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________________ इंद्रिय ३०१ १. भेद व लक्षण तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान १ एकेन्द्रिय असंज्ञी होते है * एकेन्द्रिय आदिकोमे मनके अभाव सम्बन्धी-दे. सज्ञरे * एकेन्द्रिय जाति नामकर्मके बन्ध योग्य परिणाम - दे जाति * एकेन्द्रियोंमे सासादन गणस्थान सम्बन्धी चर्चा -दे जन्म * एकेन्द्रिय आदिकोंमे क्षायिक सम्यक्त्वके अभाव सम्बन्धी - तिर्यञ्च गति * एकेन्द्रियोसे सीधा निकल मनुष्य हो क्षायिक सम्यक्त्व व मोक्ष प्राप्त करनेकी सम्भावना -दे.जन्म ५ * विकलेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जीवोका लोकमे अवस्थन -दे तिर्यश्च ३ १. भेद व लक्षण तथा तत्सम्बन्धी शका-समाधान १. इन्द्रिय सामान्यका लक्षण पं. स./प्रा. १४६५ अहमिदा जह देवा अविसेस अहमहं त्ति मण्णता। ईसति एकमेक इदा इव इदिय जाणे ॥६॥-जिस प्रकार अहमिन्द्रदेव बिना किसी विशेषताके 'मै इन्द्र हूँ, मै इन्द्र हूँ' इस प्रकार मानते हुए ऐश्वर्यका स्वतन्त्र रूपसे अनुभव करते है, उसी प्रकार इन्द्रियोको जानना चाहिए । अर्थात् इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोको सेपन करने में स्वतन्त्र है। (ध. १/१.१.४/८५/१३७), (गो जो /. १६४), (पं.स./स. १/७८) स सि.१/१४/१०८/३ इन्दतीति इन्द्र आरमा। तस्य ज्ञस्वभावस्य तदा- वरणक्षयोपशने सति स्वयमर्थान् गृहोतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धिलिङ्ग तदिन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियमित्युच्यते। अथवा लीनमर्थ गमयतीति लिङ्गम्। आत्मन सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगमे लिङ्गमिन्द्रियम् । यथा इह धूमोऽग्ने । . अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते । तेन सृष्टमिन्द्रियमिति। -१. इन्द्र श६का पुत्सत्तिलभ्य अर्थ है, 'इन्दतीति इन्द्र' जो आज्ञा और ऐश्वर्य वाला है वह इन्द्र है। यहाँ इन्द्र शब्दका अर्थ आत्मा है। वह यद्यपि ज्ञस्वभाव है तो भी मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमके रहते हुए स्वय पदार्थोंको जानने में असमर्थ है। अत: उसको जो जानने में लिंग (निमित्त) होता है वह इन्द्रका लिंग इन्द्रिय कही जाती है। २ अथवा जो लीन अर्थात् गूढ पदार्थ का ज्ञान कराता है उसे लिंग कहते हैं । इसके अनुसार इन्द्रिय शब्दका अर्थ हुआ कि जो सूक्ष्म आत्माके अस्तित्वका ज्ञान कराने में लिग अर्थात कारण है उसे इन्द्रिय कहते है। जेसे लोक में धूम अग्निका ज्ञान कराने में कारण होता है । ३. अथवा इन्द्र शब्द नाममका याची है। अत यह अर्थ हुआ कि जिससे रची गयी इन्द्रिय है। (रा. वा. १/१४/१/५६), (रा.वा.२/११/१-२/१२६), (रा वा.६/७/११/६०३/२८), (ध १/१,१,२३/ २३२/१), (ध.७/२,१,२/6/७) ध १/१.१,४/१३५-१३७/६ प्रत्यक्ष निरतानी न्द्रियाणि । अक्षाणीन्द्रियाणि । असमक्ष प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षविषयोऽक्षजो बोधो वा । तत्र निरतानि व्यापृतानि इन्द्रियाणि । स्वेधा विषय. स्वविषयस्तत्र निश्चयेन निण येन रतानोन्द्रियाणि ।.. अथवा इन्दनादाधिपत्यादिन्द्रियाणि । -१ जो प्रत्यक्षमें व्यापार करतो है उन्हे इन्द्रियों कहते है। जिसका खुलासा इस प्रकार है अक्ष इन्द्रियको कहते है और जा अक्ष असके प्रति अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके प्रति रहता है, उसे प्रत्यक्ष कहते है। जा कि इन्द्रियोंका विषय अथवा इन्द्रियजन्य ज्ञानरूप पड़ता है। उस इन्द्रिय विषय अथवा इन्द्रिय ज्ञान रूप जो प्रत्यक्षमें व्यापार करती है, उन्हे इन्द्रियों कहते है । २ इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयमें रत है। अर्थात व्यापार करती है । (ध ७/२,१,२/६/७) । ३. अथवा अपने-अपने विषयका स्वतन्त्र आधिपत्य करनेसे इन्द्रियों कहलाती है। गो.जी |जी.प्र १६५ में उद्धृत "यदिन्द्रस्यात्मनो लिङ्ग यदि वा इन्द्रेण कर्मणा। सृष्ट जुष्टं तथा दृष्ट दत्त वेति तदिन्द्रिय । -इन्द्र जो आत्मा ताका चिह्न सो इन्द्रिय है। अथवा इन्द्र जो कर्म ताकरि निपज्या का सेया वा तैसे देख्या वा दीया सो इन्द्रिय है। २. इन्द्रिय सामान्यके भेद त सू. २/१५,१६.१६ पञ्चेन्द्रियाणि ॥१५॥ द्विविधानि ॥१६॥ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षु श्रोत्राणि ॥१६॥ - इन्द्रियाँ पाँच है ॥१५॥ वे प्रत्येक दो-दो प्रकारको है ॥१६॥ स्पर्शन, रसन, घाण, चक्षु और श्रोत्र ये इन्द्रियाँ है ।१६। (रा.वा १/१७/११/६०३/२६) स सि २/१६/१७४/१ को पुनस्तौ द्वौ प्रकारौ द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियमिति । -प्रश्न-वे दो प्रकार कौन-से है। उत्तर-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय (रा.वा २/१६/१/१३०/२), (ध १/११.३३/२३२/२). {गो जी /मू १६५) ३. द्रव्येन्द्रियके उत्तर-भेद त सू. २/१७ निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥१७॥ मा द्विविधा, बाह्याभ्य न्तरभेदात् (स सि ) । -निवृत्ति और उपकरण रूप द्रव्येन्द्रिय है ॥१७॥ निवृत्ति दो प्रकारकी है-बाह्य निवृत्ति और आभ्यन्तरनिवृत्ति । (म सि २/१७/१७५/४), (रा वा २/१७/२/१३०), (ध.१/१, १३०/०३/२) स.सि २/१७/१७५/८ पूर्ववत्तदपि द्विविधम् । = निवृत्तिके समान यह भी दो प्रकारकी है-बाह्य और आभ्यन्तर । (रा वा २/१७/६/१३०/१६) (ध १/१ १,३३/२३६/१२) ४ भावेन्द्रियके उत्तर-भेद तमू २/१८ लन्ध्युपयागो भावेन्द्रियम् ॥१८॥ -लब्धि और उपयोग रूप भावेन्द्रिय है। (व १/१,१.३३/२३६/५) ५ निवृत्ति व उपकरण भावेन्द्रियोके लक्षण स सि २/१७/१७५/३ निवृत्यते इति निवृत्ति । केन निवृत्यते। कम। मा द्विविधा, बाह्याभ्यन्तरभेदात् । उत्सेधाडगुलास ज्येयभागप्रमिताना शुद्वात्मप्रदेशाना प्रतिनियतचटुरादीन्द्रियसस्थानेनाव स्थिताना वृत्तिराभ्यन्तरा निवृत्ति । तेष्वात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभानु य प्रतिनियतसस्थाननामकर्मोदयापादितावस्थाविशेष' पुद्गलप्रचय सा ब्राह्मा निवृत्ति । येन निवृतरुपकार क्रियते तदुपकरणम् । पूर्ववत्तदपि द्विविधम् । तत्राभ्यन्तरकृष्ण शुक्लमण्डल बाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि । एव शेषेध्वपीन्द्रियेषु ज्ञेयम् । - रचनाका नाम निवृत्ति है। प्रश्न- यह रचना कौन करता है । उत्तर-कर्म । निवृत्ति दो प्रकारकी है-बाह्य और आभ्यन्तर । उत्सेधांगुलके असंख्यातवे भाग प्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियोके आकार रूपसे अवस्थित शुद्ध आरम प्रदेशोगी रचनाको आभ्यन्तर निवृत्ति कहते है। तथा इन्द्रिय नामवाले उन्हीं आरमप्रदेशोमें प्रति नियत आकार रूप और नामकर्मके उदयसे विशेष अवस्थाको प्राप्त जो पुद्गल प्रचय होता है उम बाह्य निवृत्ति कहते है। जो निवृत्तिका उपकार करता है उसे उपकरण कहते है। यह भी दो प्रकारका है। .. नेत्र इन्द्रियमे कृष्ण और शुक्मण्डल आभ्यन्तर उपकरण है तथा पलक और दोनो बरौनी आदि बाह्य उपकरण है। इसी प्रकार शेष इन्द्रियो मे भी जानना चाहिए। (रा वा २/१७/२-७/ १३७), (ध १/१.१३३/२३२/२), (ध १/१,१,३३/२३४/६), (ध १/१,१, ३३/२३६/३), (त सा २/४३) त सा २/४१-१२ नेवादीन्द्रि यस स्थानावस्थितानां हि वतनम् । विशुद्धारमप्रदेशाना तत्र निवृत्तिरान्तरा ॥४१॥ तेवेत्रात्मप्रदेशेषु करणव्यपदेशिषु। नामकर्मकृतावस्थ पुगनप्रचयोऽपरा ॥४२॥ - बाह्य व जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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