Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 481
________________ एकानंत एवकार रा.वा.६/२७/४-७/६२५/२५(१) अत्र अग्र मुखनित्यर्थ ।३। अन्त करणस्य वृत्तिरर्थेषु चितेत्युच्यते ॥४॥...गमनभोजनशयनाध्ययनादिषु क्रियाविशेषेषु अनियमेन वर्तमानस्य एकस्याः क्रियाया कतृ वनावस्थान निरोध इत्यवगम्यते। एकमग्रं मुखं यस्य सोऽयमेकान', चिन्ताया निरोध' चिन्तानिरोध', एकाग्रे चिन्तानिरोध एकाग्रचिन्तानिरोध। कुतः पुनरसौ एकाग्रत्वेन चिन्तानिरोध ॥५॥ यथा प्रदीपशिखा निराबाधे प्रज्वलिता न परिस्पन्दते तथा निराकुले देशे वीर्य विशेषादबरुध्यमाना चिन्ता विना व्याक्षेपेण एकाग्रेणावतिष्ठते ॥६॥ (२) अथवा अङ्ग्यते इत्यग्र' अर्थ इत्यर्थ., एकमग्रं एकाग्रम्, एकाग्रे चिन्ताया निरोध' एकाग्रचिन्ता निरोधः । योगविभागान्मयूरव्य सकादित्वाद्वा वृत्तिः । एकस्मिन् द्रव्यपरमाणौ भावपरमाणी वाऽर्थे चिन्तानियम इत्यर्थ रा.वा. ६.२७/२०-२१/६२७/१ (३) अथवा, प्राधान्यवचने एकशब्द इह गृह्यते, प्रधानस्य पुंस आभिमुख्येन चिन्तानिरोध इत्यर्थः, अस्मिपक्षेऽर्थो गृहीत ॥२०॥ (४) अथवा अङ्गतीत्यग्रमात्मेत्यर्थः। द्रव्यार्थतयैकस्मिन्नारमन्यग्रे चिन्तानिरोधो ध्यानमा तत स्ववृत्तित्वात बाह्यध्येयप्राधान्यापेक्षा निवत्तिता भवति ॥२१॥ -१ अग्र अर्थात मुख, लक्ष्य। चिन्ता-अन्त.करण व्यापार। गमन, भोजन, शयन और अध्ययन आदि सिविध क्रियाओंमें भटकनेवाली चित्तवृत्तिका एक क्रियामें रोक देना निरोध है। जिस प्रकार वायुरहित प्रदेशमें दीपशिखा आरिस्पन्द-स्थिर रहती है उसी तरह निराकुल देशमें एक लक्ष्यमें बुद्धि और शक्तिपूर्वक रोकी गयी चित्तवृत्ति बिना व्याक्षेपके वहीं स्थिर रहती है, अन्यत्र नहीं भटकती। (चा सा. १६६/६); (प्रसा./त प १६६); (त अनु.६३-६४);। २. अथवा अग्र शब्द 'अर्थ' (पदार्थ) वाची है, अर्थात एक द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु या अन्य किसी अर्थ में चित्तवृत्तिको केन्द्रित करना ध्यान है। ३ अथवा, अग्र शब्द प्राधान्यवाची है, अर्थात प्रधान आत्माको लक्ष्य बनाकर चिन्ताका निरोध करना । (त अनु.५७५८)। ४ अथवा, 'अङ्गतीति अग्रम् आत्मा' इस व्युत्पत्तिमें द्रव्यरूपसे एक आत्माको लक्ष्य बनाना स्वीकृत ही है। ध्यान स्ववृत्ति होता है, इसमें बाह्य चिन्ताओसे निवृत्ति होती है । (भ.आ/वि. १६६६/१५२१/१६), (त अनु ६२-६५ : (भा.पा./टी.७८/२२६/१)। त. अनु. ६०-६१ प्रत्याहृत्य यदा चिन्ता नानालम्बनवत्तिनीम् । एकालम्बन एवैना निरुणद्धि विशुद्धधी ॥६॥ तदास्य योगिनो योगश्चिन्त काग्रनिरोधनम् । प्रसख्यान समाधि' स्याद धयानं स्वेष्टफलप्रदम् ॥६१। जम विशुद्ध बुद्धिका धारक योगी नाना अबलम्बनों में वर्तनेवाली चिन्ताको वींचकर उसे एक आलम्बनमें ही स्थिर करता है - अन्यत्र जाने नहीं देता-तब उस योगी के 'चिन्ताका एकाग्र निरोधन" नामका योग होता है, जिसे .प्रसख्यान, समाधि और ध्यान भी कहते है और वह अपने इष्ट फलका प्रदान करनेवाला होता है । (प.वि ४/६४)।-दे ध्यान १/२-अन्य विषयों की अपेक्षा असत है पर स्वविषयकी अपेक्षा सत् । * एकाग्र चिन्तानिरोधके अपर नाम-दे मोक्षमार्ग २/५ । एकानंत-(ज.प./प्र. १०५) Undirectional finite. एकावली यष्टि-जो लड़ी केवल मोतियोंसे बनाई जाती है, उसे सूत्र भी कहते है । (आ.पृ ५६३) - दे बृ जै.शब्दा द्वि खंड। एकावली व्रत १. बृहद् विधि कुल समय-१ वर्ष कुल उपवास-८४ । विधि- एक वर्ष तक बरा पर प्रतिमासकी शुक्ल. १,५०८, १४ तथा कृष्ण ४, ८, १४ इन सात तिथियों में उपवास करे। इस प्रकार १२ महीनोके ८४ उपवास करे । -जाप्य मन्त्र-नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (किशन सिह क्रियाकोश), (तविधान संग्रह पृ.७६) २ लघु विधि है पु. ३४/६७-कुल समय=४८ दिन, कुल उपवास- २४; कुल पारणा -२४। विधि-किसी भी दिनसे प्रारम्भ करके १ उपवास १ पारणाके कमसे २४ उपवास पूरे करे। जाप्य मन्त्र नमस्कार मन्त्र का त्रिकाल जाप्य करे (वतविधान संग्रह ७७) । एकासंख्यात-दे. असंख्यात । एकोभावस्तोत्र-आचार्य वादिराज सूरि (ई. १०१०-१०६५) द्वारा २६ संस्कृत छन्दोंमे रचित एक भक्तिपूर्ण आध्यात्मिक स्तोत्र, जिसमे रचयिताने अपना कुष्ठरोग शान्त किया था। (ती. ३/१०३) एकेन्द्रिय-वे संसारी जीव जिनके एक स्पर्श इन्द्रिय मात्र हो जैसे पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्नि कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक इन पाँचोंमें जबतक जीव रहता है तबतक वे सचित्त, फिर जीव निकल जानेपर ये अचित्त कहलाते हैं। एकेन्द्रिय जीव झकरके जानते हैं व इसीसे काम करते है। इनके स्पर्शइंद्रिय, शरीरमल, आयु, श्वासोवास ऐसे चार प्राण होते है। -दे बृ. जैन शब्दा. वि. खंड। एकेन्द्रियजाति-नामकर्मकी एक प्रकृति-दे. जाति (नामकर्म) १ एकेन्द्रिय जीव-दे इन्द्रिय ४ । एकेन्द्रिय भेद-एकेंद्रिय जीवोंके ४२ भेद हैं---पृथ्वी, जल, तेज, वासु. नित्य निगोद, साधारण वनस्पति, इतर निगोद, सा व.। इन छ के सूक्ष्म व बादरकी अपेक्षा १२ भेद हुए। प्रत्येक वनस्पति सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित भेदसे दो प्रकार । ऐसे १४ प्रकार हर एक पर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त व लब्ध्य पर्याप्त इस तरह ४२ भेद हुए। (जै सि प्र ५४-५७) -दे बृ. जै शब्दा.द्वि. खड। एतिकायन-एक अज्ञानवादी - दे. अज्ञानवाद । एर-(प पु २५/५५) दशरथपुत्र रामचन्द्रजी आदिके विद्या गुरु । एरिगित्तर गण-एक जैनाभासी सघ (दे. इतिहास 4/9) एलाचार्य-१. उप आचार्य-दे आचार्य ३ । २ कुन्दकुन्दका अपर नाम (दे. कुन्दकुन्द २) ३, तमिल वेद कुरलकाव्य के रचयिता। समयई श २ (कुरल काव्य प्र./पं.गोविन्दराम) । ४. धवलाकार बीरसेन स्वापी (ई.७७०-८२०) के समकालीन उन शिक्षा गुरु। समयई रा.- की सन्धि । (जे. १/२४२); (ती.२/३२०) एलापुत्र व्यास-एक प्रा । -दे वैनयि । एलेय-(ह.पु १७/ग्लो.नं.) gh-जा दक्षका पुत्र था ॥३॥ अपनी पुत्री के साथ व्यभिचार करनेवाले प्राने पिके कुचारित्रसे॥१५॥ दुखी हो अन्यत्र जाकर इलावधन नमि नाम नगर व माहिष्मती नामक नगरी बसायी। अन्तमें दीक्षा धारण +7 ,190 -२४॥ एवंभूत नय-दे न III/LI एवकार १. एवकारके ३ भेद घ ११/४,२,६,१७७/श्लो ७-८/३१७/१० विशेषण विशेष्याभ्या क्रियया च सहोदित । पार्थो धनुर्धरो नील सरोजमिति वा यथा ॥८॥ अयोगमपर्योगमत्यन्तायोगमेव च । व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचक । -निपात अर्थात् पत्रकार व्यतिरेचक अर्थात निवर्तक या नियामक होता है। विशेषण, विशेष्य और क्रियाके साथ कहा गया निपात क्रमसे अयोग, अपरयोग (अन्य योग) और अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करता है। जैसे- 'पार्थो धनुर्धरः.और 'नीलं सरोजम. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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