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उदय
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६. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं
उदय
रानटया
मार्गणा गुण व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ अनुदय पुन उदय
पुन , कुल स्थान
योग्य उदय उदय च्छित्ति मिध्यात्व
सम्य, मिश्र | अनन्तानुबन्धी चतु. ३ मिश्र मोह
-१ मन आनु -१ मिश्र मोह-१ / ७१ ४ अप्रत्या, चतु., मनुष्यापूर्वी
सभ्य , आन =२/ ७० ४. देव गति-(गो.क./जो प्र./३०४-३०५/४३२-४३४) देव सामान्य - | उदय योग्य.-भोगभूगिया मन व्यकी ७८-मनुष्य त्रिक व औदा द्वि. ३ बज्र वृषभ नाराच संहनन + देवत्रिक व
वैकि द्विक =७७ मिथ्यात्व -१ मिश्र, सम्य -२
७७ । २ अनन्तानुबन्धी चतु. मिश्र मोह
-१ । देवानु पूर्वी १ मिश्र मोह -१, ७० अप्रत्या, चतु.. देवत्रिक, वै कि द्वि.-६
सम्य., आनु =२ भवनत्रिक देव १-४ । उदय योग्य'-देव सामान्यवन -७७ सौधर्म-ऐशान सनत्कु. नवग्रैवे स्त्रीवेद रहित देव सामान्यवत् ७६ यक तकके देव नव अनुदिश
| उदय योग्य 'देव सामान्यकी ७७-मिथ्यात्व, अनन्त चतु..मिश्र मोह, खी वेद ०७० से सर्वार्थअप्रत्या, चतु., देवत्रिक, वैक्रिक. द्वि.-।
। ७० । सिद्धिके देव भवन त्रिकसे
उदय योग्य -पुरुष वेद बिना देव सामान्यकी ७७-१-७६ सौधर्म मिथ्यात्व
१ मिश्र, सम्य-२ ईशानको अनन्तानुबन्धी चतु., देवगत्यानुपूर्वी देवियाँ | ३ मिश्र मोह
(मिश्र मोह-१ अप्रत्या, चतु.. देवगति व आयु वैकि द्वि.
| सम्य.-१ ।
२. इन्द्रिय मार्गणा-गो.क./जी.प्र./३०६-३०८/४३६-४३७
विकलेन्द्रिय
| - | उदय योग्य -स्त्री व पुरुष वेद, सुस्वर, दुस्वर, प्रशरत व अप्रशस्त विहा., आदेय, छहों संहनन, हुंडक बिना ५ सस्थान
सुभग, सम्य,, मिश्र, औ. अगोपांग, त्रस, २-५ इन्द्रिय, देवत्रिक, नरक त्रिक, मनु, त्रिक, उच्चगोत्र, तीर्थङ्कर,
आहा. द्विक, वैकि विक, इन ४२ के बिना सर्व १२२-४२-८० मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, परघात, उद्योत, उच्छवास अनन्तानुबन्धी चतु., एकेन्द्रिय,
स्थावर | - उदय योग्य '--स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, एकेन्द्रिय, आतप इन पांच रहित एकेन्द्रियको ८० अर्थात कुल ७५+स,
अप्रशस्त बिहा , दु स्वर, औ. अंगोपांग. स्व स्व १ जाति, सृपाटिका संहनन यह६-८१ मिथ्यात्व अपर्याप्त, स्त्यान-त्रिक
| ८१ । १० परघात उच्छवास, उद्योत, अप्रशस्तविहा., दुस्वर अनन्तान बन्धी चतु, स्व स्व योग्य १जाति
} ७१ | उदय योग्य -साधारण, १-४ इन्द्रिय, आतप, स्थावर, सूक्ष्म इन ८ रहित सर्व १२२-८-१९४ मिथ्यात्व, अपर्याप्त
-२ तीर्थ, आ, द्वि.
सम्य. मिश्र । २ । अनन्तानुबन्धी चतु. -४/'नरकानु -१
१०७ मूलोषवद →
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पंचेन्द्रिय
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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