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आहारक
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३ आहारक सघात निर्देश
४ कई लाख योजन तक अप्रतिहत गमन करने में समर्थ ध४/१,३.२/२८/६ अणेयजोजणलवावगमणवरवमं अपडिहयगमण । --क्षण
मात्र में कई लाख योजन गमन करने में समर्थ, ऐसा अप्रतिहत गमन वाला । (गो. जी / २३८)
५ आहारक शरीरमें निगोद राशि नहीं होती ध.१४/५६,६१/८१/८ । आहारसरीरा पमत्तसजदा पत्तेयसरीरा बुच्चति, एदेसि णिगोदजीवे हि सह सबंधाभावादो। आहारक शरोरी, प्रमत्तस यत. ये जीव प्रत्येक शरीरवाले होते है। क्योकि इनका निगोद जीवों के साथ सम्बन्ध नही होता।
६ आहारक शरीरकी स्थिति गो जी./मू /२३८ अंतोमुत्तकालदि । जहपिणदरेः १२३८५ - बहुरि जाको (आहारक शरीरकी) जघन्य वा उत्कृष्ट स्थिति अन्तमहत काल प्रमाण है।
७ आहारक शरीरका स्वामित्व रा.वा. २/४६/६/१५३/६ यदा आहारकशरीरं निर्वतयितुमारभते तदा प्रमत्तो भवतीति प्रमत्तसयतस्येत्युच्यते। -जिस समय मुनि आहारक शरीरकी रचना करता है, उस समय प्रमत्तसयत हो होता है । (विशेष दे. आहारक/३/३) ८ आहारक शरीरका कारण व प्रयोजन रा वा. २/४६/४/१५२/१ कदाचिन्धिविशेषसद्भावानानाथ कदाचिरसूक्ष्मपदार्थ निर्धारणाथं संयमपरिपालनाथं च भरत रावतेषु केलिविरहे जातसंशयस्तन्निर्णयार्थ महाविदेहेषु वेवलिसकाश जिगमिषुरौदारिकेण मे महानसंयमो भवतीति विद्वानाहारकं निवर्तयति । ४. कदाचित ऋद्धिका सद्भाव जाननेके लिए, कदाचित् सूक्ष्म पदार्थोंका निर्णय करनेके लिए, संयम के परिपालनके अर्थ, भरत ऐरावत क्षेत्र में केवली का अभाव होनेसे, तत्त्वों में, संशयको दूर करने के लिए महा विदेह क्षेत्रमें और शरीरसे जाना तो शक्य नहीं है, और इससे मुझे असंयम भी बहुत होगा, इसलिए विद्वान् मुनि आहारक शरीरकी रचना करता है । (गो जो /मू, २३५-२३६,२३६) ध.४/१,३,२/२८/७ आणाकणिठ्ठदाए अस जमबहुलदाए च लद्धप्पसरूवं।
-जो आज्ञाकी अर्थात श्रुतज्ञानकी कनिष्ठता अर्थात हीनताके होनेपर और असंयमकी बहुलता होने पर जिसने अपना स्वरूप प्राप्त किया है ऐसा है। ध १४/५.६.२३६/३२६/३ असंजमबहुलदा आणाकणिहदा सगखेत्ते केवलि विरहो त्ति एदेहि तीहि कारणे हि साह आहारशर रं पडिबज्जति। जल-थल-आगासेसु अकमेण सुहुमजीवेहि दुप्परिहणिज्जेहि आऊरिदेसु असंजमबहुलदा होदि । तप्परिण? .. आहारशरीर साह पडिवति। तेणेदमाहारपडिवज्जणमसंजदमहलदाणिमित्तमिदि भण्णदि । तिस्से कणिठ्ठदा सगखेत्ते थोवत्त आणाकणिठ्ठदानाम । एवं विदियं कारणं । आगमं मोत्तूण अण्णपमाण गोयरमइकमिदूण ठ्ठिदेसुब्बपज्जाएमु सदेहे समुप्पण्णो सगस देहे विणासण छ परखेतदिय मुद केवलि-केवलीणं वा पादमूलं गच्छामि त्ति चितविण
आहारसरीरेण परिण मिय गिरि सरि-सायर-मेरु-कुलसेलपायालाण गतूण विण एण पुच्छिय विणसं देहा होदूण पडिणियत्तिदूण आगच्छ ति त्ति भणिदं होइ । परखेत्तम्हि महामुणीणं केवलाणाणुष्पत्ती। परिणि व्याण गमण परिणि क्वमण वा तिस्थयराणं तदियं कारणं । बिडम्वण रिद्धिविरहिदा आहारलद्धिसंपण्णा साह ओहिणाणेण सुदणाणेग वा देवागमचितेण वा केवलणाणुप्पत्तिमवग तूण बंदणाभत्तीए गच्छामि त्ति चितिदूण आहारसरीरेण परिण मिय तपदेस गंतूण तेसि केवलीणमण्णेसि च जिण-जिण हराण वदणं काऊण आगच्छति। - असंयम बहुलता, आज्ञा कनिष्ठता और अपने क्षेत्र में केवली विरह इस प्रकार इन तीन कारणोंसे साधु आहारक शरीरको प्राप्त होते है।
जल, स्थल और आकाशके एक साथ दुष्परिहार्य सूक्ष्म जीवोसे आपूरित होनेपर अस यम बहुलता होती है। उसका परिहार करने के लिए साधु आहारक शरीरको प्राप्त होते है । इसलिए आहारक शरीरका प्राप्त करना असंयम बहुलता निमिक्तक कहा जाता है। आज्ञा.. उसकी कनिष्ठता अर्थात उसका अपने क्षेत्रमें थोडा होना आज्ञानिष्ठता कहलाती है। यह द्वितीय कारण है। आगमको छोड़कर द्रव्य और पर्यायों के अन्य प्रमाणो के विषय न होने पर अपने सन्देह को दूर करने के लिए परक्षेत्रमें श्रुतकेवली और केबलीके पादमूलमें जाता हूँ ऐसा विचार कर आहारक शरीर रूपसे परिमन, करके गिरि, नदी, सागर, मेरुपर्वत, कुलाचल और पातालमे केवली और श्रुतके वलीके पास जाकर तथा विनयसे पूछकर सन्देहसे रहित होवर लौट आते है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परक्षेत्र में महामुनियोके केवलज्ञानकी उत्पत्ति और परिनिर्माणगमन तथा तीर्थकरोके परिनिष्क्रमण कल्याणक यह तीसरा कारण है। विक्रियाऋद्धिसे रहित और आहारक लब्धसे युक्त साधु अवधिज्ञानसे या श्रुतज्ञानसे देवोके आगमनके विचारसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति जानवर वन्दना भक्तिसे जाता है ऐसा विचार कर आहारक शरीर रूपसे परिणमन कर उस प्रदेशमें जाकर उन केलियोकी और दूसरे जिनोकीब जिनालयोकी बन्दना करके वापिस आते है। ३ आहारक समुद्घात निर्देश
१ आहारक ऋद्धिका लक्षण ध.१/१,१,६०/२६८/४ सयमविशेषजनिताहारशरीरोत्पादन शतिराहारद्धिरिति । - संयम विशेषसे उत्पन्न हुई आहारक शरीरके उत्पादन रूप शक्तिको आहारक ऋद्धि कहते है। २ आहारक समुद्घातका लक्षण रा.पा.१/२०/१२/७७/१८ अल्पसावधसूक्ष्मार्थ ग्रहणप्रयोजनाहारकशरीरनिर्वत्यर्थ आहारकसमुद्धात । आहारकशरीरमात्मा निर्वर्तयन श्रेणिगतिवात आत्मदेशानसख्यातान्निर्गमय्य आहारकशरीरस् ...निवर्तयति । - अल्प हिंसा और सूक्ष्मार्थ परिज्ञान आदि प्रयोजनों के लिए आहारक शरीरकी रचनाके निमित्त आहारक समुद्धात होता है। . आहारक शरीरकी रचनाके समय श्रेणी गति होनेके कारण... असख्य आत्माप्रदेश निकल कर एक अररिन प्रमाण आहारक शरीर
को बनाते है। घ.७/२.८.१/३००/६ आहारसमुग्धादो णाम हत्थ पमाणेण सध्यंगसंदरेण समचउरससंठाखेण हसवखेण रसरुधिर-मास-मेट्ठि-मज्ज-मुक्कसत्तधा उपज्जिएण विसग्गि सत्थादिसयलबाहामुक्केण वज्ज-सिला-थ भ-जल पव्ययगमणदच्छेण सीसादो उग्गएण देहेण तित्थयरपादमूलगमण । -हस्त प्रमाण सर्वाग सुन्दर, समचतुरख-संस्थानसे युक्त, हंसके समान धयल, रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सात धातुओंसे रहित, विष अग्नि एव शस्त्रादि समस्त बाधाओ से मुक्त, वज्र, शिला, स्तम्भ, जल व पर्व तो में-से गमन करने में दक्ष, तथा मस्तकसे उत्पन्न हुए शरीरसे तीर्थकरके पादमूल में जानेका नाम आहारक समुद्धात है। द्र.सं./टी १०/२६ समुत्पन्नपदार्थ भ्रान्ते परमद्धिसपन्नस्य महर्षे मूलशरीरं परित्यज्य शुद्धस्फटिकाकृतिरेक्हस्तप्रमाण पुरुषो मस्तकमध्या निर्गम्य यत्र कुत्रचिदन्तर्मुहूर्त मध्ये केवलज्ञानिन पश्यति तदर्शनाच स्वाश्रयस्य मुने पदपदार्थ निश्चयं समुत्पाद्य पुन स्वस्थाने प्रविशति, असावाहारकसमुद्धात.। -पद और पदार्थ में जिसको कुछ संशय उत्पन्न हुआ हो, उस परम ऋषिके मस्तकमैं-से मल शरीरको न छोड़कर, निर्मल स्फटिकके रंगका एक हाथका पुतला निकल कर अन्तर्महूर्त में ल्हों कही भी केवलीको देखता है तब उन केवलीके दर्शनसे अपने आश्रय मुनिको पद और पदार्थका निश्चय उत्पन्न क्राकर फिर अपने स्थानमें प्रवेशकर जावे सो आहारक समुद्रघात है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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