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भात्त ध्यान
आर्य
उमको प्राप्ति के लिए जो स्लेश रूप होना मो दूसरे आत ध्यान
का लक्षण है। नि सा /ता वृ८६ स्वदेशत्यागाद् द्रव्यनाशाद मित्रजनविदेशगमनात कमनीयकामिनीवियोगात-समुपजातमातध्यानम्। स्वदेश के त्याग मे, द्रव्य के नाशसे, मित्रजनके विदेश गमनसे, कमनीय कामिनी के वियोगमे उत्पन्न होनेवाला आर्तध्यान है।
६. वेदना सम्बन्धी आर्तध्यानका लक्षण तस/३२ वेदनायाश्च ॥ ॥ वेदनाके होनेपर (अर्थात वातादि विकार
जनित शारीरिक वेदनावे होनेपर उसे दूर करनेको सतत चिन्ता करना तीसरा आर्तध्यान है। ज्ञा २१/३२-३३कासश्वासभगन्दरजलोदरजरानुष्ठातिसारज्वरे ,पित्तश्लेष्ममरुत्प्रकोपजनित रोगै शरीरान्तकै । स्यात्सत्व प्रबल प्रतिक्षण भवेHद्याकुलत्व नृणाम, तद्रोग तमनिन्दितै प्रकटित दुर्वार-दुखाकरम ॥१२॥म्वरूपानामपि रोगाणा मात्स्वप्नेऽपिसभव । ममेत या नृणा चिन्ता स्यादातं तत्ततीयकम् ॥३॥ वात पित्त क्फके प्रकोपसे उत्पन्न हुए शरीरको नाश करने वाले वीर्य से प्रबल और क्षण-क्षण मे उत्पन्न होनेवाले कास, श्वास भगन्दर, जलोदर, जरा, कोढ़, अतिसार. ज्वरादिक रोगोसे मनुष्यो के जो व्याकुलता होती है, उसे अनिन्दित पुरुषोने रोग पीडाचितवन नामा आर्त ध्यान कहा है, यह ध्यान दुर्निवार और दुरखोका आकार है जो कि आगामी कालमे पाप बन्धका कारण है ॥३२॥जीबोके ऐसी चिन्ता हो कि मेरे किचित रोगकी उत्पत्ति स्वप्न में भो न हो सो ऐसा चिन्तवन तीसरा आतध्यान है ॥३॥
*निदान व अपध्यानके लक्षण-दे० वह वह नाम । २. आर्त्तध्यान निर्देश
१ आर्तध्यानमें सम्भव भाव व लेश्या म पु २२/३८ अपशरततम लेश्या प्रयमाश्रित्य जम्भितम्। अन्तमहतंकाल तद अपशप्ताबलम्बनम् ॥३८॥ यह चारो प्रकारका आतध्यान अत्यन्त अशुभ कृष्ण नीत और कापोत लेश्या का आश्रय कर उत्पन्न होता है, इसका काल अन्तर्मुहूर्त है और आलम्बन अशुभ है। (शा.२५/४०) (चा. सा./१६६/३)
२.आर्तध्यानका फल स सि.१/२६ यह संसार का कारण है। रावा.६/३३/९/६२६ तिर्यग्भगमनपर्यवसानम् । - इस आसध्यानका फल तिर्यञ्च गति है । (ह. पु ५६/९८), (चा सा.१६/४) ज्ञा २५/१२ अनन्तदु खस कर्णस्य तिर्यग्गत, फलं. ॥४२॥ आतध्यानका फल अनन्त दुखोसे व्याप्त तिर्यच्च गति है।
३. मनोज्ञ व निदान आतध्यानमें अन्तर रा. बा.६/३३/१/३३ विपरीतं मनोज्ञस्येत्यनेनैव निदानं संगृहीतमिति, तन्न, किं कारणम् । अप्राप्तपूर्व विषयत्वान्निदानस्य । सुखमात्रया प्रलम्भितस्याप्राप्तपूर्व प्रार्थनाभिमुख्यादनागतार्थप्राप्ति निबन्ध निदाममित्यस्ति विशेष । प्रश्न--'विपरीतं मनोज्ञस्य' इस सूत्रसे निदान का संग्रह हो जाता है । उत्तर नहीं, क्योंकि निदान अप्राप्तकी प्राप्ति के लिए होता है, इसमें पारलौकिक विषय-मुखकी गृद्धिसे अनागत अर्थ की प्राप्तिके लिए सतत चिन्ता रहती है। इस प्रकार इन दोनों में अन्तर है। ३. आर्तध्यानका स्वामित्व
१. १-६ गुणस्थान तक होता है त, सू.१/३४ सदविश्तदेशविरतप्रमत्ससयतानाम् ॥३४॥ - सह आर्सध्यान अविरत, देशविरत, और प्रमत्त संयत जोवोके होता है।
स.सि ६/३४/४४७/१४ अविरता सम्यग्दृष्टयन्ता देशविरता सयतासयता. प्रमत्तसंयता - तत्र विरतदेश विरतानां चतुर्विधमप्यात भवति, प्रमत्तसंयताना तु निदानबर्ण मय दार्तत्रयं प्रमादोदयोट्रेकात्वदाचित्स्यात् । - अस् यत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तकके जीव अविरत कहलाते है, स यतासंयत जीव देशविरत कहलाते है, प्रमाद से युक्त क्रिया करनेवाले प्रमत्त संयत कहलाते है । इनमें से अविरत और देश चिरत जोवोके चारों हो प्रकारका आर्तध्यान होता है । प्रमत्त सयतोके तो निदान के सिवा बाकी के तीन प्रमादकी तीवता वा कदाचित होते है। (रा वाह/३४/१/६२६ ) (हपु ५६/१८) (म पु २११३७ ) (चा सा १६६/३) (ज्ञा २३४३८-११) (द्र. म/टी ४८४८/२०१)
* साधु योग्य आर्तध्यानकी सीमा-दे.सयत/३ २. आर्तध्यानके बाह्य चिह्न ज्ञा २५/४३ शङ्काशोक भयप्रमादव लहश्चित्तभ्रमोद्भ्रान्तर । उन्मादो विषयोत्सुकत्वमसकृन्निद्राङ्गजाड्यश्रमा । मूर्खादीनि शरीरिणामविरत लिङ्गानि बाह्यान्यल मार्ता -धिष्ठितचेतसा शुतधरै व्यविधिनानि स्फुटम् ॥४॥ इस आर्तध्यानके आश्रितचित्तवाले पुरुषों के बाह्य चिह्न शाखोके पारगामी विद्वानोने इस प्रकार कहे है कि-प्रथम तो शका, होती है,अर्थात हर बातमें सन्देह होता है, फिर शोक होता है, भय होता है, प्रमाद होता है-साबधानी नही होती कलह करता है. चित्तभ्रम हो जाता है, उभ्रान्ति होती है, चित्त एक जगह नही ठहरता, विषय सेवनमे उत्कण्ठा होती है, निरन्तर निद्रा गमन होता है अगमे जडता होती है, खेद होता है, मूर्छा होती है, इत्यादि चिन्ह आर्तध्यानी के प्रगट होते है। आत परिणाम-दे आर्तध्यान । आर्द्रा-एक नक्षत्र-दे नक्षत्र ! आर्य-ह.प्र श्लोक "विजयापर हरिपुर निवासी पवन वेग विद्याधर का पुत्र था (२३-२४) पूर्व जन्म के वैरी ने इसकी समस्त विद्याएँ हर ली। परन्तु दया से चम्पापुर का राजा बना दिया (४१५) इसी के हरि नामक पुत्र से हरिवश की उत्पत्ति हुई (५७-५८) आर्य
१ आर्य सामान्यका लक्षण स. सि :/३५/२२६/६ गुणे गुण वदभिर्वा अर्यन्त इत्यार्या । जो गुणों या गुणवालोके द्वारा माने जाते हों- ये आर्य कहलाते हैं । (रा.वा. ३/३६/१/२००)
२ आर्यके भेद-प्रभेद स.सि ३/३६/२२६/६ ते द्विविधा - ऋद्धिप्राप्तार्या अनृद्धिप्राप्ताश्चेिति ।
- उसके दो भेद है- ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धि रहित आर्य । (रावा, ३/३६/१/२००)
३ ऋद्धि प्राप्त आर्य-दे ऋद्धि ।
४. अनृद्धि प्राप्तायके भेद स, सि ३/३६/२३०/१ अनृद्धि प्राप्तार्या पञ्चविधा - क्षेत्रार्या जात्यायः कर्माश्चिारित्रार्या दर्शनार्याश्चेति । - ऋद्धिरहित आर्य पाँच प्रकारके है -- क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य । (रा वा. ३/३६/२/२००) रा, वा /३/२६/२/२०० तत्र कर्मास्त्रेिधा-सावध कार्या अल्पसावद्यकार्या असावद्यकर्मायश्चेिति। सावद्यकर्थि घोढा-असि-मषोकृषि-विद्या शिल्प-वणिक्कम-भेदात्त । • चारित्रार्या द्वेधा-अधिगत चारित्रार्या अनधिगमचारित्राश्चेिति। दर्शनार्या दशधा-आज्ञामार्गोपदेशसूत्रनीजसंक्षेपविस्ताराविगाहपरमावगाढरुचिभेदात् ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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