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आवर्त
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आवश्यक
होता है। विशेष इतना कि स्वस्थान केवलीकी अपेक्षा यहाँ गुण श्रेणी आयाम ता असख्यात गुणाघात है। और अपकषण किया गया द्रव्य असख्यात गुणा है। आवत-१ एक यक्ष-दे 'यक्ष'. २ भरतक्षेत्र विन्ध्याचलस्थ एक देश-दे मनुष्य ४,३ भरत क्षेत्रके उत्तर में मध्यमे मध्यम्लेच्छ खण्डका एक देश-दे मनुष्य ४,४ विजयाध को दक्षिणश्रेणीका एक नगर-दे विद्याघर, ५ पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे लोक ५/२। आवत्त-अन ध ८1८८८६ शुभयोगपरावर्तानावान् द्वादशाहुराद्यन्ते साम्यस्य हि स्तवस्य च मनोगगी. सयत परावय॑म् ॥८८॥ - मन, वचन और शरीरकी चेष्टाको अथवा उसके द्वारा होनेवाले आत्म प्रदेशोक परिस्पन्दनको योग कहते हैं। हिंसादिक अशुभ प्रवृत्तियोसे रहित योग प्रशस्त समझा जाता है। इसी प्रशस्त योगको एक अवस्थासे हटाकर दूसरी अवस्थामें ले जानेका नाम परावर्तन है और इसका दूसरा नाम आवर्त भी है। इसके मन वचन कायकी अपेक्षा तीन भेद है और यह सामायिक तथा स्तवकी आदिमें तथा अन्तमें किया जाता है । अतएव इसके बारह भेद होते हैं। जा मुमुच साधु बन्दना करनेके लिए उद्यत है उन्हे यह बारह प्रकारका आवतं करना चाहिए अर्थात् उन्हे, अपने मन वचन व काय सामायिक तथा स्तवकी आदि एव अन्तमें पाप व्यापारसे हटाकर अवस्थान्तरको प्राप्त कराने चाहिए ॥८॥ कि क १/१३ कथिता द्वादशावत वपुर्वचनचेतसाम् । स्तवसामायिका
धन्तपरावर्तनलक्षणा । = मन, वचन, कायके पलटनेको आवत कहते है। ये आवर्त बारह होते है। जो सामायिक दण्डके आरम्भ और समाप्तिमें तथा चतुर्विशतिस्तव दण्डकके आरम्भ और समाप्तिके समय क्येि जाते है। ध (१३/५,४,२८/१०/३) भाष्यकार - जैसे 'जमा अरहन्ताण" इत्यादि सामायिक दण्डके पहले क्रिया विज्ञापन रूप मनो विकल्प होता है, उस मनोविकल्पको छोडकर सामायिक दण्डके उच्चारण के प्रति मनको लगाना सो मन परावतन है। उसी सामायिक दण्डके पहले भूमि स्पर्श रूप नमस्कार किया जाता है उस वक्त वन्दना मुद्राकी जाती है, उस वन्दना मुद्राको त्यागकर पुन खड़ा होकर मुक्ताशुक्ति मुद्रा रूप दोनों हाथोंका कर के तीन बार घुमाना कायपरावर्तन है। "चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करामि" इत्यादि उच्चारणको छोडकर "णमा अरहन्ताणं" इत्यादि पाठका उच्चारण करना सो वापरावर्तन है। इस तरह सामायिक दण्डके पहले मन, वचन और काय परावर्तन रूप तीन आवर्त हाते है। इसी तरह सामायिक दण्डकके अन्त में तीन-तीन आवर्त यथायोग्य हाते है। एक सब मिलकर एक कायात्मगमें १२ आवर्त होने है। * कृतिकर्ममे आवर्त करनेका विधान
- दे कृतिकर्म २/८,४/२। आवली-१क्षेत्रका एक प्रमाण विशेष- दे. ग णत 1/१/३ । २. काल का एक प्रमाण विशेष-दे.गणित I/११३ जघन्य युक्तासंख्यात समयोंकी एक आवली होती है । इसका छःभेद रूपसे उल्लेख मिलता है यथा अचलावली- गा.क अर्थ.स /पृ. २४ प्रकृति बन्ध भये पीछे आवली काल मात्र उदय उदीरणादि रूप होने योग्य नाही सो अचलावली है। (इसे बन्धावली भी कहते है।) (गो.क /भाषा १५६/१६४/४), अतिस्थावली-ल सा /भाषा ५८/१०/१३ स्थितिका अन्त निषेकका द्रव्य को अपकर्षण करि नाचले निषेकनिय निक्षेपण करत तिस अन्त निषेक के नीचे आवलि मात्र निक तौ अति स्थापनरूप है अर समय अधिक दोय आवली करि हीन उत्कृष्ट स्थितिमात्र निक्षेप हो है सो यहु उत्कृष्ट निक्षेप जानना । इहाँ बध भएं पीछे आवली काल पर्यन्त तो उदीरणा होइ नाहीं तातै एक आवली तौ आबाधा विर्ष गई अर एक आवलो अतिस्थापन रूप रही अन्तका
द्रव्य ग्रह्या ही है तातै उत्कृष्ट स्थिति विर्ष दोय आवली एक समय घटाया है । अक संदृष्टि करि जैसे उत्कृष्ट स्थिति हजार सयय तहाँ सोलह समय तौ आयाधाविषे गये अर नवसे चौरासी निषेक है तहाँ अन्त निषेक का द्रव्य अपकर्षण करि प्रथमादि नवरं सतसठि निषेकान विष दीया सो यह उत्कृष्ट निक्षेप है। अर ताकै ऊपरि सोलह निषेकनिवि न दीया सो यहु अतिस्थापमावस्ती है। (विशेष-दे अपकर्षण), उच्छिष्टावलि-गो क /भाषा/३४२/४६४/८ "उदयको प्राप्त नाही जे नसक वेद आदि तिनिकी क्षय भये पीछे अवशेष उच्छिष्ट रही सर्व स्थिति, समय अधिक आवली प्रमाण है। गो. क/जी प्र ७४४/५ एताव स्थितावशिष्टाया विरयोजनोपशमनक्षपणा क्रिया नेतीदमुच्छिष्टालिनाम। -इतनी स्थिति अब शेष रहे बिसयोजनका उपशमन वा क्षपणा क्रिया न होइ सके तात याको उच्छिष्टावली कहिए। गो क अर्थ सं/पृ.२४ (सम्पर्ण कर्म स्थितिकी अन्तिम आवली) अन्तके आवली प्रमाण निषेक अवशेष ग्हें सो उच्छिष्टावली है । उदयावली-गो अर्थ स /पृ. २४ महरि (आमाधा काल भये पीछे) आवली विष आवने योग्य समूह तो उदयावली है। द्वितीयावली-उदयावलीसे ऊपरके आवला प्रमाण कालको द्वितीयावली या प्रत्यावली कहते हैं। प्रत्यावली-दे अपर द्वितीयावली, बन्धावली-दे अचलादली, वृन्दावली-(आबल के समय)३ आवश्यक--श्रावक व साधुको अपने उपयोगकी रक्षाके लिए नित्य ही छह क्रिया करनी आवश्यक होती है । उन्हीको श्रावक या साधुके षट् आवश्यक कहते है। जिसका विशेष परिचय रस अधिकारमें दिया गया है।
१ आवश्यक सामान्यका लक्षण मू आ५१५ ण बसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं ति बोधव्वा । जुत्तित्ति उवायत्तिय णिरक्यवा हो दि णिजुत्ती ॥११५॥ - जो कषाय राग-द्वेष आदि के वशीभूत न हा वह अवश है, उस अवशका जो आचरण वह आवश्यक है। तथा युक्ति उपायको कहते है जो अखण्डित युक्ति वह नियुक्ति है, आवश्यककी जो नियुक्ति वह
आवश्यक नियुक्ति है । (नि सा./मृ. १४२) नि सामू १४७ आवास जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिर भाव । तेण दू सामण्णगुण होदि जीवस्स ॥१४७॥ यदि तू आवश्यकको चाहता है तो तू आत्मस्वभावो में थिरभाव कर उसमे जीव का सामायिक गुण सम्पूर्ण होता है। भ आ/वि ११६/२७४/१२ आवासयाणे आवश्यकान। ण वसो अबसो
अबसस्स कम्ममावसग इति व्युत्पत्ताव पि सामायिकादिम्वेवाय शब्दो वर्तते । व्याधिदौर्बल्यादिना व्याकुलो भण्यते अवश परवश इति यावत। तेनापि कर्तव्यं मति। यथा आशु गच्छतीत्यश्व इति व्युत्पत्तावपि न व्याघ्रादौ वतते अश्वशब्दोऽपि तु प्रसिद्धिवशाद तुरग एव । एवमिहापि अवश्यं यत्किचन कर्म इतस्ततः परावृत्तिराक्रन्दन, पत्करण वा तद्भण्यते। अथवा आवासकाना इत्ययमर्थः आवासयन्ति रत्नत्रयमारमनीति । -'ण वसो अवसो अबसस्स कम्ममावसं बोधव्वा' ऐसी आवश्यक शब्द की निरुक्ति है। व्याधि-राग अशक्तपना इत्यादि विकार जिसमें है ऐसे व्यक्तिको अवश कहते है, ऐसे व्यक्ति को जो क्रियाएँ करना योग्य है उनको आवश्यक कहते है। जैसे--'आशु गच्छतीत्यश्व ' अर्थात जो शीघ्र दौडता है उसको अश्व कहते है, अर्थात् व्याघ आदि कोई भी प्राणी जो शीघ्र दौड़ सकते है वे सभी अश्व शब्दसे सगृहीत होते है। परन्तु अश्व शब्द प्रसिद्धिके वश होकर घोडा इस अर्थ में ही रूढ है। वैसे अवश्य करने योग्य जो कोई भी काय वह आवश्यक शब्दसे कहा जाना चाहिए जैसे---लोटना, वरवट बदलना, क्सिीको बुलाना वगैरह कर्तव्य अवश्य करने पड़ते है परन्तु आवश्यक शब्द यहाँ सामायिकादि क्रियाओमें ही प्रसिद्ध है । अथवा आवासक ऐसा शब्द
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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