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नभाव
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अभिनिबोध
तोनिके परस्पर स्वभाव भेदकरि वाका निषेध वामैं और वाका निषेध वामैं इतरेतराभाव है। (जैसे घटका पटमें और पटका घटमें अभाव अन्योन्याभाव है।
३. अन्योन्याभाव व अत्यन्ताभावमें अन्तर वै.द./भा 18-१५/२७३ उन तीनों प्रकारके अभावोंके अतिरिक्त जो
अभाव है, वह अत्यन्ताभाव है, क्योंकि प्रागभावके पश्चात् नाश हो जाता है, अर्थात वस्तुकी उत्पत्ति होनेपर उस (प्रागभावका ) अभाव नहीं रहता। और विध्वंसाभावका नाश होनेसे प्रथम अभाव है। अर्थात जब तक किसी वस्तुका नाश नहीं हुथा तब तक उसका विध्वंसाभाव उपस्थित ही नहीं। और अन्योन्याभाव विपक्षीमें रहता है और अपनी सत्तामें नहीं रहता। परन्तु अत्यन्ताभाव इन तीनोंका विपक्षी अभाव है। अष्टसहस्री ११/पृ. १०६ तत सूक्तमन्यापोहलक्षणं स्वभावान्तरात्स्वभावब्यावृत्तिरन्यापोह इति। तस्य कालत्रयापेक्षेऽत्यन्ताभावेऽप्यभावाइतिव्याप्त्ययोगात । न हि घटपटयो रितरेतराभाष कालत्रयापेक्षः कदाचिपटस्यापि घटत्वपरिणामसंभवाद, तथा परिणामकारणसाकण्ये तदविरोधात, पुदगलपरिणामानियमदर्शनात् । न चैवं चेतनाचेतनयोः कदाचित्तादात्म्यपरिणाम', तत्त्वविरोधात् । अष्टसहस्री ११/पृ. १४४ न च किंचिस्पात्मन्येव परात्मनाप्युपलभ्यते ततः किचिस्वेष्ट तत्त्वं क्वचिदनिष्टेऽथ सत्यारमनानृपलभ्यमान' कालप्रयेऽपि तत्तत्र तथा नास्तीति प्रतिपद्यते एवेति सिद्धोऽत्यन्ताभावः। -इस प्रकार स्वभावान्तरसे स्वभावको व्यावृत्तिको अन्यापोह कहते हैं, यह लक्षण ठीक हो कहा है. यह लक्षण कालत्रय सापेक्ष अत्यन्ताभावमें भी रहता है । अतः इसमें अतिव्याप्ति दोष नहीं आता। घट और पटका इतरेतराभाव कालत्रयापेक्षी नहीं है। कभी पटका भी घट परिणाम सम्भव है, उस प्रकार के परिणमनमें कारण समुदायके मिलनेपर, इसका अविरोध है। पुद्गलोंमें परिणामका नियम नहीं देखा जाता है, किन्तु इस तरह चेतन-अचेतनका कभी भी तादात्म्य परिणाम नहीं हो सकता, क्योंकि वे दोनों भिन्न तत्व है-उनका परस्परमें विरोध है। बाप्त, मी /प. जयचन्द (अष्टसहस्रोके आधारपर) ११ इतरेतराभाव है
सो जो दोय भावरूप वस्तु न्यारे-न्यारे युगपद दीसै तिनिकै परस्पर स्वभाव भेदकरि वाका निषेध वामैं और वाका निषेध वामैं इतरेतराभाव है। यह विशेष है कि यह तो पर्यायार्थिक नयका विशेषपणा प्रधानकरि पर्यायनिके परस्पर अभाव जानना । बहुरि अत्यन्ताभाव है सो द्रव्याथिकनयका प्रधानपणाकरि है। अन्य द्रव्पका अन्य द्रव्य विर्षे अत्यन्ताभाव है। ज्ञानादिक तौ काहू काल विर्षे पुदगल में होय नाहीं। बहुरि रूपादिक जोव द्रव्यमै काहु काल विर्षे होइ नाहीं। ऐसे इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव ये दोऊ (है)। * अन्योन्याभाव केवल पुदगल मे ही होता है
-दे० अभाव २/३ ४. चारों अभावोंको न मानने में दोष आप्त मो. म् १०,११ कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य निह्नवे । प्रध्वसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्तता बजेद ॥१०॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे। अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ॥११॥ -प्रागभावका अपलाप करनेपर कार्यद्रव्य घट पटादि अनादि हो जाते है। प्रध्वंसाभावका अपलाप करनेपर घट पटादि कार्य अनन्त अर्थात् अन्तरहित अविनाशी हो जाते हैं ॥१०॥ इतरेतराभावका अपलाप करने पर प्रतिनियत व्यकी सभी पर्याये सर्वात्मक हो जाती हैं। रूगदिकका स्वसमवायी पुद्गलादिकसे भिन्न जीवादिकमें समवेत होना अन्यत्रसमवाय कहलाता है । यदि इसे स्वीकार किया जाता है, अर्थात यदि अत्यन्ताभावका अभाव माना जाता है तो पदार्थका
किसी भी असाधारण रूपसे कथन नहीं किया जा सकता ॥११॥ (आशय यह है कि इतरेतराभावको नहीं माननेपर एक द्रव्यको विभिन्न पर्यायों में कोई भेद नहीं रहता-सब पर्याये सबरूप हो जाती है। तथा अत्यन्ताभावको नहीं माननेपर सभी वादियोके द्वारा माने गये अपने-अपने मूल तत्त्वोमें कोई भेद नहीं रहता-एक तत्त्व दूसरे तत्त्वरूप हो जाता है। ऐसी हालतमें जीवद्रव्य चैतन्यगुणकी अपेक्षा चेतन ही है और पुदगल द्रव्य अचेतन हो है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।) (क. पा. १/७२०५/गा. १०४.१०५/२५०)। ५. एकान्त अभाववादमें दोष आप्त. मी.मू./१२ अभावैकान्तपक्षेऽपि भावापह्नववादिनाम् । बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधग-दूषणम् ॥१०६ -जो वादी भावरूप वस्तुको सर्वथा स्वीकार नहीं करते है, उनके अभावैकान्त पक्षमें भी बोध अर्थात् स्वार्थानुमान और वाक्य अर्थात परार्थानुमान प्रमाण नहीं मनते हैं। ऐसी अवस्थामें वे स्वमतका साधन किस प्रमाणसे करेंगे,
और परमतमें दूषण किस प्रमाणसे देंगे। अभाव शक्ति-दे, भाव । अभिघट-१. आहारका एक दोष-दे. आहार II/४/४ । २. वसति
का एक दोष-दे. वसति । अभिचन्द्र-(म पु./३/१२६) दश कुलकर (विशेष दे. शलाका
पुरुषा)। अभिजित एक नक्षत्र । दे. नक्षत्र। अभिधान- सं टी./१// यदेव व्याख्येयसूत्रमुक्तं तदेवाभिधानं वाचकं प्रतिपादक भण्यते । -जो व्याख्यान किये जाने योग्य सूत्र कहे गये हैं, वही अभिधान अर्थात् वाचक या प्रतिपादक कहलाते हैं। अभिधानचिन्तामणि कोश-दे. शब्दकोश। अभिधाननिबंधननाम-ध. १५/२/५ जो णामसद्दो पवुत्तो संतो
अप्पाणं चेक जाणावेदि तमभिहाणणिबंधणं णाम । -जो सज्ञा शब्द प्रवृत्त होकर अपने आपको जतलाता है, वह अभिधान निवन्धन (नाम) कहा जाता है। अभिधानमल-दे. मल। अभिधेय-द्र.सं टी/१/७/६ अनन्तज्ञानाद्यनन्तगुणाधारपरमात्मादिस्वभावोऽभिधेयो वाच्यः प्रतिपाद्यः।-अनन्तज्ञानादि अनन्तगुणों का आधार जो परमात्मा आदिका स्वभाव है, वह अभिषेय है, अर्थात् वाच्य या प्रतिपाद्य अथवा कथन करने योग्य विषय है। अभिनंदन-द्र स.टी/१३ अभिनन्दनमभिवृद्धिः। -अभिनन्दन ___ अर्थात अभिवृद्धि । अभिनन्दन (म.पु १५० श्लो.स.) पूर्वके तीसरे भवमें मंगलावती देश का राजा महाबल था ।२-३॥ दूसरे भवमें विजय नामक विमानमें अहमिन्द्र हुए ॥१३॥ और वर्तमान भवमें चौथे तीर्थकर हुए। आप अयोध्या नगरीके राजा स्वयंवरके पुत्र थे ॥१६-१६॥ एक हजार राजाओंके सग दीक्षा धारण कर ली। उसी समय मन.पर्यायज्ञानकी प्राप्ति हो गयी १४६-५३॥ अन्त में मोक्ष प्राप्त किया ६५६६॥ (विशेष दे तीर्थकर ५)। अभिनिबोध-स सि./१/१३/१०६ अभिनिमोधनमभिनिमोधः।
-साधनके साध्यका ज्ञान अभिनिबोध ज्ञान है। ध.६/१,६-१,१४/१५ अहिमुह-णियमिय अस्थावबोहो अभिणियोहो। थूल-बढमाण-अर्ण तरिद अस्था अहिमुहा। चविखदिए रूवं णियमिदं, सोदिदिए सद्दो, पाणिदिए गधो, जिभिदिए रसो, फासिदिए फासो,
जैनेन्द्र.सिद्धान्त कोश
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