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अनर्थदंड
अनर्थदंड
चा.सा./१६/४ प्रयोजन विना पापादानहेत्वनर्थदण्डः।-बिना ही प्रयो
जनके जितने पाप लगते हों उन्हे अनर्थदण्ड कहते है। का अ//३४३ कज्जं कि पि ण साहदि णिच्च पाव करेदि जो अत्थो।
सो खलु हव दि अणत्यो पंच-पयारो वि सो विविहो । -जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सधता नहीं केवल पाप बन्धता है उसे अनर्थ कहते है। वसु श्रा./२१६ अय-दण्ड-पास-विक्कय-कूड-तुलामाण-कूरसत्ताण । ज
सगहो ण कीरइ त जाण गुणव्ययं तदियं । -लोहेके शस्त्र तलवार कुदाली वगैरहके तथा दण्ड और पाश (जाल ) आदिके बेचनेका त्याग करना, झूठी तराजू तथा कूट मान आदिके बाँटोका कम नही रखना तथा बिक्ली. कुत्ता आदि क्रूर प्राणियोका सग्रह नही करना सो यह तीसरा अनर्थदण्ड त्यागं नामका गुणव्रत जानना चाहिए १२१६॥ (गुण, श्रा.१४२)। सा.ध/114 पीडा पापोपदेशा हाद्यर्थाद्विनाङ्गिनाम् । अनर्थदण्डस्तत्त्यागोऽनर्थदण्डवत मतम् । = अपने तथा अपने कुटुम्बी जनोंके शरीर, वचन तथा मन सम्बन्धो प्रयोजनके बिना, पापोपदेशादिकके द्वारा प्राणियोंको पीडा नहीं देना, अनर्थदण्डका त्याग अनर्थदण्डवत माना गया है।
१. अनर्थदण्डके भेद र क. श्रा./७५ पापोपदेशहिंसाादानापध्यानदु श्रुती पञ्च ।प्राहु प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः। = दण्डको नही धरनेवाले गणधरादिक आचार्य-पापोपदेश हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या इन पाँचोंको अनर्थदण्ड कहते है। (स सि /७/२१/३६०) (रा
वा./७/२१,२१/५४६/५) ( चा. सा./१६/४ ) । पुसि /१४१-१४६ अपध्यान ।१४११, पापोपदेश ।१४२०, प्रमादाचरित
१४३, हिंसादान ।१४४, दुभूति ।१४५, व तक्रीडा १४६॥ चा. सा /१८/५ पापोपदेशश्चतुर्विध.-क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, बधकोपदेश , आरम्भकोपदेशश्च । - पापोपदेश चार प्रकारका हैक्लेशत्रणिज्या, तिर्यग्बणिज्या, वधकोपदेश, आरम्भकोपदेश । (दु श्रुति चार प्रकारकी है-स्त्रीकथा, भोगकथा, चोरकथा व राजकथा-दे. कथा]। २. अपध्यानादि विशेष अनर्थदण्डोंके लक्षण
१. अपध्यान अनर्थदण्ड-दे. अपध्यान ।
२ पापोपदेश अनर्थदण्ड र क. श्रा./७६ तिकिग्लेशवाणिज्याहिसारम्भप्रलम्भनादीनाम् । कथा
प्रसङ्गप्रसव- स्मर्तव्य पाप उपदेशः ॥७६-तिर्यग्वणिज्या, क्लेशवणिज्या, हिंसा, आर भ. ठगाई आदिकी कथाओं के प्रसग उठानेको पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड जानना चाहिए। (स सि /७/२१/६०) रा, वा /9/२१/५४६/७ क्लेशतियग्न णिज्यावधकारम्भादिषु पापसयुतं वचन पापोपटेश । तद्यथा अस्मिन् देशे दासा दास्यश्च सुलभास्तानम देश नीत्वा विक्रये कृते महानर्थ लाभो भवतीति क्लेशवणिज्या। गोमहिष्यादीच अमुत्र गृहीत्वा अन्यत्र देशे व्यवहारे कृते भूरिवित्तलाभ इति तिर्यग्वणिज्या । वागुरिकसौकरिकशाकुनिकादिभ्यो मृगवराहशकुन्तप्रभृतयोऽमुष्मिन् देशे सन्तीति वचनं वधकोपदेश',। आरम्भकेभ्य' कृषीवलादिभ्य क्षित्युदकज्वलनपचनबनस्पत्यारम्भोsनेनोपायैन कर्तव्य' इत्याख्यानमारम्भकोपदेश । इत्येवं प्रकार पापसंयुतं वचन पापोपदेश । -क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधक तथा आरम्भादिकमें पाप सयुक्त वचन पापोपदेश कहलाता है । वह इस प्रकार कि-१ इस देश में दास-दासी बहुत सुलभ है। उनको अमुक देशमें ले जाकर बेचनेसे महान अर्थ लाभ होता है। इसे क्लेशवाणिज्या कहते हैं । २ गाय, भैस आदि पशु अमुक स्थानसे ले जाकर अन्यत्र देश में व्यवहार करनेसे महान अर्थ लाभ होता
है, इसे तिर्यग्वणिज्या कहते है । ३. वधक व शिकारी लोगोंको यह बताना कि हिरण, सूअर व पक्षी आदि अमुक देशमें अधिक होते है, ऐसा वचन वधकोपदेश है। ४. खेती आदि करनेवालोंसे यह कहना कि पृथ्वीका अथवा जल, अग्नि, पवन, वनस्पति आदिका आरम्भ इस उपायसे करना चाहिए। ऐसा कथन आरम्भकोपदेश है। इस प्रकारके पाप सयुक्त वचन पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड है। (चा सा/१८/५)। पु. सि /१४२ विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम् । पापोपदेशदान कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ॥१४२५-मिना प्रयोजन किसी पुरुषको आजीविकाके कारण, विद्या, वाणिज्य, लेखनक्ला, खेती, नौकरी और शिल्प आदिक नाना प्रकारके काम तथा हुनर करनेका उपदेश देना, पापोपदेश अनर्थ दण्ड कहलाता है। पापोपदेश
अनर्थदण्डके त्यागका नाम ही अनर्थदण्डवत कहलाता है। का अ./मू./३४५ जो उवएसोदिज्जदि किसि-पसु-पालण-वणिज्जपमुहेस। पुरसित्थी-सजाए अणत्थ-दडोहवे विदिओ। -कृषि, पशुपालन, व्यापार वगैरहका तथा स्त्री-पुरुषके समागमका जो उपदेश दिया जाता है वह दूसरा अनर्थदण्ड है। सा घ/11७ पापापदेश यद्ववाक्य, हिंसाकृत्यादिसश्रयम् । तज्जीविभ्यो न त दद्यान्नापि गोष्ठ्या प्रसज्जयेत् ॥७॥ -हिसा, खेती और व्यापार आदिका विषय करनेवाला जो वचन होता है वह पापोपदेश कहलाता है इसलिए अनर्थ दण्डवतका इच्छुक श्रावक हिसा, खेती और व्यापार आदिसे आजीविका करनेवाले, व्याध, ठग वगैरहके लिए उस पापोपदेशको नही देवें और कथा-वार्तालाप वगैरहमें उस पापोपदेशको प्रसंगमें नही लावे ।
३ प्रमादाचरित अनर्थदण्ड र क श्रा /मू./८० क्षितिमलिलदहनपवनारम्भं विफल वनस्पतिच्छेदम् ।
सरणं सारणमपि च प्रमादाचा प्रभाषन्ते ॥८०॥ बिना प्रयोजन पृथिवी, जल, अग्नि, और पवन के आरम्भ करनेको, वनस्पति छेदनेको, पर्यटन करनेको और दूसरों को पर्यटन करानेको भी प्रमादचर्या नामा अनर्थदण्ड कहते है । ( का.अ/म् /३४६)। स. सि /७/२१/३६० प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदनभूमिकुट्टनलिलसेचनाद्यवद्यकर्म प्रमादाचरितम् । -बिना प्रयोजनके वृक्षादिका छेदना, भूमिका कूटना, पानीका सोचना आदि पाप कार्य प्रमादाचरित नाम
का अनर्थ दण्ड हे । (रा.वा./७/२१,२१/५४६/१४) (चा.सा./१७/२)। पु.सि /१४३ भूखननवृक्षमोहनशाड्वलदलनाम्बुसेवनादीनि । निष्कारण न कुर्याइलफलकुसुमोच्चयानपि च ।-बिना प्रयोजन जमीनका खोदना, वृक्षादिको उखाडना, दूब आदिक हरी घासको रौदना या खोदना, पानी स्त्रींचना, फल, फूल, पत्रादिका तोड़ना इत्यादिक पाप क्रियाओका काना प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है । सा.ध /५/१० प्रमादचयाँ विफलक्ष्मानिलाग्न्यम्बुभूरुहाम् । खातव्याषातविध्यापासेक्च्छेदादि नाचरेत् ॥१०॥ - अनर्थदण्डका त्यागी श्रावक पृथिवीके खोदनेरूप किवाड वगैरहके द्वारा वायुके प्रतिबन्ध करने रूप, जलादिसे अग्निको बुझाने रूप, भूमि वगैरहमें जल के फेंकने तथा वनस्पतिके छेदने आदि रूप प्रमादचर्या को नही करे
४. हिंसादान अनर्थदण्ड र क श्रा/७७ परशुकृपाणखनित्रज्वलनायुधशृङ्गशृङ्खलादीनाम् । वधहेतूनां दानं हिसादानं च वन्ति बुधाः ॥७७॥= फरसा, तलवार, खनित्र, अग्नि, आयुध, सीगी, शकिल आदि हिंसाके कारणों के माँग देनेको पण्डित जन हिंसादान नामा अनर्थदण्ड कहते हैं। स. सि /७/२१/३६० विषकण्टकशस्त्राग्निरज्जुकशादण्डादिहिसोपकरणप्रदान हिसाप्रदानम् । = विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक,
और लकडी आदि हिंसाके उपकरणोंका प्रदान करना हिंसाप्रदान नामा अनर्थदण्ड है (रा. वा./७/२१.२१/१४६/१६) (चा. सा./१७/३)।
पचन भादिकमै पाप शन दास-दासी बहुत होता है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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