Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 494
________________ परिशिष्ट १. संवत् विचार ताओका उल्लेख पहले किया गया है उन्हे आपने भ्रान्तिपूर्ण घोषित किया।२९॥ (जै./पी २६१, २६२) । (५) अन्य संवतोंके साथ तुलना करनेपर इस मतको समर्थन प्राप्त होता है, क्योंकि एकमात्र शक संवतको छोडकर ईसवी, शालिवाहन, हिजरी, वीर निर्वाण आदि जितने भी सवत व्यवहार भूमिपर प्रचलित है उन सबका प्रारम्भ उस उस पुरुषकी मृत्युसे ही हुआ है। इस विषयमें आ. देवसेन (वि.६६०) से भी हमे समाधाम प्राप्त होता है, क्यों.क अपने दर्शनसार ग्रन्थ में यापनीय, द्रविड, काष्ठा आदि जेनाभाषी संघोंकी उत्पत्ति का काल उन्होने विक्रमको मृत्युसे ही गिनकर स्थापित किया है (दे. इतिहास ६)। ध/प्र. ३०/H L. Jain (ऐसा माननेपर सारी उलझनें मुलझ जाती हैं । यथा-) मेरुतुंगाचार्यने अपनी 'विचारश्रेणी' के पृष्ठ ३ पर जो विक्रमस्य राज्य ६० वर्षाणि' कहा है, उसके अनुसार उसका राज्यारम्भ ४७०-६०-वी. नि. ४१० में घटित हो जाता है, और साथसाथ हेमचन्द्र सूरिकी मान्यताका (वि. स.वी. नि. ४७०) भी समर्थन हो जाता है किन्तु इसे विक्रम सबवका प्रारम्भ नहीं मानना चाहिए। शक संवदके साथ भी इसकी संगति ठीक मैठ जाती है, क्योंकि जैसा कि अगले प्रकरण में बताया जाने वाला है शक संवत्का प्रचार जैन शास्त्रों के अनुसार वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष पश्चाव होना निश्चित है। प्रचलित विक्रम तथा शक संवत के मध्य १३५ वर्षका अन्तर सर्व-प्रसिद्ध है। इससे यह सिद्ध है कि विक्रम संवत्का प्रारम्भ (६०५-१३५) वीर निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात हुआ। ३. शक संवत् विचार १ नाम विचार 'शक' शब्द का प्रयोग संवत सामान्यके अर्थ में होता है । यथा - ज्योतिर्मुख ११ 'युधिष्ठरो-विक्रमशालिवाहनौ, ततो नृप' स्याद्विजयाभिनन्दन । ततस्तु नागार्जुनभूपति कलौ, कल्की षडेते शककारका' स्मृता।'-कलियुगममें युधिष्ठर, विक्रम, शालिवाहन, विजयाभिनन्दन, नागाजुन और कल्की ये छः राजा शककारक अर्थात् सबव चलानेवाले कहे गए है। संवत्को 'शक' नामसे कहा जानेकी भी प्रवृत्ति प्रचलित रही है, जैसे- श्री महावीर या वर्द्धमान शक, विक्रम शक, शालिवाहन शक इत्यादि । परन्तु यहाँ 'शक' नामके जिस सवतकी चर्चा की जानी इष्ट है वह एक स्वतन्त्र संबद है जिसका प्रचार वर्तमानमें यद्यपि लुप्त हो चुका है, तदपि किसी समय भारतमें इसका व्यवहार प्रचुर था। प्राचीन जैन ग्रन्थोंमे इसका प्रयोग प्रचुरतासे किया गया प्राप्त होता है। जैसा कि अगले उद्धरणो से पता चलता है कि विक्रम तथा शालिवाहन नामक सबतोको भी कभी कभी शक संवत् कह दिया जाता था, तदपि वास्तवमें उनके साथ इसकी कोई एकार्थता नही है। दे. आगे शीर्षक न.४ - मेसूर मुम्मडि वाले शिलालेखमे शक सवत को विक्रमांक लिखा है, और मेसूर डिस्ट्रिक्ट वाले शिलालेखोंमे शालिवाहनको शक लिखा है। त्रि. सा ८५० माधवचन्द्र कृत टीका-श्री वीरनाथ निवृत्ते सकाशात पश्चोत्तरषट्छतवर्षाणि पंचमासयुतानि गत्वा पश्चात विक्रांक शकराजो जायते। -वीर निर्वाण के ६०५ वर्ष और ५ मास बीत जाने पर विक्रमाक शक राजा उत्पन्न होगा। अकल क चारित्र -"विक्रमांक शकान्दीय शतसप्तश्याषि । कालेऽक्लंकयतिनो बौद्ध दो महानभूत।" -विक्रमार्क शकाब्द ७०० में अकलंक यतिका बौद्धोके साथ महान शास्त्रार्थ हुआ था। र. क्र. श्रावकोचार - पं.कमलकृत सुखबोधिनी टीका- 'शालिवाहन संज्ञ श्रीशकराज शब्दगणे'- शालिवाहन नामक श्रीशकराजके संवत्सरमे । सरन्तु जैसा कि ऊपर त्रिलोकसारकी टोकामे कहा गया है और आगे पृथक् शीर्षकके अन्तर्गत बताया जानेवाला है शक नामक प्रसिद्ध संवत से तात्पर्य न तो विक्रम सवतसे है और न शालिवाहन सवत् से, यह एक स्वतन्त्र संवत् है जिसकी प्रवृत्ति भारतमे वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष मास पश्चात प्रारम्भ हुई थी। ऊपर जो त्रिलोकसारके टीकाकार ने विक्रम तथा शक संवत् की एकार्थता बताई है उसको यद्यपि मैसूरके प्रसिद्ध विद्वान पं.ए. शान्तिराज शास्त्रीका समर्थन प्राप्त है, तदपि डॉ. के.भी. पाठक इसे टीकाकारकी भूल घोषित करते है (ज सा. इ/पी २६७)। इसी प्रकार 'शालिवाहन' संवतके विषयमें भी जानना । अर्थात ऊपर जो रलकण्ड श्रावकाचारके टीकाकारने शालिवाहन और शक संवत्की एकार्थता बताई है वह उनकी भूल है । ऐतिहासिक मान्यता के अनुसार भृत्यव शी गोतमी पुत्र सातकर्णी शालिवाहनने ई. सद ७६ (वी.नि. ६०५) में शकराज नरवाहन (नहपान) को परास्त करके, शकोंके जीतनेके उपलक्ष्य में शक संवत प्रचलित किया था (क. पा." प्र.५३/पं महेन्द्र कुमार)। आगममें विशेष प्रकारसे शक संवतका उल्लेख किया जानेपर इसीसे तात्पर्य होता है। जैसा कि अगले शीर्षकके अन्तर्गत बताया जाने वाला है शालिवाहन नामसे प्रसिद्ध एक स्वतन्त्र संवत है जो वीर निर्वाणके ७४१ वर्ष पश्चात प्रवृत्त हुआ था। २. काल विचार ति प ४/१४६६-१४६९-बी जिणेसिद्धिगदे चउसदइगिसट्ठिवासपरिमाणे। कालम्मि अदिक्कते उप्पण्णो एस्थ सकराओ ॥१४६६ अहवा वीरे सिद्ध सहस्सणवकम्मि सगसयभहिए । पणसीदिम्मि यतीदे पणमासे सकणिओ जादो ॥१५६७। चोइससहस्ससगसयतेणउदीबासकालविछिदे । वीरेसरसिद्धीदो उप्पणो सगणि ओ अहवा ॥१४॥णिव्याणे . वीरजिणे छब्बाससदेसु पचवरिसेसं। पणमानेसु गदेरॉ संजादो सगणि ओ अहवा ॥१४६६ -१ वीर जिनेन्द्रके मुक्त होने के पश्चात ४६१ वर्ष प्रमाण काल के व्यतीत होनेपर यहाँ शक राजा उत्पन्न हुआ P४॥ अथवा-२ वीर भगवान्के सिद्ध होनेके पश्चात १७८५ वर्ष ५ मासके बीतनेपर शक नृा उत्पन्न हुआ ॥१४१७॥ अथवा-३ वीर भगवान्की मुक्तिके पश्चात् १४७६३ वर्ष व्यतीत होनेपर शकनृप उत्पन्न हुआ ॥१४६७॥ (ध.६/गा. ४२ या ४६/९३२) । अथवा-४.वीर भगवान के निर्वाणके पश्चात ६०५ वर्ष मासके भीत भनेपर शक नृप उत्पन्न हुआ ॥१४॥ ध/४,१,४/गा ४३/१३२ सत्सहस्सा णवसद पचाणउदी सपंचमासा य। अइकता वासाणं जइया तइया सगुप्पत्ती । -७६६५ वर्ष मास व्यतीत हो जाने पर शक नरेन्द्र की उत्पत्ति हुई।४॥ शास्त्रोंमे उद्धत इन मूल गाथाओंमें शक राजाको उत्पत्ति वीर निर्वाणके ४६१, १७८१, १४७६३, ६०५ और ७६६५ वर्ष पश्चात बताई गई है। तथापि ६०५ वर्ष ५ मास वाली चतुर्थ मान्यता ही सर्वसम्मत है। धह/४,१,४४/गा. ४/१३२-पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति बाससया । सगकालेण य सहिया थावेयव्वो तदो रासी ०५ वर्ष मास प्रमाण शकका काल जोड देनेसे वीर जिनेन्द्रका निर्वाण काल प्राप्त होता है। त्रि. सा. ८५० पण्णछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिन्वुइदे । सग राजो तो कक्की चदुणवतियम हिय सगमास । -श्री वर्द्धमान भगवान के निर्वाण जानेके ६०५ वर्ष मास पश्चात शक राजा हुआ, और तदन्तर ३६४ वर्ष मास पश्चात अर्थात् वी. नि. १००० में काकी राजा हुआ। ह. पु ६०/५५१-वर्षाण षट्शती त्यक्त्वा पञ्चाग्रा मासपञ्चकम् । मुक्ति गते महावीरे शकराजस्ततो ऽभवन् । -भगवान महावीर के सोक्ष चले जानेके ६०५०५मास पश्चात् शक राजा हुआ। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506