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उदय
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५. प्रकृतियोके उदय सम्बन्धी शंका समाधान
उदय विग्रह गतिमें ही होने का नियम है, क्योकि तहाँ ही भवका एकेन्द्रिय (बादर, पृथिवी, अप, तेज, वायु व प्रत्येक शरीर पर्याप्त) प्रथमसमय उस अवस्थामें प्राप्त होता है)
विकलेन्द्रिय पर्याप्त, असैनी पचेन्द्रिय, इनविषै और तौ अप्रशस्त गो क जो प्र २८५/४१२/१४ विवक्षितभवप्रथमसमये एव तद्गतितदानु- प्रकृतिनिका ही उदय है और यशस्कोति और अयशस्कीति इन पूर्व्यतदायुष्योदय' सपदे सदृशस्थाने युगपदेवैकजीवे उदेतीत्यर्थ । दोऊनि विषै एक किसीका उदय है, तातै तिनिके उदयस्थाननि =विवक्षित पर्यायका पहिला समय ही ती हि विवक्षित पर्याय विष दो-दो भंग जानने ६००। सज्ञी जीव विष, मनुष्य विषै छह सम्बन्धी गति वा आनुपूर्वोका उदय हो है। एक ही गतिका वा संस्थान, छह सहनन, विहायोगति आदिके उपरोक्त पाँच युगल इनि आनुपूर्वीका वा आयुका उदय युगपत् एक जीवके हो है (असमान विषै अन्यतम (प्रशस्त या अप्रशस्त) एक-एक का उदय पाइये है। का नहीं)।
तात सामान्यबत् ११५२ भग है। (६x६x२x२x२x२४२-११५२)। ४ आतप-उद्योतका उदय तेज ,वात व सूक्ष्ममे नही होता
केवलज्ञानविषै बज्रऋषभनाराच, सुभग, आदेय, यशस्कोति इनका
ही उदय पाइये (शेष जो छ सस्थान व दो युगल उनमें से अन्यतमध.८/३.१३८/१६६/११ आदाउज्जोवाण परोदो धो। होदु णाम वाउ
का उदय है) तातै केवल ज्ञान सम्बन्धी स्थान विर्षे (६x२x२) काइएसु आदावुज्जीवाणमुदयाभावो, तत्थ तदणुवल भादो। ण तेउ
चौबीस-चौबीस ही भंग जानने। तीर्थंकर केवली के सर्वप्रशस्त काइएसु तदभावो । पच्चक्खेणुबल भमाणत्तादो। एत्थ परिहारो वुच्चदोण ताव तेउकाइएसु आदाओ अत्थि, उण्हप्पहाए तत्थाभावादो।
प्रकृतिका उदय हो है तातै ताकै उदयस्थाननि विष एक-एक ही तेउम्हि वि उण्हत्त मुवलंभइ च्चे उक्लभउ णाम, [ण] तस्स आदा
भंग है ।६०११ च्यारि प्रकार देवनिविधै वा आहारक सहित प्रमत्तविषै ववएसो, किंतु तेजासण्णा, "मूलोष्णवती प्रभा तेज', सर्वांगव्याप्पुष्ण
सर्व प्रशस्त प्रकृतिनि ही का उदय है, तातै तिनिके सर्व काल वती प्रभा आताप', उष्णरहिता प्रभोद्योत," इति तिण्हं भेदोव
सम्बन्धी उदय स्थाननि विषै एक-एक ही भग है। बहुरि सासादल भादो । तम्हा ण उज्जीवो वि तत्थस्थि. मूलुण्हज्जोवस्स तेजववए
नादिक गुणस्थाननिको प्राप्त भये तिनिविषै वा विग्रह गति वा सादो। - आतप व उद्योतका परोदय बन्ध होता है । प्रश्न-वायु
कार्मणकाल निविर्ष व्युच्छित्ति भई प्रकृतिनि को जानि अवशेष कायिक जीवोंमें आतप व उद्योतका अभाव भले ही होवे, क्योकि,
प्रकृतिनिके यथा सम्भव भग जानने । उनमें वह पाया नही जाता किन्तु तेजकायिक जीवोमें उन दोनोका ६. उदयके स्वामित्व सम्बन्धी सारणी उदयाभाव सम्भव नहीं है, क्योकि, यहाँ उनका उदय प्रत्यक्षसे देखा (गो, क. २८५-२८६) जाता है । उत्तर यहाँ उक्त शकाका परिहार करते है-तेजकायिक जीबो में आतपका उदय नही है, क्योकि वहाँ उष्ण प्रभाका अभाव क्रम नाम प्रकृति
स्वामित्व है। प्रश्न-तेजकायमे तो उष्णता पायी जाती है, फिर वहाँ आतपका उदय क्यो न माना जाये ? उत्तर-तेजकायमे भले ही उष्णता
स्त्यानगृद्धि । इन्द्रिय पर्याप्ति पूरी कर चुकनेवाले केवल म पायी जाती हो परन्तु उसका नाम आतप नही हो सकता, किन्तु
| आदि ३ निद्रा | भ्रमिया मनुष्य व तियंच। तिनमें भी आहारक तेज मज्ञा होगी, क्योकि मूलमे उष्णबतो प्रभाका नाम तेज है,
व वैक्रियक ऋद्धिधारीको नही। सर्वागव्यापी उष्णवती (सूर्य) प्रभाका नाम आतप और उष्णतारहित २ स्त्रीवेद निवृत्त्यपर्याप्त असयत गुणस्थान में नहीं। प्रभाका नाम उद्योत है इस प्रकार तीनोके भेद पाया जाता है। इसी ३ नसक्वेदी निवृत्त्यपर्याप्त दशामें केवल प्रथम नरकमें, पर्याप्त कारण वहाँ उद्योत भी नहीं, क्योकि, मूलोष्ण उद्योतका नाम तेज असयत सम्य. दशामें देवोसे अतिरिक्त सबमें। है [न कि उद्योत] (ध ६/१,६-१,२८/६०/४) ।
| गति
विवक्षित पर्यायका पहला समय । गो. क./भाषा ७४५/१०४/१२ तेज, वात, साधारण, सूक्ष्म, अपर्याप्त निकै | आनुपूर्वी उपरोक्तवत, परन्तु स्त्री वेदी असंयतसम्यग्दृष्टिताका (आतप व उद्योतका) उदय नाही।
की नहीं। ५. आहारकद्विक व तीर्थकर प्रकृतिका उदय पुरुषवेदीको অারণ बादर पर्याप्त पृथिवी कायिकमें ही।
उद्योत ही सम्भव है
तेज, वात व साधारण शरीर तथा इनके अतिगो, क./जी. ११६/१११/१५ स्त्रीषण्डवेदयोरपि तीर्थाहारकबन्धो न
रिक्त शेष बादर पर्याप्त तियंच ।
छह सहनन केवल मनुष्य व तिर्यच। विरुध्यते उदयस्यैव वेदिषु नियमात् । -तीथंकर व आहारकद्विक
औदारिक द्वि. मनुष्य तियं च । इन तीन प्रकृतियोका बन्ध तो स्त्री व नपुंसकवेदीको भी होने में कोई
वै क्रियक द्वि. देव नारकी। विरोध नहीं है, परन्तु इनका उदय नियमसे पुरुषवेदोको ही
११/ उच्चगोत्र सर्व देव व कुछ मनुष्य । होता है।
८ नामकर्मको प्रकृतियों में सहवर्ती उदय सम्बन्धी ५. प्रकृतियोके उदय सम्बन्धी शंका-समाधान गो क /मू ५६६-६०२/८०३-८०५ संठाणे सहडणे विहायजुम्मे य चरिम
१ असंज्ञियोंमे देवादि गतिका उदय कैसे है ? चदुजुम्मे । अविरुद्ध दरोदो उदयट्ठाणेसु भंगा हु।११। तत्थासत्था
ध १५/३१६/५ जिरय-देव-मणुसगईण देव-णिरय-मणुस्साउआणमुश्चाणारयसाहारणसुहमगे अपुष्णे य। सेसेगविगलऽसणीजुदठाणे जसजुदे भगा।६००। सण्णिम्मि मुणुसम्मि य ओघेक्कदर तु केवले वज्जं ।
गोदस्स य कधमसण्णीसुदओ। ण, असण्णिपच्छायदाणं णेरइयादीणसुभगादेज्जसाणि य तित्थजुदे सत्यमेदीदि ६०१। देवाहारे सत्थं
मुक्यारेण असण्णित्तब्भुवगमादो। -प्रश्न-नरकगति, देवगति, कालावयप्पेसु भंगमाणेज्जो। बोच्छिण्णं जाणित्तं गुणपडिवण्णेस
मनुष्यगति, देवायु, नरकायु, मनुष्यायु और उच्चगोत्रका उदय असंही
जीवोमें कैसे सम्भव है ? उत्तर-नही क्योकि असंज्ञी जीवोमें-से सम्वेसु ६०२छह स स्थान, छह सहनन, दो विहायोगति, सुभगयुगल, स्वरयुगल, आदेययुगल, यश कीर्तियुगल, इन विषे अविरुद्ध
पोछे आये हुये नारकी आदिकोको उपचारसे अज्ञी स्वीकार किया एक-एक ग्रहण करते भंग हो है।५६६। तिनि उदय प्रकृति निविषै
गया है। नारको और साधारण वनस्पति, सर्व ही सूक्ष्म, सर्व ही लब्धपर्याप्तक
२ देवगतिमें उद्योतके बिना दीप्ति कैसे है ? इन विषै अप्रशस्त प्रकृति ही का उदय है। तातै तिनिके पाँच कालघ.६/१,६-२ १०२/१२६/२ देवेसुउज्जोवस्सुदयाभावे देवाणं देहदित्ती कुदो सम्बन्धी सर्व उदयस्थाननिविषै एक-एक ही अंग है। अवशेष होदि । वण्णणामकम्मोदयादो। -प्रश्न-देवों में उद्योत प्रकृतिका
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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