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ऐश्वर्य मद
वान महावीरके समयसे अचेलक साधुओके लिए नग्न, निर्ग्रन्थ और दिगम्बर शब्दोका प्रयोग बहुलतासे होने लगा। स्वयं बौद्ध ग्रन्थो में जन-साधुओके लिए निग्गंठ' या 'णिगंठ' नामका प्रयोग किया गया है, जिसका कि अर्थ निग्रन्थ है। अभीतक नथ समासका अर्थ प्रतिषेधपरक अर्थात 'न + चेलक - अचेलक ' अर्थ लिया जाता था। पर जब नग्न साधुओको स्पष्ट रूपसे दिगम्बर व निर्ग्रन्थ आदि रूपसे व्यवहार होने लगा तब न समासके ईषत अर्थ का आश्रय लेकर 'ईषत+चेलक - अचेलक ' का व्यवहार प्रारम्भ हुआ प्रतीत होता है। जिसका कि अर्थ नाममात्रका वस्त्र धारण करनेवाला होता है। ग्यारहती-बारहवी शताब्दीसे प्राकृत के स्थानपर अपभ्रश भाषाका प्रचार प्रारम्भ हआ और अनेक शब्द सर्वसाधारणके व्यवहारमे कुछ भ्रष्ट रूपसे प्रचलित हुए। इसी समयके मध्य 'अचेलक' का स्थान 'ऐलक' पदने ले लिया । जो कि प्राकृत व्याकरण के नियमसे भो सुसग बैठ जाता है। क्योकि, प्राकृत में 'क,-ग-च-ज त-द-प-य-वा प्रायो लुक' (हैम प्रा. १, १७७) इस नियमके अनुसार 'अचेलक' के चकारका लोप हो जानेसे 'अ, ए, ल, क' पद अवशिष्ट रहता है। यही (अ+ए-ऐ) सन्धिके योगसे 'ऐलक' बन गया। उक्त विवेचनसे यह बात भलीभाँति सिद्ध हो जाती है कि 'ऐलक' पद भले ही अर्वाचीन हो, पर उसका मूल रूप 'अचेलक' शब्द बहुत प्राचीन है । इस प्रकार ऐलक शब्दका अर्थ नाममात्रका वस्त्रधारक अचेलक होता है, और इसकी पुष्टि आ समन्तभद्र के द्वारा ग्यारहवी प्रतिमाधारीके लिए दिये गये 'चेलखण्डधर.' (वस्त्रका एक खण्ड धारण करनेवाला) पदसे भी होती है। * क्षुल्लक व ऐलकमे अन्तर तथा इन दोनो भेदोका
इतिहास व समन्वय-दे. क्षुल्लक २। * उद्दिष्ट त्याग सम्बन्धी-दे उद्दिष्ट । ऐश्वर्य मद-दे मद। ऐहिक फलानपेक्षा-दातारका पहला गुण कि वह इस लोकके । फलकी इच्छा न करे कि मुझे धन, पुत्र व यश हो। (पु श्लो. १६६)
-दे. बृ. जै, शब्दा द्वि खंड
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भोम् ऐसी गुणस्थानकी संज्ञा अनादिनिधन ऋषिप्रणीत मार्गविरुद्ध है। बहुरि सो सज्ञा 'मोयोगभवा' कहिए दई - a चारित्र महबा मन
वचन काय योग तिनिकरि उपजी है। बहुरि तैसे ही विस्तार ___ आदेश ऐसी मार्गणास्थानको स ज्ञा है। सो अपने-अपने कारणभूत
कमके उदयतै हो है। ओघालोचना-दे आलोचना । ओज-शरीरमें शुक्र नामकी धातुका नाम तथा औदारिक शरीरमें
इसका प्रमाण-दे औदारिक १/७ । ध १०/४,२,४,३/२३/१ जो रासी चदुहि अब हिरिजमाणो दोरूबरगो होदि सो बादरजुम्म। जो एगग्गो सो कलियोजो। जो तिग्गो सो तेजोजो । उक्त च-चोद्दस बादरजुम्म सोलस क्दजुम्ममेत्य कलियोजो। तेरस तेजोजो खलु पण्णरसेब खु विष्णेया 1३- जिस राशिको चारसे अबहुत (भाग) करनेपर दो रूप शेष रहते है वह बादरयुग्म कहो जाती है। जिसको चारसे अवहृत करनेपर एक अंश शेष रहता है वह कलिओज-राशि है। और जिसको चारसे अवहृत करनेपर तीन अंश शेष रहते है वह तेजोज-राशि है। कहा भी हैयहाँ चौदहको बादरयुग्म, सोलहको कृतयुग्म, तेरहको कलिओज और पन्द्रहको तेजोज राशि जानना चाहिए । (क्योकि १४-(४४३) +, १६-(४४४)+0:१३-- (४४३) +१:१५ -(४४३)+३.)। ओजाहार-दे. आहार I/१। आद्दावण- १३/५४,२२/४६/११ जीवस्य उपद्रवण ओहावणणाम
-जीवका उपद्रवण करना ओहावरण कहलाता है। ओम्१ पंच परमेष्ठीके अर्थमे द्र. सं टी ४६/२०७/११ 'ओ' एकाक्षर पञ्चपरमेष्ठिनामादिपदम् ।
तत्कथ मिति चेत् "अरिहता असरीरा आयरिया तह उवज्झया मुणिणा । पढमयखरणिपणो कारो पच परमेट्ठी ।।" इति गाथाकथितप्रथमाक्षराणा 'समान सवर्ण दीर्धीभवति' 'परश्च लोपम' 'उवणे ओ' इति स्वरसन्धिविधानेन ओ शब्दो निष्पद्यते।-'ओ'यह एक अक्षर पॉचो परमेष्ठियोके आदि पदस्वरूप है। प्रश्न - 'ओं' यह परमेष्ठियोके आदि पदरूप कैसे है। उत्तर-अरहंतका प्रथम अक्षर'अ', सिद्ध यानि अशरीरीका प्रथम अक्षर'अ',आचार्यका प्रथम अक्षर 'आ'. उपाध्यायका प्रथम अक्षर 'उ', साधु यानि मुनिका प्रथम अक्षर 'म' इस प्रकार इन पॉचो परमेष्ठियोके प्रथम अक्षरोसे सिद्ध जो ओकार है वही पच परमेष्ठियोके समान है । इस प्रकार गाथामें कहे हुए जो प्रथम अक्षर (अ अ आ उ म)है। इनमें पहले 'समानः सवर्ण दीर्धीभवति' इस सूत्रसे 'अअ' मिलकर दीर्घ 'आ' बनाकर 'परश्च लोपम्' इससे अक्षर 'आ' का लाप करके अ अ आ इन तीनोके स्थानमें एक 'आ' सिद्ध क्यिा । फिर 'उवणे ओ' इस सूत्रसे 'आ उ'के स्थान में 'ओ' बनाया। ऐसे स्वरसन्धि करनेसे 'ओम्' यह शब्द सिद्ध होता हे।
२. पर ब्रह्मके अर्थमे वैदिक साहित्यमे अ+उ+* इस प्रकार अढाई मात्रासे निष्पन्न यह पद सर्वोपरि व सर्वस्व माना गया है। सृष्टिका कारण शब्द है और शब्दों की जननी मातृकाओ (क ख. आदि) का मूल होनेसे यह सर्व सृष्टिका मूल है। अत' परब्रह्मस्वरूप है।
३. भगवद्वाणीके अर्थमे उपरोक्त कारणसे ही अर्हन्त वाणीको जो कि ॐकार ध्वनि मात्र है. सर्व
भाषामयी माना गया है (दे दिव्यध्वनि) । प्रणवमंत्र-पदस्थ ध्यानमें इस मंत्रको दो भौहों के बीच में व अन्यत्र विरा
जमान करके ध्यान क्यिा जाता है। दे वृ जै शब्द , द्वि खण्ड ।
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ओघ-गुणस्थान जो १४ होते है । (गो. जी /गा. ३)
-दे.बृ जै. शब्दा. द्वि. खंड। ध १/१,१,८/१६०/२ ओधेन सामान्येनाभेदेन प्ररूपणमेकः।-ओघ,
सामान्य या अभेदसे निरूपण करना पहली ओघप्ररूपणा है। ध, ३/१,२,१/६/२ ओधं वृन्दं समूह संपात' समुदय' पिण्ड' अविशेष'
अभिन्न सामान्यमिति पर्यायशब्दा । गत्यादि मार्गणस्थानैरविशेषितानां चतुर्दशगुणस्थानाना प्रमाणप्ररूपणमोघनिर्देश। -ओघ, वृन्द, समूह, सपात, समुदय, पिण्ड, अविशेष, अभिन्न और सामान्य ये सब पर्यायवाची शब्द है। इस ओघनिर्देशका प्रकृतमें स्पष्टीकरण इस प्रकार हुआ कि गत्यादि मार्गणा स्थानोसे विशेषताको नहीं प्राप्त हुए केवल चौदहो गुणस्थानो के अर्थात चौदहो गुणस्थानवी जीवोके प्रमाण का प्ररूपणा करना ओघ निर्देश है। गो जो./मू. ३/२३ सखेओ ओघोत्ति य गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा। विस्थारादेसोत्ति य मग्गणसण्णा सकम्मभवा ।३। = संक्षेप तथा ओघ
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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