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________________ अनुप्रेक्षा अनुप्रेक्षा होनेसे विनश्वर है। निश्चय नेयसे निज परमात्म पदार्थ से अन्य है भिन्न है और उनसे आत्मा अन्य है भिन्न है। इस प्रकार अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। (भ.आ./मू./१७५५-१७६७/१५४७) (भूधरकृत भावना स. ४) (श्रीमदकृत १२ भावनाएं)। ५. अशरणानुप्रेक्षा-१ निश्चय मा. अ/११ जाइजरामरणरोगभयदो रक्वेदि अप्पणो अप्पा। जम्हा बादा सरणं अधोदयसत्तकम्मवदि रित्तो ॥११॥ =जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदिसे आत्मा ही अपनी रक्षा करता है, इसलिए वास्तवमें जो कर्मोंकी बन्ध, उदय और सत्ता अवस्थासे जुदा है, वह आत्मा हो इस ससारमे शरण है। अर्थात् संसारमे अपने आत्माके सिवाय अपना और कोई रक्षा करनेवाला नहीं है। यह स्वय ही कर्मों को खिपाकर जन्म जरा मरणादिके कष्टोसे बच सकता है। (का.अ./३१) (स.सा/मू/७४) का.अ./मू /३० दसणणाण-चरितं सरण सेवेह परम-सद्धाए। अण्णं कि पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥३०॥ =हे भव्य । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र शरण है। परम श्रद्धाके साथ उन्हींका सेवन कर। संसारमें भ्रमण करते हुए जीवोंको उनके सिवाय अन्य कुछ भी शरण नही है । (भ.आ./मू /१७४६) । द्र.सं./टी./३५/१०२-१०३ अथाशरणानुप्रेक्षा कथ्यते-निश्चयरत्नत्रयपरिणत स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद् बहिरङ्गसहकारिकारणभूत पञ्चपरमेष्ठयाराधनं च शरणम् तस्माद्बहिर्भूता ये देवेन्द्र चक्रत्रतिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना गिरिदुर्गभूविवरमणिमन्त्राज्ञाप्रासादौषधादय पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरगकालादौ महाटव्या व्याघ्रगृहीतमृगबालस्येव, महासमुद्रे पोतच्युतपक्षिण इव शरण न भवन्तीति विज्ञेयम् । तद्विशाय भागाकांक्षारूपनिदानअन्वादिनिरालम्बने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसावलम्बने स्वशुद्धात्मन्येवालम्बन कृत्वा भावनां करोति । यादशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्व काल शरणभूत शरणगतवज्रपञ्जरसदृश निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति । इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता। निश्चय रत्नत्रयसे परिणत जो शुद्वात्म द्रव्य और उसको बहिरंग सहकारो कारणभूत पंचपरमेष्ठियोंकी आराधना, यह दोनों शरण है। उनसे भिन्न जो देव. इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्रादि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भहरा, मणि, मन्त्र-तन्त्र, आज्ञा, महल और औषध आदि अचेतन पदार्थ तथा चेतन-अचेतन मिश्रित पदार्थ ये कोई भी मरणादिके समय शरणभूत नहीं हाते जैसे महावनमें व्याघ-द्वारा पकड़े हुए हिरणके बच्चेको अथ्वा समुद्र में जहाजसे छूटे पक्षीको कोई शरण नहीं है। अन्य पदार्थोंको अपना शरण न जानकर आगामी भोगोंकी आकांक्षा रूप निदान बन्ध आदिका अवलम्बन न लेकर तथा स्वानुभवसे उत्पन्न सुख रूप अमृतका धारक निज शुद्धात्माका ही अवलम्बन करके, उस शुद्धारमाकी भावना करता है। जैसो आत्माको यह शरणभूत भाता है वैसे ही सदा शरणभूत, शरणमें आये हुएके लिए वज्रके पिंजरेके समान. निज शुद्धारमाको प्राप्त होता है । इस प्रकार अशरण अनुप्रेक्षाका व्याख्यान हुआ। २. व्यवहार भ. आ./मू./१७२६ णास दि मदि उदिण्णे कम्मेण य तस्स दीसदि उवाओ । अमदपि विस सच्छ तण पिणोयं वि हूँति अरो। -कर्मका उदय आनेपर विचारयुक्त बुद्धि नष्ट होतो है, अवग्रह इत्यादि रूप मतिज्ञान और आप्तके उपदेशसे प्राप्त हुआ श्रुतज्ञान इन दोनौसे मनुष्य प्राणो हित और अहितका स्वरूप जान लेता है। अन्य उपायसे हिताहित नहीं जाना जाता है। असाता वेदनीय कर्म के उदयसे अमृत भी विष होता है और तृण भी छुरीका काम देता है, बन्धु भी शत्रु हो जाते हैं। (विस्तार दे. भ आ./मू./१७२६-१७४५) मा अ1८ मणिमतोसहरक्खा हयगयरहओ य सयल विजाओ। जीवाणं ण हि सरणं तिमु लोए मरणसमयम्हि ।। -मरते समय प्राणियोंको तोनों लोकों में.मणि, मन्त्र, औषध, रक्षक, घोडा, हाथो, रथ और जितनी विद्याएँ, वे कोई भी शरण नहीं है अर्थात् ये सब उन्हे मरनेमे नहीं बचा सकते। स, सि-18/७/४१४ यथा-मृगशाबस्यैकान्ते बलवता क्षुधितेनामिषैषिणा व्याघ्रणाभिभूतस्य न किचिच्छरणमस्ति, तथा जन्मजरामृत्युव्याधिप्रभृतिव्यसनमध्ये परिभ्रमतो जन्तो शरण न विद्यते। परिपुष्टमपि शरीरं भोजनं प्रति सहायीभवति न व्यसनोपनिपाते । यत्नेन सचिता अर्था अपि न भवान्तरमनुगच्छन्ति । संविभक्तसुखदु खा सुहृदोऽपि न मरणकाले परित्रायन्ते। बान्धवा समुदिताश्च रुजा परीन परिपालयन्ति । अस्ति चेत्सुचरितो धर्मो व्यसनमहार्णवे तरणोपायो भवति । मृत्युना नीयमानस्य सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम् । तस्माद भवव्यसनसकटे धर्म एव शरण सुहृदर्थोऽप्यनपायी, नान्यकिचिच्छरणमिति भावना अशरणानुप्रेक्षा । - जैसे हिरणके बच्चेको अकेले में भूखे मासके अभिलाषी व बलवान् व्याघ-द्वारा पक्डे हुएका कुछ भी शरण नहीं है, तैसे जन्म, बुढापा, मरण, पीडा इत्यादि विपत्तिके बोचमें भ्रमते हुए जीवका कोई रक्षक नहीं है। बराबर पोषा हुआ शरीर भी भोजन करते ताई सहाय करनेवाला होता है न कि कष्ट आनेपर। जतन करि इकट्ठा किया हुआ धन भी परलोकको नहीं जाता है । सुख-दुख में भागी मित्र भी मरण समयमे रक्षा नही करते है। इकट्ठहुए कुटुम्बो रोगग्रसितका प्रतिपालन नहीं कर सकते है। यदि भले प्रकार आचरण किया हुआ धर्म है तो विपत्तिरूपी बडे समुद्र में तरणका उपाय होता है। काल करि ग्रहण किये हुएका इन्द्रादिक भी शरण नही होते है। इसलिए भवरूपी विपत्तिमें वा कष्ट में धर्म ही शरण है, मित्र है, धन है, अविनाशी भो है । अन्य कुछ भी शरण नहीं है। इस प्रकार बार-बार चिन्तवन करना सो अशरण अनुप्रेक्षा है। (मू-आ./६६५-६६७) (रा.व./8/७,२/६००/१५) (चा सा./१७८/४) (५.वि./६/४६) (अन.ध/६/६०-६१/६९२) (द्र स /टी./३५/१०३) । ६. अशुचित्वानुप्रेक्षा-१. निश्चय मा.अ./४६ देहादो बदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतमहणिलयो। चोक्खो हवेह अप्पा इदि णिच्च भावण कुज्जा ॥४६॥ वास्तवमें आत्मा देह से जुदा है, कर्मोंसे रहित है, अनन्त सुखोका घर है, इस लिए शुद्ध है, इस प्रकार निरन्तर भावना करते रहना चाहिए। (मो पा./मू-१८) (श्रीमद कृत १२ भावनाएँ)। द्र सं./टी./३५/१०६ सप्तधातुमयत्वेन तथा नासिका दिनबरन्धद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाचाशुचिरय देह न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचि' स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः । निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः । 'ब्रह्मचारो सदा शुचि' इति वचनात्तथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं च कामक्रोधादिरताना जलस्नानादिशौचेऽपि । विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगङ्गादितीर्थे स्नानादिकम् । । इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता । - अपवित्र होनेसे, सात धातुमय होनेसे, नाकादि नौ छिद्र द्वार होनेसे, स्वरूपसे भी अशुचि होनेके कारण तथा मूत्र विष्टा आदि अशुचि मलोंकी उत्पत्तिका स्थान होनेसे हो यह देह अशुचि नहीं है, किन्तु यह शरीर स्वरूपसे भी अशुचि है और अशुचि मल आदिका उत्पादक होने से अशुचि है निश्चयसे अपने आप पवित्र होनेसे यह परमात्मा (आत्मा) ही शुचि या पवित्र है ।...'ब्रह्मचारी सदा शुचि' इस वचनसे पूर्वोक्त प्रकारके ब्रह्मचारियों (आत्मा ही में चर्या करनेवाले मुनि)के हो पवित्रता है। जो काम क्रोधादिमें लीन जीव हैं उनके जल स्नान आदि करनेपर भी पवित्रता नहीं है।... आत्मारूपी शुद्ध नदो में स्नान करना हो परम पवित्रताका कारण है, लौकिक गंगादि तीर्थ में स्नान करना नहीं।...इस प्रकार अशुचिख अनुप्रेक्षाका कथन हुआ। २. व्यवहार भ.आ./मू /१८१३-१८१५ असुहा अत्था कामा य हूँति देहो य सव्वमणुयाण । एओ चेव सुभो णवरि सव्वसोक्वायरो धम्मो ॥१८५३॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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