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अनुभाग
४ हतसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थानका लक्षण ध. १२/४,२,७,३५/२६/५ 'हदसमुपत्तियकम्मेण ' इति बुत्ते चिल्लमभागसतकम्म सव्व घादिय अणतगुणहीणं काढूण 'टिरुदेण' इति बुत होदितसमुत्पत्तिक कर्मवाले ऐसा कहनेपर पूर्व के समस्त अनुभाग सवका घात करके और उसे अनन्त गुणा होन करके स्थित हुए जीवके द्वारा, यह अभिप्राय समझना चाहिए । कपा /५/४-२२/२००/३३१/२ ते
तानि हतसमुत्पत्तिकानि । घात किये जानेपर जिन सत्कर्मस्थानोकी उत्पत्ति होती है, उन्हें हतसमुत्पत्तिक कहते है।
क पा./५/४-२२/१९८६/ १२५ / २४ पुणो एदेसिमस खे० लोगमेत्तछुट्ठाणाण मज्जनगुड अगुणिकुकाणा
सखे लोगणाणि हृदय मणि भणति । बघटठाणघादेण बधट्ठाणाण विच्चालेसु जच्च तरभावेण उप्पणतादो। इन असंख्यात लोकप्रमाण पट्स्थानोके मध्य में अष्टांक और उर्वक रूप जा अण तगुग वृद्वियों और अणत गुणहानियों है उनके मध्यमें जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान है, उन्हे हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान कहते है | क्योंकि बधस्थानका घात होनेसे बन्धस्थानोके बोच मे जात्यन्तर रूपसे उत्पन्न हुए है ।
५ हतहत समुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थानका लक्षण कपा /५/४-२२/९७० / ३३१/२ हतस्य हति हतहति तत समुत्पत्तिर्येषा सानि ततसमुत्पत्तिकानि पाते हुएका पुन धाये जानेपर जिन सत्कर्मस्थानोकी उत्पत्ति होता है, उन्हे हतहतसमुत्पत्तिक कहते है।
क. पा./२/४-२२/११८८/०६/२ पुणो एमिमम० लोकमेतानं हदसमुपतियस त कम्मानपतगुणहाणि अवकाश विद्यालेसु असंखे० लोगमेतद्वाणाणि हृदहदसमुप्पत्तियस तकम्म द्वाणाणि, चति अमागड्डाणाणि यदाणु भागद्वाहितो विसरि साणि धारयधसमुपययभागाविसरिसभावेण उप्पाइदत्तादो । इन असख्यात लाकप्रमाण हतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थाना के जो कि अष्टाक और उबक्रूप अनन्तगुण वृद्धि - हानिरूप है, बीच में जा अम ख्यात लोक प्रमाण षट्स्थान है, उन्हे हतहतसमुत्पत्ति सत्कर्मस्थान कहते है बधस्थानो से विलक्षण जो अनुभागस्थान रसघात से उत्पन्न हुए है, उनका घात करके उत्पन्न हुए ये स्थान अन्यसमुत्पतिक और हतसमुत्पतिक अनुभागस्थानों से विलक्षणरूपसे ही वे उत्पन्न किये जाते है ।
२. अनुभागबन्ध निर्देश
१. अनुभाग बन्धसामान्यका कारण १२/४-२८१२/२८८
वि अनुभागवेया १३० कषाय प्रत्यय से स्थिति व अनुभाग वेदना होती है। (स सि./८/३/ ३७६) (रावा./८/३,१०/५६७ (१२/४-२-८-१३/गा २/४८६) (न.च. बृ १५५), (गो, क. २५०/२६४) (२३) २. शुभाशुभ प्रकृतियोंके जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बन्धके
कारण
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पं. सं. / ४/४५१-४५२ सुहपयडीण विसोही तिब्बं असुहाण संकिलेसेण । विवरीए जहणो अभाव ॥४५१ मायातं पिपस्था सोहि तिव्वाओ बाय अन्यथा मिकि हिस्स १४४२॥ शुभ प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध विशुद्ध परिणामोंसे [ती] अर्थाद उत्कृष्ट होता है। अशुभ प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध संक्लेश परिणामों से उत्कृष्ट होता है। इससे विपरीत अर्थात शुभ प्रकृतियोंका सक्लेश और अशुभ प्रकृतियोंका विशुद्धिसे जघन्य अनुभाग बन्ध होता है ॥४५१ ॥ जो ब्यालीस प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, उनका उत्कृष्ट अन भागबन्ध विशुद्धिगुणकी उत्कटता वाले जीव के
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होता है तथा ब्यासी जो अप्रशस्त प्रकृतियाँ है उनका उत्कृष्ट अन भागबन्ध उत्कृष्ट सक्लेशवाले मिथ्यादृष्टि जीव होता है ॥४५२ ॥ ( स स /८/२१ / ३६८) (रा. वा /८/२१.१/५८ / १४ ) ( गो क. मू/ १६३१६४ / १६१) ( स. १२/२०१२७४।
३. शुभाशुभ प्रकृतियो के चतुःस्थानीय अनुभाग निवश पंस / प्रा . / ४/४८७ सुहपयडीण भावा गुडडसियामयाण खलु सरिसा । इस दु शिरसिहालाहले अहमाई शुभ प्रकृतियों के अनुभाग गुड खाँड शक्कर और अमृतके तुल्य उत्तरोत्तर मिष्ट होते है पाप प्रतियोका अनुभाग निम, कांजीर, विहाकाल के समान निश्चय से उत्तरातर कटुक जानना । (पं.सं / ४ / ३१६ ) (गो क / मू/ १८४ / २१६) (द्र स /टी./३६/ :१) । ४. प्रदेशीके बिना अनुभागबन्ध सम्भव नहीं
ध. ६/१,६,७,४३/२०१/५ अणुभागबधादी पदेसबंधी तक्कारण जोगाणा सिद्धाणपणा अनुभागो = अनुभाग बन्धसे प्रदेश बन्ध और उसके कारणभूत योगस्थान सिद्ध होते हैं, क्योंकि प्रदेशो के बिना अनुभाग बन्ध नहीं हो सकता। ५. परन्तु प्रदेशोंकी होनाधिकमासे अनुभागकी हीनाधिकता नहीं होती
कपा /५/४-२२/१५५०/३३०/११ उदीए इ पसलमा अनुमपादो णत्थि त्ति जाणावणट्ठ । प्रदेशो के गलनेसे जैसे स्थिति घात होता है, वैसे प्रदेशो के गलने से अन ुभागका त नहीं होता
क. पा/५/४-२२/१५७२/३३६/१ उक्कट्ठदे अणुभागट्ठाणाविभागपडि छेदा वढी अभावादो। ...ण सो उक्कणाएं बढद, बघेणे वि दुखणाणुसीदो उत्कृषण के होनेपर अनुभाग स्थानके अि भाग दोकी वृद्धि नहीं होती है। अनुभाग के अविभाग प्रतिच्छेदोका समूहरूप वह अनुभाग स्थान उत्कर्षणसे नहीं बढ़ता, क्योकि बन्धके बिना उनका उत्कर्षण नहीं बन सकता ।
ध. १२/४,२,७,२०१/११५/५ जोगबढीदो अणुभागमडीए अभावादो - योग वृद्धिसे अनुभाग वृद्धि सम्भव नहीं ।
३. घाती अघाती अनुभाग निर्देश
१. घाती व अघाती प्रकृतिके लक्षण
७/२.१.१६/६२/६३ केरला-स-सम्मत पारितयरियाणमनेयभेभिनाष जीवगुणाविरोहित सेसि पाविवदेसादी - केवलदर्शन, सम्ययस्य पारित्र और वीर्य रूप जो अनेक भेदभिन जीवगुण हैं, उनके उक्त कर्मविरोधी अर्थात घातक हो से है और इसलिए वे घातियाकर्म कहलाते हैं । (गो क / जी प्र / १०१८) (घ११८)।
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घ ७/२.१.१४/१२/० से सम्मान पादियय देसो किया होदि न सि जीवगुणविणास सतीष अभावा शेप कर्मोंको पाहिया नहीं कहते क्योंकि उनमें जीवके गुणोंका विनाश करनेकी शक्ति नहीं पायी जाती। ( पंध /उ. / १६६) ।
२. पाती अघातीकी अपेक्षा प्रकृतियोंका विभाग रावा./८/२३.७/५८४/१८ ता पुनः कर्मप्रकृतयो द्विविधापालिका अमारिकाश्येति रात्र ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायाख्या पाटिका। इतरा अधातिका कर्म प्रकृतियों दो प्रकारकी है- धारिया व अघातिया । तहाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह व अन्तराय मे तो घातिया है और दोष चार वेदनीय, आयु नाम गोत्र) अघातिया । (ध.७/२.१.१५/६२). (गो../मू./०६/७)
२. जीवविपाकी प्रकृतियोंको घातिया न कहनेका कारण घ.७/२.१.१२/१३/१ जीव विवाइणामकम्मयेयणियाण पादिवम्ययमको कि होदिजीवस्स अध्यवसुभगभगादिसमुपाय
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