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जैन साहित्य और उसमें आगत विशेष विषयोंका क्षेत्र बहुत विस्तृत है। स्वभावतः विषय विशेष पर आधार-ग्रन्थोंकी आवश्यकताका अनुभव किया जाता है । इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं लेश्या कोश (कलकत्ता, १९६६ ) और क्रिया कोश (कलकत्ता १९६९ ) जिनका संकलन व सम्पादन सर्व श्री मोहनलाल बांठिया तथा श्रीचन्द चौरडियाने किया है । ये एक निश्चित रीतिसे विषयवार व्यवस्थित ग्रन्थ हैं।
लालभाई दलपतभाई भारतीय विद्या मन्दिर, अहमदाबाद द्वारा प डिक्शनरी ऑफ प्राकृत प्रापर नेम्स्' कोश तैयार कराया गया है जो मुद्रणमें है।
उपर्युक्त प्रकाशनोंकी तरह ही यहाँ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १ प्रस्तुत किया जा रहा है, जो ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला संस्कृत सीरिजका ३८वाँ ग्रन्थ है। यह क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णों द्वारा संकलित व सम्पादित है । यद्यपि वे क्षीण काय तथा अस्वस्थ हैं फिर भी वर्णोजीको गम्भीर अध्ययनसे अत्यन्त अनुराग है। स्वध्यायके प्रति उनका यह समर्पण उदाहरणीय है । लगभग बीस वर्षके उनके सतत अध्ययनका यह परिणाम है कि धवला आदि जैसे महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थोंपर आधारित यह कोश तैयार किया गया है । यह कोश द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा प्रथमानुयोगके विषयोंका वर्ण-क्रमानुसार विवेचन करनेवाला ग्रन्थ है । सन्दर्भ ग्रन्थोंको सकेत सूचीसे देखा जा सकता है। मूल ग्रन्थोंके उद्धरण दिये गये हैं, उनके साथ हिन्दी अनुवाद भी हैं और उद्धृत ग्रन्थोंके संकेत भी। इसमें अनेक महत्वपूर्ण सारणियाँ और रेखाचित्र भी जोड दिये गये है जिनके माध्यमसे विस्तृत विषयको एक ही दृष्टिमें देखा जा सकता है । वर्णीजीका यह सब कार्य अध्ययनके प्रति स्नेह और भक्तिका प्रतीक है । इस प्रकाशनसे ज्ञानके क्षेत्रमें ग्रन्थमालाका गौरव और भी बढ़ गया है । ग्रन्थमालाके प्रधान सम्पादक क्षु. जिनेन्द्र वर्णीजीके अत्यन्त आभारी हैं जो उन्होंने अपना यह विद्वता. पूर्ण ग्रन्थ इस ग्रन्थमालाको प्रकाशनार्थ उपहारमें दिया। आशा है कि आगेके भाग भी शीघ्र तैयार होंगे ।
उपर्युक्त सभी कोश आंशिक प्रयत्न हैं और उनमें जैनधर्मसे सम्बन्धित सभी विषय नहीं आ पाये । इनमेंसे कई एककी अपनी सीमाएं रही हैं यदि कमियाँ नहीं तो। इस प्रकारके व्यक्तिगत प्रयत्नोंमें यह सब सम्भव है और वह भी उस अवस्थामें जब जैनधर्मका अध्ययन प्रारम्भिक स्थितिमें था, जो आज भी शैशवावस्थामें है । ये और इस प्रकारके अन्य प्रयत्न, विश्वास है कि एक दिन श्री लंका सरकार द्वारा प्रकाशित इन्साइक्लोपिडिया ऑफ बुद्धिज्मकी तरह इनसाइक्लोपीडिया ऑफ जैनिज्मके निर्माणमें अपना योगदान देंगे।
श्रीमान् साहू शान्तिप्रसाद जी व उनकी विदुषी पत्नी श्रीमती रमा जैनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए शब्द अपर्याप्त है। भारतीय विद्याकी उपेक्षित शाखाओंके उद्धारके प्रति उनकी उदारता असोमित है। अन्यथा इस प्रकारके साहित्यिक कार्योंका प्रकाशन सम्भव नहीं होता। विद्वन्मण्डल उनके इस पुनीत विद्यानुरागके प्रति चिर ऋणी रहेगा कि उन्होंने कठिनाईसे बिकने वाली इस पुस्तककी अर्थ व्यवस्था कर इसे प्रकाशित किया है।
क्षु. वर्णीजीकी बड़ी कृपा रही कि उन्होंने ग्रन्थमाला सम्पादकोंको कोशके प्रकाशनमें पूर्ण सहयोग दिया। श्री लक्ष्मीचन्द्रजी जैन, हमारे विशेष धन्यवादके पात्र हैं जिन्होंने प्रस्तुत कार्यमें व्यक्तिगत रुचि लेकर विशेष टाइप आदि की व्यवस्था की है । डॉ. गोकुलचन्द्रजी जैनने मुद्रण स्थान पर उपस्थित रहकर हमें विविध प्रकार से सहयोग दिया है। सन्मति मुद्रणालयने इस पेचीदे कार्यको सावधानतापूर्वक मुद्रित कर विशेष कीर्ति अजित की है। महावीर जयन्ती
-हीरालाल जैन १९ अप्रैल, १९७०
-आ. ने. उपाध्ये
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