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________________ सदम २. उदय सामान्य निर्देश गा. ३. कर्मका उदय द्रव्य क्षेत्र आदिके निमित्तसे होता है तम्हा दुक्खरूवफलाभावे वि असादावेदणीयस्स उदयाभावो जुज्जदे त्ति सिद्ध । प्रश्न-बिना फल दिये ही प्रतिसमय निर्जीर्ण क. पा. मुत्त/मू. गा.५६/४६५ । खेत्त भव काल पोग्गल हिदिविवागो होनेवाले (ईर्यापथ रूप) परमाणु समूहको उदय सज्ञा कैसे बन दयख यो दु ।५६। म क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलद्रव्यका आश्रय सकती है ? उत्तर-नही, क्योकि जीव व कर्मके विवेकमात्र फलको लेकर जो स्थिति विपाक होता है उसे उदीरणा कहते है और उदय देखकर उदयको फल रूपसे स्वीकार किया गया है। प्रश्न - यदि क्षयको उदय कहते है। ऐसा है तो 'असातावेदनीयके उदयकाल में सातावेदनीयका उदय नहीं पं.सं/प्रा ४/५१३ . । कालभवखेत्तपेही उदओ -काल, भव और होता, केवल असाता वेदनीयका ही उदय रहता है ऐसा नहीं कहना क्षेत्रका निमित्त पाकर कर्मों का उदय होता है। (भ आ./वि १७०८/ चाहिए, क्योकि, अपने फलको नही उत्पन्न करने की अपेक्षा दोनों में १५३७/८). ही समानता पायी जाती है। उत्तर-नही क्योकि, तब असातावेदक. पा १/१,१३.१४/१२४२/२६/१ दब्ब कम्मस्स उदएण जीवो कोहो नीयके परमाणुओके समान सातावेदनीयके परमाणुओकी अपने रूपसे त्ति जं भणिदं एत्थ चोअओ भणदि, दव्वकम्माइ' जीवसंबधाई निर्जरा नही होती। किन्तु विनाश होनेकी अवस्थमें असातारूपसे संताइ किमिदि सगकज्ज कसायरूवं सम्बद्ध ण कुणं ति 1 अलद्ध परिणमकर उनका विनाश होता है, यह देखकर सातावेदनीयका विसिट्ठभावत्तादो। तदल भे कारण वत्तव्य । पागभावो कारणं । उदय नहीं है, ऐसा कहा जाता है । परन्तु असातावेदनीयका यह पागभावस्स विणासो वि दबखेत्तकालभत्रा बेक्वाए जायदे । तदो ण कम नहीं है, क्योंकि, तब असाताके परमाणुओकी अपने रूपसे ही निर्जरा पायी जाती है । इस कारण दुखरूप फलके अभावमें भी सव्वद्ध' दव्बकम्माइ सगफलं कुणं ति त्ति सिद्ध ।-द्रव्यकर्मके असातावेदनीयका उदय मानना युक्तियुक्त है, यह सिद्ध होता है। उदयसे जीव क्रोधरूप होता है, ऐसा जो कथन किया है उसपर शकाकार कहता है-प्रश्न-जब द्रव्यकर्मों का जीवके साथ सम्बन्ध ६ कर्मोदयके निमित्तभूत कुछ द्रव्योंका निर्देशपाया जाता है तो वे कषायरूप अपने कार्यको सर्वदा क्यो नहीं उत्पन्न करते है ? उत्तर-सभी अवस्थाओमें फन देनेरूप विशिष्ट अवस्थाको गो. क./भाषा ६८/६९/१५ जिस जिस प्रकृतिका जो जो उदय फलरूप प्राप्त न होनेके कारण द्रव्य कम सर्वदा आने कषायरूप कार्यको नहीं कार्य है तिस तिस कार्यको जो बाह्यवस्तु कारणभूत होइ सो सो वस्तु करते हैं। प्रश्न-द्रव्यकर्म फल देनेरूप विशिष्ट अवस्थाको सर्वदा तिस प्रकृतिका नोकर्म द्रव्य जानना (जैमे)प्राप्त नहीं होते, इसमें क्या कारण है, उसका कथन करना चाहिए। उत्तर -जिस कारण से द्रव्यकर्म सर्वदा विशिष्टपनेको प्राप्त नहीं होते (गो. क.६६-८८/६९-७१) 1 वह कारण प्रागभाव है। प्रागभावका विनाश हुए विना कार्य की उत्पत्ति नही हो सकती है। और प्रागभावका विनाश द्रव्य क्षेत्र नाम प्रकृति नोकर्म द्रव्य काल और भवकी अपेक्षा लेकर होता है। इसलिए द्रव्यकम सर्वदा ७० मति ज्ञानावग्ण वस्त्रादि ज्ञानकी आवरक वस्तुएं अपने कार्यको उत्पन्न नहीं करते है, यह सिद्ध होता है। "श्रुत ज्ञानावरण इन्द्रिय विषय आदि भ आ/वि. १९७०/११५४/४ बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृत रागद्वषयोर्नीज ___७१/ अवधि व मन पर्यय सक्लेशको कारणभूत वस्तुए तस्मिन्नसति सहकारिकारण न च कर्ममात्रादागद्वषवृत्तिर्यथा "| केवल ज्ञानावरण सत्यपि मृत्पिण्डे दण्डाद्यन्तर कारणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति ___७२/ पाँच निद्रा दर्शनावरण | दही, लशुन, खल इत्यादि मन्यते । मनमें विचारकर जब जोव बाह्यद्रव्यका अर्थात माह्य "चक्षु अचक्षु दर्शनावरण | वस्त्र आदि परिग्रहका स्वीकार करता है, तब राग द्वष उत्पन्न होते है। यदि ७३ अवधि व केवल दर्शनावरण | उस उस ज्ञानावरणवत् सहकारीकारण न होगा तो केवल कर्ममात्रसे रागद्वष उत्पन्न होते " साता असाता वेदनीय इष्ट अनिष्ट अन्नपान आदि नहीं। जैसे कि मृत्पिण्डसे उत्पन्न होते हुए भी दण्डादि के अभाव में ७४ सम्यक्त्व प्रकृति जिन मन्दिर आदि उत्पन्न नही होता है और भी दे (उदय १/२/२,३), (उदय/२/४) ७४ मिथ्यात्व प्रकृति कुदेव, कुमन्दिर, कुशास्त्रादि ४ द्रव्यक्षेत्रादिकी अनुकूलतामें स्वमुखेन और प्रति- "| मिश्र प्रकृति सम्यक व मिथ्या दोनों आयतन ७५ अनन्तानुबन्धी कुदेवादि कूलतामें परमुखेन उदय होता है। | अप्रत्याख्यादि १२ कषाय काव्यग्रन्थ, कोकशास्त्र, पापीपुरुष क. पा. ३/२२/६४३०/२४४/४ उदयाभावेण उदयणिसेयट्टिदी पर सरूवेण गदाए । जिस प्रकृतिका उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक ७६ तीनो वेद स्त्री, पुरुष व नपुसकके शरीर स्थिति उपान्त्य समयमे पररूपसे संक्रमित हो जाती है। "हास्य बहुरूपिया आदि ५ बिना फल दिये निर्जीर्ण होनेवाले कर्मोको उदय रति सुपुत्रादि अरति संज्ञा कैसे हो सकती है ? इष्ट वियोग अनिष्ट सयोग शोक सुपुत्रादिकी मृत्यु घ. १२/४,२,७,२६/१ णिप्फलस्स परमाणुपु जस्स समयं पडि परिसद तस्स "भय सिंहादिक कधं उदयववएसो । ण, जीवकम्म विवेगमेत्तफल दळूण उदयस्स फल जुगुप्सा निन्दित वस्तु त्तभुवगमादो। जदि एवं तो असादवेदणीयोदयकाले सादावेदणीयस्स तहाँ तहाँ प्राप्त इष्टानिष्ट आहारादि उदओ णरिथ, असादावेदणीयस्सेव उदओ अस्थि त्ति ण वक्तव्य, नाम कर्म तिसतिस गतिका क्षेत्र व इन्द्रिय सगफलाणुप्पायणेण दोणं पि सरिसत्तु वल भादो ण असादपरमाणूणं शरीरादि के योग्य पुद्गल स्कन्ध ब्व सादपरमाणूणं सगसरूवेण णिज्जराभाबादो । सादपरमाणओ ऊँच नीच गोत्र ऊँच नीच कुल असादसरूवेण विणस्सतावत्थाए परिणमिदूण विस्स ते दळूण सादावे अन्तराय दानादि में विघ्नकारी पुरुष आदि दणीयस्स उदओ णथि त्ति वुच्चदे ण च असादावेदणीयस्स एसो कमो अस्थि, अिसाद] परमाणूणं सगसरूवेणेण णिज्ज रुवल भादो। ७४ आदि आयु امی जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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