Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 482
________________ एवकार ४६७ एषणा-समिति इन वाक्यो के साथ प्रयुक्त एवकार । (अर्थात एवकार तीन प्रकार के होते हैं-अयोगव्यवच्छेदक, अन्ययोगव्यवच्छेदक और अत्यन्तायोगव्यवच्छेदक ) । ( स. भ. त. २५-२६) स भ. त २५/१ अयं चैव कारस्त्रिविध --अयोगव्यवच्छेदबोधक', अन्ययोगपत्र च्छेदकोषक , अत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकश्च इति । यह अवधारण वाचक एव कार तीन प्रकारका है-एक अयोगव्यवच्छेदबोधक, मरा अन्य योगउपवच्छेदबोधक, और तीसरा अत्यन्ता योगव्यवच्छेद-बोधक। २. अयोगव्यवच्छेद बोधक एवकार दे 'एक कार' में ध /११ विशेषण के साथ कहा गया एवकार अयोगका अर्थात् सम्बन्धके न होने का अवच्छेद या व्यावृत्ति करता है। स भ त २५/३ तत्र विशेषणसंगतैव कारोऽयोगव्यवच्छेदबोधक , यथा शङ्ख पाण्डुर एवेति । अयोगव्यवच्छेदो नाम - उद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम् । प्रकृने चोद श्यतावच्छेदक शड्डत्व, शत्वावच्छिन्नमुद्दिश्य पाण्डुरत्वस्य विधानात् तथा च शङ्खत्वसमानाधिकरणो योऽत्यन्ताभाव' न तावत्पाण्डुरत्वाभाव , किन्त्वन्याभात्र । -विशेषण के साथ अन्त्रित या प्रयुक्त एवकार तो अयोगकी निवृत्तिका बोध करानेवाला होता है, जे मे 'शा पाण्डुर एव' शड्ड श्वेत ही होता है। इस वाक्यमे उहश्यतावच्छेदकके समानाधिकरण में रहनेवाला जो अभाव उसका जो अप्रतियोगी उसको अयोग व्यवच्छेद कहते है। जिस वस्तुका अभाव कहा जाता है, वह वस्तु उस अभाव का प्रतियोगी होता है और जिनका अभाव नहीं है वे उस अभाव के अपतियोगी होते है। अब यहाँ प्रकृत प्रसगमे उद्देश्यताका अब वेदक धर्म शव है, क्योकि शसस्व धर्म से अवच्छिन्न जो शङ्ग है उसको उद्देश्य करके पाण्डत्व धर्मका विधान करते है। तात्पर्य यह है कि उद्देश्यतावच्छेदक शरबत्व नामका धर्म शव रूप अधिकरण मे रहता है; उसमे पाण्डुत्वका अभाव तो है नही क्योकि वह तो पाण्डुवर्ण हो है । इसलिए वह उस शख में रहने वाले अभावका अप्रतियोगी हुआ। उसके अयोग अर्थात असम्बन्धकी निवृत्तिका बोध करनेवाला एवकार गहाँ लगाया गया है । क्रमश - स.भ त. २७/४ प्रकृतेऽयोगव्यवच्छेदकस्यैवकारस्य स्वीकृतत्वात् । क्रिया सङ्गस्यैव कारस्यापि कचिदयोगव्यवच्छेदनोधक्त्वदर्शनात। यथा ज्ञानमयं गृह्णात्येवेत्यादौ ज्ञानत्वसमानाधिकरणात्यान्ताभावाप्रतियोगित्वम्पार्थ ग्राहकत्वे धात्वर्थे बोध ।प्रकृत (स्यारस्त्येव घट ) में यद्यपि एवकार क्रियाके साथ प्रयोग किया गया है, विशेषणके साथ नही, परन्तु यह अयोग-व्यच्छेदक ही स्वीकार किया गया है। कहींकहीं क्रियाके साथ सगत एवकार भो अयोगव्यवच्छेदबोधक अर्थ में देखा जाता है। जैसे-'ज्ञानमयं गृह्णात्येव' ज्ञान किसी न किसी अर्थको ग्रहग करता ही है इत्यादि उदाहरणमें उद्देश्यतावच्छेदक ज्ञानत्व धर्मके समानाधिकरण में रहनेवाला जो अत्यन्ताभाव है उसका अप्रतियोगीजो अर्थ ग्राहकत्व धर्म है उसरूप धात्वर्थका बोध होता है। परन्तु सर्वथा क्रियाके साथ एव कारका प्रयोग अयोगव्यवच्छेद बोधक नहीं होता, जैसे-'ज्ञान रजतको ग्रहण करता ही है इस उदाहरण में, सही ज्ञानोके रजतग्राहकत्वका सद्भाव न पाया जानेसे और किसीकिसी ज्ञानमें उसका सद्भाव भी होनेसे यह प्रयोग अत्यन्ताभाव व्यवच्छेद बोधक है न कि अयोग-व्यवच्छेद बोधक । (न्यायकुमुद चन्द्र/भाग २/पृ. ६६३) ३. अन्ययोगव्यवच्छेद बोधक एवकार दे. 'एवकार' में ध. ११/ विशेष्यके साथ कहा गया एव कार अन्ययोगका व्यवच्छेद करता है जैसे-'पार्थ ही धनुर्धर है. अर्थात अन्य नही। स.भ त. २६/१ विशेष्यसतैवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः। यथा पार्थ एव धनुर्धर इति । अन्ययोगव्यवच्छ दो नाम विशेष्यभिन्नतादात्म्यादिव्यवच्छेद । तत्रैवकारेण पात्रतादातराभावो धनुर्धरे बोध्यते। तथा च पार्थान्यतादात्म्याभावव दनुर्धराभिन्न पार्थ इति बाध ।"-विशेष्य के साथ २: गत जो एक्कार है वह अन्य योगव्यवच्छेदरूप अर्थ का बोध कराता है जैसे- 'पार्थ एव धनुर्धर.' धनुर्धर पार्थ ही है इस उदाहरणमे एकार अन्ययोगके व्यवच्छेदका बोधक है। इस उदाहरण में एत्रकार श६ से पार्थ से अन्य पुरुषमें रहनेवाला जो तादात्म्य वह धनुर्धरमें बाधित होता है। अर्थात् पार्थ से अन्य व्यक्तिमें धनुर्धरस्व नहीं है, ऐसा अर्थ होता है । यहाँपर धनुर्धरस्वका पार्थ से अन्य सम्बन्धके व्यवहदका बोधक पार्थ इस विशेष्य पदके आगे एव शब्द लगाया गया है। (न्यायकुमुद चन्द्र/ भाग २/पृ. ६६३) ४. अत्यन्तायोग व्यवच्छेद बोधक एवकार दे 'एत्रकार' में ध ११ क्रियाके साथ कहा गया एवकार अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करता है । सरोज नील होता ही है। सभ त २६/४ क्रियासनवकारोऽत्यन्तायोगव्यवहदबोधक , यथा नील सरोज भवत्येवेति । अत्यन्तायोगव्यवच्छेद) नाम-उद श्यताव्यवच्छेदकव्यापकाभावाप्रतियोगित्वम् । प्रकृते चोद्दश्यतावच्छेदक सरोजत्वम्, तद्धविच्छिन्न नीलाभेदरूपधात्वर्थस्य विधानात । सरोजत्व व्यापको योऽत्यन्ताभाव तान्नीलाभेदाभाव , कस्मिश्विसरोजे नीलाभेदस्यापि सच्वात, अपि त्वन्याभाव , तदप्रतियोगित्व नीलाभेदे वर्तते इति सरोजत्वव्यापकास्यन्तभावाप्रतियोगिनीलाभेदवत्सरोजवमित्युक्तस्थले बोध । -क्रियाके संगत जो एव कार है वह अत्यन्त अयोगके व्यवच्छेदका बोधक है ।जैसे- नील सरोज भवत्येव' कमल नील होता ही है। उद्देश्यता-अवच्छेदक धर्म का व्यापक जो अभाव उस अभावका जो अप्रतियोगी उसको अत्यन्तायोगव्यवच्छेद कहते है। उपरोक्त उदाहरणमें उद्देश्यतावच्छेदक धर्म सरोजत्व है, क्योकि उसी से अवच्छिन्न कमलको उद्देश्य करके नीलत्वका विधान है। सरोजत्वका व्यापक जो अभाव हे वह नीलके अभेदका अभाव नही हो सकता क्योकि किसीन किसी सरोजमें नीलका अभेद भी है। अत नीलके अभेदका अभाव सरोजत्वका व्यापक नहीं है, किन्तु अन्य घटादिक पदार्थों का ज्ञान सरोजत्वका व्यापक है। उस अभावकी प्रतियोगिता घट आदिमें है और अप्रतियोगिता नीलके अभेदमें है। इस रीतिसे सरोजत्वका व्यापक जो अत्यन्ताभाव उस अभावका अप्रतियोगी जो नीलाभेद उस अभेद सहित सरोज है ऐसा इस स्थानमें अर्थ होता है (भावार्थ यह है कि जहाँपर अभेद रहेगा वहाँपर अभेदका अभाव नहीं रह सक्ता। इसलिए सरोजस्व व्यापक अत्यन्ताभावका अप्रतियागो नीलका अभेद हुआ और उस नीलके अभेदसे युक्त सरोज है, ऐसा अर्थ है । न्यायकुमुदचन्द्र/भाग २/पृ. ६६३) ★ एवकार पदको सम्यक् व मिथ्या प्रयोगविधि -दे एकान्त २ एशान-१. कल्पवासी देवोका एक भेद-दे. स्वर्ग १। २ इन देवों का लोकमें अत्रस्थान-दे स्वर्ग ५। ३ विजयाको उत्सर श्रेणीका एक नगर -दे विद्याधर । एषणा-ध १३/५,४२६/११/२ किमेसण, असण-पाण खादियसादियं ।-प्रश्न-ऐषणा किसे कहते है ? उत्तर- अशन, पान,खाद्य और सवाद्य इनका नाम एषणा है। २ आहारका एक दोष-दे आहार 1I/४ | ३ वस्तिकाका एकदोषदे वस्तिका' । ४. आहार सम्बन्धी विषय - दे आहार । ५ लाकेषणा-दे राग ४। एषणान्शुद्धि-दे शुद्धि । एषणा-समिति-दे समिति । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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