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३ विकिया ऋदिध निर्देश
खिदोदो बाहिं सखेज्जजोयण ठियाण । विविहरसाण साद जाणइ दूरसादित्त ।। २-पासिदिय सुदणाणावरणाणं वारियंतरायाए। उक्कस्सक्ख उबसमे उदिदगोव गणाम कम्मम्मि।हपामुक्कस्सखिदोदो बाहि सखेज्जजोयणठियाणि । अठ्ठाविहप्पासाणि ज जाणइ दूरपासत्तं 18801 ३-घाणि दियसुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए। उक्क्स्स क्खउवसमे उदिदगोवगणामकम्मम्मि ६६१ घाणुक्कस्सरिखदोदो बाहिरसखेज्जजोयणपएसे । ज बहुविधगधाणि त घायदि दूरघाणसं २ ४-सोदिदियसुदणाणावरणाण बोरियतरायाए । उक्कस्सक्वउ वसमे उदिदं गोबंगणामम्मम्मि ६६३ सोदुक्कस्सरिखदोदो बाहिरसखेज्जजोयणपएसे। चेताणं माणुसतिरियाणं बहुवियप्पाणं ४ा अक्ख रअणक्खरमए बहुविहसद्द बिसेससंजुत्ते । उप्पण्णे आयण्णइ ज भणिअ दूरसवणत्त ५-रूवि दियसुदणाणावरणाणं वीरिअंतराआए । उक्कस्सरवउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि १ रूउक्कस्सरिखदीदो बाहिर सखेज्जजोयणठिदाई। ज बहुविहदठवाइ देक्वइ तं दूरदरिसिणं णाम 18891 वह वह इन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय इन तीन प्रकृतियो के उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का उदय होनेपर उस उस इन्द्रियके उत्कृष्ट विषयक्षेत्रसे बाहर संख्यात योजनों में स्थित उम उस सम्बन्धी विषयको जान लेना उस उस नामकी ऋद्धि है। ग्रथाजिहा इन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे 'दूरास्वादित्व', स्पर्शन इन्द्रियावरण के क्षयोपशमसे 'दूरस्पर्शत्व'.घाणेन्द्रियावरण के क्षयोपशमसे 'दूरघाणव', श्रोत्रेन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे दूरश्रवणत्व' और चक्षुरन्द्रियावरण के क्षयोपशमसे 'दूरदर्शित्व' ऋद्धि होती है। ७ प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि निर्देश
१ प्रज्ञाश्रमणत्व सामान्य व विशेषके लक्षण ति प ४/१०१७-१०२१ पयडीए सुदणाणावरणाए वीरयतरायाए । उक्कस्सक्वउवसमे उप्पज्जइ पण्णसमणधी ११०१७। पण्णासवणद्धिजुदो चोहस्सपुवीस विसयमुहुमत्त । सव्वं हि सुदं जाणदि अक अज्झअणो वि णियमेण ।१०१८॥ भासंति तस्स बुद्धी पण्णासमणद्धी सा च चउभेदा। अउपत्तिअ-परिणामिय-वडणइको-कम्मजा णेया।१०१६॥ भवतर सुदविणएण समुल्लसिदभावा। णियणियजा दिविसे से उप्पण्णा पारिणामिकी णामा ।१०२०। व इणइकी विणएणं उपज्जदि बारसगसुदजोग्गं । उवदेसेण विणा तब विसेसलाहेण कम्मजा तुरिमा ।१०२१।
" श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर 'प्रज्ञाश्रमण' ऋद्धि उत्पन्न होती है। प्रज्ञाश्रमण ऋद्धिसे युक्त जो महर्षि अध्ययनके बिना किये ही चौदहपूर्वोमे विषयकी सूक्ष्मताको लिए हुए सम्पूर्ण श्रुतको जानता है और उसको नियमपूर्वक निरूपण करता है उसकी बुद्धिको प्रज्ञाश्रमण ऋविध कहते है। वह औत्पत्तिकी, पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा, इन भेदोसे चार प्रकारकी जाननी चाहिए ।१०१७-१०१६। इनमें से पूर्व भव में किये गये श्रुतके विनयसे उत्पन्न होनेवालो औत्पत्तिकी (बोद्ध है)।१०२०॥ ध.६/४,१,१८/२२/८२. विणएण सुदमधी किह वि पमादेण होदि विस्सरिद । तमुछादि परभवे केवलणाण च आहब दि ।२०-एसो उत्पत्तिपण्णसमणो छम्मासोपत्रासगिलाणो वि तब्बुद्धिमाप्पजाणावणठ्ठ पुच्छात्रावद चोद्दसपुचिस्स विउत्तरबाहओ। बिनय से अधीत भुतज्ञान यदि किसी प्रकार प्रमादसे विस्मृत हो जाता है तो उसे वह परभवमें उपस्थित करती है और केवलज्ञानको बुलाती है ।२२, यह औत्पत्तिकी प्रज्ञाश्रमण छह मासके उपवाससे कृश होता हुआ भी उस बुद्धिके माहात्म्यको प्रकट करने के लिए पूछने रूप क्रियामे प्रवृत्त हुए चौदहपूर्वीको भी उत्तर देता है। निज-निज जाति विशेषो में उत्पन्न हुई बुद्धि पारिणामिकी' है, द्वादशाग श्रूतके योग्य विनयसे उत्पन्न हानेवाली वैनयिकी' और उपदेशके बिना ही विशेष तपकी प्राप्तिसे आविर्भूत हुई चतुर्थ 'कर्मजा' प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि समझना चाहिए
।१०२०-१०२१। (रा बा, ३/३६/३/२०२/२२), (ध १/४,१,१८/८१/१), (चा सा /२१६/४)। ध.६/४.१.१८/८३/१ उसहसेणादोग-तित्थ यरवयण विणिग्गयबीजपदट्ठावहारयाण पण्णाए कत्थं तब्भावो। पारिणामियाए, विणय-उप्पत्तिकम्मे हि विणा उप्पत्तीदो। प्रश्न - तीर्थक्रोके मुखसे निकले हुए बीजपदोके अर्थका निश्चय करनेवाले वृषभसेनादि गणधरोकी प्रज्ञाका कहाँ अन्तर्भाव होता है ! उत्तर--उसका पारिणामिक प्रज्ञामें अन्तर्भाव होता है, क्योकि, वह विनय, उत्पत्ति और कर्मके बिना उत्पन्न होती है।
२ पारिणामिनीव औत्पत्तिकीमे अन्तर ध १/४.१,१८,/८३/२ पारिणामिय-उप्पत्तियाण को विसेसो। जादि विसेसजणिदकम्मक्रवओवसमुप्पण्णा पारिणामिया, जम्मतरविणयजणिदससकारसमुप्पण्णा अउम्पत्तिया, त्ति अस्थि विसेसो । प्रश्नपारिणामिकी और औत्पत्तिकी प्रज्ञामें क्या भेद है । उत्तर-जाति विशेषमें उत्पन्न कर्म क्षयोपशमसे आविर्भूत हुई प्रज्ञा पारिणामिकी है,
और जन्मान्तरमै विनयजनित संस्कारसे उत्पन्न प्रज्ञा औपपत्तिकी है, यह दानों में विशेष है।
३ प्रज्ञाश्रमण बुद्धि और ज्ञान सामा यमे अन्तर धह/४,१.१८/४/२ पण्णाए ण ण स्स य को विसेसो णपण हेदुजीवसत्ती गुरूवएसणि रवेक्खा पण्णा णाम, तकारिय णाण । तदो अस्थि भेदो। -प्रश्न-प्रज्ञा और ज्ञानके बोच क्या भेद है ! उत्तर-गुरुके उपदेश से निरपेक्ष ज्ञानको हेतुभूत जीवकी शक्तिका नाम प्रज्ञा है, और उमका कार्य ज्ञान है, इस कारण दोनोमे भेद है। ८वादित्वका लक्षण ति प ४/१०२३ सक्काद ,ण वि पक्व बहुवादेहि णिरुत्तरं कुण दि । परदयाई गवेसइ जीए वादित्तरिधी सा ।१०२३। -जिस ऋद्विधके द्वारा शकादिके पक्षको भी बहुत बादसे निरुत्तर कर दिया जाता है
और परके द्रव्योकी गवेषणा (परीक्षा) करता है (अर्थात दूसरों के छिद्र या दोष हँढता है) वह वादित्व ऋधि कहलाती है । (रा. वा. ३/३६/३/२०२/२५); (चा. सा. २१७/५) ३ विक्रिया ऋद्धि निर्देश
१ विनिया ऋदिधकी विविधता ति. प. ४/१०२४-२५, १०३३ अणिमा महिमा-लघिमा गरिमा पत्ती-य तह अ पाकम्म। ईसत्तव सित्तताई अप्पडियादतधाणाच ।१०२४। रिद्धी हु कामरूवा एव रूवेहि विविहभेएहि। रिद्धी विकिरिया णामा समणाणं तबविसेसेण ।१०२५॥ दुविहा किरियारिद्धी णहयल
गामित्त चारणत्तेहि ।१०३३। घ.६/४.१.१५/७५,४ अणिमा महिमा ल हिमा पत्तो पागम्य ईसित्तं वसित्तं
कामरूवित्तमिदि विउवणमट्ठविहं ।। एत्थ एगस जोगादिणा विसदपचव चासबिउवणभेदा उप्पाएदव्वा, तइक्कारणस्स वडचित्तयत्तादो (पृ.७६/६)। -अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान और कामरूप इस प्रकारके अनेक भेदोसे युक्त विक्रिया नामक ऋधि तपोविशेषसे श्रमणोंको हुआ करती है। ति.प./ (रा वा ३/३६/३/२०२/३३): (चा. सा. २१६/१): (ब.सुश्रा ५१३) । नभस्तलगामित्व और चारणत्यके भेदसे 'क्रियाऋद्धि ' दो प्रकार है। (रा. वा. ३/३६/३/२०२/२७); (चा सा. २१८/१)। अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य ईशित्व, वशित्व, और कामरूपिरब-इस प्रकार विक्रिया ऋद्धि आठ प्रकार है । यहाँ एकसयोग, द्विसयोग आदिके द्वारा २५५ विक्रियाके भेद उत्पन्न करना चाहिए, क्योकि, उनके कारण विचित्र है । एकसंयोगी -६द्विसंयोगो-२८, त्रिसयोगी-५६; चतुःसंयोगी-७०, पचन
जैनेन्द्र सिद्धात कोश
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