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त्यवगाहना
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१. अवगाहना सम्बन्धी प्ररूपणाएँ
४. देव गति सम्बन्धी प्ररूपणा
पूर्वी नाम कर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले और संस्थान नाम कर्मके १-३. भवनवासी, व्यन्तर व ज्योतिषी देवों को अवगाहना
उदयसे उत्पन्न होनेवाले सस्थानोके एकत्वका विरोध है। (विग्रह ४. कल्पवासी देवोंकी अवगाहना
गतिमें जीवोका आकार आनुपूर्वी नाम वर्मके उदयसे पूर्व भववाला * अवगाहना विषयक संख्या व अल्पबहत्व प्ररूपणाएँ
ही रहता है। वहाँ सस्थान नाम कर्मका उदय नही है। भव धारण
कर लेनेपर सस्थान भामकर्मका उदय हो जाता है, जिसके कारण -दे, वह वह नाम
नवीन आकार बन जाता है-दे. उदय ४/६/२)। १. अवगाहना निर्देश
४. जघन्य अवगाहना तृतीय समयवर्ती निगोदमें ही १. अवगाहनाका लक्षण
सम्भव है स सि १०/१/४७२/११ आरमप्रदेशव्यापित्वमवगाहनम् । तद्विविधम्- ध. ११/४,२,५.२०/३४/८ पढमसमय आहारयस्स पढमसमयत भवस्थस्स उत्कृष्टज पन्यभेदात् । आत्मप्रदेशमें व्याप्त करके रहना, उसका नाम जहण्ण रखेत्तसामित्त किण्ण दिज्जदे । ण, तत्थ आयरचउरस्सपखेत्तागाअवगाहना है । वह दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट ।
रेण द्विदम्मि अगाहणाए स्थोवत्ताणुववत्तीदो। विदियसमयआहा२. उत्कृष्ट अवगाहना वाले जीव अन्तिम द्वीप सागरमें रयविदि यसमयतम्भवत्थस्स जहण्णसामित्त किण्ण दिजदे । ण तरथ ही पाये जाते हैं।
समच उरससरूवेण जीवपदेसाणमबढणादो। विदियसमए विक्वंभ
समो आयामो जीवपदेसाणं हीदि त्ति कुदो णव्वदे। परमगुरूव देध,४/१,३,२/३३/४ सयपहपब्बयपरभागढियजीवाणमोगाहणा महल्लेत्ति
सादो। तदीयसमयआहारयस्स तदियसमयतब्भवत्थस्स चेव जहाणजाणावणमुत्तमेतत् । सयंपहणगिदपबदस्स परदो जहण्णोगाणा वि
खेत्तसामित्त किमट्ट' दिजदे। ण एस दोसो, चउर सखेत्तस्स चत्तारि जोवा अस्थि त्ति चे ण मूनग्गसयास काऊण अद्ध कदे धि सखेज्ज
वि कोणे सको डिव बट्टुलागारेण जीवपदेसाणं तत्थावट्ठाणदं सणादो। घण गुलदसणादो। स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें स्थित जीवो की
-प्रश्न-प्रथम समयवर्ती आहारक (अर्थात ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेअवगाहना सबसे बडी हातो है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह गाथा सूत्र है। प्रश्न-स्वयप्रभनगेन्द्र पर्वतके उस
वाला) और प्रथमसमयवर्ती तद्भवस्थ हुए निगोद जीवके जघन्य ओर जघन्य
क्षेत्रका स्वामीपना क्यो नही देते। उत्तर-नही, क्योकि, उस समय अवगाहनावाले भी जीव पाये जाते है। उत्तर-नही,क्योकि, जघन्य
आयत चतुरस्र क्षेत्रके आकारसे स्थित उक्त जीवमें अवगाहनाका अवगाहनारूपमूल अर्थात आदि और उत्कृष्ट अवगाहनारूप अन्त,
स्तोकपना बन नहीं सकता। प्रश्न-द्वितीय समयवर्ती आहारक इन दोनोको जोडकर आधा करनेपर भी संख्यात घनागुल देखे
और द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ होनेवाले जीवके जघन्य (क्षेत्रका) जाते है।
स्वामीपना क्यो नहीं देते। उत्तर--नहीं क्योकि उस समय भी ३. विग्रह गतिमें जीवोंको अवगाहना
जीवप्रदेश समचतुरस्र स्वरूपसे अवस्थित रहते है। प्रश्न-द्वितीय ध.४/१,३,२/३०/२ विग्गहगदीए उप्पण्णाण उजुगदीए उप्पणपढमसमय- समय में जीवके प्रदेशोका आयाम उसके विष्कम्भके समान होता है,
ओगाहणाए समाणा चेव ओगाहणा भवदि । वरि दोण्हमोगाहणाणं यह कैसे कहते हो । उत्तर-परमगुरूके उपदेशसे कहते है। प्रश्न-- सठाणे समाणत्तणियमो णत्थि । कुदो। आणुपुठिवस ठाणणामकम्मे हि तृतीय समवर्ती आहारक और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ निगोद जणिदसठाणाणमेगत्त वरोधा ।-विग्रहगतिसे उत्पन्न हुए जीवो के जीवके ही जघन्य क्षेत्रका स्वामीपना क्सि लिए देते हो ? उत्तर-यह
जुगतिसे उत्पन्न जीवोके प्रथम समयमें होनेवाली अवगाहनाके कोई दोष नहीं है, क्योकि, उस समयमे चतुरस्र क्षेत्रके चारो ही समान ही अवगाहना होती है। विशेषता केवल इतनी है कि दोनो कोनोको स कुचित करके जीव प्रदेशोका वर्तुलाकारसे (गोल आकारसे)
अवगाहनाओके आकारमें समानताका नियम नहीं है, क्योकि आनु- अवस्थान देखा जाता है। १. अवगाहना सम्बन्धी प्ररूपणाएँ १. नरक गति सम्बन्धी प्ररूपणा संकेत-ध.-धनुष; हा.-हाथ, अंगु.- अंगुल । गणना-१धनुष -४ हाथः १ हाथ-२४ अगुल ।
प्रमाण- (मू.आ. १०५५-१०६१), (स. सि ३/३/२०७). (ति प.२/२१५-२७०); (रा.बा.३/३/४/१६४/१५), (ह पु.४/२६५-३४०);
(ध ४/१,३,५४५८-६२), (त सा २/१३६), (त्रि सा.२०१), (म.पु.१०/६४), (द्र स.टो.३५/११६१८)-ध ४ के आधार परप्रथम पृथिवी । द्वितीय पृथिवी । तृतीय पृथिवी | चतुर्थ पृथिवो । पंचम पृथिवी | षष्ठ पृथिवी सप्तम पृथिवो ध. हा. अगु. ध ,हा. अगु. ध. हा अगुध हा अंगु...
घ. हा अगु. ८२ २-२/११
२०-४/७ | २२- ४/११ १-१/३ १७-१/७ १७-० | 8 | ३ |१८-६/११ २०
१३-५/७ २१-१/२ १४-८/११ २२
१|१०-१०/११ १८-१/२ ७- १/११ २६
३ ३- ३/११ २७ २-२/३ ११-१/२ १.२३-१/११ २६ २०-० -१६-७/११३१
१४ ३ १५-६/११
१६-०
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६-६/७
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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