Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 503
________________ परिशिष्ट ४८८ नन्दिसंघ विचार चर्चा करते हुए उन्लेख किया गया है, उसमें इनका नाम 'बायरसेन' के रूप में नागहस्तिसे पहले आता है और तदनुसार इनका समय भी बी. नि. ६१७-६२० निश्चित किया गया है। परन्तु कल्पसूत्रको स्थविरावली में 'अज्जवइर' नामके दो आचार्योंका उल्लेख प्राप्त होता है। दोनों परस्परमें गुरु शिष्य कहे गए है। 'अज्जवइर प्र०' का काल वी.नि ४६८-५८४ और 'अज्जवइर द्वि.' का वी. नि, ६१७-६२० बताया गया है। इन दोनोके पहले आर्यमनु का नाम आता है और उनके अनन्तर नागहस्तिका (ती २/७५-७६)। उपर्युक्त आयरसेन तथा इस अज्जवइर द्वि. का काल समान देखकर यह अनुमान होता है कि ये दोनों एक ही व्यक्ति थे। परन्तु पहली पट्टावलीमें आयरसेनसे पहले नामहस्तिका नाम आता है और द्वि. में दोनों अज्जवइरसे पहले आर्यमधुका नाम है। पहली में आर्यमक्षुका नाम नहीं है और दूसरीमें नागहस्तिका । दूसरी ओर तिल्लोय पण्ण तिमें जिन्हे अन्तिम प्रज्ञा. श्रमण कहा गया है वे यतिवृषभके दादा गुरु अर्थात् नागहस्तिके गुरु ये 'बज्जवइर' द्वि. ही प्रतीत होते है। इसलिये यहाँ इन दोनोसे पहले जो आर्यमक्षुका नाम दिया गया है वह विचारणीय हो जाता है, क्योंकि उपर्युक्त कालोंके अनुसार उनका काल वी. नि ४६७ प्राप्त होता है (तो, २/७६) जबकि इनका काल वी. नि.६००-६५० निर्धारित किया जा चुका है । इस विप्रतिपक्तिका समाधान प्राप्त करने के लिये हम कह सकते है कि अज्जवर की भाँति आर्यमंक्षु नाम के व्यक्ति भी दो हुए हों यह बात असम्भव नही है। यहाँ जिनका उल्लेख किया गया वे आर्यमा प्रथम हो और वहां जिनका उल्लेख किया गया है वे द्वितीय हों। ५. यतिवृषभाचार्य आप आयमंक्षुके शिष्य तथा नागहस्तिके अन्तेवासी कहे गए है। इनके द्वारा प्राप्त आ० गुणधरदेव के 'पेज्जदोसपाहु' विषयक ज्ञानको इन्होने ही ६००० चणि सूत्र रचकर 'कषाय पाहुड' के रूपमे लिपिबद्ध किया था। (दे. शीर्षक न०३)। इसके अतिरिक्त 'तिग्लोयपण्णति' भी आपका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। निम्न साक्ष्योको समक्ष रखकर विद्वानोंने आपके काल का सुनिश्चित अवधारण किया है(१) वी.नि ६८ में विद्यमान आ नागहस्ति के आप अन्तेवासी थे। (२)-बी नि. ६६३ ६८३ में विद्यमान आ. भूतबलिकृत षट्खण्डागममें कषायप्राभृतके अनेको ऐसे अभिमतोका उल्लेख है जिन्हे धवलाकार श्री वीरसेन स्वामीने तन्त्रान्तर कहा है। (३)सर्वार्थ सिद्धि (वि. श६, श्री. नि. श १०) और विशेषावश्यक भाष्य (वि.६०६, बी, नि.११३६) में आपके अभिमतोंका उल्लेख प्राप्त होता है। (४) वि. ५१५ (वी.नि १८५) में रचित आ० सर्वनन्दिके 'लोक विभागका उल्लेख तिल्लोयपण्ण तिमें पाया जाता है । (५) तिल्लोयपण्णतिमें धर्मव्युच्छित्तिका काल २०३१७ वर्ष पश्चात होना कहा गया है। (ति. प. ४/१४६३) जिसका अर्थ यह होता है कि २१००० वर्ष प्रमाण पञ्चम कालमें से ६९३ वर्ष बीत जाने के समय आप विद्यमान थे (६) तिल्लोय पण्ण तिमें बीर निर्वाण के १००० वर्ष पश्चाद तकके राजाओका मुनिश्चित काल दिया गया है। (ति प ४/१४६६१५०६)। इन सकल साक्ष्योंपर से दो परिणाम प्राप्त होते है। आद्य तीनके आधारपर आपका काल आ नागहस्ति (वी, नि, ६२०) से लेकर भूतबलि (वी नि. ६८३) तक कहीं होना चाहिये । अत' हम आपको वी. नि, श.. अथवा वि. श ३ के पूर्वार्ध में स्थापित कर सकते है। परन्तु उपान्त तीन साक्ष्योंपरसे कुछ विद्वान् आपको वि.श.५-६ में कषिपत करते है। इन दोनों कालोंके मध्य इतना बडा अन्तराल है कि किसी एकका त्याग करने के लिये माध्य होना पडता है। तहाँ आद्य तोन साक्ष्य इतने प्रबल है कि उनका त्याग किसी प्रकार भी सम्भव नहीं। इस लिये उपान्त तीनके त्यागके लिये समुचित समाधानका अन्वेषण करना चाहिये। डा. ज्योतिप्रसादजीने ऐतिहासिक साक्ष्यके आधारपर राजाओ के कालकी चर्चा करनेवाली गाथाओको किसी अन्य व्यत्तिके द्वारा प्रक्षिप्त मान कर छोड दिया । (ती २/८६)। इसी प्रकार चतुर्थ प्रमाणके त्यागमें भी यह हेतु दिया जा सकता है कि तिल्लोयपणतिमें यतिवृषभने जिस लोक विभागको चर्चा की है वह वास्तव में सर्वनन्दि कृत ग्रन्थ नहीं है, प्रत्युत 'लोक विभाग' विषयक वह ज्ञान है जो कि आचार्य परम्परा द्वारा नागहस्तिको और उनके पाससे इनको प्राप्त हुआ था। इस प्रकार यतिबृषभाचार्यका काल वी नि,श ७, वि श ३ का पूर्वार्ध, और ई श २ का उत्तरार्ध हो समुचित प्रतीत होता है । (तदनुसार इन्हे वी नि ६७०-७००, वि २००-२३०, ई. १४३-१७३ में स्थापित किया जा सकता है। अपने तिल्लोयपणति ग्रन्थमें आचार्य यतिवृषभ ने स्वयं धर्मको व्युच्छित्तिका काल २०३१७ वर्ष पश्चात् होना कहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि २१००० वर्ष प्रमाण पचम कालके (२१०००-२०३१७-६८३ वर्ष बीत जानेके समय आप विद्यमान थे। भगवान् वीरका निर्वाण पचम काल प्रारम्भ होनेके ३ वर्ष ८ मास पहले बताया गया है (दे महावीर)। इस प्रकार भी आपका काल (६८३+३ वर्ष ८ मास) ६८६ वर्ष ८ मास अर्थात वी. नि ६७०-७०० प्राप्त होता है। परिशिष्ट४-(नन्दिसंघ विचार) १. चार संघोंकी स्थापना अब तकके कथनपर से यह अवधारण हो गया कि भगवान् वीरके निर्वाणके पश्चात् गौतम गणधरसे लेकर अर्ह वलि तक उनका मूल संघ अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। आ अहं बलिके युगमे आकर यह सघ ज्ञानका अत्यन्त ह्रास हो जाने के कारण धीरे-धीरे विघटित होना प्रारम्भ हो गया और इसका स्थान अनेको अवान्तर सधोने ले लिया। आचार्य अर्हडलिके विषयमे यह बात सर्व प्रसिद्ध है कि पचवर्षीय युग प्रतिक्रमणके समय उन्होने दक्षिण देशस्थ महिमा नगर (जिला सतारा) में एक महात् यति सम्मेलन किया था, जिसमे १००-१०० योजनके यति आकर सम्मिलित हुये थे। उनमें अपने शिष्योके प्रति कुछ पक्षपातकी बू देखकर आ अह लिने अनेक संघों में विभाजित करके मूलसघकी सत्ता समाप्त कर दी । यद्यपि आचार्य बरके द्वारा संस्थापित संघों में नन्दिस घ आदिका नामोल्लेख भी किया गया है, तथापि सामान्य कथन होनेसे इस बातको सिद्धि नहीं होती कि इन सारे संघोंकी स्थापना उन्होने उसी समय की थी। हो सकता है कि इससे पहले भी अत्यन्त योग्य अपने शिष्योकी अध्यक्षतामे वे अनेक संघोकी नौंव डाल चुके हो। इससे पहले हम यति सम्मेलन की चर्चा करते हुये यह बात सिद्ध कर चुके है कि सिहसंघ, नन्दिसंघ, सेन या वृषभ सघ और देवसंघ इन चार सघों की स्थापना यति सम्मेलन वालो घटनासे बहुत पहले वी. नि. ५७५ मे उस समय हुई थी जबकि अपने चार अत्यन्त योग्य तथा समर्थ शिष्योको परीक्षा करनेके लिये उन्होने उनको पृथक्-पृथक् विकट स्थानों में वर्षायोग धारण करनेका आदेश दिया था। वर्षायोग समाप्त हो जानेपर उनकी सामर्थ्य से सन्तुष्ट होकर उन्होने उन चारोंकी अध्यक्षतामे पृथक्-पृथक् उक्त चार सधोकी स्थापना की थी। तहाँ नन्दि वृक्ष जिसकी छाया कुछ भी नही होती है उसके नीचे वर्षायोग धारण करनेवाले शिष्यको नन्दिकी उपाधि प्राप्त हुई और उसकी अध्यक्षतामे जिस संघकी स्थापना की गई उसका नाम नन्दिसघ पड़ा। तृणतल मेंवर्षायोग धारण करनेवाले शिष्यको वृषभकी उपाधि प्राप्त हुई और उसका संघ वृषभ संघ कहलाया। इसी प्रकार सिंहको गुफामें जिसने वर्षायोग धारण किया उसके सघका नाम सिहसंघ जैनेन्द्र सिदान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 501 502 503 504 505 506