Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 483
________________ एसोदसव्रत ४६८ ऐलक एसादस व्रत-कूल समय-६० दिन, कुल उपवास-५५०, कुल पारणा-१००। विधि-पहले एक वृद्धि क्रमसे १ से लेकर १० उपवास तक करे। फिर एक हानि क्रमसे १० से लेकर १ उपवास तक करे बीच में एक एक पारणा करे। यन्त्र-१ उपवास, १ पारणा, २ उपवास, एक पारणा, ३ उपवास, एक पारणा, इसी प्रकार ४-१, ५-१६-१७-१,८-१, ६-१: १०-१-१०-१, ६-१,८-१, ७-१६-१: ५-१,४-१,३-१:२-१.१ यह सर्व विधि दस बार करनी (वर्धमान पु), (व्रतविधान सं. पृ. १००)। एसानव-कुल समय-४८५ दिन, कुल उपवास-४०५, कुल पारणा-८१, विधि-उपरोक्त एसोदसवत् ही है। अन्तर इतना है कि वृद्धि व हानि क्रम १-१ व ६-१ तक जानना । तथा १० की बजाय हबार दुहराना। जाप्य मन्त्र-नमोकार मन्त्रका तीन बार जाप्य करना। वर्द्धमान पुराण)। (वतविधान सग्रह/पृ.६६) [ऐ] तिह्य-इतिहासका एकार्थवाची- दे, इतिहास १ । ऐरावत- शिखरो पर्वतका एक कूट व उसका स्वामी देव-दे. लोक ५/४, २. पद्म हदके बनमें स्थित एक कूट-दे लोक ५/७, ३ उत्तर कुरुके दस द्रहों में से दो द्रह-दे. लोक ५/६।। ऐरावत क्षेत्र-रा.वा. ३/१०/२०/१८१/२६ रक्तारक्तोदयो बहुमध्यदेशभाविनो अयोध्या नाम नगरी। तस्यामुत्पन्न ऐरावतो नाम राजा। तत्परिपालवाजनपदस्यैरावताभिधानम् । रक्ता तथा रक्तोदा नदियों के बीच अयोध्या नगरी है। इसमें एक ऐरावत नामका राजा हुआ है । उसके द्वारा परिपालित होनेके कारण इस क्षेत्रका नाम ऐरावत पड़ा है। ऐरावत क्षेत्रका लोकमें अवस्थानादि-दे. लोक ३,३ । * ऐरावत क्षेत्रमे काल परिवर्तन आदि-दे भरत क्षेत्र'। ऐरावत हाथी-ति.प.८/२७८-२८४ सकदुगम्मि य वाहणदेवा एराबदणाम हस्थि कुठांति। विक्किरियाओ लक्ख उच्छेह जोयणा दोहे ॥२७८॥ एदाणं बत्तीसं होति मुहा दिव्वरयणदामजुदा। पुह रुणं ति किकिणिकोलाहलसद्दकयसोहा ॥२७॥ एक्केक्कमुहे चचलचंदुज्जलचमरचारुरूवम्मि। चत्तारि होति दंता धवला वररयणभरखचिदा ॥२८॥ एक्के कम्मि विसाणे एक्केक्कसरोवरो विमलवारी। एक्केक्कसरोवरम्मि य एक्वक्व कमलवणस डा ॥२८१॥ एक्के वाकमलसंडे मत्तीस विकस्सस महापउमा । एकेक महापउम एक्के जोयणं पमाणेणं ॥२२॥ वरकचणकयसोहा वरपउमा सुरविकुब्वणबलेण । एक्केक महापउमे णाडयसाला य एक्के का ॥२३॥ एक्केक्काए तीए बत्तीस वरच्छरा पणञ्चति । एवं सत्ताणीया णिहिट्ठा वारसिदार्ग २०४। -सौधर्म और ईशान हन्दके वाहन देव विक्रियासे एक लाख उत्सेध योजन प्रमाण दीर्घ ऐरावत नामक हाथीको करते है ॥२७॥ इनके दिव्य रनमालाओं से युक्त बत्तीस मुख होते है जो घण्टिकाओं कोलाहल शब्दसे शोभायमान होते हुए पृथक् पृथक् शब्द करते १।२७४। चञ्चल एक चन्द्र के समान उज्ज्वल 'चमरोसे सुन्दर रूपवाले एक-एक मुख में रत्नोंके समूहसे खचित धवल चार दाँत होते है ॥२८॥ एक-एक हाथी दाँतपर निर्मल जल से युक्त एक-एक उत्तम सरोवर होता है। एक-एक सरोवर में एक-एक उत्तम कमल बनखण्ड होता है॥२८॥ एक-एक कमलखण्डमे विकसित ३२ महापदा होते है। और एक-एक महापद्म एक-एक योजन प्रमाण होता है ॥२८२॥ देवोके विक्रिया बलसे वे उत्तम कमल उत्तम सुवर्णसे शोभायमान होते है। एक-एक महापद्मपर एक-एक नाट्यशाला होती है ॥२८॥ उस एक-एक नाट्यशालामें उत्तम बत्तीस-बत्तीस अप्सराए नृत्य करती है ॥२४॥ (म पु. १२/३२-५६), (ज.प ४/२५३-२६१) एलक-वसु श्रा, ३०१, ३११ एयारसम्मि ठाणे उछिट्टो सावओ हवे दुविहो । वत्येकधरो पढमो कावीणपरिग्गहो विदिहो ॥३०१॥ एमेव हाइ विदिओ णवरि विसेसो कुणिज णियमेण । लोचधरिज्ज पिच्छ भुझिज्जो पाणिपत्तम्मि ॥३११३ = ग्यारहवे प्रतिमा स्थानमे गया हुआ मनुष्य उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद है-प्रथम एक वस्त्रका रखनेवाला और दूसरा कोपीनमात्र परिग्रहवाला ॥३०॥ प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (क्षुल्लक) के समान हो द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक होता है । केवल विशेष यह है कि उसे नियमसे केशोका लौच करना चाहिए, पीछी रखना चाहिए और पाणिपात्रमें खाना चाहिए ॥३१॥ (सा.ध ७/४८-४६) ला सं ७/५५-६२ उत्कृष श्रावको द्वधा क्षुल्ल कश्चैलकस्तथा-एकादशवास्थौ द्वौ स्तो द्वौ निर्जरको क्रमात् ॥५५॥ तत्रैलक स गृह्णाति वस्त्र कौपीनमात्रम् । लोच श्मश्रुशिरोलोम्नां पिच्छिका च कमण्डलुम् । १५६। पुस्तकादयुपधिश्चैव सर्वसाधारण यथा। सूक्ष्म चापि न गृहीयादोषत्सावद्यकारणम् ।५७ कौपीनोपधिमात्रस्वाद विना वाच यमी क्रिया । विद्यते चैलकस्यास्य दुर्धरं व्रतधारणम् ।।८। तिष्ठेचैत्यालये संघे बने वा मुनिस निधौ । निरवद्ये यथास्थाने शुद्ध शून्यमठादिषु ।।६। पूर्वोदितक्रमेणैव कृत कर्मावधावनात् । ईषन्मध्याह्नकाले व भोजनार्थ मटेरपुरे ६०। ईर्यासमितिसं शुद्ध पर्यटेद गृहसंख्यया । द्वाभ्यां पात्रस्थानो याम्या हस्ताभ्या परमश्नुयात्।६१। दद्यादधर्मोपदेश च नियाज मुक्तिसाधनम्। तपो द्वादशधा कुर्यात्प्रायश्चित्तादि वाचरेत् ।६।- उत्कृष्ट श्रावक दो प्रकारका होता है---एक क्षुल्लक और दूसरा ऐलक। इन दोनोके कमकी निर्जरा उत्तरोत्तर अधिक अधिक होती रहती है। ऐलक केवल कौपीनमात्र वस्त्रको धारण करता है। दाढी, मूंछ और मस्तक्के बालोका लोच करता है और पीछी कमण्डलु धारण करता है ।५६। इसके सिवाय सर्व साधारण पुस्तक आदि धर्मोपकरणोको भी धारण करता है। परन्तु ईषत सावद्यके भी कारणभूत पदार्थों को लेशमात्र भी अपने पास नहीं रखता है ।१७। कौपीन मात्र उपधिके अतिरिक्त उसकी समस्त क्रियाएँ मुनियोके समान होती है तथा मुनियोके समान ही वह अत्यन्त कठिन-कठिन व्रतों को पालन करता है।५८। यह या तो क्सिी चैत्यालयमें रहता है, या मुनियोके सघमें रहता है अथवा किसी मुनिराजके समीप बनमें रहता है अथवा किसी भी सूने मठमें वा अन्य किसी भी निर्दोष और शुदध-स्थानमें रहता है ।। पूर्वोक्त क्रमसे समस्त क्रियाएँ करता है तथा दोपहरसे कुछ समय पहले सावधान होकर नगर में जाता है ।६० ईर्यासमितिसे जाता है तथा घरों की संख्याका नियम भो लेकर जाता है। पात्रस्थानीय अपने हाथो में ही आहार लेता है ।६१। बिना किसी छल-कपटके मोक्षका कारणभूत धर्मोपदेश देता है। तथा बारह प्रकारका तपश्चरण पालन करता है। कदाचित ब्रतादिमें दोष लग जानेपर प्रायश्चित्त लेता है ।६२। २. ऐलक पद व शब्दका इतिहास वसु श्रा /प्र. ६३/१८/H L Jain इस 'ऐलक' पदके मूल रूपकी ओर गम्भीर दृष्टिपात करनेपर यह भ. महावीरसे भी प्राचीन प्रतीत हाता है। भगवती आराधना, मुलाचार आदि सभी प्राचीन ग्रन्थोमें दिगम्बर साधुओके लिए अचेनक पद का व्यवहार हुआ है । पर भग जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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