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अभूतार्थ
३ क्षेत्रप्ररूपणाका स्पष्टीकरण
४ देवोके ज्ञानको क्षेत्रप्ररूपणा परिमाण नियामक नहीं स्थान- नियामक है
५ कालकी अपेक्षा अवधिज्ञान सावधि त्रिकालग्राही है ६ भावकी अपेक्षा पुदंगल व संयोगी जीवकी पर्यायको जानता है
* मूर्त ग्राहक अवधि ज्ञान अमूर्त जोवके भावोकी कैसे जानता है ?. - दे. मन:पर्यय ६
७ अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्रादिकोंमे वृद्धि हानिका क्रम २ अ विज्ञान विषयक प्ररूपणाएं
१ द्रव्य व भाव सम्बन्धी सामान्य नियम
२ नरकगतिमे देशावधिका विषय
३ भवनत्रिक देवोमे देशावधिका विषय
४ कल्पवासी देवोमे देशावधिका विषय
५ तिर्यच व मनुष्योमे देशावधिका विषय ६ परमावधि व सर्वावधिका विषय
७ देशावधिकी क्रमिक वृद्धिके १९ काण्डक
१० अन्य सम्बन्धित विषय
* अवधिज्ञानके स्वामित्व सम्बन्धी गुण-स्थान, जीवसमास मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ दे द
* अवधिज्ञान विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ
- दे. वह वह नाम
* अवधिज्ञानियोमे कमोंका बन्ध उदय सत्त्व आदि
-दे वह वह नाम
* सभी मार्गणाओमे आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम - दे. मार्गणा
★ प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थमे अवधिज्ञानियोका प्रमाण
- दे. तीर्थकर
* विभग ज्ञानके दर्शन पूर्वक होनेका विधि निषेध
१. भेद व लक्षण
१. अवधिज्ञान सामान्यका लक्षण १. उत्पत्ति
-- दे दर्शन ६/२
प्र.१/१२३ अनहोयदिति ओही सीमाणामेति व समए । -जो द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा अवधि अर्थाद सीमासे युक्त अपने विषयभूत पदार्थको जाने, उसे अनविज्ञान पढ़ते है। सीमासे युक्त जाननेके कारण परमागम में इसे सीमा ज्ञान कहा गया है। (ध.१/९.१.१९३/१८४/३५६) (गो.जी./मू./२००/०१७) । स.शि. १/६/१४/३ वाग्यानादविषयाड़ा अवधि अधिकतर नीचे विषयको जाननेवाला होनेसे या परिमित विश्वनाला होनेसे अवधि कहलाता है।
रा. ना. १/२/३/४४/१४ अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमाय भयहेतुस निधाने सति अवाग्धीयते अवाग्दधाति अवग्धानमात्र वावधिः । अव
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अभ्युत्थान
शब्दोऽथ पर्याय 'यथा अथ अनक्षेपणम्' इति। खोगव्यविषयावधि अथवा अवधिर्मर्यादा अवधिमा प्रतिबद्ध ज्ञानमवधिज्ञानम् । तथाहि - 'रूपिष्ववधे: (त.सू/१/२७)* इति'अन्' पूर्वक 'घा' धातुसे कर्म आदि साधनोंमें अधि शब्द बनता है। तहाँ नं १ 'अबू' शब्द अध-वाची है वैसे अध क्षेपणको अवक्षेपण कहते है, अवधिज्ञान भी नीचे की ओर बहुत पदार्थोंको विषय करता है। (ध. १३/५.५/२१/२१०/१२) अधोगौरवधर्मवात पुगल अवाड नाम त दधाति परिच्छिनत्तीति अवधिःनीचे गौरव धर्मवाला होनेसे लकी या संज्ञा है. उसे जो धारण करता है अर्थात् जानता है वह अवधि है - २ अथवा अवधि शब्द मर्यादार्थ है अर्थात् द्रव्य क्षेत्रकालादिको मर्यादा सीमित ज्ञान अवधिज्ञान है । ( रा बा.१/२०/२५/०८/२७) (६/९.६-१० १४/२५/८) (ध. १/४,१.२/१३/१/४) (ध. १३/५,५,२०/२१०/(२) (क पा १/१-६१२/१६/२)
२ मूर्तीक पदार्थका प्रत्यक्ष सीमित ज्ञान ति४/अतिमताई परमानुष्यहुदिमु दाई प जागर तमोहिणाणं ति णायव्वं ॥ १७२॥ जो प्रत्यक्षज्ञान अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त परमाणु आदिक मूर्त द्रव्योंको जानता है उसको अविज्ञान जानना चाहिए (पा./१३/५६) (न. दो /२/११३/१४) क. पा. १/१/६२८/४३ परमायुतासेसपोलयन मसलो तखेसकालभावाणं कम्मस बंधव सेण पोग्गलभाव मुवगयजाव... [जीवदवा]ण च पञ्चत्रण (परिच्छित्ति कुणइ ओहिणाणं ] -महास्कन्धसे लेकर परमाणु पर्यन्त समस्त पुद्गल द्रव्योंको, असंख्यात लोकमान क्षेत्र, काल और आमोंको तथा कर्मके सम्बन्ध गल भावको प्राप्त हुए जीवको जो प्रत्यक्षरूपसे जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
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ध. १/१.१,२/६३/७ ओहिणाणं णाम दवखे त्तकालभाववियप्पियं पोग्गलदव्वं पञ्चक्ख जाणदि । द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के विकल्पसे अनेक प्रकार के पुद्गल द्रव्यको जो प्रत्यक्ष जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते घ. १/१.१.११५/१६८/२) इ.स /टी./५/१७/९ अनविज्ञानावरणीय क्षयोपशमान्मूर्त वस्तु यदेकदेशलेन सवि जानाति धिज्ञान अबधिज्ञानावरण के क्षयोपशम मूर्तीक पदार्थको जो एकदेश प्रत्यक्ष द्वारा सम्प जानता है वह अवधिज्ञान है ।
सभ त ४०/१२स्यापि वितस्यावधि मनः पर्ययलक्षणस्या निन्द्रियापेक्षत्वे सति स्पष्टतया स्वार्थ व्यवसायात्मकं स्वरूपम् । - इन्द्रिय और अनिन्द्रिय अर्थात् मनकी कुछ भी अपेक्षा न रखकर केवल आरमामात्रको अपेमासे निर्मलता पूर्वक स्पष्ट रीतिसे अपने विषयभूत पदार्थों का निश्चय करना यह विकल प्रत्यक्षरूप अवधि तथा मन पर्यय ज्ञानका स्वरूप है ।
अनिके भेद प्रभेद
१. सम्यक् व मिथ्या अवधिको अपेक्षा
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त सु. १/३९ मतिश्रुतानधयो विपर्ययश्च मतित और अनधि ये तीन (ज्ञान) विपर्यक भी होते है। स.सि. १/३१/१२८/४ अवधिज्ञानेन सम्यग्दष्टिरूपयोग तथा मिध्यादृष्टिमभंगानेनेति सम्यग्दृष्ट अभिज्ञानके द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है और मिथ्यादृष्टि विभगज्ञानके द्वारा। रावा. १/३१/१२/१२ सम्यग्दर्शनमिध्यादर्शनोदय विजयाम द्विधावतिर्भवति अवधिज्ञान विभङ्गज्ञानमिति । सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन के उदयसे उन तीनों (मति भुत व अवधि के दो-दो प्रकार बन जाते हैं । (तहाँ अवधिज्ञान के दो प्रकार हैं) - अवधिज्ञान और विभाग ज्ञान (मिध्यावधिज्ञान ) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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