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________________ आकाश २२० १. भेद व लक्षण २ आकाश निर्देश १ आकाशका आकार २ आकाशके प्रदेश ३ आकाश द्रव्यके विशेष गुण ४ आकाशके १६ सामान्य विशेष स्वभाव ५ आकाशका आधार ६ अखण्ड आकाशमे खण्ड कल्पना ७ लोकाकाश व आलोकाकाशकी सिद्धि ३ अवगाहना सम्बन्धी विषय १ सर्वावगाहना गुण आकाशमे ही है अन्य द्रव्यमे नही तथा हेतु २ लोकाकाशमे अवगाहना गुणका माहात्मय ३ लोक/अस० प्रदेशोपर एकानेक जीवोकी अवस्थान विधि ४ अवगाहना गुणोकी सिद्धि ५ असं० प्रदेशी लोकमे अनन्त द्रव्योके अवगाहकी सिद्धि ६ एक प्रदेश पर अनन्त द्रव्योके अवगाहकी सिद्धि ४ अन्य सम्बन्धित विषय * अन्य द्रव्योमे भी अवगाहन गुण -दे. 'अवगाहन' * अमूर्त आकाशके साथ मूर्त द्रव्योके स्पर्श सम्बन्धी -दे. स्पर्श/२ * अलोकाकाशमे वर्तनाका निमित्त -द.काल/२ * अवगाहन गुण उदासीन कारण है -दे. कारणIII/२ * आकाशका अक्रियावत्त्व -दे द्रव्य/३ * आकाशमें प्रदेश कल्पना तथा युक्ति * आकाश द्रव्य अस्तिकाय है -दे, अस्तिकाय * आकाश द्रव्यकी संख्या -दे. संख्या /३ * लोकाकाशके विभागका कारण धर्मास्तिकाय-दे.धर्माधर्म/१ * लोकाकाशमे उत्पादादिकी सिद्धि -दे. उत्पाद व्ययधौव्य/३ * शब्द आकाशका गुण नही -दे शब्द/२ * द्रव्योंको आकाश प्रतिष्ठित कहना व्यवहार है-दे द्रव्य/५ पुद्गलोंको अवकाश देना आकाशका उपकार जानना चाहिए । (गो / जी प्र./६०५/१०६०/४) रा.वा./५/१/२१-२२/४३४ आकाशन्तेऽस्मिन द्रव्याणि स्वय चाकाशत इत्याकाशम् ॥ २१ ॥ अवकाशदानाद्वा ॥२२॥ - जिसमें जीवादि द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायोके साथ प्रकाशमान हो तथा जो स्वयं अपने को प्रकाशित भी करे वह आकाश है ॥२१॥ अथवा जो अन्य सर्व द्रव्योको अवकाश दे वह आकाश हे । ध४/१,३,०/४/७ आगास सपदेस तु उड्ढाधो तिरिओविय । खेत्तलोगं वियाणाहि अण तजिग-देसिद ॥४॥ = आकाश सप्रदेशी है और वह ऊपर, नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है । उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए । उसे जिन भगवान्ने अनन्त कहा है। न च, वृहद चेयणर हि यममुरा अवगाहणलक्खण च सव्यगय । त णहदव्वं जिणुद्धि ॥१८॥ जो चेतन रहितअमूर्त,सर्व द्रव्योको अवगाह देनेवाला सर्व व्यापी है उसको जिनेन्द्र भगवान्ने आकाश द्रव्य कहा है। द्र.स /मू १६/५७ अवगासदाणजोग्ग जीवादीण वियाण आयासम् ॥१६॥ जो जोवादि द्रव्यो को अब काश देनेवाला है उसको जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो । (नि.सा/ता वृह/२४) २ आकाश द्रव्योंके भेद स सि५/१२/२७८ आकाश, द्विधाविभक्त लोकाकाशमल'काकाश चेति । - आकाश द्रव्य दो प्रकारका है-लोकाकाश और अलो कश रा वा ५/१२/१८/४५६/१०) (न च वृ१८ (द्र सं /मू १६) ३ लोकाकाश व आलोकाकाशके लक्षण पका /मू११ जोवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोपण्ण । तत्तो अणण्णमण्ण यास अतव दि रित्त ॥६१ = जीव पृद गलकाय, धर्म, अधर्म (तथा काल) लोकके अनन्य है । अन्तरहित ऐसा आकाश उससे (लोकसे) अनन्य तथा अन्य है। बा अ३६ जीवादि पयट्ठाण समवाओ सो णिरुच्चये लोगो। तिविहो हवेई लोगो अहमज्झिमउढ्भेयेण ॥३६॥ जीवादि छ पदार्थों का जो समूह है उसे लोक कहते है। और वह अधोलोक,ऊर्ध्व लोक व मध्यलोकके भेद से तीन प्रकारका है। (क अ./मू ११६) मू आ ५४० लोयदि आलोयदि पल्लोयदिसल्लोयदिति एगत्थो तह्माजि णे हि कसिण तेणेसो बुच्चदे लाओ ॥४०॥ जिस कारण से जिनेन्द्र भगवान का मतिश्रुतज्ञानकी अपेक्षा साधारण रूप देखा गया है, मन'पर्यय ज्ञानको अपेक्षा कुछ उससे भी विशेष और केवलज्ञानकी अपेक्षा सम्पूर्ण रूपसे देखा गया है इसलिए वह लोक कहा जाता है। स.सि 1५/१२/२७८ धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोक इति । ... स यत्र तल्लोकाकाशम् । ततो बहिः सर्वतोऽनन्तालोकाकाशम् । -जहाँ धर्मादि द्रव्य बिलोके जाते है उसे लोक कहते है। उससे बाहर सर्वत्र अनन्त अलोकाकाश है। (सि.प ४/५६४-१३५), (रा.वा ५/१२/१८/४५६/७), (ध ४/१,३,६/१) (प.का /त प्र८७/१२८), (प्रसा/ त.प्र. १२८/१८०), (न.च.वृ. १६), (द्र स. मू. २०), (पं.का ता.वृ. २२ 1४८), (प. उ. २२) (त्रि.सा ५) ध १३/१,२,५०/२८८/३ को लोक । लोक्यन्त उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादय पदार्था स लोक | प्रश्न-लोक किसे कहते है । उत्तरजिसमे जीवादि पदार्थ देखे जाते है अर्थात उपलब्ध होते है उसे लोक कहते है । (म.प्र.४/१३), (न.च बृ. १४२-१४३) ४. प्राणायाम सम्बन्धी आकाश मण्डल ज्ञा सा.५७ अग्नि, त्रिकोण रक्त कृष्णश्च प्रभञ्जन तथावृत्त । चतुष्कोणं पीतं पृथ्वी स्वेतं जलं शुद्धचन्द्राभम् ॥५७|| - अग्नि त्रिकोण लाल रंग, पवन गोलाकार श्याम वर्ण, पृथ्वी चौकोण पीत वर्ण, तथा जल अर्ध चन्द्राकार शोतल चन्द्र समान होता है। १. भेद व लक्षण १ आकाश सामान्य का लक्षण त.सू./४.६,७,१८ नित्याबस्थितान्यरूपाणि ॥४।। आ आकाशादेकद्व्याणि ।।६।। निष्क्रयाणि च ।।७।। अकाशस्यावगाह ।।१८॥ आकाश द्रव्य नित्य अवस्थित और अरुपी है ॥५॥ तथा एक अखण्ड द्रव्य है ॥६॥ व निष्क्रिय है ॥७॥ औरअवगाह देना इसका उपकार है ॥१८॥ प.का./मु.१०सवे सि जोबाण सेसाण तह य पुग्गलाणं च ज देदि विवरमखिलं त लोगे हवदि आगासं ॥३०॥ कलोहमें जीवोको और पुद्गलोको वैसे ही शेष समस्त द्रव्योका जो सम्पूर्ण अवकाश देता है वह आकाश द्रव्य है। स.सि ११८/२८४ जीवपुद्गलादीनामवगाहिनामवकाशदानमवगाह आकाशस्योपकारो वेदितव्यः । =अवगाहन करनेवाले जीव और जैनेन्द्र सिदान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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