Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 479
________________ एकान्त ५ एकान्त मिथ्यात्व निर्देश माननेपर, इच्छिन भी भाव, सकर आदि दोपोके द्वारा अपना कार्य करने में समर्थ नही हा मकते। तथा सापेक्ष मानने पर वे ही समर्थ हो जाते है। प्र सात : २७ एकान्तेन ज्ञानमात्मेति ज्ञानस्याभावोऽचेतनत्व मात्मनो विशेषगुणाभावादभावावास्यात्। सर्वथात्मा ज्ञानमिति निराश्रयत्वात ज्ञानस्याभाव आत्मन शेषपर्यायाभावस्तद बिनाभाविनस्तस्याप्यभात्र स्थान। - यदि यह माना जाये कि एकान्तसे ज्ञान आत्मा है तो, (ज्ञान गुण ही आत्म द्रव्य हो जानेमे) ज्ञानका अभाव हो जायेगा, और (ऐमा हानेसे) आत्मके अचेतनता आ जायेगी, अथवा ( सहभावी अन्य सुरख वोर्य आदि ) विशेषगुणोका अभाव हानेसे आत्मा का अभाव हो जायेगा। यदि यह माना जाये कि सर्वथा आत्मा ज्ञान है तो (आत्मद्रव्य एक ज्ञान गुण रूप हो जायेगा, इसलिए ज्ञानका कोई आधारभूत द्रव्य नहीं रहेगा, अत)। निराश्रयताके कारण ज्ञानका अभाव हो जायेगा अथवा आत्मा की शेष पर्यायोका अभाव हो जायेगा और उनके साथ ही अधिनाभाव सम्बन्धवाले आत्माका भी अभाव हो जायेगा। स, सा/आ ३४८/क, २०८ आत्मान परिशुद्धधमीप्सुभिरतिव्याप्ति प्रपद्यान्धके , कालोपाधिबलाद शुद्धिमधिका तत्रापि मत्वा परे । चेतन्य क्षणिक प्रकमध्य पृथुके शुद्ध जु सूत्रो रतेरात्मा ठयुज्झित एप हारबदहो नि मूत्रमुत्तेथिभि । २०८ = आत्माको सर्वथा शुद्ध चाहने वाले अन्य किन्ही अन्धबौद्धो ने काल की उपाधि के कारण भी आत्मामें अधिक अशुदिध मान कर अतिव्याप्तिको प्राप्त होकर, शुद्ध जुम्वन में रत हाते हुए चेतन्यको अणिक कल्पित करके, इस आत्माको योड़ दिया, जैसे हारके सुत्र (डारे) को न देखकर मात्र मोतियोको ही देखनेवाले हारको छोड़ देते है। ५.वि.११३७ पापो ने व शरीर एवं यदसाबारमा स्फुरत्यन्त्रह, भूतानन्बयतो न भूतजनितो ज्ञानी प्रकृत्या यत । नित्ये वा क्षणिकेऽथवा न कथमध्यर्थ क्रिया युज्यते, तौकत्वमपि प्रमाण दृढा भेद प्रतीत्याहतम् ।१३७' आत्मा व्यापी नही है, क्योकि, वह निरन्तर शरीरमें ही प्रतिभामित होता है। वह भूतोसे उत्पन्न भो नही है क्योकि, उसके साथ भूतोका अन्वय नही देखा जाता है, तथा वह स्वभावसे ज्ञाता भी है । उसको सर्वथा नित्य अथवा क्षणिक स्वीकार करने पर उसमें किसी प्रकारसे अर्थ क्रिया नहीं बन सकती है। उसमें एकत्व भो नहीं है, क्योकि वह प्रमाणसे हनताको प्राप्त हुई भेदप्रतीति द्वारा बाधि' है। ६ मिश्रण एकान्त निषेधका प्रयोजन स वा/हि ८/R/५६८ तिनक नाके समझ मिथ्यात्वको निवृत्ति होय, ऐसा उपाय करना । यथार्थ जिनागमकू जान अन्य मत का प्रसंग छोडना। अरु अनादिसे पर्याय बुद्व जो नेसर्गिक मिथ्यात्व ताक छोड़ अपना रवरूपको यथार्थ जान बन्धसू निवृत्त होना। ५. एकान्तमिथ्यात्व निर्देश १ एकान्त मिथ्यात्वका लक्षण स. सि ८/१/३७१/ इद मेवेत्यमेवेति वर्मिधर्म पोरभिनिवेश एकान्त । "पुरुष एवेद सम्" इति वा नित्य एव वा अनित्य एवेति । - यही है, इसी प्रकार है, धर्म और धर्मी में एकान्तरून अभिप्राय रखना एकान्त-मि पादर्शन हे । जेसे यह सत्र जग परब्रह्मरूप हो है । या सब पदार्थ अनित्य हो है या नित्य ही है । (रा वा ८/१/२८/५६४/ १८), (त सा ५/४)। ध, ८/३,६/२०/३ अस्थि चेब, रिय चेष, एगमे, अणेगमेव, सावयव चेव, निरव या चेत्र, णिच्चमेत्र, अणिच्चमब, इच्चाइओ एयंताहिणिवेसो एयत मिच्छत्त | सत् हो है, असत् ही है. एक ही है, अनेक हो है. सावयव ही है, निरवयव ही है, नित्य ही है, अनित्य ही है, इत्यादिक एकान्त अभिनिवेशको एकान्त मिथ्यात्व कहते है। सस्तो /टी ४१ स्वरूपेणेव स्वरूपेणापि सत्व मित्याद्य कान्त ।-स्वरूप की भॉति पररूपमे भी सव है, ऐसा मानना एकान्त है। २ ३६३ एकान्त-मिथ्यामत निर्देश भा, पा /म १३५ असियसय किरियवाई अश्विारियाण च होइ चुलसीदी। सत्तट्ठी अण्णाणी वेणै या होति बत्तीसा।१३५॥ -क्रियावादियोके १८८, अक्रि नावादि पोके ८०, अज्ञानवादियोके ६७, और नायिक वादियोके ३२ भेद है। मन मिल कर ३६३ होते है। (स सि // ३७५/१० पर उद्धृत उपरोक्त गाथा), (रा वा ८/९/८/५६१/३२), (ज्ञा ४/२२ में उद्धृत दो श्लोक), (ह पु १०/४७४८), (गो.क/ म् ८७६/१०६२), (गा जी जी प्र ३६०/७७०) ३ एकान्त मिथ्यात्वके अनेकों भंग रा वा/हि ८/९/७६४ (आप्तमीमासाका सार) स्वामी समन्तभद्राचार्य ने आप्तपरीक्षाके अर्थ देवागम स्तोत्र (आप्त मीमासा) रच्या है। तामै सत्यार्थ आप्तका तौ स्थापन और असत्यार्थ का निराकरण के निमित्त दस पक्ष स्थाप्ये है-१ अस्ति-नास्ति, २ एक-अनेक, ३ नित्यअनित्य, ४ भेद-अभेद. ५ अपेक्ष-अनपेक्ष, ६ ब-पुरुषार्थ,७ अन्तर ग-बहिर ग, ८ हेतु-अहेतु, ६ अज्ञानतै बन्ध और स्तोकज्ञानसे मोश्च १० परकै दुख और आपकै सुख करे तो पाप-परके सुख अर आपके दु ख कर तो पुण्य। ऐमे १० पथ विषै सप्त भग लगाय ७० भग भये। तिनका सर्वथा एकान्त विधै दूषण दिखाये है। जाने ए कहे सो तौ अप्ताभास है, अर अनेकान्त साधै है ते दूषण रहित है । ते सर्वज्ञ वीतरागके भाषै है। ४. कुछ एकान्त दर्शनोंका निर्देश श्वेताश्वरोपनिषद १/२ काल स्वभावो नियतिर्य इच्छा भूतानि योनि पुरुषश्चेति चित्तम् । संयोग एषा न वात्मभावादात्माप्यनीश सुखदुखहेतो ।२। - आत्माको सरख-दु ख स्वय अपनेसे नही होते, बल्कि काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पृथिवी आदि चतुर्भूत, योनि, पुरुष व चित्त इन बातो के स योगसे होता है, क्योकि आत्मा सुख दुख भोगने में स्वतत्र नही है। ध६/४,१,४५/७६/२०८ पढमो अबधयाण विदियो तेरासियाण मोद्धव्यो। तदियो य णिय दिपखे हदि च उत्थो ससमम्मि ।७४। - इनमें प्रथम अधिकार अबन्धकोका, और द्वितीय त्रैराशिक अर्थात् आजीविको का जानना चाहिए। तृतीय अधिकार नियति पक्षमे और चतुर्थ अधिकार स्वसमय में है। रा वा ८/१/वा./पृ. यज्ञार्थ पशव सृष्टा' स्वयमेव स्वयभुवा (मनु/३६) २२/१६३. अग्निहोत्र जुहुयात् स्वर्गकाम (मैत्रा./३६) २७/५६४, पुरुष एवेद सर्व यच्च भूत यच्च भव्यम् (ऋवे. १०/१०) । २७/५६४; पक्ति ही, एवं परोपदेशनिमित्तमिथ्यादर्शन विक्रूपा अन्ये च संख्येया योज्या, उह्या , परिणामविकल्पात् असरव्येयाश्च भवन्ति, अनन्ताश्च अनुभागभेदात् ।२७/५६४ पक्ति १४॥ यज्ञार्थ ही पशुओंकी सृष्टि स्वय स्वयभू भगवान्ने की है (मनु ५/३६), स्वर्ग की इच्छा करनेवालो को अग्निहोत्र करना चाहिए (मैत्र ६/६), जो कुछ भी हो चुका है या होनेवाला है वह सर्व पुरुष ही है (ऋवे. १०/१०), और इस प्रकार परोपदेश निमित्तक-मिथ्यादर्शनके विकल्प अन्य भी सख्यात रूपसे लगा लेने चाहिए । परिणामोके भेदसे वे ही अस ख्यात है और अनुभागके भेदसे वे ही अनन्त है। घ ६/४,१,४५/पृ/प सूत्रे अष्टाशी तिशतसहस्रपदै ८८००००० पूर्वोक्तसर्व. दृष्टयो निरूप्यन्ते, अवन्धक अलेप अभोक्ता अर्ता निर्गुण' सर्वगत' अद्वैत नास्ति जीव समुदयजनित सर्व नास्ति बाह्यार्थी नास्ति सर्व निरात्मक सर्व क्षणिक अक्षणिकमद्वैतमित्यादयो दर्शनभेदाश्च निरूप्यन्ते । (२०७/४) प्रयोगतमिथ्यात्व र ख्यातिपादिकेर (२०८/३) -सूत्रअधिकार में अठासी लाख ८८००००० पदो द्वारा पूर्वोक्त सब मतोंका निरूपण किया जाता है। इसके अतिरिक्त-जीव अवन्धक है, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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