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परिशिष्ट
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मूलसध विचार
४. चन्द्रगुप्त मौर्यकी समकालीनता उपर्युक दिगम्बर ग्रन्थोमें द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षके समय चन्द्रगुप्त मौर्य ।
का भद्रबाहु प्र से दीक्षित होना लिरवा है, और ति प ४/१४८१ में चन्द्रगुप्त को ही जिनदीक्षा धारण करनेवाला अन्तिम मुकुटबद्ध राजा कहा गया है। ऊपर इन्हीं का दीक्षाका नाम विशाखाचार्य कहा गया है । यद्यपि नन्दि संघको पट्टावली में भद्रबाहू द्वि के शिष्य गुप्तिगुप्तका नाम विशारवाचार्य कहा गया है और श्वेताम्बर मुनि कल्याण विजयजी तथा डा प्लाटो गुप्तिगुप्तको ही चन्द्रगुप्त कल्पित करते है, परन्तु दिगम्बर विद्वानोको प्राय यह मत मान्य नहीं है। कुछ श्वेताम्बर विद्वान् अशोक्के पौत्र सम्प्रति (ई पू २२०-२११) को चन्द्रगुप्त द्वि मानकर भद्रबाहु प्र (वी नि १३३-१६२, ई पू ३६४३६५) के साथ उसकी समकालीनता घटित करना चाहते है, परन्तु इनका यह मत भी मान्य नहीं है क्योकि एक तो सम्प्रति बौद्ध ये और दूसरे उनके विषयमें दीक्षा धारण करने का कही उल्लेख प्राप्त नही होता। अत चन्द्रगुप्त मौर्य (ई पू १२६-३०२) का ही भद्रबाहु प्र के साथ दोशित होकर दक्षिणापथकी ओर जाना सिद्ध है। इस विषय में एक यह ऐतिहासिक तथ्य भी है कि इतिहासमें इनके राज्याभिषेक आदि का तो उल्लेख मिलता है परन्तु इनकी मृत्यु कैसे तथा कहाँ हुई इस विषय में कोई उल्लेख कही प्राप्त नही होता है। (जै /पी ३४४)।
५ समाधिमरण द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष वाली घटनामें तीन मान्यताये प्रसिद्ध है।
आराधना कथाकोष ६१ के अनुमार मुनिसंघको दक्षिणापथ की ओर भेजकर स्वय अतिवृद्ध होने के कारण उज्जैनी में ही रह गये थे और चन्द्रगुप्त भी दीक्षा धारण करके इनकी सेवामें वहाँ ही रहे। वृहद कथाकोष २३१के अनुसार आप दोनो मार्ग में भाद्रपद देशमे रुक गये थे। परन्तु श्रवणबेलगोलसे प्राप्त पूर्वोक्त शिलालेखों के आधारपर डा स्मिथने भद्रबाहु स्वामीका और इनके १२ वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्तका समाधिमरण श्रवणवेलगोल में होना निश्चित किया है। (जै पी.३४३३४५)।
६ श्वेताम्बर दिगम्बर सघभेद दुर्भिसके काल मे भद्रा स्वामी (प्र) के आदेशसे दक्षिणापथकी ओर विहार कर जाने वाले १२००० साधुओमे से यद्यपि अधिक्तर दक्षिण देशमे चले गये थे, तदपि उनका कुछ भाग प्रमादवश उज्जैनोमे या मार्ग में ही रह गया । परिस्थितियोसे बाध्य होकर इन्हे मिहवृत्तिका त्याग करके अपवाद मार्गका आश्रय ले लेना पड़ा। यह अपवाद ही धीरे धीरे शिथि लाचारमे प्रवर्तित हो गया। फलस्वरूप अर्धफालक संघकी उत्पत्ति हुई जो आगे जाकर वि १३६ (वी नि ६०६) मे श्वेताम्बर सघके रूपमें परिवर्तित हो गया । उस समय इस सधके आचार्य जिनचन्द्र थे जिन्हे भद्रबाहू स्वामी के प्रशिष्य और शान्त्याचार्यका शिष्य माना गया है। (दे. श्वेताम्बर २-३)
७. समय बन्द्रगुप्त मौर्य के साथ इनकी समकालीनता सिद्ध कर दी गई, परन्तु यहाँ यह आपत्ति आती है कि चन्द्रगुप्त मौर्यका काल ई.पू. ३२६-३०२ (वी. नि २०१-२२५) सिद्ध है, जबकि मूलस धको पट्टावली में भद्रबाहु प्र का काल वी. नि. १३३-१६२ निर्दिष्ट किया गया है। दोनोके कालोमें लगभग ६० वर्षका अन्तर स्पष्ट है। इसे पाटनेके लिये दो ही मार्ग है। या तो चन्द्रगुप्तके कालको ६० वर्ष ऊपर ले जाये और या भद्रबाहुके कालको ६० वर्ष नीचे लाया जाये। श्वेताम्बर मुनि पहले मार्गका अवलम्बन लेते है और नन्द व शके शास्त्रोक्त १५५ वर्ष काल में से ६० वर्ष निकाल कर उसे ६५ वर्ष कर देते है । इस
प्रकार इस वश के अनन्तर प्रारम्भ हानेवाले मौर्य वशका काल वी. नि २१५ की बजाय वी नि, १५५ में प्रारम्भ हो जाता है (दे इतिहास ३/३-४ की टिप्पणी) परन्तु ऐसा मानने में अन्य बहुत सारी
आपत्तियें खडी हो जाती है। इसलिये पं. कैलाश चन्द दूसरे मार्गका अवलम्बन लेते है। मल
संघकी पट्टावली में इङ्गित तृतीय दृष्टि के अनुसार आप नक्षत्र आदि पाँच एकादशांगधारियोके २२० वर्ष काल में से ६० वर्ष निकाल कर विष्णु आदि पाँच श्रुतकेवलियोके १०० वर्ष काल में मिलानेका सुझाव देते है। जिससे दोनो स्थानोंपर पाँच पाँच आचार्योंका समुदित काल १६०-१६० वर्ष हो जाता है । ऐसा करनेसे यद्यपि दृष्टि न. २ में कथित आचार्यों का पृथक् पृथक् काल गडबडा जाता है. तदपि अन्य अनेको आपत्तियोका समाधान प्राप्त हो जाता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है भद्रबाहु स्वामी के विषयमें प्राचीन काल बहुत सी भूले चली आ रही है, इसलिये बहुत सम्भव है कि श्रुतावतारके र्ता आ इन्द्र नन्दि से भी काल-निर्धारण करने में कुछ भूल हुई हो। पं. कैलाश चन्दजी के द्वारा इस समन्वयके अनुसार भद्रबाहु प्र का काल वी. नि १८०-२२२ (ई पू ३४७-३०५) हो जाता है। दूसरी ओर चन्द्रगुप्त मौर्य का कान ई पू ३२६-३०२सिद्ध किया जा चुका है,इसलिये ई पू १०५ मे दीक्षित होकर भद्रबाहु स्वामी के साथ इनका दक्षिणा
पथको चले जाना घटित हो जाता है । (जै /पी. ३५४) इसे मान लेने पर दूसरी आपत्ति श्वे. दि सघभेदकी ओरसे उत्पन्न होती है, क्योकि यह बात सर्व मान्य है कि यह भेद द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के कारण परिस्थितिवश उत्पन्न हुआ था, और भद्रबाहु प्र के उपर्युक्त कालके अनुसार यह दुर्भिक्ष वी. नि २२२ (वि पू २४८) मे पड़ा था. जबकि सबभेद वि. १३६मे हुआ कहा गया है । दोनोमे ३८४ वर्षका अन्तर स्पष्ट है । इस आपत्तिका समाधान दर्शनसारकी प्रस्तावनामे प्रेमी जी ने किया है। इसके अनुसार वि.पू २४८ मे उस सघमे कुछ शैथिल्य ही आया था जो उस समय केवल अर्ध फालक सघके रूपमे अभिव्यक्त हुआ था। दुर्भिक्ष समाप्त हो जाने पर भी सघने अपना स्थितिकरण नहीं किया और इसी रूपमे ३८० वर्ष तक "उज्जैनी (अवन्ती)" तथा मगध देशमे घूमता रहा। मथुराके कंकाली टीलेसे प्राप्त कुछ मूर्तिये इस विषयमे प्रमाण है। पीछे वि १३६ के आसपास यह संघ जब सौराष्ट्र देशमे आया तो वहाँके राजा के कहने से इसने वस्त्रो का ग्रहण कर लिया और आवश्यकताके अनुसार विधि-विधान बनाकर तात्कालिक आचार्य जिन चन्द्र ने इसे सांगोपाग "श्वेताम्बर संघका" रूप दे दिया। (दे.श्वेताम्बर ५)। ये जिन चन्द्र आचार्य कौन थे, इसकी चर्चा आगे जिनचन्द्र के नामसे की गई है। इस प्रकार भद्रबाहुप्र का काल वी. नि. १८०-२२२ (ई पू ३४७-३०५) सर्वथा निर्दोष है, और यही मूल संघकी दृष्टि नं ३ में दिया गया है।
४ भद्रबाहु द्वितीय दूसरे भद्रबाहु वे है जिनकी गणना मूलसंघकी पट्टावलीमे अष्टां
गधारियो अथवा आचाराग धारियोमें की गई है। दूसरी ओर आ. देवसेनने अपने भाव सग्रह में इनका नाम भद्रबाहू गणी कहा है और निमित्तज्ञानी कहकर इनका सम्बन्ध द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षके तप दिगम्बर श्वेताम्बर स घभेदके साथ जोडा है। तदनुसार इनके शिष्य शान्त्याचार्य थे और उनके शिष्य जिनचन्द्र । द्वादशवर्षीय दुभिक्ष समाप्त हो जाने पर जब शान्त्याचार्य ने अपने सघसे शैथिल्य छोडकर शुद्धाचारी हो जानेके लिये कहा तो उनके शिष्य जिनचन्द्र ने उन्हे जानसे मार डाला या मरवा दिया और सघका नायक बनकर अपने सघको श्वेताम्बर सबके रूपमे परिणत कर दिया। यह घटना वि. १३६ मे धटित हुई कही गई है (दे श्वेताम्बर) । दूसरी ओर मूलसघ तथा नन्दि सघको पट्टावली के अनुसार इनकी शिष्य परम्परामें क्रमश लोहाचार्य,अहहली, माघनन्दि, तथा जिनचन्द्र प्राप्त होते है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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