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प्रधान सम्पादकीय
जैन आचार्यों और साहित्याकारोंने विभिन्न भाषाओंमें भारतीय साहित्यकी विविध विधाओंको अत्यधिक समृद्ध किया है । उन्होंने अपने जैन दर्शन और तर्क शास्त्र, जैन सत्त्वविद्या और पौराणिक कथा, जैन सिद्धान्त व नीतिशास्त्र तथा अन्य प्रबन्धों-कृतियों में मूल रूपसे जैनधर्मका सुन्दर प्रतिपादन किया है। जैन सिद्धान्तोंकी इस प्रस्तुतिमें उन्होंने बहुसंख्यामे ऐसे पारिभाषिक और विशेषार्थ गभित शब्दोंका प्रयोग किया है जिन्हें प्रायः संस्कृत और प्राकृत शब्दकोशोंमें नहीं देखा-खोजा जा सकता । अताव इस स्थितिमें धर्मद्रव्य, पुद्गल, अस्तिकाय, क्षपकवेणि आदि जैसे पारिभाषिक शब्दोंकी पृथक् परिभाषाएं और यथार्थ व्याख्याएं उपस्थित करना आवश्यक हो गया है। जब तक जैन साहित्यका अध्ययन परम्परानुसार और साम्प्रदायिक विद्यालयोंमें कराया गया, ऐसे पारिभाषिक शब्दोंकी समझ होनाधिक रूपमें एक पैतृक सम्पत्तिकी प्राप्ति जैसो थी।
___ आज अध्येताओं द्वारा जैनधर्मका अध्ययन तुलनात्मक रूपसे किया जा रहा है, जन साहित्यको भारतीय साहित्यका एक अभिन्न अंग माना जा रहा है, तथा समय और स्थानके विशेष दायरेसे निकलकर मानवीय आदर्शोंके क्षेत्रमें विश्व आयाम पर जैनधर्मके योगदानोंको मापा जा रहा है । इसके अतिरिक्त अध्ययनको रीतियाँ शोघ्रतासे बदल रही हैं और ज्ञानका क्षेत्र भी अहर्निश विस्तृत होता जा रहा है। परिणाम स्वरूप प्राध्यापकों और विद्यार्थियों द्वारा अध्ययनकी दिशामें पग-पग पर ग्रन्थ सूचियों, मूल स्रोत ग्रन्थों तथा सन्दर्भ ग्रन्थोंकी कमीका अनुभव किया जा रहा है।
जब पाठशालाओंमें अध्ययन-अध्यापन के लिए गोम्मटसार जैसे पारिभाषिक लाक्षणिक ग्रन्थोंको चुना जाता था, तब इस प्रकारके शब्दकोशोंकी आवश्यकताका अनुभव अधिक होता था। और जहाँ तक हमें ध्यान है, स्वर्गीय पं० गोपालदास जी बरैयाने इसी अभावकी पूर्तिके लिए सन् १९०९ में जैन सिद्धान्त प्रवेशिकाकी रचना की थी। सन् १९१४ में रतलामसे विजयराजेन्द्रसूरिका अभिधान राजेन्द्र कोश सात भागों में प्रकाशित हुआ था। यद्यपि उसका विस्तार अत्यधिक है, फिर भी वह बहुतसे जैन पारिभाषिक शब्दोंके उद्धरण तथा व्याख्याओंको खोजनेमें उपयोगी सिद्ध हुआ है। एस. सी. घोषाल, ए. चक्रवर्ती, जे. एल. जैनी प्रभुति प्रमुख विद्वानोंने सेकेड बुक्स ऑफ द जैनाज़ की स्थापना की और उसके अतर्गत कुछ महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थोंका आंग्लभाषा (अँगरेज़ी, में अनुवाद तैयार किया। उन्हें जैन पारिभाषिक शब्दोंके सही अनुवादमें अनेक कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा । जे. एल. जेनीने जैन जेम डिक्शनरी (आरा, १९१८) की प्रस्तावना में स्वयं इस बातको स्त्रोकारा है। उन्होंने कहा है-"यह उन्हें अनुभव हुआ कि एक ही जैन शब्दके विभिन्न अनुवादोंमें विभिन्न अंगरेजी पर्याय प्रयुक्त हो सकते है। इससे एकरूपता समाप्त हो जाती है और ग्रन्थोंके जैनेतर पाठकोंके मनमें दुविधाका कारण बन जाता है। इसलिए सबसे अच्छा उपाय सोचा गया कि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जैन पारिभाषिक शब्दोंको साथ रखा जाय और जैन दर्शनके भालोकमें सही अर्थ प्रस्तुत करनेका प्रयल किया जाय । निश्चय ही इस तरहके कार्यको अन्तिम कहना उपयुक्त न होगा। यह उत्तम प्रयास है कि जैन पारिभाषिक शब्दोंको वर्ण-क्रमानुसार नियोजित किया जाय और उनका अनुवाद अंगरेजीमें दिया जाय ।" यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत शब्दकोशका अाधार स्व. पं० गोपालदास जी बरैया द्वारा रचित उपर्युक्त जैन सिद्धान्त प्रवेशिका है । अजमेर-बम्बईसे सन् १९२३-३२ में प्रकाशित रत्नचन्द्रजी शतावधानीकी एन इलस्ट्रेटेड अर्धमागधी डिक्शनरीके पांच (?) भाग सीमित संख्यामें जैन पारिभाषिक शब्दोंकी व्याख्या पानेमें सहायक होते हैं। सन् १९२४-३४ में दो भागोंमें बाराबंकी व सूरतसे प्रकाशित बृहज्जैन शब्दार्णव (हिन्दी) जिसे प्रारम्भ किया था मास्टर बिहारी लाल जैनने और समाप्त किया था ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी ने । यह भी काफी उपयोगी है और वस्तुतः एक व्यक्तिके लिए महत्त्वपूर्ण कार्य है। आनन्दसागरसूरिका 'अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोश' भाग १ (सूरत १९५४) भी उपलब्ध है जिसका उद्देश्य कुछ जैन सैद्धान्तिक शब्दोंका अर्थ हिन्दी भाषा में प्रस्तुत करना रहा है।
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