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________________ प्रास्ताविक [प्रथम संस्करण से] लगभग सत्रह वर्षोंसे शास्त्र स्वाध्यायके समय विशिष्ट स्थलोंको निजी स्मृतिके लिए सहज लिख कर रख लेता था। धीरे-धीरे यह संग्रह इतना बढ़ गया, कि विद्वानोंको इसकी सार्वजनीन व महती उपयोगिता प्रतीत होने लगी। उनकी प्रेरणासे तीन वर्षके सतत परिश्रमसे इसे एक व्यवस्थित कोशका रूप दे दिया गया। शब्दकोश या विश्वकोशकी तुलनामें इसकी प्रकृति कुछ भिन्न होनेके कारण, इसे 'सिद्धान्त कोश' नाम दिया गया है। इसमें जैन तत्त्वज्ञान, आचारशास्त्र, कर्मसिद्धान्त, भूगोल, ऐतिहासिक तथा पौराणिक व्यक्ति, राजे तथा राजवंश, आगम, शास्त्र व शास्त्रकार, धार्मिक तथा दार्शनिक सम्प्रदाय आदिसे सम्बन्धित लगभग ६००० शब्दों तथा २१००० विषयोंका सांगोपांग विवेचन किया गया है । सम्पूर्ण सामग्री संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंशमें लिखित प्राचीन जैन साहित्यके सौसे अधिक महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रन्थोंसे मूल सन्दर्भो, उद्धरणों तथा हिन्दी अनुवादके साथ संकलित की गयी है। शब्द संकलन तथा विषय विवेचन शब्द संकलन कोश ग्रन्थोंकी शैलीपर अकारादिसे किया गया है तथा मूल शब्दके अन्तर्गत उससे सम्बन्धित विभिन्न विषयोंका विवेचन किया गया है। ऐतिहासिक क्रमसे मूल ग्रन्थोंके सन्दर्भ संकेत देकर विषयको इस रूपमें प्रस्तुत किया गया है कि विभिन्न ग्रन्थोंमें उपलब्ध उस विषयकी सम्पूर्ण सामग्री एक साथ उपलब्ध हो जाये और अनुसन्धाता विद्वानों, स्वाध्याय प्रेमी, मनीषियों, साधारण पाठकों तथा शंका समाधानोंके लिए एक विशिष्ट आकर ग्रन्थका काम दे। ज्ञब्द संकलनमें पंचम वर्ण (ङ्, ञ्, ण, न्, म्) की जगह अनुस्वार ही रखा गया है और उसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है । जैसे 'अंक' शब्द 'अकंपन' से पहले रखा गया । विवेचनमें इस बातका ध्यान रखा गया है कि शब्द और विषयकी प्रकृतिके अनुसार, उसके अर्थ, लक्षण, भेद-प्रभेद, विषय विस्तार, शंका-समाधान व समन्वय आदिमें जो जो जितना जितना अपेक्षित हो, वह सब दिया जाये । जिन विपयोंका विस्तार बहुत अधिक है उनके पूर्व एक विषय सूची दे दी गयी है जिससे विषय सहज ही दृष्टिमें आ जाता है। संकलनमें निम्नलिखित कुछ और भी बातोंका ध्यान रखा गया है १. दो विरोधी विपयोंको प्रायः उनमें से एक प्रमुख विषयके अन्तर्गत संकलित किया गया है। जैसे हिंसाको अहिंसाके अन्तर्गत और अब्रह्मको ब्रह्मचर्यके अन्तर्गत । २. समानधर्मा विभिन्न शब्दों और विपयोंका प्रधान नामवाले विषयके अन्तर्गत विवेचन किया गया है जैसे शीलका ब्रह्मचर्यके अन्तर्गत; वानप्रस्थ आश्रम व व्रती गृहस्थका श्रावकके अन्तर्गत । ३. सिद्धान्तकी २० प्ररूपणाओं अर्थात् गुणस्थान, पर्याप्ति, प्राण, जीवसमास, संज्ञा, उपयोग व १४ मार्गणाओंको पृथक्-पृथक् स्व स्व नामोंके अनुसार स्वतन्त्र स्थान दिया गया है। और उन सम्बन्धी सर्व विभिन्न विषयोंमें 'देखो वह वह विषय' ऐसा नोट देकर छोड़ दिया है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिए। ४. उपर्युक्त नम्बर ३ की भाँति ही सप्त तत्त्व, नव पदार्थ, षद्रव्य, बन्ध, उदय, सत्त्वादि १० करण, सत् सख्यादि ८ अनुयोगद्वार आदिके साथ भी समझना चाहिए, अर्थात् पृथक् पृथक् तत्त्वों व द्रव्यों आदिको पृथक् पृथक् स्वतंत्र विषय ग्रहण करके संकलित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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