________________
प्रकाशकोय प्रस्तुति
'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' के प्रथम भागका यह दूसरा संस्करण प्रकाशित हो रहा है । पहला संस्करण लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था, अप्रैल १९७० में । जैन साहित्यका यह ऐसा गौरव ग्रन्थ है जो अपनी परिकल्पना में, कोश- निर्माण कलाकी वैज्ञानिक पद्धतिमें, परिभाषित शब्दोंकी प्रस्तुति और उनके पूर्वापर आयामोंके संयोजन में अनेक प्रकारसे अद्भुत और अद्वितीय है । इसके रचयिता और प्रायोजक पूज्य क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णीजी आज हमारे बीच नहीं हैं । उनके जीवनकी उपलब्धियोंका चरमोत्कर्ष था उनका समाधिमरण जो ईसरीमें तीर्थराज सम्मेद शिखरके पादमूलमें आचार्य विद्यासागर जी महाराज से दीक्षा एवं सल्लेखना व्रत ग्रहण करके श्री १०५ क्षुल्लक सिद्धान्तसागरके रूपमें २४ मई १९८३ को सम्पन्न हुआ । वह एक ज्योति पंजका तिरोहण था जिसने आजके युगको आलोकित करनेके लिए जैन जीवन और जिनवाणीकी प्रकाशपरम्पराको अक्षत रखा । उनके प्रति बारम्बार नमन हमारी भावनाओंका परिष्करण है ।
भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक दम्पती स्व. श्री साहू शान्तिप्रसाद जैन और उनकी धर्मपत्नी स्वर्गीया श्रीमती रमा जैनने जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशके प्रकाशनको अपना और ज्ञानपीठका सौभाग्य माना था । कोशका कृतित्व पूज्य वर्णीजी की बीस वर्षकी साधनाका सुफल था । मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके सम्पादक-द्वय स्व. डा. हीरालाल जैन और डा. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्येने अपने प्रधान सम्पादकीय में लिखा है—
"जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश प्रस्तुत किया जा रहा है जो ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला संस्कृत सीरीजका ३८वां ग्रन्थ है | यह क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी द्वारा संकलित व सम्पादित है । यद्यपि वे क्षीणकाय तथा अस्वस्थ हैं फिर भी वर्णीजीको गम्भीर अध्ययनसे अत्यन्त अनुराग है । इस प्रकाशनसे ज्ञानके क्षेत्रमें ग्रन्थमालाका गौरव और भी बढ़ गया है । ग्रन्थमालाके प्रधान सम्पादक, क्षु. जिनेन्द्र वर्णीके अत्यन्त आभारी हैं जो उन्होंने अपना यह विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ इस ग्रन्थमालाको प्रकाशनार्थ उपहारमें दिया ।"
उक्त 'प्रधान सम्पादकीय' को और पूज्य क्षु. जिनेन्द्र वर्णीके 'प्रास्ताविक' को हम ज्योंका त्यों इस दूसरे संस्करण में भी प्रकाशित कर रहे हैं। अपने 'प्रास्ताविक' में वर्णीजीने कोशकी रचना प्रक्रिया और विषयनियोजन तथा विवेचनकी पद्धति पर प्रकाश डाला है । ये दोनों लेख महत्त्वपूर्ण हैं और पठनीय हैं ।
यह कोश पिछले अनेक वर्षोंसे अनुपलब्ध था । यह नया संस्करण पूज्य वर्णीजीने स्वयं अक्षर-अक्षर देखकर संशोधित और व्यवस्थित किया है । इस संशोधन कार्य में पूज्य वर्णीजीके कई वर्ष लग गये क्योंकि अनेक नये शब्द उन्होंने जोड़े हैं, कई स्थानोंपर तथ्यात्मक संशोधन, परिवर्तन, परिवर्द्धन किये हैं । 'इतिहास' तथा 'परिशिष्ट' के अन्तर्गत दिगम्बर मूल संघ, दिगम्बर जैनाभासी संघ, पट्टावली तथा गुर्वावलियाँ, संवत्, गुणधर आम्नाय, नन्दिसंघ, आदि शीर्षकोंसे महत्वपूर्ण सामग्री जोड़ी है। इसी प्रकार आचार्योंके नामोंकी सूची में पहले मात्र ३६० नाम थे जो अब बढ़कर ६१८ हो गये हैं । आगम ग्रन्थ सूची में पहले ५०४ ग्रन्थोंके नाम थे, अब यह संख्या ६५१ हो गयी हैं । आचार्य सूची और आगम सूचीका पर्याप्त परिवर्द्धन किया है । पूज्य
जीने यह सब किया, चारों भागोंका संशोधन किया और सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह कि कोशका पांचवां भाग तैयार कर दिया जो चारों भागोंको अनुक्रमणिका है ।
इस कारण यह कोश सर्वांगीण हो गया है । इसकी उपयोगिता और तात्कालिक सन्दर्भ सुविधा कई गुना बढ़ गयी है । इस प्रथम भागकी भाँति शेष तीन भागों का भी दूसरा संशोधित संस्करण शीघ्र ही ज्ञानपीठ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
........