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________________ अनुभव अनुभव द्र.स /टी./५/१६/१ शब्दात्मक श्रुतज्ञानं परोक्षमेव तावत्, स्वर्गापवर्गादिबहिर्विषयपरिच्छित्तिपरिज्ञान विकल्परूप तदपि परोक्षम् यत्पुनरभ्यन्तरे सुखदुख विकल्परूपोऽहमनन्तज्ञानादिरूपोऽहमिति वा तदीषरपरोक्षम् । यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञानं तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखस वित्तिस्वरूप स्वस वित्याकारेण सविकल्पमपीन्द्रियमनोजनितरागादिविकल्पजालरहितत्वेन निर्विकल्पम् । अभेदनयेन तदेवात्मशब्दवाच्य वीतरागसम्यकचारित्राविनाभूत केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमपि ससारिणा क्षायिज्ञानाभावात क्षायोपशमिकमपि प्रत्यक्षमभिधीयते। अत्राह शिष्य ---- आद्य परोक्षमिति तत्त्वार्थ सूत्रे मतिश्रुतद्वयं परोक्ष भणित तिष्ठति, कथ प्रत्यक्ष भवतीति परिहारमाह - तदुत्सर्गव्याख्यानम्, इद पुनरपवाद व्याख्यानम्, यदि तदुत्सर्गव्याख्यान न भवति तहि मतिज्ञानं कथ तत्वार्थे परोक्ष भणित तिष्ठति। तर्कशास्त्रेसाव्यव हारिक प्रत्यक्ष कथ जातम् । यथा अपवादव्याख्यानेन मतिज्ञानं परोक्षमपि प्रश्यक्षज्ञान तथा स्वात्माभिमुख भाव तज्ञानमपि परोक्ष सत्प्रत्यक्ष भण्यते। यदि पुनरेवान्तेन परोक्ष भवति तहि सुखदुःखादिसवेदनमपि परोक्ष प्राप्नोति, न च तथा। -श्रुतज्ञानके भेदो में शब्दात्मश्रुतज्ञान तो परोक्ष हो है और स्वर्ग मोक्ष आदि बाह्य विषयोकी परिच्छित्ति रूप विकल्पात्मक ज्ञान भी परोक्ष ही है। यह जो अभ्यन्तरमें सुख दुखके विकल्प रूप या अनन्त ज्ञानादि रूप मै हूँ ऐसा ज्ञान होता है वह ईषत्परोक्ष है। परन्तु जो निश्चय भाव श्रुतज्ञान है, वह शुद्धारमाभिमुख स्वसं वित्ति स्वरूप है। यह यद्यपि स वित्तिके आकार रूपसे सविकल्प है, परन्तु इन्द्रिय मनोजनित रागादि विकल्प जालसे रहित होने के कारण निर्विकल्प है। अभेद नयसे वही ज्ञान आत्मा शब्दसे कहा जाता है तथा वह वीतराग सम्यक्चारित्र के बिना नहीं होता। वह ज्ञान यद्यपि केवलज्ञानकी अपेक्षा परोक्ष है तथापि ससारियो को क्षायिक ज्ञानकी प्राप्ति न होनेसे क्षायोपशमिक होने पर भी 'प्रत्यक्ष' कहलाता है। प्रश्न-'आद्य परोक्षम्' इस तत्त्वार्थ सूत्रमें मंति और श्रुत इन दोनो ज्ञानोको परोक्ष कहा है, फिर श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है। उत्तर - तत्त्वार्थसूत्र में उत्सर्ग व्याख्यानकी अपेक्षा कहा है और यहाँ अपवाद व्याख्यानकी अपेक्षा है । यवि तत्त्वार्थ सूत्र में उत्सर्गका कथन न होता तो तत्त्वार्थ सूत्र में मतिज्ञान परोक्ष कैसे कहा गया है। और यदि सूत्रके अनुसार बह सर्वथा परोक्ष ही होता तो तर्कशास्त्रमें साव्यवहारिक प्रत्यक्ष कैसे हुआ । इसलिए जैसे अपवाद व्याख्यानसे परोक्षरूप भी मतिज्ञानको साब्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है वैसे ही स्वात्मसन्मुख ज्ञानको भी प्रत्यक्ष कहा जाता है। यदि एका तसे मति, श्रुत दोनो परोक्ष ही हो तो सुख दुख आदि का जो सवेदन होता है वह भी परोक्ष हो'होगा। किन्तु वह स्वसवेदन परोक्ष नही है। पं. ध //७०६-७०७ अपि निचाभिनिबोधिबोधद्वैत तदादिम यावत् । स्वात्मानुभूतिसमये प्रत्यथ तत्समक्षमिव नान्यत ॥७०६॥ तदिह द्वैतमिदं चित्स्पर्शादीन्द्रियविषयपरिग्रहणे। व्योमाद्यवगमकाले भवति परोष न समक्षमिह नियमात् ॥७०७॥ = स्वात्मानुभूति के समयमें मति व भूत ज्ञान प्रत्यक्षकी भॉति होनेके कारण प्रत्यक्ष है, परोक्ष नहीं ॥७०६॥ स्पादि इन्द्रिय के विषयोको ग्रहण करते समय और आकाशादि पदार्थों को विषय करते समय ये दोनो ही परोक्ष है प्रत्यक्ष नहीं। ( ध/उ/४६०-४६२) । रहस्यपूर्ण चिठ्ठीप टोडरमल-"अनुभवमें आरमा तो परोक्ष ही है। परन्तु स्वरूपमे परिणाम मग्न होते जो स्वानुभव हुआ वह स्वानुभवप्रत्यक्ष है स्वय ही इस अनुभवका रसास्वाद वेदे है। ५. मति-श्रुतज्ञानकी प्रत्यक्ष ताका प्रयोजन पं का./ता वृ/४३/८६ निर्विकारशुद्वात्मानुभूत्यभिमुख यन्म तिज्ञान तदेवोपादेयभूतानन्तसुखसाधकरवान्निश्चयेनोपादेयं तत्साधक बहिरङ्ग पुनर्व्यवहारेणे ति तात्पर्यम्। अभेदरत्नत्रयात्मक यद्भाव श्रुत तदेवोपादेयभूत परमात्मतत्त्वसाधकत्वान्निश्चयेनोपादेय, तत्साधक बहिरङ्ग तु व्यवहारेणेति तात्पर्यम् । =निर्विकार शुद्धात्मानुभूतिके अभिमुख जो मतिज्ञान है वही उपादेयभूत अनन्त सुख का साधक होनेसे निश्चयसे उपादेय है और उसका साधक बहिरग मतिज्ञान व्यवहारसे उपादेय है। इसी प्रकार अभेद रत्नत्र्यात्मक जो भाव तज्ञान है वही उपादेयभूत परमात्मतत्त्वका साधक होनेसे निश्चयसे उपादेय है और उसका साधक बहिर ग श्रुतज्ञान व्यवहारसे उपादेय है, ऐसा तात्पर्य है। ५ अल्प भूमिकाओमे आत्मानुभव विषयक चर्चा १. सम्यग्दृष्टिको स्वानुभूत्यावरण कर्मका क्षयोपशम अवश्य होता है। धप/उ /४०७,८५६ हेतुस्तत्रापि सम्यक्त्वोत्पत्तिकालेऽस्त्यवश्यतः । तज्ज्ञानावरणस्योच्चैरस्त्यवस्थान्तर स्वत' ॥४०७॥ अवश्य सति सम्यक्त्वे तल्लब्ध्यावरणक्षति ॥५६॥ -सम्यक्त्वके होने पर नियमपूर्वक लब्धि रूप स्वानुभूतिके रहने में कारण यह है कि सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय अवश्य ही स्वय स्वानुभूत्यावरण कर्मका भी यथायोग्य क्षयोपशम होता है ॥४०७१ सम्यक्त्व होते ही स्वानुभूत्यावरण कर्मका नाश अवश्य होता है ॥८५६॥ २. सम्यग्दृष्टिको कथंचित् आत्मानुभव अवश्य होता है स सा /मू /१४ जो पस्सदि अप्पाण अबद्धपुट्ट' अणण्णय णि यद । अविसेसमस जुत्त त सुद्धणय बियाणीहि ॥१४॥ -जो नय आत्मा बन्ध रहित, परके स्पर्श रहित, अन्यत्व रहित, चला चलता रहित, विशेष रहित, अन्य संयोगमे रहित ऐसे पाँच भाव रूपसे देखता है उसे हे शिष्य । तू शुद्ध नय जान ॥१४॥ इस नयके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है ॥११॥ (पध./उ/२३३) । ध.१/१,१.१/३८/४ सम्यग्दृष्टीनामवगताप्तस्वरूपाणा ज्ञानदर्शनानामाबरणविविक्तानन्तज्ञानदर्शनशक्तिख चितात्मस्मतृणा वा पापक्षयकारित्वतस्तयोस्तदुपपत्ते । -आप्तके स्वरूपको जाननेवाले और आवरणरहित अनन्तज्ञान और अनन्तदर्श नरूप शक्तिमे युक्त आत्माका स्मरण करनेवाले सम्यग्दृष्टियोके ज्ञान में पापका क्षयकारीपना पाया जाता है। स.सा /आ /१४/५ १३ आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिकाया, ज्ञानानुभूतिरियमेष क्लेिति बुद्ध वा ॥१३॥ = जो पूर्व कथित शुद्धनग्न स्वरूप आत्माको अनुभूति है, वही वास्तवमें ज्ञानकी अनुभूति है (स.सा । आ/१७-१८)। प का /त प्र /१६६/२३६ अहंदादिभक्तिस पन्न कथ चिच्छुद्र सप्रयोगोऽपि सन् जीवा जीवद्रागलबत्वाच्छभोपयोगतामजहत बहुश पुण्य बनाति, न खलु मकलकर्मक्षयमारभते । अर्हन्तादिके प्रति भक्ति सम्पन्न जीव कथति शुद्व सप्रयोगवाला होनेपर भी राग लब जो वित होनेसे शुभोपयोगको न छोडता हुआ बहुत पुण्य बॉधता है, परन्तु वास्तव मे सक्ल कर्मोका भय नही करता। ज्ञा./१२/४३ स्याद्यद्यत्पीयेऽज्ञस्य तत्तदेवापदास्पदम् । विभेत्यय पुनर्यस्मिस्तदेवानन्दमन्दिरम् ॥४३॥ अज्ञानी पुरुष जिस-जिस विषयमें प्रीति करता है, वे सब ज्ञानी के लिए आपदाके स्थान है तथा अज्ञानी जिस-जिस तपश्चरणादिसे भय करता है वही ज्ञानी के आनन्दका निवास है। प्रसा/ता वृ /२४८ श्रावकाणामपि सामायिकादिकाले शुद्धभावना दृश्यते । - श्रावकोके भी सामायिकादि कालमे शुद्ध भावना दिखाई देती है। पं का /ता वृ /१४० चतुर्थ गुणस्थान योग्यमात्मभावनामपरिर जत् सन् देवलोके काल गमयति, ततोऽपि स्वर्गादागत्य मनुष्यभवे चक्रवादिविभूति लब्ध्वापि पूर्वभवभावितशुद्धात्मभावनाबलेन मोह न करोति । - चतुर्थ गुणस्थानके योग्य जात्मभावनाको नहीं छोडता हुआ वह देवलोकमे काल गॅवाता है। पीछे स्वर्गसे आकर मनुष्य भवमें चक्रवर्ती आदिकी विभूतिको प्राप्त करके भी, पूर्वभवमें भावित शुद्धात्मभावनाके बल से मोह नही करता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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