Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 499
________________ परिशिष्ट (विशेष दे अगला शीर्षक) । परन्तु अन्य कोई साक्ष्य उपलब्ध न होनेसे में स्वयं इस विषयमे अपनी जिल्हा हिलाने के लिए समर्थ नहीं 1 हो सकता है कि नन्दी सघको पट्टावलीमे कही गई इनकी उतरावधि वास्तव में इनके अनन्तरवर्ती माधनन्दीको " जो कि उत्तरावधिके रूपमे इन्हे प्राप्त हो गई है। इस विषयमें यह हेतु भी है कि नन्ही संघकी पहली वास्तवमे आ मामनन्दि प्रारम्भ होती है उनसे पहले जो भद्रनाडु खामी तथा अदत्तीका नाम लिया गया है वह केवल परम्परा गुरुके रूपमे उन्हें नमस्कार करने के लिए है। (दे परिशिष्ट ४) इसलिए मूल संघकी पट्टावली में कथित वी. नि. ५६५-५६३ ही इनका काल मानना उचित है। आपके द्वारा आयोजित यति सम्मेलनको संगति आ घरकी उत्तराधि (मी. नि. ६१३) के साथ बेठाने के लिए हम आपके आचार्य कालको उत्तरावधि ५६३ से आगे बढाकर ६३० तक ला सकते है और ऐसा करनेमें कोई विशेष आपत्ति भी नहीं आती है. खोकि आ धरसेनको आपके पश्चाद्वर्ती न मानकर आपके समकालीन माना गया है । तदपि कोई साक्ष्य उपलब्ध न होनेसे इस विषय मे मै स्वय अपनी जिह्वा हिलाने के लिए समर्थ नहीं हूँ। (विशेष दे. अगला ८. यति सम्मेलन यहाँ यह होता है दे इससे पूर्व में कि यह सम्मेलन किस काल में हुआ । (१) इस अवसर पर अनेकों सघों में विभाजित होकर मूलसंघकी सत्ता समाप्त हो गई थी और साथ-साथ आईडली का आचार्य भी इसलिए यह अनुमान होता है कि नन्दि की महामहीमें कथित दे परिशिष्ट ४) आईसीके कालकी उत्तरावधि (बी. नि ५७५) ही इस सम्मेलनकी योजनाका काल है। सम्मेलन वर्षीय युगप्रतिक्रमणके अवसरपर हुआ था। क्योंकि के अंक से ५७४ पूरा-पूरा विभाजित हो जाता है इसलिए भी अनुमान होना सम्भव है कि भगवान् 'महावीर के' पश्चाद यह ११५ युग प्रतिक्रमण हुआ होगा । परन्तु इतने मात्र परसे इस विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना इतिसाहस होगा । यह (२) क्योंकि दूसरी ओर आ. धरसेन स्वामीका सम्बन्ध भी इस घटना के साथ सिद्ध है। उनका पत्र पाकर आ अर्हइलीने इसी सम्मेलनमें से दोन दीक्षित साधु उनकी सेवामे भेजे थे और जैसा कि आगे आ. घरसेन के प्रकरण में बताया जाने वाला है उन्होने इन साधुओंको बहुत शीघ्र ही 'महाकर्म प्रकृति' विषयक अध्ययन कराके अपना समाधि मरण निकट जान इन्हे अपने पाससे विदा कर दिया था। इस परसे दो सूचनायें प्राप्त होती है। एक तो यह कि अत्यन्त बीत* राग तथा तपस्त्री होने के कारण उन्होने भक्तप्रत्याख्यानकी बजाय इङ्गिनी मरण स्वीकार किया था। दूसरी यह कि अपने शरीर की स्थिति से आशंकित रहनेके कारण उनका यह अध्ययन बहुत शीघ्र समाप्त किया था । यही कारण है कि अध्ययन प्रारम्भ कराने से पहले उन्होंने इन शिष्योके शिष्यत्वकी तथा प्रतिभाको परीक्षा ली थी। इसलिये इस विषय में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता कि इन दोनोंने गुरुदत्त ज्ञानको अवधारण कर लिया हो। इस परसे हम यह कह सकते है कि इन दोनों सुयोग्य साधुओं की प्राप्ति उन्हे अपने समाधि कालसे अधिक से अधिक दो चार वर्ष पूर्व हुई थी और उसी समय यति सम्मेलन घटित हुआ था । आ. धरसेनके कालकी उत्तराधिक्योंकि बी.नि.६३३ निर्धारित की गई है (दे आगे शीर्षक १० ) इसलिये यति सम्मेलनका काल वी. नि. ६३० के आस-पास होनेकी सम्भावना प्रतीत होती है । (३) परन्तु ऐसा माननेवर आा अलिको उत्तराधि (वोनि ५१३) के ग्राम तथा आ. मामनन्दिको बीनि २०५) के साथ संगति वहीं बैठती। इसलिए या तो अति उत्तरावधिको ५६३ से Jain Education International मूलसंघ विचार नीचे उतारकर ६३० पर लाना चाहिये अथवा आ. धरसेनकी उत्तरावधिको ६३३से ऊपर उठाकर ५६५ या ६६७ पर लाना चाहिये। परन्तु ऐसा करने से उनके द्वारा 'जोणिपाहुड' ग्रन्थकी रचना सम्भव नहीं हो सकेगी, क्योकि उसका रचनाकाल वो नि ६०० माना गया है। इसलिये या अर्हति उत्तराधिमी. नि. ६३० मानी जा सकती है । यह बात सर्वमान्य भी है कि अर्हइलि माघनन्दि तथा घरसेन इन तीनो के नाम भले ही मूलसघकी पट्टावलीमें आगे-पीछे लिखे गये हो परन्तु वास्तव में ये समकालीन थे । • ૪૮૪ (४) दूसरी बाधा नदि स्वामीकी पूर्वावधिके साथ आती है। यदि अलिको उत्तरावधिके अनुसार सम्मेलनवी योजनाका काल वी. मि. २६३ या ६२० माना जाता है तो मामनन्दिकेशको पूर्वाध भी यहाँ घटित होती है जबकि नदी पाली में वह यो नि ५७५ पर स्थापित की गई है । परन्तु इसका समाधान यह किया जा सकता है कि भले ही सम्मेलन के अवसर पर अनेकों सघकी स्थापना की गई हो, परन्तु सभी सघोंकी स्थापना उसी दिन हुई हो यह नही कहा जा सकता। सिंहसंघ, नन्दिघ, सेन या वृषभसंघ और देवसंघ ये जो चार प्रधान संघ है इनकी उत्पत्तिके विषय मे अनेकों धारणाये है। एकके अनुसार ये मूलसघमें से उत्पन्न हुए, एक्के अनुसार ये मूलसंघमे हुए अर्थात इन चारोंसे समवेत ही मूलसंघ माना जाता रहा। एक्के अनुसार इनके संस्थापक अद्विली थे और एक्के अनुसार अकलंक देव थे । एकके अनुसार इनकी स्थापना अलिने स्वेच्छा से की थी और एकके अनुसार उनके जीवनकालमे स्थिति तथा स्थान की विशेषता के कारण यह स्वत हो गई थी । (दे. इतिहास ५/१ पृ ३१८) । इस अन्तिम धारणा के अनुसार नन्दिसघकी उत्पत्ति उस समय हुई थी जबकि आ आईडली महातपरमानन्द म के नीचे योग धारण किया था (दे. इतिहास १३१८) हो सकता है कि यह घटना सम्मेलन वाली घटनासे बहुत पहले वी. नि ५७५ में घट चुकी हो और उसी समय माघनन्दि स्वामी नन्दिसंघका आद्य पट प्राप्त हो गया हो। ९. माघनन्दि पू. ३९८ पर दी गई सूत सबकी पट्टावतीने तथा जागे परिशिष्ट २ में निर्दिष्ट नदी महाबली में दोनों में ही आपका नाम अहंडी अथवा गुप्तिगुप्तके पश्चात् आता है परन्तु, दोनों स्थानोपर दिया गया आपका काल भिन्न है । मूलसघकी श्रुतधर परम्परामै आपको गणना पूर्ववदमें की गई है और काल भी नि ५६३-६१४स्थापित किया गया है जबकि मन्दिसंपमें निर्दिष्ट द्वितीय दृष्टिके अनुसार यह वी नि. ५७५-५७९ बताया गया है (दे परिशिष्ट ४) इससे सिद्ध होता है कि ४१३ आपके आचार्यपदी पूर्वावधि नहीं थी। आ. अडलि की उत्तरावधि ही यहाँ नाम क्रमके कारणसे आपको पूर्वावधि के रूपमे प्राप्त हो गई है। वस्तुत' अर्हह्नलिके शिष्य हो कर भी आप उनके पश्चाद्वर्ती न होकर समकालीन थे। इससे पहले जो यति सम्मेलन के विषय में चर्चा की गई है उसके अनुसार नन्दिसघकी स्थापना आ. अलिके काल में उस समय हुई थी जबकि श्री माघनन्दिजी के उपकी परीक्षा करनेके लिये उनेह इनको नन्दी वृक्ष, जिसकी कुछ भी छाया नहीं होती है उसके नीचे वर्पयोग धारण करने का आदेश दिया था, और उनके आदेशकी पालनामें सफल हो जानेपर आप नन्दिकी उपाधि प्राप्त हुई थी। आपकी इस योग्यताको देखकर उस समय जिस संघका आद्य पट्ट आपको सौपा गया था वही आपकी इअ उपाधिके कारण नन्दि संज्ञाको प्राप्त हुआ था। आपके कालकी पूर्वाध इस बातको सूचित करती है कि यह घटना वी. नि. ५७५ में घटी थी । यहाँ यह शंका होती है कि नन्दिसंघकी पट्टावली में आपका आचार्यकाल केवल ४ वर्ष के पश्चात् बी. नि ५७६ में क्यों समाप्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506