Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 495
________________ परिशिष्ट तित्थोगाली पयन्ना ६२३- 'पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होति वासस्या । परिनिव्बु अस्सऽरिहतो. तो उप्पन्न (पडिवन्नो) सगो राया । - भगवान् महावीरके निर्वाण जानेके ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात शक राजा हुआ । मेन कृत 'विचारी श्रीवीरनि सर्व शकसमासरस्यैषा प्रवृतिरखेऽमवद - ५ मास पश्चात भारतमें शक संवत्को प्रवृत्ति हुई । पोस ६० वर्ष . सारांश - इस प्रकार दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायो में वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक संवत्की प्रवृत्ति मान्य है। इसके अतिरिक्त त्रिलोकसार में (दे, ऊपर) जो शक राजा के साथ साथ उसके ३६४ वर्ष ७ मास पश्चात् अर्थात् बीरनिर्वाणके १००० वर्ष पश्चात कल्की राजाके होनेकी बात कही है, उससे भी इस मतको पुष्टि होती है, क्योंकि इतिहास भी लगभग इसी कालमें अत्यन्त अत्याचारी हूणवंशके राज्यका उल्लेख करता है (दे. इतिहास ३/२-३) ४. शालिवाहन संवत् विचार शक संवत्को भाँति इसका प्रचलन भी आज प्राय लुप्त हो चुका है, परन्तु दक्षिण देशमें नहीं कहीं आज भी इसका उल्लेख देखा जाता है। शिलालेखों में इसका काल वीर निर्वाणसे ७४२ वर्ष पश्चात् इङ्गित किया गया है। कही कहीं शक संवत्को भी शालिवाहन कहनेकी प्रवृत्ति रही है. परन्तु यह एक स्वतन्त्र संवत् है जिसका प्रारम्भ शक राजके ६४ वर्ष पश्चात होता है । मेराज मुम्मड कृष्णराज द्वारा ई १८३० में गोल जेन मठको दिया गया शिलालेख - 'नाना देशनृपालमौलि स्वस्ति श्रीबर्द्धमानाख्ये जिने मुक्ति गते स हि वहिणरन्धाब्धि नेत्रैश्च वत्सरेषु मितेषु (२४१३) समास्विन्दुगज समाज हस्तिभि (१८८८ ) । सती गोगणस्तदा शालिवाहन दुभि (२०५२) प्रषु कृत्यमा महले यहाँ २४६३ महावीर शक. १८८८ विक्रम शक, और १७५२ शालिवाहन शक इन दोनो का उल्लेख है। महावीर शक और विक्रम के मध्य २४१३ १८८८ ६०५ वर्ष का अन्तर बताया गया है इस पर से यह सिद्ध होता है कि उस कालमें शक संवतको विक्रम संवत् कहने की प्रथा रही होगी। इसी प्रकार महोर और शालिवाहन शकके मध्य २४६३१७५२ - ७४१ वर्षका अन्तर दर्शाया गया है। इसपर से सिद्ध होता है। कि शालिवाहन सबका प्रारम्भ वीर निर्वाणके ७४१ वर्ष पश्चात् होना निश्चित है। मैसूर डिस्ट्रिक्ट शासन पुस्तक / भाग २ / ५० शिलालेख नं १४४"श्री शक १७६० स्वस्ति श्री वर्द्धमानान्दा २५०९ ।" यहाँ शालिवाहनको शक कहा गया है, क्योंकि वर्द्धमान तथा शकके मध्य यहाँ २५०१ - १७६० ७४१ वर्ष का अन्तर स्पष्ट है । शिलालेख संग्रह / भाग १ / शिलालेख न. ३५४. ४८१ और ४८२ इन तीनों अभिलेखो में शालिवाहन १७०८ और उसके साथ वईमान २५०६ लिखा गया है। दोनोंके मध्य २५१६-१७७८ ७४१ वर्षका अन्तर है । Jain Education International इसी प्रकार शिलालेख न ३५६. ३६१ और ४८० में शालिवाहन १७८० और उनके साथ बर्द्धमान २५२१ दिया है। दोनोके मध्य २५२११७८० =७४१ वर्षका अन्तर दृष्टव्य है । इसपरसे पता चलता है शालिवाहन संवत्का प्रचार र निर्वाण ७८१ वर्ष पश्चात् प्रारम्भ हुआ । ४८० परिशिष्ट २ – (मूलसंघ विचार) १ सामान्य परिचय पृष्ठ ३१८ पर इतिहास माजे प्रकरण के अन्तर्गत भगवा बीरके पश्चात् श्रुत तीर्थ के प्रारम्भका और उसके क्रमिक ह्रासका विवेचन करते हुए श्रुतधरोंकी आम्नाय वाले मूलसंघका निदर्शन किया गया है । इस विषय में वहाँ इन्द्रनन्दि कृत 'श्रुतावतार' से लेकर दो पट्टावलिये उद्धधृत की गई है। ष्ठ ३१६ पर उद्धृत की गई पहली पट्टावली श्रुतघरोंकी आम्नाय से गुप्त सबसे सम्बन्ध रखती है और पृष्ठ ३२३ पर उद्धधृत दूसरी पट्टावली मूल सबके विभाजन के पश्चात होने वाले नन्दिसघ बलात्कारगणकी आचार्य परम्पराका उल्लेख करती है। दोनोंमें आचार्योंका पृथक पृथक् कालनिर्देश किया गय है, परन्तु उन कालोंमें अनेक प्रकारकी विप्रतिपत्तिये है । यथा २. मूलसंघ विचार (१) मूतसंच वाली प्रथम पट्टावतीने पञ्चम केवली भषा प्र के नामका उल्लेख किया गया है और उनका काल वहाँ वी. नि १३३-१६२ बताया गया है । परन्तु इनके विषयमें यह बात सर्वप्रसिद्ध है कि द्वादशवर्षीय दुर्भि‍के समय इन्होंने १२००० साधुओके विशाल सघको साथ लेकर उज्जैनीसे दक्षिणकी ओर प्रयाण किया था उस समय चन्द्रगुप्त मौर्य भी जिन दीक्षा धारण करके इनके साथ गये थे और श्रवणबेलगोल में इन दोनोकी समाधि हुई थी। हम आख्यान पर से दोनो की समकालीनता सिद्ध है, परन्तु भद्रबाहु स्वामी के उक्त कालको संगति चन्द्रगुफा साथ नहीं बैठ रही है, क्योंकि जैसा कि पृष्ठ ३१३ पर मगध देशकी राज्य वशावली में दिखाया गया है चन्द्रगुप्त मौर्यका काल शास्त्रोके अनुसार बी नि २१५-२५५ और जेन इतिहासकारो के अनुसार ई ३२६-३०२ (योनि २०१-२२४) निर्धारित किया गया है । (२) द्विदति तथा माधनन्दि इन तीन नामोका उल्लेख उक्त दोनो पट्टावलियो में किया गया है। एक ही आचार्यके द्वारा एकही ग्रन्थ में उल्लखित होनेपर भी दोनो स्थानो पर निर्दिष्ट इनके कालो में भिन्नताकी प्रतीति हो रही है। (3) श्रुतधरोकी आम्नायका निर्देश करनेवाली मूलसघको प बत्ती मामनन्दिके पश्चात् षट्ण्डागम के रचयिता आ धरसेन पुष्पदन्त तथा भूतचलिके नाम दिये गये है, परन्तु इनका जो काल वहाँ निर्दिष्ट किया गया है उस को संगति के कालके साथ बैठती प्रतीत नहीं हो रही है, जबकि कुन्दकुन्दके यह बात प्रसिद्ध है कि उन्होंने पट्खण्डागमके आद्य तीन खण्डोपर परिवर्म' नामकी एक टोका लिखी थी। (2) नन्दिवाली दूसरी पाली मे ४६-१०१ दिया गया है, जबकि जेन इतिहासकार इन्हें बी नि. ६५०७०० वि (१८०-२३०) में स्थापित कर रहे है । (2) पेदामा (पाय पाहूड) के पिता आम नागति, और जैसे का नाममूलकी पट्टावली में सर्वथा छोड दिया गया है जबकि आ घरमेनी भाँति ने भी रोकी आम्नाय समावि है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश आ गुणधर प्रसिद्ध आचाय इनके अतिरिक्त अन्य भी अनेको अवान्तर बाधाये है जिनका युक्ति निवारण करनेके लिये पावलियो प्रकाश आचार्यों के कालका ठीक ठीक निर्धारण करना अत्यन्त आवश्यक है । नन्दिकी पट्टावनी के सम्बन्ध में तो चर्चा आगे परिशिष्ट ३ मे की जायेगी । यहाँ चराकी आम्नाय वाले मूलसघ की, तत्सम्बन्धी पहानी और उसमे दलित प्रधान आचार्यको चर्चा की जायेगी। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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