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________________ अनुमान अनुमोदक माना जाता है, उसी तरह करानेवाला प्रयोक्ता होनेसे और उन परिणामोका समर्थक होनेसे अनुमोदक है। (स.सि (९/८/२२५) (चासा./८८/६) । २. अनुमतिके मेद सू. आ /४९४ पनि पडिवास व अगदी तिमिहा-प्रतिसेवा प्रविण समास मे तीन भेद अनुमति है। ३. प्रतिसेवा अनुमति मू आ. / ४१४ उद्दिष्ट यदि भुक्ते भोगयति च भवति प्रतिसेवा । - उद्दिष्ट बाहारका भोजन करनेवाले सामुळे प्रतिसेया अनुमति नामका दोष होता है। ४. प्रतिश्रवण अनुमति सूजा /४९५ उदि जदि विश्वरदि पूर्व पच्छा व होदि पणिं । - "यह आहार आपके निमित्त बनाया गया है' आहारसे पहिले या पीछे इस प्रकारके वचन दाताके मुखसे सुन लेनेपर आहार कर लेना या सन्तुष्ट तिष्ठना साधुके लिए प्रविण अनुमति है। ५. संवास अनुमति ३. आ / ४१५ सावज्ज सकिलिट्ठो ममत्तिभावो दु संवासो ॥१४१५॥ - यदि साधु आहारादिके निमित्त ऐसा ममत्वभाव करे कि ये गृहस्थलोक हमारे है, वह उसके लिए सवास नामकी अनुमति है । ६. अनुमति स्थान प्रतिमा रथा १४६ अनुमतिरम्ये या परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा नास्ति खलु यस्य समधोरनुमतिविरत समन्तव्य ॥ १४६ ॥ - जिसको आरम्भमें अथवा परिग्रहमे या इस लोक सम्बन्धी कार्योंमें अनुमति नहीं है, वह समद्धिला निश्चय करके अनुमति त्याग प्रतिमाका धारी मानने योग्य है । (का अ/मू./३८८) (बसु श्रा / ३००) (गुणभद्र श्रा./१८२) । साथ ७/३२-३४ देवालयस्थ स्वाध्याय कुर्यान्मध्यावन्दनात् । ऊर्ध्व मामन्त्रित सोऽद्याद् गृहे स्वस्य परस्य वा ॥३१॥ यथाप्राप्तमदन् सिद्धयर्थं भोजन देहश्च धर्म समुपेक्ष्यते ॥३२॥ सामे कस्याद्दिष्ट सावधानिमन कहि भेक्षामृत भोक्ष्ये इति चेज्जतेन्द्रिय ॥३३॥ यायारकियो को निष्क्रमिष्यनसी गृहाय आवृष्येत गुरूदनम् पुत्रादोश्च यथोचितम् ॥३४१ - इस अनुमतिविरति श्रावकको जिनालय में रहकर ही शास्त्रोका स्वाध्याय करना चाहिए तथा मध्याह्न वन्दना आदि कर लेनेके पश्चात् किसीके बुलाने पर पुत्रादिके घर अथवा किसी अन्यके घर भोजन करे ॥३१॥ भोजनके सम्बन्ध में इसे ऐसी भावना रखनी चाहिए कि मुमुक्षुमन शरीरकी स्थिति के अर्थ हो भोजनको अपेक्षा रखते हैं और शरीरकी स्थिति भी धर्मसिद्धिके अर्थ करते है | परन्तु उद्दिष्ट आहार करनेवाले को उस धर्मकी सिद्धि कैसे हो सकती है. क्योंकि यह तो सावद्ययोग तथा जघन्य क्रियाओके द्वारा उत्पन्न किया गया है। वह समय कब आयेगा जब कि मै भिक्षा रूपी अमृतका भोजन करूंगा ॥३३॥ पचाचार पालन करनेवाले तथा गृहत्याग की इच्छा रखनेवाले उसको माता-पितासे, बन्धुवर्गसे तथा पुत्रादिकों से यथोचित रूपसे पूछना चाहिए ॥३४॥ यह परोक्ष प्रमाणका एक भेद है, जो जैन व जैनेतर सर्व अनुमानदर्शनकारों को समान रूपसे मान्य है। यह दो प्रकारका होता हैस्वार्थ व परार्थ । लिग परसे लिंगोका ज्ञान हो जाना स्वार्थ अनुमान है जैसे धुएँ को देखकर अग्निका ज्ञान स्वत हो जाता है और हेतु तर्क आदि द्वारा पदार्थका जो ज्ञान होता है वह परार्थानुमान है। इसमें पाँच अवयव होते है-पक्ष, हेतु, उदाहरण, उपनय व निगमन । इनका उचित रोतिसे प्रयोग करना 'न्याय' माना गया है। इसी विषयका कथन इस अधिकार में किया गया है। Jain Education International ९५ १. भेद व लक्षण २ अनुमान सामान्य निर्देश १. अनुमान सामान्यका लक्षण । २. अनुमान सामान्यके दो भेद (स्वार्थ व परार्ध) । ३. स्वार्थानुमानके तीन भेद ( पूर्ववत् शेषवत् आदि) । ४. स्वार्थानुमानका लक्षण । ५ परार्थानुमानका लक्षण । ६. अन्वय व व्यतिरेक व्याप्तिलिंगज अनुमानोंके लक्षण । ७. पूर्ववत् अनुमानका लक्षण । ८. शेषवत् अनुमानका लक्षण । ९. सामान्यतोदृष्ट अनुमानका लक्षण । * अनुमान वाचितका लक्षण | दे. बाधित १ अनुमानज्ञान श्रुतज्ञान है । २. अनुमानशान कोई प्रमाण नही । * अनुमानशान परोक्ष प्रमाण है। परोक्ष * स्मृति आदि प्रमाणके नाम निर्देश दे परोक्ष * स्मृति आदिकी एकार्थता तथा इनका परस्परमे 'कार्य-कारण सम्बन्ध अनुमान ३. अनुमानज्ञान भ्रान्ति या व्यवहार मात्र नही है बल्कि प्रमाण है । ४. कार्यपररी कारणका अनुमान किया जाता है । ५ स्थूलपरसे सूक्ष्मका अनुमान किया जाता है। ६. परन्तु जीव अनुमानगम्य नही है । * अनुमान अपूर्वाग्राही होता है। ये प्रमाण २ अनुमान स्वपक्ष साधक परपक्ष दूषक होना चाहिए। हेतु २ * ३. अनुमानके अवयव १. अनुमानके पाँच अवयवोंका नाम निर्देश । २ पाँचों अवयवोकी प्रयोग विधि । ३. स्वार्थानुमानमे दो ही अवयव होते है । ४. परार्थानुमानमे भी शेष तीन अवयव वीतराग कथामें ही उपयोगी है, बादमे नही । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १. भेद व लक्षण १. अनुमान सामान्यका लक्षण 1 न्या. वि./मू./२.१/१ साधनात्साध्यज्ञानमनुमानम् । साधन से साध्यका ज्ञान होना अनुमान है (प.मु. ३/१४) (का.अ./५/२६०) न्या. दी./३/११७) (म्या, वि/११/९/१६) (कपा/पू. २/१-१५/६३०१/ ३४१/३) । २. अनुमान सामान्यके भेद (स्वार्थ व परार्थ) प./२/५२-५३नुमानं द्वेषा ॥२॥ स्वार्थ परार्थमेव ॥ ३॥ स्वार्थ व पराय के भेदसे वह अनुमान दो प्रकारका है (सम. / २८/३२२/९) (म्या. दी./३/२३)। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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