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भवधिज्ञान
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५ अवधिज्ञानके करण चिह्न
पं.सं./सं./१/१५८ अत्र शख़ाजस्वस्तिकश्रीवत्सध्वजकलशनन्द्या- वर्तहलादोन्यवधेरुत्पत्तिक्षेत्रसस्थानानि । -शंख, कमल, स्वस्तिक, श्रीवत्स, ध्वज, क्लश, नन्द्यावर्त, हल आदिक अवधिज्ञानकी उत्पत्तिके क्षेत्र संस्थान होते हैं । (गो जो/जी.प्र./३७१/७६८/4) ..चिह्नोंके आकार नियत नहीं हैं ध.१३/५.५,५७/२९६/१० जहा कायाणमिदिया च पडिणियद सठाणे तहा ओहिणाणस्स ण होदि, किंतु ओहिणाणावरणीयखओवसमगदजीवपदेसाण करणीभूदसरीरपदेसा अणेयसठाणसं ठिदा होति। -जिस प्रकार शरीरका और इन्द्रियोंका प्रतिनियत आकार होता है उस प्रकार अवधिज्ञान का नहीं होता है। किन्तु अवधि ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमको प्राप्त हुए जीवप्रदेशो के करणरूप शरीर प्रदेश अनेक संस्थानोंसे संस्थित होते है।
४. शरीरमें शुभ व अशुभ चिह्नोंका प्रमाण व अवस्थान ध.१३/ ८/२६७/१० ण च एकस्स जीवस्स एकम्हि चैव पदेसे ओहि
जाणकरण होदि त्ति णि ममो अस्थि, एग दो-तिण्णि-चत्तारि-पचछआदिखेत्ताणमेगजीवम्हि सरवादिसुहसंठाणाण कम्हि वि सभवादो। एदाणि संठाणाणि तिरिक्वमणुस्साणं णाहीए उवरिमभागे होति. णो हेट्ठा; मुहस ठाणाणमधोभागेण सह विरोहादो। तिरिक्व मणुस्सविहंगणाणीणं णाहीर हेहा सरडादि अमुहसं ठाणाणि होति त्ति गुरूबदेसो, ण मुत्तमरिय। =एक जीवके एक ही स्थानमें अवधिज्ञानका करण होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, किसी भी जीवके एक, दो. तीन, चार, पाँच और छह आदि क्षेत्र रूप शखादि शुभ संस्थान सम्भव है। ये संस्थान तिथंच और मनुष्योंके नाभिके उपरिस भागमें होते है, नीचेके भागमें नहीं होते, क्योंकि, शुभ संस्थानोंका अधोभागके साथ विरोध है। तथा तियंच और मनुष्य विभगज्ञानियों के नाभिसे नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते है। ऐसा गुरुका उपदेश है, इस विषयमें कोई सूत्र वचन नहीं है। (पं.सं./सं./१/१५८ व्याख्या ) (गो,जी./जी.प्र./३७१/७६८/६)
५. सम्यक्त्व व मिथ्यात्वके कारण करणचिन्होंमें परिवर्तन घ. १३/५,५,५८/२६८/२ विहंगणाणीण ओहिणाणे सम्मत्तादिफलेण
दिफलण समुप्पण्णे सरडादिअसुहसंठाणाणि फिट्टिदूण णाहोए उवरि संखादिसहसंठाणाणि होति त्ति घेत्तव्य । एवमोहिणाणपच्छायद विहंगणाणीर्ण पि सुहसंठाणाणि फिट्टिदूण असुइसंठाणाणि होति त्ति घेतव्वं । -विभंगज्ञानियों के सम्यकत्व आदिके फल स्वरूपसे अवधिज्ञानके उत्पन्न होनेपर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिटकर नाभिके ऊपर शंख अादि शुभ आकार हो जाते है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार अवधिज्ञानसे लौटकर प्राप्त हुए विभगज्ञानियों के भी शुभ स्थान मिटकर अशुभ संस्थान हो जाते हैं. ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। ६. सम्यक्त्व व मिथ्यात्व कृत चिह्नमेव संबंधी मतभेद ध. १३/५.१.२८/२६८/५ के वि आइरिया ओहिणाण-विभंगणाणे खेत्तसंठाणभेदो णाभोए हेटोवरि णियमो च णस्थि त्ति भणं ति, दोण्णं पि ओहिणाणत्तं पडिभेदाभावादो। ण च-सम्मत्समिच्छत्तसहचारण कदणामभेदादो भेदो अस्थि,अइप्यसं दो। एदमेत्य पहाणे कायव्वं । -कितने ही आचार्य अवधिज्ञानऔ-विभंगज्ञानका क्षेत्रसंस्थानभेद तथा नाभिके नीचे ऊपरका नियम नहीं है, ऐसा कहते हैं, क्योंकि अवधिज्ञानसामान्यकी अपेक्षा दोनों में कोई भेद नहीं है । सम्यकत्व और मिथ्यात्वकी संगतिसे किये गये नामभेदके होनेपर भी अवधिज्ञानकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा माननेपर अतिप्रसंग दोष आता है। इसी अर्थको यहाँ प्रधान करना चाहिए।
७. सर्वाग क्षयोपशमके सजावमें करण चिन्हींकी क्या
आवश्यकता घ.१३/५,५५५६/२६६/२ ओहिणाणं अणेयखेत्त चेव, सव्वजीवपदेसेसु अझमेण खओवसमं गदेसु सरीरेगदेसेणेव बझट्ठावगमाणुबवत्तीदो। ण,अण्णत्थ करणाभावेण करणसरूवेण परिणदसरी रेगदेसेण तदवगमरस विरहाभावादो। ण च सकरणो खओवसमो तेण विणा जाणदि, विप्पडिसेहादो । प्रश्न अवधिज्ञान अनेक्क्षेत्र ही होता है, क्योंकि सब जीव प्रवेशोंके युगपद क्षयोपशमको प्राप्त होनेपर शरीरके एकदेशसे ह बाह्य अर्थका ज्ञान नहीं बन सकता । उत्तर-नहीं क्योंकि अन्य देशों में करण स्वरूपता नहीं है,अतएव करणस्वरूपसे परिणत हुएशरीर के एकदेशसे बाह्य अर्थका ज्ञान मानने में कोई विरोध नहीं आता। प्रश्न-सकरण क्षयोपशम उसके बिना जानता है . उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि इस मान्यताका विरोध है।
८. सर्वांगकी बजाय एक देशमें ही क्षयोपशम मान लें तो ध.१३/५ ५,५६/२६६/५ जीवपदेसाणमेगदेसे चैव ओहिणणावरणखोबसमे संते एयक्खेत्तं जुजदि ति ण पच्चवठेयं, उदयगदगोषुच्छाए सबजीवपदेसविसयाए देसाइणीए सतीए जीवेगदेसे चेव खखोवसमस्स बुत्तिविरोहादो। ण चोहिणाणस्स पच्चवरवत्तं पि फिट्टदि अणेयक्वेते अपरायत्ते पञ्चक्रखलबवणुवलंभादो। प्रश्न-जीवप्रदेशोंके एकदेशमें ही अवधिज्ञानानावरणका क्षयोपशम होनेपर एक क्षेत्र अवधिज्ञान बन जाता है ? उत्तर-ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उदयको प्राप्त हुई गोपुच्छा सब जीवप्रदेशोंको विषय करती है, इसलिए उसका देशस्थायिनी होकर जीवके एकदेशमें ही क्षयोपशम मानने में विरोध आता है। प्रश्न-इससे अवधिज्ञानकी प्रत्यक्षता विनष्ट हो जाती है। उत्तर-यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वह अनेक क्षेत्र में उसके पराधीन न होनेपर उसमें प्रत्यक्षका लक्षण पाया जाता है नोट-जीव प्रदेशोके भ्रमण करनेपर ज्ञानके अभावका प्रसंग आ जायेगा-दे० इन्द्रिय/१ ९. करण चिह्नोंमें भी ज्ञानोत्पत्तिका कारण तो क्षयोप
शम ही है गीजी/जी प्र./२७१/७४८/ कल शादिशुभचिखलक्ष्तिात्मप्रदेस्थावधि। ज्ञानावरणवीर्यान्तरायमद्वयक्षयोपशमोत्पन्न मित्रर्थ । क्लश इत्यादिक आकाररूप जहाँ शरीरवि भले लक्षण होइ सह संबंधी जे आत्माके प्ररेश तिनिविषै तिष्टता जो अवधिज्ञानावर कर्म पर वीर्यान्तरायम तिनिकै क्षयोपशमतें उत्पन्न ही है। ६. अवधिज्ञानके भेदों सम्बन्धी विचार
१. भवप्रत्यय व गुणप्रत्ययमें अन्तर गो जी /जीप्र ३७१(७६८/४ तत्र भवप्रत्ययावधिज्ञानं मुराणा नारका
चरमभवतीर्थकराणां च संभवति । तच्च तेषां सङ्गिगोत्थ भवति ।... गुणप्रत्ययं अवधिज्ञानं नराणां तिरवा च संभवति। तच्च तेषां शकादिचिह्नभयं भवति ।...भवप्रत्यये अवधिज्ञाने दर्शन विशुद्भयादिगुण सदभावेऽपि तदनपेक्ष्यैव भवप्रत्ययत्व ज्ञातव्यं । गुणप्रत्ययेऽवधिज्ञाने तिर्यग्मनुष्यसद्भावेऽपि तदनपेक्षयैव गृणप्रत्ययत्वं ज्ञातव्यं । -भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवनिव, नारकी निकै, अर चरमशरीरी तीर्थकर देवनिकै पाइये है। सो यह उन के सर्वांगसे उत्पन्न हो है। बहुरि गुणप्रत्यथ अवधिज्ञान है सो मनुष्य और तियंचके संभव है। सो यह उनके दरखादि चिह्नोंसे उत्पन्न हो है। भवप्रत्यय अवधिज्ञान विर्षे भी सन्यग्दर्शनादि गुणका सद्भाव तथापि उन गुणों की अपेक्षा नाहीं करनेतें भवप्रत्यय क्ह्या। अर गुणप्रत्यय विष मनुष्य तियच (भव) का सद्भाव है, तथापि उन पर्यायनिकी अपेक्षा नाही करने तै गुण प्रत्यय कहा है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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