________________
अनुयोग
अनुयोगसमास
हो अधिकारोका सख्याधिकार योनिभूत है। उसी प्रकार नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा वर्णन को जाने वाली काल प्ररूपणा और अन्तर प्ररूपणाका भी संख्याधिकार योनिभूत है। तथा यह अल्प है और यह बहुत है इस प्रकार कहे जानेवाले अक्पबहुत्वानु योगद्वारका भी सख्याधिकार योनिभूत है। इसलिए इन सबके आदिमें द्रव्यप्रमाणानुगम या संख्यानुयोगद्वारका ही कथन करना चाहिए । बहुत विषयवाला होनेके कारण भाव प्ररूपणाका वर्णन यहाँ नहीं किया गया है ।पृ. १५६॥ जिसने वर्तमानकालीन स्पर्शको जान लिया है, वह अनन्तर सरलतापूर्वक अतीत व वर्तमानकालीन स्पर्शको जान लेवे, इसलिए स्पर्शनप्ररूपणासे पहिले क्षेत्रप्ररूपणाका कथन रहा आवे। जिसने क्षेत्र और स्पर्शनको नही जाना है, उसे तत्सम्बन्धी काल और अन्तरको जानने का कोई भी उपाय नहीं हो सकता। उसी प्रकार भाव और अल्पन्न हुत्वकी प्ररूपणा क्षेत्र और स्पर्शनानुगमके बिना क्षेत्र और स्पर्शनको विषय करनेवाली नहीं हो सकती। इसलिए इन सबके पहिले ही क्षेत्र और स्पर्शनानुगमका कथन करना चाहिए ॥ १५७। यहाँपर अन्तरप्ररूपणाका क्थन तो किया नहीं जा सकता है, क्योकि अन्तरप्ररूपणाकी योनिभूत कालप्ररूपणा है। स्पर्शनप्ररूपणाके बाद भावप्ररूपणाका भी वर्णन नही कर सकते है, क्योकि कालप्रपणामे नीचेका अधिकार भावप्ररूपणाका योनिभूत है। उसी प्रकार स्पर्शनप्ररूपणाके बाद अल्पबहूखका भी कथन नहीं किया जा सकता, क्यो कि शेषानुयोग (भावानुयोग) अल्पबहुत्व प्ररूपणाका योनिभृत है। तब परिशेषन्यायसे वहाँपर काल हो प्ररूपणाके योग्य है यह बात सिद्ध हो जाती है ।पृ १५७॥ भाव प्ररूपणा और अल्पबहुम्व प्ररूपणाकी गोनिभूत होनेसे इन दोनाके पहिले ही अन्तर प्ररूपणाका उल्लेख किया गया है तथा अल्पबहुत्व की योनि होनेगे इसके पीछे ही भावप्ररूपणाका कथन किया है ॥पृ १५८॥ (रा वा /१/८,२-६/११) । २. अनुयोगद्वारोंमें परस्पर अन्तर
१. काल अन्तर व भंग विचयमे अन्तर ध ७/२.१,२/२७/१० णाणाजीवेहि काल-भंगविचयाणं को विसेसो। ण, जाणाजीवेहि भगविचयस्स मग्गणाण विच्छेदाविच्छेदस्थित्तपरूवयस्स मग्गणकाल तरेहि सह एयत्त विरोहादो। प्रश्न-नाना जीवोकी अपेक्षा काल और नाना जीवोका अपेक्षा भग विचय इन दोनो में क्या भेद है 1 उत्तर--नहीं, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय नामक अनयोगद्वार मार्गणाओके बिच्छेद और विच्छेदके अस्तित्वका प्ररूपक है। अत' उसका मार्गणाओके काल और अन्तर बतलानेवाले अनुयोगद्वारोके साथ एकत्व मानने में विरोध आता है।
२ उत्कृष्ट विभक्ति सर्वस्थिति अद्धाच्छेदमे अन्तर क.पा.३/३-२२/१२०/११/१२ मब ट्ठिदीए अद्धाछेद म्मि भणिद उक्कस्सदिदीए च को भेदो । बुच्चदे-चरिमणिसेयस्स जो कालो सो उक्कस्सअद्वाछेदम्मि भणि द उक्कस्सटि ठदी णाम। तत्थतणसम्वणिसेयाण समूहो सम्वठ्ठिदी णाम । तेण दोण्हमत्थि भेदो। उक्कस्सविहत्तीए उक्कस्सअद्धाछेदस्स च को भेदो। बुच्चदे-चरिमणि सेयस्स कालो उक्कस्सअद्धाच्छेदो णाम। उक्कस्सदिौविहत्ती पुण सव्वणियाणं सव्वणि सेयपदेसाणं वा कालो। तेण एदेसि पि अस्थि भेदो।-प्रश्नसर्व स्थिति और अद्भाच्छेदमें कही गयी उत्कृष्ट स्थिति में क्या भेद है। उत्तर-अन्तिम निषेकका जो काल है वह उत्कृष्ट अद्धाच्छेद में कही गयी उत्कृष्ट स्थिति है तथा वहाँपर रहनेवाले सम्पूर्ण निषेकोंका जो समूह है वह सर्व स्थिति है, इसलिए इन दोनों में भेद है। प्रश्न-उत्कृष्ट विभक्ति व उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें क्या भेद है । उत्तरअन्तिम निषेक के कालको उत्कृष्ट अद्धाच्छेद कहते है और समस्त निषेकोंके या समस्त निषेकोंके प्रदेशोंके कालको उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति कहते हैं, इसलिए इन दोनोंमें भेद है।
३ उत्कृष्ट विभक्ति व सर्वस्थितिमे अन्तर क.पा.३/३-२२/१२०/१५/५ एव संते सब्बुक्कस्सविहत्तीणं णस्थि भेदो त्ति णास कणिज्जं । ताणं पिणयविसेसवसेण कथंचि भेवलं भादो। तं जहा-ससुदायपहाणा उकास्स विहत्ती। अवयवपहाणा सव्व बिहत्ति त्ति । =ऐसा (उपरोक्त शकाका समाधान) होते हुए सर्व विभक्ति और उत्कृष्ट विभक्ति इन दोनोमें भेद नही है, ऐसी आशका नहीं करनी चाहिए, क्योकि, नय विशेष की अपेक्षा उन दोनोमें भी कथंचित भेद पाया जाता है। वह इस प्रकार है-उत्कृष्ट विभक्ति समुदायप्रधाम होती है और सर्व विभक्ति अवयवप्रधान होती है।
३. अनुयोगद्वारोका परस्पर अन्तर्भाव क पा २/२-२२/SEE/८१/५ कमणियोगद्दार कम्मिसंगहियं । वुच्चदे, समुकित्तणा ताव पुध ण वत्तव्या सामित्तादिअणियोगहारेहि चेव एगेगपयडीण मस्थित्तसिद्धीदो अवगयत्यपरूवणाए फलाभावादो। सव्वविहत्तीणोमव्यविहत्ती उकस्सविहत्ती अणुक्कस्सविहत्ती जहण्णविहत्ती अजहण्ण बहत्तीओ च ण बत्तव्बाओ, सामित्त-सण्णियासादिअणिओगद्दारेसु भण्णमाणेसु अवगयपयडिसंखस्स सिस्सस्स उकास्साणुकस्सजहण्णाजहष्णपयडिसरवाबिसयपडिवोहुप्पत्तीदो। सादि-अणादिधुव-अद्ध व अहियारा वि ण बत्तव्या कालं तरेसु परूविजमाणेसु तदवगमुप्पत्तीदा। भागाभागी ण बत्तवो अवगयअप्पाबहूग (स्स) सख विसयपडिवाहुपत्तीदा। भावो वि ण बत्तब्वो; उवदेसेण विणा वि माहोदएण मोहपयाडिविहत्तीए संभवो होदि त्ति अवगसुप्पत्तीदो। एव सपहियसेसतेरस अत्याहियारत्तादो एकारसअणि ओगहारषरूवणा चउबीसअणियोगहारपरूवणाए मह विरुज्झदे। - अब किस अनुयोगद्वारका किस अनुयोगद्वारमें स ग्रह क्यिा है इसका कथन करते है। यद्यपि समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार में प्रकृतियोका अस्तित्व बतलाया जाता है तो भी उसे अलग नही कहना चाहिए, क्योकि स्वामित्यादि अनुयागो के क्थनके द्वारा प्रत्येक प्रकृतिका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है अत जाने हुए अर्थका कथन करनेमे कोई फल नही है । तथा सर्व विभक्ति, नौसर्व विभक्ति, उत्कृष्ट विभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्य विभक्ति और अजघन्य विभक्तिका भी अलगसे कथन नही करना चाहिए, क्योंकि स्वामित्व, सन्निकर्ष आदि अनुयोगद्वारोंके कथनसे जिस शिष्यने प्रकृतियोकी सख्याका ज्ञान कर लिया है उसे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट तथा जघन्य और अजघन्य प्रकृतियोकी संख्याका ज्ञान हो ही जाता है तथा सादि, अनादि, ध्रुव और अध व अधिकारोंका पृथक् कथन नहीं करना चाहिए, क्योकि काल और अन्तर अनुयोग द्वारोके कथन करनेपर उनका ज्ञान हो जाता है। तथा भागाभाग अनुयोगद्वारका भी पृथक् कथन नहीं करना चाहिए, क्योकि जिसे असपमहत्वका ज्ञान हो गया है उसे भागाभागका ज्ञान हो ही जाता है। उसी प्रकार भाव अनुयोगद्वारका भी पृथक कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि मोहके उदयसे मोहप्रकृतिविभक्ति होती है, ये बात उपदेशके बिना भी ज्ञात हो जाती है। इस प्रकार शेष तेरह अनुयोगद्वार ग्यारह अनुयोगद्वारोंमें ही संग्रहीत हो जाते हैं। अत' ग्यारह अनुयोगद्वारोका कथन चौबीस अनुयोगद्वारोंके कथनके साथ विरोधको नहीं प्राप्त होता। ४. ओघ और आवेश प्ररूपणाओंका विषय रा.वा.हि./१/८/६८ सामान्य करि तो गुणस्थान विर्षे कहिये और विशेष करि मार्गणा विर्षे कहिए।
५. प्ररूपणाओं या अनुयोगोंका प्रयोजन घ२/१,१/४१५/२ प्ररूपणार्या किं प्रयोजनमिति चेदुच्यते, सूत्रेण
सचिताना स्पष्टीकरणार्थ विंशतिविधानेन प्ररूपणोच्यते।-प्रश्नप्ररूपणा करने में क्या प्रयोजन है । उत्तर-सूत्रके द्वारा साचित पदार्थोके स्पष्टीकरण करनेके लिए बोस प्रकारसे प्ररूपणा कही जाती है। अनुयोगसमास-श्रुतज्ञानका एक भेद-दे. श्रुतज्ञान III
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org