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परिशष्ट
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मूलसंघ विचार
२. मूलसंघ परिचय भगवान् महावीर की निर्वाण-प्राप्तिके पश्चात् उनके सघमे ६२ वर्ष
तक इन्द्रभृति (गौतम गणधर) आदि तीन केवली हुए। इनके पश्चात केवलज्ञानका विच्छेद हो गया परन्तु १००-१५० वर्ष तक पूर्ण श्रुतज्ञान (११ अंग १४ पूर्व) के धारी पाँच श्रु तकेवलियो की परम्परा चलती रही। आ भद्रबाहु प्रथम इस परम्पराकी अन्तिम कडी थे। इनके पश्चात् पूर्ण श्र तज्ञान भी विच्छिन्न हो गया। फिर श्रुतज्ञानके हानिक्रमसे ११.१०,६ तथा ८ अगधारी होते रहे । भद्रबाहु द्वितीय तथा लोहाचार्य इस परम्परामें अन्तिम अष्टागधारी थे। इनके पश्चात् अथवा इनके काल में ही कुछ आचार्य एकांग अथवा आचारांगधारी भी होते रहे। फिर एक अंगवालो की परम्परा भी समाप्त हो गई और किसी एक अगके अंशधारी होते रहे । अशधारियोकी यह शृङ्खला वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात तक चलती रही। आ अर्ह वली, माघनन्दि, गुणधर,धरसेन आदि आचार्य इसी परम्परामें हुए आगे
चलनेपर अगाँश का यह ज्ञान भी समाप्त हो गया। पंचम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी प्रथम तक भगवान् वीरका यह मूलस घ अखण्ड रूपसे चलता रहा । परन्तु इनके समयमे उज्जैनीमें बडा भयकर द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष पड़ा जिसके कारण उन्हें यह देश छोडकर ससघ दक्षिण की ओर प्रयाण करना पड़ा। उस समय इनके स घमें १२००० साधु थे, जिनमें से कुछ इनके साथ न जाकर उज्जैनी में अथवा मार्ग में ही रुक गए । पोछे परिस्थितिवश उनको सिंहवृत्त का त्याग करके अपवाद मार्ग अपनाना पड़ा। इससे अर्ध फालक सघकी नीव पड़ो जो धीरे धीरे शैथिल्यमे परिणत होता हुआ वि. १३६ मे सौराष्ट्र देशको प्राप्त होनेपर सागोपाग श्वेताम्बर संघमे परिणत हो गया। (विशेष दे श्वेताम्बर) इस प्रकार १चम श्रुत केवलो भद्रबाहु प्रथम के युगमे भगवान्का अरखण्ड मूल सघ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर के रूपमे द्विवा विभक्त हो गया। स्थूलभद्र की आम्नाय श्वेताम्बर संपकी ओर चली गई और प्रोष्ठिल शारवा दिगम्बर बनी रही। दुर्भिक्ष समाप्त हो जानेके पश्चात् यह सघ पुन दक्षिणसे मगध तथा उज्जैनी को ओर लौट आया, और आचार्य अहहली तक अविछिन्न रूपसे चलता रहा । सैसा कि आगे आ अर्ह बली की चर्चा करते हुए बताया गया है, "आ अहंडलीने यत्र तत्र विखरे हुए दिगम्बर सघको सगठित करनेके लिये दक्षिण देशम्थ महिमानगर जिला (सितारा) में एक महान यति सम्मेलन किया जिसमे १००-१०० योजन तकके यति आवर सम्मिलित हुए । इस यति-सम्मेलनको योजना उन्होने पंचवर्षीय युगप्रतिक्रमणके अवसरपर की थी। उस समय उन्होंने यह महसूस किया कि काल प्रभाव से वीतरागियोमे अपने अपने स ध तथा शिष्योके प्रति कुछ पक्षपात जाग्रत हो चुका है। यह पक्ष आगे जाकर सघकी क्षतिका कारण न बन जाये इस उद्देश्य से उन्होने अखण्ड दिगम्बर संघको नन्दिसघ आदि अनेक अवान्तर सघोमें विभाजित कर दिया। इसके पश्चात् ये सकल सघ अपने-अपने आचार्यकी अध्यक्षतामे स्वतन्त्र रूपसे विचरण करने लगे। यद्यपि सधका विभाजन वी नि.५७५ मे कर दिया गया तदपि धरसेन आदि कुछ अगाश धारियो की बीतराम
परम्परा यत्र तत्र विखरी हुई वी नि. ६८३ चलती रही। वीर निर्माणसे लेकर उसके ६८३ बर्ष पश्चात तक्की यह परम्परा मलस घमें गणनीय है, जिसका उल्लेख दो स्थानो पर प्राप्त होता है, एक तो तिल्लोय पण्णति तथा धवला आदि मूल ग्रन्थो में और दूसरे आ इन्द्र नन्दि कृत 'श्रुतावतार' नामक शास्त्रमे । मल ग्रन्थों मे ज्ञान हानिका क्रम दशाने के लिये आचार्योंका केवल समुदित काल दिया गया है और ६८३ वर्षको यह श्रुतधर परम्परा भद्रबाहु द्वितीय तथा लोहाचार्य पर आकर समाप्त कर दी गयी है। परन्तु इन्दनन्दि कृत श्रुतावतारमे समुदित कालका निर्देश करनेके साथ
साथ प्रत्येक आचार्यका पृथक् पृथक् काल भी दिया गया है। यहाँ ६८३ वर्षकी काल गणना लोहाचार्य पर समाप्त न करके षटवण्डागमके रचयिता अंगाशधारी आ धरसेन, पुष्पदन्त तथा भूतबलि तक ले जाई गई है, अर्थात् अर्हहली आदिको भी इसीमे समेट लेती है । इसलिये ग्रह पट्टावली सन्धाताओके लिये बड़े महत्वकी है। (दे. कोश पृ. ३१६ इतिहास ४/२) ११ अग १० पूर्व धारियोकी परम्परा तक दोनों की दृष्टि समान है, परन्तु आगे चलनेपर ६८३ वर्ष की उक्त गणनाके कारण कुछ मतभेद हो गया है।
३ भद्रबाहु प्रथम मूलसंघकी पट्टावली में (दे पृ ३१६) इस नामके दो आचार्य प्राप्त होते है, एक तो वे जिनकी गणना विष्णु आदि पाँच श्रुतकेवलि यौमें की गई है और दूसरे वे जिन्हे आचारागधारी अथवा अष्टांगधारी कहा गया है। इन्हींसे नन्दिसंघ बलात्कारगण की पट्टावलीका प्रारभ होता है। दोनोके सम्बन्धमें प्रचलित उक्तियें परस्पर में कुछ इस प्रकार घुल मिल गई है कि इन दोनोका हो जीवन वृत्त प्राय धूमिल हो गया है। (जै /पी. ३४६) । यथा
१.गुरु शिष्य विचार मूल संघकी पट्टावली में विशाखाचार्यको भद्रबाहु प्रथमका शिष्य कहा गया है जबकि नन्दि सघकी पट्टावली में भद्रबाहू द्वितीयके शिष्य 'गुप्ति गुप्तका' अपर नाम 'विशाखाचार्य' है। हरिषेण कथाकोष तथा भद्रबाहु चरित्र के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्यका दीक्षा नाम विशाखाचार्य था और वे भद्रबाहु प्र.के शिष्य थे जबकि श्वेताम्बराम्नायमे इस नामके साथ-साथ उनका अपर नाम गुप्तिगुप्त भी था और वे 'भद्रबाह द्वि.' के शिष्य थे। मूलसघको पट्टावल मे भद्रबाहु द्वि के शिष्य 'लोहाचार्य' और उनके शिष्य अर्ह वली' है जबकि नन्दि सधकी पट्टावलीमें यह भी गुप्तिगुप्तका अपर नाम है अर्थात ये भद्रबाहु के प्रशिष्य न होकर शिष्य है। लोहाचार्य का नाम यहाँ भद्रबाहुकी सातवी पीढी में (उमास्वामी के पश्चात) दिया गया है।
२. ज्ञान विचार मूल स धमे भद्रबाहु प्र को पचम श्रुतकेवली कहा गया है और इस मतकी पुष्टि श्रेवणबेन गोल से प्राप्त शिलालेख न १७,१८,४०,५४ तथा १०८ से होती है, जबकि शिलालेख न १ तथा भावस ग्रह ५३ में (दे श्वेताम्बर) इन्हे निमित्तज्ञानी कहा गया है । दूसरी ओर भद्रबाहु द्वि को दिगम्बर आम्नायमें चरम निमित्तधर तथा आचारागधारी माना गया है जबकि श्वेताम्बर आम्नायमे इन्हे श्रुतकेवली कहा गया है। (जै /पी ३४६, ३४७)
३. द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष बृहद कथाकोष २३१, आराधना क्थाकोष ६१. भावसंग्रह ५४-५५, भद्रबाहु चारित्र ३-अपने निमित्तज्ञानसे उज्जैनीमे द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष आनेवाला जानकर आप १२००० साधुओके साथ दक्षिणापथकी ओर बिहार कर गये थे। मगध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जो कि इस समय अपनी उज्जनी वाली राजधानीमे ही विद्यमान थे, इस घटनासे प्रभावित होकर दीक्षित हो गये थे और इसके साथ ही दक्षिणापथकी
ओर चले गये थे। परन्तु श्वेताम्बर मुनि कल्याण विजय जी तथा डा०प्लाटो इस घटना
का सम्बन्ध भद्रबाहु द्वि के साथ जोड़ते है। इनकी इस मान्यताको विद्वानोका समर्थन प्राप्त नहीं है क्योकि भद्रबाहु द्वि के काल (बी.नि. ४६२-१५ वि २२-४५) मे न तो दुभिक्ष विषयक कोई उल्लेख प्राप्त होता है और न ही उस समय चन्द्र गुप्त नामक क्सिी राजाके अस्तित्व की कोई सूचना मिलती है । अत इस घटनाका सम्बन्ध भद्रबाहु प्र के साथ ही सिद्ध होता है। (जै/पी. ३५१)
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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