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उत्पादत्ययघ्रौव्य
३ द्रव्य गुण पर्याय तोनो त्रिलक्षणात्मक है
भंग पर्यायोंमें होता है, पर्याय नियमसे द्रव्यमें होती है, इसलिए साराका सारा एक द्रव्य ही है। (विशेष दे उत्पाद २/१)। पं.ध./ २०० उत्पादस्थितिभड्गा पर्यायाण भवन्ति किल न सत । ते पर्याया' द्रव्य तस्माद्रव्य हि ततत्रितयम् ।२०० -निश्चयसे उत्पाद व्यय तथा धौव्य ये तीनो पर्यायोके होते है सतके नहीं, और क्योंकि वे पर्याय ही द्रव्य है, इसलिए द्रव्य हो उत्पादादि तीनोवाला कहा जाता है।
५ पर्याय भी कथंचित् ध्रुव है श्लो वा २/१-६/१३/३५१/२७ एकक्षणस्थायित्वस्याभिधानात् । श्लो. वा २/१-७/२४/५८०/२२ कवल यथार्जुसूत्रात्क्षणस्थितिरेव भाव स्वहेतोरुत्पन्नस्तथा द्रव्याथिकनयारकालान्तरस्थितिरेवेति प्रतिचक्ष्महे सर्वथाप्यबाधितप्रत्ययात्तत्सिद्धिरिति स्थितिरधिगम्या। = एक क्षण में स्थितिस्वभावसे रहने का अर्थ अक्षणिकपना कहा गया है, अर्थात जो एक क्षण भी स्थितिशील है वह ध व है जैसे ऋजुसूत्रनयसे एक क्षण तक ही ठहरनेवाला पदार्थ अपने कारणोसे उत्पन्न हूआ है, तिस प्रकार द्रव्यार्थिकनयसे जाना गया अधिक काल ठहरनेवाला पदार्थ भो अपने कारणोसे उत्पन्न हुआ है, यह हम व्यक्त रूपसे कहते है। सभी प्रकारो करके बाधारहिल प्रमाणोसे उस कालान्तरस्थायी भुव पर्यायको सिद्धि हो जाती है। ध,४/१,५,४/३३६/१२ मिच्छत्त णाम पज्जाओ । सो च उप्पादविणासलक्षणो, द्विदीए अभावादो। अह जइ तस्स ट्ठिदी वि इच्छिज्जदि, तो मिच्छत्तस्स दव्यत्तं पसज्जदे,' ण एस दोसो, जमक्कमेण तिलकावणं त दवं, ज पुण कमेण उप्पादटिदिभगिल सो पज्जाओ त्ति जिणोवदेसादो। = प्रश्न-मिथ्यात्व नाम पर्यायका है, वह पर्याय उत्पाद और व्यय लक्षणवालो है, क्योकि, उसमें स्थितिका अभाव है, और यदि उसके स्थिति भी मानते है तो मिथ्यात्वके द्रव्यपना । प्राप्त होता है । उत्तर-यह कोई दोष नही, क्योकि, जो अक्रमसे उत्पाद व्यय और धौव्य इन तीनो लक्षणोवाला होता है वह द्रव्य होता है और जो क्रमसे उत्पाद स्थिति और व्यय वाला होता है
वह पर्याय है, इस प्रकारसे जिनेन्द्रका उपदेश है । प्रसा/त.प्र १८ अखिलद्रव्याणां केनचित्पर्यायेणोत्पाद, केनचिद्विनाश
केनचिदधौव्यमित्यवबोद्धव्यम् । =सर्व द्रव्योका किसी पर्यायसे उत्पाद, किसी पर्यायसे विनाश और किसी पर्यायसे ध्रौव्य होता है। .ध./पू.२०३ ध्रौव्य तत कथा चित् पर्यायाचि केवल न सत' । उत्पादव्यय दिद तच्चै काश न सर्व देशं स्यात् ।२०३/- पर्यायार्थिक नयसे धौव्य भो कथंचित सत्का होता है, केवल सत्का नही। इसलिए उत्पाद व्यय को भॉति वह धौव्य भी सत का अश (पर्याय) है परन्तु सर्व देश नही।
६ द्रव्य गुण परि तीनो सत् है प्र. सामू १०७ सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चे य पज्जओ त्ति वित्थारो।
जा खलु तस्स अभावो सो तदभावो अतब्भावो । सत् द्रव्य, सत् गुण और सव पर्याय इस प्रकार सत्ता गुण का विस्तार है।
७ पर्याय सर्वथा सत् नहीं है घ. १५/१/१७ असदकरणादुपादानग्रहणाव सर्वसंभवाभावात । शक्तस्य
शक्यकरणाद कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।। (सरिय कारिका)इति के वि भण ति । एवं पि ण जुज्जदे । कुदो । एयंतण संते कत्तार बावारस्स बिहलत्तप्पसगादो, उवायाण गणाणुववत्तीदो, सव्वहा सतरय संभव विरोहादो, सबहा सते कज्जकारणाभावाणुववसीदो। किंच-विप्पडिसेहादो ण संतस्स उप्पत्ती । जदि अस्थि, कधं तस्सुप्पत्ती। अह उप्पज्जई, कधं तस्स अस्थित्तमिदि। -प्रश्न
कि असत् कार्य किया नही जा सकता है, उपादानोके साथ कार्यका सम्बन्ध रहता है, किसी एक कारणसे भी कार्योंकी उत्पत्ति सम्भव
नही है, समर्थ कारण के द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, तथा कार्य कारण-स्वरूपही है--उससे भिन्न सम्भव नहीं है, अतएव इन हेतुओके द्वारा कारण व्यापारसे पूर्व भी कार्य सतही है, यह सिद्ध है ।११ (साख्य) उत्तर-इस प्रकार किन्ही कपिल आदिका कहना है जो योग्य नही है। कारण कि कार्यको सर्वथा सत माननेपर क्तकि व्यापारके निष्फल होनेका प्रसग आता है । इसी प्रकार सर्वथा कार्यके सत होनेपर उपादानका ग्रहण भी नही होता। सर्वथा सत् कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है । कार्यके सर्वथा सत् होने पर कार्यकारणभाव ही घटित नहीं होता। इसके अतिरिक्त असंगत होनेसे सत्-कार्यकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्यो कि, यदि 'कार्य' कारण व्यापारके पूर्व मे भी विद्यमान है तो फिर उसकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है और यदि वह कारण व्यापारसे उत्पन्न होता है, तो फिर उसका पूर्वमें विद्यमान रहना कैसे सगत कहा जावेगा।
८ लोकाकाशमें भी तीनो पाये जाते है का अ./मू ११७ परिणाम सहावादा पडिसमय परिणमति दव्याणि । तेसि परिणामादो लोयस्स वि मुणह परिणाम ।१९७१ = परिणमन करना वस्तुका स्वभाव है, अत द्रव्य प्रति समय परिणमन करते है। उनके परिणमनसे लोक का भी परिण मन जानो।
९ धर्मादि द्रव्योमें परिणमन है पर परिस्पन्द नहीं स सि. ५/७/२७:/१ अत्र चोद्यते-धर्मादीनि द्रव्याणि यदि निष्क्रियाणि ततस्तेषामुत्पादो न भवेत् । क्रिपापूर्वको हि घटादीनामुत्पादो दृष् । उत्पादाभावाच्च व्यायाभाव इति । अत सर्व द्रव्याणामुत्पादादित्रितयकल्पनाव्याघात इति । नत्र, कि कारणम् । अन्यथोपपत्ते । क्रियानिमित्तोत्पादाभावेऽप्येषा धर्मादीनामन्यथोत्पाद कल्प्यते । तद्यथा द्विविध उत्पाद स्वनिमित्त परप्रत्ययश्च । षट्स्थानपतितया वृद्धया हान्या च प्रवर्तमानाना स्वभाबादेस्तेषामुत्पादो व्ययश्च । प्रश्न - यदि धर्मादि द्रव्य निष्क्रिय है तो उनका उत्पाद नही बन सकता, क्योकि घटादिकका क्रियापूर्वक ही उत्पाद देखा जाता है, और उत्पाद नही बनने से इनका व्यय भी नहीं बनता। अत 'सब द्रव्य उत्पाद आदि तीन रूप होते है. इस कल्पनाका ठयाघात हो जाता है। उत्तर--नही, क्योकि इनमे उत्पादादि तीन अन्य प्रकारसे बन जाते है। यद्यपि इन धर्मादि द्रव्योमे क्रिया निमित्तक उत्पाद नहीं है तो भी इनमें अन्य प्रकारसे उत्पाद माना गया है। यथा-उत्पाद दो प्रकारका है-स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद । तहाँ इनमें छह स्थानपतित वृद्धि और हानिके द्वारा वर्तन होता रहता है। अत इनका उत्पाद और व्यय स्वभावसे (स्व निमित्तक) होता है। (रा. वा. ५/७/३/४४६/१०)
१० मुक्त आत्माओमें भी तीनो देखे जा सकते हैं प्र सा /मू. १७ भगविहीणो य भवो सभव परिवज्जिदो विणासो हि । विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिस भवणाससमवायो ।१७) - उसके (शुद्धात्मस्वभावको प्राप्त आत्माके) विनाश रहित उत्पाद है, और उत्पादरहित विनाश है। उसके ही फिर धौव्य, उत्पाद और विनाशका समय विद्यमान है । १७५ प्र. सा./ता वृ १८/१२ सुवर्ण गोरसमृत्तिकापुरुषादिमूर्तपदार्थेषु यथोत्पादादित्रयं लोके प्रसिद्ध' तथैवामूर्तेऽपि मुक्तजीवे । यद्यपि १. संसारावसानोत्पन्नकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशोभवति तथैव केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योत्पादच भवति, तथाप्युभयपर्यायपरिणतात्मद्रव्यत्वेन प्रौव्यत्व पदार्थस्वादिति । अथवा २ शेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भङ्गत्रयेण परिण मन्ति तथा ज्ञानमपि परिच्छित्त्यपेक्षया भङ्गत्रयेण परिण मति । ३ षट्स्थानगतागुरुलघुकगुण वृद्धिहान्यापेक्षया वा भङ्गत्रयमवबोद्धव्यमिति सूत्रतात्पर्यम् । -जिस प्रकार स्वर्ण, गोरस, मिट्टी व पुरुषादि मूर्त द्रव्योंमें उत्पा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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