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________________ आहारक और भाव इन दोनो ही वेदोकी अपेक्षासे पुरुष वेद वालेके आहारक ऋद्धि होती है। (और भी दे. वेद / ६ / ३) ६. २/१.९/६८७/१ अत्पसत्यवेदेहि साहारियी ण उपजदिति । - अप्रशस्त वेदोके साथ आहारक वृद्धि नही उत्पन्न होते है (क.पा / पु३/२२/१४१६/२४९/१३) भ. २/११/१८९/६ आहार वेदगोदयस्स विरोहा-आहारक द्विक• -के साथ स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके उदय होनेका अभाव है । (गो जी./मू ७९५) .. ४. आहारक काययोगीको अपर्याप्तपना कैसे ध. २/१, १/४४१/४ सजदा संजदर ठाणे णियमा पज्जत्ता । आहार मिस्स कायजोगो अपज्जत्ताणं त्ति अणवगासत्तादो । अणेयंतियादोकिमेदेण जाणाविज्जदि । एद सुत्तमणिच्चमिदि । - प्रश्न- ( ऐसा माननेसे संयतार्थवत और सलोने स्थानमें जीव नियम से पर्याप्त होते है (यह सूत्र कि) “आहारक निकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है" बाधा जाता है। उत्तर इस सूत्र में अनेकान्त दोष आ जाता है ( क्योकि अन्य सूत्रोसे यह भी बाधित हो जाता है । ) प्रश्न- (सूत्र में पड़े इस नियम शब्दसे क्या शापित होता है। उत्तर- इससे ज्ञापित होता है कि यह सूत्र अनित्य है। वहीं प्रवृत्ति हो और कहीं प्रवृत्ति न हो इसका नाम अनित्यता है । ५. आहारक काययोगमें कथंचित् पर्याप्त अपर्याप्तपना • भ. १२/१.१.६०/२३०/६ पूर्वाभ्यस्तमस्तु विस्मरणमन्तरेण शरीरोपादानाद्वा दुखमन्तरेण पूर्वशरीरपरित्यागाद्वा प्रमत्तस्तदवस्थाया पर्याप्त इत्युप चर्यते । निश्चयनयाश्रयणे तु पुनरपर्याप्त । = पहले अभ्यास की हुई वस्तु के विस्मरण के बिना ही आहारक शरीरका ग्रहण होता है, या दुखके बिना ही पूर्व शरीर (ओदारिक) का परित्याग होता है, अतएव प्रमत्त सयत अपर्याप्त अवस्थामें भी पर्याप्त है, इस प्रकारका उपचार किया जाता है। निश्चय नयका आश्रय करने पर तो वह अप ही है। ६. आहारक मिश्रयोग में अपर्याप्तपना कैसे सम्भव है [घ] १/१,१.७० / ३१७/१० आहार शरीरयापक पर्याप्त संयतत्वान्यथानृपपते । तथा चाहार मिश्रकाययोगोऽष्टकस्येति न घटामटेदिति चेन्न, अनवगतसूत्राभिप्रायत्वात् । तद्यथा, भवत्वसौ पर्याप्तक औदारिकशरीरगतष्टपर्याप्त्यपेक्षया, बहारशरीरगततिनिय कोऽसौ पर्यापर्यात्वयोर्ने क्रमेण समो विरोधादिति चेन्न इतीहास कई न पूर्वोऽम्युपगम इति विरोध इति चेश, भूतपूर्व गतन्यायापेक्षया विरोधासिद्ध। ==प्रश्नआहारक शरीरको उत्पन्न करने वाला साधु पर्याप्तक ही होता है । अन्यथा उसके संयतपना नही बन सकता। ऐसी हालत में आहारक मिश्रकाययोग अपर्याप्त होता है, यह कथन नही बन सकता 1 उत्तर--नहीं, क्योंकि, ऐसा कहने वाला आगम के अभिप्रायको नही समझा है । आगमका अभिप्राय तो इस प्रकार है कि आहारक शरीरको उत्पन्न करने वाला साधु औदारिक शरीरगत छह पर्याप्तियोकी अपेक्षा पर्यातक भले ही रहा आये, किन्तु आहारक शरीर सम्बन्धी पर्वाधिक पूर्ण नहीं होने की अपेक्षा वह अपर्याप्त है। प्रश्न- पर्याप्त और अपर्याप्तना एक साथ एक जीवमें सम्भव नहीं, क्योकि एक साथ एक जीवमें इन दोनोके रहने में विरोध है 1 उत्तर- नहीं, क्योकि यह तो हमे इह हो है प्रश्न तो फिर हमारा पूर्व कथन क्यो न मान लिया जाये, अत आपके कथन में विरोध आता है। उत्तर--नहीं, क्योंकि भूतपूर्व न्यायकी अपेक्षा विरोध असिद्ध है। अर्थात औदारिक शरीर सबन्धी पर्याप्ने अपेक्षा आहारक मिश्र अवस्थामें भी पर्याप्तपनेका व्यवहार किया जा सकता है। Jain Education International 1 試 ७. यदि है तो वहाँ अपर्याप्तावस्थामें भी संयम कैसे सम्भव है ४. २/१.१७ / १२ / विनोदा रिकशरीरसंबन्धपरिनिष्ठि ताहारशरीरगत पर्याप्तस्य कथं सयम इति चेन्न रूयमस्यासपनिरोधलक्षणस्य मन्दयोगेन सह विरोधासि विरोध वा न केवलिनोऽपि समुद्धात गतस्य सयम तत्राप्यपर्याप्तयोगास्तित्व प्रत्यविशेषात् सदासदाने पियमा पत्ता इत्यनेनार्येण सह कथं न विरोध स्यादिति चेन्न द्रव्यार्थिकमयापेक्षया प्रवृत्त स्पाभिप्रायेणाहारारीरा निष्यत्यवस्थायामपि पीत्वा विरोधात । = प्रश्न - जिसके औदारिक शरीर सम्बन्धी छह पर्याशियों नष्ट हो चुकी है, और आहारक शरीर सम्बन्धी पर्याय अभी पूर्ण नहीं हुई हैं ऐसे अपराधिक साधुके संयम कैसे हो सकता है ? उत्तर--नहीं, क्योकि जिसका लक्षण आसवका निरोध करना है, ऐसे संयमका मन्द योग (आहारक मिश्र) के साथ होने में कोई विरोध नही आता है। यदि इस मन्द योगके साथ सयमके होनेमें कोई विरोध जाता ही है ऐसा माना जाने हो समुहघातको प्राप्त हुए केवलोके भी सयम नही हो सकेगा, क्योंकि वहाँ पर भी अपर्याप्त सम्बन्धी योगका सद्भाव पाया जाता है, इसमें कोई विशेषता नहीं है। प्रश्न -- 'संयतास यत से लेकर सभी गुणस्थानों में जीव नियम से पर्याप्तक होते है' इस आर्ट वचनके साथ उपर्युक्त कथनका विरोध क्यो नहीं आता ? उत्तर--नहीं, क्योकि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे प्रवृत्त हुए इस सूत्र के अभिप्रायसे आहारक शरीरकी अपर्याप्त अवस्थामें भी औदारिक शरीर सम्बन्धी पक्षियोंके होनेमें कोई विरोध नही आता है (२/१.१.१०/३२६/६) । आहार पर्याप्ति - दे. पर्याप्ति । आहार वर्गणादे वा वर्गणा 1 आहार संज्ञा दे संज्ञा । आहार्य विपर्ययदे वि आहुति मंत्र मंत्र २९८ (इ) इंगाल सतिका एक दोष देवखति। इंगिनी - दे, सल्लेखना ३ । इंद्र - १ प.पु. ७/ श्लोक | रथनूपुर के राजा सहस्रारका पुत्र था। रावणके दादा मालीको मारकर स्वयं इन्द्रके सदृश राज्य किया (८) फिर आगे रावणके द्वारा युद्धमें हराया गया (३४६-३४७) अन्तमें दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त किया (१०६) २ मगध देशकी राज्यवंशावली के अनुसार यह राजा शिशुपालका पिता और कल्की राजा चतुर्मुलका दादा था । यद्यपि इसे कल्की नही कहा गया है, परन्तु जैसा कि वंशावली में बताया है, यह भो अत्याचारी व कल्की था। समय वो, नि. ६५८-१००० (ई ४३२-४०४) वे इतिहास ३/४) २. लोकपास का एक मे लोकपाल १. इंद्र सामान्यका लक्षण = ति. १३/६५ इदा रायसरिच्छा | देवोमें इन्द्र राजाके सदृश होता है । ससि १/१४/१०८/३ इन्दतीति इन्द्र आत्मा । अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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