Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 498
________________ परिशिष्ट ४८३ मूलसंघ विचार यहाँ जिन चन्द्र का समय शक. सं.४०-४६ (वि, १७५-१८४) स्थापित किया गया है और इन्हे कुन्दकुद का गुरु बताया गया है। यद्यपि दोनो स्थानो पर जिनचन्द्र भद्रबाहुकी शिष्य-परम्परामे है और दोनोंके कालोमें भी कोई विशेष अन्तर नहीं है, केवल ३६ वर्षका अन्तर है, तदपि दोनोके जीवनवृत्तोमें इतना बडा अन्तर है कि इन दोनोंको एक व्यक्ति स्वीकार करने को जो नही चाहता। तथापि यदि जिस किस प्रकार इन्हे एक व्यक्ति घटित कर दिया जाय (दे परिशिष्ट ४/जिनचन्द्र) तो दोनो भद्रबाहु एक व्यक्ति सिद्ध हो जाते हैं। इतना हो जानेपर भो ये दोनो भद्रबाहू एक व्यक्ति थे या दो यह सन्देह बना ही रहता है। यदि ये दोनों भिन्न व्यक्ति है तो कहा जा सकता है भद्रबाहु गणी का काल अपने प्रशिष्य श्वेताम्बर सघाधीश जिनचन्द्र (वि. १३६) को अपेक्षा ४० वर्ष पहले वि.६६ (बी. नि ५६६) होना चाहिए। श्रुतधरों को परम्पराका निर्देश करने वाली मूलसधीय उक्त पट्टावलीमें भद्रबाहु द्वि, का काल वी. नि.४६१-५१५ बताया गया है । दूसरी ओर नन्दि सघ बलात्कार गणकी पट्टावली में (दे. परिशिष्ट ४) इतिहास ७/२) वह विक्रम राज्यके पश्चात ४-२६ वर्ष स्थापित किया गया है पट्टावलीके कर्ता आ इन्द्रनन्दिके अनुसार विक्रम राज्यका प्रारम्भ वी. नि ४८८ मे कल्पित किया गया है यथा--"वीरात ४६२ विक्रमजन्मान्तर वर्ष २२, राज्यान्तर वर्ष ४" (विशेष दे. परिशिष्ट १/२) इसलिये तद्नुसार इनका समय पट्टावली में वी.नि ४६२-५१४ बन जाता है। इस प्रकार दोनो पट्टावलियोंमे इनकी पूर्वावधि ता समान आ जाती है परन्तु उत्तरावधिमे एक वर्ष का अन्तर रह जाता है जिसे स्मृति की भूल कहकर हटायाजा सकता है। विद्वानोने इनका यही समय स्वीकार किया है । (प.सं / H.L. Jain); (स, सि. प्र /८/ फूलचन्द), (विशेष दे. परिशिष्ट ४ मे नन्दिसंघ)। ५. लोहाचार्य मूल संघकी पट्टावलीमे (दे पृ ३१६) इस नामके दो आचार्य प्राप्त होते है। एक तो द्वि. केवलो सुधर्मा स्वामीका अपर नाम है और दूसरा भद्रबाहु द्वि के पश्चात् अष्टागधारियोकी अथवा आचारोग धारियो की परम्पराम माने गए है। नन्दिसघकी पट्टावलीमे यद्यपि भद्रबाहु द्वि. के पश्चात् इनका नामोल्लेख नहीं किया गया है तदपि जैसा कि परिशिष्ट ३ में बताया जानेवाला है, वहाँ इनका ग्रहण अनुक्तरूपसे स्वयं हो जाता है। मूलसंघकी पट्टावली में प्रथम दृष्टि से इनका काल भगवान् वीरके निर्वाणके पश्चात ६८३ वर्ष तककी काल गणना पर जाकर समाप्त हो जाता है परन्तु अतावतारकी द्वितीय दृष्टिसे वह वी.मि.११५-१६५ प्राप्त होता है। अहं दलि माघनन्दि तथा धरसेन आदिको ६८३ वर्ष की अवधिमें समेटनेके लिये यह पहले की अपेक्षा अधिक स गत है । श्रुतावतारमें हो निमद्ध नन्दिसंघकी पट्टावलीमें भी युक्तिपूर्वक इनका यही काल प्राप्त होता है (दे. परिशिष्ट ४)। (ध १'प्र. २६/H. L Jain); (स. सि/प्र.७८/ पं. फूल चन्द); (ह. पु./प्र.३५. पन्ना लाल)। एक तोसरे लोहाचार्य भी हैं जिनका उल्लेख नन्दिसंघकी पहावली में उमास्वामी के पश्चात् किया गया है ये लोहाचार्य उपर्युक्त लोहाचार्य वि. से भिन्न ही कोई व्यक्ति हैं, क्योंकि पट्टाबली में इन्हें पी.नि.७४७-७५८ में स्थापित किया गया है। इस प्रकार दोनों के कालोंमें २ शताब्दीका अन्तर है (दे. परिशिष्ट ४) ६. विनयवत्तादि चार आचार्य मूलसपको पट्टावलीमें (दे पृ.३१६)लोहाचार्य के पश्चात विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अहंदत्त इन चारों आचार्योका नामोल्लेख किया गया है। यद्यपि इनका उल्लेख न तो तिनलोय पण्णति आदि-मूल ग्रन्थोंमें कही पाया जाता है और न ही आ इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतारमें दी गई मूल सघकी पट्टावली में कही इनका पता चलता है (ध १/प्र २४/ H. L. Jain)। परन्तु आ इन्द्रनन्दिने वहाँ ऐसा उल्लेख अवश्य किया है कि आ. गुणधर तथा धरसेनके अन्वयका ज्ञान काल दोषसे इस समय हमे प्राप्त नहीं है (दे परिशिष्ट ३) इसके आधारपर तथा अन्य किन्ही साक्ष्योके आधारपर प जुगल किशोर जी मुख्तारने इन्हें लोहाचार्य तथा अर्ह हलिके मध्य स्थापित किया है। पुन्नाट संघकी पट्टावलीमें लोहाचार्य तथा अर्ह वलीके मध्य विनयंधर, गुप्तिश्रुति, गुप्तद्धि और शिवगुप्त ये चार नाम दिये है। (दे. इतिहास ७/८/पृ. ३२७) सम्भवत ये उपर्युक्त विनयदत्त आदिके ही अपर नाम है। इससे पता चलता है कि इनका गुरु परम्परासे कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योकि इनका नाम एक साथ आता है इसलिये इन्हें समकालीन अनुमान किया जा सकता है। पं.जुगल किशोर जो इन चारोंका समुदित काल २० वर्ष अनुमान करते है। ७. अहंबली मूलसंघकी पट्टावली (दे.पु. ३१६) में कथित द्वितीय दृष्टिमें इनके नामका उल्लेख इस बातका सूचक है कि लोहाचार्यके पश्चात मूलसंघका पट्ट आपको अवश्य प्राप्त हुआ था, परन्तु प्रथम दृष्टिमें इनका उल्लेख प्राप्त न होनेसे यह कहा जा सक्ता है कि इनके काल में मूलसंघ विघटित हो गया था । यथाइन्द्रनन्दिकृत नीतिसार - अई दली गुरुश्चक्रे संघसंघटनं परम् । सिह सघो नन्दिसंघ सेनसंघस्तथापर'। देवसंघ इति स्पष्ट स्थानस्थिति विशेषत:/- अहंडलिके काल में मूलसघ-सिंह, नन्दि, सेन तथा देव नामक चार संघों में विभाजित हो गया। नेमिदत्त कृत आराधना कथाकोष/कथा नं. -यहाँ यह बात प्रसिद्ध है कि पंचवर्षीय युगप्रतिक्रमणके समय आपने दक्षिण देशस्थ महिमानगर (जिला सतारा) में एक महान यति सम्मेलन किया था, जिसमें १००-१०० योजन तकके यति आकर सम्मिलित हुए थे। उस अवसर पर उनमें अपने अपने शिष्यों के प्रति कुछ पक्षपातकी गन्ध देखकर आपने मूलसघको नन्दिसंघ आदिके नामसे अनेक शाखाओं में विभक्त कर दिया था ।१४। आ, धरसेनका पत्र पाकर इस सम्मेलनमें-से ही आपने पुष्पदत्त तथा भूतबलि नामके दो नवदीक्षित परन्तु सुयोग्य साधुओंको उनकी सेवामें भेजा था ।२८। ध. १/प्र. १४,२८ (H. L. Jain) (विशेष दे. अगला शीर्षक) नन्दिसंघकी पट्टावलीमें (दे. आगे परिशिष्ट ४) आपके दो अपर नाम बताये गए हैं,.पुस्मिगुप्त तथा विशाखाचार्य । इसपरसे आपके चन्द्रगुप्त होनेका सन्देह होता है, क्योंकि एक तो आपके नामके साथ 'गुप्त' शब्द पाया जाता है और दूसरे चन्द्रगुप्त मौर्यका दीक्षाका जो नाम विशाखाचार्य बताया गया है उसका भी आपके नामके साथ सम्बन्ध देखा जाता है। तीसरे आप भद्रबाहूके शिष्य नहीं तो प्रशिष्य अवश्य है। इस हेतुसे श्वेताम्बर विद्वान आपको चन्द्रगुप्त कल्पित करके द्वादशवर्षी दुर्भिक्षका सन्बन्ध भद्रबाहु द्वि. के साथ जोडते है परन्तु इसका निराकरण पहले किया जा चुका है (दे. शीर्षक २ पर भद्रबाहु प्रथम) पृ. ३१६ पर दी गई मूल संघकी पट्टावलीमें आपका काल वी नि. ५६५-५६३ कहा गया है जब कि परिशिष्ट ३ में कथित नन्दिसंघकी पट्टावलीमे द्वितीय दृष्टिके अनुसार लोहाचार्य के ५० वर्ष जोड देनेपर वह वी. नि. ५६५-५७५ प्राप्त होता है । दोनों में इनकी पूर्वावधि समान है परन्तु उत्तरावधिमें १८ वर्षका अन्तर है। इसपर से यह अनुमान होता है कि नन्दिसंघको पट्टायलिमें कहा गया काल आपके आचार्य पदकी अपेक्षासे है और मूलसंघकी पट्टावलीमे जीवन कालकी अपेक्षासे अर्थात् इनका आचार्य पद संघ विघटनके समय समाप्त हो जाता है और बी. नि. ५६३ में इनकी समाधि होती है। जैनेन्द्र सिवान्त कोच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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