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परिशिष्ट
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गुणधर आम्नाय
सुबुद्धि मुनिका नाम पुष्पदन्त होगा। (ती.२/५० पर उद्ध,त सिद्धान्त प्राप्त होता है। डॉ. ज्योति प्रसादने पुष्पदन्तको ई.५०-८० में सारादि सग्रह ग्रस्थाक २१ पृ ३१६-३१७) इस कथानकपर से यह सिद्ध और भूतबलिको ई ६६-६० मे स्थापित किया है। डॉ नेमि चन्द होता है कि धरसेमाचार्य इनके शिक्षागुरु थे। दीक्षा गुरु नहीं । इनके ने सामान्य रूपसे इन दोनोको ई. श. १-२ मे निर्धारित किया है। दीक्षागुरु वास्तवमे अहं बलि थे। श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं १०५ (ती २।५३,५७), मे इन्हे स्पष्ट रूपसे अहं इलिका शिष्य कहा गया है । (ध १/प्र. १८/ परिशिष्ट ३ -(गणधर आम्नाय) HL Juin) जिनका नाम नरवाहन कहा गया है वे राजा जिनपालितके समकालीन
१ सामान्य परिचय तथा उनके मामा थे। इस परसे यह अनुमान किया जाता है कि आ इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतारमें मूलसंघके प्रधान प्रधान आचार्योंका राजा जिनपालितकी राजधानी वनवास' ही आपका जन्म- विचार कर लिया गया। उसके अनुसार (दे पृ ३१६) श्रुतधरों स्थान था। आप कल्याण की कामनासे वहाँ से चलकर आ अहवाल- की अविच्छिन्न बी.नि. ३४५ पर आकर समाप्त हो जाती है। को शरणके लिये पुण्ड्रवर्धन आये और उनसे दीक्षा ले कर तुरत उनके तत्पश्चात २२० वर्ष तक अंगधारियो की परम्परा चलती रही और साथ महिमा नगर (जिला सतारा) चले गए जहाँ कि गुरु अर्ह हलि तदुपरान्त ११८ वर्ष तक किसी किसी एक पूर्व का अथवा पूर्वाशका ने बृहत् यति सम्मेलनकी योजना की थी। उसी सम्मेलनमें आकर ज्ञान हो शेष रह गया। इन पूर्वांशोको सुरक्षित रखने के लिए उन्हे सुबुद्धि श्रेष्ठिने दीक्षा ली थी। इन्हीका नाम आगे जाकर भूतबलि लिपिबद्ध करने या करानेकी की परम्परा वी नि. ६१४ ६८३ के आसपड़ा। इस सम्मेलनसे गुरु अर्ह हलिक द्वारा भेजे गए ही ये दोनो पास प्रारम्भ हुई । मूलस की पट्टावलीके अन्त में कथित आ. धरसेन, अध्ययन करनेके लिये गिरनारगिर आचार्य धरसेनस्वामी को प्राप्त पुष्पदन्त तथा भूतबलिकी गणना इसी परम्परामें की जाती है। हुए थे। आषाढ शु. ११ को अध्ययन पूरा हो जानेपर धरसेन गुरुसे इसी परम्परामें आ. गुणधरकी भी एक आम्नाय है जिसका उल्लेख विदा ले ये दोनों गिरनारके निकट अंकलेश्वर आ गए और वहाँ उक्त श्रुतावतारमे उपलब्ध नहीं होता है। इसका कारण यह है कि चातुर्मास धारण कर लिया।
श्रुतावतारके कर्ता आ. इन्द्रनन्दिने यद्यपि इस आम्नायका नाम तो इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार १३२-१३४ (ती २/५१,५४) जग्मतुरथ करहाटे
सुन रखा था परन्तु इसकी गुरु परम्पराका ज्ञान उन्हे नही था। तयो' स य पुष्पदन्त नाम मुनि'। जिनपालिताभिधानं दृष्टवाऽसौ
“गुणधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभि' न ज्ञायते, तदन्वयकथ
कागममुनिजनाभावाव'। (इन्द्रनन्दि कृत श्रृतावतार १५१) (ती, भगिनेय म्व । दवा दीक्षा तस्मै तेन सम देशमेश्य वनवासम् । तस्थौ
२/३०)। जिस प्रकार धरसेनकी आम्नायमें था. पुष्पदन्त तथा भूतभूतबलिरपि मधुर. या द्रविडदेशेऽस्थात् । १३२-१३३ । अथ पुष्पदन्त मुनिरप्यध्यापयितुं स्वभागिनेयं तम् । कर्मप्रकृतिप्रभाभृतमुपसंहार्येव
बलि प्राप्त होते है उसी प्रकार इस आम्नायमें आर्यमक्षु, नागहस्ति गडभिरिह खण्डै ॥१३४॥ - वर्षावास पूर। करके पुष्पदन्त और भूत
तथा यतिवृषभ प्राप्त होते है। दोनो आम्नायें प्राय समकालीन तथा मलि दोनोने दक्षिण की ओर विहार किया और दोनो 'करहाटक'
समकक्ष होते हुए भी परस्परमें एक दूसरेसे पृथक् तथा स्वतन्त्र थी। (कोल्हापुर) पहुँचे । वहाँ उनमें से पुष्पदन्त मुनिने अपने भानजे राजा
धरसेनकी आम्मायने जिस प्रकार भगवान् वीरसे आगत 'महाकर्म जिनपलितसे भेंट की और उसे दीक्षा देकर अपने साथ ले 'वनवास'
प्रकृति प्राभृत' के ज्ञान को षट् खण्डागमके रूपमें लिपिबद्ध किया, देशको चले गए। तथा भूतमलि द्रविड देशकी मदुरा नगरी में ठहर
इसी प्रकार आ गुणधरकी इस आम्नायने भगवान वीरसे वागत गए । उधर बनबासमें अपने भानजे जिनपालितको पढ़ाने के लिये
"पेज्जदोसपाहुड के ज्ञानको 'कसायपाहुड' के नामसे लिपिबद्ध किया। पुष्पदन्त मुनिने 'कर्म प्रकृति प्रामृत' का छ' खण्डोमें उपसंहार किया २. गुणधर ओर 'वीसदि सूत्र' की नाम से जीवस्थान नामक प्रथम अधिकारकी
ज. ध /मंगलाचरण ६-जेणिह कसायपाहुडमणेयणयमुज्ज्वलं अण तत्थं । रचनाकी। उसे जिनपालितको पढाकर भूतबलिका अभिप्राय अवगत
गाहाहि विवरिय त गुणहरभडारयं । करने के लिये उसीके हाथ उसे उनके पास भेज दिया। इसपरसे भूत
ज. ध. ६ की व्याख्या- ज्ञानप्रबाद के निर्मल दसवे वस्तु अधिकारके नलिने पुष्पदन्त गुरुका षट्खण्डागम रचनेका अभिप्राय जान लिया।
तृतीयकसायपाहुडरूपी समुद्र के जलसे प्रक्षालित मतिज्ञानरूपी नेत्रउनकी आयु अस्प ही शेष रह गई है यह जान कर उन्होने धरसेन
धारी एव त्रिभवन-प्रत्यक्ष-ज्ञानकर्ता गुणधर भट्टारक है, और उनके गुरुसे प्राप्त सकल ज्ञानको 'षट्खण्डागम' के नामसे निबद्ध कर दिया।
द्वारा उपदिष्ट गाथाओंमें सम्पूर्ण कसायपाहुडका अर्थ समाविष्ट है। (ध १/प्र. २०/H. L.Jain), (जै १/४५)
• तृतीय कषाय प्राभृत महासमुद्रके तुल्य है और आचार्य गुणधर इस परसे यह अनुमान करना सहज है कि आयुमे पुष्पदन्त उसके पारगामी है। भूतबलिकी अपेक्षा वृद्ध थे और उनके स्वर्गारोहणके पश्चात् भी __आचार्य वीरसेनके उक्त कथनसे यह ध्वनित होता है कि आचार्य भूतबलि २०-२५ वर्ष जीवित रहते रहे। अत इन दोनोके साधु गुणधर पूर्व विदोकी परम्परामें सम्मिलित थे किन्तु धरसेनाचार्य जीवनका प्रारम्भ आ.अहं दलिके अन्तिम पादमें होता है। और अन्त पूर्वविद होते हुये भी पूर्वविदोकी परम्परामे नहीं थे। (ती. २/२१)। भूतबलिकी अपेक्षा पुष्पदन्तका पहले हो जाता है। मूलसंध की पञ्चम पूर्वगत 'पेज्जदोसपाहुड' का जो ज्ञान आपको पूर्वाशधारियों पट्टावलीमे अहलके काल की अन्तिम अवधि वी नि. ५६३, पुष्प- की परम्परासे प्राप्त हुआ था उसे सुरक्षित करनेकी भावनामें दन्तकी ६३३ और भूतबलिकी ६८३ बताई गई है (दे. पृ ३१६ पर आपने यद्यपि उसे १८० गाथाओ में उपसंहृत कर दिया था तदपि इतिहास ४/२) इनकी पूर्वावधिमें पूर्वापर्य केवल उनके नाम क्रमके आपने इन गाथाओको लिपिबद्ध नहीं किया था। आचार्य परम्परासे कारणसे है । उसका प्रारम्भ वास्तव में यति सम्मेलनके कालसे होता वे गाथाये नागहस्तिको और उनके पादमूलसे यतिवृषभको प्राप्त है। यदि यह सम्मेलन बी. नि. ६३० में घटित किया जाय (दे. हुई। ७००० चूर्णिसूत्रोकी रचना द्वारा विस्तृत करके उन्होंने ही इन शीर्षक ७ पर अहवलि) तो इनकी पूर्वावधि वी. नि ५३० सिद्ध १८० गाथाओंको 'कषायपाहुड' के नामसे लिपिबद्ध किया। (दे. हो जाती है । परन्तु विद्वानोने यति सम्मेलनके कालका निर्धारण कषायपाहुड अथवा कोश २/परिशिष्ट १)। न करके अहवाल की उत्तरावधि को ही इनकी पूर्वावधि मान इस सर्व कथनपरसे यह अनुमान सहज हो जाता है कि आप लिया है। तदनुसार आ. पुष्पदन्तका काल बी. नि. ५६३-६३३ धरसेन स्वामीसे अधिक नहीं तो २-३ पीढी पूर्व अवश्य होने (ई. ६६-१०६) और भूतबलिका वी. नि. ५६३-६८३ (ई ६६ १५६) चाहिए। हमारे इस अनुमानकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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