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इंद्रिय
४ स्पर्शनादि सभी इन्द्रि में भी कचित् अप्राप्य कारीपने संबन्धी
घ १/१.१.१९/१४२/२
ग्रह नोम्यत इति चेन्न, एकेन्द्रियेषु योग्यदेशस्थितनिधिषु निधिस्थित प्रदेश एव प्रारोहक्यानृपतित स्पर्शनस्यप्राप्तार्थ ग्रहणसिद्ध 1 मनोपलभ्यमानस्यापि तदश्न यद्य, पलास्विफालगोचर शेष पर्व रम्यदनुपलब्धरूपाभागो भविष्यत् । न चत्रमनुपलम्भात् । प्रश्न शेष इन्द्रियों में अप्राप्तका ग्रहण नही पाया जाता है, इसलिए उनसे अर्थविग्रह नहीं होना चाहिए। उत्तर - नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियोंमें उनका योग्य देश में स्थित निधवाले प्रदेशमे हो अकुरोंका फेलाब अन्यथा बन नहीं सकता, इसलिए स्पर्शन इन्द्रियके अपात अर्थका ग्रहण, अर्थात अप्राप्त अर्थावग्रह, बन जाता है। प्रश्न इस प्रकार यदि स्पर्शन इन्द्रियके अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना बन जाता है तो बन जाओ। फिर भी शेष इन्द्रियो के अप्राप्त अर्थ का ग्रहण नही पाया जाता है। उत्तर-नहीं क्योंकि, यदि शेष इन्द्रियो से अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना क्षायोपश मिक ज्ञानके द्वारा नहीं पाया जाता है तो मत पाया जावे। तो भी वह है ही, क्योंकि यदि हमारा ज्ञान त्रिकाल गोचर समस्त पदार्थोंको जाननेवाला होता तो अनुपलब्धका अभाव सिद्ध हो जाता अर्थात् हमारा ज्ञान यदि सभी पदार्थोंको जानता तो कोई भी पदार्थ उसके लिए अनुपलब्ध न होता। किन्तु हमारा ज्ञान तो त्रिकालवर्ती पदार्थों को जाननेवाला है नहीं, क्योंकि सर्वपदार्थोंको जाननेवाले ज्ञानकी हमारे उधि हो नहीं होती है।
१२/२.४.२०/२२/९३ हो नाम अपस्थग्रहणं पमिदमोदियाण,
से सिंदियाणं; तहोवल भाभावादोत्ति। ण, एड दिएस फासिंदिग्रस्स अपत्तणिहिरगहणुवल भादो । तदुबलभो च तत्थ पारोहमोच्छणाव लभदे । सेसि दियाणपत्तस्थग्रहण' कुदोष गम्मदे । जुत्तीदो। तं जहापानिदिभिदिव फासिदियाणमुक्करससिओ जोयणाणि । यदि एसिनिदिया मुक्करसखखमसमदजीवो पय जो
हितोपडिय आगोग्गलान जिव्या पाण- फासिदिए लग्गाण रस-गंध फार्म जागदि तो समतदो णवजायणभं तर द्विदगृह भक्खण तग्गज णिदअसाद च तस्स पसज्जेज्ज । ण च एवं तिव्विदि
खओवस मग चक्कट्ठी पि असायसायर तोपवेसप्पसंगादो । कि सिमीमा मरण पितरविसे जिम्मा संभवादियाण जोरगणा
दकमाणा च जीवाशुभोदो कि चसि महरभो समवदितोय-पद इसे मिलिय दुद्धस्स महुरत्ताभावादो । तम्हा सेसिंदियाणं पि अपत्तग्गहण मरिथ तिइच्छिद । = पूर्व - चक्षुइन्द्रिय और नोइन्द्रिय के अप्राप्त अर्थ करना रहा औवे, किन्तु शेष इन्द्रियोंके वह नहीं बन सकता, क्योंकि. वे अप्राप्त अर्थ को ग्रहण करती हुई नहीं उपलब्ध होतो ? उत्तर- नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियों में स्वन इन्द्रिय निधिको महन करती हुई उपलब्ध होती है, और यह बात उस ओर प्रारोह छोडने से जानी जाती है। पूर्व - शेष इन्द्रियाँ अप्राप्त अर्थ को ग्रहण करती है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है । उत्तर-१. युक्तिसे जाना जाता है । यथा-प्राणेन्द्रिय, जिह्न न्द्रिय और स्पर्शनेद्रियका उत्कृष्ट विषय नौ योजन है । यदि इन इन्द्रियोके उत्कृष्ट क्षयोपसमको प्राप्त हुआ
नौ योजन के भीतर स्थित द्रव्यों में से निकलकर आये हुए तथा निद्रा, और स्पर्शन इन्द्रियोंसे लगे हुए गली रसग और स्पर्शको जानता है तो उसके चारों आरसे नौ योजन के भीतर स्थित विष्ठा भक्षण करनेका और उसकी गंध के सूँघनेसे उत्पन्न हुए दुखका प्रसग प्राप्त होगा। परन्तु ऐसा नहीं क्योंकि ऐसा
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२. इंद्रिय निर्देश
माननेपर इन्द्रियो के सी योपशमको प्राप्त हुए चक्रवर्तियों के भी असाता रूपी सागर के भीतर प्रवेश करनेका प्रसंग आता है। २. दूसरे, ती क्षयोपशम को प्राप्त हुए जीवोंका मरण भी हो जायेगा क्योकि नौ योजनके भीतर स्थित अग्निसे जलते हुए जीवोका जीना नही बन सकता है । ३. तीसरे ऐसे जीवोंके मधुर भोजनका करना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, अपने क्षेत्रके भीतर स्थित तरसना और नीमने स्टुक रससे मिले हुए दूधमें मधुर रसका अभावहो जायेगा । इसलिए शेष इन्द्रियाँ भी अप्राप्त अर्थको ग्रहण करती हैं, ऐसा स्वीकार करना चाहिए ।
५ फिर प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीसे क्या प्रयोजन
ध. १/१,९,१९५/३५६/३ न कात्स्न्येनाप्राप्तमर्थस्यानि सृतत्वमुक्तत्व वा न महे यतस्तदवग्रहादि निदानमिन्द्रयाणामप्राप्यकारित्वमिति । कि तर्हि कथं चरनिद्राभ्यामनि स्वानुतामग्रहादिरपि प्राप्य करगादितिचेत्र योग्यदेशावस्थितेरेव तेरभिधानात् तथा च रसगधस्पर्शानां स्वग्राहिभिरिन्द्रयै' स्पष्टं स्वयोग्यदेशाव स्थिति शब्दस्य च रूपस्य चक्षुषाभिमुखतया न तर दिनाचा प्राप्यकारित्वमनि सृतानुक्ताग्रहादिसिद्धपदार्थ के पूरी तरहसे अनिसृतपनेको और अनुक्रूपनेको हम प्राप्त नहीं कहते है। जिससे उनके अरग्रहादिका कारण इन्द्रियोका अप्राप्यकारीपना होये । प्रश्न - तो फिर अप्राप्यकारीपने से क्या प्रयोजन है' और यदि पूरी तरहसे अनि सृतत्व और अनुक्तत्वको अप्राप्त नहीं कहते हो तो चक्षु और मनसे अति और अनुक्तके अवग्राहादि कैसे हो सकेंगे दि पशु और मनसे भी पूर्वोक अनि और अनु अग्रहार माने जावेगे तो उन्हें भी प्राप्यकारित्वका प्रसंग आ जायेगा । उत्तरनहीं क्योकि इन्द्रियोंके ग्रहण करनेके योग्य देशमें पदार्थोंको अपस्थितिको ही पाकिहते है। ऐसी अवस्थामें रस, गंध और प का उनको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियोंके साथ अपने-अपने योग्य देशमें अवस्थित रहना स्पष्ट है। शब्दका भी उसको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियके साथ अपने योग्य देश में अवस्थित रहना स्पष्ट है । उसी प्रकार रूपका चक्षुके साथ अभिमुख रूपसे अपने देश में अवस्थित रहना स्पष्ट है, क्योंकि, रूपको ग्रहण करनेवाले चक्षुके साथ रूपका प्राप्यकारीपना तथा अनि मृत व अनुक्तका अवग्रह आदि नहीं बनता है।
३ इन्द्रिय-निर्देश
दोष भाद्र
१ भावेन्द्रिय ही वास्तविक इन्द्रिय है ६. १०१.१.१०/२३/४ पायुमा भावेन्द्रियाँ नहीं पायी जाती है, इसीलिए व्यभिचार दोष आता है । उत्तर--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँपर मानेन्द्रियोंको अपेक्षा पचेद्रियपना स्वीकार किया है ।
मभिचारादिति प्रश्नकेक्सी
पेन्श्य होते हुऐ भी
२.१.१/दिया निष्पति पाके दिसपणे भ तण धडदे । कुदो। भाविदियाभावादो। भाविदिय णाम पचण्हमि दियाण खओवसमो ण सो खीणावरणे अस्थि । अध दविदियस्स यदि गण कौरदि तो सन्नीगमपसका सपना पनि दो चैव पाणा भवंति पचण्हं दव्त्रे दियाणमभावादो । क्तिने हो आचार्य थ्येन्द्रियो को पूर्णताको अपेक्षा फेमली के दशम कहते है. परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि, सयोगी जिनके भावेन्द्रियाँ नहीं पायी जाती है। पाँचों इन्द्रियागरण कर्मक्षयो पक्षको भावेन्द्रियों कहते है। परन्तु जिनका वावरण कर्म समुल नष्ट हो गया है उनके यह क्षयोपशम नहीं होता है। और यदि प्राणोंमें द्रव्येन्द्रियोंका हो ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवोंके अपर्याप्त
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