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आचार
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१ आचार सामान्यके भेद व लक्षण
सा.घ ७/३५ /- वीर्याच्छुद्धेषु तेषु तु ॥ ३५॥ - अपनी शक्तिके अनुसार निर्मल किये गये सम्यग्दर्शनादिमे को घरन किया जाता है उसे आचार कहते है । सू. आ. ११३
गाणचरिते वे विरियाचरचिन बो अदिचारेऽह कारिये अणुमोदिदेव कहो ॥१३६॥ सम्यग्दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारिताचार तपाचार और वीर्याचार-- इस तरह पाँच आचारों कृतकारित अनुमोदन होनेवाले अतिचारोंको मै कहता । (न.च, ३३६), प्र. सा./त.प्र. २०२) (नि.सा /ता.वृ. ७३) २. दर्शनाचारके भेद व लक्षण
सू. आ] २००-२०१ दसम्बरणविद्धी अटुवा जिनमरेहिं गिट्टि २०० मि किट विकलिद विमिदगिन्छा अव उवग्रहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ ॥ २०९॥ - दर्शनाचारकी निर्मलता जिनेन्द्र भगवादने आ प्रकारकी कही है। निशकिस निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्व के गुण जानना ॥ २०९॥ असा २०२/२५० अनि कानिचि निरस्यनिटियो' हणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावना
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नाचार अहो नि शकिल निकल, निर्विचिकित्सा, निर्मुल उप' हण, स्थितिकरण वारम्य और प्रभावस्वरूप दर्शनाचार है ( प्र /टो ०/१३) प.प./टी./२३/३ चिदानन्द कस्यभावं शुद्धात्मतत्वं तदेव सर्वप्रकारो पोयतं तस्माच्च यदन्यत्तद्धेयमिति मलिनायगार हितान निश्चयमद्यामबुद्धि सम्यक्त्वं तत्राचरणं परिणमनं दर्शनाचार | =जो चिदानन्दरूप शुद्धात्म तत्त्व है वही सब प्रकार आराधने योग्य है, उससे भिन्न जो पर वस्तु है वह सब व्याज्य हैं। ऐसो दृढ प्रतीति चंचलता रहित निर्मल अरगाढ परम श्रद्धा है, उसको सम्यक्त्व कहते हैं, उसका जो आचरण अर्थात् उस स्वरूप परिणमन वह दर्शनाचार कहा जाता है।
द्र. सं / टी ५२/२१८ परमचैतन्यविलासलक्षण स्वशुद्वामेोपादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं तत्राचरण परिणमनं निश्चयदर्शनाचारए । - समस्त पर पीसे भिन्न और परम चैतन्यावाणबाती, यह निज शुजारा ही उपादेय है, ऐसी रूचि रूप मम्यग्दर्शन है, उस सम्यग्दर्शन में जो आचरण अर्थात् परिणमन सो निश्चय दर्शनाचार है।
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३ ज्ञानाचारके भेद व लक्षण
आ. २६६ काले बिणए उपहाणे बहुमाणे हे विष्वणे जण अन्य तदुभय णाणाचारो दु अट्ठविहो ॥ २६६॥ - स्वाध्यायका काल, मन वच कासे शास्त्रका विनय यत्नसे करना, पूजा-सत्कारादिसे पाठ करना, अपने पढानेवाले गुरुका तथा पढे हुए शास्त्रका नाम प्रगट करना छिपाना नही, वर्ण पद वाक्यको शुद्धिसे पढना, अनेकान्तस्वरूप अर्थ को शुद्धि अर्थ सहित पाठादिकको सुद्धि होना इस तरह ज्ञानाचार आठ भेद है । प्र.सा./त
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२०२ / २४१ कालमियोपधानमहुमानानिहवार्थ व्यञ्जनभयसनत्वलक्षणज्ञानाचार | काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनि, अर्थ, व्यजन और तदुभय सम्पन्न ज्ञानाचार है । पत्र ७/१२ उत्रे सावविपर्यासानभ्यवसायरहितत्वेन स्वसवेदनज्ञानरूपेण ग्राहकबुद्धि सम्यग्ज्ञान तत्राचरणं परिणमनं ज्ञानाचार' । - और उसी निज स्वरूप में, सराय - त्रिमोह विभ्रम रहित जो स्वसवेदनज्ञानरूपग्राहक बुद्धि वह सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका जो आचरण अर्थात उस रूप परिणमन वह (निश्चय) ज्ञानाचार है।
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इस / टी २२/२९८ तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्य पृथकपरिच्छेदनं, सम्यग्ज्ञानं. तत्राचरण परिणमन निश्चयज्ञानाचार | उसी शुद्धात्माको उपाधि रहित स्वमवेदन रूप ज्ञानद्वारा मिध्यात्व रागादि परभावोंसे भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान हैं, उस सम्यग्ज्ञानमें आचरण अर्थात परिणमन वह निश्चयज्ञानाचार है ।
४ चारित्राचारके भेद व लक्षण
. आ २८८ २३० पाणिहमुसावाद अदसमे अपरिग्गहानिरदी। एस परित्ताचा पंचविहो होदि कालो ॥२८८३ परिधाजोगी पंचसु समिदीसु ती गुत्तीसु । एस चरित्ताचारो अट्ठविधो होइ गायत्रो ॥ २६७॥ प्राणियोकी हिंसा, झूठ बोलना, चोरी, मैथुन, सेवा, परिग्रह - इनका त्याग करना वह अहिसा आदि पाँच प्रकारका चारित्राचार जानना ॥२८८॥ परिणामके संयोगसे, पाँच समिति तीन गुप्तियो में अकषाय रूप प्रवृत्ति आठ भेदवाला चारित्राचार है। प्र सात प्र२०२/२५० मोक्षमार्गप्रवृत्ति महाकाय वामनोगती भाषेषणादान निक्षेपणप्रतिष्ठापणसमितिलक्षणचारित्राचार. । -मो मार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत पंचमहाव्रत सहित कायवचन गुप्ति और ईर्ष्या, भाषा, ऐषणा आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति स्वरूप चारित्राचार है ।
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पटी ७/१२ सय शुभाशुभसङ्कल्पविकल्पसहितत्वेन नित्यानन्दमयसुखरसास्वाद स्थिरानुभव च सम्यम्चारित्र तत्राचरणं परिणमनं चारित्राचार | = उसी शुद्ध स्वरूपमें शुभ अशुभ समस्त सङ्कल्प रहित जो नित्यानन्दमे निजरसका स्वाद, अनिश्चय अनुभव, वह सम्यग्चारित्र है । उसका जो आचरण, उस रूप परिणमन वह चारित्राचार है।
द्र. सं टी. ५२ / २१८ तत्रैव रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वाभाविक सुखास्वादेन निश्चलचित वीतरागचारित्र' तत्राचरणं परिणमन निश्चयचारित्राचार । उसी शुद्ध आत्मामे रागादि विकल्प रूप उपाधिसे रहित स्वाभाविक वास्वादसे निश्चल पित होगा, वीतराग चारित्र है. उसमें आचरण अर्थात परिणमन निश्चय चारित्राचार है।
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५. तपाचारके भेद व लक्षण
पू. आ ३४५,३४६,३६० दुविहो य तवाचारो बाहिर अब्भंतरो मुणेयव्वो । erent for छद्धा जधाकम त परूवेमो ॥ ३४५॥ अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वृत्तिपरिसखा । कायस्स च परितावो विवित्तसयणास छ ॥ ३४६ ॥ पायच्छित्तं विणय वेज्जावच तहेब सज्झायं । झाणं च विउस्सगो अब्भन्तरओ तवो ऐसो || ३६०|| - तपाचार के दो भेद है - बाह्य, अभ्यन्तर । उनमें से भी एक-एक के छह छह भेद जानना । उनको मै क्रमसे कहता हूँ || ३४५ || अनशन, अनमौदर्य, रमपरित्याग, वृद्धि-परिसख्यान, काय-शोषण और छट्ठा विविक्तशय्यासन इस तरह बाह्य तपके छ. भेद है ।। ३४६ ।। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग- ये छ. भेद अन्तरङ्ग तपके है ।
प्र सात / प्र२०२ / २५० अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तयासनकायले प्रायश्चिमियायस्वाध्याययुत्सर्ग लक्षणतपाचारः । अनशन, अवभौदर्य, वृत्तिपरिस ख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय ध्यान और व्युत्सर्ग स्वरूप तपाचार है । पट ७/१२ परद्रव्येच्या विरोधेन सहजानन्देकरूपेण प्रतपन तपश्चरणं तत्राचरण परिणमनं तपश्चरणाचार |... अनशनादिद्वादशभेदरूपो बाह्यतपश्चरणाचार. । उसी परमानन्द स्वरूपमें परद्रव्यकी इच्छाका निरोधकर सहज आनन्द रूप तपश्चरणस्वरूप परिणमन तपश्चरणाचार है। अनशनादि बाह्यतप रूप बाह्य तपाचार है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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