लोहेके मकानसे, जिसमें वज्र के किवाड लगे हों, और वज्रलेप भी जिसमें किया गया हो, मर कर जीव कार्माण शरीर के साथ निकल जाता है। यह काम शरीर मूर्तिमान ज्ञानावरणादि कमकापिण्ड है। तेजस शरीर भी इसके साथ सदा रहता है। मरण काल में इन दोनों शरीरोंके साथ जीव वज्रमय कमरेसे निकल जाता है और उस कमरे में कहीं भी छेद या दरार नहीं पडती । इसी तरह सूक्ष्म निगोदिया जीवोंका शरीरभी अप्रतिघाती ही समझना चाहिए । ध, ४/१ ३,२/२२ / ४ कधमणता जीवा असं खेज्जपदेसिए लोए अच्छेति । ...लोग मजदि होति तो लोग असंखेाविभागमे रोहि चेत्र जीवेहि होदव्यमिदि णेदं घडदे, पोग्गलाणं पि असं खेज्जत्तप्पस गादी...लोगमेता परमाणू भवति, लोगमेरापरमा हि कम्मसरीरघड-प-भादि एगो नि असारमा समुदयसमागमेण विणा एकिस्से असण्णासणियाए वि सभवाभावा । होदु चे म समलपग्लदव्यस्स अलपसगादो सम्मानममे केव समापत्तिपसं गावच एगो माहोदिति अवगेज्मान जीवाजीवण हाणुववत्ती दो अत्रगाहणधम्मिओ लोगागासोत्ति इच्छि खीरकुम्भस्स मधुगंधी व प्रश्न असंख्यात प्रदेशवाले लोकमें अनन्त संख्यावाले जीव कैसे रह सकते है 1. यदि लोकके मध्यमें जीन रहते हैं (असोक में नहीं तो वे लोक असंस्थायें भागमात्रमें
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आकाश
अविचन्य धर्म
ही होने चाहिए। उत्तर-सकाकारका उक्त कथन धटित नही होता, क्योकि उक्त कथनके मान लेनेपर पुद्गलोके भी अस ख्यातपनेका प्रसग आता है। अर्थात लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण हो परमाणु होंगे तथा उनलोकपमाण परमाणुओकेद्वारा कर्म,शरीर,घट पट औरस्तंभ आदिकोमें-से एकभी वस्तु निष्पन्न नहीं हो सकती है, क्योकि, अनन्तानन्त परमाणुओके समुदायका ममागम हुए बिना एक अबसन्नासन्न सज्ञक भी स्कन्ध होना सम्भव नहीं है-प्रश्न-एकभी वस्तु निष्पन्न नहीं होवे, तो भी क्या हानि है। उत्तर- नहीं क्योंकि, ऐसा माननेपर समस्त पुद्गल, द्रव्यको अनुपलब्धिका प्रसंग आता है, तथा सर्व जीवों के एक साथ ही केवल ज्ञानकी उत्पत्तिका भी प्रसग प्राप्त होता है। (क्योकि इतने मात्र परमाणुओसे यदि किसी प्रकार सम्भव भी हो तो भी एक हो जो वका कार्माण शरीर बन पायेगा अन्य सर्व जीव कर्मरहित हो जायेगे). इस प्रकार अतिप्रसग दोष न आवे, इसलिए अबगाह्यमान जीव और अजीव द्रव्योंकी सत्ता अन्यथा न बननेसे क्षीर कुमका मधुकुम्भके समान अवगाहन धर्मवाला लोकाकाश है, ऐसा मान लेना चाहिए। ध.३/१,२,४५/२५८/१७६२२८१६२५१४२६४३३७५६३५४३६५०३३६ एत्तियमेत्तमणुसपज्जत्तरासिम्हि सखेजण्दर'गुलेहि गुणिदे माणुस् खेत्तादो संखेजगुणत्तप्पसंगा। संखेज्जुसेहगुलमेत्तोगाहणो मणुसपजत्तरासी सम्मादि त्ति णामकणिज्ज, सब्बुकस्सोगाहणमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेजपमाणपदर गुलमेत गाहणगुणगारमुह वित्थारुवल भादो । प्रश्न-७६२२८१६२५१४२६४३३७५६३५४३६५०३३६इतनी मनुष्य पर्याप्तराशिको सख्यात प्रतगंगुन्नौ (मनुष्य का निवास क्षेत्र) से गुणा किया जाये तो उस प्रमाणको मनुष्य क्षेत्रसे (४५ लाख रोजन व्यास -- १६००६०३०६५४६० १११, वर्ग योजन - १४४२५११४६६८१६४३४००००००००० प्रतर्रागुल । इसमें से दो समुद्रोका क्षेत्रफल घटानेपर शेष-६१६७०८४६६८१६४१६२०००००००० प्रतरांगुल । अन्तर्वीप तो है पर उनमें मनुष्य अत्यल्प होनेसे विवक्षामें नहीं लिये ) संरण्यात गुणाका प्रसग आ जावेगा। उसमें सख्यात उत्सेधागुलमात्र अवगाहनास युक्त मनुष्य पर्याप्त राशि समा जायेगी ( अधिक नहीं) । उत्तर सो ठीक नही, क्योकि सबसे उत्कृष्ट अवगाहनासे युक्त मनुष्य पर्याप्त राशिमें सख्यात प्रमाण प्रतरागुन मात्र अवगाहनके गुणकारका मुख विस्तार
पाया जाता है (न कि सब मनुष्योका)। पं. का /ता वृ१०/१५० अनन्तानन्तजीवास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणा पुद्गला
लोकाकाशप्रमितप्रदेशप्रमाणा कालाणवो धर्माधर्मों चेति सर्वे कथमत्र काशं लभन्त इति । भगवानाह । एकापवरके अनेकप्रदीपप्रकाश बदेकगूढनागरसगद्याणके बहुवर्णदेकस्मिनुष्ट्र क्षीरघटे मधुघटवदेकस्मिस् भूमिगृहे जपघण्टादिवद्विशिष्टावगाहगुणेनासंख्येयप्रदेशेऽपि लोके अनन्तसख्या अपि जोबाइयोऽवकाश लभन्त इत्यभिप्राय । = प्रश्न-जीव अनन्तानन्त है, उससे भी अनन्त गुणे पुद्गल द्रव्य है, लोकाकाश प्रदेश प्रमाण काल द्रव्य है, तथा एक धर्म द्रव्य व एक अधर्म द्रव्य है । असरूपात प्रदेशी लोकमें ये सब कैसे अवकाश पाते है। उत्तर-एक घरमे जिस प्रकार अनेक दीपकोका प्रकाश समा रहा है, जिस प्रकार एक छोटेसे गुटके में बहुत-सी सुवर्ण की राशि रहती है उष्ट्रीके एक घट दूधमें एक शहदका घडा समा जाता है, तथा एक भूमि गृहमें जय-जय व घण्टादिके शब्द समा जाते है, उसी प्रकार अपरूपात प्रदेशी लोकमें विशिष्ट अवगाहन शक्ति के कारण जीवादि अनन्त पदार्थ सहज अवकाश पा लेते है । (द्र. स./न./२०/५६) ६. एक प्रदेशपर अनन्त द्रव्योंके अवगाहकी सिद्धि स सि 11/१०/२७५ परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ता' अबतिष्ठन्ते। -सूक्ष्म रूपसे परिणत हुए पुदगल परमाणु आकाशके एक-एक प्रदेशपर अनन्तान्त ठहर सकते है। (रावा./५/१०/३.६/४५३) (विशेष दे. आकाश ३/५)
ध,१४/५६.९३१/४४५/१एगपदेसियस्स पोग्गलस्स होदु णाम एगागासपदेसे अवट्ठाण, कथं दुपदेसिय-तिपदेसियसखेज्जासखेज्ज अणं तपदेसियवंधाण णतस्थावट्ठाण ण, तत्थ अण तोगा गुणस्स सभवादो। तं पि कुदो णव्यदे जीव-पोग्गलाणमाण तियत्त हाणवत्ती दो। प्रश्न-- एक प्रदेशी पुद्गलका एक आकाश प्रदेश मे अवस्थान होवो परन्तु द्विप्रदेशी,त्रिप्रदेशी,सख्यात प्रदेशी, अस ख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्धोका वहाँ अवस्थान कैसे हो सकता है। उत्तर--नही। क्योकि वहाँ अनन्तको अवगाहन करनेका गुण सम्भव है । प्रश्न-सो भी कैसे 1 उत्तर-जीव व पुद्गलोकी अनन्तपनेकी
अन्यथा उपपत्ति सम्भव नही। प्रसा/त प्र १४०/१९८ स खल्वेकोऽपिशेषपञ्चद्रव्यप्रदेशानां सौम्यपरिणतानन्तपरमाणुस्कन्धानां चावकाशदानसमर्थ । वह आकाशका एक प्रदेश भी बाकी के पाँच द्रव्यो के प्रदेशोको तथा परम सूक्ष्मता रूपसे परिमे हुए अनन्त परमा ओके स्कन्धोको अवकाश
देने के लिए समर्थ है। द स /२७ जावदियं आयास अविभार्ग पुग्गलाणुउदृद्ध । त खु पदेसं जाणे सव्वाणुढाणदाणरिह ॥२७॥ = जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणुसे रोका जाता है, उसको सर्व परमाणुओं को स्थान देने में समर्थ प्रदेश जानो। आकाशगता चूलिका- श्रुतज्ञान II । आकाशगामी ऋद्धि-दे. ऋद्धि ४ । आकाश पुष्प-दे० असत् ।। आकाश भूत-भूत जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद - दे, भूत । आकिंचन्य धर्म-बा. अ ७६ होऊण य णिस्संगो णियभाव णिग्गहितु सुहदुहद । णिचं देण दु बट्टदि अणयारे तस्स कि चण्णह ॥७॥ - जो मुनि सर्व प्रकार के परिग्रहोसे रहित होकर और सुख-दुख के देनेवाले कर्म जनित निजभावो को रोककर निद्वन्द्वतासे अर्थात निश्चिन्ततासे आचरण करता है उसके आकिचन्य धर्म होता है । (पं वि./
१/१०१-१०२) ससि ६/६/४१३ उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममें दमित्यभिसन्धिनिवृत्तिराक्चिन्यम् । नास्य विञ्चनास्तीत्यक्चिन । तस्य भाव' कर्मवा आञ्चिन्यम् - जो शरीरादि उपात्त है उनमें भी संस्कारका त्याग करनेके लिए 'यह मेरा है' इस प्रकारके अभिप्रायका त्याग करना आविञ्चन्य है । जिसका कुछ नहीं है वह अविश्वन है,
और उसका भाव या कर्म आञ्चिन्य है । (रा बा.६/६/२१/५६८/१४) (त.सा६/२०) (अन ध.६/५४/६०७) भ.आ/वि.४६/१५४/१६ अकिचनतासकल ग्रन्यायाग = सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना यह आकिंचन्य धर्म है । ( का. अ ४०२)
२. आकिंचन्यधर्म पालानार्थ विशेष भावनाएँ रा बा/8/६/२७/५६६/२६ परिग्रहाशा बलवती सर्वदोषप्रसवयोनि' । न तस्या उपाधिभिः तृप्तिरस्ति सलिलैरिव सलिलनिधेरिह बडवायाः। अपि च, क पूरयति दु पूमाशागतम् । दिने दिने यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते। शरीरादीषु निर्ममत्व' परमनिवृत्तिमवाप्नोति । शरीरादिषु कृताभिष्वङ्गस्य सर्वकाल भिष्वङ्ग एव संसारे । परिग्रहकी आशा बडी बलवती है वह समस्त दोषों की उत्पत्तिका स्थान है जैसेपानीसे समुद्रकाबडवानल शान्त नही होता उसी तरह परिग्रहसे आशासमुद्र की तृप्ति नहीं हो सकती। यह आशाका गड ढा दुष्पूर है इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमें डाला जाता है वही समा कर मुह बाने लगता है । शरीरादिस ममत्व शून्य व्यक्ति परम सन्तोषको प्राप्त होता है। शरीरादिमें राग करनेवाले सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है। (पं वि./१/८२-१०५)
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आकृति
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आगम
रा. वा,हिं /९/६/६६६ का सारार्थ (जाकै शरीरादि विषै ममत्व नाही होय सो परम सुख कुंपावै है।) * दश धर्मोंकी विशेषताएँ-दे. धर्माद * आकिंचन्य व शौचधर्ममे अन्तर-दे. शौच आकृति-न्या. सू/म्. व.भा./२/२/६५/१४३ आकृतिर्जातिलिझारख्या ॥६९॥ {सा च नान्यसत्त्वावयवानां तदवयवानां च नियवाद व्यूहादिति । ] नियतायवयवव्यूहा खलु सत्त्वावयवा जातिलिङ्ग । शिरसा पादेन गामनुमिन्वन्ति । नियते च सत्त्वावयवानां व्यूहे सति गोत्व प्रख्यायत इति ।- जिससे जाति और उसके लिंग प्रसिद्ध किये जायें उसे आकृति कहते है । और उसके अगोंकी नियत रचना जातिका चिह्न है । शिर और पादोंसे गायको पहिचानते है । अवयवोंके प्रसिद्ध
होनेसे गोत्व प्रसिद्ध होता है कि 'यह गौ है' इत्यादि। पं. ध./पू ४८ शक्तिलक्ष्मविशेषो धर्मो रूपं गुण स्वभाबश्च । प्रकृति
शील चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दा' ॥४८॥ = शक्ति लक्ष्मलक्षण विशेषधर्मरूप गुण तथा स्वभाव प्रकृति-शील और आकृति ये सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक है। आक्रदत-स.सि.६/११/३२६ परितापजाताश्रपातप्रचुरविप्रलापादिभिर्व्यक्तनन्दनमाक्रन्दनम् । = परितापके कारण जो आँसू गिरनेके साथ विलाप आदि होता है, उससे खुलकर रोना आक्रन्दन कहलाता है । (रा वा.६/११/४/४१६/२६) आक्रोश परिषह-स सि.१/8/४२४ मिध्यादर्शनोक्तामर्ष परूपावज्ञानिन्दासभ्यवचनानि क्रोधाग्निशिरवाप्रवर्धनानि निशण्यतोऽपि तदर्थेष्वसमाहितचेतस सहसा तत्प्रतिकार कर्तुमपि शक्नुवत पापकर्म विपाकमचिन्तयतस्तान्याय॑ तपश्चरणभावनापरस्य कषायविषलवमात्रस्याप्यनवकाशमात्महृदयं कुर्वत आक्रोशपरिषहसहनमवधार्यते। मिथ्यादर्शनके उद्रेकसे कहे गये जो क्रोधाग्निकी शिखाको बढाते है ऐसे क्रोधरूप, कठोर, अवज्ञा कर, निन्दारूप और असभ्य वचनों को सुनते हुए भी जिसका उनके विषयों में चित्त नही जाता है, यद्यपि तत्काल उनका प्रतिकार करने में समर्थ है फिर भी यह सब पाप कर्मका विपाक है इस तरह जो चिन्तबन करता है, जो उन शब्दोंको सुनकर तपश्चरणकी भावनामें तत्पर होता है और जो कषायविषके लेश मात्रको भी अपने हृदय में अवकाश नहीं देता उसके आक्रोश परिषह सहन निश्चित होता है। (रा.बा.६/१/१७/६१०/३५) (चा.सा. १२०/४) आक्षेपिणी कथा-दे. कथा । आखेट-१. आखेटका निषेध ला.सं. २/१३६ अन्तर्भावोऽस्ति तस्यापि गुणवतसंज्ञिके। अनर्थदण्डत्यागाख्ये बाह्यानर्थ क्रियादिवत् ११३६॥ = शिकार खेलना बाह्य अनर्थ क्रियाओं के समान है, इसलिए उसका त्याग अनर्थ दण्ड त्याग नामके
गुणवतमें अन्तर्भूत हो जाता है । २. सुखपदायी आखेटका निषेध क्यों ? ला.सं २/१४१-१४८ ननु चानर्थदण्डोऽस्ति भोगादन्यत्र याः क्रिया। आत्मानन्दाय यत्कर्म तरकथं स्यात्तथाविधं ॥१४१॥ यथा सृकचन्दनं योषिद्वस्त्राभरणभोजनम् । सुखार्थ सर्वमेवैतत्तथाखेट क्रियापि च ॥१४२॥ मैवं तीवानुभावस्य बन्ध प्रमादगौरवात् । प्रमादस्य निवृत्त्यथं , स्मृत व्रतकदम्बकम् ॥१४३॥ सृक्चन्द नवनितादौ क्रियाया वा सुखातये। भोगभावो सुख तत्र हिंसा स्यादानुषङ्गिकी ।१४४। आखेटके तु हिंसाया भाव' स्याइवरिजन्मिन' । पश्चाई वानुयोगेन भोग स्याद्वा न वा क्वचित ॥१४॥ हिंसानन्देन तेनोच्चै रौद्रध्यानेन प्राणिनाम् । नारकस्यायुषो बन्ध' स्यानिर्दिष्टो जिनागमे ।१४६॥ ततोऽवश्यं हि हिंसायर्या भावश्चानर्थदण्डकः । त्याज्यः प्रागेव सर्वभ्य' .संक्लेशेभ्य'
प्रयत्नतः ॥१४७॥ तत्रावान्तररूपस्य मृगयाभ्यासकर्मण । त्याग भैयानवश्यं स्यादन्यथाऽसातबन्धनम् ॥१४८॥ - प्रश्न-भोगोपभोगके सिवाय जो क्रियाएँ की जाती है उन्हे अनर्थदण्ड कहते है। परन्तु 'शिकार खेलनेसे आत्माको आनन्द प्राप्त होता है इसलिए शिकार खेलना अनर्थदण्ड नहीं है ॥१४१॥ परन्तु जिस प्रकार पुष्पमाला, चन्दन, खियाँ, वखाभरण भोजनादि समस्त पदार्थ आत्माको सुख देनेवाले है उसी प्रकार शिकार खेलनेसे भी आत्माको सुख प्राप्त होता हे ॥१४२॥ उत्तर-ऐसा कहना युक्त नहीं। क्योकि प्रमादकी अधिकताकै कारण अनुभाग बन्धकी अधिक तीव्रता हो जाती है और प्रमादको दूर करनेके लिए ही सर्व व्रत पाले जाते है। इसलिए शिकार खेलना भोगोपभोगकी सामग्री नहीं है। बल्कि प्रमादका रूप है ॥१४३॥ माला, चन्दन, स्त्री आदिका सेवन करनेमे सुखकी प्राप्तिके लिए ही केवल भोगोपभोग करनेके भाव किये जाते है तथा उनका सेवन करनेसे सुख मिलता भी है और उसमे जो हिंसा होती है वह केबल प्रसगानुसार होतो है संकल्पपूर्वक नही ११४४॥ परन्तु शिकार खेलने में अनेक प्राणियोकी हिसा करनेके ही परिणाम होते है, तदनन्तर उसके कर्मों के अनुसार भोगोपभोगकी प्राप्ति होती भी है और नहीं भी होती है ॥१४५॥ शिकार खेलनेका अभ्यास करना, शिकार खेलने की मनोकामना रखकर निशाना मारनेका अभ्यास करना तथा और भी ऐसी हो शिकार खेलने के साधन रूप क्रियाओंका करना शिकार खेलने में ही अन्तर्भूत हैं। इसलिए ऐसे सर्व प्रयोगोका त्याग भी अवश्य कर देना चाहिए क्योकि ऐसा त्याग कल्याणकारी है। इसका त्याग न करनेसे असाता वेदनीयका पाप कर्म बन्ध ही होता है जो भावी दु खोका कारण है ॥१४६-१९८॥ ३. आखेट त्यागके अतिचार सा.घ. २/२२ वस्त्रनाणकपुस्तादि-न्यस्तजीवच्छिदादिकम् । न कुर्यात्यक्तपापद्धिस्तद्धि लोकेऽपि गर्हितम् ॥२२॥-शिकार व्यसनुका त्यागी वस्त्र, सिक्का, काष्ठ और पाषाण दि शिल्पमें बनाये गये जीवोके छेदनादिकको नही करे क्योंकि वह वस्त्रादिकमें बनाये गये जीवोका छेदन-भेदन लोकमें निन्दित है। ला.सं २/१५०-१५३ कार्य विनापि क्रीडार्थम् कौतुकार्थभथापि च । कर्तव्यमटनं नैव वापीकूपादिवर्मसु ॥१५०॥ पुष्पादिवाटिकासूच्चैर्वनेधूपबनेषु च । सरित्तडागक्रीडादिसर शून्यगृहादिषु ॥१५९॥ शस्याधिष्ठानक्षेत्रेषु गोष्ठीनेष्वन्यवेश्मसु । कारागारगृहेषूच्चैर्मठेषु नृपवेश्मसु ॥१५२॥ एवमित्यादि स्थानेषु विना कार्य न जातुचित् । कौतुकादि विनोदाथं न गच्छन्मृगयोज्झितः ॥१५३॥ - बिना किसी अन्य प्रयोजनके केवल क्रीडा करनेके लिए अथवा केवल तमाशा देखनेकेलिए इधर उधर नही घूमना चाहिए। किसी बावडी या ऑके मार्ग में या और भी ऐसे ही स्थानों में बिना प्रयोजनके कभी नहीं धूमना चाहिए ॥१५०॥ जिसने शिकार खेलनेका त्याग कर दिया है उसको बिना किसी अन्य कार्य के केवल तमाशा देखनेके लिए या केवल मन बहलानेके लिए पौधे-फूल, वृक्ष आदिके बगीचोमें, बडे-बडे वनों में, उपवनोमें, नदियों में, सरोवरोंमें, क्रीडा करनेके छोटे-छोटे पर्वतों पर, क्रीडा करनेके लिए बनाये हुए तालाबोमें, सूने मकानों में, गेहूँ, जौ, मटर आदि अन्न उत्पन्न होने वाले खेतोंमें, पशुओके बाँधनेके स्थानो में, दूसरेके घरोंमें, जेलखानोमें बडे-बडे मठोमें, राजमहलोंमें या और भी ऐसे ही स्थानोमें कभी नहीं जाना चाहिए ॥१५१-१५३॥ आगम-आचार्य परम्परासे आगत मूल सिद्धान्तको आगम कहते है। जैनागम यद्यपि मूलमें अत्यन्त विस्तृत है पर काल दोषसे इसका अधिकांश भाग नष्ट हो गया है। उस आगमकी सार्थकता उसकी शब्द रचनाके कारण नहीं बल्कि उसके भाव प्रतिपादनके कारण है। इसलिए शब्द रचनाको उपचार मात्रसे आगम कहा गया है। इसके भावको ठीक-ठीक ग्रहण करनेके लिए पाँच प्रकारसे इसका अर्थ करनेकी
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मागम
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सूचीसूची
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विधि है--शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ व भावार्थ, शब्दका
१ वास्तवमे भाव श्रुत ही ज्ञान है द्रव्यश्रुत ज्ञान नही अर्थ यद्यपि क्षेत्र कालादिके अनुसार बदल जाता है पर भावार्थ वही
२ भावका ग्रहण ही आगम है रहता है, इसोसे शब्द बदल जाने पर भी आगम अनादि कहा जाता है। आगम भी प्रमाण स्वीकार किया गया है क्योकि पक्षपात रहित * श्रुतज्ञानके अंग पूर्वादि भेदोका परिचय कीतराग गुरुओं द्वारा प्रतिपादित होनेसे पूर्वापर विरोधसे रहित है।
--दे. श्रुतज्ञान III शब्द रचनाकी अपेक्षा यद्यपि वह पौरुषेय है पर अनादिगत भावकी ३ द्रव्य श्रुतको ज्ञान कहनेका कारण अपेक्षा अपौरुषेय है।आगमको अधिकतररचना सूत्रों में होती है क्योंकि सूत्रों द्वारा बहुत अधिक अर्थ थोड़े शब्दोमें ही किया जाना सम्भव
४ द्रव्य श्रुतके भेदादि जाननेका प्रयोजन है। पीछेसे अल्पबुद्धियोके लिए आचार्योंने उन सूत्रोंकी टीकाएँ ५ आगमको श्रुतज्ञान कहना उपचार है रची है। वे ही टोकाएँ भी उन्हीं मूल सूत्रोके भावका प्रतिपादन * निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान -दे. ज्ञान IV करनेके कारण प्रामाणिक हैं।
३ आगमका अर्थ करनेकी विधि -
१ पाँच प्रकार अर्थ करनेका विधान १ आगम सामान्य निर्देश:
* शब्दार्थ -दे. आगम/४ १ आगम सामान्यका लक्षण
२ मतार्थ करनेका कारण २ आगमाभासका लक्षण
३ नय निक्षेपार्थ करनेकी विधि ३ नोआगमका लक्षण
* सूक्ष्मादि पदार्थ केवल आगम प्रमाणसे जाने जाते * आगम व नोआगमादि द्रव्य भाव निक्षेप तथा स्थित
है, वे तर्कका विषय नही
-दे. न्याय जित आदि द्रव्य निक्षेप
-दे.निक्षेप
-दे आगम १/११ * आगमकी अनन्तता
४ आगमार्थ करनेकी विधि
१. पूर्वापर मिलान पूर्वक * आगमके नन्दा भद्रा आदि भेद -दे. वाचना
२. परम्पराका ध्यान रखकर ४ शब्द या आगम प्रमाणका लक्षण
३ शब्द का नहीं भाव का ग्रहण करना चाहिए
* आगमकी परीक्षामें अनुभवकी प्रधानता -दे, अनुभव ५ शब्द प्रमाणका श्रुतज्ञानमे अन्तर्भाव
५ भावार्थ करनेकी विधि ६ आगम अनादि है
६ आगममे व्याकरणकी प्रधानता। ७ आगम गणधरादि गुरु परम्परा से आगत है
७ आगममे व्याकरणकी गौणता आगम ज्ञानके अतिचार
८ अर्थ समझने सम्बन्धी कुछ विशेष नियम ९ श्रुतके अतिचार
९ विरोधी बाते आनेपर दोनोंका संग्रह कर लें १० द्रव्य श्रुतके अपुनरुक्त अक्षर
१० व्याख्यानकी अपेक्षा सूत्र वचन प्रमाण होता है ११ श्रुतका बहुत कम भाग लिखने में आया है
११ यथार्थका निर्णय हो जानेपर भूल सुधार लेनी चाहिए १२ आगमकी बहुत सी बातें नष्ट हो चुकी है
४ शब्दार्थ सम्बन्धी विषय:१३ आगमके विस्तारका कारण
१ शब्दमे अर्थ प्रतिपादनकी योग्यता व शंका १४ बागमके विच्छेद सम्बन्धी भविष्यवाणी
२ भिन्न-भिन्न शब्दोंके भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं * आगमके चारों अनुयोगों सम्बन्धी -दे अनुयोग
३ जितने शब्द है उतने वाच्य पदार्थ भी है * मोक्षमार्गमे आगम ज्ञानका स्थान -दे स्वाध्याय
४ अर्थ व शब्दमे वाच्य वाचक भाव कैसे हो सकता है * आगम परम्पराकी समयानुक्रमिक सारणी
५ शब्द अल्प है और अर्थ अनन्त है।
-दे. इतिहास/७ * आगम ज्ञानमे विनयका स्थान -दे. विनयार
६ अर्थ प्रतिपादनकी अपेक्षा शब्दमे प्रमाण व नयपना * आगमके आदान प्रदानमे पात्र अपात्रका विचार
७ शब्दका अर्थ देश कालानुसार करना चाहिए
-दे. उपदेश/३ ८ भिन्न क्षेत्र कालादिमे शब्दका अर्थ भिन्न भी होता है * आगमके पठन पाठन सम्बन्धी - दे. स्वाध्याय
१. कालकी अपेक्षा। * पठित ज्ञानके संस्कार साथ जाते है - संस्कार
२ शास्त्रों की अपेक्षा।
३. क्षेत्रको अपेक्षा। २ द्रव्य भाव आगम ज्ञान निर्देश व समन्वय:
९ शब्दार्थकी गौणता सम्बन्धी उदाहरण * आगमके ज्ञानमे सम्यकदर्शनका स्थान दे. ज्ञान III/२ ५ आगमकी प्रमाणिकतामें हेतु :* आगम ज्ञानमे चारित्रका स्थान -दे. चारित्र
५ १ आगमकी प्रामाणिकताका निर्देश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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आगम
२ बक्ताकी प्रामाणिकतासे वचनकी प्रामाणिकता
३ आगमकी प्रामाणिकताके उदाहरण
४ अर्हत व अतिशय ज्ञान बालोंके द्वारा प्रणीत होनेके
कारण
५ वीतराग द्वारा प्रणीत होनेके कारण
६ गणधरादि आचार्यों द्वारा कथित होनेके कारण
७ प्रत्यक्षज्ञानियों द्वारा कथित होनेके कारण
८ आचार्य परम्परासे आगत होनेके कारण
९ समन्वयात्मक होने के कारण प्रमाण है। १० विचित्र द्रव्यों आदिका प्ररूपक होनेके कारण ११ पूर्वापर अविरोधी होनेके कारण
१२ युक्तिसे अबाधित होनेके कारण १३ प्रथमानुयोगकी प्रामाणिकता
६ आगमका प्रामाणिकता के हेतुओं सम्बन्धी शंका
समाधान :
१ अर्वाचीन पुरुषों द्वारा लिखित आगम प्रामाणिक कैसे हो सकते हैं।
२ पूर्वापर विरोध होते हुए भी प्रामाणिक कैसे
३ आगम व स्वभाव तर्कके विषय ही नहीं
४ उपस्योका ज्ञान प्रामाणिकता का माप नही
५ आगममे भूल सुधार व्याकरण व सूक्ष्म विषयोंमे करने को कहा है प्रयोजन तत्त्वोंमे नही भूत ६ पौरुषेय होनेके कारण अप्रमाणिक नही कहा जा सकता ७ आगम कथंचित् अपौरुषेय तथा नित्य है। ८ आगमको प्रमाण माननेका प्रयोजन
७ सूत्र निर्देश:
२२७
१ सूत्रका अर्थ द्रव्य व भाव श्रुत
२ सूत्रका अर्थ तवली
३ सूत्रका अर्थ अल्पाक्षर व महानार्थक
४ वृत्ति सूत्रका लक्षण
५ जिसके द्वारा अनेक अर्थ सूचित न हों वह सूत्र नही असूत्र है
६ सूत्र वही है जो गणधर आदिके द्वारा कथित हो ७ तो जिनदेव कथित ही है परन्तु गणधर कथित भी सूत्रके समान है
सूत्र
८ प्रत्येक बुद्ध कथितमे भी कथंचित् सूत्रस्व पाया जाता है ★ सूत्रोपसंयत ★ सूत्रसम
- दे. समाचार - निक्षेप ४/८
१. आगम सामान्य निर्देश
१. आगम सामान्यका लक्षण
=
नि.सा./ यू. ८ तस्स मुहम्मदवर्ण पुण्यावरदोसविरहियं शुद्धं आगमिदि परिकहिय रोग दु कहिया हति तथा उनके मुलसेकसी हुई वाणी जो कि पूर्वापरदोष (विरोध) रहित और शुद्ध है, उसे आगम कहा है और उसे स्वार्थ कहते हैं। खोपमनुष्यमद्दष्टे विरोधक
र. क. मा
१. आगम सामान्य निर्देश
तत्वोपदेशकृत्सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥१॥ -जो आप्त कहा हुआ है, वादी प्रतिवादी द्वारा खण्डन करनेमें न आवे, प्रत्यक्ष अनुमानादि प्रमाणोंसे विरोध रहित हो, वस्तु स्वरूपका उपदेश करने वाला हो, सब जीवोंका हित करनेवाला और मिथ्यामार्गका खण्डन करनेवाली हो, वह सत्यार्थ शास्त्र है।
घ. २/१.२.१/१.१२/१२ पूर्वापरविरुद्ध तो दोपह योतक: भावनामा पाहतिरागम आगमो ह्यासवचनमाप्तं दोष विदु । श्यक्तदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूय या वसंभवाद ॥१०॥ रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहादानामुच्यते नृतम् । यस्य तु दोषस्तस्यानृतकारणं नास्ति ॥१२॥पूर्वापरविरुद्धादि दोषोंके समूह से रहित और सम्पूर्ण पदार्थों योतक आस वचनको आगम कहते है |१| आपके वचनको आगम जानना चाहिए और जिसने जन्म जरा आदि १८ दोषोंका नाश कर दिया है उसे आप्त जानना चाहिए। इस प्रकार जो व्यक्तदोष होता है वह असत्य वचन नहीं बोलता. क्योंकि, उसके असत्य वचन बोलने का कोई कारण हो सम्भव नहीं है ॥१०॥ रामसे द्वेष से अथवा मोहसे असत्य वचन बोला जाता है, परन्तु जिसके ये रागादि दोष नहीं हैं उसके असत्य वचन बोलनेका कोई कारण नहीं पाया जाता है ॥११॥
-
राज्या. १/१२/७/५४/८ आप्तेन हि क्षीणदोषेण प्रेरज्ञानेन प्रणीत आगमो भवति न सर्व । यदि सर्गः स्यात्, अविशेष स्यात् । - जिसके सर्व दोष क्षीण हो गये हैं ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञानियोंके द्वारा प्रणीत आगम ही आगम है, सर्व नहीं। क्योंकि, यदि ऐसा हो तो आगम और अनागममें कोई भेद नहीं रह जायेगा ।
।
घ. १/१,१.९/२०१७ आगमो सिद्ध तो पण मंदि रयो -द्यागम, "सिद्धांत और प्रवचन ये शब्द एकार्थवाची है । प.पु. ३/१६ आप्शनचनादिनिबन्धनमर्थ ज्ञानमागम - आके वचनादिसे होनेवाले पदार्थों के ज्ञानको आगम कहते हैं। निसा में/२९ मगतिरितं याथातथ्यं विना च विपरीता निसन्देह वेद मानमाननः।जो न्यूनता बिना, अधिकता बिना, विपरीतता बिना यथातथ्य वस्तुस्वरूपको निःसन्देह रूपसे जानता है उसे आगमनस्लोंका ज्ञान कहते है। पं.का./ता.वृ. ९०३/२५० वीतरागसर्वज्ञगीत षड्व्यादि सम्यद्धानज्ञानवताद्यनुष्ठानभेदरत्नत्रयस्वरूपं यत्र प्रतिपाद्यते तदागमशास भण्यते । - वीतराग सर्वज्ञ देवके द्वारा कहे गये षड्द्रव्य व सप्त तत्व आदिका सम्यक् श्रद्धान व ज्ञान तथा बतादिके अनुष्ठान रूप चारित्र, इस प्रकार भेदरत्नत्रयका स्वरूप जिसमें प्रतिपादित किया गया है उसको आगम या शास्त्र कहते है ।
स.म. २१/२६२/७ का सामरस्येनानन्त धर्म विशिष्टतया ज्ञायन्तेऽवखपन्ते जीवाजीवादयः पदार्था यया सा आज्ञा आगम शासनं । जिसके द्वारा समस्त अनन्त धर्मोसे विशिष्ट जीव अजीवादि पदार्थ जाने जाते है ऐसी आत आज्ञा आगम है, शासन है । ( स म.२८/३२२/३)
न्या. दी ३/०३/११२ आप्तवाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमागम. । आप्तके वाक्यके अनुरूप आगमके ज्ञानको आगम कहते हैं ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
२. आगमाभासका लक्षण
प.सु. ६/२१-२४/६१ रागद्वेषमो हाकान्तपुरुषवचनाज्जातमागमाभासम् । यथा नद्यास्तीरे मोदक राशय. सन्ति धावध्वं माणवकाः । अंगुण्यप्र
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आगम
२२८
१. आगम सामान्य निर्देश
हस्तियूथशतमस्ति इति च विसंवादात ॥५१-५४॥ = रागी, द्वेषी
और अज्ञानी मनुष्यों के वचनोसे उत्पन्न हुए आगमको आगमाभास कहते है। जैसे कि बाल को दौडो नदीके किनारे बहुत-से लड्डू पडे हुए है । ये वचन है। और जिस प्रकार यह है कि अगुलोके आगेके हिस्सेपर हाथियोके सौ समुदाय है। विवाद होनेके कारण ये सब आगमाभास है। अर्थात लोग इनमें विवाद करते है इसलिए ये आगम झूठे है। ३ नोआगमका लक्षण ध. १/१,१,२/२०/७ आगमादो अण्णो णो-आगमो। आगमसे भिन्न पदार्थको नोआगम कहते है।
४. शब्द या आगम प्रमाणका लक्षण न्या सू /म.१/१/७/१९ आप्तोपदेश शब्द -आप्तके उपदेशको शब्द प्रमाण कहते है।
५. शब्द प्रमाणका श्र तज्ञानमें अन्तर्भाव रा.वा. १/२०/१५/७/१८ शाब्दप्रमाण श्रुतमेव । -- शब्द प्रमाण तो
श्रुत है ही। गो.जी/भा ३१३ आगन नाम परोक्ष प्रमाण श्रुतज्ञानका भेद है।
६. आगम अनादि है ज..प. १३/८०-८३ देवासुरिंदमहिय अणंतसुहपिडमोक्खफलपउर' ।
कम्ममलपडलदलणं पुण्ण पवित्तं सिर्व भद्द १८०॥ पुठनागभेदभिण्णं अणत अत्येहिं सजुदं दिळां । णिच्च कलिकलुसहरणिकाचिदमणुत्तरं विमल ॥८१।। संदेहतिमिरदलण बहुविहगुणजुत्तंसग्गसोवाणं । मोक्ख ग्गदारभूद णिम्मलबुद्धिसंदोह॥८॥सव्वण्हुमुहबिणिग्गयपुब्बावरदोसरहिदपरिसुद्ध। अक्वयमणादिणि हणं सुदणाणपमाण णिहिट -पूर्व व अंग रूप भेदों में विभक्त, यह श्रुतज्ञान-प्रमाण देवेन्द्रों व असुरेन्द्रोंसे पूजित, अनन्त सुखके पिण्ड रूप मोक्ष फलसे संयुक्त, कर्म रूप पटलके मलको नष्ट करनेवाला, पुण्य पवित्र, शिव, भद्र, अनन्त अर्थोंसे संयुक्त, दिव्य नित्य, कलि रूप कलुषको दूर करनेबाला, निकाचित, अनुत्तर, विमल, सन्देहरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाला, बहुत प्रकारके गुणोसे युक्त स्वर्गकी सीढी, मोक्षके मुख्य द्वारभूत, निर्मल, एवं उत्तम बुद्धिके समुदाय रूप, सबके मुखसे निकला हुआ, पूर्वापर विरोध रूप दोषसे रहित विशुद्ध अक्षय और अनादि निधन कहा गया है ॥८०-८३॥
७. आगम गणधरादि गुरु परम्परासे आगत है रा.वा.4/१३/२/५२३/२६ तदुपदिष्टं बुद्धयतिशयद्धियुक्तगणधरावधारितं श्रुतम् ॥२॥ केवलो भगवान के द्वारा कहा गया तथा अतिशय बुद्धि ऋद्धिके धारक गणधर देवो के द्वारा जो धारण किया गया है उसको श्रुत कहते हैं।
८. क्षागमज्ञानके अतिचार भ-आ. वि १६/६२/१५ अक्षरपदादीनां न्यूनताकरणं, अतिवृद्धिकरणं, विपरीत पौर्वापर्यरचनाविपरीतार्थनिरूपणा ग्रन्थार्थयोपरीत्यं अमी ज्ञानातिचारा । अक्षर, शब्द,वाक्य, वरण, इत्यादिकोको कम करना बढाना, पीछेका सन्दर्भ आगे लाना, आगेका पीछे करना, विपरीत अर्थका निरूपण करना, ग्रन्थ व अर्थ में विपरीतता करना ये सब ज्ञानातिचार हैं । (भ आ./वि.४८७/७०७)
९. श्रुतके अतिचार भ आ./बि.१६/६२/१५ द्रव्यक्षेत्रकालभावशुद्धिमन्तरेण श्रुतस्य पठनं
श्रुतातिचार'। द्रव्यशुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, कालशुद्धि, भाव शुद्धिके बिना शाखका पढना यह श्रुतातिचार है।
१०. द्रव्यश्रुतके अपुनरुक्त अक्षर दे. अक्षर-३३ व्यञ्जन, २७ स्वर और चार अयोगवाह, इस प्रकार सब
अक्षर ६४ होते हैं। उन अक्षरोके संयोगोकी गणना २६४१८४४६७४४०७३७०६५५१६१६ होती है। ध. १३/१,५/१४/१८-२०/२६६/४ सोलससदचीत्तीसं कोडी तेसीद चेव लक्रवाई। सत्तसहस्सट्ठसदा अट्ठासीदा य पदवण्णा ॥१८॥ एद पि संजोगक्रवरसंवाए अव द्विदं, बुत्तपमाणादो अक्खरेहि वढि-हाणीणभावादो । बारससदकोडीओ तेसीदि वति तह य लक्रवाई। अट्ठावण्णसहस्सं पंचव पदाणि सुदणाणे ॥२०॥ एत्तियाणि पदाणि घेत्तूण सगल सुदणाणं होदि। एदेसु पदेसु संजोगक्रवराणि चेव सरिसाणि ण संजोगक्खरावयवक्रखराणि; तरथ संखाणियमाभावादो। - १६३४८३०७८५८ इतने मध्यम पदके वर्ण होते है ॥१८) • यह भी संयोगी अक्षरोकी अपेक्षा (उपरोक्तवत) अव स्थित है। क्योकि उसमें उक्त प्रमाण से अक्षरों की अपेक्षा वृद्धि और हानि नहीं होती । श्रुतज्ञानके एक सौ बारह करोड तिरासी -लाख अट्ठावन हजार और पाँच (११२८३५८००५) ही (कुल मध्यम) पद होते हैं ॥१॥ इतने पदोंका आश्रय कर सकल श्रुतज्ञान होता है, इन पदोंमें संयोगी अक्षर ही समान है, संयोगो अक्षरों के अवयव अक्षर नहीं. क्योकि, उनकी संख्याका कोई नियम नहीं है। (स.सि १/२०/४१०-४१५, १/२०/ ४२४ की टिप्पणी जगरूप सहाय कृत) (ह.पु. १०/१४३) (क पा १/७ ७०/८६-६६)। क.पा. ११-१/$७२/१२/२ मज्झिमपद • एदेणपुव्वं गाणं पदसंखा परूविज्जदे। -मध्यम पदके द्वारा पूर्व और अगो पदों की संख्याका
प्ररूपण किया जाता है। ध १/. नाम पद अक्षर प्रमाण प्रमाण.लानेका उपाय कुल अक्षर ६४
उपरोक्तवत अपुनरुक्त १८४४६७४४०७३- एक द्वि आदि सयोगी भंगो सयोगी अक्षर | ७०६५५१६१६
६४४६ ..
का जोडा इत्यादि अंगश्रुतके सर्व । ११२८३५८००५ | अपुनरुक्त अक्षर + मध्यम पद पदोमें अक्षर मध्यम पदोमें 1१६३४८३०७८८८ नियत(इनसे पूर्व और अगोके अक्षर
विभागका निरूपण होता है) १६६ / शष अक्षर 1 ८०१०८१७५ । शेष अक्षर+३२
१४ प्रकीर्णको के प्रमाण या
खण्ड पदमें (गो.जी /जी प्र. ३३६/७३३/१) (ध. १३/५,५,४५/२४७-२६६)
११ श्रुतका बहुत कम भाग लिखने में आया है ध ३/१,२,१०२/३६३/३ अत्थदो पुणो तेसिं विसेसो गणहरेहि विण बारिज्जदे। - अर्थ की अपेक्षा जो उन दोनोंकी त्रय कायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीव तथा पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोकी सख्या प्ररूपणा में विशेष है, उनका गणधर भी निवारण नहीं कर सकते हैं। गो जी/मू ३३४/७३१ पण्णव णिज्जाभावा अणन्तभागो दू अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण अणं तभागो सुदणि बद्धो ॥३३४॥ = अनभिलप्यानां कहिए वचनगोचर नाही, केवलज्ञानके गोचर जे भाव कहिए जीवादिक पदार्थ तिनके अनन्तवे भागमात्र जीवादिक अर्थ ते प्रज्ञापनीया कहिये तीर्थकरकी सातिशय दिव्य ध्वनिकरि कहने में आवै ऐसे है। बहुरि तीर्थङ्करकी दिव्य ध्वनि करि पदार्थ कहनेमे आवै है तिनके अनन्तवे भाग मात्र द्वादशाग श्रुत विर्षे व्याख्यान कीजिये है। जो श्रतकेवली को भी गोचर नाही ऐसा पदार्थ कहनेकी शक्ति केवल ज्ञान
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ગામ
वि पाइये है। ऐसा जानना (सम्मति तर्क / १६) (रा. वा १/२६/४/८०) (घ१/४/२७,२१४/३/१७९) ( १२/४/१००/१७/५७)
पं. ध /उ. ६१६ वृद्ध. प्रोक्तमत' सूत्र े तव वागतिशायि यत् । द्वादशाबाह्य वा श्रुत स्थूलार्थगोचरम् । इसलिए पूर्वाचार्योंने सूत्रमें कहा है कि जो है वह वचनातीत है और द्वादशाङ्ग तथा अन वाह्यरूप शास्त्र श्रुत ज्ञान स्थूल पदार्थको विषय करने वाला है ।
१२. आगमकी बहुतसी बातें नष्ट हो चुकी है
ध ६/४,१.४४/९२६/४ दोसु वि उवएसेसु को एत्थ समंजसो, एत्थ ण बाहर जिन्भमेलाइरियवच्छवो, अलद्धोवदेसत्तादो दोण्णमेक्कस्स बाहाणुपलं भादो। किंतुदोएक्केण हादव्वं । त जाणिय वत्तब्ब । - उक्त (एक ही विषयमें) दो (पृथक्-पृथक्) उपदेशो में कौन सा उपदेश यथार्थ है, इस विषयमें एलाचार्यका शिष्य ( वीरसेन स्वामी) अपनी जीभ नही चलाता अर्थात् कुछ नहीं कहता, क्योंकि इस विषयका कोई न तो उपदेश प्राप्त है और न दोमें से एक में कोई बाधा उत्पन्न होती है । किन्तु दो में से एक ही सत्य होना चाहिए। उसे जानकर कहना उचित है।
ति प अधिकार / श्लो, (यहाँ निम्न विषयो के उपदेश नष्ट होनेका निर्देश किया गया है। ) नरक लोकके प्रकरण में श्रेणी बद्ध बिलोंके नाम (२/५४) समवशरण में नाट्यशालाओंको सम्बाई चौडाई (४२/०५७): प्रथम और द्वितीय मानस्तम्भ पोठोका विस्तार (४ /७७२); समवशरणमें स्तूपों की लम्बाई और विस्तार (४/८४७); नारदोकी ऊंचाई आयु और तोर्थंकर देवोके प्रत्यक्ष भावादिक (४/१४७१); उत्सर्पिणी कालके शेष कुलकरोंकी ऊँचाई (४/१५७२), श्री देवीके प्रकीर्णक आदि चारोके प्रमाण (४/१६८८), हैमवतके क्षेत्र में शब्दवान पर्वत पर स्थित जिन भवनको ऊँचाई आदिके (४/१७१०), पाण्डुक वनपर स्थित जिन भवन में सभापुर के आगे वाले पीठके विस्तारका प्रमाण (४/१६७). उपरोक्त जिन भवनमे स्थित पीठकी ऊँचाईके प्रमाण (४ / १६०२ ); उपरोक्त जिन भरनमें चैश्य वृक्षीके आगे स्थित पीठके विस्ताराषि (४/१९१०), सौमनस बननी माघिकामे स्थित सौधर्म इन्द्रके बिहार प्रासादको लम्बाईका प्रमाण (४ / १६५०): सौमनस गजदन्तके कूटोके विस्तार और लम्बाई ( ४ / २०३२) विद्य तत्प्रभगजदन्तके कूटों के विस्तार और सम्बाई (४ / २०४०) विदेह देवकुरुमे यमक पर्वतोपर और भी दिव्य प्रासाद है. उनकी ऊंचाई व विस्तारादि (४/२०८२). विदेहस्वामी व जम्मू वृक्षस्थलोंकी प्रथम भूमिमें स्थित ४ वापिका ओपर प्रतिदिशामें आठ-आठ कूट है, उनके विस्तार (४।२१८२), ऐरावत क्षेत्र के शलाका पुरुषो के नामादिक (४/२२६६): लवण समुद्र में पातालोके पार्श्व भागों में स्थित कौस्तुभ और कौस्तुभाभास पर्वतका विस्तार (४/२४६२), धातकी खण्डमें मन्दर पर्वतोंके उत्तरदक्षिण भाग भद्रशासोका विस्तार (४/२००६) मानुषोसर पर्वतपर १४ गुफाएँ है, उनके विस्तारावि (४/२७५३२) पुम्करार्ध में सुमेरु पर्वत उत्तर दक्षिण भागो में भद्रशाल वनोंका विस्तार (४/२८२२); जम्बूद्वीपसे लेकर अरुणाभास तक बीस द्वीप समुद्रोंके अतिरिक्त शेष द्वीप समुद्रोंके अधिपति देव के नाम (५ / ४८), स्वयम्भूरमण समुद्र में स्थित पर्वतकी ऊँचाई आदि (५/२४०), अजनक, हिंगुलक आदि द्वीपोंमें स्थित व्यन्तरोके प्रासादोकी ऊंचाई आदि (4/44) अपार इन्द्रोंके जो प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक देव होते है उनके प्रमाण (१/०६): तारोंके नाम (०/३२.४६६) गृहाँका सुमेरुले अन्तराल म वाणियों आदिका कथन (७/४५८); सौधर्मादिकके सोमादिकपालोंके आभियोग्य प्रकीर्णक और किल्बिषक देव होते है; उनका प्रमाण (८/२६६) उरेन्द्र के लोकपाल के विमानोंकी संख्या (८/३०२), सौधर्मादिक प्रकीर्णक, आभियोग्य और कमियोकी देवियोंका प्रमाण (८ / १२६) सौधर्मादिकके प्रकीर्णक, आभियोग्य और
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२. द्रव्यभाव आगम ज्ञान निर्देश व समन्वय
कोकी देवियोकी आयु (८/२१३): सौधर्मादिन के आत्मरक्षक व परिषद्की देवियोकी वायु (८/५४०) | १३. आगमके विस्तारका कारण
ससि. १/८/३० सर्वसत्त्वानुग्रहार्थो हि सतां प्रयास इति, अधिगमाभ्युपायभेदोद्द ेश कृत । सज्जनोका प्रयास सब जीवोका उपकार करना है, इसलिए यहाँ अलग-अलग ज्ञानके उपायके भेदोका निर्देश किया है।
घ. १/१,१,५/१५३/८ नैष दोष मन्दबुद्धिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात । घ १/१.१.७० / ३११/२ द्विरस्ति-शब्दोपादानमनर्थकमिति चेन्न, विस्तररुचित्वानुग्रहार्थत्वात् । स क्षेपरुचयो नानुगृहीताश्चेन्न, विस्तररुचि
मानुग्रहस्य संक्षेपरुचिसनानुग्रहामिमामाविवाद - प्रश्न-(छोटा सूत्र बनाना ही पर्याप्त था, क्योंकि सूत्रका शेष भाग उसका अनिभायी है। उत्तर- यह कोई दोष नहीं है क्योंकि मन्दबुद्धि प्राणियो के अनुग्रह के लिए शेष भागको सूत्र में ग्रहण किया गया है। प्रश्न- सूत्र में दोबार अस्ति शब्दका ग्रहण निरर्थक है। उत्तर- नहीं, क्योंकि विस्तारसे सीखनेवाले शिष्यों के अनुग्रह लिए सूत्रमें दो बार अस्ति शब्दका ग्रहण किया गया है। प्रश्न- इस सूत्र ससेपसे समझने की रुचि रखनेवाले शिष्य अनुगृहीत नहीं किये गये है। उत्तर- नहीं, क्योंकि सक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोका अनुग्रह विस्तारसे समझनेकी रुचि रखनेवाले शिष्योका अविनाभावी है। अर्थात विस्तार से कथन कर देनेपर संक्षेप रुचिवा शिष्यों का काम चल जाता है । (प्र.सा / ता वृ. १५ ) ।
१४. आगमके विच्छेद सम्बन्धी भविष्य वाणी
वि. प ४९४९३] [] सहस्स विरुदा सारस राग सु यदि कालदो जोस तीर्थ धर्म प्रम का कारण है, वह बीस हजार तीनसौ सत्तरह (२०३१७) वर्षो में काल दोष से व्युच्छेदको प्राप्त हो जायेगा ।
२. द्रव्य भाव आगम ज्ञान निर्देश व समन्वय
१. वास्तव में भावश्रुत ही ज्ञान
ज्ञान है द्रव्यभूत ज्ञान नहीं
ध १३/५,४,२६/६४/१२ ण च दव्वसुदेण एत्थ अहियारो, पोग्गल बियारस्स जस्स गाणीपतिय दस्त मुदत्तमिरोहादो (यानके प्रकरण में) द्रव्यता यहाँ अधिकार नहीं है, क्योंकि ज्ञानके उपलिंग स पुद्गल के विकार स्वरूप जड वस्तुको श्रुत मानने में विरोध आता है। २. भावका ग्रहण ही आगम है
न्या दी / ३ / ९७३ आप्तवाक्यनिबन्धन ज्ञानमित्युच्यमानेऽपि, आप्तवाक्यकर्म प्रक्षेऽतिव्याहि तात्पर्य मेव सत्यभिमना
B
- असके वचनोसे होनेवाले ज्ञानको आगमका लक्षण कहने में भी आपके वाक्योंको सुनकर जो प्रत्यक्ष होता है उसमें लक्षणकी अतिव्याप्ति है, अत 'अर्थ' यह पद दिया है। 'अर्थ' पद तात्पर्य में रूढ है। अर्थात प्रयोजनार्थक है क्योकि 'अर्थ ही - तात्पर्य ही वचनो में है' ऐसा आचार्य वचन है ।
३. द्रव्य श्रुत को ज्ञान कहने का कारण
६/४,१,४५/१६२/३ कथं शब्दस्य तत्स्थापनायाश्च श्रुतव्यपदेश । नैष दोष', कारणे कार्योपचारादा = प्रश्न - शब्द और उसकी स्थापनाकी
संज्ञा कैसे हो सकती है उत्तर यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कारण में कार्य का उपचार करनेसे शब्दया उसकी स्थापनाको श्रुत संज्ञा बन जाती है (.१३/५.२.२१/२२०१८ )
प्र. सा / ता. २४/४५
परिच्छ भण्यते स्फुटं । पूर्वोक्तद्रव्यश्रुतस्यापि व्यवहारेण ज्ञानव्यपदेशो भवति न तु निश्चयेनेति । शब्द श्रुतके आश्रय से ज्ञप्तिरूप अर्थ के निश्चयको निश्चय नयसे ज्ञान कहा है। पूर्वोक्त शब्द श्रुतकी अर्थाद
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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आगम
की ज्ञानसंज्ञा (कारण में कार्य के उपचारसे) व्यवहार नयते है निवास मयसे नहीं।
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४. द्रव्य भुत के मेवादि जानने का प्रयोजन ८.का./ता १०३ / २५४ / १६ भावनाया फलं जीवादिविषये पाव वा संशयनमोहनमहतोनियनपरिणामो भवति । श्रुतकी भावना अर्थात् आगमाभ्यास करनेसे, जीवाद तत्त्वविक्षेप उपादेयतश्वके विषय में सशय, विमोह व विभ्रमसे रहित निश्चल परिणाम होता है । ५. आगमको श्रुतज्ञान कहना उपचार है
·
श्लो. वा. १/१/२०/२-३ / ५६८ / श्रवणं हि श्रुत ज्ञान न पुन शब्दमात्र कम् ॥२॥ तच्चोपचारतो ग्राह्य श्रुतशब्दप्रयोगत ॥३॥ 'श्रुत' पदसेवा किसी विशेष ज्ञान है। हां पोके प्रतिपादक शब्द भी पद से पकड़े जाते है किन्तु केवल शब्दोंमें ही बूत शब्दको परिपूर्ण नही कर देना चाहिए ॥२॥ उपचारसे वह शब्दात्मक श्रुत (आगम भी शुद्ध शब्द करके ग्रहण करने योग्य है ... क्योंकि गुरुके शब्दोसे शिष्योको श्रुतज्ञान ( वह विशेष ज्ञान ) उत्पन्न होता है । इस कारण यह कारण में कार्यका उपचार है। (और भी दे आगम२ / ३) ३. आगमका अर्थ करने की विधि
१. पाँच प्रकार अर्थ करनेका विधान
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स, सा./ता. बृ १२०/१७७ शब्दार्थ व्याख्यानेन शब्दार्थी ज्ञाव्यः । व्यवहारनिश्चयरूपेण मयार्थी ज्ञातव्य सांख्यं प्रति मतार्थो ज्ञातव्य' । आगनार्थ स्तुप्रसिद्धयोपादानपाख्यानरूपेण भावार्थोऽपि ज्ञातव्यः इति शब्दनयमतागमभावार्था व्याख्यानकाले यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्याः । = शब्दार्थ के व्याख्यान रूपसे शब्दार्थ जानना चाहिए । व्यवहार निश्वयनयरूपसे नार्थ जानना चाहिए। सांख्योंके प्रतिमतार्थ जानना चाहिए । आगमार्थ प्रसिद्ध है। हेय उपादेयके व्याख्यान रूपसे भावार्थ जानना चाहिए। इस प्रकार शब्दार्थ, नयार्थ, मदार्थ आगमार्थ तथा भावार्थको व्याख्यान के समय यथासम्भव सर्वत्र जानना चाहिए। (पं. वा./ता.वृ १९ / ४ २७/६०) द्र.सं./टी २/१ ) २. मतार्थ करनेका कारण
इन
. १/१.१.२०/२२१/२ भिप्रायकदनार्थं नास्य सूत्रस्यावतार दोनो एकान्तियो के अभिप्राय के खण्डन करनेवे लिए ही ...प्रकृत सूत्रका अवतार हुआ है।
सभ त ७७ / १ ननु सर्वं वस्तु स्यादेकं स्यादनेकमिति कथं संगच्छते । सर्वस्वस्तुन' केनापि रूपेणे काभावात् । तदुक्तम् 'उपयोगो लक्षणम्' इति सूत्रे तस्वार्थ लोकवार्तिकेन हि वय सहपरिणाममने
पियुपगच्छामोऽयत्रोपचारात् इति...पूत पूर्वाचार्यवचनानां च सर्वथैक्य निराकरणपरत्वाद अन्यथा सत्ता सामान्यस्य सर्वथाने करवे पृथ्ववैकान्तपक्ष एवाहतस्स्यात् । प्रश्न- सर्व वस्तु कथंचित् एक है कथ चित्र अनेक है यह कैसे संगत हो सकता है, क्योंकि किसी प्रकार से सर्व अस्तुओकी एकता नहीं हो सकती तत्वार्थ सूत्रमें कहा भी है 'उपयोगा लक्षण' अर्थात् ज्ञान दर्शन रूप उपयोग हो जीवका लक्षण है। इस सूत्र के अन्तर्गत तस्मार्य श्लोक बालिक 'अन्य व्यक्तिनें उपचारसे एक कालमें ही सदृश परिणाम रूप अनेक व्यक्ति व्यापी एक सत्त्व हम नहीं मानते' ऐसा कहा है - उत्तर-पूर्व उदाहरणोमें आचार्योंके वचनोसे जो सर्वथा एकत्व ही माना है उसीके निराकरण में तात्पर्य है न कि कथंचित एकवके निराकरणमें और ऐसा न मानने से सर्वथा सत्ता सामान्य के अनेकत्व माननेसे पृथक्त्व एकान्त पक्षका ही आदर होगा ।
३. नय निक्षेपार्थ करनेकी विधि
सखि १/६/२० नामादि निक्षेपविधिनोपक्षिष्ठानाजीवादीनां प्रमाणाम्य नश्चाधिगम्यते। जिन जीवादि पदार्थोंका नाम
३. आगमका अर्थ करनेकी विधि
आदि निक्षेप fafधके द्वारा विस्तारमे कथन किया है उनका स्वरूप प्रमाण और नयोंके द्वारा जाना जाता
I
घ. १/१,१.१/१०/१६ प्रमाण-नय-नियोऽर्थो नाभिरामीयते युक्तं चायुद्धाति तस्यायुक्त च युक्तवत् ॥१०॥ जिस पदार्थका प्रत्य क्षादि प्रमाणीके द्वारा, नैगमादि नयोंके द्वारा, नामादि निक्षेपोंके द्वारा सूक्ष्म दृष्टिसे विचार नहीं किया जाता है यह पदार्थ कभी युक्त (संगत) होते हुए भी अयुक्त (असंगत ) सा प्रतीत होता है और कभी अयुक्त होते हुए भी युती तरसा प्रतीत होता है ॥१०॥
व
ध. १/१,१.१/३/१० विशेषार्थ -आगमके किसी श्लोक गाथा, वाक्य, पदके ऊपर से अर्थ का निर्णय करनेके लिए निर्दोष पद्धतिसे श्लोकादिकका उच्चारण करना चाहिए, तदनन्तर पदच्छेद करना चाहिए, उसके बाद उसका अर्थ कहना चाहिए, अनन्तर पद- निक्षेप अर्थात् नामादि विधि से नयोका अवलम्बन लेकर पदार्थका उहापोह करना चाहिए। सभी पदार्थ के स्वरूपका निर्णय होता है। पदार्थ निर्णयके इस क्रमको दृष्टिमें रखकर गाथाके अर्थ पदका उच्चारण करके, और उसमें निक्षेप करके नयोके द्वारा तत्त्व निर्णयका उपदेश दिया है।
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मो. मा./प्र./७/३६८/७ प्रश्न -- तो कहा करिये! उत्तर- निश्चय नय करि जो निरूपण किया होय, ताकौ तो सत्यार्थ मानि ताका तो श्रद्धान अंगीकार करना. अर व्यवहार नय करि जो निरूपण किया होय ताकौ असत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान छोड़ना.. तातै व्यवहार नयका श्रद्धान छोड़ि निश्चयका श्रद्धान करना योग्य है । व्यवहार नय करि स्वद्रव्य परद्रव्यको वा तिनके भावनिकोवा कारण कार्यादि काहको कान मिलाय निरूपण करें है। सो ऐसे ही श्रद्घान से मिथ्यात्व है ताकायाग करना । बहुरि निश्चय नय तिनको यथावत् निरूपै है, काहू को कवि न मिला है। ऐसा ही श्रद्धान तें सम्यक्त्व हो aat श्रद्धान करना । प्रश्न- जो ऐसे है, तो जिनमार्ग विष दोऊ नयनिका ग्रहण करना कह्या, सो कैसे उत्तर- जिनमार्ग विषै कहीं तौ निश्चय नयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है ताकी तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' ऐसा जानना । बहुरी कही व्यवहार नयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है ताकी 'ऐसे है नाहि निमित्तादिकी अपेक्षा उपचार किया है' ऐसा जानना । इस प्रकार जाननेका नाम ही दोऊ नयनिका ग्रहण है । बहुरि दोऊ नयनिके व्याख्यान कँ समान सत्यार्थ जानि ऐसे भी है ऐसे भी है ऐसा भ्रम रूप ने कर दी दोऊ नयनिका ग्रहण कहा नाहीं । प्रश्न- जो व्यवहार नय असत्यार्थ है, तो ताका उपदेश जिनमार्ग विषै काहे को दिया। एक निश्चय नय हो का निरूपण करना था । उत्तर- निश्चय नयको अंगीकार करावनै कूँ व्यवहार करि उपदेश दीजिये है। बहुरी व्यवहार नय है. सो अमीकार करने योग्य नाहीं (और भी वे आगम २/८) ४. आगमार्थ करनेकी विधि
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१. पूर्वापर मिलान पूर्वक
इ./टी. २२/६६ (यद्वा परमागमाविरोधेन विचारणीयं... किन्तु विवादशे न कर्तव्य | परमागम के अविरोध पूर्वक विचारना चाहिए, किन्तु कथनमें विवाद नहीं करना चाहिए।
पं ध / पृ ३३५ शेषविशेषव्याख्यान ज्ञातव्य चोक्तवक्ष्यमाणतया । सूत्रे पदानुवृतिग्रह्मसूत्रान्तरादिति न्यायात्॥२२॥ सूत्रमें पदोंकी अणुवृति दूसरे सूत्रो से ग्रहण करनी चाहिए, इस न्याय से यहाँ पर भी शेषविशेष कथन उक्त और वक्ष्यमाण पूर्वापर सम्बन्धसे जानना चाहिए । रहस्यपूर्ण चिट्ठी पं टोडरमलजी कृत / ५१२ कथन तो अनेक प्रकार होय परन्तु यह सर्व आगम अध्यात्म शास्त्रन सौ विरोध न होय वैसे विवक्षा भेद करि जानना ।
२. परम्परा का ध्यान रख कर
ध ३/१, २, १८४/४८१/१ एदोए हाए एदस्स वक्वाणस्स किण्ण विरोहो होल नाम .., जुत्तिसिद्धस्य आइरियपर परागयरस्
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आगम
३. आगमका र्थ करनेकी विधि
एदीए गाहाए णाभदत्तं काऊग सक्किन दि, अइप्पसं गादो। - प्रश्नयदि ऐसा है तो (देश सयतमें तेरह करोड मनुष्य है) इस गाथाके साथ इस पूर्वोक्त व्याख्यानका विरोध क्यों नही आ जायेगा। उत्तर-- यदि उक्त गाथाके साथ पूर्वोक्त व्याख्यानका विरोध प्राप्त होता है तो होओ...जो युक्ति सिद्ध है और आचार्य परम्परासे आया हुआ है उसमें इस गाथासे असमीचीनता नहीं लायी जा सकती, अन्यथा अतिप्रसग दोष आ जायेगा । (ध.४/१,४,४/१५६/२) रहस्यपूर्ण चिट्ठी पं. टोडरमल/पृ ५१२ दे आगम ३/४/१
३. शब्दका नही भावका ग्रहण करना चाहिए स.सि. १४३३/१४४ अन्यार्थस्यान्यार्थेन सबन्धाभावात् । लोकसमय विरोध इति चेत् । विरुध्याताम् । तत्त्वमिह मीमास्यते, न भैषज्यमातुरेच्छानुवर्ति' अन्य अर्थका अन्य अर्थ के साथ सम्बन्धका अभाव है । प्रश्न-इससे लोक समयका (व्याकरण शास्त्र) का विरोध होता है। उत्तर-यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं, क्योंकि यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ पीडित मनुष्यकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती। रा.वा. २/६/३,८/१०६ द्रव्यालङ्ग नामकर्मोदयापादितं तदिह नाधि
कृतम्, आत्मपरिणामप्रकरणात ...द्रव्यलेश्या पुद्गल विपाकिकर्मोंदयापादितेति सा नेह परिगृह्यत आत्मनो भावप्रकरणात् । -चू कि आत्मभावों का प्रकरण है, अत' नामकर्मके उदयसे होनेवाले द्रव्यलिंगकी यहाँ विवक्षा नहीं है। द्रव्य लेश्या पुदगल विपाकी शरीर नाम कर्मके उदयसे होती है अत: आत्मभावोंके प्रकरण में उसका ग्रहण नहीं किया है। ध. १/१,१,६०/३०३/६ अन्यैराचार्येरव्याख्यातमिममर्थ भणन्त कथं न सूत्रप्रत्यनीका । न, सूत्रवशवतिना तद्विरोधात। - प्रश्न-अन्य आचार्योके द्वारा नहीं व्याख्यान किये इस अर्थ का इस प्रकार व्याख्यान करते हुए आप सूत्रके विरुद्ध जा रहे है ऐसा क्यों नहीं माना जाये। उत्तर-नहीं.. सूत्रके वशवर्ती आचार्योंका ही पूर्वोक्त (मेरे) कथनसे विरोध आता है। (अर्थात् मै गलत नहीं अपितु वही
गलत है।) ध, ३/१,२,१२३/४०८/५ आइरियवयणमणेयंतमिदिचे, होदु णाम, णस्थि मझेरथ अग्गह।। - आचार्योंके वचन अनेक प्रकारके होते है तो होओ. इसमें हमारा आग्रह नहीं है। ध.१,७,३/१६७/६ सव्वभावाण पारिणामियत्त पसज्जदीदिचे होदण कोइ दोसो। सभी भावोंके पारिणामिकपनेका प्रसंग आता है तो
आने दो। ध ७/२,१५६/१०१/२ चक्षुषा दृश्यते वा तं तत् चक्खुदसणं चक्षुई र्शनमिति वेति ब वते । चविखदियणाणादो जो पुवमेव सुवसतीए सामग्णाए अणुहओ चक्खुणाणुप्पत्तिणिमित्तो त चक्खुदंसणमिदि उत्त होदि । बालजणबीण चक्खूणं जं दिस्सदितं चक्खूदसणमिदि परूबणादो। गाहएगलभजणकाऊण अज्जुवस्थो किण्ण घेपदि। ण, तत्थ पुश्वुत्तासेसदासप्पसंगादो। जो चक्षुओको प्रकाशित होता है अथवा आँख द्वारा देखा जाता है वह चक्षुदर्शन है इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि चक्षु इन्द्रिय ज्ञानसे पूर्व ही सामान्य स्वशक्तिका अनुभव होता है जो कि चक्षु ज्ञानको उत्पत्तिमें निमित्तभूत है वह चक्ष दर्शन है।...बालक जनोको ज्ञान करानेके लिए अन्तरंगमें माह्य पदार्थोके उपचारसे 'चक्षुओंको जो दीखता है वही चक्षु दर्शन है' ऐसा प्ररूपण किया गया है । प्रश्न-गाथाका गला न घोट कर सीधा अर्थ क्यों नहीं करते । उत्तर-नहीं करते, क्योंकि वैसा करनेमें पूर्वोक्त समस्त दोषोंका प्रसंग आता है। प्र.सा./त.प्र.८६ शब्दाब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टम्भदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपायान्तरम् । - (मोह क्षय करने में) परम शब्द ब्रह्मकी उपासनाका, भावज्ञानके अवलम्बन द्वारा दृढ किये गये परिणामसे सम्यक् प्रकार अभ्यास करना सो उपायान्तर है।
स.सा./आ, २७७ नाचारादिशब्दश्रूतं, एकान्तेन ज्ञानस्याश्रयः तत्सद्भाबेऽपि...शुद्धाभावेन ज्ञानस्याभावात् ।-आचारादि शब्दश्रुत एकान्तसे ज्ञानका आश्रय नहीं है, क्योंकि आचारागादिकका सद्भाव होनेपर भी शुद्धारमाका अभाव होनेसे ज्ञानका अभाव है। स.सा./ता.वृ. ३/ स्वसमय एव शुद्धात्मन' स्वरूपं न पुनः परसमय" इति पातनिका लक्षणं सर्वत्र ज्ञातव्यम्। -स्व समय ही शुवाश्माका स्वरूप है पर समय नहीं। इस प्रकार पातनिकाका लक्षण सर्वत्र जानना चाहिए।
५. भावार्थ करनेकी विधि पं.का./ता,वृ २७/६१ कर्मोपाधिजनितमिथ्यास्वरागादिरूप समस्तबिभाषपरिणामास्त्यवत्वा निरुपाधिकेवलज्ञानादिगुणयुक्तशुद्धजीवास्तिकाय एव निश्चयनयेनोपादेयत्वेन भावयितव्य इति भावार्थः। प.का /ता.वृ. ५२/१०१ अस्मिन्नधिकारे यद्यप्यष्टविधज्ञानोपयोगचतुर्विध
दर्शनोपयोगव्याख्यानकाले शुद्धाशुद्धविवक्षा न कृता तथापि निश्चयनयेनादिमध्यान्तवजिले परमानन्दमालिनी परमचैतन्यशालिनि भगवरयात्मनि यदनाकुलत्वलक्षणं पारमार्थिकारखं तस्योपादेयभूतस्योपादानकारणभूतं यत्केवलज्ञानदर्शनद्वयं सवेवोपादेय मिति श्रद्धेय शेयं तथैवातरौद्रादिसमस्तविकल्पजालत्यागेन ध्येयमिति भावार्थ:कर्मोपाधि जनित मिथ्यात्व रागादि रूप समस्त विभाव परिणामों
को छोड़कर, निरुपाधि केवल ज्ञानादि गुणोंसे युक्त जो शुद्ध जीवास्तिकाय है, उसीको निश्चय नयसे उपादेय रूपसे मानना चाहिए यह भावार्थ है। वा यद्यपि इस अधिकारमैं आठ प्रकारके ज्ञानोपयोग तथा चार प्रकारके दर्शनोपयोगका व्याख्यान करते समय शुद्धाशुद्धकी विवक्षा नहीं की गयी है। फिर भी निश्चय नयसे आदि मध्य अन्तसे रहित ऐसी परमानन्दमालिनी परमचैतन्यशालिनी भगवान आत्मामें जो अनाकुलत्व लक्षणवाला पारमार्थिक सुख है, उस उपादेय भूतका उपादान कारण जो केवलज्ञान व केवल दर्शन हैं, ये दोनों ही उपादेय हैं। यही श्रद्धय है, यही ज्ञेय है, तथा इस हो को बार्त रौद्र आदि समस्त विकल्प जालको त्यागकर ध्येय बनाना चाहिए। ऐसा भावार्थ है । (व.का./ता.वृ. ६१/११३) द्र सं.टी. २/१० शुद्धनयाश्रितं जीवस्वरूपमुपादेयम्. शेषं च हेयम् । इति हेयोपावे यरूपेण भावार्थोऽप्यवबोद्धव्यः । एवं"यथासंभव व्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यः । - शुद्ध नयके आश्रित जो जीवका स्वरूप है वह तो उपादेय यानी-ग्रहण करने योग्य है और शेष सम त्याज्य है। इस प्रकार हेयोपादेय रूपसे भावार्थ भी समझना चाहिए । तथा व्याख्यानके समयमें सब जगह जानना चाहिए।
६. आगममें व्याकरणको प्रधानता ध.१/१.१,१/२/8-१०/३ धाउपरूवणा किम कीरदे। ण, अणवयधाउस्स सिस्सस्स अस्था गमाणुब्वत्तादो। उक्तं च 'शब्दास्पदप्रसिद्धिः पदसिद्ध रर्थनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात्पर श्रेय'२इति । -प्रश्न-धातुका निरूपण किस लिए किया जा रहा है (यह तो सिद्धान्त ग्रन्थ है)! उत्तर-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जो शिष्य धातुसे अपरिचित है, उसे धातुके परिज्ञानके बिना अर्थका परिज्ञान नहीं हो सक्ता और अर्थबोधके लिए विवक्षित शब्द का अर्थज्ञान कराना आवश्यक है, इसलिए यहाँ धातूका निरूपण किया गया है। कहा भी है-शब्दसे पदको सिद्धि होती है, पदकी सिद्धि से अर्थ का निर्णय होता है, अर्थ के निर्णयसे तत्त्वज्ञान अर्थात हेयोपादेय विवेककी प्राप्ति होती है और तत्त्वज्ञानसे परम कल्याण होता है। मपु. ३८/१११ शब्द विद्यार्थ शास्त्रादि चाध्येय नास्थ दृष्यति। ससं
स्कारप्रबोधाय वै यात्यख्यातयेऽपि च ॥११॥ - उत्तम संस्कारोंको जागृत करनेके लिए और टिद्वत्ता प्राप्त करनेके लिए इस व्याकरण आदि शब्दशाख और न्याय आदि अर्थशास्त्रका भी अभ्यास करना
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२३२
चाहिए क्योकि आचार विषयक ज्ञान होनेपर इनके अध्ययन करने में कोई दोष नहीं है ।
आगम
मो.मा.प्र. ० / ४३२ / १० बहुरि व्याकरण न्यायादिक शाख है, तिनका भी थोरा बहुत अभ्यास करना । जातैं इनिका ज्ञान बिना बड़े शास्त्रनि का अर्थ भास नाही । बहुरि वस्तुका भी स्वरूप इनकी पद्धति जाने जैसा भास तसा भाषादिक करि भास नाही । तातै परम्परा कार्यकारी जानि इनका भी अभ्यास करना ।
७. आगम में व्याकरणको गौणता
पका / ता वृ १ / ३ प्राथमिक शिष्यप्रति सुखबोधार्थमत्र ग्रन्थे सधेर्नियमो नास्तीति सर्वत्र ज्ञातव्यम् - प्राथमिक शिष्योको सरलतासे ज्ञान हो जावे इसलिए ग्रन्थमे सन्धिका नियम नहीं रखा गया है ऐसा सर्वत्र जानना चाहिए ।
८. अर्थ समझने सम्बन्धी कुछ विशेष नियम ध, १/१,१,१११/३४९/४ सिद्धासिद्धाश्रया हि कथामार्गा।
प. २१/१.१.११०/३६२/९० सामान्यबोधनाथ विशेषेष्यन्थिन परम्पराएँ प्रसिद्ध और असि इन दोनों के आश्रयसे प्रवृत्त होती है। सामान्य विषयका बोध कराने वाले वाक्य विशेषों में रहा करते है। घ. २/११/४४२/१० विशेषविधिना सामान्यविधिर्माध्यते ।
ध. २/१.१/४४२/२० परा विधिर्बाधको भवति । विशेष विधिसे सामान्य विधि बाधित हो जाती है।.. पर विधि बाधक होती है ।
घ. ३/९.२.२/१८/१० व्याख्याती विशेषप्रतिपत्तिरिति ।
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ध ३/१,२,८२/३१५/१ जहा उद्द ेसो तहा णिद्द सो व्याख्यासे विशेषकी प्रतिपत्ति होती है उड़ शके अनुसार निर्देश होता है। [] ४/९०२, १४४/४०३/४ गौ-मुख्ययोर्मुख्ये सप्रत्यय-गीण और मुख्यमें विवाद होनेपर मुख्यमे ही सप्रत्यय होता है। १. सु. ३/१६ तिनिर्णय तर्क से इसका (कमभावका) निर्णय
होता है।
प.ध. / पू. ७० भावार्थ - सावन व्याप्त साध्यरूप धर्म के मिल जानेपर पक्षकी सिद्धि हुआ करती है । दृष्टान्तको ही साधन व्याप्त साध्य रूप धर्म कहते है।
पं. ध. / ७२ नामैकदेशेन नामग्रहणम् । नामके एकदेशसे ही पूरे नामका ग्रहण हो जाता है, जैसे रा. ल कहने से रामलाल
=
प.प. ४६४ व्यतिरेकेण विना यज्ञान्यपक्षः स्वपक्षरक्षार्थम्। व्यतिरेकके बिना केवल अन्वय पक्ष अपने पक्षकी रक्षाके लिए समर्थ नहीं होता है।
६. विरोधी बातें आने पर दोनोंका संग्रह कर लेना चाहिए
च. १/१.१.२७/२२२/२ उस्त सिहंता आरिया कथं बचभीरुको इदि एस दोस्रो, दोहं मन्ये एकस्सेव संग कोरमाने बजभीरुतं विट्टति दो पि संग्रहकरे ताण माइरियाणं नज्म भीरुचाविणासाभावादो।
घ. १/१.१.२०/२१२/२ उपदेसमतरेण तदवगमाभावा दो पि संगही कायल्यो दोह संगई करें तो संसयनिन्दाहट्टी होदिति ण, तुमेव अस्थि ति सतस्स संदेहाभावादो। प्रश्न - उत्सूत्र लिखने वाले आचार्य पापभीरु कैसे माने जा सकते है 1 उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों का वचनों में से किसी एक ही वचन संग्रह करनेपर पापभीरुता निकल जाती है अर्थात् उच्छ ङ्खलता आ जाती है। अतएव दोनों प्रकारके वचनोंका, सग्रह करनेबाले चायके पापभीरुता नष्ट नहीं होती है, अर्थात् मनो रहती है। उपदेशके बिना दोनों में से कौन मंचन सूत्र रूप है यह नहीं जाना जा सकता, इसलिए दोनों बचनोका संग्रह कर लेना चाहिए । प्रश्न- दोनों वचनोंका संग्रह करनेवाला संशय मिध्यादृष्टि हो
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४. शब्दार्थ सम्बन्धी विषय
जायेगा ? उत्तर - नहीं, क्योंकि संग्रह करनेवाले के 'यह सूत्र कथित ही है इस प्रकारका श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसके सन्देह नहीं हो सकता है।
[घ] २ / २.१.१३ / ११० / १०३ सम्माट्ठी जीवो उतु सद हृदि । सहहृदि असम्भाव अजाणमाणो गुरु णियोगा ॥ ११०॥ सम्यदृष्टि जीव जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान करता ही है, किन्तु किसी तत्वको नहीं जानता हुआ गुरुके उपदेश विपरीत अर्थका भी श्रद्धान कर लेता है ॥ ११०॥ (गो. जी / मू. २७), (लसा. / यू १०५)।
ES
१०. व्याख्यानकी अपेक्षा सूत्र वचन प्रमाण होता है
क.पा २ / १.९५ / ६४६३/४९७/७ मुखेण वसवाणं माहज्यदि ण वसामेण क्लाएर पुणो दो वि या दोन्दमेकदरस्त सुतासार तागमाभावादो ।... एत्थ पुण विसंयोजणा पक्खो चेव पहाणभावेणावलंबियो पबाइज्जमाणन्तादो। सूत्र के द्वारा व्याख्यान बाधित हो जाता है, परन्तु एक व्याख्यानके द्वारा दूसरा व्याख्यान बाधित नहीं होता। इसलिए उपशम सम्पन् अनन्नुबन्धीको विस योजना नहीं होती यह वचन अप्रमाण नहीं है। फिर भी यहाँ दोनों ही उपदेशोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि दोनोंमें से अमुक उपदेश सूत्रानुसारी है, इस प्रकारके ज्ञान करनेका कोई साधन नहीं पाया जाता ... फिर भी यहाँ उपशम सम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होती है, यह पक्ष ही प्रधान रूपसे स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि इस प्रकारका उपदेश परम्परासे चला आ रहा है।
११. पाका निर्णय हो जाने पर मूल सुधार लेनी
चाहिए
घ. १/१.१.३७/१४३/२६२ सुन्तादो तं सम्म दरिसिज्वंतं जदा प सहदि सोचै नदि मिट्ठी हु तदो पहूडि जीबोसूत्र से भले प्रकार आचार्यादिकके द्वारा समझाये जाने पर भी यदि जो जीव विपरीत अर्थ को छोडकर समीचीन अर्थका श्रद्धान नहीं करता तो उसी समयसे वह सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। ( गो जी / मू. २८), (ल. सा / म. १०६)
६. १३/५.२.१२०/३८१/५ एत्थ उनसे सण एवं
असच मिदि पिच्छओ कायव्वो । एदे च दो वि उबरसा मुत्तसिद्धा । - यहाँ पर उपदेशको प्राप्त करके यही व्याख्यान सत्य है, अन्य व्याख्यान असत्य है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। ये दोनों ही उपदेश सूत्र सिद्ध है ( १४/५.६.२६/४) (. १४/५.६.१९६/९५९/६). (ध. १४/५, ६, ६५२/५०८/६), (ध. १५/३१७/१)
४. शब्दार्थ सम्बन्धी विषय
१. शब्द में अर्थ प्रतिपादनको योग्यता व शंका
100
प मु.३/१००,१०१ सहजयोग्यतासंकेतवशाद्धि शब्दादयो वस्तु प्रतिपत्तिहेतवः ॥१००॥ यथा मेदय सन्ति ॥ १०१ ॥ शब्द और अर्थ में वाचक वाच्य शक्ति है । उसमें संकेत होनेसे अर्थात् इस शब्दका वाच्य यह अर्थ है ऐसा ज्ञान हो जानेमे शब्द आदिसे पदार्थोंका ज्ञान होता है। जिस प्रकार मेरु आदि पदार्थ है अर्थात मेरु शब्द उच्चारण करने हो जम्बू द्वीपके मध्य में स्थित मेरुका ज्ञान हो जाता है। (इसी प्रकार अन्य पदार्थों को भी समझ लेना चाहिए)
२. भिन्न-भिन्न शब्दोंक भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं स.सि १ / १३/१४४ शम्यमेश्ररस्ति अर्थभेदेनाध्यवस्य भवितव्यम् । -यदि शब्दों में भेद है तो अर्थों में भेद अवश्य होना चाहिए। (रा. वा. १ / ३३/१०/१८/३१)
रा. बा. १/६/५/३४/१८ शम्यमेवे बोर्ममेव इति शब्दका भेद होनेपर अर्थ अर्थात् वाच्य पदार्थ का भेद भ्रम है ।
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आगम
३. जितने शब्द हैं उतने बाच्य पदार्थ भी हैं आस मी./घू. २० सेनि प्रतिषेधो न प्रतिषेध्याते कचिद संज्ञावान पदार्थ प्रतिषेध्य कहिए निषेध करने योग्य वस्तु तिस बिना प्रतिषेध कहॅू नाहीं होय है ।
जो
रा. वा. १/६/५/३४/१८ में उद्धृत ( यावन्मात्रा' शब्दा' तावन्मात्रा परमार्था भवन्ति) जितियमित्ता सदा तिथिमिया होति परमरथा । जितने शब्द होते है उतने ही परम अर्थ हैं ।
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का.अ./. २५१ कि महमा उत्ते मतियमेतानि सति णामाणि तेत्तिय - मेत्ता अत्था सतिय नियमेण परमत्था। -अधिक कहने से क्या 1 जितने नाम है उतने ही नियमसे परमार्थ रूप पदार्थ हैं । ४. अर्थ व शब्दमें वाध्यवाचक सम्बन्ध फंसे
क. पा. ९/११-१४/३११८-२०० / २३२८/९ शब्दोऽस्य निस्यन्वस्थ कथं अचक इति चेत् । प्रमाणमर्थस्य निस्सबन्धस्य कथ ग्राहकमिति समानमेतत् । प्रमाणार्थ योग्यजनक लक्षण प्रतिमन्धोऽस्तीति चेत न वस्तुसामर्थ्यस्थान् समुत्पत्तिविरोधात १३१६८३ प्रमाणार्थयो स्वभावत एव ग्राह्यग्राहकभावश्चेत्; तर्हि शब्दार्थयो' स्वभावत एव वाच्यवाचकभाव किमिति नेष्यते अविशेषात् । प्रमाणेन स्वभावतोइसबर्द्धन किमितीन्द्रियमासोको वा अपेक्ष्यत इति समानमेतद शन्दार्थ सबन्ध कृत्रिमत्वाद्वा पुरुषव्यापारमपेक्षते ॥ १६६४..
अथ स्थात, न शब्दो वस्तु धर्म, तस्य ततो भेदात् । नाभेद भाकियाकारिवाद साधना उपा
भन्ने
यो
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न विशेष्याजिन' विशेष अवस्थापते । ततो न वाचकभेदाभेद इति न प्रकाश्याद्भिज्ञामेव प्रमाणप्रदोष सूर्यमान का
सर्व
भात ततो भिन्नोऽपि शब्दोऽप्रतिपादक इसिसि ॥२००० ध. १/४,१.४५/१७६/३ अथ स्यान्न, नशब्दो अव्यवस्थापन्ते, ( ऊपर क. पा. में भो यही शका को गयी है) नैष दोष, भिन्नानामपि वस्त्राभरणादीनां विशेषणोपलम्भाद तो योग्यता शब्दार्यानाम्। स्वपराभ्याम्। न चैकान्तेनान्यत एव तदुत्पत्तिः स्वती वर्तमानानामर्थानां सहायकत्वेन वर्तमानमाह्यार्थीसम्भा - प्रश्न - शब्द व अर्थ में कोई सम्बन्ध न होते हुए भी वह अर्थ का वाचक कैसे हो सकता है ? उत्तर- प्रमाणका अर्थ के साथ कोई सम्बन्ध न होते हुए भी वह अर्थका ग्राहक कैसे हो सकता है ? प्रश्न- प्रमाण व अर्थ में जन्यजनक लक्षण पाया जाता है। उत्तर-नहीं, वस्तुको सामर्थ्यको अन्यसे उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। प्रश्न- प्रमाण व अर्थ में तो स्वभावसे ही ग्राह्यग्राहक सम्बन्ध है । उत्तर तो शब्द व अर्थ में भी स्वभावसे हो वाच्य वाचक सम्बन्ध क्यों नहीं मान लेते 1 प्रश्न- यदि इसमें स्वभावसे ही वाच्यवाचक भाव है तो वह पुरुषव्यापारकी अपेक्षा क्यो करता है ? उत्तर - प्रमाण यदि स्वभावसे ही अर्थ के साथ सम्बद्ध है तो फिर वह इन्द्रियव्यापार व आलोक (प्रकाश) की अपेक्षा क्यों करता है। इस प्रकार प्रमाण व शब्द दोनोंमें शंका व समाधान समान है। अतः प्रमाणकी भाँति हो शब्दमें भी अर्थप्रतिपादनकी शक्ति माननी चाहिए। अथवा, शब्द और पदार्थका सम्बन्ध कृत्रिम है । अर्थात् पुरुषके द्वारा किया हुआ है, इसलिए वह पुरुषके व्यापारकी अपेक्षा रखता है । प्रश्न- शब्द वस्तुका धर्म नहीं है, क्योंकि उसका वस्तुसे भेद है । उन दोनो में अभेद नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोनों भिन्न इन्द्रियोंके विषय है, दोनोकी अर्थ किया भिन्न है दोनोंके कारण भिन्न है. शब्द उपाय है और वस्तु उपेय है। इन दोनों में विशेष्य विशेषण भावकी अपेक्षा भो एकत्व नहीं माना जा सकता, क्योंकि विशेष्य से भिन्न विशेषण नहीं होता है, कारण कि ऐसा माननेसे अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है।
४. शब्दार्थ सम्बन्धी विषय
६/४१,४५ / १०६/३ पर यही शंका करते हुए शंकाकारने उपरोक्त हेतुओंके अतिरिक्त ये हेतु और मी उपस्थित किये हैदोनों भिन्न इन्द्रियो के विषय है। वस्तु नियमेाह्य है और शब्द स्वगिन्द्रिय से ग्राह्य नहीं है । दूसरे, उन दोनों में अभेद मानने से 'झरा' और 'मोदक' शब्दोंका उच्चारण करनेपर क्रमसे सुख कटने तथा पूर्ण होनेका प्रसंग आता है, अत' दोनोमें सामानाधिकरण्य नही हो सकता ।] ( और भी दे नय ४ / ५) अतः शब्द वस्तुका धर्म न होनेसे उसके भेद अर्थभेद नहीं हो सकता उत्तर--नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार प्रमाण, प्रदीप, सूर्य, मणि और चन्द्रमा आदि पदार्थ घट पट आदि प्रकाश्यभूत पदार्थोंसे भिन्न रहकर हो उनके प्रकाशक देखे जाते है, तथा यदि उन्हें सर्वथा अभिन्न माना जाय तो उनके प्रकाश्य प्रकाशकभाव नहीं बन सकता है, उसी प्रकार शब्द अर्थसे भिन्न होकर भी अर्थका वाचक होता है, ऐसा समझना चाहिए । दूसरे, विशेष्यसे अभिन्न ही विशेषण हो यह कोई नियम नही, क्योकि विशेष्य से भिन्न भी वस्त्राभरणादिकोंको विशेषणता पायी जाती है। (जैसे- घडीवाला या लाल पगडीवाला) प्रश्न- शब्द वअर्थ में यह योग्यता कहाँ से आती है कि नियत शब्द नियतही अर्थ का प्रतिपादक हो 1 उत्तर-स्व व परसे उनके यह योग्यता आती है। सर्वथा अन्यसे ही उसकी उत्पत्ति हो, ऐसा नही है, क्योंकि, स्वयं बर्तनेवाले पदार्थों की सहायता से बर्तते हुए बाह्य पदार्थ पाये जाते है । क.पा १/१३-१४ / १२१५-२१८/२६५-२६८ अथ स्यात न पदवाक्यान्यर्थप्रतिपादिकानि तेषामसत्त्वात । कुतस्तदसत्त्वम् । [ अनुपलम्भात् । सोऽपि कुत ।] वर्णानां क्रमोत्पन्नानामनित्यानामेतेषां नामधेयाति (पाठ छूटा हुआ है) समुदायाभावात् । न च तत्समुदय (पाठ छूटा हुआ है अनुपलम्भात् न च वर्गादप्रतिपत्ति प्रतिवर्णमप्रति पचिप्रसगाव निश्वानिस्योभयपक्षेषु संकेतानुपपत्तेश्चन
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योऽप्रतिपति नामंकेतितः शम्योऽर्य प्रतिपादक अनुप सम्भात्। ततो न हन्यादर्थप्रतिपत्तिरिति सिद्धम् ॥ २९५॥ नच वर्णपदाक्यव्यतिरिक्त निश्योऽक्रम अमूर्ती निरवयव सर्वगत अर्थप्रतिपत्तिनिमित्तं स्फोट इति अनुपलम्भाद रङ्गशब्दात्मकनिमित्त च तेभ्य) क्रमेणोत्पन्नवर्ण प्रत्ययेभ्यः अक्रमस्थिति समुत्पन्नपदवाक्याध्यामर्थविषयप्रत्ययोपयुपलम्भात
1
न च वर्णप्रत्ययानां क्रमोत्पन्नानां पदवाक्यप्रत्ययोत्पत्तिनिमित्तानामक्रमेण स्थितिर्विरुद्धा; उपलभ्यमानत्वात् । न चानेकान्ते एकान्तबाद इव संकेतग्रहणमनुपपन्नः सर्वव्यवहाराणा [मनेकान्त एवं सुघटत्वात् । तत] वाच्यवाचकभावो घटत इति स्थितम् । - प्रश्न- क्रमसे उत्पन्न होनेवाले अनित्य वर्णोंका समुदाय असत होनेसे पद और वाक्योंका ही जब अभाव है, तो वे अर्थप्रति चादक कैसे हो सकते हैं और केवल बर्णोंसे ही अर्थका ज्ञान हो जाय ऐसा है नहीं, क्योंकि 'घ' 'ट' आदि प्रत्येक वर्ग से अर्थ ज्ञानका प्रसंग आता है। सर्वथा निष्य, सर्वथा अनित्य और सर्वथा उभय इन तीनों पक्षों में ही संकेतका ग्रहण नहीं बन सकता इसलिए पद और वाक्योंसे अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि संकेत रहित शब्द पदार्थका प्रतिपादक होता हुआ नहीं देखा जाता । वर्ण, पद और वाक्य भिन्न, नित्य, क्रमरहित, अमूर्त, निरक्यय सर्वगत 'स्फोट' नामके तत्त्वको पदार्थोंको प्रतिपत्तिका कारण मानना भी ठीक नहीं; क्योंकि, उस प्रकारकी कोई वस्तु उपलब्ध नहीं हो रही है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, बाह्य शब्दात्मक निमित्तों से क्रमपूर्वक जो 'घ' 'ट' आदि वर्णज्ञान उत्पन्न होते है, और जो ज्ञानमें अक्रमसे स्थित रहते है, उनसे उत्पन्न होनेवाले पद और वाक्योंसे वर्ष विषयक ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है । पद और वाक्योंके ज्ञानकी उत्पत्ति में कारणभूत तथा क्रमसे उत्पन्न वर्ण विषयक ज्ञानोंकी अक्रमसे स्थिति माननेमें भी विरोध नहीं आता, क्योंकि, वह उपलब्ध होती है। तथा जिस प्रकार एकान्तवाद में संकेतका ग्रहण नहीं
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आगम
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५. आगमकी प्रामाणिकतामें हेतु
बनता है, उसी प्रकार अनेकान्तमें भी न बनता हो, सो भी ठीक नहीं है, क्योकि समस्त व्यवहार अनेकान्तबादमें ही सुघटित होते हैं। (अर्थात वर्ण व वर्ण ज्ञान कथचित् भिन्न भी है और कथंचित अभिन्न भी) अत बाच्यवाचक भाव बनता है, यह सिद्ध होता है। ५. शब्द अल्प है और अर्थ अनन्त हैं रा.वा १/२६/४/८७/२३ शब्दाश्च सर्वे संख्येया एव, द्रव्यपर्याया पुनः । संख्येया संख्येयानन्तभेदा । -सर्व शब्द तो सख्यात हो होते है। परन्तु द्रव्योकी पर्यायों के संख्यात अस रख्यात व अनन्तभेद होते है।
६. अर्थ प्रतिपादनकी अपेक्षा शब्दमें प्रमाण वनयपना रा.वा. ४/४२/१३/२५२/२२ यदा वक्ष्यमाणे. कालादिभिरस्तित्वादीनां धर्माणा भेदेन विवक्षा तदैकस्य शब्दस्यानेकार्थप्रत्यायनशक्त्याभावात क्रम'। यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुत्पते तदै केनापि शब्देन एकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकरवापन्नस्य अनेकाशेषरूपस्य प्रतिपादनसंभवात् यौगपद्यम् । तत्र यदा यौगपद्य तदा सकलादेशः: स एव प्रमाण मित्युच्यते । यदा तु क्रम' तदा विकलादेश स एक नय इति व्यपदिश्यते। जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादि को अपेक्षा भिन्न-भिन्न विवक्षित होते है, उस समय एक शब्द में अनेक अर्थों के प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे क्रमसे प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते है। परन्तु जब उन्हीं अस्तित्वादि धर्मों को कालादिककी दृष्टि से अभेद विवक्षा होती है, तब एक भी शब्दके द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्य रूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मोंका अखण्ड भावसे युगपत कथन हो जाता है। यह सकलादेश कहलाता है। विकलादेश नय रूप है और सकलादेश प्रमाण रूप है।
७. शब्दका अर्थ देशकालानुसार करना चाहिए स.म १३.:२१ में उस साभाविकसामयसमयाभ्यामर्थ बोध निबन्धन शब्दः।" -स्वाभाविक शक्ति तथा संकेतसे अर्थका ज्ञान करानेवालेको शब्द कहते है। ८. भिन्न क्षेत्र-कालादिमें शब्दका अर्थ भिन्न भी होता है
१. कालकी अपेक्षा सम. १४/१७८/३० कालापेपया पुनर्यथा जैनाना प्रायश्चित्तविधी.. प्राचीनकाले षड्गुरुशब्देन शतमशीत्यधिकमुपवासानामुच्यते स्म. सांपतकाले तु तद्विपरीते तेनैव षड्गुरुशब्देन उपचासत्रयमेव संकेत्यते जीतकल्पव्यवहारानुसारात। -ज तकल्प व्यवहारके अनुसार प्रायश्चित्त विधिमें प्राचीन समयमें 'षड गुरु' शब्द का अर्थ एक सौ अस्सी उपवास किया जाता था, परन्तु आजकल उसी 'षड्गुरु' का अर्थ केवल तीन उपवास किया जाता है।
२. शास्त्रोंकी अपेक्षा स.म. १४/१७६/४ शास्त्रापेक्षया तु यथा पुराणेषु द्वादशीशब्देनै कादशी। त्रिपुराणवे च अलिशब्देन मदराभिषिक्तं च मैथुनशब्देन मधुसर्पिपोर्ग्रहणम् इत्यादि । =पुराणोमें उपवासके नियमोका वर्णन करते समय 'बादशी' का अर्थ एकादशी किया जाता है; शाक्त लोगोंके ग्रन्थों में 'अलि' शब्द मदिरा और 'मैथुन' शब्द शहद और धोके अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
३. क्षेत्रकी अपेक्षा सम.१४/१७८/२८ चौरशब्दोऽन्यत्र तस्करे रूढोऽपि दाक्षिणात्याना
मोदने प्रसिद्धः। यथा च कुमारशब्दः पूर्वदेशे आश्विनमासे रूढः । एवं कर्कटीशब्दादयोऽपि तत्तद्देशापेक्षया योन्यादिवाचका ज्ञेया। -'चौर' शब्दका साधारण अर्थ तस्कर होता है, परन्तु दक्षिण देशमें इस शब्दका अर्थ चावल होता है। 'कुमार' शब्दका सामान्य अर्थ युवराज होनेपर भी पूर्व देशमें इसका अर्थ आश्विन मास किया
जाता है। 'कर्कटी' शब्दका अर्थ ककडी होनेपर भी कहीं-कहीं इसका अर्थ योनि किया जाता है।
६. शब्दार्थकी गौणता सम्बन्धी उदाहरण स भ त ७०/४ उक्तिवावाच्यतै कान्तेनावाच्य मिति युज्यते । इति स्वामिसमन्तभद्राचार्यवचन कथं संघटते । न तदर्थापरिज्ञानात् । अय बलु तदर्थ , सत्त्वाद्य कैकधर्म मुखेन वाच्यमेव वस्तु युगपत्प्रधानभ्रतसत्त्वासत्त्वोभयधर्मावच्छिन्नत्वेनावाच्यम् । = प्रश्न-अवाच्यताका जो कथन है वह एकान्त रूपसे अकथनीय है. ऐसा माननेसे अवाच्यता युक्त न होगी', यह श्री समन्तभद्राचार्यका कथन कैसे संगत होगा। उत्तर--ऐसी शका भी नहीं की जा सक्ती, क्योकि तुमने स्वामी समन्तभद्राचार्यजोके वचनोको नहीं समझा। उस वचनका निश्चय रूपसे अर्थ यह है कि सत्त्व आदि धर्मों में से एक-एक धर्मके द्वारा जो पदार्थ वाच्य है अर्थात कहने योग्य है, वही पदार्थ प्रधान भूत सत्त्व असत्त्व इस उभय धर्म सहित रूपसे अवाच्य है। रा.वा २/७/१/११/२ रूढिशब्देषु हि क्रियोपात्तकाला व्युत्पत्त्यर्थं व न
तन्त्रम् । यथा गच्छतीति गौरिति । रा,वा २/१२/२/१२६/३० कथ तह्यस्य निष्पत्ति 'प्रस्यन्तीति प्रसा" इति। व्युत्पत्तिमात्रमेव नार्थ प्राधान्ये नाश्रीयते गोशब्दप्रवृत्तिवत। एत्ररूढिविशेषबललाभाव क्वचिदेव वर्तते। -जितने रूढि छाब्द है उनकी भूत भविष्यत् वर्तमान कालके आधीन जो भी क्रिया है वे केवल उन्हे सिद्ध करने के लिए है। उनसे जो अर्थ द्योतित होता है वह नहीं लिया जाता है । प्रश्न -जा भयभीत होकर गति करे सो बस यह व्युत्पत्ति अर्थ ठीक नहीं है। (क्योकि गर्भस्थ अण्डस्थ आदि जीव त्रस होते हुए भी भयभीत होकर गमन नहीं करते। उत्तर'प्रस्यन्तीति त्रसा' यह केवल "गच्छतीति गौ" की तरह व्युत्पत्ति मात्र है। (रा वा. २/१३/१/१२७) (रा.वा २/३६/३/१४५) ५. आगमकी प्रामाणिकतामें हेतु
१. आगमको प्रामाणिकताका निर्देश ध.१/१.१,७५/३१४/५ चेत्स्वाभाव्यात्प्रत्यक्षस्येव । - जैसे प्रत्यक्ष स्वभावत प्रमाण है उसी प्रकार आर्ष भी स्वभावत प्रमाण है।
२. वक्ताकी प्रामाणिकतासे वचनकी प्रामाणिकता ध.१/१.१ २२/१६६/४ वक्तृप्रामाण्याद्वचनपामाण्यम् ।वक्ताकी प्रमाणता
मे बचनमें प्रमाणता आती है। (ज.प १३/८४) ५ वि /१० सर्व विद्वीतरागोक्तो धर्मः सुनृतता बजेत् । प्रामाण्यतो यतः
सो वाच प्रामाण्यमिष्यते ॥१०॥ --जो धर्म सर्वज्ञ और वीतरागके द्वारा कहा गया है वही यथार्थताको प्राप्त हो सकता है, क्योंकि पुरुषकी प्रमाणतासे ही वचनमें प्रमाणता मानी जाती है।
३. आगमकी प्रामाणिकताके उदाहरण ध४/१.५.३२०/३८२/११ तं कधं णव्यदे। आइरियपरंपरागदोबदेसादो।
यह कैसे जाना जाता है कि उपशम सम्यक्त्वक शलाकाएँ पस्योपमके असंख्यातवे भाग मात्र होती है। उत्तर-आचार्य परम्परागत उपदेशसे यह जाना जाता है। (ध ।।१,६,३६/३१/१ (ध. १४/१६४/६, १६९/२, १७०/१३, १७३/१६, २०८/११, २०६/११, ३७०/
१०, ५१०/२) ध.६/१६-१,२८/६५/२ एईदियादिसु अव्बत्तचेट्ठ'सु कधं सुहवदुहवभावा णज्जते । ण तत्थ ते सिमव्यत्साणमागमेण अत्यित्तसिद्धीदो।-प्रश्नअव्यक्त चेष्टावाले एकेन्द्रिय आदि जीवों में सुभग और दुर्भग भाव कैसे जाने जाते है । उत्तर-नही, क्योंकि एकेन्द्रिय आदिमें अध्यक्त
रूपसे विद्यमान उन भावोका अस्तित्व आगमसे सिद्ध है। घ,७/२.१.५६/१६/८ ण दसणमस्थि विसयाभावादो। ध ७/२,१,५६/१८/१ अस्थि दसणं, मुत्तम्मिअट्ठकम्मणि साददो।.. इच्चादिउवसंहारसुत्तदंसणादो च ।-प्रश्न-दशन है नहीं, क्योंकि
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आगम
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उसका कोई विषय ही नहीं है। उत्तर-दर्शन है क्योंकि सूत्रमें आठ कमका निर्देश किया गया है। इस प्रकारके अनेक उपसंहार सूत्र देखने से भी यही सिद्ध होता है कि दर्शन है। ४. अर्हत् व अतिशयज्ञानवालोंके द्वारा प्रणीत होनेके
कारण
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रा.बा. ८/१६/२६२ तदसिद्धिरिति चेद न अतिशयानाकरवाद ॥१८॥ अन्यत्राप्यतिशयज्ञानदर्शनादिति पेद, न अव तेषां समवाद ॥१७॥ आर्हतमेव प्रवचन तेषां प्रभव' । उक्त च सुनिश्चितं न परतन्त्रयुक्तिषु स्फुरन्ति या काश्चन सूक्तसपद । तवैव ता. पूर्वमहार्णवोत्थिता जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविप्रुष (द्वात्रि १ / ३) श्रद्धामात्रमिति चेत् भूयसामुपन्ये रत्नाकर १९८ उद्भावाम प्रामाण्यमिति चेत न, नि सारत्वात् काचादिवत् ॥ १६॥ - प्रश्न - अर्हत्का आगम पुरुषकृत होनेसे अप्रमाण है ? उत्तर-- ऐसा कहना
संगत नहीं है, क्योंकि वह अतिशय ज्ञानोंका आकार है। प्रश्न- अतिशय ज्ञान अन्यत्र भी देखे जाते है ! अतएव अर्हत् आगमको ही ज्ञानका आकार कहना उपयुक्त नही है ? उत्तर - अन्यत्र देखे जानेवाले अतिशय ज्ञानोका मूल उद्भवस्थान आर्हत प्रवचन ही है। कहा भी है कि यह अच्छी तरह निश्चित है कि अन्य मतोमे जो युक्तिवाद और अच्छी बातें चमकती हैं मे तुम्हारी ही है। वे चतुर्दशपूर्वरूपी महासागर से निकली हुई जिनवाक्य रूपी बिन्दुएँ है ।' प्रश्न - यह सर्व बाते केवल श्रद्धामात्र गम्य है ? उत्तर- श्रद्धामात्र गम्य नही अपितु युक्तिसिद्ध है जैसे गाँव नगर या बाजारों मे
"
कुछ रत्न देखे जाते है फिर भी उनकी उत्पत्तिका स्थान रत्नाकर समुद्र ही माना जाता है। प्रश्न- यदि वे व्याकरण आदि अईवचनसे निकले है तो उनकी तरह प्रमाण भी होने चाहिए ? उत्तरनहीं, क्योंकि वे निस्सार हैं। जैसे नको रत्न क्षार और सीप आदि भी रत्नाकरसे उत्पन्न होते है परन्तु नि सार होनेसे त्याज्य है । उसी तरह जिनशाशन समुद्रसे निकले वेदादि नि सार होनेसे प्रमाण नहीं है।
रा. बा. ६/२०/२/५३२ अतिशयज्ञानत्वादभगवतामहतामतिशय वज्ज्ञानं युगपत्सर्वार्थावभासनसमर्थं प्रत्यक्षम् तेन दृष्टं तद्दृष्टं यच्छास्त्रं तद् यथार्थोपदेशकम्, अतस्तत्प्रमाण्याद् ज्ञानावरणाद्यासवनियमप्रसिद्धि ज्ञात्र अतिशय ज्ञानवाने युगपत् सर्वावभासन समर्थ प्रत्यक्षज्ञानी के वलीके द्वारा प्रणीत है, अत प्रमाण है। इसलिए शास्त्रमें वर्णित ज्ञानागरणादिकके आसयके कारण आगमानुगृहीत है। गी.जी./ जी प्र. ११६/४१८/९ मानां प्रवक्तरिपुरुष आप्ते सिद्धेसति तद्वाक्यस्यागमस्य सूक्ष्मान्तरितदूरार्थेषु प्रामाण्यसुप्रसिद्ध ।
= बहुत कहने करि कहा ' सर्व तत्त्वनिका बक्ता पुरुष जो है अश्वा की सिद्धि होते तिस आप्तके बचन रूप जो आगम ताकी सूक्ष्म अंतरित दूरी पदार्थ निनि प्रमाणाको सिद्धि हो है। रावा. हि. ९/२०/२२७ अहं सर्वज्ञ हे वचन प्रमाणभूत है...स्वभाव विषे तर्क नाहीं ।
५. वीतराग द्वारा प्रणीत होने के कारण
घ. १/१.१.२२/१३६/२ गटाशेषदोषावरण प्राप्ताशेषवस्तुविषयशोध स्वस्य व्याख्यातेति प्रतिपत्तव्यम् अन्यथास्यापवस्यापि पी वेदप्रामाण्यवसाय जिसने सम्पूर्ण भावकर्म व द्रव्यकर्मको दूर कर देने से सम्पूर्ण वस्तु विषयक ज्ञानको प्राप्त कर लिया है वही आगमका व्याख्याता हो सकता है। ऐसा समझना चाहिए। अन्यथा पौरुषेयत्व रहित इस आगमको भी पौरुषेय आगमके समान अप्रमाणताका प्रसंग आ जायेगा ।
घ. २/१.२.२/१०-११/१२ आगमोचनमा दोषाय विदुः दोन या वसंभवा ॥१०॥ रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा बाह्यतस्तु नेते दोषास्तस्यमृतकारणं नास्ति।
५. आगमकी प्रामाणिकताने हेतु
- आप्तके वचनको आगम जानना चाहिए और जिसने जन्म जरादि अठारह दोषोका नाश कर दिया है उसे आप्त जानना चाहिए। इस प्रकार जो व्यक्त दोष होता है, वह असत्य वचन नहीं बोलता है, क्योंकि उसके असत्य वचन बोलनेका कोई कारण ही सम्भव नहीं है। ॥१०॥ रागसे, द्वेषसे, अथवा मोहसे असत्य वचन बोला जाता है, परन्तु जिसके ये रागादि दोष नहीं है उसके असत्य वचन बोलनेका कोई कारण भी नही पाया जाता ॥ १०॥ ( ध १०/ ४,२,४६०/२८०/२) ध. १०/५,५,९२१/३८२ / १ पमाणत्तं कुदो णव्वदे। रागदोषमोहभावेण पाणी भूदपुरिसपर पराए आगमत्तादो । प्रश्न- सूत्रकी प्रमाणता कैसे जानी जाती है ? उत्तर- राग, द्वेष और मोहका अभाव हो जानेसे प्रमाणीभूत पुरुष परम्परासे प्राप्त होनेके कारण उसकी प्रमाणता जानी जाती है ।
La
स. म. १७/ २३७ / १ तदेवमाप्तेन सर्व विदा प्रणीत आगम प्रमाणमेव । तदप्रामाण्यं हि प्रणायकदोषनिबन्धनम् । सर्वज्ञ आप्त-द्वारा मनाया आगम ही प्रमाण है। जिस आगमका बनानेवाला सदोष होता है, वही आगम अप्रमाण होता है ।
अनघ २ / २० जिनोक्ते वा कुतो हेतुबाधगन्धोऽपि शङ्कयते । रागादिना विना को हि करोति वितथ वचः ॥२०॥ - कौन पुरुष होगा जो कि रागद्वेष के बिना तिथ मिथ्या वचन बोले। अतएव वीतरागके वचनो अश मात्र भी बाधाकी सम्भावना किस तरह हो सकती है। ६. गणधरादि आचायों द्वारा कथित होनेके कारण क. पा. १ / १,१२/३९९६/१५३ गेदाओ गाहाओ सुत गहरपतेयबुद्ध-दकेवल अभिपुण्य गुणहरमहारयस्स अभावदोष, पिहोसपक्खर सहे उपमाणेहि सुत्तेण सरिसत्तमत्थि त्ति गुणहराइरियगाहाणं पित्तत्त. वल भावादो... एद सव्व पित्तलक्खण जिणवयणकमलअसंभव हरमुहविणिग्गयगधरणार, सच (मुत्त) सारिच्यमस्सिन तत्थ विच पडि मिरोहाभावादो - प्रश्न – (कषाय प्राभृत सम्बन्धी) एक सी अस्सी गाथाएँ सूत्र नहीं हो सकती है, क्योंकि गुणधर भट्टारक न गणधर है, न प्रश्येक बुद्ध है, न श्रुतवली है, और न अभिन्न दशपूर्वी ही हैं ? उत्तर- नहीं, क्योंकि गुणधर भट्टारककी गाथाएँ निर्दोष है, अल्प अक्षरवाली है, सहेतुक है, अत वे सूत्र के समान है, इसलिए गुणधर आचार्यको गाथाओं में सूत्रत्व पाया जाता है। प्रश्न- यह सम्पूर्ण सूत्र लक्षण तो जिनदेव के मुखकमलसे निकले हुए अर्थ पदों में हो सम्भव है, गणधर के मुलसे निकली ग्रन्थ रचनामे नहीं ? उत्तर- नहीं, क्योंकि गणधरके वचन भी सूत्र के समान होते है इसलिए उनके वचनोंगे सूत्र होनेके प्रति विरोधका अभाव है ।
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प्रकार
७. प्रत्यक्ष ज्ञानियोंके द्वारा प्रणीत होनेके कारण स.सि ६/२६/४०५ व्याख्यातो समपक्षः बन्धपदार्थ अवधिमन पर्ययकेवलज्ञानप्रत्यक्षप्रमाण गन्यस्तदुपदिष्टा गनानुमेयः । == इस विस्तार के साथ बन्ध पदार्थका व्याख्यान किया। यह अवधिज्ञान, मन पर्यय ज्ञान और केवलज्ञानरूप प्रत्यय-प्रमाण गम्य है, और इन ज्ञानवाले जीवोंके द्वारा उपदिष्ट आगमसे अनुमेय है । ८. आचार्य परम्परासे आगत होनेके कारण
घ. १३/५-२-१२१/३८२/१ पातं कुदो वदे .. पानी भूवपुरिरुपरं पराए आगदत्तादो प्रश्न- सूत्रमें प्रमाणता कैसे जानी जाती है । उत्तर - प्रमाणभूत पुरुष परम्परासे प्राप्त होनेके कारण उसकी प्रमाणा जानी जाती है ।
१. समन्वयात्मक होनेके
कारण
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क.पा. १/१.१५/१२/०२ / २ च सहिय व उपदेश ग्रहण करके अर्थ कहना चाहिए ।
घ. १/९.१.२०/२२२/४ दोहे
गाणं मन्ये कं बय समिदि केवली केवली वा जागादि । प्रश्न- दोनों प्रकारके वचनों से
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आगम
किसको सत्य माना जाये ? उत्तर- इस बात को केवली या श्रुतकेवली हो जान सकते है ( १/१.१.३७/२६२/१), (घ७/२/११.०३/२४०/४) घ. १/४,१,७१/३३३/३ दोण्डं सुत्ताण विरोहे सतेत्थप्पावल बणस्स णाइयतादो । - दो सूत्रोके मध्य विरोध होनेपर चुप्पीका अवलम्बन करना हो न्याय है ( १/४.१.४४/११६/४) ( १४/५.६.११६/१५१/५) भ. १४/५.६.१९६/२६/११ सचमेदमेव होयमिदि किंतु अन दो मिलिट्टमा सजिये. जिन-गण
पत्तेयबुद्ध - पण्णममण-सुदकेव लिआदीणमभावादो ॥
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- यह सत्य है कि इन दोनो में से कोई एक अल्पबहुत्व होना चाहिए किन्तु यही अल्पबहुत्व होना चाहिए इसका वर्तमान कालमें निश्चय करना शक्य नही है, क्योंकि इस समय जिन, गणधर, प्रत्येकबुद्ध, प्रज्ञाश्रमण, और केवल आदिका अभाव है (गो. जी / जी. २८८ /६१६/२४) ( और भी दे आगम ३ / १ )
१०. विचित्र द्रव्यों आदिका प्ररूपक होनेके कारण प्र.सा./त प्र २३५ आगमेन तावत्सर्वाण्यपि द्रव्याणि प्रमीयन्ते विचित्र गुणपर्यायविशिष्टानि च प्रतीयन्ते सहक्रमप्रवृत्ताने कधर्म व्यापकाने कान्तमत्वेनैवागमस्य प्रमात्वोपपत्ते । आगम द्वारा सभी द्रव्य प्रमेय (ज्ञेय) होते है । आगमसे वे द्रव्य विचित्र गुण पर्यायवाले प्रतोत होते है. क्योंकि आगमको सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनेक धर्मोमें व्यापक अनेकान्तमय होनेसे प्रमाणताकी उपपत्ति है ।
यस्मादिष्टं
११ पूर्वापर अविरोधी होनेके कारण अष्टसहस्त्रो पृ ६२ (निर्णय सागर बम्बई) "अविरोध ( प्रयोजनभूतं ) मोक्षादिक तत्त्वं ते प्रसिद्धेन प्रमाणेन न बाध्यते । तथा हि यत्र यस्याभिमत तत्त्व प्रमाणेन न बाध्यते स तत्र युक्तिशास्त्राविरोधी बाट अर्थात् प्रयोजनभूत मोक्ष आदित किसी भी प्रसिद्ध प्रमाण न होनेके कारण अविरोधी हैं। जहाँपर जिसका अभिमत प्रमाण बाधित नहीं होता, वह वहाँ दुक्ति और शास्त्र से अविरोधी वचनवाला होता है।
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अन. ध. २/१८/१३३ दृष्टेऽर्थेऽध्यक्षतो वाक्यमनुमेयेऽनुमानत' । पूर्वापरा, विरोधेन परोक्षे च प्रमाण्यताम् ॥ १८॥ - आगममें तीन प्रकारके पदार्थ बताये है दृष्ट, अनुमेय और परोक्ष इनमें से जिस तरहके पदार्थको बतानेके लिए आगममें जो वाक्य आया हो उसको उसी तरहसे प्रमाण करना चाहिए। यदि दृष्ट विषयमें आया हो तो प्रत्यक्षसे और अनुमेय विषय में आया हो तो अनुमानसे तथा परोक्ष विषयमें आया हो तो पूर्वापरका अविराध देखकर प्रमाणित करना चाहिए ।
क. पा १/१.१५/३० / ४४/४ कथं णामसणिदान पदवक्काणं पमाणत्त । ण, तेसु विसवादाणुबलं भादो प्रश्न-नाम शब्द से बोधित होने बाले पद और वाक्योंको प्रमाणता कैसे ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, इन पदो में विसंवाद नहीं पाया जाता, इसलिए वे प्रमाण है ।
१२. युक्तिसे बाधिन नहीं होनेके कारण
सहस पू. २ (नि सा बम्बई) "यत्र यस्याभिमतं तवं प्रमाणेन न बाध्यते स तत्र युक्तिशाखाविरोधिवाक्। "जहाँ जिसका भिमत तस्य प्रमाणसे बाधित नहीं होता, वहाँ वह युक्ति और शाखसे अविरोधी वचनवाला है ।
ति. प. ७/६१३ / ७६६ / ३ तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेति एयंतपरिग्गृहेण असग्गाहो कायो, परमगुरुपरं पराग उवएसस्स जुत्तिमले बिहडावेदुमसक्कियन्तादो । - 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार एकान्त कदाग्रह नहीं करना चाहिए, खोंकि गुरु परम्परासे आये उपदेशको युक्तिके बलसे विघटित नहीं किया जा सकता ।
घ. ७/२.१.५६/१८/१० आगमपमाणेण होदु णाम समस्स अत्यित्तं ग जुत्तीए चे । ण, जुत्तोहि आगमस्स बाहाभावादो आगमेण वि जच्चा
१३६६. आपकी प्रामाणिक हेतुओं का
ती बाहिरिति सच्चे माहियदि जया जुली किन्तु इमा बाहिज्जदि जच्चात्ताभावादो । - प्रश्न- आगम प्रमाणसे भले दर्शनका अस्तित्व हो, विन्तु युक्तिसे तो दर्शनका अरित्व य नहीं होता उत्तर होता है. क्योकि तियोंसे बागमको बाधा नही होती। प्रश्न - आगमसे भी तो जात्य अर्थात उत्तम युक्तिकी बाधा नही होनी चाहिए ? उत्तर- सचमुच ही आगमसे युक्तिकी बाधा नहीं होती किन्तु प्रस्तुत युक्तिकी बाधा अवश्य होती है। क्योंकि वह उत्तम युक्ति नहीं है।
यो समिविरुद्वा पमाणं बाहिज्जदे, विरोहादो
१२/४१,३३३३३ / १३ च त्तिविरुद्धतादो मुत्तमे मिदि जुत्सितामायादो च अप्पमाण प्रश्न- युक्ति विरुद्ध होनेसे यह सूत्र
ही नही है ? उत्तर- ऐसा कहना शक्य नहीं है। क्योकि जो युक्ति सूत्रके विरुद्ध हो वह वास्तवमे मुक्ति ही सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त अप्रमाणके द्वारा प्रमाणको माधा नही पहुँचायी जा सकती क्योकि वैसा होनेमें विरोध है। (गो जो / जी प्र १६६ / ४३६ / १५ ) १२/४.२.१४.२८/४६४ / १५ च तपडिकूल होदि णाभासहत्तादो। ण च जुत्तीए सुत्तस्स बाहा संभवदि, सयलबाहादीदस्स] [सुत्तमवसादो सूत्रके प्रतिकूल उपाख्यान होता नहीं है। क्योंकि वह व्याख्यानाभास कहा जाता है। प्रश्न- यदि कहा जाय कि युक्तिसे सूत्रको बाधा पहुँचायी जा सकती है उत्तर सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो समस्त बाधाओ से रहित है उसकी सुप्रज्ञा है ( १४/५.६.५५२/४७१/१० ) १३. प्रथमानुयोगकी प्रामाणिकता
नोट-भ आ./मूलमें स्थल-स्थल पर अनेको कथानक दृष्टान्त रूप में दिये गये है, जिनसे ज्ञात होता है कि प्रथमानुयोग जो बहुत पो fafe हुआ वह पहले आचार्यों को ज्ञात था । ६. आगमकी प्रामाणिकताके हेतुओं सम्बन्धी शंका
समाधान
१ अर्वाचीन पुरुषों द्वारा लिखित आगम प्रामाणिक कैसे हो सकते है
"
१९.१.२२/१०/१ अमानमिदानीतन आगम बारातीयपुरुषउपाख्यातार्थस्यादिति चेद्र रेगीनज्ञानविज्ञानसंज्ञया प्राप्तप्रामाण्यराचार्यैव्यख्यातार्थव्या कथं स्थान सत्यवादिवमिति चेन्न यथाश्रुतव्याख्यातॄणां तदविरोधात प्रमाणगुरुपर्व क्रमेणायातोऽयमर्थ इति कथमवसीयत इति चेन्न, दृष्टविषये सर्वमादाय अदृष्टविषयेऽप्यविसंवादिनागमभावेने करवे सति सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणकत्वात् । ऐदंयुगीनज्ञान विज्ञानस पन्न भूयसामाचार्याणामुपदेशाद्वा तदवगते । ==! = प्रश्न- आधुनिक आगम अप्रमाण है, क्योकि अर्वाचीन पुरुषोने इसके व्याख्यानका अर्थ किया है ? उत्तर - ग्रह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस काल सम्बन्धी ज्ञान-विज्ञान से युक्त होनेके कारण प्रमाणताको प्राप्त आचार्योंके द्वारा इसके अर्थका व्याख्यान किया गया है, इसलिए आधुनिक आगम भी प्रमाण है। प्रश्न- छद्मस्थों के सत्यवादीपना केसे माना जा सकता है 1 उत्तर नही, क्योंकि श्रुतके अनुसार व्याख्यान करनेवाले आचार्यो के प्रमाणता माननेमें विरोध नहीं है। प्रश्न - आगमका विवक्षित अर्थ प्रामाणिक गुरुपरम्परासे प्राप्त हुआ है यह कैसे निश्चित किया जाये 1 उत्तर - नहीं, क्योंकि प्रत्यक्षभूत विषयमें तो सब जगह विसंवाद उत्पन्न नही होनेसे निश्चय किया जा सकता है । और परोक्ष विषय में भी, जिसमें परोक्ष विषयका वर्णन किया गया है वह भाग अभिसंभादी आगमके दूसरे भागोके साथ आगमकी अपेक्षा एकताको प्राप्त होनेपर अनुमानादि प्रमाणीके द्वारा बाधक प्रमाणोका अभाव सुनिश्चित होनेसे उसका निश्चय किया जा सकता है । अथवा
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२३.
६.आगमकी प्रामाणिकताके हेतूओं सम्बन्धी शंका-समाधान
आगम
आधुनिक ज्ञान विज्ञानसे युक्त आचार्यों के उपदेशसे उसकी प्रामाणिकता जाननी चाहिए। क पा. १/१,१५/१६४/८२ जिणउवदितासो होद दवागमो पमाणं, किन्तु अप्पमाणीभूदपुरिसपवोलोकमेण आगयत्तादो अप्पमाणं बट्टमाणकालदव्वागमो, त्ति ण पञ्चबहादु जुत्तं; राग-दोष-भयादीदआयरियपव्वोलीकमेण आगयस्स अपमाणत्त विरोहाद।। =प्रश्नजिनेन्द्र देवके द्वारा उपदिष्ट होनेसे द्रव्यागम प्रमाण होओ, किन्तु वह अप्रमाणीभूत पुरुष परम्परासे आया हुआ है अतएव वर्तमान कालोन द्रव्यागममें अप्रमाण है । उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यागम राग, द्वेष और भयसे रहित आचार्य परम्परासे आया हुआ है, इसलिए उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है।
२ पूर्वापर विरोध होते हुए भी प्रामाणिक कैसे है ध १/१,१,२७/२२१/४ दोहं क्यणाण मज्झे एक्कमेबसुत्त होदि, तदो जिणा ण अण्ण हा बाइयो, सदो तव्वयणाण विष्पडिसेहो इदि 'चे सच्चमेय, किन्तु ण तन्वयणाणि एयाइ आइल्लु आइरिय-वयाणाई, तदो एयाणं विरोहस्सत्थि सभवो इदि। -प्रश्न-दोनों प्रकारके बचनो में से कोई एक ही सूत्र रूप हो सकता है। क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते, अत इनके वचनोमें विरोध नहीं होना चाहिए ? उत्तर-यह कहना सत्य है कि वचनोमें विरोध नहीं होना चाहिए। परन्तु ये जिनेन्द्र देवके वचन न होकर उनके पश्चात
आचार्योंके वचन है, इसलिए उनमें विरोध होना सम्भव है। ध. ८/२,२८/१६/१० कसायपाहुडसुत्तेणेद सुत्त विरुज्झदि त्ति बुत्ते सच्च विरुज्झई कध सुत्ताण विरोहो । ण, सुत्तोवसंहारणमसयलसुदधारयाइरियपरतताण विगेहसभवदसणादो। - प्रश्न कषायप्राभृतके सूत्रसे तो यह सूत्र विरोधका प्राप्त होता है ? उत्तर --- सचमुच में यह सूत्र कषायप्राभृतके सूत्रसे विरुद्ध है। प्रश्न- सूत्र में विरोध कैसे आ सकता है। उत्तर-अल्प श्रुतज्ञानके धारक आचार्योंके परतन्त्र सूत्र व उपसहारोके विरोधकी सम्भावना देखी जाती है। ध. १/१,१,२७/२२१/७ कथ सुत्तत्तण मिदि। आइरियपरंपराए णिरंतरमागयाण बुद्धिसु ओहदतीसु बज्जभीरुहि गहिदत्थेहि आइरिएहि पोत्यएस चडावियाणं असुत्तत्तण-विरोहादो। जदि एवं, तो एयाणं पि वयणाण तदवयत्तादो सुत्तत्तण पावदि त्ति चे भवदु दोहं मझे एकस्स सुत्तत्तण, ण दोण्ह पि परोप्पर-विरोहादो। -प्रश्न-तो फिर (उन विरोधो वचनोंको). सूत्रपना कैसे प्राप्त होता है । उत्तर--आचार्य परम्परासे निरन्तर चले आ रहे (सूत्रोको)...बुद्धि क्षीण होनेपर पाप भीरु (तथा) जिन्होने गुरु परम्परासे श्रुतार्थ ग्रहण किया था, उन आचार्योंने तीर्थ व्युच्छेदके भयसे उस समय अवशिष्ट रहे हुए अर्थको पोथियोमे लिपिबद्ध किया, अतएव उनमें अमूत्रपना नहीं आ सकता । (ध.१३/५,५,१२०/३८१/२) प्रश्न--यदि ऐसा है तो दोनो ही वचनोको द्वादशांगका अवयव होनेसे सूत्रपना प्राप्त हो जायेगा । उत्तर-दोनो में से किसी एक वचनको सूत्रपना भले हो प्राप्त होओ,किन्तु दोनोको सूत्रपना प्राप्त नहीं हो सकता है, क्योकि उन दोनों वचनोमें परस्पर विरोध पाया जाता है। (ध १/१,१,३६/
२६१/२) ध १३/५,५,१२०/३८१/७ विरुद्धाणं दोण्णमस्थाणं कधं सुत्त होदि त्ति वुत्ते-सच्च, ज सुत्तं तमविरुद्धत्थपरूपयं चेव । किन्तु णेद सुत्त सुत्तमिव सुत्तमिदि एदस्स उवयारेण सुत्तत्तब्भुव गमादो। कि पुण सुत्तं । गणहर पत्तेयबुद्ध----सुदकेवलि• अभिण्णदसपुबिकहियं.. ॥३४॥ ण च भूदब लिभडारओ गणहरो पत्तेयबुद्धो सुद केवली अभिषणदसपुब्बी वा जेणेदं सुत्त होज्ज । प्रश्न-विरुद्ध दो अर्थों का कथन करनेवाला सूत्र कैसे हो सकता है। उत्तर--यह कहना सत्य है, क्योकि जो सूत्र है वह अविरुद्ध अर्थ का ही प्ररूपण करनेवाला होता है। किन्तु यह सूत्र नहीं है, क्योकि सूत्रके समान जो होता है वह
सूत्र कहलाता है, इस प्रकार इसमें उपचारसे सूत्रपना स्वीकार किया गया है। प्रश्न--तो फिर सूत्र क्या है ? उत्तर-जिसका गणधर देवोंने, प्रत्येक बुद्धोंने श्रुतकेवलियोंने तथा अभिन्न दश पूर्वियोंने कथन किया वह सूत्र है। परन्तु भूतबली भट्टारक न गणधर है, न प्रत्येक बुद्ध है, न श्रुतकेवली है, न अभिन्नदशपूर्वी ही है, जिससे कि
यह सूत्र हो सके। क.पा. ३/३-२२/६५१३/२६२/१ पुब्बिन्लवक्रवाणं ण भद्दय, सुत्तविरुद्ध
तादो। ण, वचरवाणभेदसंदरिसणठं तप्पत्तीदो पडिबक्रवणयणिरायरणमुहेण पउत्तणओ ण भद्दओ। ण च एत्थ पडिवखणिरायणमस्थि तम्हा वे वि हिरवज्जे त्ति घेत्तवं । प्रश्न-पूर्वोक्त व्याख्यान समीचीन नहीं है ! क्योंकि वे सूत्र विरुद्ध है। उत्तर- नहीं, क्योंकि व्याख्यान भेदके दिखलाने के लिए पूर्वोक्त व्याख्यानकी प्रवृत्ति हुई है। जो नय प्रतिपक्ष नयके निराकरण में प्रवृत्ति करता है, वह समीचीन नही होता है। परन्तु यहाँ पर प्रतिपक्ष नयका निराकरण नही किया गया है, अतः दोनों उपदेश निर्दोष है ऐसा प्रकृतमें ग्रहण करना चाहिए।
३. आगम व स्वभाव तर्कके विषय ही नहीं हैं: ध. १/१,१,२५/२०६/६ आगमस्यातर्कगोचरत्वात-आगम तर्कका विषय
नही है । (ध.४/१४/५,६,११६/१५१/८) ध.१/१,१.२४/२०४/३ प्रतिज्ञावाक्यत्वाद्धेतुप्रयोग कर्तव्य प्रतिज्ञामात्रत' साध्यसिद्वयनुपपत्तिरिति चेन्नेदं प्रतिज्ञावाक्यं प्रमाणत्वात, ण हि प्रमाणान्तरमपेक्षतेऽनवस्थापत्ते । प्रश्न-'नरक गति है) इत्यादि प्रतिज्ञा वाक्य होनेसे इनके अस्तित्व की सिद्धि के लिए हेतुका प्रयोग करना चाहिए, क्योकि केवल प्रतिज्ञा वाक्यसै सात्यकी सिद्धि नहीं हो सकती । उत्तर--नहीं, क्योंकि, ('नरकगति है' इत्यादि) वचन प्रतिज्ञा वाक्य न होकर प्रमाण वाक्य है। जो स्वयं प्रमाण स्वरूप होते हैं वे दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करते है। यदि स्वयं प्रमाण होते हुए भी दूसरे प्रमाणोकी अपेक्षा की जावे तो अनवस्था दोष आता है। ध. १११,१,४१/२७१/३ ते तादृक्षा सन्तीति कथमवगम्यत इति, चेन्न,
आगमस्यातर्कगोचरत्वात् । न हि प्रमाणप्रकाशितार्थावगति प्रमाणान्तरप्रकाशमपेक्षते । प्रश्न-साधारण जीव उक्त लक्षण (अभी तक जिन्होंने त्रस पर्याय नहीं प्राप्त की) होते हैं यह कैसे जाना जाता है। उत्तर-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि आगम तर्कका विषय नहीं है। एक प्रमाणसे प्रकाशित अर्थज्ञान दूसरे प्रमाणके प्रकाशकी
अपेक्षा नहीं करता है। ध.६/१,६-६.4/१५१/१ आगमो हि णाम केवलणाणपुरस्सरो पाएण अणिदियत्थविसओ अचिंतियसहाओ जुत्तिगोयरादीदि । - जो केवलज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ है, प्राय अतीन्द्रिय पदार्थोंको विषय करनेवाला है, अचिन्त्य स्वभावी है और युक्तिके विषयसे परे है, उसका नाम आगम है।
४ छनस्थोंका ज्ञान प्रामाणिकताका माप नहीं है ति, प. ७/६१३/पृ. ७६६/पं. ४ अदिदिएम पदत्थेसु छदुमयवियप्पाण
मविसंवादणियमाभावादो। तम्हा पुव्वाइरियवक्रवाणापरिच्चाएण एसा वि दिमा हेदुवादाणुसारिवियुपण्ण सिस्साणुग्गहण-अबुप्पण्णजणउपायणठं चदरिसेदव्या। तदो ण एत्थ सपदायविरोधो कायव्वो त्ति । -अतिन्द्रिय पदार्थोक विषयमें अक्पज्ञोके द्वारा किये गये विकल्पोके विरोध न होनेका कोई नियम भी नही है। इसलिए पूर्वाचार्योंके व्याख्यानका परित्याग न कर हेतुवादका अनुसरण करने वाले अव्युत्पन्न शिष्योंके अनुग्रहण और अव्युत्पन्न जनोके व्युत्पादन के लिए इस दिशाका दिखलाना योग्य ही है, अतएव यहाँ सम्प्रदाय विरोधकी भी आशंका नहीं करनी चाहिए।
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आगम
२३८
७. सूत्र निर्देश
ध १३/५.५,१३७/३८६/२ न च केवलज्ञान विषयीकृतेष्वर्थेषु सकलेष्वपि रजोजुषा ज्ञानानि प्रवर्तन्ते येनानुपलम्भाज्जिनवचसस्याप्रमाणत्वमुच्येता केवलज्ञानके द्वारा विषय किये गये सभी अर्थों में छद्मस्थोके ज्ञान प्रवृत्त भी नहीं होते है। इसलिए यदि छद्मस्थोंको कोई अर्थ नहीं उपलब्ध होते है तो जिनवचनोंको अप्रमाण नहीं कहा जा
सकता। ध. १५/३१७/४ सयलसुद विसयावगमें पयडिजीवमेवेण णाणाभेदभिण्णे असंते एवं ण होदि त्ति वोत्तमसक्कियत्तादो। तम्हा मुत्ताणुसारिणा सुत्ताविरुद्धवक्वाण मवल बेयव्वं । समस्त श्रुतविषयक ज्ञान होनेपर तथा प्रकृति एवं जोबके भेदसे नाना रूप भेदके न होनेपर यह नहीं हो सकता 'ऐसा कहना शक्य नही है। इस कारण सुत्रका अनुसरण करनेवाले प्राणीको सुत्रमे अविरुद्ध व्याख्यानका अवलम्बन करना
चाहिए। प.वि १/१२५ य' कल्पयेव किमपि सर्वविदोऽपि वाचि सदिह्य तत्त्वमसमञ्जसमात्मबुद्धया। खे पत्रि विचरतां सदृशेक्षिताना संख्या प्रति प्रविदधाति स वादमन्धः ॥१२५॥ -जो सर्वज्ञके भी वचनोंमें संदिग्ध होकर अपनी बुद्धिसे तत्त्वके विषयमें भी कुछ कल्पना करता है, वह अज्ञानी पुरुष निर्मल नेत्रोंवाले व्यक्तिके द्वारा देखे गये आकाशमें विचरते हुए पक्षियों की संख्याके विषयमें विवाद करनेवाले अन्धेके समान आचरण करता है ॥१२॥ (प वि.१३/३४) ५. आगममें भूल सुधार व्याकरण व सूक्ष्म विषयों में
करनेको कहा है प्रयोजनभूत तत्त्वोंमें नहीं नि. सा./मू. १८७ णियभावणाणिमित्त मए कई णियमसारणाम् सुदं ।
णच्चा जिणोवदेसं पुवावरदोष विम्मुक्कं ॥१८७॥ - पूर्वापर दोष रहित जिनोपदेशको जानकर मैने निम भावनाके निमित्तसे नियमसार नामका शास्त्र किया है। नि.स /गा १८७/क ३१० अस्मिन् लक्षणशास्त्रस्य विरुद्ध पदमस्ति चेत् ।
लुप्त्वा तत्कवयो भद्रा कुर्वन्तु पदमुत्तमम् ॥३१०॥ - इसमें यदि कोई पद लक्षण शाखसे विरुद्ध हो तो भद्र कवि उसका लोप करके उत्तम
पद करना। ध.३/१,२,५/३८/२ अहदियस्थ विसर छदुवेस्थवियप्पिदजुत्तीर्ण णिण्णयहेयत्ताणुववत्तीदो। तम्हा उवएसं लधुण बिसेसणिण्णयो एस्थ कायब्वो ति। - अतीन्द्रिय पदार्थोंके विषयमें छमस्थ जीवोंके द्वारा कल्पित युक्तियों के विकल्प रहित निर्णयके लिए हेतुता नहीं पायी जाती है। इसलिए उपदेशको प्राप्त करके इस विषयमें निर्णय करना
चाहिए। प.प्र. २/२१४/३१६/२ लिङ्गवचनक्रियाकारकसधिसमासविशेष्यविशेषणवाक्यसमाप्क्ष्यादिकं दूषणमत्र न ग्राह्य विद्वद्भिरिति। -लिंग, वचन, क्रिया, कारक, सन्धि, समास, विशेष्य विशेषणके दोष विद्वजन
ग्रहण न करें। बसु. श्रा. ५४५ जं कि पि एत्थ भणियं अयाणमाणेण पबयणविरुद्धं ।
खमिऊण पवयणधरा सोहित्ता तं पयासतु ॥५४॥-अजानकार होने से जो कुछ भी इसमें प्रवचन विरुद्ध कहा गया हो, सो प्रवचनके धारक(जानकार) आचार्य मुझे क्षमा करें और शोधकर प्रकाशितकरें।
६. पौरुषेय होनेके कारण अप्रमाण नहीं कहा जा सकता रा, वा. १/२०७/७१/३२ ततश्च पुरुषकृतिवादप्रामाण्य स्यात् । ...न चापुरुषकृतित्वं प्रामाण्यकारणमः चौर्याद्वयुपदेशस्यास्मर्यमाणकर्तृकस्य प्रामाण्यप्रसङ्गात्।अनित्यस्य च प्रत्यक्षादे' प्रामाण्ये को विरोधः। -प्रश्न-पुरुषकृत होने के कारण श्रुत अप्रमाण होगा।उत्तर-अपौरुषेयता प्रमाणताका कारण नहीं है। अन्यथा चोरी आदिके उपदेश भी प्रमाण हो जायेंगे क्योंकि इनका कोई आदि प्रणेता ज्ञात नहीं है। त्यक्ष आदि प्रमाण अनित्य है पर इससे उनकी प्रमाणतामें कोई कसर नहीं आती है।
७ आगम कथंचित् अपौरुषेय तथा नित्य है ध १३/५.६,५०/२८६/२ अभूत इति भूतम्, भवतीति भव्यम्, भविष्यतीति भविष्यत, अतीतानागत-वर्तमानकालेष्वस्तीत्यर्थ । एव सत्यागमस्य नित्यत्वम् । सत्येवमागमस्यापौरुषेयत्वं प्रसजतीति चेत-न, वाच्य-वाचकभावेन वर्ण-पद-पक्तिभिश्च प्रवाहरूपेण चापौरुषेयत्वाभ्युपगमात। - आगम अतीत काल में था इसलिए उसकी भूत सज्ञा है, वर्तमान काल में है इसलिए उसकी भव्य संज्ञा है और भविष्यव कालमें रहेगा इसलिए उसको भविष्य संज्ञा है और आगम अतीत. अनागत और वर्तमान काल में है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार वह आगम नित्य है। - प्रश्न-ऐसा होनेपर आगमको अपौरुषेयताका प्रसंग आता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि वाच्य वाचक भावसे तथा वर्ण, पद व पंक्तियोके द्वारा प्रवाह रूपसे आनेके कारण
आगमको अपौरुषेय स्वीकार किया गया है। पं. ध /पृ ७३६ वेदा' प्रमाणमत्र तु हेतु केवलमपौरुषेयत्वम् । आगम गोचरतया हेतोरन्याश्रितादहेतुरत्वम् ॥७३६॥ - वेद प्रमाण है यहाँपर केवल अपौरुषेयपना हेतु है, किन्तु अपौरुषेय रूप हेतुको आगम गोचर होनेसे अन्याश्रित है इसलिए वह समीचीन हेतु नहीं है।
८. आगमको प्रमाण माननेका प्रयोजन आप्त मी.२/पृ.६ प्रयोजन विशेष होय तहाँ प्रमाण संप्लव इष्ट है । पहले प्रमाण सिद्ध प्रामाण्य आगम तै सिद्ध भया तौऊ तथा हेतु प्रत्यक्ष देखि अनुमान ते सिद्ध करै पोछे ताकू प्रत्यक्ष जाणें तहाँ प्रयोजन विशेष होय है ऐसे प्रमाण सप्लव होय है। केवल आगम ही तें तथा आगमाश्रित हेतुजनित अनुमान त प्रमाण कहि काहे के प्रमाण संप्लव कहना। ७. सूत्र निर्देश
१.सूत्रका अर्थ द्रव्य व भाव श्रुत
१ द्रव्य श्रुत प्र.सा./त.प्र. ३४ श्रुत हि, तावत्सूत्र। तच्च भगवदर्हत्सर्वज्ञोपज्ञ' स्यास्कारकेतनं पौहगलिक शब्दब्रह्म । -श्रुत ही सूत्र है, और वह सूत्र भगवान् अर्हन्त सर्व ज्ञके द्वारा स्वयं जानकर उपदिष्ट, स्यारकारचिह्नयुक्त पौद्गलिक शब्द ब्रह्म है । स.म ८/७४/६ सूत्र'तु सुचनाकारि ग्रन्थे तन्तुव्यवस्थयोः। सूत्र शब्द ग्रन्थ, तन्तु और व्यवस्था इन तीन अर्थों को सूचित करता है।
२. भाव श्रुत स.सा./ता वृ. १५/४० सूत्र' परिच्छित्तिरूपं भावभूत ज्ञानसमय इति ।-परिच्छिति रूप भावश्रुत ज्ञान समयको सूत्र कहते हैं ।
२. सूत्रका अर्थ श्रुतकेवली ध १४/५,६,१२/८/4 सुत्तं सुदकेवली । -सूत्रका अर्थ श्रुतकेवली है।
३. सूत्रका अर्थ अल्पाक्षर व महानार्थक ध १/४.१,१४/११७/२५६ अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारबद गूढनिर्णयम् । निर्दोषहेतुमत्तथ्य सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥११७|| -जो थोडे अक्षरों से स युक्त हो, सन्देहसे रहित हो. परमार्थ सहित हो, गूढ पदार्थीका निर्णय करनेवाला हो, निर्दोष हो, युक्तियुक्त हो और यथार्थ हो, उसे पण्डित जन सूत्र कहते है ॥११७॥ (क.पा. १/१,१५/६८/१५४) (आवश्यक नियुक्ति सू.८८६) क.पा. १/१.१५/७३/१५१ अर्थस्य सूचनात्सभ्यक् सूतेर्वार्थस्य सूरिणा।
सूत्रमुक्तमनपार्थ सूत्रकारेण तत्त्वतः ॥७३॥ -जो भले प्रकार अर्थका सूचन करे, अथवा अर्थको जन्म दे उस बहुअर्थ गर्भित रचनाको सूत्रकार आचार्य ने निश्चयसे सूत्र कहा है। (वृ कल्पभाष्य गा. ३१४), (पाराशरोपपुराण अ. १८), (मध्व भाष्य १/११), (मुग्धबोध व्याकरण
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आगमन
टीका), (न्यायकि सापटी, १/१/१२), (प्रमाणमीमांसा २५)
( कल्पभाष्य गा २८५) आवश्यकनिक
८८० अन्य महत्व द्वात्रिंशदोषरहित में च । लक्षणयुक्त सूत्र अष्टेन च गुणेन उपमेयं । अप परिमाण हो, महत्वपूर्ण हो, बतोस दोषो से रहित हो, आठ गुणो से युक्त हो, वह सूत्र है (अनुयोगद्वारा सू १२७) (सहभाग. २०० २८२), (व्यवहारभाष्य १६० )
४. वृत्तिसूत्रका लक्षण
=
कपा २/२/१२/१४/६ सुत्तस्सेव विवरणाए सखित्त सहरयणाए सगहिसुतसे सत्याए वित्तिमुत्तववएसादो। जो सूत्रका ही व्याख्यान करता है, किन्तु जिसकी शब्द रचना संक्षि है, और जिसमें सूत्रके समस्त अर्थको संगृहीत कर लिया गया है, उसे वृत्ति सूत्र कहते हैं । ५. जिसके द्वारा अनेक अर्थ सूचित न हों वह सूत्र नहीं असूत्र है
.पा १/९.१५/१९३३/१६/दिग
अवरा असुत्त गाहा ।
जिसके द्वारा अनेक अर्थ सूचित हो वह सूत्र गाथा है, और जिससे विपरीत अर्थ अर्थात जिसके द्वारा अनेक अर्थ सूचित न हो वह सूत्र गाथा है ।
६ सूत्र वही है जो गणधरादिके द्वारा कथित हो भा.३४ सुतं गणधरनधि सहेन पययुद्धकहिय च सुदा कहिये अभिनदसविधि च ॥ गणधर रक्षित आागमको सूत्र कहते है। प्रत्येक बुद्ध ऋषि के द्वारा कहे गये आगमको भी सूत्र कहते हैं, श्रुतकेबली और अभिन्नदशपूर्व धारक आचार्योंके रचे हुए बागम ग्रन्थको भी सूत्र कहते है ( . २७७), (४. १३/५०० १२०/३४/२८९), (क.पा. १/६०/१५३) ७. सूत्र तो जिनदेव कथित हो है परन्तु गणधर कथित भी सूत्र के समान है
क पा. १/१९.१५/३१२०/१९५४ ९द सर्व्वं पि सुत्तलक्खण जिणवयगकमलविपदा चैव संभव गर
तत्थ महापरिमाणसुवल भादो णः सच (त) सारिरिस प्रश्न - यह सम्पूर्ण सूत्र लक्षण तो जिनदेव के मुख कमलसे निकले हुए 'अर्थ पदोंमें सम्भव है, गणधर के मुखकमलसे निकली ग्रन्थ रचनामैं नहीं, क्योंकि उनमें महापरिमाण पाया जाता है ' उत्तर-नहीं, क्योंकि गणधर के वचन भी सूत्रके समान होते है । इसलिए उनकी रचनानें भी सुपर के प्रति कोई विरोध नहीं है।
८. प्रत्येक बुद्ध कथितमें भी कथंचित् सूत्रत्व पाया जाता है
क.पा १/१५/३११६/१५३/६ दाओ गाहाओ सुतं गणहर पत्तेय- बुद्धकेवल अभिदस पुगी गुणहर भडारस्स अभावाद न दिस पनवर उताणेहि सुतेण सरिसत्तमनस्थिति गुणहराहरियगाहाणं मित्तल भादो । प्रश्न- यह ( कषाय पाहुडकी १८०) गाथाएँ सूत्र नहीं हो सकती, क्योंकि इनके कर्ता) गुणधर भट्टारक न गर हैं, न प्रत्येक बुद्ध हैं, न श्रुतकेवली है, और न अभिन्नदश पूर्वी ही है। उत्तर-नहीं, खोकि निर्दोषत्व अल्पाक्षरत्य और सहेतुकत्व रूप प्रमाणों के द्वारा गुणधर भट्टारकी गाथाओं की सूत्र संज्ञाके साथ समानता है।
·
आगमन जीवोंके आगमन निर्गमन सम्बन्धी धोरा दे, जन्म ६ आगम नयदे, नय 1 | १ |
आगम पद्धति ि आगम वाषिताि आगमाभास दे आगम 1/2 1
आगाल स. सा / मी. प्र. ८८ / १२३/६ द्वितीय स्थितिद्रव्यस्यवशात्प्रथम स्थितावागमनमागाल । द्वितीय स्थितिके निषेकनिकौ अपकर्षण करि प्रथम स्थितिके निषेकनि विषै प्राप्त करना ताका नाम आगाल है ।
२. प्रत्यागालका लक्षण
.सा./१२/१ प्रथमस्य तिव्यस्योत्कर्षमशाह द्वितीयस्थिती गमनं प्रयागास इत्युच्यते प्रथम स्थिति निषेकनिके द्रव्य की उत्कर्षण करि द्वितीय स्थितिके निषैकनि विषै प्राप्त करना ताका नाम प्रत्यागाल है ।
आचाम्ल वर्द्धन
जैन सन्देश १३,१५५ में श्री रत्नचन्द मुख्तयार । नोट - अन्तरकरण हो जानेके पश्चात् पुरातन मिथ्यात्व कर्म तो प्रथम व द्वितीय स्थिति में विभाजित हो जाता है. परन्तु नया बन्धा कर्म द्वितीय स्थिति में पड़ता है । उसमें से कुछ द्रव्य अपकर्षण द्वारा प्रथम स्थितिके निषेकको प्राप्त होता है उसको आगाल कहते है । फिर इस प्रथम स्थितिको प्राप्त हुए द्रव्यों में से कुछ द्रव्य उत्कर्षण द्वारा पुनः द्वितीय स्थितिके निषेकों को प्राप्त होता है उसको प्रत्यागाल कहते हैं ।
आग्नेय- "पूर्व दक्षिणवाली विदिशा । आग्नेयीधारणा
अग्नि
आज्ञा स.म २९/२३/० आ सामस्त्येनानन्तधर्मविशिष्टता हाय
बुद्धयन्ते जीवाजीवादय पदार्थाः यया सा आज्ञा आगम शासनम् । समस्त अनन्त धर्मोसे विशिष्ट जीव अजीवादिक पदार्थ जिसके द्वारा जाने जाते है वह आप्तकी आज्ञा आगम या जिनशासन कहलाती है।
१
आज्ञापिनी भाषा - दे. भाषा । आज्ञाविचयधर्मध्यानधर्मान । आज्ञाव्यापादिकी क्रिया - दे. क्रिया ३/२। आज्ञासम्यक्दर्शन- सम्यदर्शन/ दे. |
आचरित
एक दोष वसति
आचाम्ल आ / २६१/४०३ मदसमदुबालासेहिं भरोहि अदिविकट्ठेहिं । मिदलहूगं आहारं करेदि आयंबिलं बहुसो ॥२५९॥ दो दिनका उपवास, तीन दिनका उपवास, चार दिनका उपवास, पाँच दिनका उपवास, ऐसे उत्कृष्ट उपवास होनेके अनन्तर मित और हलका ऐसा (आचाम्ल) काँजी भोजन ही क्षपक बहुश करता है। वसु श्रा, २५ की टिप्पणीमें अभिधान राजेन्द्रकोश "आयबिलं - अम्लं चतुर्थी रसः स एव प्रायेण यने यत्र भोजने ओदन-मापप्रभूति तदाचाम्ल आलिमपि तवि मिमि मदहि तिनि ज ॥१०२॥ सिंसंठि मिरीमेही सोवश्चल च विउलवणे हिगुसुगंधिसु पाए पकप्पए साइयं वत्थु ॥१०३॥
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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साध / टी, ५/३५ काँजी सहित केवल भातके आहारको आचाम्लाहार कहते है।
* आचान्साहारकी महत्ता दे, सीखना ४/१२ । आचाम्ल वर्द्धन दे. सौवीर भुक्ति व्रत ।
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आचार
आचार
१ आचार सामान्यके भेद व लक्षण
सा.घ ७/३५ /- वीर्याच्छुद्धेषु तेषु तु ॥ ३५॥ - अपनी शक्तिके अनुसार निर्मल किये गये सम्यग्दर्शनादिमे को घरन किया जाता है उसे आचार कहते है । सू. आ. ११३
गाणचरिते वे विरियाचरचिन बो अदिचारेऽह कारिये अणुमोदिदेव कहो ॥१३६॥ सम्यग्दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारिताचार तपाचार और वीर्याचार-- इस तरह पाँच आचारों कृतकारित अनुमोदन होनेवाले अतिचारोंको मै कहता । (न.च, ३३६), प्र. सा./त.प्र. २०२) (नि.सा /ता.वृ. ७३) २. दर्शनाचारके भेद व लक्षण
सू. आ] २००-२०१ दसम्बरणविद्धी अटुवा जिनमरेहिं गिट्टि २०० मि किट विकलिद विमिदगिन्छा अव उवग्रहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ ॥ २०९॥ - दर्शनाचारकी निर्मलता जिनेन्द्र भगवादने आ प्रकारकी कही है। निशकिस निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्व के गुण जानना ॥ २०९॥ असा २०२/२५० अनि कानिचि निरस्यनिटियो' हणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावना
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नाचार अहो नि शकिल निकल, निर्विचिकित्सा, निर्मुल उप' हण, स्थितिकरण वारम्य और प्रभावस्वरूप दर्शनाचार है ( प्र /टो ०/१३) प.प./टी./२३/३ चिदानन्द कस्यभावं शुद्धात्मतत्वं तदेव सर्वप्रकारो पोयतं तस्माच्च यदन्यत्तद्धेयमिति मलिनायगार हितान निश्चयमद्यामबुद्धि सम्यक्त्वं तत्राचरणं परिणमनं दर्शनाचार | =जो चिदानन्दरूप शुद्धात्म तत्त्व है वही सब प्रकार आराधने योग्य है, उससे भिन्न जो पर वस्तु है वह सब व्याज्य हैं। ऐसो दृढ प्रतीति चंचलता रहित निर्मल अरगाढ परम श्रद्धा है, उसको सम्यक्त्व कहते हैं, उसका जो आचरण अर्थात् उस स्वरूप परिणमन वह दर्शनाचार कहा जाता है।
द्र. सं / टी ५२/२१८ परमचैतन्यविलासलक्षण स्वशुद्वामेोपादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं तत्राचरण परिणमनं निश्चयदर्शनाचारए । - समस्त पर पीसे भिन्न और परम चैतन्यावाणबाती, यह निज शुजारा ही उपादेय है, ऐसी रूचि रूप मम्यग्दर्शन है, उस सम्यग्दर्शन में जो आचरण अर्थात् परिणमन सो निश्चय दर्शनाचार है।
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३ ज्ञानाचारके भेद व लक्षण
आ. २६६ काले बिणए उपहाणे बहुमाणे हे विष्वणे जण अन्य तदुभय णाणाचारो दु अट्ठविहो ॥ २६६॥ - स्वाध्यायका काल, मन वच कासे शास्त्रका विनय यत्नसे करना, पूजा-सत्कारादिसे पाठ करना, अपने पढानेवाले गुरुका तथा पढे हुए शास्त्रका नाम प्रगट करना छिपाना नही, वर्ण पद वाक्यको शुद्धिसे पढना, अनेकान्तस्वरूप अर्थ को शुद्धि अर्थ सहित पाठादिकको सुद्धि होना इस तरह ज्ञानाचार आठ भेद है । प्र.सा./त
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२०२ / २४१ कालमियोपधानमहुमानानिहवार्थ व्यञ्जनभयसनत्वलक्षणज्ञानाचार | काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनि, अर्थ, व्यजन और तदुभय सम्पन्न ज्ञानाचार है । पत्र ७/१२ उत्रे सावविपर्यासानभ्यवसायरहितत्वेन स्वसवेदनज्ञानरूपेण ग्राहकबुद्धि सम्यग्ज्ञान तत्राचरणं परिणमनं ज्ञानाचार' । - और उसी निज स्वरूप में, सराय - त्रिमोह विभ्रम रहित जो स्वसवेदनज्ञानरूपग्राहक बुद्धि वह सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका जो आचरण अर्थात उस रूप परिणमन वह (निश्चय) ज्ञानाचार है।
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इस / टी २२/२९८ तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्य पृथकपरिच्छेदनं, सम्यग्ज्ञानं. तत्राचरण परिणमन निश्चयज्ञानाचार | उसी शुद्धात्माको उपाधि रहित स्वमवेदन रूप ज्ञानद्वारा मिध्यात्व रागादि परभावोंसे भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान हैं, उस सम्यग्ज्ञानमें आचरण अर्थात परिणमन वह निश्चयज्ञानाचार है ।
४ चारित्राचारके भेद व लक्षण
. आ २८८ २३० पाणिहमुसावाद अदसमे अपरिग्गहानिरदी। एस परित्ताचा पंचविहो होदि कालो ॥२८८३ परिधाजोगी पंचसु समिदीसु ती गुत्तीसु । एस चरित्ताचारो अट्ठविधो होइ गायत्रो ॥ २६७॥ प्राणियोकी हिंसा, झूठ बोलना, चोरी, मैथुन, सेवा, परिग्रह - इनका त्याग करना वह अहिसा आदि पाँच प्रकारका चारित्राचार जानना ॥२८८॥ परिणामके संयोगसे, पाँच समिति तीन गुप्तियो में अकषाय रूप प्रवृत्ति आठ भेदवाला चारित्राचार है। प्र सात प्र२०२/२५० मोक्षमार्गप्रवृत्ति महाकाय वामनोगती भाषेषणादान निक्षेपणप्रतिष्ठापणसमितिलक्षणचारित्राचार. । -मो मार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत पंचमहाव्रत सहित कायवचन गुप्ति और ईर्ष्या, भाषा, ऐषणा आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति स्वरूप चारित्राचार है ।
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आचार
पटी ७/१२ सय शुभाशुभसङ्कल्पविकल्पसहितत्वेन नित्यानन्दमयसुखरसास्वाद स्थिरानुभव च सम्यम्चारित्र तत्राचरणं परिणमनं चारित्राचार | = उसी शुद्ध स्वरूपमें शुभ अशुभ समस्त सङ्कल्प रहित जो नित्यानन्दमे निजरसका स्वाद, अनिश्चय अनुभव, वह सम्यग्चारित्र है । उसका जो आचरण, उस रूप परिणमन वह चारित्राचार है।
द्र. सं टी. ५२ / २१८ तत्रैव रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वाभाविक सुखास्वादेन निश्चलचित वीतरागचारित्र' तत्राचरणं परिणमन निश्चयचारित्राचार । उसी शुद्ध आत्मामे रागादि विकल्प रूप उपाधिसे रहित स्वाभाविक वास्वादसे निश्चल पित होगा, वीतराग चारित्र है. उसमें आचरण अर्थात परिणमन निश्चय चारित्राचार है।
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५. तपाचारके भेद व लक्षण
पू. आ ३४५,३४६,३६० दुविहो य तवाचारो बाहिर अब्भंतरो मुणेयव्वो । erent for छद्धा जधाकम त परूवेमो ॥ ३४५॥ अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वृत्तिपरिसखा । कायस्स च परितावो विवित्तसयणास छ ॥ ३४६ ॥ पायच्छित्तं विणय वेज्जावच तहेब सज्झायं । झाणं च विउस्सगो अब्भन्तरओ तवो ऐसो || ३६०|| - तपाचार के दो भेद है - बाह्य, अभ्यन्तर । उनमें से भी एक-एक के छह छह भेद जानना । उनको मै क्रमसे कहता हूँ || ३४५ || अनशन, अनमौदर्य, रमपरित्याग, वृद्धि-परिसख्यान, काय-शोषण और छट्ठा विविक्तशय्यासन इस तरह बाह्य तपके छ. भेद है ।। ३४६ ।। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग- ये छ. भेद अन्तरङ्ग तपके है ।
प्र सात / प्र२०२ / २५० अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तयासनकायले प्रायश्चिमियायस्वाध्याययुत्सर्ग लक्षणतपाचारः । अनशन, अवभौदर्य, वृत्तिपरिस ख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय ध्यान और व्युत्सर्ग स्वरूप तपाचार है । पट ७/१२ परद्रव्येच्या विरोधेन सहजानन्देकरूपेण प्रतपन तपश्चरणं तत्राचरण परिणमनं तपश्चरणाचार |... अनशनादिद्वादशभेदरूपो बाह्यतपश्चरणाचार. । उसी परमानन्द स्वरूपमें परद्रव्यकी इच्छाका निरोधकर सहज आनन्द रूप तपश्चरणस्वरूप परिणमन तपश्चरणाचार है। अनशनादि बाह्यतप रूप बाह्य तपाचार है ।
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आचारवत्त्व
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इ. टी. २२/२१६ समस्त परद्रव्येानिरोधेन तथैवानशन आदि द्वादशतपश्चरण बहिर सहकारिकारणेन च स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्चरणं तत्राचरणं, परिणमनं निश्चयतपश्चरणाचार. । = समस्त परद्रव्यकी इच्छाके रोकनेसे तथा अनशन आदि बारह तप रूप बहिरङ्ग सहकारि कारणसे जो निज स्वरूपमें प्रतपन अर्थात् विजयन, वह निश्चय तपश्चरण है। उनमें जो आचरण अर्थात परिमन निश्चयतपश्चरणाचार है । ६. वीर्याचारका लक्षण
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मू आ. ४९३ अभिहितवरियो परकामादि जो जगतमा उन्तो सुजदि य जहाधान बिरियाचारो ति गारो ४१ नहीं छिपाया है आहार आदिसे उत्पन्न बल तथा शक्ति जिसने ऐसा साधु यथोक्त चारित्रमें तीन प्रकार अनुमति रहित १७ प्रकार संयम विधान करनेके लिए आत्माको युक्त करता है वह बीर्याचार जानना ॥ ४१३॥ प्र.सा./२०२ / २५९ समस्तेत चारपवर्तकस्वशक्त्या निग्रहलक्षण वीर्याचार | समस्त इतर आचार में प्रवृत्ति करनेवाली स्वशक्ति अगोपन स्वरूप वीर्याचार है।
प्र. / टी, ७/१४ तत्रेव शुद्धात्मस्वरूपे स्वशक्त्यानवगूहनेनाचरणं परिणमनं वीर्याचार । ..बाह्यस्वशक्तय नवगूहनरूपो बाह्यवीर्याचार. |= उसी शुद्धात्म स्वरूपमें अपनी शक्तिको प्रकटकर आचरण परिणमन करना वह निश्चय वीर्याचार है। अपनी शक्ति प्रकटकर मुनिवतका आचरण यह व्यवहार वीर्याचार है।
.स / टी ५२/२११ तस्यैव निश्चयचतुर्विधाचारस्य रक्षणार्थं स्वशतपानवगूहन • निश्चयवीर्याचार । इन चार प्रकारके निश्चय आचारकी रक्षा के लिए अपनी शक्तिका नहीं छिपाना, निश्चयवीर्याचार है ।
* निश्रय पञ्चाचारके अपर नाम मोक्षमार्ग २/५ । _दे * दर्शनादि आचार व विनयमे अन्तरदे, विनय २ आचारवत्त्वानि ४१६ / ६०८ आधार पनि
प्रकार आचारं । चरदि विनातिचार चरति । पर वा निरतिचारे पंचविधे आधारे प्रवर्तयति । उवदिसदिय आयार उपदिशति च आचार । एसो णाम एष आचारवान्नाम ।
भ. आ / ४२० सहिद या वेज जो दो समायरियो | आयारव खु एसो पत्रयणमादासु आउत्तो ॥ ४२० ॥ जो मुनि पाँच प्रकारका आचार अतिचार रहित स्वयं पालता है, और इन पाँच आचारोंमें दूसरोको भी प्रवृत्त करता है, जो आचारका शिष्योको भी उपदेश करता है, वह आवारवत्त्व गुणका धारक समझना चाहिए । जो दस प्रकार के स्थिति कल्पमें स्थिर है वह आचार्य आचारवन्व गुणका धारक समझना चाहिए। यह आचार्य तीन गुप्ति और समितियोंका जिनको प्रवचनमाता कहते है धारक होता है।
आचार वर्द्धनव्रत- - व्रत विधानसंग्रह / पृ. १०७ ।
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गणना - कुलसमय - ११६ दिन उपवास - १००; पारणा १६ । सुदृष्टितर गिणी / यन्त्र - १,२,३,४,५,६,७,८,६,१०ः ६,८,७,६५,४,३,२.१३ विधि-निभंग रूपेण एक उपवास एक पारणा, फिर दो उपवास एक पारगा, इस प्रकार ऊपर दर्शाये रूपसे बढाता हुआ १० उपवास एक पारणा, फिर घटाता हुआ अन्तमें एक उपवास एक पारणा करे । उपरोक्त अंक सर्व अकोसे तो उसने उतने उपवास जानना और बीचके (,) ऐसे स्थानों में सर्वत्र एक-एक पारणा जानना । आचारसार—आ वीरनन्दि ( ई श १२मध्य) कृत यत्याचार विषयक ग्रन्थ (ती. ३/२७१) ।
आचारांग अपना एक भेदे तहान III आचार्य - साधुओं को दीक्षा शिक्षा दायक, उनके दोष निवारक, तथा
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आचार्य
अन्य अनेक गुण विशिष्ट, सघ नायक साधुको आचार्य कहते हैं । वीतराग होनेके कारण पंचपरमेष्ठी में उनका स्थान है। इनके अतिरिक्त गृहस्थियोंको धर्म-कर्मका विधि-विधान कराने वाला गृहस्थाचार्य है। पुजा-प्रतिष्ठा बादि करानेवाला प्रतिष्ठाचार्य है । लेखनागत क्षपक साकी पर्या करानेवाला निर्यायकाचार्य है। इनमें से साधुरूपधारी आचार्य ही पूज्य है अन्य नहीं ।
१. साधु आचार्य निर्देश
१. आचार्य सामान्यका लक्षण
भ.आ./मू. ४१६ आयारं पञ्चविह चरदि चरावेदि जो णिरदिचारं । उवदिसदिय आयारं एसो आयारव णाम । =जो मुनि पाँच प्रकार के आचार निरतिचार स्वयं पालता है, और इन पाँच आचारो में दूसरो को भी प्रवृत्त करता है, तथा आचारका शिष्योको भी उपदेश देता है उसे आचार्य कहते है (चासा १५०१४) । मूआ ५०६,५१० सदा आयारविद्दण्हू सदा आयरियं चरे । आयारमायारचतो आयरिओ तेण उच्चदे ॥ ५०१ ॥ जम्हा पञ्चविहाचार आचरं तो पभासदि। आयरियाणि देसतो आयरिओ तेण उच्चदे ॥५१०॥ - जो सर्वकाल सम्बन्धी आचारको जाने, आचरण योग्यको आचरण करता हो और अन्य साधुओं को आचरण कराता हो इसलिए वह आचार्य कहा जाता है ॥ ५०६ ॥ जिस कारण पाँच प्रकार के आचरणको पालता हुआ शोभता है, और आप कर किये आचरण दूसरों को भी दिखाता है, उपदेश करता है, इसलिए वह आचार्य कहा जाता है । नि.सा /मू ७३ पचाचारसमग्गा पंचिदियदतिदप्पणिद्दलणा । धीरा गुणगंभीरा आयरिया एरिसा हो तपाचासे परिपूर्ण पंचेन्द्रिय रूपी हाथी के मदका दलन करनेवाले, धीर और गुणगम्भीर, ऐसे आचार्य होते है ।
स.सि. १/२४/४४२ आचरन्ति तस्माद मानित्यापायी जिसके निमित्तसे व्रतोका आचरण करते है वह आचार्य कहलाता है। (रा. वा ६/२४/३/६२३/११)। १९११/२६-३१/४६ बासो । मेरु
यजत हि जलोर हायामल-बुद्धिfroreपो सूरो पचाणणो वण्णो ॥२१॥ देसकुलजाइ
दो सोमो सग संग उम्मुखो गयण व्य मिरवलेनो आयरियो एरिसो होई ॥३०॥ सगह - णिग्गह- कुसलो सुत्तस्य विसारओ पहियकित्ती सारण-वारण साहण किरिज्युतो हु आयरि ॥११॥
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घ. १/१.१.१/४६ / ६ पञ्चविधमाचारं चरन्ति चारयतीत्याचार्या. । चतुर्दशविद्यास्थानपारगा. एकादशाङ्गधरा । आचाराङ्गधरो वा तात्कालिकस्व समयपरसमयपारगो वा मेरुरिव निश्चल' क्षितिरिव सहिष्णु सागर व महिमिल भयभिप्रमुक्ता आचार्य प्रद चनरूपी समुद्र के असके मध्य में स्नान करने से अर्थात् परमात्मा परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मत हो गयी है, जो निर्दोष रीतिसे छह आवश्यकोका पालन करते है, जो मेरुके समान निष्कम्प है, जो शूरवीर है, जो सिहके समान निर्भीक है, जो गर्म अर्थात् श्रेष्ठ है, देश कुछ और जाति शुद्ध है, सौम्य मूर्ति है, अन्तरक और महिद परिवहसे रहित है, आकाशके समान निर्लेप है । ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते है । (२६३०) जो सघके संग्रह अर्थात् दीक्षा और निग्रह अर्थात् शिक्षा या प्रायश्चित्त देनेमें कुशल हैं, जो सूत्र अर्थात् परमागम के अर्थ में विशारद हैं, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण अर्थात् आचरण, वारण अर्थात् निषेध और साधन अर्थात् व्रतोकी रक्षा करनेवाली क्रियाओ में निरन्तर उद्यत है, उन्हें आचार्य परमेष्ठी समझना चाहिए। (मू आ १५८) जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारोका स्वयं पालन करते है, और दूसरे साधुओंसे पालन कराते है उन्हे आचार्य कहते है। जो चौदह विद्या
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आचार्य
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३. अन्य आचार्य निर्देश
स्थानोके पारङ्गत हों, ग्यारह अङ्गोंके धरी हों, अथवा आचारसंगमात्रके धारी हो, अथवा तत्कालीन स्वसमय और परसमयमें पारङ्गत हो, मेरुके समान निश्चल हो पृथ्वी के समान सहनशील हो, जिन्होने समुद्र के समान मल अर्थात दोषोको बाहिर फेक दिया हो, जो सात
प्रकारके भयसे रहित हो, उन्हे आचार्य कहते है। भ आ वि ४६/१५४/१२ पञ्चस्वाच रेषु ये बर्तन्ते पगश्च वर्तयन्ति ते
आचार्या । पाच आचारोमे जो मुनि स्वयं उद्यक्त होते है तथा दूसरे साधुओको उद्युक्त करते है. वे सामु आचार्य कहलाते है । (द्र. स /मू ५२), (पप्र/टो ७/१३), (द.पा/टो पं जयचन्द २/पृ. १३), (क्रि क.१/१) पध /उ ६५५-६४६ आचार्योऽनादितो रूढे गादपि निरुच्यते । पञ्चा
चार परेभ्य स आचारयति सयमी ६४५॥ अपि छिन्ने बते साधी पुन सन्धानमिच्छत । तत्समादेशदानेन प्रायश्चित्तं प्रयच्छति ॥६४६॥ = अनादि रूढिमे और यागमे भो निरुक्तचथसे भी आचार्य शब्दको व्युत्पत्तिकी जाती है कि जो सयमी अन्य संयमियोंसे पाँच प्रकारके आचरो का आचरण कराता है वह आचार्य कहलाता है ॥६४५॥ अथवा जो बन के खण्डित होनेपर फिरमे प्रायश्चित्त लेकर उस बतमे स्थिर होने की इच्छा करनेवाले स धुको अखण्डित व्रतके समान व्रतो के आदेश दान के द्वारा प्रायश्चित्तको देता है वह आचार्य कहलाता है।
२. आचार्यके ३६ गुणोंका निर्देश भ आ मू ४१७-४१८ आयारवं च आधारवं च बबहारव पकुठवीय ।
आयावायवीद सी तहेब उप्पीलगो चेव ॥४१७॥ अपरिस्साई णिव्वाबओ य णिज्जाव ओ पहिद कत्ति । णिज्जत्रण गुण वेदो एरिसओ होदि आयरिओ ॥४१८॥ - आचार्य आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारबान्, कर्ता, अयापायदर्शनोद्योत, और उत्पीलक होता है ॥४१७॥ आचार्य अपरिखावी, निर्वापक, प्रसिद्ध, कीर्तिमान और निर्यापकके गुणोसे परिपूर्ण होते है । इतने गुण आचार्यमे होते है।। बो.पा/टी में उद्धृत १/७२ आचारवान् श्रुताधार, प्रायश्चित्तासनादिद' आयापायकथी दोषाभाषकोऽश्रावकाऽपि च ॥१॥ सन्तोषकारी साधूनां निर्यापक इमेऽष्ट च। दिगम्बरोऽप्यनुद्दिष्टभ जी शारयाशनी'त च ॥२॥ आरागभुक् क्रियायुक्तो व्रतवान् ज्येष्ठसद्गुण । प्रतिक्रमी च षण्मासयोगी च तद द्विनिषद्यक. ॥३॥ द्विषट्तपास्तथा षट्चावश्यकानि गुणा गुरो ।-आचारवान्, श्रुताधार, प्रायश्चित्त, आसनादिद आयापायकथो, दोषभाषक, अश्रावक, सन्तोषकारी निर्यापक, ये आठ गुण तथा अनुद्दिष्ट भाजी, शय्याशन और आरोगभुक् , क्रियायुक्त, वतवान्, ज्येष्ठ सद्गुण, प्रतिक्रमी, षण्मासयोगी, दो निषधक, १२ तप तथा ६ आवश्यक यह ३६ गुण आचार्योंके है। अन ध ६/७६ अष्टावाचारवत्त्वाद्यास्तपांसि द्वादशस्थिते । कल्पा दशाऽवश्यकानि षट्षत्रिशद्गुणा गणे ७६॥ = आचार्य गणीगुरुके छत्तीस विशेषगुण है यथा--आचारवत्व, आधारवत्व आदि आठ गुण और छह अन्तरङ्ग तथा छह बहिरङ्ग मिलाकर बारह प्रकारका तप तथा संयमके अन्दर निष्ठाके सौष्ठव उत्तमताकी विशिष्टताको प्रगट करनेवाले आचेलक्य आदि दश प्रकारके गुण-जिनको कि स्थितिकल्प कहते है और सामायिकादि पूर्वोक्त छह प्रकार के
आवश्यक । र क श्रा५पं. सदासुख कृत षोडशकारण भावनामे आचार्य भक्ति
="१२ तप, आवश्यक, ५ आचार, १०धर्म, ३ गुप्ति। इस प्रकार ये ३६ गुण आचार्य के है।" ३. आचार्योंके भेद (गृहस्थाचार्य, प्रतिष्ठाचार्य, बालाचार्य, निर्यापकाचार्य, एसाचार्य. इतने प्रकार के आचार्यों का क्थन आगममें पाया जाता है।)
४. अन्य सम्बन्धित विषय * आचार्यके ३६ गुणोके लक्षण -दे. वह वह नाम । * आचार्योका सामान्य आचरणादि -दे साधु । * आचार्य आगममे कोई बात अपनी तरफसे नही कहते
-दे. आगम ५/६ । * आचार्यमे कथचित् देवत्व
-दे देव 1/१। * आचार्य भक्ति * आचार्य उपाध्याय, साधुमे परस्पर भेदाभेद-दे, साधु ६ । * श्रेण। आरोहणके समय स्वत. आचार्य पदका त्याग हो जाता है।
-दे. साधु ६ * सल्लेखनाके समय आचार्य पदका त्याग कर दिया जाता है।
-दे. सल्लेखना ४ * गुरु शिष्य सम्बन्ध ।
-दे. गुरु २ * आचार्य परम्परा।
- दे. इतिहास ४ २. गृहस्थाचार्य निर्देश
५ गृहस्थाचार्यका निर्देश पध/उ ६४८ न निषिद्धस्तदादेशो गृहिणां व्रतधारिणाम् । व्रतो ___ गृहस्थोको भी आचार्यो के समान आदेश करना निषिद्ध नहीं है।
२. गहस्थाचार्यको आचार्यको भॉति दीक्षा दी जाती है पं.ध/3 ६४८ । दोक्षाचार्येण दक्षेव दोयमानास्ति तरिक्रया।
-दक्षाचार्य के द्वारा दो हुई दोक्षाके समान हो गृहस्थाचार्योंकी क्रिया होती है।
३. अवती गृहस्थाचार्य नहीं हो सकता पं.ध /उ ६४६,६५२ न निषिद्धो यथाम्नायादवतिना मनागपि । हिसकश्चो देशाऽपि नोपयाज्योऽत्र कारणात् ॥६४६॥ नून प्रोक्त पदेशोऽपि न रागाय विरागिणाम् । रागिणामेव रागाय ततोऽवश्य निषेधित ॥६५२ = आदेश और उपदेशके विषय में अवती गृहस्थोका जिस प्रकार दूसरे के लिए आम्नाय के अनुसार थोडा-सा भी उपदेश करना निषिद्ध नहीं है, उसी प्रकार किसी भी कारण से दूसरेके लिए हिसाका उपदेश देना उचित नहीं है ।६४६॥ निश्चय करके वीतरागियों. का पूर्वोक्त उपदेश देना भी रागके लिए नही होता है किन्तु सरागियोका ही पूर्वोक्त उपदेश रागके लिए होता है। इसलिए रागियों
का उपदेश देनेके लिए अवश्य निषेध किया है ।६५२॥ ३. अन्य आचार्य निर्देश
१. एलाचार्यका लक्षण भ आ /म १७७/१६५ अनुगुरोः पश्चाद्दिशति विधत्ते चरण क्रममित्यम्दिक एलाचार्यस्तस्म विधिना। -गुरुके पश्चात् जो मुनि चारित्रका क्रम मुनि और आर्यिकादिकों को कहता है उसको अनुदिश अति एलाचार्य कहते है।
२ प्रतिष्ठाचार्यका लक्षण वसु श्रा ३८८,३८६ देस-कुल जाइ सुद्धो णिरुवम-अंगो विशुद्धसम्मत्तो। पढमागिओयकुसनो पइट्टालवस्त्रण विहिविदण्णू ॥३८८॥ सानयगुणोवघेदी उवासयज्झयणसत्थथिरबुद्धी। एवं गुणो पइट्ठाइरिओ जिणसासणे भणिओ ॥३८६॥ म जो देश कुल और जातिसे शुद्ध हो, निरुपम अंगका धारक हो. विशुद्ध सम्यग्दृष्टि हो, प्रथमानुयोगमें कुशल हो, प्रतिष्ठाको लक्षण-विधिका जानकार हो, श्रावकके गुणोसे युक्त हो,
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आचलक्य
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आत्मवाद
उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) शास्त्र में स्थिर बुद्धि हो, इस प्रकारके गुणवाला जिन शासन में प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है।
३. बालाचार्यका लक्षण भ आ./मू २७३-२७४ कालं संभाविता सव्वगणमणु दिसं च बाहरियं । सोमतिहिकरणणवत्तविलग्गे मगलागासे ॥२७३॥ गवाणुपालणस्थ आहोइय अत्तगुणसम भिक्खू । तो तम्मि गणविसग्ग अप्पकहाए कुणदि धोरो ॥३७४॥ - अपनी आयु अभी कितनी रही है इसका विचार कर तदनन्तर अपने शिष्य समुदायको अपने स्थानमें जिसकी स्थापना की है, ऐसे बालाचार्यको बुलाकर सौम्य तिथि, करण, नक्षत्र
और लग्नके समय शुभ प्रदेशमें, अपने गुण के समान जिसके गुण है, ऐसे वे बालाचार्य अपने गच्छका पालन करनेके योग्य है ऐसा विचार कर उसपर अपने गणको विसर्जित करते है अर्थात् अपना पद छोडकर सम्पूर्ण गणको बालाचार्य के लिए छोड़ देते है । अर्थात पालाचार्य ही यहाँसे उस गणका आचार्य समझा जाता है, उस समय पूर्व आचार्य उस बालाचार्यको थोड़ा-सा उपदेश भी देते है । * निर्यापकाचार्यका लक्षण
-दे निर्यापक। *निर्यापकाचार्य कर्तव्य विशेष -दे, सल्लेखना। आचेलक्य-दे.अचेनकत्व । आछेद्य-आहारका एक दोष ।-दे आहार II/४/४ । आजांव- आहारका एक दोष । दे आहार II/४/४ । २ वस्तिका ।
का एक दोष । दे. वसतिका । आजीवक मत-दे 'पूरन कश्यप' व त्रैराशिवाद । आजीविका-साधुको आजीविका करनेका सर्वथा निषेध । दे मत्र। आठ-दे अष्ट। आढक-तोलका प्रमाण विशेष । दे. गणित I/१/२। आतप-स सि५/२४/२६६ आतप आदित्यादिनिमित्त उष्णप्रकाशलक्षण । = जो सूर्य के निमित्तसे उष्मा प्रकाश होता है उसे आतप कहते
है । रा वा ५/२४/१८/२०/४८६) (ध ६/१६-१,२८/६०/४) रा.वा १/२४/१/४८५/१६ असद्दवेद्योदयाद आतपत्यात्मानम, आतप्यतेऽनेन, आतपनमात्र वा आतप । -असाता वेदनीयके उदयसे अपने स्वरूपको जो तपाता है, या जिसके द्वारा तपाया जाता है, या आत
पन मात्रको आतप कहते हैं। त सा.३/७१ आतपनोऽपि प्रकाश' स्यादुष्णश्चादित्यकारण । .. सूर्य
से जो उष्णतायुक्त प्रकाश होता है उसे आतप कहते है। गो.क./म् ३३ मूलुहपहा अग्गो आदावी होदि उण्हसहियपहा । आइच्चे
तेरिच्छे उण्हूणपहा हु उज्जोत्तो॥३६॥ - अग्नि है सो मूल ही उष्ण प्रभा सहित है, तातै वाकै स्पर्शका भेद उष्णताका उदय जानना बहुरि जाको प्रभा हो उष्ण होइ ताकै आतप प्रकृतिका उदय जानना, सौ सूर्यका बिंब विर्षे ऊपजैं ऐसे बादर पर्याप्त पृथ्वीकायके तियंच जोब तिन होकैं आतप प्रकृतिका उदय है। द सं/टो. १६/५३ आतप आदित्यविमाने अन्यत्रापि सूर्यकान्तमणिविशेषादौ पृथ्वीकाये ज्ञातव्यः । = सूर्यके बिम्ब आदिमें तथा सूर्यकांत विशेष मणि आदि पृथ्वीकायमें आतप जानना चाहिए।
२. आतप नामकर्मका लक्षण स.सि ८/११/३६१ यदुदयानिवृत्तमातपन तदातपनाम । = जिसके उदय
से शरीरमें आतपकी प्राप्ति होती है, वह आतप नामकर्म है । (रा.वा ८/११/१५/५७८), (गो.क/जी.प्र.३३/२६/२१), (ध.६/१,६-१,२८/६०/४) (ध.१३/५०५,१०१/३६५/१) ३. आतप तेज व उद्योतमे अन्तर -दे. उदय/४।
आतपन-तीसरे नरकका चौथा पटल-दे नरक ५/११ ॥ आतपन योग-दे, कायक्लेश । आत्म-१ आत्म ग्रहण दर्शन है। -दे दर्शन, २ आत्म रूपकी अपेक्षा वस्तु में भेदाभेद । -दे सप्तभगी/१/८ । आत्मख्याति-आ.अमृतचन्द्र (ई.६०५-६४५) द्वारा सस्कृत भाषामें रचित समयसारको टोका। यह टीका इतनी गम्भीर है कि मानो आ कुन्दकुन्दका हृदय ही हो। इस टीकामें आये हुए कलश रूप श्लोकोका सग्रह स्वय 'परमाध्यात्मतर गिनी' नामके एक स्वतन्त्र ग्रन्थ रूपसे प्रसिद्ध हो गया है। (तो. २/४१५) आत्मद्रव्य-दे. जीव । आत्मप्रवाद द्रव्य श्रुतज्ञानका १३वाँ अग। दे. श्रुतज्ञान/ IIII आत्मभूत कारण-दे. कारण । आत्मभूत लक्षण-दे लक्षण । आत्ममुखहेत्वाभास-दे बाधित/स्ववचम् । आत्मरक्ष देव-स सि ४४/२३६ आत्मरक्षा शिरीरक्षोपमाना' ।
- जो अग रक्षकके समान है वे आत्मरक्ष कहलाते है रा वा ४/४/ ५/२१६), (म प्र.१/२२/२७) ति प. ३/६६ चत्तारि लोयपाला सावण्णा हो ति तंतवालाण' । णु
रक्वाण समाणा सरीररक्वा सुरा सव्वे ॥६६॥ = चार लोक्साल तन्त्रपालो के सहश और सब तनु रक्षक देव राजाके अग रक्षकके समान होते है। रा.वा ४/५/२१३/१आत्मान रक्षन्तीति आत्मरक्षास्ते शिरारक्षोपमा।
आवृतावरणा प्रहरणोद्यता रौद्रा पृष्टतोऽवस्थायिन *जो अरारक्षकके समान है, वे आत्मरक्ष कहलाते है। अगरक्षकके समान कवच
पहिने हुए सशस्त्र पीछे खडे रहनेवाले आत्मरक्ष है।। त्रि.सा २२४ - बहुरि जैसे राजाके अगरक्षक तैसे तनुरक्षक है।
२. कल्पवासी इन्द्रोके आत्मरक्षकोकी देवियोका प्रमाण ति प ८/३१६-३२० पडिइ'दादितियस्स य णियणियइ देहि सरिसदेवीओ
॥३१६॥ तपरिवारा कमसो चउएक्कासहस्सयाणि पचसया । अड्ढाइज्जमयाणि तद्दलते सटिठबत्तीसं ॥३२० प्रतीन्द्रादिक तीनकी देत्रियोकी सख्या अपने-अपने इन्द्र के सदृश होती है ॥३१॥ उनके परिवारका प्रमाण क्रमसे चार हजार, एक हजार, पाँच सौ, अढाई सौ, इसका आधा अर्थात एक सौ पच्चीस, तिरेसठ और बत्तीस है। अर्थात सौधर्मेन्द्र के आत्मरक्षोकी ४०००, ईशानेन्द्र की ४०००, सनत्कुमारेन्द्र की २०००, माहेन्द्रकी १०००, ब्रह्मन्द्र की ५००, लान्तवेन्द्रकी २५०, महाशुकेन्द्र की १२५, सहस्रारेन्द्र की ६३, आनतादि ४ इन्द्रोके आत्मरक्षकोकी देवियों का प्रमाण कुल ३२ है। ३. इन्द्रो व अन्य देवोके परिवारमे आत्मरक्षकोका प्रमाण
-दे, भवनवासी आदि भेद आत्मवाद
१ मिथ्या एकान्तकी अपेक्षा गो.क मू. ८८१/१०६५ एकको चेव महप्पा पुरिसो देवो य सम्बवावी य । सव्वं गणिगूढो विय सचेयणो णिग्गुणो परमो। एक ही महात्मा है। सोई पुरुष है, देव है। सर्व विधै व्यापक है। सर्वागपने निगूढ कहिये अगम्य है। चेतना सहित है। निर्गुण है। परम उत्कृष्ट है। ऐसे एक आत्मा करि सबको मानना सो आत्मवादका अर्थ है। (स. सि.८/१/५ की टिप्पणी) जगरूप सहाय कृत ।
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गुण
९ द्रव्यमें अनन्त गुण हैं
=
घ ६/४.१.२/२७/६ अण तेसु बट्टमाणपज्जारसु तत्थ आवलियाए अस खेज दिमागमेत्तपजाया जहन्तोहिगारोग विसकया जहाभागो । के वि आइरिया जहणदव्वस्सुव रिट्ठिदरूव-रस-गध- फासादिसव्वपज्जाए जाणदि त्ति भणं ति । तण्ण घडदे, तेसिमाण तियादो। ण हि ओहिणामुपस्सं पि अगं तसं खावगमकलम आगमे सहोवदेसाभावादो। उस ( द्रव्य) की अनन्त वर्तमान पर्यांयोमेसे जवन्य अवधिज्ञानके द्वारा विषयीकृत आवलीके असंख्यातवे भागमात्र पर्याये जघन्य भाव है। कितने आचार्य 'जघन्य द्रव्यके ऊपर स्थित रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श आदि रूप सब पर्यायोको उक्त अवधिज्ञान जानता है' ऐसा कहते है। किन्तु वह घटित नही होता, क्योंकि, वे अनन्त है। और उत्कृष्ट भी अवधिज्ञान अनन्त संख्या के जाननेमें समर्थ नहीं है क्योंकि उपदेशका अभाव है। नोटअनन्त गुणोकी ही एक समयमें अनन्त पर्याये होनी संभव है ) । न. च वृ/ ६६ इगवीसं तु सहावा जीवे तह जाण पोग्गले णयदो । इयराणं संभवादो णायन्त्रा णाणवंतेहिं । ६६ । जीव व पुद्गल मे २९ स्वभाव जानने चाहिए और शेष सभव स्वभावोको ज्ञानियो से जानना चाहिए।
-
ल सा./१/३७ - वस्तुनोऽनन्तधर्मस्य प्रमाणव्यञ्जितात्मन । अनन्त धर्म या गुणोके समुदायरूप वस्तुका स्वरूप प्रमाण द्वारा जाना जाता है। का आ / टी / २२४/१५६/११ सर्वद्रव्याणि त्रिष्वपि कालेषु अनन्तानन्ता] सन्ति, अनन्तानन्तपर्यायात्मकानि भवन्ति, अनन्तानन्तसद सन्नित्यानित्याद्यनेकधर्मविशिष्टानि भवन्ति । अत सर्व द्रव्यं जिनेन्द्र अनेकान्तं भणितं । = तीनो ही कालोमे सर्व द्रव्य अनन्तानन्त है, अनन्तानन्त पर्यायात्मक होते है; अनन्तानन्त, सत्, असत् नित्य, अनित्यादि अनेक धर्मो विशिष्ट होते है इसलिए जिनेन्द्र देवाने सर्व द्रव्योको अनेकान्त स्वरूप कहा है।
/ /४६ देशस्वेका शक्तियों काचिद सा न शक्ति स्यात् क्रमतो विमाणा भवन्त्यनन्ताश्च शक्तयो व्यक्ता |४६| = द्रव्यकी एक विक्षित शक्ति दूसरी शक्ति नहीं हो सकती अर्थात सम अपने-अपने स्वरूपसे भिन्न-भिन्न है, इस प्रकार क्रमसे सब शक्तियोका विचार किया जाय तो प्रत्येक वस्तुमे अनन्तो ही शक्तियाँ स्पष्ट रूपसे प्रतीत होने लगती हैं (पं. ध/५२)
प./२०१४ गुणाना चायनन्त
वाग्व्यवहारगौरवात्। गुगा केचित्समुद्दिष्टा प्रसिद्धा पूर्वसूरिभि ९०९४॥ यद्यपि गुणोमें अनन्तपना है तो भी प्राचीन आचार्योंने अति ग्रन्थ विस्तारसे गौरवदोष आया है इसलिए सक्षेप प्रसिद्ध प्रसिद्ध कुछ गुणोका नामोल्लेख किया है।
-
२४४
=
१०. जीव द्रश्य में अनन्तगुणांका निर्देश
सा/आ./२ अनन्तधर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मन। अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशिताम् |२|
स.सा./आ / परि अत एवास्य ज्ञानमात्रै भाषान्स पालिन्योऽनन्ता शक्तय उत्प्लवन्ते । । = १ जिसमे अनन्त धर्म है ऐसे जो ज्ञान तथा वचन तन्मयी जो मूर्ति (आत्मा) सदा ही प्रकाशमान है । २१ २ अतएव उस ( आत्मा ) में ज्ञानमात्र एक भावकी अन्त पातिनी अनन्त शक्तियाँ उछलती है।
T
सेटो / १४/४३३६ एवं मध्यमरुचिशिष्यापेक्षमा सम्वादिगुणाक भणितम् । मध्यमरुचिशिष्यं प्रति पुनविशेषभेदेन येन निर्गतित्व, निरिन्द्रियल निरायुषत्वमित्यादिविशेषगुणास्तु मास्तित्ववस्त्य प्रमेयत्वादिसामान्यगुणा' स्वागमाविरोधेनानन्ता ज्ञातव्या । इस प्रकार (सिद्धोमे) सम्यक्त्वादि आठ गुण मध्यम रुचिवाले शिष्यों के
-
गुणनंदि
लिए है । मध्यम रुचिवाले शिष्योके प्रति विशेष भेदनयके अवलम्वन गति रहितता, इन्द्रियरहितता आदरहितता आदि विशेष गुण और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि सामान्य गुण, इस तरह जैनागम के अनुसार अनन्त गुण जानने चाहिए । ६. १४३ उच्यतेऽनन्तधर्माधिरूढोऽप्येक सचेतन अर्थ जा यतो यावत्स्यादनन्तगुणात्मकम् | १४३ | = एक ही जीव अनन्त धर्म युक्त कहा जाता है, क्योकि, जितना भी पदार्थका समुदाय है वह सब अनन्त गुणात्मक होता है।
११ गुणके अनन्तत्व विषयक शंका व समन्वय
ससा / आ / क२ / प जयचन्द - प्रश्न- आत्माको जो अनन्त धर्मवाला कहा है, सो उसमे वे अनन्त धर्म कौनसे है उत्तरवस्तुमे अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तित्व, अमूर्तित्व इत्यादि (धर्म) तो गुण है और उन गुणोका तीनो कालो मे समय समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनन्त है । और वस्तुमें एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म है। वे सामान्यरूप धर्म तो वचन गोचर है. किन्तु अन्य विशेषरूप अनन्त धर्म भी है, जो कि बचनके विषय नही है, किन्तु वे ज्ञानगम्य है । आत्मा भी वस्तु है इसलिए उसमें भी अपने अनन्त धर्म है ।
१२. द्रव्यके अनुसार उसके गुण भी मूर्त या चेतन आदि कहे जाते हैं।
प्रसा/ मू / १३१ मुत्ता इंदियगेज्झा पोरगलदव्बप्पा अणेगविधा । दत्राणममुत्ताण गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा ॥ १३१ ॥ - इन्द्रियग्राह्यमूर्त गुण पुद्गलद्रव्यात्मक अनेक प्रकारके है । अमूर्तद्रव्यो के गुण अमूर्त जानना चाहिए। पंका/प्र/४६ मूर्तद्रव्यस्य मूर्ता गुणा । = मूर्त द्रव्यके मूर्त गुण होते है।
निसा /ता वृ / १६८ मूर्तस्य मूर्त गुणा, अचेतनस्याचेतनगुणा, अमूर्तस्यार्तगुणा चेतनस्य चेतनगुणामूर्त द्रव्यके गुण होते है, अचेतनके अचेतन गुण होते हैं, अमूर्त के अमूर्त गुण होते है, चेतन के चेतनगुण होते है।
1
गुणक - जिस राशि द्वारा किसी अन्य राशिको गुणा किया जाये - दे० गणित /11/१/५
गुणकार - गुणकवत् । गणित / II / १/५ । गुणकीर्ति - १. कि पुराण, धर्मामृत, रुकमणि हरण, पद्मपुराण श्रेणिक और रामचन्द्र दुति के रचयिता एक मराठी कवि (ती./४/३११) २. देशीय आचार्य समय ११०१०४३ दे इतिहास / ७ /21
गुणत्व --- ( वैशे द / १-२ / सूत्र १३ तथा गुणेषु भावात गुणत्वम् | १३| = सम्पूर्ण गुणोमे रहनेवाला गुणत्व द्रव्य गुण कर्म से पृथक् है । गुणधर - दिगम्बर आम्नाय धरसेनाचार्य की भाँति आपका स्थान पूर्वविदों की परम्परा में है। आपने भगवान वीर से आगत 'पेज्ज दोसपाहुड' के ज्ञान को १८० गाथाओं में बद्ध किया जो आगे जाकर आचार्य परम्परा द्वारा यतिवृषभाचार्य को प्राप्त हुआ। इसी को विस्तृत करके उन्होंने 'कषाय पाहुड' की रचना की। समय-बी नि.श.का पूर्वार्ध (वि. वा. १) (विशेष कोश / परिशिष्ट ३/२)
गुणनंदि १ – नन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार आप जयनन्दिके शिष्य तथा वज्रनन्दिके गुरु थे । समय वि. शक
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गुणन
गुणस्थान
स. ३५८-३६४ (ई ४३६-४४२) । (-दे० इतिहास/७/२)। मर्कराके ताम्रपटमे इनका नाम कुन्दकुन्दान्वयमे लिया गया है। अन्वयमे छह आचार्योंका उल्लेख है, तहाँ इनका नाम सबके अन्तमे है । ताम्रपटका समय-श ३८८ (ई ४६६) है। तदनुसार भी इनका समय ऊपरसे लगभग मेल खाता है। (क.पा १/प्र ६१/प महेन्द्र)। २. गुणनन्दि न, २, नन्दिसधके देशीय गणके अनुसार अकल कदेवकी आम्नायमे देवेन्द्राचार्य के गुरु थे। समय--वि स १००-६३० (ई. ८४३-८७३) । (ष रख २/प्र.१०/ H.L. Jain); (दे० - इतिहास/७/21 गुणन-गणित विधिमे गुणा करनेको गुणन कहते है-दे० गणित /
II/१/५ । गुणनाम-दे० नाम। गुणपर्याय-दे० पर्याय । गुणप्रत्यय-दे० अवधिज्ञान । गुणभद्र-१ पचस्तूप संधी, तथा महापुराण और जयधवला
शेष के रचयिता आ, जिनसेन द्वि० के शिष्य । कृति-अपने गुरु कृत महापुराण को उत्तरपुराण की रचना करके पूरा किया। आत्मानुशासन, जिनदत्त चरित। समय-शक ८२० में उत्तर पुराण की पूर्ति (ई, ८७०-१९०)। (ती./३/८, ६ । २ माणिक्यसेन के शिष्य सिद्धान्तवेत्ता। कृति-धन्यकुमार चरित, ग्रन्थ रचना काल चन्देलवशी राजा परमादि देव के समय (ई ११८२)। (ती/१५)। ३. काष्ठा संघ माथुर गच्छ मलय कीर्ति के शिष्य 'रइधु के समकालीन अपभ्रंश कवि । कृति-सावण वारसि विहाण कहा, पक्वइ वय कहा, आयास पंचमी कहा, च दायण वय कहा इत्यादि १५ कथायें। समय-वि.श १५ का अन्त १६ का पूर्व (ई श. १५ उत्तरार्ध) (तो./४/२१६) गुणयोग-दे० योग। गुणवता-(पा पु/७/१०७-११७) वृक्षके नीचे पड़ी एक धीवरको मिली। रत्नपुरके राजा रत्नागदकी पुत्री थी। धीवर के घर पली। भीष्मके पिताके साथ इस शर्त पर विवाही गयी कि इसकी सन्तान ही राज्यकी अधिकारिणी होगी। इसे योजनगधा भी कहते है। 'व्यासदेव' इसी के पुत्र थे। गुणवम-पुष्पदन्तपुराणके कर्ता। समय ई० १२३०। (वराग चरित्र/
प्र.२२/पं. खुशालचन्द) (ती/४/३०६) गुणवत-१. लक्षण र.क श्रा/६७ अनुहणाद् गुणानामाख्यायन्ति गुणवतान्यार्या ६७ --
गुणों को बढ़ानेके कारण आचार्यगण इन व्रतोको गुणवत कहते है। सा.ध/१/१ यद्गुणायोपकारायाणुव्रताना ब्रतानि तत् । गुणवतानि ।
-यै तीन व्रत अणुव्रतों के उपकार करनेवाले हैं, इसलिए इन्हे गुणवत कहते है।
अनर्थदण्डवत ये तीन गुणवत है। कोई कोई आचार्य भोगोपभोग परिमाण बतको भी गुणवत कहते है। [देश ब्रतको शिक्षावतोमे
शामिल करते है ] ॥१६॥ गुणश्रेणी-दे० सक्रमण/८ । गुण संक्रमण-दे सक्रमण/७। गुणसेन-१लाडवागड सघकी गुर्वावलोके अनुसार आप वीरसेन स्वामीके शिष्य तथा उदयसेन और नरेन्द्रसेनके गुरु थे। समय वि. ११३० ( ई १०७३) -दे० इतिहास /७/१०। २. लाडबागडस की गुर्वावलोके अनुसार आप नरेन्द्रसेनके शिष्य थे। समय वि ११८० (ई ११२३)-दे० इतिहास/७/१० । गुणस्थान-मोह और मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिके कारण जीवके
अन्तर ग परिणामोमे प्रतिक्षण होनेवाले उतार चढावका नाम गुणस्थान है। परिणाम यद्यपि अनन्त है, परन्तु उत्कृष्ट मलिन परिकामोंसे लेकर उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामो तक तथा उससे ऊपर जघन्य वीतराग परिणामसे लेकर उत्कृष्ट वीतराग परिणाम तकको अनन्तो वृद्धियोके क्रमको वक्तव्य बनानेके लिए उनको १४ श्रेणियोमें विभाजित किया गया है। वे १४ गुणस्थान कहलाते है। साधक अपने अन्तर ग प्रबल पुरुषार्थ द्वारा अपने परिणामोको चढाता है, जिसके कारण कर्मों व सस्कारोका उपशम. क्षय वा क्षयोपशम होता हुआ अन्तमे जाकर सम्पूर्ण कर्मोका क्षय हो जाता है, वही उसकी मोक्ष है।
गुणस्थानों व उनके भावोंका निर्देश गुणस्थान सामान्यका लक्षण ।
गणरथानोकी उत्पत्ति मोह और योगके कारण होती है।। | १४ गुणरथानोंके नाम निर्देश
पृथक् पृथक् गुणस्थान विशेष। -दे० वह वह नाम 'सर्व गुणस्थानोंमें विरताविरत अथवा प्रमत्ताप्रमत्तादि
पनेका निर्देश। ऊपर के गुणस्थानों में कषाय अव्यक्त रहती है।
-दे० रण/३ अप्रमत्त पर्यन्त सब गुणस्थानोंमें अध.प्रवृत्तिकरण परिणाम रहते है।
-दे० करण/४ । चौथे गुणस्थान तक दर्शनमोहकी और इससे ऊपर चारित्रमोहकी अपेक्षा प्रधान है। सयत गुणरथानोंका श्रेणी व अश्रेणी रूप विभाजन । उपशम व क्षपक श्रेणी
-दे० श्रेणी। गुणस्थानोंमे यथा सम्भव भाव । -दे० भाव/२ जितने परिणाम है उतने ही गणस्थान क्यों नहीं। गुणस्थान निदेशका कारण प्रयोजन ।
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२. भेद भ आ /मू /२०८१ जं च दिसावेरमणं अणस्थदंडेहि जं च वेरमणं । देसावगासियं पि य गुणत्रयाई भवे ताई।२०८१। -दिग्नत. देशवत और अनर्थदण्ड व्रत ये तीन गुणवत है। (स.सि /७/२१/३५६/६); (वसु. श्रा/
२१४-२१६)। र.क.श्रा/६७ दिग्बतमनर्थदण्डवतं च भोगोपभोगपरिमाणं । अनुवृहणाद गुणानामारख्ययान्ति गुणवतान्याः । = दिग्वत, अनर्थदण्डवत
और भोगोपभोग परिमाण व्रत ये तीनो गुणवत कहे गये है। महा.पु./१०/१६५ दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरति स्यादणुवतम् । भोगोपभोगसख्यानमध्याहुस्तद्गुणवतम् ।१६५। -दिग्वत, देशव्रत और
गुणस्थानों सम्बन्धी कुछ नियम
गणस्थानोमें परस्पर आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी नियम।
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माढा
के व्यवहारको कारण जो कर्म ताकै उदयसे हो है । अर्थात् ओघ प्ररूपणाका आधार मोहनीय कर्म है आदेश प्ररूपणाका आधार स्व स्व कर्म है।
२. उपदेशके अर्थमे
बद
पंथ / ६४० आदेशस्योपदेशैभ्यस्याद्विशेषस भेदमा गुरुदेव आदेश में उपदेशी से यह भेद रखनेवाला विशेष होता है कि मै गुरुके दिए हुए व्रतको ग्रहण करता परन्तु यह विधि उपदेशोमे नही होती है। (अर्थात् आदेश अधिकारपूर्वक आज्ञा के रूप में होता है और उपदेश साधारण सम्भाषणका नाम है ।
आद्धा - दे. अद्धा ।
आद्यंतमरण - दे. मरण / १ ।
आधार -१ ( ५/प्र. २०) Base (of Logarithm )
S
.
१ आधार सामान्यका लक्षण
सि १ / १२ / २००६ धर्मादीना पुनरधिकरणमाकाश मिरयुच्यते व्यमहारनयवशात् एवभूतमयापेक्षा तु सर्वाणि यानि प्रतिष्ठार्मादिक द्रव्योका आकाश अधिकरण है यह व्यवहार FЯ1=1 नकी अपेक्षा कहा जाता है। एवभूत नयकी अपेक्षा तो सब द्रव्य स्वप्रतिष्ठ ही है।
२. आधार सामान्यके भेद व लक्षण
गो जो जो
२८३ मे उधृत पश्लेषिको वैषयिकोऽभिव्यापक इत्यपि आधारस्त्रिविध प्राक्त घटाकाश तिलेषु च ।" - आधार तीन प्रकार है - औपश्लेषिक वैषयिक, और अभिव्यापक । १. तहाँ चटाई विषे कुमार सोवे है ऐसा कहिए तहाँ औपश्लेषिक आधार जानना । २. महरि आकाश विषे मटार तिष्ठ है ऐसा कहिए वहाँ वैषयिक आधार जानना । ३ बहुरि तिल विषे तेल है ऐसा कहिए तहाँ अभिव्यापक आधार जानना ।
* आधार आधेय भावबंध
आधारवस्व आसू. ४२८] चोइसदसण
महामदसाय रोगभोरो । कप्पववहारधारी होदि हु आधारवत्व णाम । जो चौदहपूर्व दसपूर्व और नव पूर्वका ज्ञाता है, जिसमे समुद्र तुल्य गम्भीरता गुण है, जो कल्पव्यवहारका ज्ञाता है अर्थात् जो प्रायश्चित्त शास्त्रका ज्ञाता है उसमें बताए हुए प्रयोगोका जिसने अनुसरण किया है अर्थात् अपराधो मुनियोका जिसने अनेक बार प्रायश्चित देकर इस विषय में विशेष ज्ञान प्राप्त कर लिया है ऐसे आचार्य आधार व गुणके धारक माने जाते है । आध्यान
म पु २१/२२८ आभ्यान स्यादनुध्यानम् अनिष्यस्वादिभिन्नमेव स्यात् परम सत्यम् नामनसगोचरम्। - अनित्यत्वादि १२ भावनाओका बार-बार चिन्तवन करना आध्यान कहलाता है तथा मन और वचन के अगोचर जो अतिशय उत्कृष्ट शुद्ध आत्मतत्त्व है वह ध्येय कहलाता है। * २, अध्यापन के अर्थ मे दे अपध्यान / १ ।
आनंद १ भगवाद बोरके सीर्थ मे अनुसारोपपादक हुए दे अनुत्त रोपपादक, २ विजयार्धको उत्तर श्रेणीका एक नगर - दे, विद्याधर; ३ चिजबाधको दक्षिण अशोका एक नगर - दे. विद्याधरः ४ गन्धमादन विजयार्ध पर स्थित एक कूट व उसका रक्षक देव - दे. लोक/ ५/४, ५ मप्र ७३ / श्लाक अवाध्या नगरके राजा वज्रबाहुका पुत्र था (४१-४२११ तोयंकर प्रकृतिका बन्ध किया । सन्यास के समय पूर्व के आठवें भवके बैरी भाई कमठने सिंह बनकर इनको भरख लिया। इन्होने फिर प्राणतेन्द्र पद
દ
आनुपूर्वी
पाया (६१) यह पार्श्वनाथ भगवा का तीसरा भय है- दे पार्श्वनाथ, ६. परमानन्दके अपर नाम- दे. मोक्षमार्ग २ / ५ । आनंदवर्धन.
-ज्ञ / प्र ६ पं, पन्नालाल बाक्लीवाल "काश्मीर नरेश" अवन्तिवर्मा के समकालीन थे। समय ई ८८४ । आनंदात निवासिनी दिवकुमारी देवी दे. लोक ५/१३ आनंदितानन्दन बनके वज्रकूटकी स्वामिनी दिक्कुमारी देवी --
दे, लोक ५/५
आनत कल्पवासी देवका एक भेददे स्वर्ण ३२ तथा उनका अवस्थान-दे, स्वर्ग ५/८ ३. कल्प स्वर्गीका १३वाँ - दे. स्वर्ग ५/२, ४, आनतस्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक - दे स्वर्ग ५/३ । आनपान उ
प्रयोजनवरि चिदानयेत्याज्ञापनमानयनम्
आनयन-स सि. ७/३१/३६६ / ६ आत्मना सकल्पिते देशे स्थितस्य अपने द्वारा संक विपत देश में ठहरे हुए पुरुषको प्रयोजन वश किसी भी वस्तुके लानेकी आज्ञा करना आनयन है। (रा.वा. ७/३१/१/५५६) आनर्त४४६
म पु / ४६ पं पन्नालाल "वर्तमान गुजरात का उत्तर भाग।" द्वारावती (द्वारिका) इसकी प्रधान नगरी थी।
अनर्थक्य- स. सि. ७/३२ / ३७० / २
यावताऽर्थेनोपभोगपरिभोगी सोऽयंस्ततोऽन्यस्याधियमानयम् उपयोग परिभोगके लिए जितनी वस्तुकी आवश्यकता है सो अर्थ है उससे अतिरिक्त अधिक वस्तु रखना उपभोग परिभोगानर्थक्य है।
आनुपूर्वी -
१ आनुपूर्वक भेद
ध. १/१,९,१/०३/१ पुवाणुपुत्री पच्छाणुपुथ्वी जत्थतस्य णुपुब्बी चेदि तिविहा आणुपुत्री । पूर्वानुपूर्वी पश्चातानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी इस प्रकार अनुकि तीन भेद है ( १/४.१.४५/१३५/१) (क.पा १/११/६२२/२८ / १) (म.प्र २ / ०४ )
२ पूर्वानुपूर्वी आदिके लक्षण
जं ध १/१.१.१/०३/१ लादो परिवाही उपरे सा पुमापुथ्वी तिस्से उदाहरण उसमजिय देवमादि णं उमरोदो हा परिवाडीए उच्चदि सा पच्छाणुपुब्बी । तिस्से उदाहरण - एस करेमि
पण जिगरबहस बढमाणस्स सेणं च जा सिमसुह कखा विलोमेण ॥ ६५॥ इदि । जमणुलोम-विलोमेहि विणा जहा तहा उच्चदि सा जत्थतस्थाणुपुथ्वी । तिस्से उदाहरण -गय-गवलसजन पर हुब सिहि गलय भमरस कासो हरित सपो सिमाउन जय ॥६॥मादि। जो वस्तुका वि चन मूलसे परिपाटो द्वारा किया जाता है उसे पूर्वापूर्वी कहते है। उसका उदाहरण इस प्रकार है, ऋषभनाथ की वन्दना करता अजितनाथ की वन्दना करता हॅू इत्यादि । क्रमसे ऋषभनाथको आदि लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त क्रमवार वन्दना करना सो पूर्वानुपूर्वी उपक्रम है। जो वस्तुका विवेचन ऊपरसे अर्थात् अन्त से लेकर आदि तक परिपाटी क्रमसे (प्रतिलोम पद्धति से) किया जाता है उसे पश्चातानुपूर्वी उपक्रम कहते है । जैसे-मोक्ष सुखकी अभिलाषासे यह मै जिनवरोंमें श्रेष्ठ ऐसे महावीर स्वामीको नमस्कार करता हूँ। और विलोम से अर्थात वर्तमानके बाद पार्श्वनाथका पार्श्वनाथ के बाद नेमिनाथको इत्यादि क्रमसे शेष जिनेन्द्रो को भी नमस्कार करता हूँ ॥६५॥ जो कथन अनुलोम और प्रतिलोम क्रमके बिना जहाँ कहाँसे भी किया जाता है उसे कहते है। जैसे हाथी, अरण्य मेसा, जलपरिपूर्ण और सनमेव कोयल, मयूरका कण्ठ और भ्रमर
जैनेन्द्र सिद्धान्त को
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आनुपूर्वी नामकर्म
के समान वर्णवाले हरिवंश के प्रदोष और शिवादेवी माता के लाल ऐसे नेमिनाथ भगवान् जयवन्त हो । इत्यादि ।
कपा १/११/३२२/२८ / २ ज जेग कमेण सुत्तकारेहि ठइदमुप्पण्णं वा तस्स तेण कमेण गणणा पुब्बाणुपुत्री णाम । तस्स विलोमेण गणणा पच्छाणुपुत्री जत्थ व तत्थ वा अप्पणो इच्छिदमादि काढूण गणणा जत्थहो जो पदार्थ जिस क्रमसे सूत्रकारके द्वारा स्थापित किया गया हो, अथवा, जो पदार्थ जिस क्रम से उत्पन्न हुआ हो उसकी उसी क्रमसे गणना करना पूर्वानुपूर्वी है। उस पदार्थ की विलोम क्रमसे अर्थात् अन्त से लेकर आदि तक गणना करना पश्चावानुपू है और जहाँ कहीसे अपने इच्छित पदार्थ को आदि करने गणना करना यापूर्वी है (. १/४.१०४५/१३५ / १) आनुपूर्वी नामक स. सि. ८/११/३६० / ९३ पूर्वशरीराकाराविनाशी वस्त्रोदया भवति तदानुपूर्व्यनाम जिसके उदयसे पूर्व शरीरका आकार विनाश नहीं होता यह बानुपूर्वी नाम है। (राजा ८/११/११/५००) (गो.क./जी. प्र. २२/२३/१६
. ६/११९.२८/६/२ पृथ्थरीराणमतरे एग दो तिमि समए - माणजीवम्स जस्स कम्मस्स उदएण जीवपदेसाणं विसिट्टो सठाणविसेसा होदि, तस्स आणुपुव्विति सण्णा । इच्छिदगदिगमणं... अणुपुत्रीदो। पूर्व और उत्तर शरीरोंके अन्तरालवर्ती एक, दो और तीन समय में वर्तमान जीवके जिस कर्म के उदयसे जीव प्रदेशोका विशिष्ट आकार विशेष होता है, उस कर्मकी 'आनुपूर्वी' यह सज्ञा है। . आनुपूर्वी नामकर्म से इच्छित गतिमें गमन होता है । २ आनुपूर्वी नामकर्मके भेद
६/१४२०६म्म
रिय गदियानाम तिरिखगदिपाओग्गः शुपुव्योषाम मणूसगदिया गामं देवदिया खोबणा दिजो आनुपूर्वी नाम है वह चार प्रकारका है- नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म और देवानाम (स.सि. ८ १९ / २६१/१), (प.म./१/४), (५.१२/४.२.११४/२०१६ (रावा ८/ ११/११/५/५७७/२२), (गो क / जी प्र. ३२/२६/२) दे नामकर्म (आनुपूर्वी कर्मके असख्याते भेद सभत्र हैं) ।
9
३ विग्रहगति-गत जीवके संस्थानमे आनुपूर्वीका स्थान रावा. ८/११/११/२००/२५ नामसाध्यं फल नानुपू नमो दोष पूर्वायुरुदसमकाल एवं पूर्वदारीरनिवृत्ती निर्माणनामोदयो निवर्तते तस्मिन्निवृत्तेऽष्टविधर्म तैजसकामणिशरीरसम्बन्धित आत्मन पूर्वशरीरसंस्थाना विनाशकारण मानू नामोति तस्य कालो गित जय समयः
1
समय ऋजुती तु पूर्वशरीराकार विनाशे सति उत्तरशरीर योग्यपणा निर्माणनामकर्मोदयव्यापार । प्रश्न(विग्रहगति में आकर मनाना) यह निर्माण नामकर्मका कार्य है आनुपूर्वी नामकर्मका नहीं ' उत्तर- इसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि पूर्व शरीर के नष्ट होते ही निर्माण नामकर्मका उदय समाप्त हो जाता हैं। उसके नष्ट होनेपर भी आठ कमौका पिण्ड कार्याण शरीर और तेजस शरीर से सम्बन्ध रखनेवाले आत्म प्रदेशोंका आकार विग्रहगतिमें पूर्व शरीर के आकार बना रहता है । विग्रहगतिमें इसका काल कमसे कम एक समय और अधिक से अधिक तीन समय है। हाँ, जु गतिमें पूर्व शरीर के आकारका विनाश होनेपर तुरन्त उत्तर शरीर के योग्य पुगलका ग्रहण हो जाता है. अत यहाँ निर्माण नामकर्मका कार्य ही है।
२४७
.६/९१-९२८/२६/४ संगमकम्मादो संठा होदिति पुि परियप्पा णिरस्थिया चे ण, तस्स सरीरगहिदपढमसमयादो उवरि
उदयमागच्छमाणस्स विग्गहकाले उदयाभावा । जदि आणुपुव्विक्म्म ण होज तो विग्गहकाले अणिदसंठानों जीवो हज्ज । प्रश्नसंस्थान नामकर्म से आकार विशेष उत्पन्न होता है, इसलिए आनुपूर्वीकी परिकल्पना निरर्थक है। उत्तर- नहीं, क्योंकि, शरीर ग्रहण करने के प्रथम समयसे ऊपर उदयमें आनेवाले उस संस्थान नामकर्मका विग्रहगतिके कालमें उदयका अभाव पाया जाता है। यदि आनुपूर्वी नामकर्म न हो, तो विग्रहगतिके काल में जीव अनियत संस्थान माला हो जायेगा ( १३२.२.१९६/२०२/२)
४. विग्रहगतिगत जीवके गमनमे आनुपूर्वीका स्थान ६९.२-१.२८/५६/०सरी सरीरतरमधे द्विदजीवरस महादिविहायमदीदो किम हादि । ण, तस्स तिह सरीराणमुदरण विणा उदयाभावा आणुपुत्री सठाणम्हि वावदा क्ध गमणहेऊ होदित्ति चे ण, तिस्से दोसु विकज्जेसु बाबारे विरोहाभावा । अचत्तसरीरस्स जीवस्स विग्गहगई उई वा गम त कस्स फलं तस्य पुनरि चायाभावेग गमनाभावा । जोवपदेसाणं जा पसरो सरेण णिक्कारणो तस्स आउअसतफलत्ता दो। प्रश्न
पूर्व शरीरको छोडकर दूसरे शरीरको नहीं ग्रहण करके स्थित जीवका इच्छित गतिमें गमन किस कर्म से होता है। उत्तर- आनुपूर्वी नामकर्म से इच्छित गति में गमन होता है। प्रश्न- विहायोगति नामकर्म से इच्छित गतिमे गमन क्यो नहीं होता है ? उत्तर- नहीं, क्योकि विहायागति नामकर्मका औदारिकादि तीनों शरोरोके उदयके बिना उदय नहीं होता है। प्रश्न आकार विशेषको बनाये रखने में व्यापार करनेवाली आनुपूर्वी इच्छित गतिमें गमनका कारण कैसे होती है । उत्तर - नहीं, क्योकि, आनुपूर्वीका दोनो भी कार्योंके व्यापार में विरोधका है अर्थात् निग्रहगति में आकार विदोषको बनाये रखना और इतिगतिमे गमन कराना, ये दोनो आनुपूर्वी नामकर्मके कार्य है प्रश्न पूर्व शरीरको न छोडते हुए जीवके अथवा ऋजुगति में (मरण-समुद्रातके समय ) जो गमन होता है वह किस कर्म का फल है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, पूर्व शरीरको नहीं छोडने वाले उस जीव के पूर्व क्षेत्रके परित्यागके अभाव से गमनका अभाव है। पूर्व शरीरको नहीं छोडनेपर भी जीव प्रदेशोंका जो प्रसार होता है वह निष्कारण नहीं है, क्योंकि वह आगामी भव सम्बन्धी आयुकर्म का फल है ।
-
* आनुपूर्वी प्रकृतिका बंध उदय व सत्य प्ररूपणा
आनुपूर्वी संक्रमण - दे. संक्रमण १० । आपातातिचार अतिचार
आत
आपूच्छना समाचार आपेक्षिक गुण दे स्वभाव ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
- दे. वह वह नाम ।
आप्तनिसा / ७ जिससेस दोसरहिओ केवलवाणा परमविभव जुदो । सो परमप्पा उच्च तठित्रवरीओ ण परमप्पा ॥७॥ नि. सा / तावृ. ५/११ आप्त शंकारहित । शंका हि सकलमोहरागद्वेषादय ।
= निशेष दोषो से जो रहित है और केवलज्ञान आदि परम वैभव से जो संयुक्त है, वह परमात्मा कहलाता है; उससे विपरीत वह परम रमा नहीं है । आप्त अर्थात् शका रहित शंका अर्थात् सकल मोह रागपादिक (दोष)|
र कथा/ ५७ आप्तेनोदोषेण सर्वशेनागमेशिना । भवितव्य नियोगेन नान्यथा ह्यासता भवेत् ॥५॥ क्षुत्पिपासाज रातङ्कजन्मातङ्कभयस्मया । न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्त स प्रकीर्त्यते ॥ ६॥ परमेष्ठी परं ज्योमिक्सी मध्यान्त सार्थ शारी पलाश्यते ॥७॥ - नियमसे वीतराग और सर्वज्ञ, तथा आगमका ईश
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आप्तपराक्षा
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हो ( मचा देव) होता है, निश्वय करके अन्य किसी प्रकार आप्तपना नही हो सकता ॥५॥ जिप देवके क्षुपा, तृषा, बुढापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, रति, विषाद, खेद, स्वेद, निशा आश्चर्य नहीं है, वहां बीतराग देव कहा जाता है | जो परम रहने र योतिबा हो, राग-द्वेषरहित मोराग हो, कर्मफलरहित हो, कृतकृत्य हो, सर्वज्ञ हो अर्थात् भूत, भविष्यद वर्तमानको समस्त पर्यायो सहित समस्त पदार्थोंको जानने वाला हो, आदि मध्य अन्त कर रहित हो और समस्त जीवोका हित करनेवाला हो, वही हितोपदेशी कहा जाता है (अनघ २ / १४) इ.सं./टी. २०/२१० में उषा भय द्वेषो रागो मोह चिन्तनम्। जरा रुजा च मृत्युश्च खेदः स्वेदो मदोऽरति ॥९॥ विस्मयो जनन निद्रा विषादोऽष्टादश स्मृता । एतदोष विनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जन ॥२॥ क्षुधा तृषा, भय, द्वेष, राग, मोह, चिन्ता, जरा, रुजा, मरण, स्वेद, सेम, अति विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद इन अठारह दोषोंसे रहित निरञ्जन आम भो जिनेन्द्र है। स.म १२८/२१ रागद्र पमोहानामेान्तिक आश्यन्तिकश्च क्षय, सा येषामस्ति ते खम्वाप्ताः । - जिसके राग-द्व ेष और मोहका सर्वथा क्षय हो गया है उसे आप्त कहते हैं (म.म. १५/२३८/१२) म्यादी, ३/१०४/११३ प्रसिद्धि परम हितोप देशक....ततोऽनेन विशेषेण रात्र नातिव्याप्तिः प्रत्यक्ष ज्ञान से समस्त पदार्थों का ज्ञाता है और परम हितोपदेशी है वह आप्त है। इस परम हितोपदेशी विशेषणसे सिद्धोंके साथ अतिव्याप्ति भी नही हो सकती । अर्थात् अर्हन्त भगवान् ही उपदेशक होनेके कारण आप्त कहे जा सकते हैं सिद्ध नहीं ।
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★ आप्तमे सर्वदोषोंका अभाव संभव है - दे, मोक्ष ६/४ ★ सर्वज्ञताकी सिद्धि केवलज्ञान २४ ।
* देव, भगवान्, परमात्मा, अहंत आदि दे, वह वह नाम । आप्त परीक्षा - जा. विद्यानन्द ( ७०३-८४०) द्वारा रचित १२४ संस्कृत श्लोकबद्ध ईश्वर विषयक न्याय ग्रन्थ है। (ती. २/ २५३) आप्त मीमांसा तत्त्वार्थ सूत्रके मंगलाचरणपर आ समन्तभद्र (ईश २) द्वारा रचित १९५ संस्कृत स्तोक न्यायपूर्ण ग्रन्थ है। इसका दूसरा नाम देवागम स्तोत्र भी है। इसमें न्याय पूर्वक भाववाद अभाववाद आदि एकान्त मतों का निराकरण करते हुए भगवान् महाबीरमें आप्तस्वकी सिद्धि की है। इस ग्रन्थ पर निम्न टोकाऍ उपलब्ध है -- १. आचार्य अकलंक भट्ट (ई. ६२०-६८०) कृत ८०० श्लोक प्रमाण 'अष्टशती' । २. आ. विद्यानन्दि (ई. ७७५-८४०) कृत ८००० श्लोक प्रमाण अष्टसहस्री । ३. आ. बादी मसिंह (ई. ७७०-८६०) कृत वृत्ति । ४ आ. वसुनन्दि (ई. १०४३-१०५३) कृत वृत्ति । ५. पं. जयचन्द्र छावडा (ई. १८२६) द्वारा लिखी गयी सक्षिप्त भाषा टीका । (जै. २/३०३); (ती. २/१३०) आबाधा-कर्मका मन्ध हो जानेके पश्चाद वह तुरत ही उदय नहीं आता, बल्कि कुछ काल पश्चात् परिपक्व दशाको प्राप्त होकर ही उदय आता है । इस कालको आबाधाकाल कहते है । इसी विषय की अनेकों विशेषताओंका परिचय यहाँ दिया गया है । १. आबाधा निर्देश
१. आबाधा कालका लक्षण
ध. ६/१.६-६,५/१४८/४ ण बाधा अबाधा, अबाधा चेत्र आबाधा । - नाधाके अभावको अबाधा कहते हैं। और अबाधा ही आबाधा कहलाती है ।
गो.मू. १५५ कम्ममरुवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण । रुवेणुदीरणस्स व आवाहा जाब ताव हवे । कार्माण शरीर नामा नामकर्म के
१. आबाधा निर्देश
उदय तैं अर जीवके प्रदेशनिका जो चंचलपना सोई योग तिसके निमितकरि कामण वर्गणा रूप पुद्गलस्कन्ध मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृति रूप होई आत्मा के प्रदेशनिविषै परस्पर प्रवेश है लक्षण जाका ऐसे बन्ध रूपकरि जे तिष्ठ है ते यावत् उदय रूप वा उदीरणा रूप न प्रवर्ते तिसकालको आबाधा कहिये । (गो क. / मू. ११४) गो.जो / जो. प्र २५३/५२३/४ तत्र विवक्षितसमये बद्धस्य उत्कृष्टस्थितिबधस्य सप्ततिकोटाकोटिसागरोपममात्रस्य प्रथमसमयादारम्य सप्तसहस्रवर्ष कालपर्यन्तमानाधेति । विवक्षित कोई एक समय विधे बन्ध्या कार्माणका समय प्रबद्ध ताकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तरि कोडाकोडि सागरको बधी तिस स्थिति के पहले समय ते लगाय सात हजार वर्ष पर्यन्त ती आमाधा काल है यहाँ कोई निर्जरा न होई ताठे कोई निषेक रचना नाहीं ।
C
२. आबाधा स्थानका लक्षण
घ. १९/४.२.१.५०/१६२६ जहग्णावाहमु] [कस्सामाहादो सोहित्य सङ्घसेम्मिए पलिते आवाहाद्वाणं एसत्योद - उत्कृष्ट आबाधामें-से जघन्य आबाधाको घटाकर जो शेष रहे उसमें एक अंक मिला देने पर आबाधा स्थान होता है । इस अर्थ की प्ररूपणा सभी जगह करनी चाहिए।
३. आबाधा काण्डकका लक्षण
ध. ६/९,६-६,५/१४६/१ कधमाबाधाकडयस्सुप्पत्ती । उक्कस्साबाध विरलिय उपकस्सट्ठिदि समखड करिय दिण्णे रूवं पडि आबाधा कडपमाणं पावेदि । प्रश्न- आबाधा काण्डककी उत्पत्ति कैसे होती है 1 उत्तर-उत्कृष्ट आबाधाको विरलन करके उसके ऊपर उत्कृष्ट स्थितिके समान खड करके एक-एक रूपके प्रति देनेपर आबाधा काण्डका प्रमाण प्राप्त होता है । उदाहरण मान लो १० १० १० १ १ १
उत्कृष्ट स्थिति ३० समय; आबाधा ३ समय तो
--
अर्थात -१० यह आबाधा काण्डकका प्रमाण हुआ । और उक्त स्थितिमन्धके भीतर । आमाधाके भेद हुए।
विशेषार्थ - कर्म स्थितिके जितने भेदोमें एक प्रमाण वाली आबाधा है, उतने स्थितिके भेदोको आबाधा काण्डक कहते है । ध.१९/४,२,६,१७/१४३/४ अप्पण्णो जहणाबाहाए समऊणाए अप्पप्पणी समऊणजहण्ण द्विदीए ओबटिटदाए एगमाबाधाकदयमागच्छदि ।.. सगसगउकस्साबाहार सग-सग उक्कस्सट्ठिदीए ओवदाए एगमाबाह कंदयमागच्छदि ।
११/४.२६१२२/२६८२ आमा हरिमसमय गिरू' भन उनकस्सिर्य दिट्ठदिदि ततो भ्रम एवं दुसमणादिक्रमेण वेद जाव विनरस असरभागेगुणाद्विदिति । एवमेष आवाहारिमसमरण बंधपाओग्गादिविसेसाण मेगमाबाहादयमिदि सण्णा त्ति वृत्तं होदि । आबाधाए दुचरिमसयस्स णिरु भणं काढूण एवं मामाहाकदम पवेदव्वं । आमाहाए तिचरिमसमयविरुभगं काढूण पृथ्वं व तदिओ आमाहादओ पद एवं या विमा हिदि चि एवेग रोगगाबाइादयस्व पमाणपरूवणा कदा |
भागमेन्तरिउदिमंधाणाणमाबाद
ध.११/४,२,६,१२८/२७१/३ एगेगाबाइट्ठाणस्स पलिदोवमस्स असवेज्जदि १. एक समय कम अपनी-अपनी आबाधाका अपनी-अपनी एक समय कम जघन्य स्थिति में भाग देने पर एक आबाधा काण्डकका प्रमाण आता है । २ ... अपनी-अपनी उत्कृष्ट आबाधाका अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देने पर एक आबाधा काण्डक आता है । ३ आबाधाके अन्तिम समयको विवक्षित करके उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है। उससे एक समय कम भी स्थितिको बाँधता है इस प्रकार दो समय कम इत्यादि क्रमसे पम्योपमके असंख्यातवें भागसे रहित स्थिति तक ले जाना
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आबाधा
चाहिए। इस प्रकार आबाधाके इस अन्तिम समयमें बन्धके योग्य स्थिति विशेषोकी एक आबाधा काण्डक संज्ञा है । यह अभिप्राय है। आभाचा द्विपरम समयकी विवक्षा करके इसी प्रकार द्वितीय अबाधा काण्डकको प्ररूपणा करना चाहिए। आबाधाके त्रिचरम समयको विमक्षा करके पहिले के समान तृतीय आवाधाण्डकी प्ररूपणा करना चाहिए। इस प्रकार जघन्य स्थिति तक यही क्रम जानना चाहिए। इस सूत्र के द्वारा एक आबाधा काण्डकके प्रमाणकी प्ररूपणा की गयी है। एक-एक आबाधा स्थान सम्बन्धी जो पत्योपके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिबन्ध स्थान है उनकी आबाधा काण्डक संज्ञा है ।
२. आबाधा सम्बन्धी
१. आबाधा सम्बन्धी सारणी
विषय
१. उदय अपेक्षा गोक/भा.संह पचेका मिध्यास्स समयोन मुहूर्त ७००० वर्ष १५०/१८५ कर्म
सामान्य आबाधा
१५६/९८१ आयुके बिना हमको प्रतिसागर स्थितिप्रतिको को सागर परसाधिक पर १०० वर्ष सं उच्छ् वास (घ. ८/१०२) असाद्धा अत-कोडि पूर्व वर्ष मुहूर्त आ बसं आयु बन्ध भये
पीछे शेष भुज्य मानायु
प्रमाण
१९५/११०० ६/१६६/१३) आयुकर्म (पमान
कुछ नियम
गोक ११० आयुकर्मका सामान्य नियम
गोमू. १५६ गो. ११८
आबाधा काल
गो. १९४६२५६२७२ को अन्तहूर्त से.
सा. वाला कर्म
जघन्य
उत्कृष्ट
आपली
X
२ उदीरणा अपेक्षा आयु बिना कमौको बध्यमानामु भुज्यमाना के कर्मभूमिया) कहली पाठ द्वारा उदीरणा होवे, इसलिए उसकी आबाधा भी नहीं है। देव, नारकी व भोग भूमियों में आयुको उदीरणा सम्भव नहीं ।
★ कर्मोंकी जघन्य उत्कृष्ट स्थिति व तत्सम्बन्धित आबाधा
काल दे, स्थिति ।
२. आबाधा निकालनेका सामान्य उपाय
प्रत्येक एक कोडाकोडि स्थितिकी उत्कृष्ट आबाधा - १०० वर्ष ७० मा ३० कोडाकोडी स्थितकी उत्कृष्ट आबाधा १००x३० या १००x१० - ७००० या ३००० या १००० १ लाख कोड सागर स्थितिको उत्कृष्ट आवाधा - १००
१०० X ७० या वर्ष
+ (१०x१०) - १ वर्ष १०० काड सागर की उत्कृष्ट आबाधा - १ वर्ष + (१०×१०×१०) - १/१००० वर्ष १० कोड़ सागरकी उत्कृष्ट आबाधा - - ३६५x२४४६० - ५२१४ मिनिट १२५१२३७ कोड सागरकी उत्कृष्ट आधा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त
१०,०००
२५
२४९
अन्तर्मुहूर्त
X
X
नोट - उदोरणाको अपेक्षा जघन्य आबाधा, सर्वत्र आवली मात्र जानना, क्योंकि बन्ध हुए पोछे इतने काल पर्यन्त उदीरणा नहीं हो सकती ।
२. आबाषा सम्बन्धी कुछ नियम
३. एक कोडाकोड़ी सागर स्थितिकी आबाधा १०० वर्ष होती है
घ. ६/१.६-६३१/१०२/८ सागरोमको डाकोडीर वाससमाभाषा होदि = एक कोडाकोडी सागरोपमकी आबाधा सौ वर्ष होती है ।
४. इससे कम स्थितियोंकी आबाधा निकालनेकी विशेष प्रक्रिया
घ. ६/१,६००,४/१८३/८सग-सगजा पमिद्धामाधाकंडएहि सगसगदी ओहदा सगसग बाबाधामुप्पतोदो न च सव्वजादी आषाधाकंडयानं सरिसत्तं, सरखेज्जवरसट्ट दिन धेसु अतो मुहुत्तमेत्तआबाधोवदिठिन समयमेत्तयामाधाकड सणादो। रादो खेचरूनेह जहणट्ठदिम्हि भागे हिदे संखेज्जावलियमेत्ता णिसेर्गाट्ठदीदो सखेज गुणहीणा जहण्णाबाधा होदि । - - अपनी-अपनी जातियों में प्रतिबद्ध आबाधा काण्डकोंके द्वारा अपनी-अपनी स्थितियोंके अपकिरनेपर अपनी-अपनी अर्थात प्रकृतियोंकी आमाधा उत्पन्न होती है । तथा, सर्व जातिवाली प्रकृतियों में आबाधाकाण्डको के सदृशता नहीं है, क्योकि सख्यात वर्षवाले स्थिति बन्धों में अन्तमुहूर्त मात्र आधा अपवर्तन करनेपर संपात समयमात्र आबाधाकान्हक उत्पन्न होते हुए देखे जाते है। इसलिए सख्यात रूपों से जयग्य स्थिति भाग देनेपर निषेक स्थितिये सख्यातगुणित होन संख्यात आवलिमात्र जघन्य आबाधा होती है ।
५. एक आबाधाकाण्डक घटनेपर एक समय स्थिति घटती है
६/१.६.३/१४०/४०मामाधान एक दिउदिन धमागस्स समजविष्णवाससहसाणि आगाधा होदि एफ सदी चिमाधापर्ण जागिर दोहि आनाधार्कडरहि अभियमुदिदि मधमाणस्य आमाधा एकस्सिया मना होदि । तोहि आमाधारहि उणियमुस्सदिदि गयमाणस्स आबाधा उक्कसिया तिसमऊना । चउहि चदुसमऊणा । एवं दव्वं जाहिदिति सम्मामाधार बीचारात पत्त े समऊमाना धाकं उयमेतदोषमदा आबाधा होदि छिपेतम्य - एक आबाधा काण्डकसे होन उत्कष्ट स्थितिको बाँधनेवाले समयप्रबद्ध के एक समय कम तीन हजार वर्षकी आबाधा होती है। इसी प्रकार सर्व कर्म स्थितियोंकी भी प्ररूपणा जानकर करना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि दो आबाधा काण्डकोंसे हीन उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके समय प्रबद्ध की उत्कृष्ट आमाधा दो समय कम होती है। तीन आमाधाकाण्डकोसे होन उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके समयप्रबद्धकी उत्कृष्ट आमाधा तीन समय कम होती है। चार आबाधा काण्डकोंसे हीनवालेके उत्कृष्ट आबाधा चार समय कम होती है। इस प्रकार यह क्रम विवक्षित कर्मको जघन्य स्थिति तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार सर्व आबाधा काण्डको के विचारस्थानस्व अर्थात् स्थिति भेदाँको प्राप्त होनेपर एक समय कम
बाधा काण्डकमात्र स्थितियोंकी आवाघा अवस्थित अर्थात् एकसी होती है, यह अर्थ जानना चाहिए।
उदाहरण - मान लो उत्कृष्ट स्थिति ६४ समय और उत्कष्ट आबाधा १६ समय है । अतएव आबाधाकाण्डका प्रमाण ३४. १६-४ होगा ।
मान लो जघन्य स्थिति ४५ समय है। अतएव स्थितियोंके भेद ६४ से ४५ तक होंगे जिनकी रचना आमाधाकाण्डकोंके अनुसार इस प्रकार होगी
१ प्रथमकाण्डक - ६४,६३,६२,६९ समय स्थितिकी उ. जमावा - १६ समय
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आबाधा
२५०
आमुन्डा
२. द्वितीयकाण्डक-६०.५६,५८,५७ समय स्थितिको उ आबाधा
-१५ समय ३. तृतीयकाण्डक-५६,५५,५४, ५३ समय स्थितिकी उ. आबाधा
-१४ समय १. चतुर्थ काण्डक -५२,५१,५०,४६ समय स्थितिको उ. आबाधा
-१३ समय ५ पचमकाण्डक-४८,४७,४६,४५ समय स्थितिको उ आबाधा
=१२ समय यह उपरोक्त पाँच तो आवाधाके भेद हुए।
स्थिति भेद-आबाधा काण्डक xहानि ४ समय-२० विचार स्थान अत' स्थिति भेद २०-१-१६
इन्ही विचार स्थानोको उत्कृष्ट स्थिति में से घटानेपर जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। स्थितिकी कम हानि भी इतने ही स्थानोंमें होती है। ६. क्षपक श्रेणी में आबाधा सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त होती है क.पा.३/३,२२/६३८०/२१०/३ सत्तरिसागरोवमकोडाकोडौण जदि सत्तावाससहरसमेताबाहा लम्भदि तो अहं बस्साणं किं लभामो त्ति पमाणेणिच्छागुफिदफले ओवट्टिदे जेण एगसमयस्स असखेज दिभागो आगच्छदि तेण अण्णं वस्साणमाबाहा अंतोमुत्तमेत्तात्तिण घडदे। ण एस दोसो, संसारावत्थ मोत्तूण खवगसेढीए एवं विहणियमाभावादो। प्रश्न-सत्तरि कोडाकाडी सागरप्रमाण स्थिति की यदि सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधा पायी जाती है तो आठ वर्ष प्रमाण स्थिति की कितनी आबाधा प्राप्त होगी, इस प्रकार त्रैराशिक विधिके अनुसार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके प्रमाण राशिका भाग देनेपर चूंकि एक समयका असख्यातवाँ भाग आता है, इसलिए आठ वर्षको आआधा अन्तर्मुहुर्त प्रमाण होतो है, यह कथन नहीं बनता है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि ससार अवस्थाको छोड कर क्षपक श्रेणी में इस प्रकारका नियम नही पाया जाता है।
७. उदीरणाकी आबाधा आवली मात्र ही होती है गो.क./मू ६१८/१९०३ आवलियं आचाहा उदीरणमासिज्जसत्तकम्माण। ...॥१८॥ - उदीरणाका आश्रय करि आयु बिना सात कमकी आबाधा आवली मात्र है बधे पीछे उदीरणा होई तो आवली काल भए ही हो जाइ। ८. भुज्यमान आयुका शेष भाग ही बद्धधमान आयुकी
आबाधा है ध.4/१६-६२२/१६६/६ एवमाउस्स आबाधा णिसेयहिदी अण्णोण्णाय
तादो ण हों ति त्ति जाणावण?' णिसेयहिदी चैत्र परू विदा । पुब्बकोडितिभागमादि कादूण जाव असंखपाद्धा त्ति एदेसु आबाधावियप्पेसु देव णिरयाण आ उअस्स उक्कस्स णिसेयहिदी सभव दि ति उत्त होदि। -उस प्रकार आयुकर्म की आबाधा और निषेक स्थिति परस्पर एक दूसरेके अधीन नहीं है (जिस प्रकार कि अन्य कर्मों की होती है)।.. इसका यह अर्थ होता है कि पूर्व कोटी वर्षके त्रिभाग अर्थात तीसरे भागको आदि करके असंक्षेपाद्धा अर्थात जिससे छोटा (संक्षिप्त) कोई काल न हो, ऐसे आवलोके असंख्यातवें भागमात्रकाल तक जितने आमाधा कालके विकल्प होते है, उनमें देव और नारकियोंके आयुकी उत्कृष्ट निषेक स्थिति सम्भव है। (अर्थात देव
और नरकायुकी आबाधा मनुष्य व तिर्यञ्चोंके मद्ध्यमान भव में हो पूरी हो जाती है।) तथा इसी प्रकार अन्य सर्व आयु कमोकी आमाधाके सम्बन्ध में भी यथायोग्य जानना। गो.क. भाषा १६०/१६५/१२ आयु कर्मको आमाधा तो पहला भवमें होय गई पीछे जो पर्याय घस्या तहाँ आयु कर्म की स्थिति के जेते निषेक है तिन सर्व समयनि विर्षे प्रथम समयस्यो लगाय अन्त समय पर्यन्त समय-समय प्रति परमाणू क्रमते खिरै है।
६. आयुकर्मकी आबाधा सम्बन्धी शंका समाधान घ. ६/१,६-६,२६/६/१६६/१० पुबकोडितिभागादो आबाधा अहिया
किष्ण होदि । उच्चदे-ण ताव देव-णेरइएसु बहुसागरोवमाउटिदिएसु पुषको डितिभागादो अधिया आबाधा अस्थि, तेसि छामासावसेसे भुञ्जमाणाउए असंखपाद्धापज्जवसाणे सते परभवियमाउअब धमाणाणं तदसभवा । ण तिरिक्व-मणुस्सु वि तदो अहिया आवाधा अस्थि, तत्थ पुब्धकोडीदा अहियमद्विदीए अभावा। अस रबेजबसाऊ तिरिक्व मणुसा अस्थि त्ति चे ण, तेसि देव-णेरड्याणं व भंजमाणाउए छम्मा
सादो अहिए संते परमवियाउअरस बधाभावा। ध ६/१,६-७,३१/१६३/५ पुवकाडितिभागे वि भुज्जमाणाउए सते देवणेरइयदसवाससहस्सआउटिदिबधसभवादो पुठबकोडितिभागो आबाधा त्ति किण्ण परूविदो। ण एव संते जहण्ण डिदिए अभावपसगादो। प्रश्न-आयुकर्मकी आबाधा पूर्वकोटीके त्रिभागसे अधिक क्यों नहीं होती। उत्तर-(मनुष्यो और तियंचाँमें बन्ध होने योग्य आयु तो उपरोक्त शका उठती ही नही और न ही अनेक सागरोपमकी आयु में स्थितिबाले देव और नारकियोमें पूर्व कोटिके त्रिभागसे अधिक आबाधा होती है, क्योकि उनकी भुज्यमान आयुके (अधिकसे अधिक) छह मास अवशेष रहनेपर (तथा कमसे कम) असक्षेपाता कालके अवशेष रहने पर आगामीभव सम्बन्धी आयुको बाँधनेवाले उन देव और नारकियो के पूर्व कोटिको त्रिभागसे अधिक आबाधाका होना असम्भवहै। न तिर्यञ्च और मनुष्यों में भी इससे अधिक आबाधा सम्भव है, क्योकि उनमे पूर्व कोटिसे अधिक भवस्थितिका अभाव है। प्रश्न--(भोग भूमियो में) असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यच और मनुष्य होते है, (फिर उनके पूर्व कोटि के त्रिभाग से अधिक आबाधाका होना सम्भव क्यो नही है।) उत्तर-नही,क्योकि, उनके देव और नारकिया के समान भुज्यमान आयुके छह माससे अधिक होनेपर भवसम्बन्धी आयुके बन्धका अभाव है, (अतएवपूर्व कोटीके त्रिभागसे अधिक आबाधाका होना सम्भव नहीं है ।) (क्रमशः) प्रश्न -भुज्यमान आयु में पूर्वकोटि का त्रिभाग अवशिष्ट रहने पर भी देव और नारक सम्बन्धी दश हजार वर्षकी जघन्य आयु स्थिति का बन्ध सम्भव है, फिर 'पूर्व कोटिका त्रिभाग आवाधा' है ऐसा सूत्रमें क्यों नही प्ररूपण किया ! उत्तर-नहीं, क्योकि, ऐसा मानने पर जघन्यस्थितिके अभावका प्रसग आता है अर्थात पूर्व कोटिका त्रिभाग मात्र आबाधा काल जघन्य आयु स्थितिमन्ध के साथ सम्भव तो है, पर जघन्य कम स्थितिका प्रमाणलाने के लिए तो जधन्य आबाधाकाल ही ग्रहण करना चाहिये, उत्कृष्ट नहीं। १०. नोकर्मीकी आबाधा सम्बन्धी ध.१४/५.६,२४६/३३२/११ णोक्म्म स्स आबाधाभावेण. किममेस्थ णथि आचापा । साभाबियादो।-नोकर्मकी आबाधा नहीं होनेके कारण...। प्रश्न- यहाँ आन धा किस कारणसे नहीं है। उत्तरक्योंकि ऐसा स्वभाष है। * मूलोत्तर प्रकृतियोकी जधन्य उत्कृष्ट आबाधा व उनका स्वामित्व
~दे स्थिति ६। आमंत्रिणी भाषा-दे. भाषा। आमर्पोषघ ऋद्धि-दे. ऋद्धि ७ । आमंडा-१ ख १६/५५५ सू. ३१/२४३ आवायो वरसायो बुद्धि विष्णाणी आउ डी पञ्चाउ डी ॥३६॥- आमुंड्यते सकोच्यते वितकिंतोऽर्थ. अनयेति आमंडा । = अवाय व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुण्डा, प्रत्यामुंडा ये पर्याय नाम है ॥३६॥ जिसके द्वारा वितर्कित अर्थ 'आमुंड्यते' अर्थात सकोचित किया जाता है वह आमुंडा है।
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आम्नाय
आम्नाय
-मसि ६/२५ / ४२३/५ घोषशुद्ध' परिवर्तनमाम्नाय । उच्चाकी शुद्धिपूर्वक पाठको पुनपुन दोहराना आम्नाय है । ( तसा ७ /११ ), ( अन ध. ७/८७/७१६) रावा. १/२५/२/६२४/१६ मतदाचारस्पेस कि निर पेक्षस्य द्रुतविलम्बितादिवाविशुद्ध परिवर्तनमाम्नाय इत्युपदिश्यते । - आचारपारगामी व्रतीका लौकिक फलकी अपेक्षा किये बिना द्रुतविलम्बितादि पाठ दोषोसे रहित होकर पाठका फेरना, घोखना आम्नाय है । (चासा १५३ / ३) आय - १ आयका वर्गीकरण - दे. दान ।
२. सब गुणस्थानों व
मार्गणा स्थानो में आयके अनुसार व्यय ।
- ये मार्गणा । आयत- -१. आयत चतुरस्राकार - ( ज प / प्र.१०५ ) Rectangular २ तिर्यक् आयत चतुरस्र - ( ज प / प्र १०५ ) Cuboid | ३ आयत सामान्य - ऊर्ध्वता सामान्य अर्थात् एक द्रव्यकी सर्व पर्याय में रहनेवाला एक अन्वय सामान्य । दे. क्रम ६ ।
आयतन
१. आयतन व अनायतनका लक्षण
बो.पा/म. ५-७ मणवयण कायदव्वा आसता जस्स इंदिया विसया । आयदण जिणमग्गे णिद्दिट्ठ सजय रूवं ॥५॥ मय राय दोस मोहो कोहो लोहो य जस्स आयत्ता पचमहन्वयधरा आयदण महरिसी भणिये ॥ सिद्ध जस्स सदस्य विशुद्धावस्स पाजुत्तरस सिद्धायवणं सिद्ध मुविश्वसहस्स मुविदस्थ ॥७५ जिन मार्ग वि सयम सहित मुनिरूप है सो आयतन कहा है। कैसा है मुनिरूपजाकै मन, वचन, काय तथा पचेन्द्रियो के विषय अधीन है अर्थात् जो इनके वश नहीं है परन्तु यह ही जिनके वशीभूत है ॥५॥ जाकै मद, राग, द्व ेष, मोह, क्रोध और माया ये सर्व निग्रह के प्राप्त भये है, बहुरि पाँच महाव्रतोको धारण करनेवाले है ॥ ६ ॥ जाकै सदर्थ अर्थात् शुद्धात्मा सिद्ध भया है, जो विशुद्ध शुक्लध्यान कर युक्त है। जिन्हे केवलज्ञान प्राप्त भया है, जो मुनिवर वृषभ अर्थात् मुनियोमे प्रधान है ऐसे भगवान् भी सिद्धायतन है ॥७॥
१६ दानामायतनं गृहमावास आश्रयआधारकरण निमितमायतन भग्यते तद्विपक्षभूतमनाशनमिति ।
= सम्यक्त्वादि गुणोका आयतन घर आवास- आश्रय (आधार) करने का निमित्त, उसको 'आयतन' कहते हैं और उससे विपरीत अनायतन है।
२ बौद्धके द्वादश आयतन निर्देश
बो.पा./टी. ६ / ७५ पर उधृत "पचेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषया. पञ्चमानसं । धर्मायतनमेतानि द्वादशायतनानि च । - बौद्ध मतमें आयतनका ऐसा लक्षण है - पाँच इन्द्रिय, शब्दादि पाँच विषय, मन व धर्म इस प्रकार १२ आयतन होते हैं ।
३. षट् अनायतन निर्देश
स.टी ४९/१६६/२ अथानायतनप कथयति । मिथ्यादेवी, मिथ्यादेवाराको मिथ्यातपो मिध्यातपस्वी मिध्यागमो मिथ्यामधरा. पुरुषाश्वयुक्तलक्षणमनायतनषट्कं । - अब छह अनायतनोंका कथन करते है-मिथ्यादेव मिध्यादेके सेवक मिध्यात मिध्यात वस्वो, मिथ्याशास्त्र और मिथ्याशाखोके धारक, इस प्रकारके छह अनायतन सरागसम्यग्दृष्टियोको त्याग करने चाहिए।
पाटो ६२४पर भूत "देवगुरुशाखाणां तद्भक्तानां गृहे गतिः। षडनायतनमित्येवं वदन्ति विदितागमा ||१|| प्रभाचन्द्रस्त्वेवं वदति मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणि त्रीणि त्रयं च तद्वन्त पुरुषा' षडनायनानि अथवा अस सर्वज्ञायतनं, २ असा अस
३
१
२५१
आयु
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ज्ञानसमवेत पुरुष, ४ असर्वज्ञानुष्ठान ५ असर्व ज्ञानुष्ठानसमवेत पुरुषश्चेति । कुदेव, कुगुरु, व कुशास्त्रके तथा इन तीनोके उपासको के घरों में आना-जाना, इनको आगमकारोने षडनायतन ऐसा नाम दिय है ॥१॥ प्राचन्द्र आचार्य ऐसा कहते है कि मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र ये तीन तथा इन तीनो के धारक अर्थात् मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी व मिथ्या आचारवान् पुरुष, यह छह अनायतन है । अथवा १ असर्वज्ञ, २ असर्वज्ञ देवका मन्दिर, ३ असर्वज्ञ ज्ञान, ४ असर्वज्ञ ज्ञानका धारक पुरुष, ५ असर्वज्ञज्ञानके अनुकूल आचार, ६ और उस आचारके धारक पुरुष यह छह अनायतन है। आयाम—१ Length (ज. १०५) २. गुणहानि आयाम । प / प्र । - दे. गणित II / ६ / २ । ३ गुणश्रेणी आयाम - दे. सक्रमण ८ । - जीवकी किसी विवक्षित शरीर में टिके रहनेकी अवधिका नाम आयुही आयु है। इस आयुका निमिचकर्म आयुकर्म कहलाता है। यद्यपि गतिकी भाँति वह भी नरकादि चार प्रकारका है, पर गति में और आयुर्गे अन्तर है। गति जीवको हर समय मंधती है, पर आयु बन्धके योग्य सारे जीवन में केवल आठ अवसर आते है जिन्हें अपकर्ष कहते है। जिस आयुका उदय आता है उसी गतिका उदय आता है अन्य गति नामक कर्म भी उसी रूप से संक्रमण द्वारा अपना फल देते है । आयुकर्म दो प्रकारसे जाना जाता है- भुज्यमान व अध्ययान । वर्तमान भव में जिसका उदय आ रहा है वह भुज्यमान है और इसीमे जो अगले भवकी आयु बॅधी है सो बध्यमान है । भुज्यमान द्वायुका तो बदलीपात आदिके निमित्त केवल अपकर्षण हो सकता है उत्कर्षण नही पर बध्यमान आयुका परिणामोके निमित्त से उत्कर्षण व अपकर्षण दोनों सम्भव है। किन्तु विवक्षत आयुकर्मका अन्य आयु रूपसे सक्रमण होना कभी भी सम्भव नहीं है। अर्थात् जिस जातिकी आयु बँधी है उसे अवश्य भोगना पडेगा ।
१ भेद व लक्षण
१ आयु सामान्यका लक्षण
२ आयुष्यका लक्षण
३ आयु सामान्यके दो भेद ( भवायु व अद्धायु) ४ आयु सत्त्वके दो भेद (भुज्यमान व बद्धधमान) ५ भवायु व अद्धायूके लक्षण
६ भुज्यमान व बड्यमान आयुके लक्षण कर्म सामान्यका लक्षण
७ आयु
*
/
★ आयु कर्मके उदाहरण दे प्रकृतिबन्ध २ ८ आयुकर्मके चार भेद (नरकादि)
९ आयुकर्मके असंख्यात भेव
१० आयुकर्म विशेष के लक्षण २ आयु निर्देश
१ आयुके लक्षण सम्बन्धी शंका २ गतिबन्ध जन्मका कारण नही आयुबन्ध है।
३ जिस भवकी आयु बँधी नियमसे वही उत्पन्न होता है * विग्रह गतिमे अगली आयुका उदयदे, उदय ४ ४ देव नारकियोको बहुलताको अपेक्षा असंख्यात वर्षायुष्क कहा है
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आयु
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विषय-सूची
३ आयु कर्मक बन्धयोग्य परिणाम १ मध्यम परिणामोमे ही आयु बँधती है २ अल्पायु बन्ध योग्य परिणाम ३ नरकायु सामान्यके बन्ध योग्य परिणाम ४ नरकायु विशेषके बन्ध योग्य परिणाम ५ कर्म भूमिज तिर्यश्च आयुके बन्ध योग्य परिणाम ६ भोग , , , , " ७ कर्म भूमिज मनुष्योंके बन्ध योग्य परिणाम ८ शलाका पुरुषोंकी आयुके बन्ध योग्य परिणाम ९ सुभोग भूमिजोंकी आयुके बन्ध योग्य परिणाम १० कुभोग भूमिज मनुष्यायुके बन्ध योग्य परिणाम ११ देवायु सामान्यके बन्ध योग्य परिणाम १२ भवनत्रिक आयु सामान्यके बन्ध योग्य परिणाम १३ भवनवासी देवायुके बन्ध योग्य परिणाम १४ व्यन्तर तथा नीच देवोकी आयुके बन्ध योग्य परिणाम १५ ज्योतिष देवायुके बन्ध योग्य परिणाम १६ कल्पवासी देवायु सामान्यके बन्ध योग्य परिणाम १७ कल्पवासी देवायु विशेषके बन्ध योग्य परिणाम १८ लौकान्तिक देवायुके बन्ध योग्यपरिणाम १९ कषाय व लेश्याकी अपेक्षा आय बन्धके २० स्थान * आयुके बन्धमे संक्लेश व विशुद्ध परिणामोंका स्थान
-दे, स्थिति ४ ४ आठ अपकर्ष काल निर्देश १ कर्म भूमिजोंकी अपेक्षा आठ अपकर्ष २ भोग भमिजों तथा देव नारकियोंकी अपेक्षा ८ अपकर्ष ३ आठ अपकर्ष कालोंमे न बँधे तो अन्त समयमें बंधती है ४ आयुके त्रिभाग शेष रहनेपर ही अपकर्ष काल आने
सम्बन्धी दृष्टि भेद ५ अन्तिम समयमे केवल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही आयु
बंधती है ६ आठ अपकर्ष कालोंमे बंधी आयुका समीकरण ७ अन्य अपकर्षमें आयु बन्धके प्रमाणमें चार वृद्धि व
हानि सम्भव है ८ उसी अपकर्ष कालके सर्व समयोंमें उत्तरोत्तर हीन
बन्ध होता है * आठ सात आदि अपकर्षों में आय बांधने वालों का
अल्पबहुत्व -दे. अल्पमत्व ३/६/१५ ५ मायके उत्कर्षण व अपवर्तन सम्बन्धी नियम १ बद्धधमान व भुज्यमान दोनों आयुओंका अपवर्तन
सम्भव है
* भुज्यमान आयुके अपवर्तन सम्बन्धी नियम-दे.मरण ४ २ परन्तु वद्धयमान आयुकी उदीरणा नही होती ३ उत्कृष्ट आयुके अनुभागका अपवर्तन सम्भव है ४ असंख्यात वर्षायष्को तथा चरम शरीरियोंकी आयका
अपवर्तन नही होता * आयुका स्थिति काण्डक घात नही होता-दे. अपकर्षण ४ ५ भुज्यमान आयुपर्यन्त बद्धयमान आयुमे बाधा सम्भव है ६ चारों आयुओंका परम्परमे संक्रमण नही होता ७ सयमकी विराधनासे आयुका अपवर्तन हो जाता है * अकाल मृत्यमे आयुका अपवर्तन -वे. मरण ४
८ आयुका अनुभाग व स्थिति घात साथ-साथ होते हैं ६ आयुबन्ध सम्बन्धी नियम १ तिर्यंचोंको उत्कृष्ट आयु भोगभूमि, स्वयम्भूरमण द्वीप
व कर्मभूमिके चार कालोमे ही सम्भव है २ भोगभूमिजोंमे भी आयु हीनाधिक हो सकती है ३ बद्धायुष्क व घातायुष्क देवोकी आयु सम्बन्धी स्पष्टी
करण ४ चारों गतियोमे परस्पर आयुबन्ध सम्बन्धी ५ आयुके साथ वही गति प्रकृति बँधती है ६ एक भवमे एक ही आयुका बन्ध सम्भव है ७ बतायष्कोंमे सम्यक्त्व व गणस्थान प्राप्ति सम्बन्धी ८ बद्धयमान देवायुष्कका सम्यक्त्व विराधित नही होता ९बन्ध उदय सत्त्व सम्बन्धी सयोगी भंग १० मिश्रयोगोंमे आयुका बन्ध सम्भव नही * आयुकी आबाधा सम्बन्धी –दे आबाधा आयुविषयक प्ररूपणाएँ १ नरक गति सम्बन्धी २ तिथंच गति सम्बन्धी ३ एक अन्तर्मुहूर्तमे ल. अप. के सम्भव निरन्तर क्षुद्रभव ४ मनुष्य गति सम्बन्धी ५ भोग भूमिजों व कर्म भूमिजों सम्बन्धी * तीथंकरों व शलाका पुरुषोकी आयु -दे, वह यह माम ६ देवगतिमें व्यन्तर देवो सम्बन्धी ७ देवगतिमें भवनवासियो सम्बन्धी ८ देवगतिमें ज्योतिष देवो सम्बन्धी ९ देवगतिमे वैमानिक देव सामान्य सम्बन्धी १० वैमानिक देवोमें इन्द्रों व उनके परिवार देवों सम्बन्धी ११ वैमानिक इन्द्रों अथवा देवोंकी देवियों सम्बन्धी १२ देवों द्वारा बन्ध योग्य जघन्य आयु
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आयु
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२. आयु निर्देश
* काय सम्बन्धी स्थिति -दे. काल ५६ * भव स्थिति व काय स्थितिमे अन्तर -दे स्थिति २ * गति अगति विषयक ओघ आदेश प्ररूपणा-दे जन्म ६ * आयु प्रकृतियोंकी बन्ध उदय व सत्त्व प्ररूपणा तथा
तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान-दे 'वह वह नाम' * आयु प्रकरणमे ग्रहण किये गये पल्य सागर आदिका
-दे. गणित I//t
अर्थ
१. भेद व लक्षण
१. बाय सामान्यका लक्षण रा.वा. ३/२७/३/१९१/२४ आयुर्जीवितपरिणामम् । रा.वा ८/१०/२/५७५/१२ यस्य भावात् आत्मन जीवित भवति यस्य
चाभावात मृत इत्युच्यते तद्भवधारण मायुरित्युच्यते। -जीवनके परिणामका नाम आयु है। अथवा जिसके सद्भावसे आत्माका जीवितव्य होता है तथा जिसके अभावसे मृत्यु कही जाती है उसी प्रकार
भवधारणको हो आयु कहते है। प्रसा./त प्र १४६ भवधारणनिमित्तमायु प्राण । -भवधारणका निमित्त
आयु प्राण है। २. आयुष्यका लक्षण गो.जो /भाषा २५८/५६६/१५ आयुका प्रमाण सो आयुष्य है।
३. आयु सामान्यके दो भेद (भवायु व श्रद्धायु) भ.आ./वि.२५४८५/१६ तत्रायुविभेदं अद्धायुर्भवायुरिति च ।। अर्थापक्षया
द्रव्याणामनाद्यनिधनं भवत्यद्धायुः । पर्यायापेक्षया चतुर्विधं भवत्यनाद्यनिधनं, साद्यनिधनं, सनिधनमनादि, सादिसनिधनमिति ।
आयुके दो भेद है- भवायु और अद्धायु । द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा द्रव्योंका अद्धायु अनाद्यनिधन है अर्थात् द्रव्य अनादि कालसे चला आया है और वह अनन्त काल तक अपने स्वरूपसे च्युत न होगा, इसीलिए उसको अनादि अनिधन भी कहते है। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा जब विचार करते है तो अद्धायुके चार भेद होते है, वे इस प्रकार है-अनाद्यनिधन, साद्यनिधन, सनिधन अनादि, सादि सनिधनता। ४. आयु सत्त्वके दो भेद (भुज्यमान व बद्धधमान) गो क /भाषा ३३६/४८७/१० विद्यमान जिस आयुको भोगवै सो भुज्यमान
अर आगामी जाका बन्ध किया सो मद्ध्यमान ऐसे दोऊ प्रकार अपेक्षा करि.. आयुका सत्त्व है।
१. भवायु व अद्धायु के लक्षण भ आ./वि. २८/८५/१६ भवधारणं भवायुर्भव शरीरं तच्च धियते आत्मन.
आयुष्कोदयेन ततो भवधारणमायुष्कारव्यं कर्म तदेव भवायुरित्युच्यते। तथा चोक्तम्-देहो भवोत्ति उच्चदि धारिजइ आउगेण य भवो सो। तो उच्चदि भवधारणमाउगकम्म भवाउत्ति । इति आयुर्व शेनैव जीवो जायतै जीवति च आयुष एवोदयेन । अन्यस्यायुष उदये सृति मृतिमुपैति पूर्वस्य चायुष्कस्य विनाशे । तथा चोक्तम्-आउगवसेण जीवो जायदि जीवदि य आउगस्सुदये । अण्णाउगोदये वा मरदिय प्रत्याउणासे वा इति॥ अद्धा शब्देन काल इत्युच्यते। आउगशब्देन द्रव्यस्य स्थितिः तेन द्रव्याण स्थितिकाल अद्घायु रित्युच्यते इति। -१. भव धारण करना वह भवायु है । शरीरको भव कहते हैं। इस शरीरको आत्मा आय का साहाय्य प्राप्त करके धारण करता है, अतः शरीर धारण कराने में समर्थ ऐसे आयु कर्मको भवायु कहते है । इस विषयमें अन्य आचार्य ऐसा कहते हैं-देहको भव कहते है। वह भव आय
कर्मसे धारण किया जाता है, अत: भत्र धारण करानेवाले आय कर्म को भवायु ऐसा कहा है, आयकर्म के उदयसे ही उसका जीवन स्थिर है, और जब प्रस्तुत आयु कर्मसे भिन्न अन्य आय कर्मका उदय होता है, तब यह जीव मरणावस्थाको प्राप्त होता है । मरण समयमें पूर्वायुका विनाश होता है। इस विषयमें पूर्वाचार्य ऐसा कहते है-कि आयु कर्म के उदयसे जीव उत्पन्न होता है और आयुकर्मके उदयसे जीता है। अन्य आयुके उदय में मर जाता है। उस समय पूर्व आयका विनाश हो जाता है। २ अद्धा शब्दका 'काल' ऐसा अर्थ है, और आयु शब्दसे द्रव्यकी स्थिति ऐसा अर्थ समझना चाहिए। द्रव्यका जो स्थितिकाल उसको अद्धायु कहते हैं। ६. भुज्यमान व बद्धधमान आयुके लक्षण गो क./भाषा ३३६/४८७/१० विद्यमान जिस आयुको भोगवे सो भुज्यमान अर अगामी जाका बन्ध किया सो बद्धधमान (आयु कहलाती है)। १० आयुकर्म सामान्यका लक्षण स सि.८/३/३७८/९ प्रकृतिः स्वभाव. I...आयुषो भवधारणम् । तदेवलक्षण कार्य। -प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है। भवधारण आयु कर्मकी प्रकृति है। इस प्रकारका लक्षण किया जाता है। स.सि ८/४/३८०/५ इत्यनेन नारकादि भवमेत्तीत्यायु -जिसके द्वारा
नारकादि भवोंको जाता है वह आयुकर्म है । (रा वा. ८/४/२/५६८/२), (गो क /जी प्र ३३/२८/११) ध.६/१,६-१,६/१२/१० एति भवधारणं प्रति इत्यायु । - जो भव धारण___ के प्रति जाता है वह आयुकर्म है । (ध १३/५.५,६८/३६२/६) । गो. क /मू. १९४८ कम्मकयमोहव वियस सारम्हि य अणादिजुत्तेहि । जीवस्स अवट्ठाण करेदि आऊ हलिव्व णरं ॥११॥ आयु कर्मका उदय है सो कर्मकरि किया अर अज्ञान असंयम मिथ्यात्व करि वृद्धिको प्राप्त भया ऐसा अनादि संसार ताविषै च्यारि गतिनिमै जीव अवस्थानको करै है। जैसे काष्ठका खोडा अपने छिद्र में जाकर पग आया होय ताकि तहाँ हौ स्थिति करावै तैसे आयुकर्म जिस गति सम्बन्धी उदयरूप होइ तिस ही गति विषै जीवकी स्थिति करावै है। (इ.सं./ टी ३३/१२). (गो क./जी.प्र २०/१३)
८. आयकर्मके चार भेद (नरकायु आदि) त.सु. ८/१० नारकर्यग्योनमानुषदैवानि ॥१०॥ - नरकायु, तियंचायु, मनुष्यायु और देवायु ये चार आयुकर्म के भेद हैं। (पं.सं./प्रा २/४) (ष.ख. ६,६-१/ २५/४८), (ष ख./पु. १२/४२,१४/सू. १३/४८३), (ष ख. १३/५.४/सु.६६/३६२) (म.ब/पु. १/8:/२८) (गो.क/जी,प्र.३३/२८/१९) (पं. सं./सं. २/२०)
६. आयु कर्मके असंख्यात भेद घ. १२/४,२.१४.१६/४८३/३ पज्जवट्ठियणए पुण अवलं बिजमाणे आउअपयडी वि असंखेजलोगमेत्ता भव दि, कम्मोदयवियप्पाणमसखेज्जलोगमत्ताणमुवलभादो। - पर्यायार्थिक नयका आवलम्बन करनेपर तो आयुकी प्रकृतियाँ भी असंख्यात लोकमात्र है। क्योंकि कर्मके उदय रूप विकल्प असंख्यात लोकमात्र पाये जाते हैं । १०. आयुकर्म विशेषके लक्षण स.सि ८/१०/८ नरकेषु तीवशीतोष्णवेदनेषु यन्निमित्त दीर्घजीवन
तन्नारकम् । एव शेषेष्वपि । -तीव शीत उष्ण वेदनावाले नरकों में जिसके निमित्तसे दीर्घ जीवन होता है वह नारक आयु है। इसी प्रकार शेष आयुओमें भी जानना चाहिए। २ आय निर्देश
१. आयुके लक्षण सम्बन्धी शंका र 1.८/१०/३/५७१/१४ स्यादेतत-अन्नादि तन्निमित्तं तल्लाभालाभ
र्जीवितमरणदर्शनादिति, तन्न, किं कारणम् । तस्यानुप्राहकत्वात...
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आयु
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३. आयकर्मके बन्धयोयर परिणाम
अतश्चैतदेवं यत् क्षीणायुषोऽन्नादिसंनिधानेऽपि मरणं दृश्यते ।... देवेषु नारकेषु चान्नाद्यभावाद भवधारणमायुरधीनमेवेत्यवसैयम् । प्रश्न-जीवनका निमित्त तो अन्नादिक है, क्योंकि, उसके लाभसे जीवन और अलाभसे मरण देखा जाता है। उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि अन्नादि तो अयुके अनुग्राहकमात्र हैं, मूल कारण नहीं है। क्योंकि आयुके क्षोण हो जानेपर अन्नादिको प्राप्तिमें भी मरण देखा जाता है। फिर सर्वत्र अन्नादिक अनुग्राहक भी तो नहीं होते, क्योंकि देवों और नारकियोंके अन्नादिकका आहार नहीं होता है । अत' यह सिद्ध होता है कि भवधारण आयुके ही आधीन है।
२ गतिबन्ध जन्मका कारण नहीं आयुबन्ध है ध.१/१,१.८३/३२४/५ नापि नरकगतिकर्मणः सर तस्य तत्रोत्पत्ते कारणं
तत्सत्त्व प्रत्यविशेषतः सकलपञ्चेन्द्रियाणामपि नरकप्राप्ति प्रसङ्गात् । नित्यनिगोदानामपि विद्यमानत्रसकर्मणा सेषूरपत्तिप्रसङ्गात् । -नरकगतिका सत्व भो (सम्यग्दृष्टिके) नरकमें उत्पत्तिका कारण कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, नरकगतिके सत्त्वके प्रति कोई विशेषता न होनेसे सभी पंचेन्द्रियोंकी नरकगतिका प्रसग आ आयेगा। तथा नित्य निगोदिया जीवोंके भी सकर्मकी सत्ता विद्यमान रहती है, इसलिए उनको भी त्रसों में उत्पत्ति होने लगेगी।
३ जिस भवकी आयु बंधी नियमसे वहीं उत्पन्न होता है रा वा.८/२१/१/१८३/१८ न हि नरकायुर्मखेन तिर्यगायुर्मनुष्यायु विपच्यते। -'नराकायु' नरकायु रूपसे ही फल देगी तिर्यंचायु वा
मनुष्यायु रूपसे नहीं। ध.१०/४,२,४,४०/२३६/३ जिस्से गईए आउअ बद्ध तस्थेव णिच्छएण उपजत्ति त्ति ।-जिस गतिकी आयु माँधी गयी है। निश्चयसे वहाँ ही उत्पन्न होता है। ४. देव वनारकियोंको बहलताको अपेक्षा असंख्यात
वर्षायुक कहा गया है ध.११/४.२,६,८/१०/१ देवणेरहएम सखेजबासाउसत्तमिदि भणिवे सच्चं ण ते असखेजवासाउआ. किंतु सखेज वासाउआ चेव: समयाहियपुवकोडिप्पहुडि उवरिमाउअवियप्पाण असंखेजवासाउ अत्तब्भुवगमादो। कधं समयाहियपुत्रकोडीए संखेजवासाए असं खेज्जवासत्तं । ण, रायरुक्खो व रूढिवलेण परिचत्तसगट्ठस्स असंखेज्जवस्सहस्स आउअक्सेिसम्मि वट्टमाणस्स गहणादो।प्रश्न-देव व नारकी तो संख्यात वर्षायुक्त भी होते हैं, फिर यहाँ उनका ग्रहण असरूपात वर्षायुष्क पदसे कैसे सम्भव है । उत्तर-इस शंकाके उत्तर में कहते है कि सचमुच में वे असंख्यात वर्षायुष्क नहीं हैं, किन्तु सख्यात वर्षायुष्क ही है। परन्तु यहाँ एक समय अधिक पूर्व कोटिको आदि लेकर आगेके आयु विकल्पोंको असंख्यातवर्षायुके भीतर स्वीकार किया गया है। प्रश्न-एक समय अधिक पूर्व कोटिके असरख्यातवर्ष रूपता कैसे सम्भव है : उत्तर-नहीं, क्योंकि, राजवृक्ष (वृक्षविशेष) के समान 'असख्यात वर्ष' शब्द रूढिवश अपने अर्थको छोड़कर आयुबिशेषमें रहनेवाला यहाँ ग्रहण किया गया है। ३. आयुकर्मके बन्धयोग्य परिणाम
१. मध्यम परिणामोंमें ही आयु बंधती है घ. १२/४,२,७,३२/२७/१२ अइजहण्णा आउवधस्स अप्पाओग्गं । अइमहवला पि अप्पाओग्ग चेव, सभाबियादो तत्थ दोणं विच्चाले दिया परियत्तमाणमज्झिपरिणामा बुच्च ति। -अति जघन्य परिणाम आयु बन्धके अयोग्य हैं । अत्यन्त महान् परिणाम भी आयु मन्धके अयोग्य ही हैं क्योंकि ऐसा स्वभाव है। किम्तु उन दोनों के मध्यमें अवस्थित परिणाम परिवर्तमान मध्यम परिणाम कहलाते है। (उनमें यथायोग्य परिणामोंसे आयु बन्ध होता है।)
गो. क.मू ५१८/११३ लेस्साणां खलु अंसा छन्वीसा होति तत्यमज्झिमया। आउगबंधणजोग्गा अवगरिसकालभवा । लेश्यानिके छब्बीस अश है तहाँ छही लेश्यानिकै जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदकरि अठारह अश है, बहुरि कापोत लेश्याके उत्कृष्ट अंश तै आगै अर तेजो लेश्याके उत्कृष्ट अश तै पहिलै कषायनिका उदय स्थानकनिविषे आठ मध्यम अश है जैसे छबीस अश भए । तहाँ आय कर्म के बन्ध योग्य आठ मध्यम अंश जानने। (रा. वा. ४/२२/१०/ २४०/१) गो, क /जी. प्र.५४६/७२६/२१ अशेषक्रोधकषायानुभागोदयस्थानान्यसंख्यातलोकमात्रषड्ढानिवृद्धिपतितासंख्यातलोकमात्राणि तेष्वसख्यातलोकभक्तबहुभागमात्राणि सक्लेशस्थानानि तदेकमात्रभागमात्राणि विशुद्धस्थानानि । तेषु लेश्यापदानि चतुर्दश लेश्याशा षड्विंशति । तत्र मध्यमा अष्टौ आयुर्बद्धनिबन्धना.। समस्त क्रोध कषाय के अनुभाग रूप उदयस्थान असंख्यात लोकमात्र षट् स्थानपतित हानि को लिये असंख्यात लोकप्रमाण है । तिनको यथायोग्य असंख्यात लोकका भाग दिए तहाँ एक भाग बिना बहभाग प्रमाण तौ संक्लेश स्थान हैं। एक भाग प्रमाण विशुद्धिस्थान है। तिन विर्षे लेश्यापद चौदह हैं । लेश्यानिके अश छब्बीस है। तिन विषै मध्यके आठ अश आयुके बन्धको कारण हैं। २ अल्पायुके बन्ध योग्य परिणाम भ. आ./वि ४४६/६५४/४ सदा परप्राणिधातोद्यतस्तदीयप्रियतमजो वितविनाशनात् प्रायेणाल्पायुरेव भवति ।- जो प्राणी हमेशा पर जीवोका घात करके उनके प्रिय जीवितका नाश करता है वह प्राय अल्पायुषी ही होता है। ३. नरकायु सामान्यके बन्ध योग्य परिणाम तसु६/१५.१६ बहारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुष ॥१५॥ निश्श लबतित्व
च सर्वेषाम् ॥१६-बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रहवालेका भाव नरकायका आस्रव है ॥१५॥ शीलरहित और बतरहित होना सब
आयु ओंका असव है ॥१६॥ स. सि. ६/१५/३३३/६ हिंसादिक्रूरकर्माजस्रप्रवर्तनपरस्वहरणविषयातिगृद्धिकृष्णलेश्याभिजातरौद्रध्यानमरण कालतादिलक्षणो नारकस्याय्ष आत्रवो भवति ।-हिसादि क्रूर कार्यों में निरन्तर प्रवृत्ति, दुसरेके धनका हरण, इन्द्रियों के विषयों में अत्यन्त आसक्ति, तथा मरनेके समय कृष्णलेश्या और रौद्रध्यान आदिका होना नरकाय के आस्रव है। ति. ५.२/२६३-२६४ आउस्स बधसमए सिलोव्व सेलो वेशमले य। किमिरायकसायाणं उदयम्मि अधेदि णिरयाउ ॥२६॥ किण्हाय णोलकाऊणुदयादोबंधिऊण णिरयाऊ । मरिऊण ताहि जुत्तो पावर णिरयं महाघोरं ॥२६४ आयु बन्धके समय सिलकी रेखाके समान क्रोध, शलके समान मान, बाँसकी जडके समान माया, और कृमिरागके समान लोभ कषायका उदय होनेपर नरक आयुका बन्ध होता है।श कृष्ण नील अथवा कापोत इन तीन लेश्याओंका उदय होनेसे नरकायुको बांधकर और मरकर उन्हीं लेश्याओं से युक्त होकर महाभयानक नरकको प्राप्त करता है ।२६४॥ त सा. ४/३०-३४ उत्कृष्टमानता शैलराजीसदृशरोषता। मिथ्यात्वं तीव्रलोभत्वं नित्यं निरनुकम्पता ॥३०॥ अजस्र जीवधातित्व सततानृतवादिता। परस्वहरणं नित्यं नित्यं मैथुनसेवनम् ॥३१॥ कामभोगाभिलाषाणां नित्य चातिप्रवृद्धता । जिनस्यासादनं साधुसमयस्य च भेदनम् ॥३२॥ मारिताम्रचूडादिपापीय प्राणिपोषणम् । नै शोल्य च महारम्भपरिग्रहतया सह ॥३३॥ कृष्णलेश्यापरिणतं रौद्रध्यानं चतुर्विधम् । आयुषो नारकस्येति भवन्त्यास्रबहेतवः ॥३४॥ = कठोर पत्थरके समान तीव्रमान, पर्वतमालाओं के समान अभेद्य क्रोध रखना, मिथ्याष्टि होना, तीच लोभ होना सदा निर्दयी बने रहना, सदा जीवधात करना, सदा ही झूठ बोलने में प्रेम मानना, सदा परधन
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आयु
हरने में लगे रहना, नित्य मैथुन सेवन करना, काम भोगोंकी अभिलाषा सदा ही जाज्वल्यमान रखना, जिन भगवान्की आसादना करना, साधु धमका उच्छेद करना, बिल्ली, कुत्ते, मुर्गे इत्यादि पापी प्राणियोको पालना, शोलवत रहित बने रहना और आरम्भ परिग्रहको अति बढाना, कृष्ण लेश्या रहना, चारो रौद्रध्यान में लगे रहना, इतने अशुभ कर्म नरकायुके आसत्र हेतु है । अर्थात् जिन कर्मोको क्रूरकर्म कहते है और जिन्हे उपसन कहते है, ने सभी नरकायुके कारण है । (रा. वा. ६/१५/३/५२५/३१) ( म पु १०/२२-२७) गो.क./मू. ०४/१०२ मियो हू महार भो पिस्सीलो तिलोत रिया निबंध पाईपरिणामी जी जीन मियातमरूप मिथ्यादृष्टि होइ, बहुत आर भी होड़, शोल रहित होइ, तीव्र लोभ संयुक्त होइ, रौद्र परिणामी होइ, पाप कार्य विषै जाकी बुद्धि होह सो जीव नरकाको माँ है।
४. नरकाय विशेषके बन्धयोग्य परिणाम
वि. २/ २६६.२१५३०१ धम्मपरिचतो अप
बहुकोही किण्हाए जम्मदि धूमादि चरिमते ॥ २६६ ॥ । बहुसा जीलाए जम्मदि तं चेत्र धूमतं ॥ २६८ | काऊए सजुत्तो जम्मदि घम्मादिमेषं तं ॥ ३० ॥ दया, धर्मसे रहित, वैरका न छोडने वाला, प्रचड कलह करने वाला और काधी जीव कृष्ण लेश्या के साथ बहुत धूमप्रभासे लेकर अन्तिम पृथ्वी तक जन्म लेता है ॥२६६ ॥ • आहारादि चारों सज्ञाओंमें आसक्त ऐसा जीव नील लेश्या के साथ धूमवभा पृथ्वी तक में जन्म लेता है ॥२८॥ । कापोत लेश्यासे सयुक्त हा कर घर्मासे लेकर मेत्रा पृथ्वी तक में जन्म लेता है ।
४. कर्मभू मज तिथंच आयुके बन्धयोग्य परिणाम
तसू ६ / ९६ माया तेर्यग्योनस्य ॥ १६ ॥ - माया तियं चायुक्त सत्र है । स.सि./९६/३/३ तरच मिध्यात्वधिवेशनानि शीतासि सन्धानप्रिया नीलका पोलेश्या ध्यानमरणकालादि धर्मोपदेशमें मिथ्या बार्तोको मिलाकर उनका प्रचार करना, शोलरहित जीवन बिताना, अति संधानप्रियता तथा मरणके समय नील व कापोत तेश्या और जार्त ध्यानका होना आदि तिर्याआ है। रा. वा. ६/१६/१/५२६/८ प्रपञ्चस्तु मिथ्यात्वोपष्टम्भा धर्मदेशना-नपरम्परा ति निकृति कूटकर्मा पनिभेदम पनि शीताशब्दवचनातिसन्धानप्रियता भेदकरणारसस्पर्शाग्यत्वापादन-जातिकुली पण विसादनाभिसन्धिमि ब्याजी सद्गुणरूपपणा सगुणख्यापन-नीलका सश्यापर नाम- जार्त ध्यानमरणकालादिलक्षण प्रत्येतस्य मिध्यात्वयुक्त अधर्मका उपदेश महुआरम्भ, बहुपरि अतिबंचना कूटकर्म पृथ्वीको रेखाके समान रोषादि, नि शील्ता, शब्द और स बेतादिसे परिवचनाका षड्यन्त्र, छल-प्रपञ्चको रुचि, भेद उत्पन्न करना, अनर्थोद्भावन, वर्ण, रस, गन्ध आदिको विकृत करनेकी अभिरुचि, जातिकुलशीलदूषण, विवाद रुचि, मिध्याजीवित्व, सगुण सोप असद्गुणख्यापन, नीलकापोतलेश्या रूप परिणाम, आर्तध्यान, मरण समयमें आर्य रोड परिणाम इत्यादि तियंचारके बासयके कारण है। (रा. सा, ४/१५-१६) (और मो देस आगे आयु२/१२) गोक / म. ८०५/१८२ उम्मग्गदेसगो मग्गणासगो गूढहियमाइल्लो सठसीलो य ससल्लो तिरियाउ' बधवे जीवो ॥८०५॥ =जो जीव विपरीत मार्ग का उपदेशक होई. भामार्ग नाशक होई, गूट और जानने में न आवै ऐसा जाका हृदय परिणाम होइ, मायावी कटी होई अर राठ मूर्खता गयुक्त जाका सहज स्वभाव होइ, शल्यकरि सयुक्त होइ सो जीवतियंच आयुको बाँधे है ।
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६. भोग भूमिज तिथंच आयुके बन्धयोग्य परिणाम त. प. ४/३७२-३७४ दादूण केइ दाण पत्तविसेसेसु के वि दाणाण अणुमोदणेण तिरिया भोगविदीए वि जायंति ॥ ३७२ ॥ गहिदूण जिलिंग
३. आयुकर्मके बन्धयोग्य परिणाम
संजम सम्मत्तभाव परिवत्ता । मायाचारपयट्टा चारितं णसयंति जे पावा ॥ ३७३ ॥ दादूण कुलिंगीण णाणादाणाणि जे जरा मुद्धा । तव्वेसधरा
भोगीत तिरिया ॥ ३७४॥ - कोई पात्र विशेषको दान देकर और कोई दानों की अनुमोदना करके वियच भी भोगभूमिमैं उत्पन्न होते है || ३७२ || जो पापी जिनलिंगको ( मुनित्रत) को ग्रहण करके सयम एवं सम्यक्त्व भावको छोड देते हैं और पश्चाद मायाचार में प्रवृत्त होकर चारित्रको नष्ट कर देते हैं; तथा जो कोई मूर्ख मनुष्य कुलिगियो का नाना प्रकारके दान देते हैं या उनके भेषको धारण करते हैं वे भोग भूमिमें तिर्यच होते हैं।
७ कर्मभूमिज मनुष्यायुके बन्धयोग्य परिणाम
सू. ६/१७-१८ पारम्भपरियहत्व मानुषस्य ॥१७॥ स्वभावमान च ।। १८ ।। = अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह वालेका भाव मनुष्यायु का आसन है ||७|| स्वभावकी मृदुता भी मनुष्यायुका आसव है। ससि ६/१७-१८ / ३३४/८ नारकायुराभवो व्याख्यात । तद्विपरीतो मानुषस्यायुष इति संक्षेप । तहव्यास - विनीतस्वभाव' प्रकृतिभद्रता गुणपाहाता तवात्पवं मरण कालास क्लेशतादि ॥१७॥...स्वभावेन मार्दवम् उपदेशानपेक्षभिस्वर्थ । एतदपि मानुषस्यायुष आसव | = नरकायुका आस्रव पहले कह आये हैं। उससे विपरीत भाव मनुष्यायुका आखत्र है । सक्षेप में यह सूत्रका अभिप्राय है । उसका विस्तारसे खुलासा इस प्रकार है-स्वभावका विनम्र होना, भक्ष प्रकृतिका होना, सरल व्यवहार करना, अल्प कषायका होना तथा मरण के समय सक्लेश रूप परिणतिका नहीं होना आदि मनुष्यायुके आघव है। स्वभावसे मार्दव स्वभाव मार्दव है। आशय यह है कि बिना किसीके समझा बुझा मृदुता अपने जीवन में उतरी हुई हो इसमें किसीके उपदेशकी आवश्यकता न पडे । यह मी मनुष्यायुका आस्रव है । (रा, वा ६/१८/१/५२६/२३)
रा. वा ६/१०/१/५२६/९४ मिथ्यावदर्शनालिङ्गितामसि विनीतस्वभावताप्रकृतिभद्रता मार्दवार्जव समाचार सुखप्रज्ञापनीयता बालुवाराजिसदृशरोष-प्रगुण व्यवहारप्रायात्पारम्भपरिग्रहस्तोवाभित प्राप्युप घातविरमणप्रदोषविकर्म निवृति स्वागताभिभाषणाप्रकृतिम रता - लोकयात्रानुग्रह - औदासीन्यानुसूया रूप संवलेशता - गुरुदेवतातिथिपूजा विभागशीलता को लेश्य पश्लेय-धर्म ध्यानमरणासादिलक्षण। भदमिध्यात्वविनीत स्वभाव प्रकृतिभद्रता, मार्दव आर्जव परिणाम, सुख समाचार कहनेकी रुचि, रेकी रेखाके समान कोपादि. सरस व्यव्हार रोख, हिसाविर दुष्ट कार्यों से निवृत्ति, स्वागततत्परता कम बोलना, प्रकृति मधुरता, लोकयात्रानुग्रह, औदासीन्यवृत्ति, ईर्षारहित परिणाम, अल्पसं क्लेश, देव-देवता तथा अतिथि पूजा में रुचि दानशीलता, कपोतपीत लेश्या रूप परिणाम, गरम काममै धर्मध्यान परिणति आदि मनुष्यामुळे आस्रव कारण हैं ।
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रावा. ६/२०/१५२०/१५ अव्यक्तसामायिक- विराधितसम्यग्दर्शनता भयनाद्यायुष महर्द्धिमानुषस्य वा । अव्यक्त सामायिक और समयदर्शक विराधमा आदि महदिक मनुष्यकी आयुके आ कारण है। (और भी दे, आयु २/१२)
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आ/४४/६५२/१३ तत्र ये हिसाक्ष्य परिणामा मध्यमास्ते मनुजगनिका सिकाया दारुणा, गोमूकिया, कई मरागेण समाना यथासख्येन क्रोधमानमायलोभा. परिणामा । जीवघात कृत्वा हा दुष्ट कृतं यथा दुखं मरणं वास्माक अप्रियं तथा सर्वजीवानां । अहिसा शोभना वय तु असमर्था हिसादिकं परिहर्तुमिति च परिणाम | मृषापरदोषसूचकं परगुणानामसहन वचन वासज्जनाधार। साधूनामयोग्यवान का नाम साधुतास्माकमिति परिणाम तथा दाम्रप्रहारादप्यर्थ पापहरणं, द्रव्यविनाशो हि सकुटुम्बविनाशी नेतरव तस्मादुष्टकृतं
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आयु
परधनहरणमिति परिणाम परदारादिनमस्माभि कृत तपतीपाशोभनं । यथास्महाराणां परे मंहगे दुखमात्मसाक्षिक तथा मिति परिणामः । यथा गङ्गादिमहानदीनां अनवरत प्रवेशेऽपि न तृप्ति सागरस्येव द्रविणेनापि जीवस्य संतोषो नास्तीति परिणाम' । वनाविपरिणामाना दुर्लभता अनुभवसिद्धेव हम तीन, मध्यम-इन (तीव्र, व मन्द) परिणामोंमें जो मध्यम दिसादि परिणाम है वे मनुष्यपनाके उत्पादक हैं। (तहाँ उनका विस्तार निम्न प्रकार जानना )
१. चारों कायोंकी अपेक्षाका खिंची हुई रेखाके समान क्रोध परिणाम, लकडी के समान मान परिणाम, गोमूत्राकारके समान माया परिणाम, और कीचडके रंगके समान लोभ परिणाम ऐसे परिणामों मनुष्यपनाकी प्रति होती है।
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२. हिंसा को अपेक्षा जो बात करनेपर हा मैने कार्य इट किया है, मरण हमको अप्रिय हैं सम्पूर्ण प्राणियों को भी उसी प्रकार वह अप्रिय है, जगत् में अहिंसा ही श्रेष्ठ व कल्याणकारिणी है। परन्तु हम हिंसादिकों का त्याग करनेमें असमर्थ हैं। ऐसे परिणाम... ३ असत्यकी अपेक्षा- झूठे पर दोषों को कहना, दूसरों के सद्गुण देखकर मन में द्वेष करना, असत्य भाषण करना यह दुर्जनोंका आचार है। साधुओके अयोग्य ऐसे नियम और खोटे काम हम हमेशा प्रवृत्त हैं, इसलिए हममें सज्जनपना कैसा रहेगा । ऐसा पश्चात्ताप करना रूप परिणाम ।
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४. चोरीकी अपेक्षा दूसरोंका धन हरण करना यह शखप्रहारसे अधिक दुखदायक है का विनाश होने से सर्व कुटुम्बका ही बिनाश होता है, इसलिए मैंने दूसरोंका धन हरण किया है सो अयोग्य कार्य हमसे हुआ है. ऐमे परिणाम ।
ह्मचर्य की अपेक्षा हमारी खीका किसी ने हरण करनेपर जैसा हमको अतिशय कष्ट दिया है जैसा उनको भी होता है यह अनुभवसे प्रसिद्ध है। ऐसे परिणाम होना ।
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६. परिग्रहकी अपेक्षा - गंगादि नदियाँ हमेशा अपना अनन्त जल लेकर समुद्र में प्रवेश करती है तथापि समुद्र की तृप्ति होती ही नहीं । यह मनुष्य प्राणी भी धन मिलनेसे तृप्त नहीं होता है। इस तरहके परिणाम दुर्लभ है। ऐसे परिणामोसे मनुष्यष्नाकी प्राप्ति होती है। गो. क / मू८०६ / ६८३ डोए तणुकसाओ दाणरदी सीलसजम विहीणो । मज्झिमगुणेहि जुत्तोमणुवाउं बधदे जोवो ॥८०६ ॥ जो जीव विचार मिना प्रकृति स्वभाव ही करि मंद कपायी होइ, दशनविषे प्रीतिसंयुक्त होइ, शील संयम कर रहित होड, न उत्कृष्ट गुण न दोष ऐसे मध्यम गुणनिकर संयुक्त होइ सो जीव मनुष्यायु कौं बाँधे है । ८. शलाकापुरुषों की आयुके बन्धयोग्य परिणाम ति. प. ४/५०४ -५०६ एदे चउदस मणुओ पदिसुदिपहृदि हु णाहिरायंता । पुण्यमम्मि विदेहे राजकुमारामहाकुले जादा ३०४ कुखा दाणादीसुं संजमतवणाणवंत पत्ताणं णियजोग्गअणुडाणा मद्दव अज्जवगुणेहि संजुत्ता ॥४०५॥ मिच्छत्त भावणाए भोगाउं बधिऊण ते सव्वे । पच्छा खाम्गेहति विवरणमूलम् ॥५०॥ प्रतिभूतिको आदि लेकर नाभिराय पर्यन्तमें चौदह मनु पूर्वभवमें विदेह क्षेत्रके भीतर महाकुलमें राजकुमार थे ॥ ५०४ ॥ वे सब संयम तप और ज्ञानसे युक्त पत्रोंके लिए दानादिकके देनेमें कुशल अपने योग्य अनुष्ठान से संयुक्त और मान आर्जव गुणोंसे सहित होते हुए पूर्व मिध्या भावना भोगभूमिको आयुको बाँधकर पश्चात् जिनेन्द्र भगवा चरणोंके समीप क्षायिक सम्यक्त्वको ग्रहण करते है ॥२०५ - २०६॥ ९. सुभोग भूमि मनुष्यायुके बन्धयोग्य परिणाम ति. १.४/३६५-६७१ भोगमहीए सव्वे जायंते मिच्छभावसंजुत्ता | मंदसायामाया पेसुग्मादपरिणा ॥३६॥ मसाहारा मधुमोम परिषता सच्चा मदरहिश नारियपरदारपरिहीणा ३६६ | गुणधरगुणे रत्ता जिणपूळं जे कुणं ति परवसतो। उववासतणुस
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३. आयुकर्मके वघयोग्य परिणाम
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शहिपणा ॥ २७ आहारदाणगिरदा दी वरमलजोगते विमत्ततरसंजमेसु य विमुक्त भन्ती ॥१६८॥ पूर्व मद्धवराज पंच्छा तित्यमरपाल पदयसम्म काय के भोगभूमी ॥३६॥ एवं मिध्याद्विनिग्गधा दीन दरगाह । दादू पुग्णामही के जाति ॥२७०॥ आहाराभवदागं विविहोसहपत्यादिदा सेसेोदादू भोगभूमि जायते॥१०१॥भोग भूमिमें वे सग जीव उत्पन्न होते है जो मियाभावसे युक्त होते हुए भी, मन्दकषायी हैं, पैशुन्य एवं असूयादि द्रव्योंसे रहित हैं, मांसाहार त्यागी है, मधु मद्य और उदुम्बर फलों के भी स्यागी हैं, सत्यवादी है, अभिमानसे रहित हैं, वेश्या और परलोके त्यागी है, गुणियों में अनुरक्त है, पराधीन होकर जिनपूजा करते हैं, उपनास से शरीरको कृश करनेवाले है, आर्जव आदिसे सम्पन्न है, तथा उत्तम एवं विविध प्रकारके योगों से युक्त, अत्यन्त निर्मल सम्यक्त्वके धारक और परिग्रहसे रहित ऐसे यतियोको भक्तिसे आहार देनेमें तत्पर है ॥२६५१६८ जिन्होंने पूर्व भनमें मनुष्यायुको बाँध लिया है, पा तीर्थकरके पाद में क्षायिक सम्यदर्शन प्राप्त किया है. ऐसे कितने ही समष्टि पुरुष भी भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं |२| इस प्रकार कितने ही मिध्यादृष्टि मनुष्य निग्रन्थ यतियोको दानादि देकर पुण्यका उदय आनेपर भोगभूमिमें उत्पन्न होते है ॥ ३७० ॥ शेष कितने ही मनुष्य आहार दान, अभयदान, विविध प्रकारको औषध तथा ज्ञानके उपकरण पुस्तकादिके दानको देकर भोगभूमिमें उत्पन्न होते है।
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१०. कुभोग भूमिज मनुष्यायुके बन्धयोग्य परिणाम ति./४/२५००-२५१९ मिम्मि रताण मंदसाया पित्रा कुडिला धम्मफलं तामिच्छा देवेस भतिष | २५०० दण सखिलदजियअसणादिकसु किलिट्ठा। पंचग्गितवं विसमं कार्य किलेस चकुता २०१॥ सम्मत्तरयणहीना कुमासा जलदउपत अण्णा अण्णा निमज्जता ॥२५०२० दिमागव्विदा साहूकुति किचि अपना सम्मतवदार्थ जे निग्धा दुसषा देखि ॥२५०३॥ जे मायाचाररदा स जमत जोगवजिदा पावा | इड्ढिरससादगारवगरुषा जे मोहमायणा ॥२५०४ समुहमादिचार के माहोपति गुरुजणसमये सहा वंदना गुरुसहिदा कुति ॥२०५॥ जे पति एकाकिनो दुराचारा जे फोन म सबैसित २५०६ ॥ आहारसम्म सत्ता लोहसाए जणिदमोहा जे परिपन कृति पोर १२५०० जे कुम्म ति पति अरहंताणं साहेब साहूणजे बाल विहोना पापमि २०ति प्यहुदि जिग लिंग धारिणो हिठ्ठा । कृष्णाविवाहपदि संदरूपेण जे पकुति ॥२५०१ भुति विहिणा मोणेण घोर पावसंलग्गा । अण अण्णदरुदयादो सम्भतं जे विणासति ॥ २५१०॥ ते कालवस पत्ता फलेण पावाण विसमपाकाण । उपति कुरूमा कुमासा जल हिदिने | २१११॥ मियाथमें रत, मन्द कषायी, प्रिय बोलनेवाले, कुटिल, धर्म फलको खोजनेवाले, मिथ्यादेवो की भक्ति में तत्पर, शुद्ध ओदन, सलिलोदन व कांजी खाने के कष्टसे संक्लेशको प्राप्त विषम पचाग्रि तप, व कामक्लेशको करनेवाले, और सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित अधन्य जीव अज्ञानरूपी जल में डूबते हुए समुद्रकेोपमें कुमानुष उत्पन्न होते है । २३००-२५०२ ॥ इसके अतिरिक्त जो लोग तीव्र अभिमानसे गर्वित होकर सम्यक्त्व व तपसे युफ साधुओका किंचित् भी अपमान करते है, जो दिगम्बर साधुओ की निन्दा करते है, जो पापी संयम उप व प्रतिमायोगसे रहित होकर मायाचारमें रत रहते है, जो ऋद्धि रस और सात इन तीन गारवों से महान् होते हुए मोहको प्राप्त है जो स्थूल व सूक्ष्म दोषोंकी गुरुजनों के समीप आलोचना नहीं करते है, जो गुरुके साथ स्वध्याय व वन्दना कर्मको नहीं करते हैं, जो दुराचारी मुनि को छोडकर एकाकी रहते है, जो क्रोध से सबसे कलह करते है, जो आहार संज्ञामें आसक्त
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भायु
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व लोभ कषायमे मोहको प्राप्त होते है, जो जिन लिंगको धारण कर घोर पापको करते है, जो अरहन्त तथा साधुओं की भक्ति नहीं करते हैं, जो चातुर्वण्य के विषय में वात्सल्य भाव से विहीन होते है, जो जिननिंग के पारी होकर स्वर्णाको हर्षसे ग्रहण करते है, ज मोके वेपमे याद करते है जो मनके बिना भोजन करते हैं, जो सलग्न रहते है, जो अनन्तानुवन्धी पश्यमेंसे किसी एकके उदित होनेमे सम्यक्त्वको न करते है, वे मृत्युको प्राप्त होकर विषम परिपाकवाले पापकमोके फलसे समुद्र के इन द्वीपो में कृत्सित रूपमा उत्पन्न होते है। २५०३-२५११० (त्रि सा २२-२४ )
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११ देवायु सामान्यके बन्धयोग्य परिणाम
त सू/६/२०-२१ सरागस समास माकामनिर्जरापास देवस्य ॥ २० ॥ सम्यक्त्वं च ॥२१॥ - सरागसयम, सयमासयम, अकामनिर्जरा और बात ये देवायुके आसन है 120 भी दे
कासव है ॥२१॥
स, सि ६/१८/३३४ / १२ स्वभावमार्दव च ॥१८॥ एतदपि मानुषस्यायुष as gerator कम उत्तरा देवासवोऽयमि यथा स्यात । स्वभावकी मृदुता भी मनुष्यायुका आसव है। प्रश्न -- इस सूत्र को पृथक् क्यों बनाया 'उत्तर - स्वभावकी मृदुता देवायुका भी आसव है इस बातके बतलाने के लिए इस सूत्रको अलग बनाया है। ( रा वा ६/१८/१-२/५२६/२४) तसा ४/४२-४३ आकामनिर्जरामा पो मन्दाया मं दान तथागतनसेवनम् ॥४२ सरागसंयमश्चैव सम्यदेशयम इति देवायुषो ह्येते भवन्ध्यासवहेतव ॥ - बालतप व अकामनिर्जरा के होनेसेा मन्द रखनेसे श्रेष्ठ धर्मको सुननेसे बाम देनेसे आन आयुतन सेवी बनने से, सराग साधुओका संयम धारण करनेसे, देशसयम धारण करनेसे सम्यष्टि होनेसे त्रायुका वास होता है।
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है,
मो. यू. ८००/६८१ अशुभ महत्व देहि यातनाकामगिराए । देवा जिधर सम्माहट्ठी य जो जोबो जो जीव सम्य सो केवल सम्म करि साक्षाद अनुवत महामहनिकरिदेवी माँ हैमहरि जो मिपादृष्टि जीव है सो उपचाररूप अलत महानिरि वा अज्ञानरूप बाल तपश्चरण करि वा बिना इच्छा बन्धादि भई ऐसी आकाम निर्जराकरि देवायुकी बाँधे है ।
१२. भवनत्रिकायु सामान्यके बन्धयोग्य परिणाम स.सि./१२/१३६/६ तेन सराग यमसंयमासमास्यायुष आसवौ प्राप्त मैच दोष सम्यत्वाभावे सति तद्वयपदेशान दुभयमप्यत्रान्तर्भवति । - प्रश्न - सरागसंयम और सयमासयम ये भवनवासी आदिको आयुके आसव है यह प्राप्त होता है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व के अभाव में सरागस यम और संयमासंयम नहीं होते. इसलिए उन दोनोंका यहीं अन्तर्भाव होता है अर्थात् ये भी सौधर्मादि देवायुके आसव है, क्योंकि ये सम्यक्व के होने पर ही होते है ।
रा बा.६/२०/९/२२७/१५ अम्पकसामायिक- विराधितसम्यग्दर्शना भवनाथ महर्द्धिमास्या पञ्चावतधारिणोऽविराधितसम्यग्दर्शना तिर्ममनुष्या सौधर्मादिषु अच्युतावसानेसुरपद्यन्ते, विनिपतितसम्यक्त्वा भवनादिषु । अनधिगतजीवा जीवा बालतपस अनुपलब्धतत्स्वभावा अज्ञानकृतसयमा लेवाभावात केचिद्भवनव्यन्तरादिषु सहस्रारपर्यन्तेषु मनुष्यतिर्यक्ष्वपि च कामनिर्जराणा निरोध माचर्य रामलधारण परिया पादिभि परिखेदितमूर्तय चाटक निरोधबन्धनमा दीर्घकाल रोगिण अस क्लिष्टा तरुगिरिशिखरपातिन अनशनज्वलनजलप्रवेशनविषभक्षण धर्म बुद्धय व्यन्तरमानुषतिर्यक्षु । नि शीलवता सानुकम्पहृदया जलराजितुल्यरोषभोगभूमिसमुत्पन्नाश्च व्यन्तरादिषु जन्म
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१७
३. आयु कर्मके बन्धयोग्य परिणाम
प्रतिपद्यन्ते इति । - अव्यक्त सामायिक, और सम्यग्दर्शनकी विरा घना आदि वनवासी आदिको आयु अथवा महर्दिक मनुष्यकी आयु के आसव कारण है। पच अणुव्रतोके धारक सम्यग्दृष्टि तियंच या मनुष्य सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त स्वर्गो में उत्पन्न होते है। यदि सम्यग्दर्शन विराधना हो जाये तो भवनवासी आदिमें उत्पन्न होते है । तत्वज्ञानसे रहित बालतप तपनेवाले अज्ञानी मन्द कषायके कारण कोई भवनवासी व्यन्तर आदि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते है, कोई मरकर मनुष्य भी होते है, तथा तियंच भी । आकाम निर्जरा, भूख प्यासका सहना, ब्रह्मचर्य, पृथ्वी पर सोना, मल धारण आदि परिषहोसे खेदखिन न होना, गूढ पुरुषोके बन्धन में पडने पर भानही घडाना, दीर्घकालीन रोग होनेपर भी अस क्लिष्ट रहना, या पर्वत के शिखर से पापात करना, अनशन, अग्नि प्रवेश, विषभक्षण आदिको धर्म माननेवाले कुतापस व्यन्तर और मनुष्य तथा तिर्यों में उत्पन्न होते है। जिनने व्रत या शोलोको धारण नहीं किया किन्तु जो सदय हृदय है, जल रेखाके समान मन्द कषायी है. तथा भोग भूमिमें उत्पन्न होनेवाले व्यन्तर आदिमें उत्पन्न होते है । सिा २५० जम्माचारि सजिदाणाणलादिमुकामणिरियो। कुदवा सबलचरिता भवणतिय जति ते जीवा ॥४५०॥ उन्मार्गचारी, निदान करने वाले अग्नि, जल आदिसे झपापात करनेवाले, बिना अभिलाष बन्धादिक के निमित से परिषह सहनादि करि जिनके निर्जरा भई. पंचाग्नि आदि खोटे सपर्क करनेवाले, वहरि सदोष चारित्रके धरन हारे जे जीव है ते भवनत्रिक विषै जाय ऊपजै है । १३. भवनवासी देवायुके बन्धयोग्य परिणाम
ति. प ३ / ९६८,१६,२०६ अवमिदमका केई णाणचरिते किलिट्ठभावजुदा | भवणारेसु आउ बधंति हु मिच्छभाव जुदा ॥ १६८ ॥ अविण्यसत्ता केई कामिणिविरहज्जरेण जज्जरिदा कलहपिया पाविट्टा जायते भवदेवे ॥१६६६जे कोहमाणमायातोहात किविचारिता।
गुरूचि ते उपति असुरेस २०६१- ज्ञान और चारित्रके विषय में जिन्होंने शंकाको अमीर नहीं किया है तथा जो क्लिष्ट भावसे युद्ध है, ऐसे जो मिध्यात्व भाव से सहित होते हुए भवनवासी सम्बन्धी देवोकी आयु है। कामिनी के विरहरूपी ज्वरसे जर्जरित कलहप्रिय और पापिष्ठ किसने ही विनयी जीव भवनवासी देवों में उत्पन्न होते है ॥१६६॥ जो जीव क्रोध, मान, मायामें आसक्त है,
कृषिष्ठ चारित्र अर्थात कुराचारी है, तथा वैर भाव में रूचि रखते है वे असुरों में उत्पन्न होते हैं ।
२५७
१४. व्यन्तर तथा नीच देवोंकी आयुके बन्धयोग्य परिणाम भ आ /मू १८१-१८२ / ३६८ णाणस्स केवलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहूणं । माझ्य अवण्णवादी विभिसिय भावण कुणइ ॥ १८१ ॥ ओकोचम्म परे जोडू इछितरससादहेतु अभि भावण कुणइ ॥ १८२ ॥ श्रुतज्ञान, केवली व धर्म, इन तीनोके प्रति मायावी अर्थात् ऊपरसे इनके प्रति प्रेम व भक्ति दिखाते हुए, परन्तु अन्दर से इनके प्रतिका बहुमान या आचरण से रहित जीव, आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेठी में दोषोका आरोपण करनेवाले, और अवर्णवादी जन ऐसे अशुभ विचारोंसे मुनि जातिके
tus
देव में जन्म लेते है ॥ १८९ ॥ मन्त्राभियोग्य अर्थात् कुमारी वगैरह में भूतका प्रवेश उत्पन्न करना, कौतुहलोपदर्शन क्रिया अर्थात् अकाल में जलदृष्टि आदि करके दिखाना आदि चमत्कार, भूतिकर्म अर्थात् मातकादिकोकी रक्षाके अर्थ मन्त्र प्रयोगके द्वारा भूलोकी क्रीडा दिखाना - ये सब क्रियाएँ ऋद्धि गौरव या रस गौरव, या सात गौरव दिखाने के लिए जो करता है सो अभियोग्य जातिके वाहन देवों में उत्पन्न होता है |
ति प ३ / २०१-२०५ मरणे विराधिदम्मि य केई कदप्पकिव्विसा देवा । अभियोगा मोदी सुरग्दी जाते ॥२०१३
सच्चय
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आयु
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३. आयुकर्मके बन्धयोग्य परिणाम
होणा हस्सं कुब्बति बहुजणे णियमा । कदम्परत्तहिदया ते कंदप्पेसु जायंति १२०२॥ जे भूदिकम्ममंदाभियोगकोदूहलाइसं जुत्ता । जणवण्णे य पअट्टा वाहणदेवेस ते हो ति ॥२०३५ तित्थयरसंघमहिमाआगमगंधा दिएमु पडिकूना । दुधिणया णिगदिल्ला जायते किम्बिससुरेसु २०४॥ उपहउवएसयरा विपडिवण्णा जिणिदमागमि । मोहेणं संमोधा संमोहमुरेसु जायते ॥२०॥ ति प ८/५५६,५६६ सबल चरित्ता कूरा उम्गट्ठा णिदाणकदभावा । मंदकसायाणुरदा बंधते अप्पइद्धिअसुराउं ॥५५॥ ईसाणलतबच्चुदकप्पंतं जाव होति कंदप्पा। किदिवसिया अभियोगा णियकम्पजहपणठिदिसहिया ॥५६॥-मरणके विराधित करने पर अर्थात समाधि मरणके बिना,कितने ही जीव दुर्गतियों में कन्दर्प,किल्विष,आभियोग्य और सम्मोह इत्यादि देव उत्पन्न होते है । जो प्राणी सत्य वचनसे रहित है, नित्य ही बहुजनमें हास्य करते हैं, और जिनका हृदय कामासक्त रहता है, वे कन्दर्प देवोंमें उत्पन्न होते है ।२०२॥ जो भूतिकर्म,मन्त्राभियोग और कौतूहलादि आदिसे संयुक्त है तथा लोगों के गुणगान (खुशामद) में प्रवृत्त रहते है, वे वाहन देवो में उत्पन्न होते है।२०३। जो लोग तीर्थकर व सधको महिमा एवं आगमग्रन्थादिके विषयमें प्रतिकूल हैं, दुर्विनयी, और मायाचारी है. वे किल्विष देवोंमें उत्पन्न होते हैं ।२०४॥ उत्पथ अर्थात कुमार्गका उपदेश करनेवाले, जिनेन्द्रोपदिष्ट मार्गमें विरोधी और मोहसे संमुग्ध जीव सम्मोह जातिके देवोंमें उत्पन्न होते है ॥२०॥ दूषित चारित्रवाले, क्रूर, उन्मार्गमें स्थित, निदान भावसे सहित और मन्द कषायों में अनुरक्त जीव अपद्धिक देवों की आयको बाँधते हैं ।५५६॥ कन्दर्प,किरिवषिक
और आभियोग्य देव अपने-अपने कल्पकी जघन्य स्थिति सहित क्रमश' ईशान, लान्तव और अच्युत कल्पपर्यन्त होते हैं ॥५६६॥
१५. ज्योतिषदेवायुके बंध योग्य परिणाम ति.प. ७/६१७ आयुबघणभावं दसणगहणस्स कारण विविहं । गुणठाजादि पवण्णण भावण लोए व त्ववत्तव्वं ॥६१७-आयु के बन्धक भाव, सम्यग्दर्शन ग्रहणके विविध कारण बीर गुणस्थानादिका वर्णन, भावनलोकके समान कहना चाहिए ॥६१७॥
१६. कल्पवासी देवाय सामान्यके बन्धयोग्य परिणाम स.सि ६/२१/३३६/५ सम्यक्त्वं च ॥२१॥ किम् । वैवस्यायुष आस्रवइत्यनुवति । अविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मादिविशेषगतिः।- सम्यक्त्व भी देवायु का आसव है। प्रश्न-सम्यक्त्व क्या है ? उत्तर-'देवायु का आसव है, इस पदकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है। यद्यपि सम्यक्त्व को सामान्यसे देवायुका आस्रव कहा है, तो भी इससे सौधर्मादि विशेषका ज्ञान होता है । (रा वा.६/२१/१/५२७/२७) । रा.बा.६/२०/१/५२७/१३ कल्याणमित्रसम्बन्ध आयतनोपसेवासद्धर्मश्रवणगौरवदर्शना-ऽनवद्यमोषधोपवास-तपोभावना-बहुश्रुतागमपरत्वकषायनिग्रह-पात्रदान-पीतपद्मलेश्यापरिणाम-धर्मध्यानमरणादिलक्षण: सौधर्माद्यायुषः आस्रवः । =कल्याण मित्र ससर्ग, आयतन सेवा, सद्धर्मश्रवण, स्वगौरवदर्शन, प्रोषधोपवास, तपकी भावना, बहुश्रुतत्व आगमपरता कषायनिग्रह, पात्रदान,पीत पद्मलेश्या परिणाम, मरण कालमें धर्मध्यान रूप परिणति आदि सौधर्म आदि आयुके आस्रव हैं । (और मी दे.आयु ३/१२) बन्धयोग्य परिणाम । १७. कल्पवासी देवाय विशेषके बन्ध गेग्य परिणाम सि.प4/५५६-५६६ सबलचरित्ता कुरा उम्मग्गट्ठा णिदाणकदभावा। मद
कसायाणुरदा बंध ते अप्पइद्धि असुराउं॥५५६॥ दसपुत्वधरा सोहम्मप्पहदि सम्वसिद्धिपरियंतं । चोइस पृथ्वधरा तट्ट लंतवकप्पादि बच्चते १९५७ सोहम्मादि अच्चुदपरियंत जंति देसवदजुत्ता। चविहदाणपणट्ठा अकसाया पंचगुरुभत्ता ॥५५८॥ सम्मत्तणाणअज्जवलज्जासीलादिएहि परिपुण्णा । जायते इत्थीओ जा अच्चुदकप्पपरियतं ॥५॥ मिगलिंगधारिणो जे उक्तिवस्समेण संपुण्णा । ते जायंति अभव्वा
उवरिमगेवज्जपरियंत ॥५६॥परदोअच्चणवदप्तवर्दसणणाणचरण संपण्णा णि गंथा जायते भव्वा सम्वट्ठसिद्धि परियत ५६१॥ चरयापरिवज्जधरा मदकसाया पियंवदा केई । कमसो भाषणपहदि जम्मते बम्हकप्यतं ॥१६॥जे पचे दियतिरिया सण्णी हु अकामणिज्जरेण तदा । मदक्साया केई जति सहस्सारपरियंतं ॥५६३॥ तणद उणादिसहिया जीवा जे अमदकोहजुदा । कमसो भावणपहुदो केई जम्मति अच्चु जाव ॥५६४॥ आ ईसाणं कप्प उप्पत्ती हादि देवदेवीणं । तप्परदो उन्भूदी देवाणं केवलाण पि ॥५६॥ ईसाणलतवच्चदकप्त जाव होति कदया। किब्धिसिया अभियोगा णियप्पजहण्णादिसहिया ॥५६६॥ - दूषित चरित्रवाले, क्रूर, उन्मार्ग में स्थित, निदान भावसे सहित, कषायोमें अनुरक्त जीव अलपद्धिक देवोंकी आयु माँघते है ॥५५६॥दशपूर्व के धारी जीव सौधर्मादि सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त तथा चौदहपूर्वधारी लातव कल्पसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि पर्यन्त जाते है।५५०॥ चार प्रकारके दान में प्रवृत्त, कषायोसे रहित व पचगुरुओंकी भक्तिसे युक्त ऐसे देशवत सयुक्त जोव सौधर्म स्वर्गको आदि लेकर अच्युतस्वर्ग पर्यन्त जाते है ॥५५८॥ सम्यक्त्व, ज्ञान, आर्जव, लज्जा एवं शीलादिसे परिपूर्ण स्त्रियाँ अच्युत कम्प पर्यन्त जाती है ॥५५॥ जो जघन्य जिनलिंगको धारण करनेवाले और उत्कृष्ट तपके श्रमसे परिपूर्ण वे उपरिमग्रैवेयक पर्यन्त उत्पन्न होते है ।।६० पूजा, व्रत, तप, दर्शन ज्ञान और चारित्रसे सम्पन्न निर्ग्रन्थ भव्य इससे आगे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्पन्न होते है ॥५६१॥ मंद कषायी व प्रिय बोलनेवाले कितने ही चरक (साधुविशेष) और परिवाजक क्रमसे भवनवासियोको आदि लेकर ब्रह्मकल्प तक उत्पन्न होते है ॥५६२॥ जो कोई पंचेन्द्रियतियंच संज्ञो आकाम निर्जरासे युक्त है, और मंदकषायी है वे सहस्रार क्ल्प तक उत्पन्न होते है ॥५३॥ जो तनुदडन अर्थात् कायक्लेश आदिसे सहित और तीव क्रोधसे युक्त है ऐसे कितने ही आजीवक साधु क्रमश' भवनवासियों से लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त जन्म लेते है ॥५६४॥ देव और देवियों को उत्पत्ति ईशान कप तक होती है। इससे आगे केवल देवोंकी उत्पत्ति ही है।५६॥ कन्दर्प, किविषिक
और अभियोग्य देव अपने अपने कल्पकी जघन्य स्थिति सहित क्रमश ईशान, लान्तव और अच्युत कल्प पर्यन्त होते हैं। १८. लौकान्तिक देवायुके बन्धयोग्य परिणाम ति प.८/६४६-६५१ इह खेत्ते वेरगं बहुभेयं भाविदूण बहुकाल । संजम भावेहि मुणी देवा लोय तिया होति ॥४६॥ इणिदामु समाणो सहदुक्खेस सबधुरिउवग्गे । जो समणो सम्मत्तो सो चिय लोयंतियो होदि ॥६४७॥ जे हिरवेक्वा देहे णिछंदा णिम्ममा णिरारम्भा। णिरबज्जा समणवरा ते च्चिय लोयतिया होति ६४८॥ संजोगविप्पयोगे लाहालाहम्मि जीविदे मरणे। जो ममदिठ्ठी समणो सो च्चिय लोयंतिओ होदि ॥६४६अणवरदसम पत्ता संजमसमिदीसु झाणजोगेसं तिव्वतवचरणजुत्ता समणा लोयेतिया होति ६५०॥ पंचमहव्यय सहिया पंचम्म समिदीसु चिरम्मि चेट्ठति। पंचक्रवविसयविरदा रिसिणो लोयंतिया होति ।६५१-इस क्षेत्रमें बहुत काल तक बहुत प्रकारके वैराग्यको भाकर संयमसे युक्त मुनि लौकान्तिक देव होते है।६४६॥ जो सम्यग्दृष्टि श्रमण (मुनि) स्तुति और निन्दामें, मुख और दुख में तथा बन्धु और रिपुमें समान है वही लौकान्तिक होता है ॥६४७॥ जो देह के विषय में निरपेक्ष, निर्द्वन्द्व, निर्मम,निरारम्भ और निरवद्य है वे ही श्रेष्ठ श्रमण लौकान्तिक देव होते है ।६४८॥ जो श्रमण सयोग और वियोगमें, लाभ और अलाभ में, तथा जीवित और मरण में, समदृष्टि होते है वे लौकान्तिक होते है ॥६४६॥ सयम, समिति, ध्यान एवं समाधिके विषय में जो निरन्तर श्रमको प्राप्त है अर्थात सावधान है, तथा तीब तपश्चरणसे सयुक्त है वे श्रमण लौकान्तिक होते है ॥६५॥ पाँच महाबतोंसे सहित, पाँच समितियों का चिरकाल तक आचरण करनेवाले, और पाँचो इन्द्रिय विषयोसे विरक्त ऋषि लौकान्तिक होते हैं ।।६५१।।
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आयु
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४. आठ अपकर्ष काल निर्देश
१६. कषाय व लेश्याको अपेक्षा आय बन्धके २० स्थान
गो जो / २६५-६३६ (विशेष देखो जन्म ६/७) शक्ति स्थान ४ । लेश्या स्थान १४ । आयुबन्ध स्थान २० १ | शिला भेद |१, कृष्ण उ
अबन्ध समान
१/ नरकायु पृथ्वी भेद |१| कुष्ण म. समान | २ कृष्णादि म उ. .
कृष्णादि २म. +१ उ.
| नरक तिर्यञ्चायु नरक तिर्यञ्च
मनुष्यायु ४ | कृष्णादि ३ म
सर्व
| ०४ roorrm
+१ज.
५ कृष्णादि ४ म
+१ज कृष्णादिम +१ ज. कृष्णादि १ज + म
३ धूलिरेखा
समान
20 mr.
, सर्व सर्व ३ मनुष्यदेव व
तिर्यञ्चायु
मनुष्य देवायु १ देवायु
,
|५| कृष्ण बिना
१ज+४म ४ कृष्ण, नील बिना
१ज,+३ म पीतादि १ उ.
+२ म | पद्म, शुक्ल १ज
+१म. | शुक्ल १ म.
शुक्ल १उ
बार आयु बन्धके योग्य परिणामोमें-से परिणत होते है। क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। उसमें जिन जीवोने तृतीय त्रिभागके प्रथम समयमें परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध आरम्भ किया है वे अन्तर्मुहर्त में आयु बन्धको समाप्त कर फिर समस्त आयु स्थितिके नौवे भागके शेष रहनेपर फिरसे भी आयु बन्धके योग्य होते है। तथा समस्त आयु स्थितिका सत्ताईसवाँ भाग शेष रहनेपर पुनरपि बन्धके योग्य होते है । इस प्रकार उत्तरोत्तर जो त्रिभाग शेष रहता जाता है उसका त्रिभाग शेष रहनेपर यहाँ आठवे अपकर्ष के प्राप्त होनेतक आयु बन्ध के योग्य होते है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। परन्तु विभाग शेष रहने पर आयु नियमसे बँधती है ऐसा एकान्त नहीं है। किन्तु उस समय जीव आयु बन्धके योग्य होते है। यह उक्त क्थनका तात्पर्य है । (गो क /जी प्र ६२६-६४३/८३६) गो,जी /जो प्र ५१८/११३/१७ कर्मभूमितिर्यग्मनुष्याणां भुज्यमानायुर्जघन्यमध्यमोत्कृष्ट विवक्षितमिद ६५६१ । अत्र भागद्वयतिक्रान्ते तृतीयभागस्य २१८७ प्रथमान्तर्मुहू परभवायुबंधयोग्य , तत्र न बद्धं तदा तदक भागतृतीयभागस्य ७२६ प्रथमान्तर्मुहर्त्त । तत्रापि न बद्ध तदा तदेकभागतृतीयभागस्य२४३प्रथमान्तर्मुहूर्त । एवमग्रेऽग्रे नेतव्यमष्टवार यावत् । इत्यष्ट वापृर्षा । स्वभावादेव तद्बन्ध प्रायोग्यपरिणमनं जीवाना कारणान्तरनिरपेक्षमित्यर्थ । -किसी कर्मभूमि या मनुष्य या तिर्यव्चको आयु ६५६१वर्ष है। तहाँ तिस(आयुका दो भाग गए २१८७ वर्ष रहै तहाँ तीसरा भागको लागते ही प्रथम समस्यास्यो लगाइ अन्तर्मुहूर्त पर्यंत काल मात्र प्रथम अपकर्ष है तहाँ परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध होइ । बहुरि जो तहाँ न बम्धे तौ तिस तीसरा भागका दोय भाग गये ७२६ वर्ष आयु के अवशेष रहै तहाँ अन्तर्मुहर्त काल पर्यन्त दूसरा अपकर्ष है तहाँ पर भवका आयु बाँधे । बहुरि तहाँ भी न बधै तो तिसका भी दोय भाग गये २४३ वर्ष आयुके अवशेष रहै अन्तर्मुहूर्त काल मात्र तीसरा अपकर्ष विर्षे परभवका आयु बाँधै । बहुरि तहाँ भी न बधै तो जिसका भी दोय भाग गये ८१ वर्ष रहै अन्तर्महूर्त पर्यन्त चौथा अपकर्ष विर्षे परभव का आयु मॉधै ऐसे ही दोय दोय भाग गये २७ वर्ष वा ६ वर्ष रहै वा तीन वर्ष रहै अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त पाँचाँ , छठा, सातवाँ वा आठवाँ अपकर्ष विषै परभवका आयुको बधनेको योग्य जानना। जैसेंही जोभुज्यमान आयुका प्रमाण होई ताकै त्रिभागत्रिभाग विर्षे आयुके बन्ध योग्य परिणाम अपकर्षनि विर्षे ही होई सो असा कोई स्वभाव सहज ही है अन्य कोई कारण नही। २. भोगभूमिजों तथा देव नारकियोंकी अपेक्षा आठ
अपकर्ष ध.६/१.६-६,२६/१७०/१ देव णेरइएसु छम्मासाबसेसे भंजमाणाउए
असखेयाद्धापज्जवसाणे सते परभवियमाउअ बंधमाणाणं तदस भवा । • असखेज तिरिक्वमणुसा देव णेरइयाणं व भुजमाणाउए छम्मासादो अहिए सते परभविआउअस्स बंधाभावा । भुज्यमान आयुके (अधिकसे अधिक) छह मास अवशेष रहने पर और (कमसे कम) असंखेयादा कालके अवशेष रहने पर आगामी भव सम्बन्धी आयुको बाँधनेवाले देव और नार कियोके पूर्व कोटिके त्रिभागसे अधिक आबाधा होना असम्भव है। (वहाँ तो अधिकसे अधिक छह मास ही आबाधा होती है) असख्यात वर्ष की आयु वाले भोग-भूमिज तिर्यच व मनुष्योके भी देव और नारकियोके समान भुज्यमान आयके छह माससे अधिक होने पर परभव सम्बन्धी आयु के बन्धका अभाव है। ध.१०/४,२,४,३६/२३४/२ णिरुवकमाउआ पुण छम्मासाबसेसे आउअ. बंधपाओग्गा होति । तस्थ वि एव चैव अगरिसाओ बत्तवाओ। =जो निरुपक्रमायुष्क है वे भुज्यमान आयुमें छह मास शेष रहने पर आयु बन्धके योग्य होते है। यहाँ भी इसी प्रकार आठ अपकर्षको कहना चाहिए।
अबन्ध
४ जलरेखा
समान
४. आठ अपकर्ष काल निर्देश
१. कर्मभूमिजोंकी अपेक्षा ८ अपकर्ष ध १०/४,२,४,३६/२३३/४ जे सोवक्कमाउआते सग-सग भंजमाणाउट्ठिदीए बेतिभागे अदिक्कते परभवियाउअबंधपाओग्गा होति जाब असखेयद्धा त्ति । तत्थ बन्धपाओग्गकालब्भन्तरे आउबन्धपाओग्गपरिणामेहि के वि जीया अट्ठवार के वि सत्तवारं के वि छव्वार के वि पचवार के वि चत्तारिवार, के वि तिण्णिवार के वि दोवार के वि एकवार परिणमंति। कुदो। साभावि यादो। तत्थ तदियत्तिभागपढमसमए जेहि परमवियाउ अबन्धो पारद्धोते अंतोमुहत्तेण बंध समाणिय पुणो सयलाउट्ठिदोए णव मभागे सैसे पुणो वि बन्धपाओग्गा होति । सयलाउठ्ठिदीए सत्तावीसभागावसेसे पुणो वि बन्धपाओग्गा होति । एव सेसतिभाग तिभागावसेसे बन्धपाओग्गा होति त्तिणेदव्वं जा अट्ठमी आगरिसा त्ति । ण च तिभागाव सेसे आउअणियमेण बज्झदि त्ति एयन्तो । किंतु तत्य आउअब वपाओग्गा होति त्ति उत्त होदि । =जो जीव सोपक्रम आयुष्क है वे अपनी-अपनी भुज्यमान आयु स्थितिके दो त्रिभाग बोत जानेपर वहाँसे लेकर असंखेयाद्धा काल तक परभवसम्बन्धी आयुको बाँधनेके योग्य होते है। उनमें आयु बन्धके योग्य कालके भीतर कितने ही जीब आठ बार, कितने ही सात बार; कितने ही छह बार, कितने ही पॉच बारः कितने ही चार बार, कितने हो तीन बार, कितने ही दो बार, कितने ही एक
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आयु
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४. आठ अपकर्ष काल निर्देश
त्रिभाग (कथचित् त्रिभागका त्रिभाग और कथ चित् त्रिभाग-त्रिभागका त्रिभाग) शेष रहने पर पर-भव सम्बन्धी आयुर्मको बाँधते है।" इस व्यारव्या-प्रज्ञप्ति सूत्रके साथ कैसे विरोध न होगा ? उत्तर- नहीं, क्यो कि, इस सूत्रसे उक्त सूत्र भिन्न आचार्य के द्वारा बनाया हुआ होनेके कारण पृथक् है । अत उससे इसका मिलान नही हो सकता। ५. अन्तिम समयमें केवल अन्तर्महर्त प्रमाण ही आयु
बंधती है
गो क /जौ प्र ५१८/६१३/२० असंक्षेपाद्धाभुज्यमानायुषोन्त्यावस्येस ख्येयभाग तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अन्तर्महतं मात्रसमयप्रवद्वान् परभवायुनियमेन बद्ध्वा समाप्नोतीति नियमा ज्ञातव्य। -भुज्यमान आयुके काल में अन्तिम आवलोका असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर अन्तर्मुहूर्त कालमात्र समय प्रबद्धोंके द्वारा परभवकी आयुकौ माँधकर पूरी कर है ऐसा नियम है अर्थात अन्तिम समय केवल अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थितिवाली परभव सम्बन्धी आयुको बाँध कर निष्ठापन
गो.क./जी.प्र. १५८/१२/१ देवनारकाणा स्वस्थितौ षण्मासेषु भोगभूमि
जाना नवमासेषु च अवशिष्टेषु त्रिभागेन आयुर्वन्धसंभवात् । - देव नारकी तिनिकै तो छह महीना आयुका अवशेष रहै अर भोगभूमियाँ
कै नव महीना आयुका अवशेष रहै तब त्रिभाग करि आयु बंधै है। गो.जी |जो प्र. ५१८/६१४/२४ निरुपक्रमायुष्का अनपवर्तितायुष्का देवनारका भुज्यमानायुषिषड्मासावशेषे परभवायुबन्धप्रायोग्या भवन्ति । अत्राप्यष्टापकर्षा स्यु । समयाधिपूर्वकोटिप्रभृतिविपलितोपम पर्यंत सख्यातासंख्यातवर्षायुष्कभोगभूमितिर्यग्मनुष्याऽपि निरुपक्रमायुष्का इति ग्राह्य । -निरुपक्रमायुष्क अर्थात् अनपवर्तित आयुष्क देवनारकी अपनी भुज्यमान आयु में (अधिकसे अधिक) छह मास अवशेष रहने पर परभव सम्बन्धी आयुके बन्ध योग्य होते है। यहाँ भी (कर्म भूमिजो वत्) आठ अपकर्ष होते है। समयाधिक पूर्व कोटिसे लेकर तीन पक्ष्यकी आयु तक सख्यात व असरख्यात बर्षायुष्क जो भोगभूमिज तियंच या मनुष्य है वे भी निरुपक्रमायुष्क ही है, ऐसा जानना चाहिए । (गो.क./जी प्र ६३६-६४३/८३६-८३७)
३. आठ अपकर्ष कालोंमें न बँधे तो अन्त समयमें बंधती है गो जी /जी प्र. ५१८/६१३/२० नाष्टमापकर्षेऽन्यायुबन्धनियम , नाप्य
न्योऽपकर्षस्तहि आयुर्वन्ध कथं । असंखेयादा भुज्यमानायुषोऽन्त्याबज्यसंख्येयभाग तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अन्तर्महृतमात्रसमय प्रश्रद्धान् परभवायुनियमेन बद्ध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्य । प्रश्नआठ अपकर्षों में भी आयु न बधै है, तो आयुका बन्ध कैसे होई. उत्तर-सौ कहे है-'असखे याद्धा' जो आवलीका असख्यातवाँ भाग भुज्यमान आयुका अवशेष रहै ताकै पहिले (पर-भविक आयुका बन्ध करें है)। गो. क./जी. प्र. १५८/१९२/२ यद्यष्टापकर्षेषु क्वचिन्नायुर्बद्धं तदावल्य
संख्ययभागमात्राया समयोनमुहूर्तमात्राया वा असंक्षेपाद्धाया प्रागेवोत्तरभवायुरन्तर्मुहूर्तमानसमयप्रबद्धात् बद्ध्वा निष्ठापयति। एतौ द्वावपि पक्षी प्रवाह्योपदेशत्वात अङ्गीकृती। यदि क्दाचिद क्सिी ही अपकर्ष में आयु न बधै तो कौइ आचार्य के मतसे तौ आवलीका असख्यातवा भागप्रमाण और कोई आचार्य के मतसे एक समय घाटि मुहूर्तप्रमाण आयुका अवशेष रहै तीहिके पहले उत्तर भवकी आयुर्मको...माँधे है। ए दोऊ पक्ष आचार्यनिका परम्परा उपदेश करि अंगीकार किये है। ४. आयुके त्रिभाग शेष रहनेपर ही अपकर्ष काल आने
सम्बन्धी दृष्टिभेद ध. १०/४,२,४,३६/२३७/१० गोदम । जीवा दुविहा पण्णत्ता सखेज्जवस्साउआ चेव असखेज्जवस्साउआचेव। तरथ जे ते असखेज्जवस्साउआ ते छम्मासावसे सियसि याउगसि परभविय आयुग णिवधता बंधति। तस्थ जे ते सखेज्जवस्साउआ ते विहा पण्णत्ता सोववाम्माउआ णिरुवसम्माउआ ते त्रिभागावसेससियं सि याउग सि परभविय आयुग कम्म णिबधंता बधति । तत्थ जे ते सोबक्कमाउआ ते सिआ तिभागतिभागावसेसय ति यायुगंसि परभवियं आउग कम्मं णिबंधंता मंधति । एदेण विहायपण्णत्तिमुत्तेण सह कध ण विरोहो। ण एदमहादो तस्स पुधसूदस्स आइरियभेएण भेदभावण्णस्स एयत्ताभावादो। -प्रश्न- हे गौतम । जीव दो प्रकारके कहे गये है-संख्यात वर्षायुष्क और असंख्यात वर्षायुष्क। उनमें जो असंख्यात वर्षायुष्क हैं वे आयुके छह मास शेष रहने पर पर भविक आयुको बाँधते हुए बाँधते है। और जो संख्यात वर्षायुष्क जीव है वे दो प्रकारके कहे गये हैं।-सोपक्रमायुष्क और निरुपक्रमायुष्क। उनमें जो निरुपकमायुष्क है वे आयुमें विभाग शेष रहने पर पर-भविक आयुकर्म को भाँधते हुए आँधते है। और जो सोपक्रमायुष्क जौवहै वे कथंचित
६. आठ अपकर्ष कालोंमें बँधी आयका समीकरण गो क /जो प्र. ६४३/८३७/१६ अपकर्षेषु मध्येप्रथमवारं वर्जित्वा द्वितीयादिवारे बध्यमानस्यायुषो वृद्धिर्हानिरव स्थितिर्वा भवति । यदि वृद्धिस्तदा द्वितीयादिवारे अद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं। अथ हानिस्तदा पूर्वबद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्य। -आठ अपकर्षनि विर्षे पहली बार बिना द्वितीयादिक बारविर्षे पूर्वे जो आयु बाँध्या था, तिसको स्थिति की वृद्धि वा हानि वा अवस्थिति हो है। तहाँ जो वृद्धि होय तो पीछे जो अधिक स्थिति बन्धी तिसकी प्रेधानता जाननी। पहुरि जो हानि होय तौ पहिली अधिक स्थिति बंधी थी ताकी धानता जाननी । (अर्थात आठ अपकर्षांमे बंधी हीनाधिक सर्व स्थितियों मेंसे जो अधिक है वह ही उस आयु की बंधी हुई स्थिति समझनी चाहिए)। ७. अन्य अपकर्षोंमें आयु बन्धके प्रमाणमें चार वृद्धि व
हानि सम्भव है ध १६/पृ ३७०/११ चदुग्णमाउआणमवटिद-भुजगारसंकमाण कालो जहण्ण मुक्कस्सेण एगसमओ। पुचबंधादो समउत्तर पबद्धस्स जहिदि पडुच्च जट्ठिदिसंकयो त्ति एत्य घेत्तव । देव-णिरयाउ-आणं अप्पदरसंकमस्स जट्ठ० अतोमुहूत्त, उक्क, तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । तिरिक्वमणुसाउआण जह, अंतोमूहुत्तं, उक्क, तिण्णिपलिदोवमाणि सादिरेयाणि । -चार आयु कर्मों के अवस्थित और भुजाकार सक्रमोंका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। पूर्व बन्धसे एक समय अधिक बाँधे गये आयु कर्मका ज. स्थितिको अपेक्षा यहाँ ज स्थिति सक्रम ग्रहण करना चाहिए। देवायु और नरकाय के अल्पतर संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्महुर्त और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है। तियंचायु और मनुष्याय के अल्पतर संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक तीनतीन पत्योपम मात्र है। गो क /मू ४४१/१६३ सकमणाकरणूणा गवरणा होति सव्व आऊणं ।
। च्यारि आयु तिनकै सक्रमणकरण बिना नबकरण पाइए है। ८ उसी अपकर्ष कालके सर्व समयोंमें उत्तरोत्तर हीन
बन्ध होता है म.ब २/६२७१/१४५/१२ आयुगस्स अस्थि अव्यत्तबंधगा अप्पतरबंधगाय । म.ब २/६३५६/१८२/६ आयु अत्यि अवत्तव्यबधगा य असंखेज्जभागहाणिबधगा य ।-१, आयु कर्मका अवक्तव्य बन्ध करनेवाले जीव हैं,
और अल्पतर बन्ध करनेवाले जीव है। विशेषार्थ-आय कर्मका प्रथम समय में जो स्थितिबन्ध होता है उससे द्वितीयादि समयोंमें उत्तरोत्तर वह हीन हीनतर ही होता है ऐसा नियम है।
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आयु
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६. आयुबन्ध सम्बन्धी नियम २. आय कम के अबक्तपाद का बन्ध करने वाले और असंख्यात के अपकर्षण और पर-प्रकृति सक्रमणके द्वारा बाधा होती है, उस भागहानि पद का बन्ध करनेताले जोब है। विशेधार्थ-- आयु कम- प्रकार आयुकर्मके आबावाकालके पूर्ण होने तक अपकर्षण और पर का अवक्तव्य बन्ध होने के बाद असतर हा बन्ध होता है। आयु- प्रकृति सक्रमणके द्वारा बाधाका अभाव है। अर्थात् आगामी भव कर्म का जब बन्ध प्रारम्भ होता है तब प्रथम समयमे एक मात्र सम्बन्धी आयुक्मंकी निषेक स्थितिमें कोई व्याघात नहीं होता है, अबक्तव्य पद ही होता है और अनन्तर अस्पतरपद होता है। फिर इस बातके प्ररूपणके लिए दूसरो बार 'आबाधा' इस सूत्रका निर्देश भी उस अल्पतर पदमें कौन-सो हानि होती है, यही बतलानेके लिये किया है। यहाँ वह असरण्यात भागहानि हो होतो है यह स्पष्ट निर्देश किया है। ६. चारो आयओंका परस्पर में संक्रमण नहीं होता ५. आयुके उत्कर्षण अपवर्तन सम्बन्धी नियम
गो क /मू. ४१०/५७३ बधे । आउचउक्के ण संकमणं ॥४१०॥-बहुरि
च्यारि आयु तिनकै परस्पर सक्रमण नाही, देवायु, मनुष्यायु आदि १. बद्धयमान व भुज्यमान दोनों आयुओंका अपवर्तन रूप होइन परिणमै इत्यादि ऐसा जानना। सम्भव है
७. संयमको विराधनासे आयुका अपवर्तन हो जाता है गो.क जो प्र६४३/८३७/१६ आयुर्वन्ध कुर्वता जोवानां परिणामवशेन ध ४/१.५ ६६/३८३/३ एक्को विराहियसंजदो वेमाणियदेवेन आउअं
बद्धयमानस्यायुषोऽपवर्तनमपि भवति । तदेवापवर्तनधात इत्युच्यते बधिदूण तमावट्टणाघादेण घादिय भवणवासियदेवेन उबवण्णो । उदीयमानायुरपवर्तनस्यैव कदलीघाताभिधानात् । = बहुरि अायु के -विराधना की है सयमकी जिसने ऐसा कोई सयत मनुष्य वैमानिक बन्धको करते जीव तिनके परिणामनिके वशतें (बद्यमान आयुका) देवो में आयु को बॉध करके अपवर्तनाघातसे घात करके भवनवासी अपवर्तन भी हो है। अपवर्तन नाम घटनेका है। सौ या को अप- देवो में उत्पन्न हुआ। (ध. ४/१,५,६७।३८५/८ विशेषार्थ) वर्तन घात कहिए जाते उदय आया आयु के (अर्थात भुज्यमान आयु- ध. १२/४,२,७,२०/२१/३ उक्किस्साउ बधिय पुणो तं धादियामिच्छत्त के) अपवर्तनका नाम क्दलीघात है।
गंतूण अग्गिदेवेमु उप्पण्णदीवायण ।- उत्कृष्ट आयुको भाँध करके २. परन्तु बद्धधमान आयकी उदीरणा नहीं होती मिथ्यात्वको प्राप्त हो, द्विपायन मुनि अग्निकुमार देवोंमें उत्पन्न हुए। गो क./मू. ६१८/११०३ । परभविय आउगस्सय उदोरणा णस्थि णिय- ८ आयुके अनुभाग व स्थितिघात साथ-साथ होते हैं मेण ॥६१८॥ बहुरि परभवका बध्यमान आयु ताकी उदीरणा नियम ध १२/४.२,६३,४१/१-२/३६५ पर उधृत "हिदिघादे हमते करि नाहीं है।
अणुभागा आऊआण सव्वेसि। अणुभागेण विणा विह आउवधज्जण ३. उत्कृष्ट आयुके अनुभागका अपवर्तन सम्भव है
द्विदिघादो ॥१॥ अणुभागे हमते ठिदिघादो आउआण सम्वेसि ।
ठिदिधावेण विणा वि हु आउवबज्जाणमणुभागो ॥२॥ स्थितिघात ध. १२/४,२,७,२०/२१/३ उक्क्स्साणुभागे बधे आवट्टणाघादो णथि चि
के अनुभागोका नाश होता है । आयुको छोड़कर शेष कर्मोंका अनुके वि भण ति । तण्ण घडदे, उक्कस्साउअबंधिय पुषो तं घादिय
भागके बिना भी स्थितिघात होता है ॥१॥ अनुभागका घात होनेमिच्छत्त गहूणअग्गिदेवेसु उप्पण्णदीवायणेण वियहिचारादो महाबधे
पर सब आयुओका स्थितिघात होता है। स्थिति घातके बिना भी आउ अउक्कस्साणुभागतरस्स उब ढपोग्गलमेत्तकालपरूवणण्णहाणु
आयु को छोडकर शेष कर्मोके अनुभागका घात होता है।। बवत्तीदो वा । प्रश्न-(उस्कृष्ट आयुको बाँधकर उसे अपवर्तनधातके
ध. १२/४,२,७,२०/२१/८ उक्कस्साणुभागेण सह तेत्तीसाउधिय द्वारा घातकर पश्चात् अधस्तन गुणस्थानोको प्राप्त होनेपर उत्कृष्ट
अणुभाग मोतूण दिदीए चेव ओवट्टणाघाद कादूण सोधम्मादिम्स अनुभागका स्वामी क्यो नही होता) उत्तर--(नहीं, क्योकि धातित
उप्पण्णाणं उक्कस्सभावसामित्तं किण्ण लब्भदे। ण विणा आउअस्स अनुभागके उत्कृष्ट होनेका विरोध है)। उत्कृष्ट अनुभागको बाँधने पर
उक्कस्सहिदिघादाभावादो। प्रश्न-उत्कृष्ट अनुभागके साथ सैंतीस उसका अपवर्तन घात नहीं होता, ऐसा कितने ही आचार्य कहते
सागरोपम प्रमाण आयुका बाँधकर अनुभागको छोड केवल स्थितिके है। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योकि ऐसा माननेपर एक तो अपवर्तन पातको करके सौधर्मादि वेवोमें उत्पन्न हुए जीवोंके उत्कृष्ट उत्कृष्ट आयु को बाँधकर पश्चात् उसका घात करके मिथ्यात्वको
अनुभागका स्वामित्व क्यो नहीं पाया जाता । उत्तर-नहीं, क्योंकि प्राप्त हा अग्निकुमार देवों में उत्पन्न हुए द्विपायन मुनिके साथ व्यभि
(अनुभाग घातके) बिना आयुको उत्कृष्ट स्थितिका घात सम्भव नहीं। चार आता है, दूसरे इसका घात माने बिना महाबन्धमें प्ररूपित उत्कृष्ट अनुभागका उपाध पुद्गल प्रमाण अन्तर भी नहीं बन सकता।
६. आयु बन्ध सम्बन्धी नियम ४. असख्यात वर्षायुष्कों तथा चरम शरीरियोंकी आयु- १ तियंचोंको उत्कृष्ट आयु भोगभूमि, स्वयम्भूरमण का अपवर्तन नहीं होता
द्वीप, व कर्मभूमिके प्रथम चार कालोंमें ही सम्भव है त. सू.२/५३ औपपादिकाचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुष ति. प.५/२८५-२८६ एवे उक्कस्साऊ पुवावरविदेहजादतिरियाणं । ॥५३॥ - औपपादिक देहवाले देव व नारकी, चरमोत्तम देहवाले कम्मावणिपडिबद्धे बाहिरभागे सयंपहगिरीदो ॥२८४॥ तस्यैव सन्चअर्थात् वर्तमान भवसे मोक्ष जानेवाले भोग भूमियाँ नियंच व मनुष्य काल केई जोवाण भरहे एरवदे । तुरियस्स पठमभागे एदेणं होदि अनपवर्ती आयुवाले होते है। अर्थात् उनको अपमृत्यु नहीं होती। उनकस्सं ॥२८॥ उपर्युक्त उत्कृष्ट आयु पूर्वा पर विदेहोंमें उत्पन्न (स.सि २/५३/२०१/४) (रा.वा. २/५३/१-१०/१५७) (ध.१/४,१,६६/ हुए तिर्यंचोके तथा स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्म कर्मभूमि- भागमें उत्पन्न ३०६/६) (त.सा. २/१३५)।
हुए तियंचोके ही सर्वकाल पायी जाती है । भरत और ऐरावत क्षेत्र५. भुज्यमान आयु पर्यन्त बद्धयमान आयुमें बाधा के भीतर चतुर्थ कालके प्रथम भागमें भी किन्हीं तिर्यचोंके उक्त असम्भव है
उत्कृष्ट आयु पायी जाती है। घ.६/११-६.२४/१६८/५ जधा णाणावरणादिसमयपबद्धाण मंधावलिय
२. भोग भूमिजोंमें भी आयु होनाधिक हो सकती है बदिताणं ओकडुण-परपडि-संकमेहि बाधा अस्थि, तधा आउ- ध १४/४,२,६.८1८६/१३ अखेज्जवासाउअस्स वा त्ति उत्ते देवणेहअस्स ओकडण-परपयडिस कमादीहि बाधाभाव परूवणठ्ठ विदिय- याणां गहण, ण समयाहियपुवकोडिप्पहुडिउवरिमाउअतिरिक्खवारमाबाधाणिद्दे सादो। = (जैसे) ज्ञानावरणादि कर्मों के समयप्रबद्धों- मणुस्साणं गहणं । = 'असंख्यातवर्षायुष्क' से देव नारकियोका ग्रहण
उप
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आयु
२६२
६ आयुबन्ध सम्बन्धी नियम
किया गया है, इस पदसै एक समय अधिक पूर्व कोटि आदि उपरिम
३. भोगभूमि मनुष्य व तिर्यचगतिके जीवोंमे आयु विकल्पोंसे सयुक्त तियंचो व मनुष्योंका ग्रहण नहीं करना
___ गो.क /जी प्र. ६३६-६४०/८३६/८ भोगभूमिजा षण्मासेऽवशिष्टे देवं । चाहिए।
= बहुरि भोग भूमिया छह मास अवशेष रहे देवायु ही को बाँधे । ३.बवायुष्कवधातायुवक देवोंकीआय सम्बन्धीस्पष्टीकरण
५. आयुके साथ वही गति प्रकृति बँधती है घ./४/१६,६७/३८५ पर विशेषार्थ “यहाँ पर जो बद्धायुघातकी अपेक्षा
नोट-आयुके साथ गतिका जो बन्ध होता है वह नियमसे आयुके सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देवोके दो प्रकारके कालकी प्ररूपणाकी है,
समान ही होता है । क्योकि गति नामकर्म व आयुकर्मकी व्युच्छित्ति उसका अभिप्राय यह है कि, किसी मनुष्यने अपनी सयम अवस्थामें
एक साथ ही होती है-दे. बन्ध व्युच्छित्ति चार्ट । देवायुमन्ध किया। पीछे उसने संक्लेश परिणामोके निमित्तसे संयमकी
६. एक भवमें एक ही आयका बन्ध सम्भव है विराधना कर दी और इसलिए अपवर्तन घातके द्वारा आयुका पात भी कर दिया। सयमकी विराधना कर देने पर भी यदि वह सम्यग्दृष्टि है,
गो क /मू.६४२/८३७ एक्के एक्कं आऊ एकभवे बंधमेदि जोग्गपदे । तो मर कर जिस कल्पमें उत्पन्न होगा, वहाँको साधाणत निश्चित
अडवार वा तत्थवि तिभागसेसे व सव्वस्थ ॥६४२॥-एक जीव एक आयुसे अन्त मुहूर्त कम अर्ध सागरोपम प्रमाण अधिक आयुका
समय विषै एक ही आयु को बाँधै सो भी योग्यकाल विषै आठ बार धारक होगा। कल्पना कीजिए किसी मनुष्यने सयम अवस्थामें
ही बाँधै, तहाँ सर्व तीसरा तीसरा भाग अब शेष रहे माँधै है। अच्युत कल्पमें संभव बाईस सागर प्रमाण आयुबंध किया । ७. बद्धायुष्कोमें सम्यक्त्व व गुणस्थान प्राप्ति सम्बन्धी पीछे संयमको विराधना और बॉधी हुई आयुकी अपवर्तना कर प. प्रा १/२०१ चत्तारि वि छेत्ताई आउयबंधेण होइ सम्मत्तं । असंयत सम्यग्दृष्टि हो गया। पीछे मर कर यदि सहस्रार कल्पमें अणुवय-महव्वाइंण लहइ देवउ मोतं ।२०१-जीव चारों ही क्षेत्रों उत्पन्न हुआ, तो वहाँकी साधारण आयु जो अठारह सागरकी है, उससे की (गतियोकी) आयुका बन्ध होनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त कर सकता घातायुष्क सम्यग्दृष्टि देवकी आयु अन्तर्मुहूर्त कम आधा सागर अधिक है। किन्तु अणुवत और महावत देवायुको छोडकर शेष आयुका बन्ध होगी। यदि वही पुरुष संयमकी विराधना केसाथ ही सम्यक्त्वको होने पर प्राप्त नहीं कर सकता (ध.११,१,८५/१६६/३२६),(गो.क./मूघिराधना कर मिथ्यादृष्टि हो जाता है, और पीछे मरण कर उसी
३३४), (गो जी./म् /६५३/११०१) सहस्रार करूपमें उत्पन्न होता है, तो उसकी वहाँकी निश्चित अठारह
की वहाँकी निश्चित अठारह ध.१/१,१.२६/२०८/१ बद्धायुरसंयतसम्यग्दृष्टिसासादनानामिव न सम्यसागरकी आयुसे पस्योपमके असंख्यात भागसे अधिक होगी। ऐसे
ग्मिथ्यादृष्टिसंयतासयतानां च तत्रापर्याप्तकाले संभव' समस्ति तत्र जीवको घातायुष्क मिथ्यादृष्टि कहते है।
तेन तयोविरोधात ।-जिस प्रकार बद्धायुष्क असं यतसम्यग्दृष्टि और ४. चारों गतियों में परस्पर आयुबन्ध सम्बन्धी
सासादन गुण स्थानवालोंका तिथंच गतिके अपर्याप्त कालमें सम्भव है,
उस प्रकार सम्यग् मिथ्यादृष्टि और सयतासंयतोंका तिर्यंचगतिके १. नरक व देवगतिके जीवोंमे
अपर्याप्त कालमें सम्भव नही है, क्योंकि, तियंचतिमें अपर्याप्तकाल के घ.१२/४,२,७,३२/२७/५ अपज्जत्ततिरिक्खाउ देव-णेरइया ण बंधति। साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासयतोंका विरोध है।
- अपर्याप्त तिर्यच सम्बन्धी आयुको देव व नारकी जीव नहीं ध.१२/१,२,७,१६/२०/१३ उक्कस्साणुभागेण सह आउयबधे संजदासंजदा. माँघते।
दिहेछिमगुणठाणाणं गमणाभावादो। - उत्कृष्ट अनुभागके साथ गो.क./जी.प्र.४३९-४४०/८३६/६ परभवायु: स्वभुज्यमानायुष्युत्कृष्टेन
आयुको बाँधनेपर संयतासंयतादि अधस्तन गुणस्थानोंमें गमन नहीं षण्मासेऽवशिष्टे देवनारका नारं तैरश्च बघ्नन्ति तद्वन्धे योग्या' होता। स्युरित्यर्थः ।...सप्तमपृथ्वीजाश्च तैरश्चमेव । --भुज्यमान आयुके उत्कृष्ट गो जी/जी प्र७३१/१३२५/१४ बद्धदेवायुकादन्यस्य उपशमश्रेण्यमरणाछह मास अवशेषर हैं देव नारकी है ते मनुष्यायु वा तिर्यचायुको आँधै __ भावात् । शेषत्रिकबद्धायुष्कानां च देशसकलसंयमयोरेवासंभवात् । है अर्थात तिस काल में बन्ध योग्य हो है। .. सप्तम पृथ्वीके नारकी -देवायुका जाकै बन्ध भया होइ तिहिं बिना अन्य जीवका उपशम तिर्यचायु ही को बाँधे है।
श्रेणी विर्षे मरण नाहीं । अन्य आयु जाकै बंधा होइ ताकै देशसंयम
सकलसंयम भी न होइ। २. कर्म भूमिज तिर्यंच मनुष्य गतिके जीवोमे नोट-सम्यग्दृष्टि मनुष्य व तियं च केवल देवायु व मनुष्यायुका हो।
गो क./जी.प्र.३३४/४८६/१३नरकतिर्यम्देवायुस्तु भुज्यमानबद्यमानोभयबन्ध करते हैं-दे. बन्धव्युच्छित्ति चार्ट।
प्रकारेण सत्वेसु सत्सु यथासंख्यंदेशवता' सकलवताःक्षपका नैव स्युः। रा.बा.२/४६/८/१५५/देवेषुत्पद्य च्युत मनुष्येषु तिर्यश्च चोत्पद्य अपर्याप्त- गो.क./बी प्र ३४६/४६८/११ असंयते नारकमनुष्यायुषी व्युच्छित्ति', कालमनुभूय पुनर्दवायुमंध्या उत्पद्यते लब्धमन्तरम् ।-देवोंमें उत्पन्न तत्सत्त्वेऽणुवताघटनात् । १. बद्भयमान और भुज्यमान दोउ प्रकार होकर वहाँसे च्युत हो मनुष्य वा तियचोंमें उत्पन्न हुआ। अपर्याप्त काल
अपेक्षा करि नरकायुका सत्त्व होते देशव्रत न होई,तिर्सचायुका सत्त्व मात्रका अनुभव कर पुन. देवायुको बाँधकर वहाँ ही उत्पन्न हो गया।
होते सकलबत न होई, नरक तिर्यच व देवायुका सत्त्व होते क्षपक इस प्रकार वेव गतिका अन्तर अन्तर्मुहूर्त मात्र ही प्राप्त होता है।
श्रेणी न होई । २.असंयत सम्यग्दृष्टियोंके नारक व मनुष्यायुकी अर्थात अपर्याप्त मनुष्य वा तिर्यच भी देवायु बन्ध कर सकते हैं।
व्युच्छित्ति हो जाती है क्योंकि उनके सत्त्वमें अणुव्रत नहीं होते। गो.क./जी.प्र.४३९-४४०/५३६/७ नरतिर्यचत्रिभागेऽवशिष्टे चत्वारि। ..
८.बद्धधमान वेवायुष्कका सम्यक्त्व विराधित नहीं होता एक विकलेन्द्रिया नारं तेरचं च। तेजो वायव'.. तैरश्चमेव महरि
गो क./भाषा ३६६१५२६/३बहुरि बद्धयमान देवायु अर भुज्यमान मनुष्यायु मनुष्य तिर्यच भुज्यमान आयुका तीसरा भाग अवशष रह च्यास्यों
युक्त असंयतादि च्यारि गुणस्थानवर्ती जीव सम्यक्त्व ते भ्रष्ट होह आयुकौबाँधे है...एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय नारक और तिथंच आयुको
मिथ्यादृष्टि विर्षे होते नाही। बाँधै है। तेजकायिक वा वातकायिक तिथंचायु ही बान्धे हैं। गो, क./जी.प्र. ७४५/१०/१ उद्वेलितानुद्वेलितमनुष्यद्विक्तेजोवायूना ९.बंध उदय सत्व सम्बन्धी संयमी भंग मनुष्यायुरबन्धादत्रानुत्पत्ते । - मनुष्य-द्विककी उद्वेलना भये वान गो.
कम.६४१४८३६ सगसगगदीणमाउँ उदेदि बंधे उदिण्णगेण सम। भमै तेज वातकायिकनिके मनुष्यायुके बन्धका अभाव मनुष्यनिविर्षे दो सत्ता हु अबंधे एक्कं उदयागदं सत्तं ॥६४॥ -नारकादिकनिके उपजना नाही।
अपनी-अपनी गति सम्बन्धी ही एक आय उदय हो हैं। बहुरि
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ओयु
सत्त्व पर भवको आयुका बन्ध भये उदयागत आयु सहित दोय आयु का है - एकबद्धमान और एक भुज्यमान । बहुरि अबद्धायुकै एक उदय आया भुज्यमान आयु ही का सत्व है।
गो.क./६४४/८३८
७. आयु विषयक प्ररूपणाएँ
1. नरक गति सम्बन्धी
पटल
सं
1
1=
मधे मधे विहोति भगा हु एक भये एकापसिया ऐसे पूरीति करि बन्ध वा अबन्ध वा उपरत बन्धकरि एक जीवके एक पर्याय वि एक आयु प्रति तीन भग नियम तैं होय है ।
सामान्य प्ररूपणा विशेष प्ररूपणा सकेत
सामान्य १०००० वर्ष १ सागर १ | १०००० वर्ष ६०,००० वर्ष
क्रम
२
३
४
३
४
५ १/१० सागर १/५
६ १/५
३/१०
२/५
८ २/५
१/२ १/२ २/५ १० ३/५ ७/१० ११ ७/१०
४/५ ६/१०
१२ ४/५
१३ ६/१०
.
ह
सागर
१
१
२६०,०००,१०,०००००, १-२/११ ६०,०००,००,, अस को पू
१-५/११
अस को पू १/१० सागर
१-६/११
21
९-८/१९
१- १०/११
67
३/१०
+
13
12
अपू.
तेज
13
११
"
31
(न आ. १९१४-१९१६) (स सि ३/६/२२-२३) (स सि ४/३५ / ११३), (ज प. ११/१७८), (म पु. १०/१३), (द्र स / टी ३५/११७) । ( ति प २ / २०४-२१४) (रामा ३/६/०/१०/१८) (हरि. ४/२५०-२१४) (०/२२६/११६-११०) (.सा. १८-२००) अस ख्यात, को क्रोड, पू-पूर्व (७०५६०००००००००० वर्ष )
असं
प्रथम पृथिवी
द्वितीय पृथिवी
जघन्य उत्कृष्ट
तृतीय पृथिवी चतुर्थ पृथिवों पचम पृथिवी जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सागर सागर सागर सागर सागर सागर १७
३.
७
१०
३
३-४/६ ७ 10-3/9 ३-४१६ - १-८/६ ०-३० ७-६/० ३-८/६४-३/६७-६/७ ८-२/७ ४-३/१४-७/१८-२० ८-५/० ४-०/२५-२६ ८-५६० ६-१० ५-२६५-६६ ६-१/७ ६-४/७ २-६६६-१/६ १-५/० १०
19
33
17
मार्गणा
एकेन्द्रिय पृथिवी कायिक
"
वायु
वनस्पति साधारण विकलेन्द्रिय
द्वीन्द्रिय
जिय
चतुरिन्द्रिय
"1
१ सा
25
"
"
97
"
11
२. तियं गति सम्बन्धी
प्रमाण (मू आ ११०५-११११ ), ( ति प ५ / २८१-२१०); (रा.वा ३/३६/ ३-४ / २०१), (त्रि सा १२८-३३०) (गो जी जी २०८/४५८)
संकेत १८४००,००० वर्ष १ पूर्व ७०३८०००००००००० वर्ष ।
विशेष
जघन्य
शुद्ध
खर
२१/९९
२-३/१९
२-५/११
२-०/११
२-१/११
उत्कृष्ट
सागर
३
१-२/११
१-४/११
१-६/११
१-८/११
१-१०/११
२-९/११
२-३/११
२-५/११
२-०/११ ६-५/६
२-६/११
३-०
२६३
जघन्य
सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त
4-8/8 4-4/8
७
आयु } उत्कृष्ट
सम्पादि
विष
क्रम
बन्ध
उदय
सत्व
60
१२ वर्ष
४ दिनरात १२ 4 महीने
१०. मिश्र योगों आयुका बन्ध सम्भव नहीं गोक/भापा १०५/१०/१ जातें मिश्र योग विषै आयुबन्ध होय नाहीं ।
पचेन्द्रिय
१० जलचर
१९ परिस
मार्गणा
१६
१७ मध्यम
बन्ध
अबन्ध वर्तमान बन्धक (अबद्धायुष्क)
१२ उरग वर्ष १२०००६] [१२] पक्षी २२००० वर्ष १४ चौवे
७०००
19
३ दिन रात १५ असंज्ञी पंचेन्द्रिय
३००० वर्ष
१०००० "
१८ जघन्य
भोगभूम २० कर्म
१
१
२
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
७. आयु विषयक प्ररूपणाएं
X
१
१
विशेष
"
सागर सागर | सागर सागर १० १७ २२ २२ ३३ १० |११-२/५ १७ १८- २/३ २२ ३३ ११-१/४ १२-४/४ १८-२/२ २०-१/३ | / १२-४/५ १४-१/५ | २०-१ / ३ २२ १४-१/२१५-२२ १५-२५ १०
मत्स्यादि
गोह नेवला सरी
पादि
"
सर्प
कर्मभूमि भैरुड आदि कर्म भूमिज
भोग भूमिज
उत्तम भागभूमिज | देवकुरु - उत्तर कुरु
हरि व रम्यक क्षेत्र हैमवत हिरण्यवत (अन्तद्वीप)
उपरत बन्ध
(वायुष्
षष्ठ पृथिवी सक्षम पृथिवी
जघन्य | उत्कृष्ट | जघन्य | उत्कृष्ट
X
१
२
सर्वत्र अन्तर्मुहू
आयु
जघन्य । उत्कृष्ट
[१] [को] पूर्व ६ पूर्वाग
४२००० वर्ष ७२००० "
१ पल्य को पूर्व
३ पक्य
२ "
१
11
11
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
आयु
३. एक अन्तर्मुहूर्तमेंध्यपर्याप्त सम्भव निरन्तर
क्षुद्रभव
(गो.जी./. १२१-१२२/२३२-२२२) (का.अ./टी. १२०/७५)
मार्गणा
क्रम
१
२
३
४
५
६
७
८
{
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
नाम
एकेन्द्रिय (ल. अप.) पृथिवी कायिक
अपू.
तेज
2:
वायु
विषय
34
वनस्पति साधारण
१७
विकलेन्द्रिय (
"
अप्रति प्रत्येक
अशी
सही
मनुष्य
"
.
वीडिय
त्रीन्द्रिय
चतुरेन्द्रिय
पंचेन्द्रिय (ल. अप.)
भरत पेरामत क्षेत्र
सुषमा सुषमा काल
सुषमा काल
सुषमा दुषमा काल
दुषमा सुषमा काल दुषमा काल
दुषमा दुषमा काल विदेह क्षेत्र
हैममत हैरण्यक्त
हरि-रम्यक देव-उत्तर कुरु
बन्
(ल अप.)
प्रमाण
ति.प.
गा.
| सूक्ष्म
२२५४
४०४
बादर
सूक्ष्म
बादर
सुक्ष्म
बादर
सूक्ष्म
बादर
सूक्ष्म
बादर
सूक्ष्म
बादर
जघन्य
आयु
प्रत्येक में योग (जोड)
२० वर्ष
१२
* . . . . . . . .⠀⠀
६०१२
१कोड पूर्व १ पव्य
Co
६०
४०
5 V N
देव कुरु उत्तर कुरुवत् हरि-रम्य हैमवत हैरण्यटनद
विदेह क्षेत्र
प्रमाण
ति. प. ४ अन्य
गा. प्रमाण
२९५६
३६६
२
३३५
99
(१कोड पूर्व ) | २५१३
६६१३२
कुल योग
प्रमाण
४. मनुष्य गति सम्बन्धी :- १ पूर्व - ७०५६०००००००००० वर्ष ति. प. ६ अन्य १. क्षेत्रको अपेक्षा
गा.
प्रमाण
प्रमाण (सू. आ. १९९१-१९९२) (ति/गा) (स.सि. ३/२७-३१. ३७/५८-६६): (रा.मा. २/ २०-२१.२०/१११११२.११८)
१८०
२४
६६३३६
उत्कृष्ट
आयु
१२० वर्ष
२०
99
१कोड़ पूर्व
१ पल्य
२ "
३
२६४
19
"
अवसर्पिषी
सुषमा सुषमा काल
सुषमा
सुषमा दुषमा "
दुषां सुषमा दुषमा "
दुषमा दुषमा " वरसर्पिषी
८३
८४
31
11
19
दुषमा दुषमा काल १५६४ १५-१६ वर्ष
दुषमा "
२०
१९६८ १५७६ | १२० १४१६ एकोड़ पूर्व
दुषमा सुषमा " शुचमा बुषमा दुषमा " सुषमा सुषमा "
11
८५
14
11
11
31
97
प्रमाण
ति.प.
गा
२. कालकी अपेक्षा - (ति.प. ४ / गा )
विषय
93
97
"
39
"" १६०४
५. भोगभूमिजों व कर्म भूमियों सम्बन्धी (ति.प./गा.) उत्तम भोगभू.
३ पण्य
२ पश्य १ "
मध्यम " जघन्य
I
पूर्व कोड़
कर्म भूमि
देखो ऊपर भरत ऐरावत क्षेत्र
19
11 11
19
11
99
11
(१) देवोकी अपेक्षा
१,२
४,५
19
11
19
""
महत्तर देवो दोष देन
13
नं. ४ नीचोपपाद
दिग्वासी
अन्तर निवासी
99
"1
19
:::
19
11
६. देवगति में व्यन्तर देवों सम्बन्धी
१. (यू. आ. १९१६-१९९०) २ (त सू. ४/२८-३६) १ (वि.प. ४, ५,६ / गा ), ४, (त्रि सा. २४०-२६३); ५ (द्र स / टी. ३५ / १४२) संकेत-साधिक- अपनेसे ऊपरकी अपेक्षा यथायोग्य कुछ अधिक
आयु
19
२ पव्य
१
99
कोड पूर्व
१२० वर्ष
२०
१५५४१३१६..
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१६०० १ पक्य १६०२ | २
२६० २८६ २८८
ॐ आयु विषयक प्ररूपणाएँ
प्रमाण
जघन्य
आयु ति प / ४ अन्य
प्रमाण
नाम
कूष्माण्ड
उत्पन्न अनुत्पन्न
प्रमाणक
व्यन्तर सामान्य
किन्नर आदि आठों इन्द्र
प्रतीन्द्र
सामानिक
गन्ध
महा गन्ध
भुजंग (जुगल)
प्रातिक आकाशोत्पन्न
३३५
584
४०४
१२७७
१४७५
१३३८
१५१५ २५६८
२६० २८६
२८
जघन्य
- सर्वत्र १०.००० वर्ष
उत्कृष्ट
१ पण्य
३ पक्ष्य
२
"
99
१ "
उत्कृष्ट
आयु
कोड़ पूर्व
१२० वर्ष
२०
२० वर्ष १२० .. कोड़ पूर्व
१ पल्य
२ 99
३ "1
17
१/२ पण्य यथायोग्य १०,००० वर्ष
२०,००० ३०,००० ४०,०००
५०,००० ६०,००० ७०,०००
67
""
ܙܕ ܘܘܘܨܘE
८४,००० १/८ पश्य
१/४ १/२ "
99
99
विशेष
दिशाओं में स्थित वाहनादिवाले
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
.
क्रम
७. देव गतिमें भवनवासियों सम्बन्धी
(त्रि
सपरिवार आयु सम्बन्धी (१३/१४४-१०५), (सा. २४०-२४०) केन्द्रसम्बन्धी ( आ. १११०-११२२). (०.४/२८) (. ११/१२०) (सं. १५/१४२) संकेत साबिक अपनेसे ऊपरको अपेक्षा यथायोग्य कुछ अधिक । इस भेद
३
९ असुरकुमार चमरेन्द्र वैरोचन
२ नागकुमार भूतानन्द
धरणानन्द
७
देव सामान्य )
नाम
६
सुपर्णकुमार वेणु
४ द्वीपकुमार पूर्ण
विशिष्ट
दधिकुमार जलप्रभ ६ स्तनितकुमार पोष
जलकान्त
महाघोष
८] दिकुमार
धारी
कुमार हरिषेण
अग्निकुमार
१० मार
हरिकान्त
अमितगति
अमितवाहन
अग्निशिखा अग्निवाहन बेलम्ब
प्रभञ्जन
१. पाठकको अपेक्षा सम्यग्दृष्टि इन्द्र मिध्यादृष्टि
31
सामान्य
ज० उ०
सर्वत्र १०,००० वर्ष
इन्द्रावत्
१ सागर
साधिक" ३ पक्य
རྣང
साधिक" | साधिक पश्य 2 ३ कोड पूर्व] साधिक साधिक २ पल्य
""
३ कोड वर्ष
साधिक
साधिक.. ३ कोड १३. पम
साधिक .. १२ पत्य
"1
साधिक.. १३ क्य
१३
19
१२. पक्य
साधिक.
पक्य
साधिक साधिक
13
इन्द्राणि
साधिक १३. पक्य
"
साधिक
२५. पक्ष्य
३
,,
३ कोड
साधिक.. १ कोड़ साधिक ३ कोड
साधिक
15
३ कोड
..:::::::::
साधिक
"
साधिक," ३ कोड़,
"
"
"
(प. ७/२२.३० / १२६). (असा २४१)
स्व स्व उत्कृष्ट + १/२ सागर + पवय / असं
11 19 19
११ प्रतीन्द्र २ त्राय.
स्त्रिश ३ लोकपाल ४ सामानिक
स्व स्व इन्द्रावत
आत्मरक्ष
देव
१ पल्य
साधिक
१ कोड पूर्व साधिक
१ कोड बर्ष साधिक
१ लाख
साधिक
१ लाख साधिक १ लाख
साधिक
१ लाख साधिक
१ लाख साधिक
१ लाख साधिक
37
⠀⠀⠀⠀⠀ ⠀⠀ .⠀⠀ *
39
"
"
१ लाख
साधिक..
देवी अभ्यन्तर
पल्य
कथन नष्ट हो गया है (ति.प. ३/१६१, १७४)
३ १/८
साधिक
साधिक
३ कोड वर्ष साधिक ३ कोड
साधिक
३ कोड
:::::::::::::::
साधिक
३ कोड
"1
२३ कोड पूर्व २ कोड पूर्व
साधिक
३ कोड
पारिषद
साधिक
३ कोड साधिक
३ कोड साधिक
मध्यम
२ पल्य
꽃
१/१६
साधिक
साधिक २ कोड साधिक २ कोड
साधिक
"
२ कोड
साधिक
२ कोड
"
९ को पूर
साधिक " १ कोड वर्ष
साचिक "
साधिक.. १ लाख
२ कोड वर्ष १ कोड वर्ष साधिक साधिक "साधिक. २ कोड
१ कोड साधिक १ कोड
"
" साधिक
११
14
"
::::
बाह्य
al
पण्य
19
१/३२
साधिक:
24
१ कोड पूर्व साधिक
१ फोड
११
[१] कोड
साधिक
99
59
91
15
99
साधिक.
१ कोट
97
1.
साधिक "साधिक.
19
सेनापति
२ कोड
१ कोड साधिक" साधिक..
१ पल्य साधिक
१ लाख
साधिक
१ लाख
साधिक "
१ लाख " साधिक" १ लाख साधिक १ लाख .. साधिक
११
आरोहक वाहन या अनोक
"1
५०,०००,
" "साधिक"
१/२ पत्य
साधिक
१ कोड वर्ष
साधिक
१ लाख .. साधिक
१ लाख साधिक
:::
५०,००० साधिक "
५०,००० साधिक
५०,००० साधिक
19
11
$0,000 +1 साधिक
21
५०,००० "साधिक ५०,०००, साधिक ..
19
१ पल्य
(३) घातायुष्ककी अपेक्षा - (घ ७/२,२,३०/ १२६): (त्रि सा. ४४१ ) सम्यग्दृष्टि - स्वस्व उत्कृष्ट + १/२ पव्य मिथ्यादृष्टिस्व स्व उत्कृष्ट + पथ्य / असं.
लवणा"
नोट - इसी प्रकार अन्य सर्व देवियोकी जानना
५१
१७१२
२७६
७
अधिपति दे
शाली देव
वृषभदेव
| महोरग
| अन्य सर्व द्वीप समुद्रोंके
सर्वत्र १०,००० वर्ष
:
#2313
धृति बला देवी
१ पन्य
=
सर्वत्र १०,००० वर्ष
जम्बू द्वीपके रक्षक
ही देवी
श्री देखी
(२) देवियोंकी अपेक्षा
१ पल्य
गा.गा. ति.प. ४तिप
प्रमाण
जघन्य
कृष्ट
विशेष
*IT.
ति.प. ४.५
प्रमाण
गा.
नाम
जघन्य
उत्कृष्ट
आयु
विदोष
आयु
आय
२६५
७. आय विषयक प्ररूपणाएँ
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
आयु
आय
सूर्य
नं.५
आयु
७ आयु विषयक प्ररूपणाएं ८. देवगतिमें ज्योतिष देवों सम्बन्धी १. (मू आ ११२२-११२३), २. (त सू.४/४०-४१), ३. (ति.प.७/ [प्रमाण सं. नाम
जघन्य ६१७-६२५): ४. (रा.वा.४/४०-४१/२४६); ५.(हरि-पु.६/
उस्कृष्ट ८-६), ६. (जं.प. १२/६५-६६);७. (त्रि.सा. ४४६)
बुध, मंगल । १/८ पाय | १/२ पल्य शनि
नक्षत्र प्रमाण सं. नाम
जघन्य उत्कृष्ट | तारे
१/४ पक्य 1 प्रमाण नं.५
(२) ज्योतिष देवियोंकी अपेक्षा (१) ज्योतिष देव सामान्यको अपेक्षा
(त्रि. सा, ४४६) । चन्द्र १/८ पत्य १ पक्य+१ लाख वर्ष
सर्व देवियाँ । स्व स्व देवोंसे १ पल्य+१००० वर्ष
आधी १ पक्य+ १०० वर्ष (७) घातायुष्ककी अपेक्षा २.३,४,६,७ | बृहस्पति
१पन्य नं.१
(ध.७/२,२,३०/१२६), (त्रि. सा.५४१) १पल्य-१०० वर्ष
सम्यग्दृष्टि - स्व स्व उत्कृष्ट + १/२ पल्य ३/४ पन्य
मिथ्यादृष्टि -
+पत्य/असं, है. देवगति में वैमानिक देव सामान्य सम्बन्धी प्रमाण -स्वर्ग सामान्यको उत्कृष्ट व जघन्य आय सम्बन्धी-म्र आ.१९६): (त.मू.४/२६-३४): (ति.प.८/४५८-४५६),
(रा. वा. ४/२६-३४/२४६-२४८); (ज प १६/६५३); (त्रि. सा.५३२); प्रत्येक पटल विशेष में आयु सन्मन्धी -(टीका सहित ष ख, ७/२,२/सू. ३३-३८/१२६-१३५) बद्धायुष्ककी अपेक्षा प्रत्येक पटलमें आयु सम्बन्धी-ति. प. ८/४५८-५१२) घातायुष्क सामान्यको अपेक्षा , , , , -(ति. प.८/५४१) घातायुष्क सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा-(त्रि. सा. ५३३,५४१)
आयु सामान्य नाम
बद्घायुष्ककी अपेक्षा
घातायष्क सामान्य | जघन्य । उत्कृष्ट ।
उत्कृष्ट
उस्कृष्ट (१) सौधर्म ईशान स्वर्ग सम्बन्धी स्वर्ग सामान्य । साधिक १ पन्य । साधिक २ सागर । घातायुष्क (घ४/पृ.४६३/११) सम्यग्दृष्टि १पन्य+१/२पत्य २ सागर+शरसागर मिथ्यावृष्टि १पल्य+ पक्य/अस. २ सागर+पल्य/असं प्रत्येक पटल ११ पक्य १/२ सागर
६६६६६६६६६,६६६,६६२ पन्य विमल १/२ सागर
१,३३३,३३३,३३३,३३३,३३१ " १७/३० १६/३०
२०,०००,०००,०००,०००,०० । १६/३० ,
२१/३० . वीर २१/३० २३/३०
३३३,३३३,३३३,३३३,३३३३ अरुण २३/३० , २५/३०
४००,०००,०००,०००,००० नन्दन २५/३०
२७/३० ! नलिन २७/३०
२६/३०
५३३,३३३,३३३,३३३.३३३ कांचन २६/३०
१-१/३०
६००,०००,०००,०००,००० रुधिर १-१/३० १-३/३० चचु १-३/३० १-१/३० मरुत १-५/३० १-७/३०
८००,०००,०००,०००,००० ऋद्धीश १-७/३० १-६/३० . वैडूर्य १-६/३० १-११/३०,
६३३,३३३,३३३,३३३,३३३ रुचक १-१२/३० १-१३/३०,
१,०००,०००,०००,०००,००० रुचिर १-१३/३० १-१५/३०, १,०६६,६६६६६६,६६६६६६३ , अङ्क १-१५/३०॥ १-१७/३०, स्फटिक १-१७/३०॥ १-१६/३०,
१,२००,०००,०००,०००,००० १६ । तपनीय
|१-१९/३०.. ।१-२२/३०,
क्रम
१७/३०
॥
बागु
Addada 00000
स्व स्व उत्कृष्ट आयुवद
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
आयु
२६७
७. आयु विषयक प्ररूपणाएं
घातायु एक सामान्य
बवायुष्ककी अपेक्षा उत्कृष्ट
मेष
१.३३३,३३३,३३३,३३३,३३३ पश्य १,४००,०००,०००,०००,०००
له واو
आयु सामान्य कम | नाम
जघन्य
उत्कृष्ट १-२१/३० सागर |१-२३/३० सागर অম
१-२३/३० ॥ १-२५/३० , हरित
१-२५/३०, १-२७/३० .
१-२७/३०, १-२६/३० , लोहिताडू
१-२६/३०.. २-१/३० , वरिष्ट
२-१/३० .. २-३/३० , नन्दावर्त
२-३/३० ॥ प्रभंकर २-१/३०
२-७३० , पिष्टाक (पृष्ठक) २-७/३० .
२-१/३० . गज
२-६/३० , २-११/३०,
२-११/३०, २-१३/३० , प्रभा
१२-१३/३०, १२-१/२ , (२) सनत्कुमार माहेन्द्र युगल सम्बन्धी स्वर्ग सामान्य | साधिक २ सागर | साधिक ७ सागर घातायुष्कसम्यग्दृष्टि २-१/२ सागर ७-१/२ सागर
पक्य मिध्यादृष्टि २ सागर + पन्य ७ सागर+
१.५३३,३३३,३३३,३३३,३३३... १.६००,०००,०००,०००,००० १,६६६,६६६.६६६६६६६६६२, १,७३,३३३३,३३३,३३३,३३३ १,८००,०००,०००,०००,०००
स्व स्व उत्कृष्ट आयवत
मित्र
१६३३,३३३,३३३,३३३,३३३३ २०,०००,०००,०००,०००,००० साधिक २ सागर
असं.
२-५/७ सागर
३-३/१४ सागर ३-१/१४ , ४-६/१४
४-१/७
६-१/१४
,
प्रत्येक पटलअंजन
२-१/२ सागर वनमाला লাশ
३-१३/१४ , गरुड़
४-६/१४ , लागल बलभद्र
६-१/१४ .
६-१९/१४ ॥ (३) ब्रह्म ब्रह्मोत्तर युगल सम्बन्धी स्वर्ग सामान्य साधिक ७ सागर घातायुष्क.सम्यग्दृष्टि
७+१/२ सागर
साधिक ७,
साधिक १० सागर
१०+१/२ सागर
७ सागर + पत्य
१० सागर पन्य
'असं.
---उत्कृष्ट आयु सामान्य वर--
م
८-१/४ सागर
७-३/४
सागर
मिथ्यादृष्टि
अस. प्रत्येक प्रटलअरिष्ट
७-१/२ सागर देवसमित
८-१/४ .. ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लौकान्तिक देव ८ सागर । (४) लांतव कापिष्ठ युगल सम्बन्धी स्वर्ग सामान्य | साधिक १० सागर
مه
هه
१०-१/२,, ८सागर
साधिक १०. ८ सागर
साधिक १४ सागर
घातायुष्क - सम्यग्दृष्टि
१०+१/२ सागर
१४+१/२ सागर
मिथ्यादृष्टि
१० सागर' असं.
१४ सागर+पल्य
असं.
प्रत्येक पटलब्रह्म निलय लान्तव
१०-१/२ सागर । १२-१/२ सागर
१२-१/२ सागर १४-१/२ सागर
साषिक १२ सागर
१४ सागर
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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आमु
क्रम
१
१
२
३
२
३
२
३
४
k
८
नाम
जघन्य
(५) शुष्क महाशुक्र युगल सम्बन्धी
स्वर्ग सामान्य घातायुष्क सम्यग्दृष्टि
मिथ्यादृष्टि
प्रत्येक पटल
महा शुक्र
(६) शतार - सहस्रार स्वर्ग सामान्य धातायुष्क - सम्यग्दृष्टि
मिध्यादृष्टि
प्रत्येक पटल -
सहस्रार
साधिक १४ सागर
१४- १/२ सागर
अमोघ
ਉਪ-ਗ
१४ सागर -
फार्म-मनस कौमनस
प्रीतिकर
१४- १/२ सागर युगल सम्बन्धी
साधिक १६ सागर
१६- १/२ सागर
१६ सागर +
१६- १/२ सागर
(७) मानत प्रागत युगल सम्बन्धी
स्वर्ग सामान्य
घातायुष्क :
प्रत्येक पटल
आनत
प्राणत
पुष्पक
(८) आरण अच्युत युगल सम्बन्धी
स्वर्ग सामान्य वातायुष्क :
प्रत्येक पटल - सातंकर
आरण
अच्युत
(९) नव प्रवेयक सम्बन्धी
सामान्य घातायष्क :
प्रत्येक पटल :-- अथोरन
१८- १/२ सागर
१६ सागर
११-१/२.
पण्य
असं.
२० सागर Ro-2/3,, २१-१/३
मध्यम-शोधर
२५ "
सुभद्र
२६
सुविशाल २७
२२ सागर
२३
२४ "
आयु सामान्य
२८
पण्य
२६
असं.
३०
-
:::
१८ सागर
२० सागर
उत्पत्ति का अभाव त्रि. सा. ५३३)
:::
उत्कृष्ट
२० सागर
२२ सागर
उत्पत्तिका अभाव (त्रि. सा. ५३३)
साधिक १ सागर
१६- १/२ सागर
१६ सागर +
२६८
असं
१६- १/२ सागर
२२ सागर ११ सागर उत्पत्तिका अभाव (त्रि. सा. ५३३)
साधिक १८ सागर
१८- १/२ सागर
१८ सागर +
१६ सागर
१६- १/२
२०
१८- १/२ सागर
२३ सागर
२४
२५
94
पण्य
२०- २/३ सागर
२१-१/३
१२
२६
२७
२८ "
19
२६
99
३० ३१ "
पक्य
असं.
साधिक १६ सागर
arrant अपेक्षा उत्कृष्ट
साधिक १८ सागर
१८-४/६ सागर १६-२/३
२०.
२०-४/६ सागर २१-२/६
२२
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
७. आयु विषयक प्ररूपणाएँ
वातायुष्क सामान्य उत्कृष्ट
उत्कृष्ट आयु
सामान्य
--
उत्पत्तिका अभाव
↓
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झापु
२६९
७. आयु विषयक प्ररूपणाएँ
आयू सामान्य
__ नाम
जघन्य
।
बद्भायष्क की अपेक्षा उत्कृष्ट
घातायुष्क सामान्य
उत्कृष्ट
उत्कृष्ट
(१०) नव अनुदिश सम्बन्धी स्वर्ग सामान्य ३१ सागर
३२ सागर धातायष्क - उत्पत्तिका अभाष (त्रि.सा. ५३३) प्रत्येक पटन:आदित्य
के सर्व विमान । ३१सागर
३२ सागर
(११) पंच अनुत्तर सम्बंधी स्वर्ग सामान्य ३२ सागर
| ३३ सागर घातायुष्क - उत्पत्तिका अभाव (त्रि.सा. ५३३) प्रत्येक विमान :विजय ३२ सागर
३ भागर वैजयन्त जयन्त अपराजित सर्वार्थ सिद्धि
३३सागर
उत्पत्ति का अभाव
१
१०. वैमानिक देवोंमें इन्द्रों व उनके परिवार देवों सम्बन्धी
प्रमाण-(ति. प.१५१३-५२६) संकेत-ऊन किश्चिदून।
इन्द्र त्रिक-इन्द्र सम्बन्धी प्रतीन्द्र, सामानिक, व त्रायस्त्रिंश यह तीन सामन्त लो. चतु-लोकपालों सम्बन्धी प्रतीन्द्र, सामानिक, प्रायत्रिंश, पारिषद तथा अन्य सामन्त
प्रकी, त्रिक-इन्द्र सम्बन्धी प्रकीर्णक, आभियोग्य व किल्विधक यह तीन प्रकार देव नोट-उस्कृष्ट आयु दी गयी है। पहले-पहले स्वर्गकी उत्कृष्ट अगले-अगले स्वर्ग में जघन्य आयु है।
नाम स्वर्ग
इन्द्रादिक ।
प्रकी.
_ लोकपालादिक इन्द्र ।इंद्रत्रिक यम-सोम| कुवेर । वरुण
। पत्य | पाय
पारिषद -आत्मरक्ष
--अनीक लो./चतु. | अभ्यन्तर मध्यम | बाह्य
पत्य । पत्य | पल्य | पन्य
त्रिका
पक्ष्य
ऊन ४
सौधर्म ईशान सनस्कुमार माहेन्द्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव कापिष्ठ
साधिक ३ ऊन ४ साधिक ४ ऊन साधिक
"::.:-
ऊन
स्वस्व स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु
स्व स्व इन्द्रवव
स्वस्व प्वामिवत
कथन नष्ट हो गया है
9 :
साधिक ऊन ७ साधिक ७ ऊन साधिक८ ऊन साधिक ऊन १० साधिक १०
महाशुक्र शतार सहसार आनत प्राणत
आरण १६, अच्युत
:
:
ऊन १०
:
-
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
.
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आयु
२७०
७. आयु विषयक प्ररूपणाएं
सोम
स्व स्व इन्द्रोकी देवियोवद
स्व स्व स्वामिवद
कथन नष्ट हो गया है
कथन नष्ट हो गया है
कथन नष्ट हो गया है
कथन नष्ट हो गया है
११. वैमानिक इन्द्रों अथवा देवोंकी देवियों सम्बन्धी नोट-उत्कृष्ट आयु दी गयी है । जघन्य आयु सर्वत्र एक पत्य है। संकेत-ऊन-किंचिदून
इन्द्रत्रिक इन्द्र सन्बन्धी प्रतीन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश यह तीन सामन्त लो चतु.- लोकपालों सम्बन्धी प्रतीन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद व अन्य सामन्त
प्रकी त्रिक- प्रकीर्णक, अभियोग्य व किल्विषक देव प्रमाण-सारे चार्टका आधार भूत-(ति.प.५२७-५४०) केवल इन्द्रोकी देवियों सम्बन्धी -(मू आ. ११२०-११२१), (ति.प.८/५२७-५३२): (ध. ७/४.१,६६/गा.१३१-३००); (त्रि.सा. ५४२)
____ इन्द्र को देवियाँ इन्द्रत्रिक लोकपाल परिवारकी देवियाँ आत्म-पारिषद अनीको प्रकी, कम नाम स्वर्ग दृष्टि दृष्टि | दृष्टि की
रोकी त्रयकी की विककी न.१ नं.२ नं ३ देवियाँ यम
वरुण कुबेर
|त्रिक देवियाँ देवियों देवियों देवियाँ पल्य
पत्य पक्य | पल्य सौधर्म
१-१/
२ ऊन १-१/२ ईशान
साधिक १-१/२ सनत्कुमार
२-२/४२-१/२ | ऊन २-१/२ ४माहेन्द्र
२-१/२/ साधिक २-१/२ ब्रह्म
३-१/४/३/१/२ ऊन ३-१/२ ब्रह्मोत्तर
३-१/२ साधिक ३-१/२ ७ लान्तव
ऊन ४-११२ कापिष्ठ
साधिक ४-१/२ शुक्र
ऊन १-१/२ । महाशुक्र
साधिक ५-१/२ शतार
६.१/२ । ऊन ६-१/२ । सहस्रार
६-१२ साधिक ६-१/२ १३ आनत
। ७-११४७-१/२ ऊन ७-१/२ १४ प्राण त
साधिक ७-१/२ १५/ आरण
८१/४-८-१/२ ऊन ८-१/२ १६ / अच्युत
८-१/ २
साधिक ८-१/२) १२. देवों-द्वारा बन्ध योग्य जघन्य आय
आरंभ-स.सि. ६/८/३२५/४ प्रक्रम आरम्भ। ध. १/४,१,६६/३०६-३०८
स.सि. ६/१५/३३३/३ आरम्भ' प्राणिपीडाहेतुापार - कार्य करने
लगना सो आरम्भ है । (रावा.६/८/४/५१४), (चा.सा.८७/१) प्राणिजघन्य आय
योंको दुख पहुँचानेवाली प्रवृत्ति करना आरम्भ है। तियचौकी | मनुष्योंकी
रा.वा. ५/१५/२/५२५/२५ हिंसनशीला. हिंस्राः, तेषां कर्म हैंसम् आरम्भ सानत्कुमार माहेन्द्र मुहूर्त पृथक्त्व मुहूर्त पृथक्त्व इत्युच्यते। - हिंसनशील अर्थात हिंसा करना है स्वभाव जिनका वे ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर दिवस
दिवस -
हिस कहलाते है। उनके ही कार्य हैल कहलाते है। उनको ही लावन्त-कापिष्ठ
आरम्भ कहते है। शुक्र-महाशुक्र | पक्ष ,
ध.१३/५,४,२२/४६/१२ प्राणि-प्राणवियोजनं आरम्भोणाम।-प्राणियोंशतार-सहस्रार
के प्राणोका वियोग करना आरम्भ कहलाता है। ६ आनत-प्राणत मास .
प्रसा/त.प्र २२१ उपधिसद्भावे हि ममत्वपरिणामलक्षणाया मूळ आरण-अच्युत
यास्तद्विषयमप्रक्रमपरिणामलक्षणस्यारम्भस्य. - उपाधिके सद्भाव ८ नव वेयक
में ममत्व परिणाम जिसका लक्षण है ऐसी मूर्छा और उपाधि है। अनुदिश-अराजित
सम्बन्धी कर्म प्रक्रमके परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा आरम्भ-. । १० सम्यग्दृष्टि कोई भी देव
आरंभ क्रिया- दे क्रिया ३/२। आयोपाय-भ.आ./मू.४६२ तस्स आयोपायविदंसी खवयस्स ओषपण्णवओ। आलोचेंतस्स अणुज्जगस्स दसेइ गुणदोसे ॥४२॥
आरंभ त्याग प्रतिमा-र के श्रा १४४ सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखा-जो क्षपक उपर्युक्त कारणों से दोषों की आलोचना करने में भययुक्त दारम्भतो व्यु पारमतिाप्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्भविनिवृत्त.१४४॥ होता है उसको आयोपाय दर्शन गुणके धारक आचार्य आलोचना जो जीव हिमाके कारण नौकरी खेती व्यापारादिके आरम्भसे करने में गुण और न करनेमें हानि कैसी होती है इसका निरूपण विरक्त है वह आरम्भ त्याग प्रतिमाका धारी है। (गुण श्रा, ९८०) कहते हैं।
(का.आ ३८५); (साध ७/२१)
पक्ष
मास .
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आर
२७१
आराधना सार
बसु. श्रा २९८ जं कि पि गिहारंभ बहु थोग वा सयाविधज्जेइ ।
आरम्भणियत्तमई सो अट्ठमु सावओ भणिओ ॥२६८॥ जो कुछ भी थोडा या बहुत गृह सम्बन्धी आरम्भ होता है उसे जो सदाके लिए त्याग करता है, वह आरम्भसे निवृत्त हुई है बुद्धि जिसको, ऐसा
आरम्भ त्यागी आठवाँ श्रावक कहा गया है। .सं./टी, ४५/१६५ आरम्भादिसमस्तव्यापारनिवृत्तोऽष्टम । -आरम्भादि सम्पूर्ण व्यापारके त्यागसे अष्टम प्रतिमा (होती है।)
२ आरम्भ त्याग व सचित्त त्याग प्रतिमामें अन्तर ला.सं.७/३२-३३ इत पूर्वमतीचारो विद्यते वधर्मण । सचित्तस्पर्शनत्वाद्वा स्वहस्तेनाम्भसा यथा॥३२॥इत. प्रभृति यद्रव्य सचित्त सलिलादिवत् । न स्पर्शति स्वहस्तेन बहारम्भस्य का कथा ॥३३॥ -- इस आठवी प्रतिमा स्वीकार करनेसे पहले वह सचित्त पदार्थोंका स्पर्श करता था जैसे-अपने हाथ से जल भरता था, छानता था और फिर उसे प्रामुक करता था, इस प्रकार करनेसे उसे अहिंसा ब्रतका अतिचार लगता था, परन्तु इस आठवीं प्रतिमाको धारणकर लेनेवे अनन्तर वह जलादि सचित्त द्रव्योको अपने हाथ से छूता भी नहीं है। फिर भला अधिक आरम्भ करनेकी तो बात ही क्या है। आर-चतुर्थ नरकका प्रथम पटल-दे. नरक ५/११ । आरट-१. (म.प्र /प्र ५०/प. पन्नालाल) पंजाबके एक प्रदेशका
नाम: २ भरत क्षेत्रका एक देश-दे मनुष्य ४ आरण-१. कल्पवासी देवाका एक भेद व उनका अवस्थान-दे. स्वर्ग ३/१:२. स्वर्गों का पन्द्रहवाँ कल्प--दे. स्वर्ग ५/२, ३. आरण स्वर्ग
का द्वितीय पटल व इन्द्रक विमान-दे, स्वर्ग ५/३। आरातोय-मसि १/२०/१२४/१ आरातीय पुनराचाय. ।-आरा
त्योंके द्वारा अर्थात आचार्यों के द्वारा। आराधना-भ आ./मू २ उज्जोवणमुज्जवण णिव्वाहण साहणं च णिच्छरणं । दसणणाणचरित्त तवाणमाराहण भणिया। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान,सम्यकचारित्र व सम्यक्तप इन चारोंका यथायोग्य रीतिसे उद्योतन करना, उनमें परिण ति करना, इनको दृढतापूर्वक धारण करना, उसके मन्द पड जानेपर पुन:-पुन. जागृत करना, उनका आमरण पालन करना सो (निश्चय) आराधना कहलाती है। (.सं. ५४)२२१ पर उद्धृत). (अन ध, १/१२/१०१) स सा./मू. ३०४-३०५ संसिद्धिराध सिद्ध साधिय माराधिय च एयट्ठ। अवगयराधो जो खलु चेया सो होइ अवराधो ॥३०४॥ जो पुण गिरवराधो चेया णि स्सकिओ उ सो होइ । अवराहणार णिच्च वट्ट इ अह ति आणंतो ॥३०५॥ =संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधित ये शब्द एकार्थ है । इसलिए जो आत्मा राधसे रहित हो वह अपराध है ॥३०४॥ और जो चेतयिता आत्मा अपराधी नहीं है, वह शका रहित है और अपनेको 'मै हूँ' ऐसा जानता हुआ आराधना कर हमेशा बर्तता है। न.च.यू. ३५६ समदा तह मज्झत्थं मुद्धो भावो य बीयरायत्त । तह
चारित्तं धम्मो सहावाराहणा भणिया ३३५६ समता तथा माध्यस्थ, शुद्ध भाव तथा वीतरागता, चारित्र तथा धर्म यह सब ही स्वभावकी आराधना कहलाते है। द्र.स./टी. ५४/२२२ में उद्धत "समत्त सण्णाणं सच्चारित्त हि सत्तबो
चेव । चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरण ।" = सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप, ये चारों आत्मामें निवास
करते हैं इसलिए आत्मा ही मेरे शरणभूत है। अन.ध. १/८/१०५ वृत्तिर्जातसुदृष्टयादेस्तद्गतातिशयेषु या। उद्द्योतादिषु सा तेषां भक्तिराराधनोच्यते ॥ = जिसके सम्यग्दर्शनादिक परिणाम उत्पन्न हो चुके है, ऐसे पुरुषको उन सम्यग्दर्शनादिकमें
रहनेवाले अतिशयो अथवा उद्योतादिक विशेषो में जो वृत्ति उसी को दर्शनादिककी भक्ति कहते है। और इसी भक्तिका नाम ही आराधना है।
२. आराधनाके भेद भ.आ/मू. २,३ दसणणाणचरित्त' तबाण माराहणाभणिया ॥२॥ दुविहा पुण जिण वयणे आराहणासमासेण । सम्मत्तम्मि य पढमा विदिया य हवे चरित्तम्मि ॥३॥-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारको आराधना कहा गया है ॥२॥ अथवा जिनागममे संक्षेपसे आराधनाके दो भेद कहे है-एक सम्यक्त्वाराधना, दूसरा चारित्राराधना। नि सा./ता वृ ७५ दर्शनज्ञानचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधा
राधनासदानुरक्ता । -ज्ञान, दर्शन, चारित्र और परम तपनामकी चतुर्विध आराधनामें सदा अनुरक्त। गो. जी |जी : ३६८/७४०/१२ दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थ स्थानगतोत्कृष्टाराधनाविशेष च वर्ण यति । -दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्मस स्कार, अर्थात् यथायोग्य शरीरका समाधान, सल्लेखना, उत्तम अर्थ स्थानको प्राप्त उत्तम आराधना इनिका विशेष प्ररूपिये है। * निश्चय आराधनाके अपर नाम-दे, मोक्षमार्ग २/५
३. उत्तम, मध्यम, जघन्य आराधनाके स्वामित्व भ आ /मू १९१८-१९२१ सुक्काएँ लेस्साए उक्कस अंसयं परिणमित्ता।
जो मर दि सो है णियमा उक्कस्साराधओ होई ॥१६१८॥ खाइयदसणचरणं खओवसमिय च णामिदि मग्गो । त होइ खीणमोहो आराहिता य जो हु अरह तो ॥१९११॥ जो सेसा सुकाए दु असया जे य पम्मलेस्साए। तक्लेस्सापरिणामो दु मज्झिमाराधणा मरणे ॥१९२०॥ तेजाए लेस्साए ये असा तेसु जो परिणमित्ता। काल करेइ तस्स हु जहणियाराधणा भणदि ॥१६२१॥ = शुक्ल लेश्याके उत्कृष्ट अशोसे परिणत होकर जो क्षपक मरणको प्राप्त होता है, उस महात्माको नियमसे उत्कृष्ट आराधक समझना चाहिए ।१९१८॥ क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र और क्षयोपशमिक ज्ञान इनकी आराधना करके आत्मा क्षीणमोही बनता है और तदनन्तर अरहन्त होता है ॥१६१६ (क्षेपक गाथा) शुक्ल लेश्याके मध्यम अंश, और जघन्य अशोसे तथा पद्म लेश्याके अशोसे जो आराधक मरणको प्राप्त करते हैं, वे मध्यम आराध क माने जाते है ।१९२०॥ पीत लेश्याके जो अंश हैं, उनसे परिणत होकर जो मरणवश होते हैं, वे जघन्य आराधक माने जाते है।
४. सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्टादि आराधनाओंका स्वामित्व भ. आ /मू. ५१ उक्कम्साकेवलिणो मज्झिमया सेससम्मदिट्ठीण । अविरतसम्मादिठुिस्स स किलिस्स हू जहण्णा ॥५५॥ = उत्कृष्ट सम्यक्त्वकी आराधना अयोग केवलीको होती है। मध्यम सम्यग्दर्शनकी आराधना बाकीके सम्यग्दृष्टि जीवो को होती है। परन्तु परिषहोसे जिसका मन उद्विग्न हुआ है ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टिको जघन्य
आराधना होती है। (भभा/वि ५१/१७५) आराधना-भगवती आराधनाका अमितगति (वि.१०५०-१०७३) - कृत सस्कृत रूपान्तर । (ती २/३६४) आराधना कथा कोश-दे. कथाकोश। आराधना पंजिका भगवतो आराधनाकी टीका है-दे.भ.आ.। आराधना संग्रह-आ. पद्मनन्दि ८ (वि.१३६२ ई.-१३०५) कृत। आराधना सार-१.आ. देवसेन (वि.६६०-१०१२) कृत ११५ पद्मबद्ध चतुर्विध आराधना विषयक संस्कृत ग्रन्थ । २. आ. रविचन्द्र
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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आरोहक
२७२
आर्तध्यान
(ई श. १२-१३) कृत चतुर्विध आराधना विषयक सस्कृत पद्यश्रद्ध ग्रन्थ (ती २/३६६, ३/३१७)। आरोहक-लसा/भाषा ३१३/३६७/१ उपशम (तथा क्षपक) श्रेणो पर
चढनेवालेका नाम आरोहक कहिये है। आर्जव धर्म-बा अ७३ मोत्तण कुडिल भाव णिम्मल हिदयेण चरदि जो समणो । अजवधम्म तइयो तस्स दु सभवदि णियमेण ॥७३॥ - जो मनस्वी प्राणी (शुभ विचार वाला) कुटिल भाव व मायाचारी परिणामोको छोडकर शुद्ध हृदयसे चारित्रका पालन करता है, उसके नियमसे तीसरा आर्जव नामका धर्म होता है। स सि ६/६/४१२/६ योगस्यावक्रता आर्जवम् । = योगोका वक्र न होना
बार्जव है । (रा वा ६/६/१/५४५) भ,आ /वि.४६/१५४ आकृष्टान्तद्वयसूधवद्वक्रताभाव' आजवमित्युच्यते।
- डोरीके दो छोर पकड कर खींचनेसे वह सरल होती है। उसी तरह मन में से कपट दूर करने पर वह सरल होता है अर्थात मनकी
सरलताका नाम आजव है। पं, वि १/हृदि यत्तद्वाचि बहि फलति तदेवार्जव भवत्येतत । धर्मों निकृतिरधर्मो द्वाविह सुरसानरपिथौ।-जो विचार हृदयमें स्थित है, वही वचनमें रहता है तथा वही बाहर फलता है अर्थात् शरीरसे भी तदनुसार ही कार्य किया जाता है, यह आर्जव धर्म है, इससे विपरीत दूसरोको धोखा देना. यह अधर्म है। ये दोनों यहाँ क्रमसे देवगति और नरकगतिके कारण है। का. अ./मू ३६६ जो चितेइ ण वण कुणदि वक ण जंपदे व क । ण य गोवदि णिय दोसं अजब-धम्मो हवे तस्स ॥३६६ =जो मुनि कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता और कुटिल बात नहीं बोलता तथा अपना दोष नही छिपाता वह आर्जव धर्मका धारी होता है क्योकि मन, वचन, कायकी सरलताका नाम आर्जब धर्म है। (त.सा.६/१५)
२ आर्जवधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएं भ.आ /मू.१४३१-१४३५ अदिगूहिदा वि दोसा जणेण काल तरेणणजंति। मायाए पउत्ताए को इत्थ गुणो हव दि लो।१४३१॥ पडि भोगम्मि असते णियइि सहस्से हिं गृहमाणस्स। च दग्गहोठव दोसो खणेण सो पायडो होइ ॥१४३२॥ जणपायडो वि दोसो दोसोत्ति ण घेपए सभागस्स। जह समन्नक्तिण घिपदि समल पि जए तनायजलं ॥१४३३॥ डभसएहि बहुगेहि सुपउत्तं हि अपडिभोगस्स । हस्थ ण एदि अत्थो अण्णादो सपडिभोगादो ॥१४३४॥ इह य परत्तय लोए दोसे बहए य आवदृइ माया । इदि अपणो गणित्ता परिहरिदव्वा हवइ माया॥१४३५॥ गळ दोषोंको अतिशय छिपाने पर भी कालान्तरसे कुछ काल व्यतीत होने के बाद वे दोष लोगोको मालूम पडते ही है, इसलिए मायाका प्रयोग करने पर भी क्या फायदा होता है ? ध्यान में नहीं आता ॥१४३१॥ उत्कृष्ट भाग्य यदि न होगा तो हजारो कपट करके दोषोको छिपाने पर भी वे प्रगट होते ही है। जैसे--चन्द्रको राहु ग्रस लेता है यह बात छिपती नहीं सर्वजन प्रसद्ध होती है वैसे ही दोष पिानेका कितना भी प्रयत्न करो, परन्त यदि तुम पुण्यवान् न होगे तो तुम्हारे दोष लोगोको मालूम होगे हो ॥१४३२॥ जो पुण्यवान् पुरुष है उसका दोष लोगो को प्रत्यक्ष होने पर भी लोग उसको दोष मानते नही हैं, जैसे तालाब का पानी मलिन होने पर भी उसके मलिनपना की तरफ जब लक्ष्य नहीं देते है। इसका अभिप्राय यह है कि-पुण्यवानको कपट करनेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है क्योकि दोष प्रकट होने पर भी श्रीमान् मान्य होते ही है ॥१४३३॥ सैकडो कपट प्रयोग करने पर भी और बे मालूम कपट प्रयोग करने पर भी पुण्यवान् मनुष्य से भिन्न अर्थात पापी मनुष्यको धन प्राप्त नहीं होता, तात्पर्य कपट करनेसे धन प्राप्त नहीं होता पुण्यसे ही मिलता है ॥१४३४॥ इस प्रकार इस भव व परभवमें मायासे अनेक दोष उत्पन्न होते है ऐसा जानकर मायाका
त्याग करना चाहिए ॥१४३५॥ (रावा.६/६/२७/५६४/१५), (चा सा/६२/२).(प वि.१/१०), (ज्ञा १४/५८-६७) अन ध4/१७-२३/५७७ भावार्थ---'यह कपटी है। इस तरह की अपकीति
को जो सहन कर नही सक्ता उसकी तो बात क्या, जो सहन भी कर सकता है वह भी इस ससार मार्ग को बढ़ाने वाली अनन्तानबन्धी इस मायाको दूरसे छोड दे। क्योकि नही तो तुझे पस्त्व पर्याय प्राप्त न होगी। इस लोकमें तेरा कोई भी विश्वास न करेगा। जिन्होने आर्जव धर्म रूपी नौकाके द्वारा माया रूपी नदीको लाँघ लिया है वे लोकोत्तर पुरुष जयवन्त रहो। परन्तु मायापूर्ण बाक्योसे अर्थात 'कुजरो न नर' ऐसे माया पूर्ण वाक्योसे गुरु द्रोणाचार्यको धोखा देने के कारण युधिष्ठिरको इतनी ग्लानि हुई कि उन्होने अपने को सत्पुरुषोसे छिपा लिया। इस प्रकार मायासे बड़े-बडे पुरुषों को क्लेश हुआ है ऐसा जानकर मायाका त्याग कर देना चाहिए।
३. दश धर्म सम्बन्धी विशेषताएँ-दे धर्म । आत्तस सि.६/२८/४४५/१० ऋत दुख, अथवा अर्द नमात्तिर्वा, तत्र भवमातम् । = ऋत, दु ख अथवा अर्दन-आत्ति इनमें होना सो आर्त है । रा.वा ६/२८/१/६२७/२६), (भा पा./टी.७८/२२६) आर्त अतिचार-दे अतिचार। आत्तंध्यान-वैसे तो ध्यान शब्द पारमार्थिक योग व समाधिके अर्थ में प्रयुक्त होता है, परन्तु वास्तव में किन्ही भी शुभ वा अशुभ परिणामोकी एकाग्रताका हो जाना ही ध्यान है । ससारी जीवको चौबीस घण्टे ही कलुषित परिणाम वर्तते है। कुछ इष्ट वियोग जनित होते है, कुछ अनिष्ट संयोग जनित. कुछ वेदना ज नित और कुछ आगामी भोगोकी तृष्णा जनित, इत्यादि सभी प्रकारके परिणाम आर्सध्यान कहलाते है। जो जीवको पारमार्थिक अध पतनके कारण है और व्यवहारसे अधोगति के कारण है। यद्यपि मोक्षमार्ग के साधकोको भी पूर्व अभ्यासके कारण वे कदाचित् होते है, परन्तु ज्योज्यों वह ऊपर चढता है त्यो-त्यो ये दबते चले जाते है। १. भेद व लक्षण
१. आतध्यानका सामान्य लक्षण स सि ६/२८/१४५/१० ऋत दुरव, अर्द नमतिर्वा, तत्र भवमार्तम् ।- आर्त
शब्द 'ऋत' अथवा 'अति' इनमें से किसी एकसे बना है। इनमें से 'मृत'का अर्थ दुख है और 'अति का 'अर्दन अति' ऐसी निरुक्ति होकर उसका अर्थ पीडा पहुंचाना है। इसमें (ऋतमें या अतिमें) जो होता है वह आर्त (वा आत ध्यान) है। (रा.वा.६/२८/१/६२७/२६), (भा पा /टी ७८/२२६) म पु २१/४०-४१ मुकौशीग्यकेनाश्यकौसीद्यान्यतिगृध्नुता'। भयो
द्वेगानुशोकाच्च लिङ्गान्यात स्मृतानि वै ॥४०॥ बाह्यं च लिङ्गमार्तस्थ गात्रग्लानिरिवर्णता । हस्ताग्यस्तकपोलत्व साश्रुतान्यच्च तादृशम्॥४१॥ -परिग्रह में अत्यन्त आसक्त होना, कुशील रूप प्रवृत्ति करना, कृपणता करना, व्याज लेकर आजीविका करना, अत्यन्त लाभ करना, भय करना, उद्वेग करना और अतिशय शोक करना ये आर्त ध्यानके बाह्य चिह्न है ॥४०॥ इसी प्रकार शरीरका क्षीण हो जाना, शरीरको कान्ति नष्ट हो जाना, हाथोपर कपोल रखकर पश्चात्ताप करना, आँसू डालना, तथा इसी प्रकार और भी अनेक कार्य आर्त ध्यानके बाह्य चिह्न कहलाते है । (चा सा १६७/४) ज्ञा २४/२३/२५५७ ऋते भवमथात्तं स्यादसद्धयानं शरीरिणाम् । दिगमोहान्मत्तनातुल्य मविद्यावासनावशात् ।२३। -ऋत कहिये पीडा-दुख उपजै सो आर्तध्यान है। सो यह ध्यान अप्रशस्त है। जैसे क्सिी प्राणीके दिशाओके भूल जानेसे उन्मत्तता होती है उसके समान है। यह ध्यान अविद्या अर्थात मिथ्याज्ञान की वासनाके वशसे उत्पन्न होती है।
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आर्तध्यान
१. भेद व लक्षण
२. आर्तध्यानका आध्यात्मिक लक्षण चा सा. १६७/५ स्वसवेद्यमाध्यात्मिकार्तध्यानं । - (अन्य लोग जिसका अनुमान कर सकें वह बाह्य आर्तध्यान है) जिसे केवल अपना ही आत्मा जान सके उसे आध्यात्मिक आर्तध्यान कहते है। ३ आर्तध्यानके भेद ज्ञा २५/२४ अनिष्टयोगजन्याद्य तथेष्टार्थात्ययात्प्रम् । रुक्प्रकोपात्तीय स्यान्निदानातुर्यमङ्गिनाम् ॥२४॥ - पहिला आर्तध्यान तो जीवो के अनिए पदार्थोंके सयोगसे होता है। दूसरा आतध्यान इष्ट पदार्थ के वियोगसे होता है। तीसरा आर्तध्यान रोगके प्रकोपकी पीडासे होता है और चौथा आर्सध्यान निदान कहिये आगामी कालमें भोगोंकी वांछाके होनेसे होता है। इस प्रकार चार भेद आर्तध्यानके हैं । (म.पु २१/३१
३६), (चा सा १६७/४) चा सा १६७/४ तत्रातं बाह्याध्यात्मिकभेदाद द्विविकल्प । -बाह्य और अध्यात्मके भेदसे आर्तध्यान दो प्रकारका है। और वह आध्यात्मिक ध्यान चार प्रकारका होता है। द्र, स./टी ४८/२०१ इष्टवियोगानिष्टसंयोगव्याधिप्रतिकारभोगनिदानेषु वाञ्छारूपं चतुर्विधमार्तध्यानम् । = इष्ट वियोग, अमिष्ट सयोग और रोग इन तीनो को दूर करने में तथा भोगो वा भोगोंके कारणो में बांछा
रूप चार प्रकारका आर्तध्यान होता है। (चा.सा १६७/४) आतध्यान
मनोज्ञ
अमनोज्ञ
अनुत्पत्ति
सप्रयोग सकप
अनुत्पत्ति
विप्रयोग सकल्प
का अ./मू. ४७३ दुक्खयर-विसय-जोए केम इम चदि इदि विचि-. तंतो। चेट्ठदि जो विक्वित्तो अट्ठ-ज्माणं हवे तस्स॥४७३॥ -- दुरखकारी विषयोका सयोग होने पर 'यह कैसे दूर हो' इस प्रकार विचारता हुआ जो विक्षिप्त चित्त हो चेष्टा करता है उसके बात ध्यान होता है। ज्ञा. २५/२५-२८ ज्वलनजनविषास्त्रव्यालशार्दूलदै त्यै स्थलजलमिलसत्त्व दुर्जनारातिभूपैः । स्वजनधनशरीरध्वसिभिस्तर निष्टैर्भवति यदिह योगादाद्ययात्त तदेतत ॥२॥ तथा चरस्थिरैर्भावैरनेकै समुपस्थित.। अनिष्टैर्यन्मन क्लिष्ट स्यादात्तं तत्प्रकीर्तितम् ॥२६॥ श्रुतैदष्टै: स्मृतज्ञत प्रत्यासत्तिं च संसृत । योऽनिष्टार्थमन क्लेश' पूर्वमान्त तदिष्यते ॥२७॥अशेषानिष्टसंयोगे तद्वियोगानुचिन्तनम् । यत्स्यात्तदपि तत्त्वज्ञै पूर्वमा प्रकीर्तितम् ॥२८॥ - इस जगत में अपना स्वजन धन शरीर इनके नाश करनेवाले अग्नि, जल, विष सर्प. शस्त्र, सिंह, देश्य तथा स्थल के जीव, जलके जीव, बिल के जीव तथा दुष्ट जन, वैरी राजा इत्यादि अनिष्ट पदार्थोंके सयोगसे जो हो सो पहिला आर्तध्यान है ।२५ तथा चर और स्थिर अनेक अनिष्ट पदार्थोंके संयोग होने पर जो मन क्लेश रूप हो उसको भी आर्तध्यान कहा है । जो सुने, देखे, स्मरण में आये, जाने हुए तथा निकट प्राप्त हुए अनिष्ट पदार्थोसे मनको क्लेश होता है उसे पहिला आर्तध्यान कहते है।२७। जो समस्त प्रकारके पदार्थोंके संयोग होने पर उनके वियोग होनेका बार-बार चिन्तन हो उसे भी तत्त्वके जानने वालोंने पहिला अनिष्ट सयोगज नामा आर्तध्यान कहा है ॥२८॥
५. इष्ट वियोगज आर्तध्यानका लक्षण त.सूह/३१ विपरीत मनोज्ञस्य ॥३१॥-मनोज्ञ वस्तुके बियोग होनेपर उसकी प्राप्तिकी सतत चिन्ता करना दूसरा आर्त ध्यान है । (भ.आ./ मू १७०२) स. सि.१/३१/४४७१ मनोज्ञस्येष्टस्य स्वपुत्रदारधनादेविप्रयोगे तत्संप्रयोगाय सकसपश्चिन्ताप्रबन्धो द्वितीयमार्तमवगन्तव्यम् । मनोज्ञ अर्थात अपने इष्ट पुत्र स्त्री और धनादिक्के वियोग होनेपर उसकी प्राप्तिके लिए सकल्प अर्थात निरन्तर चिन्ता करना दूसरा आर्तध्यान जानना चाहिए। (रा वा/६/३१/१/६२८)(म पु २१/३२,३४) चा. सा.१६६/१ मनोज्ञ नाम धनधान्यहिरण्यसुवर्ण वस्तुवाहनशयनासनरकचन्दनबनितादिसुखसाधन मे स्यादिति गर्द्धनं । मनोज्ञस्य विप्रयोगस्य उत्पत्तिसकल्पाध्यवसानं तृतीयात। । धन, धान्य, चांदो, सुवर्ण, सवारी, शय्या, आसन, माला, चन्दन और स्त्री आदि मुखो के साधनको मनोज्ञ कहते है। ये मनोज्ञ पदार्थ मेरे हों इस प्रकार चिन्तवन करना, मनोज्ञ पदार्थ के वियोग होने पर उनके उत्पन्न होनेका बार-बार चिन्तन करना आतध्यान है। का अमू.४७४ मणहर विसय-विओगे-कह तं बावेमि इदि वियप्पो जो। संतावेण पयट्टो सोच्चिय अट्ट हवे झाण ॥४७४॥ -मनोहर विषयका वियोग होनेपर 'कैसे इसे प्राप्त करू'' इस प्रकार विचारता हुआ जो
दु खसे प्रवृत्ति करता है यह भी आर्तध्यान है। ज्ञा,२५/२६-३१ राज्यैश्वर्यकलत्रबान्धवसुहृत्सौभाग्यभोगास्यचित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषयप्रध्व सभावेऽथवा। संत्रासभ्रमशोक्मोहविवशैर्यरिखद्यतेऽहर्निश तत्स्यादिष्टवियोगजं तनुमा ध्यान कलङ्कास्पदम् ॥२६दृष्टश्चतानुभूतेस्ते। पदार्थ श्चित्तरजकै। बियोगे यम्मन खिन्न स्यादात तदद्वितीयकम्॥३०॥मनोज्ञवस्तुविभवसे मनस्तत्संगमार्थिभि.। क्लिश्यते यत्तदेतत्स्यादद्वितीयातस्य लक्षणम् ॥३१॥-- जो राज्य ऐश्वर्य स्त्री, कुटुम्ब, मित्र, सौभाग्य भोगादिके नाश होनेपर, तथा चित्तको प्रीति उत्पन्न करनेवाले सुन्दर स्त्रियों के विषयोका प्रध्यस होते हुए, सन्त्रास, पीडा, भ्रम, शोक, मोहके कारण निरन्तर खेद रूप होना सो जीवोके इष्ट वियोग जनित आतध्यान है, और यह ध्यान पापका स्थान है ॥२६॥ देखे, सुने, अनुभव क्येि, मनको र जायमान करनेवाले पूर्वोक्त पदार्थोका वियोग होनेसे जो मनको खेद हो वह भी दुसरा आर्तध्यान है॥३०॥अपने मनकी प्यारी वस्तुके विध्वस होनेपर पुनः
आध्यात्मिक
बाह्य
आध्यात्मिक
चेतन अचेतन शारीरिक मानसिक शारीरिक मानसिक कृत कृत चेतनकृत
अचेतनकृत ४. अनिष्ट योगज आर्तध्यानका लक्षण त.सू ६/३० आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्याहार ॥३०॥ - अमनोज्ञ पदार्थ के प्राप्त होने पर उसके वियोगके लिए चिन्ता
सातत्यका होना प्रथम आर्तध्यान है। स सि १/३०/६ अमनोज्ञमप्रियं विषकण्टकशत्रुशखादि, तहबाधाकारणस्वाद 'अमनोज्ञम' इत्युच्यते। तस्य संप्रयोगे, स कथं नाम न मे स्यादिति सकल्पश्चिन्ता प्रबन्ध स्मृतिसमन्वाहार प्रथममात मित्याख्यायते। -विष, कण्टक, शत्रु और शास्त्र आदि जो अप्रिय पदार्थ हैं वे बाधाके कारण होनेसे अमनोज्ञ कहे जाते है। उनका सयोग होने पर वे मेरे कैसे न हों इस प्रकारका सकल्प चिन्ता प्रबन्ध अर्थात स्मृति समन्याहार यह प्रथम आत्तध्यान कहलाता है। (रा बा.६/३०/
१-२/६२८), (म पु २१/३२,३५)।। नि.सा /ता वृह अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमातध्यानम् । - अनिष्टके
संयोगसे उत्पन्न होने वाला जो आर्तध्यान । चा.सा.१६८/५ एतद्दु खसाधनसद्भावे तस्य विनाशकाइनोत्पन्न विनाशसकल्पाध्यवसानं द्वितीयात । -(शारीरिक, व मानसिक) दुखोके कारण उत्पन्न होने पर उनके विनाशकी इच्छा उत्पन्न होनेसे उनके विनाशके संकल्पका बार-बार चिन्तवन करना दूसरा आर्तध्यान है।
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भात्त ध्यान
आर्य
उमको प्राप्ति के लिए जो स्लेश रूप होना मो दूसरे आत ध्यान
का लक्षण है। नि सा /ता वृ८६ स्वदेशत्यागाद् द्रव्यनाशाद मित्रजनविदेशगमनात कमनीयकामिनीवियोगात-समुपजातमातध्यानम्। स्वदेश के त्याग मे, द्रव्य के नाशसे, मित्रजनके विदेश गमनसे, कमनीय कामिनी के वियोगमे उत्पन्न होनेवाला आर्तध्यान है।
६. वेदना सम्बन्धी आर्तध्यानका लक्षण तस/३२ वेदनायाश्च ॥ ॥ वेदनाके होनेपर (अर्थात वातादि विकार
जनित शारीरिक वेदनावे होनेपर उसे दूर करनेको सतत चिन्ता करना तीसरा आर्तध्यान है। ज्ञा २१/३२-३३कासश्वासभगन्दरजलोदरजरानुष्ठातिसारज्वरे ,पित्तश्लेष्ममरुत्प्रकोपजनित रोगै शरीरान्तकै । स्यात्सत्व प्रबल प्रतिक्षण भवेHद्याकुलत्व नृणाम, तद्रोग तमनिन्दितै प्रकटित दुर्वार-दुखाकरम ॥१२॥म्वरूपानामपि रोगाणा मात्स्वप्नेऽपिसभव । ममेत या नृणा चिन्ता स्यादातं तत्ततीयकम् ॥३॥ वात पित्त क्फके प्रकोपसे उत्पन्न हुए शरीरको नाश करने वाले वीर्य से प्रबल और क्षण-क्षण मे उत्पन्न होनेवाले कास, श्वास भगन्दर, जलोदर, जरा, कोढ़, अतिसार. ज्वरादिक रोगोसे मनुष्यो के जो व्याकुलता होती है, उसे अनिन्दित पुरुषोने रोग पीडाचितवन नामा आर्त ध्यान कहा है, यह ध्यान दुर्निवार और दुरखोका आकार है जो कि आगामी कालमे पाप बन्धका कारण है ॥३२॥जीबोके ऐसी चिन्ता हो कि मेरे किचित रोगकी उत्पत्ति स्वप्न में भो न हो सो ऐसा चिन्तवन तीसरा आतध्यान है ॥३॥
*निदान व अपध्यानके लक्षण-दे० वह वह नाम । २. आर्त्तध्यान निर्देश
१ आर्तध्यानमें सम्भव भाव व लेश्या म पु २२/३८ अपशरततम लेश्या प्रयमाश्रित्य जम्भितम्। अन्तमहतंकाल तद अपशप्ताबलम्बनम् ॥३८॥ यह चारो प्रकारका आतध्यान अत्यन्त अशुभ कृष्ण नीत और कापोत लेश्या का आश्रय कर उत्पन्न होता है, इसका काल अन्तर्मुहूर्त है और आलम्बन अशुभ है। (शा.२५/४०) (चा. सा./१६६/३)
२.आर्तध्यानका फल स सि.१/२६ यह संसार का कारण है। रावा.६/३३/९/६२६ तिर्यग्भगमनपर्यवसानम् । - इस आसध्यानका फल तिर्यञ्च गति है । (ह. पु ५६/९८), (चा सा.१६/४) ज्ञा २५/१२ अनन्तदु खस कर्णस्य तिर्यग्गत, फलं. ॥४२॥ आतध्यानका फल अनन्त दुखोसे व्याप्त तिर्यच्च गति है।
३. मनोज्ञ व निदान आतध्यानमें अन्तर रा. बा.६/३३/१/३३ विपरीतं मनोज्ञस्येत्यनेनैव निदानं संगृहीतमिति, तन्न, किं कारणम् । अप्राप्तपूर्व विषयत्वान्निदानस्य । सुखमात्रया प्रलम्भितस्याप्राप्तपूर्व प्रार्थनाभिमुख्यादनागतार्थप्राप्ति निबन्ध निदाममित्यस्ति विशेष । प्रश्न--'विपरीतं मनोज्ञस्य' इस सूत्रसे निदान का संग्रह हो जाता है । उत्तर नहीं, क्योंकि निदान अप्राप्तकी प्राप्ति के लिए होता है, इसमें पारलौकिक विषय-मुखकी गृद्धिसे अनागत अर्थ की प्राप्तिके लिए सतत चिन्ता रहती है। इस प्रकार इन दोनों में अन्तर है। ३. आर्तध्यानका स्वामित्व
१. १-६ गुणस्थान तक होता है त, सू.१/३४ सदविश्तदेशविरतप्रमत्ससयतानाम् ॥३४॥ - सह आर्सध्यान अविरत, देशविरत, और प्रमत्त संयत जोवोके होता है।
स.सि ६/३४/४४७/१४ अविरता सम्यग्दृष्टयन्ता देशविरता सयतासयता. प्रमत्तसंयता - तत्र विरतदेश विरतानां चतुर्विधमप्यात भवति, प्रमत्तसंयताना तु निदानबर्ण मय दार्तत्रयं प्रमादोदयोट्रेकात्वदाचित्स्यात् । - अस् यत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तकके जीव अविरत कहलाते है, स यतासंयत जीव देशविरत कहलाते है, प्रमाद से युक्त क्रिया करनेवाले प्रमत्त संयत कहलाते है । इनमें से अविरत और देश चिरत जोवोके चारों हो प्रकारका आर्तध्यान होता है । प्रमत्त सयतोके तो निदान के सिवा बाकी के तीन प्रमादकी तीवता वा कदाचित होते है। (रा वाह/३४/१/६२६ ) (हपु ५६/१८) (म पु २११३७ ) (चा सा १६६/३) (ज्ञा २३४३८-११) (द्र. म/टी ४८४८/२०१)
* साधु योग्य आर्तध्यानकी सीमा-दे.सयत/३ २. आर्तध्यानके बाह्य चिह्न ज्ञा २५/४३ शङ्काशोक भयप्रमादव लहश्चित्तभ्रमोद्भ्रान्तर । उन्मादो विषयोत्सुकत्वमसकृन्निद्राङ्गजाड्यश्रमा । मूर्खादीनि शरीरिणामविरत लिङ्गानि बाह्यान्यल मार्ता -धिष्ठितचेतसा शुतधरै व्यविधिनानि स्फुटम् ॥४॥ इस आर्तध्यानके आश्रितचित्तवाले पुरुषों के बाह्य चिह्न शाखोके पारगामी विद्वानोने इस प्रकार कहे है कि-प्रथम तो शका, होती है,अर्थात हर बातमें सन्देह होता है, फिर शोक होता है, भय होता है, प्रमाद होता है-साबधानी नही होती कलह करता है. चित्तभ्रम हो जाता है, उभ्रान्ति होती है, चित्त एक जगह नही ठहरता, विषय सेवनमे उत्कण्ठा होती है, निरन्तर निद्रा गमन होता है अगमे जडता होती है, खेद होता है, मूर्छा होती है, इत्यादि चिन्ह आर्तध्यानी के प्रगट होते है। आत परिणाम-दे आर्तध्यान । आर्द्रा-एक नक्षत्र-दे नक्षत्र ! आर्य-ह.प्र श्लोक "विजयापर हरिपुर निवासी पवन वेग विद्याधर का पुत्र था (२३-२४) पूर्व जन्म के वैरी ने इसकी समस्त विद्याएँ हर ली। परन्तु दया से चम्पापुर का राजा बना दिया (४१५) इसी के हरि नामक पुत्र से हरिवश की उत्पत्ति हुई (५७-५८) आर्य
१ आर्य सामान्यका लक्षण स. सि :/३५/२२६/६ गुणे गुण वदभिर्वा अर्यन्त इत्यार्या । जो गुणों या गुणवालोके द्वारा माने जाते हों- ये आर्य कहलाते हैं । (रा.वा. ३/३६/१/२००)
२ आर्यके भेद-प्रभेद स.सि ३/३६/२२६/६ ते द्विविधा - ऋद्धिप्राप्तार्या अनृद्धिप्राप्ताश्चेिति ।
- उसके दो भेद है- ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धि रहित आर्य । (रावा, ३/३६/१/२००)
३ ऋद्धि प्राप्त आर्य-दे ऋद्धि ।
४. अनृद्धि प्राप्तायके भेद स, सि ३/३६/२३०/१ अनृद्धि प्राप्तार्या पञ्चविधा - क्षेत्रार्या जात्यायः कर्माश्चिारित्रार्या दर्शनार्याश्चेति । - ऋद्धिरहित आर्य पाँच प्रकारके है -- क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य । (रा वा. ३/३६/२/२००) रा, वा /३/२६/२/२०० तत्र कर्मास्त्रेिधा-सावध कार्या अल्पसावद्यकार्या असावद्यकर्मायश्चेिति। सावद्यकर्थि घोढा-असि-मषोकृषि-विद्या शिल्प-वणिक्कम-भेदात्त । • चारित्रार्या द्वेधा-अधिगत चारित्रार्या अनधिगमचारित्राश्चेिति। दर्शनार्या दशधा-आज्ञामार्गोपदेशसूत्रनीजसंक्षेपविस्ताराविगाहपरमावगाढरुचिभेदात् ।
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आर्यकमांड देवी
२७५
आयिका
उपरोक्त अन द्वि प्राप्त आयों मे भी कार्य तीन प्रकारके हैं- सावध कार्य, अल्पसावध कार्य असावा कार्य । अल्प सावध कार्य छ प्रकारके होते है-असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या व शिसपके भेदसे । (इन सबके लक्षणोके लिए-दे साबद्य) चारित्रार्य दो प्रकार के हैं - अधिगत चारित्रार्य और अनधिगम चारित्रार्य । दर्शनार्य दश प्रकार के है-आज्ञा, मार्ग, उपदेश सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ, परमावगाढ रुचिके भेद से। लक्षणों के लिए-वे सम्यग्दर्शन I/१ । दश प्रकारके सम्यग्दर्शनके भेद )
५ क्षेत्रार्यका लक्षण रा. वा ३/३६/२/२००/३० तत्र क्षेत्रार्या काशी कौशलादिषु जाताः ।
-काशी, कौशल आदि उत्तम देशोमे उत्पन्न हुओको क्षेत्रार्य कहते है।
६ जात्यायका लक्षण रा वा.३/३/२/२००/३१ इक्ष्वाकुज्ञातिभोजादिषु कुलेषु जाता
जात्यार्या । इक्ष्वाकु, ज्ञाति, भोज आदिक उत्तम कुलोमें उत्पन्न हुओ को जात्यार्य कहते है।
७ चारित्रार्यका लक्षण रा.वा ३/३६/२/२०१/ह तद्भेद अनुपदेशोपदेशापेक्षभेदकृत । चारित्रमोहस्योपशमात याच्च बाह्योपदेशानपेक्षा आत्मप्रसादादेव चारित्रपरिणामास्कान्दिन उपशान्तकषायाश्चधिगतचारित्रार्या । अन्तश्चारित्रमोहश्योपशमसद्भावे सति बाह्योपदेशनिमित्तविरतिपरिणामा अनधिगमचारित्रार्या । - उपरोक्त चारित्रार्य के दो भेदउपदेश व अनुपदेशकी अपेक्षा क्येि गये है। जो बाह्योपदेशके बिना आत्म प्रसाद मात्रसे चारित्र मोहके उपशम अथवा क्षय होनेसे चारित्र परिणामको प्राप्त होते है, ऐसे उपशान्त कषाय व क्षीण कषाय जीव अविगत चारित्रार्य है । और अन्तरग चारित्र मोहके क्षयोपशमका सद्भाव होनेपर बायोपदेशके निमित्तसे विरति परिणामको प्राप्त अनधिगम चारित्रार्य है। आर्य कृष्मांड देवी-एक विद्याधर विद्या-दे. विद्या। आर्यखण्ड-१. आर्यखण्ड निर्देश ति प/४ २६६-२६७ गगासिधुर ईहि वेवड्दण गेण भरहखेत्तम्मि।
छक्खड सजाद ॥२६६॥ उत्तरदक्विणभरहे खडा णि तिणि होति पत्तेक्क । दभिवण तियख डेसु मज्झिमत्त डस्म बहुमज्झे । गगाव सिन्धु नदी और विजया पर्वतसे भरत क्षेत्रके छ' खण्ड हो गये है ॥२६६॥ उत्तर और दक्षिण भरत क्षेत्रमें से प्रत्येकके तीन तीन खण्ड है। इनमें से दक्षिण भरतके तीन खण्डोमें मध्यका आर्य खण्ड है। २. आर्य खण्ड मे काल परिवर्तन तथा जीवो व गणस्थानों
सम्बन्धी विशेषताएँ ति प.४/३१३-३१४,३१६ भरहक्लेत्तम्मि इमे अज्जख डम्मि कालपरि
भागा। अवसपिणि उस्सप्पिणिपज्जाया दोणि होति पुढ ॥३१३॥ णरतिरियाण आऊ उच्छेह विभूदिपहदिय सव्वं । अवसप्पिणिए हायदि उस्सप्पिणियासु वड् ढेदि ॥३१४॥ दोण्णि वि मिलिदे कप्पं छन्भेदा होति तस्य एक्केवक । सुसमसुसम च सुसम तइज्जयं सुसमदुस्ममय ॥३१६॥ दुस्समसुसमं दुस्समम दिदुस्समय च तेसु पढमम्मि । -भरत क्षेत्र के आर्य खण्डमे ये कालके विभाग है । यहाँ पृथक् पृथक, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप दोनो ही कालोकी पर्याय होती है ॥३१३॥ अवसर्पिणी काल में मनुष्य एव तियचोकी आयु, शरीरकी ऊँचाई और विभूति इत्यादिक सब हो घटते तथा उत्सर्पिणी काल में बढते रहते है ॥१४॥ दोनोको मिलाने पर एक कल्प काल होता है । अवसर्पिणी और उत्सपिणी में से प्रत्येकके छह भेद है- सुषमासुषमा, सुषमा. सुषमा-दुष्षमा, दुषमसुषमा, दुष्षमा और अतिदुष्षमा।
ति प४/२६३४-२६३६.२६.८ पज्जत्ताणिवत्तियपज्जत्ता लद्धियायपज्जत्ता । सत्तरिजुत्तमदजाखडे पुणिदरलद्धि णरा ॥३६३४३ पणपण अज्जारबडे भरहेरावदम्मि मिच्छगुण ट्ठाणं । अवरे वरम्मि चोहसरत
आइ दीसति ॥२:३५॥ पच विदेहे सठ्ठिसमण्णिदसद अज्जबडए अवरे। छग्गुण ठाणे तत्तो चोद्दसपेर त दीसं ति ॥२६६. विज्जाहरसेढीए तिगुणट्ठाणाणि सव्वकाल म्मि । पणगुण ठाणा दीसइ छ डिदवि
उजाण चोद्दसट्ठाण ॥२६॥ ति. प५/३००-३०२ पण पण अज्जखडे भरहेगवदखिदिम्मि मिनछत्त ।
अवरे वरम्मि पण गुणठाणाणि कयाइ दीसंति ॥३०॥ पचविदेहेसटिण्णिदस अज्जवरवंडा तत्तो। विज्जाहरसेढीए बाहिरभागे सर्यपहगिरीदो ॥३०॥ सासण मिस्स विहीणा तिगुण टाणाणि थोवकालम्मि । अवरेवरम्मि पण गुणठाणाइ कयाइ दीसति ॥३०२||-१ मनुष्यकी अपेक्षा पर्याप्त निवृत्य पर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तके भेदसे मनुष्य तीन प्रकार के होते है । एक सौ सत्तर आर्य खण्डों में पर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त और लध्यपर्याप्त तीनो प्रकारके ही मनुष्य होते है ॥२६३४॥ भरत व ऐरावत क्षेत्र के भीतर पाँच-पाँच आर्य वण्डो में जघन्य रूपसे मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे कदाचित चौदह गुणस्थान पाये जाते हैं । ॥२६३५॥ पाँच विदेह क्षेत्रोके भीतर एकसौ साठ आर्य खण्डों में जघन्य रूपसे छ गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे चौदह गुणस्थान तक पाये जाते है ॥२६३६॥ विद्याधर श्रेणियोमें सदा तीन गुणस्थान (मिथ्यात्व, अमयत और देशसयत ) और उत्कृष्ट रूपसे पाँच गुणस्थान हाते है। विद्याओको छोड देने पर वहाँ चौदह भी गुणस्थान होते हैं ॥२६३८॥ २. तिर्यन्चों की अपेक्षा-भरत और ऐरावत क्षेत्रके भीतर पाँच पाँच आर्य खोमें जघन्य रूपसे एक मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे कदाचित् पाँच गुणस्थान भी देखे जाते है ॥३००॥ पाँच विदेहोके भीतर एक सौ साठ आर्य खण्डोंमें, विद्याधर श्रेणियों में और स्वयप्रभ पर्वतके बाह्य भागमें सासादन एवं मिश्र गुणस्थानको छोडकर तीन गुणस्थान जघन्य रूपसे स्तोक कालके लिए होते है । उत्कृष्ट रूपसे पाँच गुणस्थान भी कदाचित् देखे जाते हैं ॥३०१-३०२॥
* आर्यखण्डमे सुषमा दुषमा आदिकाल - दे. काल ४।
* आर्यखण्डमे नगर पर्वत व नगरियाँ -दे मनुष्य ४। आर्यनन्दि-पञ्चस्तूप संघकी पट्टावलीके अनुसार (दे इतिहास७/७) चन्द्रसेनके शिष्य तथा वीरसेन (धवलाकार) के गुरु थे । तदनुसार इनका समय-ई० ७६७-७१८ आता है (आ. अनु.'प्र.८) AN Up , H.L Jain), (ह पु/पं. पन्नालाल )। आर्यमङ क्ष-दिगम्बर आम्नाय में आपका स्थान आ० पुष्पदन्त तथा भूतबली के समकक्ष है । आ० गुणधरसे आगत पेज्ज दोसपाहुड के ज्ञानको आचार्य परम्परा द्वारा प्राप्त करके आपने तथा नागहस्तिने यतिवृषभाचार्य को दिया था। समय-वी.नि.६००-६५० (ई ७३१२३ ) । विशेष दे कोश १ । परिशिष्ट ३/३)। आर्यवती-एक विद्याधर विद्या-दे. विद्या आयिका-१. आयिका योग्य लिंगदे. लिंग/१
२. आयिकाको महावत कहना उपचार है--दे. वेद/७
३. आर्यिकाको करने योग्य कार्य सामान्यमू आ./१८८-१८६ - अण्णोणाणुकूलाओ अण्णोण्ण हिरक्वणाभिजुताओ । गयरोसवेरमाया सलज्जमज्जाद किरियाओ॥१८८॥ अज्झयणे परियठे सवणे कणेतहाणुपेहाए । तव विणयसंजमेसु य अविहिदुपओगजुत्ताओ ॥१८॥ अविकारवत्थवेसा जल्लमलविलित्तचत्तदेहाआ। धम्मकुलकितिदिक्खापडिरूपविसुद्धचरियाओ ॥१०॥ आर्यिका परस्परमें अनुकूल रहती हैं, ईर्ष्या भाव नहीं करती, आपसमें
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आलब्ध
प्रतिपालनमें तत्पर रहती हैं, कोध, बेर, मामाचारी इन तीनों रहित होती हैं । लोकपवाद भय रूप लज्जा, परिणाम, न्याय मार्ग में प्रवर्तने रूप मर्यादा दोनों कुलके योग्य आचरण-इन गुणोंकर सहित होती हैं। शास्त्र पड़ने पड़े शाखके पाठ करने में सुनने अथवा अनित्यादि भावनाओं और तप, विनय और संयम इन सबमें तत्पर रहती हैं तथा ज्ञानाभ्यास शुभ योगयुक्त रहती हैं ॥१८॥ जिनके वस्त्र विकार रहित होते है, शरीका आकार भी विकार रहित होता है, शरीर पसेब व मलकर लिप्त है तथा संस्कार (सजावट) रहित है। क्षमादि धर्म गुरु आदिकी सन्तान रूप कुल, यश, व्रत इनके समान जिनका शुद्ध आचरण है ऐसी का होती है।
४. आर्यिका को न करने योग्य कार्य सु. बा. १६३ रोहन भोयमपण सुख छबिहार मे विरदान पादमकरण घोवण गेय च ण य कुज्जा ॥ १३॥ - आर्थिकाओंको अपनी वसतिकामें तथा अन्यके घर में रोना नहीं चाहिए, बालकादिक्रोंको स्नान नहीं कराना । चालकादिकोंको जिमाना, रसोई करना, सूत कातना, सीना, असि, मस आदि छः कर्म करना, संयमी जनके पैर धोना, साफ करना, राग पूर्वक गीत, इत्यादि किया नहीं करना चाहिए ॥११३॥
५. आर्यिका विहार सम्बन्धी
मू. आ / १६२ ण य पर गेहमकज्जे गच्छे कज्जे अवस्स गमणिज्जे गणिमीमा ११२ आर्थिकाको बिना प्रयोजन पराये स्थान पर नहीं जाना चाहिए। यदि अवश्य जाना हो तो भिक्षा आदि कालमें बडो आर्थिकाओको पूछ कर अन्य आयिकाओं को साथ लेकर जाना चाहिए ।
६. आर्यिका अन्य पुरुष व साधुके संग रहने सम्बन्धी -दे, संगति नय
* आर्यिकाको नमस्कार करने सम्बन्धी आलब्ध- - कायोत्सर्गका अतिचार-दे व्युत्सर्ग / १ । आलय - स सि ४/२४ / २५५ / २ एत्य तस्मिन् लोयन्त इति आलय आवास आकर जिसमें लयको प्राप्त होते है वह आलय या आवास कहलाता है । (रावा. ४/२४/१/२४२ ) आलयांग
एक भेद
आलाप जी / श्री.प्र ७०७/११४०/९४ गुणस्थाने चतुर्दवा मार्गणास्थाने च प्रसिद्ध विशतिविधानां गुणजीवेत्यादीनां सामान्यपर्यापर्यामात्र आसाचा भवन्ति तथा वेदरुपायविभिन्नेषु अनिवृतिषु अपि पृथक् पृथग्भवन्ति ।
DISE
गो. जी / जी प्र. ७०६/११ तत्रापर्याप्त लाप लन्ध्यपर्याप्त निवृत्यपर्याप्तश्चेति द्विविधो भवतिओ को गुणस्थान और चौदह मार्गणा स्थान ये परमागम विषै प्रसिद्ध है । सो इनिविषै 'गुण जीवा पज्जती' (पं. स / प्रा. १ / २ ) इत्यादिक बीस प्ररूपणानिका सामान्य पर्याप्त, अपर्याप्त ए तीन आलाप हो है । बहुरि वेद अर कषाय करि भेद हैं जिन विषै ऐसे अनिवृत्तिकरण के पाँच भाग तिनि विषै पाँच आलाप जुदे जुदे जानना । (वें पॉच इस प्रकार है- सवेद भाग, क्रोध भाग समान भाग, समाया भाग, बादर कृष्टि लोभ भाग । ) तहाँ अपर्याप्त आप दो प्रकारका निवृत्यपर्याप्त आलाप पद्धति-आचार्य देवसेन (वि. १२०-१०१२) द्वारा संस्कृत गद्य में रचित प्रमाण नय विषयक सूत्र ग्रन्थ (ती २ / ८२) आलापन बन्ध
आलंच्छन सोचना है।
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आलेपन --- दे. बन्ध १० आलोक
त्या वि/वृ १/१२/२००/१५ आलोको दर्शनम् - आलोकका नाम दर्शन है । आलोचना
आलोचना
उदित होनेवाली कथायों फनिस को बत रंग व बाह्य दोष साधकको प्रतीतिमें आते हैं, जीवन शोधनके लिए उनका दूर करना अत्यन्त आवश्यक है इस प्रयोजनकी सिद्धिके लिए आलोचना सबसे उत्तम मार्ग है। गुस्के समक्ष निष्कप्ट भाव से अपने सर्व छोटे या बड़े दोषों को कह देना आलोचना कहलाता है। यह वीतरागी गुरुके समक्ष ही की जाती है, रागी व्यक्ति के समक्ष नहीं । १. भेद व लक्षण
१. आलोचना सामान्यके लक्षण
ससा / मूवआ/ ३८५जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडिय अणेयविधथरविसेस | तं दोसं जो चेयइ सो खलु आलोयणं चेया ॥ ३८५॥ - जो वर्तमान कालमें शुभ अशुभ कर्म रूप अनेक प्रकार ज्ञानावरणादि विस्तार रूप विशेषको लिए हुए उदय आया है उस दोषको जो ज्ञानी अनुभव करता है, वह आत्मा निश्चयसे आलोचना स्वरूप है । ( स सा./ आ. ३८५)
नि. सा / मू १०१ जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणाम | आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं ॥१०६॥ - जो (जीव) परिणामको समभाव में स्थाप कर (निज) आत्माको देखता है, वह आलोचन है ऐसा परम जिनेन्द्रका उपदेश जानना ।
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ससि १/२२/४४०/६ तत्र गुरवे प्रमाद निवेदनं दशदोषविवजितमासोचनम् । गुरुके समय दश दोषोंको टाल कर अपने प्रमादका निवेदन करना) जातोचना है (रा ना. १/२२ / २ / ६२० ). ( त सा / ७/२२), (अन घ / ७/३८) १२/५.४/१२/१०/रुणमपरिश्समान सुवरहस्थानं बीयराया तिरयणे मेरू व शिराणं सगदोसणिवेयणमालोयणा णाम पायच्छित्त । अपरिसव अर्थाद आससे रहित के रहस्यको जाननेवाले
राग और रत्नत्रय में मेरुके समान स्थिर ऐसे गुरुओ के सामने अपने दोषका निवेदन करना (व्यवहार) आलोचना नामका प्रायश्चित्त है । भ. आ / वि. ६/३२ / २ स्वकृतापराधगुपनत्यजनम् आलोचना ।
[भ] आ./थि १०/४६/६ कृतादिचारजुगुप्सापुर सर वचनमालोचनेति । अपने द्वारा किये गये अपराधों या दोषों को दबानेका प्रयत्न न करके अर्थात छिपानेका प्रयत्न न करके उसका त्याग करना निश्चय आलोचना है। तथा चारित्राचरण करते समय जो अतिचार होते हैं । उसकी पश्चात्ताप पूर्वक निन्दा करना व्यवहार आलोचना है । २. आलोचनाके भेद
भ / २३३ आलोयादुविहाय होदि पदविभागीय आघेण मूलपत्तस्स पर्याविभागीय इदरस्स ||३३|| - आलोचनाके दो ही प्रकार है- एक ओघालोचना दूसरी पदविभागी आलोचना अर्थात् सामान्य आलोचना और विशेष आलोचना ऐसे इनके और भी दो नाम हैं । वचन सामान्य और विशेष, इन धर्मोका आश्रय लेकर प्रवृत्त होता है. अलोचना के उपर्युक्त दो भेद है। सुआ / ६९६ आलोचणं दिवसिय राजि हरिया
प
चादुम्मास संरमुत्तम च ॥१६॥ गुरुके समीप अपराधका कहना आलोचना है । वह देवसिक, रात्रिक, ईर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक समितिमा इस तरह सात प्रकारकी है। नि सा / म २०८ आलोयणमालंच्छण विग्रडीकरणं च भावसुद्धी य चविहमिह परिकहियं आलोयण लक्खण समए ॥१०८॥ आलोचना कामरूप आलोचन, तुंच्छन अविकृतिकरण और भानसुद्ध ऐसे चार प्रकार शास्त्रमें कहा है।
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आलोचना
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२. आलोचनाके अतिचार व लक्षण
३. आलोचनाके भेदोंके लक्षण भ आ /मू ५३४-५३५ ओधेगालोचेदि हु अपरिमिदवराधसम्बघादी वा।
अज्जोपाए इत्थ सामण्णमहं खु तुच्छेति ॥५३४॥ पठव ज्जादो सव्य कमेण ज जत्थ जेण भावेण । पडिसेविद तहा त आलोचिंतो पद विभागी ॥५३॥ -जिसने अपरिमित अपराध किये है अथवा जिसके रत्नत्रयका-सर्व व्रतोका नाश हुआ है, वह मुनि सामान्य रोतिसे अपराबका निवेदन करता है। आजसे मै पुन मुनिहोने को इच्छा करता हूँ. मैं तुच्छ हूँ अर्थात मै रत्रत्रयसे आप लोगोंसे छोटा हूँ ऐसा कहना सामान्य आलोचना है।५३॥ तीन काल में, जिस देशमे, जिस परिणाम से जो दोष हो गया है उस दोषकी मै आलोचना करता हूँ। ऐसा कहकर जो दोष क्रमसे -आचार्यके आगे क्षपक कहता है उसको वह
पदविभागी आलोचना है ॥५३६॥ नि सा /मू.११०-११२ कम्ममहोरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो। साहीणो समभावो आलुच्छणमिदि समुद्दिहूँ ॥११० कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमल गुणणिलयं मज्झत्थ भावणाए वियडीकरणं त्ति। विष्णेयं ॥११॥ मदमाणमायालोहविवज्जिय भावो दु भावसुद्धि त्ति । परिकहिदं भवाणं लोयालोयप्पद रसीहिं ११२॥ -कर्म रूपी वृक्षका मूल छेदने में समर्थ ऐसा जो समभाव रूप स्वाधीन निज परिणाम उसे आलंच्छन कहा है ॥११०॥ जो मध्यस्थ भावनामें कर्मसे भिन्न आत्माको-कि जो विमल गुणोका निवास है उसे भाता है उस जीवको अविकृति करण जानना ॥१११॥ मद, मान, माया और लोभ रहित भाव वह भावशुद्धि है । ऐसा भव्योंको लोकके द्रष्टाओने कहा
२. आलोचनाके अतिचार व लक्षण
१. आलोचनाके १० अतिचार भ.आ./भू ५६२ आकपिय अणुमाणिय जं दिह्र बादर च सुहमं च ।
छण्णं सद्दाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी। -आलोचनाके दश दोष है-आक पित, अनुमानित. यदृष्ट, स्थूल, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त, तत्सेवी। (मू आ.१०३०). (स सि ६/२२/४४०/४), (चा. सा. १३८/२)
२. आलोचनाके अतिचारोके लक्षण भ आ./मू ५६३-६०३ भत्तेण व पाणेण व उवकरणेण किरियकम्मकरणेण । अणकंपेऊण गणि करेइ आलोयणं कोई ॥५६३॥ गणह य मज्झ थाम अगाण दुव्बलदा अणारोग। णेव समत्थोमि अह तव विकट्ठ पि का'जे ॥५७०॥ आलोचेमि य सव्वं जइ मे पच्छा अणुग्गह कुणह। तुझ सिरीए इच्छ सोधी जह णिच्छरेज्जामि ॥५७१॥ अणुमाणेदुण गुरु' एवं आलोचण तदो पच्छा। कुणइ ससक्लो सो से विदियो आलोयणा दोसो॥५७२॥ जो होदि अण्ण दिह्रत आलोचेदि गुरुसयासम्मि । अहिट्ठ गृह तो माथिल्लो हो दि णायवो ॥५७४। दिल वा अदि बा जदि ण कहेड परमेण विणएण । आयरियपायमूले तदिओ आलोयणा दोसो ॥४७॥ बादरमालोचतो जत्तो जत्तो वदाओ पडिभग्गो। मुहम पच्छादेतो जिणवयणपरंमुहो होइ॥५७७॥ इह जो दोस लहुग समालोचेदि गृहदे चूलं । भयमयमायाहिदओ जिणपरणपर मुहो होदि ॥५८१॥ जदि मूलगुणे उत्तरगुणे य कस्सइ तदिए चउस्थए पंचमे च वदे ॥५८४॥ को तस्स दिज्जइ तवो केण उवाएण वा द्रवदि मुद्धो। झ्य पच्छण्णं पुच्छदि पायच्छित्तं करिस्स दि ॥१८॥
पच्छण्णं पुच्छिय साधु जो कुण इ अप्पणो सुद्धि । तो सो जणेहि वृत्तो छठो आलोयणा दोसो ॥१८६॥ पक्षियचडमासिय संवच्छरिएसु सोधिकालेसु । बहु जण सद्दाउलए कहेदि दोसो जहिच्छाए॥५१०॥ इय अव्वत्तं जइ सावेतो दोसो कहेइ सगुरुणं । आलोचणाए दोसो सत्तमओ सो गुरुसयासे ॥५६११ तेर्सि असहह तो आइरियाण पुणोवि अण्णाणं । जइ पुच्छइ सो आलोयणाए दोसो हू अट्ठमओ ॥५६६॥ आलोचिदं असेसं सब एदं मएत्ति जाणादि । बालस्सालोचेतो
णवमो आलोनणाए दोसो ॥५६॥ पासत्थो पासस्थस्स अणुगदो दुक्कड़ परिकहेह। एसो वि मज्झरिसो सव्वविदोस सचइयो ॥६०६॥ जाणादि मज्झ एसो सुहसीलत्त च सव्वदोसे या तो एस मेण दाहिदि पायच्छित्त महल्लित्ति ॥६०२॥ आलोचिद असेस सम्ब एदं मएत्ति जाणादि । सोपवयणपडिकुद्धो दसमो आलोचणा दोसो ६०॥ = १. आकपित-स्वत भिक्षालब्धिसे युक्त होने से आचार्यको प्रासुक
और उद्गमादि दोषोसे रहित आहार-पानीके द्वारा वैयावृत्य करना, पिछी, कमण्डलु बगैरह उपकरण देना, कृतिकर्म वन्दना करना इत्यादि प्रकारसे गुरुके मनमें दया उत्पन्न करके दोष कहता है सो आकपित दोषसे दूषित है ।। ६३॥ २ अनुमानित-हे प्रभो । आप मेरा सामर्थ्य क्तिना है यह तो जानते ही है, मेरी उदराग्नि अतिशय दुर्वल है, मेरे अंगके अवयव कृश है, इसलिए मै उत्कृष्ट तप करने में असमर्थ है, मेरा शरीर हमेशा रोगी रहता है। यदि मेरे ऊपर आप अनुग्रह करेंगे, अर्थात् मेरेको आप यदि थोडा सा प्रायश्चित्त देंगे तो मै अपने सम्पूर्ण अतिचारोंका कथन करूगा और आपकी कृपासे शुद्धि युक्त होकर मै अपराघोसे मुक्त होऊगा ॥५७०-५७१। इस प्रकार गुरु मेरेको थोडा सा प्रायश्चित देकर मेरे ऊपर अनुग्रह करेंगे, ऐसा अनुम न करके माया भावसे जो मुनि पश्चात आलोचना करता है,वह अनुमानित नामक आलोचनाका दूसरा दोष है। ३.यदृष्ट-जो अपराध अन्य जनोंने देखे है, उतने ही गुरुके पास जाकर कोई मुनि कहता है और अन्यसे न देखे गये अपराधोंको छिपाता है, वह मायावी है ऐसा समझना चाहिए। दूसरोंके द्वारा देखे गये हों अथवा न देखे गये हों सम्पूर्ण अपराधोंका कथन गुरुके पास जाकर अतिशय विनयसे कहना चाहिए, परन्तु जो मुनि ऐसा नहीं करता है वह आलोचनाके तीसरे दोषसे लिप्त होता है, ऐसा समझना चाहिए ॥५७४-५७५॥ ४. बादर-जिन-जिन बतोंमें अतिचार लगे होंगे उनउन व्रतो में स्थूल अतिचारोकी तो आलोचना करके सूक्ष्म अतिचारों को छिपाने वाला मुनि जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंसे पराड मुख हुआ है ऐसा समझना चाहिए ॥५७०॥ ५ सूक्ष्म-जो छोटे-छोटे दोष कहकर बडे दोष छिपाता है, वह मुनि भय, मद और कपट इन दोषोंसे भरा हुआ जिनवचनसे पराड्मुख होता है। बडे दो यदि मैं कहूँगा तो आचार्य मुझे महा प्रायश्चित्त देंगे, अथवा मेरा त्याग कर देगे, ऐसे भयसे कोई बडे दोष नहीं कहता है । मैं निरतिचार चारित्र हूं ऐसा समझ कर स्थूल दोषोंको कोई मुनि कहता नहीं, कोई मुनि स्वभावसे ही कपटी रहता है अतः वह भी बडे दोष कहता नहीं. वास्तव में ये मुनि जिनवचनसे पराडमुख है। १६.प्रच्छन्नयदि किसी मुनिको मुलगुणों में अर्थात पाँच महावतो में और उत्तर गुणोमें तपश्चरणमें अनशनादि बारह तपोंमें अतिचार लगेगा तो उसको कौन-सा तप दिया जाता है, अथवा किस उणयसे उसकी शुद्धि होती है ऐसा प्रच्छन्न रूपसे पूछता है, अर्थात मैने ऐसा-ऐसा अपराध किया है उसका क्या प्रायश्चित्त है। ऐसा न पूछकर प्रच्छन्न पूछता है, प्रच्छन्न प्रछकर तदनन्तर मै उस प्रायश्चित्तका आचरण करूंगा, ऐसा हेतु उसके मन में रहता है। ऐसा गुप्त रीतिसे पूछ कर जो साधु अपनी शुद्धि कर लेता है वह आलोचनाका छठा दोष है ॥५८४-५८६॥ ७ शब्दाकुलित अथवा बहुजन-पाक्षिक दोषों की आलोचना, चातुर्मासिक दोषो की आलोचना, और वाषिक दोषों की आलोचना सम यति समुदाय मिलकर जम करते है तब अपने दोष स्वेच्छासे कहना यह बहुजन नामका दोष है। यदि अस्पष्ट रीतिसे गुरुको सुनाता हुआ अपने दोष मुनि कहेगा तो गुरुके चरण सान्निध्य में उसने सातवाँ शब्दाकुलित दोष किया है। ऐसा समझना ॥५80४६१॥ ८ बहुजन पृच्छा--परन्तु उनके द्वारा (आचार्य के द्वारा) दिये हुए प्रायश्चितमें अश्रद्धान करके यह आलोचक मुनि यदि अन्यको पूछेगा अर्थात आचार्य महाराजने दिया हुआ प्रायश्चित्त योग्य है या अयोग्य है ऐसा पूछेगा तो यह आलोचनाका बहुजन पृच्छा नामक आठवाँ दोष होगा ॥५६६॥ १ अव्यक्त-और मैंने इसके
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मालोनो
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आवजित करण
(आगम बाल वा चारित्र बाल मुनिके) पास सम्पूर्ण अपराधोंकी आलोचनाकी है मन, वचन, कायसे और कृत. कारित, अनुमोदनासे किये हुए अपराधोकी मैने आलोचना की है ऐसे जो समझता है उसको यह आलोचना करना नौवे दोषसे दृष्ट है ॥५६॥ १० तत्सेवी-पार्श्वस्थ मुनि, पार्श्वस्थ मुनिके पास जाकर उसको अपने दोष कहता है. क्योकि यह मुनि भी सर्व व्रतो में मेरे समान दोषोसे भरा हुआ है ऐसा वह समझता है। यह मेरे मुखिया स्वभावको और वतोके अतिचारो को जानता है, इसका और मेरा आचरण समान है, इसलिए यह मेरे को बड़ा प्रायश्चित्त न देगा ऐसा विचार कर वह पार्श्वस्थ मुनि गुरुको अपमे अतिचार कहता नहीं और समान शीलको अपने दोष बताता है । यह पार्श्वस्थ मुनि कहे हुए सम्पूर्ण अतिचारोके स्वरूपको जानता है, ऐसा समझ कर व्रत भ्रष्टोंसे प्रायश्चित्त लेना यह आगम निषिद् तत्सेवी नामका दसवाँ दोष है ।६०१-६०३॥ (रा.वा १/२२/२/६२१/१), (चा सा १३८/३), (द पा/टी हमें उद्धृत),
(अन ध७/४०-४४) ३. आलोचना निर्देश १. आलोचना वीतरागी गुरुके ही समक्ष को जानी
चाहिए भ आ /मु.व वि./६८६ । आलोयणा वि हु पसत्यमेव कादविया तत्थ ३५८६ ... आलोचनागोचाराद्यतिचारविषया। तथा क्षपकसमीपे। पसत्थमेव कादव्या यथासौ न शृणोति तथा कार्या। बहुषु युक्ताचारेषु सरिघु सत्सु । -योग्य आचारोंको जाननेवाले आचार्योंके पास ही सूक्ष्म अतिचार विषयक आलोचना करना हो तो वह भी प्रशस्त ही करनी चाहिए अर्थात वह क्षपक सुन न सके ऐसी आलोचना करनी चाहिए।
२ आलोचना सुननेकी विधि भ.आ./मुर वि ५६० पाचीणोदीचिमुहो आयदणमुहो व सुहणिसण्णो ह। ६०॥ नियाकुलमासीनस्य यत् श्रवण तदालोचयितु' सम्माननं । यथा क्यचिच्छ्रवणे मयि अनादरो गुरोरिति नोत्साह परस्य स्यात् । पूर्वाभिमुख, उत्तराभिमुख अथवा जिनमन्दिराभिमुख होकर मुख से बैठकर आचार्य आलोचना सुनते है । अथवा निर्व्याकुल बैठकर गुरु आलोचना सुनते है, इस प्रकारसे सुननेसे आलोचना करनेवाले का सम्मान होता है। इधर-उधर लक्ष देकर सननेसे गुरुका मेरे सम्बन्ध में अनादर भाव है ऐसी आलोचककी समझ हागा, जिससे दोष कहनेमे आलाचना करनेवालेका उत्साह ना होगा। ३ एक आचार्यको एक ही शिष्यकी आलोचना सुननी
चाहिए भ आ./म व वि ५६०.. आलोयण पडिच्छाद एक्को एक्कस्स विरहम्मि । एक एव शृणुयात्सरिल ज्जापरो बहूना मध्ये नात्मदोष प्रकटयितु- मोहते। चित्तखेदश्चास्य भवति । तथा कथयत एकस्यैवालोचना शृणुयात् । दुखधारवाद्य गदनेकवचनसदर्भस्य । तद्दोषनिग्रह नाय बराक प्रतीच्छति । आचार्य एक क्षपककी ही आलोचना सुनता है। एक ही आचार्य एकके दोष सुने, यदि बहुत गुरु सुनने बैठेगे तो आलोचना करनेवाला क्षपक लज्जित होकर अपने दोष कहनेके लिए तैयार होनेपर भी उसके मन में खेद उत्पन्न होगा। अत' एक ही आचार्य एक ही के दोष सुने, एक कालमें एक आचार्य अनेक क्षपको की आलोचना सुननेकी इच्छा न करे, क्योकि अनेकोका वचन ध्यान रखना बडा क ठन कार्य है। इसलिए उनके दोष सुनकर योग्य प्रायश्चित्त नहीं दे सकेगा। ४. आलोचना एकान्तम सुननी चाहिए। भ आम्. व वि५६० आलोयणं पडिच्छदि विरहम्मि ६०॥ इत्यनेनैव गत्वाद्विरहम्मि इति वचनं निरर्थक । यद्यन्येऽपि तत्र
स्युन एकेकैव श्रुतं स्यात् । न लज्जत्ययमस्य अपराधश्चास्य अनेनावगत एवेति नान्यस्य सकाशे शृणुयात इति । एतत्सूच्यते विरहम्मि एकान्ते आचार्य शिक्षेति ।- एकान्तमे ही आचार्य आलोचना सुनता है ॥५६०॥ प्रश्न-(एक समय में एक ही शिष्यकी तथा एक ही आचार्य आलोचना सुने उपरोक्त) इतने विवेचन मे ही एकान्तमें गुरुके बिना अन्य कोई नहीं होगा ऐसे समय में आलोचना सुननी चाहिए तथा करनी चाहिए' ऐसा सिद्ध होता है अत 'विरहम्मि' यह पद व्यर्थ है । उत्तर -यदि वहाँ अन्य भी होगे तो आल चकके दोष बाहर फूटने सम्भव है, एक गुरु यदि होगे तो उस स्थानमें प्रच्छन्न रीतिसे दूसरेका प्रवेश होना योग्य नहीं है, यह सूचित करने के लिए आचार्य ने 'विरहम्मि' ऐसा पद दिया है। ५. आलोचनाका माहात्म्य रा. वा. ६/२२/२/६२१/१३ लज्जापरपरिभवादिगण नया निवेद्यातिचार यदि न शोधयेद अपरोक्षितायव्ययाधमर्ण वदवसीदति। महदपि तपस्कर्म अनालोचनपूर्वकम् नाभिप्रेतफलप्रदम् आविरिक्तकायगौषधवत कृतानालोचनस्यापि गुरुमतप्रायश्चित्तमकुर्वतोऽपरिकर्मसस्यवत् महाफल न स्यात्। कृतालाचनचित्तगत प्रायश्चित्त परिमृष्टदर्पणतलरूपवत् परिभ्राजते। -लज्जा और पर तिरस्कार आदिके कारण दोषोका निवेदन करके भी यदि उनका शोधन नही क्यिा जाता है तो अपनी आमदनी और खर्च का हिसाब न रखनेवाले कर्जदारकी तरह दुखका पात्र होना पड़ता है। बडी भारी दुष्कर तपस्याएँ भी आलोचनाके बिना उसी तरह इष्ट फल नही दे सक्ती जिस प्रकार विवेचनसे शरीर मलकी शुद्धि किये बिना खायी गयी औषधि । आनचिना करके भी यदि गुरुके द्वारा दिये गये प्रायश्चित्तका अनुठान नही किया जाता है तो वह बिना सबारे धान्यकी तरह महा फलदायक नही हो सकता। आलोचना युक्त चित्तसे किया गया प्रायश्चित्त मॉजे हुए दर्पण के रूपकी तरह निरवरकर चमक जाता है। ६ अन्य सम्बन्धित विषय * निश्चय व्यवहार आलोचनाकी मुख्यता गौणता.
-दे, चारित्र * सातिचार आलोचना मायाचारी है-दे माया २ * किस अपराधमे आलोचना प्रायश्चित किया जाता है
-दे प्रायश्चित्त * तदुभय प्रायश्चित्त-दे, प्रायश्चित्त आवरक व आवरणस सि ८/२/३८०/३ आवृणोत्यावियतेऽनेने ति वा आवरणम्। जो
आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह आवरण कहलाता है। (गो जी जी प्र३३/२७/१०)। ध६/१६-१.५1८1५ अप्पणा विरोहिदम्य सणिहाणे स ते विज णिम्मूलदो ण विणस्सदि.तमाबरिज्जमाग,इदर चावरया-अपने विरोधी द्रव्यके सन्निधान अर्थात् सामीप्य होनेपर जो निर्मूलत नही विनष्ट होता, उसे आद्रियमाण कहते है, और दूसरे अर्थात् आवरण करनेवाले विरोधी द्रव्यको आवरक कहते है। " आजित करण-क्ष.सा/मु ६२१-६२३ हेठा दंडस्तो मुहृत्तमा
बज्जिद हवे करण । तच समुग्धादस्स य अहिमुहभावो जिणिदस्स ॥ सणे आवज्जिद करणे बियस्थ ठिदिरस पहदी। उदयादि अवठ्ठिदया गुण सेढी तरस दम च ॥ जोगिस्स सेसकाली गय जोगी तस्स सखभागो य। जाव दियं तावदिया आवज्जिद करणगुणसेढी । सयोगकेवली जिनको केवली समुदधात करनेके अन्तर्मुहूर्त पहिले आवजित नामा करण हो है। समुद्रात क्रियाको सम्मुखपना, सो ही आवजित करण कहिए। आवजित यहाँ स्थिति व अनुभागका काण्डक घात नहीं होता। अवस्थित गुण श्रेणी आयाम द्वारा घात
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आवर्त
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आवश्यक
होता है। विशेष इतना कि स्वस्थान केवलीकी अपेक्षा यहाँ गुण श्रेणी आयाम ता असख्यात गुणाघात है। और अपकषण किया गया द्रव्य असख्यात गुणा है। आवत-१ एक यक्ष-दे 'यक्ष'. २ भरतक्षेत्र विन्ध्याचलस्थ एक देश-दे मनुष्य ४,३ भरत क्षेत्रके उत्तर में मध्यमे मध्यम्लेच्छ खण्डका एक देश-दे मनुष्य ४,४ विजयाध को दक्षिणश्रेणीका एक नगर-दे विद्याघर, ५ पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे लोक ५/२। आवत्त-अन ध ८1८८८६ शुभयोगपरावर्तानावान् द्वादशाहुराद्यन्ते साम्यस्य हि स्तवस्य च मनोगगी. सयत परावय॑म् ॥८८॥ - मन, वचन और शरीरकी चेष्टाको अथवा उसके द्वारा होनेवाले आत्म प्रदेशोक परिस्पन्दनको योग कहते हैं। हिंसादिक अशुभ प्रवृत्तियोसे रहित योग प्रशस्त समझा जाता है। इसी प्रशस्त योगको एक अवस्थासे हटाकर दूसरी अवस्थामें ले जानेका नाम परावर्तन है और इसका दूसरा नाम आवर्त भी है। इसके मन वचन कायकी अपेक्षा तीन भेद है और यह सामायिक तथा स्तवकी आदिमें तथा अन्तमें किया जाता है । अतएव इसके बारह भेद होते हैं। जा मुमुच साधु बन्दना करनेके लिए उद्यत है उन्हे यह बारह प्रकारका आवतं करना चाहिए अर्थात् उन्हे, अपने मन वचन व काय सामायिक तथा स्तवकी आदि एव अन्तमें पाप व्यापारसे हटाकर अवस्थान्तरको प्राप्त कराने चाहिए ॥८॥ कि क १/१३ कथिता द्वादशावत वपुर्वचनचेतसाम् । स्तवसामायिका
धन्तपरावर्तनलक्षणा । = मन, वचन, कायके पलटनेको आवत कहते है। ये आवर्त बारह होते है। जो सामायिक दण्डके आरम्भ और समाप्तिमें तथा चतुर्विशतिस्तव दण्डकके आरम्भ और समाप्तिके समय क्येि जाते है। ध (१३/५,४,२८/१०/३) भाष्यकार - जैसे 'जमा अरहन्ताण" इत्यादि सामायिक दण्डके पहले क्रिया विज्ञापन रूप मनो विकल्प होता है, उस मनोविकल्पको छोडकर सामायिक दण्डके उच्चारण के प्रति मनको लगाना सो मन परावतन है। उसी सामायिक दण्डके पहले भूमि स्पर्श रूप नमस्कार किया जाता है उस वक्त वन्दना मुद्राकी जाती है, उस वन्दना मुद्राको त्यागकर पुन खड़ा होकर मुक्ताशुक्ति मुद्रा रूप दोनों हाथोंका कर के तीन बार घुमाना कायपरावर्तन है। "चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करामि" इत्यादि उच्चारणको छोडकर "णमा अरहन्ताणं" इत्यादि पाठका उच्चारण करना सो वापरावर्तन है। इस तरह सामायिक दण्डके पहले मन, वचन और काय परावर्तन रूप तीन आवर्त हाते है। इसी तरह सामायिक दण्डकके अन्त में तीन-तीन आवर्त यथायोग्य हाते है। एक सब मिलकर एक कायात्मगमें १२ आवर्त होने है। * कृतिकर्ममे आवर्त करनेका विधान
- दे कृतिकर्म २/८,४/२। आवली-१क्षेत्रका एक प्रमाण विशेष- दे. ग णत 1/१/३ । २. काल का एक प्रमाण विशेष-दे.गणित I/११३ जघन्य युक्तासंख्यात समयोंकी एक आवली होती है । इसका छःभेद रूपसे उल्लेख मिलता है यथा अचलावली- गा.क अर्थ.स /पृ. २४ प्रकृति बन्ध भये पीछे आवली काल मात्र उदय उदीरणादि रूप होने योग्य नाही सो अचलावली है। (इसे बन्धावली भी कहते है।) (गो.क /भाषा १५६/१६४/४), अतिस्थावली-ल सा /भाषा ५८/१०/१३ स्थितिका अन्त निषेकका द्रव्य को अपकर्षण करि नाचले निषेकनिय निक्षेपण करत तिस अन्त निषेक के नीचे आवलि मात्र निक तौ अति स्थापनरूप है अर समय अधिक दोय आवली करि हीन उत्कृष्ट स्थितिमात्र निक्षेप हो है सो यहु उत्कृष्ट निक्षेप जानना । इहाँ बध भएं पीछे आवली काल पर्यन्त तो उदीरणा होइ नाहीं तातै एक आवली तौ आबाधा विर्ष गई अर एक आवलो अतिस्थापन रूप रही अन्तका
द्रव्य ग्रह्या ही है तातै उत्कृष्ट स्थिति विर्ष दोय आवली एक समय घटाया है । अक संदृष्टि करि जैसे उत्कृष्ट स्थिति हजार सयय तहाँ सोलह समय तौ आयाधाविषे गये अर नवसे चौरासी निषेक है तहाँ अन्त निषेक का द्रव्य अपकर्षण करि प्रथमादि नवरं सतसठि निषेकान विष दीया सो यह उत्कृष्ट निक्षेप है। अर ताकै ऊपरि सोलह निषेकनिवि न दीया सो यहु अतिस्थापमावस्ती है। (विशेष-दे अपकर्षण), उच्छिष्टावलि-गो क /भाषा/३४२/४६४/८ "उदयको प्राप्त नाही जे नसक वेद आदि तिनिकी क्षय भये पीछे अवशेष उच्छिष्ट रही सर्व स्थिति, समय अधिक आवली प्रमाण है। गो. क/जी प्र ७४४/५ एताव स्थितावशिष्टाया विरयोजनोपशमनक्षपणा क्रिया नेतीदमुच्छिष्टालिनाम। -इतनी स्थिति अब शेष रहे बिसयोजनका उपशमन वा क्षपणा क्रिया न होइ सके तात याको उच्छिष्टावली कहिए। गो क अर्थ सं/पृ.२४ (सम्पर्ण कर्म स्थितिकी अन्तिम आवली) अन्तके आवली प्रमाण निषेक अवशेष ग्हें सो उच्छिष्टावली है । उदयावली-गो अर्थ स /पृ. २४ महरि (आमाधा काल भये पीछे) आवली विष आवने योग्य समूह तो उदयावली है। द्वितीयावली-उदयावलीसे ऊपरके आवला प्रमाण कालको द्वितीयावली या प्रत्यावली कहते हैं। प्रत्यावली-दे अपर द्वितीयावली, बन्धावली-दे अचलादली, वृन्दावली-(आबल के समय)३ आवश्यक--श्रावक व साधुको अपने उपयोगकी रक्षाके लिए नित्य ही छह क्रिया करनी आवश्यक होती है । उन्हीको श्रावक या साधुके षट् आवश्यक कहते है। जिसका विशेष परिचय रस अधिकारमें दिया गया है।
१ आवश्यक सामान्यका लक्षण मू आ५१५ ण बसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं ति बोधव्वा । जुत्तित्ति उवायत्तिय णिरक्यवा हो दि णिजुत्ती ॥११५॥ - जो कषाय राग-द्वेष आदि के वशीभूत न हा वह अवश है, उस अवशका जो आचरण वह आवश्यक है। तथा युक्ति उपायको कहते है जो अखण्डित युक्ति वह नियुक्ति है, आवश्यककी जो नियुक्ति वह
आवश्यक नियुक्ति है । (नि सा./मृ. १४२) नि सामू १४७ आवास जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिर भाव । तेण दू सामण्णगुण होदि जीवस्स ॥१४७॥ यदि तू आवश्यकको चाहता है तो तू आत्मस्वभावो में थिरभाव कर उसमे जीव का सामायिक गुण सम्पूर्ण होता है। भ आ/वि ११६/२७४/१२ आवासयाणे आवश्यकान। ण वसो अबसो
अबसस्स कम्ममावसग इति व्युत्पत्ताव पि सामायिकादिम्वेवाय शब्दो वर्तते । व्याधिदौर्बल्यादिना व्याकुलो भण्यते अवश परवश इति यावत। तेनापि कर्तव्यं मति। यथा आशु गच्छतीत्यश्व इति व्युत्पत्तावपि न व्याघ्रादौ वतते अश्वशब्दोऽपि तु प्रसिद्धिवशाद तुरग एव । एवमिहापि अवश्यं यत्किचन कर्म इतस्ततः परावृत्तिराक्रन्दन, पत्करण वा तद्भण्यते। अथवा आवासकाना इत्ययमर्थः आवासयन्ति रत्नत्रयमारमनीति । -'ण वसो अवसो अबसस्स कम्ममावसं बोधव्वा' ऐसी आवश्यक शब्द की निरुक्ति है। व्याधि-राग अशक्तपना इत्यादि विकार जिसमें है ऐसे व्यक्तिको अवश कहते है, ऐसे व्यक्ति को जो क्रियाएँ करना योग्य है उनको आवश्यक कहते है। जैसे--'आशु गच्छतीत्यश्व ' अर्थात जो शीघ्र दौडता है उसको अश्व कहते है, अर्थात् व्याघ आदि कोई भी प्राणी जो शीघ्र दौड़ सकते है वे सभी अश्व शब्दसे सगृहीत होते है। परन्तु अश्व शब्द प्रसिद्धिके वश होकर घोडा इस अर्थ में ही रूढ है। वैसे अवश्य करने योग्य जो कोई भी काय वह आवश्यक शब्दसे कहा जाना चाहिए जैसे---लोटना, वरवट बदलना, क्सिीको बुलाना वगैरह कर्तव्य अवश्य करने पड़ते है परन्तु आवश्यक शब्द यहाँ सामायिकादि क्रियाओमें ही प्रसिद्ध है । अथवा आवासक ऐसा शब्द
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आवश्यकापरिहाणि
आशाधर
मानकर 'आवासयन्ति रत्नत्रयमपि इति आवश्यका.' ऐसी भी ति.१६/७ रयणप्पहपुढवीए भवणाणि दीवउदहि उव रिम्मि । भवण निरुक्ति करते है, अर्थात् जो आत्मामें रत्नत्रयका निवास कराते हैं पुराणि दहगिरिपहुदोण उरि आवासा था- रत्नप्रभा पृथिवीमें उनको आवासक कहते है।
भवन, द्वीप समुद्रोके ऊपर भवनपुर और द्रह एव पर्वतादिको के अन ध.८१६ यद्गव्याध्यादिवशेनापि क्रियतेऽक्षावशेन च । आवश्यक- ऊपर (व्यन्तरोके) आवास होते है।
मवशस्य कर्माहोरात्रिक मुने ॥१६॥ = जो इन्द्रियोके वश्य-आधीन घ.१४/५.६.६३/८६/६ अडरस्स अतोहियो कच्छउडभडरतोठियवनहीं होता उसको अवश्य कहते है। ऐसे सयमी के अहोरात्रिक-दिन परवारसमाणो आवासो णाम ।.. एक्के कम्हि आवासे ताओ अखे ज
और रातमें करने योग्य कर्मों का नाम ही आवश्यक है। अतएव लोगमेत्ताओ होति । एक्के कम्हि पुलवियाए जसंखेजलोगमेत्साणि व्याधि आदिसे ग्रस्त हो जानेपर भी इन्द्रियोके वश न पडकर जो णिगोदसरीराणि । जो अण्डरके भीतर स्थित है तथा कच्छउडदिन और रातके काम मुनियोंको करने ही चाहिए उन्हीको अण्डरके भीतर स्थित बक्खारके समान है उन्हे, आव 'स कहते है । आवश्यक कहते है।
एक एक आवासमें वे (पुल वियाँ-दे पुलवि) असख्यात लोक २. साधुके षट् आवश्यकका नाम निर्देश
प्रमाण होती है। तथा एक एक आवासकी अलग-अलग एक-एक
पुल विमें असंख्यात लोक प्रमाण शरीर हाते है-(विशेष दे. म. आ २२० समदा थओ य बंदण पाडिकमर्ष तहेब णादा। पच्च
बनस्पति ३/७) खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि ॥२२॥ - सामायिक, चतुर्वि
त्रि.सा. २६४ वेंतरणिलयतियाणि य भवण पुरावासभवणणामाणि । दीव शतिस्तव, वेदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग-ये छह आवश्यक सदा
समुद्दे दहगिरितरुमि चित्तावणि म्हि कमे ॥२६४ भवनपुर, अवास करने चाहिए। (मू आ ५१६) (रा.वा ६/२२/११/५३०/११) (भ.आ./
अर भवन ए वितर्रानलयनिके तीन ही नाम है। तहाँ क्रम करि द्वीप वि. ११६/२७४/१६) (ध. ८/३,४१/८३/१०) (पु.सि.उ. २०१) (चा.सा.
समुद्रनिविष भवनपुर पाईए है। बहुरि द्रह पर्वत वृक्ष इनविषै ५५/३) (अन.ध.८/१७) (भा.पा./टो.७७)
आवास पाइए है बहुरि चित्रापृथिवी विर्षे नीचे भवन पाइए है। ३. अन्य सम्बन्धित विषय
आवासक-दे. आवश्यक १. साधुके षडावश्यक विशेष-दे. वह वह नाम
आविद्ध करण-पद्मनन्दि नं. २ का अपरनाम-दे पद्मनन्दि नं.२ २. श्रावकके षडावश्यक-दै श्रावक
आविष्कार-(ध.५/प्र. २७) Discovery. Invention ..त्रिकरणोके चार-चार आवश्यक-- दे. करण ४/६
आवीचिका मरण-दे मरण १ ४. निश्चय व्यवहार आवश्यकोकी मुख्यता गौणता
आवत्तकरण-क्ष सा. ४६७ अन्य प्रकृति रूप करके कर्मका नाश -दे, चारित्र
___ करना सो आवृतकरण है। आवश्यकापरिहाणि-स सि. ६/२४/३३६/४ षण्णामावश्यक
आवष्ट-भरत क्षेत्र मध्य आर्य खण्डका एक देश-दे. मनुष्य ४ क्रियाणां यथाकालप्रवर्तनमावश्यकपरिहाणि । - छह आवश्यक
आशसा-रा.वा. ७/३७/१/५५८/३३ आकाङ्गणमभिलाष आशंसेत्युक्रियाओंका (बिना नागा) यथा काल करना आवश्यकापरिहाणि है। (रा.का.६/२४/१२/१३०/१५) (ध.८/३,४१/८५/३) (चा.सा. ५६/३);
च्यते। == आकांक्षा अर्थात अभिलाषाको आशसा कहते है। (भा.पा./टी.७७)
आशय-औदारिक शरीरमें आशयोका प्रमाण-दे औदारिक १/७ २. एक आवश्यकापरिहाणिमें शेष १५ भावोंका समावेश आशा-१,-दे राग तथा अभिलाषा.२-रुचक पर्वत निवासिनी ध. ८/३,४१/८५/४ तीर आवासयापरिहीणदाए एकाए वि तित्थयरणाम- दिककुमारी देवी-दे. लोक ५/१३ ।
कमस्स मंधो होदि। ण च एत्थ सेसकारणाणामभावो ण च, दंसण- आशाधर- पं. लालाराम कृत सागारधर्मामृतका प्राकथन । जैन विमुद्दि (आदि). विणा छावासएम णिरदिचारदा णाम संभव दि ।
हितैषी पत्रमें प्रकाशित 'जीके परिचयके आधारपर ' आपका जन्म तम्हा एवं तित्थयरणामकम्मबंधस्स चउत्थकारण। -उस एक ही
नागौरके पास सपादलक्ष (सवा लाख) देशमें माण्डलगढ़ नगर में वि. आवश्यकापरिहीनतासे तीथंकर नामर्म का बन्ध होता है। इसमें
१२३० में हुआ। बादशाह शहाबुद्दीन कृत अत्याचारके भयसे आप शेष कारणोंका अभाव भी नहीं है, क्योंकि दर्शनविशुद्धि (आदि)
देश छोडकर वि, १२४१ में मालवा देश की धारा नगरी में जा बसे । ...के बिना छह आवश्यकोमें निरतिचारता सभव ही नहीं है।
उस समय वहाँके राजा विन्ध्यवर्माके मन्त्री विल्हण थे। उन्होने ३. अन्य सम्बन्धित विषय
उनका बहत सत्कार किया। पीछे उनके पुत्र सुभट वर्माका राज्य * एक आवश्यकापरिहाणिसे ही तीर्थकरत्वका बन्ध
होनेपर आप बहाँसे छोडकर १० मील दूर नलगच्छ ग्राममें चले
गये। आपके पिताका नाम सल्लक्षण (सलखण) और माताका नाम सम्भव है-दे. भावना २
श्री रत्नी था। आपकी जाति बघेरवाल थी। धारा नगरी में 4. महा* साधुको आवश्यक कर्म नित्य करनेका उपदेश
बीरसे आपने व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया और उच्च काटिके विद्वान्
-दे. कृतिकर्म २ हो गये, तथा पं. आशाधर नामसे प्रसिद्ध हुए। आपके अनेको शिष्य *श्रावकको आवश्यक कर्म नित्य करनेका उपदेश
हुए-१.पं. देवचन्द्र, २. मुनि वादीन्द्र, ३. विशालकीति, ४.
भट्टारक देवभद्रः विनयभद्र, ६. मदन कीति(उपाध्याय),७ उदय-दे. श्रावक ४
सैन मुनि । आप अनेकों विद्वानो व साधुओके प्रशसा-पात्र हुए है* साधुके दैनिक कार्यक्रम-दे, कृतिकर्म
१. धारा नगरी के राजा बिन्ध्यवर्माके मन्त्री विरहण, २ दिगम्बर
मुनि उदयसेनने आपका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया है, और आवास-ति प. ३/२३ द हसलदुमादीणं रम्माणं उबरि होति
आपके शाखोको प्रमाण बताया है, ३ उपाध्याय मदनकीति आदि आबासा। णागादीण वे सि तियणि लया भावमेक्कमसुराण ॥२३॥ इनके सभी शिष्योने इनकी स्तुति की है। (अन ध./प्रशस्ति) समय - रमणीय तालाब, पर्वत और वृक्षादिक के ऊपर स्थिन व्यन्तर -वि १२३०-११०० (ई. ११७३--१२४३) (पं वि/प्र.३४/A.N.up.) आदिक देवों के निवास स्थानोको आवास कहते है।
कृतियाँ-१.क्रिया कलाप (अमर कोश टीका-व्याकरण) सस्कृत,
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आशिष
२८१
२. व्यारूपालङ्कार टोका (रुद्रट कृत काव्यालंकार टोका) सं., ३.प्रमेय रत्नाकर (न्याय) सस्कृत, ४. वाग्भट्ट संहिता (न्याय) संस्कृत, ५.भव्य कुमुद चन्द्रिका (न्याय) संस्कृत, ६,अध्यारम रहस्य (अध्यात्म), ७. ईष्टापदेश टोका (अध्यात्म) संस्कृत, ८.ज्ञान दीपिका सस्कृत, ६. अष्टाङ्ग हृदयोद्योत सस्कृत, १० अनगार धर्मामृत (यत्याचार) सस्कृत, ११. मूलाराधना (भगवतो आराधनाको टोका) संस्कृत, १२. सागार धर्मामृत (श्रावकाचार) संस्कृत, १३. भरतेश्वराभ्युदय काव्य सस्कृत, १४. त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र सस्कृत, १५. राजमति विप्रलम्भ सटीक सस्कृत, १६. भूपाल चतुर्विंशतिका टीका सस्कृत, १७. जिनयज्ञ काव्य सस्कृत, १८. प्रतिष्ठा पाठ संस्कृत, १६. सहस्रनाम स्तव सस्कृत, २० रत्नत्रय विधान टोका संस्कृत। (ती.४/४१), (जै.२/१२८)। आशिष-ध. ६/४,१,२०/८५/५अविद्यमानस्यार्थस्य आशंसनमाशी.।
-अविद्यमान अर्थ को इच्छाका नाम आशीष है। आशीर्वाद दे.ऋद्धि ८/१। आशीविष-अपर विदेहस्थ वक्षार, व कूट व उसका रक्षक वेव ।
-दे.लोक ५/३ । आशीविष रस ऋद्धि-दे.ऋद्धिक आश्चर्य-पद्मदमें स्थित एक कूट-दे. लोक ५/७ । आश्रम-प्र. सा./ता.वृ.५५ विशुद्धज्ञानदर्शनप्रधानाश्रमम् । - विशुद्ध ज्ञान व दर्शनकी प्रधानता रूप आश्रम.. अर्थाद ज्ञान दर्शनकी प्रधानता ही आश्रमका लक्षण है।
२ चतुः आश्रम निर्देश म. पु ३९/१५२ ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु
जैनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः॥१५२॥ - ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षक ये जैनियोके चार आश्रम है जो कि उत्तरोत्तर विशुद्धिको प्राप्त होते है। (चा. सा. ४१/५ मे उपासकाध्ययनसे उधृत) (साध.७/२०) आश्रय-१. आश्रय आश्रयी भाव-दे. सम्बन्ध; २. आत्माश्रय दोष -दे. आत्माश्रय, ३. अन्योन्याश्रय दोष-दे अन्योन्याश्रय; ४ आश्रयासिद्धत्व हेत्वाभास-दे. असिद्ध । आश्लेषा-एक नक्षत्र-दे, नक्षत्र । आषाढ-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर । आसन
१. आसनके भेद ज्ञा २८/१० पर्यडूमीपर्यङ्का वज्र वीरासनं तथा। मुखारविन्दपूर्वे च
कायोत्सर्गश सम्मत' ॥१०॥ - पर्यकासन, अर्द्ध पर्यकासन, वज्रासन, बीरासन, सुखासन, कमलासन, कायोत्सर्ग ये ध्यानके योग्य आसन माने गये है।
२ आसन विशेषके लक्षण अन,ध/८३में उदधृत 'जड़धाया जपाया श्लिष्टे मध्यभागे प्रकीर्तितम्। पद्मासन' सुखाधायि सुसाध्यं सकलेजनैः । बुधैरुपर्यधोभागे जधयोरुभयोरपि। समस्तयो कृते ज्ञय पर्यङ्कासनमासनम् ॥२॥ उर्वोपरि निक्षेपे पादयोविहिते सति । वीरासनं चिरं कर्तुं शक्यं धीरैर्न कातरै ॥३॥ जपाया मध्यभागे तु संश्लेषो यत्र जड्यया। पद्मासनमिति प्रोक्त तदासनविचक्षण।। स्याजघयोरधोभागे पादोपरि कृते सति । पयको नाभिगोत्तानदक्षिणोत्तरपाणिक । वामोंघि दक्षिणोरूध वामोरुपरि दक्षिण.। क्रियते यत्र तद्धीरो चित्त वीरासनं स्मृतम्।" -जंघाका दूसरी जंघाके मध्य भागसे मिल जाने पर पद्मासन हुआ करता है। इस आसन में बहुत सुख होता है, और समस्त लोक इसे बडी सुगमतासे धारण कर सकते हैं। दोनों जघाओं
को आपसमें मिलाकर ऊपर नीचे रखनेसे पर्यासन कहते हैं। पैरोंको दोनों जंघाओंके ऊपर नीचे रखनेसे वीरासन होता है। कातरं पुरुष इसे अधिक देर तक नहीं कर सकते, धीर वीर ही कर सकते हैं । (क्रि.क.१/६) किसी-किसीने इन आसनों का स्वरूप इस प्रकार मताया है कि-जम एक जंघाका मध्य भाग दूसरी जंघासे मिल जाये तम उस आसनको पद्मासन कहते हैं। दोनों पैरोंके ऊपर जंघाओंके नीचेके भागको रखकर नाभिके नीचे ऊपरको हथेली करके ऊपर नीचे दोनों हाथों को रखने से पर्यकासन होता है। दक्षिण जंघाके ऊपर वाम पैर और वाम धाके ऊपर दक्षिण पैर रखनेसे वीरासन मताया है जो कि धीर पुरुषोके योग्य है। बो.पा./टी. ५१ में उदधृत "गुल्फोत्तानकरांगुष्ठरेखारोमालिनासिका। समदृष्टि. समाः कुर्यान्नातिस्तब्धो न वामनः।"-दोनों पावके टखने ऊपरकी ओर करके अर्थात दोनों पाँवको अधाओंपर रखकर उनके ऊपर दोनों हाथोंको ऊपर नीचे रखें ताकि हाथके दोनों अंगूठे दोनों टखमों के ऊपर आ जायें। पेट ब छातीकी रोमावली व नासिका एक सीधमें रहें। दोनों नेत्रोंकी दृष्टि भी नासिकापर पड़ती रहे। इस प्रकार सबको समान सीधमें करके सोधे मैठे। न अधिक अकड़ कर और न झुककर । (इसको सुखासन कहते है।) * आसनोंकी प्रयोग विधि-दे. कृतिकर्म । आसन्न भव्य-दे. भव्य । आसन्न मरण-दे. मरण १ आसादन-स. आ.५४ पंचेव अस्थिकाया छज्जीवणिकाय महवया पंच । पवयणमादु पदत्या तेतीसञ्चासणा भणिया ॥५४॥ जीव आदि पाँच अस्तिकाय, पृथ्वीकायादि स्थावर व दो इन्द्रियसे पाँच इन्द्रिय तक प्रसकाय-इस तरह छह जीवनिकाय, अहिंसा आदि पाँच महाव्रत, ईर्या आदि पाँच समिति, व काय गुप्ति आदि तीन गुप्ति-ऐसे आठ प्रवचन माता और जीवादि नव पदार्थ-इस प्रकार ये तेंतीस पदार्थ है। इनकी आसादनाके भी ये ही नाम हैं। इन पदार्थोंका स्वरूप अन्यथा कहना, शंका आदि उत्पन्न करना उसे आसादना कहते हैं। ऐसा करनेसे दोष लगता है इसलिए उसका त्याग कराया गया है। स.सि.4/१०/६२७/१३ कायेन वाचा च परप्रकाशस्य ज्ञानस्य वर्जनमासादनम् ।-(कोई ज्ञानका प्रकाश कर रहा है) तब शरीर या बचनसे उसका निषेध करना आसादना है। * उपवात और आसादनमें अन्तर-दे, उपघात । आसिका-दे. समाचार। आसुरी-भ आ./म.१८३ अणुसंधरोसबिग्गहसंसत्तवो णिमित्तपडिसेबी। णिमिवणिराणुतावी आमुरिय भावण होदि। -जिसका कोप अन्य भवमें भी गमन करनेवाला है, और कलह करना जिसका स्वभाव बन गया है, वह मुनि रोष और कलहके साथ ही तप करता है ऐसे तपसे उसको असुरगतिकी प्राप्ति होती है। मू आ.६८ खुद्दी कोही माणी मायी तह संकिलितब चरिते। अणुबधबद्धवेरराई असुरेव बज्जदे जीवो ॥६॥-दुष्ट, क्रोधी, मानी, मायाचारी, तप तथा चारित्र पालने में क्लेशित परिणामोंसे सहित
और जिसने वैर करने में बहुत प्रीति की है ऐसा जीव आसुरी भावना से असुरजातिके बंगरोष नामा भवनवासी देवोंमें उत्पन्न होता है। आस्तिक्य-गो.जी./जी.प्र.५६१ में उदधृत 'आप्ते श्रुते तत्त्वचित्तमस्तित्वसंयुतं । आस्विक्यमास्तिकैरुक्तं सम्यक्त्वेन सुते नरेश -जो सम्यग्दृष्टि जीव, सर्वज्ञ देववि, वतविर्षे, शास्त्रविष तत्त्वविर्षे 'ऐसे ही है' ऐसा अस्तित्व भाव करि संयुक्त चित्त हो है सो सम्यक्त्व सहित जीव विः आस्तिक्य गुण है।
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आस्याविष ऋद्धि
खादो ३/१५६/१०/० हि सर्वज्ञोरागरगोजोबा रुचिरुपलक्षणम् । सर्वज्ञ वीतराग देव द्वारा प्रणीत जीवादिक तत्त्वों मैं रुचि हानेको आस्तिक्य कहते है । ६.४५,४६३ स्विः सिद्धं विनिश्यिति। धर्मे हेतौ च धर्मस्य फले चाऽस्त्यादि धर्मवित् ॥४५२३ स्वात्मानुभूतिमात्र स्वादास्तिक्य परमो गुण' । भवेन्मा वा परद्रव्ये ज्ञानमात्र (त्रे) परत्वत ॥४६३ ॥ स्वत. सिद्ध नव तत्त्वोके सद्भाव में तथा धर्म में धर्मके हेतुमे और धर्म के फसमै यो निश्चय रखना है वह जीवादि पदार्थों में अस्तित्व बुद्धि रखनेवाला आस्तिक्य गुण है ॥ ४५२॥ केवल स्वात्मानुभूति रूप परम गुण है. परद्रव्यमें पररूपपनेसे ज्ञानमात्र जो स्वारमति है यह हो व न हो आस्याविष ऋद्धि-ि
भी
आस्रवजीवके द्वारा प्रतिक्षण मनसे, वचनसे या कायसे जो कुछ शुभ या अशुभ प्रवृत्ति होती है उसे जीवका भावासव कहते है। उसके निमित्त से कोई विशेष प्रकारकी जडपुद्गल वर्गणाएँ आकर्षित होकर उसके प्रदेशो में प्रवेश करती है सो प्रयास है। सर्वसाधारणको तो कषायवश होनेके कारण यह आस्रव आगामी बन्धका कारण पडता है, इसलिए साम्परायिक कहलाता है, परन्तु वीतरागी जनोंको वह इच्छासे निरपेक्ष कर्मवश होती हैं इसलिए आगामी बन्धका कारण नही होता। और आनेके अनन्तर क्षण में ही झड जानेसे ईर्ष्यापथ नाम पाता है।
१. आस्रवके भेद व लक्षण
१. आस्रव सामान्यका लक्षण
तसू ६/१-२ कायवाङ्मन कर्मयोगः ॥ ॥ स आसव ॥ = काय, वचन, व मनकी क्रिया योग है | १|| वही आस्रव है ॥२॥
रा. वा. १/४/६.१६/२६ आस्रवत्यनेन आस्रवणमात्रं वा आस्रव ॥१॥ पुण्यपापागमद्वारलक्षण आसव ॥ ९६४. आसव इवासव । क उपमार्थ । यथा महोदधे सलिलमापगामुखै रहरहरापूर्यते तथा मिथ्यादर्शनादिद्वारानुप्रविष्टे कर्मभिरमात्मा श्रमांपूर्यत इति कर्म आवे सो आवत्र है, यह करण साधनसे लक्षण है। आस्रवण मात्र अर्थात् कर्मोंका आना मात्र आसव है. यह भावसाधन द्वारा लक्षण है। BEH पुण्यपापरूप कर्मोंके आगमन के द्वारको आसव कहते हैं । जैसे नदियो के द्वारा समुद्र प्रतिदिन जल से भर जाता है, वैसे ही मिथ्यादर्शनादि स्रोतों से आत्मामें कर्म आते है (रा.मा.६/२/४.४/५०६) २. आवके भेद प्रभेव
( न च वृ / म् आस्रव १५२ )
1
1 भाव
ईय
(] (/४). (स.सि./४/१२०/८)
1
साम्परायिक
1
दृष्टि न
१. इन्द्रिय, कषाय, अवत और २५ क्रिया रूप भेद (त.सु. ६/५). (व सा.४/८)
२. मिश्रा, अविरति, कषाय और योग
(मा. अ. ५०). (स.सा / १६४, गोक / यू. ३. मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग (द्र सं / बृ ३० ), ( अन ध २ / ३७)
४. शुभ और अशुभ
1
(रावा १/१४/३६/२५)
T
1
मन वचन काय
E
२८२
३. द्रव्यास्त्रवका लक्षण
न च वृ १५३ लघूण तं णिमित्तं जोगं ज पुग्गले पदेसत्य परिणमदि कम्मभावं तं पि दव्वासवं बीजं ॥ १५३० - अपने-अपने निमित्त
रूप योगको प्राप्त करके आत्म प्रदेशो में स्थित पुद्गल कर्म भाव रूपसे परिणमित हो जाते है, उसे द्रव्यासव कहते है ॥१५- ४
इ.सं / पू. ३१ वाणावर जोग ओ अणेयभेओ जिणवादी ॥३१॥
पुग्गलं समासपदि व्यासव ज्ञानावरणादि कर्मोके योग्य पुद्गल आता है उसको द्रव्यासव जानना चाहिए। वह अनेक भेदों वाला है, ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है ॥ १५३॥
४. भावास्त्रवका लक्षण
[भ] [ ३८/१४/१० आसवत्यनेनेत्यास आत्यागति जायते काना कारण नात्मपरिणामेन स परिणाम आव - आत्मा के जिस परिणामसे पुद्गल द्रव्य कर्म बनकर आत्मामें आता है उस परिणामको (भावास्रव) आस्रव कहते है । (द्र सं / मू. २१) इस टी २० निसरह वित्तिल शुभाशुभ परिणामेन शुभाशुभकर्मागमनमात्रव । == आस्रव रहित निजात्मानुभवसे विलक्षण जो शुभ अशुभ परिणाम है, उससे जो शुभ अशुभ कर्मका आगमन है सो आसव है ।
५. साम्परायिक आस्रवका लक्षण
त. सू. ६/४ सक्षायाक्षाययो' साम्परायिकेर्यापथयो ॥४॥ कषाय सहित कषाय रहित आत्माका योग क्रमसे साम्परायिक और ईर्यापिथ कर्मके आसव रूप है ।
स
जो
आस्रव
ससि ६/४/३२१/१ सम्पराय संसार । तत्प्रयोजनं कर्म साम्परायिक्म् । ==सम्पराय संसारका पर्यायवाची है । जो कर्म संसारका प्रयोजक है। वह साम्परायिक है ।
रा. वा ६/४/४-७/५०८ कर्मभिः समन्तादात्मन पराभवोऽभिभव' सम्पयोजनं कर्म साम्परायिकमित्युच्यते यथा ऐन्द्रमहिकमिति ॥५॥ यावादीनामसम्पन्न स्वादपरमाना योगदान कर्मय मा आईपरे स्थितिमापमान साम्परायिकमित्यु
कर्मोके द्वारा चारो ओरसे स्वरूपका अभिभव होना साम्पराय है ||४|| इस साम्परायके लिए जो आस्रव होता है वह साम्परायिक आसव है ॥५॥ मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्म साम्पराय दशवे गुणस्थान तक क्षयका चेप रहने से योगके द्वारा आये हुए कर्म गीले चमडेपर धूलकी तरह चिपक जाते है। अर्थात् उनमें स्थिति बन्ध हो जाता है। यही साम्परायिकासव है।
* ईयपिय आसवका लक्षण
कर्म
६. शुभ अशुभ मानसिक वाचनिक व काकि आनक
लक्षण
!
रावा १/७/१४/३६/२५ तत्र कायिको हिसाऽनृतस्तेयाब्रह्मादिषु प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञ । वाचिक परुषाक्रोशविशुनपरोपघातादिषु वचस्तु प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञ' मानसो मध्याभिषायसूयादिषु मनस प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञ हिसा सत्य चोरी, कुशीस आदिमें प्रवृति अशुभ कायासव है । तथा निवृत्ति शुभ कायासव है । कठोर गाली चुगली आदि रूपसे परबाधक वचनोंकी प्रवृत्ति वाचनिक अशुभास्रव है और इनसे निवृत्ति वाचनिक शुभाव है । मिथ्या श्रुति ईर्षा मात्सर्य षड्यन्त्र आदि रूपसे मन्की प्रवृत्ति मानस अशुभासव और निवृत्ति मानस शुभाव है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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आस्रव
२८३
आहार
आस्रव निर्देश १. अगृहीत पुद्गलोंका आस्रव कम होता है और गृहीत
का अधिक ध४/१,५,४/३३१/४ जे णोकम्मपज्जएण परिणमिय अकम्मभाव ग तूण तेण अकम्मभावेण जे थावकालमच्छिया ते बहुवारमागच्छति, अविण चउबिहपाओग्गादो। जे पुण अप्पिदपोग्गलपरियट्टम्भतरे ण गहिदा ते चिरेण आगच्छति, अकम्मभावं ग तूण तत्थ चिरकालव
ठाणेण विण ठ्ठच उविहपाओग्गत्तादो। - जो पुद्गल नोकर्म पर्याय से परिणमित होकर पुन अर्म भावको प्राप्त हो, उस अर्म भावसे अल्पकाल तक रहते है, वे पुद्गल तो बहुत बार आते है, क्योंकि उनकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप चार प्रकारकी योग्यता नष्ट नही होता है। किन्तु जो पुद्गल विवक्षित पुद्गल परिवर्तनके भीतर नहीं ग्रहण किये गये है, वे चिरकालके बाद आते है। क्योकि, अकर्म भावको प्राप्त होकर उस अवस्थामें चिरकाल तक रहनेसे द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव रूप संस्कारका विनाश हो जाता है।
२. आस्रवमें तरतमताका कारण त सू 41 तीवमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्य विशेषेभ्यस्तद्विशेष । -- तीवभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और बीय विशेषके भेदसे उसकी अर्थात् आसवकी विशेषता होती है।
३. योगद्वारको आस्रव कहनेका कारण स सि. ६/२/३१६/५ यथा सरस्सलिलाबाहिद्वारं तदास्रवकारणत्वात्
आरत्र इत्यारख्यायते तथा योगप्रणालिक्या आत्मन कर्म आस्रवतीति योग आसव इति व्यपदेशमर्हति । जिस प्रकार तालाब में जल लाने का दरवाजा जलके आनेका कारण होनेसे आसव कहलाता है उसी प्रकार आत्मामै बँधने के लिए कर्म योगरूपी नाली के द्वारा आते है इसलिए योग आस्रव सज्ञाको प्राप्त होता है। ४. विनसोपचय ही कर्म रूपसे परिणत होते हैं, फिर
भी कर्मों का आना क्यों कहते हो भ.आ /वि.३८/१३४/११ ननु कर्मपुद्गलानां नान्यत' आगमनमस्ति यमाकाशप्रदेशमाश्रित आत्मा तत्रैवावस्थिता' पुद्गला. अनन्तप्रदेशिन, क्मपर्याय भजन्ते। तत् क्मुिच्यते आगच्छतीति। न दोष । आगच्छन्ति ढौकन्ते ज्ञानावरणादिपर्यायामित्येवं ग्रहीतव्यं । -प्रश्नकर्मोका अन्य स्थानसे आगमन नही होता है, जिस आकाश प्रदेशमें आत्मा है उसो आकाश प्रदेशमें अनन्तप्रदेशी पुदगल द्रव्य भी है, और वह कर्म स्वरूप बन जाता है। इसलिए "पुद्गल द्रव्य आत्मामें आते है 'आप ऐसा क्यो कहते हो । उत्तर-यह कोई दोष नही है। यहाँ पुदगल द्रव्य आता है" इसका अभिप्राय "ज्ञानावरणादि पर्याय को प्राप्त होता है" ऐसा समझना। देशान्तरसे आकर प्रदगल कर्माबस्थाको धारण करते हो ऐसा अभिप्राय नहीं है ।
५. आस्रवसे निवृत्त होनेका उपाय मु.आ.२४१ मिच्छत्ताविरदीहि य कसायजोगेहिं जं च आसवदि । दसणविरमणणिमह णिरोधेहि तु णासवदि ॥२४१॥ = मिथ्यात्व, अविरति. कषाय और योगोसे जो कर्म आते है वे कर्म सम्यग्दर्शन विरति, क्षमादिभाव और योग निरोधसे नही आने पाते-रुक जाते है। स. सा./मु ७३-७४ अहमिको खलु सुद्धो णिम्मओ णाणदसणसमग्गो। तमि ठिो तच्चित्तो सव्वे एए खयं णेमि ॥७३॥ जीवणिभद्धा एए अधुब अणिच्चा तहा असरणा य। दुक्खा दुखफलात्ति य णादूण णिवत्तए तेहि ॥७४॥
स सा./आ.७४ यथा यथा विज्ञानस्वभावो भवतीति । तावद्विज्ञानधनस्वभावो भवति यावत्सम्यगात्रवेभ्यो निवर्तते । • इति ज्ञानासब. निवृत्त्यो समकालत्वं । = प्रश्न-आसबोसे किस प्रकार निवृत्ति होती है। उत्तर--ज्ञानी विचारता है कि मैं निश्चयसे पृथक हूँ, शुद्ध हूँ, ममता रहित हूँ. ज्ञान दर्शनसे पूर्ण हू, ऐसे स्वभाव में स्थित उसी चैतन्य अनुभवमे लोन हुआ मै इन काधादि समस्त आसवोको क्षय कर देता हूँ ॥७३॥ ये आस्रव जोव के साथ निबद्ध है, अध व है, और अनित्य है, तथा अशरण है, दुखरूप है, और जिनका फल दुख ही है ऐसा जानकर ज्ञानो पुरुष उनसे निवृत्ति करता है ॥७४॥ जैसा-जैसा आस्रवोसे निवृत्त हाता जाता है, वैसा-बसा विज्ञान धनस्वभाव होता जाता है । उतना विज्ञान घनस्वभाव होता है, जितना आसवोसे सम्यक् निवृत्त हुआ है। इस प्रकार ज्ञान और आस्रवकी निवृत्ति के समकालता है। भाषाकार--प्रश्न--'आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है' अर्थात
क्या ? उत्तर-आत्मा ज्ञानमे स्थिर होता जाता है ।
६. आस्रव व बन्धमे अन्तर द्र, स./टी, ३३/१४ आसवे बन्धे च मिथ्यात्वाविरत्यादि कारणानि
समानानि को विशेष । इति चेत, नैव, प्रथमक्षणे कर्मस्कन्धानामागमनमास्त्रव , आगमनान्तर द्वितोयक्षणादौ जीवप्रदेशेष्ववस्थान बन्ध इति भेदः । प्रश्न- आस्रव बन्ध होनेके मिथ्यात्व, अविरति आदि कारण समान है इसलिए असव व बन्धमे क्या भेद है। उत्तर--यह शंका ठीक नहीं, क्योकि प्रथम क्षणमे जो कम स्कन्धोका आगमन है, वह तो आस्रव है और कर्मस्कन्धो के आगमनके पीछे द्वितीय क्षणमे जा उन कम स्कन्धाका जीव प्रदेशों में स्थित होना सो बन्ध है। यह भेद आसव और बन्धमे है। ७. आस्रव व बन्ध दोनों युगपत् होते है त. स.८/२ "सकषायवाज्जीव कर्मणो योग्यान्पुद्धगलामादत्ते स
बन्ध ।" == कषाय सहित होनेसे जीव कर्मके योग्य जो पुद्गलोको ग्रहण करता है वह आस्रव है। (और भी दे. साम्परायिक आसवका लक्षण)। ८. अन्य सम्बन्धित विषय *आठ कर्मोके आस्रव योग्य परिणाम-दे, वह वह नाम * पुण्यपापका आस्रव तत्त्वमे अन्तर्भाव-दे, तत्व २ * कषाय अवत व क्रियारूप आस्रवोमे अन्तर-दे, क्रिया * व्यवहार व निश्चय धर्ममे आस्रव व सवर सम्बन्धी चर्चा
--दै. संवर २ * ज्ञानी-अज्ञानीके आस्रव तत्वके कत्वमे अन्तर
--दे, मिथ्याष्टि४ आत्रवानुप्रेक्षा-दे. अनुप्रेक्षा आहवनीय अग्नि-दे, अग्नि आहार-आहार अनेकों प्रकारका होता है। एक तो सर्व जगत प्रसिद्ध मुख द्वारा किया जानेवाला खाने-पौने वा चाटनेकी वस्तुओका है। उसे कवलाहार कहते है । जीवके परिणामो द्वारा प्रतिक्षण कर्म वर्गणाओ का ग्रहण कर्माहार है। वायुमण्डलसे प्रतिक्षण स्वत' प्राप्त वर्गणाओंका ग्रहण नोकर्माहार है। गर्भस्थ बालक द्वारा ग्रहण किया गया माताका रजश भी उसका आहार है। पक्षी अपने अण्डोंको सेते है वह ऊष्माहार है-इत्यादि। साधुजन इन्द्रियोको बशमें रखनेके लिए दिन में एक बार, खडे होकर, यथालब्ध, गृद्धि व रस निरपेक्ष, तथा पुष्टिहीन आहार लेते है।
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आहार
२८४
-
विषय-सूची २ साधुके योग्य आहार शुद्धि १ छियालीस दोषोसे रहित लेते है २ अध.कर्मादि दोषोसे रहित लेते है ३ अधःकर्मादि दोषोका नियम केवल प्रथम व अन्तिम
तीर्थमे ही है * परिस्थिति वश नौकोटि शद्धकी बजाय पांच कोटि शुद्धका भी ग्रहण
-दे अपवाद ३ * दातार योग्य आहार शुद्धि
-दे. शुद्धि ४ योग मात्रा व प्रमाणमे लेते है ५ यथालब्ध व रस निरपेक्ष लेते है ६ पौष्टिक भोजन नही लेते है * भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी विचार -वे. भक्ष्याभक्ष्य ७ गृद्धता या स्वछन्दता सहित नही लेते ८ दातार पर भार न पड़े इस प्रकार लेते हैं ९ भाव सहित दिया व लिया गया आहार ही वास्तवमें
I आहार सामान्य १ भेद व लक्षण
१ आहार सामान्यका लक्षण २ आहार के भेद-प्रभेद ३ नोकर्माहार व कवलाहारके लक्षण * खाद्यस्वाद्यादि आहार
-दे, वह वह नाम * पानक व काजी आदिके लक्षण -दे. वह वह नाम * निर्विकृति आहार का लक्षण --दे. निर्विकृति २ भोजन शुद्धि १ भोजन शुद्धि सामान्य * भक्ष्याभक्ष्य विचार, जलगालन, रात्रि भोजन त्याग अन्तराय
-दे. वह वह नाम २ अन्न शोधन विधि ३ आहार शुद्धिका लक्षण * चौकेके बाहरसे लाये गये आहारकी ग्राह्यता
-दे.आहार 1/१ * मन, बचन, काय आदि शुद्धियाँ -दे. शुद्धि ३ आहार व आहार कालका प्रमाण १ कर्म भूमिया स्त्री, पुरुषका उत्कृष्ट आहार २ आहारके प्रमाण सम्बन्धी सामान्य नियम * भोग भूमियाके आहारका प्रमाण
३ भोजन मौनपूर्वक करना चाहिए II आहार (साधुचर्या) १ साधुको भोजन ग्रहण विधि * भिक्षा विधि
-वे. भिक्षा १ दिनमे एकबार खडे होकर भिक्षावृत्तिसे व पाणि
पात्रमे लेते है २ भोजन करते समय खडे होने की विधि व विवेक ३ खडे होकर भोजन करनेका तात्पर्य ४ नवधा भक्ति पूर्वक लेते हैं। * नवधा भक्ति * योग्यायोग्य घर व कुलादि
-दे भिक्षा ३ ५ एक चौकेमे एक साथ अनेक साधु भोजन कर
सकते है ६ चौकेसे बाहरका लाया आहार भी कर लेते हैं ७ पंक्तिबद्ध सात घरोंसे लाया आहार ले लेते है पर
अन्यत्रका नही * क्षपकको भाँगकर लाया गया आहार ग्राह्य है
-दे. सरलेखना
३ आहार व आहार कालका प्रमाण १ स्वस्थ साधुके आहारका प्रमाण २ साधुके आहार ग्रहण करनेके कालकी मर्यादा * साधुके आहार ग्रहणका काल
-दे. भिक्षाव रात्रि भोजन १ ४ आहारके ४६ दोष १ छियालीस दोषोंका नाम निर्देश २ चौदह मल दोष ३ सात विशेष दोष * उद्देशिक व अध.कर्म दोष -दे,वह वह नाम ४ छियालीस दोषों के लक्षण । * आहारके अतिचार
-वे. अतिचार * आहार सम्बन्धी अन्तराय
-दे. अन्तराय २ * आहार छोड़ने योग्य व अन्यत्र उठ कर चले जाने योग्य अवसर
-दे. अन्तराय २ ५ वातार सम्बन्धी विचार १ दातारके गुण व दोष
२ दान देने योग्य अवस्थाएँ विशेष ६ भोजन ग्रहण करनेके कारण व प्रयोजन १ संयम रक्षार्थ करते है शरीर रक्षार्थ नही २ शरीरके रक्षाणार्थ भी कथंचित् ग्रहण ३ शरीरके रक्षणार्थ औषध आदिको भी इच्छा नहीं ४ शरीर व संयमार्थ ग्रहणका समन्वय * केवलीको कवलाहारका निषेध -दे. केवली४
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आहार सामान्य
२८५
३. आहार व आहार कालका प्रमाण
I आहार सामान्य १.भेद व लक्षण
१ आहार सामान्यका लक्षण स.सि २/३०/१८६/६ त्रयाण शरीराणा षण्णा पर्याप्तीना योग्य पुद्गलग्रहणमाहार । - तीन शरीर और छह पर्याप्तियो के योग्य पृद्धगलोंके ग्रहण करनेको आहार कहते है । (रा.वा २/३०/४/१४०), (ध, १/१, १,४/१५२/७) रा वा ६/७/११/६०४/१६ उपभोगशरीरपायोग्यपुदगलग्रहणमाहार... तत्राहार शरीरनामोदयात विग्रहतिनामोदयाभावाच्च भवति । - उपभोग्य शरीरके योग्य पुद्गलोका ग्रहण आहार है । वह आहार शरीर नामकर्मके उदय तथा विग्रह गति नामके उदयके अभावसे होता है। २. आहारके भेद-प्रभेद नोट-आगममें चार प्रकारसे आहारके भेदोंका उत्तलेख मिलता है। उन्हीं की अपेक्षासे नीचे सूची दी जाती है ।
आहार
कर्माहारादि
खाद्यादि
काजीआदि
पानकादि
अशन
लेह्य
कर्माहार
कांजी
स्वच्छ नोकर्माहार पान
आंवली या बहल कबलाहार
भक्ष्य या खाद्य आचाम्ल लेवड लेप्याहार
बेलडी
अलेवड ओजाहार स्वाद्य
एकलटाना ससिक्थ मानसाहार
असिक्थ उपरोक्त सूचीके प्रमाण १ (ध १/१.१,१७६/४०६/१०), (नि.सा/ता वृ. ६३ में उद्धृत) (प्र. सा/ता वृ २० में उद्धृत प्रक्षेपक गाथा म २) (स.सा./ता बृ. ४०५) २ (मू आ ६७६), (रा.वा ७/२१/८/५४८1८), (अन-ध.७/१३/4६७), (ला सं.२/१६-१७) ३. (व्रत विधान संग्रह पृ २६) ४. (भ आ./मू ७००), (सा घ. ८1५६)
३. नोकर्माहार व कवलाहारका लक्षण बो.पा./टी ३४ समय समय प्रत्यनन्ता परमाणवोऽनन्यजनासाधारणा' शरीरस्थितिहेतवः पुण्यरूपा शरीरे संबन्धं यान्ति नोकर्मरूपा अहत आहार उच्यतेन वितरमनुष्यवद्भगवति कवलाहारो भवति ।= अन्य जनोंको असाधारण ऐसे शरीरकी स्थिति के हेतु भूत तथा पुण्यरूप अनन्तै परमाणु समय-समय प्रति अर्हन्त भगवान्के शरीरसे सम्बन्धको प्राप्त होते है। ऐसा नोकर्म रूप आहार ही भगवान्का कहा गया है। इतर मनुष्यों को भाँति कवलाहार भगवान्को नहीं होता । २. भोजन शुद्धि
१. भोजन शुद्धि सामान्य भोजन शुद्धिके चार प्रमुख अग है-मन शुद्वि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि व आहार शुद्धि। इनमें से आहार शुद्धिके भी चार अग हैद्रव्य शुद्धि क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि व भाव शुद्धि । इनमें से भाव शुद्धि मन शुद्धिमें गर्भित हो जाती है । इस प्रकार भोजन शुद्धि के प्रकरणमें ६ बातें व्याख्यात है-मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि व कालशुद्धि।
२. अन्न शोधन विधि ला. स. २/११-३२ विद्ध त्रसाश्रितं यावद्वज येत्तभक्ष्यवत । शतशः शोधितं चापि सावधानहगादिभिः ॥१६॥ सदिग्ध च यदन्नादि श्रित बा नाश्रितं त्रसै । मन शुद्धिप्रसिद्ध्यर्थ श्रावक' क्वापि नाहरेत् ॥२०॥ अविद्धमपि निर्दोषं योग्य चानाश्रिते त्रसै । आचरेच्छ्रावकः सम्यग्दृष्ट नादृष्टमीक्षण ॥२१॥ ननु शुद्ध यदन्नादि कृतशोधनयानया। मैवं प्रमाददोषत्वावलमषस्यास्रवो भवेत ॥२॥ गलितं दृढवस्त्रेण सर्पितलं पयो द्रवम् । तोयं जिनागमाम्नायादाहरेत्स न चान्यथा ॥२३॥ अन्यथा दोष एव स्यान्मासातीचारसंज्ञक । अस्ति तत्र सादोना मृतस्याङ्गस्य शेषता ॥२४॥ दुरवधानता मोहात्प्रमादाद्वापि शोधितम् । दु शोधितं तदेव स्याज्ञेयं चाशोधिपं यथा ॥२५॥ तस्मात्सवतरक्षार्थ पलदोषनिवृत्तये । आत्मग्भिः स्वहस्तैश्च सम्यगन्नादि शोधयेवा२६॥ यथारमार्थ सुवर्णादिक्रियार्थी सम्यगीक्षयेत् । बतवानपि गृह्णीयादाहार सुनिरीक्षितम् ॥२७॥ स्धर्मे मनभिज्ञेन साभिशेन विधर्मिणा । शोधित पाचित चापि नाहरेद् वतरक्षक ॥२८॥ ननु केनापि स्वीयेन सधर्मेण विधर्मिणा। शोधितं पाचितं भोज्यं मुझेन स्पष्टचक्षुषः ॥२६॥ मैवं यथोदितस्योश्चै विश्वासो व्रतहानये। अनार्यस्याप्यनार्द्रस्य संयमे नाधिकारता ॥३०॥ चलितत्वात्सीम्नश्चैव नूनं भाविव्रतक्षति । शैथिल्याद्रीयमानस्य संयमस्य कुत स्थिति ॥३१॥ शोधितस्य चिरात्तस्य न कुर्यात् ग्रहण कृती । कालस्यातिक्रमाद भूयो दृष्टिपूतं समाचरेत ॥३२॥ -- (केवल भावार्थ) घुने हुए वा बीधे अन्नमें भी अनेक त्रस जीव होते है, सैकड़ों बार शोधा जाये तो भी उसमेंसे जीव निकलने असम्भव है । इस लिए वह अभक्ष्य है। जिसमें त्रस जीवका सन्देह हो कि इसमें जीव है या नहीं' ऐसे अन्न का भी त्याग कर देना चाहिए। जो अन्नादि पदार्थ धुने हुए नहीं है, जिनमें प्रस जोव नहीं है, ऐसे पदार्थ अच्छी तरह देख शोधकर काममें लाने चाहिए । शोधा हुआ अन्न, यदि मनकी असावधानीसे शोधा गया है, होशहवाश रहिन अवस्थामें शोधा गया है, प्रमाद पूर्वक शोधा गया है तो वह अन्न दुशोधित कहलाता है । ऐसे अन्नको पुन अपने हाथसे अच्छी तरह शोध लेना चाहिए । शोधन की विधिका अजानकार साधर्मी, अथवा शोधन विधिके जानकार विधर्मीके द्वारा शोधा गया अन्न कभी भी ग्रहण नही करना चाहिए, क्योकि जो पुरुष अनार्य है अथवा निर्दय है, उसको संयमके काममें संयमकी रक्षा करने में कोई अधिकार नहीं है। जिस अन्नको शोधे हुए बहुत काल व्यतीत हो गया है, अथवा उनकी मर्यादासे अधिक काल हो गया है, ऐसे अन्नादिकको पुन" अच्छी तरह शोधकर काममें लेना चाहिए। ताकि हिंसाका अतिचार न लगे।
३ आहार शुद्धिका लक्षण वसु श्रा. २३१ चउदसमलपरिसुद्ध जं दाणं सोहिऊण जइणाए। संजमिजणस्स दिज्जइ सा णेया एसणासुद्धी ॥२३॥ --चौदह मल दोषोंसे रहित, यतनसे शोधकर संयमो जनको आहार दान दिया जाता है, वह एषणा शुद्धि जानना चाहिए। ३. आहार व आहार कालका प्रमाण
१. कर्म भूमिया स्त्री पुरुषका उत्कृष्ट आहार भ,आ /मू २११ बत्तीस किर कवला आहारो कुक्त्रिपूरणो होइ । पुरि
सस्स महि लियाए अहावीसं हवे कवला ॥२११॥ = पुरुषके आहारका प्रमाण बत्तीस ग्रास है, इतने ग्रासो से पुरुषका पेट पूर्ण भरता है। स्त्रियोंके आहारका प्रमाण अट्ठाईस ग्रास है । (ध, १३/५४,२६/७/५६) हपू ११/१२५ सहस्रसिक्थ कवलो द्वात्रिशत तेऽपि चक्रिण । एकश्चासौ सुभद्राया एकोऽन्येषा तु तृप्तये ॥१२॥ -एक हजार चावलोका एक कवल होता है ऐसे बत्तीस कवल प्रमाण चक्रवर्तीका आहार था, सुभद्राका आहार एक कवल था और वह एक कवल समस्त लोगोंकी तृप्तिके लिए पर्याप्त था।
जैनेन्द्र सिदान्त कोश
Page #301
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आहार सामान्य
च. १२/५.४.२९/५१/६ सालितं दुलहस्ते द्विदे जंबूपमा त सम्यमेो कमलो होदि एमो परिसस्स करलो परूविंदो एवे हि मसीस
हि पडिपुरिम्स आहारो होदि अट्ठावलेहि माहिलियाए । इमं मेदमाहारं च मो जो जस पर्यावलो पयsि आहारो सोच घेत्तत्वो ण च सव्वेसि कवलो आहारी वा अडियो अस्थि एक्जमा पुरिमाण एगगलर कूराहार पुरिसाण च उबलं भादो ।" =शाली धान्यके एक हजार धान्योंका जो भात बनता है वह सब एक ग्रास होता है। यह प्रकृतिस्थ पुरुषका ग्रास कहा गया है। ऐसे बत्तीस ग्रासो द्वारा प्रकृतिस्थ पुरुषका आहार होता है और अट्ठाईस ग्रासों द्वारा महिलाका आहार होता है । प्रकृत में (अब मौदर्य नामक तपके प्रकरण में) इस ग्रास और इस आहारका ग्रहण न कर जो जिसका प्रकृतिस्थ ग्रास और प्रकृतिस्थ आहार है वह लेना चाहिए। कारण कि सबका ग्रास व आहार समान नहीं होता, क्योंकि कितने ही पुरुष एक कुडव प्रमाण चावलों के भातका और कितने ही एक गलस्थ प्रमाण चावलोके भातका आहार करते हैं।
२. आहारके प्रमाण सम्बन्धी सामान्य नियम
साध, ६ / २४ में उद्धृत "सायं प्रातर्वा वह्निमवसादयन् भुञ्जीत । गुरुनाम मातिता मात्रमा निर्दिष्ट हु तावद्विजीर्यति ।" सुबह और शामको उतना ही खावे जिसको जठराग्नि मुगमता से पचा सके । गरिष्ठ पदार्थों को भूख से आधा और हस्के पदार्थोंको तृप्ति होने पर्यन्त ही खाने भूसे अधिक न खायें। इस प्रकार खाया हुआ अन्न सुखसे पचता है। यह मात्राका प्रमाण है । आ. ४९ अर्थात यो समारणार्थं चतुर्थमवशेषयत् भिक्षु | = भिक्षुके उदरका आधा भाग भोजन से भरे, तृतीय भाग जलसे भरे, और चतुर्थ भाग वायुके संचरणार्थ अवशेष रखे।
३. भोजन मौन पूर्वक करना चाहिए मू. आ. ८१७ मोणव्वदेण मुणिणो चरति भिक्ख अभासंता । वे मौनव्रत सहित भिक्षा निमित्त विचरते है
४/६७ भिक्षा परगृहे लब्धा निर्दोषां मौनमास्थिता ॥६७॥
कोंक पर ही भोजनके लिए जाते हैं और वहाँ प्राप्त हुई निर्दोष भिक्षाको मौनसे खड़े रहकर ग्रहण करते है ।... साध ४/२४-२५ गृ हुङ्कारादिसंज्ञ, संपलेशं च पुरोऽनु च मुचमौनमदन्कुर्यात तप संयमबृ' हणम् ॥३४॥ अभिमानावनेगृद्धिरोधा वर्धयते तप । मौनं तनोति श्रेयस श्रुतप्रश्रयतायनात् ॥३५॥ - खाने योग्य पदार्थ की प्राप्तिके लिए अथवा भोजन विषयक इच्छाको प्रगट करनेके लिए हुङ्कारना और ललकारना आदि इशारोको तथा भोजनके पीछे क्लेशको छोडता हुआ, भोजन करनेवाला बती श्रावक तप और संयमको बढ़ानेवाले मौनको करे ॥ ३४॥ मौन स्वाभिमानकी अयाचकवरूप व्रतको रक्षा होनेपर तथा भोजन विषयक लोलुपताके निरोध लपको बहाता है और घुतज्ञानकी विनयके सम्बन्धसे पुण्यको मढाता है ।
I1
आहार (साधुचर्या)
१. साधुकी भोजन ग्रहण विध
१. दिनमे एक बार सर्द होकर भिक्षावृत्तिसे व पाणिपात्र मे लेते हैं
मू. आ. ३५.८११,६३७ उदयस्थमणे काले णाली तियव जिय हिमज्झम्हि । एकहि दुअ लिए वा मुहुत्तकालेयभत्तं तु ॥३४॥ । भुंजंति पाणिपत्ते परेण व परपरम् ॥११॥ जोनेस सोग भिखारि वणियं सुते । अण्णेय पुणो जोगा विष्णाणविहीणएहि क्या ॥१३७॥ -सूर्यके उदय और अस्तकाल की तीन घडी छोडकर वा. मध्यकाल -
LUM
२८६
१
साधु
एक
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दो तीन मुहूर्त कालमें एक मार भोजन करा वह एक भक्त मूलगुण है ॥ ३५॥ पर घर में परकर दिये हुए ऐसे आहारको हाथरूप पत्र पर रखकर वे मुनि खाते है ।। ८११ || आगम मे सब मूल उत्तरगुणो के मध्य में भिक्षाचर्या ही प्रधान व्रत कहा गया है और अन्य जे योग हैं वे सब अज्ञानी चारित्र हीन साधुओके किये हुए जानना १६३७॥
की भोजन ग्रहण विधि
प्रसा / २२६ एक खलु तं भत्तं अपडिपुण्णोदर जधा लवं । चरण भिक्खेण दिवाण रसावेक्ख ण मधुमंस ||२२|| भूख से कम, यथा तन्ध तथा भिक्षा र निरपेक्ष तथा मधुमासादि रहिस, ऐसा शुद्ध अल्प आहार दिन के समय केवल एक बार ग्रहण करते हैं ॥ २२६ ॥ प.पु ४/१७ भि परगृहे लब्ध्वा निर्दोषं मौनमास्थिता । भुंजते BE७॥ =भावको के घर ही भोजनके लिए जाते हैं । वहाँ प्राप्त हुई भिक्षाको मौनसे खडे होकर ग्रहण करते है ।
आचार सार १/४६ एकद्वित्रिमुहूर्तं स्यादेकभक्तं दिने मुने ॥४६॥ = एक दो व तीन मुहूर्त तक एक्बार दिनके समग्र मुनि आहार लेवे । २. भ जन करते समय खडे होने की विधिववेक सूज २४ अजलिपुटेश टिकुद्धादि समपाद्ध भूमितिए असणं ठिदिभीषण जाम ||३४|| अपने हाथ रूप भाजन कर भीत आदिके आश्रय रहित चार अंगुल के अन्तर से समपाद खड़े रह कर अपने चरणकी भूमि, जूठन पड़नेकी भूमि, जिमाने वाले के प्रदेश की भूमि ऐसी तीन भूमियोकी सुद्धा आहार ग्रहण करना वह स्थिति भोजन नाम मूल गुण है
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भ आ./वि १२०६ / १२०४ / १५ समे विच्छिद्रे, भ्रभागे चतुरङ्गुलपादान्तरी निश्चल कुड्यस्तम्भादिकमनबलम्ब्य तिष्ठेव समान व छिद्र रहित ऐसी जमीन पर अपने दोनो पाँव में चार अंगुल अन्तर रहे इस तरह निश्चल खड़े रहना चाहिए। भीत (दोवार) खम्बा वगैरहकर आश्रय न लेकर स्थिर खड़े रहना चाहिए।
अन च ६/६४ । चतुरङ्गुलान्तरसमक्रम ||६४ || जिस समय ऋषि अनगार भोजन करे उसी समय उनको अपने दोनो पैर उनमे चार अगुलका अन्तर रखकर समरूप से स्थापित करने चाहिए।
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
३. खडे होकर भोजन करनेका तात्पर्य अन. १/६२ यावत्करी पुटीकृत्य भोमु क्षमेऽहम्यस्त बन्नेपापण्यास यमार्थं स्थिताशनम् ॥१३॥ जबतक खड़े होकर और अपने हाथको जोडकर या उनको ही पात्र बनाकर उन्हीके द्वारा भोजन करने की सामर्थ्य रखता हूँ, तभी तक भोजन करनेमें प्रवृत्ति करूँगा, अन्यथा नहीं। इस प्रतिज्ञाका निर्वाह और इन्द्रियसंयम तथा प्राणि संयम साधन करनेके लिए मुनियोंको खडे होकर भोजन का विधान किया है।
४ नवधा भक्ति पूर्वक लेते है
मूआ ४८२ । विहिसु दिण्णं ॥ ४८२ ॥ विधि से अर्थात् नवधा भक्ति दाता के सात गुण सहित क्रियासे दिया गया हो । (ऐसा भोजन साधु ग्रहण करें।)
५. एक चौकेने एक साथ अनेक साधु भोजन कर सकते हैं यो सा अ = / ६४ पिण्ड पाणिगतोऽन्यस्मै दातुं योग्यो न युज्यते । दोयते चेन्न भोक्तव्य भुङ्क्ते चेच्छेदभाग्यति ॥ ६४ ॥ आहार देते समय गृहस्थको चाहिए कि वह जिस मुनिको देनेके लिए हाथमें आहार ले उसे उसी मुनिको दे अन्य मुनिको देना योग्य नहीं यदि कदाचित अन्यको भी दे दिया जाये तो मुनिको खाना न चाहिए क्योंकि यदि मुनि उसे खा लेगा तो वह छेद प्रायश्चित्तका भागी गिना जायेगा ॥ ६४॥
६. चौके से बाहरका लाया आहार भी कर लेते हैं अनेक गृह भोजी क्षुल्लक अनेक घरोमें से अपने पात्रमें भोजन लाकर, अन्य किसी श्रापक के घर जहाँ पानी मिल जाये, वहाँ पर गृहस्थकी
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बाहार (
भाँति मुनिको आहार देकर पीछे स्वय करता है । - दे. क्षुल्लक १ तथा सल्लेखना गत साधुको कदाचित् क्षुधाकी वेदना बढ़ जानेपर गृहस्थोके घरसे मंगाकर आहार जिमा दिया जाता है। - दे. सरले खना । उपरोक्त विषय पर सिद्ध होता है कि साधु कदाचित् चौकेसे बाहरका भी आहार ग्रहण कर लेते हैं । जम्बूस्वामी चरित्र १६३ प्रासू शुद्रमाहार कृतकारिबजित भिक्षयानी मित्रेण धर्मण ४१६२४- धर्म नाम के भिक्षासे लाया हुआ, कृत, कारित, दोषों से वर्जित शुद्ध प्राशुक आहार विरक्त शिवकुमार (श्रावक) घर बैठकर कर लेता था ।
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आदत्त द्वारा
७ पतिवद्ध सात परोसे लाया हुआ आहार ले लेते हैं पर अन्यत्रका नही
भवे
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मू. आ. ४३८-४४० देसत्तिय सव्वत्तियदुविहं पुण अभिहडं चिमणा देतामिह हवे दुहि [NIC बापरेहिं जदि आग दु आणि परदो वा चिणं ॥ ४३८ ॥ सम्बाभिघड चदुधा सयपरगामे सदेस परदेसे | पुत्र पर पाडण्यडं पढम सपि णापव्वं ॥ ४४०॥ =अभिघट दोषके दो भेद हैं - एक देश व सर्व देशाभिघटके दो भेद है - आचिन्न व अनाचिन्न ॥ ४३ ॥ पक्ति बद्ध सोधे तीन अथवा सात घरोंसे लाया भात आदि अन्न आचिन्न अर्थात् ग्रहण करने योग्य है । और इससे उलटे-सीधे घर न हों ऐसे सात घरोंसे भो लाया अन्न अथवा आठवाँ आदि घर से आया ओदनादि भोजन अनाचिन्न अर्थात् ग्रहण करने योग्य नहीं है। सर्वाभिघट दोषके चार भेद हैं- स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश. परदेश पूर्व दिशा के मोहल्ले से पश्चिम दिशा के मोहल्ले में भोजन ले जाना स्वग्रामाभिघट दोष है ।
२ साधु के योग्य आहार शुद्धि
वियाणा हि । तिहि सतहिं
१ छियालीस दोषों से रहित लेते है
मू. आ ४२१.४८२ ४८३, ८९२ उग्गम उप्पादण एसण च सजोजणं पमाणं च गालधूमकारण अट्ठविहारसुद्धो ॥४२११० कोहीपरिशुद्ध असण मादादोसपरिहीण सजोजगारही पमाणसहि विहि दिणं ||४८२ ॥ विगदिगाल विधूम छक्कारणसज़द कमविशुद्ध' तासाचतं भजे ॥४८३ उह सिय कोदय अण्णादं सदिं अभि च सुतपाणि पडिसिद्ध तं विवज्जेंति ।। ८१२ ॥ उद्गम उत्पादन, अशन, सयोजन, प्रमाण, अगार, धूम कारण- इन आठ दोषो कर रहित जो भोजन लेना वह आठ प्रकारको पिण्डशुद्धि कही है ।। ४२१| ऐसे आहारको ऐना चाहिए- जो नवकोटि अर्थात् मन, वचन, काय, कृत, कारित अनुमोदनासे शुद्ध हो, व्यालीस दोषों कर रहित हो, मात्रा प्रमाण हो, संयोजना दोषसे रहित हो, विधि से अर्थात नवधा भक्ति दाताके सात गुजसहित क्रिया दिया गया हो अंगार दोष धूमदोष इन दोनों रहित हो. छह कारणोसे सहित हो, क्रम विशुद्ध हो, प्राणोके धारण के लिए हो, अथवा मोक्ष यात्रा के साधनेके लिए हो, चौदह मलोंसे रहित हो, ऐसा भोजन साधु ग्रहण करें ।।४८२ ४८३॥ (मू. आ ८११) औद्द - शिक क्रोततर अज्ञात शक्ति, अग्यस्थानसे आया सूत्रसे विरुद्ध और सूत्रसेन ऐसे आहारको मुनि ध्यान देते है। भा.पा./मू १०१ छायीसदोस दुसियमसण गसिउ असुद्धभावेण । पत्तोसि महाबसणं तिरियगईए अणप्पवसो ॥१०१॥ हे मुने । तें अशुद्ध भावकरि छियालीस दोष करि दूषित अशुद्ध अशन कहिए आहार ग्रस्पा खाया ताकारण करि तिर्यञ्च गति विषै पराधीन भया सता महात् बडा व्यसन कहिए कष्ट तार्क प्राप्त भया ॥ १०१ ॥ मा.पा/प्र ६/२००/ बहुरि जहाँ मुनिकेात्रीत आदि
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दोष आहारादिविषै है है तहाँ गृहस्थनिकै बालकनिको प्रसन्न करना इत्यादि क्रियाका निषेध किया है। और भी-दे आहारI / २ |
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२ अध कर्मादि दोषोंसे रहित लेते है
हि
सू. आ. १२२-१२४ जो ठानमोगवीरासनेहि अदि भुंदि आधाकम्मं सव्वेवि णिरत्था जोगा ॥१२२॥ जो भुंजदि आधाकम्मं छज्जीवाण घायण किया। अबुद्धो लोल सजिन्भो णवि समणो सावओ होज ॥१२॥ आधाकम्म परिणदो पासुगदव्वेदि मधगोभणिदो । सुद्ध गवेसमाणो आधाकम्मेवि सो सुद्धो ॥१३४॥ जो साधुस्थान मौन और वीरासनसे उपवास वेला तेला आदि कर तिष्ठता है और अधर्म सहित भोजन करता है उसके सभी योग निरर्थक है | २२| जो मूढ मुनि छह कायके जीवोंका घात करके अधः कर्म होता है वह लोलुपीजा हुआ मुनि नहीं है श्रावक है | ६२७ प्राक द्रव्य होनेपर भी जो साधु अध कर्म कर परिणत है वह आगम में बन्धका क्र्ता है, और जो शुद्ध भोजन देखकर ग्रहण करता है वह अध कर्म दोष के परिणाम शुद्धिसे शुद्ध है | ६३४ | मोपा / मू. ७६ । आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गमि । -अथ कर्म कर्म तानिये रस है, सोष आहार करें है ते मोक्ष मार्ग तैं च्युत है । रा. वा. ६/६/१६/५६७/१६ भिक्षा शुद्धि प्रासुकाहारगवेषणप्रणिधाना । प्राक आहार बना ही मुख्य लक्ष्य है ऐसी भिक्षा-शुद्धि है। भ.आ./वि ४२२/१९/६ भ्रमणादिश्य कृतं भक्तादिकं गिभिरयुच्यते । तच्च षोडशविधं आधा कर्मादि विकल्पेन । तत्परिहारो द्वितीय स्थितिकल्प - मुनिके उद्देश्य से किया हुआ आहार, वसतिका वगैरहको उद्द े शिक कहते हैं। उसके आधाकर्मादि विकल्पसे सोलह प्रकार हैं । उसका त्याग करना यही द्वितीय स्थिति कल्प है। स.सा./अ. १८६२८० अथ कर्म निष्प्रमुश निष्पम्
गतव्यं निमियाचक्षाणो ने मिति बंधसाधकं भान प्रत्या चष्टे तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भाव न प्रत्याचष्टे । - अधः कर्म से तथा उद्देशसे उत्पन्न निमित्त भूत पुद्गल द्रव्य न त्यागता हुआ नैमित्तिक भूत बन्ध साधक भावों को भी वास्तवमें नहीं त्यागता है, ऐसा ही द्रव्य व भावका निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है ।
प्रसा / स. प्र. २२६ समस्त हिसायतन शून्य एवाहारो युक्ताहार । - समस्त हिंसा के निमित्तों से रहित आहार ही योग्य है । सा.६८/१पण विद्यापरितापनारम्भ किया मिस्वेन कृतं परेण कारितं वानुमानितं बाध कर्म (जनित) तरसेविनोऽनशनादितपस्यावकाशादियोगविशेषाश्च भिन्नभाजनभरितामृतरक्षन्ति ततश्च तदभक्ष्यमित्र परिहरतो भिक्षोः । उपद्रवण, चिद्रावण, परितापन और आरम्भ रूप क्रियाओंके द्वारा जो आहार तैयार किया गया है - वह चाहे अपने हाथसे किया है अथवा दूसरेसे कराया है अथवा करते हुएकी अनुमोदना की है अथवा जो नीच कर्मसे बनाया गया है ऐसे अच कर्मयुक्त आहारको ग्रहण करनेवाले मुनियोंके उपवासादि तपश्चरण, अभ्रावकाशादि योग और वीरासनादि विशेष योग न फूटे मनमें भरे हुए अमृत के समान नष्ट हो जाते हैं। ३ अधः कर्मादि दोषोंका नियम केवल प्रथम व अन्तिम
तीर्थमे ही है
भ य/वि ४२१/६२३ / १ तथा चोतं कश्येसोसविध सं यज्जेदव्वति पुरिमचरिमाण । तित्थगराण तिथे ठिदिक्प्पो होदि विदिओ हु । कल्प नामक ग्रन्थ (कल्प सूत्र ) में ऐसा वर्णन है - श्री आदिनाथ तीर्थकर और श्री महावीर स्वामी इनके सीर्थ में सोसह प्रकार के उद्दे शका परिहार करके आहारादिक ग्रहण करना चाहिए, यह दूसरा स्थिति क्ल्प है।
४ योग्य मात्रा व प्रमाणमे
मू आ. ४८२.... पमाण सहियं आहार साधु ग्रहण करते है ।
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साधुके योग्य आहार शुद्धि
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लेते हैं।
॥४८२१ - जोमात्रा प्रमाण हो ऐसा
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आहार (साधुचर्या)
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साधुके योग्य आहार शुद्धि
५ यथा लब्ध व रस निरपेक्ष लेते है प्रसा/मू २२६. जधा लद्ध। ण रसावेवरवं ण मधुमंस ॥२२६॥ वह शुद्ध आहार प्रथालब्ध तथा रससे निरपेक्ष तथा मधु मासादि
अभक्ष्योंसे रहित किया जाता है। लि./पा /मू. १२ कंदप्प (प्पा) इय वट्टइ करमाणो भोयणेस रमगिद्धि । माई लिगविवाई तिरिक्रवजोणी ण सो समणो ॥१२॥ --जो लिग धार कर भी भोजनमें रसकी गृद्धि करता है, सो क्न्दादि विषै वर्त है। उसको काम सेवनकी इच्छा तथा प्रमाद निद्रादि प्रचुर रूपसे बढते है तम वह लिग व्यापादी अर्थात व्यभिचारी कहलाता है। मायापारी होता है. इसलिए वह तिरीश्च योनि है मनुष्य नाहीं। इसलिए वह श्रमण नहीं। र.सा. ११३ भुजेइ जहालाह लहेइ जइ णाणसजमणिमित्त । झाणज्झ
यणणि मित्त अणियारो मोक्खमग्गरओ।११३६ - जो मुनि केवल सयम ज्ञानकी वृद्धि के लिए तथा ध्यान अध्ययन करनेके लिए जो मिल गया भक्ति पूर्वक, जिसने जो शुद्ध आहार दे दिया उसीको ग्रहण कर लेते हैं । वे मुनि अवश्य ही मोक्ष मार्ग में लीन रहते है। मू.आ ४८१,८१४,१२८० साउ अट्ठ ण.... भुजेज्जो ॥४८१॥ सीदलम
सीदलं वा सुक्क लुक्ख सुणिद्ध सुद्धं वा । लोणिदमलादि वा भूति मुणी अणासादं ८१४॥ पयर्ण व पायण वा अणुमणचित्तो ण तस्थ बोहेदि । जेमतोविसघादी णवि समणो दिद्विसपण्णो ॥२८॥ -साधु स्वादके लिए भोजन नहीं करते है ॥४८१॥ शीतल गरम अथवा सूखा, रूखा चिकना विकार रहित लोन सहित अथवा लोन रहित ऐसे भोजनको वे मुनि स्वाद रहित जीमते है ॥८१४॥ पाच करने में अथवा पाक कराने में पाँच उपकरणोसे अध कर्म में प्रवृत्त हुआ और अनुमोदना प्रसन्न जो मुनि उस पचनादिमे नही डरता वह मुनि भोजन करता हुआ भी आत्मघाती है। न तो मुनि है और न
सम्यग्दृष्टि है। प्र.प./मू १९१/२,४ प्रक्षेपक गाथा "काऊण' णग्गरूव बीभत्स दड्ढमडयसारिच्छ । अहिलससि कि ण लज्जसि भक्खाए भोयणं मिट्ठ ॥११११२॥ जे सरसिं सतुट्ठ-मण विरसि क्साउ वह ति। ते मुणि भोयणधार गणि णवि परमत्थु मुणं ति ॥१११*४४ भयानक देहके मैलसे युक्त जले हुए मुरदे के समान रूप रहित ऐसे वस्त्र रहित नग्न रूपको धारण करके हे साधु, तू परके घर भिक्षाको भ्रमता हुआ उस भिक्षामें स्वाद युक्त आहारकी इच्छा करता है, तो तू क्यो नहीं शरमाता । यह बड़ा आश्चर्य है ।१११*२॥ जो योगी स्वादिष्ट आहारसे हर्षित होते है और नीरस आहारमें क्रोधादि कषाय करते हैं वे मुनि भोजनके विषय में गृद्ध पक्षीके समान है, ऐसा तू समझ। वे परम तत्त्वको नहीं समझते है ॥११(*४॥ आचारसार ४/६४ रोगोका कारण होनेसे लाडू, पेडा, चावल के बने पदार्थ
वा चिकने द्रव्यका त्याग द्रव्य शुद्धि है। अन घ. ७/१० इष्टमृष्टोत्कटरसैराहारैरुद्भरीकृताः। यथेष्टमिन्द्रियभटा भ्रमयति बहिर्मन ॥१॥ -इन इन्द्रियरूपी सुभटोंको यदि अभीष्ट तथा स्वादु और उत्कट रससे परिपूर्ण-ताजी बने हुए भोजनोंके द्वारा उद्भट-दुईम बना दिया जाये तो ये अपनी इच्छानुसारजो-जो इन्हे इष्ट हों उन सभी बाह्य पदार्थों में मनको भ्रमाने लगते हैं। अर्थात् इष्ट सरस और स्वादु भोजनके निमित्तसे इन्द्रियों स्वाधीन नहीं रह सकती।
६ पौष्टिक भोजन नही लेते है त. सू.७/७,३५ वृष्येष्टरसस्व शरीरसस्कारत्यागा' पञ्च ॥७॥ सचित्तसम्मन्धसम्मिश्राभिषवदुष्पक्याहारा ॥१५॥ द्रवो वृष्योबाभिषव(स सि)-गरिष्ठ और इष्ट रसका त्याग तथा अपने शरीर के सस्कारका त्याग ये ब्रह्मचर्यको रक्षा करनेके लिए ब्रह्मचर्य बतकी पाँच भावनाएँ है ॥७॥ सचित्ताहार, सम्बन्धाहार, सम्मिश्राहार अर्थात सचित्त या सचित्तसे सम्बन्धको प्राप्त अथवा
सचित्तसे मिला हुआ आहार, अभिषवाहार और ठीक न पका हुआ आहार, इनका ग्रहण उपभोग परिभोग परिमाण धतके अतिचार है ॥णा यहाँ द्रव, वृष्य और अभिषव इनका एक अर्थ है अर्थात पौष्टिक
आहार इसका अर्थ है । (स.सि.७/३५/३७१/६) अन.ध. ४/१०२ को न वाजीकृतां दृप्त कन्तु कन्दर येथात'। ऊर्ध्वमूलमध शाखमृषय, पुरुष बिदु ॥१०२॥ - मनुष्योको धोडेके समान बना देनेवाले दुग्ध प्रभृति वीर्य प्रवर्धक पदार्थोंको वाजीकरण कहते हैं । इसमें ऐसा कौन सा पदार्थ है जो कि उप्त - उत्तेजित होकर कामदेवको उद्धृत नहीं कर देता अर्थात् सभी सगर्व पदार्थ ऐसे ही हैं। क्योंकि ऋषियोने पुरुषका स्वरूप ऊर्ब मूल और अध शाख माना है। जिह्वा और कण्ठ प्रभृति अवयव मनुष्यके मूल है और हस्तादि अवयव शाखाएँ है। जिस प्रकार वृक्षके मूल में सिञ्चन क्येि गये सिञ्चनका प्रभाव उसकी शाखाओपर पड़ता है उसी प्रकार जिह्वादिक
के द्वारा उपयुक्त आहारादिकका प्रभाव हस्तादिक अगोंपर पड़ता है। क्रि को ८२ अतिदुर्जर आहार जे वस्तु गरिष्ट सु होय । नही जोग जिनवर कहे तज धन्न है सोय ॥१८२॥-जो अत्यन्त गरिष्ठ आहार है उसको प्रहण करना योग्य नहीं, ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है। जो नर उसका त्याग करते है वे धन्य है।
७ गृद्धता या स्वच्छन्दता सहित नही लेते भ आ /मू. २६०, २६२ एसा गणधरमेरा आयारस्थाण वण्णियामुत्ते। लोगमुहाणुरदाणं अप्पच्छदो जहिच्छाए ॥२६०॥ पिडं उवधि सेज्जाम विसोधिय जो खु भजमाणो हु। मूलठाणं पत्तो बालो त्ति य जो समणबालो ।२६२॥ = यह अच्छा संयत मुनि है, ऐसा मेरा जगतमें यश फेले अथवा अपने मतका प्रकाशन करनेसे मेरेको लाभ होगा ऐसे भाव मनमें धारण करके केवल चारित्र रक्षणार्थ ही निर्दोष आहारादिकको जो ग्रहण करता है वही सच्चारित्र मुनि समझना चाहिये ।२६०। उद्गमादि दोषोसे युक्त आहार, उपकरण, बसतिका इनका जो साधु ग्रहण करता है जिसको प्राणि सयम व इन्द्रिय सयम है ही नही वह साधु मूल स्थान प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है, वह अज्ञानी है, वह केवल नग्न है, वह यति भी नहीं है, और न गणधर
म् आं/३१ जो जट्ठा जहा लद्ध' गेण्हदि आहारमुवधियादीय । समणगुणमुक्कजोगी ससारपवह दओ होदि ।३१। -जो साधु जिस शुद्ध अशुद्ध देशमें जैसा शुद्ध अशुद्ध मिला आहार व उपकरण ग्रहण करता है वह श्रमण गुणसे रहित योगी संसारका बढानेवाला ही होता है। सू. पा /म.६ उक्किट्ठसीहचरिय बहूपरियम्मो य गरूयभारो य । जो
विहरइ सच्छंद पाव गच्छेदि होदि मिच्छत्तं ।। लि पा /मू १३ धाव दि पिंडणि मित्तं क्लह काऊण भंजदे पिड । अबरुपरूई संतो जिणमग्गि ण होई सो समणो ।१३। - जो मुनि होकर उत्कृष्ट सिहबत निर्भय हुआ आचरण करता है और बहुत परिकर्म कहिए तपश्चरणादि क्रिया कर युक्त है, तथा गुरुके भारवाला है अर्थात् बड़े पदवाला है, संघ नायक कहलाता है, और जिन सूत्रसे च्युत हुआ स्वच्छन्द प्रवर्तता है तो वह पापही को प्राप्त होय है, मिथ्यारव को प्राप्त होय है। जो लिगधारी पिण्ड अर्थात आहारके लिए दौडे है आहारके लिए क्लह करके उसे खाता है तथा उसके निमित्त परस्पर अन्यसे ईर्ष्या करता है वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है ।१३। (और भी दे. साधु ५)
८ दातारपर भार न पडे इस प्रकार लेते है रा, वा ४/५/१५/५६७/२६ दातृजनबाधया बिना कुशलो मुनिभवदाहारमिति भ्रमाहार इत्यपि परिभाष्यते । - दातृ जमोको किसी भी प्रकारकी बाधा पहुंचाये बिना मुनि कुशलसे भ्रमरकी तरह आहार लेते है। अत उनकी भिक्षा वृत्तिको भ्रामरोवृत्ति और आहारको भ्रमराहार कहते हैं।
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शुद्ध है
II आहार (साधुचर्या)
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४ आहारके दोष मो मा प्र ६/२७० मुनिनिकै भ्रमरी आदि आहार लेने की विधि कही दोष, अध्यधि दोष, पूतिदोष, मिश्र दोष, स्थापित दोष, अलि दोष,
है। ए आसक्त होय दातारके प्राण पीडि आहारादिक ग्रहे है। प्रावर्तित दोष, प्राविष्करण दोष, क्रीत दोष, प्रामृश्य दोष, परिवर्तक इत्यादि अनेक विपरीतता प्रत्यक्ष प्रति भासे अर आपको मुनि माने, दोष, अभिषट दोष, अच्छिन्न दोष, मालारोह दोष, अच्छेद्य दोष, मून गुणादिकके धारक कहावै ।
अनिसृष्ट दोष,। ३ उत्पादन दोष-सोलह दोष उत्पादन के है९ भाव सहित दिया व लिया गया आहार ही वास्तबमे धात्री दोष, दूत, निमित्त, आजीव, वनीपक, चिकित्सक, क्रोधी,
मानी, मायावी, लोभी, ये दस दोष । तथा पूर्व सस्तुति, पश्चात
संस्तुति, विद्या, मन्त्र, चूर्णयोग, मूल कर्म छह दोष ये है । ४ अशन मू.आ. ४८५ पगदा असओ जह्मा तह्मादो दश्य दोत्ति त दव्यं । पामुग
दोष-शक्ति, मृक्षित. निक्षिप्त, पिहित, संव्यवहरण, दायक, मिद्रि सिद्ध विय अप्पटकद असुद्ध'तु ४ि८ - साधु द्रव्य व भाव
उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त, त्यक्त ये दस दोष अश्न है। (चा सा ६८दोनोसे प्रामुक द्रव्य का भोजन करे। जिसमें से एकेन्द्री जीव निक्ल गये वह द्रव्य प्रासुक है और जो प्रासुक आहार होनेपर भी "मेरे लिए
७२/४) (अन, ध ५/५-३७) (भा पा/टो (E) किया गया है" ऐसा चिन्तन करे वह भाव से अशुद्ध जानमा, तथा
२ चौदह मल दोष चिन्तन नही करना वह भाव शुद्ध आहार है।
भू आ ४८४ णहरोमज तुअट्ठोकणकडयपुयिचम्मरुहिरमंसाणि । वीयअन.ध ५/६७ द्रब्यत शुद्धमप्यन्न भावाशुद्धया प्रदुष्यते। भावो ह्यशुद्रो
फलकदमूला छिण्णाणि मला चउदसा होति ।४८४॥ नख रोम (बाल) बन्धाय शुद्धो मोक्षाय निश्चित६७१यदि अन्न-- भोज्य सामग्री
प्राण रहित शरीर, हाड गेहूँ आदिका कण, चावलका कण, खराबद्रव्यत शुद्ध भी हो किन्तु भावत -'मेरे लिए इसने यह बहुत
लोही (राधि) चाम, लोही मास, कुर होने योग्य गेहूँ आदि, आम्र अच्छा किया' इत्यादि परिणामोकी दृष्टि से अशुद्ध है तो उसको
आदि फल क्द मुल-ये चौदह मल है। इनको देखकर आहार अशुद्ध-सर्वथा दूषित हो समझना चाहिए। क्योकि बन्ध मोक्षके
त्याग देना चाहिए । (बसु श्रा २३१ का विशेषार्थ) कारण परिणाम ही माने है। आगममें अशुद्ध परिणामोको कर्मबन्ध
अन ध ५/३६ पूयात्रपल्यस्थ्यजिनं नरख कचमृतविकलत्रके कन्द । का और विशुद्ध परिणामोको मोक्षका कारण बताया है। अतएव जो
बीज मूल फले का कुण्डौ च मलाश्चतुर्दशान्नगता ॥३९॥ -जिनसे कि अन्न द्रव्यसे शुद्ध रहते हुये भी भावसे भी शुद्ध हो वही ग्रहण करना
ससक्त-स्पृष्ट होनेपर अन्नादिक आहार्य सामग्री साधुओको ग्रहण न चाहिये।
करनी चाहिए उनको मल कहते है। उनके चौदह भेद है। जिनके
नाम इस प्रकार है। -पीब-फोडे आदिमें हो जाने वाला कच्चा रुधिर ३. आहार व आहार कालका प्रमाण
तथा साधारण रुधिर, मास, हड्डी, चर्म, नख, केश मरा हुआ १ स्वस्थ साधुके आहारका प्रमाण
विकलत्रय, क्न्द सूरण आदि. जो उत्पन्न हो सकता है ऐसा गेहूँ मू आ. ४६१ अद्वमसणस्स सव्वि जणस्स उदरस्स तदियमुदयेण । वाऊ
आदि बीज, मूलो अदरख आदि मूल, बेर आदि फल, तथा कण-- स चरणट्ठ चउथमबसेस ये भिवरवु । ४६१- साधु उदरके चार भागो में
गेहूँ आदिका बाह्य खण्ड, ओर कुण्ड -शाली आदिके सूक्ष्म अभ्यन्तर से दो भाग तो ठयजन सहित भोजनसे भरे, तीसरा भाग जलसे परि
अवयव अथवा बाहरसे पक और भीतरसे अपकको कुण्ड कहते है। पूर्ण करे और चौथा भाग पत्रन के विचरण के लिए रवाली छोडे ।४६१। ३ सात विशेष दोष प्रसा./मू २२६ अपरिपूर्णोदरो यथालब्ध । ।२२६ । यथालन्ध तथा मू आ ८१२ उद्दसिय कीदयड अण्णाद सक्दि अभिहडं च । सत्तप्पपेट न भरे इतना भोजन दिन में एक बार करते है।
डिकुट्ठाणि य पडिसिद्ध त विवज्जे ति ।८१२। औद्देशिक, क्रोत२ साधुके आहार ग्रहण करनेके कालकी मर्यादा
तर, अज्ञात, शकित, अन्य स्थानसे आया सूत्रके विरुद्ध और सूत्रसे मू आ. ४६२. | तिगदुगएगमुहुत्ते जहण्णमज्झिम्मुक्कस्से । = भोजन
निषिद्ध ऐसे आहारको वे मुनि त्याग देते है ।८१२। कालमें तीन मुहूर्त लगना वह जघन्य आचरण है, दो मुहूर्त लगना
४ छियालीस दोषोके लक्षण वह मध्यम आचरण है, और एक मुहूर्त लगना वह उत्कृष्ट आचरण मू आ ४२७ ४४४ - उद्गम दोष : जलत दुल पक्खेवो दाणठ्ठ संजदाण है । (मू, आ. ३५) (अन, घ.६/१२)
सयपयणे। अझोवोझ णेय अहवा पाग तु जाव रोहो वा ।४२७१ ४. आहारके ४६ दोष
अप्पासुरण मिस्स पासुयदव्य तु पूदिकम्म तुं । चुलली उक्खलिदम्वी
भायणमंधत्ति पचविह ।४२८। पासंडेहि य सद्ध सागरेहि य जदण्ण१ छियालीस दोषोका नाम निर्देश
मुहिसियं। दादु मिदि सजदाण सिद्ध मिस्सं वियाणाहि ॥४२६॥ मू आ ४२१-४७७ उग्गम उप्पादन एसणं सजीजण पमाणं च । इगाल
पागादु भायणाआ अण्ण ह्मि य भायण रिपक्वविय । सघरे वा परघरे धूमकारण अट्ठबिहा पिडसुद्धो हु ।४२१। आधाकम्मुद्दसिय अज्झा
वा णिहिद ठविद बियाणाहि।४३०। जक्खयणागदीणं भलिसेस स वसोय पूदि मिस्से य । पामिच्छे वलि पाहुडिदे पादूकारे य कोदे य
बलि त्ति पण्णन । सजदआगमणट्ठ बलियम्म वा बलि जाणे ।४३१॥ 1४२२। पामिच्छे परिय?' अभिहइमच्छिण्ण माल आरोहे। आचिकज्जे पाहुडिहं दुविह बादर सुहम च दुविहमेक्केक । ओकस्सणमुक्कस्सणअणिसट्ठ उग्गदीसादु सेल सिमे।४२२।घादीदणि मित्ते आजीवे वणि मह कालोबट्टणावड्ढी।४३२। दिवसे परखे मासे वासे परत्तीय बादर वगे य तेगिछे। कोधी माणी मायी लोभी य हब ति दस एदे।४४५ दुविह । पुठ्य परमज्झवेल परियत्तं दुविह सुहुम च ।४३३। पादुक्कारो पुचीपच्छा सथुदि विजमते य चुण्ण जोगे य। उत्पादणा य दोसो दुविहो संकमण पयासणा य बोधब्बो। भायण भोयणादीण मडवसोलसमो मुलकम्मे य ४४६। सकिदमक्खिदपिहिदसंबवहरणदाय- बिरलादियं कमसो 1४२४। कीदयड पुण दुबह दव्वं भाव च सगपरं गुम्मिस्से। अपरिणदलित्तछोडिद एसणदोसाइ दस एदे ।६२ - दुविह । सच्चितादी दव्यं विज्जामतादि भाव च।४३५। लहरिय रिणं १. सामान्य दोष- उद्गम्, उत्पादन, अशन, सयोजन प्रमाण, अंगार तु भणिय पामिच्छे ओदणादि अण्ण दर । त पुण दुविह भणिदं सबया आगर और धूम कारण- इन आठ दोषो कर रहित, जो भोजन ड्ढियमवढियं चावि ।।१६। बीहीकूरादी हि य सालीकूगदियं तुज लेना वह आठ प्रकार की पिण्ड शुद्धि कही है। २ उदगम दोष- गहिदं । दातुमिति सजदा परियट्ट होदि णायव्य ।४३७१ देसत्तिय गृहस्थ के आश्रित जो चक्की आदि आरम्भ रूप कम वह अध कर्म है सव्वत्तिय दुबित पुण अभिहड बियाणाहि। आचिण्णमणाचिणं उसका तो सामान्य रीतिसे साधुको त्याग ही होता है । तथा उपरोक्त देसाविहडं हवे दुत्रिह ।४३८। उज्जु त्तिहि सत्तहि वा धरेहि जदि मूल आठ दोषोमे-से उद्गम दोष के सोलह भेद कहते है -औद्देशिक आगदं दुआचिण्ण। परदो वा तेहि भवे ताब्वबरीद अणाचिण्णं
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II. आहार (साधुचर्या)
४३ सव्त्राभिघड चदुधा सयपरगामे सदेस परदेसे । पुत्रपरपाडणयह पढम सेस पि णादव्व ॥ ४४० | पिहिद ल छिदय वा ओसहर्षिदसक्करादि ज दव्त्र । उब्भिण्णिऊण देय उब्भिण्णं होदि गाद ॥४४१ | द्विवीहि मिहिर वादिमं तु विन मासारोह का देय मातारोहण गाम ४४२ राजाचोराहीहि संभवसम तु द बोहेदू होदि४४३ सिट्ठ पूरा दुहि एक्सरस निस्सर पदुनियप्यं पढभिरकर साम्प वत्तावत्तच सघाडं | ४४४ |
अंधादी
मु.आ.४४०४६९ सोलह उत्पादन दोषमज्जनमधारी सेमीर। पचविधघादिक्म्मेणुप्पादो धादिद सो दु |४४७१ जलथल आयासगद सयपरगामे सदेसपरदेसे संबंधिवयणणयण दोसो नदिएस४४ जण सरंग्गिं शुनं अस रिक्खं च । लक्खण सुविणं च तहा अठ्ठाविह होह मित्तं १४४६| जादी कुलं च सिप्प तवकम्मं ईसरत आजीवं । तेहि पुण उप्पादो आजीव दोसो हवदि एसी ।४५०१ साणकिविणतिधिमाहणपास डियगदाणादी पुरुष गमेति पु है पुण्योति वशन्तं वय १४५११ को मारमारसायन विसदस्यारतं च सास किये दो हो कोण य माषेण यनायालोभेण चावि उप्पादो । उष्णदणा य दोसो चदुत्रिहो होदि णायव्वो १४६३ दागपुर किसी से मरीजो मेति पृथ्वीसंदि दोसो विस्सरिदं बोधण चावि ।४५५ । पच्छासथुदिदोसो दाण गहिदून तं पुश किति दिन तुम जो विद सिद्धा तिस्से आसावदकरहि तस्से माहामेण व विजादोसो उप्पादोसि पढि मते तस्स य आसापदाणकरणेण । तस्स य माहप्पेण य उप्पादो मंतदोसो दु १४७८| आहारदायगाणं बिज्जाम तेहि देवदाण तु । आहुय साधिदव्वा मिंटो हवे दोसो ४५६ | तर सरपंच ग सोभयर । चुण्णं तेणुष्पदो चुण्णयदोसो हवदि एसो |४६०| अवसाण वसियसणं संजोजयण च विष्पजुत्ताण । भणिदं तु मूलकम्म एदे उप्पादणा दोसा ४६१।
मू. आ ४६३-४७५ १० अशन दोष' - असणं च पाणयं वा खादियमध सादिय च अप्पे । कप्पियमकप्पियत्ति य संदिद्ध सकियं जाणे । |४६३॥ ससिद्धि ण य देयं हृत्येण य भायणेण दब्बीए। एसो मक्खिददोस्रो परिहरयो सदा मुनिमा ४६४ सचितपुढ विजकतेकड़रिये चबीयतसजीवा । ज तेसिमुवरि हठविदं णि विखन्तं होदि छम्भेयं । २४६॥ सचिव विहियं अपना अगुिरुपिदिडिय
देयं विहितं हीदि हरण किया पदादुमिदि पेस भायणादीनं असमिक्स्मय देयं समवहरणो हवदि दोसो ४६ सदी डी रोगीमदयमय विसायणग्गो व उबारपदि
हिरवेसी समणी अगमक्खिया ॥४६८ । अतिबाला अतिबुड्ढा घासन्ती गब्भिणी य अधलिय । अतरिदाव विसण्णा उच्चत्था अहव णीचा |४६६ । पूयण पज्जलन वा सारण पच्छादण च विज्भवण । किच्चा तहग्गिकज्ज णिव्वाद घट्टण चावि । ४७०| लेवणमज्जणकम्म पियमाण दारयं च णिक्खिविय। एव विहादिया पुन दाणं जदि दिति दायगा दोसा | ४७१ । पुढवी आऊ य तहा हरिदा वीया तसा
सज्जीवा । पचेहि तेहि मिस्स आहार होदि उम्मिस्सं |४७२ | तिलत डुलउस श्रोदय चणोदय तुसोदयं अविघुत्थ । अण्ण तहाविहं वा अपरिणदं णेव गेहिजो | ४७३ | गेरुय हरिदालेण व सेडीय मणोसिलाम पिट्ठे । सपत्रालोदणलेवेण व देयं करभायणे लित्त | ४७४ | बहुपरिखामुनि आहारो परिगल दिज्मत छडिय भुजण महवा छो
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मू. आ. ४०६-४७७ संयोजना आदि ४ दोष-संयोजणा य दोसो जो एदि भत्ता तु । अदिमत्तो आहारो पमाणदोसो हवदि एसो
सज.
४. आहारके ४६ दोष ४०६ होदिसाहारेदिदि सती तंग होषि समंज हारेदि निदियो 12000
१ अ. कर्मादि १६ उद्गम दोष -
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१ अध कर्मदोष दे अध' कर्म । २. अध्यधि दोष-संयमी साधुको आता देख उनको देने के लिए अपने निमित्त चूल्हेपर रखे हुए जल और चावलो में और अधिक जल और चावल मिलाकर फिर पकाये। अथवा जब तक भोजन तैय्यार न हो, तब तक धर्म प्रश्न के बहाने साधुको रोक रखे. वह अध्यधि दोष है। ३ प्रतिदोष- प्राक आहारादिक वस्तु सचित्तादि वस्तुसे मिश्रित हो वह पूति दोष है। प्राक द्रव्य भी पूतिकर्म से मिला पूतिकर्म कहलाता है। उसके भेद है चुनही (हा) ओखती बड़ी पकाने वासन तथा गन्ध युक्त द्रव्य । इन पाँचों में संकल्प करना कि इन चूलि आदि से पका भोजन जब तक साधुकोन दे दे तब तक अन्य किसीको नही देंगे । ये ही पाँच आरम्भ दोष है जो पूति दोषमें गर्भित है। १४२८१४ मिदोष प्राशुक तैयार हुआ भोजन अन्य भेषधारियों के साथ तथा गृहस्थो के साथ सयमी साधुओ को देनेका उद्देश्य करे तो मिश्र दोष जानना ॥४२६ ॥ ५स्थापित दोष- जिस बासनमें पकाया था उससे दूसरे भाजनमें पके भोजनको रखकर अपने घर में तथा दूसरे के घर में जाकर उस अन्नको रख दे उसे स्थापित दोष जानना ॥ ४३० ॥ ६ बलिदोष-यक्ष नागादि देवताओके लिए जो [पूजन किया हो उससे शेष रहा भोजन कलिदोष सहित है। अथवा संयमियोके आगमन के लिए जो बलिकर्म (सावद्य पूजन ) करे वहाँ भी बलिदोष जानना ॥ ४३१॥ ७ प्राभृतदोष-प्राभृत दोषके दो भेद है - बादर और सूक्ष्म । इन दोनोके भी दो-दो भेद है-और उत्कर्षण। काकी हानिका नाम अकर्षण है, और कालको वृद्धिको उत्कर्षण कहते है । ४३२ | दिन, पक्ष, महीना वर्ष इनको बदल कर जो आहार दान देना वह बादर प्राभृत दोष है । वह बादर दोष उत्कर्षण व अपकर्षण करनेसे दो प्रकारका है। सूक्ष्म प्रावतित दोष भी दो प्रकारका है। पूर्वाह्न समय व अपराह्न समयको पलटने से कालको बढाना घटाना रूप है || ४३३॥ ८ प्रादुष्कार दोषप्रादुष्कार दोषके दो भेद है- सक्रमण और प्रकाशन । साधुके आ जानेपर भोजन भाजन आदिको एक स्थानसे दूसरे स्थानपर लेजाना सक्रमण है और भाजनको माजना या दीपकका प्रकाश करना अथवा मण्डपका उद्योतन करना आदि प्रकाशन दोष है ॥ ४३४ ॥ ६ क्रीत दोष-क्रीततर दोषके दो भेद है- द्रव्य और भाव । हर एक्के पुन' दो भेद हैब पर सम्मी भिक्षार्थ प्रवेश करनेपर गाय बादि देकर बदले में भोजन लेकर साधुको देना द्रव्य की है। प्रति आदि विद्या या चेटकादि मन्त्रो के बदले में आहार लेके साधुको देना भावक्रीत दोष है [४] १० प्रामुष्य दोष साधुओं को आहार करानेके लिए दूसरे उधार भात आदिक भोजन सामग्री लाकर देना प्रामृष्य दोष है । उसके दो भेद है-समृद्धि और अवृद्धिक 1 सवृद्धिक है। जितना कर्ज लिया उतना हो देना अवृद्धिक है ॥ ४३६ ॥ ११ परिवर्त दोष सामुखीको आहार देने लिए अपने साठीके चावल आदिक देकर दूसरे से बढिया चावलादिक लेकर साधुको आहार दे वह परिवर्त दोष जानना ॥ ४६७ ॥ १२ अभिघट दोष- अभिघट दोष के दो भेद है - एक देश और सर्वदेश | उसमे भी देशाभिघटके दो भेद है - आचिन्न और अनाचिन्न । पत्क्तिबद्ध सीधे तीन अथवा सात घरोंसे आया योग्य भाजन आचिन्न अर्थात ग्रहण करने योग्य हैं। और तितर बितर किन्ही सात घरोसे आया अथवा पक्तिबद्ध आठवाँ आदि परोसे आया हुआ भोजन बनाचिन्न है अर्थात ग्रहण करने योग्य नही है ॥४३६ ॥ सर्वाभिघट दोष के चार भेद है- स्वग्राम, परग्राम स्वदेश और परदेश पूर्यादि दिशा के मोह से पश्चिमादि दिशा के मोहल्ले में भोजन ले जाना स्वग्रामाभिघट दोष है । इसी तरह
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II. आहार (साधुचर्या)
४. आहारके ४६ दोष
शेष तीन भी जान लेने। इसमे ईर्यापथका दोष आता है ॥४४०॥ १३. उद्भिन्न दोष-मिट्टी लाख आदिसे ढका हुआ अथवा नामकी मोहर कर चिह्नित जो औषध घी या शकर आदि द्रव्य है अर्थात सील बन्द पदार्थो को उघाडकर या खोलकर देना उद्भिन्न दोष है। इसमे चीटी आदिके प्रवेशका दोष लगता है ॥४४१॥ १४ मातारोहण दोष-काष्ठ आदिकी बनी हुई सीढी अथवा पैडीसे घरके ऊपर के खनपर चढकर वहाँ रखे हुए पूवा लड्डु, आदि अन्नको लाकर साधुको देना मालारोहण दोष है। इसमें दाताको विप्न होता है ॥४४२॥ १५ आछेद्य दोष-संयमी साधुओके भिधाके परिश्रमको देख राजा, चौर आदि गृहस्थियोको ऐसा डर दिखाकर ऐसा कहे कि यदि तुम इन साधुओंको भिक्षा नही दोगे तो हम तुम्हारा द्रव्य छीन लेगे ऐसा डर दिखाकर दिया गया आहार वह आछेद्य दोष है ॥४४३॥ १६. अनिसृष्ट दोष-अनीशार्थ के दो भेद है- ईश्वर और अनीश्वर दोनोके भी मिलाकर चार भेद है। पहला भेद ईश्वर सारक्ष तथा ईश्वरके तीन भेद व्यक्त, अव्यक्त व सघाट । दानका स्वामी देने की इच्छा करे और मन्त्री आदि मना करे तो दिया हुआ भोजन भी अनीशार्थ है। स्वामीसे अन्य जनोका निषेध क्यिा अनीश्वर वहलाता है। वह व्यक्त अर्थात वृद्ध, अव्यक्त अर्थात् बाल और सङ्घाट अर्थात दोनोंके भेदसे तीन प्रकारका है ४४४॥ (चा सा, ६९/२) (अन.ध.५/५-६)
२. धात्री आदि १६ उत्पादन दोष १ धात्री दोष - पोषन करे वह धाय कहलाती है। बह पाँच प्रकार की
होती है--गन करानेवाली, आभूएण पहनानेवाली मञ्चोको रमानेवाली, दूध पिलानेवाली तथा मातावत अपने पास सुलानेवाली। इन का उपदेश करके जो साधु भोजन ले तो धात्री दोष युक्त होता है। इससे स्वाध्यायका नाश होता है तथा साधु मार्ग मे दूषण लगता है ।४४७। २. दूत दोष---कोई साधु अपने ग्रामसे व अपने देशसे दूसरे ग्राममें व दूसरे देश में जलके मार्ग नाव में बैठकर व स्थलमार्ग व
आकाशमार्गसे होकर जाय । वहाँ पहुँचकर किसीके सन्देशको उसके सम्बन्धीसे कह दे, फिर भोजन ले ता वह दूत दोष युक्त होता है।४४८॥ ३. निमित्त दोष-निमित्त ज्ञानके आठ भेद है-मसा, तिल आदि व्यञ्जन, मस्तक आदि अङ्ग, शब्द रूप स्वर, वस्त्रादिक्का छेद वा तलवारादिका प्रहार, भूमिविभाग, सूर्यादि ग्रहोका उदय अस्त होना, पद्म चक्रादि लक्षण और स्वप्न । इन अष्टाग निमित्तोसे शुभाशुभ कहकर भोजन-लेनेसे साधु निमित्त दोष युक्त होता है।४४६। ४. आजीव दोष- जाति, कुल, चित्रादि शिल्प तपश्चरणको क्रिया आदि द्वारा अपनेको महान प्रगट करने रूप वचन गृहस्थोको कहकर आहार लेना आजीव दोष है। इसमें बलहीनपना व दीनपनाका दोष आता है।४५०। ५ बनीपक दोष-कोई दाता ऐसे पूछे कि कुत्ता, कृपण, भिरवारी, असदाचारी, ब्राह्मण, भेषी साधु तथा त्रिदण्डी आदि साधु और कौआ इनको आहारादि देनेमें पुण्य होता है या नही । तो उसकी रुचिके अनुकूल ऐसा कहा कि पुण्य ही होता है। फिर भोजन करे तो बनीपक दोष युक्त होता है। इसमे दीनता प्रगट होती है ।४५१। ६ चिकित्सा दोष--चिकित्सा शास्त्रके आठ भेद है बालचिकित्सा, शरीरचिकित्सा, रसायन, विषतन्त्र, भूततंत्र, क्षारतन्त्र, शलाका क्रिया, शल्यचिकित्सा । इनका उपदेश देकर आहार लेनेसे चिकित्सा दोष होता है ।४५२। ७-१०. क्रोधी, मानी, मायी लोभी दोष---क्रोधसे भिक्षा लेना,मानसे आहार लेना, मायासे आहार लेना, लोभमे आहार लेना, इस प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ रूप उत्पादन दोष होता है ।४५३१ ११ पूर्व स्तुति दोष--दातारक आगे'तुम दानपति हो, यशोधर हो, तुम्हारी कीर्ति लोक प्रसिद्ध है' इस प्रकार के वचनो द्वारा उसकी प्रमशा करके आहार लेना, अथवा दातार यदि भूल गया हो तो उसे याद दिलाया कि पहले तो तुम बडे दानी थे,
अब कैसे भूल गये, इस प्रकार प्रशसा करके आहार लेना पूर्व स्तुति दोष है ।४५५ १२ पश्चात स्तुति दोष--आहार लेकर पीछे जो साधु दाताकी प्रशंसा करे कि तुम प्रसिद्ध दानपत्ति हो, तुम्हारा यश प्रसिद्ध है, ऐसा कहनेसे पश्चात स्तुति दोष लगता है।४५६। १३ विद्या दोष--जो साधने से सिद्ध हो वह विद्या है, उस विद्याकी आशा देनेसे कि हम तुमको विद्या देगे तथा उस विद्याकी महिमा वर्णन करनेसे जो आहार ले उस साधुके विद्या दोष आता है ।४५७१ १४ मन्त्र दोष--पढने मात्रसे जो मन्त्र सिद्ध हो वह पठित सिद्ध मन्त्र होता है, उस मन्त्रकी आशा देकर और उसकी महिमा कहकर जो साधु आहार ग्रहण करता है उसके मन्त्र दोष होता है।४४८। आहार देनेवाले व्यन्तरादि देवोको विद्या तथा मन्त्रसे बुलाकर साधन करे वह विद्या मन्त्र दोष है। अथवा आहार देनेवाले गृहस्थों के देवताको बुलाकर साधना वह भी विद्या मन्त्र दोष है।४५॥ १५. चूर्ण दोष--नेत्रोंका अजन,भूषण साफ करनेका चूर्ण,शरीरकी शोभा बढानेवाला चूर्ण--इन चूर्णाकी विधि बतलाकर आहार ले यहाँ चूर्ण दोष होता है ।४६०। १६ मून कर्म दोष-जो वशमें नही है उनको वशमें करना, जो खी पुरुष वियुक्त है उनका सयोग कराना-ऐसे मन्त्र-तन्त्र आदि उपाय बतलाकर गृहस्थोसे आहार लेना मूलकर्म दोष है। (चा.सा ७१/१),(अन ध १/२०-२७) ३. शङ्कितादि १० अशन दोष १.शङ्कित दोष-अशन, पान, खाद्य व स्वाद्य यह चार प्रकार भोजन
आगमानुसार मेरे लेने योग्य है अथवा नही ऐसे सन्देह सहित आहार को लेना शक्ति दोष है । ३६३।२ मृक्षित दोष-चिक्ने हाथ व पात्र तथा कडछीसे भात आदि भोजन देना मृक्षित दोष है। उसका सदा त्याग करे।४६॥ ३ निक्षिप्त दोष-अप्रामुक सचित्त पृथिवी, जल, तेज, हरितकाय, बीजकाय, प्रसकाय, जीवो के ऊपर रखा हुआ आहार इस प्रकार छह भेद वाला निक्षिप्त दोष है ।४६५॥ ४ पिहित दोषजोआहार अप्रासुक वस्तुसे ढका हो, उसे उधाड कर दिये गये आहार को लेना पिहित दोष है।४६६५ संव्यवहरण दोष--भोजनादिका देन-लेन शीघ्रतासे करते हुए, बिना देखे भोजन-पान दे तो उसको लेनेमें संव्यवहरण दोष होता है ।४६७६ दायक दोष-जो स्त्रीबालकका शृङ्गार कर रही हो, मदिरा पीनेमे लम्पट हो, रोगी हो, मुरदेको जलाकर आया हो, न पुष्सक हो, आयु आदिसे पीडित हो, वस्त्रादि ओढे हुए न हो, मूत्रादि करके आया हो, मू से गिर पडा हो, वमन करके आया हो, लोहू सहित हो, दास या दासी हो, अजिंका रक्तपटिका आदि हो, अंगको मर्दन करने वाली हो,-इन सबोके हाथ से मुनि आहार न ले ।४६८ अति बालक हो, अधिक बूढी हो, भोजन करती जूठे मुह हो, पाँच महीना आदिके गर्भसे युक्त हो, अन्धी हो, भोत आदिके ऑतरेमे या सहारेसे बैठी हो ऊंची जगहपर बैठी हो, नीची जगह पर बैठी हो ।४६६। मुँहसे फूककर अग्नि जलाना, काठ आदि डालकर आग जलाना, काठको जलाने के लिए सरकाना, राखसे अग्निको ढंकना, जलादिसे अग्निका बुझाना, तथा अन्य भी अग्निको निर्वातन व घट्टन आदि करने रूप कार्य करते हुए भोजन देना४७०१ गोबर आदिसे भीतिका लीपना,स्नानादि क्रिया करना, दूध पीते बालकको छोडकर आहार देना, इत्यादि क्रियाओसे युक्त होते हुए आहार दे तो दायक दोष जानना ।४७१। ७ उन्मिश्र दोष-मिट्टी, अप्रासुक जल, पान-फूल, फल आदि हरी, जौ, गेहूँ आदि बीज, द्वीन्द्रियादिक अस जीव-इन पाँचोसे मिला हुआ आहार देनेसे उन्मिश्र दोष होता है ।४७२। ८ अपरिणत दोषतिल के धोनेका जल, चावलका जल, गरम होके ठण्ढा हुआ जल, तुषका जल, हरण चूरण आदि कर भी परिणित न हुआ जल हो वह नहीं ग्रहण करना। ग्रहण करनेसे अपरिणत दोष आता है ।४७३। ६. लिप्त दोष-गेरू, हरताल, खडिया, मैनशिल,चावल आदिका चून,
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II. आहार ( साधुचर्या)
कच्चा शाक- इनसे लिप्त हाथ तथा पात्र अथवा अप्रामुक जलसे भींगा हाथ तथा पात्र इन दोनोसे भोजन दे तो लिप्त दोष आता है । ४७४ | १०. रक्त दोष बहुत भोजनको थोडा भोजन करे अर्थात् जूठ छोडना या बहुत-सा भोजन कर पात्रमें से नीचे गिराता भोजन करे छाछ आदि करते हुए हाथ से भोजन करेअथवा किसी एक आहारको (अशन, पान, खाद्य स्वाद्यादिमें से किसी एकको) छोड़कर भोजन करे तो व्यक्त दोष आता है । ४५७ | ( चा सा, ७२ /१), (अन ध, ५/२६-३६)
४. संयोजनादि ४ दोष
१ सयोजना दोष- जो ठण्डा भोजन गर्म जलसे मिलाना अथवा ठण्डा जल गर्म भोजनसे मिलाना, सो संयोजना दोष है । ४७६ । २ प्रमाण दोष - मात्र से अधिक भोजन करना प्रमाण दोष है | ४७६ । ३ अङ्गार दोष—जो मूच्छित हुआ अति तृष्णासे आहार ग्रहण करता है उसके अङ्गार दोष होता है । ४ धूम दोष जो निन्दा अर्थात् ग्लानि करता हुआ भोजन करता है उसके धूम दोष होता है ।४७७ ( चा सा ७२ / ४) (अन ध ५/३७)
५. दातार सम्बन्धी विचार
२९२
१ दातारके गुण व दोष
रावा ७/३६/४/५५६/२६ प्रतिग्रहीतरि अनसूया त्यागेऽविषाद' दित्सतो इदो दन्तश्च प्रीतियोग कुशलाभिसन्धिता फलानपेक्षिता निरुपरोपलमनिशनस्यमित्येवमादिविषयसेय पात्रमें ई न होना, त्यागमें विषाद न होना, देनेकी इच्छा करने वालेमे तथा देने वालोंमें या जिसने दान दिया है सबमें प्रीति होना, कुशल अभिप्राय, प्रत्यक्ष फलको आकाक्षा न करना, निदान नहीं करना, किसीसे विसंवाद नहीं करना आदि दाताकी विशेषता है। (स.सि. 0/28/402/6)
म.पु २० / ०२-८५ श्रद्धा शक्ति भक्तिश्च विज्ञानान्ता क्षमा त्यागश्च सप्तैते प्रोक्ता दानपतेर्गुणा ॥८॥ श्रद्धास्तिक्यमनास्ति ये प्रदाने स्यादनादर । भवेच्छक्तिरनालस्य भक्ति स्यात्तद्गुणादर ॥ ८६ ॥ विज्ञानं स्यात् क्रमशस्त्र देवास तिरसमातितिक्षा ददतस्याग सतयशीलता ॥ ८४॥ इति सप्तगुणोपेतो दाता स्यात् पात्रसंपदि । क्यपेतश्च निदानादे. दोषान्निश्रेयसोद्यत ॥१८५॥ श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अक्षुब्धता, क्षमा और त्याग ये दानपति अर्थात् दान देने बालेके सात गुण कहलाते है ॥ ८२ ॥ श्रद्धा आस्तिक्य बुद्धिको कहते है, आस्तिक्य बुद्धि अर्थात् श्रद्धा के न होनेपर दान देनेमें अनादर हो सकता है। दान देने में आलस्य नहीं करना सो शक्ति नामका गुण है. पात्रके गुणोंमें आदर करना सो भक्ति नामका गुण है ॥८३॥ दान देने आदिके क्रमका ज्ञान होना सो विज्ञान नामका गुण है, दान देनेकी आतिको अनुपता कहते है, सहनशीलता होना क्षमा गुण है और उत्तम द्रव्य दानमें देना सो त्याग है ॥ ८४ ॥ इस प्रकार जो दाता ऊपर कहे सात गुणो सहित है और निदानादि दासे रहित होकर पात्ररूपी सम्पदा में दान देता है वह मोक्ष प्राप्त करनेके लिए तत्पर होता है
गुणमा १५१ चा भक्तिरच विज्ञान पुष्टि शक्तिरता क्षमा च यत्र सप्त ते गुणा दाता प्रशस्यते ॥१३१॥ - श्रद्धा, भक्ति, विज्ञान, सन्तोष, शक्ति, अलुब्धता और क्षमा ये सात गुण जिसमें पाये जाये, वह दातार प्रशसनीय है।
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पु. सि. १६६ ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानसूयत्वम् । अविषादित्वमुदिरले निरहङ्कारिश्वमिति हि दातृगुणा ॥ १६६ ॥ - इस लोक सम्बन्धी फलको अपेक्षारहित, क्षमा, निष्कपटता, परिहिता अखिन्नमान, हर्षभाव और निरभिमानता इस प्रकार ये सात निश्चय करके दाताके गुण है ।
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६. भोजन ग्रहण के कारण व प्रयोजन
चासा २६/६ मे उद्भुत "श्रद्धा शक्तिरलुब्धत्वं भक्तिर्ज्ञानं दया क्षमा । इति श्रद्धादय सप्त गुणा स्युर्गृहमेधिनाम् ॥ द्धा, भक्ति, निर्लोभता, भक्ति, ज्ञान, दया और क्षमा आदि सात दान देने वाले गृहस्थो के गुण है । (वसु श्रा १५१ )
साध.५/४० भक्तिश्रद्धास स्वतुष्टि ज्ञानासो व्यक्षमागुण नवकोटिविशुद्धस्य दाता दानस्य य पति ॥४७॥ भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, तुष्टि, ज्ञान, अलौग्य और क्षमा इनके साथ असाधारण गुण सहित जो श्रावक मन, वचन, काय तथा कृत, कारित और अनुमोदना इन नौ कोटियों के द्वारा विशुद्ध दानका अर्थात् देने योग्य द्रव्यका स्वामी होता है। वह दाता कहलाता # 1
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२. दान देने योग्य अवस्थाएँ विशेष
भ. आ / बि १२०६ / १२०४ / १७ स्तनं प्रयच्छन्त्या, गर्भिण्या वा दीयमानं न गृह्णीयात्। रोगिणा, अतिवृद्धेन, बालेनोन्मसेन, पिशाचेन, नासून दुर्बलेन भीतेन शङ्किन, अत्यासम्लेन, अरे राज्जाव्यावृतमुख्या मुख्य उपामदुपरिन्यस्तपादेन वा दीयमानं न गृह्णीयाद खण्डेन भिन्नेन वा नदीयमान वा -जो अपने बालकको स्तन पान करा रही हैं और जो गर्भिणी है। ऐसी स्त्रियोंका दिया हुआ आहार न लेना चाहिए । रागी अतिशय वृद्ध, बालक, उन्मत्त, अधा, गूंगा, अशक्त, भययुक्त, शकायुक्त, अतिशय नजदीक जो खड़ा हुआ है, जो दूर खड़ा हुआ है ऐसे पुरुषसे आहार नहीं लेना चाहिए। लज्जासे जिसने अपना मुँह फेर लिया है, जिसने जूता अथवा चप्पल पर पाँव रखा है, जो ऊँची जगह पर खडा हुआ है, ऐसे मनुष्यका दिया हुआ आहार नही लेना चाहिए । टूटी हुई अथवा खण्डयुक्त हुई ऐसी वडछीके द्वारा दिया हुआ नहीं लेना चाहिए। ( अन ध ५ / ३४ में उद्धृत ) ( और भी विशेष - दे. आहार 11 ४ / ३ में दायक दोष )
६. भोजन ग्रहणके कारण व प्रयोजन
१. संयम रक्षार्थ करते हैं शरीर रक्षार्थ नही आ४८१.४८२ बलाउसाअ ण शरीरस्य तेज फाड संजम का २४८१
धर्म
•
समभुजे १४८३२ साधु यसके लिए आयु बढाने लिए, स्वाद के लिए, शरीरके पुष्ट हानेके लिए शरीर के तेज बढ़ने के लिए भोजन नहीं करते । किन्तु वे ज्ञान (स्वाध्याय) के लिए, सयम पालने के लिए, ध्यान होनेके लिए भोजन करते है | ४८११- प्राणो के धारण के लिए हो अथवा मोक्षसाधने के लिए हो, और चौदह मलो से रहित हो ऐसा भोजन साधु करे । ४८३
रसा ११३ भुजे जहालाहं लहेइ जड़ णाणस जमणिमित्तं । झाणज्झयणनिमित्तं अणियारो मोवखमग्गरओ । ११३ | मुनि केवल सयम और ज्ञानकी वृद्धिके लिए तथा ध्यान और अध्ययन करनेके लिएजो मिल गया शुद्ध भोजन, उसको ग्रहण करते है वे मुनि अवश्य ही मोक्ष मार्ग में लीन रहते है ।
अनघ ५ / ६९ क्षुच्छम सयम स्वान्यवैयावृत्त्यमुस्थितिम् । वाञ्छन्नावयश्कं ज्ञानध्यानादीश्चाहरेन्मुनि | ६१ = क्षुधा बाधाका उपशमन, सयमकी सिद्धि और स्म परकीयावृश्य आपत्तिया मतिकार करने के लिए तथा प्राणोकी स्थिति बनाये रखनेके लिये एवं आवश्यको और ध्यानाध्ययनादिकोको निर्विघ्न चलते रहने के लिए मुनियोको आहार ग्रहण करना चाहिए। और भी-दे नीचे मू.
आ. ४७६ ।
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२६ रीरके रक्षणार्य भी कचित् ग्रहण
मू. आ. ४७६ वेयण वेजावच्चे किरिया ठाणे या संयमट्टाए । तध पाण धम्मचिता कुज्जा एदेहि आह र ४७६ = क्षुधाकी वेदनाके उपशमार्थ,
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II. आहार (साधुचर्या)
वेयावृत्य करने के लिए, छह आवश्यक क्रियाके अर्थ, तेरह प्रकार चारित्रके लिए, प्राण रक्षाके लिए, उत्तम क्षमादि धर्म के पालनके लिए भोजन करना चाहिए। और भी दे ऊपर-(अन ध ५/६१) र,सा, ११६ वहुदुक्खभायणं कम्मकारणं भिण्णमप्पणो देहो। त देह धम्माणुट्ठाण कारणं चेदि पोसए भिक्खू ।११६ - यह शरीर दुखोका पात्र है कर्म आनेका कारण है और आत्मासे सर्वथा भिन्न है । ऐसे शरीरको मुनिराज कभी पोषण नहीं करते हैं, किन्तु यही शरीर धर्मानुष्ठानका कारण है, यही समझकर इस शरीरसे धर्म सेवन करने के लिए और मोक्षमें पहुँचनेके लिए मुनिराज इसको थोडा
सा आहार देते है। प पु.४/१७ । भुञ्जते प्राणधृत्यर्थ प्राणा धर्मस्य हेतब ७१। - (मुनि) भोजन प्राणो की रक्षाके लिए ही करते है, क्योकि प्राण धर्मके कारण है। ३ शरीरके उपचारार्थ औषध आदिकी भी इच्छा नही म् आ. ८३६-८४० उप्पण्णम्मि य वाही सिरयण कुविखवेयण चेव । अधियासिति सुधिदिया कार्यातगिछ ण इच्छति ।४३६। ण य दुम्मणा ण विहला अणाउला होति चेय सप्पुरिसो । णिप्पडियम्मसरोरा देति उर वाहिरोगाण ८४०1 = ज्वररोगादिक उत्पन्न होने पर भी तया मस्तकमें पीडा हाने पर भी चारित्रमे दृढ परिणाम वाले वे मुनि पीडाको सहन कर लेते हैं परन्तु शरीरका इलाज करने की इच्छा नहीं रखते।३१। वे सत्पुरुष रोगादिकके आने पर भी मन में खेद खिन्न नही होते, न विचार शून्य होते है, न आकुल हाते है किन्तु शरीर में प्रतिकार रहित हुए व्याधि रोगो के लिए हृदय दे देते है । अर्थात् सबको सहते है ।
४ शरीर व संयमार्थ ग्रहणका समन्वय मू. आ.८१५ अक्रवोमनरवणमेत्त भुजति मुणी पाणधारणणिमित्त । पाण धम्मणिमित्तं धम्मपि चरंति मोक्ख ८१५ । = गाडी के धुरा चुपरने के समान, प्राणोके धारण के निमित्त वे मुनि आहार लेते है, प्राणोको धारण करना धर्म के निमित्त है और धर्मको मोक्षके निमित्त पालते
अन.ध ७/६ शरीरमाद्य किल धर्म साधनं तदस्य यस्येव स्थितयेऽशमादिना। तथा यथाक्षाणि बशे स्युरुत्पथ, न वानुधावन्त्यनुमन्तृड. वशाव -जिससे धर्म का साधन हो सकता है, उस शरीरकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए इस शिक्षाको आप्त भगवान् के उपदिष्ट प्रवचनका तुष-छिलका समझना चाहिए, क्योकि आत्म-सिद्धि के लिए शरीर रक्षाका प्रयत्न निरुपयोगी है ।१४० शरीरके बिना तप तथा और भी ऐसे ही धोका साधन नहीं हो सकता। अतएव आगममें ऐसा कहा है कि रत्नत्रय रूप धर्मका आद्य साधन शरीर है। इसीलिये साधुओं को भी भाजन पान शयन आदि के द्वारा इसके स्थिर रखनेका प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु इस बातको लक्ष्य में रखना चाहिए कि भोजनादिमें प्रवत्ति ऐसीव उतनी हो हो जिससे कि इन्द्रियाँ अपने अधीन बनी रहे। ऐसा नहीं होना चाहिए कि अनादिकालकी वासनाके वशवर्ती होकर वे उन्मार्गकी तरफ भी दौडने लगे । आहारक-जीव हर अवस्थामै निरन्तर नोकर्माहार ग्रहण करता रहता है इसलिए भले हो कवलाहार करे अथवा न करे वह आहारक कहलाता है। जन्म धारण के प्रथम क्षणसे हा वह आहारक हो जाता है। परन्तु विग्रहगति व केवली समुद्धातमें वह उस आहारको ग्रहण न करने के कारण अनाहारक कहलाता है। इसके अतिरिक्त किन्ही बडे ऋषियों को एक ऋद्ध प्रगट हो जाती है, जिसके प्रताप से वह इन्द्रियागोचर एक विशेष प्रकारका शरीर धारण करके इस पंच भौतिक शरीरसे बाहर निकल जाते हैं, और जहाँ कही भी अन्त भगवाद स्थित हों वहाँ तक शीघतासे जाकर उनका स्पर्श कर शीघ लौट आते है, पुन' पूर्व यत् शरीरमे प्रवेश कर जाते हैं, ऐसे शरीरको आहारक शरीर कहते है । यद्यपि इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जाता पर विशेष योगियोंको ज्ञान द्वारा इसका वर्ण धवल दिखाई देता है । इस प्रकार आहारक शरीर धारक का शरीरसे बाहर निकलना आहारक समुद्धात कहलाता है। नोकर्माहारके ग्रहण करते रहने के कारण इसकी आहारक सज्ञा है।
प्रसा/त प्र.२३० बालवृतान्तग्लानेन स यमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनरवेन
मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा स यतस्। स्वस्य योग्यमतिकर्कशमाचरणमाचरता शरीरस्य शुद्वात्मतत्वसाधनभूत स ययसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात् तथा बाल वृद्धश्रान्त ग्लानस्य स्वस्य योग्यं मृदायाचरणमाचरणीयमित्यापवादसापेक्ष उत्सर्ग | बाल वृद्ध-श्रान्त-ग्लान के संयमका जो कि शद्धात्म तत्त्व का साधनभूत होनेसे मूलभूत है उसका छेद जैसे न हो उस प्रकारका संयत ऐसा अपने योग्य अतिकठोर आचरण आचरते हुए (उसके) शरीरका - जोकि शुद्वात्मतत्त्वके साधनभूत संयमका साधन होनेसे मुलभूत है उसका (भी) छेद जैसे न हो उस प्रकार बाल-वृनश्रान्त ग्लानके (अपने) याग्य मृदु आचरण भी आचरना। इस प्रकार अवाद सापेक्ष उत्सर्ग है। अ॥ ११५-१७ अमो प्ररूढ राग्यास्तनुमप्यनुपाल्य यत। तपस्यन्ति चिरं तद्धि ज्ञात ज्ञानस्य वेभवम् ।११६। क्षणार्धमपि देहेन साहचर्य सहेत क' । यदि प्रकोष्ठमादाय न स्याद्बोधो निरोधक ११७॥ --जिनके हृदयमे विरक्ति उत्पन्न हुई है. वे शरीरकी रक्षा करके जो चिरकाल तक तपश्चरण करते है, वह निश्चयसे ज्ञानका ही प्रभाव है ऐसा प्रतीत होता है ।११६। यदि ज्ञान पौचे (हथेलीके ऊपरका भाग) को ग्रहण करके रोकने वाला न होता तो कौन सा विवेकी जीव उस शरीरके साथ आधे क्षणके लिए भी रहना सहन करता ! अर्थात नहीं करता। अन.ध ४/१४० शरीर धर्मसयुक्तं रक्षितव्यं प्रयत्नत । इत्याप्तवाचस्त्वग्देहस्त्याज्य एवेति ।१४०।
१ आहारक मार्गणा निर्देश १ आहारक मार्गणाके भेद २ आहारक जीवका लक्षण ३ अनाहारक जीवका लक्षण ४ आहारक जीव निर्देश ५ अनाहारक जीव निर्देश ६ आहारक मार्गणामे नोकर्मका ग्रहण है,कवलाहारका नही * आहारक व अनाहारक मार्गणामे गुणस्थानोंका स्वामित्व
-दे. आहारक १/४-५ ७ पर्याप्त मनुष्य भी अनाहारक कैसे हो सकते है ८ कार्माण कर्मयोगीको अनाहारक कैसे कहते हा * आहारक व अनाहारकके स्वामित्व सम्बन्धी जीव-समास,
मार्गणा स्थानादि २० प्ररूपणाएँ -दे. सत् * आहारक व अनाहारकके सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएं
-दे वह वह नाम * आहारक मार्गणामे कर्मोका बन्ध उदय व सत्त्व
-दे, वह वह नाम
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बाहारक
१. आहारक मार्गणा निर्देश
* भाव मार्गणाकी इष्टता तथा वहाँ आयके अनुसार व्यय * आहारक शरीर व योगका मन.पर्ययज्ञान, प्रथमोपहोनेका नियम
-दे. मार्गणा
शमसम्यक्त्व परिहार विशुद्धि संयमसे विरोध है २ आहारक शरीर निर्देश
-दे. परिहार विशुद्धि १ आहारक शरीरका लक्षण
* आहारक काययोग और वैक्रियक काययोगकी युगपत् * पांचों शरीरोंका उत्तरोत्तर सक्ष्मत्व व उनका स्वामित्व प्रवृत्ति संभव नहीं
-दे.ऋद्धि १० -दे.शरीर १,२ ४ आहारक काययोगीको अपर्याप्तपना कैसे २ आहारक शरीरका वर्ण धवल ही होता है
५ आहारक काय योगमें कथंचित् पर्याप्त अपर्याप्तपना ३ मस्तकसे उत्पन्न होता है
* पर्याप्तावस्थामे भी कार्माण शरीर तो होता है, फिर ४ कई लाख योजन तक अप्रतिहत गमन करनेमे समर्थ तहाँ मिश्र योग क्यों नही कहते ? --दे. काय ३ * आहारक शरीर सर्वथा अप्रतिघाती नही है
६ आहारक मिश्रयोगीमे अपर्याप्तपना कैसे संभव है -दे. वैक्रियक
७ यदि है तो वहाँ अपर्याप्तावस्थामे भी संयम कैसे संभव है * आहारक शरीर नामकर्म का बन्ध उदय सत्त्व
* आहारक व मिश्र योगमे मरण सम्बन्धी -दे. मरण ३
-दे, वह वह नाम - * आहारक शरीरकी संघातन परिशातन कृति
१ आहारक मार्गणा निर्देश -दे.धापृ. ३५५-४५१
१ आहारक मार्गणाके भेद
ष. ख १/१,९/सू १७५/४०६ आहाराणुवादेण अस्थि आहारा अणाहारा ५ आहारक शरीरमे निगोद राशि नही होती
११७५। आहारक मार्गणाके अनुवादसे आहारक और अनाहारक जीव ६ आहारक शरीरकी स्थिति
होते है ।१७५० ७ आहारक शरीरका स्वामित्व
द्र स वृ/टो.१३/४० आहारकानाहारकजीवभेदेनाहारकमार्गणापि द्विधा।
» आहारक अनाहारक जीवके भेदसे आहारक मार्गणा भी दो प्रकार * आहारक शरीरके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशोके संचय
की है। का स्वामित्व -दे. प. ख १४/५,६/सू. ४४५-४६०/४१४ २ आहारक जीवका लक्षण ८ आहारक शरीरका कारण व प्रयोजन
५.सं/प्रा १/१७६ आहारइ जीवाण तिण्डं एकदरवग्गणाओ या भासा
मणस्स णियमं तम्हा आहारओ भणिओ।१७६ - जो जीव औदारिक ३ आहारक समुद्धात निर्देश
वैक्रियिक और आहारक इन शरीरोमें-से-उदयको प्राप्त हुए किसी १ आहारक ऋद्धिका लक्षण
एक शरीर के योग्य शरीर वर्गणाको तथा भाषा वर्गणा और मनो
वर्गणाको नियमसे ग्रहण करता है, वह आहारक कहा गया है । १७६। २ आहारक समुद्घातका लक्षण
(पं.सं./प्रा १/१७७), (ध १/१,१,/१७-६८।१५३), (पं स./स.१/२४०), ३ आहारक समुद्घातका स्वामित्व
(गो. जी /मू. ६६४-६६६) । ४ इष्टस्थान पर्यन्त संख्यात योजन लबे सूच्यंगल योजन स सि २/३०/१८६/६ त्रयाण शरीराणो षण्णा पर्याप्तीना योग्य पद्धगल
ग्रहणमाहारः । -तीन शरीर और छह पर्याप्तियो के योग्य पुद्गलोको चौडे ऊँचे क्षेत्र प्रमाण विस्तार है
ग्रहण करनेको आहार कहते है (रा वा. २/३०/४/१४०), (त सा.२/६४) * केवल एकही दिशामे गमन करता है तथा स्थिति संख्यात रावा.६/७/११/६०४/१६ उपभोगशरीरप्रायोग्यपुद्गल ग्रह्ण माहार तद्विसमय है
-दे.समुद्घात
परोतोऽनाहार । तत्राहार' शरीरनामोदयात् विग्रहगतिनामोदया
भावाश्च भवति । अनाहार' शरीरनामत्रयोदयाभावात विग्रहगति५ समुद्घात गत आत्म प्रदेशोका पुनः औदारिक शरीरमे
नामोदयाच्च भवति । = उपभोग्य शरीरके योग्य पद्धगलोका आहार संघटन कैसे हो
है। उससे विपरीत अनाहार है। शरीर नामकर्म के उदय और विग्रह* सातो समद्घातके स्वामित्वकी ओघ आदेश प्ररूपणा
गति नामकर्म के उदयाभावसे आहार होता है । शरीर नामकर्म के ~दे. समुद्धात
उदयाभाव और विग्रहगति नामकर्म के उदयसे अनाहार होता है । * आहारक समुद्घातमे वर्ण शक्ति आदि
३ अनाहारक जीवका लक्षण --दे आहारक शरीरवत्
सं.सि २/३०/१८६/१० तदभावनाहारक ।३०।- तीन शरीरो और
छह पर्याप्तियोके योग्य पुद्गलो रूप आहार जिनके नही होता, वह ४ आहरक व मिश्र काययोग निर्देश
अनाहारक कहलाते है। (रा वा, २/३०/४/१४०), (रा वा.६/७/१११ आहारक व आहारक मिश्र काययोगका लक्षण
६०४/१९), (त सा २/६४) २ आहारक काययोगका स्वामित्व
४ अहारक जीव निर्देश ३ आहारक योगका स्त्री व नपुंसक वेदके साथ विरोध
.सं./प्रा. १/१७७ विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहदो अजोगी य ।
सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा ।१७७) -विग्रहगत जीव, तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान आदि
प्रतर व लोक पूरण प्राप्त सयोग केवली और अयोग केवली, तथा सिद्ध
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आहारक
२९५
२. आहारक शरीर निर्देश
भगवान के अतिरिक्त शेष जीव आहारक होते है । (ध १/१,१४/४/ जाता है,क्योंकि कार्माण काययोगके समय नोकम बर्गणाओं के आहार १५३), (गो जी./मू./६६६) ।
का अधिकसे अधिक तीन समय तक विरहकाल पाया जाता है। स. सि./२/३०/१८६/११ उपपादक्षेत्रं प्रति ऋजव्या गतौ आहारक । (आहारक मार्गणामें नोकर्माहार ग्रहण किया गया है कवलाहार नहीं। जन यह जोव उपपाद क्षेत्रके प्रति ऋजुगतिमें रहता है तब आहारक
दे. आहार १/६) होता है । (क्योकि शरीर छोडने व शरीर ग्रहण के बीच एक समय २ आहारक शरीर निर्देश का भी अन्तर पडने नहीं पाता। ५ अनाहारक जीव निदेश
१ आहारक शरीरका लक्षण
स. सि २/३६/१६१/७ सूक्ष्मपदार्थ निर्भानार्थम संयमपरिजिहीर्षया बा ष ख. १/१,१/सू १७७/४१० अणाहारा चदुसुट्ठाणेसु बिग्गहगइसमाव
प्रमत्तसं यतेनाहियते निर्वत्येते तदित्याहारकम् । = सूक्ष्म पदार्थ का ण्णाण केलीण वा समुग्धाद-गदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि । १७७।
ज्ञान करनेके लिए या असंयमको दूर व रनेकी इच्छासे प्रमत्त संयत --विग्रहगतिको प्राप्त मिथ्यात्व सासादन और अविरति सम्यग्दृष्टि
जिस शरीरकी रचना करता है वह आहारक शरीर है । (रा वा २/ गुणस्थान गत जीव तथा समुद्घातगत सयोगि केवली, इन चार गुणस्थानोमे रहनेवाले जोव और अयोगी केवली तथा सिद्ध अनाहारक
३६/७/१४६/६)
रा वा २/४६/३/१५२/२६ न ह्याहारकशरीरेणान्यस्य व्याघातो नाप्यहोते है । (स सि १/८/३३/९), (त सा २/६५)
___ म्येनाहारकस्येत्युभयतो व्याघाताभावादव्याघातीति व्यपदिश्यते। त सू २/३० एक द्वौत्रीन्वाऽनाहारक ।-विग्रहगतिमें एक, दो तथा
रा,वा २/४६/८/१५३/१४ दुरधिगमसूक्ष्मपदार्थ निर्णयलक्षण माहारकम् । तीन समयके लिए जीव अनाहारक होता है ।
-न तो आहारक शरीर क्सिीका व्याघात करता है. न किसीसे पं.स /प्रा.१/१७७ विग्गहगइमावण्णा केवलिदो समुहदो अजोगी य ।
व्याघातित ही होता है, इसलिए अव्याघाती है । सूक्ष्म पदार्थ के सिद्धाय अणाहारा जीवा ।१७७१ = विग्रहगतिको प्राप्त हुए चारो
निर्णय के लिए आहारक शरीर होता है। गतिके जीव, प्रतर और लोक समुद्धातको प्राप्त सयोगि केवली और
ध १/१,१,५६/१६४/२६४ आहदि अणेण मुणी सुहुमे अट्ठे सयस्स अयोगि केवली तथा सिद्ध ये सब अनाहारक होते है। (ध. १/१,१,४/
सदेहे । गत्ता केवलि-पास. १६४-छठवे गुणस्थानवर्ती मुनि अपने १६/१५३), (गो जी /मू. ६६६)
को सन्देह होने पर जिस शरीरके द्वारा केवली के पास जाकर सक्ष्म रा,वा २/३०/६/१४०/१२ विग्रहगतौ शेषस्याहारस्याभाव । = विग्रहगति पदार्थोंका आहरण करता है, उसे आहारक शरीर कहते है। में नोकर्मसे अतिरिक्त बाकी के कक्लाहार, लेपाहार आदि कोई भी घ १,१,५६/२६२/३ आहरति आत्मासात्करोति सूक्ष्मानानेनेति आहार नहीं होते।
आहार' । = जिसके द्वारा आत्मा सूक्ष्म पदार्थोका ग्रहण करता है, गो, जी /मू.६६८ । कम्मइय अणाहारी अजोगिसिद्धेऽविणायवो।
उसको आहारक शरीर कहते है। -मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत व सयोगी इनकै र्मण अवस्था __ष खं. ५४/५,६/सू २३६/३२६ णिवुणाणं वा णिण्णाणं सुहवाणं वा विषै और अयोगी जिन व सिद्व भगवान इन विषै अनाहार है । अहारदव्याण सुहमदरमिदि आहारय ।२६६। क्ष. सा /मू ६१९/७३० णवरि समुग्घादगदे पदर तह लोगपूरणे पदरे। ध, १४/५,६२४०/३२७/४ णिउणा, अण्हा, मउआ...णिहां धवला मुबंधा ण त्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ ।६१६। = इतना विशेष सुट्छ सुंदरा त्ति• अप्पडिहया सुहुमा णाम । आहारदवाण मज्झे जो केवली समुद्घातको प्राप्त केवली विषै दो तो प्रतर समुद्घातके
णिउणदर णिण्णदरंखधं आहारसरीरणिप्पायणटूठ आहारदि गेहदि समय (आरोहण व अबरोहण) और एक लोकपूर्ण का समय इन तीन
त्ति आहारय ।-निपुण,स्निग्ध और सूक्ष्म आहारक द्रव्यो में सूक्ष्मतर समयनिवि नोकर्मका आहार नियमसे नहीं होता।
है, इसलिए आहारक है ।२३६। निपुण अर्थात् अण्हा और मृदु, स्निग्ध ६ आहारक मार्गणामें नोकर्माहारका ग्रहण है कवलाहार
अर्थात धवल, सुगन्ध, सुष्ठ और सुन्दर...अप्रतिहतका नाम सूक्ष्म है।
आहार द्रव्योमें-से आहारक शरीरको उत्पन्न करनेके लिए निपुणतर का नहीं
और स्निग्धतर स्कन्दको आहरण करता है अर्थात ग्रहण करता है, ध १/१.१,१७६/४०६/१० अत्र कवललेपोष्ममन' कर्माहारान परित्यज्य
इसलिए आहारक कहलाता है। नोकर्माहारो ग्राह्य , अन्यथाहारकालविरहाभ्यां सह विरोधात । -
गो जी./मू. २३७ उत्तमअगम्हि हवे धादुविहीण सुहं असंहणणं । मुहयहाँपर आहार शब्दसे कवलाहार,लेपाहार, उष्माहार, मानसिकाहार,
सठाणं धवल थपमाणं पसत्थुदय ।२३७५ सो आहारक कहिारको छोड़कर नोक्र्माहारका ही ग्रहण करना चाहिए।
शरीर कैसा हो रसादिक सप्तधातु करि रहित हो है। महुरि अन्यथा हार काल ओर विरहके साथ विरोध आता है।
शुभ नामकर्मके उदय ते प्रशस्त अवयवका धारी प्रशस्त ७ पर्याप्त मनुष्य भी अनाहारक कैसे हो सकते हैं
हो है, बहुरि संहनन करि रहित हो है बहुरि शुभ जो समध १/१.१/५०३/१ अजोगिभगवंतस्स सरीर-णिमित्तमागच्छमाणपरमाणू
चतुरस्त्र संस्थान वा अंगोपांगका आकार ताका धारक हो है । णामभाव पैक्खिऊण पज्जत्ताण मणाहरितं लब्भदि। -प्रश्न-मनुष्यों
बहरि चन्द्र पणि समान श्वेत वर्ण, हस्त प्रमाण हो है प्रशस्त आहामे पर्याप्त अवस्थामें भी अनाहारक होने का कारण क्या है 1 उत्तर
रक शरीर बन्धननादिक पुण्यरूप प्रकृति तिनिका उदय जाका ऐसा मनुष्यो में पर्याप्त अवस्थामें अनाहारक होनेका कारण यह है कि
हो है। ऐसा आहारक शरीर उत्तमाग जो है मुनिका मस्तक तहाँ अयोगिकेवली भगवान्के शरीरके निमित्तभूत आनेवाले परमाणुओंक
उत्पन्न हो है। अभाव देख कर पर्याप्तक मनुष्यको भी अनाहारकपना बन जाता है। २ आहारक शरीरका वर्ण धवल ही होता है कार्माण काययोगीको अनाहारक कैसे कहते हो
ध. ४/१,३,२/२८/६ त च हत्थुस्सेधं ह सधवल सव्यंगसुन्दरं । एक हाथ ध, २/१,११६६६/५ कम्ममग्गहणमस्थित्तं पडुच्च आहारित्त किण्ण उच्चदि
ऊँचा, हसके समान धवल वर्ण वाला तथा सर्वांग सुन्दर होता है। त्ति भणिदे ण उच्चदि,आहारस्स तिण्णि-समय-विरहकालोबलधादो।
(गो जी/मू २३७) - प्रश्न -कार्माण काययोगको अवस्थामें भी कर्म वर्गणाओके ग्रहणका ३ मस्तकसे उत्पन्न होता है अस्तित्व पाया जाता है । इस अपेक्षासे कार्माण योगी जीवोको ध.४/१,३,२/२८/७ उत्तमगसंभव । - उत्तमांग अर्थात् मस्तकसे उत्पन्न आहारक क्यो नहीं कहा जाता । उत्तर-उन्हे आहार क नही कहा होने वाला है । (गो जी मू. २३७)
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आहारक
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३ आहारक सघात निर्देश
४ कई लाख योजन तक अप्रतिहत गमन करने में समर्थ ध४/१,३.२/२८/६ अणेयजोजणलवावगमणवरवमं अपडिहयगमण । --क्षण
मात्र में कई लाख योजन गमन करने में समर्थ, ऐसा अप्रतिहत गमन वाला । (गो. जी / २३८)
५ आहारक शरीरमें निगोद राशि नहीं होती ध.१४/५६,६१/८१/८ । आहारसरीरा पमत्तसजदा पत्तेयसरीरा बुच्चति, एदेसि णिगोदजीवे हि सह सबंधाभावादो। आहारक शरोरी, प्रमत्तस यत. ये जीव प्रत्येक शरीरवाले होते है। क्योकि इनका निगोद जीवों के साथ सम्बन्ध नही होता।
६ आहारक शरीरकी स्थिति गो जी./मू /२३८ अंतोमुत्तकालदि । जहपिणदरेः १२३८५ - बहुरि जाको (आहारक शरीरकी) जघन्य वा उत्कृष्ट स्थिति अन्तमहत काल प्रमाण है।
७ आहारक शरीरका स्वामित्व रा.वा. २/४६/६/१५३/६ यदा आहारकशरीरं निर्वतयितुमारभते तदा प्रमत्तो भवतीति प्रमत्तसयतस्येत्युच्यते। -जिस समय मुनि आहारक शरीरकी रचना करता है, उस समय प्रमत्तसयत हो होता है । (विशेष दे. आहारक/३/३) ८ आहारक शरीरका कारण व प्रयोजन रा वा. २/४६/४/१५२/१ कदाचिन्धिविशेषसद्भावानानाथ कदाचिरसूक्ष्मपदार्थ निर्धारणाथं संयमपरिपालनाथं च भरत रावतेषु केलिविरहे जातसंशयस्तन्निर्णयार्थ महाविदेहेषु वेवलिसकाश जिगमिषुरौदारिकेण मे महानसंयमो भवतीति विद्वानाहारकं निवर्तयति । ४. कदाचित ऋद्धिका सद्भाव जाननेके लिए, कदाचित् सूक्ष्म पदार्थोंका निर्णय करनेके लिए, संयम के परिपालनके अर्थ, भरत ऐरावत क्षेत्र में केवली का अभाव होनेसे, तत्त्वों में, संशयको दूर करने के लिए महा विदेह क्षेत्रमें और शरीरसे जाना तो शक्य नहीं है, और इससे मुझे असंयम भी बहुत होगा, इसलिए विद्वान् मुनि आहारक शरीरकी रचना करता है । (गो जो /मू, २३५-२३६,२३६) ध.४/१,३,२/२८/७ आणाकणिठ्ठदाए अस जमबहुलदाए च लद्धप्पसरूवं।
-जो आज्ञाकी अर्थात श्रुतज्ञानकी कनिष्ठता अर्थात हीनताके होनेपर और असंयमकी बहुलता होने पर जिसने अपना स्वरूप प्राप्त किया है ऐसा है। ध १४/५.६.२३६/३२६/३ असंजमबहुलदा आणाकणिहदा सगखेत्ते केवलि विरहो त्ति एदेहि तीहि कारणे हि साह आहारशर रं पडिबज्जति। जल-थल-आगासेसु अकमेण सुहुमजीवेहि दुप्परिहणिज्जेहि आऊरिदेसु असंजमबहुलदा होदि । तप्परिण? .. आहारशरीर साह पडिवति। तेणेदमाहारपडिवज्जणमसंजदमहलदाणिमित्तमिदि भण्णदि । तिस्से कणिठ्ठदा सगखेत्ते थोवत्त आणाकणिठ्ठदानाम । एवं विदियं कारणं । आगमं मोत्तूण अण्णपमाण गोयरमइकमिदूण ठ्ठिदेसुब्बपज्जाएमु सदेहे समुप्पण्णो सगस देहे विणासण छ परखेतदिय मुद केवलि-केवलीणं वा पादमूलं गच्छामि त्ति चितविण
आहारसरीरेण परिण मिय गिरि सरि-सायर-मेरु-कुलसेलपायालाण गतूण विण एण पुच्छिय विणसं देहा होदूण पडिणियत्तिदूण आगच्छ ति त्ति भणिदं होइ । परखेत्तम्हि महामुणीणं केवलाणाणुष्पत्ती। परिणि व्याण गमण परिणि क्वमण वा तिस्थयराणं तदियं कारणं । बिडम्वण रिद्धिविरहिदा आहारलद्धिसंपण्णा साह ओहिणाणेण सुदणाणेग वा देवागमचितेण वा केवलणाणुप्पत्तिमवग तूण बंदणाभत्तीए गच्छामि त्ति चितिदूण आहारसरीरेण परिण मिय तपदेस गंतूण तेसि केवलीणमण्णेसि च जिण-जिण हराण वदणं काऊण आगच्छति। - असंयम बहुलता, आज्ञा कनिष्ठता और अपने क्षेत्र में केवली विरह इस प्रकार इन तीन कारणोंसे साधु आहारक शरीरको प्राप्त होते है।
जल, स्थल और आकाशके एक साथ दुष्परिहार्य सूक्ष्म जीवोसे आपूरित होनेपर अस यम बहुलता होती है। उसका परिहार करने के लिए साधु आहारक शरीरको प्राप्त होते है । इसलिए आहारक शरीरका प्राप्त करना असंयम बहुलता निमिक्तक कहा जाता है। आज्ञा.. उसकी कनिष्ठता अर्थात उसका अपने क्षेत्रमें थोडा होना आज्ञानिष्ठता कहलाती है। यह द्वितीय कारण है। आगमको छोड़कर द्रव्य और पर्यायों के अन्य प्रमाणो के विषय न होने पर अपने सन्देह को दूर करने के लिए परक्षेत्रमें श्रुतकेवली और केबलीके पादमूलमें जाता हूँ ऐसा विचार कर आहारक शरीर रूपसे परिमन, करके गिरि, नदी, सागर, मेरुपर्वत, कुलाचल और पातालमे केवली और श्रुतके वलीके पास जाकर तथा विनयसे पूछकर सन्देहसे रहित होवर लौट आते है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परक्षेत्र में महामुनियोके केवलज्ञानकी उत्पत्ति और परिनिर्माणगमन तथा तीर्थकरोके परिनिष्क्रमण कल्याणक यह तीसरा कारण है। विक्रियाऋद्धिसे रहित और आहारक लब्धसे युक्त साधु अवधिज्ञानसे या श्रुतज्ञानसे देवोके आगमनके विचारसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति जानवर वन्दना भक्तिसे जाता है ऐसा विचार कर आहारक शरीर रूपसे परिणमन कर उस प्रदेशमें जाकर उन केलियोकी और दूसरे जिनोकीब जिनालयोकी बन्दना करके वापिस आते है। ३ आहारक समुद्घात निर्देश
१ आहारक ऋद्धिका लक्षण ध.१/१,१,६०/२६८/४ सयमविशेषजनिताहारशरीरोत्पादन शतिराहारद्धिरिति । - संयम विशेषसे उत्पन्न हुई आहारक शरीरके उत्पादन रूप शक्तिको आहारक ऋद्धि कहते है। २ आहारक समुद्घातका लक्षण रा.पा.१/२०/१२/७७/१८ अल्पसावधसूक्ष्मार्थ ग्रहणप्रयोजनाहारकशरीरनिर्वत्यर्थ आहारकसमुद्धात । आहारकशरीरमात्मा निर्वर्तयन श्रेणिगतिवात आत्मदेशानसख्यातान्निर्गमय्य आहारकशरीरस् ...निवर्तयति । - अल्प हिंसा और सूक्ष्मार्थ परिज्ञान आदि प्रयोजनों के लिए आहारक शरीरकी रचनाके निमित्त आहारक समुद्धात होता है। . आहारक शरीरकी रचनाके समय श्रेणी गति होनेके कारण... असख्य आत्माप्रदेश निकल कर एक अररिन प्रमाण आहारक शरीर
को बनाते है। घ.७/२.८.१/३००/६ आहारसमुग्धादो णाम हत्थ पमाणेण सध्यंगसंदरेण समचउरससंठाखेण हसवखेण रसरुधिर-मास-मेट्ठि-मज्ज-मुक्कसत्तधा उपज्जिएण विसग्गि सत्थादिसयलबाहामुक्केण वज्ज-सिला-थ भ-जल पव्ययगमणदच्छेण सीसादो उग्गएण देहेण तित्थयरपादमूलगमण । -हस्त प्रमाण सर्वाग सुन्दर, समचतुरख-संस्थानसे युक्त, हंसके समान धयल, रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सात धातुओंसे रहित, विष अग्नि एव शस्त्रादि समस्त बाधाओ से मुक्त, वज्र, शिला, स्तम्भ, जल व पर्व तो में-से गमन करने में दक्ष, तथा मस्तकसे उत्पन्न हुए शरीरसे तीर्थकरके पादमूल में जानेका नाम आहारक समुद्धात है। द्र.सं./टी १०/२६ समुत्पन्नपदार्थ भ्रान्ते परमद्धिसपन्नस्य महर्षे मूलशरीरं परित्यज्य शुद्धस्फटिकाकृतिरेक्हस्तप्रमाण पुरुषो मस्तकमध्या निर्गम्य यत्र कुत्रचिदन्तर्मुहूर्त मध्ये केवलज्ञानिन पश्यति तदर्शनाच स्वाश्रयस्य मुने पदपदार्थ निश्चयं समुत्पाद्य पुन स्वस्थाने प्रविशति, असावाहारकसमुद्धात.। -पद और पदार्थ में जिसको कुछ संशय उत्पन्न हुआ हो, उस परम ऋषिके मस्तकमैं-से मल शरीरको न छोड़कर, निर्मल स्फटिकके रंगका एक हाथका पुतला निकल कर अन्तर्महूर्त में ल्हों कही भी केवलीको देखता है तब उन केवलीके दर्शनसे अपने आश्रय मुनिको पद और पदार्थका निश्चय उत्पन्न क्राकर फिर अपने स्थानमें प्रवेशकर जावे सो आहारक समुद्रघात है।
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३ आहारक समुद्घातका स्वामित्व
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रा. सू २/४१ शुभ विशुनपापाति चाहारक प्रमत्तसंयतस्यैव आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध व्यापात रहित है और वह प्रमसंयत के ही होता है ।
ससि ८/२/२०६/२ आहारककाययोगाहारका काययोगय प्रम सयते सभवात् । प्रमत्तसंयत गुणस्थानमे आहारक ऋद्विधारी मुनिके आहारक काय योग और आहारक मिश्र योग भी सम्भव है। रा. वा २/४६/७/१५३/८ प्रमत्तसंयतस्यैवशहरके नान्यस्य । प्रमत्तसंपतके ही आहारक शरीर होता है।
४१.१.२/२८/५ आहारसमुग्धादाम सिहीण महारियो होवि ४/१.३१/१८/२ इससे तिष्णा भवति तक्कारणसजमादिगुणाणमभावादो । ४/१.३.२/१२३/७ मरि पदे जाहार स्थि ४/१.२.८२/१३५/६ वरिपरिहारविद्धो सदस्य उससम्मम जाहार गरि १, जिनको वृद्धि प्राप्त हुई है ऐसे महर्षियोके होता है । २ मिथ्यादृष्टि जीव राशिके (आहारक समुद्घात) सम्भव नहीं, क्योंकि इसके कारणभूत गुणोका मिध्यादृष्टि और असत सयतासंयतों के अभाव है । ३ (प्रमत्त सयतमें भी ) परिहार विशुद्धि संयतके आहारक व तैजस समुद्धात नहीं होता । ४ प्रमत्तसयत के उपशम सम्यक्त्वके साथ आहारक समुद्घात नही होता है । (ध / ४१.४.१३५/२८६/१९
४ इष्टस्थान पर्यन्त संख्यात योजन लम्बे सूच्यगुल योजत चौड़े ऊंचे क्षेत्र प्रमाण विस्तार है
५४६४६१ आहारक समुद्रात भिये एक जीवके शरीर ते बाह्य निकसे प्रदेश तै सख्यात याजन प्रमाणलम्बा अर सूच्यंगुल का संख्यातवाँ भाग प्रमाण चौडा ऊँचा क्षेत्रको रोकें । याका घनरूप क्षेत्रफल सख्यात घनागुल प्रमाण भया। इसकरि आहारक समुद्घात वाले जीवनिका सख्यात प्रमाण है ताकौ गुण जा प्रमाण होइ तितना आहारक समुद्घातविषै क्षेत्र जानना । ल शरीर तै निकसि आहारक शरीर जहाँ जा वहाँ पर्यन्त लम्बी आत्मा प्रदेशनिको श्रेणी मुच्य गुलका संख्यातवाँ भाग प्रमाण चौडी अर ऊँची आकाश विषे है ५ समुद्घात गत आत्म प्रदेशोंका पुनः औदारिक शरीर में संघटन कैसे हो
ध, १/१.१५६/२१२/८ न च गलितायुषस्तमिन् शरीरे पुनरुत्पत्तिर्विरोधात् । ततो न तस्यौदारिकशरीरेण पुन संघटनमिति । १/१.१.२६/२६२/३ योनियोग मर मेकदेशेन बागलादप्युपस इतजीवावयवाना मरणानुकम्पा जीवितानसेन व्यभिचाराच न पुनरस्यार्थ सर्वाय पूर्वशरीरपरित्याग समस्ति येनास्य मरणं जायेत । = प्रश्न - जिसको आयु नष्ट हो गयी है ऐसे जावको पुन उस शरीर में उत्पत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है । अत जीवका औदारिक शरीरके साथ पुन संघटन नहीं बन सकता अर्थात् एक बार जीव प्रदेशोका आहारक शरीर के साथ सम्बन्ध हो जानेपर पुन उन प्रदेशोका पूर्व औदारिक शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता 1 उत्तर - ऐसा नहीं है, तो भी जीव और शरीरका सम्पूर्ण रूपसे वियोग ही मरण हो सकता है। उनका एकदेश रूपसे वियोग मरण नहीं हो सकता, क्योंकि जिनके कण्ठ पर्यन्त जीव प्रदेश संकुचित हो गये हैं, ऐसे जीवोंका मरण भी नहीं पाया जाता है। यदि एकदेश वियोगको भी मरण माना जावे, तो जीवित शरीरसे छिन्न होकर जिसका हाथ अलग हो गया है उनके साथ व्यभिचार आयेगा । इसी प्रकार
४. आहारक व मिश्रकाय योग निर्देश
आहारक शरीरको धारण करना इसका अर्थ सम्पूर्ण रूपसे पूर्व (छौदारिक) शरीरका त्याग करना नहीं है, जिससे कि आहारक शरीरके धारण करने वालेका मरण माना जावे ।
४ आहारक व मिश्र काययोग निर्देश
२९७
१ आहारक व आहारक मिश्र काययोगका लक्षण // प्रा१/६७-६८ आहरइ अणेण मुणि सुहुमे अट्ठे सस्स सदेहे । गत्ता केवलिपास तम्हा आहारकाय जागो सो । अंतोमुहूत्तमज्म त्रियाणामस्संच अपरियुण्णा ति। जो तेण रूपआगो आहारयमिस्सकायजोगा सा || स्वयं सूक्ष्म अर्थ में सन्देह उत्पन्न होनेपर मुनि जिसके द्वारा केवली भगवान् के पास जाकर अपने सन्देह को दूर करता है, उसे आहारक काय कहते है। उसके द्वारा उत्पन्न होने वाले योगको आहारक काययोग कहते है | ७| आहारक शरीरकी उत्पत्ति प्रारम्भ हानेके प्रथम समयसे लगाकर शरीर पर्याप्त पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीरको आहारक मिश्र काय कहते है। उसके द्वारा जो योग उत्पन्न होता है वह आहारक मिश्र काययोग कहलाता है। (गो. जी / मू. २३६) घ. १/११/१६४-१६४ / २६४ तम्हा आहारका जोगा । १६४ । आहारयमुत्तरथ वियाणमिस्स च अपरिपुण्ण ति । जो तेण संपयागो आहारयमिस्सका जोगा । १६५ । आहरक शरीरके द्वारा होने वाले यागको आहारक काययाग कहते है । १६४ । आहारक्का अर्थ कह आये है । वह आहारक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता तब तक उसका आहारक मिश्र कहते है। ओर उसके द्वारा जो सप्रयोग होता है उसे आहारक मिश्र काययाग कहते है । ९६५ । (गा. जी. / म. २४० )
।
ध १ / १,१.५६ / २६३/६ आहारकार्मणस्कन्धत समुत्पन्नवीर्येण योग. आहारमिकामयाग आहारक और कामगिकी वर्गा - से उत्पन्न हुए वीर्यके द्वारा जो योग होता है वह आहारक मिश्र काययोग है ।
२. आहारक काययोगका स्वामित्व
१/१,१.५१/५२.६३/२६७,३०६ आहारकायजागो आहार मिस्सकायजागा सजदाणमिड्ढि पत्ताण ५६| आहारकायजोगा आहारमिस्स कायजोगी एक्कम्हि चेव पमत्तसजद ट्ठाणे | ६३। आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाममोद्धि प्राप्त छठे गुणस्थानवर्ती
यतो हाता है५१ आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग एक प्रमत्त गुणस्थानमें ही होते है । ६३० (सिसि. ८/२/२०६/२)
•
३. आहारक योगका स्त्री व नपुंसक वेदके साथ विशेष तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोवा
=
"
-
२/९.१५२३/१ मसिमी मण्णमा आहारआहार भिस्सकाय जोगारथ । कि कारणं । जेसि भाबो इस्थिवेदो दब्ब पुण पुरिसवेदा, ते जीवा सजम पडिवज्जति । दठिवस्थिवेदा सजम ण पडिवेदापि सेजदान णाहार रिद्धीसमुपजद दव्व-भावहि पुरिसवेदाणमेव समुप्पज्जदि गिरिथवेदेपि पि आहारगरि मनुष्दनी सियो के आलाप कहने पर आहारक मिश्रकाययोग नही होता । प्रश्नमनुष्य-स्त्रियोंके बाहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग नहीं होनेका कारण क्या है ? उत्तर - यद्यपि जिनके भावकी अपेक्षा स्त्रीवेद और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुषवेद होता है वे (भाष स्त्री) जीव भी संयमको प्राप्त होते है। किन्तु द्रव्यकी अपेक्षा स्त्री वेदवाले जीव संयम को प्राप्त नहीं होते हैं, क्योंकि, ये समेत अर्थात् वस्त्र सहित होते हैं। फिर भी भावकी अपेक्षा स्त्री वेदी और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुष वेदी संयमधारी जीवोके आहारक वृद्धि नहीं होती। किन्तु द्रव्य
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और भाव इन दोनो ही वेदोकी अपेक्षासे पुरुष वेद वालेके आहारक ऋद्धि होती है। (और भी दे. वेद / ६ / ३)
६. २/१.९/६८७/१ अत्पसत्यवेदेहि साहारियी ण उपजदिति । - अप्रशस्त वेदोके साथ आहारक वृद्धि नही उत्पन्न होते है (क.पा / पु३/२२/१४१६/२४९/१३) भ. २/११/१८९/६ आहार
वेदगोदयस्स विरोहा-आहारक द्विक• -के साथ स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके उदय होनेका अभाव है । (गो जी./मू ७९५)
..
४. आहारक काययोगीको अपर्याप्तपना कैसे ध. २/१, १/४४१/४ सजदा संजदर ठाणे णियमा पज्जत्ता । आहार मिस्स कायजोगो अपज्जत्ताणं त्ति अणवगासत्तादो । अणेयंतियादोकिमेदेण जाणाविज्जदि । एद सुत्तमणिच्चमिदि । - प्रश्न- ( ऐसा माननेसे संयतार्थवत और सलोने स्थानमें जीव नियम से पर्याप्त होते है (यह सूत्र कि) “आहारक निकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है" बाधा जाता है। उत्तर इस सूत्र में अनेकान्त दोष आ जाता है ( क्योकि अन्य सूत्रोसे यह भी बाधित हो जाता है । ) प्रश्न- (सूत्र में पड़े इस नियम शब्दसे क्या शापित होता है। उत्तर- इससे ज्ञापित होता है कि यह सूत्र अनित्य है। वहीं प्रवृत्ति हो और कहीं प्रवृत्ति न हो इसका नाम अनित्यता है ।
५. आहारक काययोगमें कथंचित् पर्याप्त अपर्याप्तपना
•
भ. १२/१.१.६०/२३०/६ पूर्वाभ्यस्तमस्तु विस्मरणमन्तरेण शरीरोपादानाद्वा दुखमन्तरेण पूर्वशरीरपरित्यागाद्वा प्रमत्तस्तदवस्थाया पर्याप्त इत्युप चर्यते । निश्चयनयाश्रयणे तु पुनरपर्याप्त । = पहले अभ्यास की हुई वस्तु के विस्मरण के बिना ही आहारक शरीरका ग्रहण होता है, या दुखके बिना ही पूर्व शरीर (ओदारिक) का परित्याग होता है, अतएव प्रमत्त सयत अपर्याप्त अवस्थामें भी पर्याप्त है, इस प्रकारका उपचार किया जाता है। निश्चय नयका आश्रय करने पर तो वह अप ही है।
६. आहारक मिश्रयोग में अपर्याप्तपना कैसे सम्भव है [घ] १/१,१.७० / ३१७/१० आहार शरीरयापक पर्याप्त संयतत्वान्यथानृपपते । तथा चाहार मिश्रकाययोगोऽष्टकस्येति न घटामटेदिति चेन्न, अनवगतसूत्राभिप्रायत्वात् । तद्यथा, भवत्वसौ पर्याप्तक औदारिकशरीरगतष्टपर्याप्त्यपेक्षया, बहारशरीरगततिनिय कोऽसौ पर्यापर्यात्वयोर्ने क्रमेण समो विरोधादिति चेन्न इतीहास कई न पूर्वोऽम्युपगम इति विरोध इति चेश, भूतपूर्व गतन्यायापेक्षया विरोधासिद्ध। ==प्रश्नआहारक शरीरको उत्पन्न करने वाला साधु पर्याप्तक ही होता है । अन्यथा उसके संयतपना नही बन सकता। ऐसी हालत में आहारक मिश्रकाययोग अपर्याप्त होता है, यह कथन नही बन सकता 1 उत्तर--नहीं, क्योंकि, ऐसा कहने वाला आगम के अभिप्रायको नही समझा है । आगमका अभिप्राय तो इस प्रकार है कि आहारक शरीरको उत्पन्न करने वाला साधु औदारिक शरीरगत छह पर्याप्तियोकी अपेक्षा पर्यातक भले ही रहा आये, किन्तु आहारक शरीर सम्बन्धी पर्वाधिक पूर्ण नहीं होने की अपेक्षा वह अपर्याप्त है। प्रश्न- पर्याप्त और अपर्याप्तना एक साथ एक जीवमें सम्भव नहीं, क्योकि एक साथ एक जीवमें इन दोनोके रहने में विरोध है 1 उत्तर- नहीं, क्योकि यह तो हमे इह हो है प्रश्न तो फिर हमारा पूर्व कथन क्यो न मान लिया जाये, अत आपके कथन में विरोध आता है। उत्तर--नहीं, क्योंकि भूतपूर्व न्यायकी अपेक्षा विरोध असिद्ध है। अर्थात औदारिक शरीर सबन्धी पर्याप्ने अपेक्षा आहारक मिश्र अवस्थामें भी पर्याप्तपनेका व्यवहार किया जा सकता है।
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७. यदि है तो वहाँ अपर्याप्तावस्थामें भी संयम कैसे सम्भव है
४. २/१.१७ / १२ / विनोदा रिकशरीरसंबन्धपरिनिष्ठि ताहारशरीरगत पर्याप्तस्य कथं सयम इति चेन्न रूयमस्यासपनिरोधलक्षणस्य मन्दयोगेन सह विरोधासि विरोध वा न केवलिनोऽपि समुद्धात गतस्य सयम तत्राप्यपर्याप्तयोगास्तित्व प्रत्यविशेषात् सदासदाने पियमा पत्ता इत्यनेनार्येण सह कथं न विरोध स्यादिति चेन्न द्रव्यार्थिकमयापेक्षया प्रवृत्त स्पाभिप्रायेणाहारारीरा निष्यत्यवस्थायामपि पीत्वा विरोधात । = प्रश्न - जिसके औदारिक शरीर सम्बन्धी छह पर्याशियों नष्ट हो चुकी है, और आहारक शरीर सम्बन्धी पर्याय अभी पूर्ण नहीं हुई हैं ऐसे अपराधिक साधुके संयम कैसे हो सकता है ? उत्तर--नहीं, क्योकि जिसका लक्षण आसवका निरोध करना है, ऐसे संयमका मन्द योग (आहारक मिश्र) के साथ होने में कोई विरोध नही आता है। यदि इस मन्द योगके साथ सयमके होनेमें कोई विरोध जाता ही है ऐसा माना जाने हो समुहघातको प्राप्त हुए केवलोके भी सयम नही हो सकेगा, क्योंकि वहाँ पर भी अपर्याप्त सम्बन्धी योगका सद्भाव पाया जाता है, इसमें कोई विशेषता नहीं है। प्रश्न -- 'संयतास यत से लेकर सभी गुणस्थानों में जीव नियम से पर्याप्तक होते है' इस आर्ट वचनके साथ उपर्युक्त कथनका विरोध क्यो नहीं आता ? उत्तर--नहीं, क्योकि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे प्रवृत्त हुए इस सूत्र के अभिप्रायसे आहारक शरीरकी अपर्याप्त अवस्थामें भी औदारिक शरीर सम्बन्धी पक्षियोंके होनेमें कोई विरोध नही आता है (२/१.१.१०/३२६/६) । आहार पर्याप्ति - दे. पर्याप्ति । आहार वर्गणादे वा वर्गणा 1 आहार संज्ञा दे संज्ञा । आहार्य विपर्ययदे वि आहुति मंत्र
मंत्र
२९८
(इ)
इंगाल सतिका एक दोष देवखति। इंगिनी - दे, सल्लेखना ३ ।
इंद्र - १ प.पु. ७/ श्लोक | रथनूपुर के राजा सहस्रारका पुत्र था। रावणके दादा मालीको मारकर स्वयं इन्द्रके सदृश राज्य किया (८) फिर आगे रावणके द्वारा युद्धमें हराया गया (३४६-३४७) अन्तमें दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त किया (१०६) २ मगध देशकी राज्यवंशावली के अनुसार यह राजा शिशुपालका पिता और कल्की राजा चतुर्मुलका दादा था । यद्यपि इसे कल्की नही कहा गया है, परन्तु जैसा कि वंशावली में बताया है, यह भो अत्याचारी व कल्की था। समय वो, नि. ६५८-१००० (ई ४३२-४०४) वे इतिहास ३/४) २. लोकपास का एक मे लोकपाल
१. इंद्र सामान्यका लक्षण
=
ति. १३/६५ इदा रायसरिच्छा | देवोमें इन्द्र राजाके सदृश होता है । ससि १/१४/१०८/३ इन्दतीति इन्द्र आत्मा । अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते ।
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इंद्रायुध
२३१/१ अन्यदेवासाधारणाणिमादिगुणयोगादिन्दन्तीति इंद्रजात-पपु/सर्ग/श्लोक)"रावण का पुत्र था (८/१५४) रावणइन्द्रा। - इन्द्र शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है 'इन्द्रतीति इन्द्र' जो
___ की मृत्यु पर विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली। (७८/८१-८२) तथा आज्ञा और ऐश्वर्य बाला है वह इन्द्र है। इन्द्र शब्दका अर्थ आत्मा
मुक्तिको प्राप्त किया (८०/१२८)। है । अथवा इन्द्र शब्द नामकर्मका वाची है (रा.वा.१/१/१४/५६/१५):
इंद्रत्याग-गर्भान्वयादि क्रियाओं में से एक-दे. संस्कार २। (ध १/१,१,३३/२३३/१)। जो अन्य देवोमें असाधारण अणिमादि गुणो के सम्बन्धसे शोभते है वे इन्द्र कहलाते है । (रावा,४/४/१/ इंद्रध्वज-पूजाओंका एक भेद-दे. पूजा । २१२/१६)।
इन्द्रनन्दि-जैन साहित्य और इतिहास पृ. २७०/प्रेमीजी), (जै | २. अहमिद्रका लक्षण
१/३८३); (ती. २/४१६, ३/१८०) =देशीयगणके आचार्य दीक्षा गुरु त्रि.सा २२५ । भवणे कप्पे सव्वे हवं ति अहमिदया तत्तो ॥२२॥- वासवनन्दिके शिष्य बप्पनन्दि। शिक्षागुरु अभयनन्दि । ज्येष्ठ गुरु स्वर्गनिके उपरि अहमिद्र है ते सर्व ही समान है। हीनाविकपना भाईके नाते नेमिचन्द्र सि. चक्रवर्तीक शिक्षा गुरु । (दे. इतिहास/ तहाँ नाहीं है।
७/५) । कृतियें-१ नीतिसार, २. समय भूषण, ३, इन्द्रनं दि संहिताः अन, ध. १/४६/६६ पर उद्धृत "अहमिन्द्रोऽस्मि नेन्द्रोऽन्यो मत्तोऽ- ४. मुनि प्रायश्चित्त(प्रा.).५ प्रतिष्ठापाठ,६ पूजा कल्प; ७. शान्तिस्तीत्यात्तकत्थना 1 अहमिन्द्राख्यया ख्यातिं गतास्ते हि सुरोत्तमाः। चक्र पूजा, ८ अकुरारोपण, ६. प्रतिभा संस्कारारोपण पूजा; नासूया परनिन्दा वा नात्मश्लाघा न मत्सर । केवल सुखसाइभूता १०. ज्वालामालिनी, ११, औषधि कल्प, १२ भूमिकल्प, १३. श्रुतादीव्यन्त्येते दिवौकस। -मेरे सिवाय और इन्द्र कोन है। मै ही तो बतार । समय-ज्वालामालिनी कल्पका रचनाकाल, शक ८६१। इन्द्र हूँ। इस प्रकार अपनेको इन्द्र उद्घोषित करनेवाले कल्पातीत देव तदनुसार ई. श. १० का मध्य । अहमिन्द्र नामसे प्रख्यात है। न तो उनमें असूया है और न मत्सरता
इंद्रानन्दि संहिता-आचार्य इन्द्रनन्दि ई. श. १० की अपभ्रश हो है, एवं न ये परको निन्दा करते और न अपनी प्रशंसा ही करते
भाषाबद्ध कृति। हैं । केवल परम विभूतिके साथ सुखका अनुभव करते है।
इंद्रपथ-पा पु १६ श्लोक "प्रवाससे लौटनेपर युधिष्ठिर इन्द्रपथ ३. दिगिन्द्रका लक्षण
नगर बसाकर रहने लगे थे (४) क्योकि यह कुरुक्षेत्रके पास है इसलिए त्रि सा २२३-२२४ दिगिंदा । ।२२३। तंतराए । २२४। -बहुरि
वर्तमान देहली ही इन्द्रपथ है । यह सर्व प्रसिद्ध भी है।" जैसे तत्रादि राजा कहिये सेनापति तैसे लोकपाल है।
इंद्रपुर-१. (म.पु /प्र.४६ पं. पन्नालाल) वर्तमान इन्दौर, २. रेवा४. प्रतीन्द्रका लक्षण
नदी पर स्थित एक नगर-दे. मनुष्य ४ । ति प ३/६५.६६ जुवरायसमा हुवंति पडिइदा ॥६५॥ इंदसमा पडिइदा।
इंद्रभूति-पूर्व भवमें आदित्य विमानमें देव थे। (म.पु.७४/३५७) ६६।-प्रतीन्द्र युवराजके समान होते है (त्रि.सा २२४) प्रतीन्द्र इन्द्र के बराबर है।६।
यह गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे। वेदपाठी थे। भगवान् वीरके समव
शरणमें मानस्तम्भ देखकर मानभग हो गया और ५०० शिष्यो के साथ ज.प.१९/३०५,३०६ । पडिइदा इदस्स दु चसु वि दिसामु णायव्वा
दीक्षा धारण कर ली। तभो सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयीं (म पु.७४) ।३०॥ तुल्लबल्लरूव विक्कमपयावजुता हवं ति ते सम्बे।३०६ -इन्द्रके
३६६-३७०)। भगवान् महावीरके प्रथम गणधर थे। (म.पु.७४ प्रतीन्द्र चारो ही दिशाओ में जानने चाहिए ॥३०॥ वे सब तुल्य बल,
३५६-३७२)। आपको श्रावण कृष्ण १ के पूर्वाह्न काल में श्रतज्ञान जाम रूप, विक्रम एवं प्रतापसे युक्त होते है।
हुआ था। उसी तिथिको पूर्व रात्रिमें आपने अंगोकी रचना करके * इन्द्रकी सुधर्मा सभाका वर्णन-दे. सौधर्म।
सारे श्रुतको आगम निबद्ध कर दिया। (म. पु. ७४/३६६-३७२) । * भवनवासी आदि देवोमे इन्द्रोका नाम निर्देश
कार्तिक कृ १५ को आपको केवलज्ञान प्रगट हुआ और विपुलाचल -दे. वह वह नाम ।
पर आपने निर्वाण प्राप्त किया । (म पु.६६/५१५-५१६) । ५. शत इन्द्र निर्देश
इंद्रराज-(क.पा.१/प्र.७३ प. महेन्द्र) गुर्जर नरेन्द्र जगत्तुंगका छोटा द्र, सं./टी, १/५ पर उधृत "भवणालयचालीसा वितरदेवाणहोति भाई था। इसने लाट देशके राजा श्रीवल्लभको जीतकर जगत्तुगको बत्तीसा। कप्पामरचउवीसा चन्दो सूरो णरो तिरिओ। = भवन, वहाँका राजा बना दिया था। जगत्तुगका ही पुत्र अमोघवर्ष प्रथम वासी देवोके ४० इन्द्र, व्यन्तर देवोके ३२ इन्द्र; कल्पवासी देवोके हुआ। इन्द्रराज राजाका पुत्र कर्कराज था। इसने अमोघवर्ष के लिए २४ इन्द्र, ज्योतिष देवोके चन्द्र और सूर्य ये दो, मनुष्यों का एक इन्द्र राष्ट्रकूटोको जीतकर उसे राष्ट्रकूटका राज्य दिलायाथा।राजाजगत्तुग चक्रवर्ती, तथा तियंचोका इन्द्र सिह ऐसे मिलकर १०० इन्द्र है। के अनुसार आपका समय ई.७६४-८१४ (विशेष दे. इतिहास ३/१२) (विशेष दे, वह वह नामको देवगति)।
इंद्रसेन-१ (वरांग चरित्र/सर्ग/श्लोक) मथुराका राजा (१६/५) इद्रक-ध १४/५.६,६४१/४६५/६ उड़ आदोणि विमाणाणि दियाणि
ललितपुरके राजासे युद्ध होनेपर वरांग द्वारा युद्ध में भगाया गया णाम । = उडु आदिक विमान इन्द्रक कहलाते है।
(१८/१११), २ (प.पु/प्र.१२३/१६७ 'मूल'), (प पु/प्रहपं, पन्नालाल) द्र स /टी ३५/११५ इन्द्रका अन्तर्भूमय != इन्द्रकका अर्थ अन्तर्भूमि है।
सेनसंघकी गुर्वावलीके अनुसार यह दिवाकरसेनके गुरु थे। समय
वि ६२०-६६० (ई.५६३-६०३)-दे. इतिहास ७/६ । ति.प.२/३६ का विशेषार्थ "जो अपने पटल के सब बिलोके बीच में हो वह इन्द्रक बिल कहलाता है।" (ध.१४/१/६/६४१/४६५/८)।
इंद्राभिषेक-गर्भान्वयादि क्रियाओमें-से एक--दे, सस्कार २॥ ति सा.४७६ भाषा "अपने-अपने पटल के बीचमे जो एक एक विमान इंद्रायुध-(ह. पु.६६/५२-५३) उत्तर भारत का राजा था। इसके पाइए तिनका नाम इन्द्रक विमान है।
समय में ही जिनषेणाचायेने हरिवंशकी रचना प्रारम्भ की थी। तद* स्वर्गके इन्द्रक विमानोंका प्रमाणादि-दे. स्वर्ग १३.५॥
नुसार इनका समय-श. सं. ७०५ (वि. ८४०) ई. ७५०-७८३ ।
(ह. पु./प्र.५ पं. पन्नालाल) स्व. ओझाके अनुसार इन्द्रायुध और * नरकके इन्द्रक बिलोंका प्रमाणादि-दे. नरक ३ ।
चक्रायुध राठौर व शमें थे। स्व चिन्तामणि विनायक वैद्यके अनु
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इन्द्रावतार
३००
इद्रिय-विषय-सूची
सार यह भण्डिकुल (वर्मवश) के थे। इनका पुत्र चक्रायुध था। इसका
राज्य कन्नौजमे ले कर मारवाड़ तक फैला हुआ था। इंद्रावतार-गर्भाधयादि क्रियाओमे से एक--दे संस्कार २।। इद्रिय-शरोरवारी जोवको जानने के साधन रूप स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियाँ होती है। मन को ईषत् इन्द्रिय स्वीकार किया गया है। ऊपर दिखाई देनेनाली तो बाह्य इन्द्रिया है। इन्हे द्रव्येन्द्रिय कहते है। इनमें भी चपटलादि तो उस उस इन्द्रियके उपकरण होनेके कारण उपकरण कहलाते है, और अन्दरमे रहने वाला ऑख की व
आत्म प्रदेशीकी रचना विशेष निवृत्ति इन्द्रिय कहताती है । क्योकि बास्तबगे जाननेका काम इन्दी इन्द्रिपसे होता है उपकरणोसे नहीं। परन्तु इनके पीछे रहनेवाले जीवके ज्ञानका क्षयोपशम व उपयोग भावन्द्रिय है, जो साक्षात जाननेका साधन है। उपरोक्त छहो इन्द्रियोमें चश्नु और मन अपने विषयको स्पर्श किये बिना ही जानती है, इसलिए अप्राप्यकारी है। शेष इन्द्रियाँ प्राध्यकारी है। सयमकी अपेक्षा जिह्वा व उपस्थ ये दो इन्द्रियाँ अत्यन्त प्रबल है और इसलिए योगीजन इनका पूर्णतया निरोप करते है।
१भेद व लक्षण तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान १ इन्द्रिय सामान्यका लक्षण २ इन्द्रिय सामान्यके भेद ३ द्रव्येन्द्रियके उत्तर भेद ४ भावेन्द्रियके उत्तर भेद * लब्धि व उपयोग इन्द्रिय
-दे. वह वह नाम * इन्द्रिय व मन जीतनेका उपाय -दे संयम २ ५ निर्वृत्ति व उपकरण भावेन्द्रियोके लक्षण ६ भावेन्द्रिय सामान्यका लक्षण ७ पाँचों इन्द्रियोके लक्षण ८ उपयोगको इन्द्रिय कैसे कह सकते है ९ चल रूप आत्मप्रदेशोमे इन्द्रियपना कैसे घटितहोता है २ इन्द्रियों में प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपन १ इन्द्रियोमे प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपनेका निर्देश * चार इन्द्रियाँ प्राप्त व अप्राप्त सब विषयोको ग्रहण करती है
- दे.अवग्रह ३/५ २ चक्षुको अप्राप्यकारी कैसे कहते हो ३ श्रोत्रको भी अप्राप्यकारी क्यो नही मानते ४ स्पर्शनादि सभी इन्द्रियोमे भी कथचिन अप्राप्यकारी
पने सम्बन्धी ५ फिर प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपनेसे क्या प्रयोजन ३ इन्द्रिय-निर्देश १ भावेन्द्रिय ही वास्तविक इन्द्रिय है २ भावेन्द्रियको ही इन्द्रिय मानते हो तो उपयोग शून्य
दशामे या संशयादि दशामे जीव अनिन्द्रिय हो जायेगा ३ भावेन्द्रिय होनेपर ही द्रव्येन्द्रिय होती है ४ द्रव्येन्द्रियोंका आकार
५ इन्द्रियोंकी अवगाहना ६ इन्द्रियोका द्रव्य व क्षेत्रकी अपेक्षा विषय ग्रहण ७ इन्द्रियोके विषयका काम व भोग रूप विभाजन ८ इन्द्रियोके विषयो सम्बन्धी दृष्टिभेद ९ ज्ञानके अर्थमे चक्षुका निर्देश * मन व इन्द्रियोमे अन्तर सम्बन्धी -दे मन ३ * इन्द्रिय व इन्द्रिय प्राणमे अन्तर -दे प्राण * इन्द्रियकषाय व क्रियारूप आस्रवोमे अन्तर -दे क्रिया * इन्द्रियोमे उपस्थ व जिह्वा इन्द्रियकी प्रधानता
-दे संयम २ ४ इन्द्रिय मार्गणा व गुणस्थान निर्देश १ इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा जीवोके भेद * दो चार इन्द्रियवाले विकलेन्द्रिय; और पंचेन्द्रिय सकलेन्द्रिय कहलाते है
-दे त्रस २ एकेन्द्रियादि जीवोके लक्षण ३ एकेन्द्रियसे पंचेन्द्रिय पर्यन्त इन्द्रियोका स्वामित्व * एकेन्द्रियादि जीवोंके भेद
-दे जीव समास * एकेन्द्रियादि जीवोकी अवगाहना - दे अवगाहना २ ४ एकेन्द्रिय आदिकोमे गुणस्थानोंका स्वामित्व * सयोग व अयोग केवलीको पंचेन्द्रिय कहने सम्बन्धी
-दे केवली ५. ५ जीव अनिन्द्रिय कैसे हो सकता है * इन्द्रियोके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान, जीवसमास
मार्गणा स्थानादि २० प्ररूपणाएं -दे. सत् * इन्द्रिय सम्बन्धी सत् (स्वामित्व),संख्या,क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ
-दे. वह वह नाम * इन्द्रिय मार्गणामे आयके अनुसार हो व्यय होनेका नियम
-दे मार्गणा * इन्द्रिय मार्गणामे सम्भव कर्मोका बन्ध उदय सत्व
- दे. वह वह नाम * कौन-कौन जीव मरकर कहाँ-कहाँ उत्पन्न हो और क्या क्या गुण उत्पन्न करे
-दे जन्म ६ * इन्द्रिय मार्गणामे भावेन्द्रिय इष्ट है -दे इन्द्रिय ३ ५ एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय निर्देश * अस व स्थावर
-दे वह वह नाम * एकेन्द्रियोंमे जीवत्वकी सिद्धि -३. स्थावर * एकेन्द्रियोंका लोकमे अवस्थान -दे स्थावर * एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय नियमसे सम्मछिम ही होते है
-दे.समूच्र्छन * एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियोमे अंगोपाग,संस्थान, संहनन व दुस्वर सम्बन्धी नियम
-दे. उदय
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इंद्रिय
३०१
१. भेद व लक्षण तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान
१ एकेन्द्रिय असंज्ञी होते है * एकेन्द्रिय आदिकोमे मनके अभाव सम्बन्धी-दे. सज्ञरे * एकेन्द्रिय जाति नामकर्मके बन्ध योग्य परिणाम
- दे जाति * एकेन्द्रियोंमे सासादन गणस्थान सम्बन्धी चर्चा
-दे जन्म * एकेन्द्रिय आदिकोंमे क्षायिक सम्यक्त्वके अभाव सम्बन्धी
- तिर्यञ्च गति * एकेन्द्रियोसे सीधा निकल मनुष्य हो क्षायिक सम्यक्त्व
व मोक्ष प्राप्त करनेकी सम्भावना -दे.जन्म ५ * विकलेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जीवोका लोकमे अवस्थन
-दे तिर्यश्च ३
१. भेद व लक्षण तथा तत्सम्बन्धी शका-समाधान
१. इन्द्रिय सामान्यका लक्षण पं. स./प्रा. १४६५ अहमिदा जह देवा अविसेस अहमहं त्ति मण्णता। ईसति एकमेक इदा इव इदिय जाणे ॥६॥-जिस प्रकार अहमिन्द्रदेव बिना किसी विशेषताके 'मै इन्द्र हूँ, मै इन्द्र हूँ' इस प्रकार मानते हुए ऐश्वर्यका स्वतन्त्र रूपसे अनुभव करते है, उसी प्रकार इन्द्रियोको जानना चाहिए । अर्थात् इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोको सेपन करने में स्वतन्त्र है। (ध. १/१.१.४/८५/१३७), (गो जो /. १६४), (पं.स./स. १/७८) स सि.१/१४/१०८/३ इन्दतीति इन्द्र आरमा। तस्य ज्ञस्वभावस्य तदा- वरणक्षयोपशने सति स्वयमर्थान् गृहोतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धिलिङ्ग तदिन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियमित्युच्यते। अथवा लीनमर्थ गमयतीति लिङ्गम्। आत्मन सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगमे लिङ्गमिन्द्रियम् । यथा इह धूमोऽग्ने । . अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते । तेन सृष्टमिन्द्रियमिति। -१. इन्द्र श६का पुत्सत्तिलभ्य अर्थ है, 'इन्दतीति इन्द्र' जो आज्ञा और ऐश्वर्य वाला है वह इन्द्र है। यहाँ इन्द्र शब्दका अर्थ आत्मा है। वह यद्यपि ज्ञस्वभाव है तो भी मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमके रहते हुए स्वय पदार्थोंको जानने में असमर्थ है। अत: उसको जो जानने में लिंग (निमित्त) होता है वह इन्द्रका लिंग इन्द्रिय कही जाती है। २ अथवा जो लीन अर्थात् गूढ पदार्थ का ज्ञान कराता है उसे लिंग कहते हैं । इसके अनुसार इन्द्रिय शब्दका अर्थ हुआ कि जो सूक्ष्म आत्माके अस्तित्वका ज्ञान कराने में लिग अर्थात कारण है उसे इन्द्रिय कहते है। जेसे लोक में धूम अग्निका ज्ञान कराने में कारण होता है । ३. अथवा इन्द्र शब्द नाममका याची है। अत यह अर्थ हुआ कि जिससे रची गयी इन्द्रिय है। (रा. वा. १/१४/१/५६), (रा.वा.२/११/१-२/१२६), (रा वा.६/७/११/६०३/२८), (ध १/१,१,२३/
२३२/१), (ध.७/२,१,२/6/७) ध १/१.१,४/१३५-१३७/६ प्रत्यक्ष निरतानी न्द्रियाणि । अक्षाणीन्द्रियाणि । असमक्ष प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षविषयोऽक्षजो बोधो वा । तत्र निरतानि व्यापृतानि इन्द्रियाणि । स्वेधा विषय. स्वविषयस्तत्र निश्चयेन निण येन रतानोन्द्रियाणि ।.. अथवा इन्दनादाधिपत्यादिन्द्रियाणि । -१ जो प्रत्यक्षमें व्यापार करतो है उन्हे इन्द्रियों कहते है। जिसका खुलासा इस प्रकार है अक्ष इन्द्रियको कहते है और जा अक्ष असके प्रति अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके प्रति रहता है, उसे प्रत्यक्ष कहते है। जा कि इन्द्रियोंका विषय अथवा इन्द्रियजन्य ज्ञानरूप पड़ता है। उस इन्द्रिय विषय अथवा इन्द्रिय ज्ञान रूप जो प्रत्यक्षमें व्यापार
करती है, उन्हे इन्द्रियों कहते है । २ इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयमें रत है। अर्थात व्यापार करती है । (ध ७/२,१,२/६/७) । ३. अथवा
अपने-अपने विषयका स्वतन्त्र आधिपत्य करनेसे इन्द्रियों कहलाती है। गो.जी |जी.प्र १६५ में उद्धृत "यदिन्द्रस्यात्मनो लिङ्ग यदि वा इन्द्रेण कर्मणा। सृष्ट जुष्टं तथा दृष्ट दत्त वेति तदिन्द्रिय । -इन्द्र जो आत्मा ताका चिह्न सो इन्द्रिय है। अथवा इन्द्र जो कर्म ताकरि निपज्या का सेया वा तैसे देख्या वा दीया सो इन्द्रिय है।
२. इन्द्रिय सामान्यके भेद त सू. २/१५,१६.१६ पञ्चेन्द्रियाणि ॥१५॥ द्विविधानि ॥१६॥ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षु श्रोत्राणि ॥१६॥ - इन्द्रियाँ पाँच है ॥१५॥ वे प्रत्येक दो-दो प्रकारको है ॥१६॥ स्पर्शन, रसन, घाण, चक्षु और श्रोत्र ये इन्द्रियाँ
है ।१६। (रा.वा १/१७/११/६०३/२६) स सि २/१६/१७४/१ को पुनस्तौ द्वौ प्रकारौ द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियमिति ।
-प्रश्न-वे दो प्रकार कौन-से है। उत्तर-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय (रा.वा २/१६/१/१३०/२), (ध १/११.३३/२३२/२). {गो जी /मू १६५)
३. द्रव्येन्द्रियके उत्तर-भेद त सू. २/१७ निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥१७॥ मा द्विविधा, बाह्याभ्य
न्तरभेदात् (स सि ) । -निवृत्ति और उपकरण रूप द्रव्येन्द्रिय है ॥१७॥ निवृत्ति दो प्रकारकी है-बाह्य निवृत्ति और आभ्यन्तरनिवृत्ति । (म सि २/१७/१७५/४), (रा वा २/१७/२/१३०), (ध.१/१, १३०/०३/२) स.सि २/१७/१७५/८ पूर्ववत्तदपि द्विविधम् । = निवृत्तिके समान यह
भी दो प्रकारकी है-बाह्य और आभ्यन्तर । (रा वा २/१७/६/१३०/१६) (ध १/१ १,३३/२३६/१२)
४ भावेन्द्रियके उत्तर-भेद तमू २/१८ लन्ध्युपयागो भावेन्द्रियम् ॥१८॥ -लब्धि और उपयोग रूप भावेन्द्रिय है। (व १/१,१.३३/२३६/५)
५ निवृत्ति व उपकरण भावेन्द्रियोके लक्षण स सि २/१७/१७५/३ निवृत्यते इति निवृत्ति । केन निवृत्यते। कम। मा द्विविधा, बाह्याभ्यन्तरभेदात् । उत्सेधाडगुलास ज्येयभागप्रमिताना शुद्वात्मप्रदेशाना प्रतिनियतचटुरादीन्द्रियसस्थानेनाव स्थिताना वृत्तिराभ्यन्तरा निवृत्ति । तेष्वात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभानु य प्रतिनियतसस्थाननामकर्मोदयापादितावस्थाविशेष' पुद्गलप्रचय सा ब्राह्मा निवृत्ति । येन निवृतरुपकार क्रियते तदुपकरणम् । पूर्ववत्तदपि द्विविधम् । तत्राभ्यन्तरकृष्ण शुक्लमण्डल बाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि । एव शेषेध्वपीन्द्रियेषु ज्ञेयम् । - रचनाका नाम निवृत्ति है। प्रश्न- यह रचना कौन करता है । उत्तर-कर्म । निवृत्ति दो प्रकारकी है-बाह्य और आभ्यन्तर । उत्सेधांगुलके असंख्यातवे भाग प्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियोके आकार रूपसे अवस्थित शुद्ध आरम प्रदेशोगी रचनाको आभ्यन्तर निवृत्ति कहते है। तथा इन्द्रिय नामवाले उन्हीं आरमप्रदेशोमें प्रति नियत आकार रूप और नामकर्मके उदयसे विशेष अवस्थाको प्राप्त जो पुद्गल प्रचय होता है उम बाह्य निवृत्ति कहते है। जो निवृत्तिका उपकार करता है उसे उपकरण कहते है। यह भी दो प्रकारका है। .. नेत्र इन्द्रियमे कृष्ण और शुक्मण्डल आभ्यन्तर उपकरण है तथा पलक और दोनो बरौनी आदि बाह्य उपकरण है। इसी प्रकार शेष इन्द्रियो मे भी जानना चाहिए। (रा वा २/१७/२-७/ १३७), (ध १/१.१३३/२३२/२), (ध १/१,१,३३/२३४/६), (ध १/१,१, ३३/२३६/३), (त सा २/४३) त सा २/४१-१२ नेवादीन्द्रि यस स्थानावस्थितानां हि वतनम् । विशुद्धारमप्रदेशाना तत्र निवृत्तिरान्तरा ॥४१॥ तेवेत्रात्मप्रदेशेषु करणव्यपदेशिषु। नामकर्मकृतावस्थ पुगनप्रचयोऽपरा ॥४२॥ - बाह्य व
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इंद्रिय
आंतर निवृत्तियो में से आन्तर निवृत्ति वह है कि जो कुछ आत्मप्रदेशोंकी रचना नेत्रादि इन्द्रियोंके आकारको धारण करके उत्पन्न होती है। वे आत्म प्रदेश इतर प्रदेशों से अधिक विशुद्ध होते है। ज्ञानके व ज्ञान साधनके प्रकरण में ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्य निर्मलताको विशुद्धि कहते है ४१ इन्द्रियाकार धारण करनेवाले अन्तरंग इन्द्रिय नामक आत्मप्रदेशों के साथ उन आत्मप्रदेशको अवलम्बन देने वाले जो शरीरकार अनयम इकट्ठे होते है उसे बाह्य निवृत्ति कहते है। इन शरीरावयवोको कर है होकर इन्द्रियावस्था बनने लिए अगोपाग आदि नामकर्म के कुछ भेद सहायक होते हैं।
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गो जी / टी १६५/३६१/१८ पुनस्तेष्विन्द्रियेषु तत्तदावरणक्षयोपशमविशि हारमा देश संस्थानमभ्यन्तरनिवृत्ति । तदवश्वशरीरप्रदेश संस्थाम बाह्यनिवृन्ति । इन्द्रियपर्याप्त्यागतनो कर्मबर्गणास्कन्धरूपस्पशचिर्थज्ञानसहकारि यत्तदम्यन्तरमुपकरण तदायभूतत्वगादिवषाह्यमुपकरणमिति ज्ञातव्य १६ शरीर नामकर्मसे रखे गये शरीर । | - के चिन्ह विशेष सो द्रव्येन्द्रिय है। तहाँ जो निज-निज इन्द्रियावरणकी क्षयोपशमताकी विशेषता लिए आत्मा के प्रदेशनिका संस्थान सो आभ्यन्तर निवृति है। परि तिस ही क्षेत्रविधे जो शरीरके प्रदेशनिका संस्थान सो बाह्य निवृत्ति है। बहुरि उपकरण भी.. तहाँ इन्द्र पर्याप्तकर जायी जो नोकवर्गणा तिनका स्वरूप जो स्पर्शादिविषय ज्ञानका सहकारी होइ सो तौ आभ्यन्तर उपकरण है अर ताके आश्रयभूत जो चामडी आदि सो बाह्य उपकरण है। ऐसा विशेष जानना ।
६ भावेन्द्रिय सामान्यका लक्षण
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रा वा १/१५/१३/६२/७ इन्द्रियभावपरिणतो हि जीवो भावेन्द्रियमिष्यते । इन्द्रिय भाव से परिणत जीव ही भावेन्द्रिय शब्द से कहना र है। गो.जो / १६५ मदिरओनमुखी हु तमोहो भावेदिय ९६५ । मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम से उत्पन्न जो आत्माकी ज्ञान के क्षयोपशम रूप) विशुद्धि उससे उत्पन्न जो ज्ञान यह तो है । ७. पाँचों इन्द्रियोंके लक्षण
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स सि. २/१६/१७७ /२ लोके इन्द्रियाणां पारतन्त्र्यविवक्षा दृश्यते । अनेनानापयामि, अनेन कर्णेन सुष्ठु गुणोमीति । ततः पारतन्त्र्यात्स्पर्शनादीनां करणत्वम् । वीर्यान्तरायमतिज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामहाभागम्भादारमना स्पृश्यतेऽनेनेति परस्यते ऽनेनेति रसनम् । धायतेऽनेनेति घ्राणम् । चक्षोरनेकार्थत्वाद्दर्शनार्थविवक्षायां चष्टे अर्थान्पश्यत्यनेनेति पशु मरोडनेनेति श्रोत्रम । स्वातन्त्र्यविवक्षा च दृश्यते । इदं मे अक्षि सुष्ठु पश्यति । अयं मे कर्मणोति ततः स्पर्शमादीनां कर्तरि निष्पत्ति रुपृषातीति स्पर्शनम् । रसतीति रसनम् । जिघतीति घ्राणम । चष्टे इति चक्षु । शृणोति इति श्रोत्रम् । लोकमें इन्द्रियोंकी पारतन्त्र्य विवक्षा देखी जाती है जैसे इस आँखसे मै अच्छा देखता हूँ, इस कानसे मै अच्छा सुनता हूँ अत पारतन्त्र्य विवक्षा में स्पर्शन आदि इन्द्रियोंका करण ना बन जाता है। बीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के आलम्बनसे आत्मा जिसके द्वारा स्पर्श करता है वह स्पर्शर्शन इन्द्रम है, जिसके द्वारा स्वाद लेता है वह रसनाइन्द्रिय है, जिसके द्वारा सूघता है वह घाण हन्द्रिय है। चसि धातुके अनेक अर्थ है उनमें से यहाँ दर्शन रूप अर्थ लिया गया है, इसलिए जिसके द्वारा पदार्थों को देखता है वह चक्षु इन्द्रिय है तथा जिसके द्वारा सुनता है वह श्रोत्र इन्द्रिय है । इसी प्रकार इन इन्द्रियोकी स्वातन्त्र्य विवक्षा भी देखी जाती हैं। जैसे यह मेरी आँख अच्छी तरह देखती है, यह मेरा कान अ] तरह सुनता है और इसलिए इन स्पर्शनादि इन्द्रियोंकी
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१. भेद व लक्षण तथा तत्सम्बन्धोशंका-समाधान
कर्ता कारक में सिद्धि होती है। यथा- जो स्पर्श करती है वह स्पर्शन इन्द्रिय है, जो स्वाद लेती है यह रसन इन्द्रिय है, जो संपती है यह घाण इन्द्रिय है, जो देखती है वह चक्षु इन्द्रिय है, जो सुनती है वह कर्णद्रिय (रा. बा /२/११/२/९३१/४) (घ. १/१.१.३३ / २३७/६, २४१/५, २४३ /४, २४५/५ २४७/२) । ८. उपयोगको इन्द्रिय कैसे कह सकते हैं
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१/१.१.३३/२२६/८ उपयोगस्य तत्फलश्वादिन्द्रियव्यपदेशानुपपतिरिति चेन्न कारणधर्मस्य कार्यानुवृत्ते । कार्यं हि लोके कारण मनुवर्तमान दृष्टं यथा घटकापरिणत विज्ञानं घट इति । तथेन्द्रियनिवृत्त उपयोगोऽपि इन्द्रियमित्यपदिश्यते । इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रेण सृष्टमिति वाय इन्द्रियशब्दार्थ स क्षयोपशमे प्राधान्येन विद्यत इति तस्येन्द्रियव्यपदेशो न्याय्यइति । प्रश्न - उपयोग इन्द्रियोंका फल है, क्योंकि, उसकी उत्पत्ति इन्द्रियोंसे होती है, इसलिए उपयोगको इन्द्रिय संज्ञा देना उचित नहीं है उनहीं क्योंकि, कारणमें रहनेवासे धर्मकी कार्य अनुवृत्ति होती है अर्थात कार्य लोक कारणका अनुकरण करता हुआ देखा जाता है । जैसे, घटके आकारसे परिणत हुए ज्ञान को घट कहा जाता है, उसी प्रकार इन्द्रियो से उत्पन्न हुए उपयोगको भी इन्द्रिय संज्ञा दी गयी है। ( वा २/१८/३-४/१३०)।
९. चलरूप आत्म प्रदेशोंमें इन्द्रियपना कैसे घटित होता है घ. १/१,१,३३/२३२/७ आह, चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां क्षयोपशमो हि नाम स्पर्शनेन्द्रियस्येन किमु सर्वापदेपजायते उत प्रतिनिय रोष्यति। किं चातः, न सर्वात्मप्रदेषु स्वरूपा प्रसाद अस्तु चेन्न तथानुपलम्भात् न प्रतिनियतात्मायययेषु वृत्तेः 'सिया ट्ठिया, सिया अढिया, सिया ट्ठियाट्टिया (ष खं / प्र०१२ ४,२,११,५/सु ५-७/३६७ ) इति वेदनासूत्रतोऽवगतभ्रमणेषु जीवप्रदेशेषु प्रचतर सर्वजीवानामान्ध्यसा दिति। नैष दोष, सर्व जीवामययेषु क्षयोपशमस्योत्पत्यम्युपगमात् न सर्वावरूपाप तत्सहकारिकारणमाहानि सरोषजीवाव्ययाभावात । घ १/१.१.३३ / २३४/४ द्रव्येन्द्रियप्रमितजीव प्रदेशानां न भ्रमणमिति किन्ने] इतिचेन्नमन्तरेणाशुभ्रमजीवाना भ्रमयादि दर्शनानुपपते इति प्रश्न- जिस प्रकार स्पर्शन-इन्द्रिय काङ्क्षयोपशम सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में उपन्न होता है उसी प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियों का क्षयोपशम क्या सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होता है, या प्रति नियत आत्मदेशों में १. आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम होता है यह तो माना नहीं जा सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर आरमाके सम्पूर्ण अवयवों से रूपादिकको उपलब्धिका प्रसंग आ जाएगा 1 २. यदि कहा जाय कि सम्पूर्ण अवयवोसे रूपादिककी उपलब्धि होती ही है, सो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि,
से रूपादिका ज्ञान होता हुआ पाया नहीं जाता। इसलिए सर्वांग में तो क्षयोपशम माना नहीं जा सकता है । ३. और यदि आत्मा के अतिरिक्त अवयवोमें चक्षु आदि इन्द्रियोका क्षयोपशम माना जाय, सो भी कहना नही बनता है, क्योंकि ऐसा मान लेनेपर 'आत्मप्रदेश चल भी है, अचल भी है और चलाचल भी है, इस प्रकार वेदना प्राभृतके सूत्र से आत्मप्रदेशो का भ्रमण अवगत हो जानेपर, जीव प्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में सम्पूर्ण जीवोकी अन्धपनेका प्रसंग आ जायेगा, अर्थात् उस समय चक्षु आदि इन्द्रियाँ रूपादिको ग्रहण नहीं कर सकेगी। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीवके सम्पूर्ण प्रदेशो में क्षयोपशमकी उत्पत्ति स्वीकार की है । परन्तु ऐसा मान लेने पर भी जीवके सम्पूर्ण प्रदेशोंके द्वारा रूपादिककी उपलब्धिका प्रसंग भी नहीं आता है, क्योंकि, रूपादिके ग्रहण करने में सहकारी कारण रूप बाह्य निवृति जीवके सम्पूर्ण प्रदेशों में नहीं पायी जाती है। प्रश्न- द्रव्येन्द्रिय प्रमाण जीव प्रदेशो का भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यो नहीं मान लेते हो उत्तर नहीं, क्योंकि, यदि द्रव्येन्द्रिय प्रमाण
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इंद्रिय
जीवप्रदेषोका भ्रमण नहीं माना जावे, तो अत्यन्त द्रुतगति से भ्रमण करते हुए जीवोको भ्रमण करती हुई पृथिवी आदिका ज्ञान नहीं हो सकता है।
२. इन्द्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपना
१. इन्द्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपनेका निर्देश पं. स. १/६८ सुणे सह अपर पुवि परदेस फार्स रस चग पूनिया ईटाको सुनती है चतुरिन्द्रय अस्पृष्ट रूपको देखती है। स्पर्शनेन्द्रिय रसनेन्द्रिय और घाणेन्द्रिय क्रमश बद्ध और स्पृष्ट, स्पर्श, रस और गन्धको जानती है । ६८ ।
स सि. १ / ११ / ११८ पर उद्धृत "पुट्ठ' सुणेदि सद्द अपुट्ठ' चैत्र पस्सदे रूअं गधं रसं च फास पुट्ठमपुट्ठ वियाणादि । श्रोत्र स्पृष्ट शब्दको सुनता है और अस्पृष्ट शब्दको भी सुनता है, नेत्र अस्पृष्ट रूपको ही देखता है। तथा घाण रसना ओर स्पर्शन इन्द्रियाँ क्रमसे स्पृष्ट और अस्पृष्ट गन्ध, रस और स्पर्श को जानती है ।
ध १३/५५.२७/२२५/१३ सव्वेसु इ दिएसु अपत्तत्थग्गणसत्तिसभावादो । = सभी इन्द्रियो में अप्राप्त ग्रहणकी शक्तिका पाया जाना सम्भव है । २. चक्षुको अप्राप्यकारी कैसे कहते हो
स. सि १ / ११ / ११८/६ चक्षुषोऽप्राप्यकारित्व कथमध्यवसीयते । आग
तो युक्तितश्च । आगमत. (दे २/१/१) । युक्तितश्च अप्राप्यकारि चक्षु, स्पृष्टानवग्रहात | यदि प्राप्यकारि स्यात् त्वगिन्द्रियवत् स्पृष्टमञ्जन गृह्णीयाद न तु गृहास्यतो मनोदशध्यकारी वसेय - प्रश्नचक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है यह कैसे जाना जाता है 1 उत्तरआगम और युक्तिसे जाना जाता है । आगमसे (दे. २/१/१) युक्ति यथा-चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, क्योकि वह स्पृष्ट पदार्थको नहीं ग्रहण करती । यदि चक्षु इन्द्रिय प्राप्यकारी होती तो वह त्वचा इन्द्रियके समान स्पृष्ट हुए अंजनको ग्रहण करती। किन्तु वह स्पृष्ट अजनको नहीं ग्रहण करती है इससे मालूम होता है कि मनके समान चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है। (रावा. १/११/२/६७/१२) ।
शवा १/१६/२/६७/२३ अत्र केचिदाहु - प्राप्यकारि चक्षु आवृतानवग्रहात् यद्रियवदिति अत्रोच्यते काचापटलस्फटिका वृतावग्रहे सति अव्यापकत्वादसिद्धो हेतु भौतिकत्वात् प्राप्यकारि चक्षुरग्निवदिति चेत न, अमरकान्तेने प्रत्यात्.. अयस्कान्तो पतम् अलोमाकर्षदपि न व्यवहितमा ति नातिविप्रकृष्टमिति संशयावस्थमेतदिति कारिविपर्ययभाव इति पेय. न प्राप्यकारित्वेऽपि तदविशेषात् । कश्चिदाह - रश्मिवच्चक्षु से जसरात तस्म वाध्यकारीति, अग्निवदिति एतच्चायुक्त अनम्युपगमात् जो सक्षम मौम्यमिति कृत्वा चक्षुरिन्द्रियस्थान मुष्ण स्यात् । न च तदेशं स्पर्शनेन्द्रियम् उष्णस्पर्शोपलम्भ दृष्टमिति । इतश्च, अतैजस चक्षु' भासुरत्वानुपलब्धे । .. नक्तंचररश्मिदर्शनाङ्ग रश्मिमच्यरिति चेद न अजसोऽपि गतस्य भारखपरिणामोपतेरिति किच गतिमय ह गतिमनतिन व संनिकृष्टविप्रकृष्टार्थानभिप्राप्नोति न च तथा चक्षु । चक्षुहि श खाचन्द्रमसावभिन्नकालमुपलभते, तस्मान्न गतिमचक्षुरिति । यदि च प्राप्यकारि चक्षु' स्यात्, तमिस्राय रात्री दूरेऽग्नौ प्रतिरसमोपगोतम्भन भवति कुतो नान्तरालगत द्रव्यालोचनम् ।.. किच, यदि प्राप्यकारि चक्षुः स्यात् सान्तरा हि न प्राप्नोति नहींद्रियान्सरविषये गन्धादी सातरग्रहण दृष्ट नाप्यधिकग्रहणम् । पूर्वपक्ष- चक्षु प्राप्यकारी है क्योंकि वह ढके हुए पदार्थ को नही देखती । जैसे कि स्पर्शनेन्द्रिय उत्तर- काँच अभ्रक, स्फटिक आदि से आवृत पदार्थोंको चक्षु बराबर देखती है।
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२ इद्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपना
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अत' पक्ष में भी अव्यापक होनेसे उक्त हेतु असिद्ध है। पूर्व - भौतिक होने से अग्निवत् चक्षु प्राप्यकारी है 'उत्तर- चुम्बक भौतिक होकर भी अप्राप्यकारी है। जिस प्रकार चुम्बक अप्राप्त लोहेको खीचता है। परन्तु अति दूरवर्ती अतीत अनागत या व्यवहित लोहेको नहीं खीचता । उसी प्रकार चक्षु भी न व्यवहितको देखता है न अति दूरवर्तीको ही, क्योंकि पदार्थों की शक्तियाँ मर्यादित है । पूर्वचक्षुके अप्राप्यकारी हो जानेपर चाक्षुष ज्ञान सशय व विपर्यययुक्त हो जाएगा ? उत्तर - नहीं, क्योकि प्राप्यकारी में भी वह पाये हो जाते हैं । पूर्व कि जो व्य है अत इसके किरणे होती है, और यहाँकिरणो के द्वारा पदार्थ से सम्बन्ध करके ही ज्ञान करता है जैसे कि अग्नि ' उत्तर - चक्षुको तेजो द्रव्य मानना अयुक्त है। क्योकि अग्नि तो गरम होती है, अतः चक्षु इन्द्रियका स्थान उष्ण होना चाहिए । अग्निकी तरह चक्षु में रूप (प्रकाश) भी होना चाहिए पर न तो चक्षु उष्ण है, और न भासुररूपवाली है। पूर्व - बिल्ली आदि निशाचर जानवरो की आँखे रातको चमकती है अत आँखे तेजो द्रव्य है । उत्तर - यह कहना भी ठीक नहीं है क्योकि पार्थिव आदि पृद्गल द्रव्यों में भी कारणवश चमक उत्पन्न हो जाती है - जैसे पार्थिव मणि व जलीय बर्फ 1 पूर्व - चक्षु गतिमान है, अत पदार्थो के पास जाकर उसे ग्रहण करती है। उत्तर-जो गतिमान होता है, वह समीपवर्ती व दूरवर्ती पदार्थोंसे एक साथ सम्बन्ध नही कर सकता जैसे किस्पर्शनेन्द्रिय तु चक्षु समीपवर्ती शाखा और दूरवर्ती चन्द्रमाको एक साथ जानता है । अतः गतिमानसे विलक्षण प्रकारका होनेसे चक्षु अप्राप्यकारी है । यदि गतिमान होकर चक्षु प्राप्यकारी होता तो अँधियारी रातमे दूर देव प्रकाशको देखते समय उसे प्रकाशके पासमें रखे पदार्थों तथा मध्य अन्तराल में स्थित पदार्थोंका ज्ञान भी होना चाहिए। यदि चक्षु प्राप्यकारी होता तो जैसे शब्द कान के भीतर सुनाई देता है उसी तरह रूप भी आँख के भीतर ही दिखाई देना चाहिए था। आँख के द्वारा जो अन्तरालका ग्रहण और अपने से बड़े पदार्थों का अधिक रूपमे ग्रहण होता है वह नहीं होना चाहिए।
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३. श्रोत्र को भी अप्राप्यकारी क्यो नहीं मानते
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रावा. १/२३/२/६८/२४ कश्चिदाह श्रोत्रमध्यकारि विषयग्रहणादिति एतच्चायुक्त असा साध्य साजरा मित्रकृष्ट शब्द गृहाति श्रोत्र उचाद्रियवगाढ स्वविषयभागपरिणत पुद्गलद्रव्य गृह्णाति इति विप्रकृष्ट शब्द ग्रहणे च स्वकर्णालिगत मशकशब्दो नोपलभ्येत । नही न्द्रियं किचिदेकं दूरस्पृष्टविषयग्राहि इदमिति... श्रोत्रस्य दिग्देशभेदविशिष्टामाव इति चेद न शब्दपरिणत विसर्प वेगातिविशेषस्य तथा भावोपपत्ते, सूक्ष्मत्वात् अप्रतिघातात समन्तत प्रवेशाच्च । पूर्व(मोद कहते है ओ भी चकी तरह अप्राप्यकारी है, क्योंकि वह दूरवर्ती शब्दको सुन लेता है 1 उत्तर- यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि श्रोत्रका दूरसे शब्द सुनना असिद्ध है । वह तो नाककी तरह अपने देशमें आये हुए शब्द पुद्गलोको सुनता है । शब्द वर्गणाएँ कान के भीतरही पहुँचकर सुनायी देती है । यदि कान दूरवर्ती शब्दको सुनता है तो उसे कानके भीतर घुसे दूर मच्चरका भिनभिनाना नहीं सुनाई देना चाहिएईद्र अति निकटवर्ती व दोनो प्रकार के पदार्थोंको नहीं जान सकती पूर्व-श्रोत्रको प्राप्यकारी मानने पर भी 'अमुक देशकी अमुक दिशा मे शब्द है' इस प्रकार दिग्देशविशिष्टता के विरोध आता है। उत्तर- नहीं, क्योकि वेगवान् शब्द परिणत पुद्गलोके त्वरित और नियत देशादिसे आनेके कारण उस प्रकारका ज्ञान हो जाता है। शब्द पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म है. ने चारों ओर बताओके कानो में प्रविष्ट होते है। वहीं प्रतिबात भी प्रतिकूलवायु और दीवार आदि से हो जाता है।
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इंद्रिय
४ स्पर्शनादि सभी इन्द्रि में भी कचित् अप्राप्य कारीपने संबन्धी
घ १/१.१.१९/१४२/२
ग्रह नोम्यत इति चेन्न, एकेन्द्रियेषु योग्यदेशस्थितनिधिषु निधिस्थित प्रदेश एव प्रारोहक्यानृपतित स्पर्शनस्यप्राप्तार्थ ग्रहणसिद्ध 1 मनोपलभ्यमानस्यापि तदश्न यद्य, पलास्विफालगोचर शेष पर्व रम्यदनुपलब्धरूपाभागो भविष्यत् । न चत्रमनुपलम्भात् । प्रश्न शेष इन्द्रियों में अप्राप्तका ग्रहण नही पाया जाता है, इसलिए उनसे अर्थविग्रह नहीं होना चाहिए। उत्तर - नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियोंमें उनका योग्य देश में स्थित निधवाले प्रदेशमे हो अकुरोंका फेलाब अन्यथा बन नहीं सकता, इसलिए स्पर्शन इन्द्रियके अपात अर्थका ग्रहण, अर्थात अप्राप्त अर्थावग्रह, बन जाता है। प्रश्न इस प्रकार यदि स्पर्शन इन्द्रियके अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना बन जाता है तो बन जाओ। फिर भी शेष इन्द्रियो के अप्राप्त अर्थ का ग्रहण नही पाया जाता है। उत्तर-नहीं क्योंकि, यदि शेष इन्द्रियो से अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना क्षायोपश मिक ज्ञानके द्वारा नहीं पाया जाता है तो मत पाया जावे। तो भी वह है ही, क्योंकि यदि हमारा ज्ञान त्रिकाल गोचर समस्त पदार्थोंको जाननेवाला होता तो अनुपलब्धका अभाव सिद्ध हो जाता अर्थात् हमारा ज्ञान यदि सभी पदार्थोंको जानता तो कोई भी पदार्थ उसके लिए अनुपलब्ध न होता। किन्तु हमारा ज्ञान तो त्रिकालवर्ती पदार्थों को जाननेवाला है नहीं, क्योंकि सर्वपदार्थोंको जाननेवाले ज्ञानकी हमारे उधि हो नहीं होती है।
१२/२.४.२०/२२/९३ हो नाम अपस्थग्रहणं पमिदमोदियाण,
से सिंदियाणं; तहोवल भाभावादोत्ति। ण, एड दिएस फासिंदिग्रस्स अपत्तणिहिरगहणुवल भादो । तदुबलभो च तत्थ पारोहमोच्छणाव लभदे । सेसि दियाणपत्तस्थग्रहण' कुदोष गम्मदे । जुत्तीदो। तं जहापानिदिभिदिव फासिदियाणमुक्करससिओ जोयणाणि । यदि एसिनिदिया मुक्करसखखमसमदजीवो पय जो
हितोपडिय आगोग्गलान जिव्या पाण- फासिदिए लग्गाण रस-गंध फार्म जागदि तो समतदो णवजायणभं तर द्विदगृह भक्खण तग्गज णिदअसाद च तस्स पसज्जेज्ज । ण च एवं तिव्विदि
खओवस मग चक्कट्ठी पि असायसायर तोपवेसप्पसंगादो । कि सिमीमा मरण पितरविसे जिम्मा संभवादियाण जोरगणा
दकमाणा च जीवाशुभोदो कि चसि महरभो समवदितोय-पद इसे मिलिय दुद्धस्स महुरत्ताभावादो । तम्हा सेसिंदियाणं पि अपत्तग्गहण मरिथ तिइच्छिद । = पूर्व - चक्षुइन्द्रिय और नोइन्द्रिय के अप्राप्त अर्थ करना रहा औवे, किन्तु शेष इन्द्रियोंके वह नहीं बन सकता, क्योंकि. वे अप्राप्त अर्थ को ग्रहण करती हुई नहीं उपलब्ध होतो ? उत्तर- नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियों में स्वन इन्द्रिय निधिको महन करती हुई उपलब्ध होती है, और यह बात उस ओर प्रारोह छोडने से जानी जाती है। पूर्व - शेष इन्द्रियाँ अप्राप्त अर्थ को ग्रहण करती है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है । उत्तर-१. युक्तिसे जाना जाता है । यथा-प्राणेन्द्रिय, जिह्न न्द्रिय और स्पर्शनेद्रियका उत्कृष्ट विषय नौ योजन है । यदि इन इन्द्रियोके उत्कृष्ट क्षयोपसमको प्राप्त हुआ
नौ योजन के भीतर स्थित द्रव्यों में से निकलकर आये हुए तथा निद्रा, और स्पर्शन इन्द्रियोंसे लगे हुए गली रसग और स्पर्शको जानता है तो उसके चारों आरसे नौ योजन के भीतर स्थित विष्ठा भक्षण करनेका और उसकी गंध के सूँघनेसे उत्पन्न हुए दुखका प्रसग प्राप्त होगा। परन्तु ऐसा नहीं क्योंकि ऐसा
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२. इंद्रिय निर्देश
माननेपर इन्द्रियो के सी योपशमको प्राप्त हुए चक्रवर्तियों के भी असाता रूपी सागर के भीतर प्रवेश करनेका प्रसंग आता है। २. दूसरे, ती क्षयोपशम को प्राप्त हुए जीवोंका मरण भी हो जायेगा क्योकि नौ योजनके भीतर स्थित अग्निसे जलते हुए जीवोका जीना नही बन सकता है । ३. तीसरे ऐसे जीवोंके मधुर भोजनका करना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, अपने क्षेत्रके भीतर स्थित तरसना और नीमने स्टुक रससे मिले हुए दूधमें मधुर रसका अभावहो जायेगा । इसलिए शेष इन्द्रियाँ भी अप्राप्त अर्थको ग्रहण करती हैं, ऐसा स्वीकार करना चाहिए ।
५ फिर प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीसे क्या प्रयोजन
ध. १/१,९,१९५/३५६/३ न कात्स्न्येनाप्राप्तमर्थस्यानि सृतत्वमुक्तत्व वा न महे यतस्तदवग्रहादि निदानमिन्द्रयाणामप्राप्यकारित्वमिति । कि तर्हि कथं चरनिद्राभ्यामनि स्वानुतामग्रहादिरपि प्राप्य करगादितिचेत्र योग्यदेशावस्थितेरेव तेरभिधानात् तथा च रसगधस्पर्शानां स्वग्राहिभिरिन्द्रयै' स्पष्टं स्वयोग्यदेशाव स्थिति शब्दस्य च रूपस्य चक्षुषाभिमुखतया न तर दिनाचा प्राप्यकारित्वमनि सृतानुक्ताग्रहादिसिद्धपदार्थ के पूरी तरहसे अनिसृतपनेको और अनुक्रूपनेको हम प्राप्त नहीं कहते है। जिससे उनके अरग्रहादिका कारण इन्द्रियोका अप्राप्यकारीपना होये । प्रश्न - तो फिर अप्राप्यकारीपने से क्या प्रयोजन है' और यदि पूरी तरहसे अनि सृतत्व और अनुक्तत्वको अप्राप्त नहीं कहते हो तो चक्षु और मनसे अति और अनुक्तके अवग्राहादि कैसे हो सकेंगे दि पशु और मनसे भी पूर्वोक अनि और अनु अग्रहार माने जावेगे तो उन्हें भी प्राप्यकारित्वका प्रसंग आ जायेगा । उत्तरनहीं क्योकि इन्द्रियोंके ग्रहण करनेके योग्य देशमें पदार्थोंको अपस्थितिको ही पाकिहते है। ऐसी अवस्थामें रस, गंध और प का उनको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियोंके साथ अपने-अपने योग्य देशमें अवस्थित रहना स्पष्ट है। शब्दका भी उसको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियके साथ अपने योग्य देश में अवस्थित रहना स्पष्ट है । उसी प्रकार रूपका चक्षुके साथ अभिमुख रूपसे अपने देश में अवस्थित रहना स्पष्ट है, क्योंकि, रूपको ग्रहण करनेवाले चक्षुके साथ रूपका प्राप्यकारीपना तथा अनि मृत व अनुक्तका अवग्रह आदि नहीं बनता है।
३ इन्द्रिय-निर्देश
दोष भाद्र
१ भावेन्द्रिय ही वास्तविक इन्द्रिय है ६. १०१.१.१०/२३/४ पायुमा भावेन्द्रियाँ नहीं पायी जाती है, इसीलिए व्यभिचार दोष आता है । उत्तर--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँपर मानेन्द्रियोंको अपेक्षा पचेद्रियपना स्वीकार किया है ।
मभिचारादिति प्रश्नकेक्सी
पेन्श्य होते हुऐ भी
२.१.१/दिया निष्पति पाके दिसपणे भ तण धडदे । कुदो। भाविदियाभावादो। भाविदिय णाम पचण्हमि दियाण खओवसमो ण सो खीणावरणे अस्थि । अध दविदियस्स यदि गण कौरदि तो सन्नीगमपसका सपना पनि दो चैव पाणा भवंति पचण्हं दव्त्रे दियाणमभावादो । क्तिने हो आचार्य थ्येन्द्रियो को पूर्णताको अपेक्षा फेमली के दशम कहते है. परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि, सयोगी जिनके भावेन्द्रियाँ नहीं पायी जाती है। पाँचों इन्द्रियागरण कर्मक्षयो पक्षको भावेन्द्रियों कहते है। परन्तु जिनका वावरण कर्म समुल नष्ट हो गया है उनके यह क्षयोपशम नहीं होता है। और यदि प्राणोंमें द्रव्येन्द्रियोंका हो ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवोंके अपर्याप्त
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इंद्रिय
३ इद्रिय-निर्देश
काल में सात प्राणोके स्थानपर कुल दो हो प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि,
उनके पाँच द्रव्येन्द्रियोंका अभाव होता है। ध १/२.१.१५/६१/६ पस्सिदियावरणस्स सववादिफद्दयाण संतोवसमेण देसवादिफयाणमुदएण चक्र साद-घाण-जिभिदियावरणाण देमधादिफयाणमुदयक्रवएण तेसिं चेव संतोवसमेण तेसि सव्वघादिफदयाणमुदएण जो उप्पण्णो जीवपरिणामो सोख ओवसमिओ बुच्चदे। कुदो। पुवुत्ताण फड़याण खओवसमे हि उापण्णत्तादो । तस्स जीव
परिणामस्स एइ दियमिदि सण्णा। ध, १/२,१,१५/६६/५ फासिदियावरणादोण मदिआवरणे अंतब्भावादो।
-स्पर्शेन्द्रियावरण कर्मके सर्वघाती स्पर्धकोके सत्त्वोपशमसे, उसीके देशघाती स्पर्ध कोके उदयसे, चक्षु, श्रोत्र, घाण और जिहा इन्द्रियावरण कर्मोके देशघाती स्पर्धकोके उदय क्षयसे जो जीव परिगाम उत्पन्न होता है उसे क्षयोपशम कहते है, क्योंकि, वह भाव पूर्वोक्त स्पधकोंके क्षय और उपशम भावोंसे ही उत्पन्न होता है। इसी जीव परिणामकी एकेन्द्रिय सज्ञा है। स्पर्शनेन्द्रियादिक आवरणोका मति आवरणमें ही अन्तर्भाव हो जानेसे उनके पृथक उपदेशको आवश्यकता नहीं समझो गयी।
२ भावेन्द्रियको ही इन्द्रिय मानते हो तो उपयोग शन्य __दशामें या संशयादि दशामें जीव अनिन्द्रिय हो जायेगा ध १/१,१,४/१३६/१ इन्द्रियवैकल्यमनोऽनवस्थानानध्यवसायालोकाद्य
भावावस्थायाँ क्षयोपशमस्य प्रत्यक्षविषयव्यापाराभावात्तत्रात्मनोऽनिन्द्रियत्वं स्यादिति चेन्न, गच्छतीति गौरिति व्युत्पादितस्य गोशब्दस्यागच्छद्गोपदार्थेऽपि प्रवृत्त्युपलम्भात । भवतु तत्र रूढिबललाभादिति चेदत्रापि तल्लाभादेवास्तु, न कश्चिद्दोष । विशेषभावतस्तेषां सङ्करव्यतिकररूपेण व्यापृति व्याप्नोतीति चेन्न, प्रत्यक्षे नीतिनियमिते रतानीति प्रतिपादनात। संशयविपर्ययावस्थाया निर्णयात्मकरतेरभावात्तत्रात्मनोऽनिन्द्रियत्वं स्यादिति चेन्न, रूढिबललाभादुभयत्र प्रवृत्त्य विरोधात । अथवा स्ववृत्तिरतानीन्द्रियाणि । सशयविपर्ययनिर्ण यादौ वर्तन वृत्ति तस्या स्ववृत्तौ रतानीन्द्रियाणि । निापारावस्थाया नेन्द्रियव्यपदेश स्यादिति चेन्न, उक्तोत्तरत्वात्। -प्रश्न-इन्द्रियोकी विकलता, मनकी चचलता और अनध्यवसायके सद्भावमे तथा प्रकाशादिकके अभावरूप अवस्थामें क्षयोपशमका प्रत्यक्ष विषयमे व्यापार नही हो सकता है, इसलिए उस अवस्थामें आरमाके अनिन्द्रियपना प्राप्त हो जायेगा। उत्तरऐसा नहीं है, क्योकि जो गमन करती है उसे गौ कहते है। इस तरह *गौ' शब्दको व्युत्पत्ति हो जानेपर भी नही गमन करनेवाले गौ पदार्थ में भी उस शब्दकी प्रवृत्ति पायी जाती है। प्रश्न-भले ही गौ पदार्थमें रूढिके बल से गमन नही करती हुई अवस्थामें भी 'गौ' शब्दकी प्रवृत्ति होओ। किन्तु इन्द्रिय वैकल्यादि रूप अवस्थामें आत्माके इन्द्रियपना प्राप्त नहीं हो सकता है। उत्तर-यदि ऐसा है तो आत्मामे भी इन्द्रियोकी विकलतादि कारणोके रहनेपर रूढिके बलसे इन्द्रिय शब्दका व्यवहार मान लेना चाहिए। ऐसा मान लेने में कोई दोष नहीं आता है । प्रश्न - इन्द्रियोके नियामक विशेष कारणोका अभाव होनेसे उनका संकर और व्यतिकर रूपसे व्यापार होने लगेगा। अर्थात या तो वे इन्द्रियों एक दूसरी इन्द्रियके विषयके विषयको ग्रहण करेगी या समस्त इन्द्रियोका एक ही साथ व्यापार होगा। उत्तर ऐसा कहना ठीक नही है, क्योकि इन्द्रियाँ अपने नियमित विषयमें ही रत है, अर्थात व्यापार करती हैं, ऐसा पहले ही कथन कर आये है। इसलिए संकर और व्यतिकर दोष नही आता है। प्रश्नसंशय और विपर्यय रूप ज्ञानको अवस्थामें निर्णयात्मक रति अर्थात प्रवृत्तिका अभाव होनेसे उस अवस्थामें आत्माको अनिन्द्रियपने की प्राप्ति हो जावेगी। उत्तर-१. नही, क्योंकि रूढिके बलसे निर्णयात्मक और अनिर्णयात्मक इन दोनो अवस्थाओमें इन्द्रिय शब्द की
प्रवृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता है । २. अथवा अपनी-अपनी प्रवृत्तिमें जो रत है उन्हे इन्द्रियाँ कहते है इसका खुलासा इस प्रकार है। संशय और विपर्यय ज्ञान के निर्णय आदि के करने में जो प्रवृत्ति होती है, उसे वृत्ति कहते है। उस अपनी वृत्ति में जो रत है उन्हें इन्द्रियों कहते है। प्रश्न-जब इन्द्रियाँ अपने विषय में व्यापार नहीं करती है, तब उन्हे व्यापार रहित अवस्थामें इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकेगी। उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योकि इसका उत्तर पहले दे आये है कि रूढिके बलसे ऐसी अवस्थामें भी इन्द्रिय व्यवहार होता है।
३. भावेन्द्रिय होनेपर ही द्रव्येन्द्रिय होती है ध १/१,१,४/१३५/७ शब्दस्पर्शरसरूपगन्धज्ञानावरणकमणां क्षयोपशमा द्रव्येन्द्रियनिबन्धनादिन्द्रियाणीति यावत् । भावेन्द्रियकार्यवाद् द्रव्येन्द्रियस्य व्यपदेश । नेयमदृष्टपरिकल्पना कार्यकारणोपचारस्य जगति सुपसिद्धस्योपलम्भाद। -(वे इन्द्रियाँ) शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध नामके ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे और द्रव्येन्द्रियो के निमित्तसे उत्पन्न होती है। क्षयोपशमरूप भावेन्द्रियोके होनेपर ही द्रव्येन्द्रियोको उत्पत्ति होती है, इसलिए भावेन्द्रियाँ कारण है, और द्रव्येन्द्रियाँ कार्य है, ओर इसलिए द्रव्येन्द्रियोको भी इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त होती है। अथवा, उपयोग रूप भावेन्द्रियोंकी उत्पत्ति ढव्येन्द्रियोके निमित्तसे होती है, इसलिए भावेन्द्रिय कार्य है और द्रव्येन्द्रियाँ कारण है, इसलिए भी द्रव्येन्द्रियोको इन्द्रिय सज्ञा प्राप्त है। यह कोई अदृष्ट कल्पना नहीं है, क्योकि कार्यगत धर्मका कारणमें और कारणगत धर्मका कार्यमे उपचार जगत् में निमित्त रूपसे पाया जाता है।
४ द्रव्येन्द्रियोका आकार मू.आ १०६१ जवणालिया मसूरिअ अतिमुत्तयचदए खुरप्पे य । इंदिय
सठाणा खलु फासस्स अणेयस ठाणं ॥१०६१॥ श्रोत्र, चक्ष, घाण, जिह्वा इन चार इन्द्रियोका आकार क्रमसे जौकी नली, मसूर, अतिमुक्तक पुष्प, अर्धचन्द्र अथवा खुरपा इनके समान है और स्पर्शन इन्द्रिय अनेक आकार रूप है। ( सं /प्रा १/६६), (रा वा १/१६/६/ ६६/२६), (ध १/१,१,३३/१३४/२३६), (घ. १/१,१,३३/२३४/७), (गो जी / १७१-१७२), (पं सं सं १/१४३)
५ इन्द्रियोंकी अवगाहना ध १/१,१,३३/२३४/७ मसूरिकाकारा अमुलस्यासंख्येयभागमिता चक्षुरिन्द्रियस्य बाह्यनिवृत्ति । यवनालिकाकारा अङ्गुलस्यासंख्येयभागप्रमिता श्रोत्रस्य बाह्यनिवृत्ति । अतिमुक्तकपुष्पसंस्थाना अडलस्यासंख्येयभागप्रमिता घाण निवृत्ति । अधं चन्द्राकारा क्षुरप्राकारा वाङ्गलस्य सख्येयभागप्रमिता रसननिवृत्ति । स्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तिरनियतसंस्थाना। सा जघन्येन अङ्गुलस्यासंख्येयभागप्रमिता सूक्ष्मशरीरेषु, उत्कर्षेण संख्येयघनामुलप्रमिता महामत्स्यादित्रसजीवेषु । सर्वतः स्तोकाश्चक्षष , प्रदेशा', श्रोत्रेन्द्रियप्रदेशा संख्येयगुणा, घाणेन्द्रियप्रदेशा विशेषाधिका , जिह्वायामसंख्येय गुणा स्पर्शने संख्येयगुणा । - मसुरके समान आकारवाली और घनागुलके असरख्यातवे भागप्रमाण चक्षु इन्द्रियको बाह्य निवृत्ति होती है। यवकी नाली के समान आकारवाली और घनागुलके असख्यातवे भागप्रमाण श्रोत्र इन्द्रियकी बाह्य निवृत्ति होती है। कदम्बके फूल के समान आकारवाली और घनागुलके असख्यातवे भागप्रमाण घाण इन्द्रियकी बाह्य निर्वृति होती है। अर्धचन्द्र अथवा खुरपाके समान आकारवाली
और धनागुल के सख्येय भाग प्रमाण रसना इन्द्रियको बाह्य मित्ति होती है। स्पर्शन इन्द्रियको बाह्यनिसि अनियत आकारवाली होती है । वह जघन्य प्रमाण की अपेक्षा घनागुलके असख्यातवें भागप्रमाण सुक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके (ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेके तृतीय समयवर्ती) शरीरमें पायी जाती है, और उत्कृष्ट प्रमाणकी
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४. इन्द्रिय मार्गणा व गुणस्थान निर्देश
रस और म्पर्श तो काम है और गन्ध, रूप, शब्द भोग है, ऐसा कहर है ।११३८। (स सा./ता वृ. ४/११)
८ इन्द्रियोके विषयों सम्बन्धी दृष्टि-भेद ध १/४,१,४५/१५६/१ नवयोजनान्तरस्थितपुद्गलद्रव्यस्कन्धैकदेशमा
गम्येन्द्रियसबद्ध जानन्तीति केचिदाचक्षते । तन्न घटते, अध्वानप्ररूपणा वैफल्यप्रस गाद नौ योजनके अन्तरसे स्थित पुद्गल द्रव्य स्कन्ध के एक देशको प्राप्त कर इन्द्रिय सम्बद्ध अर्थ को जानते है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते है। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर अध्वान प्ररूपणाके निष्फल होनेका प्रसग आता है।
& ज्ञानके अर्थ में चक्षुका निर्देश प्रसा /३. २३४ आगमचक्खू साहू इन्दियचक्रवृणि सव्वभूदाणि । देवा य
ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चवखु १२३४। साधु आगम चक्षु है, सर्व प्राणी इन्द्रिय चक्षु वाले है, देव अवधि चक्ष वाले है और सिद्ध सर्वतः चक्षु (सर्व ओरसे चक्ष वाले अर्थात् सर्वात्मप्रदेशोसे चक्षु
वान्) है।
मोक्षा सल्यात धनागुल प्रमाण महामरस्य आदि स जीवोके शरीरमें पायी जाती है। चक्षु इन्द्रियके अवगाहनारूप प्रदेश सबसे कम है, उनसे सख्यातगुणे श्रोत्र इन्द्रियके प्रदेश है। उनसे अधिक घाण इन्द्रियके प्रदेश है। उनसे असख्यात गुणे जिहाइन्द्रियके प्रदेश है । और उनसे असख्यातगुणे स्पर्शन इन्द्रियके प्रदेश है। ६ इन्द्रियोंका द्रव्य व क्षेत्रको अपेक्षा विषय ग्रहण
१ द्रव्य की अपेक्षा त सू. २/१६-२१ स्पर्शनरसननाणचक्षु श्रोत्राणि ॥१६॥ स्पर्शरसगन्धवर्ण
शब्दास्तदर्था ॥२०॥ श्रुतमनिन्द्रियस्या२१ -स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्र ये इन्द्रियाँ है ॥१६॥ इनके क्रमसे स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द ये विषय है ।२०१ श्रुत (ज्ञान) मनका विषय है । (१. सं./प्रा. १४५८), (पं.सं.(स, १/८१) रा.बा.११११/३१/४७२/३० मनोलब्धिमता आत्मना मनस्त्वेन परिणामिता पुद्गला' तिमिरान्धकारादिबाह्याभ्यन्तरैन्द्रियप्रतिधातहेतुसंनिधानेऽपि गुणदोषविचारस्मरणादिव्यापारे साचिव्यमनुभवन्ति, अतोऽस्त्यन्त करणं मन । मनोलन्धि वाले आत्माके जो पुद्गल मनरूपसे परिणत हुए है वे अन्धकार तिमिरादि बाह्येन्द्रियोके उपघातक कारणो के रहते हुए भी गुणदोष विचार और स्मरण आदि व्यापारमें सहायक होते ही है। इसलिए मनका स्वतन्त्र अस्तित्व है। ध. १३/५,५,२०/२२६/१३ णोइन्दियादो दिट्ठ सुदाणुभूदेसु अत्थेसु णोईदियादो पुषभूदेसु ज णाणमुप्पज्जदि सी जोइन्दिय अस्योग्गहो णाम .. मुदाणुभूदेसु दम्वेसु लोगतरट्टिदेनु वि अत्थोग्गहो त्ति कारणेणअाणणियमाभावादो। नोइन्द्रिय के द्वारा उससे पृथक भूत दृष्ट, श्रुत और अनुभूत पदार्थोका जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह नोइन्द्रिय अर्थावग्रह है। क्योकि लोकके भीतर स्थित हुए श्रुत और अनुभूत विषयका भी नोइन्द्रियके द्वारा अर्थावग्रह होता है, इस कारणसे यहाँ
क्षेत्रका नियम नहीं है। प.ध/पू. ७१५ स्पर्शनरसनधाणं चक्षुः श्रोत्र'च पंचकं यावत् । मूर्तग्राहकमेक मूर्सामूर्तस्य बेदकं च मन' १५१७) -स्पर्शन, रसन, घाण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँचों ही इन्द्रियाँ एक मूर्तीक पदार्थ को जाननेबाली है। मन मूर्तीक तथा अमूर्तीक दोनों पदार्थोंकी जानने
२ क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट विषय (मू.आ. १०१२-१०६८ (रा.वा. १११६/६/७०/३), (ध.१/४,१.४५॥ १२.१७/१५८), (घ. १३/१०५.२८/२२७/१२) संकेत-ध.-धनुष, यो, योजन: सर्वलोकवर्ती सर्वलोकवी दृष्ट
व अनुभूत विषय-दे. ध १३ ।
४ इन्द्रिय मार्गणा व गुणस्थान निर्देश
१ इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा जीवोंके भेद ष.ख १/१.१/सू. ३३/२३१ इन्दियाणुवादेण अत्यि एइन्दिया, बौदिया, तीइन्दिया, चदुरिदिया, चिदिया, अणिदिया चेदि । - इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय जीव होते है । (द्र सटी. १३/३७)
२ एकेन्द्रियादि जीवोके लक्षण पं.का./मू. ११२-११७ एदे जीवणिकाया पंचविधा पुढविकाइयादीया। मण परिणामाविरहिदा जीवा एगे दिया भणिया ११२ सबुकमादुवाहा सखा सिप्पी अपादगा य किमी। जाणति रस फास जे ते बेइन्दिया जीवा ।११४। जूगागुंभीमकणपिपीलिया बिच्छयादिया कीडा। जाणं ति रसं फास गध तेइ दिया जीवा ।११। उद्दसमसयमक्खियमधुकरिभमरा पत गमादीया। रूब रसं च गंध फासं पुण ते विजा ण ति १११६। सुरणरणायतिरिया वण्णरसफासगधसदह । जलचरथलचर चरा बलिया पंचे दिया जीवा ।११७ - इन पृथ्वी कायिक आदि पाँच प्रकारके जीवनिकायोको मन परिणाम रहित एकेन्द्रिय जीव (सर्व ज्ञने) कहा है ।११२॥ शबूक, मातृकवाह, शख, सीप और पग रहित कृमि-जो कि रस और स्पर्शको जानते है, वे द्वीन्द्रिय जीव है ।११४ जू, कुम्भी, खटमल, चीटी और बिच्छ आदि जन्तु रस, रपर्श और गन्धको जानते है, वे त्रीन्द्रिय जीव है ।११। डाँस, मच्छर, मक्खी, मधुमक्खी, भेंबरा और पतगे आदि जीव रूप, रस, गन्ध और स्पर्शको जानते है । (वे चतुरिन्द्रिय जोब है)।११६। वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्दको जाननेवाले देव-मनुष्य-नारक-तियंच जो थलचर, खेचर, जलचर होते है वे बलवान् पन्चेन्द्रिय जीव है। १११७५ (पं.सं /प्रा. १/६९-७३). (ध, १११,१५३३/१३६-९३८/२४१-२४५), (१ सं/सं १/१४३-१५०) ।
३ एकेन्द्रियसे पंचेन्द्रिय पर्यन्त इद्रियोंका स्वामित्व त सू २/२२.२३ वनस्पत्यन्तानामेकम् ।२२। कृमिपिपीलकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ।२३।- वनस्पतिकायिक तकके जीवो के अर्थात पृथिवी अप, तेज, वायु व वनस्पति इन पाँच स्थावरोमे एक अर्थात प्रथम इन्द्रिय (स्पर्शन) होती है ।२२। कृमि पिपीलिका, भ्रमर और मनुष्य आदि के क्रमसे एक-एक इन्द्रिय अधिक होती है ।२३ (५ स/प्रा.१।६७) (ध १/१,१,३५१४२/२५८), (प.सं./स १/८२-८६), (गो.जी /मू. १६६)। स,सि. २/२२-२३/१८०/४ एके प्रथम मित्यर्थ । कि तव। स्पर्शनम् ।
तत्केषाम् । पृथिव्यादोना वनस्पत्यन्ताना वेदितव्यम् ॥२२॥ कृम्यादीना स्पर्शन रसनाधिकम, पिपीलिकादीना स्पर्शनरसने घाणाधिके.
-
इन्द्रिय एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिग चतुरिन्द्रिया असंज्ञी प. संज्ञी प. स्प न ४०० ५.८०० ध. १६००५ ३२०० ५.६४०० ध । यो. रसना ६४ ध. १२८ध. २५६ ध ५१२ ध. यो. प्राण
(१००५. २०० ध. । ४०० घ. यो. चक्षु
| २६५४ यो.५६०८ यो,४७२६२७०
1८००० ध. १२यो मन
सर्वलोकवर्ती
श्रोत्र
७ इन्द्रियोंके विषयका काम व भोगरूप विभाजन म.आ. ११३८ कामा दुवे तऊ भोग इन्दियत्था विहिं पण्णत्ता। कामो रसो य फासो सेसा भोगेति आहीया ।११३८ -दो इन्द्रियोके विषय काम है, तीन इन्द्रियोंके विषय भोग है, ऐसा विद्वानोने कहा है।
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इंद्रिय
इण्या
भ्रमरादोना स्पर्शनरसनधाणानि चक्षुरधिकानि, मनुष्यादीनां तान्येव
इंद्रिय प्रमाण-दे, प्रमाण । श्रोताधिकानीति । सूत्र में आये हुए 'एक' शब्द का अर्थ प्रथम है ।
इंद्रोपपाद-गर्भान्वयादि क्रियाओमें-से एक--दे संस्कार २। प्रश्न -बह कौन है। उत्तर-स्पर्शन। प्रश्न-वह कितने जोवोके होती है। उत्तर-पृथिवीकायिक जीवोसे लेकर वनस्पतिकायिक
बादाल-१८४४६७,४४०७३७०६५५१६१६ ॥ तकके जीवोके जानना चाहिए ।२२। कृमि आदि जीवोके स्पर्शन और
तो-भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी -दे मनुष्य ४। रसना ये दो इन्द्रियाँ होती है। पिपीलिका आदि जीवोके स्पर्शन, रसना, घाण ये तीन इन्द्रियाँ होती है । भ्रमर आदि जोबोके स्पर्शन, __ इक्षुरस-दे रस। रसना, प्राण और चभु ये चार इन्द्रियाँ होती है। मनुष्यादिके श्रोत्र इक्षुवर-मध्यलोकका सप्तम द्वीप व सागर -दे लोक ॥१॥ इन्द्रियके मिला देनेपर पाँच इन्द्रियाँ होती है। (रावा. २/२२/४/
इक्ष्वाकुवंश-दे. इतिहास १०/२ । १३५); (ध. १/१,१,३३/२३७ २४१,२४३,२४५,२४७) ४. एकेन्द्रिय आदिकोंमें गुणस्थानोंका स्वामित्व
इच्छा -दे. अभिलाषा। प.वं. १/११/सू. ३६-३७/२६१ एइदिया बोइदिया तीइन्दिया चउरि- इच्छाकारदिया असण्णि पचिदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइटिट्ठाणे ।३६। पचि- मू आ. १२६,१३१ इठे इच्छाकारो तहेव अबराधे । - ॥१२६॥ संजमणादिया असणिपंचिदिय पहूडि जाव अयोमिकेवलि ति।३७) - णुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे। जोगग्गहणादिमु अ इच्छाएकेन्द्रिय द्वोन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पचेन्द्रिय कारो दु कादयो ।१३१॥ - सम्यग्दर्शनादि शुद्ध परिणाम व ब्रतादिक जीव मिथ्यादृष्टि नामक गुणस्थानमें ही होते है।३६ अस शो-चे
शुभपरिणामोमें हर्ष होना अपनी इच्छासे प्रवर्तना वह इच्छाकार है। न्द्रिय मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक ॥१२६॥ सयमके पीछी आदि उपकरणोमैं तथा श्रवज्ञानके पुस्त५चेन्द्रिय जीव होते है ।३७१ (रा वा ६/७/११/६०५/२४), (ति.प / कादि उपकरणो में और अन्य भी तप आदिके कमण्डलु आहारादि २६६); गो जी /मूव जी.प्र ६७८/११२१); गो क /जी.प्र. ३०६/४३८/८ उपकरणो में, औषधिमें, उष्णकालादिमें, आतापनादि योगों में इच्छापृथ्व्यप्रत्येकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्ते । - पृथ्वी, अप, और
कार करना अर्थात् मनको प्रवर्ताना ॥१३१॥ प्रत्येक वनस्पतिकायिको में सासादन गुणस्थानवी जीव मरकर उत्पन्न
सुपा/मू १४-१५ इच्छायार महत्थं सुत्ताठओ जो ह छ डए कम्मं । ठाणे हो जाता है। अन्य एके न्द्रियोमें नही। विशेष दे जन्म ४/सासादन
द्वियसम्मत्तं परलोयसुहकरो होइ.१४॥ अह पुण अप्पा णिच्छदि सम्बन्धी दृष्टिभेद।
धम्माइ करेदि निरवसेसाई। तह विण पाव दि सिद्धि संसारत्थो ५ जीव अनिन्द्रिय कैसे हो सकता है
पुणो भणिदो ॥१५॥ = जो पुरुष जिन सूत्र विर्षे तिष्ठता संता इच्छाष ख ७/२.१/सू १६-१७/६८ अणिदिओ णाम कध भवदि।१६। खड्याए कार शब्दका महान् अर्थ ताहि जान है, बहुरि स्थान जो श्रावकके लडीए ।१७५ प्रश्न-जीव अनिन्द्रिय किस प्रकार होता है । उत्तर- भेद रूप प्रतिमा तिनिमै तिष्ठया सम्यक्त्व सहित वतता आरम्भ क्षायिक लधिसे जीव अनिन्द्रिय होता है।
आदि कर्म नि छोडे है सो परलोकवि सुख करनेवाला होय है॥१४॥ घ ७/२,११७/६८/८ इदिएसु विणठेसु णाणस्स विणासो णाणाभावे इच्छाकारका प्रधान अर्थ आत्माका चाहना है अपने स्वरूप विध जीवविणासो, जीवाभावे ण स्वइयालद्धी वि, णेद जुज्जदे। कुदो। रुचि वरना है सो याकू जो नाही इष्ट कर है अन्य धर्मके सर्व आचजीवो णाम णाण सहावो, तदो इन्दियविणासे ण णाणस्स विणासी। रण करे है तौउ सिद्धि कहिये मोक्ष के नहीं पावै है ताकं ससारविषै गाण सहकारिकारणइन्दियाणमभावे कधं णाणस्स अस्थित्तििद चे ही तिष्ठनेवाला कह्या। ण... च छदुमत्थावत्थाए णाणकारणण पडिवणि दियाणि वीणा
* श्रावक श्राविका व आर्यिका तीनोंकी विनयके लिए रणे भिण्णज दोए णाणुप्पत्तिम्हि सहकारिकारण होति ति णियमो,
'इच्छाकार' शब्दका प्रयोग किया जाता है। अइप्पसगादो, अण्णहा मोक्रवाभावप्पसगा। प्रश्न-इन्द्रियोके विनष्ट हो जाने पर ज्ञानका भी बिनाश हो जायेगा, और ज्ञानके
-दे. विनय ३॥ अभाव में जीव का भी अभाव हो जायेगा। जीवका अभाव हो जाने- इच्छादेवी-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी। पर क्षायिक लब्धि न हो सकेगी? उत्तर-यह शंका उपयुक्त नहीं है,
-दे. लोक । क्योकि जीव ज्ञान स्वभावी है। इसलिए इन्द्रियोका विनाश हो
इच्छानिरोध-दे. तप । जानेपर ज्ञानका विनाश नहीं होता। प्रश्न-ज्ञानके सहकारी कारणभूत इन्द्रियोके अभाव मे ज्ञानका अस्तित्व किस प्रकार हो सकता है ।
इच्छा निषेध-दे राग। उत्तर-छद्मस्थ अवस्थामे कारण रूपसे ग्रहणकी गयी इन्द्रियों क्षीणा
इच्छानुलोमा भाषा-दे, भाषा।। वरण जीवों के भिन्न जातीय ज्ञानकी उत्पत्तिमें सहकारी कारण हो
इच्छा राशि-गो जो सद्दष्टि 'गणित' सम्बन्धी त्रैराशिक विधिमें ऐसा नियम नही है। क्योकि ऐसा माननेपर अतिप्रसग दोष आ जायेगा, अन्यथा मोक्षके अभावका ही प्रसग आ जायेगा।
अपना इच्छित प्रमाण (विशेष -- दे.गणित/४) ५. एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय निर्देश
इच्छा विभाग-वसतिकाका एक दोष- दे वसतिका ।
इज्या-म पु. ६७/१६३ याज्ञो यज्ञ ऋतु' सपर्येज्याध्वरो मख । मह १. एकेन्द्रिय असंज्ञी होते हैं
इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधे ॥१३॥ -याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, पं.का/मू १११ मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया १११॥ - सपर्या, इज्या, अध्वर, मख, और मह ये सब पूजा विधिके पर्यायमन परिणामसे रहित एकेन्द्रिय जीव जानना।
वाचक शब्द है ॥१३॥ इंद्रिय जय-दे संयम २।
चा, सा ४३/१ तबाह पूजेज्या, सा च नित्यमहश्चतुर्मुखं कल पक्षोऽष्टा
सिक ऐन्द्रध्वज इति। -अर्हन्त भगवान की पूजा करना इज्या कहइंद्रिय ज्ञान-दे मतिज्ञान।
लाती है उसके नित्यमह, चतुर्मुख कल्पवृक्ष अष्टाह्निक और इन्द्रइंद्रिय पर्याप्ति-दे. पर्याप्ति ।
ध्वज यह पाँच भेद है।
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इतरनिगोद
इतरनिगोद - मनस्पति २ । इतरेतराभाव अभाव ।
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इति रा बा. ९/१३/१/५७ /११ इतिशब्दोऽनेकार्थः संभवति । क्वचि इमे वर्तते हन्तीति पलायते वर्षतीति धावति। क्यचिदेवमित्यस्यार्थे वर्तते इति स्म उपाध्याय कथयति' एवं स्म इति गम्यते । चिकारे वर्तते यथा 'गौरस्य शुक्ल नील, परतिप्ते, जिन दत्तो देवदत्त ''इति एव प्रकारा इत्यर्थ । कचिद्वयवस्थायां वर्ततेयथा 'ज्वलितिकसंतारण [जेने० २/११२] इति । कचिदर्थविपर्यासे वर्तते - यथा 'गौरित्ययमाह - गौरिति जानीते' इति । कचित्समाप्तौ वर्तते -' इति प्रथकमाह्निकम् इति द्वितीयमाह्निकम् ' इति कन्भिवि वर्तते इति भवसम, इति सिद्धसेनमिति । हति शब्द के अनेक अर्थ होते है यथा-१ हन्तीति पलायते - 'मारा इसलिए भागा यहाँ इति शब्दका अर्थ हेतु है । २. इति स्म उपाध्याय कथयति-उपाध्याय इस प्रकार कहता है । यहाँ 'इस प्रकार' अर्थ है । ३ 'गौ अश्व' इति - गाय, घोडा आदि प्रकार यहाँ इति शब्द प्रकारवाची है ४ प्रथममाहिक मिति' यहाँ इति शब्दका अर्थ समाप्ति है । ५ इसी तरह व्यवस्था अर्थविपर्यास शब्द प्रादुर्भाव आदि अनेक अर्थ है। इतिवृत्त - इतिहासका एकार्थवाची है - दे. इतिहास | इतिहास - - किसी भी जाति या संस्कृतिका विशेष परिचय पानेके लिए तत्सम्बन्धी साहित्य हो एक मात्र आधार है और उसकी प्रामाविकता उसके रचयिता व प्राचीनवापर निर्भर है। बता जैन संस्कृति का परिचय पानेके लिए हमें जैन साहित्य व उनके रचयिताओं के काल आदिका अनुशीलन करना चाहिए। परन्तु यह कार्य आसान नहीं है, क्योंकि स्यालको भावना से अतीत वीतरागोजन प्राय अपने नाम, गाँव व कालका परिचय नही दिया करते। फिर भी उनकी कथन शैली पर से अथवा अन्यत्र पाये जानेवाले उन सम्बन्धी उल्लेखों पर से, अथवा उनकी रचनायें ग्रहण किये गये अन्य शास्त्रोंके उद्धरणों परसे, अथवा उनके द्वारा गुरुजनो के स्मरण रूप अभिप्राय से लिखी गयी प्रशस्तियो पर से, अथवा आगममें ही उपलब्ध दो-चार पट्टावलियों परसे, अथवा भूगर्भ से प्राप्त किन्ही शिलालेखो या आयागपट्टी उनके नामो परसे इस विषय सम्बन्धी अनुमान होता है। अनेको विद्वानोने इस दिशा में खोज की है, जो ग्रन्थो में दी गयी उनकी प्रस्तावनाओंसे विदित है। उन प्रस्ताबनाओने से लेकर ही मैने भी यहाँ कुछ विशेष विशेष आचार्यों म तत्कालीन प्रसिद्ध राजाओ आदिका परिचय संकलित किया है। यह विषय मा विस्तृत है। यदि इसकी गहराइयोंमें घुसकर देखा जाये तो एकके पश्चात एक करके अनेको शाखाएं तथा प्रतिशाखाएँ मिलती रहनेके कारण इसका अन्त पाना कठिन प्रतीत होता है, अथवा इस विषय सम्बन्धी एक पृथक् ही कोष बनाया जा सकता है। परन्तु फिर भी कुछ प्रसिद्ध व नित्य परिचय में आनेवाले ग्रन्थो व आचार्यों का उल्लेख किया जाना आवश्यक समझकर यहाँ कुछ मात्रका सकलन किया है। विशेष जानकारोके लिए अन्य उपयोगी साहित्य देखने की आवश्यकता है।
3 इतिहास निर्देश व लक्षण
१ इतिहासका लक्षण
२ ऐतिह्य प्रमाणका श्रुतज्ञानमे अन्तर्भाव
२ संवत्सर निर्देश
-
+
३०८
+
१ संवत्सर सामान्य व उसके भेद २ वीर निर्वाण सवत् । ३ विक्रम संवत् । ४ शक संवत् । ५ शालिवाहन सवत् ।
१. इतिहास निर्देश व लक्षण
६ ईसवी संवत् ७ गुप्त संवत् ८ हिजरी संवत् । ९ मधा संवत् । १० सब संव तोका परस्पर सम्बन्ध । ३ ऐतिहासिक राज्य वंश
१ भोज वंश २ कुरु वंश ३ मगध देशके राज्य वंश (१ सामान्य २ कल्की; ३ हून, ४ काल निर्णय ) ४ राष्ट्रकूट वंश |
8 दिगम्बर मूलसंघ
१ मूल संघ । २ मूल संघकी पट्टावली । ३ पट्टावलीका समन्वय । ४. मूलसंघ का विघटन ५ श्रुत तीर्थंकी उत्पत्ति । ६ श्रुतज्ञानका क्रमिक ह्रास |
५ दिगम्बर जैन संघ
१ सामान्य परिचय । २ नन्दिसंच ३ अन्य संघ
६ दिगम्बर जैनानासी संघ
१ सामान्य परिचय । २ यापनीय सघ । ३ द्राविड संघ ४ काष्ठा संघ । ५ माथुर संघ । ६ भिल्लक संघ । ७ अन्य संघ तथा शाखाये ।
७ पट्टावलियें तथा गुर्वावलिय
१ मूल संघ विभाजन । २ नन्दिसंघ बलात्कार गण । ३ नन्दिसंघ बलात्कार गणकी भट्टारक आम्नाय ४ नन्दिसंघ बलात्कार गणकी शुभचन्द्र आम्नाय । ५ नन्दिसंघ देशीयगण । ६ सेन या ऋषभ संघ । ७ पंचस्तृप संघ । ८ पुन्नाट संघ ९ काष्ठा संघ १० लाड बागड़ गच्छ ११ माथुर गच्छ ।
८ आचार्य समयानुक्रमणिका 8 पौराणिक राज्य वंश
१ सामान्य वंश २ इक्ष्वा वश ३ उग्र वंश । ४ ऋषि वंश । ५ कुरुवंश | ६ चन्द्र वंश । ७ नाथ वंश । ८ भोज वंश । ९ मातङ्ग वंश । ११ रघुवश । १२ राक्षस वंश । १४ विद्याधर वश । १५ श्रीवंश | १७ सोम वंश १८ हरिवश ।
१० यादव वंश | १३ वानर वंश | १६ सूर्य वंश ।
१० आगम समयानुक्रमणिका
* परिशिष्ट
१ संवत् २ मूलसंघ ३ गुणधर आम्नाय ४ मन्दिसंघ
१ इतिहास निर्देश व लक्षण
१ इतिहासका लक्षण
म. पु. १ /२५ इतिहास इतीष्ट तद् इति हासीदिति श्रुते । इति वृत्तम तिह्यमाम्नाय चामनस्ति तत् | २५ | -' इति इह आसीत्' (यहाँ ऐसा हुआ) ऐसी अनेक कथाओका इसने निरूपण होने से इसे (महापुराणको 'इतिहास'इति'' भी कहते है| २६
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इतिहास
२. संवत्सर निर्देश
२ ऐतिह्य प्रमाणका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव रा वा १/२०/१५/७८/१६ ऐतिह्यस्य च 'इत्याह स भगवान् ऋषभ"
इति पर परीणपुरुषागमा गृह्यते इति श्रुतेऽन्तर्भाव । ='भगवाद ऋषभने यह कह?' इत्यादि प्राचीन परम्परागत तथ्य ऐतिह्य प्रमाण है । इसका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव हो जाता है। २ संवत्सर निर्देश
१ संवत्सर सामान्य व उसके भेद इतिहास विषयक इस प्रकरण में क्योकि जैनागमके रचयिता आचार्योंका,
साधुसंघकी परम्पराका, तात्कालिक राजाओंका, तथा शास्त्रोका ठोक-ठोक काल निर्णय करनेकी आवश्यकता पडेगी, अत' सवत्सरका परिचय सर्वप्रथम पाना आवश्यक है । जैनागममें मुख्यत. चार संवत्सरोका प्रयोग पाया जाता है-१ वीर निर्वाण सवत्, २ विक्रम सबत. ३ ईसवी संवत, ४ शक संबदः परन्तु इनके अतिरिक्त भी कुछ अन्य सबतोका व्यवहार होता है-जैसे १. गुप्त संवतः २ हिजरी सवत, ३ मघा संवत; आदि ।
२ वीर निर्वाण संवत् निर्देश क पा. १९५६/७५/२ एदाणि (परुणरस दिवसैहि अट्ठमासेहि य अहिय-]
पचहत्तरिवासेसु सोहिदे बड्ढमाणजिणिदे णिब्बुदे सते जो सेसो चउत्थकालो तस्स पमाण होदि। -उद बहत्तर वर्ष प्रमाण कालको (महाबीरका जन्म काल-दे. महावीर) पन्द्रह दिन और आठ महीना अधिक पचहत्तरवर्ष में से घटा देनेपर, वर्द्धमान जिनेन्द्र के मोक्ष जाने पर जितना चतुर्थ कालका प्रमाण या पंचम कालका प्रारम्भ) शेष रहता है, उसका प्रमाण होता है। अर्थात ३ वर्ष ८ महीने और पन्द्रह दिन । (ति. प ४/१४७४)। घ.१ (प्र ३२ L Jain) साधारणत: वीर निर्वाण सबद व विक्रम सबमें ४७० वर्ष का अन्तर रहता है। परन्तु विक्रम संवत् के प्रारम्भके सम्बन्धमें प्राचीन कालसे बहुत मतभेद चला आ रहा है, जिसके कारण भगवान् महानोरके निर्वाण काल के सम्बन्ध में भी कुछ मतभेद उत्पन्न हो गया है। उदाहरणार्थ-नन्दि सघको पट्टावलीमें आ. इन्द्रनन्दिने वीरके निर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रमका जन्म और ४८८ वर्ष पश्चात् उसका राज्याभिषेक बताया है। इसे प्रमाण मानकर बैरिस्टर श्री काशोलाल जायसवाल बीर निर्वाणके कालको १८ वर्ष ऊपर उठानेका सुझाव देते है, क्योंकि उनके अनुसार विक्रम संवत्का प्रारम्भ उसके राज्याभिषेकसे हुआ था। परन्तु दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनो ही थाम्नायोमे विक्रम सवतका प्रचार वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात् माना गया है। इसका कारण यह है कि सभी प्राचीन शास्त्रोमे शक सबका प्रचार वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष पश्चात कहा गया है और उसमें तथा प्रचलित विक्रम सक्वमे १३१ वर्षका अन्तर प्रसिद्ध है। (जे पी. २८४) विशेष दे परिशिष्ट)। दूसरी बात यह भी है कि ऐसा मानने पर भगवान् वीर को प्रतिस्पर्धी
शास्ताके रूप में महात्मा बुद्धके साथ १२-१३ वर्ष तक साथ-साथ रहनेका अवसर भी प्राप्त हो जाता है, क्योकि बोधि लाभसे निर्वाण तक भगवान् वीरका काल उक्त मान्यताके अनुसार ईपू ५५७-५२७ आता है जबकि बुद्धका ई.पू ५८८-५४४ माना गया है। (ज.सा इ.पी ३०३)
३ विक्रम संवत् निर्देश यद्यपि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनो आम्नायोमें विक्रम संवतका प्रचार वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात् माना गया है, तद्यपि यह संबव विक्रमके जन्मसे प्रारम्भ होता है अथवा उनके राज्याभिषेकसे या मृत्युकालसे, इस विषयमे मतभेद है। दिगम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् ६० वर्ष तक पालकका राज्य रहा, तत्पश्चाद १५५ वर्ष तक नन्द वशका और तत्पश्चात् २२५ वर्ष तक मौर्य वंशका । इस समयमें हो अर्थात वी. नि. ४७० तक ही विक्रमका राज्य रहा
परन्तु श्वेताम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् १४५ वर्ष तक पालक तथा नन्दका, तत्पश्चात २२५ वर्ष तक मौर्य वशका और तत्पश्चात ६० वर्ष तक विक्रमका राज्य रहा। यद्यपि दोनोका जोड ४७० वर्ष आता है तदपि पहली मान्यतामे विक्रमका राज्य मौर्य कालके भीतर आ गया है और दूसरी मान्यतामें वह उससे बाहर रह गया है क्योकि जन्मके १८ वर्ष पश्चात विक्रमका राज्याभिषेक और ६० वर्ष तक उसका राज्य रहना लोक-प्रसिद्ध है, इसलिये उक्त दोनो ही मान्यताओ से उसका राज्याभिषेक ची नि. ४१० में और जन्म ३१२ में प्राप्त होता है, परन्तु नन्दि संघकी पट्टावली में उसका जन्म बी नि, ४७०में और राज्याभिषेक १८८ में कहा गया है, इसलिये बिद्वान लोग उसे भ्रान्तिपूर्ण मानते है। (विशेष दे. परिशिष्ट १)
इसी प्रकार विक्रम संवत्को जो कही-कही शक संवत् अथवा शालिवाहन सवत माननेकी प्रवृत्ति है वह भी युक्त नहीं है, क्योकि ये तीनो सवत् स्वतन्त्र हैं। विक्रम स बल का प्रारम्भ वी नि. ४७० में होता है, शक संवतका वी नि ६०५ में और शालिवाहन संबवका वी,नि, ७४१ में । (दे. अगले शीर्षक) ४. शक संवत् निर्देश
यद्यपि 'शक' शब्द का प्रयोग संवत्-सामान्यके अर्थ में भी किया जाता है, जेसे बर्द्धमान शक, विक्रम शक, शालिवाहन शक इत्यादि, और कहीं-कही विक्रम संवतको भी शक संवत मान लिया जाता है, परन्तु जिस 'शक' की चर्चा यहाँ करनी इष्ट है वह एक स्वतन्त्र सवत है। यद्यपि आज इसका प्रयोग प्राय लुप्त हो चुका है, तदपि किसी समय दक्षिण देशमें इस ही का प्रचार था, क्योकि दक्षिण देशके आचार्यों द्वारा लिखित प्रायः सभी शाखोंमें इसका प्रयोग देखा जाता है। इतिहासकारोके अनुसार भृत्यवशी गौतमौ पुत्र राजा सातकर्णी शालिवाहनने ई ७६ (बी नि ६०६) में शक वंशी राजा नरबाहनको परास्त कर देनेके उपलक्ष्य में इस सबत्तुको प्रचलित किया था। जैन शास्त्रोके अनुसार भी बीर निर्वाणके ६०५ वर्ष मास पश्चात शक राजाकी उत्पत्ति हुई थी। इससे प्रतीत होता है कि शकराजको जीत लेनेके कारण शालिवाहनका नाम ही शक पड गया था, इसलिए कही कही शालिवाहन सबको ही शक सवव कहने की प्रवृत्ति चल गई, परन्तु वास्तवमें वह इससे पृथक् एक स्वतत्र सबद है जिसका उल्लेख नीचे किया गया है। प्रचलित शक सब वीर-निर्वाण के ६०५ वर्ष पश्चात और विक्रम सवतके १३५ वर्ष पश्चात माना गया है। (विशेष दे परिशिष्ट १) ५ शालिवाहन संवत्
शक सवत् इसका प्रचार आज प्राय लप्त हो चुका है तदपि जैसा कि कुछ शिलालेखोसे विदित है किसी समय दक्षिण देशमें इसका प्रचार अवश्य रहा है। शकके नामसे प्रसिद्ध उपर्युक्त शालिवाहनसे यह पृथक है क्योकि इसकी गणना वीर निर्वाणके ७४१ वर्ष पश्चात मानी गई है । (विशेष दे, परिशिष्ट १) ६. ईसवी संवत्
यह सवत् ईसा मसीह के स्वर्गवासके पश्चात योरॅपमें प्रचलित हुआ और अग्रजी साम्राज्य के साथ सारी दुनियामें फैल गया। यह आज विक्षका सर्वमान्य संबव है। इसकी प्रवृत्ति वीर निर्वाणके ७२५ वर्ष पश्चात और विक्रम संवत्से ५७ वर्ष पश्चाव होनी प्रसिद्ध है। ७. गुप्त संवत् निर्देश
इसकी स्थापना गुप्त साम्राज्यके प्रथम सम्राट् चन्द्र गुप्तने अपने राज्याभिषेकके समय इसकी ३२० अर्थात वी.नि.के ८४६ वर्ष पश्चात की थी । इसका प्रचार गुप्त साम्राज्य पर्यन्त ही रहा। ८ हिजरी संवत् निर्देश
इस संवत्का प्रचार मुसलमानों में है क्योंकि यह उनके पैगम्बर मुहम्मद साहबके मक्का मदीमा जानेके समयसे उनकी हिजरतमें विक्रम
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इतिहास
३. ऐतिहासिक राज्यवंश
सवत् ६५० में अर्थात वीर निर्वाणके ११२० वर्ष पश्चात स्थापित हुआ था । इसीको मुहर्रम या शाबान सन् भी कहते है। १. मघा संवत निर्देश म. पु.७६/३६६ कल्की राजाकी उत्पत्ति बताते हुए कहा है कि दुषमा काल प्रारम्भ होनेके १८०० वर्ष बीतने पर मधा नामके संवत में कसकी नामक राजा होगा। आगमके अनुसार दुषमा कालका प्रादुर्भाव की नि के ३ वर्ष व ८ मास पश्चात् हुआ है। अतःमधा संवत्सर वीर निर्वाणके १००३ वर्ष पश्चात प्राप्त होता है। इस सवत्सरका प्रयोग कहीं भी देखनेमे नहीं आता। १०. सर्व संवत्सरोंका परस्पर सम्बन्ध
निम्न सारणीकी सहायतासे कोई भी एक संवत् दूसरेमें परिवर्तित किया जा सकता है।
कम नाम संकेत श्वी नि २ विक्रम ३ईसवी ४ शक । ५ गुप्त ६ हिजरी
१/ वीर । वी. निर्वाण नि.
पूर्व ४७० पूर्व ५२७ पूर्व६०५ पूर्व८४६ पूर्व ११२० २ विक्रम वि ४७० १ , ५७.१३५,३७६ ,६५० ३ ईसवी ई ५२७ । ५७१ ।., ७८.३१६,५६३ ४ शक श६०५ | १३५७८ | १ २४१,५१५
1 ग |८४६ । ३७६ ३११२४१ १ ,२७४ ६ हिजरी। हि ११२० । ६५० ५६४५३५ । २७४ १ ३ ऐतिहासिक राज्यवंश
१. भोज वंश द सा /प्र ३६-३७ (बगाल एशियेटिक सोसाइटी बाल्यूम ५/पृ. ३७८
पर छपा हुआ अर्जुनदेवका दानपत्र); (ज्ञा /प्र/प पन्नालाल)- यह वंश मालवा देशपर राज्य करता था। उज्जैनी इनकी राजधानी
थी। अपने समयका बड़ा प्रसिद्ध व प्रतापी व श रहा है। इस वशमे धर्म व विद्याका बडा प्रचार था। बगाल एशियेटिक सोसाइटी वाल्यूम पृ ३७८ पर छपे हुए अर्जुनदेवके अनुसार इसकी बशावली निम्न प्रकार है।
समय नाम वि.स | ईसवी सन्
विशेष सिहल ६५७-६६७ | ६००-६४० दानपत्रसे बाहर
६१७-१०३१ ६४०-१७४ | इतिहासके अनुसार मुञ्ज ११०३१-१०६० १७४-१००३ दानपत्र तथा इतिहास सिन्धु राज १०६०-१०६५/१००३-१००८ | इतिहासके अनुसार
१०६५-१११२/१००८-१०५५ / दानपत्र तथा इतिहास | जयसिंह राज १११२-१११५१०५५-१०५८ | उदयादित्य १११५-११५०१०५८-१०६३ समय निश्चित है नरधर्मा ११५०-१२००/१०६३-११४३ यशोधर्मा १२००-१२१०१९४३-११५३ दानपत्रसे बाहर
अजयवर्मा १२१०-१२४६११५३-११२) विन्ध्य वर्मा १२४६-१२५७१९६२-१२०० | इसका समय निश्चित
विजय वर्मा
सुभटवर्मा १२५७-१२६४/१२००-१२०७ / १३ | अर्जुनवर्मा १२६४-१२७५/१२०७-१२१८ १४ | देवपाल १२७५-१२८५१२१८-१२२८ १५ | जैतुगिदेव १२८५-१२६६१२२८-१२३६ )
(जयसिह) नोट इस वंशावलीमे दर्शाये गये समय, उदयादित्य व विन्ध्यवर्माके
समयके आधारपर अनुमानसे भरे गये है। क्योकि उन दोनों के समय निश्चित है, इसलिए यह समय भी ठीक समझना चाहिए । २. कुरु वंश
इस वशके राजा पाठचाल देशपर राज्य करते थे। कुरुदेश इनकी राजधानी थी। इस वशमें कुल चार राजाओका उल्लेख पाया जाता है-१ प्रवाहण जैबलि (ई. पू १४००), २ शतानीक (ई. पू. १४००-१४२०), ३ जन्मेजय (ई.पू. १४२०-१४५०) ४. परीक्षित (ईपू १४५०-१४७०)। ३ मगध देशके राज्यवंश
१ सामान्य परिचय जे पी /पु-जैन परम्परामें तथा भारतीय इतिहास में किसी समय मगध देश बहुत प्रसिद्ध रहा है। यद्यपि यह देश बिहार प्रान्तके दक्षिण भागमे अवस्थित है, तथापि महावीर तथा बुद्धके काल में पाब, सौराष्ट्र, बङ्गाल, बिहार तथा मालवा आदिके सभी राज्य इसमे सम्मिलित हो गये थे। उससे पहले जब ये सब राज्य स्वतन्त्र थे तब मालवा या अवन्ती राज्य और मगध राज्यमें परस्पर कड" चलती रहती थी। मालवा या अवन्ती की राजधानी उज्जयनी थी जिसपर 'प्रद्योत' राज्य करता था और मगध की राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) या राजगृही थी जिसपर श्रेणिक बिम्बसार राज्य करते थे।
प्रद्योत तथा श्रेणिक प्राय समकालीन थे। प्रद्योतका पुत्र पालक था और श्रेणिकके दो पुत्र थे, अभय कुमार और अजातशत्र कुणिक । अभय कुमार श्रेणिक्का मन्त्री था जिसने प्रद्योतको बन्दी बनाकर उसके आधीनकर दिया था ।३२०। वीर निर्वाणवाले दिन अवन्ती राज्यपर प्रद्योतका पुत्र पालक गद्दी पर बैठा । दूसरी ओर मगध राज्यमें बी नि.सेहवर्ष पूर्व श्रेणिकका पुत्र अजातशत्र राज्यासीन हुआ (३१६। पालकका राज्य ६० वर्ष तक रहा। इसके राज्यकाल में ही मगधकी गद्दीपर अजातशत्रु का पुत्र उदयी आसीन हो गया था। इसने अपनी शक्ति बढा ली थी जिसके द्वारा इसने पालको परास्त करके अवन्तीपर अधिकारकर लिया परन्तु उसे अपने राज्य में नहीं मिला सका। यह काम इसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्धनने किया। यहाँ आकर अवन्ती राज्यकी सत्ता समाप्त हो गई ।३२८,३३१।
श्रेणिकके वशमे पुत्र परम्परासे अनेको राजा हुए। सब अपनेअपने पिताको मारकर गज्यपर अधिकार करते रहे, इसलिये यह सारा बंश पितृघाती कुल के रूप में बदनाम हो गया। जनताने इसके अन्तिम राजा नागदासको गद्दे से उतारकर उसके मन्त्री सुसुनागको राजा बना दिया। अवन्तीको अपने राज्य में मिलाकर मगध देशकी वृद्धि करने के कारण इसीका नाम नन्दिवर्धन पड गया।३३।यह नन्द वंशका प्रथम राजा हुआ। इस व शने १५५ वर्ष राज्य किया। अन्तिम राजा धनानन्द था जो भोग विलासमें पड़ जाने के कारण जनताकी दृष्टिसे उतर गया। उसके मन्त्री शाकटालने कूटनीतिज्ञ चाणक्य की सहायतासे इसके सारे कुल को नष्ट कर दिया और चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बना दिया ।३६॥
चन्द्र गुप्तसे मौर्य या मुरुड वशकी स्थापना हुई, जिसका गज्यकाल २५५ वर्ष रहा कहा जाता है। परन्तु जैन इतिहासके अनुसार वह ११५ वर्ष और लोक इतिहासके अनुसार १३७ वर्ष प्राप्त होता है। इस व शके प्रथम राजा चन्द्रगुप्त जैन थे, परन्तु उसके उत्तराधिकारी बिन्दुसार, अशोक, कुनाल और सम्प्रति ये चारों राजा बौद्ध हो गये थे। इसीलिये बौद्धाम्नायमें इन चारोका उल्लेख पाया जाता है, जबकि जैनाम्नायमें केवल एक चन्द्रगुप्तका ही कार देकर समाप्तकर दिया गया है ।३१६।
इसके पश्चात् मगध देशपर शक वशने राज्य किया जिसमें पुष्यमित्र आदि अनेको राजा हुए जिनका शासन २३० वर्ष रहा। अन्तिम राजा नरवाहन हुआ। तदनन्तर यहाँ भृत्य अथवा कुशान
हर्ष
MMG.mec was 4
भोज
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इतिहास
३११
३. ऐतिहासिक राज्यवंश
बशका राज्य आया जिसके राजा शालिवाहनने वी, नि ६०५ (ई ७६) में शक व शो नरवाहनको परास्त करने के उपलक्ष में शक संवत्की स्थापनाकी (दे इतिहास २/४)। इस वंशका शासन२४२वर्ष तकरहा।
भृत्य व शके पश्चात इस देशमें गुप्तवंशका राज्य २३१ वर्ष पर्यन्त रहा, जिसमें चन्द्रगुप्त द्वि तथा समुद्रगुप्त आदि ६ राजा हुए। परन्तु तृतीय राजा स्कन्दगुप्त तक ही इसकी स्थिति अच्छी रही, क्योकि इसके काल में हूनवशी सरदार काफी जोर पकड चुके थे। यद्यपि स्कन्दगुप्तने इन्हे परास्त कर दिया था तदपि इसके उत्तराधिकारी कुमारगुप्तसे उन्होने राज्यका बहुभाग छीन लिया। यहाँ तक कि ई. ५०० (वी. नि. १०२७) में इस वशके अन्तिम राजा भानुगुप्तको जोतकर हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब तथा मालवा (अवन्ती) पर अपना अधिकार जमा लिया, और इसके पुत्र मिहिरपालने इस वंशको नष्ट भ्रष्ट कर दिया । (क पा १/५४,६४/महेन्द्र)। इसलिये शानकारोने इस बंशकी स्थिति वी नि ६५८ (ई ४३१) तक ही स्वीकार को। जेन आम्नायके अनुमार वी.नि.१५८(ई ४३१)में इन्द्रसुत कल्कीका राज्य प्रारम्भ हुआ, जिसने प्रजापर बडे अत्याचार किये, यहाँ तक कि साधुओसे भी उनके आहारका प्रथम ग्रास शुरुकके रूपमें मांगना प्रारम्भकर दिया। इसका राज ४२ वर्ष अर्थात् वी नि १००० (ई ४७३) तक रहा। इस कुनका विशेष परिचय आगे पृथकसे दिया गया है (दे, अगला उपशीर्षक) ।
२ कल्की वंश ति प.४/१५०६-१५११ तत्तो कक्की जादो इंदसुदो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरि वरिसा आऊ विगुणियइ गिवीस रज्जतो ।१५०६। आचारागधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसमवासेस । बोलीणेसं बद्धो पट्टो कक्किम्स णरवहणो ॥१५१०॥ अहसाहिह्याण कक्को णियजोग्गे जणपदे पयत्तेण । सुक जाचदि लुद्धो पिंडग्गं जाव ताव समणाओ ॥ ५११॥ गुप्त कालके पश्चात अर्थात् वो नि ६५८ में 'इन्द्र' का सुत कल्की अपर नाम चतुख राजा हुआ। इसकी आयु ७० वर्ष थी और ४२ वर्ष अर्थात् वी नि, १००० तक उसने राज्य किया ॥१५०६।। आचारसंगधरो (वी नि ६८३) के पश्चात २७५ वर्ष व्यतीत होनेपर अर्थात बी. नि ६५८ में कल्की राजाको पट्ट बाँधा गया ॥१५१०॥ तदनन्तर वह कर की प्रयत्न गर्वक अपने-अपने योग्य जनपदोको सिद्ध करके लोनको प्राप्त होता हुआ मुनियोके आहार में से भी अग्रपिण्डको शुल्क में मांगने लगा। ॥१५११॥ (ह.पु.६०/४६१-४६२) त्रि. सा.८० पण्णछस्सयवस्स पणमासजुदं गमिय वीरणिन्वुइदे । सगराजो तो कक्को चदुणवतियम हिय सगमास । -वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात शक राजा हुआ और उसके ३६४ वर्ष ७ मास पश्चात अर्थात वोर निर्वागके १००० वर्ष पश्चात् कल्की राजा हुआ। उ पु. ७६/३६७-४०० दुष्षमाया सहस्राब्दव्यतीतो धर्म हानित ३६७। पुरे पाटलिपुत्राख्ये शिशुपालमहीपते । पापी तनूज पृथिवीमुन्दयाँ दुर्जनादिम' ।३६८। चतुर्मुखाय' कलिकराजो वेजितभूतल । 1३६६। समाना सप्तितस्य परमायु प्रकीर्तितम् । चत्वारिंशत्समा राज्यस्थितिश्चाक्रमकारिण ।४०० - जन्म दू खम कालके १००० वर्ष पश्चात् । आयु ७० वर्ष । राज्यकाल ४० वर्ष । राजधानी पाटलीपुत्र । नाम चतुर्मुख । पिता शिशुपाल । मोट-शास्त्रोल्लिखित उपयुक्त तीन उद्धरणोंसे कल्कीराजके विषयमें तोन दृष्टिये प्राप्त होती है। तीनो हो के अनुसार उसका नाम चतु
र्मुख था, आयु ७० वर्ष तथा राज्यकाल ४० अथवा ४२ वर्ष था। परन्तु ति.प.में उसे इन्द्र का पुत्र बताया गया है और उत्तर पुराणमें शिशुपालका । राज्यारोहण काल में भी अन्तर है। ति.प. के अनुसार वह वी.नि. ६५८ में गद्दीपर बैठा, त्रि. सा, के अनुसार वी.नि, १००० में और उ.पु. के अनुसार दषम काल (बी.नि. ३) के १००० वर्ष पश्चात् अर्थात् १००३ में उसका जन्म हुआ और १०३३ से १०७३ तक उसने राज्य किया। यहाँ चतुर्मखको शिशुपालका पुत्र भी कहा है। इसपरसे यह जाना जाता है कि यह कोई एक राजा नहीं था, सन्तान परम्परासे होनेवाले तीन राजा थे-इन्द्र. इसका पुत्र शिशुपाल और उसका पुत्र चतुर्मुख । उत्तरपुराण में दिये गए निक्षित काल के आधारपर इन तीनोका पृथक्-पृथक् काल भी निश्चित हो जाता है। इन्द्रका वी. नि ६५८-१०००, शिशुपालका १०००-१०३३, और चतुमुंख का १०३३-१०७३ । तीनों ही अत्यन्त अत्याचारी थे।
३. हुन वंश क पा १/प्र ५४/६५ (५ महेन्द्र कुमार)- लोक-इतिहासमें गुप्त वंशके पश्चात काकी के स्थानपर हूनवंश प्राप्त होता है। इसके राजा भी अत्यन्त अत्याचारी बताये गये है और काल भी लगभग वही है, इसलिये कहा जा सकता है कि शास्त्रोक्त कन्की और इतिहासोक्त हुन एक ही बात है । जैसा कि मगध राज्य व शोंका मामान्य परिचय देते. हुए बताया जा चुका है इस वंशकेसरदार गुप्तकाल में बराबर जोर पकइते जा रहे थे और गुप्त राजाओके साथ इनकी मुठभेड परामर चलती रहती थी। यद्यपि स्कन्द गुप्त (ई.४१३-४३५) ने अपने शासन कालमें इसे पनपने नहीं दिया, तदपि उसके पश्चात् इसके आक्रमण बढ़ते चले गए । यद्यपि कुमार गुप्त (ई. ४३५-४६०) को परास्त करने में यह सफल नहीं हो सका तदपि उसकी शक्तिको इसने क्षीण अवश्य कर दिया, यहाँ तक कि इस के द्वितीय सरदार तोरमाणने ई०० में गुप्तवंशके अन्तिम राजा भानुगुप्तके राज्य को अस्त व्यस्त करके सारे पजाब तथा मालवापर अपना अधिकार जमा लिया। ई.५०७ में इसके पुत्र मिहिरकुलने भानुगुप्तको परास्तकरके सारे मगधपर अपना एक छत्र राज्य स्थापित कर दिया।
परन्तु अत्याचारी प्रवृत्ति के कारण इसका राज्य अधिक काल टिक न सका । इसके अत्याचारोंसे तंग आकर विष्णु-यशोधर्म नामक एक हिन्दू सरदारने मगधकी बिखरी हुई शक्तिको सगठित किया और ई ५२८ में मिहिरकुलको मार भगाया। उसने कशमीरमें शरण ली और ई.५४० में वहाँ ही उसकी मृत्यु हो गई।
विष्णु-यशोधर्म कट्टर वैष्णव था, इसलिये उसने यद्यपि हिन्दू धर्म की बहुत वृद्धि की सदपि साम्प्रदायिक विद्वेषके कारण जैम संस्कृत तिपर तथा श्रमणोपर बहुत अत्याचार किये, जिसके कारण जैनाम्नायमें यह कल्की नामसे प्रसिद्ध हो गया और हिन्दुओंने इसे अपना अन्तिम अवतार (कल्की अवतार) स्वीकार किया।
जैन मान्य कलिक वंशकी हुन वंशके साथ तुलना करनेपर हम कह सकते है वी नि. ६५८-१००० (ई. ४३१-४७३) में होनेवाला राजा इन्द्र इस कुल का प्रथम सरदार था, वी.नि १०००-१०३३ (ई ४७३५०६) का शिशुपाल यहाँ तोरमाण है, वी.नि. १०३३-१०७३ वाला चतुर्मुख यहाँ ई ५०६-५४६ का मिहिरकुल है। विष्णु यशोधर्मके स्थानपर किसी अन्य नामका उल्लेख न करके उसके कालको भी यहाँ चतुर्मुखके काल में सम्मिलित कर लिया गया है।
४. काल निर्णय
अगले पृष्ठको सारणीमें मगध के राज्यवंशो तथा उनके राजाओंका शासन काल विषयक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। आधार-जैन शास्त्र -ति. प. ४/१५०५-१५०८, ह. पु ६०/४८७-४६१ । सन्धान-ति. प. २/७,१४। उपाध्ये तथा एच, ऐल, जैन, ध, १/प्र. ३३/एच. एल, जैन; क. पा.१/प्र. ५२-५४ (६४-६५). प.महेन्द्रकुमार;
द. सा./प्र. २८/4. नाथूराम प्रेमो, प. कैलाश चन्द जी कृत जैन साहित्य इतिहास पूर्व पीठिका।
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इतिहास
प्रमाण - जैन इतिहास = जैन साहित्य इतिहास पूर्व पीठिका / पृष्ठ संख्या
संकेत –वो नि. = वीर निर्वाण सवत्, ई पू लोक इतिहास वर्तमान इतिहास
नाम
अवन्ती राज्य १. प्रयोश
सामान्य
प्रद्योत
पालक
विशाखयूप आर्य सूर्यक
अजक (उदय)
नन्दिवर्द्धन
मगध राज्य १. शिशुनाग वंश
सामान्य
शिशुनाग arraf
क्षेत्रधर्मा
क्षतीजा
नाम
२. श्रेणिक वश
सामान्य
वंशक उद्दमी
अनुरुद्ध मुण्ड नागदास
श्रेणिक
(बिम्बसार)
अजातशत्रु ३१६ (खुशिक)
भूमिमित्र
दर्शक
सुसुनाग (नन्दवर्धन)
कालासोक
जैन शास्त्र ( ति प ४/१५०५ प्रमाण | बी नि.
ई पू
३२६ १-६० | ५२७-४६७
बौद्ध शास्त्र महावश प्रमाण | बु नि.
ई पू.
३१४ २४-४० ५२० - ५०४
:::
पू. ८- ५५२-५२० स. २४
11
[ मत्स्य पुराण
प्रमाण वर्ष | प्रमाण
| ६०-११८ ४५४-४२६
ईसवी पूर्व, ई. ईसवी, पू - पूर्व, सं. सवतः वर्ष = कुल शासन काल;
22:
३१७ १२५
31
३१८ २१
"
11
१२६
३१८ | ४०
२६
३६.
२४
३२
१६
४०-४४ ५०४ - ५०० ४४-४५००-४६६ ४८-७२ | ४६६-४७२ २४
४
20 20 20
२३ ३२५
५३ |
४
२८
a
मन्स्यपुराण
जैन इतिहास वर्ष | वर्ष प्रमाण | ई पू
२८ ३०८
२७
2
३१५७२-१०४७२-४५४ १८ ४०
१४
२७
K
२४
43
:
३३ ३३३
३१२
जैन इतिहास ई
३३५
11
वर्ष
५६०-५२७ ३३
४६-४६० ३२
४६७४४६ १८
वर्ष
६०४-६५२ ५२
५५२-५२० ३२
200-125 E ४५८-४४६८
31
३१४ ४४६ - ४४६ ०
२२०-४६७५३
४४६ -४०६ ४०
२. ऐतिहासिक राज्यवंश
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
विशेषताए
श्रेणिक तथा अजातशत्रुका समकालीन ॥ ३२२ ॥ श्रेणिकके मन्त्री अभयकुमारने बन्दी बनाकर श्रेणिकके आधोन किया था | ३२०|
इसे गद्दी से उतारकर जनताने मगध नरेश उदयी (अजक) को राजा स्वीकार कर लिया । ३३२ |
मगध शासन के ५३ वर्षों से अन्तिम ३२ वर्ष इसने अवन्ती पर शासन किया |२८| परन्तु दुष्टताके कारण किसी भ्रष्ट राजकुमारके हाथों धोखेसे निसन्तान मारा गया | २३२ |
इसने मगध में मिलाकर इस राज्यका अन्तकर दिया । ३२८|
जायसवालजी के अनुसार श्रेणिक वंशीय दर्शक के अपर नाम है। शिशुनाग तथा काकवण उसके विशेषण है | ३२२ |
विशेषताए
राज्य के लोभसे अपने अपने पिताकी हत्या करनेके कारण यह कुल नामसे प्रसिद्ध है ||१४| बुद्ध तथा महावीरके समकालीन | ३०४ | इसके पुत्र अजातशत्रुका राज्याभिषेक ई. पू. ५५२ में निश्चित है।
मी प्रयोग इसका उल्लेख नहीं है। १२२॥ इसकी बहन पद्मावतीका विवाह उदयीके साथ होना माना गया है । ३२३|
अजातशत्रुका पुत्र । ३१४ | अपरनाम अजक | ३२५१ ई पू. ४२ में पालकको गद्दी से हटाकर जनता ने इसे अवन्तीका शासक बना दिया परन्तु यह उसे अपने देशमें नहीं मिला सका। ३२८|
पितृघाती कुलको समाप्त करनेके लिए जनताने उसके स्थानपर इसके मन्त्रीको राजा बना दिया । ३१४ | नागदासका मन्त्री जिसे जनताने राजा बनाया । ३१४ | अनन्ती राज्यको मिलाकर अपने देशकी वृद्धि करनेके कारण नन्दिवर्द्धन नाम पड़ा | ३३१ |
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इतिहास
नाम
३. नन्द वंश *
सामान्य
अनुरुद्ध नन्दिवर्द्धन
(सुसुनाग)
मुण्ड
नव नन्द महानन्द
महानन्दकेश्पुत्र
महापद्मनन्द (तथा इनके ४ पुत्र)
धनानन्द
नाम
जैन शास्त्र ( ति प ४) १५०६
प्रमाण वो नी
ई. पू
1
बिन्दुसार अशोक
३२४ ६०-२१४ ४६७-३१२ १५५२ १०३
लोक इहिस
|५२६-३२२ - २०४
मत्स्य पुराण |
वर्ष वर्ष प्रमाण
४. मौवें या मुरुवंश
सामान्य २१५-४७० ३१२-५७ २५५ चन्द्रगुप्त प्र. २१५-२५५ | ३१२-२७२ ४०० ३५८
३३६
जेन शाखति प. ४/९२०६
बी नि. | ई. पू. वर्ष | प्रमाण
कुनाल
दशरथ
सम्पति
(चन्द्रगुप्त द्वि.)
विक्रमादित्य * ४१०-४७० ११७-५७
६०
३५६
४०
"
३५८
४३ |
८८
|१२
३३४
:
:
::
जैन इतिहास
ई.पू.
11
२१३
.
'जैन शास्त्र के अनुसार पालकका काल ६० वर्ष और नन्द वंशका १५५ वर्ष है । तदनन्तर अर्थात् वी नि. २१५ में चन्द्रगुप्त मौर्यका राज्याभिषेक हुआ। भुकेली भद्रबाहु (बी.नि.१६२) के समकालीन बनाने के अर्थ थे आचार्य श्री हेमचन्द्र सुरिने इसे यो. नि. १२५ में राज्यारूढ होनेकी कल्पना की। जिसके लिए उन्हे नन्द वंशके कालको १५५ से घटा कर ६५ वर्ष करना पडा। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य के कालको लेकर मतभेद पाया जाता है | २१३ | दूसरी ओर पुराणोमे नन्द वंशीय महापद्यनन्दिके कालको लेकर ६० वर्षका ममेद है वायु पुराण मे उसका काल २० वर्ष है और अन्य पुराणोंमें ८८ वर्ष ८८ वर्ष मानने पर नन्द का काल १३ वर्ष आता है और २८ वर्ष मानने पर १२३ वर्ष । इस कालमें उदयी (अजक) के अवन्ती राज्यवाले ३२ वर्ष मिलानेपर पालकके पश्चात् नन्द वंशका काल १५५ वर्ष आ जाता है। इसलिए उदयो ( अजक) तथा उसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्द्धनकी गणना नन्द वशमे करनेकी भ्रान्ति चल पडी है । वास्तव मे ये दोनो राजा श्रेणिक वंशमे है, नन्द वशमे नहीं । नन्द बशमे नव नन्द प्रसिद्ध है जिनका काल महापद्मनन्दसे प्रारम्भ होता है । ३३१|
1
लोक इतिहास वर्ष
जैन इतिहास 1
४६७- ४५८ ६
४५-४१८४०
४१८-४१० ८
४१०-३२६ ८४ ४१०-३७४ ३६
३७४-३६६ १८ २६६-३३८ २८
३३८-३२६ १२
विशेषताएँ
खारवेल शिलालेख के आधारपर क्योकि नदिवर्द्धनका राज्याभिषेक पू. ४५८ में होना सिद्ध होता है इस लिए जायसवाल जोने राजाओंके उपर्युक्त क्रममें कुछ हेर-फेर करके सगति बैठानेका प्रयत्न किया है | ३३४ | श्रेणिक वंशीय नामदासका मन्त्री ही नन्दिवर्द्ध नसे प्रसिद्ध हो गया था । (दे. ऊपर) । वास्तवमें यह नन्द वशके राजाओ मे सम्मिलित नहीं थे। इस वंशमें नव नन्द प्रसिद्ध है। जिनका उल्लेख आगे किया गया है । ३३१ |
२२-२२० ८
२२०-२११ १
नन्दिवर्द्धनका उत्तराधिकारी तथा नन्द वंशका प्रथम
राजा । ३३१|
तथा २८ वर्ष की गणना में ६० वर्षका अन्तर है । इसके समाधान के लिए देखो नीचे टिप्पणी ।
भोग विलास में पड जानेके कारण इसके कुलको नष्ट कर के के मन्त्री शाकटालने चाणक्यको सहायतामे चन्द्र गुप्त मौर्यको राजा बना दिया । ३६४ |
३२६-२११११५३२२-१८५ १३७ ३२६-३०२ २४ ३२२-२६८ २४
३ ऐतिहासिक राज्यवंश
२५
३०२-२७७ २५ २६८- २७३ २७७-२३६ ४१ २७३ - २३२ ४१ २३६-२२८८ २३२-१८५४७
जेनेन्द्र सिद्धान्त कोश
विशेष घटनाये
जिन दोक्षा धारण करने वाले ये अन्तिम राजा थे । सि. ४/४ निर्वाण (ई पू. ५४४ ) से २१८ पगड़ी पर बैठे २०७१ भद्रबाहु (बी. नि. १६२ ) के साथ दक्षिण गये । (दे. इतिहास ४) । चन्द्रगुप्तका पुत्र । ३५८ ।
*
कुनाल ज्येष्ठ पुत्र अशोकका पोता ॥२३१॥
कुनालका लघु पुत्र अशोकका पोता चन्द्रगुप्तके १०५ वर्ष पश्चात और अशोक्के १६ वर्ष पश्चात् गद्दी पर बैठा ३५६
यह नाम क्रमबाह्य है।
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इतिहास
वशका नाम सामान्य / विशेष
५. शक वंश
सामान्य प्रारम्भिक अवस्था में
१. पुष्यमित्र २५५ - २८५ २७२-२४२
२. चक्षु मित्र | २८५-३४५२४२-१८२ (वसुमित्र ) अग्रिमित्र
(भानुमित्र)
प्रबल अवस्था में
गर्द भिल्ल
(गन्धर्व)
नरवाहन ( नमः सेन)
६. भृत्य वश (कुशान वश)
सामान्य
प्रारम्भिकअवस्थामें
वंशका नाम सामान्य विशेष प्रबल स्थितिमे
गौतम
जैन शास्त्र ति प ४/१५०७
वीि
शवान (सातकर्षि)
कनिष्क
२५४-४८५ २७२- ४२ २३० २५५-३४५२७२-१८२
३४५-४४५ १८२-८२ १००
अन्य सरदार ४४५-५६६ ई. पू. ८२ - १२१
ई. २६ ३६-७६ ४०
२६६-६०६
२८५-३४५ २४२ - १८२
४८५-७२७ पू. ४२
ई. २००
४८५ ५६६ | पू. ४२ई.
लोक इतिहास ईसपी वर्ष
४०-७४ ३४ ७४-१२० ४६. वी नि
वर्ष
६०१-६४७ १२०-१६२ ४२
अन्य राजा १६२-२०१ ३६ अवस्थामै २०१-३२० १९६
६०
३०
६०
६०
२४२
८१
लोक इतिहास
पं.पू.
वर्ष
१८५-१२०
अनुमानत. १-१-१४१
६५
४०
१४९.०२२१
३१४
८०-१२० ४०
४०-३२० २८०
३. ऐतिहासिक राज्यवंश
विशेष घटनाये
यह वास्तव में कोई एक अखण्ड वंश न था, बल्कि छोटे-छोटे सरदार थे, जिनका राज्य मगध देशको सीमाओ पर बिखरा हुआ था । यद्यपि विक्रम वशका राज्य वी. नि. ४७० में समाप्त हुआ है, परन्तु क्योंकि चन्द्रगुटके कालमे हो इन्होंने छोटी-छोटी रियासतों पर अधि कार कर लिया था, इसलिए इनका काल वी. नि. २५५ से प्रारम्भ करने में कोई विरोध नही आता ।
वसुमित्र और अग्निमित्र समकालीन थे, तथा पृथक्-पृथक् प्रान्तों में राज्य करते थे ।
यद्यपि गर्द भिल्ल व नरवाहनका काल यहाँ ई. पू १४२ - ८२ दिया है, पर यह ठीक नही है, क्योंकि आगे राजा शालिवाहन द्वारा वी. नि. ६०५ (ई ७६) में नरवाहनका परास्त किया जाना सिद्ध है । अत. मानना होगा कि अवश्य ही इन दोनोके बीच कोई अन्य सरदार रहे होगे, जिनका उल्लेख नही किया गया है। यदि इनके मध्य में या ६ सेरवार और भी मान लिए जायें तो नरवाहनकी अन्तिम अवधि ई. १२० को स्पर्श कर जायेगी और इस प्रकार इतिहासकारो के समय साथ भी इसका मेल खा जायेगा और शालिवाहन के समय के साथ भी ।
५
इतिहासकारों को कुशान जाति ही आगमकारोका भृत्य वंश है क्योंकि दोनोंका कथन लगभग मिलता है। दोनो ही शको पर विजय पानेवाले थे । उधर शालिवाहन और इधर कनिष्क दोनोंने समान समय ही कोका नाश किया है। उधर शालिवाहन और इधर कनिष्क दोनो ही समान पराक्रमी शासक थे। दोनोका ही साम्राज्य विस्तृत था कुशान जाति एक महिष्कृत चीनी जाति थी जिसे ई. पू. दूसरी शताब्दीमे देशसे निकाल दिया गया था । वहाँ से चलकर बखतियार
काबुल के मार्ग ईपू ४९ के लगभग भारतमे प्रवेश कर गये। यद्यपि कुछ छोटे-मोटे प्रदेशा पर इन्होने अधिकार कर लिया था परन्तु ई. ४० में उत्तरी पंजाब पर अधिकार कर लेनेके पश्चात् ही इनकी सत्ता प्रगट हुई। यही कारण है कि आगम व इतिहासको मान्यताओ में इस वशकी पूर्वावधि सम्बन्ध में ८० वर्षका अन्तर है।
विशेष घटनायें
ई. ४० में ही इसकी स्थिति मजबूत हुई और यह जाति शको के साथ टक्कर लेने लगी । इस वशके दूसरे राजा गौतमीपुत्र सातकर्णी (शालिवाहन) ने शको अन्तिम राजा नरवाहनको बी. नि. ६०६ ( ई. ७६) में परास्त करके शक संवत्को स्थापना की। (क.पा./१/१/५३/६४ / महेन्द्र |
राजा कनिष्क इस वंशका तीसरा राजा था, जिसने शकोवा मुलच्छेद करके भारतमें एकछत्र विशाल राज्यकी स्थापना की।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
कनिष्क के पश्चात् भी इस जातिका एक्छत्र शासन ई २०१ तक चलता रहा इसी कारण आगमकारोने यहाँ तक ही इसको अवधि अन्तिम स्वीकार को है परन्तु इसके पश्चात् भी इस वंशका मूलीच्छेद नहीं हुआ। गुप्त वंशके साथ टक्कर हो जानेके कारण इसकी शक्ति क्षीण होती चली गयी। इस स्थिति में इसकी सत्ता ई. २०१-३२० तक बनी रही। यही कारण है कि इतिहासकार इसकी अन्तिम अवधि २०१ को बजाये ३२० स्वीकार करते है ।
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इतिहास
वंशका नाम सामान्य विशेष
७ गुप्त वंश
-
सामान्य प्रारम्भिक
अवस्था में
चन्द्रगुप्त
समुद्रगुप्त
चन्द्रगुप्त
दिव्य
स्कन्द गुप्त
कुमार गुप्त
भानु गुप्त
इतिहास
ईसवी वर्ष
जैन शास्त्र | २३१ इतिहास
३२०-४६० १४०
३२०-३३०
३३० - ३७५
३७५-४१३
४१३-४३५ वी. नि
६४-६६२
४३३४६० ४६०-५०७
१०
४५
३८
२२
२५ ४७
८. कल्की तथा हून वंश *
जैन शास्त्रका कल्की वश
I
वी० नि० | वर्ष/
६५८-१०७३ ११५
१५८-१००० ४२
३१५
आगमकारों व इतिहासकारोकी अपेक्षा इस वंशको पूर्वावधिके सन्बन्धमें समाधान ऊपर कर दिया गया है कि ई. २०१ - ३२० तक यह कुछ प्रारम्भिक अवस्थामें रहा
1
इसने एकछत्र गुप्त साम्राज्य की स्थापना करनेके उपलक्ष्य में गुप्त सम्बत् चलाया। इसका विवाह लिच्छित्र जातिकी एक कन्याके साथ हुआ था । यह विद्वानोका बडा सत्कार करता था। प्रसिद्ध कवि कालिदास (शकुन्तला नाटककार) इसके दरबारका ही रत्न था ।
इतिहासका ना
इसके समय हूनशी (कल्की) सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। उन्होने आक्रमण भी किया परन्तु स्कन्दगुप्तके द्वारा परास्त कर दिये गये। ई. ४३७ में जबकि गुप्त संवत् ११७ था यही राजा राज्य करता था। (कपा, १ / / ५४/६५ / पं. महेन्द्र )
नाम
सामान्य
विशेष घटनायें
इस वंशकी अखण्ड स्थिति वास्तव में स्कन्दगुप्त तक ही रही। इसके पश्चात, हूनोके आक्रमण के द्वारा इसकी शक्ति जर्जरित हो गयो । यही कारण है कि आगमकारोंने इस वशको अन्तिम अवधि स्कन्दगुप्त (वोनि ६६८) तक ही स्वोकार को है। कुमारगुप्तके काल में भी हूनो के अनेको आक्रमण हुए जिसके कारण इस राज्य का बहुभाग उनके हाथमें चला गया और भानुगुप्त के समय में तो यह कमजोर हो गया कि ई. ५०० में हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब व मालबा पर अधिकार जमा लिया । तथा तोरमाणके पुत्र मिहरपालने उसे परास्त करके नष्ट ही कर दिया।
नाम सामान्य इन्द्र शिशुपाल
१०००-१०३३ ३३,
तोरमाण
चतुर्मुख १०३३-१०५५ ४०
मिहिरकुल
१०५४-१००३।
विष्णु यशोधर्म आगमसारोका काकी वश हो इतिहासकारोका
है, स्पो
कि यह एक बर्बर जगली जाति थी, जिसके समस्त राजा अत्यन्त अत्याचारी होनेके कारण कल्की कहलाते थे । आगम व इतिहास दोनो की अपेक्षा समय लगभग मिलता है। इस जातिने गुप्त राजाओपर स्कन्द गुप्त के समय से ई० ४३२ से ही आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये थे। विशेषर्षक २५३)
नोट - जैनागममे प्राय सभी मूल शास्त्रोमे इस राज्य वंशका उल्लेख किया गया है। इसके कारण भी दा है- एक तो राजा 'कल्की' का परिचय देना और दूसरे वीरप्रभुके पश्चात् आचार्योकी मूल परम्पराका ठीक प्रकारसे समय निर्णय करना । यद्यपि अन्य राज्य वंशोका कोई उल्लेख आगममे नहीं है, परन्तु मूल परम्परा के पश्चात्के आचार्यों व शास्त्र रचयिताओं का विशद परिचय पानेके लिए तात्कालिक राजाओ का परिचय भी होना आवश्यक है । इसलिये कुछ अन्य भी प्रसिद्ध राज्य वशोका, जिनका कि सम्बन्ध किन्हीं प्रसिद्ध आचार्योंके साथ रहा है, परिचय यहाँ दिया जाता है ।
ईसवी वर्ष ४३१- ५४६ ११५ ४३१-४७३ | ४२ ४७३-५०६ | ३३ ४०६-५२०२ ५२८ ५४६ १८
४. राष्ट्रकूट वंश (प्रमाण के लिए -- दे. वह वह नाम) सामान्य - जैनागमके रचयिता आचार्योंका सम्बन्ध उनमें से सर्व प्रथम राष्ट्रकूट राज्य के साथ है जो भारत के इतिहास में अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस वंशमें चार हो राजाओं का नाम विशेष उल्लेखनीय है-जगतुङ्ग, अमोघवर्ष, अकालवर्ष और कृष्ण तृतीय। उत्तर उत्तरवाला राजा अपने से पूर्व पूर्वका पुत्र था। इस वंशका राज्य मालवा प्रान्त में था । इसकी राजधानी मान्यखेट थी। पोछेले बडाते-बढाते इन्होने लाट शव अवन्ती देशको भी अपने राज्यमें मिला दिया था।
४. दिगम्बर मूलसंघ
१. जगतुङ्ग - राष्ट्रकूट व शके सर्वप्रथम राजा थे। अमोघवर्ष के पिता और इन्द्रराजके बडे भाई थे अत' राज्य के अधिकारी यही हुए। बडे प्रतापी ये इनके समय पहले साट देश में 'यात्रु-भयंकर कृष्णराज प्रथम नाम अत्यन्त पराक्रमी और व प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे । इनके पुत्र श्री वल्लभ गोविन्द द्वितीय कहलाते थे । राजा जगतुङ्गने अपने छोटे भाई इन्द्रराजकी सहायतासे लाट नरेश 'श्रीवल्लभ' को जीतकर उसके देशपर अपना अधिकारकर लिया था, और इसलिये वे गोविन्द तृतीयकी उपाधि को प्राप्त हो गये थे। इनका काल श. ७१६-७३५ (ई ७६४-८१३) निश्चित किया गया है । २. अमोघवर्ष - इस वंशके द्वितीय प्रसिद्ध राजा अमोघवर्ष हुये । जगतुङ्ग अर्थात् गोविन्द तृतीय
के 5 पुत्र होने के कारण गोविन्द चतुर्थ की उपाधिको प्राप्त हुये । कृष्णराज प्रथम (देखो ऊपर) के छोटे पुत्र ध्रुव राज अमोघ वर्ष के समकालीन थे । ध ुवराज ने अवन्ती नरेश वत्सराज को युद्ध में परास्त करके उसके देशपर अधिकार कर लिया था जिससे उसे अभिमान हो गया और अमोघवर्षपर भी चढाईकर दी । अपने पेरे भाई कर्कराम (जग छोटे भाईराजका पुत्र) की सहायताते उसे जीत लिया। इनका काल वि. ८७११३५ ( ई. ८१४-८७८) निश्चित है । ३. अकालवर्ष - वत्सराज से अनन्त देश जीतकर दयाकृष्ण प्रथमपुत्र राज्य पर अधिकार करनेके कारण यह कृष्णराज द्वितीयकी उपाधिको प्राप्त हुये । अमोघवर्ष के पुत्र होनेके कारण अमोघवर्ष द्वितीय भी कहलाने लगे। इनका समय ई, ८७८-११२ निश्चित है । ४ कृष्णराज तृतीय प्रकाश पुत्र और कृष्ण तृतीयक उपाधिको प्राप्त
४ दिगम्बर मूल संघ
१ मूलसंघ
भगवान् महावीरके निर्वाणके पश्चात् उनका यह मूल सघ १६२ वर्षके अन्तरासमे होने वाले गौराम से लेकर अन्तिम भद्रबाहु स्वामी तक अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। इनके समय में अवन्ती देशमें पडनेवाले द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण इस संघके कुछ आचार्योंने शिथिलाचारको अपनाकर आ. स्थूलभद्रकी आमान्य मे इससे विलग एक स्वतन्त्र श्वेताम्बर संघकी स्थापना कर दी जिससे भगवानका एक अखण्ड दो शाखाओमे विभाजित हो गया
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इतिहास
३१६
४. दिगम्बर मूलसंघ
(विशेष दे श्वेताम्बर)। आ भद्रबाहू स्त्रामीकी परम्परामे दिगम्बर मल सघ श्रुतज्ञानियोके अस्तित्वकी अपेक्षा वी. नि.६८३ तक बना रहा, परन्तु सघ व्यवस्थाकी अपेक्षासे इसकी सत्ता आ. अहं दुबली (वी नि. ५६५-५६३) के कालमे समाप्त हो गई।
ऐतिहासिक उल्लेबके अनुसार मलसघका यह विघटन बी. नि. ५७५ मे उस समय हुआ जबकि पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमणके अवसर पर
आ. अहंवलिने यत्र-तत्र बिखरे हुए आचार्यों तथा यतियोको संगठित करने के लिये दक्षिण देशस्थ महिमा नगर (जिला सतारा) में एक महान यति सम्मेलन आयोजित किया जिसमे १००-१०० योजनसे आकर यतिजन सम्मिलित हुए। उस अवसर पर यह एक अखण्ड संघ अनेक अवान्तर सघोमे विभक्त होकर समाप्त हो गया (विशेष दे. परिशिष्ट २/२)
२. मूलसंघको पट्टावली
वीर निर्वाणके पश्चात् भगवान् के मूलसंघकी आचार्य परम्परामे ज्ञानका क्रमिक ह्रास दर्शाने के लिए निम्न सारणीमे तीन दृष्टियोका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। प्रथम दृष्टि तिल्लोय पण्णति आदि मूल शास्त्रोको है. जिसमें अग अथवा पूर्वधारियोका समुदित काल निर्दिष्ट किया गया है। द्वितीय दृष्टि इन्द्रनन्दि कृत श्रृंतावतार को है जिसमें समुदित कालके साथ-साथ आचार्योका पृथक्-पृथक् काल भी बताया गया है। तृतीय दृष्टि प. कैलाशचन्दजो की है जिसमें भद्रबाहु प्र. की चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ समकालीनता घटित करनेके लिये उक्त काल में कुछ हेरफेर करने का सुझाव दिया गया है (विशेष दे. परिशिष्ट २) । दृष्टि न १- (ति प.४/१४७५-१४६६), (ह पु. ६०/४७६-४८१), (ध १/४,१४४/२३०), (क.पा १/६४/८४), (म.पु २/१३४-१५०) दृष्टि नं. २= इन्द्रनन्दि कृत नन्दिसघ बलात्कार गणकी पट्टावली/श्ल १-१७), (ती. २/१६ पर तथा ४/३४७ पर उधृत) दृष्टि न. ३=जै पी. ३५४ (१. कैलाश चन्द)।
दृष्टि नं०१
दृष्टि नं०२
दृष्टि न०३
क्रम
नाम
। अपर नाम
समुदित
पादित
विशेष
ज्ञान
ज्ञान
वी नि सं./समुदित
तसं
काल
काल
,
वीर निर्वाण के पश्चात१ गौतम इन्द्रभूति गणघर केवली
सुधमा लोहार्य
r
६२ वर्ष
१२-२४
१०० वर्ष ६२ वर्ष
विष्णु
→- पूर्ण श्रुतकवला.
११ अंग १४ पूर्व→
-
→ श्रुतकेवली या ११ . ,
अग१४ पूर्वधारी
,
→ १०० वर्ष
→
wr
११ अंग व १० पूर्वधारी
१८३ वर्ष
नन्दि | नन्दि मित्र नन्दि
अपराजित गोवर्धन भद्रबाहु प्र विशाखाचार्य | विशाखदत्त
प्रोष्ठिल चन्द्रगुप्त मौर्य ११ क्षत्रिय कृतिकार्य १२ जयसन
जय नागसेन नाग
सिद्धार्थ १५ धृतषेण १६ विजय विजयसेन १७ बुद्धिलिग बुद्धिल १८ देव
गंगदेव, गंग १६ धर्मसेन धर्म, सुधर्म
क्षत्र जयपाल यशपाल पाण्ड ध्र वसेन कंस सुभद्र
यशोभद्रे अभय २७ भद्रबाहु द्वि यशोबाहु जयबाहु
लोहार्य
११ अंग व १०पूर्वधारी
०-१२ १२-२४ २४-६२ ६२-७६ ७६-१२ १२-११४ ११४-१३३ १३३-१६२ १६२-१७२ १७२-१६१ १६१-२०८ २०८-२२६
२२६-२४७ | २४७-२६४ २६४-२८२) २८२-२६५ २६५-३१५ ३१५-३२६ ३२६-३४५ ३४५-३६३ ३६३ ३८३ ३८३-४२२ ४२२-४३६ ४३६ -४६८ ४६८-४७४ ४७४-४६२
१८३ वर्ष
२४-६२ ६२-८८ ८८-११६ ११६-१५० १५०-१८० १८०-२२२ २२२-२३२ २३२-२५१ २५१-२६८ २६८-२८६ २८६-३०७ ३०७-३२४ ३२४-३४२ ३४२-३५५ ३५५-३७५ ३७५-३-६ ३८६-४०५ | १६ १४को बजाय १६वर्ष ४०५-४१७ । १२ लेनेसे संगति बैठेगी ४१७-४३० ४३०-४४२ । १२ ४४२-४५४ ४५४-४६८ ४६८-४७४ ४७४-४६२
४६२-५१५ | २३ |५९५-५६५०५२की बजाय ५० वर्ष
'५६६ लेनेसे संगति बैठेगी
-
-११अंग धारी→-
२०
२२० वर्ष→
-११ अगधारी→ -
द्रुमसेन
११८ वर्ष -
१० अगघारी
१८
आचाराग धारी
अग धारी| २३ ४१२-५१५ ८अगधारी २ (५०) ५१५-५६५ |
२८ लोहाचार्य
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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इतिहास
३१७
४. दिगम्बर मूल संघ
दृष्टि
दृष्टि २
दृष्टि
नं.३
विशेष
नं.
नाम
नोट
ज्ञान
वर्ष ।
समुदितावी नि.सं.. | काल
वर्ष
अंगधारी ५२ (५०)/ ५१५-५६५ १ अंगधारी | ५६५-५८५
२८ लोहाचार्य २६ विनयदत्त ३० श्रीदत्त न.१
| शिवदत्त ३२/ अहंदत्त
. समकालीन है
-२० वर्ष-
श्रुतावतारकी मूल पट्टावली में इन चारोंका नाम नहीं है । (ध १/प्र. २४/H.L. Jain) । एकसाथ उल्लेख होनेसे समकालीन है। इनका समुदित काल २०वर्ष माना जा सकता है (मुख्तार साहब) गुरु परम्परासे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है (दे, परिशिष्ट २) आचार्य काल । सध विघटनके पश्चावसे समाधिसरण तक (विशेष दे. परिशिष्ट २)
३३, अर्ह दलि
(गुप्तिगुप्त)
→
अगांशधर अथवा पूर्व विद
५६५-५७५ / १० ५७५-५६३१८
३४ माघनन्दि
इन नामों का उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। जोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है।
१
५६३-६१४ | "
४
११८ वर्ष
५७५-५७६ ५७६-६१४
३. धरसेन
नन्दि स पके पट्ट पर। पट्ट भ्रष्ट हो जानेके पश्चात समाधिमरण तक। (विशेष दे परिशिष्ट २) अहं लीके समकालीन थे। वी नि.६३३ में समाधि । (विशेष दे. परिशिष्ट २) धरसेनाचायके पादमूलमें ज्ञान प्राप्त करके इन दोनोने षट् खण्डागमकी रचना की (विशेष दे. परिशिष्ट २)
३०
५६३-६३३
६३३-६६३
३६ पुष्पदन्त
६६३-६८३
३७ भूतबलि
३. पट्टावली का समन्वयध, १/प्र./H L.Jain/पृष्ठ संख्या-प्रत्येक आचार्य के कालका पृथकपृथक् निर्देश होनेसे द्वितीय दृष्टि प्रथमकी अपेक्षा अधिक ग्राह्य है ।२८। इसके अन्य भी अनेक हेतु है । यथा-(१) प्रथम दृष्टिमें नक्षत्रादि पाँच एकादशांग धारियोका २२० वर्ष समुदित काल बहुत अधिक है ।२६। (२) प. जुगल किशोरजीके अनुसार विनयदत्तादि चार आचार्योंका समुदित काल २० वर्ष और अहवाल तथा माघनन्दिका १०-१० वर्ष कल्पित कर लिया जाये तो प्रथम दृष्टिसे धरसेनाचार्यका काल वी.नि. ७२३ के पश्चात हो जाता है, जबकि आगे इनका समय बी नि ५६५-६३३ सिद्ध किया गया है ।२४। (३) सम्भवत' मूलसंघका विभक्तिकरण हो जानेके कारण प्रथम दृष्टिकारने अहहलो आदिका नाम वी.नि के पश्चातवाली ६८३ वर्षकी गणनामें नहीं रखा है, परन्तु जैसा कि परिशिष्ट २ में सिद्ध किया गया है इनकी सत्ता ६८३वर्ष के भीतर अवश्य है ।२८. इसलिये द्वितीय दृष्टि ने इन नामोका भी संग्रहकर लिया है। परन्तु यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि इनके कालकी जो स्थापना यहाँ की गई है उसमें पट्टपरम्परा या गुरु शिष्य परम्पराकी कोई अपेक्षा नहीं है, क्योकि लोहाचार्य के पश्चात् वी नि ५७४ में अर्हवली के द्वारा सघका विभक्तिकरण हो जानेपर मूल सघकी सत्ता समाप्त हो जाती है (दे. परिशिष्ट २ में 'अर्ह वली')। ऐसी स्थितिमें यह सहज सिद्ध हो जाता है कि इनकी काल गणना पूर्वावधिकी बजाय उत्तरावधिको अर्थाव उनके समाधिमरणको लक्ष्य में रखकर की गई है। वस्तुत' इनमें कोई पौर्वापर्य नही है। पहले पहले वालेको उत्तराधि ही आगे आगे वालेकी पूर्वावधि बन गई है। यही कारण है कि सारणीमें निर्दिष्ट कालों के साथ इनके जीवन वृत्तोकी सगति ठीक ठोक परित नहीं होती है। (४) दृष्टि न,३ में जैन इतिहासकारोने इनका सुयुक्तियुक्त काल निर्धारित किया है जिसका विचार परिशिष्ट २ के अन्तर्गत विस्तारके साथ किया गया है। (२) एक चतुर्थ दृष्टि भी
प्राप्त है । वह यह कि द्वितीय दृष्टिका प्रतिपादन करनेवाले श्रुतवतार में प्राप्त एक श्लोक (दे, परिशिष्ट ४) के अनुसार यशोभद्र तथा भद्रबाहू द्वि. के मध्य ४-५ आचार्य और भी है जिनका ज्ञान श्रुतावतारके कर्ता श्री इन्द्रनन्दिको नहीं है। इनका समुदित काल ११८ वर्ष मान लिया जाय तो द्वि दृष्टिसे भी लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष पूरे हो जाने चाहिए। (पं.स./प्र./H L.Jan), (स सि / ७८/पं. फूलचन्द)। परतु इस दृष्टिको विद्वानोका समर्थन प्राप्त नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर अर्हवली आदिका काल उनके जीवन वृत्तोसे बहुत आगे चला जाता है।
४. मूल संघका विघटन जैसा कि उपर्युक्त सारणी में दर्शाया गया है भगवान् वीरके निर्वाणके
पश्चात गौतम गणधरसे लेकर अर्ह बली तक उनका मूलसघ अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा । आ० अर्ह बलीने पचवर्षीय युगप्रतिक्रमणके अवसर परमहिमानगर जिला सतारामें एक महान यतिसम्मेलन किया, जिसमें सौ योजन तकके साधु सम्मिलित हुए। उस समय उन साधुओंमें अपने अपने शिष्यों के प्रति कुछ पक्षपातकी बू देखकर उन्होने मूलसंघकी सत्ता समाप्त करके उसे पृथक् पृथक् नामोवाले अनेक अवान्तर सपोमें विभाजित कर दिया जिसमे से कुछके नाम ये है-१. नन्दि, २. वृषभ ३. सिह, ४ देव, ५ काष्ठा. ६. वीर, ७. अपराजित, ८. पचस्तूप, ६. सेन, १०.भद्र, ११. गुणधर, १२ गुप्त, १३. सिंह, १४. चन्द्र इत्यादि (ध १/प्र.१४ HI. Jain) ।
इनके अतिरिक्त भी अनेको अवान्तर संध भी भिन्न भिन्न समयोंपर परिस्थितिवश उत्पन्न हाते रहे। धीरे धीरेइनमें से कुछ संघो में शिथिलाचार आता चला गया. जिनके कारण वे जैनाभासी कहलाने लगे (इनमें छ प्रसिद्ध है-१.श्वेताम्बर, २. गोपुच्छ या काष्ठा, ३. द्रविड, ४, यापनीय या गोप्य, ५ निष्पिच्छ या माथुर और ६. भिल्लक
५ श्रुत तीर्थको उत्पत्ति - घ.४/१.४४/१३० चोइसपइण्णयाणमगबज्माणं च सावणमास-बहुलपक्रव-जुगादिपडिवयपुब्यदिवसे जेण रयणा कदा तेणिदभूदिभडारओ
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५. दिगम्बर जैन संघ
बढमाण जिगतित्थगंथकत्तारो। उक्तं च-'वासस्स पढममासे पढमे पक्रवम्मि सावणे बहुले । पडिवदपुवदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभि
जिम्मि ४०।' ध.१/१.२/६५ तित्थयरादो सुदपज्जरण गोदमो परिणदो त्ति दब्व-मुदस्स गोदमो कत्ता - चौदह अगबाह्य प्रकीर्ण कोकी श्रावण मास के कृष्ण पक्षमे युगके आदिम प्रतिपदा दिनके पूर्वाह्नमे रचना की गई थी। अतएव इन्द्रभूति भट्टारक बद्धमान जिनके तीर्थ में ग्रन्थकर्ता हुए। कहा भी है कि 'वर्ष के प्रथम (श्रावण) मासमे, प्रथम (कृष्ण) पक्षमें अर्थात श्रावण कृ प्रतिपदाके दिन सवेरे अभिजित नक्षणमें तीर्थ की उत्पत्ति हुई । तोर्थ से आगत उपदेशोको गौतमने श्रुतके रूपमे परिणत किया। इसलिये गौतम गणधर द्रव्य श्रुतके कर्ता है। ६ श्रुतज्ञानका क्रमिक ह्रास
भगवान महावीर के निर्वाण जानेके पश्चाद १२ वर्ष तक इन्द्रभूति (गौतम गणधर) आदि तीन केबल्ली हुए। इनके पश्चात् यद्यपि केवलज्ञानकी व्युच्छित्ति हो गई तदपि ११ अग १४ पूर्वके धारी पूर्ण श्रुतकेवली बने रहे इनकी परम्परा १०० वर्ष तक (विद्वानोके अनुसार १६० वर्ष तक) चलती रही। तत्पश्चात श्रुत ज्ञानका क्रमिक हास होना प्रारम्भ हो गया। वी नि ५६५ तक १०,६,८ अंगधारियोकी परम्परा चली और तदुपरान्त वह भी लुप्त हो गई। इसके पश्चात वी नि ६८३ तक श्रुतज्ञानके आचारागधारी अथवा किसी एक आध अंगके अशधारी ही यत्र-तत्र शेष रह गए।
इस विषयका उल्लेख दिगम्बर साहित्यमे दो स्थानोपर प्राप्त होता है, एक तो तिल्लोय पण्णति, हरिवंश पुराण, धवला आदि मूल ग्रन्थों में और दूसरा आ इन्द्रनन्दि (वि ६६६) कृत श्रुतावार में । पहले स्थानपर श्रुतज्ञानके क्रमिक ह्रासको दृष्टि में रखते हुए केवल उस उस परम्पराका समुदित काल दिया गया है, जब कि द्वितीय स्थान पर समुदित कालके साथ-साथ उस उस परम्परामे उल्लिखित आचार्योंका पृथक्-पृथक् काल भी निर्दिष्ट किया है, जिसके कारण सन्धाता विद्वानों के लिये यह बहुत महत्व रखता है। इन दोनों दृष्टियोका समन्वय करते हुए अनेक ऐतिहासिक गुत्थियोको सुलझानेके लिए विद्वानोंने थोड़े हेरफेरके साथ इस विषयमे अपनो एक तृतीय दृष्टि स्थापित की है । मूलसघकी अग्रोक्त पट्टावलीमे इन तीनो दृष्टियोका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। ५. दिगम्बर जैन संघ
१.सामान्य परिचय ती म,आ /४/३४८ पर उद्धृत नीतिसार-तस्मिन श्रीमूलसंघे मुनिजनविमले सेन-नन्दो च सधौ। स्याता सिहारव्यसंघोऽभवदुरुमहिमा देवसंधश्चतुर्थ ॥ अहंबलीगुरुश्चके सघसंघटनं परम् । सिहसपो नन्दि सध. सेनसघस्तथापर। -मुनिजनोके अत्यन्त विमल श्री मूलस घमें सेनसंध, नन्दिसघ, सिहसंघ और अत्यन्त महिमावन्त देवसघ ये चार संघ हुए। श्री गुरु अहंदवलीके समय में सिहसघ,नन्दिसंघ,सेनसघ (और देवसंध) का सघटन किया गया। श्रुतकीर्ति कृत पट्टावली-ततः परं शास्त्रविदां मुनिनामग्रेसरोऽभूदकल क
सुरि... तस्मिन्गते स्वर्गभुव महर्षी दिव स योगि संधश्चतुर प्रभेदासाद्य भूयानाविरुद्धवृत्तान् ।। देव नन्दि-सिंह-सेन संघभेद वर्तिना देशभेदत प्रभोदभाजि देवयोगिनां । = इन(पूज्यपाद जिनेन्द्र बुद्धि) के पश्चाद शास्त्रवेत्ता मुनियों में अग्रेसर अकलंकसूरि हुए । इनके दिवंगत हो जानेपर जिनेन्द्र भगवान संघके चार भेदोको लेकर शोभित होने लगे-देवसघ, नन्दिसघ, सिंहसंघ और सेनसंध।
नीतीसार (ती./४/३५८)- अर्ह दबलीगुरुश्चक्रे संघसंघटनं परमा सिंहसंघो नन्दिसंघामेनसंघस्तथापर ।देवसंघ इतिस्पष्टं स्टपनस्थितिविशेषत -अर्ह हली गुरुके काल में स्थान तथा स्थितिको अपेक्षासे सिंहसघ, नन्दिसंघ,सेनसघ और देवसघ इन चार सघोका सगठन हुआ । यहाँ स्थानस्थितिविशेषत इस पदपरसे डा नेमिचन्द्र इस घटनाका सम्बन्ध उस कथाके साथ जोडते है जिसके अनुसार आ अहहलीने परीक्षा लेनेके लिए अपने चार तपस्वी शिष्योको विक्ट स्थानी में वर्षा योग धारण करनेका आदेश दिया था। तदनुसार नन्दि वृक्ष के नीचे वर्षा योग धारण करनेवाले माघनन्दि का सघ नन्दिसच कहलाया, तृणतलमे वर्षायोग धारण करनेसे श्री जिनसेनका नाम वृषभ पड़ा और उनका सघ वृषभ सघ कहलाया। सिहकी गुफामें वर्षा योग धारण करनेवालेका सिहसघ और देव दत्ता वेश्याके नगर में वर्षायोग धारण करनेवाले का देवसघ नाम पड़ा । (विशेष दे परिशिष्ट/२/८) २. नन्दि संघ
१ सामान्य परिचय आ. अर्ह हलीके द्वारा स्थापित सघमें इसका स्थान सर्वोपरि समझा जाता है यद्यपि इसकी पट्टावलीमे भद्रबाहू तथा अर्ह बली का नाम भी दिया गया परन्तु वह परम्परा गुरुके रूपमे उन्हे नमस्कार करने मात्र के प्रयोजनसे है। सघका प्रारम्भ वास्तवमें माधनन्दिसे होता है। गुरु अई वलीकी आज्ञासे नन्दि वृक्षके नीचे वर्षा योग धारण करनेके कारण इन्हे नन्दिकी उपाधि प्राप्त हुई थी और उसी कारण इनके इस संघका नाम नन्दिसंघ पडा। माघनन्दिसे कुन्दकुन्द तथा उमास्वामी तक यह सघ मूल रूपसे चलता रहा। तत्पश्चात यह दो शाखाओ में विभक्त हो गया। पूर्व शाखा नन्दिसध बलात्कार गणके नामसे प्रसिद्ध हुई और दूसरी शाखा जैनाभासी काष्ठा सघकी और चली गई। "लोहोचार्यस्ततो जातो जातरूपधरोऽमरै । तत पट्टद्वयी जाता प्राच्युदीच्युपलक्षणात्" (विशेष दे आगे शीर्षक ६/४) ।
२. बलात्कार गणइस संघकी एक पट्टावली प्रसिद्ध है। आचार्योंका पृथक पृथक काल
निर्देश करनेके कारण यह जैन इतिहासकारोके लिये आधारभूत समझी जाती परन्तु इसमें दिये गए काल मूल सघकी पूर्वोक्त पट्टावली के साथ मेल नहीं खाते हैं, और न ही कुन्दकुन्द तथा उमास्वामीके जीवन वृत्तोके साथ इनकी सगति घटित होती प्रतीत होती है। पट्टावली आगे शीर्षक ७के अन्तर्गत निबद्ध की जानेवाली है। तत्सम्बन्धो विप्रतिपत्तियों का सुमक्तियुक्त समाधान यद्यपि परिशिष्ट ४में किया गया है तदपि उस समाधानके अनुसार आगे दी गई पदावली में जो संक्षिप्त सकेत दिये गये है उन्हें समझनेके लिए उसका संक्षिप्त सार दे देना उचित प्रतीत होता है।
पट्टावलीकार श्री इन्द्रनन्दिने आचार्योंक काल की गणना विक्रम के राज्याभिषेकसे प्रारम्भ की है और उसे भ्रान्तिवश वी नि.४८८ मानकर की है। (विशेष दे परिशिष्ट १)। ऐसा मानने पर कुन्दकुन्दके कालमें ११७ वर्ष की कमी रह जाती है। इसे पाटनेके लिये ४ स्थानों पर वृद्धि की गई है--१ भद्रबाहके कालमें १ वर्षकी वृद्धि करके उसे २२ वर्षकी बजाय २३ वर्ष बनाया गया है । २. भद्रबाह तथा गुप्तिगुप्त (अहं इली) के मध्यमें मूल सघकी पट्टावलोके अनुसार लोहाचार्यका नाम जोडकर उनके ५० वर्ष बढाये गए है । ३ माघनन्दिकी उत्तरावधि वी नि ५७६ में ३५ वर्ष जोडकर उसे मूलस के अनुसार वी नि ६१४ तक ले जाया गया है। ४ इस प्रकार १+५+३५-८६ वर्ष की वृद्धि हो जानेपर माघनन्दि तथा कुन्दकुन्द के गुरु जिनचन्द्रके मध्य ३१ वर्षका अन्तर शेष रह जाता है, जिसे पाटनेके लिये या तो यहाँ एक और नाम कल्पित किया जा सकता है और या जिनचन्द्रके कालको पूर्वावधिको ३१ वर्ष ऊपर उठाकर वी. नि. ६४५ की बजाय ६१४ किया जा सकता है।
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इतिहास
६. दिगम्बर जैनाभासी संघ
ऐसा करने पर क्यों कि वी. नि. ४८८ में विक्रम राज्य मानकर की गई आ इन्द्वनन्दिकी काल गणना वी, 'नि ४८८+११७-६०५ होकर शक संवत्के साथ ऐक्य को प्राप्त हो जाती है. इसलिए कुन्दकुन्द से आगे वाले सभी के कालोमें ११७ वर्षकी वृद्धि करते जानेकी बजाये उनकी गणना पट्टावली में शक सक्तकी अपेक्षा से कर दी गई है। (विशेष दे परिशिष्ट ४)।
३. देशीय गण कन्दकन्द प्राप्त होने पर नन्दिसघ दो शाखाओमें विभक्त हो गया। एक तो उमास्वामीकी आम्नायकी ओर चली गई और दूसरीसमन्तभद्र की ओर जिस में आगे जाकर अक्लंक भट्ट हुए। उमास्वामीकी आम्नाय पुन दो शाखाओं में विभक्त हो गई। एक तो बलात्कारगण की मूल शाखा जिसके अध्यक्ष गोलाचार्य तृ हुए और दूसरीबलाकपिच्छको शाखा जो देशीय गणके नामसे प्रसिद्ध हुई। यह गण पुन. तीन शाखाओं में विभक्त हुआ, गुणनन्दि शाखा, गोलाचार्य शारखा और नयकीर्ति शाखा । (विशेष दे, शीर्षक ७/१,५) । ३. अन्य संघ आचार्य अर्ह बलोके द्वारा स्थापित चार प्रसिद्ध सघोमें से नन्दिसंध का परिचय देनेके पश्चात अब सिंहसघ आदि तोनका कथन प्राप्त होता है। सिंहकी गुफा पर वर्षा योग धारण करने वाले आचार्यकी अध्यक्षतामें जिस सध का गठन हुआ उसका नाम सिह संघ पडा । इसी प्रकार देव दत्ता नामक गणिकाके नगरमें वर्षा योग धारण करनेवाले तपस्वीके द्वारा गठिन सघ देव संघ कहलाया और तृणतल में वर्षा योग धारण करने वाले जिनसेन का नाम वृषभ पड़ गया था उनके द्वारा गठित सघ वृषभ संघ कहलाया इसका ही दूसरा नाम सेन सघ है। इसकी एक छोटी-सी गुर्वावली उपलब्ध है जो आगे दी जानेवाली है। धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने जिस सघको महिमान्वित किया उसका नाम पचस्तूप संघ है इसीमे आगे जाकर जैनाभासी काष्ठा सघ के प्रवर्तक श्री कुमारसेन जी हुए। हरिवंश पुराणके रचयिता श्री जिनसेनाचार्य जिस संघमें हुए बह पुन्नाट सघ के नामसे प्रसिद्ध है। इसकी एक पट्टावली है जो आगे दी जाने वाली है। ६ दिगम्बर जैनाभासी सघ
१ सामान्य परिचयनीतिसार (तो म आ/४/३५८ पर उद्धत)-पूर्व श्री मूल संघस्तदनु सितपट. काष्ठस्ततो हि तावामुदादिगच्छा पुनरजनि ततो यापुनीसघ एकः । मूल संघमें पहले (भद्रबाहू प्रथमके कालमें) श्वेताम्बर सध उत्पन्न हुआ था (दे, श्वेताम्बर)। तत्पश्चात (किसी काल में) काष्ठा संघ हुआ जो पीछे अनेको गच्छोमे विभक्त हो गया। उसके कुछ ही काल पश्चात् यापुनी सघ हुआ। नोतिसार (द पा /टो ११में उद्धृत)-गोपुच्छकश्वेतवासा द्रविडो यापनीय निश्पिच्छश्चति चैते पञ्च जैनाभासा प्रकीर्तिता । गोपुच्छ (काष्ठा सघ), श्वेताम्बर, द्रविड, यापनीय और निश्पिच्छ (माथुर
सघ) ये गांच जैनाभासी कहे गये है। हरिभद्र सूरोकृत षट् दर्शन समुच्चयकी आ गुणरत्नकृत टोका-"दिगम्बरा
पुनर्नाग्न्यलिगा पाणिपात्रश्व । ते चतुर्धा, काष्ठसंध-मूलसंघ-माथुरसघ गोप्यसघ भेदात् । आद्यास्त्रयोऽपि सघा वन्द्यमाना धर्मवृद्धि भणन्ति गोप्यास्तु बन्धमाना धर्मलाभ भण ति । स्त्रोणा मुक्ति केवलीना भुक्ति सनतस्यापि सचीवरस्य मुक्ति च न मन्वते। सवेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वात्रिंशदन्तराया मलाश्च चतुर्दश वर्ननीया। शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वश्वेताम्बरैस्तुत्यम् । नास्ति तेषा मिथ शास्त्रेषु तर्केषु परो भेद.। = दिगम्बर नग्न रहते है और हाथमें भोजन करते है । इनके चार भेद है, काष्ठासघ, मूलस घ, माथुरसघ और गोप्य (यापनीय) संघ । पहलेके तीन (काष्ठा, मल तथा माथुर) वन्दना
करनेवालेको धर्मवृद्धि कहते हैं और स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति तथा सवतोंके सद्भभावमें भी सवस्त्र मुक्ति नहीं मानते है । चारोहीसंघों के साधु भिक्षाटनमें तथा भोजनमें ३२ अन्तराय और १४ मलोको टालते है। इसके सिवाय शेष आचार (अनुदिष्टाहार, शून्यवासआदि तथा देव गुरुके विषयमें (मन्दिर तथा मूर्तिपूजा आदिके विषयमें) सब श्वेताम्बरों के तुल्य है । इन दोनीके शास्त्रोमें तथा तोंमे (सचेलता,स्त्रीमुक्ति और कवलि भुक्तिको छोड़कर) अन्य कोई भेद नहीं है द.सा/४० प्रेमी जी-ये सघ वर्तमानमें प्राय ला हो चके है । गोपच्छकी पिच्छिका धारण करने वाले कतिपय भट्टारको के रूपमें केवल काष्ठा संघका ही कोई अन्तिम अवशेष कहीं कहीं देखनेमे आता है। २ यापनीय संघ
१ उत्पत्ति तथा काल भद्रमाहुचारित्र ४/१५४-ततो यापनसंघोऽभूत्तेषी कापथवर्तिनाम् । -
उन श्वेताम्बरियोमें से कापथवर्ती यापनीय सब उत्पन्न हुआ। द सा./मू २६ कल्लाणे वरणयरे सत्तसए पच उत्तरे जादे । जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ।२६ - कल्याण नामक नगरमें विक्रमकी मृत्यु के ७०५ वर्ष बीतने पर (दूसरी प्रतिके अनुसार २०५ वर्ष बीतनेपर) श्रीकलश नामक श्वेताम्बर साघुसे यापनीय संघका सद्भाव हुआ।
२ मान्यताये द, पा/टी, ११/११/१५-यापनीयास्तु वेसरा इबोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति, कल्पं च बाचयन्ति, स्त्रीणा तद्भवे मोक्ष, केवलिजिनाना कवलाहार, परशासने सग्रन्थाना मोक्ष च कथयन्ति। -यापनीय संघ (दिगम्बर तथा श्वेताम्बर) दोनोको मानते है। रत्नत्रयको पूजते है, (श्वेताम्बरोके) करु पसूत्रको बाँचते है. (श्वेताम्बरियोकी भौति) स्त्रियोका उसी भवसे मुक्त होना केवलियोका कवलाहार ग्रहण करना तथा अन्य मतावलम्बियोको और परिग्रहधारियों को
भी मोक्ष होना मानते है । हरिभद्र सूरि कृत षट् दर्शन समुच्चयकी आ. गुणरत्न कृत टीका
गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभ भणन्ति । स्त्रीणां मुक्ति केवलिणा भुक्ति च मन्यन्ते। गोप्या यापनीया इत्युच्यन्ते । सर्वेषा च भिक्षाटने भोजने च द्वान्तिशदन्तरायामलाश्च चतुर्दश वर्जनीया । शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्व श्वेताम्बरै स्तुत्यम् । = गोप्य संघ वाले साधु वन्दना करनेवालेको धर्मलाभ कहते है । स्त्रीमुक्ति तथा केबलिभुक्ति भी मानते है। गोप्यसघको यापनीय भी कहते है। सभी (अर्थात् काष्ठा सघ आदिके साथ यापनीय संघ भी) भिक्षाटनमें
और भोजनमे ३२ अन्तराय और १४ मलोको टालते है। इनके सिवाय शेष आचारमे (महावतादिमे) और देव गुरुके विषयमे (मूर्ति पूजा आदिक विषयमे) सत्र (यापनीय भी) श्वेताम्बरके तुल्य है।
३ जैनाभासत्व उक्त सर्व कथनपरसे यह स्पष्ट है कि यहसंघ श्वेताम्बर मतमे से उत्पन्न हुआ है और श्वेताम्बर तथा दिगम्बरके मिश्रण रूप है । इसलिये जैनाभास कहना युक्ति सगत है ।
४ काल निर्णय इसके समयके सम्बन्धमे कुछ विवाद है क्योकि दर्शनसार ग्रन्थकी दो
प्रतियाँ उपलब्ध है । एकमे वि.७०५ लिखा है और दूसरेमे वि.२०१॥ प्रेमीजीके अनुसार वि.२०५ युक्त है क्योंकि आ. शाकटायन और पाल्य कीर्ति जो इसी सपके आचार्य माने गये हैउन्होने स्त्री मुक्ति
और केवलभुक्ति' नामक एक ग्रन्थ रचा है जिसका समय वि. ७०५ से बहुत पहले है।
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६. दिगम्बर जैनाभासौ संघ
वाला कोई भी जैन संघ नहीं है। सम्भवत साबध का अर्थ भी (यहाँ) कुछ और ही हो। ४३॥ ४-तात्पर्य यह है कि यह संघ मुल दिगम्बर सघसे विपरीत नहीं है। जैनाभास करना तो दूर यह आचार्योंको अत्यन्त प्रमाणिक रूपसे सम्मत है।
३ गच्छ तथा शाखाये इस सबके अनेको गच्छ है, यथा-१ नन्दि अन्वय, २ उरुकुल गण, ३ एरेगित्तर गण. ४ मूलितल गच्छ इत्यादि । (द सा /प्र ४२प्रेमीजी)।
४ काल निर्णय द. सा. मू.२८-१चसए छब्बीसे विकमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिण
महुरादो द्राविड संघो महामोहो ।२८। विक्रमराजकी मृत्यु के ५२६ वर्ष बोतनेपर दक्षिण मथुरा नगर में (पूज्यपाद देवनन्दिके शिष्य श्री बज्रनन्दिके द्वारा) यह र घ उत्पन्न हुआ।
५ गुर्वावली इस सबके नन्दिगण उरुङ्गलान्वय शाखाकी एक छोटी सी गुर्वावली
उपलब्ध है । जिसमे अनन्तवीर्य, देवकीर्ति पण्डित तथा वादिराजका काल विद्वद सम्मत है । शेषके काल इन्हींके आधार पर कल्पित किये गए है। (सि वि/प्र.७५५ महेन्द्र), (ती, ३/४०-४१,८८-१२) ।
सिद्धान्तसेन (ई. ६४०-१०००)
गोणसेन पण्डित (ई.६६०-१०००)
श्रीपाल (ई १७५-१०२५) अनन्तवीर्य
(जैन नैयायिक)
३ द्राविड़ संघ दे. सा / २४ २७ सि रिपुज्जपादसीसो दावि डसंघस्स कारगो दुट्ठो। णामेण बज्जण दी पाहुडवेदी महासत्तो।२४। अप्पासुयचणयाणं भवरखणदो बज्जिदो सुणि देहि । परिरइय विवरीत विसेसयं बग्गणं चोज्ज १२५ बीएसु ण त्थि जोवो उन्भसण णत्थि फासुगणस्थि । सबज्जण हुमण्णइ ण गणई गिहकप्पिय अठ।२६।कच्छ खेत्त वसहि वाणिज्ज कारिऊण जीवतो । ण्हतो सचिलणीरे पाव पउर स संजे दि १२७) - श्री पुज्यपाद या देवनन्दि आचार्यका शिष्य वज्रनन्दि द्रविडसंघको उत्पन्न करने वाला हुआ। यह समयसार आदि प्राभृत ग्रन्थोंका ज्ञाता और महान पराक्रमौ था। मुनिाराजोने उसे अप्रामुक या सचित्त चने खानेसे रोका, परन्तु वह न माना और बिगड कर प्रायश्चित्तादि विषयक शास्त्रोकी विपरीत रचनाकर डाली ।२४-२५॥ उसके विचारानुसार बीजोमे जीव नही हाते,जगतमकोई भी वस्तु अप्रासुक नही है । वह नतो मुनियों के लिये खडे खडे भोजनकी विधिको अपनाता है, न कुछ सावध मानता है और न ही गृहकल्पित अर्थको कुछ गिनता है ।२६। कच्छार खेत वसतिका और वाणिज्य आदि कराके जीवन निर्वाह करते हुए उसने प्रचुर पापका सग्रह किया। अर्थात् उसने ऐसा उपदेश दिया कि मुनिजन यदि खेती करावे, वतिका निर्माण करावे, वाणिज्य करावे और अप्रामुक जलमे स्नान करें तो कोई दोष
नहीं है। द, सा./टो ११ द्राविडा' ... सावद्य' प्रासुक च न मन्यते, उदभोजन निराकुर्वन्ति । द्रविड स धके मुनिजन सावद्य तथा प्रासुकको नही
मानते और मुनियोको खडे होकर भोजन करनेका निषेध करते है। द, सा./प्र ५४ प्रेमी जी-"द्रविड सघके विषयमें दर्शनसारकी वनि
काके कर्ता एक जगह जिन संहिताका प्रमाण देकर कहते है कि 'सभूषणं सबस्त्रस्यात् बिम्ब द्राविडसघजम्' अर्थात द्राविड सघकी प्रतिमाये वस्त्र और आभूषण सहित होती है। न मालम यह जिनसंहिता किसकी लिखी हुई और कहाँ तक प्रामाणिक है । अभी तक हमे इस विषयमे बहुत सदेह है कि द्राविड संघ सग्रन्थ प्रतिमाओका पूजक होगा।
२ प्रमाणिकता यद्यपि देवसेनाचार्यने दर्शनसार की उपर्युक्त गाथाओं में इसके प्रवर्तक
वज्रनन्दिके प्रति दुष्ट आदि अपशब्दोका प्रयोग किया है, परन्तु भोजन विषयक मान्यताओक अतिरिक्त मूलसबके साथ इसका इतना पार्थक्य नहीं है कि जेनाभासी कहकर इसको इस प्रकार निन्दा की जाये। (दे. सा./प्र.४५ प्रेमोजो) इस बात की पुष्टि निम्न उद्धरणपर से होती हैह. पु. १ ३२ वज्रसूरेविचारण्य' सहेत्वोर्वन्धमोक्षयो । प्रमाण धर्मशास्त्राणा प्रवक्तृणामिवोक्तय ।३२। =जो हेतु सहित विचार करतो है, वज्रनन्दिको उक्तियों धर्मशास्त्रोका व्याख्यान करने वाले गणधरोकी
उक्तियोके समान प्रमाण है। द,सा/प्र. पृष्ठ संख्या (प्रेमी जी)-इसपर से यह अनुमान किया जा
सकता है कि हरिवश पुराणके कर्ता श्री जिनसेनाचार्य स्वयं द्राविड सघी हो, परन्तु वे अपने सधके आचार्य बताते है । यह भी सम्भव है कि द्राविड संघका हो अपर नाम पुन्नाट सघ हो क्यो कि 'नाट' शब्द कर्णाटक देशके लिये प्रयुक्त हाता है जो कि द्राविड देश माना गया है। द्रमिल सघ भी इसोका अपर नाम है।४२। २ (कुछ भी हो, इसकी महिमासे इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योकि) विद्यविश्वेश्वर, श्रोपालदेव, वैयाकरण दयापाल, मतिसागर, स्यावाद विद्यापति श्री वर्गदराज सूरि जैसे बडे-बडे विद्वान इस सघमे हुए है। ॥४२॥ ३-तीसरी बात यह भी है कि आ देवसेनने जितनी बातें इस संघके लिये कही है, उनमें से बीजोको प्रासुकमाननेके अतिरिक्त अन्य बातोका अर्थ स्पष्ट नही है, क्योकि सावध अर्थात् पापको न मानने
देवकीर्ति पण्डित (ई ६६०-१०४०) गुणकीर्ति
(सिद्धान्त भट्टारक) वादिराज २
(ई १०१०-१०६५) ४ काष्ठा संघ जैनाभासी सघोमे यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसका कुछ एक अन्तिम
अवशेष अब भी गोपुच्छकी पीछीके रूपने किन्ही एक भट्टारको में पाया जाता है। गोपुच्छको पीछीको अपना लेने के कारण इस सघ का नाम गोपुच्छ संघ भी सुनने में आता है। इसकी उत्पत्ति के विषय मे दो धारणाये है। पहलीके अनुसार इसके प्रवर्तक नन्दिसध बलात्कार गणमें कथित उमास्वामीके शिष्य श्री लोहाचार्य तृ. हुए, और दूसरीके अनुसार पचस्तूप संधमें प्राप्त कुमार सेन हुए। सल्लेखना वतका त्याग करके चरित्रसे भ्रष्ट हो जानेको कथा दोनों के विषय में प्रसिद्ध है, तथापि विद्वानोको कुमार सेनवाली द्वितीय मान्यता ही अधिक सम्मत है।
प्रयम दृष्टि नन्दिसघ बलात्कार गणको पट्टावली । श्ल, ६७-(ती. ४/३६३) पर
उद्धृत)-" लोहाचार्यस्ततो जातो जात रूपधरोऽमरै । तत पट्टद्वयी जाता प्राच्युदीच्युपलक्षणात ६-७) = नन्दिसंघमें कुन्दकुन्द उमास्वामी (गृद्धपिच्छ) के पश्चात् लोहाचार्य तृतीय हुए। इनके कालसे संघमें दा भेद उत्पन्न हो गए। पूर्व शाखा (नन्दिसघकी रही)
और उत्तर शाखा (काष्ठा सघकी ओर चली गई। ती. ४/३५१ दिल्लीकी भट्टारक गद्दियोसे प्राप्त लेखो के अनुसार इस सघको स्थापनाका सक्षिप्त इतिहास इस प्रकार है - दक्षिण देशस्थ भहलपुर में विराजमान श्री लोहाचार्य तृ. को असाध्य रोगसे आक्रान्त हो जानेके कारण, श्रावकोने मूच्छविस्थामें याबुज्जीवन संन्यास मरण की प्रतिज्ञा दिला दी। परन्तु पीछे रोग शान्त हो गया। तब
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६ दिगम्बर जैनभासी संघ
आचार्यने भिक्षार्थ उठनेको भावना व्यक्तकी जिसे श्रावकोंने स्वीकार नहीं किया। तम वे उस नगरको छोडकर अग्रोहाचले गए और वहाँके लोगोंको जन धर्ममें दीक्षित करके एक नये सघकी स्थापना कर दी।
द्वितीय दृष्टि द.सा./. ३१, ३८, ३६-आसी कुमारसैणो णदियडे विणयसेणदिविख
यो। सपणासभंजणेण य अगहिय प्रण दिक्खओ जादो ।३३। सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरण पत्तस्सा दियवरगामे कट्ठो संघो मुणेयब्बो ॥३८॥ दियडे बरगामे कुमारसेणोय सत्थ विण्णाणी। कट्ठो दसणभट्ठो जादो सल्लेहणाकाले ३६। आ विनयसेनके द्वारा दीक्षित आ. कुमारसेन जिन्होंने संन्यास मरणकी प्रतिज्ञाको भग करके पुन गुरुसे दोक्षा नहीं ली, और सस्लेखनाके अवसरपर,विक्रम
की मृत्युके ७५३ वर्ष पश्चात्, नन्दितट ग्राममें काष्ठा संघी हो गये। द. सा/मू. ३७ सो समणसघवज्जो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो । चत्तो व समो रुद्दो कट्ठसंघ परवेदी ।३७) --मुनिसघसे वर्जित, समय मिध्यादृष्टि, उपशम भावको छोड देने वाले और रौद्र परिणामी कुमार सेनने काष्ठा संघकी प्ररूपणा की।
स्वरूप द. सा /मू ३४-३६ परिवज्जिऊण पिच्छं चमर चित्तूण मोहकलिएगा। उम्मग्ग संकलिय बागडविसएमु सम्वेमु ।३४। इत्थीणं गुण दिवा खुल्लयलोयस्स वीर चरियत्तं । कक्कसकेसग्गहण छठं च गुणव्यद णाम ।३। आयमसत्यपुराणं पायच्छित्त च अण्णहा किपि । विरइत्ता मिच्छत्तं पट्टियं मढनोएसु ॥३६। - मयूर पिच्छीको त्यागकर तथा चंवरो गायकी पूंछको ग्रहण करके उस अज्ञानीने सारे बागड प्रान्तमें उन्मार्गका प्रचार किया ।३४। उसने स्त्रियों को शरीक्षा देनेका, क्षुल्लकों को बोर्याचारका, मुनियों को कड़े बालोंकी पिच्छी रखनेका और रात्रि भोजन नामक छठे गुगवत (अणुवत) का विधान किया ।३५॥ इसके सिवाय इसने अपने आगम शास्त्र पुराण और प्रायश्चित्त विषयक ग्रन्थों को कुछ और ही प्रकार रचकर मूवं लोगों में मिथ्यात्वका प्रचार किया।३६॥ दे ऊपर शीर्षक ६/१ में हरि भद्रमूरि कृत षट्दर्शन का उद्धरण-वन्दना करने वाले को धर्म वृद्धि कहता है । स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति तथा सवस्त्र मुक्ति नहीं मानता।
निन्दनीय द.स./मू ३७ सो समणसंघवज्जो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो । चत्तोवसमो रुद्दो कट्ठ सघं परूवेदि।३७) -मुनिसंघसे महिष्कृत, समयमिथ्यावृष्टि, उपशम भाव को छोड देने वाले और रौद्र परिणामी
कुमारसेनने काष्ठा सघको प्ररूपणाकी। सेनसंघ पट्टावली २६ (ती ४/४२६ पर उद्धृत)- 'दारसंघ संशयतमो निमग्नाशाधर मुलसंघोपदेश - काष्ठा सधके संशय रूपी अन्ध
कारमें डूबे हुओंको आशा प्रदान करने वाले मूल संघके उपदेशसे । दे. सा/४५ प्रेमी जी-मूलसघसे पार्थक्य होते हुए भी यह इतना निन्दनीय नहीं है कि इसे रौद्र परिणामी आदि कहा जा सके। पट्टावलीकारने इसका सम्बन्ध गौतमके साथ जोडा है (दे आगे शोषक ७)
विविध गच्छ आ सुरेन्द्रकीर्ति-काष्ठासंघो भुविख्यातो जानन्ति नृसुरासुरा'। तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुता क्षितौ ॥ श्रीनन्दितटसज्ञाश्च माथुरो मागडाभिध । लाडमागड इत्येते विख्याता क्षितिमण्डले। - पृथिवी पर प्रसिद्ध काष्ठा संध को नर सुर तथा असुर सब जानते हैं। इसके चार गच्छ पृथिवीपर शोभितमुनेजाते हैं-नन्दितटगच्छ,माथुर गच्छ, बागड गच्छ,और लाडवागडगच्छ । (इनमें से नंदितट गच्छ तो स्वयं इस संघ का ही अबान्तर नाम है जो नन्दितट ग्राममें उत्पन्न होनेके कारण इसे
प्राप्त हो गया है। माथुर गच्छ जैनाभासी माथुर सघके नामसे प्रसिद्ध है जिसका परिचय आगे दिया जानेवाला है। बागड देशमें उत्पन्न होनेवाली इसकी एक शाखाका नाम बागड गच्छ है और लाडबागड देश में प्रसिद्ध व प्रचारित होनेवाली शाखाका नाम लाडनागड गच्छ है। इसकी एक छोटीसी गूर्वावली भी उपलब्ध है जो आगे शीर्षक ७ के अन्तर्गत दी जाने वाली है।
काल निर्णय यद्यपि संघकी उत्पत्ति लोहाचार्य तृ और कुमारसेन दोनोसे बताई गई है और संन्यास मरण की प्रतिज्ञा भग करनेवाली कथा भी दोनों के साथ निबद्ध है, तथापि देवसेनाचार्य की कुमारसेन वाली द्वितीय मान्यता अधिक सगत है, क्योंकि लोहाचार्य के साथ इसका माक्षाव सम्बन्ध माननेपर इसके कालकी संगति बैठनी सम्भव नहीं है । इसलिये भले हो लोहाचायज के साथ इसका परम्परा सम्बन्ध रहा आवे परन्तु इसका साक्षात सम्बन्ध कुमारसेन के साथ ही है।
इसकी उत्पत्तिके कालके विषय में मतभेद है। आ देवसेनके अनुसार वह वि ७५३ है और प्रेमीजी के अनुसार वि (द सा./ प्र. ३१) । इसका समन्वय इस प्रकार किया जा सकता है कि इस सघ की जो पट्टाबली आगे दी जाने वालो है उसमें कुमारसेन नामके दो आचार्योका उल्लेख है । एकका नाम लोहाचार्यके पश्चात राहवे नम्बर पर आता है और दूसरेका ४०वें नम्बरपर । बहुत सम्भव है कि पहले का समय वि.७५३ हो और दूसरेका वि.६५५ । देवसेनाचार्यकी अपेक्षा इसकी उत्पत्ति कुमारसेन प्रथमके कालमें हुई नमकि प्रद्युम्न चारित्रके जिस प्रशस्ति पाठके आकार पर प्रेमीजी ने अपना सम्धान प्रारम्भ किया है उसमें कुमारसेन द्वितीयका उल्लेख किया गया है क्योंकि इस नामके पश्चात हेमचन्द्र आदिके जो नाम प्रशस्तिमें लिये गए हैं वे सब ज्योंके त्या इस पट्टावलोमें कुमारसेन द्वितीयके पश्चाद निमद्ध किये गये हैं।
अग्रोक्त माथुर सब अनुसार भी इस सघका काल वि.७५३ ही सिद्ध होता है, क्योंकि द.सा ग्रन्थमें उसकी उत्पत्ति इसके २०० वर्ष पश्चात बताई गई है। इसका काल ६५५ माननेपर वह वि.११४५प्राप्त होता है, जम कि उक्त ग्रन्यकी रचना ही वि.६६० में होना सिद्ध है। उसमें ११५५ की घटनाका उल्लेख कैसे सम्भव हो सकता है।
५. माथुर संघ जैसाकि पहले कहा गया है यह काष्ठा सघकी ही एक शाखा या गच्छ है जो उसके २०० वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुआ है। मथुरा नगरी में उत्पन्न होने के कारणहो इसका यह नाम पड़ गया है। पौछीका सर्वथा निषेध करनेके कारण यह निष्पिच्छक संघके नामसे प्रसिद्ध है।
द पा/मू ४०,४२ तत्तो दुमएतीदे म राए माहुराण गुरुणाहो। णामेण
रामसेणो णिपिच्छ वणियं तेण ।४०। सम्मतपयडिमिच्छतं काय जंजिणिंद बिबेसु । अप्पपरणि िमु य ममत्तबुद्धीए परिवसणं ४१॥ एसो मम होउ गुरू अवरोणरिथ त्ति चित्तपरियरण । सगगुरुकुलाहिमाणो इयरेसु वि भगकरण च ।४२।- इस (काष्ठा सघ) के २०० वर्ष पश्चात अथाव वि.६५३ में मथुरा नगरीमें माथुरसघका प्रधान गुरु रामसेन हुआ। उसने नि पिच्छक रहनेका उपदेश दिया, उसने पीछीका सर्वथा निषेध कर दिया ।४२। उसने अपने और पराये प्रतिष्ठित क्येि हुये जिनबिम्बों की ममत्व बुद्धि द्वारा न्यूनाधिक भावसे पूजा बन्दना करने, मेरा यह गुरु है दूसरा नहीं इस प्रकारके भाव रखने, अपने गुरुकुल (सघ) का अभिमान करने और दूसरे गुरुकुलोंका मान भंग करने रूप सम्यक्त्व प्रकृति मिथ्यालका उपदेश दिया। द. पाटी ११/११/१८ निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते । उक्तं च ढाढसीगाथासु-पिच्छे ण हु सम्मत्त करगहिए मोरचमरडंबरए । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा वि झायव्यो । सेयंबरो य
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इतिहास
३२२
७ पट्टावलिय तथा गुर्वावलिरे
आसंबरो य बुद्धो य तह य अण्णो य । समभावभावियप्पा लहेय मोक्रव ण सदेहो ।२। निष्पिच्छिक मयूर आदिकी पिच्छीको नही मानते । ढाढसी गाथामें कहा भी है-मोर पख या चमरगायके बालोकी पिछी हाथ में लेनेसे सम्यक्त्व नहीं है। आत्माको आत्मा ही तारता है, इसलिए आत्मा ध्याने योग्य है ।। श्वेत वस्त्र पहने हो या दिगम्बर हो, बुद्ध हो या कोई अन्य हो, समभावसे भायी गयी
आत्मा ही मोक्ष प्राप्त करती है,इसमें सन्देह नहीं है ।२। द. सा //४४ प्रेमी जी 'माथुरसधे मूलतोऽपि पिच्छिंका नादृता ।
- माथुरसबमें पोछीका आदर सर्वथा नही किया जाता। दे. शीर्षक/६/१ में हरिभद्र सुरिकृत षट्दर्शनका उद्धरण-बन्दमा करने बालेको धर्मवृद्धि कहता है। स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति सवस्त्र मुक्ति नहीं मानता।
७. पदावलिये तथा गर्वावलियें १. मूलसंघ विभाजन
मूल संघकी पट्टावली पहले दे दी गई (दें. शीर्षक १/२) जिसमें वीर-निर्वाणके ६८३ वर्ष पश्चात तक की श्रुतधर परम्पराका उल्लेख किया गया और यह भी बताया गया कि आ अहंबलीके द्वारा यह मूल संघ अनेक अवान्तर संघो में विभाजित हो गया था . आगे चलने पर ये अत्रान्तर सध भी शाखाओं तथा उपशाखाओमें विभक्त होते हुए विस्तारको प्राप्त हो गए। इसका यह विभक्तिकरण किस क्रमसे हुआ, यह बात नोचे चित्रित करनेका प्रयास किया गया है ।
अगांशधारियोकी परम्परामें लोहाचार्य २ (बी.नि ५१५-५६५)
अर्ह बलि (वी.नि. ५६५-५६३)
गुणधर
धरसेन
माघनन्दि
पुष्पदन्त (५६३-६३३)
मन्दिसंघ बलात्कार गण (दे. आगे पृथक् पट्टावली)
आर्यमथु (६००-६५०)
भूतबली (५६३-६८३)
जिन चन्द्र (६४५-६५४)
नागहस्ति (६२०-६८७)
यतिवृषभ (६५०-७००)
(६५४-७०६)
शाखा १ गृद्धपिच्छ उमास्वामी (वी नि ७०६-७७०)
(ई. १७६-२४३)
शाखा २ वादिराज समन्तभद्र (वि,श २-३) (ई १२०-१८५)
काल निर्णय जैसाकि ऊपर कहा गया है, द सा ए० के अनुसार इसकी उत्पत्ति
काष्ठास घमे २०० वर्ष पश्चात हुई थी तदनुसार इसका काल ७५३+ २०० - वि ६५३ (वि श १०) प्राप्त होता है । परन्तु इसके प्रवर्तकका नाम वहां रामसेन बताया गया है जबकि काष्ठासघकी गुर्वावली में वि. ६५३के आसपास रामसेन नाम के कोई आचार्य प्राप्त नहीं होते है। अमित गति द्वि.(वि १०५०-१०७३) कृत सुभाषितरत्नसन्दोहमे अवश्य इम नाम का उल्लेख प्राप्त होता है। इसीका लेकर प्रेमोजी अमित गति वि को इसका प्रवर्तक मानकर काष्ठासंघको वि. १५३ में स्थापित करते है, जिसका निराकरण पहले किया जा चुका है।
६.भिल्लक संघद सा /मू ४५-४६ दक्विदेसे विझे' पुक्कलए बीरचंदमुणिणाहो । अट्ठारसएतीदे भिल्लयसघ परूवेदि ।४५॥ सोणियगच्छं किच्चा पडिकमण तह य भिण्णकिरियाओ। वण्णाचार विवाई जिमग्ग सुट्छु गिहणेदि ।४६। -दक्षिणदेशमें विन्ध्य पर्वतके समीप पुष्कर नामके ग्राममें वीरचन्द नामका मुनिपत्ति विक्रम राज्यकी मृत्यु के १८०० वर्ष बीतने के पश्चात भिसलक सघको चलायेगा ।४५१ वह अपना एकअन्नग गच्छ बनाकर जुदा ही प्रतिक्रमण विधि बनायेगा । भिन्न क्रियाओ का उपदेश देगा और वर्णाचारका विवाद खड़ा करेगा। इस
तरह वह सच्चे जैनधर्म का नाश करेगा। द.सा/प्र.५ प्रेमीजो-उपयुक्त गाथाओमें ग्रन्थकर्ता (श्री देवसेनाचा)
ने जो भविष्य वाणी की है वह ठीक प्रतीत नहीं होती, क्योकि वि. १८०० को आज २०० वर्ष बीत चुके है, परन्तु इस नामसे किसी संघ की उत्पत्ति सुनने में नहीं आई है। अत भिल्लक नामका कोई भी संघ आज तक नहीं हुआ है।
७ अन्य संघ तथा शाखायें जैसा कि उस संघका परिचय देते हुए कहा गया है, प्रत्येक जैनाभासी संघकी अनेकानेक शाखाये या गच्छ है, जिसमें से कुछ ये है-१ गोप्य सध यापनीय सघका अपर नाम है। द्राविडसबके अन्तर्गत चार शाखाये प्रसिद्ध है, २. नन्दि अन्वय गच्छ, ३, उरुकुल गण, ४. एरि गित्तर गण, और ५. मूलितल गच्छ । इस प्रकार काष्ठास घमें भी गच्छ है,६ नन्दितट गच्छ वास्तव में काष्ठासघ को कोई शाखा न होकर नन्दितट ग्राममें उत्पन्न होने के कारण स्वय इसका अपना हो अपर नाम है। मथुरामें उत्पन्न होनेवाली इस संघकी एक शाखा ७.माथुर गच्छ के नाममे प्रसिद्ध है, जिसका परिचय माथुर सघ के नामसे दिया जा चुका है । काष्ठासघकी दो शाखाये ८.बागड गच्छ और ह.लाडबागड गच्छ के नामसे प्रसिद्ध है जिनके ये नाम उस देश में उत्पन्न होने के कारण पड़ गए है।
सिहनन्दि न.१ ई श. २ बलाकपिच्छ लोहाचार्य३ पात्रके सरी ई. श६-७ (ई २२०-२३१)
वक्रग्रीव
बज्रनन्दि नं २वि श६ नन्दिसंघ नदिसघ सुमतिदेव ई. श.७-८ देशीय गण बलात्कारगण (दे. शीर्षक (दे. शीर्षक कुमारसेन ७/१) ७/२ ) (काष्ठासंघी) वि. ७५३
चिन्तामणि वद्धदेव (चूडामणि) महेश्वर मुनि
(ती./४/३८२ पर उद्धृत मल्लिषेण प्रशस्तिसे)
पुष्पसेन
अकलंक भट्ट प. कैलाशचन्द = ई. ६२०-६८० पं महेन्द्रकुमार ई.७२० ७८०
महोदेव ई ६६५-७०५
वादीभ सिह (ओडय देव) ई. ७७०-८६०
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पहले
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इतिहास
३२३
७. पट्टावलिये तथा गुर्वावलिये २. नन्दि संघ बलात्कारगण
के आधारपर डा नेमिचन्दने इसकी अन्य गद्दियोसे सम्बन्धित प्रमाण-दृष्टि १-बि.रा स.-शक सवत, दृष्टि नं २=वि.रा स..
भी पट्टावलिये ती.४/४४१ पर भदी है-- थी नि ४८८। विधि मन भद्रबाहुके काल में १ वर्षकी वृद्धि करके उसके स० व नाम । वि० । वर्ष) स० व नाम ।वि० । वर्ष आगे अगले-अगले का पट्टकाल जोडते जाना तथा साथ-साथ उस पट्टकालमें यथोक्त वृद्धि भी करते जाना-(विशेष दे शीर्षक ५/२)
| २ उज्जयनी गद्दी- | ७ ग्वालियर गही प्र. दृष्टि
द्वि दृष्टि | २७ महाकीर्ति ६८६/१८६५ हेमकीर्ति
१२०६७ नाम
२८ विष्णुनन्दि ७०४ | २२६६ चारु कोति विरास | वी.नि
१२१६ | बी नि | विशेषता | (विश्वनन्दि)
६७ नेमिनन्दि १ भद्रबाहु २ ४-२६ ६०६-६३१ २२ ४६२-५१४ |
| २६ श्री भूषण
६८ नगभिकीर्ति
१२३० ५१४-५१५ /मूलसंघक। ३० शीनचन्द
१४६६१ नरेन्द्रकीति लोहाचार्य २
३१ श्रीनन्दि
७० श्रीचन्द्र
१२४१ २ गुप्तिगुप्त २६-३६ ६३१-६४।१०६५-७५ नन्दिसघो-] ३२ देशभूषण
१० ७१ पद्मकीर्ति
१२४८ ३ माघनन्दि
त्पत्ति तक | ३३ अनन्तकीर्ति
| ७२ वर्द्ध मानकीति प्र आचार्यत्व | ३६-४०६४१-६४५ ४ ५७५-५७६ भ्रष्ट होनेसे |
| ३४ धर्मनन्दि
२३७३ अकलंकचन्द्र
१२५६ ३५ विद्यानन्दि
३२/ ७४ ललितकीर्ति १२५७ द्वि. आचार्यत्व ३५/५७१-६१४ पुन दोक्षाके ३६ रामचन्द्र
७५ केशवचन्द्र
१२६१ बाद ३७ रामकोति
७६ चारुकीर्ति
१२६२ ४ जिनचन्द्र ४०-४४६४५-६५४६६१४-६२३
३८ अभय या
७७ अभयकीर्ति
१२६४ ३१ ६२३-६५४ काल वृद्धि निर्भयचन्द्र
१६/७८ वसन्तकीर्ति १२६४ ५ पद्यनन्दि ४९-१०१६५४-७०६२/६५४-७०६ अपर नाम ३६ नर चन्द्र
१६ ८ अजमेर गही कुन्दकुन्द ४० नागचन्द्र
७६ प्रख्यातकीति ६ गृदपिच्छ १०१-१४२/७०६-७४७ ४१७०६-७४७ उमास्वामी
८० शुभकीर्ति २३/७४७-७७० 'का नाम
१२६८ ४२ हरिनन्दि
८१ धर्मचन्द्र नोट- इसमे आगे शक संवत घटित हो जानेमे द्वि दृष्टिका प्रयोजन समाप्त |४३ महीचन्द्र
८२ रत्नकीर्ति हो जाता है
४४ माघचन्द्र
८३ प्रभाचन्द्र ७ लोहाचार्य ३ / ९४२-१५३ / ७४७-७५८) । ।
१३१० (माधवचन्द्र)
२२१ ९. दिल्ली गद्दी ३ चन्देरी गद्दी
८४ पद्मनन्दि
। १३८५/६५ क्रम नाम
। १०२३ | १४८५ शुभचन्द्र शक स ई. सं. वर्ष विशेष ४५ लक्ष्मीचन्द
१४५०५७ ४६ गुणनन्दि
८६ जिनचन्द्र (१५०७ : ७० लोहाचार्य ३ १४२-१५३ , २२०-२६१ /
(गुणकीति)
१०. चित्तौड़ गद्दी
१०४८१८ | यशकीति१
४७ गुण चन्द्र | १५३-२११ २३१-२८४
१३.८७ प्रभाचन्द्र यशोनन्दि १
४८ लोकचन्द्र २११-२५८ | २८६-३३६
१५७१ १० देवनन्दि
८८ धर्मचन्द्र
| ४ भेलसा (भोपाल) गद्दी २५८-३०८३३६-३८६ | ५० जिनेन्द्रबुद्धि पूज्य--
१५८१ जयनन्दि
[११८ ललितकीर्ति
४६ श्रुतकीर्ति २०८-३५८/ ३८६-४२६/५० पाद १२ गुगनन्दि
|६० चन्द्रकीर्ति
५० भावचन्द्र 1३५८-३६४-४३६-४४२
१६२२ | बज्रनन्दिन १ ३६४-३८६ | ४४२-४६४ | २२ 'द्रविड संघके प्रवर्तक (भानुचन्द्र) १०६४/२१६१ देवेन्द्रकीर्ति १४ | कुमारनन्दि | ३८६-४२७ ४६४-५०५, ४१
५१ महीचद्र १९१५ | २४/६२ नरेन्द्रकीर्ति १५ / लोकचन्द्र ४२७-४५३ | ५०५-५३१ / २६
५ कुण्डलपुर (दमोह) गद्दी १३ सुरे द्रकीर्ति
१४ जगत्कीति | प्रभाचन्द्र न.१ | ४५३-४७८५३१-५५६ / २५
१२ मोषचन्द्र
१७३३ नेमीचन्द्र नं १ ४७८-४८७५५६-५६५६
(मेषचन्द्र)
१७७०
१६ महेन्द्रकीर्ति १८ | भानुनन्दि ४८७-५०८५६५-५८६
६. वारा की गद्दी
१७६२
६७ क्षेमेन्द्रकीर्ति | सिंहनन्दि २ 1५०८-५२६८६-०३
१९१६ ५३ ब्रह्मनन्दि
११४४ |
१८ सुरेन्द्रकीर्ति | वसुनन्दि १ १२५-५३१६०३-६०४
१८२२
५४ शिवनन्दि २१ वीरनन्दि
६ सुखेन्द्रकीर्ति १ ५३१-५६१ [ ६०६-६३६
५५ विश्वचन्द्र २२ | रत्ननन्दि
११०० नयनकीति ५६१-५८५६३६-६६३
१८७६ ५६ हृदिनन्दि १९५६
१०१ देवेन्द्र कीति २३ माणिक्यनन्दि १५८५-६०१ / ६६३-६७६ १६
१८८३४ ५७ भावनन्दि
११६० २४ मेषचन्द्र न १६०१-६२७/६७४-७०५ | २६
१०२ महेन्द्र कीति ११३८ ।
१८ सूर (स्वर) काति | १९६७ २५ शान्तिकीर्ति ६२७-६४२ / ७०५-७२० / १५ ।
११. नागौर गही
५६ विद्याचन्द्र ११७० २६ मेरुकीति ६४२-६८० / ७२६-७५८, ३८. ६० सूर (राम) चन्द्र ११७६
५ ६१ माघनन्दि
२ भुवनकोति
१५८६ ३ नन्दिसंघ बलात्कारगण को भट्टारक आ नाय । ६२ ज्ञाननन्दि
१९८८ ११ ३ धर्मकीर्ति नोट ---इन्द्र नन्दिकृन श्रुतावतारको उपयुक्त पट्टावली इस संघकी भर ६३ गंगकीर्ति ११६६ ७ ४ विशालकीर्ति
पुर या भहिलपुर गद्दीसे सम्बन्ध रखती है। इण्डियन एण्टीक्वेरी- | ६४ सिहकीर्ति | १२०६ । ३। ५ लक्ष्मीचन्द्र
। ११४०/ ४६५ देवेन्द्रकीर्ति
११४८
११५५
१ रत्नकीर्ति
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इतिहास
३२४
७. पट्टावलिये तथा गुर्वावलिये
सं० व नाम । वि० । बर्ष। सं० व नाम । वि० । वर्ष ६ सहस्रकीति
| १५ ज्ञानभूषण
। श०१८, ७ नेमिचन्द्र
१६ चन्द्रकीति ८ यश कीति
१७ पद्मनन्दी ६ भुवनकीर्ति
१८ सकलभूषण १० श्रीभूषण
१६ सहस्रकी ति ११धर्मचन्द्र
२० अनन्तकीर्ति १२ देवेन्द्रकीर्ति
२१ हर्षकीति १३ अमरेन्द्र कीर्ति
२२ विद्याभूषण १४ रत्नको ति
२३ हेमकीर्ति * हेमकोति भट्टारक माघ शु०२ स०१९१० को पट्टपर बैठे। ४ नन्दिसंघ बलात्कारगणकी शुभचन्द्र आम्नाय (गुजरात वीरनगरके भट्टारकोंकी दो प्रसिद्ध गद्दिये)
प्रमाण जै १/४५६-४५६, गै २/३७७ ३७८, ती ३/३६६ । देखो पीछे - ग्वालियर गद्दीके वसन्तकीति (वि १२६४) तत्पश्चात
अजमेर गद्दी के प्रख्यातकीति (वि १२६६), शुभकीति (वि १२६८), धर्मचन्द्र (वि, १२७१), रत्नकोति (वि १२६६), प्रभाचन्द्र न.७ वि. १३१०-१३८५)
५ नन्दिसंध देशीयगण
(तीन प्रसिद्ध शाखाये) प्रमाण -- १. ती. ४/३/६३ पर उद्धृत नयकोति पट्टावली। (ध २/प्र.२/H. L. Jain); (त वृ/ ६७)। २. ध २/प्र ११/HLJain/शिलालेख नं०६४ में उधृत गुणनन्दि परम्परा। ३. ती. ४/३७३ पर उधृत मेघचन्द्र प्रशस्ति तथा ती ४/३८७ पर उद्धृत देवकीर्ति प्रशस्ति ।
पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द) (ई. १२७-१९४) गुद्रपिच्छ उमास्वामी (ई. १७६-२४३)
बलाकपिच्छ (ई २२०-२३१)
१९१०
गुण नन्दि (ई ८४३-८७३) देवेन्द्र सैद्धान्तिक (ई ८५८-८६८)
-
कलधौतनन्दि (कनकनन्दि)
(ई ८६०-८८०)
सकलकोति
शुभचन्द्र
बि १४५०-१५०
गुणनन्दि शाखा (प्रमाण नं.२)
गोलाचार्य शाखा नयकीर्ति शाखा (प्रमाण नं ३) (प्रमाण न. १)
वि १४५०-१७६१
ईडर गद्दी दिल्ली गद्दी सूरतगद्दी
देवेन्द्रकीति (कर्म विपाककेकर्ता) (वि १४५०-१५०७) (वि. १४१३ में मूर्ति स्थापन) (वि १४६३-१४६६) । (वि १४५०-१४६६) |
जिनचन्द्र भुवनकीर्ति (वि १५०७ १५७१ । (वि १४६६-१५२५)
विद्यानन्द त्रिभुवनकीर्ति
जै २/३७७/ (वि १४६६-१५३८) ज्ञानभूषण नं०१ (सागवाड गहीके भट्टारक) मल्लिभूषण श्रुतसागर श्रुतकीति वि. १५२५-१५५५) (वि १५३८-१५५६) (वि.श.१६ मध्य)
वसुनन्दि महेन्द्रकीर्ति रविचन्द्र ( वि०, ई.८६३) (ई ८७०-८८५) (सम्पूर्ण चन्द्र)
सर्वचन्द्र वीरनन्दि दामनन्दि (वि ६७२, ई. १२८) (ई. ८८५-१००)
विजयकीर्ति । जै. २/३७८ । श्रीचन्द (वि १५५६-१५७५) (वि. १५५५-१५७०) सिंहनन्दि लक्ष्मीचन्द
(वि. १५५६-१५७५) भरतचन्द्र बनेमिदत्त वीरचन्द्र (वि.१५६५-१५७३) (वि. १५५६-१५८५)
शुभचन्द्र (शिक्षागुरु वीरचन्द) वि. १५७३-१६१३)
ज्ञानभूषण (वि १५८५-१६१६
दामनन्दि १००० ६४३ गालाचार्य श्रीधरदेव नं १ वीरनन्दि १०२५ १६८ (ई १००-१२०) मल्लधारी देव नं १ श्रीधर १०५० १६३ । (ई. श. १२०) मल्लधारी-
त्रैकाल्पयोगी श्रीधर देव नं २ देवन.१११०७५ १०१८ (ई. १२०-६३०) माघनन्दि । चन्द्रकीति ११०० १०४३ । गुणचन्द्र २ दिवाकर
अभयनन्दि मेषचन्द्र नन्दि ११२५ १०६८ (वि.श.११३ चरण) चन्द्रकीति शुभचन्द्र
(ई०६३०-६५०) उदयचन्द्र नं.२ ११५० १०६३
(पण्डितदेव) सिद्धान्तिक-
आगे दे. अगला पृ देव ११७२ १९९५ टिप्पणी - .माधनन्दि के सधर्मा=आबिदकरण पद्यनन्दि कौमारदेव, प्रभाचन्द्र, तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती । श्ल ३५-३६॥ तदनुसार इनका समय ई. श१०-११ (दे अगला पृ)। २. गुणचन्द्र के शिष्य माणिक्यनन्दि और नयकी ति योगिन्द्रदेव है।
नयको तिकी समाधि शक १०६६ (ई १९७७) में हुई । तदनुसार इनका समय लगभग ई ११५५ । ३, मे चन्द्र के सधर्मा-मल्लधारीदेस,श्रीधर,दामनन्दि विद्य,भानुकीर्ति
और बालचन्द्र (श्ल २४-३४) । तदनुसार इनका समय वि, श,११ । (ई. १०१८-१०४८)।
सकलभूषण सुमतिकीर्ति (वि. १६१३-१६३०)
प्रभाचन्द्र (वि. १६१६-१६३७)
वादिचन्द्र (वि १६३७.१६६४)
गुणकीर्ति (वि १६३०-१६५०) ___ वादिभूषण (वि. १६५०-१६७५)
महीचन्द्र (वि.१६६४-१७२२)
मेरुचन्द्र (वि १७२२-१७३२)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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इतिहास
५ क्रमशः नन्दीसंख देशीयगण गोलाचार्य शाखा
प्रमाण - १. ती /४/३७३ पर उद्धृत मेघचन्द्रकी प्रशस्ति विषयक शिलालेख नं. ४७/ती, ४/१८६ पर उद्धृत देवकोर्तिको प्रशस्ति विषयक शिलालेख नं ४० । २. ती. ३/२२४ पर उद्धृत वसुनन्दि श्रावकाचारको अन्तिम प्रशस्ति । ३ (ध. २/प्र, ४ / H. L, Jain ); (पं.वि. / प्र. २८/ H L Jain )
गोलाचार्य शिष्य
प्रमाण न. १
शिक्षागुरू
कुलभूषण
(ई. १०२३-१०७८) 1
भानुंकीत 1
बप्पनन्दि
मेवचन्द्र १ (विद्य) विश ११८
आवितरण पद्मनीमाि
प्रभाचागुरु) (ई १३०-१०३०)
कुलचन्द्र
( ई १०७८ - १९०८)
।
मानन्द (कोल्हापुरी)२
(ई. १९०८-११३६)
इन्द्रनन्दि (ई. १३६ में ज्वालामालिनी कल्प पूरा किया ।)
(ई श. १० का मध्य )
"त्रैकाव्य योगी" (ई (२०-१३०) (दे. इसमे पूर्ववर्ती पृष्ठ)
1
प्रमाण नं. १, ३ J अभयनन्दि
(वि. श ११ का प्रथम चरण, ई. १३०-६५० )
माणिक्यनन्दि क
(परीक्षा
(ई. १००३ - १०२८)
माघनन्दि ३ प्रेविद्य
शिक्षागुरू
देवकीर्ति
(शक १०० में समाधि) १९२४ - ११६३ ।
ज्येष्ठ गुरुभ्राता होनेके कारण इन्द्रनन्दि तथा वीरनन्दिको नेमिचन्द्र
सिद्धान्त चक्रवर्ती अपना गुरु मानते हैं।
1
बालनन्दि (रामनन्दि (हह-१०२३)
इसकीर्ति
( ई १०३० - १००)
वीरनन्दि
(ई. १५० - ६६६)
३२५
विजयनन्द (ई.बा. ९१ पूर्व) शिक्षागुरु)
→
गण्डनं २ (मादिर्मुख)
1 नेमिचन्द्र (सिद्धान्त घर्ती (ई. १८१ के आसपास (१०-११)
1
वीरनन्दि ई. श. १२
मध्य
1
दण्डनायक आदि अनेक श्रावक
प्रभाचन्द्र
(प्रमेयक मलमार्त्तण्ड के कर्ता) (ई. १५०-१०६५)
I
मेघचन्द्र त्रैविद्य २
( शक १०३७ में समाधि)
गण्डवि
देवकीर्ति पण्डित
देव नं. १. वि. १९६० - १२२० ई. १९३३ - ११६३: शक १०५५- १०८८
मानन्द कोल्हापुरी १ (शक १०३०-१०५८. ई. १९०८-१९३६) ( प्रमाण नं. १ तथा ३)
1
कनकनन्दि देवी
७. पट्टाबलियें तथा गुर्दावलियें
(ई. १०२०-१११२)
J
नन्दि (सैद्धान्तिक ) (ई. १२-१०४३) (ई.श. (कर्ता)
माणिक इन तीनोंके शिक्षागुरु रहे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
। ती. ३/२७१
1
शुभचन्द्र
शक १०६६ में समाधि
ई. १९४७
शुभचन्द्र नं. २ (शक ११० में समाधि) वि. १९९४-१९३६. १९४११०२
इन्द्रनन्दि पहले मैच
पीछे विशेष अध्ययन के लिये अभयनन्दिकी शरण में आ गये थे ।
1
सकलचन्द्र (ई. १५०-१०२०)
नं. २
त्रै विद्य
प्रमाण नं २
1
श्रीनन्द (१११--१०२३)
प्रभाचन्द्र
शक १०४१ में पूर्ति विठा ई. १२ पूर्व
नयनन्दि सुदसणचरिउको रचना वि. ११००
(ई. ११३-१०३०)
देवचन्द्र प्रसारितमें इन तीनोंकी प्रशंसा
श्रुतकीर्ति
+
सैद्धान्तिक द्रव्यसंग्रहकर्ता (वि. ११२५, ई. १०५०-६८)
सुनन्दि (जयसेन ) (भावकाचार के कर्ता) (वि.स. १२ का उत्तरार्ध) (ई. १०६८-१९१०)
रामचन्द्र विद्यादेव
1
अनेक श्रावक लक्खनन्दि
१.
२. माधवचन्द्र ३. हुल्लराज आदि
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इतिहास
७. पट्टावलिये तथा गुर्वावलिये
६ सेन या वृषभ संघको पट्टावली
पद्मपुराणके कर्ता आ रविषेण को इस सघका आचार्य माना गया है। अपने पद्मपुराणमें उन्होंने अपनी गुरुपरम्परामें चार नामोंका उल्लेख किया है। (प पु १२३/१६७)। इसके अतिरिक्त इस संघके भट्टारकोकी भी एक पट्टावली प्रसिद्ध हैसेनसंघ पट्टावली/श्ल न.(ति. ४/४२६ पर उधृत)-'श्रीमूलसंघवृषभ
सेनान्वयपुष्करगच्छविरुदावलि बिराजमान श्रीमद्गुणभद्रभट्टारकाणाम् ।३८। दारुसंघसंशयतमोनिमग्नाशाधर श्रीमूलसंघोपदेशपितृवनस्वाँतककमलभद्रभट्टारक ।२६।- श्रीमूलसंघमें वृषभसेन अन्वय के पुष्करगच्छकी विरुदावली में विराजमान श्रीमद् गुणभद्र भट्टारक हुए।३८। काष्ठासंघके संशयरूपी अन्धकारमें डूबे हुओंको आशा प्रदान करनेवाले श्रीमूल संघके उपदेशसे पितृलोकके वनरूपी स्वर्ग से उत्पन्न कमल भट्टारक हुए ।२६।
सं| नाम _ वि. श.
विशेष २३ | गुणभद्र | १७का मध्य सोमसेन तथा नेमिषेणके आधारपर २४ सोमसेन १७ का उत्तर वि १६५६, १६६६, १६६७ में राम
पाद | पुराण आदिकी रचना २५ जिनसेन श.१८ शक १५७७ तथा वि. १७८० में मूर्ति
स्थापना २६ समन्तभद्र श १८ऊपर नीचेवालोंके आधारपर २७ छत्रसेन 1१८ का मध्य श्ल.५० में इन्हे सेनगणके अग्रगण्य
कहा गया है। वि.१७५४ में मूर्ति
स्थापना नरेन्द्रसेन १८ का अन्त शक १६५२ में प्रतिमा स्थापन नोट-सं. १६ तकके सर्व नाम केवल प्रशस्तिके लिये दिये गये प्रतीत होते है। इनमेंकोई पौर्वापर्य है या नहीं यह बात सन्दिग्ध है, क्योंकि इनसे आगे वाले नामों में जिसपकार अपने अपनेसे पूर्ववर्तीके पट्टपर आसीन होने का उल्लेख है उस प्रकार इनमें नहीं है। ७ पंचस्तूपसंघ
यह सब हमारे प्रसिद्ध धवलाकार श्री वीरसेन स्वामीका था। इसकी यथालब्ध गुर्वावली निम्न प्रकार है(म. पु/प्र. ३१/पं पन्नालाल) चन्द्रसेन
ई.७४२-७७३
o
e
रविण
सं. नाम वि सं ।
विशेषता १. आचार्य गुर्वावली-(प.पु १२३/१६७); (ती. २/२७६) इन्द्रसेन । ६२०-६६० सं १से ४ तक का काल रविषेणके दिवाकरसेन ६४०-६८० आधारपर कनिपत किया गया है। अर्हत्सेन ६६०-७०० लक्ष्मणसेन ६८०-७२०
। ७००-७४० वि ७३४ में पद्मचरित पूरा किया। २. भट्टारकोको पट्टावली-(ती. ४/४२४ ४३०) सं नाम | वि श
विशेष | नेमिसेन २ छत्रसेन ३ | आर्यसेन
लोहाचार्य | ब्रह्मसेन
आर्यनन्दि ई. ७६७-७६८
वीरसेन नं.१ ई.७७०-८२७
जयसेन नं.३ ई. ७७०-८२७
सूरसेन
। दशरथ जिनसेन ३ विनयसेन श्रीपाल पद्मसेन देवसेन नं.१ (आदिपुराणके कर्ता)
1-ई. ८२०-८७०→ गुणभद्र ई.८७०-६१०
कमलभद्र देवेन्द्रमुनि कुमारसेन दुर्लभसेन श्रीषेण लक्ष्मोसेन सोमसेन श्रुतवीर धरसेन देवसेन सोमसेन गुणभद वीरसेन माणिकसेन नेमिषेण
१७का मध्य नीचेवालोके आधार पर १७ का मध्य शक १५१५के प्रतिमालेख में माणिकसेन
के शिष्य रूपसे मामोल्लेख (जै.४/५६) १७का मध्य | दे. नीचे गुणभद्र (सं २३)।।
लोकसेन ई.१००-१४० कुमारसेन प्रेमीजी के अनुसार 1 वि.६५५ काष्ठा संघके सस्थापक
द. सा./प्र /प्रेमीजी) नोट-उपरोक्त आचार्यों में केवल वीरसेन, गुणभद्र और कुमारसेनके काल निर्धारित है। शेषके समयोका उनके आधार पर अनुमान किया गया है । गलती हो तो विद्वद्जन सुधार ले।
८ पुन्नाटसंघ ह पु. ६६/२५-३२ के अनुसार यह संध साक्षात् अर्ह बलि आचार्य द्वारा स्थापित किया गया प्रतीत होता है, क्योकि गुर्वावलिमें इसका सम्बन्ध लोहाचार्य व अर्हडलिसे मिलाया गया है। लोहाचार्य व अर्हद्वलिके समयका निर्णय मूलस धमें हो चुका है। उसके आधार पर इनके निकटवर्ती ६ आचार्यों के समयका अनुमान किया गया है। इसी प्रकार अन्तमें जयसेन व जयसेनाचार्यका समय निर्धारित है, उनके आधार पर उनके निकटवर्ती ४ आचार्योके समयोंका भी अनमान किया गया है । गलती हो तो विद्वद्जन सुधार लें।
२१/ गुणसेन २२ | लक्ष्मीसेन
*सोमसेन माणिक्यसेन
पूर्वोक्त हेतुसे पट्टपरम्परासे बाहर है। केवल प्रशस्तिके अर्थ स्मरण किये गये प्रतीत होते हैं।
-
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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इतिहास
(ह. पु ६०/ २५ -६२), ( म पु / प्र ४८ पं पन्नालाल (तो. २ / ४५१)
नं नाम ! वी नि.नं
नाम
विसं.
१२ ४१५५६५ १८ दीपम
२) विनयधर
३) गुप्तिश्रुति ४ गुप्तऋद्धि
५ शिवगुप्त
4 अलि
७ मन्दराय
८ मित्रवीर
६ बलदेव १० मित्रक ११ सहस
१२ वीरवित
१३) पद्मसेन
१४ व्याधहस्त
१५ नागहरुको
१६ जितदन्ड
१७ नन्दिषेण
सं
:
१ जयसेन २ वीरसेन ३ ब्रह्मसेन
४ रुद्रसेन
५ भद्रसेन
६
७
८
नाम
गौतमसे लेकर साहाचार्य तक के सर्व नाम
कीर्तिसेन
जयकीर्ति
विश्वकीर्ति अभयसेन
१० | भूतमेन
११ धरसेननं २ ई श. ५
२० सुधर्मसेन
५५०
२१ सहसेन
५६० २२ मुद ५६५-४१३२३ ईश्वरसे
भावकीर्ति
११
१० विश्वचन्द्र
५३०
१३
अभयचन्द्र
१४ माघचन्द्र
१५ नामचन्द्र १६ | विनय चन्द्र
५४०
8 श स ७०५ में हरिवश पुराणको रचना है पु ६६ / ५२
९. काष्ठासंघकी पट्टायली
गौतम लोहाचार्य तक के नामका उपलेख करके पट्टावलीकारने इस संघका साक्षात् सम्बन्ध मूलसंघके साथ स्थापित किया है, परन्तु आचार्यका काल निर्देश नहीं किया है। कुमारमेन तथा का काल पहले निर्धारित किया जा चुका है (दे शीर्षक ६/४) । उन्होंके आधार पर अन्य कुछ आचार्योंका काल यहाँ अनुमानसे लिखा गया है जिसे अस दिग्ध नहीं कहा जा सकता ।
(ती ४/६०-३६६ पर उत
सं
450 २४ सुन
५६०
इनके समय का भी अनुमानस
लगा लेना चाहिए
१६
२०
२१
२५ अभयसेन
२८ न
२० अभयसेन २८ भीमसेन २६ जिनसेन १ ईश ७ अन्त ३० शान्तिसेन विश ७-८ ई श ८ पूर्व ३१ जयसेन २
३२) अमितसेन
नाम
रामचन्द्र
विजयचन्द्र कीर्ति
यश
अभयकीति
८२० ८७० ७६१-८१३
३४ जनसेन २८३५-५७७८८२८
१
२६ रामसेन
२० इन
२८ गुणसेन
२६
७८०-८३० ७२३-७७३ ८००-६५० ७४३-७६३
कुमारसेन १
(वि. ७५३) प्रतापसेन
३०
३१ महायसेन
३२ विजयसेन
२२
२३ महासेन
२४ कुन्दकीर्ति २५४४
स
नाम
३६ | कमलकीर्ति २ ४० कुमारसेन
(fa, Ekk) हेमचन्द्र
४१
४२ पद्मनन्दि ४३ यश कीर्ति २
कीर्ति
४५
४६ सहस्रकीर्ति
४७ महीचन्द्र
४८ देवेन्द्र कोर्ति
४१जगतको
३२७
ई सं
सहितको
२०
२१ राजे
३३ नयसेन ३४ श्रेयांससेन
३६
(वि. १४३१) १५ अमन्दकी २४ रनकीर्ति कमलकीर्ति १ ५५ लक्षमणसेन क्षेमकीर्ति १ ५६ भीमसेन हमकोसि va सोमकीर्ति
१७ बालचन्द्र ३७
१८ त्रिभुवनचन्द्र १ ३८
1
५२ शुभकीर्ति ५३ राममेन
प्रद्युम्न चारित्रको अन्तिम प्रशस्ति के आधार पर प्रेमोजी कुमारसेन २ को इस संस्थापक मानते हैं, और इनका सम्बन्ध पंचस्तूप
७. पट्टायलिये तथा गुर्वावलिय
सबके साथ घटित करके इन्हे वि ६४५ में स्थापित करते है। साथ ही 'रामसेन' जिनका नाम ऊपर ५३वें नम्बर पर आया है उन्हे वि १४३१ में स्थापित करके माथुर सघका संस्थापक सिद्ध करनेका प्रयत्न करते हैं (परन्तु इसका निराकरण शीर्षक ६/४ मे किया जा चुका है) । तथापि उनके द्वारा निर्धारित इन दोनो आचार्योंके काल को प्रमाण मानकर अन्य आचार्योंके कालका अनुमान करते हुए प्रद्य ुम्न चारित्रकी उक्त प्रशस्तिमे निर्दिष्ट गुर्वावली नीचे दी जाता है।
1
.
( न चारित्रकी अन्तिम प्रशस्ति), प्रद्य, मन चारित्रको प्रस्तावना/ प्रेमीजी (सा / प्रेमीजी) (नास १/६४-००)।
नाम
भं विसे | ईन्सद सिनाम ४० कुमारसेन ९४४ පුද5 ४१ हेमचन्द्र १ १८० २३ ४२ पद्मनन्दि२
१००५ ६४८
४३ यश कीर्ति २ | १०३०१७३ १४ क्षेमकीर्ति १ १०५५
६६८
स
1
गुगसेन २
नोट- प्रशस्ति में ४४ से ५२ तक के ८ नाम छोड़कर सं. ५३पर कथित राममेनसे पुन प्रारम्भ करके सोमकीर्ति तकके पाँचो नाम दे दिये गये है ।
१० लाड़बागड़ गच्छ की गुर्वावली
यह काष्ठा संघका ही एक अवान्तर गच्छ है । इसकी एक छोटी सीन उपलब्ध है जो नीचे दी जाती है। इसमें केवल आ. नरेन्द्र सेनका काल निर्धारित है। अन्यका उल्लेख यहाँ उसीके आधार पर अनुमान करके लिख दिया गया है।
( आ. जयसेन कृत धर्म रत्नाकार रत्नक्रण्ड श्रावकाचारको अन्तिम प्रहरित) (सिद्धान्तसार संग्रह १२/१३ हास्ति) (सिद्धान्तसार संग्रह प्र ८ / AN Up) ।
१
विसे स धर्म सेन ६५५ රදීත් २ शान्तिसेन ६० १२३ ३ गोपसेन २००५
४ भाव सेन १०३०
६७३
नाम
१
रामसेन २ वीरसेन २
३ देवसेन २
४ अमितगति १
विसं.सद
५३ रामसेन १४३१ १३७४ ५४ | रत्न कोति १४५६ १३६६ ५५ लक्ष्मणसेन
१४८१
१४२४
भीममेन १५०६ १४४६ २० सोमकीर्ति २०१ १४७४
५६
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
वि.सं. ई.स ५ जयसेन ४ १०५५ १०८० १०१३
हहद
७
सेन वारसेन ३ ८ गुणसेन १
११०५ १०४८ ११३९ १०७३
1
नरेद्रसेन मि १९७२ उदयसेन १
1
जयसेन ६ उदयसेन २
११. माथुर गच्छ वा संघकी गुर्वावली.
(सुभाषित रत्नसन्दोह तथा अमितगति श्रावकाचारको अन्तिम प्रशस्ति (४० /प्रेमीजी) ।
( १९८० १९२३)
वि.सं. 10. नाम ५ नेमिषेण ८८०-१२० १४०-१८० माधवसेन अमितगति २ १०-१०००७
१८०-२०२०
वि.सं.
१०००-१०४०
१०२०-१०६० १०४०-१०८०*
१ प्रेमीजी के अनुसार इन दोनोंके मध्य तीन पीढियोंका अन्तर * १०५० में सुभाषित रत्नसन्दोह पूरा किया।
है
1
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इतिहास
८. आचार्य समयानुक्रमणिका --
नोट---प्रमाणके लिए दे वह वह नाम
३
६ ४५१-४३५
४३५-४१३ ど ४१३-३६४
६३६४-३६५
१० ३१४-३६०
११ ३६५-३४५ ११ २५५-३३६ १३३३६-३१६
१४ ३१६ २१८ १५ २६८-२८० १६२८०-२६३
१७ २६३-२४५
२४
२५
क्रमांक
१८२४५-२३२
१६२३२-२१२
२०२१२-११८
२१
६८-१८२
२२ १८२-२२४
२१
१६४०९४४
१४४ - १०५
समय (ई.पू.) नाम
१. ईसवी पूर्व
१०५-११ २६६१-५६ २७ ५६-५३ २८५३-३५
२६ ३५-१२ ३० ई. पू. १२
a m m 50 x w 3 yw o a
१५००
५२७५१५
५१५-५०३
३२
५०३-४६५
४६५-४५१
३३
३४)
३९ पूर्वपाद
३५
३६
३७
समय
ई. सन्
99
39
11
19
३८ ३-३०
३६ १५-४५ ४०
२०-५०
४१३५-६०
स्थूलभद्र स्थूताचार्य रामन्य विशाखाचार्य
२. ईसवी शताब्दी १ :
(अर्जुन ( अवश्मेघ ) |
कत्रि
गौतम ( गणधर ) भगवान् महावीर केवली
सुधर्माचार्य
(लोहार्य १) जम्बूस्वामी
विष्णु
नन्दिमित्र
अपराजित
गोवर्धन
प्रो
क्षत्रिय
जयसेन १
नागसेन
सार्थ
धृतिषेण
विजय
बुद्धिलिंग
गंगदेव
धर्मसेन १
नक्षत्र
जयपाल
पाण्डु धवसेन
कस
सुभद्राचार्य
यशोभद्र १
भद्रबाहु २ लोहाचार्य २
नाम
गुणधर चन्द्रनन्दि १
बलदेव १ जिननन्दि आर्य सर्व गुप्त मित्रनन्दि
शिवकोटि विनयधर
गुप्ति श्रुति
वृद्धि शुद्धि
शिव गुप्त
गुरु
विष्णु
नन्दिमित्र अपराजित
गोवर्धन
भद्रबाहु १
11
"
विशाखाचार्य
17
स्वामी
श्रोशित
क्षत्रिय
जयसेन
नागसेन
सिद्धार्थ
प्रतिषेण
विजय
बुद्धिलिंग
गगदेव
ਕਈ ਰੋਜ
नक्षत्र
जयपाल
पाण्डु धवसेन
कस
35
सुभद्राचार्य
यशोभद्र
"
१
गुरु या
विशेषता
बाहु २
लोहाचार्य
चन्द्रनन्दि
बलदेव १ जननन्दि सर्व गुप्त
मित्रनन्दि पुन्नाट सधी
गु
विनयधर
विभूति]
विशेष
19
श्वेताम्बर संघ प्रवर्तक ११ग १० पूर्वभर
"7
११ अगधारी
39
99
३२८
प्रधान कृति
क्रमांक
कषायपाहुड
४२ मध्य पाद
४३
४४
४५
४६
४७
४६
५०
३८-५५
द्वादशाग धारी ५१ ३८-५५
५२ ३८-५५ ५३३८-५५ ५४ ३८-६६
५५ ३८-४८
५६ ४८-८७
ge
१० अंगधारी ६६
ह
७०
८
समय ई सन्
५७ ३८-१०६ १८६६-१०६
4844-244
६०५३-६३
१७१
१७२
77
६१ ६३
६२
६३-१३३ ६३ ८०-१५० ६४६८८८
१७३
७४
"
६५७३-१२३ ६६ ६०-१३
७५
७६
"
६७ ११-१६२
६८
१४३-१७३
०७
19
३८-४८
३८-६६
भगवती आरा ७८
७६
८० ८१
२
८७-१२७
१२७-१७६
१२७-१७६
१७६-२४३
पूर्वपाद
१२०-१८५
१२३-१६३
मध्य पाद
नाम
२२०-२३१
२२०-२३१
२३१-२६
२८६-३३६
उत्तरार्ध
रत्न नन्दि
शुभ मन्दि बप्पदेव कुमार नन्दि
इल गोव डिगल शिवस्कन्द
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
गुनगुन
(fa)
अर्हदत्त
शिवदत्त
विनयदत्त
श्रीदत्त अर्हि
(गुसिगुप्त )
ान
धरसेन १
३. ईसवी शताब्दी २ -
जिनचन्द्र
कुन्दकुन्द
(पद्मनन्द)
पुष्पदन्त
भूतबली
मन्दार्य
(सी)
मित्रवीर
(श्वेताम्बर)
नागहस्ति
यतिवृषभ
८. आचार्य समयानुक्रमणिका
गुरु या विशेषता (शुभदिधर्मा देव गुरु शुभनन्दि
बड़मेर
उमास्वामी
घरसेन
अर्हलि
मन्दार्थ
दिनाकरन
इन्द्रसेन
यशोवाहू यशोभद्र के शिष्य (भद्रबाहु द्वि ) लोहाचार्य के गुरु
आम
वज्रयश
४. ईसवी शताब्दी ३ :
बलाक पिच्छ लोहाचार्य ३ यश कीर्ति
समन्तभद्र
अर्हसेन
सिंहनदि १ (योगी द्र)
कुमार स्वामी
मोहाचार्य
यशोनन्दि शामकुण्ड
14
ि
क्रमबाह्य
कुन्दकुन्द
(गृद्व पिच्छ)
देवद्धिगणी श्वे के अनुसार
नागहस्ति
कुन्दकुन्दके गुरु जिनचन्द्र
दिवाकरसेन भानुनन्दि
गृह पिच्छ
लोहाचार्य यश कीर्ति
प्रधान कृति
व्याख्याप्रज्ञप्ति सरस्वती आन्दो शिल्पकार
अगाधारी
33
35
11
"
षट् खण्डागम
19
कषायपाहुड
कषायपाहुड
समयसार
मूलाचार
व े आगम आप्त मीमासा
कार्तिकेयानुपेक्षा
पद्धति टीका
Page #344
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इतिहास
३२९
८. आचार्य समयानुक्रमणिका
पर
१२८
|१२६
४३७
m Sex
or
१४०
२४२,
१४३ मयार
संग्रह
समय
गुरु या नाम
प्रधान कृति समय ई सन् नाम गुरु या विशेषता प्रधान कृति विशेषता
१२६६५० ५ ईसवी शताब्दी ४ -
। बलदेव कनकसेन
१२६ ६६३-६७६ माणिक्यनन्दि | रत्ननन्दि पूर्व पाद | विमल सुरि
पउमचरिउ
१२७ ६७५ देवनन्दि
धर्मसेन यशोनन्दि
६७७ रविषेण
लक्ष्मण सेन । पद्म पुराण मध्यपाद श्री दत्त
जल्प निर्णय
६७६-७०५
मेघचन्द्र माणिक्यनन्दि मल्लवादी
द्वादशारनयचक्र १३० ६६
कुमारसंन प्रभाचन्द्र ४ | आत्म मीमांसा ३८६-४३६ । जयनन्दि देवनन्दि
के गुरु विवृत्ति ६ ईसवी शताब्दी ५ -
अन्तिम पाद | सिद्धसेन गणी | श्वेताम्बराचार्य | न्यायावतार ८८ | मध्यपाद | धरसेन २ दीपसेन
७०० बालचन्द्र धर्मसेन पूज्यपाददेवनन्दि सर्वार्थ सिद्वि ई.श.७-८ अर्चट (बौद्ध)
हेतु बिन्दु टीका ४३६-४४२ गुणनन्दि | जयनन्दि
सुमतिदेव
सन्मतितर्कटीका अपराजित सुमति आचार्य
जटासिंह नन्दि
वराङ्गचरित ४४२-४६४ वज्रनन्दि गुणनन्दि
चतुर्मुखदेव । अपभ्रशकवि ४४३ शिवशर्म मूरि
कर्म प्रकृति
९. ईसवी शताब्दी ८ - (श्वेताम्बर)
११३७ ७०५-७२१ । शान्तिकीर्ति । मेधचन्द्र ४५३ देवाद्धि गणी दि के अनुसार व आगम
७१६
चन्द्रनन्दि २ ६५ ४५ सर्वनन्दि
स, लोक विभाग ७२०-७५८ मेरुकीर्ति | शान्तिकोति ६६ ४६४-५१५ । कुमारनन्दि । वज्रनन्दि ।
७२०-७८०
पुष्पसेन अकलङ्कके सधर्मा १७। ४८०-५२८ । हरिभद्र सूरि (ताम्बर) | षट् दर्शन समु १४१ ७२३-७७३
__ जयसेन २ । शान्तिसेन ७. ईसवी शताब्दी ६ -
७२५-८२५ | जयराशि ।
तत्वोपप्लव८। पूर्व पाद । वज्रनन्दि । पूज्यपाद
पूज्यपाद ।
(अजैन नैयायिक प्रमाण ग्रन्थ
सिंह ६ ५०५.५३१ । लोक चन्द्र कुमारनन्दि
मध्य पाद बुद्ध स्वामी
बृ कथा श्लोक प्रभाचन्द्र १ । लोकचन्द्र १०१ उत्तरार्ध यागेन्दु | परमात्मप्रकाश १४४
हरिभद्र २
तत्त्वार्थाधिगम १०२ ५५६-५६५ नेमिचन्द्र १ प्रभाचन्द्र
(याकिनीसुनु
भाष्यकी टीका) १०३ ५६५-५८६ भानुनन्दि नेमि चन्द्र १
श्रीदत्त द्वि०
जल्प निर्णय सिद्धसेन दिवा, (दिगम्बर) सन्मतितर्क १४६
काण भिक्षु
चरित्रग्रंथ १०५ ५८३ ६२३ । दिवाकरसेन - इन्द्रसेन
१४७ ७३६
विजयोदया १०६ ५८५-६१३ सिंहनन्दि २ . भानुनन्दि
(भग.आ. टीका १०७ ५६३ जिनभद्र गणी
विशेषावश्यक-१४८ ७३८-८४०
पउमचरिउ
स्वयम्भू (ताम्बराचायी
भाष्य । १४४
७४२-७७३ चन्द्रसेन पंचस्तूपसंघी ई. श.७सेपूर्व| तोलामुलितेवर
अमितसेन चूलामणि
पुन्नाटमधी अन्तिम पाद सिंह सूरि(व.)
जिनसेन १ नयचक्र वृत्ति १५१ ७४८-८१८
हरिवंश पुराण शान्तिषण जिनसेन प्र. ।
चारित्रभूषण विद्यानन्दिके गुरु
प्रामाण्य भंग पात्रकेसरी समन्तभद्र पात्रकेसरी स्तोत्र १५३ उत्तराध
अनन्तकीर्ति | निमित्त शास्त्र १५४ ७६२ आविद्धकरण
(नैयायिक) ८. ईसवी शताब्दी ७ --
७६३-८१३ कीर्तिण जयसेन २ ११३ पूर्व पाद
"५
सिंहमूरि (छ)। सिद्धसेन गणी दार सहारराव सदसन गणा द्वादशार नयचक्र ९५६
७६७-७१८ आर्यनन्दि पंचस्तूपसंघी
७७०-८२७ १५७
| जयसेन ३ आर्यनन्दि ११४
वमुनन्दि ६०३-६१६
१ सिंहनन्दि
७७०-८६०
१९८ अर्हत्सेन
वादीभसिह पुष्पसेन ११५ ६०३-६४३
क्षत्रचूडामणि दिवाकरसेन ७७५-८४० विद्यानन्दि १
आप्त परीक्षा ११६
वोरनन्दि १ ६०६-६३६ वमनन्दि
७८३ उद्योतन सुरि ११७
कुवलय माला भक्तामर स्तोत्र १६० ६१८ मानतुङ्ग
७६७ प्रभाचन्द्र ३ तोरणाचार्य ११८ ६२०-६८०
राजवातिका अकलङ्क भट्ट
७७०
एलाचार्य ११६ ६२३-६६३ लक्ष्मणसेन
अर्हत्सेन
७७०८२७ वीरसेन स्वामी एलाचार्य धवला १२०
कनकसेन बलदेवके गुरु
ई. श.८-६ धनब्जय
दशरथ
विषापहार १२१ ६२५-६५० धर्मकोति (बौद्ध)
कुमारनन्दि चन्द्रनन्दि वादन्याय १२२ ६३६-६६३ रत्ननं दि
वीरनन्दि
१५६ महासेन
सुलोचना कथा १२३ मध्य पाद तिरुतकतेवर !
जीवनचिन्तामणि
श्रीपाल
वीरसेन स्वामी १२४] उत्तराध । प्रभाचन्द्र २ ।
तत्त्वार्थसूत्र द्वि. १६८
श्रीधर १
गणितसार संग्रह
१४५
१०४ १६८
अपराजित
विजय
११०
७४३-७६३
१५२/ ७५७-८१६
के दादा गुरु । की वृत्ति
2.
जैनेन्द्र सिदान्त कोश
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इतिहास
३३०
८. आचार्य समयानुक्रमणिका
नाम
१७
२१५/
१७२
२१६
/२२२/
पोन्न
२२३/
उत्तराध
.
२२६
१
१८२/
१८६/ कहा
More
2
CE
समय ई सन् नाम गुरु या विशेषता प्रधान कृति
1 समय ।
गुरु या
प्रधान कृति
विशेषता १० ईसवी शताब्दी ९ -
२१२ ६३५- मेघचन्द्र त्रिविद्य त्रैकाल्ययोगी । ज्वालामालिनी । पूर्वपाद । परमेष्ठी , अपभ्रंश कवि | वागर्थ संग्रह २१३
६३७ कुलभद्र
सारसमुच्चय ८००-८३० महावीराचार्य
गणितसार संग्रह २१४ ६३६ इन्द्रनन्दि बपनन्दि श्रुतावतार ८१४ | शाकटायन- | यापनोयसंघी शाकटायन
६३६ कनकनन्दि
सत्त्वत्रिभगी पान्यकीर्ति शब्दानुशासन २१६ १४०-१००० सिद्धान्तसन
गोण सेनसे गुरु नृपतुंग कन्नड कवि | कविराज मार्ग २१७ ६४३-६६८ | सोमदेव १
नेमिदेव नीतिवाक्यामृत १७३/ ८१८-८७८ | जिनसेन ३ वीरसेन स्वामी आदिपुराण | ६४३-१७३ | दामनन्दि
सर्वचन्द्र १७४ ८२०-८७० | दशरथ
६४३-६८३ नेमिषेण
अमितगति १७५ पद्मसेन
६४ गोपसेन
शान्तिसेन १७६ , देवसेन १
२२१) हर
पद्मनन्दि
हेमचन्द्र १७७ ८२८ उग्रादित्य श्रोनन्दि
(कन्नडकवि) शान्तिपुराण कल्याणकारक गर्गर्षि (श्वे.) मध्य पाद कर्मविपाक ६६०-६६३
अजितनाथपुराण गुगनन्दि ८४३-८७३ बलाकपिच्छ
२२४ उत्तरार्ध पुष्पदन्त | अपभ्रश कवि जसहर चरिउ अनन्तकीति त्रिभुवन स्वयंभू कवि स्वयंभूका | वृहत्मर्वज्ञ सिद्धि २२५ उत्तरार्ध भट्टवोसरि | दामनन्दि आय ज्ञान पुत्र ६५०-६१० रविभद्र
आराधनासार १८ देवेन्द्र सैद्धान्तिक गुणनन्दि
वीरनन्दि २ अभयनन्दि ।
आचारसार ८८३-६२३ वीरसेन २ रामसेन
२२७ ६५०-१०२० सकलचन्द्र ८६३-६२३ कलधौतनन्दि देवेन्द्रसैद्धान्तिक
६५०-१०२० प्रभाचन्द्र ४ पद्मनन्दि से० प्रमेयकमल मा वसुनन्दि २
६५३-६७३ सिंहनन्दि ४ अजितसे नके गुरु कुमारसेन काष्ठा संघ
६६०-१००० गोणसेन पं. सिद्धान्तसेन संस्थापक
६६३-१००३ अजितसेन सिहनन्दि १८७ धर्मसेन २ लाडनागडगच्छ |
२३२/ १६३-१००७ माधवसेन नेमिषेण
| वरवंड चरिऊ गुणभद्र १ १८८ ८८
उत्तरपुराण जिनसेन ३
६६५-१०५१ कनकामर बुधम गलदेव
भविसयत्त कहा १८६ अन्तिम पाद | धनपाल
२३४ ६६८-६६८ वीरनन्दि
। दामनन्दि
पंचस ग्रह (श्वे.) ११० ई श६-१० / चन्द्रर्षि महत्तर
२३ ६७२ यशोभद्र (श्वे)| साडेरक गच्छ ११. ईसवी शताब्दी १०:
६७३ यश कीर्ति २ | पद्मनन्दि कलधौतनन्दि | उत्तरपुराण (शेष)२३०१७३ भावसेन गोपसेन /गोलाचार्य १६१ १००१२०
| प्रद्युम्न चरित्र गुणभद्र १
२३८ लोकसेन
६७४
गुणाकरसेन
महासेन १६२ १००-६४०
सिद्धि विनि वृ देवसेन १ वीरसन २
६७५-१०२५ अनन्तवीर्य १ द्रविड सघी १६३/ १०३-६४३
दीव पण्णति दुर्गा स्वामी सिद्धर्षि उपमिति भव-२४० ६७७ १०४३
बालनन्दि
पद्मनन्दि ४ १६२ १०५
कुदेकदत्रयो टी प्रपञ्च कथा २४१] १८०-१०६५
प्रभाचन्द्र५
चारित्रसार १६५ १०५-६५५ अमृतचन्द्र आरमख्याति २४२/ १७८
चामुण्डराय | अजित सेन
गोमट्टसार १६६
इन्द्रनन्दि विमलदेव १०६
नेमिचन्द्र देवसेनके गुरु
१८१ १६७ कनकसेन | कोई काव्यग्रन्थ
सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिदेव वाद विजेता १६० ६१८-६४३
बालचन्द्र ६८३
अनन्तवीर्य
श्रावकाचार सर्वचन्द्र ६१८-१४८ वसुनन्दि
६८३-१०२३
माधवसेन
अमितगति २ | त्रैकात्ययोगी गोलाचार्य
६८७ ६२०-६३०
| धम्मपरिक्खा हरिषेण अपभ्र श कवि
| बद्ध मान चरित्र २०१ १२३ शान्तिसेन धर्मसेन
६८८
नागनन्दि
असग हेमचन्द्र
छन्दोम्बुधि कुमारसेन
नागवर्म १ ६६०
कन्नड कवि १२३ विजयसेन | नागसेनके गुरु
२४६ ६१०-१००० गुण कीति मध्य पाद
अनन्तवीर्य २०४ अभयदेव (श्वे.)
बाद महार्णव २५० ६६०-१०४० देवकीति २ हरिचन्द एक कवि धर्मशभ्युिदय २५१ हम४ उदयनाचार्य | (नैयायिक) | किरणावली
माधवचन्द | नेमिचन्द्र २०६ त्रिलोकसार टीका २५२ १६१ श्रीधर २
न्यायकन्दली (विद्य) सिद्धान्त चक्रवर्ती
२५३/ लगभग ६३ देवदत्त अपभ्रंश कवि वरांग चरिउ २०७० ६२३-६६३ अमितगति १ | देवसेन सूरि योगसार प्राभृत
अजित
रत्न २०८ ६३०-६५०
अभयनन्दि वीरनन्दिके गुरु जैनेन्द्रमहावृत्ति २५४ ६६३-१०२३ श्रीधर ३ वीरनन्दि पद्यनन्दि
त्रैकाल्ययोगी | २०६१३०-१०२३
६३-१०५० नयनन्दि माणिक्यनन्दि मुदसण चरिङ (आविद्धकरण) २५६ ६६३-१९१८ शाम्त्याचार्य
जैनतर्क वातिक२१० ६३१ हरिषेण भरतसेन बृहत्कथाकोश
| वृत्ति २१९ ६३३-६५५ | देवसेन २ विमलदेव द र्शनसार
२३६
२३६/
पूर्वार्ध
२०१०
घर ३
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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इतिहास
३३१
८. आचार्य समयानुक्रमणिका
नाम
३००
20६
(३१३
२६७
१०
समय
गुरु या प्रधान कृति समय ई. सन नाम
गुरु या
प्रधान कृति विशेषता
विशेषता २५७११८ क्षेमकीर्ति १ यश कीति
देव चन्द्र १ वासवचन्द्र पासणाह चरिउ २५८ १६८ जयसेन ४ भावसन
ब्रह्मदेव
द्रव्यसग्रह टीक २५६ १८-१०२३ बालनन्दि वीरनन्दि
३०७
नरेन्द्रसेन १ । गुणसेन सिद्धांतसारसग्रह २६० ६६-१०२३ | श्रीनन्दि सकलचन्द्र
३०८ १०६३-११२३ शुभचन्द्र २ | दिवाकरनन्दि २६१ अन्तिमपाद ढड्ढा श्रीपाल के पुत्र चसंग्रहअनुवाद ३०६/ १०६३-११२५ चिराज
शुभचन्द्र २६२ १००० क्षेमन्धर
बृ. कथामञ्जरी ३१०/११०० नागचन्द्र (पम्प) कन्नड़ कवि मल्लिनाथ पुराण २६३ ई.श १०-११ । इन्द्रनन्दि २
छेद पिण्ड
सुभद्राचार्य अपभ्रंश कवि वैराग्गसार १२ ईसवी शताब्दी ११ -
जयसेन ५ सोमसेन
कुन्दकुन्दत्रयी
टीका २६४ १००३-१०२८ माणिक्यनन्दि रामनन्दि परीक्षामुख
जिनचन्द्र ३
सिद्धान्तसार २६५ १००३.१०६८ | शुभचन्द्र १
ज्ञानार्णव ३१४ , वसुनन्दि ३ नेमिचन्द्र श्रावकाचार पूर्वाधविजयनन्दि
बालनन्दि १०१०-१०६५ / वादिराज २
मति सागर एकीभाव स्तोत्र १३. ईसवी शताब्दी १२.२६८१०१५-१०४५ सिद्धान्तिक देव शुभचन्द्र २
३१५ पूर्व पाद । बालचन्द्र २ । नयकीर्ति २६६ १०१६ वीर कवि जंबूसामि चरिउ
टोका २७० १०२०-१११० । मेषचन्द्र विद्या सकलचन्द्र
वक्रग्रीवाचार्य द्रविड सघी २७१ १०२३
ब्रह्मसेन जयसेन
विमलकीति । रामकीति सोखबड बिहाण २७२ १०२३-१०६६ | उदयसेन गुणसेन
चन्द्रप्रभ ११०२
प्रमेय रत्नकोश कुन्न भूषण २७३/ १०२३-१०७८ पद्मनन्दि आबिद्ध
वादीभ सिह । वादिराज द्विस्थाद्वा सिद्धि
३१६ ११०३ २७४१०२६ पद्मसिंह
ज्ञानसार २७५ १०३०-१०८० श्रुतकीति
११०८-११३६ माघनं दि(कोल्हा) कुल चन्द्र पद्मनन्दि आविद्ध यश कीति
३२१ २७६ मध्य पाद
हरिभद्र सूरि जिनदेव उपा।
१११५ अपभ्रश कवि । चदप्पह चरिउ ३२२ २७७ १०३१-१०७८
मस्तव वृत्ति अभयदेव श्वे)
१११५-१२३१/ गोविन्दाचार्य नवाग वृत्ति
प्रभाचन्द्र ६ मेघचन्द्र विद्या २७८१०३२ दुर्गदेव सयमदेवरिट समुच्चय
१११६ ३२४
शुभचन्द्र ३ चन्द्रकीति २७६/ १०४३-१०७३
११२०-११४७ मल्लधारीदेव
११२०
राजादित्य नयनन्दि २८० १०४३ नेमिचन्द्रके गुरु
| कन्नड गणितज्ञ व्यवहार गणित कीर्ति वर्मा
११२३
जयसेन ६ २८१ १०४६
नरेन्द्रसेन आयुवद विद्वान जाततिलक महेन्द्र देव
गुण मेन २
११२३ नागसेनके गुरु
नरेन्द्रसेन
नयसेन २८३/ १०४७
मल्लिषेण जिनसेन ११२५
धर्मामृत महापापा
योगचन्द्र नागमेन
मध्य पाद महेन्द्रदेव
दोहासार बीरसेन ३
अनन्तवीर्य लघु २८५१०४८ ब्रह्मसेन
प्रमेयरत्नमाला
वीरनन्दि४ रामसेन
आचारसार नागसेन धवलाचार्य
श्रीधर ४
पासगाह चरिउ २८७
हरिवश
पद्यप्रभ २८८
वीर नान्द तथा नियमसार टीका मलयगिरि(श्वे.) श्वे टीकाकार। . पद्मनन्दि५ वीरनन्दि
मल्लधारी देव श्रीधर १ पंचविशतिका ३३४ सोमदेव २ २६०, १०६२-१०८१
भ अमृतचन्द्र । कथा सरित सागर ३३५
प्रद्य म्नचरित श्रीचन्दबीरचन्द
मल्लिषेण
सज्जनचित्त नेमिचन्द ३
पुराणसार संग्रह नयनन्दि
(मल्लधारीदेव)
वल्लभ द्रव्यसग्रह सैद्धान्तिक देव
गुणधरकीर्ति कुवलयचन्द्र
अध्यात्म त. २६३, १०६८-१०६८ दिवाकरनन्दि चन्द्रकीर्ति
टोका वसुनन्दि तृ.
३३७
देवचन्द्र प्रतिष्ठापाठ ११३३-११६३
माधन दि(कोल्हा) नेमिचन्द(श्वे) २६५ १०७२-१०६३ आम्रदेव
कनक नन्दि प्रवचनसारोद्धार ३३० गुणसेन १ २६६ १०७४
गण्ड विमुक्त देव वीरसेन ३ जिनवल्लभ गणी, जिनेश्वर सरि षडशीति । २४०
देवकीर्ति ३ । २४७/ १०७५-१११० २६८१०७५-११२५ वाग्भट्ट १
नेमिनिर्वाणकाव्य ३४१
माघन दि त्रैविद्यः २६४ १०७५-११३५
देवसेन ३ विमलसेन गणधर सुलोयणा चरिउ ३४२ पद्यकीति (भ) जिनसेन पासणाह चरिउ ३४३
कर्ण पार्य ३०० १०७७
कन्नड कवि नेमिनाथ पुराण ३०१ १०८-११७३ हेमचन्द्र (श्वे.)
शब्दानुशासन ३४४ ३०२ १०८६ भूतकीति अग्गल के गुरु | पचवस्तु(टीका २०११
अपभ्रंश कवि भविसयत्त चरिउ ११४३
| श्रीधर (विबुध) अग्गल कवि ।
श्रुतकीति ३०३ १०८६
चन्द्रप्रभ चरित ३४६
नागवर्म२ कन्नड़ कवि काव्यालोचन ३०४ अन्तिम पाद | वृत्ति विलास | कन्नड कवि धर्मपरीक्षा ३४७
उदयादित्य |
'उदयदित्यालंकार
३२
२८२ १०४७
२८४ १०४७
२८६ उत्तरार्ध
२८
"
सिह
११२८
२६१/१०६६ २६२, १०६८
२६४, १०६८-१११८
| श्रुतकीर्ति ११४० ११४२-११७३ परमानन्द सरि
११५०
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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इतिहास
३३२
८. आचार्य समयानुक्रमणिका
नाम
३५१
FEE* * *REEEEEEEEEEEE * | कमाल
कबगर काव्य ४०४ १२६०
३६६ ३६७
८१३॥
३६
कर्म प्रकृति
श्रुतमुनि
गुरु या
। समय ई सन्
प्रधान कृति
समय नाम
गुरु या विशेषता
प्रधान कृति
विशेषता ३४८ ११५० सोमनाथ वैद्यक विद्वान् । कल्याण कारक ३६३, मध्य पाद रामचन्द्रमुमुक्षु । केशवनन्दि | पुण्याववकथा ३४६ १९५० केशवराज कन्नड कवि शब्दमणिदर्पण १२३०-१२५८ शुभचन्द्र ६ गण्डविमुक्त देव ३५० ११५०-११६६ । उदयचन्द्र अपभ्रश कवि सुअंधदहमी कहा ३६५ १२३५ कमलभव कन्नड कवि शान्तीश्वर पु
बालचन्द्र उदय चन्द्र /णिद्दुक्ख सत्तमी ३९६ १२४५-१२७० देवेन्द्रसूरि (श्वे.) जगच्चन्द्रसूर / कर्मस्तय
श्रीधर ६ | अपभ्रश कवि सुकुमाल चरिउ ३१७ १२४६-१२७६ / अभयचन्द्र २ श्रुतमुनिके गुरु गो सा /नन्द३५३, उत्तरार्ध विनयचन्द कल्याणक रास
प्रबोधिनी टीका ३५४ ११५५-११६३ / देवकीर्ति ४ गण्डविमुक्तदेव
IBE८१२५०१२६० । अजितसेन
श्रृङ्गार मञ्जरी ३५५ ११५८-११८२ गण्डविमुक्त देव२
B85उत्तरार्द्ध विजय वर्णी विजयकीति । श्रगारर्णव अक्लक २
२०० ई. श १३ धरसेन मुनिसेन वित्रलोचन भानुकीर्ति
१०१/ उत्तरार्ध
अहंदास पं आशाधर पुरुदेव चम्पू रामचन्द्र विद्य
१०२/ १२५३-१३२८ | प्रभाचन्द्र रत्नको ति के गुरु ३५६ ११६१-११९१ हस्तिमल मनसंघी विक्रान्त कौरव १२५६
प्रभाचन्द्र श्रुतमुनिके गुरु | शुभचन्द्र देवेन्द्रकोति
माधनन्दि ५ । कुमुदचन्द्र । शाखसार समु. ३६१ ११७० ओडय्य कन्नड कवि
कुमुदेन्दु वनड कवि । रामायण ३६२ ११७०-११२५ जत्र यशोधर चरित्र ४०५१२७५
मल्लिषेण (श्वे)
स्याद्वादमंजरी ११७३-१२४३ प.आशाधर पं. महावीर अनगारधर्मामत०६ १२६२
४०७ १२६६
जिनचन्द्र ५ भास्कर के गुरु तत्वार्थ सूत्रवत्ति ३६४ १९८५.१२४३ ११०२ प्रभाचन्द्र ६ बालचंद भद्रारक क्रियाकलाप
भास्करनन्दि जिनचन्द्र ५ ध्यानस्तत्र ११८७-१९६० अमरकीर्ति गणी चन्द्रकीर्ति मिणाहचरिउ १२६६
धर्मभूषण १ ०६ १२६८-१३२३ ।
शुभकाति ११८६ अग्गल कन्नड कवि । चन्द्रप्रभु पुराण ४१० अन्तिम पाद इन्द्र नन्दि
नन्दि सहिता १९६३ माघनन्दि४
नरसेन अपभ्रश कवि सिद्धचक्क कहा ११६३-१२६०
२११/ माघनन्दि४ कुमुदचद्र के गुरु शाखसार समुच्चय।
१२] नागदेव
| मदन पराजय (योगीन्द्र)
लक्ष्मण देव | अपभ्र श कविणेमिणाह चरिउ अतिम पाद नेमिचद सैद्धा.४
बाग्भट्ट द्वि.
छन्दानुशासन ३७० . आच्चण कन्नड़ कवि वर्द्धमान पुराण ११
अभयचन्द्र स । परमागमसार प्रभाचन्द्र ७
सिद्रातसार टीका ११ लक्षण । अपभ्रश कवि अणुवयरयण पईव ४१६] ई श १३-१४ । वामदेव पडित विनयचन्ट
पार्श्वदेव । यशदेवाचार्य | सगीतसमयसार १५ ईसवी शदाब्दी १४ - ३७४ १२०० देवेन्द्र मुनि आयुर्वेदि विद्वान् बालग्रह चिकित्सा
पद्मनन्दि लघु ३७५ १२००
। यत्याचार बन्धु वर्मा कन्नड कवि हरिवंश पुराण ४१७ १३०५
वालचन्द्र से. अभयचन्द्र द्रव्यस ग्रह टीका ३७६ १२०० शुभचन्द्र५ ।
हरिदेव अपभ्रंश कवि मयणपराजय ३७७ ई.श.१२-१३ । रविचन्द्र .
आराधनासार ४१६ पूर्वाध
४२० १३२८-१३६३ पद्मनन्दि६ प्रभाचन्द्र समुच्चय
भावनापद्वति
श्रीधर ७ ३७८ । वामन मुनि
४२१ मध्यपाद तमिल कवि । मेमन्दर पुराण
श्रुतावतार ४२२ जयतिलक सूरि
चार कर्म ग्रन्थ १४. ईसवी शताब्दी १३ -
४२३ १३४८-१३७३
धर्मभूषण २ | अमरकीर्ति ३७६ पूर्वपाद गुणभद्र२ । नेमिसेन धन्यकुमार चरित ४२४१३५०-१३६० मुनिभद्र
| बर्द्धमान भट्टा.
वरागचरितकाव्य ३८०
पाब पण्डित कन्नड कवि पार्श्वनाथ पुराण ४२५ उत्तरार्ध १२०५ ३८१) १२१३ माधवचन्द्र क्षपणसार ४२६ १३५८-१४१८
| धर्मभूषण ३
( वर्द्धमान मुनि विद्य
४२११ १३५६
केशव वर्णी | अभयचंद्र सै गो.सा कर्णाटक
श्रुतकीति ३८२
अपभ्रश कवि जिणयत्तकहा १२८ १३८४ १२१३-१२५६
प्रभाचन्द्र गुणवर्ण ३८३, १२२५ कन्नड कवि पुष्पदन्त पुराण
मधुर ४२६) १३८५
कन्नड कवि धर्मनाथ पुराण ३८४
विनोदी लाल भाषा कवि जगच्चन्द्र सूरि | देलवाडा मन्दिर १२२८
४३० १३६०-१३१२
भक्तामर क्था (श्वे) के निर्माता
४३१, १३६३-१४४२
देवेन्द्र कीर्ति भ.
जिनदास १ । सक्लकीति ३८१० १२३०
अपभ्रंश कवि णेमिणाह चरिउ ३३२ १३६३-१४६८
जम्बूस्वामीचरित दामोदर ३८६ मध्य पाद
| धनपाल २ स्याद्वाद् भूषण ४३३१३६७ अभयचन्द्र १
अपभ्रंश कवि बाहुबलि चरिउ विनयचन्द्र अपभ्रंश कवि उबएसमाला ४३४ १३६६ रत्नकीर्ति २ | रामसन
अपभ्रश कवि अणथिमियाहा यश कीर्ति३
जगत्सुन्दरी ४३५ अन्तिम पाद ३८६ ललितकीर्ति
अनृपेहारास
जल्हिमले १२३४
यशःकीर्ति ३ ३६० यश कीर्ति
. देवनन्दि ललितकीर्ति धर्मशभ्युिदय ४३७
रोहिणी विहाण १२३६ ३६१ मध्य पाद
रविवय कहा नेमिचन्द्र | कन्नड कवि अधनेमि पुराण-४३८ ई.श १४-१५ | नेमिचन्द्र
| भावसेन विद्य ३१२ } प्रमाप्रमेय
महेसरचरिउ ४३६ १४००-१४७६ | रइधु
नरपिगल
४१८ १३११ ।।
FAREEF_THE
३८७
नमेन्द्र सिद्धान्त कोश
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इतिहास
८. आचार्य समयानुक्रमणिका
४५३|
१५०६/ १५५०
समय । नाम गुरु या प्रधान कृति ।
समय
। नाम गुरु या विशेषता प्रधान कृति विशेषता १६. ईसवी शताब्दी १५ -
४८६ १५००-१५४१ । विद्यानन्दि ३, विशालकीर्ति ४४० पूर्वपाद जयमित्रहल अपभ्र श कवि मल्लिणाह कब ४८१ १५०१
जिनसेन भट्टा, ४] यश कीति नेमिनाथ रास ४४१, १४०५-१४२५ | पद्मनाभ गुणकी ति भट्टा | यशोधर चरित्र.८८ पूर्वाध नेमिचन्द्र ७ | ज्ञानभूषण गो.सा, टीका ४४२ १४०६-१४४२ | सफल कोति ।
सम्यक्त्व को मुलाचार प्रदीप ८६ १५०८
| कन्नड कवि ४४३ पूर्वपाद ब्रह्म साधारण , नरेन्द्र कीति | अणुपेहा १६० १५१३-१५२८ जिनसेन भट्टा ५ | सोमसेन ४४४) १४२२ असवाल अपभ्रश कवि | पासणाह चरिउ६१,१५१४-२६
प्रभाचन्द्र ११ | जिनचन्द्र भट्टा.. ४४५/ १४२४ लक्ष्मण सेन २ रत्नकीति ।
रत्न की ति३ | ललितकीति । भद्रबाहु चरित ४४६१४५४ भास्कर कन्नड कविजीवन्धरचरित ४६२ १५१६-५६ शुभचन्द्र विजयकीर्ति । करकण्ड चरित ४४७ १४२५
लक्ष्मीचन्द ! अपभ्र श कविसावयधम्म दोहा ४१४ १५१८-२८ नेमिदत्त मतिलभूषण । नेमिनाथ पुराण ४४८ १४२६-१४४० यश कीति ६ । गुणकोति जिणरति कहा ४६५ १५१६
शान्तिकोति | कन्नड कवि शान्तिनाथ पुराण ४४६ मध्यपाद सिंहसूरि (श्वे )
लोक विभाग
माणिक्यराज अपभ्रश कवि नागकुमार चरिउ ४५० गुणभद्र ३
ज्ञानभूषण २ पक्खइवयकहा ४६६१५२५-५६
बीरचन्द
कर्मप्रकृति टीका . अपभ्रश कवि ४५१
प्रतिष्ठाचार्य आस्रवत्रिभगीको ४६० १५३० महोन्दु अपभ्रश कवि | सतिणाह चरिउ लाटी भाषाटोका ४६८ १५३५
बूचिराज
म जुज्झ विमलदास अनन्तदेव
४६६१५३८
सालिवाहन | हिन्दी कवि हरिवंशका पं योगदेव अपभ्र श कवि बारस अणुवेक्खा
अनुवाद ४५४ १४३२ प्रभाचन्द्र १० । धर्मचन्द्र
| तत्वार्थ रत्न ५०० १५४२
वर्द्धमान द्वि. देवेन्द्र कीति | दशभक्त्यादि ४५५ १४३६ मलयकोति धर्मकीर्ति मूलाचारप्रशस्ति ५०१ १५४३-१३
पं जिनराज | आयुर्वेद विद्वान् होलो रेणुका ४५६ १४३७ शुभकोति देवकीर्ति सतिणाहचरिउ ५०२ १५४४
चारुकीर्ति पं
प्रमेयरत्नालंकार ४५७ १४३६
कल्याणकीर्ति कन्नड कवि ज्ञानचन्द्राभ्युदय ५०३ १५५० दोड्डैप कन्नड कवि ४५८ १४४२-१४८१ विद्यानन्दि २ देवेन्द्र कोति | सुदर्शनचरित ५०४ १५५० मगराज
खगेन्द्रमणि ४५४१४४२-१४८३ भानुकीर्ति भट्ट. सकल कीर्ति जीवन्धर रास ५०५ १५५०
साल्व
रसरत्नाकर ४६०१४४३-१४५८ तेजपाल अपभ्रश कवि वर गचरिउ
योगदेव
तत्वार्थ सूत्र टी. १४४८ विजय सिंह अजितपुराण ५०७ १५५१ रत्नाकरवर्णी
| भरतैश वैभव ४६२ १४४८-१५१५ तारण स्वामी | उपदेशशुद्धसार ३०८ १५५६-७३
सकल भूषण | शुभचन्द्र भट्टा उपदेश रत्नमाला भीमसेन लक्ष्मण सेन ५०६ १५५६-७३ सुम तिकीति
कर्मकाण्ड ४६४१४५०-१५१४ जिनचन्द्र भट्टा. शुभचन्द्र सिद्धान्तसार ।
गुणचन्द्र यश कीर्ति मौनव्रत कथा ब्रह्म दामोदर | जिनचन्द्रभट्टा सिरिपालचरिउ ५११| १५५६-१६०१
क्षेम चन्द्र ४६५ १४५०-१५१४
कार्तिकेयानुप्रेक्षा धर्मधर नागकुमारचरित
टोका ४६७१४६१-१४८३ सोमकीति भट्टा भीमसेन सप्तव्यसन कथा ५१२७
प. पद्म मन्दर प. पद्ममेरु भविष्यदत्तचरित ४६८ १४६२-१४८४ मेधावी जिनचन्द्र भट्टा धर्मसंग्रहश्रावका १३
ना ४६४१४६८-१४६८ भूवनकीति तत्वज्ञानतर गिनी ५१४ १५१-१९०६ रायमल
अनन्तकी ति विष्यदत्त च ४७० १४८१-१४६४ मल्लिभूषण विद्यानन्दि२ ।
१६.१५५६-१६८०
प्रभाचद्र १२ ज्ञानभूषण १४८१-१४६६ | श्रुतसागर
तत्वार्थवृत्ति
बाहुमलि
| कन्नड कवि नारकुमार च वोम्मरस कन्नड कवि सनत्कुमार चरित ५१४१५७३.६३
गुणकीर्ति सुमतिकीर्ति विजयकी ति ४७३/ १४६५-१५१३ ज्ञानभूषण १
| प.गगदास | शिरोमणि दास १५७५
| धर्मसार ४७४/
हेमचन्द्र भट्टा. १४६६-१५१८ सिहनन्दि | मल्लिभूषण
५१६ १५७५-६३
पं.राजमल
विद्याभूषण ४७५/ १४६६-१५१८ लक्ष्मीचन्द
५२०/ १५७९-१६१६ श्रीभूषण
द्वादशांग पूजा लक्ष्मीचन्द्र
वोरचन्द ४७६] १४६४-१५२८
अपभ्रंश कवि जबूसामि बेलि ५२१/ १५८०
माणिक चन्द
सत्तवसणकहा
कन्नड कवि ४७७
श्रुतसागर | श्रीचन्द १४६६-१५१८
पद्मनाभ १२२ १५८०
राम पुराण वोरचन्द्र ४७८ अन्तिम पाद | महनन्दि
यश कीर्ति पहुड दोहा
क्षेमकीर्ति
| प्रभाचन्द ४७६० श्रुतकीर्ति भुवनकीति । हरिवंश पुराण १२४ १५६०-१६०७ वादिचन्द
पवनदूत दीड्रय्य पाण्डत मुनि भुजबलि चरितम् ५२५ १५८३-१६०५ देवेन्द्र कोति
कथाकोश
ललितकीर्ति ४८१] " जीवन्धर यश कीति गुणस्थान बेलि १२६ १५८८-१६२५ धर्मकीर्ति
| पद्मपुराण
देवकीर्ति ४८२ १५०० श्रीधर कन्नड विद्वान् | वैद्यामृत
२७१५१०-१६४०
विद्यानन्दि ४
| विशालकोति ४८३ १५०० कोटेश्वर | कन्नड कवि जोवन्धरपडपादि|५२८ १५६३
शाहठ कुर
सतिणाह चरिउ
| गुणकीति १७. ईसवो शताब्दी १६ :
५२६ १५९३-१६७५ वादि भूषण ५३०/ १५६६-१६८६
सुन्ददास ४८१ पूर्व पाद । अल्हू अपभ्रश कवि । अणुवेक्खा
चन्द्र कीर्ति श्रीपण
पार्श्वनाथ पुराण सिंहनन्दि ४८५
५३१, १५६७-१६२४ नमस्कार मन्त्र | ५३२/ १५६६-१६१० । सोमसेन
| शब्दरत्न प्रदीप माहात्म्य ।
यश.कीर्ति ७/क्षेमकीर्ति
५१६ १५६०
४७२/
जैनेन्द्र सिमान्त कोश
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इतिहास
३३४
८. आचार्य समयानुक्रमणिका
५३३ १६०४
५३७ पूर्वपाद
१३८ पूवधि ५३६ ॥
गात परमा
५४२ EOS
.
.
.
गुरु या
समय प्रधान कृति
गुरु या ई. सन् विशेषता
ई.सन् नाम
प्रधान कृति
विशेषता १८. ईसवी शताब्दी १७:
५७७,१७२१-२६ देवेन्द्रकीर्ति ।धर्मचन्द्र
विषापहार पूजा ७८१७२१-४०
जिनदास
| भुवनकीर्ति हरिवश पुराण अकलंक कन्नड कवि | शब्दानुशासन ५७६, १७२२ दीपचन्द शाह आध्यात्मिक चिद्विलास ५३४|१६०५ चन्द्रभ गोमटेश्वर चरित/५८०१७२४-४४ जिनसागर देवेन्द्र काति
जिन कथा ५३५ १६०२ ज्ञानको ति वादि भूषण यशोधरचरित सं १८१/१७२४-३२ भूधरदास | हिन्दी कवि जिन शतक ५३६ १६०७-१६६५ महोचन्द्र प्रभाचन्द्र
५८२ १७२८
लक्ष्मीचन्द्र मराठी कवि | मेघमाला ज्ञानसागर श्री भूषण अक्षर बावनी ५८३ १७३०-३३ नरेन्द्रसेन २ | छत्र सेन प्रमाणप्रमेय कॅवरपाल हिन्दी कवि
८४१७४०-६७ पं टोडरमल्ल | प्रकाण्ड विद्वान गोमट्टसार टीका रूपचन्द पाण्डेय , | गीत परमार्थी ५८५ १७४१ रूपचन्द पाण्डेय
समयसार नाटक रायमल सकलचन्द्र भक्तामर कथा
टीका अभयकीति अजितकीर्ति अनन्तवत कथा ८६ १७५४ रायमल ३ टोडरमल
जयसागर १ । रत्न भूषण तीर्थ जयमाला १८७/१७६१ शिवलाल विद्वान् चर्चामंग्रह ५४३ १६१७
कृष्णदास रत्नक ति मुनिसुबत पुराण ५८८ १७६७-७८
नथमल बिलाल हिन्दी कवि जिनगुणविलास १४४/१६२३.१६४३ पं.बनारसीदास हिन्दी कवि समयसार नाटका८६१
जनार्दन मराठी कवि श्रेणिक चारित्र ५४५ १६२३-१६४३ भगरतीदास मही चन्द्र दंडाणारास १० १७००-१८४० | पन्नालाल .सदासुखके गुरु राजवातिक वच. चुर्भुज जयपुरसे लाहौर
५६१ १७७३ १८३३ मुन्ना लाल ५४७१६३१ केशवसेन
कर्णामृत पुराण १६२| १७८० गुमानीराम टोडरमल के पुत्र | मध्यपाद पासकोति भट्टा धर्मचन्द २ सुदर्शन चरित १६३ १७८८
मराठी कवि सोठ माहात्म्या जगजीवनदाम | हिन्दी कवि ५४६
बनारसी विलास १६४ १७६५-१८६७ सदासुखदास । पन्नालाल रत्नकण्डवच नि
का सम्पादन ५६५ १७६८-१८६६ दौलतराम २ । हिन्दी कवि | छहढाला जयसागर २ मही चन्द्र सीता हरण ५६६ अन्तिम पाद नयनसुख ।
मनरग लाल ।
| सप्तर्षि पूजा हमराज पाण्डेय पं रूपचन्द पाण्डप्रवचनसार बच ५६७ १८०० ३२ प. हीरा चन्द पञ्चास्तिकाय टी ५६८ १८००-४८ । वृन्दावन
चौबीसी पूजा ५५३ १६३८-१६८८ यशाविजय (श्वे.) लाभ विजय । अध्यात्मसार | २०. ईसवी शताब्दी १९ - ५५४१६४२-१६४६ प जगन्नाथ | नरेन्द्र कीर्ति सुरवनिधान REE] १८०१-३२ महितसागर , मराठी कवि (रत्नत्रय पूजा ५५५१६४३-१७७३ जोधराज गोदिका हिन्दी कवि प्रीतंकर चारित्र ६००१८०४-३० जयचन्द छाबडा हिन्दी भाष्यकार समयसार बच. खड्ग सेन त्रिलोक दर्पण ६०११८०
पं जगमोहन | हिन्दी कविधर्मरत्नोद्योत अरुणमणि बुधराघव अजित पुराण ६०२ १८१२ रत्नकीति मराठी कवि | उपदेश सिद्धान्त सावाजो मराठी कवि सुगन्ध दशमी
रत्नमाला ५५६ १६६५-१६७५ मेरुचन्द्र
महोचन्द्र ६०३ १८१३ दया सागर
हनुमान पुराण ५६० १६७६-१७२३ द्यानत राय हिन्दी कवि | रूपक काव्य ६०४ १८१४-३५
बुधजन हिन्दो कवि तत्त्वार्थ बोध ५६१ १६८७-१७१६ सुरेन्द्र काति | इन्द्रभूषण पद्मावती पूजा ६०० ६०१ १८१७ विशालकीर्ति | मराठी कवि
धर्मपरीक्षा ५६१ १६१०-१६६३ गगा दास धर्मचन्द्र भट्टा, | श्रुतस्कन्ध पूजा ६०६ मध्यपाद परमेष्ठी सहाय | हिन्दी कवि । अर्थ प्रकाशिका
महोचन्द्र मराठी कवि आदि पुराण ६०७ १८२१ जिनसेन६ मराठी कवि जबूस्वामीपुराण बुलाकी दास, | हिन्दी कवि पाण्डव पुराण १२
ललितकीर्ति जगत्कोति अनेको कथाये ५६१ अन्त पाद छत्रसेन समन्तभद्र २ द्रौपदी हरण ६०४ १८५० ठकाप्पा
मराठी कवि पाण्डव पुराण भैया भगवतीदास हिन्दी कवि ब्रह्म विलास ६१०] १८५६
५.भागचन्द
हिन्दी कवि प्रमाण परीक्षा ५६ ई. श १७-१८ सन्तलाल सिद्धचक्र विधान |
बच निका " । महेन्द्र सेन विजयकीर्ति ६११ १८५६ छत्रपति
द्वादशानुप्रेक्षा ६१२ १८६७
मा,बिहारीलाल विद्वान वृहतुजैन १९. ईसवी शताब्दी १८ -
शब्दार्णव ब शीतल
ब शीतल ५६६ १७०३-१७३४ | सुरेन्द्र भूषण | देवेन्द्र भूषण |ऋषिपचमी कथा/६१३ १८७८-१६४८
आध्यात्मिक समयसार की या ५९११८७८-१६४८
विद्वान् प्रशाद
भाषा टोका गोवर्द्धन दास पानीपतवासी पं. शकुन विचार ।। ५७० १७०५ ५७१ पूर्वार्ध खुशालचन्द भट्टा. लक्ष्मीचन्द्र व्रत कथाकोष | २१. ईसवी शताब्दी २०:काला हिन्दी कवि
६१४, १९१६-१६५५ आ शान्ति । वर्तमान ५७२ १७१६-१७२८ किशनसिंह हिन्दी कवि क्रियाकोश
सागर संघाधिपति ५७३/ १७१७ सहवा मराठी कवि | नेमिनाथ पुराण ६१५ १६२४-१६५७ | वीर सागर शान्तिसागर
पंचविशिका ५७४ १७१८ ज्ञान चन्द
पञ्चास्ति टी. ६१६ १६३३ ।। गजाधर लाल ५७५/ १७१८ मनोहरलाल हिन्दी कवि धर्मपरीक्षा ६१७१६४६-६५ शिवसागर
वीरसागर १७६ १७२०-७२ पं.दौलतराम ।
| क्रियाकोश६१८' १६६५-८२ | धर्मसागर । शिवसागर
५५७१६५६ ५५८ १६६५
त
-
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #350
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इतिहास
३३५
९. पौराणिक राज्यवंश
सुरेन्द्रमन्यु
१० पौराणिक राज्यवश
१ सामान्य वंश म प्र १६/२५८-२६४ भ. ऋषभदेवने हरि, अकम्पन, कश्यप और सामप्रभ नामक महाक्षत्रियो को बुलाकर उनको महामण्डलेश्वर बनाया। तदनन्तर सोमप्रभ राजा भगगनसे कुरुराज नाम पाकर कुरुवंशका शिरोमणि हुआ, हरि भगवान्से हरिकान्त नाम पाकर हरिवशको अल कृत करने लगा, क्योकि वह हरि पराक्रममें इन्द्र अथवा सिहके समान पराक्रमी था। अकम्पन भी भगवान् से श्रीधर नाम प्राप्तकर नाथवंशका नायक हुआ । कश्यप भगवान् से मघवा नाम प्राप्त कर उग्रवशका मुख्य हुआ 1 उस समय भगवान्ने मनुष्योंको इक्षुका रससंग्रह करने का उपदेश दिया था, इसलिए जगत के लोग उन्हे इवाकु कहने लगे।
२ इक्ष्वाकुवंश सर्व प्रथम भगवान् आदिनाथमे ग्रह वश प्रारम्भ हुआ। पीछे इसकी
दो शाखाएँ हो गयी एक सूर्यवंश दूसरी चन्द्रवश । (ह पु १३/ ३३) सूर्यवशकी शाखा भरतचक्रवर्तीके पुत्र अकीतिसे प्रारम्भ हुई, क्योकि अर्क नाम सूर्यका है । (प पु ४) इस सूर्यवशका नाम ही सर्वत्र इक्ष्वाकु वंश प्रसिद्ध है । (प प्र.१२६१) चन्द्रव शकी शाखा बाहुबली के पुत्र सोमयशसे प्रारम्भ हुई (ह पु. १३/१६) । इसीका नाम सोमवंश भी है, क्योकि सोम और चन्द्र एकार्थवाची है (पपु ११२) और भो देखे सामान्य राज्य वश ।
इसकी वशावली निम्न प्रकार है(ह पु १३/१-१५) (प. पु५/४-६)
भगवान् आदिनाथ
भरत
बाहुबली अर्ककी ति सोमयश (सोमवशका प्रवर्तक)
स्मितयश, बल, मुबल, महाबल, अतिबल, अमृतबल, सुभदसागर, भद्र, रवितेज, शशि, प्रभूततेज, तेजस्वी, तपन, प्रतापवान, अनिवाय, सुबोय, उदितपराक्रम, महेन्द्र विक्रम, सूय, इन्द्रदयुम्न, महेन्द्रजित, प्रभु, विभु, अविध्वस-बीतभी, वृषभध्वज, गुरूडाडू, मृगाडू आदि अनेक राजा अपने-अपने पुत्रोका राज्य देकर मुक्ति गये। इस प्रकार (१४०००००) चौदह लाख राजा बराबर इस वशसे मोक्ष गये, तत्पश्चात् एक अहमिन्द्र पदको प्राप्त हुआ, फिर अस्सी राजा मोक्षको गये, परन्तु इनके बीच में एक-एक राजा इन्द्र पद को प्राप्त होता रहा। पपु.लोकन भगवान आदिनाथका सु समाप्त होनेपर जब धार्मिक क्रिपाअ में शिथिलता आने लगी, तब अनेका राजाओके व्यतीत हानेपर अयोध्या नगरी में एक धरनीधर नामक राजा हुआ (५७-५६)
त्रिदशजय (६०)
अज्रया (२१/७७) पुरन्धर (२१/७७)
कीर्तिधर (२१/१४०) सुकौशन, हिरण्यगर्भ, नघुष,
(२१/१६४) (२२/१०१) (२२/११२) सौदाम, सिंहरथ, ब्रह्मरथ, चतुर्मुख, हेमरथ, शतरथ, मान्धाता, (२२/१३१) (२२/१४५) वीरसेन, प्रतिमन्यु, दीप्ति, कमलबन्धु प्रताप, रविमन्यु, बसन्ततिलक कुबेरदत्त , कीतिमान्, कुन्युभक्ति, शरभरथ, द्विरदरथ, सिहदमन हिरण्यकशिपु, पंजस्थल, ककुत्थ, रघु,। (अनुमानत ये ही रघुवंशके प्रर्वतक हों अत दे -रघुवश । २२/१५३-१५८) । ३ उग्रवंश पु१/३३ सर्वप्रथम इक्ष्वाकुवश उत्पन्न हुआ। उससे सूर्यवंश व
चन्द्रव शकी तथा उसी समय कुरुवश और उग्रवश की उत्पत्ति हुई। ह पु २२/५१-५३ जिस समय भगवान् आदिनाथ भरतको राज्य देकर दीक्षित हुए उसी समय चार हजार भोजन शीय तथा उग्रवशीय आदि राजा भी तपमें स्थित हुए। पीछे चलकर तप भ्रष्ट हो गये। उन भ्रष्ट राजाओंमेंसे नाम विनमि है। दे -'सामान्य राज्यवश'। नाट- इस प्रकार इस वशका केवल नामालेख मात्र मिलता है।
४ ऋषिवंश ५ पु.५/२ "चन्द्रवश (सोमवंश) को ही ऋषिवश कहा है। विशेष
दे --'सोमवंश'
५ कुरुवंश म पु २०/१११ "ऋषभ भगवान्को हस्तिनापुर में सर्वप्रथम आहारदान करके दान तीर्थको प्रवृत्ति करने वाला राजा श्रेयान कुरुवशी थे। अत उनकी सर्व सन्तति भी कुरुव शीय है । और भी दे -- 'सामान्य राज्यवश' नाट-हरिवश पुराण व महापुराण दोनो में इसकी वंशावली दी गयी है। पर दोनो में अन्तर है। इसलिए दोनो की बशावली दी जाती है।
प्रथम वंशावली-ह पु ४५/६-३८) श्रेयान् व सोमप्रभ, जयकुमार, कुरु, कुरु चन्द्र, शुभकर, धृतिकर, करोडो राजाओ पश्चात... तथा अनेक सागर काल व्यतीत होनेपर, धृतिदेव, धृतिकर, गङ्गदेव, धृतिमित्र, धृतिक्षेम. सुनत, बात, मन्दर, श्रीचन्द्र, सुप्रतिष्ठ आदि कराडो राजा धृतपद्म, धृतेन्द्र, धृतवीर्य, प्रतिष्ठित आदि सैक्डो राजा धृतिदृष्टि, धृतिकर, प्रीतिकर, आदि हुए भ्रमरपाष, हरिधोष, हरिध्वज, मूर्यघोष, सुतेजस, पृथु, इभवाहन आदि राजा हुए विजय महाराज, जयराज इनके पश्चात इसी वशमे चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार, सुकुमार, वरकुमार, विश्व, वैश्वानर, विश्व के तु, वृहध्वज. तदनन्तर विश्वसेन, १६ वे तीर्थकर शान्तिनाथ, इनके पश्चात् नारायण, नरहरि, प्रशान्ति, शान्तिवर्धन, शान्तिचन्द्र, शशाङ्काडू, कुरु इसी वशमें सूर्य भगवान्कुन्थनाथ (ये तीर्थकर व चक्रवर्ती थे) तदनन्तर अनेक राजाओंके पश्चात् सुदर्शन, अरहनाथ (सप्तम चक्रवर्ती व १८वे तीर्थंकर) सुचारु, चारु, चारूरूप. चारुपद्म, अनेक राजाओके पश्चात् पद्ममाल, सुभौम, पद्मरथ, महापद्म (चक्रवर्ती), विष्णु व पद्म, पद्म, पद्मदेव, कुलकीति, कीर्ति, सुकीर्ति, कीर्ति, वसुकीर्ति, वासुकि, वासव, वमु, सुवसु, श्री सु, वसुन्धर, वसुरथ, इन्द्रवीर्य, चित्रविचित्र, वीर्य, विचित्र, विचित्रवीय, चित्ररथ, महारथ, धूतरथ, वृषानन्त, वृषध्वज, श्रीवत, व्रतधर्मा, धृत,धारण, महासर, प्रतिसर, शर, पराशर, शरद्वीप, द्वोप, द्वीपायन, सुशान्ति, शान्तिप्रभ, शान्तिषेण, शान्तनु, धृतव्यास, धृतधर्मा, धृतोदय, धृततेज, धृतयश, धृतमान, धृत,
जितशत्रु (६०) विजयसागर (७४) भगवान् अजितनाथ (६३) सगर (७४)
जह, आदि साठ हजार पुत्र (२४४)
भगीरथ (२८४) प पु/सर्ग/रन मुनिसुवननाय भगवान्का अन्तराल शुरू होनेपर
अयोध्या नामक विशाल नगरी में विजय नामक बडा राजा हुआ। (२१/७३-७४) इसके भो महागुणवान् ‘सुरेन्द्रमन्यु' नामक पुत्र हुआ। (२१-७५)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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इतिहास
१० यादववंश
से
धृतराज व रुक्कमण
६ चन्द्रवंश भीष्म
प पु.१/१२ सोम नाम चन्द्रमाका है सो सोमवशको ही चन्द्रवंश धृतराष्ट्र(अम्बिकासे) पाण्ड्ड (अम्बालिकासे) विदुर(अम्बासे)
कहते है। (ह. पु १३/१६) विशेष दे--'सोमवंश' दुर्योधनादि सौ पुत्र ।
७ नाथवंश गन्धारीसे कुन्तीसे
माद्रीसे
पा. पु. २/१६३-१६५" इसका केवल नाम निर्देश मात्र ही उपलब्ध है।
दे.--'सामान्य राज्य व श' कुवारी कुन्तोसे युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव कर्ण
भोजवंश द्वितीय वंशावली- अभिमन्यु
ह पु. २२/५१-५३ जब आदिनाथ भगवान् भरतेश्वरको राज्य देकर (पा. पु/सर्ग/श्नोक) जयकुमार-अनन्तवीर्य, कुरु, कुरुचन्द, शुभङ्कर. दीक्षित हुए थे. तब उनके साथ उग्रवंशीय, भोजवंशीय आदि चार
धृतिर...धृतिदेव, गङ्गदेव, धृतिदेव, धृत्रिमित्र, धृतिक्षेम, अधयी, हजार राजा भी तपमें स्थित हुए थे। परन्तु पीछे तप भ्रष्ट हो गये। सवत, बातमन्दर, श्रीचन्द्र, कुराचन्द्र, सुप्रतिष्ठ... भ्रमधोष, हरिघोष, उसमें से नमी व विनमि दो भाई भी थे। हरिध्वज, रविघोष, महावीर्य, पृथ्वीनाथ, पृथु गजवाहन, विजय, ह पु५५/७२,१११"कृष्णने नेमिनाथके लिए जिस कुमारी राजीमतीसनरकुमार (चक्रवर्ती), सुकुमार, वरकुमार, विश्व, वैश्वानर, विश्व- की याचनाकी थी वह भोजब शियों की थी । नोट-इस वशका ध्वज, बृहत्केतु विश्वसेन, शान्तिनाथ (तीर्थक्र), (पा पु४/२-६)। विस्तार उपलब्ध नहीं है। शान्तिवर्धन, शान्ति चन्द्र, चन्द्रचिह्न. कुरु • सूरसेन, कुन्थुनाथ भगवान, (६/२-३,२७) • अनेकों राजा हो चुकनेपर सुदर्शन (७७),
९ मातङ्गवंश अरहनाथ, भगवान अरविन्द, सुचार, शर, पद्यरथ, मेघरथ, विष्णू व ह. पु २२/११०-११३ "राजा विनमिके पुत्रों में जो मातङ्ग नामका पुत्र पद्मरथ (७/३६-३७) (इन्हीं विष्णुकुमारने अकम्पनाचार्य आदि ७०० था, उसीसे मातङ्गबशकी उत्पत्ति हुई। सर्व प्रथम राजा बिनमिमुमियोंका उपसर्ग र किया था) पद्मनाभ, महापद्म, सुपा, कीर्ति, का पुत्र माता हुआ । उसके बहुत पुत्र-पौत्र थे, जो अपनी-अपनी सुकीर्ति वसुकीर्ति, वासुकि,... 'अनेकों राजाओंके पश्चात शान्तनु क्रियाओके अनुसार स्वर्ग ब मोक्षका प्राप्त हुए । इसके बहुत दिन (शक्ति) राजा.हुआ। तत्पश्चात् पराशर (७/७४-७६)
पश्चात इसी वशमें एक प्रहसित राजा हा, उसका पुत्र सिंहष्ट था।
नोट-इस वंशका अधिक विस्तार उपलब्ध नहीं है। गांगेय (भीष्म) व्यास (७/१५)
१. मातग विद्याधारोंके चिन्ह-~७/८०
हपु २६/१५-२२ मातङ्ग जाति विद्याधरोंके भी सात उत्तर भेद है, धृतराष्ट्र(१९९३) पाण्ड(७/११५) विदुर(७/११५) जिनके चिन्ह व नाम निम्न है-म तङ्ग-नीले वस्त्र व नीली मालाओं दुर्योधन आदि सौ पुत्र ८४१८३-२०४) ।
सहित । श्मशान निलय-धूलि धूसरति तथा श्मशानको हायोस
निर्मित अभूषणोसे युक्त । पाण्डुक - नील बटूर्य मणिक सदृश नीले कुन्ती कन्यासे कण युधिष्ठिर भम अर्जुन नकुल सहदेव
वस्त्रों से युक्त । कालश्वपाको -- काले मृग चम व चमडे से निर्मित (७/२६३) (८/१३०) (८/१६७) (/१७०) (८1१७४) (८/१७५) वस्त्र व मालाओं युक्त। पार्वतये-हरे र गके वस्त्रोसे तथा नाना
प्रकारकी माला व मुकुटोसे युक्त। वशान य-बॉसके पत्रोकी मालाओघुटुक (१४/५१-६४) अभिमन्यु (१६/११७)
से युक्त। वासमूलि* = सर्प चिन्हके आभूषणसे युक्त । और भी देखो (म. पु.७०/७०-१०१ मे भी) १० यादव वंश ह. पु १८/५-६ हरिवंशमें उत्पन्न यदु राजासे यादववशको उत्पत्ति हुई । देखो 'हरिवंश'।
यदु. (१८/५-६) रि. पु/सर्ग/श्लोक
नरपति (१८/७)
मशर (शौर्य पुर)
वार
____१८/१०
अन्धकवृष्णि
भोजक वृष्णि
---
शान्तनु --------- ------------- स्वस्थ
विषद
महासेन
शिवि
---------- ---
अनन्तमित्र विषमित्र
सुषेग
सत्यक
हृदिक
वज्रधः
असग
कृतिधर्मा
दृढधा
१८/१६
४८/३६
र सागर
कमश.
कंस ३३/२३ देवकी ३३/२६ धर
गुणधर
युक्तिक
दूधर
सागर
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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इतिहास
९. पौराणिक राज्यवंश
अन्धकवृष्णि
१८/१२-५१
समुद्र विजय अक्षोभ्य स्तिमितसागर हिमवान विजय
अचल
धारण
अभिचन्द्र बसुदेव कुन्ती मद्री
महानेमि सत्यनेमि दृढनेमि अरिष्टनेमि
वासुकि द पर
. धनञ्जय दुम ख कर्कोटक तुर्दश शतमुख दुर्धर विश्वरूप
शशाडू चन्द्राभ
उद्भव ऊर्मिमान विद्युत्प्रभ निष्कम्प महेन्द्र अम्भोधि बसमान माल्यवान अकम्प मलय जलधि बीर गन्धमादन बलि सह्य वामदेव पाताल
यगन्त गिरि दृढवत स्थिर
केशरिन शैल अजम्बुष नग
अचल
* पाण्डु राजासे
विवाही
शशिन्
(इसकी सन्तति दे. नीचे)
सुनेमि
सोम
अमृतप्रभ
---
जयसन महोजय सुफलगु तेजसेन मय मेष शिवनन्द गौतम आदि
→ ४८/४३-५२
बसुदेव की २३ खियाँ व उनकी सन्तान (हपु ४८/५४-६६)
१ विजयसेना २ श्यामा ३ गन्धर्वसेना ४. पद्मावती ५. नीलयशा ६. सोमश्री
७. मिनी - कपिला
लन...
अग्निवेग
वायुवेग अमितगतिमहेन्द्रगिर
दारु ....
मतंगज..
नारद ..
ज्व
६ पद्मावती
१० अश्वसेना ११ पौण्डा
१२. रत्नवती १३. सोमदत्तकी पुत्री १४. वेगवती
१५. मदनवेगा
१६ बन्धुमति
..
अश्वमेन
रत्नगर्भ
पद्मक
चन्द्रकान्त
Halb
J.. ahe
सुगर्भ
शशिप्रभ
वेगवान
वायुवेग
Bb
सिहसेन ...
अनावृष्टि
हिममुष्टि बन्धुसेन
.
१७ प्रियगुसुन्दरी १८ प्रभावती
१६. जरा
२० अवन्ती
२१ रोहिणी २२ बालचन्द्रा
२३ देवकी
(ह पु ३३/१७०,३५/३)
•
शिलायुध
-जरत्कुमार "
पिइल
kell
DI
महारथ
दुर्मुख
बलदेव
अमितप्रभ अनीकदत्त . देवपाल नृपदत्त अतीकपाल शत्रुधन নিরহাণু। कृष्ण
सारण विदुरथ
অল্পছু।
.. वसुध्वज .. भीमवर्मा .. सुवसु
(ह पु.४८/६६/६८)
...
.
कापिष्ठ ।
अजातशत्रु.
... जितारि . प्रकृतिद्य ति - जितशत्रु .
" इत्यादि । " उन्मुण्ड ... शत्रुसेन
• निषध चारुदत्त शकृन्दमन ... श्रीध्वज पीठ नन्दन धीमान दशरथ देवनन्द शान्तनु
पृथु : विद्रुम ... .
... प्रसेनजित ... शतधनु चारुकृष्ण - रोमशेग्य चन्द्रवर्मा ... महाधनु
.. .
. महाभानु । सुभानुक । गम्भीर ... अग्निशिख सुभानु विष्णुसंजय महासेन . वसुधर्मी . वृहद्रथ अकम्पन भानु घोर उदधि गौतम सुचारु देवदत्त सूर्य भरत इत्यादि प्रद्य म्न शङ्ख शम्ब
धव
नरदेव
ह पु.४८/६७-७२
भीम
२३
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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इतिहास
११. रघुवंश
इक्ष्वाकु वशमें उत्पन्न रघु राजासे ही सम्भवत' इस वंशको उत्पत्ति हैदे इक्ष्वाकुव श
पसर्ग लोक २२/१६०-१६२ प्र
अनरण्य
(अपराजितामे)
पद्म
राम या बल (२४/२२)
(५/२४४)
1
अमररक्ष
अनन्तरथ
(सुमित्रा)
लक्ष्मण या हरि
(२५/२६)
१२ राक्षसवंश
प.पु / सर्ग / श्लोक मेववाहन नामक विद्याधरको राक्षसोके इन्द्र भीम सुमीमने भगवान् अजितनाथ के समवशरण में प्रसन्न होकर रक्षार्थ राक्षस द्वीपमें लंकाका राज्य दिया था (५/१५६-१६०) तथा पाताल लका व राक्षसी विद्या भी प्रदान की थी। (५/१६१-१६७) इसी मेघवाहनकी सन्तान परम्परा में एक राक्षस नामा राजा हुआ है, उसके नामपर इस वंशका नाम 'राक्षसवंश' प्रसिद्ध हुआ । ( ५ / ३७८) इसकी वशावली निम्न प्रकार है-
पूर्ण (७/८०) मेघवाहन (१/८७)
महारक्ष (७ / १८३)
छह पुत्रियाँ
११
उदधिरंक्ष
__५/३६६-२०३ 1
I
1
आवर्त विघट अम्भोद उत्कट स्फुट
१
२
३
४
(4/146-202)
1
सन्ध्याकार सुवेल मनोहाद मनोहर
१
३
४
T छह पुत्रियाँ ११
दशरथ
1
अर्ध स्वर्गोत्कृष्ट १०
राक्षस (५/३७८) ५/३७६ 1
केकयी से)
भरत
(२५/३५)
T भानुरक्ष
दुग्रे
रनडीप १०
(सुप्रभासे)
शत्रुघ्न
(22/14)
1
हंसद्वीप हरि योध ५
७
I
तट तोय
७
८
काञ्चन
समुद्र
इस प्रकार मेघवाहनकी सन्तान परम्परा क्रमपूर्वक चलती रही (५/३७७) उसी सन्तान परम्परा में एक मनोवेग राजा हुआ (५/३७८)
T आवली ह
आदित्यगति 1
बृहतीति
श्रम पूर्णाह आदि १०८ पुत्र जिनभास्कर सपरिकीर्ति सुग्रीव, हरिग्रीव, श्रीग्रीव, सुमुख, सुव्यक्त, अमृतवेग, भानुगति, गिति इण्डन्द्रश्य मेव मृगारिमन प
वर्मा, भानु, भानुभ, सुरारि, त्रिजट, भीम, मोहन, उद्धारक, रवि, चकार, वज्रमध्य, प्रमोद, सिहविक्रम, चामुण्ड, मारण, भीष्म द्वीपवाह. अरिमर्दन, निर्वाणभक्ति भक्ति अनुत्तर, गतधन अनिल, चण्ड काशोक. मयूरवान, महाबाहु, मनोरम्य, भास्कराभ, गति बृहत्कान्त अरिसन्त्रास, चन्द्रावर्त, महार, मैनान
९. पौराणिक राज्यवंश
गृहक्षोभ नक्षत्र आदि करोडों विद्याधर इस वंश में हुए... धनप्रभ, की ७/३८२-३८८)
३३८
भगवान् मुनिसुतके तीर्थ में विद्य त्केश नामक राजा हुआ । (६/२२२-२२२) इसका पुत्र सुकेश हुआ। (२/३४९)
इन्द्रजीत
(२/५३१)_
1
माली
दशानन
(रावण) (कुम्भकर्ण) 1 ८/१५५,१५८
६/९/ बाली
२० / १२ /
अंग
सुमांसी
/ रत्नश्रवा (७/१३३) (७/२२२-२२५) |
1
1
भानुकर्ण विभीषण
१३ वानरवंश
प. पु. सर्ग / लोक नं राक्षसी राजा कीर्तिध्वज राजा श्रीकण्ठको (जब यह पोर विद्याधरसे हार गया ) सुरक्षित रूपसे रहने के लिए वानर द्वीप प्रदान किया था (६/८३ ८४) । वहाँ पर उसने किष्कु पर्वत पर किष्कुपुर नगर की रचना की । वहाँ पर वानर अधिक रहते थे जिनसे राजा श्रीकण्ठको बहुत अधिक प्रेम हो गया था। (६/१०७१२२ ) । तदनन्तर इसी श्रीकण्ठकी पुत्र परम्परामें अमरप्रभ नामक राजा हुआ। उसके विवाह के समय मण्डप में वानरोकी पंक्तियाँ चिह्नित की गयी थीं, तब अमरप्रभने वृद्ध मन्त्रियोंसे यह जाना कि "हमारे पूर्वजोंने वानरोंसे प्रेम किया था तथा इन्हें मंगल रूप मानकर इनका पोषण किया था।" यह जानकर राजाने अपने मुकुटों में वानरोके चिह्न कराये। उसी समय से इस वंशका नाम वानरवंश पड गया। (६/१७५-२९०) (इसको शावली निम्न प्रकार है) प/रसोक विजयार्थ की दक्षिण बेणीका राजा अतीन्द्र (३) था तद नन्तर श्रीकण्ठ (५), वज्रक्ण्ठ (१५२), वज्रप्रभ (१६०), इन्द्रमत (१६१). मेरु (१६१), मन्दर ( १६१), समीरणगति (१६१), रविप्रभ (६१), अमरप्रभ (१६२), कपिकेतु (१८), प्रतिबल (२००), गगनानन्द (२०५). खेचरानन्द (२०५), गिरिनन्दन (२०५ ) इस प्रकार सैक्डो राजा इस वंशमें हुए, उनमें से कितनोंने स्वर्ग व कितनी ने मोक्ष प्राप्त किया । (२०६ ) | जिस समय भगवान् मुनिसुव्रतका तीर्थ चल रहा था ( २२२ ) तब इसीवंशमे एक महोदधि राजा हुआ (२१८) । उसका भी पुत्र प्रतिचन्द्र हुआ (३४६) । प्रतिचन्द्र 1
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
सुश
|
मेघवाहन
| (३५२) fefening
I. (५-२३) सूर्यरज
६/१०/
संग्रीय
1
माल्यवान्
| (३५२) अन्धक रूढि
7 (88)
ऋक्षरज
चन्द्रमखा पुत्री
| (६/१३) नल
180/83 अगद
7 (8/8) नील
१४. विद्याधर वंश
जिस समय भगवान् ऋषभदेव भरतेश्वरको राज्य देकर दीक्षित हुए, उस समय उनके साथ चार हजार भोजवशीय व उग्रवंशीय आदि राजा भी तपमें स्थित हुए थे। पीछे चलकर वे सब भ्रष्ट हो गये । उनमें से नमि और विनम आकर भगवादके चरणों में राज्यकी इच्छा से बैठ गये। उसी समय रक्षामे निपुण धरणेन्द्रने अनेको देवों
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इतिहास
तथा अपनी दोति ओर अदीति नामक देवियोके साथ आकर इन दोनोको अनेको विद्याऍ तथा औषधियों दी। (ह पृ २२/५१-५३) इन दोनो के वंश में उत्पन्न हुए पुरुष विद्याएँ धारण करनेके कारण विद्याधर कहलाये । ( प पु ६ / १०)
१ विद्याधर जातियाँ
पु २२ / ७६-८३ नमि तथा विनमिने सब लोगोको अनेक औषधियाँ तथा विद्याएँ दीं। इसलिए वे वे विद्याधर उस उस विद्यानिकायके नामसे प्रसिद्ध हो गये। जैसे---गौरी निवासे गौरिक कोशिकी कौशिक भूमितुण्ड भूमितुण्ड, मूलबीर्थसे मूलवीर्यक, दांकु शकुक, पाण्डुको से पाण्डुकेय, कालकसे काल, श्वपाकसे श्वपाकज, मातगी से मातंग, पर्वत से पार्वतेय व शालय से वशालयगण, पाशुकि पालक वृक्षसे वार्डस एस प्रकार विद्यालयों से सिद्ध होनेवाले विद्याधरोका वर्णन
1
"
हुआ ।
नोट--कथनपर से अनुमान होता है कि विद्याधर जातियाँ दो भागों में विभक्त हो गयीं -- आर्य व मातग ।
२. आर्य विद्याधरोके चिह्न
ह. पु / २६ / ६ - ९४ आर्य विद्यावरोकी आठ उत्तर जातियाँ है, जिनके चिन्ह व नाम निम्न है - गौरिक हाथ में कमल तथा कमलोकी माला सहित । गान्धार - लाल मालाएँ तथा लाल कम्बलके वस्त्रो से युक्त । मानवपुत्रक-नाना वर्णोंसेयुक्त पीले वस्त्रोसहित । मनुपुत्रककुछ-कुछ लाल वस्त्रोंसे युक्त एवं मनियोके आभूषणो सहित मुनी हा ओषधि तथा शरीरपर नाना प्रकार आप और मालाओ सहित भूमिण्ड सर्व ऋतुको से स्वर्णमय आभरण व मालाओ सहित शंकुक - चित्रविचित्र कुण्डल तथा सर्पाकार बाजूबन्द कौशिक टोपर सेहरे व मणि म कुण्डली युक्त ।
३. मातंग विद्याधरोके चिन्ह-दे मातंगवश सं ६ | ४. विद्याधरकी वंशावली
१ विनमिके पुत्र - ह पु. / २२ / १०३-१०६ "राजा विनमिके संजय, अरिजय, शत्रुंजय, धनजय, मणिधूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक, प्रभंजन, चूडामणि शतानीक, सहस्रानीक, सर्वजय बाहू, और अरिदम आदि अनेक पुत्र हुए। पुत्रोके सिवाय भद्रा और सुभद्रा नामकी दो कन्याएँ हुई। इनमें से सुभद्रा भरत चक्रवर्तीके चौदह रत्नों में से एक स्त्री रत्न थी ।
-
"
1
२ नमके पुत्र इ./१२/१००-१०८ नमिके भी रवि सोम पुरुहूत, अंशुमान हरिजय पुनस्य, विजय, मातंग, वासव, रत्नमाली ह पु / १३/२०) आदि अत्यधिक कान्तिके धारक अनेक पुत्र हुए और कनकपुंजश्री तथा कनकमंजरी नामकी दो कन्याएँ भी हुई। ह.पु / १३ / २०-२५ नमिके पुत्र रत्नमालीके आगे उत्तरोत्तर रत्नवज्र, रत्नरथ, रत्नचित्र, चन्द्ररथ, वज्रजघ, वज्रसेन, वज्रदष्ट्र, वज्रध्वज, वज्रायुध, वज्र, सुबज्र वज्रभृत् वज्राभ, वज्रबाहु, वज्रसज्ञ, वज्रास्य, वज्रपाणि, वज्रजा खान, विमुख, सूपत्र वि. विद्वान्, विद्युदाभ, वियुद्वेग, वैद्युत, इस प्रकार अनेक राजा हुए। १६-२१)
५/२५-२६ तदन्तर इसी ने राजा हुआ इसने संजय मुनिपर उपसर्ग किया था। नन्तर
५/४८-५४ दृढरथ, अश्वधर्मा, अश्वायु, अश्वध्वज, पद्मनिभ, पद्ममाली पद्मरथ सिंहयान, मृगोदर्मा सिसप्रभु सिंहकेतु. शशाकमुख, चन्द्र, चन्द्रशेखर, इन्द्र, चन्द्ररथ, चक्रधर्मा, चक्रायुध. चक्रध्वज, मणिग्रीव, मण्यक, मणिभासुर, मणिस्यन्दन, मण्यास्य, बोडर रोड हरिचन्द्र पुण्यचन्द्रपूर्व न्द्र वाले चन्द्रचूड, व्योमेन्दु उडुपालन, एकचूड, द्विचूड, त्रिचूड, वज्रचूड, भरि अर्कपूड, जिरी मज इस प्रकार बहुत राजा हुए।
९ पौराणिक राज्यवंश
अजितनाथ भगवान् के समय में इस वशमें एक पूर्णधन नामक राजा हुआ ( प पु . ५ / ७८) जिसके मेघवाहनने धरणेन्द्र से लकाका राज्य प्राप्त किया. २/९४६-१६०) उससे राक्षस की उत्पत्ति हुई। - दे, राक्षस वश
1
३३९
१५. श्री बंश
ह पु १३/३३ भगवान् ऋषभदेव से दीक्षा लेकर अनेक ऋषि उत्पन्न हुए उनका उत्कृष्ट वश श्री वंश प्रचलित हुआ । नोट - इस वशका नामोल्लेख के अतिरिक्त अधिक विस्तार उपलब्ध नही ।
१६ सूर्यवंश
ह पु १३ / ३३ ऋषभनाथ भगवान् के पश्चात् इक्ष्वाकु वंशकी दो शाखाएँ हो एक सूर्य व दूसरी चन्द्रश
प. पु. २/४ सूर्यशकी शाम भरत के पुत्र कीर्ति प्रारम्भ हुई। क्योकि अर्क नाम सूर्यका है।
५/५६१ इस सूर्य का नाम ही सर्वत्र इक्ष्वाकुवश प्रसिद्ध है । देश
१७ सोमवंश
ह पु. १३/१६ भगवान् ऋषभदेवकी दूसरी रानीसे बाहुबली नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, उसके भी सोमयश नामका सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। 'सोम' नाम चन्द्रमाका है सो उसी सोमयशसे सोमवश अथवा चन्द्रवंशकी परम्परा चली। ( प पु १० / १३ )
प.पु ५ / २ चन्द्रव शका दूसरा नाम ऋषिवंश भी है।
ह पु १३/१६-१७ प पु ५/११-१४ ।
देव
भरत 1
अर्कीर्ति
(सूर्य व शका क्र्ता)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
1
१६ हरिवंश
ह पृ १५/५७-५८ हरि राजाके नामपर
इस वशकी उत्पत्ति हुई ।
( और भी दे सामान्य राज्य वंश स १ ) इस वशकी वंशावली आगममें तीन प्रकार से वर्णनकी गयी। जिसमें कुछ भेद है । तीनों ही नीचे दी जाती है ।
पौलोम (१०/२५) 1 महीदस (१०/२०)
1
बाहबली
१. हरिवंश पुराणकी अपेक्षा
हy / सर्ग / श्लोक सर्व प्रथम आर्य नामक राजाका पुत्र हरि हुआ 1 इसोसे इस वशकी उत्पत्ति हुई। इसके पश्चात उत्तरोत्तर क्रमसे महागिरी, गिरि, आदि सैकडो राजा इस वशमें हुए (१५/५७-६१ ) । फिर भगवान् मुनिसुव्रत ( १६ / १२) सुबत (१६/५५) दक्ष, ऐलेय (१७/२,३), कृमि (१०/२२) पुलोम (१०/२४)
अरिनेमि (१७/२६)
1 सोमयश
I
भहाबल 1 सुबल आदि
राजा इस वशमें उत्पन्न हुए ।
चरम (१७/१५) 1
चरम (१७/२८)
1 मत्स्य (१७ / २६ ) I
आयोधनादि सौ पुत्र तदनन्तर
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क्रमाक
ज
१८ पद्वति टी
तत्त्वार्थ
इतिहास
३४०
१०. आगम समयानुक्रमणिका मूल, शाल, सूर्य, अमर, देवदत्त, हरिषेण, नभसेन, शख, भद्र. अभिचन्द्र, वसु, (असत्यसे नरक गया) (१७/३१-३७)।
- ग्रन्थ । समय रचयिता ग्रन्थ
विषय → । १७/३१-३७ -
२ ईसवी शताब्दी २:वृहद्वसु चित्रवसु वासव अर्क महावसु विश्ववसु रवि सूर्य सुवसु बृहद्वसु
आप्तमीमांसा । १२०-१८५ समन्तभद्र | न्याय । (दे.आगे) स्तुति विद्या ।
भक्ति कुजरावर्त,
(जिनशतक) १० स्वयंभूस्तोत्र
न्याययुक्त भक्ति तदनन्तर बृहदथ, दृढरथ, सुखरथ, दीपन, सागरसेन, सुमित्र, प्रथु, जी मिति
न्याय वप्रथ, विन्दसार, देवगर्भ, शतधनु, लाखो राजाओके पश्चात् तत्वानशासन निहतशत्रु सतपति, बृहद्रथ, जरासन्ध व अपराजित, तथा जरासन्ध
१३युक्त्यनुशासन के कालयवनादि सैकडो पुत्र हुए थे। (१८/१७-२५) बृहद्व सुका पुत्र १४ कर्मप्राभत टी
कर्म सिद्धान्त सुबाहु तदनन्तर, दीर्घबाहु वज्रबाहु . लग्धाभिमान, भानु, यवु, १५ षटखण्ड टो
आद्य १ खण्डों पर सुभानू, कुभानु, भीम आदि सैकडो राजा हुए। (१८/१-५) भगवान् १६ गन्धहस्ती
तत्त्वार्थ सूत्र टी नमिनाथके तीर्थ में राजा यदु (१८/५) ह आ जिससे यादववशको
महाभाष्य उत्पत्ति हुई।-दे यादववश ।
रत्नकरण्ड श्रा, १२७-१७६ शामकुण्ड श्रावकाचार २ पद्यपुराणकी अपेक्षा
कषाय पा तथाषट,
खण्डागमकी टोका प पु २१श्लोक स हरि महागिरि वसुगिरि, इन्द्रगिरि, रत्नमाला.
१३ परिकर्म
१२७ १७६ कुन्द कुन्द षटवण्डके आद्य ५ प्र. सम्भूत, भूतदेव, आदि सैक्डों राजा हुए (-१) । तदनन्तर इसी
खण्डोकी टीका वंशमें सुमित्र (१०), मुनिसुव्रतनाथ (२२), सुव्रत, दक्ष, इलावर्धन, समयसार
अध्यात्म श्रीवर्धन, श्रीवृक्ष, संजयन्त, कुणिम, महारथ, पुलोम दि हजारो राजा प्रवचनसार बीतनेपर वासबकेतु राजा जनक मिथिलाका राजा हुआ। (४६-५५) नियमसार ३ महापुराण व पाण्डवपुराणको अपेक्षा
रयणसार
अष्ट पाहुड म. पु ७०/६०-१०१ मार्कण्डेय, हरिगिरि, हिमगिरि, वसुगिरि आदि पञ्चास्तिकाय सैकडो राजा हुए। तदनन्तर इसी वश में
वारस अणुवेक्खा
वैराग्य शूर व
यत्याचार दश भक्ति
भक्ति अन्धकवृष्णि भोजकवृष्णि
कातिकेयानुप्रे मध्य पाद कुमार स्वामी वैराग्य समुद्रविजयादि
कषाय पाहुड | १४३-१७३ | यतिवृषभ मूल १६० गाथाओ पर सौ पुत्र (दे यादववंश)
चूर्णिसूत्र
लोक विभाग
पण्णत्ति उग्रसेन महामेन देवमेन गान्धारी कन्या ३२ जम्बुद्वीप समास १७६-२४३ | उमा पा पु७/१२७-१४५
३३ तत्वार्थ सूत्र १० आगम समयानुक्रमणिका
३. ईसवी शताब्दी ३ ----
३५ तत्त्वार्थाधिगम | | उमा स्वाति तत्वार्थसूत्र टोका स. नोट-प्रमाणके लिए दं उस उसके रचयिताका नाम ।
| भाष्य
सदिग्ध है। सकेत सं.-सस्कृत, प्रा - प्राकृत, अप - अपभ्रश, टो टीका, वृ =वृत्ति, व-वचनिका, प्र.- प्रथम, सि.सिद्वान्त, श्वे =
४ ईसवी शताब्दी ४:श्वेताम्बर, क. कन्नड, भ भट्टारक, भा.-भाषा, ततमिल. ३. पउम चरिउ पूर्व पाद
अप
विमल सुरि प्रथमानुयोग मरा.-मराठी, हि.-हिन्दी, श्रा.- श्रावकाचार ।
३६ द्वादशा चक्र ३५७ मल्लवादी न्याय (नयवाद) सं ग्रन्थ समय रचयिता
५. ईसपी शताब्दी ५ :विषय
३७, जैनेन्द्र व्याकरण मध्यपाद पूज्यपाद । सस्कृत व्याकरण (सं.
३८ मुग्धबाध १. ईसवी शताब्दी १ .
३६ शब्दावतार
संस्कृत शब्दकोश १श लोकविनिश्चय अज्ञात । अज्ञात यथानाम (गद्य) प्रा. ४० छन्द शास्त्र
संस्कृत छन्द शाख २/ भगवती आरा पूर्व पाद शिवकोटि
यत्याचार वैद्यसार
आयुर्वेद ३ कषाय पाहुड । गुणधर मूल १८० गाथा
४२ सिद्वि प्रिय
चतुर्विशतिस्तव शिल्पड्डिकार मध्य पाद इल गोवडि | जीवनवृत्त (काव्य) । त. । स्तोत्र ५ जोणि पाहुड ४३
धरसेन मन्त्र तन्त्र प्रा. ४३ दश भक्ति
भक्ति षट्खण्डागम ६६-१५६ भूतबलि कमसिद्वान्त मूलसूत्र ,, ४४ शान्त्यष्टक ७ व्यारव्या प्र. मध्य पाद बपदेव । आद्य खण्डोकाटी, ४ सार सग्रह
वीर
२७ मूलाचार
३१ तिल्लोय
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
इतिहास
ग्रन्थ
४६। सर्वार्थ सिद्धि
४७ आत्मानुशासन
४८ समाधि तन्त्र ४६ इष्टोपदेश
५० कर्म प्रकृति संपण
५५. जंबूदीव सघायणी
५१ शतक
५२ शतक चूर्णि
५३ लोक विभाग
४५
५४ बन्ध स्वामित्व ४८०-५२६
६० दोहा पाहुड
६१ अध्यात्म सन्दोह
६२] सुभाषिततन्त्र
25 परमात्मप्रकाश उत्तरार्ध
५१ योगसार
६६ नवकार श्री.
६७ पचसंग्रह
५६ षट्दर्शन समु
५७ कर्मप्रकृति चूर्णि ४६३-६६३ | अज्ञात
६. ईसवी शताब्दी ६
६३) तत्त्वप्रकाशिका श ६ उत्तरार्ध ।
६४ अमृताशीति
६५ निजाष्टक
७४ द्वात्रिशिका ७५ एकविंशतिगुण
समय
ई. सन्
स्थान प्रकरण
७६ शाश्वत जिन
४४३
६८
48 सूर्य
७० ज्योतिष्करण्ड ७१ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति
७२ कल्याण मन्दिर ५६८
७३ सम्मति सूत्र
स्तुति
७७ रामकथा
६००
७८ विशेषावश्यक ५६३
भाष्य
८१ सप्ततिका
(सर) ८२. क्षेत्र सभास
बृ संघायणी सुन्त
-
रचयिता
शिवशर्म सूरि (श्वे )
श५-८ अशत लगभग ६० अज्ञात (ये)
सर्वनन्द
यथा नाम
हरिभद्रसूरि कर्म सिद्धान्त
(श्वे )
लोक विभाग
विषय
वाटीका स त्रिविध आत्मा
७. ईसवी शताब्दी ७ :
पूर्वपाद
६०६
अध्यात्म
प्रेरणापरक उपदेश कर्म सिद्धान्त
योगेन्दुदेव | अध्यात्म
सिद्धसेन दिवाकर
यथा नाम
कर्म सिद्धान्त
"
तत्वार्थ सूत्र टी.
अध्यात्म
11
श्रावकाचार कर्म सिद्धान्त
लोक
जिनमदगणो जैन दर्शन (श्वे.) दि. ६०० पात्रकेसरी न्याय
८० जिनगुण स्तुति
भक्ति
(पात्र केसरी स्त.)
33
भक्ति (स्तोत्र) तत्त्वार्थ, नयवाद
भक्ति
जीव काण्ड
भक्ति
कीर्तिधर इसी के आधार पर
पद्मपुराण रचा गया
"
लोक विभाग
कर्म सिद्धान्त
अज्ञात जिनभद्र गणी अढाई द्वीप
आयु अवगाहना आदि
११
"
99
ят
PRAD
শ
अप
"
59
75
"
35
३४१
ग्रन्थ
११
|१०० पउमचरिउ
१०१ रिट्टणेमि चरिउ
23
प्रा १०२, स्वयम्भू छन्द अप १०३, विजयोदया
प्रा.
८६ अष्टशती
८७ लघीयस्त्रय
सं.
८४ भक्तामर स्तोत्र | ६१८ राजपातिक
८
बृहद् त्रयम न्यायविनिश्चय १० सिद्धि
६९ प्रमाण संग्रह ६२ न्याय चूलिका
६३) स्वरूप सम्बो.
91
प्रा १०५ सत्कर्म
प्रा
अध्यात्म भक्ति
६४ अक्लक स्तोत्र
१५ जीवक चिन्ता' मध्यपाद तिरुतक्कतेवर तमिल काव्य मणि
६६ पद्मपुराण
400
लघु तत्त्वार्थ सूत्र ७०० कर्म स्व
८. ईसवी शताब्दी ८ :
१०४ प्रामाण्य भग
सं. १०६ गद्य चिन्तामणि
६६ तत्त्वार्थाधिगम मध्यपाद ! भाष्य लघु वृत्ति
प्रा. ११० छत्र चूडामणि
सं. १९१ अष्ट सहस्री
११२ आप्त परीक्षा ११३) पत्र परीक्षा
११४ प्रमाण परीक्षा ११५ प्रमाण मोमासा
१९६ जल्प निर्णय
| ११७ नय विवरण
११८
१०. आगम समयानुक्रमणिका
रचयिता । विषय
मानतुग भक्ति ६२०-६०० अ भट्ट तत्वार्थ सूत्र टो
आप्त मी. टीका
न्याय
समय ई सन्
युक्त्यनुशासन
११६ सत्य शासन
परीक्षा
१२० लोक
१०६ धवला
१०७ जय धवला
१०८ शतकचूर्णि बृहत् ७७०-८६०
• १२१ विद्यानन्द
रविषेण प्रभाचन्द्र ईश ७८ । अज्ञात
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
तत्त्वार्थ
हरिभद्र (याकिनीसूनु))
७३४ -८४० विस्वयभू जैन रामायण
७३६
मध्यपाद ७७०-८२७
महोदय १२२ बुद्ध ेशभवन
व्याख्यान प्रा. १२३ श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र
१२४ वाद न्याय ७७६ " १२५ हरिवश पुराण ७८३
जैन रामायण सरवार्थ | कर्म सिद्धान्त
अपराजित सुरि
अनन्तकीर्ति वीरसेन
नेमिनाथ चारित्र
षट्खण्डागमका
अतिरिक्त अभि षट्खण्डागम टी. कषाय पाहुड टी. अज्ञात (श्वे ) कर्म सिद्धान्त मादीपसिह जीवन्धर चरित्र
13
विद्यानन्द वातीकी टी
न्याय
כ
"
तत्त्वार्थ सूत्र टी. सर्वप्रथम रचना
न्याय
अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ
स्तोत्र
s
छन्द शास्त्र
भगवती आराधना स टीका
न्याय
कुमार नन्दि न्याय जिनसेन प्रथमानुयोग
P
4
प्रा.
स
अप
33
प्रा.
"
99
सं.
27
כי
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
इतिहास
ग्रन्थ
१२६ चन्द्रोदय १२० योतिर्ज्ञान
विधि
१२ हिसन्धान
महाकाव्य
१२६ विषापहार
१३० धनञ्जय निघण्टु
१२१ तत्त्वाधम ई.
भाग्यवृद्धि
१२५ केवसिक्त
प्रकरण
१३६ खीमुक्ति प्रकरण
१३७ शब्दानुशासन १३८ आदिपुराण
१२२ पारयुद
१४० कर्मक
१३२ जातक तिलक
श्रीधर
१३३ ज्योतिर्ज्ञानविधि
१३४ गणितसार संग्रह ८०० - ८३० | महावीराचा |
१५८ १५६
समय
ई. सन्
९ ईसवी शताब्दी ९:
८१४
रचयिता
७६७से पहले प्रभाचन्द्र ३
७६६
श्रीधर
अन्तपाद
19
१४५ लघु सर्वज्ञ सिद्धि उत्तरार्ध १४६ बृ.
१४१ कल्याणकारक
प
१४२ संग्रह १४३ सत्कर्म कि८२७के पश्चात् १४४ लीलाविस्तार ८४०-८५२ टीका
१२० नोटिसार
१६१
वाद महार्णव
१६
तक पूर्णि १६३ | बृ कथा कोष
मध्यपाद ८२८ ८३७
"
१४७ जिनदत्त चरित ८७०-६०० गुणभद्र १४८ उत्तरपुराण
དཔྱད
उपाय
जीवन्धर चम्पू मध्यपाद त्रिलोकसार टी
ज्योतिष शास
पाण्डव चरित्र
स्तोत्र
संस्कृत शब्दकोश सिद्धसेनगणी चार्थ भाष्यको टीका ज्योतिष
धनञ्जय
स. व्याकरण
८१८-८७८ | जिनसेन २ ऋषभदेव चरित
१४६) आत्मान शासन
त्रिविध आत्मा
१५० | भविसयत्त कहा अन्तपाद धनपाल कवि यथा नाम
६०५
१० ईसवी शताब्दी १०:१५१ उपमिति भवसिि प्रपञ्च कथा (श्वे.) १५२ आत्मख्याति १०५-१५५ अमृतचन्द्र समयसार टीका
१५३ समयसार कलश १५४) तत्वप्रदापिका १५५ ९८ सर
१२० पुरुषार्थसिद्धि
६३१
शाकटायन यथा नाम पात्यकीर्ति
विषय
11
कम उप
गर्म श्वे कर्मसिद्धान्त उादिस्व आयुर्वेद कविपरमेष्ठी ६३ शलाका पु. अज्ञात हेमचन्द्र सूरि (श्वे ) अनन्तकीर्ति न्याय
--
इन्द्रनन्दि अभयदेव
यथा नाम
२३ तीर्थंकरों का जीवन वृत्त
अध्यात्म
हरिचन्द्र
माधत्रचन्द्र लोक विभाग
प्रेमिय
प्रवचनसार टीका
चास्तिकाय टीका अध्यात्म
विकाचार
जीवन्धर चरित्र
यथानाम न्याय
(इवे ) अज्ञात (श्वे ) कर्म सिद्धान्त हरियेग यथानाम
३४२
सं. १६४ | भाव संग्रह
१६५ दर्शन
१६६ तत्त्वसार
” १६७ ज्ञान सार
13
95
१६८ आराधनासार
१६६ आलाप पद्धति
नय चक्र
सार समुच्चय ज्वालामालिनी
कल्प
95
| १७३ सत्त्व त्रिभंगी "१०४ पार्श्वपुराण १०५ तापवृति सं. १७६ योग सार १७७ पुराण संग्रह
१७८ महावृत्ति १७६ कर्म प्रकृति रहस्य १००वृति १८१ आयज्ञान प्रा. १८२ जसहर चरिउ स. १८३ नायकुमार चरिउ १२४ नीतिवाक्यामृत १४३-१८ १५ यशस्ि १८६ अध्यात्मतरं गिनी १८७ स्याद्वादो० नषद् १८८ षण्णवति करण १८६ त्रिवर्ण महेन्द्र
" १६० मातलि जल्प
" १६१ युक्तिचिन्तामणि
:::::
د.
#3333
ग्रन्थ
99
१७० १७१
| १७२
::
टीका २०५ प्रमाणसंग्रहा
लं कार
समय
ई. समू
६४८
३३
३३- १५५
२०६ धम्मरसायण
२०६ गोमट्टसार प्रा २१० त्रिलोकसार सं.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१३७ ६३६
उतरा
47
१०. आगम समयानुक्रमणिका
रचयिता
देवसेन
" १६२ योग मार्ग
अध्यात्म
११३ चन्द्रप्रभ चरित्र १५० - ६६६ वीरनन्दि यथानाम काव्य
, १६४ शिल्पि संहित
११४ अमन
९६६ प्रवचन सारोद्वार पञ्चारित
(१६८) गद्यकथा कोष *१६६ तत्त्वार्थसिद
२०० समाधितन्त्रटी
२०१ महापुरास ६६५ महापुरिस
२०२ करकड चरिउ ६६५-१०५१ कनकामर महासेन २०३ प्रद्य ुम्न चरित २०४ सय १७५-१०२२ अन्त
६७४
विषय
अन्य मत निन्दा प्रा
६३६
कनकनन्दि कर्म सिद्धान्त
६४२
कीर्ति
यथा नाम
६४३
समन्तभद्र अष्टसहस्री टीका ६४३ अमितगति १ अध्यात्म ६४३ - ६७३ | दामनन्दि | यथा नाम ६४३-६६३ अभयनन्दि जैन व्याकरण टी.
कर्म सिद्धान्त तत्वार्थ सूत्र टीका भट्टवोसरि | ज्योतिष पुष्पदन्तकवि यशोधर चरित्र नागकुमार चरित्र राज्यनीति सोमदेव यशोधर चरित्र
अध्यात्म न्याय
६८१ के
आसपास
अध्यात्म
चतुर्विध आराधना
नयवाद
कुलभद्र तत्वार्थ इन्द्रनन्दि मन्त्र तन्त्र
२०६ जम्बूदीव पण्णन्ति ७७ - १०४३ पद्मनन्दि २०७ पचसग्रह वृत्ति
ע
६५०-१०२० प्रभाचन्द्र ५ तत्वार्थ
प्रवचनसार टीका पी.
यथा नाम
सर्वार्थसिद्धि टोका
यथा नाम
पुष्पदन्तकमि आदिपुराण
उत्तरपुराण महाराजा करकं
यथा नाम
यथा नाम न्याय
प्रमाण संग्रह टीका
लोक विभाग जीवकाण्ड
३ राज्य
नेमिचन्द्र कर्म सिद्धान्त (सिद्धान्तीक विभाग
चक्रवर्ती)
::::
11
".
सं.
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सं.
प्रा.
अप.
स.
अप.
सं.
प्रा.
::::
11
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________________
इतिहास
३४३
१०. आगम समयानुक्रमणिका
समय . ई. सन । रचयिता
विषय
भाषा क्रमांक
रचयि
भाषा
२५२ द्रव्य संग्रह लघु०१८-१०६८ नेमिचन्द्र २ तत्त्वार्थ
१०२६
म ग्रन्थ
समय ग्रन्थ
विषय
ई. सन् २११/ लब्धिसार
उपशम विधान २५१ पंचस ग्रह ।
| म सिद्धान्त २१२ क्षपणसार क्षपणा विधान
(मूल के आधारपर) २१३/ वीर मातण्डी के चामुण्डराय गो. सा वृत्ति २५३ द्रव्य सग्रह बृ। २१४ चारित्रसार आस-पास यत्याचार
| सिद्धा देव
२५४ द्रव्य सग्रहवृत्ति ६८०-१०६५ प्रभाचन्द्र लघु द्रव्यसंग्रह टा. २१५ चामुण्डराय पुराण
शलाका पुरुष
|" २५५ जंबूसामि चरिउ १०१६ २१६ धम्म परिवरवा हरिषेण वैदिकका उपहास अप. २५६ कथाकोष
| कवि वीर यथा नाम
मध्यपाद २१७ धर्मशर्माभ्युदय | FEE असग कवि धर्मनाथ चरित
ब्रह्मदेव सं. २५७बु द्रव्य संग्रहटी
तत्त्वार्थ २१८ वर्द्धमान चरित्र
यथानाम
R५८ तत्त्वदीपिका २१६ शान्तिनाथ ..
२५६ प्रतिष्ठा तिलक २२० छन्दोबिन्दु नागवर्म
पूजापाठ |६०
छन्दशाख
२६० चंदप्पह चरिउ २२१ महापुराण | मल्लिषेण | शलाका पुरुष
| यश कीति | यथा नाम
६१. पाश्वनाथ चरित्र १०२५ २२२ पंचसग्रह अन्तपाद ढड्डा मूलका रूपान्तर
वादिराज २ . २२३ धर्म रत्नाकर
, २६२ ज्ञानसार जयसेन १ | श्रावकाचार
कमहेतुक भ्रमण |६८
.. २६३ अर्धकाण्ड
दुर्ग देव १०३२
मन्त्र तन्त्र २२४ दोहा पाहुड
अनुमानत: १०००
२६४ मन्त्र महोदधि
देवसेन २२६, जैनतर्क वार्तिक १३-१९१८ शान्त्याचार्य
२६५ मरण काण्डिका २२६) पंचसग्रह
२६६ रिष्ट समुच्चय १६३-२०२३ अमितगति १
मूलके आधार पर २२७ सार्धद्वय प्रज्ञप्ति
१२६७ सयल विहि विहाण.
| नय नन्दि | श्रावकाचार अढाई द्वीप २२८ जम्बूद्वीप ..
२६८ सुदंसण चरिउ
यथा नाम जम्बू द्वीप | २६ काम चाण्डाली १०४७
१०४७ २२६ चन्द्र ,
मल्लिषेण ज्योतिष लोक
मन्त्र तन्त्र
कल्प २३० व्याख्या
कम सिद्धान्त
२७० ज्वालिनी कल्प २३१ आराधना
भगवती आरा २७१ भैरव पद्मावती,
के मूलार्थक श्ल. २३२ श्रावकाचार
२७२ सरस्वती मन्त्र ,
यथानाम २३३ द्वात्रिंशतिका
२७३ वज्रपजर विधान
वैराग्य (सामायिक पाठ)
२७४ नागकुमार काव्य
यथा नाम २३४ सुभाषित रत्न
२७५ सज्जन चित्त अध्यात्माचार
अध्यात्मोपदेश सन्दोह
२७६ कर्म प्रकृति उत्तरार्ध | नेमिचन्द्र ३ कर्म सिद्धान्त २३५ छेद पिण्ड श. १०-११, इन्द्रनन्दियत्याचार
२७७ तत्त्वानुशासन
रामसेन ध्यान २७८ पचविंशतिका
पद्मनन्दि अध्यात्माचार
२७४ चरणसार ११. ईसवी शताब्दी ११:
२८० एकत्व सप्ततिका
शुद्धारमस्वरूप २३६) परीक्षामुख १००३ माणिक्यनं दि, न्याय सूत्रसं,
२८१ निश्चय पंचाशत २३७, प्रमेयक मल १००३-१०६४ प्रभाचन्द्र परीक्षामुख टी
२८२ हरिवंश पुराण
कवि धवल | यथानाम मातण्ड (850-१०६१)
न्याय २८३/ कथाकोष
श्रीचन्द २३८ न्यायकुमुदचन्द्र
लघीत्रय टीका २४ सणकह रयण
| कथाओं के द्वारा (लघीखयाल कार)
न्याय क्रड
धर्मोपदेश २३६शाकटायन न्यास
व्याकरण
, २८५ प्रवचन सारोद्धार १०६२-१०६३, नेमिचन्द्र गति अगति २४० शब्दाम्भोज
शब्दकोश
(श्वे.) | (१०८०) | (श्वे.) | आयु आदि । भास्कर
६ मुख बोधिनी बृ. १०७२ , उत्तराध्ययन सूत्र सं २४१ महापुराण
प्रथमानुयोग
२८७ श्रावकाचार १०६८-१९१८ वसुनन्दि यथा नाम टिप्पणी
२८८ प्रतिष्ठासार संग्रह क्रियाकलाप टो
सं.२८४ सार्ध शतक १०७५-१११० जिनवल्लभ समयसार टी.
अध्यात्म
२६०ने मिनिर्वाणकाव्या१०७५-११२५ वाग्भट्ट । ज्ञानाणव१००३-१०६८ शुभचन्द्र अध्यात्माचार | R६१ सुलोयणा चरिउ १०७५ देवसेन मुनि पुराणसार संग्रह १००६ श्री चन्द्र यथा नाम
२६२/पारसणाह चरिउ १०७७ पद्मकीर्ति एकीभाव स्तोत्र १०१०-१०६५/ वादिराज भक्ति
२६३ " अन्तपाद कवि देवचन्द्र न्यायविनिश्चय
न्याय वि टीका २६४ सिद्धान्तसारसग्रह .. नरेन्द्र सेन | तत्त्वाथ सूत्रका सास. विवरण
न्याय
R६५ प्रमाण मीमांसा १०८८-१९७हेमचन्द्रसूरि २४८ प्रमाण निर्णय
न्याय " २६६ शब्दानुशासन
संस्कृत शब्दकोश २४६ यशोधर चारित्र
यथा नाम
१७ अभिधान२५. धर्म परीक्षा । १०१३ अमितगति १ अन्यमत उपहास । | चिन्तामणि
२४७
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #359
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________________
इतिहास
३४४
१०. आगम समयानुक्रमणिका
4. भाषा
सक्रमाक
ग्रन्थ
ई. सन् | रचयिता
पूजा पाठ
समय ।
समय । ग्रन्थ
रचयिता विषय ग्रन्थ
रचयिता
विषय २६८ देशोनाममाला सस्कृत शब्द कोश सं.३३८ अमरकोष टीका
सस्कृत शब्दकोष स २६६ काव्यानुशासन
काव्य शिक्षा |,३३६ भव्यकुमुद ३०० द्वयाश्रय महाकाव्य
चन्द्रिका ३०१ योगशाख
ध्यान समाधि ३४० अष्टाङ्ग हृदयोद्योत ३०२ द्वात्रिंशिका
.३४१ भरतेश्वराभ्युदय
भरत चक्री चरित्र ३०३ चन्द्रप्रभचारित्र | १०४ कवि अग्गल यथानाम
कन्ना |
काव्य ३०४ तात्पर्य वृत्ति श.११-१२ जयसेन । समयसार टीका ३४२ त्रिपष्टि स्मृति
शलाका पुरुष प्रवचमसार टीका..
शास्त्र पचास्तिकाय टोका, ३४३ राजमतिविप्रलम्भ
नेमिराजुल सवाद ३० वैराग्गसार । सुभद्राचार्य | यथानाम अप.] ।
सटीक
३४४ भूपाल चतुर्विश१२ ईसवी शताब्दी १२:
। तिका टीका ३०६) प्रमेयरत्नकोष । ११०२ चन्द्रप्रभ सूरि न्याय
३४५ नित्य महोद्योत (श्वे )
३४६ जिनयज्ञ कल्प ३०७ स्याद्वाद् सिद्धि ११०३ वादीभ सिंह
३४७ प्रतिष्ठा पाठ ३०८ तत्वार्थ सूत्र वृत्ति पूर्व पाद | बालचन्द्र | यथा नाम
३४८ सहस्रनाम स्तब - मुनि
३४६ रत्नत्रयविधान ३०६ धर्म परीक्षा | पूर्वाधं वृत्ति विलास वैदिकोंका उपहास कन्नड | टीका ३१० प्रमाणनय | १९१७-६६ वादिदेव सूरि न्याय
स. ३५० धन्यकुमार चा ११८२ | गुणभद्र २ यथानाम काव्य | तत्त्वालङ्कार
३५१ णेमिगाह चरिउ ११८७ अमरकीति (स्याद्वाद रत्नाकर
३५२ धक्कामुवएस
गृहस्थ षट्कर्म .. ३११ आचार सार | मध्यपाद | वीर नन्दि
यत्याचार
३५ पन्जुण्ण चरिउ अन्तपाद | कवि सिह प्रद्युम्न चरित्र ३१२ पार्श्वनाथ स्तोत्र
पद्मप्रभ , यथा नाम शाखसार
माधन्दि | शलाका पुरुष, स ३१३ नियमसार टोका
मल्लधारी देव अध्यात्म
समुच्चय
योगीन्द्र
तत्व तथा आचार ३१४ कन्नड व्याकरण
यथा नाम कन्न३५५ सङ्गीत समयसार " पार्थ देव । सङ्गीत शास्त्र ३१. धर्मामृत
कथा सग्रह
"३१६ आराधनासार श १२-१३ | रविचन्द्र चतुर्विध आराधना.. ३१६ ब्रह्म विद्या ।
अध्यात्म
समुच्चय ३१७ पासणाह चरिउ ११३२ कवि श्रीधर पार्श्वनाथ चरित्र अप३५७ मेमन्दर पुराण ।
| वामन मुनि विमलनाथके दो त. ३१८ वड्ढमाण चरित्र वर्द्धमान
गणधर ३१६ संतिणाह चरित
शान्तिनाथ,
उदय त्रिभंगी ११८० | नेमिचन्द्र ४ कर्म सिद्धान्त ३२० भविसयत्त चरिउ ११४३ भविष्यदत्त, 30 सत्त्व विभगी।
(मैद्धान्तिक . ३२१ सितपट चौरासी ११४३-११६७५ हेम चन्द यशोविजयके दिग्पट हि.
चौरासीका उत्तर । । १३ ईसवी शताब्दी १३ :३२२ सुबंध दहमो कहा १९५०-६६ उदय चन्द सुगन्धदशमी कथा अप ३२३/ सुकुमाल चरिउ ११५१ | श्रीधर ३ सुकुमाल चरित्र ३६० बन्ध त्रिभंगी । १२०३ | माधवचन्द्र कर्म सिद्धान्त प्रा. ३२४ अञ्जनापवन जय १९६१ ११८१श हस्तिमल यथा नाम नाटक स.१६१ क्षपणासार टी. ३२, मैथिली कल्याणम्
सीता-राम प्रेम ,३६२ चदप्पहचरिउ पूर्व पाद ब्रह्मदामोदर यथानाम नाटक | ६३| चंदण छट्ठीव हा
५.लाखू | चन्दनषष्टी व्रत ३२६ विक्रान्त कौरव सुलोचना नाटक |.३६५ जिण यत्तकहा
यथानाम ३२७ | सुभद्रा नाटिका भरत-सुभद्रा प्रेम , ३६५ कथा विचार मध्य पाद भावसेन न्यायाजरूप
स अनगार धर्मा ११७३-१२४३|पं. आशाधर यत्याचार
विद्य वितण्डा निराकरण ३२६ मूलाराधना
३६६ कातन्त्र रूपमाला
शब्द रूप दर्पण
३६७ च्याय दीपिका ३३० सागार धर्मामृत
श्रावकाचार ३६८ न्याय सूर्यावली ३३१ क्रिया कलाप ।
व्यावरण .. ३६६ प्रमाप्रमेय ३३२ अध्यात्म रहस्य अध्यात्म ,७० भुक्तिमुक्तिविचार
श्वे निराकरण ३३३ इष्टोपदेश टीका अध्यात्मोपदेश ३७१ विश्व तत्त्वप्रकाश
अन्यदर्शन , ३३४ ज्ञानदीपिका अध्यात्म ,,३७२ शाक्टायन ।
यथानाम ३३५, प्रमेय रत्नाकर
न्याय
व्याकरण टी. ३३६ वाग्भट्टसंहिता
1,३७३ सप्तपदार्थी टोका ३३७ काव्यालङ्कार टो
काव्य शिक्षा , ३७४ सिद्वान्तसार ।
११२५
नयसेन
११२८
मलिषेण
३२८
न्याय
जैनेन्द्र सिद्वान्त कोश
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
इतिहास
३४५
१०. आगम समयानुक्रमणिका
माका
समय
ई. सन । रचयिता
Talk
कमाक
ग्रन्थ
समय।
भाषा
ब्रह्मदामोदर यथानाम
.
४२२.
विषय
य । ई.सन्
| रचयिता विषय ३७४ पुण्यास्रव कथा | मध्यपाद | रामचन्द्र । यथानाम स. १४ ईसवी शताब्दी १४.कोष
४१३ णेमिणाह चरिउ पूर्वपाद । लक्ष्मणदेव | यथानाम ३७६ जगत्सुन्दरीयश कीति ४१४, मयणपराजय "
उपमित कथा प्रयोगमाला
चरित्र ३७७ स्याद्वाद भूषण
| (खण्ड पाव्य) अभयचन्द्र न्याय
"४१५ भविष्यदत्त कथा मध्यवाद श्रीधर ४ १०० मिणाह चरिउ, १२३०
अप.४१६ अनन्तवत कथा १३२८-६३
यथानाम ३७६ पुष्पदन्त पुराण | गुण बर्म
पद्मानन्दि
स४१७ जोरापल्लीपाव ३८० सागार धर्मामृत | १२३६ १२३४५
भट्टारक आशाधर श्रावकाचार
नाथ स्तोत्र ३८९ त्रिषष्टि स्मृति | १२३४ ,
शलाका पुरुष भावना पद्धति
भक्तिपूर्ण स्तव शास्त्र
४१६ बर्द्धमान चरित्र
यथानाम ३८२ कर्म विपाक | १२४०-६७ | दवेन्द्रसूरि | कर्म सिद्धान्त
श्रावकाचार ३८३ कर्म स्तब
सारोद्धार ३८४ बन्ध स्वामित्व
| "४२१ परमागमसार १३४१ . श्रुत मुनि आगमका स्वरूप ३८५ षडषीति
वराग चरित्र | उत्तराधं वर्द्धमानभट्टा यथान.म (मूक्ष्मार्थ विचार)
४२३ गोमट्टसार टो १३५६ केशव वर्जी ३८६ कर्म प्रकृति उत्तरार्ध | अभयत्तन्द र्म सिअन्त ४ न्यायदीपिका १३६०-१५१८/ धर्मभूषण न्याय २८७ मन्दप्रबोधिनी
मिद्धान चक. गो, सा टो |१२५ जम्बूस्वामीचरित्र १९६३-११६८/वह्म जिनदास यथानाम ३८८ पुरुदेव चम्पू
| अदास ऋषभ चरित्र |..२६) राम चरित्र ३८६ भव्यजन कण्ठा
४२१ हरिवश पुराण भरण
४२८ बाहुबलि चरिउ १३६७ कवि धनपाल १६० मुनिसुव्रत काव्य
यथानाम
४२६ अणत्यमिय नहीं .. हरिचन्द | रात्रिभुक्ति हानि । ३६१ विश्वल चन कोष
" ,
धरसेन . नानार्थक कोष १५ ईसवी शताब्दी १५ :३६२ शृगारार्णव
विजयवर्णी | काव्य शिक्षा "३०] अणत्यमिउ कहा ! १४००-७६ कवि रइधु । रात्रिभुक्ति त्याग चन्द्रिका (छन्द अल कार) ४३१धण्णकुमार चरिउ |
यथानाम ३६३ अल कार १२५०-६० अजितसेन
"१३२/पउन चरिउ चिन्तामणि
जैन रामायण ३६४ अगार मञ्जरी
१३३ बलहद चरिउ
बलभद्र चरित्र ३६५ अणुवयरयण १२५६ पं.लाखू
सुलोचना चरित्र । पईव
३५ वित्तसार
श्रावक मुनि धर्म सम्मइजिणचरिउ
प्रा१३ सम्माजण ३६६ त्रिभगीसार । अन्त पाद | श्रुत मुनि । कर्म सिद्धान्त
भगवान महावीर । टीका
४३७ सिद्धन्तसार
श्रावक मुनि धर्म ४३८ सिरिपाल चरिउ
श्रीपाल चरित्र ३१७ आस्रव त्रिभंगी
४३६) हरिवंश पुराण
औपशमिकादि ३१ भाव त्रिभगी
यथा नाम ३६६ काव्यानुशासन वाग्भट्ट
यशोधर चरित्र ( काव्य शिक्षा
१४ बइ ढमाण चरिउ पूर्वपाद जयमित्रहल यथा नाम छन्दानुशासन
छन्द शिक्षा
- नरसेन ४०१ जिणरत्तिविहाण
यथानाम
(सेणिय चरिउ)
२४२ (वड्माणकहा)
मल्लिणाहकव्व
यथा नाम उपमित कथा १०२ मयणपराजय
पद्मनाभ
122/ यशोधर चरित्र | ४०३ सिद्धचककहा
श्रीपाल मैना
मविपाक १४०६-१४४२ सवलकीति कर्मसिद्धान्त १०४ स्याद्वादमजरी १२६२ ! मल्लिपेण | न्याय
प्रश्नोत्तर श्राव
श्रावकाचार ४०५ महापुराण ! १२६३ शाह ठाकुर अन्नाका पुरुष १४४६तत्त्वार्थ सारदीपक
तत्त्वार्थ कालिका ।
४७ सद्भाषितावली
अध्यात्मोप ४०६ सतिणाह चरिउ १२६५
यथानाम . ८/परमात्मराजस्तोत्र
भक्ति १०७ तत्वार्थ मूत्र वृत्ति १२६६ भास्कर नन्दि स४४६/ आदि पुराण
ऋषभ चरित्र ४०६ ध्यान स्तर
ध्यान .. ४५० उत्तर पुराण
२३ तीर्थर ४०६ मुखत्रोध वृत्ति
तत्यार्थ सूत्र टीका पुराणसार सन
६ तीर्थकर ४१० सुदर्शन चरित १२६८ विद्यानन्दि २ यथानाम
" शान्तिनाथचरित
यथा नाम ४११ लाक्य दीपक श १३-१४ वामदेव लोक विभाग
" मल्लिनाथ ४१२ भावसग्रह
| देवमेन कृतका
|-४५४/ पार्श्वनाथ पुराण | | सं रूपान्तर
| ४५५ महावीर , ।
| अणुव्रत रत्न प्रदोष अप३४ मेहेसर चरिउ
स/४४० जसहर चरिउ
लाय ..
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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इतिहास
१०. आगम समयानुक्रमणिका
विषय
भाषा
| शुभकीति
रिड १४३६
समय ___ ग्रन्थ अन्य ई. सन् । रचयिता । समय । रचयिता ।
प्रन्ध ई० सन्। रचयिता | विषय ४५६ वर्द्धमान चरित्र
यथा नाम ४६ तत्त्वार्थ वृत्ति
तत्त्वार्थतत्र टीका। १६ षट् प्राभृत टीका
कुन्दकुन्दके प्राभृतो, ४५७ श्रीपाल ,
की टीका ४५८ यशोधरा
"४६७ तत्त्वत्रय
ज्ञानार्ण व कथित ४५६ धन्यकुमार,
प्रकाशिका
गद्य भागको टीका ४६० सुकुमाल ,
" यश स्तिलक
यशस्तिलक ४६१ सुदर्शन .,
| चन्दिका
चम्पूको टीका ४६२ बस क्थाकोष
४६६) यशोधर चरित्र
यथानाम ४६३. मूलाचार प्रदीप । १४२४
यत्याचार
श्रीपाल चरित्र ४६४ सिद्धान्तसार
श्रुतस्कन्ध पूजा दीपक
। योगसारअन्तपाद श्रुतकीति | श्रावकमुनि आचार अप. । मध्यपाद सिहसूरि प्राचीन कतिका ४६५ लोक विभाग
१०३ धम्म परिक्खा
वैदिकोका उपहास (श्वे)
यथानाम ०४/परमेष्ठी प्रकाश
सं.रूपान्तर ४६६ पासणाह चरिउ १४२२ कवि असवाल यथानाम
।
सार ४६७ धर्मदत्त चरित्र १४२६ दयासागर
सं५०५. हरिवश पुराण
। ०६भुजबलि चरितम् " दोडुय्य गोमटेश मूर्तिका | सं. ४६८ हरिवश पुराण | १४२६-४० | यश कीति
इतिहास ४६६ जिणरत्ति कहा
महनन्दि । अध्यात्म रात्रिभुक्ति
11.५०७ पाहुड दोहा
१०८ पुराणसार १४६८-१५१८ श्रीचन्द । ४७० रविवय कहा यथानाम
यथानाम ४७१ तत्त्वार्थ रत्न | १४३२
प्रभाचन्द्र ८ तत्त्वार्थ सूत्र
- वैराग्य माला! प्रभाकर
टोका
१६. ईसवी शताब्दी १६ - ४७२ संतिणाह चरिउ १४३७
यथाना
अप'५०६ सभ्यवस्व कौमुदी १५०८ जोधराज । तत्त्वार्थ ४७३ पासगाह चरिउ
मंगरस
कन्नड ४७४) सकोसल चरिउ
" ५१ जीवतन्य १५१५ नेमिचन्द्र ५ गो० सा० टीका। ४७५ सम्मत्तगुण विहाण, १४४२
लोकप्रिय
। प्रदीपिका कव्व
आख्यान ५१२ भद्रबाहु चरित्र १५१५
रत्नकीति | यथानाम सदर्शन चरित्र १४४२-८२ विद्यानन्दि ३ यथानाम स.१५१३ अंग पण्णत्ति | १५१६-१६ शुभ चन्द्र । भट्टारक । (१५१ शब्द चिन्तामणि
भट्टारक स शब्दकोष ४७७/ संभव चरिउ १४४३ कवि तेजपाल यथानाम अप ५१५ स्याद्वावदन
न्याय ४७८ आत्म सम्बोधन १४४३-१५०५ ज्ञानभूषण अधयान्म
विदारण ४७६/ अजित पुराण | १४४८ कवि विजय यथानाम
अप ५१६सम्यक्त्व कौमुदी
तत्त्वार्थ ४८० जिनचतुर्विशति/१४५०-१५१४ जिनचद्रभट्टा स्तोत्र सं११९ तत्व निर्णय सिद्धान्तसार ।
जीवकाण्ड ५१८ अध्यात्मपद टी
अध्यात्म ४८२ सिरिपाल चरिउ,१४५०-१५१४ ब्रह्म दामोदर यथानाम
परमाध्यात्म वरंग चरिउ १४५० कवि तेजपाल
तर गिनी १८४नागकुमार चरिउ १४५४ धर्मधर
५२० सुभाषितार्णव ४८, पासपुराण १४५८ कवि तेजपाल यथानाम
चन्द्रप्रभ चरित्र
यथानाम ४८ यशाधर चरित्र १४६१ सोमकीर्ति
सं.५२२ पाईनाथ काव्य ४८७ सप्तव्यसनकथा १४६१-१४८३
जिका प्रथम चारुदत्त चरित्र १५७
"२३ महावीर पुराण ४८६ प्रद्युम्न चारित्र
..k२४ पद्यनाभ चरित्र १० तत्त्वज्ञान १४७१ ज्ञानभूषण अध्यात्म
५२५ चन्दना चरित्र तर गिनी
५२५ चन्दन कथा
चन्दना चरित्र ४१ आत्म सम्बोधन १४४३-१५०५
५२७ अमर सेन चरिउ १५१६ माणिक्यराज मुनि अमरसेनका आराधना १४६६
जीवन वृत अज्ञात पंचसंग्रह प्रा की प्रा. २८ नागकुमार चरिउ १५२२
| यथानाम प्राकृत टोका | ४६२/ पाण्डव पुराण १४७८-१५५६ यश कीति यथानाम
अप] कथाकोष ४६३|धर्म सग्रहश्रावका. १४८४ मेधावी श्रावकाचार स५३०/धर्मोपदेश पीयूष १५१८-२८ ।
श्रावकाचार ४६४ औदार्य चिन्ता १४८७-१४६६ श्रुतसागर
प्राकृत व्याकरण | प्रा३रात्रि भोजनत्याग
यथानाम मणि
व्रतकथा |
४५
१८३१
१५१८
नेमिदत्त
-५२६ आराधना
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इतिहास
३४७
१०. आगम समयानुक्रमणिका
विषय
ई० सन् रचयिता
| भाषा
4. भाष
हि
सं६३ नाममाला
समय
समय ग्रन्थ
ग्रन्थ
रचयिता ई. सन्
विषय ५३२१ नेमिनाथ पुराण | १५२८
| यथा नाम |सं५७५/ कथाकोष १५८३-१६०५/देवेन्द्र की ति | यथा नाम ५३३, श्रीपाल चरित्र
|..५७६, श्रीपाल चरित्र १५६४ कवि परिमल्ल ५३४ सिद्धांतसारभाष्य १५२८-५६ | ज्ञानभूषण | "
,,५७७ पार्शवनाथ पुराण १५१७-१६२४/- चन्द्रकीति कवि महीन्दु
अप ५७८ शब्दरत्न प्रदीप ९५६६-१६१० सोमसेन । ५३५ सतिणाह चरिउ
स० शब्दकोष
५७४/ धर्मरसिक ५३६ चेतनपुद्गलधमाल १५३२
पचामृत अभिषेक चिराज | यथानाम रूपक " (त्रिवर्णाचार)
आदि ५३० मयण जुज्झ
| मदनयुद्ध ..८० रामपुराण
यथानाम ५३८ मोहविवेक युद्ध
यथानाम ५३६/ संतोषतिल
सन्तोष द्वारा लोभको, जयमाल
जोतना (रूपक) १७ ईसवी शताब्दी १७:-- ५४० टंडाणा गीत
ससार दुखदर्शन ,१८१ अध्यात्म सवैया १६००-१६२५ रूपचन्दपाण्डे, अध्यात्म ५४१ भुवनकीर्ति गीत भुवनकी तिकीप्रशस्ति ५८२ खटोलनागीत
(रूपक) चार ... ५४२ नेमिनाथ राजमतिके
कषायरूप पायो । बारहमासा उद्गार
का खटोलना ५४३ नेमिनाथ वसंत
नेमिनाथ वैराग्य .५८३ परमार्थ गीत
अध्यात्म ५४४ कार्तिकेयानु
१५४३ । शुभचन्द्र यथानाम | प्रेक्षा टीका
स५८ दोहा शतक भट्टारक ५८५ स्फुटपद
भक्ति ५४५ जोवन्धर चरित्र | १५४६
५८६ यशोधर चरित्र
ज्ञानकीति यथानाम ५४६ प्रमेयरत्नाल कार १५४४ चारुकीर्ति
५८७ शब्दानुशासन १६०४ ५४७गीत वीतराग
भट्टाक्ल के स. शब्द कोश | ऋषभदेवके १० जन्म ।।
चूडामणि
तुम्बूलाचार्य
१६०४ ५४८] पाण्डवपुराण
षट्खण्ड टीका शुभचन्द्र यथानाम सं.१८६ भक्तामर कथा
रायमल | यथानाम भट्टारक
विमल पुराण | १६१७ ५४६/ भरतेशवैभव । १५५१ रत्नाकर
ब कृष्णदास प.जिनदास पंचनमस्कारमहात्म्य
मुनिसुव्रत पुराण ५५०/होलोरेणुकाचरित्र
| १६२४
हि५६२) ब्रह्म विलास १६२४-१६४२ भगवती दास अध्यात्म ५५१ करकण्ड्ड चरित्र १५५४ शुभचन्द्र भ. यथानाम
(१६१३) प.बनारसी एकार्थक शब्द ५५२ कर्म प्रकृति टी. १५५६-७३ ज्ञानभूषण मसिद्धान्त ५५३ भविष्यदत्तचरित्र १५५८ .सुन्दरदास यथानाम
| ४| समयसार नाटक (१६३६) ५५४ रायमल्लाभ्युदय
२४ तीर्थड्रोका अर्धकथानक (१६४४)
अपनी आत्मकथा जीवन वृत्त १४ कर्म प्रकृति टी १५६३-७३ सुमतिकार्ति कर्म सिद्धान्त
५६६ बनारसी विलास (१७०१) ५५६ कर्मकाण्ड
६७ अध्यात्मोपनिषद १६३८-१६८८ यशोविजय अध्यात्म ५५० पंच संग्रह वृत्ति
"१६८ अध्यात्मसार
(श्वे) Rea, जय विलास
पदसंग्रह ५५८ सुखबोध वृत्ति लगभग १५७० पं.योगदेव तत्त्वार्थ सूत्र टी
जैन तर्क
न्याय | भट्टारक ५१६ अनन्तनाथपूजा
स्याद्वाद् मब्जूषा १९७३
यथानाम गुणचन्द्र
शास्त्रवार्ता | अध्यात्मकमल २१७-१४१३4 राजमल अध्यात्म मार्तण्ड
__ समुच्चय ५६१ पचाध्यायी पदार्थ विज्ञान J६०३/ दिग्पद चौरासी
दिगम्बरका खंडन १६२ पिगल शास्त्र
छन्द शास्त्र
६०४ चतुर्विशति १६४२ पं. जगन्नाथ २४ अर्थों वाला ५६३ लाटी सहिता
श्रावकाचार | सन्धानकाव्य
एक पद्य ५६४ जम्बूस्वामोचरित्र
यथानाम ६०७ श्वे पराजय १६४६
केवलि भक्ति
निराकृति ५६६ द्वादशाग पूजा १५७६१६१६ श्रीभूषण
.,६०६ सुख निधान १६४३
श्रीपालकथा ५६७ प्रतिबोध
मूलस की ..]६०७ शीलपताका १६६६ महीचन्द्र सीताकी अग्नि मरा चितामणि उत्पत्तिकी कथा
परीक्षा ५६८ शान्तिनाथपुराण
यथानाम १८. ईसवी शताब्दी १८ -- ५६६ सत्तवसनकहा १५८० मणिक्यराज
६.८) चिद्विलास ।१७२२ पं.दीपचन्द, अध्यात्म ५७० ज्ञानसूर्योदय ना १५८०-१६०७, वादिचन्द्र , रूपक काव्य ५७१, पवनदूत
मेघदूतकी नकल
1,६०६/ स्वरूपसम्बोधन
जीवन्धर पुराण १७२४--४४ जिनसागर | ५७२ पार्शव पुराण
यथानाम
जैन शतक १७२४ प. भूधरदास पद सग्रह ५७३ श्रीपान आख्यान
पद साहित्य १७२४-३२ ।
अध्यात्म पद ५७४ सुभग सुलोचना।
पार्श्वपुराण १७३२
यथानाम चरित्र
(१६१३)
५६५
५६५ हनुमन्त चरित्र
Mirrrry
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.
इत्थं
३४८
ईपिथकर्म
समग
क्रमांक
चयिता
ई सन् । रचयिता
1 HREE
REPEATE
है । इत्वरी अर्थात अभिसारिका । इनमें भी जो अत्यन्त अचरट प्रन्थ
विषय
होती है वह इत्वरिका कहलाती है, यहाँ कुत्सित अर्थ में 'क' प्रत्यय
होकर इत्वरिका शब्द बना है । (रा बा ७/२८/२/२५/५५४) ६१४ क्रिया काष १७२७ प.किशनचद गृहस्थोचित क्रियाये । हि.
इत्सिग-मि विप्र २१५ महेन्द्रकुमार "चीनी यात्री था। ६५ प्रमाणप्रमेय १७३०-३३ | नरेन्द्रसेन न्याय
ई ६७१-६६५ तक भारतकी यात्रा की।" समय-ई श.७ । कालिका ६१६ क्रियाकोष १७३८ प.दौलतराम गृहस्थोचित
इला-१ हिमवान् पर्वतका एक कूट व तन्निवासिनी देवी-दे लोक/४ क्रियायें
२ रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी --दे लोक ॥१३॥ ६१७ श्रीपाल चारित्र १७२०-७२
यथानाम
इलावर्धन-दुर्ग देशका एक नगर - दे मनुष्य ४।। ६१६ गोमट्टसार टीका १७३६-४० टोडरमल कर्म सिद्धान्त
इलावृत वर्ष-ज. प /११९/A N. Up . H_L Jain) ६१४ लब्धिसार टो ।
पुराणोके अनुसार इलावृत चतुरस्र है। इधर वर्तमान भूगोलके अनुसार ६२० क्षपण सार टीका
पामीर प्रदेशका मान १५०४ १५० मोल है । अत चतुरस हानेके ६२१ गामसार पूजा, १७३६
यथानाम
कारण यह 'पामीर' हो इलावृत है। ६२२/ अर्थ सदृष्टि१७४०-६७
गो सा गणित ६२३ रहस्यपूर्ण चिट्ठी १७५३
अध्यात्म
इषुगति-दे, विग्रह गति २ ६२४ सम्यग्ज्ञान (१७६१)
इष्ट-पदार्थ की इष्टतानिष्टता रागके कारणसे है वास्तव में कोई भी | चन्द्रिका
पदार्थ इष्टानिष्ट नही--दे राग २ ६२५ मोक्षमार्ग प्रका. (१७६७)
इष्टवियोगज आर्तध्यान-दे आर्तध्यान १। ६२६ परमानन्द विलास १७५५-६७ 'पं देवीदयाल परसरात ६२७' दर्शन कथा १७५६ भारामल यथानाम
इष्टोपदेश-आ पूज्यपाद (ई श५) द्वारा रचित यह ग्रन्थ ५१ ६२८ दान कथा
श्लोको में आध्यात्मिक उपदेश देता है। इस पर पं. आशाधर कृत ६२६ निशिकथा
(ई ११७३) सस्कृत टीका है (तो २/२२६), (जै २/१९८) । ६३० शोल कथा
इष्वाकार-१ (ज प./प्र.१०५ Arc), २ धातकीखण्ड व ६३१/ छह ढाला १७६८-१८६६पं दौलतराम तत्त्वार्थ
पु०क्रार्ध इन दोनो द्वीपोंकी उत्तर व दक्षिण दिशाओ मे एक-एक
पर्वत स्थित है। इस प्रकार चार इष्वाकार पर्वत है जो उन-उन द्वीपो १९ ईसवी शताब्दी १९ :--
को आधे-आधे भागोमे विभाजित करते है। (विशेष--दे लोक ४/२) ६३२/वृन्दावन विलास १८०३-१८०८, वृन्दावन । पद संग्रह ६३३) छन्द शतक ६३४ अर्हत्पासा
भाग्य निर्धारिणी | केवली ६३५ चौबीसी पूजा
यथानाम ६३६ समयसार वच | १८०७ जयचन्द ६३७ अष्टपाहूडा , १८१० छाबडा ६३८ सर्वार्थ सिद्धि,. | १८०४
तभीत-संकट व भय । सात ईति व सात भय है।-2 बृहत् जैन ६३६ कार्तिकेया.,,
शब्दार्णव द्वितीय खड। ६४० द्रव्यसंग्रह " | १८०६ ६४१ ज्ञानार्णव , १८१२
| इयो-स. सि. ६/४/३२१/१ ईरणमीर्या योगो गतिरित्यर्थः । - ई६४२ आप्तमीमांसा, १८२६
. को व्युत्पत्ति ईरणं होगी। इसका अर्थ गति है। (रा बा 412141 ६४३, भक्तामर कथा
५०८/१७) ध ३/५.४.२४/४७,१०ईर्या योग ।-ईका अर्थ योग है। ६४४ तत्त्वार्थ बोध 1१८१४ प. बुधजन | तत्त्वार्थ
, ईर्यापथकर्म-जिन कर्मों का आस्रव होता है पर बन्ध नहीं होता ६४६ सतसई
अध्यात्मपद
उन्हे ईपिथकर्म कहते है। आनेके अगले क्षण में ही बिना फल दिये ६४६ बुधजन विलास | १८३६
वे झड जाते है। अत इनमें एक समय मात्रकी स्थिति होती है ६४ सप्तव्यसन चारित्र १८५०-१८४० मनर ग लाल यथानाम
अधिक नहीं। मोहका सर्वथा उपशम अथवा क्षय हो जाने पर ही ऐसे ६४८ सप्तर्षि पूजा
कर्म आया करते है। १०वे गुणस्थान तक जबतक मोहका किचित भी ६४६ सम्मेदाचल
सद्भाव है तबतक ईपिथकर्म सम्भव नहीं, क्योकि क्षायके सद्भाव मे । माहात्म्य
स्थिति बन्धनेका नियम है। ६५० चौबीसी पूजा
१. ईर्यापथकर्मका लक्षण ६५१ महावीराष्टक । प, भागचन्द स्तोत्र
प. व १३/४/सू २४/४७ त छदुमत्यवीयरायाणं सजोगिकेवलोण' या इत्थं-दे संस्थान।
त सव्वमोरियान हकम्म णाम ।२४। वह छद्मस्थ वीतरागोके और
सयोगि केवलियो के होता है, वह सब ईपिथकर्म है। इत्वारका-स सि ७/२८/३६७/१३ परपुरुषानेति गच्छतीत्येवं. स.सू ६/४ सकषायाकषाययो साम्परायिकेपिथयो ।४षायसहित शीला इत्वरी। कुत्सिता इखरी कुत्साया क इत्वरिका । जिसका और कषाय रहित आत्माका योग क्रमसे साम्परायिक और ईर्यापथ स्वभाव अन्य पुरुषोके पास जाना आना है वह (स्त्री) इस्वरी कहलाती कर्म के आस्रव रूप है।
१८०६
१८१३
१८२२
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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ईर्यापथकर्म
३४९
ईर्यापथकर्म
स. सि. ६/४/३२१/१ ईरणमोर्या योगो गतिरित्यर्थ । तदद्वारकं कर्म ईर्यापथम् । - ईर्याकी व्युत्पत्ति 'ईरणं' होगी इसका अर्थ गति है ।
जो कर्म इसके द्वारा प्राप्त होता है वह ईर्यापथकर्म है । रा वा ६/४/७/५०८/१८ ईरण मीर्या योगगति।। उपशान्तक्षीणक्षाययो सयोगिनश्च योगवशादुपात्तं कर्म कषायाभावाइ बन्धाभावे शुष्ककुड्यपतितलोष्टवद् अनन्तरसमये निवर्तमानमीर्यापथमित्युच्यते। -ईर्या की व्युत्पत्ति ईरण होती है, उसका अर्थ गति है।६। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, और सयोगकेवलोके योगसे आये हुए कर्म कषायोका चेप न होनेसे सुखी दीवारपर पड़े हुए पत्थरकी तरह द्वितीय क्षणमें ही झड जाते है, बन्धते नहीं है। यह ईर्यापथ आस्रब
कहलाता है। (त सा ४/७) ध. १३/५,४,२४/४७/१० ईर्या योग स पन्था मार्ग हेतु यस्य कर्मण तदीर्यापथकर्म। जोगणिमित्तेणेव ज बज्झई तमीरियावहकम्म
त्ति भणिदं होदि। ध १३/४,४,२४/५१११ बधमागयपरमाण विदियसमए चेव णिस्सेस णिज्ज रति त्ति महत्रयं । ईर्याका अर्थ योग है । वह जिस कामणि शरीर का पथ, मार्ग, हेतु है वह ईर्यापथम कहलाता है। योगमात्रके कारण जो कर्म बन्धता है वह ईर्यापथकर्म है, यह उक्त कथनका तासर्य है। बन्धको प्राप्त हुए म परमाणु दूसरे समयमें ही सामस्त्य भावसे निर्जराको प्राप्त होते है, इसलिए ईर्यापथ कर्मस्कन्ध महान व्ययवाले कहे गये है। २ नारकियोके तथा सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान पर्यन्त
ईर्यापथ कर्म नही होता ध १३/५,४.३९/११-६२/५ आधाकम्म-इरियावथकम्म-तवोकम्माणि
णस्थि, णेरइएसु ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहव्वयाभा वादो । मुहमसापराइएसु इरियावथक्म्म पिणत्थि, सक्साएसु तदसभवादो। -अध कर्म, ईर्यापथकर्म, और तपकर्म नहीं होते. क्योंकि नारकियोके औदारिक शरीरका उदय और पाँच महावत नहीं होते। सुश्मसापराय संयत जोवोके ईर्यापथकर्म नहीं होता, क्योकि कषाय सहित जोकोका ईर्यापथकर्म नहीं हो सकता।
३. ईर्यापथ कर्ममे वर्ण रसादिकी अपेक्षा विशेषताएँ ध, १३/५,४, २४॥२-४/४८ अप्प बादर मवुअ बहुअ बहुक्रन च सुकिल चेव । मद महब्वयं पि य सादभहियं च त कम्म ।२। गहिदमगहिद च तहा बद्धमबद्ध च पुट्ठमपुछ च। उदिदाणुदिद वेदिदमवेदिद चेव त जाणे ।३। णिज्जरिदाणिज्जरिदं उदी रिदं चेत्र होदि णायव्व अणुदीरिदं त्ति य पुणो इरियावलक्रवण एद ।।। ध. १३/१,४२४/४६-५०/१२ इरियावहकम्मक्खधा कक्खडादिगुणेण
अबोहा मउअफासगुणेण सहिया चेव बधमागच्छति त्ति इरियावहकम्म म उअत्ति भण्णदे। सकसायजीववेयणीयसमयपबद्धादा पदेसे हि सखेजगुणत्तं दटूठूण बहुअमिदि भण्णदे। पारगलपदेसेसु चिरकालावट्ठाण णिबधणणिद्धगुणपडिवक्ख गुणेण पडिग्गयित्तादो न्हुवरवं ।.. इरियावहकम्मस्स कम्मरवधा सुअंधा सच्छाया त्ति जाणावणफलो। इरियावहकम्मवंधा पंचवण्णा ण होति, हंसधवला चेव होंति त्ति जाणावणहूं सुक्किल णिद्दे सो कदो. इरियावहकम्मवरवं धा रसेण सकरादो अहियमहुरत्तजुत्ता त्ति जाणावण8 मंदणिद्देसो क्दो । वह ईर्यापथकर्म अल्प है, बादर है, मृदु है, बहुत है, रूक्ष है, शुक्ल है, मन्द है, अर्थात् मधुर, महान् व्ययवाला है और अत्यधिक साता रूप है ।२। उसे गृहीत होकर भी अगृहीत, बद्ध होकर भी अबद्ध, स्पृष्ट होकर भी अस्पृष्ट, उदित होकर भी अनूदित, और वेदित होकर भी अवेदित जानना ।३। वह निर्जरित होकर भी निर्जरित नहीं है, और उदी रित होकर भी अनुदो रित है। इस प्रकार यह ईर्यापथकर्मका लक्षण है ।४। (इसे अल्प व बादर कहनेका कारण-दे. अगला शीर्षक) ईर्यापथकर्म स्कन्ध कर्कशादि गुणोसे रहित है, वह मदु स्पर्शगुणसे
संयुक्त होकर ही बन्धको प्राप्त होता है। इसलिए इसे मदु' कहा गया है। कषाय सहित जीवके वेदनोय कर्मके समयबद्धसे यहाँ बंधनेवाला समय प्रबद्ध प्रदेशों की अपेक्षा सख्यात गुणा होता है इसलिए ऐसा देखकर ईर्यापथकर्मको बहुत कहा। ईर्यापथकर्म स्कन्ध रूक्ष है, क्योकि पुद्गल प्रदेशोमें चिरकाल तक अवस्थानका कारण स्निग्ध गुणका प्रतिपक्षीभूत गुण उसमें स्वीकार किया गया है । ईर्यापथकर्म के स्कन्ध अच्छी गन्धवाले और अच्छी कान्तिवाले होते है, यह जताना च शब्दका फल है। ईर्यापथकर्म स्कन्ध पाँचवर्णवाले नहीं होते, किन्तु इसके समान धवल वर्ण वाले ही होते है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए गाथामें शुक्ल पदका निर्देश किया है। ईर्यापथकर्म रसकी अपेक्षा शक्करसे भी अधिक माधुर्ययुक्त होते है । इस बातका ज्ञान करानेके लिए गाथामें मन्द पदका निर्देश किया है। (गृह तअगृहीत, बन्ध अबन्ध, स्पृष्ट अस्पृष्ट कहनेका कारण-दे शीर्षक स ४, १२, निर्जरित कहनेका कारण -दे. शीर्षक स , उदीरित कहनेका कारण-दे, शीर्षक सं.६)
४. ईपिथकर्ममे बन्धकी अपेक्षा विशेषता ध. १३/५,४,२४/४८/१० कसायाभावेण ट्ठिदिवधाजोग्गस्स कम्मभावेण परिणयविदियसमए चेव अकम्मभावं गच्छ तस्स जोगेणागदपोग्गलवंधस्स द्विदिविरहिदएगसमए वट्टमाणस्स कालणिबधण अप्पत्त दसणादो इरियावहकम्ममप्पमिदि भणिद । उप्पण्ण विदियादिसमयाणमवट्ठाणववएसुवल भादो। ण उप्पत्तिसमओ अवट्ठाण होदि, उप्पत्तीए अभावप्पस गादो।. अट्ठण्णं कम्माण समयबद्धपदेसेहितो इरियावहसमयपद्धस्स पदेसा संखेजगुणा होति, सादं मोतूण अण्णे सिंबंधाभावादो। तेण ढुकमाणकम्मक्खंधेहि थूल मिदि बादर भणिदं । • कसायाभावेण अणुभागबंधाभावादो। सकसायजीववेयणीयसमपमद्धदो पदेसे हि सखेज्जगुणत्तं दट्ठूणबहअमिदि भण्णदे। ध. १३/५.४,२४/५१-५२/१० इरिवह कम्म गहिदं पि तण्ण गहिदं । कुदो। सरागकम्मगहणमेव अणंतरससारफल णिवत्तणसत्तिविरहादो।.. बद्धपि तण्ण बद्ध' चेव; विदियसमए चेव णिज्जवल भादो पुठं पि तण्ण पुट्ठ चेव, इरियावहबधस्स सतसहावेण जिणिदम्मि अवद्वाणाभावादो। = कषायका अभाव होनेसे स्थिति बन्धके अयोग्य है । कर्म रूपसे परिणत होनेके दूसरे समयमें ही अर्म भावको प्राप्त हो जाता है, और स्थिति बन्ध न होनेसे मात्र एक समय तक विद्यमान रहता है, ऐसे योगके निमित्त से आये हुए पुद्गल स्कन्धमें काल निमित्तक असपत्व देखा जाता है। इसलिए ईर्यापथकर्म अल्प है।.. क्योंकि उत्पन्न होनेके पश्चात् द्वितीयादि समयोकी अवस्थान सज्ञा पायी जाती है। उत्पत्तिके समयको ही अवस्थान नही कहा जा सकता है। क्योंकि ऐसा माननेसे उत्पत्तिके अभावका प्रसंग आ जायेगा। आठो कर्मोके समयबद्भ प्रदेशोसे ईर्यापथकमके समय प्रबद्ध प्रदेश संख्यात गुणे होते है, क्योकि यहाँ साता वेदनीयके सिवाय अन्य कर्मोंका बन्ध नहीं होता। इसलिए ईर्यापथ रूपसे जो कर्म आते है, वे स्थूल है, अत उन्हे 'बादर' कहा है। कषायका अभाव होने से अनुभाग बन्ध नहीं पाया जाता है। कषाय सहित जीवके वेदनीय कर्मके समयप्रबद्धसे यहाँ बन्धनेवाला समयप्रबद्ध प्रदेशों की अपेक्षा संख्यात गुणा होता है । ऐसा देखकर ईर्यापथकर्मको बहुत कहा है। गृहीत होकर भी वह गृहात नहीं है, क्योंकि वह सरागी के द्वारा ग्रहण किये गये कर्म के समान ससारको उत्पन्न करने. वाली शक्तिसे रहित है । बद्ध होकर भी बद्ध नहीं है, क्योंकि दूसरे समयमें ही उनकी निर्जरा देखी जाती है. स्पृष्ट होकर भी स्पृष्ट नहीं है, कारण कि ईर्यापथ बन्धका सत्त्व रूपसे जिनेन्द्र भगवानके अवस्थान नहीं पाया जाता है। (और भी-दे. ईर्यापथ ३/१)
५ ईर्यापथकर्ममे निर्जराकी अपेक्षा विशेषता घ. १३/५,४ २४/४१,५४/१ बंधमागयपरमाणू विदियसमए च णिस्सेसं णिज्जर ति त्ति महव्वयं ॥..णिज्जरिदमपि तण्ण णिज्जरिद, सकषाय
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रामता
ईपिथकर्म
३५०
ईषत्प्राग्भार कामणिज्जरा इव अण्णेसिमणताणं कम्मरत्रंधाणं बंधमकाऊण णिज्जि- होदय, अण्णहा कम्मभावपरिणामाणुववत्तीदो ति । ण एस दोसो ण्णत्तादो। बन्धको प्राप्त हुए परमाणु दूसरे समपमें ही सामस्त्य जहण्णाणुभागठाणस्स जहण्णफद्दयादो अणं तगुणहोणाणुभागेण कम्मभावसे निर्जराको प्राप्त होते है, इसलिए ईर्यापथकर्म स्कन्ध महात् वर्खधो बधमागच्छदि त्ति कादूण अणुभागबंधो णत्थि त्ति भण्णदे। व्ययवाले कहे गये हैं। निर्जरित होकर भी बह ईर्यापथकर्म निर्ज- तेण अधो एगसमयहिदिणिवत्तयअणुभागसहियो अस्थि चेवे त्ति रित नहीं है, क्योकि कषायके सद्भावमें जैसी कर्मोंकी निर्जरा होती घेतब्बो। प्रश्न-कार्माण स्कन्धोका कर्मरूपसे परिणमन करनेके है वैसी अन्य अनन्त कर्म स्कन्धोंकी, बन्धके बिना ही निर्जरा होती एक समयमें ही सब जीवोंसे अनन्तगुणा अनुभाग होना चाहिए,क्योंकि है। (और भी-दे. ईर्यापथ ४/२)
अन्यथा उनका कर्मरूपसे परिणमन करना नहीं बन सकता । उत्तर६. ईपिथकर्ममे उदय उदीरणाकी अपेक्षा विशेषता
यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ पर जघन्य अनुभाग स्थानके घ. १३४५,४,२४/१२-५४/क्रमश. ७,२,६ उदिण्णमपि तण्ण उदिणं
जघन्य स्पर्धकसे अनन्तगुणे हीन अनुभागसे युक्त कर्मस्कन्ध अन्धको दद्धगोहमरासि व्व पत्तणिव्वीयावत्तादो। (५२/७) वेदिद पि असाद
प्राप्त होते है। ऐसा समझकर अनुभाग बन्ध नहीं है, ऐसा कहा है। वेदणीय ण वेदिदं, सगसहकारिकारणधादिकम्माभावेण दुक्वजण्ण
इसलिये एक समयकी स्थितिका निवर्तक ईगिय कर्मबन्ध अनुभाग सत्तिरोहादो (५३/२)। उदीरिदं पि ण उदीरिद, बधाभावण
सहित है ही, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। जम्मतरुप्पायणसत्तीए अभावेण च णिज्जराए फलाभावादो (१४/६)। ११ ईपिथकर्मके साथ गोत्रादिका भी बन्ध नही होता -उदीरणा होकर भी उदीर्ण नहीं है, क्योंकि वे दग्ध गेहके समान
ध १३/५४,२४/५२/८ इरियावहकम्मरस लक्षणे भण्णमाणे से सम्माण निर्बज भावको प्राप्त हो गये है ।(१०)। असाता वेदित होकर भी
बावारो किमिदि परूविज्जदे । ण, इरियावह कम्मसहचरिदसेसकम्माणं वेदित नहीं है, क्योंकि अपने सहकारी कारण रूप घातिया
पि इरियावहत्त सिदीए तक्लक्खणस्स वि इरियावहलक्रवणत्तुवकोका अभाव हो जानेसे उसमें दुखको उत्पन्न करनेकी शक्ति मानने
वत्तीदो । प्रश्न--ईयर्यापथ मका लक्षण कहते समय शेष मौके में विरोध आता है । (११) । उदीरित होकर भी वे उदौरित नहीं है
(गोत्र आदिके) व्यापारका कथन क्यो किया जा रहा है। उत्तर-- क्योंकि बन्धका अभाव होनेसे और जन्मान्तरको उत्पन्न करनेकी
नहीं, क्योंकि ईर्यापथके साथ रहनेवाले शेष कमों में भी ईर्यापथत्व शक्तिका अभाव होनेसे निर्जराका कोई फल नहीं देखा जाता।
सिद्ध है। इसलिए उनके लक्षण में भी ईर्यापथका लक्षण घटित हो ७. ईर्यापथकमे सुखकी विशेषता
जाता है। ध. १३/५.४,२४,५१/३ देव-माणुससुहेहितो बायरसह पायणत्तादो १२ ईयापथकर्मोमे स्थित जीवोंके देवत्व कसे है इरियावहकम्म सादभहियं । -देव और मनुष्योंके मुख से अधिक
ध,१३/५,४,२४/५१/८ जलमज्झणिव दियतत्तलोहूंडओ व्य इरियावहमुखका उत्पादक है, इसलिए ईर्यापथकर्मको अत्यधिक साता रूप
कम्मजल समसयजीवपदेसेहि गेण्हमाणो केवली कधं परमप्पएण कहा है।
समाणत्त पडिवज्जदि त्तिभणिदे तण्णिण्णयस्थ मिद बुच्चदे-इरियावह ८ ईपिथके रूक्ष परमाणुओंका बन्ध केसे सम्भव है
कम्म गहिद पि तण्ण गहिदं । कुदो। सरागकम्मगणस्सेब अणंतघ.१३/३,४,२४/५०/६ जइ एवं तो इरियावहकम्मम्मि ण क्खधो, हुक्खेग
ससारफलणिवत्तणसत्तिविरहादो। =प्रश्न-जलके बीच पडे हुए गुणाण परोप्परबंधाभावादो। ण, तत्थ दुरहियाण बधुवल भादो।
तप्तलोह पिण्डके समान ईर्यापथर्मरूपी जल को अपने सर्व प्रदेशों से - प्रश्न-यहाँपर रूक्षगुण यदि इस प्रकार है तो (ईर्यापथ कर्म
ग्रहण करते हुए 'केवली जिन' परमात्माके समान कैसे हो सकते है । बन्धके नियममें कथित रूपसे) ईर्यापथ कर्मका स्कन्ध नहीं बन
उत्तर-ऐसा पूछनेपर उसका निर्णय करने के लिए यह कहा गया है सकता. क्योकि एक मात्र रूक्ष गुणवालोंका परस्पर बन्ध नहीं हो
कि ईर्यापथकर्म गृहीत होकर भी गृहीत नहीं है, क्योकि सरागीके सकत, । उत्तर-नहीं, क्योकि वहाँ भो द्विअधिक गुणवालोंका बन्ध
द्वारा ग्रहण किये कर्मके समान पुनर्जन्म रूप संसार फलको उत्पन्न पाया जाता है।
करनेवाली शक्तिसे रहित है। ९ ईर्यापथकर्ममे स्थितिका अभाव कैसे कहते हो
* ईपिथकर्मविषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, ध. १३/५,४,२४/४८/१३ कम्मभावेण एगसमयव ट्ठिदस्स कधमवट्ठाणाभावो
अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँभण्णदे । ण, उप्पण विदियादिसमयाणवठ्ठाणवबएमुषलं भादो। ण, उप्पत्तिसमओ अवठ्ठाण होदि, उप्पत्तीए अभावप्प
-दे. वह वह नाम । सगादो । ण च अणुप्पण्णस्स अवठ्ठाणमस्थि, अण्णस्थ तहाणुव
ईर्यापथ क्रिया-दे. क्रिया ३/२।। लंभादो। ण च उप्पत्तिअवठाणाणमेयत्त, पुवुत्तरकालभावियाण- ईपिथ शुद्धि-दे. समिति १। मेपत्तविरोहादो। -प्रश्न-जबकि ईर्यापथ कर्म कर्मरूपसे एक समय
द्ध पाठवविधि-दे, कृतिकर्म है। तक अवस्थित रहता है तब उसके अवस्थानका अभाव क्यो बताया। उत्तर-नहीं क्योंकि उत्पन्न होनेके पश्चात् द्वितीयादि समयोंकी ईयसिमिति-दे. समिति १। अवस्थान सज्ञा पायी जाती है। उत्पत्तिके समयको ही अवस्थान ईशान-१. कल्पवासी स्वर्गोंका दूसरा कल्प-दे स्वर्ग ५/२, २ पननहीं कहा जा सकता, क्योकि ऐसा माननेसे उत्पत्तिके अभावका त्तर कोणवाली विदिशा। प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाये कि अनुत्पन्न वस्तुका अवस्थान
ईशित्व ऋद्धि-दे, ऋद्धि ३ । बन जायेगा, सो भी बात नहीं है। क्योंकि अन्यत्र ऐसा देखा नहीं जाता। यदि उत्पत्ति और अवस्थानको एक कहा जाये सो भी बात
ईश्वर-दे. परमात्मा ३ नहीं क्योंकि ये दोनों पूर्वोत्तर कालभावी है, इसलिए इन्हे एक ईश्वर अनीश्वर नय-दै. नय ।। मानने में विरोध आता है। यही कारण है कि यहाँ ईर्यापथ कर्मके
ईश्वरवाद-दे. परमात्मा ३। अवस्थानका अभाव है।
ईश्वरसेन-नाट सघकी गुर्वावली के अनुसार आप नन्दिषेणप्रथमके १० ईपिथकर्ममे अनुभागका अभाव कसे है
शिष्य तथा नन्दिषेण द्वि. के गुरु थे।-दे. इतिहास ७/८ । ध, १३/५,४,२४/४६/६ण कसायाभावेण अणुभागबधाभावादो। कम्मइयअवधाण कम्मभावेण परिणमणकालेसबजीवेहि अणतगुणेण अणुभागेण इषत्प्राग्भार-दे. मोक्ष १।
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ईसवी संवत्
ईसवी संवत् इतिहास २ ईहा—पि साधारणत प्रतीतिमें नहीं आता परन्तु इन्द्रियों द्वारा पदार्थको जाननेमें क्रम पडता है। पहले अवग्रह होता है, तत्पश्चात् हा आदि । अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गये अत्यन्त अस्पष्ट ग्रहण को स्पष्ट करनेके प्रति उपयोगकी उन्मुखता विशेषको ईहा कहते हैं। इसलिए इसे मतिज्ञानका भेदमाना है ।
* मतिज्ञान सम्बन्धी भेद- दे. मतिज्ञा १ ।
१ ईहाके लक्षण सम्बन्धी शंका
ध १३/५,५२६/२३०/२ अणवगहिदे अत्थे ईहा किण्ण उप्पज्जदे । ण अव गहिदत्य विसेाकखनमोहे पियमेण सह विरोहातोदो । प्रश्न- अनवगृहीत अर्थ में हाहान क्यों नहीं उत्पन्न होता है । उत्तर- नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ में उसके विशेषकी जाननेकी इच्छा होना ईहा है, इस वचन के साथ विरोध होता है।
दे । मरिज्ञान ३
* अवग्रह ईहादिका क्रम
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३५१
२ ईहाके प्रमाणपने की सिद्धि
रा. वा. ११४/११/६२/२ ननु हावा निर्णयविरोधिनोत्यादयस् प्रसङ्ग इति, तन्नः किं कारणम् । अर्थादानात् । अवगृह्यार्थं तद्विशेषोसध्यर्थमनमोहा सदाय पुनर्नार्थविशेषालम्बन एवं शमितस्योत्तरकालं विशेषोपलिप्स प्रति यतनमौहेति संशयादन्तरत्वम् । प्रश्न- निर्णयात्मक न होनेके कारण ईहाज्ञान सशय रूप है उत्तर ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ईहा पदार्थ विशेष निर्णयकी ओर झुकाव होता है जबकि सशयमें किसी एक कोटिकी ओर कोई झुकाव नहीं होता । सशयका उच्छेद करनेके लिए 'दक्षिणी होना चाहिए इस प्रकारके एक कोटिके निर्ण के लिए ईहा होती है।
ध. ६/१,१-१,१४/१७/३ णेहा सदेहकवा, विचारबुद्वीदो सदेहविणासुवभाईहाज्ञान सम्देह रूप नहीं है, क्योंकि ईहात्मक विचार बुद्धिसे सन्देहका विनाश पाया जाता है। प-२/४.१.४५/१४६/७ पुरुष किमयं दाक्षिणात्य उ उदीच्य इत्येव मादिविशेषाप्रतिपतौ संशयानस्योत्तरकाल विशेषोपलिप्सां प्रति यतनमीहा । ततोऽवग्रहगृहीतग्रहणात् सशयात्मकत्वाच्च न प्रमाणमहाप्रत्यय इति चेदुच्यते न तावद् गृहीतग्रहणमप्रामाण्यनिबन्धनम्, तर संशय विपर्ययाध्यवसायनिबन्धनत्वात्। न चैकान्तेन ईहा गृहीतग्राहिणी गृहीत व या निर्भयोत्पत्तिनिमित्तसमन महागृहीतमध्यवस्यन्या गृहीतग्राहित्याभावात् । न चैकान्तेन अगृहीतमेव प्रमाण गृह्यते, अगृहीतत्वात् खरनिषाद ग्रहणविरो धात् । न चेहाप्रत्ययसंशय, विमर्शप्रत्ययस्य निर्णयप्रत्ययोत्पत्तिनिमित्त लिङ्गपरिच्छेदनद्वारेण सशयमुदस्य तस्य संशयत्वविरोधात् । न च शराधारजीवसमप्रमाणम् संशयविरोधिन स्वरूपेण सशयतो व्यावृत्तस्य अप्रमाणत्वविरोधात् । नानध्यायरूपत्वादप्रमाणमोहा, अध्यवसितकतिपय विशेषस्य निराकृतसंशयस्य प्रत्ययस्य अनध्यवसायत्वविरोधात् । तस्मात्प्रमाणं परीक्षाप्रत्यय इति सिद्ध ।
- प्रश्न - अवग्रहसे पुरुषको ग्रहण करके, क्या यह दक्षिणका रहनेवाला है या उत्तरका, इत्यादि विशेष ज्ञानके बिना संशयको प्राप्त व्यक्तिके उत्तरकालमें विशेष जिज्ञासा के प्रति जो प्रयत्न होता है हुए वह ईहा है । इस कारण अवग्रहसे गृहीत विषयको ग्रहण करने तथा संशयात्मक होनेसे ईहा प्रत्यय प्रमाण नहीं है। उत्तर--इस शकाके उत्तरमें कहते है कि गृहीत ग्रहण अप्रामाण्यका कारण नहीं है. क्योंकि उसका कारण संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय है । दूसरे ईहा प्रत्यय सर्वथा गृहीतग्राही भी नहीं है, क्योंकि अपग्रहसे गृहीत वस्तुके
ईहा
उस अंशके निर्णयकी उत्पत्तिमे निमित्तभूत लिगको, जो कि अबग्रहसे नहीं ग्रहण किया है, ग्रहण करनेवाला ईहाज्ञान गृहीतग्राही भी नहीं हो सकता, और एकान्तत अगृहीतको ही प्रमाण ग्रहण कहते हो सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर अगृहीत होनेके कारण खरविषाणके समान असत होनेसे वस्तुके ग्रहणका विरोध होगा । (ध १३ / ५.५.२४/२११/२) ईहा प्रत्यय संशय भी नहीं हो सकता, क्योंकि निर्णयकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत लिंगके ग्रहण द्वारा सशयको दूर करनेवाला विमर्श प्रत्यय के संशयरूप होनेमें विरोध है। सहायके आधारभूत जीव में समवेत होने से भी वह ईहा प्रत्यय अप्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि, सके विरोधी और स्वरूपत संशय से भिन्न उक्त प्रत्ययके अप्रमाण होनेका विरोध है । अनध्यवसाय रूप होनेसे भी ईहा अप्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि कुछ विशेषका अध्यवसाय करते हुए सशयको दूर करने बाले उक्त प्रत्ययके अध्यवसाय रूप होनेका विरोध है, अतएव परीक्षा प्रत्यय प्रमाण है, यह सिद्ध होता है । (ध. १३/५५,२३/२१८/५) १३/५४.२३/२२८/३ पाविशदावग्रहपृष्ठभाविनी ईहा अप्रमाणम् वस्तुविशेषपरितनिमिसाया परिचिदज्ञतदेकदेशायाःसंशयविपर्ययज्ञानाभ्या व्यतिरिक्ताया अप्रमाणत्वनिरोधात अवि शद अवग्रहके बाद होनेवाली ईहा अप्रमाण है, यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वह वस्तु विशेष परिस्थितिका कारण है और यह वस्तुके एकदेशको जान चुकी है तथा यह संशय और विपर्यय ज्ञानसे भिन्न है । अत उने अप्रमाण माननेमें विरोध आता है।
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३ ईहा व धारणामे ज्ञानपनेकी सिद्धि तपीयस्त्रयोवृत्ति हाधारणयोरपि ज्ञानात्मनेयं तदुप योगविशेषात् । = ईहा और धारणाका भी उनके उपयोग विशेषसे ज्ञानात्मकरव लगा लेना चाहिए ।
प्रमाणमीमांसा १/१/२७ अज्ञानात्मकतायां तु संस्कारस्येह तस्य वा । ज्ञानोपादानता न स्याद्रूपादेरिव सास्ति च । ईहा च यद्यपि चेष्टोच्यते तथापि चैतस्य 'सति' 'ज्ञानस्येति युक्त प्रत्यक्षमेदस्वगस्या । मामीमासा १/१/३६ हाधारणयोर्ज्ञानापादानत्वाद ज्ञानरूपी श्लेया । ईहा और धारणा ज्ञानके जनक होनेसे ज्ञानरूप मानना चाहिए। श्लोक ३/१/१५/२०-२१/४४७/१८ ज्ञान नेहाभिलाषात्मा सस्कारात्मा न धारणा |२०० तच्च न व्यवतिष्ठते । विशेषवेदनस्येह दृष्टस्येहात्वसूचनात् । २१) प्रश्न- अभिलाषारूप माना गया ईहाज्ञान और संस्कार स्वरूप धारणा ज्ञान नहीं सिद्ध हो पाते। क्योंकि अभिलाषा तो इच्छा है, वह आत्माका ज्ञानसे भिन्न स्वतन्त्र गुण है । तथा भावना रूप संस्कार भी ज्ञानसे न्यारा स्वतन्त्र गुण है । अतः इच्छा और संस्कार ज्ञान रूप नहीं हो सकते । उत्तर- ऐसा कहना ठीक नहीं है, इस प्रकरण में वस्तु अशोकी आकारूप दृढ विशेषज्ञानको ईहापना सूचित किया है। ४ ईहाज्ञान अविशद अवग्रहका ही नही अपितु सर्व अवग्रहोका होता है
ध. १३/५४, २३/२१७/६ न चाविशदारग्रहपृष्ठभाविन्येव ईहेति नियमः, विशदावग्रहेण पुरुषोऽयमिति अवगृहीतेऽपि वस्तुनि किमय दाक्षिणास्य किमुदीच्य इति सशयानस्य ईहाप्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भात् । - अविशद अवग्रहके पीछे होनेवाली ही ईहा है. ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि, विशद अवग्रहके द्वारा 'यह पुरुष है' स प्रकार ग्रहण किये गये पदार्थ में भी 'क्या यह दक्षिणात्य है या उदीच्य है इस प्रकारके संशयको प्राप्त हुए मनुष्य के भी ईहा ज्ञानकी उत्पत्ति उपलब्ध होती है ।
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* ईहा व संशयमे अन्तर दे ईहा २
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* ईहा कथंचित् संशय रूप है- अग्रह २/९/२।
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उक्त
५ ईहा व अनुमानमे अन्तर
भिन्न-भिन्न
घ. १३/५५.२३/२२७/११ नानुमानमीहा, तस्य अनवगृहीतार्थ विषयत्वात् न च अत्रगृहोतानवगृहोतार्थविषययो ईहानुमानयोरेकत्वम्. भिन्नाधिकरणयोस्तद्विरोधात् । किं च--नानयोरेकत्वम्, स्वविषयादनियोविरोधात ईहा अनुमान ज्ञान नही है, क्योकि अनुमान ज्ञान अनवगृहीत अर्थको विषय करता है, और अवगृहीत अर्थको विषय करनेवाले ईहाज्ञान तथा अनवगृहीत अर्थको विषय करनेवाले अनुमान ज्ञानको एक मानना ठीक नहीं, क्योंकि भिन्न-भिन्न अधिकरणमासे होनेसे उन्हें एक माननेमें विरोध आता है। एक कारण यह भी है कि ईहा ज्ञान अपने विषयसे अभिन्न रूप लिगसे उत्पन्न होता है, और अनुमान ज्ञान अपने विषयसे भिन्न रूप लिंगसे उत्पन्न होता है, इसलिए इन्हे एक माननेमें विरोध आता है।
* ईहा व भूतज्ञानने अन्तरान 1/2
* ईहा व अवग्रहमे अन्तर - दे. अवग्रह २/१/२
* ईहादि तीन ज्ञानोंको मतिज्ञान व्यपदेश सम्बन्धी शंका समाधान दे. मतिज्ञान ३ ।
* ईहा व धारणामे अन्तर (वे धारणा २)
[3]
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उक्त मतिज्ञानका एक विकल्प दे मतिज्ञान ४ । उग्रतप एक वृद्धिदेि उग्रवंश- एक पौराणिक वंश - दे. इतिहास १० / ३ उग्रसेन (भारतीय इतिहास १/२८६)- अपर नाम जनकथा अत दे. जनक । राजुनके पिता । - दे. वृहत् जैन शब्दार्णव द्वितीय खंड | म पु. सर्ग श्नो मथुराका राजा व कंसका पिता था । ३३-२३ । पूर्वभवक वैरसेकसने इनको जेल में डाल दिया था । २५-२६। कृष्ण द्वारा कंसके मारे जानेपर पुन इनको राज्यकी प्राप्ति हो गयी ।३६-५१ उग्रादित्याचार्य" (यु. अनु. / ४६ प जुगल किशोर) यह ई श /६ पूर्वार्ध के एक ब्राह्मण आचार्य थे। आपने 'कल्याणकारण' नामक एक वैद्यक ग्रन्थ लिखा है (तो ३/२५०) उच्चकुलउच्चगोत्र — वर्ण व्यवस्था १
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दे. वर्णव्यवस्था १ ।
दे
। उच्चाराको प्रचार कहते हैं औदारिक शरीरमें उसका प्रमाण दे औदारिक १/७
उच्चारणाचार्य - आपने यतिवृषभाचार्य कृत कषाय प्राभृतके चूर्ण सूत्रोंपर विस्तृत उच्चारणवृत्ति लिखी थी। अतः यतिवृषभाचार्य के अनुसार आपका समय लगभग ई. श. २ तथा ३ के मध्य कहीं होना चाहिए। ( ती २ / ६५) ।
उच्छ्वास स. सि ५/१६ / २८८/१ वीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षयोपशमाहोपाइनामोदयापेक्षारमनाउदस्यमान' को वायुरुष वास प्राण इत्युच्यते नीर्यान्तराय और ज्ञानावरण क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदयकी अपेक्षा रखनेवाला आत्मा कोष्ठगत
३५२
उच्छवास
जिस वायुको बाहर निकालता है, उच्छ्वासलक्षण उस वायुको प्राण कहते है। (वा ३/११/२४/४०३/२०) (गो की जी ६०६/१०६२/१९) ६/११-१२०/६०/१) समुच्छ् वास ।" साँस लेनेको उच्छवास कहते है ।
२ श्वासोच्छ्वास या आनप्राणका लक्षण
प्र सा / त प्र ६४६ उदञ्च नन्यञ्चनात्मको मरुदानपानप्राण । =नीचे और ऊपर जाना जिसका स्वरूप है, ऐसी वायु श्वासोच्छ्वास या आनप्राण है 1
गो जी / जी प्र ५७४ /१०१८/११ में उद्धृत अड्ढस्स अणलस्स य विरु वहदस्स य हवेज्ज जीवस्स उस्सासाणिस्सासो एगो पाणोति आहीदो । जो कोई मनुष्य 'आढ्य' अर्थात् सुखी होइ आलस्य रोगादिकरि रहित होइ, स्वाधीनताका श्वासोच्छ्वास नामा एक प्राण कहा है इसीसे अन्तर्मुहूर्तको गणना होती है।
३ उच्छ्वास नाम कर्मका लक्षण
=
स. सि. ८ / ११ / ३६१/६ यद्धेतुरुच्छ् वासस्तदुच्छ् वासनामा । जिसके निमित्तसे उपवास होता है वह उच्यूमास नाम है (रावा. ८/११/१७/४/०८/६). (गो. क / जी. प्र. ३३ / २२ / २१)
),
ध ६/१, ६-१, २८/६ ०/१ जस्स कम्मस्स उदएण जीवो उस्सासक्ज्जुप्पाarrant होदि तस्स कम्मस्स उस्सासो त्ति सण्णा: कारणे कज्जुबारादो । - जिस कर्म के उदयसे जीव उच्छ्वास और निश्वासरूप कार्यके उत्पादनमें समर्थ होता है, उस कर्मको 'खास' यह सज्ञा कारण में कार्य के उपचारसे है ।
४ उच्छ्वास पर्याप्ति व नामकर्ममे अन्तर
रा. बा. ८/११/१२/१२/०१/१५ अत्राह प्राणापानकर्मोदये वायोनिष्क्रमणप्रवेशात्मक फलम् उच्छ्वासकर्मोदयेऽपि तदेवेति नास्त्यनयोविशेष इति उच्यते सनिवस्य पचेद्रियस्य यावुच्छ वासनिश्वासी दीर्घनादी श्रोत्रस्पर्शनेन्द्र तावुवासनामोदयनीयौ तु प्राणापानपर्या सिनामोदयकृती (ती) सर्वससारिणां श्रोत्रस्पर्शानुपलभ्यत्वादतीन्द्रियौ । = प्रश्न - प्राणापान पर्याप्त नाम कर्म के उदयका भी वायुका निक्लना और प्रवेश करना फल है, और उच्छ्वास नामकर्म के उदयका भी वही फल है । इन दोनोंमे कोई भी विशेषता नहीं है ' उत्तर-प चेन्द्रिय जीवोके जो शीत उष्ण आदिसे लम्बे उच्छवास निःश्वास होते है वे श्रोत्र और स्पर्शन इन्द्रिय के प्रत्यक्ष होते है और श्वासोच्छ्वास पर्याप्त तो सर्व मंसारी जीवोके होती है, वह यो स्पर्शन इन्द्रिय से ग्रहण महीको जा सक्सी।
५ नाडी व श्वासोच्छ्वासके गमनागमनका नियम
ज्ञा २६/१०-११ षोडशप्रमित कैश्चिन्निर्णीतो वायुसंक्रम । अहोरात्रमिते काले यथाक्रम १० पट साम्यधिकान्याहु सखायेविशति । अहोरात्रे नरि स्वस्ये प्राणवायोग मागनी ह यह पवन है सो एक नाडीमे नालीद्वयसाद्ध कहिए अढाई घडी तक रहता है, तत्पश्चात् उसे छोड अन्य नाडी में रहता है। यह पवनके ठहरने के काका परिमाण है ॥८६॥ किन्ही किन्हीं आचायोंने दोनों नाडियोमे एक अहोरात्र परिमाण कालमें पवनका सक्रम क्रमसे १६ बार होना निर्णय किया है | १०| स्वस्थ मनुष्य के शरीर में प्राणवायु श्वासोच्छ्बासका गमनागमन एक दिन और रात्रि में २१६०० बार होता है । ६१ । ६ अन्य सम्बन्धित विषय
* प्राणपान सम्बन्धी विषय - दे. प्राण | * उवास प्रकृतिके बंध उदय सत्व वहनाम उच्छ्वास ★ उच्छ्वास निःश्वास नामक काल प्रमाणका एक भेद
-दे गणित 1 / १/४
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उच्छादन
उच्छादनससि ६/२५ / २२२/२३ प्रतिधारि अनुभूतवृत्तिता अनाविर्भाव उच्छादनम् । = रोकनेवाले कारणों के रहनेपर प्रकट नहीं करनेकी वृत्ति होना उच्छादन है । उच्छिष्टावली — दे आवली
उज्जिह्नि- - दूसरे नरकका आठवाँ पटल-दे नरक ५/११ उज्झनशुद्धि- शुद्धि ।
उज्वल—विद्य ुत्प्रभ गजदन्त पर्वतपर स्थित एक कूट तथा उसका रक्षक देव-दे लोक ५/१२ ।
उज्वलित तीसरे नरकका सातवाँ पटल-दे नरक ५/११ । उटुंबरी-आर्य खडकी एक नदी दे मनुष्य ४ । उडदशमीव्रत (वत - विधान संग्रह पृ. १३१) ( नवलसाहकृत बर्द्धमान पुराण), विधि - दशमी उडड उडड आहार । पाँच घरनि मिलि जो अविकार |
नोट- यह व्रत श्वेताम्बर व स्थानकवासी आम्नायमें प्रचलित है । उत्कर्षण - १०/ ४२.४,२१/५२ / ४ कम्मप्सदेसट्ठि विद्वावणमुक्क डुणा । कर्मप्रदेशोकी स्थिति (व अनुभाग) को बढाना उत्कर्षण कहलाता है ।
उत्कर्षणचित
गो को ४३८५१०४ और भी वृद्धि
भागो रहते है।
गो जो / भाषा २५८/५६६/१७ नोचले निषेकनिका परमाणू ऊपरिके निषेकनि विषै मिलावना सो उत्कर्षण है । (ल सा / भाषा ५४ / ८७ / ४) २ उत्कर्षण योग्य प्रकृतियाँ गोक / ४४४ / ५६५
•
धुकटुकरण सगमगनघोन्ति होदि नियमेण । बन्धकरण और उत्कर्ष कर में दोनों जिस जिस प्रकृतिकी जहाँ अन्य तिस तिस प्रकृतिका ( व उत्कर्षण भी) तहाँ हो पर्यंत नियमकरि जानने ।
-
३ उत्कर्षण सम्बन्धी कुछ नियम
क्षमा ४०२ कामेकदि असे अट्टिदा होति । आवसिय से काले तेण पर होति भजियां |४०२ | नियमन १- सक्रमण विषै जे प्रकृतिके परमाणु उरूप करिए है से अपने कालनिये आलिका पर्यंत ती अवस्थित हो रहे वादे परे भजनीय हो है. अवस्थित भी रहे और स्थिति आदिकी वृद्धि हानि आदि रूप भी होइ ।
1
कपा २/४-२२०२.३३६/२२० अनुभागाचा विभागपडिदाण बुड्ढोए अभावादो बधेण विणा तदुक्कडगाणुवत्तीदी ।३३६.१ । परमाणून बहुतमण्पत वा अग्रभागमहाली न कारणमिदि बहुसो परुविदतादो ॥२६-१२० नियम न. २ होनेपर अनुभागस्थान के अविभागी प्रतियोकी वृद्धि नहीं होती है, क्योंकि बन्धके बिना उसका उत्कर्षण नही बन सकता। नियम न ३-परमाओका बहुतपना या अपना अनुभावी वृद्धि और हानिका कारण नहीं है, अर्थात् यदि परमाणु बहुत हो तो अनुभाग भो बहुत हो और यदि परमाणु कम हो तो अनुभाग भी कम हो, ऐसा नहीं है, यह अनेक बार कहा जा चुका है।
[घ] १०/४.२.४.११/०३/२ बधाणुसारिणी उमामुधपदेस विष्णासातदो
ध १०/४,२,४,१४,/४६ / ६ जस्स समयपबद्धस्स सत्तिद्विदी वट्टमाणसिमाना सो समयमहो वहमाचरियद्विदिति
उ
२३
३५३
उत्कर्षण
घ. १०/४.२.४.२१/२/५ उदद्यादिपदेसा प [रजिति । उदयमतिमाहिद्विदीओ समाज [१] उति किंतु परिमडी आवसियाए उसखेनविभाग आलिया अस खेज्जदिभागे उक्कडिज्जदि, उवरि द्विदिबंधाभावादो। अइच्छा वाणिखेवाभावा रथ उक्कडुणा हेट्ठा। नियम नं ४- उत्कर्षण बन्धका अनुसरण करने वाला होता है, इसलिए उसमें दूसरे प्रकार से प्रदेशोकी रचना नही बन सकती । नियम न ५- जिस समय प्रबद्धकी स्थिति वर्तमान में हुए कर्मको अन्तिम स्थिति समान है उस समय प्रबद्धका वर्तमानमे बँधे हुए कर्मकी अन्तिम स्थिति तक उत्कर्षण किया जाता है। नियम नं ६ - उदयावली की स्थिति के प्रदेशोका उत्कर्षण नही किया जाता है। नियम नं ७--- उदयाली बाहरको सभी स्थितियो (भी)(नहीं) किया जाता है किन्तु चरम स्थिति बावलोके असंख्यात भागको अतिस्थापना रूपसे स्थापित करके आवलिके असख्यात बहुभागका उत्कर्षण होता है। क्योकि इससे ऊपर स्थितिबन्धका अभाव है । अतिस्थापना और निक्षेपका अभाव होनेसे नीचे नही होता है ।
=
पा. ७/५-२२/१४३९/२४४ विशेषार्थ पहले मतता जाये है कि सर्मपरमाशुओं का न होकर कुछ होता है और का नहीं। जिनका नहीं होता उनका सक्षेपसे व्योरा इस प्रकार है१. उयावलोके भीतर स्थितमाओंका उत्कर्षण नहीं होता। २. उदपावली के बाहर भी सत्ताने स्थित जिन कर्मपरमाणुओ की कर्म स्थिति (स्थिति) उत्कर्षण के समय बंधनेवाले क्मोंकी आबाधाके बराबर या उससे कम शेष रही है, उनका भी उत्कर्षण नहीं होता। ३. निर्व्याघात दशामें उत्कर्षको प्राप्त होनेवाले कर्म परHight अतिस्थापना कमसे कम एक आवली प्रमाण बतलायी है, इसलिए अतिस्थापनारूप द्रव्यमें उत्कर्षित द्रव्यका निक्षेप नहीं होता । ४ व्याघात दशा में कमसे कम आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अतिस्थापना और इतना ही निक्षेप प्राप्त होनेपर उत्कर्षण होता है । अन्यथा नही होता। नोट- इस विषयका विस्तार - दे. (क. पा सुत्त ६-२२ / सूत्र ४-४७ / पृ २१४ - २१६), (क. पा. ७/५-२२/ ४२६-४०४/२४२-२०३)
४ व्याघात व अन्य घात उत्कर्षण निर्देश
क. पा. ७/५-२२/४३१/२४५/५ विशेषार्थ "जहाँ अति स्थापना एक आवली और निक्षेप आवलीका असंख्यातवा भाग आदि बन जाता है वहाँ दिशा होती है और जहा अतिस्थापना एक आवली प्रमाण होने में बाधा आती है वहाँ व्याघात दशा होती है । जब प्राचीन सत्ता में स्थित्त कर्म परमाणुओकी स्थिति से नूतनबन्ध अधिक हो, पर इस अधिकका प्रमाण एक आवली और एक आवलिके असख्यातवें भाग के भीतर ही प्राप्त हो, तब यह व्याघात दशा होती है । इसके सिवा उत्कर्षण में सर्वत्र निर्व्याघात दशा ही
जानना ।"
५ स्थिति बन्धोत्सरण निर्देश
ख. खा. / भाषा ३९४ / २६१से स्थिति मन्यसरकार दे, अपकर्ष प ३) स्थिति पाइएक-एक अन्तर्मुहूर्त समान मन्ध करें था, तसे इहॉ स्थितिबन्धोत्सरणकार स्थिति बन्ध बधाइ एक एक अन्तविष समान बन्ध करें है।
६ उत्कर्षण विधान तथा जघन्य उत्कृष्ट अतिस्थापना व निक्षेप
१. दृष्टि नं. १
सामू ६१-६४ सत्तग्गा अस्वभातियमेव
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योग आग लितत्तदिध्यावण दि
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उत्कर्षण
३५४
उत्कर्षण
जात्रावली तदुक्कस्सं। उवरीदो णिक्खेओ वरं तु बधिय ठिदि जेछ ।६। बोलिय बंधावलियं उक्कट्ठिय उदयदो दु णिक्खि बिय । उबरिमसमये विदियावलिपढमुक्कट्टणे जादो ।६३। तकालवजमाणे वारद्विदीए अदेत्थियावाह । समयजुदावलीयाबाहूणो उक्कस्सठिदिबको ६ मन भाषाकार कृत विस्तार -अभ्याधात विष स्थितिका उत्कर्षण होते विधान कहिए है। पूर्व जे सत्ता रूप निषेक थे तिनिविषै जो अन्तका निषेक था ताका द्रव्यको उत्कर्षण करनेका समय विष बन्ध्या जो समयप्रबद्ध, ती हि विषै जो पूर्व सत्ताका अन्तनिषेक जिस समय उदय आवने योग्य है तिसविर्ष उदय आबनेयोग्य बन्ध्या समयप्रबद्धका निषेक, तिस निषेकके उपरिवर्ती आरलीका असख्यात भागमात्र निषेक्को अतिस्थापना रूप राखि तिनिके उपरिवती जे तितने ही आवली के अस ख्यातभागमात्र निषेक तिनि विर्षे तिस सत्ताका अन्त निषेकका द्रव्यको निक्षेपण करिए है। यह उत्कर्षण विर्ष जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेप जानना । सदृष्टि- कल्पना करो कि पूर्व सत्ताका अन्तिम निषेक जिस समय उदय होगा उस समय में वर्तमान समयबद्धका ५०वाँ निषेक उदय होना है तहाँ तिस ५०वेसे ऊपर ५१ आदि आ ५०/अस भिषेक अर्थात १६/
४४ निषेक अर्थात ५१-५४ निषेकोको अतिस्थापना रूप रखकर तिनके ऊपरवाले आवलीके असंख्यातभागमात्र १५४-५८) निषेकोंमें निक्षेपण करता है। तहाँ ५१-५४ तो आ./असं मात्र निषेक अतिस्थापना रूप है और (५४-५८) आ./असं मात्र निषेक ही निक्षेप रूप है। यह जघन्य अतिस्थापना व जघन्य निक्षेप है।-दे आगे यत्र । तिस पूर्व सबके अन्त निषेक्ते लगाय ते नीचेके ( सत्ताके उपात्तादि) निषेक तिनिका (पूर्वोक्त ही विधानके अनुसार) उत्कर्षण होते, निक्षेप तौ पूर्वोक्त प्रमाण ही रहै अर अतिस्थापना क्रमतै एक-एक समय बॅधता होइ सो यावत आवली मात्र उत्कृष्ट अतिस्थापना होइ तावत् यह क्रम जानना । (यहाँ अतिस्थापना तो ३६-५४ और निक्षेप ५५-५८ हो जाती है यथा-संदृष्टि-अक सदृष्टि करि सत्ताके अन्त निपेकको उपांत निषेक जिस समय विषै उदय होगा तिस समय हाल बन्ध्या समयप्रबद्धका ४६वाँ निषेक उदय होगा। सो तिस उपान्त निषेकका द्रव्य उत्कर्षण करि ताको ५०वाँ आदि (५०-५४) पाँच निषेकनिको अतिस्थापना रूप राखि ऊपरि ५५वों आदि (२५-५८) चार निषेकनिविषै निक्षेपण करिए । बहुरि ऐसे ही उपांत निषेकतै निचले निषेकनिका द्रव्य उत्कर्षण करते. बन्ध्या समय प्रबद्धका क्रमते ४६वाँ, ४८वाँ आदितै लगाइ छ , सात, आठ आदि एक-एक बंधते निषेक अतिस्थापना रूप राखि ५५वों आदि (पूर्वोक्त ही ११.५८) निषेकनिविर्षे निक्षेपण करिए है। तहाँ हाल बन्ध्या समय प्रबद्रका ३८वॉ निषेक जिस समयविर्ष उदय होगा तिस समय विषै उदय आवने योग्य जो पूर्व सत्ताका निषेक ताका द्रव्यको उत्कर्षण करते हालबन्ध्या समयप्रबद्धका ३६वाँ आदि १६ निषेकनिकौ (अर्थात् आवली प्रमाण निषेकनिकौ) अतिस्थापनारूप राबै है । सो यह उत्कृष्ट अतिस्थापना है। इहाँ पर्यन्त (पूर्वोक्त ही) ५ आदि (५५-५८) चार निषेकनिविषै निक्षेपण जानना।
बहुरि आवलीमात्र अतिस्थापना भये पीछे, ताके नीचे-नीचेके निषेकनिका उत्कर्षण करते अतिस्थापना तौ आवलीमात्र ही रहै अर निक्षेप क्रमते एक-एक निषेकरि बंधता हो है। अंक संदृष्टि करि जैसे हाल बन्ध्या समयप्रबद्धका ३७वाँ निषेक जिस समय उदय होगा तिस समय विषै उदय आवने योग्य सत्ताके निषेकको उत्कर्षण होते (पश्चादानुपूर्वीसे) ३८वाँ आदि १६ निषेक (३८-५३) अतिस्थापना रूप हो है, ५४वाँ आदि पाँच निषेक (५४-५८) निक्षेप रूप हो है। बहुरि ताके नीचेके निषेकका उत्कर्षण होते ३७वॉ आदि (३७-५२) १६ निषेक अति स्थापना रूप हो है। ५३वाँ आदि (५३-५८) छ' निषेक निक्षेप रूप हो है । ऐसै अतिस्थापना तौ तितना ही अर निक्षेप क्रमते बंधता जानना । उत्कृष्ट निक्षेप कहाँ होइ सो कहिए
है । कोई जीव पहिले उत्कृष्ट स्थिति बान्ध पीछे ताकी आवाधा विषै एक आवली गमाइ ताके अनन्तर तिस समयप्रबद्धका जो अन्तका निषेक था ताका अपकर्षण कीया। तहाँ ताके द्रव्यको (सत्ताके) अन्तके एक समयाधिक आवलीमात्र निषेकनिविषै तौ न दीया, अवशेष वर्तमान समय विषै उदय योग्य निषेक तै लगाइ सर्व निषेककनि विषै दीया। ऐसे पहिले अपकर्षण कीया करी। बहूरि ताकै ऊपरिवर्ती अनन्तर समय विषै, पूर्व अपकर्षण किया करते जो द्रव्य उदयावली (द्वितीयावली) का प्रथम निषेक विषदीया था ताका उत्कर्षण किया। तब ताके द्रव्यको तिस उत्कर्षण करनेका समय विषे बन्ध्या जो उत्कृष्ट स्थिति लिये सययप्रबद्ध, ताके आमाधाको उल्लघ पाइये है जे प्रथमादि निषेक, तिनि विषै, अन्तकै समय अधिक आवलीमात्र निषेक छोडि अन्य सर्व निर्ष कनि विषै निक्षेपण करिए है। इहाँ एक समय अधिक आवली करि युक्त जो आबाधा काल तौहि प्रमाण तौ अतिस्थापना जानना । काहेतै सो कहिए है-जिस द्वितीयावलोका प्रथम निषेकका उत्कर्षण किया सो तो वर्तमान समयतै लगाइ एक-एक समय अधिक आवली काल भए उदय आवने योग्य है । अर जिन निषेकनिविषे निक्षेपण किया है, तै वर्तमान समयतै लगाइ बन्धी स्थितिका आबाधाकाल भये उदय आवने योग्य है। सो इनि दोऊनिके बीच एक समय अधिक आबलीकरि युक्त आबाधाकाल मात्र अन्तराल भया। द्वितीयावलीके प्रथम निषेकका द्रव्यको बीचमें इतने निषेक उल्लघ ऊपरिके निषेकनि विषै दीया सोइ इहाँ अतिस्थापनाका प्रमाण जानना । बहुरि इहाँ एक समय अधिक आवली करि युक्त जो आबाधाकाल तीहिं करि ह'न जो उत्कृष्ट कर्म स्थिति तीहि प्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप जानना। काहे ते सो कहिए है
एक समय-अधिक आवली मात्र तो अन्तके निषेकनिविर न दीया अर आबाधाकाल विधै निषेक रचना ही नही, सातै उत्कृष्ट स्थितिविर्षे इतना घटाया। इहाँ इतना जानना- अपकर्षण द्रव्य का नीचले निषेकनिबिषै निक्षेपण कीया ताका जो उत्कर्षण होइ तौ जेती बाकी शक्तिस्थिति होइ तहाँ पर्यत ही उत्वर्षण होइ, ऊपर न होइ । शक्तिस्थिति कहा सो कहिये है-विवक्षित समय प्रमद्धमा जो अन्तका निषेक ताकी तो सर्व ही स्थिति व्यत्ति स्थिति है.बहुरि ताके नीचे नीचेके निषेक निके क्रमते एक समय धाटि, दोय समय घाटि, आदि स्थिति व्यक्तिस्थिति है । बहरि प्रथमादि निषेक निक सर्व ही स्थिति शक्तिस्थिति है । सो उत्कर्षण कीया द्रव्य को, मैती शक्तिस्थिति होइ तहाँ पर्यंत ही दीजिये है, महुरि पूर्वे निक्षेप अतिस्थापना कहा ताका अक संदृष्टिकरि स्वरूप दहिये है--संदृष्टि-जैसे पूर्वे समयप्रबद्ध हजार समयकी स्थिति लिये बन्ध्या। तामें सोलह समय व्यतीत भये अन्त निषेक का द्रव्यको अपवर्षणकरि आमाधाके ऊपरि तिस स्थिति निषेक थे, तिमविर्षे १० निषेक (समय अधिक आवली) को छोडि अन्य सर्व निषेक निविष द्रव्य दीया । बहू रि ताकै अनन्तर समय विर्ष जो तिस अन्त निषेव का द्रव्य, जो उत्कर्षण क रनेका समय से लगाय १७ समय विषै उदय आव ने योग्य ऐसा द्वितीयावली का प्रथम निषेक तिसकि दीपथा ताका उत्कर्षमा किया, तब तीहि समय विर्ष १०८० समय प्रबद्ध प्रमाण स्थितिबन्ध भया । ताकी ५० समय प्रमाण तो आबाधा है और १५० निषेक है। तिनि निषेकनि विषै अन्तके १७ निषेक छोड़ अन्य सर्व निषेकनि विधै तिस उत्कर्षण कीया द्रव्यको निक्षेपण करिए है। ऐसे इहा वर्तमान समय तै लगाय जाका उत्कर्षण कीया सो तो सतरहवे (१७३) स्मय विषै उदय आबने योग्य था, जिस बन्ध्या समयप्रबद्धको प्रथम निषैवविय दीया, सो ५१वॉ समय विषै उदय आवने योग्य भया । सो इनिके बीचि अन्तराल समय भया। सोई अतिस्थापना जानना । बहुरि १००० समयकी स्थितिविषै ५० समय आनाधाके और १७ निषेक अन्तके घटाय अवशेष ६३३ निषेक निविषै
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उत्कर्षण
द्रव्य दीया सो यहू उत्कृष्ट निक्षेप जानना । -- (इसी बात को नीचे यत्रो द्वारा स्पष्ट किया गया है ) -
१- अन्य अतिस्थापना जघन्य निक्षेप
8+
विवेक सं
art अतिस्वा
आबाधा
ऊपर ऊपर का निषेक
निक्षेप मे मिलाते जाना
३ उत्कृष्ट अतिस्थापना मध्यम निक्षेप
५.
अति स्थापना नीचे सरकती गई और निक्षेप क्रमश 4. ऊपर चढ़ता गया
स्थापन में अत वह
नवीन समयप्रबद
निषेक स
My
-1016 LINK R
सत्ता
निक्षिप्तद्रव्य
चरमनिषेक उत्कर्षित द्रव्य
उदयावली वर्तमान उदय निषेक
उदयमजली के समान उद
श्थत रहती है।
६२
+3 7 --***---
he Rige
आबाधा
उत्कृष्ट निक्षेप विधान, 'मे उत्कर्षण विभाग
द्रव्य
२- उत्कृष्ट अतिस्थापना जघन्य निक्षेप
नवीन समयक्र
निषेकस]
६९
६७
६५
द्वितीयावली ४०० नवप्रबाधा
+ ५० निषेक
६३
६१
धन्यनिक्षेप000 अवस्थित,
निषेक स पदानु
उत्कर्षित द्रव्य
उत्कर्षित व्रज्य
आबाधा
8 - नवीन समय प्रबद्ध
प्रमाण १६ निषेक हो जाये
Yox
३९
: उदयावली आबाधा
पूर्व सत्ता
निक्षिप्त
बिषेकन
★ पश्चादानुपूर्वी
१ अतिमनिषेक
₹
उदयादी
४निषेविण में अपकर्षण विभाग
वर्तमान समय प्रबद्ध
0000000
उत्कर्षित
द्रव्य
पूर्व सत्ता
पूर्वसत्ता
पूर्व सत्ता
नवीन समय. मबद्ध अतिद्ध पनावली ९७ निषेक
10
निषेकनं ५०० उत्कर्षणनिषेक मे ३४8 गत द्रव्य निषेन १९
उदयावली
अतिस्थापना
कर्षित द्रव्य,
द्वितीया वली
६- अन्य प्रकार उत्कृष्ट निक्षेप
नवीन समय प्रबद अतिस्था•
१७ निषेक
स्थिति १००० निषेक 088888888888880*****
उत्कर्षित द्रव्य
उनक
असाधा
२. दृष्टि नं. २
लसा / भाषा / ६६-६७ अथवा कोई आचार्य निके मतकरि निक्षेपण विषै ऐमे निरूपण है- उत्कृष्ट स्थिति बन्ध बान्धा था, ताकी बन्धावलीको गमाय पीछे ताका प्रथम निषेकका उत्कर्षणकरि ताके द्रव्यकौ
उत्तमवर्ण
तिस उत्कर्षण करने के समयविषे बान्ध्या जो उत्कृष्ट स्थिति लिये समय प्रबद्ध ताका द्वितीय निषेकका आदि देकरि अन्त विषे अतिस्थापना मात्र निषेक छोडि सर्व निषेकनिविये निक्षेपण किया तहाँ एक समय अर एक आवली अर बन्धी स्थितिका आबाधाकाल इनिकरि हीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप हो है । इहाँ बन्धी जो उत्कृष्ट स्थिति ताविषै आबाधाकालविषै तौ निषेक रचना नाहीं, अर प्रथम निषेकविषे द्रव्य दीया नाही, अर अन्तविषै अतिस्थापनावली विषै द्रव्य न दीया ताते पूर्वोक्त प्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप जानना । इहाँ पूर्वोक्त प्रकार अक संदृष्टिकरि कथन जानना | ६५ | उत्कृष्ट स्थिति लीए जो उत्कर्षण करने के समय विषय बन्ध्या समयबद्ध ताकी अबाधाकालका जो अग्र कहिए अन्त समय तीहि सेती लगाय एक समय अधिक आवली मात्र समय पहिले उदय आवने योग्य ऐसा जो पूर्व सत्ताका निषेक ताका उत्वर्षण करते आवलीमात्र जघन्य अतिस्थापना हो है जातै तिस द्रव्यको आबाधा विष जो एक आवलीमात्र काल रह्या, 'ताको उल्लघ करि तिस बन्ध्या समय के प्रथमादि निषेकनिविषै, अन्तविषै अतिस्थापनावली छाडि निक्षेपण करिए है ।
३५५
अक सदृष्टिकरि-जैसे १००० समयकी स्थिति लोए समय प्रबद्ध बान्ध्या ताका ५० समय आबाधाकाल ताके अन्त समग्रतै लगाइ १७ समय पहिलै उदय आवने योग्य ऐसा वर्तमान समयतै ३४वा समय विषै उदय आवने योग्य पूर्व सत्ताका निषेक ताका उत्कर्षण करि तत्काल बन्ध्या समय प्रबद्धका आबाधा काल व्यतीत भये पीछे प्रथमादि समय विषै उदय आत्रने योग्य १५० निषेक तिनिविषै अन्तर्क १७ निषेक छोडि प्रथमादि १३३ नियेक विषै निक्षेपण करिए है । इहाँ उत्कर्षण कीया निपेकनिके और दीये गये प्रथमादि निषेकनिके बीच अन्तराल १६ समग्रका भया, सोई जघन्य अतिस्थापना जानना । ६६ । तहाँते उतरि तिसतै पहिले उदय आवने योग्य ऐसा अन्य कोई सत्तास्वरूप समय प्रबद्ध सम्बन्धी द्वितीयावलीका प्रथम निषेक जा वर्तमान समयतै आवन्तीकाल भए पीछे उदय आवने योग्य है, ताका उत्कर्षण होते, नीचे एक समय अधिक आवलीकरि हीन आबाधा काल प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना हो है । समय-अधिक आवलोकरि होन जो आवाधा ताको उल्लघ ऊपरिके जे निषेक तिनिविषे अन्तके अतिस्थापनावली मात्र निषैक छोडि अन्य नियैकनिवि तिस को दीजिए है कहाँ पूर्वोक्त प्रकार अक सदृष्टि आदिकवि कथन जानि लेना ।
उत्कर्ष समास्थाय ५/५-१/४ मापातदर्धर्म विकल्पा दुभयसाध्यत्वाच्चीमा 1
न्या. सू / भाष्य ५- १/४ दृष्टान्तधर्म साध्ये समाज्जन् उत्कर्षसम । यदि क्रियाहेतुगुणयोगाला ष्टवत् क्रियावानात्मा लोष्टवदेव स्पर्शवानपि प्राप्नोति । अथ न स्पर्शवान् लोष्टवत् क्रियावानपि न प्राप्नोति विपर्यये वा विषय इति । धर्मको साध्य के साथ मिलानेवालेको 'उत्कर्षसमा' कहते हैं। जैसे--आत्मा यदि डेलके समान क्रियावान है तो डेलके समान ही स्पर्शवान भी हो जाओ। अब वादी यदि आत्मा डेलके समान स्पर्शवाद नहीं मानना चाहेगा तब तो वह आत्मा उसी प्रकार कियावान् भी नहीं हो सकेगा । ( श्लो वा ४ / न्या ३४० / ४७४-४७५ / १)
उत्कल (म. पु / प्र ४६ / प. पन्नालाल ) उड़ीसादेश ।
――
उत्कलिका - ( ध १ / ५ ५२ / H L Jain) भीमरथ और कृष्ण मेख (कृष्णा) नदीके बोचका प्रदेश जो अब बेलगाँव व धारवाड कहलाता है ।
उत्कीरण काल दे. काल / १ ॥
उत्तमवर्ण - भरतक्षेत्र में विन्ध्याचल पर स्थित एक देश - दे. मनुष्य ४ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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उत्तमार्थकाल
उत्पादव्ययध्रौव्य
उत्तमार्थकाल-दे काल १। उत्तर-१ चय अर्थात Com n on difference (विशेष दे गणित
II/२/३), २ दक्षिण घृतवर द्वीपका रक्षक देव-दे व्यतर ४ । उत्तर कुमार-(पा. पु सर्ग श्लो) राजा विराटका पुत्र था (१८/४२) इसके पिताके कौरवो द्वारा बाँध लिये जाने पर अर्जुनने इसका सारथी बनकर कौरवोसे युद्ध किया (१८/६१) फिर कृष्ण जरासन्ध युद्धमे राजा शल्य द्वारा मारा गया (१९/१८३)। उत्तरकुरु-१ विदेह क्षेत्रमें स्थित उत्तम भोगभूमि है। इसके उत्तर में नील पर्वत, दक्षिण में सुमेरु, पूर्व में माल्यवान गजदन्त और पश्चिममें गन्धमादन गजदन्त पर्वत स्थित है-दे. लोक ३/१२ ।
२. उत्तरकुरु सम्बन्धी कुछ विशेषताएँ-- दे. भूमि ५ (ज.प/प्र १४०/AN. Up & H L Jain) दूसरी सदी के प्रसिद्ध इतिहासज्ञ 'टालमी के अनुसार उत्तर कुरु' पामीर देशमें अवस्थित है । ऐतरेय ब्राह्मणके अनुसार यह हिमवानके परे है। इण्डियन ऐंटिक्वेरी १६१६ पृ ६५ के अनुसार यह शको और हूणोंके सीमान्त थियानसान पर्वतके नले था। वायुपुराण ४५-५८ के अनुसार 'उत्तराणा कुरूणा तु पार्ने ज्ञय तु दक्षिणे। समु मूमिमाल ढय नानास्वरविभूषितम् ।" इस श्लोकके अनुसार उत्तरकुरु पश्चिम तुर्किस्तान ठहरता है, क्योंकि, उसका समुद्र 'अरलसागर' जो प्राचीनकालमे कैप्सियनसे मिला हुआ था. वस्तुत प्रकृत प्रदेश के दाहिने पाश्वमे पडता है। श्री राय कृष्णदासके अनुसार यह देश थियासानके अचलमें
बसा हुआ है। उत्तरकुरु कूट-गन्धमादन पर्वतपर स्थित एक कूट। माल्यवान
गजदन्तपर स्थित एक कूट व उसका स्वामी देव-दे लोक ५/४। उत्तरकुरुद्रह-उत्तरकुरुमें स्थित १० द्रहो में-से दोका नाम उत्तर
कुरु है-दे लोक ५/६। उत्तरगुण-भ आ /वि. ११६/२७७/८ प्रगृहीतसयमस्य सामायिकादिक अनशनादिकं च वर्तते इति उत्तरगुणरव सामायिकादेस्तपसश्च । -जिसने संयम धारण किया है, उसको सामायिकादिक, और अनशनादिक भी रहते है। अत सामायिकादिको और तपको उत्तरगुणपना है। * साधु व श्रावकके उत्तर गण-दे. साधु २ तथा श्रावक ५ । उत्तरचरहेतु-दे हेतु।
-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे.व्युत्सर्ग १। उत्तरदिशा- उत्तर दिशाकी प्रधानता -दे दिशा उत्तरधन-चयधन-दे. गणित //३। उत्तरपुराण-१. आचार्य जिनसेन (ई ८१८-८७८) के 'आदिपुराण' की पूर्ति के अर्थ उनके शिष्य आचार्य गुणभद्र (ई ८६८) ने इसे लिखा था। इसमें भगवान ऋषभदेवके अतिरिक्त शेष २३ तीर्थंकरोंका वर्णन है। वास्तव में आचार्य गुणभद्र भी स्वयं इसे पूरा नहीं कर पाये थे। अत: इस ग्रन्थ के अन्तिम कुछ पद्य उनके भी शिष्य लोकचन्द्र ने ई. ८६८ में पूरे किये थे। इस ग्रन्थ में २६ पर्व है तथा ८००० श्लोक प्रमाण है। (ती ३/६) २ आचार्य सकल कीति (ई. १४०६-१४४२) द्वारा रचित दूसरा उत्तर पुराण है । (ती. ३/३३३) उत्तरप्रतिपत्ति-ध ॥१,६,२७/३२/8 उत्तरमणुज्जुवं आइरियपरंपराएणागदमिदि एयट्ठो। - उत्तर, अनृजु और आचार्य परम्परासे
अनागत ये तीनो एकार्थवाची है। ध.१/प्र. ५७(H. L.Jain) आगममें आचार्य परम्परागत उपदेशोंसे बाहरको जिन श्रुतियोका उल्लेख मिलता है वह अनृजु होनेके
कारणसे उत्तर प्रतिपत्ति कही गयी है। धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी इसको प्रधानता नहीं देते थे। (ध /३ प्र. १५ H L.Jain) उत्तरमीमांसा दे 'दर्शन'। उत्तराध्ययन-द्वादशाग श्रुतज्ञानका स्वॉ अगबाह्य-दे श्रुत
ज्ञान IIII उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र-दे. नक्षत्र । उत्तराभाद्रपद नक्षत्र-दे नक्षत्र , उत्तराषाढ़ नक्षत्र-दे. नक्षत्र । उत्तरित-कायोत्सर्ग का एक अतिचार-दे व्युत्सर्ग १ । उत्तरोत्तर-(धप्र.२७) गणितप्रकरण में sueeessive उत्पत्ति-जीवों की उत्पत्ति-दे जन्म । उत्पन्नस्थानसत्त्व-दे सत्त्व १. उत्पल-पद्म ह्रदमें स्थित एक कूट-दे लोक ५/७ । उत्पला-सुमेरु पर्वतके नन्दन आदि तीन वनो में स्थित पुष्करिणी
दे लोक ५/६। उत्पलोज्ज्वला-सुमेरु पर्वतके नन्दनादि तीनों बनों में स्थित
पुष्करिणी-दे. लोक /६। उत्पात-एक ग्रह-दे ग्रह । उत्पातिनी-एक औषधि विद्या-दे विद्या। उत्पादन-१ आह रका एक दोष---दे. आहार II/४/१,४,२ वस्ति
काका एक दोष--दे बस्तिका। उत्पादनोच्छेद-दे व्युच्छित्ति। उत्पादपूर्व-श्रुतज्ञानका प्रथम पूर्व दे. श्रुतज्ञान III उत्पादलब्धिस्थान-दे लब्धि। उत्पादव्ययध्रौव्य-सत् यद्यपि त्रिकाल नित्य है, परन्तु उसमें बराबर परिणमन होते रहनेके कारण उसमे नित्य ही किसी एक अवस्थाका उत्पाद तथा किसी पूर्वबाली अन्य अवस्थाका व्यय होता रहता है इसलिए पदार्थ नित्य होते हुए भो कथ चित् अनित्य है
और अनित्य होते हुए भी कथंचित नित्य है । वस्तुमें ही नहीं उसके प्रत्येक गुणमे भी यह स्वाभाविक व्यवस्था निराबाध सिद्ध है।
१ भेद व लक्षण १ उत्पाद सामान्यका लक्षण २ उत्पादके भेद ३ स्वनिमित्तक उत्पाद ४ परप्रत्यय उत्पाद ५ सदुत्पाद ६ असदुत्पाद ७ व्ययका लक्षण ८ ध्रौव्यका लक्षण २ उत्पादिक तीनोका समन्वय * द्रव्य अपने परिणमनमे स्वतन्त्र है-दे. कारण 11/१
उत्पादादिक तीनोसे युक्त ही वस्तु सत् है
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उत्पादव्ययध्रौव्यय
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१. भेद व लक्षण २ तीनो एक सत्के ही अश है
इसलिए उत्पादादिकमें नवीनरूपसे परिणत उस सत् की अवस्थाका
नाम उत्पाद है। (और भी-दे परिणाम) ३ वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नही है
२ उत्पादके भेद ४ कथंचित् नित्यता व अनित्यता तथा समन्वय
स.सि ५/७/२७३/५ द्विविध उत्पाद स्वनिमित्त परप्रत्ययश्व ।-उत्पाद * वस्तु जिस अपेक्षासे नित्य है उसी अपेक्षासे अनित्य दो प्रकारका है-स्वनिमित्तक उत्पाद और पर प्रत्यय उत्पाद । (रा ___ नही है
-दे. अनेकान्त वा ५/७/३/४४६।१४) ५ उत्पादिकमे परस्पर भेद व अभेदका समन्वय
। सा /मू १११ एत्र विह सहावे दवं दव्यस्थपज्ज यत्थेहि । सदसम्भा
वणिबद्ध प्रादुब्भाव सदा लभदि। ऐसा (पूर्वोक्त) द्रव्य स्वभाव में ६ उत्पादादिकमे समय भेद नही है
द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयों के द्वारा सदा सम्बद्ध और ७ उत्पादादिकमे समयके भेदाभेद विषयक समन्वय
असद्भावसम्बद्ध उत्पादको सदा प्राप्त करता है । (पंव/पू२०१) ३ द्रव्य गुण पर्याय तीनों त्रिलक्षणात्मक हैं
३ स्वनिमित्तक उत्पाद
स मि, ५/७/२७३/५ स्वनिमित्तम्तावदनन्तानामगुरुलघुगुणानामागम१ सम्पूर्ण द्रव्य परिणमन करता है द्रव्याश नहीं
प्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट् स्थानपतितया बृया हान्या च २ द्रव्य जिस समय जैसा परिणमन करता है, उम प्रवर्तमानाना स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च । स्वनिमित्तक ___ समय वैसा ही होता है
उत्पाद यथा-प्रत्येक द्रव्यमें आगम प्रमाणसे अन्तर अगुरुल घुगुण
स्वीकार किये गये है। जिनका छह स्थान पतित हानि और वृद्धिक ३ उत्पाद व्यय द्रव्याशमे नही पर्यायाशमे होते है
द्वारा वतन होता रहता है । अत' इनका उत्पाद और व्यय स्वभाव से ४ उत्पाद व्ययको द्रव्यका अंश कहनेका कारण
होता है । (रा वा ५/७,३/४४६/१४) ५ पर्याय भी कथचित् ध्रुव है
४ परप्रत्यय उत्पाद ६ द्रव्य गुण पर्याय भी तीनो सत् है
स. सि ५/७/२७३/७ परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगतिस्थित्यवगाहनहेतुत्वा
रक्षणे क्षणे तेषां भेदात्तवेतुत्वमपि भिन्नमिति परप्रत्ययापेक्ष उत्पादो ७ पर्याय सर्वथा सत् नही है
बिनाशश्च व्यवह्रियते। - परप्रत्यय भी उत्पाद और व्यय होता है। ८ लोकाकाशमे भी तीनो पाये जाते है
यथा- ये धर्मादिक द्रव्य क्रमसे अश्चादिकी गति, स्थिति और अव९ धर्मादि द्रव्योंमे परिणमन है पर परिस्पन्द नही
गाहनमें कारण है। 1कि इन गति आदि कमें क्षण क्षण में अन्तर पडता
है, इसलिए इनके कारण भी भिन्न-भिन्न होने चाहिए। इस प्रकार १० मुक्त आत्माओमे भी तीनो देखे जा सकते है
धर्मादिक द्रव्योमें परप्रत्ययकी अपेक्षा उत्पाद और व्ययका व्यवहार
किया जाता है । (रा. वा ५/७/३/४४६/१६) १भेद व लक्षण
५ सदुत्पाद १ उत्पाद सामान्यका लक्षण
प्र सा./त प्र. ११२ द्रव्यस्थ पर्यायभूताया व्यतिरेकव्यक्ते. प्रादुर्भाव' स सि.५/३०/५चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत् उभय- तस्मिन्नपि द्रव्यत्वभूताया अन्वयशक्तरप्रच्यवनाद द्रव्यमनन्यदेव । निमित्तवशाद भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद मृत्पिण्डरय घटपर्याय
ततोऽनन्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्स सदुत्पाद 1 =द्रव्यके जो पर्यायभूत बत् । =चेतन व अचेतन दोनों ही द्रव्य अपनी जातिको कभी नहीं
व्यतिरेकव्यक्तिका उत्पादहोता है उसमें भी द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिछोडते। फिर भी अन्तरग और बहिरंग निमित्तके वशसे प्रति समय का अच्युतत्व हानेसे द्रव्य अनन्य ही है। इसलिए अनन्यत्वके द्वारा जा नवोन अवस्थाको प्राप्ति होता है उसे उत्पाद कहते है। (रा वा/ द्रव्यका सदुत्पाद निश्चित होता है । (५ ध/पू २०१) १/३०/१/५६४/३२)
६ असदुत्पाद प्र. सात प्रा.६५ उत्पाद प्रादुर्भाव। यथा खलू तरीयमुपात्तमलिना
प्र सा /त.प्र ११३ पर्याया हि पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्त'. काल वस्थ प्रक्षालितममलावस्थयोत्पद्यमान तेनोत्पादेन लक्ष्यते। न च तेन
एव सत्त्वात्ततोऽन्यकालेषु भवन्त्यसन्त एव। रश्च पर्यायाण स्वरूपभेदमुपवजति, स्वरूपत एव तथावधित्वमवलम्बते । तथा
द्रव्यत्वभूतयान्वयशक्त्यानुस्यूत क्रमानुपाती स्वकाले प्रादुर्भाव द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरड्गसाधनसंनिधिसद्भावे
तस्मिन्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्ते । पूर्व मसत्त्वात्पर्याया अन्य विचित्रबहुतरावस्थान स्वरूपकतृ करणसामर्थ्य स्वभावेनान्तरङ्गसाधन
एव । तत पर्यायाणामन्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्यासदुत्पाद । तामुपागतेनानुग्रहोतमुत्तरावस्थयोत्पद्ममान तेनोत्पादेनलक्ष्यते। जैसे
-- पर्याये पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्ति के काल मे ही सत होनेसे उससे मलिन अवस्थाको प्राप्त वस्त्र, धानेपर निर्मल अवस्थासे उत्पन्न होता
अन्य कालोमे असत हो है। और पर्यायोंका द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति हुआ उस उत्सादमे लक्षित होता है किन्तु उसका उस उत्पादके साथ
के साथ गुंथा हुआ जो क्रमानुपाती स्व काल में उत्पाद होता है, उसमें स्वरूप भेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है, उसी प्रकार जिसने पूर्व
पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्तिका पहले असत्त्व होनेसे पर्याय अन्य अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भो, जो कि उचित बहिरग साधनोके
है। इसलिए पर्यायोकी अन्यताके द्वारा द्रव्यका असदुत्पाद निश्चित सान्निध्यके सद्भावमें अनेक प्रकारकी बहुत-सी अवस्थाएं करता है
होता है। वह अन्तरंगसाधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरणके सामर्थ्य रूप स्वभावसे अनुगृहीत होनेपर, उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ, वह ७ व्ययका लक्षण उत्पादसे लक्षित होता है।
स.सि.५/३००/५ पूर्व भावविगमन व्यय. । यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृतिप.ध/पू. २०१ तत्रोत्पादोऽवस्था प्रत्यग्रं परिणतस्य तस्य सत' । सद- य॑य । -पूर्व अवस्थाके त्यागको व्यय कहते है। जैसे घटकी सद्भावनिबद्ध तदतद्भावत्वन्नयादेशात । - सत-तद्भाव और अतद्भाव- उत्पत्ति होनेपर पिण्डरूप आकारका त्याग हो जाता है। (रा.वा./ को विषय करनेवाले नयकी अपेक्षासे सद्भाव तथा असद्भावसे युक्त है। ५/३०/२/४६५/१)
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लावण्ययप्रय
सात १५ व्यय प्रच्यवन व्यय प्रच्युति है । (अर्थात पूर्व अवस्थाका नष्ट होना)
प्रीका लक्षण
स.सि. ४/१०/२००७ जनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोदयाभावा वति स्थिरीभवतीति ध्रुव । धवस्य भाव कर्म वा धौव्यम् । या मृतावस्थासु मृदायन्यय जो अनादिकालीन पारि मिक स्वभाव है उसका व्यय और उदय नही होता किन्तु वह "ति' अर्थात् स्थिर रहता है इसलिए उसे न कहते है। सा इस धवका भाव या कर्म धौव्य कहलाता है। जैसे मिट्टी के पिण्ड और घटादि अवस्थाओ में मिट्टीका अन्वय बना रहता है। (रा.वा./ 4/20/8/28/8)
प्रसा/त.प्र. ६५ धौव्यमवस्थिति । धौव्य अवस्थिति है। पंध / पू. २०४ तद्भावाव्ययमिति वा धौव्य तत्रापि सम्यगयमर्थ । य' पूर्व परिणामो भवति स पश्चात् स एव परिणाम । तद्भावसे वस्तुका नाश न होना, यह जो धौव्यका लक्षण बताया गया है, उसका भी ठीक अर्थ यह है कि जो जो परिणाम (स्वभाव) पहिले था वह वह परिणाम हो पीछे होता रहता है।
२. उत्पादादिक तीनोका समन्वय
१. उत्पादादिक तीनोंसे युक्त ही वस्तु सत् है
तसू ५/३० उत्पादव्ययश्रव्ययुक्त सत् ॥ ३० ॥ -जो उत्पाद, व्यय और श्रीव्य इन तीनोंसे युक्त है वह सद है (पं.का.१०) (सखा // २) (म.सा. प्र.३६) (का.अ./पू. २३७)
पं. घ. / पू. ८६ वस्त्वस्ति स्वत सिद्ध ं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामी । तस्मादुत्पादस्थितमय तद् समेतदिह नियमादस्तु स्वतः सिद्ध है वैसे हो यह स्वत परिणमनशील भी है, इसलिए यहाँ पर यह सत् नियमसे उत्पाद व्यय और धौव्य स्वरूप है । (पं./५८६)
२. तीनों एक सत्के ही अंश हैं
प्र. सात प्र १०१ पर्यायास्तुत्पादयम्ययन्ते उत्पादन्ययश्रामधामांङ्कुरद्रव्यस्यो मनोरथमानावतिष्ठमानभावलक्षणाखयोऽशा प्रतिभान्ति। - - पर्याये उत्पादarrators द्वारा अवलम्बित है, क्योकि, उत्पाद-व्यय-धौथ्य अशोके धर्म है - बीज, अकुर व वृक्षत्वकी भाँति । द्रव्यके नष्ट होता हुआ भाव उत्पन्न होता हुआ भाव और अवस्थित रहनेवाला भाव, ये तीनो अश भासित होते है ।
पं. ध. / २०३-२२८ मत कचि पर्यायाच केवल नसत । उत्पादव्ययवदिद तच्चेकशि न सर्वदेश स्याद् ॥ २०३ ॥ सत्रानित्यनिदानं ध्वंसोत्पादद्वय सतस्तस्य नित्य निदानं ध वमिति तत् त्रय मप्यभेद स्यात् । २०६ । नतु चोत्पादध्वंसौ द्वावप्यंशात्मकोभवेत हि भव्य त्रिकालयितस्यारम २१ पुन सोहि सर्ग नेनचिदर्शक भागमात्रेण सहारो वा धौव्यवृ फलपुष्पपत्रवन्न स्यात् ॥ २२५॥ =पर्यायार्थिकनयसे 'ध्रौव्य' भी कथचित सत्का होता है, केवल सत्का नही। इसलिए उत्पादव्ययकी तरह यह धौव्य भी सत्का एक अंश है सर्वदेश नही है ॥२०३॥ उस सत्यकी अनित्यताका मूलकारण व्यय और उत्पाद है, तथा नित्यताका मूलकारण धौव्य है । इस प्रकार वे तीनो ही सत्के अशात्मक भेद है ॥ २०६ ॥ प्रश्न -- निश्चयसे उत्पाद और व्यय ये दोनो भले अशस्वरूप होवे, किन्तु त्रिकालगोचर जो धौव्य है, वह कैसे अशात्मक होगा ? ॥२१८॥ उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ये तीनो अश अर्थासरोकी तरह अनेक नहीं है ||२१|| बल्कि ये तीनो एक सत्के हो अंश है ॥२२४॥ वृक्ष फल फूल तथा पत्तेकी तरह किसी अशरूप एक भागसे सत्का उत्पाद अथवा व्यय और धौव्य होते हो, ऐसा
२. उत्पादादिक तीनोंका समन्वय
भी नही है ॥२२५॥ वास्तवमे वे उत्पाटिक न स्वतन्त्र अंशो के होते है और न केवल अंशो के | बल्कि अंशोसे युक्त अशोंके होते है ॥२२८ ॥ ३. वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नहीं है । सस्तो २४ नसा नित्यमुदेष्यति न च क्रियाकारकमंत्र मुक्तम् । नेवासो जन्म तो न नाशो, दीपस्तम गलभावोऽस्ति ॥२४ = यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उत्पाद व अस्तको प्राप्त नहीं हो सकती और न उसमें क्रिया कारककी ही योजना बन सकती है । जो सर्वथा असत है उसका कभी जन्म नही होता और जो सत् है उसका कभी नाश नही होता। दोपक भी बुझनेपर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय अन्धकाररूप इगतपर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है ।
आ मो ३७,४१ नित्यैकान्तपक्षेऽपिविक्रिया नोपपद्यते। प्रागेव कारकाभाव क प्रमाणं व तत्फलम् ॥३७॥ क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यस भव । प्रत्यभिज्ञानाद्यभावान्न कार्यारम्भ कुत फलम् ॥ ४१ ॥ - नित्य एकान्त पक्ष पूर्व अवस्थाके परित्याग रूप और उत्तर अवस्थाके ग्रहण रूप विक्रिया घटित नहीं होती. अत कार्योत्पत्तिके पूर्व में ही कर्ता आदि कारकोका अभाव रहेगा। और जब कारक ही न रहेगे तब भला फिर प्रमाण और उसके फलकी सम्भावना कैसे की जा सकती है अर्थात् उनका भी अभाव ही रहेगा ॥ ३७॥ क्षणिक एकान्त पक्षमे भी प्रेत्यभावादि अर्थात् परलोक, बन्ध, मोक्ष आदि असम्भव हो जायेगे 1 और प्रत्यभिज्ञान व स्मरणज्ञान कार्यका प्रारम्भ हो सम्भव न हो सकेगा। तब कार्यके आरम्भ बिना पुण्य पाप व सुखदुख आदि फल काहे से होगे ॥ ४१ ॥
1
1
=
पका / प्र.८/१६/७ न सर्वथा नित्यतया सर्वथा क्षणिकतया वा विद्यमानमात्र वस्तु । सर्वथा नित्यत्वस्तुनस्तत्त्वत क्रमभुवा भावानामभावात विकार सर्वथा क्षणिस्य च प्रभ ज्ञानाभावात् कुल एक सानत्वम् तत प्रत्यभिज्ञानहेतुन चित्स्वरूपेण धौव्यमालम्व्यमान काभ्या चित्क्रमप्रवृत्ताभ्या स्वरूपा म्या यमानमुपजायमान चेककालमेव परमार्थ तम्रियमवस्था विभ्राण वस्तु सदवबोध्यम् । विद्यमानमात्र वस्तु न तो सर्वथा नित्यरूप होती है और न सर्वथा क्षणिक्रूप होती है। सर्वथा निष्य वस्तुको वास्तव मे क्रमभावी भावोका अभाव होनेसे विकार (परिणाम) कहाँसे होगा ' और सर्वथा क्षणिक वस्तुमें वास्तव मे प्रत्यभिज्ञानका अभाव होनेसे एक प्रवाहपना कहाँसे रहेगा इसलिए प्रत्यभिज्ञानके हेतुभूत किसी स्वरूपमे ध व रहती हुई और वर्ती स्वरूपोंसे नष्ट होती हुई तथा उत्पन्न हाती हुई इस प्रकार परमार्थत एक ही कालमें त्रिगुणी अवस्थाको धारण करती हुई वस्तु
किन्ही दा क्रम
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सत जानना ।
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४. कथंचित् नित्यता व अनित्यता तथा समन्वय सू५/३२ तापितास [१२] मुख्यता और अपेक्षा एक वस्तु विरोधी माथुम पहनेवाले दा धर्मो सिद्धि होती है। द्रव्य भी सामान्यकी अपेक्षा निश्व है और विशेषकी अपेक्षा अनिष्य है।
प का / मू ५४ एव सदो विणासो असदो जीवस्स हाइ उप्पादा। हदि जिणवरेहि भणिद अण्णाणविरुद्धम् विरुद्धम् ५४ (१ का प्र.५४) द्रव्याशिकनयोपदेशेन नानादुत्पाद तस्यैव पर्याया थिनयादेशेन सत्प्रणाशो शदुत्पादश्च । इस प्रकार जीवको सत्का विनाश और असत्का उत्पाद होता है, ऐसा जिनवराने कहा है, जो कि अन्योन्य विरुद्ध तथापि अविरुद्ध है १५४| क्योकि जीवको द्रव्यार्थिकनय के कथन से सदका नाश नही है और असत्वा उत्पाद नही है तथा उसको पर्यायार्थिकनय के कथनसे स्तुका नाश है और असतका उत्पाद भी है।
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आप्त, मी ५७ न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् ॥५७ = वस्तु सामान्यकी अपेक्षा तो न उत्पन्न है और न विनष्ट, क्योकि
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उत्पादव्ययत्रीव्य
प्रगट अन्वय स्वरूप है । और विशेष स्वरूपसे उपजे भी है, बिनरौ भी है। युगपत् एक वस्तुको देखनेपर वह उपजै भी है, विनशे भी है और स्थिर भी रहे है ।
यावि/१/११८/४३५ भेदज्ञानात् प्रतीयेते प्रादुर्भावात्ययौ यदि । अभेदज्ञानत सिद्धा स्थितिर शेन केनचित् । ११८ - भेद ज्ञानसे यदि उत्पाद और विनाश प्रतीत होता है तो अभेदज्ञानसे वह सत् या द्रव्य किसी एक स्थिति अंश रूपसे भी सिद्ध है। (विशेष देखो टीका) कपा १/१.१३/१३५/५४/१ ण च जोवस्स दव्वत्तमसिद्ध, मज्भावस्थाए अक्रमेण दत्ताविणाभावितितत्तु वस भादो ।
कपा ९/११/१८० / २१६/४ सत. आविर्भाव एव उत्पाद, तस्यैव तिरोभाव एवं विनाश इति द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तु नित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेति स्थितम् । मध्यम अवस्थामें द्रव्य
अभी उत्पाद व्यय और रूप युगप उपलब्धि होनेसे जीत्र में द्रव्यपना सिद्ध हो है । विशेषार्थ - जिस प्रकार मध्यम अवस्था अर्थात जानी चेतम्यमें अनन्तरपूर्ववर्ती बचपन के चैतन्यका विनाश, जवानीके चैतन्यका उत्पाद और चैतन्य सामान्यकी सिद्धि होती है. इसी प्रकार उत्पादव्ययव्यरूप लक्ष rant एक साथ उपलब्धि होती है । उसी प्रकार जन्मके प्रथम समयका चेतन्य भी क्षिणात्मक हो सिद्ध होता है अर्थसत्का आविर्भाव हो उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है, ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार यानिकी अपेक्षासे समस्त वस्तुएँ नित्य है । इसलिए न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है, और न विनष्ट होती है, ऐसा निश्चित हो जाता है (यो सा/अ २०) (पं. ध. १९.१३८)
प.ध / पू ६०,६१ न हि पुनरुत्पाद स्थितिभङ्गमयं तद्विनापि परिणामात् । असतो जन्मादिह तो विनाशस्य दुनिया द्रव्यं कथचिदुत्पद्यते हि भावेन । व्येति तदन्येन पुननैतद्वितय हि वस्तुतया । ६१| वह सत् भी परिणामके बिना उत्पादस्थिति भंगरूप नहीं हो सकता है, क्योकि ऐसा माननेपर जगत् में असत् का जन्म और सदका विनाश दुर्निवार हो जायेगा | १०| इसलिए निश्चयसे द्रव्य कथचित् किसी अवस्थासे उत्पन्न होता है और किसी अन्य अवस्था न होता है, किन्तु परमार्थ रोड निक्षय करके ये दोनों (उत्पाद और विनाश) है हो नही |११| पं. १२०-१२३, १४, २३६२४०
परिणामित्यादुत्पादय मयाय एव गुणा । टोत्कीर्णन्यायात्त एव नित्या यथा स्वरूपत्वात् १२०० न हि पुनरेकेाहि भवति गुणानां निरन्वयो नाश | अप रेषामुत्पादो द्रव्य यत्तद्वयाधारम् । १२१ दृष्टान्ताभासोऽस्याद्धि विपक्षस्य मृत्तिकायां हि । एके नश्यन्ति गुणा जायन्ते पाकजा गुणास्त्वन्ये । १२२ । तत्रोत्तरमिति सम्यक् सत्यां तत्र च तथाविधायां हि । किं पृथिवीत्वं नष्ट न नष्टमथ चेत्तथा कथं न स्यात् ॥ १२३ ॥ अयमर्थ पूर्व यो भाव सोऽयुत्तरत्र भार भूत्वा भवनं भावो नष्टात्पन्न न भात्र इह कश्चित् | १८४| असमर्थो वस्तु यथा केवल मिह दृश्यतेन परिणाम निश्य तदव्ययादिह सर्व स्यादम्वयार्थनययोगात् । ३३ । अपि च यदा परिणाम केवलमिह दृश्यते न किल वस्तु । अभिनवभावाभावादनित्यमशनयात् । ३४०। नियमसे जो गुण हो परिणमनशील होनेके कारणसे परपम कहलाते है. वही गुण टकोल्कीर्ण न्याय से अपने-अपने स्वरूपको कभी भी उल्लघन न करनेके कारण नित्य कहलाते है । १२० । परन्तु ऐसा नहीं है कि यहाँ किसी गुणका तो निरन्वय नाश होना माना गया हो तथा दूसरे गुणोका उत्पाद माना गया हो। और इसी प्रकार नवीन-नवीन गुणोंके उत्पाद और व्ययका आधारभूत कोई द्रव्य होता हो । १२१ | गुणों को नष्ट व उत्पन्न माननेवाले वैशेषिकोंका 'पिठरपाक' विषयक यह दृष्टान्ताभास है कि मिट्टीरूप द्रव्यमें घडा बन जाने पर कुछ गुण तो नष्ट हो जाते है और दूसरे पत्र उत्पन्न हो जाते हैं । १२२॥ इस
२ उत्पादादिक तीनोंका समम्यय
विषय में यह उत्तर है कि इस मिट्टी में से क्या उसका मिट्टीपना नाश हो गया ' यदि नष्ट नहीं होता तो वह निरूपण कैसे न मानी जाय | १२३ | सारांश यह है कि पहले जो भाव था, उत्तरकाल में भी वही भाव है, क्योंकि यहाँ हो होकर होना यही भाव है। नाश होकर उत्पन्न होना ऐसा भाव माना नहीं गया । १८४। सारांश यह है कि जिस समय केवल वस्तु दृष्टिगत होती है, और परिणाम दृष्टिगत नहीं होते, उस समय हाँ इम्याधिक नयी अपेक्षा से स्नेा नाश नहीं होनेके कारण सम्पूर्ण वस्तु नित्य है | ३३६ | अथवा जिस समय यहाँ निश्चयसे केवल परिणाम दृष्टिगत होते हैं और वस्तु दृष्टिगत नहीं होती, उस समय पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा मे नवीन पर्यायकी उत्पत्ति तथा पूर्व पायका अभाव होनेके कारण सम्पूर्ण वस्तु ही अनित्य है | ३४०
३५९
५. उत्पादादिकमें परस्पर मेद व अभेदका समन्वय
प्र. सा / मू. १००-१०१ण भवा भंगविहिणा भंगा वा णत्थि संभव विहीणो । उप्पाद विभगो ण विणा धोब्वेण अध्थेण | १०| उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जते पज्जएस पज्जाया। दव्वे हि संति ण्यिदं सम्हा दव्वं हर्वाद सम्म १०१६ - उत्पाद' भगसे रहित नहीं होता और भंग बिना उत्पादके नहीं होता। उत्पाद तथा भंग (ये दोनों ही ) श्रीव्य पदार्थके बिना नहीं होते । १००| उत्पाद धौव्य और व्यय पर्यायोंमें वर्तते है पर्यायें नियम में होती है, इसलिए वह राम द्रव्य है । १०१। (विशेष दे. उ.प्र. टोका)
रामा ५/३०/१२/४४व्यादाव्यतिरेकाद्व द्रव्यस्य भौव्यानुपपत्तिरिति चेत न अभिहिताननमोधात स्ववचनविरोधाच |१०| उत्पादादीनां द्रव्यस्य चोभयथा लक्ष्यलक्षणभावानुपपतिरिति चेत न अग्यानप्रयमेकादोपपते. 1११1 - प्रश्न- व्यय और उत्पाद क्योंकि द्रव्य से अभिन्न होते हैं, अतः द्रव्यधव नहीं रह सकता ? उत्तर- शंकाकारने हमारा अभिप्राय नहीं समझा। क्योंकि हम द्रव्यसे व्यय और उत्पादको सर्वथा अभिन्न नहीं कहते, किन्तु कथंचित् कहते है। दूसरे इस प्रकारकी शकाओंसे स्ववचन विरोध भी आता है, क्योंकि यदि आपका हेतु साधकत्व से सर्वथा अभिन्न है तो स्वपक्षकी तरह परपक्षका भी साधक ही होगा। प्रश्न- उत्पादादिकोका तथा द्रव्यका एकत्व हो जानेसे दोनों में लक्ष्यलक्षण भावका अभाव हो जायेगा | उत्तर- ऐसा भी नहीं है, क्योंकि इनमें कपि भेद और कथंचित अभेद है ऐसा अनेकान्त है ।
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घ. १०/४.२.१.२/९/१ अपिदपायभावाभावख उप्पादविनासवदिति अवद्वाणाणुबलभादो। णच पढमसमए उप्पण्णस्स विदियादिसमएस अवद्वाणं, तत्थ पढमविदियादिसमयकप्पणाए कारणाभावादो। ण च उप्पादो चेन अवद्वाणं, विरोहादो उप्पाद्दलक्खणभाववदिरित अलगावादी च तदो अवद्वाणाभावादो उप्पादविशालवण (ऋजुसूत्र नयसे विवक्षित पर्यायका सद्भाव ही उत्पाद है और विमति पर्यायका अभाव ही व्यय है । इसके सिवा अवस्थान स्वतन्त्र रूपसे नहीं पाया जाता यदि कहा जाय कि प्रथम समयमे पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समय में उसका अवस्थान होता है, सो यह बात भी नही बनती खोकि उस (नय) में प्रथम द्वितीयादि समयोंकी कल्पनाका कोई कारण नहीं है। यदि कहा जाय कि उत्पाद हो अवस्थान है सो भी बात नही है, क्योंकि, एक तो ऐसा मानने मैं विरोध आता है, दूसरे उत्पादस्वरूप भावको छोड़कर अवस्थान का और कोई लक्षण (इस नयमें) पाया नहीं जाता। इस कारण अवस्थानका अभाव होनेसे उत्पाद व विनाश स्वरूप द्वव्य है, यह सिद्ध हुआ !
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उत्पादव्ययध्रौव्य
२. उत्पादादिक तीनोंका समन्वय
स.म २१/२६५/१५ ननुत्पादादय परस्पर भिद्यन्ते न बा। यदि भिद्यन्ते कथमेक वस्तुवयात्मकम् । न भिद्यन्ते चेत् तथापि कथमेक त्रयात्मकम्। उत्वादविनाशधौव्याणि स्याइ भिन्नानि, भिन्नलक्षणत्वाद रूपादिवदिति। नच भिन्न न झणत्वमसिद्धम् । न चामी भिन्न लक्षणा अपि परस्परानपेया खपुष्पवदसत्त्वापत्ते । तथाहि । उत्पाद केवलो नास्ति। स्थितिविगमरहितत्वात कूर्म रोमबत्। तथा विनाश केवलो नास्ति स्थित्युत्पत्तिरहितत्वात तद्वत् । एवं स्थिति केवला नास्ति निनाशोत्पाटशून्यत्वात तद्वदेव । इत्यन्योन्यायेक्षाणामुत्पादादीना वस्तुनि सत्त्व प्रतिपत्तव्यम् । तथा चोक्तम्--"घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिध्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ।१। पयोवतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिवत । अगोरसबतो नोभे तस्माद वस्तुत्रयात्मकम् ।२। प्रश्न-उत्पाद, व्यय और धौव्य परस्पर भिन्न है या अभिन्न 1 यदि उत्पादादि परस्पर भिन्न है तो वस्तुका स्वरूप उत्पाद, व्यय और धौव्यरूप नहीं कहा जा सक्ता । यदि वे परस्पर अभिन्न है तो उत्पादादिमें से किसी एकको हो स्वीकार करना चाहिए। उत्तर-यह ठीक नही है क्योकि हम लोग उत्पाद,व्यय और धौव्यमे कचिव भेद मानते है अतएव उत्पाद व्यय ओर धौव्यका लक्षण भिन्न-भिन्न है, इसलिए रूपादिकी तरह उत्पाद व्यय धौव्यभी क्थ चित भिन्न है। उत्पाद आदिका भिन्न लक्षणपना असिद्ध भी नही है। उत्पाद आदि परस्पर भिन्न होकर भी एक दूसरे से निरपेक्ष नहीं है क्योकि, ऐसा माननेसे उनका आकाशपुष्पकी तरह अभाव मानना पडेगा। अतएव जैसे कछुवेकी पीठपर बालोके नाश और स्थितिके बिना, बालोका केवल उत्पाद होना सम्भव नही है, उसी तरह व्यय और प्रौव्यसे रहित केवल उत्पाद का होना नहीं बन सकता। इसी प्रकार उत्पाद और धौव्यसे रहित केवल व्यय, तथा उत्पाद और नाशसे रहित केवल स्थिति भी संभव नहीं है। अतएव एक दूसरे की अपेक्षा रखनेवाले उत्पाद, व्यय और धौव्यरूप वस्तुका लक्षण स्वीकार करना चाहिए । समन्तभद्राचार्यने कहा भी है--(आप्त मी ५६६०)।"घडे, मुकुट और सोनेके चाहने वाले पुरुष (सोनेके) घडेके नाश, मुकुटके उत्पाद और सोनेकी स्थिति में क्रमसे शोक, हर्ष और माध्यस्थ भाव रखते है। दूधका व्रत लेने वाला पुरुष दही नहीं खाता, दहीका नियम लेनेवाला पुरुष दूध नही पीता और गोरसका व्रत लेनेवाला पुरुष दूध और दही दोनो नहीं खाता । इसलिए प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय और धौव्यरूप है। (प्र. सात प्र १००) घ्या. दो ३/७४/१२३/५ तस्माज्जोवद्रव्यरूपेणाभेदो मनुष्यदेवपर्यायरूपेण भेद इति प्रतिनियतनय विस्तारविरोधौ भेदाभेदौ प्रामाणिकावेव । - जीवद्रव्य की अपेक्षासे अभेद है और मनुष्य नथा देव पर्यायो की अपेक्षासे भेद है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न नयोकी दृष्टिसे भेद
और अभेद के माननेमे कोई विरोध नही है दोनो प्रामाणिक है।। प.ध/पू २१७ अगमर्थो यदि भेद स्यादुन्मज्जति तदा हि तव त्रितयम्
अपि तत् त्रितय निमज्जति यदा निमज्जति स मूलतो भेद ।२१७४ -४ साराश यह है कि जिस समय भेद विवक्षित होता है उस समय निश्चयसे वे उत्पादादिक तीनो प्रतीत होने लगते है, और जिस समय वह भेद मल से हो विवक्षित नहीं किया जाता उस समय वे तीनो भी प्रतीत नहीं होते है। ६. उत्पादादिक में समय भेद नहीं है आप्त मो ५६ घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पाद स्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य जनो याति सहेतुकम् ।५। -स्वर्ण कलश, स्वर्ण माला तथा इनके श्री पुरुष घटक तोड माला करने में युगपत् शोक, प्रमोद व माध्यस्थताको प्राप्त होते है। सो यह सब सहेतुक है । क्योकि घट के नाश तथा मालाके उत्पाद व स्वर्ण की स्थिति इन तीनो बातोका एक हो काल है।
ध.४/१.५,४/३३५/६ सम्मत्तगहिदपढमसमए णडो मिच्छत्तपज्जाओ। कधमुप्पत्तिविणासाणमेक्को समओ। ण एक्कम्हि समए पिडागारेण विण?धडाकारेणुप्पण्णमिट्टियदव्वस्सुवलंभा। = सम्यक्त्व ग्रहण करने के प्रथम समयमे ही मिथ्यात्व पर्याय विनष्ट हो जाती है । प्रश्न-- सम्यक्त्वकी उत्पत्ति और मिथ्यात्वका नाश इन दोनो विभिन्न कार्योंका रक समय कैसे हो सकता है। उत्तर--नही क्योकि, जैसे एक ही समय में पिण्डरूप आकारसे विनष्ट हुआ घटरूप आकारसे उत्पन्न हुआ मृत्तिका रूप द्रव्य पाया जाता है। प्र सात प्र १०२ यो हि नाम वस्तुनो जन्मक्षण स जन्मनैव व्याप्तत्वात स्थितिक्षणो नाशक्षणश्च न भवति । यश्च स्थितिक्षण स खलूभयोरन्तरालदुर्ललितत्वाज्जन्मक्षणो नाशक्षणश्च न भवति। यश्च नाशक्षण स तूत्पद्यवस्थाय च नश्यतो जन्मक्षण स्थितिक्षणश्च न भवति । इत्युपपादादोनो वितळमाण क्षणभेदोहृदयभूमिमवतरति । अवतरत्येव यदि द्रव्यमात्मनैवोत्पद्यते आत्मनै वावतिष्ठते आत्मनै व नश्यतीत्यभ्यु गम्यते । तत्तु नाभ्युपगमात् । पर्यायामेवोत्पादादय कुत क्षण भेद । -प्रश्न--वस्तुका जो जन्मक्षण है वह जन्मसे ही व्याप्त होनेसे स्थितिक्षण और नाशक्षण नहीं है, जो स्थितिक्षण है वह दोनो (उत्पादक्षण और नाशक्षण) के अन्तरालमे दृढतया रहता है इसीलिए (वह) जन्मक्षण और नाशक्षण नहीं है,
और जो नाशक्षण है वह वस्तु उत्पन्न होकर और स्थिर रहकर फिर नाशको प्राप्त होती है, इसलिए, जन्मक्षण और स्थितिक्षण नहीं है। इस प्रकार तर्कपूर्वक विचार करनेपर उत्पादादिका क्षणभेद हृदयभूमिमें अवतरित होता है ? उत्तर-यह क्षणभेद हृदयभूमिमें तभी उतर सकता है जब यह माना जाय कि 'द्रव्य स्वय ही उत्पन्न होता है, स्वय ही धब रहता है और स्वय ही नाशको प्राप्त होता है। किन्तु ऐसा तो माना नहीं गया है। (क्योकि यह सिद्ध कर दिया गया है कि) पर्यायोके ही उत्पादादिक है। (तब फिर) वहाँ क्षणभेद कहाँसे हो सकता है। गो. जी /म.प्र. ८३/२०५/७ परमार्थतः विग्रहगतौ प्रथमसमये उत्तरभवप्रथमपर्यायप्रादुर्भावो जन्म । पूर्वपर्याय विनाशोत्तरपर्यायप्रादुर्भाव योरङ्गुलि ऋजुत्वविनाशस्त्रक्रत्वोत्पादवदेवकालत्वात्। - परमार्थ से विग्रहगतिके प्रथम समय में ही उत्तर भवकी प्रथम पर्यायके प्रादुर्भावरूप जन्म हो जाता है। क्यो कि, जिस प्रकार अगुलोको टेढी करनेपर उसके सीधेपनका विनाश तथा टेढेपनका उत्पाद एक ही समयमै दिखाई देता है, उसी प्रकार पूर्व पर्यायका विनाश और उत्तर पर्यायका प्रादुर्भाव इन दोनोका भी एक ही काल है। पंध/पू २३३-२३६ एव च क्षणभेद स्याद्बीजाइकुरपादपत्ववत्त्विति
चेत् ॥२३३। तन्न यत क्षणभेदो न स्यादेकसमयमा तत् । उत्पादादित्रयमपि हेतो सदृष्टितोऽपि सिद्धत्वाव ।२३४। अपि चाड कुरसृष्टेरिह य एष समय स बीजनाशस्य। उभयोरप्यात्मत्वाव स एव कालश्च पादपत्वस्य ।२३६। प्रश्न-बीज अकुर और वृक्षपनेकी भॉति सव की उत्पादादिक तीनो अवस्थाओ मे क्षणभेद होता है ।२३३। 1 उत्तरऐमा कहना ठीक नहीं है, क्यो कि तीनोमे क्षणभेद नहीं है। परन्तु हेतुसे तथा साधक दृष्टान्तोसे भी सिद्ध होनेके कारण ये उत्पादादिक तीनो केवल एक समयवर्ती है ।२३४। वह इस प्रकार कि जिस समय अकुर की उत्पत्ति होती है, उसी समय बीजका नाश होता है और दोनोमे वृक्षत्व पाया जानेके कारण वृक्षरवका भी बही काल है ।२३।।
७ उत्पादादिकमें समयके भेदाभेद विषयक समन्वय घ १२/४ २,१३.२५४/४५७/६ सुमसापराइयचरिय समए वेयणोयरस उकास्साणुभागबधो जादो । ण च सुहमसर्मपराइए मोहणीयभावो णस्थि,भावेण विणा दव्य क्म्मरस अस्थित्त बरोहादो समसापरायसण्णाणुनबत्तीदो बा। तम्हा मोहणीयवेयणाभावविसया पत्थि त्ति ण जुज्जदे । एत्थ परिहारो उच्चदे । तं जहा-विणासविसए दोणि
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उत्पादव्ययीव्य
या होंति उप्पादोदोपादादिप दाचोदो नाम दयिते सद असन्ते बुद्धिविसय चाक्कतभावेण वयणगोयराइवकते अभावववहा राणुववत्तदो । णच अभावो णाम अत्थि, तपरिच्छिद तपमानाभावादी, सन्तविसयाणं पमाणाणमसते वावारविरोहादो। अविरोहे वा गद्दहसिगं पि पमाणविसय होज्ज । ण च एव अणुवलंभादो । तम्हा भाव चैव अभावो ति सिद्धं । अणुय्यदाणुच्छेदो णाम पज्जवट्ठओ गयो । तेण असतावत्थाए अभाववव समिच्छदि, भावे उबलब्भमाणे अभावत्तविरोहादो । ण च पडिसेहविसओ भावो भारत मल्लियर, पडिसेहस्स फलाभावप्पसगादो। णच विणासो णत्थि घडियादीणं सव्वद्धमवद्वाणाणुवलंभादो। ण च भावो अभावो होदि, भावाभावाणशोविरुद्वाणमेतविरोहादो रोग व्य
गयो उप्पादादिमीर भन्दिज्जयिये पुत्र अरस मिमोह
अग गुनहगा होग अस्थि ति बस सुि स्थानके अन्तिम समय में वेदनीयका अनुभागबन्ध उत्कृष्ट हो जाता है परन्तु उस सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान में मोहनीयका भाव नहीं हो, ऐसा सम्भव नही है, क्योंकि भावके बिना द्रव्य कर्म के रहनेका विरोध है अथवा वहाँ भारके माननेपर सूक्ष्म-साम्परायिक' यह संज्ञा ही नही बनती है। इस कारण ( तहाँ ) मोहनीयकी भावविषयक वेदना नहीं है यह वहना उचित नहीं है। उत्तरयहाँ इस शंकाका परिहार करते है। विनाशके विषय में दो नय है-उत्पादानुच्चदेव और अनुपादानुच्छेद । उत्पादानुच्छेदका अर्थ द्रव्यादिकमय है इसलिए वह सद्भावकी अवस्थायें ही विनाशको स्वीकार करता है, क्योंकि बस और वृद्धिविषयतासे अतिक्रान्त होनेके कारण वचन के अविषयभूत पदार्थ में अभावका व्यवहार नहीं बन सकता। दूसरी बात यह है कि अभाव नामका कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, क्योंकि उसके ग्राहक प्रमाणका अभाव है। कारण कि सतको विषय करनेवाले प्रमाणोके असत् में प्रवृत्त होनेका विरोध है अथवा असदके विषय में उनकी प्रवृतिका विरोध न माननेपर गधे का सौंग भी प्रमाण का विषय होना चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वह पाया नहीं जाता। इस प्रकार भावस्वरूप ही अभाव है यह सिद्ध होता है।
अनुत्यादानुच्छेदका अर्थ है इसी कारण वह असत् अवस्था में अभाव सज्ञाको स्वीकार करता है, क्योकि इस नकी दृष्टि भावकी उपलब्धि होनेपर अभाव रूपताका विरोध है । और प्रतिषेधका विषयभूत भाव भावरूपताको प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर प्रतिषेध निष्फल होने का प्रसंग आता है । विनाश नहीं है यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, घटिका आदिकोका सर्वकाल अवस्थान नही पाया जाता। यदि कहा जाय कि भाव ही अभाव है (भावको छोड़कर तुच्छाभाव नहीं है। तो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, भाव और अभाव ये दोनों परस्पर विरुद्ध है, अतएव उनके एक होनेका विरोध है । यहाँ चूंकि द्रव्यार्थिक नयस्वरूप उत्पादानुच्छेदका अवलम्बन किया गया है, अतएव 'मोहनीय कर्म की भाव वेदना यहाँ नहीं है' ऐसा कहा गया है। परन्तु यदि पाकनका लम्ब किया जाय तो मोहनीमकी भाववेदना अनन्तगुणी होन होकर यहाँ विद्यमान है ऐसा कहना चाहिए।
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गोजी १४/८०/११ प्रध्यार्थिकनयापेक्षया स्वस्वगुणस्थानचरनसमये च मन्वविनाय पार्थकयेन तु अनन्तरसमये बन्धनाश | द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे स्वस्व गुणस्थान के चरमसमय में बन्धव्यु या मम्पविनाश होता है। और पर्यायाधिकनकी अपेक्षासे उस उस गुणस्थानके अनन्तर समय में बन्धविनाश होता है ।
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३. द्रव्य गुण पर्याय तीनों लक्षणात्मक हैं
३. द्रव्य गुण पर्याय तीनों त्रिलक्षणात्मक हैं। १. सम्पूर्ण द्रव्य परिणमन करता है द्रव्यांश नहीं पं. ध. / पू. २११-२१५ ननु भवतु वस्तु नित्यं गुणरश्च नित्या भवन्तु माचिरिव भाषा को सिनो ह |२१| तन्न यतो दृष्टान्त प्रकृतार्थस्यैव बाघको भवति । अपि तदनुक्तस्यास्य प्रकृतविपक्षस्य साधकत्वाच्च । २१२ । अर्थान्तर हि न सत परिणामेभ्यो गुणस्य कस्यापि । एकत्वाज्जलधेरिव कलितस्य तरङ्गमालाभ्य । २१३ | किन्तु य एव समुद्रस्तरङ्गमाला भवन्ति ता एव । यस्मात्स्वयं स जलधिस्तरङ्गरूपेण परिणमति २१४|तस्माद स्वयमुत्पाद सदिति धौव्य व्योऽपि सदिति । न सतोऽ तिरिक्त एव हि व्युत्पादो वा व्ययोऽपि वा धौव्यम् ॥ २१५ ॥ प्रश्न-समुद्रकी तरह मरतो नित्य माना जाये और गुण भी नित्य माने जावे, तथा पर्याये कल्लोल आदिकी तरह उत्पन्न व नाश होनेवालो मानी जावे । यदि ऐसा कहो तो । २९९० उत्तर- ठीक नही है, क्योकि समुद्र और लहरोका दृष्टान्त शंकाकार के प्रकृत अर्थकाही बाधक है, तथा शकाकारके द्वारा नहीं कहे गये प्रकृत अर्थके विपक्षभूत इस वक्ष्यमाण कथचित् नित्यानित्यात्मक अभेद अर्थ का साधक है । २९२ कैसे तर गमालाओ से व्याप्त समुद्री तरह निश्चयसे किसी भी गुणके परिणामोसे अर्थात् पर्यायोंसे सतकी अभिन्नता होनेसे उस सत्का अपने परिणामोसे कुछ भो भेद नहीं है। | २१३ | किन्तु जो हो समुद्र है वे हो तर गमालाएं है क्योंकि वह समुद्र स्वयं तर गरूपसे परिणमन करता है | २१४ | इसलिये 'सव' यह स्वयं उत्पाद है स्वयं भी है और स्वयं ही व्यय भी है। क्योंकि से भिन्न कोई उत्पाद अथवा व्यय अथवा धौव्य कुछ नहीं है । २१५। विशेष उत्पाद २/५) रावा./३/२२६ द्रव्यको पर्यायके परिवर्तन होनेपर परिवर्त
कोई नहीं रहता। यदि कोई अंश परिवर्तनशील और कोई अंश परिवर्तन हो तो सर्वथा निश्य या सर्वथा अनित्यका दोष आता है।
२ द्रव्य जिस समय जैसा परिणमन करता है उस समय वैसा ही होता है
प्र. सा / मू. ८-६ परिणमदि जेण दव्व तक्काल सम्मयन्ति पण्णत्त । तम्हा धम्म परिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो । जीवो परिणमदि जदा
अगा सही असुद्ध तदा दोहनदि हि परिणाम सम्भावो || द्रव्य जिस समय जिस भावरूपसे परिणमन करता है उस समय तय है, ऐसा कहा है। इसलिए धर्मपत्माको धर्म समझना चाहिए |८| जीव परिणामस्वभावी होनेसे जब शुभ या अशुभ भावरूप परिणमन करता है, तब शुभ या अशुभ होता है और जय शुद्धभावरूप परिणति होता है तब शुद्ध होता है
३ उत्पाद व्यय द्रव्यांशमें नहीं पर्यायांशमें होते हैं का./मू १९ उपत्ती व विणासो दव्वस्स य णत्थि अस्थि सम्भावो । विगमुपादधुवत्त करेति तस्सेव पज्जाया । द्रव्यका उत्पाद या विनाश नही है, सद्भाव है । उसोको पर्याये विनाश उत्पाद व ध्रुवता करती है | ११ | ( प्र सा / म. २०१) ।
पं.
हद भवति पूर्व पूर्व भाव विनाशेन नश्यतोऽशस्य यदि मा उदुसरभावोत्पावेन जायमानस्य ९७ मह परिणमन पूर्व पूर्व भाव के विनाश रूपसे नष्ट होनेवाले अशका और केवल उत्तर उत्तर भाव के उत्पादरूप उत्पन्न होनेवाले अशका है, परन्तु द्रव्यका नहीं है।
४ उत्पादव्ययको द्रव्यका अंश कहनेका कारण प्र. स. पू. २०१ उपदिहि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं । १०९ । उत्पाद, स्थिति और
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उत्पादत्ययघ्रौव्य
३ द्रव्य गुण पर्याय तोनो त्रिलक्षणात्मक है
भंग पर्यायोंमें होता है, पर्याय नियमसे द्रव्यमें होती है, इसलिए साराका सारा एक द्रव्य ही है। (विशेष दे उत्पाद २/१)। पं.ध./ २०० उत्पादस्थितिभड्गा पर्यायाण भवन्ति किल न सत । ते पर्याया' द्रव्य तस्माद्रव्य हि ततत्रितयम् ।२०० -निश्चयसे उत्पाद व्यय तथा धौव्य ये तीनो पर्यायोके होते है सतके नहीं, और क्योंकि वे पर्याय ही द्रव्य है, इसलिए द्रव्य हो उत्पादादि तीनोवाला कहा जाता है।
५ पर्याय भी कथंचित् ध्रुव है श्लो वा २/१-६/१३/३५१/२७ एकक्षणस्थायित्वस्याभिधानात् । श्लो. वा २/१-७/२४/५८०/२२ कवल यथार्जुसूत्रात्क्षणस्थितिरेव भाव स्वहेतोरुत्पन्नस्तथा द्रव्याथिकनयारकालान्तरस्थितिरेवेति प्रतिचक्ष्महे सर्वथाप्यबाधितप्रत्ययात्तत्सिद्धिरिति स्थितिरधिगम्या। = एक क्षण में स्थितिस्वभावसे रहने का अर्थ अक्षणिकपना कहा गया है, अर्थात जो एक क्षण भी स्थितिशील है वह ध व है जैसे ऋजुसूत्रनयसे एक क्षण तक ही ठहरनेवाला पदार्थ अपने कारणोसे उत्पन्न हूआ है, तिस प्रकार द्रव्यार्थिकनयसे जाना गया अधिक काल ठहरनेवाला पदार्थ भो अपने कारणोसे उत्पन्न हुआ है, यह हम व्यक्त रूपसे कहते है। सभी प्रकारो करके बाधारहिल प्रमाणोसे उस कालान्तरस्थायी भुव पर्यायको सिद्धि हो जाती है। ध,४/१,५,४/३३६/१२ मिच्छत्त णाम पज्जाओ । सो च उप्पादविणासलक्षणो, द्विदीए अभावादो। अह जइ तस्स ट्ठिदी वि इच्छिज्जदि, तो मिच्छत्तस्स दव्यत्तं पसज्जदे,' ण एस दोसो, जमक्कमेण तिलकावणं त दवं, ज पुण कमेण उप्पादटिदिभगिल सो पज्जाओ त्ति जिणोवदेसादो। = प्रश्न-मिथ्यात्व नाम पर्यायका है, वह पर्याय उत्पाद और व्यय लक्षणवालो है, क्योकि, उसमें स्थितिका अभाव है, और यदि उसके स्थिति भी मानते है तो मिथ्यात्वके द्रव्यपना । प्राप्त होता है । उत्तर-यह कोई दोष नही, क्योकि, जो अक्रमसे उत्पाद व्यय और धौव्य इन तीनो लक्षणोवाला होता है वह द्रव्य होता है और जो क्रमसे उत्पाद स्थिति और व्यय वाला होता है
वह पर्याय है, इस प्रकारसे जिनेन्द्रका उपदेश है । प्रसा/त.प्र १८ अखिलद्रव्याणां केनचित्पर्यायेणोत्पाद, केनचिद्विनाश
केनचिदधौव्यमित्यवबोद्धव्यम् । =सर्व द्रव्योका किसी पर्यायसे उत्पाद, किसी पर्यायसे विनाश और किसी पर्यायसे ध्रौव्य होता है। .ध./पू.२०३ ध्रौव्य तत कथा चित् पर्यायाचि केवल न सत' । उत्पादव्यय दिद तच्चै काश न सर्व देशं स्यात् ।२०३/- पर्यायार्थिक नयसे धौव्य भो कथंचित सत्का होता है, केवल सत्का नही। इसलिए उत्पाद व्यय को भॉति वह धौव्य भी सत का अश (पर्याय) है परन्तु सर्व देश नही।
६ द्रव्य गुण परि तीनो सत् है प्र. सामू १०७ सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चे य पज्जओ त्ति वित्थारो।
जा खलु तस्स अभावो सो तदभावो अतब्भावो । सत् द्रव्य, सत् गुण और सव पर्याय इस प्रकार सत्ता गुण का विस्तार है।
७ पर्याय सर्वथा सत् नहीं है घ. १५/१/१७ असदकरणादुपादानग्रहणाव सर्वसंभवाभावात । शक्तस्य
शक्यकरणाद कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।। (सरिय कारिका)इति के वि भण ति । एवं पि ण जुज्जदे । कुदो । एयंतण संते कत्तार बावारस्स बिहलत्तप्पसगादो, उवायाण गणाणुववत्तीदो, सव्वहा सतरय संभव विरोहादो, सबहा सते कज्जकारणाभावाणुववसीदो। किंच-विप्पडिसेहादो ण संतस्स उप्पत्ती । जदि अस्थि, कधं तस्सुप्पत्ती। अह उप्पज्जई, कधं तस्स अस्थित्तमिदि। -प्रश्न
कि असत् कार्य किया नही जा सकता है, उपादानोके साथ कार्यका सम्बन्ध रहता है, किसी एक कारणसे भी कार्योंकी उत्पत्ति सम्भव
नही है, समर्थ कारण के द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, तथा कार्य कारण-स्वरूपही है--उससे भिन्न सम्भव नहीं है, अतएव इन हेतुओके द्वारा कारण व्यापारसे पूर्व भी कार्य सतही है, यह सिद्ध है ।११ (साख्य) उत्तर-इस प्रकार किन्ही कपिल आदिका कहना है जो योग्य नही है। कारण कि कार्यको सर्वथा सत माननेपर क्तकि व्यापारके निष्फल होनेका प्रसग आता है । इसी प्रकार सर्वथा कार्यके सत होनेपर उपादानका ग्रहण भी नही होता। सर्वथा सत् कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है । कार्यके सर्वथा सत् होने पर कार्यकारणभाव ही घटित नहीं होता। इसके अतिरिक्त असंगत होनेसे सत्-कार्यकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्यो कि, यदि 'कार्य' कारण व्यापारके पूर्व मे भी विद्यमान है तो फिर उसकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है और यदि वह कारण व्यापारसे उत्पन्न होता है, तो फिर उसका पूर्वमें विद्यमान रहना कैसे सगत कहा जावेगा।
८ लोकाकाशमें भी तीनो पाये जाते है का अ./मू ११७ परिणाम सहावादा पडिसमय परिणमति दव्याणि । तेसि परिणामादो लोयस्स वि मुणह परिणाम ।१९७१ = परिणमन करना वस्तुका स्वभाव है, अत द्रव्य प्रति समय परिणमन करते है। उनके परिणमनसे लोक का भी परिण मन जानो।
९ धर्मादि द्रव्योमें परिणमन है पर परिस्पन्द नहीं स सि. ५/७/२७:/१ अत्र चोद्यते-धर्मादीनि द्रव्याणि यदि निष्क्रियाणि ततस्तेषामुत्पादो न भवेत् । क्रिपापूर्वको हि घटादीनामुत्पादो दृष् । उत्पादाभावाच्च व्यायाभाव इति । अत सर्व द्रव्याणामुत्पादादित्रितयकल्पनाव्याघात इति । नत्र, कि कारणम् । अन्यथोपपत्ते । क्रियानिमित्तोत्पादाभावेऽप्येषा धर्मादीनामन्यथोत्पाद कल्प्यते । तद्यथा द्विविध उत्पाद स्वनिमित्त परप्रत्ययश्च । षट्स्थानपतितया वृद्धया हान्या च प्रवर्तमानाना स्वभाबादेस्तेषामुत्पादो व्ययश्च । प्रश्न - यदि धर्मादि द्रव्य निष्क्रिय है तो उनका उत्पाद नही बन सकता, क्योकि घटादिकका क्रियापूर्वक ही उत्पाद देखा जाता है, और उत्पाद नही बनने से इनका व्यय भी नहीं बनता। अत 'सब द्रव्य उत्पाद आदि तीन रूप होते है. इस कल्पनाका ठयाघात हो जाता है। उत्तर--नही, क्योकि इनमे उत्पादादि तीन अन्य प्रकारसे बन जाते है। यद्यपि इन धर्मादि द्रव्योमे क्रिया निमित्तक उत्पाद नहीं है तो भी इनमें अन्य प्रकारसे उत्पाद माना गया है। यथा-उत्पाद दो प्रकारका है-स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद । तहाँ इनमें छह स्थानपतित वृद्धि और हानिके द्वारा वर्तन होता रहता है। अत इनका उत्पाद और व्यय स्वभावसे (स्व निमित्तक) होता है। (रा. वा. ५/७/३/४४६/१०)
१० मुक्त आत्माओमें भी तीनो देखे जा सकते हैं प्र सा /मू. १७ भगविहीणो य भवो सभव परिवज्जिदो विणासो हि । विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिस भवणाससमवायो ।१७) - उसके (शुद्धात्मस्वभावको प्राप्त आत्माके) विनाश रहित उत्पाद है, और उत्पादरहित विनाश है। उसके ही फिर धौव्य, उत्पाद और विनाशका समय विद्यमान है । १७५ प्र. सा./ता वृ १८/१२ सुवर्ण गोरसमृत्तिकापुरुषादिमूर्तपदार्थेषु यथोत्पादादित्रयं लोके प्रसिद्ध' तथैवामूर्तेऽपि मुक्तजीवे । यद्यपि १. संसारावसानोत्पन्नकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशोभवति तथैव केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योत्पादच भवति, तथाप्युभयपर्यायपरिणतात्मद्रव्यत्वेन प्रौव्यत्व पदार्थस्वादिति । अथवा २ शेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भङ्गत्रयेण परिण मन्ति तथा ज्ञानमपि परिच्छित्त्यपेक्षया भङ्गत्रयेण परिण मति । ३ षट्स्थानगतागुरुलघुकगुण वृद्धिहान्यापेक्षया वा भङ्गत्रयमवबोद्धव्यमिति सूत्रतात्पर्यम् । -जिस प्रकार स्वर्ण, गोरस, मिट्टी व पुरुषादि मूर्त द्रव्योंमें उत्पा
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उत्प्रेक्षा
दादि तीनों लोकोमें प्रसिद्ध है उसी प्रकार अमूर्त मुक्तजी मे भी जानना । १ यद्यपि संसारकी जन्ममरण रूप कारण समयसारकी पर्यायका विनाश हो जाता है परन्तु केवलज्ञानादिकी व्यक्तिरूप कार्यसमयसाररूप पर्यायका उत्पाद भी हो जाता है, और दोनो पर्यायोसे परिणत आत्मद्रव्यरूप से श्रीव्यत्व भी बना रहता है, क्योकि वह एक पदार्थ है २. अब दूसरी प्रकारसे ज्ञेय पदार्थों प्रतिक्षण तीनो भङ्गो द्वारा परिणमन होता रहता है और ज्ञान भी परिच्छित्तिकी अपेक्षा तदनुसार ही तीनो भङ्गोसे परिणमन करता रहता है । ३ तीसरी प्रकार से षट्स्थानगत अगुरुलघुगण में होनेवाली वृद्धिहानिकी अपेक्षा भी सोनो भइ तहाँ जानने चाहिए। ऐसा सूत्रका तात्पर्य है ( प्र / टी १/५६) (इ स ट २४/४६/१)
-
* उत्पादव्यय सापेक्ष निरपेक्ष द्रव्यार्थिक नय-दे, नय IV/२० उत्प्रेक्षा - एक अकार इसने भेदज्ञानपूर्वक उपमेयमे उपमानकी प्रतीति होती है।
उत्संज्ञासंज्ञ - अपर नाम अवसन्नासन्न । क्षेत्र प्रमाण का एक भेद है। - दे गणित 1 / १ ।
उत्सरण - स्थिति बन्धोत्सरण दे उत्कर्षण । उत्सर्ग- १/३२ / १४०/९ द्रव्यं सामान्यमु
प
अनुवृतिरित्यर्थ । द्रव्यका अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है । उसको विषय करनेवाला नय द्रव्यार्थिकनय है । द पा / टी २४/२१/२० सामान्योक्तो विधिरुत्सर्ग । कही जानेवाली विधि उत्सहते है।
- सामान्य रूपसे
२ अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जितोत्सर्ग
|=
ससि ७/३४/३७०/११ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जिताया भूमौ मूत्रपुरीषोत्सर्ग अपव्यय बेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग बिना देखी और बिना प्रमाजिस (पीडी आदि से झाडो गयी) भूमिमें मलमूत्रका त्याग करना अप्रत्य सामाजितोस है ।
उत्सर्ग तप-दे व्युत्सर्ग २ |
उत्सर्ग व अपवाद पद्धति पद्धति।
उत्सर्ग मार्ग
"दे अपवाद ।
उत्सर्ग लिंग गि ।
उत्सर्ग समिति — प्रतिष्ठापना समिति - दे. समिति १ । उत्सर्पिणि- -१० कोडाकोडी सागरोका एक उत्सर्पिणी काल होता है । इस काल सम्बन्धी विशेषताएँ- दे. काल ४
उत्साह भूत कालीन ये सीर्थंकरदे तीर्थंकर | उत्सेध - Height ऊँचाई;
उत्सेधांगुल — क्षेत्र प्रमाण का एक भेद--दे गणित 1/१/३ | उदक - अपर नाम 'प्रभादेव' । यह भावी चौबीसी में आठवे तीर्थंकर है --- दे तीर्थंकर ५ ।
उदंबर - बड बटो, पीपल बटी ऊमर, कटूमर, पाकर, गूलर, जंजीर
"
आदि फल उदबर फल है इनमें उडते हुए त्रस जीव प्रत्यक्ष देखे जा सकते है । उदम्बर फल यद्यपि पाँच बताये जाते है, परन्तु इसी जातिके अन्य भी फल इन्ही में गर्भित समझना ।
१ उदंबर फलोके अतिचार
साध ३/१४ स तमविहारी मार्ताकादि दारितं १४- उदम्बर व्यापम
नीला
|
तद्भादिपालन करने
३६३
उदय
1
वाला श्रावक सम्पूर्ण अज्ञात फलोको तथा बिना चीरे हुए भटा वगैरहको और उसी तरह बिना चीरी की फली न खाये खा.सं. २०६१०३ म्रन्दस्तु नूनं स्यादुपलक्षण तेन साधारस्त्याज्या ये वनस्पतिकायिका ७६ | मलबीजा यथा प्रोक्ता फलकाद्याद्रकादय' । न भक्ष्या दैवयोगाद्वा रोगिणाम्यौषधच्छलात् १८० | एवमन्यदपि त्याज्यं यत्साधारण लक्षणम् । त्रसाश्रितं विशेषेण तद्वि युक्तस्य का कथा | १०| साधारणं च केषांचिन्मूलं स्कन्धस्तथागमात् । शाखाः पत्राणि पुष्पाणि पर्व दुग्धफलानि च । कुंपलानि च सर्वेषा मृदूनि च यथागमम् । सन्ति साधारणान्येन प्रोसकालामधेरध
| = यहाँपर उदम्बर शब्दका ग्रहण उपलक्षण रूप है । अत. सर्व ही साधारण वनस्पतिकायिक त्याज्य है | ७ | मूलबीज, अग्रबीज, पोरबीज और किसी प्रकारके भी अनन्तकायिक फल जैसे अदरख आदि उन्हे नही खाना चाहिए। न दैवयोगसे खाने चाहिए और नही रोग औषधि के रूपमें खाने चाहिए |८०| इसी प्रकारसे अन्य भी साधारण लक्षण वाली तथा विशेषत' त्रसजीवोके आश्रयभूत वनस्पतिका त्याग कर देना चाहिए |१०| किसी वृक्षकी जड़ साधारण होती है और किसीकी शाखा, स्कन्ध, पत्र, पुष्प व पर्व आदि साधारण होते है। किसी वृक्षका दूध व फल अथवा क्षीर फल ( जिन फलों को तोडनेपर दूध निकलता हो) साधारण होते है | ११ | कंपलें तथा सर्व ही कोमल पत्ते व फल आगमके अनुसार यथाकालेकी अवधि पर्यंत साधारण रहते है, पीछे प्रत्येक हो जाते है। उनका भी त्याग करना चाहिए ।
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★ पंच उदम्बर फलोका निषेध - दे. भक्ष्याभक्ष्य ४ उदक-१ उत्तर दिशा; २ उत्तर दिशा की प्रधानता दे, दिशा, ३ जलके अर्थ में - दे, जल, ४ राक्षस जातिका एक व्यंतर देव-दे राक्षस, ५. लवण समुद्रमे स्थित एक पर्वत-दे लोक ५ / ६, ६. लवण समुद्र में स्थित शख पर्वतका रक्षक एक देव-दे, लोक ५/६ । उदक वर्ण
एक ग्रह - दे, ग्रह ।
उदकावास- - १. लवण समुद्र में स्थित एक पर्वत- दे. लोक ५/१६; २ लवण समुद्र में महाशंख पर्वतका रक्षक देव - दे. लोक ५/६ । उदधि कुमार भवनवासी देवोका एक भेद--दे. भवन / १,४ । उदयजीव पूर्वकृत जो शुभ या अशुभ कर्म उसकी सिभूमिवर अकित पड़े रहते है, वे अपने-अपने समयपर परिपक्क दशाको प्राप्त होकर जीवको फल देकर खिर जाते है। इसे ही कर्मोंका उदय कहते है। कर्मोंका यह उदय द्रव्य क्षेत्र काल व भवकी अपेक्षा रखकर आता है। कर्मके उदयमे जीवके परिणाम उस कर्मकी प्रकृति अनुसार ही नियमसे हो जाते है. इसीसे कर्मका जीवका पराभव करनेवाला कहा गया है।
१ भेद, लक्षण व प्रकृतियाँ
१ अनेक अपेक्षाओसे उदयके भेद
१. स्वमुखोदय परमुखोदय २ सविपाक अनिपाल ३. तीन मन्दादि ।
२ द्रव्य कर्मोदयका लक्षण
३ भाव कर्मोदयका लक्षण
४ स्वमुखोदय व परमुखोदयके लक्षण
५ सम्प्राप्ति जनित व निषेक जनित उदयका लक्षण
६ उदयस्थानका लक्षण
७ सामान्य उदय योग्य प्रकृतियों
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उदय
८ ध्रुवोदयी प्रकृतियाँ
* स्वोदय परोदय बन्धी आदि प्रकृतियाँ- दे. उदय / ७
२ उदय सामान्य निर्देश
१ कर्म कभी बिना फल दिये नही झडते
* कर्मोदयके अनुसार ही जीव के परिणाम होते है
* कर्मोदयानुसार परिणमन व मोक्षका समन्वय
दे. कारण IV/ दे. विभाग/४
★ कमदयकी उपेक्षा की जानी सम्भव है २ उदयका अभाव होनेपर जीवमे शुद्धता आती है।
३ कर्मका उदय द्रव्य क्षेत्रादिके निमित्त से होता है ४ द्रव्य क्षेत्रादिकी अनुकूलतामे स्वमुखेन और प्रतिकूलतामें परमुखेन उदय होता है
५ विना फल दिये निर्जीर्ण होनेवाले कर्मोकी उदय संज्ञा कैसे हो सकती है ?
६ कर्मोदयके निमित्तभूत कुछ द्रव्योंका निर्देश
७ कर्मप्रकृतियोंका फल यथाकाल भी होता है और अयथाकाल भी
८ बन्ध, उदय व सत्त्वमे अन्तर
* कषायोदय व स्थितिबन्ध व्यवसाय स्थानोमे अन्तर
-a.
अध्यवसाय
* उदय व उदीरणामे अन्तर-- दे. उदीरणा
* ईर्यापथकर्म -- द ईर्यापथ
- दे. कारण III / ५
३ निषेक रचना
१ उदय सामान्यको निषेक रचना
२ सत्वकी निषेक रचना
३ सत्व व उदयागत द्रव्य विभाजन
४ उदयागत निषेकोंका त्रिकोण यन्त्र
५ सत्त्वगत निषेकका त्रिकोण यन्त्र
६ उपशमकरण द्वारा उदयागत निषेक रचनामे परिवर्तन ४ उदय प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम
१ मूल प्रकृतिका स्वमुख तथा उत्तर प्रकृतियोका स्व व परमुख उदय होता है
२ सर्वपातीमे देशघातीका उदय होता है, पर देशघातीमे सर्वघातीका नही
निद्रा
* निद्रा प्रकृतिके उदय सम्बन्धी नियम ३ ऊपर ऊपरकी चारित्रमोह प्रकृतियोंमे नीचे-नीचेवाली तज्जातीय प्रकृतियों का उदय अवश्य होता है।
४ अनन्तानुबन्धीके उदय सम्बन्धी विशेषताएं
५ दर्शनमोहनीयके उदय सम्बन्धी नियम
विषयसूची
६ चारित्र मोहनीयकी प्रकृतियोमे सहवर्ती उदय सम्बन्धी नियम
७ नामकर्म की प्रकृतियोंके उदय सम्बन्धी
३६४
१ चार जाति व स्थावर इन पाँच प्रकृतियों की उदय व्युच्छित्ति सम्बन्धी दो मत । २ संस्थानका उदय विग्रहगति में नही होता । ३ गति, आयु व आनुपूर्वीका उदय भवके प्रथम समय में ही हो जाता है। ४. आतपउद्यतिका उदय तेज, बात ब] सूक्ष्ममें नहीं होता . आहारकद्विक व सीर्थदूर प्रकृतिका उदय पुरुषवेदीको ही सम्भव है।
• तीर्थकर प्रकृति
सम्बन्धी तीर्थदर ८ नामकर्म की प्रकृतियोगे सहवर्ती उदय सम्बन्धी ९ उदयके स्वामित्व सम्बन्धी सारणी
* गोत्र प्रकृतिके उदय सम्बन्धी -- दे. वर्ण व्यवस्था * कषायोका व साता वेदनीयका उदयकाल --दे वह वह नाम ५ प्रकृतियोंके उदय सम्बन्धी शंका समाधान * पुद्गल जीव पर प्रभाव कैसे डाले -- दे. कारण IV/2 * प्रत्येक कर्मका उदय हर समय क्यों नही रहता ? --दे उदय २/३
होता है ? नही ? -- दे. उदय ४/७
१ असंज्ञियोंमे देवादि गतिका उदय कैसे * तेजकायिकोमे आतप वा उद्योत क्यों
२ देवगतिमे उद्योतके बिना दीप्ति कैसे है ? ३ एकेन्द्रियोंमे अंगोपाग व संस्थान क्यों नही ?
४ विकलेन्द्रियोंमे हुँटक संस्थान व दु-स्वर ही क्यों ?
६ कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ
१ सारिणीमे प्रयुक्त संकेतोके अर्थ ।
।
२ उदय व्युच्छित्ति की ओघ प्ररूपणा
३ उदय व्युच्छित्तिकी आदेश प्ररूपणा
४ सातिशय मिध्यादृष्टिमे मूलोत्तर प्रकृतिके चार प्रकार उदयकी प्ररूपणा
५ मूलोत्तर प्रकृति सामान्य उदयस्थान प्ररूपणा
६ मोहनीयकी सामान्य व ओघ उदयस्थान प्ररूपणा ७ नामकर्मकी उदयस्थान प्ररूपणाएँ
१. युगपत् उदय आने योग्य विक्व तथा संकेत । २. नामकर्म के कुछ स्थान व भङ्ग । ३, नामकर्मके उदय स्थानोकी ओघ प्ररूपणा । ४ उदय स्थान जीव समास प्ररूपणा । ५ उदय स्थान आदेश प्ररूपणा । ६ पाँच कालोकी अपेक्षा नामकर्मोदय स्थानों की सामान्य प्ररूपणा । ७. पाँच कालोंकी अपेक्षा नामकर्मोदय स्थानोंकी चतुर्गतिप्ररूपणा । = प्रकृति स्थिति आदि उदयौं की अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणाओं की सूची ।
७ उदय उदीरणा व बन्धकी संयोगी स्थान प्ररूपणाएँ १ उदय व्युच्छित्तिके पश्चात् पूर्व व युगपत् बन्ध व्युच्छित्ति योग्य प्रकृतियाँ
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दय
२ स्वोदय परोदय व उभयबन्धी प्रकृतियाँ * आतप व उद्योतका परोदय बन्ध होता है- उद ४० * यद्यपि मोहनीयका जघन्य उदय स्व प्रकृतिका बन्ध करनेको असमर्थ है परन्तु वह भी सामान्य बन्धमे कारण है- दे. बन्ध/३
३ किन्ही प्रकृ तियोके बन्ध व उदयमे अविनाभावी सामानाधिकरण्य
४ मूल व उत्तर बन्ध उदय सम्बन्धी संयोगी प्ररूपणा ५ मूल प्रकृति बन्ध, उदय व उदीरणा सम्बन्धी संयोगी
प्ररूपणा
* सभी प्रकृतियोंका उदय बन्धका कारण नही
८ बन्ध उदय सत्त्वकी त्रिसंयोगी स्थान- प्ररूपणा १ मूलोतर प्रकृति स्थानोकी त्रिसयोगी ओपप्ररूपणा २ चार गतियोमे आयुकर्म स्थानोकी त्रिसंयोगी सामान्य व ओष प्ररूपणा
३ मोहनीय कर्मकी सामान्य त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
-दे उदय ६
१ बन्ध आधार -- उदय सत्त्व आधेय । २ उदय आधार बन्ध सत्त्व आधेय । ३ सत्त्व आधार-बन्ध उदय आधेय । ४ बन्ध उदय आधार- सत्त्व आधेय । ५. बन्ध सत्व आधारउदय आधेय । ६ उदय सत्त्व आधार-बन्ध आधेय । ४ मोहनीय कर्म स्थानोको त्रिसंयोगी ओष प्ररूपणा ५ नामकर्मकी सामान्य त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
१. बन्ध आधार-उदय सत्व आधे । २. उदय आधार--बन्ध सत्त्व आधेय । ३ सत्त्व आधार-बन्ध उदय आधेय । ४ बन्ध उदय आधार -- सत्त्व आधेय । ५ बन्ध सत्त्व आधार-उदय आधेय । उदय सत्त्व आधार-बन्ध आधेय ।
६ नामकर्म स्थानोकी विसयोगी ओध प्ररूपणा
७ जीव समासोंकी अपेक्षा नामकर्म स्थानकी त्रिसंयोगी
३६५
प्ररूपणा
८ नामकर्म स्थानोकी त्रिसंयोगी आदेश प्ररूपणा
* मूलोत्तर प्रकृतियोके चारो प्रकारके उदय व उनके स्वामियो सम्बन्धी सस्था, क्षेत्र, काल, अन्तर व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ
६ औदयिक भाव निर्देश
१ औदयिक भावका लक्षण
२ औदयिक भावके भेद
* औदयिक भाव बन्धका कारण है- दे. भार
३ मोहज औदयिक भाव हो बन्धके कारण है अन्य नही ४ वास्तवमे मोहजनित भाव ही औदयिक है, उसके बिना
सब औदयिक भी क्षायिक है
* असिद्धत्यादि भावोमे औदयिकपना दे, वह वह नाम
•
वह वह नाम
१ भेद लक्षण व प्रकृतियाँ
* क्षायोपशमिक भावमे कथञ्चित् औदायिकपना --दे क्षयापशम
* गुणस्थानो व मार्गणास्थानो में औदायिकभावपना तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान --- दे वह वह नाम
* कषाय व जीवत्वभावमे कथञ्चित् औदयिक व पारिणामिनादे वह वह नाम
* औदयिक भाव जीवका निज तत्त्व है ३. भाग २
* औदयिक भावका आगम व अध्यात्म पद्धतिसे निर्देश - दे. पद्धति
१. भेद, लक्षण व प्रकृतियाँ
१ अनेक अपेक्षाओसे उदयके भेद
सखि ८/२/३८० एव प्रत्ययवशात्तोऽभवद्विधायते स्वमुखेन परमुखेन च । इस प्रकार कारणवशसे प्राप्त हुआ वह अनुभव दो प्रकारसे प्रवृत्त होता है -१ सुरवसे और २ परमुखसे । (रावा ८/२१/१/५८३/१६)
प. प्रा ४ / ५१३ काल-भव-खेत्तपेही उदओ सविवाग अविवागो । काल, भव और क्षेत्रका निमित्त पाकर कर्मो का उदय होता है। वह दो प्रकारका है - १. सविपाक उदय और २ अविपाक उदय । (पं. सं / सं ४ / ३६८ ) । तीव्र मन्दादिउदय घ १/१.१३८/३८८/२ षड्विध कषायोदय । तद्यथा तीव्रतम तीव्रतरः, तीव्र, मन्द, मन्दतर, मन्दतम इति । षायका उदय छह प्रकारका होता है । वह इस प्रकार है। तीव्रतम तं व्रतर, तीव्र, मन्द मन्दतर, मन्दतम । प्रकृति स्थियि आदिको अपेक्षा भेद :१५/२८५-२८६
+
माल
पृ. २०६
1
मूल
1
प्रकृति
उत्कृष्ट
1
उत्तर मूल
T प्रयोग जनित
उदय 1
}
स्थिति
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१ पृ. २८६
1 उत्तर
अनुत्कृष्ट २. द्रव्य कर्मोदयका लक्षण
I स्थिति क्षय जनित
अनुभाग
अजघन्य
1
प्रदेश
पृ २८
जघन्य
प सं./प्रा /३/३ घण्णस्स संगहो वा संतं जं पुत्रसनिय कम्म। भुजणकालो उदओ उदीरणाऽपक्वपाचफल व | ३| धन्य के संग्रह के समान जो पूर्व संचित धर्म है, उनके आरमामे अवस्थित रहनेको स कहते है । कर्मों के फल भोगने के कालको उदय कहते है । तथा अपक्व कर्मो के पाचनको उदीरणा कहते है ।
ससि २ / २ / ९४६/८ अव्यादिनिमित्तवशाद कर्मणा प्राविरुद
= द्रव्य, क्षेत्र, काल व भवके निमित्तके धशसे कर्मों के फलका प्राप्त होना उदय है (रावा. २/१/४/२०० / ११) ( रा वा ६/१४/१/१२/२६) ( प्र सा / त प्र. ५६ / १०६/१)
क पा/वेदक अधिकार न६ कम्मेण उदयो कम्मोदयो, अवक्कपाचणाए विणा जहाकालजणिदो कम्मान ठिदिवखरण जो विवागो सो कम्मादयोति भण्णदे । सो पुन खेत्त भव काल पोग्गल द्विदी विवागादयत्ति एदस्सगाहाथच्छद्धस्स समुदाय त्यो भवदि । कुदो । खेत्त भव काल मोग्गले अस्सिऊण जा द्विदिवखओ उदिण्णफलबखघ
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उदय
परिसडणलक्खणो सोदयो त्ति सुत्तत्थावलवणादो।
कर्म रूप से
उदयमें आनेको कर्मोदय कहते है । अपक्वपाचनके बिना यथाकाल जति जो कमका विवाक होता है, उसको कर्मोदय कहते है । ऐसा इस गाथाके उत्तरार्धका अर्थ है। सो कैसे क्षेत्र, भव, काल और पुद्गल द्रव्यके आश्रयसे स्थितिका क्षय होना तथा कर्मस्कन्धोंका अपना फल देकर झड़ जाना उदय है । ऐसा सूत्र के अवलम्बनमे जाना जाता है । गो. जी / की प्र. ८/२६/१२ स्वस्थितिक्षयवशादुदयनिषेके गलत कार्मणस्कन्धानां फलदानपरिणति' उदय । - अपनी अपनी स्थिति क्षयके बरसे उदयरूप निषेको के गलनेपर कर्मस्कन्धोंकी जो फलदान परिणति होती है, उसे उदय कहते है । (गो.क जी. ४३१/१२/८)। गो.क/जी.प्र. २६४/३६७/११ स्वभावाभिव्यक्ति' उदय', स्वकायं कृत्वा रूपपरित्यागो वा । - अपने अनुभागरूप स्वभावको प्रगटताको उदय कहिए है। अथवा अपना कार्यकरि कर्मणाको छोडे ताको उदय कहिये ।
२. भावकर्मोदयका लक्षण
ससा / मू. १३२-१३३ अण्णाणस्सस उदओ जा जीवाणं अतच्चउवली । मिच्छत्तस्स दु उदओ जीवस्स असदहाणत्त । १३२ । उदओ असंजमस्स दुजं जीवाणं हवेह अविरमगं जो सोओगो बाण सो दु कसायउदओ | १३३| = जीवोंके तो जो तत्वका अज्ञान है वह अज्ञानका उदय है और जीवके जो अश्रद्धान है वह मिथ्यात्वका उदय है । और जीवोके अविरमण या अत्यागभाव है वह असंयमका उदय है और जीवोंके मलिन उपयोग है वह कषायका उदय है । स. सि ६/१४/३३२/७ उदयो विपाकः । - कर्मके विपाकको उदय कहते है।
४. स्वमुखोदय व परमुखोदयके लक्षण गो.जी. ३४२/४६३ / १० अनुदयगताना परमुत्योदयत्वेन स्वसमयोदया एकैकनिषेडा स्थित संक्रम्य गच्छन्तीति स्वमुखमुखोदय विशेष अवगन्तव्य उदयको प्राप्ति नाहीं जे नपुंसक वेदादि परमुख उदयकरि समान समय निविषै उदयरूप एक-एक निषेक, कला अनुक्रमकरि संक्रमण होइ प्रम (विशेष दे स्तुविक सक्रमण ) ऐसे स्वमुख व परमुख उदयका विशेष जानना । जो प्रकृति आपरूप ही होइ उदय आवै तहाँ स्वमुख उदय है । जो प्रकृति अन्य प्रकृतिरूप हो (उदय) तहाँ पर मुल उदय है। पृ. ४६४ /१० (रा. वा / हि ८/२१/६२६)
५. सम्प्राप्तिजनित व निषेक जनित उदय
घ. १५/२/१ संतसीदो एगा दिट्ठदि उदिण्णा, सहि उदिगपरमाणुमेगा मोसून दुसमयादि अवाणं तरावल भादो । सेविवाद जगाओ हिदीओ उदिष्णाओ. एहि जं पदेसग्ग उदिणं तस्स दव्बयिणय पडुच्च पुब्बिल्लभावोवयारसभवादो । संप्राप्तिको अपेक्षा एक स्थिति उदीर्ण होती है, क्योकि इस समय उदय प्राप्त परमाणुओके एक समयरूप अवस्थानको छोडकर दो समय आदिरूप अवस्थानान्तर पाया नहीं जाता। निषेककी अपेक्षा अनेक स्थितियों उदीर्थ होती है, क्योंकि इस समय जो प्रदेश है उसके अभ्यार्थिक नयकी अपेक्षा पूर्वीभाव के उपचारकी संभावना है।"
६. उदयस्थानका लक्षण
रा. वा. २/५/४/२०७/१३ - एकप्रदेशो जघन्यगुण परिगृहीत', तस्य चानुभाग विभागप्रतिच्छेदाः पूर्ववत्कृताः। एवं समगुणा वर्गा समुदिता वर्गणा भवति । एकाविभागपरिचोदाधिका पूर्ववद्विरीकृता वर्गावर्गणाश्च भवन्ति यावदन्तरं भवति तावदेकं स्पर्धकं भवति । एवमनेन क्रमेण विभागे क्रियमाणेऽभव्यानामनन्तगुणानि
२. उप सामान्य निर्देश सिद्धानामनन्तभागप्रमाणानि स्पर्धकानि भवन्ति तदेतत्समुदितमेकमुदयस्थान भवति । एक प्रदेशके जघन्य गुणको ग्रहण करके उसके अविभाग प्रतिच्छेद करने चाहिए। समान अविभाग प्रतिच्छेदोकी पक्तिसे वर्ग तथा वर्गोंके समूह से वर्गणा होती है। इस क्रमसे समगुणवाले वर्गो के समुदायरूप वर्गणा बनानी चाहिए। इस तरह जहाँ तक एक-एक अविभाग परिच्छेदका लाभ हो वहाँ तककी वर्गणाओं के समूहका एक स्पर्धक होता है। इसके आगे एक दो आदि अविभागप्रतिच्छेद अधिकवाले वर्ग नहीं मिलते. अनन्त अविभागप्रतिच्छेद अधिक बाते ही मिलते है। वहाँ से आगे पुन जब तक क्रम वृद्धि प्राप्त होती रहे और अन्तर न पडे तबतक स्पर्धक होता है। इस तरह सम गुणवाले वर्गों के समुदायरूप वर्गणाओ
के समूहरूप स्पर्धक कि एक उदयस्थान में अभव्योसे अनन्तपुणे तथा
सिद्धो के अनन्तभाग प्रमाण होते है ।
३६६
मम ५ / १६४ / ३८१/१२ याणि देव अणुभागबन्धभवसारठाणाणि ताणि पेत्र अणुभागमन्चद् हाणागि अग्नानि को परिणामद्यागि ताणि चैव कसायउदयठाणाणित्ति भणति । जो अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान है वे ही अनुभाग वन्धस्थान है । तथा अन्य जो परिणामस्थान है वे ही कषाय उदयस्थान कहे जाते हैं । ससा आ३ यानि स्वतसम्पादन समर्थ कर्मावस्मालक्षणान्युदयस्थानानि । - अपने फलके उत्पन्न करने में समर्थ कर्मअवस्था जिनका लक्षण है ऐसे जो उदयस्थान |
७. सामान्य उदय योग्य प्रकृतियाँ
पंस / प्रा २ / ७ वण्ण-रस- गन्ध फासा चउ चउ सत्तेक्कमणुदयपयडीओ । ए ए पुण सोलसयं बन्धण संघाय प चैवं 191 - चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, पॉच, बन्धन और पॉच सवात मे छब्बीस प्रकृतियों उदयके अयोग्य है १२२ प्रकृतियों उदयके योग्य होती है । (पं. स २ / ३८)
गो, क / जी. प्र ३७ / ४२ / १ उदये भेदविवक्षायां सर्वा अष्टचत्वारिशच्छत अमेदविवक्षायाद्वात्रिंशत्युत्तरशतं उदयमे भेदकी अपेक्षा सर्व १४८ प्रकृतियाँ उदयोग्य है और अभेदको अपेक्षा] १२२ प्रकृतियों उदय योग्य है । ( प स / सं. १४८ ) । ८. भुवोदयी प्रकृतियाँ
मो. ७२ सामवोदयनारस गाई चततिम्माण | सुभगादेज्जसाणं जुम्मे विग्गारी जस, कार्मण, वर्णादिक ४, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण ये नाम कर्मकी १२ प्रकृतियों मोदी है।
२. उदय सामान्य निर्देश
१. कर्म कभी बिना फल दिये नहीं झड़ते
=
कपा, ३/२२/१४३०/२४५/२ ण च कम्मं सगरूवेण परसरूवेण वा अदत्तफलम कम्मभाव गच्छदि, विरोहादो । एगसमयं सगसरूवेणच्छिय विदियसमए परपसिसिम अम्ममा दि ति दुसमयकाल दिजिद्द सो को कर्म स्वरूपसे या पररूपसे फल बिना दिये अकर्म्मभावको प्राप्त होते नहीं क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है । किन्तु अनुदयरूप प्रकृतियो के प्रत्येक निषेक एक समय तक स्वरूपसे रहकर और दूसरे समय में परप्रकृतिरूपसे रहकर दोसरे समय अकर्मभावको प्राप्त होते है. ऐसा नियम है। अत सूत्रमे (सम्यग्मिथ्यात्व के ) दो समय काल प्रमाण स्थितिका निर्देश दिया है (अ आ / १८५० / १६६९) ।
२. उदयका अभाव होने पर जीवमें शुद्धता आती है ष ख ७/२९ / सू. ३४-३५/७८ अजोगि नाम कथं भवदि । ३४० खड्याए लदीए|३०|- जीव अयोगी कैसे होता है 1३४ क्षापि सन्धिसे जीन अयोगी होता है ॥३३॥
1
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सदम
२. उदय सामान्य निर्देश
गा.
३. कर्मका उदय द्रव्य क्षेत्र आदिके निमित्तसे होता है तम्हा दुक्खरूवफलाभावे वि असादावेदणीयस्स उदयाभावो जुज्जदे
त्ति सिद्ध । प्रश्न-बिना फल दिये ही प्रतिसमय निर्जीर्ण क. पा. मुत्त/मू. गा.५६/४६५ । खेत्त भव काल पोग्गल हिदिविवागो
होनेवाले (ईर्यापथ रूप) परमाणु समूहको उदय सज्ञा कैसे बन दयख यो दु ।५६। म क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलद्रव्यका आश्रय
सकती है ? उत्तर-नही, क्योकि जीव व कर्मके विवेकमात्र फलको लेकर जो स्थिति विपाक होता है उसे उदीरणा कहते है और उदय
देखकर उदयको फल रूपसे स्वीकार किया गया है। प्रश्न - यदि क्षयको उदय कहते है।
ऐसा है तो 'असातावेदनीयके उदयकाल में सातावेदनीयका उदय नहीं पं.सं/प्रा ४/५१३ . । कालभवखेत्तपेही उदओ -काल, भव और होता, केवल असाता वेदनीयका ही उदय रहता है ऐसा नहीं कहना क्षेत्रका निमित्त पाकर कर्मों का उदय होता है। (भ आ./वि १७०८/ चाहिए, क्योकि, अपने फलको नही उत्पन्न करने की अपेक्षा दोनों में १५३७/८).
ही समानता पायी जाती है। उत्तर-नही क्योकि, तब असातावेदक. पा १/१,१३.१४/१२४२/२६/१ दब्ब कम्मस्स उदएण जीवो कोहो नीयके परमाणुओके समान सातावेदनीयके परमाणुओकी अपने रूपसे त्ति जं भणिदं एत्थ चोअओ भणदि, दव्वकम्माइ' जीवसंबधाई
निर्जरा नही होती। किन्तु विनाश होनेकी अवस्थमें असातारूपसे संताइ किमिदि सगकज्ज कसायरूवं सम्बद्ध ण कुणं ति 1 अलद्ध
परिणमकर उनका विनाश होता है, यह देखकर सातावेदनीयका विसिट्ठभावत्तादो। तदल भे कारण वत्तव्य । पागभावो कारणं ।
उदय नहीं है, ऐसा कहा जाता है । परन्तु असातावेदनीयका यह पागभावस्स विणासो वि दबखेत्तकालभत्रा बेक्वाए जायदे । तदो ण
कम नहीं है, क्योंकि, तब असाताके परमाणुओकी अपने रूपसे ही
निर्जरा पायी जाती है । इस कारण दुखरूप फलके अभावमें भी सव्वद्ध' दव्बकम्माइ सगफलं कुणं ति त्ति सिद्ध ।-द्रव्यकर्मके
असातावेदनीयका उदय मानना युक्तियुक्त है, यह सिद्ध होता है। उदयसे जीव क्रोधरूप होता है, ऐसा जो कथन किया है उसपर शकाकार कहता है-प्रश्न-जब द्रव्यकर्मों का जीवके साथ सम्बन्ध
६ कर्मोदयके निमित्तभूत कुछ द्रव्योंका निर्देशपाया जाता है तो वे कषायरूप अपने कार्यको सर्वदा क्यो नहीं उत्पन्न करते है ? उत्तर-सभी अवस्थाओमें फन देनेरूप विशिष्ट अवस्थाको गो. क./भाषा ६८/६९/१५ जिस जिस प्रकृतिका जो जो उदय फलरूप प्राप्त न होनेके कारण द्रव्य कम सर्वदा आने कषायरूप कार्यको नहीं
कार्य है तिस तिस कार्यको जो बाह्यवस्तु कारणभूत होइ सो सो वस्तु करते हैं। प्रश्न-द्रव्यकर्म फल देनेरूप विशिष्ट अवस्थाको सर्वदा
तिस प्रकृतिका नोकर्म द्रव्य जानना (जैमे)प्राप्त नहीं होते, इसमें क्या कारण है, उसका कथन करना चाहिए। उत्तर -जिस कारण से द्रव्यकर्म सर्वदा विशिष्टपनेको प्राप्त नहीं होते
(गो. क.६६-८८/६९-७१) 1 वह कारण प्रागभाव है। प्रागभावका विनाश हुए विना कार्य की उत्पत्ति नही हो सकती है। और प्रागभावका विनाश द्रव्य क्षेत्र
नाम प्रकृति
नोकर्म द्रव्य काल और भवकी अपेक्षा लेकर होता है। इसलिए द्रव्यकम सर्वदा ७० मति ज्ञानावग्ण
वस्त्रादि ज्ञानकी आवरक वस्तुएं अपने कार्यको उत्पन्न नहीं करते है, यह सिद्ध होता है।
"श्रुत ज्ञानावरण
इन्द्रिय विषय आदि भ आ/वि. १९७०/११५४/४ बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृत रागद्वषयोर्नीज ___७१/ अवधि व मन पर्यय सक्लेशको कारणभूत वस्तुए तस्मिन्नसति सहकारिकारण न च कर्ममात्रादागद्वषवृत्तिर्यथा "| केवल ज्ञानावरण सत्यपि मृत्पिण्डे दण्डाद्यन्तर कारणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति ___७२/ पाँच निद्रा दर्शनावरण
| दही, लशुन, खल इत्यादि मन्यते । मनमें विचारकर जब जोव बाह्यद्रव्यका अर्थात माह्य "चक्षु अचक्षु दर्शनावरण | वस्त्र आदि परिग्रहका स्वीकार करता है, तब राग द्वष उत्पन्न होते है। यदि ७३ अवधि व केवल दर्शनावरण | उस उस ज्ञानावरणवत् सहकारीकारण न होगा तो केवल कर्ममात्रसे रागद्वष उत्पन्न होते " साता असाता वेदनीय इष्ट अनिष्ट अन्नपान आदि नहीं। जैसे कि मृत्पिण्डसे उत्पन्न होते हुए भी दण्डादि के अभाव में ७४ सम्यक्त्व प्रकृति
जिन मन्दिर आदि उत्पन्न नही होता है और भी दे (उदय १/२/२,३), (उदय/२/४) ७४ मिथ्यात्व प्रकृति कुदेव, कुमन्दिर, कुशास्त्रादि ४ द्रव्यक्षेत्रादिकी अनुकूलतामें स्वमुखेन और प्रति- "| मिश्र प्रकृति
सम्यक व मिथ्या दोनों आयतन ७५ अनन्तानुबन्धी
कुदेवादि कूलतामें परमुखेन उदय होता है।
| अप्रत्याख्यादि १२ कषाय काव्यग्रन्थ, कोकशास्त्र, पापीपुरुष क. पा. ३/२२/६४३०/२४४/४ उदयाभावेण उदयणिसेयट्टिदी पर सरूवेण गदाए । जिस प्रकृतिका उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक ७६ तीनो वेद
स्त्री, पुरुष व नपुसकके शरीर स्थिति उपान्त्य समयमे पररूपसे संक्रमित हो जाती है।
"हास्य
बहुरूपिया आदि ५ बिना फल दिये निर्जीर्ण होनेवाले कर्मोको उदय रति
सुपुत्रादि
अरति संज्ञा कैसे हो सकती है ?
इष्ट वियोग अनिष्ट सयोग शोक
सुपुत्रादिकी मृत्यु घ. १२/४,२,७,२६/१ णिप्फलस्स परमाणुपु जस्स समयं पडि परिसद तस्स "भय
सिंहादिक कधं उदयववएसो । ण, जीवकम्म विवेगमेत्तफल दळूण उदयस्स फल
जुगुप्सा
निन्दित वस्तु त्तभुवगमादो। जदि एवं तो असादवेदणीयोदयकाले सादावेदणीयस्स
तहाँ तहाँ प्राप्त इष्टानिष्ट आहारादि उदओ णरिथ, असादावेदणीयस्सेव उदओ अस्थि त्ति ण वक्तव्य, नाम कर्म
तिसतिस गतिका क्षेत्र व इन्द्रिय सगफलाणुप्पायणेण दोणं पि सरिसत्तु वल भादो ण असादपरमाणूणं
शरीरादि के योग्य पुद्गल स्कन्ध ब्व सादपरमाणूणं सगसरूवेण णिज्जराभाबादो । सादपरमाणओ ऊँच नीच गोत्र
ऊँच नीच कुल असादसरूवेण विणस्सतावत्थाए परिणमिदूण विस्स ते दळूण सादावे
अन्तराय
दानादि में विघ्नकारी पुरुष आदि दणीयस्स उदओ णथि त्ति वुच्चदे ण च असादावेदणीयस्स एसो कमो अस्थि, अिसाद] परमाणूणं सगसरूवेणेण णिज्ज रुवल भादो।
७४
आदि
आयु
امی
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उदय
३६८
३ निषेक रचना
७ कर्मप्रकृतियोंका फल यथाकाल भी होता है और
अयथाकाल भी क. पा. सुत्त/वेदक अधिकार नं ६/म. गा.५६/४६५ कदि आवलियं
पवेसेइ कदि च पविस्सति कस्स आवलियं । प्रयोग विशेषके द्वारा कितनी कर्मप्रकृतियोको उदयावलीके भीतर प्रवेश करता है । तथा किस जीवके क्तिनी कर्मप्रकृतियो को उदीरणाके बिना (यथा काल)
ही स्थितिक्षयसे उदयावलीके भीतर प्रवेश करता है। श्ल वा २/सू ५३/वा २ कर्मणामयथाकाले विपाकोपपत्ते च आम्रफलादिवत् । -आम्र फलके अयथाकालपाककी भाँति कर्मोका अयथाकाल भी विपाक हो जाता है। ज्ञा. ३५/२६-२७ मन्दवीर्याणि जायन्ते कर्माण्यतिबलान्यपि । अपक्कपाचानायोगात्फलानीव वनस्पते' २६। अपक्वपाक क्रियतेऽस्ततन्द्रस्तपोभिरुव शुद्धियुक्त: । क्रमाद्गुणश्रेणिसमाश्रयेण सुसंवृतान्त:करणे मुनीन्द्र ।२७। पूर्वोक्त अष्ट कर्म अतिशय बलिष्ठ है, तथापि जिस प्रकार वनस्पतिके फल बिना पके भी पवनके निमित्तसे (पाल
आदिसे) पक जाते है उसी प्रकार इन कर्मोकी स्थिति पूरी होनेसे पहले भी तपश्चरणादिकसे मन्दवीर्य हो जाते है २६ नष्ट हुआ है प्रमाद जिनका और सम्यक् प्रकारसे संवररूप हुआ है चित्त जिनका ऐसे मुनीन्द्र उत्कृष्ट विशुद्धतासहित तपोसे अनु क्रमसे गुणश्रेणी निर्जरा का आश्रय करके बिना पके कर्मों को भी पकाकर स्थिति पूरी हुए बिना ही निर्जरा करते है ।२७१
८ बन्ध, उदय व सत्त्वमें अन्तर क.पा १/१२५०/२६१/३ बंधसंतोदयसरूवमेग चेव दव्वं । तं जहा, • कसायजोगबसेण लोगमेत्तजीवपदेसेसु अक्कमेण आगतूण सबंधकम्मक्वधा अणताणं तापरमाणुसमुदयसमागमुप्पण्णा कम्मपज्जाएण परिणयपढमसमए बंधववएसं पडिवज्जति । ते चेव विदियसमयप्पहुडि जाब फलदाणहेट्ठिमसमओ त्ति ताव संतववएस पडिवज्जंति। ते चेय फलदाणसमए उदयववएस पडिवज ति। ण च णामभेदेण दव्वभेओ। ण कोहजणणाजणणसहावेण ट्ठिदिभेएण च भिण्णदव्वाणमेयत्तविरोहादो। ण च लक्रवणभेदे सते दवाणमेयत्तं होदि तिहबणस्स भिण्णलक्खणस्स एयत्तप्पसंगादो तम्हा ण बधसतदव्वाण कम्मत्तमस्थि; जेण कोहोदय पडुच्च जीवो कोहकसायो जादो त कम्ममुदयगय पच्चयकसाएण कसाओ त्ति सिद्ध ण च एत्थ दब्बकम्मस्स उबयारेण कसायत; उजुसुदे उवयाराभावादो।-प्रश्न-एक ही कम-द्रव्य बन्ध, सत्त्व और उदय रूप होता है। इसका खुलासा इस प्रकार है कि अनन्तानन्त परमाणुओके समुदायके समागमसे उत्पन्न हुए कर्मस्कन्ध आकार कषाय और योगके निमित्तसे एक साथ लोकप्रमाण जीवके प्रदेशों में सम्बद्ध होकर कर्म पर्याय रूपसे परिणत होनेके प्रथम समय में 'बन्ध' इस सज्ञाको प्राप्त होते है । जीवसे सम्बद्ध हुए वे हो कर्मस्कन्ध दूसरे समयसे लेकर फल देनेसे पहले समय तक 'सत्त्व' इस संज्ञाको प्राप्त होते है, तथा जीवसे सम्बद्ध हुए वे ही कर्मस्कन्ध फल देनेके समयमें 'उदय' इस स ज्ञाको प्राप्त होते है। यदि कहा जाय कि द्रव्य एक ही है, फिर भी बन्ध आदि नाम भेदसे द्रव्यमें भेद हो ही जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है। उत्तरनहीं, क्योकि, बन्ध उदय और सत्त्वरूप कर्मद्रव्य में क्रोध (आदि) को उत्पन्न करने और न करने की अपेक्षा तथा स्थितिकी अपेक्षा भेद पाया जाता है। (अर्थात उदयागत कर्म क्रोधको उत्पन्न करता है बन्ध व सत्त्व नही। तथा बन्ध व उदयकी स्थिति एक-एक समय है, जब कि सत्यकी स्थिति अपने-अपने कर्म की स्थितिके अनुरूप है)। अतः उन्हे सर्वथा एक मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि लक्षणकी अपेक्षा भेद होनेपर भी द्रव्यमें एकत्व हो सकता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योकि, ऐसा माननेपर भिन्न-भिन्न लक्षणवाले (ऊर्ध्व, मध्य व अधो) तीनो लोकों को भी एकत्वका प्रसग
प्राप्त हो जाता है । इसलिए ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा बन्ध और सत्त्वरूप द्रव्यके कर्मपना नहीं बनता है। अत: चूकि क्रोधके उदयकी अपेक्षा करके जीव क्रोध वधायरूप होता है, इसलिए ऋजुसूत्र न यकी दृष्टि में उदयको प्राप्त हुआ क्रोधकर्म ही प्रत्यय कषायकी अपेक्षा कषाय है यह सिद्ध होता है। यदि कहा जाय कि उदय द्रव्यकर्मका ही होता है अत' ऋजुसूत्र नय उपचारसे द्रव्यर्मको भी प्रत्यय कषाय मान लेगा सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योकि, ऋजुसूत्र नयमें उपचार नही होता है। ३ निषेक रचना
१ उदय सामान्यकी निषेक रचना गो. जी /जी. प्र २५८/५४८/५ ननु एकैक्समये जीवेन बद्ध कसमयप्रबद्धस्य आबाधावजितस्थितिप्रथमसमयादारभ्य तच्चरमसमयपर्यन्तं प्रतिसमयमेकैकनिषेक एवौदेति। कथमेकैक्समयप्रबद्ध उदेति प्रश्ने उच्यने-अनादिबंधनिबंधनबद्धविवक्षितसमयप्रबद्धनिषेक ६. उदेति, तदा तदन्तरसमये बद्धसमयप्रबद्धस्य द्विचरम निषेक उदेति १०. तदन्तरसमये बद्धसमयप्रबद्धस्य त्रिचरमनिषेक उदेति ११. एवं चतुर्थादिसमयेषु बद्धसमयप्रबद्धाना चतुश्चरमादिनिषकोदयक्रमेण आबाधावजित विवक्षितसमयमात्रस्थानेषु गत्वा चरमतत्समय प्रबधस्य प्रथमनिषेक उदेति, एवं विवादितसमये एक समयप्रबद्धो बटनाति एक उदेति किंचिदूनद्वयर्धगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धसत्त्वं भवति ।
प्रश्न-एक समयविषै जीवकरि बान्ध्या जो एक समय प्रबद्ध ताके आनाधा रहित अपनी स्थितिका प्रथम समयतै लगाइ अंतसमय पर्यत समय-समय प्रति एक एक निषेक उदय आवै है। पूर्व गाथाविषै समय प्रति एक-एक समयप्रबद्धका उदय आवना कैसे कहा है। उत्तर-समय-समय प्रति बन्धे समयप्रबद्धनिका एक-एक निषेक इकट्ठे होइ विवक्षित एक समयविषै समय प्रबद्ध मात्र हो है। कैसे। सो कहिए है-अनादि बन्धनका निमित्तकरि बन्ध्या विवक्षित समयप्रबद्ध ताका जिस काल विषै अन्तनिषेक उदय हो है तिस कालविषे, ताके अनन्तर बन्ध्या समयप्रबद्धका उपान्त्य निषेक उदय हो है. ताके भी अनन्तर बन्ध्या समयप्रबद्धका अन्तसे तीसरा निषेक उदय हो है। ऐसे चौथे आदिसमय निविषै बन्धे समयप्रबद्ध निका अन्तते चौथा आदि निषेकनिका उदय क्रमकरि आबाधाकाल रहित विवक्षित स्थितिके जेते समय तितने स्थान जाय, अन्तविषे जो समयप्रबद्ध बन्ध्या ताका आदि निषेक उदय हो है। ऐसे सबनिको जोडै विवक्षित एक समयविषै एक समय प्रबद्ध उदय आवै है। अंक संदृष्टि करि जैसे (स्थिति बन्धकी निषेक रचनाके अनुसार (देखो आगे) ६ गुण हानियोके ४८ निषेकोमें-से) जिन समयप्रबद्धनि के सर्व निषेक गलि गये तिनिका उदय तो है नाहीं। बहुरि जिस समयप्रबद्धके ४७ निषेक पूर्वे गले ताका अन्तिम ६ (प्रदेशों) का निषेक वर्तमान समयवि उदय आवै है । बहुरि जाकै ४६ निषेक पूर्वै गले ताका अन्तिमसे पहला १० (प्रदेशो) का निषेक उदय हो है । और ऐसे ही क्रम जाका एक हू निषेक पुर्वे न गला ताका प्रथम ५१२ का निषेक उदय हो है। ऐमे वतमान कोई एक समय विर्ष सर्व उदयरूप निषेकनिका उदय हो है। ६,१०११,१२,१३,१४,१५,१६॥ १८,२०,२२,२४,२६,२८,३०,३२/ ३६,४०,४४,४८.५२५६ ६०,६४/ ७२, ८०,८८,६६,१०४,११२,१२०,१२८/ १४४,१६० १७६,१६२,२०८,२२४,२४० २५६ २८८,३२०.३५२,३८४,४१६,४४८४८०,५१२/ ऐसे इनिको जोडै सम्पूर्ण समयप्रबद्धमात्र प्रमाण हो है। आगामी कालविषै जैसे-जैसे नवीन समयप्रबद्धके निषेकनिके उदयका सद्भाव होता जायेगा, तैसेते से पुराने समयप्रबद्धके निषेकनिके उदय अभाव होता जायेगा। जैसे-आगामी समयविषै नवीन समयप्रबद्धका प्रथम ५१२ का निषेक उदय आवेगा तहाँ वर्तमानविषै जिस समयप्रबद्धका ५१२ का निषेक उदय था ताका ५१२ वाले निषेकका अभाव होइ दूसरा ४८० का
[क्रमश पृ. ३७१]]
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४८६०
१.
वरती
उदय
SARAR
३७०८
al
३१00
४ उदयागत निषेकोंकात्रिकोणयंत्र
प्रमाण-गे जी/२५८/५६८ -स्थितिगत समय प्रबध्द -
२६०४
२९७२DI waco 18
१०३६
११४०
ORA
८५२
0000 वाट00
३६९
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१२५ जनजानमाल १३७२ DPEOP मलाल
उदयगत समय प्रबध्द
षष्टम गुणहानि I पंचम गुणहानि । चतुर्थ गुणहानि तृतीयगुणहानि
द्वितीयगुणहानि (प्रथम गुणहानि
६३००.
५७४४d समय ४०३२ १६१६
१८५२९ ८८६४
३७८५६. ४०८
१०/११ १०/११/१२ कामRTRENT
14318 1400२/३४LER 1901 १९१२/१३/१४/१५ १६७ १0/14428/१७६/ 30) १०२ ४१५१६/१८२७ १ RA|११५/१६/२०/२२४ 1१०1३ १४ १५ १६२०२२२830
H४१५६१८२०२२२४२६ ० ११ १२ १४/१ ६/१८२०/२२२४/२६/२०१५ विगामाबाद १८२0/22/28/२६२८३०
१०9121१४/११६१८2012212811३०३२ 1901203431१४/१५45193/२०/२२२४२६/2010/३२३६३५ १० १३४ १५
१२08:३०३२३६४० १011 १२१३/१४/१५/१६१८/२०/२२२४२६२४३०३२/३६४०४४ नं. 09 १२
पापच २०२२२४२६२७३०३२३६०४६४८) |10|११|१२|१३|१४|१५/१६/१८/२०/२२|२४/२६/२८|३०|३२|३६४०16680५२ ने V१० ११ १२ १३ १४ १५ महापE0२३२४२६३७३३RI४
५ ६२७) ||१०-११ १२ १३ १४ १५ १६ १७२०२२-२४/२६/202011३६४ाछाच५२५६६०ार चाकाशाचा वापर०२२२४२६२८/३०/३२|३६४०४४४८५२/५६/०६४
१० ११ १२ १३४६१२०२२२४२६३०३२/३६ाहाहाहा६०/६४/०२ HEM /१११२/१३ 1981१६ १७२२२२४२६२६/३०1३1३६४०४४४३५६६४७२८ ]
12000/१२/१३ |१४|१५|१६|१८|201२२२४/२६२/३०३२/३६४०४४४५५२५६६६४७२०८.२२]
११ १२ १३ १४ १५ १६ १८२०२२२४२६२३०३२३६/४०४४२५६ाहन६४७२०च्चानसा 1११/१२/१२/१४ १५ १६ १८२०२२४ावाश्य३३३६ाहाछाहाहाहाहाशाच्चा१०४ २०] १२/१३/१४/१५/१६/१८/२०/२२/२४२६/२८/३०/३२/३६४०४४/४/५२/५६/६०/६४/७२/०ाच्६१08/११२] ]
1१३/१४/१५/१६/१८/२०/२२२४/२६२८३०३२|३६४० ५ २५६६६७७२८०च्चाच्६/१०४/११२/१२०-१)
(२१/१२/१२/१४/१५/१६/१८/२०/२२२४/२६/२८/३०/३२/३६४० ५ २/५६०६४/७२च्च्च च्छा१०४/११२/१२०/१२८ मत त १०/११/१२/१३/१४/१५ १६ १८/२०/२२२४२६२१३०३२।३६४०४४४५२५६६०६४७२८०च्चा१०४/११२ १२०/१२८/१४४ १६) [११/१२/१३/१४/१५१६१८०२२२४२६२३० २३६४० ५ ५क्षाहाराच्वाच्चम्६१०४ाक्श१२०/१२८१४8/
१ ५ ] १२१३/28/१५/११/२०/२२/28/२६२८३०३२/३४०४४४५२५६६०६४७२०
१०४११२/१२० १२८/१४४/१६०/१७दान 120/29१२ १३ १४ १५ १६ १८/२०/२२२४२८३०३२३६ ४०/४४४५२१६६०६४/७२८० च्च् १०४९१२१२०१२८१४४१६०/१७६पर्सना
११ १२ १३/१४/१५/१६/१८/२०/२२२४२६/२८/३०/३२ ३६४०४४४३५२/५६६०/६४/०२८०च्च न्६/१०४/११२/१२० १२/१४४ १६० /१७६/१०२२०८, [૧૧/૧૨/૧૨/૧૪/૧/૧૯/૧/3/ર/ર/ર/ર૦/૨૨લ્ ૪૦ | |૪ટ૨ીદ્દી હ૦ ૬૪ ૭૨|0| |r૬/૧૦૪/૧૨/૨૦૧૨ ૨૪૪૧૬૦ વિઠ્ઠcર ૨૦૮ રર૪તા 10/११ १२ १३ १४ १५ १६/१८/२01 २२२४/२६/२८/३०/३२३६/४०४४४८५२/५६/६०६४/७२/20/ ६/१०४/११२/१२०/१२८/१४४ १६०/२७६/१८२/२०८ २२४/२४० ૧૧/૧૨ ૧૩/૧૪/૧૪/૧/૧૮૨૭રર २८/३०/३२/३६/80/४४४५२ ५६६०६४७२८०च्याच्६/१०४/११२/१२०/१२८१४४१०१७चाप ०८२२४२४०२५६ વર/૧૩ ૧૪ ૧૧૧૮ર૦રર રશ ३२३वाहाहा४८५२५६६४७२८०८६१०४/११२/१२०/१२ /१६/१७६१।२०८२२४२४०२५६ ૧૩|૪|
૧૧૬ ૧૮ર૦રરરરર૮ ३६/80888|५२५६/६० ६४७२८०८ ६१०४ ११२ १२०/१२८१४४/१०/१७६ १८२२०८२२४२४०/२५६/२८८३ १२ १३ १४/१५१६१८२० ८०३२ER/80/५२ १६६०६४ ७२०८६१०४११२/१२०/१२८/१४४१६० /१७६२२०८ २२४२४०/२५६२८८ ३२० ३५२६ 70११ १२ १३ १४ १५ १६ १८/20/22128२६२८३०३२३४08885/५/५६ ६४७२० ८ ६१०४/११२ १२०/१२८१४४ १६०/१०६ /१२०८२२४२०२५६२८८३२०३५२३८४.५ हाच १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १८२०/२२२४२६२८३०BRE६/80/88/
६४ २० ६ 08/११२१२० १२/१४४/१६०/१७६/परा २०/२२४/२४० २५६२८८३२०/३५२ ३८४४१६म.४] ० २/१३/१/१६१२/२२२२६२ ३०३२३५8058/8/२५६/0/48/७२/८० ६ /०४/१२/१२०/१२८१४४ १६०/१७६/१०२/२०८२२४२४० २५६ २८ ३२०३५२ ३८४|४१६ ४४८ नं ३ "बा १२/१२/१३/शप६/१२/२०/२२ २४३६२ ३०३ /
०
६ /७२/
० ६ /१०४११२१२०/१२० १४४/१६०/१७६/१८२२० २०२४०/२५६३२०/३५२३४/३१६]४४८/rea १२/१३/१४/१२//२०१२|२४|२३|२८|३०|३२|३/80/88 /08/७२/०च्च च्छ १०४/११२ १२०२१88/१६०/१०६ १ ०८ २२४२४०२वारच३२०२५२७४/४१६/४४८///न-न
१२० ४२०
३७६ ४६ER
०० Baa2
१३HERE
३. निषेक रचना
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________________
१. सत्त्वगत निषेक रचनाका यन्त्र
उदय
प्रमाण '-(गो, क.६४३/४१४३)
-
७४ समय प्रवद्
arc Xtreceaus ३२०४३२०४३२०४३२०४३२०४३२०३२
1-स्थितिगत अनेक समय प्रबदों
दिया तृतीय चतुर्थ
पंचम
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
षष्टमा सप्तम अष्टमा
X१२५१२XXRX
२७०
केमाग बचे द्रव्ययासमय प्रबद्रो उदयागत निषेकों से अवशेष
३५२XX३५२२५२-२२२४३५२३५२३५२२५२X३५२)
7X828XRILXR2EXB2X82XR2EX82X82EXR2EX828
५१२४५१२X१२X११२१२XX५१२)
एकसमय प्रबदके
एक समय प्रबद्ध के → निषेकनं.
→निषेक नं.१ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८- - - ४१ ४२४३४४४५४६ ४७ ४८||१|२|३| |५|६|४| |
200११/१२/१३/१४/१५R ||१०/१११२/१३/१४/१५/१६
020|| ११/१२/१३/१४ १५/१६ के निषेक
1790/9||१२|१३/१४ १५ १६ | कुलजोड़- १३ गुणहानि गुणित एकसमय प्रबद्
४|१०|११ १२ १३ १४ १५ । 190991211298||१५|
1/१०/११/१२/१३/१४/१५/१६ 1/१०/११/१२ १३ १४ १५ १६||
१०/११/१२/१३/१४ |१०/११/१२/१३/१४ १५ 0१०/११/१२/१३ १४ १५ १६
१०/११/१२/१३/१४/१५/१६ | ८१०/११/१२/१३/१४/१५/१६/
४/१०/११ १२ १३ १४ १५ १६/||१०/११ १२ १३ १४ १५
१०/११/१२/१३/१४ १५/१६
१०/११/१२/१३/१४/१५/१६/0909१ १२ १३ १४ १५ १६
→ उदय आकररिवरचुकेम्जो निक ८/१०/११/१२/१३/१४/१५/१६]
XEX१६X8१६X89XBEXUX89XUXUREXITE
२०४३२०३२७ (३५२३५२४३५२XE 8X३८४३८४२८४११२८४३८४Ars १६X8१६XSEXSIX8१६X87६४१६X K880X8HEX88780X800X880X880X889X802. (8coXYEATKBOXy2oXeroxgodeox86908
K११२X११२५१२२१२१३
अनेक समय प्रबद्ध
288XERIX38AXABAX28AXa8RX288X288E8BXRRXORA Q28XO28XO8XO28XO7RXO28X628XO28XO24XORXO28XO28XOnXQ28XORX628X.
नं.४१ नं.४२ नं.४३ नं४४
नं.४५
नं.४६
नं.४७
३ निषेक रचना
1.४८
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________________
उदय
निषेक उदय आवेगा । बहुरि जिस समय प्रबद्धका वर्तमान विषै ४८० का निषेक उदय था ताका तिस निषेकका अभाव होइ ४४८ के निषेकका उदय होगा । ऐसें क्रमते जिस समयबद्धका वर्तमान विषै १ का ह अन्तिम निषेक उदय था ताका आगामी समय विषै सर्व अभाव होगा। ऐसे प्रति समय जानना ।
२. सत्त्वको निषेक रचना
गो. जी /जी. प्र / भाषा ६४२ / ११४१ तातै समय प्रति समय एक-एक समयबद्धका एक-एक निषेक मिलि (कुल) एक समयप्रबद्धका उदय हो है बहुरि गते पौधे अवशेष रहे सर्व निषेक शिनिको जोड़े किंचिडून अर्धगुणहानिगृणित समय प्रमाण सत्य हो है कैसे सो कहिये है। जिस समयबद्धका एक हू निषेक गरया नाही ताके सर्व निषेक नीचे लिखिये बहुरि तार्क ऊपर जिस समयप्रबद्धका एक निषेक गन्या होई ताके आदि (५१२वाले) निषेक बिना अवशेष निषेक पक्ति विषे शिखिये बहुरि साके ऊपर जिस समयबद्ध होय निषेक गले छोए ताके आदिके दो (१२.४८०) बिना अवशेष निषेविलिखिये ऐसे ही ऊपर-ऊपरि एक-एक निषेक घटता लिखि सर्व उपरि जिस समय के अन्य निषेक गलि गये, एक अवशेष रहा होइ ताका अन्त ( ६ का ) निषेक लिखना । ऐसे करते त्रिकोण रचना हो है । अक संदृष्टि करि जैसेनीचे ही ४८ निषेक लिखे ताके उपरि ५१२ वालेके बिना ८० निषेक लिखे। ऐसे ही क्रमले उपरि हो उपरि वाला निषेक लिया। ऐसे लिखते त्रिकूण हू रचना हो है । तातै तिस त्रिकोण यन्त्रका जोडा हुआ सर्व द्रव्यप्रमाण सत्त्व द्रव्य जानना । सो कितना हो है सो कहिये है - किंचिदून द्वर्ध गुणहानि गुणित समयप्रबद्धप्रमाण हो है । ३. सव व उदयगत द्रव्य विभाजन
१. सत्त्व गत- एक समयप्रबद्ध में कुल द्रव्यका प्रमाण ६३०० है । तो प्रथम समयसे लेकर सत्ता के अन्तसमय पर्यन्त यथायोग्य अनेको गुण हानियोद्वारा विशेष चय होन क्रमसे उसका विभाजन निम्न प्रकार है । यद्यपि यहाँ प्रत्येक गुणहानिको बराबर बराबर दर्शाया है, परन्तु इसको एक दूसरे के ऊपर रखकर प्रत्येक सत्ताका द्रव्य जानना । अर्थात् षष्ठ गुणहानिके उपर पंचमको और उसके ऊपर चतुर्थ आदिको रखकर प्रथम निषेक अन्तिम निषेक पर्यन्ते क्रमिक हानि जाननी चाहिए।
निषेक स०
३
४८०
५१२
कुल द्रव्य ६३०० | ३२००
२
२
३२
२८८
३२०
३५२ १०६
३८४ R
४१६
२०८
४४८
२२४
२४०
२५६
१६००
गुण हानि आयाम
३
४
गुण हानि चय प्रमाण
१६
८ 1 ४
१४४
७२ ३६
१६० ८०
४० ४४
८५
६६ ४८
१०४
११२
१२०
५२
५६
६०
१२८ ६४
८००
२
१८
२०
२२
२४
२६
२८
१
ह
१०
११
१२
२७१
१३
१४
३०
१५
३२
१६
४०० २०० १००
२. उदय गत- प्रत्येक समयप्रबद्ध या प्रत्येक समयका द्रव्य उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता जाता है । क्योकि उसमें अधिक-अधिक 'सत्त्वगत' निषेक मिलते जाते है । सो प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय पर्यन्त विशेष वृद्धिका क्रम निम्न प्रकार है । यहाँ भी बराबर बराबर लिखी
४. उदय प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम
गुण हानियोको एक दूसरी के ऊपर रखकर प्रथम निषेकसे अन्तिमपर्यन्त वृद्धि क्रम देखना चाहिए ।
निषेकस.
गुण हानि आयाम
3
४
"
६
३३६
७७२
१६४४ ३३८८
३७६ ८५२
१९०४ ३७०८
४२० ६४०
१६८० ४०६०
१०३६
२१७२ ४४४४
११४०
२३८० ४८६० २६०४५३०८
१२५२
१३७२ २८४४५७८८ १५०० | ३९०० ६३००
१६१६ ४०३२ ८८६४ १८५२८ ३७८५६
१
४
८
ह
१६
३०
४२
५५
६६
८४
१००
४०८
११
१३८
१६०
१८४
४६८
२१०
५२०
२३८ ५७६
२६
६३६
३००
७००
कुल द्रव्य
इन उपरोक्त दोनो यन्त्रोको परस्परमे सम्मेन देखनेके लिए देखो यन्त्र (गो, जी / भाषा २५८/५)
४ दप्रागत निषेकोका त्रिकोण यंत्र ५. सत्यगत निषेोका त्रिकोण यंत्र
१२०० निषेक रचनामें
६. उपशमकरण द्वारा उदयागत परिवर्तन
1
लसा / भाषा २४७/३०३/२० जब उदग्रावलीका एक समय व्यतीत होइ तत्र पो मर्जका एक समय उदयावलोव मिर्च और तब ही गुणश्रेणीव अन्तरायामका एक समय मिले और तब ही अन्तरायामवि द्वितीयस्थितिका (उपरला) एक निषेक मिले, द्वितीय स्थिति घटे है। प्रथम स्थिति और अन्तरायाम जेताका तेता रहै।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
४. उदय प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम
१. मूल प्रकृतिका स्वमुख तथा उत्तर प्रकृति का स्व व परमुख उदय होता है।
४४४४५० पति पूर्ण समुहे जीवाणं । समुहेण परमुहेण यमोहारविवज्जिया सेसा |४४६ पञ्चइ णो मणुयाऊ निरयाहेण समयभिदि । तह परियमोहनीय एसयमोहन सजुत्त । ४५० = मूल प्रकृतियाँ नियमसे सर्व जीवोके स्वमुख द्वारा ही पचती है, अर्थात स्वोदय द्वारा ही विपाकको प्राप्त होती है । किन्तु मोह और आयुकर्मको छोडकर शेष (तुल्य जातीय ) उत्तर प्रकृतियों पमुख भी विकको प्राप्त होती है और परमुखसे भी विपाकको प्राप्त होती है, अर्थाद फत देती है ४४ भुज्यमान मनुष्यायु नरकामुखसे विपाकको प्राप्त नहीं होती है. ऐसा परमागमने कहा है, अर्थात कोई भो विवक्षित आयु किसी भी अन्य बायुके रूपसे फह नही देती है (दे खासु/५) तथा चारित्रमोहनीय कर्म भी दर्शनमोहनीयसे सयुक्त होकर अर्थात दर्शनमोहनीय रूपसे फट नहीं देता है। इसी प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म भी चारित्रमोहनके रूपसे फल नहीं देता है 1४५०१ (स. सि २१ / ३६८ / ८ ), ( रा वा ८२१ / ५८३ / १६ ), ( प स / स ४ / २७०-२७२ ) २ सर्वघाती में देशघातीका उदय होता है पर देशघातीमें सर्वघातीका नही
गो. जी / भाषा६५९/६ यद्यपि क्षायोपशमिकविषै तिस आवरणके देशघाती स्पर्धकनिका उदय पाइये है, तथापि वह तिस ज्ञानमा घात करनेकू' समर्थ नाही है, तातें ताकी मुख्यता न करी । याका उदाहरण कहिये है - अवधिज्ञानावरण कर्म सामान्यपने देशघाती है तथापि
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उदय
२७२
४. उदय प्रमाणा सम्वन्धी कुछ निया
अनुभागका विशेष की याके केई स्पर्धक सर्वघाती है, केई स्पर्धक देशघाती है। तहाँ जिनिके अवधिज्ञान कुछू भी नाहीं तिनिके सर्वघाती स्पर्धकनिका उदय जानना। बहुरि जिनिके अवधिज्ञान पाइये है और आवरण उदय पाइये है तहाँ देशघाती स्पर्धकनिका उदय जानना। ३. ऊपर-ऊपरको चारित्रमाह प्रकृतियोमें नीचे-नीचे
वाली तज्जातीय प्रकृतियोंका उदय अवश्य होता है गो.क /जी प्र५४६/७०८/१४ क्रोधादीनामनन्तानन्ध्यादिभेदेन चतुरात्मकत्वेऽपिजाच्याश्रयेण कत्वमभ्युपगत शक्तिप्रधान्येन भेदस्याविवक्षितत्वात् । तद्यथा अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदये इतरेषामुदयोऽस्त्येव तदुदयसह चरितेतरोदस्यापि सम्यक्त्व संयमगुणघातक्त्वात् । तथाअप्रत्याख्यानान्यतमोदये प्रत्याख्यानाद्युदयोऽस्त्येव तदुदयेन सम तद्द्वयोदयस्यापि देशसं यमघातकत्वाद, तथा प्रत्यारण्यानान्यतमोदये सज्वलनोदयोऽस्त्येव प्रत्याख्यानवत्तरवापि सकलसंयमघातकस्वात् । न च केवल सज्वलनोद ये प्रत्याख्यानादीनामुदयोऽस्ति तस्पर्धकाना सकलस यमविरोधित्वात। नापि केवल प्रत्याख्यानसंज्वलनोदये शेषकषायोदय तस्पर्धकाना देशसकलसयमघातीत्वात् । नापि केवलअप्रत्यारण्यानादित्रयोदयेऽनन्तानुबन्ध्युदय तत्स्पर्धकाना सम्यक्त्व देशसकलस यमघातकत्वात । =क्रोधादि कनिकै अनन्तानुबन्धी आदि भेद करि च्यार भेद हो है तथापि जातिका आश्रयकरि एक्त्वपना हो ग्रह्या है जातै इहाँ शक्ति की प्रधानता करि भेद कहने की इच्छा नाही है। सोई कहिए है --अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, विषै (कोई) एकका उदय होते संते अप्रत्याख्यानादि तीनोका भी उदय है ही, जातै अनन्तानुबन्धीका उदय सहित औरनिका उदयकै भी सम्यक्त्व ब सयम गुणका घातकपणा है। बहुरि तैसे ही अप्रत्याख्यान क्रोधादिकविषै एकका उदय होते प्रत्याख्यनादि दोयका भी उदय है ही जाते अप्रत्यारण्यानका उदयकी साथि तिनि दोऊ निका उदय भी देशसंयमको घात है। बहुरि प्रत्यारल्यान क्रोधादिक विषै एकका उदय होते सज्वलनका भी उदय है ही जातै प्रत्याख्यानवत सज्वलन भी सकलसयमको घात है। बहुरि सज्वलन का उदय होतें प्रत्याख्यानादिक तीनका उदय नाहीं हो है । जाते और कषायनिके स्पर्धक सकल सयमके विरोधी है । बहुरि केबल प्रत्याख्यान सज्वलनका भी उदय होते शेष दो कषायनिका उदय नाहीं जाते अवशेष कषायनिके स्पर्धक देश-सकल-संयमको पाते है। बहुरि केवल अप्रत्यारण्यानादिक तीनका उदय होत अनन्तानुबन्धीका उदय नाहीं है। जात अनन्तानुबन्धीके स्पर्धक सम्यक्त्व देशसंयम सकलसंयमको पाते हैं। गो. क./जी,प्र. ४७६/६२५/५ चतसृष्वेका कषायजाति । - अनन्तानअन्ध्यादिक च्यारि कषायनिकी क्रोध मान, माया, लोभ, रूप च्यारि तहाँ (चारोंकी) एक जाति का उदय पाइये है। (गो. क. भाषा/७६४/ ६६५/७)
४. अनन्तानुबन्धीके उदय सम्बन्धी विशेषताएँ गो.क./जो प्र.६८०/८६४/१२ सम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिकृतोद्वेल्लनत्वेनानन्तानुबन्ध्युदयरहितत्वाभावात् ।- सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीयकी उद्वेलनायुक्तपनेत अनन्तानुबन्धी रहितपन का अभाव है । ( अर्थात जिन्होने सम्यक्प्रकृति मिश्रमोहनीयकी उद्वेलना कर दी है ऐसे जीवोमें नियमसे अनन्तानुबन्धोका उदय होता है।) गो क /मू वा टो ४७८/६३२/१ अणस जोजिदसम्मे मिच्छ पत्तण
आवलित्ति अणं । ..।४७८ अनन्तानुबन्धिविसंयोजितवेदकसम्यग्दृष्टौ मिपारवकर्मोदयान्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान प्राप्ते आवलिपर्यतमनन्वानुबन्ध्युदयो नास्ति । तावत्कालमुदयावत्या निक्षेप्तुमशवप. अनन्तानुबन्धीका जाकै विसंयोजन भया ऐसा वेदक
सम्यग्दृष्टि सो मिथ्यात्व कर्म के उदयतै मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको प्राप्त होइ ताके आवली काल पर्यंत अनन्तानुबन्धीका उदय नाही है। जात मिथ्यात्वको प्राप्त होई पहिलै समय जा समय प्रबद्ध बान्धै ताका अपकर्षण करि आवली प्रमाण काल पर्यत उदयावली विर्षे प्राप्त करनेकौ समर्थपना नाही, अर अनंतानुबन्धीका बन्ध मिथ्याष्टि विषै ही है । पूर्व अनन्तानुबन्धी था ताका विसयोजन कीया (अभाव किया) । ताते तिस जीवकै आवली काल प्रमाण अन तानुबन्धीका उदय नाही। ५. दर्शनमोहनीयके उदय सम्बन्धी नियम गो क /मू. व टो.७७६ मिच्छ मिस्सं सगुणोवेदगसम्मेव होदि सम्मत्त • १७७६। मोहनीयोदयप्रकृतिषु मिथ्यात्व मिश्र च स्वस्वगुणस्थाने एवोदेति । सम्यक्त्वप्रकृति वेदक सम्यग्दृष्टावेवासयतादिचतु देति ।
मोहनीयकी उदय प्रकृतिनि विषै मिथ्यात्व और मिश्र ये दोऊ मिथ्यावृष्टि और मिश्र (रूप जो) अपने-अपने गुणस्थान (तिनि) विर्षे उदय हो है। अर सम्यक्त्वमोहनीय है सो वेदक्सम्यक्त्वी के असंयतादिक च्यारि गुणस्थाननिवि उदय हो है। ६ चारित्रमोहनीयको प्रकृतियोंमें सहवर्ती उदय सम्बन्धी
नियम गो क मूवटी ७७६-७७/६२५. । एकाक्सायजादी वेददुगलाणमेवक
च ७७६ भयसहियं च जुगुच्छा सहियं दोहिवि जुद च ठाणाणि । मिच्छादि अपुव्य ते चत्तारि हव ति णियमेण ।४७७) - अनन्तानुबन्ध्यादिक च्यार कषायनिकी क्रोध, मान, माया, लोभ ये च्यारि जाति, तहाँ एक जातिको उदय पाइये (अर्थात एक काल में अनन्तानुबध्यादि च्यारो क्रोध अथवा चारो मान आदिका उदय पाइये। इसी प्रकार प्रत्यारण्यानादि तीनका अथवा प्रत्याख्यानादि दो का अथवा केवल संज्वलन एकका उदय पाइये) तीन वेदनविषै एक बेदका उदय पाइये, हास्य-शोकका युगल, अर रति-अरतिका युगल इन दोऊ युगल नि विषै एक एकका उदय पाइये है।४७६। बहुरि एक जीवके एक काल विर्षे भय हीका उदय होइ,अथवा जुगुप्सा हीका उदय होइ, अथवादोउनिकाउदय होइ याते इनकी अपेक्षा च्यारि कूट (भंग)करने। ७. नाम कर्मकी प्रकृतियोंके उदय सम्बन्धी
१.१-४ इन्द्रिय व स्थावर इन पाँच प्रकृतियोकी उदय ___ व्युच्छित्ति सम्बन्धी दो मत गो. क /भाषा २६३/३६५/१८ इस पक्ष विष-एकेन्द्री, स्थावर, केंद्री, तेद्री, चौद्री इन नामकर्मकी प्रकृतिनिकी व्युच्छित्ति मिथ्याष्टि विषै कही है। सासादन विषै इनका उदय न कहा। दूसरी पक्ष विषै इनका उदय सासादन विष भी कहा है, ऐसे दोऊ पक्ष आचार्य नि कर जानने। (विशेष देखो आगे उदयकी ओध प्ररूपणा)
२. संस्थानका उदय विग्रह गतिमे नही होता ध १५/६४६ विग्गहगदीए वट्टमाणाणं सठाणुदयाभावादो। तरथ स ठाणाभावे जीवभावो किण्ण होदि। ण, आणुपुब्बिणिव्यत्तिदसठाणे अववियस्य जीवस्स अभावविरोहादो। -विग्रहगतिमें रहनेवाले जीवोके सस्थानका उदय सम्भव नहीं है। प्रश्न-विग्रहगतिमें संस्थानके अभावमें जीवका अभाव क्यों नहीं हो जाता • उत्तर-- नहीं, क्योकि, वहाँ आनुपूर्वीके द्वारा रचे गये सस्थानमें अवस्थित जीवके अभावका विरोध है। ३. गति, आयु व आनुपूर्वी का उदय भवके प्रथम समय
ही हो जाता है ध १३/५,५,१२०/३७८/४ आणुपुविउदयाभावेण उजुगदीए-जुगतिमें
आनुपूर्वी का उदय नही होता। (इसका कारण यह है आनुपूर्वीयक
जैनेन्द्र सिहान्त कोश
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उदय
३७३
५. प्रकृतियोके उदय सम्बन्धी शंका समाधान
उदय विग्रह गतिमें ही होने का नियम है, क्योकि तहाँ ही भवका एकेन्द्रिय (बादर, पृथिवी, अप, तेज, वायु व प्रत्येक शरीर पर्याप्त) प्रथमसमय उस अवस्थामें प्राप्त होता है)
विकलेन्द्रिय पर्याप्त, असैनी पचेन्द्रिय, इनविषै और तौ अप्रशस्त गो क जो प्र २८५/४१२/१४ विवक्षितभवप्रथमसमये एव तद्गतितदानु- प्रकृतिनिका ही उदय है और यशस्कोति और अयशस्कीति इन पूर्व्यतदायुष्योदय' सपदे सदृशस्थाने युगपदेवैकजीवे उदेतीत्यर्थ । दोऊनि विषै एक किसीका उदय है, तातै तिनिके उदयस्थाननि =विवक्षित पर्यायका पहिला समय ही ती हि विवक्षित पर्याय विष दो-दो भंग जानने ६००। सज्ञी जीव विष, मनुष्य विषै छह सम्बन्धी गति वा आनुपूर्वोका उदय हो है। एक ही गतिका वा संस्थान, छह सहनन, विहायोगति आदिके उपरोक्त पाँच युगल इनि आनुपूर्वीका वा आयुका उदय युगपत् एक जीवके हो है (असमान विषै अन्यतम (प्रशस्त या अप्रशस्त) एक-एक का उदय पाइये है। का नहीं)।
तात सामान्यबत् ११५२ भग है। (६x६x२x२x२x२४२-११५२)। ४ आतप-उद्योतका उदय तेज ,वात व सूक्ष्ममे नही होता
केवलज्ञानविषै बज्रऋषभनाराच, सुभग, आदेय, यशस्कोति इनका
ही उदय पाइये (शेष जो छ सस्थान व दो युगल उनमें से अन्यतमध.८/३.१३८/१६६/११ आदाउज्जोवाण परोदो धो। होदु णाम वाउ
का उदय है) तातै केवल ज्ञान सम्बन्धी स्थान विर्षे (६x२x२) काइएसु आदावुज्जीवाणमुदयाभावो, तत्थ तदणुवल भादो। ण तेउ
चौबीस-चौबीस ही भंग जानने। तीर्थंकर केवली के सर्वप्रशस्त काइएसु तदभावो । पच्चक्खेणुबल भमाणत्तादो। एत्थ परिहारो वुच्चदोण ताव तेउकाइएसु आदाओ अत्थि, उण्हप्पहाए तत्थाभावादो।
प्रकृतिका उदय हो है तातै ताकै उदयस्थाननि विष एक-एक ही तेउम्हि वि उण्हत्त मुवलंभइ च्चे उक्लभउ णाम, [ण] तस्स आदा
भंग है ।६०११ च्यारि प्रकार देवनिविधै वा आहारक सहित प्रमत्तविषै ववएसो, किंतु तेजासण्णा, "मूलोष्णवती प्रभा तेज', सर्वांगव्याप्पुष्ण
सर्व प्रशस्त प्रकृतिनि ही का उदय है, तातै तिनिके सर्व काल वती प्रभा आताप', उष्णरहिता प्रभोद्योत," इति तिण्हं भेदोव
सम्बन्धी उदय स्थाननि विषै एक-एक ही भग है। बहुरि सासादल भादो । तम्हा ण उज्जीवो वि तत्थस्थि. मूलुण्हज्जोवस्स तेजववए
नादिक गुणस्थाननिको प्राप्त भये तिनिविषै वा विग्रह गति वा सादो। - आतप व उद्योतका परोदय बन्ध होता है । प्रश्न-वायु
कार्मणकाल निविर्ष व्युच्छित्ति भई प्रकृतिनि को जानि अवशेष कायिक जीवोंमें आतप व उद्योतका अभाव भले ही होवे, क्योकि,
प्रकृतिनिके यथा सम्भव भग जानने । उनमें वह पाया नही जाता किन्तु तेजकायिक जीवोमें उन दोनोका ६. उदयके स्वामित्व सम्बन्धी सारणी उदयाभाव सम्भव नहीं है, क्योकि, यहाँ उनका उदय प्रत्यक्षसे देखा (गो, क. २८५-२८६) जाता है । उत्तर यहाँ उक्त शकाका परिहार करते है-तेजकायिक जीबो में आतपका उदय नही है, क्योकि वहाँ उष्ण प्रभाका अभाव क्रम नाम प्रकृति
स्वामित्व है। प्रश्न-तेजकायमे तो उष्णता पायी जाती है, फिर वहाँ आतपका उदय क्यो न माना जाये ? उत्तर-तेजकायमे भले ही उष्णता
स्त्यानगृद्धि । इन्द्रिय पर्याप्ति पूरी कर चुकनेवाले केवल म पायी जाती हो परन्तु उसका नाम आतप नही हो सकता, किन्तु
| आदि ३ निद्रा | भ्रमिया मनुष्य व तियंच। तिनमें भी आहारक तेज मज्ञा होगी, क्योकि मूलमे उष्णबतो प्रभाका नाम तेज है,
व वैक्रियक ऋद्धिधारीको नही। सर्वागव्यापी उष्णवती (सूर्य) प्रभाका नाम आतप और उष्णतारहित २ स्त्रीवेद निवृत्त्यपर्याप्त असयत गुणस्थान में नहीं। प्रभाका नाम उद्योत है इस प्रकार तीनोके भेद पाया जाता है। इसी ३ नसक्वेदी निवृत्त्यपर्याप्त दशामें केवल प्रथम नरकमें, पर्याप्त कारण वहाँ उद्योत भी नहीं, क्योकि, मूलोष्ण उद्योतका नाम तेज असयत सम्य. दशामें देवोसे अतिरिक्त सबमें। है [न कि उद्योत] (ध ६/१,६-१,२८/६०/४) ।
| गति
विवक्षित पर्यायका पहला समय । गो. क./भाषा ७४५/१०४/१२ तेज, वात, साधारण, सूक्ष्म, अपर्याप्त निकै | आनुपूर्वी उपरोक्तवत, परन्तु स्त्री वेदी असंयतसम्यग्दृष्टिताका (आतप व उद्योतका) उदय नाही।
की नहीं। ५. आहारकद्विक व तीर्थकर प्रकृतिका उदय पुरुषवेदीको অারণ बादर पर्याप्त पृथिवी कायिकमें ही।
उद्योत ही सम्भव है
तेज, वात व साधारण शरीर तथा इनके अतिगो, क./जी. ११६/१११/१५ स्त्रीषण्डवेदयोरपि तीर्थाहारकबन्धो न
रिक्त शेष बादर पर्याप्त तियंच ।
छह सहनन केवल मनुष्य व तिर्यच। विरुध्यते उदयस्यैव वेदिषु नियमात् । -तीथंकर व आहारकद्विक
औदारिक द्वि. मनुष्य तियं च । इन तीन प्रकृतियोका बन्ध तो स्त्री व नपुंसकवेदीको भी होने में कोई
वै क्रियक द्वि. देव नारकी। विरोध नहीं है, परन्तु इनका उदय नियमसे पुरुषवेदोको ही
११/ उच्चगोत्र सर्व देव व कुछ मनुष्य । होता है।
८ नामकर्मको प्रकृतियों में सहवर्ती उदय सम्बन्धी ५. प्रकृतियोके उदय सम्बन्धी शंका-समाधान गो क /मू ५६६-६०२/८०३-८०५ संठाणे सहडणे विहायजुम्मे य चरिम
१ असंज्ञियोंमे देवादि गतिका उदय कैसे है ? चदुजुम्मे । अविरुद्ध दरोदो उदयट्ठाणेसु भंगा हु।११। तत्थासत्था
ध १५/३१६/५ जिरय-देव-मणुसगईण देव-णिरय-मणुस्साउआणमुश्चाणारयसाहारणसुहमगे अपुष्णे य। सेसेगविगलऽसणीजुदठाणे जसजुदे भगा।६००। सण्णिम्मि मुणुसम्मि य ओघेक्कदर तु केवले वज्जं ।
गोदस्स य कधमसण्णीसुदओ। ण, असण्णिपच्छायदाणं णेरइयादीणसुभगादेज्जसाणि य तित्थजुदे सत्यमेदीदि ६०१। देवाहारे सत्थं
मुक्यारेण असण्णित्तब्भुवगमादो। -प्रश्न-नरकगति, देवगति, कालावयप्पेसु भंगमाणेज्जो। बोच्छिण्णं जाणित्तं गुणपडिवण्णेस
मनुष्यगति, देवायु, नरकायु, मनुष्यायु और उच्चगोत्रका उदय असंही
जीवोमें कैसे सम्भव है ? उत्तर-नही क्योकि असंज्ञी जीवोमें-से सम्वेसु ६०२छह स स्थान, छह सहनन, दो विहायोगति, सुभगयुगल, स्वरयुगल, आदेययुगल, यश कीर्तियुगल, इन विषे अविरुद्ध
पोछे आये हुये नारकी आदिकोको उपचारसे अज्ञी स्वीकार किया एक-एक ग्रहण करते भंग हो है।५६६। तिनि उदय प्रकृति निविषै
गया है। नारको और साधारण वनस्पति, सर्व ही सूक्ष्म, सर्व ही लब्धपर्याप्तक
२ देवगतिमें उद्योतके बिना दीप्ति कैसे है ? इन विषै अप्रशस्त प्रकृति ही का उदय है। तातै तिनिके पाँच कालघ.६/१,६-२ १०२/१२६/२ देवेसुउज्जोवस्सुदयाभावे देवाणं देहदित्ती कुदो सम्बन्धी सर्व उदयस्थाननिविषै एक-एक ही अंग है। अवशेष होदि । वण्णणामकम्मोदयादो। -प्रश्न-देवों में उद्योत प्रकृतिका
१०
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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उदय
३५४
कर्म प्रतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं
-
उदय नही होने पर देवोके शरीरकी दीप्ति कहाँसे होती है । उत्तर- ६. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ देबोके शरीरमें दीप्ति वर्ण नामकर्म के उदयसे होती है।
१. सारणी में प्रयुक्त संकेतोके अर्थ ३ एकेन्द्रियोंमें अंगोपांग व संस्थान क्यों नहीं ?
संके अर्थ
संकेत अर्थ ध.६/१,६-२,७६/११२/८ एइ दियाणमंगोवर्ग किण्ण परूबिद । ण, तेसि णलय बाहू-णिद अ-पट्टि-ससो राणयभावादो तदभावा। एइंदियाण छ संठाणाणि किण्ण परविदाणि । ण पच्चक्यवपरू विदलवरवणपंच
१. कर्म प्रकृतियोंके लिए छोटे नाम संठाणाण समूहसरूवाण छसंठाणत्थित्तविरोहा। = प्रश्न-एकेन्द्रिय १. दर्शनावरणी
| वै. षटक नरक द्वि., देव द्वि, जोवो में अंगोपांग क्यो नहीं बतलाये । उत्तर-नहीं, क्योकि उनके
निद्रा द्विक-निद्रा, प्रचला
वै क्रियिक द्वि. पैर, हाथ, नितम्ब, पीठ, शिर और उर (उदर) का अभाव होनेसे
आनु. स्त्यानत्रिक स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा,
आनुपूर्वी अंगोपांग नहीं होते। प्रश्न-एकेन्द्रियोके छहो स स्थान क्यो नही
| विहा. प्रचलाप्रचला
बिहायोगति उत्तर-नहीं, क्योकि, प्रत्येक अवयवस प्ररूपित लक्षणवाल निद्रापंचक निद्रा, निद्रानिद्रा, बिहा द्वि. प्रशस्ताप्रशस्त विहायोपाँच संस्थानोको सघहरूपसे धारण करनेवाले एकेन्द्रियों के पृथक्
प्रचला, प्रचलाप्रचला,
गति पृथक छह संस्थानोके अस्तित्वका विरोध है।
स्त्यान गृद्धि
अगुरु. अगुरुलघु ४ विकलेन्द्रियोंमें हुंडक संस्थान व दुःस्वर ही क्यों ?
र दर्शन चतु. चक्षु, अचक्षु, अवधि अगुरु. द्वि. अगुरुलघु. उपधात
व केवल दर्शनावरण अगुरु, चतु. अगुरुलघु, उपघात ध ६/१,६-२,६८/१०८/७ विगलिदियाण बंधो उदओ विहु डसठाणमेवेत्ति
२. मोहनीय
परघात, उच्छवास सुत्ते उत्त। णेदं घडदे, विगलि दियाण छस्संठाणुवलंभा । ण एस दोसो,
वर्ण चतु वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श सवावयवेमु णियदसरूवपचसं ठाणेम वे-तिष्णि--चदु-पंच-सठाणाणि
मिथ्या. मिथ्यात्व
त्रस चतु. प्रस, बादर, प्रत्येक, संजोगेण हु इसठाणमणेयभेदभिण्णमुप्पज्जादि । ण च पंचसठाणाणि । मिश्र मिश्र मोहनीय या
पर्याप्त पञ्चवयवमेरिसाणि त्ति जते, संपहि तथाविधोवदेसाभावा। ण च
सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति
। त्रस दशक त्रस, नादर, पर्याप्त, तेस अविण्णादेसु एदेसिमेसो संजोगो त्ति णाद सकिज्जदे । तदो सम्य सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व
प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सम्वे वि विगलि दिया हुडसंठाणा वि होता ण णज्जति त्ति सिद्ध।
या सम्यग्मोहनीय
सुभग, सुस्वर, आदेय, विलिदियाणं बंधो उदओ वा दुस्सरं चेव होदि त्ति सुत्ते उत्तं । अनन्तचतु. अनन्तानुबन्धी चतुष्क
यश कीति भमरादओ सुस्सरा वि दिस्स ति, तदो कधमेग घडदे । ण, भमरादिसु अप्र चतु. अप्रत्याख्यान चतुष्क
स्थावर- स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, कोइलासु व्व महुरो ब्ब रुच्चाइ, त्ति तस्स सरस्स महुरत्त किण्ण प्रचतु. प्रत्याख्यान चतुष्क
दशक साधारण, अस्थिर, इच्छिज्जदि । ण एस दोसो, पुरिसिच्छादो वत्युपरिणामाणुवल भा। सं. चतु संज्वलन चतुष्क
अशुभ, दुर्भग, दु स्वर, ण चणिबो केसि पि रुच्चदि त्ति महुरत्तं पडिवज्जदे, अव्यवस्था- स्त्री. स्वी वेद
अनादेय, अयश कीर्ति वत्तीदो। १. प्रश्न-'विकलेन्द्रिय जीवो के हु डकसंस्थान इस एक
पुरुष वेद
सुभग त्रय सुभग. आदेय, सुस्वर. प्रकृतिका ही बन्ध और उदय होता है' यह सूत्र में कहा है। किन्तु यह नपुं. नसक वेद धटित नही हाता, क्योकि विक्लेन्द्रिय जीवोके छह संस्थान पाये
। सदर चउक्त तियं चगति, आनुपूर्वी,
वेदत्रिक खो,पुरुष व नप सक वेद जाते है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योकि, सर्व अवयवो में नियत
आयु, उद्योत
भयद्विक भय जुगुप्सा स्वरूपवाले पाँच सस्थानोके होनेपर दो, तीन, चार और पाँच हास्य द्विक हास्य, रति
तिर्यगेका- तिर्य द्विक (गतिसंस्थानोके सयोगसे हडकसंस्थान अनेक भेदभिन्न उत्पन्न होता है।
दश आनुपूर्वी) आद्य जाति
३. नामकर्म ये पाँच संस्थान प्रत्येक अवयबके प्रति इस प्रकार के आकार वाले होते
चतुष्क (१-४ इन्द्रिय), है, यह नहीं जाना जाता है. क्योकि, आज उस प्रकारके उपदेशका तिर्य तिथंच गति
आतप, उद्योत, स्थावर, अभाव है। और उन स योगो भेदोके नही ज्ञात होने पर इन जीवोके मनु. मनुष्य गति
सूक्ष्म, साधारण 'अमुक सस्थानोके स योगात्मक ये भंग है,' यह नहीं जाना जाता नरक द्विक नरकगति व आनुपूर्वी | धुव/१२ । धू वोदयी १२ प्रकृहै । अतएव सभी विकलेन्द्रिय जीव हु डकस स्थानवाले होते हुए भी तिर्य द्विक तिर्यचगति व आनुपूर्वी तियाँ (तैजस, कार्माण, आज नहीं जानेजाते है, यह बात सिद्ध हुई। २ प्रश्न-'विकलेन्द्रिय मनु, द्विक मनुष्यगति व आनुपूर्वी
वर्णादि चार, स्थिर, जीबोके बन्ध भी और उदय भी दु स्वर प्रकृतिका होता है' यह देव द्विक देवगति व आनुपूर्वी
अस्थिर, शुभ, अशुभ, सूत्र में कहा है। किन्तु भ्रमरादिक कुछ विकलेन्द्रिय जीव सुस्वरवाले नरकादि- नरकादि गति आन
अगुरुलघु. निर्माण) भी दिखलाई देते है, इसलिए यह बात कैसे घटित होती है, कि विक पूर्वी व आयु
८ युगलोकी २१ प्रकृउनके सुस्वर प्रकृतिका उदय व बन्ध नहीं होता है ? उत्तर-नहीं, देवादि चतु गति, अनुपूर्वी, यथा
तियों में अन्यतम उदय क्योकि, भ्रमर आदिमें कोकिलाओके समान स्वर नही पाया जाता
योग्य शरीर व अंगोपाग योग्य ८ प्रकृति (चार है। प्रश्न-भिन्न रुचि होनेसे कितने ही जीवोको अमधुर स्वर भी औ. औदारिक शरीर
गति; पाँच जाति; त्रस मधुरके समान रुचता है। इसलिए उसके अर्थात भ्रमरके स्वरकी वै वैक्रियिक शरीर
स्थावर; बादर सूक्ष्मः मधुरता क्यों नहीं मान ली जाती । उत्तर -यह कोई दोष नही.
आहारक शरीर
पर्याप्त-अपर्याप्त; सुभगक्योंकि, पुरुषोको इच्छासे वस्तुका परिणमन नही पाया जाता है। औ,वै, औदारिकादि शरीर
दुर्भग, आदेय अनानीम कितने ही जीवोको रुचता है; इसलिए वह मधुरताको नहीं आ.द्वि. व अंगोपांग
देय; यश-अयश) प्राप्त हो जाता है, क्योकि, वेसा मानने पर अव्यवस्था प्राप्त औ..वै.. औदारिकादि शरीर श./३ शरीर, संस्थान तथा होती है।
आ., चतु. अंगोपांग, बन्धन,
प्रत्येक व साधारणमें संघात
से एक
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उदय
३७५६. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ
प्रन'
संकेत
अर्थ
संकेत
अर्थ
उ.योग्य
अनदय
पुन उद
'कुल उद
तिस मनु
।
-
। ब्युच्छिन्न प्रकृतियाँ अनदया स्थान
| उदय ४ । अप्र चतु., वैक्रि. द्वि., ।। | चारों ।
नरक त्रि, देव त्रि.,मनु- आनुपूर्वी निर्या-आनु ,दुर्भग,अनादेय, अयश -१७ प्रचतु , तिरू आयु, नीच | गोत्र,तियाँ गति, उद्यात ८ | आहारक द्विक, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा,प्रचलाप्रचला सम्यक्त्व मोहनीय, अर्ध नाराच, कीलित, सृपाटिका हास्य, रति, भय, जुगुप्सा
आहारक
।
दिश
८/अंत
२ उदय योग्य पाँच काल | तिर्यञ्च वि ग. विग्रह गति काल
मनुष्य मिश मिश्र शरीर काल प पर्याप्त (आहार ग्रहण करनेसे
अपर्याप्त शरीर पर्याप्ति की
मूक्ष्म पूर्णता तक)
बा, बादर शप शरीर पर्याप्ति काल न अप लब्ध्यपर्याप्त
(शरीर पर्याप्तिके पश्चात् नि. अप निवृत्त्यपर्याप्त आनपान पर्याप्तिकी
| ४ सारणीके शीर्षक पूर्णता तक) आप आनपान पर्याप्ति काल | अनुदय उस स्थानमें इन प्रकृ(आनपान पर्याप्तिके
तियोका उदय सम्भव पश्चात् भाषा पर्याप्ति
नहीं। आगे जाकर को पूर्णता तक)
सम्भव है। भा प भाषा पर्याप्ति काल | पुन उदय पहले जिसका अनुदय (पूर्ण पर्याप्त होने के
था उन प्रकृतियोका पश्चात आयुके अन्त
यहाँ उदय हो गया है तक)
व्युच्छिनि इस स्थान तक तो इन ३. मार्गणा सम्बन्धी
प्रकृतियोका उदय है पंचे. पंचेन्द्रिय
पर अगले स्थानोमें सा. सामान्य
सम्भब नहीं २ उदय व्युच्छित्तिकी ओघ प्ररूपणा नोट- उदय योग्यमे-से अनुदय घटाकर पुन उदयको प्रकृतियाँ जो डने. पर उस स्थानकी कुल प्रकृतियाँ प्राप्त होती है । इनमें-से व्युच्छित्ति
की प्रकृतियाँ घटानेपर अगले स्थानकी उदय योग्य प्राप्त होती है। १. कुल उदय योग्य प्रकृतियाँ -वर्ण पाँच, गन्ध दो, रस पाँच ओर स्श आठ इन २० प्रकृति योमे-मे अन्यतमका ही उदय होना सम्भव है, तात केवल मूल प्रकृतियोका ही ग्रहण है, शेष १६ का नही। तथा बन्धन पाँच और सघात पाँच इन दस प्रकृतियोका भी स्व-स्व शरीर में अन्तर्भाव हो जानेसे इन १० का भी ग्रहण नहीं। इस प्रकार २६
रहित१२२प्रकृतियाँ उदय योग्य है-१४८-२६-१२२॥ (प.स./प्रा.२/७) प्रमाण-(पं.सं /प्रा. /२७-४३), (रा.वा. ६/३६/८/६३०), (ध.८/३.५/६), (गो के जो प्र २६३-२७७/३६५-४०६)
६/६
ह
| १२/२
अरति, शोक -२ (मवेद भाग)तीनो वेद-३ क्रोध मान माया लोभ (बादर) लोभ । सूक्ष्म) वज्र नाराच, नाराच -२ (द्विचरम समय) निद्रा, प्रचला (चरम समय) ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तराय (नाना जीवापेक्षया)वज्र वृषभ नाराच, निर्माण, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वरदु स्वर, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायो., औदा. द्वि, तैजस-कार्माण,६ सस्थान, वर्णादि चतु, अगुरुलघु, उपधात, परघात, उच्छवास, प्रत्येक शरीर -२६ | (एक जीवापेक्षा) उपरोक्त २६ + अन्यतम वेदनीय
| पुन
उ.योग्य
अनुदय पुन उद] कुल उद।
स्थान | व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ
उदय
तीर्थकर ४१
"
आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, तीर्थ, । साधारण, मिथ्यात्व -५ आ द्वि
मिश्र , सम्य ।
तीर्थकर ४१
१
४२
२
१-४ इन्द्रिय, स्थावर, नरकानुअनन्तानुबन्धी चतु. -६ पूर्वी । मिश्र मोहनीय
-१: मन, श्रिमोह १०२ ३ १ १००
ति..देव
(नाना जीवापेक्षया)निम्न
१२+१ वेदनीय =१३ (एक जीवापेक्षया) शेष अन्यतम एक वेदनीय, मनु गति व आयु, पंचेन्द्रिय जाति, सभग,त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश कीर्ति, तीर्थकर, उच्च गोत्र
आनुपूर्वी
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उदय
३. उदय व्युच्छित्तिकी आदेश प्ररूपणा
१. गतिमार्गणा
मार्गमा गुण
स्थान
प्रथम पृथिवी
a.
२- १ पृथिवी
प्रमाण --
१. नरक गति (गो क / जी प्र २६०-२६३ / ४१५-४१८)
सा
सा
प
• गोक / जो प्र. २४-३०५/४१२-४३४)
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ
तिर्य. योनिमति
१
२
३
४
४
२. यिंग
१
२
१
२
३
४
५
-
१
२
३
५
१
३
४
५
१
३
४
५
अनन्तानुमन्धो चतुष्क
मिश्र मोहनीय
अथ चतु दुभंग, अनादेय,
1
अयश, नरक त्रिक, बैंक, द्वि मध्या गावानुपूर्वी अनानुबन्ध चतुष्क मिश्र मोह नारकग्नुपूर्वी रहित प्रथम पृथिवीवत्
- १
== ११
१
- ४
· १
- १२
अनन्तामन्धी तु १०४ इन्द्रिय
मिश्र मोह
1
अस्य चतु तिर्यगापूर्वी अनादेय, अयश कीर्ति प्रत्या चतु, तिर्यगाय, तिर्यच
गति, नीच गोत्र, उद्योत
अनतानुबन्ध चतुष्क मिश्र मोह
तिर्यच सामान्यवत्
1
उदय योग्य - स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला स्त्री पुरुष वेद इन ५ रहित घातिया की । ४७-५ - ४२ नरकायु, नीच गोत्र सात असाता, नरकापूर्वी कि तेजस, कार्याण, स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ, अप्रशस्त विहायागति, हुँडक, संस्थान, निर्माण, पचेन्द्रिय, नरकगति, दुर्भग दु स्वर, अनादेय, अयश, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, वर्णादि चसु. ३४ । ४२+३४७६
=
मिथ्यात्व
(गोजी २१४-२६०/४९८-४१३) उदय योग्य-देव त्रिक, नारक त्रिक, मनु मिथ्या आप सूक्ष्म, अपर्या
=४
मिथ्यात्व
अनन्तानुमन्त्री चतुष्क
मिश्र. मोह
तिर्यञ्च सामान्यवत्
साधारण ५
२ मिश्र, सभ्य, २
स्थावर ह
R
अनुद
मिश्र, सभ्य २
| नारकानुपुर्वी १
५. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान रूप पाएँ
मिश्र मोह-१
यम्य. मोह नारकानुपूर्वी = २
= १ तिर्यचानुपूर्वी = १ मिश्र मोह - १ ग तिर्यगानुपूर्वी सम्य. मोह- २
द
=१
अनन्त नवन्धी चतुष्क तिर्यगानुपूर्वी = ५ (सम्यग्दृष्टि मरकर तियंचनी में न उपजे) मिश्र होम सबिना तिर्यञ्च सा तिर्यच सामान्यवत्
१
७
==L
-४
-१ तिर्यगानुपूर्वी- १ मिश्र, मोह- १ तिर्य.
= १ मिश्र सम्य
४
= १ |तिर्यगानुपूर्वी =
१
उदय योग्य
७३
मिश्र मोह = १ तिर्य. आनु..
सम्य. २
६८
६८
७२
६८
-८
८४
उदय योग्य - स्त्री वेद व अपर्याप्त इन दो के बिना पंचेन्द्रिय सामान्यवत् ६६-२६७
मिश्र मोह = १ =१
सम्य.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१००
११
६०
उदय योग्य-स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप १-४ इन्द्रिय इन ८ के बिना तिर्यञ्च सामान्यकी सर्व मिथ्यात्व, अपर्याप्तत्व, =२ मिश्र, सम्य - २)
६६
२
६५
६१
आनु. ६० सम्य
२
८४
मिश्र मोह = १
सभ्य मोह- १
६८
१ । ६६
त्रिक, वैक्रि द्विक, आहा द्विक, उच्च गोत्र, तीर्थङ्कर- इन १५ के बिना = १०७ मिश्र, सम्य
१०७
१०५
५
२
६७
६४
६०
ह
अनुदय
I w or
८८
२
१
V
२
२
१
न उदय
१
८३
८
उदय योग्य - अपर्याप्त, पुरुष वेद, नपु सक वेद इन तीनोके बिना पंचेन्द्रिय सामान्यवत् १६-३-६६ मिथ्यात्व
मिश्र सम्य =
२
१
१
१
१
२
१
२
२
कुल
व्यु
उदय च्छित्ति
१
1 ७४
७२
६६
७०
७४
७२
६६
१००
६१
६२
८४
१०७८६६ १७
६५
६१
२
१५
६४
१६०
६१
८३
८६
१
४
१
१२
* *
८६
८३
or 30
२
११
६
५
८
20 U
४
६४
१
१३ 女
१
१
४
१
५
१
191
८
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उदय
३७७
६.कर्म प्रकृतियोकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं
।
पुन उदय
योग्य
/ अनुदय
मार्गणा | गुण |
उदय व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ
अनुदय स्थान
उदय । उदय छित्ति तिर्य, अप. । उदय योग्य-खो व पुरुष वेद, स्त्यान त्रिक, परधात, उच्छ्वास, पर्याप्त, उद्योत, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त-अप्रशस्त
बिहायो., यश, आदेय, आदिके । मस्थान व सहनन, सुभग, सम्या, मिश्र इन २८ के बिना पंचे. सा. वत्-७१
मिथ्यात्व भोग भूमिज तियं -
उदय योग्य-भोगभूमिज मनुष्योंकी ७८-मनुष्य त्रिक व उच्चगोत्र+तिर्य. त्रिक, नीच गोत्र व उद्योत=७६ प्रमाण '-(गो.क./भाषा ३०१/४३१/१) मिथ्यात्व -१ सम्य.,मिश्र =२
७६ । ७६
७७ । १ अनन्तानुबन्धी चतुष्क मिश्र मोह
-१ तिर्यगानुपूर्वी-१ मिश्र. -१ अप्रत्या चतुष्क, तिर्यगानुपूर्वी -५
सम्य,
। तिर्यगानु..२ । ३. मनुष्य गति-(गो.क/जी. प्र. २१८-३०३/४२३-४३१) मनुष्य सामान्य उदय योग्य-स्थावर, सूक्ष्म, तिर्य. त्रिक, नरक त्रिक, देव त्रिक, वैक्रि. द्विक, १-४ इन्द्रिय, आतप, उद्योत, साधारण
इन २० के बिना सर्व १२२-२०-१०२ मिथ्यात्व, अपर्याप्त -२ | मिश्र सम्य.
द्वितीर्थ-५ अनन्तानुबन्धी चतुष्क -४ मिश्र मोह
*१ मनुष्यानुपूर्वी-१ मिश्र मोह-१) अप्रत्या. चतु.. मनु. आनु, दुभंग,
सम्य मनु. अनादेय, अयश,
आनु,-२ प्रत्या चतु., नीच गोत्र
- - मूलोघवत् मनुष्य पर्याप्त
उदय योग्य-खी वेद व अपर्याप्तके बिना मनुष्य सामान्यवत १०२-२-१०० मिथ्यात्व
-१ मनु सा. बत-/
६-१४
।
२-६
मनुष्य सामान्यवद
क्रोध, मान, माया, पुरुष व नपुंसक ।
क्रोध, मान, माया, पुरुष व नपुंसक
। ५
।
६५ । ।
मूलोघवत मनष्यणी पर्याप्त । - । उदय योग्य--- अपर्याप्त, पुरुष व नपुंसक वेद, आहारक द्विक, तीर्थकर इन ६ के बिना मनुष्य सामान्यवतमिथ्यात्व
-१ | सम्य., मिश्र
.
अनन्तानुबन्धी चतु., मनुष्यापूर्वी ५ मिश्र मोह
मिश्र मोह -१ अप्रत्या चतु., दुर्भग, अनादेय, अयश
सम्य.-१| | प्रत्या चतु, नीच गोत्र स्त्यानगृद्धि. निद्रानिद्रा, प्रचला. प्रचला
मूलोघवद् ६/१-५ (सवेद भाग) स्त्री वेद -१ ६-१२
मूलोधवत १३/१४
तीशंकर बिना मूलोधवत्
-→ मनुष्य अप. उदय योग्य :-तिर्यञ्च अप. वत ७१-तिर्यक् त्रिक+ मनुष्य त्रिक ७६
मिथ्यात्व भोगभूमिजमनु.. उदय योग्य '-दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश, नीच गोत्र, नपुंसक, स्त्यान-त्रिक, अप्रशस्तविहा., तीर्थ.,
अपर्याप्त, वज्र वृषभ नाराच बिना ५ सहनन, समचतुरस्त्र बिना ५ संस्थान, आहारकद्विक, इन २४ के बिना मनु. सा. वत्-७८
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
उदय
२७८
६. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं
उदय
रानटया
मार्गणा गुण व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ अनुदय पुन उदय
पुन , कुल स्थान
योग्य उदय उदय च्छित्ति मिध्यात्व
सम्य, मिश्र | अनन्तानुबन्धी चतु. ३ मिश्र मोह
-१ मन आनु -१ मिश्र मोह-१ / ७१ ४ अप्रत्या, चतु., मनुष्यापूर्वी
सभ्य , आन =२/ ७० ४. देव गति-(गो.क./जो प्र./३०४-३०५/४३२-४३४) देव सामान्य - | उदय योग्य.-भोगभूगिया मन व्यकी ७८-मनुष्य त्रिक व औदा द्वि. ३ बज्र वृषभ नाराच संहनन + देवत्रिक व
वैकि द्विक =७७ मिथ्यात्व -१ मिश्र, सम्य -२
७७ । २ अनन्तानुबन्धी चतु. मिश्र मोह
-१ । देवानु पूर्वी १ मिश्र मोह -१, ७० अप्रत्या, चतु.. देवत्रिक, वै कि द्वि.-६
सम्य., आनु =२ भवनत्रिक देव १-४ । उदय योग्य'-देव सामान्यवन -७७ सौधर्म-ऐशान सनत्कु. नवग्रैवे स्त्रीवेद रहित देव सामान्यवत् ७६ यक तकके देव नव अनुदिश
| उदय योग्य 'देव सामान्यकी ७७-मिथ्यात्व, अनन्त चतु..मिश्र मोह, खी वेद ०७० से सर्वार्थअप्रत्या, चतु., देवत्रिक, वैक्रिक. द्वि.-।
। ७० । सिद्धिके देव भवन त्रिकसे
उदय योग्य -पुरुष वेद बिना देव सामान्यकी ७७-१-७६ सौधर्म मिथ्यात्व
१ मिश्र, सम्य-२ ईशानको अनन्तानुबन्धी चतु., देवगत्यानुपूर्वी देवियाँ | ३ मिश्र मोह
(मिश्र मोह-१ अप्रत्या, चतु.. देवगति व आयु वैकि द्वि.
| सम्य.-१ ।
२. इन्द्रिय मार्गणा-गो.क./जी.प्र./३०६-३०८/४३६-४३७
विकलेन्द्रिय
| - | उदय योग्य -स्त्री व पुरुष वेद, सुस्वर, दुस्वर, प्रशरत व अप्रशस्त विहा., आदेय, छहों संहनन, हुंडक बिना ५ सस्थान
सुभग, सम्य,, मिश्र, औ. अगोपांग, त्रस, २-५ इन्द्रिय, देवत्रिक, नरक त्रिक, मनु, त्रिक, उच्चगोत्र, तीर्थङ्कर,
आहा. द्विक, वैकि विक, इन ४२ के बिना सर्व १२२-४२-८० मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, परघात, उद्योत, उच्छवास अनन्तानुबन्धी चतु., एकेन्द्रिय,
स्थावर | - उदय योग्य '--स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, एकेन्द्रिय, आतप इन पांच रहित एकेन्द्रियको ८० अर्थात कुल ७५+स,
अप्रशस्त बिहा , दु स्वर, औ. अंगोपांग. स्व स्व १ जाति, सृपाटिका संहनन यह६-८१ मिथ्यात्व अपर्याप्त, स्त्यान-त्रिक
| ८१ । १० परघात उच्छवास, उद्योत, अप्रशस्तविहा., दुस्वर अनन्तान बन्धी चतु, स्व स्व योग्य १जाति
} ७१ | उदय योग्य -साधारण, १-४ इन्द्रिय, आतप, स्थावर, सूक्ष्म इन ८ रहित सर्व १२२-८-१९४ मिथ्यात्व, अपर्याप्त
-२ तीर्थ, आ, द्वि.
सम्य. मिश्र । २ । अनन्तानुबन्धी चतु. -४/'नरकानु -१
१०७ मूलोषवद →
८
पंचेन्द्रिय
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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उदय
६. कर्भप्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं
मार्गणा -
गुण
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ
अनुदय
पुन' उदय
उदय नुदय
। कुल | ब्युयोग्य। | उदय | उदय च्छिति
स्थान।
३. काय मार्गणा-(गो क जी.प्र. ३०६-३१०/४३९-४४१) स्थावर सामान्य - | उदय योग्य '-एकेन्द्रियवत्-८० मा.प वनि.अप. पृथिवी काय उदय योग्य ----साधारण रहित स्थावर सामान्यकी ८० अर्थात् ८०-१-७४ प.व. अप.
मिथ्यात्व, आतप, उद्योत, सूक्ष्म अपर्याप्त, स्त्यान. त्रिक, उच्छवास
परघा नि. अप.
अनन्तानुबन्धी चतुष्क, एकेन्द्रिय, | स्थावर
अप काय प.व अप नि. अप.
उदय योग्य -साधारण व आपातके बिना स्थावर सामान्यवत ८०-२-७८ आपात बिना पृथिवी कायवत् - अनन्तानुबन्धी चतु., एकेन्द्रिय, स्थावर उदय योग्य '-साधारण, आतप, उद्योत इन तीन बिना स्थावर सामान्य ८०-२-७८ आतप, उद्योत बिना पृ. कायवत -८/
तेज काय व वात काय
वनस्पति काय अप्रति. प्रत्येक
७६ / १०
उदय योग्य -आपत रहित स्थावर सामान्यवत ८०-१-७४ मिथ्यात्व, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, स्त्यान. त्रिक, परवात, उच्छ्वास, उद्योत अनन्तान बन्धी चतु, एकेन्द्रिय, स्थावर
-६
-१०
नि अप०
शेष सर्व विकल्प'सू. प. अप.' व 'बा, अप'
मिथ्यादृष्टि पृथिवी कायक्त
१
४. योग मार्गणा (गो.क./जी प्र ३१०-३१४/४४१-४५३) चारों मनोयोगी - उदय योग्य-आतप,१-४ इन्द्रिय, स्थावर. सक्ष्म, अपर्याप्त. साधारण, आनु. चतु. इन १३ विना सर्व-१०६ सत्य असत्य व १ । मिथ्यात्व -१ | तीथ, आ.द्वि., ।
१०६ ५
१०४ । उभय वचन
मिश्र.सम्य, योगी अनन्तानुबन्धी चतु.
१०३ मिश्र मोह
मिश्र मोह-१| अप्रत्या, चतु , वैकि द्वि., नरक
सभ्य, -१ गति व आयु, देवगति व आयु. दुर्भग, अनादेय, अयश -१३
मूलोघवत ओघवत् १३वे को ३० तथा १४वें ।
१२ । की १२-४२ । अनुभय वचन
उदय योग्य-आतप, एकेन्द्रिय, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, आनुपूर्वी चतु. इन १० के मिना सर्व-११२ मिथ्यात्व -१ | तीर्थ, आ.द्वि.
१०७ | मिश्र सम्य. अनन्तानुबन्धी चतु , २-४ इन्द्रिय-७ मिश्र मोह
| मिश्र मोह- १ ४-१२
मूलोघबर ओघवत् ११वेकी ३० तथा १४वेंकी१२-४२१
। तीर्थ -१ । ४१ । । १ । ४२ ।
५-१२
तीर्थ -१ | ४१ ।
४२
।
। ४२
११२ ।
१०६
४२
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
उदय
मार्गणा
दारिक काम योग
औदारिक मिश्र
वैक्रियक काय
योग
वैक्रियक
मिश्रकाय
आहारक काय योग
गुण
स्थान
१
२
३
४
५
७-१२ १३
१
३
४
५-१२
१३ समुद्धात | केवली
१
२
३
—
६
उदय
व्युचिन्न प्रकृतियों
अनुदय
पुन उदय
अनुदय योग्य उदय योग्य आहा द्वि., वैक्रि.द्वि देव व नारक त्रिक, मनु. व तिर्य आनु, अपर्याप्त इन १३ के बिना सर्व = १०६ मिथ्यात्व आतप, सूक्ष्म साधारण तीर्थ, मिश्र,
,
४
१०६
३
१०६
४
सम्य -३
नानुबन्ध
मिश्र मोह
अपत्या चतु दुर्भग, अनादेव
1
१४ इन्द्रिय
यो नोच गोत्र तिथे गति
आयु, प्रत्या चतु
सत्यान त्रिक
मिथ्यात्व
स्थावर ह
माछ १
अयश= ७
नानुबन्धी चतुष्क
मिश्र मोह
अप्रत्या. चतु. + आद्वि.स्त्यान त्रिक, स्त्री नपुं. वेद, उद्योत इन प्रहित ५- १२ तक की ४८ अर्थात् ४० ) = ४४
८
मिथ्यात्व अनन्तानुबन्ध चतु खी
- ३
૮૦
अप्रत्या चतु, वैक्रि, द्वि., देव नरक गति व आयु, दुभंग, अनादेय
१
=४
६. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ
कुल
व्युउदयच्छति
=१
मिश्र मोह = १
सम्य.
१
मूलोघर । तीर्थ
७६
ओष
- १ । ४१ ।
१ । ४२ । ४२
.
१४ की मकर-४२ उदय योग्य आहा. द्विक, वैक्रि. द्विक, देवत्रिक, नारक त्रिक, मनु ति, आनु, स्त्यान. त्रिक, सुस्वर, दुस्बर, प्रशस्ताप्रशस्त विहायो, परघात, आतप उद्योत, उच्छ्वास, मिश्र इन २४ के बिना सर्व १२२-२४मिथ्यात्व सूक्ष्म, अपर्याप्त. साधारण ४ | तीर्थ सम्य = १ | अनन्तानुबन्धी चतु, १४ इन्द्रिय, स्थावर, अनादेय, दुर्भग, अयश, स्त्री नपुंसक वेद
ह
= १४
गुणस्थान सम्भव नहीं सम्य.
सम्य.
हुडक नपुंसक, दुभंग, अनादेय
दु स्वर, नरक गति व आयु. नीच गोत्र = ८
गुणस्थान सम्भव नही तीर्थंकर = १ ३५
"
१०२
६३
१३
८७
गुणस्थान सम्भव नहीं
20
८६
८३
७ह
मिथमोह-१ सम्य - १ ७६
१
२
३
४ अप्रस्था. चतु, देवगति आयु, नरकगति. आयु.. वैक्रि. द्विक, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय
१३
उदय योग्य - मिश्रमोह, परघात, उच्छ्वास, सुस्वर, दुस्वर, प्रशस्ताप्रशस्त विहा. इन ७ रहित वैक्रियक काय
योगवत् ६६-७ = ७६
| सम्य, सासादन के अनुदय वाली
-२
|
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
पुन उदय
७ह ७७
१
१
सुस्वर, दुस्वर, प्रशस्ताप्रशस्त विहा परवात, उच्छवास इन ६के बिना १] १४वे की सर्व ४२-६-२
उदय योग्य - स्थावर, सूक्ष्म, तिर्य. त्रिक, मनु, त्रिक, आतप, उद्योत, १-४ इन्द्रिय, साधारण, स्त्थान त्रिक, तीर्थंकर अपर्याप्त छहीं संहनन, समचतुरस्र व हुण्डक बिना ४ संस्थान, आहा. द्वि, औ द्वि, नारक व देव आनु, इन २६ के
बिना सर्व १२२-३६६।
मिश्र, सम्य = २,
१
८
६४
१०२
६४
हम
| '"
८७
७६
६६
ह२
७६
३६
८४
८३
८०
Co
6 x 3
७८
६६
१.
७
७३
३
४
१४
४४
R
८६
दु स्वर १३
उदयोग
त्रिक, खो न वेद, अस्त विहाय दुस्वर, ६ संहनन, ओदा हि समचतुरस्रके बिना संस्थान इन २० रहित ओधके ६ ठे गुणस्थानकी ८१-२०६१
| ६१ |
| ६१ | २
आहारक द्विक
३६
१
४
༢
१३
१ ५
१३
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________________
उदय
३८१
६. कर्म प्रकृतियोकी उ दय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ
मार्गणा
गुण स्थान
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ
अनुदय
पुन उदय
योग्य /
उदय अनदया पुन, कुल | ब्यु
उदय। उदय च्छित्ति
com
आहारक मिश्र | - | उदय योग्य-- सुस्वर, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहा. इन ४ रहित आहारक काय योगकी ६१-५७ ।
आहारक द्विक कार्माण काय योग
उदय योग्य-सुस्वर, दु'स्वर, प्रशस्ताप्रशस्त बिहायो., प्रत्येक, साधारण, आहारक द्वि., औदा, द्वि, वैक्रि.द्वि , मिश्र,
उपघात, परषात, आतप, उद्योत, उच्छवास, स्त्यान त्रिक, छह सस्थान, छह सहनन इन ३३ के बिना सर्व
१२२-३३-८४ मिथ्यात्व, सूक्ष्म, अपर्याप्त -३ सम्य , तीर्थ -२)
६ । २ अनन्ता. चतु, १-४ इन्द्रिय, स्थावर, सीवेद-१० नरक त्रिक-३॥
गुणस्थान सम्भव नहीं ४ | वैक्रि. द्वि. बिना मूलोधके ४थे वाली
सम्य , नरकत्रिका ७१ १५+(उद्योत,आहा.द्वि.,स्त्यान.त्रिक स्त्री वेद प्रथम रहित ५ महनन इन १२ के बिना ओघकी ५-१२ गुणस्थान वाली
४८-१२-३६) ३६+ १५८५१ १-१२
गुणस्थान सम्भव नहीं (समुद्धात केवलीको) वज्रवृषभनाराच,
तीर्थकर । । १ । २५ । २५ स्वरद्विक विहायो, विक, औ.द्वि , ६ सस्थान, उपधात परघात प्रत्येक उच्छ. वास इन १७के बिना ओधके १३,१४वे
गुणस्थानोकी ४२-१७-२५ ५. वेद मार्गणा--(गो क /जी.प्र. ३२०-३२१/४५४-४५८) पुरुष वेद । उदय योग्य---स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नारक त्रिक, १-४ इन्द्रिय, स्त्री वेद, नपुंसक वेद, तीर्थकर,
आतप इन १५ रहित सर्व-१२२-१५=१०७ मिथ्यात्व = आ द्वि.,
१०७४ । सभ्य, मिश्र
१०२ ।
५-८
१०-१४
स्त्री वेद
अनन्तानुबन्धी चतु.
-४ मिश्र मोह
=१ देव, मनु.व मिश्र -१
तिर्य गत्या
नुपूर्वी-३ अप्रत्या चतु , वैक्रि. द्वि , देवत्रिक,
देव, मनु.व मनु व तिर्य. आनु, दुर्भग, अनादेय,
तिर्य, आनु. अयश
सम्य. -४ भूलोघवत्
आहा,द्वि -२ पुरुषवेद, क्रोध, मान, माया
गुणस्थान सम्भव नहीं उदय योग्य--पुरुष वेदकी १०७-(आहा, नि, पुरुष वेद)+ स्त्री वैद -१०५ मिथ्यात्व
___-१ | सम्य मिश्र -२, अनन्ता चतु, देव मनुष्य तिर्य आनु मिश्र मोह
मिश्रमोह -१ अप्रत्या ४, देवगति व आयु, वैक्रि
सम्य. -१ द्वि., दुर्भग, अनादेय, अयश =११ मूलोघवत् स्त्यानगृद्धि त्रिक सम्य, मोह, ३ अशुभ सहनन मूलोघवत् स्त्री वेद, क्रोध, मान, माया -४
गुणस्थान सम्भव नहीं
Green -
cmoc
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
उदय
३८२६
कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं
मार्गणा
कुल
गुण | स्थान
अनदय पुनः
नसक वेद ।
११४
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ अनुदय पुन उदय | उदय
| कुल व्युच्छि .
योग्य | उदय । उदय उदय योग्य-देवत्रिक, आहा द्वि., स्त्री-पुरुष वेद, तीर्थकर इन ८ के बिना सर्व १२२-६-११४ मिथ्यात्व, आतम, सूक्ष्म, अपर्याप्त, । सम्य., मिश्र साधारण अनन्ता. चतु, १-४ इन्द्रिय, स्थावर,
नरकानु. -१ मनु तिर्य आनु मिश्रमोह अप्रत्या, चतु., वैक्रि द्वि., नरक
मिश्रमोह -१६५ त्रिक, दुर्भग, दुःस्वर, अयश -१२
सम्य., नरप्रत्या.चतु., तिर्य. आयु व गति, नीच
कानु, -२ गोत्र, उद्योत स्त्यान. त्रिक सम्य, मोह, ३ अशुभ संहनन -४ हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा नपुंसक वेद, क्रोध, मान, माया -४
गुणस्थान सम्भव नही
|१०-१४
६. कषाय मार्गणा--(गो क./मू. ३२२-३२३/४५६-४६१) चतुर्विध क्रोध उदय योग्य-शेष १२ क्षाय (चारो प्रकार मान, माया, लोभ) और तीर्थंकर इन १३ के बिना सर्व-१२२-१३-१०६
मिथ्यारव, सूक्ष्म, अपर्याप्त, आतप, / सम्य., मिश्र.. साधारण
-५ | आहा द्वि.-४ अनन्ता क्रोध,१-४इन्द्रिय,स्थावर- नारकानुपूर्वी-१ मिश्र
-१ मनु.देव,तिर्य, मिश्रमोह -१
आनु. =३ वैकि, द्वि., देव त्रिक, नारक त्रिक,
सम्य, चारों मनु तिर्य आन , अप्रत्या क्रोध,
आनु. =k दुर्भग, अनादेय, अयश -१४ प्रत्या क्रोध, तिर्य, गति व आयु,
नीचगोत्र, उद्योत ६-८ मूलोघवत
-१५ आहा, द्वि.
२ ७८ | १५ तीनों वेद संज्वलन क्रोध
-
आगे
अप्रत्या.,प्रत्या. व सज्वलन
क्रोध
1-8
गुणस्थान सम्भव नहीं स्थान--अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके मिथ्यादृष्टि गुणस्थान विष प्राप्त भया ताके वे ते इक काल अनन्तानु
बन्धीका उदय न होय, ताकी अपेक्षा यह कथन है। उदय योग्य--१-४ इन्द्रिय, चारो आनु , आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अनन्ता क्रोध, चारो प्रकार
मान-माया-लोभ, तीर्थकर, मिश्र, सभ्य मोह, आहा द्वि., इन ३१ के बिना सर्व-६१ उपरोक्त चारो क्रोधवत । विशेष इतना कि अपने उदय के अयोग्य प्रकृतियोंको व्युछिप्तिमे न गिनाना । उदय योग्य-१. चारो प्रकार क्रोधवाली १०६ में स्व स्व कषाय चतुष्कको उदय योग्य करके शेष १२का अनुदय है।
२. अप्रत्या.. प्रत्या, व सज्वलन इन तीन कषायोवाले विकल्पमें भी हमें स्व स्व कषायका ही ग्रहण करके अन्यका अनुदय है। ३ लोभ कषायमें गुण स्थान है की बजाय १० बताना। और सूक्ष्म लोभकी व्युच्छित्ति १०वे गुणस्थानमें मूलोषवत करनी।
क्रोधवत् केवल लोम कषायमें मूलोधवत सूक्ष्म लोभकी व्युच्छित्ति
चतुर्विध मान माया लोभ
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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उदय
३८३
६ कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ
स्थान
३-१४
|१०४
।
।
।
९० | १
मार्गणा | गुण व्युच्छिन्न प्रकृ तयाँ अनुदय । पुन' उदय
उदय उदय अनुदय पुनः । कृत व्युच्छि,
पुन' | कुत व्यच्छि ,
| उदय | उदय । ७. ज्ञान मार्गणा--(गो क./म. ३२३-३२५/४६२-४६५) मतिश्रुत अज्ञान उदय योग्य-आहा द्वि., तीर्थंकर, मिश्र. सम्य., इन ५ के बिना सर्व १२२-५- ११७
मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नारक आनु. ६ अनन्तानुबन्धी चतु, १-४ इन्द्रिय, स्थावर
गुणस्थान सम्भव नहीं विभग ज्ञान
उदय योग्य--१४ इन्द्रिय, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, आन. चतु , आहा. द्वि., तीर्थकर, मिश्र,
सम्य, मोह इन १८ बिना सर्व १२२-१८-१०४ मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चतु
| १०३ | ४
गुणस्थान सम्भव नहीं मति, श्रुत,
उदय योग्य :-मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, १-४ इन्द्रिय, स्थावर, अनन्ता चतु मिश्र मोह इन अवधिज्ञान
१५ के बिना सर्व-१२२-१५- १०७ | ४ मूलोधवत
-१७ | तीथ, आ. ।
| द्वि-३ ।
--- मूलोघवत मन पर्यय ज्ञान | - | उदय योग्य -१-५ तक के गुण स्थानों में ओघवत् व्युच्छिन्न ४०+ तीर्थकर, आहा- द्वि. व स्त्री नपुंसक वेद इन
४५ के बिना सर्व-१२२-४५-७७ ६ |स्त्यानगृद्धि त्रिक
| | । । ७७ | ३ - मुलं घबत् । विशेष इतना कि हमें में एक पुरुषवेद की ही व्युच्छित्ति कहना। केवल ज्ञान -- | उदय योग्य –ोध प्ररूपणाके १३वे १४वें गुणस्थानो में व्युच्छिन्न कुल ४२ ।। १३-१४
- मूलोधवत् । १३वें में तीर्थंकर का पुन उदय न कहना ८. संयम मार्गणा-(गो. क./जी. प्र. ३२४/४६५-४६६) सामायिक | - उदय योग्य .-ओघ प्ररूपणामें कथित ६ठे गुणस्थान में उदय योग्य-८१ छेदोष.
- मूलोववव परिहार विशुद्धि उदय योग्य --खी व नपुंसकवेद तथा आहारक द्वि इन ४ के बिना सामायिक सयतय ८१-४-७७
स्त्यानत्रिक, सम्य., ३ अशुभ संहनन
उदय योग्य '--ओघ प्ररूपणाके १०वें गुणस्थान में उदय योग्य = ६० सूक्ष्म साम्पराय
मूलोधवव उदय योग्य --ओध प्ररूपणाके ११वे गुणस्थानमें उदय योग्य-५६ यथा ख्यात
- मूलोधव देश संयत उदय योग्य '--ओघ प्ररूपणाके वे गुणस्थानमें उदय योग्य-२७
- मूलोधवत असंयत
उदय योग्य .--तीर्थकर व आहा. द्वि इन ३ के बिना सर्व १२२-३-११६ आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण,
मिश्र, सम्य-२। मिथ्या. २-४
- मूलोधवत ९. दर्शन मार्गणा-गो क /जी प्र. ६२५/४६९-४७०) चक्षुदर्शन
उदय योग्य ----साधारण, आतप, १-३ इन्द्रिय, स्थावर, सूक्ष्म, तीर्थ कर इन के बिना सर्व १२२-८-११४ मिथ्यात्व, अपर्याप्त
२ | सम्य., मिश्र, ।
आ द्वि-४ | अनन्तानुबन्धी ४, चतुरिन्द्रिय -५ | नारकानुपूर्वी
मूलोधवत
18
४
।
।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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उदय
३८४
६. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं
मार्गणा
गुण
।
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ
अनुदय
पुन उदय । उदय अनुदय
पुन | कुल ,
| स्थान
। योग्य |
उदय उदय | च्छित्ति
|
२
| १२
अचक्षु दर्शन | उदय योग्य --तीर्थकर बिना सर्व १२२-१-१२१
मलोधवत अवधि दर्शन
सर्व विकल्प अवधिज्ञानवत केवल दर्शन
सर्व विकल्प केवलज्ञानवत १०. लेश्या मार्गणा--(गो क जी. प्र ६२५/४७०-४७४) कृष्ण लेश्या । -- | उदय योग्य --तीर्थङ्कर, आहा , द्वि., इन ३ के बिना सर्व १२२-३-११६ मिथ्यात्व, आसप, सूक्ष्म, साधारण, मिश्र. सम्य.-२)
११६ अपर्याप्त, नारकानुपूर्वी
-६ अनन्तानुबन्धी चतु., १-४ इन्द्रिय, स्थावर, देवत्रिक, तिर्यगानुपूर्वी, -१३ नोट-अशुभ लेश्यावाले भवन त्रिक
में भी न उपजे मिश्र मोह
- मनुष्यानुपू.-१ मिश्र -१
मनुष्यानु, अप्रत्या. चतु. नरकगति व आयु.,
२ वैक्रि. द्वि मनुष्यानुपूर्वी, दुर्भग,
सम्य, -२ अनादेय, अयश नील लेश्या
सर्व विकल्प कृष्ण लेश्यावत कापोत लेश्या उदय योग्य,-कृष्णव -११६
मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म साधारण, | सम्य, मिश्र-२| अपर्याप्त अनन्ता. चतु.,१-४ इन्द्रिय, स्थावर, नारकानु.-१ देवत्रिक
-१२ मिश्र,
-१ | मनु तिर्य. | मिश्र.-१
आनु -२ अप्रत्या चतु, नरक त्रिक, वैकि, द्वि.,
मनु तिर्य, मनु. तिर्य , आनु., दुर्भग, अनादेय,
नारक-आनु, -१४ ।
सम्य =४ पीत व पद्मलेश्या - उदय योग्य --आतप, १-४ इन्द्रिय, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नरक त्रिक, तिर्यगानुपूर्वी, तीर्थकर इन
१४ के बिना सर्व १२२-१४- १०८ मिथ्यात्व
=१ सम्य , मिश्र, आ।
द्वि.,मनु आनु=५ | अनन्तानुबन्धी चतु., मिश्र.
.-३ | देवानुपूर्वी-१ | मिश्र.-१ | नरक त्रिक व तिर्य, आनु. इन ४ के
| सम्य., मनु | बिना मूलोधवत्
तिर्य आनु.-३'
- मुलोघवत् शुक्ल लेश्या
उदय योग्य .-आतप, १-४ इन्द्रिय, स्थावर, अपर्याप्त, साधारण, नारक त्रिक, तिर्य, आन. इन १३ के बिना सर्व
१२२-१३-१०६ १ मिथ्यात्व ___=१ | सम्य, मिश्र , |
१०६ ६ आ.द्वि., तीर्थ, | मनु. आनु.= ६
पीत पद्मावत
मलोधवत ११. भव्यत्व मार्गणा-(गो क./जी. प्र. ३२८/४७४) भव्य
सर्व विकल्प मूलोधवद अभव्य उदययोग्य-सम्य०, मिश्र, आ. द्वि., तीर्थ, इन 4 के बिना सर्व १२२ -३ - ११७
- मूलोघवत्
अन्य गुणस्थान सम्भव नहीं
अयश
०००
२०
२-४
-
-
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
मार्गणा
व्युषि प्रकृतियों
१२. सम्यक्त्व मार्गणा (गो. क / जी प्र ३२८-३३१ / ४७५-४८१)
क्षायिक सम्य
वेदक सम्य,
प्रथमोपदाम सम्यक्त्व
द्वितीयोपशम
सम्यक्त्व
मिथ्यात्व
सासादन सम्यग्मिध्याल
संज्ञी
बक्षी
२५
गुण
स्थान
४
५
६
८-१४
-
४
५.७
—
४
५
६
७
-
४
५
७
८-११
१
२
३
३-१२
-
-
प्रत्या. चतु, नीच गोत्र
आ द्वि., स्त्यान त्रिक
तीन अशुभ संहनन
तिर्य गति व आयु,
प्रत्या. चतु
अप्रत्या चतु, देव त्रिक, वैक्रि. द्वि
दुर्भग, अनादेय, अयश
स्त्यान
त्रिक
तीनो अशुभ संहनन
१३. संज्ञी मार्गणा (गो. क / जी प्र. ३३१/४८२/१)
उदय योग्य १२२, अनुदय उदयोग्य १९९ अनुश्य १ उदय योग्य १०२. अनुदय ३,
-
उदय योग्यमध्यात्व सूक्ष्म, आप, अपर्याप्त, साधारण, अनन्तानुगन्धी चतु. १४ यि स्वायर मिश्र, सम्य; इन १६ के बिना सर्व -- १२२ - १६ १०६ अप्रत्या चतु वैद्वि, नारक त्रिक, आ. द्वि तीर्थ देव त्रिक, मनु, तिर्य अनु. तिर्थ गति व आयू, दुभंग, अनादय, अयश, उद्योत
१०६
•
..
- २०
C
==
- १२
"
३८५
5
- ३
अनुदय
मूलोक्त
उदय योग्यमध्याल. सूक्ष्म अर्थात आतप माधारण, अनन्तानुबन्धी चतु १४ इन्द्रिय, स्थावर, मिश्र, सीकर इन १६ के बिना सर्ग - १२२ - १६ - १०६ अत्र चतु वै हि नरक त्रिक, देव आ.द्वि. -२ त्रिक, मनु. व तिर्य. अनादेय, अयश
१०६
"
•
,
आनु दुर्भग,
-- १७
पति
व्युच्छित्ति १ ।
स्थान त्रिक
७८
अशुभ संहनन
उदय योग्य -- नरक तिर्य. गति व आयु, नीच गोत्र, उद्योत इन ६ के बिना प्रथमोपशम कौ सर्ग - ६४
७५
१४
←
६. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ
मूलोषमय
उदय योग्य -- मिथ्यात्व, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, आतप, अनन्तानुबन्धी चतु, १-४ इन्द्रिय, स्थावर, मिश्र, तीर्थंकर, आहा द्विक, नारक- तिर्य. मनु आनु, सम्य; इन २२ के बिना सर्व १०० अप्रत्या चतु देव त्रिक, नरक गति व आयु. कि द्वि, दुभंग, अनादेय,
१००
1
अयश
=१४
1
प्रत्या चतु नीच गोत्र, उद्योत
पुन उदय
अनन्तानुबन्धी चतु.
उदय यौग्यमनुत्रिक व कमर कि कि हि
१३
आ द्वि -४ ४ नरकापूर्वी १
आ. द्वि. २
विशेष लो विशेष दे, लोष | विशेष दे. मूलोष |
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
योग्य
मूलोघवत
८३
|
७८
७५
मूलोघवत्
८६
उदय योग्य - आतप, साधारण, स्थावर सूक्ष्म, १-४ इन्द्रिय, तीर्थंकर, इन 8 के बिना सर्व १२२-६-११३ मिथ्यात्व अपर्याप्त =२ सम्य.. मिश्र,
३
८२
७८
७५
उदय
२
| हृदय
६१
११३ ४
1231:1
१०७
१
कुल
१०३
८३
८०
७५
१०४
१००
८६
१०६
मूलोघवत्
पाटिका रहित ५ संहनन, प्रशस्त निहा, उच्च गोत्र,
सुभग, सुस्वर, आदेय, तीर्थ, मिश्र, सम्य, आहा. द्वि, हुँडक रहित ५ संस्थान, इन ११ के बिना सर्व
१२२ - ३१ ६१
१ मिथ्या आतप सूक्ष्म, साधारण,
अपर्याप्त स्त्यान त्रिक, परघात,
उद्योत, उच्छ्वास, दु स्वर, अप्रशस्त विहा. ( पर्याप्त के उदय योग्य)
७८
७५
६४
ठ -
च्विति
८२
७८
७५
१०६
६१
२०
५
५
१७
१४
३
३
१२
३
४
१३
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
मार्गणा
क्यून्न प्रकृतियों
१४ आहारक मार्गणा (गो, क जी प्र २३२/४८३/२)
उदय योग्यचार आनुपूर्वी के बिना सर्व
आहारक
अनाहारक
नं.
१-५
१-३
४
५ ६-६
गुण
स्थान
१
A
१
२-३
३
४
५-१३
१ आतप सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण,
मिष्या
१-४ इन्द्रिय, स्थावर, अनन्ता चतु
११.२,३
२
स्थान
निद्रा
१३
संकेत -- चतु, गुड, खण्ड, शर्करा, [अमृत रूप चतुर द्वि. निम्ब व काजीर रूप द्वि स्थानीय अ अजघन्य प्रदेशोदय । (ध. ६/१, ६-८, ४/२०७-२१३)
विशेषता
१४
প্রকৃতি
११ ज्ञानावरणी
पाँचों
२ दर्शनावरण
R
त्रिक
+
४. सातिशय मिध्यादृष्टिमें मूलोत्तर प्रकृतियोंके चार प्रकार उदयकी प्ररूपणा
प्रचला
शेष चारों
३ वेदनीय
साता असाता
४ मोहनीय
| (१) दर्शन मोह मिथ्यात्व
सम्य मिश्र,
(२) चारित्र मोह
1
१-१६ १६ कषाय १७-११ ३ मेद २०-२१ हास्य रति
२२-२३ | अरति-शोक }
२४-२५
मिश्र मोह
आन, चतु के बिना मृलोघवत्
उदय योग्य - निर्माण काय योगवत् कार्माण काय योगवत्
1
नेपाली १५
=
(समुद्रात केवलीको) अन्यतम वेदनी, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तेजस, कार्माण, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श अगुरुलघु
१३
अन्यतम
दोनों युगलों में
अन्यतम युगल
भय-दुगुप्सा है या नहीं भो
है १ समय द्वि
नही
निद्रा व प्रचलामें है १ समय द्वि अन्यतम
है नही
The he
"
-ह
१
=१३
"
दोनो में अन्यतम है ।१ समय चतु.
ॐॐ
-
"
59
उदय
स्थिति 'अनुभाग | प्रदेश
"
१ समय द्वि
91
11
मीय अनुभाग,
राग, अज
१ समय द्वि.
३८६
अनुदय
दह
१२२-४११० तीर्थ, आद्वि..
मिश्र, स
अज.
अज,
::
अज.
अज
www
अज,
नं.
१
२
३
४
१
20 6 us 9 v
५
७
६. कर्म प्रकृतियों की उदय व उपयस्थान प्रणा
८
1
पुन उद्रय
मिश्र मोह - १ सम्य -१
मूलोधवत
सम्य, नरक
तीर्थंकर
मूलो
प्रकृति
५ आयु-
नरक
तियंच
मनुष्य
देव
६ नाम
गतिः
नरक - तियंच
मनुष्य- देव onfer
१-४ इन्द्रम मेडिय
शरीर
औदारिक
वैकियक
आहारक सेजस
कामग
अंगोपाग
निर्माण
बन्धन
संघात
संस्थान-
समचतुरख
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
उदय योग्य
११८
१०८
६६
६६
-- १ २४
७१
अनुदय
विशेषता
19
1
पुन'
उदय
मनुष्य व तियंच
गति में देव व नरक गतिमें
प्रकति
2:
१
two:
नही
चारो में अन्यतम है १ समय द्वि
नहीं
चारों गतियों में है
...
11
उदय
Ex स्थिति | अनुभाग | प्रदेश
"
S
कुल
व्युउदय | च्छित्ति
33
११३
१०८
...
.
१००
१००
११ समय द्वि.
11
७५
२५
= 100 =
चतु
स्व स्व स्व स्व
६
है ११ समय । चतु.
नहीं
चारो गतियों में है १ समय चतु.
+1
स्वस्थ शरीरये
चारो गतियों में है १ समय चतु
५
६
१
१३
१ समय चतु अज
देवगति में नियम है १ समय चतु. से मनु तिर्य गतिमें भाज्य
१३
अज,
"
अज
11
:
अज.
...
अज.
31
अज.
शरीर वत्शरीर
अज
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
२८७
६. कर्म प्रकृतियोकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ
.
1611
उदय
उदय नं. | प्रकृति । विशेषता | स्थिति अनुभाग प्रदेश नं. | प्रकृति विशेष
का | नरक गतिमें है|१समय द्वि. , अज, | ३८ | स्थिर चारो गतियों में है १ समय| चतु. | अज. नियमसे मनु.
अन्यतम तियं में भाज्य।
३६ | अस्थिर शेष चार
मनु, तिर्य में .. . .. ४० यश कीर्ति सुभगवद (देखो.., । अन्यतम
नं २६) संहनन
४१ | अयश कीर्ति दुर्भगवत (देखो .. "
नं. २७) वज्र वृषभ नाराच मनु, तिर्य में | है |१ समय चतु.
तीर्थकर अन्यतम
७ गोत्र
द्वि.. | शेष पाँच
उच्च | देवोमें नियमसे है १ समय चतु. १०-१३ स्पर्श, रस, गन्ध वर्ण:
मनु में भाज्य प्रशस्त
नरक तिर्य में चारों गतियों में है | १ समय चतु,
अज. | २ नीच
नियमसे मनु. अप्रशस्त
में भाज्य आनुपूर्वी चतु.
८ अन्तरायअगुरुलघु चारों गतियोमें है|१समय चतु.
चारों गतियोमें है . द्वि, उपधात परघात आतप
५. मूलोत्तर प्रकृति सामान्यकी उदय स्थान प्ररूपणा उद्योत | तिर्य गतिमें है १ समय भाज्य
१. मूल प्रकृतिस्थान प्ररूपणा उच्छ्वास चारो गतियोमें. "
देखो अगला उत्तर शीर्षक सं.२ विहायोगतिः
__'मूलप्रकृति ओघ प्ररूपणा' प्रशस्त ! देवगतिमे नियम है|१समय चतु अज.. से मनु. तिथं
| क्रम , नाम प्रकृति कल प्रति प्रति स्थान स्थान स्थान
विशेष विवरण में भाज्य
प्रकृति भग अप्रशस्त नरकगति में नियमसे मनु
| ज्ञानावरण | १ |५ । १ । पाँचोका सर्वदा उदय रहता है तिर्य में भाज्य
| २ दर्शनाबरण | २ | ४ १ । चक्षु अचश्व, अवधि व केवल प्रत्येक चारो गतियोमे, है १समय चतु. अज
चारीका उदय साधारण
अन्यतम पाँच निद्रा सहित प्रस
उपरोक्त४ । है | १ समय चतु.। अज, स्थावर
इस प्रकार पाँच प्रकृति सहित
५भग है सुभग देवगतिमें नियम है १समय चतु. अज. | ३ वेदनीय १ | १ २ दोनो वेदनीयमें से अभ्यतम से मनु, तिर्य में
१ का उदय होनेसे १ प्रकृतिके
दो भंग है नरकगति में , | ४ | मोहनीय
देखो आगे नं. ६ वाली पृथक नियमसे मनु.
प्ररूपणातियं में भाज्य
५ | आयु
१-४ गुणस्थानमें अन्यतम आयु २८ । सुस्वर सुभगवत
से ४ भंग दुस्वर दुर्भगवत
५ गुणस्थानमें मनु. तिर्य, आयु आदेय सुभगवत
से २ भग अनादेय
६-१४ गुणस्थानमें मनु. आयुसे शुभ चारों गतियोंमें
१भग अन्यतम
दे, आगे नं ७ पृथक प्ररूपणा
६ नाम अशुभ
१-५ गुणस्थानमें अन्यतमके बादर
७ | गोत्र चारों गतियोमें ...
उदयसे २ भंग ३५ ।सूक्ष्म
महा ३६ । पर्याप्त चारोगतियों में है १ समय चतु..
६१४ गुणस्थानमें केवल उच्च
का१भग ३७ । अपर्याप्त
- ८ अन्तराय ।१५१ । पाँचो का निरन्तर उदय
ट
भाज्य
भग
दुभगवत
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
२८८६.कर्म प्रकृतियोंकी उदय न उदास्थान प्ररूपणाएं
प्रति
गुण | कल प्रति
-ranarranorm
xxxxxxxxxxxxxx
२. मूल प्रकृति ओघ प्ररूपणा (प. सं./प्रा ३/५ व १३), (पं.सं./सं.४/८६ व २२१)
| स्थान | स्थान | प्रकृतियोंका विवरण भंगोंका विवरण
स्थान | स्थान | प्रकुति' भन. | प्रति प्रति
६ नाम-नोट · देखो आगे सं.७ वाली पृथक् प्ररूपणागुण | कुल
| भगोंका स्थान स्थान प्रकृतियोंका विवरण स्थान | स्थान
विवरण ७ गोत्र-(व.सं /प्रा. १४१५-१८); ध. १७/१७); (गो.क./६३५/८३३); प्रकृति भंग
(व.सं./सं./२/१८-२२)। सर्व प्रकृति १-५ । १।१।२ दोनोंमें अन्यतमका, अन्यतमोदयसे
उदय
२ भंग केवल उच्च गोत्रकाx
उदय ८ अन्तराय-पं.सं /प्रा. ५.८), (ध. १५/८१), (गो. क. ६३०/८३१),
(पं. सं./२/१)। १-१२ | १ | १ पाँचों का निरन्तर ४
उदय
६ मोहनीयकी सामान्य व ओघ उदयस्थान प्ररूपणा १ मोहनीय रहित सर्व -७
१ भंग निकालनेके उपाय १ आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय-४ x स्थान
उपाय
भंग ३. उत्तर प्रकृति ओघ प्ररूपणा
क्रोधादि चार कषायों में अन्यतम उदयके साथ अन्यतम वेदका उदय ४४३
-१२ प्रति । प्रति ।
उपरोक्तवव १२ भंग या तो हास्य रति युगल सहित हों या स्थान | स्थान प्रकृतियौंका विवरण भंगोंका विवरण स्थान स्थान प्रकृति भंग |
अरति शोक युगल सहित हो १२४२
४८ उपरोक्त २४ भग या तो भय प्रकृति सहित हो या जुगुप्सा १ ज्ञानावरणीय-(पं.स./प्रा. ५/८), (घ. १५/८१),
प्रकृति सहित हो २४४२
-४८ (गो. क. ६३०/८३१), (पं. सं./स. १६)
संकेत--१. अनन्ता आदि ४-अनन्तानमन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्यापाँचों प्रकृतियोंका निरन्तर
ख्यान व संज्वलन ये चार प्रकार क्रोध या मान या माया उदय । उदय
या लोभ । २ दर्शनावरणी-(पं. स./प्रा. ५/६); (घ. १५/८१); (गो. क./६३०/८३१);
२. अप्ररथा आदि ३= अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, सज्वलन ये
तीन प्रकार क्रोध या मान या माया या लोभ। (पं.सं./सं ५/६)
३ अपत्या. आदि २-प्रत्याख्यान व संज्वलन ये दो प्रकार १-१२ | १ ४ | १ चक्षु, अचक्षु, अवधि, चारोंका निरन्तर
क्रोध या मान या माया या लोभ । जागृत
केवल उदय
४. सज्वलन १-संज्वलन यह एक प्रकार क्रोध या मान या सप्त । १ । चक्षुरादि चार+ अन्यतम
माया या लोभ। | अन्यतम निद्रा-६ निद्राके उदग्रसे
१.कषाय चतुष्क क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारों। प्रकृतिके ५भंग
६. दो युगल-हास्य-रति व अरति-शोक । ३ वेदनीय-(पं.सं./प्रा.१/१६-२०); (ध १५/८१), गो क. ६३३
७. उप.-उपशम सम्यग्दृष्टि, क्षा - क्षायिक सम्यग्दृष्टि । ६३४/८३०); (पं.सं/सं. २३-२४)
८. वेदकम् वेदक सभ्यग्दृष्टि । १-१३ | १ | १ । २ साता असातामें अन्य- अन्यतमोदयसे
२. कुल स्थान व भंग तमका हा उदय प्रकृतिक २भग कुल स्थान-१ (पं.सं./प्रा/३०-३२), (ध.१५/८१), (गाक६५. ४ मोहनीय-नोट · देखो आगे नं ६ वाली पृथक् प्ररूपणा
६५६/८४६-८४८), (पं स /सं.६/३८-४१)। ५ आयु-(पं.सं /प्रा. ५/२१-२४); (घ १५/८६). (गो के ६४४/८३८), प्रति | प्रति
विवरण (पं.स /सं./२५-३०)
स्थान | स्थान
सम्यक्त्व प्रकृति भंग विशेषता १-४ १ । १ । ४ । अन्यतम एकका | चारोंमें से अन्ध- प्रकृति भंग
स्थान
विशेष उदय | तमका उदय
अवेदभाग १ । ४ , सज्वलन कषाय होनेसे ४ भग
चतु.में अन्यतम ५ १ | १ | २ मनु. व तिर्य मेंसे दोनों में से अन्य
। १ । १ ' केवल संज्वलन अन्यतमका उदय तमका उदय
लोभ (यह भंग होनेसे २ भग
| ऊपर वालों में
ही गर्भित है) उदय
९-१२ | १ | ५ | १ | पाँचों प्रकृतियोंका | निरन्तर
गुण
६-१४११ | १ केवल मनु आयुका
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
३८९
६. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं
-
-
प्रति प्रति
विवरण स्थान | स्थान | गुण | सम्यक्त्व प्रकृति भंग | स्थान विशेष २ । १२ । । सवेदभाग
| प्रकृति
w
६-२
क्षा, व उप सम्यक्त्वी
m
,
६-७ वदक सम्य
क्षा उप सम्य
गुण | कुल प्रति प्रति
भगोंका विशेषता यात उदय स्थान स्थान प्रकृतियों का विवरण "स्थान प्रकृति भग
विवरण उपरोक्त ४x अन्यतम वेद
१/४८ | उपरोक्त ८+भय जुगुप्सामें-से दे भंग निकालने अन्यतम १
६ के उपाय ४४३०१२
१०.२४ उपरोक्त ८+भय और जुगुप्सा, . २४ देखो ऊपर नं.१].
दोनों में उपाय
२४. अनन्ता,आदि चतुष्क, अन्य२४ । दे ओघ प्ररूपणा
तम वेद १, अन्यतम युगल२०७ उपरोक्त+भय या जुगुप्सा-८
...+भय और जुगुप्सा -६ मिश्र.१, अप्रत्या. आदि ३, अन्य. तम वेद १,अन्यतम युगल २-७ उपरोक्त ७+भय याजुगुप्सा-८
, ,, और , -१ सम्य १, अप्रत्या. आदि ३, अन्य तम वेद १, अन्यतम युगल२-७
| उपरोक्त+भय या जुगुप्सा६/२४ , +, और , -६ ३६२४ अप्रत्या आदि ३ अन्यतम वेद
१, अन्यतम युगल २-६
we w
| वेदक
क्षा.उप.सम्य | वेदक क्षा उप.सम्य
cendan
"
वेदक क्षा.उप.सम्य वेदक क्षा. उप. वेदक
ww urv99999999Uvvu "" wwwws
२१६
७४८ | उपरोक्त+भय या जुगुप्सा-७ ८) २४
प्रत्या. आदि २, अन्यतम वेद १
अन्यतम युगल २, सम्य.१६ ४८/ उपरोक्त+भय या जुगुप्सा-७
+, और ,, ०८ ५२४ प्रत्या.आदि २, अन्यतम वेद १
अन्यतम युगल २-५
वेदक क्षा. उप. वेदक
वेदक
१०
२४ ।
। १२८ ३. मोहनीयके उदयस्थानोकी ओघ प्ररूपणा
(पं.सं./प्रा. ५/३०३-३१८); (ध. १५/८२) (गो. क. ६५५-६२६/८४६-८४८), (पं.स./सं १३३०-३४६) संकेत : (देखो भग निकालने के उपाय)
६४ उपरोक्त५+भय या जुगुप्सा-६ | २४ " ., और ७ २४ सम्य. १, संज्वलन १, अन्यतम
वेद १, अन्यतम युगल २-५ ४८ उपरोक्त+भय या जुगुप्सा
. .+, और , -७ ३ ४२४ सज्वलन १, अन्यतम वेद १, ।
अन्यतम युगल २-४
उप.
उपरोक्त+भय या जुगुप्सा-५
| .. ., और , -६ | २४/ उपरोक्त वत्
गुण कुल प्रति प्रति
भंगोंका शान उदय स्थान स्थान प्रकृतियोका विवरण
विवरण का स्थान प्रकृति भग ७२४ | मिथ्यात्व, अप्रत्या, आदि तीन, | देखो, भंग
हास्य-रति या अरति शोकमें- निकालनेके से १, युगल २, अन्यतम वेद१ उपाय
संज्वलन १, अन्यतम वेद १-२ सज्वलन १
अन्यतम कषाय
|२४| उपरोक्त ७+अनन्ता. चतुष्कमें
अन्यतम १
१' संज्वलन लोभ
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
३९०
६ कर्म प्रकृतियों की उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ
७. नाम कर्मको उदय स्थान प्ररूपणाएँ
क्रम सकेत | अर्थ विवरण १. युगपत् उदय आने योग्य विकल्प तथा सकेत
1६ अंग/२ अगोपाग तीन अगोपांग तथा छह संहननमेंक्रम सकेत - अर्थ
विवरण
आदि २ से अन्यतम अगोपाग तथा अन्यतम
एक संहनन इस प्रकार इन प्रकृ१५/१२ बोदयी १२ । तेजस, कार्माण, वर्ण, गन्ध, रस,
तियोमे-से युगपत् २ का ही उदय स्पर्श, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ
होता है अगुरुलघु, निर्माण -१२
आतप/२ आतपादि २ २ | यु/ युगल ८ चारगति, पाँच जाति, त्रस-स्थावर
आतप-उद्योत, प्रशस्त-अप्रशस्त बादर सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त,सु भग
विहायो., इन दो युगलोकी चार दुर्भग, आदेय-अनादेय, यश अयश
प्रकृतियोमें-से प्रत्येक युगल की (इन ८ युगलोकी २१ प्रकृतियो में
अन्यतम एक-एक करके युगपत् २ से प्रत्येक युगलकी अन्यतम एक
ही का उदय होय |८ उच्छ/२ उच्छवासादि एक करके युगपत ८ही उदय मे
उच्छवास, सुस्वर, दु'स्वर, इनतीन आती है)
प्रकृतियोमें-से एक उच्छवास तथा
-२१ ३ आनु/१ आनुपूर्वी १ | विग्रह गतिमें चारो आनुपूर्वियोमें
अगली दोमें अन्यतम एक करके से अन्यतम एक ही उदयमें आती
युगपत् २ ही का उदय होय -३ तीर्थ।१ तीर्थ कर/१ तीर्थर प्रकृति किसीको उदय
आये किसी को नहीं ४ | श/३ शरीर आदि- औदा., वक्रि. आहा, यह तीन
शरीर ६ संस्थान, प्रत्येक-साधाको तीन
६७ रण इन ३ समूहोकी ११ प्रकृतियोंमें-से प्रत्येक समूहकी अन्यतम एक
नोट-वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श इनके २० भेदोका ग्रहण न करके केवल मूल एक करके युगपत ३ का ही उदय
४ का ही ग्रहण है, अत १६ तो ये कम हुई। बन्धन ५ व संघात ५ ये होता है
१० स्व-स्व शरीरोमे गर्भित हो गयौं, अत: १० ये कम हुई। नाम कर्म| उपधातादि १ उपघात व परघात इन दोनोमे-से
की कुल ६३ प्रकृतियों मे-से ये २६ कम कर देनेपर कुल उदय योग्य अन्यतम एकका ही उदय आवे-२ । ५
६७ रहती है, जिनके उदयके उपरोक्त विकल्प है।
-
२. नाम कर्मके कुछ स्थान व भंग प्रमाण-(प सं /मा ५/१७-१८०), (ध. १५/८६-८७); (गो.क ५६३-५६७/७६५-८०२), (गो क./मू व टी ६०३-६०५/८०६-८११);
(पं स/सं १९१२ १६८) सकेत-दे. उदय ६/७/१, कार्मण काल आदि-दे उदय ६/७/६ कुल स्थान--१२ विकल्प प्रति । प्रति
विवरण स्थान | स्थान
भगोंका विवरण प्रकृति भंग स्वामित्व
प्रकृतियोका विवरण सामान्य समुद्घात केवलीके प्रतर २०११ ध्र व/१२+ यू./८ (मनु गति, पंचें जाति- त्रस, व लोकपूर्ण का कार्माण काल
बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय. यश) =२० चारों गतियों सम्बन्धी वक्र विग्रह- २१|४| धब/१२+यु/+ आनुपूर्वी/१(अन्यतम आनु) | ४ानपूर्व में अन्यतम गतिका कार्माण काल
= २१ तीर्थकर केवलीका कार्माण काल २१ १, ध्रुव/१२+ यु+तीर्थ/१ एकेन्द्रिय अपर्याप्तके मिश्र शरीर-२४ ११ धव/१२+यु/+श/३ + उ०/१
का काल एकेन्द्रियका शरीर पर्याप्ति काल २५ उपरोक्त २४+ परघात
-२५ आहारक शरीरका मिश्र काल
ध व/१२+ यु/८+श/३+उपघात+अग/१
(आहा.)=२५ देव नारकके शरीरोका मिश्र काल २५|| ध्र व/१२ + य /+श/३ + उपघात
अंग/१ (वै कि )-२५ ८ | २६ | | एकेन्द्रियका शरीर पर्याप्ति काल २६|२ ध्र व/१२+यु./+श/३+ उपघात+ परघात आतप उद्योतमें
+आतप या उद्योत
अन्यतम एकेन्द्रियका उच्छ्वासपर्याप्ति काल २६/११ धब/१२+यु.//+श/३+उपघात+
परघात+उच्छवास
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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उदय
६.कर्म प्रकृतियो की उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं
विवरण
विकल्प
प्रति प्रति स्थान | स्थान | प्रकृति' भग
भंगोंका विवरण
स्वामित्व
प्रकति
प्रकृतियोका विवरण
। २७
२८ ।
१७
२६ ।
२०
२.५ इन्द्रिय सामान्य तिर्य मनु.ब २६६ ध्र व/१२+यु+श/३+ उपघात+ औदा. अन्यतम संहननसे निरतिशय केवलीका औदारिक
अगोपाग+ अन्यतम संहनन २६ भंग होते है मिश्र काल आहारक शरीर पर्याप्ति काल २७
ध्रब/१२+ यु/८+श/३+ उपधात+
परघात+आहा.अग+प्रशस्त विहायो -२७ तीर्थ कर समुद्धात केवलीका औ २७ | १/ धब/१२ + यु/८+श/३+ उपघात+औ. मिश्र काल
अग+ बज्र मषभ नाराचसहनन + तीर्थ कर-२७ देव नारकी का शरीर पर्याप्ति काल २७ / २६व/१२+यु/८+श/३+ उप.+परघात+वै कि. प्रशस्त अप्रशस्त अग+देवके प्रशस्त व नारको के अप्रशस्त बिहायो,
विहायो में अन्यतम एकेन्द्रियका उच्छ. पर्याप्तिकाल २७२ ध्र व/१२+ यु+श/३+ उपघात+परघात | आतप उद्योतमें
+उच्छ्वास+ आतप या उद्योत -२७ अन्यतम सामान्य मनुष्य और मूलशरीरमें २८ १२ ध्रुव/१२+ यु/८+श/३+उपघात+परपात ६ सहनन४२ विहायो प्रवेश करता सामान्य केवलीका
औ अग+ अन्यतम सहनन+अन्यतम | में अन्यतम युगल शरीर पर्याप्ति काल
विहायो
-२८ २-५ इन्द्रियका शरीर पर्याप्ति काल २८२ धब/१२+ यु/८+श/३+ उप + परघात+औ अंग २ विहायोगतिमें
+असंप्राप्त सृपाटिकासहनन+अन्यतम विहायो अन्यतम आहारकका उच्छ्वास पयः प्ति २८१ ध्र व/१२+ यु/८+श/३+ उपघात+ परघात
+ आहा अग+ उच्छ्वास + प्रशस्त विहायो. देव नारकीका उच्छवास पर्याप्ति २८२५ ब/१२+ यु/+श/३+ उपघात+परघात+
| २ विहायो में काल | वैकि अग+ उच्छवास + देवकी प्रशस्त और
अन्यतम नारकीकी अप्रशस्त विहायो. सामान्य मनुष्य व मुल शरीरमें २६१२ धुव/१२ + यु/+श/३+उपघात+परघात
६ स हननx२ विहायो प्रवेश करते केवलीका उच्छवास औ, अंग+ अन्यतम संहनन + अन्यतम
में अन्यतम युगल पर्याप्ति काल
विहायो + उच्छवास २-५ इन्द्रियका शरीरपर्याप्ति काल २९ | २ ध्रुव/१२+ यु./८ + श/३ + उपघात + परघात
२विहायोमें अन्यतम +उद्योत+औ. भग+ अस प्राप्त सुपाटिका
संहनन+ अन्यतम विहायो २६ २-५ इन्द्रियका उच्छ्वासपर्याप्ति काल 8 | २ | उपरोक्त २६-उद्योत + उच्छ्वास २६ समुद्धात तीर्थंकरका शरीर पर्याप्त-२818| धव/१२+ यु/८+श/३+ उपघात+ परघात काल
+औ.अंग+वज्र ऋषभ नाराच संहनन+
प्रशस्त विहायो + तीथ कर -२६ आहारक शरीरका भाषा पर्याप्ति २६ | १] धुव/१२+ यु/+श/३+उपधात+परधात+ काल
आहा अंग+ उच्छवास+प्रशस्त विहायो,
+सुस्वर देव नारकीका भाषा पर्याप्ति २६ | २ | धब/१२+ यु./८+श/३+ उपधात+ परघात
देव व नारकीके दो काल
+वैक्रि. अग+ उच्छवास+देवकी प्रशस्त विकल्प और नारकीकी अप्रशस्त विहायो.+देवका
सुस्वर और नारकीका दुःस्वर -२६ २-५ इन्द्रियका उच्छ्वास पर्याप्ति ३०२ धव/१२ + यु./८+श/३+ उपघात+परघात
२ विहायो.में काल +उद्योत + औ. अग+ असंप्राप्त सूपाटिका
अन्यतम सहनन+ अन्यतम विहायो.+उच्छ्वास-३० २-४ इन्द्रिय तथा सामान्य पंचे- ३०। ४ धब/१२+ यु./८+श/३+ उपघात+परघात । २विहायो व २स्वर न्द्रिय व सामान्य मनुष्यका भाषा
औ. अग+ स्पाटिका संहनन + अन्यतम- में अन्यतम पर्याप्ति काल
विहायो+उच्छ्वास + अन्यतम स्वर ३० । समुद्धात तीर्थ करका उच्छ्वास
धव/१२+ यु./८+श/३+उपधात+परघात । पर्याप्ति काल
+औ. अग+वज्र ऋषभ नाराच+प्रशस्त
विहायो.+तीर्थ +उच्छ्वाम -३० सामान्य समुद्धात केवलीका भाषा ३०२ उपरोक्त विकल्पको ३०-तीर्थकर + अन्यतम स्वर २ स्वरों में अन्यतम | पर्याप्ति काल
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उदय
३९२
६.कर्मप्रवृतियोंकी उदय व स्वयस्थान प्रापणाएँ
सं.
प्रकति
विवरण विकल्प प्रति प्रति स्थान | स्थान
भंगों का विवरण स्वामित्व
प्रकृतियो का विवरण प्रकृति भग २६ | ३१ | ५ | तीर्थङ्कर केवलीका भाषा पर्याप्ति ३१ | १| ध्रुव/१२+ यु/+ श/३+ उपघात + परघात+ काल
औ अग+बज्रऋषभ नाराच+प्रशस्त बिहायो,
+तीर्थङ्कर+उच्छवास+सुस्वर -३१ २-५ इन्द्रियका भाषा पर्याप्ति काल ३१४ ध्रुव/१२+ यु./८+श/३+ उपघात + परघात २विहायो.व २स्वरों
+उद्योत+औ. अंग+सृपाटिका+अन्यतम- में अन्यतम युगल
विहायो + उच्छवास+अन्यतम स्वर -३१ अयोग केवली सामान्यके उदय ८१ मनु गति+पचेन्द्रिय जाति+सुभग+आदेय योग्य
+यश को ति + त्रस+बादर पर्याप्त ३२ ।
अयोग केवली तीर्थङ्करके उदय योग्य ६१ उपरोक्त विकल्पकी ८+तीर्थ डूर - ३.५ नाम कर्म उदय स्थानोकी ओघ आदेश प्ररूपणा LI
क्रम मार्गणा स्थान कुल नोट-प्रत्येक स्थानमें प्रकृतियोंका विवरण देखो इसी प्रकरणका नं.२
स्थान विशेष
स्थान "नाम कर्म के कुल स्थान व भग"। प्रति स्थान भग यथायोग्य रूपसे लगा लेना। विशेषके लिए दे आगे उदय कालोंकी अपेक्षा सारणीनं.७ । ५. उदय स्थान आदेश प्ररूपणा
प्रमाण सामान्य (पं.सं./प्रा.ब.सं), (गो, क.७१२-७३८/८८१/८३८); कुल क्रम गुण स्थान
स्थान विशेष
१. गति मार्गणा-(प.स./प्रा५/१७-११० ४१६-४२५) (पं.स./स/ | स्थान
११२-२२०. ४३१-४३६) ३. उदय स्थान ओघ प्ररूपणा
नरक गति
| २१,२५,२७,२८,२६ (पं.सं./प्रा.५/४०२-४१७).(गो.क ६९२-७०३/८७२-८७७);(पं.स/स.५/४१६-४२८२
२१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ १मिथ्यात्व ६ । २१.२४.२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ | ३ | मनुष्य गति
२०,२१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ २ सासादन २१,२४,२५,२६,२६,३०,३१
८.६, सम्यग्मिध्याव २९,३०,३१
४ | देव गति (५ । २१,२५,२७,२८,२६ अविरत सम्य.
२१.२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ २ इन्द्रिय मार्गणा-(५. सं./प्रा. ५/१९२-१६४, ४२६-४३१); (पं. सं./ ५. विरताविरत ३०,३१
सं.१/४३७-४४१) प्रमत्त संयत २५,२७,२८,२६.३० १. एकेन्द्रिय सामान्य
२१,२४,२५,२६,२७ अप्रमत्त संयत
२ विकलेन्द्रिय . ६ । २१,२६,२८,२६,३०,३१ अपूर्व करण
३/ पचेन्द्रिय
| १० २१,२५,२६,२७,२८,२९,३०,३१,६८ अनिवृत्ति करण
३ काय मागणा-(पं सं./प्रा./१६५४३२-४३४) सूक्ष्म साम्पराय
१| पृथिवी, अप. बनस्पति ५ । २१,२४,२५,२६,२७ उपशान्त कषाय
२ तेज वायु कायिक । ४ । २१,२४,२५,२६ क्षीण कषाय
३ | त्रस
१० । २१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१,६,८ सयोग केवली सामान्य
४. योग मार्गणा-(पं. सं./प्रा. ५/१६६-१६६, ४३५-४४०) सयोग केवली तीर्थङ्कर । १
१। चारो मनोयोग ३ | २६,३०,३१ (५चेन्द्रिय संज्ञी १४ | अयोग केवली सामान्य । १ ।
पर्याप्त वव) | अयोग केवली तीर्थकर ।
|२ सत्य असत्य उभय वचन ३ । २६,३०,३१ (पंचेन्द्रिय संज्ञी
स्थान विशेष जीव समास
पर्याप्त वत्) स्थान
अनुभव वचन योग
२६,३०,३१ (वस पर्याप्त वत)
४ औदारिक काय योग २५,२६,२७,२८,२९,३०,३१, (स ४. उदय स्थान जीव समास प्ररूपणा
पर्याप्त वद) (पं.सं./प्रा./२६८-२८०); (गो.क.७०४-७११/८७८-८८१)
५ औदारिक मिश्र काययोग २४,२६,२७ (सातों अपर्याप्त बत) १ लब्ध्यपर्याप्त :
६ कार्माण काय योग
२०,२१ सूक्ष्म बादर एकेन्द्रिय २१,२४ | वैक्रियक काय योग
२७,२८,२६ विकलेन्द्रिय २१,२६
८ वैक्रिय, मिश्र काय योग १ संज्ञी असंज्ञी पंचे,
है | आहारक काय योग ३ । २७,२८,२४ पर्याप्त
१० | आहारक मिश्र योग । १ । २५ सूक्ष्म एकेन्द्रिय
२१,२४,२५,२६ मादर एकेन्द्रिय २१,२४,२५,२६,२७
५ वेद मार्गणा-(पं. सं./प्रा./२००, ४४१) विकलेन्द्रिय २१,२६,२८,२६३१
१. स्त्री वेद
। ८ । २१,२५,२६,२७,२८,२९,३०,३१ असंही पचेन्द्रिय
२ पुरुष वेद मंज्ञी पंचेन्द्रिय २१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ ३ नपुंसक वेद
ह । २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१
२५
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उदय
३
६. कर्म प्रकृतियो की सदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं
कम मार्गणा स्थान | कुल
स्थान विशेष
क्रम मार्गणा व स्थान
स्थान विशेष | स्थान।
स्थान | ६. कषाय मार्गणा-(पं.सं./प्रा. ५/२००, ४४२)
। १०.लेश्या मार्गणा-(पं. स./प्रा २०४:४५५-४५८) १। क्रोधादि चारो कषाय । १
१ | कृष्ण नील कापोत । २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१
| २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ २ पीत, पद्म
२१,२५,२७,२८,२६,३०,३१ ७ ज्ञान मार्गणा-(पं. सं./प्रा. ५/२०१, ४४३-४४६)
३ | शुक्ललेश्या सामान्य १ मत्ति श्रुत अज्ञान । | २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ |
(केवली समुद्धात) ८ । २०,२१,२५२६,२७,२८,२६,३०,३१ २ विभ ग ज्ञान
२६,३०,३१
| ११. भव्य मार्गणा-(प सं./प्रा २०५, ४५१-४६०) ३ | मति श्रुत अवधि ज्ञान । ८ । २१.२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ | भव्य
१२ | २०,२१,२४,२५,२६,२७,२८, ४ मन पर्यय ज्ञान
| २६,३०,३१,६८ ५ केवल ज्ञान । १० । २०,२१,२६,२७,२८,२६,३०,३१,६८२ अभव्य
। २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ ८.संयम मार्गणा-(पं. स./प्रा ५/२०२-२०३, ४४७-४५३)
१२. सम्यक्त्व मार्गणा-(पं.सं./प्रा. ५/२०५-२०६, ४६१-४६६) १ क्षायिक सम्यक्त्व
। २०,२१,२५,२६,२७,२८,२६,३० १ सामायिक छेदोपस्था. । २५,२७,२८,२६,३०
३१,६८ २ परिहार विशुद्धि
वेदक
| २१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ सूक्ष्म साम्पराय
| उपशम
२१२५,२६,३०,३१ ४| यथा ख्यात (दृष्टि नं.)। ३०,३१,६८
सम्यग्मिथ्यात्व
२६,३०,३१ (दृष्टि नं.२) १० २०,२१,२६,२७,२८,२६,३०,३१,६८
सासादन
२१,२४,२५,२६,२६,३०,३१ ५ देश संयम
३०,३१
६ मिथ्या दृष्टि
६ । २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ 'असंयम २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०३१
१३. सही मार्गणा-(स/प्रा. ५/२०६, ४६७-४६९) १. दर्शन मार्गणा-(पं. सं./प्रा. ५/२०३-२०४; ४५४)
१। सो
| २१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ १४ चक्षु दर्शन ८ । २१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१
२। असंही
। २१,२४,२६,२८,२६,३०,३१ २ | अचक्षु दर्शन ६ २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१
| १४. आहारक मार्गणा-(पं स /प्रा.५/२०७, ४७०-४७२) ३ | अवधि दर्शन
२१,२५,२६,२७,२८,२९,३०,३१ आहारक | ८ । २४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ ४ केवल दर्शन १० । २०,२१,२६,२७,२८,२६,३०,३१६८२ अनाहार सयोगी
२०,२१
अयोगी २ ६८ ६. पाँच उदय कालोकी अपेक्षा नामकर्मोदय स्थानोंकी चतुर्गति प्ररूपणा (पं स /प्रा. ५/१७-१६०); (ध, २,१,११/७/३३-५६); (घ, १५१८१-६७): (गो.क. ६६२-७३८/८८१-८६४), प सं./सं.१/११२-२२०)
३०
m G. Kn
घसा मार्गणा । उदय काल
भंग
-२८
प्रमाण पं.सं. उदय काल प्रकृतियोंका विवरण
भगोका विवरण गा १. नरक गति युक्त-उदय योग्य-३०; उदय स्थान-५ (२१,२५,२७,२८,२९); कुल भंग-५ ६६ । नारक सामान्य कार्माण काल | २१, १ | नरक गति, पंचे. जाति, तैजस कार्माण शरीर, वर्ण,
गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश कीर्ति,
निर्माण -२०+नारकानपूर्वी मिश्र शरीर .. २५ १ उपरोक्त २० वैकि द्वि, उपघात, हुंडक, प्रत्येक =२५ शरीर पर्या... २१ उपरोक्त २५+परवात, अप्रशस्त विहायो उच्छ्वास ..
उपरोक्त २७+उच्छवास | भाषा पर्या. .. २६/ १ । उपरोक्त २८+दुस्वर २. तिर्यच गति युक्त-उदय योग्य-५३; उदय स्थान -९ (२१,२४,२५,२६,२७,२८,२९,३०,३१); कुल भंग-४९९२ ११२ । एकेन्द्रिय सामान्य-उदय योग्य-३२, उदय स्थान-५ (२१,२४,२५,२६,२७); कुल भंग-२४ +८-३२
| आतप उद्योत रहित एकेन्द्रिय-उदय योग्य-३१, उदय स्थान-४ (२१,२४,२५,२६); कुल भ ग-२४ ।। ११० उपरोक्त सामान्य कार्माण काल | २१ ५ तिर्य गति, एके जाति, तैजस कार्माण शरीर, अगुरुलघु, । यश के साथ केवल मादर-१
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयश के साथ बादर, सूक्ष्मके दुर्भग, अनादेय, निर्माण-१६+ (सूक्ष्म-बादर, पर्याप्त- पर्याप्त अपर्याप्त इस प्रकार-४ अपर्याप्त, यश-अयश) इन ३ युगलों में अन्यतम एक एक
१+४-५ तथा स्थावर यह ४ । १६+४-२०+ तिर्यगानुपूर्वी २१ । मिश्र शरीर, २४ उपरोक्त २०+ औ शरीर, हुंडक, उपघात, प्रत्येक या । अयशकी उपरोक्त ४xप्रत्येक व साधारण
-२४ साधारण+यशके साथ केवल
| प्रत्येक
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उदय
६.कर्म प्रकृतियों की उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं
4.स./
मार्गणा |
उदय काल
थान
प्रकृतियोंका विवरण
भंगोका विवरण
मिश्र शरीर , २४ २*
-२४
शरीर पर्या.
२६]
४
शरीर पर्या काल, २१ उपरोक्त १६+पर्याप्त (सूक्ष्म बादर, यश-अयश) इन २ | अयशके साथ सूक्ष्म, बादर,
| युगलाम अन्यतम एक-एक, स्थावर, औदा. शरीर. प्रत्येक साधारणके ४ भग तथा । हडक, उपघात, परघात, प्रत्येक या साधारण =२५ / यश के साथ बादर प्रत्येकका
केडन एक भग उच्छवास, २६| ५ उपरोक्त २५+ उच्छवास
। २४ । उदय योग्य ३०, उदय स्थान-४ (११,२४,२६,२७), कुल भग-८+४ पुनरुक्त-१२ आतप उद्योत | कार्माण काल | २१, २. (उद्योत रहित की उपरोक्त १६ - बादर, पर्याप्त, स्थावर, ) यश या अयश सहित एकेन्द्रिय 1 तिर्यगानुपूर्वी
-२० सामान्य यश या अयश
=२१ | (ये भग ऊपर कहे जा चुके है) * | उपरोक्त २१+ औ. शरीर, हुंडक, उपघात,
प्रत्येक २५- तिर्य, आनु.
उपरोक्त २४+ परघात, आतप या उद्योत -२६ / यश, अयशxआतप, उद्योत उच्छवास ,,,, २७ उपरोक्त २६+उच्छवास
-२७ । ___ *नोट -२१ व २४ के दो दो भग आतप उद्योत सहित एकेन्द्रियमे गिने जा
चुके है अत' पुनरुक्त हैं। विकलेन्द्रिय सामान्य-उदय योग्य-३४ उदय स्थान-६ (२१,२६,२८,२६,३०,३१), कुल भंग-५४ १२२ । उद्योत रहित | सामान्य |५| १६ | उदय स्थान-५ (२१,२६,२८,२६,३०); भंग-१२४ ३३६
उद्योत सहित | सामान्य | १८ | उदय स्थान-५ (२१,२६,२६,३०,३१, भग-६४३-१८ उद्योत रहित | कार्माण काल २१ ३ तिर्य, गति, द्वीन्द्रिय जाति, तैजस कार्माण शरीर, । अयशके साथ पर्याप्त, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, स. बादर, स्थिर, २ भग और यशके साथ केवल अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, निर्माण यह | पर्याप्तका १भंग १८+ पर्याप्त या अपर्याप्त, यश या अयश इस प्रकार
२०+तिर्य आनु मिश्र शरीर २६
उपरोक्त २० (२१-आनु.)+औ. शरीर. हुडक, सपाकाल
टिका, औ. अंगोपांग, प्रत्येक, उपघात, २६ शरीर पर्याप्ति २८
२ । उपरोक्त २१ में से १८+ पर्याप्त, उपघात, औ. शरीर यश या अयश सहित काल
अंगोपांग, हुडक. सृपाटिका, प्रत्येक, परघात, अप्रशस्त विहायो यश या अयश
२८ उच्छवास पर्या.२६
२ उपरोक्त २८+उच्छ्वास
उपरोक्त २६+दुःस्वर
२*
२*
१३१] उद्योत सहित कार्माण काल
उद्योत रहित उपरोक्त १८+ पर्याप्त, तिर्यगानु, यश या | यश या अयश सहित द्वीन्द्रिय
अयश मिश्रशरीर काल २६
उपरोक्त १८+ पर्याप्त, औ. शरीर, अंगोपांग, हुडक, सृपाटिका, प्रत्येक, उपघात, यश या अयश
(यह २,२ भंग उद्योत रहितमें
आ चुके है) शरीर पर्याप्ति ,
उपरोक्त २६ + परधात उधोत. अप्रशस्त विहायो.-२६ । यश व अयश सहित उच्छवास ," उपरोक्त २६+ उच्छवास
-३० उपरोक्त ३०+दुःस्वर *(२१ व २६ के दो-दो भंग उद्योत सहित द्वीन्द्रियमें
गिना दिये गये है अत' पुनरुक्त हैं।) त्रीन्द्रिय चतुद्वीन्द्रियवद
द्वीन्द्रियवद रिन्द्रि. उद्योत रहित
उद्योत सहित पंचेन्द्रिय सा.-उदय योग्य-३६ उदय स्थान-६ (२१,२६,२८,२६,३०,३१); कुल भंग-४१०६ १३८ उद्योत रहित-उदय योग्य-३८, उदय स्थान-५ (२१,२६,२८,२६,३०): भंग-२६०२
उद्योत सहित-उदय योग्य-३, उदय स्थान-५ (२१,२६,२६,३०,३१); भंग-२३०४
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-
मार्गणा । उदय काल
SA
स्थान
भंग
१४२/
कुल भग
उदय
३९५ ६. कर्म प्रकृतियो की उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं प्रमाण पंस उदय काल प्रकृतियोंका विवरण
भगौंका विवरण गा | १३६ | उद्योत रहित कार्माण काल २१ तिर्य गति, पचेन्द्रिय जाति, तैजस कामणि शरीर, वर्ण, । पर्याप्तके साथ तो सुभग, यश पंचेन्द्रिय
गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, त्रस, बादर, स्थिर, अस्थिर, | व आदेय इन तीन युगलोंमें-से शुभ, अशुभ, निर्माण, १६+सुभग-दुर्भग, यश-अयश, कोई भी एक-एकका उदय पर्याप्त-अपर्याप्त. आदेय-अनादेय इन ४ युगलोमें अन्य- सम्भव है अत् पर्याप्तके भग'तम एक-एक-२०+तिर्यगानुपूर्वी
२४२४२-८ और अपर्याप्तके साथ केवल दुर्भग, अयश व
अनादेयका एक भग ६ । मिश्रशरीर काल/२६ / २८१ । उपरोक्त २०+ औ शरीर, अंगोपांग, ६ सस्थानी में-से । उपरोक्त पर्याप्तके Ex६x६-२८८ अन्यतम, छ सहननोमें-से अन्यतम, उपधात, प्रत्येक । अपर्याप्तका उपरोक्त १ सपाटिका
| व हुडकके साथ केवल १ भंग | शरीर पर्या काल २८७६ (२१ वाले स्थानकी उपरोक्त १६+ पर्याप्त, सुभग दुर्भग, पयप्तिके उपरोक्त २८८४२
यश-अयश, आदेय-अनादेयमै-से अन्यतम एक-एक | विहायोगति करके तीन, प्रशस्त या अप्रशस्त बिहायो. में अन्यतम. परघात, औ. शरीर, अंगोपाग, ६ संस्थानोमें अन्यतम.
६ सहननो में अन्यतम, उपघात, प्रत्येक -२८ १४७ उच्छवास पर्या. २६५७६ उपरोक्त २८+ उच्छ्वास
-२६ काले भाषा पर्या काल|३० | १९५२ | उपरोक्त २६ + सुस्वर-दु स्वरमें अन्यतम
-३० । उपरोक्त ५७६४२ स्वर-११५२ | २६०२ उद्योत सहित कार्माण काल २१ उद्यात रहित पंचेन्द्रिय बत परत्तु अपर्याप्तके भग रहित पिसिमित मानो १चेन्द्रिय मिश्र शरीर ,,२६२८८
उपरोक्त २१+ उपघात, प्रत्येक व६ सस्थान, ६ संहननमें उपराक्त २१+3
उपरोक्त ८x६x६ (सस्थान, अन्यतम
सहनन)
-२८८ शरीर पर्या. .. २६/६७६ उपरोक्त २६+ परधात, उद्योत, प्रशस्ताप्रशस्त विहायो.
उपरोक्त२८८x२ बिहायो-५७६ में अन्यतम उच्छवास पर्या ३० १७६
उपरोक्त २६ + उच्छवास काल भाषा पर्या काल ३१११५२ / उपरोक्त ३०+सुस्वर या दुस्वर
-३१ उपरोक्त ५७६xस्वर द्वय- १९५२ -- *(२१ व २६ वाले दोनोंके भग उद्योत रहित पंचेन्द्रियमें सर्व भंग -२० गिना दिये जानेसे पुनरुक्त है। अत यहाँ नही जोडे) ३ मनुष्य गति १५६ मनुष्य सामान्य-उदय योग्य-४६; उदय स्थान-११ (२०,२१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१,८,९); कुल भग २६०४ १५७ आहारक शरीर रहित मनुष्य-उदय योग्य-४७उदय स्थान-५ (२१,२५,२८,२६,३०), कुल भग-२६०२ | कार्माण काल २१६ । मनुष्य गति, पंचं जाति तैजस कार्माण शरीर, वर्ण, । पर्याप्तके साथ तो सुभगादि तीन
| गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, स्थिर, अस्थिर, युगलोमे अन्यतम होते है २४
शुभ, अशुभ, निर्माण = १६+ सुभग-दुभंग, यश-अयश, २४२८८ भंग और अपर्याप्तके पर्याप्त अपर्याप्त, आदेय-अनादेयमें अन्यतम २०+ मनु. केवल दुर्भग, अयश व अनादेय आनु.
-२१ सहित मिश्रशरीर काल २६ | २८६ | उपरोक्त २० (२१-आनु.)+ औदा. शरीर व अंगोपांग | पर्याप्तके उपरोक्त ६x६संस्था.x | उपधात, प्रत्येक, ६ संस्थान ब ६ सहननमें अन्यतम । ६संहनन-२८८ तथा अपर्याप्त
का केवल उपरोक्त १ सृपाटिका
व हूँ'डक सहित -२८४ शरीर पर्या,काल/२८ ५७६ २१ वाले स्थानमें उपरोक्त १६+पर्याप्त, परघात-१८+ सुभग यश, आदेय, संस्थान,
सुभग-दुर्भग, यश-अयश, आदेय-अनादेय. ६ सस्थान, सहनन, विहायो; इन युगलों६ सहननमें अन्यतम, औ शरीर अगोपांग, उपधात, । के परस्पर गुणनसे २x२x२x प्रत्येक, अन्यतम बिहायो.
|६x६x२ उच्छवास पर्या.२६ | ५७६ | उपरोक्त २८+ उच्छ्वास काल भाषा पर्या.काल ३० | १९५२ | उपरोक्त २६+ सुस्वर या दुस्वर
-३० उपरोक्त ५७६ स्वरद्वय-१९५२
-२६
२६०२
जैनेन्द्र सिद्धन्त कोश
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उदय
३९६
६. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदययस्थान प्ररूपणाएं
प्रमाण
पं.स.
मार्गणा
उदय काल
उदय काल
स्थान
भंग |
प्रकृतियों का विवरण
भंगों का विवरण
गा
।
१७० आहारक शरीर सहित मनुष्य-उदय योग्य-२६, उदय स्थान = ४ (२५,२७,२८,२६), भग-४ १७१ । | मिश्र शरीर काल | २५॥ १। मनु, गति, तैजस कार्माण शरीर, पंचे. जाति, आहारक७
| शरीर, अगो., वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, उपघात, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, आदेय, त्रस, पर्याप्त, भादर,
प्रत्येक, समचतुरस्र संस्थान, सुभम, यश, निर्माण -२५ शरीर पर्याप्ति काल | २७ उपरोक्त २५+ परघात, प्रशस्त विहायो, उच्छ्वास ,, , | २८ उपरोक्त २७+ उच्छ्वास
-२८ भाषा , २६ १ उपरोक्त २८+सुस्वर
केवली मनुष्य-उदययोग्य-३१, उदय स्थान-४ (३१,३०,६८) १७६ तीर्थकर सयोगी
३१) १ । मनु गति, पंचे.जाति, औ.शरीर, अगोपांग, तैजस कार्माण
शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, समचतुरस्र सस्थान, वज्र' ऋषभ नाराच सहनन, अगुरुलघु, उपधात, परघातउच्छवास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, प्रशस्त विहायो., शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, यश कीति,
निर्माण, आदेय, तीर्थ कर सामान्य सयोगी
उपरोक्त ३५-तोथंकर १७६ तीथंकर अयोगी
मनुष्य गति, पंचे. जाति, सुभग, प्रस, बादर, पर्याप्त, १८० सामान्य अयोगी
आदेय, यश, तीथंकर उपरोक्त ६-१
४
-२६
समुद्रात गत केवली (घ.७/२,१,११/५५-५६) सामान्य केवली | प्रतर व लोकपूर्ण | २० १ मनुष्य आहारक रहितकी २१ स्थानकी१६+पर्याप्त, सुभग,
शरीर पर्याप्ति काल - आदेय, यश. तीथंकर ,
उपरोक्त २०+ तीर्थङ्कर सामान्य , कपाट गत.. २६ है | उपरोक्त २०+औ.द्वि.,६ संस्थानमें एक, वज्र, उप. प्रत्येक | ६ संस्थानमें अन्यतम
शरीर पर्याप्ति काल तीर्थङ्कर .
२७ १ उपरोक्त २६ (परन्तु केवल एक समचतुरस्र संस्थान) समचतु. ही संस्थान है +तीर्थङ्कर
२७ सामान्य, दंड गत
उपरोक्त २६+ परघात, २ विहायो.में अन्यतम २८६ संस्थानx२ विहायो शरीर पर्याप्ति काल | तीर्थङ्कर ,
| २६ १ | उपरोक्त २८ (परन्तु केवल एक शुभ संस्थान व विहायो.) शुभ ही संस्थान व +तीर्थङ्कर
विहायो सामान्य , उच्छ्वास पर्या, काल २१ १२ उपरोक्त २८ + उच्छ्वास
==२६६ संस्थानx२ विहायो. तीर्थङ्कर , .
३०१ | उपरोक्त २६ (परन्तु केवल एक शुभ संस्थान व विहायो.)। शुभ ही संस्थान व | सर्व भंग ३५ + तीर्थङ्कर
बिहायो, ४. देवगति-उदय योग्य-३०, उदय स्थान -५ (२१.२१,२७,२८,२६); भग-५ देवगति सामान्य कार्माण काल २१ १ । देवगति, पंचे. जाति, तैजस कार्माण शरीर, वर्ण, गन्ध,
रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यश, निर्माण, देवआनु
=२१ मिश्रशरीर पर्या. काल २५ १ उपरोक्तम-से पहली २०+वैक्रि. द्वि , उपघात, सम
/ चतुरस्र, प्रत्येक शरीर पर्या., २७
उपरोक्त २५+ परघात, प्रशस्त विहायो. उच्छवास ,, , २८ उपरोक्त २७+ उच्छ्वास भाषा , |२६ १ उपरोक्त २८+सुस्वर
सर्व भंग
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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उदय
७. पांच उदय कालोकी अपेक्षा नामकर्मोदय स्थानोंकी सामान्य प्ररूपणा संकेत '-१. कार्माण काल-विग्रह गतिका काल; कार्माण शरीरका काल: प्रतर व लोक पूरण
समुद्घातका काल २. मिश्र शरीर काल-आहार ग्रहणसे शरीर पर्याप्ति तकका काल ३. शरीर पर्याप्ति काल-शरीर पर्याप्तिसे उच्छवास पर्याप्ति तकका काल ४ उच्छ्वास पर्याप्ति काल - उच्छवास पर्याप्तिसे भाषा पर्याप्ति तकका काल
(गो.क.६०३-६०५/८०६-८११)
५. भाषा पर्याप्ति काल-भाषा पर्याप्तिमे आयुके अन्त तकका काल ६. स्थान-स्थान विशेषमें कितनी प्रकृतियोका उदय है। ७. भग-प्रति स्थान अक्ष परिवर्तनसे कितने भंग बनने सम्भव है। ८.विकल्प सं. दे. इसी प्रकरणकी सारणी सं.२ नाम कर्मके कुल स्थानोंकी प्ररूपणामें
कोष्ठक स.१ में डाले गये ६.x - यह काल सम्भव नहीं
कार्माण काल
मिश्र शरीर काल
शरीर पर्याप्ति काल । उच्छवास पर्याप्ति काल
भाषा पर्याप्ति काल
मार्गणा या समास
be
स्थान
FEE विशेष
विशेष
द विकस
विशेष
विशेष
- भंग
विशेष
विशेष
" विकल्प
bebebi
स्थान
विशेष
| विशेष
स्थान
२४
:
:
xxx
"11
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
X
२८
१ १७ प्रकार ल. अप |२| २११ तिर्य अग्नु
२ आतप-उद्योत बन साधारण सूक्ष्म . . "
६२६१ 1 व आदर पर्याप्त
पृथिवी, अप, तेज, ३रबायु.वन अप्रतिष्ठित " | ""
। प्रत्येक सू पर्याप्त ४ उपरोक्त मार्गणा बा पर्या....|२| यश या अयश " |..२ यश या अयश ८२६४ यश या अयश
"..२ यश या अयश
xआतप या उद्योत ॥२-४ इन्द्रिय अप ,
२६२ सृपाटिका+ १६ २८२ अप्रश.विहाx
२१ | २६/२ | अप्रश, बिहा. २६ | ३०२ द स्वरx ५। असंज्ञीपंचेन्द्रियअप ।
यश-अयश | २०२६२ यश या अयश
२५ ३०२ :यश या अयश ३० ३१२ यश या अयश ६ संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्या ...,
"., २८ पूर्वोक्त ex १५ २८५७६) पूर्वोक्त २८८ १६ | २६/५७६/ पूर्वोक्तवत्
३० पूर्वोक्त'५७६४२ ४ यु के विशेष ६ संस्थानx ४२ विहायो.
स्वर ||६ संहनन नोट -न.४,५,६ के उद्योत सहित व उद्योत रहित के दो दो स्थान बन जाते है। भग यथा योग्य लगा लेना। ७] मनुष्य १२ २१ | ८ |यु/में ४ युग के विशेष,१० २६ २८८ पूर्वोक्त ८४६ संस्थान १५ | २८५७६ पू:क्त २८८ १ ६/२६ ५७६, पूर्वोक्त वद
पूर्वोक्त ५७६ x६ संहनन ११ २७१४२ बिहायो.
१४२ स्वर आहार शरीर युक्त मनु.
x६R५१ | सामान्य केवली १२० | १|
२ स्वर १० तीर्थङ्कर केवली ३२११ ११ समुद्धातगत सामान्य केव
२ स्वर " तीर्थ । नारकी | २२१/१
२८/१ केवल अप्रशस्त | केवल अप्रश.
१ | केवल अप्रशस्त १४ देव १५ | सामान्य अयोग केवली |
" " प्रशस्त " "" " प्रशस्त
" प्रशस्त १६ तीर्थ कर ,
१
१७ २८
३९७ ६. कर्म प्रकृतियोंका उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ
xx
xx
xx
rrora:--
xx
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उदय
३९८७
उदय उदीरणा व बन्धकी सयोगी स्थान प्ररूपणाएँ
८ प्रकृति स्थिति आदि उदयोंकी अपेक्षा ओघ आदेश
प्ररूपणाओंकी सूचीध १५/२८८ प्रकृति उदयका नानाजीवापेक्षा भग त्रिचय, सन्निकर्ष व
स्वामित्वादि। घ. १५/२८६ मूल प्रकृतियोकी स्थिति के उदयका प्रमाण । ध१५/२६२ मूल प्रकृतियोके स्थिति उदयका नानाजीषापेक्षया भगविचय ध १५/२६३ उपरोक्ताका नाना जीवापेक्षा सन्निकर्ष । ध १५/२६४ उत्तर प्रकृतियोके स्थिति उदयका प्रमाण । ध. १५/२६५ उपरोक्तका नाना जीवापेक्षा भग विचय । ध. १५/३०६ उपरोक्तका नाना जीवापेक्षा सन्निकर्ष । ७ उदय उदीरणा व बन्धकी संयोगी स्थान प्ररूपणाएँ १ उदयव्युच्छित्तिके पश्चात् पूर्व व युगपत् बन्ध
व्युच्छित्ति योग्य प्रकृतियाँ पं.स/प्रा ३/६७-७० देवाउ अजसकित्ती बेउव्याहार-देवजुयलाइ । पुठवं उदओ णस्सइ पच्छा अन्धा वि अहह ।६७। हस्स रइ भय दुगुछा सुहुम साहारण अपज्जत । जाइ-चउक्के थावर सव्वे व कसाय अत लोहूणा ।६८ पु वेदो मिच्छत्तं णराणुपुठवी य आयव चेव । इकतीस पयडीण जुगव मंधुदयणासो त्ति।६। एक्कासी पयडोणं णाणावरणाइयाण सेसाण । पुर्व बधो छिज्जइ पच्छा उदओ त्ति णियमेण ॥७०। -देवायु, अयश कीर्ति, वैक्रियक्युगल (अर्थात वैक्रियक शरीर व अंगोपॉग), आहारक्युगल और देवयुगल (गति व आनुपूर्वी), इन आठ प्रकृतियोका पहिले उदय नष्ट होता है, पीछे बन्धव्युच्छित्ति होती है ।६हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, एकेन्द्रियादि चार जातियाँ, स्थावर, अन्तिम स ज्वलनलोभके बिना सभी कषाय (१५), पुरुषवेद,मिथ्यात्व, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और आतप इन इकतीस प्रकृतियोके बन्ध और उदयका नाश एक साथ होता है । ६८-६६। शेष बची ज्ञानावरणादि कर्मोकी इक्यासी प्रकृतियोकी नियमसे पहिले बन्ध व्युच्छित्ति होती है और पीछे उदयव्युच्छित्ति होती है। (ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ६, वेदनीय २, सज्वलन लोभ, नपुसकवेद, अरति, शोक, नरक-तिर्यकमनुष्यायु ३. नरक तिर्यक-मनुष्य गति ३, पचेन्द्रिय जाति, औदारिक-तेजस-कार्माण शरीर ३, औदारिक अगोपाग, (छ) सहनन ६, (छ) सस्थान ६, वर्ण-रस-गन्ध-स्पर्श ४, नरक तिर्यगानुपूर्वी २, अगुरुल घु-उपघात-परधात-उद्योत ४, उच्छवास, विहायोगतिद्विक (प्रशस्त व अप्रशस्त) २. त्रस-बादरप्रत्यक-पर्याप्त ४, स्थिर-अस्थिर २, शुभ-अशुभ २, सुभग-दुर्भग २, सुस्वर-दुःस्वर २, आदेय-अनादेय २, यश कीति, निर्माण, तीर्थकर, नीच व उच्च गोत्र २ अन्तराय ५-८१] (ध ८/३,५/७-६/११-१२), (गो क /मू व टी ४००-४०१/५६५), (१ स स . ३/८०-८७), (विशेष दे दोनोको व्युच्छित्ति विषयक सारिणियाँ)।
२ स्वोदय परोदय व उभयबन्धी प्रकृतियाँ पं. स /प्रा ३/७१-७३ तित्थयराहारदुअ वेउ व्विय छक्क णिरय देवाऊ।
एयारह पयडीओ बज्झति परस्स उदयाहि ७१। णाणतरायदसयं दसणचउ तेय कम्म णिमिण च । थिरसुहजुयले य तहा वण्णचउं अगुरु मिच्छत्त १७२। सत्ताहियवीसाए पयडीणं सोदया दू बंधो त्ति। सपरोदया दु बधो हवेज वासी दि सेसाण | तीर्थकर, आहारकद्विक, वैक्रियकषट्क, नरकायु और देवायु- ये ग्यारह परके उदयमें बंधती है ।७१। ज्ञानावरणकी पॉच, अन्तराय पाँच, दर्शनावरणकी चक्षुवर्शनावरणादि चार, तेजस शरीर, कार्माणशरीर, निर्माण, स्थिरयुगल, शुभयुगल, तथा वर्ण चतुष्क, अगुरुलधु और मिथ्यात्व; इन सत्ताईस प्रकृतियो का स्वोदयसे बन्ध होता है ।७२। शेष रही ८२ प्रकृतियोका बन्ध स्वोदयसे भी होता है परोदयसे भी होता है ।७३)
दर्शनावरणीयकी पाँच निद्रा १, वेदनीय २: चारित्र मोहनीय २५, तिर्यग्मनुष्यायु २; तिर्यक्मनुष्यगति २; जाति ५, औदारिक शरीर व अंगोपाग २, सहनन ६, सस्थान ६. तिर्यकमनुष्य आनुपूर्वी २, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, विहायोतिद्विक २: बादर-सूक्ष्म २, पर्याप्त-अपर्याप्त २, प्रत्येक-साधारण २, सुभग-दुर्भग २; सुस्वर-दु स्वर २, आदेय-अनादेय २, यश-अयश २, ऊँच-नीच गोत्र २, बस-स्थावर २, =५२ (विशेष देखो उनकी व्युच्छित्ति विषयक सारणियाँ) । (ध.८/३,५/११-१३/१४-१५), (गो.क./मू. व टो ४०२-४०३/५६६-५६७), (प. स /स. ३/८८-९०) ३ किन्हीं प्रकृतियोंके बन्ध व उदयमें अविनाभावी
सामानाधिकरण्य ध ६/१,६-२, २२/३ मिच्छस्सण्णस्थ बधाभावा । तं पि कुदो। अणत्थ मिच्छत्तोदयाभावा । ण च कारणेण विणा कज्जस्मुप्पत्ती अत्थि, अइप्पसंगादो । तम्हा मिच्छादिहि चेव सामी होदी। -मिथ्यात्व प्रकृतिका मिथ्याष्टिके सिवाय अन्यत्र बन्ध नही होता है। और इसका भी कारण यह है कि अन्यत्र मिथ्यात्व प्रकतिका उदय नहीं होता है, तथा कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नही होती है । यदि ऐसा माना जाये तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त होता है। घ ६/१,६-२,६१/१०२/णिरयगदीए सह एइदिय-बेइदिय-तेइ दियचउरिदियजादोआ किण्ण बज्झतिण णिरयगइबधेण सह एदासि बधाणं उत्तिविरोहादो। एदेसि सताणमकमेण एयजीवम्हि उत्तिदसणादोण विरोहो त्ति चे, होदु सत पडि विरोहाभाबो इच्छिज्जमाणत्तादो । ण बधेण अविरोहो, तधोवदेसाभावा। ण च सतम्मि विरोहाभावदट्ठूण बम्हि वि तदभावो बोत्तु सक्विज्जड बधसताणमेयत्ताभावा। तदो णिरयगदीए जासिमुदओ णत्थि. एर तेण तासि बधो णत्थि चेव । जासि पुण उदओ अस्थि, तासि णिग्यगदीए सह केसि पि बंधो हो दि,केसि पिण होदि त्ति घेत्तव्यं । एव अण्णासि पि णिरयगदीए बधेण विरुद्धबधपयडीणं परूवणा कादया। - प्रश्न- नरकगतिके साथ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति नामवाली प्रकृतियाँ क्यो नही बंधती है । उत्तर-- नही, क्योकि, नरकगतिके बन्धके साथ इन द्वीन्द्रियजाति आदि प्रकृतियोके बँधनेका विरोध है। प्रश्न-इन प्रकृतियोके सत्वका एक साथ एक जीवमें अवस्थान देखा जाता है, इसलिए बन्धका विरोध नहीं होना चाहिए। उत्तर-सत्त्वको अपेक्षा उक्त प्रकृतियोके एक साथ रहनेका विरोध भले ही न हो, क्योकि, वैसा माना गया है । किन्तु बन्धकी अपेक्षा उन प्रकृतियोके एक साथ रहने में विरोधका अभाव नही है। अर्थात विरोध ही है, क्योकि, उस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है। और सत्त्वमें विरोधका अभाव देखकर अन्धमें भी उसका अभाव नहीं कहा जा सकता है, क्योकि, बन्ध व सत्त्वमें एक्त्वका विरोध है। इसलिए नरकगतिके साथ जिन प्रकृतियोका उदय नही है, एकान्तसे उनका मन्ध नहीं ही होता है। किन्तु जिन प्रकृतियोका एक साथ उदय होता है, उनका नरकगतिके साथ कितनी ही प्रकृतियोका बन्ध होता है और कितनी ही प्रकृतियोंका नही होता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य भी नरक्गति (प्रकृति) के बन्धके साथ विरुद्ध पड़नेवाली बन्ध प्रकृतियोकी प्ररूपणा करनी चाहिए। घ. ११/४,२,६ १६५/३१०/६ सयमूलपयडीण सग-सग-उदयादो समुप्पण्ण परिणामाणं सग-सगढिदिखधकारणतण हिदिबंधझवसाणट्ठाणसण्णिदाण। एस्थ गहण कायव्यं, अण्णहा उत्तदोसप्पस गादो। सब मूल प्रकृतियों के अपने-अपने उदयसे जो परिणाम उत्पन्न होते है उनकी ही अपनी-अपनी स्थितिके बन्धमें कारण होनेसे स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान संज्ञा है, उनका ही ग्रहण यहाँ करना चाहिए, क्योकि, अन्यथा पुनरुक्त दोषका प्रसग आता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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B/22
७
"
५०
५२
५५
५८
६५
४०
५६
४२
३०
५२
४२
४. मूल व उत्तर प्रकृति बन्ध उदय सम्बन्धी संयोगी
प्ररूपणा
(घ१३-१८/०-०३) बोध या निर्देशके जिस स्थान में जिस विवक्षित प्रकृति के प्रतिपक्षीका भी उदय सम्भव हो उस स्थान मे स्वपरोदयका, तथा जहाँ प्रतिपक्षीका उदय सम्भव नहीं वहाँ स्वोदयका; तथा जहाँ प्रतिपक्षीका हो उदय है वहाँ परोदय बन्धी प्रकृतियों का बन्ध जानना । संकेत - स्त्रो = स्वोदय बन्धी प्रकृति, परोरोदय बन्धी प्रकृति; स्वपरो = स्वपरोदयवधी प्रकृति, सासान्तरबन्धो प्रकृतिः नि - निरंतर बन्धी प्रकृति; सा. नि. सान्तर निरन्तर बन्धो प्रकृति ।
1
३५
३०
३८
४०
४२
२० १८-२० अनन्तानन्
४६
उदय
३०
६१
६४
७१
६६
३०
संख्या
१-५ ज्ञानावरण
६-६ चक्षुदर्शनावरणादि४
१०-११ निद्रा प्रचला
ਨਹਿ
१२- १४ निद्रानिद्रादि ३
सातावेदनीय
असातावेदनीय
१५
१६
१७ मिथ्यात्व
२२-२५ अप्रत्याख्यानावरण ४ |
२६ - २६ प्रत्याख्यानावरण ४ ३०-३२ संज्वलनक्रोधादि ३
३३ |३३-३५
सज्वलन लोभ हास्य, रति
३६-३७ अरति, शोक
३८-३६ भय, जुगुप्सा नपुंसकमेद
४०
४१
खीवेद
४२
पुरुषवेद
४३
नारकामु
४४ तिर्यगायु
४५
४६ देवायु
४२
४७
३०
४८
४६ ४६
मनुष्यगति
६६
देवगति ५०
४२ ५१-५४ एकेन्द्रियादि ४ जा
६६
पचेन्द्रियलात औवारिक शरीर
४६
६६
जे क्रियक
७१
५८
44 ५१.६० से जस
४६
६६
५५
२६
५७
मनुष्यावु
६५
६६
नरकगति
तिर्यग्गति
आहारक
६९
६२ यिक
६३ आहारक
६४ निर्माण
31
41
37
"
स्वोदयबन्धी सान्तरबन्धी आदि आदि
19
11
स्व-परो,
""
"
परो
"
स्वो,
स्त्र परी,
बन्ध उदय ४२
स्व-बन्धी | निरंतरबन्धी १-१० | १-१२ ६६
15
""
"
11
परो
स्व परो
19
स्वो.
19
बहारिक अहोई प
परो
11
स्व-परो,
परो.
स्व-परो.
घरो
11
"1
स्वो समचतुरस्र सस्थान स्व-परो
न्य परिमण्डल
सारि
सान्तर बन्धी
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31
सा निर
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1 7 1 1 -11 11: Â
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१-१३ १-१४ ४२
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१-६
३०| ६७
६८
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३०
"
१
४६
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३०
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४२
१-१० ३०
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::
१-४४२ १-५ ६६ १,२,४१-१४३० १-७ ३ नहीं
१-४ ६६
३०
६६
31
१-६६६
३०
|४२
99
१-५१४०
६ ६
१०४ ४२
संरूपा
44499655 3ggi wwww
७१
७६
७. उदय उदीरणा व बन्धकी संयोगी स्थान प्ररूपणाएँ
८१
८२
८३
८४
८५
८६
८७
tc
८६
१०
६१
२
१३
६४
६५
६६
६७
१०० १०१
१०२
१०३
१०४
१०५
१०६
१
હૃદ
१-८ १-१४ ४२
8-=
७०८
११०
१-४ १ १३ ६६ १०८ १-४ ४० ६ ६६ / १०६ १-८१-१३३० १-४ ,, १-८ १-४ ४० १७३ ११३ ६ ७-८ १-८१-१३
७
१११ ११२
स्वाति
कुब्जक
वामन
हुण्डक
प्रकृति
गन्ध
वर्ण
बज्रवृषभनाराच स वज्रनाराच सहनन
नाराच
अर्धनाराच
कोलित असंत्राट स्पर्श
रस
नरकगत्यानृपूर्वी
पूर्वी मनुष्यगस्यानुपूर्वी देवगाथानुपूर्वी
अगुरुलघु
उपधात
परघात
आताप
उद्योत
उच्छ्वास
प्रशस्त विहायोगति
त्रस
स्थावर
सुभग
दुभंग
अप्रशस्त
99
प्रत्येक शरीर
साधारण
सुस्वर
दुस्वर
शुभ
अशुभ
बादर
सूक्ष्म
पर्याष्ठ
अपर्या
१०७ स्थिर
सस्थान
अस्थिर
आदेय
अनादेय
:::::::
यह कीर्ति
अयश कीर्ति तीर्थङ्कर
७ ११४ उच्चगोत्र
३० ११५ नीचगोत्र
७ ११६-२० अन्तराय
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
"
स्वोदयबन्धी सान्तरबन्धी
आदि | आदि
स्व-परी, सा
19
34
ॐ श्री
14
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परो
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स्वो
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39
परो. स्वो
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19
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११
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स्वो.
स्त्र - परो
11
स्व-परो
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स्वो,
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सा. नि.
सा.
គ
नि.
17
नि.
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सा. नि
सा.
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सा. नि. सा
सा.नि.
==
सा
सा, नि, सा.
सा. नि. सा. सानि
ཝ ཤྲཱ ཤྲཱ ཝཱ ཝཱ ཝཱ བྷ སྠ ཀྲྀ ཀ ཟྭ
सा.
सा. नि.
सा. नि.
सा, नि,
सा. नि.
सानि
行
सा. नि.
सा.
नि.
सानि
नि.
किससे किस
गुण स्थान तक
बन्ध उदय
१-२ | १-१३
21
59
१-४
१-२
好
כן
39
१-८
१
10
१
474******2-2477777~*~*7* $$«••• 224
१-८
१-२
?--
१-६
१०८
१-६
१-८
१-२
१-१०
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95
.I.L. II. II. ~~*~*~*~* **TIFII
१-११
१-७
१-१३
१,२,४
१-१३
१-१३
१-१३
१-१४
१-१४
१-१३
१-१४
१-९४
१-१३
१- १४
१-४
१-१४
१-४
४-८ १३-१४
१-१०
१-२
१-१४
१-२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
४००
। अन्ध सढय सन्तकी त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
स्थान |
स्थान बन्ध | उदय सत्त्व
दय / सत्व
| गुण स्थान
५. मूल प्रकृति बन्ध,उदय व उदीरणा संबधी संयोगी प्ररूपणा। १ ज्ञानावरणीय ,-(पं. सं./प्रा. ५/८) (प.सं /प्रा. ७/२२७-२३१), (प स./स. ४/१२-६७), (शतक ३४-३७)
। गुण
| गुण उदय बन्ध
उदीरणा
स्थान
बन्ध कर्म | विशेषता कर्म विशेषता | कर्म विशेषता आठों
आठ। आयु में आवली |कर्म
कर्म मात्र शेष रहनेपर आयु
आठ आयु रहित ७व रहित
सात उससे पहले की
आठ
Gmxcnm
-
२ दर्शनावरणी'-(पं.सं./प्रा. ५/६-१४)
स्थान गुण
उदय कर्म आयु वेदनीय | स्थान बन्ध
जागृत । सुप्तावस्था ६/ रहित
आयु आयु कर्म बन्ध का रहित ७ अभाव प्रारम्भ करने
की अपेक्षा है निष्ठापनकी अपेक्षा नहीं इसका बन्ध ६ठे में प्रारम्भ होकर व में पूरा हो सकता है उस अवस्थामें ८ प्रकृ
तिका बन्धक होगा ८७ कर्म आयु बिना
Gmxccom
| आयु वेदनीय
|८ उप.
| मोह व आयु बिना .,
उप
क्षप. आयु वेदनीय १० उप./
"क्षप
३
M
सत्त्व
११ | ६ कर्म ईर्यापथ आस्रव ७, मोह रहित ५, | मोह रहित
मोह रहित १३३कर्म | वेदनीय, नाम गोत्र ४ | आयु नाम २ नाम, गोत्र का ईर्यापथ आनव कम गोत्र वेदनीय कम
४ अधातिया _ xlx
३ वेदनीय :-(पं.सं/प्रा./१६-२०) ८ बन्ध उदय सत्त्वकी त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
स्थान गुण
भग १ मलोत्तर प्रकति स्थानोंकी त्रिसंयोगी ओघ प्ररूपणा | स्थान
बन्ध
उदय (पं. सं./प्रा. ५/४-२१,२८१-२६६); (गो क. ६२६-६५६/८२६-८४८);
साता
साता (पं. स./सं.५/५-३२,३०७-३३६)
असाता १मल प्रकृतिकी अपेक्षा-(पं.सं/प्रा./४-६)
असाता
साता
असाता स्थान
____ स्थान
बन्ध बन्ध गुण
७-१३
साता
साता बद्धा- अबद्धास्थान
असाता साता असाता साता असाता
दोनों
अब
उदय
सत्व
उदय
यक
युवक
युष्क
साता असाता
आयु (देखो आगे पृथक् सारणी नं. २) मोहनीय (देखो आगे पृथक सारणी नं. ३-४) नाम (देखो आगे पृथक सारणी नं.)
-
६
.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
४०१
८. बन्ध उदय सत्त्व की त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
मग
दोनों
ory
GKc
२४ नीच | "
|
काल
16
.
:
७ गोत्र-( सं./प्रा./१६-१८)
चारों गतियों सम्बन्धी भंग गुण। । स्थान।
स्थान
गुण स्थान । नरक । तियंच । मनुष्य । देव स्थान बन्ध । उदय । सत्त्व
बन्ध । उदय । सत्त्व ५. ओध प्ररूपणा (गो.क ६४६-६४६/८४१-८४३) १५ नीच | नीच ( नीच
ऊँच दोनों नीच
५ ७ (२.६ रहित)/७ (२,६ रहित) ऊँच
३(२-३रहित) (२.१ रहित) १२.५ रहित) ३(२-३रहित) नीच
४ ४ (२ रहित) ६२-४ रहित)| ६ (२-४ रहित) ४ (२ रहित) ऊच
३ (१.५,६) ऊँच
। ८ अन्तराय (ज्ञानावरणीवत) २. चार गतियों में आयु कर्म स्थानोंको त्रिसंयोगी सामान्य |(उपशामक)
२ (१६) व ओघ प्ररूपणा
क्षपक
१(नं.) (प.स./प्रा. ५/२१-२४); (पंसं./सं १/२५-३०), (गो.क.६३६
२ (१६) ६४६/८३६-८४३)
१ (नं.) संकेत-अबन्ध काल-नवीन आय कर्म बन्धनेसे पहलेका काल ।
बन्ध काल-नवीन आय बन्धने वाला काल । उपरत बन्ध काल-नवीन आयु बन्धने के पश्चात्का काल। तिर्य - ३. मोहनीय कर्म स्थानोंको त्रिसंयोगी सामान्य स्थान तिर्यगायु । नरक - नरकायु । मनु - मनुष्यायु, देव-देवायु।
प्ररूपणा
|स केत-'आधार' अर्थात अमुक बन्ध स्थान विशेष या उदय स्थान विशेष भंग
स्थान बन्ध । उदय ।
या सत्त्व स्थान विशेषके साथ 'आधेय' अर्थात अमुक अमुक उदय, सत्त्व
सत्त्व या बन्ध स्थान होने सम्भव है। उन-उन स्थानों का विशेष १. नरक गति सम्बन्धी पॉच भग (पं.सं /प्रा/२१)
ब्योरा उन-उन विषयोंके अन्तर्गत दो गयी सारणियों में देखिए । अबन्ध.
नरक नरकायु एक बन्ध. तिर्य. |
कुल बन्ध स्थान-१०(१,२,३ ४.५.६,१३,१७,२१,२२) नरक तिर्य. दो नरक मनु. दो
कुल उदय स्थान--६(१,३,४,५,६,७,८६,१०)
कुल सत्त्व स्थान-१५(१,२,३,४,५,११,१२,१३,२१,२२,२३,२४,२६,२७,१८)
नरक तिर्य दो उपरत.
सत्त्व विशेष-नं.१-मिथ्यात्व, नं.२- वेदक सम्यक्त्व; न.३-उपशम नरक मनु दो
सम्यक्त्व, नं. ४-उपशम सम्यक्त्व उपशम श्रेणी: नं२. तिथंच गति सम्बन्धी नौ भंग (पं.सं./प्रा५/२२)
कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्व; नं.६ क्षायिक सम्यक्त्व; नं ७- क्षायिक अबन्ध.
। तिर्यगायु एक
सम्यक्त्व उपशम श्रेणी; नं. क्षायिक सम्यक्त्व क्षपक श्रेणी। नरक
तिर्य नरक दो तिर्य तियं दो
१.बन्ध आधार-उदय सत्त्व आधेयकी स्थान प्ररूपणा तिर्य, मनु दो
(गो. क. ६६२-६६४/६५०-६५१) तिर्य देव दो
उदय स्थान
तिर्य नरक दो उपरत.
आधार
सत्त्व स्थान आधेय तिर्य.तिर्य दो
तियं. मनु दो देव । तिय. देव दो
में स्थान ३ मनुष्य गति सम्बन्धी नौ भंग (पं सं/प्रा./२३)
विशेष
নিহী अबन्ध
| मनु. | मनुष्यायु एक नरक
मनु नरक दो तिर्य.
मनु, तिर्य दो १ २२ | ४ ७,८,६ | ३ २६,२७, मनु. मनु मनु. दो
१० २८ मनु. देव दो
२१/३/७८६१ नरक
मनु, नरक दो १७ ४ ६,७,८,६२२८, तिर्य
मनु. तिर्य. दो ।४ १३ मनु. मनु दो
२१ देव मनु. देव दो
|११,१२,१३ ४. देव गति सम्बन्धी पाँच भग (प सं./प्रा५/२४) | अबन्ध. । देवायु एक
४१ बन्ध
देव, तिर्य दो मनु.
देव मनु. दो उपरत. तियं.
देव तिर्य दो । देव मनु. दो
तिर्य
तिर्य
मनु
मनु
बन्ध स्थान आधार
कुल स्थान
कुल स्थान
कुल स्थान
कुल स्थान
६.७ में स्थान विशेष
कुल स्थान
बन्ध.
देव
त
له
२२,२३१
لم
cumn Gram
मनु.
له
तिर्य.
rrrrrrr
murn
२६
ननेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
४०२
८.नना उदय सत्त्त की त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
२. उदय आधार-बन्ध सत्व आधेयकी स्थान प्ररूपणा ।
(गो क ६६६-६६८/८५२.८५४) बन्ध स्थान
सत्त्व स्थान आधेय आधेय
३. सत्त्व आधार-बन्ध उदय आधेयकी स्थान प्ररूपणा (गो क.६६६-६७२/८५४-८५६)
। सत्त्व-आधार
बन्ध-आधेय
उदय-आधेय
-७
क्रम
उदय स्थान आधार कुल स्थान
स्थान विशेष
स्थान विशेष
स्थान विशेष
कुल स्थान
१-४म स्थान विशेष
कुल स्थान
कुल स्थान
कुल स्थान
६-७में स्थान विशेष
कुल स्थान
कुल स्थान
सत्त्व
सत्त्व
सत्त्व RMd4 सत्त्व
१,२,३,४.५,६,१३, 18 | १,२,४,५,६,७,८,९,१० १७,२१,२२
२२
८ | १,२,३,४,५,६.१३,१७ ८ १,२,४.६६,७,८६६
१०।१।२२ ३ | २६,२७
२८ 18/३/१७,२१.२२४ २४, २६/
२७,२८२ २०,२३ ३८४१३,१७,२१,४
२२ ७ . ६,१३,१७, २
२१,२२ ६३१.१३,१७
Irrevo.
१,२,३,४,५,६,१३,१७ ७ / १,२.४,५,६,७,८,
vor orm
ncer:
।११
२
३,४
६ ११.५.४/१२
~
४ बन्ध उदय आधार-सत्त्व आधेयकी स्थान प्ररूपणा (गो क. ६७५-६७४/८५८-८६०) बन्ध- उदय
सरव-आधेय आधार सत्त्व १-४ सत्त्व सत्त्व६-७ सत्त्व
५. बन्ध सत्त्व आधार-उदय आधेयकी स्थान प्ररूपणा (गो,क. ६८०-६८४/१४.८६७) बन्ध सत्त्व आधार
उदय आधय आधार | सत्व१-४ सत्त्व ५ सत्त्व ६-७ सत्त्व ८ गुण
स्थान स्थान
विशेष
आधार
कम
स्थान
स्थान
कुल स्थान
कुल स्थान
स्थान विशेष कुल स्थान
स्थान
कुल स्थान
कुल स्थान स्थान विशेष कुल स्थान स्थान विशेष कुल स्थान]
स्थान
कुल स्थान स्थान विशेष कुल स्थान
२०३२६.२७
कुल स्थानी aस्थान विशेष .
२१साति १ २२ २ | २६.२
२११
२८
१७१(२९
२२४.२८
४६,७८, ३७58
کم
२४-२८
२-२३
26mmrata
२२.
به له سه سه له له م
.
M
| १ २१ १४४/1 ३ १३,१२ १५/६/11
مه
।
११.१२.१
20 20
|१२१/३४५.१११ '२१ २३,४
|२| २,३
|२ १,३१६/vin|१२| .....|२१ १.२/२० /ix |१ १ |२|
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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--------------------------------------------------------------------------
________________
६. उदय सत्व आधार--बन्ध आधेयकी स्थान प्ररूपणा (गो.क. ६८५-६९१/८६८-८७२) उदय ।
सत्त्व आधार आधारसत्व- सत्व५ सत्त्व६-७,
उदय
1
अन्ध आधेय
सत्व
क्रम गुण स्थान
स्थान
कुल स्थान
स्थान विशेष कुल स्थान
स्थान
स्थान
कुल स्थान।
स्थान विशेष कुल स्थान।
कुल स्थान
स्थान विशेष
४. मोहनीय कर्मस्थानोंकी त्रिसंयोगी ओघप्ररूपणा (प सं./प्रा. १/४०-५१), (पं.सं सं.५५०-६०), (गो.क. ६५२-६५६/८४४-८४८) बन्ध
सत्त्व स्थान उदय स्थान स्थान
सत्त्व ४ सत्त्व २ | सत्त्व सत्त्व ७, सत्त्व ८
विशेष
कुल
विशष
|
३ २६,२७,
| २८
स्थान
६/१/२०
(१७,२१,२२ (१३,१७,२१,२२
कुल स्थान
स्थान विशेष कुल स्थान
स्थान विशेष
कुल स्थान
विशेष
कुल स्थान विशेष कुल स्थान
कुल स्थान
विशेष
विशेष कुल स्थान
११६२ २६,२७
१, २२/४।७,८,६१०१ ३२६,२७,
३।७,६,
६
१
२२,२३
२॥
६,७,८,६
wr or 020४४४
२२८.
३/२२,२३,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
६,१३,१७,२१,२२
५,६,७,८ ४,५,६५७
م م
२४
२
६,११,३७
م
५ (मनुष्य)/१०
wwwyou wuu..99 - emorrrror
: Mo: xxxxxxxxcc & ac_ccunam
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م م
له
२४,२८
६,१३,१७
له
१०६/n
م
१
५तियं.)
م
२२,२३
|१२६/v१
م
00000rnorarur-00-~
له
م
ه
ته ن
१३,१२,११ |१३,१२,१९७५
२०:/पु.वे.
१/खी वे. २२/६/-v
س له س
१६ १/ १ ३ १६६/vin १ २ १७ 8/1x/-११
s|tx|ti| | १६ १ २० १
frn.
४०३८.बन्ध उदय सत्त्वकी त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
३.११.१२
२ १२,१३ १४ ।
४१,२,३,४
१] २१
२.११
| E/vi १२ २४/१/vi-ix |१ १ |२ २५६/ ११ २६ /vi.vil|१|१ २७/६/vii-vin | १ २०E/viii-ix|१| २९18/- १
on to an arrox
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--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
.४
८. बन्य उदय सत्वकी विभिन्न त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
-
स्थान
ww
१३
४. नामकर्म स्थानोंको त्रिसंयोगी सामान्य प्ररूपणा
३ सत्व आधार-बन्ध उदय आधेयकी स्थान प्ररूपणासकेत-'आधार' अर्थात अमुक बन्ध स्थान या उदय स्थान या सत्व (गो क ७५३-७५६/१२५-६३१) स्थान विशेषके साथ 'आधेय' अर्थात अमुक-अमुक उदय, सत्त्व या बन्ध स्थान होने सम्भव है। उन-उन स्थानोंका विशेष ब्योरा उन ____ सत्व आधार बन्ध आधेय
उदय आधेय उन विषयों के अन्तर्गत दी गयी सारणियों में देखिए। कुल बन्ध स्थान-८(१,२३,२५ २६,२८,२६,३०,३१)
स्थान विशेष स्थान विशेष कुल उदय स्थान-१२(२०,२१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१६,८) कुल सत्त्व स्थान-१३(६,१०,७७,७८,७६,८०,८२,८४,८८,६०,६१,६२.६३) १. बन्ध आधार-उदय सत्त्व आधेयकी स्थान प्ररूपणा
११ (यश कीर्ति) २५,२६,२८,२६,३०,८ (पं. सं /प्रा./२२२-२२४,२२५-२५२), (गो. क. ७४२-७४५/८६७),
६/२१,२७,२६,३०,३१.६ (प सं/सं.५/२३६-२३६, २७०,२४०-२७०)
६.२५,२६,२८,२६,३०,८ | बन्ध आधार उदय आधेय सत्व आधेय
६ २१२७,२६,३०,३१.६
१ | २३,२५,२६, ४ २१,२४,२५,२६ स्थान विशेष स्थान विशेष स्थान विशेष
२६,३०
१२१,२४,२५,२६.२७, ३/ २३,२५,२६ ६) २१,२४,२५,२६,२७,५ ८२,८४,८८,६०,६२
| २८.२६,३०,३१ २८,२६,३०,३१
६ २३,२५,२६, २८ १९ २८ ८ २१,२५.२६.२७,२८,४८८,१०,६१,६२
२८,२६,३० २६,३०,३१
७/२३,२५,२६, ३ २ २६,३० २१,२४,२५,२६,२७, ' ७/८२,८४,८८१०,६१,
२८,२६,३०,१ २८,२६,३०,३१ । १२.६३
२८,२६.३०.१ ७/ २१,२५,२६,२७,२८, १ ३१
२६.३० ३० ८ ७७,७८,७६,८०,१०,१२/१
७,२३,२५,२६, | ६ | २१,२४,२५,२६.२७, ६१,६२,६३
२८,२६,३०.१ २८,२६३०,३१ | १०२० २१,२६,२७,२८, १०७७,७८,७६,८०,१०,१३१
४ | २६,३०,३१,१ । ७/ २१,२५,२६,२७,२८, | २६,३० ३१,८, ६ ६ १६२,६३,६,१०
२६.३० २. उदय आधार-बन्ध सत्त्व आधेयकी स्थान प्ररुपणा ४. बन्ध उदय दोनो आधार-सत्व आधेयकी स्थान प्ररूपणा (गो,क,७४६ ७५२/१०६-६२४)
(प. सं./प्रा ५/२२५-२५१), (गो क ७६०७६८/६३६-६४०), (सं.सं./ उदय बन्ध आधेय सरव स्थान
प्रा. ५/२४०-२६६) आधार स्थान विशेष
बन्ध-आधार उदय-आधार .. सत्त्व-आधेय
स्थान विशेष १, १९२० |३|७७,७९,७६ स्थान विशेष स्थान विशेष
स्थान विशेष | १.२१ ६२३,२५.२६ २८.२६,६७८,८०,८२,८४,८८, ३०
८२,८४,८८,६०,६२ ६०,६१,६२,६२
४। २१,२४,२५,२६ २३.२५,२६,२६,३०५/८२,८४,८८,१०,६२
५ २७,२८,२६, ४ ४,८८,६०,६२ २५६ २३,२१,२६,२८,२६, ७/८२,८४,८८,१०,६१,
३०,३१ ६२.६३
३ २] २५,३६ ४२१,२४,२५,२६५ ८२,८४,८८,१०,६२, ७७,७६,८२,८४,८८,
४२ २५,२६ २७,२८,२६, | ४ ८४,८८,६०,६२ १०.६१,६२,६३
३०,३१ ७८,८०,८४,८८,६०,
२/२१,२६
१०.१२ (देव उत्तर कुरु । ६१,६२,६३
का क्षा सम्यग्दृष्टि) ७७,७६,८४,८८,६०,
२८ ।५ २५,२६,२७, २ ०,६२ (२५.२७ उदय ६१,६२,६३
२८,२६
६० सत्त्व वैक्रि. को
अपेक्षा है) १० ७७,७८,७६,८०,९४,
१, २८२ / २५,२७ ११२ (आहारक शरीर ८८,६०,६१,६२,६३
उदय सहित प्रमत्त २३,२५,२६,२८,२६. १०
विरत) ३०३१.१
४८८,६०,६१,६२ ६. २३,२५,२६,२८,२६, ६/७७,८०,८४,८८,६०,
३८८,६०,६२
८२,८४,८८,६०,६१, ३, ७८,८०,१०
६२०६३ १२१'
| ३| ७७,७६६
8 विशेष न्य
स्थान
स्थान
स्थान
१०
३०
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
क्रम
बन्ध आधार
१२ १
१३ १
१४ १
१५ १
१६ १
kirt
१७ १
१८
१
१६
१
२०१
कम
M NG
कुल स्थान
२
१
३ २
४) १
१० १
११ १
१२ १
१३ १
१४ १
१५ १
१६
१
१७
१
स्थान विशेष
१८ १
१६ १
२६
२६
२६
३०
३०
३०
३०
३१
१
१
स्थान विशेष
२३
२८
२०
ก
२१ १
६ १
५ बन्ध सत्व दोनो आधार-उदय आधेयकी स्थान प्ररूपणा - १०१ (गोक ७६६-०७२/१४० - ६४३)
११ | १
१२ १
बन्ध-आधार
१३ १
१४ १
१५ १ १६ १
२८
२६
२६
२६
२६
22
२६
३०
३०
३०
३०
३१
१
१
२३
१८२ २५.२६ १ ८२
२८
१ १२
१. २४
४ २७,२८,२६,३०
उदय आधार
१ ३१
३ | २७,२८,२६
२ २१,२५
२] २४,२६
२ ३०,३१
स्थान विशेष
१ ३०
१ ३०
कुल स्थान
३०
१
a a
सत्त्व-आधार
स्थान विशेष
१ ६१
६०
८८
६३
४ ८४८८,६०,१२ ६ २१, २४, २५, २६, २७,
२८,२१,३०,३१
४ २१.१४,२५,२६
१ १२
३८४,८८,६० १ ६१
१ ८२
१ ६१.६३
१६२
८२,८४,८८,०६२
६ ८४,८८,६०,६१,६२,६३ ४८४८८, १०, १२ ६८४८८,६०,६१,६२,६३ ७८२८४८८०,६१,६२,
सव- आधेय
स्थान विशेष
६३
५८२,८४,८८, ६०, ६२
४ ८४८८६०१२
४
१ १३. ( गुणस्थान ७४९) ६०,६१,६२,१३ ( उपशामक) ७७,७८,७६, ८० (क्षपक)
कुल स्थान ।
उदय स्थान
स्थान विशेष
८ २१,२५, २६, २७, २८. २१,३०,३१
६
१३०
१ २१, २६, २८,२१,३०,३१ संज्ञीवाले
३०,३१ २१,२५,२६,२७,२८,
२१.३०
६ ११.२४, २५, २६.२० २८,२६,३०,३१
"
स्थान)
२१,२४,२५,२६,२७, २८,२६,३०
(ग)
८. उदय ख की निसंयोगी स्थान प्ररूपणा
६ उदय सत्त्व दोनो आधार बन्ध बाधेयकी स्थान प्ररूपणा
मो.
७७६-०८३/६४४-६४८)
६ १९.२४.२५.२६.१०. २८,२१,३०,३१
13
१८२,८४,८९,१० ह १८२
४२१,२४ २५ २६ १ ६३ १ ३० १६०,११,१२,६३ ३० ४७७,७८,७६,८० १ ३०
४००
क्रम
उदय-आधार
कुल स्थान
२ १
३ १
४ १
५ १ ६ १
७१
२१ १
२२ १
२३ १
२४ १
२५ १
२६ १
२७ २ २८/ २ २२
स्थान विशेष
२१
२१
२१
२५
२५
२५
२६
२६
२६
२७
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
२७
१) मिथ्यात्व
२ सासादन
२७
२८
२८
२६
१७ १ १८ १
२६
१६ १ ३० २०१
३०
२८
४ २१,२४,२५.२६
५२१,२५,२७,२८,२६ क्रम गुण स्थान
101022 24 1
२६
३०
३०
३१
३१
३०
३०
कुल स्थान ।
सत्व आधार
२६१.६३ २ ६०,१२ ३८२८४,८८
२ ६१,६३
स्थान विशेष
१ ६२
४] ८२,८४,८८, १०
२६१,६३
२ १०.१२
३८२,८४,१८
३८८,६०,१२ ८४
१ ३८८,६०,२
८४
४६०,६१,६२,६३ ४७७, ७८,७६,८०
३०,३१ .ε ८,६ २ ६,१०
४ ४
२६१-६३
१६२
३८४८८६० २ ११.६३
१ १२
३८४,८८,१० २ ११.६३
२६०,६२ २८४८८
१ ६३ १६१
१
बन्ध स्थान
६ २३,२५,
11
स्थान विशेष
२६, २८,
२६.३० ३२८.२१.३०
कुल स्थान
कुल स्थान
२
६ २३.२६.१६.१५,२६.३०
६ नामकर्म स्थानों की त्रिसंयोगी ओघ प्ररूपणा
(पं.सं./५/३६६४९७), (गो. रु. ६६२-००३/०७२-०००); (पं. सं ५/४११-४२८);
बन्ध - आधेय
२६.३०
५ २३.२५.२६.२१.३०
२ २१.३०
६२३,२५,२६,२८,२६,३० ५२३,२५,२६,२१,३० १ २६
६ २३, २५, २६, २८,२६,३०
५ | २३,२५,२६,२१,३० २२६,३०
स्थान विशेष
६२३,२५,२६,२८,२६.३० ५२३.२५,२६,२६,३०
२
६
५
X
X
X
X
X
२ २१,३०
६२३, २५, २६, २८,२६.३० २२३.१५,२६.२६.३०
२६.३०
१३.२५, २६, २८.२६.३० ५२३,२५.२६,२६,३०
२ २१.३१
२२८.२६ (नरक सम्मुख तीर्थ, प्रकृति
६ २३,२५,१६,१९,२१.२०
५ १३,२२,२६.११.२०
६ २३.२५,२६,२८,२१.३०
उदय स्थान
१३,२५,२८,२६.३०
( उपशान्त कषाय )
(क्षीण मोह) (सयोग केवली )
( अयोग केवली ) (अयोग केवली)
स्थान विशेष
६
२१,२४,२५. २६ २७,२८, २१,३०,३१ ७ २१,२४,२५. २४.२४.१०.३१
कुल स्थान
सत्त्व स्थान
स्थान विशेष
८२,८४,
८,६०,
११,१२
१ १०
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
क्रम गुण स्थान
હ
शु सम्यग्मिध्यात्व
४ अवि. सभ्य.
५ देश विरत २ २८,२६ प्रमत्त विरत २ २८,२६
करण
अप्रमत्त ४ २८,२६,
३०,३१
पूर्वकरण ५ २९.२१.
११
10
१० सूक्ष्म साम्पराय
११ उपशान्त कषाय
१२ क्षीण मोह १२ सयोग केवल समुद्र केसी
१ लब्धपर्याप्त सूक्ष्म एके.
बादर
बन्ध स्थान
उदय स्थान
स्थान विशेष स्थान विशेष
२ | २८,२६
३ २१,३०,३१
स्थान
23
३ २८,२६,३०
बा. एके, विकलेन्द्रिय असंज्ञी पंचे ५
सज्ञी ५ पर्या सूक्ष्म एके
पंचे
१
३०,३१,१
५
ነ 29
29
33
11
19
५२३.२५. २८.२६.३०
विकलेन्द्रिय ५
असंज्ञी पंचे. ६ २३.२५.
२
५
"2
१
५ २३,२५, १ २१ २६.२६.३०
२६.३०
८ २३,२५, २६.२८,
२६.३०,
३१,१
१
१
१
३०, ३१
२५,२७,२०
२६.३०
२१,२५,२६,२७,४ २९,२१,३०,३१
३०
19
१४योगकेवली
२६.८
• जीवसमासकी अपेक्षा नामकर्म स्थानकी त्रिसंयोगी प्ररूपण (पं.सं./प्रा / २६०-२८०): (गो. क ७०४-०११/२००२) (पं.सं./ सं. ७/२१४-३०६)
"
२ ३०३१ १०२०,२१,२६, २७,२८,२६,
३०,३१,६,८
१२४
२ २४,२६
२
२
४ २९.२४, २५.२६
५
सत्त्व स्थान
२१, २४, २५,
२६ २७
६ | २१.२६,२८,
२६.३०,३१
२१,२५.२६, २७,२८,२६,
३०,३१
स्थान विशेष
२ । ६०,६२
४
४
६०, ६१.
१२.६३
39
"
1k
४
६ ७७, ७८, ७६८०
६.१०
वव
६०.६१,
६२, ६३
७७, ७८ ७६,८०
५८२,८४,
= १०,११,१२,१३
उपशामक
७७, ७८, ७१,८०३ मनुष्यगति
क्षपक
८ उपरोक्त
४०६
11
क्रम
१०.१२
"
99
८. नामकर्म स्थानोंकी त्रिसंयोगी आदेश प्ररूपणा
(स.प्र./५२-२२,४५१०४०१) (गो.क. ०१२-०३८८८८८०) (प सं. सं. ५/६०-२००, ४११-४४१)
११ ७७, ७८,७६
८०,८२,८४,
८८, १०, ११, १२.६३
११ गतिमार्गणा १ नरकगति
२ तिर्यगति
१
८० बन्य उदय सत्व की नियोगी स्थान प्ररूपणा
४ देवगति
२ इन्द्रियमागंणा १ एकेन्द्रिय
२ विकलेन्द्रिय
३ पंचेन्द्रिय
२
३
४
मार्गणा
५
१
१२ काय मार्गणा
पृथिवी काय
अप काय
तेज काय
वायु काय
बनस्पति काय
६ स काय
कुलस्थान)
४ योग मार्गणा
४ प्रकार मनो
योग
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
बन्ध स्थान
२ २६,३०
५
स्थान विशेष
५ २१.२५,२७,३१०,११,१२,
२८,२६ ६२३,२५,२६६२१,२४,२५,४ ८२,८४,८८, २८,२६,३० २६,२०१८ ६०,६२ २१.३०,३१
५२३, २५, २६, २६.३०
५
५
२३.२५,२६,११२०,२१,२५१२ ७७,७८,७१, २६.२७२८. ८०,८४,८८,
| २६,१०,३१. ६०,६१,६२, १.८ ६३,६,१० २५, २६, २६, ५ | २१,२५,२७,४ १०,११,१२,
४
३०
२८,२६
१३
५
वचनयोग | ८
२८,२१,३०, ३१.१
:
२३, २५, २६,
| २६.३०
उदय स्थान
19
99
te
स्थान विशेष
३
२६,२०
२१, २६, २८, ५ २१,३०,३१,
२३.२५.२६.११ २०,२१.२५, १३ ७७, ७८,७६,
२६.२५,२८. ८०,८२,८४,
२८,२१,३०, ३१.१
२६.३०,३१.
१.२. सं. में
२०का स्थान
नहीं)
59
६
५
सत्व स्थान
२१,२४,२५,५८२,८४,८८
स्थान विशेष
२६, २७
२१.२४,२५. २६
२०का स्थान नहीं
२१,२४,२५,५८२,८४,८८,
१०, १२
५
५
५
१०,११
21
१०
८८,६०,६१० २,६३,६,१
/
२१,२४,२५,५ | २६.२७
२३,२५.२६.११ २०,२१,२५, १३० ७७, ७८,७६, २८,२६,३०, २६.२७,२०, ८०,८२,८४, ३१.१
२१.३०,३९.
६, ८ ( प सं . में
८.६०,११. १२.६३,६,१०
3
"
८ २३, २५, २६ ३२१,३०,३१ १० ७७,७८,७६,
२८,२१,३०,
८०.८४,८८, १०,६१,६२.
३१.१
१३
17
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
४०७
७. सन्ध उदय सत्त्व को त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
| बन्ध स्थान । उदय स्थान | सत्व स्थान
मन्ध स्थान
| उदय स्थान । सत्त्व स्थान
क्रम
मागंणा मार्ग
स्थान
क्रम मार्गणा
स्थान विशेष स्थान विशेष
स्थान विशेष
कुलस्थान
मार्गणा
विशेष
स्थान विशेष स्थान विशेष स्थान विशेष
२८,२६, ३०,
२८,२९,३०,
1८८,१०,६१
१३
४
.
योग
योग
८
| ३/औदारिक
संयम मार्गणा | २३,२५.२६.७.२५,२६,२७, ११७७,७८ ७६, काययोग
८०,८२,८४, १ सामायिक छेदो-५ |२८,२६,३०,५/२५,२७,२८,८७७,७८,७६, पस्था ,
८०,६०,६१,
२२,६३ ६२,६३ ४
६०,६१,१२, औदारिक ६|२३,२५,२६, ३ | २४.२६,२७,१ |२| परिहार विशुद्धि ४ २८,२९,३०,१,३० मिश्रयोग | २८.२६,३०, पं.सं मे २७ । नहीं
७७,७८,७६,
सूक्ष्म साम्पराय| १ |१ वैक्रियक ४.२५,२६.२६. ३ | २७,२८,२६४ ०,६१६२
८०,६०,६१ काययोग
६२.६३ ६ वैक्रियक ४ ..पं.सं में
यथाख्यात
|१०|२०,२१,२६, १०/७७,७८,७६, मिश्रयोग | |२५, २६नहीं
२७,२८,२६, ८०,६०,६१. ७ आहारक काय २२८,२६ | २७,२८,२१२
३०,३१.८६, १२,९३,६,१०
पं.सं.में ८ आहारक मिश्र |२
३०,३१,८६ देश संयत |२|२८,२६
२३०,३१ ४६०,६१,६२, कार्माण काय | ६/२३,२५,२६, २/२०,२१,पं सं ११ ७७,७८,७६, योग २८,२६,३० । | में २०नहीं ।
६ असयत ६/२३,२५,२६,६|२१,२४,२५, ७/८२,८४८८, ८०,८२,८४,
| २८,२६,३० २६,२७,२८, ६०,६१,६२, ८८.६०,६१,
२६,३०,३१
६२,६३ ५ वेद' मार्गणा
९ दर्शन मार्गणा
१ ८२३,२५,२६,८२१,२५,२६.६७७.७६.८२.
चश्वर्दशन | १खी वेद
|२३,२५,२६.5|२१,२५,२६, ११ ७७,७८,७४,
२८,२६,३०, २७,२८,२६. ८०,८२,८४, २८.२६,३०, २७,२८,२६ | ८४,८८,६०
३०,३१
|८८,६०,६१, ११,६२,६३
६२.६३ ८२१,२५,२६, १९१७७,७८,७६, २ पुरुष वेद
.२ अचचदर्शन | ध न |८|२३,२५२५१
|२३,२५ २६, २१,२४,२५० / ११/७७,७८,७६, । २७,२८,२६, |८०८२,८४,
|२६,२७,२८, ८०,८२,८४, । ३०,३१ ८८,१०,६१.
३१.१
२६,३०,३१ | |८८,१०,६१. ६२.६३
६२.६३ |६|२१.२४,२५. ७७,७६,८२,1३ अवधि दर्शन २८२६.३०.८२१,२५,२६.८७७,७८,७६, |२६,२७,२८, | ८४,८८,६०,
२७,२८,२६, ८०,६०,६१, २६,३०,३१ ११,६२,६३
३०,३१ | २.६३ ६ कषाय मार्गणा
| केवल दर्शन |x/
१०२०,२१,२६,६/७७,७८,७६, १] क्रोधादि चारो | |२३,२५,२६, २१,२४,२५०/११8,८०,८२.]
२७,२८,२६, ८०.६.१० कषाय
२८,२६,३०, २६,२७,२८, ८४,८८,६०
३०,३१,८६] २६.३०,३१, ११,६२,६३
पं.स.में ३०
१०लेश्यामार्गणा ७ शान मार्गणा|
३१.६
| कृष्ण, नील, ६२३,२५,२६, १मति श्रुत अज्ञान ६२३,२५,२६, २१,२४,२५.६८२८४,८८,१
२१,२४.२५०७ /८२,८४,८८,
कापोत २८,२६,३०
२८,२६,३० २६,२७,२८, ।
६०.६१,६२/ २६,२७,२८, की
६०.६१,६२,
२६,३०,३१
पीत या तेज ६ |२५,२६,२८,८२१.२५-२६,४ ०,६१.६२, २ विभङ्ग ज्ञान (६ |३|२६,३०,३१ । ३ ६०.६१.६२ लेश्या
| २७,२८.२६, ६३ ३ मति श्रुत अवधि ५ | २८,२६३०.८२१,२५,२६.८ |७७,७८,७६, ज्ञान ३१.१ । २७,२८,२६, ||८०,६०,६१, पद्म लेश्या
४२८,२६,३०,३१८ ३०,३१ ६२,६३ शुक्ल लेश्या ५२८,२६,२०,९
। २०,२१,२५, ४ | मन पर्यय ज्ञान | ५
७७,७८,७६, , १३०
|२६,२७,२८, ५ केवल ज्ञान १०/२०,२१,२६,६/७७,७८,७६,
८०,६०,६१,
२६,३०,३१, |२७,२८,२६, ८०,६,१०
(पं.स.में२०
६२.६३ ३०,३१,८६
नहीं) (पं.सं. में अलेश्य
|85
६७७,७८,७६० स्थान ३०,
८०,६,१० । ३१,६८)
२८,२६,३०,
२६,२७,२८,
३ नपुसक वेद
८॥
I
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदय
४०६
९. औयिक भाव निर्देश
कुलस्थान
तस्थाना
विशेष
६३
११
२८,२६,३०,११ | २०,२१,२५-१०
७७,७८,७६
बन्ध स्थान । उदय स्थान | सत्त्व स्थान | ९ औयिक भाव निर्देश स्थान
स्थान
। स्थान। मार्गणा
१ औदयिक भावका लक्षण विशेष
विशेष
स सि. २११/१४६/९ उपशम. प्रयोजनमस्यैत्यौपशमिक । एवं.. ...... २१ भव्यमार्गणा
औदयिक 1-जिस भावका प्रयोजन अर्थात् कारण उपशम है वह | भव्य
२३.२५ २६, १२/ २०,२१,२४, १३/७७,७८,७६, औपशमिक भाव है। इसी प्रकार औदयिक भावकी भी व्युत्पत्ति २८.२६,३०. २५.२६,२७,
८०,८२,८४, करनी चाहिए। अर्थात् उदय ही है प्रयोजन जिसका सो औदयिक | २८,२६,३०,
८८,६०,६१, भाव है । (रा. बा. २/१/६/१००/२४)। ३१,६६, (प
६२,६३,ह. ध १/१,१.८/१६१/१ कर्मणामुदयादुत्पन्नो गुण औदयिक' | जो कोके स. में २०,
१० (प.सं० उदयसे उत्पन्न होता है उसे औदयिक भाव कहते है । (ध ११,७,१॥
में 8,१० के १८५/१३), (प का /त. प्र.५६/१०६), (गो क /मू.८१/१८८); (गो
स्थान नहीं २ | अभव्य
जी./जी प्र८/२६/१२); (पं.ध/उ. १७०, १०२४)।
स्थान नहीं ६/२३,२५,२६,
||२१,२४,२५०४ २८,२६,३००
८२,८४,८८, २ औदयिक भावके भेद |२६,२७,२८,
ह
त.स २६ गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासयतासिद्धलेश्याश्चतुश्च
२६.३०,३१, ३ न भव्यनअभव्य
तुस्त्र्येकैकैकषड्भेद ६) =औदायिक भावके इक्कीस भेद है१२ सम्यक्त्व | ४ | ३०,३१,६,८६७७,७८,७६,
चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान,
| ८०,६,१० । मार्गणा
एक असंयम, एक असिद्ध भाव और छह लेश्याएँ । (ष. ख.१४/ उपशम सम्यक्त्व|५|२८,२६,३०,५|२१,२५,२६. | ४ | १०,६१,६२,
१५/१०); (स.सि. २/६/१५६), (रा. वा. २/६/१०८); (ध.५/१,७.१/ ३०,३१
६/१८६); (गो क /मू.८१८/९८६); (न. च. वृ. ३७०), (त. सा/ विदक सम्यश्व ४|२८,२६,३०,८२१.२५.२६, ४|
२/७); (नि सा/ता. ४१); (पं ध./उ.६७३-६७५) |२७,२८,२६,
३ मोहज औदयिक भाव ही बन्धके कारण हैं अन्य नहीं
ध.७/२.१.७/६/8 जदि चत्तारि चेव मिच्छत्तादीणि बंधकारणाणि ३ क्षायिक ,, ||
होति तो-'ओदइया बधयरा उवसम-खयमिस्सया य मोक्खयरा। २६,२७.२८ | ८०,80,६१]
.../३ ।' पदीए सुत्तगाहाए सह विरोहो होदि त्ति वुत्तेण होदि, २६,३०,३१] ६२,६३,६,१
ओदइया बधयरा त्ति वुत्ते ण सव्वे सिमोदइयाणं भावाणं गहण गदि
जादिआदिणं पि ओदइयभावाणं बधकारणप्पसगादो। - प्रश्न-यदि ४सासादन , ३ | २८,२६,३०७
२१,२४,२५.१ १०
ये ही मिथ्यात्वादि(मिथ्यात्व,अविरत कषाय और योग) चार बन्धके २६,२६,३०
कारण है तो 'औदयिक भाव बन्ध करनेवाले है, औपशमिक,
क्षायिक और क्षयोपशमिक भाव मोक्षके कारण है. ' इस सूत्रगाथासम्यग्मिध्यात्व २ २८,२६ ३२६,३०,३१६१०,६२ । मिथ्यात्व ६
के साथ विरोधको प्राप्त होता है। उत्तर-विरोध नहीं उत्पन्न होता २३.२५ २६ २१,२४,२५० ८२,८४,८८
है, क्योकि, 'औयिक भाव बन्धके कारण है' ऐसा कहने पर सभी २८,२६,३० २६,२७,२८ ६०,६१,६२१ १३ संशीमार्गणा
२६,३०,३१
औदयिक भावों का ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योकि, वैसा मानने
पर गति, जाति आदि नामकर्म सम्बन्धो औदयिक भावोके भी. १ संज्ञी
२३,२५,२६८ २१,२५,२६११७७,७८,७६.] २८.२६.३०
बन्धके कारण होनेका प्रसंग आ जायेगा। ८०,८२,८४, २७.२८,२६, ३०,३१
८८,१०,६१, ४ वास्तवमें मोहजनित भाव ही औदयिक हैं, उसके ६२०६३
बिना सब क्षायिक है २ असंज्ञी | २३,२५,२६० | २१,२४,२५०/५ ८२,८४,८८,
प्र सा./मू ४५ पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदयिगा। २८,२६,३० २६,२७,२८, | ६०,६२
मोहादी हि विरहिदा तम्हा सा खाइगत्ति मदा ।४। . २६,३०,३१|
प्र. सात प्र. ४५ क्रिया तु तेषां औदायिक्येव। अथैव भूतापि सा (पं.स में२५
समस्तमहामोहमूर्दाभिषिक्तस्कन्धावारस्यात्यन्तक्षये सभूतत्वान्मोहराग २७के स्थान
द्वेषरूपाणामुपरञ्जकानामभावाच्चैतन्यविकारकारणतामनासादयन्ती १४ आहारक
नित्यमौदयिकी कार्यभूतस्य बन्धस्याकारणभूततया कार्यभूतस्य मार्गणा
मोक्षस्य कारणभूततया च क्षायिक्येव । - अर्हन्त भगवान पुण्यफलवाले आहारक ८ २३.२५,२६, २४,२५,२६,११७७,७८,७६.
है, और उनकी क्रिया औदयिकी है, मोहादिसे रहित है, इसलिए वह ८०,८२,८४,
क्षायिका मानी गयी है ॥४५॥ अर्हन्त भगनानकी विहार व उपदेश ८८,६०,६१
आदि सब क्रियाएँ यद्यपि पुण्यके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण औद६२,६३ .
यिकी ही है। किन्तु ऐसो होनेपर भी वह सदा औदायिकी क्रिया,
७७,७८,७१ २] अनाहारक ६२३,२५,२६.४२०,२१,६.८१३
महामोह राजाकी समस्त सेनाके सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होती है, इससामान्य |२८६,३० (पं स में२०
८०,८२,८४
लिए मोह रागद्वेष रूपी उपर ज कोका अभाव होनेसे चैतन्यके विकारक स्थान
८८,६०,६१ का कारण नहीं होतो इसलिए कार्यभूत बन्धको अकारणभूततासे और नहीं) ! E२,६३,६,१०
कार्यभूत मोक्षकी कारणभूततासे क्षायिकी ही क्यो न माननी चाहिए। ३ अनाहारक
२६.१० प.ध/उ १०२४-१०२५ न्यायादप्येवमन्येषा मोहादिधातिकर्मणाम् । | अयोगी
यावांस्तत्रोदयाज्जातो भावोऽस्त्यौदयिकोऽखिल ।१०२४। तत्राप्यस्ति
नहीं)
२८,२६,३०,
२७,२८,२६,
८.६
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदयकाल
४०९
१. सदीरणाका लक्षण व निर्देश
विवेकोऽयं श्रेयानत्रादितो यथा। वैकृतो मोहजो भाव शेष सर्वोऽपि लौकिक ।१०२५। इसी न्यायसे मोहादिक घातिया कर्मोके उदयसे तथा अघातिया कर्मों के उदयसे आत्मामें जितने भी भाव होते हैं, उतने वे सब औदयिक भाव हैं।०२४। परन्तु इन भावोंमें भी यह भेद है कि केवल मोहजन्य वैकृति भाव ही सच्चा विकारयुक्त भाव है और बाकी के सब लोकरूढिसे विकारयुक्त औदयिक भाव है ऐसा समझना चाहिए ।१०२५॥ उदयकाल-दे काल १। उदयदेव-(जीवन्धर चरित्र प्र.८/A.N.UP) आप ई.७७०-८६० के एक दिगम्बर आचार्य थे। वादीभसिह आपकी उपाधि थी-दे. वादीभसिंह । (ती.३/२५) उदयनाचार्य-किरणावलीके रचयिता नैयायिक भाष्यकार।
समय-ई १८४ (तो २/३५१); (विशेष दे न्याय १/७)। उदय पर्वत-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे.विद्याधर। उदयसेन-१ लाडबागड संघकी गुर्वावली के अनुसार (दे. इतिहास ७/१०) आप गुणसेन प्रथमके शिष्य तथा नरेन्द्रसेनके सधर्मा थे। समय-वि १९५५ (ई. १०६८) २. उपरोक्त ही संघकी गुर्वावलीमें नरेन्द्रसेनाचार्य के शिष्य । समय–वि. ११८० (ई ११२३/A.N.Up) (सिद्धान्तसार संग्रहको प्रशस्ति १२/८८-६५), (आ. जयसेन कृत धर्मरत्नाकर ग्रन्थकी प्रशस्ति१), (सिद्धान्तसार संग्रह/प्र.८/AN.Up (दे इतिहास ७/१०) उदया-भारतीय इतिहास १/५०१) शिशु नागवंशका एक राजा। उदयादित्य-१.भोजवंशी राजा जयसिंहके पुत्र,नरवकि पिता, मालवा देशके राजा । समय-वि.१११५-११५० (ई १०५८-१०९३) । (दे इतिहास २१)। २. उदयादित्याल कारके रचयिता एक कन्नड कवि । समय-ई. ११५० । (ती. ४/३११) । उदयाभावी क्षय-दे, क्षय । उदयावली-दे आवलो। उदराग्नि प्रशमन वृत्ति-दे भिक्षा १/७ । उदासीन निमित्त-लक्षण-दे निमित्त १. इसकी कथंचिव
मुख्यता-गौणता सम्बन्धी विषय-दे कारण III उदाहरण-दे. दृष्टान्त उदीच्य-उत्तर दिशा उदीरणा-कर्मके उदयकी भाँति उदीरणा भी कर्मफलकी व्यक्तता
का नाम है परन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि किन्हीं क्रियाओं या अनुष्ठान विशेषोके द्वारा कम को अपने समयसे पहले ही पका लिया जाता है। या अपकर्षण द्वारा अपने काल से पहले ही उदयमें ले आया जाता है । शेष सर्व कथन उदयवत् ही जानना चाहिए। कर्म प्रकृतियोंके उदय व उदीरणाकी प्ररूपणाओं में भी कोई विशेष अन्तर नही है । जो है वह इस अधिकारमें दरशा दिया गया है। १ उदीरणाका लक्षण व निर्देश
१ उदीरणाका लक्षण २ उदीरणाके भेद ३ उदय व उदीरणाके स्वरूपमे अन्तर ४ उदीरणासे तीव्र परिणाम उत्पन्न होते है ५ उदीरणा उदयावलीकी नही सत्ताकी होती है
६ उदयगत प्रकृतियों की ही उदीरणा होती है। * बध्यमान आयकी उदीरणा नही होती -दे. आयु ६ * उदीरणाकी आबाधा
-दे. आवाधा २ कर्म प्रकृतियोंकी उदीरणाव उदीरणास्थान प्ररूपणाएँ १ उदय व उदीरणाकी प्ररूपणाओमे कथचित् समानता
व असमानता २ उदीरणा व्युच्छित्तिकी ओघ आदेश प्ररूपणा ३ उत्तर प्रकृति उदीरणाकी ओघ प्ररूपणा
(सामान्य व विशेष कालकी अपेक्षा) ४ एक व नाना जीवापेक्षा मूल प्रकृति उदीरणाकी ओघ
आदेश प्ररूपणा ५ मूल प्रकृति उदीरणास्थान ओघ प्ररूपणा * मूलोत्तर प्रकृतियोको सामान्य उदय स्थान प्ररूपणाएँ
(प्रकृति विशेषता सहित उदयस्थानवत्) * प्रकृति उदीरणाकी स्वामित्व सन्निकर्ष व स्थान प्ररूपणा
-. ध. १५/४४-१७ * स्थिति उदीरणाकी समुत्कीर्तना, भंगविचय व सन्निकर्ष प्ररूपणा
-दे. ध १५/१००-१४७ * अनुभाग उदीरणाकी देश व सर्वधातीपना, सन्निकर्ष, भंगविचय व भुजगारादि प्ररूपणाएँ
-दे.ध. १५/१७०-२३५ * भुजगारादि पदोके उदीरकोंकी काल, अन्तर व अल्प बहुत्व प्ररूपणा
-दे.ध. १४५० * बन्ध उदय व उदीरणाकी त्रिसंयोगी प्ररूपणा
-दे. उदय ७ १ उदीरणाका लक्षण व निर्देश
१ उदीरणाका लक्षण पं.सं./प्रा. ३/३...भुजणकालो उदो उदीरणापक्कपाचणफल ।-कर्मोंके फल भोगनेके कालको उदय कहते है और अपक्ककर्मोके पाचनको
उदीरणा कहते है। (प्र.सं/स. ३/३-४) ध.१५/४३/७ का उदीरणा णाम । अपकपाचणमुदीरणा । आवलियाए बाहिरट्ठिदिमादि कादूण उवरिमाण ठिदीर्ण बधावलियवदिक्कतपदेसग्गमसखेज्जलोगपडिभागेण पलिदोवमस्स असखेज्जदिभागपडिभागेण वा ओक्कडिदूण उदयावलियाए देदि सा उदीरणा। प्रश्नउदीरणा किसे कहते है। उत्तर--(अपक्व अर्थात) नहीं पके हुए कर्मोंको पकानेका नाम उदीरणा है । आवली (उदयावली) से बाहरकी स्थितिको लेकर आगेकी स्थितियोके, बन्धावली अतिक्रान्त प्रदेशाग्रको असंख्यातलोक प्रतिभागसे अथवा पत्योपमके असख्यातवें भाग रूप प्रतिभागसे अपकर्षण करके उदयावलीमें देना, यह उदीरणा कहलाती है। (ध.६/१,६-८,४/२१४), (गो.क./जी.प्र.४३६/५१२/८) पं.सं./प्रा. टी ३/४७/५ उदीरणा नाम अपक्कपाचनं दीर्घकाले उदेव्यतोऽप्रनिषेकाद अपकृष्याल्पस्थितिकाधस्तननिषेकेषु उदयावया दत्वा उदयमुखेनानुभूय कर्म रूपं त्याजयित्वा पुद्गलान्तररूपेण परिणमयतीत्यर्थ · । उदीरणा नाम अपक्कपाचनका है । दीर्घकाल पीछे
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उदोरणा
४१० २. कम प्रकृतियोंको उदीरणा व दीरणा स्थान प्ररूपणाएं
तियोको छोडकर (देखो आगे सारणी) शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। विशेषार्थ-सामान्य नियम यह है कि जहाँपर जिस कमका उदय होता है, वहाँपर उस कर्मकी उदीरणा अवश्य होती है-किन्तु इसमें कुछ अपवाद है (देखो आगे सारणी) (प सं/स ५/४४२) । ल सा./जी.प्र व भाषा ३०/६७/३ पुनरुदयवता प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदे
शाना चतुर्णामुदीरको भवति स जीव , उदयोदीरणयो स्वामिभेदाभावात् । प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग जे उदयरूप कहे तिनिहीका यहु उदीरणा करनेवाला हो है जात जाकै जिनिका उदय ताको तिनिहोकी उदीरणा भी सभवै । २ कर्म प्रकृतियोकी उदीरणा व उदीरणा स्थान
प्ररूपणाएँ १ उदय व उदीरणाकी प्ररूपणाओंमें कथचित समानता व असमानता सं.प्रा ३/४४-४७ उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जइ विसेसी। मोत्तण तिष्णि-ठाण पमत्त जोई अजोई या४४-स्वामित्व की अपेक्षा उदय और उदीरणामें प्रमत्त विरत, सयोगि केबली और अयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानोको छोडकर कोई विशेष नही है। (गो क./मू. २७८/४०७), (कर्मस्त ३८-३६) पंसं /प्रा.५/४७३ उदयस्सुदोरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो । मोत्तण य इगिदालं सेसाणं सध्यपयडीण ।४७३१ = वक्ष्यमा इकतालीस प्रकृतियोको छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नही है । (प.सं./प्रा.५/ ४७३-४७५), (गो क./म. २७८-२८१), (कर्मस्त. ३६-४३); (पं. सं./सं.३/५६-६०)
उदय आने योग्य अग्रिम निषेकोको अपकर्षण करके अल्प स्थिति वाले अधस्तन निषेकोमे या उदयावलो में देकर, उदयमुख रूपसे उनका अनुभवकर लेने पर वह कर्मस्कन्ध कमरूपको छोड़कर अन्य पुद्गलरूप से परिणमन कर जाता है। ऐसा तात्पर्य है । विशेष दे -उदय २१७
२ उदीरणाके भेद ध. १५/४३/५ उदीरणा चउबिहा--पयडि-ट्ठिदि-अणुभागपदेसउदीरणा
चेदि । - उदोरणा चार प्रकारकी है-प्रकृतिउदीरणा, स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा, और प्रदेशउदीरणा।
३ उदय व उदीरणाके स्वरूपमें अन्तर पं.स प्रा. ३/३ भुजणकालो उदो उदीरणापक्कपाचणकाल । कर्मका फल भोगनेके कालको उदय कहते है और अपक्क कर्मों के पाचनको उदीरणा कहते है। ध.६/१,६-८,४/२१३/११ उदय उदीरणाणं को विसेसो । उच्चदे-जे कम्म
खधा ओकड्डुबाडुणादिपओगेण विणा द्विदिक्वयं पाविदूण अप्पप्पणो फल देति,तेसि कम्मखधाणमुदओ त्ति सण्णा जे कम्मरवधा महंतेमु टिदि-अणुभागेसु अवठ्ठिदा अक्कडिदूण फलदाइणो कोरंति तेसिमुदीरणा त्ति सण्णा, अपपक्काचनस्य उदीरणाव्यपदेशात । -प्रश्न-उदय और उदीरणामें क्या भेद है । उत्तर-कहते है-जt कर्म-स्कन्ध अपकर्षण, उत्कर्षण आदि प्रयोगके बिना स्थिति क्षयको प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते है, उन कर्मस्कन्धोंकी 'उदय' यह संज्ञा है। जो महान् स्थिति और अनुभागोंमें अवस्थित कर्मस्कन्ध अपकर्षण करके फल देनेवाले किये जाते है.उन कर्मस्कन्धोकी 'उदीरणा' यह सज्ञा है, क्योंकि, अपक कर्म-स्कन्ध पाचन करनेको उदीरणा कहा गया है। (क पा सुत्त./मू गा. ५६/५.४६५) ४ उदीरणासे तीव्र परिणाम उत्पन्न होते हैं रा. वा. ६/६/१-२/१११/३२ बाह्याभ्यन्तरहेतूदीरणवशादुद्रिक्त परिणाम तीवनात स्थूलभावात तीव्र इत्युच्यते ।१० अनुदोरणप्रत्ययसनि धानात उत्पद्यमानोऽनुद्रिकक्त परिणामो मन्दनाव गमनात् मन्द इत्युच्यते । बाह्य और आभ्यन्तर कारणोसे कषायोंकी उदीरणा होनेपर अत्यन्त प्रवृद्ध परिणामोको तीब कहते है। इससे विपरीत अनुद्रिक्त परिणाम मन्द है। अर्थात् केवल अनुदोर्ण प्रत्यय(उदय)के सन्निधानसे होनेवाले परिणाम मन्द है।
५ उदीरणा उदयावलीकी नही सत्ताकी होती है ध.१५/१४/१णाणावरणीय-दसणावरणीय-अतराइयाण मिच्छाइद्विमादि कादूण जाव खोणकसाओ त्ति ताव एदे उदीरया। णवरि खीणकसायद्वाए समयाहियावलियसेसाए एदासि तिण्णं पयडीण उदीरणा वोच्छिण्णा। -ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अन्तराय तीन कोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त. ये जीव उदीरक है। विशेष इतना है कि क्षीण कवायके कालमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर इन तीनो प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। (इसी प्रकार अन्य ४ प्रकृतियोकी भी प्ररूपणा की गयी है। तहाँ सर्वत्र ही उदय व्युछित्तिवाले गुणस्थानको अन्तिम आवली शेष रहनेपर उन-उन प्रकृतियोंकी उदीरणाकी व्युच्छित्ति बतायी है)। पं.सं./प्रा टी ४/२२६ पृ. १७८ अत्रापक्कपाचनमुदीरणेति वचनादुदया
वलिकायां प्रविष्टाया कम स्थितेना॑दीरणेति मरणावलिकायामायुष' पदीरणा नास्ति। - अपक्कपाचन उदीरणा है' इस वचनपर-से यह मात जानी जाती है कि उदयावली में प्रवेश किये हुए निषेकों या कर्मस्थितिकी उदीरणा नहीं होती है। इसी प्रकार मरणावलीके शेष रहनेपर आयुकी उदीरणा नहीं होती है।
६ उदयगत प्रकृतियोंकी ही उदीरणा होती है 'सं./प्रा.४७३ उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो। मोत्तण य इगिदाल सेसाणं सव्वपयडीणं । वक्ष्यमाण ४१ प्रकृ
अपवाद संख्या
अपवाद गत ४१ प्रकृतियाँ
साता, असाता व मनुष्यायु इन तीनोकी उदय व्युच्छित्ति १४३ गुणस्थान में होली है पर उदोरणा व्युच्छित्ति ६ठे में। मनुष्यगति, पचेन्द्रिय जाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थकर, उच्चगोत्र इन १० प्रकृतियोकी उदय व्युच्छित्ति १४वे में होती है पर उदीरणा न्युच्छित्ति १३वे में। ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४, अन्तराय, इन १४ की उदय व्युच्छित्ति १२वे में एक आवली काल पश्चात होती है और उदीरणा व्युच्छित्ति तहाँ ही एक आवली पहले होती है । चारो आयुका उदय भवके अन्तिम समय तक रहता है परन्तु उदोरणाकी व्युच्छित्ति एक आवली काल पहले होती है। पाँचो निद्राओ का शरीर पर्याप्त पूर्ण होने के पश्चात इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने तक उदय होता है उदोरणा नही। अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थिति में एक आवली शेष रहनेपर- उपशम सम्यक्त्व सन्मुखके मिथ्यात्वका; क्षायिक सन्मुखके सम्यक् प्रकृतिका; और उपशम श्रेणी आरूढके यथायोग्य तीनो वेदोंका (जो जिस वेदके उदयसे श्रेणी चढा है उसके उस वेदका) इन सात प्रकृतियोका उदय होता है उदीरणा नही। जिन प्रकृतियोंका उदय १४वे गुणस्थान तक होता है उनकी
उदीरणा १३वे तक होती है (देखो ऊपर नं.२) ये सात अपवादवाली कुल प्रकृतियाँ ४१ है-इनको छोडकर शेष १०७ प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं।
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उदीरणा
२. उदीरणा व उदीरणा स्थान प्ररूपणाएं
गुण स्थान
उदोरणायोग्य
अनुदीरणा पुन उदीरणा
कुल उदीरणा | गुण स्थान | कुल उदीरणा योग्य कुल प्रकृति
विशेष
१२२१५
कुल प्रकृति
२ उदीरणा व्युच्छित्तिको ओघ आदेश प्ररूपणा
आदेश प्ररूपणा (पं.सं /प्रा./परिशिष्ट/पृ. ७४८); 4 सं /प्रा ३/४४-४८,५६-६०);
यथा योग्य रूपसे उदयवत जान लेना, केवल ओघवत् ६, १३वेब (गो.क.२७८-२८१/४०७-४१०)
१४३ गुणस्थानमें निर्दिष्ट अन्तर डाल देना उदोरणा योग्य प्रकृतियाँ-उदय योग्यवाली ही-१२२ संकेत-प्रकृतियों के छोटे नाम (देखो उदय ६१)
३. उत्तर प्रकृति उदीरणा को ओघ प्ररूपणा
(प.स./प्रा. ३/६-७); (रा.T६/३६/६/६३१), (पं.सं.३/१४-१६) व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ अनुदीरणा उद
प्रकृत गुण स्थानकी | प्रकृत गुण स्थानमें | मरण कालसे १
अवस्थामे कभी भी। अन्यतम प्रकृति की आवली पूर्व ओघ प्ररूपणा १। आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, तीर्थ,आहा |
विशेष
विशेष साधारण, मिथ्यात्व -५ द्वि सम्य., मिश्र -
६।१-४ इन्द्रिय जाति , अनन्तानुसन्धी| १| मनुष्यायु २१.४ इन्द्रिय, स्थावर, अन- नारकानुपूर्व ११२ १ १११
आतप, स्थावर, चतुष्क, चारों न्तानुमन्धी चतुष्क -६
सूक्ष्म, अपर्याप्त आनुपूर्वी, मनुमिश्र मोहनीय मनु. तिर्य. मिश्रमोह/१०२ ३ ११००
साधारण
मनुष्य यु | देव-आन.
| १ सम्यग्मिध्यात्व ४ | अप्र. चतु, वैक्रि. द्वि, नरक
चारो ६६५५१०४४१८८ | अप्रत्याख्यानावरण दुर्भग, अनादेय ७/चारों आनत्रिक, देव त्रिक, मनु तिर्य. आनु.,
४, नरक व देवगति, अयश, सम्यक | पूर्वी,मन ष्यआनु.. दुर्भग, अनादेय, सम्य |
बैंक्रियक शरीर व| प्रकृति, मनु- वनरक आयु अयश -१७
अंगोपांग
ध्यायु ५ प्रत्या चतु, तिर्य आयु, नीच
१९९८ प्रत्याख्यानावरण ४,२ सम्यक प्रकृति, २| मन ष्य व गोत्र, तिर्य गति,उद्योत
तियंचगति, उद्योत, ।
आहा. आहा. द्वि. स्त्यानगृद्धि.
|तियंच आयु
मनुष्यायु ७४ | |
नोचगोत्र निद्रा निद्रा, प्रचला चला,
निद्रा निद्रा, प्रचला, ४ सम्यक् प्रकृति, ३ मन घ्यायु, साता असाता, मनुष्यायु-८
प्रचला,स्त्यानगृद्धि मनुष्यायु,आहासम्य, मोह, अर्धनाराच,
आहारक
साता असाता | कीलित, सृपाटिका -४
रक शरीर व
शरीर व
अंगोपांग अगोपांग ८/१ | हास्य, रति, भय,जुगुप्सा-४
| नीचेवाली तीनों अरति, शोक
| १ सम्यकप्रकृति | | संहनन
६३८६ हास्य, रति, अरति, ६/११ सवेद भागमें तीनों वेद
शोक भय, जुगुप्सा
तीनों वेद, संज्वलन ६/७ मान
क्रोध. मान, माया / माया
सज्वलन लोभ १/8/ लोभ (बादर)
बज्र नाराच, नाराच १० लोभ (सूक्ष्म)
संहनन ११ बज्र नाराच, माराच
२ नद्रा, प्रचला १२/ निद्रा, प्रचला
५२१२/ १४ ।
१४/५ ज्ञानावरण १२/५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण,
४ दर्शनावरण अन्तराय -१४
५ अन्तराय १३। (नाना जीवापेक्षा) :-वज्रऋषभनाराच, तीर्थङ्कर ३८ १३६ निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ,
११३ ३८३८ मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक सुस्वर, दु'स्वर,प्रशस्त-अप्रशस्त,विहायो,
शरीर व अंगोपांग, तैजस व कार्मण औदा-द्वि, तेजस, कार्माण, ६ संस्थान,
शरीर, छहों संस्थान, वज्रऋषभ नाराच वर्ण रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात.
संहनन, वर्ण गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, परघात, उच्छ्वास, प्रत्येक शरीर-२६
उपघात, उच्छ्वास, प्रशस्ताप्रशस्वमनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, सुभग,त्रस,
विहायोगति,त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, भादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थङ्कर,
स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, उच्चगोत्र =१०
मुस्वर, दुःस्वर, आदेय, यश, निर्माण, ३६
| उच्चगोत्र, तीर्थङ्कर १४ xxx
बंत
१/4 क्रोध
Wwwwx बलल
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उदीरणा
४१२
२. उदीरणा व उदीरणा स्थान प्ररूपणाएं
४ एक व नानाजीवापेक्षा मूलप्रकृति उदीरणाको ओघ आदेश प्ररूपणा १ ओध प्ररूपणा ( सं./प्रा. ४/२२२-२२६): (स/सं ४/८६-११), (शतक २६-३२), (ध, १५/४४) गुण । एक जीवापेक्षया काल । एक जीव पेक्षया अन्तर ।
नाना जीवापेक्षया अल्प बहुत्व नाम प्रकृति
जघन्य उत्कृष्टजधन्य । उत्कुष्ट । अल्प बहुत्व । विशेषका प्रमाण
१ या २समय १ आवली कम | १ आवली अन्तर्मुहर्त | सर्वत स्तोक
३३ सागर
अर्ध.पु परिव.] १ समय
| विशेषाधिक
आयु(केवल आवली काल १
अवशेष रहते) स्व स्थितिके अन्त तक | २-६ वेदनीय मोहनीय ज्ञानावरणी दर्शनावरणी १-१२ अन्तराय
१--१२ नाम गोत्र
१-१०
अन्तिम आवली में संचित अनन्त ७-१० गुण स्थान वाले जीव १-१२ " उपरोक्तवत
१-१२
अनादि सान्त अनादि अनन्त निरन्तर
उपरोक्तवत
१-१३
विशेषाधिक । उपरोक्तवत्
सयोगो केवली प्रमाण उपरोक्तवत
२. आदेश प्ररूपणा (दे. ध. १५/४७)
५. मूल प्रकृति उदीरणा स्थान ओध प्ररूपणा
(पं. स./प्रा ३/६); (पं.सं प्रा.४/२२२-२२६), (वंस स. ३/१४) (प. स /सं.४/८६-११); (शतक २६-३२), (ध. १५/४८-५०) सकेत -आ =आवली
एक जीवापेक्षया काल
एक जीवापेक्षया अन्तर
स्थानका विवरणगुण स्थान
गुण स्थानके अन्त तक या कुछ काल शेष रहते
जघन्य
उत्कृष्ट
जघन्य
उत्कृष्ट
अतर्मुहूर्त
३३ सागर
१ आवली
अर्ध.पु. परि.
| आठो कर्म |१-६ अन्त तक
| १,२ समय३३ सागर-१आ । १ आवली | आयु बिना ७ कर्म (१,२,४,५,६ अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर
१आवली क्षुद्र भव
१आवली
यह गुण स्थान नहीं होता आयु व वेदनी बिना ६७-१० । अन्त तक
१,२ समय अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहुर्त | आयु वेदनी व मोहके । १० आ शेष रहनेपर बिना-कर्म ।
११-१२ अन्त तक नाम ब गोत्र-२ कर्म आ. शेष रहनेपर अन्तर्मुहूर्त कुछ कम निरन्तर
१ पूर्व कोडि अन्त तक
५
निरन्तर
-
नाना जीवापेक्षा अन्तर
अल्प बहुत्व
जघन्य १ समय
। उत्कृष्ट । ६ मास
सर्वत.स्तोक
गुण स्थानके नाना जीवापेक्षया काल स्थानका विवरण | गुण स्थान अन्त तक या कुछ
काल शेष रहते जघन्य उत्कृष्ट १ | आयु, मोह, वेदनीयके । ११-१२
१समय । अन्तर्मुहूर्त बिना ५ कर्म | नाम गोत्र २ कर्म
सर्वदा सर्वदा ३ | आयु वेदनी बिनाकर्म | ७
आयु बिना ७ कर्म . सर्व ही८ कर्म ...
। निरन्तर
निरन्तर
सं, गुणे
अनन्त गुणे स. गुणे.
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उदीर्ण
४१३
उद्देश्यतावच्छेदक
अणुमणचित
१२८-सा
एकेन्द्रिय आहार हो
उदीर्ण- १३/४,२,१०,२/३०३/३ फलदानृत्वेन परिणत कर्म पुद्गलस्कन्ध उदीर्ण । -फलदान रूपसे परिणत हुआ कर्म-पुद्गल स्कन्ध उदीर्ण हुआ कहा जाता है। उदगम-१. आहारका एक दोष-दे आहार II/४/१,४,१. बसतिका
का एक दोष-दे वसतिका । उहावण-(ध १३/२,४,२२/४६/११) जीवस्य उपद्रवण उद्दावण णाम।
-जीवका उपद्रव करना ओदावण कहलाता है। उद्दिष्ट-१ आहारकका औद्देशिक दोष
१ दातार अपेक्षा म्. आ /मू ४२५-४२६ देवदपास डट किविण8 चावि जंतु उद्दिसिय क्दमण्णसमुद्दे स चतुविधं वा समासेण ।४२५ जावदिय उद्दसो पासंडोत्ति य हवे समुद्दे सो। समणोत्ति य आदेसो णिग्गंथोत्ति य हवे समादेसो ।४२६ - नाग यक्षादि देवताके लिए, अन्यमती पाखंडियों के लिए. दीनजन कृपणजनों के लिए, उनके नामसे बनाया गया भोजन औहशिक है। अथवा सक्षेपसे समौद्देशिक के कहे जानेवाले चार भेद है ।१२५॥ १-जो कोई आयेगा सबको देगे ऐसे उद्देशसे किया (लगर खोलना) अन्न याचानुद्दे श है; २ पारख डी अन्यलिगीके निमित्तसे बना हुआ अन्न समुद्देश है, ३ तापस परिव्राजक आदिके निमित्त बनाया भोजन आदेश है , ४. निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधुओके निमित्त बनाया गया समादेश दोष सहित है। ये चार
औद्देशिकके भेद है। प पु. ४/६१-६७ इत्युक्ते भगवानाह भरतेय न कल्पते । साधूनामीदृशी भिक्षा या तह शसस्कृता ।811 -एक बार भगवान् ऋषभदेव ससंघ अयोध्या नगरीमें पधारे। तब भरत अच्छे-अच्छे भोजन बनवाकर नौ करके हाथ उनके स्थान पर ले गया और भक्ति-पूर्वक भगवानसे प्रार्थना करने लगा कि समस्त सघ उस आहारको ग्रहण करके उसे सन्तुष्ट करें । ११-६४. भरतके ऐसा कहने पर भगवान ने कहा कि हे भरत ' जो भिक्षा मुनियोके उद्देश्य से तैयार की जाती है, वह उनके योग्य नहीं है-मुनिजन उद्दिष्ट भोजन ग्रहण नहीं करते ।। श्रावकोके घर ही भोजनके लिए जाते है और वहाँ प्राप्त हुई निर्दोष भिक्षाको मौनसे खड़े रहकर ग्रहण करते है ।६६-१७) भ, आ/वि ४२१/६१३/८ श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्तादिक उद्दे सिगमित्युच्यते । तच्च षोडशविध आधाकर्मादि विकल्पेन । तत्परिहारो द्वितीय स्थितिकल्प । तथा चोक्त कल्पे--सोलसविधमुद्दे स वज्जेदवति मुरिमचरिमाणं । तित्थगराण' तित्थे ठिदिकप्पो होदि विदिओ हु। -मुनिके उद्देशसे किया हुआ आहार, वसतिका वगैरहको उद्देशिक कहते है। उसके आधाकर्मादिक विकल्पसे सोलह प्रकार है। (देखो आहार II/४ मे १६ उद्गमदोष)। उसका त्याग करना सो द्वितीय स्थिति क्रूप है। कल्प नामक ग्रन्थ अर्थात कल्पसूत्रमे इसका ऐसा वर्णन है--श्री आदिनाथ तीर्थकर और श्री महावीर स्वामी (आदि और अन्तिम तीर्थ करो) के तीर्थ में १६ प्रकार के उहशका परिहार करके आहारादि ग्रहण करना चाहिए, यह दूसरा स्थितिकल्प है। स.सा/ता वृ २८७ आहारग्रहणात्पूर्व तस्य पात्रस्य निमित्त यत्किमप्य
शनपानादिक कृत तदोपदेशिक भण्यते । अध कर्मोपदेशिक च पुद्गलमयत्वमेतद् द्रव्य । -आहार ग्रहण करनेसे पूर्व उस पात्रके निमित्तसे जो कुछ भी अशनपानादिक बनाये गये है उन्हे औपदेशिक कहते है। अध कर्म और औपदेशिक ये दोनो ही द्रव्य पुद्गलमयी है।
२ पात्रकी अपेक्षा मू. आ ४८५,६२८ पगदा असओ जम्हा तम्हादो दव्वदोत्ति त दव। 'फासगमिदि सिद्ध वि य अप्पट्ठकदं असुद्ध तु ॥४८५ पयण वा
पायण वा अणुमणचित्तो ण तत्थ बोहेदि । जेम-तोवि सधादी णवि समणो दिठ्ठि संपण्णो ।१२८१-साधु द्रव्य और भाव दोनोसे प्रासुक द्रव्यका भोजन करे। जिसमें से एकेन्द्रिय जीव निकल गये वह द्रव्य-प्रासुक आहार है। और जो प्रासुक आहार होनेपर भी 'मेरे लिए किया है। ऐसा चिन्तन करे बह भावसे अशुद्ध जानना । चिन्तन नही करना वह भाव-प्रामुक आहार है।४८५। पाक करने में अथवा पाक करानेमें पाँच उपकरणोके (पंचसूनासे) अध कर्म में प्रवृत्त हुआ, और अनुमोदनासे प्रवृत्त जो मुनि उस पचनादिसे नहीं डरता है,वह मुनि भोजन करता हुआ भी आत्मघाती है। न तो मुनि है और न सम्यग्दृष्टि है ।।२८
३ भावार्थ उद्दिष्ट वास्तव में एक सामान्यार्थ वाची शब्द है इसलिए इसका पृथक्से
कोई स्वतन्त्र अर्थ नहीं है। आहारके ४६ दोषों में जो अध कर्मादि १६ उद्गम दोष है वे सब मिलकर एक उद्दिष्ट शब्दके द्वारा कहे जाते हैं। इसलिए 'उद्दिष्ट' नामक क्सिी पृथक् दोषका ग्रहण नहीं किया गया है। तिसमें भी दो विकल्प है-एक दातारकी अपेक्षा उद्दिष्ट
और दूसरा पात्रकी अपेक्षा उद्दिष्ट । दातार यदि उपरोक्त १६ दोषोंसे युक्त आहार बनाता है तो वह द्रव्यसे उद्दिष्ट है, और यदि पात्र अपने चित्तमें, अपने लिए बनेका अथवा भोजनके उत्पादन सम्बन्धी किसी प्रकार विकल्प करता है तो वह भावसे उद्दिष्ट है। ऐसा आहार साधुको ग्रहण करना नहीं चाहिए । २ वसतिकाका दोष (भ. आ/वि २३०१४४३/१३) यावन्तो दीनानाथकृपणा आगच्छन्ति लिड गिनो वा, तेषामिमित्यद्दिश्य कृता, पाष डिनामेवेति वा, श्रमणानामेवेति वा, निर्ग्रन्थानामेबेति सा उद्दे सिगा बसदिति भण्यते । 'दीन अनाथ अथवा कृपण आवेगे, अथवा सर्वधर्म स धु बावेगे, क्विा जैनधर्मसे भिन्न ऐसे साधु अथवा निम्रन्थ मुनि आवेगे उन सब जनोको यह वसति होगी' इस उद्देश्य से बॉधी गई वसतिका उद्देशिक दोषसे दृष्ट है।
३ उदिष्ट त्याग प्रतिमा (अ ग श्रा ७/७७) यो अधुराबधुरतुल्यचित्तो, गृहाति भोज्य नवकोटिशुद्ध । उद्दिष्टवर्जी
गुणिभि स गीतो, विभीलुक समृति यातुधान्या ७७। जो पुरुष भले-बुरे आहार में समान है चित्त जाका ऐसा जो पुरुष नवकोटिशुद्ध कहिये मन बचनकायकरि करचा नाही कराया नाहीं परे हुएको अनुमोद्या नाही ऐसे आहारको ग्रहण कर है सो उहिष्ट त्यागी गुणवंत निने वह्या है। कैसा है, सो ससार रूपी राक्षसीसे विशेष भयभीत है। * उद्दिष्ट आहारमे अनमति का दोष-दे. अनुमति ३ * उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाके भेद रूप क्षुल्लक व ऐलकका
निर्देश-दे श्रावक १ * क्षुल्लक व ऐलकका स्वरूप-दे वह वह नाम उद्देश-न्या सू /भा /१/१/२/८/६ नामधेयेन पदार्थ मात्रस्याभिधान
मुददेश । -- पदार्थों के नाममात्र थिनको उद्देश कहते है। न्या यदो १/३ विवेक्तव्यनाममात्रकथनम् द्देश ।-विवेचनीय वस्तु
के केवल नामोल्लेख करनेको उद्देश कहते है। उद्देशिक-दे. उद्दिष्ट। उद्देश्य-विवक्षित धर्मी। उदेश्यता-उद्देश्य मे रहनेवाला धर्म-जैसे घटमें घटत्व । उद्देश्यतावच्छेदक-एक धर्मीको अन्य धर्मीसे व्यावृत्त करने वाला 'स्व' प्रत्यय युक्त धर्म विशेष ।
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उद्धारदेव
४१४
उपकार
उद्धार देव-भूत चौबीसीमें दसवें तीर्थंकर--दे. तीर्थकर ५ उद्धार पल्य-कालका प्रमाण-दे. गणित !/१/५ उद्धार सागर-कालका प्रमाण-दे गणित I/१/५ उधत-(गो जी./सदृष्टि अधिकार) भाग की हुई राशि। उद्धाव-उत्पत्ति। उद्धिन्न- आहारका एक दोष--दे. आहार II/४/४; २ वसतिका
एक दोष-दे, वसतिका। उभ्रान्त-प्र. नरकका पाँचवाँ पटल--दे. नरक ५/११ व रत्नप्रभा उद्यवन-(भ. आ./वि.२/१४/१५)उत्कृष्ट यवनं उद्यवनं ।...तत्कर्थ दर्शनादिभिरात्मनो मिश्रण मिति । असकृद्दर्शनादिपरिणतिरुधवन । - उत्कृष्ट मिश्रण होना उद्यवन है, अर्थात आत्माको सम्यग्दर्शनादि परिणति होना उद्यवन शब्दका अर्थ है। प्रश्न-सम्यग्दर्शनादि तो आत्मासे अभिन्न हैं, तब उनका उसके साथ सम्मिश्रण होना कैसे कहा जा सकता है । उत्तर--यहाँ पर उद्यवन शब्द का सामान्य सम्बन्ध ऐसा अर्थ समझना चाहिए । अर्थात बारम्बार सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे आत्माका परिणत हो जाना उद्यवन शब्दका अर्थ है। धन. ध १/६६।१०४ दृष्ट्यादीना मलनिरसनं द्योतन तेषु शश्वद्ग,-- वृत्ति स्वस्योद्मवनमुदित धारणं निस्पृहस्य ।-दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इन चारों आराधनाओमें लगनेवाले मलोंके दूर करनेको उद्योत कहते है। इन्हीं में इनके आराधकके नित्य एकतान होकर रहनेको उद्यवन कहते है। उद्यापन-उपवासके पश्चात उद्यापनका विधान ।
-दे. प्रोषधोपवास ३ उद्योत-१. आध्यात्मिक लक्षण भ. आ./वि.१/१४/६ उद्योतनं शङ्कादिनिरसन सम्यक्त्वाराधना श्रुतनिरूपिते वस्तुनि संशयप्रतिसज्ञिताया अपाकृति । अनिश्चयो बैपरीत्य वा ज्ञानस्य मलं, निश्चयेनानिश्चयव्युदास.। यथार्थतया वैपरीत्यस्य निरासो ज्ञानस्योद्योतन भावनाविरहो मलं चारित्रस्य, तासु भावनासु वृत्तिरुद्योतनं चारित्रस्य । तपसोऽसयमपरिणाम. कलङ्कतया स्थितिस्तस्यापप्रकृति' संयमभावनया तपस उद्योतनं । -शका काक्षा आदि दोषोंको दूर करना यह उद्योतन है। इसको सम्यक्त्वाराधना कहते है। जिसको सशय भी कहते है ऐसी शंकादिको अपने हृदयसे दूर करना (सम्यक्त्वका) उद्योतन है। निश्चय न होना अथवा उलटा निश्चय होना, यह ज्ञानका मल है। जब निश्चय होता है, तब अनिश्चय नहीं रहता। यथार्थ वस्तुज्ञान होनेसे विपरीतता चली जाती है। यह ज्ञानका उद्योतन है । भावनाओंका त्याग होना चारित्रका मल है अर्थात भावनाओंमें तत्पर होना ही चारित्रका उद्योतन है। असंयम परिणाम होना, यह तपका कलकं है संयम-भावनामें तत्पर रहकर उस कलकको हटाकर तपश्चरण निर्मल बनाना तपका उद्योतन है। भौतिक लक्षण-(स, सि. ५/२४/२६६/१०) उद्योतश्चन्द्रमणिखद्योतादिप्रभव. प्रकाश.1 -चन्द्र, मणि और जुगनु आदिके निमित्त जो प्रकाश पैदा होता है उसे उद्योत कहते है। (रा. वा./२४/१६/ ४८६/२१).(त.सा. ३/७१), (द्र सं./टी १६/५३) घ. ६/१४--१,२८/६०/६ उद्योतनमुद्योत । -उद्योतन अर्थात चमकने
को उद्योत कहते हैं। गो. क./मू-३३/२६ अण्हूणपहा उज्जोओ। उष्णता रहित प्रभाको उद्योत कहते हैं।
२. उद्योत नाम कर्मका लक्षण स सि. ८/११/६६१/५ यन्निमित्तमुद्योतन तदुद्योतनाम । तच्चन्द्ररखद्योतादिषु वर्तते। जिसके निमित्तसे शरीरमें उद्योत होता हे वह उद्योत नाम-कर्म है। वह चन्द्रबिम्ब और जुगन आदिमे होता है। (रा.वा ८/११/१६/५७८/७);(ध ६/१,१-१,२८/६०18),(ध. १३/५५,१०/३६५/१); (गो.क /जी.प्र. ३३/२६/२१) उद्योतन सूरि-आप 'कुवलयमाला' नाम ग्रन्थके रचयिता एक श्वेताम्बराचार्य थे। यह कृति आपने वि.८३५ (ई.७७८) में समाप्त की थी। (ह पु/प्र/प, पन्नालाल), (वरांगचरित्र/प्र २१/पं.खुशालचन्द), (ती. ३/२८७)। उद्वग-नि सा/ता वृ६ इष्टवियोगेषु विक्लवभाव एवोद्वेग ।
इष्टके वियोगमें विल्कवभाव या घबराहटका भाव होना उद्वेग है । उद्वेष-पृथिवी त्नपर या बीचमें चौडाई। उद्वेलन-दे सक्रमण ४॥ उद्वेल्लिम-तद्वयतिरिक्त द्रव्य निक्षेपका एक भेद । -दे.निक्षेप५/ उन्मग्ना-विजयाईकी गुफाओमें स्थित नदी। दे लोक ३/५॥ ति, प ४/२३८ णियजलपवाहपडिदं दवं गरुव णेदि उवरिम्मि।
जम्हा तम्हा भण्णइ उम्मग्गा वाहिणी एसा। क्योंकि, यह अपने जलप्रवाहमें गिरे हुए भारीसे भारी द्रव्यको भी ऊपर ले आती है। इसलिए यह नदी उन्मग्ना कही जाती है । (रा बा, ३/१०/४/१७५/ ३३): (त्रि.सा ५६४) * उन्मग्ना नदीका लोकमे अवस्थानादी-दे. लोक ३/७ उन्मत्त-कायोत्सर्गका एक अतिचार-(दे. व्युत्सर्ग १)। उन्मत्तजला-पूर्व विदेह की एक विभंगा नदी। दे. लोक ५/उन्मान-दे. प्रमाण ५। उन्मिश्र-१ आहारका एक दोष-दे,आहार II/४/४,२ वस्तिकाका
एक दोष-दे. वस्तिका। उपकरण-ध.६/१,१,३३/२३६/३ उपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणम् -- जिसके
द्वारा उपकार किया जाता है उसे उपकरण कहते है | संयमोपकरण-प्रसा/ता, वृ २२३/१) निश्चयव्यवहारमोक्षमार्ग
सहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिद्धमुपकरण रूपोपधि अप्रार्थनीय-भावसंयमरहितस्यासंयतजनस्यानभिलषणीयम्। -निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग के सहकारीकारण रूपसे अप्रतिषिद्ध जो उपकरण रूप उपाधि वह भाव संयमसे रहित असं यत जनोके द्वारा प्रार्थना या अभिलाषा की जाने योग्य नहीं होनी चाहिए। * उपकरण इन्द्रिय-दे. इन्द्रिय १
* जिन प्रतिमाके १०८ उपकरण द्रव्य-दे. चैत्य १/११ उपकार-उपकरणाका सामान्य अर्थ निमित्त रूपसे सहायक होना है। वह दो प्रकार है-खोपकार व परोपकार। यद्यपि व्यवहार मार्गमें परोपकार की महत्ता है, पर अध्यात्म मार्गमे स्वोपकार ही अत्यन्त इष्ट है, परोपकार नहीं।
१. उपकार सामान्यका लक्षण स. सि. ५/१७/२८२/२ उपक्रियत इत्युपकार. । क पुनरसी। गत्युपग्रहः स्थित्युपग्रहश्च । -उपकारकी व्युत्पत्ति 'उपक्रियते' है। प्रश्न-यह उपकार क्या है । उत्तर-(धर्म द्रव्यका) गति उपग्रह और (अधर्म द्रव्यका) स्थिति उपग्रह, यही उपकार है।
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उपकार
उपकार
२ स्वव पर उपकार (और भी दे आगे नं.३) स, सि.७/३८/३७२/१३ स्वपरापकारऽनुग्रह ।. स्वोपकार पुण्यसचय परोपकार सम्यग्ज्ञानादिवृद्धि । -स्वयं अपना अथवा दूसरेका उपकार करना अनुग्रह है । दान देनेसे जो पुण्यका संचय होता है वह अपना उपकार है (क्योकि उसका फल भोग स्वयं को प्राप्त होता है ), तथा जिन्हे दान दिया जाता है उनके सम्यग्ज्ञानादिकी वृद्धि होती है, यह परका उपकार है, (क्योकि इसका फल दूसरेको प्राप्त होता है । (रा. वा ७/३८/१/५५६/१५)।
३ उपकार व कर्तृत्वमे अन्तर रा वा १/१७/१६/४६२/५ स्यादेतत-गतिस्थित्यो धर्मा-धर्मों कर्तारौ इत्ययमर्थप्रसक्त इति तन्न कि कारणम् । उपकारवचनात् । उपकारी बलाधानम् अवलम्बन मित्यनर्थान्तरम् । तेन धर्माधर्मयो गतिस्थितिनितिने प्रधानक्र्तृत्वमपोदितं भवति । यया अन्धस्येतरस्य वा स्वजडवाबलाद्वगच्छत यष्टयाद्य पकारक भवति न तु प्रेरक तथा जीवपुद्गलाना स्वशक्त्यैव गच्छता तिष्ठता च धर्माधर्मी उपकारको न प्रेरकौ इत्युक्त भवति । प्रश्न---धर्म और अधर्म द्रव्योको गति स्थितिका उपकारक कहनेसे उनको गति स्थिति करानेका कर्तापना प्राप्त हो जाएगा । उत्तर---ऐसा नही है ,क्यो कि, 'उपकार' शब्द दिया गया है । उपकार, बलाधान व अबलम्बन इन शब्दोका एक ही अर्थ होता है अत. इसके द्वारा धर्म और अधर्म द्रव्योंका गति स्थिति उत्पन्न करने में प्रधान कर्तापनेका निषेध कर दिया गया। जैसे कि स्वय अपने ज घाअल से चलनेवाले अन्धेके लिए लाठी उपकारक है प्रेरक नहीं, उसी प्रकार अपनी अपनी शक्तिसे चलने अथवा ठहरने वाले जीव व पुहगलद्रव्योको धर्म और अधर्म उपकारक है प्रेरक नहीं।
४ उपकार करके बदला चाहना योग्य नहीं कुरल २२/१ नोपकारपरा सन्त प्रतिदान जिघृक्षया। समृद्ध किमसौ लोको मेधाय प्रतियच्छति ।१३ -महापुरुष जो उपकार करते है, उसका बदला नहीं चाहते। भला ससार जल-बरसानेवाले बादलोंका बदला किस प्रकार चुका सकता है। ५ शरीरका उपकार अपना अपकार है और इसका
अपकार अपना उपकार है। इ उ १६ यज्जोवस्योपकाराय तत्देहस्यापकारकम् । यदेहस्योपकराय तज्जोबस्यापकारकम् ।१६।-जो तपादिक आचरण जीवका उपकारक है वह शरीरका अपकारक है । और जो धनादिक शरीरके उपकारक
है वे जीवके अपकारक है। अन.ध.४/१४१--१४२/४५७ योगाय कायमनुपालयतोऽपि युक्त्या, क्लेश्यो ममत्वहतये तव सोऽपि शक्त्या। भिक्षोऽन्यथाक्षसुखजीवीतरन्धलाभात तृष्णासरिद्विधुरयिष्यति सत्तपोऽद्रिम् ॥१४१नै ग्रन्थ्यवतमास्थितोपि वपुषि स्निह्यन्नसह्यव्यथा, भीरु वितवित्तलालसतया पञ्चत्वचेक्रोसितम्। याञ्चादै न्यमुपेत्य विश्व महिता न्यक कृत्य देवों प्रपा, निर्मानो धनिनिष्ण्य सघटनयास्पृश्या विधत्ते गिरम् ।१४२॥ . हे चारित्रमात्रगात्र भिक्षो । योगसिद्धि के लिए पालते हुए भी इस शरीरको. युक्तिके साथ--शक्तिको न छिपाकर ममत्व बुद्धि दूर करने के लिए क्लेश देकर कृश कर देना चाहिए। अन्यथा यह निश्चित जानकि यह तृष्णारूपी नदी, ऐन्द्रिय-सुख और जीवन स्वरूप दो छिद्रोंको पाकर समीचीन तपरूपी पर्वतको जर्जरित कर डालेगी ।१४११ नै ग्रन्थ्य व्रतको भी प्राप्त करके भी जो साधु शरीरके विषयमें स्नेह करता है, वह अवश्य ही सदा असह्य दुरवोसे भयभीत रहता है। और इसीलिए वह जीवन व धनमे तीव्र लालसा रखकर याचनाजनित दीनताको प्राप्त कर, अत्यन्त प्रभाव युक्त देवी लज्जाका अभिभव करके, अपनी जगपूज्य वाणीको अन्त्यजनोके समान,
दयादाक्षिण्यादिसे रहित धनियोसे सम्पर्क क्रावर अस्पृश्य बना देता है ।१४२। ६ निश्चयसे कोई किसीका उपकार या अपकार नहीं
कर सकता स सा /पू २६६ दुविखदसु हिदे जोवे करेमि वधेमि तह विमोचेमि । जा एसा मूढमई णिरत्थया साहु दे मिच्छा ।२६६। - हे भाई । मै जीवोंको दुखी-सुखी करता हूँ, बॉधता हूँ तथा छडाता हूँ, ऐसी जो तेरी यह मूढमति है वह निरर्थक होनेसे वास्तबमे मिथ्या है। यो सा /अ ५/१० निग्रहानुग्रहो क्तु कोऽपि शक्तोऽस्ति नात्मन ।
रोषतोषौ न कुत्रापि तव्याविति तात्त्विकै । = इस आत्माका निग्रह या अनुग्रह करनेमे कोई भी समर्थ नहीं है, अतः किसीसे भी राग या द्वेष नहीं करना चाहिए।
७ स्वोपकारके सामने परोपकारका निषेध मो पा/पू/१६ परदव्वादो दुग्गई सहव्वादोह सगई हवा सदवे कुणह रई बिरइ इयरम्मि ।१६ - परद्रव्यसे दुर्गति और स्वद्रव्यसे सुगति होती है, ऐसा जानकर स्व द्रव्यमें रति करनी चाहिए
और परद्रव्यसे विरत रहना चाहिए। इ. उ. ३२ परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव । उपकुर्वन्परस्यानो दृश्यमानस्य लोक्वत् ।३२। -हे आत्मन 'तू लोक्के समान मुद बनकर दृश्यमान शरीरादि पर पदार्थाका उपकार कर रहा है,यह सब तेरा अज्ञान है। अब तू परके उपकारकी इच्छा न कर, अपने ही उपकार में लीन हो। म. पु. ३८/१७६ नि सङ्गवृत्तिरे काकी विहरन स महातप । चिकीर्ष
रात्मसस्कार नान्य सस्कमहति ।१७६। -- जिसकी वृत्ति समस्त परिग्रहसे रहित है, जो अकेला ही विहार करता है, महातपस्वी है, जो केवल अपने आत्माका ही सस्कार करना चाहता है, उसे क्सिी अन्य पदार्थका संस्कार नही करना चाहिए, अर्थात अपने आत्माको छोडकर किसी अन्य साधु या गृहस्थके सुधार की चिन्तामें नहीं पड़ना चाहिए।
८ परोपकार व स्वोपकारमें स्वोपकार प्रधान है भ आ./वि १५४/३५१ में उद्धृत "अप्पहिय काय जह सतह पर किया च कायव्य । अप्पयिपरहियादो अप्पहिद सुट कादब्वं ।" - अपना हित करना चाहिए। शक्य हो तो परका भी हित करना चाहिए, परन्तु आत्महित और परहित इन दोनोमे-से कौन-सा मुख्यतया करना चाहिए ऐसा प्रश्न उपस्थित होनेपर अवश्य ही उत्तम प्रकारसे आत्महित करना चाहिए। (अन ध. १/१२/३५ में उद्धृत), (पंध/उ ८०४ में उद्धृत) प.ध./3 ८०४,८०६ धर्मादेशोपदेशाभ्या तव्योऽनुग्रह परे। नाम
व्रत विहायस्तु तत्पर पररक्षणे ८०४) तद्विधाथ च वात्सत्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधान स्वात्मसम्बन्धि गुणो यावश्परात्मनि 1८.। -धर्मके आदेश और उपदेशके द्वारा ही दूसरे जीवोपर अनुग्रह करना चाहिए। किन्तु अपने व्रतोको छोडकर दुसरे जीवोकी रक्षा करने में तत्पर नही होना चाहिए।८०४। तथा वह वात्सल्य अग भी स्व व परके विषय के भेदसे दो प्रकारका है। उनमें से अपनी आत्मासे सम्बन्ध रखनेवाला वात्सल्य प्रधान है तथा सम्पूर्ण पर आत्माओसे सम्बन्ध रखनेवाता जो वात्सल्य है वह गौण है।८८ह। (ला सं. ४/३०५)
परोपकारको कथंचित् प्रधानता कुरल ११/१,२/२२/१० या दया क्रियते भरी रामारस्थापन बिना। रबर्यमावुभौ तस्या प्रतिपादनाय नक्षमौ। शिष्टैरवसर वीक्ष्य यानुकम्पा विधीयते । स्वल्पापि दर्शने किन्तु विश्वस्मात सा गरीयसी।। उपकारो विनाशेन सहितोऽपि प्रशस्यते। विक्रोयापि
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उपकार
उपगृहन
नाम
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निजारमान भज्योत्तम विधेहितम् ।१०। =आभारी बनाने की इच्छा * उपकारक निमित्तकारण-दे, निमित्त १ से रहित होकर जा दया दिखाई जाती है, स्वर्ग और पृथिवो दोनो
* छः द्रव्योंमे परस्पर उपकार्य-उपकारक भाव मिलकर भी उसका बदला नहीं चुका सकते ।११ अवसर पर जो उपकार किया जाता है, वह देखनेमे छोटा भले ही हो, पर जगत् में
-दे. कारण IIIR सबसे भारी है ।२। यदि परोपकार करनेके फलस्वरूप सर्वनाश * उपकार्य उपकारक सम्बन्ध निर्देश-दे. सम्बन्ध उपस्थित हो तो दासत्वमें फसनेके लिए आत्म विक्रय करके भी उपक्रमउसको सम्पादन करना उचित है।
ध १/१.१.१/७२/५ उपक्रम इत्यर्थ मारमन उप समीय क्राम्यति करोतीभ आ /मू. ४८३/७०४ आदट्ठमेव चितेदुमुट्ठिदा जे परमवि लोए । कडय
त्युपक्रम । जो अर्थको अपने समीप करता है उसे उपक्रम कहते फुरुमेहि साहेति ते हु अदिदुलहा लोए 1४८३१ = जो पुरुष आत्महित
है। (घ१/४.१,४५(१३४/१०), (क. पा १/१,१/४/१३/४) करने के लिए कटिबद्ध होकर आत्महित के साथ कट और कठोर वचन
म पु.२/१०३ प्रकृतार्थतत्त्वस्य श्रोतृबुद्धौ समर्पणम् । उपक्रमोऽसौ विज्ञेयतक सहकर परहित भी साधते है, वे जगत्में अतिशय दुर्लभ सम
स्तथोपोद्धात इत्यपि १०= प्रकृत-पदार्थको श्रोताओकी बुद्धिमें झने चाहिए।
बैठा देना उपक्रम है । इसका दूसरा नाम उपोद्धात भी है। म पु ३८/१६६-१७१ श्राव कानायिकासड़ध श्राविका संयतानपि । सन्मार्गे वर्तयन्न ष गणपोषणमाचरेत् ।१६। श्रुतार्थिभ्य' श्रुतं दद्याद्
२ उपक्रमके भेद दीक्षार्थिभ्यश्च दीक्षणम् । धर्मार्थिभ्योऽपि सद्धर्म स शश्वत प्रतिपाद
ध-१/१,१,१/पृ. प.
उपक्रम येत । १७०। सद्वृत्तान् धारयन सूरिरसद्वृत्तान्निवारयन् । शोधयश्च
७२/६ कृतादागोमलात स बिभृयाद् गणम् १७१३ -इस आचार्यको चाहिए कि वह मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओको समीचीन मार्ग- आनुपूर्वी
प्रमाण वक्तव्यता अर्थाधिकार में लगाता हुआ अच्छी तरह सघका पोषण करे ।१६४) उसे यह भी
१.नाम -
२/११ । चाहिए कि वह शाखाध्ययनकी इच्छा करने वाले को शास्त्र पढावे
२. स्थापनातथा दीक्षार्थियोको दीक्षा देवे और धर्माथियोके लिए धर्म का प्रति- पूर्व पश्चात् यथातथ६३ द्रव्य -
प्रमाण प्रमेय तदुभय पादन करे 1१७०। वह आचार्य सदाचार धारण करनेवालोको प्रेरित करे और दुराचारियों को दूर हटावे । और क्येि हुए स्वकीय अप- १. गोण्यपद
५. काल - राधरूपी मलको शोधता हुआ अपने आश्रितगण की रक्षा करे।१७१२.नोगौण्यपद -
स्व- पर- तदुभय ३. आदानपद -
६. भाव - भ आ/वि ३५७/५६९/१८ किन्न वेत्ति स्वयमपि इति नोपेक्षितव्यम् । परो
समय समय पकार कार्य एवेति कथयति । तथाहि-तीर्थ कृत विनेयजनसबो- ४. प्रतिपक्षपद धनार्थ एव तीर्थ विहारं कुर्वन्ति । महत्ता नामैव यत्-परोपकार- ५ अनादि सि-द्रव्य क्षेत्र काल भाव बद्धपरिकरता । तथा चोक्त -"क्षुद्रा सन्ति सहस्रश स्वभरणव्यापार- धान्तपद - ८०/२ मात्रोद्यता. स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेक सतामग्रणी॥ ६.प्राधान्यपद -1 दुष्पूरोदरपुरणाय पिबति स्रोत्र पति बाडवो जीमूतस्तु निदाघसंभृत- ७.नाम-पद -आभि- श्रुत अवधि मन- केवल जगत्सतापविच्छित्तिये।" - 'क्या दूसरा मनुष्य अपना हित स्वय ८ प्रमाणपद -निबोधिक ज्ञान पर्यय ज्ञान नहीं जानता है ।' ऐसा विचार करके दूसरोकी उपेक्षा नहीं करनी ६. अवयवपद --ज्ञान
ज्ञान चाहिए । परोपकार करनेका कार्य करना ही चाहिए । देखो तीर्थकर १०.संयोगपद - ८२/११ परमदेव भव्य जनोंको उपदेश देनेके लिए ही तीर्थ विहार करते है। परोपकारके कार्य में कमर-कसना यही बडप्पन है । कहा भी है
नैगम सग्रह व्यवहार । शब्द समभि- एवं"जगत में अपना कार्य करने में ही तत्पर रहनेवाले मनुष्य हजारो है,
रूढ भूत परन्तु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है. ऐसा सत्पुरुषों में अग्रणी
ऋजुसूत्र पुरुष एकाध ही है । बड़वानल अपना दुर्भर पेट भरने के लिए समुद्र- ३ प्रक्रमका लक्षण का सदा पान करता है, क्योकि वह क्षुद मनुष्य के समान स्वार्थी है। ध १५/१६/३ प्रकामतीति प्रक्रम कार्माण पुद्गलप्रचयः। 'प्रक्रामकिन्तु मेघ ग्रीष्मकालकी उष्णतासे पीडित समस्त प्राणियोका स ताप तीति प्रक्रम' इस निरुक्तिके अनुसार कार्माण पुद्गल प्रचयको प्रक्रम मिटाने के लिए समुद्रका पान करता है। मेघ परोपकारी है और कहा गया है। बडवानल स्वार्थी है।
४ उपक्रम व प्रक्रममें अन्तर अन, घ. १/११/३५ पर उद्धृत "स्वदुः खनिघृणारम्भा परदु खेषु
ध. १५/४२/४ पक्कम उबक्कमाण को भेदो। पयडिटिदि-अणुभागेभु दखिता। नियंपेक्ष परार्थेषु बद्ध कक्षा मुमुक्षव ॥" - मुमुक्षु पुरुष
ढक्कमाणपदेसग्गपरूवण पक्कमो कुण इ, उवक्कमो पुण बविदियअपने दुखोको दूर करनेके लिए अधिक प्रयत्न नहीं करते, किन्तु
समयप्पहुडि सतसरूवेण हिदकम्मपोग्गलाण वावार परूवेदि । तेण दूसरोके दुखोको देखकर अधिक दुखी होते है। और इसलिए वे
अस्थि विसेसो । प्रश्न-प्रक्रम और उपक्रम में क्या भेद है । उत्तर-- किसी भी प्रकारको अपेक्षा न रखकर परोपकार करने में दृढताके साथ
प्रक्रम अनुयोगद्वार प्रकृति स्थिति और अनुभागमे आनेवाले सदा तत्पर रहते है।
प्रदेशाग्रकी प्ररूपणा करता है; परन्तु उपक्रम अनुयोगद्वार बन्धके १० अन्य सम्बन्धित विषय
द्वितीय समयसे लेकर सत्त्वरूपसे स्थिति कर्म-पुद्गलोके व्यापारकी
प्ररूपणा करता है । इसलिये इन दोनोमें विशेषता है। * स्वोपकार व परोपकारका समन्वय-दे उपकार /
उपगहन-१.व्यवहार लक्षण * उपकारार्थ धर्मोपदेशका विधि निषेध-दे उपदेश
मू. आ २६१ दंसणचरणविवण्णे जीवे दट्ठूण धम्मभत्तीए । उपग्रहण * उपकारकी अपेक्षा द्रव्यमे भेदाभेद-दे. सप्तभगी ५ करतो सणसुद्धो हव दि एसो।२६१ = सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमें
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उपगूहन
लानि सहित को देखकर धर्मकी भक्ति कर उनके दोषोको दूर करता है. यह शुद्ध दर्शनलाहोता है।
र कथा १५ “स्वय शुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यता यत्प्रमाजन्ति तद्वदन्त्युपगूहनम् ॥१५॥ जो अपने आप ही पवित्र ऐसे जैनधर्मको अज्ञानी तथा असमर्थ जनो से उत्पन्न हुई निन्दाको दूर करते है, उसको उपगूहन अग कहते है (द्र. संटी ४१/१
उपबृहण
ण
पुसि उ २७ परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपवृ हणगुणार्थम् गुण अर्थ अन्य पुरुषो के दोषोको भी गुप्त रखना कर्तव्य है । का अ/४ को परोक्ष गोवधि कि जो खोए भबियन भावगरओ ग्रहणकारी सो हु जो सम्यग्दृष्टि दूसरो के दोषोको ढांकता है, और अपने सुकृतको लोकमें प्रकाशित नही करता, तथा भवितव्यकी भावनामे रत रहता है। उसे उपग्रहणगुणका धारी कहते है ।
२ निश्चय लक्षण
ससा / मू. २३३ जो सिद्वभत्तिजुत्तो उपग्रहणगोदु सव्वधम्माणं । सो
गूणकारी सम्मादिट्ठी मुणेव्वो । २३३ | जो चेतयिता सिद्धो की शुद्धात्मा की भक्ति से युक्त हैं और पर वस्तुओंके सर्वधर्मोको गोपन करनेवाला है (अर्थात् रागादि भावोमे युक्त नही होता है) उसको उपगूहन करनेवाला सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये । ससा / ता वृ २३३ शुद्धात्मभावनारूपपारमार्थिक सिद्धभक्तियुक्त मिथ्यात्वरागादिविभावधर्माणामुपगूहक प्रच्छादको विनाशक । स सम्यग्दृष्टि उपगूहह्नकारो मन्तव्य । =उपगूहनका अर्थ छिपानेका है । निश्चनको प्रधानकरि ऐसा कहा है कि जो सिद्धभक्ति में अपना उपयोग लगाया तब अन्य धर्म पर दृष्टि हो न रही, तब सभी धर्म छिप गये। इस प्रकार शुद्धात्माको भावनारूप पारमार्थिक सिद्धर्भात से युफ होकर मिव्यास रागादि विभानधर्मो का उपगूहन करता है, प्रच्छादन करता है, विनाश करता है उस सम्यग्दृष्टिको उपगूहनकारी जानना चाहिए।
प्र स |टो ४२/१०२/१० विनयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारोपग्रहगुणस्य सहकारित्वेन निजनिरञ्जन निर्दोषपरमात्मनामध्यात्वरागादिदोषास्तेषा तस्मिन्नेव परमात्मनि सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूप यद्धयान तेन प्रच्छादन विनाशनं गोपनं झम्पन तदेवोपगूहनमिति । = निश्चयनयसे व्यवहार उपग्रहण- गुणकी सहायतासे, अपने निरञ्जन निर्दोष परमात्मा को ढकनेवाले रागादि दोषोको, उसी परमात्मामें सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप ध्यानके द्वारा ढकना, नाश करना, छिपाना, झम्पन करना, सो उपगूहन- गुण है।
२ उपबृंहण का लक्षण
रा. या ६/२४/१/५२१/१२ उत्तमक्षनादिभावनया आत्मनो धर्मपरिबृद्धिकरणमुपयृणस् ।उत्तममादि भावनाओके द्वारा आत्मा के धर्म की वृद्धि करना उपण गुण है ( सिउ २० )
४१७
भ, आ / वि ४५ / ९४६/१० उपबृंहणं णाम वर्द्धन । बृह बृहि वृद्धाविति वचनात् । धावनुवादी चोपसर्ग उप इति । स्पष्टेनाग्राम्येण श्रोत्रमन प्रोतिदायिना वस्तुयाचारप्रकाशन धर्मोपदेशेन परस्य तत्त्वश्रद्वानवर्द्धन उपबृहत सर्वजनविस्मयकारिणी शतमुखत्रस्वगोर्यासमितिविरचितोपचितसदृशी संपाय दुर्धरतपोयोगानुष्ठानेन वा आत्मनि अद्वास्थिरीकरण उपबृंहण, इसका अर्थ बढाना ऐसा होता है । 'बृह बृहि वृद्धी' इस धातुसे बृहण शब्द की उत्पत्ति होती है । 'उप' इस उपसर्गके योग से 'बृह' धातुका अर्थ बदला नही है । स्पष्ट अग्राम्य, कान और मनको प्रसन्न करनेवाले, वस्तुकी यथार्थताको भव्योके आगे दर्पण के समान दिखाने वाले ऐसे धर्मोपदेशके द्वारा तत्त्व श्रद्धान बढ़ाना वह उपबृहत्र है। इन्द्र प्रमुख देवोंके द्वारा जैसी महत्वयुक्त पूजा की
"
२७
उपघात
जाती है, वैसी जिनपूजा करके अपनेको जिनधर्म में, जिनभक्ति में स्थिर करना; अथवा दुर्धर तपश्चरण वा आतापनादि योग धारण करके अपने आत्मा में श्रद्धा गुण उत्पन्न करना इसको भी उपबृंहण कहते है 1
ससा / २३२ यतो हि सम्यष्टि कोरीवकामयायेन समस्तात्मशक्तीनामुपबृंहणादुब हक ततोऽस्य जीवशक्तिदौर्भव्यकृतो नास्ति बन्ध किंतु निर्जरैव । क्योंकि, सम्यग्दृष्टि टंको कीर्ण एक ज्ञायकभावमयता के कारण समस्त आत्मशक्तियो की वृद्धि। करता है, इसलिए उपबृ हक है। इसलिए उस जीवकी शक्तिकी दुर्बलता होनेवाला बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है। पंध / उ ७७८ आत्मशुद्ध रदौर्बल्यकरणं चोप हणम् । अर्थादग्टज्ञप्तिचारित्रभावादस्खलित हि तब 1७७८ - आत्माकी शुद्धि में कभी दुर्बलता न आने देना ही उपबृहण अग कहलाता है। अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र रूप अपने भावोसे जो च्युत नहीं होता है। वहीं उप गुण कहलाता है।
उपग्रह
रा. वा /५/१७/३/४६०/२५ द्रव्याणा शक्तचन्तराविर्भावे कारणभावोऽ नुग्रह उपग्रह इत्याख्यायते । द्रव्यकी शक्तिका आविर्भाव करने में कारण होना रूप अनुग्रह कहा जाता है। उपग्रह व्यभिचार
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उपघातससि ६/१०/३२०/१३ प्रशस्तपणसुप्रभात । आसादनमेवेति चैव सहास्य विनयप्रदानादिगुणकीर्तनानठानमासादनम् । उपघातस्तु ज्ञानमज्ञानमेवेति ज्ञाननाशाभिप्राय | इत्यनयोरयं भेद । प्रशसनीय ज्ञानमें दूषण लगाना उपघात है । प्रश्न- उपघातका जो लक्षण किया है उससे वह आसादन हो ज्ञात होता है ? उत्तर - प्रशस्त ज्ञानकी विनय न करना, उसकी अच्छाई की प्रशंसा न करना आदि आसादन है । परन्तु ज्ञानको अज्ञान समझकर ज्ञानके नाशका इरादा रखना उपघात है इस प्रकार दोनो में अन्तर है । (रा. वा ६ / १० / ७ / ५१७/२३) ।
रावा. ६/१०/६/१०/२१ स्वमते भावादयुतस्याप्ययुक्ती दोषोभावना इति विज्ञायते हृदयको
ताके
कारण अपनी बुद्धिमे युक्तकी भी अयुक्तवत् प्रतीति होनेपर, दोषोको प्रगट करके उत्तम ज्ञानको दूषण लगाना उपघात 1
गो, क / जी, प्र ८०० / १७६/८ मनसा वाचा वा प्रशस्तज्ञान दूषणमध्ये तृषु क्षुद्रबाधाकरणं वा उपघात. । = मनकरि वा वचनकरि प्रशस्तज्ञानका दोषी होना, वा अभ्यासक जीवनिको क्षुधादिक बाधाका करना सो उपघात कहिए ।
२. उपघात नाम कर्मका लक्षण
स. सि. ८/११/३६१ / ३ यस्योदयात्स्वयकृतो इन्धनमेरुप्रपतनादिनिमित्त उपघातो भवति तदुपधातनाम । • जिसके निमित्तसे स्वयंकृत उद्बन्धन और पहाड़ से गिरना आदि निमित्तक उपघात होता है वह उपघात नामकर्म हैं । ( रा वा ८/११/१३/५७८/१) ।
1
ध ६/१,६,१,२८/५६/१ उपेत्य घात उपघात आत्मघात इत्यर्थ । ज कम्म जीव पीडाहेउ अवयवे कुर्णाद, जीवपीड हेवुदव्वाणि वा विसासिपासादीणि जीवस्स ढाएदि त उवघाद णाम । के जीवपीडा कार्यवयवा इति चेन्महाशुङ्ग लम्बस्तन-तुदोदरादय । जदि उवषादनामक जीवस्स हो तो सरीरादाबाद- पित्त सेभवसिदा जीवस्स पीडा ण होज्ज । ण च एवं अणुवल भादो । स्वयं प्राप्त होनेवाले घातको उपघात अर्थात् आत्मघात कहते है । जो कर्म अवयवोको जीवकी पीडाका कारण बना देता है, अथवा विष, शुग, खड्ग, पाश आदि जीव पीडाके कारण स्वरूप द्रव्योंको जीवके लिए ढोता है, अर्थात लाकर संयुक्त करता है, वह उपघात नामकर्म कहलाता है। प्रश्न- जीवको पीड़ा करनेवाले अवयव कौन-कौन है 1
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उपचरित नय
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१. उपचारके भेद व लक्षण
उत्तर-महाश ग (बारहसिगाके समान बडे सोग), लम्बे स्तन, विशाल तोंदवाला पेट आदि जीवको पीडा करनेवाले अवयव है। यदि उपधात-नामकर्म न हो तो बात, पित्त और कफसे दूषित शरीरसे जीवके पीडा नहीं होनी चाहिए। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि वैसा पाया नही जाता। (ध १३/५.५,१०१/३६४/११), (गो क जो प्र. ३३/२६/१८)। * उपघात नामकर्म व असाता वेदनीयमे परस्पर सम्बन्ध
-दे, वेदनीय २ * उपघात प्रकृतिकी बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ
-दे, वह वह नाम उपचरित नय-दे नय V५1
* उपचरित नयके विशेष भेद-दे. उपचार १ उपचरित स्वभाव-दे स्वभाव १ उपचार--अन्य वस्तुके धर्मको प्रयोजनवश अन्य बस्तु में आरोपित करना उपचार कहलाता है जैसे मूर्त पदार्थोंसे उत्पन्न ज्ञानको मूर्त कहना अथवा मुख्यके अभावमें किसी पदार्थ के स्थानपर अन्यका आरोप करना उपचार कहलाता है जैसे संश्लेष सम्बन्धके कारण शरीरको ही जीव कहना। अथवा निमित्तके वशसे किसी अन्य पदार्थको अन्यका कहना उपचार है-जैसे घीका घडा कहना। और इस प्रकार यह उपवार एक द्रव्यका अन्य द्रव्यमें, एक गुणका अन्य गुण में, एक पर्यायका अन्य पर्यायमें, स्वजाति द्रव्यगुण पर्यायका विजाति द्रव्यगुण पर्यायमें, सत्यासत्य पदार्थोंके साथ सम्बन्ध रूपमें, कारणका कार्य में, कार्यका कारण में इत्यादि अनेक प्रकारसे करने में जाता है। यद्यपि यथार्थ दृष्टिसे देखनेपर यह मिथ्या है, परन्तु अपेक्षा या प्रयोजनकी दृष्टिमें रखकर समझे तो कथचित सम्यक है । इसीसे उपचारको भी एक नय स्वीकार किया गया है। व्यवहार नयको ही उपचार कहा जाता है। व्यवहारनय सहभूत
और असदभूत रूपसे दो प्रकार है तथा इसी प्रकार उपचार भी दो प्रकारका हे । अभेद वस्तुमें गुण गुणी आदिका भेद करना भेदोपचार या सभृत-व्यवहार है । तथा भिन्न वस्तुओमें प्रयोजन वश एकता का व्यबहार अदोभेचार या असद्भत व्यवहार है । सो भी दो प्रकार का है-अनुपचरित असदभूत और उपचरित-असद्भुत । तहाँ संश्लेष सम्बन्ध-युक्त पदार्थों में एकताका उपचार अनुपचरित असदभूत-व्यवहार है और भिन्न प्रदेशी द्रव्योमें एकताका उपचार उपचरितअसदभूत-व्यवहार है । दोनों ही प्रकारके व्यवहार स्वजाति पदार्थोंमें अथवा विभाजित पदार्थों में अथवा उभयरूप पदार्थों में होने के कारण तीन-तीन प्रकारका हो जाता है । इस प्रकार गुणाकार करनेसे इसके अनेको भंग बन जाते है, जिनका प्रयोग लौकिक क्षेत्र में अथवा आगममें नित्य स्थल-स्थल पर किया जाता है।
४ भावीमे भूतके उपचारके उदाहरण ५ आधारमे आधेयके उपचारके उदाहरण ६ तद्वानमे तत्के उपचारके उदाहरण ७ अन्य अनेको प्रकार उपचारके उदाहरण ३ द्रव्यगुण पर्यायमे उपचार निर्देश १ द्रव्यको गुणरूपसे लक्षित करना २ पर्यायको द्रव्यरूपसे लक्षित करना ३ द्रव्यको पर्यायरूपसे लक्षित करना ४ पर्यायको गुणरूपसे लक्षित करना ४ उपचारको सत्यार्थता व असत्यार्थता १ परमार्थतः उपचार सत्य नही है २ अन्य धर्मोका लोप करनेवाला उपचार मिथ्या है ३ उपचार सर्वथा अप्रमाण नहीं है ४ निश्चित व मुख्य के अस्तित्वमे ही उपचार होता है
सर्वथा अभावमे नहीं ५ मख्यके अभावमे भी अविनाभावी सम्बन्धोमे ही
परस्पर उपचार होता है ६ उपचार प्रयोगका कारण व प्रयोजन
१ उपचार कोई पृथक्नय नहीं २ असद्भूत व्यवहार नय ही उपचार है * व्यवहार नयके भेदादि निर्देश-दे नय v उपचार शद्ध नयमे नही नंगमादि नयोमे ही संभव है
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१ उपचार के भेद वलक्षण १ उपचार सामान्यका लक्षण २ उपचारके भेद प्रभेद ३ उपचारके भेदोंके लक्षण
१. असदभूत व्यवहारके भेदोंकी अपेक्षा
२. उपचरित असद्भूत-व्यवहारके भेदोंकी अपेक्षा २ कारण कार्य आदि उपचार निर्देश १ कारणमे कार्यके उपचारके उदाहरण २ कार्यमे कारणके उपचारके उदाहरण ३ अल्पमें पूर्णके उपचारके उदाहरण
१. उपचारके भेद व लक्षण
१. उपचार सामान्यका लक्षण आ.५६ अन्यत्र प्रसिदस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसहस्तव्यवहार। असद्भूतव्यवहार एवोपचार'। उपचारादप्युपचार य करोति स उपचरितासभूतव्यवहार'। मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचार. प्रवर्तते। सोऽपि सबन्धा विनाभाव । - अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यमें समारोप करके कहना सो असद्भूत-व्यहारनय है। असदभूत व्यवहारको ही उपचार कहते है। (जसे गुण गुणोमे भेद करके जीवको ज्ञानवान कहना अथवा मर्त पदार्थों से उत्पन्न ज्ञानको भी मूत कहना।) इस उपचार का भी जो उपचार करता है सो उपचरित असद्भूत व्यवहार है (जैसे शरीरको या धन आदिको जीव कहना अथवा अन्नको प्राण कहना इत्यादि)।(न. च./श्रुत. २२,२६)। यह उपचार मुख्यपदार्थ के अभाव में, प्रयोजनमें और निमित्तमें प्रवर्तता है, और वह भी अविनाभावी सम्बन्धों में ही किया जाता है। सू.पा/पं.जयचन्द ६/५४ प्रयोजन साधनेकू काहूं वस्तु कं घट कहना
सो तो प्रयोजनाश्रित व्यवहार है (जैसे जल में भीगे हुए वस्त्रको हो जल धारणके कारण घट कह देना)। बहुरि काहू अन्य वस्तुकै निमिततै घटमें अवस्था भई ताकू घटरूप कहना सो निमित्ताश्रित व्यवहार है (जैसे घीका घडा व हना अथवा अग्निसे पकनेपर घड़ेको पका हुआ कहना )।
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उपचार
१. उपचारके भेद व लक्षण
२. उपचारके भेद-प्रभेद आ. ५/५,६ असद्भुत व्यवहारस्त्रे पा। स्वजात्यसद्भूतव्यवहारो, विजात्यसद्भूतव्यवहारो, स्वजाति विजारयसभूतव्यवहारो। उप चरिता सदभूतव्यवहारस्त्रेधा । स्वजात्यसभूतव्यवहारो, विजात्य सदभूत व्यवहारो, स्वजातिविजात्यसदभूतव्यवहारो, १५ गुणगुणिनो पर्यायपर्यायिणो स्वभावस्वभाविनो कारक्कारकिणोभद सदभूतव्यवहारस्यार्थ । द्रव्ये द्रव्योपचार , पर्याये पर्यायोपचार .गुणे गुणोपचार , द्रव्ये गुगापचार , द्रव्ये पर्यायोपचार , गुणे द्रव्योपचार , गुणे पर्यायोपचार, पर्याय द्रव्यापचार ,पर्याये गुणोपचार इति नवविधोऽसद्भूतव्यवहारस्थाओं द्रष्टव्य । सोऽपि सबन्धाविनाभावः। सश्लेषमबन्ध , परिणाम-परिणामिसबन्ध , श्रद्धाश्रद्धय-संबन्ध , ज्ञानज्ञयसबन्ध., चारित्रचर्यास बन्धश्चेत्यादि सत्यार्थ असत्यार्थः, सत्यार्थासत्यार्थश्चेत्युपचरितासद्भुतव्यवहारनयस्यार्थ । - भावार्थ-१ उपचार दो प्रकारका है भेदोपचार और अभेदोपचार। गुणगुणीमें भेद करके कहना भेदोपचार है। इसे सद्भुत व्यवहार कहते है क्योकि गुणगुणीका तादात्म्य सम्बन्ध पारमार्थिक है। भिन्न द्रव्योमे एकत्व करके कहना अभेदोपचार है। इसे असद्भुत व्यवहार कहते है, क्योकि भिन्न द्रव्योका संश्लेष या स्योग सम्बन्ध अपारमार्थिक है। यह अभेदोपचार भी दो प्रकारका है-सश्लेष युक्त द्रव्यो या गुणो आदिमें और स योगी द्रव्यो या गुणो में । तहाँ सश्लेपयुक्त अभेदको असद्भूत कहते है और सयोगी-अभेदका उपचरित असद्भुत कहते है, क्योकि यहाँ उपचारका भी उपचार करनेमे आता है, जैसे कि धन पुत्रादिका सम्बन्ध शरीरसे है और शरीरका सम्बन्ध जोवसे । इसलिए धनपुत्रादिका जीवका कह दिया जाता है। २ गुण-गुणीमें, पर्याय-पर्यायोमे, स्वभाव-स्वभाबीमे, कारक-कारकीमे भेद करना सद्भूत या भेदोपचारका विषय है। (विशेष दे नय V/५/४-६) ३ एक द्रव्य में अन्य द्रव्यका, एक पर्यायमे अन्य पर्यायका, एक गुणमें अन्य गुणका, द्रव्यमे गुणका, द्रव्यमें पर्यायका, गुणमें द्रव्यका, गुण में पर्यायका, पर्याय में द्रव्यका तथा पर्यायमे गुण का इस तरह नौ प्रकार असदभूत-अभेद।पचारका विषय है। सो भी स्वजाति-असद्भूतव्यवहार, विजाति अगदभृत-व्यय हार, और स्वजाति-विजातिअसद्भूत-व्यवहार के भेदसे तान-तीन प्रकारका है। ४ अविनाभावीसम्बन्ध कई प्रकारका होता है। जैसे-संश्लेष-सम्बन्ध, परिणामपरिणामी सम्बन्ध, श्रद्वा-श्रद्धेय सम्बन्ध, ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध,चारित्रचर्या सम्बन्ध इत्यादि । ये सब उपचरित-असइभृत-व्यवहार रूप अभेदोचारके विषय है। सो भी स्वजाति-उपचरित-असदभृतव्यवहार, विजाति-उचरित-असद्भूत-व्यवहार और स्वजातिविजाति-उपचरित-अमद्भूत व्यवहारके भेदसे तीन-तीन प्रकारके है। अथवा सत्यार्थ, असत्यार्थ व सत्यासत्यार्थ के भेदमे तीन-तीन प्रकार है। यथा-१ स्वजाति-द्रव्य में विजाति-द्रव्यका आरोप, २ स्वजाति-गुणमें विजाति-गुणका आरोप, ३. स्वजाति पर्यायमें विजाति पर्यायका आरोप ४ स्वजाति द्रव्यमे विजाति गुणका आरोप. ५. स्वजाति द्रव्यमे विजाति पर्यायका आरोप, ६ स्वजाति गुणमें विजाति द्रव्यका आरोप, ७ स्वजाति गूण में विजाति पर्यायका आरोप ८ स्वजाति पर्याय में बिजाति द्रव्य का आरोप, ६. स्वजाति पर्यायमें विजाति गुणका आरोप।
५ इसी प्रकार द्रव्य गुण पर्याय में स्वजाति विजाति व स्वजातिविजाति (उभयरूप) भेदोमे परस्पर अविनाभावी-राम्बन्ध देखकर यथासम्भव अन्य भी भग बना लेने चाहिए । (न च / १८८.१८४ २२३-२३६/२४० न च /श्रुत २२) ६. इनके अतिरिक्त भी प्रयोजनके वशसे अनेको प्रकारका उपचार करने में आता है। यथा-कारण में कार्यका उपचार, कार्य में कारण का उपचार, अल्पमे पूर्ण का उपचार,
आधारमे आधेयका उपचार, तद्वानमें ततका उपचार, अतिसमीपमें तत्पनेका उपचार इत्यादि-इत्यादि । (इनमें से कुछ का परिचय आगेवाले शीर्ष को मे यथासम्भव दिया गया है।) ३. उपचारके भेदोके लक्षण न.च /वृ २२६-२३१ स्वजातिपर्याय स्वजातिपर्यायारोपणोऽसद्भूत व्यवहार - "दट ठूण पडिविन भवदि हु त चेव एस पज्जाओ। सज्जाइ असबभू ओ उपयौरओ णियजाइपज्जाओ ।२२६-१)" विजातिगुणे विजातिगुणारोपणोऽसद्भूतव्यवहार - "मुत्तं इह मइणाणं मुत्तिमद्दवेण जणि ओ जम्हा । जइ णहु मुत्तणाण तो कि खलुओ हु मुत्तेण ।२२६-२" स्वजातिविजातिद्रव्ये स्वाजातिविजातिगुणारोपणोsसद्भूतव्यवहार -णेय जीवमजीव त पिय णाण खु तस्स विसयादो। जो भण्णइ एरिसरथ सो ववहारोऽसब्भूदो ॥२२७-११" स्वजातिद्रव्ये स्वजातिविभावपर्यायारोपणोऽसद्भूतव्यवहार. "परमाणु एयदेसी बहुप्पदेसी य ज पय जो हु। सा ववहारी णेओ दब्वे १ज्जाय उबयारो ।२२७-२" स्वजातिगुणे स्वजातिद्रव्यारोपणोऽसद्भुतव्यवहारो-"रूब पि भणई दव्य ववहारो अण्ण अत्थसंभूदो। सो खलु जधोपदेसं गुणे सु व्वाण उवयारो ।२२८" स्वजातिगुणे स्वजाति पर्यारोपणोऽसदभूतव्यवहार -"णाण पिहू पज्जाय परिणममाणो दु गिहणए जम्हा। ववहारो खलु जपइ गुणेसु उवयरिय पज्जाओ १२२६॥"स्वजातिविभावपर्याये स्वजातिद्रव्यारोपणोऽसद्भूतव्यवहार.. "दठूणथूलखध पुग्गलदव्वेत्ति जंपए लोए । उवयारो पज्जाए पुग्गलदव्वस्स भण्णइ ववहारो।२३०॥" स्वजातिपर्याये स्वजातिगुणारोपणोऽसदभ्रतव्यवहारा-"द टूण देहठाण वणतो होइ उत्तम भव । गुण
उवयारो भणिओ पज्जाए णस्थि सदेहो ।२३१॥" न च /वृ २४१-२४४ देसवइ देसत्यो अत्यवाणिज्जो तहेव जपतो। मे देस मे दव्व सच्चासच्चपि उभयत्थं ।२४१। पुत्ताइबंधुवग्ग अहं च मम स पदादि जपतो। उवयाग सम्भृओ सज्जाइ दन्वेसु णायचो ।२४२। आहरणहेमरयणाच्छादीया ममेति जप्पंतो। उघयारियअसभूओ, विजाइदम्वेसु णाययो ।२४३। देसत्थरज्जदुग्गं मिस्सं अण्णं च भणइ मम दव्वं । उहयत्ये उवयरिदो होइ असम्भूयववहारो ।२४४।
१. असद्भूत व्यवहारके भेदोकी अपेक्षा १ स्वजाति पर्याय में स्वजाति पर्यायका आरोप इस प्रकार है।
जैसे-दर्पण मे प्रतिबिम्ब को देखकर यह दर्पणकी पर्याय है' ऐसा कहना। यहाँ प्रतिबिम्ब व दर्पण दोनो पुद्गल पर्यायें है। एकका दूसरेमें आरोप क्यिा गया है। २. विजाति गुण में विजाति गुणका आरोप इस प्रकार है। जैसे-मूर्त इन्द्रियोमें या विषयोसे उत्पन्न होनेके कारण मतिज्ञानको मूर्त कहना। तथा ऐसा तर्क उपस्थित करना यदि यह ज्ञान मूर्त न होता तो मूर्त द्रव्योसे स्खलित कैसे हो जाता । यहाँ ज्ञान गुण का विजाति मर्त गुणका आरोप क्यिा गया है। ३ स्वजाति-विजाति द्रव्यमें स्वजाति विजाति गुणका आरोप इस प्रकार है । जैसे-जीव व अजीव द्रव्योको ज्ञेय रूपसे विषय करने पर ज्ञानको जीन्ज्ञान व अजीवज्ञान कह देना। यहाँ चेतन अचेतन द्रव्योमें ज्ञान गुणका आरोप किया गया है। ४. स्वजाति द्रव्यमें स्वजाति विभावपर्यायका आरोप इस प्रकार है। जैसे-परमाणु यद्यपि एक प्रदेशी है, परन्तु परस्परमें कर बहुप्रदेशी स्कन्ध होनेकी शक्ति होनेके कारण बहुप्रदेशी कहा जाता है । यहाँ पुदगल द्रव्य (परमाणु) का पुद्गल पर्याय (स्कन्ध) में आरोप किया गया है। स्वजाति गुणमें स्वजाति द्रव्यका आरोप इस प्रकार है। जैसे-द्रव्यके रूपको ही द्रव्य कहना यथा--रूपपरमाणु, गन्धपरमाणु आदि । यहाँ पृद्धगल के गुण मे पृद्गल द्रव्य (परमाणु) का आरोप किया गया है। ६ स्वजाति गुणमें स्वजाति पर्यायका आरोप इस प्रकार है। जैसे-परिणमनके द्वारा ग्राह्य होने के कारण ज्ञानको ही पर्माय कह देना । यहाँ ज्ञान गुणमें स्वजाति ज्ञान पर्याय
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उपचार
२ कारण कार्य आदि उपचार निर्देश
का आरोप है। ७ स्वजाति विभाव पर्यायमे स्वजाति द्रव्यका आरोप इस प्रकार है। जैसे - स्थूल स्कन्धको ही पुद्गल द्रव्य कह देना । यहाँ स्कन्धरूप पुद्गल की विभाव पर्यायमें पुद्गल द्रव्यका उपचार किया गया है। ८. स्वजाति पर्यायमें स्वजाति गुणका आरोप इस प्रकार है। जैसे-देहके वर्ण विशेषको देखकर यह उत्तम रूपवाला है' ऐसा कहना । महाँ देह पुद्गल पर्याय है । उसमें पुद्गलके रूपगुण का आरोप किया गया है।
२. उपचरित असदभत व्यवहारके भेदोकी अपेक्षा १. सत्यार्थ उपचरित असद्भुत व्यवहार इस प्रकार है। जैसेकिसी देशके राजाको देशपति कहना। क्योंकि व्यवहारसे वह उस देशका स्वामी है ।२४१। २. असत्यार्थ उपचरित असद्भुत व्यवहार इस प्रकार है। जैसे-किसी नगर या देशमें रहनेके कारण 'यह मेरा नगर है' ऐसा कहना। क्योकि व्यवहारसे भी वह उस नगरका स्वामी नहीं है ।२४१३ ३ सत्यासत्यार्थ उपचारित असद्भुत व्यवहार इस प्रकार है जैसे---'मेरा द्रव्य' ऐसा कहना। क्योंकि व्यवहारसे भी कुछ मात्र द्रव्य उसका है सर्व नही ।२४१। स्वजाति उपचरित असदभूत व्यवहार इस प्रकार है। जैसे- 'पुत्र बन्धुवर्गादि मेरी सम्पदा है' ऐसा कहना। क्योकि यहाँ चेतनका चेतन पदार्थों में ही स्वामित्व कहा गया है । ५. विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार इस प्रकार है । जेसे - 'आभरण हेम रत्नादि मेरे है' ऐसा कहना, क्योंकि यहाँ चेतनका अचेतनमे स्वामित्व सम्बन्ध कहा गया है। ६ स्वजाति विजाति उपचरित असदभूत व्यवहार इस प्रकार है। जैसे---'देश, राज्य, दुर्गादि मेरे है ऐसा कहना, क्योकि यह सर्व पदार्थ चेतन व अचेतनके समुदाय रूप है। इनमें चेतनका स्वामित्व बतलाया गया है। नोट-इसी प्रकार अन्य भी उपचार यथा सम्भव जानना (न च /श्रुत
२२); (आ.प.)। २.कारण कार्य आदि उपाचर निर्देश
१. कारणों में कार्यके उपचारके उदाहरण स. सि./१०/३४८/११ हिंसादयो दुखमेवेति भावयितव्यम् । कथ हिसादयो दुखम् । दुखकारणत्वात् । यथा 'अन्न वै प्राणा' इति। कारणस्य कारणत्वाद वा यथा धनं प्राणाः इति । धनकारणमन्नपानमन्नपामकारणा. प्राणा इति। तथा हिंसादयोsसद्वद्यकारणम् । असद द्यकम च दुखकारणमिति । दुखकारणे दुखकारणकारणे वा दुःखोपचार ।-हिंसादिक दु.ख ही है ऐसा चिन्तन करना चाहिए। प्रश्न-हिंसादिक दुख कैसे है ? उत्तर-दुखके कारण होनेसे। यथा-'अन्न ही प्राण है। अन्न प्राणधारणका कारण है पर कारणमें कायंका उपचार करके अन्नको हो प्राण कहते है। या कारणका कारण होने से हिसादिक दुख है । यथा 'धन ही प्राण है'। यहाँ अन्नपानका कारण धन है और प्राणका कारण अन्नपान है, इसलिए जिस प्रकार धनको प्राण कहते है उसी प्रकार हिसादिक असाता वेदनीयकर्म के कारण है और असाता वेदनीय दुखका कारण है, इसलिए दुखके कारण या दुखके कारणके कारण हिसादिकमें दुखका उपचार है। (रा. वा ७/१०/१/५३७/२४) श्लो. पा, २/१/६/४६/४६४/२३ घृतमायुरन्नं वै प्राणा इति, कारणे कार्योपचार । -निश्चयकर घृत ही आयु है । अन्न ही प्राण है। इन
वाक्यो में कारणमें कार्यका उपचार किया गया है। क.प.१/१,१३-१४/१२४४/२८८/५ (कारण रूप द्रव्यकम में कार्यरूप क्रोधभावका उपचार कर लेनेसे द्रव्य कर्ममें क्रोध भावकी सिद्धि
हो जाती है। घ.१/४,१,४/१३/८ (भावेन्द्रियोके कारण कार्यभूत द्रव्येन्द्रियोको भी इन्द्रिय संज्ञाकी प्राप्ति)
ध १/१,१,६०/२६८/२(कारणमे कार्यका उपचार करके ऋद्धिके कारणभूत
सयमकोही ऋद्धि कहना)। ध ६/११, १,२८/५१/३ (कारणमें कार्यके उपचारसे ही जाति नामकर्म
को 'जाति' सज्ञा की प्राप्ति ।) ध१/४,१,४५/१६२/३ (कारणमें कार्य का उपचार करके शब्द या उसकी
स्थापनाको भी 'भूत' स ज्ञाकी प्राप्ति।) घ.१/४,१,६७/३२३/६ (कारणमें कार्यका उपचार करके क्षेत्रादिकोंको
भी 'भार ग्रन्थ' संज्ञाकी प्राप्ति।) प्र सा /त.प्र.३४ (कारणमें कार्यका उपचार करके ही द्रव्य श्रुतको 'ज्ञान' सज्ञाकी प्राप्ति।)
२. कार्यमें कारणके उपचारके उदाहरण स.सि. १/१२/१२२/८ श्रुतमपि क्वचिन्मतिरित्युषचर्यते मतिपूर्वकत्वादिति ।-श्रुतज्ञान भी कही पर मतिज्ञानरूपसे उपचारित किया जाता है क्योकि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है । (अर्थात श्रुतज्ञान कार्य है और मतिज्ञान उसका कारण )। रा. वा. २/१८/३/१३१/१ कार्य हि लोके कारण मनुवर्तमान दृष्ट यथा घटकारपरिणत विज्ञान घट इति, तथेन्द्रियनिमित्त उपयोगोऽपि इन्द्रियमिति व्यपदिश्यते । -लोकमे कारण की भी कार्य में अनुवृत्ति देखो जाती है जैसे घटाकारपरिणत ज्ञानको घट कह देते है। उसी प्रकार उपयोगको भी इन्द्रियके निमित्तसे इन्द्रिय कह देते है। ध १/१,१,२४/२०२/६ (कार्यमे कारणका उपचार करके मनुष्य गति नामकर्म के कारणसे उत्पन्न मनुष्य पर्यायके समूहको मनुष्य गति
कहा जाता है।) ध४/१,५,१/३१६/६ (कार्य मे कारणका उपचार करके पुद्गलादि द्रव्यो.
के परिणमनको भो 'काल' सज्ञाकी प्राप्ति।) प्रसा./त.प्र ३० ( कार्य मे कारणके उपचारसे ज्ञानको ज्ञेयगत कहा जाता है।)
३. अल्पमें पूर्ण के उपचारके उदाहरण स सि ७/२१/३६१/१ उपचाराद् राजकुले सर्वगतचैत्राभिधानवत् ।
-जैसे राजकुल में चैत्रको सर्वगत उपचारसे कहा जाता है इसी प्रकार सामायिक व्रतके महाव्रतपना उपचारसे जानना चाहिए।
४. भावीमें भूतके उपचारके उदाहरण ध११,१६/१८२/४ कर्मणा क्षयोपशमाभ्यामभावे कथं तयोस्तत्र सत्त्वमिति चेन्नेष दोष,, तयोस्तत्र सत्त्वस्योपचारनिबन्धनत्वात् ।
प्रश्न- कर्मोके क्षय और उपशमके अभावमें भो ८वे गुणस्थानमें क्षायिक या औपशमिक भाव कैसे हो सकता है । उत्तर-यह कोई दोष नही, क्योकि, इस गुणस्थानमें क्षयिक और औपशमिक भावका सद्भाव उपचारसे माना गया है। विशेष दे. अपूर्वकरण ४ ५. आधारका आधेयमें उपचार श्लो, वा २/१/६/५६/४६४/२४ मञ्चा क्रोशन्ति इतितास्थ्यात्तच्छन्दोपचार. =मचान पर बैठकर किसान चिल्लाते है, पर कहा जाता है कि मचान चिल्लाते है । यहाँ आधारका आधेयमें आरोप है।
६. तद्वानमें ततका उपचार श्लो, बा २/१/६/४६४/२४ साहचर्याद्यष्टिः पुरुष इति। -लाठीवाले पुरुषको लाठिया या गाडीवाले पुरुषको गाडी कहना तद्वानमें ततका उपचार है।
७ समीपस्थमें ततका उपचार श्लो वा २/१/६/५६/४६४/२५ सामीप्याद्वक्षा ग्राम इति ।- किसी पथिकके पूछने पर यह कह दिया जाता है कि ये सामने दीखनेवाले वृक्ष ही ग्राम है अर्थात अत्यन्त समीप है। यहाँ समीपमें तद्का उपचार है।
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उपचार
३. द्रव्यगुण पर्यायमै उपचार निर्देश
८. अन्य अनेकों उपचारोंके उदाहरण स.सि ७/१८/३५६/६ शल्यमिव शल्या यथा तत् प्राणिनो बाधार तथा शरीरमानसबाधाहेतुत्वात्कर्मोदयविकार शल्यमित्युपचर्यते । जिस प्रकार कॉटा आदि शल्य प्राणियोको बाधाकारी होती है, उसी प्रकार शरीर और मन सम्बन्धी बाधाका कारण होनेसे कर्मोदय जनित विकारमै भो शल्यका उपचार कर लेते है । (यहाँ तत् सदृश कारणमें तत्का उपचार है।) रावा, १/२६/४/२४४/२८ चरमके पासवाला अव्यवहित पूर्वका मनुष्यभव भी उपचारसे चरम कहा जाता है। (यहाँ काल सामीप्यमे तत्
का उपचार है ) श्लो बा २/१/५/८.-१४/१८८/५ (यह भी गौ है वह भी गौ थी। यहाँ
धर्म के एकत्व कारण धर्मियोमें एकत्व का उपचार किया है। ध. २१.१/४४६/३ आयोगकेवली के एक आयु प्राण ही होता है, किन्तु
उपचारसे एक, छ. अथवा सात प्राण भी होते है। (यहाँ सश्लेष सम्बन्धको प्राप्त द्रव्येन्द्रिय व शरीरादिमें जीवकी पर्यायका उपचार किया गया है। स सा./आ.१०८ (प्रजाके गुण दोषको उपजानेवाला राजा है। ऐसा
कहना । यहाँ आश्रयमें आश्रयीका उपचार किया है।) द्र.सं/टी, १६/५७/१३ (मुक्त जीवोके अवस्थाके कारण लोकानको भी
मोक्ष संज्ञा प्राप्त है । यहाँ आधारमें आधेयका उपचार है । न्याय दी. १/६१४ (ऑखसे जानते है इत्यादि व्यवहार तो उपचारसे
प्रवृत्त होता है । उपचारकी प्रवृत्तिमें सहकारिता निमित्त है।) प ध/पू ७०२ (अवधि व मन पर्ययज्ञानको एकदेश प्रत्यक्ष कहना
उपचार है।) ३. द्रव्यगुण पर्यायमे उपचार निर्देश
१द्रव्यको गुणरूपसे लक्षित करना ध ११.१,६/०६१/३ गुणसह चरितत्वादात्मापि गुणसंज्ञा प्रतिलभते। उक्त च-"जेहि दु लक्विज्जंते उदयादिसु सम्वेहि भावे हि । जीवा ते गुण सण्णा णि हिट्ठा सबद रिसीहि ।१०४.".- गुणोके साहचर्य से आरमा भी गुणसज्ञाको प्राप्त होता है। कहा भी है-"दर्शनमोहनीय आदि कर्मों के उदय उपशम आदि अवस्थाओ के होनेपर उत्पन्न हुए जीव-परिणामोसे युक्त जो जीव देखे जाते है, उन जीवोको सर्वज्ञदेव ने उसी (औपशमिक आदि) गुण सज्ञावाला कहा है।" (गो. क / म. ८६२/६८६) (और भी दे उपचार १/३)
२ पर्यायको द्रव्यरूपसे लक्षित करना ध४/१५४/३३७/५ असुद्ध' दवट्ठिय णये अवल विदे पुढ विआदीणि
अणेयाणि दम्याणि होति त्ति व जणपज्जायस्स दव्वत्तब्भुवगमादो। पण अशुद्ध द्रव्याथिकनया अबलम्बन करनेपर पृथिवी जल आदिक अनेक द्रव्य होते है, क्योकि व्यंजन पर्यायके द्रव्यपना माना गया है। (और भी दे उपचार १/३) ध/३,४/६३ कधमत्थियवसेण अदव्वाणं पज्जयाणं दव्यत्त । ण, दबदो एयतेण तेमि पुधभूदाणमणुवलं भादो, दव्वसहावाणं चेबुवलंभा। .. दवट्ठियस्स धमभाव व्यवहारो। ण एस दोसो, 'यदस्ति न तद् द्वयमतिलडध्य वर्तते' इति दो विगए अविलंबिउण द्विदणेगमणयस्स भावाभावबवहारविरोहाभावादो |-- प्रश्न-द्रव्यार्थिक नयसे व्यसे भिन्न पर्यायोके द्रव्यत्व कैसे सम्भव है। उत्तर-पर्याय द्रव्यसे सर्वथा भिन्न नहीं पायी जाती, किन्तु द्रव्य स्वरूप ही वे उपलब्ध होती है। प्रश्न-द्रव्यार्थिकको अपेक्षा पर्यायो में अभावका व्यवहार कैसे होता है। उत्तर-'जो है वह दोनोका अतिक्रमण करके नहीं रहता' इसलिए दोनो नयोका आश्रय कर स्थित नैगम नयके भाव अभावरूप (दोनो प्रकारके) व्यवहारमें कोई विरोध नही है।
स. सा /आ २६४ प्रवर्तमान यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते, निवर्तमान च यद्युपादाय निवर्तते तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमेति लक्षणीय तदेकलक्षण-लक्ष्यत्वात । वह (चैतन्य) प्रवर्त
यत्वात मान होता हुआ जिस जिस पर्यायको व्याप्त होकर जवंतता है और निवर्तमान होता हुआ जिस जिस पर्यायको ग्रहण करके निवर्तता है, चे समस्त सहवर्ती (गुण) या क्रमवर्ती पर्याये आत्मा है, इस प्रकार लक्षित करना चाहिए, क्योकि आत्मा उसी एक लक्षणसे लक्ष्य है।
३ द्रव्यको पर्यायरूपसे लक्षित करना ध./१,७,१/१/१८७/६ भावो णाम किं । दवपरिणामो पुत्वावरकोडिवदि. रित्तवट्टमाणपरिणामुवलक्खियदव्वं वा। -प्रश्न-भाव नाम किस वस्तुका है । उत्तर-द्रव्यके परिणामको (पर्यायको) अथवा पूर्वापर कोटिसे व्यतिरिक्त वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको भाव कहते है । (और भी दे उपचार १/३)
४ पर्यायको गुणरूपसे लक्षित करना भ आ./मू. ५७/१८२ अहिंसादिगुणा भ आ./वि.५७/१८३/५ एते अहिंसाद गुणा' परिणामा धर्म इत्यर्थः। ननु सहभुवो गुणा इति वचनात चेतन्यामूर्तिस्वादीनामेबारमन' सभुवा गुणताम् । हिसादिभ्यो विरतिपरिणाम पुन कादाचिकत्वात मनुष्यत्वादिक्रोधादिवत् पर्याया इति चेन्न गुणपर्य यवद्गद्रव्यमित्यावुभयोपादाने अपान्तरभेदोपदर्शनमेतद्यथा 'गाबलीवर्दम' इत्युभयोरुपादाने पुनरुक्ततापरिहृतये स्त्रीगोशब्दवाच्या इति कथनमेकस्यैव गुणशब्दस्य ग्रहणे धर्म मात्रवचनात् । अहिसादि गुण आत्माके परिणाम है अर्थात धर्म है प्रश्न-'सहभुवो गुणा' ऐसा आगमका वचन होनेके कारण चैतन्य अमूर्तित्वादि ही आत्माके गुण है क्योकि ये कभी उससे पृथक् नही होते । परन्तु हिसा आदिसे विरतिरूप परिणाम कादाचित्क होनेके कारण, ये भाव मनुष्यत्वादि अथवा क्रोधादिकी भॉति पर्याय है ? उत्तर-'गुण पर्ययवद्रव्यम्' इस सूत्रमें दोनोका ग्रहण किया है। यहाँ गुण शब्द उपलक्षण वाचक समझना चाहिए, अर्थात वह ज्ञानादि गुणोके समान अहिसादि धर्मोंका भी वाचक है। जैसे- 'गोबलोवर्दम्' इस शब्दसे एक ही गौ पदार्थ का गो और बलीवर्द दोनों शब्दोके द्वारा ग्रहण होनेसे एकको पुनरुक्तता प्राप्त होती है । इसे दूर करनेके लिए यहाँ गो शब्द का अर्थ 'स्त्री' करना पड़ता है। उसी तरह 'अहिसादिगुणा' इस गाथाके शब्दसे यहाँ धर्ममात्रको गुण कहा है, ऐसा समझना चाहिए । (फिर वे धर्म गुण हो या पर्याय, इससे क्या प्रयोजन) दे. उपचार ३४१ औपशमिकादि भावोको जीवके गुण कहा जाता है। ल सा /मू १७/१३५ उपशमंगुणं गृह्णाति । (अन्त कोटाकोटी मात्र कर्मों ___ की स्थिति रह जानेपर जीव) उपशम सम्यक्त्व गुणको ग्रहण कर है। पंका/ता. वृ. ५/१४/१२ केवलज्ञानादय स्वभावागुणा मतिज्ञानादयो विभावगुणा 1- केवलज्ञानादि (शुद्ध पर्याय) स्वभाव गुण है और मति ज्ञानादि (अशुद्ध पर्याय) विभाव गुण है । (प प्रा/टी १/५७) (विशेष दे उपचार १/३)
५ गुणको पर्यायरूपसे लक्षित करना स सा./म. ३४५ केहिचि दुपज्जए हि विणस्सए णेव केहिचि दु जीवो।
जम्हा तम्हा कुव्बदि सो वा अण्णो व णेयतो । ३४५। -क्योकि जीव कितनी ही पर्यायोसे नष्ट होता है और क्तिनी ही पर्यायों (गुणो) से नष्ट नहीं होता। इसलिए 'वही करता है' अथवा 'दूसरा ही करता है ऐसा एकान्त नहीं है। प्र.सा./मू१८ उप्पादो य विणासो विज्जदि सव्वस्स अट्ठजादस्स । पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सम्भूदो। -क्सिी पर्यायसे उत्पाद, किसी पर्यायसे विनाश सर्व पदार्थ मात्र के होता है। और क्सिी पर्यायसे (गुणसे) पदार्थ वास्तवमें ध्र व है। (विशेष दे. उपचार १/३)
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उपचार
४. उपचारकी सत्यार्थता व असत्यार्थता
१. परमार्थतः उपचार सत्य नहीं होता
ध. ७/२,१, ३३/७६/४ उक्यारेण खत्रोसमियं भाव पत्तस्स ओदइयस्स जोगत्याभावविरोहायो-योगसे क्षयोपशम भावतो उपचारसे माना गया है। असल में तो योग औदायिक भाव ही है। और औदयिक योगका सयोगिकेवलियो में अभाव माननेमें विरोध आता है । ( अत सयोगकेवलियो में योग पाया जाता है)
ध. १४/५.६.१६/१३/४ सिद्धाणं पि जीवत्तं किण्ण इच्छिज्जदे ण, उबयारस्स सच्चात्ताभावादो। प्रश्न- सिद्धोके भी जीवत्व क्यो नहीं स्वीकार किया जाता है। उत्तर-नहीं, क्योकि सिद्धों में जीवत्व उपचार से है, और उपचारको सत्य मानना ठीक नही है। ससा / १०५ पौकिकममा कृतमिति निविज्ञानयनभ्रष्टाना विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्प स तु उपचार एव न तु परमार्थ पौगलिक कर्म आरा किया है ऐसा निर्मि कल्पविज्ञानचनसे भ्रष्ट विकल्प परायण अज्ञानियोका विकल्प है। वह विकल्प उपचार हो है परमार्थ नहीं ।
प्रसा./ता वृ २२५ प्रक्षेपक गा. ८/३०४/२५ न उपचार साक्षाद्भवितुमर्हति अग्निवत् क्रूरोऽयं देवदत्त इत्यादि । =उपचार कभी साक्षात् या परमार्थ नहीं होता। जैसे—यह देवदत्त अग्नि] क्रोषी है ऐसा कहना । (इसी प्रकार आर्यिकाओके महाव्रत उपचार से है । सत्य नहीं) म्यादी १/६१४ चक्षुषा प्रमीयत इत्यादि व्यवहारे पुनरुपचार शरणम्। उपचारप्रवृत्तौ तु सहकारित्व निबन्धनम् । न हि सहकारित्वेन तत्साधकमिति करण नाम, साधक विशेषस्यातिशयवत करणत्वात् । - खसे जानते है' इत्यादि व्यवहार तो उपचारसे प्रवृत्त होता है और उपचारको प्रवृत्तिमे सहकारिता निमित्त है। इसलिए इन्द्रयादि प्रमितिक्रिया मात्र साधक है पर साधकतम नहीं। और इसीलिए करण नहीं है, क्योंकि, अतिशयवान् साधक विशेष (असाधारण कारण) ही कारण होता है।
२. अन्य धर्मो का लोन करनेवाला उपचार मिष्या
सं स्तो, २२ अनेकमेकं च तदेव तत्त्व, भेदान्वयज्ञानमिद हि सत्यम् | मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे तपोऽपि सोऽनुपाय वह
युक्तिनीत वस्तु तव अनेक तथा एक रूप है, जो भेदाभेद ज्ञानका विषय है और वह ज्ञान ही सभ्य है। जो लोग इनमें से एकको भी असत्य मानकर दूसरे में उपचारका व्यवहार करते है वह मिथ्या है, क्योकि, दोनोमे-से एकका अभाव माननेपर दूसरेका भी अभाव हो जाता है। और दोनो का अभाव हो जानेपर वस्तुतच्च अनुपाख्य अर्थात् निस्वभाव हो जाता है ।
३. उपचार सर्वथा अप्रमाण नहीं है।
घ. १/१.१.४/१२/१ नेयमपरकम्पना कार्यकारणोपचारस्य जगत सुप्रसिद्धस्योपलम्भात्यको उपचार इन्द्रिय कहना) कोई अदृष्ट कल्पना नहीं है, क्योंकि, कार्यगत धर्मका कारणमे और कारणगत धर्मका कार्य में उपचार जगत् में प्रसिद्ध रूप से पाया जाता है।
स. ५/२६ / २६ लौकिकानामपि घटाकाश पटाकाशमिति व्यवहारप्रसिद्ध राकाशस्य नित्यानित्यत्वम् चायमोपचारिकत्वादप्रमाणमेव । उपचारस्यापि किचित्साधर्म्यद्वारेण मुख्यार्थस्पशित्वात् । - आकाश नित्यानित्य है, क्योंकि सर्व साधारण में भी 'यह घटका आकाश है', 'यह पटका आकाश है यह व्यवहार होता है । यह व्यवहारसे उत्पन्न होता है इसलिए अप्रमाण नही कहा जा सकता, खोकि, उपचार भी किसी न किसी साथ ही मुख्य अर्थको द्योतित करनेवाला होता है।
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४२२
४ उपचारकी सत्यार्थता न असत्यार्थवा
४. निश्चित व मुख्यके अस्तित्वमें ही उपचार होता है सर्वथा अभावमें नहीं
रामा १/१२/१४/६/९५ सति मुख्य तो उपचारो यथा सति सिहे अन्यत्र क्रौर्यशौर्यादिगुण साधर्म्यात् सिहोपचार क्रियते । न च तथेह मुख्य प्रमाणमस्ति । तदभाव व फले प्रमाणोपचारे न युज्यते । = उपचार तब होता है जब मुख्य वस्तु स्वतन्त्र भावसे प्रसिद्ध हो । जैसे सिह अपने सुर गुणों से प्रसिद्ध है तभी उसका सादृश्य से बालकमे उपचार किया जाता है । पर यहाँ जब मुख्य प्रमाण ही प्रसिद्ध नही है तब उसके फलमे उसके उपचारकी कल्पना ही नही हो सकती ।
ध १/१,१.१६/१८१/४ अक्षपकानुपशमकाना क्थ तद्व्यपदेशश्चेन्न, भाविनि भूतवदुपचारतस्तत्सिद्धं सत्येवमतिप्रसाद स्यादिति चेन्न असति प्रतिबन्धरि मरणे नियमेन चारित्रमोहक्षपकोपशमकारिणां तदुन्मुखानामुपचारभाजामुपलम्भात् । = प्रश्न- इस आठवें गुणस्थानमें न तो कर्मो का क्षय ही होता है और न उपशम ही । ऐसी अवस्थामे यहाँ पर क्षायिक या औपशमिक भावका सद्भाव कैसे हो सकता है ? उत्तर- नही, भावी मे भूतके उपचारसे उसकी सिद्धि हो जाती है। प्रश्न- ऐसा माननेपर तो अतिप्रसग आता है । उनरनहीं, क्योकि प्रतिबन्धक कर्मका उदय अथवा मरण यदि न हो तो वह चारित्रमोहका उपशम या क्षय अवश्य कर लेता है । उपशम या क्षपणके सम्मुख हुए ऐसे व्यक्तिके उपचारसे क्षपक या उपशमक सज्ञा बन जाती है। (१७.१/२०२/२). (४.७/२,१-४६/६३/२)
ध ५/१७,६/२०६/४ उवयारे आसइजमाणे अइम्पसगो किण्ण होदीदि । चेण पञ्चासीदो अपगपडिसेहादा । = प्रश्न - इस प्रकार सर्वत्र उपचार करनेपर अतिप्रसग दोष नही प्राप्त होगा ? उपर-नहीं, क्योंकि प्रत्यासति अर्थात् समीपवर्ती अर्थ के प्रसंग अतिप्रसंग दोषका प्रतिषेध हो जाता है (इसलिए पूर्व गु स्थान में ता उपचारसे क्षायिक व औपशमिक भाव कहा जा सकता है पर इससे नीचे के अन्य गुणस्थानों में नही ।)
७/२.१.३६/६/२ चोक्यारे सणावरण सो मुहियस्साभावे उमीदो दर्शन गुणको अमीकार करनेपर) यह भी नही कहा जा सकता कि दर्शनावरणका निर्देश केवल उपचार से किया गया है, क्योकि, मुख्य वस्तुके अभाव मे उपचारकी उपपत्ति नहीं बनती।
५ अविनाभावी सम्बन्धोंमें ही परस्पर उपचार होता है आपा मुख्याभावे सति प्रयोजने निमसे बोपचार प्रयोऽपि
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सबन्धाविनाभाव | मुख्यका अभाव होनेपर प्रयोजन या निमित्त के वशसे उपचार किया जाता है और वह प्रयोजन कार्य कारण या निमित्त नैमित्तिकादि भावो मे अविनाभाव सम्बन्ध ही है । ६ उपचार प्रयोगका कारण व प्रयोजन ७/२.१५/१०१/३ घर परिवार सीए चक्खिदिग्रस पत्ती । ण अतर बहिर गत्थावयारेण बालजणबोहण चक्खूण जं दिस्सदि त चवखुद समिदि परूवणादो । गाहाए गलभ जण माऊण उजुवत्थो किण्ण घेप्पदि । ण तस्थ, पुव्वुत्तासेसदोसप्पस गादा प्रश्न - उस चक्षु इन्द्रिय के विषयसे प्रतिबद्ध अतरग (दर्शन) शक्तिमे चक्षु इन्द्रिय प्रवृत्ति के से हो सकती है। उत्तर- नहीं, यथार्थ में पशु इन्द्रियकी अतर गमे ही प्रवृद्धि होती है, किन्तु बालक जनांका ज्ञान करानेके लिए अतर गमे बहिरग पदार्थ के उपचारसे 'चक्षुओ को जो दिखता है वही चक्षु दर्शन है' ऐसा प्ररूपण किया गया है। प्रश्न-गाथाका गला न घोटकर सीधा अर्थ को नहीं करते उत्तर नहीं करते, क्योंकि वैसा करनेमें सो पूर्वोक्त समस्त दोषोका प्रसंग आता है ।
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उपचार
उपदेश
पंध/पू. ५४२-५४३ असदपि लक्षणमेतत्सन्मात्ररवे सुनिर्विकल्पत्वात् ।
तदपि न चिनावलम्बान्निविषय शक्यते वक्तुम् १५४२॥ तस्मादनन्यशरण सदपि ज्ञान स्वरूपसिद्धत्वात् । उपचरित हेतुबशात तदिह ज्ञान तदन्यशरणमिव ।२४३। --निश्चयनयसे तत्वका स्वरूप केवल सतरूप मानते हुए, निर्विकल्पताके कारण यद्यपि उक्त लक्षण (अर्थविकल्पो ज्ञान) ठोक नही है। इसलिए ज्ञान स्वरूपसे सिद्ध होनेसे अनन्य शरण होते हुए भी यहॉपर वह ज्ञान हेतु (या प्रयोजन) के वशसे उपचरित होकर उससे भिन्नके (ज्ञयो) के शरणकी तरह मालूम होता है । अर्थात स्वपर व्यवसायात्मक प्रतीत होता है। (और भी दे. नय V/८४) ५. उपचार व नय सम्बन्ध विचार
१. उपचार कोई पृथक नय नही है आ.प.६ उपचार पृथग नयो नास्तीति न पृथक् कृत । - उपचार नय कोई पृथक् नय नहीं है, इसलिए असदभूत व्यवहार नयसे पृथक उसका ग्रहण नयोकी गणनामें नहीं किया है। २. असद्भूत व्यवहार ही उपचार है आ.प ६ असद्भूतव्यवहार एवोपचार , उपचारादप्युपश्चार य करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहार I = असदभूत व्यवहारही उपचार है। और उपचारका भी जो उपचार करता है सो उपचरित्तासभूत व्यवहार है। (विशेष देखो नय V)
३. उपचार शुद्ध नयमें नहीं नंगामादि नयोमें ही सम्भव है क पा १/१,१३-१४/१२४८/२६०/६ एवं णेगम-स्गह-वबहाराणं । कुदो।
कज्जादो अभिण्णस्स कारणस्स पच्चयभावभुवगमादो उजुसुदस्स कोहोदयं पडुच्च जीवो कोहकसाओ। ज पच्च कोहकसाओ त पच्च यकसारण कसाओ । बधसंताणं जीवादो अभिण्णाण बेयणसहायाणमुजुमुदी काहादिषच्चयभावं क्ण्णि इच्छदे। ण बधसतेहितो कोहादिकसायणमुप्पत्तीए अभावादो । ण च कज्जमणुकताणं कारणववएसो; अश्वत्थावत्तीदो। इस प्रकार ऊपर चार सूत्रो द्वारा जो क्रोधादि रूप द्रव्यको प्रत्यय कषाय कह आये है, वह नैगम सग्रह और व्यवहार नयकी अपेक्षासे जानना चाहिए। प्रश्न-यह कैसे जाना कि उक्त कथन ने गमादिकी अपेक्षासे किया है । उत्तर चूंकि ऊपर (हन सुत्रो में) कार्य से अभिन्न (अविनाभावी) कारणको प्रत्ययरूपसे स्वीकार किया है, अर्थात् जो 'कारण कार्यसे अभिन्न है उसे ही कषायका प्रत्यय बतलाया है। ऋजुमूत्र की दृष्टिमे क्रोधके उदयकी अपेक्षा जीव क्रोध कषाय रूप होता है। प्रश्न - बन्ध और सत्त्व भी जीवसे अभिन्न है, और वेदनास्वभाव है, इसलिए ऋजुसूत्रनय क्रोधादि कर्मों के बन्ध और सत्त्वको भी क्रोधादि प्रत्यय रूपसे क्यो नहीं स्वीकार करता है । अर्थात् क्रोध कर्म के उदयको ही ऋजुसूत्र प्रत्यय कषाय क्यो मानता है, उसके अन्ध और सत्त्व अवस्थाको प्रत्ययक्षाय क्यो नही मानता। उत्तर-नही क्योकि क्रोधादि कर्मों के बन्ध और सत्त्वसे क्रोधादि क्षायोकी उत्पत्ति नही होती है, तथा जो कार्यको उत्पन्न नहीं करते है उन्हे कारण कहना ठीक भी नही है. क्योंकि (इस मयसे) ऐसा मामने पर अव्यवस्था दोषकी प्राप्ति होती है। क.पा.१/१,१३-१४/१२५७/२६७/१ ज मणुस्स पडुच्च कोहो समुप्पण्णो सो तत्तो पुधभूतो सतोथ कोहो । होत ए ऐसो दोसो जदि सगहादिणया अबल बिदा। कितु णइमण ओ जयिवसहाइरिएण जेणावलं विदो तेण ण एस दसो। तत्थ कथ ण दोसो। कारणम्मि णिलीणकञ्चभुवगमादो। - प्रश्न-जिस मनुष्यके निमित्त से क्रोध उत्पन्न हुआ है वह मनुष्य उस क्रोधसे अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे
कहला सकता है । उत्तर -यदि यहाँ पर संग्रह आदि नयोका अव. लम्बन लिया होता तो ऐसा होता, किन्तु यतिवृषभाचार्य ने चूकि यहाँ पर ने गमन का अबलम्बन लिया है. इसलिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न लेगम न प का अबनम्बन लेने पर दोष कैसे नहीं है। उत्तर -क्याँकि नैगमनयको अपेक्षा कारणमें कार्य का सद्भाव स्वीकार किया गया है, इसलिए दोष नही है। उपचार-अभेद-अभेदोपचार-दे अभेद । उपचार छल-दे छल । उपचार विनय-दे विनय । उपदेश-मोक्षमार्गका उपदेश परमार्थ से सबसे बड़ा उपकार है,
परन्तु इसका विषय अत्यन्त गुप्त होनेके कारण केवल पात्रको ही दिया जाना योग्य है, अपात्रको नहीं। उपदेशकी पात्रता निरभिमानता विनय व विचारशीलतामें निहित है। कठोरतापूर्वक भी दिया गया परमार्थोपदेश पात्रके हितके लिए ही होता है। अतः उपदेश करना कर्तव्य है, परन्तु अपनी साधनामें भंग न पड़े, इतनी सीमा तक हो । उपदेश भी पहिले मुनिधर्मका और पीछे श्रावक धर्मका दिया जाता है ऐसा क्रम है। १ उपदेश सामान्य निर्देश १ धर्मोपदेशका लक्षण २ मिथ्योपदेशका लक्षण ३ निश्चय व व्यवहार दोनो प्रकारके उपदेशोंका निर्देश * सल्लेखनाके समय देने योग्य उपदेश-दे सल्लेखना १११ * आदेश व उपदेशमे अन्तर–दे आदेशका लक्षण * चारो अनुयोगोके उपदेशोकी पद्धतिमे अन्तर
-दे. अनुयोग १ * आगम व अध्यात्म पद्धति परिचय-दे. पद्धति * उपदेशका रहस्य समझनेका उपाय-दे, आगम ३ २ योग्यायोग्य उपदेश निर्देश १ परमार्थ सत्यका उपदेश असम्भव है २ पहिले मुनिधर्मका और पीछे श्रावकधर्मका उपदेश दिया
जाता है ३ अयोग्य उपदेश देनेका निषेध ४ ख्याति लाभ आदिकी भावनाओंसे निरपेक्ष ही उपदेश
हितकारी होता है ३ वक्ता व श्रोता विचार * वक्ता व श्रोताका स्वरूप --दे, वह वह नाम * गुरु शिष्य सम्बन्ध -दे. गुरु २ * मिथ्यादृष्टिके लिए धर्मोपदेश देनेका अधिकार अनधिकार
सम्बन्धी -दे वक्ता * सम्यग्दृष्टि व मिथ्याष्टिके उपदेशका सम्यक्त्वोत्पत्ति में
स्थान -दे लब्धि ३ | * वक्ताको आगमार्थके विषयमे अपनी ओरसे कुछ नही
कहना चाहिए -दे. आगम शE
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उपदेश
★ केवलज्ञान के बिना तीर्थकर उपदेश नहीं देते-देत १ श्रं ताकी रुचि अरुचिसे निरपेक्ष सत्यका उपदेश देना कर्तव्य है
- दे. सत्य २
* हित-अहित व मिष्ट कटु संभाषण
२ उपदेश श्रोताकी योग्यता व रुचिके अनुसार देना चाहिए * उपदेश ग्रहणमे विनयका महत्व दे विनय २
* ज्ञानके योग्य पात्र-अपात्र दे श्रोता
३ ज्ञान अपात्रको नही देना चाहिए
* कथंचित् अपानको भी उपदेश देनेको आज्ञा - दे उपदेश ३ / १ में (स म.)
* अपानको उपदेशके निषेधका कारण- उपदेश ३/४ ४ कैसे जीवको कैसा उपदेश देना चाहिए
५ किस अवसरपर कैसा उपदेश देना चाहिए
* वाद-विवाद करना योग्य नही पर धर्महानिके अवसर पर बिना बुलाये बोले
-दे बाद दे.
* चारो अनुयोगोके उपदेशका क्रम
४ उपदेश प्रवृत्तिका माहात्म्य
१ हितोपदेश सबसे बड़ा उपकार है
२ उपदेश से श्रोताका हित हो न हो पर वक्ताका हित तो होता ही है
३ अतः परोपकारार्थं हितोपदेश करना इष्ट है
४ उपदेशका फल
५ उपदेश प्राप्तिका प्रयोजन
स्वाध्याय १
१. उपदेश सामान्य निर्देश
१. धर्मोपदेशका लक्षण
1
स. सि ६/२३/४४१/२ धर्मवाद्यनुष्ठान धर्मोपदेशम् धर्मकथा आदिका अनुष्ठान करना धर्मोपदेश है (रा.मा.६/२५/५/६२४/९६), (चा. खा./ १५२/५): (ससा ७/९१) (अन. प ७/८०/७१६) २ मिथ्योपदेशका लक्षण
=
स. सि. ०/२६/१६/० अभ्युदयनि सार्येषु क्रियाविशेषेषु अन्यस्य यथाप्रवर्त्तनमतिसन्धापनं वा मिथ्योपदेश । - अभ्युदय और मोको कारण भूतक्रियाओमें किसी दूसरेको विपरीत मार्ग लगा देना, या मिथ्यावचनो द्वारा दूसरोंको ठगना मिथ्योपदेश है। ३. निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकारके उपदेशोंका निर्देश
मो. पा / १६, ६० परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ । इय पाऊणसदव्वे कुणहरई विरह इयरम्मि | १६ | धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरण । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरण णाणजुत्तो || व्यसे दुर्गति होती है जैसे सुगति होती है, ऐसा जानकर हे भव्यजीवो। तुम स्वद्रव्यमे रति करो और परद्रव्यसे विरक्त हो | १६ | देखो जिसको नियमसे मोक्ष होना है और चार ज्ञानके जो घारी है ऐमें तीर्थंकर भी तपश्चरण करते है ऐसा निश्चय करके तप करना योग्य है । ६०
३. बक्ता व श्रोता विचार
पं. ध. /उ.६५३ न निषिध पादानेषु
नोपदेशो निषेधित नूनं निश्चय करके सत्पात्रीको दान देनेके विषय में और महंतोंकी पूजा विषयमें न तो वह आदेश निषिद्ध है तथा न वह उपदेश ही निषिद्ध है।
आदेशो महतामपि । ६५३
२. योग्यायोग्य उपदेश निर्देश
१. परमार्थ सत्यका उपदेश असम्भव है
स. श १६.५६ यत्परै' प्रतिपाद्योऽह यत्परान् प्रतिपादये। उन्मत्त चेष्टितं सम्मेदनिर्विकल्पक १६ बोधयितुमिच्छामि साह त
पुन. । ग्राह्य तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोवये । ५६| मै उपध्यायो आदिको से जो कुछ प्रतिपादित किया जाता हूँ तथा शिष्या दोपादन करता है वह सब मेरी पागलों जैसी
है, क्योकि मै वास्तव में इन सभी बचनविकल्पोसे अग्राह्य हूँ | १६ | जिस विकल्पाधिरूढ आत्मस्वरूपको अथवा देहादिकको सम झाने-बुझाने की इच्छा करता हूँ, यह मे नही हू, और जोहानामै नन्दमय स्वय अनुभवगम्य आत्मस्वरूप मै हूँ, बह भी दूसरे जीवोके उपदेश द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि केवल स्वसंवेदगम्य है इसलिए दूसरे जोमोको ने क्या समझाऊँ ॥
२. पहले मुनिधर्मका और पीछे गृहस्थधर्मका उपदेश दिया जाता है
पु. सि. उ. १०-११ मा समस्तविरति प्रदर्शितो वो न जातु गृहाति तस्यैकदेशविरति कथनीयानेन बीजेन | १७| यो यतिधर्मक्थयन्तुपदिशति गृहस्थधर्ममन्यमति । तस्य भगमस्यप्रवचने प्रदर्शित निग्रहस्थानम् | १८ | अक्रमकथनेन यत प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्य । अपदेऽपि सं प्रतारितो भवति तेन दुर्महिमा | जो जीव बारम्बार दिखलायी हुई समस्त पापरहित मुनिवृत्तिको कदाचिद ग्रहण न करे तो उसे एकदेश पाप क्रिया रहित गृहस्थाचार इस हेतु से समभावे अर्थात् कथन करे |१७| जो तुच्छ बुद्धि उपदेशक, मुनिधर्मको नही कह करके श्रावक धर्मका उपदेश देता है उस उपदेशकको भगवत सिद्धान्तमे दण्ड देनेका स्थान प्रदर्शित किया है | १८ जिस कारण से उस दुर्बुद्धिके क्रमभग कथनरूप उपदेश करनेसे अश्यन्त दूर तक उत्साहमान हुआ भी शिष्य तुच्छस्थान में सन्तुष्ट होकर ठगाया हुआ होता है | १६
३ अयोग्य उपदेशका निषेध
पध. /उ. ६५४ यद्वादेशपदेशौ स्तो तौ द्वौ निरवद्यकर्मणि । यत्र सावद्यशोऽस्ति उत्रादेशो न ४ आवेश और उपदेश दोनो ही निर्दोष क्रिया ही होते है, किन्तु जहाँपर पापको थोडी-सी भी सम्भावना है वहॉपर कभी भी आदेशकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है।
४. स्पाति लाभ आदिकी भावनाओसे निरपेक्ष ही उपदेश हितकारी होता है
म
रावा. १/२५/१/६२४/१८ जनपरित्यागान्न निवर्तनार्थ संदेहव्यावर्तनापूर्वपदाथ प्रकाशनार्थ धर्मानुष्ठान धर्मो देश इत्या ख्ययते । लौकिक ख्याति लाभ आदि फलकी आकाक्षाके बिना, उन्मार्ग की निवृति सिए तथा सन्देही व्यावृति और पूर्व अर्थात अपरिचित पदार्थ प्रकाशनके लिए धर्मकथा करना धर्मोपदेश है । (चा, सा १५३ / ४)
३. बक्ता व श्रोता विचार
१. श्रोताकी रुचि से निरपेक्ष सत्यका उपदेश देना योग्य है भ आ / / ४८३ आदट्ठमेव चितेदुमुट्टिदा जे परट्ठमवि लोए । कडुय फरुसेहिं साहेति ते हु अदिदुल्लहा लोए ।४८३३ - जो पुरुष आत्महित
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उपदेश
३. वक्ता व श्रोता विचार
करनेके लिए कटिबद्ध होकर आत्महितके साथ कटु व कठोर वचन बोलकर परहित भी साधते है, वे जगत् में अतिशय दुर्लभ समझने
चाहिए। स. सि.१/३३/१४४ विरोध होता है तो होने दो। यहाँ तत्त्वकी मीमासा
की जा रही है । दवाई कुछ रोगीकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती है। (दे आगम ३/४/३) पु सि./उ.१०० हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकल वितथवचनानाम् । हेया
नुष्ठानादेरनुवदन भवति नासत्यम् ।१००।-समस्त ही अमृत वचनोका प्रमादसहित योग हेतु निदिष्ट होनेसे हेय उपादेयादि अनुष्ठानोका
कहना झूठ नही होता। स म ३/१५/१६ ननु यदि च पारमेश्वरे वचसि तेषामविवेकातिरेकादरोचकता. तत्किमर्थं तान् प्रत्युपदेशक्लेश इति । नैवम् । परोपकारसारप्रवृत्तीनां महात्मना प्रतिपाद्यगता रुचिमरुचि वानपेक्ष्य हितोपदेशप्रवृत्तिदर्शनावः तेषा हि परार्थस्यैव स्वार्थ त्वेनाभिमतत्वात, न च हितोपदेशादपर पारमार्थिक परार्थ । तथा चार्षम् - "रूसउ वा परो मा वा, विस वा परियत्तऊ। भासियव्वा हिया भासा सपक्वगुणकारिया।" प्रश्न-यदि अविवेककी प्रचुरतासे किसीको जिनेन्द्र भगवान के वचनोमें रुचि नही होती, तो आप उसे क्यो उपदेश देनेका परिश्रम उठाते है। उत्तर-यह बात नही है, परोपकार स्वभाववाले महात्मा पुरुष किसी पुरुषकी रुचि और अरुचिको न देखकर हितका उपदेश करते है। क्योकि महात्मा लोग दूसरेके उपकारको ही अपना उपकार समझते है। हितका उपदेश देनेके समान दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है। ऋषियोने कहा है- "उपदेश दिया जानेवाला पुरुष चाहे रोष करे, चाहे वह उपदेशको विषरूप समझे. परन्तु हितरूप वचन अवश्य कहने चाहिए।" २. उपदेश श्रोताको योग्यता व रुचिके अनुसार देना
चाहिए ध १/१,१,६६/३११/१ द्विरस्ति-शब्दोपादानमनर्थकमिति चेन्न, बिस्तररुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात। संक्षेपरुचयो नानुग्रहीताश्चेन्न, विस्तररुचिसत्वानुग्रहस्य संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहाविनाभावित्वात् । -प्रश्न सूत्र में दो बार 'अस्ति' शब्दका ग्रहण निरर्थक है। उत्तर - नही, क्योकि विस्तारसे समझने की रुचिवाले शिष्योके अनुग्रह के लिए सूत्र में दो बार 'अस्ति' पदका ग्रहण किया है। प्रश्न--तो इस सूत्र में सक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले शिष्य अनुगृहीत नहीं किये गये। उत्तर--नहीं, क्योकि, सक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोका अनुग्रह विस्तारसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोके अनुग्रहका अविनाभावी है। अर्थात विस्तारसे कथन कर देने पर सक्षेपरुचि शिष्यो का काम चल ही जाता है। (ध १/१,१,५/१५३/७ तथा अन्यत्र
भी अनेको स्थलो पर) म पु १/१३७ इति धर्म कथाङ्गत्वादाक्षिप्ता चतुष्टयीम् । कथा यथार्ह श्रोतृभ्य, कथक' प्रतिपादयेत् ।१३७। इस प्रकार धर्म कथाके अङ्गभूत आक्षेपिणी विक्षेपिण स वेदिनी और निर्वेदिनी रूप चार कथाओंको विचारकर श्रोताकी योग्यतानुसार वक्ताको क्थन करना चाहिए । न्या दी. ३/६३६ वीतरागकथाया तु प्रतिपाद्यानुशयारोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वाववयवौ. प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि य: प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चस्वार , प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनय निगमनानि वा पञ्चेति यथायोगप्रयोगपरिपाटो। तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारकै -"प्रयोगपरिपाटी प्रतिपाद्यानुरोधत । वीतराग कथामें तो शिष्योके आशयानुसार प्रतिज्ञा और हेतु ये दो भी अवयव होते है, प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण ये तीन भी होते है, प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण और उपनम मे चार भी होते है, प्रतिज्ञा हेतु,उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच भी होते है। इस तरह यथायोग्य रूपसे प्रयोगकी यह व्यवस्था है। इसी बातको श्री कुमारनन्दि भट्टारकने वादन्याय' में कहा है
प्रयोगोके बोलनेको यह व्यवस्था प्रतिपाद्यो (श्रोताओ) के अभिप्रायानुसार करनी चाहिए। जो जितने अवयवोसे समझ सके उतने अवयवोंका प्रयोग करना चाहिए।
३. ज्ञान अपात्रको नहीं देना चाहिए कुरत ७२/४.६.१० ज्ञानचर्चा तु कर्त्तव्या विदुषामेव संसदि। मौर्य च दृष्टिमाधाय वक्तव्य मूर्खमण्डले ।४। व्याख्यानेन यशोलिप्सो श्रृत्वेद स्वावधार्यताम् । विस्मृत्याग्रे न वक्तव्य व्यारव्यानं हतचेतसाम् ।। विरुद्वाना पुरस्तात्तु भाषण विद्यते तथा । मालिन् दूपिते देशे यथा पीयूषपातनम् ।१०। - बुद्धिमान और विद्वान् ल गोकी सभामे ही ज्ञान और विद्वत्ताकी चर्चा करो, किन्तु मूखको उनकी मुर्खताका ध्यान रखकर ही उत्तर दो ।४। ऐवक्तृता मे विद्वानोको प्रसन्न करनेकी इच्छावाले लोगो । देखो. कभी भूल कर भी मूर्वोके सामने व्याख्यान न देना ।ह। अपनेसे मतभेद रखनेवाले व्यक्तियोके समक्ष भाषण करना ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार अमृतको मलिन स्थानपर डाल देना ।१०।। स श.५८ अज्ञापित न जानन्ति यथा मा ज्ञापितं तथा । मूढारमानस्ततस्तेषा वृथा मे ज्ञापनश्रम १८-स्वात्मानुभवमग्न अन्तरात्मा मिचारता है, कि जैसे ये मुखं अज्ञानी जीव बिना बताये हए मेरे आत्मस्वरूपको नही जानते है, वैसे ही बतलाये जानेपर भी नही जानते है । इस लिए उन मूढ पुरुषोको मेरा बतलानेका परिश्रम व्यर्थ है--निष्फल है । प्रायो मूर्खस्य कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् । निर्खननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम् । प्राय करके सन्मार्गका उपदेश मूर्ख जनो के लिए कोपका कारण होता है। जिस प्रकार कि नकटे व्यक्तिको यदि दर्पण दिखाया जाये तो उसे क्रोध आता है। ध.१/१.१.१/६२-६३/६८ सेलघण भग्गघड-अहिचालणि महिसाविजाहय-सुएहि । मट्टिय-मसय-समाण वखाणइ जो सुदं मोहा ।।२। धद-गारवपडिबद्धो बिसयामिस-विस-बसेण-घुम्मंतो। सो भट्ट खोहिलाहो भमइ चिर भव वणे मूढो ।६३ शेलधन, भग्नघट, सर्प, चालनी. महिष, मेढा, जोक, शुक, माटी और मशक (मच्छर) के समान श्रोताओको (देखो 'श्रोता') जो मोहसे श्रुतका व्याख्यान करता है, वह मूढ रसगारवके आधीन होकर विषयोकी लोलुपतारूपी विषके वशसे मूच्छित हो, बोधि अर्थात् रत्नत्रयकी प्राप्तिसे भ्रष्ट होकर भव बनमे चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ।६२-६३। ध १२/४,२,१३,६६/४/४१४ बुद्धिविहीने श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थक भवति पुसाम् । नेत्रविहीने भर्तरि बिलासलावण्यवत्स्त्रीणाम् ।४।-जिस प्रकार पतिके अन्धे होनेपर स्त्रियोका विलास व सुन्दरता व्यर्थ (निष्फल) है, उसी प्रकार श्रोताके मूर्ख होनेपर पुरुषोका वक्तापना
भी व्यर्थ है।४। ध १/१,१.१/७०/१ इदि वयणादो जहाछदाईण विज्जादाण संसार-भयबद्धणमिदि चितिऊण -धरसेणमयवदा पुणरवि ताण परिवरखा काउमादत्ता। -'यथाच्छन्द श्रोताओको विद्या देना ससार और भयका ही बढानेवाला है' ऐसा विचार कर ही धरसेन भट्टारकने उन
आये हुए दो साधुओकी फिरसे परीक्षा लेनेका निश्चय किया। क.पा ११,११-१२/१३८/१७१/४ 'सुण' यद (इदि) सिस्ससभालणव.यणं अपडिबद्धस्स सिस्सस्स यक्वाण णिरत्थयामिदि जाणावण?' भणि।
'नासमझ शिष्योको व्याख्यान करना निरर्थक है' यह बात बतलानेके लिए ही सूत्रमे 'सुनो' इस पदका ग्रहण किया गया है। अ.ग श्रा ८/२५ अयोग्यस्य वचो जैनं जायतेऽनर्थ हेतवे। यतस्तत' प्रयत्नेन मृग्यो योग्यो मनीषिभि ।२५॥ = अयोग्य पुरुषके जिनेन्द्रका वचन अनर्थनिमित्त होता है, इसलिए पण्डितोंको योग्य पुरुषोकी
खोज करनी चाहिए। अन.ध १/१३,१७,२० बहुशोऽप्युपदेश स्यान्न मन्दस्यार्थसं विदे। भवति ह्यन्धपाषाण' केनोपायेन काञ्चनम् 1१३। अव्युत्पन्नमनुप्रविश्य
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उपदेश
तदभिप्रायं प्रोपाप्रतिपादयन्ति सुधियों सदा शर्मदम् । सदिग्ध पुनरन्तमेत्य विनयात्तृच्छन्त मिच्छावशान्न ० यो द्विजानाति स तत्र शिष्यो यो वा तद्व ेष्टिस तन्न लभ्य । को दोपयेद्धामनिधि हि दोष क पूरयेद्वाम्बुनिधि पयोभि | २०| = मिथ्यात्व से ग्रस्त व्यक्तिको बार-बार भी उपदेश दिया जाये पर उसे तत्त्वका समीचीन ज्ञान नहीं होता। क्या अन्धपाषाण भी किसी उपायसे स्वर्ण हो सकता है | १३ | अव्युत्पन्न श्रोताओके अभिप्रायको जानकर आचार्य करुणा बुद्धिसे उन्हे धर्मके फलका लालच देकर भी कल्याणकारी धर्मका उपदेश दिया करते है। इसी प्रकार जो व्यक्ति सदिग्ध है वे यदि विनयपूर्वक आकर पूछे तो उन्हें भी धर्मका उपदेश विशेष रूपसे देते है । किन्तु जो व्यक्ति व्युत्पन्न है, परन्तु विपरीत व दुष्टबुद्धिके कारण विपरीत तत्त्वोंमें दुराग्रह करते है, उनको धर्मका उपदेश नही करते है | १७| जो जिस विषयको जानता है अथवा जो जिस वस्तुको नहीं चाहता है उसे उस विषय या वस्तुका प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। क्योंकि कौन ऐसा है जो सूर्यको दीपक प्रका शित करे अथवा समुद्रको जलसे भरे | २०|
४. कैसे जीवको फैसा उपदेश देना चाहिए
E
भ.आ./मू. ६५५,६८६ आवखेवणी य संवेगणी य णिब्वेयणी य खत्रयस्स । पावोग्गा होति कहाण कहा विवखेवणो जोग्गा । ६५५१ भत्ता दोणं भतो गोदत्थे हि विण तत्थ कायव्या । ६८६ आक्षेपणी, विक्षेपणी, सवेदनी और निर्वेदनी, ऐसे कथाके चार भेद है । इन कथाओ में आपणी समेदनी और निदनी कथाएँ क्षपकको सुनाना योग्य है। उसे विक्षेपणी कथाका निरूपण करना हितकर न होगा ।६५५| आगमार्थको जाननेवाले मुनियोंको क्षपके पास भोजन वगैरह कथाओका वर्णन करना योग्य नही | ६|
घ १/१.१.२ / १०६ / ३ एत्थ त्रिक्खेवणी णाम कहा जिणवयणमयाण तस्स कब्बा, अगाहिद ससमय-सम्भावा पर समय सकहाहि वाउलिदचित्तोमा मिच्छत्त गच्छेज्जत्ति तेण तस्स विक्खेवणी मोत्तूण साओ तिणिनि कहाओ कमाओ। तदो गहिदसमयस्स जगदिगिच्छस्स भोगरइरिदस्स एसोसनियमजुरास्स पच्छा विक्वणी कहा कहेयव्वा । एसा अक्हा वि पण्णवयतस्स परुवयतस्स तदा कहा होदि । सम्हा पुरिसतर पप्पसमणेण कहा कहेयव्वा । - इन कथाओंका प्रतिपादन करते समय जो जिन-वचनको नहीं जानता, ऐसे पुरुषको विक्षेपणी कथाका उपदेश नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसने स्वसमय रहस्यको नहीं जाना है, और परसमयको प्रतिपादन करनेवाली कथाओ के सुनने से व्याकुलित चित होकर वह मिथ्यासको स्वीकार न करते, इसलिए उसे विलेपणीको छोडकर शेष तीन कथाओका उपदेश देना चाहिए। उक्त तीन कथाओ द्वारा जिसने स्वसमयको भली-भाँति समझ लिया है, जो जिनशासनमें अनुरत है, जिन वचनमे जिसको किसी प्रकारकी विचि नहीं रही है, जो भोग और रखिसे विरक्त है और जो सप, शील और नियमसे युक्त है, ऐसे पुरुषको ही पादविक्षेपण कथाका उपदेश देना चाहिए। प्ररूपण करके उत्तम रूपसे ज्ञान करानेवाले के लिए यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिए योग्य पुरुषोको प्राप्त करके ही साधुओंको उपदेश देना चाहिए। मो.मा.प्र. ४३२/१६ “आपके व्यवहारका आधिक्य होय तौ निश्चय पोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् प्रयसै अर आपके निका आधिक्य होय तो व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् प्रवर्ते ।"
५. किस अवसरपर कैसा उपदेश करना चाहिए म.पू.१/१३ १३६ आणि स्व विशेषिनी [क] [] कुर्यादुत निग्रहे ॥ १२४॥ संवेदनों का पुण्यफलसंप
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४२६
प्रपञ्चने । निर्वेदिनों कथां कुर्याद्वैराग्यजनन प्रति । १३६ । -बुद्धिमान वक्ताको चाहिए कि वह अपने मतको स्थापना करते समय आक्षेपणी क्या कहे. मिथ्यात्वमतका खण्डन करते समय विक्षेपणी कथा कहे, पुण्यके फलस्वरूप विभूति आदिका वर्णन करते समय संवेदिनी कथा कहे तथा वैराग्य उत्पादनके समय निर्वेदिनी कथा कहे ।
४. उपदेश प्रवृत्तिका माहात्म्य
उपधान
१ हितोपदेश सबसे बड़ा जयकार है
रून २/९/२२ न च हितोपदेशादपर पारमार्थिक परार्थ-हितका उपदेश देनेके बराबर दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नही है। २. उपदेश श्रोताका हित हो न हो पर वक्ताका हित
तो होता ही है
सम३/९५/२५ में उद्धृधृत - "उवाच च वाचकमुख्य - "न भवति धर्म श्रोतु सर्वान्तो हिमानी
कान्ततो भवति।" उमास्वामी मायने भी वहा है-सभी उपदेश सुननेवालोको पुण्य नहीं होता है परन्तु अनुग्रह बुद्धिसे हित का उपदेश करनेवालेको निश्चय ही पुण्य होता है। ३. अतः परो रकारार्थ हितोपदेश करना इष्ट है भावि/१९९/२०/६ थेयोर्थिना हि जिनशासनबरसलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेश, इत्याज्ञा सर्वविदा सा परिपालिता भवतीति शेषा जनमतपर प्रति रखनेवाले मोसे नियोको नियम से हितोपदेश करना चाहिए ऐसी श्री जिनेश्वरकी आज्ञा है । उसका पालन धर्मोपदेश देनेसे होता है। और भी दे उपकार 8) ४. उपदेशका फल
=
भ आ./मू १११ आदपरसमुद्धारो आणा वच्छलदीवणा भत्ती । होदि परदेस गत्ते अच्छित्तिय तित्थस्स । १११ | स्वाध्याय भावनायें आसक्त मुनि परोपदेश देकर आगे लिखे हुए गुणगणीको प्राप्त कर लेते है। - आत्मपर समुद्धार, जिनेश्वरकी आज्ञा का पालन, वात्सल्य प्रभावना, जिन वचनमे भक्ति, तथा तीर्थ की अव्युच्छित्ति । ससि, १/८/३० / ३ सर्वसत्त्वानुग्रहार्थो हि सता प्रयास
सज्जनोंका
प्रयास सब जीवोका उपकार करनेका है । [४] १३/२२.४०/२८१/२ किमर्थं सर्वका व्याख्यायते श्रा असंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जरण हेतुत्वात् । - प्रश्न- इसका (१२चनीयका) सर्व काल किस लिए व्याख्यान करते है ? उत्तर- क्योंकि वह व्याख्याता और श्रोताके असख्यातगुणश्रेणी रूपसे होनेवाली कर्मनिर्जराका कारण है।
५. उपदेशप्राप्तिका प्रयोजन
प्रसा जो मोह रागदो पद जोहमुदे सो दुखमोवखं पावदि अचिरेण कालेन या जो जिनेन्द्रके उपदेशको प्राप्त करके मोह रागद्वेषको हनता है वह अल्पकालमें सर्व दुखोसे मुक्त हो जाता है।
भा पा./पं. जयचन्द १६५ / २७५ / २२ वीतराग उपदेशकी प्राप्ति होय, अर ताका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करें, तब अपना अर परका भेदज्ञानकरि शुद्ध अशुद्ध भावका स्वरूप जाणि अपना हित अहितका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण होय, तब शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी शुद्ध चेतना परिणाम तो हिल जाने, ताका फल ससार निवृत्ति तार्क जाने र अशुद्ध भावका फल ससार है, ताकं जानै, तब शुद्ध भावका अङ्गीकार अर अशुद्ध भावके त्यागका उपाय करें । उपधातु बौवारिक शरीर में धातु-उपधातुका निर्देश व प्रमाण - दे. औदारिक १
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
उपधानम आ २८२ आय विल णिब्बियडी अण्णं वा होदि जस्स कादव्वं । त तस्स करेमाणो उपहाणजुदो हवदि एसो | २८२ ।
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उपधि
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= आचाम्ल आहार (काजी) निर्विकृति आहार (नोरस), तथा और भी जिस शास्त्रके माग्य जा क्रिया कही हा उसका नियम करना, वह उपधान है। उससे भी शास्त्रका आदर होता है। भ, आ /वि ११०/२६१/१ उपहाणे अक्ग्रह । यात्र दिदमनुयोगद्वार निष्ठामुपैति ताव दिद मया न भाक्तव्य, इद अनशन चतुर्थ षष्ठादिक करिष्यामीति सकल्प । स च कम व्यपन यतोति विनय ।-विशेष नियय धारण करना । जब तक अनुय गका प्रकरण समाप्त होगा तब तक मे उपवास करूंगा. अथवा दो उपवास करूँगा, यह पदार्थ नही खाऊँगा या भोगूगा, इस तरह मे सक्ला करना उपधान है। यह विनय अशुभ कर्मको दूर करता है। उपधि-१ परिग्रहके अर्थमे उपधिका लपण रा वा ६/२६/२/६२४ योऽर्थोऽन्यस्य अलावानार्थ मुपधीयते स उपधि रित्युच्यते। = जो पदार्थ अन्य के बन्नाधान के लिए अर्थात् अन्यके निमित्त ग्रहण किये जाते हो वे उपधि है। ध १२/१,२,८,१०/२८५/६ उपेत्य क्रोधादयो धीयन्ते अस्मिन्निति उपधि । क्रोधाद्य त्पत्तिनिबन्धनो बाह्यार्थ उपधि । आरके क्रोधादि जहाँ पर पुष्ट होते है उसका नाम उपधि है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार क'धादि परिणामो की उत्पत्तिने निमित्तभूत बाह्यपदार्थ को उपधि कहा गया है।
२. परिग्रह रूप उपधिके भेद व लक्षण स सि ६/२६/१४३/१०/ स द्विविध - बाह्योपधित्यागोऽभ्यन्तरोपधित्यागश्चेति । अनुपात्त वास्तुधनधान्यादि बाह्योपधि । क्रोधादिरात्मभावोऽभ्यन्तरापधि । कायत्यागश्च नियतकाला यावज्जीव बाभ्यन्तरोपधित्याग इत्युच्यते। = वह (व्युत्सर्ग या त्याग) दो प्रकारका है-बाह्योपधि त्याग और अभ्यन्तर उपधि त्याग। आत्मासे एक्त्वको नहीं प्राप्त हुए ऐसे वास्तु, धन, धान्य आदि बाह्य उपधि है और क्रोधादिरूप आत्मभाव अभ्यन्तर उपधि है तथा नियत काल तक या यावज्जीवन तक कायका त्याग करना भी अभ्यन्तर उपधि त्याग कहा है । (रा. वा ६/२६/३-५/६२४), (त सा ७/२६),(चा सा.१५४/१), (अन ध ७/१८/७२२); (भा. पा/टो ७८/२२/१६) ३ अन्य सम्बंधित विषय * मायाका एक भेद है-दे, माया २। * परिग्रह सम्बन्धी विषय--दे. परिग्रह । * साधु योग्य उपधि-दे परिग्रह १ ।
योग्यायोग्य उपधिका विधि निषेध-दे, अपवाद । उपधि वाक्-दे, वचन । उपनय-न्या सू./ १/१/३८ उदाहरणापेक्षस्तथेत्युपसहारोन तथेति । वा साध्यस्योपनय ।३८। - उदाहरणकी अपेक्षा करके तथा इति' अर्थात जैसा उदाहरण है वैसा हो यह भी है, इस प्रकार उपसहार करना उपनय है । अथवा यदि उदाहरण व्यतिरेकी है तो-जैसे इस उदाहरणमें नहीं है उसी प्रकार यह भी नहीं है, इस प्रकार उपमहार करना उपनय है । तात्पर्य यह कि जहाँ वैधर्म्य का दृष्टान्त होगा बहा 'न तथा' ऐसा उपनय होगा और जहाँ साधर्म्यका उदाहरण होगा
वहाँ तथा' ऐसा उपनय होगा। न्या सू./भा १/१/३८/३८साधनभूतस्य धर्मस्य साध्येन धर्मेण सामानाधिकारण्योपपादनमुपनयार्थ।। = साधनभूतका साध्यधर्म के साथ समान
अधिकरण एक आश्रयपना) होनेका प्रतिपादन करना उपनय है। प मु. ३/५० हेतोरुपसहार उपनय 101 व्याप्तिपूर्वक धर्मी में हेतुकी निस्संशय मौजूदगी बतलाना उपनय है यथा (उसी प्रकार यह भी धूमवान् है ) ऐसा कहना।
न्या दी ३/३२,७२ दृष्टान्तापेक्षया पक्षे हेतोरुपस हारव च नमुनग । तथा चायं धूमना निति ।१२। साधनवत्तया पक्षस्य दृष्टान्तसाम्यक्थनमुपनय । यथा चाय धूमवानिति 1७२ = दृष्टान्तकी अपेक्षा लेकर पक्षमें हेतुके दोहरानेको उपनय कहते है। जमे -- 'इसलिए यह पर्वत भी धूमवाला है' ऐसा कहना अथवा साधनवान रूपसे पक्षकी दृष्टान्तके साथ साम्यताका कथन करना उपनय है। जैसे इसीलिए यह धूम वाला है।
* उपनय नामक नय-दे नय ४| उपनयाभास-न्या दी/३/७२ अनयोर्व्यत्ययेन क्थनमनगौराभास । -इन दानो उपनय निगमनका अयथाक्रममे गथन करना उपनयाभास और निगमन भास है। अर्थात उपनयकी जगह निगमन और निगमनकी जगह उपनयका कथन करना इन दानोका आभास है। उपनय ब्रह्मचारी-दे, ब्रह्मचारी। उपनीति-सस्कार सम्बन्धी एक गर्भान्वय क्रिया-दै संस्कार । उपन्यास-न्या. वि/. १/४१/२६२/२४ उपन्यासो दृष्टान्ता -- उप
न्यास अर्थात दृष्टान्त । उपपत्तिसमान्या सू मू ब भाष्य ५/१/२५ उभयकारणोपपत्ते
रुपपत्तिसम ।२५। यद्यनित्यत्वकारणमुपपद्यते शब्दस्यत्य नित्य शब्दो नित्यत्व कारणमप्युपपद्यतेऽस्यास्पर्श त्वमिति नित्यत्वमप्युपपद्यते। (उभयस्यानित्यत्वस्य नित्यत्वस्य च) कारणोपपत्त्या प्रत्यवस्थानमुपपत्तिसम। - पक्ष व विपक्ष दोनो ही कारणोकी, वादी और प्रतिबादियो के यहाँ सिद्धि हो जानी उपपत्तिसमा ज ति है। प्रतिवादी कह देता है कि जैसे तुझ वादो के पक्षमे अनित्यत्वपनेका प्रमाण विद्यमान है तिसी प्रकार मेरे पक्षमें भो नित्यत्व पनेका अस्पर्शत्व प्रमाण विद्यमान है । वर्त जानेसे यदि शब्दमे अनित्यत्व की सिद्धि कर दगे तो दूसरे प्रकार अस्पर्शत्व हेतुसे शब्द नित्य भी क्यो नही सिद्ध हो जायेगा । अर्थात् होवेगा ही। (श्लो. वा. ४/न्या ४०८/५२१) उपपाद-स. सि २/३१/१८७/५ उपेत्य पद्यतेऽस्मिन्निति उपपाद । देवनारकोत्पत्तिस्थानविशेषस ज्ञा। प्राप्त होकर जिसमे जीव हलनचलन करता है उसे उपपाद कहते है । 'उपपाद' यह देव नारकियोके उत्पत्तिस्थान विशेषकी सज्ञा है । (रा.वा.२/३१/४/१४०/२६) गो जी |जी प्र ८३/२०५/१ उपपदनं संपुटशय्योष्ट्र मुरवाकारादिषु लघुनान्तर्महुर्तेनैव जीवस्य जननम् उपपाद. । उपपदन कहिए संपुटशय्या वा उष्ट्रादि मुखाकार योनि विषे लघु अन्तर्मुहूर्त काल करि ही जीव
का उपजना सो उपपाद कहिए । ति.५/२/८ विशेषार्थ "विवक्षित भवके प्रथम समयमे होनेवाली पर्याय
की प्राप्तिको उपपाद कहते है।"
२. उपपादके भेद ध ७/२,६,१/३००/३ उववादो दुविहो- उजुगदिपुज्य ओ विग्गहदि
पुठव ओ चेदि । तत्थ एक्के को दुविहो-मारणातियसमुग्घाद पुब्बओ तविबरीदओ चेदि। - उपपाद दो प्रकार है--जुगतिपूर्वक और विग्रहगतिपूर्वक । इनमें प्रत्येक मारणान्तिकसमुद्धातपूर्वक और तद्विपरीतके भेदसे दो-दो प्रकार है। * उपपादज जन्म सम्बन्धी अन्य विषय--2. जन्म २। उपपाद क्षेत्र-दे क्षेत्र १ उपपाद गह-त्रि. सा /मू. ५२३ पासे उववादिगह हरिस्स अडवास दोहरुदयजुदं । दुगरयणसयणमझ वरजिणगेहं च बहुकूड । तिह मानस्तम्भके पासि आठ योजन चौड़ा इतना ही लम्बा ऊचा
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उपपाद योगस्थान
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उपयोग विषय-सूची
उपपादगृह है । बहुरि तीह उपपादग्रहविषै दोय रत्नमई शय्या पाईए २ उपयोग व लब्धि निर्देश है। इहा इन्द्रका जन्मस्थान है । बहुरि इस उपपाद गृहकै पासि बहुत
* प्रत्येक उपयोगके साथ नये मनकी उत्पत्ति-दे. मन ह शिखरनिकरि संयुक्त जिनमन्दिर है। उपपाद योगस्थान दे योग।
१ उपयोग व ज्ञानदर्शन मार्गणामे अन्तर उपबृंहण-दे उपगृहन।
२ उपयोग व लब्धिमे अन्तर । उपभोग-दे, भोग।
३ लब्धि तो निर्विकल्प होती है। उपमान-न्या /सू./म. व भाष्य १/१/६ प्रसिद्धसाधासाध्यसाधन
* एक समयमे एक ही उपयोग सम्भव है-दे उपयोग 1 २/२ मुपमानम् ।६। प्रज्ञातेन सामान्यात्प्रज्ञापनीयस्य प्रज्ञापन मुषमानमिति ।
४ उपयोगके अस्तित्वमे भी लब्धिका अभाव नही हो जाता यथा गौरेवं गवय इति। - प्रसिद्ध पदार्थ की तुल यतासे साध्यके साधन- * उपयोग व इन्द्रिय --दे इन्दिर को उपमान कहते है। प्रज्ञातके द्वारा सामान्य होनेसे प्रज्ञापनीयका प्रज्ञापन करना उपमान है जैसे 'गौ की भॉति गबय होता है। ऐसे
* केवली भगवान मे उपयोग सम्बन्धी-दे केवलो ६ कहकर 'गवय'का रूप समझाना । (न्या.वि /मू३/८५/३६१),(रा वा
* ज्ञान दर्शनोपयोगके स्वामित्व सम्बन्धी गुण-स्थान, १/२०/१५/७८/१७)
मार्गणास्थान, जीव समास आदि २० प्ररूपणाएँ-दे सत २ उपमान प्रमाणका श्रुतज्ञानमे अन्तर्भाव
II शुद्ध व अशुद्धादि उपयोग रा वा १/२०/१५/०८/१८ इत्युपमानमपि स्वपरप्रतिपत्तिविषयत्वादक्ष
रानक्षरच ते अन्तर्भावयति । क्योंकि इसके द्वारा स्व व परकी प्रति- १ शुद्धाशुद्ध उपयोग सामान्य निर्देश पत्ति हा जाती है । इसलिए इसका अक्षर व अनवक्षर श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव हो जाता है।
१ उपयोगके शुद्ध अशुद्ध आदि भेद उपमा प्रमाण-दे प्रमाण ५।
२ ज्ञान दर्शनोपयाग व शुद्धाशुद्ध उपयोगमे अन्तर उपमा मान-(ज. प./प्र १०१)Similar Measure
* शुद्ध व अशुद्ध उपयोगोका स्वामित्व-दै. उपयोग II AR उपमा सत्य-दे सत्य १॥
२ शुद्धोपयोग निर्देश उपमिति भवप्रपञ्च कथा- विरमें श्वेताम्बराचार्य सिद्धर्षि
१ शुद्धोपयोगका लक्षण द्वारा रचित एक ग्रन्थ । (जै /१/४३२) ।
२ शुद्धोपयोग व्यपदेश मे हेतु उपयुक्त-वसतिकाका एक दोष--दे. वसतिका।
* शुद्धपयोगका स्वामित्व-दे उपयोगII/४/५ उपयोग-चेतनाकी परिणति विशेषका नाम उपयोग है। चेतना ३ शुद्धोपयोग साक्षात् मोक्षका कारण है सामान्य गुण है और ज्ञान दर्शन ये दो इसकी पर्याय या अवस्थाएँ ४ शुद्धोपयोग सहित ही शुभोपयोग कार्यकारी है है। इन्हीको उपयोग कहते है। तिनमें दर्शन तो अन्तचित्प्रकाशका सामान्य प्रतिभास है जो निर्विकल्प होनेके कारण बचनातीत व केवल
+ धर्ममे शुद्धपयोगकी प्रधानता-दे धर्म ३ अनुभवगम्य है। और ज्ञान बाह्य पदार्थों के विशेष प्रतिभासको कहते * अल्प भूमिकाओमे भी कथचित् शुद्धोपयोग--दे अनुभव ५ है। सविकल्प होनेके कारण व्याख्येय है। इन दोनों ही उपयोगीके * लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टिको ज्ञान चेतनाका सद्भाव अनेको भेद-प्रभेद है । यही उपयोग जब बाहरमें शुभ या अशुभ
-दे सम्यग्दृष्टि २ पदार्थोंका आश्रय करता है तो शुभ अशुभ विकल्पो रूप हो जाता है
और जब केवल अन्तरात्माका आश्रय करता है तो निर्विकल्प होनेके ___ * एक शुद्धपयोगमे ही संवरपनाकैसे है-दे सवर २ कारण शुद्ध कहलाता है। शुभ अशुभ उपयोग ससारका कारण है अत * शुद्धोपयोगके अपर नाम-दे. मोक्षमार्ग २/५ परमार्थ से हेय है और शुद्धोपयोग मोक्ष व आनन्दका कारण है, इसलिए उपादेय है।
३ मिश्रोपयोग निर्देश
१ मिश्रोपयोगका लक्षण I ज्ञानदर्शन उपयोग
* मिश्रोपयोगके अस्तित्व सम्बन्धी शंका १. भेद व लक्षण
--दे अनुभव ५/८ १ उपयोग सामान्यका लक्षण
२ जितना रागाश है उत्सना बन्ध है और जितना वीतरा२ उपयोग भावनाका लक्षण
गाश है उतना संवर है ३ उपयोगके ज्ञानदर्शनादि भेद
३ मिश्रोपयोग बतानेका प्रयोजन ४ उपयोगके वाचना पृच्छना आदि भेद
४ शुभ व अशुभ उपयोग निर्देश ५ उपयोगके स्वभाव विभावरूप भेद व लक्षण
१ शुभोपयोगका लक्षण * ज्ञान व दर्शन उपयोग विशेष-दे वह वह नाम
२ अशुभोपयोगका लक्षण * साकार अनाकार उपयोग - दे. आकार
३ शुभ व अशुभ दोनो अशुद्धोपयोगके भेद है
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उपयोग
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१. भेद व लक्षण
४ शुभोपयोग पुण्य है और अशुभोपयोग पाप * शुभ व विशुद्धमे अन्तर-दे. विशुद्धि ५ शुभ व अशुभ उपयोगोका स्वामित्व ६ व्यवहार धर्म अशुद्धोपयोग है ७ व्यवहार धर्म शुभोपयोग तथा पुण्यका नाम है ८ शुभोपयोगरूप व्यवहारको धर्म कहना रूढि है ९ वास्तवमे धर्म शुभोपयागसे अन्य है * अशुद्धोपयोग हेय है-दे पुण्य २६ * अशुद्धोपयोगको मुख्यता गौणता विषयक चर्चा
-दे. धर्म ३-७ * शुभोपयोग साधुको गौण और गहस्थकोप्रधान होता है
-दे, धर्म ६ * साधुके लिए शुभपयोगको सोमा-दे स यत ३ * ज्ञानोपयोगमे ही उत्कृष्ट सक्लेश या विशद्ध परिणाम
सम्भव है, दर्शनोपयोगमे नही--दे. विशुद्धि I ज्ञान दर्शन उपयोग१. भेद व लक्षण
१ उपयोग सामान्यका लक्षण पं स/प्रा १/१७८ वरथुणि मित्तो भावो जादो जीबरस होदि उ० अगा।
१७८।जीवका जो भाव वस्तुके ग्रहण करनेके लिए प्रवृत्त होता है. उसे उपयोग कहते है। (गो जी /मू ६७२), (५ स/स. २/३३२) स सि २/८/१६३/३ उभयनिमित्तवशादुरपद्यमानश्चैतन्यानु विधायी परिणाम उपयोग ।-जो अन्तर ग और बहिर ग दानो प्रकारके निमित्तोसे होता है और चैतन्यका अन्नयी है अर्थात चैतन्यको छ। डकर अन्यत्र नही रहता वह परिणाम उपय, ग कहलाता है। (प्र.सा/त प्र १५५), (प का / त प्र १६).(स सा./ता.वृ१०),(नि.सा/ता.वृ १०) रा बा २/१८/१-२/१३०/२४ यत्स निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिय तिप्रति व्याप्रियते स ज्ञानावरणलयो शमबिशेषो लब्धिरिति विज्ञायते।। तदुक्त निमित्त प्रतीत्य उत्पद्यमान आत्मन परिणाम उपयाग इत्युप दिश्यते । जिसके सन्निधानमे आत्मा द्रव्ये न्द्रियोकी रचनावे प्रति व्यापार करता है ऐसे ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपम विशेषको लब्धि कहते है। उस पूर्वोक्त निमित्त (लब्धि) के अबलम्बनसे उत्पन्न होनेवाले आत्माके परिणामको उपयोग कहते है। (स सि २/१८/ १७६/३); (ध १/१,१३२/२६६/६), (त सा २/४५-४६) (गो.जी/जी. प्र १६५/३६३/१), (१ का./ता वृ.४/८६) रा वा १/१/३/२२ प्रणिधानम् उपयोग परिणाम इत्यनन्तरम्। ___-प्रणिधान, उपयोग और परिम रब एकवच है। घ २/१.१/४१३/६ स्वपरग्रहण परिणाम उपयाग । -रव वरको ग्रहण
करने वाले परिणाम को उपयोग व हते है। ५ का/वृ४०/८०/१२ आत्मनतानुविधाथिपकिमय ग
चैतन्यमनविधात्यन्वयरूपेण परिमति अथवा पदार्थ परिच्छित्तिकाले घटाय पटोऽयमित्य द्यर्थ ग्रहण रूपेण व्यापार यति चैतन्यान विधायि स्फुट द्विविध । - आत्मा चैतन्यानुविधायी परिणामका उपयोग कहते है जो चैता की आज्ञा अनुसार चलता है योउसके अन्धय रूपसे परिणमन करता है उसे उपयोग करते है। अथवा पदार्थ परिचित्तिके समय यह घट है , 'यह एट है' इस प्रकार अर्थ ग्रहण रूपसे व्यापार व रता है वह चेतन्यका अनुविधायी
है। वह दो प्रकारका है। (द्र. सं (टी ६/१८/६), (पं. का./ता.वृ ४३/ ८६/२ गो जी/जी प्र. २/२१/११ मार्गणोपायो ज्ञानदर्शनसामान्यमुपयोग ।
मार्गणा जो अवलोकन ताका जो उपाय सो ज्ञानदर्शनका सामान्य भावरूप उपयोग है।
२. उपयोग भावनाका लक्षण प का /ता वृ४३/८६/२ मतिज्ञानावरणीयक्षयोपमजनितार्थ ग्रहणशक्ति रूपलब्धितिऽथे पुन पुनश्चिन्तनं भावना नीलमिद, पीतमिद इत्यादिरूपेणार्थ ग्रहणव्यापार उपयोग । - मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमजनित अर्थ ग्रहण की शक्तिरूप जो लब्धि उसके द्वारा जाने गये पदार्थ मे पुन पुन चिन्तन करना भावना है । जैसे कि 'यह नील है'. 'यह पीत है' इत्यादि रूप अर्थग्रहण करनेका व्यापार उपयोग है।
३ उपयोगके ज्ञानदर्शन आदि भेद स सि २/६/१६३/७ स उपयोगो द्विविध -ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोग
श्चेति । ज्ञानोपयोगोऽटभेद - मतिज्ञान श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मन.पर्ययज्ञान केवलज्ञान मत्यज्ञान श्रुता ज्ञान विभङ्गज्ञान चेति । दर्शनोपयोगश्चतुर्विध -चक्षुर्दशनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शन केवलदर्शन चेति । तयो क्थ भेद । साकाराना कारभेदात् । साकार ज्ञानमनाकारं दर्शन मिति । वह उपयोग दो प्रकारका है- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका हे-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान, केवल ज्ञान, मत्यज्ञान, शूताज्ञान और विभगज्ञान । दर्शनपयोग चार प्रकारका हे-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केबलदर्शन । प्रश्न-इन दोनो उपयोगो में किस कारण से भेद है ? उत्तर- साकार और अनाकार भेदसे इन दोनो उपयोगों में भेद हे । साकार ज्ञानोपयोग है और अनाकार दर्शनापयाग। (नि. सा /मू. १०-१२), (प का /मू ४०), (त सू २/8), रा. वा.२/६/१,३/ १२३,१२४), 'नच बृ १४, ११६), तसा २/४६), (द्र सं./मू.४-५), (गो जी /म ६७२-६७३)
४. उपयोगके बांचना पृच्छना आदि भेद पख ४/४,१/सू ५५/२६२ (उत्थानिका-सपधि एदेसु जो उवजोगों
तस्स भेदपरूवण द्वमुत्तरसुत्तमागद । ) जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा बा परियट्टणा वा अणुपेरवणा वा थय-दि धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया। -इन आगम निक्षेपोमे जा उपयोग है उसके भेदोकी प्ररूपणाके लिए उत्तर मुत्र प्राप्त होता है-उन नौ
आगमी मे जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा, तथा और भी इनको आदि लेकर जो अन्य है वे उपयोग है। (प. ख १३/५,५/सू १३/२०३) ५. उपयोगके स्वभाव विभाव रूप भेद व लक्षण नि सा /म १०-१४ जीवो उवआगमओ उबागो गाणसणो होइ। णाणुवोगा दुविहो सहावणाण विभावणाण त्ति ।१०। केवल मिदियरहिय असहाय त सहावणाण त्ति। मण्णादिरवियप्पे विहाबणाण हवे दुविह ।११। भण्णाण चउभेय मदिसुदआही तहेब मणपज्ज। अण्णाण तिबियप्प मदियहि भेददो चेव ।१२। तह द सण उव ओगो ससहावेदर वियपदो दुविहाँ । केवल मिदियरहिय असहायं त' सहावमिदि भणिद १३ । 'चर-अचवाव आही तिाण विभणिद विभावदिच्छित्ति ।१४। नि सा/ता बृ.१०.१३ स्वभावज्ञानम् कार्यकारणरूपेण द्विविध भवति। काय तावत सकल विमलकेवलज्ञानम् । तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थित त्रिकाल निरुपाधि रूप सहज ज्ञान स्यात् ।१०स्वभावोऽपिद्विविध , क रणस्वभात्र कार्यस्वभावश्चेत । तत्र कारण दृष्टि सदा... पारनरूपस्य औदयिकादिचतुर्णा विभावस्वभाव परभावानामगोचरस्य सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य कारण समयसारस्वरूपस्य.. खलु
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उपयोग
अन्य कार्य
दर्शनावरणीयमुख
॥१३॥ जीव उपयोगमयी है। उपयोग
पातिकर्मणा
ज्ञान और दर्शन है। ज्ञानोपयोग दो प्रकारका है स्वभावज्ञान और विभावज्ञान | जो केवल इन्द्रिय रहित और असहाय है वह स्वभाव ज्ञान है। तहाँ स्वभावज्ञान भी कार्य और कारण रूपसे दो प्रकारका है। कार्य स्वभावज्ञान तो सकल विमल केवलज्ञान है । और उसका जो कारण परम पारिणामिक भावसे स्थित त्रिकाल निरुपाधिक सहजज्ञान है, वह कारण स्वभावज्ञान है | १०- ११ । सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान रूप भेद किये जाने पर विभाव ज्ञान दो प्रकारका है | ११ | सम्यग्ज्ञान चार भेदवाला है - मति, श्रुत, अवधि तथा मन' पर्यय और अज्ञान मति आदि के भेद से तीन भेदमाता है | १२ उसी प्रकार दर्शनोपयोग स्वभाव और विभावके भेदसे दो प्रकारका है। जो केवल इन्द्रिय रहित और असहाय है वह स्वभाव दर्शनोपयोग कहा है। वह भी दो प्रकारका है - कारणस्वभाव और कार्यस्वभावतहाँ कारण स्वभाव दृष्टि (दर्शन), तो सदा पावनरूप और औदयिकादि चार विभावस्वभाव परभावोके अगोचर ऐसा सहज सहज परम पारिणामिकरूप जिसका स्वभाव है, जो कारण समयसार स्वरूप है, ऐसे आत्मा के यथार्थ स्वरूप श्रद्धानमात्र ही है । दूसरी कार्यदृष्टि दर्शनावरणीय ज्ञानावरणीयादि वातिकमोंके से उत्पन्न होती है | १३ | चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीन विभाव दर्शन कहे गये है ।। २. उपयोग व लब्धि निर्देश
१. उपयोग व ज्ञानवर्धन मागंणामें अन्तर
[ २/९.१/४१३/ स्वपरग्रहणपरिणाम उपयोग नस ज्ञानदर्शनमार्गयोरन्तर्भवति ज्ञानदृगावर कर्मक्षयोपशमस्य तदुभयकारण स्योपयोगत्वविरोधात् - स्वव परको ग्रहण करनेवाले परिणाम विशेषको उपयोग कहते हैं। वह उपयोग ज्ञानमार्गणा और दर्शनमार्गणा अन्तर्भूत नहीं होता है; क्योकि, ज्ञान और दर्शन इन दोनोंके कारणरूप ज्ञानावरण और दर्शनावरणके क्षयपशमको उपयोग माननेमें विरोध आता है ।
ध. २/ ११ / ४१५/१ साकारोपयागो ज्ञानमार्गणायामनाकारोपयोगो दर्शन मार्गणाया (अन्तर्भवति) तयोर्ज्ञानदर्शनरूपत्वात् । =साकार उपयोग ज्ञानमार्गणामे और अनाकार उपयोग दर्शनमार्गणा में अन्तर्भूत होते है क्योंकि ये दोनो ज्ञान और दर्शन रूप हो है । टिप्पणी- मार्गणाका अर्थ क्षयोपशम सामान्य या लब्धि है और उपयोग उसका कार्य है । अत इन दोनोंमें भेद है । परन्तु जब इन दोनोंके स्वरूपको देखा जाये तो दोनो कोई भेद नहीं है, क्योंकि उपयोग भी ज्ञानदर्शन स्वरूप है और मार्गणा भी ।
२. उपयोग व लब्धिमें अन्तर
उपयोग १/१/३ ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमको लब्धि कहते है और उसके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले परिणामको उपयोग कहते हैं । का अ/मू २६० एक्के काले एक्क णाण जीवस्स होदि उवजुतं । णाणा णाणाणि पुणो लद्धिलहावेण वच्चंति | २६०| = जीवके एक समय में एक ही ज्ञानका उपयोग होता है । किन्तु लब्धिरूप से एक समय अनेक ज्ञान कहे है । (गो क / भाषा ७६४ / १६६५/३)
पं. ध. / उ ८५४-८५५ नास्त्यत्र विषमव्याप्तिर्यात्रलब्युपयोगयो । लब्धिक्षतेस्वस्य वायो ८४ अभावात्पयोगस्य सतिश वा न वा यत्तदावरणस्यामा दृशा व्याप्तिर्न चामुना १८५५ - यहाँ सम्पूर्ण लब्धि और उपयोगोंने वनव्याप्त हो होती है। क्योंकि सके नाशसे अवश्य ही उपयोगका नाश हो जाता है, किन्तु उपयोग के अभाव से लब्धि का नाश हो अथवा न भी हो ।
३. लब्धि तो निर्विकल्प होती है
पं. ध. / उ ८५८ सिद्धमेतावतोक्तेन लब्धिर्या, प्रोक्तलक्षणा । निरुपयोगरूपत्वान्निर्विकल्पा स्वताऽस्ति सा । ८५८। इतना कहने से यह सिद्ध
४३०
२. शुद्धोपयोग निर्देश
होता है, कि जिसका लक्षण कहा जा चुका है ऐसी जो लब्धि है वह स्वत उपयोग रूप न होनेसे निर्विकल्प है।
४. उपयोग के अस्तित्वमें भी लब्धिका अभाव नहीं हो
जाता
पंध / उ ८५३ कदाचित्कास्ति ज्ञानस्य चेतना स्त्रोपयोगिनी । नाल लब्धेर्विनाशाय समव्याप्तेरस भवात् । ५३|लब्धि और उपयोग समाप्ति नहीं होनेसे यदा कदाचित आत्मोयोग (उपलक्षणसे अन्य उपयोगो में भी) तत्पर रहनेवाली उपयोगात्मक ज्ञानचेतना लब्धिरूप ज्ञान चेतनाके नाश करनेके लिए समर्थ नहीं है।
1
II शुद्ध व अशुद्ध आदि उपयोग
१. शुद्धाशुद्धोपयोग सामान्य निर्देश
१. उपयोग शुद्ध अशुद्धादि भेद
प्र. सा. / म १५५ अप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणद सण भणिदो । सो वि सुहो असुहो वा उबओगो अप्पणी त्रदि । १५५१ = आत्मा उपयोगात्मक है । उपयोग ज्ञानदर्शन कहा गया है और आत्माका वह उपयोग शुभ अथवा अशुभ होता है। (मू. आ / मू. २६८ ) । भापा / मू ७६ भाव तिविपयार सुहासुह सुद्धमेव णायव्य । - - जिनवरदेवने भाव तीन प्रकारके कहे है शुभ, अशुभ, और शुद्ध । (यह गाथा है) ।
१३६ स्यमुपयोगोद्वेधा विशिष्यते
शुद्धो निरुपराग अशुद्ध सोपराग । स तु विशुद्धिस क्लेशरूपत्वेन विध्यादुपरागस्य द्विविध शुभोऽशुभत्व इस (नदर्शनात्मक) उपयोग के दो भेद है- शुद्ध और अशुद्ध । उनमेसे शुद्ध निरुपराग है। और अशुद्ध सोपराग है। वह अशुद्रोपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का है, क्योंकि उपराग विशुद्धि रूप व सक्लेश रूप दो प्रकारका है। २ ज्ञानदर्शनोपयोग व शुद्धाशुद्ध उपयोग में अन्तर प्र. सं ट २६ दर्शनयोगमायामुपयोगशब्देन विवक्षि तार्थ परिच्छित्तिलक्षणोऽर्थ ग्रहणव्यापारों गृह्यते । शुभाशुभशुद्धोयोगमाया पुनरुपयोदेन शुभाशुभ
ष्ठान ज्ञातव्यमिति । ज्ञानदर्शन रूप उपयोगकी विवक्षा में उपयोग शब्दसे विवक्षित पदार्थ के जाननेरूप वस्तुके ग्रहण रूप व्यापारका ग्रहण किया जाता है। और शुभ, अशुभ तथा शुद्ध इन तीनो उपयोगोकी विवक्षामें उपयोग शब्द से शुभ, अशुभ तथा शुद्ध भावना रूप अनुष्ठान जानना चाहिए।
२. शुद्धोपयोग निर्देश
१. शुद्धोपयोगका लक्षण
भाप / ७७ (अष्टपाहुड) "सुद्ध सुद्धसहाओ अप्पा अप्पम्मितं च णायव्य | "शुद्धभाव है सो अपना शुद्धस्वभाव आपमें ही है, ऐसा जानना चाहिए ।
प्रसा / १४ विदितपत
दो
मो समसुदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ।जिन्होने पदार्थों और सूत्रोको भली भाँति जान लिया है, जो सयम और तपयुक्त है, जो नीरा है और जिन्हे सुख दुख समान है. ऐसे अमणको प योगी कहा गया है।
न. च.वृ. ३५६, ३५४ समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य बीयरायतं । तहा चरित धम्मो सहाव आराहणा भणिया । ३५६ | सामण्णे णियबोधे विकलिदपरभाव पर सन्भावे । तत्थाराहण जुत्तो भणिओ खलु सुद्धचारित्तो । ३५४| = समता तथा माध्यस्थता. शुद्धभाव तथा वीतरागता, चार तथा घये सब स्वभावकी आराधना कहे गये है । ३५६ । पर भावोसे रहित परमभाव स्वरूप सामान्य निज बोध में तथा तत्त्वोंकी आराधना में युक्त रहनेवाला ही शुद्ध चारित्री कहा गया है | ३५४ |
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उपयोग
प्र. सा./त प्र १५ यो हि नाम चेतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेन यथाशक्ति विशुद्ध भूत्वा वर्तते स खलु ज्ञेयतत्त्वमापन्नानामन्तमाप्नोति । = जो चैतन्य परिणामस्वरूप उपयोग के द्वारा यथाशक्ति विशुद्ध होकर वर्तता है वह समस्त ज्ञेय पदार्थों के अन्तको पा लेता है। प.वि. ४/६४-६५ स्वास्थ्य समाधिश्च योगाश्चेतो निरोधनम् । शुद्धोपयोग होते भवन्त्येकार्थवाचका ६४ नाकृतिर्माक्षर वर्णो नो विकल्पश्च कश्चन । शुद्ध चैतन्यमेवैक यत्र तत्साम्यमुच्यते ॥ ६५॥ = साम्य, स्वास्थ्य, समाधि योग, वित्तनिरोध और शुद्धोपयोग ये सब शब्द एक हो अर्थ के वाचक है । ६४ । जहाँ न कोई आकार है, न अकारादि अक्षर है, न कृष्ण-नीलादि वर्ष है, और न कोई विकल्प ही है. किन्तु जी के एक चैतन्य स्वरूप ही प्रतिभासित होता है उसीको साम्य कहा जाता है । ६५।
प्र. सा /ता.वृ. ६ / ११ / १२ निश्चयरत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोगेन प्रसा/१२/१३ / ९६ निर्मोहसुद्धारमवित्तिक्षणेन शुद्धोपयोग संशेनागमभाषा पृथक वितर्क की प्रथम
प्र. साता १०/२३/१३ जीवितमरणादिसमताभावलक्षणपरमो पेसा यमरूप शुद्धोपयोगेनोत्पन्नो.
प्रसा / ता वृ. २३० / ३१५/८ शुद्धात्मन सकाशादन्यद्वाह्याभ्यन्तरपरि डहरू सबै व्याज्यश्चियन सर्वपरिया परमो पेयो वीतरागचारित्र योग इति यावदेकार्थ निश्चयरत्नत्रयात्मक तथा निर्मोह शुद्धात्माका सवेदन ही है लक्षण जिसका तथा जिसे आगमभाषामे मतिर्की चार नामका प्रथम शुक्ल ध्यान कहते है वह शुद्धोपयोग है। जीवन मरण आदि में समता भाव रखना ही है लक्षण जिसका ऐसा परम उपेक्षासयम शुद्धोपयोग है । शुद्धात्मासे अतिरिक्त अन्य बाह्य और आभ्यन्तरका परिग्रह त्याज्य है ऐसा उत्सर्ग मार्ग, अथवा निश्चय नय, अथवा सर्व परित्याग, परमोपेक्षा सयम, वीतराग चारित्र शुद्धोपयोग से सन एकार्थवाचक है।
ससा / तावृ / २१५ परमार्थ शब्दाभिधेय साक्षान्मोक्षकारणभूत शुद्धात्मसविलक्षण परमागमभाषया सरागधर्मध्यानध्यानस्वरूप स्वेद्यशुद्धात्मपद मरमसमरसीभावेन अनुभवति परमार्थ शब्द के द्वारा कहा जानेवाला तथा साक्षात् मोक्षका कारण ऐसा जो, शुद्धात्म सवित्ति है लक्षण जिसका, और आगम भाषामे जिसे वीतराग धर्मध्यान या शुक्लध्यान कहते है उस स्वसवेदनगम्य शुद्धात्मपदको परम समरसीभावसे अनुभव करता है।
मोपा./पं. जयचन्द ७२ इष्ट अनिष्ट बुद्धिका अभावते ज्ञान होनें उपयोगायोग कहिये है सो ही चारित्र है।
२. शुद्धोपयोग व्यपदेशमें हेतु
टी. २४/१०/२
गावामध्य स्तिष्ठति तेन कारणेन शुद्धसम्म साधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते । शुद्ध उपयोगमे शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावका धारक जो स्व आत्मा है सो ध्येय होता है इस कारण शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्ध अवलम्बनपने से तथा शुद्धात्मस्वरूपका साधक होनेशुद्धोपयोग सिद्ध होता है।
३. शुद्धोपयोग साक्षात् मोक्षका कारण है
मा. अनु. ४९/६४ अहे विश्वतिरियं दिविजयरसोलह सिद्धि एवं सोपं विचिति121
गेण पुणो धम्मं सुकं च होदि जीवस्स । तम्हा सवरहेदू झाणोत्ति विचितये णिचं | ६४ | यह जोव अशुभ विचारोसे नरक तथा तियंच गति पाता है, शुभ विचारोंसे देवों तथा मनुष्यों के सुख भोगता है और शुद्ध उपयोगसे मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावनाका चितवन करना चाहिए ४२ इसके पश्चात शुद्धोपयोग जीव धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते है, इसलिए संवरका कारण ध्यान है, ऐसा
२ मिश्रोपयोग निर्देश
निरन्तर विचारते रहना चाहिए |६४ | ( प्र सा / मृ ११, १२, १८१) ( ति प ६/५७-५८) ।
४३१
ध १२/४,२,८-३/२७६/६ कम्मबधो हि णाम सुहा सुहपरिणामेहितो जायदे, परिणामेहितो देखियो पिफर्मका बन्ध शुभ अशुभ परिणामो से होता है, शुद्ध परिणामोसे उन दोनों का ही निर्मूल क्षय होता है ।
प्र सा./त प्र.१५६ उपयोगो हि जीवस्य परद्रव्यकारणमशुद्ध । स तु विशुद्धि सकलेशपरागवशाद शुभाशुभेनोपासई विध्य यदा तु द्विविधस्याप्यस्याशुद्वस्याभाव क्रियते तदा खल्लूपयोग शुद्धाश्चावतिष्ठते स पुनरकारणमेव परद्रव्यस यागस्य ।" जीवका परद्रव्यके सयोगका कारण अशुद्ध उपयोग है। और वह विशुद्धि तथा संक्लेश रूप उपरागके कारण शुभ और अशुभ रूपसे द्विविधताको प्राप्त होता है । जब दोनो प्रकार के अशुद्धोपयोगका अभाव किया जाता है, वास्तव में उपयोग शुद्ध ही रहता है, और वह द्रव्यके सयोगक अकारण है ।
तम
शा. ३/२४/६७ नि.शेषलेश निर्मुक्तं स्वभावजमनश्वरम्। फलं शुद्धोष योगस्य ज्ञानराज्य शरीरिणाम् ॥३४ | = जीवोके शुद्धोपयोगका फल समस्त दुखोसे रहित स्वभाव से उत्पन्न और अविनाशी ऐसा ज्ञानराज्य है।
४. शुद्धोपयोग सहित ही शुभोपयोग कार्यकारी है प्रसा/त प्र २४७ शुभोपयोगिता हि शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रतया समधिगतशुद्धात्मवृतिषु श्रमणेषु दननमस्करणाम्युल्यानानुगमप्रतिपत्तिप्रवृत्ति शुद्धमवृत्तित्राणनिमित्तान दृष्यते ।
प्रसा/त प्र. २५४ एवमेष शुद्धात्मानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णित ' शुभोपयोग तदय शुद्धात्मप्रकाशिका समस्तविरतिमुपेयुषा रागसयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमत परर्मानिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्य । - शुभोपयोगियोके शुद्धात्मा के अनुरागयुक्त चारित्र होता है इसलिए जिन्होने द्वारम परिणति प्राप्त की है, ऐसे श्रमणो के प्रति जी बन्दन-नमस्कार अभ्युत्थान- अनुगमनरूप विनीत वर्तनकी प्रवृत्ति तथा शुद्धात्म परिणतिकी रक्षाकी निमित्तभूत जो श्रम दूर करनेकी प्रवृति है यह शुभोगियो के लिए दूषित नहीं है|२४० इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रारूप जो यह भोपयोग वर्णित किया गया है वह यह भी प्रकाशक सर्वविरतिको माझ अमली (कपास कपके सज्ञान के कारण गौण होता है परन्तु गृहस्थोके मुख्य है, क्योंकि रागके सपोगसे शुद्धात्माका अनुभव होता है. और क्रमश परमनिर्वाणसौख्यका कारण होता है ।
३ मिश्रोपयोग निर्देश
१ मिश्रोपयोगका लक्षण
ससा आ१७-१८ यदात्मनोऽनुयमानाने भावपि परम विवेक कोसेनायमानमेवप्रियम
क्षणात दासस्वामनिवा शक्यत्वादात्मानुचरणमुत्प्लवमानमात्मान साधयतीति साध्यसिद्ध
थोपपते। [ज] आत्माको अनुभव मे खानेगर अनेक पर्यायरूप भेद-भाव के साथ मिला होनेपर भी सर्व प्रकार से भेव ज्ञानमें प्रवीणलासे 'जो यह अनुभूति है सो ही मैं हूँ' ऐसे आत्मज्ञानसे प्राप्त होता हुआ, 'इस आत्माको जैसा जाना है वैसा ही है' इस प्रकारकी प्रतीतिवाला श्रद्धान उदित होता है, तब समस्त अन्य भावका भेद होनेसे, निशक स्थिर होनेमें समर्थ होनेसे, आत्माका आचरण उदय होता हुआ आत्माको साधता है। इस प्रकार साध्य आत्माको सिद्धिकी उपपत्ति है।
सा/ आ. १६३/ १९०
नसा, कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्ष
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
कर्मविरतिज्ञानस्य सम्य
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उपयोग
3 मिश्रोपयोग निर्देश
समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धायं तन्मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञान विमुक्त स्वतः ।११०। - जब तक ज्ञानको कर्म विरति (साम्यता) भली-भॉति परिपूर्णताको प्राप्त नहीं होती तब तक कर्म और ज्ञानका (राग व वीतरागताका) एकत्रितपना शास्त्रो में कहा है। उसके एकत्रित रहने में कोई भी क्षति या विरध नहीं है। किन्तु यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि आत्मामें अवशपनेसे जो कर्म (राग) प्रगट होता है वह तो बन्धका कारण है और जो एक परम ज्ञान है वह एक
ही मोक्षका कारण है-जो कि स्वतः विमुक्त है। प्रसा/त प्र/२४६ परद्रव्यप्रवृत्तिसालतशुद्धात्मवृत्ते. शुभोपयोगि
चारित्र स्यात् । अत' शुभोपयोगिश्रमणानी शुद्वात्मानुरागयोगिचारित्रलक्षणम् । -पर द्रव्य प्रवृत्तिके साथ शुद्धात्मपरिणति मिलित होनेसे शुभोपयोगी चारित्र है। अत शुद्वात्माके अनुरागयुक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणोका लक्षण है। का/त प्र१६६ "अहंदादिभक्तिसंपन्न कथचिच्छदस प्रयोगोऽपि सत् जीवो जीवद्रागलवस्वाच्छुभोपयोगतामजहत बहुश. पुण्यं बध्नाति, न खलु सकलकर्मक्षयमारभते। = अहंदादिके प्रति भक्ति सम्पन्न जीव, कथ चित् 'शुद्ध सम्प्रयोगवाला' हाने पर भी रागलव जो वित होनेसे 'शुभोपयोगीपने' को नही छोडता हुआ, बहुत पुण्य बांचता है, परन्तु वास्तव में सकल कमौका क्षय नही करता। प्र. सा /ता वृ २५५/३४८/२७ यदा पूर्व मूत्रकथितन्यायन सम्यक्त्वपूर्वक
शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति पर परया निर्वाण च । नो चेत्पुण्यमन्धमात्रमेव । - जब पूर्वसूत्र कथित न्यायसे सम्यक्त्व पूर्वक शुभोपयोग होता है तब मुख्य वृत्तिसे तो पुण्यबन्ध ही होता है, परन्तु परम्परासे मोक्ष भी होता है। केवल पुण्यबन्ध
मात्र नहीं होता। स. सा/ता वृ/४१४ अत्राह शिष्य -केवल ज्ञान शुद्ध छद्मस्थज्ञान पुनर
शुद्ध शुद्धस्य केवल ज्ञानस्य कारण न भवति । कस्मात् । इति चेत'सुद्ध' तु वियाण तो सुद्वमेवप्पयं लहदि जीवो' इति वचनात इति । नै, छदास्थज्ञान कथ चिच्छुद्धाशुद्धत्व । तद्यथा-यद्यपि केवल ज्ञानापेक्षा या श द न भवति तथापि मिथ्यात्वरागादिरहितत्वेन बीतरागसम्यवत्वचारित्रसहितत्वेन च शद्ध । प्रश्न-केवलज्ञान शुद्ध है और छद्मस्थ ज्ञान अशुद्ध है । वह शुद्ध केवलज्ञानका कारण कैसे हो सकता है । क्योकि ऐसा वचन है कि शुद्धको जाननेवाला ही शुद्वात्मा को प्राप्त करता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि, छद्मस्थका ज्ञान भी कथंचित शुद्धाशुद्ध है । वह ऐसे कि-यद्यपि केवलज्ञानकी अपेक्षा तो अशुद्ध ही है. तथापि मिथ्यात्व रागादिसे रहित तथा वीतराग सम्यक्त्व व चारित्र (शुद्धोपयोग) से सहित होनेके कारण शुद्ध है। द्र स /टी ४८/२०३/४ यद्यपि ध्याता पुरुष स्वशुद्वात्मसवेदन विहाय बहिश्चिन्तां न करोति तथापि यावताशेन स्वरूपे स्थिरत्व मास्ति तावताशेनानी हितवृत्त्या विकल्पा स्फुरन्ति, तेन कारणेन पृथक्त्यवितकवीचार ध्यान भण्यते । यद्यपि ध्यान करनेवाला पुरुष निज शुद्वारम सवेदनाको छोड़कर बाह्यपदार्थों की चिन्ता नहीं करता, तथापि जितने अशमे उस पुरुषके अपने आत्मामें स्थिरता नही है उतने अशोंमें अनिच्छितवृत्तिमे विकल्प उत्पन्न होते है, इस कारण इस ध्यानको 'पृथक्त्ववितकवीचार' कहते है। २ जितना रागांश है उतना बन्ध है और जितना
वीतरागांश है उतना संबर है पु. सि./उ २१२-२१६ येनाशेन सुदृष्टिस्तेनाशेन बन्धन नास्ति । यैनाशेन
तु रागस्तैनाशेनास्य बन्धन भवति ।२१२। येनाशेन ज्ञान तेनाशेनास्य बन्धन नास्ति । येनाशेन तु रागस्तेनाशेनास्य अन्धन भवति ।२१३। येनाशेन चारित्र तेनाशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनाशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धन भवति ।२१४। योगात्प्रदेशबन्ध' स्थितिबन्धो भवति तु कषायात । दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च ।२१५॥
दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते भोध । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्ध' ।२१६) = इस आत्माके जिस अंशके द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र है, उस अशके द्वारा इसके अन्ध नहीं हैं, पर जिस अशके द्वारा इसके राग है, उस अंशसे बन्ध होता है ।२११-२१४ । योगसे प्रदेशबन्ध होता है और कषायसे स्थितिबन्ध होता है । ये दर्शन ज्ञान व चारित्र तीनों न तो योगरूप है और न कषायरूप ।२१॥ आत्म विनिश्चयका नाम दर्शन है, आश्मपरिज्ञानका नाम ज्ञान है और आत्मस्थितिका नाम चारित्र है। तब इनसे सन्ध कैसे हो सकता है ।२१६। (पं.ध/उ.७७३), प्रसा/ता. २१८/प्रक्षेपक गाथा २/२६२/२१ सूक्ष्मजन्तुघातेऽपि यावयां
शेन स्वस्वभावचलनरूपा रागादिपरिणतिलक्षणभावहिसा तावताशेन बन्धो भवति, न च पादसंघट्टमात्रेण । - सूक्ष्म जन्तुका घात होते हुए भी जितने अशमें स्वभावभाव से चलनरूप रागादि परिणति लक्षणवालो भाव हिसा है, उतने ही अंशमें गन्ध होता है, पाँवसे चलने
मात्रसे नही। प्रसा/ता वृ २३८/३२६/१४ या न्तरात्मावस्था सा मिथ्यास्वरागादि२ हितत्वेन शुद्वा यावताशेन निरावरणरामादिरहितत्वेन शुद्धा च तावताशेन मोक्षकारणं भवति ।--जो अन्तरात्मारूप अवस्था है वह मिथ्यात्वरागादिसे रहित होनेके कारण शुद्ध है। जितने अशमें निरावरण रागादिरहित होने के कारण शुद्ध है, उतने अंशमें मोक्षका कारण होती है । ( स./टी.३६/१५३/५) अन ध १/११०/११२ येनाशेन विशुद्धि रयाजन्तोस्तेन न पन्धनम् ।
येनांशेन तु राग' स्यात्तेन स्यादेव बन्धनम् । = आत्माके जितने अशमें विशुद्धि होती है, उन अशोंकी अपेक्षा उसके कर्मबन्ध नहीं हुआ करता। किन्तु जिन अशो में रागादिका आवेश पाया जाता है, उनकी अपेक्षासे अवश्य ही बन्ध हुआ करता है। पौंध /उ ७७२ बन्धो मोक्षश्च ज्ञातव्य समासात्प्रश्न कोविदै । रागा
शबन्ध एव स्यान्नारागाँशै क्दाचन १७७२१ - प्रश्न करने में चतुर जिज्ञासुओको संक्षेपसे बन्ध और मोक्ष इस प्रकार समझ लेना चाहिए कि जितने रागके अंश है उनसे अन्ध ही होता है तथा जितने अरागके अश है उनसे कभी भी बन्ध नही होता ७७२। मो पा /प जयचन्द/४२ प्रवृत्तिरूप क्रिया है सो शुभकर्म रूप बन्ध करै है
और इन क्रियानिमै जेता अश निवृत्ति है ताका फल बन्ध नाही है । ताका फल कमकी एकदेश निर्जरा है।
३ मिश्रोपयोग बतानेका प्रयोजन द्र.सं./टो. ३४/१६/११ अयमत्रार्थ :- यद्यपि पूर्वोक्तं शुद्धोपयोगलक्षण
क्षायोपशमिकं ज्ञानं मुक्तिकारणं भवति तथापि धरातृपूर षेण यदेव निरावरणमण्डै कविमल केवलज्ञानलक्षणं परमात्मस्वरूपं तदेवाह न च खण्डज्ञानरूपम् इति भावनीयम्। इति सवरतत्त्वव्याख्यानविषये नविभागे ज्ञातव्य इति । यहाँ साराश यह है कि यद्यपि पूर्वोक्त शुद्धोपयोग लक्षणका धारक क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्तिका कारण है तथापि ध्याता पुरुषको, "नित्य, सक्ल आवरणहित अखण्ड एक सकल विमल-केवलज्ञानरूप परमात्माका स्वरूप ही मै हूँ, खण्ड ज्ञानरूप नही हूँ' ऐसा ध्यान करना चाहिए। इस तरह संबर तत्वके व्याख्यानमें नयका विभाग जानना चाहिए। द्र सं/टी ३६/१५३/५ रागादिभेद विज्ञाने जातेऽपि यावतांशेन रागादिक
मनु भवति तावताशेन सोऽपि बध्यत एव, तस्यापि रागादिभेदविज्ञानफलं नास्ति । यस्तु रागादिभेद विज्ञाने जाते सति रागादिक त्यजति तस्य भेदविज्ञानफल मस्तीति ज्ञातव्यम् । रागादिमें भेद विज्ञानके होनेपर भी जितने अंशोसे रागादिका अनुभव करता है, उतने अशोसे वह भेद विज्ञानी बन्धता ही है, अत: उसके रागादिकके भेद विज्ञानका फल नही है। और जो राग आदिकका भेद विज्ञान होनेपर राग आदिक्का त्याग करता है उसके भेद विज्ञानका फल है, यह जानना चाहिए।
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उपयोग
४३३
४. शुभ व अशुभ उपयोग निर्देश
४. शुभ व अशुभ उपयोग निर्देश
१ शुभोपयोगका लक्षण मू आ २३५ पुण्णस्सासवभूदा अणुकपा सुद्ध एव उवओगो । =जीवोपर दया, शुद्र मन, वचन, कायको क्रिया, शुद्धदर्शन ज्ञान रूप उपयोग
ये पुण्यकम के आस्रवके कारण है । (र. सा६५) भा.प/मू. ७६ (अष्ट पाहुड) शुभ धयं-धर्मध्यान शुभभाव है। प्र. सा./मू ६९-१५७ देवजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु ।
उववासादिसु रत्तो सुहोवोगप्पगो अप्पा।६। जो जाणदि जिणिदे पेच्छदि सिद्धे तहेब अणगारे। जीवेसु साणुकपो उवओगो सो सुहो तस्स १९४७ देव गुरु और यतिकी पूजामें तथा दान में एवं सुशीलोमें और उपवासादिकमे लोन आत्मा शुभोपयोगात्मक है ।६६। जो जिनेन्द्रों (अर्हन्तो) को जानता है, सिद्धो तथा अनगारोकी श्रद्धा करता है, (अर्थात् पच परमेष्ठीमे अनुरक्त है) और जोबोके प्रति
अनु कम्पा युक्त है, उसके वह शुभ उपयोग है ।(न च.बृ. ३११) पं.का /मू. १३१, १३६ मोहो रागो दोसो चित्तपसादोय जस्स भावम्मि।
विज्जदि तस्स महो वा असुहो वा होदि परिणामो।१३१। अरहतसिद्धसाहुसु भत्तो धम्मम्मि जा य खल्लु चेट्ठा । अणुगमणं पि गुरूण ।
पसत्थरागो त्ति वुच्चति ।१३६। ६.का./त.प्र १३१ दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोहः । विचित्र
चारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रती रागद्वेषौ । तसै व मन्दोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणाम । तत्र यत्र प्रशस्तरागाश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभ परिणाम' ।-दर्शनमोहनीयके विपाकसे होनेवाली कलुषपरिणामताका नाम मोह है। विचित्र चारित्र मोहनीयके आश्रयसे होनेवाली प्रीति अप्रीति राग द्वेष कहलाते है । उसी चारित्रमोहके मन्द उदयसे होनेवाला विशुष्ट परिणाम चित्तप्रसाद है। ये तीनो भाब जिसके होते है, उसके अशुभ अथवा शुभ परिणाम है। तहाँ प्रशस्त राग व चित्तप्रसाद जहाँ है वहाँ शुभ परिणाम है ।१३१५ अर्हन्त सिद्ध साधुओके प्रति भक्ति, धर्म मे यथार्थ तया चेष्टा और गुरुओ का अनुगमन प्रशस्त राग कहलाता है ।१३६। (न च. ३०६) ज्ञा २-७/३ यमप्रशमनिर्वेदतत्त्वचिन्तावलम्बितम् । मैच्याविभाजनारूढ मन' सूते शुभास्त्रम् ॥३- यम, प्रशम, निर्वेद तथा तत्वोका चिन्तवन इत्यादिका अवलम्बन हो, एवं मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थता इन चार भावो की जिस मनमे भावना हो बही मन शुभासव
को उत्पन्न करता है। द्र सं./टो. ३८/१५८ मे उद्धृत-"उद्वम मिथ्यात्वविर्ष भावय दृष्टिं च कुरु परा भक्तिम् । भावनमस्काररतो ज्ञाने युक्तो भव सदापि।। पञ्चमहावतरक्षा कोपचतुष्कस्य निग्रह परमम् । दुर्दान्तेन्द्रिय विजय तप सिद्धिविधौ कुरुद्योगम् ।२।" इत्याद्वियकथितलक्षणेन शुभोपयोगभावेन परिणामेन परिणता । - (शुभभाव युक्त कैसे होता है सो कहते है) - मिथ्यात्वरूपो विषको वमन करो, सम्यग्दर्शनकी भावना करो, उत्कृष्ट भक्ति करो, और भाव नमस्कारमे तत्पर होकर सदा ज्ञानमें लगे रहो ।१५ पाँच महाबतोका पालन करो, क्रोधादि कषायोंका निग्रह करा, प्रबल इन्द्रिय शत्रुओको विजय करो तथा बाह्य और अभ्यन्तर तपको सिद्ध करनेमे उद्यम करो।२। इस प्रकार दोनो आर्य छन्दोमे कहे हुए लक्षण सहित शुभ उपयोगरूप परिणामसे युक्त या परिणत हुआ जो जीव है वह पुण्यको धारण करता है। द्र सं /टी, ४५/१६६६ तच्चाचाराराधनादिचरणशास्त्रोक्तप्रकारेण पञ्चमहा. बतपञ्चसमिति त्रिगुप्तिरूपमप्यपहतसयमाख्य शुभोपयोगलक्षण सरागचारित्राभिधान भवति । वह चारित्र-मूलाचार, भगवती,आराधना आदि चरणानुयोगके शालोमे कहे अनुसार पाँच महावत, पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप होता हुआ भी अपहृतसयम नामक
शुभोपयोग लक्षणाले, सरागचारित्र नामवाला होता है । प्र.सा./ता वृ २३०/३१५/१० तत्रासमर्थ पुरुष शुद्धात्मभावनासहकारिभूत किमपि प्रामुकाहारज्ञानोपकरणादिक गृहातीत्यपवादो व्यव
हारनय' एकदेशपरित्यागस्तथापहतसयम सरागचारित्रं शुभोपयोग इति यावदेकार्थ।। - उस शुद्धोपयोग परमो पेक्षा सयममें असमर्थ पुरुष शुद्धात्मभावनाके सहकारोभूत जो कुछ भी प्रासुक आहार या ज्ञानोपकरणादिक ग्रहण करता है, सो अपवाद है। उसीको व्यवहार नय कहते है । वह तथा एकदेशपरित्याग तथा अपहत संयम या सराग
चारित्र अथवा शुभोपयोग ये सब एकार्थवाची है। प्र सा /ता वृ६/१० गृहस्थापेक्षया यथास भवं सरागसम्यक्त्वपूर्वकदानपूजादिशुभानुष्ठानेन, तपोधनापेक्षया मूलोत्तरगुणादिशुभानुष्ठानेन परिणत शुभो ज्ञातव्य | गृहस्थको अपेक्षा यथासम्भव सराग सम्यवत्वपूर्वक दान पूजादिरूप शुभ अनुष्ठान के द्वारा, तथा तपोधनकी या साधुकी अपेक्षा मूल व उत्तर गुणादिरूप शुभ अनुष्ठानके द्वारा परिणत हुआ आत्मा शुभ कहलाता है। स. सा./आ वृ. ३०६ प्रतिक्रमणाद्यष्टविकल्परूप शुभोपयोग ।-प्रतिक्रमण आदिक अष्ट विकल्प (प्रतिक्रमण, प्रतिसरप्प, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गहरे और शुद्धि) रूप शुभोपयोग है। पं का /ता. वृ १३१/१६५/१३ दानपूजावतशीलादिरूप शुभरागश्चित्तप्रसादपरिणामश्च शुभ इति सूत्राभिप्राय । दान, पूजा, व्रत, शील आदि रूप शुभ राग तथा चित्त प्रसादरूप परिणाम शुभ है। ऐसा सूत्रका अभिप्राय है । (और भो दे मनोयोग ५।
२. अशुभोपयोगका लक्षण मू आ २३५ विपरीत पापस्य तु आस्रवत् विजानीहि ।- (जीवोपर दया तथा सम्यग्दर्शन ज्ञानरूपी उपयोग पुण्यकर्म के आसबके कारण है) तथा इनसे विपरीत निर्दयपना और मिथ्याज्ञानदर्शनरूप उपयोग पापकर्म के आसबके कारण जानने चाहिए। भा पा /मू. ७६ । अष्टपाहुड-"अशुभश्च आर्त रौद्रम् ।- आर्त-रौद्र
ध्यान अशुभ भाव है। प्र सा /मू. १५८ विसयकसायोगाढो दुस्सु दिदुश्चिन्तदुटुगोष्टिजुदो । उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो ॥१५॥- जिसका उपयोग विषय कषायमें अवगाढ (मग्न), कुश्रुति, कुविचार और कुसंगतिमें लगा हुआ है, उग्र है तथा उन्मार्ग में लगा हुआ है, उसके अशुभोपयोग है। पं का /मू. १३१ तथा इसकी त प्र टो (देखो पीछे शुभोपयोगका लक्षण न ४) "यत्र तु मोहद्वेषावप्रशस्तरागश्च तत्राशुभ इति ।"-(शुभोपयोगके लक्षणमे प्रशस्त राग तथा चित्त प्रसादको शुभ बताया गया है) जहाँ मोह द्वेष व अप्रशस्त राग होता है, वहाँ अशुभ उपयोग है। (न च बृ. ३०६) ज्ञा.२-७/४ कषायदहनोद्दीप्तं विषयैव्याकुलीकृतम्। सचिनोति मन' कर्म जन्मसबन्धसुचक्म् । षायरूप अग्निसे प्रज्वलित और इन्द्रियोके विषयोसे व्याकुल मन ससारके सूचक अशुभ कर्मोका संचय करता है। प्र.सा/ता वृ६/११/११ मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगपञ्चप्रत्ययरूपाशुभोपयोगेनाशुभी विज्ञ य ।-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पाँच प्रत्ययरूप अशुभोपयोगसे परिणत हुआ आत्मा अशुभ कहलाता है। स सा /ता. वृ ३०६ यत्पुनरज्ञानिजन सबन्धिमिथ्यात्वकषायपरिणतिरूपमप्रतिक्रमण तन्नर कादिदु खकारणमेव ।जा अज्ञानी जनों सम्बन्धो मिथ्यात्व व क्षायकी परिणति रूप अप्रतिक्रमण है वह नरक आदि दु खोका कारण ही है । (और भो दे मनोयाग ५)
३. शुभ व अशुभ दोनो अशुद्धोपयोगके भेद है प्रसा/त प्र १५५ तत्र शुद्धो निरुपराग । अशुद्धो सोपराग । स तु विशुद्धि-संक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविध शुभोऽशुभश्च । -- शुद्ध निरुपराग है और अशुद्ध सापराग है । वह अशुद्धोपयोग शुभ
और अशुभ दो प्रकारका है, क्योकि, उपराग विशुद्ध रूप और सक्लेश रूप दो प्रकारका है।
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उपयोग
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शुभ व अशुभ उपयोग निर्देश
४. शुभोपयोग पुण्य है और अशुभोपयोग पाप है मू.आ २३५ पुण्णस्सासबभूदा अणुकपा सुद्ध एव उवओगो। विपरीद पावस्स दु आसबहेउ वियाणाहि २३५।- अनु कम्पा व शुद्ध (शुभ) उपयोग तो पुण्यके आस्त्रवभूत है तथा इनसे विपरीत अशुभ भाव पापात्रवके कारण है। प्र.सा /मू. १५६ उवओगो जदि हि महो पुण्ण जीवस्स संचय जादि। । असुहो वा तधा पाव तेसिमभावे ण सचयमस्थि ।१५६- उपयोग यदि शुभ हो तो जोबके पुण्य संचयको प्राप्त होता है और यदि अशुभ हो तो पाप सचय होता है। उन दोनो के अभावमें सच य नहीं होता । (प.प्र /मू २/७१) पं.का./म् १३२ सुहपरिणामो पुण्णं असहो पावं ति हवदि जीवस्स । द्वयो पुद्गलमात्री भाव कर्मत्व प्राप्त ।१३२।जीवके शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभपरिणाम पाप है। उन दोनोके द्वारा पुद्गलमात्र भाव कर्मपनेको प्राप्त होते है।
५. शुभ व अशुद्ध उपयोगका स्वामित्व द्र.सं /री ३४/६६/६ मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्रगुणस्थानेषुपर्युपरि मन्दस्वेनाशुभोपयोगो वर्तते, ततोऽप्यसयतसम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपयुपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीण कषायपर्यन्तं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षित कदेशशुद्धनयरूपशुद्धोपयोगो वर्तते । -मिथ्यादृष्टि सासादन
और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में ऊपर ऊपर मन्दतासे अशुभ उपयोगरहता है। उसके आगे असयत सम्यग्दृष्टि श्रावक और प्रमत्त सयत नामक जो तीन गुणस्थान है, इनमे परम्परासे शुद्ध उपयोगका साधक ऊपर ऊपर तारतम्यसे शुभ उपयोग रहता है। तदनन्तर अप्रमात्त आदि क्षीणकषाय तक ६ गुणस्थानोमे जधन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदसे विवक्षित एकदेश शुद्ध नयरूप शुद्ध उपयोग वर्तता है। (प्रसा/ता
वृ. १८१/२४४/१८), (प्र.सा. ६/११/१५) पं.ध/उ. २०५ अस्त्यशुद्धोपलब्धिश्च तथा मिथ्याशा परम् । सुदृशा गौणरूपेण स्यान्न स्याद्वा कदाचन । - उस प्रकारको अशुद्धोपलब्धि भी मुख्य रूपसे मिथ्यादृष्टि जीवोके होती है और सम्यग्दृष्टियोके गौण रूपसे कभी-कभी होती है, अथवा नही भी होती है। नोट(और भो देखो 'मिथ्याष्टि४' मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिके तत्त्वकतृ त्वमें अन्तर)।
६ व्यवहार धर्म अशुद्धोपयोग है स सा/म ३०६ पडिकमण पडिसरण परिहारो धारणा णिवत्तीय। जिंदा गरहा सोहो अट्ठविही होई विसकुम्भो ।३०६ (यस्तु द्रव्यरूप. प्रतिक्रमणादि स तायीकी भूमिमपश्यत स्व कार्यकारणासमर्थत्वेन विषकुम्भ एव स्यात् । त प्र टोका ।) प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गहरे और शुद्धि यह आठ प्रकारका विपकुम्भ है। क्योकि द्रव्यरूपये प्रतिक्रमणादि, तृतीय जो शुद्धोपयोगकी भूमिका, उसको न देखनेवाले पुरुषके लिए अपना कार्य (कर्म सय) करनेको असमर्थ है। प.प्र./मू २/६६ वदउ णिद उ पडिकमउ भाउ अशुद्धउ जासु। पर तमु
संजमु अस्थि णवि जमण सृद्धि ण तास । - नि शंक वन्दना करो, निन्दा करो, प्रतिक्रमणादि करो लेकिन जिसके जब तक अशुद्ध परिणाम है उसके नियमसे संयम नही हो सकता, क्योकि उसके मनको शुद्धता नहीं है।
७ व्यवहार धर्म शुभोपयोग तथा पुण्यका नाम है स.सा /मू. २७५ सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फामेदि । धम्म भोगणिमित्त ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं । वह (अभव्य जीव) भोगके निमित्तरूप धर्मकी ही श्रद्धा करता है, उसकी रुचि करता है और उसीका स्पर्श करता है, किन्तु कर्म क्षयके निमित्तरूप (निश्चय) धर्मको नहीं जानता।
र.सा. ६४-६५ दव्वत्थकायछप्पणतच्चपयत्थेसु सत्तणवएम् । अधणमुक्खे
तकारणरूवे बारसणुवेवखे ।६४ रयणत्तयस्स रूवे अजाकम्मो दयाइसद्धम्मे । इच्चेवमाइगो जो वट्टइ सो होइ सुहभावो।६।-पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नव पदार्थ, बन्धमोक्ष, बन्धमोक्षके कारण बारह भावनाएँ, रत्नत्रय, आर्जवभाव, क्षमाभाव, और सामायिकादि चारित्रमय जिन भव्य जीवोके भाव है, वे शुभ भाव है। पप्र/मू. २/७१ सुहपरिणामे धम्मु पर असुहे होइ अहम्मु। दोहिं वि
एहि विन जिपउ सुदधु ण बघउ कम्मु । - शुभ परिणामोंसे पुण्यरूप व्यवहार धर्म मुख्यतासे होता है, तथा अशुभ परिणामोंसे पाप होता है। और इन दोनोसे रहित शुद्ध परिणाम युक्त पुरुष कर्मों को नहीं
बाँधता । (प्र.सा./मु १५६) न च वृ. ३७६ भेदुवयारे जइया वट्ठदि सो विय सुहासुहाधोणो। तझ्या
कत्ता भणिदो ससारी तेण सो आदो।३७६। जब तक जीवको भेद व उपचार बर्तता है उस समय तक वह भी शुभ व अशुभके ही
आधीन है और इसी लिए वह ससारी आत्मा कर्ता कहा जाता है। प्र. सा /त प्र.६६ यदा आत्मा.. अशुभोपयोगभूमिकामतिकाम्य देव
गुरुयतिप्लजादानशीलोपवासप्रीतिलक्षणं धर्मान रागमङ्गीकरोति तदेन्द्रियसुरवस्य साधनोभूतां शुभोपयोगभूमिकामधिरूढोऽभिलप्येत । -जब यह आत्मा अशु भोपयोगको भूमिकाका उल्लंघन करके, देव गुरु यतिकी पूजा, दान, शोल और उपवासादिकके प्रीतिस्वरूप धर्मानुरागको अङ्गीकार करता है तब वह इन्द्रिय-सुख के साधनीभूत
शु भोपयोग भूमिकामे आरूढ कहलाता है। द्र.स./मू ४५ असुहादो विणिवत्ती सुहे पवित्ती य जाण चारिस । बद
समिदिगुत्तिरूव बवहारणया दु जिणभणितं ।।५-जो अशुभ कार्यसे निवृत्त होना और शुभ कार्यमें प्रवृत्त होना है, उसको चारित्र जानना चाहिए। जिनेन्द्रदेवने उस चारित्रको व्रत ममिति और गुप्तिस्वरूप कहा है। (बा अनु. ५४) । स सा./ता. वृ १२५/ प्रक्षेपक गाथा ३ की टीका "य' परमयोगीन्द्र' स्वसवेदनज्ञाने स्थित्वा शुभोपयोगपरिणामरूपं धर्म पुण्यसङ्ग त्यक्त्वा निजशद्धात्म • -जो परमयोगीन्द्र स्वसवेदन ज्ञान में स्थित होकर
शुभोपयोग परिणामरूप धर्मको अर्थात पुण्यसगको छोडकर · ॥ प का /ता.वृ १३९/१६५/१२ दानपूजावतशीलादिरूप' शुभरागश्चित्तप्रसादपरिणामश्च शुभ इति सूत्राभिप्राय । - दान, पूजा, व्रत, शील आदि शुभ राग तथा चित्तप्रसाद रूप परिणाम शुभ है, ऐसा सूत्रका
अभिप्राय है। पंका/ता व. १३५/१६६/२३ वीतरागपरमात्मद्रव्याद्विलक्षण पश्च परमेष्ठिनिर्भरगुणानुराग प्रशस्तधर्मानु रागः अनु कम्पास रिप्तश्चपरिणाम' दयासहितो मनोवचनकायव्यापाररूप शुभपरिणामा चित्ते नास्तिकालुष्यं यस्यैते पूर्वोक्ता त्रय शुभपरिणामा सन्ति तस्य जीवस्य द्रव्यपुण्यासवकारणभूते भावपुण्यमाखवतीति सूत्राभिप्राय -वीतराग परमात्म द्रव्यसे विलक्षण पंचपरमेष्ठी निर्भर गुणानुराग प्रशस्त धर्मानुराग है। अनुकम्पायुक्त परिणाम व दया सहित मन वचन कायके व्यापाररूप परिणाम शुभ परिणाम है । तथा चित्तमें कालुष्यका न होना, जिसके इतने पूर्वोक्त तीन । शुभ परिणाम होते हैं उस जीवके द्रव्य पुण्याखवका कारणभूत भाव पुण्यका आस्रव होता है, ऐसा सूत्रका अभिप्राय है । (प का /ता वृ. १०८/१७२/८) द्र सं/टी ३५/१४६/५ व्रतसमितिगुप्ति भावसंवरकारणभूतानां यद् व्याख्यान कृत तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापासवसंवरणानि ज्ञातव्यानि । व्रत, समिति, गुप्ति आदिक भावसंवरके कारणभूत जिन बातोका व्याख्यान किया है. उनमें निश्चय रत्नत्रयको साधने वाला व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोग है उसका निरूपण करनेवाले जो वाक्य है वे पापात्रबके सवरमें कारण जानना (पुण्यासबके संवरमें नहीं)।
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नपरत बंध
उपशम
प प्र./टी २/३ धर्मशब्देनात्र पुण्य कथ्यते । -धर्म शब्दसे यहाँ पुण्य
कहा गया है। ८. शभोपयोग रूप व्यवहारको धर्म कहना रूढि है पं.ध./उ ७१८ रुढितोऽधिवपुर्वाचा क्रिया धर्म शुभाबहा । तत्रानुकूलरूपा वा मनोवृत्ति' सहानया ७१८/- रूढिसे शरीरको, वचनकी अथवा उसके अनुकूल मनको शुभ क्रिया धर्म कहलाती है। ९. वास्तव में धर्म शुभोपयोगसे अन्य है भा.पा./५ ८३ पूयादिसु वयसहियं पुण्ण हि जिणे हि सासणे भणियं । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अपणो धम्मो ८३1-जिन शासनमें बत सहित पूजादिकको पुण्य कहा गया है और मोह तथा क्षोभ विहीन आरमाके परिणामको धर्म कहा है। उपरत बंध-दे. बध १। उपरितन कृष्टि-दे. कृष्टि । उपरितन स्थिति-दे, स्थिति १। उपरिम द्वीप-जप/प्र.१०५) Outer island उपलब्धि -१. ज्ञानके अर्थमे सि वि वृ. १/२/८/१४ उपलभ्यते अनया वस्तुतत्त्वमिति उपलब्धि',
अर्थादापना तदाकारा च बुद्धि ।-जिसके द्वारा बस्तुतत्त्व उपलब्ध किया जाता हो या ग्रहण किया जाता हो वह उपलब्धि है। पदार्थसे उत्पन्न होनेवानी तदाकार परिणत बुद्धि उपलब्धि है। पं.का /त प्र. ३६ चेतयते अनुभवन्ति उपलभन्ते विन्दन्तीत्येकार्थश्चेतनानुभूत्यु पलब्धिवेदनानामेकार्थतत्त्वात ।- चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है, और वेदता है, ये एकार्थ है, क्योकि चेतना,
अनुभूति, उपलब्धि और वेदना एकार्थक है। पं. का /ता वृ ४३/०६/१ मतिज्ञानावरणीयक्षयोपशमजनितार्थग्रहण
शक्तिरुपलब्धि । - मतिज्ञानावरणोयके क्षयोपशमसे उत्पन्न अर्थ ग्रहण करनेको शक्तिको उपलब्धि कहते है । २. अनुरागके अर्थमे ध/उ ४३५ अथानुरागशब्दस्य विधिर्वाच्यो यदार्थत । प्राप्ति स्यादुपलब्धिर्वा शदाश्चैकार्थवाचका ।४३५॥ = जिस समय अनुराग शब्दका अर्थ की अपेक्षासे विधिरूप अर्थ वक्तव्य होता है, उस समय अनुराग शब्दका अर्थ प्राप्ति व उपलब्धि होता है, क्योकि अनुराग, प्राप्ति और उपलब्धि ये तीनो शब्द एशर्थ वाचक है।
३ सम्यक्त्व या ज्ञानचेतनाके अर्थमे । प. ध /उ २००-२०८ नम्पन्न विवशब्देन ज्ञान प्रत्यक्षमर्थत । तत् कि
ज्ञानावृत स्वीयकर्मणोऽन्यत्र तरात २००१ मत्याद्यावरणस्योच्चै कर्मणोऽन दयाद्यथा । दृइमोहम्योदयाभावादात्मशद्धापनधि स्यात ।२०३। किचापनाविशदोऽपि स्यादनेकार्थवाचक । द्वीपल धिरित्यस्ता स्थादशु इत्वहान ये ।२०४। बुद्धिमानन संवेद्या य स्वय स्यात्स वेदक । स्मृतिव्यतिरिन ज्ञानमुपलब्धिरि यत ।२०८। प्रश्नवास्तव में ज्ञान चेतनाको लक्षणभूत जात्मोपलब्धिमे 'उपलब्धि' शब्दसे 'प्रत्यक्षज्ञान' ऐसा अर्थ निकलता है। इसलिए ज्ञानावरणीयको आत्मोपलब्धिका घातक मानना चाहिए, मिथ्यात्व कर्मको नही। किन्तु ऊपरके पद (१६६)मे मिथ्यात्व के उदयको उस आत्मोपलब्धिका घातक माना है। तो क्या ज्ञानघातक ज्ञानावरण के सिवाय किसी और कमसे भी उस आत्मोपलब्धिका घात होता है ।२००। उत्तर१. जैसे वास्तविक आत्माको श द्रोपल धिस्वयोग्यमतिज्ञानावरण कर्म के अभाव से होती है, वैसे ही दर्शनमोहनीय कर्म के उदयके अभावसे भी होती है ।२०३।२ दूसरा उत्तर यह है कि उपलब्धि शब्द भी अनेकार्थ वाचक है, इसलिए यहाँ पर प्रकरणवश अशुद्धताके अभाव
को प्रगट करनेके लिए 'शुद्ध' उपलब्धि ऐसा कहा है ।२०४। क्योकि शुद्धोपलब्धि में जो चेतनावान जीव ज्ञय होता है वही स्वय ज्ञानी माना जाता है, अर्थात निश्चयसे ज्ञान और ज्ञ यमें कोई अन्तर नहीं होता। इसलिए यह शुद्धोपलब्धि अतीन्द्रिय ज्ञानरूप पड़ती है। भावार्थ-'उपलब्धि' शब्द का अर्थ जिस प्रकार नेत्रादि इन्द्रियों द्वारा बाह्य पदार्थों का प्रत्यक्ष ग्रहण करने में आता है, उसी प्रकार अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा अन्तरग पदार्थ अर्थात अन्तरात्माका प्रत्यक्ष अनुभव करना भी उसी शब्द का वाच्य है। अन्तर केवल इतना है कि इसके साथ 'शुद्ध' विशेषण लगा दिया गया है।
* उपलब्धि व अनुपलब्धि रूप हेतु-दे हेतु।। उपलब्धि समा-न्या सू /म. व भाष्य ५।१२७ निर्दिष्ट कारणाभावेऽप्युपलम्भादुपलब्धिसम ।२। निर्दिष्टस्य प्रयत्नान्तरीयकत्वस्यानित्यत्वकारणस्याभावेऽपि वायुनोदनावृक्षशाखाभङ्गजस्य शब्दस्यानित्यत्वमुपत्तभ्यते निर्दिष्टस्य साधनस्याभावेऽपि साध्यधर्मोपलन्ध्या प्रत्यवस्थानमुपल विधसम । वादी द्वारा कहे जा चुके कारण के अभाव होनेपर भी साध्य धर्मका उपलम्भ हो जानेसे उपलब्धि प्रतिषेध है। उसका उदाहरण इस प्रकार है कि वायुके द्वारा वृक्षकी शाखा आदिके भगसे उत्पन्न हुए शब्द मे या घनगर्जन, समुद्र घोष आदिमें प्रयत्नजन्यत्वका अभाव होने पर भी, उसमें साध्य धर्म रूप अनित्यत्व वर्त रहा है। इसलिए श द को 'नित्य' सिद्ध करने में दिया गया प्रयत्नान्तरीयक्त्व हेतु ठीक नहीं है। (श्लो वा /पु ४/न्या, ४१६/५२५/१३)
२. अनुपलब्धि समा जाति न्या.यू मू व भाष्य ५-११२६ तदनुपलब्धेरनु पलम्भादभावसिद्धौ परीतोप पत्तैरन पलब्धिमम ।२६। तेषामावरणादोनामन पलब्धि!पलभ्यते अन पलम्भान्नास्तीत्यभावोऽस्या सिध्यति अभाव सिद्धी हेत्वभावात्तद्विपरीतमस्तिनावरणादीनामवधार्यते तद्विपरीतोपपत्तेर्यत्प्रतिज्ञात न प्रागुचारणाद्विद्यमानस्य शब्दस्यानु पल विधरित्येतन्न सिध्यति सोऽयं हेतुरावरणाद्यनुपलब्धेरित्यावरणादिषु चावरणादान पलब्धौ च समयानु पलब्ध्या प्रत्यवस्थितोऽनु पल ब्धिसमो भवति । निषेध करने योग्य शब्द की जो अनुपलब्धि है, उस "अनु पलब्धि" की मी अनुपलब्धि हो जाने से अभावका साधन करने पर, विपर्याससे उस अन पलब्धिके अभावकी उपपत्ति करना प्रतिवादीकी अनुपलब्धिसमाजाति बखानी गयी है। इसका उदाहरण इस प्रकार है कि-'उच्चारण के प्रथम नही विद्यमान हो रहे हो शब्दका अन पलम्भ है। विद्यमान शब्दका अदर्शन नही है। इस प्रकार स्वीकार करनेवाले वादी के लिए जिस किसी भी प्रतिगदी की ओरसे यो प्रत्यवस्थान उठाया जाता है. कि उस शब्द के आवरण, अन्तराल आदि कोके अदर्शनका भी अदर्शन हो रहा है। इसलिए वह आवरण आदिको की जो अनुपलब्धि कही जा रही है उसका ही अभाव है। तिस कारण उच्चारण से पहिले विद्यमान हो रहे ही शन्दका सुनना आवरणवश नहीं हो सका है, यह बात सिद्ध हो जाती है। क्योकि अनादिकालसे सदा अप्रतिहत चला आ रहा जो शब्द है, तिसके आवरण आदिकोके अभावका भी अभाव सिद्ध हो जानेसे उनका सद्भाव सिद्ध हो जाता है। (श्लो वा. ४/न्या ४२५॥ ६२८/१० तथा पृ ५३१/१४)। उपवन भूमि-समवशरण की चौथी भूमि-दे समवशरण । उपवास-दे -प्रोषधोपचास। उपवेल्लन-व्य निक्षेपका एक भेद-दे निक्षेप ५/६ । उपशम-कर्मोके उदयको कुछ समय के लिए रोक देना उपशम कहलाता है। कर्मो के उदयके अभाव के कारण उतने समयके लिए जीवके परिणाम अत्यन्त शुद्ध हो जाते है, परन्तु अवधि पूरी हो
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उपशम
१. उपशम निर्देश
जाने पर नियमसे कर्म पुन उदयमें आ जाते है और जीवके परिणाम पुन गिर जाते हैं। उपशम-करणका सम्बन्ध केवल मोहकर्म व तजन्य परिणामोसे ही है, ज्ञानादि अन्य भावोसे नहीं, क्योकि रागादि विकारोमें क्षणिक उतार-चढाव सम्भव है। कर्मों के दबनेको उपशम और उससे उत्पन्न जोवके शुद्ध परिणामोको औपशमिक भाव कहते हैं। १. उपशम निर्देश
१ उपशम सामान्यका लक्षण २ सदवस्थारूप उपशमका लक्षण ३ प्रशस्त व अप्रशस्त उपशम ४ उपशमके निक्षेपोकी अपेक्षा भेद * निक्षेपो रूप भेदोके लक्षण -दे निक्षेप ५ नो आगम भाव उपशमका लक्षण ६ उपशम व विसयोजनामे अन्तर * अनन्तानुबन्धी विसंयोजना -दे विसयोजना * त्रिकरण परिचय -दे. करण ३ ।। * अन्तरकरण विधान --दे अतरकरण * स्थितिबन्धापसरण --दे अपकर्षण ३ * मोहोपशम व आत्माभिमख परिणाममे केवल भाषा
का भेद है दे उपशम ६/१ २ दर्शनमोहका उपशम विधान १ प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा स्वामित्व २ प्रथमोपशममे दर्शनमोह उपशम विधि * अनादि मिथ्यादृष्टि केवल एक मिथ्या बका ही और
सादि मिथ्यावष्टि १, २ या ३ प्रकृतियोका उपशम करता है -दे. सम्यग्दर्शन IVR ३ मिथ्यात्वका त्रिधाकरण ४ द्वितीयोपशमकी अपेक्षा स्वामित्व ५ द्वितीयोपशमकी अपेक्षा दर्शनमोह उपशमविधि * द्वितोयोपशम सम्यक्त्वमे आरोहक सम्बन्धी दो मत
-दे सम्यग्दर्शन IV/३/४ ६ उपशम सम्यक्त्वमे अनन्तानुबन्धीकी संयोजनाके विधि
निषेध सम्बन्धी दो मत * पुनः पुन' दर्शनमोह उपशमानेकी सीमा
-देसम्यग्दर्शन IV)२ ३ चारित्रमोहका उपशम विधान १ चारित्रमोहकी उपशम विधि * पुनः पुनः चारित्रमोह उपशमानेकी सीमा-दे. सयम २ ४ उपशम सम्बन्धी कुछ नियम व शंकाएँ १ अ तरायाममे प्रवेश करनेसे पहले मिथ्यात्व ही रहता है २ उपशान्त-द्रव्यका अवस्थान अपूर्वकरण तक ही है, ऊपर नही
३ नवकप्रबद्धका एक आवली पर्यन्त उपशम सम्भव
नही ४ उपशमन काल सम्बन्धी शंका * दर्शन व चारित्रमोहके उपशामककी मृत्यु नही होती
-दे. मरण ३ * उपशम श्रेणीमे कदाचित् मृत्यु सम्भव -दे मरण ३ * मोहके मन्द उदयमे ही यथार्थ पुरुषार्थ सम्भव है
दे कारण III/६ ५ उपशम विषयक प्ररूपणाएँ १ मलोत्तर प्रकृतियोकी स्थिति आदिमे उपशम विषयक
प्ररूपणाएँ * दर्शन चारित्र मोहके उपशामको सम्बन्धी सत्, संख्या,
क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप
आठ प्ररूपणाएं -दे वह वह नाम ६ औपशमिक भाव निर्देश १ औपशमिक भावका लक्षण २ औपशमिक भावके भेद-प्रभेद * क्षायोपशमिक भावमे कथंचित औपशमिकपनेका विधि
निषेध -दे.क्षयोपशम * गणस्थानो व मार्गणा स्थानोमे यथासम्भव भावोंका
निदंश -दे, बह वह नाम * अपूर्वकरण गुणस्थानमे किसी भी कर्मका उपशमन होते हुए भी वहाँ औपशमिक भाव कैसे कहा गया
-दे. अपूर्वकरण ४ * औपशमिक भाव व आत्माभिमुख परिणाममे केवल
भाषाका भेद है-दे.औपशमिक भावका लक्षण * औपशमिक भाव जीवका निज तत्व है १. उपशम निर्देश
१.उपशम सामान्का लक्षण ध:/४,१.४५/११/२३६ उदए सकम उदए चदुसु वि दादु कमेण णो सक्क ।
उवसंत च णिधत्तं णिकाचिदं चावि जं कम्म । - जो कर्म उदय में नही दिया जा सके, वह उपशान्त कहलाता है। (ध १५/४/२७६); (गो क / ४४०/५६३) स सि २/१/१४६/५आत्मान कर्मण' स्वशक्ते कारणवशादनुभूतिरुपशम । यथा क्तकादिद्रव्य बन्धादम्भसि पङ्कस्य उपशम । आत्मामें कम की निजशक्तिका कारणवश प्रगट न होना उपशम है। जैसे कतक
आदि द्रव्यके सम्बन्धसे जल में काचडका उपशम हो जाता है। रा वा. २/१/१/१००/१० यथा सकलुषस्याम्भस कतकादिद्रव्यस पद्ि
अध प्रापितमलद्रव्यस्य तत्कृतकालुष्याभावात् प्रसाद उपलभ्यते, तथा कर्मण कारणवशादनुभूतस्वबीर्यवृत्तिता आत्मनो विशुद्विरुपशम । --जैसे कतकफल या निर्मलीके डालने से मैले पानीका मैल नीचे बैठ जाता है और जल निर्मल हो जाता है, उसी तरह परिणामोंकी विशुद्धिसे कर्मोकी शक्तिका अनुभूत रहना अर्थात् प्रगट न होना. उपशम है । (गो जी /जो.प्र८/२६/१२)
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उपशम
२. दर्शनमोहका उपशम विधान
..सदवस्था रूप उपशमका लक्षण रा.वा २/५/३/१०७/१ तस्यैव सर्वधातिस्पर्धक्यानुदयप्राप्तस्य सदवस्था उपशम इत्युच्यते अनुभूतस्ववीर्य वृत्तित्वात । - अनुदय प्राप्त मर्वघाती स्पर्धकोको सत्तारूप अवस्थाको उपशम कहते हैं, क्योंकि इस अवस्थामें उसकी अपनी शक्ति प्रगट नहीं हो सकती। ३. प्रशस्त व अप्रशस्त उपशम ध. १५/२७६/२ अप्पसत्थुवसामणाए जमुवसंत पदेसग्ग तमोकड्डिदु पि
सक्क, उक्कडिदुपि सक्कं, पयडीए सकामिपि सक्क उदयावलिय पवेसिदुण उ सक्क| अप्रशस्त उपशमनाके द्वारा जो कर्म प्रदेश उपशान्त होता है वह अपकर्षणके लिए भी शक्य है, उत्कर्षणके लिए भी शक्य है, तथा अन्य प्रकतिमें सक्रमण कराने के लिए भी शक्य है । वह केवल उदयावली में प्रविष्ट करने के लिए शक्य नहीं है। गो जो./जी.प्र.६५०/१०६६/१६ अनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य दर्शनमोहत्रयस्य
च उदयाभावलक्षणाप्रशस्तोपशमेन प्रसन्नमलपङ्कतोयसमानं यत्पदार्थश्रद्धानमुत्पद्यते तदिदमुपशमसम्यक्त्व नाम । - अनन्तानुबन्धीकी चौकडी और दर्शनमोहका त्रिक इन सात प्रकृतिका अभाव है लक्षण जाका ऐसा अप्रशस्त उपशम होनेसे जैसे कतकफल आदिसे मल कर्दम नीचे मेठने करि जल प्रसन्न हो है तैसे जो तत्वार्थ श्रद्धान उपजै सो
यह उपशम नाम सम्यक्त्व है। ध.१/१,१,२७/२१२/६ उक्समो णाम कि । उदय-उदीरण-ओकड़डक्कड्डण-परपयडिसं कम-द्विदि-अणुभाग-कंडयधादेहि विणा अच्छणमुवसमो। प्रश्न-उपशम किसे कहते है । उत्तर-उदय, उदोरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण, परप्रकृति सक्रमण, स्थिति काण्डकघात, अनुभागकाण्डकघातके बिना ही कोंके सत्तामें रहनेको (प्रशस्त) उपशम कहते है । (यह उपशम चारित्रमोहका होता है)। ४. उपशमके निक्षेपोंकी अपेक्षा भेद-ध १५/२७५
उपशम
६. उपशम व विसंयोजनामें अन्तर ध. १/१,१,२७/२११/१ सरूव छ ड्डिय अण्ण-पयडि-सरूवेणच्छणमण ताणुबधीणमुवसमो, दंसणतियस्स उदयाभावो उक्समो तेसिमुवसंताणंपि ओकड् डुक्कडण-परपडि संक्माणमत्थित्तादो। अपने स्वरूपको छोडकर अन्य प्रकृतिरूपसे रहना अनन्तानुबन्धीका उपशम है । और उदय में नहीं आना ही दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृत्तियोंका उपशम है, क्योकि, उत्कर्षण अपकर्षण और परप्रकृतिरूपसे संक्रमणको प्राप्त
और उपशान्त हुई उस तीन प्रकृतियोका अस्तित्व पाया जाता है। विशेषार्थ पृ २१४-अनन्तानुबन्धीके अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमण होनेको ग्रन्थान्तरों में विसयोजना कहा है और यहॉपर उसे उपशम कहा है । यद्यपि यह केवल शब्द भेद है, और स्वयं बोरसेन स्वामीको द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीका अभाव इष्ट है, फिर भी उसे विसयोजना शब्दसे न कहकर उपशम शब्द के द्वारा कहनेसे उनका यह अभिप्राय रहा हो कि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव कदा चित् मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होकर पुन अनन्तानुबन्धीका बन्ध करने लगता है और जिन कर्मप्रदेशोका उसने अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण किया था उनका फिरसे अनन्तानुबन्धी रूपसे संक्रमण हो सकता है। इस प्रकार यद्यपि द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीकी सत्ता नहीं रहती है, फिर भी उसका पुन' सद्भाव होना सम्भव है। अत' द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना न कहकर उपशम शब्द का प्रयोग किया गया है। २. दर्शनमोहका उपशम विधान
१. प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा स्वामित्व ष ख ६/१.६-८/8/२३८ उवसामेंतो कम्हि उवसामेदि, चदुसु वि गदीमु
उवसामेदि । चदुसु वि गदुसु उवसामंतो पचिदिएसु उवसामेदि, जो एइन्दियविगलिदिएसु । पंचिदिएसु उवसातो सणीसु उवसामेदि. णो असण्णीसु । साणीसु उवसातो गम्भोवक्कं तिएम उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु । गम्भोवक्कं तिएम उवसातो पज्जत्तएम उक्सामेदि णो अपज्जत्तएसु । पज्जत्तएसु उवसातो सखेज्जवस्सार गेस वि उवसामेदि, असंखेज्जवस्साउगेसु वि।।। -दर्शनमोहनीय कर्मको उपशमाता हुआ यह जीव कहाँ उपशमाता है। चारों ही गतियों में उपशमाता है। चारो ही गतियोमें उपशमाता हुआ पंचेन्द्रियों में उपशमाता है, एकेन्द्रियों व विकलेन्द्रियोंमें नहीं उपशमाता है। पंचेन्द्रियोंमें उपशमाता हुआ, संज्ञियोमें उपशमाता है असंज्ञियों में नहीं। संज्ञियोमें उपशमाता हुआ गर्भोपक्रान्तिकोमें अर्थात गर्भज जोबों में उपशमाता है, सम्मूच्छिमोमें नहीं । गर्भोपक्रान्तिकों में उपशमाता हुआ पर्याप्तकों में उपशमाता है अपर्याप्तको में नहीं। पर्याप्तकों में उपशमाता हुआ संख्यात वर्ष की आयुवाले जीवोमें भी उपशमाता है और असरख्यात वर्षकी आयुवाले जीवोमें भी उपशमाता है । क.पा. सुत्त ६८/६३२ सायारे पट्ठवओ णिवओ मज्झिमो य भयणिज्जो। जोगे अण्णदरम्मि दुजहण्णेण तेउलेस्साए 18- साकारोपयोगमें वर्तमान जीव ही दर्शन मोहनीयकर्म के उपशमनका प्रस्थापक होता है। किन्तु निष्ठापक और मध्य अवस्थावर्ती जीव भजितव्य हैं। तीनो में से किसी एक योगमें वर्तमान और तेजोलेश्याके जघन्य अंशको प्राप्त जीव दर्शनमोहका उपशमन करता है । विशेषार्थ-तेजोलेश्याका यह नियम मनुष्यत्तियं चोकी अपेक्षा कहा जाना चाहिए। उक्त नियम देव और नारकियोमें सम्भव इसलिए नहीं है कि देवोके सदा काल शुभ लेश्या और नारकियों के अशुभ लेश्या ही पायी जाती है। ध. ६/१६-८,४/२०७/४ कोधकसाई माणक्साई मायक्साई लोभकसाई
वा, किंतु हायमाणकसाओ । असंजदो । छण्णं लेस्साणमण्णदरलेस्सो किंतु हायमाणअसुहलेस्सो बढमाण सुहलेस्सो । भव्यो। आहारी।
नाम
स्थापना
द्रव्य
भाव
गौण्य नोगौण्य सद्भाव नाम नाम
असद्भाव
आगम
नोआगम
आगम
नोआगम
।
ज्ञायक शरीर भावि तद्वयतिरिक्त
कर्म
नोकर्म
भूत
भावि त्यक्त
करणोपशम
अकरणोपशम
| अक्रण
अनुदीर्ण
देशकरण
देशकरण
सर्वकरण
सर्वकरण
अगुणोपशम अप्रशस्तोपशम गुणोपशम प्रशस्तोपशम ५. नोआगम भाव उपशमका लक्षण घ. १५/२७५/५ णोआगमभावुवसमणा उपसंतो कलहो जुद्ध वा इच्चेवमादि । -नो आगम भावोपशमना - जैसे कलह उपशान्त हो गया अथवा युद्ध उपशान्त हो गया इत्यादि।
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उपशम
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(चारी गतियो, तीनो वेदों व तीनों योगों मेंसे किसी भी गति वेद वा योग वाला हो), कोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी अथवा लोभकषायी अर्थात् चारो कषायोमे से किसी भी कषायवाला हो। किन्तु होयमान कषायवाला होना चाहिए। असंयत हो । (साकारोपयोगी हो) । कृष्णादि छहो लेश्या मे से किसी एक लेश्या वाला हो, किन्तु यदि अशुभ लेश्या हो तो हीयमान होनी चाहिए और यदि शुभ लेश्या हो तो वर्धमान होनी चाहिए। भव्य तथा आहारक हो । रावा. १/२/१३/२६८/२३ अनादिमिध्यादृष्टिर्भव्य पशमिति सत्कर्मक सादिमिध्यादृपिशितमोहनकृतिस्वर्मक विंशतिमोहप्रकृतिसर कर्मको या अष्टाविशतिमोहप्रकृतिसत्कर्मको ना प्रथमसम्यक्त्य ग्रहीतुमारभमाण शुभपरिणामाभिमुख अन्तर्मुहूर्तमनवर्तमानशुद्ध चतुर्षु मनोयोगेषु अन्यतमेन मनोयोगेन, चतुर्षु वाग्येोगेषु अन्यतमेन वाग्योगेन औदारिकवै क्रियककाययोगयोरन्यतरेण काययोगेन वा समाविष्टः हीयमानान्यतमकषाय, सारोपयोग त्रिषु वेदेश्वातमेन वेदेन संस्लेशनिरहित वर्धमान शुभपरिणामप्रतापेन सर्वकमं प्रकृतानां स्थिति हासयद अशुभप्रकृतीनामनुभागबन्धमपसार शुभप्रकृतीना रीणि कर णानि कर्तुमुपक्रमते । - अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के मोहकी छब्बीस प्रकृतियों का सत्व होता है और सादिमिध्यादृष्टि १६२० या २८ प्रकृतियोंका सत्व होता है। ये जब प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करने के उन्मुख होते हैं तब निरन्तर अनन्तगुणी विशुद्धिको बढाते हुए शुभपरिणामों सयुक्त होते जाते है। उस समय ये चार मनोयोगो में से किसी एक मनोयोग, चार वचनयोगसे किसी एक वचनयोग, औदारिक और वैक्रिक में से किसी एक काययोगसे युक्त होते है। इनके कोई भी एक कषाय होती है जो अत्यन्त हीन हो जाती है। साकारोपयोग और तीनों वेदोंमेंसे किसी एक वेदसे युक्त होकर भी सक्लेश रहित हो, प्रवर्धमान शुभ परिणामोसे सभी कर्मप्रकृतियों की स्थितिको कम करते हुए, अशुभ कर्मप्रकृतियो के अनुभागका खण्डन कर शुभ प्रकतियोंके अनुभागरसको बढ़ाते हुए तीन करणोको प्रारम्भ करते है । (ल.सा./ /२/४१) (और भी दे सम्यग्दर्शन IV/A) २. प्रथमोपशममें दर्शनमोह उपशम विधि
से
च. ख. ६/१६-८ / सू ३-८ / २०३-२३८ एदेसि चेव सव्यकम्माण जावे अतोकोडा कोडिट्ठिदि बंदि तावे पणमसम्मत्तं लभदि । ३। सो पुण पंचिदिओ सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सव्वविद्धो |४| एसि चैव सम्मान जाये अतोकोडाको डिडिदि वेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि जिस तापमसम्मत्तमुप्पादेदि ॥३॥ पठमसम्मत्तमुप्पादेो अोमुत्तमोहटेदि 14 आहटटेवून मिच्छ तिष्णि भागं करेदि सम्मत्त मिच्छत्त सम्मामिच्छत [७] द सणमोहणीयं कम्म उसमेंदि । इन हो सर्व कर्मोंको जब अन्त. - aternier स्थितिको बाँधता है तब यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है | ३| वह प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला
पंचेन्द्रिय, सही मिध्यादृणि पर्याप्त और सर्व विशुद्ध होता है |४| जिस समय सर्व कर्मोंकी संख्यात हजार सागरोसे होन अन्त - कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण स्थितिको स्थापित करता है, उस समय यह जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है |५| प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता हुआ सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव अन्त
काल तक हटाता है, अर्थात अन्तरकरण करता है । ६ । अन्तरकरण करके मिथ्यात्व कर्मके तीन भाग करता है - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्याख || मिध्यात्वके तीन भाग करनेके पश्चात् दर्शनमोहनीय कर्मको उपशमाता है । भावार्थ- सम्यक्वा भिमुख जोव पंचलब्धिको क्रम से नाप्त करता हुआ उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करता है । क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोपगमन लब्धि व करण लब्धि-ये पाँच लब्धियोके नाम है ।
ઢ
२. दर्शनमोहका उपशम विधान
विचारनेकी शक्ति विशेषका उत्पन्न होना क्षयोपशम सन्धि है । परिणामो मे प्रति समय विशुद्धिकी वृद्धि होना विशुद्धि सन्धि है । सम्यक् उपदेशका सुनना व मनन करना देशना लब्धि है। उसके कारण हुई परिणामविशुद्धिके फलस्वरूप पूर्व कर्मों की स्थिति घटकर अन्तःकोडाकोडी सागरगात्र रह जाती है और नवीन कर्म भी इससे अधिक स्थिति नहीं बन्ध पाते, यह प्रायोग्य लब्धि है । अन्तमें उस सुने हुए उपदेशका भलीभाँति निदिध्यासन करना करण लब्धि है । करण लब्धिके भी तरतमता लिये हुए तीन भाग होते है-अध करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण सहाँ अध में परिणामोकी विशुद्ध प्रतिक्षण अनन्त गुणी वृद्धि होती है। अशुभ प्रकृतियोका अनुभाग अनन्तगुणहीन और शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक बन्धता है। स्थिति भी उत्तरोत्तरपश्योपमके असख्यातभाग करि होन होन बान्धती है। अपूर्व करण में विशुद्धि प्रतिक्षण बहुत अधिक वृद्धिगत होने लगती है। यहाँ पूर्व बद्ध स्थितिका काण्डक घात भी होने लगता है, और स्थिति बन्धापसरण भी विशुद्धि में अत्यन्त वृद्धि हो जानेपर वह अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करता है । यहाँ पहले से भी अधिक वेगसे परिणाम वृद्धिमान होते है। यह तीनों ही करण जीवके उत्तरोतर वृद्धिगत विशुद्ध परिणामोके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । इनके प्राप्त करनेमें कोई अधिक समय भी नही लगता। तीनों ही प्रकारके परिणाम अन्तर्मुहूर्त मात्रमें पूरे हो जाते है । तब अनिवृत्तिकरण कालके संख्यातभाग जानेपर अन्तरकरण करता है। परिणामोकी विशुद्धिके कारण सत्ता में स्थित कर्मप्रदेशों में से कुछ निषेकका अपना स्थान छोडकर, उत्कर्षण व अपकर्षण द्वाराऊपरनीचेके निषेकों में मिल जाना ही अन्तरकरण है । इस अन्तरकरण के द्वारा निकोकी एक अटूट पति टूटकर दो भागोंमें विभाजित हो जाती है एक पूर्व स्थिति और दूसरी उपरितन स्थिति बीचमें अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निषेकोका अन्तर पड जाता है । तत्पश्चात् उन्हीं परिणामो के प्रभाव से अनादिका मिथ्यात्व नामा कर्म तीन भागो में विभाजित हो जाता है - मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिमा ये तीनों ही कोई स्वतन्त्र प्रकृतियों नहीं है. गश्कि उस एक प्रकृतिमें ही कुछ प्रदेशो का अनुभाग तो पूर्ववत ही रह जाता है उसे तो मियाहते है। कुछ अनुभाग अन हो जाता है. उसे सम्मान बढ़ते है और कुछ अनुभाग पटकर उससे भी अनन्तगुणाहीन हो जाता है, उसे सम्यक्प्रकति कहते है । तब इन तीनो ही भागोकी अन्तर्मुहूर्त मात्र के लिए ऐसी स्थित सी अवस्था हो जाती है कि वे न उदयावली में प्रवेश कर पाते है और न ही उनका उत्कर्षण - अपकर्षण आदि हो सकता है । तब इतने कालमात्र के लिए उदपावलीने से दर्शनमोहकी दोनो ही प्रकृतियोका सर्वथा अभाव हो जाता है। इसे ही उपशमकरण कहते हैं। इसके होनेपर जीवको उपशम सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि विरोधी कर्मका अभाव हो गया है परन्तु अन्तर्मुहूर्त मात्र अधि पूरी हो जानेपर में कर्म पु सचेत हो उठते है और उपमानली में प्रवेश कर जाते है । तब वह जीव पुन मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है । अथवा यदि सम्यग्मिथ्यात्वका उदय होता है तो मिश्र गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है या यदि सम्यक् प्रकृतिका उदय हो जाता है तो क्षयोपशम समयको प्राप्त हो जाता है (रामा/१/१/१३ ६००/३९) (६/११/२००-२४३), (.सा./११०८/४१-१४६ (ग) जी / जो प्र. ७०४/११४१/१०), (गो क / जी. १५५० / ७४२ / १४ ) ३ मिथ्यात्वका त्रिधाकरण
।
1
घ. ६/९.६८००/२३६ तेष खोह दुणेश उसे
म
शुभाग वादिय सम्मत-सम्भामिल अणुभागायारेण परिणामिय पठमसम्म पडिणिसे उप्पादेदि (आगे नीचे भाषार्थ) - इसलिए अन्तरकरण करके ऐसा दे
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उपशम
२. दर्शनमोहका उपशम विधान
कहने पर काण्डक घातके बिना मिथ्यात्व कर्म के अनुभागको धातकर
और उसे सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके अनुभागरूप आकारसे परिणमाकर प्रथमोशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें ही मिथ्यात्व रूप एक कर्मके तीन कर्माश अर्थात भेद या खण्ड उत्पन्न हो जाते है। भाषार्थ-प्रथम समयवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वसे प्रदेशाग्रको लेकर (अर्थात् उनको उदीरणा करके) उनका बहुभाग सम्यग्मिथ्यात्वमें देता है और उससे असंख्यात गुणा होन प्रदेशाग्र सम्यक्त्व प्रकृतिमें देता है प्रथम समयमें सम्यग्मिध्यान में दिये गये प्रदेशाग्रकी अपेक्षा द्वितीय समयमें सम्यक्त्वप्रकति में असंख्यात गुणित प्रदेशोको देता है। और उसो ही समय में (अर्थात दूसरे ही समय में) सम्यक्त्वप्रकृतिमें दिये गये प्रदेशो की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वमें असख्यात गुणित प्रदेशोको देता है। (इसी प्रकार तीसरे समयमे सम्यक्त्व प्रकृतिका द्रव्य द्वितीय समयके सम्यग्मिध्यात्वसे असरख्यात गुणा और सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यग्मिध्यात्वसे असरख्यात गुणा)। इस प्रकार (सर्प की चालवत्) अन्तर्मुहूर्त काल तक गुणश्रेणीके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कर्मको पूरित करता है, जब तक कि गुणसंकमण कालका अन्तिम समय प्राप्त होता है । (ल सा/मू. व जी. प्र/E०-६१/१२६-१२८) ल.सा./मू /१०/१२५ मिच्छत्तमिस्ससम्मसरूवेण य तत्तिधा य दव्वादो।
सत्तीदो य असंखाण तेण य होति भजियकमा। -- मिथ्यात्व कर्म मिथ्यात्व मिश्र सम्यक्त्वमोहनीरूपकरि तीन प्रकार हो है, सो क्रमतै द्रव्य अपेक्षा असंख्यातवाँ भागमात्र और अनुभाग अपेक्षा अनन्त भागमात्र जानने। सोई कहिए है-मिथ्यात्वका परमाणुरूप जो द्रव्य ताकी गुण संक्रम भागहारका भाग देइ एक अधिक असख्यातकरि गुणिये। इतना द्रव्य बिना (शेष) समस्त द्रव्य मिथ्यात्व रूप ही रहा। अर गुणसंक्रम भागाहारकरि भाजित मिथ्यात्व द्रव्यको असरख्यात करि गुणिये इतना द्रव्य मिश्र-मोह रूप परिणाम्या। अर गुणसंक्रम भागहारकरि भाजित मिथ्यात्व द्रव्यको एककरि गुणिए इतना द्रव्य सम्यक्त्व मोहरूप परिणमा। तातें द्रव्य अपेक्षा अस ख्यातवाँ भागका क्रम आया। बहुरि अनुभाग अपेक्षा संख्यात अनुभाग कांडकनिके घातकरि जो मिथ्यात्वका अनुभागके पूर्व अनुभागके अनन्तवाँ भागमात्र अव शेष रहा ताके (भी) अनन्तवे भाग मिश्रमोहका अनुभाग है। बहुरि याके (भो) अनन्तवे भाग सम्यक्त्वमोहका अनुभाग है, ऐसे अनुभाग है, ऐसे अनुभाग अपेक्षा अनन्तवों भागका क्रम आया ।"
४. द्वितीयोपशमकी अपेक्षा स्वामित्व घ ६/१,६-८.१४/२८८८६ संपधि ओवसमियचारित्तप्पडिवजणिवाहण बुच्चदे। तं जधा-जो वेदगसम्माइट्ठी जीवो सो ताव पुत्वमेव अणताणुबधी विसंजोएदि। - अब औपशमिक चारित्रकी प्राप्तिके विधानको कहते है। वह इस प्रकार है-जो वेदक सम्यग्दृष्टि (४-७ गुणस्थानवर्ती) जीव है वह पूर्व में ही अनन्तानुबन्धी चतुष्टयका वेदन करता है। ध.१/१,१,२७/२१०/११ रुव ताव उवसामण-विहि वत्तइस्सामो। अगंता
गुबधि कोध-माण-माया-लोभ सम्मत्त सम्मामिच्छत्त-मिच्छत्तमिदि एदाओ सत्तपयडीओ असंजदसम्माइटिप्पडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति ताव एदेसु जो वा सोबाउबसामेदि। -पहले उपशम विधिको कहते हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, तथा मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियोका असं यत्त सम्यग्दृष्टि से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक इन चार गुणस्थानो में रहने वाला कोई भी जीव उपशम करनेवाला होता है । ल सा./मू /२०५/२५१ उपसमचरियाहिमुहा वेदगसम्मो अणं बिजोयित्ता।
-उपशम सम्यक्त्वके सन्मुख भया वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सो पहिलै पूर्वोक्त विधानत अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करि "
गो.क /जी प्र./५५०/७४३/४ तद्वितीयोपशमसम्यक्त्वं वेदकसम्यग्दृष्ट्यप्रमत्त एव करणत्रयपरिणामै सप्तप्रकृतिरुपशमय्य गृह्णाति.. । बहुरि द्वितोयोपशम सम्यक्त्वको वेदक सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त ही तीन करणके परिणामनिकरि सातौ प्रकृप्तिको उपशमाय ग्रहण रै है। (गो जी/जी प्र. ७०४/१४१/१७) और भी दे. सम्यग्दर्शन IV/३/२) ध.१/१,१,२७/२१४ विशेषार्थ-"लब्धिसार आदि ग्रन्थोमें द्वितीयोपशम
सम्यक्त्वकी उत्पत्ति अप्रमत्त-संयत गुणस्थान तक ही बतलायी है, किन्तु यहाँपर उपशमन विधिके कथनमें उसकी उत्पत्ति असंयत सम्यदृष्टि से लेकर अप्रमत्तयत गुणस्थान तक किसी भी एक गुणस्थान में बतलायी गयी है। धवलामें प्रतिपादित इस मतका उल्लेख श्वेताम्बर सम्प्रदायमें प्रचलित कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थो में देखने में आता है।" ५. द्वितीयोपशमको अपेक्षा दर्शनमोह उपशम विधि ल सा /मू./२०५-२१८/२५६-२७२ उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अण विजायित्ता। अंतोमुहुत्तकाल अधापवत्तोऽपमत्तो य ।२०।। ततो तियरण विहिणा देसणमोह सम खु उवसमदि । सम्मत्त पत्तिवा अण्ण च गुणसेढिकरणविही ।२०६। सम्मस्स अंसखेज्जा समयपबद्धाणुदीरणा होदि । तत्तो मुहत्तअते दंसणमोहतर कुणई ।२०६। सम्मत्तुप्पत्तीए गुणसकमपूरणस्स कालादो। संखेज्जगुणं कालं विसो हिबढीहि । वढदि हु।२१७॥ तेण पर हायदि वा वड्ढदि तव्बढिदो विसुद्धीहि । उवसतदंसण तियो होदि पमत्तापमत्तेसु । २१८ । -उपशम चारित्रके सन्मुख भया वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सो पहिलै पूर्वोक्त विधानते अनन्तानुबन्धीका विसंयोजनकरि अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त अध प्रवृत्त अप्रमत्त कहिये स्वस्थान अप्रमत्त हो है। तहा प्रमत्त अप्रमत्त विष हजारों बार गमनागमन करि पीछे अप्रमत्त विषै विश्रामकर है (अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त वैसे ही परिणामोके साथ टिका रहै है)। २०५ । स्वस्थान अप्रमत्त विषै अन्तर्मुहूर्त विश्रामार तहाँ पीछे तीन करण विधान करि युगपत् दर्शनमाहको उपशमा है । तहाँ अपूर्वकरणका प्रथम समयतै लगाय प्रथमोशमवत् गुणसक्रमण बिना अन्य स्थिति व अनुभाग काण्डकघात व गुणश्रेणी निजरा सर्व विधान जानना । अनन्तानुबन्धीका विस योजन याकै हो है, ता विषे भी सर्व स्थिति खण्डनादि पूर्वोक्तवत् जानना । २०६ । अनिवृत्तिकरण कालका सख्यातवा भाग अवशेष रहे सम्यक्रवमोहनीयके द्रव्यको अपकर्षणकार (उपरितन स्थितिमें, गुणश्रेणी आयाममें, और उदयावली विषं दीजिये है)। सो यहाँ उदयावली विषै दिया जो उदीरणाद्रव्य असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण आवै है। यातै परे अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत भये दर्शनमोहका अन्तर करै है । २०६ । प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिविषै पूर्व गुण सक्रमण पूरणकाल (दे उपशम २/३) अन्तर्मुहूर्त मात्र कह्या था, तातै सख्यात गुणा काल पर्यन्त यह द्वितीयोपशम् सम्यग्दृष्टि प्रथम समयतै लगाय समय समय प्रति अनन्तगुणी विशुद्धताकरि बधै है। ऐसे इहाँ एकान्तानुवृद्धताकी वृद्धिका काल अन्तमहूर्त मात्र जानमा १२१७ । तिस एकान्तानुवृद्धिकालते पीछे विशुद्धता करि घटे वा बधै वा हानि वृद्धि विना जैसा का तैसा रहै कि नियम नाही। ऐसे उपशमाए है तीन दर्शनमोह जानै ऐसा जीव बहुत बार प्रमत्त अप्रमत्त निविषे उलटनि करि प्राप्त हो है ।२१८ । (ध.६/१,६-८,१४/ २८८-२६२); (ध. १/१,१,२७/२१०-२१४), (गा. जी./जी प्र.७०४/ ११४१/१७); (गो. क./जी प्र ५५०/७४३/४) । ६. उपशम सम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीकी संयोजनाके विधि
निषेध सम्बन्धी दो मत क पा. २/१-१५/४१७/१ उबसमसम्मादिहिस्स अणं ताणुबंधिच उक्क विसंजोएंतस्स अप्पदर होदि त्ति तत्थ अप्पदरकालपरूवणा कायव्या त्ति। ण, उबसमसम्मादिद्धिस्स अणताणुबंधिविस ओयणाए अभावादो। तदभावो कुदो णव्वदे। उक्समसम्मादि ट्ठिम्मि अवडिदपद घेव
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उपराम
परूमाण उच्चारणाइरियवयणादो णव्वदे । उबसमसम्मादिट्ठिम्मि अजित आइरणे विमानमे auranणभाव कि ण दुक्कदि । सच्चमेद जदित सुत्त होदि । सुत्तेण वक्खाण वाहिज्जदि ण बक्वाणेण वक्खाण । एत्थ पुण दो वि उवएसा परूया दोनेकरस सुन्तानुसारितपगमाभावादो क्रिमयुब समसम्मादिट्टिम्म जनता पउिनसम सम्मका विलय असा बहुत्तादो अनठाभि विसंयोजणपरिणामाणं तत्थाभावादी वा । एथ पुण विसयोजणापक्खो महासभा येणायल मिल्यो तादी उपससंतकम्मि यस सादियागयतकालपरूयं सुतासारितादो च। प्रश्न- जो उपशमसम्यग्दृष्टि चार अनन्तानुबन्धीको विरुयोजना करता है उसके अल्पतर विभक्तिरथान पाया जाता है, इसलिए उपशम सम्यग्दृष्टिमें अल्पतर विभक्तिस्थानके कालकी प्ररूपणा करनी चाहिए ? उत्तर- नहीं, क्योंकि उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुमन्धी चारको वियोजना नहीं पायी जाती है। प्रश्न'उपशम सम्पादष्टि जीवके अनन्तानुबन्धी चारको योजना नहीं होती है' यह किस प्रमाणसे जाना जाता है । उत्तर- 'उपशमसम्यग्दृष्टिके एक अवस्थित पद ही होता है' इस प्रकार प्रतिपादन करनेवाले उच्चारणाचार्यके वचनसे जाना जाता है। प्रश्न- 'उपशमसम्यष्टि अनन्तामन्धी चारकी बियोजना होती है इस प्रकार कथन करनेवाले आचार्यवचनके साथ यह उक्त वचन विरोधको प्राप्त होता है, इसलिए यह वचन अप्रमाण क्यों नहीं है। उत्तर-यदि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी धारको विरुयोजनाका कथन करनेवाला वचन सूत्र वचन होता तो यह कहना सत्य होता, क्योंकि सूत्र के द्वारा व्याख्यान (टीका) बाधित हो जाता है । परन्तु एक व्याख्यानके द्वारा दूसरा व्याख्यान बाधित नहीं होता, इसलिए 'उपशम सम्यहष्टिके अनन्तानुमन्दोको विसंयोजना नहीं होती है. यह वचन अप्रमाण नहीं है। फिर भी यहाँपर दोनो ही उपदेशोका प्ररूपण करना चाहिए, क्योंकि दोनो में से अमुक उपदेश सूत्रानुसारी है। इस प्रकार के ज्ञान करनेका कोई साधन नहीं पाया जाता है। प्रश्नउपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी चारकी बिर्सयोजना क्यो नहीं होती है उत्तर उपशम सम्यकालकी अपेक्षा अनन्तामुनीचतुष्ककी विसंयोजनाका काल अधिक है, अथवा वहाँ अनन्तानुबन्धीकी वियोजना के कारणभूत परिणाम नहीं पाये जाते है। इससे प्रतीत होता है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीती विसंयोजना नहीं होती है। फिर भी यहाँ उपशमसम्यग्दृष्टि के अनन्ताकी वियोजना होती है' यह पक्ष ही प्रधान रूपसे स्वीकार करना चाहिए, क्योकि इस प्रकारका उपदेश परम्परासे है । ३. चारित्रमोहका उपशम विधान
१. चारित्रमोहकी उपशम विधि
ल. सा.२१७-३०३/२६-३८४ एवं पमत्तमियर परावत्तिसहस्सय तू काढूण | इगयोसमोहणीयं उयसमदिगी | २१६ तिकरण] घोसर कमकरण पैदायादिकरणं च अंतरकरणमुपशमकरण उपशामने भवति । २२० - ऐसें (द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी प्राविके पश्चात् अप्रमतते प्रमत्तविषे अहजारो भार पटनिरि अन तानुषधी चतुष्क बिना अवशेष इकईस चारित्रमोहकी प्रकृतिके उपशमानेका उद्यम करें है। अन्य प्रकृतिनिका उपशम होता नहीं, जाते तिनिकै उपशम करना है । २१६। अधकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, ए तीन करण अर, स्थितिबन्धापसरण, क्रमकरण, देशघातिकरण, अनन्तकरण, उपशमकरण ऐसे आठ अधिकार चारित्रमोहके उपशमविधान विषै पाइए है । तहाँ अध करण सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि करे है। ताका लक्षण वा ताका या कार्य जैसे प्रथमोपशम' सम्यक्त्वको सन्मुख होते कहे है तैसे
३. चारित्रमोहका उपशम विधान
इहाँ भी जानना । विशेष इतना - इहॉसयमीके सभवे ऐसी प्रकृतिनिका बन्ध व उदय कहना । अर अनन्तानुबन्धी चतुष्क, नरक, तिर्यंच आयु बिना अन्य प्रकृतिनिका सत्त्व कहना | २२ |
घ. १/९.१२०/२११/३ र एक्कं पि कम्ममुचसमदि कितु अपुरो पमियम गुण बिसोहिए तो मुसो एक्क्कद्विदिवसानि दिदिडयानि वादितियमेाणिरिदियोसरणाणि करेदि । एनेक ट्ठिदि खग्र कालम्भ तरे रुखेज्ज-सहम्साणि अणुभाग-खडयाणि घादि । पडिसमयमस खेज्जगुणाए सेढीए पदेस णिज्जर क्रेदि । जे अप्पसत्य - कम्मसेण बधदि तेसि पदेसग्गसखेज्ज गुणाए सेढीए अण्णपडी बज्माणियासु सकामेदि पुणो अपुव्यकरण बोलेऊण अणिय-गुणट्ठाण पविसिऊण तो मुहुत्तमणे णेव विहाणेणाच्छिय मारस क्साथ-णय-गोक्सायाणमतर अन्तो मुहुसेन करेदि उतरे क पढम समयादी उमर अतो गं सखेन गुणाए सेडिए सय वेदमुवामेदि तदा तो गंतॄण बहु सयवेदमुसामहानसामेदिदो असोहु गगणा छोक्साए परिसरासह उवसामेदि तत्तो उवरि समऊण -- दोआवलियाओ गंतूण पुरिसवेदणवकधादि तत्तौ अतोमुहुत्तमुवरिगतूण पडिसमयमसखेज्जाए गुण सेढिए अपञ्चवखाण पञ्चकखाणावरणसणिदे दीणि वि कोका-चिराण सतकम्मेण सह जुगवमुवसामेदि तत्तो उवरि दो आवलियाओ समऊणाओ गतूण कोध-सजलण णवक-बध
सामेदि । तदो अटोमुहतं गतूण तेसि चैव दुहि माणमस सेलाए गुणसेढीए माणसजलण-चिराण-सत कम्मेण सह जुगव उवसामेदि । तदो समऊण-दो आवलियाओ गतूण माणसं'जलणमुवसामेदि । तदो पडिसमय मसखेज्जगुणाए सेढीए उनसामेतो अतोमुहुत्तं गं तूण दुविहं माय माया सजल - चिराण-सतकम्मेण सह जुगव उवसामेदि । तदो दो आलिया समणाओ गतूण माया-सजनवसामेदि । तदो समयं पष्टि अवगुणाए ढोए पदे सामेतो तो गंण लोभ - सजल - चिराण-संत कम्मेण सह पञ्चक्खाणापच्चक्खाणावरणदुविहं लोभ लोभ-वेदगद्वाए विदिय-ति-भागे सुहुमकिट्टीओ करें तो उवसामेदि समकिट्टि मोसूण अबसेसो मादरलोभी फय गो सोमालियो अभिय-परिमसमए उसंतो
वंसयवेदडि जान मदरसोमो सिताब एवासि पडणमणिही उसामगो होदि दो पतर-सम-मट्टि लोभ वेद तो अणियट्टि सण्णो सुहुमसॉपराइओ होदि । तदो सो अप्पणी चरिम-समए लोहसजलण सुहुमकट्टि सरूवं निस्सेसमुवसामिय उस काय मीरागम होदिसा मोहवीयरस उवसामण-विही" अपूर्वकरण गुणस्थान में एक भी कर्म का उपशम नहीं होता किन्तु अपूर्ववरण गुणस्थानवाला जीव प्रत्येक समय अनन्तगुणी निशुद्धिहता हुआ एक-एक अन्तर्मुहुर्त में एक-एक स्थिति खण्डका घात करता हुआ संख्यात हजार स्थिति खण्डोका घात करता है। और उतने हो स्थितिबन्धापसरणोको करता है । तथा एक-एक स्थितिखण्डके काल में सख्यात हजार अनुभाग खण्डोंका घात करता है और प्रतिसमय असंख्यात गुणित-श्रेणी रूपसे प्रदेशकी निर्जरा करता है तथा किन अप्रशस्त प्रकृतियोंका बन्ध नही होता है. उनकी कर्म वर्गणाओको उस समय मधनेवाली अन्य प्रकृतियोंमें असंख्यातगुणित श्रेणीरूपसे संक्रमण कर देता है। इस तरह अपूर्वकरण गुणस्थानको उल्लङ्घन करके और अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करके, एक अन्तर्मुहूर्त पूर्वोक्त विधि से रहता है। तत्पश्चात एक अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा बारह क्षाय और नौ नोक्षाय इनका अन्तर (करण) करता है। (यहाँ क्रमकरण करता है । अर्थात् विशेष क्रमसे स्थितिबन्धको घटाता हुआ उन २१ प्रकृतियो का पत्यमात्र स्थितिबन्ध करने लगता है (ल./ सा. २२७
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उपशम
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६. औपशमिक भाव निर्देश
२३८) अन्तरकरण विधिके हो जाने के पश्चात. क्रमकरण करता है अर्थात् क्रमपूर्वक इन २१ प्रकृतियोका उपशम करता है ।) प्रथम समयसे लेकर ऊपर अन्तर्मुहुर्त जाकर असंख्यातगुणीश्रेणी के द्वारा 'नपु सकवेद का' उपशम करता है। तदनन्तर एक अन्तर्मुहूर्त जाकर 'खीवेदका' उपशम करता है। फिर एक अन्तमुहूर्त जाकर 'पुरुषवेद' के । एक समय घाट दो आवलीमात्र नवक समयप्रबद्धोको छोडकर बाकी सम्पूर्ण) प्राचीन सत्तामें स्थित कर्मके साथ 'छह मोकषायोका' (युगपत) उपशम करता है। इसके आगे एक समय कम दो आवली काल बिताकर पुरुषवेदके नवक समय प्रबद्धका उपशम करता है। इसके पश्चात् (पुरुषवेदवत् ही पहिले प्राचीन सत्ताका और फिर नवक समयप्रबद्धका उपशम करने के क्रमपूर्वक असंख्यातगुणश्रेणी के द्वारा 'सज्वलन क्रोध' के साथ 'अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोधोका' फिर इसी प्रकार 'तीनो मानव मायाका' उपशम करता है। तत्पश्चात् प्रत्येक समयमें असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे कर्म प्रदेशोका उपशम करता हुआ, लोभवेदकके दूसरे त्रिभागमें सूक्ष्मकृष्टिको करता हुआ 'संज्वलन लोभ' के नवक समय प्रबद्धोको छोडकर प्राचीन सत्तामे स्थित कर्मों के साथ प्रत्यारण्यान व अप्रत्याख्यान इन दोनो लोभोका एक अन्तर्मुहूर्त में उपशम करता है। इस तरह सूक्ष्मकृष्टिगत लोभको छोडकर और एक समय कम दो आवलीमात्र नवक समय प्रबद्ध तथा उच्छिष्टावली मात्र निषेकोको छोडकर शेष स्पर्ध कगत सम्पूर्ण बादर लोभ अनिवृत्ति करके चरम समयमें उपशान्त हो जाता है। इस प्रकार नपुसकवेदसे लेकर जब तक बादर सज्वलन लोभ रहता है तब तक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाला जीव इन पूर्वोक्त प्रकृतियोका उपशम करनेवाला होता है। इसके अनन्तर समयमें जो सूक्ष्मकृष्टिगत लोभका अनुभव करता है और जिसने 'अनिवृत्ति' इस संज्ञाको नष्ट कर दिया है, ऐसा जीव सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती होता है। तदनन्तर वह अपने कालके चरम समयमें सुक्ष्मकृष्टिगत सम्पूर्ण लोभ सज्वलनका उपशम करके उपशान्तकषाय वीतराग-छद्मस्थ होता है। इस प्रकार मोहनीयकी उपशम विधिका वर्णन समाप्त हुआ । (ध ६/१,६-८,१४/२६२-३१६) ४. उपशम सम्बन्धी कुछ नियम व शंकाएँ १. अन्तरायाममें प्रवेश करनेसे पहले मिथ्यात्व ही
रहता है ध.६/१,६-८,६/६/२४० मिच्छत्तवेदणीयं कम्म उवसामगस्स बोद्धव्व । उवसते आसाणे तेण परं होइ भयणिज्जं ।- उपशामकके जब तक अन्तर प्रवेश नही होता है तब तक मिथ्यात्ववेदनीय कर्मका उदय जानना चाहिए। दर्शनमोहनीयके उपशान्त होनेपर, अर्थात् उपशम सम्यक्त्वके कालमें, और सासादन कालमें मिथ्यात्व कर्मका उदय नहीं रहता है। किन्तु उपशम सम्यक्त्वका काल समाप्त होनेपर मिथ्यात्व का उदय भजनीय है, अर्थात् किसीके उसका उदय भी होता है और किसीको नहीं भी होता है (मिश्रप्रकृति या सम्यक्रव प्रकृतिका उदय हो जाता है)। २. उपशान्त द्रव्यका अवस्थान अपूर्वकरण तक ही है
ऊपर नहीं गो. क./जी. प्र. ४५०/५६६/५ यत् उपशान्तद्रव्यं उदयावव्या निक्षेप्तुमशक्यं तव अपूर्व करणगुणस्थानपर्यन्तमेव स्यात् । तदुपरि गुणस्थानेषु यथासंभव शक्यमित्यर्थ । - उपशान्त द्रव्यका उदयावलीमें प्राप्त करने को समर्थ न होनेका नियम अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त ही होता है। उसके ऊपर के गुणस्थानमें यथासम्भव शक्य है।
३.नवक प्रबद्धका एक आवलीपर्यन्त उपशम सम्भव नहीं घ.११.१.२७/२१५ विशेषार्थ /१३ जिन कर्मप्रकृतियोंकी मन्ध, उदय
और सत्त्व व्युच्छित्ति एक साथ होती है, उनके बन्ध और उदय
व्युच्छित्तिके कालमें एक समय क्म दो आवली मात्र नवक समय प्रबद्ध रह जाते है। (दे उपशम ३), जिनकी सत्त्व व्युच्छित्ति अनन्तर होती है, वह इस प्रकार है कि विवक्षित (पुरुषवेद आदि) प्रकृतिके उपशम या क्षपण होनेके दो आवली काल अवशिष्ट रह जानेपर द्विचरमावली के प्रथम समयमे बन्धे हुए द्रव्यका,अन्धावलीको व्यतीत करके चरमावली के प्रथम समयसे लेकर, प्रत्येक समयमें एक फालिका उपशम या क्षय होता हुआ चरमावलीके अन्त समयमें सम्पूर्ण रीतिसे उपशम या क्षय होता है। तथा द्विचरमावलीके द्वितीय समयमे जो द्रव्य बन्धता है उसका चरमावली के द्वितीय समयसे लेकर अन्त समय तक उपशम या क्षय होता हुआ अन्तिम फालिको छोडकर सबका उपशम या क्षय होता है। इसी प्रकार द्विचरमावलीके तृतीयादि समयोमे बन्धे हुए द्रव्यका बन्धावलीको व्यतीत करके, चरमावलीके तृतीयादि समयसे लेकर एक-एक फालिका उपशम या क्षय होता हुआ क्रमसे दो आदि फालिरूप द्रव्यको छोडकर शेष समका उपशम या क्षय होता है। तथा चरमावलोके प्रथमादि समयोंमें बन्धे हुए द्रव्यका उपशम या क्षय नहीं होता है, क्योंकि, बन्ध हुए द्रव्यका एक आवलो तक उपशम नहीं होता ऐसा नियम है । इस प्रकार चरमावलीका सम्पूर्ण द्रव्य और द्विचरमावलीका एक समय कम आवली मात्र द्रव्य उपशम या क्षय रहित रहता है, जिसका प्राचीन सत्तामे स्थित कर्मके उपशम या क्षय हो जानेके पश्चात ही उपशम या क्षय होता है।
४. उपशमन काल सम्बन्धी शंका प्रश्न-ल सा /जी, प्र.८७ के अनुसार प्रथम स्थितिके प्रथम समयसे लेकर उसके अन्तिम समय तक प्रति समय द्वितीय स्थितिके द्रव्यको उपशमाता है। परन्तु ल सा/जी प्र. ६४ के अनुसार प्रथम स्थितिके कालसे दर्शनमोहको उपशमाने काल समयकम दो आवली मात्र अधिक है। इन दोनो कथनोमे विरोध प्रतीत होता है। उत्तरपहिले कथनमें नवीन बन्धकी विवक्षा नहीं है, और दूसरेमें नवीन बन्धकी विवक्षा है। जो बन्ध हुए पीछे एक आवली तक तो अचल रहता है और उसके आगे एक आवली उसको उपशमाने लगता है। (देखो इससे पहिला शीर्षक)। ५. उपशम विषयक प्ररूपणाएं * मूलोत्तर प्रकृतियोंकी प्रशस्त अप्रशस्त उमशमनाका
नाना जीवापेक्षा भंग विचय -दे ध. १५/पृ.२७७-२८० * मूलोत्तर प्रकृतियोंकी स्थिति उपशमना सम्बन्धी समुकीर्तना व भंग विचय
-दे.ध. १५/पृ २८०-२८१ __ * मूलोत्तर प्रकृतियोंकी अनुभाग उपशमना सम्बन्धी समुकीर्तना व भंग विचय
-दे.ध. १५/पृ २८२ * मूलोत्तर प्रकृतियोकी प्रदेश उपशमना सम्बन्धी समु
कीर्तना व भंग विचय -दे. घ. १५/पृ. २८२ ६. औपशमिक भाव निर्देश
१. औपशमिक भावका लक्षण स. सि. २/९/१४६/8 "उपशम' प्रयोजनमस्येत्यौपामकः।" -जिस भावका प्रयोजन अर्थात कारण उपशम है वह औपशमिक भाव है। (रा. वा. २/१/८/१००/२३) घ. १/१,१,८/१६१/२ तेषामुपशमादीपशमिकः । • गुणसहचारित्वादारमापि गुणसंज्ञा प्रतिलभते ।-जो कम के उपशमसे उत्पन्न होता है उसे औपशमिक भाव कहते है। (क्योंकि) गुणोके साहचर्य से आत्मा भी गुणसंज्ञाको प्राप्त होता है। (ध.५४१, ७, १/१८५/१), (ध.५/
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उपशम
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उपशान्त कषाय
१,७.६/१), (गो क./मू. ८१४/१८७); (गो. जी./जी. प्र.८२६.१३) (पं. ध /उ. १६७)। पं.का./त.प्र.१६/१०६ उपशमेन युक्त औपशमिक । -उपशमसे युक्त
(भाव) औपशमिक है। स. सा./ता वृ. ३२० आगमभाषयौपशमिकक्षायोपशामिक-क्षणिकभावप्रयं भण्यते । अध्यात्मभाषया पुन शुद्धाभिमुखपरिणाम शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसहा लभते। -आगम भाषामें जो औपशमिक क्षायोपशमिक या क्षायिक ये तीन भाव कहे जाते है, वे ही अध्यात्म भाषामें शुद्धाभिमुख परिणाम या शुद्धोपयोग आदि संज्ञाओं को प्राप्त होते है।
२. औपशमिक भावके भेद-प्रभेद व.सं.१४५, ६/सू. १७/१४ जो सो ओबसमिओ अविवागपञ्चइओ जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्दे सो-से उबसंतकोहे उवसंतमाणे उनसतमाए उबसतलोहे उवसतरागे उवसंतदोसे उवसतमोहे उवसतकसायवीयरायछदुमत्थे उ वसमियं सम्मत्तं, उसमिय चारित्तं, जे चामण्णे एवमादिया उपसमिया भावा सो सव्वो उवसमियो अविबागपच्चयो जीव भावबंधो णाम । १७।-जो औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीव भावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है-उपशान्तक्रोध, उपशान्त मान, उपशान्त माया, उपशान्त लोभ, उपशान्तराग, उपशान्त दोष (प), उपशाम्तमोह, उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ, औपशमिक सम्यक्त्व, और औपशमिक चारित्र, तथा इनसे लेकर जितने (अन्य ) औपशमिक भाव है, वह सब औपशमिक
अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है ।१७ स. सू. २/३ "सम्यक्त्वचारित्रे । ३)" -औपशमिक भावके दो भेद है
औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र । (स सि. २/३/१५२/ ६) (न, च. वृ. ३७०); (त. सा २/३), (गो, क /मू ८१६/६६८) घ,११,७, १/७ब टीका/१६० "सम्मत्त चारित्त दो चेय ठाणाइमुवसमें होति । अ वियप्पा य तहा कोहाझ्या मुणेदव्या १७१.. अोवसमियस्स भावस्स सम्मत्त चारित्तं चेदि दोणि ठाणाणि । कुदो। उक्समसम्मत्तं उसमचारिमिदि दोहा चे उवलंभा। उवसमसम्मत्तमेयविहं । ओवसमियं चारित्तं सत्तविह । तं जहाणवु सयवेदुवसामण, ए एय चारित्तं, इरिथवेदुवसामणद्वाए विदिय, परिस-छण्णोकसायउवसमसामणदाए तदिय, कोहुवसामणद्धाए चउत्थं, माणुवसामणद्वाए पंचम, मावोवसामणद्वाए छठ्ठ, लोहवसामणद्वाए सत्तमोबसमियं चारित्त । भिण्णव जलिगेण कारणभेदस्टिीदो उपसमियं चारित्तं सत्तविहं उत्तं । अण्ण हा पृण आणेयपयार, समय पडि उवसमसेडिह्मि पुध पुध असंखेज्जगुणसे डिणिज्जराणिमित्तपरिणामुबलंभा।"-औपशामिक भाव में सम्यक्त्व और चारित्र ये दो ही स्थान होते है। तथा औपशमिक भावके विकल्प आठ होते है, जोकि क्रोधादि कषायोके उपशमन रूप जानना चाहिए।७। औपशमिक भावके सम्यक्त्व और चारित्र ये दो ही स्थान होते है, क्योकि औपशमिक सम्यक्रव और औपशमिक चारित ये दो ही भाव पाये जाते हैं । इनमेंसे औपशमिक सम्यक्त्व एक प्रकारका है और औपशमिक चारित्र सात प्रकारका है । जैसे-नपुसक्वेदके उपशमन काल में एक चारित्र, स्त्री वेदके उपशमन काल में दूसरा चारित्र, पुरुषवेद और छ नौकषायोंके उपशमन काल में तीसरा चारित्र, क्रोधसंज्वलनके उप शमनकालमें चौथा चारित्र, मानसंज्वलनके उपशमनकाल में पाँचवाँ चारित्र, मायासंज्वलनके उपशमनकालमें छठा चारित्र और लोभसंज्वलनके उपशमनकाल में सातवाँ औपशमिक चारित्र होता है। भिन्न-भिन्न कार्योंके लिंगसे कारणोमें भी भेदकी सिद्धि होती है, इसलिए औपशमिक चारित्र सात प्रकारका कहा है। अन्यथा अर्थात् उक्त प्रकारकी विवक्षा न की जाय तो, वह अनेक प्रकार है, क्योकि, प्रति समय उपशम श्रेणी में पृथक-पृथक् असंख्यात गुण श्रेणी निर्जराके निमित्तभूत परिणाम पाये जाते है।
उपशम चारित्र-दे चारित्र। उपशम श्रेणी-दे. श्रेणी ३। उपशम सत्त्व काल-दे. काल १। उपशम सम्यक्त्व-दे. सम्यग्दर्शन IV/२ उपशांत कर्म-ध १२/४, २, १०, २/३०३/५ द्वाभ्यामाभ्यो ब्यप्तिरिक्त कर्म पुद्गलस्कन्ध उपशान्त । = इन दोनों उदीरणा या उदय तथा बन्धसे व्यतिरिक्त कर्म पुद्धगलस्कन्ध उपशान्त है। गो. क./जी प्र ४४०/५६३/३ "यत्कर्म उदयावन्या निक्षेप्तुमशक्यं तदुप
शान्तं नाम।"-जो कर्म उदयावली विष प्राप्त करनेको समर्थन हूजे सो उपशान्त कहिये। उपशान्त कषाय-4.सं/प्रा १/२४ कसयाहलं जल वा सरए सरवाणिय व णिम्मलय । सयलोवसंतमोहो उपसंतक्साय होइ ।२४। = कतकफलसे सहित जल, अथवा शरदकालमें सरोवर का पानी जिस प्रकार निर्मल होता है, उसी प्रकार जिसका सम्पूर्ण मोहकर्म सर्वथा उपशान्त हो गया है.ऐसा उपशान्त क्षाय गुणस्थानवी जीव अत्यन्त निर्मल परिणामवाला होता है ।२४। (ध १/१,१,१६/गा १२२/१८६); (गो. जी /म् ६१/१६१); (पं स.सं १/४७)। रा वा. १/१/२२/११०/११ सर्वस्योपशमात् उपशान्तकषाय ।-समस्त
मोहका उपशम करनेवाला उपशान्त कषाय है। (द्र.सं/टी.१३/३९४८) ध, १/११,१६/१८८/१ उपशान्त कषायो येषां ते उपशान्तकषायाः) वीतो विनष्टो रागो येषां ते वीतरागा। छद्म ज्ञानहगावरणे, तत्र तिष्ठन्तीति छद्यस्था । वीतरागाश्च ते छद्मस्थान वीतरागछ स्था। एतेन सरागछद्मस्थ निराकतिरबगन्तव्या। उपशान्तक्षायाश्च ते बीतरागछद्मस्थाश्च उपशान्तकषायवीतरागछ स्था' ।-जिनकी कषाय उपशान्त हो गयी। उन्हें उपशान्तकषाय कहते है। जिनका राग नष्ट हो गया है उन्हे वीतराग कहते है। 'छम' ज्ञानाबरण और दर्शनावरणको कहते है उनमें जो रहते है उन्हे छ अास्थ करते है। जो वीतराग होते हुए भी छदारथ होते है उन्हे वीतराग द्वारथ बहते है। इसमें आये हुए वीतराग विशेषणसे ६१म गुणस्थान के रागछ ग्रस्थोका निराकरण समझना चाहिए। जो उपशान्तवधाय होते हुए भी वीतराग छ दस्थ होते है उन्हें उपशान्त पाय वीतराग छ दस्थ कहते है। २. इस गुणस्थानमें चारित्र औपशमिक होता है और
सम्यक्त्व औपशमिक या क्षायिक घ. १/१११६/१८१/२ एतस्योपशमिताशेषक्षायरवादीपद मिय , सम्यक्त्वापेक्षया क्षायिक औपशमिको वा गुणः।-इस गुणस्थान में सम्पूर्ण क्षायें उपशान्त हो जाती है, इसलिए (चारित्र मोहकी अपेक्षा इसमें
औपशमिक भाव है। तथा सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा औशमिक और क्षायिक दोनो भाव है। ३ उपशान्त कषाय गुणस्थानकी स्थिति ल, सा /जी.प्र ३७३/४६१ तत क्षुद्रभवग्रहणं विशेषाधिकं । तत उपशान्तकषाय कालो द्विगुण ।" -ना सक्वेद उपशमावनेके कालसे क्षुद्रभवका काल विशेष अधिक है, सो यह एक श्वासके अठारहवे भागमात्र है।३७३ तिस क्षुद्रभवतै उपशान्तकषायका काल दूना है। ४. अन्य सम्बन्धित विषय * उपशम व क्षपक श्रेणी -दे. श्रेणी ३,४ * इस गुणस्थानकी पुनःपुनः प्राप्ति की सीमा --दे. संयम २ * इस गुणस्थानसे गिरने सम्बन्धी -दे, श्रेणी ४ * यहाँ मरण सम्भव है पर देवगतिमे ही उपज
-दे. मरण ३
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उपशामक
उपाधि
* इस गुणस्थानमे कर्म प्रकृतियोके बन्ध उदय सत्त्वादि
प्ररूपणाएं -दे. वह वह नाम * सभी गुणस्थानोंमे आयके अनुसार ही व्यय होता है
-दे. मार्गणा * इस गुणस्थानमे सम्भव मार्गणास्थान जीवसमास आदि
२० प्ररूपणाएँ -दे सत् * इस गुणस्थानकी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व सम्बन्धी आठ प्ररूपणाएँ
-दे, वह वह नाम उपशामक-स. सि ६/४५/४५६/१ एव सः क्षायिकसम्यग्दृष्टिभूश्वा श्रेण्यारोहणाभिमुखश्चारित्रमोहोपशमं प्रति व्याप्रियमाणो विशुद्धिप्रकर्षयोगादुपशमकव्यपदेशमनुभवन् पूर्वोक्तादसख्येयगुणनिर्जरो भवति । इस प्रकार वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर श्रेणीपर आरोहण करनेके सन्मुख होता हुआ तशा चारित्रमोहनीयके उपशम करनेके लिए प्रयत्न करता हुआ विशुद्धिके प्रकर्ष यश 'उपशमक' संज्ञाको अनुभव करता हुआ पहले कही गयी निर्जरासे असंख्येय गुण निर्जरावाला होता है। ध. १/१,१,२७/२२४/८ जे पुण तेसिं चेव उवसामणम्हि वावदा ते उवसामगा। =जो जोव कर्मों के उपशमन करने में व्यापार करते है उन्हे उपशामक कहते है। क. पा. १/१-१०/ ११५/३४७/८ उवसमसेढि चढमाणेण मोहणीयस्स
अतरकरण कदे सो ‘उवसामओ' त्ति भण्णादि । -उपक्षमश्रेणीपर चढनेवाला जीव चारित्रमोहका अन्तरकरण कर लेनेपर उपशामक कहा जाता है । (ध. ६/१,६-८,६/२३२/५) ।
२. उपशामकके भेद उपशामक दो प्रकारका होता है-अपूर्वकरण उपशामक और
अनिवृत्तिकरण उपशामक । उपसंपदा-भ आ./मू ५०१-५१४ तियरणसवावासयपडिपुण्णं तस्स किरिय किरियम। विणएणमजलिकदो वाइयवसम इम भणदि
५०६। पुम्बज्जादी सव्वं कादूणालोयणं सुपरिसुद्ध' । दसणणाणचारिते णिसग्लो विहरिदु इच्छे ।५११। अच्छाहि ताम सुविदिद वीसत्यो मा य होहि उन्बादो। पडिचरएहि समता इणमट्ठ संपहारेमो ॥१४॥ -मन वचन और शरीरके द्वारा सर्व सामायिक आदि छ आवश्यक कर्म जिसमें पूर्णताको प्राप्त हुए है ऐसा कृतिकर्म कर अर्थात वन्दना करके विनयके साथ क्षपक हाथ जोड़कर श्रेष्ठ आचार्यको आगे लिखे हुए सूत्रके अनुसार विज्ञप्ति देता है।५०६। दीक्षा ग्रहणकालसे आज तक जो जो व्रतादिकोंमें दोष उत्पन्न हुए हो उनकी मै दश दोषोसे रहित आलोचना कर दर्शन ज्ञान और चारित्रमें निशम्य होकर प्रवृत्ति करनेकी इच्छा करता हूँ ।५११। हे क्षपक, अब तुम निशंक होकर हमारे संघमें ठहरो, अपने मन में से खिन्नताको दूर भगाओ। हम प्रतिचारकोंके साथ तुम्हारे विषयमें अवश्य विचार करेंगे। (ऐसा आचार्य उत्तर देते है)। इस प्रकार उपसपाधिकार समाप्त हुआ। भ आ./वि. ५०१ की उत्थानिका ७२८ गुरुकुले आत्म निसर्गः उपसंपा
नाम समाचार भ आ./वि६८/१६६/६ उपसंपया आचार्यस्य ढोकन गुरुकुल में अपना
आत्मसमर्पण करना यह उपसपा शब्दका अभिप्राय है ।५०६ आचार्यके
चरणमूल में गमन करना उपसंपदा है 1६८। उपसंयत-दे. समाचार उपसमुद्र-म. पु. २५/४६ बहिः समुद्रमुद्रिक्तं द्वैप निम्नोपगं जलम् । समुदस्येव नियंदम् अन्धेराराद व्यलोकयत ४६ उन्होंने
(भारत चक्रवर्तीकी सेनाने) समुद्र के समीप ही समुद्रसे बाहर उछलउछल कर गहरे स्थान में इकट्ठे हुए द्वीप सम्बन्धी उस जलको देखा जो कि समुद्रके नियंदके समान मालूम होता था। अर्थात् समुद्र का जो जल उछल-उछल कर समुद्र के समीप ही किसी गहरे स्थानमें इकट्ठा हो जाता है वही उपसमुद्र कहलाता है । उपसर्ग-तीर्थ करोपर भी क्दाचित् उपसर्ग आते है-दे. तीर्थकर १ उपस्थ-उपस्थ इन्द्रियकी प्रधानता-दे संयम २ । उपस्थापना-१. छेदोपस्थापना चारित्र-दे. छेदोपस्थापना,
२. उपस्थापना प्रायश्चित्त-दे प्रायश्चित्त । उपात्त-रा. वा १११/६/५२(२४ उपात्तानीन्द्रियाणि मनश्च, अनुपात्तं प्रकाशोपदेशादिपर तत्प्राधान्यादवगम' परोक्ष । -उपात्त इन्द्रियों व मन तथा अनुपात प्रकाश उपदेशादि पर है। परकी प्रधानतासे होनेवाला ज्ञान परोक्ष है। ग. वा ६/७/१/६००/७ आत्माना रागादिपरिणामात्मनामनोर्मभावेन गृहीतानि उपात्तानि पुद्गलद्रव्याणि, अनुपात्तानि परमाण्यादीनि, तेषां सर्वेषां द्रव्यात्मना नित्यत्वं पर्यायात्मना सततमनपरतभेदससर्ग वृत्तित्वादनित्यत्वम् । -मात्माके रागादि परिणामोंसे कर्म और नोकर्म रूपमें जिन पुद्गल द्रव्योंका ग्रहण किया जाता है वे उपात्त पुदगलद्रव्य तथा परमाणु आदि अनुपात्त पुद्गल सभी द्रव्यदृष्टिसे नित्य होकर भी पर्याय दृष्टि से प्रतिक्षण पर्याय परिवर्तन होनेसे अनित्य है। उपादान-न्या. वि /वृ १/१३३/४८६/४ विविक्षतं वस्तु उपादानम् उत्तरस्य कार्यस्य सजातीयं कारणं प्रकल्पयेत् । विवक्षित उत्तर कार्यका सजातीय कारण कल्पित किया गया है। अष्टसहस्री/पृ. २१० त्यक्तास्यक्तात्यरूपं यत्पूर्वापूर्वेण वर्तते । कालत्रयेऽपि तन द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् । यत् स्वरूपं त्यजत्येव यन्न त्यति सर्वथा। तन्नोपादानमर्थस्य क्षणिक शाश्वत यथा । जो (द्रव्य) तीनों कालों में अपने रूपको छोडता हुआ और नही छोडता हुआ पूर्व रूपसे और अपूर्व रूपसे वर्त रहा है वह उपादान कारण है, ऐसा जानना चाहिए। जो अपने स्वरूपको छोडता ही है और जो उसे सर्वथा नहीं छोडता वह अर्थका उपादान नही होता जैसे क्षणिक और शाश्वत। भावार्थ-द्रव्यमें दो अंश है-एक शाश्वत और एक क्षणिक । गुण शाश्वत होनेके कारण अपने स्वरूपको त्रिकाल नहीं छोडते और पर्याय क्षणिक होनेके कारण अपने स्वरूपको प्रतिक्षण छोडती है । यह दोनो हो अंश उस द्रव्यसे पृथक् कोई अर्थान्तर रूप नहीं है। इन दोनोंसे समवेत द्रव्य ही कार्यका उपादान कारण है। अन्तरभूत रूपसे स्वीकार किये गये शाश्वत-पदार्थ या क्षणिकपदार्थ कभी भी उपादान नहीं हो सकते है । क्योकि सर्वथा शाश्वत पदार्थ में परिणमनका अभाव होनेके कारण कार्य ही नही तब कारण किसे कहे । और सर्वथा क्षणिक पदार्थ प्रतिक्षण विनष्ट ही हो जाता है तब उसे कारणपना कैसे बन सकता है । (ज्ञानदर्पण ५७-५८) अष्टसहस्रो श्लो.५८ की टीका-"परिणाम क्षणिक उपादान है और गुण
शाश्वत उपादान है।" निमित्त उपादान चिट्ठी पं.बनारसीदास-"उपादान वस्तुकी सहन
शक्ति है।" २. उपादानकी मुख्यता गौणता-दे कारण IT उपाधि-स.म १२/१४६/५ साधनाव्यापक. साध्येन समव्याप्तिम खलु उपाधिरधीयते। तत्पुत्रत्वादिना श्यामत्वे साध्ये शाकाद्याहारपरिणामवत् । -साधनके साथ अव्यापक और साध्य के साथ व्यापक हेसुको उपाधि कहा जाता है। जैसे 'गर्भ में स्थित मैत्रका पुत्र श्याम वर्ण का है, क्योंकि यह मैत्रका पुत्र है, मैत्रके अन्य पुत्रोकी तरह'
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उपाध्याय
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उभयशुदिध
यह अनुमान सोपाधिक है । क्योंकि यह मैचतनयत्व' हेतु शाकपा- कंजरव उपाधिके ऊपर अवलम्बित है। सम /रायचन्द ग्रन्थमाला/पृ १८४/१/१ विवक्षित किसी वस्तुमें स्वयं
रहकर उसको अनेकों वस्तुओसे जूदा करने वाला जो धर्म होता है, उसको उपाधि कहते है। उपाध्याय—नि सा /मू ७४ रयणत्तयसंजुता जिगकहियपयत्थदेसया
सूरा । णिक्कखभावसहिया उबज्झाया एरिसा होति ।७४। -रत्नत्रयसे संयुक्त जिनकथित पदार्थोंके शूरवीर उपदेशक और नि कांक्ष
भाव सहित, ऐसे उपाध्याय होते है। (द्र. स /मू १३)। मू आ /मू १११ वारसग जिणक्खादं सज्झाय कथितं बुधे । उव देसइ
सज्झायं तेणूवज्झाय उच्चदि ५११॥ -बारह अग चौदहपूर्व जो जिनदेवने कहे हैं उनको पण्डित जन स्वाध्याय कहते है। उस स्वध्यायका उपदेश करता है, इसलिए वह उपाध्याय कहलाता है। घ. १/१,१.१/३२/१० चोद्दस-पुव्व-महोपहिम हिगमम सिवस्थिओ सिवत्थीणं । सीलंधराण वत्ता होइ मुणीसो उवज्झायो ।३२॥ -जो साधु चौदह पूर्व रूपी समुद्र में प्रवेश करके अर्थात परमागमका अभ्यास करके मोक्षमार्ग में स्थित है, तथा मोक्षके इच्छुक शोल धरो अर्थात मुनियोको उपदेश देते है, उन मुनीश्वरोको उपाध्याय परमेष्ठी कहते है। रा. वा. ६/२४/४/६२३/१३ विनयेनोपेत्य यस्माद् व्रतशोलभावनाधिष्ठानादागर्म श्रुतारख्यमधीयते इत्युपध्याय । = जिन व्रतशील भावनाशाली महानुभावके पास जाकर भव्य जन विनयपूर्वक श्रुतका अध्ययन करते है वे उपाध्याय है । (स.सि १/२४/४४२/७), (भ. आ./वि. ४६/ १५४/२०)। ध १/१,१.१/५०/१ चतुर्दश विद्यास्थानव्याख्यातार उपाध्याया. तात्कालिकप्रवचनव्याख्यातारो वा आचार्यस्योक्ताशेषलक्षणसमन्विता. संग्रहानुग्रहादिगुणहीनाः । स चौदह विद्या स्थानोके व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय होते है,अथवा तत्कालीन परमागमके व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय होते है । वे स ग्रह अनुग्रह आदि गुणोको छोड़कर पहिले कहे गये आचार्य के समस्त गुणोंसे युक्त होते है । (प प्र/टो.७)। पं.ध./उ.६५६-६६२ उपाध्याय समाधीयान् वादी स्याद्वादकोविद । वाग्मी वारब्रह्मसर्व ज्ञ. सिद्धान्तागमपारग'६५६। कवि त्यग्रसूत्राणां शब्दार्थः सिद्धसाधनात्। गमकोऽर्यस्य माधुर्ये धुर्यो वक्तृत्ववर्त्मनाम् । ६६०। उपाध्यायस्वमित्यत्र श्रुताभ्यासोऽस्ति कारणम् । यदध्येति स्वयं चापि शिष्यानध्यापयेद्गुरु ।६६१। शेषस्तत्र वतादीना सर्वसाधारणो विधि .६६२१ = उपाध्याय-शका समाधान करनेवाला, सुवक्ता, वाग्ब्रह्म, सर्वज्ञ अर्थाव मिद्धान्त शास्त्र और यावत आगमों का पारगामी, वार्तिक तथा सुत्रोंको शब्द और अर्थ के द्वारा सिद्ध करनेवाला होनेसे कवि, अर्थ में मधुरताका द्योतक तथा वक्तृत्वके मार्ग का अग्रणी होता है।६५६-६६।उपाध्यायपनेमें शास्त्रका विशेष अभ्यास ही कारण है, क्योकि जो स्वय अध्ययन करता है और शिष्योको भी अध्ययन कराता है वही गुरु उपाध्याय है।६६१। उपाध्यायमें वतादिकके पालन करनेकी शेष विधि सर्व मुनियोके समान है।६६२।
२. उपाध्यायके २५ विशेष गुण ११ अंग व १४ पूर्वका ज्ञान होनेसे उपाध्यायके २५ विशेष गुण कहे जाते हैं। शेष २८ मुलगुण आदि समान रूपसे सभी साधुओं में पाये जानेके कारण सामान्य गुण है। ३. अन्य सम्बन्धित विषय * उपाध्यायमे कथंचित् देवत्व-दे. देव /१ * आचार्य उपाध्याय साधुमें कथचित् भेदाभेद-दे, साधु ६ * श्रेणी आरोहणके समय उपाध्याय पदका त्याग-दे. साधु ६
उपायविचा-धर्मध्यानका एक भेद दे. धर्मध्यान १ उपालम्भ-न्या सू /भाषा १-१/४१ स्थापना साधन प्रतिशेष उपा
लम्भ.। - स्थापना अर्थात् साधन और प्रतिषेध अर्थात् उपालम्भ । उपासकाचार-दे. उस नामका श्रावकाचार। उपासकाध्ययन-दव्यश्रुतज्ञानका सातवाँ अंग-दे. श्रुतज्ञान III उपासना-प्र. सा /ता वृ २६२/३५४/१२ उपासन शुद्धात्मभावनासहकारिकारणनिमित्तसेवा । = शुद्धात्म भावनाकी सहकारी कारणरूपसे की गयी सेवाको उपासना कहते है। उपद्रवरांगचरित्र/सर्ग/श्लोक) मथुराके राजाका पुत्र था (१६)
ललितपुरके राजा देवके साथ युद्ध में वराग द्वारा मारा गया (१८/६५) उपेक्षा-स सि १/१०/१७/१० रागद्वेषयोरप्रणिधान मुषेक्षा।-रागद्वेष
रूप परिणामोका नही होना उपेक्षा है (भ.आ/वि.१६६६/१५१६/१६) त अनु/मू १३६ माध्यस्थ्य समतोपेक्षावैराग्यं साम्यमस्पृहा। बैतृष्ण्यं प्रशम. शान्तिरित्येकार्थोऽभिधीयते ।१३।। -माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य प्रशम और शान्ति ये सम एक हो अर्थको लिए हुए है । (और भी दे. सामायिक १/१) * अन्तरंग अशुद्धताके सद्भावमे भी उसकी अपेक्षा कैसे
करे-दे. अनुभव है। उपेक्षा संयम-दे. संयम १। उपोदधात-दे. उपक्रम। उभय दूषण-न्याय विषयक एक दोष । श्लो. वा.न्या. ४५६/५५१७ मिथो विरुद्धानां तदीयस्वभावाभावापादनमुभयदोष । = एकान्तरूपसे अस्तित्व माननेपर जो दोष नास्तित्वाभावरूप आता है. अथवा नास्तित्व रूप माननेपर जो दोष अस्तित्वाभावस्वरूप आता है वे एकान्तवादियोंके ऊपर आनेवाले दोष अनेकान्तको माननेवाले जैनके यहाँ भी प्राप्त हो जाते हैं ।यह
उभय दोष हुआ। (ऐसा सैद्धान्तिकजन जैनोंपर आरोप करते हैं।) उभयद्रव्य-उभय द्रव्य विशेष-दे कृष्टि । उभयद्धि -सम्यग्ज्ञान का एक अंग म आ २८५ विजणसुद्ध' सुत्तं अत्थवि सुद्धच तदुभयविसुद्ध' । पयदेण “य जपतो णाण विमुद्धो हवाइ एसो। =जो सूत्रको अक्षर शुद्ध, अर्थ शुद्ध अथवा दोनोकर शुद्ध सावधानोसे पढना पढाता है उसीके शुद्ध ज्ञान होता है। भ आ./वि ११३/२६१/१७ तदुभयशुद्धिर्नाम तस्य व्यउजनस्य अर्थस्य
च शुद्धिः =व्यजनकी शुद्धि और उसके वच्य अभिप्रायकी जो शुद्धि है वह उभय शुद्धि है।
२ अर्थ व्यंजन व उभय शुद्धिमे अन्तर भ. आ /वि. ११३/२६१/१८ ननु व्यन्जनार्थ शुद्धयो' प्रतिपादितयो तदुभयशुद्धिगृहीता न तद्वतिरेकेण तदुभयशुद्धिर्नामास्ति ततः कथमष्टविधता। अत्रोच्यते पुरुषभेदापेक्षयेयं निरूपणा कश्चिदविपरीत सूत्राथं व्याचष्टे सत्र तु विपरीत। तत्तथा न कार्यमिति व्यञ्चनशुद्विरुक्ता। अन्यस्तु सूत्रमविपरीत पठन्नपि निरूपयत्यन्यथा सूत्रार्थ इति तन्निराकृतयेऽर्थविशुद्धिरूदाहृता । अपरस्तु सूत्र विपरीतमधीते सूत्राथं च कथयितुकामो विपरीत व्याचष्टे तदुभयापाकृतये उभयशुद्धिरुपन्यास्ता।-प्रश्नऊपर व्यंजनशुद्धि और अर्थशुद्धि इन दोनोंका स्वरूप आप कह मुके है, उनमें ही इसका भी अन्तर्भाव हो सकता है, इन दोनोंको छोड़ कर तदुभय शुद्धि नामकी तीसरी शुद्धि है नहीं। अत' ज्ञान विनयके
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उभयसारीऋषि
ऊहा
आठ प्रकार सिद्ध नही होते है। उत्तर-यहाँ पुरुष भेदोंकी अपेक्षासे निरूपण किया है जैसे। कोई पुरुष सूत्रका अर्थ तो ठीक कहता है, परन्तु सूत्रको विपरीत पढता है ठीक पढता नहीं। दीर्घोच्चार के स्थानमें हत्वोच्चार इत्यादि दोषयुक्त बोलता है। ऐसा दोषयुक्त पढ़ना नहीं चाहिए इस वास्ते व्यजनशुद्धि कही है। दूसरा कोई पुरुष सूत्रको ठोक पढ़ लेता है । परन्तु सूत्रार्थका विपरीत निरूपण करता है। यह भी योग्य नहीं है। इसका निराकरण करनेके लिए अर्थशुद्धि कही है। तीसरा आदमी सूत्र भी विपरीत पढ़ता है
और उसका अर्थ भो अटसट कहता है। इन दोनो दोषों को दूर करने के लिए तदुभयेशुद्धिको भिन्न मानना चाहिए। उभयसारी ऋद्धि-दे ऋद्धि २/४ । उभयासंख्यात-दे, असंख्यात । उमास्वामी-१ नन्दिसघ बलात्कार गणके अनुसार (दे. इतिहास
४१३) आप कुन्दकुन्दके शिष्य थे और (प.खं २/७३/H L. Jain) के अनुसार 'बलाक पिच्छ' के गुरु थे। (त वृ/प्र.६७) में पं. महेन्द्रकुमार 'प्र नाथूराम प्रेमी' का उद्धरण देकर कहते है कि आप यापनीय सघके आचार्य थे । (ष ख.१/प्र ५६/H L_Jain) तथा तत्त्वार्थसूत्रको प्रशस्तिके अनुसार इनका अपर नाम गृद्रपृच्छ है । आप बड़े विद्वान व वाचक शिरोमणि हुए है। आपके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती प्रसिद्ध है-सौराष्ट्र देशमें द्वैपायन नामक एक श्रावक रहता था। उसने एक बार मोक्षमार्ग विषयक कोई शास्त्र बनानेका विचार किया और एक सूत्र रोज बनाकर ही भोजन करूगा अन्यथा उपवास करू गा' ऐसासकल्प किया। उसी दिन उसने एक सूत्र बनाया "दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग "। विस्मरण होनेके भयसे उसने उसे घरके एक स्तम्भपर लिख लिया। अगले दिन किसो कार्यवश वह तो बाहर चला गया, और उसके पीछे एक मुनिराज आहारार्थ उसके घर पधारे। लौटते सयय मुनिकी दृष्टि स्तम्भ पर लिखे सूत्रपर पड़ी। उन्होंने चुपचाप 'सम्यक' शब्द उस सूत्रसे पहिले और लिख दिया और बिना किसीसे कुछ कहे अपने स्थान को चले गये। श्रावकने लौटने पर सत्र में किये गये सधारको देखा और अपनी भूल स्वीकार की। मुनिको खोज उनसे ही विनीत प्रार्थना की कि वह इस ग्रन्थको रचना करें, क्योकि उसमें स्वय उसे पूरा करनेको योग्यता नहीं थी । बस उसकी प्रेरणासे हो उन मुनिराजने 'तत्त्वार्थ सूत्र' (मोक्ष शास्त्र) की १० अध्यायोमें रचना की यह मुनिराज 'उमास्वामो' के अतिरिक्त अन्य कोई न थे। (स सि. प्र८०/पं फूलचन्द्र) आप बडे सरल चित्त व निष्पक्ष थे और यही कारण है कि श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनो ही सम्प्रदायोमें आपकी कृतियाँ समान रूपसे पूज्य व प्रमाण मानी जाती है। आपकी निम्न कृतियाँ उपलब्ध है- तत्त्वार्थ सूत्र, सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम, ये दो तो उनको सर्वसम्मत रचनाएँ है । और (ज प /प्र ११०/A N Up ) के अनुसार 'जम्बू द्वीपसमास' नामकी भी आपकी एक रचना है। समय - पट्टावलोके अनुसार श. सं.१०१-१४२ (वी नि ७०६-७४७) । परन्तु 'विद्वज्जनबोध के अनुसार वह वो नि ७७० प्राप्त होता है। "वर्ष सप्तशते सप्तत्या च विस्मृती।" इसलिए विद्वानोने उनकी उत्तरावधि ७४७ से ७७० कर दी है। (विशेष दे कोष १/परिशिष्ट ४,४) इसके अनुसार इनका सयय ई १७६-२४३ (ई. श. ३) आता है । मूलस धर्म
आपका स्थान (दे इतिहास ७/१) उमास्वामो नं २-श्रावकाचार' और 'पच नमस्कार स्तवन' नामके ग्रन्थ जिन उमास्वामी की रचनाएँ है वे तत्त्वार्थ सूत्रके रचयिता उमास्वामी नं १ से बहुत पीछे होने के कारण लघु-उमास्वामी कहे जाते है । (सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम । प्र५ में प्रेमीजी की टिप्पणी)
उरुकुल गण-एक जैनाभासी सघ (दे इतिहास ६/७) । उरुबिल्व-(म. पु / ४६/पं पन्नालाल)-वर्तमान 'बुद्ध-गया' नामका नगर । यह बिहार प्रान्तमें है। मिमालिनी-अपर विदेहस्थकी एक विभंगा नदी-दे. लोक/ उर्वक-(घ १२/४,२,७,२१४/१७०/६) एस्थ अणंतभागअड्ढीए उन्वंकसण्णा- यहाँ अनन्त भाग वृद्धिकी उर्वक अर्थात 'उ' संज्ञा है। (षट् स्थानपतित हानि-वृद्धि क्रमके छह स्थानोको सहननी क्रमश' ४,५,६,७,८ और 'उ' स्वीकार की गयी है)। (गो. जी म. ३२५/६८४), (ल.स /जी.प्र ७६/३)। उशीनर-भरतक्षेत्रमें आर्यखण्डका एक देश-दे मनुष्य ४। उष्ण परोषह-स.सि. १/१/४२६/६ निवाते निर्जले ग्रीष्मरविकिरणपरिशुष्कपतितपर्ण व्यपेतच्छायातरुण्यटव्यन्तरे यदृच्छयोपनिपतितस्यानशनाद्यभ्यन्तरसाधनोत्पादितदाहस्य दवाग्निदाहपुरुषवातातपजनितगलतालुशोषस्य तत्प्रतीकारहेतूद बहननुभूतानचिन्तयत प्राणिपोडापरिहारावहितचेतसश्चारित्ररक्षणमुष्णसहनमित्युपबयेते । निर्वात और निर्जल तथा ग्रीष्मकालीन सूर्यको किरणों से सूखकर पत्तोके गिर जानेसे छायारहित वृक्षोसे युक्त ऐसे बनके मध्य जो अपनी इच्छानुसार प्राप्त हुआ है, अनशन आदि अभ्यन्तर साधन वश जिसे दाह उत्पन्न हुई है,दवाग्निजन्य दाह, अतिकठोर वायु और आतपके कारण जिसे गले और तालुमें शोष उत्पन्न हुआ है, जो उसके प्रतीकारके बहुत-से अनुभूत हेतुओको जानता हुआ भी उनका चिंतवन नही करता है तथा जिसका प्राणियोकी पीडाके परिहारमें चित्त लगा हुआ है, उस साधुके चारित्रके रक्षणरूप उष्णपरोषहजय कही जाती है । (रा.वा ६/६/७/६०६/१२), (चा सा ११२/४)। उष्ण योनि-दे योनि १। उष्माहार-दे आहार /१। उष्ट्रकूट-दे कृष्टि ।
ट-मानुषोत्तर पर्वतका एक कूट-दे लोक/७ ।
ऊँच-दे, उच्च । ऊर्जयन्त-सौराष्ट्र देशके जूनागढ नगरमें स्थित गिरनारपर्वत । ऊर्ध्वक्रम-दे म। ऊर्ध्वगच्छ-गुणहानि आयाम-दे गणित 11/६/२॥ ऊर्ध्व गति-जीव व पुद्गल का ऊर्ध्व गमन-दे गति १। ऊर्ध्व प्रचय-दे क्रम ऊर्यक्रम। ऊर्ध्व लोक-दे स्वर्ग ५। ऊहा-प.ख. १३/१४/सू३८/२४२ ईहा ऊहा अपोहा मग्गणा गवसणा मीमांसा ३८ । ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमासा
ये ईहाके पर्याय नाम है। तत्त्वार्थाधिगम भाष्य १/१५ ईहाऊहातक परीक्षाविचारणाजिज्ञासा इत्यनर्थान्तरम् । -ईहा, उहा, तर्क, परीक्षा, विचारणा. जिज्ञासा ये सब शब्द एकार्थवाची है।
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ऋक्षराज
ऋद्धि विषय-सूची
स सि १/४३/४५५/६ तर्कणमूहन वितर्क श्रृतज्ञानमित्यर्थ । -तर्कणा
करना, अर्थात ऊहा करना, वितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान कहलाता है। ध.१३/५.५.३८/२४२/८ अब गृहोताथस्य अनधिगतविशेष उह्यते तय॑ते
अनया इति ऊहा। = जिससे अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये अर्थ में नहीं जाने गये विशेषकी 'ऊह्यते' अर्थात् तर्कणा करते हैं वह ऊहा है। प.मु. ३/११-१३/२ उपलम्भानुपलम्भनिमित्त व्याप्तिज्ञानमूह' ।११। इदमस्मिन्सस्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च ॥१२॥ यथाग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च ।१३३ - उपलब्धि और अनुपल ब्धिकी सहायतासे होनेवाले व्याप्तिज्ञानको तर्क कहते हैं। और उसका स्वरूप ऐसा है -'इसके होते ही यह होता है और इसके न होते होता ही नहीं है' जैसे-अग्निके होते ही धुआँ होता है, अग्निके न होते होता ही नहीं ॥११-१३। (स./म.२८/३२१/२७)
[ऋ]
ऋक्षराज-(प./पु.८ श्लोक) रावण की सहायतासे इन्द्र के लोकपाल
यमको जीतकर किष्कुपुरको प्राप्त किया (४८) । ऋजुगति-दे विग्रहगति २। ऋजुमति-. मन पर्ययज्ञान २ । ऋजुसूत्रनय-दे, नय III/५ । ऋण-Minus दे रिण। ऋतु-१. कालका प्रमाण विशेष-दे. गणित /११४}
२. सौधर्म स्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक- दे. स्वर्ग ५/३ । ऋद्धि-कायोत्सर्ग का एक दोष- व्युत्सर्ग १ । ऋद्धि-तपश्चरणके प्रभाव मे कदाचित किन्हीं योगीजनो को कुछ चामत्कारिक शक्तियाँ प्राप्त हो जाती है। उन्हे ऋद्धि कहते है। इसके अनेको भेद-प्रभेद है। उन सबका परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।
५ संभिन्न श्रोतृत्व ऋद्धि निर्देश ६ दूरास्वादन आदि, पाँच ऋद्धि निर्देश * चतुर्दश पूर्वी व दश पूर्वी–दे श्रुतकेवली * अष्टाग निमित्तज्ञान-दे. निमित्त २ ७ प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि निर्देश
१. प्रज्ञाश्रमणत्व सामान्य व विशेषके लक्षण (औत्पत्तिकी.
परिणामिको, वैनयिकी, कर्मजा) २. पारिणामिकी व औत्पत्तिकीमें अन्तर
३ प्रज्ञाश्रमण बुद्धि व ज्ञानसामान्यमें अन्तर * प्रत्येक बुद्धि ऋद्धि-दे. बुद्ध ८ वादित्व बुद्धि ऋद्धि ३ विक्रिया ऋद्धि निर्देश १ विक्रिया ऋद्धि की विविधता २ अणिमा विक्रिया ३ महिमा, गरिमा व लघिमा विक्रिया ४ प्राप्ति व प्राकाम्य विक्रियाके लक्षण ५ ईशित्व व वशित्व विक्रिया निर्देश
१ ईशित्व व वशित्व के लक्षण २. ईशित्व व वशित्व में अन्तर
३. ईशित्व व वशित्व में विक्रियापना कैसे है। ६ अप्रतिघात, अंतर्धान व काम रूपित्व ४ चारण व आकाशगामित्व ऋद्धि निर्देश १ चारण ऋद्धि सामान्य निर्देश २ चारण ऋद्धिकी विविधता ३ आकाशचारण व आकाशगामित्व
१ आकाशगामित्व ऋद्धिका लक्षण २. आकाशचारण ऋद्धिका लक्षण
३ आकाशचारण व आकाशगामित्व में अन्तर ४ जलचारण निर्देश
१ जलचारण का लक्षण
२. जल चारण व प्राकाम्य ऋद्धिमें अन्तर ५ जंघा चारण निर्देश ६ अग्नि, धूम, मेघ, तंतु, वायु व श्रेणी चारण ऋद्धियों
का निर्देश ७ धारा व ज्योतिष चारण निर्देश ८ फल, पुष्प, बीज व पत्रचारण निर्देश ५ तपऋद्धि निर्देश १ उग्रतप ऋद्धि निर्देश
१ उग्रोग्र तप व अवस्थित उग्रतपके लक्षण * उग्रतप ऋद्धिमे अधिकसे अधिक उपवास करनेको सीमा
व तत्सम्बन्धी शंका -दे. प्रोषधोपवास २ २ घोरतप ऋद्धि निर्देश ३ घोर पराक्रमतप ऋद्धि निर्देश
१. ऋद्धिके भेद-निर्देश १ ऋद्धियोंके वर्गीकरणका चित्र
२ उपरोक्त भेदो प्रभेदोके प्रमाण २ बुद्धि ऋद्धि निर्देश * केवल, अवधि व मन पर्ययज्ञान ऋदिधयाँ
-दे. वह वह नाम १ बुद्धि ऋद्धि सामान्यका लक्षण २ बीजबुद्धि निर्देश
१. बीजबुद्धि का लक्षण २ बीजबुद्धिके लक्षण सम्बन्धी दृष्टिभेद
३ बोजबुद्धिकी अचिन्त्य शक्ति व शका ३ कोष्ठ बुद्धिका लक्षण व शक्ति निर्देश ४ पादानुसारी ऋद्धि सामान्य व विशेष
(अनुसारिणी, प्रतिसारिणी व उभयसारिणी)
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ऋद्धि
४ घोर ब्रह्मचर्यंतप ऋद्धि निर्देश
१. घोर व अघोर गुण ब्रह्मचारी के लक्षण २. घोर गुण व घोर पराक्रम तपमें अन्तर ५ दीसतप व महातप ऋद्धि निर्देश
६ बल ऋद्धि निदश
१ मनोबल, वचनबल व कालबल ऋद्धिके लक्षण ७ औषध ऋद्धि निर्देश
१ औषध ऋद्धि सामान्य
२ आमर्ष, बेल, जल्ल, मल व विट औषध
१. उपरोक्त चारोंके लक्षण २. आमश
३ सर्वोषध ऋद्धि निर्देश
४ आस्यनिर्विष व दृष्टिनिधि औषध ऋद्धि निर्देश
रस ऋद्धि निर्देश
१ आशीविष रस ऋद्धि
(शुभ व अशुभ आशीविशके लक्षण )
२ दृष्टि विष व दृष्टि अमृत रस ऋद्धि निर्देश
१. दृष्टिविष रस ऋद्धिका लक्षण २. दृष्टि अमृत रस ऋद्धिका लक्षण
३ दृष्टि अमृत रस ऋद्धि व अघोर ब्रह्मचर्य रूपमें अन्तर
१. ऋद्धिके भेद निर्देश
१. ऋद्धियोंके वर्गीकरणका चित्र
1
बुद्धि*
१ जल
२ जंघा
३ तन्तु
४ फल
१ मेघ
२ मरुत
३ अग्नि
५ पुष्प
६ बीज
७ आकाशश्रेणी इत्यादि
I
चारण
।। ।।। ।।।
व अधोरण माने अतर
ऋद्धि
(स.प.४/१६) (६/४.९.७/गा. १८/५८) (स सि. ३/३६/२३०/२) (रा. ना.३/१२/२/२०१/२१), ( चा २९९२१२ 1 विकिया
1
|
| २
क्रिया
1
४ धारा
ज्योतिषआदि
(ध.: रावा; चा. सा ) । ति प / ४ / १०२४की अपेक्षा
आकाश
गामित्व
}
विक्रिया
१ अणिमा -
२ महिमा
४ गरिमा - ३ लघमा -
६ प्राक्राम्य ५ प्राप्ति
१ उग्र
७ शत्व
८ वशित्व
६ अप्रतिघाती -
१० अन्तर्धान
११ कामरूपित्यइत्यादि
पराक्रम
४ घोर-
ब्रह्मचर्य
1
तप
३।
४४७
५ सप्त
1
1 4
उग्रोग्र अवस्थित घोर
१. ऋद्धिके भेद निर्देश
३ क्षीर, मधु, सर्प, व अमृतस्रावी रस ऋद्धियोंके लक्षण पदार्थोंका क्षीरादि रूप परिणमन
४ रस ऋद्धि द्वारा कैसे सम्भव है ?
T
क्षेत्र ऋद्धि निर्देश
१ अक्षीण महानस व अक्षीण महालय ऋद्धिके लक्षण
१० ऋद्धि सामान्य निवश
१ शुभ ऋद्धिकी प्रवृत्ति स्वतः भी होती है पर अशुभ ऋद्धियोंको प्रयत्न पूर्वक ही
दीप्त
२ एक व्यक्तिमे युगपत् अनेक ऋद्धियोकी सम्भावना
३ परन्तु विरोधी ऋद्धियाँ युगपत् सम्भव नहीं
* परिहार विशुद्धि, आहारक व मनःपर्वयका परस्पर विरोध परिहारविशुद्धि
★ आहारक व वैक्रियकमे विरोध - दे. ऊपरवाला शीर्षक ★ तेजस व आहारक ऋद्धि निर्देश दे, वह वह नाम * गणधरदेवमे युगपत् सर्वऋषि धर दे. धुतकेयली १/२
दे.
* साधुजन ऋधिका भोग नही करते
1
मन वचन
बल ४ |
1
काय
१ आमर्ष २ क्ष्वेल
३ जल्ल
४ मल
५ विट
दृष्टिनिर्विष ७ मुखनिर्विष
६ सर्व
1
1
अघोर शुभ
या
या
घोर गुण अघोर गुण
1
औषध रस ५] ६।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
आस्या दृष्टिविष
विष
1
क्षेत्र (अक्षीण)
1७
1
अक्षीण
महानस
1
क्षीर
सावी
३
T
अशुभ शुभ अशुभ
T
अलीमहालय
1 मधु
स्रावी
सर्पि
अमृतस्रावी स्रावी
५
* बुद्धिका वर्गीकरण अगले पृष्ठ पर
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ऋद्धि
४४८
२. बुद्धि ऋद्धि निर्देश
बुद्धि
केवलज्ञान अवधिज्ञान मन पर्यय ज्ञान बोज बुद्धि कोष्ठबुद्धि पदानुसारि संभिन्न श्रोतृ दूरादास्वादन दूराद्दशन दूरात्स्पर्श दूरावधाण
नुसार 'E
१० ११
वादित्व →दराच्छत्रण दशपूर्विख चतुर्दशपूर्विस्व अष्टांगमहानिमित्त प्रज्ञाश्रमण । प्रत्येकबुद्धि
१२
१६
भिन्न अभिन्न औत्पत्तिकी बैनयिकी पारिणामिकी/ अनुसारी प्रतिसारो तभयसारी
अन्तरिक्ष भीम अंग (नभ) (भूमि) (शरीर)
स्वर व्यंजन लक्षण चिह्न स्वप्न
(छिन्न) ।
६ ७८
२. उपरोक्त भेद-प्रभेदोंके प्रमाण ऋद्धि सामान्य-(ति. प ४/९६८), (ध ६/४,१,७/१८/५८), (स.
सि. ३३३६/२३०/२): (रा. वा ३/३६/३/२०१/२१); (चा. सा. २११), (वसु श्रा ५१२), (नि सा/ता, बृ/११२) । बुद्धि ऋद्धि सामान्य-(ति प. ४/१६६-१७१) (रा. वा ३/३६/३/२०१/
२२); (चा सा २११/२) पक्षानुसारी-ति.प.४।६८०). (रा.वा.३/३६/ ३/२०१/३०), (ध १/४,१८/4011), (चा सा २१२/५) दशपूर्विरव(ध/४,१,८६६/५) अष्टाग महानिमित्तज्ञान-(ति प. ४/१००२); (रा. वा ३/३६/३/२०२/१०); (घ१/४.१.१४/११/७२), (चा सा. २१४/ ३) प्रज्ञाश्रमणव-(ति प ४/१०१६), (घ१/४.१.१८८१/१), (चा,
सा २१७/१)। विक्रिया सामान्य-(दे ऊपर क्रिया व विक्रिया दोनों के भेद) क्रिया
(ति.प ४/१०३३); (रा. वा ३/३६/३/२०२२७), (चा.सा २१८/१)। विक्रिया-(ति प४/१०२४-१०२५); रावा ३/३६/३/२०२/३३), (ध ६/४,१,१५/५/४), (चा सा. २१९/१), (वसु श्रा ५१३)। चारण(ति प.४/१०३५,१०४८), (ध.१/४,१,१७/२१/७६); (रा.वा, ३/३६/
१२०२/२७), ( ६/४,१,१७/८०,८८) तप सामान्य · ति. प.४/१०४६-१०५०), (रा. वा ३/३६/३/२०३/७), (चा.सा.२२०/१)। उग्रतप-(ति.प.४/१०१०), (ध.१/४,१,२२२८७/)। (चा, सा,२२०/१)। घोरब्रह्मचर्य-(ष.ख.६/४,१/२८-२६/६३-६४);
(चा. सा. २२०/१) बल-(ति प.४/१०६१); (रा बा ३/३६/३/२०३/१८), (चा. सा.२२४/१)
औषध- (ति.प ४/१०६७) (रा.वा ३/३६/३/२०३/२४); (चा.सा २२५४१) रस सामान्य-(ति प ४१०७७), (रा. वा ३/३६/३/२०३/३३),
(चा, सा २२६/४)। आशाविष--(ध. १/४,१.२०/०६/४) दृष्टिविष
(ध १/४,१.२१/८७/२)। क्षेत्र-(ति प ४/१०८८), (रा. वा. ३/३६/३/२०४/8), (चा सा २२८/१) २. बुद्धि ऋद्धि निर्देश
१. बुद्धि ऋद्धि सामान्यका लक्षण रा, वा ३/३६/३/२०१/२२ बुद्धिरवगमो ज्ञान तद्विषया अष्टादशविधा
अद्वय'। -बुद्धि नाम अगम या ज्ञानका है । उसको विषय करनेवाली १८ ऋद्वियों है। २. बीजबुद्धि निर्देश
१. बीजबुद्धिका लक्षण ति.प.४/६७५-६७७ णोई दियसुदणाणावरणाण वोरअतरायाए । तिवि
चिह्न माला हाणं पगदीणं उक्कस्सख उवसमविमुद्धस्स 1801 संखेजसरूवाणं सद्दाण तत्थ लिंगसंजुत्त। एक्क चिय बीजपद लद्धूण परोपदेसेण 1१७६। तम्मि पदे आधारे सयलमुदं चितिऊण गेण्हे दि । कस्स वि महे सिणो जा बुद्धि सा बजबुद्धि त्ति ।१७७१ नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण, और वीर्यान्तराय, इन तीन प्रकारकी प्रकृतियोके उत्कृष्ट क्षयोपशमसे विशुद्ध हुए किसी भी महर्षिकी जो बुद्धि, सख्यातस्वरूप शब्दों के बीच में-से लिंग सहित एक ही बीजभूत पदको परके उपदेशसे प्राप्त करके उस पदके आश्रयसे सम्पूर्ण श्रुतको विचारकर ग्रहण करती है, वह बीजबुद्धि है। १७५-६७७। (रा. वा ३/३६/३/२०१/२६) । (चा सा २१२/२)। ध. १/४,१,७/५६-१, ५६-६ बीज मिव बीज । जहाबीजं मूलं कुर-पत्तपोर-क्रवद-पसव-तुस-कुसुम-खीरत दुलाणमाहारं तहा दुवालसगत्थाहार ज पदं तं बीजतुल्लत्तादो बीज । बीजपद विसयमदिणाणं पि बोज, कज्जे कारणोवचारादो। एसा कुदो होदि । विसिट्ठोग्गहावरणीयक्रवओवसमादो। (५8-1)-बीजके मान बीज कहा जाता है। जिस प्रकार बीज, मूल, अकुर, पत्र, पोर स्कन्ध, प्रसव, तुष, कुसुम, क्षीर और तंदुल आदिकोका आधार है, उसी प्रकार बारह अगोंके अर्थका आधारभूत जो पद है वह बीज तुल्य ह'नेसे बीज है। बोजपद विषयक मतिज्ञान भी कार्य में कारणके उपचार से बीज है ।।६। .. यह बीज बुद्धि कहाँसे होती है। वह विशिष्ट अवग्रहावरणीयके क्षयोपशमसे होती है।
२. बीज बुद्धिके लक्षण सम्बन्धी दृष्टिमेद ध/४,१.७/५७/६ बोजपदट्ठिदरपदेसादो हेट्ठिमसुदणाणुप्पत्तीए कारण होदूण पच्छा उवरिमसुदणाणुप्पत्तिणिमित्ता बीजबुद्धि त्ति के वि आइरिया भणं ति । तण्ण घडदे, कोट्ठबुद्धियादिचदुण्हंणाणाणमक्कमेणेक्क म्हि जीवे सबदा अणुप्पत्तिप्पसगादो। ण च एक्कम्हि जीवे सबदा चदुह बुद्धीण अक्क्मेण अतृप्पत्ती चेव। ति सुत्तगाहाए वक्रवाणम्मि गणहरदेवाणं चदुरमलबुद्धीण दसणादो। किच अस्थि गणहरदेवेसु चत्तारि बुद्धीओ अण्णहा दुवासंगाण मणुप्पत्तिप्पसगादो।
बीजपदसे अधिष्ठित प्रदेशसे अधस्तन तके ज्ञान की उत्पत्तिका कारण होकर पीछे उपरिम श्रुतके ज्ञानको उत्पत्तिमें निमित होनेवाली बीज बुद्धि है। (अर्थात पहले बोजपदके अल्पमात्र अर्थ को जानकर पीछे उसके आश्रय पर विषयका विस्तार करनेवाली बुद्धि बीजबुद्धि है, न कि केवल शब्द-विस्तार ग्रहण करनेवाली) ऐसा क्तिने ही आचार्य कहते है। किन्तु वह घटित नही होता। क्योकि, ऐसा माननेपर कोष्ठबुद्धि आदि चार ज्ञानोकी (कोष्ठबुद्धि तथा अनुसारी, प्रतिसारी व
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ऋद्धि
२. बुद्धि ऋद्धि निर्देश
तदुभयसारी ये तीन पदानुसारीके भेद)। युगपत् एक जीवमे सर्वदा उत्पत्ति न हो सकने का प्रसग आवेगा। और एक जोबमें सर्वदा चार बुद्धियोको एक साथ उत्पत्ति हो ही नहीं, ऐसा है नही क्योकि(सात ऋद्धिपोका निर्देश करनेवाली) सुत्रगाथाके व्याख्यानमें (कही गयी) गणधर देवोके चार निर्मल बुद्धियाँ देखी जाती है। तथा गणधर देवोके चार बुद्धियों होती है, क्योकि उनके बिना (उनके द्वारा) बारह अगोकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसग आवेगा।
३. बीज बुद्धिको अचिन्त्य शक्ति व शंका ध६/४,१,७/५८/३ "सखेजसहअण तलिगेहि सह बीजपद जाणंती.
बीजबुद्धि त्ति भणिद होदि। णा बीजबुद्धि अणं तत्थ पडिबद्धअणंतलिगबीजपदमवगच्छदि, खओसमियत्तादो त्ति । ण खओवसमिएण परोक्खेग सुदणाणेण इत्यादि (देखो केवल भाषार्थ) संख्यात शब्दोके अनन्त अर्थोंमे सम्बद्ध अनन्त लिगों के साथ बीजपदको जाननेवाली बीज बुद्धि है, यह तात्पर्य है। प्रश्न-बीज बुद्धि अनन्त अोंसे सम्बद्ध अनन्त लिंगरूप बोजपदको नहीं जानती, क्योकि वह क्षायोपशमिक है। उत्तर -नही, क्योकि. जिस प्रकार क्षयोपशमजन्य परोक्ष श्रुतज्ञानके द्वारा केवलज्ञानसे विषय किये गये अनन्त अर्थोंका परोक्ष रूपसे ग्रहण किया जाता है, उमो प्रकार मतिज्ञानके द्वारा भी सामान्य रूपसे अनन्त अर्थों को ग्रहण किया जाता है, क्योकि इसमें कोई विरोध नहीं है । प्रश्न-यदि तज्ञानका विषय अनन्त सख्या है, तो 'चौदह पूर्वका विषय उत्कृष्ट संख्यात है' ऐसा जो परिकम में कहा है, वह कैसे घटित होगा। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि उत्कृष्ट, उत्कृष्ट-सख्यातका ही जानता है, ऐसा यहाँ नियम नही है। प्रश्न-श्रुत ज्ञान समस्त पदार्थों को नहीं जानता है. क्यो कि, (पदार्थोंके अनन्तवे भाग प्रज्ञापनीय हैं और उसके भी अनन्तवें भाग द्वादशांग श्रुत के विषय है) इस प्रकारका वचन है । उत्तर-समस्त पदार्थों का अनन्तवाँ भाग द्रव्यश्रुतज्ञानका विषय भले ही हो, किन्तु भाव भूतज्ञानका विषय समस्त पदार्थ है, क्योकि, ऐसा माने बिना तीर्थकरोके वचनातिशयके अभावका प्रसग होगा।
३ कोष्ठबुद्धिका लक्षण व शक्तिनिर्देश ति प ४/१७८-१७६ "उत्कस्सिधारणाए जुत्तो पुरिसो गुरुवएसेणं ।
णाणाविहगथेसु वित्थारे लिगसद्दबीजाणि १७८। गहिऊण णियमदीए मिस्सेण विणा धरे दि मदिकोडे । जो कोई तस्स बुद्धी णिदिवा कोट्ठबुद्धी त्ति।१७।। - उत्कृष्ट धारणासे युक्त जो कोई पुरुष गुरुके उपदेशसे नाना प्रकारके ग्रन्थोमेसे विस्तारपूर्वक लिग सहित शब्दरूप भोजोको अपनी बुद्धिमें ग्रहण करके उन्हे मिश्रणके बिना बुद्धिरूपी कोठे में धारण करता है, उसकी बुद्धि कोष्ठबुद्धि कही गयी है । (रा.
वा. ३/३६/३/२०१/२८). (चा सा २६२/४)। ध६/१,१.६/५३/७ कोष्ठय शालि वो हि-यव-गोधूमादिनामाधारभूत
कुस्थली पल्यादि । सा चासेसदवपज्जायधारणगुणेण कोटुसमाणा बुद्धी कोट्टो, कोठा च सा बुद्री च कोठबुदी। एदिस्से अल्पधारणकालो जहण्णेण सखेजाणि उकास्सेण अस खेज्जाणिवसाणि कुदो। 'कालमसरख सखं च धारणा' त्ति सुत्त बल भादो। कुदो एद होदि। धारणाबरणीयस्स तिव्ववोत्रसमेण। -शालि, वीहि, जौ और गेहूँ आदिके आधारभूत कोथली, पल्ली आदिका नाम कोष्ठ है । समस्त द्रव्य व पर्यायोको धारण करनेरूप गुणसे कोष्टके समान होनेसे उस बुद्धिको भी कोष्ठ कहा जाता है। कोष्ठ रूप जो बुद्धि वह कोष्ठबुद्धि है। (ध १३/५५,४०२४३/११) इसका अर्थ धारणकाल जघन्यसे संख्यात वर्ष और उत्कर्ष से असख्यात वर्ष है, क्योकि, 'अस ख्यात
और संख्यात काल तक धारणा रहती है' ऐसा सूत्र पाया जाता है। प्रश्न-यह कहाँसे होती है। उत्तर-धारणावरणीय कमके तीन क्षयोपशमसे होता है।
४ पदानुसारी ऋद्धि सामान्य व विशेष के लक्षण ति प ४/८०-६८३ बुद्धीविपक्रवणाण पदाणुसारी हवेदि तिविहप्पा ।
अणुसारी पडिसारी जहत्थणामा उभयसारी।८01 आदि अवसाणमज्झे गुरूवदेसैण एकबीजपदं । गेण्हिय उव रिमगथ जा गिण्हदि सा मदी हु अणुसारी।८१ आदिअवसाणमझे गुरूवदेसेण एकबीजपद । गेण्हिय हेठिमगथं बुज्झदि जा सा च पडिसारी।८। णियमेण अणियमेण य जुग एगस्स बीजसईस्स । उवरिमहेटिठमर्गथं जा बुज्झइ उभयसारी सा ।१८३। घ.६/४,१,८/६०/२ पदमनुसरति अनुकुरुते इति पदानुसारी बुद्धि। बीजबुद्धीए बीजपदमवग तूण एत्य इद एदेसिमरवराण लिग होदि ण होदि त्ति इहिदुणसयलसुदक्खर-पदाइमबगच्छती पदाणुसारी। तेहि पदेहितो समुप्पज्जमाण णाण सुदणाणं ण अक्खर पदविसर्य, तेसिम खरपदाणं बीजपद ताभावादो। सा च पदाणसारी अणु-पदितदु भयसारिभेदेण तिविहो। कुदो एद होति। ईहाबायावरणीयाण तिब्बक्खओवसमेण । -(ध.६/६०)-पदका जो अनुसरण या अनुकरण करती है वह पदानुसारी बुद्धि है। बीज बुद्धिसे बीजपदको जानवर, 'यहाँ यह इन अक्षरोका लिग होता है और इनका नही', इस प्रकार विचारकर समस्त श्रुत के अवर पदोको जाननेवाली पदानुसारी बुद्धि है (उन पदोसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान श्रृतज्ञान है, वह अक्षरपद विषयक नहीं है, क्योंकि, उन अक्षरपदोका बीजपद में अन्तर्भाव है। प्रश्न यह कैसे होती है । उत्तर-ईहावरणीय कर्मके तीव क्षयोपशमसे होती है। ति.प-विचक्षण पुरुषोको पदानुसारिणी बुद्धि अनु सारिणी, प्रतिसारिणी और उभयसारिणीके भेदसे तीन प्रकार है, इस बुद्धिके ये यथार्थ नाम है ।१८० जो बुद्धि आदि मध्य अथवा अन्त में गुरुके उपदेशसे एक बीजपद को ग्रहण करके उपरिम (अर्थात उससे आगेके) ग्रन्थको ग्रहण करती है वह 'अनुसारिणी' बुद्धि कहलाती है ।१८१। गुरुके उपदेशसे आदि मध्य अथवा अन्तमे एक बीजपद को ग्रहण करके जो बुद्वि अधस्तन (पीछे वाले) ग्रन्थको जानती है, वह 'प्रतिसारिणी' बुद्धि है ।२। जो बुद्वि नियम अथवा अनियमसे एक भीजशब्दके (ग्रहग करनेपर) उपरिम और अधस्तन (अर्थात उस पद के आगे ब पीछेके सर्व) ग्रन्थको एक साथ जानती है वह 'उभयासारिणी' बुद्धि है।८३1 (रा वा ३/३६/३/२०९/३०), (ध, १/४.१,८/६०/५), (चा, सा २१२/५)
५ संभिन्नश्रोतृत्वका लक्षण ति.प. ४/१६४-६८६ सोदिदिग्सुदणाणावरणाण वीरियतरायाए । उक्त
स्सक्ख उबसमे उदिदं गोव गाणामकम्मम्मि हटा सोदुक्कस्सरिखदीदो बाहि स खेज्जजोयणपएसे। सठियणरतिरियाणं बहविहसह समुठ्ठ ते ।६८५। अक्रवर अणक्खरमए सोदूर्ण दस दिसासु पत्तेक्क । ज दिज्जदि पडिवयणे त चिय स भिण्णसोदित्त ।६।- श्रोत्रेन्द्रियावरण, भूतज्ञानावरण, और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अगोपांग नामकर्मका उदय होनेपर श्रोनेन्द्रियके उत्कृष्ट क्षेत्रसे बाहर दशों दिशाओमें सख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित मनुष्य एव तियंचोंके अक्षरानझरात्मक बहुत प्रकारके उठनेवाले शब्दोको सुनकर जिससे (युगपत) प्रत्युत्तर दिया जाता है, वह सभिन्नश्रातृत्व नामक बुद्धि ऋद्धि कहलाती है।
(रा.वा ३/३६/३/२०२/१), (ध, १/४,१.६/६१/४), (सा चा २१३/२) 'ध.६/१,१,६/६२/६ कुदो एद होदि। बहुबहु विहविरवपावरणीयाण'
खावसमेण . = यह कहाँसे होता है । बहु, बहुविध और क्षिप्र (मति) ज्ञानावरणीयके क्षयोपशमसे होता है।
६ दूरादास्वादन आदि ऋद्धियोके लक्षण ति.प.४/१८७-६१७१-जि भिदिय सुदणाणावरणाण बीरण तरायाए।
उक्कस्सक्वउबसमे उदिदगोव गणामकम्मम्मि ।१८७१ जिम्भुक्कस्स
२९
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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३ विकिया ऋदिध निर्देश
खिदोदो बाहिं सखेज्जजोयण ठियाण । विविहरसाण साद जाणइ दूरसादित्त ।। २-पासिदिय सुदणाणावरणाणं वारियंतरायाए। उक्कस्सक्ख उबसमे उदिदगोव गणाम कम्मम्मि।हपामुक्कस्सखिदोदो बाहि सखेज्जजोयणठियाणि । अठ्ठाविहप्पासाणि ज जाणइ दूरपासत्तं 18801 ३-घाणि दियसुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए। उक्क्स्स क्खउवसमे उदिदगोवगणामकम्मम्मि ६६१ घाणुक्कस्सरिखदोदो बाहिरसखेज्जजोयणपएसे । ज बहुविधगधाणि त घायदि दूरघाणसं २ ४-सोदिदियसुदणाणावरणाण बोरियतरायाए । उक्कस्सक्वउ वसमे उदिदं गोबंगणामम्मम्मि ६६३ सोदुक्कस्सरिखदोदो बाहिरसखेज्जजोयणपएसे। चेताणं माणुसतिरियाणं बहुवियप्पाणं ४ा अक्ख रअणक्खरमए बहुविहसद्द बिसेससंजुत्ते । उप्पण्णे आयण्णइ ज भणिअ दूरसवणत्त ५-रूवि दियसुदणाणावरणाणं वीरिअंतराआए । उक्कस्सरवउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि १ रूउक्कस्सरिखदीदो बाहिर सखेज्जजोयणठिदाई। ज बहुविहदठवाइ देक्वइ तं दूरदरिसिणं णाम 18891 वह वह इन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय इन तीन प्रकृतियो के उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का उदय होनेपर उस उस इन्द्रियके उत्कृष्ट विषयक्षेत्रसे बाहर संख्यात योजनों में स्थित उम उस सम्बन्धी विषयको जान लेना उस उस नामकी ऋद्धि है। ग्रथाजिहा इन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे 'दूरास्वादित्व', स्पर्शन इन्द्रियावरण के क्षयोपशमसे 'दूरस्पर्शत्व'.घाणेन्द्रियावरण के क्षयोपशमसे 'दूरघाणव', श्रोत्रेन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे दूरश्रवणत्व' और चक्षुरन्द्रियावरण के क्षयोपशमसे 'दूरदर्शित्व' ऋद्धि होती है। ७ प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि निर्देश
१ प्रज्ञाश्रमणत्व सामान्य व विशेषके लक्षण ति प ४/१०१७-१०२१ पयडीए सुदणाणावरणाए वीरयतरायाए । उक्कस्सक्वउवसमे उप्पज्जइ पण्णसमणधी ११०१७। पण्णासवणद्धिजुदो चोहस्सपुवीस विसयमुहुमत्त । सव्वं हि सुदं जाणदि अक अज्झअणो वि णियमेण ।१०१८॥ भासंति तस्स बुद्धी पण्णासमणद्धी सा च चउभेदा। अउपत्तिअ-परिणामिय-वडणइको-कम्मजा णेया।१०१६॥ भवतर सुदविणएण समुल्लसिदभावा। णियणियजा दिविसे से उप्पण्णा पारिणामिकी णामा ।१०२०। व इणइकी विणएणं उपज्जदि बारसगसुदजोग्गं । उवदेसेण विणा तब विसेसलाहेण कम्मजा तुरिमा ।१०२१।
" श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर 'प्रज्ञाश्रमण' ऋद्धि उत्पन्न होती है। प्रज्ञाश्रमण ऋद्धिसे युक्त जो महर्षि अध्ययनके बिना किये ही चौदहपूर्वोमे विषयकी सूक्ष्मताको लिए हुए सम्पूर्ण श्रुतको जानता है और उसको नियमपूर्वक निरूपण करता है उसकी बुद्धिको प्रज्ञाश्रमण ऋविध कहते है। वह औत्पत्तिकी, पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा, इन भेदोसे चार प्रकारकी जाननी चाहिए ।१०१७-१०१६। इनमें से पूर्व भव में किये गये श्रुतके विनयसे उत्पन्न होनेवालो औत्पत्तिकी (बोद्ध है)।१०२०॥ ध.६/४,१,१८/२२/८२. विणएण सुदमधी किह वि पमादेण होदि विस्सरिद । तमुछादि परभवे केवलणाण च आहब दि ।२०-एसो उत्पत्तिपण्णसमणो छम्मासोपत्रासगिलाणो वि तब्बुद्धिमाप्पजाणावणठ्ठ पुच्छात्रावद चोद्दसपुचिस्स विउत्तरबाहओ। बिनय से अधीत भुतज्ञान यदि किसी प्रकार प्रमादसे विस्मृत हो जाता है तो उसे वह परभवमें उपस्थित करती है और केवलज्ञानको बुलाती है ।२२, यह औत्पत्तिकी प्रज्ञाश्रमण छह मासके उपवाससे कृश होता हुआ भी उस बुद्धिके माहात्म्यको प्रकट करने के लिए पूछने रूप क्रियामे प्रवृत्त हुए चौदहपूर्वीको भी उत्तर देता है। निज-निज जाति विशेषो में उत्पन्न हुई बुद्धि पारिणामिकी' है, द्वादशाग श्रूतके योग्य विनयसे उत्पन्न हानेवाली वैनयिकी' और उपदेशके बिना ही विशेष तपकी प्राप्तिसे आविर्भूत हुई चतुर्थ 'कर्मजा' प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि समझना चाहिए
।१०२०-१०२१। (रा बा, ३/३६/३/२०२/२२), (ध १/४,१,१८/८१/१), (चा सा /२१६/४)। ध.६/४.१.१८/८३/१ उसहसेणादोग-तित्थ यरवयण विणिग्गयबीजपदट्ठावहारयाण पण्णाए कत्थं तब्भावो। पारिणामियाए, विणय-उप्पत्तिकम्मे हि विणा उप्पत्तीदो। प्रश्न - तीर्थक्रोके मुखसे निकले हुए बीजपदोके अर्थका निश्चय करनेवाले वृषभसेनादि गणधरोकी प्रज्ञाका कहाँ अन्तर्भाव होता है ! उत्तर--उसका पारिणामिक प्रज्ञामें अन्तर्भाव होता है, क्योकि, वह विनय, उत्पत्ति और कर्मके बिना उत्पन्न होती है।
२ पारिणामिनीव औत्पत्तिकीमे अन्तर ध १/४.१,१८,/८३/२ पारिणामिय-उप्पत्तियाण को विसेसो। जादि विसेसजणिदकम्मक्रवओवसमुप्पण्णा पारिणामिया, जम्मतरविणयजणिदससकारसमुप्पण्णा अउम्पत्तिया, त्ति अस्थि विसेसो । प्रश्नपारिणामिकी और औत्पत्तिकी प्रज्ञामें क्या भेद है । उत्तर-जाति विशेषमें उत्पन्न कर्म क्षयोपशमसे आविर्भूत हुई प्रज्ञा पारिणामिकी है,
और जन्मान्तरमै विनयजनित संस्कारसे उत्पन्न प्रज्ञा औपपत्तिकी है, यह दानों में विशेष है।
३ प्रज्ञाश्रमण बुद्धि और ज्ञान सामा यमे अन्तर धह/४,१.१८/४/२ पण्णाए ण ण स्स य को विसेसो णपण हेदुजीवसत्ती गुरूवएसणि रवेक्खा पण्णा णाम, तकारिय णाण । तदो अस्थि भेदो। -प्रश्न-प्रज्ञा और ज्ञानके बोच क्या भेद है ! उत्तर-गुरुके उपदेश से निरपेक्ष ज्ञानको हेतुभूत जीवकी शक्तिका नाम प्रज्ञा है, और उमका कार्य ज्ञान है, इस कारण दोनोमे भेद है। ८वादित्वका लक्षण ति प ४/१०२३ सक्काद ,ण वि पक्व बहुवादेहि णिरुत्तरं कुण दि । परदयाई गवेसइ जीए वादित्तरिधी सा ।१०२३। -जिस ऋद्विधके द्वारा शकादिके पक्षको भी बहुत बादसे निरुत्तर कर दिया जाता है
और परके द्रव्योकी गवेषणा (परीक्षा) करता है (अर्थात दूसरों के छिद्र या दोष हँढता है) वह वादित्व ऋधि कहलाती है । (रा. वा. ३/३६/३/२०२/२५); (चा. सा. २१७/५) ३ विक्रिया ऋद्धि निर्देश
१ विनिया ऋदिधकी विविधता ति. प. ४/१०२४-२५, १०३३ अणिमा महिमा-लघिमा गरिमा पत्ती-य तह अ पाकम्म। ईसत्तव सित्तताई अप्पडियादतधाणाच ।१०२४। रिद्धी हु कामरूवा एव रूवेहि विविहभेएहि। रिद्धी विकिरिया णामा समणाणं तबविसेसेण ।१०२५॥ दुविहा किरियारिद्धी णहयल
गामित्त चारणत्तेहि ।१०३३। घ.६/४.१.१५/७५,४ अणिमा महिमा ल हिमा पत्तो पागम्य ईसित्तं वसित्तं
कामरूवित्तमिदि विउवणमट्ठविहं ।। एत्थ एगस जोगादिणा विसदपचव चासबिउवणभेदा उप्पाएदव्वा, तइक्कारणस्स वडचित्तयत्तादो (पृ.७६/६)। -अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान और कामरूप इस प्रकारके अनेक भेदोसे युक्त विक्रिया नामक ऋधि तपोविशेषसे श्रमणोंको हुआ करती है। ति.प./ (रा वा ३/३६/३/२०२/३३): (चा. सा. २१६/१): (ब.सुश्रा ५१३) । नभस्तलगामित्व और चारणत्यके भेदसे 'क्रियाऋद्धि ' दो प्रकार है। (रा. वा. ३/३६/३/२०२/२७); (चा सा. २१८/१)। अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य ईशित्व, वशित्व, और कामरूपिरब-इस प्रकार विक्रिया ऋद्धि आठ प्रकार है । यहाँ एकसयोग, द्विसयोग आदिके द्वारा २५५ विक्रियाके भेद उत्पन्न करना चाहिए, क्योकि, उनके कारण विचित्र है । एकसंयोगी -६द्विसंयोगो-२८, त्रिसयोगी-५६; चतुःसंयोगी-७०, पचन
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ऋद्धि
४ चारण व आकाशगामित्व ऋदिव निर्देश
स योगी-५६, षट्संयोगी-२८,सप्तसंयोगी-८; और अष्टसंयोगी
२. ईशित्व व वशित्व विक्रियामे अन्तर १। कुल भग-२५५ (विशेष देखो गणित II/४)।
ध ६/४,१,१५/७६/३ ण च वसित्तस्स ईसित्तिम्म पवेसो, अवसाणं पि २ अणिमा विक्रिया
हदाकारेण ईसित्तकरणुवल भादो। - वशित्वका ईशित्व ऋद्धि ति. प. ४/१०२६ अणुतणुकरणं अणिमा अणुछिह पविसिदूण तत्थेव।।
अन्तर्भाव नही हो सकता, क्योकि, अबशीकृतीका भी उनका आकार विरदि खदावार णिएसमवि चक्वट्टिस्स ।१०२६) अणुके बराबर
नष्ट किये बिना ईशित्वकरण पाया जाता है। शरीरको करना अणिमा ऋद्धि है। इस ऋद्धिके प्रभावसे महर्षि ३ ईशित्व व वशित्वमे विक्रियापना कैसे है? अणुके बराबर छिद्र में प्रविष्ट होकर वहाँ हो, चक्रवर्तीके कटक और ध६४१,१५/७६/५ ईसित्तबसित्ताण कध वेउविवत्त । ण, विविहगुणनिवेशकी विक्रिया द्वारा रचना करता है । (रा.वा ३/३६/३/२०२/३४) इडिजुत्तं वेउवियमिदि तेसि वे उवियत्ताविरोहादो। -प्रश्न(ध.६/४,१,१५/७५/५) (चा. सा. २१६/२)
ईशित्व और वशित्व के विक्रियापना कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं. ३ महिमा गरिमा व लधिमा विक्रिया
क्योकि, नाना प्रकार गुण व ऋविध युक्त होनेका नाम बिक्रिया है,
अतएव उन दोनोके विक्रियापने में कोई विरोध नहीं है। ति.प.४/१०२७ मेरूवमाण देहा महिमा अणिलाउ लहुत्तरो लहिमा।। वज्जाहिंतो गुरुवत्तणं च गरिमं त्ति भणं ति ।१०२७१ - मेरुके बराबर
६. अप्रतिघात अन्तर्धान व कामरूपित्व शरीरके करनेको महिमा, वायुसे भी लघु (हलका) शरीर करनेको ति.प ४/१०३१-१०३२ सेलसिलातरुपमुहाणभतरं होइदूण गमणं व । ज लघिमा और बज्रसे भी अधिक गुरुतायुक्त (भारी) शरीरके करनेको बच्चदि सा अवधी अप्पडिघादेत्ति गुणणामं ।१०३१॥ ज हवदि अहिगरिमा ऋद्धि कहते है। (रा वा ३/३६/३/२०३/१), (ध. ६/४,१,१५/ सत्त अतद्धाणा भिधाण रिद्धी सा। जुगवे बहुरूवाणि ज विग्यदि ७५/५). (च सा. २१४/२)
कामरूव रिधी सा १०३२। जिस ऋद्विधके बल से शैल, शिला और
वृक्षादिके मध्यमें होकर आकाशके समान गमन किया जाता है वह ४ प्राप्ति व प्राकाम्य विक्रिया
सार्थक नामवाली अप्रतिघात ऋद्धि है ।१०३१। जिस ऋधिसे ति.प ४/१०२८-१०२९ भूमोए चेठेतो अगुलिअग्गेण सूरिससिपहुदि ।
अदृश्यता प्राप्त होती है, वह अन्तर्धाननामक ऋद्धि है; और जिससे मेरुसिहराणि अण्ण ज पाव दि पत्तिरिद्धी सा ।१०२८। सलिले वि
युगपद वहुत-से रूपोको रचता है, वह कामरूप अधि है ।१०३२। य भूमीए उन्मजणिमज्जणाणि ज कुणदि। भूमीए विय सलिले
(रा.वा. ३/३६/३/२०३/५), (च। सा. २१६/4)। गच्छदि पाकम्म रिद्धी सा (१०२६। भूमिपर स्थित रहकर अगुलिके
ध४/४.१,१५/७६/४ इच्छिदरूनग्गहणसत्ती कामरूवित्त णाम । अग्रभागसे सूर्य-चन्द्रादिकको, मेरुशिखरोको तथा अन्य वस्तुको
इच्छित रूपके ग्रहण करनेको शक्तिका नाम कामरूपित्व है। प्राप्त करना यह प्राप्ति ऋद्धि है ।१०२८। जिस ऋद्धिके प्रभावसे जलके समान पृथिवीपर उन्मजन-निमज्जन क्रियाको करता है और
४.चारण व आकाशगामित्व ऋद्धि निर्देश पृथिवीके समान जलपर भी गमन करता है वह प्राकाम्य ऋद्धि है।
१. नारण ऋद्धि सामान्य निर्देश १०२६। (रा वा ३/३६/३/२०३/३); (चा सा २१६/३)
ध.१/४,१,१६/०४/७ चरणं चारित्त सजमो पावकिरियाणिरोहोf घ./४,१,१५/७५/७ भूमिट्ठियस्स करेण चदाइञ्चदबिबच्छिषणसत्ती पत्नी
एयट्ठो तहि कुसलो णि उणो चारणो । चरण, चारित्र, स जम, पापणाम । कुलसेलमेरुमहीहर भूमीण बाहमकाऊण तासु गमणसत्ती तवच्छरणबलेणुप्पणा पागम्मं णाम । - (प्राप्तिका लक्षण उपरोक्तवत ही
क्रियानिरोध इनका एक ही अर्थ है। इसमें जो कुशल अर्थाव निपुण
है वे चारण कहलाते है। है)-कुलाचल और मेरुपर्वतके पृथिवीकायिक जीवोको बाधा न पहुँचाकर उनमें, तपश्चरणके बलसे उत्पन्न हुई गमनशक्तिको प्राकाम्य
२. चारण ऋद्धि की विविधता ऋद्धि कहते है।
ति. प. ४/१०३४-१०३५, १०४८ “चारण रिद्धी बहुविहवियप्पसंदोह चा.सा. २१९/४ अनेकजातिक्रियागुणद्रव्याधीनं स्वागार भिन्नमभिन्न वित्थरिदा ।१०३४। जलजधाफलपुष्फ पत्तग्गिसिहाण धूममेघाण । च निर्माण प्राकाम्यं सैन्यादिरूपमिति केचित् । -कोई-कोई आचार्य धारामकडत तूजोदीमरुदाण चारणा कमसो ।१०३५अण्णो विविहा अनेक तरह की क्रिया गुण वा द्रव्यके आधीन होनेवाले सेना आदि भगा चारणरिद्वीए भाजिदा भेदा। तां सरूवकहणे उबएसो अम्ह पदार्थोंको अपने शरीरसे भिन्न अथवा अभिन्न रूप बनाने की शक्ति उच्छिण्णो १०४८। चारण ऋद्धि कमसे जलचारण, जंघाचारण, प्राप्त होनेको प्राकाम्य कहते है। (विशेष दे व क्रियक 1१। पृथक् व फलचारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, अग्निशिखाचारण, धूभचारण, अवृथक्विक्रिया)
मेघचारण, धाराचारण, मर्कटतन्तु चारण, ज्योतिषचारण और मरु
छारण इत्यादि अनेक प्रकारके विकल्प समूहोसे विस्तारको प्राप्त हैं । ५. ईशित्व व वशित्व विक्रिया
१०३४-१०३५। इस चारण ऋद्धिके विविध भगोंसे युक्त विभक्त किये ति.प. ४/१०३० णिस्सेसाण पहुत्त जगाण ईसत्तणामरिद्धी सा। वसमें ति
हुए और भी भेद होते हैं। परन्तु उनके स्वरूपका कथन करनेवाला तवबलेण जं जीओहा वसित्तरिद्धी सा (१०३०१ = जिससे सब जगत
उपदेश हमारे लिए नष्ट हो चुका है ।१०४॥ पर प्रभुत्व होता है, वह ईशित्वनामक ऋद्धि है और जिससे तपोबल
ध.१/४,१,१७/पृ ७८/१० तथा पृ. ८०/६ जल जंघ-तंतु-फल-पुप्फ-बीयद्वारा जीव समूह वशमें होते है, वह वशित्व ऋधि कही जाती है।
आयास-सेडीभेएण अट्ठविहा चारणा। उत्त च (गा सं २१) ७८-१०॥ (रा वा ३/३६/३/२०३/४) (चा सा २१६/५) ।
चारणाणमेत्थ एगसंजोगादिक्मेण विसदपंचपचासभ गा उप्पाएदया। ध.१/४.१.१५/७६/२ सव्वेसि जीवाणं गामणयरखेडादीणं च भुजणसत्ती कधमेग चारित्त विचित्तसत्तिमुप्पायय । ण परिणामभेएण णाणाभेद
समुप्पण्णा ईसित्तं णाम। माणुस मायंग-हरि-तुरयादीण सगिच्छाए भिण्णचारित्तादो चारणबहुत्त पडि विरोहाभावादो । कथं पुण चारणा विउव्वणसत्ती वसित्तं णाम । - सब जीवो तथा ग्राम, नगर, एवं खेडे अहविहा सि जुज्जदे ण एस दोसो, णियमाभावादो, विसदपंचव चाआदिकोके भोगनेकी जो शक्ति उत्पन्न होती है वह ईशित्व अद्धि सचारणाण अविह चारणे हितो एयतेण पुधत्ताभावादी । जल, कही जातो है। मनुष्य, हाथी, सिह एवं घोडे आदिक रूप अपनी जघा, तन्तु, फल, पुष्प, बीज, आकाश और श्रेणी भेदसे चारण इच्छासे विक्रिया करनेकी (अर्थात् उनका आकार बदल देनेकी) ऋधि धारक, आठ प्रकार है। कहा भी है। (गा नं २१ में भी यही शक्तिका नाम वशित्व है।
आठ भेद कहे है। (रा.वा ३/३६/३/२०२/२७), (चा सा, २१८/१।
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ऋदिध
४५२
४ चारण व आकाशगामित्व ऋद्धि निर्देश
यहाँ चारण ऋषियोके एक सयोग, दो सयोग आदिके क्रमसे २५५ भग उत्पन्न करना चाहिए। एक सयोगी-८, द्विसयोगी-२८, त्रिसं योगी-५६, चतु सयोगी ७०; पचसयोगी ०५६, षट्संयोगी -२८, सप्तसयोगी.., अष्टसयोगी-१ । कुल भंग- २५५ । (विशेष दे गणित II/४) प्रश्न-एक ही चारित्र इन विचित्र शक्तियोका उत्पादक कैसे हो सकता है। उत्तर - नही, क्योकि परिणामके भेदसे नाना प्रकार चारित्र होनेके कारण चारणोकी अधिकतामे कोई विरोध नही है । प्रश्न-जब चारणो के भेद २५५ है तो फिर उन्हे आठ प्रकार का बतलाना कैसे युक्त है । उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योकि, उनके आठ होने का कोई नियम नही है। तथा २५५ चारण आठ प्रकार चारणोसे पृथक् भी नही है। ३. आकाशचारण व आकाशगामित्व
१. आकाशगामित्व ऋद्धिका लक्षण ति प ४/१०३३ १०३४ । अट्ठीओ आसीणो काउसग्गेण इदरेण । १०३३' गच्छेदि जोए एसा रिद्धी गयणगामिणी णाम ॥१०३४ - जिस ऋद्धिके द्वारा कायोत्सर्ग अथवा अन्य प्रकारसे ऊर्ध्व स्थित होकर या बैठकर जाता हे वह आकाशगामिनी नामक ऋद्धि है । रा वा ३/३६/३/२०२/३१ पर्यावस्था निषण्णा वा कायोत्सर्गशरीरावा पादोधारनिक्षेपण विधिमन्तरेण आकाशगमनकुशला आकाशगामिन ।" -पर्यासनसे बठकर अथवा अन्य किसी आसनसे बैठकर या कायोत्सर्ग शरीरसे (पैरोको उठाकर रखकर (धवला)] तथा बिना पैरोको उठाये रखे आकाशमे गमन करने में जो कुशल होते है, वे आकाशगामी है। (घ१/४,१,१७/८०/५), (चा सा
२१८/४) ध,६/४,१,१६/८४/५ आगासे जहिच्छाए गच्छता इच्छिदपदेस माणुसुत्तर पबवावरुद्ध आगासगामिणा त्ति घेतव्यो। देव विज्जाहरण जग्गहण जिणसहणु उत्तीदा। आकाशमे इच्छानुसार मानुषोत्तर पर्वतसे घिरे हुए इच्छित प्रदेशोमे गमन करनेवाले आकाशगामी है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यहाँ देव व विद्याधरो का ग्रहण नहीं हे, क्योकि 'जिन' शब्दती अनुवृत्ति है।
२ आकाशचारण ऋद्धिका लक्षण ध.६/४.१,१७/८०/२ चउहि अगुले हितो अहियपमाणेण भूमीदो उवरि
आयासे गच्छतो आगासचारण णाम। -चार अगुलसे अधिक प्रमाणमे भूमिसे ऊपर आकाशमें गमन करनेवाले ऋषि आकाशचारण कहे जाते है।
४ जलचारण निर्देश
१. जलचारणका लक्षण घ १/४,१,१७/७६-३, ६-७ तत्थ भूमीए इव जलकाइयजीवाण पीडमकाऊण जल मफुसता जहिच्छाए जलगमणसस्था रिसओ जलचारणा णाम । पउणिपत्तं व जलपासेण विणा जलमज्झगामिणो जलचारणा त्ति किण्णण उच्चति । ण एस दोसो, इच्छिउजमाणत्तादो 108-३। आसकरखासधूमरोहिमादिचारणाण जलचारणेसु अतभावो, आएक्काइयजीवपरिहरणकुशलत पडि साहम्मदसणादो 1८१-७/- जो ऋषि जलकायिक जीवोको बाधा न पहुँचाकर जलको न छूते हुए इच्छानुसार भूमिके समान जलमें गमन करने में समर्थ है, वे जलचारण कहलाते है। (जल पर भी पाद निक्षेपपूर्वक गमन करते है)। प्रश्नपद्मिनीपत्रके समान जलको न छूकर जलके मध्यमें गमन करनेवाले जल चारण क्यो नहीं कहलाते ? उत्तर-यह कोई दोष नही है,क्योंकि ऐसा अभीष्ट है । (ति. प ४/१०३६) (रा वा ३/३६/३/२०२/२८) (चा. सा २१८/२)। ओस, ओला, कुहरा और बर्फ आदि पर गमन करनेवाले चारणोका जल चारणोमे अन्तर्भाव होता है। क्यो कि, इनमें जलकाधिक जोवो के परिहारकी कुशलता देखी जाती है।
२ जलचारण व प्राकाम्य ऋद्धिमे अन्तर घ६/४,१,१७/७१/५ जलचारण-पागम्मरिद्धी दोण्हं को विसेसो। घणपुढ वि-मेरुसायराणमतो सव्वसरीरेण पवेससत्ती पागम्म णाम। तत्थ जीवपरिहरण कउसल्ल चारणत्त । -प्रश्न--जलचारण और प्राकाम्य इन दोनो ऋद्धियोमे क्या विशेषता है 1 उत्तर--सघन पृथिवी, मेरु और समुद्र के भीतर सब शरीरसे प्रवेश करनेकी शक्तिको प्राकाम्यऋद्धि कहते हैं, और यहाँ जीवों के परिहारकी कुशलताका नाम चारण ऋद्धि है।
५. जंघाचारण निर्देश ति प १०३७ च उर गुल मेत्तम हि छ डिय गयणम्मि कुडिलजाणु विणा ।
ज बहुजोयणगमणं सा जंघाचारणा रिद्धी ।१०३१ - चार अंगुल प्रमाण पृथिवीको छोडकर आकाशमे घुटनोको मोडे बिना (या जल्दो जल्दी जघाओको उत्क्षेप निक्षेप करते हुए-रा. वा) जो बहुत योजनो तक गमन करना है, वह जघाचारण अद्धि है। (रा. वा ३/३६/३/२०२/२६), (चा सा. २१८/३)। ध/४,१,१७/७४/७, ८१/४ भूमीए पुढधिकाइयजीवाण बाहमकाऊण
अणेगजोयणसयगामिणो जघाचारणा णाम ७६ ७ चिखल्लछारगोवर-भूसादिचारणाणं जघाचारणेसु अतन्भावो, भूमीदो चिखलादोण कधंचि भेदाभावादो १८१-४-भूमिमे पृथिवीकायिक जीवोको बाधा न करके अनेक सौ योजन गमन करनेवाले जघाचारण कहलाते है। कोचड भस्म, गोबर और भूसे आदि परसे गमन करनेवालोका जधाचारणोमे अन्तर्भाव होता है, क्यो कि, भूमिसे कीचड आदि में कथंचित् अभेद है।
६. अग्नि, धूम, मेघ, तन्तु, वायु व श्रेणी चारण ति प ४/१०४१-१०४३, १०४५,१०४७ अबिराहिदूग जोवे अग्नि सिहा
लठिए विचिताण । ज ताण उपरि गमण अग्निसिहाचारणा रिधी ११०४११ अधउड्ढतिरियपसर धूम अवल निऊण ज देंति। पदखेवे अक्रवलिया सा रिद्धी धूमचारणा णाम । १०४२। अविरा दूणजोवे अपु काए बहुबिहाण मेघाण। ज उबरि गछिइ मुणी सा रिद्धी मेघचारणाणाम।१०४३१ मकडयत तुप तीउपरि अदिलघुओ तुरदपदखेवे। गच्छेदि मुणिमहेसी सा मकडत तुचारणा रिद्धी ।१०४५। णणाविहगदिमादपदेसपंतीसु देति पदखेवे। ज अक्खलिया मुणिणो सा मारुदचारणा रिद्धी ।१०४७१ अग्निशिखामें स्थित जीवोकी विराधना न करके उन विचित्र अग्नि-शिखाओपरसे गमन करनेको 'अग्निशिखा चारण' ऋद्धि कहते है ।१०४१। जिस ऋद्विधके प्रभाव से मुनिजन नीचे ऊपर
३. आकाशचारण व आकाशगामित्वमे अन्तर घ. ६/४,१,१६/०४/4 "आगासचारणाणमागासगामोण च को विससो।
उच्चदे-चरण चारित्तं स जमो पावकिरिवागिरोहा त्ति एयट्ठो, तमि कुसला णिउणो चारणो। तब विसेसण जणिदागासट्ठियजाव (-बध) परिहरणकुसलतणेण सहिदो आगासचारणो। आगासगमणमेतजुतो आगासगामी। आगासगा मित्तादा जोववधपरिहरणकुसलत्तणेण विसे सिदागासगामित्तस्स विसेसुरल भादो अस्थि विसेसो। - प्रश्न-आकाशचारण और आकाशगामी के क्या भेद है। उत्तर - चरण, चारित्र, सम व पापक्रया निरोध, इनका एक ही अर्थ है। इसमें जो कुशल अर्थात् निपुण है वह चारण कहलाता है । तप विशेषसे उत्पन्न हुई, आकाशस्थित जोत्रो के (वधके) परिहारकी कुशलतासे जो सहित है वह आकाशचारण हे । और आकाश में गमन करने मात्रसे आकाशगामो कहलाता है। (अर्थात् आकाशगामीको जीववध परिहारकी अपेक्षा नही हातो)। सामान्य आकाशगामित्व की अपेक्षा जोबोके वर परिहार की कुशलतासे विशेषित आकाशगामित्वके विशेषता पायी जाने से दोनो मे भेद है।
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ऋषि
और तिरछे फेलनेवाले धुऍका अवलम्बन करके अस्खलित पादक्षेप देते हुए गमन करते है वह 'धूमचारण' नामक ऋद्धि है । १०४२। जिस ऋधिसे मुनि अकायिक जावको पीडा न पहुँचाकर बहुत प्रकारके मेघोपरसे गमन करता है वह 'मेघचारण' नामक ऋद्धि है । १०४३ | जिसके द्वारा मुनि महर्षि शोमा किये गये निक्षेपमेत्यन्त लघु होते हुए मकडीके तन्तुओ की पक्तिपरसे गमन करता है वह 'मकडोसन्तुचारण' ऋद्ध है । १०४५। जिसके प्रभावमे मुनि नाना प्रकार की गति से युक्त वायु प्रदेशकी पक्ति पर अस्खलित होकर पदविक्षेप करते हैं, वह 'मारुतचारण' ऋद्धि है । (रावा ३/३६/३/२०२ २७) : ( वा सा २१८/१) ।
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घ ६/४,९,१७/८०-१,८१-८ धूमग्गि- गिरि तरु त तुसताणेसु उढारोहणजुलानाम ८०-१ धूममिवाद-महाविचारणा ततु-सेडिचारणेसु अतभाओ, अणुलोमविलोमगमणेसु जीवपीडा प्रकरण तिस जुनादी धूम, अग्नि पर्वत और वृक्ष सन्तु समूह परसे ऊपर चढने की शक्तिसे संयुक्त 'श्रेणी चारण है। धूम, अग्नि, वायु और मेघ आदिकके आश्रय से चलनेवाले चारणोका 'तन्तु श्रेणी' चारणो में अन्तर्भाव हो जाता है कि वे अनुलोम और प्रतिलोम गमन करनेमें जीवोको पीडा न करनेकी शक्तिसे संयुक्त है। ७ धारा व ज्योतिष चारण निर्देश
ति प ४ / १०४४,१०४६ अविराहिय तल्लोणे जीवे व्रणमुक्कवारिधाराण । उवरि ज जादि मुणी सा धाराचारणा ऋद्धि । १०४४। अब उड्ढतिरियपसरे किरणे अविल बिदूण जोदीण । ज गच्छेदि तवरसी सा रिद्धी जोदि चारणा णाम । १०४६। जिसके प्रभाव से मुनि मेधोरो छोडो गयी जलधारा स्थित जो बोको पीडान पहुँचाकर उनके ऊपर से जाते है, वह धारा चारण द्वि है । १०४४। जिससे तपस्त्री नीचे ऊपर और तिगो केशली ज्योतिषी देवोके गानो विरोका अवलम्बन करके गमन करता है वह ज्योतिश्चारण ऋद्धि है | १०४६ । ( इन दोनो का भी पूर्व बाले शीर्षक में दिये धवला ग्रन्थके अनुर तन्तु श्रेणी ऋद्धि अन्तर्भाव हो जाता है)
८. फल पुष्प बीज व पत्रचारण निर्देश
ति प ४/१०३८-१०४० अविराहिदूण जीवे तल्लोणे बणफलाण विविहाण | उवरिम्मि जपधावदि स च्चिय फलचारणा रिद्धी । १०३८ । अविराहिंदू जीवे विहान पुप्फा उबरिम्मि ं पराप्यदि सा रिफा १०२०१ हिदू जी सही बहुविहाण पत्ताण । जा उवरि बच्चदि मुणी सा रिद्धी पत्तचारणा णामा | १०३ | - जिस ऋद्धिका धारक मुनि वनफलोमें, फूलोमें, तथा पत्तो में रहनेवाले जोवोकी विराधना न करके उनके ऊपरसे जाता है वह फलचारण, पुष्पचारण तथा पत्रचारण नामक ऋद्धि है ।
ध १/२१,१७/७६-७,८१ ५ तंतुफल पुप्फीजचारणाणं पि जलचारणाणं व देही पिपलिया विचारणा फलधारणेस अभाव त जोपरिहरणतं पठि भेदाभावादी संकरतण पवालादिचारणाण पुप्फचारणेसु अंतब्भावो, हरिदकायपरिहरणकुसन्नत्तेण साहम्मादो।८१/५१ - तन्तुचारण, फलचारण, पुष्पचारण और बोजचारणका स्वरूप भी जलचारणोके समान कहना चाहिए (अर्थात् उनमें रहने वाले जोवोको पीडा न पहुँचाकर उनके ऊपर गमन करना) । ७६-७ । कुंथुजीव, मुत्कण, और पिपीलिका आदि परसे संचार करनेवालोका फलचारणो में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, इनमें सजीवो के परिहारकी कुशलताकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है । पत्र, अकुर, तृण और प्रवाल आदि परसे संचार करनेवालोका पुष्पचारणीमें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, हरितकाय जीवोके परिहारकी कुशलताकी अपेक्षा इनमें समानता है ।
४५३
५. तपऋद्धि निर्देश
५. तपऋषि निर्देश
१. उग्रतपऋद्धि निर्देश
ध १/४,१,२२/८७-५, ८६-६ उग्गतवा दुविहा उग्गुग्गतवा अवद्विदुग्गतवा चेदि । तत्थ जो एक्कोववास काऊण पारिय दो उववासो करेदि. पुरविपारि तिमि उपवास करेदि । एवमेत्तरी जीवद त तिगुत्तिगुत्तो होदूण उपवासे करे तो उम्मगतवो णाम । एदस्सुववास पारणाणणे सुत्तं - " उत्तरगुणिते तु धने पुनरप्यष्टापितेऽत्र गुणमादिय उत्तरविशेषिति च योग्याग्ये २३ । इत्यादि तत्थ दिवखट्ठेमेगीवबासं वाऊण पारिय पुर्णा एक्वहंतरेण रोग धीयवासी जादो
वासेण विहर तस्स अट्ठमोबवासी जादो एव दसम लिसादिकमेण हेट्ठा ण पदंतो जाव जीवितं जो विहरदि अवट्रिट्ठदुग्गतवो णाम । एसिमेोदि
- उग्रतप
के धारक दो प्रकार है - उग्राग्रतप ऋषि धारक और अवस्थितउग्रतप ऋद्विध धारक । उनमें जो एक उपवासको करके पारणा कर दो उपवास करता है, पश्चात् फिर पारणा कर तीन उपवास करता है । इस प्रकार एक अधिक वृद्धिके साथ जीवन पर्यन्त तीन सियोसे रक्षित होकर उपवास करनेवाला 'उग्रोग्रतप' ऋद्धिका धारक है। इसके उपवास और पारणाओका प्रमाण लानेके लिए सूत्र - (यहाँ चार गाथाएँ दी है जिनका भावार्थ ग्रह है कि १४ दिन में १० उपवास व ४ पारणाएँ आते है। इसी कमसे आगे भी जानना) (ति ४/९०५१०५१) दीक्षा के लिए एक उपवास करके पारणा करे, पश्चात् एक दिनके अ तरसे ऐसा करते हुए किसो निमित्तसे षष्टशेपवास (बेला) हो गया फिर पूर्वाद हो उस पास बिहार करनेवाले के (कदाचित् ) अष्टमोपवास (तेला) हा गया। इस प्रकार दशमद्वादशम आदि क्रमसे नीचे न गिरकर जा जीवन पर्यन्त विहार करता है, वह अवस्थित उग्रतप ऋद्धिका धारक कहा जाता है। यह भी तपका अनुष्ठान वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे होता है । ( रा वा ३/३६/३ २०३ / ८) (चा. सा २२० /१) ।
२. घोर तपऋषि निर्देश
[वि.] ४१०५५ जनसम्पमुहाणं रोगेणच्चतुपी साईदि दुर्धरतव जोए सा घोरतवरिधी । १०५५ ।
वदसि
-
६/४.९.२६/१२/२ उनवासमासीनमासो अनमोदयिएको उतिपरिचरे गोयराभिग्गहो, रसाउहजद्दोयणभयण, वित्तियणासणेसु वय वग्घ-तरच्छ छल्लादिसावयसेमियासुसज्ममा काम से सुतिय हिमवासादिशिअम्भोका सरुवखमूलादारणजागग्गण । एवमब्भं तर बेसु वि उक्कट्ठतवपत्रणा कायव्या। एसो बारह विह वि तबो कायरजाणं रज्झसजणणो त्ति घोरत्तवो । सो जेभिते घोरत्तवा । बारसविहतबकट्ठट्ठा वट्टमाणा घोरतवा त्ति भणिद होदि । एसा वि तवणि दरिद्धो चेव, अण्णहा एवं विहाचरणाणुवत्रत दो। (ति प) जिसके बल पर और शुनादि रोगसे शरके अध्यन्त पीडित होने पर भी साधुजन दुर्धर तपको सिद्ध करते है, वह घोर तपऋधि है । १०५५। उपवासोमे छह मासका उपवास अमोदर्य पोमे एक ग्रास वृतिपरिवाओ मे चौराहेने भिक्षाकी प्रतिज्ञा, युक्त बोदनका भोजन वनों में वृक, व्याघ्र, तरस, छत्रल्ल आदि श्वापद अर्थात् हि सजीवोसे सेवित साध्य आदि (सोको वियोगे निवास, कायपलेशों में तीव्र हिमालय आदिके अन्तर्गत देशो मे खुले आकाश के नीचे.. वृक्षमूल में, आतापन योग अर्थात् ध्यान ग्रहण करना। इसी प्रकार अभ्यन्तर तपो में भी उत्कृष्ट तपकी प्ररूपणा करनी चाहिए। ये बारह प्रकार ही तर कायर जनोको भयोत्पादक है, इसी कारण घोर तप
अथवा
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ऋदिध
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कहलाते हैं । वह तप जिनके होता है वे घोरतप ऋधिके धारक है। बारह प्रकारके तपोकी उत्कृष्ट अवस्था में वर्तमान साधु घोर तप कहलाते है, यह तात्पर्य है । यह भी तप जनित (तपसे उत्पन्न होनेवाली) ऋद्धि ही है, क्योंकि, बिना तपके इस प्रकारका आचरण बन नहीं सकता। (रावा. ३/३६/३/२०३/१२). ( चा सा २२२ / २) | ३. घोर पराक्रम तप ऋधि निर्देश
सिमसार
=
पि. ४/१०५६-१०५७ विमलतरावा तिहुवण संहरणकरसतिसाकयमुदिरसण समस्या १०५६ सहस सोसणमा जाति जी पिणो घोरपरकमवति सा रिद्धी । १०५७। जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनि जन अनुपम एवं बृद्धिगत तपसे सहित दोगी शोको के सहार करने की शक्तियुक्त, कंटक, शिना, अग्नि, पर्वत, मुख तथा उनका आदिके बरसाने में समर्थ और सहसा सम्पूर्ण समुद्र सलिलसमुह सुलाने की शक्तिले भी संयुक्त होते है यह घोर पराक्रम-तप है।९०६६
१०२७० (रा. बा. २/३६/३/२०३/१६), (घ४/४.१.२७/१३/२). (चा, सा. २२३ / १)
४. घोर ब्रह्मवयं तप ऋद्धि निर्देश
ति. प. ४/१०५८-१०६० जोए ण होति मुणिणो खेत्तम्मि वि चोरपहुदिबाधाओं कालमहाजुद्रादो रिधी चोराचारि ९३८ स
उसमे चारितावरणमोहम्मस्स जा दुस्सम पास शिक्षी सा घोरब्रह्मचारिता | १०५६। अथवा - सव्वगुणेहि अघोरं महेसिणो ब्रह्मसहचारितं । विष्फुरिदाए जीए रिद्धी साघोरब्रह्मचारिता (१०६०।" - जिससे मुनिके क्षेत्रमें भी चौरादिकको बाधाएँ और काल एवं महापादि नहीं होते है, यह 'चोर र २०५८ (ध. ३/४.१.२६ / ६४/३) (वा सा २२३ / ४) पारित्रमोहनीयका उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर जो ऋद्धि दुस्वप्नको नष्ट करती है तथा जिस के आविर्भूत होनेपर महर्षिजन सब गुणों के साथ अपर अर्थात अविनश्वर ब्रह्मचर्यका आचरण करते है वह अघोर ब्रह्मचारित्व ऋद्धि है | १०५६- १०६०। ( रा वा तथा चा सा में इस लक्षणका निर्देश ही घोर गुण ब्रह्मचारीके लिए किया गया है) (रा. वा ३/३६/३/२०३/१६), (चा. सा. २२३/३) ।
६. ६/४.२६ / ६३-६, १४-२ घोरा रद्दा गुणा जैसि ते पोरगुणा कथं चरासादिगुणा चोर चोरकलकारिसजिगादो। ६४६ । • • ब्रह्म चारित्र पचवत समिति त्रिगुप्त्यात्मकम् शान्तिपुष्टिहेतुत्वात् । अघोरा शान्ता गुणा यस्मिन् तदघोरगुणं अघोरगुणं, ब्रह्मचरन्तीति अघोरगुचारिण'। एत्थ अकारो विण्ण सुणिज्जदे । सधिदि साशे । १६-२१ अर्थात है गुण जिनके वे पोर गुण कहे जाते है। प्रश्न- चौरासी लाख गुणोके घोरत्व कैसे सम्भव है । उत्तर- घोर कार्यकारी शक्तिको उत्पन्न करनेके कारण उनके घोरत्व सम्भव है। ब्रह्मका अर्थ पाँच पाँच समिति और तीन गुतिस्वरूप चारित्र है, क्योंकि वह शान्तिके पोषणका हेतु है। अमोर अ शान्त है गुण जिसमें वह अघोर गुण है । अघोर गुण ब्रह्म ( चारित्र) का आचरण करनेवाले अघोर गुण ब्रह्मचारी कहलाते है। (भावार्थअघोर शान्तको कहते है । जिनका ब्रह्म अर्थात् चारित्र शान्त है उनको अधोर गुण ब्रह्मचारी कहते है। ऐसे मुनि शान्ति और पुष्टि के कारण होते है, इसीलिए उनके तपश्चरण के माहात्म्यसे उपरोक्त ईति भीतियुद्ध दुर्भिक्षादि शान्त हो जाते है (चा, सा २२२ / ३ ) |
wid
• प्रश्न--'णमो घोरगुणबम्हचारीण' इस सूत्र मे अघोर शब्दका अकार क्यों नहीं सुना जाता उत्तर- सन्धियुक्त निर्देश होनेसे |
२. घोर गुण और घोर पराक्रम तपमे अन्तर
ध, १/४,१.२८/६३/८ ण गुण परवकमाण मेयत्त, गुणजणि दसत्तीए परक्कमसादो गुण और पराक्रम के एक नहीं है, क्योंकि गुण से उत्पन्न हुई शक्तिकी पराक्रम सज्ञा है ।
।
६. बलऋद्धि निर्देश
५. तप्त दीप्त व महातप ऋद्धि निर्देश
ति प. ४/१०५२-१०५४ बहुविहउववासेहि रविसमवड्ढत काय किरणोघो । कायमण वयणबलिणो जीए सा दित्ततवरिद्धी । १०५२। तत्ते लोहकढाहे पडिक जीए भुवं किहि पाहि सा विभागाहि तत्ततवा | १०५३। मदरपंत्तिप्पमुहे महोववासे क्रेदि सब्वे बि । चउसण्णाण बलेण जीए सा महातवा रिद्धी । १०५४ |
घ. १/४.१.२३/१०/५ सिण केवल दिदिवितुमतो विवड्ढदि । तेण ण तेसि भुत्तिवि तेण कारणाभावादो। ण च भुक्खा दुक्ख व समणट्ठ भुजति, तदभावादी । तदभावो कुदोवगम्मदे । = जिस ऋद्धि के प्रभाव से मन, वचन और कायसे बलिष्ठ ऋषिके बहुत प्रकारके उपवासो द्वारा सूर्य के समान दीप्ति अर्थात् शरीरकी किरणों
समूह बढ़ता हो वह 'दीप्त तप ऋषि' है । १०५२। (रा. वा ३।३६/ ३, २०३ / ९ ); (चासा २२१ / २ ) | ( धवला में उपरोक्तके अतिरिक्त यह और भी कहा है कि उनके केवल दीति हो नही बढ़ती है, किन्तु भी महता है। इसीलिए उनके आहार भी नहीं होता, क्योकि उसके कारणोका अभाव है। यदि कहा जाय कि भूखके दुखको शान्त करनेके लिए वे भोजन करते हैं सो भी ठीक नहीं है. क्योकि उनके भूखके दुखका अभाव है ।) तपी हुई लोहेकी कडाहीमें गिरे हुए जण समान जिस पिसे खाया हुआ पातुओं सहित क्षीण हो जाता है अर्थात्रादि रूप परिणमन नहीं करता है, वह निज ध्यामसे हुई रात है । १०५३० (४. १/४.१.२४/१२/१). ( चा सा मुनि चार सम्मति स अवधि मन पर्यय) के मससे मन्दिर पंक्ति प्रमुख सब ही महाद उपवासको करता है वह 'महा तप ऋद्धि' है । (रा. वा. ३/३/६३/ २०३/११) ।
( रा वा ३ / २२ / ३ / २०३/१०). २२१/३)
६/४१२६/११/२ अणिमादिगुणोवेदो जलचरणादिविह चारणगुणात करियो कुरतसरी पो विरो सव्वोसही सरूवो पाणिपतणिवदिदसव्वहारो अभियसादसरूवेण लावणसमत्यो समसहितो व अर्णतवलो आसीदिठि तत्तव सविहरो मंदि द ओहि ग दिविवारी मुगी महातको मकस्मात
महत्त्व हेतुस्तपोविशेषो महानुच्यते उपचारेण स येषा ते तपस' इति सिद्धत्वात् । अथवा महसा हेतु तप उपचारेण महा इति भवति । = जो अणिमादि आठ गुणोसे सहित है. जलचारणादि आठ प्रकारके चारण गुणोसे अलकृत है, प्रकाशमान शरीर प्रभासे संयुक्त है, दो प्रकारकी अक्षो से युक्त है, सर्वोष स्वरूप है, पाणिपात्र में गिरे हुए आहारको अमृत स्वरूपसे पलटाने में समर्थ है, समस्त इन्द्रो से भी बन सके धारक है. आशीष और सिन्धियो समय है. से युक्त है, समस्त विद्याओके धारक है, तथा मति श्रुत, अवधि, मन पर्यय ज्ञानोसे तीनो लोको व्यापारी जाननेवाले है, वे मुनि 'महातपधि के धारक है। कारण कि महने हेतु विशेषको उपचार महास कहा जाता है। वह जिनके होता है वे महातम ऋषि है, ऐसा सिद्ध है । अथवा, महस् अर्थात् तेजोवा हेतुभूत जो तप है वह उपचार से महा होता है । (तात्पर्य यह कि सातो ऋद्धियोकी उत्कृष्टताको प्राप्त होनेवाले ऋषि महातप युक्त समझे जाते हैं। )
६. बल ऋद्धि निर्देश
४१०६१-१०६६ बलरिद्विधी तिहिप्पा मगवणसरीरयाणभे ए । सुदणाणावरणाए पगडी.ए वीरय तरायाए । १०६१। उक्क्सवख उबसमे सुहुत्तमेत्ततरम्मि सयलसुद । चितह जाणह जीए सा रिद्धी मणबागांना १०६२० जिन्मिदियोइदिय मुदणाणावरण विरिविधणं । उक्कणओवसमे मुहुसमेत तम्मणो ॥१०६॥ समप
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ऋधि
८ रस ऋद्धि निर्देश
मुद जाणइ उच्चारइ जोए विष्फुर तीए । असयो अहिकठो सा रिदीउ णेया वयणबलणामा ।१०६४। उक्कस्सख उसमे पविमेसे विरिपविग्धपगढीए।मासचउमासपमुहे काउसग्गे वि समहीणा ।१०६५। उच्चट्ठिय तेल्लोक्कं झत्ति कणि टुंगुलीए अण्ण त्य । घविद जीए समत्था सा रिद्धी कायबलणामा ।१०६६। मन वचन और कायके भेदसे बल ऋद्धि तीन प्रकार है। इनमें से जिस ऋदिधके द्वारा श्रुतज्ञानावरण ओर वीर्यान्तराय इन दो प्रकृतियोका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर मुहर्तमात्र कालके भीतर अर्थात् अन्तमु हत्त काल में सम्पूर्ण श्रुतका चिन्तवन करता है वह जानता है, वह 'मनोवल नामक ऋद्धि है ।१०६१ १०६२।जिह्वन्द्रियावरण,नोइन्द्रियावरण,श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर जिस ऋद्धिके प्रगट होनेसे मुनि श्रमरहित और अहीनकठ होता हुआ मुहर्तमात्र काल के भीतर सम्पूर्ण श्रुतको जानता व उसका उच्चारण करता है.उसे वचनबल' नामकऋद्धि जानना चाहिए।१०६३-१०६४। जिस ऋद्धिके बल से वीर्यान्तराय प्रकृतिके उत्कृष्ट क्षयोपशमको विशेषता होनेपर मुनि, मास व चतुर्मासादिरूप कायोत्सर्ग को करते हुए भी श्रमसे रहित होते है, तथा शीघतासे तीनों लोकोको कनिष्ठ अंगुली के ऊपर उठाकर अन्यत्र स्थापित करने के लिए समर्थ होते है, वह 'कायबल' नामक ऋद्धि है । १०६५-१०६६। (रा. वा ३/३६/३/२०३/१६). (ध ६/४,१. ३५-३१/-88); (चा. सा./२२४/१) । ७. औषध ऋद्धि निर्देश
१. औषध ऋद्धि सामान्य रा बा. ३/३६/३/२०३/२४ औषधिरष्टविधा-असाध्यानामप्यामयानी सर्वेषां विनिवृत्तिहेतुरामर्शश्वेलजन्लमल विट सौंषधिप्राप्तास्याविषदृष्टिविषविकल्पात । - असाध्य भी सर्व रोगोकी निवृत्तिकी हेतुभूत औषध-ऋद्धि आठ प्रकारकी है-आमर्ष, ६वेल, जल्ल, मल, विट् , सर्व, आस्याविष और दृष्टिविष । (चा सा २२५/१)।
२. आमर्ष श्वेल जल मल व विट औषध ऋद्धि ति प ४/१०६८-१०७२ रिसिकर चरणादीणं अखिल यमेतम्मि। जीए पासम्मि । जोवा होति णिरोगा सा अम्मरिसोसही रिद्धी ।१०६८। जोए लालासेमच्छीमल सिहाणआदिआ सिग्ध । जीवाणं रोगहरणा स च्चिय खेलोसही रिद्धी ।१०६६। सेयजलो अगरय जल्लं भण्णेत्ति जीए तेणावि । जीवाण रोगहरणं रिद्धी जस्लोसही णामा ।१०७०। जोहोट ठद तणासासोत्तादिमलं पि जीए सत्तीए । जोत्राग रोगहरण मलोसही णाम सा रिद्धी ।१०७१ - जिस ऋदिधके प्रभावसे जीव पासमें आने पर ऋषिके हस्त व पादादिके स्पर्शमात्र से ही निरोग हो जाते है. वह 'आमाँषध' ऋद्धि है ।१०६८। जिस ऋद्धि के प्रभावसे लार, कफ, अक्षिमल और नासिकामल शीघ ही जीवोके रोगो को नष्ट करता है वह 'वेलौषध ऋद्धि है।१०६६। पसोनेके आश्रित अगरज जलल कहा जाता है । जिस ऋद्धिके प्रभावसे उस अगर जसे भी जीवो के रोग नष्ट होते है,वह 'जल्लौषधि' ऋद्धि कहलाती है।१०७०। जिस शक्तिमे जिहा. ओठ, दाँत, नासिका और श्रौत्रादिकका मल भी जीवोके रोगों को दूर करनेवाला होता है, वह 'मलौषधि नामक ऋद्धि है। (रा वा. ३/३६/३/२०३/२५), (ध. ६/४,१,३०-३३/६५-६७), (चा. सा. २२५/२),
२. आम@षधि व अघोरगुण ब्रह्मचर्य मे अन्तर घ. ६/४,१,३०६६/१ तवोमाहप्पेण जेसि फासो सयलोसहरूवत्तं पत्तो तेसिमाम्मरिसो सहिपत्ता त्ति सण्णा ।=ण च एदेसिमघोरगुणबंभयारीणं अंतब्भावो, एदेसि वाहिविणासणे चेव सत्तिदंसणादो। तप के प्रभावसे जिनका स्पर्श समस्त औषधियोंके स्वरूपको प्राप्त हो गया है,उनको आमाँषधि प्राप्त ऐसी संज्ञा है। इनका अघोर गुणब्रह्मचारियों में अन्तर्भाव नहीं होता, क्योकि, इनके अर्थाव अघोरगुण ब्रह्मचा
रियोके केवल व्याधिके नष्ट करने में ही शक्ति देखी जाती है। (पर उनका स्पर्श औषध रूप नही होता)।
३. सर्वोषध ऋद्धि निर्देश ति.प./४/१०७३ जीए पस्स जलाणिलरोमणहादीणि वाहिहरणाणि । दुक्करव जुत्ता रिद्री सम्वोही णामा ।१८७३। जिस ऋद्विधके मलसे दुष्कर तपसे युक्त मुनियो का स्पर्श किया हुआ जल व वायु तथा उन के रोम और नरवादिक व्याधिके हरनेवाले हो जाते हैं, वह सर्वोषधि नामक ऋद्धि है। (रा वा ३/३६//२०३/२६). (चा सा २२५/१२) ध, १/४.१.३४/१७/६रस रुहिर-मास-मेदछि -मज्ज-मुक्क-पुप्फस-रवरीसकालेज्ज मुत्त-पित्त तुच्चारादओ सव्वे ओसाहत्त पत्ता जेसि ते सव्वासहिषत्ता। - रस, रुधिर, मास, मेदा, अस्थि, मज्जा, शुक्र, पुष्फस खरीष, कालेय, मूत्र, पित्त, अतड़ी, उच्चार अर्थात मल आदिक सब जिनके औषधिपने को प्राप्त हो गये है वे सर्वोष धिप्राप्त जिन है।
४. आस्यनिर्विष व दृष्टिनिविष औषध ऋद्धि ति. प/४/१०७४ १०७६ तित्तादिविविहम्मण्ण विसुजुत्तं जीए वयणमे
तण । पावेदि णिव्विसत्तं सा रिधी बयणणिव्य साणामा ।१०७४। अहया बहुवाहाहि परिभूदा झत्ति होति जीरोगा। सोदु वयण जीए सा द्विधी वयगणिव्विसाणामा।१०७ारोगाविसे हि पहदा दिट्ठीए जोए झत्ति पावति । णीरोगणिव्विसत्तं सा भणिदा दिदिणि व्विसा रिद्री ११०७६ रा वा ३,३६,३/२०३/३० उग्र विषसंपृक्तोऽप्याहारो येषामास्यगतो निर्विषीभवति यदीयास्य निर्गत वच श्रवणाद्वा महाविषपरीता अपि निर्विषोभवन्ति ते आस्याविषा != (ति.प.)-जिस ऋद्धिसे तिक्तादिक रस व विषसे युक्त विविध प्रकारका अन्न वचनमात्रसे ही निविषताको प्राप्त हो जाता, वह 'वचननिर्विष' नामक ऋद्धि है ।१०७४। (रावा)- उन विषसे मिला हुआ भी आहार जिनके मुख में जाकर निविप हो जाता है, अथवा जिनके मुख से निकले हुए वचनके सुनने मात्र से महाविष व्याप्त भो कोई व्यक्ति निविष हो जाता है वे 'आस्याविष' है । (चा सा. २२६/१) । (ति प ) अथवा जिस अधिके प्रभावसे बहुत व्याधियोसे युक्त जीव, ऋषिके वचनको सुनकर ही झटसे नीरोग हो जाया करते है, वह वचन निविष नामक ऋदिध है ।१०७५॥ रोग और विषसे युक्त जीव जिस ऋद्धिके प्रभावसे झट देखने मात्रसे ही निरोगता और निर्विषताको प्राप्त कर लेते है, वह 'दृष्टिनिविष' ऋद्धि है ।१०७६ । (रा वा ३/३६/३/२०३/३२), चा-सा २२६/२) ८ रस ऋद्धि निर्देश
१. आशीविष रस ऋद्धि ति प.४/१०७८ मर इदि भणिदे जोओ मरेइ सहस त्ति जीए सत्तीए ।
दुक्खरतवजुदमुणिणा आसीविस णाम रिद्धी सा। -जिस शक्तिसे दुष्कर तपसे युक्त मुनिके द्वारा 'मर जाओ' इस प्रकार कहने पर जीव सहसा मर जाता है, वह आशीविष नामक ऋद्धि कही जाती है। (रा वा, ३/३६/३/२०३/३४), (चा सा २२६/५) ध/४.१,२०/८५/५ अविद्यमानस्यार्थस्य आशंसनमाशी, आशीविष एष ते आशीविषा । जेसिज पडि मरिहि त्ति वयण णिप्पडिदं तं मारेदि, भिवरवं भमेत्तिवयणं भिक्ख भमावेदि, सीसं छिज्जउत्ति वयणं सीस छिददि, आसीविसा णाम समणा । क्धं वयणस्स विससण्णा । विसमिब विसमिदि उवयारादो। आसी अविसममियं जेसि ते आसी विसा। जेसि वयण थावर जगम-विसपूरिदजीवे पड़च्च 'णिविसा होतु' त्ति णिस्सरिद ते जीवावेदि । बाहिवेयण-दालिद्दादिविलय पड्डुच्च णिप्पडितं स तं तं त ज्ज रेदि ते वि आसीविसात्ति उत्तं होदि । = अविद्यमान अर्थ की इच्छाका नाम आशिष है। आशिष है विष (वचन) जिनका वे आशीविष कहे जाते है। 'मर जाओ' इस प्रकार जिनके प्रति निकला हुआ जिनका बंधन उसे मारता
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ऋषि
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है, 'भिक्षा के लिए भ्रमण करो' ऐसा वचन भिक्षार्थ भ्रमण कराता है, 'शिरका छेद हो' ऐसा बचन शिरको छेदता है, (अशुभ) आशीविष नामक साधु है। प्रश्न-वचनके विष संज्ञा कैसे सम्भव है 1 उत्तरविषके समान विष है । इस प्रकार उपचारसे वचनको विष सज्ञा प्राप्त है। आशिष है अविष अर्थात् अमृत जिनका वे शुभ आशीविष हैं। स्थावर अथवा जगम विषसे पूर्ण जीवोके प्रति 'निर्विष हो' इस प्रकार निकला हुआ जिनका बच्चन उन्हे जिलाता है. व्याधिवेदना और दारिद्र्य आदिके विनाश हेतु निकला हुआ जिनका वचन उस उस कार्यको करता है, वे भी आशय है, यह सुत्रका अभिप्राय है। २. दृष्टिवित्र व दृष्टि अमृत रस ऋद्धि १. दृष्टिविष रस ऋषिका लक्षण
पि. ४/२००६ जीए जीवो दिट्ठी महासिणा रोसमरिवहिदए । हरिदिदा काम सारिद्री १०० जिस ऋद्धिके बल से रोषयुक्त हृदय वाले महर्षिसे देखा गया जीब सर्प द्वारा काटे गये समान मर जाता है, वह दृष्टिविष नामक ऋद्धि है ( रा वा. १/३/३/२०४९), (चास २२७/९)
६] १/४.१.२९/८६० हिरिति चर्मनस तोभयत्र शिशब्दप्रदर्शनाद। तत्साहचर्यात्कर्मणोऽपि रुद्रो आदि फोएदि चितेदि किरियं करेदि वा 'मामि' त्ति तो मारेदि, अण्ण पि असुहकम्मल कृषमाणोदि पिसो नाम दृष्टि शब्द से यहाँ चक्षु और मन (दोनों) का ग्रहण है, क्योकि उन दोनोमें दृष्टि की प्रवृत्ति देखी जाती है। उसकी सहचरता किवाश भी ग्रहण है । रुष्ट होकर वह यदि 'मारता हूँ' इस प्रकार देखता है, (या) सोचता है व क्रिया करता है तो मारता है; तथा क्रोधपूर्वक अवलोकनसे अन्य भी अशुभ कार्यको करनेवाला (अशुभ) दृष्टि कहलाता है ।
२. दृष्टि अमृतरस ऋद्धिका लक्षण
६/४.१.२९/०६/१ एव दिजनिया विजाणिव
Exc
- इसी प्रकार दृष्टि अमृतोका भी लक्ष जानकर कहना चाहिए । (अर्थात् प्रसन्न होकर वह यदि 'नोरोग करता हूँ' इस प्रकार देखता है, (या) सोचता है, व क्रिया करता है तो नीरोग करता है, तथा प्रसन्नतापूर्वक अशोकनसे अन्य भी शुभ कार्यको करनेवाला अमृत कहलाता है) ।
३. दृष्टि अमृत रस ऋद्धि व अघोरब्रह्मचर्य तपमे अन्तर ध. ६४.१.२१ १४/८ अभियानमोगुणवया को मिसेस उवजोगसहेज्जदिट्ठीए दिट्ठिल द्विधजुत्ता दिकिविसा नाम। अघोर गुगमभयारीगण सहधी असं खेज्जा सम्बनगया, एसिम लगाये सियासतद शादी तो अभेद गरि असुवलधोण पउत्ती लद्धिमताणमिच्छाव सबट्टणी । सुहाणं पउत्ती
दोहि विपयारेहि संभवदि तदिच्छाए बिना डिसि णादो। प्रश्न- दृष्टि-अमृत और अघोर गुणब्रह्मचारीके क्या भेद है 1 उत्तर--उपयोगकी सहायता युक्त दृष्टिमे स्थित लब्धि से सयुक्त दृष्टि
कहलाते है। किन्तु अपचारियोकीयों स असंख्यात है । इनके शरीर से स्पृष्ट वायुमे भी समस्त उपद्रवोको नष्ट करनेकी शक्ति देखी जाती है इस कारण दोनोमे भेद है।
विशेष इतना है कि अशुभ लब्धियों की प्रवृत्ति लब्धियुक्त जीवो की इच्छा बढ़ा होती है। किन्तु शुभदियोकी प्रवृत्ति दोनो ही प्रकासे सम्भव है, क्योकि उनकी इच्छा के बिना भी उक्त तदियोकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
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3. क्षीर-मधुसर्पि व अमृनखावी रस ऋषि पि. ४/ १०००-१००० करुणाहारादिया
पार्वति खोरभाव जीए खीरोसवी रिद्धी । १०८० अहवा दुक्ख पहूदी
९. क्षेत्र ऋद्धि निर्देश
जीए मुणिवयण सवण मेत्तेण । पसमदि णरतिरियाणं स च्चिय खीरोसभी की। १०१ क्वाहारादियाणिहोत खणे । जोए महुररसाइ स च्चिय महुवासवी रिद्धी । १०८२ | अहवा दुखदीजीए मुणिवयवमेतेण शासदि परतिरिमाणं चिमवासी रही । १०८३ मुणिपाणिसठियाणि रुक्ताहारा दियाणि जीय खणे । पावति अभियभाव एसा अभियासवी ऋद्धी ॥१०८४। अह्वा दुक्खादोण महेसिवयणस्स सबणकालम्मि । णासति जीए सिग्ध रिधी अभियआसवी णामा । १०८५ | रिसिपाणितलणिवित्त रुक्खाहारादिय पि खमेत्ते । पावेदि सप्रूिव जीए सा पियासी रिवी । १०८६ अहवा दुक्खप्पमुह सवणेण मुर्णिदव्ववयणस्स । उवसामदि जीवाणं एसा सप्पियासवी रिद्धी | १०८७जिससे हस्ततल पर रखे हुए रूखे आहारादिक तत्कालही दुग्धपरिणाम को प्राप्त हो जाते है, वह 'क्षीरसावी' ऋधि कही जाती है । १०८० अथवा जिस ऋद्धि से मुनियोंके वचनोके श्रवणमात्र से ही मनुष्य तियंचोके दुखादि शान्त हो जाते है उसे सीरवी समा चाहिए | १०८१। जिस ऋषि से मुनिके हाथ में रखे गये रूखे आहारादिक क्षणभरमै मधुररसमे युक्त हो जाते है. यह 'मध्यावऋषि है ११०२२० जिसके वचनों के मासे मनुष्यतिfe दुखादिक नष्ट हो जाते है वह मध्वास्रावी ऋद्धि है | १०८३॥ जिस ऋधिके प्रभावसे मुनिके हाथमें स्थित रूखे आहारादिक क्षणमात्रमे अपनेको प्राप्त करते है, यह अमृता नामक है | १०६४ | अथवा जिस ऋद्विधसे महर्षिके वचनोके श्रवण काल में यीम ही दुखादि नष्ट हो जाते है. वह अमृतसामी नामक ि है | १०८ ५। जिस ऋधिसे ऋषिके हस्ततल में निक्षिप्त रूखा आहारादिक भी क्षणमात्रमे पृतरूपको प्राप्त करता है. यह
है
अथवा जिस के प्रभारी मुनी दिव्य सुनने से ही जीयोके बुखादि शान्त हो जाते है, वह सी १०८ (रावा ३/३६/३/२०४/२५). ( १/४.२.२८/४१/६११०१) ( च सा २२७/२) - नोट-धवला में हस्तपुटवाले लक्षण है। वचन वाले नही । रा. वा ब चा सा, में दोनो प्रकारके है ।
४. रस ऋद्धि द्वारा पदायका क्षोरादि रूप परिणमन
कैसे सम्भव है ?
[ ६६४१२८/१००/ १ रातरेस दिव्याणं तखणादेव सीरासादसरूवेण परिणामो। ण अभियसमुद्दम्मि णिर्वादिदविसस्सेव पचमहव्वय समिइ तिगुत्ति लावघडिदज लिउणिव दियाण तदविरोहादो । प्रश्न - अन्य रसोमें स्थित द्रव्यका तत्काल ही क्षीर स्वरूपसे परिणमन कैसे सम्भव है 1 उत्तर नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार अमृत समुद्र में गिरे हुए बिषका अमृत रूप परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियोके समूह से घटित अजलिपुटमें गिरे हुए सब आहारोका क्षीर स्वरूप परिणमन करनेमें काई विरोध नही है ।
९. क्षेत्र ऋद्धि निर्देश
१. अक्षीण महानस व अक्षीण महालय ऋद्धिके लक्षण ति प ४ / १०८६ - १०६१ लाभ तरायकम् मक्ख उबसमसजुदए जीए फुडें । मुणिभुत्तमसेसमण्ण धामत्थ पिय ज क पि । १०८६ तद्दिवसे खज्जत वधावारण चक्कवट्टिस्स । भिज्जइ न लवेण वि सा अक्खीणमहाणसा रिद्धो । १०६०। जीए चउधणुमाणे समचउरसालयम्मि परतिरिया । मतियसखेज्जा सा अक्खीणमहालया रिद्धी । १०६१। लाभान्तरायकर्मक्षयोपशमयुक्त जिसके प्रभावसे मुनिके आहार से शेष, भोजनशालायें रखे हुए अमेज भी प्रिय वस्तुको यदि उस दिन चक्रवर्तीका सम्पूर्ण क्टक भी खावे ता भी वह लेशमात्र क्षीण नही होता है, वह 'अक्षीणमहानसिक' ऋद्धि है । १०८६-१०६६। जिस ऋद्धिसे समचतुष्कोण चार धनुषप्रमाण क्षेत्र में असख्यात मनुष्य
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ऋषि
तियंच समा जाते है, वह 'अक्षीण महालय' वृद्धि है १०० (रा.मा. ३/३६ / ३ / २०४ / ६ ), ( ध ६/४, १,४२/१०१/८ / केवल अक्षीण महानसका निर्देश है. अक्षीण महालयका नही), (चासा २२८ / १) ।
१०. ऋद्धि सामान्य निर्देश
१. शुभ ऋद्धि की प्रवृत्ति स्वतः भी होती है पर अशुभकी प्रयत्न पूर्वक ही १ / ४.१.२१ / १५ / ९ असुहसी पद्धती लमिताभसहनी सुहाग ली पडती पुरा दोहि विपयारेहि संभवदि तदिच्छाए विशा वि पउत्तिद सणादो । अशुभ लब्धियोकी प्रवृत्ति धियुक्त जीमोकी बारी होती है किन्तु शुभ य की प्रवृत्ति दोनो हव स्वत सम्भव है, क्योंकि, इच्छा के बिना भी उक्त लब्धियोको प्रवृति देखी जाती है।
२ एक व्यक्तिमें युगपत् अनेक ऋद्धियोंकी सम्भावना घ. १ / १,१, ५६ / २६८/६ नैष नियमोऽस्त्येकस्मि
नर्द्धयो
भूयस्यो भवन्तीति । गण भृत्सु सप्तानामपि वृद्धीनामक्रमेण सवोपलम्भाद। आहारय सह मनपर्ययस्य विरोधो रयते इति नाम न चानेन विरोध इति सर्वाभिर्विरोध पार्यतेऽव्यवस्थापत्तेरिति । एक आत्मामे युगपत् अनेक ऋधियाँ उत्पन्न नही होती, यह कोई नियम नही है, क्योंकि, गणधरो के एक साथ सातो ही ऋद्धियोका सद्भाव पाया जाता है। प्रश्नआहारक ऋविके साथ मन पर्ययका तो विरोध देखा जाता है। उत्तर - यदि आहारक ऋद्धिके साथ मन पर्ययज्ञानका विरोध देखने में आता है तो रहा आवे । किन्तु मन पर्ययके साथ विरोध है, इसलिए दूसरो सम्पूर्ण के साथ विरोध है ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अन्यथा अव्यवस्थाको आपत्ति आ जायेगी । (विशेष देखो 'गणधर ")
.
३. परन्तु विरोधी ऋद्धियों युगपत् सम्भव नहीं
१३/४.३.२५/३२/३ पत्तस जस्स अणिमादिविव्विसमय आहारसरी रुद्रावणसभवाभावादो-अणिमादिधियो सम्पन्न प्रमत्त सयत जीव के विक्रिया करते समय आहारक शरीरकी उत्पत्ति सम्भव नही है । गोजी / २४२/५०५ वे हार किरिया सम पमन्त विश्वहि । जोगो का एक्केप य होदि नियमेण ॥ गो.जी. मप्र २४२/५०० प्रतविरते कपयोगक्रिया आहारक्योगक्रिया च सम युगपन्न संभवत । यदा आहारकयोगमवलम्ब्य प्रमत्तसय तस्य गमनादिक्रिया प्रदायिनि क्रियागमवलम्ब्य किया तस्य न पटले आहारकविभ्यपदवृत्त विरोधात् अनेन गणधरादिनामितर गप सम्भव दर्शित।
गुणस्थानमे कथिक और आहारक शरीरकी क्रिया युगपद नहीं होती और योग भी नियम एक कालमे एक ही होता है। प्रमत विरत पट्ट गुणस्थानवर्ती मुनि समकाल
ग्रक योगको क्रिया अर आहारक काययोगकी क्रिया नाही । ऐसा नाहीं कि एक ही काल विषे आहारक शरीरको धारि गमनागमनादि अभी क्रिया के बल से वे क्रियायोगको धारि विक्रियासम्बन्धी कार्य भी करें दोऊमें सौ एक ही होड़। यादें यह विकनिक और वृद्धि युगपत् प्रमो विरुध नाहीं । ऋद्धि गौरव गौरव
ऋद्ध प्राप्त आर्य-आर्य
ऋद्धि मद मद ।
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ऋद्धीश - सौधर्म स्वर्गका १३वाँ पटल- दे स्वर्ग ५ / ३ । ऋषभ स्वर सप्तकमे से एक दे. स्वर ।
ऋषभनाथ (म सर्ग / श्लोक पूर्णक ११० भव'जय (५/१०५), १० को भव में राजा 'महाबल' हुए (४ / १३३) तब किसी मुनिने बताया कि अगले दसवे भव में भरत क्षेत्रके प्रथम तीर्थङ्कर हो । पूर्व केन भव में 'ललिताग' देव हुए (५/२५३), ८ वे भव में (६/२६) ७ भव में भोग-भूमिज आर्य (१/३३), 4 ठे भव मे 'श्रीधर' नामक देव (६/१८५), ६ वे भव मे 'सुविधि' (ही १२१-१२२), चौथे व अन्युरोन्द्र १०११७१), तीसरे भाव मे बज्र नाभि (१९८१) और पूर्व के दूसरे भने अर्थात तीर्थसे पूर्ववाले भय में समर्थसिद्धि 'अमिन्द्र' (२१/९२१) वर्तमान मे इस चौबीसी के प्रथम तीर्थङ्कर हुए । (१३/१), (म पु ४७/३५७३५) आप अन्तिम कुलकर नाभिराय के पुत्र थे। ( १३ / १ ) उस समय प्रजाको असि मसि आदि छह कर्म सिखाये (१६/१७६.१००) । (त्रि. सा / ८०२), तथा क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन वर्गों की स्थापना की (१६ / १८३ ) | आषाढ कृ १ को कृतयुगका आरम्भ होनेपर आप प्रजापतिको उपाधिमे विभूषित हुए (१६ / ११०) नृत्य करते-करते नीलांजना नामकी अप्सरा के मर जानेपर आपको ससारसे वैराग्य आ गया (१७/७.११) एक वर्ष तक आहारका अन्तराय रहा। एक वर्ष पश्चात् राजा श्रेयासके यहाँ प्रथम पारणा हुआ (२०/८०), यद्यपि दीक्षा लेते समय आपने केश लॉच कर लिया था पर एक वर्ष के योगके कारण केश बढकर लम्बी लम्बी जटाऍ हो गयी थी। --- -दे केश लोच । जन्म व निर्वाण काल सम्बन्धी - दे मोक्ष ४ / ३) उनके पाँच कल्याणकोका क्षेत्र, काल, उनकी आयु व राज्य काल आदि तथा उनका सघ आदि सम्बन्धी परिचय सीर्थदूर ऋषि-मगोति सजदोति यरिविमुणिसापुति बीरागोति नामणि विहिदा अनगार भरतोि
ऋषिदास
।
- उत्तम चारित्रवाले मुनियोंके ये नाम है- श्रमण, सयत, ऋषि, मुनि, साधु वीतराग, अनगार, भदत, दान्त, यति ।
प्र. साता २४६ में तस्वापि "ऋषि प्राप्त साधुको ऋषि कहते है (चा. सा, ४०/९ में घृत (साध ७/२० में उद्धृत) ।
२ ऋषिके भेद व उनके लक्षण
--
प्रसा/ सा. वृ २४ में उद्धृत-- राजाब्रह्मा च देवपरम इति ऋषिर्विक्रियाक्षीणशक्तिप्राप्तो बुद्ध्यौषधीशो वियदयनपटुविश्ववेदी क्रमेण ।" ऋषि चार प्रकार है-राज अधि देव और परम। तिनमे विक्रिया और अक्षीय (क्षेत्र) शक्ति प्राप्त सा राजदि कहना है, बुद्धि औषधि प्रयुक्त साहलाते है आकाशगामी ऋषि सम्पन्न देवनि और विज्ञानी अस भगवान् परमर्षि कहलाते है । (चा सा ४७/१ में उद्वधृत), (सा. घ ७/२० में उद्धृत)
३. अन्य सम्बन्धित विषय
* मुख्य ऋषि गणधर है - गणधर ।
* प्रत्येक तीर्थंकरके तीर्थमे ऋषियोका प्रमाण
तीर्थदुर ।
* पिछले कालके भट्टारक भी अपनेको ऋषि लिखने लग गये थे - जे. २/११
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
ऋषिकेश चतुर्मुख पूजाके कर्ता आचार्य दे वृ. जै शब्दा.द्वि.सं. ऋषिदास- [भगवाद वीरचे तीर्थ के एक अनुत्तरोपपादक
--दे, अनुत्तरोपपादक ।
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ऋषिपंचमी व्रत
१५८
एक संस्थान
ऋषि पंचमी व्रत-वतविधान संग्रह १०६)-कुल समय -५ वर्ष ५ मास, उपवास सख्या-६५, विधि- आषाढ शुक्ल ५ से प्रारम्भ करके प्रति मासकी दो-दो पञ्चमियोको उपवास करे, जाप्यमंत्रनमस्कार मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे। ऋषिपुत्र-निमित्त शास्त्र तथा ऋषिपुत्र संहिताके रचयिता एक ।
ज्यौतिषाचार्य । समय-ई.श. ६-७ की सन्धि । (ती २/२६२.२६६) ऋषि मंडल यंत्र-दे यत्र । ऋषि मंत्र-दे मन्त्र १६ । ऋषिवंश-एक पौराणिक राज्य वश-दे इतिहास १०/४।
[ए]
एकट्ठी-दो के अंकको छ दफे वर्ग करनेस जो सख्या आवे वह
होगी। (त्रि. गा. ६६)-दे बृ. जै. शब्दा द्वि.खंड। एंद्रदत्त-विनयवादी। एक-१. द्रव्यमें एक अनेक धर्म--दे. अनेकांत ४, २. मतिज्ञानका एक भेद-दे मतिज्ञान ४, ३. एक सख्याको नोकृति कहते है-दे.
|प भी कहते है: ४. षद्रव्योमें एक अनेक विभाग--दे द्रव्य ३। एकजाट-८ ग्रहो में ७४वा ग्रह ज्योतिषी देव (त्रि. गा.३६६)
-दे बृ. जै शब्दा द्वि.खड एकत्व-आप्त मी ३४ सत्सामान्यात्त सर्वेक्यं पृथग्द्रव्यादिभेदतः । भेदाभेदव्यवस्थायामसाधारणहेतुबत् १३४. = भेदाभेदकी विवक्षामें असाधारण हेतुके तुल्य सत्सामान्यसे सबकी एकता है और पृथक्
पृथक द्रव्य आदिक्के भेद से भेद भी है। स,सा/आ/परि/शक्ति नं ३१ अनेक पर्यायव्यापकै कद्रव्यमयस्वरूपा एकत्वशक्ति । अनेक पर्यायोमें व्यापक ऐसी एक द्रव्यमयतारूप एकरव शक्ति है। प्र.सा/त/प्र १०६ तद्भावो ांकत्वस्य लक्षणम् । तद्भाव एकत्वका
लक्षण है। आ.प.६ स्वभावानामेकधारत्वादेकस्वभाव. अनेक स्वभावोका एक
आधार होनेपर 'एक स्वभाव' है। वै.द.७/२/१ रूपरसगन्धस्पर्शव्यतिरेकादर्थान्तरमेकत्वम् । -रूप, रस, गन्ध, स्पर्शके व्यतिरेकसे अर्थान्तरभूत एकत्व है। * परके साथ एकत्व कहनेका अभिप्राय-दे कारक २
* परमएकत्वके अपर नाम-दे. मोक्षमार्ग २१५ एकत्व प्रत्यभिज्ञान-दे, प्रत्यभिज्ञान । एकत्व भावना-दे. अनुप्रेक्षा। एकत्व विक्रिया-दे, वैक्रियक । एकत्वानुप्रेक्षा-दे अनुप्रेक्षा। एकदिशात्मक (ध. प्र.२७) one directional एकदेश-दे. देश।
एकनासा-रुचक पर्वत निवासिनी देवी-दे लोक ५/१३ एकपर्वा एक औषधि विद्या-दे. विद्या। एकभक्त एकाशना-दे प्रोषधोपवास/१, २ साधुका मूल गुण
-दे साधु। मू.आ ३५ उदयत्यमणे काले णालीतिय वज्जियम्मि मज्झम्हि। एकम्हि दुअ तिए वा मुहुलकालेयभत्त तु ।३।। - सूर्य के उदय और अस्तकाल की तान घडी छोडकर, वा मध्यकाल मे एक मुहुर्त, दो मुहुर्त, तीन मुहुर्त कालमें एक बार भोजन करना एकभक्त है। (मू आ. ४६२), (विशेष दे. आहार 11/१) एकरात्रि प्रतिमा-भ आ/वि ४०३/१६/७ एकरात्रिभवा भिक्षुप्रतिमा निरूप्यते। उपवासत्रय कृत्वा चतुया रात्री ग्रामनगरादेबहिर्देशे श्मशाने वा प्राड्मुख उदड्मुखश्चैत्याभिमुखो वा भूत्वा चतुरङ्गुलमात्रपदान्तरो नासिकाग्रदृष्टिस्त्यक्तस्तिष्ठेव । सुष्ठ प्रणिहित चित्त चतुर्विधोपसर्गसह. न चलेन पतेव यावत्सूर्य उदेति ।-तीन उपवास करनेके अनन्तर चौथी रात्रिमें ग्राम-नगरादिकके बाह्य प्रदेशमे अथवा श्मशानमें, पूर्व दिशा, उत्तरदिशा अथवा चैत्य (प्रतिमा)के सन्मुख मुख करके दोनो चरणों में चार अंगुल प्रमाणका अन्तर रख कर नासिकाके अग्रभागपर वह यति अपनी दृष्टि निश्चल करता है। शरीरपर का ममत्व छोड देता है, अर्थात कायोत्सर्ग करता हुआ मनको एकाग्र करता है । देव, मनुष्य, तिर्यञ्च व अचेतन इन द्वारा किया हुआ चार प्रकार उपसर्ग सहन करता है। वह मुनि भयसे आगे गमन करता नही और नीचे गिरता भी नहीं। सूर्योदय होने तक वहॉ ही स्थित रहता है । यह एकरात्रि प्रतिमा कुशल है। एकलठाणा-विधान संग्रह २६) - मात्र एक बार परोसा हुआ
भोजन सन्तोष पूर्वक करना। एकल विहारी-मू आ १४६ तबसुत्तसत्तएग्गत्तभावसंघडणधिदि समग्गो य । पविआ आगमबलिओ एयविहारी अणुण्णादो ।१४६। =तप, सूत्र शरीर व मनके बलसे युक्त हो, एकत्व भावनामें रत हो, शुभ परिणाम, उत्तमसहनन तथा धृति अर्थात् मनोबलसे युक्त हो, दीक्षा व आगममें बलवान हो तात्पर्य यह कि तपोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, आचारकुशल व आगम कुशल गुण विशिष्ट साधुको ही जिनेश्वरने अकेले विहारके लिए सम्मति दी है । (और भी दे जिनकल्प)
*पंचमकालमे एकलविहारी साधुका निषेध-दे. विहार । एकलव्य-पा.पु/सर्ग (श्लोक) गुरुद्रोणाचार्यका शिष्य एक भील
था, स्तूपमें गुरुद्रोणाचार्य की स्थापना करके उनसे शब्दार्थ वेधनी विद्या प्राप्त की (१०/२२३); फिर गुरु द्रोणाचार्य के अजुन सहित साक्षात दर्शन होनेपर गुरुको आज्ञानुसार गुरुको अपने दाहिने हाथ का अंगूठा अर्पण करके उसने अपनी गुरुभक्ति का परिचय दिया।
(१०/२६२) एकविंशति गुणस्थान प्रकरण-श्वेताम्बराचार्य सिद्धसैन दिवाकर (ई. ५५०) द्वारा रचित संस्कृत भाषाबद्घ गुणस्थान-प्ररूपक एक ग्रन्थ । एकविध-मतिज्ञान का एक भेद -दे. मतिज्ञान ४। एकशैल-पूर्व विदेहका एक वक्षार, उसका एक कूट तथा उसका
रक्षक देव-दे लोक ५/३ । एकश्रेणी वर्गणा-दे वर्गणा । एकसंख्या-एक संख्याको नोकृति कहते है-दे. कृति । एक संस्थान-एक ग्रह-दे. ग्रह ।
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एकान्त
५९
१. सम्यक् मिथ्या एकान्त निर्देश
एकसे एककी संगति-(ध ५/५ २७) -One to one corres
pondence. एकात-वस्तुके जटिल स्वरूपको न समझनेके कारण, व्यक्ति उसके किसी एक या दो आदि अल्पमात्र अंगोका जान लेने पर यह समझ बैठता है कि इतना मात्र ही उसका स्वरूप है, इससे अधिक कुछ नहीं। अत उसमें अपने उस निश्चयका पक्ष उदित हो जाता है, जिसके कारण वह उसी वस्तुके अन्य सद्भूत अंगोंको समझनेका प्रयत्न करनेकी बजाय उनका निषेध करने लगता है। उनके पोषक अन्य वादियोके साथ विवाद करता है। यह बात इन्द्रिय प्रत्यक्ष विषयोमें तो इतनी अधिक नहीं होती, परन्तु आत्मा, ईश्वर,परमाणु आदि परोक्ष विषयोंमें प्राय. करके होती है। दृष्टिको संकुचित कर देने वाला यह एकान्त-पक्षपात राग-द्वेषकी पुष्टता करनेके कारण तथा व्यक्तिके व्यापक स्वभावको कुण्ठित कर देनेके कारण मोक्षमार्गमें अत्यन्त अनिष्टकारी है । स्योद्वाद-सिद्धान्त इसके विषको दूर करनेको एकमात्र औषधि है। क्यो कि उसमें किसी अपेक्षासे ही वस्तुको उस रूप माना जाता है, सर्व अपेक्षाओसे नही। तहाँ पूर्व कथित एकान्त मिथ्या है और किसी एक अपेक्षामे एक धर्मात्मक वस्तुको मानना सम्यक् एकान्त है।
१ सम्यक् मिथ्या एकान्त निर्देश १ एकान्तके सम्यक् व मिथ्या भेद निर्देश २ सम्यक् व मिथ्या एकान्तके लक्षण * नय सम्यक् एकान्त होती है -दे नय I/२ ३ एकान्त शब्दका सम्यक् प्रयोग ★ एकान्त शब्दका मिथ्या प्रयोग
- एकान्त ४/५ ४ सर्वथा शब्दका सम्यक् प्रयोग * सर्वथा शब्दका मिथ्या प्रयोग
--दे. एकान्त ४/५ २ एवकारको प्रयोग विधि * एवकारके अयोग व्यवच्छेद आदि निर्देश -दे. 'एव' १ एवकारका सम्यक् प्रयोग २ एवकारका मिथ्या प्रयोग ३ एक्कार व चकार आदि निपातोंकी सम्यक् प्रयोग
विधि ४ विवक्षा स्पष्ट कह देनेपर एवकारकी आवश्यकता
अवश्य पडती है ५ बिना प्रयोगके भी एवकारका ग्रहण स्वत हो ही
जाता है ६ एवकारका प्रयोजन इष्टार्थावधारण ७ एवकारका प्रयोजन अन्ययोगव्यवच्छेद * स्यात्कार प्रयोग निर्देश --दे. स्याद्वाद * एवकार व स्यात्कारका समन्वय --दे, स्थाद्वाद ३ सम्यगेकान्तकी इष्टता व इसका कारण * वस्तुके अनेको विरोधी धर्मोमे कथंचित् अवरोध
दे. अनेकांत ४/५
१ वस्तुके सर्व धर्म अपने पृथक्-पथक स्वभावमे स्थित है २ किसी एक धर्म की विवक्षा होनेपर उस समय वस्तु
उतनी मात्र ही प्रतीत होती है ३ एक धर्म मात्र वस्तुको देखते हए अन्य धर्म उस समय
विवक्षित नही होते * धर्मोमे परस्पर मुख्य गौण व्यवस्था --दे. स्याद्वाद ३ ४ ऐसा साक्षेप एकान्त हमे इष्ट है * वस्तु एक अपेक्षासे जैसी है अन्य अपेक्षासे वैसी नही है
--दे अनेकान्त १/४ ४ मिथ्या-एकान्त निराकरण १ मिथ्या-एकान्त इष्ट नही है २ एवकारका मिथ्याप्रयोग अज्ञान सूचक है ३ मिथ्या-एकान्तका कारण पक्षपात है ४ मिथ्या एकान्तका कारण संकीर्ण दृष्टि है ५ मिध्या-एकान्तमे दूषण ६ मिथ्या-एकान्त निषेधका प्रयोजन ५ एकान्त मिथ्यात्व निर्देश १ एकान्त मिथ्यात्वका लक्षण २ ३६३ एकान्त मत निर्देश * ३६३ वादोके लक्षण –दे. बह वह नाम ३ एकान्त मिथ्यात्वके अनेको भंग ४ कुछ एकान्त दर्शनोका निर्देश * षट दर्शनो व अन्य दर्शनोका स्वरूप --दे. वह वह नाम * जैनाभासी संघ -दे. इतिहास ६। * एकान्तवादी जैन वास्तवमे जैन नही - जिन र ५ एकान्त मत सूची * सब एकान्तवादियोके मत किसी न किसी नयमे गभित है
-दे. अनेकान्त २/E १. सम्यक् मिथ्या एकान्त निर्देश
१.एकान्तके सम्यक व मिथ्या भेव निर्देश रा, वा, १/६/७/३/२३ एकान्तो द्विविध'---सम्यगेकान्तो मिथ्यैकान्त इति ।-एकान्त दो प्रकारका है सम्यगेकान्त और मिथ्या एकान्त । (स.भ.त ७३/१०)।
२. सम्यक् व मिथ्या एकान्तके लक्षण रा.वा.१/६/७/३५/२४ तत्र सम्यगेकान्तो हेतुविशेषसामर्थ्यापेक्षः प्रमाणप्ररूपितार्थ कदेशादेश । एकात्माबधारणेन अन्याशेषनिराकरणप्रवणप्रणिधिमिथ्र्यकान्त । -हेतु विशेषकी सामर्थ्य से अर्थात् सुयुक्तियुक्त रूपसे, प्रमाण द्वारा प्ररूपित वस्तुके एकदेशको ग्रहण करनेवाला सम्यगेकान्त है और एक धर्मका सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मों
का निराकरण करनेवाला मिथ्या एकान्त है। सभ.त. ७३/११ तत्र सम्यगेकान्तस्तावत्प्रमाणविषयीभूतानेकधर्मात्मकवस्तुनिष्ठ कधर्मगोचरो धर्मान्तराप्रतिषेधकः । मिथ्यकान्तस्त्वेकधर्म
पाह
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एकान्त
२. एवकारको प्रयोग विधि
मात्रापधारणेनान्याशेषधर्मनिराकरणप्रवणः।- सम्यगेकांत तो प्रमाण सिद्ध अनेक धर्मस्वरूप जो वस्तु है, उस वस्तुमे जो रहने वाला धर्म है, उस धर्मको अन्य धर्मोंका निषेध न करके विषय करनेवाला है। और पदार्थों के एक ही धर्मका निश्चय करके अन्य सम्पूर्ण धर्मों का निषेध करनेमें जो तत्पर है वह मिथ्या-एकान्त है। (विशेष दे विकलादेश)।
३. एकान्त' शब्दका सम्यक् प्रयोग प्र.सा./मू.५६ जादं सय समत्त जाणमगंतत्थवित्थडं विमल । रहिय तु
ओग्गहादिहि सुहं ति एगतिय भणियं ॥५६॥ = स्व जात, सर्वांगसे जानता हुआ तथा अनन्त प्रदेशो में विस्तृत, विमल और अवग्रह
आदिसे रहित ज्ञान एकान्तिक सुख है, ऐसा कहा है। प्र.सा /मू.६६ एगतेण हि देहो सुह ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा। बिसयबसेण दु सोक्रव दुक्व वा हवदि सयमादा ॥६६॥ -एकान्तसे अर्थात् नियमसे स्वर्ग में भी आत्माको शरीर सुख नही देता, परन्तु विषयोक वशसे सुख अथवा दुख रूप स्वय आत्मा होता है । स श ७१ "मुक्तेरेकान्तिको तस्य चित्ते यस्याचला धृतिः। तस्य नै कान्तिको मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृति ॥ -जिस पुरुषके चित्तमें आत्मस्वरूपकी निश्चल धारणा है, उसकी एकान्तसे अर्थात अवश्य मुक्ति होती है। तथा जिस पुरुषकी आत्मस्वरूपमें निश्चल धारणा नही है उसको एकान्तमे मुक्ति नहीं होती है। ध.१/१,१,१४१/३६२/७ सव्ययस्यानन्तस्य न क्षयोऽस्तीत्येकान्तोऽस्ति ।
-- व्यय होते हुए भी अनन्तका क्षय नही होता है, यह एकान्त नियम है। स सा /आ. १४ सयुक्तत्वं भूतार्थ मप्येकान्ततः स्वयबोधवीजस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् । = यद्यपि मोह सयुक्तता भूतार्थ है तो भी एकान्त रूपसे स्वयं बोध बोजस्वरूप चैतन्य स्वभावको लेकर अनुभव करनेसे वह अभूतार्थ है। स.सा /आ.२७२ प्रतिषिध्य एव चार्य, आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात् पराश्रितव्यबहारनयस्यै कान्तेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रियमाण त्वाच्च ।" = और इस प्रकार यह व्यवहार-नय निषेध करने योग्य ही है। क्योंकि, आत्माश्रित निश्चयनयका आश्रय करने वाले ही मुक्त होते है और पराश्रित व्यवहार नयका आश्रय तो एकान्तत मुक्त नहीं होनेवाला अभव्य ही करता है। प्र.सा./त प्र.२१६ तस्य सर्वथा तदविनाभावित्वप्रसिद्धचदै कान्तिकाशुद्धोपयोगसद्भावस्यैकान्तिकबन्धत्वेन छेदत्वमेकान्तिकमेव । - ऐसा जो परिग्रहका सर्वथा अशुद्धोपयोगके साथ अविनाभावित्व है उससे प्रसिदध होनेवाले एकान्तिक अशुद्धोपयोगके सद्भावके कारण परिग्रह तो एकान्तिक बन्धरूप है।
४. सर्वथा शब्दका सम्यक् प्रयोग मो.पा./मू ३२ इदि जाणि ऊण जोई ववहार चयइ सव्वहा सव्व । झायइ परमप्पाणं जह भणिय जिण वरिदेण ॥३२॥ -ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जानकरि योगी ध्यानी मुनि है सो सर्व व्यवहारको सर्वथा छोडे है और परमात्मको ध्यावै है। कैसे ध्यावै है-जैसे जिनवरेन्द्र तीर्थकर सर्वज्ञ
देवने कह्या है, तैसे ध्यावै है। इ उ. २७ एकोऽह निर्मम' शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचर'। बाह्या संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥२७॥ - मै एक हूँ, निर्मम हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ. योगीन्द्रोके गोचर हूँ। इनके सिवाय जितने भी
रागद्वेषादि संयोगी भाव है वे सब सर्वथा मुझसे भिन्न है। स, सा/आ. ३१ स्पर्शादीन्द्रियार्थांश्च सर्वथा स्वत' पृथक्करणेन विजित्योपरतसमस्तज्ञेयज्ञायकसंकरदोषत्वेन परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मान संचेतयते स खलु जितेन्द्रियो जिन इत्येका निश्च यस्तुति.। = इस प्रकार जो मुनि स्पर्शादि द्रव्येन्द्रियों व भावेन्द्रियो तथा इन्द्रियोंके । विषयभूत पदार्थोंको सर्वथा पृथक करनेके द्वारा जीतकर ज्ञयज्ञायक
स करदोषके दूर होने से सर्व अन्यद्रव्योसे परमार्थत भिन्न ऐसे अपने आत्माका अनुभव करते है वे निश्चयसे जितेन्द्रिय जिन है। इस प्रकार एक निश्चय स्तुति हुई। स सा /आ २६६/क १८४ एकश्चितश्चिन्मय एव भागे, भावा परे ये किल ते परेषाम् । ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो, भावा परे सर्वत् एव हेया ॥१८४॥ = चेतन्य तो एक चिन्मय ही भाव है, और जो अन्य भाव है वे वास्तवमें दूसरोके भाव है। इसलिए चिन्मय भाव ही ग्रहण करने योग्य है, अन्य भाव सर्वथा त्याज्य है। प्र सा /त प्र १६२ ममानेकपरमाणुद्रव्यै कपिण्डपर्यायपरिणामस्या रनेक
परमाणुदव्यै कपिण्डपर्यायपरिणामात्मक्शरीरकर्तृत्वस्य सर्वथा विरोधात्। मैं अनेक परमाणु-द्रव्योके एक पिण्डरूप परिणामका अकर्ता हू, (इसलिए) मेरे अनेक परमाणु द्रव्योके एकपिण्ड पर्यायरूप परिणामात्मक शरीरका कर्ता होनेमे सर्वथा विरोध है। प्रसा/त प २१६ तस्य सर्वथा तदविनाभावित्वप्रसिदि धि । म पग्ग्रिह___ का सर्वथा अशुद्धोपयोगके साथ अविनाभावित्व है। यो सा /अ ६/३५ न ज्ञानज्ञानिनोर्भेदो विद्यते सर्वथा यतः । ज्ञाने ज्ञाते ततौ ज्ञानी ज्ञातो भवति तत्त्वतः ॥३५॥ - ज्ञान और ज्ञानीका परस्पर में सर्वथा भेद नहीं है, इसलिए जिस समय निश्चय नयसे ज्ञान जान लिया जाता है उस समय ज्ञानी आत्माका भी ज्ञान हो जाता है। २. एवकारकी प्रयोग विधि
१. एवकारका सम्यक् प्रयोग पप्रम १/६७ अप्पा अप्पु जि पर जि परु अप्पा परु जिण होइ। परु
जि कयाइ वि अप्प णविणियमे पमणहि जोइनिज सस्तु आत्मा ही है, देहादि पदार्थ पर हो है। आत्मा तो परद्रव्य नहीं होता और परद्रव्य भी कभी आत्मा नहीं होता। ऐसा निश्चय कर योगीश्वर कहते है। रा वा १/७/१४/38/१६ अधिकरण म आत्मन्येवासौ तत्र तत्फलदर्शनात, कर्मणि कर्म कृते च कायादावुपचारत । - (आस्रव का) अधिकरण आत्मा ही होता है, क्योकि कर्म-विपाक उसमें ही दिखाई देता है। कर्म निमित्तक शरीरादि उपचारसे ही आधार है। स सा./आ १०६ पुद्गल कर्मण किल पुद्गलद्रव्य मेवैकं कतृ । अर्थते
पुद्गलकर्मविपाकविकल्पादत्यन्तमचेतना सन्तस्त्रयोदशकार केवला एव यदि व्याप्यव्यापकभावेन किचनापि पुद्गलकर्म कुर्युस्तदा कुर्यु रेव, कि जीवस्यात्रापतितम् । वास्तव में पुद्गलकमका, पुद्गलद्रव्य ही एक कर्ता है, . अब, जो पुद्गल कर्म के विपाकके प्रकार होनेसे अत्यन्त अचेतन है ऐसे ये तेरह (गुणस्थान) कर्ता ही, मात्र व्याप्यव्यापक भावमे यदि कुछ भी पुद्गल का कर्म करे तो भले कर्म करे, इसमें जीवका क्या आया। स सा./आ २६५ अध्यवसानमेव बन्धहेतुने तु बाह्यवस्तु, तस्य बन्धहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थत्वात् । अध्यवसान ही बन्धका कारण है बाह्य वस्तु नही, क्योकि बन्धका कारण जो अध्यवसान है. उसके ही हेतुपना चरितार्थ होता है । (स सा./आ.१५६/क. १०६
१०७) । (स सा/आ २७१/क १७३)। स सा /आ ७१ ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोध सियत । - ज्ञानमात्र से ही
बन्धका निरोध सिद्ध होता है। स सा /आ २६७ यो हि नियतस्वलक्षणावलम्बिन्या प्रज्ञया प्रविभक्तश्चेतयिता सोऽयमहं, ये त्वमी अवशिष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवह्रियमाणा भावा', ते सर्वऽपि चेतयितृत्वस्य व्यापकस्य व्याप्यत्वमनायान्तोऽत्यन्तं मत्तो भिन्ना । ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृह्णामि । = नियत स्वलक्षणका अवलम्बन करनेवाली प्रज्ञाके द्वारा भिन्न किया गया जो यह चेतक है, सो यह मै हूँ, और अन्य स्वलक्षणोसे लक्ष्य जो यह शेष व्यवहाररूपभाव है, वे सभी
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एकान्त
चेतक स्वरूपी व्यापक के व्याप्य न होनेसे, मुझसे अत्यन्त भिन्न है । इसलिए मे ही अपने द्वारा ही अपने लिए ही अपने से ही अपनेमें हो, अपनेको ग्रहण करता हूँ ।
=
प्र सा / त प्र २३६ इस आत्मज्ञानमागमज्ञानार्थान सयतत्व यौगपद्यमप्यवि चित्रमेव । - इसलिए आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञानतत्त्वार्थअयान और सती युगपता भी अंकि चित्र ही है।
२३ स्वज्ञानानामेव श्रमणानामम्पुयानादिका प्रत योऽप्रतिषिद्धा इतरेषा तु श्रमणाभामाना ता प्रतिषिद्धा एव जिनके स्वतत्त्वका ज्ञान प्रवर्तता है, उन श्रमणो के प्रति ही अभ्युत्थानादिक प्रवृत्तियाँ अनिषिद्ध है, परन्तु उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासोके प्रति प्रवृनि हो है। १० विशेषाद्रव्यस्य सरस्वरूमे
का
1=
सत्तासे
द्रव्य अभिन्न होने के कारण 'सत्' स्वरूप ही द्रव्यका ल ण है । का आ / मू. २२५ जे वत्थु अणेयत त च्चिय कज्ज करेदि नियमेण । बहुधम्मजुद अस्थ कज्जकर दीसदे लोए। जो वस्तु अनेकान्त प है, वही नियम कार्यकारी है, क्योंकि, लोकमे बहुधर्मयुक्त पदार्थ ही कार्यकारी देखा जाता है ।
२ एवकारका मिथ्या प्रयोग
रामा ४/४/१६/२३/२७ तत्रास्तिस्यैकान्तादिन जीव एवं अस्ति' इत्यवधारणे अजोवनास्तित्वप्रसङ्ग भयादिष्टतोऽवधारण विधि अश्येव जीव ' इति नियच्छन्ति तथा चावधारणसामर्थ्यात् शब्दप्रापितादभिप्रायवशवर्तिन सर्वथा जीवस्यास्तित्व प्राप्नोति यदि अस्तित्व एकान्तवादी 'जीव ही है' ऐसा अवधारण करते हैं. तो अजीवके नास्तित्वका प्रसंग आता है । इस भय से 'अम्त्येव' ऐसी प्रयोग विधि इष्ट है । परन्तु इस प्रकार करनेसे भी शब्द प्राप्त अभिप्रायके वशसे सर्वथा हो जीवके अस्तित्व प्राप्त होता है । अर्थात् पुद्गलादिके अस्तित्व से जीवका अस्तित्व व्याप्त हो जाता है. अत Arta और पुद्गल में एकत्वका प्रसंग अता है । ( अत 'स्याव अस्त्येव' ऐसा प्रयोग ही युक्त है )
प का /त प्र १० न चानेकान्तात्मकस्य द्रव्यस्य सन्मात्रमेव स्वरूप अनेकान्तात्मक द्रव्यका सत् मात्र ही स्वरूप नही है ।
३ एवकार त चकार आदि निपातोकी सम्यक प्रयोग विधि श्लो वा २/९/३/५३/४३२/९० तत्र हि ये शन्दा स्वार्थ मात्रैऽनवधारिते सके तितास्ते तदनधारणसमुचयादिमाया तु चकारादिशब्दस्। तिनमेजय नहीं नियमित किये गये अपने सामान्य अर्थ के प्रतिपादन करनेमे सकेत ग्रहण किये हुए हा चुके है, वे तो उस अर्थ के नियम करनेकी विवक्षा होने पर अवश्य 'एवकार' को चाहते हैं । जसे जल शब्दका अर्थ सामान्य रूप से जल है । और हमें जल हा अर्थ अभीष्ट हो रहा है तो 'जल ही है' ऐसा एवकार लगाना चाहिए तथा जत्र कभी जल और अन्न के समुच्चय या समाहारकी विवक्षा हो रही है. तब 'चकार' शब्द लगाना चाहिए, तथा विकल्प अर्थको विवक्षा होनेपर 'बा' शब्द जोडना चाहिए (जैसे जल वा अन्न) ।
•
घ
४६१
४ विवक्षा स्पष्ट कर देनेपर एवकारकी आवश्यकता अवश्य पड़ती है।
रा वा ५/२५ / १२ / ४६२ / १७ इत्येव सति युक्तम्, हेतुविशेषसामर्थ्यार्पण अवधारणाविरोधात द्रव्यार्थ तयावस्थानाच्च । - इस प्रकार विशेष विवक्षा में 'कारणमेव ' यह एवकारका भी विरोध नहीं है। रा वा १/९/२/६/९ एवं समशाद ज्ञानदर्शनपर्यायपरिष आत्मैव ज्ञान दर्शन च तत्स्वाभाव्यात् । एवंभूत न की दृष्टि
२. एवकार की प्रयोग विधि
ज्ञानकिया परिणत आरंमा हो ज्ञान है और दर्शन कियासे परिणत आत्मा ही दर्शन है, क्योकि ऐसा ही उसका स्वरूप |
या २/१/६/४६-५२/४०३ प्रश्न शब्द प्रवर्तते। स्वादस्येवालियरूपादि४६ तिस सात प्रकार के (सप्त भग) वाचक शब्दो में कोई शब्द तो प्रश्नके वशसे विधान करनेमें प्रवृत्त हो रहा है, जैसे कि स्वद्रव्यादि चतुश्य से पदार्थ कथंचित् अस्तिरूप ही है । ( इसी प्रकार कोई शब्द निषेध करनेमें प्रवृत्त हो रहा है जैसे पर द्रव्यादिकी अपेक्षा पदार्थ कथचित् नास्तिरूप है इत्यादि)
1
द
=
श्लोक २/९/६/४/६/४०४/२० येनाननेकान्तस्तेनात्मनानेकान्त एवेरकान्तानुषङ्गोऽपि नानिष्ट प्रमाणसाधनस्यैवान्तरधे नयसाधन्यैकान्तव्यवस्थिते । जिस विपक्षित प्रमाण रूपसे अनेकान्त है, उस स्वरूपसे अनेकान्त ही है, ऐसा एकान्त होनेका प्रसग भी अनिष्ट नहीं है । क्योकि प्रमाण करके साधे गये विषयको ही अनेकान्तता सिद्ध है और नयके द्वारा साधन किये विषयको एकान्तपना व्यवस्थित हा रहा है ।
पका / ११ द्रव्यार्थार्पणायामनुपन्नमनुच्छेद सत्स्वभावमेव द्रव्यम् ।
= द्रव्याथिक नयसे तो द्रव्य उत्पाद व्यय रहित केवल सत्स्वभाव हो है ।
का अ /म. २६१ ज वत्यु अणेयत एयत त पि होदि सविपेक्ख । सुयजाणे एहिस रिवेक्ख दीसदे णेव । जो वस्तु अनेकान्त रूप है वही सापेक्ष दृष्टि से एकान्त रूप भी है। श्रुतज्ञानकी अपेक्षा अनेकान्त रूप है और नयो की अपेक्षा एकान्त रूप है। बिना अपेक्षा के बस्तुका स्वरूप नहीं ही देखा जा सकता है। निसा १६ उपहारे उपहारात निरुपणसुधारम स्वरूप नव जानाति यदि व्यवहारनयविवाया कोऽपि जिननाथतत्र विचारलन्ध कदाचिदेव वक्ति चेत् तस्य न खलु दूषणमिति । -व्यवहार व्यहारकी प्रधानता के होनेके कारण, निरुपराग शुद्धात्मस्वरूपको नहीं ही जानता है, ऐसा यदि व्यवहार न्यकी विलासे का जिननायके तत्व विचार में निविहे तो उसको वास्तव में दूषण नहीं है । पकात ३६/१०६ / १० या देवादि यद्यपि तु वृत्त्या शुकजीवस्वभाव तथापि कर्मक्षयेोपनत्वादुपचारेण कर्मजनित एव । - केवलज्ञानादि रूप जा क्षायिक भाव वह यद्यपि वस्तुवृत्ति से शुद्ध बुद्ध एक जीव स्वभाव है, तथापि कर्म के क्षय से उत्पन्न होनेके कारण उपचार कर्मजनित ही है।
S
१६/५२/१० जीवनयोगेन पन्नस्वाट्ट व्यवहारेण जीवशब्दो भण्यते, निश्चयेन पुन पुद्गलस्वरूप एवेति । - जीव के सयोग से उत्पन्न होनेके कारण व्यवहार नयकी अपेक्षा जीव शब्द कहा जाता है, किन्तु निश्चय नयसे तो वह शब्द पुद्गल रूप ही है न्याय दी ३ / ९८५ स्यादेकमेव वस्तु द्रव्यात्मना न नाना। द्रव्य रूप से अर्थात सत्ता सामान्यकी अपेक्षा वस्तु कथचित् एक ही है, अनेक नही ।
1
न्या दी ३/६८२ / १२६/६ द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण स्वर्ण स्यादेवमेव, पर्यायार्थिकनयाभिप्रायेण स्यादनेकमेव व्याथिक नयके अभिप्राय स्वर्ण कथय एक ही है और पर्यायाथिक नय अभिप्रायसे (आदिरूप) कथंचि अनेक ही है।
५. बिना प्रयोगके भी एवकारका ग्रहण स्वतः हो हो
जाता
श्लो वा / १.६ / श्लो ५६ / २५७ सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञे सर्वत्रार्थात्प्रतीयते । यथैवकारोऽयागादिव्यवच्छेदप्रयोजन । = स्याद्वादके जाननेवाले बुद्धिधमान जन यदि अनेकान्त रूप अर्थ के प्रकाशक स्यात्का प्रयोग न भी करे तो प्रमाणादि सिद्ध अनेकान्त वस्तुके स्वभाव से ही
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४६२
३. सम्यगेकान्तको इष्टता व इसका कारण'
सर्वत्र स्वयं ऐसे भासता है जैसे बिना प्रयोग भी अयोगादिके व्यवच्छेदका बोधक एवकार शब्द । क.पा.१११,१३-१४/श्लो. १२३/३०७ अन्तर्भूतैवकारार्थाः गिर' सर्वा स्वभावत:/१२३ /-जितने भी शब्द है उनमें स्वभाव से ही एव कारका
अर्थ छिपा हुआ रहता है। न्या.दी. ३/१८१ उदाहृतवाक्येनापि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षकारणत्वमेवन संसारकारणमिति विषयविभागेन कारणाकारणारमकरवं प्रतिपाद्यते। सर्व वाक्यं सावधारणम् इति न्यायात्। -इस पूर्व (सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग ) उद्धृत वाक्यके द्वारा भी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्र इन तीनोंमें मोक्षकारणता ही है संसार कारणता नहीं, इस प्रकार विषय विभागपूर्वक कारणता और अकारणताका प्रतिपादन करनेसे वस्तु अनेकान्त स्वरूप कही जाती है। यद्यपि उक्त वाक्यमें अवधारण करनेवाला कोई एवकार जैसा शब्द नहीं है तथापि 'सभी वाक्य अवधारण सहित होते हैं' इस न्यायसे उसका ग्रहण स्वतः हो जाता है।
६ एवकारका प्रयोजन दृष्टावधारण क. पा. १,१३-१४ श्लो, १२३/३०७ एवकारप्रय गोऽयमिष्टतो नियमाय
सः ॥१२३। -जहाँ भी एक्कारका प्रयोग किया जाता है वहाँ वह इष्टके
अवधारणके लिए किया जाता है। श्लो. वा. २/१/६/५३/४४६/२५ अथास्त्येव सर्व मिश्यादिवाक्ये विशेष्यविशेषणसबन्धसामान्यावद्योतनार्थम् एवकारोऽन्यत्र पदप्रयोगे नियतपदार्थावद्य तनार्थोऽपीति निजगुस्तदान दोष । 'अस्त्येव सर्व' सभी पदार्थ हैं ही इत्यादि वाक्यों में तो सामान्य रूपसे विशेष्य विशेषण सम्बन्धको प्रगट करने के लिए एवकार लगाना चाहिए। तथा दूसरे स्थलोपर इस पदके प्रयोग करनेपर नियमित पदार्थोंको प्रगट करनेके लिए भी एवकार लगाना चाहिए। इस प्रकार कहेंगे तो कोई दोष नहीं है। यह स्याद्वाद सिद्धान्तके अनुकूल है।
७ एवकारका प्रयोजन अन्ययोग व्यवच्छेद ध. ११/४,२,६.१७७/श्लो.७८/३१७/१० विशेष्याभ्या क्रियया च सहोदितः। पार्थो धनुर्धरो नीलं सरोजमिति वा यथा ७ अयोगम. परोगमत्यन्तायोगमेव च । व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचक -निपात अर्थात् एवकार व्यतिरेचक अर्थात् निवर्तक या नियामक होता है। विशेषण-विशेष्य और क्रियाके साथ कहा गया निपात क्रमसे अयोग, अपरयोग (अन्य योग) और अत्यन्तायोग व्यवच्छेद करता है । जैसे-'पार्थो धनुर्धर ' और 'नील सरोजम्'
इन वाक्योंके साथ प्रयुक्त एवकार (विशेष देखो एव') क.पा.१/१,१३-१४/श्लो. १२४/३०७ निरस्यन्ती परस्यार्थ स्वार्थ कथयति
अति । तमो विधुन्वती भास्यं यथा भासयति प्रभा।१२४ - जिस प्रकार प्रभा अन्धकारका नाश करती है, और प्रकाश्य पदार्थों को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार शब्द दूसरे शब्दके अर्थका निराकरण
करता है और अपने अर्थको कहता है । श्लो, बा.२/१,६/श्लो. ५३/४३१ वाक्येऽवधारणं तावद निष्टार्थ निवृत्तये । कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात तस्य कुत्रचित् । -किसी वाक्यमें 'एव' का प्रयोग अनिष्ट अभिप्रायके निराकरण करने के लिए किया जाता है, अन्यथा अविवक्षित अर्थ स्वीकार करना पड़े। स. म २२/२६७/२३ एवकार. प्रकारान्तरव्यवच्छेदार्थ । एवकार प्रका
रान्तरके व्यवच्छेदके लिए है। प्र. सा./ता बृ. ११५ ११६२(२० अत्र तु स्यात्पदस्येव यदेवकारग्रहणं तन्नय
सप्तभडीज्ञापनार्थमिति भावार्थ. यहाँ जो स्यात् पदवत् ही एव कारका ग्रहण किया है वह नय सप्तभङ्गोके ज्ञापनार्थ है, ऐसा भावार्थ जानना।
३. सम्यगेकान्तकी इष्टता व इसका कारण
१ वस्तुके सर्व धर्म अपने पृथक-पृथक स्वभावमें स्थित हैं प्र.सा./त प्र.१०७ एकस्मिन् द्रव्ये य सत्तागुण स्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो
न पर्यायो, यच्च द्रव्यमन्यो गुण' पर्यायो वा स न सत्ता गुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभाव स तदभाव लक्षणोऽत्तद्भावोऽन्यत्वनिमन्धनभूतः। -एक द्रव्यमें जो सत्ता गुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है, या पर्याय नहीं है । और जो द्रव्य, अन्यगुण या पर्याय है वह सत्ता गुण नहीं है, इस प्रकार एक दूसरे में जो 'उसका अभाव',अर्थात 'तद्रूप होनेका अभाव' है वह तद् अभाव लक्षण 'अतद्भाव' है जो कि अन्यत्वका कारण है। २ किसी एक धर्मको विवक्षा होनेपर उस समय वस्तु
उतनी मात्र ही प्रतीत होती है श्लो. वा. २/१,६,५३/४४४/२० ज्ञान हि स्याद् ज्ञेयं स्याद् ज्ञानम् ।..न च ज्ञानं स्वत परतो वा, येन रूपेण ज्ञेय तेन ज्ञेयमेव येन तु ज्ञान तेन ज्ञानमेवेत्यवधारणे स्याद्वादिविरोध, सम्यगेकान्तस्य तथोपगमात । - ज्ञान कथंचिव ज्ञेय हे और कथंचिव ज्ञान है स्याद्वादियोके यहाँ इस प्रकारका नियम करनेपर भी कोई विरोध नहीं है कि ज्ञान स्व अथवा परकी अपेक्षासे जाननेवाले होकर जिस स्वभाव से ज्ञेय है, उससे ज्ञेय ही है और जिस स्वरूपसे ज्ञान है उससे ज्ञान ही है। पं का./त.प्र.८ येन स्वरूपेणोत्पादस्तत्तथोत्पादकलक्षणमेव, येन स्वरूपेणोच्छेदस्तत्तथोच्छेदै क्लक्षणमेव, येन स्वरूपेण धौव्य तत्तथा धौव्यैकलक्षणमेव, तत उत्पद्यमानोच्छिद्यमानावतिष्ठमानाना वस्तुन स्वरूपाणां प्रत्येक त्रै लक्षण्याभावादविलक्षणत्व विलक्षणाया । = जिस स्वरूपसे उत्पाद है उसका उस प्रकार से 'उत्पाद' एक ही लक्षण है। जिस स्वरूपसे व्यय है उसका उस प्रकारसे व्यय एक ही लक्षण है और जिस स्वरूपसे धौव्य है उस प्रकारसे ध्रौव्य एक ही लक्षण है। इसलिए वस्तुके उत्पन्न होनेवाले, नष्ट होनेवाले और ध व रहनेवाले स्वरूपों में से प्रत्येकको त्रिलक्षणका अभाव होनेसे त्रिलसणा-सत्ताको
अत्रिलक्षणपना है। प्र, सा/त प्र ११४ सर्वस्य हि वस्तुन सामान्य विशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यता यथाक्रम सामान्य विशेषौ परिच्छन्ती द्वे क्लि चश्वषी द्रव्यार्थिक पर्यायाथिकं चेति । तत्र पर्यायाथिक्मेकान्तनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा.. तत्सर्व जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति । यदा तु द्रव्याथिक मेकान्त निमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन पर्यायाथिकेनावलोक्यते तदा विशेषाननेकानवलोकयतामनवलोकितसामान्यानामन्यदन्यव प्रतिभाति । यदा तु ते उभे अपि द्रव्यार्थिकपर्यायाथिके तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चावलोक्यते तदा जीवसामान्य जीयमामान्ये च व्यवस्थिता विशेषाश्च तुलयकाल मेवावलोक्यन्ते । वास्तव में सभी वस्तु सामान्य विशेषारमक होनेसे बस्तुका स्वरूप देखनेवालोके क्रमशः सामान्य और विशेषको जाननेवाली दो ऑखे है-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । इनमें से पर्यायार्थिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके जब मात्र खुले हुए द्रव्यार्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब वह सब जीव द्रव्य है' ऐसा दिखाई देता है। और जब द्रव्यार्थिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके मात्र खुले हुए पर्यायर्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब पर्याप्रस्वरूप अनेक विशेषोको देखनेवाले और सामान्यको न देखने. वाले जीवोकी (वह जीव द्रव्य नारक, मनुष्यादि रूप) अन्य अन्य भासित होता है । और जब उन द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक दोनों आँखोंको एक ही साथ खोलकर उनके द्वारा देखा जाता है तब जीव सामान्य तथा जीव सामान्यमें रहनेवाले पर्यायस्वरूप विशेष तुष्यकाल में ही अर्थात् युगपत् ही दिखाई देते है। (और भी दे. अगले शीर्षक में प ध. के श्लोक)
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एकान्त
४, मिथ्या एकान्त निराकरण
३. एक धर्म मात्र वस्तुको देखते हुए अन्य धर्म उस स. म /श्लो २६/२६७ य एव दोषा. किल नित्यवादे विनाशवादेऽपि
समस्त एव । परस्परध्वसिषु कण्टकेषु जयत्यधृष्यं जिनशासन ते।२६। समय विवक्षित नहीं होते।
- जिस प्रकार वस्तुको सर्वथा नित्य मानने में दोष आते है, वैसे ही -दे. स्याद्वाद ३ (गौण होते है पर निषिद्ध नहीं)
उसे सर्वथा अनित्य मानने में दोष आते है । जैसे एक कण्टक (पाँवमें का,आ./ २६४ णाणा धम्म जुदं पिय एय धम्म पि बुच्चदे अत्यं । चुभे) दुसरे कण्टकको निकालता है या नाश करता है, वैसे ही तस्सेय विवरवादो णस्थि विवक्खा हु सेसाण ।२६४। नाना धर्मोसे नित्यवादी और अनित्यवादी परस्पर दूषणोको दिखाकर एक दूसरे युक्त भी पदार्थ के एक धर्मको नय कहता है, क्योंकि उस समय उसी का निराकरण करते है। अतएव जिनेन्द्र भगवान का शासन अर्थात धर्मको विवक्षा है, शेष धर्मों की विवक्षा नहीं है।
अनेकान्त, बिना परिश्रमके ही विजयी है। पं.ध/पू. २६६,३०२,३३६,३४०,७५७ तन्न यत सदिति स्यादद्वैत द्वैतभावभागपि च । तत्र विधौ विधिमात्र तदिह निषेधे निषेधमात्र स्यात् ।२६६।
२. एवकारका मिथ्या प्रयोग अज्ञानसूचक है अपि च निषिधत्वे सति नहि वस्तुत्वं विधेरभावत्वात । उभयात्मकं ___ स. म. २४/२६/१३ उक्त प्रकारेण उपाधिभेदेन वास्तव विरोधाभावमयदि खलु प्रकृत न कथ प्रतीयेत ।३०२। अयमर्थो वस्तु यदा केवलमिह प्रबुध्येवाज्ञात्वैव एवकारोऽअवधारणे । स च तेषां सम्यग्ज्ञानस्याभाव दृश्यते न परिणाम । नित्यं तदव्ययादिह सर्व स्यादन्वयार्थ नययोगात एव न पुनर्लेशतोऽपि भाव इति व्यनक्ति। -इस प्रकार सप्तभंगी।३३६। अपि च यदा परिणाम केवल मिह दृश्यते न क्लि वस्तु । अभि- बाद में नाना अपेक्षाकृत विरोधाभावको न समझर अस्तित्व और नवभावानभिनवभावाभावाद नित्यमंशनयात् ॥३४० नास्ति च तदिह
नास्तित्व धर्मों में स्थूल रूपसे दिखाई देनेवाले विरोधसे भयभीत विशेष - सामान्यस्य विवक्षिताया वा। सामान्यैरितरस्य च गौणत्वे
होकर, अस्तित्व आदि धर्मों में नास्तित्त्व आदि धर्मोका निषेध करने सति भवति नास्ति नयः ।७५७१ = यद्यपि सत् वैतभावको धारण
वाले एक्कारका अवधारण करना, उन एकान्तवादियों में सम्यग्ज्ञानका करनेवाला है तत्र भी अद्वैत है, क्यो कि, सदमें विधि विवक्षित होने
अभाव सूचित करता है । उनको लेशमात्र भी सम्यग्ज्ञानका सद्भाव पर वह सत् केवल विधिरूप ही प्रतीत होता है। और निषेध विव
नही है ऐसा व्यक्त करता है। क्षित होनेपर केवल निषेध ही ।२६६। निपेयत्व विवक्षित होनेके समय अविवक्षित होनेके कारण विधिको वस्तुपना नहीं है ।३०२। सारांश
३. मिथ्या-एकान्तका कारण पक्षपात है यह है कि जिस समय केवल बस्तु दृष्टिगत होती है परिणाम दृष्टि- ध. १/१,१,३७/२२२/३ दोण्ह मज्झे एकस्सेव संगहे कीरमाणे वजभीरुत्त' गत नहीं होता, उस समय यहॉपर द्रव्याथिक नयकी अपेक्षासे वस्तू- विट्टति । दोण्ह पि सगह करताणमाइरियाणं वज्जभीरुत्तास्वका नाश नही हानेके कारण से सभी वस्तु नित्य है ।३३।। अथवा
विणासादो। -दोनो प्रकार के वचनो या पक्षो में से किसी एक ही जिस समय यहॉपर केवल परिणाम दृष्टिगत होता है, बस्तु दृष्टिगत
वचनके स्ग्रह करनेपर पापभीरुता निकल जाती है, अर्थात उच्छ्रनही होती, उस समय पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे नवीन-पर्यायकी
ड्सलता आ जाती है। अतएव दोनो प्रकारके वचनोका संग्रह करनेउत्पत्ति और पूर्व-पर्याय के अभाव होनेसे सब ही वस्तु अनित्य है
वाले आचार्यों के पापभीरुता नष्ट नही होती, अति बनी रहती है । ।३४०। और यहॉपर वस्तु, सामान्य की विवक्षामें विशेष धर्मकी ४. मिथ्या एकान्तका कारण संकर्ण दृष्टि है। गौणता होने पर विशेषधर्मो के द्वारा नहीं है । अथवा इतरकी विवक्षामें
पं वि.४/७ भूरिधर्मात्मक तत्त्वं दु श्रुतेर्मन्दबुद्धय । जात्यन्धहस्तिअर्थात विशेष की विवक्षा में सामान्यधर्मको गौणता होने पर, सामान्य
रूपेण ज्ञात्वा नश्यन्ति केचन ७ = जिस प्रकार जन्मान्ध पुरुष धर्मों के द्वारा नहीं है। इस प्रकार जो कथन है वह नास्तित्व-नय है
हाथी के यथार्थ स्वरूपको नही ग्रहण कर पाता है, किन्तु उसके किसी ।७५७। (विशेष दे. स्थाबाद ३)
एक ही अगको पकड कर उसे ही हाथी मान लेता है, ठीक इसी ४. ऐसा सापेक्ष एकान्त हमें इष्ट है
प्रकार से कितने ही मन्दबुद्धि मनुष्य एकान्तवादियो के द्वारा प्ररूपित स स्तो /मू ६२ यथैकश कारकमर्थ सिद्धये, समीक्ष्य शेष स्वसहायकार- खोटे शास्त्रोके अभ्याससे पदार्थ को सर्वथा एकरूप ही मानकर उसके कम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका, नयास्तवेष्टा गुणमुरख्यकलपत १६२॥
अनेक धर्मात्मक स्वरूपको नही जानते है और इसीलिए वे विनाश-जिस प्रकार एक एक ारक, शेष अन्यको अपना सहायकरूप कारक
को प्राप्त होते है। अपेक्षित करके अर्थ को सिद्धिके लिए समर्थ होता है, उसी प्रकार ५. मिथ्या एकान्तमें दूषण आपके मतमें सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले अथवा सामान्य
सं स्तो. २४,४२ न सर्वथा नित्य देत्यपैति, न च क्रियाकारकमत्र और विशेषको विषय करनेवाले जो नय है वे मुख्य और गौण की
युक्तम् । नेवासतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तम पुद्गलभावतोsकल्पनासे इष्ट है।
स्ति ।२४। तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात, तथाप्रतीतेस्तब तत्कघ. १/१,१,६५/३३५/४ नियमेऽभ्युपगम्यमाने एकान्तबाद प्रसजतीति थचित । नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च, विधेनिषेधस्य च शून्यदोषात
चेन्न, अनेकान्तगर्भ कान्तस्य सत्त्वाविरोधात । -प्रश्न-'तीसरे गुण- (४२। यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उदय अस्तको प्राप्त नहीं स्थानमें पर्याप्त हो होते है। इस प्रकार नियमके स्वीकार करनेपर तो हो सकती, और न उसमे क्रिया कारककी ही योजना बन सकती है। एकान्तबादके सद्भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता।
जो सर्वथा असत है उसका भी जन्म नहीं होता और जो सत है ४. मिथ्या एकान्त निराकरण
उसका कभी नाश नहीं होता। दीपक भी बुझनेपर सर्वथा नाशको
प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय अन्धकाररूप पुद्गल-पर्यायको ५ मिथ्या एकान्त इष्ट नही है
धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है ।२४। आपका वह तत्व स रतो /मू ६८ अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सतो शून्यो विपर्यय । तत कथ' चित तद्रूप है और कथ चित् तद्रूप नहीं है। क्योंकि, वैसे ही सर्व मृषोक्त स्यात्तदयुक्त स्वघातत ।१८ - आपकी अनेकान्तदृष्टि सत असत् रूपकी प्रतीति होती है। स्वरूपादि चतुष्टयरूप विधि सच्ची है और विपरीत इसके जो एकान्त मत है वे शून्यरूप असत और पररूपादि चतुष्टयरूप निषेधके परस्परमें अत्यन्त भिन्नता तथा है। अत' जो क्थन अनेकान्तदृष्टिसे रहित हैं वह सब मिथ्या है। अभिन्नता नहीं है, क्योकि वैसा माननेपर शून्य दोष आता है। क्यो कि, वह अपना ही घातक है। अर्थात अनेकान्तके बिना एकान्त न च वृ. ६७ णिरवेक्खे एयन्ते संकरआदिहि ईसिया भावा । णो णिजकी स्वरूप-प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती।
कज्जे अरिहा विवरीए ते वि खलु अरिहा ६७ निरपेक्ष-एकान्त
तहस
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एकान्त
५ एकान्त मिथ्यात्व निर्देश
माननेपर, इच्छिन भी भाव, सकर आदि दोपोके द्वारा अपना कार्य करने में समर्थ नही हा मकते। तथा सापेक्ष मानने पर वे ही समर्थ हो जाते है। प्र सात : २७ एकान्तेन ज्ञानमात्मेति ज्ञानस्याभावोऽचेतनत्व
मात्मनो विशेषगुणाभावादभावावास्यात्। सर्वथात्मा ज्ञानमिति निराश्रयत्वात ज्ञानस्याभाव आत्मन शेषपर्यायाभावस्तद बिनाभाविनस्तस्याप्यभात्र स्थान। - यदि यह माना जाये कि एकान्तसे ज्ञान आत्मा है तो, (ज्ञान गुण ही आत्म द्रव्य हो जानेमे) ज्ञानका अभाव हो जायेगा, और (ऐमा हानेसे) आत्मके अचेतनता आ जायेगी, अथवा ( सहभावी अन्य सुरख वोर्य आदि ) विशेषगुणोका अभाव हानेसे आत्मा का अभाव हो जायेगा। यदि यह माना जाये कि सर्वथा आत्मा ज्ञान है तो (आत्मद्रव्य एक ज्ञान गुण रूप हो जायेगा, इसलिए ज्ञानका कोई आधारभूत द्रव्य नहीं रहेगा, अत)। निराश्रयताके कारण ज्ञानका अभाव हो जायेगा अथवा आत्मा की शेष पर्यायोका अभाव हो जायेगा और उनके साथ ही अधिनाभाव सम्बन्धवाले आत्माका भी अभाव हो जायेगा। स, सा/आ ३४८/क, २०८ आत्मान परिशुद्धधमीप्सुभिरतिव्याप्ति प्रपद्यान्धके , कालोपाधिबलाद शुद्धिमधिका तत्रापि मत्वा परे । चेतन्य क्षणिक प्रकमध्य पृथुके शुद्ध जु सूत्रो रतेरात्मा ठयुज्झित एप हारबदहो नि मूत्रमुत्तेथिभि । २०८ = आत्माको सर्वथा शुद्ध चाहने वाले अन्य किन्ही अन्धबौद्धो ने काल की उपाधि के कारण भी आत्मामें अधिक अशुदिध मान कर अतिव्याप्तिको प्राप्त होकर, शुद्ध जुम्वन में रत हाते हुए चेतन्यको अणिक कल्पित करके, इस आत्माको योड़ दिया, जैसे हारके सुत्र (डारे) को न देखकर मात्र मोतियोको ही देखनेवाले हारको छोड़ देते है। ५.वि.११३७ पापो ने व शरीर एवं यदसाबारमा स्फुरत्यन्त्रह, भूतानन्बयतो न भूतजनितो ज्ञानी प्रकृत्या यत । नित्ये वा क्षणिकेऽथवा न कथमध्यर्थ क्रिया युज्यते, तौकत्वमपि प्रमाण दृढा भेद प्रतीत्याहतम् ।१३७' आत्मा व्यापी नही है, क्योकि, वह निरन्तर शरीरमें ही प्रतिभामित होता है। वह भूतोसे उत्पन्न भो नही है क्योकि, उसके साथ भूतोका अन्वय नही देखा जाता है, तथा वह स्वभावसे ज्ञाता भी है । उसको सर्वथा नित्य अथवा क्षणिक स्वीकार करने पर उसमें किसी प्रकारसे अर्थ क्रिया नहीं बन सकती है। उसमें एकत्व भो नहीं है, क्योकि वह प्रमाणसे हनताको प्राप्त हुई भेदप्रतीति द्वारा बाधि' है।
६ मिश्रण एकान्त निषेधका प्रयोजन स वा/हि ८/R/५६८ तिनक नाके समझ मिथ्यात्वको निवृत्ति होय, ऐसा उपाय करना । यथार्थ जिनागमकू जान अन्य मत का प्रसंग छोडना। अरु अनादिसे पर्याय बुद्व जो नेसर्गिक मिथ्यात्व ताक छोड़ अपना रवरूपको यथार्थ जान बन्धसू निवृत्त होना। ५. एकान्तमिथ्यात्व निर्देश
१ एकान्त मिथ्यात्वका लक्षण स. सि ८/१/३७१/ इद मेवेत्यमेवेति वर्मिधर्म पोरभिनिवेश एकान्त ।
"पुरुष एवेद सम्" इति वा नित्य एव वा अनित्य एवेति । - यही है, इसी प्रकार है, धर्म और धर्मी में एकान्तरून अभिप्राय रखना एकान्त-मि पादर्शन हे । जेसे यह सत्र जग परब्रह्मरूप हो है । या सब पदार्थ अनित्य हो है या नित्य ही है । (रा वा ८/१/२८/५६४/
१८), (त सा ५/४)। ध, ८/३,६/२०/३ अस्थि चेब, रिय चेष, एगमे, अणेगमेव, सावयव
चेव, निरव या चेत्र, णिच्चमेत्र, अणिच्चमब, इच्चाइओ एयंताहिणिवेसो एयत मिच्छत्त | सत् हो है, असत् ही है. एक ही है, अनेक हो है. सावयव ही है, निरवयव ही है, नित्य ही है, अनित्य ही है, इत्यादिक एकान्त अभिनिवेशको एकान्त मिथ्यात्व कहते है।
सस्तो /टी ४१ स्वरूपेणेव स्वरूपेणापि सत्व मित्याद्य कान्त ।-स्वरूप
की भॉति पररूपमे भी सव है, ऐसा मानना एकान्त है। २ ३६३ एकान्त-मिथ्यामत निर्देश भा, पा /म १३५ असियसय किरियवाई अश्विारियाण च होइ चुलसीदी। सत्तट्ठी अण्णाणी वेणै या होति बत्तीसा।१३५॥ -क्रियावादियोके १८८, अक्रि नावादि पोके ८०, अज्ञानवादियोके ६७, और नायिक वादियोके ३२ भेद है। मन मिल कर ३६३ होते है। (स सि // ३७५/१० पर उद्धृत उपरोक्त गाथा), (रा वा ८/९/८/५६१/३२), (ज्ञा ४/२२ में उद्धृत दो श्लोक), (ह पु १०/४७४८), (गो.क/ म् ८७६/१०६२), (गा जी जी प्र ३६०/७७०)
३ एकान्त मिथ्यात्वके अनेकों भंग रा वा/हि ८/९/७६४ (आप्तमीमासाका सार) स्वामी समन्तभद्राचार्य ने
आप्तपरीक्षाके अर्थ देवागम स्तोत्र (आप्त मीमासा) रच्या है। तामै सत्यार्थ आप्तका तौ स्थापन और असत्यार्थ का निराकरण के निमित्त दस पक्ष स्थाप्ये है-१ अस्ति-नास्ति, २ एक-अनेक, ३ नित्यअनित्य, ४ भेद-अभेद. ५ अपेक्ष-अनपेक्ष, ६ ब-पुरुषार्थ,७ अन्तर ग-बहिर ग, ८ हेतु-अहेतु, ६ अज्ञानतै बन्ध और स्तोकज्ञानसे मोश्च १० परकै दुख और आपकै सुख करे तो पाप-परके सुख अर आपके दु ख कर तो पुण्य। ऐमे १० पथ विषै सप्त भग लगाय ७० भग भये। तिनका सर्वथा एकान्त विधै दूषण दिखाये है। जाने ए कहे सो तौ अप्ताभास है, अर अनेकान्त साधै है ते दूषण रहित है । ते सर्वज्ञ वीतरागके भाषै है।
४. कुछ एकान्त दर्शनोंका निर्देश श्वेताश्वरोपनिषद १/२ काल स्वभावो नियतिर्य इच्छा भूतानि योनि
पुरुषश्चेति चित्तम् । संयोग एषा न वात्मभावादात्माप्यनीश सुखदुखहेतो ।२। - आत्माको सरख-दु ख स्वय अपनेसे नही होते, बल्कि काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पृथिवी आदि चतुर्भूत, योनि, पुरुष व चित्त इन बातो के स योगसे होता है, क्योकि आत्मा सुख दुख भोगने में स्वतत्र नही है। ध६/४,१,४५/७६/२०८ पढमो अबधयाण विदियो तेरासियाण मोद्धव्यो। तदियो य णिय दिपखे हदि च उत्थो ससमम्मि ।७४। - इनमें प्रथम अधिकार अबन्धकोका, और द्वितीय त्रैराशिक अर्थात् आजीविको का जानना चाहिए। तृतीय अधिकार नियति पक्षमे और चतुर्थ अधिकार स्वसमय में है। रा वा ८/१/वा./पृ. यज्ञार्थ पशव सृष्टा' स्वयमेव स्वयभुवा (मनु/३६) २२/१६३. अग्निहोत्र जुहुयात् स्वर्गकाम (मैत्रा./३६) २७/५६४, पुरुष एवेद सर्व यच्च भूत यच्च भव्यम् (ऋवे. १०/१०) । २७/५६४; पक्ति ही, एवं परोपदेशनिमित्तमिथ्यादर्शन विक्रूपा अन्ये च संख्येया योज्या, उह्या , परिणामविकल्पात् असरव्येयाश्च भवन्ति, अनन्ताश्च अनुभागभेदात् ।२७/५६४ पक्ति १४॥ यज्ञार्थ ही पशुओंकी सृष्टि स्वय स्वयभू भगवान्ने की है (मनु ५/३६), स्वर्ग की इच्छा करनेवालो को अग्निहोत्र करना चाहिए (मैत्र ६/६), जो कुछ भी हो चुका है या होनेवाला है वह सर्व पुरुष ही है (ऋवे. १०/१०), और इस प्रकार परोपदेश निमित्तक-मिथ्यादर्शनके विकल्प अन्य भी सख्यात रूपसे लगा लेने चाहिए । परिणामोके भेदसे वे ही अस ख्यात है और अनुभागके भेदसे वे ही अनन्त है। घ ६/४,१,४५/पृ/प सूत्रे अष्टाशी तिशतसहस्रपदै ८८००००० पूर्वोक्तसर्व. दृष्टयो निरूप्यन्ते, अवन्धक अलेप अभोक्ता अर्ता निर्गुण' सर्वगत' अद्वैत नास्ति जीव समुदयजनित सर्व नास्ति बाह्यार्थी नास्ति सर्व निरात्मक सर्व क्षणिक अक्षणिकमद्वैतमित्यादयो दर्शनभेदाश्च निरूप्यन्ते । (२०७/४) प्रयोगतमिथ्यात्व र ख्यातिपादिकेर (२०८/३) -सूत्रअधिकार में अठासी लाख ८८००००० पदो द्वारा पूर्वोक्त सब मतोंका निरूपण किया जाता है। इसके अतिरिक्त-जीव अवन्धक है,
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एकान्त
अलेपक है: अभाता है : अकर्ता है; निर्गुण है: व्यापक है; अद्वैत है; जीव नहीं है; जीव (पृथिवी आदि चार भूतों के) समुदाय से उत्पन्न होता है; सब नहीं है अर्थात शुन्य है नाह्य पदार्थ नहीं है, सम मिरात्मक है, सम क्षणिक है; सम अक्षणिक अर्थाय निश्प है अथवा ददर्शनमेदका भी इसमें निरूपण किया जाता है। यह त्रयोगत मिथ्यात्वके भेदोंका प्रतिपादक है । गो.क. ८७७८८७-८३८६४ / १०६३ -१०७३: १. कालबाद, २ ईश्वरवाद; ३. आत्मवादः ४ नियतिवादः ५. स्वभाववाद ८७७-६ अज्ञानवाद ७. विनयवाद ८ पौरुषबाद १०; ६. देववाद ॥ १०० सयोगवाद ॥ ६२ ॥ ११. लोकवाद ॥८३॥
गो.क./८६४/२००३ जावदिया गया
होत
वादा | जावदिया णयवादा तावदिया चैव होति परसमया ॥८६४ - जितने वचनके मार्ग हैं तितने ही नयवाद हैं। जितने नयवाद हैं तितने ही परसमय है ।
1
दर्शन समुचय २३ दर्शनानि पात्र समेम्यपेक्षया देवता भेदेन ज्ञातव्यानि मनीषिधि मैयासिक सास्य जैन
नं.
काय व नामानि दर्शनानामयो ३ मुल मेदोंकी अपेक्षा दर्शन वह है-मी नैयायिक, सांप, जैन, षिक तथा जैमिनीय ।
* नाभासी संघ इतिहास नीतिसार/सोमदेवरि गोलक श्वेतवासो द्राविडो याचनीय. । ह नि पिच्छिकश्चेति पञ्चैते जैनाभासा प्रकीर्तिता'। गोपुच्छक, श्वेताम्बर, द्रविड, यापनीय, निष्पिच्छ, ये पाँच जैनाभास कहे गये है (बोपाटी ६/७५ पाटी. १९/११ में उधृत (द.सा./ १२४ पर उद्धृत), विशेष दे. इतिहास (1 दसा / पृ ४१ पर उद्धृत “कष्ठास घो भुवि ख्यातो जानन्ति नृसुरासुरा' । चारो राजन् वितासिती ॥११ श्री नन्द
संज्ञश्च माथुरो बागडाभिध' । लाडवागड इत्येते विख्याता क्षिति(सुरेद्रीति) पृथिवीवर हा विख्यात है। उसे नर, सुर व असुर सब जानते है। उस संघमें चार गच्छ पृथिवी पर स्थित है - १, श्रीनन्दितट, २ माथुरगच्छ, ३. बागड-गच्छ, ४. लाड बागड़ गच्छ ।
५. एकान्त मत सूची
इनका स्वरूप दे, वह वह नाम ।
-
नाम
१| अक्रियावाद
२ अज्ञानवाद
१३ अद्वैतवाद
४ अनित्यवाद
५ अभाववाद
६ अवक्तव्यवाद
19
अश्वलायन
८ अस्थूण 2 आजोवक
१० आत्मवाद ११ ईश्वरवाद ११ उदा
१३ उल्लूकमत
३०
मत नं. नाम
| एकस्वतंत्रवाद १४ | एतिकायन
१५ ऐन्द्रदत्त
les strang
११७ कणाद
१८ कण्व
55
25
""
39
"
१६
कपिल
क्रियावादी २० काणोविद्ध विनयवादी २१ कालबाद त्रैराशिवाद १२२ काष्ठासंघ प्रदर्शन २३ कुमि २४ कौरिकल २५ कोशिक वैशेषिक दर्शन २८ गार्ग्य अक्रियावाद २७ । गौतम
29
=
मत
अज्ञानवादी विनयवादी
"
असत्वादी अज्ञानवादी सल्विदर्शन
किवावादी
नं.
२८ | चारिवाद
२६ | पाक मत २०
३१ म
३२ तापस ३३गवाद २४ | त्रैराशिकलाद २५ दर्शना
२६ बाद
एकस्वतत्रवाद
जैनाभास
अज्ञानवादी किपाबादी
४६५
क्रियावादी असत्कार्यवाद
मत
३७ | द्रविड संघ
३८ द्रव्यवाद
३६ नारायण
४० नास्तिक ४१ नित्यवाद
४२ निमित्तवाद
४३ नियतिवाद
४४ नैयायिक
४५ पाराशर
४६ ४७
पुरुषबाद पुरुषार्थबाद
४८ पूरण
४६ पैप्पलाद
५० प्रकृतिवाद
५१ प्रधानवाद
५२ बादरायण २२ मोहम ५४ ब्रह्मवाद ५५ भट्टप्रभाकर
५६ भिल्लक
५७ मरीचि ५८ मस्करी
५६ माठर
६० माण्डलीक
६९ माथुर
६२ मध्यदिन ६३ | मीमांसा
नाम
एकस्व तत्रवाद परत त्रबाद एक्स्वतंत्रवाद एकदर्शन
मादी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
सांख्यमत
एकवाद
मस्करीमत
ज्ञानवादी
६४ मुण्ड
क्रियाबाद एक दर्शन ६५ मोद विनयवादी ८८ मोगलायन
मीमांसक ६० याज्ञिक विनयवादी ६० यापनोस एकस्वतत्रवाद ६६ योगमत
७० रोमश
श्रद्धानवाद ७१ रोमहर्षिणी एकस्वतंत्रबाद ७२ लोकवाद जैनाभास
७३ वल्कल सम्पदर्शन कवित अज्ञानवादी We
७४
७५ बसु ७६ वाल्मीकि ानगा विनयवाद विपरीतवाद
७७ 195
१७६
सांख्य द
नं.
10
अज्ञानवाद एकदर्शन
अद्वैतवाद
एकाचितानिरोग
नाम
Co बेदान्त
८१ वैयाकरणीय
८२
वैशेषिक
८३
८४
मत
८७ शून्यवाद
<< श्रद्धानवाद
संयोगबाद
- मीमांसक जैनाभासी संघ ६० सत्यदत्त ११ सदाशिववाद किवादी अज्ञानवादी ६२ सम्यक्त्ववाद अक्रियावादी ६३ सांख्य क्रियाबादी १४ स्वतंत्रवाद जैनाभासीस घ ६५ स्वभावबाद अज्ञानवादी १८ हरिम एकदर्शन ६७ हारित
क्रियाबादी
प्रक्रियामाजी
एकमत
जैनाभासी संघ
सांख्य दर्शन
क्रियाबादी
विनयबी
एकबाद
अज्ञानवादी
विनयवादी
अज्ञानवादी विनयादी साद
एकवाद मिथ्यात्वका
एक भेद
एक दर्शन
एक दर्शन अक्रियावादी व्यास एलापुत्र | विनयवादी
व्यावभूति
शब्दात अद्वैतवाद शिरमत
वैशेषिक बौद्ध
एकवाद
विनयवादी
सांख्य श्रद्धानवाद एक दर्शन
एक बाद
क्रियाबादी
एकान्तानुवृद्धि - १. एकान्तानुवृद्धि
योग-स्थान- दे. योग ५: २. एकान्तानुवृधि संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान- दे लब्धि ५ 1
एकांतिक
- सा./ता वृ. ५६/७७ एकांतिकम् नियमेनेति । एका तिक अर्थात् नियमसे ।
एकाग्रचितानिरोध ससि ६/२७/४४४/६ अयं मुखम्। एकमग्र
मस्येत्येकाग्र । नानार्थावलम्बनेन चिन्ता परिस्पन्दवतो, तस्या अन्यायी व्याव एकस्मिन नियम एकाग्र चिन्ता निरोध इत्युच्यते । 'अग्र' पदका अर्थ मुख है। जिसका एक अग्र होता है वह एकाग्र कहलाता है। नाना पदार्थोंका अवलम्बन लेनेसे चिन्ता पर स्पिन्दवती होती है। उसे अन्य अशेष मुखोंसे लौटाकर एक अग्र अर्थात् एक विषयमें नियमित करना एकाग्रचिन्तानिरोध कहलाता है। (चा. सा. १६६ / ६); ( प्र सा / त, प्र १११ ) : (स. अनु. ६७) ।
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एकानंत
एवकार
रा.वा.६/२७/४-७/६२५/२५(१) अत्र अग्र मुखनित्यर्थ ।३। अन्त करणस्य
वृत्तिरर्थेषु चितेत्युच्यते ॥४॥...गमनभोजनशयनाध्ययनादिषु क्रियाविशेषेषु अनियमेन वर्तमानस्य एकस्याः क्रियाया कतृ वनावस्थान निरोध इत्यवगम्यते। एकमग्रं मुखं यस्य सोऽयमेकान', चिन्ताया निरोध' चिन्तानिरोध', एकाग्रे चिन्तानिरोध एकाग्रचिन्तानिरोध। कुतः पुनरसौ एकाग्रत्वेन चिन्तानिरोध ॥५॥ यथा प्रदीपशिखा निराबाधे प्रज्वलिता न परिस्पन्दते तथा निराकुले देशे वीर्य विशेषादबरुध्यमाना चिन्ता विना व्याक्षेपेण एकाग्रेणावतिष्ठते ॥६॥ (२) अथवा अङ्ग्यते इत्यग्र' अर्थ इत्यर्थ., एकमग्रं एकाग्रम्, एकाग्रे चिन्ताया निरोध' एकाग्रचिन्ता निरोधः । योगविभागान्मयूरव्य सकादित्वाद्वा वृत्तिः । एकस्मिन् द्रव्यपरमाणौ भावपरमाणी वाऽर्थे चिन्तानियम इत्यर्थ रा.वा. ६.२७/२०-२१/६२७/१ (३) अथवा, प्राधान्यवचने एकशब्द इह गृह्यते, प्रधानस्य पुंस आभिमुख्येन चिन्तानिरोध इत्यर्थः, अस्मिपक्षेऽर्थो गृहीत ॥२०॥ (४) अथवा अङ्गतीत्यग्रमात्मेत्यर्थः। द्रव्यार्थतयैकस्मिन्नारमन्यग्रे चिन्तानिरोधो ध्यानमा तत स्ववृत्तित्वात बाह्यध्येयप्राधान्यापेक्षा निवत्तिता भवति ॥२१॥ -१ अग्र अर्थात मुख, लक्ष्य। चिन्ता-अन्त.करण व्यापार। गमन, भोजन, शयन और अध्ययन आदि सिविध क्रियाओंमें भटकनेवाली चित्तवृत्तिका एक क्रियामें रोक देना निरोध है। जिस प्रकार वायुरहित प्रदेशमें दीपशिखा आरिस्पन्द-स्थिर रहती है उसी तरह निराकुल देशमें एक लक्ष्यमें बुद्धि और शक्तिपूर्वक रोकी गयी चित्तवृत्ति बिना व्याक्षेपके वहीं स्थिर रहती है, अन्यत्र नहीं भटकती। (चा सा. १६६/६); (प्रसा./त प १६६); (त अनु.६३-६४);। २. अथवा अग्र शब्द 'अर्थ' (पदार्थ) वाची है, अर्थात एक द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु या अन्य किसी अर्थ में चित्तवृत्तिको केन्द्रित करना ध्यान है। ३ अथवा, अग्र शब्द प्राधान्यवाची है, अर्थात प्रधान आत्माको लक्ष्य बनाकर चिन्ताका निरोध करना । (त अनु.५७५८)। ४ अथवा, 'अङ्गतीति अग्रम् आत्मा' इस व्युत्पत्तिमें द्रव्यरूपसे एक आत्माको लक्ष्य बनाना स्वीकृत ही है। ध्यान स्ववृत्ति होता है, इसमें बाह्य चिन्ताओसे निवृत्ति होती है । (भ.आ/वि. १६६६/१५२१/१६), (त अनु ६२-६५ : (भा.पा./टी.७८/२२६/१)। त. अनु. ६०-६१ प्रत्याहृत्य यदा चिन्ता नानालम्बनवत्तिनीम् । एकालम्बन एवैना निरुणद्धि विशुद्धधी ॥६॥ तदास्य योगिनो योगश्चिन्त काग्रनिरोधनम् । प्रसख्यान समाधि' स्याद धयानं स्वेष्टफलप्रदम् ॥६१। जम विशुद्ध बुद्धिका धारक योगी नाना अबलम्बनों में वर्तनेवाली चिन्ताको वींचकर उसे एक आलम्बनमें ही स्थिर करता है - अन्यत्र जाने नहीं देता-तब उस योगी के 'चिन्ताका एकाग्र निरोधन" नामका योग होता है, जिसे .प्रसख्यान, समाधि और ध्यान भी कहते है और वह अपने इष्ट फलका प्रदान करनेवाला होता है । (प.वि ४/६४)।-दे ध्यान १/२-अन्य विषयों की अपेक्षा असत है पर स्वविषयकी अपेक्षा सत् ।
* एकाग्र चिन्तानिरोधके अपर नाम-दे मोक्षमार्ग २/५ । एकानंत-(ज.प./प्र. १०५) Undirectional finite. एकावली यष्टि-जो लड़ी केवल मोतियोंसे बनाई जाती है, उसे
सूत्र भी कहते है । (आ.पृ ५६३) - दे बृ जै.शब्दा द्वि खंड। एकावली व्रत
१. बृहद् विधि कुल समय-१ वर्ष कुल उपवास-८४ । विधि- एक वर्ष तक बरा
पर प्रतिमासकी शुक्ल. १,५०८, १४ तथा कृष्ण ४, ८, १४ इन सात तिथियों में उपवास करे। इस प्रकार १२ महीनोके ८४ उपवास करे ।
-जाप्य मन्त्र-नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (किशन सिह क्रियाकोश), (तविधान संग्रह पृ.७६)
२ लघु विधि है पु. ३४/६७-कुल समय=४८ दिन, कुल उपवास- २४; कुल पारणा
-२४। विधि-किसी भी दिनसे प्रारम्भ करके १ उपवास १ पारणाके कमसे २४ उपवास पूरे करे। जाप्य मन्त्र नमस्कार मन्त्र का त्रिकाल जाप्य करे (वतविधान संग्रह ७७) । एकासंख्यात-दे. असंख्यात । एकोभावस्तोत्र-आचार्य वादिराज सूरि (ई. १०१०-१०६५) द्वारा
२६ संस्कृत छन्दोंमे रचित एक भक्तिपूर्ण आध्यात्मिक स्तोत्र, जिसमे रचयिताने अपना कुष्ठरोग शान्त किया था। (ती. ३/१०३) एकेन्द्रिय-वे संसारी जीव जिनके एक स्पर्श इन्द्रिय मात्र हो जैसे पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्नि कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक इन पाँचोंमें जबतक जीव रहता है तबतक वे सचित्त, फिर जीव निकल जानेपर ये अचित्त कहलाते हैं। एकेन्द्रिय जीव झकरके जानते हैं व इसीसे काम करते है। इनके स्पर्शइंद्रिय, शरीरमल, आयु, श्वासोवास ऐसे चार प्राण होते है।
-दे बृ. जैन शब्दा. वि. खंड। एकेन्द्रियजाति-नामकर्मकी एक प्रकृति-दे. जाति (नामकर्म) १ एकेन्द्रिय जीव-दे इन्द्रिय ४ । एकेन्द्रिय भेद-एकेंद्रिय जीवोंके ४२ भेद हैं---पृथ्वी, जल, तेज, वासु. नित्य निगोद, साधारण वनस्पति, इतर निगोद, सा व.। इन छ के सूक्ष्म व बादरकी अपेक्षा १२ भेद हुए। प्रत्येक वनस्पति सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित भेदसे दो प्रकार । ऐसे १४ प्रकार हर एक पर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त व लब्ध्य पर्याप्त इस तरह ४२ भेद हुए। (जै सि प्र ५४-५७)
-दे बृ. जै शब्दा.द्वि. खड। एतिकायन-एक अज्ञानवादी - दे. अज्ञानवाद । एर-(प पु २५/५५) दशरथपुत्र रामचन्द्रजी आदिके विद्या गुरु । एरिगित्तर गण-एक जैनाभासी सघ (दे. इतिहास 4/9) एलाचार्य-१. उप आचार्य-दे आचार्य ३ । २ कुन्दकुन्दका अपर नाम (दे. कुन्दकुन्द २) ३, तमिल वेद कुरलकाव्य के रचयिता। समयई श २ (कुरल काव्य प्र./पं.गोविन्दराम) । ४. धवलाकार बीरसेन स्वापी (ई.७७०-८२०) के समकालीन उन शिक्षा गुरु। समयई रा.- की सन्धि । (जे. १/२४२); (ती.२/३२०) एलापुत्र व्यास-एक प्रा । -दे वैनयि । एलेय-(ह.पु १७/ग्लो.नं.) gh-जा दक्षका पुत्र था ॥३॥ अपनी पुत्री के साथ व्यभिचार करनेवाले प्राने पिके कुचारित्रसे॥१५॥ दुखी हो अन्यत्र जाकर इलावधन नमि नाम नगर व माहिष्मती नामक नगरी बसायी। अन्तमें दीक्षा धारण +7 ,190 -२४॥ एवंभूत नय-दे न III/LI एवकार
१. एवकारके ३ भेद घ ११/४,२,६,१७७/श्लो ७-८/३१७/१० विशेषण विशेष्याभ्या क्रियया च
सहोदित । पार्थो धनुर्धरो नील सरोजमिति वा यथा ॥८॥ अयोगमपर्योगमत्यन्तायोगमेव च । व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचक । -निपात अर्थात् पत्रकार व्यतिरेचक अर्थात निवर्तक या नियामक होता है। विशेषण, विशेष्य और क्रियाके साथ कहा गया निपात क्रमसे अयोग, अपरयोग (अन्य योग) और अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करता है। जैसे- 'पार्थो धनुर्धरः.और 'नीलं सरोजम.
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एवकार
४६७
एषणा-समिति
इन वाक्यो के साथ प्रयुक्त एवकार । (अर्थात एवकार तीन प्रकार के होते हैं-अयोगव्यवच्छेदक, अन्ययोगव्यवच्छेदक और अत्यन्तायोगव्यवच्छेदक ) । ( स. भ. त. २५-२६) स भ. त २५/१ अयं चैव कारस्त्रिविध --अयोगव्यवच्छेदबोधक', अन्ययोगपत्र च्छेदकोषक , अत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकश्च इति । यह अवधारण वाचक एव कार तीन प्रकारका है-एक अयोगव्यवच्छेदबोधक, मरा अन्य योगउपवच्छेदबोधक, और तीसरा अत्यन्ता योगव्यवच्छेद-बोधक।
२. अयोगव्यवच्छेद बोधक एवकार दे 'एक कार' में ध /११ विशेषण के साथ कहा गया एवकार अयोगका
अर्थात् सम्बन्धके न होने का अवच्छेद या व्यावृत्ति करता है। स भ त २५/३ तत्र विशेषणसंगतैव कारोऽयोगव्यवच्छेदबोधक , यथा शङ्ख पाण्डुर एवेति । अयोगव्यवच्छेदो नाम - उद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम् । प्रकृने चोद श्यतावच्छेदक शड्डत्व, शत्वावच्छिन्नमुद्दिश्य पाण्डुरत्वस्य विधानात् तथा च शङ्खत्वसमानाधिकरणो योऽत्यन्ताभाव' न तावत्पाण्डुरत्वाभाव , किन्त्वन्याभात्र । -विशेषण के साथ अन्त्रित या प्रयुक्त एवकार तो अयोगकी निवृत्तिका बोध करानेवाला होता है, जे मे 'शा पाण्डुर एव' शड्ड श्वेत ही होता है। इस वाक्यमे उहश्यतावच्छेदकके समानाधिकरण में रहनेवाला जो अभाव उसका जो अप्रतियोगी उसको अयोग व्यवच्छेद कहते है। जिस वस्तुका अभाव कहा जाता है, वह वस्तु उस अभाव का प्रतियोगी होता है और जिनका अभाव नहीं है वे उस अभाव के अपतियोगी होते है। अब यहाँ प्रकृत प्रसगमे उद्देश्यताका अब वेदक धर्म शव है, क्योकि शसस्व धर्म से अवच्छिन्न जो शङ्ग है उसको उद्देश्य करके पाण्डत्व धर्मका विधान करते है। तात्पर्य यह है कि उद्देश्यतावच्छेदक शरबत्व नामका धर्म शव रूप अधिकरण मे रहता है; उसमे पाण्डुत्वका अभाव तो है नही क्योकि वह तो पाण्डुवर्ण हो है । इसलिए वह उस शख में रहने वाले अभावका अप्रतियोगी हुआ। उसके अयोग अर्थात असम्बन्धकी निवृत्तिका बोध करनेवाला एवकार गहाँ लगाया गया है । क्रमश - स.भ त. २७/४ प्रकृतेऽयोगव्यवच्छेदकस्यैवकारस्य स्वीकृतत्वात् । क्रिया
सङ्गस्यैव कारस्यापि कचिदयोगव्यवच्छेदनोधक्त्वदर्शनात। यथा ज्ञानमयं गृह्णात्येवेत्यादौ ज्ञानत्वसमानाधिकरणात्यान्ताभावाप्रतियोगित्वम्पार्थ ग्राहकत्वे धात्वर्थे बोध ।प्रकृत (स्यारस्त्येव घट ) में यद्यपि एवकार क्रियाके साथ प्रयोग किया गया है, विशेषणके साथ नही, परन्तु यह अयोग-व्यच्छेदक ही स्वीकार किया गया है। कहींकहीं क्रियाके साथ सगत एवकार भो अयोगव्यवच्छेदबोधक अर्थ में देखा जाता है। जैसे-'ज्ञानमयं गृह्णात्येव' ज्ञान किसी न किसी अर्थको ग्रहग करता ही है इत्यादि उदाहरणमें उद्देश्यतावच्छेदक ज्ञानत्व धर्मके समानाधिकरण में रहनेवाला जो अत्यन्ताभाव है उसका अप्रतियोगीजो अर्थ ग्राहकत्व धर्म है उसरूप धात्वर्थका बोध होता है। परन्तु सर्वथा क्रियाके साथ एव कारका प्रयोग अयोगव्यवच्छेद बोधक नहीं होता, जैसे-'ज्ञान रजतको ग्रहण करता ही है इस उदाहरण में, सही ज्ञानोके रजतग्राहकत्वका सद्भाव न पाया जानेसे और किसीकिसी ज्ञानमें उसका सद्भाव भी होनेसे यह प्रयोग अत्यन्ताभाव व्यवच्छेद बोधक है न कि अयोग-व्यवच्छेद बोधक । (न्यायकुमुद चन्द्र/भाग २/पृ. ६६३)
३. अन्ययोगव्यवच्छेद बोधक एवकार दे. 'एवकार' में ध. ११/ विशेष्यके साथ कहा गया एव कार अन्ययोगका
व्यवच्छेद करता है जैसे-'पार्थ ही धनुर्धर है. अर्थात अन्य नही। स.भ त. २६/१ विशेष्यसतैवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः। यथा
पार्थ एव धनुर्धर इति । अन्ययोगव्यवच्छ दो नाम विशेष्यभिन्नतादात्म्यादिव्यवच्छेद । तत्रैवकारेण पात्रतादातराभावो धनुर्धरे बोध्यते। तथा च पार्थान्यतादात्म्याभावव दनुर्धराभिन्न पार्थ इति बाध ।"-विशेष्य के साथ २: गत जो एक्कार है वह अन्य योगव्यवच्छेदरूप अर्थ का बोध कराता है जैसे- 'पार्थ एव धनुर्धर.' धनुर्धर पार्थ ही है इस उदाहरणमे एकार अन्ययोगके व्यवच्छेदका बोधक है। इस उदाहरण में एत्रकार श६ से पार्थ से अन्य पुरुषमें रहनेवाला जो तादात्म्य वह धनुर्धरमें बाधित होता है। अर्थात् पार्थ से अन्य व्यक्तिमें धनुर्धरस्व नहीं है, ऐसा अर्थ होता है । यहाँपर धनुर्धरस्वका पार्थ से अन्य सम्बन्धके व्यवहदका बोधक पार्थ इस विशेष्य पदके आगे एव शब्द लगाया गया है। (न्यायकुमुद चन्द्र/ भाग २/पृ. ६६३)
४. अत्यन्तायोग व्यवच्छेद बोधक एवकार दे 'एत्रकार' में ध ११ क्रियाके साथ कहा गया एवकार अत्यन्तायोगका
व्यवच्छेद करता है । सरोज नील होता ही है। सभ त २६/४ क्रियासनवकारोऽत्यन्तायोगव्यवहदबोधक , यथा नील सरोज भवत्येवेति । अत्यन्तायोगव्यवच्छेद) नाम-उद श्यताव्यवच्छेदकव्यापकाभावाप्रतियोगित्वम् । प्रकृते चोद्दश्यतावच्छेदक सरोजत्वम्, तद्धविच्छिन्न नीलाभेदरूपधात्वर्थस्य विधानात । सरोजत्व व्यापको योऽत्यन्ताभाव तान्नीलाभेदाभाव , कस्मिश्विसरोजे नीलाभेदस्यापि सच्वात, अपि त्वन्याभाव , तदप्रतियोगित्व नीलाभेदे वर्तते इति सरोजत्वव्यापकास्यन्तभावाप्रतियोगिनीलाभेदवत्सरोजवमित्युक्तस्थले बोध । -क्रियाके संगत जो एव कार है वह अत्यन्त अयोगके व्यवच्छेदका बोधक है ।जैसे- नील सरोज भवत्येव' कमल नील होता ही है। उद्देश्यता-अवच्छेदक धर्म का व्यापक जो अभाव उस अभावका जो अप्रतियोगी उसको अत्यन्तायोगव्यवच्छेद कहते है। उपरोक्त उदाहरणमें उद्देश्यतावच्छेदक धर्म सरोजत्व है, क्योकि उसी से अवच्छिन्न कमलको उद्देश्य करके नीलत्वका विधान है। सरोजत्वका व्यापक जो अभाव हे वह नीलके अभेदका अभाव नही हो सकता क्योकि किसीन किसी सरोजमें नीलका अभेद भी है। अत नीलके अभेदका अभाव सरोजत्वका व्यापक नहीं है, किन्तु अन्य घटादिक पदार्थों का ज्ञान सरोजत्वका व्यापक है। उस अभावकी प्रतियोगिता घट आदिमें है और अप्रतियोगिता नीलके अभेदमें है। इस रीतिसे सरोजत्वका व्यापक जो अत्यन्ताभाव उस अभावका अप्रतियोगी जो नीलाभेद उस अभेद सहित सरोज है ऐसा इस स्थानमें अर्थ होता है (भावार्थ यह है कि जहाँपर अभेद रहेगा वहाँपर अभेदका अभाव नहीं रह सक्ता। इसलिए सरोजस्व व्यापक अत्यन्ताभावका अप्रतियागो नीलका अभेद हुआ और उस नीलके अभेदसे युक्त सरोज है, ऐसा अर्थ है । न्यायकुमुदचन्द्र/भाग २/पृ. ६६३) ★ एवकार पदको सम्यक् व मिथ्या प्रयोगविधि
-दे एकान्त २ एशान-१. कल्पवासी देवोका एक भेद-दे. स्वर्ग १। २ इन देवों
का लोकमें अत्रस्थान-दे स्वर्ग ५। ३ विजयाको उत्सर श्रेणीका एक नगर -दे विद्याधर । एषणा-ध १३/५,४२६/११/२ किमेसण, असण-पाण खादियसादियं ।-प्रश्न-ऐषणा किसे कहते है ? उत्तर- अशन, पान,खाद्य और सवाद्य इनका नाम एषणा है। २ आहारका एक दोष-दे आहार 1I/४ | ३ वस्तिकाका एकदोषदे वस्तिका' । ४. आहार सम्बन्धी विषय - दे आहार । ५ लाकेषणा-दे राग ४। एषणान्शुद्धि-दे शुद्धि । एषणा-समिति-दे समिति ।
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एसोदसव्रत
४६८
ऐलक
एसादस व्रत-कूल समय-६० दिन, कुल उपवास-५५०, कुल
पारणा-१००। विधि-पहले एक वृद्धि क्रमसे १ से लेकर १० उपवास तक करे। फिर एक हानि क्रमसे १० से लेकर १ उपवास तक करे बीच में एक एक पारणा करे। यन्त्र-१ उपवास, १ पारणा, २ उपवास, एक पारणा, ३ उपवास, एक पारणा, इसी प्रकार ४-१, ५-१६-१७-१,८-१, ६-१: १०-१-१०-१, ६-१,८-१, ७-१६-१: ५-१,४-१,३-१:२-१.१ यह सर्व विधि दस बार करनी (वर्धमान
पु), (व्रतविधान सं. पृ. १००)। एसानव-कुल समय-४८५ दिन, कुल उपवास-४०५, कुल
पारणा-८१, विधि-उपरोक्त एसोदसवत् ही है। अन्तर इतना है कि वृद्धि व हानि क्रम १-१ व ६-१ तक जानना । तथा १० की बजाय हबार दुहराना। जाप्य मन्त्र-नमोकार मन्त्रका तीन बार जाप्य करना। वर्द्धमान पुराण)। (वतविधान सग्रह/पृ.६६)
[ऐ]
तिह्य-इतिहासका एकार्थवाची- दे, इतिहास १ । ऐरावत- शिखरो पर्वतका एक कूट व उसका स्वामी देव-दे. लोक ५/४, २. पद्म हदके बनमें स्थित एक कूट-दे लोक ५/७, ३ उत्तर
कुरुके दस द्रहों में से दो द्रह-दे. लोक ५/६।। ऐरावत क्षेत्र-रा.वा. ३/१०/२०/१८१/२६ रक्तारक्तोदयो बहुमध्यदेशभाविनो अयोध्या नाम नगरी। तस्यामुत्पन्न ऐरावतो नाम राजा। तत्परिपालवाजनपदस्यैरावताभिधानम् । रक्ता तथा रक्तोदा नदियों के बीच अयोध्या नगरी है। इसमें एक ऐरावत नामका राजा हुआ है । उसके द्वारा परिपालित होनेके कारण इस क्षेत्रका नाम ऐरावत पड़ा है। ऐरावत क्षेत्रका लोकमें अवस्थानादि-दे. लोक ३,३ ।
* ऐरावत क्षेत्रमे काल परिवर्तन आदि-दे भरत क्षेत्र'। ऐरावत हाथी-ति.प.८/२७८-२८४ सकदुगम्मि य वाहणदेवा एराबदणाम हस्थि कुठांति। विक्किरियाओ लक्ख उच्छेह जोयणा दोहे ॥२७८॥ एदाणं बत्तीसं होति मुहा दिव्वरयणदामजुदा। पुह रुणं ति किकिणिकोलाहलसद्दकयसोहा ॥२७॥ एक्केक्कमुहे चचलचंदुज्जलचमरचारुरूवम्मि। चत्तारि होति दंता धवला वररयणभरखचिदा ॥२८॥ एक्के कम्मि विसाणे एक्केक्कसरोवरो विमलवारी। एक्केक्कसरोवरम्मि य एक्वक्व कमलवणस डा ॥२८१॥ एक्के वाकमलसंडे मत्तीस विकस्सस महापउमा । एकेक महापउम एक्के जोयणं पमाणेणं ॥२२॥ वरकचणकयसोहा वरपउमा सुरविकुब्वणबलेण । एक्केक महापउमे णाडयसाला य एक्के का ॥२३॥ एक्केक्काए तीए बत्तीस वरच्छरा पणञ्चति । एवं सत्ताणीया णिहिट्ठा वारसिदार्ग २०४। -सौधर्म और ईशान हन्दके वाहन देव विक्रियासे एक लाख उत्सेध योजन प्रमाण दीर्घ ऐरावत नामक हाथीको करते है ॥२७॥ इनके दिव्य रनमालाओं से युक्त बत्तीस मुख होते है जो घण्टिकाओं
कोलाहल शब्दसे शोभायमान होते हुए पृथक् पृथक् शब्द करते १।२७४। चञ्चल एक चन्द्र के समान उज्ज्वल 'चमरोसे सुन्दर रूपवाले एक-एक मुख में रत्नोंके समूहसे खचित धवल चार दाँत होते है ॥२८॥ एक-एक हाथी दाँतपर निर्मल जल से युक्त एक-एक उत्तम सरोवर होता है। एक-एक सरोवर में एक-एक उत्तम कमल बनखण्ड होता है॥२८॥
एक-एक कमलखण्डमे विकसित ३२ महापदा होते है। और एक-एक महापद्म एक-एक योजन प्रमाण होता है ॥२८२॥ देवोके विक्रिया बलसे वे उत्तम कमल उत्तम सुवर्णसे शोभायमान होते है। एक-एक महापद्मपर एक-एक नाट्यशाला होती है ॥२८॥ उस एक-एक नाट्यशालामें उत्तम बत्तीस-बत्तीस अप्सराए नृत्य करती है ॥२४॥ (म पु. १२/३२-५६), (ज.प ४/२५३-२६१) एलक-वसु श्रा, ३०१, ३११ एयारसम्मि ठाणे उछिट्टो सावओ हवे दुविहो । वत्येकधरो पढमो कावीणपरिग्गहो विदिहो ॥३०१॥ एमेव हाइ विदिओ णवरि विसेसो कुणिज णियमेण । लोचधरिज्ज पिच्छ भुझिज्जो पाणिपत्तम्मि ॥३११३ = ग्यारहवे प्रतिमा स्थानमे गया हुआ मनुष्य उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद है-प्रथम एक वस्त्रका रखनेवाला और दूसरा कोपीनमात्र परिग्रहवाला ॥३०॥ प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (क्षुल्लक) के समान हो द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक होता है । केवल विशेष यह है कि उसे नियमसे केशोका लौच करना चाहिए, पीछी रखना चाहिए और पाणिपात्रमें खाना चाहिए ॥३१॥ (सा.ध ७/४८-४६) ला सं ७/५५-६२ उत्कृष श्रावको द्वधा क्षुल्ल कश्चैलकस्तथा-एकादशवास्थौ द्वौ स्तो द्वौ निर्जरको क्रमात् ॥५५॥ तत्रैलक स गृह्णाति वस्त्र कौपीनमात्रम् । लोच श्मश्रुशिरोलोम्नां पिच्छिका च कमण्डलुम् । १५६। पुस्तकादयुपधिश्चैव सर्वसाधारण यथा। सूक्ष्म चापि न गृहीयादोषत्सावद्यकारणम् ।५७ कौपीनोपधिमात्रस्वाद विना वाच यमी क्रिया । विद्यते चैलकस्यास्य दुर्धरं व्रतधारणम् ।।८। तिष्ठेचैत्यालये संघे बने वा मुनिस निधौ । निरवद्ये यथास्थाने शुद्ध शून्यमठादिषु ।।६। पूर्वोदितक्रमेणैव कृत कर्मावधावनात् । ईषन्मध्याह्नकाले व भोजनार्थ मटेरपुरे ६०। ईर्यासमितिसं शुद्ध पर्यटेद गृहसंख्यया । द्वाभ्यां पात्रस्थानो याम्या हस्ताभ्या परमश्नुयात्।६१। दद्यादधर्मोपदेश च नियाज मुक्तिसाधनम्। तपो द्वादशधा कुर्यात्प्रायश्चित्तादि वाचरेत् ।६।- उत्कृष्ट श्रावक दो प्रकारका होता है---एक क्षुल्लक और दूसरा ऐलक। इन दोनोके कमकी निर्जरा उत्तरोत्तर अधिक अधिक होती रहती है। ऐलक केवल कौपीनमात्र वस्त्रको धारण करता है। दाढी, मूंछ और मस्तक्के बालोका लोच करता है और पीछी कमण्डलु धारण करता है ।५६। इसके सिवाय सर्व साधारण पुस्तक आदि धर्मोपकरणोको भी धारण करता है। परन्तु ईषत सावद्यके भी कारणभूत पदार्थों को लेशमात्र भी अपने पास नहीं रखता है ।१७। कौपीन मात्र उपधिके अतिरिक्त उसकी समस्त क्रियाएँ मुनियोके समान होती है तथा मुनियोके समान ही वह अत्यन्त कठिन-कठिन व्रतों को पालन करता है।५८। यह या तो क्सिी चैत्यालयमें रहता है, या मुनियोके सघमें रहता है अथवा किसी मुनिराजके समीप बनमें रहता है अथवा किसी भी सूने मठमें वा अन्य किसी भी निर्दोष और शुदध-स्थानमें रहता है ।। पूर्वोक्त क्रमसे समस्त क्रियाएँ करता है तथा दोपहरसे कुछ समय पहले सावधान होकर नगर में जाता है ।६० ईर्यासमितिसे जाता है तथा घरों की संख्याका नियम भो लेकर जाता है। पात्रस्थानीय अपने हाथो में ही आहार लेता है ।६१। बिना किसी छल-कपटके मोक्षका कारणभूत धर्मोपदेश देता है। तथा बारह प्रकारका तपश्चरण पालन करता है। कदाचित ब्रतादिमें दोष लग जानेपर प्रायश्चित्त लेता है ।६२।
२. ऐलक पद व शब्दका इतिहास वसु श्रा /प्र. ६३/१८/H L Jain इस 'ऐलक' पदके मूल रूपकी ओर गम्भीर दृष्टिपात करनेपर यह भ. महावीरसे भी प्राचीन प्रतीत हाता है। भगवती आराधना, मुलाचार आदि सभी प्राचीन ग्रन्थोमें दिगम्बर साधुओके लिए अचेनक पद का व्यवहार हुआ है । पर भग
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ऐश्वर्य मद
वान महावीरके समयसे अचेलक साधुओके लिए नग्न, निर्ग्रन्थ और दिगम्बर शब्दोका प्रयोग बहुलतासे होने लगा। स्वयं बौद्ध ग्रन्थो में जन-साधुओके लिए निग्गंठ' या 'णिगंठ' नामका प्रयोग किया गया है, जिसका कि अर्थ निग्रन्थ है। अभीतक नथ समासका अर्थ प्रतिषेधपरक अर्थात 'न + चेलक - अचेलक ' अर्थ लिया जाता था। पर जब नग्न साधुओको स्पष्ट रूपसे दिगम्बर व निर्ग्रन्थ आदि रूपसे व्यवहार होने लगा तब न समासके ईषत अर्थ का आश्रय लेकर 'ईषत+चेलक - अचेलक ' का व्यवहार प्रारम्भ हुआ प्रतीत होता है। जिसका कि अर्थ नाममात्रका वस्त्र धारण करनेवाला होता है। ग्यारहती-बारहवी शताब्दीसे प्राकृत के स्थानपर अपभ्रश भाषाका प्रचार प्रारम्भ हआ और अनेक शब्द सर्वसाधारणके व्यवहारमे कुछ भ्रष्ट रूपसे प्रचलित हुए। इसी समयके मध्य 'अचेलक' का स्थान 'ऐलक' पदने ले लिया । जो कि प्राकृत व्याकरण के नियमसे भो सुसग बैठ जाता है। क्योकि, प्राकृत में 'क,-ग-च-ज त-द-प-य-वा प्रायो लुक' (हैम प्रा. १, १७७) इस नियमके अनुसार 'अचेलक' के चकारका लोप हो जानेसे 'अ, ए, ल, क' पद अवशिष्ट रहता है। यही (अ+ए-ऐ) सन्धिके योगसे 'ऐलक' बन गया। उक्त विवेचनसे यह बात भलीभाँति सिद्ध हो जाती है कि 'ऐलक' पद भले ही अर्वाचीन हो, पर उसका मूल रूप 'अचेलक' शब्द बहुत प्राचीन है । इस प्रकार ऐलक शब्दका अर्थ नाममात्रका वस्त्रधारक अचेलक होता है, और इसकी पुष्टि आ समन्तभद्र के द्वारा ग्यारहवी प्रतिमाधारीके लिए दिये गये 'चेलखण्डधर.' (वस्त्रका एक खण्ड धारण करनेवाला) पदसे भी होती है। * क्षुल्लक व ऐलकमे अन्तर तथा इन दोनो भेदोका
इतिहास व समन्वय-दे. क्षुल्लक २। * उद्दिष्ट त्याग सम्बन्धी-दे उद्दिष्ट । ऐश्वर्य मद-दे मद। ऐहिक फलानपेक्षा-दातारका पहला गुण कि वह इस लोकके । फलकी इच्छा न करे कि मुझे धन, पुत्र व यश हो। (पु श्लो. १६६)
-दे. बृ. जै, शब्दा द्वि खंड
ST
भोम् ऐसी गुणस्थानकी संज्ञा अनादिनिधन ऋषिप्रणीत मार्गविरुद्ध है। बहुरि सो सज्ञा 'मोयोगभवा' कहिए दई - a चारित्र महबा मन
वचन काय योग तिनिकरि उपजी है। बहुरि तैसे ही विस्तार ___ आदेश ऐसी मार्गणास्थानको स ज्ञा है। सो अपने-अपने कारणभूत
कमके उदयतै हो है। ओघालोचना-दे आलोचना । ओज-शरीरमें शुक्र नामकी धातुका नाम तथा औदारिक शरीरमें
इसका प्रमाण-दे औदारिक १/७ । ध १०/४,२,४,३/२३/१ जो रासी चदुहि अब हिरिजमाणो दोरूबरगो होदि सो बादरजुम्म। जो एगग्गो सो कलियोजो। जो तिग्गो सो तेजोजो । उक्त च-चोद्दस बादरजुम्म सोलस क्दजुम्ममेत्य कलियोजो। तेरस तेजोजो खलु पण्णरसेब खु विष्णेया 1३- जिस राशिको चारसे अबहुत (भाग) करनेपर दो रूप शेष रहते है वह बादरयुग्म कहो जाती है। जिसको चारसे अवहृत करनेपर एक अंश शेष रहता है वह कलिओज-राशि है। और जिसको चारसे अवहृत करनेपर तीन अंश शेष रहते है वह तेजोज-राशि है। कहा भी हैयहाँ चौदहको बादरयुग्म, सोलहको कृतयुग्म, तेरहको कलिओज और पन्द्रहको तेजोज राशि जानना चाहिए । (क्योकि १४-(४४३) +, १६-(४४४)+0:१३-- (४४३) +१:१५ -(४४३)+३.)। ओजाहार-दे. आहार I/१। आद्दावण- १३/५४,२२/४६/११ जीवस्य उपद्रवण ओहावणणाम
-जीवका उपद्रवण करना ओहावरण कहलाता है। ओम्१ पंच परमेष्ठीके अर्थमे द्र. सं टी ४६/२०७/११ 'ओ' एकाक्षर पञ्चपरमेष्ठिनामादिपदम् ।
तत्कथ मिति चेत् "अरिहता असरीरा आयरिया तह उवज्झया मुणिणा । पढमयखरणिपणो कारो पच परमेट्ठी ।।" इति गाथाकथितप्रथमाक्षराणा 'समान सवर्ण दीर्धीभवति' 'परश्च लोपम' 'उवणे ओ' इति स्वरसन्धिविधानेन ओ शब्दो निष्पद्यते।-'ओ'यह एक अक्षर पॉचो परमेष्ठियोके आदि पदस्वरूप है। प्रश्न - 'ओं' यह परमेष्ठियोके आदि पदरूप कैसे है। उत्तर-अरहंतका प्रथम अक्षर'अ', सिद्ध यानि अशरीरीका प्रथम अक्षर'अ',आचार्यका प्रथम अक्षर 'आ'. उपाध्यायका प्रथम अक्षर 'उ', साधु यानि मुनिका प्रथम अक्षर 'म' इस प्रकार इन पॉचो परमेष्ठियोके प्रथम अक्षरोसे सिद्ध जो ओकार है वही पच परमेष्ठियोके समान है । इस प्रकार गाथामें कहे हुए जो प्रथम अक्षर (अ अ आ उ म)है। इनमें पहले 'समानः सवर्ण दीर्धीभवति' इस सूत्रसे 'अअ' मिलकर दीर्घ 'आ' बनाकर 'परश्च लोपम्' इससे अक्षर 'आ' का लाप करके अ अ आ इन तीनोके स्थानमें एक 'आ' सिद्ध क्यिा । फिर 'उवणे ओ' इस सूत्रसे 'आ उ'के स्थान में 'ओ' बनाया। ऐसे स्वरसन्धि करनेसे 'ओम्' यह शब्द सिद्ध होता हे।
२. पर ब्रह्मके अर्थमे वैदिक साहित्यमे अ+उ+* इस प्रकार अढाई मात्रासे निष्पन्न यह पद सर्वोपरि व सर्वस्व माना गया है। सृष्टिका कारण शब्द है और शब्दों की जननी मातृकाओ (क ख. आदि) का मूल होनेसे यह सर्व सृष्टिका मूल है। अत' परब्रह्मस्वरूप है।
३. भगवद्वाणीके अर्थमे उपरोक्त कारणसे ही अर्हन्त वाणीको जो कि ॐकार ध्वनि मात्र है. सर्व
भाषामयी माना गया है (दे दिव्यध्वनि) । प्रणवमंत्र-पदस्थ ध्यानमें इस मंत्रको दो भौहों के बीच में व अन्यत्र विरा
जमान करके ध्यान क्यिा जाता है। दे वृ जै शब्द , द्वि खण्ड ।
[
आ]
ओघ-गुणस्थान जो १४ होते है । (गो. जी /गा. ३)
-दे.बृ जै. शब्दा. द्वि. खंड। ध १/१,१,८/१६०/२ ओधेन सामान्येनाभेदेन प्ररूपणमेकः।-ओघ,
सामान्य या अभेदसे निरूपण करना पहली ओघप्ररूपणा है। ध, ३/१,२,१/६/२ ओधं वृन्दं समूह संपात' समुदय' पिण्ड' अविशेष'
अभिन्न सामान्यमिति पर्यायशब्दा । गत्यादि मार्गणस्थानैरविशेषितानां चतुर्दशगुणस्थानाना प्रमाणप्ररूपणमोघनिर्देश। -ओघ, वृन्द, समूह, सपात, समुदय, पिण्ड, अविशेष, अभिन्न और सामान्य ये सब पर्यायवाची शब्द है। इस ओघनिर्देशका प्रकृतमें स्पष्टीकरण इस प्रकार हुआ कि गत्यादि मार्गणा स्थानोसे विशेषताको नहीं प्राप्त हुए केवल चौदहो गुणस्थानो के अर्थात चौदहो गुणस्थानवी जीवोके प्रमाण का प्ररूपणा करना ओघ निर्देश है। गो जो./मू. ३/२३ सखेओ ओघोत्ति य गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा। विस्थारादेसोत्ति य मग्गणसण्णा सकम्मभवा ।३। = संक्षेप तथा ओघ
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ओलिक
४. तीन लोकके अर्धमे
अ - अधोलोक, उ = ऊर्ध्वलोक और म=मध्यलोक | इस प्रकारकी व्याख्या के द्वारा वैदिक साहित्य में इसे तीन लोकका प्रतीक माना गया है ।
7)
जेनाम्नायके अनुसार भी ॐकार त्रिलोकाकार घटित होता है । आगममें तीन लोकका आकार चित्र जैसा है, अर्थाद तीन वातव लयोसे वेष्टित पुरुषाकार, जिसके ललाटपर अर्द्धचन्द्राकारमें मिन्दुरूप सिद्धीक शोभित होता है मोमो हाथी के सूंड जसनाली है। यदि उसी आकारको जल्दी से लिखनेमे आबे तो ऐसा लिखा जाता है । इसीको कलापूर्ण बना दिया जाये तो 'ॐ' ऐसा ओकार त्रिलोकका प्रतिनिधि स्वयं सिद्ध हो जाता है। यही कारण है कि भेदभाव से रहित भारत. के सर्व ही धर्म इसको समान रूपसे उपास्य मानते है ।
125
५ प्रदेशापचयके अर्थमे
घ. १०/४.२ ४.३ /२३/६ सिया ओमा, कवाई पदेसानमवचयदंसणा
- (ज्ञानावरणकर्मका) स्पाय'ओम्' है. क्योकि क्वचिद प्रदेशोका अपचय देख जाता है।
|
६. नो ओम् नो विशिष्ट
ध १०/४.२,४,३ / २३/७ सिया णोमणोवि सिट्टापादेवकं पदावयवे णिरुद्ध हाणीणमभावादो। (ज्ञानावरणका द्रव्य) स्यात् नो ओम् नविशिष्ट है क्योंकि प्रत्येक पदभेदकी विवक्षा होनेपर वृद्धि हानि नहीं देखी जाती है।
७ ओकार मुद्रा
अनामिका, कनिष्ठा और अगूठेसे नाक पकडना । (क्रियामंत्र पृ ८७ नोट) – दे बृ जै शब्द द्वि खंड ।
-
ओलिक - मध्य- आर्य-खण्डका एक देश
-दे मनुष्य ४ ।
[ औ ]
औंड्र भरक्षेत्र आर्य खण्डका एकदेशमनुष् औदयिक भाव औदारिक-तियंच व मनुष्यो के इस इन्द्रिय गोचर स्थूल शरीरको बारिक शरीर कहते हैं और इसके निमित्त होनेवाला आत्मप्रदेश का परिस्पन्दन औदारिक- काययाग कहलाता है । शरीर धारण के प्रथम तीन समय मे जब तक इस शरीर की पर्याप्त पूर्ण नही हो जाती तब तक इसके साथ कार्माणशरीरको प्रधानता रहनेके कारण शरीर व योगदानो मिश्र कहलाते है ।
१ औदारिक शरीर निर्देश
१ औदारिक शरीरका लक्षण
२ औदा क शरीरके भेद
* पांचों शरीरोकी उत्तरोतर सूक्ष्मता शरीर * औदारिक शरीरोकी अवगाहना दे अवगाहना ★ महामत्स्यका विशाल शरीर
मून
४७०
★ प्रत्येक व साधारण शरीर ३ औदारिक शरीरका स्वामित्व
* पाँचो शरीरोके स्वामित्वकी ओष आदेश प्ररूपणा - दे शरीर २
औदारिक
* संमूर्च्छन जन्म व शरीर
देन
★ गर्भज जन्म व शरीरोत्पत्तिका क्रम ४ ओदारिक शरीर के प्रदेशानका स्वामित्व ५ षट्कायिक जीवोके शरीरका आकार * औदारिक शरीरोकी स्थिति - स्थिति * औदारिक शरीरमे कुछ चिह्नविशेषोंका निर्देश
( व्यंजन व लक्षण निमित्त ज्ञान) दे. निमित्त २ ६ औवारिक शरीरमे धातुओ- उपधातुओका उत्पत्ति क्रम ★ योनिस्थानमे शरीरोत्पत्तिका क्रम - दे. पर्याप्ति २ ७ औदारिक शरीरमे हड्डियो आदिका प्रमाण
* पटकालोमे हड्डियो आदिके प्रमाणमे हानि-वृद्धि
-- दे. काल ४
* औदारिक शरीरके अंगोपाग * तीर्थकरो व शलाकापुरुष के
दे वनस्पति
- दे. अगो पांग शरीरोकी विशेषताएँ
- दे तीर्थकर व शखा का
* औदारिक शरीर नामकर्मके बन्ध-उदय सत्व आदि की प्ररूपणाएँ
* मुक्त जीवोफा चरम शरीर * द्विचरम शरीर |
— दे जन्म २
नाम
* औदारिक शरीरकी संघातन परिशातन कृति - २/४.९०१/३५२-४५१ ★ ओदा रिक शरीरका धर्म साधनत्व
*
- दे शरीर ३
* साधुओके मृत शरीरकी क्षेपण विधि
- दे
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सल्लेखना ११
- दे मोक्ष ५ -- दे चरम
२ औदारिक काययोग निर्देश
१ औदारिक काययोगका लक्षण
२ औहारिक मिश्र काययोगका लक्षण
३ औदारिक व मिश्र काययोग का स्वामित्व
★ पर्याप्त व अपर्यान अवस्थाओमे कार्मण काययोगके सद्भावमे भी मिश्र काययोग क्यो नही कहते ?
- दे काय ३
★ सभी मार्गणाओमे भावमार्गणा इष्ट है। - मार्गमा * सभी मार्गणा व गुणस्थानोमे आपके व्यय होनेका नियम
अनुसार ही - दे. मार्गणा
* औवारिक व मित्र काय-योग सम्बन्धी गुणस्थान, मार्गणास्थान व जीवसमास आदि २० प्ररूपणाएँ
- दे सव
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औदारिफ
४७१
१. औदारिक शरार निर्देश
* औदारिक व मिश्र काय-योगकी सत्' संख्या, क्षेत्र, ३. औदारिक शरीरका स्वामित्व स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहत्व रूप आठ त सू २/४५ गर्भ संमूचनजमाद्यम् ॥४॥ - पहला (औदारिक शरीर)
गर्भ और समर्छन जन्मसे पैदा होता है। प्ररूपणाएं
-दे. वह वह नाम स. सि. २/४५/१६७/१ यद् गर्भजं यच्च संमूर्छनज तत्सर्वमौदारिक
द्रष्टव्यम् । = जो शरीर गर्भ-जन्मसे और संमूर्छन जन्मसे उत्पन्न १. औदारिक शरीर निर्देश
हाता है वह सत्र औदारिक शरीर है, यह इस सूत्रका तात्पर्य है। १. औदारिक शरीरका लक्षण
(सवा २/४५/१५१/१८) ष.स. १४/६/ सूत्र २३७/३२२ णामाणिरुत्तीए उरालमिदि ओरालिय रा वा. २/४६/८/१५३/२३ औदारिक तिर्थड्मनुष्याणाम् । -तिर्यच और ।२३७। म नामनिरुक्तिकी अपेक्षा उराल है इसलिए जोदारिक है।
मनुष्योका औदारिक शरीर होता है। स सि २/३६/१११।५ उदार स्थूलम् । उदारे भवं उदार प्रयोजनमस्येति ४. औदारिक शरीरके प्रदेशानका स्वामित्व वा ओदारिकम् । = उदार और स्थूल ये एकार्थवाची शब्द है।
१. औदारिक शरीरके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशाग्रोके उदार शब्दसे होने रूप अर्थ में या प्रयोजनरूप अर्थ में ठक् प्रन्यय होकर औदारिक शब्द बनता है। (रावा. २/३६/३/१४६/५) (और भी
स्वामित्व सम्बन्धी प्ररूपणा-दे (ष खं १४/५.६ सूत्र दे. आगे औदारिक /२/१।।
४१७-४३०/३६७-४११) ध. १/१,१,५६/२६०/२ उदार पुरु महानित्यर्थ , तत्र भवं शरीरमौदा- २. औदारिक शरीरके जघन्य व अजघन्य प्रदेशाग्रोके रिकम् । अथ स्यान्न महत्त्वमौदारिकशरीरस्य। कथमेतदवगम्यते।
स्वामित्व सम्बन्धी प्ररूपणा-दे. (ष ख १४.५,६/सूत्र वर्गणासूत्रात् । किं तद्वर्गणासूत्रमिति चेदुच्यते सव्वत्थोवा ओरालियसरीर दम्ब बग्गणापदेसा, ../न, अवगाहनापेक्षया औदारिकारी
४७६-४८२/४२३-४२४) रस्य महत्वोपपत्तेः । यथा 'सव्वत्थोवा कम्मइय-सरि-दव्यवग्गणाए
५. षट्कायिक जीवोके शरीरोका आकार ओगाहणा • ओरालिय-दव्व-वागणाए ओगाहणा असंखेज्ज गुणा त्ति । मू आ १०८६ मतरिय कुसग्गविदू सूइकलावा पडाय स ठाण । कायाण - उदार, पुरु और महान ये एक ही अर्थके बाचक है। उसमें जो गंठाण हरिदतसा णेगस ठाणा ।१०८१। पृथिवीकायिक के शरीरका शरीर उत्पन्न होता है उसे औदारिक शरीर कहते है। प्रश्न औदा-- आकार मसूर के आकार वत, यि पाहाभ के अग्रभागमें स्थित रिक शरार महान् है यह बात नही बनती है। प्रतिप्रश्न -18 कैसे जनबिन्दु त, नेनायिकका सूचीसमुदायबर अर्यात ऊबहुमुखाजाना । उत्तर - वर्गणासूत्रसे यह बात मालूम पड़ती है। प्रतिप्रश्न- कार, वायुकायिका नजा-तु आयत, चतुरस आकार है। सब यह वर्गणा सत्र कौन-सा है। उत्तर-वह वर्गणा-मूत्र इस प्रकार है, वनस्पति और द। इन्द्रिय आदि म जीवोका शरर भेद रूप अनेक 'औसरिक शरीरद्रव्य सम्बन्धी वर्गणाओके प्रदेश सबसे थोडे है।... आकार वाला है । गा जो /मू २०१/४१६ इत्यादि । उत्तर-प्रकृत में ऐसा नहीं है, क्योंकि अबगाहनकी अपेक्षा औदारिक शरीरकी स्थूलता बन जाती है। जैसे कहा भी है-'कार्माण
६ औदारिक शरीर में धातु-उपधातुका उत्पत्ति क्रम शरोर सम्बन्धी द्रव्यवर्गणाकी अवगाहना सबसे सूक्ष्म है। (इसके
ध ६/१६-१-२८/श्ला. ११/६३ रसाद्रक्त ततो मासं मासान्मेद प्रवर्तते। पश्चात अन्य शरीरो सम्बन्धी द्रव्य वर्गणाओंकी अवगाहनाएँ क्रमसे __मेदसोऽस्थि तता मज्जा मज शुक्र तत प्रजा ।११। असंख्यात अस ख्यात गुणो है। और अन्तमे) औदारिक शरीर ध.६/१, ६-१.२८/६३/११ चवीसकलासयाई चउरसी दिक्लाओ च सम्बन्धी द्रव्य-वर्णणाकी अवगाहना इससे असंख्यात गुणो है।
तिहिसत्तभागे ह परिही णणवव द्वाओ च सो, रसरूवेण अच्छिय ध. १४/५.६.२३७/३२२/५ उरालं थूल वट्ट महल मिदि एयट्ठो। कुदों
रुहिर हादि। त हि तत्तिय चेव काल तत्थच्छिय माससरूवेण उरालतं, ओगाहणाए। सेससरोराणं ओगाहणाए एदस्स सरीरस्स
परिणमइ । एब रोस धादूर्ण व वक्तव्य । एन मासेन रसो सुकम्वेण ओगाहणा बहुआ त्ति ओरालियसरीरमुराले त्ति यहिद । कुदो बहत्त
परिण मह। - रससे रक्त बनता है, रक्तसे मांस उत्पन्न होता मवगम्मदे। महामच्छोरालियसरीरस्स पंचजोयणसद विवरव भेण
है, मागसे मेदा पेदा होती है, मेदासे हड्डी बनती है, हड्डोसे मज्जा जोयणसहस्सायामदंसणादो। अथवा सेससरीराण वग्गणोऽगाहणादो
पैदा होती है, मज्जामे शुक्र उत्पन्न होता है और शुक्रसे प्रजा उत्पन्न ओरालियसरीरस्स वग्ग ओगाहणा बहुआ त्ति ओरालियवग्गणा- होती है ।११। २५८४ कलामाष्ठा काल तक रस रसस्वरूपसे रहकर मुराल मिदि सण्णा । - उराल, वृत्त, स्थूल और महान् ये एकार्थवाची रुधिररूप परिणत होता है। वह रुधिर भी उतने ही काल तक शब्द है । प्रश्न - यह उराल क्यो है। उत्तर-अवगाहनाकी अपेक्षा रुधिर रूपसे रह कर मासस्वरूपसे परिणत हाता है। इसी प्रकार शेष उराल है। शेष शरीगे की अवगाहनासे इस शरीरको अवगाहना घातुओका भी परिणाम-काल कहना चाहिए। इस तरह एक मासके बहुत है, इसलिए औदारिक शरीर उराल है। प्रश्न- इसकी अनगा- द्वारा रस शुक्र रूपसे परिणत होता है। (गो क /जी प्र३३/३० पर हनाके बहूत्वका ज्ञान कैसे होता है। उत्तर- क्योकि, महामत्स्य का उद्धृत श्न ।क नं०१) औदारिक शरीर पाँच सौ योजन विस्तारवाला और एक हजर योजन गो क/जी.प्र. ३३/३० पर उद्धृत श्लोक नं०२ "वात पित्त तथा श्लेषा आयामवाला देखा जाता है। अथवा शेष शरीरोकी वर्गणाओकी सिरा स्नायुश्च चर्म च। जठराग्निरिति प्राज्ञ प्रत्ता सप्तोपधातव ।" अवगाहनाकी अपेक्षा औदारिक शरीर की वर्गणाओकी अवगाहना वात, पित्त, श्लेष्म, सिरा, स्नायु चम, उदराग्नि ये सात उपबहुत है, इसलिए औदारिक शरीरकी वर्गणाओकी उराल ऐसी धातु है। संज्ञा है।
७. औदारिक शरीरमें हड्डियों आदिका प्रमाण २. औदारिक शरीरके भेद
भ.आ/मू १०२७-१०३५/१०७२-१०७६ अट्ठीणि हुंति तिण्णि हु सदाणि ध. १/१,१.५८/२६६/१० औदारिक शरीरं द्विविध विक्रियात्मकम- भरिदाणि कुणिममज्जाए। सवम्मि चेव देहे सधीणि हवं ति विक्रियात्मकमिति । औदारिक शरीर दो प्रकारका है-विक्रिया- तावदिया ।१०२७१ हारूण णवसदाई सिरासदाणि य हवं ति सत्तेव । स्मक और अविक्रियात्मक । (ध.६/४,१.६९/३२८/९)।
देहम्मि मंसपेसाणि हुति पंचेव य सदाणि ।१०२८। चत्तारि सिरा
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औदारिक
४७२
औदार्य चिन्तामणि
जालाणि हुँति सोलस य कंडराणि तहा। छच्चेब सिराकुच्चादेहे दो मसरज्जू य ।१०२६। सत्त तयाओ कालेज्जयाणि सत्तेव होति देहम्मि देहम्मि रामकाडोण होति सीदी सदसहस्सा ।१०३०। पक्का मयासयत्थाय अतगुजाओ सोलस हवति । कुणिमस्स आसया सत्त हुति देहे मणुस्सस्स ।१०३१३ थूणाओ तिणि देहम्मि होति सत्तु त्तर च मम्मसदं । णव होति वणमुहाइ णिच्च कुणिम सबताइ ।१०३२। देहम्मि मच्छलिग अजलि मित्त सयप्पमाणेण। अजलिमित्तो मेदो उज्जोवि य तत्तिओ चेव ।१०३३। तिणि य वसजलीओछच्चेर अजलीओ पित्तस्स । सिंभो पित्तसमाणो लोहिदमदाढग होदि ।१०३४। मुत्त आढयमेत उच्चारस्स य हव ति छप्पच्छा। वीस महाणि दंता बत्तीसं होति पगदीए ।१०३६॥ - इस मनुष्यके देहमें ३०० अस्थि है, वे दुर्गन्ध मज्जा नामक धातुसे भरी हुई है। और ३०० ही सन्धि है । १०२७ । ६०० स्नायु है, ७०० सिरा है, ५०० मासपेशिया है ।१०२८।४ जाल है, १६ कडरा है,६ सिराओं के मूल है, और २ मांस रज्जू है ।१०२६। ७ त्वचा है, ७ कालेयक है, और ८०,०००,०० कोटि रोम है ।१०३०। पक्वाशय और आमाशय में १६ आते रहती है, दुर्गन्ध मलके ७ आशय है ।१०३६। ३ स्थूणा है. १०७ मर्मस्थान है, व्रणमुख है, जिससे नित्य दुर्गन्ध सवता है ।१०३२। मस्तिष्क, मेद, ओज, शुक्र, ये चारो एक एक अजलि प्रमाण है ।१०३३। बसा नामक धातु ३ अंजलिप्रमाण, पित्त और श्लेष्म अर्थात् कफ छह-छह अलिप्रमाण और रुधिर १/२ आठक है। १०३४। मुत्र एक आढक, उच्चार अर्थात विष्ठा प्रस्थ, नख २० और दात ३२ है। स्वभावत शरीरमे इन अवयवोका प्रमाण कहा है। २. औदारिक काययोग निर्देश
१. औदारिक काययोगका लक्षण पं.स./प्रा. १/६३ पुरु महदुदारुराल एयट्ठं तं वियाण तम्हि भवं ।
ओरलिय त्ति वुत्त ओरालियकायजोगो सो।१३। पुरु, महत, उदार और उराल ये शब्द एकार्थवाचक है। उदार या स्थूलमें जो उत्पन्न हो उसे औदारिक जानना चाहिए। उदारमें होनेवाला जो काययोग है, वह औदारिक काययोग कहलाता है। (ध. १/१,१,५६/१६०/
२६१); (गो जी /म् २३०/४६२), (प स /सं १/१७३) ध. १/१,१,५६/२८६/१२ औदारिकारोरजनितवीर्याज्जीवप्रदेशपरिस्पन्दनिबन्धनप्रयल' औदारिक काययोग । -यौदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुइ शक्तिसे जोवके प्रदेशोमे परिस्पन्दका कारणभूत जो प्रयत्न होता है उसे औदारिक काययोग कहते है। गो.जी./जी,प्र २३०/४६३/९ औदारिकायार्थ वा आत्मप्रदेशानां कर्मनोकर्मापकर्षणशक्ति' सेव औदारिककाययोग इत्युच्यते तदा औदारिकवर्गणास्कन्धाना औदारिककायत्वपरिण मनकारणं आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो वा औदारिककाययोग इति... अथवा औदारिककाय एवं औदारिक काययोग इति कारणे कार्योपचारात् । -१ औदारिक शरीरके निमित्त आत्मप्रदेश निकै कर्म नोकर्म ग्रहणकी शक्ति सो औदारिक कापयोग कहिए । २ अथवा औदारिकवर्गणारूप पुद्गल स्कन्धनिको औदारिक शरीररूप परिणमावनेको कारण जो आरमप्रदेशनिका चचलपना सो औदारिक कागयोग है। ३, अथवा औदारिककाय सोई औदारिककाययोग है, यहाँ कार्य विषै कारणका उपचार जानना।
२. औदारिक मिश्रकाययोगका लक्षण प.स /पा. १/६४ अतोमुहुत्तमझ वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णो त्ति । जो
तेण सपओगो ओरालियमिस्सकायजोगो सो ४ -औदारिक शरीरकी उत्पत्ति प्रारम्भ होनेके प्रथम समयसे लगाकर अन्तर्मुहर्त तक मध्यवर्ती कालमें जो अपरिपूर्ण शरीर है, उसे औदारिकमिश्र मानना चाहिए। उसके द्वारा होनेवाला जो सप्रयोग है, वह औदारिक
मिश्रकाययोग कहलाता है। अर्थात् शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेसे पूर्व कार्माण शरीरकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले औदारिककाययोगको
औदारिक-मिश्रकाययोग कहते है ।१४। (ध. १/१,१,५६/१६२/२६१)। (गा जी /मू २३१/४६४), (५.स /सं १/१७३) । ध, १/१,१.५६/२१०/१ कार्मणौदारिकस्कन्धाभ्या नितवीर्यात्तत्परिस्पन्द नार्थ प्रयत्न औदारिकमिश्रकाययोग । कार्म और औदारिक वर्गणाओके द्वारा उत्पन्न हुए वीर्य से जीवके प्रदेशो में परिस्पन्द के लिए
जो प्रयत्न होता है, उसे औदारिक मिश्र काययोग कहते है। गो जी./जी २३१/४६४/११ प्रागुत्तलक्षण मौदारिकशरीर तदेवान्तर्महुर्तपर्यन्तमपूर्ण अपर्याप्त तावन्मिश्रमित्युच्यते अपर्याप्तकालसमन्धिसमयत्रयसभविकार्मणकाययोगोत्कृष्ट कार्मणवर्गणासयुक्तत्वेन परमागमरूढया वा अपर्याप्त अपर्याप्तशरीमिश्रमित्यर्थ । तत कारणादौदारिककायमित्रेण सह तदर्थ वर्तमानो य स प्रयोग आत्मन कर्मनोकर्मादानशक्तिप्रदेशपरिस्पन्दयोग स शरीरपर्याप्तिनिष्पत्त्यभावेन औदारिक्वर्गणास्कन्धाना परिपूर्ण शरीरपरिणमनासमर्थ औदारिककार्यामश्रयोग इति विजानीहि। - औदारिक शरीर यावत्काल अन्तर्मुहूर्त पर्यन्तपूर्ण न होइ अपर्याप्त होइ तावद काल मिश्र कहिए । अपर्याप्तकाल सम्बन्धी तीन समर्यानविषै जो कार्माण योग ताकी उत्कृष्ट कार्मणवर्गणाकरि संयुक्त है तातै मिश्र नाम है।-२ अथवा परमागम विषै ऐसे ही रूढि है। जो अपर्याप्त शरीरको मिश्र कहिए सो तिस औदारिक मिश्र करि सहित सप्रयोग कहिए ताकै अर्थ प्रवा जो आत्माकै कर्म नोकर्म ग्रहण की शक्ति धरै प्रदेशनिका चचलपना सो योग है, सो शरीर पर्याप्तिकी पूर्णताके अभावते औदारिक वर्गणा स्कन्धानको सम्पूर्ण शरीररूप परिणमावनेकौ असमर्थ है, ऐसा औदारिक मिश्रकाययोग तू जानि ।
३. औदारिक व मिश्र काययोगका स्वामित्व ष ख ६/११/सू. ५७. ७६/२६५, ३१५ ओरालियकायजोगो ओरालिय
मिस्सकायजोगो तिरिक्वमणुस्साण १५७। ओरालयकायजोगो पज्जत्ताणं ओरालिमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताण ७६। -तिर्यच
और मनुष्योके औदारिक काययोग और मिश्रकाययोग होता है ।१७। औदारिक काययोग पर्याप्तकोके और औदारिक मिश्रकाययोग
अपर्याप्तको के होता है ७६। पं.सं /प्रा.४/१२ ओराल मिस्स-कम्मे सत्तापुण्णा य साणिपज्जत्तो।
ओरालकाय जोए पज्जत्ता सत्तणायव्वा ।१२। - औदारिक मिश्रकाय योग और कार्मणकाय योगमे सातो अपर्याप्तक तथा सज्ञिपर्याप्तक ये जीव समाप्त होते है। औदारिक काययागमें सातो पर्याप्तक जीव समास जानने चाहिए ।१२।। गो जी./मू.६८०/११२३ ओराल पज्जत्ते थावरकायादि जाव जोगोप्ति । तम्मिस्समपज्जत्ते चदुगुणठाणेसु णियमेण ।६८० मिच्छे सासण सम्मे पंवेदयदे कवाडजोगिम्मि। णरतिरियेवि य दोणिव होतित्ति जिणेहि णिहिट।६८१। -औदारिक काययोग एकेन्द्रिय स्थावर पर्याप्त मिथ्याष्टित लगाय सयोगी पर्यन्त तेरहगुणस्थान निविष है। बहुरि औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्त चार गुणस्थाननिविष ही है नियमकरि ६८०। मिथ्यादृष्टी सासादन पुरुषवेदका उदयकरि सयुक्त, असंयत, कपाट समुधात सहित सयोगी, इति अपर्याप्तरूप च्यारि गुणस्थाननिविष सो औदारिक मिश्रयोग पाइये है । बहुरि औदारिकविषै तौ पर्याप्त सात जीवसमास और औदारिकमिश्रविषै अपर्याप्त सात जीव समास और सह्योगीकै एक पर्याप्त जीव समास ऐसे आठ जीव समास है।६८११ औदार्यचिन्तामणि-भट्रारक श्रुतसागर (वि १५४४-१५५६) द्वारा रचित ४५८ सूत्रबद्ध प्राकृत व्याकरण (ती. ३/३६८) ।
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ओद्देशिक
औस्तुभास
औद्देशिक-आहारका एक दोष-दे आहार II/४, (विशेष दे.
उद्दिष्ट) औद्र-भरतक्षेत्र आर्यखण्डका एक देश-दे मनुष्य ४ । औपदेशिक-औपदेशिक आहार-दे. उद्दिष्ट । -जो उपपाद जन्म से पैदा हो देव व नारको।
-दे. ब. जै. शब्दा.द्वि. खंड। औपपादिक जन्म दे जन्म २ । औपमन्यु-एक विनयवादी -दे, वैनयिक । औपशमिक भाव-दे उपशम ६। औषधि- ला.सं. २/१६ शंढ्यादि भेषजं - सौठ मिर्च पीपल । आदि औषधियाँ कहलातो हैं। २. पूर्व विदेहस्थ पुष्कल क्षेत्रकी मुख्य नगरी-दे. लोक ७॥
औषधी-विदेहोंके बत्तीस देशोंमें बत्तीस राज्यधानी , उनमें है सातवी राज्यधानी (त्रि गा. ७१२) औषधि ऋद्धि-दे. ऋद्धि । औषधि कल्प-आ. इन्द्रनन्दि (ई. श १०-११) द्वारा रचित एक वैद्यक शास्त्र। औषधि दान-दे. दान।
अपर विदेहस्थ विभगा नदी-दे. लोक /
सिलवण समुद्रके बडवामुख आदि दिशा सम्बन्धी पातालोंके दोनों तरफ एक-एक पर्वत है। पूर्वदिशाके पातालकी पश्चिम दिशामें पर्वतका नाम (त्रि. गा. ६०५-१०६) यहाँपर जो व्यतर रहता है उसका भी नाम औस्तुभास है। -दे, बृ. जै, शब्द. दि. खंड ।
इति प्रथमः खण्डः
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भाग १ [परिशिष्ट ]
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[परिशिष्ट]
अनुसार वीर निर्माणकी तिथिको १८ वर्ष ऊपर उठा देनेपर इस सगतिकी कालावधि यद्यपि बढ जाती है अर्थात बोधि लाभके पश्चात दोनो महापुरुष ४४ वर्ष तक साथ साथ रह सकते हैं, तदपि ४७० वर्षवाली मान्यताके अनुसार भी इन दोनों महापुरुषों को १२-१३ वर्ष तक अपने धर्मों के प्रतिस्पर्धी शास्ताओंके रूपमें साथ-साथ विचरण करनेका अवसर प्राप्त हो जाता है।
| जन्म
नाम
आयु | वैराग्य बोधि निर्वाण वर्ष । ई. पू. | वि पू. ई. प. वि.पू. ई.पू.
महावीरदृष्टि नं.१६१७ दृष्टिन २/५६६ ।
५४५
५८७ ५१० १६६ १५००
५७५ ४८८ ५७४७०
७२
१२७
परिशिष्ट ' -(संवत् विचार)
१. वीर संवत् विचार पृष्ठ ३०१ पर भगवान् वीरके निर्वाणकी चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि विक्रम संवतको लेकर इस विषय में प्राचीन कालसे ही कुछ मतभेद चला आ रहा है। विक्रम संवत् का प्रारम्भ कुछ विद्वान तो विक्रमके जन्मसे मानते हैं, कुछ उनकी मृत्युसे और कछ उनके राज्याभिषेकसे। पहली दो मान्यताओंकी अपेक्षा तो महावीरकी निर्वाण तिथिमें कोई अन्तर नहीं पड़ता परन्तु तीसरी मान्यतासे अवश्य उसे १८ वर्ष ऊपर उठाना अनिवार्य हो जाता है। इसका कारण यह है कि पहली दो मान्यताओं के अनुसार वीर निर्वाण सवत तथा प्रचलित विक्रम संवत्के मध्य ४७० का जो लोकप्रसिद्ध अन्तर है वह ज्योंका त्यों बना रहता है क्योंकि विक्रम जन्मसे उसके संवतका प्रारम्भ माननेवाले उसका जन्म वीर निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चाद मानते हैं और मृत्युसे उसका प्रारम्भ माननेवाले उसकी मृत्युको वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चाद मानते है। विक्रमको आयु ७८ वर्ष मानी गई है जिसमें से १८ वर्ष उनका बाल्यकाल है और ६० वर्ष राज्यकान । बी, नि ४७० में जन्म माननेवालो की अपेक्षा उनका राज्याभिषेक वी.नि ४८८ में हुआ और ४७० में उनकी मृत्यु माननेवालोंकी अपेक्षा वह वी.नि. ४१० में हुआ। इस विषय में एक तृतीय मान्यता भी है जिसके अनुसार वी. नि. ४१० में उनका जन्म हुआ और ४२८ में राज्याभिषेक । आ. इन्द्रनन्दि कृत 'श्रुतावतार' नामक ग्रन्थमें अत्यन्त प्रसिद्ध दो पट्टावलिये प्राप्त होती है, एक गौतम गणधरमे प्रारम्भ होनेवाली श्रतधर आम्नायकी अथवा मूल संघकी और दूसरी नन्दिसंघके बलात्कार गणकी। दोनों में ही आचार्योंका पृथक पृथक काल निर्देश किया गया है। पहली में उसकी गणना वीर निर्वाण की अपेक्षासे की
और तमीमें विक्रम राज्य की अपेक्षा । परन्तु यहाँ विक्रमका राज्याभिषेक वीर निर्वाण के ४८८ वर्ष पश्चात मानकर चला गया है। इसकी चर्चा तो आगे विक्रम सवतके अन्तर्गतकी जायेगी, यहाँ केवल इतना बता देना इष्ट है कि उनकी इस मान्यताके आधारपर वी नि. ४८८ में राज्याभिषेक माननेवाले विद्वान् वी नि, और विक्रम मबत्के मध्य जो ४७० वर्ष का अन्तर प्रसिद्ध चला आ रहा है, उसमें १८ वर्ष की वृद्धि करनेकी माग करते है, अर्थात उनके अनुसार वीरका निर्वाण प्रचलित मान्यतासे १८ वर्ष पहले होना चाहिए, और तदनुसार महावीर की २५००त्री निर्वाण जयन्ती जो ई १९७३ में मनाई गई वह ई १९५५ में मनाई जानी चाहिये थी। परन्तु जैसा कि आगे सिद्ध किया जानेवाला है आ इन्द्रनन्दिसे इस विषय में कुछ भूल हुई है और उसको आधार मानकर यह भ्रान्ति प्रचलित हो गई है। भगवान् का निर्वाण विक्रम सबतके प्रचारसे ४७० वर्ष पूर्व ही होना निश्चित है, क्योकि तिल्लोय पण्णति, त्रिलोक सार व हरिवंशपुराण आदि अत्यन्त प्राचीन तथा मल शास्त्रो, में शक राजाकी उत्पत्ति वीर निर्माण के ६०५ वर्ष पश्चात होनेका स्पष्ट उल्लेख किया गया है और शक सवद तथा विक्रम सबमें १३५ वर्षका अन्तर प्रसिद्ध है। ऐसा माननेपर भगवान बुद्ध के साथ इनकी सगति बैठाने में भी कोई बाधा नहीं आती है। जैसा कि आगे दर्शाया गया है। विक्रम राज्यको वी नि ४८८ में हुधा माननेवाली दृष्टिके
प्रसिद्धि ६१४ ८०५
५ ८८ । (जै /पी ३०३) २. विक्रम संवत् विचार
१ नाम विचार भारतका यह सर्व प्रधान संवत् है । जैसा कि आगे शक संवतके प्रकरण में बताया जानेवाला है कहीं कही विक्रम, शक तथा शालिवाहन इन तीनो सबतोको एक मानकर प्रवृत्तिकी जाती रही है, परन्तु वास्तवमें यह ठीक नहीं है। तीनों सत्रद स्वतन्त्र है। शक संवतका प्रारम्भ वीर-निर्वाणके ६०५ वर्ष पश्चात होना निश्चित है, शालिवाहनका ७४१ वर्ष पश्चात और विक्रम स बदका ४७० वर्ष पश्चात ।
२. मतभेद इस विषय में तीन मान्यताये है-१ यह सवत विक्रमसे प्रारम्भ हुआ.
२ उसके राज्याभिषेकसे प्रारम्भ हुआ, ३ उसकी मृत्युसे प्रारम्भ हुआ। इन तीनों घटनाओं के कालों में भी मतभेद है। एकके अनुसार वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात उनका जन्म हुआ, दूसरेके अनुसार उस समय उनका राज्याभिषेक हुआ और तीसरेके अनुसार उस समय उनकी मृत्यु हुई। बी. नि ४७० मे जन्म माननेवालोके अनुसार उनका राज्याभिषेक वी नि ४८८ मे हुआ और वी नि. ४७० में उनको मृत्यु माननेवालोके अनुसार उनका राज्याभिषेक वी नि. ४१० में हुआ। क्योकि ७८ वर्ष प्रमाण उनकी आयुमें से १८ वर्ष उनका बाल्यकाल माना गया है और ६० वर्ष राज्यकाल । इस विषयमें एक तीसरी मान्यता भी है जिसके अनुसार उनकी आयु ७६ वर्ष थी जिसमें से ८ वर्ष बाल्यकाल १६ वर्ष देशाटन, ५५ वर्ष राज्य । इसमें से १५ वर्ष मिथ्यामतावलम्बी और ४० वर्ष जिनधर्मावलम्बी। यथाइन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतारमें निबद्ध श्रुत धराम्नाय/श्ल १८-११ व (ती.
४/३४६ पर उद्धृत) सत्तरि-चउ-सद-युतो जिण काला विकमो हबई जम्मो। अठबरस बाललीला सोडसवासे हि भम्मिए देसे ।१८। पणरसबासे रज्जं कुणन्ति मिच्छोवदेससंयुत्तो। चालीसबरस जिणवर. धम्म पालीय सुरपयं लहियं ११ - महावीर-निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चाद विक्रमका जन्म हुआ। आठ वर्षांतक उन्होंने बाललीलाकी,
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परिशिष्ट
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१. संवत् विचार
१६ वर्षांतक देशाटन किया, १५ वर्ष मिथ्योपदेश सहित राज्य किया और ४० वर्षतक जिनवरका धर्म पालन करके उन्होने देव पद प्राप्त किया। इन्द्रनन्दि श्रुतावतारमें ही निबद्ध नन्दिसंध बलात्कारगणकी पट्टावली। सरस्वती गच्छके अनुसार--वीराव ४६२, विक्रमजन्मान्तर वर्ष २२, राज्यान्तर वर्ष ४-वीर-
निर्वाणके ४६२ वर्ष पश्चात अथवा विक्रम जन्मके २२ वर्ष पश्चाद अथवा उसके राज्यारोहणसे ४ वर्ष पश्चात भद्रबाहु (द्वि) मूलसपके पट्टपर बैठे। इनके शिष्य गुप्तिगुप्त हुए जिनके द्वारा नन्दि आदि चार स घोको स्थापना हुई। (यहाँ वी.नि.४७० में विक्रमका जन्म और ४८८ में उनका राज्याभिषेक माना गया है।) इन्द्रनन्दि श्रुतावतारमें ही निबद्ध नन्दिसंघ बलात्कारगणकी पट्टावली। पारिजातगच्छकी अपेक्षा (ती.४/३४६)- श्री वीर-निर्वाणके ४६२ वर्ष पश्चात्, सुभद्राचार्य के २४ वर्ष पश्चात, विक्रम जन्मके २२ वर्ष पश्चात अथवा विक्रम राज्यके ४ वर्ष पश्चात द्वितीय भद्रबाहू हुए। (यहाँ भी पहले की भाँति वो नि. ४७० में विक्रमका जन्म और वी.नि. ४८८में उसका राज्याभिषेक माना गया है।) परन्तु श्वेताम्बराचार्य मेरुतुंग एक साथ दो मान्यताओं की ओर
सकेत करते है। एकके अनुसार वी.नि, ४७० में विक्रमका जन्म हुआ और दूसरीके अनुसार वी. नि. ४७० में उसका राज्याभिषेक हुआ । यथामेरुतु ग कृत 'विचारश्रेणी-सत्तरि चदुसदजुत्तो जिणकाला विक्कमो हबई जम्मो । विक्क मरज्जारं मो परओ सिरिवीरणिव्वुई भणि आ। सुन्न मुणिवेयजुत्तो विक्कम कालाउ जिण काले।' =१ वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात विक्रमका जन्म हुआ। २ वीर निर्वाण की तिथिमें 'सुन्नमुणिवेय' (४७०) वर्ष जोड देनेपर अर्थात वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात विक्रम का राज्य आरम्भ हुआ।
३. ऊहापोह दिगम्बराचार्य इन्द्रनन्दीकी तथा श्वेताम्बराचार्य मेरुतुगकी मान्यताओं
का उल्लेख किया गया। जिनके अनुसार विक्रम का जन्म तो वो नि ४७० में ही हुआ परन्तु उसका राज्याभिषेक वी नि ४७० में,४८८में अथवा ४९४ मे माना गया। अब प्राचीन ग्रन्थ तिल्लोयपण्णप्तिकी अपेथा विचार करते है, जिसे दिगम्बर तथा श्वेताम्बर सभी विद्वानों ने विक्रम सवत विषयक खोजके लिए आधार स्वरूप माना है। इसका कारण यह है कि विक्रम सवतका जितना सम्बन्ध वीर निर्वाणके साथ है उतना हो मगरदेशके इतिहास में मौर्य वश के साथ भी है। इस विषयमें दो मान्यतायें प्रसिद्ध है। एकके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात ६० वर्ष पालकका राज्य रहा १५५ वर्ष नन्द वंशका और २५५ वर्ष मौर्य व शका। इस प्रकार ४७० वर्ष की गणना पूरी करके उसके पश्चात् विक्रमका जन्म अथवा राज्यारोहण हुआ। दूसरी मान्यताके अनुसार वीर निर्वाण के पश्चात् १५५ वर्ष तक पालक तथा नन्दवंश दोनोका राज्य रहा और उसके पश्चात २५५ वर्ष तक मौर्य वंशका शासन चला। इस प्रकार ४१० वर्ष के पश्चात विक्रमका राज्य प्रारम्भ हुआ जो ६० वर्ष अर्थात् घी, नि ४७० तक रहा। क्योंकि तिल्लोयपण्णतिमें मगधदेश के इन राज्यवंशोका सुनिश्चित काल दिया गया है इसलिये विक्रम संवतकी खोज करनेमे उसकी सहा
यता ली जा सकती है। ति प.४/१५०५-१५०६ जक्काले वीरजिणे णिस्सेयससंपय समावण्णो।
तक्काले अभिसित्तो पालयणामो अवतिसुदो १५०५। पालकरज्ज सट्ठि इगिसयपणवण्ण विजयव सभवा । चाल मुरुदयवसा तीस सुपुस्समित्तम्मि ।१५०६। = जिस काल में भगवान् वीरने निर्वाण संपदाको प्राप्त किया था, उसी दिन पालक नामक अवन्तिसुत (अवन्तिक राजा) का राज्याभिषेक हुआ था। उसका राज्य ६० वर्ष तक रहा। तदुपरान्त १५५ वर्ष पर्यन्त विजयव शियोका (नन्दवशका) और ४०
वर्ष मुरुडवशियोंका (मौर्यवंशका) राज्य रहा । इसके पश्चात वर्ष
पुष्पमित्रने राज्य किया। तिल्लोयपण्णतिकारने यद्यपि ४० वर्ष पूरे मौर्यवशका राज्यकास
बताया है, परन्तु वास्तव में यह काल उस वंशके प्रथम राजा चन्द्रगुप्तका है। आगे चलकर इसो वंशमें अशोक सम्प्रति आदि हुए। उन सबका समुदित काल दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों
आम्नायोंमें २५५ वर्ष माना गया है । (दे. इतिहास ३/४)। इस प्रकार जैन शास्त्रोंके अनुसार चन्द्रप्रस मौर्यका काल बी. नि. २१५-२५५ आता है और जैन इतिहासकारोंने उसे बी.नि. २०१-२२५ (ई० पू० ३२६-३०२) पर स्थापित किया है। दूसरी ओर भद्रबाहू प्र० का काल मूलसंघकी पट्टावलीमें बी. नि. १३३-१४२ (ई. पू. ३६४-३६५) बताया गया है। (दे. इतिहास ४/४) । चन्द्रगुप्तका काल शास्त्र के अनुसार वी नि. २१५-२५५ माननेपर भद्रबाहू स्वामीके साप उसको समकालीनता किमो प्रकार भी घटित नहीं होती। इतिहास-मान्य काल (वी, नि २०१-२२१) स्वीकार करनेपर भी दानों की उ नर धिमें लगभग ६० वर्ष का अन्तर रह हो जाता है, जबकि द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षके समय चन्द्रगुप्तका जिनदोक्षा धारण करके भद्रबाहु स्वामी के साथ दक्षिणकी ओर गमन करना शास्त्र
तथा इतिहास दोनों के द्वारा सिद्ध है (दे परिशिष्ट २)। (१) इस आपत्तिमे बचनेके लिए श्वेताम्बराचार्य श्री हेमचन्द्र
सूरि वीर निर्वाणसे लेकर चन्द्रगुप्त के राज्यारम्भ तककी जो २५ वर्ष काल गणना शास्त्रों में दी गई है उसमें ६० वर्ष की कमी कर देनेका सुझाव देते है ।३५७। अपनी इस कल्पनाको साकार बनानेके लिए वे नन्द वंशके कालको १५५ वर्षकी बजाय १५ वर्ष मानकर ।३१३। उसे वी. नि. २१५ में समाप्त करनेकी बजाय वी नि. १५५ में समाप्त कर देते है। ६० वर्षकी इस कमीको आप विक्रम सबदकी कास गणनामें हेर-फेर करके पूरा करते है अर्थात उसका प्रारम्भ विक्रम की मृत्यु कालमे न मानकर उसके राज्यारोहण से अर्थात (४७०-६०) -वी नि ४१० से मान लेते है। (जै./पी./पृष्ठ संख्या ): (ध.१/ प्र ३०. H I Jan) (२) इस मतभेदसे प्रेरित होकर प्रसिद्ध जैन इतिहासज्ञ डा. हेमन्त
जेकोबीको वीर निर्वाण सवत के विषयमें शका उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। उसका समाधान करनेके लिए जार्ज चान्टियरने वीर निर्वाण तथा विक्रम सवतके मध्यवर्ती अन्तरालको ४७० वसे घटाकर ४१० कर दिया, अर्थात् वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात विक्रमकी मृत्यु मानकर उसमें से उसका शासनकाल (६० वर्ष) ६टा दिया और विक्रम संवतका प्रारम्भ उसके राज्यारोहणसे मान लिया। (जै /पी. २८५) (३) स्व पं काशीलाल जायसवाल ने इस मान्यतामें अनेकों
आपत्तियें प्रस्तुत करके बी नि. ४७० में विक्रमका जन्म होना सिद्ध किया, और इसमे उनके बाल्यकाल वाले १८ वर्ष मिलाकर उन्हें वि नि ४८८ में राज्यारूढ कर दिया, क्योकि १८ वर्ष की आयुमें उनका राज्यारूढ होना प्रसिद्ध है। इस प्रकार विक्रम संवत्का प्रारम्भ विक्रमके राज्यसे अर्थात वी. नि.४८८ में माननेका उन्होंने सुझाव दिया। (जै /पी २८७) (४) परन्तु प. जुगलकिशोर जी मुख्तारने जायसवाल जी की इस
मान्यतामें अनेकों आपत्तिये उठाकर वीर निर्वाण तथा विक्रम सवतके मध्य जो ४७० वर्षका अन्तर प्रसिद्ध है उसे ज्योंका त्यों बनाये रखना अधिक स गत समझा। परन्तु इस कालमे इन्होने विक्रमका जन्म अथवा राज्याभिषेक न मानकर उसकी मृत्यु मानी। अर्थात् विक्रम संवत्का प्रारम्भ इन्होने विक्रमकी मृत्युसे स्वीकार किया ।२६११ इस विषय में उसके जन्म अथवा राज्याभिषेकसे संवत् का प्रारम्भ माननेवाली जो श. इन्द्रनन्दि तबा मेरुतुंग सूरिकी मान्य
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परिशिष्ट
१. संवत् विचार
ताओका उल्लेख पहले किया गया है उन्हे आपने भ्रान्तिपूर्ण घोषित किया।२९॥ (जै./पी २६१, २६२) । (५) अन्य संवतोंके साथ तुलना करनेपर इस मतको समर्थन
प्राप्त होता है, क्योंकि एकमात्र शक संवतको छोडकर ईसवी, शालिवाहन, हिजरी, वीर निर्वाण आदि जितने भी सवत व्यवहार भूमिपर प्रचलित है उन सबका प्रारम्भ उस उस पुरुषकी मृत्युसे ही हुआ है। इस विषयमें आ. देवसेन (वि.६६०) से भी हमे समाधाम प्राप्त होता है, क्यों.क अपने दर्शनसार ग्रन्थ में यापनीय, द्रविड, काष्ठा आदि जेनाभाषी संघोंकी उत्पत्ति का काल उन्होने विक्रमको मृत्युसे ही गिनकर स्थापित किया है (दे. इतिहास ६)। ध/प्र. ३०/H L. Jain (ऐसा माननेपर सारी उलझनें मुलझ जाती हैं । यथा-) मेरुतुंगाचार्यने अपनी 'विचारश्रेणी' के पृष्ठ ३ पर जो विक्रमस्य राज्य ६० वर्षाणि' कहा है, उसके अनुसार उसका राज्यारम्भ ४७०-६०-वी. नि. ४१० में घटित हो जाता है, और साथसाथ हेमचन्द्र सूरिकी मान्यताका (वि. स.वी. नि. ४७०) भी समर्थन हो जाता है किन्तु इसे विक्रम सबवका प्रारम्भ नहीं मानना
चाहिए। शक संवदके साथ भी इसकी संगति ठीक मैठ जाती है, क्योंकि जैसा कि अगले प्रकरण में बताया जाने वाला है शक संवत्का प्रचार जैन शास्त्रों के अनुसार वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष पश्चाव होना निश्चित है। प्रचलित विक्रम तथा शक संवत के मध्य १३५ वर्षका अन्तर सर्व-प्रसिद्ध है। इससे यह सिद्ध है कि विक्रम संवत्का प्रारम्भ (६०५-१३५) वीर निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात हुआ। ३. शक संवत् विचार १ नाम विचार
'शक' शब्द का प्रयोग संवत सामान्यके अर्थ में होता है । यथा - ज्योतिर्मुख ११ 'युधिष्ठरो-विक्रमशालिवाहनौ, ततो नृप' स्याद्विजयाभिनन्दन । ततस्तु नागार्जुनभूपति कलौ, कल्की षडेते शककारका' स्मृता।'-कलियुगममें युधिष्ठर, विक्रम, शालिवाहन, विजयाभिनन्दन, नागाजुन और कल्की ये छः राजा शककारक अर्थात् सबव
चलानेवाले कहे गए है। संवत्को 'शक' नामसे कहा जानेकी भी प्रवृत्ति प्रचलित रही
है, जैसे- श्री महावीर या वर्द्धमान शक, विक्रम शक, शालिवाहन शक इत्यादि । परन्तु यहाँ 'शक' नामके जिस सवतकी चर्चा की जानी इष्ट है वह एक स्वतन्त्र संबद है जिसका प्रचार वर्तमानमें यद्यपि लुप्त हो चुका है, तदपि किसी समय भारतमें इसका व्यवहार प्रचुर था। प्राचीन जैन ग्रन्थोंमे इसका प्रयोग प्रचुरतासे किया गया प्राप्त होता है। जैसा कि अगले उद्धरणो से पता चलता है कि विक्रम तथा शालिवाहन नामक सबतोको भी कभी कभी शक संवत् कह दिया जाता था, तदपि वास्तवमें उनके साथ इसकी कोई एकार्थता नही है। दे. आगे शीर्षक न.४ - मेसूर मुम्मडि वाले शिलालेखमे शक सवत
को विक्रमांक लिखा है, और मेसूर डिस्ट्रिक्ट वाले शिलालेखोंमे
शालिवाहनको शक लिखा है। त्रि. सा ८५० माधवचन्द्र कृत टीका-श्री वीरनाथ निवृत्ते सकाशात पश्चोत्तरषट्छतवर्षाणि पंचमासयुतानि गत्वा पश्चात विक्रांक शकराजो जायते। -वीर निर्वाण के ६०५ वर्ष और ५ मास बीत जाने पर विक्रमाक शक राजा उत्पन्न होगा। अकल क चारित्र -"विक्रमांक शकान्दीय शतसप्तश्याषि । कालेऽक्लंकयतिनो बौद्ध दो महानभूत।" -विक्रमार्क शकाब्द ७०० में
अकलंक यतिका बौद्धोके साथ महान शास्त्रार्थ हुआ था। र. क्र. श्रावकोचार - पं.कमलकृत सुखबोधिनी टीका- 'शालिवाहन संज्ञ श्रीशकराज शब्दगणे'- शालिवाहन नामक श्रीशकराजके संवत्सरमे । सरन्तु जैसा कि ऊपर त्रिलोकसारकी टोकामे कहा गया है
और आगे पृथक् शीर्षकके अन्तर्गत बताया जानेवाला है शक नामक प्रसिद्ध संवत से तात्पर्य न तो विक्रम सवतसे है और न शालिवाहन सवत् से, यह एक स्वतन्त्र संवत् है जिसकी प्रवृत्ति भारतमे वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष मास पश्चात प्रारम्भ हुई थी। ऊपर जो त्रिलोकसारके टीकाकार ने विक्रम तथा शक संवत् की एकार्थता बताई है उसको यद्यपि मैसूरके प्रसिद्ध विद्वान पं.ए. शान्तिराज शास्त्रीका समर्थन प्राप्त है, तदपि डॉ. के.भी. पाठक इसे टीकाकारकी भूल घोषित करते है (ज सा. इ/पी २६७)। इसी प्रकार 'शालिवाहन' संवतके विषयमें भी जानना । अर्थात ऊपर जो रलकण्ड श्रावकाचारके टीकाकारने शालिवाहन और शक संवत्की एकार्थता बताई है वह उनकी भूल है । ऐतिहासिक मान्यता के अनुसार भृत्यव शी गोतमी पुत्र सातकर्णी शालिवाहनने ई. सद ७६ (वी.नि. ६०५) में शकराज नरवाहन (नहपान) को परास्त करके, शकोंके जीतनेके उपलक्ष्य में शक संवत प्रचलित किया था (क. पा." प्र.५३/पं महेन्द्र कुमार)। आगममें विशेष प्रकारसे शक संवतका उल्लेख किया जानेपर इसीसे तात्पर्य होता है। जैसा कि अगले शीर्षकके अन्तर्गत बताया जाने वाला है शालिवाहन नामसे प्रसिद्ध एक स्वतन्त्र संवत है जो वीर निर्वाणके ७४१ वर्ष पश्चात प्रवृत्त हुआ था।
२. काल विचार ति प ४/१४६६-१४६९-बी जिणेसिद्धिगदे चउसदइगिसट्ठिवासपरिमाणे।
कालम्मि अदिक्कते उप्पण्णो एस्थ सकराओ ॥१४६६ अहवा वीरे सिद्ध सहस्सणवकम्मि सगसयभहिए । पणसीदिम्मि यतीदे पणमासे सकणिओ जादो ॥१५६७। चोइससहस्ससगसयतेणउदीबासकालविछिदे । वीरेसरसिद्धीदो उप्पणो सगणि ओ अहवा ॥१४॥णिव्याणे . वीरजिणे छब्बाससदेसु पचवरिसेसं। पणमानेसु गदेरॉ संजादो सगणि ओ अहवा ॥१४६६ -१ वीर जिनेन्द्रके मुक्त होने के पश्चात ४६१ वर्ष प्रमाण काल के व्यतीत होनेपर यहाँ शक राजा उत्पन्न हुआ P४॥ अथवा-२ वीर भगवान्के सिद्ध होनेके पश्चात १७८५ वर्ष ५ मासके बीतनेपर शक नृा उत्पन्न हुआ ॥१४१७॥ अथवा-३ वीर भगवान्की मुक्तिके पश्चात् १४७६३ वर्ष व्यतीत होनेपर शकनृप उत्पन्न हुआ ॥१४६७॥ (ध.६/गा. ४२ या ४६/९३२) । अथवा-४.वीर भगवान के निर्वाणके पश्चात ६०५ वर्ष मासके भीत भनेपर शक
नृप उत्पन्न हुआ ॥१४॥ ध/४,१,४/गा ४३/१३२ सत्सहस्सा णवसद पचाणउदी सपंचमासा
य। अइकता वासाणं जइया तइया सगुप्पत्ती । -७६६५ वर्ष मास व्यतीत हो जाने पर शक नरेन्द्र की उत्पत्ति हुई।४॥ शास्त्रोंमे उद्धत इन मूल गाथाओंमें शक राजाको उत्पत्ति वीर निर्वाणके ४६१, १७८१, १४७६३, ६०५ और ७६६५ वर्ष पश्चात बताई गई है। तथापि ६०५ वर्ष ५ मास वाली चतुर्थ मान्यता ही
सर्वसम्मत है। धह/४,१,४४/गा. ४/१३२-पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति बाससया । सगकालेण य सहिया थावेयव्वो तदो रासी ०५ वर्ष
मास प्रमाण शकका काल जोड देनेसे वीर जिनेन्द्रका निर्वाण काल प्राप्त होता है। त्रि. सा. ८५० पण्णछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिन्वुइदे । सग
राजो तो कक्की चदुणवतियम हिय सगमास । -श्री वर्द्धमान भगवान के निर्वाण जानेके ६०५ वर्ष मास पश्चात शक राजा हुआ, और तदन्तर ३६४ वर्ष मास पश्चात अर्थात् वी. नि. १००० में काकी
राजा हुआ। ह. पु ६०/५५१-वर्षाण षट्शती त्यक्त्वा पञ्चाग्रा मासपञ्चकम् । मुक्ति गते महावीरे शकराजस्ततो ऽभवन् । -भगवान महावीर के सोक्ष चले जानेके ६०५०५मास पश्चात् शक राजा हुआ।
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परिशिष्ट
तित्थोगाली पयन्ना ६२३- 'पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होति वासस्या । परिनिव्बु अस्सऽरिहतो. तो उप्पन्न (पडिवन्नो) सगो राया । - भगवान् महावीरके निर्वाण जानेके ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात शक राजा हुआ ।
मेन कृत 'विचारी श्रीवीरनि सर्व शकसमासरस्यैषा प्रवृतिरखेऽमवद
-
५ मास पश्चात भारतमें शक संवत्को प्रवृत्ति हुई ।
पोस ६० वर्ष
.
सारांश - इस प्रकार दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायो में वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक संवत्की प्रवृत्ति मान्य है। इसके अतिरिक्त त्रिलोकसार में (दे, ऊपर) जो शक राजा के साथ साथ उसके ३६४ वर्ष ७ मास पश्चात् अर्थात् बीरनिर्वाणके १००० वर्ष पश्चात कल्की राजाके होनेकी बात कही है, उससे भी इस मतको पुष्टि होती है, क्योंकि इतिहास भी लगभग इसी कालमें अत्यन्त अत्याचारी हूणवंशके राज्यका उल्लेख करता है (दे. इतिहास ३/२-३)
४. शालिवाहन संवत् विचार
शक संवत्को भाँति इसका प्रचलन भी आज प्राय लुप्त हो चुका है, परन्तु दक्षिण देशमें नहीं कहीं आज भी इसका उल्लेख देखा जाता है। शिलालेखों में इसका काल वीर निर्वाणसे ७४२ वर्ष पश्चात् इङ्गित किया गया है। कही कहीं शक संवत्को भी शालिवाहन कहनेकी प्रवृत्ति रही है. परन्तु यह एक स्वतन्त्र संवत् है जिसका प्रारम्भ शक राजके ६४ वर्ष पश्चात होता है ।
मेराज मुम्मड कृष्णराज द्वारा ई १८३० में गोल जेन मठको दिया गया शिलालेख - 'नाना देशनृपालमौलि स्वस्ति श्रीबर्द्धमानाख्ये जिने मुक्ति गते स हि वहिणरन्धाब्धि नेत्रैश्च वत्सरेषु मितेषु (२४१३) समास्विन्दुगज समाज हस्तिभि (१८८८ ) । सती गोगणस्तदा शालिवाहन
दुभि (२०५२) प्रषु कृत्यमा महले यहाँ २४६३ महावीर शक. १८८८ विक्रम शक, और १७५२ शालिवाहन शक इन दोनो का उल्लेख है। महावीर शक और विक्रम के मध्य २४१३ १८८८ ६०५ वर्ष का अन्तर बताया गया है इस पर से यह सिद्ध होता है कि उस कालमें शक संवतको विक्रम संवत् कहने की प्रथा रही होगी। इसी प्रकार महोर और शालिवाहन शकके मध्य २४६३१७५२ - ७४१ वर्षका अन्तर दर्शाया गया है। इसपर से सिद्ध होता है। कि शालिवाहन सबका प्रारम्भ वीर निर्वाणके ७४१ वर्ष पश्चात् होना निश्चित है।
मैसूर डिस्ट्रिक्ट शासन पुस्तक / भाग २ / ५० शिलालेख नं १४४"श्री शक १७६० स्वस्ति श्री वर्द्धमानान्दा २५०९ ।" यहाँ शालिवाहनको शक कहा गया है, क्योंकि वर्द्धमान तथा शकके मध्य यहाँ २५०१ - १७६० ७४१ वर्ष का अन्तर स्पष्ट है ।
शिलालेख संग्रह / भाग १ / शिलालेख न. ३५४. ४८१ और ४८२ इन तीनों अभिलेखो में शालिवाहन १७०८ और उसके साथ वईमान २५०६ लिखा गया है। दोनोंके मध्य २५१६-१७७८ ७४१ वर्षका अन्तर है ।
इसी प्रकार शिलालेख न ३५६. ३६१ और ४८० में शालिवाहन १७८० और उनके साथ बर्द्धमान २५२१ दिया है। दोनोके मध्य २५२११७८० =७४१ वर्षका अन्तर दृष्टव्य है । इसपरसे पता चलता है शालिवाहन संवत्का प्रचार र निर्वाण ७८१ वर्ष पश्चात् प्रारम्भ हुआ ।
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परिशिष्ट २ – (मूलसंघ विचार)
१ सामान्य परिचय
पृष्ठ ३१८ पर इतिहास माजे प्रकरण के अन्तर्गत भगवा बीरके पश्चात् श्रुत तीर्थ के प्रारम्भका और उसके क्रमिक ह्रासका विवेचन करते हुए श्रुतधरोंकी आम्नाय वाले मूलसंघका निदर्शन किया गया है । इस विषय में वहाँ इन्द्रनन्दि कृत 'श्रुतावतार' से लेकर दो पट्टावलिये उद्धधृत की गई है। ष्ठ ३१६ पर उद्धृत की गई पहली पट्टावली श्रुतघरोंकी आम्नाय से गुप्त सबसे सम्बन्ध रखती है और पृष्ठ ३२३ पर उद्धधृत दूसरी पट्टावली मूल सबके विभाजन के पश्चात होने वाले नन्दिसघ बलात्कारगणकी आचार्य परम्पराका उल्लेख करती है। दोनोंमें आचार्योंका पृथक पृथक् कालनिर्देश किया गय है, परन्तु उन कालोंमें अनेक प्रकारकी विप्रतिपत्तिये है । यथा
२. मूलसंघ विचार
(१) मूतसंच वाली प्रथम पट्टावतीने पञ्चम केवली भषा प्र के नामका उल्लेख किया गया है और उनका काल वहाँ वी. नि १३३-१६२ बताया गया है । परन्तु इनके विषयमें यह बात सर्वप्रसिद्ध है कि द्वादशवर्षीय दुर्भिके समय इन्होंने १२००० साधुओके विशाल सघको साथ लेकर उज्जैनीसे दक्षिणकी ओर प्रयाण किया था उस समय चन्द्रगुप्त मौर्य भी जिन दीक्षा धारण करके इनके साथ गये थे और श्रवणबेलगोल में इन दोनोकी समाधि हुई थी। हम आख्यान पर से दोनो की समकालीनता सिद्ध है, परन्तु भद्रबाहु स्वामी के उक्त कालको संगति चन्द्रगुफा साथ नहीं बैठ रही है, क्योंकि जैसा कि पृष्ठ ३१३ पर मगध देशकी राज्य वशावली में दिखाया गया है चन्द्रगुप्त मौर्यका काल शास्त्रोके अनुसार बी नि २१५-२५५ और जेन इतिहासकारो के अनुसार ई ३२६-३०२ (योनि २०१-२२४) निर्धारित किया गया है ।
(२) द्विदति तथा माधनन्दि इन तीन नामोका उल्लेख उक्त दोनो पट्टावलियो में किया गया है। एक ही आचार्यके द्वारा एकही ग्रन्थ में उल्लखित होनेपर भी दोनो स्थानो पर निर्दिष्ट इनके कालो में भिन्नताकी प्रतीति हो रही है।
(3) श्रुतधरोकी आम्नायका निर्देश करनेवाली मूलसघको प बत्ती मामनन्दिके पश्चात् षट्ण्डागम के रचयिता आ धरसेन पुष्पदन्त तथा भूतचलिके नाम दिये गये है, परन्तु इनका जो काल वहाँ निर्दिष्ट किया गया है उस को संगति के कालके साथ बैठती प्रतीत नहीं हो रही है, जबकि कुन्दकुन्दके यह बात प्रसिद्ध है कि उन्होंने पट्खण्डागमके आद्य तीन खण्डोपर परिवर्म' नामकी एक टोका लिखी थी।
(2) नन्दिवाली दूसरी पाली
मे
४६-१०१ दिया गया है, जबकि जेन इतिहासकार इन्हें बी नि. ६५०७०० वि (१८०-२३०) में स्थापित कर रहे है ।
(2) पेदामा (पाय पाहूड) के पिता आम नागति, और जैसे
का नाममूलकी पट्टावली में सर्वथा छोड दिया गया है जबकि आ घरमेनी भाँति ने भी रोकी आम्नाय समावि है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
आ गुणधर प्रसिद्ध आचाय
इनके अतिरिक्त अन्य भी अनेको अवान्तर बाधाये है जिनका युक्ति निवारण करनेके लिये पावलियो प्रकाश आचार्यों के कालका ठीक ठीक निर्धारण करना अत्यन्त आवश्यक है । नन्दिकी पट्टावनी के सम्बन्ध में तो चर्चा आगे परिशिष्ट ३ मे की जायेगी । यहाँ चराकी आम्नाय वाले मूलसघ की, तत्सम्बन्धी पहानी और उसमे दलित प्रधान आचार्यको चर्चा की जायेगी।
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परिशष्ट
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मूलसंघ विचार
२. मूलसंघ परिचय भगवान् महावीर की निर्वाण-प्राप्तिके पश्चात् उनके सघमे ६२ वर्ष
तक इन्द्रभृति (गौतम गणधर) आदि तीन केवली हुए। इनके पश्चात केवलज्ञानका विच्छेद हो गया परन्तु १००-१५० वर्ष तक पूर्ण श्रुतज्ञान (११ अंग १४ पूर्व) के धारी पाँच श्रु तकेवलियो की परम्परा चलती रही। आ भद्रबाहु प्रथम इस परम्पराकी अन्तिम कडी थे। इनके पश्चात् पूर्ण श्र तज्ञान भी विच्छिन्न हो गया। फिर श्रुतज्ञानके हानिक्रमसे ११.१०,६ तथा ८ अगधारी होते रहे । भद्रबाहु द्वितीय तथा लोहाचार्य इस परम्परामें अन्तिम अष्टागधारी थे। इनके पश्चात् अथवा इनके काल में ही कुछ आचार्य एकांग अथवा आचारांगधारी भी होते रहे। फिर एक अंगवालो की परम्परा भी समाप्त हो गई और किसी एक अगके अंशधारी होते रहे । अशधारियोकी यह शृङ्खला वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात तक चलती रही। आ अर्ह वली, माघनन्दि, गुणधर,धरसेन आदि आचार्य इसी परम्परामें हुए आगे
चलनेपर अगाँश का यह ज्ञान भी समाप्त हो गया। पंचम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी प्रथम तक भगवान् वीरका यह मूलस घ अखण्ड रूपसे चलता रहा । परन्तु इनके समयमे उज्जैनीमें बडा भयकर द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष पड़ा जिसके कारण उन्हें यह देश छोडकर ससघ दक्षिण की ओर प्रयाण करना पड़ा। उस समय इनके स घमें १२००० साधु थे, जिनमें से कुछ इनके साथ न जाकर उज्जैनी में अथवा मार्ग में ही रुक गए । पोछे परिस्थितिवश उनको सिंहवृत्त का त्याग करके अपवाद मार्ग अपनाना पड़ा। इससे अर्ध फालक सघकी नीव पड़ो जो धीरे धीरे शैथिल्यमे परिणत होता हुआ वि. १३६ मे सौराष्ट्र देशको प्राप्त होनेपर सागोपाग श्वेताम्बर संघमे परिणत हो गया। (विशेष दे श्वेताम्बर) इस प्रकार १चम श्रुत केवलो भद्रबाहु प्रथम के युगमे भगवान्का अरखण्ड मूल सघ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर के रूपमे द्विवा विभक्त हो गया। स्थूलभद्र की आम्नाय श्वेताम्बर संपकी ओर चली गई और प्रोष्ठिल शारवा दिगम्बर बनी रही। दुर्भिक्ष समाप्त हो जानेके पश्चात् यह सघ पुन दक्षिणसे मगध तथा उज्जैनी को ओर लौट आया, और आचार्य अहहली तक अविछिन्न रूपसे चलता रहा । सैसा कि आगे आ अर्ह बली की चर्चा करते हुए बताया गया है, "आ अहंडलीने यत्र तत्र विखरे हुए दिगम्बर सघको सगठित करनेके लिये दक्षिण देशम्थ महिमानगर जिला (सितारा) में एक महान यति सम्मेलन किया जिसमे १००-१०० योजन तकके यति आवर सम्मिलित हुए । इस यति-सम्मेलनको योजना उन्होने पंचवर्षीय युगप्रतिक्रमणके अवसरपर की थी। उस समय उन्होंने यह महसूस किया कि काल प्रभाव से वीतरागियोमे अपने अपने स ध तथा शिष्योके प्रति कुछ पक्षपात जाग्रत हो चुका है। यह पक्ष आगे जाकर सघकी क्षतिका कारण न बन जाये इस उद्देश्य से उन्होने अखण्ड दिगम्बर संघको नन्दिसघ आदि अनेक अवान्तर सघोमें विभाजित कर दिया। इसके पश्चात् ये सकल सघ अपने-अपने आचार्यकी अध्यक्षतामे स्वतन्त्र रूपसे विचरण करने लगे। यद्यपि सधका विभाजन वी नि.५७५ मे कर दिया गया तदपि धरसेन आदि कुछ अगाश धारियो की बीतराम
परम्परा यत्र तत्र विखरी हुई वी नि. ६८३ चलती रही। वीर निर्माणसे लेकर उसके ६८३ बर्ष पश्चात तक्की यह परम्परा मलस घमें गणनीय है, जिसका उल्लेख दो स्थानो पर प्राप्त होता है, एक तो तिल्लोय पण्णति तथा धवला आदि मूल ग्रन्थो में और दूसरे आ इन्द्र नन्दि कृत 'श्रुतावतार' नामक शास्त्रमे । मल ग्रन्थों मे ज्ञान हानिका क्रम दशाने के लिये आचार्योंका केवल समुदित काल दिया गया है और ६८३ वर्षको यह श्रुतधर परम्परा भद्रबाहु द्वितीय तथा लोहाचार्य पर आकर समाप्त कर दी गयी है। परन्तु इन्दनन्दि कृत श्रुतावतारमे समुदित कालका निर्देश करनेके साथ
साथ प्रत्येक आचार्यका पृथक् पृथक् काल भी दिया गया है। यहाँ ६८३ वर्षकी काल गणना लोहाचार्य पर समाप्त न करके षटवण्डागमके रचयिता अंगाशधारी आ धरसेन, पुष्पदन्त तथा भूतबलि तक ले जाई गई है, अर्थात् अर्हहली आदिको भी इसीमे समेट लेती है । इसलिये ग्रह पट्टावली सन्धाताओके लिये बड़े महत्वकी है। (दे. कोश पृ. ३१६ इतिहास ४/२) ११ अग १० पूर्व धारियोकी परम्परा तक दोनों की दृष्टि समान है, परन्तु आगे चलनेपर ६८३ वर्ष की उक्त गणनाके कारण कुछ मतभेद हो गया है।
३ भद्रबाहु प्रथम मूलसंघकी पट्टावली में (दे पृ ३१६) इस नामके दो आचार्य प्राप्त होते है, एक तो वे जिनकी गणना विष्णु आदि पाँच श्रुतकेवलि यौमें की गई है और दूसरे वे जिन्हे आचारागधारी अथवा अष्टांगधारी कहा गया है। इन्हींसे नन्दिसंघ बलात्कारगण की पट्टावलीका प्रारभ होता है। दोनोके सम्बन्धमें प्रचलित उक्तियें परस्पर में कुछ इस प्रकार घुल मिल गई है कि इन दोनोका हो जीवन वृत्त प्राय धूमिल हो गया है। (जै /पी. ३४६) । यथा
१.गुरु शिष्य विचार मूल संघकी पट्टावली में विशाखाचार्यको भद्रबाहु प्रथमका शिष्य कहा गया है जबकि नन्दि सघकी पट्टावली में भद्रबाहू द्वितीयके शिष्य 'गुप्ति गुप्तका' अपर नाम 'विशाखाचार्य' है। हरिषेण कथाकोष तथा भद्रबाहु चरित्र के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्यका दीक्षा नाम विशाखाचार्य था और वे भद्रबाहु प्र.के शिष्य थे जबकि श्वेताम्बराम्नायमे इस नामके साथ-साथ उनका अपर नाम गुप्तिगुप्त भी था और वे 'भद्रबाह द्वि.' के शिष्य थे। मूलसघको पट्टावल मे भद्रबाहु द्वि के शिष्य 'लोहाचार्य' और उनके शिष्य अर्ह वली' है जबकि नन्दि सधकी पट्टावलीमें यह भी गुप्तिगुप्तका अपर नाम है अर्थात ये भद्रबाहु के प्रशिष्य न होकर शिष्य है। लोहाचार्य का नाम यहाँ भद्रबाहुकी सातवी पीढी में (उमास्वामी के पश्चात) दिया गया है।
२. ज्ञान विचार मूल स धमे भद्रबाहु प्र को पचम श्रुतकेवली कहा गया है और इस मतकी पुष्टि श्रेवणबेन गोल से प्राप्त शिलालेख न १७,१८,४०,५४ तथा १०८ से होती है, जबकि शिलालेख न १ तथा भावस ग्रह ५३ में (दे श्वेताम्बर) इन्हे निमित्तज्ञानी कहा गया है । दूसरी ओर भद्रबाहु द्वि को दिगम्बर आम्नायमें चरम निमित्तधर तथा आचारागधारी माना गया है जबकि श्वेताम्बर आम्नायमे इन्हे श्रुतकेवली कहा गया है। (जै /पी ३४६, ३४७)
३. द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष बृहद कथाकोष २३१, आराधना क्थाकोष ६१. भावसंग्रह ५४-५५, भद्रबाहु चारित्र ३-अपने निमित्तज्ञानसे उज्जैनीमे द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष आनेवाला जानकर आप १२००० साधुओके साथ दक्षिणापथकी ओर बिहार कर गये थे। मगध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जो कि इस समय अपनी उज्जनी वाली राजधानीमे ही विद्यमान थे, इस घटनासे प्रभावित होकर दीक्षित हो गये थे और इसके साथ ही दक्षिणापथकी
ओर चले गये थे। परन्तु श्वेताम्बर मुनि कल्याण विजय जी तथा डा०प्लाटो इस घटना
का सम्बन्ध भद्रबाहु द्वि के साथ जोड़ते है। इनकी इस मान्यताको विद्वानोका समर्थन प्राप्त नहीं है क्योकि भद्रबाहु द्वि के काल (बी.नि. ४६२-१५ वि २२-४५) मे न तो दुभिक्ष विषयक कोई उल्लेख प्राप्त होता है और न ही उस समय चन्द्र गुप्त नामक क्सिी राजाके अस्तित्व की कोई सूचना मिलती है । अत इस घटनाका सम्बन्ध भद्रबाहु प्र के साथ ही सिद्ध होता है। (जै/पी. ३५१)
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परिशिष्ट
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मूलसध विचार
४. चन्द्रगुप्त मौर्यकी समकालीनता उपर्युक दिगम्बर ग्रन्थोमें द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षके समय चन्द्रगुप्त मौर्य ।
का भद्रबाहु प्र से दीक्षित होना लिरवा है, और ति प ४/१४८१ में चन्द्रगुप्त को ही जिनदीक्षा धारण करनेवाला अन्तिम मुकुटबद्ध राजा कहा गया है। ऊपर इन्हीं का दीक्षाका नाम विशाखाचार्य कहा गया है । यद्यपि नन्दि संघको पट्टावली में भद्रबाहू द्वि के शिष्य गुप्तिगुप्तका नाम विशारवाचार्य कहा गया है और श्वेताम्बर मुनि कल्याण विजयजी तथा डा प्लाटो गुप्तिगुप्तको ही चन्द्रगुप्त कल्पित करते है, परन्तु दिगम्बर विद्वानोको प्राय यह मत मान्य नहीं है। कुछ श्वेताम्बर विद्वान् अशोक्के पौत्र सम्प्रति (ई पू २२०-२११) को चन्द्रगुप्त द्वि मानकर भद्रबाहु प्र (वी नि १३३-१६२, ई पू ३६४३६५) के साथ उसकी समकालीनता घटित करना चाहते है, परन्तु इनका यह मत भी मान्य नहीं है क्योकि एक तो सम्प्रति बौद्ध ये और दूसरे उनके विषयमें दीक्षा धारण करने का कही उल्लेख प्राप्त नही होता। अत चन्द्रगुप्त मौर्य (ई पू १२६-३०२) का ही भद्रबाहु प्र के साथ दोशित होकर दक्षिणापथकी ओर जाना सिद्ध है। इस विषय में एक यह ऐतिहासिक तथ्य भी है कि इतिहासमें इनके राज्याभिषेक आदि का तो उल्लेख मिलता है परन्तु इनकी मृत्यु कैसे तथा कहाँ हुई इस विषय में कोई उल्लेख कही प्राप्त नही होता है। (जै /पी ३४४)।
५ समाधिमरण द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष वाली घटनामें तीन मान्यताये प्रसिद्ध है।
आराधना कथाकोष ६१ के अनुमार मुनिसंघको दक्षिणापथ की ओर भेजकर स्वय अतिवृद्ध होने के कारण उज्जैनी में ही रह गये थे और चन्द्रगुप्त भी दीक्षा धारण करके इनकी सेवामें वहाँ ही रहे। वृहद कथाकोष २३१के अनुसार आप दोनो मार्ग में भाद्रपद देशमे रुक गये थे। परन्तु श्रवणबेलगोलसे प्राप्त पूर्वोक्त शिलालेखों के आधारपर डा स्मिथने भद्रबाहु स्वामीका और इनके १२ वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्तका समाधिमरण श्रवणवेलगोल में होना निश्चित किया है। (जै पी.३४३३४५)।
६ श्वेताम्बर दिगम्बर सघभेद दुर्भिसके काल मे भद्रा स्वामी (प्र) के आदेशसे दक्षिणापथकी ओर विहार कर जाने वाले १२००० साधुओमे से यद्यपि अधिक्तर दक्षिण देशमे चले गये थे, तदपि उनका कुछ भाग प्रमादवश उज्जैनोमे या मार्ग में ही रह गया । परिस्थितियोसे बाध्य होकर इन्हे मिहवृत्तिका त्याग करके अपवाद मार्गका आश्रय ले लेना पड़ा। यह अपवाद ही धीरे धीरे शिथि लाचारमे प्रवर्तित हो गया। फलस्वरूप अर्धफालक संघकी उत्पत्ति हुई जो आगे जाकर वि १३६ (वी नि ६०६) मे श्वेताम्बर सघके रूपमें परिवर्तित हो गया । उस समय इस सधके आचार्य जिनचन्द्र थे जिन्हे भद्रबाहू स्वामी के प्रशिष्य और शान्त्याचार्यका शिष्य माना गया है। (दे. श्वेताम्बर २-३)
७. समय बन्द्रगुप्त मौर्य के साथ इनकी समकालीनता सिद्ध कर दी गई, परन्तु यहाँ यह आपत्ति आती है कि चन्द्रगुप्त मौर्यका काल ई.पू. ३२६-३०२ (वी. नि २०१-२२५) सिद्ध है, जबकि मूलस धको पट्टावली में भद्रबाहु प्र का काल वी. नि. १३३-१६२ निर्दिष्ट किया गया है। दोनोके कालोमें लगभग ६० वर्षका अन्तर स्पष्ट है। इसे पाटनेके लिये दो ही मार्ग है। या तो चन्द्रगुप्तके कालको ६० वर्ष ऊपर ले जाये और या भद्रबाहुके कालको ६० वर्ष नीचे लाया जाये। श्वेताम्बर मुनि पहले मार्गका अवलम्बन लेते है और नन्द व शके शास्त्रोक्त १५५ वर्ष काल में से ६० वर्ष निकाल कर उसे ६५ वर्ष कर देते है । इस
प्रकार इस वश के अनन्तर प्रारम्भ हानेवाले मौर्य वशका काल वी. नि २१५ की बजाय वी नि, १५५ में प्रारम्भ हो जाता है (दे इतिहास ३/३-४ की टिप्पणी) परन्तु ऐसा मानने में अन्य बहुत सारी
आपत्तियें खडी हो जाती है। इसलिये पं. कैलाश चन्द दूसरे मार्गका अवलम्बन लेते है। मल
संघकी पट्टावली में इङ्गित तृतीय दृष्टि के अनुसार आप नक्षत्र आदि पाँच एकादशांगधारियोके २२० वर्ष काल में से ६० वर्ष निकाल कर विष्णु आदि पाँच श्रुतकेवलियोके १०० वर्ष काल में मिलानेका सुझाव देते है। जिससे दोनो स्थानोंपर पाँच पाँच आचार्योंका समुदित काल १६०-१६० वर्ष हो जाता है । ऐसा करनेसे यद्यपि दृष्टि न. २ में कथित आचार्यों का पृथक् पृथक् काल गडबडा जाता है. तदपि अन्य अनेको आपत्तियोका समाधान प्राप्त हो जाता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है भद्रबाहु स्वामी के विषयमें प्राचीन काल बहुत सी भूले चली आ रही है, इसलिये बहुत सम्भव है कि श्रुतावतारके र्ता आ इन्द्र नन्दि से भी काल-निर्धारण करने में कुछ भूल हुई हो। पं. कैलाश चन्दजी के द्वारा इस समन्वयके अनुसार भद्रबाहु प्र का काल वी. नि १८०-२२२ (ई पू ३४७-३०५) हो जाता है। दूसरी ओर चन्द्रगुप्त मौर्य का कान ई पू ३२६-३०२सिद्ध किया जा चुका है,इसलिये ई पू १०५ मे दीक्षित होकर भद्रबाहु स्वामी के साथ इनका दक्षिणा
पथको चले जाना घटित हो जाता है । (जै /पी. ३५४) इसे मान लेने पर दूसरी आपत्ति श्वे. दि सघभेदकी ओरसे उत्पन्न होती है, क्योकि यह बात सर्व मान्य है कि यह भेद द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के कारण परिस्थितिवश उत्पन्न हुआ था, और भद्रबाहु प्र के उपर्युक्त कालके अनुसार यह दुर्भिक्ष वी. नि २२२ (वि पू २४८) मे पड़ा था. जबकि सबभेद वि. १३६मे हुआ कहा गया है । दोनोमे ३८४ वर्षका अन्तर स्पष्ट है । इस आपत्तिका समाधान दर्शनसारकी प्रस्तावनामे प्रेमी जी ने किया है। इसके अनुसार वि.पू २४८ मे उस सघमे कुछ शैथिल्य ही आया था जो उस समय केवल अर्ध फालक सघके रूपमे अभिव्यक्त हुआ था। दुर्भिक्ष समाप्त हो जाने पर भी सघने अपना स्थितिकरण नहीं किया और इसी रूपमे ३८० वर्ष तक "उज्जैनी (अवन्ती)" तथा मगध देशमे घूमता रहा। मथुराके कंकाली टीलेसे प्राप्त कुछ मूर्तिये इस विषयमे प्रमाण है। पीछे वि १३६ के आसपास यह संघ जब सौराष्ट्र देशमे आया तो वहाँके राजा के कहने से इसने वस्त्रो का ग्रहण कर लिया और आवश्यकताके अनुसार विधि-विधान बनाकर तात्कालिक आचार्य जिन चन्द्र ने इसे सांगोपाग "श्वेताम्बर संघका" रूप दे दिया। (दे.श्वेताम्बर ५)। ये जिन चन्द्र आचार्य कौन थे, इसकी चर्चा आगे जिनचन्द्र के नामसे की गई है। इस प्रकार भद्रबाहुप्र का काल वी. नि. १८०-२२२ (ई पू ३४७-३०५) सर्वथा निर्दोष है, और यही मूल संघकी दृष्टि नं ३ में दिया गया है।
४ भद्रबाहु द्वितीय दूसरे भद्रबाहु वे है जिनकी गणना मूलसंघकी पट्टावलीमे अष्टां
गधारियो अथवा आचाराग धारियोमें की गई है। दूसरी ओर आ. देवसेनने अपने भाव सग्रह में इनका नाम भद्रबाहू गणी कहा है और निमित्तज्ञानी कहकर इनका सम्बन्ध द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षके तप दिगम्बर श्वेताम्बर स घभेदके साथ जोडा है। तदनुसार इनके शिष्य शान्त्याचार्य थे और उनके शिष्य जिनचन्द्र । द्वादशवर्षीय दुभिक्ष समाप्त हो जाने पर जब शान्त्याचार्य ने अपने सघसे शैथिल्य छोडकर शुद्धाचारी हो जानेके लिये कहा तो उनके शिष्य जिनचन्द्र ने उन्हे जानसे मार डाला या मरवा दिया और सघका नायक बनकर अपने सघको श्वेताम्बर सबके रूपमे परिणत कर दिया। यह घटना वि. १३६ मे धटित हुई कही गई है (दे श्वेताम्बर) । दूसरी ओर मूलसघ तथा नन्दि सघको पट्टावली के अनुसार इनकी शिष्य परम्परामें क्रमश लोहाचार्य,अहहली, माघनन्दि, तथा जिनचन्द्र प्राप्त होते है ।
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परिशिष्ट
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मूलसंघ विचार
यहाँ जिन चन्द्र का समय शक. सं.४०-४६ (वि, १७५-१८४) स्थापित किया गया है और इन्हे कुन्दकुद का गुरु बताया गया है। यद्यपि दोनो स्थानो पर जिनचन्द्र भद्रबाहुकी शिष्य-परम्परामे है और दोनोंके कालोमें भी कोई विशेष अन्तर नहीं है, केवल ३६ वर्षका अन्तर है, तदपि दोनोके जीवनवृत्तोमें इतना बडा अन्तर है कि इन दोनोंको एक व्यक्ति स्वीकार करने को जो नही चाहता। तथापि यदि जिस किस प्रकार इन्हे एक व्यक्ति घटित कर दिया जाय (दे परिशिष्ट ४/जिनचन्द्र) तो दोनो भद्रबाहु एक व्यक्ति सिद्ध हो जाते हैं। इतना हो जानेपर भो ये दोनो भद्रबाहू एक व्यक्ति थे या दो यह सन्देह बना ही रहता है। यदि ये दोनों भिन्न व्यक्ति है तो कहा जा सकता है भद्रबाहु गणी का काल अपने प्रशिष्य श्वेताम्बर सघाधीश जिनचन्द्र (वि. १३६) को अपेक्षा ४० वर्ष पहले वि.६६ (बी. नि ५६६)
होना चाहिए। श्रुतधरों को परम्पराका निर्देश करने वाली मूलसधीय उक्त पट्टावलीमें भद्रबाहु द्वि, का काल वी. नि.४६१-५१५ बताया गया है । दूसरी ओर नन्दि सघ बलात्कार गणकी पट्टावली में (दे. परिशिष्ट ४) इतिहास ७/२) वह विक्रम राज्यके पश्चात ४-२६ वर्ष स्थापित किया गया है पट्टावलीके कर्ता आ इन्द्रनन्दिके अनुसार विक्रम राज्यका प्रारम्भ वी. नि ४८८ मे कल्पित किया गया है यथा--"वीरात ४६२ विक्रमजन्मान्तर वर्ष २२, राज्यान्तर वर्ष ४" (विशेष दे. परिशिष्ट १/२) इसलिये तद्नुसार इनका समय पट्टावली में वी.नि ४६२-५१४ बन जाता है। इस प्रकार दोनो पट्टावलियोंमे इनकी पूर्वावधि ता समान आ जाती है परन्तु उत्तरावधिमे एक वर्ष का अन्तर रह जाता है जिसे स्मृति की भूल कहकर हटायाजा सकता है। विद्वानोने इनका यही समय स्वीकार किया है । (प.सं / H.L. Jain); (स, सि. प्र /८/ फूलचन्द), (विशेष दे. परिशिष्ट ४ मे नन्दिसंघ)।
५. लोहाचार्य मूल संघकी पट्टावलीमे (दे पृ ३१६) इस नामके दो आचार्य प्राप्त होते है। एक तो द्वि. केवलो सुधर्मा स्वामीका अपर नाम है और दूसरा भद्रबाहु द्वि के पश्चात् अष्टागधारियोकी अथवा आचारोग धारियो की परम्पराम माने गए है। नन्दिसघकी पट्टावलीमे यद्यपि भद्रबाहु द्वि. के पश्चात् इनका नामोल्लेख नहीं किया गया है तदपि जैसा कि परिशिष्ट ३ में बताया जानेवाला है, वहाँ इनका ग्रहण अनुक्तरूपसे स्वयं हो जाता है। मूलसंघकी पट्टावली में प्रथम दृष्टि से इनका काल भगवान् वीरके निर्वाणके पश्चात ६८३ वर्ष तककी काल गणना पर जाकर समाप्त हो जाता है परन्तु अतावतारकी द्वितीय दृष्टिसे वह वी.मि.११५-१६५ प्राप्त होता है। अहं दलि माघनन्दि तथा धरसेन आदिको ६८३ वर्ष की अवधिमें समेटनेके लिये यह पहले की अपेक्षा अधिक स गत है । श्रुतावतारमें हो निमद्ध नन्दिसंघकी पट्टावलीमें भी युक्तिपूर्वक इनका यही काल प्राप्त होता है (दे. परिशिष्ट ४)। (ध १'प्र. २६/H. L Jain); (स. सि/प्र.७८/
पं. फूल चन्द); (ह. पु./प्र.३५. पन्ना लाल)। एक तोसरे लोहाचार्य भी हैं जिनका उल्लेख नन्दिसंघकी पहावली में उमास्वामी के पश्चात् किया गया है ये लोहाचार्य उपर्युक्त लोहाचार्य वि. से भिन्न ही कोई व्यक्ति हैं, क्योंकि पट्टाबली में इन्हें पी.नि.७४७-७५८ में स्थापित किया गया है। इस प्रकार दोनों के कालोंमें २ शताब्दीका अन्तर है (दे. परिशिष्ट ४)
६. विनयवत्तादि चार आचार्य मूलसपको पट्टावलीमें (दे पृ.३१६)लोहाचार्य के पश्चात विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अहंदत्त इन चारों आचार्योका नामोल्लेख किया गया है। यद्यपि इनका उल्लेख न तो तिनलोय पण्णति आदि-मूल ग्रन्थोंमें
कही पाया जाता है और न ही आ इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतारमें दी गई मूल सघकी पट्टावली में कही इनका पता चलता है (ध १/प्र २४/ H. L. Jain)। परन्तु आ इन्द्रनन्दिने वहाँ ऐसा उल्लेख अवश्य किया है कि आ. गुणधर तथा धरसेनके अन्वयका ज्ञान काल दोषसे इस समय हमे प्राप्त नहीं है (दे परिशिष्ट ३) इसके आधारपर तथा अन्य किन्ही साक्ष्योके आधारपर प जुगल किशोर जी मुख्तारने इन्हें लोहाचार्य तथा अर्ह हलिके मध्य स्थापित किया है। पुन्नाट संघकी पट्टावलीमें लोहाचार्य तथा अर्ह वलीके मध्य विनयंधर, गुप्तिश्रुति, गुप्तद्धि और शिवगुप्त ये चार नाम दिये है। (दे. इतिहास ७/८/पृ. ३२७) सम्भवत ये उपर्युक्त विनयदत्त आदिके ही अपर नाम है। इससे पता चलता है कि इनका गुरु परम्परासे कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योकि इनका नाम एक साथ आता है इसलिये इन्हें समकालीन अनुमान किया जा सकता है। पं.जुगल किशोर जो इन चारोंका समुदित काल २० वर्ष अनुमान करते है।
७. अहंबली मूलसंघकी पट्टावली (दे.पु. ३१६) में कथित द्वितीय दृष्टिमें इनके नामका उल्लेख इस बातका सूचक है कि लोहाचार्यके पश्चात मूलसंघका पट्ट आपको अवश्य प्राप्त हुआ था, परन्तु प्रथम दृष्टिमें इनका उल्लेख प्राप्त न होनेसे यह कहा जा सक्ता है कि इनके काल में मूलसंघ विघटित हो गया था । यथाइन्द्रनन्दिकृत नीतिसार - अई दली गुरुश्चक्रे संघसंघटनं परम् । सिह
सघो नन्दिसंघ सेनसंघस्तथापर'। देवसंघ इति स्पष्ट स्थानस्थिति विशेषत:/- अहंडलिके काल में मूलसघ-सिंह, नन्दि, सेन
तथा देव नामक चार संघों में विभाजित हो गया। नेमिदत्त कृत आराधना कथाकोष/कथा नं. -यहाँ यह बात प्रसिद्ध है कि पंचवर्षीय युगप्रतिक्रमणके समय आपने दक्षिण देशस्थ महिमानगर (जिला सतारा) में एक महान यति सम्मेलन किया था, जिसमें १००-१०० योजन तकके यति आकर सम्मिलित हुए थे। उस अवसर पर उनमें अपने अपने शिष्यों के प्रति कुछ पक्षपातकी गन्ध देखकर आपने मूलसघको नन्दिसंघ आदिके नामसे अनेक शाखाओं में विभक्त कर दिया था ।१४। आ, धरसेनका पत्र पाकर इस सम्मेलनमें-से ही आपने पुष्पदत्त तथा भूतबलि नामके दो नवदीक्षित परन्तु सुयोग्य साधुओंको उनकी सेवामें भेजा था ।२८। ध. १/प्र. १४,२८ (H. L. Jain) (विशेष दे. अगला शीर्षक) नन्दिसंघकी पट्टावलीमें (दे. आगे परिशिष्ट ४) आपके दो अपर नाम बताये गए हैं,.पुस्मिगुप्त तथा विशाखाचार्य । इसपरसे आपके चन्द्रगुप्त होनेका सन्देह होता है, क्योंकि एक तो आपके नामके साथ 'गुप्त' शब्द पाया जाता है और दूसरे चन्द्रगुप्त मौर्यका दीक्षाका जो नाम विशाखाचार्य बताया गया है उसका भी आपके नामके साथ सम्बन्ध देखा जाता है। तीसरे आप भद्रबाहूके शिष्य नहीं तो प्रशिष्य अवश्य है। इस हेतुसे श्वेताम्बर विद्वान आपको चन्द्रगुप्त कल्पित करके द्वादशवर्षी दुर्भिक्षका सन्बन्ध भद्रबाहु द्वि. के साथ जोडते है परन्तु इसका निराकरण पहले किया जा चुका है (दे. शीर्षक
२ पर भद्रबाहु प्रथम) पृ. ३१६ पर दी गई मूल संघकी पट्टावलीमें आपका काल वी नि.
५६५-५६३ कहा गया है जब कि परिशिष्ट ३ में कथित नन्दिसंघकी पट्टावलीमे द्वितीय दृष्टिके अनुसार लोहाचार्य के ५० वर्ष जोड देनेपर वह वी. नि. ५६५-५७५ प्राप्त होता है । दोनों में इनकी पूर्वावधि समान है परन्तु उत्तरावधिमें १८ वर्षका अन्तर है। इसपर से यह अनुमान होता है कि नन्दिसंघको पट्टायलिमें कहा गया काल आपके आचार्य पदकी अपेक्षासे है और मूलसंघकी पट्टावलीमे जीवन कालकी अपेक्षासे अर्थात् इनका आचार्य पद संघ विघटनके समय समाप्त हो जाता है और बी. नि. ५६३ में इनकी समाधि होती है।
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परिशिष्ट
(विशेष दे अगला शीर्षक) । परन्तु अन्य कोई साक्ष्य उपलब्ध न होनेसे में स्वयं इस विषयमे अपनी जिल्हा हिलाने के लिए समर्थ नहीं 1 हो सकता है कि नन्दी सघको पट्टावलीमे कही गई इनकी उतरावधि वास्तव में इनके अनन्तरवर्ती माधनन्दीको
"
जो कि उत्तरावधिके रूपमे इन्हे प्राप्त हो गई है। इस विषयमें यह हेतु भी है कि नन्ही संघकी पहली वास्तवमे आ मामनन्दि प्रारम्भ होती है उनसे पहले जो भद्रनाडु खामी तथा अदत्तीका नाम लिया गया है वह केवल परम्परा गुरुके रूपमे उन्हें नमस्कार करने के लिए है। (दे परिशिष्ट ४) इसलिए मूल संघकी पट्टावली में कथित वी. नि. ५६५-५६३ ही इनका काल मानना उचित है। आपके द्वारा आयोजित यति सम्मेलनको संगति आ घरकी उत्तराधि (मी. नि. ६१३) के साथ बेठाने के लिए हम आपके आचार्य कालको उत्तरावधि ५६३ से आगे बढाकर ६३० तक ला सकते है और ऐसा करनेमें कोई विशेष आपत्ति भी नहीं आती है. खोकि आ धरसेनको आपके पश्चाद्वर्ती न मानकर आपके समकालीन माना गया है । तदपि कोई साक्ष्य उपलब्ध न होनेसे इस विषय मे मै स्वय अपनी जिह्वा हिलाने के लिए समर्थ नहीं हूँ। (विशेष दे. अगला
८. यति सम्मेलन
यहाँ यह होता है दे इससे पूर्व
में
कि
यह सम्मेलन किस काल में हुआ । (१) इस अवसर पर अनेकों सघों में विभाजित होकर मूलसंघकी सत्ता समाप्त हो गई थी और साथ-साथ आईडली का आचार्य भी इसलिए यह अनुमान होता है कि नन्दि की महामहीमें कथित दे परिशिष्ट ४) आईसीके कालकी उत्तरावधि (बी. नि ५७५) ही इस सम्मेलनकी योजनाका काल है। सम्मेलन वर्षीय युगप्रतिक्रमणके अवसरपर हुआ था। क्योंकि के अंक से ५७४ पूरा-पूरा विभाजित हो जाता है इसलिए भी अनुमान होना सम्भव है कि भगवान् 'महावीर के' पश्चाद यह ११५ युग प्रतिक्रमण हुआ होगा । परन्तु इतने मात्र परसे इस विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना इतिसाहस होगा ।
यह
(२) क्योंकि दूसरी ओर आ. धरसेन स्वामीका सम्बन्ध भी इस घटना के साथ सिद्ध है। उनका पत्र पाकर आ अर्हइलीने इसी सम्मेलनमें से दोन दीक्षित साधु उनकी सेवामे भेजे थे और जैसा कि आगे आ. घरसेन के प्रकरण में बताया जाने वाला है उन्होने इन साधुओंको बहुत शीघ्र ही 'महाकर्म प्रकृति' विषयक अध्ययन कराके अपना समाधि मरण निकट जान इन्हे अपने पाससे विदा कर दिया था। इस परसे दो सूचनायें प्राप्त होती है। एक तो यह कि अत्यन्त बीत* राग तथा तपस्त्री होने के कारण उन्होने भक्तप्रत्याख्यानकी बजाय इङ्गिनी मरण स्वीकार किया था। दूसरी यह कि अपने शरीर की स्थिति से आशंकित रहनेके कारण उनका यह अध्ययन बहुत शीघ्र समाप्त किया था । यही कारण है कि अध्ययन प्रारम्भ कराने से पहले उन्होंने इन शिष्योके शिष्यत्वकी तथा प्रतिभाको परीक्षा ली थी। इसलिये इस विषय में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता कि इन दोनोंने गुरुदत्त ज्ञानको अवधारण कर लिया हो। इस परसे हम यह कह सकते है कि इन दोनों सुयोग्य साधुओं की प्राप्ति उन्हे अपने समाधि कालसे अधिक से अधिक दो चार वर्ष पूर्व हुई थी और उसी समय यति सम्मेलन घटित हुआ था । आ. धरसेनके कालकी उत्तराधिक्योंकि बी.नि.६३३ निर्धारित की गई है (दे आगे शीर्षक १० ) इसलिये यति सम्मेलनका काल वी. नि. ६३० के आस-पास होनेकी सम्भावना प्रतीत होती है ।
(३) परन्तु ऐसा माननेवर आा अलिको उत्तराधि (वोनि ५१३) के ग्राम तथा आ. मामनन्दिको बीनि २०५) के साथ संगति वहीं बैठती। इसलिए या तो अति उत्तरावधिको ५६३ से
मूलसंघ विचार
नीचे उतारकर ६३० पर लाना चाहिये अथवा आ. धरसेनकी उत्तरावधिको ६३३से ऊपर उठाकर ५६५ या ६६७ पर लाना चाहिये। परन्तु ऐसा करने से उनके द्वारा 'जोणिपाहुड' ग्रन्थकी रचना सम्भव नहीं हो सकेगी, क्योकि उसका रचनाकाल वो नि ६०० माना गया है। इसलिये या अर्हति उत्तराधिमी. नि. ६३० मानी जा सकती है । यह बात सर्वमान्य भी है कि अर्हइलि माघनन्दि तथा घरसेन इन तीनो के नाम भले ही मूलसघकी पट्टावलीमें आगे-पीछे लिखे गये हो परन्तु वास्तव में ये समकालीन थे ।
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(४) दूसरी बाधा नदि स्वामीकी पूर्वावधिके साथ आती है। यदि अलिको उत्तरावधिके अनुसार सम्मेलनवी योजनाका काल वी. मि. २६३ या ६२० माना जाता है तो मामनन्दिकेशको पूर्वाध भी यहाँ घटित होती है जबकि नदी पाली में वह यो नि ५७५ पर स्थापित की गई है । परन्तु इसका समाधान यह किया जा सकता है कि भले ही सम्मेलन के अवसर पर अनेकों सघकी स्थापना की गई हो, परन्तु सभी सघोंकी स्थापना उसी दिन हुई हो यह नही कहा जा सकता। सिंहसंघ, नन्दिघ, सेन या वृषभसंघ और देवसंघ ये जो चार प्रधान संघ है इनकी उत्पत्तिके विषय मे अनेकों धारणाये है। एकके अनुसार ये मूलसघमें से उत्पन्न हुए, एक्के अनुसार ये मूलसंघमे हुए अर्थात इन चारोंसे समवेत ही मूलसंघ माना जाता रहा। एक्के अनुसार इनके संस्थापक अद्विली थे और एक्के अनुसार अकलंक देव थे । एकके अनुसार इनकी स्थापना अलिने स्वेच्छा से की थी और एकके अनुसार उनके जीवनकालमे स्थिति तथा स्थान की विशेषता के कारण यह स्वत हो गई थी । (दे. इतिहास ५/१ पृ ३१८) । इस अन्तिम धारणा के अनुसार नन्दिसघकी उत्पत्ति उस समय हुई थी जबकि आ आईडली महातपरमानन्द म
के नीचे योग धारण किया था (दे. इतिहास १३१८) हो सकता है कि यह घटना सम्मेलन वाली घटनासे बहुत पहले वी. नि ५७५ में घट चुकी हो और उसी समय माघनन्दि स्वामी नन्दिसंघका आद्य पट प्राप्त हो गया हो।
९. माघनन्दि
पू. ३९८ पर दी गई सूत सबकी पट्टावतीने तथा जागे परिशिष्ट २ में निर्दिष्ट नदी महाबली में दोनों में ही आपका नाम अहंडी अथवा गुप्तिगुप्तके पश्चात् आता है परन्तु, दोनों स्थानोपर दिया गया आपका काल भिन्न है । मूलसघकी श्रुतधर परम्परामै आपको गणना पूर्ववदमें की गई है और काल भी नि ५६३-६१४स्थापित किया गया है जबकि मन्दिसंपमें निर्दिष्ट द्वितीय दृष्टिके अनुसार यह वी नि. ५७५-५७९ बताया गया है (दे परिशिष्ट ४) इससे सिद्ध होता है कि ४१३ आपके आचार्यपदी पूर्वावधि नहीं थी। आ. अडलि की उत्तरावधि ही यहाँ नाम क्रमके कारणसे आपको पूर्वावधि के रूपमे प्राप्त हो गई है। वस्तुत' अर्हह्नलिके शिष्य हो कर भी आप उनके पश्चाद्वर्ती न होकर समकालीन थे। इससे पहले जो यति सम्मेलन के विषय में चर्चा की गई है उसके अनुसार नन्दिसघकी स्थापना आ. अलिके काल में उस समय हुई थी जबकि श्री माघनन्दिजी के उपकी परीक्षा करनेके लिये उनेह इनको नन्दी वृक्ष, जिसकी कुछ भी छाया नहीं होती है उसके नीचे वर्पयोग धारण करने का आदेश दिया था, और उनके आदेशकी पालनामें सफल हो जानेपर आप
नन्दिकी उपाधि प्राप्त हुई थी। आपकी इस योग्यताको देखकर उस समय जिस संघका आद्य पट्ट आपको सौपा गया था वही आपकी इअ उपाधिके कारण नन्दि संज्ञाको प्राप्त हुआ था। आपके कालकी पूर्वाध इस बातको सूचित करती है कि यह घटना वी. नि. ५७५ में घटी थी ।
यहाँ यह शंका होती है कि नन्दिसंघकी पट्टावली में आपका आचार्यकाल केवल ४ वर्ष के पश्चात् बी. नि ५७६ में क्यों समाप्त
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परिशिष्ट
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मूलसंघ विचार
कर दिया गया जबकि मलस की पट्टावली में आपकी सत्ता वी नि ६१४ तक पायी जाती है। यद्यपि इसका उत्तर खोजने की आवश्यकता विद्वानोंको आजतक प्रतीत नही हुई है तदपि इस विषयमें अपनी
ओरसे में एक क्लिष्ट कल्पना प्रस्तुत करता हूँ। इस शकाका निवारण करने के लिये मुझे इन के विषयमे प्रसिद्ध वह कथा याद आती है जिसके अनुसार एक कुम्हार को कन्यापर आसक्त होकर आप चरित्रभ्रष्ट हो गए थे। हो सकता है कि यह घटना आचार्य पद प्राप्ति से ४ वर्ष पश्चात वी नि ५७६ में घटित हुई हो और उसके कारण
आपका आचार्यत्व अकस्मात समाप्त हो गया हो। यहाँ पुन यह शंका होतो है कि ऐसा होनेपर जब इनका साधुपद
ही समाप्त हो गया तो नन्दिसघको पट्टावलीके कर्ता आ इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमे वी नि. ६१४ तक आपका स्मरण कैसे क्यिा। इसके उत्तरमें मैं आपका ध्यान उक्त कथानकके द्वितीय भागकी ओर ले जाता है, जिसके अनुसार कुछ ही दिनोके पश्चात् किसी एक सैद्धान्तिक शक का समाधान पानेके लिये सकल संघका अनुमतिसे एक साधु स्वय इनसे मिलनेके लिये कुम्हारके घरपर गए थे और उन्हें इस प्रकार अपने पास आया देखकर आपके हृदयमे आत्म लानि जागृत हो गई थी। प्रतीत होता है कि यह घटना उनकी पदच्युतिके कुछ ही दिनोके पश्चात् घटित हुई थी, अन्यथा सघके हृदयमे उनके प्रति इतना बहुमान शेष न रह गया होता । प्रायश्चित पूर्वक पुन दीक्षा धारण कर लेने पर जब आपने अपना स्थितिकरण कर लिया तो बहुत सम्भव है कि आपको ज्ञान गरिमाके कारण सक्न सधने पुन आपको अपना आचार्य स्वीकार कर लिया हो, और उसके पश्चात समाधि मरण हाने तक आप सघके आग्रहसे उसो पदपर आसीन रहे हो। ऐसा मान ले नेपर नन्दिसघ के पदपर आप का पूरा काल ४ वर्ष की बजाय ३६ वर्ष हो जाता है । इसमेसे बी नि ५७५ से ७६ तक्के ४ वर्ष तो भ्रष्ट होने से पहले के है और १७४ से ६१४ तकके ३५ वर्ष पुन दीक्षा लेने के पश्चात के है। नन्दिसंघको पट्टावलोमे इनके पूर्ववर्ती ४ वर्गोका ही उल्लेख किया गया जबकि मूलसवको पट्टावलो मे इनका पूरा जीवनकाल दिया गया है। यदि नन्दि सघवाली पट्टावलीमे उनका ३५ वर्ष प्रमाण यह दूसरा काल भी जोड़ लिया जाय तो इनके तथा इनके पश्चाद्वर्ती जिनचन्द्र के मध्य जो ६७ वर्ष का अन्तर है वह घटकर केवल ३१ वर्ष रह जाता है । (दे आगे परिशिष्ट ४ मे नन्दिसंघकी पट्टावली)।
१०. धरसेन मुलसंघको पट्टावली (दे पृ ३१६) में आपकी स्थापना अगाशधारियो
अथवा पूर्वाविदाको आम्नायने को गयो है । विद्याभ्यासी होनेके कारण सौराष्ट्र देश के गिरनार गिरोकी चन्द्रगुफामें अकेले रहते थे। भगवान महावीरसे आगत 'महा कर्मप्रकृति' का ज्ञान आपको आचार्य परम्परासे प्राप्त था। उसका अबच्छेद न हो जाये इस आशंकासे आपने दो युवा तथा योग्य साधु भेजने के लिए दक्षिणपथ के आचायो के उस महायति सम्मेलनका पत्र भेजा था, जो कि उस समय आ अहं बलिने महिमानगर (जिला सतारा) मे पञ्चवर्षीय युगप्रतिक्रमण के अवसर पर एकत्रित किया था। आ अर्हलि द्वारा वहाँसे भेजे गए पुष्पदन्त तथा भूतबलि नाममे प्रसिद्ध दो नव दोक्षित साधुश्रो को उस विषयका अध्ययन करने के पश्चात् अपनी मृत्यु निकट जान आषाढ शु.११ को आपने उन्हे अपने पाससे विदा कर दिया। कुछ समय पश्चात् ही बहा आपकी इङ्गिनीमरण समाधि हो गई। (ध / ४.१,४४/१३३), (ब, नेमिदत्त कृत आराधना कथाकोषमें आ. धरसेनकी कथा), (ध. १/१८/H L. Jain), (सिद्धान्तसारादि संग्रह) श्रुतावतार/ग्रन्थांक २१/५ ३१६), उन दोनो साधुओने इनके पाससे विदा होकर अङ्कलेश्वरमें चातुर्मास किया और पीछे षट्खण्डागम नामक ग्रन्थ में गुरुदत्त ज्ञानको निबद्ध कर दिया (दे.आगे पुष्पदन्त,भूतबलि)।
मूलसंघकी पट्टावलीके अनुसार लोहाचार्य तक अगधारियोकी परम्परा चलती रही। उनके पश्चात विनयदत्त आदि चार अगाशधारी हुए और उनके पश्चात् क्रमश अर्हवलि, माघनन्दि तथा धरमेनका नामोल्लेख किया गया। ये तीनों आचार्य अगाँशमें से भी छुट पुट क्सिी एक आध प्राभृतका जाननेवाले थे। इनकी परम्परामे क्योकि धरमेनका नाम माघनन्दिके पश्चात आया है इसलिए यह सन्देह हो जाना स्वाभाविक है कि माघनन्दि धरसेनके गुरु थे, परन्तु ऐसा कोई निश्चित साक्ष्य उपलब्ध नही है उक्त क्रमका तात्पर्य यह हो सकता है कि ये तोना समकालीन ये, अन्यथा अर्ह बलि द्वारा आयोजित यति सम्मेलनका धरमेनके द्वारा पत्र देना सम्भव न होता। दूसरी बात यह भी है कि उस समय वे अति वृद्ध हो चुके थे और इमोलिए स्वय यति सम्मेलन में सम्मिलित नही हुए। यही कारण है कि नन्दो सङ्घमा नायकत्व माघनन्दिको सौपा गया। दूसरी ओर पटवण्डागमकी रचनाके निमित्तमे प्राप्त पुष्पदन्त तथा भूतबलिके द्वारा एक स्वतन्त्र परम्पराकी स्थापना हुई जिसका उल्लेव उन सङ्घोकी सूची में नहीं हो सका जिनकी स्थापना अर्ह बलिने को थी। माघनन्दिके पश्चात् नन्दिमङ्घका नायकत्व उनके शिष्य जिनचद्रके हाथ में गया। यही कारण है कि नन्दिमधकी पट्टावली में माधनन्दिकी बजाय जिनचन्द्रमा नाम आता है। (ध १/प्र.१५-१६/H L_jain), (ती २/11-४४), (जै १/१३-४।। इन्द्र नन्दि कृत श्रुतावतार में (दे प. ३१७) इनका काल बी नि ६१४-६३३ बताया गया है। इसपरसे इनकी पूर्वावधि श्री नि ६१५ जाननेमे आती है। परन्तु वास्तवमे ऐसा नहीं है। पट्टावनीमे दिये गए क्रम के अनुसार माघनन्दिकी उत्तराबधि ही इन्हे पूर्वावधिके रूपमे प्राप्त हो गई है। जा अहहन्नीके समकालीन होने के कारण पी नि ५६५ हानी चाहिए थी। दूसरी बात यह है कि घर में नाचार्यका महानिमित्तज्ञानी माना गया है। इसी बातका नस्य करके उनके शिष्य भूतबलि ने षटखण्डागममे 'प्रज्ञाश्रमणो'को नमस्कार किया है (प स्व ४/१/१८) । इस प्रज्ञाश्रमणके द्वारा रचित मन्त्र तन्त्र विषयक 'जाणिपाहण' नामक एक ग्रन्थ उपलब है जिसका काल बी नि ६०० के आसपास निर्धारित किया गया है। मुख्तार साहब इस सर्व क्थनको ज्यो का त्यो मानकर भी इनका काल वी नि ६१५-६३ निर्धारित करते है (जै १४४४) । परन्तु क्योकि यह काल मानने पर उनके द्वारा 'जोणिपाहण' की रचना सम्भव नहीं हो सकेगी। इसलिए इनकी पूर्वावधिको ६१४ से उठ कर अर्ह लोके समकक्ष ६५ पर जाना चाहिए । अर्थात इनका काल वो नि ५६५-६३३ (ई ३८-१०६) हाना चाहिए । प्राय सभी विद्वान् इम विषयमें एक्मत है। (ध १/प्र. २६/ H L Jain), (तो २/४५), (जै २/४३-४४)। स्वयं इनके निवासस्थन्न गिरनारगिरि की चन्द्रगुफामे प्राप्त शक स. ७२ (ई १५०) के एक शिलालेखके आधार पर डा ज्योति प्रमादने इन्हे ई श १ मे स्थापित किया है, जिसपरसे उपर्युक्त मान्यताको समर्थन प्राप्त होता है। (ती. २/४७)।
११. पुष्पदन्त भूतबलीविबुध श्रीधरके श्र तावतारमे भविष्यवाणी के रूपमे जो कथा दी
गई है उसमे इन दोनों के जीवन पर प्रकाश पड़ता है। तदनुसार बसुन्धरा नगरीके राजा नरवाहन सुबुद्धि नामक सेठके साथ दीक्षा धारण करेंगे। उस समय वहाँ एक लेखवाहक आयेगा । वे मुनि उससे लेख लेकर बाँचगे कि गिरनारके समीप गुफावासी धरसेन मुनीश्वर कुछ दिनोमे मरवाहन और सुबुद्धि नामक मुनियोंको पठन श्रवण
और चिन्तन कराकर आषाढ शु. ११ को शास्त्र समाप्त करेंगे। भूतजन रात्रिको उनमें से एककी बलि विधि (पूजा) करेंगे और दूसरेके चार दान्तीको सुन्दर बना देगे। अतएव भूत-बलिके प्रभावोसे नरवाहन मुनिका नाम भूतबलि और चार दान्त समान हो जानेसे
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परिशिष्ट
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गुणधर आम्नाय
सुबुद्धि मुनिका नाम पुष्पदन्त होगा। (ती.२/५० पर उद्ध,त सिद्धान्त प्राप्त होता है। डॉ. ज्योति प्रसादने पुष्पदन्तको ई.५०-८० में सारादि सग्रह ग्रस्थाक २१ पृ ३१६-३१७) इस कथानकपर से यह सिद्ध और भूतबलिको ई ६६-६० मे स्थापित किया है। डॉ नेमि चन्द होता है कि धरसेमाचार्य इनके शिक्षागुरु थे। दीक्षा गुरु नहीं । इनके ने सामान्य रूपसे इन दोनोको ई. श. १-२ मे निर्धारित किया है। दीक्षागुरु वास्तवमे अहं बलि थे। श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं १०५ (ती २।५३,५७), मे इन्हे स्पष्ट रूपसे अहं इलिका शिष्य कहा गया है । (ध १/प्र. १८/ परिशिष्ट ३ -(गणधर आम्नाय) HL Juin) जिनका नाम नरवाहन कहा गया है वे राजा जिनपालितके समकालीन
१ सामान्य परिचय तथा उनके मामा थे। इस परसे यह अनुमान किया जाता है कि आ इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतारमें मूलसंघके प्रधान प्रधान आचार्योंका राजा जिनपालितकी राजधानी वनवास' ही आपका जन्म- विचार कर लिया गया। उसके अनुसार (दे पृ ३१६) श्रुतधरों स्थान था। आप कल्याण की कामनासे वहाँ से चलकर आ अहवाल- की अविच्छिन्न बी.नि. ३४५ पर आकर समाप्त हो जाती है। को शरणके लिये पुण्ड्रवर्धन आये और उनसे दीक्षा ले कर तुरत उनके तत्पश्चात २२० वर्ष तक अंगधारियो की परम्परा चलती रही और साथ महिमा नगर (जिला सतारा) चले गए जहाँ कि गुरु अर्ह हलि तदुपरान्त ११८ वर्ष तक किसी किसी एक पूर्व का अथवा पूर्वाशका ने बृहत् यति सम्मेलनकी योजना की थी। उसी सम्मेलनमें आकर ज्ञान हो शेष रह गया। इन पूर्वांशोको सुरक्षित रखने के लिए उन्हे सुबुद्धि श्रेष्ठिने दीक्षा ली थी। इन्हीका नाम आगे जाकर भूतबलि लिपिबद्ध करने या करानेकी की परम्परा वी नि. ६१४ ६८३ के आसपड़ा। इस सम्मेलनसे गुरु अर्ह हलिक द्वारा भेजे गए ही ये दोनो पास प्रारम्भ हुई । मूलस की पट्टावलीके अन्त में कथित आ. धरसेन, अध्ययन करनेके लिये गिरनारगिर आचार्य धरसेनस्वामी को प्राप्त पुष्पदन्त तथा भूतबलिकी गणना इसी परम्परामें की जाती है। हुए थे। आषाढ शु. ११ को अध्ययन पूरा हो जानेपर धरसेन गुरुसे इसी परम्परामें आ. गुणधरकी भी एक आम्नाय है जिसका उल्लेख विदा ले ये दोनों गिरनारके निकट अंकलेश्वर आ गए और वहाँ उक्त श्रुतावतारमे उपलब्ध नहीं होता है। इसका कारण यह है कि चातुर्मास धारण कर लिया।
श्रुतावतारके कर्ता आ. इन्द्रनन्दिने यद्यपि इस आम्नायका नाम तो इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार १३२-१३४ (ती २/५१,५४) जग्मतुरथ करहाटे
सुन रखा था परन्तु इसकी गुरु परम्पराका ज्ञान उन्हे नही था। तयो' स य पुष्पदन्त नाम मुनि'। जिनपालिताभिधानं दृष्टवाऽसौ
“गुणधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभि' न ज्ञायते, तदन्वयकथ
कागममुनिजनाभावाव'। (इन्द्रनन्दि कृत श्रृतावतार १५१) (ती, भगिनेय म्व । दवा दीक्षा तस्मै तेन सम देशमेश्य वनवासम् । तस्थौ
२/३०)। जिस प्रकार धरसेनकी आम्नायमें था. पुष्पदन्त तथा भूतभूतबलिरपि मधुर. या द्रविडदेशेऽस्थात् । १३२-१३३ । अथ पुष्पदन्त मुनिरप्यध्यापयितुं स्वभागिनेयं तम् । कर्मप्रकृतिप्रभाभृतमुपसंहार्येव
बलि प्राप्त होते है उसी प्रकार इस आम्नायमें आर्यमक्षु, नागहस्ति गडभिरिह खण्डै ॥१३४॥ - वर्षावास पूर। करके पुष्पदन्त और भूत
तथा यतिवृषभ प्राप्त होते है। दोनो आम्नायें प्राय समकालीन तथा मलि दोनोने दक्षिण की ओर विहार किया और दोनो 'करहाटक'
समकक्ष होते हुए भी परस्परमें एक दूसरेसे पृथक् तथा स्वतन्त्र थी। (कोल्हापुर) पहुँचे । वहाँ उनमें से पुष्पदन्त मुनिने अपने भानजे राजा
धरसेनकी आम्मायने जिस प्रकार भगवान् वीरसे आगत 'महाकर्म जिनपलितसे भेंट की और उसे दीक्षा देकर अपने साथ ले 'वनवास'
प्रकृति प्राभृत' के ज्ञान को षट् खण्डागमके रूपमें लिपिबद्ध किया, देशको चले गए। तथा भूतमलि द्रविड देशकी मदुरा नगरी में ठहर
इसी प्रकार आ गुणधरकी इस आम्नायने भगवान वीरसे वागत गए । उधर बनबासमें अपने भानजे जिनपालितको पढ़ाने के लिये
"पेज्जदोसपाहुड के ज्ञानको 'कसायपाहुड' के नामसे लिपिबद्ध किया। पुष्पदन्त मुनिने 'कर्म प्रकृति प्रामृत' का छ' खण्डोमें उपसंहार किया २. गुणधर ओर 'वीसदि सूत्र' की नाम से जीवस्थान नामक प्रथम अधिकारकी
ज. ध /मंगलाचरण ६-जेणिह कसायपाहुडमणेयणयमुज्ज्वलं अण तत्थं । रचनाकी। उसे जिनपालितको पढाकर भूतबलिका अभिप्राय अवगत
गाहाहि विवरिय त गुणहरभडारयं । करने के लिये उसीके हाथ उसे उनके पास भेज दिया। इसपरसे भूत
ज. ध. ६ की व्याख्या- ज्ञानप्रबाद के निर्मल दसवे वस्तु अधिकारके नलिने पुष्पदन्त गुरुका षट्खण्डागम रचनेका अभिप्राय जान लिया।
तृतीयकसायपाहुडरूपी समुद्र के जलसे प्रक्षालित मतिज्ञानरूपी नेत्रउनकी आयु अस्प ही शेष रह गई है यह जान कर उन्होने धरसेन
धारी एव त्रिभवन-प्रत्यक्ष-ज्ञानकर्ता गुणधर भट्टारक है, और उनके गुरुसे प्राप्त सकल ज्ञानको 'षट्खण्डागम' के नामसे निबद्ध कर दिया।
द्वारा उपदिष्ट गाथाओंमें सम्पूर्ण कसायपाहुडका अर्थ समाविष्ट है। (ध १/प्र. २०/H. L.Jain), (जै १/४५)
• तृतीय कषाय प्राभृत महासमुद्रके तुल्य है और आचार्य गुणधर इस परसे यह अनुमान करना सहज है कि आयुमे पुष्पदन्त उसके पारगामी है। भूतबलिकी अपेक्षा वृद्ध थे और उनके स्वर्गारोहणके पश्चात् भी __आचार्य वीरसेनके उक्त कथनसे यह ध्वनित होता है कि आचार्य भूतबलि २०-२५ वर्ष जीवित रहते रहे। अत इन दोनोके साधु गुणधर पूर्व विदोकी परम्परामें सम्मिलित थे किन्तु धरसेनाचार्य जीवनका प्रारम्भ आ.अहं दलिके अन्तिम पादमें होता है। और अन्त पूर्वविद होते हुये भी पूर्वविदोकी परम्परामे नहीं थे। (ती. २/२१)। भूतबलिकी अपेक्षा पुष्पदन्तका पहले हो जाता है। मूलसंध की पञ्चम पूर्वगत 'पेज्जदोसपाहुड' का जो ज्ञान आपको पूर्वाशधारियों पट्टावलीमे अहलके काल की अन्तिम अवधि वी नि. ५६३, पुष्प- की परम्परासे प्राप्त हुआ था उसे सुरक्षित करनेकी भावनामें दन्तकी ६३३ और भूतबलिकी ६८३ बताई गई है (दे. पृ ३१६ पर आपने यद्यपि उसे १८० गाथाओ में उपसंहृत कर दिया था तदपि इतिहास ४/२) इनकी पूर्वावधिमें पूर्वापर्य केवल उनके नाम क्रमके आपने इन गाथाओको लिपिबद्ध नहीं किया था। आचार्य परम्परासे कारणसे है । उसका प्रारम्भ वास्तव में यति सम्मेलनके कालसे होता वे गाथाये नागहस्तिको और उनके पादमूलसे यतिवृषभको प्राप्त है। यदि यह सम्मेलन बी. नि. ६३० में घटित किया जाय (दे. हुई। ७००० चूर्णिसूत्रोकी रचना द्वारा विस्तृत करके उन्होंने ही इन शीर्षक ७ पर अहवलि) तो इनकी पूर्वावधि वी. नि ५३० सिद्ध १८० गाथाओंको 'कषायपाहुड' के नामसे लिपिबद्ध किया। (दे. हो जाती है । परन्तु विद्वानोने यति सम्मेलनके कालका निर्धारण कषायपाहुड अथवा कोश २/परिशिष्ट १)। न करके अहवाल की उत्तरावधि को ही इनकी पूर्वावधि मान इस सर्व कथनपरसे यह अनुमान सहज हो जाता है कि आप लिया है। तदनुसार आ. पुष्पदन्तका काल बी. नि. ५६३-६३३ धरसेन स्वामीसे अधिक नहीं तो २-३ पीढी पूर्व अवश्य होने (ई. ६६-१०६) और भूतबलिका वी. नि. ५६३-६८३ (ई ६६ १५६) चाहिए। हमारे इस अनुमानकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि
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गुणधर आम्नाय
आचार्य गुणधर द्वारा कथित १८० गाथा प्रमाण 'पेज्जदोस पाहुड' की भाषा बरसेन द्वारा कथित घट ग्वण्डागमको अपेक्षा प्राचीन प्रतीत होती है, और षट् वण्डागम में पिज्जदोसपाहुड' का तथा उसकी मान्यताओका उल्लेख स्थल-स्थल पर पाया जाता है। इनके इस परिवतित्वकी अवधि को और अधिक स्पष्ट करने के लिये हम आ अहंद्बलि के द्वारा महिमा नगरमें आयोजित उस यति सम्मेलन की ओर अपना लक्ष्य ले जा सकते है, जिसमें कि उन्होने मूल सघको अनेक सघोमें विभाजित किया था। इन सधो की सूची में 'गुणधर संघ' का नाम आता है (दे इतिहास ४/६)। इस प्रकार से यह प्रतीत होता है कि अर्ह इलि के समय में मूल सबसे पृथक आ गुणधरका भी एक स्वतत्र सघ अवश्य विद्यमान था, जो कि उस समय तक अपनी ज्ञान गरिमाके कारण इतनी ख्याति प्राप्त कर चुका था कि आ अहवलिका उनके व्यक्तिगत नाममे एक मघको सत्ता स्वीकार करनी पड़ी। इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतारमें अथवा मूलमंघकी पट्टावलीमें उनके नामका उल्लेख न होने का भी कारण सम्भवत यही हो कि आचार्य अहंदमलीकी भाति आ गुणधर भी उस समय एक स्वतन्त्र संघके अधिपति थे । इम हेतुमे इन्हे अर्ह बनीमे भी कम से कम एक पीढी पूर्व अर्थात् लोहाचार्य के समकालीन अवश्य होना चाहिए। मूलसंध की पट्टावलीके अनुसार लोहाचार्यका काल क्योकि बी नि ५१५४६५ है, इसलिए आपको भी हम की नि. शताब्धि के पूर्वार्ध में अर्थात् वि पू प्रथम शताब्धिमें प्रतिष्ठित कर सकते है । लगभग यही
समय डा नेमिचन्द्र ने भी निर्धारित किया है (ती २/३०) । इनकी गुरुपरम्पग विषयक ज्ञान क्योकि विग्मृतिके गर्भ में लीन हो चुका है, इमनिये हरके कान का निर्धारण करने में इससे अधिक खोज की जानी सम्भव नहीं है। गुणधरधरमेनान्वयगुळ पूपिरकमाऽस्माभि । न ज्ञायते तदन्वय कथकागममुनिजनाभावात् ॥११॥" (इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार १५१, ती २/३० पर उद्धृत)। .. आर्यमा और नागहस्ती इन दोनों महाश्रमणोका नाम दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनो
आम्नायोमे अति सम्मानसे लिया जाता है। दिगम्बर आम्नायमे इनका स्थान प्रा पुष्पदन्त तथा भूतबलिके समकक्ष पूर्वाशविदो की उस अन्तिम परम्परामे है जो कि भगवान मे आगत उत्तरोत्तर होयमान श्रुतको लिपिबद्ध करने अथवा करानेमे अग्रगण्य रही है । इनके कान का निर्गय करनेके लिए विद्वानोने दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दानो हो आम्नायोसे साक्ष्य ग्रहण क्रिये है।। (१) दिगम्बर आम्नायके अनुसार इन दोनोको आ गुणधर कथित
'पेज दोसपाहूड' को १८० गाथाये आचार्य परम्परासे प्राप्त हुई थी। 'पुणो ताओं सुत्तगाहाओ आइरिय पर पराए आगच्छमाणाओ मंग्णागहत्थीर्ण पत्ताओ।' (ज /ध ११ ८८)। आ. गुणधरके मुखकमलसे विनिर्गत इन गाथाओके अर्थको इन दोनों आचार्योंके पादमूलमे सुनकर आ. यति वृषभने (ई १५०-९८०) मे ६००० चूर्ण सूत्रोंकी रचना की थी। 'पुणो तेसि दोन्हं पिपादमूले असी दिसदगाहाणं गुणहरमुहकमल किणिग्गयाण मत्थं सम्म सोऊण जयिवसह भडारएण पबयणवच्छलेण चुण्णिसुत्तं कय।' (ज ध १/६८/८८)। ये यति वृषभाचार्य आर्य मंझुके शिष्य और नागहस्तिके अन्तेवासी थे। 'जो अज्जमखुसीसो अतेवासी वि णागहत्थिस्स । वित्तिमुत्तकत्ता जइबसहो मे वरं देऊ। ८ । (ज ध १०/पृ ४)। इन साक्ष्योपरसे यद्यपि इनके कालका सुनिश्चित ग्रहण नहीं होता है तदपि इतना अनुमान अवश्य हो जाता है कि ये दोनों आचार्य गुणघर देवकी चौथी पीढ़ीमें कहीं हुए हैं। आर्यमा नागहस्तिके ज्येष्ठ गुरुभ्राता है । यति वृषभाचार्यको दीक्षा देनेके कुछ ही काल पश्चात इनकी समाधि हो गई। तदुपरान्त २०-२५ वर्ष तक नागहस्तिकी सेवामें उपस्थित रहते हुए यतिवृषभाचार्यने कषायपाहुडको लिपिबद्ध किया। अत आर्यमंचको पुष्पदन्त
(वो नि ६३३-६६३) का और नागहस्तिको भूतबली (वी.नि. ६३६८३) का समकालीन होना चहिए। (२) श्वेताम्बर आम्नायोमे आ धर्मघोष (वि स १३२७) कृत सिरिदुसमकाल समण सघ थय ' नामक एक पट्टावली प्रसिद्ध है । तदनुसार राजा पुष्यमित्रका स्वर्गवास वी. नि ४१८ में हुआ। उनके पश्चात इस म घमे पाँच आचार्य हुए। इन पाँचोमे 'वायरसेन का काल तीन बर्ष, नागहस्तीका ६६ वर्ष,रेवतीमित्रका वर्ष, बभदेवसूरिका ७८ वर्ष और नागार्जुनका ७८ वर्ष माना गया है। इसपर से नागहरितका काल बी नि ६२०-६१ निश्चित हो जाता है । (ती, २/11)। दूसरी बार नन्दि सूत्रकी मलयगिरि टोकामे आर्यमंक्षुको आर्यनन्दिनका और नन्दिलका नागहस्तिका गुरु बतलाया गया है। साथ ही आर्यमशुको श्रुतसागरक पारगामी और नागहस्तिको 'कर्मप्रकृति' ज्ञान प्रधान कहा गया है । इसपर से यह कहा जा सकता है कि ये नागहरित सम्भवत वही है जिनकी चर्चा कि यहाँ की जा रही है। (जे १/१२)। यदि यह ठीक है और पूर्वोक्त समणसध वाले नागहस्ति भी वही है तो निर्धारण करनेमे कुछ भी कठिनाई नहीं रह जाती कि नागहस्तिका काल वी नि ६२०-६८६ है और आर्यमक्षुका लगभग वी नि ६००-६५०। ऐसा माननेसे दिगम्बर
आम्नायकी उपयुक्त धारणाओके साथ भी विरोध नही आता है। विपरीत इसके उसकी परिपुष्टि होती है। यद्यपि आ. वज्रयशके नामवाली एक तीसरी पट्ठावली के अनुसार आर्यमंक्षुका काल वी.नि.. ४६७ आता है । (दे. आगे शीर्षक ४)। परन्तु उपर्युक्त साक्ष्योंके साथ मेल न बैठनेके कारण इस मान्यताका ग्रहण शक्य नहीं है। हो सकता हे कि प्रकृत आर्य मधुसे पूर्ववर्ती ये कोई अन्य ही आर्य मंच हों, और पट्टावन्नी न होने के कारण प्रकृत आर्यमचका उस पट्टावलीमे उल्लेख
न किया गया हो। यहाँ यह बात विशेष रूपसे विचारणीय है कि जयधवलाकार वीरमेन स्वामीने यतिवृषभको आर्यभक्षुका शिष्य बतलाया है न कि नागहस्तिका। तथापि यतिवृषभने अपने किसी भी ग्रन्थमें उनका स्मरण नहीं किया है । इसके समाधानार्थ हम अपना लक्ष्य श्वेताम्बर आम्नायमे प्रसिद्ध उस कथाकी ओर ले जाते है जिसके अनुसार चारित्रसे भ्रष्ट हो जानेके कारण आर्यमंच मरकर यक्ष हो गए थे। (जै १/१५) गुरु होते हुए भी चारित्र भष्ट हो जानेके कारण वे स्मरण किये जाने योग्य नहीं रह गये हों, ऐसा होना सम्भव है। इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि सम्भवत वे श्वेताम्बर हो। श्वेताम्बर पट्टावलियोमे उनका नामोल्लेख होना और दिगम्बर पट्टावलीमें न हाना इस सन्देहका समर्थक है। इसलिए बहुत सम्भव है कि वै आ यतिवृषभक केवल शिक्षा गुरु हों, दीक्षा गुरु नहीं। परन्तु निश्चित रूपसे इस विषयमे कुछ नहीं कहा जा सकता है, क्योकि इसका दूसरा हेतु यह भी हो सकता है कि गणघर स्वामीकी आम्नायमे होनेके कारण दिगम्बर होते हुए भी ये मूलसंघसे बाहर हो। (दे. इससे पहला शीर्षक) । ४ वज्रयश जैसा कि इससे पहले आर्य मनु वाले प्रकरण में सकेत किया है श्वेताम्बर
आम्नायमें बज्रयशको एक पट्टावली प्राप्त है, जिसके अनुसार आर्यमंझुका काल वी नि. ४६७ आता है, परन्तु अन्य साक्ष्यों के आधारपर उनका काल वो.नि ६००-६५० निर्धारित किया गया है। इसलिये इन बज्रयशके विषय में भी एक संक्षिप्त सी जानकारी प्राप्त कर लेनी
उचित है। तिल्लोयपण्णतिमें इन्हें अन्तिम प्रज्ञाश्रमण कहा गया है। 'पण्णसमणेस
चरिमो बइरजसो णाम ओहिणाणीमु' (ति प. ४/१५८०)। श्वेताम्बराचार्य श्रीधर्मघोष (वि.सं. १३२७) द्वारा स गृहीत जिस 'सिरिदुसमकाल-समणसंध-ययं' नामक पट्टावलीका इससे पहले आर्यमधुकी
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परिशिष्ट
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नन्दिसंघ विचार
चर्चा करते हुए उन्लेख किया गया है, उसमें इनका नाम 'बायरसेन' के रूप में नागहस्तिसे पहले आता है और तदनुसार इनका समय भी बी. नि. ६१७-६२० निश्चित किया गया है। परन्तु कल्पसूत्रको स्थविरावली में 'अज्जवइर' नामके दो आचार्योंका उल्लेख प्राप्त होता है। दोनों परस्परमें गुरु शिष्य कहे गए है। 'अज्जवइर प्र०' का काल वी.नि ४६८-५८४ और 'अज्जवइर द्वि.' का वी. नि, ६१७-६२० बताया गया है। इन दोनोके पहले आर्यमनु का नाम आता है और उनके अनन्तर नागहस्तिका (ती २/७५-७६)। उपर्युक्त आयरसेन तथा इस अज्जवइर द्वि. का काल समान देखकर यह अनुमान होता है कि ये दोनों एक ही व्यक्ति थे। परन्तु पहली पट्टावलीमें आयरसेनसे पहले नामहस्तिका नाम आता है और द्वि. में दोनों अज्जवइरसे पहले आर्यमधुका नाम है। पहली में आर्यमक्षुका नाम नहीं है और दूसरीमें नागहस्तिका । दूसरी ओर तिल्लोय पण्ण तिमें जिन्हे अन्तिम प्रज्ञा. श्रमण कहा गया है वे यतिवृषभके दादा गुरु अर्थात् नागहस्तिके गुरु ये 'बज्जवइर' द्वि. ही प्रतीत होते है। इसलिये यहाँ इन दोनोसे पहले जो आर्यमक्षुका नाम दिया गया है वह विचारणीय हो जाता है, क्योंकि उपर्युक्त कालोंके अनुसार उनका काल वी. नि ४६७ प्राप्त होता है (तो, २/७६) जबकि इनका काल वी. नि.६००-६५० निर्धारित किया जा चुका है । इस विप्रतिपक्तिका समाधान प्राप्त करने के लिये हम कह सकते है कि अज्जवर की भाँति आर्यमंक्षु नाम के व्यक्ति भी दो हुए हों यह बात असम्भव नही है। यहाँ जिनका उल्लेख किया गया वे आर्यमा प्रथम हो और वहां जिनका उल्लेख किया गया है वे द्वितीय हों। ५. यतिवृषभाचार्य आप आयमंक्षुके शिष्य तथा नागहस्तिके अन्तेवासी कहे गए है। इनके द्वारा प्राप्त आ० गुणधरदेव के 'पेज्जदोसपाहु' विषयक ज्ञानको इन्होने ही ६००० चणि सूत्र रचकर 'कषाय पाहुड' के रूपमे लिपिबद्ध किया था। (दे. शीर्षक न०३)। इसके अतिरिक्त 'तिग्लोयपण्णति' भी आपका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। निम्न साक्ष्योको समक्ष रखकर विद्वानोंने आपके काल का सुनिश्चित अवधारण किया है(१) वी.नि ६८ में विद्यमान आ नागहस्ति के आप अन्तेवासी
थे। (२)-बी नि. ६६३ ६८३ में विद्यमान आ. भूतबलिकृत षट्खण्डागममें कषायप्राभृतके अनेको ऐसे अभिमतोका उल्लेख है जिन्हे धवलाकार श्री वीरसेन स्वामीने तन्त्रान्तर कहा है। (३)सर्वार्थ सिद्धि (वि. श६, श्री. नि. श १०) और विशेषावश्यक भाष्य (वि.६०६, बी, नि.११३६) में आपके अभिमतोंका उल्लेख प्राप्त होता है। (४) वि. ५१५ (वी.नि १८५) में रचित आ० सर्वनन्दिके 'लोक विभागका उल्लेख तिल्लोयपण्ण तिमें पाया जाता है । (५) तिल्लोयपण्णतिमें धर्मव्युच्छित्तिका काल २०३१७ वर्ष पश्चात होना कहा गया है। (ति. प. ४/१४६३) जिसका अर्थ यह होता है कि २१००० वर्ष प्रमाण पञ्चम कालमें से ६९३ वर्ष बीत जाने के समय आप विद्यमान थे (६) तिल्लोय पण्ण तिमें बीर निर्वाण के १००० वर्ष पश्चाद तकके राजाओका मुनिश्चित काल दिया गया है। (ति प ४/१४६६१५०६)। इन सकल साक्ष्योंपर से दो परिणाम प्राप्त होते है। आद्य तीनके आधारपर
आपका काल आ नागहस्ति (वी, नि, ६२०) से लेकर भूतबलि (वी नि. ६८३) तक कहीं होना चाहिये । अत' हम आपको वी. नि, श.. अथवा वि. श ३ के पूर्वार्ध में स्थापित कर सकते है। परन्तु उपान्त तीन साक्ष्योंपरसे कुछ विद्वान् आपको वि.श.५-६ में कषिपत करते है। इन दोनों कालोंके मध्य इतना बडा अन्तराल है कि किसी एकका त्याग करने के लिये माध्य होना पडता है। तहाँ आद्य तोन साक्ष्य इतने प्रबल है कि उनका त्याग किसी प्रकार भी सम्भव नहीं। इस
लिये उपान्त तीनके त्यागके लिये समुचित समाधानका अन्वेषण करना चाहिये। डा. ज्योतिप्रसादजीने ऐतिहासिक साक्ष्यके आधारपर राजाओ के कालकी चर्चा करनेवाली गाथाओको किसी अन्य व्यत्तिके द्वारा प्रक्षिप्त मान कर छोड दिया । (ती २/८६)। इसी प्रकार चतुर्थ प्रमाणके त्यागमें भी यह हेतु दिया जा सकता है कि तिल्लोयपणतिमें यतिवृषभने जिस लोक विभागको चर्चा की है वह वास्तव में सर्वनन्दि कृत ग्रन्थ नहीं है, प्रत्युत 'लोक विभाग' विषयक वह ज्ञान है जो कि आचार्य परम्परा द्वारा नागहस्तिको और उनके पाससे इनको प्राप्त हुआ था। इस प्रकार यतिबृषभाचार्यका काल वी नि,श ७, वि श ३ का पूर्वार्ध, और ई श २ का उत्तरार्ध हो समुचित प्रतीत होता है । (तदनुसार इन्हे वी नि ६७०-७००, वि २००-२३०, ई. १४३-१७३ में स्थापित किया जा सकता है। अपने तिल्लोयपणति ग्रन्थमें आचार्य यतिवृषभ ने स्वयं धर्मको व्युच्छित्तिका काल २०३१७ वर्ष पश्चात् होना कहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि २१००० वर्ष प्रमाण पचम कालके (२१०००-२०३१७-६८३ वर्ष बीत जानेके समय आप विद्यमान थे। भगवान् वीरका निर्वाण पचम काल प्रारम्भ होनेके ३ वर्ष ८ मास पहले बताया गया है (दे महावीर)। इस प्रकार भी आपका काल (६८३+३ वर्ष ८ मास) ६८६ वर्ष ८ मास अर्थात वी. नि ६७०-७०० प्राप्त होता है। परिशिष्ट४-(नन्दिसंघ विचार)
१. चार संघोंकी स्थापना अब तकके कथनपर से यह अवधारण हो गया कि भगवान् वीरके निर्वाणके पश्चात् गौतम गणधरसे लेकर अर्ह वलि तक उनका मूल संघ अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। आ अहं बलिके युगमे आकर यह सघ ज्ञानका अत्यन्त ह्रास हो जाने के कारण धीरे-धीरे विघटित होना प्रारम्भ हो गया और इसका स्थान अनेको अवान्तर सधोने ले लिया। आचार्य अर्हडलिके विषयमे यह बात सर्व प्रसिद्ध है कि पचवर्षीय युग प्रतिक्रमणके समय उन्होने दक्षिण देशस्थ महिमा नगर (जिला सतारा) में एक महात् यति सम्मेलन किया था, जिसमे १००-१०० योजनके यति आकर सम्मिलित हुये थे। उनमें अपने शिष्योके प्रति कुछ पक्षपातकी बू देखकर आ अह लिने अनेक संघों में विभाजित करके मूलसघकी सत्ता समाप्त कर दी । यद्यपि आचार्य बरके द्वारा संस्थापित संघों में नन्दिस घ आदिका नामोल्लेख भी किया गया है, तथापि सामान्य कथन होनेसे इस बातको सिद्धि नहीं होती कि इन सारे संघोंकी स्थापना उन्होने उसी समय की थी। हो सकता है कि इससे पहले भी अत्यन्त योग्य अपने शिष्योकी अध्यक्षतामे वे अनेक संघोकी नौंव डाल चुके हो। इससे पहले हम यति सम्मेलन की चर्चा करते हुये यह बात सिद्ध कर चुके है कि सिहसंघ, नन्दिसंघ, सेन या वृषभ सघ और देवसंघ इन चार सघों की स्थापना यति सम्मेलन वालो घटनासे बहुत पहले वी. नि. ५७५ मे उस समय हुई थी जबकि अपने चार अत्यन्त योग्य तथा समर्थ शिष्योको परीक्षा करनेके लिये उन्होने उनको पृथक्-पृथक् विकट स्थानों में वर्षायोग धारण करनेका आदेश दिया था। वर्षायोग समाप्त हो जानेपर उनकी सामर्थ्य से सन्तुष्ट होकर उन्होने उन चारोंकी अध्यक्षतामे पृथक्-पृथक् उक्त चार सधोकी स्थापना की थी। तहाँ नन्दि वृक्ष जिसकी छाया कुछ भी नही होती है उसके नीचे वर्षायोग धारण करनेवाले शिष्यको नन्दिकी उपाधि प्राप्त हुई और उसकी अध्यक्षतामे जिस संघकी स्थापना की गई उसका नाम नन्दिसघ पड़ा। तृणतल मेंवर्षायोग धारण करनेवाले शिष्यको वृषभकी उपाधि प्राप्त हुई और उसका संघ वृषभ संघ कहलाया। इसी प्रकार सिंहको गुफामें जिसने वर्षायोग धारण किया उसके सघका नाम सिहसंघ
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परिशिष्ट
और देवदत्ता नामक वेश्याके नगर में वर्षायोग धारण करनेवाले के संघका नाम देवसंघ पडा । (दे परिशिष्ट २/८)
२. नविसंघ बलात्कार गण
उस
नन्दिवृक्ष के नीचे वर्षायोग धारण करनेवाले ये तपस्वी हमारे प्रसिद्ध मानन्दि आचार्य के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है, जिनकी चर्चा पहले की जा चुकी है (दे. परिशिष्ट २/१) । इनके नामके साथ लगी हुई नदि उपाधिके कारण ही उनके इस सघका नाम नन्दिसंघ पड गया है। इस सबकी एक पट्टावली प्रसिद्ध है जिसमें आचार्यों का पृथकपृथक् काल निर्देश किया गया है और इसलिये वह इतिहासज्ञों के लिये बड़े महत्व की वस्तु है । यद्यपि इस पट्टावली के कर्ता भी वही इन्द्रनन्दि है जिन्होने कि मूलसघकी पट्टावलीका संकलन किया है। और इन दोनो पट्टावलियोको अपने श्रुतावतार में एक साथ निबद्ध किया है। परन्तु गौतम गणधर लेकर हृतमसि तक्के ६८३ वर्षोंकी गणना जिस प्रकार उन्होने वीर निर्वाणकी अपेक्षासे की है, प्रकार इस पट्टावली में नहीं की है। 'बीरात् ४६२ विक्रमजन्मान्तर वर्ष २२, राज्यान्तर वर्ष ४' अर्थात् वीर निर्वाणके ४६२ वर्ष पश्चात् अथवा विक्रम जन्मके २२ वर्ष पश्चात् अथवा उसके राज्याभिषेक से ४ वर्ष पश्चात श्री भद्रबाहु स्वामी (द्वितीय) हुये । इतना कहकर उनका काल २२ वर्ष, गुप्तिगुप्तका १० वर्ष माघनन्दिका ४ वर्ष इत्यादि - इस प्रकार आचार्योंका काल निर्देश कर दिया गया इस परसे यह स्पष्ट है इन्द्रनन्दिने आचार्योंके काल गणना, यहाँ विक्रमके राज्याभिषेककी वी नि ४८८ में घटित मानकर उसकी अपेक्षा को है। इसलिये एक आचार्य के द्वारा रचित होते हुये भी दोनो पालियों दिये गये काल परस्पर में मेल खाते तो नहीं होते। इस संगतिको बैठानेके लिए यहाँ दोनो पट्टावलियोका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है ।
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१ पट्टावली में आचार्योंका जो काल दिया गया है। उसकी गणना विक्रम राज्यको वोनि ४८८ में मानकर की गई है, जबकि विद्वानों ने इस मान्यताको भान्ति पूर्ण सिद्ध किया (वे परिशिष्ट १) । २ इसमें भद्रबाहु द्वितीय तथा दलित) के नाम सम्मिलित कर दिये गये है, जबकि संघ के साथ परम्परा गुरुके अतिरिक्त इनका अन्य कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हे नमस्कार करके पट्टावली वास्तव में मानन्दि से प्रारम्भ की गई है । ३. इन दोनो के मध्य लोहाचार्यका नाम छोड़ दिया है जिनका काल की पारी में ५० वर्ष दिया गया है । इसका कारण सम्भवत यह रहा हो कि आगे-पीछे बालेको नमस्कार हो जाने पर मध्यवर्तीको वह स्वय प्राप्त हो जाती है । ४. अर्हलि (गुप्तिगुप्त) का काल यहाँ वी नि ५६५ से ५७५ तक केवल १० वर्ष दिया गया है जबकि उक्त पट्टावली में वह ५६५ से ५६३ तक २८ वर्ष दिया गया है। इसका हेतु यह हो सकता है कि यहाँ उनका आचार्यत्व काल दिया गया है और वहाँ जीवन काल । वी नि. ५७५ में मूल संघका विघटन होनेके साथ आपका आचार्यश्व समाप्त हो जाता है परन्तु जीवन समाप्त नहीं होता है। वह वी नि. ४१३ तक चलता रहा है । ५ माघनन्दिका काल यहाँ वी नि ५७५ से ५७६ तक केवल चार वर्ष दिया गया है, जबकि वहाँ ५६३ से ६१४ तक २१ वर्ष दिया गया है। इसका कारण सम्भवत यह रहा हो कि इनके जीवनकी एक प्रसिद्ध घटनाके अनुसार पट्ट-प्राप्ति के कुछ काल पश्चात् ये चारित्र से भ्रष्ट हो गये थे और कुछ दिनोके या १-२ महीने के पश्चात् दीक्षित होकर अपनी ज्ञान गरिमाके कारण पुन आचार्य पदपर प्रतिष्ठित हो गए थे (दे परिशिष्ट २/१) यहाँ केवल भ्रष्ट होनेसे पहले वाला काल दिया गया है, पुन प्राप्त आचार्यत्व का द्वितीय काल नहीं दूसरी ओर इनकी पूर्ण नहीं है। मह वास्तव में बीनि ५७५ में नन्दि संघकी स्थापनासे प्रारम्भ होती है । सारणी में दो गई यह पूर्वावधि वास्तव में इनके पूर्ववर्ती लिकी उत्तरावधि है जो इन्हे पूवधिके रूप में प्राप्त हो गई है। (निरोष है
·
नन्दिसंघ विचार
परिशिष्ट २/१) । ६ इन सब बातोंको ध्यान में रखकर यदि इन तीनके कालका निर्णय किया जाये तो विक्रम राज्यको वी. नि ४८८ में माननेवाली आ इन्द्रनन्दिकी उक्तिके अनुसार भी इनका काल मूलसंघकेसाथ सर्वथा मिल जाता है । १ वर्षका अन्तर रहता है जिसे दूर करनेके लिये भद्रबाहूके काल में १ वर्षकी वृद्धि की जाती है।
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इस प्रकार तीन आचार्योंके कालकी संगति बैठ जानेपर भी कुन्दकुन्द तथा उमास्वामीके कालके साथ इसकी संगति नहीं बैठती है इस आपत्तिको दूर करनेके लिये बन्दी यहाँ निर्दिष्ट कालको विक्रमके राज्याभिषेकसे न मानकर शक संवत् माननेका सुझाव देते है (स.सि / प्र ७८ ) । ऐसा करनेसें यद्यपि कुन्दकुन्द तथा उमास्वामी के साथ दो संगति बैठ जाती है. परन्तु प्रथम सीनका काल गडबडा जाता है जिसके समाधानमे परिद गए इस श्लोक की याद दिलाते है- "गुणधरधरसेनान्वय मुर्वीः पूर्वा परक्रमोऽस्माभि न ज्ञायते ।१३१। इसके अनुसार मूलसघकी पट्टावली (दे, इतिहास ४/४ ) में आप यशोबाहु तथा भद्रबाहु द्वि के मध्य ३-४ नाम और जोड देनेका सुझाव देते है, परन्तु ऐसा करने से आ घरसेन आदिका काल गडबडा जाता है, इसलिये इसका कोई अन्य ही उपाय सोचना चाहिये । पट्टावली में कुन्दकुन्दका काल वि. राज्य संवत् ४६ १०१ दिया गया है जो वीनि ४८८ बाली उक्त मान्यता के अनुसार वो. नि. ५३७५६ आता है जबकि शक संवत्की अपेक्षा वह वी नि ६५४७०६ प्राप्त होता है। दोनोमें ११० वर्षका अन्तर है। इसमें से लोहाचार्य बाले ५० वर्ष घटा देनेपर ६७ वर्ष रहते है। माषनन्दिका ५०६ से ६१४ तकका ३५ वर्ष प्रमाण द्वितीय आचार्यत्व काल जोड लिया जाये तो यह अन्तर संकुचित होकर केवल ३१ वर्ष रह जाता है। इसे यदि जिनचन्द्र के १ वर्ष प्रमाण काल में जोड़कर उनका आचार्यत्व काल ४० वर्ष बना दें तो यह अन्तर पट जाता है और इन्द्रनन्दिकी मान्यता शक संवत् वाली मान्यताके तुल्य हो जाती है । नीचेवाली सारणी में इन दोनो दृष्टियोका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है ।
संकेत - प्र. दृष्टि - विक्रम राज्यको शक संवत् मानकर । द्वि दृष्टिविक्रम राज्यको वीनि ४८८ में मानकर १ वर्षकी यथोक्त वृद्धिके साथ भद्रा कालकी गति बैठा सेनेके उपरान्त उसमें क्रमशः अगले अगलेका आचार्यत्व काल जोडते जाना और साथ साथ उस आचार्यत्व काल में यथोक्त वृद्धि भी करते जाना ।
प्र दृष्टि द्वि दृष्टि विरा. बी.नि. काल बी.नि. ४-२६६०६-६३१ २२ ४२-५१४
विशेषता
१ २९४-५१६ के समान २०२१-२६५ २६-२६६३१-६४१ १० २६५-५७५ १८ २७५-५१३
नाम
भद्रबाहु २
लोहाचार्य
( मायनन्दिप्र. आचार्यत्व ३६ ४० ६४१-६४५ ४ ५७५-५७६ द्वि. २५ २०१६९४ ४०४ ६४५-६५४ १६९४-८२३ ३९ २३-६४४ काल वृद्धि
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पद्म नन्दि
कुकुन्द४६ १०१ ६४४-००६ उमास्वामी १०१-१४२००६-०४०
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नन्दिसंपत्ति तक यति सम्मेशन तक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भ्रष्ट होने से पहले न दीक्षाके माद
५२ २६४-७०६ ४९ ७०६-४०
२३ ७४७ - ७७० | जैन इतिहासानुसार
लोहाचार्य १९४२-१५२७४०५८ आगे हि दृष्टिका प्रयोजन समा
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परिशिष्ट
३. जिनचन्द्र
मन्दिसंपकी पट्टानहीमें उल्लिखित आचायोंमें से भगा द्वि तथा माघनन्दि विषयक विचार परिशिष्ट २ में कर लिया गया। माघनन्दिके पश्चात कुन्दकुन्दके गुरु आ, जिनचन्द्रका नाम आता है । विद्वद्वसमाज में भी आप कुन्दकुन्दके गुरु स्वीकार किये गए हैं । (दे. कुन्दकुन्द) पट्टावली के अनुसार आपका काल वी. नि. ६१४-६२३ आता है परन्तु कुन्दकुन्दके कालके साथ संगति बैठानेके लिये पट्टकालमै ३१ वर्ष जोडकर इनकी उत्तरावधि ६२३ की बजाय ६५४ कल्पित कर ली गई है। इसलिये भले ही इनको उस राधिके विषय में हमें सन्देह वर्तता हो नि इनकी पूर्वावधि मी. नि. ६१४ विषयमें हमें अम अधिक सन्देह नहीं रह गया है। यहाँ एक विप्रतिपत्ति उत्पन्न होती है। श्वेताम्बर संपर्क आदि प्रवर्तकका नाम भी जिनचन्द्र कहा गया है और उनका काल भी लगभग यही बताया गया है, क्योंकि उनके द्वारा श्वेताम्बर सघकी यह स्थापना वि. सं. १३६ (बी नि ६०६) में बताई गई है। इनके दादा गुरु भद्रबाहु गणो बढाये जाते हैं और गुरुशान्यथाचार्य जिनकी या करके कि ये श्वेताम्बर पी बने थे (दे श्वेताम्बर दूसरी ओर कुन्दकुन्दके गुरु जनयन्द्रका उल्लेख यहाँ किया जा रहा है उनके भी दादा गुरु नहीं तो पडदादा गुरु अवश्य भद्रबाहु ही थे। इस परसे यह सन्देह होता है कि ये दोनों एक ही व्यक्ति थे। परन्तु कृ कुन्द जैसे महान आचार्यके गुरु ऐसे पोर कर्मी हों मे बाद गले नहीं उतरती। दोनोंके गुरु भी हैं। इस विषय निश्चित रूपसे कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि कुन्दकुन्दके विषय में यह मात प्रसिद्ध है कि इनका श्वेताम्बरोके साथ बहुत बडा शास्त्रार्थ हुआ था। जिसमें उन्होंने सरस्वती की मूर्ति से यह बात कहला दी थी कि दिसम्बर मत प्राचीन है (दे.) इससे यह अनुमान होता है कि अवश्य ही इनके गुरुने इनसे श्वेताम्बर सधके जन्म तथा शैथिक पर्चा की होगी और उस संघकी ओरसे इनके गुरुके प्रति कुछ दुर्व्यवहार हुआ होगा ।
यद्यपि इस विषय में विद्वानोंने चर्चा करना आवश्यक नहीं समझा है तदपि इस स्थल पर उसकी चर्चा करना मुझे आवश्यक प्रतीत होता है। इस विषय में यहाँ विचारकोंके समक्ष एक क्लिट कल्पना प्रस्तुत करता हूँ जिसको युक्तता अथवा अनुयुक्तता के विषय में मुझे कुछ भी आग्रह नहीं है। बहुत सम्भव है कि ये दोनों एक ही व्यक्ति हो । भद्रबाहु के काचा जो भाग दक्षिणको ओर न जाकर उज्जैनीमें रुक गया था उसने परिस्थिति से बाध्य होकर अर्धफालक संघका रूप धारण कर लिया था जो वि. सं. १३६ तक उसी रूपमें विचरण करता रहा (दे. श्वेताम्बर) हो सकता है। किवि. सं १२६ मे इस आचार्य शान्त्याचार्य हो और उनके शिष्य जिनचन्द्र हो । शान्त्याचार्य ने जब संघसे प्रायश्चित पूर्वक अपना स्थितिकरण करने की बात कही तो इन्होने कुछ षड्यन्त्र करके उन्हें मरवा दिया और बेधडक होकर अपना शैथिव्य पोषण करनेके लिये सांगोपांग श्वेताम्बर संघकी नींव डाल दी । यद्यपि उस समय नासनासे प्रेरित होकर इन्होंने यह पोर अनर्थ कर डाला तदपि ब्रह्महत्याका यह महापातक इनके अन्तष्करणको भीतर ही भीतर जलाने लगा। बहुत प्रयत्न करने पर भी जब वह शान्त नहीं हुआ तो ये दिगम्बर संघकी शरण में आये क्योंकि अपनी ज्ञान गरिमा तथा तपश्चरण के कारण उस समय आ. माघनन्दिका तेज दिशाओं विदाशाओं में व्याप्त हो रहा था। गुरुके चरणोंमें लोटकर आत्मग्लानिसे प्रेरित हो आपने अपने दुष्कृत्यको घोर ना की और खुले हृदयसे आलोचना करके उनसे प्रायश्चित देनेके लिये प्रार्थना की। मित्र शत्रुमें समचित्त परमोपकारी गुरु ने उनके हृदयको शुद्ध हुआ देखकर उन्हें समुचित प्रायश्चित दिया और उन्हें पुन दीक्षा देकर अपने
नन्दिसंघ विचार
संघ सम्मिलित कर लिया। ५-६ वर्ष पर्यन्त उग्र तपश्चरण करके जिनचन्दने अपनी समस्त कालिमायें धो डाली और जिनेन्द्र के समीचीन शासन में चन्द्रकी भाँति उद्योत फैलाने लगे । सक्ल संघ के साथ अपने गुरुके भी वे विश्वासपात्र बन गए बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि ब्राह्मण इन्द्रभूति भगवान् महावीरके। गुरु प्रवर भाषनन्दिने स्वयं अपने ही नि१४ में उन्हें संपर्क पट्टपर आसीन कर दिया और उनकी छत्रछायामें सकल संघ ज्ञान तथा चारित्रमें उन्नत होने लगा । इस घटनाके ८-६ वर्ष पश्चात् बी. नि. ६२३ में कुन्दकुन्दने उनसे दोहा धारण की।
दिगम्बर संघके आचार्य बन जानेके कारण अवश्य ही इनके ऊपर श्वेताम्बर संघकी ओरसे कुछ आपत्तियें आई होंगी जिन्हें इन्होंने समता सहन किया। परन्तु शिष्य होनेके नाते कुन्दकुन्द उसे सहन न कर सके और आचार्य पदपर प्रतिष्ठित होते ही श्वेताम्बर सके इस अनीति पूर्ण दुव्यवहारको रोकने तथा अपने संपकी रक्षा करनेके लिये उन्होंने उसके साथ मुंहदर मुंह होकर शास्त्रार्थ किया । कुन्दकुन्द के तप तथा तेजके समक्ष वह संघ टिक न सका और लज्जा तथा भय वश उसे अपनी प्रवृत्तियें रोक लेनी पडी।
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४. उमास्वामी (गृढपिच्छ) पट्टावली में जिनचन्द्र पाचाद] कुन्दकुन्दका और उनके पश्चात् पिच्का नाम आता है। कुन्दकुन्दके विषय में विस्तृत चर्चा द्वितीय खण्ड में यथास्थान निबद्ध है, पुन. उसका उल्लेख यहां करना न्यायविरुद्ध है। इनके शिष्य के विषयमें कुछ मनकारी देना अवश्य यहाँ प्रयोजनीय है। इनका नामोल्लेख नन्दिसंघ के बलात्कारगण तथा देशीयगण दोनों ही गणोंमें प्राप्त होता है । मलाकार वाली पूर्वोक्त पट्टावली में इनके शिष्य लोहाचार्य तु मताये गए हैं और देशीयगण में बलाकपिच्छ । इससे यह जाना जाता है कि आपके दो शिष्य थे । उनमेंसे लोहाचार्य तृ बलात्कार गणके आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए और माकपा अध्यक्षता में इस संघका देशीयगण उत्पन्न हुआ जो आगे जानेपर पुन दो शाखाओं में विभा जित हो गया-गुणनन्द शाला और गोताचार्य शाखा ।
(दे. इतिहास ७ / ९.५)
१ नाम
निम्न उद्धरणोंसे पता चलता है कि आपका असली नाम उम्रास्वामी था और किसी एक विशेष घटनाके कारण गृद्धपिकी उपाधि आपको प्राप्त हो गई थी। आप ही दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों आम्नायोंमान्य तत्त्वार्थ सूत्र कर्ता हैं ।
घ. ४/१५.२/३१६ तह गहिरियप्पासिदचत्यमुत्ते विनापरिणाम क्रियाः परत्वापरे च कालस्य दिव्यालोपरुविदो गूढ पिच्छाचार्य के द्वारा प्रकाशित तत्त्वार्थसूत्रमें वर्तमापरिणाम किया परत्वापरत्वे च कालस्य' कह कर द्रव्यकालकी प्ररूपणा की गई है। श्ल.वा./मू./पृ. ६ एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता । - इसपरसे गृद्धपिच्छाचार्य पर्यन्त मुनिसूत्र के द्वारा व्यभि चार निरस्त कर दिया गया।
तत्वार्थ सूत्रकी अनेक प्रतियोमे उपलब्ध अन्तिम पद्य-तरवार्थ करार गृच्छक्षित वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमायामीमुनीधरम् ।गौतम गणधरकी परम्परामै प्राप्त तत्वार्थ सूत्रके कर्ता उमास्वामीको मै प्रणाम करता जो गृद्धपिच्छके नाम से उपलक्षित किये जाते हैं । पार्श्वनाथ चरित (वादिराज कृत) १/१६ अतुच्छ गुणसम्पातं गृद्धपिच्छ तोऽस्मि तम् । पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः ॥ आकाशमै उडनेकी इच्छावाले पक्षी जिस प्रकार अपने का सहारा देते हैं, उसीप्रकार मोक्षरूपी नगर को जानेके लिए भव्यलोग जिस मुनीश्वरका सहारा लेते है उस महामना अगणित गुणोंके भण्डारस्वरूप पिच्छ नामक मुनिराज के लिये मेरा सविनय नमस्कार है।
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________________ परिशिष्ट नन्दिसंघ विवार कुछ निद्वात् तत्त्वार्थ सूत्रका क्र्ता कुन्दकुन्दको मानते है, परन्तु विस्तृत समीक्षा कर के पं0 जुगल किशोर जी मुख्तारने इस मतका निराकरण किया है। (दे. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश / पृ. 102-105), (ती. 2 / 147) 3. अन्य परिचय प्रेमी जी आपको यापनीय सघका कम्पित करते है (घ 17.56HL. Jain), परन्तु प. कैलाश चन्द जी को यह मत मान्य नहीं है। (जे. 20234). आप कुन्दकुन्दके शिष्यथे और इनके शिष्य बलाक पिच्छ थे। (दे. इतिहास 711.5), (उपर्युक्त शिलालेख सं. 105) / इसलिये तत्त्वार्थसूत्रमें आपने कुन्दकुन्द के चास्तिकाय नियमसार आदि ग्रन्थोंका अनुसरण किया है (जै 2/263-264), (ती. 2/156) / आपकी आयु 84 वर्ष और आचार्यकाल 40 वर्ष 8 मास है / (ती.२ इनके अतिरिक्त श्रवणबेलगोल से प्राप्त शिलालेख सं.४०,४२,४३,४७.५०. 105.106 में उमास्वामीका अपर नाम गृद्वपिच्छ पाया जाता है और एक अभिलेखमें इस उपाधिके सार्थक्य की भी चर्चाकी गई है। (दे. शिलालेख संग्रह | भाग 1) शिलालेख सं 108/1210-211 अभूतुमास्वातिमुनि, पवित्र बंशे तदीये सकलार्यवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थ जातं मुनिपुङ्गवेन / स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृध्रपक्षान् / तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृपिच्छम् / शिलालेख सं.४३/प्र.४३ अभूदुमास्वातिमुनिश्वरोऽसावाचार्य शब्दोत्तरगृ पिच्छ ।तन्वये तत्सद्वशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थ वेदीआचार्य कुन्दकुन्द के पवित्र वशमे सकलार्थ के ज्ञाता उमास्वाति मुनीश्वर हुए, जिन्होंने जिनप्रणीत द्वादशाङ्गवाणीको सूत्रोंमें निबद्ध किया। इन आचार्यने प्राणिरक्षाके हेतु गृहपिच्छोको धारण किया। इसी कारण वे गृधपिच्छाचार्य के नामसे प्रसिद्ध हुए। शिलालेख सं. 105/5. 118 श्रीमानुमास्वातिरय यतीशस्तत्त्वार्थसूर्य प्रकटीचकार ।यन्मुक्तिमार्गाचरणोधताना पाथेयमाध्यं भवति प्रजाना॥ तस्यैव शिष्योऽजनि गृद्धपिच्छ-द्वितीयसंज्ञस्य बलाकपिच्छ / यरसूक्तिरत्नानि भवन्ति लोके मुक्तयङ्गनामोहनमण्डनानि ।-तियोंके अधिपति श्रीमान् उमास्वातिने तत्त्वार्थ सूत्रको प्रगट किया, जो माक्षमार्गके आचरण में उद्यत मुमुक्षुजनों के लिये उत्कृष्ट पाथेय है। उन्हींका गृद्धपिच्छ दूसरा नाम है। इनके एक शिष्य बलाकपिच्छ थे। जिनके सूक्तिरत्न मुक्ति अंगनाके मोहन करनेके लिये आभूषणोंका काम देते है। 2. तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता उक्त प्रकार दिगम्बर साहित्य तथा अभिलेखीका अध्ययन करनेसे यह ज्ञात होता है कि तत्वार्थ सूत्रके रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य, अपर नाम उमास्वामी या उमास्वाति है। इस परसे श्वेताम्बर विद्वान पं. सुखलाल जी अपनी तत्वार्थसूत्र (विवेचन) की प्रस्तावनामें तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृवपिच्छ उमास्वामी को न मानकर वाचक उमास्वातिको मानते है। परन्तु उनका यह कहना घटित नहीं होता क्योंकि वाचक उमास्वातिके द्वारा रचित श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थाधिगम नामक शास्त्र वास्तवमे तवर्थिसूत्र न होकर उसका भाष्य है। इसलिये वे इन उमास्वातिसे भिन्न है / (ती. 2/148,151), (जै 2/228,244) 4. समय नन्दि संघकी पट्टावली में इनका समय विक्रम राज्याभिषेक को बीर निर्वाण 488 में मानकर उसके 101 वर्ष पश्चात प्रारम्भ किया है। जिसके अनुसार वह वी. नि. 581-630 प्राप्त होता है / परन्तु विद्वज्जनबोधकके निम्न पदपरसे वह निश्चित रूपसे वी.नि. 770 (वि. 300) बताया गया है। विद्वज्जनांधक-वर्षसप्तशते चैव सप्तत्या च विस्मृती। उमास्वामिमुनि जर्जात कुन्दकुन्दस्तथैव च / - वीर निर्वाण संवत 770 (वि. 300) में उमास्वामी मुनि हुए और उसी समय (इससे कुछ पूर्व) कुन्दकुन्दाचार्य भी हुए / (स. सि /--.78 // 1. फूलचन्द) (ती. 2/152), (जै. 21280) (तत्त्वार्थाधिगम /प्र 5/ प्रेमी जी)। डा उपाध्येयने कुन्दकुन्दका काल ई.श 1 सिद्ध किया है / उमास्वामीको इससे कुछ पश्चात होना चाहिये / इसलिये इन्हे हम ई श. 1 के अन्तिम चरण और ई श 2 के प्रथम चरण में प्रतिष्टित कर सकते है। ती 2/153) / प, कैलाशचन्द जी ने विद्वज्जनबोध के अनुसार इनकी उत्तरावधि बी.नि. 770 और पूर्वावधि वी.नि. 706 (कुन्दकुन्द की पूर्वावधि) मानकर इन्हे वी.नि 706 770 अथवा वि. श 3 के अन्त (ई. श 12 में स्थापित किया है / ) (जै.२/२७२) / तत्त्वार्थसुत्रके रचना कालपरसे भी इसकी पुष्टि होती है। (दे. तत्त्वार्थ सूत्र) समाप्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश