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अपराजित संघ
अपवाद भगवानका पूर्वका तीसरा भव है। ११ (म.पु/६२/श्लो) वत्सकावती नपूछनेपर भी जो उन्हे अन्यपर प्रगट न करे, वह अपरिखावी गुणका देशकी प्रभाकरी नगरीके राजा स्तमितसागरका पुत्र था (४९२-४१३) धारक है। राज्य पाकर नृत्य देखने में आसक्त हो गया और नारदका सत्कार
अपर्याप्त-दे पर्याप्त । करना भूल गया (४३०-४३१) कुद्र नारद ने शत्रु दमितारिको युद्धार्थ
अपवर्ग-न्या सू./म् १-१/२२ तदत्यन्त विमोक्षोऽपवर्ग 1- उस दुखप्रस्तुत किया (४४३) इन्होने नर्तकीका वेश बना उसकी लडकीका हरण कर लिया और युद्धमे उसको हरा दिया (४६१-४८४) तथा बलभद्र
दायी जन्मसे अत्यन्त विमुक्तिका नाम अपवर्ग है। पद पाया (५१०)। अन्तमें दीक्षा ले समाधि-मरण कर अच्युतेन्द्र पद अपवर्तनपाया (२६-२७) यह शान्तिनाथ भगवान का पूर्वका ७वाँ भव है।
१. अपवर्तनाघात सामान्यका लक्षण १२ (म पु/६२/श्लो.) सुगन्धिला देशके सिंहपुर नगर के राजा अहं दास
स सि /२/५३/२०१ बाह्यस्योपघात निमित्तस्य विषशस्वादे सति संनिधाने का पुत्र था (३-१०) पहिले अणुव्रत धारण किये (१६) फिर एक माहका
ह्रस्व भवतीत्यपवर्यम् । उपघातके निमित्त विष शस्त्रादिक बाह्य उत्कृष्ट सन्यास धारण कर अच्युतेन्द्र हुआ (४५-५०) यह भगवान्
निमित्तोके मिलनेपर जो आयु घट जाती है वह अपवर्त्य आय नेमिनाथ का पूर्वका पाँचवाँ भव है। १३ (ह पु/३६/श्लो.)
कहलाती है। जरासन्धका भाई था, कसको मृत्यु के पश्चात् कृष्णके साथ युद्ध में मारा क.पा ११,१८/६३१५/३४७/५ किमोबट्टणं णाम । सयवेए खपिदे सेसणीगया (७२-७३) । १४ श्रुतावतारके अनुसार आप भगवान् वीरके पश्चात कसायखवणमोबट्टणं णाम । -प्रश्न-अपवर्तना किसे कहते है। तृतीय श्रुतकेवलो हुए थे। समय-वी नि १२-११४, ई पू ४३४-४१२ । उत्तर- नपुंसकवेदका क्षपण हो जानेपर शेष नोकषायोंके क्षपण होनेको दे इतिहास । ४/४ । १५. (सि वि./प्र. ३४/पं. महेन्द्रकुमार) आप यहाँ अपवर्तना कहा है। सुमति आचार्य के शिष्य थे । समय-वि ४६४ (ई.४३७) ।१६ (भ आ |
गो /क /जी.प्र./६४४८२७११६ आयुबन्ध कुर्वतां जीवानां परिणामवशेन प्र/प नाथूराम प्रेमी) आप चन्द्रनन्दिके प्रशिष्य और बलदेवसूरिके
बध्यमानस्यायुपोऽपवर्तनमपि भवति तदेवापवर्तनधात इत्युच्यते, शिष्य थे। आपका अपर नाम विजयाचार्य था । आपने भगवती
उदोयमानायुरपवर्तनस्यैव दलीधाताभिधानात। -आयुके पन्धको
करते जीव तिनिकै परिणाम निके बशत बध्यमान आयुका अपवर्तन आराधनार विस्तृत सस्कृत टोका लिखी है। समय - शक ६५८
भी होता है। अपवर्तन नाम घटनेका है, सो याको अपवर्तनपात (वि ७६३) मे टोका पूरी की।
कहिए, जानें उदय आई (भुज्यमान) आयुकै अपवर्तनका नाम अपराजित संघ-आचार्य अर्हदलि-द्वारा स्थापित दिगम्बर साधु
कदलीधात है। (अर्थात भुज्यमान आयुके घटनेका नाम कदलीघात भवोमे-से एक था। दे इतिहास/४/६ ।
और बपमान आयुके घटनेका नाम अपवर्तनघात है।) अपराजिता-१. भगवान मुनिसुव्रतनाथ को शामिका यक्षिणी
२. अनुसमयापपर्तनाका लक्षण दे तोर्थ कर/५/३, २.पूर्व विदेहस्थ महावत्सा देशकी मुख्य नगरी-दे. क पा५/४ २२/६६२५/३६६/१३ का अणुसमओवट्टणा । उदय-उदयावलिलाक/२,३ नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम में स्थित एक वापी, दे. यासु पविस्समा गहिदीणमणुभागस्स उदयावलिमाहिरट्ठिीणमणुलोक/५/११.४ रुचकपर्वत निवासिनी दिक्कुमारी-दे. लोक/५/१३ । भागस्स य समय पडि अांतगुणहीणक्मेण घादो। -प्रश्न-प्रति अपराध-स. सा /मू /३०४ स सिद्धिराद्धसिद्ध साधियमाराधिय च समय अपवर्तना किसे कहते हैं। उत्तर-उदय और उदयावलिमें
प्रवेश करनेवाली स्थितियोके अनुभागका तथा उदयावलीसे माहरकी एयदु । अवगयराधो जो खलु चेया सो होइ अवराधो ॥३०४॥ स सिद्धि,
स्थितियोके अनुभागका जो प्रति समय अनन्तगुणहीन क्रमसे घात राध, सिद्र, साधित और आराधित. ये एकार्थवाची शब्द हैं। जो
होता है उसे प्रतिसमय अपवर्तना कहते है। आरमा अपगतराध अर्थात् राधसे रहित है वह मारमा अपराध है।
ध १२/१,२,७,४१/१२/१२/२ उकीरणकालेण विणा एगसमरणेव पददि सा (नि सा./ता वृ/८४)।
अणुसमेओवट्टणा। अण्ण च, अणुसमओवट्टणाए णियमेण अणंताभागा मा सा /आ /१००/क१८६ परद्रव्यग्रह कुर्वन बध्येतैवापराधवान् । बभ्यता
हम्मति । उत्कीरणकालके बिना एक समय द्वारा जो घात होता नपराधो म स्वद्रव्ये संवृतो यति ॥१८६॥ =जो परद्रव्यको ग्रहण करता
है वह अनुसमयापवर्तना है। अथवा अनुसमयापवर्तनामें नियमसे है वह अपराधी है, इस लिए बन्ध में पड़ता है। और जो स्व द्रव्यमें ही
अनन्त बहुभाग नष्ट होता है। (अर्थात् एक समयमें ही अनन्तों सवृत है. ऐसा पति निरपराधी है, इसलिए बन्धता नहीं है
काण्डकोका युगपत् घात करना अनुसमयापवर्तना है।) (स सा./आ /३०१)। अपराल-दिनका तीसरा पहर।
* अनुसमगापवर्तना व काण्डकघातमे अन्तरअपरिगहोता-ससि /७/२८/३६८ या गणिकात्वेन पुंश्चलीत्वेन वा
दे अपकर्षण
* आयके अपवर्तन सम्बन्धी-दे. आयु ५ । परपुरुषगमनशीला अस्वामिका सा अपरिगृहीता। -जो वेश्या या व्यभिचारिणी होनेसे दूसरे पुरुषोके पास आती-जाती रहती है, और * अकाल मृत्यु वश आयुका अपवर्तन-दे मरण ४ । जिसका कोई पुरुष स्वामी नहीं है, वह अपरिगृहीता कहलाती है।
* अपवर्तनोद्वर्तन-दे. अश्वकर्ण करण । अपरिणत-आहारका एक दोष-दे. आहार II/४/४।
३. गणितके सम्बन्धमें अपवर्तन अपरिणामी-दे. परिणमन ।
समान मूल्यों में बदलना जैसे १८/७२-१/४-2. गणित II/१/१० । अपरिस्राविता-भ.आ./मू /४८६,४६५ लोहेण पदीमुदयं व जस्स: अपधाद-यद्यपि मोक्षमार्ग केवल साम्यता की साधना का नाम है,
आलोचिदा अदीचारा । ण परिस्सबंति अण्णत्तो सो अपरिस्सबो होदि परन्तु शरीरस्थिति के कारण आहार-विहार आदिमे प्रवृत्ति भी करनी ॥४८६॥ इच्चेवमादिदोसा ण होति गुरुणो रहस्सधारिस्स। पुठेव पडती है। यदि इससे सर्वथा उपेक्षित हो जाये तो भी साधना होनी अपुट्ठे बा अपरिस्साइस्स धारिस्स ॥४१॥ - जैसे तपा हुआ लोहेका सम्भव नहीं और यदि केवल इसहीकी चर्या में निरर्गल प्रवृत्ति करने गोला चारों तरफसे पानीका शोषण कर लेता है, वैसे ही जो आचार्य लगे तो भी साधना सम्भव नहीं। अत साधकको दोनों ही मातोंक्षपकके दोषोंको सुनकर अपने अन्दर ही शोषण कर पूछनेपर अथवा का सन्तुलन करके चलना आवश्यक है। तहां साम्यताकी वास्तविक
जैनेन्द्र सिद्धान्न कोर,
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